21. अपनी मनमर्जी से काम करने की समस्या का समाधान कैसे करें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

परमेश्वर की सेवा करना कोई सरल कार्य नहीं है। जिनका भ्रष्ट स्वभाव अपरिवर्तित रहता है, वे परमेश्वर की सेवा कभी नहीं कर सकते हैं। यदि परमेश्वर के वचनों के द्वारा तुम्हारे स्वभाव का न्याय नहीं हुआ है और उसे ताड़ित नहीं किया गया है, तो तुम्हारा स्वभाव अभी भी शैतान का प्रतिनिधित्व करता है जो प्रमाणित करता है कि तुम परमेश्वर की सेवा अपनी भलाई के लिए करते हो, तुम्हारी सेवा तुम्हारी शैतानी प्रकृति पर आधारित है। तुम परमेश्वर की सेवा अपने स्वाभाविक चरित्र से और अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार करते हो। इसके अलावा, तुम हमेशा सोचते हो कि जो कुछ भी तुम करना चाहते हो, वो परमेश्वर को पसंद है, और जो कुछ भी तुम नहीं करना चाहते हो, उनसे परमेश्वर घृणा करता है, और तुम पूर्णतः अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हो। क्या इसे परमेश्वर की सेवा करना कह सकते हैं? अंततः तुम्हारे जीवन स्वभाव में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं आएगा; बल्कि तुम्हारी सेवा तुम्हें और भी अधिक जिद्दी बना देगी और इससे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव गहराई तक जड़ें जमा लेगा। इस तरह, तुम्हारे मन में परमेश्वर की सेवा के बारे में ऐसे नियम बन जाएँगे जो मुख्यतः तुम्हारे स्वयं के चरित्र पर और तुम्हारे अपने स्वभाव के अनुसार तुम्हारी सेवा से प्राप्त अनुभवों पर आधारित होंगे। ये मनुष्य के अनुभव और सबक हैं। यह मनुष्य के सांसारिक आचरण का फलसफा है। इस तरह के लोगों को फरीसियों और धार्मिक अधिकारियों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। यदि वे कभी भी जागते और पश्चाताप नहीं करते हैं, तो वे निश्चित रूप से झूठे मसीह और मसीह विरोधी बन जाएँगे जो अंत के दिनों में लोगों को गुमराह करते हैं। झूठे मसीह और मसीह विरोधी, जिनके बारे में कहा गया था, इसी प्रकार के लोगों में से उठ खड़े होंगे। जो परमेश्वर की सेवा करते हैं, यदि वे अपने चरित्र का अनुसरण करते हैं और अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं, तब वे किसी भी समय निकाल दिए जाने के ख़तरे में होते हैं। जो दूसरों के दिलों को जीतने, उन्हें व्याख्यान देने और बेबस करने तथा ऊंचाई पर खड़े होने के लिए परमेश्वर की सेवा के कई वर्षों के अपने अनुभव का प्रयोग करते हैं—और जो कभी पछतावा नहीं करते हैं, कभी भी अपने पापों को स्वीकार नहीं करते हैं, पद के लाभों को कभी नहीं त्यागते हैं—उनका परमेश्वर के सामने पतन हो जाएगा। ये अपनी वरिष्ठता का घमंड दिखाते और अपनी योग्यताओं पर इतराते पौलुस की ही तरह के लोग हैं। परमेश्वर इस तरह के लोगों को पूर्णता प्रदान नहीं करेगा। इस प्रकार की सेवा परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी करती है। लोग हमेशा पुराने से चिपके रहते हैं। वे अतीत की धारणाओं और अतीत की हर चीज से चिपके रहते हैं। यह उनकी सेवा में एक बड़ी बाधा है। यदि तुम उन्हें छोड़ नहीं सकते हो, तो ये चीजें तुम्हारे पूरे जीवन को विफल कर देंगी। परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा नहीं करेगा, थोड़ी-सी भी नहीं, भले ही तुम दौड़-भाग करके अपनी टाँगों को तोड़ लो या मेहनत करके अपनी कमर तोड़ लो, भले ही तुम परमेश्वर की “सेवा” में शहीद हो जाओ। इसके विपरीत वह कहेगा कि तुम एक कुकर्मी हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, धार्मिक सेवाओं का शुद्धिकरण अवश्य होना चाहिए

कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य सिद्धांतों को तलाश करने पर ध्यान नहीं देते बल्कि कार्य करने के लिए अपनी इच्छा पर भरोसा करते हैं। ऐसे व्यक्ति में सबसे आम अभिव्यक्ति क्या देखी जाती है जिसके विशेष रूप से प्रबल व्यक्तिगत विचार हों? चाहे उनके साथ कुछ भी हो, वे पहले अपने दिमाग में चीजों को जोड़ते-घटाते हैं, हर संभव चीज के बारे में सोचते हैं और एक विस्तृत योजना बनाते हैं। जब उन्हें लगता है कि इसमें कोई कमी नहीं है, तो वे पूरी तरह से अपनी इच्छा के अनुसार अभ्यास करते हैं, इसका नतीजा यह होता है कि उनकी योजना परिवर्तन के साथ तालमेल नहीं रख पाती इसलिए कभी-कभी गड़बड़ हो जाती है। आखिर समस्या क्या है? अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने पर अक्सर गड़बड़ हो जाती है। इसलिए, चाहे कुछ भी हो जाए, सभी को एक साथ बैठकर सत्य की तलाश करनी चाहिए, परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, उसका मार्गदर्शन माँगना चाहिए। परमेश्वर की प्रबुद्धता द्वारा, उनकी संगति से जो चीजें सामने आती हैं वे रोशनी से भरी होती हैं, और आगे बढ़ने का रास्ता बताती हैं। इसके अतिरिक्त, मामलों को परमेश्वर के हाथों में सौंपकर, उससे उम्मीद लगा कर, उस पर भरोसा कर के, उसके मार्गदर्शन में चलते हुए और उसकी देखभाल और सुरक्षा में रह कर—इस तरह से अभ्यास करते हुए—तुम अपने लिए अधिक आश्वासन प्राप्त करोगे और तुम्हें किसी बड़ी समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा। क्या लोग जो बातें अपने दिमाग में सोचते हैं वे पूरी तरह से तथ्यों के अनुरूप हो सकती हैं? क्या वे सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हो सकती हैं? यह असंभव है। अगर तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय परमेश्वर पर निर्भर नहीं रहते और उससे अपेक्षा नहीं रखते, और केवल जैसा चाहते हो वैसा करते हो, तो तुम कितने भी चतुर क्यों न हो, कभी न कभी तुम असफल हो जाओगे। जो लोग अहंकारी और आत्म-तुष्ट होते हैं वे अपने विचारों का पालन करने के लिए तत्पर रहते हैं, तो क्या उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है? जिन लोगों के व्यक्तिगत विचार मजबूत होते हैं, जब कार्य करने का समय आता है तो वे परमेश्वर को भूल जाते हैं, वे उसके प्रति समर्पण को भूल जाते हैं; केवल तभी जब वे किसी दीवार से टकरा गए हों और वे कुछ भी करने में असफल रहते हैं, तभी उन्हें लगता है कि उन्होंने परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं किया है, और परमेश्वर से प्रार्थना नहीं की है। ये कौन सी समस्या है? यह दिल में परमेश्वर का न होना है। उनके कार्य दिखाते हैं कि परमेश्वर उनके दिलों से अनुपस्थित है, और वे केवल स्वयं पर भरोसा करते हैं। और इसलिए, चाहे तुम कलीसिया का काम कर रहे हो, कोई कर्तव्य निभा रहे हो, कुछ बाहरी मामले सँभाल रहे हो, या अपने निजी जीवन में मामलों से निपट रहे हो, तुम्हारे दिल में सिद्धांत होने चाहिए, एक आध्यात्मिक स्थिति होनी चाहिए। कौन-सी स्थिति? “चाहे कुछ भी हो, मेरे साथ कुछ भी होने से पहले मुझे प्रार्थना करनी चाहिए, मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए, मुझे उसकी संप्रभुता के प्रति समर्पण करना चाहिए, सब-कुछ परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किया जाता है, और जब कुछ हो, तब मुझे परमेश्वर के इरादे खोजने चाहिए, मेरी यही मानसिकता होनी चाहिए, मुझे अपनी योजनाएँ नहीं बनानी चाहिए।” कुछ समय तक इस प्रकार अनुभव करने के बाद, लोग बिना इसका एहसास किए कई चीजों में परमेश्वर की संप्रभुता देखना शुरू कर देंगे। अगर तुम्हारी हमेशा अपनी योजनाएँ, विचार, कामनाएँ, स्वार्थी उद्देश्य और इच्छाएँ होंगी, तो तुम्हारा हृदय अनजाने ही परमेश्वर से भटक जाएगा, तुम यह देखने में असमर्थ हो जाओगे कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है, और अधिकांश समय परमेश्वर तुमसे छिपा रहेगा। क्या तुम अपने विचारों के अनुसार कार्य करना पसंद नहीं करते? क्या तुम अपनी योजनाएँ नहीं बनाते? तुम्हारे पास दिमाग है, तुम शिक्षित हो, जानकार हो, तुम्हारे पास चीजें करने की क्षमता और कार्यपद्धति है, तुम उन्हें अपने दम पर कर सकते हो, तुम अच्छे हो, तुम्हें परमेश्वर की जरूरत नहीं है, और इसलिए परमेश्वर कहता है, “तो जाओ और इसे अपने दम पर करो, और इसके ठीक से होने न होने की जिम्मेदारी लो, मुझे परवाह नहीं है।” परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देता। जब लोग परमेश्वर में अपनी आस्था में इस तरह से अपनी इच्छा के पीछे चलते हैं और जिस तरह चाहते हैं, वैसे विश्वास करते हैं, तो परिणाम क्या होता है? वे कभी भी परमेश्वर के प्रभुत्व का अनुभव करने में सक्षम नहीं होते, वे कभी भी परमेश्वर का हाथ नहीं देख पाते, कभी भी पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी महसूस नहीं कर पाते, वे परमेश्वर का मार्गदर्शन महसूस नहीं कर पाते। और समय बीतने के साथ क्या होगा? उनके हृदय परमेश्वर से और भी दूर हो जाएँगे, और इसके अप्रत्यक्ष प्रभाव होंगे। कौन-से प्रभाव? (परमेश्वर पर संदेह करना और उसे नकारना।) यह केवल परमेश्वर पर संदेह करने और उसे नकारने का मामला नहीं है; जब लोगों के दिलों में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं होता, और वे लंबे समय तक जैसा चाहते हैं वैसा करते हैं, तो एक आदत बन जाएगी : जब उनके साथ कुछ होगा, तो वे पहला काम अपने समाधान, लक्ष्यों, प्रेरणाओं और योजनाओं के बारे में सोचेंगे; वे पहले यह सोचेंगे कि यह उनके लिए लाभकारी है या नहीं; अगर हाँ, तो वे उसे करेंगे, और अगर नहीं, तो वे नहीं करेंगे; सीधे इस रास्ते पर चलना, उनकी आदत बन जाएगी। और अगर वे बिना पश्चात्ताप के इसी तरह करते रहे, तो परमेश्वर ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करेगा? परमेश्वर उन पर कोई ध्यान नहीं देगा, और उन्हें एक ओर कर देगा। एक ओर किए जाने का क्या मतलब है? परमेश्वर न तो उन्हें अनुशासित करेगा और न ही उन्हें फटकारेगा; वे अधिकाधिक मतलबी बन जाएंगे, उन्हें न्याय, ताड़ना, अनुशासन, या फटकार नहीं मिलेगी, प्रबुद्धता, रोशनी या मार्गदर्शन मिलना तो दूर की बात है। एक ओर किए जाने का यही मतलब है। जब परमेश्वर किसी को एक तरफ कर देता है तो उन्हें कैसा महसूस होता है? उनकी आत्मा अंधकारमय महसूस करती है, परमेश्वर उनके साथ नहीं होता, वे अपने उद्देश्य को लेकर स्पष्ट नहीं होते, उनके पास कार्य करने का कोई रास्ता नहीं होता, और वे केवल मूर्खतापूर्ण मामलों में उलझे रहते हैं। जैसे-जैसे इस तरह समय गुजरता जाता है, वे सोचने लगते हैं कि जीवन का कोई अर्थ नहीं है, और उनकी आत्माएँ खोखली हैं, इसलिए वे गैर-विश्वासियों के समान बन जाते हैं और उनका तेजी से पतन होने लगता है। यह एक ऐसा व्यक्ति है जिसे परमेश्वर ठुकरा देता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के अभ्यास के सिद्धांत

कुछ लोगों के लिए, भले ही वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय किसी भी समस्या का सामना क्यों न करें, वे सत्य की तलाश नहीं करते हैं और हमेशा अपने विचारों, अपनी अवधारणाओं, कल्पनाओं और इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हैं। वे निरंतर अपनी स्वार्थी इच्छाओं को संतुष्ट करते हैं और उनके भ्रष्ट स्वभाव हमेशा उनके कार्यों पर नियंत्रण करते हैं। वे हमेशा अपने कर्तव्य निभाते हुए प्रतीत हो सकते हैं, पर क्योंकि उन्होंने सत्य को कभी स्वीकार नहीं किया है, और वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजें करने में अक्षम हैं, इसलिए वे आखिर में सत्य और जीवन पाने में असफल रहते हैं, और मजदूरों के नाम के ही लायक बन जाते हैं। तो ऐसे लोग अपने कर्तव्यों को करते समय किस पर निर्भर करते हैं? ऐसे व्यक्ति न तो सत्य पर निर्भर करते हैं, न ही परमेश्वर पर। जिस थोड़े से सत्य को वे समझते हैं, उसने उनके हृदयों में संप्रभुत्व हासिल नहीं किया है; वे इन कर्तव्यों को निभाने के लिए अपनी खुद की योग्यताओं और प्रतिभाओं पर, उस ज्ञान पर जो उन्होंने प्राप्त किया है, और साथ ही अपनी इच्छाशक्ति या नेक इरादों पर भरोसा कर रहे हैं। अगर बात ऐसी है, तो क्या वे अपने कर्तव्यों को एक स्वीकार्य स्तर तक निभाने में सक्षम होंगे? जब लोग अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए अपनी स्वाभाविकता, धारणाओं, कल्पनाओं, विशेषज्ञता और शिक्षा पर निर्भर करते हैं, तो भले ही ऐसा प्रतीत हो कि वे अपने कर्तव्य निभा रहे हैं और कोई दुष्टता नहीं कर रहे हैं, पर वे सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे होते, और कुछ भी ऐसा नहीं करते जिससे परमेश्वर संतुष्ट हो। साथ ही एक दूसरी समस्या भी है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता : अपने कर्तव्य को निभाने की प्रक्रिया के दौरान, यदि तुम्हारी अवधारणाएँ, कल्पनाएँ और व्यक्तिगत इच्छाएँ कभी नहीं बदलती हैं और कभी भी सत्य के साथ प्रतिस्थापित नहीं की जाती हैं, यदि तुम्हारे कार्य और कर्म कभी भी सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं किए जाते हैं, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? तुम्हें जीवन प्रवेश नहीं मिलेगा, तुम एक मजदूर बन जाओगे और इस प्रकार बाइबल में लिखे गए प्रभु यीशु के ये वचन पूरे करोगे : “उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्‍टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्‍चर्यकर्म नहीं किए?’ तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ’” (मत्ती 7:22-23)। परमेश्वर अपने प्रयास खपाने वालों और मजदूरी करने वालों को कुकर्मी क्यों कहता है? एक बात पर हम निश्चित हो सकते हैं, और वह यह कि ये लोग चाहे किन भी कर्तव्यों को निभाएँ या कोई भी काम करें, इन लोगों की अभिप्रेरणाएँ, उमंग, इरादे और विचार पूरी तरह से उनकी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं से पैदा होते हैं, और ये पूरी तरह से अपने निजी हितों और संभावनाओं की रक्षा के लिए होते हैं, और अपने खुद के गर्व, दंभ और रुतबे की संतुष्टि के लिए होते हैं। यह सब इसी सोच और हिसाब-किताब के आसपास केंद्रित होता है, उनके दिलों में कोई सत्य नहीं होता, और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला और उसके प्रति समर्पण करने वाला दिल नहीं होता—यही समस्या की जड़ है। तुम लोगों के लिए आज किस चीज का अनुसरण करना बहुत जरूरी है? सभी मामलों में, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के इरादों और उसकी मांग के अनुसार अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे तो तुम परमेश्वर की स्वीकृति पाओगे। तो परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने में खासतौर से क्या शामिल है? तुम जो कुछ भी करो, उसमें परमेश्वर से प्रार्थना करना सीखो, तुम्हें चिंतन करना चाहिए कि तुम्हारी मंशाएँ क्या हैं, तुम्हारे विचार क्या हैं, कि क्या ये मंशाएँ और विचार सत्य के अनुरूप हैं; अगर नहीं हैं तो उन्हें एक तरफ कर देना चाहिए, जिसके बाद तुम्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार चलना चाहिए, और परमेश्वर की जांच-पड़ताल को स्वीकार करना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि तुम सत्य को अभ्यास में लाओ। अगर तुम्हारे अपने इरादे और लक्ष्य हैं, और तुम्हें अच्छी तरह पता है कि वे सत्य का उल्लंघन करते हैं और परमेश्वर के इरादों के उलट हैं, फिर भी तुम प्रार्थना नहीं करते और समाधान के लिए सत्य नहीं खोजते, तो यह बहुत खतरनाक है, और तुम्हारे लिए बुराई करना और परमेश्वर का विरोध करने वाले काम करना आसान हो जाएगा। अगर तुम एक-दो बार कोई बुरा काम करके प्रायश्चित कर लेते हो, तो तुम्हारे उद्धार की अब भी उम्मीद है। अगर तुम बुराई करते रहते हो, तो तुम हर तरह की बुराई के काम करने वाले व्यक्ति हो। अगर तुम इस बिंदु पर भी प्रायश्चित नहीं कर सकते, तो तुम संकट में हो : परमेश्वर तुम्हें दरकिनार कर देगा या त्याग देगा, जिसका मतलब है कि तुम्हें निकाले जाने का खतरा है; जो लोग तमाम तरह के बुरे कर्म करते हैं, उन्हें निश्चित ही दंडित कर निकाल दिया जाएगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

क्या तुम लोगों को पता है कि परमेश्वर की सेवा में इंसान की सबसे बड़ी वर्जना क्या है? कुछ अगुआ और कार्यकर्ता हमेशा अलग दिखना चाहते हैं, बाकी लोगों से आगे रहना और दिखावा करना चाहते हैं और नई-नई तरकीबें ढूँढ़ने में लगे रहना चाहते हैं, ताकि परमेश्वर को दिखा सकें कि वास्तव में वे कितने सक्षम हैं। लेकिन, वे सत्य को समझने और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं। यह काम करने का सबसे मूर्खतापूर्ण तरीका है। क्या यह असल में घमंडी स्वभाव को नहीं दिखाता है? कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं, “अगर मैं ऐसा करता हूँ, तो मुझे यकीन है कि इससे परमेश्वर खुश होगा; वह इसे पसंद करेगा। इस बार मैं परमेश्वर को ऐसा करके दिखाऊँगा; यह उसे एक सुखद आश्चर्य देगा।” “सुखद आश्चर्य” से कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे क्या होगा? ऐसे लोग जो करते हैं दूसरे लोग बेतुका समझते हैं। परमेश्वर के घर के कार्य में इनके रहने से कोई लाभ नहीं मिलने वाला है, बल्कि वे पैसे की बर्बादी हैं—वे परमेश्वर की भेंट को नुकसान पहुँचाते हैं। परमेश्वर की भेंट का उपयोग मनमाने ढंग से नहीं किया जाना चाहिए; परमेश्वर की भेंट को बर्बाद करना पाप है। ये लोग अंततः परमेश्वर के स्वभाव का अनादर करते हैं, पवित्र आत्मा उनमें काम करना बंद कर देता है और उन्हें निकाल दिया जाता है। इस प्रकार कभी भी आवेग में आकर अपनी मनमर्जी नहीं करनी चाहिए। तुम परिणाम पर क्यों विचार नहीं कर पाते? परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करके उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करने के कारण जब तुझे हटा दिया जाएगा, तो तेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं बचेगा। जाने-अनजाने तेरी मंशा चाहे जो कुछ भी हो, अगर तुम परमेश्वर के स्वभाव और उसके इरादों को नहीं समझोगे, तो तुम उसे आसानी से अपमानित कर दोगे और उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन कर बैठोगे; यह ऐसी बात है जिसे लेकर सबको सतर्क रहना चाहिए। परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों के उल्लंघन या परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित करने पर, अगर यह मामला बेहद गंभीर है, तो परमेश्वर यह विचार नहीं करेगा कि तुमने यह जानबूझकर किया या अनजाने में। ऐसे मामले में तुझे साफ-साफ समझना पड़ेगा। अगर तुम इस मसले को नहीं समझ पाओगे, तो गड़बड़ियाँ पैदा करोगे। परमेश्वर की सेवा में लोग शानदार प्रगति करना, शानदार चीजें करना, शानदार बातें बोलना, शानदार काम करना, शानदार बैठकें आयोजित करना और शानदार अगुआ बनना चाहते हैं। अगर तुम हमेशा ऐसी ऊँची महत्वाकांक्षाएँ रखोगे, तो तुम परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करोगे; जो लोग ऐसा करते हैं, वे शीघ्र ही मर जाएँगे। अगर तुम परमेश्वर की सेवा में सदाचारी, कर्तव्यनिष्ठ और विवेकशील नहीं रहोगे, तो तुम देर-सबेर उसके स्वभाव का अपमान करोगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

चाहे तुम कुछ भी करो, तुम्हें सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि तुम इसे क्यों कर रहे हो, वह कौन सी मंशा है जो तुम्हें ऐसा करने के लिए निर्देशित करती है, तुम्हारे ऐसा करने का क्या महत्व है, मामले की प्रकृति क्या है, और क्या तुम जो कर रहे हो वह कोई सकारात्मक चीज़ है या कोई नकारात्मक चीज़ है। तुम्हें इन सभी मामलों की एक स्पष्ट समझ अवश्य होनी चाहिए; तुम्हारे लिए सिद्धान्त के साथ कार्य करने में समर्थ होने के लिए यह बहुत आवश्यक है। अगर तुम कुछ कर रहे हो जिसे तुम्हारा कर्तव्य माना जा सकता है, तो तुम्हें यह विचार करना चाहिए : मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे करना चाहिए, ताकि मैं इसे बस लापरवाही से न करूँ? इस मामले में तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। परमेश्वर से प्रार्थना करना सत्य को खोजने और अभ्यास करने का तरीका, परमेश्वर की इच्छाएँ और परमेश्वर को संतुष्ट करने का तरीका खोजने के लिए है। प्रार्थना ये प्रभाव प्राप्त करने के लिए है। परमेश्वर से प्रार्थना करना, परमेश्वर के निकट आना और परमेश्वर के वचन पढ़ना धार्मिक अनुष्ठान या बाहरी क्रियाकलाप नहीं हैं। यह परमेश्वर के इरादों को खोजने के बाद सत्य के अनुसार अभ्यास करने के उद्देश्य से किया जाता है। अगर तुम उस समय हमेशा कहते हो “परमेश्वर को धन्यवाद,” जब तुमने कुछ नहीं किया होता, और तुम बहुत आध्यात्मिक और गहरी पहुँच रखने वाले लग सकते हो, लेकिन अगर कार्य करने का समय आने पर भी तुम जैसा चाहते हो वैसा ही करते हो, सत्य की तलाश बिल्कुल नहीं करते, तो यह “परमेश्वर का धन्यवाद” एक मंत्र से ज्यादा कुछ नहीं है, यह झूठी आध्यात्मिकता है। अपना कर्तव्य करते समय तुम्हें हमेशा सोचना चाहिए : “मुझे यह कर्तव्य कैसे करना चाहिए? परमेश्वर की इच्छा क्या है?” अपने कार्यों के लिए सिद्धांत और सत्य खोजने हेतु परमेश्वर से प्रार्थना करना और उसके करीब जाना, अपने दिल में परमेश्वर की इच्छाओं की तलाश करना, और जो भी तुम करते हो उसमें परमेश्वर के वचनों या सत्य सिद्धांतों से न भटकना—केवल ऐसा करने वाला इंसान ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करता है; यह सब उन लोगों के लिए अप्राप्य है जो सत्य से प्रेम नहीं करते। ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो चाहे कुछ भी करें, अपने ही विचारों का पालन करते हैं, और चीजों को अत्यधिक एकांगी तरीके से समझते हैं, और सत्य की तलाश भी नहीं करते। वहाँ सिद्धांत का पूर्ण अभाव रहता है, और अपने दिल में वे इस पर कोई विचार नहीं करते कि परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार या उस तरीके से कैसे कार्य करें जो परमेश्वर को संतुष्ट करता है, और केवल हठपूर्वक अपनी ही इच्छा का पालन करना जानते हैं। ऐसे लोगों के दिल में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं, “जब मेरे सामने कठिनाई आती है, तो मैं केवल परमेश्वर से ही प्रार्थना करता हूँ, लेकिन फिर भी ऐसा नहीं लगता कि इसका कोई प्रभाव होता है—इसलिए आम तौर पर अब जब मेरे साथ कुछ घटता है, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करता, क्योंकि परमेश्वर से प्रार्थना करना बेकार है।” ऐसे लोगों के दिलों से परमेश्वर बिल्कुल नदारद होता है। वे सामान्य समय में चाहे जो भी कर रहे हों, सत्य की तलाश नहीं करते; वे केवल अपने विचारों का ही पालन करते हैं। तो क्या उनके कार्यों के सिद्धांत हैं? निश्चित रूप से नहीं। वे सब-कुछ एकांगी तरीके से देखते हैं। यहाँ तक कि जब लोग उनके साथ सत्य सिद्धांतों की संगति करते हैं, तो वे उन्हें स्वीकार नहीं कर पाते, क्योंकि उनके कार्यों में कभी कोई सिद्धांत नहीं रहा होता, उनके हृदय में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं होता, और उनके हृदय में उनके सिवा कोई नहीं होता। उन्हें लगता है कि उनके इरादे नेक हैं, कि वे बुराई नहीं कर रहे, कि उनके इरादों को सत्य का उल्लंघन करने वाला नहीं माना जा सकता, उन्हें लगता है कि अपने इरादों के अनुसार कार्य करना सत्य का अभ्यास करना होना चाहिए, कि इस प्रकार कार्य करना परमेश्वर के प्रति समर्पण करना है। वस्तुतः, इस मामले में वे वास्तव में परमेश्वर की तलाश या उससे प्रार्थना नहीं कर रहे, बल्कि आवेग पर कार्य करते हुए, अपने ही जोशीले इरादों के अनुसार, वे उस तरह अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे जिस तरह परमेश्वर कहता है, उनमें परमेश्वर की आज्ञा मानने वाला दिल नहीं है, उनमें यह इच्छा अनुपस्थित रहती है। लोगों के अभ्यास में यह सबसे बड़ी गलती होती है। अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो और फिर भी वह तुम्हारे दिल में नहीं है, तो क्या तुम परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश नहीं कर रहे? और परमेश्वर पर ऐसी आस्था का क्या परिणाम हो सकता है? तुम इससे क्या हासिल कर सकते हो? और परमेश्वर पर ऐसी आस्था का क्या मतलब है?

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

अपने कर्तव्य को निभाने में, तू अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार बिल्कुल नहीं जा सकता है या तू जो चाहे वही नहीं कर सकता है, जिसे भी करने में तू खुश हो, वह नहीं कर सकता है, या ऐसा काम नहीं कर सकता जो तुझे अच्छे व्यक्ति के रूप में दिखाए। यह अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करना है। अगर तू अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में यह सोचते हुए अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं पर भरोसा करता है कि परमेश्वर यही अपेक्षा करता है, और यही है जो परमेश्वर को खुश करेगा, और यदि तू परमेश्वर पर अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को बलपूर्वक लागू करता है या उन का अभ्यास ऐसे करता है मानो कि वे सत्य हों, उनका ऐसे पालन करता है मानो कि वे सत्य सिद्धांत हों, तो क्या यह गलती नहीं है? यह कर्तव्य निभाना नहीं है, और इस तरह से तेरा कर्तव्य निभाना परमेश्वर के द्वारा याद नहीं रखा जाएगा। कुछ लोग सत्य को नहीं समझते हैं, और वे नहीं जानते कि अपने कर्तव्यों को ठीक से पूरा करने का क्या अर्थ है। उन्हें लगता है कि उन्होंने अपना प्रयास और अपना दिल इसमें लगाया है, अपनी दैहिक इच्छा के विरुद्ध विद्रोह किया है और कष्ट उठाया है, तो फिर वे अपने कर्तव्य संतोषजनक ढंग से क्यों नहीं पूरे कर सकते हैं? परमेश्वर हमेशा असंतुष्ट क्यों रहता है? इन लोगों ने कहाँ भूल की है? उनकी भूल यह थी कि उन्होंने परमेश्वर की अपेक्षाओं की तलाश नहीं की थी, बल्कि अपने ही विचारों के अनुसार काम किया था—यही कारण है। उन्होंने अपनी ही इच्छाओं, पसंद-नापसंद और स्वार्थी उद्देश्यों को सत्य मान लिया था और उन्होंने इनको वो मान लिया जिससे परमेश्वर प्रेम करता है, मानो कि वे परमेश्वर के मानक और अपेक्षाएँ हों। जिन बातों को वे सही, अच्छी और सुन्दर मानते थे, उन्हें सत्य के रूप में देखते थे; यह गलत है। वास्तव में, भले ही लोगों को कभी कोई बात सही लगे, लगे कि यह सत्य के अनुरूप है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि यह आवश्यक रूप से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। लोग जितना अधिक यह सोचते हैं कि कोई बात सही है, उन्हें उतना ही अधिक सावधान होना चाहिए और उतना ही अधिक सत्य को खोजना चाहिए और यह देखना चाहिए कि उनकी सोच परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप है या नहीं। यदि यह ठीक उसकी अपेक्षाओं और उसके वचनों के विरुद्ध है तो भले ही तुम इसे सही मानो यह स्वीकार्य नहीं है, और यह बस एक मानवीय विचार है और तुम इसे चाहे कितना ही सही मानो यह सत्य के अनुरूप नहीं होगा। कोई चीज सही है या गलत, यह निर्णय परमेश्वर के वचनों पर आधारित होना चाहिए। तुम्हें कोई बात चाहे जितनी भी सही लगे, जब तक इसका आधार परमेश्वर के वचनों में न हों, यह गलत है और तुम्हें इसे हटा देना चाहिए। यह तभी स्वीकार्य है जब यह सत्य के अनुरूप हो, और इस तरीके से सत्य सिद्धांतों का मान रखकर ही तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन मानक पर खरा उतर सकता है। कर्तव्य आखिर है क्या? यह परमेश्वर द्वारा लोगों को सौंपा गया कार्य होता है, यह परमेश्वर के घर के कार्य का हिस्सा होता है, यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है जिसे परमेश्वर के चुने हुए प्रत्येक व्यक्ति को वहन करना चाहिए। क्या कर्तव्य तुम्हारी आजीविका है? क्या यह व्यक्तिगत पारिवारिक मामला होता है? क्या यह कहना उचित है कि जब तुम्हें कोई कर्तव्य दे दिया जाता है, तो वह कर्तव्य तुम्हारा व्यक्तिगत व्यवसाय बन जाता है? ऐसा बिल्कुल नहीं है। तो तुम्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए? परमेश्वर की अपेक्षाओं, वचनों और मानकों के अनुसार कार्य करके, अपने व्यवहार को मानवीय व्यक्तिपरक इच्छाओं के बजाय सत्य सिद्धांतों पर आधारित करके। कुछ लोग कहते हैं, “जब मुझे कोई कर्तव्य दे दिया गया है, तो क्या वह मेरा अपना व्यवसाय नहीं बन गया है? मेरा कर्तव्य मेरा प्रभार है, और जिसका प्रभार मुझे दिया गया है, क्या वह मेरा निजी व्यवसाय नहीं है? यदि मैं अपने कर्तव्य को अपने व्यवसाय की तरह करता हूँ, तो क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं उसे ठीक से करूँगा? अगर मैं उसे अपना व्यवसाय न समझूँ, तो क्या मैं उसे अच्छी तरह से करूँगा?” ये बातें सही हैं या गलत? ये गलत हैं; ये सत्य के विपरीत हैं। कर्तव्य तुम्हारा निजी काम नहीं है, वह परमेश्वर से संबंधित है, यह परमेश्वर के कार्य का हिस्सा है, और तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार ही काम करना चाहिए; केवल परमेश्वर के प्रति समर्पण वाले हृदय के साथ अपना कर्तव्य निर्वहन करके ही तुम मानक पर खरे उतर सकते हो। यदि तुम हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार और अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कर्तव्य का निर्वहन करते हो, तो तुम कभी भी मानक के अनुसार कार्य नहीं कर पाओगे। हमेशा अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करना कर्तव्य-निर्वहन नहीं कहलाता, क्योंकि तुम जो कर रहे हो वह परमेश्वर के प्रबंधन के दायरे में नहीं आता, यह परमेश्वर के घर का कार्य नहीं हुआ; बल्कि तुम अपना कारोबार चला रहे हो, अपने काम कर रहे हो और परमेश्वर इन्हें याद नहीं रखता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य सिद्धांत खोजकर ही कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है

कुछ लोग अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए कभी सत्‍य की तलाश नहीं करते। वे अपनी कल्‍पनाओं के अनुसार आचरण करते हुए, सिर्फ वही करते हैं जो उन्‍हें अच्‍छा लगता है, वे हमेशा स्‍वेच्‍छाचारी और उतावले बने रहते हैं। वे सत्य का अभ्यास करने के मार्ग पर नहीं चलते। “स्‍वेच्‍छाचारी और उतावला” होने का क्‍या अर्थ है? इसका अर्थ है, जब तुम्‍हारा किसी समस्‍या से सामना हो, तो किसी सोच-विचार या खोज की प्रक्रिया के बगै़र उस तरह का आचरण करना जो तुम्हारे हिसाब से ठीक बैठता हो। किसी और का कहा हुआ कुछ भी तुम्हारे दिल को नहीं छू सकता, न ही तुम्हारे मन को बदल सकता है। यहाँ तक कि सत्य की संगति किए जाने पर भी तुम उसे स्वीकार नहीं कर सकते, तुम अपनी ही राय पर अड़े रहते हो, जब दूसरे लोग कुछ भी सही कहते हैं, तब तुम नहीं सुनते, खुद को ही सही मानते हो और अपने ही विचारों से चिपके रहते हो। भले ही तुम्हारी सोच सही हो, तुम्हें दूसरे लोगों की राय पर भी ध्यान देना चाहिए। और अगर तुम ऐसा बिल्कुल नहीं करते, तो क्या यह अत्यधिक आत्मतुष्ट होना नहीं है? जो लोग अत्यधिक आत्मतुष्ट और मनमाने होते हैं, उनके लिए सत्य को स्वीकारना आसान नहीं होता। अगर तुम कुछ गलत करते हो और दूसरे यह कहते हुए तुम्हारी आलोचना करते हैं, “तुम इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहे हो!” तो तुम जवाब देते हो, “भले ही मैं इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहा, फिर भी मैं इसे इसी तरह से करने वाला हूँ,” और फिर तुम कोई ऐसा कारण ढूँढ़ लेते हो जिससे यह उन्हें सही लगने लगे। अगर वे यह कहते हुए तुम्हें फटकार लगाते हैं, “तुम्हारा इस तरह से काम करना व्यवधान है और यह कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाएगा,” तो न केवल तुम नहीं सुनते, बल्कि बहाने भी बनाते रहते हो : “मुझे लगता है कि यही सही तरीका है, इसलिए मैं इसे इसी तरह करने वाला हूँ।” यह कौन-सा स्वभाव है? (अहंकार।) यह अहंकार है। अहंकारी स्वभाव तुम्हें जिद्दी बनाता है। अगर तुम्हारी प्रकृति अहंकारी है, तो तुम दूसरों की बात न सुनकर स्‍वेच्‍छाचारी और उतावले ढंग से व्यवहार करोगे। तब तुम अपनी स्वेच्‍छाचारिता और उतावलेपन का समाधान कैसे करते हो? उदाहरण के तौर पर, मान लो, तुम्हारे साथ कुछ हो जाता है और तुम्हारे अपने विचार और योजनाएँ हैं। ऐसे में, यह तय करने से पहले कि क्या करना है, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, और तुम्हें कम से कम इस मामले के बारे में तुम क्या सोचते और क्या मानते हो, इसके संबंध में सभी के साथ संगति करनी चाहिए, और सभी से कहना चाहिए कि वे तुम्हें बताएँ कि तुम्हारे विचार सही और सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, और अपने लिए जाँच-पड़ताल करने को कहना चाहिए। मनमानी और उतावलेपन का समाधान करने का यह सबसे अच्छा तरीका है। सबसे पहले, तुम अपने दृष्टिकोणों पर रोशनी डाल सकते हो और सत्‍य को जानने की कोशिश कर सकते हो; मनमानी और उतावलेपन का समाधान करने के अभ्यास का यह पहला कदम है। दूसरा कदम तब होता है जब दूसरे लोग अपनी असहमतियों को व्‍यक्‍त करते हैं—ऐसे में, स्‍वेच्‍छाचारी और उतावलेपन से बचने के लिए तुम किस तरह का अभ्यास कर सकते हो? पहले तुम्हारा रवैया विनम्र होना चाहिए, जिसे तुम सही समझते हो उसे किनारे रख दो, और हर किसी को संगति करने दो। भले ही तुम अपने तरीके को सही मानो, तुम्‍हें उस पर जोर नहीं देते रहना चाहिए। यह एक तरह की प्रगति है; यह सत्‍य खोजने, स्‍वयं को नकारने और परमेश्वर के इरादे पूरे करने का रवैया दर्शाता है। जैसे ही तुम यह रवैया अपनाते हो और साथ ही तुम अपनी राय से चिपके नहीं रहते, तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से सत्य जानना चाहिए, और फिर परमेश्वर के वचनों में आधार ढूँढ़ना चाहिए—परमेश्वर के वचनों के आधार पर काम करने का तरीका ढूंढो। यही सबसे उपयुक्त और सटीक अभ्यास है। जब तुम सत्य की तलाश करते हो और कोई ऐसी समस्या रखते हो जिस पर सभी लोग संगति करें और सत्य खोजें, तभी पवित्र आत्मा प्रबुद्धता प्रदान करता है। परमेश्वर लोगों को सिद्धांतों के अनुसार प्रबुद्ध करता है। वह लोगों के रवैये का जायजा लेता है। अगर तुम हठपूर्वक अपनी बात पर अड़े रहते हो, फिर चाहे तुम्हारा दृष्टिकोण सही हो या गलत, तो परमेश्वर तुमसे अपना मुँह छिपा लेगा और तुम्हारी उपेक्षा करेगा; वह तुम्हें बेनकाब करने और तुम्हारी बुरी दशा को उजागर करने के लिए तुम्हें दीवार से टकराने देगा। दूसरी ओर, यदि तुम्हारा रवैया सही है, अपने तरीके पर अड़े रहने वाला नहीं है, न ही वह आत्मतुष्ट, मनमाना और उतावला रवैया है, बल्कि सत्य की खोज करने और उसे स्वीकारने का रवैया है, अगर तुम सभी के साथ संगति करते हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हारे बीच कार्य आरंभ करेगा और संभवतः वह तुम्हें किसी की बातों के माध्यम से समझ की ओर ले जाएगा। कभी-कभी जब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करता है, तो वह सिर्फ कुछ शब्दों या वाक्यांशों में ही, या तुम्हें कोई विचार देकर, मामले की तह तक ले जाता है। तुम एक ही क्षण में समझ जाते हो कि जिस धारणा से तुम चिपके रहे हो वह गलत है, और उसी क्षण तुम यह भी समझ जाते हो कि इस काम को सबसे अच्छे तरीके से कैसे किया जा सकता है। इस स्तर तक पहुँचने के बाद, क्या तुम बुराई करने और गलती के परिणाम भुगतने से सफलतापूर्वक बच नहीं जाते हो? क्या यह परमेश्वर से मिला सुरक्षा कवच नहीं है? (बिल्कुल।) इस तरह की चीज को कैसे हासिल किया जाता है? वह तभी प्राप्त होती है, जब तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है और जब तुम समर्पित हृदय से सत्य खोजते हो। जब तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन प्राप्त कर लेते हो और अभ्यास के सिद्धांत निर्धारित कर लेते हो तो तुम्हारा अभ्यास सत्य के अनुरूप होगा और तुम परमेश्वर के इरादे पूरे कर लोगे। ... यदि तुम्हारा रवैया हठपूर्वक आग्रह करना, सत्य को नकारना, औरों के सुझाव न मानना, सत्य न खोजना, केवल अपने आपमें विश्वास रखना और मनमर्जी करना है—यदि यह तुम्हारा रवैया है और तुम्हें इस बात की परवाह नहीं है कि परमेश्वर क्या करता है या क्या अपेक्षा करता है, तो परमेश्वर की प्रतिक्रिया क्या होगी? वह तुम पर ध्यान नहीं देता। वह तुम्हें दरकिनार कर देता है। क्या तुम मनमाने नहीं हो? क्या तुम अहंकारी नहीं हो? क्या तुम हमेशा खुद को ही सही नहीं मानते हो? यदि तुममें समर्पण नहीं है, यदि तुम कभी खोज नहीं करते, यदि तुम्हारा हृदय परमेश्वर के लिए पूरी तरह से बंद और उसका विरोधी है, तो परमेश्वर तुम्हारी तरफ कोई ध्यान नहीं देता। परमेश्वर तुम पर ध्यान क्यों नहीं देता? क्योंकि जब तुम्हारा दिल परमेश्वर के लिए बंद है, तो क्या तुम परमेश्वर का प्रबोधन स्वीकार सकते हो? क्या तुम परमेश्वर की फटकार को महसूस कर सकते हो? लोग जब दुराग्रही होते हैं, जब उनकी शैतानी प्रकृतिऔर बर्बरता सामने आने लगती है, तो वे परमेश्वर के किसी भी कार्य को महसूस नहीं कर पाते, उन सबका कोई फायदा नहीं होता—तो परमेश्वर बेकार का काम नहीं करता। यदि तुम्हारा रवैया ऐसा अड़ियल और विरोधी है, तो परमेश्वर तुमसे छिपा रहता है, परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता। अगर तुम इस हद तक अड़ियल और विरोधी हो और इतनी सीमित सोच वाले हो, तो परमेश्वर कभी भी तुममें कुछ भी जबरन नहीं करेगा, या तुम पर कुछ भी लादेगा नहीं, वह कभी भी तुम्हें बार-बार प्रेरित और प्रबुद्ध करने की कोशिश नहीं करेगा—परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता। परमेश्वर इस प्रकार कार्य क्यों नहीं करता? इसका मुख्य कारण यह है कि परमेश्वर ने तुममें एक खास तरह का स्वभाव देख लिया है, ऐसी पाशविकता देख ली जो सत्य से विमुख है और तर्क से परे है। तुम्हें क्या लगता है, जब किसी जंगली जानवर की पाशविकता सामने आ रही हो, तो क्या लोग उसे काबू में कर सकते हैं? क्या उस पर चीखना-चिल्लाना किसी काम आता है? क्या तर्क करने या उसे सुकून देने से कोई लाभ होता है? क्या लोग उसके नजदीक भी जाने की हिम्मत कर सकते हैं? इसका वर्णन करने का एक अच्छा तरीका है : तर्क देना विवेक से परे है। जब तुम्हारी पशुता दिख रही होती है और तुम विवेक से परे हो जाते हो, तो परमेश्वर क्या करता है? परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देता। जब तुम विवेक से परे हो जाते हो, तो परमेश्वर तुमसे और क्या कहेगा? और कुछ भी कहना बेकार है। और जब परमेश्वर तुम पर ध्यान नहीं देता, तो तुमधन्य होते हो या कष्ट उठाते हो? तुम्हें कोई लाभ मिलता है या नुकसान उठाते हो? निस्संदेह तुम्हें नुकसान होता है। और इसका कारण कौन है? (हम खुद।) तुम्हीं ने ये हालात पैदा किए। किसी ने तुम्हें यह सब करने के लिए मजबूर नहीं किया और फिर भी तुम परेशान हो। क्या यह मुसीबत तुमने खुद पैदा नहीं की है? परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देता, तुम परमेश्वर को महसूस नहीं कर पाते, तुम्हारे हृदय में अंधेरा है, और तुम्हारा जीवन संकट में पड़ गया है—तुमने यह मुसीबत खुद बुलाई है, तुम इसी लायक हो!

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

सत्य का अभ्यास करने में सबसे बड़ी बाधा तब आती है जब किसी की इच्छाशक्ति बहुत बड़ी हो जाती है और वह हर चीज से पहले आती है—यानी, जब किसी का अपना स्वार्थ हर चीज से पहले आता है, जब किसी की अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा हर चीज से पहले आते हैं। यही कारण है कि जब भी कोई बात हो जाती है तो ऐसे लोग हमेशा दुराग्रही होते हैं और सत्य सिद्धांतों पर कोई विचार किए बिना हर वह चीज करते हैं जिससे उन्हें व्यक्तिगत रूप से लाभ हो। वे हमेशा अपनी राय पर अड़े रहते हैं। अपनी राय पर अड़े रहने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह निर्धारित करना है : “यदि तुम यह चाहते हो, तो मैं वह चाहता हूँ। यदि तुम अपनी बात मनवाना चाहते हो, तो मैं भी अपनी बात पर अड़ा रहूँगा।” क्या यह समर्पण का प्रदर्शन है? (नहीं।) यह बिल्कुल भी सत्य की खोज नहीं है, बल्कि अपने ही तरीकों पर अड़े रहना है। यह एक अहंकारी स्वभाव और एक विवेकहीन प्रदर्शन है। यदि, एक दिन, तुम यह जानने में सक्षम हो जाओ कि तुम्हारी प्राथमिकताएँ और तुम्हारा दृढ़-संकल्प सत्य के विरुद्ध हैं; यदि तुम अब अपने आप पर और विश्वास न करते हुए स्वयं को नकारने और अपनी असलियत जानने में सक्षम हो जाओ, और उसके बाद धीरे-धीरे चीजों को अपने तरीके से नहीं करने या आँख बंद करके निर्णय नहीं लेने की स्थिति में आ जाओ, बल्कि सत्य की तलाश करने, परमेश्वर से प्रार्थना करने और उस पर निर्भर रहने में सक्षम हो जाओ, तो वही सही अभ्यास है। किस प्रकार का अभ्यास सत्य के अनुरूप है, इसकी पुष्टि करने से पहले तुम्हें तलाश करनी चाहिए। यह बिल्कुल सही काम है, यही किया जाना चाहिए। यदि तुम तलाश करने के लिए तब तक प्रतीक्षा करते हो जब तक तुम्हारी काट-छाँट नहीं हो जाती, तो यह थोड़ी निष्क्रियता है, और इससे चीजों में देरी होने की संभावना है। सत्य की तलाश करना सीखना बहुत महत्वपूर्ण है। सत्य की तलाश करने के क्या लाभ हैं? पहला लाभ, कोई अपनी मनमर्जी से चलने और उतावलेपन से बच सकता है; दूसरा, भ्रष्टाचार के खुलासों और दुष्परिणामों से बच सकता है; तीसरा, प्रतीक्षा करना और धैर्य रखना सीख सकता है, और चीजों को स्पष्ट और सटीक रूप से समझकर गलतियाँ होने से रोक सकता है। सत्य की तलास करने से ये सभी चीजें हासिल की जा सकती हैं। जब तुम सभी चीजों में सत्य की तलाश करना सीख जाते हो, तो तुम पाओगे कि कुछ भी सरल नहीं है, कि यदि तुम असावधान हो और प्रयास नहीं करते हो तो तुम चीजों को खराब तरीके से करोगे। कुछ समय इस तरह प्रशिक्षण लेने के बाद, जब तुम्हारे सामने समस्याएँ आएँगी तो तुम अधिक परिपक्व और अनुभवी होगे। तुम्हारा रवैया नरम और अधिक संयमित होगा, और तुम आवेगशील, जोखिम लेने वाले और प्रतिस्पर्धी होने के बजाय, सत्य की तलाश करने, सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हो जाओगे। फिर, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के खुलासों की समस्या हल हो जाएगी। इसलिए, समर्पण करना तुम्हारे लिए आसान होगा, यह वास्तव में उतना कठिन नहीं है। शुरुआत में यह थोड़ा कठिन हो सकता है, लेकिन तुम धैर्य रख सकते हो, प्रतीक्षा कर सकते हो और समस्या का समाधान होने तक सत्य की खोज करते रह सकते हो। कुछ परेशानी आने पर यदि तुम अपने फैसले खुद लेना चाहते हो, और तुम सदैव औचित्य प्रस्तुत करते रहते हो, और अपने विचारों पर अड़े रहते हो, तो यह चीज काफी परेशानी पैदा करेगी। क्योंकि जिन चीजों पर तुम जोर दे रहे हो, वे सकारात्मक नहीं हैं और ये सभी भ्रष्ट स्वभाव में मौजूद चीजें हैं। ये सभी चीजें भ्रष्ट स्वभाव के खुलासे हैं, ऐसी परिस्थितियों में, भले ही तुम सत्य खोजना चाहो, तुम उसका अभ्यास नहीं कर पाओगे, भले ही तुम परमेश्वर से प्रार्थना करना चाहो, लेकिन तुम बेमन से ही प्रार्थना करोगे। यदि कोई तुम्हारे साथ सत्य के बारे में सहभागिता करता है और तुम्हारे इरादे की मिलावट को उजागर करता है, तो तुम कैसे चुनाव करोगे? क्या तुम आसानी से सत्य को स्वीकार कर सकते हो? ऐसे समय में समर्पण करने के लिए तुम्हें बहुत मेहनत करनी होगी और तुम समर्पण नहीं कर पाओगे। तुम विद्रोह करोगे और औचित्य प्रस्तुत करने की कोशिश करोगे। तुम कहोगे, “मेरे निर्णय परमेश्वर के घर के लिए हैं। वे गलत नहीं हैं। फिर भी तुम क्यों चाहते हो कि मैं समर्पित हो जाऊँ?” देख रहे हो न कि कैसे तुम समर्पित नहीं हो पाओगे? इसके अलावा, तुम विरोध भी करोगे; यह जानबूझकर किया गया अपराध है! क्या यह बहुत बड़ी परेशानी वाली बात नहीं है? अगर कोई तुम्हारे साथ सत्य पर संगति करे और तुम सत्य स्वीकार न कर पाओ और जानबूझकर अपराध तक करो, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध करो, तो तुम्हारी समस्या बहुत गंभीर है। इसका जोखिम है कि तुम्हें परमेश्वर द्वारा बेनकाब कर निकाल दिया जाए।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति समर्पण सत्‍य प्राप्‍त करने में बुनियादी सबक है

अपने कार्य में, कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को दो सिद्धांतों पर ध्यान अवश्य देना चाहिए : एक यह कि उन्हें ठीक कार्य व्यवस्थाओं के द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार ही कार्य करना चाहिए, उन सिद्धांतों का कभी भी उल्लंघन नहीं करना चाहिए, और अपने कार्य को अपने विचारों या ऐसी किसी भी चीज़ के आधार पर नहीं करना चाहिए जिसकी वे कल्पना कर सकते हैं। जो कुछ भी वे करें, उन्हें कलीसिया के कार्य के लिए परवाह दिखानी चाहिए, और हमेशा परमेश्वर के घर के हित सबसे पहले रखने चाहिए। दूसरी बात, जो बेहद अहम है, वह यह है कि जो कुछ भी वे करें उसमें पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन का पालन करने के लिए ध्यान अवश्य केन्द्रित करना चाहिए, और हर काम परमेश्वर के वचनों का कड़ाई से पालन करते हुए करना चाहिए। यदि वे अभी भी पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के विरुद्ध जा सकते हैं, या वे जिद्दी बनकर अपने विचारों का पालन करते हैं और अपनी कल्पना के अनुसार कार्य करते हैं, तो उनके कृत्य को परमेश्वर के प्रति एक अति गंभीर विरोध माना जाएगा। प्रबुद्धता और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से निरंतर मुँह फेरना उन्हें केवल बंद गली की ओर ले जाएगा। यदि वे पवित्र आत्मा के कार्य को गँवा देते हैं, तो वे कार्य नहीं कर पाएँगे, और यदि वे कार्य करने का प्रबंध कर भी लेते हैं, तो वे कुछ पूरा नहीं कर पाएँगे। कार्य करते समय दो मुख्य सिद्धांत ये हैं जिनका पालन अगुआओं और कार्यकर्ताओ को करना चाहिए : एक है कार्य को ऊपर से प्राप्त कार्य प्रबंधनों के अनुसार सटीकता से करना, और साथ ही ऊपर से तय किये गए सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना। और दूसरा सिद्धांत है, पवित्र आत्मा द्वारा अंतर में दिये गए मार्गदर्शन का पालन करना। जब एक बार इन दोनों सिद्धांतों को अच्छी तरह से समझ लेंगे, तो वे अपने काम में आसानी से गलतियाँ नहीं करेंगे। कलीसिया का कार्य करने में तुम लोगों का अनुभव अभी भी सीमित है, जब तुम काम करते हो, तो वह बुरी तरह से तुम्हारे विचारों से दूषित होता है। कभी-कभी, हो सकता है कि तुम पवित्र आत्मा से आए, अपने भीतर के प्रबोधन और मार्गदर्शन को न समझ पाओ; और कभी, ऐसा लगता है कि तुम इसे समझ गये हो परन्तु संभव है कि तुम इसकी अनदेखी कर दो। तुम हमेशा मानवीय रीति से सोचते या निष्कर्ष निकालते हो, जैसा तुम्हें उचित लगता है वैसा करते हो और पवित्र आत्मा के इरादों की बिल्कुल भी परवाह नहीं करते हो। तुम अपने विचारों के अनुसार अपना कार्य करते हो, और पवित्र आत्मा के प्रबोधन को एक किनारे कर देते हो। ऐसी स्थितियां अक्सर होती हैं। पवित्र आत्मा का आन्तरिक मार्गदर्शन लोकोत्तर नहीं है; वास्तव में यह बिल्कुल ही सामान्य है। यानी, अपने दिल की गहराई में तुम्हें लगता है कि कार्य करने का यही उपयुक्त और सर्वोत्तम तरीका है। ऐसा विचार वास्तव में बहुत ही स्पष्ट है; यह गंभीर सोच का परिणाम नहीं है, और कभी-कभी तुम पूरी तरह से नहीं समझ पाते कि तुम्हें इस तरह से कार्य क्यों करना चाहिए। यह पवित्र आत्मा का प्रबोधन ही होता है। ऐसा अक्सर अनुभवी लोगों के साथ होता है। पवित्र आत्मा वह करने के लिए तुम्हारा मार्गदर्शन करता है, जो सर्वाधिक उपयुक्त होता है। तुम इस बारे में नहीं सोचते, बल्कि तुम्हारे मन में ऐसा भाव आता है जो तुम्हें यह एहसास कराता है कि इसे करने का यही बेहतरीन तरीका है, और तुम कारण जाने बिना ही उसे उस ढंग से करना पसंद करते हो। यह पवित्र आत्मा से आ सकता है। इंसान के अपने विचार अक्सर सोचने-विचारने का परिणाम होते हैं और उनमें उनका मत शामिल होता है; वे हमेशा यही सोचते हैं कि इससे उन्हें क्या लाभ और फायदा है; इंसान जो भी कार्य करने का निर्णय लेता है, उसमें ये बातें होती हैं। लेकिन पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में ऐसी कोई मिलावट नहीं होती। पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और प्रबोधन पर सावधानीपूर्वक ध्यान देना बहुत आवश्यक है; विशेषकर तुम्हें मुख्य विषयों में बहुत सावधान रहना होगा ताकि इन्हें समझा जा सके। ऐसे लोग जो अपना दिमाग लगाना पसंद करते हैं, जो अपने विचारों पर ही कार्य करना पसंद करते हैं, बहुत संभव है कि वे ऐसे मार्गदर्शन और प्रबोधन में चूक जाएँ। उपयुक्त अगुआ और कर्मी ऐसे लोग होते हैं जिनमें पवित्र आत्मा का कार्य होता है, जो हर पल पवित्र आत्मा के कार्य पर ध्यान देते हैं, जो पवित्र आत्मा के प्रति समर्पण करते हैं, परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखते हैं, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहते हैं और बिना थके सत्य खोजते हैं। परमेश्वर को सन्तुष्ट करने और सही ढंग से उसकी गवाही देने के लिये तुम्हें अक्सर अपनी मंशाओं और अपने कर्तव्य में मिलावटी तत्वों पर आत्मचिंतन करना चाहिए, और फिर ध्यान से यह देखने का प्रयास करना चाहिये कि तुम्हारा कार्य इंसानी विचारों से कितना प्रेरित है, और कितना पवित्र आत्मा के प्रबोधन से उत्पन्न हुआ है, और कितना परमेश्वर के वचन के अनुसार है। तुम्हें निरन्तर और हर परिस्थिति में अपनी कथनी-करनी पर विचार करते रहना चाहिये कि वे सत्य के अनुरूप हैं या नहीं। अक्सर इस तरह का अभ्यास करना तुम्हें परमेश्वर की सेवा के लिये सही रास्ते पर ले जाएगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

जीवन के अनुभव की प्रक्रिया में, चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें सत्य की खोज करना सीखना चाहिए, परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार मामले पर पूरी तरह से विचार करना चाहिए। जब तुम जान जाते हो कि पूर्ण रूप से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कैसे कार्य करना है, तो तुम अपनी इच्छा से आने वाली चीजों को छोड़ पाओगे। एक बार जब तुम जान जाते हो कि परमेश्वर के इरादों के अनुसार कैसे कार्य करना है, तो तुम्हें बस वैसे ही काम करना चाहिए, मानो सहजता से कार्य कर रहे हो; इस तरह कार्य करना बहुत ही आरामदायक और आसान लगता है। सत्य समझने वाले लोग इसी ढंग से काम करते हैं। यदि तुम लोगों को दिखा सको कि तुम अपना कर्तव्य निभाते समय सच में प्रभावी होते हो, और जो तुम करते हो वह सिद्धांतों के अनुसार है, कि तुम्हारा जीवन स्वभाव वास्तव में बदल गया है, कि तुमने परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए कई अच्छे काम किए हैं, तो इसका अर्थ है कि तुम्हें सत्य की समझ है और निश्चित रूप से तुम इंसान की तरह हो; और जब तुम परमेश्वर के वचन खाते-पीते हो, तो यकीनन उसका असर होता है। जब कोई सही मायनों में सत्य समझ लेता है, तो वह अपनी विभिन्न दशाओं में सही-गलत में फर्क कर सकता है, वह जटिल मामलों को स्पष्ट रूप से देख पाता है और यह जान जाता है कि कैसे सही तरीके से अभ्यास करना है। यदि कोई व्यक्ति सत्य नहीं समझता और अपनी स्थिति को नहीं पहचान पाता, तो यदि वह अपने विरुद्ध विद्रोह करना चाहता है, तो उसे पता नहीं होगा कि क्या और कैसे विद्रोह करना है। यदि वह अपनी इच्छा का त्याग करना चाहता है, तो वह यह नहीं जान पाएगा कि उसकी इच्छा में क्या गलत है, उसे लगेगा कि उसकी इच्छा सत्य के अनुरूप है, यहाँ तक कि वह अपनी इच्छा को भी पवित्र आत्मा का प्रबोधन भी मान सकता है। ऐसा व्यक्ति अपनी इच्छा का त्याग कैसे करेगा? वह ऐसा नहीं कर पाएगा, वह दैहिक इच्छाओं से विद्रोह तो बिल्कुल नहीं कर पाएगा। इसलिए, जब तुम्हें सत्य की समझ नहीं होती, तो तुम अपनी इच्छा से आई चीजों को, मानवीय धारणाओं के अनुरूप चीजों को, और अपनी ही दयालुता, प्रेम, पीड़ा और कीमत चुकाने को आसानी से सही और सत्य के अनुरूप समझने की गलती कर सकते हो। तो फिर तुम इन मानवीय चीजों से विद्रोह कैसे कर सकते हो? तुम्हें सत्य की समझ नहीं है, तुम नहीं जानते कि सत्य का अभ्यास करने का क्या अर्थ होता है। तुम पूरी तरह अंधेरे में हो और नहीं जान पाते कि क्या करना है, इसलिए तुम वही कर सकते हो जो तुम्हें अच्छा लगता है, परिणामस्वरूप, तुम्हारे कुछ कार्यों में विकृति आ जाती है। इनमें से कुछ तो नियमों का पालन करने के कारण होता है, कुछ उत्साह के कारण और कुछ शैतान के विघ्न के कारण होता है। सत्य न समझने वाले लोग ऐसे ही होते हैं। वे कार्य करते समय बेहद डावांडोल होते हैं और हर हाल में भटक ही जाते हैं, उनमें थोड़ी भी सटीकता नहीं होती। जो लोग सत्य नहीं समझते, वे चीजों को गैर-विश्वासियों की तरह ही बेतुके ढंग से समझते हैं। वे सत्य का अभ्यास कैसे कर सकते हैं? समस्याओं का समाधान कैसे कर सकते हैं? सत्य समझना कोई सरल बात नहीं है। किसी की काबिलियत कम हो या ज्यादा, जीवन भर के अनुभव के बाद भी, उनमें सत्य की समझ सीमित होती है, और परमेश्वर के वचनों की उनकी समझ भी सीमित ही होती है। जो लोग अपेक्षाकृत अधिक अनुभवी होते हैं उनमें सत्य की समझ थोड़ी ज्यादा होती है, वे अधिक से अधिक ऐसे काम नहीं करते जो परमेश्वर के विरुद्ध हों और जाहिर तौर पर बुरे काम नहीं करते। उनके लिए अपने इरादों की मिलावट के बिना कार्य करना असंभव है। चूँकि मनुष्य की सोच सामान्य होती है और जरूरी नहीं कि उनके विचार हमेशा परमेश्वर के वचनों के अनुरूप ही हों, तो उनकी अपनी इच्छा की मिलावट होना अपरिहार्य है। महत्वपूर्ण है उन सभी चीजों की समझ होना जो अपनी इच्छा से आती हैं और परमेश्वर के वचनों, सत्य और पवित्र आत्मा के प्रबोधन के विरुद्ध होती हैं। इसके लिए तुम्हें परमेश्वर के वचनों को समझने में मेहनत करनी पड़ेगी; जब तुम सत्य समझ लोगे, केवल तब ही तुममें विवेक होगा और तभी तुम यह सुनिश्चित कर पाओगे कि तुम बुरे कार्य नहीं करोगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है

साधारण शब्दों में कहें तो परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करने का मतलब है परमेश्वर का हृदय में होना, हृदय का परमेश्वर में लगना, कुछ करते समय खुद को न भूलना, और स्वयं कुछ कर दिखाने का प्रयास न करना, बल्कि परमेश्वर को सबकुछ संभालने देना। हर चीज में तुम सोचते हो, “मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ और परमेश्वर का अनुसरण करता हूँ। मैं छोटा-सा सृजित प्राणी हूँ, जिसे परमेश्वर ने चुना है। मुझे अपनी इच्छा से आने वाले विचारों, सिफारिशों और फैसलों को छोड़ देना चाहिए और परमेश्वर को मेरा मालिक बनने देना चाहिए। परमेश्वर मेरा प्रभु, मेरी चट्टान और मेरा उज्ज्वल प्रकाश है, जो हर काम में मुझे राह दिखाता है। मुझे उसके वचनों और इच्छाओं के अनुसार कार्य करने चाहिए और खुद को पहले नहीं रखना चाहिए।” परमेश्वर को अपने मन में रखने का यही मतलब है। जब तुम कुछ करना चाहते हो, तो आवेग या उतावलेपन से पेश मत आओ। पहले सोचो, परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, क्या परमेश्वर को तुम्हारे काम से नफरत होगी, क्या तुम्हारे काम परमेश्वर के इरादों के अनुसार हैं। अपने हृदय में, पहले खुद से पूछो, सोचो और विचार करो; हड़बड़ी ना करो। हड़बड़ी करना आवेगी होना है, और चिड़चिड़ेपन और मनुष्य की इच्छा से प्रेरित होना है। अगर तुम हमेशा उतावले और आवेगी होते हो, तो इससे पता चलता है कि तुम्हारे हृदय में परमेश्वर नहीं है। जब तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करते हो, तो क्या ये सिर्फ खोखले शब्द नहीं हैं? तुम्हारी वास्तविकता कहाँ है? तुम्हारे पास कोई वास्तविकता नहीं है और तुम परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर नहीं कर सकते। तुम सभी मामलों में किसी जागीर के मालिक की तरह व्यवहार करते हो, हर बार अपनी मर्जी से काम करते हो। फिर तुम कैसे कह सकते हो कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर का भय है, क्या यह बकवास नहीं है? तुम इन शब्दों से लोगों को बरगला रहे हो। अगर किसी व्यक्ति के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है तो यह असल में कैसे व्यक्त होता है? परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करने से। परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करने की ठोस अभिव्यक्ति होती है, हृदय में परमेश्वर के लिए जगह होना—सबसे महत्वपूर्ण जगह होना। ऐसे लोग अपने मन में परमेश्वर को अपना मालिक बनने देते हैं और उसे नियंत्रण लेने देते हैं। जब कुछ होता है, तो उनके पास परमेश्वर के प्रति समर्पित होने वाला दिल होता है। वे उतावले नहीं होते, ना ही आवेगी होते हैं और वे जल्दबाजी में कुछ नहीं करते; इसके बजाय वे इसका सामना शांति से कर सकते हैं, और परमेश्वर के सामने सत्य सिद्धांतों को खोजने के लिए स्वयं को शांत कर सकते हैं। तुम चीजें परमेश्वर के वचनों के अनुसार करते हो या अपनी इच्छा से, तुम अपनी मर्जी चलने देते हो या परमेश्वर के वचनों की, यह इसी पर निर्भर करता है कि क्या परमेश्वर तुम्हारे हृदय में है। तुम कहते हो कि परमेश्वर तुम्हारे हृदय में है, लेकिन जब कुछ होता है तो तुम आंखें बंद करके काम करते हो और परमेश्वर को दरकिनार करते हुए खुद ही आखिरी फैसला लेते हो। क्या यह उस हृदय की अभिव्यक्ति है जिसमें परमेश्वर है? कुछ लोग ऐसे भी है जो कुछ होने पर परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, लेकिन प्रार्थना करने के बाद लगातार विचारशील रहते हैं, वे सोचते हैं, “मुझे लगता है कि मुझे ऐसा करना चाहिए। मुझे लगता है कि मुझे वैसा करना चाहिए।” तुम हमेशा अपनी इच्छा से चलते हो, और किसी दूसरे की नहीं सुनते फिर चाहे वे तुम्हारे साथ कैसे भी संगति करें। क्या यह परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय के न होने की अभिव्यक्ति नहीं है? क्योंकि तुम सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजते और सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो यह कहना कि तुम परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करते हो और तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है तो ये बस खोखले शब्द हैं। जिन लोगों के हृदय में परमेश्वर नहीं है, और जो परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर नहीं कर सकते, उन लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं है। जो लोग कुछ होने पर सत्य नहीं खोज पाते, और जिनका हृदय परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं है, उन लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक नहीं होता। अगर किसी के पास वास्तव में अंतरात्मा और विवेक है, तो जब कुछ होगा, वे स्वाभाविक रूप से सत्य खोज सकेंगे। उन्हें पहले सोचना चाहिए, “मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ। मैं परमेश्वर के पास उद्धार की खोज में आया हूँ। चूँकि मेरा स्वभाव भ्रष्ट है, इसलिए मैं जो भी करता हूँ उसमें हमेशा खुद को ही एकमात्र प्राधिकारी मानता हूँ; मैं हमेशा परमेश्वर के इरादों के खिलाफ जाता हूँ। मुझे पश्चात्ताप करना होगा। मैं इस तरह से परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकता। मुझे सीखना होगा कि परमेश्वर के प्रति समर्पित कैसे होऊँ। मुझे खोजना होगा कि परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, और सत्य सिद्धांत क्या हैं।” यही वे विचार और आकांक्षाएँ हैं जो सामान्य मानवता के विवेक से उत्पन्न होते हैं। तुम्हें इन्हीं सिद्धांतों और रवैये के साथ चीजें करनी चाहिए। जब तुम सामान्य मानवता का विवेक हासिल कर लेते हो, तो तुम्हारा रवैया ऐसा हो जाता है; जब तुम्हारे पास सामान्य मानवता का विवेक नहीं होता, तो तुम्हारा रवैया ऐसा नहीं होता। इसीलिए सामान्य मानवता का विवेक हासिल करना अतिआवश्यक और बेहद महत्वपूर्ण है। यह सीधे तौर पर लोगों के सत्य समझने और उद्धार पाने से जुड़ा है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

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