3. परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव कैसे करें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
मनुष्य का सारा जीवन शैतान की सत्ता के अधीन बीतता है, और ऐसा एक भी इंसान नहीं है जो अपने बलबूते पर खुद को शैतान के प्रभाव से आजाद कर सके। सभी लोग भ्रष्टता और खोखलेपन में, बिना किसी अर्थ या मूल्य के, एक अशुद्ध संसार में रहते हैं; वे देह के लिए, वासना के लिए और शैतान के लिए बहुत बेफिक्री का जीवन जीते हैं। उनके अस्तित्व का कोई मूल्य नहीं है। मनुष्य उस सत्य को खोज पाने में असमर्थ है जो उसे शैतान के प्रभाव से मुक्त कर दे। भले ही मनुष्य परमेश्वर में विश्वास करता है और बाइबल पढ़ता है, फिर भी वह यह नहीं समझ पाता कि अपने-आपको शैतान के नियंत्रण से कैसे मुक्त करे। विभिन्न युगों के दौरान, बहुत ही कम लोगों ने इस रहस्य को जाना है, बहुत ही कम लोगों ने इसे समझा है। वैसे तो, मनुष्य शैतान से और देह से घृणा करता है, फिर भी वह नहीं जानता कि अपने-आपको शैतान के हानिकारक प्रभाव से कैसे छुड़ाए। क्या आज भी तुम लोग शैतान की सत्ता के अधीन नहीं हो? तुम लोग अपने विद्रोही कार्यों पर पछताते नहीं हो, और यह तो बिल्कुल भी महसूस नहीं करते कि तुम अशुद्ध और विद्रोही हो। परमेश्वर का विरोध करके भी तुम लोगों को मन की शांति मिलती है और तुम्हें शांतचित्तता का एहसास होता है। क्या तुम्हारी यह शांतचित्तता इसलिए नहीं है क्योंकि तुम भ्रष्ट हो? क्या यह मन की शांति तुम्हारे विद्रोहीपन से नहीं उपजती है? मनुष्य एक मानवीय नरक में रहता है, वह शैतान के अंधेरे प्रभाव में रहता है; पूरी धरती पर, प्रेत मनुष्य के साथ-साथ जीते हैं, और मनुष्य की देह का अतिक्रमण करते हैं। पृथ्वी पर तुम किसी सुंदर स्वर्गलोक में नहीं रहते। जहाँ तुम रहते हो वह दुष्टों का संसार है, एक मानवीय नरक है, अधोलोक है। यदि मनुष्य को शुद्ध न किया जाए, तो वह मलिन ही रहता है; यदि परमेश्वर उसकी सुरक्षा और देखभाल न करे, तो वह शैतान का बंदी ही बना रहता है; यदि उसका न्याय और उसकी ताड़ना नहीं की जाए, तो उसके पास शैतान के अंधकारमय प्रभाव के दमन से बचने का कोई उपाय नहीं होगा। जो भ्रष्ट स्वभाव तुम दिखाते हो और जिस विद्रोही व्यवहार को जीते हो, वह इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि तुम अभी भी शैतान की सत्ता के अधीन जी रहे हो। यदि तुम्हारे मस्तिष्क और विचारों को शुद्ध न किया गया, और तुम्हारे स्वभाव का न्याय न हुआ और उसे ताड़ना न दी गई, तो इसका अर्थ है कि तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व को अभी भी शैतान की सत्ता के द्वारा ही नियंत्रित किया जा रहा है, तुम्हारा मस्तिष्क शैतान के द्वारा ही नियंत्रित किया जा रहा है, तुम्हारे विचार कपटपूर्ण तरीके से शैतान के द्वारा ही इस्तेमाल किए जा रहे हैं, और तुम्हारा पूरा अस्तित्व शैतान के हाथों नियंत्रित हो रहा है। ... यदि तुम पूर्ण बनना चाहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के कार्य को समझना होगा। खासतौर से, तुम्हें उसकी ताड़ना और उसके न्याय के अर्थ को समझना होगा, और यह समझना होगा कि इस कार्य को मनुष्य पर क्यों किया जाता है। क्या तुम यह कार्य स्वीकार कर सकते हो? इस प्रकार की ताड़ना के दौरान, क्या तुम पतरस की तरह ही अनुभव और ज्ञान प्राप्त कर सकते हो? यदि तुम परमेश्वर के ज्ञान और पवित्र आत्मा के कार्य के ज्ञान के लिए प्रयास करोगे, और अपने स्वभाव में परिवर्तन लाने के प्रयास करोगे, तो तुम्हारे पास पूर्ण बनाए जाने का अवसर होगा।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान
आज परमेश्वर तुम लोगों का न्याय करता है, तुम लोगों को ताड़ना देता है, और तुम्हारी निंदा करता है, लेकिन तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि तुम्हारी निंदा इसलिए की जाती है, ताकि तुम स्वयं को जान सको। वह इसलिए निंदा करता है, शाप देता है, न्याय करता और ताड़ना देता है, ताकि तुम स्वयं को जान सको, ताकि तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन हो सके, और, इसके अलावा, तुम अपनी कीमत जान सको, और यह देख सको कि परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक और उसके स्वभाव और उसके कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार हैं, और वह मनुष्य के उद्धार के लिए अपनी योजना के अनुसार कार्य करता है, और कि वह धार्मिक परमेश्वर है, जो मनुष्य को प्यार करता है, उसे बचाता है, उसका न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है। यदि तुम केवल यह जानते हो कि तुम निम्न हैसियत के हो, कि तुम भ्रष्ट और विद्रोही हो, परंतु यह नहीं जानते कि परमेश्वर आज तुममें जो न्याय और ताड़ना का कार्य कर रहा है, उसके माध्यम से वह अपने उद्धार के कार्य को स्पष्ट करना चाहता है, तो तुम्हारे पास चीजों को अनुभव करने का कोई तरीका नहीं है, और तुम आगे जारी रखने में सक्षम तो बिल्कुल भी नहीं हो। परमेश्वर मारने या नष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि न्याय करने, शाप देने, ताड़ना देने और बचाने के लिए आया है। उसकी 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना के समापन से पहले—इससे पहले कि वह मनुष्य की प्रत्येक श्रेणी का परिणाम स्पष्ट करे—पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य उद्धार के लिए होगा; इसका विशुद्ध प्रयोजन उससे प्रेम करने वाले लोगों को पूरी तरह पूर्ण बनाना और उन्हें अपने प्रभुत्व के प्रति आत्मसमर्पण कराना है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर लोगों को कैसे बचाता है, यह सब उन्हें उनके पुराने शैतानी स्वभाव से अलग करके किया जाता है; अर्थात्, वह उनसे जीवन की तलाश करवाकर उन्हें बचाता है। यदि वे ऐसा नहीं करते, तो उनके पास परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने का कोई रास्ता नहीं होगा। उद्धार स्वयं परमेश्वर का कार्य है, और जीवन की तलाश करना ऐसी चीज है, जिसे उद्धार स्वीकार करने के लिए मनुष्य को करना ही चाहिए। मनुष्य की निगाह में, उद्धार परमेश्वर का प्रेम है, और परमेश्वर का प्रेम ताड़ना, न्याय और शाप नहीं हो सकता; उद्धार में दया, प्रेमपूर्ण दयालुता और, इनके अलावा, सांत्वना के वचनों के साथ-साथ परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए असीम आशीष समाविष्ट होने चाहिए। लोगों का मानना है कि जब परमेश्वर मनुष्य को बचाता है, तो ऐसा वह उन्हें अपने आशीषों और अनुग्रह से प्रेरित करके करता है, ताकि वे अपने हृदय परमेश्वर को दे सकें। दूसरे शब्दों में, उसका मनुष्य को स्पर्श करना उसे बचाना है। इस तरह का उद्धार एक सौदा करके किया जाता है। केवल जब परमेश्वर मनुष्य को सौ गुना प्रदान करता है, तभी मनुष्य परमेश्वर के नाम के प्रति आत्मसमर्पण करता है और उसके लिए अच्छा करने और उसे महिमामंडित करने का प्रयत्न करता है। यह मानवजाति के लिए परमेश्वर की अभिलाषा नहीं है। परमेश्वर पृथ्वी पर भ्रष्ट मानवता को बचाने के लिए कार्य करने आया है—इसमें कोई झूठ नहीं है। यदि होता, तो वह अपना कार्य करने के लिए व्यक्तिगत रूप से निश्चित ही नहीं आता। अतीत में, उद्धार के उसके साधन में परम दया और प्रेमपूर्ण दयालुता दिखाना शामिल था, यहाँ तक कि उसने संपूर्ण मानवजाति के बदले में अपना सर्वस्व शैतान को दे दिया। वर्तमान अतीत जैसा नहीं है : आज तुम लोगों को दिया गया उद्धार अंतिम दिनों के समय में प्रत्येक व्यक्ति का उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकरण किए जाने के दौरान घटित होता है; तुम लोगों के उद्धार का साधन दया या प्रेमपूर्ण दयालुता नहीं है, बल्कि ताड़ना और न्याय है, ताकि मनुष्य को अधिक पूरी तरह से बचाया जा सके। इस प्रकार, तुम लोगों को जो भी प्राप्त होता है, वह ताड़ना, न्याय और निर्दय मार है, लेकिन यह जान लो : इस निर्मम मार में थोड़ा-सा भी दंड नहीं है। मेरे वचन कितने भी कठोर हों, तुम लोगों पर जो पड़ता है, वे कुछ वचन ही हैं, जो तुम लोगों को अत्यंत निर्दय प्रतीत हो सकते हैं, और मैं कितना भी क्रोधित क्यों न हूँ, तुम लोगों पर जो पड़ता है, वे फिर भी कुछ तिरस्कारपूर्ण वचन ही हैं, और मेरा आशय तुम लोगों को नुकसान पहुँचाना या तुम लोगों को मार डालना नहीं है। क्या यह सब तथ्य नहीं है? जान लो कि आजकल हर चीज उद्धार के लिए है, चाहे वह धार्मिक न्याय हो या भावहीन शोधन और ताड़ना। भले ही आज प्रत्येक व्यक्ति का उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकरण किया जाए या सभी प्रकार के लोगों को बेनकाब किया जाए, परमेश्वर के समस्त वचनों और कार्य का प्रयोजन उन लोगों को बचाना है, जो परमेश्वर से सचमुच प्यार करते हैं। धार्मिक न्याय मनुष्य को शुद्ध करने के उद्देश्य से लाया जाता है, और निर्मम शोधन उन्हें शुद्ध करने के लिए किया जाता है; कठोर वचन या ताड़ना, दोनों शुद्ध करने के लिए किए जाते हैं और वे उद्धार के लिए हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर के इरादे को समझना चाहिए
अगर तुम भ्रष्टता से स्वच्छ होना चाहते हो और अपने जीवन-स्वभाव में बदलाव से गुजरते हो, तो तुममें सत्य के लिए प्रेम करने और सत्य को स्वीकार करने की योग्यता होनी चाहिए। सत्य स्वीकार करने का क्या अर्थ है? सत्य स्वीकारने का यह अर्थ है कि चाहे तुममें किसी भी प्रकार का भ्रष्टाचारी स्वभाव हो या बड़े लाल अजगर के जो विष—शैतान के विष—तुम्हारी प्रकृति में हों, जब परमेश्वर के वचन इन चीजों को उजागर कर दें, तो तुम्हें उन्हें स्वीकारना और उनके प्रति समर्पित होना चाहिए, तुम कोई और विकल्प नहीं चुन सकते, तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद को जानना चाहिए। इसका मतलब है परमेश्वर के वचनों और सत्य को स्वीकारने में सक्षम होना। चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे, चाहे उसके कथन कितने भी कठोर हों, चाहे वह किन्हीं भी वचनों का उपयोग करे, तुम इन्हें तब तक स्वीकार कर सकते हो जब तक कि वह जो भी कहता है वह सत्य है, और तुम इन्हें तब तक स्वीकार कर सकते हो जब तक कि वे वास्तविकता के अनुरूप हैं। इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम परमेश्वर के वचनों को कितनी गहराई से समझते हो, तुम इनके प्रति समर्पित हो सकते हो, तुम उस रोशनी को स्वीकार कर सकते हो और उसके प्रति समर्पित हो सकते हो जो पवित्र आत्मा द्वारा प्रकट की गयी है और जिसकी तुम्हारे भाई-बहनों द्वारा सहभागिता की गयी है। जब ऐसा व्यक्ति सत्य का अनुसरण एक निश्चित बिंदु तक कर लेता है, तो वह सत्य को प्राप्त कर सकता है और अपने स्वभाव के रूपान्तरण को प्राप्त कर सकता है। अगर सत्य से प्रेम न करने वाले लोगों में थोड़ी-बहुत इंसानियत है, वे नेक कार्य कर सकते हैं, देह-सुख त्यागकर परमेश्वर के लिए खुद को खपा सकते हैं, पर वे सत्य को लेकर भ्रमित हैं और उसे गंभीरता से नहीं लेते, तो उनका स्वभाव कभी नहीं बदलता।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें
परमेश्वर के कार्यों का अनुभव करते समय तुम्हें पहले उसके उन वचनों को स्वीकारना चाहिए, जो मनुष्य का प्रकृति-सार उजागर करते हैं। अगर तुम लोगों का भ्रष्ट स्वभाव और उनकी भ्रष्टता का सत्य स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम हो, और अगर तुम सचमुच खुद को जान लेते हो, तो क्या यह तुम्हारे लिए उद्धार पाने का मार्ग नहीं है? मनुष्य का न्याय कर उसे उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों के प्रति अपनाया जाने वाला तुम्हारा दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। सबसे पहले तुम्हें परमेश्वर के उन वचनों पर विचार करना चाहिए, जो मनुष्य की प्रकृति उजागर करते हैं; अगर तुम स्पष्ट रूप से देख पाते हो कि परमेश्वर के वचनों ने जो कुछ उजागर किया है, वह पूरी तरह से तुम्हारी वास्तविक दशा के अनुरूप है, तो तुम्हें लाभ होगा। कुछ लोग परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद उनकी तुलना हमेशा दूसरों से करते हैं; वे हमेशा यही सोचते हैं कि ये वचन दूसरों को लक्ष्य कर कहे गए हैं और परमेश्वर ने जो वचन कहे हैं उनका खुद उनसे कोई लेना-देना नहीं है, चाहे वे कितने भी कठोर क्यों न हों। यह तकलीफदेह है—ऐसा व्यक्ति सत्य नहीं स्वीकारता। तो फिर तुम्हें परमेश्वर के वचनों के प्रति कैसा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? जब भी तुम परमेश्वर का कोई वचन पढ़ो, तुम्हें उसकी तुलना खुद से करनी चाहिए, उसका अपनी अवस्था, अपने विचारों और दृष्टिकोणों, और अपने व्यवहार के साथ परस्पर-मिलान करना चाहिए। अगर तुम वाकई उनके समान हो और अपनी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजते हो, तो इस तरह से तुम्हें लाभ होगा। फिर तुम्हें स्वयं द्वारा समझे गए सत्य की वास्तविकता का उपयोग दूसरों के पास जाकर उनकी मदद करने के लिए करना चाहिए; सत्य समझने और समस्याएँ हल करने में उनकी मदद करो, परमेश्वर के सामने आकर उसके वचनों और सत्य को स्वीकारने में उनकी मदद करो। यह दूसरों के प्रति प्रेम दर्शाता है और तुम इससे लाभ उठा सकते हो; इससे तुम्हें और दूसरों दोनों को लाभ होता है, दोहरा लाभ होता है। इस तरह कार्य करना तुम्हें परमेश्वर के घर में एक उपयोगी व्यक्ति बनाता है; अगर तुम्हारे पास ऐसी सत्य-वास्तविकता होती है, तो तुम परमेश्वर के लिए गवाही देने में सक्षम रहते हो। तब क्या तुम परमेश्वर की स्वीकृति नहीं पा लेते? परमेश्वर के उन शेष वचनों को स्वीकारकर उनके प्रति समर्पित होने के लिए भी तुम्हें यही तरीके इस्तेमाल करने चाहिए, जिनसे परमेश्वर ने लोगों को उजागर किया है, और फिर गहन आत्म-विश्लेषण कर खुद को जानना चाहिए। क्या तुम लोग इस तरह अपनी तुलना करना जानते हो? (थोड़ा-सा जानते हैं।) अगर परमेश्वर ने कहा कि तुम शैतान हो, तुम दानव हो, तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है और तुम उसका विरोध करते हो, तो तुम इन बड़ी चीजों की खुद से तुलना करने में सक्षम हो सकते हो; लेकिन जब उसके वचन यह तय करने के लिए कि तुम किस तरह के व्यक्ति हो, कुछ अन्य दशाओं और उद्गारों के बारे में बात करते हैं, तो तुम उनकी खुद से तुलना नहीं कर पाते और उन्हें स्वीकार नहीं पाते—यह बहुत तकलीफदेह है। इसका क्या अर्थ है? (इसका अर्थ यह है कि हम खुद को वास्तव में नहीं जानते।) तुम वास्तव में खुद को नहीं जानते और तुम सत्य नहीं स्वीकारते, क्या यही बात नहीं है? (यही बात है।) लोगों को धीरे-धीरे वे शब्द समझ लेने चाहिए, जिनका इस्तेमाल परमेश्वर लोगों को उजागर करने के लिए करता है, जैसे “कीड़े-मकोड़े,” “गंदा दानव,” “धेले भर का मूल्य नहीं,” “कूड़ा-कचरा,” और “किसी काम के नहीं।” क्या लोगों को उजागर करने के पीछे परमेश्वर का उद्देश्य उनकी निंदा करना है? (नहीं।) तो फिर क्या उद्देश्य है? (लोग खुद को जानें और अपनी भ्रष्टता दूर करें।) बिल्कुल सही। इन चीजों को उजागर करने के पीछे परमेश्वर का उद्देश्य यह है कि तुम खुद को जानो, इस प्रक्रिया में सत्य प्राप्त करो और उसके इरादे समझो। अगर परमेश्वर तुम्हें किसी कीड़े-मकोड़े, किसी नीच व्यक्ति, किसी निकम्मे के रूप में उजागर करता है, तो तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? तुम कह सकते हो, “परमेश्वर कहता है कि मैं कीड़ा-मकोड़ा हूँ, इसलिए मैं कीड़ा-मकोड़ा ही रहूँगा। परमेश्वर कहता है कि मैं निकम्मा हूँ, इसलिए मैं निकम्मा ही रहूँगा। परमेश्वर कहता है कि मेरा धेले भर का मूल्य नहीं, इसलिए मैं कूड़े का एक बेकार टुकड़ा ही रहूँगा। परमेश्वर कहता है कि मैं गंदा दानव हूँ, मैं शैतान हूँ, इसलिए मैं गंदा दानव ही रहूँगा, शैतान ही रहूँगा।” क्या सत्य प्राप्त करने का यही तरीका है? (नहीं।) इन वचनों को कहने में परमेश्वर का उद्देश्य, अपने न्याय, ताड़ना और उजागर करने में उसका अंतिम उद्देश्य यह है कि लोग उसके इरादे समझें, सत्य का अभ्यास करने के मार्ग पर कदम रखें, परमेश्वर को जानें और उसके प्रति समर्पण करें। अगर इस मार्ग पर चलते समय लोग परमेश्वर को हमेशा गलत समझते हैं, अगर वे अक्सर उसके न्याय और ताड़ना को पूरी तरह स्वीकार नहीं पाते और अगर उनकी विद्रोहशीलता बहुत ज्यादा है, तो फिर वे क्या कर सकते हैं? तुम्हें अक्सर परमेश्वर के सामने आना चाहिए, उसकी जाँच स्वीकारनी चाहिए, उसे बार-बार के परीक्षणों और शोधन द्वारा अपनी अगुआई करने देनी चाहिए, और तुम्हें स्वच्छ करने के लिए परिस्थितियाँ व्यवस्थित करने देनी चाहिए। लोगों की भ्रष्टता बहुत गहरी है, उन्हें स्वच्छ होने के लिए परमेश्वर की जरूरत है! अगर लोगों में ऐसा करने की इच्छा नहीं है, अगर वे हमेशा आरामतलबी में डूबे रहते हैं, अगर वे हमेशा भ्रमित रहते हैं और सत्य बिल्कुल नहीं खोजते, तो सत्य प्राप्त करने की उनकी आशा बहुत कम है। परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच करने की कई व्यावहारिक अभिव्यक्तियाँ हैं, जिन्हें लोगों के भ्रष्ट स्वभावों की उन अनेक चीजों से देखा जा सकता है, जिन्हें परमेश्वर उजागर करता है। सिर्फ परमेश्वर ही मनुष्य के प्रकृति-सार के भीतर की चीजें देख सकता है। इसलिए अगर तुम परमेश्वर के वचन नहीं सुनते, उस तरह से नहीं जीते जैसा परमेश्वर ने जीने के लिए कहा है और उसमें विश्वास नहीं करते या उस तरह से अपना कर्तव्य नहीं निभाते जैसा उसने निभाने के लिए कहा है, तो तुम्हारे पास परमेश्वर के इरादे पूरे करने के मार्ग पर चलने का कोई उपाय नहीं है; तुम्हारे पास परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग पर चलने का कोई उपाय नहीं है और तुम्हारे लिए उद्धार पाना बहुत कठिन है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक
परमेश्वर के वचनों के न्याय को स्वीकार करते समय कष्ट या पीड़ा से न डरो, और इस बात से और भी न डरो कि परमेश्वर तुम लोगों के दिल को चीर देगा और तुम्हारी कुरूप अवस्थाओं को उजागर कर देगा। इन चीजों को झेलना बेहद हितकारी है। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो तो तुम्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना वाले वचनों को और ज्यादा पढ़ना चाहिए, खासकर वो वचन जो मानवजाति की भ्रष्टता का सार उजागर करते हैं। तुम्हें उनके साथ अपनी व्यावहारिक अवस्था की तुलना करनी चाहिए, और तुम्हें उन्हें खुद से ज्यादा और दूसरों से कम जोड़ना चाहिए। परमेश्वर जैसी अवस्थाएँ उजागर करता है, वे हर व्यक्ति में मौजूद हैं, और वे सभी तुम में मिल सकती हैं। अगर तुम्हें इस पर विश्वास नहीं है, तो इसे अनुभव करके देखो। तुम जितना ज्यादा अनुभव करोगे, उतना ही ज्यादा खुद को जानोगे, और उतना ही ज्यादा यह महसूस करोगे कि परमेश्वर के वचन बिल्कुल सही हैं। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, कुछ लोग उन्हें खुद से जोड़ने में असमर्थ होते हैं; उन्हें लगता है कि इन वचनों के कुछ हिस्से उनके बारे में नहीं, बल्कि अन्य लोगों के बारे में हैं। उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर लोगों को ईजबेलों और वेश्याओं के रूप में उजागर करता है, तो कुछ बहनों को लगता है कि चूँकि वे अपने पति के प्रति पूरी तरह से वफादार हैं, अतः ऐसे वचन उनके संदर्भ में नहीं होने चाहिए; कुछ बहनों को लगता है कि चूँकि वे अविवाहित हैं और उन्होंने कभी सेक्स नहीं किया है, इसलिए ऐसे वचन उनके बारे में भी नहीं होने चाहिए। कुछ भाइयों को लगता है कि ये वचन केवल महिलाओं के लिए कहे गए हैं, और इनका उनसे कोई लेना-देना नहीं है; कुछ लोगों का मानना है कि मनुष्य को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन बहुत कठोर हैं और वे वास्तविकता से मेल नहीं खाते, इसलिए वे उन्हें स्वीकारने से इनकार कर देते हैं। ऐसे भी लोग हैं, जो कहते हैं कि कुछ मामलों में परमेश्वर के वचन सही नहीं हैं। क्या परमेश्वर के वचनों के प्रति यह रवैया सही है? यह जाहिर तौर पर गलत है। सभी लोग खुद को अपने बाहरी व्यवहार के आधार पर देखते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के बीच आत्म-चिंतन करने और अपने भ्रष्ट सार के बारे में जान पाने में सक्षम नहीं होते। यहाँ “ईजबेल” और “वेश्या” जैसे शब्द मानवजाति की भ्रष्टता, मलिनता और व्यभिचार के सार को दर्शाने के लिए इस्तेमाल किए गए हैं। चाहे पुरुष हो या महिला, विवाहित हो या अविवाहित, हर किसी में व्यभिचार के भ्रष्ट विचार होते हैं—तो इसका तुमसे कोई लेना-देना कैसे नहीं हो सकता है? परमेश्वर के वचन लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करते हैं; चाहे पुरुष हो या स्त्री, भ्रष्टाचार का उनका स्तर समान है। क्या यह एक तथ्य नहीं है? हमें पहले यह समझना होगा कि परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, वह सत्य है और तथ्यों के अनुरूप है, और लोगों का न्याय करके उन्हें उजागर करने वाले उसके वचन चाहे जितने भी कठोर क्यों न हों, या लोगों के साथ सत्य की संगति करने या उन्हें प्रबोधित करने वाले उसके वचन कितने भी कोमल क्यों न हों, चाहे उसके वचन न्याय हों या आशीष, चाहे वे निंदा हों या शाप, और चाहे वे लोगों को कड़वाहट का एहसास कराते हों या मिठास का, लोगों को वे सब स्वीकार करने चाहिए। यही वह दृष्टिकोण है, जो लोगों को परमेश्वर के वचनों के प्रति अपनाना चाहिए। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? क्या यह भक्ति का दृष्टिकोण है, पवित्रता का दृष्टिकोण है, धैर्यशीलता का दृष्टिकोण है, या कष्ट सहने का दृष्टिकोण है? तुम थोड़ी उलझन में हो। मैं तुमसे कहता हूँ कि यह इनमें से कोई नहीं है। अपनी आस्था में, लोगों को दृढ़ता से यह मानना चाहिए कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। चूँकि वे सचमुच सत्य हैं, लोगों को उन्हें विवेक के साथ स्वीकार कर लेना चाहिए। हम इस बात को भले ही न पहचानें या स्वीकार न करें, लेकिन परमेश्वर के वचनों के प्रति हमारा पहला रुख पूर्ण स्वीकृति का होना चाहिए। अगर परमेश्वर के वचन किसी तुममें से किसी एक या सबको उजागर नहीं करते तो ये किसे उजागर करते हैं? और अगर यह तुम्हें उजागर करने के लिए नहीं है, तो तुम्हें इसे स्वीकार करने के लिए क्यों कहा जाता है? क्या यह एक विरोधाभास नहीं है? परमेश्वर समूची मानवजाति से बात करता है, परमेश्वर द्वारा बोला गया हर वाक्य भ्रष्ट मानवजाति को उजागर करता है, और कोई भी इसके बाहर नहीं है—स्वाभाविक रूप से तुम भी इसमें शामिल हो। परमेश्वर के कथनों की एक भी पंक्ति बाह्य रूपों के बारे में या अवस्था की किसी किस्म के बारे में नहीं है, किसी बाह्य नियम के बारे में या लोगों के व्यवहार के किसी सरल रूप के बारे में तो बिल्कुल भी नहीं हैं। वे ऐसी नहीं हैं। अगर तुम परमेश्वर द्वारा कही गई हर पंक्ति को सिर्फ एक सामान्य प्रकार के इंसानी व्यवहार या बाह्य रूप को उजागर करने वाली मानते हो, तो फिर तुम्हारे अंदर आध्यात्मिक समझ नहीं है, और तुम नहीं समझते हो कि सत्य क्या है। परमेश्वर के वचन सत्य हैं। लोग परमेश्वर के वचनों की गहराई का एहसास कर सकते हैं। वे कैसे गहन होते हैं? परमेश्वर का हर वचन लोगों के भ्रष्ट स्वभावों और उन अनिवार्य चीजों को उजागर करता है जो उसके जीवन के भीतर गहरी जड़ें जमाये हुए हैं। वे आवश्यक चीजें होती हैं, वे बाह्य रूप, विशेषकर बाह्य व्यवहार नहीं होते। लोगों को उनके बाहरी रूप से देखने पर, वे सभी अच्छे लोग लग सकते हैं। लेकिन फिर परमेश्वर क्यों कहता है कि कुछ लोग बुरी आत्माएं हैं और कुछ अशुद्ध आत्माएं हैं? यह एक ऐसा मामला है जो तुम्हें दिखाई नहीं देता है। इसलिए व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों को मानवीय धारणाओं या कल्पनाओं के आलोक में या मनुष्यों की सुनी-सुनाई बातों के आलोक में नहीं लेना चाहिए, और सत्तारूढ़ पार्टी के बयानों के आलोक में तो निश्चित रूप से नहीं लेना चाहिए। केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं; मनुष्य के सभी वचन मिथ्या हैं। इस तरह से सहभागिता करने के बाद, क्या तुम लोगों ने परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने रवैये में बदलाव का अनुभव किया है? बदलाव चाहे जितना भी छोटा या बड़ा हो, अगली बार जब तुम लोगों का न्याय और उन्हें उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़ोगे, तो तुम्हें कम-से-कम परमेश्वर से तर्क करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। तुम्हें यह कहते हुए परमेश्वर के बारे में शिकायत करना बंद कर देना चाहिए, “लोगों को उजागर और उनका न्याय करने वाले परमेश्वर के वचन वाकई कठोर हैं, मैं इस पन्ने को नहीं पढ़ने वाला। मैं इसे छोड़ दूँगा! मुझे आशीषों और वादों के बारे में पढ़ने के लिए कुछ खोजना चाहिए, ताकि कुछ सुख-शांति मिल सके।” तुम्हें अब परमेश्वर के वचनों को अपनी मर्जी से छाँट-छाँटकर नहीं पढ़ना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए; सिर्फ तभी तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को स्वच्छ किया जा सकता है, और सिर्फ तभी तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण का महत्व और उसके अनुसरण का मार्ग
जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे उनके वचनों का अभ्यास और अनुभव करने के प्रयास करेंगे, अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होने पर वे आत्म-चिंतन के साथ खुद को जानने का प्रयास करेंगे, और इस भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए परमेश्वर के वचनों का सत्य खोजेंगे। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं वे आत्म-चिंतन करने और परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए खुद को जानने का प्रयास करने पर ध्यान देते हैं, और इन लोगों को लगता है कि उसके वचन किसी आईने की तरह हैं जो इन लोगों के भ्रष्टता और कुरूपता को दिखा देता है। इस तरह, वे परमेश्वर के वचनों के जरिये उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने लगते हैं, और वे धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर कर लेते हैं। जब इन लोगों को अपना भ्रष्ट स्वभाव कम प्रकट होता दिखेगा, जब वे वास्तव में परमेश्वर के समक्ष समर्पण करने लगेंगे, तो इन लोगों को एहसास होने लगेगा कि सत्य का अभ्यास करना तो काफी आसान है, और अब कोई मुसीबत नहीं हैं। इस समय, वे अपने आप में सच्चा बदलाव पाएँगे, और इन लोगों के दिल में परमेश्वर के लिए सच्ची प्रशंसा उपजेगी : “सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मुझे मेरे भ्रष्ट स्वभाव के बंधन और बाधाओं से बचाया है और मुझे शैतान के प्रभाव से बचाया है।” यह परमेश्वर के वचनों से न्याय और ताड़ना का अनुभव करने का फल है। अगर लोग परमेश्वर के वचनों में न्याय और ताड़ना का अनुभव नहीं कर सकते, तो वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को स्वच्छ नहीं कर सकते या शैतान के प्रभाव से दूर नहीं हो सकते हैं। बहुत से लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, और भले ही वे परमेश्वर के वचन पढ़ते और उपदेश सुनते हों, बाद में वे सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाने लगते हैं, और परिणामतः वे बहुत साल से परमेश्वर में विश्वास करने के बावजूद अपने किसी भी भ्रष्ट स्वभाव को दूर नहीं कर पाते हैं। ये लोग अभी भी वैसे ही शैतान और दुष्ट हैं जैसे हमेशा से थे। इन लोगों का ख्याल था कि जब तक वे परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर लेंगे; जब तक वे परमेश्वर के कुछ वचनों का पाठ करते हैं और उसके वचनों पर दूसरों के साथ संगति करते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर लेंगे; जब तक वे कई शब्द और धर्म-सिद्धांत सुना सकते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर लेंगे; और जब तक वे धर्म-सिद्धांत को समझ सकते हैं और आत्म-नियंत्रण सीख सकते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर ही लेंगे। फलस्वरूप, सालों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी उनके जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आ पाया है, वे अनुभवजन्य गवाही नहीं दे सकते और इसलिए वे निरुत्तर हैं। सालों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी उनके हाथ खाली हैं और उन्होंने कोई सत्य प्राप्त नहीं किया है, इन सभी सालों में उन्होंने बेकार जीवन जीकर समय बर्बाद किया।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय, पतरस ने सिद्धांतों को समझने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया था और धार्मिक ज्ञान प्राप्त करने पर तो उसका ध्यान और भी केंद्रित नहीं था। इसके बजाय, उसने सत्य को समझने और परमेश्वर के इरादों को समझने पर, साथ ही परमेश्वर के स्वभाव और सुंदरता की समझ को प्राप्त करने पर ध्यान लगाया था। पतरस ने परमेश्वर के वचनों से मनुष्य की विभिन्न भ्रष्ट अवस्थाओं के साथ ही मनुष्य के प्रकृति सार तथा मनुष्य की वास्तविक कमियों को समझने का भी प्रयास किया, और इस प्रकार परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए आसानी से, उसकी अपेक्षाएँ पूरी कीं। पतरस के पास ऐसे बहुत से अभ्यास थे जो परमेश्वर के वचनों के अनुरूप थे। यह परमेश्वर के इरादों के सर्वाधिक अनुकूल था, और यह वो सर्वोत्त्म तरीका था जिससे कोई व्यक्ति परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए सहयोग कर सकता है। परमेश्वर द्वारा भेजे गए सैकड़ों परीक्षणों का अनुभव करते समय, पतरस ने परमेश्वर के न्याय और मनुष्य के प्रकाशन के परमेश्वर के प्रत्येक वचन और मनुष्य की उसकी माँगों के प्रत्येक वचन के विरुद्ध सख्ती से स्वयं की जाँच की, और उन वचनों के अर्थ को ठीक से जानने का पूरा प्रयास किया। उसने उस हर वचन पर विचार करने और याद करने की ईमानदार कोशिश की जो यीशु ने उससे कहे थे, और उसने बहुत अच्छे परिणाम प्राप्त किए। इस तरह अभ्यास करके, वह परमेश्वर के वचनों से स्वयं की समझ प्राप्त करने में सक्षम हो गया था, और वह न केवल मनुष्य की विभिन्न भ्रष्ट स्थितियों और कमियों को समझने लगा, बल्कि वह मनुष्य के सार और प्रकृति को भी समझने लगा। स्वयं को वास्तव में समझने का यही अर्थ है। परमेश्वर के वचनों से, पतरस ने न केवल स्वयं की सच्ची समझ प्राप्त की, बल्कि उसने परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, परमेश्वर का स्वरूप, परमेश्वर के अपने कार्य के लिए इरादे, मनुष्यजाति से परमेश्वर की माँगें भी देखीं। इन वचनों से उसने परमेश्वर को वास्तव में जाना। उसे परमेश्वर का स्वभाव और उसका सार पता चला; उसे परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान और समझ मिली, साथ ही परमेश्वर की मनोरमता और मनुष्य से परमेश्वर की माँगें पता चलीं। भले ही परमेश्वर ने उस समय उतना नहीं बोला, जितना आज वह बोलता है, किन्तु पतरस में इन पहलुओं में परिणाम उत्पन्न हुआ था। यह एक दुर्लभ और बहुमूल्य चीज़ थी। पतरस सैकड़ों परीक्षाओं से गुज़रा लेकिन उसका कष्ट सहना व्यर्थ नहीं हुआ। न केवल उसने परमेश्वर के वचनों और कार्यों से स्वयं को समझ लिया बल्कि उसने परमेश्वर को भी जान लिया। इसके साथ ही, उसने परमेश्वर के वचनों में समाविष्ट इंसानियत से उसकी सभी अपेक्षाओं पर विशेष ध्यान के साथ मन केंद्रित किया। परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होने के लिए मनुष्य को जिस भी पहलू से परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए, पतरस उन पहलुओं में पूरा प्रयास करने में और पूर्ण स्पष्टता प्राप्त करने में समर्थ रहा। ख़ुद उसके जीवन प्रवेश के लिए यह अत्यंत लाभकारी था। परमेश्वर ने चाहे जिस भी विषय में कहा, अगर वे वचन जीवन बनने में समर्थ थे और सत्य थे, तो पतरस उन्हें अपने हृदय में रचा-बसा लेता था ताकि अक्सर उन पर विचार कर सके और उन्हें समझ सके। यीशु के वचनों को सुनकर, वह उन्हें अपने हृदय में उतार सका, जिससे पता चलता है कि उसका ध्यान विशेष रूप से परमेश्वर के वचनों पर था, और अंत में उसने वास्तव में परिणाम प्राप्त कर लिये। अर्थात्, वह परमेश्वर के वचनों पर खुलकर व्यवहार कर सका, सत्य पर सही ढंग से अमल कर सका और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हो सका, पूरी तरह परमेश्वर की आकांक्षाओं के अनुसार कार्य कर सका, और अपने निजी मतों और कल्पनाओं का त्याग कर सका। इस तरह, पतरस परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर सका।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें
परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिए तुम्हें उसके न्याय और ताड़ना, उसकी काट-छाँट, परीक्षणों और शोधन का अनुभव करना चाहिए। परमेश्वर की सभी आवश्यकताओं का अभ्यास करना चाहिए, उनके भीतर प्रवेश कर उन्हें हासिल करना चाहिए। इसी को परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना कहते हैं। इसे अनुभव करने के लिए तुम्हें परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध स्थापित करना होगा, हमेशा समर्पित हृदय से परमेश्वर से प्रार्थना करनी होगी और उससे मदद माँगनी होगी। चाहे कुछ भी हो, तुम कितनी भी कठिनाइयों का सामना करो, तुम्हें परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए और उसकी ओर देखना चाहिए, उसके वचनों में उत्तर और रास्ता खोजना चाहिए, और हमेशा उसके साथ प्रार्थना और संगति करनी चाहिए। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का मतलब है उसके संपर्क में रहना और उसके वचनों और कार्य के लिए समर्पित होना, समस्या या कठिनाई आने पर प्रार्थना करना और उससे मदद माँगना। जब तुम्हें इस तरह का काफी अनुभव हो जाएगा, और तुम सत्य को समझ लोगे, तो तुम सीख चुके होगे कि घटित होने वाली चीजों पर परमेश्वर के वचनों को कैसे लागू किया जाए। परमेश्वर के वचन लागू करने के कई तरीके हैं, उदाहरण के लिए जब चीजें होती हैं तो प्रार्थना करना और मदद माँगना, और इस प्रकार से देखना कि कैसे परमेश्वर के वचन साफ-साफ बताते हैं कि लोगों को कैसे कार्य करना चाहिए, सिद्धांत क्या हैं, और लोगों के लिए परमेश्वर के इरादे और अपेक्षाएँ क्या हैं। जब तुम यह सब जानते हो, और परमेश्वर की इच्छाओं को समझते हो, तो तुम्हारे पास परमेश्वर के बारे में कुछ ज्ञान और परमेश्वर की कुछ समझ होगी। परीक्षणों का सामना करना पड़े तो तुम्हें यह खोजना चाहिए, “इतने बड़े परीक्षण के बारे में परमेश्वर का वचन क्या कहता है? परमेश्वर द्वारा लोगों की परीक्षा लेने का क्या अर्थ है? वह लोगों की परीक्षा क्यों लेना चाहता है?” परमेश्वर के वचन कहते हैं कि तुम भ्रष्ट हो, हमेशा विद्रोही और अवज्ञाकारी हो, और तुम उसके प्रति समर्पण नहीं करते हो, बल्कि हमेशा कल्पनाएँ और धारणाएँ रखते हो, और परमेश्वर तुम्हें परीक्षणों के माध्यम से शुद्ध करना चाहता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या अनुभव करते हो, उत्पीड़न और परीक्षण या काट-छाँट, अनुशासित और दंडित किया जाना, और चाहे परमेश्वर तुम्हारे लिए कैसा भी वातावरण तैयार करे या कोई भी तरीका इस्तेमाल करे, तुम्हें हमेशा परमेश्वर के वचनों में उत्तर और आधार की तलाश करनी चाहिए, और उसके इरादों और तुमसे अपेक्षाओं का पता लगाना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि चाहे कुछ भी हो, तुम्हें पहले यह सोचना चाहिए कि परमेश्वर ने क्या कहा है, वह लोगों से कैसे अभ्यास करवाना चाहता है, लोगों से उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं और उसके इरादे क्या हैं। इन बातों को समझो और तुम जान जाओगे कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे किया जाए।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर की संप्रभुता को कैसे जानें
परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते समय, चाहे तुम कितनी भी बार असफल हुए हो, गिरे हो, तुम्हारी काट-छाँट की गई हो या तुम प्रकट किए गए हो, ये बुरी चीजें नहीं हैं। भले ही तुम्हारी कैसे भी काट-छाँट की गई हो, चाहे किसी अगुआ या कार्यकर्ता ने किया हो या तुम्हारे भाई-बहनों ने, ये सब अच्छी चीजें होती हैं। तुम्हें यह बात याद रखनी चाहिए : चाहे तुम्हें कितना भी कष्ट हो, तुम्हें असल में इससे लाभ होता है। कोई भी अनुभव वाला व्यक्ति इसकी पुष्टि कर सकता है। चाहे कुछ भी हो जाए, काट-छाँट या प्रकट किया जाना हमेशा अच्छा होता है। यह कोई निंदा नहीं है। यह परमेश्वर का उद्धार है और तुम्हारे लिए स्वयं को जानने का सर्वोत्तम अवसर है। यह तुम्हारे जीवन-अनुभव में बदलाव ला सकता है। इसके बिना, तुम्हारे पास न तो अवसर होगा, न ही परिस्थिति, और न ही अपनी भ्रष्टता के सत्य की समझ तक पहुँचने में सक्षम होने के लिए कोई प्रासंगिक आधार होगा। अगर तुम सत्य को सचमुच समझते हो, और अपने दिल की गहराइयों में छिपी भ्रष्ट चीजों का पता लगाने में सक्षम हो, अगर तुम स्पष्ट रूप से उनकी पहचान कर सकते हो, तो यह अच्छी बात है, इससे जीवन-प्रवेश की एक बड़ी समस्या हल हो जाती है, और यह स्वभाव में बदलाव के लिए भी बहुत लाभदायक है। स्वयं को सही मायने में जानने में सक्षम होना, तुम्हारे लिए अपने तरीकों में बदलाव कर एक नया व्यक्ति बनने का सबसे अच्छा मौका है; तुम्हारे लिए यह नया जीवन पाने का सबसे अच्छा अवसर है। एक बार जब तुम सच में खुद को जान लोगे, तो तुम यह देख पाओगे कि जब सत्य किसी का जीवन बन जाता है, तो यह निश्चय ही अनमोल होता है, तुममें सत्य की प्यास होगी, तुम सत्य का अभ्यास करोगे और वास्तविकता में प्रवेश करोगे। यह कितनी बड़ी बात है! यदि तुम इस अवसर को थाम सको और ईमानदारी से मनन कर सको, तो कभी भी असफल होने या नीचे गिरने पर स्वयं के बारे में वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकते हो, तब तुम नकारात्मकता और कमज़ोरी में भी फिर से खड़े हो सकोगे। एक बार जब तुम इस सीमा को लांघ लोगे, तो फिर तुम एक बड़ा कदम उठा सकोगे और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे।
यदि तुम परमेश्वर के शासन में विश्वास करते हो, तो तुम्हें यह विश्वास करना होगा कि हर दिन जो भी अच्छा होता है या बुरा, वो यूँ ही नहीं होता। ऐसा नहीं है कि कोई जानबूझकर तुम पर सख्त हो रहा है या तुम पर निशाना साध रहा है; यह सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और आयोजित है। परमेश्वर इन चीज़ों को किस लिए आयोजित करता है? यह तुम्हारी वास्तविकता उजागर करने या तुम्हें प्रकट करके हटा देने के लिए नहीं है; तुम्हें प्रकट करना अंतिम लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य तुम्हें पूर्ण बनाना और बचाना है। परमेश्वर तुम्हें पूर्ण कैसे बनाता है? वह तुम्हें कैसे बचाता है? वह तुम्हें तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से अवगत कराने और तुम्हें तुम्हारे प्रकृति-सार, तुम्हारे दोषों और कमियों से अवगत कराने से शुरुआत करता है। उन्हें साफ तौर पर समझकर और जानकर ही तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो और धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर कर सकते हो। यह परमेश्वर का तुम्हें एक अवसर प्रदान करना है। यह परमेश्वर की दया है। तुम्हें यह जानना होगा कि इस अवसर को कैसे पाया जाए। तुम्हें परमेश्वर का विरोध नहीं करना चाहिए, उसके साथ लड़ाई में उलझना या उसे गलत नहीं समझना चाहिए। विशेष रूप से उन लोगों, घटनाओं और चीज़ों का सामना करते समय, जिनकी परमेश्वर तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है, सदा यह मत सोचो कि चीजें तुम्हारे मन के हिसाब से नहीं हैं; हमेशा उनसे बच निकलने की मत सोचो या परमेश्वर के बारे में शिकायत मत करो या उसे गलत मत समझो। अगर तुम लगातार ऐसा कर रहे हो तो तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर रहे हो, और इससे तुम्हारे लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। जब तुम ऐसी किसी चीज का सामना करो जिसे तुम समझ न पाओ, जब कोई समस्या आ जाए तो तुम्हें समर्पण करना सीखना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करनी चाहिए। इस तरह, इससे पहले कि तुम जान पाओ, तुम्हारी आंतरिक स्थिति में एक बदलाव आएगा और तुम अपनी समस्या को हल करने के लिए सत्य की तलाश कर पाओगे। इस तरह तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर पाओगे। जब ऐसा होगा तो, तुम्हारे भीतर सत्य वास्तविकता गढ़ी जायेगी, और इस तरह से तुम प्रगति करोगे और तुम्हारे जीवन की स्थिति का रूपांतरण होगा। एक बार जब ये बदलाव आएगा और तुममें यह सत्य वास्तविकता होगी, तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद होगा, और आध्यात्मिक कद के साथ जीवन आता है। यदि कोई हमेशा भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के आधार पर जीता है, तो फिर चाहे उसमें कितना ही उत्साह या ऊर्जा क्यों न हो, उसे आध्यात्मिक कद, या जीवन धारण करने वाला नहीं माना जा सकता है। परमेश्वर हर एक व्यक्ति में कार्य करता है, और इससे फर्क नहीं पड़ता है कि उसकी विधि क्या है, सेवा करने के लिए वो किस प्रकार के लोगों, घटनाओं या चीज़ों का प्रयोग करता है, या उसकी बातों का लहजा कैसा है, परमेश्वर का केवल एक ही अंतिम लक्ष्य होता है : तुम्हें बचाना। और वह तुम्हें कैसे बचाता है? वह तुम्हें बदलता है। तो तुम थोड़ी-सी पीड़ा कैसे नहीं सह सकते? तुम्हें पीड़ा तो सहनी होगी। इस पीड़ा में कई चीजें शामिल हो सकती हैं। सबसे पहले तो, जब लोग परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार हैं, तो उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। जब परमेश्वर के वचन बहुत कठोर और मुखर होते हैं और लोग परमेश्वर के वचनों की गलत व्याख्या करते हैं—और धारणाएँ भी रखते हैं—तो यह भी पीड़ाजनक हो सकता है। कभी-कभी परमेश्वर लोगों की भ्रष्टता प्रकट करने के लिए, और उनसे चिंतन करवाने के लिए कि वे खुद को समझें, उनके आसपास एक परिवेश बना देता है, और तब उन्हें कुछ पीड़ा भी होती है। कई बार जब लोगों की सीधे काट-छाँट कर उन्हें उजागर किया जाता है, तब उन्हें पीड़ा सहनी ही चाहिए। यह ऐसा है, जैसे उनका कोई ऑपरेशन हो रहा हो—अगर कोई कष्ट नहीं होगा, तो कोई प्रभाव भी नहीं होगा। यदि हर बार जब तुम्हारी काट-छाँट की जाती है और हर बार जब तुम किसी परिवेश द्वारा प्रकट किए जाते हो, यह तुम्हारी भावनाओं को जगाता और तुम्हें बढ़ावा देता है, तो इस प्रक्रिया के माध्यम से तुम सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करोगे और तुम्हारा आध्यात्मिक कद होगा। यदि, हर बार काटे-छांटे जाने और किसी परिवेश द्वारा प्रकट किए जाने पर, तुम्हें थोड़ी-भी पीड़ा या असुविधा महसूस नहीं होती और कुछ भी महसूस नहीं होता, यदि तुम परमेश्वर के इरादे खोजने उसके सामने नहीं आते, न प्रार्थना करते हो, न ही सत्य की खोज करते हो, तब तुम वास्तव में बहुत संवेदनहीन हो! यदि तुम्हारी आत्मा को कुछ महसूस नहीं होता, यदि इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, तो परमेश्वर तुममें कार्य नहीं करता। परमेश्वर कहेगा, “यह व्यक्ति ज़्यादा ही संवेदनहीन है, और बहुत गहराई से भ्रष्ट किया गया है। मैं चाहे जैसे उसे अनुशासित करूँ, उसकी काट-छाँट करूँ या उसे नियंत्रण में रखने की कोशिश करूँ, फिर भी मैं अभी तक उसके दिल को प्रेरित नहीं कर पाया हूँ, न ही मैं उसकी आत्मा को जगा पाया हूँ। यह व्यक्ति परेशानी में पड़ेगा; इसे बचाना आसान न होगा।” यदि परमेश्वर तुम्हारे लिए विशेष परिवेशों, लोगों, घटनाओं और चीज़ों की व्यवस्था करता है, यदि वह तुम्हारी काट-छाँट करता है और यदि तुम इससे सबक सीखते हो, यदि तुमने परमेश्वर के सामने आना सीख लिया है, तुमने सत्य की तलाश करना सीख लिया है, अनजाने में, प्रबुद्ध और रोशन हुए हो और तुमने सत्य को प्राप्त कर लिया है, यदि तुमने इन परिवेशों में बदलाव का अनुभव किया है, पुरस्कार प्राप्त किए हैं और प्रगति की है, यदि तुम परमेश्वर के इरादे की थोड़ी-सी समझ प्राप्त करना शुरू कर देते हो और शिकायत करना बंद कर देते हो, तो इन सबका मतलब यह होगा कि तुम इन परिवेशों के परीक्षण के बीच में अडिग रहे हो, और तुमने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। इस तरह से तुमने इस कठिन परीक्षा को पार कर लिया होगा। इम्तिहान में खरे उतरने वालों को परमेश्वर किस नजर से देखेगा? परमेश्वर कहेगा कि उनका हृदय सच्चा है और वे इस तरह का कष्ट सहन कर सकते हैं, और अंतर्मन में वे सत्य से प्रेम करते हैं और सत्य को पाना चाहते हैं। अगर परमेश्वर का तुम्हारे बारे में ऐसा आकलन है, तो क्या तुम कद-काठी वाले नहीं हो? क्या इसका मतलब यह है कि अब इसमें जीवन है? और यह जीवन कैसे प्राप्त हुआ है? क्या यह परमेश्वर द्वारा प्रदत्त है? परमेश्वर तुम्हें कई तरह से आपूर्ति करता है और तुम्हें प्रशिक्षित करने के लिए विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का इस्तेमाल करता है। यह बिल्कुल ऐसा जैसे परमेश्वर खुद तुम्हें भोजन और जल प्रदान कर रहा हो, खुद खाने की विभिन्न वस्तुएँ तुम तक पहुँचा रहा हो ताकि तुम पेट भरकर खाओ और आनंदित रहो; तभी तुम मजबूती से खड़े हो सकते हो। इसी तरह से तुम्हें चीजों का अनुभव करना और समझना चाहिए; इसी तरह से तुम्हें परमेश्वर के पास से आने वाली हर चीज के प्रति समर्पित होना चाहिए। तुम्हारे पास इसी प्रकार की मनोदशा और रवैया होना चाहिए, और तुम्हें सत्य को खोजना सीखना चाहिए। तुम्हें अपनी परेशानियों के लिए हमेशा बाहरी कारण नहीं खोजते रहना चाहिए और दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए, न ही लोगों में गलतियाँ खोजनी चाहिए; तुम्हें परमेश्वर के इरादों की स्पष्ट समझ होनी चाहिए। बाहर से, ऐसा लग सकता है कि कुछ लोगों की तुम्हारे बारे में धारणाएँ हैं या पूर्वाग्रह हैं, लेकिन तुम्हें इस रूप में चीज़ों को नहीं देखना चाहिए। अगर तुम इस तरह के दृष्टिकोण से चीजों को देखोगे, तो तुम केवल बहाने बनाओगे, और तुम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकोगे। तुम्हें चीजों को वस्तुगत ढंग से देखना चाहिए; और परमेश्वर से सब कुछ स्वीकार करना चाहिए। जब तुम चीजों को इस तरीके से देखते हो तो तुम्हारे लिए परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करना आसान हो जाता है, और तुम सत्य को पाने और परमेश्वर के इरादे समझने में सक्षम हो जाते हो। जब तुम्हारे दृष्टिकोण और मनोदशा का परिशोधन हो जाएगा, तब तुम सत्य को प्राप्त कर सकोगे। तो, तुम ऐसा कर क्यों नहीं देते? तुम प्रतिरोध क्यों करते हो? अगर तुम प्रतिरोध करना बंद कर दोगे, तुम सत्य को प्राप्त कर लोगे। अगर तुम प्रतिरोध करोगे, तब तुम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकोगे, और तुम परमेश्वर की भावनाओं को चोट पहुंचाओगे और उसे निराश करोगे। परमेश्वर क्यों निराश होगा? क्योंकि तुम सत्य नहीं स्वीकारते, तुम्हें उद्धार की कोई आशा नहीं होती, और परमेश्वर तुम्हें ग्रहण नहीं कर पाता, तो वह निराश कैसे नहीं होगा? जब तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते हो तो यह खुद परमेश्वर द्वारा तुम्हें परोसे गए भोजन को दूर हटाने के समान होता है। तुम कहते हो कि तुम्हें भूख नहीं है और तुम्हें इसकी जरूरत नहीं है; परमेश्वर तुम्हें खाने के लिए बार-बार प्रोत्साहित करने की कोशिश करता है, लेकिन तुम फिर भी खाना नहीं चाहते। इसके बजाय तुम भूखे रहना पसंद करोगे। तुम सोचते हो कि तुम्हारा पेट भरा है, जबकि वास्तव में तुम्हारे पास बिल्कुल कुछ भी नहीं है। ऐसे लोगों में विवेक का बहुत अभाव होता है, और वे बहुत दंभी होते हैं; कोई अच्छी देखकर वे पहचान नहीं पाते कि वह अच्छी है, वे सभी लोगों में सबसे अधिक दरिद्र और दयनीय होते हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए
लोगों का भ्रष्ट स्वभाव उनकी कथनी-करनी के पीछे इरादों में, चीजों को लेकर उनके दृष्टिकोण में, उनके हर विचार और ख्याल में, और सत्य, परमेश्वर और परमेश्वर के कार्य के प्रति उनके विचारों, समझ, धारणाओं, दृष्टिकोण, इच्छाओं और माँगों में छिपा होता है। लोगों को पता भी नहीं चलता और यह उनकी कथनी-करनी से प्रकट होने लगता है। तो फिर परमेश्वर लोगों के अंदर की इन चीजों को कैसे ठीक करता है? वह तुम्हें उजागर करने के लिए विभिन्न परिवेशों की व्यवस्था करता है। वह न केवल तुम्हें उजागर करेगा, बल्कि तुम्हारा न्याय भी करेगा। जब तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करते हो, जब तुम्हारे मन में ऐसे विचार और ख्याल आते हैं जो परमेश्वर की अवहेलना करते हैं, जब तुम्हारी स्थितियाँ और दृष्टिकोण ऐसे होते हैं जो परमेश्वर से वाद-विवाद करते हैं, जब तुम्हारी ऐसी स्थिति होती है जहाँ तुम परमेश्वर को गलत समझते हो, या उसका प्रतिरोध और विरोध करते हो, तब परमेश्वर तुम्हें फटकारेगा, तुम्हारा न्याय करेगा और तुम्हें ताड़ना देगा, और वह कभी-कभी तुम्हें अनुशासित और दंडित भी करेगा। तुम्हें अनुशासित करने और फटकारने का क्या उद्देश्य है? (हमसे पश्चात्ताप कराना और हमें बदलना।) बिल्कुल, इसका मकसद तुमसे पश्चात्ताप कराना है। तुम्हें अनुशासित करने और फटकारने का नतीजा यह होता है कि इसके कारण तुम अपना रास्ता बदल देते हो। इसका उद्देश्य तुम्हें यह समझाना है कि तुम्हारे विचार मनुष्य की धारणाएँ हैं, और वे गलत हैं; तुम्हारी प्रेरणाएँ शैतान से पैदा होती हैं, वे मनुष्य की इच्छा से उत्पन्न होती हैं, वे सत्य के अनुरूप नहीं होतीं, वे परमेश्वर से मेल नहीं खातीं, वे परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट नहीं कर सकतीं, वे परमेश्वर के लिए घृणित और कुत्सित हैं, वे उसके क्रोध को भड़काती हैं, यहाँ तक कि उसके शाप को भी जगा देती हैं। इसे समझने के बाद तुम्हें अपनी प्रेरणाएँ और रवैया बदलना पड़ता है। और वे कैसे बदलते हैं? सबसे पहले, तुम्हें परमेश्वर के तुम्हारे साथ व्यवहार करने के तरीके के प्रति, और उन परिवेशों, लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति समर्पित होना चाहिए, जिन्हें वह तुम्हारे लिए निर्धारित करता है; छिद्रान्वेषण मत करो, वस्तुपरक बहाने मत बनाओ, और अपनी जिम्मेदारियों से न भागो। दूसरे, उस सत्य की तलाश करो जिसका लोगों को अभ्यास करना चाहिए, और तब प्रवेश करो जब वह अपना कार्य करता है। परमेश्वर चाहता है कि तुम इन चीजों को समझो। वो चाहता है कि तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों और शैतानी सार को पहचानो, तुम उन परिवेशों के प्रति समर्पण करने योग्य बनो जिनकी परमेश्वर तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है और अंततः, तुम उसके इरादों और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास कर सको। तब तुमने परीक्षा पार कर ली होगी।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सच्चे समर्पण से ही व्यक्ति असली भरोसा रख सकता है
परमेश्वर में अपने विश्वास में, पतरस ने प्रत्येक चीज में परमेश्वर को संतुष्ट करने की चेष्टा की थी, और उस सबके प्रति समर्पण करने की चेष्टा की थी जो परमेश्वर से आया था। रत्ती भर शिकायत के बिना, वह ताड़ना और न्याय, साथ ही शुद्धिकरण, घोर पीड़ा और अपने जीवन की वंचनाओं को स्वीकार कर पाता था, जिनमें से कुछ भी उसके परमेश्वर-प्रेमी हृदय को बदल नहीं सका था। क्या यह परमेश्वर के प्रति सर्वोत्तम प्रेम नहीं था? क्या यह सृजित प्राणी के कर्तव्य की पूर्ति नहीं थी? चाहे ताड़ना में हो, न्याय में हो, या घोर पीड़ा में हो, तुम मृत्युपर्यंत समर्पण प्राप्त करने में सदैव सक्षम होते हो, और यह वह है जो सृजित प्राणी को प्राप्त करना चाहिए, यह परमेश्वर के प्रति प्रेम की शुद्धता है। यदि मनुष्य इतना अधिक प्राप्त कर सकता है, तो वह गुणसंपन्न सृजित प्राणी है, और सृष्टिकर्ता के इरादों को पूरा करने के लिए इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता है। कल्पना करो कि तुम परमेश्वर के लिए कार्य कर पाते हो, किंतु तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते हो और परमेश्वर से सच्चे अर्थ में प्रेम करने में असमर्थ हो। इस तरह, तुमने न केवल सृजित प्राणी के अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं किया होगा, बल्कि तुम्हें परमेश्वर द्वारा निंदित भी किया जाएगा, क्योंकि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से युक्त नहीं है, जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में असमर्थ है, और जो परमेश्वर से विद्रोह करता है। तुम केवल परमेश्वर के लिए कार्य करने की परवाह करते हो, और सत्य को अभ्यास में लाने, या स्वयं को जानने की परवाह नहीं करते हो। तुम सृष्टिकर्ता को समझते या जानते नहीं हो, और सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण या उससे प्रेम नहीं करते हो। तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के प्रति स्वाभाविक रूप से विद्रोही है, और इसलिए ऐसे लोग सृष्टिकर्ता के प्रिय नहीं हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है
जब पतरस को परमेश्वर द्वारा ताड़ना दी जा रही थी, तो उसने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मेरी देह विद्रोही है, और तू मुझे ताड़ना देकर मेरा न्याय कर रहा है। मैं तेरी ताड़ना और न्याय से खुश हूँ, अगर तू मुझे न भी चाहे, तो भी मैं तेरे न्याय में तेरा पवित्र और धार्मिक स्वभाव देखता हूँ। जब तू मेरा न्याय करता है, ताकि अन्य लोग तेरे न्याय में तेरा धार्मिक स्वभाव देख सकें, तो मैं संतुष्टि का एहसास करता हूँ। अगर यह तेरा धार्मिक स्वभाव प्रकट कर सके, सभी सृजित प्राणी तेरा धार्मिक स्वभाव देख सकें, और अगर यह तेरे लिए मेरे प्रेम को और शुद्ध बना सके ताकि मैं एक धार्मिक व्यक्ति की तरह बन सकूँ, तो तेरा न्याय अच्छा है, क्योंकि तेरी सदिच्छा ऐसी ही है। मैं जानता हूँ कि अभी भी मेरे भीतर बहुत कुछ ऐसा है जो विद्रोही है, और मैं अभी भी तेरे सामने आने के योग्य नहीं हूँ। मैं चाहता हूँ कि तू मेरा और भी अधिक न्याय करे, चाहे क्रूर वातावरण के जरिए करे या घोर क्लेश के जरिए; तू मेरा न्याय कैसे भी करे, यह मेरे लिए बहुमूल्य है। तेरा प्यार बहुत गहरा है, और मैं बिना कोई शिकायत किए स्वयं को तेरे आयोजन पर छोड़ने को तैयार हूँ।” यह परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर लेने के बाद का पतरस का ज्ञान है, यह परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम की गवाही भी है। आज, तुम लोगों को पहले से ही जीत लिया गया है—पर यह जीत तुम लोगों में किस प्रकार प्रकट होती है? कुछ लोग कहते हैं, “मेरी जीत परमेश्वर का सर्वोच्च अनुग्रह और उत्कर्ष है। अब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मनुष्य का जीवन खोखला और निरर्थक है। मनुष्य पीढ़ी दर पीढ़ी संतान पैदा करता है, उसकी परवरिश करता है, और भागदौड़ करके जीवन बिताता है, और अंत में उसे कुछ हासिल नहीं होता। आज, परमेश्वर द्वारा जीत लिए जाने के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि इस तरह जीने का कोई मूल्य नहीं है; यह सचमुच ही एक अर्थहीन जीवन है। ऐसे ही मैं मर भी जाऊँगा और सब कुछ खत्म हो जाएगा!” ऐसे लोग जिन पर विजय पाई जा चुकी है, क्या उन्हें परमेश्वर के द्वारा ग्रहण किया जा सकता है? क्या वे आदर्श और मिसाल बन सकते हैं? ऐसे लोग नकारात्मकता की मिसाल हैं; उनकी कोई आकांक्षाएँ नहीं हैं, न ही वे अपने-आपको सुधारने के लिए कोई मेहनत करते हैं। हालाँकि वे ऐसा समझते हैं कि उन पर विजय पा ली गई है, लेकिन ऐसे नकारात्मक लोग पूर्ण बनाए जाने के काबिल नहीं होते। पूर्ण बना दिए जाने पर, अपने जीवन के आखिरी पलों में, पतरस ने कहा “हे परमेश्वर! यदि मैं कुछ वर्ष और जीवित रहता, तो मैं तेरे और ज्यादा शुद्ध और गहरे प्रेम को हासिल करने की कामना करता।” जब उसे क्रूस पर चढ़ाया जा रहा था, तो उसने मन ही मन प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! अब तेरा समय आ गया है, तूने मेरे लिए जो समय तय किया था वह आ गया है। मुझे तेरे लिए क्रूस पर चढ़ना चाहिए, मुझे तेरे लिए यह गवाही देनी चाहिए, मुझे उम्मीद है मेरा प्रेम तेरी अपेक्षाओं को संतुष्ट करेगा, और यह और ज्यादा शुद्ध बन सकेगा। आज, तेरे लिए मरने में सक्षम होने और क्रूस पर चढ़ने से मुझे तसल्ली मिल रही है और मैं आश्वस्त हो रहा हूँ, क्योंकि तेरे लिए क्रूस पर चढ़ने में सक्षम होने और तेरी इच्छाओं को संतुष्ट करने, स्वयं को तुझे सौंपने और अपने जीवन को तेरे लिए अर्पित करने में सक्षम होने से बढ़कर कोई और बात मुझे तृप्त नहीं कर सकती। हे परमेश्वर! तू कितना प्यारा है! यदि तू मुझे और जीवन बख्श देता, तो मैं तुझसे और भी अधिक प्रेम करना चाहता। मैं आजीवन तुझसे प्रेम करूँगा, मैं तुझसे और गहराई से प्रेम करना चाहता हूँ। तू मेरा न्याय करता है, मुझे ताड़ना देता है, और मेरी परीक्षा लेता है क्योंकि मैं धार्मिक नहीं हूँ, क्योंकि मैंने पाप किया है। और तेरा धार्मिक स्वभाव मेरे लिए और अधिक स्पष्ट होता जाता है। यह मेरे लिए एक आशीष है, क्योंकि मैं तुझे और भी अधिक गहराई से प्रेम कर सकता हूँ, अगर तू मुझसे प्रेम न भी करे तो भी मैं तुझसे इसी तरह से प्रेम करने को तैयार हूँ। मैं तेरे धार्मिक स्वभाव को देखने की इच्छा करता हूँ, क्योंकि यह मुझे अर्थपूर्ण जीवन जीने के और ज्यादा काबिल बनाता है। मुझे लगता है कि अब मेरा जीवन और भी अधिक सार्थक हो गया है, क्योंकि मैं तेरे लिए क्रूस पर चढ़ा हूँ, और तेरे लिए मरना सार्थक है। फिर भी मुझे अब तक संतुष्टि का एहसास नहीं हुआ है, क्योंकि मैं तेरे बारे में बहुत थोड़ा जानता हूँ, मैं जानता हूँ कि मैं तेरी इच्छाओं को संपूर्ण रूप से पूरा नहीं कर सकता, और मैंने बदले में तुझे बहुत ही कम लौटाया है। मैं अपने जीवन में तुझे अपना सब कुछ नहीं लौटा पाया हूँ; मैं इससे बहुत दूर हूँ। इस घड़ी पीछे मुड़कर देखते हुए, मैं तेरा बहुत ऋणी महसूस करता हूँ, और अपनी सारी गलतियों की भरपाई करने और सारे बकाया प्रेम को चुकाने के लिए मेरे पास यही एक घड़ी है।”
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परमेश्वर मनुष्य का न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है क्योंकि यह उसके कार्य की मांग है, और मनुष्य को इसकी आवश्यकता भी है। मनुष्य को ताड़ना दिए जाने और उसका न्याय किए जाने की आवश्यकता है, तभी वह परमेश्वर से प्रेम कर सकता है। आज, तुम लोग पूरी तरह से आश्वस्त हो चुके हो, लेकिन जैसे ही थोड़ी-सी मुश्किल आती है, तो तुम परेशान हो जाते हो; तुम्हारा आध्यात्मिक कद अभी भी बहुत छोटा है, और गहरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए तुम लोगों को अभी भी ऐसी ताड़ना और न्याय का अनुभव करने की आवश्यकता है। आज, तुम लोगों के पास थोड़ा-बहुत परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है, और तुम परमेश्वर से डरते हो, और जानते हो कि वह सच्चा परमेश्वर है, परंतु तुम लोगों में उसके लिए प्रगाढ़ प्रेम नहीं है, और तुमने उससे शुद्ध प्रेम तो किया ही नहीं है; तुम लोगों का ज्ञान बहुत ही सतही है, और तुम्हारा आध्यात्मिक कद अभी भी नाकाफी है। जब तुम लोग सचमुच किसी स्थिति का सामना करते हो, तो तुम अब तक गवाही नहीं दे सके हो, तुम्हारा प्रवेश बहुत कम सक्रिय है, और तुममें अभ्यास करने की कोई समझ नहीं है। अधिकतर लोग निष्क्रिय और सुस्त होते हैं; वे केवल गुप्त रूप से अपने हृदय में परमेश्वर से प्रेम करते हैं, किंतु उनके पास अभ्यास का कोई तरीका नहीं होता, न ही वे अपने लक्ष्यों को लेकर स्पष्ट होते हैं। पूर्ण बनाए गए लोगों में न केवल सामान्य मानवता होती है, बल्कि उनमें ऐसे सत्य होते हैं जो चेतना के मापदंडों से बढ़कर होते हैं, और जो चेतना के मानकों से ऊँचे हैं; वे परमेश्वर के प्रेम का प्रतिफल देने के लिए न केवल अपनी चेतना का इस्तेमाल करते हैं, बल्कि, वे परमेश्वर को जान चुके होते हैं, यह देख चुके होते हैं कि परमेश्वर प्रिय है, वह मनुष्य के प्रेम के योग्य है, परमेश्वर में प्रेम करने योग्य इतना कुछ है कि मनुष्य उसे प्रेम किए बिना नहीं रह सकता! वे लोग जिन्हें पूर्ण बनाया जा चुका है उनका परमेश्वर के लिए प्रेम उनकी व्यक्तिगत आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए है। उनका प्रेम स्वैच्छिक है, एक ऐसा प्रेम जो बदले में कुछ भी नहीं चाहता, और जो सौदेबाज़ी नहीं है। परमेश्वर से उनके प्रेम का कारण उसके बारे में उनके ज्ञान को छोड़कर और कुछ भी नहीं है। ऐसे लोग यह परवाह नहीं करते कि परमेश्वर उन पर अनुग्रह करेगा कि नहीं, और वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के सिवा और किसी भी चीज से तृप्त नहीं होते हैं। वे परमेश्वर से मोल-भाव नहीं करते, न ही वे परमेश्वर के प्रति अपने प्रेम को चेतना से मापते हैं : “तुमने मुझे दिया है, तो उसके बदले में मैं तुमसे प्रेम करता हूँ; यदि तुम मुझे कुछ नहीं देते, तो बदले में मेरे पास भी तुम्हेँ देने के लिए कुछ नहीं है।” जिन्हें पूर्ण बनाया गया है, वे हमेशा यह विश्वास करते हैं : “परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और वह हम पर अपना कार्य करता है। चूँकि मेरे पास पूर्ण बनाए जाने का यह अवसर, परिस्थिति और योग्यता है, इसीलिए एक अर्थपूर्ण जीवन बिताना ही मेरा लक्ष्य होना चाहिए, और मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए।” यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा पतरस ने अनुभव किया था : जब वह सबसे कमजोर स्थिति में था, तब उसने प्रार्थना की और कहा, “हे परमेश्वर! तू जानता है कि समय और स्थान चाहे कोई भी हो, मुझे हमेशा तुम्हारी याद आती है। तू जानता है कि चाहे कोई भी समय और स्थान हो, मैं तुझसे प्रेम करना चाहता हूँ, परंतु मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, मैं बहुत कमजोर और शक्तिहीन हूँ, मेरा प्रेम बहुत सीमित है, और तेरे प्रति मेरी सत्यनिष्ठा बहुत कम है। तेरे प्रेम की तुलना में, मैं जीने के योग्य भी नहीं हूँ। मैं केवल यही कामना करता हूँ कि मेरा जीवन व्यर्थ न हो, और मैं न केवल तेरे प्रेम का प्रतिफल दे सकूँ, बल्कि, इसके अतिरिक्त जो कुछ भी मेरे पास है वह सब तुझे समर्पित कर सकूँ। यदि मैं तुझे संतुष्ट कर सकूँ, तो एक सृजित प्राणी के नाते, मेरे मन में शांति होगी, और मैं कुछ और नहीं मांगूंगा। यद्यपि अभी मैं कमजोर और शक्तिहीन हूँ, फिर भी मैं तेरे उपदेशों को नहीं भूलूंगा, और मैं तेरे प्रेम को नहीं भूलूंगा। अभी तो मैं बस तेरे प्रेम का प्रतिफल देने के सिवा कुछ और नहीं कर रहा हूँ। हे परमेश्वर, मुझे बहुत बुरा लग रहा है! मेरे हृदय में तेरे लिए जो प्रेम है उसे मैं तुझे वापस कैसे लौटा सकता हूँ, मेरी क्षमता में जो भी है उसे मैं कैसे कर सकता हूँ, मैं तेरी इच्छाओं को पूरा करने के योग्य कैसे बन सकता हूँ, और जो कुछ भी मेरे पास है, वह सब कुछ तुझे भेंट चढ़ाने के योग्य कैसे बन सकता हूँ? तू मनुष्य की कमजोरी को जानता है; मैं तेरे प्रेम के काबिल कैसे हो सकता हूँ? हे परमेश्वर! तू जानता है कि मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, मेरा प्रेम बहुत थोड़ा-सा है। इस प्रकार की परिस्थितियों में मैं अपनी क्षमतानुसार सर्वोत्तम कार्य कैसे कर सकता हूँ? मैं जानता हूँ कि मुझे तेरे प्रेम का प्रतिफल देना चाहिए, मैं जानता हूँ कि मुझे वह सब कुछ देना चाहिए जो मेरे पास है, परंतु आज मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। मैं तुझसे विनती करता हूँ कि तू मुझे सामर्थ्य और आत्मविश्वास दे, जिससे तुझे अर्पित करने के लिए मैं और अधिक शुद्ध प्रेम को प्राप्त करने के काबिल हो जाऊँ, और जो कुछ भी मेरे पास है, वह सब कुछ अर्पित कर पाऊँ; न केवल मैं तेरे प्रेम का प्रतिफल देने के योग्य हो जाऊँगा, बल्कि तेरी ताड़ना, न्याय और परीक्षणों, यहाँ तक कि कठिन अभिशापों का भी अनुभव करने के योग्य हो जाऊँगा। तूने मुझे अपना प्रेम दिखा दिया, और मैं ऐसा नहीं कर सकता कि तुझसे प्रेम न करूँ। आज भले ही मैं कमजोर और शक्तिहीन हूँ, फिर भी मैं तुझे कैसे भूल सकता हूँ? तेरे प्रेम, ताड़ना और न्याय से मैंने तुझे जाना है, फिर भी तेरे प्रेम की पूर्ति करने में मैं खु़द को असमर्थ पा रहा हूँ, क्योंकि तू महान है। जो कुछ मेरे पास है, वह सब-कुछ मैं सृष्टिकर्ता को कैसे अर्पित कर सकता हूँ?” पतरस की विनती ऐसी थी, फिर भी उसका आध्यात्मिक कद बहुत मामूली था। उस क्षण, उसने ऐसा महसूस किया मानो एक कटार उसके हृदय के आर-पार हो गई हो। वह अत्यंत दुखी था; वह नहीं जानता था कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए। फिर भी वह लगातार प्रार्थना करता रहा : “हे परमेश्वर! मनुष्य का आध्यात्मिक कद एक बच्चे जैसा है, उसकी चेतना बहुत कमजोर है, और तेरा प्रेम ही एकमात्र ऐसी चीज है जिसका प्रतिफल मैं दे सकता हूँ। आज, मैं नहीं जानता कि तेरे इरादों को कैसे पूरा करूँ, और मैं बस वह सब करना चाहता हूँ जो मैं कर सकता हूँ, वह सब तुझे देना चाहता हूँ जो मेरे पास है और अपना सब-कुछ तुझे अर्पित कर देना चाहता हूँ। तेरे न्याय के बावजूद, तेरी ताड़नाओं के बावजूद, इसके बावजूद कि तू मुझे क्या देता है, इसके बावजूद कि तू मुझसे क्या ले लेता है, मुझे तेरे प्रति जरा-सी भी शिकायत से मुक्त कर दे। कई बार, जब तूने मुझे ताड़ना दी और मेरा न्याय किया, तो मैं मन ही मन भुनभुनाया करता था, और मैं शुद्ध नहीं हो पाता था या तेरी इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाता था। मैंने मजबूरी में ही तेरे प्रेम का प्रतिफल दिया था, और इस क्षण मैं अपने-आपसे और भी अधिक नफरत कर रहा हूँ।” चूँकि पतरस परमेश्वर से अधिक शुद्ध प्रेम करने का प्रयास कर रहा था, इसलिए उसने ऐसी प्रार्थना की थी। वह खोज रहा था, और विनती कर रहा था, उससे भी बढ़कर, वह खुद को दोष दे रहा था, परमेश्वर के सामने अपने पापों को स्वीकार कर रहा था। उसने महसूस किया कि वह परमेश्वर का ऋणी है, उसे अपने-आपसे नफरत होने लगी, लेकिन वह थोड़ा उदास और निराश भी था। उसे हमेशा ऐसा महसूस होता था, मानो वह परमेश्वर के इरादों पर खरा नहीं उतरता और वह अपना सर्वोत्तम देने में असमर्थ है। ऐसी स्थितियों में, पतरस ने अय्यूब के विश्वास का ही अनुसरण किया। उसने देखा था कि अय्यूब का विश्वास कितना बड़ा था, क्योंकि अय्यूब ने जान लिया था कि उसका सब कुछ परमेश्वर का दिया हुआ है, और अगर परमेश्वर सब कुछ वापस ले लेता है तो यह स्वाभाविक ही है, परमेश्वर जिसको चाहेगा उसको देगा—ऐसा था परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव। अय्यूब ने कोई शिकायत नहीं की थी, और वह तब भी परमेश्वर की स्तुति कर रहा था। पतरस भी अपने-आपको जानता था, उसने मन ही मन प्रार्थना की, “आज अपनी चेतना का इस्तेमाल करके और तेरे प्रेम का बदला चुका कर मुझे संतुष्ट नहीं होना चाहिए, मैं तुझे चाहे जितना प्रेम वापस लौटाऊँ उससे भी मुझे संतुष्ट नहीं होना चाहिए, क्योंकि मेरे विचार बहुत ही भ्रष्ट हैं, और मैं तुझे सृष्टिकर्ता के रूप में देख पाने में असमर्थ हूँ। क्योंकि मैं अभी भी तुझसे प्रेम करने योग्य नहीं हूँ, मुझे वह योग्यता हासिल करनी होगी जिससे मेरे पास जो भी है, वह सब कुछ मैं तुझे अर्पित कर सकूँ, और खुशी से, मुझे वह सब कुछ जानना होगा जो तूने किया है, और मेरे अपने कोई विकल्प नहीं चुनुँगा, मुझे तेरे प्रेम को देखना होगा, मुझे तेरी स्तुति करने और तेरे पवित्र नाम का गुणगान करने के योग्य होना होगा, ताकि तू मेरे जरिए महान महिमा प्राप्त कर सके। मैं तेरी इस गवाही में मजबूती के साथ खड़ा होने को तैयार हूँ। हे परमेश्वर! तेरा प्रेम कितना बहुमूल्य और सुंदर है; मैं उस दुष्ट के हाथों में जीने की कामना कैसे कर सकता था? क्या मुझे तूने नहीं बनाया था? मैं शैतान की सत्ता के अधीन कैसे रह सकता था? मैं अपने समूचे अस्तित्व के साथ तेरी ताड़नाओं में रहना अधिक पसंद करूंगा। मैं उस दुष्ट की सत्ता के अधीन नहीं जीना चाहता। यदि मुझे पवित्र बनाया जा सके और यदि मैं अपना सब कुछ तुझे अर्पित कर सकूँ, तो मैं अपना तन-मन तेरे न्याय और ताड़ना की भेंट चढ़ाने को तैयार हूँ, क्योंकि मैं शैतान से घृणा करता हूँ, मैं उसकी सत्ता के अधीन जीवन बिताने को तैयार नहीं हूँ। मेरा न्याय करके तू अपना धार्मिक स्वभाव दर्शाता है; मैं खुश हूँ, और मुझे जरा-सी भी शिकायत नहीं है। यदि मैं एक सृजित प्राणी होने का कर्तव्य निभा सकूँ, तो मैं तैयार हूँ कि मेरा संपूर्ण जीवन तेरे न्याय से जुड़ जाए, जिसके जरिए मैं तेरे धार्मिक स्वभाव को जान पाऊँगा, और शैतान के प्रभाव से अपने-आपको छुड़ा पाऊँगा।” पतरस ने हमेशा इस प्रकार प्रार्थना की, हमेशा इस प्रकार ही खोज की, और सापेक्ष रूप से कहें तो, वह एक ऊँचे आयाम पर पहुँच गया। वह न केवल परमेश्वर के प्रेम का प्रतिफल दे पाया, बल्कि उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उसने एक सृजित प्राणी के तौर पर भी अपना कर्तव्य निभाया। न केवल उसकी चेतना ने उसे दोषी नहीं ठहराया, बल्कि वह चेतना के मानकों से भी ऊँचा उठ सका। उसकी प्रार्थनाएँ लगातार ऊपर परमेश्वर के सामने पहुँचती रहीं, कुछ इस तरह कि उसकी आकांक्षाएँ और भी ऊँची हो गईं, और उसका परमेश्वर-प्रेमी हृदय निरंतर बढ़ता गया। यद्यपि उसने भयानक पीड़ा सही, फिर भी वह परमेश्वर से प्रेम करना नहीं भूला, और फिर भी उसने परमेश्वर के इरादों को समझने की क्षमता प्राप्त करने का प्रयास किया। अपनी प्रार्थनाओं में उसने ये बातें कहीं : “तेरे प्रेम का प्रतिफल देने के अलावा मैंने और कुछ नहीं किया है। मैंने शैतान के सामने तेरे लिए गवाही नहीं दी है, मैंने अपने-आपको शैतान के प्रभाव से आजाद नहीं किया है, और मैं अब भी देह की इच्छाओं में ही जी रहा हूँ। मैं अपने प्रेम का इस्तेमाल करके शैतान को हराने की, उसे लज्जित करने की और इस प्रकार तेरे इरादे पूरे करने की कामना कर रहा हूँ। मैं तुझे अपना सर्वस्व अर्पित करना चाहता हूँ, मैं अपना थोड़ा-सा भी अंश शैतान को नहीं देना चाहता, क्योंकि शैतान तेरा शत्रु है।” उसने इस दिशा में जितना ज्यादा प्रयास किया, उतना ही ज्यादा वह प्रेरित हुआ, और उतना ही ज्यादा इन विषयों पर उसका ज्ञान बढ़ता गया। इसका अहसास किए बिना ही, उसे यह ज्ञान हो गया कि उसे अपने-आपको शैतान के प्रभाव से मुक्त कर लेना चाहिए, और पूरी तरह परमेश्वर के पास लौट आना चाहिए। उसने ऐसा आयाम हासिल कर लिया था। वह शैतान के प्रभाव से ऊपर उठ रहा था, और वह शरीर के सुख और आनंद से अपने-आपको मुक्त कर रहा था, वह परमेश्वर की ताड़ना और न्याय दोनों को और अधिक गंभीरता से अनुभव करने को तैयार था। उसने कहा, “यद्यपि मैं तेरी ताड़नाओं और तेरे न्याय के बीच रहता हूँ, इससे जुड़ी कठिनाई के बावजूद, मैं शैतान की सत्ता के अधीन जीवन व्यतीत नहीं करना चाहता, मैं शैतान के छल-कपट को तो बिल्कुल नहीं सहना चाहता। मैं तेरे अभिशापों के बीच जी कर आनंदित हूँ, और मेरे लिए शैतान के आशीषों में जीना कष्टदायक है। तेरे न्याय के बीच जीवन बिताते हुए मैं तुझसे प्रेम करता हूँ, क्योंकि तेरे न्याय में जीवन बिताकर मुझे बहुत आनंद प्राप्त होता है। तेरी ताड़ना और न्याय धार्मिक और पवित्र हैं; ये मुझे शुद्ध करने और इससे भी बढ़कर मुझे बचाने के लिए हैं। मैं अपना सारा जीवन तेरे न्याय में बिताना चाहता हूँ ताकि मैं तेरी देखरेख में रहूँ। मैं एक घड़ी भी शैतान की सत्ता के अधीन रहने को तैयार नहीं हूँ। मैं तेरे द्वारा शुद्ध होना चाहता हूँ; भले ही मुझे कष्ट झेलने पड़ें, मैं शैतान द्वारा शोषित होने और छले जाने को तैयार नहीं हूँ। मुझ सृजित प्राणी को तेरे द्वारा इस्तेमाल किया जाना चाहिए, तेरे द्वारा प्राप्त किया जाना चाहिए, तेरे द्वारा न्याय दिया जाना चाहिए, और तेरे द्वारा ताड़ना दी जानी चाहिए। यहाँ तक कि मुझे तेरे द्वारा शापित भी किया जाना चाहिए। जब तू मुझे आशीष देने की इच्छा करता है तो मेरा हृदय आनंदित हो उठता है, क्योंकि मैं तेरे प्रेम को देख चुका हूँ। तू सृष्टिकर्ता है, और मैं एक सृजित प्राणी हूँ : तुझको धोखा देकर मुझे शैतान की सत्ता के अधीन नहीं रहना चाहिए, न ही मुझे शैतान के हाथों शोषित होना चाहिए। शैतान के लिए जीने से अच्छा है, मैं तेरा घोड़ा या बैल बन जाऊँ। मैं बिना भौतिक सुखों के, तेरी ताड़नाओं में रहकर जीवन व्यतीत करना ज्यादा पसंद करूँगा, और इसमें मुझे आनंद मिलेगा, फिर भले ही मैं तेरा अनुग्रह गँवा दूँ। हालाँकि तेरा अनुग्रह मेरे साथ नहीं है, फिर भी मैं तेरे द्वारा ताड़ना दिए जाने और न्याय किए जाने से प्रसन्न हूँ; यह तेरा सर्वोत्तम आशीष है, तेरा सबसे बड़ा अनुग्रह है। हालाँकि मेरे प्रति तू हमेशा प्रतापी और रोषपूर्ण रहा है, फिर भी मैं तुझे नहीं छोड़ सकता, मैं तुझसे बेहद प्रेम करता हूँ। मैं तेरे घर में रहना पसंद करूँगा, मैं तेरे द्वारा शापित और प्रताड़ित किया जाना, और तेरे प्रेम में पागल होना पसंद करूँगा, मैं शैतान की सत्ता के अधीन रहकर जीने को तैयार नहीं हूँ, न ही मैं केवल देह के लिए भाग-दौड़ करने और व्यस्त रहने को तैयार हूँ, सिर्फ देह के लिए जीने को तो बिल्कुल भी नहीं।” पतरस का प्रेम पवित्र प्रेम था। यह पूर्ण बनाए जाने का अनुभव है, यह पूर्ण बनाए जाने का सर्वोच्च आयाम है; और इससे अधिक सार्थक जीवन नहीं हो सकता। उसने परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को स्वीकार किया, उसने परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को बड़े चाव से देखा, और पतरस में इससे अधिक मूल्यवान और कुछ भी नहीं था। उसने कहा, “शैतान मुझे भौतिक सुख देता है, परंतु मुझे इन सुखों का चाव नहीं है। मुझ पर परमेश्वर की ताड़ना और न्याय आते हैं—मैं इसी में अनुग्रहित हूँ, और मुझे इसी में आनंद मिलता है, इसी में मैं धन्य हूँ। यदि परमेश्वर का न्याय न होता, तो मैं परमेश्वर से कभी प्रेम न कर पाता, मैं अभी भी शैतान की सत्ता के अधीन ही रह रहा होता, मैं उसी के नियंत्रण और आदेश के अधीन होता। यदि ऐसा होता, तो मैं कभी भी एक सच्चा इंसान न बन पाता, क्योंकि मैं परमेश्वर को संतुष्ट न कर पाता, और मैं पूरी तरह से खुद को परमेश्वर के प्रति समर्पित न कर पाता। भले ही परमेश्वर मुझे आशीष न दे, और मुझे बिना किसी भीतरी सुख के इसी तरह छोड़ दे, मानो एक आग मेरे भीतर जल रही हो, और बिना किसी शांति या आनंद के छोड़ दे, भले ही परमेश्वर की ताड़ना और अनुशासन कभी मुझसे दूर नहीं हुआ, फिर भी मैं परमेश्वर की ताड़ना और न्याय में उसके धार्मिक स्वभाव को देख पाता हूँ। मैं इसी में आनंदित हूँ; जीवन में इससे बढ़कर कोई मूल्यवान और अर्थपूर्ण बात नहीं है। यद्यपि उसकी सुरक्षा और देखभाल क्रूर ताड़ना, न्याय, अभिशाप और पीड़ा बन चुके हैं, फिर भी मैं इन चीजों में आनंदित होता हूँ, क्योंकि वे मुझे बेहतर ढंग से शुद्ध कर सकते हैं, बदल सकते हैं, मुझे परमेश्वर के नजदीक लाकर, परमेश्वर से और अधिक प्रेम करने योग्य बना सकते हैं, परमेश्वर के प्रति मेरे प्रेम को और अधिक शुद्ध कर सकते हैं। यह मुझे इस योग्य बनाता है कि मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभा सकूँ, यह मुझे परमेश्वर के सामने और शैतान के प्रभाव से दूर ले जाता है, ताकि मैं आगे से शैतान की सेवा न करूँ। जब मैं शैतान की सत्ता के अधीन जीवन नहीं बिताऊँगा, बिना हिचकिचाए, अपना सब कुछ जो मेरे पास है और वह सब कुछ जो मैं कर सकूँ, उसे परमेश्वर को अर्पित करने योग्य हो जाऊँगा—तभी मैं पूरी तरह से संतुष्ट होऊँगा। मुझे परमेश्वर की ताड़ना और न्याय ने ही बचाया है, मेरे जीवन को परमेश्वर की ताड़नाओं और न्याय से अलग नहीं किया जा सकता। मेरे लिए पृथ्वी पर जीवन शैतान की सत्ता के अधीन जीने जैसा है, और यदि मुझे परमेश्वर की ताड़ना और न्याय की देखभाल और सुरक्षा न मिली होती, तो मैं हमेशा शैतान की सत्ता के अधीन ही जीवन बिताता, और तब मेरे पास न तो सार्थक जीवन जीने का अवसर होता, न ही कोई साधन होता। अगर परमेश्वर की ताड़ना और न्याय मुझे कभी छोड़ें, तो मैं परमेश्वर द्वारा शुद्ध किया जा सकता हूँ। परमेश्वर के कठोर वचनों, धार्मिक स्वभाव, और उसके प्रतापी न्याय के कारण ही मैंने सर्वोच्च सुरक्षा प्राप्त की है, और मैं प्रकाश में रहा हूँ, और मैंने उसका आशीष प्राप्त किया है। परमेश्वर द्वारा शुद्ध किया जाना, अपने-आपको शैतान से मुक्त करा पाना, और परमेश्वर के प्रभुत्व में जीवन बिताना—यह आज मेरे जीवन का सबसे बड़ा आशीष है।” यह पतरस द्वारा अनुभव किया गया सर्वोच्च आयाम है।
यह बिल्कुल वही अवस्था है जो पूर्ण होने के बाद मनुष्य को प्राप्त करनी चाहिए। यदि तुम इतना हासिल नहीं कर सकते, तो तुम एक सार्थक जीवन नहीं बिता सकते। मनुष्य शरीर के बीच रहता है, जिसका मतलब है कि वह मानवीय नरक में रहता है, और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बगैर, मनुष्य शैतान के समान ही अशुद्ध है। मनुष्य पवित्र कैसे हो सकता है? पतरस मानता था कि परमेश्वर की ताड़ना और उसका न्याय मनुष्य की सबसे बड़ी सुरक्षा और महान अनुग्रह है। परमेश्वर की ताड़ना और न्याय से ही मनुष्य जाग सकता है, और शरीर और शैतान से घृणा कर सकता है। परमेश्वर का कठोर अनुशासन मनुष्य को शैतान के प्रभाव से मुक्त करता है, उसे उसके खुद के छोटे-से संसार से मुक्त करता है, और उसे परमेश्वर की उपस्थिति के प्रकाश में जीवन बिताने का अवसर देता है। ताड़ना और न्याय से बेहतर कोई उद्धार नहीं है! पतरस ने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! जब तक तू मुझे ताड़ना देता और मेरा न्याय करता रहेगा, मुझे पता होगा कि तूने मुझे नहीं छोड़ा है। भले ही तू मुझे आनंद या शांति न दे, और मुझे कष्ट में रहने दे, और मुझे अनगिनत ताड़नाओं से प्रताड़ित करे, किंतु जब तक तू मुझे छोड़ेगा नहीं, तब तक मेरा हृदय सुकून में रहेगा। आज, तेरी ताड़ना और न्याय मेरी बेहतरीन सुरक्षा और महानतम आशीष बन गए हैं। जो अनुग्रह तू मुझे देता है वह मेरी सुरक्षा करता है। जो अनुग्रह आज तू मुझे देता है वह तेरे धार्मिक स्वभाव की अभिव्यक्ति है, और ताड़ना और न्याय है; इसके अतिरिक्त, यह एक परीक्षा है, और इससे भी बढ़कर, यह एक कष्टों भरा जीवनयापन है।” पतरस ने दैहिक सुख को एक तरफ रखकर, एक ज्यादा गहरे प्रेम और ज्यादा बड़ी सुरक्षा की खोज की, क्योंकि उसने परमेश्वर की ताड़ना और न्याय से बहुत सारा अनुग्रह हासिल कर लिया था। अपने जीवन में, यदि मनुष्य शुद्ध होकर अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहता है, यदि वह एक सार्थक जीवन बिताना चाहता है, और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना चाहता है, तो उसे परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करना चाहिए, और उसे परमेश्वर के अनुशासन और प्रहार को अपने-आपसे दूर नहीं होने देना चाहिए, ताकि वह खुद को शैतान की चालाकी और प्रभाव से मुक्त कर सके, और परमेश्वर के प्रकाश में जीवन बिता सके। यह जान लो कि परमेश्वर की ताड़ना और न्याय प्रकाश है, मनुष्य के उद्धार का प्रकाश है, और मनुष्य के लिए इससे बेहतर कोई आशीष, अनुग्रह या सुरक्षा नहीं है। मनुष्य शैतान के प्रभाव में रहता है, और देह में जीता है; यदि उसे शुद्ध न किया जाए और उसे परमेश्वर की सुरक्षा प्राप्त न हो, तो वह और भी ज्यादा भ्रष्ट हो जाएगा। यदि वह परमेश्वर से प्रेम करना चाहता है, तो उसे शुद्ध होना और उद्धार पाना होगा। पतरस ने प्रार्थना की, “परमेश्वर, जब तू मुझ पर दया दिखाता है तो मैं प्रसन्न हो जाता हूँ, और मुझे सुकून मिलता है; जब तू मुझे ताड़ना देता है, तब मुझे और भी ज्यादा सुकून और आनंद मिलता है। यद्यपि मैं कमजोर हूँ, और अकथनीय कष्ट सहता हूँ, यद्यपि मेरे जीवन में आँसू और उदासी है, लेकिन तू जानता है कि यह उदासी मेरे विद्रोहीपन और मेरी कमजोरी के कारण है। मैं रोता हूँ क्योंकि मैं तेरे इरादे पूरे नहीं कर पाता, मुझे दुख और पछतावा है, क्योंकि मैं तेरी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर रहा हूँ, लेकिन मैं इस आयाम को हासिल करने के लिए तैयार हूँ, मैं तुझे संतुष्ट करने के लिए सब कुछ करने को तैयार हूँ। तेरी ताड़ना ने मुझे सुरक्षा दी है, और मेरा श्रेष्ठतम उद्धार किया है; तेरा न्याय तेरी सहनशीलता और धीरज को ढँक देता है। तेरी ताड़ना और न्याय के बगैर, मैं तेरी दया और करूणा का आनंद नहीं ले पाऊँगा। आज, मैं और भी अधिक देख रहा हूँ कि तेरा प्रेम स्वर्ग से भी ऊँचा उठकर अन्य सभी चीजों पर छा गया है। तेरा प्रेम मात्र दया और करूणा नहीं है; बल्कि उससे भी बढ़कर, यह ताड़ना और न्याय है। तेरी ताड़ना और न्याय ने मुझे बहुत कुछ दिया है। तेरी ताड़ना और न्याय के बगैर, एक भी व्यक्ति शुद्ध नहीं हो सकता, और एक भी व्यक्ति सृष्टिकर्ता के प्रेम को अनुभव नहीं कर सकता। यद्यपि मैंने सैकड़ों परीक्षण और क्लेश सहे हैं, यहाँ तक कि मौत को भी करीब से देखा है, फिर भी मुझे इन्हीं के कारण तुझे जानने और सर्वोच्च उद्धार प्राप्त करने का अवसर मिला है। यदि तेरी ताड़ना, न्याय और अनुशासन मुझसे दूर हो गए होते, तो मैं अंधकार में शैतान की सत्ता के अधीन जीवन बिता रहा होता। मनुष्य की देह का क्या लाभ है? यदि तेरी ताड़ना और न्याय मुझे छोड़कर चले गए होते, तो ऐसा लगता मानो तेरे आत्मा ने मुझे छोड़ दिया है, मानो अब से तू मेरे साथ नहीं है। यदि ऐसा हो जाता, तो मैं कैसे जी पाता? यदि तू मुझे बीमारी देकर मेरी स्वतंत्रता छीन लेता है, तो भी मैं जीवित रह सकता हूँ, परंतु अगर तेरी ताड़ना और न्याय मुझे छोड़ दें, तो मेरे पास जीने का कोई रास्ता न होगा। यदि मेरे पास तेरी ताड़ना और न्याय न होता, तो मैंने तेरे प्रेम को खो दिया होता, एक ऐसा प्रेम जो इतना गहरा है कि मैं इसे शब्दों में बयाँ नहीं कर सकता। तेरे प्रेम के बिना, मैं शैतान की सत्ता के अधीन जी रहा होता, और तेरे महिमामय मुखड़े को न देख पाता। मैं कैसे जीवित रह पाता? मैं ऐसा अंधकार, ऐसा जीवन सहन नहीं कर पाता। मेरे साथ तेरे होने का अर्थ है कि मैं तुझे देख रहा हूँ, तो मैं तुझे कैसे छोड़ सकता हूँ? मैं तुझसे विनती करता हूँ, याचना करता हूँ, तू मेरे सबसे बड़े सुख को मत छीन, भले ही ये आश्वासन के मात्र थोड़े से शब्द ही क्यों न हों। मैंने तेरे प्रेम का आनंद लिया है, और आज मैं तुझसे दूर नहीं रह सकता; मैं तुझसे कैसे प्रेम न करूँ? मैंने तेरे प्रेम के कारण दुख में बहुत आँसू बहाए हैं, फिर भी हमेशा यही लगा है कि इस तरह का जीवन अधिक अर्थपूर्ण है, मुझे समृद्ध बनाने में अधिक सक्षम है, मुझे बदलने में अधिक सक्षम है, और वह सत्य हासिल करने में अधिक सक्षम है जो सृजित प्राणियों के पास होना चाहिए।”
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान
संबंधित चलचित्र अंश
परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के जरिए शोहरत और रुतबे का त्याग करना
संबंधित अनुभवात्मक गवाहियाँ
न्याय और ताड़ना परमेश्वर का प्रेम है
परमेश्वर के वचनों ने मेरी गलतफहमियाँ दूर कर दीं
संबंधित भजन
परमेश्वर की ताड़ना और न्याय ही मनुष्य के उद्धार की रोशनी है
न्याय और ताड़ना परमेश्वर के उद्धार को प्रकट करते हैं
मैंने ताड़ना और न्याय में परमेश्वर का प्रेम देख लिया