13. कर्तव्य पालन और जीवन प्रवेश के बीच संबंध
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
अगर तुम चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हें अपने अनुयायियों में एक के रूप में स्वीकारे, तो पहले अपने जीवन-प्रवेश पर ध्यान देना होगा। इसकी शुरुआत खुद को समझने, अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़ने लायक बनने, अपने कर्तव्य पर टिके रहने की क्षमता हासिल करने और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने से करनी होगी—यही सर्वोपरि है। जीवन-प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करने का उद्देश्य अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना है, यही इसका मूल अर्थ है। तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने से जीवन-प्रवेश का अनुसरण शुरू कर देना चाहिए, और जीवन-प्रवेश से तब तक बूंद-दर-बूंद सत्य को समझना और पाना चाहिए, जब तक कि तुम एक ऐसे मुकाम पर नहीं पहुँच जाते जहाँ तुम्हारा आध्यात्मिक कद हो, जहाँ तुम्हारा जीवन धीरे-धीरे बढ़ता रहे और तुम्हारे पास सत्य के सच्चे अनुभव हों। फिर तुम्हें अभ्यास के सभी प्रकार के सिद्धांत साध लेने चाहिए ताकि तुम किसी भी व्यक्ति, घटना या चीज से बेबस या बाधित हुए बिना अपना कर्तव्य निभा सको। इस तरह तुम हौले-हौले परमेश्वर की उपस्थिति में रहने लगोगे। तुम किसी भी तरह के व्यक्ति, घटना या वस्तु से परेशान नहीं होओगे, और तुम्हें सत्य का अनुभव होगा। जैसे-जैसे तुम्हारा अनुभव भरपूर होता जाएगा, तुम परमेश्वर की गवाही देने में अधिक सक्षम होते जाओगे, और जैसे-जैसे तुम परमेश्वर की गवाही देने में अधिक सक्षम होओगे, तुम धीरे-धीरे उपयोगी व्यक्ति बनते जाओगे। उपयोगी व्यक्ति बनने पर तुम परमेश्वर के घर में मान्य मापदंड के अनुसार अपना कर्तव्य निभा सकोगे, तुम एक सृजित प्राणी की जगह खड़े होने और परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण करने में सक्षम रहोगे, और तुम दृढ़ता से खड़े रह सकोगे। जो व्यक्ति परमेश्वर की स्वीकृति पाता है, सिर्फ वही मान्य सृजित प्राणी होता है। तभी तुम उस सब के योग्य बनोगे जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है।
सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की कुंजी क्या है? तुम्हें सत्य का अभ्यास करने और सैद्धांतिक ढंग से मामलों को संभालने के तरीके सीखने होंगे। हमेशा कसमें खाते रहने और अपनी इच्छा जताने का फायदा क्या है? यदि तुम हमेशा कसमें खाकर अपनी इच्छा व्यक्त करते रहते हो, फिर भी सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते, तो यह बिल्कुल फिजूल है। सबसे अहम और सबसे असल चीज यह है कि तुम अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में जीवन-प्रवेश प्राप्त करो, सत्य खोजते हुए उन तमाम समस्याओं को हल करो जो कर्तव्य निभाने की राह में सामने आती हों, और अपने कर्तव्य के प्रति अपने गलत रवैयों को उलट दो। जीवन-प्रवेश करने का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है, तुम्हें सत्य का अनुभव और ज्ञान हो चुका है, और तुम इसका सटीक अभ्यास कर पा रहे हो। क्या तुम सब लोगों ने अभी जीवन-प्रवेश कर लिया है? क्या तुम परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम हो? क्या तुम अब भी अधिकांश समय धर्म-सिद्धांत पर ही चिपके तो नहीं रहते? क्या तुम वास्तव में सत्य का ज्ञान या अनुभव लिए बिना धर्म-सिद्धांत पर ही तो नहीं अटके हो? यदि तुम सत्य का सच्चा अनुभव और ज्ञान हासिल नहीं कर सकते तो परमेश्वर की गवाही भी नहीं दे सकते। अधिकांश समय तुम्हारा ज्ञान अवधारणात्मक होता है। तुम दोहरे भ्रम में हो, सोचते हो कि यह और वह, दोनों चीजें सही हैं; जब परमेश्वर कुछ कहता है तो तुम्हें लगता है कि मानो वह तुम्हारे लिए सत्य है, और जब वह कुछ और कहता है तो वह भी सत्य होता है। तुम्हें लगता है, मानो परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, और तुम सबके लिए आमीन कहते हुए उनकी प्रशंसा करते हो लेकिन तुलना करने के लिए तुम स्वयं को खड़ा नहीं कर पाते। जब तुम कुछ करते हो तब भी भ्रमित रहते हो और यह नहीं जानते कि अपनी समस्याएँ हल करने के लिए किन सत्यों का उपयोग करना है। क्या तुम लोगों में से ज्यादातर इसी स्थिति में नहीं हैं? यद्यपि तुम धर्म-सिद्धांत काफी समझते हो और इसका बहुत बखान भी कर सकते हो लेकिन तुम इसका उपयोग अपने वास्तविक जीवन में नहीं कर सकते हो। तुम अब भी नहीं जानते कि सत्य का अभ्यास कैसे करना है, न ही यह जानते हो कि अपने वास्तविक जीवन में परमेश्वर के वचनों को कैसे लागू करना है, और तुम पर चाहे जो कुछ बीतती हो, तुम अपनी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजना नहीं जानते हो। इसका कारण यह है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। जब तुम यह जान जाते हो कि तुम लोग अपने वास्तविक जीवन में परमेश्वर के वचनों का अनुभव, अभ्यास और उन पर अमल कैसे करो, और यह भी कि अपने पर कुछ बीतने पर समस्याएँ हल करने के लिए सत्य कैसे तलाशें, तो तुम लोगों के जीवन में विकास होगा। सत्य के अभ्यास के तरीके को जानना यह संकेत है कि तुम्हारे जीवन का विकास हो रहा है। एक दिन जब तुम सत्य के सहारे समस्याएँ हल करने लगोगे, जब तुम्हें परमेश्वर का कुछ ज्ञान हो जाएगा, जब तुम परमेश्वर के बारे में अपना सच्चा ज्ञान साझा करके उसके कार्यों, उसके पवित्र और धार्मिक स्वभाव, और उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि की गवाही दे सकोगे, तब तुम सचमुच परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम होगे और तुम परमेश्वर के काम आने योग्य हो जाओगे। अगर तुम बहुत कुछ समझते हो और दिन-दिन भर धर्म-सिद्धांत का बखान कर सकते हो, लेकिन अपनी समस्या से जुड़ी कोई चीज हल नहीं कर सकते या उन्हें हल करना नहीं जानते, तो इससे साबित होता है कि तुम जिन चीजों को समझते हो वे सत्य नहीं हैं, बल्कि वे सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत हैं। भले ही तुम किसी धर्म-सिद्धांत के बारे में बहुत व्यावहारिक ढंग से बोल सकते हो, हकीकत में यह केवल अवधारणात्मक ज्ञान होता है जिसे अभी तार्किकता हासिल नहीं हुई है। भले ही तुम्हें सुनकर लोग कुछ सीख लें, तुम्हारे जैसी भावनाएँ महसूस करने लगें, और तुम्हारा ज्ञान उन पर कुछ असर छोड़ने में भी कामयाब रहे, लेकिन तुम इस पर न तो बहुत स्पष्टता से कुछ कह सकोगे, न ही तुम पूरी तरह समस्याएँ ही हल कर सकोगे। यह साबित करता है कि तुमने जिन धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात की है, वे महज अवधारणात्मक ज्ञान हैं। तुम यह भी नहीं कह सकते कि वे सत्य वास्तविकता हैं, खुद तुम्हारे सत्य वास्तविकता में प्रवेश की तो बात ही दूर है। तो अब तुम शब्द और धर्म-सिद्धांत के बारे में बोलने की समस्या का समाधान कैसे करोगे? इसके लिए यह जरूरी है कि अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम तमाम तरह की जो भ्रष्टता प्रकट करते हो, उसके बारे में आत्मचिंतन करो, तुम्हारे सामने जो भी समस्या आती है उसके मूल आधारों पर आत्मचिंतन करो, और फिर सत्य खोजकर और परमेश्वर के वचनों का उपयोग कर अपने प्रकट हुए भ्रष्ट स्वभाव का संपूर्ण समाधान करो। तुम्हारे भीतर जो प्रकट होता है, वह चाहे अहंकार और आत्मतुष्टता हो या कुटिलता और धोखेबाजी, स्वार्थ और नीचता हो या अनमनापन और परमेश्वर से झूठ बोलना, तुम्हें इन भ्रष्ट स्वभावों पर तब तक आत्मचिंतन करना होगा जब तक कि तुम उन्हें साफ-साफ समझ न लो। इस तरह तुम जान लोगे कि अपना कर्तव्य निभाते समय तुममें कौन-सी समस्याएँ मौजूद हैं और तुम उद्धार पाने से कितनी दूर हो। जब तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव अच्छी तरह देख लोगे, केवल तभी यह जान पाओगे कि अपना कर्तव्य निभाने में परेशानियाँ और बाधाएँ कहाँ हैं। तभी तुम समस्याओं को उनकी जड़ पर हल कर पाओगे। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम अपना कर्तव्य निभाने में जिम्मेदारी लेने के बजाय हमेशा लापरवाही से काम करते हो, जिससे काम में नुकसान होता है, लेकिन तुम सिर्फ अपनी इज्जत की चिंता करते हो, तो अपनी स्थिति और कठिनाइयों के बारे में खुलकर संगति करने या गहन आत्म-विश्लेषण और आत्म-ज्ञान का अभ्यास करने के बजाय हमेशा अनमने ढंग से चीजों से निपटने के बहाने ढूँढ़ते रहते हो। तुम्हें यह समस्या कैसे हल करनी चाहिए? तुम्हें आत्मचिंतन करते हुए परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर, यदि मैं ऐसा बोलता हूँ तो यह सिर्फ इज्जत बचाने के लिए है। यह मेरा भ्रष्ट स्वभाव बोल रहा है। मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए। मुझे खुद को खुलकर उघाड़ना चाहिए, और अपने दिल के सच्चे उद्गार प्रकट करने चाहिए। मैं अपने मिथ्या अभिमान को बचाने के बजाय शर्म और बदनामी सहने को तैयार हूँ। मैं सिर्फ परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहता हूँ।” इस तरह अपने खिलाफ विद्रोह करके और अपने दिल के सच्चे उद्गार व्यक्त कर तुम ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास कर रहे हो, और यही नहीं, तुम न तो अपनी इच्छा के अनुसार चल रहे हो, न शर्म से बचने की कोशिश कर रहे हो। तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने, परमेश्वर के इरादों के अनुसार सत्य का अभ्यास करने, मन लगाकर अपना कर्तव्य पूरे करने और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में सक्षम हो। इस तरीके से तुम सत्य का अभ्यास करते हुए अपना कर्तव्य तो बखूबी निभा ही रहे हो, परमेश्वर के घर के हितों को भी सर्वोपरि रख रहे हो, और इससे परमेश्वर के दिल को भी संतोष मिलता है। यह जीने का एक न्यायसंगत और सम्मानजनक तरीका है जो परमेश्वर और मनुष्यों, दोनों के सामने रखने लायक है। यह कितना शानदार है! इस प्रकार का अभ्यास थोड़ा कठिन जरूर है लेकिन यदि तुम्हारे प्रयास और अभ्यास इसी दिशा में हैं तो एक-दो बार असफल होने के बावजूद तुम्हारे हाथ सफलता जरूरी लगेगी। और सफलता का तुम्हारे लिए क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो, तो तुम वह कदम उठाने में सक्षम हो जाते हो जो तुम्हें शैतान के बंधनों से मुक्त करता है, एक ऐसा कदम जो तुम्हें अपने खिलाफ विद्रोह करने देता है। इसका अर्थ है कि तुम अपने मिथ्या अभिमान और प्रतिष्ठा को दरकिनार कर अपने हितों को तिलांजलि देने और स्वार्थी और नीचतापूर्ण चीजें न करने में सक्षम हो। जब तुम ऐसा करते हो, तो तुम लोगों को यह दिखाते हो कि तुम ऐसे व्यक्ति हो, जो सत्य से प्रेम करता है, जो सत्य की कामना करता है, जो न्याय और प्रकाश की कामना करता है। यह वह नतीजा है जो तुम सत्य का अभ्यास कर हासिल करते हो। साथ ही, तुम शैतान को शर्मिंदा भी करते हो। शैतान ने तुम्हें भ्रष्ट किया, तुम्हें अपने लिए जीना सिखाया, तुम्हें स्वार्थी और सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा के बारे में सोचने वाला बनाया। लेकिन अब ये शैतानी चीजें तुम्हें और नहीं बाँध सकतीं, तुम उनके बंधनों से छूट चुके हो, तुम अब मिथ्या अभिमान, प्रतिष्ठा या अपने निजी हितों से नियंत्रित नहीं हो, और तुम सत्य का अभ्यास करते हो, और इसलिए शैतान अपमानित होता है, और वह कुछ नहीं कर सकता है। उस स्थिति में क्या तुम विजयी नहीं हो जाते? जब तुम विजयी हो जाते हो तो क्या तुम परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में दृढ़ता से खड़े नहीं होते? क्या तुम एक अच्छी लड़ाई नहीं लड़ते? जब तुम एक अच्छी लड़ाई लड़ते हो, तो तुम्हारे मन में शांति, आनंद और राहत की भावना होती है। अगर अपने जीवन में तुम अक्सर दोषारोपण करने की भावना रखते हो, अगर तुम्हारे हृदय को सुकून नहीं मिलता, अगर तुम शांति या आनंद से रहित हो, और अक्सर सभी प्रकार की चीजों के बारे में चिंता और घबराहट से घिरे रहते हो, तो यह क्या प्रदर्शित करता है? केवल यह कि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते, परमेश्वर के प्रति अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रहते। जब तुम शैतान के स्वभाव के बीच जीते हो, तो तुम्हारे अक्सर सत्य का अभ्यास करने में विफल होने, सत्य से विश्वासघात करने, स्वार्थी और नीच होने की संभावना है; तुम केवल अपनी छवि, अपना नाम और हैसियत, और अपने हित कायम रखते हो। हमेशा अपने लिए जीना तुम्हें बहुत दर्द देता है। तुम इतनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं, उलझावों, बेड़ियों, गलतफहमियों और झंझटों में जकड़े हुए हो कि तुम्हें लेशमात्र भी शांति या आनंद नहीं मिलता। भ्रष्ट देह के लिए जीने का मतलब है अत्यधिक कष्ट उठाना। सत्य का अनुसरण करने वाले लोग अलग होते हैं। वे सत्य को जितना अधिक समझते हैं, उतने ही अधिक स्वतंत्र और मुक्त होते जाते हैं; वे सत्य का जितना अधिक अभ्यास करते हैं, उतने ही अधिक शांति और आनंद से भर उठते हैं। जब वे सत्य को हासिल कर लेंगे तो पूरी तरह प्रकाश में रहेंगे, परमेश्वर के आशीष का आनंद लेंगे, और उन्हें कोई कष्ट नहीं होगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है
अनेक लोगों को ऐसा लगता है कि अपना कर्तव्य निभाने के बाद उनमें कोई कमी है, और उनमें सत्य वास्तविकता नहीं है, इसलिए उन्हें हमेशा अधिक धर्मोपदेश सुनने, और अधिक सभाएँ करने के लिए ज्यादा अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जरूरत होती है, मानो कि इसी से वे जीवन में प्रवेश और विकास कर सकेंगे। अगर वे थोड़ा-सा भी समय किसी सभा में जाए बिना या धर्मोपदेश सुने बिना रह जाएं तो उन्हें अपना दिल खाली-खाली या उजाड़-सा लगता है, मानो उनके पास कुछ है ही नहीं। उनका दिल कहता है, मानो दैनिक सभाओं और धर्मोपदेशों से ही वे जीवन में प्रवेश पा सकेंगे, या आध्यात्मिक परिपक्वता पाने में सक्षम होंगे। हकीकत में, इस तरह की सोच पूरी तरह गलत है। जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं या उसका अनुसरण करते हैं, उन्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए—तभी वे जीवन का अनुभव हासिल कर सकेंगे। अगर तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर पर निष्ठापूर्वक विश्वास करते हो, लेकिन अपना कर्तव्य निभाना नहीं चाहते, तो फिर परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास में निष्ठा है ही कहाँ? जो निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभाते हैं, वही विश्वासी होते हैं। जो विश्वासी होते हैं, केवल वही परमेश्वर के लिए अपना जीवन अर्पित करने का साहस करते हैं, और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के लिए सब कुछ छोड़ सकते हैं। इसी प्रकार के लोगों को अपना कर्तव्य निभाते हुए पवित्र आत्मा के कार्य का अनुभव होता है; वे पवित्र आत्मा से प्रबोधन, मार्गदर्शन और अनुशासन प्राप्त करते हैं। इन सबसे जीवन अनुभव मिलता है। इसलिए, जीवन में प्रवेश विधिवत रूप से अपना कर्तव्य निभाने से शुरू होता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है
तुम जो भी कर्तव्य निभाते हो उसमें जीवन-प्रवेश शामिल होता है। तुम्हारा कर्तव्य काफी नियमित हो या अनियमित, नीरस हो या जीवंत, तुम्हें हमेशा जीवन-प्रवेश हासिल करना ही चाहिए। कुछ लोगों द्वारा किये गये कर्तव्य एकरसता वाले होते हैं; वे हर दिन वही चीज करते रहते हैं। मगर, इनको करते समय, ये लोग अपनी जो दशाएं प्रकट करते हैं वे सब एक-समान नहीं होतीं। कभी-कभार अच्छी मनःस्थिति में होने पर लोग थोड़े ज़्यादा चौकस होते हैं और बेहतर काम करते हैं। बाकी समय, किसी अनजान प्रभाव के चलते, उनका शैतानी स्वभाव उनमें शैतानी जगाता है जिससे उनमें अनुचित विचार उपजते हैं, वे बुरी हालत और मनःस्थिति में आ जाते हैं; परिणाम यह होता है कि वे अपने कर्तव्यों को सतही ढंग से करते हैं। लोगों की आंतरिक दशाएं निरंतर बदलती रहती हैं; ये किसी भी स्थान पर किसी भी वक्त बदल सकती हैं। तुम्हारी दशा चाहे जैसे बदले, अपनी मनःस्थिति के अनुसार कर्म करना हमेशा ग़लत होता है। मान लो कि जब तुम अच्छी मनःस्थिति में होते हो, तो थोड़ा बेहतर करते हो, और बुरी मनःस्थिति में होते हो तो थोड़ा बदतर करते हो—क्या यह काम करने का कोई सैद्धांतिक ढंग है? क्या यह तरीका तुम्हें अपने कर्तव्य को एक स्वीकार्य मापदंड तक निभाने देगा? मनःस्थिति चाहे जैसी हो, लोगों को परमेश्वर के सामने प्रार्थना करना और सत्य की खोज करना आना चाहिए, सिर्फ इसी तरीके से वे अपनी मनःस्थिति द्वारा बाधित होने, और उसके द्वारा इधर-उधर भटकाए जाने से बच सकते हैं। अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हें हमेशा खुद को जांच कर देखना चाहिए कि क्या तुम सिद्धांत के अनुसार काम कर रहे हो, तुम्हारा कर्तव्य निर्वाह सही स्तर का है या नहीं, कहीं तुम इसे सतही तौर पर तो नहीं कर रहे हो, कहीं तुमने अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने से जी चुराने की कोशिश तो नहीं की है, कहीं तुम्हारे रवैये और तुम्हारे सोचने के तरीके में कोई खोट तो नहीं। एक बार तुम्हारे आत्मचिंतन कर लेने और तुम्हारे सामने इन चीज़ों के स्पष्ट हो जाने से, अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हें आसानी होगी। अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारा किसी भी चीज़ से सामना हो—नकारात्मकता और कमज़ोरी, या काट-छाँट के बाद बुरी मनःस्थिति में होना—तुम्हें कर्तव्य के साथ ठीक से पेश आना चाहिए, और तुम्हें साथ ही सत्य को खोजना और परमेश्वर के इरादों को समझना चाहिए। ये काम करने से तुम्हारे पास अभ्यास करने का मार्ग होगा। अगर तुम अपना कर्तव्य निर्वाह बहुत अच्छे ढंग से करना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी मनःस्थिति से बिल्कुल प्रभावित नहीं होना चाहिए। तुम्हें चाहे जितनी निराशा या कमज़ोरी महसूस हो रही हो, तुम्हें अपने हर काम में पूरी सख्ती के साथ सत्य का अभ्यास करना चाहिए, और सिद्धांतों पर अडिग रहना चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो न सिर्फ दूसरे लोग तुम्हें स्वीकार करेंगे, बल्कि परमेश्वर भी तुम्हें पसंद करेगा। इस तरह, तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे, जो ज़िम्मेदार है और दायित्व का निर्वहन करता है; तुम सचमुच में एक अच्छे व्यक्ति होगे, जो अपने कर्तव्यों को मानक के अनुसार निभाता है और जो पूरी तरह से एक सच्चे इंसान की तरह जीता है। ऐसे लोगों का शुद्धिकरण किया जाता है और वे अपने कर्तव्य निभाते समय वास्तविक बदलाव हासिल करते हैं, उन्हें परमेश्वर की दृष्टि में ईमानदार कहा जा सकता है। केवल ईमानदार लोग ही सत्य का अभ्यास करने में डटे रह सकते हैं और सिद्धांत के साथ कर्म करने में सफल हो सकते हैं, और मानक के अनुसार कर्तव्यों को निभा सकते हैं। सिद्धांत पर चलकर कर्म करने वाले लोग अच्छी मनःस्थिति में होने पर अपने कर्तव्यों को ध्यान से निभाते हैं; वे सतही ढंग से कार्य नहीं करते, वे अहंकारी नहीं होते और दूसरे उनके बारे में ऊंचा सोचें इसके लिए दिखावा नहीं करते। बुरी मनःस्थिति में होने पर भी वे अपने रोज़मर्रा के काम को उतनी ही ईमानदारी और ज़िम्मेदारी से पूरा करते हैं और उनके कर्तव्यों के निर्वाह के लिए नुकसानदेह या उन पर दबाव डालने वाली या उनके कर्तव्य निर्वहन में बाधा पहुँचाने वाली किसी चीज़ से सामना होने पर भी वे परमेश्वर के सामने अपने दिल को शांत रख पाते हैं और यह कहते हुए प्रार्थना करते हैं, “मेरे सामने चाहे जितनी बड़ी समस्या खड़ी हो जाए—भले ही आसमान फट कर गिर पड़े—जब तक मैं जीवित हूँ, अपना कर्तव्य निभाने की भरसक कोशिश करने का मैं दृढ़ संकल्प लेता हूँ। मेरे जीवन का प्रत्येक दिन वह दिन होगा जब मैं अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निभाऊंगा, ताकि मैं परमेश्वर द्वारा मुझे दिये गये इस कर्तव्य, और उसके द्वारा मेरे शरीर में प्रवाहित इस सांस के योग्य बना रहूँ। चाहे जितनी भी मुश्किलों में रहूँ, मैं उन सबको परे रख दूंगा क्योंकि कर्तव्य निर्वाह करना मेरे लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है!” जो लोग किसी व्यक्ति, घटना, चीज़ या माहौल से प्रभावित नहीं होते, जो किसी मनःस्थिति या बाहरी स्थिति से बेबस नहीं होते, और जो परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गये कर्तव्यों और आदेशों को सबसे आगे रखते हैं—वही परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होते हैं और सच्चाई के साथ उसके सामने समर्पण करते हैं। ऐसे लोगों ने जीवन-प्रवेश हासिल किया है और सत्य वास्तविकता में प्रवेश किया है। यह सत्य को जीने की सबसे सच्ची और व्यावहारिक अभिव्यक्तियों में से एक है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है
एक मान्य मापदंड के अनुरूप अपना कर्तव्य निभाने के लिए पहले तुम्हारी उचित मानसिकता होनी चाहिए। जब भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो तो तुम्हें अपनी दशा भी सुधारनी होगी। जब तुम अपने कर्तव्य के प्रति सही ढंग से पेश आने में सक्षम होते हो, जब तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों से होने वाली बेबसी और उनके प्रभावों से मुक्त हो चुके हो, जब खुद को पूरी तरह से परमेश्वर को समर्पित कर सकते हो, तभी तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकोगे। ऐसा करने का राज यही है कि अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियों को सर्वोपरि रखो। अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में तुम्हें हमेशा अपनी जाँच करनी चाहिए : “क्या अपने कर्तव्य करने के प्रति मेरा अनमना रवैया है? कौन-सी चीजें मुझे तंग करती हैं और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति अनमना बनाती हैं? क्या मैं पूरे दिल और दम-खम से अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ? क्या इस तरह काम करके परमेश्वर मुझ पर भरोसा करेगा? क्या मेरा हृदय परमेश्वर को पूरी तरह समर्पित हो चुका है? क्या मेरा इस तरह कर्तव्य निभाना सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या इस तरह कर्तव्य निभाने से सर्वोत्तम नतीजे प्राप्त होंगे?” तुम्हें अक्सर इन सवालों पर चिंतन करना चाहिए। जब तुम्हें समस्याएँ दिखाई दें तो सक्रिय होकर सत्य खोजना चाहिए और इन्हें हल करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचन तलाशने चाहिए। इस तरह तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकोगे और तुम्हारे दिल को शांति और खुशी मिलेगी। अगर कर्तव्य निभाते हुए बार-बार परेशानियाँ सामने आएँ तो इनमें से अधिकतर समस्याएँ तुम्हारे इरादों के कारण आती हैं—ये भ्रष्ट स्वभाव की समस्याएँ हैं। जब किसी व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो जाता है, तो उसके हृदय में समस्याएँ होंगी और उसकी स्थिति असामान्य रहेगी, जिसका सीधा असर उसकी कर्तव्य क्षमता पर पड़ेगा। व्यक्ति की कर्तव्य क्षमता पर असर डालने वाली समस्याएँ बड़ी और गंभीर होती हैं; ये परमेश्वर के साथ उसके संबंध को सीधे प्रभावित कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, जब कुछ लोगों के परिवारों पर विपदा आती है तो वे परमेश्वर को लेकर धारणाएँ और गलतफहमियाँ विकसित कर लेते हैं। कुछ लोग जब अपने कर्तव्यों में कष्ट झेलते हैं तो नकारात्मक हो जाते हैं और इसे न कोई देखता है, न उनकी प्रशंसा करता है। कुछ लोग अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते, हमेशा अनमने बने रहते हैं, और जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत करने लगते हैं। कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाने के अनिच्छुक इसलिए होते हैं क्योंकि वे हमेशा बचने का रास्ता ढूँढ़ने में लगे रहते हैं। ये सारी समस्याएँ परमेश्वर के साथ सहज संबंध पर सीधा असर डालती हैं। ये सारी समस्याएँ भ्रष्ट स्वभाव की समस्याएँ हैं। ये सभी इस तथ्य से उपजती हैं कि लोग परमेश्वर को नहीं जानते, कि वे हमेशा चालबाजी में लगे रहकर अपने बारे में ही सोचते हैं, जो उन्हें परमेश्वर के इरादों के बारे में विचारशील होने या परमेश्वर की योजनाओं के लिए समर्पित होने से रोकता है। इससे तमाम तरह के नकारात्मक भाव उत्पन्न होते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे बिल्कुल ऐसे ही होते हैं। जब उन पर छोटे-छोटे संकट आते हैं तो वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं, अपना कर्तव्य निभाने में खीझ निकालते हैं, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर उसका प्रतिरोध करते हैं और अपनी जिम्मेदारियाँ छोड़कर परमेश्वर को धोखा देना चाहते हैं। ये सारी चीजें भ्रष्ट स्वभाव से उपजी बेबसी के विभिन्न दुष्परिणाम हैं। जो व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है, वह अपने जीवन, भविष्य और नियति की चिंता को परे रखकर सिर्फ और सिर्फ सत्य का अनुसरण कर इसे हासिल करना चाहता है। ऐसे लोग मानते हैं कि समय अपर्याप्त है, उन्हें डर लगा रहता है कि वे अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा पाएँगे, खुद को पूर्ण नहीं बना पाएँगे, इसलिए वे हर चीज को परे रख पाते हैं। उनकी मानसिकता सिर्फ परमेश्वर की ओर मुड़ने और उसके लिए समर्पित होने की होती है। वे किसी भी परेशानी से विचलित नहीं होते, और अगर वे खुद को नकारात्मक या कमजोर महसूस करते हैं तो परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़कर सहज रूप से इसका समाधान कर लेते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं वे परेशान होते हैं, और तुम उनके साथ सत्य के बारे में चाहे जितनी संगति कर लो, वे अपनी समस्याएँ पूरी तरह से हल करने में असमर्थ होते हैं। भले ही वे क्षण भर के लिए सचेत होकर सत्य को स्वीकारने में सक्षम हो जाएँ, फिर भी वे बाद में इससे पीछे हट जाएँगे, इसलिए ऐसे व्यक्तियों को संभालना बहुत मुश्किल होता है। ऐसा नहीं है कि वे सत्य के बारे में कुछ नहीं समझते, बल्कि बात यह है कि वे अपने मन में सत्य को संजोते या स्वीकारते नहीं हैं। आखिरकार इस हालत में वे अपनी इच्छा, अपने स्वार्थ, भविष्य, अपनी नियति और मंजिल को परे नहीं रख पाते, जो फिर हमेशा उन्हें परेशान करने के लिए सिर उठाते रहते हैं। अगर कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकारने में सक्षम होता है तो जैसे-जैसे वह सत्य को समझेगा, उसके भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित सारी चीजें अपने आप गायब हो जाएँगी, और उसे जीवन-प्रवेश और आध्यात्मिक कद प्राप्त होगा; वह आगे अज्ञानी बच्चा नहीं रहेगा। जब किसी व्यक्ति के पास आध्यात्मिक कद होता है तो वह चीजों को समझने में अधिक से अधिक सक्षम होगा, तमाम तरह के लोगों में अधिक से अधिक भेद कर सकेगा, और किसी भी व्यक्ति, घटना या चीज के आगे बेबस नहीं होगा। कोई कुछ भी कहे या करे, वह प्रभावित नहीं होगा। वह शैतान की बुरी शक्तियों के दखल या झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के गुमराह करने और बाधाएँ डालने से प्रभावित नहीं होगा। यदि ऐसा होता है तो क्या धीरे-धीरे उस व्यक्ति का आध्यात्मिक कद बढ़ता नहीं जाएगा? जितना ही व्यक्ति सत्य को समझेगा, उसके जीवन में उतनी ही प्रगति होगी, और उसके लिए अपना कर्तव्य सफलतापूर्वक करना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना आसान हो जाएगा। जब तुम जीवन प्रवेश कर लोगे और तुम्हारे जीवन में धीरे-धीरे प्रगति होने लगेगी तो तुम्हारी दशा ज्यादा से ज्यादा सामान्य होने लगेगी। जो लोग, घटनाएँ और चीजें कभी तुम्हें बाधित और बेबस करती थीं, वे तुम्हारे लिए समस्या नहीं रहेंगी। अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हें कोई समस्या नहीं आएगी, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध अधिक से अधिक सामान्य होता जाएगा। जब तुम यह जान जाओगे कि परमेश्वर पर कैसे भरोसा करना है, जब तुम यह जान लोगे कि परमेश्वर के इरादे कैसे खोजने हैं, जब तुम जान जाओगे कि मेरा स्थान क्या है, जब तुम जान जाओगे कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं करना है, कौन-से मामलों की जिम्मेदारी लेने की जरूरत है और कौन-से मामलों की नहीं, तो क्या तुम्हारी दशा ज्यादा से ज्यादा सामान्य नहीं होती जाएगी? इस तरह जीवन जीना तुम्हें थकाएगा नहीं, क्या थकाएगा? थकना तो दूर रहा, तुम खासतौर पर अधिक चैन और खुशी महसूस करोगे। तब क्या इसके नतीजे में तुम्हारा दिल रोशनी से नहीं भर जाएगा? तुम्हारी मानसिकता सामान्य हो जाएगी, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के खुलासे घट जाएँगे, और तुम परमेश्वर की उपस्थिति में रहकर सामान्य मानवता के साथ जी सकोगे। जब लोग तुम्हारा मानसिक दृष्टिकोण देखेंगे तो पाएँगे कि तुममें बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है। वे तुम्हारे साथ संगति करने को तैयार रहेंगे, अपने दिल में शांति और आनंद महसूस करेंगे, और लाभान्वित भी होंगे। जैसे-जैसे तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, तुम्हारी कथनी-करनी और अधिक उचित और सिद्धांत सम्मत होती जाएगी। जब तुम कमजोर और नकारात्मक लोगों को देखोगे तो उनकी ठोस मदद कर पाओगे—उन्हें बेबस नहीं करोगे या भाषण नहीं सुनाओगे, बल्कि अपने वास्तविक अनुभवों के सहारे मदद कर उन्हें लाभान्वित करोगे। इस तरह तुम परमेश्वर के घर में सिर्फ परिश्रम नहीं कर रहे होगे, बल्कि तुम ऐसे उपयोगी व्यक्ति भी बन जाओगे जो अपने कंधों पर जिम्मेदारी लेने और परमेश्वर के घर में बहुत सार्थक कार्य करने में सक्षम है। क्या परमेश्वर ऐसे ही व्यक्ति को नहीं चाहता? अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसे परमेश्वर चाहता है तो क्या सब लोग भी तुम्हें नहीं चाहेंगे? (बिल्कुल चाहेंगे।) परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति से क्यों प्रसन्न होता है? क्योंकि ऐसे व्यक्ति उसके सामने व्यावहारिक कार्य करने में सक्षम होते हैं, चापलूसी में नहीं फँसते, व्यावहारिक कार्य करते हैं, और अपने सच्चे अनुभवों के बारे में बताकर दूसरे लोगों की मदद और अगुआई कर सकते हैं। वे कोई भी समस्या हल करने में दूसरों की मदद करने में सक्षम होते हैं, और जब कलीसिया के कार्य में परेशानियाँ आती हैं तो वे सक्रिय रूप से समस्या सुलझाकर आगे का रास्ता दिखा सकते हैं। इसे ही निष्ठापूर्वक कर्तव्य निभाना कहते हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है
मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कर्तव्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी। जो लोग अपना कर्तव्य बेमन से करते हैं और सत्य की खोज नहीं करते, वे अंत में निकाल दिए जाएँगे, क्योंकि ऐसे लोग सत्य के अभ्यास में अपना कर्तव्य पूरा नहीं करते, और अपना कर्तव्य निभानेमें सत्य का अभ्यास नहीं करते। ये वे लोग हैं, जो अपरिवर्तित रहते हैं और जिन्हें दुर्भाग्य सहना पड़ेगा। उनकी न केवल अभिव्यक्तियाँ अशुद्ध हैं, बल्कि वे जो कुछ भी व्यक्त करते हैं, वह दुष्टतापूर्ण होता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर
कुछ लोग नहीं जानते कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करें और नहीं जानते कि उसके वचनों को अपने कर्तव्यों के निर्वहन में या वास्तविक जीवन में कैसे लाएँ। वे सत्य हासिल करने तथा जीवन में विकास करने के लिए हमेशा कई सभाओं में जाने पर ही भरोसा करते हैं। लेकिन, यह अवास्तविक है और ऐसा तर्क है जिसमें कोई दम नहीं है। जीवन परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने से और न्याय तथा ताड़ना का अनुभव करने से मिलता है। जो लोग उसके कार्य का अनुभव करना जानते हैं, वे चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ, अपने कर्तव्य निभाते हुए वे सत्य को समझने तथा व्यवहार में लाने में, काट-छाँट को स्वीकारने में, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में, अपने स्वभाव में बदलाव कर पाने में और परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जा सकने में सक्षम होते हैं। जो आलसी और आरामतलब लोग होते हैं, वे कर्तव्यों का निर्वहन करना नहीं चाहते और अपने कर्तव्य करते समय परमेश्वर के कार्यों का अनुभव नहीं करते, बल्कि लगातार ये माँग करते रहते हैं कि परमेश्वर के घर से उन्हें सभाएँ, धर्मोपदेश और सत्य के बारे में संगति प्रदान की जाएँ। इसके कारण, दस या बीस वर्ष तक विश्वास करते रहने और अनगिनत धर्मोपदेश सुनने के बाद भी वे सत्य नहीं समझ पाते या सत्य हासिल नहीं कर पाते हैं। वे नहीं जानते हैं कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे किया जाए, नहीं समझते कि परमेश्वर पर विश्वास करना क्या होता है और नहीं जानते कि स्वयं को जानने के लिए और सत्य तथा जीवन को पाने के लिए परमेश्वर के वचनों का अनुभव कैसे किया जाए। वे आरामतलब और अपने कर्तव्य से जी चुराने वाले लोग होते हैं; इसलिए वे जिस तरह अपना कर्तव्य निभाते हैं उसके कारण उन्हें बेनकाब करके हटा दिया जाता है। अब जो अपने कर्तव्य पूरे करने से संतुष्ट होते हैं, और जो सत्य के अनुसरण को महत्व देते हैं, उन सभी के पास अपने कर्तव्य निभाते हुए कुछ जीवन प्रवेश होता है, जब वे भ्रष्टता दिखाते हैं तो वे खुद को जानने के लिए चिंतन करते हैं, और जब अपने कर्तव्य निभाते हुए उनका मुश्किलों से सामना होता है वे समस्याओं का समाधान पाने के लिए सत्य खोजते और सत्य पर संगति करते हैं। अनजाने में ही, कई वर्षों तक अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए, वे स्पष्ट पुरस्कार भी पाते हैं, वे कुछ अनुभवजन्य गवाही की बात कर सकते हैं, परमेश्वर के कार्य और उसके स्वभाव का कुछ ज्ञान रखते हैं और इस तरह अपने जीवन स्वभाव में बदलाव लाते हैं। वर्तमान में, हर जगह की कलीसिया बुरे लोगों से और उन लोगों से मुक्ति पा रही है, जो विघ्न डालते हैं और बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। जो लोग बचे हैं, वे आमतौर पर ऐसे लोग हैं जो अपने कर्तव्य पूरे कर पाने में समर्थ हैं, कुछ हद तक निष्ठावान हैं और समस्याओं के समाधान के लिए सत्य की तलाश को महत्व देते हैं। वे ऐसे लोग होते हैं, जो अपनी गवाही में दृढ़ रह सकते हैं। तुम लोगों को परमेश्वर के वचनों को वास्तविक जीवन में और अपने कर्तव्यों के पालन में उतारना, व्यवहार में तथा उपयोग में लाना सीखना चाहिए और तब, जब समस्याएँ और मुश्किलें आएँ, तो उनके समाधान के लिए सत्य तलाशना चाहिए। इसके अतिरिक्त, तुम्हें अपने कर्तव्य पूरे करते समय परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखना भी सीखना चाहिए और सत्य को व्यवहार में लाने तथा हर मामले में चीजों को सिद्धांतों के अनुसार संचालित करने पर काम करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर से प्रेम करना सीखना चाहिए और परमेश्वर-प्रेमी हृदय रखते हुए, उसके भार का ध्यान रखना चाहिए और उस बिंदु तक पहुँचना चाहिए, जहाँ तुम उसे संतुष्ट कर सकते हो। केवल ऐसा करने वाला व्यक्ति ही परमेश्वर से सच्चा प्यार करता है। इस तरह कार्य करने पर, भले ही तुम सत्य को पूरी तरह न समझो, फिर भी तुम योग्य ढंग से अपने कर्तव्य को पूरा करने में समर्थ होते हो और तुम न केवल अपने अनमनेपन का समाधान कर सकते हो, बल्कि अपने कर्तव्य करते समय परमेश्वर से प्रेम करना, उसके प्रति समर्पण करना और उसे संतुष्ट करना भी सीख सकते हो—यही जीवन प्रवेश का पाठ है। अगर तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो और हर मामले में इस तरह से सिद्धांतों के अनुरूप काम कर सकते हो तो तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहे हो और तुम्हारे पास जीवन प्रवेश होगा। भले ही तुम अपने कर्तव्य पूरे करने में कितने भी व्यस्त रहो, लेकिन जब तुम्हें जीवन प्रवेश का फल मिलेगा, जीवन का विकास होगा और परमेश्वर के आयोजन तथा व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकोगे, तब तुम्हें अपने कर्तव्य निभाते हुए आनंद प्राप्त होगा। चाहे तुम कितने भी व्यस्त रहो, तुम्हें थकान महसूस नहीं होगी। तुम्हारे दिल में हमेशा शांति और खुशी रहेगी और तुम्हें खास तौर से समृद्धि और स्थिरता महसूस होगी। चाहे जितनी भी मुश्किलें आएँ, जब तुम सत्य खोजोगे, तब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध कर तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। तब तुम्हें परमेश्वर का आशीष प्राप्त होगा। इसके बाद, अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय चाहे तुम व्यस्त रहो या नहीं, अवसर के उपयुक्त कसरत तथा विवेकपूर्ण दुरुस्ती गतिविधियों में शामिल होना महत्वपूर्ण है। इससे परिसंचरण बढ़ेगा, उच्च ऊर्जा स्तर बनाए रखने में मदद मिलेगी और यह पेशे से जुड़े कुछ रोगों से बचाव में असरदार साबित हो सकता है। यह तुम्हारे कर्तव्यों के अच्छी तरह निर्वहन के लिए भी बहुत फायदेमंद है। इसलिए, अपने कर्तव्य करते समय, अगर तुम कई चीजों को सीख सकते हो, कई सत्यों की समझ हासिल कर सकते हो, परमेश्वर को सच में जानते हो और अंततः परमेश्वर का भय मानते तथा बुराई से दूर रहते हो तो तुम पूरी तरह उसके इरादों के अनुरूप चलोगे। अगर तुम परमेश्वर से प्रेम कर सकते हो, उसके लिए गवाही दे सकते हो और दिल तथा दिमाग से उसके साथ एक हो सकते हो तो तुम उसके द्वारा पूर्ण बनाए जाने के पथ पर चल रहे हो। ऐसे ही व्यक्ति को परमेश्वर का आशीष प्राप्त होता है और यह बहुत बड़ा वरदान है! अगर तुम परमेश्वर के लिए खुद को ईमानदारी से खपाते हो तो तुम्हें निश्चय ही उससे खूब सारा आशीष प्राप्त होगा। जो खुद को परमेश्वर के लिए नहीं खपाते और अपने कर्तव्य पूरे नहीं करते, क्या वे सत्य को हासिल कर सकते हैं? क्या उनका उद्धार हो सकता है? यह कहना कठिन है। सभी आशीष अपने कर्तव्य का निर्वहन करने और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने से ही प्राप्त हो सकते हैं। अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के क्रम में ही व्यक्ति जान पाता है कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करें और न्याय तथा ताड़ना, परीक्षण और शोधन, और काट-छाँट का अनुभव कैसे करें। ये चीजें आशीष पाने के सबसे योग्य हैं। तो अगर लोग सत्य से प्रेम करेंगे और इसका अनुसरण करेंगे, वे अंततः इसे प्राप्त कर लेंगे, अपने जीवन स्वभाव में बदलाव कर पाएँगे, परमेश्वर की मंजूरी पा लेंगे और वह व्यक्ति बन जाएँगे, जिसे परमेश्वर आशीष देता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
संबंधित भजन
अपने कर्तव्य में सत्य का अभ्यास करना ही कुंजी है