12. मानक-स्तर के तरीके से अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे किया जा सकता है
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
कर्तव्य के समुचित निर्वहन के संबंध में—इसमें “समुचित” शब्द पर जोर दिया गया है। तो, “समुचित” को कैसे परिभाषित किया जाना चाहिए? इसमें भी, तलाश करने के लिए सत्य हैं। क्या केवल काम चलाऊ कार्य करना ही पर्याप्त है? “समुचित” शब्द को कैसे समझना और उस पर विचार करना है, इसके विशिष्ट विवरण के लिए, तुम्हें अनेक सत्य समझने होंगे और बहुत से सत्यों पर और अधिक संगति करनी होगी। अपना कर्तव्य निभाने के दौरान तुम्हें सत्य और सिद्धांतों को समझना चाहिए; तभी तुम कर्तव्य का समुचित निर्वहन कर सकते हो। लोगों को अपने कर्तव्य क्यों निभाने चाहिए? एक बार जब वे परमेश्वर में विश्वास करके उसके आदेश को स्वीकार कर लेते हैं, तो परमेश्वर के घर के काम में और परमेश्वर के कार्य-स्थल के प्रति जिम्मेदारी और दायित्व में लोगों की भी हिस्सेदारी होती है और बदले में, इस जिम्मेदारी और दायित्व के कारण, वे परमेश्वर के कार्य का एक तत्व, उसके कार्य के प्राप्तकर्ताओं में से एक, और उसके उद्धार के प्राप्तकर्ताओं में से एक बन गए हैं। लोगों के उद्धार का इन प्रश्नों से खासा संबंध है कि वे अपने कर्तव्यों का निर्वहन कैसे करते हैं, क्या वे इनका निर्वहन अच्छी तरह से कर सकते हैं या नहीं और क्या वे इनका समुचित निर्वहन कर सकते हैं या नहीं। चूँकि तुम परमेश्वर के घर का एक हिस्सा बन गए हो और तुमने उसका आदेश स्वीकार कर लिया है, तुम्हारे पास अब कर्तव्य है। यह बताना तुम्हारा काम नहीं है कि यह कर्तव्य कैसे निभाया जाना चाहिए; यह बताना परमेश्वर का कार्य है; यह बताना सत्य का कार्य है; और यह सत्य के मानकों से तय होता है। इसलिए लोगों को यह जानना, समझना चाहिए और इस बात पर स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर चीजों का आकलन कैसे करता है, वह उनका आकलन किस आधार पर करता है—अनुसरण के लिए यह एक उपयुक्त चीज है। परमेश्वर के कार्य में, अलग-अलग लोगों को अलग-अलग कर्तव्य मिलते हैं। अर्थात अलग-अलग प्रतिभा, काबिलियत, उम्र और स्थिति वाले लोगों को अलग-अलग समय पर अलग-अलग कर्तव्य मिलते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें क्या कर्तव्य मिला है, और कब और किन परिस्थितियों में मिला है, तुम्हारा कर्तव्य केवल एक जिम्मेदारी और दायित्व है जिसका निर्वहन तुम्हें करना है, यह तुम्हारा अपना उद्यम नहीं है, तुम्हारा व्यवसाय तो यह बिल्कुल भी नहीं है। तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन के लिए परमेश्वर का यह मानक है कि यह “समुचित” हो। “समुचित” होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर उसे संतुष्ट करना। यह परमेश्वर को कहना चाहिए कि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन समुचित है और इसके लिए उसकी स्वीकृति मिलनी चाहिए। तभी तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन समुचित होगा। यदि परमेश्वर कहता है कि यह समुचित नहीं है, तो तुम चाहे जितने समय से अपना कर्तव्य निभा रहे हो या चाहे तुमने जितनी भी कीमत चुकाई हो, यह समुचित नहीं है। तो फिर नतीजा क्या निकलेगा? यह सब श्रम की श्रेणी में रखा जाएगा। निष्ठावान हृदय वाले श्रमिकों के एक छोटे-से वर्ग को ही बख्शा जाएगा। यदि वे अपने श्रम में निष्ठावान नहीं हैं तो उन्हें बख्शे जाने की कोई आशा नहीं है। स्पष्ट रूप से कहूँ तो वे किसी विपत्ति में नष्ट हो जाएँगे। यदि कोई अपना कर्तव्य निभाते समय कभी भी लक्ष्य पूरा नहीं करता है तो उससे कर्तव्य निर्वहन का अधिकार छीन लिया जाएगा। यह अधिकार छिन जाने के बाद कुछ लोग दरकिनार कर दिए जाएँगे। दरकिनार कर दिए जाने के बाद उनका ख्याल अलग तरीकों से रखा जाएगा। क्या “अलग तरीकों से ख्याल रखने” का मतलब निकाल दिया जाना है? यह जरूरी नहीं है। परमेश्वर मुख्य रूप से यह देखता है कि किसी व्यक्ति ने पश्चात्ताप किया है या नहीं। इसलिए तुम अपना कर्तव्य निर्वहन कैसे करते हो यह महत्वपूर्ण है, और लोगों को इसे गंभीरता व कर्तव्यनिष्ठा से करना चाहिए। चूँकि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन सीधे तौर पर तुम्हारे जीवन प्रवेश और सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश के साथ ही तुम्हारे उद्धार और तुम्हें पूर्ण बनाए जाने जैसे बड़े मुद्दों से जुड़ा है, इसलिए तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास करते समय अपने कर्तव्य निर्वहन को सर्वोपरि कार्य मानना चाहिए। तुम इसके बारे में भ्रमित नहीं हो सकते।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?
हर कोई जो परमेश्वर में विश्वास करता है उसे उसके इरादे समझने चाहिए। केवल वे ही जो अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाते हैं, परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं, और केवल परमेश्वर के आदेश को पूरा करके ही किसी का कर्तव्य-प्रदर्शन संतोषजनक हो सकता है। परमेश्वर के आदेश की पूर्ति के लिए एक मानक होता है। प्रभु यीशु ने कहा था : “तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन से, और अपने सारे प्राण से, और अपनी सारी बुद्धि से, और अपनी सारी शक्ति से प्रेम रखना।” “परमेश्वर से प्रेम करना” उसका एक पहलू है जो परमेश्वर लोगों से अपेक्षा रखता है। यह अपेक्षा स्वयं कहाँ अभिव्यक्त होनी चाहिए? उसमें तुम्हें परमेश्वर का आदेश पूरा करना होगा। व्यावहारिक दृष्टि से यह एक इंसान के तौर पर अपना कर्तव्य बखूबी निभाना है। तो अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने का मानक क्या है? यह परमेश्वर की अपेक्षा है कि एक सृजित प्राणी के रूप में तुम अपना कर्तव्य अपने पूरे मन, प्राण, बुद्धि और शक्ति से अच्छे से निभाओ। यह आसानी से समझ आना चाहिए। परमेश्वर की अपेक्षा को पूरा करने के लिए तुम्हें मुख्य रूप से अपना मन अपने कर्तव्य में लगाने की आवश्यकता होती है। यदि तुम इसमें अपना मन लगा सकते हो, तो तुम्हारे लिए अपना पूरा प्राण, पूरी बुद्धि और अपनी पूरी शक्ति से कार्य करना आसान हो जाएगा। यदि तुम केवल अपने मन की कल्पनाओं पर भरोसा करके, और अपने गुणों पर भरोसा करके अपना कर्तव्य निभाते हो, तो क्या तुम परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हो? बिल्कुल नहीं। तो वह कौन-सा मानक है जिस पर परमेश्वर का आदेश पूरा करने के लिए और अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक और अच्छी तरह से निभाने के लिए खरा उतरना चाहिए? यह अपने पूरे मन से, अपने पूरे प्राण से, अपनी पूरी बुद्धि से और अपनी पूरी शक्ति से अपना कर्तव्य निभाना है। यदि तुम परमेश्वर-प्रेमी हृदय के बिना अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने का प्रयास करते हो, तो यह काम नहीं करेगा। यदि तुम्हारा परमेश्वर-प्रेमी हृदय निरंतर मजबूत और अधिक सच्चा होता जाता है, तो तुम स्वाभाविक रूप से अपने कर्तव्य को अपने पूरे मन से, अपनी पूरे प्राण से, अपनी पूरी बुद्धि से और अपनी पूरी शक्ति से अच्छे ढंग से करने में सक्षम होगे। तुम्हारा सारा मन, तुम्हारा सारा प्राण, तुम्हारी सारी बुद्धि, तुम्हारी सारी शक्ति—जो सबसे अंत में आती है वह है “तुम्हारी सारी शक्ति”; “तुम्हारा सारा मन” पहले आता है। यदि तुम अपना कर्तव्य पूरे मन से नहीं कर रहे हो, तो तुम इसे अपनी पूरी शक्ति से कैसे कर सकते हो? इसीलिए केवल अपनी पूरी शक्ति से अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास करने से कोई परिणाम प्राप्त नहीं हो सकता—न ही सिद्धांतों पर खरा उतरा जा सकता है। परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सबसे महत्वपूर्ण चीज क्या है? (पूरे मन से।) चाहे परमेश्वर तुम्हें कोई भी कर्तव्य या चीज सौंपे, यदि तुम केवल मेहनत करते हो, इधर-उधर भागते हो और जोर लगाकर प्रयास करते हो, तो क्या तुम सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हो सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के इरादों के अनुसार कार्य कर सकते हो? (नहीं।) तो फिर तुम परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कैसे हो सकते हैं? (अपने पूरे मन से।) “पूरे मन से” शब्द कहना आसान है और लोग अक्सर कहते हैं, तो तुम इसे पूरे मन से कैसे कर सकते हो? कुछ लोग कहते हैं, “यह तब होता है जब तुम चीजों को थोड़े अधिक प्रयास और ईमानदारी से करते हो, अधिक सोचते हो, किसी और चीज को अपने दिमाग पर हावी नहीं होने देते, और केवल इस पर ध्यान केंद्रित करते हो कि हाथ में जो काम है उसे कैसे करना है, है न?” क्या यह इतना आसान है? (नहीं।) तो आओ अभ्यास के कुछ बुनियादी सिद्धांतों के बारे में बात करते हैं। उन सिद्धांतों के अनुसार जिनका तुम लोग आमतौर पर अभ्यास करते हो या पालन करते हो, पूरे मन से काम करने के लिए तुम्हें सबसे पहले क्या करना चाहिए? तुम्हें अपनी पूरी बुद्धि का उपयोग करना चाहिए, अपनी ऊर्जा का उपयोग करना चाहिए, और चीजों को करने में अपना मन लगाना चाहिए, और अनमना नहीं होना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति किसी काम को पूरे मन से नहीं कर पाता, तो उसका मन निराश हो जाता है, जो कि अपनी आत्मा खो देने के समान है। बोलते समय उनके विचार भटकते रहेंगे, वे कभी भी काम करने में अपना मन नहीं लगाएँगे, और चाहे वे कुछ भी करें वे नासमझ रहेंगे। नतीजतन, वे चीजों को अच्छी तरह से सँभाल नहीं पाएँगे। यदि तुम अपना कर्तव्य पूरे मन से नहीं निभाते और अपना पूरा मन उसमें नहीं लगाते, तो तुम अपना कर्तव्य बुरे ढंग से निभाओगे। भले ही तुम कई वर्षों से अपना कर्तव्य निभा रहे हो, तो भी तुम इसे ठीक से नहीं कर पाओगे। यदि तुम उसमें अपना मन नहीं लगाते तो तुम कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते। कुछ लोग मेहनती कर्मचारी नहीं होते, वे हमेशा अस्थिर और मनमौजी होते हैं, उनका लक्ष्य बहुत ऊँचा होता है, और वे नहीं जानते कि उन्होंने अपना मन कहाँ रख छोड़ा है। क्या ऐसे लोगों के पास मन होता है? तुम लोग कैसे बता सकते हो कि किसी व्यक्ति के पास मन है या नहीं? यदि कोई व्यक्ति जो परमेश्वर में विश्वास रखता है वह शायद ही कभी परमेश्वर के वचन पढ़ता है, तो क्या उसके पास मन होता है? चाहे कुछ भी हो जाए, यदि वे कभी भी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, तो क्या उनके पास मन है? चाहे उन्हें जितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़े, यदि वे कभी भी सत्य की खोज नहीं करते, तो क्या उनके पास मन है? कुछ लोग बिना कोई स्पष्ट परिणाम प्राप्त किए वर्षों तक अपने कर्तव्य निभाते हैं, क्या उनके पास मन होता है? (नहीं।) क्या जिन लोगों के पास मन नहीं होता, वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हैं? लोग अपने कर्तव्यों को पूरे मन से कैसे निभा सकते हैं? सबसे पहले तुम्हें जिम्मेदारी के बारे में सोचना चाहिए। “यह मेरी जिम्मेदारी है, मुझे इसे वहन करना है। अब जब मेरी सबसे ज्यादा जरूरत है तो मैं भाग नहीं सकता। मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना है और इसका हिसाब परमेश्वर को देना है।” इसका मतलब है कि तुम्हारे पास एक सैद्धांतिक आधार है। लेकिन क्या केवल सैद्धांतिक आधार होने का मतलब यह होता है कि तुम अपना कर्तव्य पूरे मन से कर रहे हो? (नहीं।) तुम अभी भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और पूरे मन से अपना कर्तव्य निभाने की परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने से दूर हो। तो अपना कर्तव्य पूरे मन से करने का क्या मतलब होता है? लोग अपने कर्तव्यों को पूरे मन से कैसे निभा सकते हैं? सबसे पहले तुम्हें यह सोचने होगा, “मैं यह कर्तव्य किसके लिए निभा रहा हूँ? क्या मैं यह परमेश्वर, या कलीसिया, या किसी व्यक्ति के लिए कर रहा हूँ?” इसका स्पष्ट रूप से पता लगाया जाना चाहिए। साथ ही : “मुझे यह कर्तव्य किसने सौंपा? क्या यह परमेश्वर था, या यह कोई अगुआ या कलीसिया थी?” इसे भी साफ करना होगा। यह छोटी-सी बात लग सकती है, लेकिन फिर भी इसे सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए। मुझे बताओ, क्या यह कोई अगुआ या कार्यकर्ता था, या कोई कलीसिया थी, जिसने तुम लोगों को तुम्हारा कर्तव्य सौंपा था? (नहीं।) अगर तुम इसके बारे में दिल से आश्वस्त हो, तो यह ठीक है। तुम्हें पुष्टि करनी होगी कि यह परमेश्वर ही था जिसने तुम्हें तुम्हारा कर्तव्य सौंपा है। ऐसा प्रतीत हो सकता है कि यह किसी कलीसिया के अगुआ द्वारा दिया गया है, लेकिन वास्तव में यह सब परमेश्वर की व्यवस्था से आता है। ऐसे समय हो सकते हैं जब यह स्पष्ट रूप से मानवीय इच्छा से आया हो, लेकिन फिर भी तुम्हें पहले इसे परमेश्वर से स्वीकार करना होगा। इसे अनुभव करने का यही सही तरीका है। यदि तुम इसे परमेश्वर से स्वीकार करते हो, और जानबूझकर उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पित होते हो, और उसके आदेश को स्वीकार करने के लिए आगे बढ़ते हो—यदि तुम इसे इस तरह से अनुभव करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर का मार्गदर्शन और कार्य मिलेगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं?
तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभा रहे हो, तुम्हें जो सिद्धांत समझने चाहिए और जिन सत्यों को तुम्हें अभ्यास में लाना चाहिए वे एक समान हैं। तुमसे चाहे अगुआ बनने को कहा जाए या कार्यकर्ता, या तुम चाहे मेजबान के रूप में खाना बना रहे हो, या तुमसे चाहे किन्हीं बाहरी कार्यों की देखरेख करने या कोई शारीरिक मेहनत करने को कहा जाए, ये विभिन्न कर्तव्य निभाते हुए जिन सत्य सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए वे इस रूप में एक समान हैं कि ये सत्य और परमेश्वर के वचनों पर आधारित होने चाहिए। तो फिर इनमें सबसे बड़ा और मुख्य सिद्धांत कौन-सा है? यही कि अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने में अपने दिल, दिमाग और प्रयास समर्पित किए जाएँ, और इसे अपेक्षित मानक के स्तर तक पूरा किया जाए। अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने और इसे मानक के स्तर तक पूरा करने के लिए तुम्हें यह जरूर जानना चाहिए कि कर्तव्य क्या होता है। बताओ जरा, आखिर कर्तव्य क्या होता है? क्या कर्तव्य तुम्हारा करियर है? (नहीं।) अगर तुम अपने कर्तव्य को अपने करियर की तरह लेते हो, इसे अच्छे से पूरा करने के लिए अपने सारे प्रयास करने को तैयार हो ताकि दूसरे लोग देख सकें कि तुम कितने कामयाब और विलक्षण हो, और यह सोचने लगो कि इससे तुम्हारे जीवन को मायने मिलते हैं तो क्या यह सही दृष्टिकोण होगा? (नहीं।) यह दृष्टिकोण कहाँ गलत ठहरता है? यह परमेश्वर के आदेश को अपना ही उद्यम मानने के कारण गलत ठहरता है। यह इंसानों को तो ठीक लगता है, लेकिन परमेश्वर के अनुसार यह गलत मार्ग पर चलना है, सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन है, और वह इसकी निंदा करता है। परमेश्वर के इरादों के अनुसार चलने के लिए कर्तव्य निर्वहन परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए। सत्य सिद्धांतों की अवहेलना करते हुए मानवीय रुझानों के आधार पर कार्य करना पापमय है। इससे परमेश्वर का विरोध होता है और यह दंड का भागी है। यही उन मूर्ख और अज्ञानी लोगों की नियति है जो सत्य को नहीं स्वीकारते हैं। जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं उन्हें इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर लोगों से क्या चाहता है। यह दृष्टि स्पष्ट की जानी चाहिए। चलो सबसे पहले इस बारे में बात करें कि कर्तव्य क्या है। कोई भी कर्तव्य तुम्हारा अपना अभियान, अपना करियर या अपना कार्य नहीं है; यह परमेश्वर का कार्य है। परमेश्वर के कार्य को तुम्हारे सहयोग की जरूरत होती है, जो तुम्हारे कर्तव्य को जन्म देता है। परमेश्वर के कार्य का वह हिस्सा जिसमें मनुष्य को सहयोग करना चाहिए, वही उसका कर्तव्य है। कर्तव्य परमेश्वर के कार्य का हिस्सा है—यह तुम्हारा करियर नहीं है, न तुम्हारा घरेलू मामला है, न जीवन में तुम्हारा व्यक्तिगत मामला है। तुम्हारा कर्तव्य चाहे आंतरिक या बाहरी कार्यों से निपटना हो, चाहे इसमें मानसिक या शारीरिक श्रम शामिल हो, यह ऐसा कर्तव्य है जिसे तुम्हें निभाना ही चाहिए, यह कलीसिया का कार्य है, यह परमेश्वर की प्रबंधन योजना का हिस्सा है, और यह वो आदेश है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। यह तुम्हारा व्यक्तिगत मामला नहीं है। तो फिर, तुम्हें अपने कर्तव्य को किस रूप में लेना चाहिए? कम से कम, तुम्हें अपना कर्तव्य मनमाने ढंग से नहीं निभाना चाहिए, तुम्हें लापरवाही से कार्य नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए, अगर तुम भाई-बहनों के लिए खाना बनाने के प्रभारी हो तो यह तुम्हारा कर्तव्य है। तुम्हें इस कार्य को किस रूप में लेना चाहिए? (मुझे सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए।) तुम सत्य सिद्धांत कैसे खोजते हो? इसका संबंध वास्तविकता और सत्य से है। तुम्हें यह सोचना चाहिए कि सत्य को अभ्यास में कैसे लाएँ, इस कर्तव्य को किस प्रकार अच्छे से निभाएँ, और इस कर्तव्य से सत्य के कौन से पहलू जुड़े हुए हैं। पहला कदम यह है कि तुम्हें सबसे पहले यह जानना चाहिए, “मैं खाना अपने लिए नहीं बना रहा हूँ। यह तो मेरा कर्तव्य है जिसे मैं निभा रहा हूँ।” यहाँ पहलू दृष्टि का है। दूसरा कदम क्या है? (मुझे सोचना चाहिए कि खाना अच्छे से कैसे बनाएँ।) खाना अच्छे से बनाने का मानदंड क्या है? (मुझे परमेश्वर की अपेक्षाएँ खोजनी चाहिए।) सही है। परमेश्वर की अपेक्षाएँ ही सत्य, मानक और सिद्धांत हैं। परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार खाना बनाना सत्य का एक पहलू है। तुम्हें सबसे पहले सत्य के इस पहलू पर ध्यान देना चाहिए और फिर यह चिंतन करना चाहिए, “परमेश्वर ने मुझे निर्वहन के लिए यह कर्तव्य दिया है। परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानक क्या है?” यह नींव अनिवार्य है। तो फिर परमेश्वर के मानक पर खरे उतरने के लिए तुम्हें कैसे खाना बनाना चाहिए? तुम जो खाना बनाओ वह पौष्टिक, स्वादिष्ट, स्वच्छ होना चाहिए और शरीर के लिए नुकसानदेह नहीं होना चाहिए—इससे ये बातें जुड़ी हुई हैं। अगर तुम इस सिद्धांत के अनुसार खाना बनाते हो, तो यह परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार बना होगा। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि तुमने इस कर्तव्य के सिद्धांत खोजे और परमेश्वर द्वारा निर्धारित दायरे के बाहर नहीं गए। खाना बनाने का यही सही तरीका है। तुमने अपना कर्तव्य अच्छे से निभाया और इसे संतोषजनक ढंग से पूरा किया।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य सिद्धांत खोजकर ही कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है
तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभा रहे हो, तुम्हें सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए, परमेश्वर के इरादे समझने चाहिए, यह जानना चाहिए कि उस कर्तव्य के संबंध में उसकी क्या अपेक्षाएँ हैं, और यह समझना चाहिए कि उस कर्तव्य के माध्यम से तुम्हें क्या चीज पूरी करनी चाहिए। केवल ऐसा करके ही तुम सिद्धांत के अनुसार अपना कार्य कर सकते हो। अपने कर्तव्य को निभाने में, तू अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार बिल्कुल नहीं जा सकता है या तू जो चाहे वही नहीं कर सकता है, जिसे भी करने में तू खुश हो, वह नहीं कर सकता है, या ऐसा काम नहीं कर सकता जो तुझे अच्छे व्यक्ति के रूप में दिखाए। यह अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करना है। अगर तू अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में यह सोचते हुए अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं पर भरोसा करता है कि परमेश्वर यही अपेक्षा करता है, और यही है जो परमेश्वर को खुश करेगा, और यदि तू परमेश्वर पर अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को बलपूर्वक लागू करता है या उन का अभ्यास ऐसे करता है मानो कि वे सत्य हों, उनका ऐसे पालन करता है मानो कि वे सत्य सिद्धांत हों, तो क्या यह गलती नहीं है? यह कर्तव्य निभाना नहीं है, और इस तरह से तेरा कर्तव्य निभाना परमेश्वर के द्वारा याद नहीं रखा जाएगा। कुछ लोग सत्य को नहीं समझते हैं, और वे नहीं जानते कि अपने कर्तव्यों को ठीक से पूरा करने का क्या अर्थ है। उन्हें लगता है कि उन्होंने अपना प्रयास और अपना दिल इसमें लगाया है, अपनी दैहिक इच्छा के विरुद्ध विद्रोह किया है और कष्ट उठाया है, तो फिर वे अपने कर्तव्य संतोषजनक ढंग से क्यों नहीं पूरे कर सकते हैं? परमेश्वर हमेशा असंतुष्ट क्यों रहता है? इन लोगों ने कहाँ भूल की है? उनकी भूल यह थी कि उन्होंने परमेश्वर की अपेक्षाओं की तलाश नहीं की थी, बल्कि अपने ही विचारों के अनुसार काम किया था—यही कारण है। उन्होंने अपनी ही इच्छाओं, पसंद-नापसंद और स्वार्थी उद्देश्यों को सत्य मान लिया था और उन्होंने इनको वो मान लिया जिससे परमेश्वर प्रेम करता है, मानो कि वे परमेश्वर के मानक और अपेक्षाएँ हों। जिन बातों को वे सही, अच्छी और सुन्दर मानते थे, उन्हें सत्य के रूप में देखते थे; यह गलत है। वास्तव में, भले ही लोगों को कभी कोई बात सही लगे, लगे कि यह सत्य के अनुरूप है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि यह आवश्यक रूप से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। लोग जितना अधिक यह सोचते हैं कि कोई बात सही है, उन्हें उतना ही अधिक सावधान होना चाहिए और उतना ही अधिक सत्य को खोजना चाहिए और यह देखना चाहिए कि उनकी सोच परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप है या नहीं। यदि यह ठीक उसकी अपेक्षाओं और उसके वचनों के विरुद्ध है तो भले ही तुम इसे सही मानो यह स्वीकार्य नहीं है, और यह बस एक मानवीय विचार है और तुम इसे चाहे कितना ही सही मानो यह सत्य के अनुरूप नहीं होगा। कोई चीज सही है या गलत, यह निर्णय परमेश्वर के वचनों पर आधारित होना चाहिए। तुम्हें कोई बात चाहे जितनी भी सही लगे, जब तक इसका आधार परमेश्वर के वचनों में न हों, यह गलत है और तुम्हें इसे हटा देना चाहिए। यह तभी स्वीकार्य है जब यह सत्य के अनुरूप हो, और इस तरीके से सत्य सिद्धांतों का मान रखकर ही तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन मानक पर खरा उतर सकता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य सिद्धांत खोजकर ही कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है
अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हें हमेशा खुद को जांच कर देखना चाहिए कि क्या तुम सिद्धांत के अनुसार काम कर रहे हो, तुम्हारा कर्तव्य निर्वाह सही स्तर का है या नहीं, कहीं तुम इसे सतही तौर पर तो नहीं कर रहे हो, कहीं तुमने अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने से जी चुराने की कोशिश तो नहीं की है, कहीं तुम्हारे रवैये और तुम्हारे सोचने के तरीके में कोई खोट तो नहीं। एक बार तुम्हारे आत्मचिंतन कर लेने और तुम्हारे सामने इन चीज़ों के स्पष्ट हो जाने से, अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हें आसानी होगी। अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारा किसी भी चीज़ से सामना हो—नकारात्मकता और कमज़ोरी, या काट-छाँट के बाद बुरी मनःस्थिति में होना—तुम्हें कर्तव्य के साथ ठीक से पेश आना चाहिए, और तुम्हें साथ ही सत्य को खोजना और परमेश्वर के इरादों को समझना चाहिए। ये काम करने से तुम्हारे पास अभ्यास करने का मार्ग होगा। अगर तुम अपना कर्तव्य निर्वाह बहुत अच्छे ढंग से करना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी मनःस्थिति से बिल्कुल प्रभावित नहीं होना चाहिए। तुम्हें चाहे जितनी निराशा या कमज़ोरी महसूस हो रही हो, तुम्हें अपने हर काम में पूरी सख्ती के साथ सत्य का अभ्यास करना चाहिए, और सिद्धांतों पर अडिग रहना चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो न सिर्फ दूसरे लोग तुम्हें स्वीकार करेंगे, बल्कि परमेश्वर भी तुम्हें पसंद करेगा। इस तरह, तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे, जो ज़िम्मेदार है और दायित्व का निर्वहन करता है; तुम सचमुच में एक अच्छे व्यक्ति होगे, जो अपने कर्तव्यों को मानक के अनुसार निभाता है और जो पूरी तरह से एक सच्चे इंसान की तरह जीता है। ऐसे लोगों का शुद्धिकरण किया जाता है और वे अपने कर्तव्य निभाते समय वास्तविक बदलाव हासिल करते हैं, उन्हें परमेश्वर की दृष्टि में ईमानदार कहा जा सकता है। केवल ईमानदार लोग ही सत्य का अभ्यास करने में डटे रह सकते हैं और सिद्धांत के साथ कर्म करने में सफल हो सकते हैं, और मानक के अनुसार कर्तव्यों को निभा सकते हैं। सिद्धांत पर चलकर कर्म करने वाले लोग अच्छी मनःस्थिति में होने पर अपने कर्तव्यों को ध्यान से निभाते हैं; वे सतही ढंग से कार्य नहीं करते, वे अहंकारी नहीं होते और दूसरे उनके बारे में ऊंचा सोचें इसके लिए दिखावा नहीं करते। बुरी मनःस्थिति में होने पर भी वे अपने रोज़मर्रा के काम को उतनी ही ईमानदारी और ज़िम्मेदारी से पूरा करते हैं और उनके कर्तव्यों के निर्वाह के लिए नुकसानदेह या उन पर दबाव डालने वाली या उनके कर्तव्य निर्वहन में बाधा पहुँचाने वाली किसी चीज़ से सामना होने पर भी वे परमेश्वर के सामने अपने दिल को शांत रख पाते हैं और यह कहते हुए प्रार्थना करते हैं, “मेरे सामने चाहे जितनी बड़ी समस्या खड़ी हो जाए—भले ही आसमान फट कर गिर पड़े—जब तक मैं जीवित हूँ, अपना कर्तव्य निभाने की भरसक कोशिश करने का मैं दृढ़ संकल्प लेता हूँ। मेरे जीवन का प्रत्येक दिन वह दिन होगा जब मैं अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निभाऊंगा, ताकि मैं परमेश्वर द्वारा मुझे दिये गये इस कर्तव्य, और उसके द्वारा मेरे शरीर में प्रवाहित इस सांस के योग्य बना रहूँ। चाहे जितनी भी मुश्किलों में रहूँ, मैं उन सबको परे रख दूंगा क्योंकि कर्तव्य निर्वाह करना मेरे लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है!” जो लोग किसी व्यक्ति, घटना, चीज़ या माहौल से प्रभावित नहीं होते, जो किसी मनःस्थिति या बाहरी स्थिति से बेबस नहीं होते, और जो परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गये कर्तव्यों और आदेशों को सबसे आगे रखते हैं—वही परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होते हैं और सच्चाई के साथ उसके सामने समर्पण करते हैं। ऐसे लोगों ने जीवन-प्रवेश हासिल किया है और सत्य वास्तविकता में प्रवेश किया है। यह सत्य को जीने की सबसे सच्ची और व्यावहारिक अभिव्यक्तियों में से एक है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है
बेमन से अपना कर्तव्य निभाना भारी वर्जना है। अगर अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हारा मन कभी नहीं लगता तो मान्य मापदंडों के अनुरूप काम करने का कोई तरीका तुम्हारे पास नहीं है। अगर तुम निष्ठा से काम करना चाहते हो तो पहले तुम्हें बेमन से काम करने की अपनी समस्या दूर करनी होगी। यह समस्या देखते ही इसके निराकरण के कदम उठाने होंगे। अगर हमेशा भ्रमित रहते हो, समस्याएं कभी नहीं देख पाते और लापरवाही से कार्य करते हो तो अपना कर्तव्य ठीक से करने का तरीका तुम्हें कभी नहीं आएगा। इसलिए, तुम्हें हमेशा पूरे मन से अपना कर्तव्य निभाना होगा। लोगों को यह अवसर मिलना बहुत कठिन था! जब परमेश्वर उन्हें अवसर देता है लेकिन वे उसे पकड़ नहीं पाते, तो वह अवसर खो जाता है—और अगर बाद में वे ऐसा अवसर खोजना चाहें, तो शायद वह दोबारा न मिले। परमेश्वर का कार्य किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, और न ही अपना कर्तव्य निभाने के अवसर किसी की प्रतीक्षा करते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने पहले अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया था, लेकिन अभी भी मैं उसे निभाना चाहता हूँ। मैं दुबारा डटना चाहता हूँ।” इस तरह का संकल्प लेना तो अच्छी बात है लेकिन अपना कर्तव्य निभाना कैसे है, इसकी स्पष्ट समझ होनी चाहिए, और तुम्हें सत्य हासिल करने का प्रयास करना चाहिए। जो सत्य समझते हैं, केवल वही अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकते हैं। जो सत्य नहीं समझते, वे तो श्रम करने योग्य भी नहीं हैं। सत्य के बारे में जितनी अधिक स्पष्टता होगी, तुम अपने कर्तव्य निर्वहन में उतने ही प्रभावी होगे। अगर तुम यह सच्चाई समझ लोगे तो सत्य को जानने का प्रयास करने लगोगे, और तब तुम अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने की उम्मीद रख सकते हो। वर्तमान में कर्तव्य निभाने के बहुत ज्यादा अवसर नहीं हैं, इसलिए जब भी संभव हो, तुम्हें उन्हें लपक लेना चाहिए। जब कोई कर्तव्य सामने होता है, तो यही समय होता है जब तुम्हें परिश्रम करना चाहिए; यही समय होता है जब तुम्हें खुद को अर्पित करना चाहिए और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहिए, और यही समय होता है जब तुमसे कीमत चुकाने की अपेक्षा की जाती है। कोई कमी मत छोड़ो, कोई षड्यंत्र मत करो, कोई कसर बाकी मत रखो, या अपने लिए बचने का कोई रास्ता मत छोड़ो। यदि तुमने कोई कसर छोड़ी, या तुम मतलबी, मक्कार या विश्वासघाती बनते हो, तो तुम निश्चित ही एक खराब काम करोगे। मान लो, तुम कहते हो, “किसी ने मुझे चालाकी से काम करते हुए नहीं देखा। क्या बात है!” यह किस तरह की सोच है? क्या तुम्हें लगता है कि तुमने लोगों की आँखों में धूल झोंक दी, और परमेश्वर की आँखों में भी? हालाँकि, वास्तविकता में, तुमने जो किया वो परमेश्वर जानता है या नहीं? वह जानता है। वास्तव में, जो कोई भी तुमसे कुछ समय तक बातचीत करेगा, वह तुम्हारी भ्रष्टता और नीचता के बारे में जान जाएगा, और भले ही वह ऐसा सीधे तौर पर न कहे, लेकिन वह अपने दिल में तुम्हारा आकलन करेगा। ऐसे कई लोग रहे हैं, जिन्हें इसलिए बेनकाब करके हटा दिया गया, क्योंकि बहुत सारे दूसरे लोग उन्हें समझ गए थे। जब उन सबने उनका सार देख लिया, तो उन्होंने उनकी असलियत उजागर कर दी और उन्हें बाहर निकाल दिया गया। इसलिए, लोग चाहे सत्य का अनुसरण करें या न करें, उन्हें अपनी क्षमता के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए; उन्हें व्यावहारिक काम करने में अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। तुममें दोष हो सकते हैं, लेकिन अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में प्रभावी हो पाते हो, तो तुम्हें नहीं हटाया जाएगा। अगर तुम हमेशा सोचते हो कि तुम ठीक हो, अपने हटाए न जाने के बारे में निश्चित रहते हो, और अभी भी आत्मचिंतन या खुद को जानने की कोशिश नहीं करते, और तुम अपने उचित कार्यों को अनदेखा करते हो, हमेशा लापरवाह रहते हो, तो जब तुम्हें लेकर परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सहनशीलता खत्म हो जाएगी, तो वे तुम्हारी असलियत उजागर कर देंगे, और इस बात की पूरी संभावना है कि तुम्हें हटा दिया जाएगा। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सभी ने तुम्हारी असलियत देख ली है और तुमने अपनी गरिमा और निष्ठा खो दी है। अगर कोई व्यक्ति तुम पर भरोसा नहीं करता, तो क्या परमेश्वर तुम पर भरोसा कर सकता है? परमेश्वर मनुष्य के अंतस्तल की पड़ताल करता है : वह ऐसे व्यक्ति पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं कर सकता। अगर कोई व्यक्ति भरोसेमंद नहीं है तो उसे किसी भी परिस्थिति में कोई काम मत सौंपो। अगर तुम किसी व्यक्ति को जानते नहीं हो, या सिर्फ लोगों से सुना है कि वह अपने काम में अच्छा है, लेकिन तुम्हारा दिल सौ फीसदी गवाही नहीं देता, तो पहले उसे कोई छोटा-सा काम सौंपकर देखो—जो कतई महत्वपूर्ण न हो। अगर वह कुछ छोटे-छोटे काम ठीक से कर ले, तो उसे कोई सामान्य काम सौंप सकते हो। और अगर उसने वह काम सफलतापूर्वक कर दिखाया, तभी उसे कोई महत्वपूर्ण काम सौंप सकते हो। अगर वह सामान्य-सा काम भी बिगाड़ दे तो वह व्यक्ति भरोसेमंद नहीं है। काम चाहे छोटा हो या बड़ा, उसे नहीं सौंपा जा सकता है। यदि तुम्हें ऐसा कोई व्यक्ति मिले जो सज्जन और जिम्मेदार है, लापरवाही नहीं करता, जो दूसरों के सौंपे काम को अपना मानकर करता है, काम के हर पहलू पर ध्यान देता है, तुम्हारी जरूरतें समझता है, हर दृष्टिकोण को ध्यान में रखता है, गहराई में जाता है और बिल्कुल सही तरीके से चीजें संभालता है, अपने काम से तुम्हें पर संतुष्ट करता है—तो इसी तरह का व्यक्ति भरोसेमंद है। भरोसेमंद लोग वे लोग होते हैं जिनमें मानवता होती है, और जिन लोगों में मानवता होती है उनमें अंतःकरण और विवेक होता है, और उनके लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना बहुत आसान होना चाहिए, क्योंकि वे अपने कर्तव्य को अपना दायित्व मानते हैं। अंतःकरण या विवेक से रहित लोगों का अपना कर्तव्य खराब तरीके से निभाना निश्चित है, और उनका कर्तव्य चाहे कुछ भी हो, उसके प्रति उनमें जिम्मेदारी का कोई बोध नहीं होता। दूसरों को हमेशा उनकी चिंता करनी पड़ती है, उनकी निगरानी करनी पड़ती है और उनकी प्रगति के बारे में पूछना पड़ता है; वरना उनके कर्तव्य निभाते समय चीजें गड़बड़ा सकती हैं, कार्य करते समय चीजें गलत हो सकती हैं, जिससे भारी परेशानी होगी।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है
एक मान्य मापदंड के अनुरूप अपना कर्तव्य निभाने के लिए पहले तुम्हारी उचित मानसिकता होनी चाहिए। जब भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो तो तुम्हें अपनी दशा भी सुधारनी होगी। जब तुम अपने कर्तव्य के प्रति सही ढंग से पेश आने में सक्षम होते हो, जब तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों से होने वाली बेबसी और उनके प्रभावों से मुक्त हो चुके हो, जब खुद को पूरी तरह से परमेश्वर को समर्पित कर सकते हो, तभी तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकोगे। ऐसा करने का राज यही है कि अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियों को सर्वोपरि रखो। अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में तुम्हें हमेशा अपनी जाँच करनी चाहिए : “क्या अपने कर्तव्य करने के प्रति मेरा अनमना रवैया है? कौन-सी चीजें मुझे तंग करती हैं और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति अनमना बनाती हैं? क्या मैं पूरे दिल और दम-खम से अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ? क्या इस तरह काम करके परमेश्वर मुझ पर भरोसा करेगा? क्या मेरा हृदय परमेश्वर को पूरी तरह समर्पित हो चुका है? क्या मेरा इस तरह कर्तव्य निभाना सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या इस तरह कर्तव्य निभाने से सर्वोत्तम नतीजे प्राप्त होंगे?” तुम्हें अक्सर इन सवालों पर चिंतन करना चाहिए। जब तुम्हें समस्याएँ दिखाई दें तो सक्रिय होकर सत्य खोजना चाहिए और इन्हें हल करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचन तलाशने चाहिए। इस तरह तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकोगे और तुम्हारे दिल को शांति और खुशी मिलेगी। अगर कर्तव्य निभाते हुए बार-बार परेशानियाँ सामने आएँ तो इनमें से अधिकतर समस्याएँ तुम्हारे इरादों के कारण आती हैं—ये भ्रष्ट स्वभाव की समस्याएँ हैं। जब किसी व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो जाता है, तो उसके हृदय में समस्याएँ होंगी और उसकी स्थिति असामान्य रहेगी, जिसका सीधा असर उसकी कर्तव्य क्षमता पर पड़ेगा। व्यक्ति की कर्तव्य क्षमता पर असर डालने वाली समस्याएँ बड़ी और गंभीर होती हैं; ये परमेश्वर के साथ उसके संबंध को सीधे प्रभावित कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, जब कुछ लोगों के परिवारों पर विपदा आती है तो वे परमेश्वर को लेकर धारणाएँ और गलतफहमियाँ विकसित कर लेते हैं। कुछ लोग जब अपने कर्तव्यों में कष्ट झेलते हैं तो नकारात्मक हो जाते हैं और इसे न कोई देखता है, न उनकी प्रशंसा करता है। कुछ लोग अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते, हमेशा अनमने बने रहते हैं, और जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत करने लगते हैं। कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाने के अनिच्छुक इसलिए होते हैं क्योंकि वे हमेशा बचने का रास्ता ढूँढ़ने में लगे रहते हैं। ये सारी समस्याएँ परमेश्वर के साथ सहज संबंध पर सीधा असर डालती हैं। ये सारी समस्याएँ भ्रष्ट स्वभाव की समस्याएँ हैं। ये सभी इस तथ्य से उपजती हैं कि लोग परमेश्वर को नहीं जानते, कि वे हमेशा चालबाजी में लगे रहकर अपने बारे में ही सोचते हैं, जो उन्हें परमेश्वर के इरादों के बारे में विचारशील होने या परमेश्वर की योजनाओं के लिए समर्पित होने से रोकता है। इससे तमाम तरह के नकारात्मक भाव उत्पन्न होते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे बिल्कुल ऐसे ही होते हैं। जब उन पर छोटे-छोटे संकट आते हैं तो वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं, अपना कर्तव्य निभाने में खीझ निकालते हैं, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर उसका प्रतिरोध करते हैं और अपनी जिम्मेदारियाँ छोड़कर परमेश्वर को धोखा देना चाहते हैं। ये सारी चीजें भ्रष्ट स्वभाव से उपजी बेबसी के विभिन्न दुष्परिणाम हैं। जो व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है, वह अपने जीवन, भविष्य और नियति की चिंता को परे रखकर सिर्फ और सिर्फ सत्य का अनुसरण कर इसे हासिल करना चाहता है। ऐसे लोग मानते हैं कि समय अपर्याप्त है, उन्हें डर लगा रहता है कि वे अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा पाएँगे, खुद को पूर्ण नहीं बना पाएँगे, इसलिए वे हर चीज को परे रख पाते हैं। उनकी मानसिकता सिर्फ परमेश्वर की ओर मुड़ने और उसके लिए समर्पित होने की होती है। वे किसी भी परेशानी से विचलित नहीं होते, और अगर वे खुद को नकारात्मक या कमजोर महसूस करते हैं तो परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़कर सहज रूप से इसका समाधान कर लेते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं वे परेशान होते हैं, और तुम उनके साथ सत्य के बारे में चाहे जितनी संगति कर लो, वे अपनी समस्याएँ पूरी तरह से हल करने में असमर्थ होते हैं। भले ही वे क्षण भर के लिए सचेत होकर सत्य को स्वीकारने में सक्षम हो जाएँ, फिर भी वे बाद में इससे पीछे हट जाएँगे, इसलिए ऐसे व्यक्तियों को संभालना बहुत मुश्किल होता है। ऐसा नहीं है कि वे सत्य के बारे में कुछ नहीं समझते, बल्कि बात यह है कि वे अपने मन में सत्य को संजोते या स्वीकारते नहीं हैं। आखिरकार इस हालत में वे अपनी इच्छा, अपने स्वार्थ, भविष्य, अपनी नियति और मंजिल को परे नहीं रख पाते, जो फिर हमेशा उन्हें परेशान करने के लिए सिर उठाते रहते हैं। अगर कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकारने में सक्षम होता है तो जैसे-जैसे वह सत्य को समझेगा, उसके भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित सारी चीजें अपने आप गायब हो जाएँगी, और उसे जीवन-प्रवेश और आध्यात्मिक कद प्राप्त होगा; वह आगे अज्ञानी बच्चा नहीं रहेगा। जब किसी व्यक्ति के पास आध्यात्मिक कद होता है तो वह चीजों को समझने में अधिक से अधिक सक्षम होगा, तमाम तरह के लोगों में अधिक से अधिक भेद कर सकेगा, और किसी भी व्यक्ति, घटना या चीज के आगे बेबस नहीं होगा। कोई कुछ भी कहे या करे, वह प्रभावित नहीं होगा। वह शैतान की बुरी शक्तियों के दखल या झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के गुमराह करने और बाधाएँ डालने से प्रभावित नहीं होगा। यदि ऐसा होता है तो क्या धीरे-धीरे उस व्यक्ति का आध्यात्मिक कद बढ़ता नहीं जाएगा? जितना ही व्यक्ति सत्य को समझेगा, उसके जीवन में उतनी ही प्रगति होगी, और उसके लिए अपना कर्तव्य सफलतापूर्वक करना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना आसान हो जाएगा। जब तुम जीवन प्रवेश कर लोगे और तुम्हारे जीवन में धीरे-धीरे प्रगति होने लगेगी तो तुम्हारी दशा ज्यादा से ज्यादा सामान्य होने लगेगी। जो लोग, घटनाएँ और चीजें कभी तुम्हें बाधित और बेबस करती थीं, वे तुम्हारे लिए समस्या नहीं रहेंगी। अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हें कोई समस्या नहीं आएगी, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध अधिक से अधिक सामान्य होता जाएगा। जब तुम यह जान जाओगे कि परमेश्वर पर कैसे भरोसा करना है, जब तुम यह जान लोगे कि परमेश्वर के इरादे कैसे खोजने हैं, जब तुम जान जाओगे कि मेरा स्थान क्या है, जब तुम जान जाओगे कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं करना है, कौन-से मामलों की जिम्मेदारी लेने की जरूरत है और कौन-से मामलों की नहीं, तो क्या तुम्हारी दशा ज्यादा से ज्यादा सामान्य नहीं होती जाएगी? इस तरह जीवन जीना तुम्हें थकाएगा नहीं, क्या थकाएगा? थकना तो दूर रहा, तुम खासतौर पर अधिक चैन और खुशी महसूस करोगे। तब क्या इसके नतीजे में तुम्हारा दिल रोशनी से नहीं भर जाएगा? तुम्हारी मानसिकता सामान्य हो जाएगी, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के खुलासे घट जाएँगे, और तुम परमेश्वर की उपस्थिति में रहकर सामान्य मानवता के साथ जी सकोगे। जब लोग तुम्हारा मानसिक दृष्टिकोण देखेंगे तो पाएँगे कि तुममें बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है। वे तुम्हारे साथ संगति करने को तैयार रहेंगे, अपने दिल में शांति और आनंद महसूस करेंगे, और लाभान्वित भी होंगे। जैसे-जैसे तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, तुम्हारी कथनी-करनी और अधिक उचित और सिद्धांत सम्मत होती जाएगी। जब तुम कमजोर और नकारात्मक लोगों को देखोगे तो उनकी ठोस मदद कर पाओगे—उन्हें बेबस नहीं करोगे या भाषण नहीं सुनाओगे, बल्कि अपने वास्तविक अनुभवों के सहारे मदद कर उन्हें लाभान्वित करोगे। इस तरह तुम परमेश्वर के घर में सिर्फ परिश्रम नहीं कर रहे होगे, बल्कि तुम ऐसे उपयोगी व्यक्ति भी बन जाओगे जो अपने कंधों पर जिम्मेदारी लेने और परमेश्वर के घर में बहुत सार्थक कार्य करने में सक्षम है। क्या परमेश्वर ऐसे ही व्यक्ति को नहीं चाहता? अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसे परमेश्वर चाहता है तो क्या सब लोग भी तुम्हें नहीं चाहेंगे? (बिल्कुल चाहेंगे।) परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति से क्यों प्रसन्न होता है? क्योंकि ऐसे व्यक्ति उसके सामने व्यावहारिक कार्य करने में सक्षम होते हैं, चापलूसी में नहीं फँसते, व्यावहारिक कार्य करते हैं, और अपने सच्चे अनुभवों के बारे में बताकर दूसरे लोगों की मदद और अगुआई कर सकते हैं। वे कोई भी समस्या हल करने में दूसरों की मदद करने में सक्षम होते हैं, और जब कलीसिया के कार्य में परेशानियाँ आती हैं तो वे सक्रिय रूप से समस्या सुलझाकर आगे का रास्ता दिखा सकते हैं। इसे ही निष्ठापूर्वक कर्तव्य निभाना कहते हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है
हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा और हैसियत पर विचार मत कर। तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उन्हें अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखना चाहिए और इस पर चिंतन से शुरुआत करनी चाहिए कि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में अशुद्धियाँ रही हैं या नहीं, तुम वफादार रहे हो या नहीं, तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही तुम अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार करते रहे हो या नहीं। तुम्हें इन चीज़ों के बारे में अवश्य विचार करना चाहिए। अगर तुम इन पर बार-बार विचार करते हो और इन्हें समझ लेते हो, तो तुम्हारे लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना आसान हो जाएगा। अगर तुम्हारे पास ज्यादा काबिलियत नहीं है, अगर तुम्हारा अनुभव उथला है, या अगर तुम अपने पेशेवर कार्य में दक्ष नहीं हो, तब तुम्हारेतुम्हारे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, हो सकता है कि तुम्हें अच्छे परिणाम न मिलें—पर तब तुमने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया होगा। तुमतुम अपनी स्वार्थपूर्णइच्छाएँ या प्राथमिकताएँ पूरी नहीं करते। इसके बजाय, तुम लगातार कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हो। भले ही तुम्हें अपने कर्तव्य में अच्छे परिणाम प्राप्त न हों, फिर भी तुम्हारा दिल निष्कपट हो गया होगा; अगर इसके अलावा, इसके ऊपर से, तुम अपने कर्तव्य में आई समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो, तब तुम अपना कर्तव्य निर्वहन मानक स्तर का कर पाओगे और साथ ही, तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। किसी के पास गवाही होने का यही अर्थ है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है
शुरू में लोग सत्य पर अमल करने को तैयार नहीं होते। उदाहरण के तौर पर, निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों के निर्वहन को ही लो : तुम्हारे अंदर अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होने की कुछ समझ है, तुम्हें सत्य की भी थोड़ी समझ है, लेकिन तुम पूरी तरह निष्ठावान कब होगे? नाम और कर्म में तुम अपने कर्तव्यों का निर्वहन कब कर सकोगे? इसमें प्रक्रिया की आवश्यकता है। इस प्रक्रिया के दौरान तुम्हें कई कठिनाइयों को झेलना पड़ सकता है। शायद कुछ लोग तुम्हारी काट-छाँट करें, कुछ तुम्हारी आलोचना करें। सबकी निगाहें तुम पर लगी रहेंगी, तुम्हें परख रही होंगी, केवल तब जाकर तुम्हें एहसास होगा कि तुम गलत हो, तुम ही हो जिसने अच्छा काम नहीं किया, कि कर्तव्य के निर्वहन में निष्ठा न होना अस्वीकार्य है और यह भी कि तुम्हें अनमना नहीं होना चाहिए! पवित्र आत्मा तुम्हें भीतर से प्रबुद्ध करता है और जब तुम कोई भूल करते हो, तो वह तुम्हें फटकारता है। इस प्रक्रिया के दौरान तुम अपने बारे में कुछ बातें समझने लगोगे और जान जाओगे कि तुममें बहुत सारी अशुद्धियाँ हैं, तुम्हारे अंदर निजी इरादे भरे पड़े हैं और अपने कर्तव्य निभाते समय तुम्हारे अंदर बहुत सारी अनियंत्रित इच्छाएँ होती हैं। जब तुम इन चीजों के सार को समझ जाते हो, तब अगर तुम परमेश्वर के समक्ष आकर उससे प्रार्थना कर सच्चा प्रायश्चित कर सकते हो, तो तुम्हारी वे भ्रष्ट चीजें शुद्ध की जा सकती हैं। यदि इस तरह अपनी व्यावहारिक समस्याओं का समाधान करने के लिए तुम अक्सर सत्य की खोज करोगे, तो तुम आस्था के सही मार्ग पर कदम बढ़ा सकोगे; तुम्हें सच्चे जीवन-अनुभव होने लगेंगे और धीरे-धीरे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध होने लगेगा। तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव जितना शुद्ध होता जाएगा, तुम्हारा जीवन स्वभाव उतना ही रूपांतरित होगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए
यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारे कर्तव्यों का निर्वहन मानक के अनुरूप हो, तो तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान सबसे पहले सौहार्दपूर्ण सहयोग प्राप्त करना होगा। वर्तमान में कुछ लोग ऐसे हैं जो पहले से ही सौहार्दपूर्ण सहयोग का अभ्यास कर रहे हैं। सत्य को समझने के बाद भले ही वे पूरी तरह से सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हों और भले ही रास्ते में असफलताएँ, कमजोरियाँ व विचलन हों, फिर भी वे सत्य सिद्धांत पाने का प्रयास करते हैं। इसलिए उनके सौहार्दपूर्ण सहयोग प्राप्त कर लेने की आशा है। उदाहरण के लिए, कभी-कभी तुम्हें लग सकता है कि तुम जो कर रहे हो वह सही है, लेकिन तुम खुद को आत्मतुष्ट नहीं होने देते हो। तुम दूसरों के साथ चर्चा कर सकते हो और उनके साथ सत्य सिद्धांतों पर तब तक संगति कर सकते हो जब तक ये इतने स्पष्ट और प्रत्यक्ष न हो जाएँ कि हर कोई उन्हें समझ जाए और इस बात पर सहमत हो जाए कि ऐसा करने से सर्वोत्तम नतीजा प्राप्त होगा। साथ ही, हर कोई इस बात से सहमत हो जाए कि यह सिद्धांतों से बाहर नहीं है, यह परमेश्वर के घर के हितों को ध्यान में रखता है और यह परमेश्वर के घर के हितों की यथासंभव रक्षा करेगा। इस तरह से अभ्यास करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। हालाँकि अंतिम नतीजा हमेशा वैसा नहीं हो सकता जैसा तुमने सोचा था, लेकिन तुम्हारे अभ्यास का मार्ग, दिशा और लक्ष्य सही था। तो परमेश्वर इसे कैसे देखता है? परमेश्वर इस मामले को कैसे परिभाषित करता है? परमेश्वर कहेगा कि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन समुचित है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?
अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए किसी को क्या करना चाहिए? इसे पूरे मन और पूरी ताकत से निभाना चाहिए। अपने पूरे मन और ताकत का उपयोग करने का अर्थ है कि अपने सभी विचारों को अपना कर्तव्य निभाने पर केंद्रित करना और अन्य चीजों को हावी न होने देना, और फिर अपनी सारी ताकत लगाना, अपनी संपूर्ण सामर्थ्य का प्रयोग करना, और कार्य संपादित करने के लिए अपनी क्षमता, गुण, खूबियों और उन चीजों का प्रयोग करना जो समझ आ गई हैं। अगर तुम्हारे पास समझने-बूझने की योग्यता है और तुम्हारे पास कोई अच्छा विचार है, तो तुम्हें इस बारे में दूसरों को बताना चाहिए। मिल-जुलकर सहयोग करने का यही अर्थ होता है। इस तरह तुम अपने कर्तव्य का पालन अच्छी तरह से करोगे, इसी तरह अपने कर्तव्य को संतोषजनक ढंग से कर पाओगे। यदि तुम हमेशा सब-कुछ अपने ऊपर लेना चाहते हो, यदि तुम हमेशा बड़े कार्य अकेले करना चाहते हो, यदि तुम हमेशा यह चाहते हो कि ध्यान तुम पर केंद्रित हो, दूसरों पर नहीं, तो क्या तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो? तुम जो कर रहे हो उसे तानाशाही कहते हैं; यह दिखावा करना है। यह शैतानी व्यवहार है, कर्तव्य का निर्वहन नहीं। किसी की क्षमता, गुण या विशेष प्रतिभा कुछ भी हो, वह सभी कार्य स्वयं नहीं कर सकता; यदि उसे कलीसिया का काम अच्छी तरह से करना है तो उसे सद्भाव में सहयोग करना सीखना होगा। इसलिए सौहार्दपूर्ण सहयोग, कर्तव्य के निर्वहन के अभ्यास का एक सिद्धांत है। अगर तुम अपना पूरा मन, सारी ऊर्जा और पूरी निष्ठा लगाते हो, और जो हो सके, वह अर्पित करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा रहे हो। यदि तुम्हारे पास कोई खयाल या विचार है, तो उसे दूसरों को बताओ; इसे स्वयं तक न रखो या रोके मत रहो—यदि तुम्हारे पास सुझाव हैं, तो उन्हें पेश करो; जिसका भी विचार सत्य के अनुरूप हो, उसे स्वीकार किया जाना और उसका पालन किया जाना चाहिए। ऐसा करोगे तो तुम सद्भाव में सहयोग प्राप्त कर लोगे। अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक निभाने का यही अर्थ है। अपने कर्तव्य का पालन करने में, तुम लोगों को सब कुछ अपने ऊपर लेने की जरूरत नहीं है, न ही अत्यधिक कार्य करने की जरूरत है, या “खिलने वाला एकमात्र फूल” या सबसे अलग सोचने वाला बनने की जरूरत नहीं है; इसके बजाय तुम्हें सीखना है कि दूसरों के साथ मिल-जुलकर कैसे सहयोग करना है, जो बन पड़े वो कैसे करना है, अपनी जिम्मेदारियाँ कैसे पूरी करनी हैं और अपनी सारी ऊर्जा कैसे लगानी है। अपने कर्तव्य के निर्वहन का यही अर्थ है। अपना कर्तव्य निभाना यानी परिणाम प्राप्त करने के लिए तुम्हारे पास जो भी सामर्थ्य और रोशनी है, उसे इस्तेमाल में लाना। बस इतना ही करना काफी है। हमेशा दिखावा करने, ऊँची-ऊँची बातें करने, चीजें खुद करने की कोशिश मत करो। तुम्हें दूसरों के साथ काम करना सीखना चाहिए, दूसरों के सुझाव सुनने और उनकी क्षमताएँ खोजने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस तरह मिल-जुलकर सहयोग करना आसान हो जाता है। यदि तुम हमेशा दिखावा करने और अपनी बात ही मनवाने की कोशिश करते हो, तो तुम मिल-जुलकर सहयोग नहीं कर रहे हो। तुम क्या कर रहे हो? तुम रुकावट पैदा कर रहे हो और दूसरों को कमजोर कर रहे हो। रुकावट पैदा करना और दूसरों को कमजोर करना शैतान की भूमिका निभाना है; यह कर्तव्य का निर्वहन नहीं है। यदि तुम हमेशा ऐसे काम करते हो जो रुकावट पैदा करते हैं और दूसरों को कमजोर करते हैं, तो तुम कितना भी प्रयास करो या ध्यान रखो, परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा। तुम कम सामर्थ्यवान हो सकते हो, लेकिन अगर तुम दूसरों के साथ काम करने में सक्षम हो, और उपयुक्त सुझाव स्वीकार सकते हो, और अगर तुम्हारे पास सही प्रेरणाएँ हैं, और तुम परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा कर सकते हो, तो तुम एक सही व्यक्ति हो। कभी-कभी तुम एक ही वाक्य से किसी समस्या का समाधान कर सकते हो और सभी को लाभान्वित कर सकते हो; कभी-कभी सत्य के एक ही कथन पर तुम्हारी संगति के बाद हर किसी के पास अभ्यास करने का एक मार्ग होता है, और वह एक-साथ मिलकर काम करने में सक्षम होता है, और सभी एक समान लक्ष्य के लिए प्रयास करते हैं, और समान विचार और राय रखते हैं, और इसलिए काम विशेष रूप से प्रभावी होता है। हालाँकि यह भी हो सकता है कि किसी को याद ही न रहे कि यह भूमिका तुमने निभाई है, और शायद तुम्हें भी ऐसा महसूस न हो मानो तुमने कोई बहुत अधिक प्रयास किए हों, लेकिन परमेश्वर देखेगा कि तुम वह इंसान हो जो सत्य का अभ्यास करता है, जो सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है। तुम्हारे ऐसा करने पर परमेश्वर तुम्हें याद रखेगा। इसे कहते हैं अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाना। अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हारे सामने चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न आएँ, वास्तव में उन सभी को आसानी से हल किया जा सकता है। जब तक तुम एक ईमानदार व्यक्ति बने रहते हो जिसका दिल परमेश्वर की ओर झुका हुआ है, और सत्य खोज करने में सक्षम हो, तब तक ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसे हल नहीं किया जा सकता। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम्हें आज्ञापालन करना सीखना चाहिए। अगर कोई ऐसा है जो सत्य समझता है या सत्य के अनुरूप बोलता है, तो तुम्हें उसे स्वीकार कर उसकी बात माननी चाहिए। किसी भी तरीके से तुम्हें ऐसी चीजें नहीं करनी चाहिए जो बाधा डालती या कमजोर करती हों, और न ही मनमर्जी से काम करना या फैसले लेना चाहिए। इस तरह से तुम कोई बुराई नहीं करोगे। तुम्हें याद रखना चाहिए : कर्तव्य-निर्वहन का मतलब यह नहीं है कि सारे उद्यम तुम करो या सारा प्रबंधन अपने सिर पर ले लो। यह तुम्हारा निजी कार्य नहीं है, यह कलीसिया का कार्य है, और तुम उसमें केवल अपनी उस क्षमता का योगदान करते हो जो तुम्हारे पास है। तुम परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में जो कुछ करते हो वह मनुष्य के सहयोग का एक छोटा-सा हिस्सा है। किसी कोने में तुम्हारी सिर्फ एक छोटी-सी भूमिका है। यही तुम्हारी जिम्मेदारी है। तुम्हारे मन में यह समझ होनी चाहिए। और इसलिए, चाहे कितने भी लोग अपने कर्तव्य साथ मिलकर निभा रहे हों या वे कैसी भी समस्याओं का सामना कर रहे हों, सबसे पहले सभी को परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और मिलकर संगति करनी चाहिए, सत्य खोजना चाहिए, और फिर यह निर्धारित करना चाहिए कि अभ्यास के सिद्धांत क्या हैं। जब वे इस तरीके से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करेंगे, तो उनके पास अभ्यास का मार्ग होगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग
परमेश्वर के घर में, तुम चाहे जो भी करते हो, तुम अपने खुद के उपक्रम में भाग नहीं ले रहे हो; यह परमेश्वर के घर का काम है, यह परमेश्वर का काम है। तुम्हें इस ज्ञान और जागरुकता को लगातार ध्यान में रखना होगा और कहना होगा, “यह मेरा अपना मामला नहीं है; मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ और अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहा हूँ। मैं कलीसिया का काम कर रहा हूँ। यह काम मुझे परमेश्वर ने सौंपा है और मैं इसे उसके लिए कर रहा हूँ। यह मेरा कर्तव्य है कोई निजी मामला नहीं है।” यह पहली बात है जो लोगों को समझ लेनी चाहिए। यदि तुम किसी कर्तव्य को अपना निजी मामला मान लेते हो, अपने कार्य करते हुए सत्य सिद्धांत नहीं खोजते और उसे अपने निजी उद्देश्यों, विचारों और एजेंडे के अनुसार कार्यान्वित करते हो, तो बहुत संभव है कि तुम गलतियाँ करोगे। अगर तुम अपने कर्तव्य और अपने निजी मामलों में स्पष्ट अंतर कर लेते हो और जानते हो कि यह कर्तव्य है, तो तुम्हें कैसे कार्य करना चाहिए? (परमेश्वर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों को खोजना चाहिए।) बिल्कुल सही। यदि तुम्हारे साथ कुछ हो जाए और तुम्हें सत्य न समझ आए, और तुम्हें कुछ समझ आ रहा है, लेकिन चीजें अभी भी तुम्हारे लिए स्पष्ट नहीं हैं तो तुम्हें संगति के लिए किसी ऐसे भाई-बहनों को खोजना चाहिए जो सत्य को समझते हों; यह सत्य खोजना है और सबसे पहले, अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया यही होना चाहिए। तुम्हें जो उचित लगे उसके आधार पर तुम्हें चीजों का फैसला नहीं करना चाहिए, हथौड़ा उठाया और मेज पर ठोककर कहा कि मामला खत्म—इससे समस्याएं आसानी से पैदा हो जाती हैं। कर्तव्य तुम्हारा अपना व्यक्तिगत मामला नहीं होता है; मामला चाहे बड़ा हो या छोटा, परमेश्वर के घर के मामले किसी के निजी मामले नहीं होते। अगर मामला कर्तव्य से जुड़ा है, तो यह तुम्हारा निजी मामला नहीं है, यह तुम्हारा अपना मामला नहीं है—इसका संबंध सत्य से है, इसका संबंध सिद्धांत से है। तो पहला काम तुम लोगों को क्या करना चाहिए? तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, और सिद्धांत खोजना चाहिए। यदि तुम्हें सत्य की समझ नहीं है, तो पहले सिद्धांत खोजो; यदि तुम्हें सत्य की समझ पहले से है, तो सिद्धांतों की पहचान करना आसान होगा। यदि तुम सिद्धांतों को नहीं समझते हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए? एक तरीका है : तुम उन लोगों के साथ संगति कर सकते हो जो सिद्धांतों को समझते हैं। हमेशा यह मानकर मत चलो कि तुम सब कुछ समझते हो और हमेशा सही हो; यह गलतियाँ करने का एक आसान तरीका है। यह किस प्रकार का स्वभाव है जब तुम्हीं हमेशा निर्णायक बात सुनाना चाहते हो? यह अहंकार और आत्मतुष्टि का स्वभाव है, यह मनमाने और एकतरफा ढंग से कार्य करना है। कुछ लोग सोचते हैं, “मैं कॉलेज तक पढ़ा हूँ, मैं तुम लोगों से अधिक सुसंस्कृत हूँ, मेरे पास समझने की क्षमता है, तुम सभी लोगों का आध्यात्मिक कद छोटा है और तुम लोग सत्य को नहीं समझते हो, इसलिए मैं जो कुछ भी कहता हूँ उसे तुम्हें गौर से सुनना चाहिए। अकेला मैं ही निर्णय ले सकता हूँ!” यह कैसा दृष्टिकोण है? यदि तुम्हारा इस प्रकार का दृष्टिकोण है, तो तुम मुसीबत में पड़ जाओगे; तुम कभी भी अपना कर्तव्य निर्वहन अच्छे से नहीं करोगे। जब तुम सौहार्दपूर्ण सहयोग के बिना हमेशा निर्णायक बात सुनाने वाला व्यक्ति बनना चाहते हो तो तुम अपने कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभा सकते हो? इस तरह से अपने कर्तव्य निभाने से तुम निश्चित रूप से मानक पर खरे नहीं उतरोगे। मैं यह क्यों कह रहा हूँ? तुम हमेशा दूसरों को विवश कर अपनी बात सुनाना चाहते हो; लेकिन किसी और की बात तुम नहीं मानते हो। यह पूर्वाग्रह और जिद है, यह अहंकार और आत्मतुष्टि भी है। इस तरीके से तुम न केवल अपने कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा पाओगे, बल्कि तुम दूसरों को भी कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने से रोकोगे। यह अहंकारी स्वभाव का दुष्परिणाम है। परमेश्वर लोगों से सौहार्दपूर्ण सहयोग की अपेक्षा क्यों करता है? एक लिहाज से, यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा करने में फायदेमंद है ताकि वे इस तरह खुद को जान सकें और अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकें—यह उनके जीवन प्रवेश में फायदा पहुँचाता है। दूसरे लिहाज से, सौहार्दपूर्ण सहयोग कलीसिया के कार्य के लिए भी फायदेमंद है। चूँकि किसी व्यक्ति को सत्य की समझ नहीं है और सबमें स्वभाव भ्रष्ट हैं, इसलिए अगर सौहार्दपूर्ण सहयोग न हो तो वे अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने में सक्षम नहीं होंगे, जिसका असर कलीसिया के कार्य पर पड़ेगा। इसके गंभीर दुष्परिणाम होते हैं। संक्षेप में, कर्तव्य का समुचित निर्वहन में सफल होने के लिए व्यक्ति को सौहार्दपूर्ण सहयोग करना सीखना चाहिए और जब परिस्थितियों से सामना हो तो समाधान खोजने के लिए सत्य पर संगति करनी चाहिए। यह आवश्यक है—इससे कलीसिया के कार्य में ही नहीं, बल्कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में भी फायदा होता है। ... अपने कर्तव्य के समुचित निर्वहन के लिए यह मायने नहीं रखता कि तुमने कितने वर्ष परमेश्वर में विश्वास किया है, तुमने कितने कर्तव्य निभाए या तुमने परमेश्वर के घर में कितना योगदान दिया, तुम अपने कर्तव्य में कितने अनुभवी हो यह मायने रखना तो दूर की बात है। परमेश्वर मुख्यतः यह देखता है उस व्यक्ति ने कौन-सा मार्ग पकड़ा है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर यह देखता है कि सत्य और सिद्धांतों के प्रति व्यक्ति का रवैया क्या है और उसके कार्यों की दिशा, उत्पत्ति और प्रारंभिक बिंदु क्या है। परमेश्वर इन बातों पर ध्यान केंद्रित करता है; यही बातें तुम्हारे मार्ग का निर्धारण करती हैं। तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया में यदि तुम्हारे अंदर ये सकारात्मक बातें बिल्कुल न दिखाई दें और तुम्हारे कार्य के सिद्धांत, मार्ग और आधार तुम्हारे ही विचार, उद्देश्य और योजनाएँ हों, तुम्हारी शुरुआत अपने ही हितों की रक्षा करने, अपनी प्रतिष्ठा और ओहदे की रक्षा करने से हो, तुम्हारी कार्य-प्रणाली अकेले ही निर्णय लेने और काम करने और अपनी बात को ही निर्णायक मनवाने की हो, तुम कभी दूसरों के साथ किसी चीज पर विचार-विमर्श या सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग नहीं करते हो और गलती करने पर सत्य खोजना तो दूर रहा, तुम कभी किसी की सलाह नहीं मानते हो, तो फिर परमेश्वर तुम्हें कैसे देखेगा? अगर तुम अपना कर्तव्य इस ढंग से निभाते हो तो तुम अभी तक उस मानक तक नहीं पहुँचे हो और तुमने सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर कदम नहीं रखा है, क्योंकि कर्तव्य निभाते समय तुम सत्य सिद्धांत नहीं खोजते और हमेशा अपनी इच्छानुसार कार्य करते हो, जो चाहते हो वही करते हो। यही कारण है कि ज्यादातर लोग अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन नहीं कर पाते। तो इस समस्या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? तुम लोग क्या कहते हो, क्या किसी के लिए अपने कर्तव्य को ठीक से पूरा करना मुश्किल होता है? वास्तव में, ऐसा नहीं है; लोगों को केवल विनम्रता का एक भाव रखने में सक्षम होना होगा, थोड़ी समझ रखनी होगी और एक उपयुक्त स्थिति अपनानी होगी। चाहे तुम कितने भी शिक्षित हो, चाहे तुमने कोई भी पुरस्कार जीते हों, या तुम्हारी कुछ भी उपलब्धियाँ हों, और तुम्हारा रुतबा और दर्जा कितना भी ऊँचा हो, तुम्हें इन सभी चीजों को छोड़ देना चाहिए, तुम्हें अपनी ऊँची गद्दी से उतर जाना चाहिए—इन सबका कोई मोल नहीं है। चाहे वे महिमामयी चीजें कितनी भी महान हों, परमेश्वर के घर में वे सत्य से बड़ी नहीं हो सकती हैं; क्योंकि ऐसी सतही चीजें सत्य नहीं हैं, और उसकी जगह नहीं ले सकती हैं। तुम्हें यह मसला स्पष्ट होना चाहिए। यदि तुम कहते हो, “मैं बहुत गुणी हूँ, मेरे पास एक बहुत तेज दिमाग है, मेरे पास त्वरित सजगता है, मैं शीघ्रता से सीखता हूँ, और मेरी याददाश्त बहुत अच्छी है, इसलिए मैं अंतिम निर्णय लेने योग्य हूँ,” यदि तुम हमेशा इन चीजों को पूंजी के रूप में उपयोग करते हो, उन्हें कीमती और सकारात्मक मानते हो, तो यह परेशानी वाली बात है। अगर तुम्हारा दिल इन चीजों के कब्जे में है, अगर इन चीजों ने तुम्हारे दिल में जड़ें जमा ली हों, तो तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना मुश्किल हो जाएगा—और इसके दुष्परिणामों की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस प्रकार, सबसे पहले तुम उन चीजों का त्याग करो, उन्हें नकारो जो तुम्हें प्रिय हों, जो तुम्हें अच्छी लगती हों और जो तुम्हारे लिए बेशकीमती हों। वे बातें सत्य नहीं हैं बल्कि, वे तुम्हें सत्य में प्रवेश करने से रोक सकती हैं। अब सबसे जरूरी चीज यह है कि तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने में सत्य की तलाश करनी चाहिए और सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, ताकि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन समुचित हो जाए, क्योंकि कर्तव्य का समुचित निर्वहन जीवन-प्रवेश के मार्ग पर मात्र पहला कदम है। यहाँ “पहला कदम” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है यात्रा शुरू करना। सभी चीजों में, कुछ ऐसा होता है जिसके साथ यात्रा शुरू करनी होती है, कुछ ऐसा जो सबसे बुनियादी, सबसे मूलभूत होता है, और कर्तव्य का समुचित निर्वहन हासिल करना जीवन प्रवेश का मार्ग है। यदि तुम्हारा कर्तव्य-निर्वहन केवल इस दृष्टि से सही लगता है कि वह कैसे किया जाता है, लेकिन वह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, तो तुम अपना कर्तव्य समुचित रूप से नहीं निभा रहे। तो फिर, इस पर कैसे कार्य करना चाहिए? सत्य सिद्धांतों पर काम करना चाहिए और उन्हें खोजना चाहिए; सत्य सिद्धांतों से लैस होना ही अहम है। अगर तुम केवल अपना बरताव और मिजाज सुधारते हो, लेकिन सत्य वास्तविकताओं से लैस नहीं होते, तो यह बेकार है। तुम्हारे पास कोई गुण या विशेषता हो सकती है। यह एक अच्छी बात है—लेकिन उसे अपना कर्तव्य निभाने में इस्तेमाल करके ही तुम उसका ठीक से उपयोग करते हो। अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए तुम्हारी मानवता या व्यक्तित्व में सुधार होना आवश्यक नहीं है, न ही ये आवश्यक है कि तुम अपना गुण या प्रतिभा अलग रख दो। महत्वपूर्ण यह है कि तुम सत्य को समझो और परमेश्वर के प्रति समर्पित होना सीखो। यह लगभग तय है कि अपना कर्तव्य निर्वहन करते समय तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करोगे। ऐसे समय में तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें समस्या हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करना चाहिए। ऐसा करो और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना तुम्हारे लिए समस्या नहीं रह जाएगी। तुम्हारा गुण या विशेषता जिस भी क्षेत्र में हो या जिसका भी तुम्हें कुछ व्यावसायिक ज्ञान हो, कर्तव्य निर्वहन में इन चीजों का उपयोग करना सबसे उचित है—अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निभाने का यही एकमात्र तरीका है। एक तरफ तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए जमीर और विवेक पर भरोसा करना चाहिए तो दूसरी तरफ अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। इस तरह अपना कर्तव्य निभाते हुए व्यक्ति जीवन प्रवेश प्राप्त करता है और अपना कर्तव्य समुचित रूप से निभाने में सक्षम हो जाता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?
सकारात्मक पक्ष की बात करें तो अपने कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया में यदि तुम अपने कर्तव्यों से सही ढंग से पेश आ सकते हो, चाहे तुम्हारे सामने कैसी भी परिस्थितियाँ क्यों न आएँ तुम कर्तव्यों को कभी नहीं छोड़ते हो और जब अन्य लोग आस्था खोकर अपने कर्तव्य निभाना बंद कर दें तब भी तुम अपने कर्तव्यों पर मजबूती से डटे रहते हो और शुरू से अंत तक उन्हें कभी नहीं छोड़ते हो, अंत तक अपने कर्तव्यों के प्रति दृढ़ और वफादार बने रहते हो तो फिर तुम वास्तव में अपने कर्तव्यों को कर्तव्य मान रहे हो और पूरी निष्ठा दिखा रहे हो। यदि तुम इस मानक पर खरे उतर सकते हो तो तुमने वास्तव में अपने कर्तव्यों के समुचित निर्वहन का लक्ष्य पूरा कर लिया है; यह सकारात्मक पक्ष है। हालाँकि, नकारात्मक पक्ष की बात करें तो इस मानक तक पहुँचने से पहले व्यक्ति को विभिन्न प्रलोभनों का सामना करने में सक्षम होना होगा। जब कोई अपने कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया में प्रलोभनों का सामना न कर पाने के कारण अपना कर्तव्य छोड़ देता है और अपने कर्तव्य से विश्वासघात करते हुए भाग जाता है तो यह किस प्रकार की समस्या है? यह परमेश्वर को धोखा देने के समान है। परमेश्वर के आदेश से विश्वासघात करना परमेश्वर से विश्वासघात करना है। क्या परमेश्वर को धोखा देने वाला अब भी बचाया जा सकता है? इस व्यक्ति का काम तमाम हो चुका है; अब कोई आशा नहीं बची और वह पहले जो कर्तव्य निभाता था वह मात्र श्रम करना था जो उसके विश्वासघात के साथ ही मिट्टी में मिल गया। इसलिए अपने कर्तव्य पर दृढ़ता से टिके रहना आवश्यक है; ऐसा करने से आशा बनी रहती है। व्यक्ति अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक निभाकर बचाया जा सकता है और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकता है। लोगों को अपने कर्तव्य पर दृढ़ता से टिके रहने में कौन-सा हिस्सा सबसे कठिन लगता है? यही कि प्रलोभन का सामना करते समय क्या वे दृढ़ता से खड़े रह सकते हैं। इन प्रलोभनों में क्या-क्या शामिल है? पैसा, रुतबा, अंतरंग संबंध, भावनाएँ। और क्या हैं? यदि कुछ कर्तव्यों में जोखिम है, यहाँ तक कि जीवन का भी जोखिम है, और ऐसे कर्तव्यों का निर्वाह करने पर गिरफ्तारी व कारावास हो सकता है या यहाँ तक कि मौत की सजा भी हो सकती है तो क्या तुम तब भी अपना कर्तव्य निभा सकते हो? क्या तुम दृढ़ रह सकते हो? इन प्रलोभनों पर व्यक्ति कितनी आसानी से काबू पा सकता है यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह सत्य का अनुसरण करता है या नहीं। यह सत्य का अनुसरण करते हुए इन प्रलोभनों को धीरे-धीरे समझने और पहचानने, उनके सार और उनके पीछे की शैतानी चालों को पहचानने की क्षमता पर निर्भर करता है। इसमें व्यक्ति के स्वयं के भ्रष्ट स्वभाव, उसके प्रकृति सार और उसकी कमजोरियों को पहचानने की भी आवश्यकता होती है। व्यक्ति को लगातार परमेश्वर से अपनी रक्षा करने की प्रार्थना करनी चाहिए ताकि वह इन प्रलोभनों का सामना कर सके। यदि कोई उनका सामना कर सकता है और किसी भी परिस्थिति में विश्वासघात या पलायन किए बिना अपने कर्तव्य पर दृढ़ता से कायम रह सकता है तो बचाए जाने की संभावना 50 प्रतिशत तक पहुँच जाती है। क्या यह 50 प्रतिशत संभावना आसानी से प्राप्त की जा सकती है? प्रत्येक कदम एक चुनौती है, जोखिम से भरा है; इसे हासिल करना आसान नहीं है! क्या ऐसे भी लोग हैं जिन्हें सत्य का अनुसरण इतना कठिन लगता है कि जीवन को बहुत थकाऊ मानकर वे मर जाना पसंद करेंगे? किस तरह के लोग ऐसा महसूस करते हैं? छद्म-विश्वासियों को ऐसा ही लगता है। केवल जीवित रहने के लिए लोग अपने दिमाग के घोड़े दौड़ा सकते हैं, किसी भी कठिनाई को सहन कर सकते हैं और आपदाओं में भी दृढ़ता से जीवन से चिपके रह सकते हैं, अपनी अंतिम साँस तक हार नहीं मानते हैं—यदि वे परमेश्वर में विश्वास करते और इस तरह की दृढ़ता के साथ सत्य का अनुसरण करते तो वे निश्चित रूप से नतीजे हासिल करते। यदि लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं और इसके लिए प्रयास नहीं करना चाहते हैं तो वे निकम्मे हैं! सत्य की खोज कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे केवल मानवीय प्रयास से प्राप्त किया जा सकता है; इसके लिए मानवीय प्रयास के साथ-साथ पवित्र आत्मा के कार्य की भी आवश्यकता होती है। इसमें लोगों के परीक्षण और शोधन के लिए परमेश्वर को विभिन्न परिवेशों का आयोजन करने की आवश्यकता होती है और पवित्र आत्मा को उन्हें प्रबुद्ध करने, रोशन करने और उनका मार्गदर्शन करने के लिए कार्य करने की आवश्यकता होती है। सत्य प्राप्त करने के लिए जो कष्ट सहना पड़ता है वह पूरी तरह से उचित है। ठीक उसी तरह जैसे पर्वतारोही अपनी जान जोखिम में डालकर चोटियों पर चढ़ते हैं, वे सीमाओं को चुनौती देने के अपने प्रयास में कठिनाई से नहीं डरते, यहाँ तक कि अपनी जान जोखिम में डालने से भी नहीं डरते। क्या परमेश्वर में विश्वास करना और सत्य प्राप्त करना पहाड़ पर चढ़ने से भी कठिन है? वे किस प्रकार के लोग हैं जो आशीष की इच्छा रखते हैं लेकिन कष्ट उठाने को इच्छुक नहीं हैं? वे निकम्मे हैं। तुम इच्छाशक्ति के बिना सत्य का अनुसरण और इसे प्राप्त नहीं कर सकते; कष्ट सहने की क्षमता के बिना तुम ऐसा नहीं कर सकते। इसे प्राप्त करने के लिए तुम्हें कीमत चुकानी ही होगी।
लोग समुचितता की परिभाषा समझने लगे हैं तो यह भी समझने लगे हैं कि समुचितता का मानक क्या है, परमेश्वर ने समुचितता का यह मानक क्यों तय किया है, व्यक्ति के समुचित कर्तव्य निर्वहन और जीवन प्रवेश के बीच संबंध क्या है और समुचित कर्तव्य निर्वहन के सत्य से संबंधित ऐसे अन्य कारक क्या हैं। यदि वे फिर उस स्थिति तक पहुँच सकें जहाँ समय या स्थान की परवाह किए बिना वे अपने कर्तव्य पर अडिग रह सकें, इसमें सफल होने को लेकर उम्मीद न खोएँ, तमाम प्रलोभनों का सामना कर सकें और उसके बाद, परमेश्वर उनके लिए रची गई तमाम स्थितियों में उनसे जिन विभिन्न सत्यों की अपेक्षा करता है, वे उन्हें समझकर और उनका ज्ञान पाकर उनमें प्रवेश कर सकें तो फिर परमेश्वर की नजर में उन्होंने वास्तव में समुचितता हासिल कर ली है। कर्तव्य निर्वहन में समुचितता प्राप्त करने के तीन मूल तत्व हैं : पहला, अपने कर्तव्य के प्रति सही रवैया रखना और किसी भी समय अपना कर्तव्य नहीं छोड़ना; दूसरा, अपना कर्तव्य निभाते समय तमाम तरह के प्रलोभनों का सामना करने में सक्षम होकर लड़खड़ाना नहीं; तीसरा, अपना कर्तव्य निभाते समय सत्य के हर पहलू को समझने में सक्षम होना और वास्तविकता में प्रवेश करना। जब लोग ये तीनों चीजें पूरी कर मानक हासिल कर चुके होंगे तो न्याय और ताड़ना स्वीकार करने और पूर्ण बनाए जाने की पहली पूर्वशर्त—अपने कर्तव्य का समुचित निर्वहन करना—पूरी हो चुकी होगी।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?
संबंधित भजन
केवल ईमानदार लोग ही अपने कर्तव्य निर्वहन में मानक स्तर के हो सकते हैं
सिद्धांतों के साथ कार्य करके ही कोई अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकता है