9. मसीह-विरोधियों की सत्य से विमुख रहने और सत्य से घृणा करने वाली प्रकृति को कैसे पहचानें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

मसीह-विरोधी सत्य को कैसे लेते हैं, इसकी मुख्य स्वभावगत विशेषता मात्र अरुचि होना नहीं है, बल्कि विमुखता है। अरुचि सत्य के प्रति अपेक्षाकृत हलका रवैया मात्र है, जो शत्रुता, निंदा या विरोध के स्तर तक नहीं बढ़ा है। यह सिर्फ सत्य में रुचि न होना, उस पर ध्यान न देना और यह कहना है, “कौन-सी सकारात्मक चीजें, कौन-सा सत्य? अगर मैं ये चीजें प्राप्त कर भी लूँ, तो भी क्या हो जाएगा? क्या इनसे मेरा जीवन बेहतर हो जाएगा या मेरी योग्यताएँ बढ़ जाएँगी?” वे इन चीजों में रुचि नहीं रखते और इसलिए वे इनकी चिंता नहीं करते, लेकिन ये चीजें विमुखता के स्तर तक नहीं पहुँचतीं। विमुखता एक निश्चित रवैया इंगित करती है। कैसा रवैया? जैसे ही वे किसी सकारात्मक चीज या सत्य से जुड़ी किसी चीज के बारे में सुनते हैं, उन्हें घृणा, विकर्षण, प्रतिरोध और सुनने की अनिच्छा महसूस होती है। यहाँ तक कि वे सत्य की निंदा और अपमान करने के लिए सबूत ढूँढने की कोशिश भी कर सकते हैं। यह उनका सत्य से विमुख होने का स्वभाव-सार है।

अन्य लोगों की तरह मसीह-विरोधी भी परमेश्वर के वचन पढ़ सकते हैं, परमेश्वर जो कहता है उसे सुन सकते हैं और परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर सकते हैं। देखने में ऐसा लगता है कि वे परमेश्वर के वचनों का शाब्दिक अर्थ भी समझ सकते हैं, जान सकते हैं कि परमेश्वर ने क्या कहा है और यह भी जान सकते हैं कि ये वचन लोगों को सही मार्ग अपनाने और अच्छे लोग बनने में सक्षम बनाते हैं। लेकिन ये चीजें उनके लिए महज सैद्धांतिक ही रहती हैं। इसका क्या मतलब है कि वे सैद्धांतिक ही रहती हैं? यह उसी तरह है, जैसे कुछ लोग मानते हैं कि किसी पुस्तक में एक सिद्धांत-विशेष अच्छा है, लेकिन जब वे वास्तविक जीवन से उसकी तुलना करते हैं और बुरी प्रवृत्तियों, इंसानी भ्रष्टता और पूरी मानवजाति की विभिन्न आवश्यकताओं के बारे में सोचते हैं, तो उन्हें वह सिद्धांत अव्यावहारिक और वास्तविक जीवन से कटा हुआ लगता है, और उन्हें एहसास होता है कि वह लोगों को इन बुरी प्रवृत्तियों और इस बुरे समाज के अनुकूल होने या उसका अनुगमन करने में मदद नहीं कर सकता। इसलिए उन्हें लगता है कि यह सिद्धांत अच्छा तो है, लेकिन यह सिर्फ बोलने के लिए है, सुंदर चीजों के लिए मानवजाति की इच्छाएँ और कल्पनाएँ पूरी करने के लिए है। उदाहरण के लिए, अगर किसी को रुतबा पसंद है और वह पदाधिकारी बनकर लोगों के बीच ऊँचा उठना और पुजना चाहता है, तो उसे यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए झूठ बोलने, खुद को आकर्षक रूप में प्रस्तुत करने और दूसरों के साथ अन्याय करने आदि जैसे असामान्य तरीकों पर निर्भर रहना होगा। लेकिन इन्हीं चीजों की तो सत्य निंदा करता है। वह मनुष्यों की इन इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं की निंदा करता है और इन्हें नकारता है। वास्तविक जीवन में लोग सोचते हैं कि अपनी अलग पहचान बनाना एक वैध चीज है, लेकिन परमेश्वर और सत्य ऐसी माँगों की निंदा करते हैं। इसलिए परमेश्वर के घर में ये माँगें स्वीकार नहीं की जातीं, वहाँ इन्हें लागू करने का कोई मौका नहीं होता और इन्हें साकार करने की कोई गुंजाइश नहीं होती। लेकिन क्या मसीह-विरोधी इन्हें छोड़ देंगे? (वे इन्हें नहीं छोड़ेंगे।) सही कहा, वे इन्हें नहीं छोड़ेंगे। जैसे ही मसीह-विरोधी इसे देखते हैं, वे सोचते हैं, “अब मैं समझ गया। तो सत्य लोगों से निस्स्वार्थ होने, आत्म-बलिदान करने, सहनशील और उदार होने, अपना अहंकार त्यागकर दूसरों के लिए जीने की अपेक्षा करता है। यही सत्य है।” जब वे सत्य को इस तरह से परिभाषित कर देते हैं, तो वे सत्य में रुचि रखते हैं या उससे विकर्षित हो जाते हैं? वे उससे विकर्षित हो जाते हैं, परमेश्वर से भी विकर्षित हो जाते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर हमेशा सत्य बोलता है, वह हमेशा इंसानी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं जैसी अशुद्ध चीजें उजागर करता है और वह हमेशा इंसानी आत्माओं की तह में जो कुछ भी होता है उसे उजागर करता है। ऐसा लगता है कि परमेश्वर लोगों को उनकी हैसियत, इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं के अनुसरण से वंचित करने के उद्देश्य से सत्य के बारे में संगति करता है। शुरू में मुझे लगा कि परमेश्वर लोगों की इच्छाएँ पूरी कर सकता है, उनकी अभिलाषाएँ और सपने पूरे कर सकता है और लोग जो चाहते हैं वह उन्हें दे सकता है। मुझे उम्मीद नहीं थी कि परमेश्वर इस तरह का परमेश्वर है। वह उतना महान नहीं लगता। मैं महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से भरा हुआ हूँ : क्या परमेश्वर मुझ जैसे व्यक्ति को पसंद कर सकता है? परमेश्वर ने हमेशा जो कहा है उससे आँकते हुए और उसके वचनों का निहितार्थ समझने पर ऐसा लगता है कि परमेश्वर मुझ जैसे लोगों को पसंद नहीं करता, न ही वह मुझ जैसे किसी व्यक्ति के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध रख सकता है। ऐसा लगता है कि मैं ऐसे व्यावहारिक परमेश्वर के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध नहीं रख सकता। वह जो वचन बोलता है, जो कार्य करता है, उसके क्रियाकलापों के सिद्धांत और उसका स्वभाव—ये सब मुझे इतने अप्रिय क्यों लगते हैं? परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने, जमीर रखने, मुसीबतें आ पड़ने पर परमेश्वर की खोज करने, उसका आज्ञापालन करने, उसका भय मानने और अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ त्यागने के लिए कहता है—ये ऐसी चीजें हैं जो मैं नहीं कर सकता! परमेश्वर जो माँग करता है वह न सिर्फ इंसानी धारणाओं के साथ असंगत है, बल्कि इंसानी भावनाओं के प्रति असंवेदनशील भी है। मैं उसमें विश्वास कैसे कर सकता हूँ?” अपने मन में इस तरह से सोचने के बाद उनमें परमेश्वर के प्रति अच्छी भावना विकसित होती है या वे उससे दूर हो जाते हैं? (वे उससे दूर हो जाते हैं।) कुछ समय के अनुभव के बाद मसीह-विरोधी तेजी से महसूस करते हैं कि उन जैसे लोगों का, जिनमें महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं और जो आकांक्षाओं से भरे होते हैं, परमेश्वर के घर में स्वागत नहीं किया जाएगा, यहाँ उनके लिए अपने कौशल इस्तेमाल करने की कोई गुंजाइश नहीं है और वे यहाँ अपनी आकांक्षाएँ खुलकर पूरी नहीं कर सकते। वे सोचते हैं, “परमेश्वर के घर में मैं अपनी असाधारण प्रतिभा प्रकट नहीं कर सकता। मुझे कभी उत्कृष्टता प्राप्त करने का मौका नहीं मिलेगा। वे कहते हैं कि मुझमें आध्यात्मिक समझ नहीं है, मैं सत्य नहीं समझता और मुझमें मसीह-विरोधी का स्वभाव है। न सिर्फ मुझे पदोन्नत नहीं किया गया है या किसी महत्वपूर्ण पद पर नहीं रखा गया है, बल्कि मेरी निंदा भी की गई है। मेरे द्वारा अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में क्या गलत है? मेरे द्वारा दूसरों को दंडित करने में क्या गलत है? चूँकि मेरे पास शक्ति है, इसलिए मुझे ऐसा व्यवहार करना ही चाहिए! कौन होगा जो शक्ति होने पर ऐसा व्यवहार नहीं करेगा? तो चुनावों के दौरान मेरे द्वारा कुछ बेईमानी और धोखाधड़ी करने में क्या गलत है? क्या सभी गैर-विश्वासी ऐसा नहीं करते? परमेश्वर के घर में ऐसा क्यों नहीं करने दिया जाता? वे तो यहाँ तक कहते हैं कि यह बेशर्मी है। इसे बेशर्मी कैसे माना जा सकता है? आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है। यह उचित है! परमेश्वर का घर मजेदार नहीं है। लेकिन इस दुनिया में लोग बहुत ही दुष्ट हैं और उनके साथ सौहार्दपूर्ण संबंध रखना आसान नहीं है। तुलनात्मक रूप से, परमेश्वर के घर के लोग थोड़े बेहतर व्यवहार करने वाले हैं। अगर परमेश्वर न होता, तो यहाँ समय बिताना बहुत बढ़िया होता; अगर लोगों पर शासन करने वाला कोई परमेश्वर और कोई सत्य न होता, तो मैं परमेश्वर के घर में बॉस, मालिक और राजा होता।” परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते हुए वे लगातार विभिन्न चीजों का अनुभव करते हैं, उनकी लगातार काट-छाँट की जाती है और उन्हें बदल-बदलकर विभिन्न कर्तव्य दिए जाते हैं और अंततः उन्हें कुछ एहसास होता है और वे कहते हैं, “परमेश्वर के घर में जो कुछ भी होता है, उसे सत्य का इस्तेमाल करके मापा और हल किया जाता है। सत्य पर हमेशा जोर दिया जाता है और परमेश्वर हमेशा उसके बारे में बात करता है। मैं यहाँ अपनी आकांक्षाएँ खुलकर पूरी नहीं कर सकता!” अपने अनुभवों में इस बिंदु पर पहुँचने के बाद वे सत्य से, सत्य द्वारा शासन करने से, परमेश्वर द्वारा की जाने वाली हर चीज के सत्य होने से और सत्य खोजने से अधिकाधिक विमुख हो जाते हैं। वे इन चीजों से किस हद तक विमुख महसूस करते हैं? वे सत्यों के उन धर्मसिद्धांतों को भी मानना या स्वीकारना नहीं चाहते, जिन्हें उन्होंने बिल्कुल शुरू में स्वीकार लिया था और वे अपने दिलों में बेहद घृणा महसूस करते हैं। इसलिए जैसे ही सभा का समय आता है, वे उनींदे और चिंतित हो जाते हैं। वे चिंतित क्यों होते हैं? वे सोचते हैं, “ये सभाएँ एक बार में तीन-चार घंटे तक चलती हैं—यह कब खत्म होगी? मैं अब और नहीं सुनना चाहता!” एक वाक्यांश है, जो उनकी मनःस्थिति का वर्णन कर सकता है, “काँटों पर लोटना।” उन्हें एहसास होता है कि जब तक परमेश्वर के घर में सत्य का शासन है, तब तक उन्हें कभी उत्कृष्टता हासिल करने का मौका नहीं मिलेगा, बल्कि वे हमेशा सभी के द्वारा प्रतिबंधित, खारिज और अस्वीकृत किए जाएँगे और चाहे वे कितने भी सक्षम हों, उन्हें महत्वपूर्ण भूमिकाएँ नहीं दी जाएँगी। नतीजतन, सत्य और परमेश्वर के प्रति उनकी घृणा तीव्र हो जाती है। कोई पूछ सकता है, “उन्होंने शुरू से ही घृणा महसूस क्यों नहीं की?” वास्तव में, वे शुरू से ही घृणा महसूस करते थे, लेकिन उस समय परमेश्वर के घर में सब-कुछ उनके लिए अपरिचित था। उन्हें उसकी कोई संकल्पना नहीं थी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें घृणा या विमुखता महसूस नहीं हुई। वास्तव में, वे अपने प्रकृति-सार के भीतर सत्य से विमुखता महसूस करते थे, उन्हें बस इसका एहसास नहीं था। इन लोगों का प्रकृति-सार निस्संदेह सत्य से विमुखता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? वे अन्याय, दुष्टता, शक्ति, बुरी प्रवृत्तियों, प्रभारी होने, लोगों को नियंत्रित करने और ऐसी तमाम नकारात्मक चीजों से सहज रूप से प्रेम करते हैं। इन चीजों से आँकें तो, जिनसे कि वे प्रेम करते हैं, इसमें कोई शक नहीं कि मसीह-विरोधी सत्य से विमुख महसूस करते हैं। इसके अलावा, वे जिस चीज के लिए प्रयास करते हैं, उसके अनुसार वे हैसियत के लिए प्रयास करते हैं, वे खुद को औरों से अलग दिखाने का प्रयास करते हैं, वे अपने सिर पर प्रभामंडल रखने का प्रयास करते हैं, वे लोगों के बीच अगुआ बनने का प्रयास करते हैं, प्रभावशाली और शक्तिशाली होने का प्रयास करते हैं, जहाँ भी वे बोलते और काम करते हैं वहीं प्रतिष्ठा और ताकत पाने के साथ-साथ लोगों को नियंत्रित करने की योग्यता पाने का प्रयास करते हैं—वे इन चीजों के लिए प्रयास करते हैं। यह भी सत्य से विमुख महसूस करने की अभिव्यक्ति है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण छह : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग तीन)

मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख होने की मुख्य अभिव्यक्ति उसके प्रति उनके रवैये में देखी जा सकती है और बेशक, यह उनके सामान्य दैनिक जीवन और गतिविधियों में भी अभिव्यक्त होता है, खासकर इसमें कि वे अपने कर्तव्य कैसे निभाते हैं। वे कई अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं। पहली, वे कभी सत्य नहीं खोजते, तब भी नहीं जब उन्हें स्पष्ट रूप से पता होता है कि उन्हें खोजना चाहिए। दूसरी, वे कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते। चूँकि वे सत्य नहीं खोजते, इसलिए वे उसका अभ्यास कर ही कैसे सकते हैं? समझ सिर्फ खोजने से ही आ सकती है और सिर्फ समझ ही अभ्यास की ओर ले जा सकती है; वे न तो खोजते हैं, न ही सत्य-सिद्धांतों के बारे में गंभीरता से सोचते हैं। यहाँ तक कि वे उनका तिरस्कार भी करते हैं, उनसे विमुख महसूस करते हैं और उन्हें शत्रुता से देखते हैं। नतीजतन, वे कभी सत्य के अभ्यास को छूते तक नहीं, और अगर वे कभी-कभी सत्य को समझते भी हैं, तो भी वे उसका अभ्यास नहीं करते। उदाहरण के लिए, जब उनके साथ बुरा होता है और दूसरे लोग कोई अच्छा उपाय सुझाते हैं, तो वे पलटकर कह सकते हैं, “इसमें क्या अच्छा है? अगर मैं ऐसा करूँगा, तो क्या मेरे अपने विचार व्यर्थ नहीं चले जाएँगे?” कुछ लोग कह सकते हैं, “अगर हम तुम्हारे तरीके से काम करेंगे तो परमेश्वर के घर को नुकसान होगा; हमें सिद्धांतों के अनुसार काम करना चाहिए।” वे जवाब देते हैं, “कौन-से सिद्धांत! मेरा तरीका ही सिद्धांत है; मैं जो सोचता हूँ वही सिद्धांत है!” क्या यह सत्य का अभ्यास न करना नहीं है? (हाँ, है।) उनकी एक और मुख्य अभिव्यक्ति यह है कि वे कभी परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते या आध्यात्मिक भक्ति में संलग्न नहीं होते। जब कुछ लोग काम में व्यस्त होते हैं और परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए समय नहीं निकाल पाते, तो वे चुपचाप चिंतन करते हैं या कुछ भजन गा लेते हैं और अगर उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़े कई दिन हो जाते हैं तो उन्हें खालीपन का एहसास होता है। अपनी व्यस्तता के बीच वे एक अंश पढ़कर खुद को समृद्ध करने के लिए एक पल चुराते हैं, तब तक चिंतन करते हैं जब तक परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं कर लेते और उनका दिल स्थिर नहीं हो जाता। ऐसे लोग परमेश्वर से दूर नहीं होते। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी अगर किसी दिन परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ पाते, तो उन्हें कोई परेशानी महसूस नहीं होती। अगर वे 10 दिनों तक भी परमेश्वर के वचन न पढ़ें, तो भी उन्हें कुछ महसूस नहीं होता। वे एक साल तक भी परमेश्वर के वचन पढ़े बिना काफी अच्छी तरह से रह सकते हैं और वे परमेश्वर के वचन पढ़े बिना तीन साल भी बिता सकते हैं और कुछ महसूस नहीं करते—उन्हें अपने दिल में डर या खालीपन महसूस नहीं होता और वे आराम से जीते रहते हैं। उन्हें परमेश्वर के वचनों से गहन विमुखता महसूस होती है! कोई व्यक्ति व्यस्तता के कारण परमेश्वर के वचन पढ़े बिना एक दिन या शायद उसी कारण से 10 दिन बिता सकता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचन पढ़े बिना पूरा महीना बिता सकता है और फिर भी कुछ महसूस नहीं करता, तो फिर समस्या है। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचन पढ़े बिना एक साल भी बिता देता है, तो उसमें न सिर्फ परमेश्वर के वचनों के लिए ललक नहीं होती—बल्कि उसमें सत्य से विमुखता भी होती है।

मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख महसूस करने की एक और अभिव्यक्ति उनके द्वारा मसीह की अवहेलना है। हमने पहले भी उनके द्वारा मसीह की अवहेलना के बारे में संगति की है। तो, मसीह ने ऐसा क्या किया है जो वे उसकी अवहेलना करते हैं? क्या उसने उन्हें चोट पहुँचाई या नुकसान पहुँचाया या उनकी इच्छा के विपरीत कुछ किया? क्या उसने उनके किसी हित को नुकसान पहुँचाया? नहीं। मसीह उनसे कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं रखता और वे उससे मिले भी नहीं हैं। फिर वे उसकी अवहेलना कैसे कर सकते हैं? इसका मूल कारण मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख महसूस करने के सार में निहित है। मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख महसूस करने की एक और अभिव्यक्ति तमाम सकारात्मक चीजों की वास्तविकता के प्रति उनकी अवहेलना है। सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता में कई तरह की चीजें शामिल हैं, जैसे कि परमेश्वर द्वारा सृजित तमाम चीजें और उनके नियम, विभिन्न जीवित चीजें और उनके जीवन को नियंत्रित करने वाले नियम और मुख्य रूप से मनुष्य कहे जाने वाले इन जीवित प्राणियों के जीवन को नियंत्रित करने वाले विभिन्न नियम। उदाहरण के लिए, जन्म, आयु, बीमारी और मृत्यु के मामले, जो मानव-जीवन के सबसे करीब होते हैं—सामान्य लोगों के पैर उम्र बढ़ने के साथ कमजोर हो जाते हैं, उनका स्वास्थ्य गिर जाता है, उनकी आँखें धुँधली हो जाती हैं, उन्हें सुनने में कठिनाई होती है, उनके दाँत ढीले हो जाते हैं और उन्हें लगता है कि उन्हें वृद्धावस्था स्वीकार लेनी चाहिए। परमेश्वर इन सब पर संप्रभुता रखता है और कोई भी इस प्राकृतिक नियम के विरुद्ध नहीं जा सकता—सामान्य लोग ये तमाम चीजें स्वीकार सकते हैं। लेकिन कोई व्यक्ति चाहे कितने भी लंबे समय तक जीवित रहे या उसका शारीरिक स्वास्थ्य कैसा भी हो, कुछ चीजें नहीं बदलतीं, जैसे कि उन्हें अपना कर्तव्य किस तरह निभाना चाहिए, उन्हें कौन-सी स्थिति अपनानी चाहिए और उन्हें अपना कर्तव्य किस रवैये से निभाना चाहिए। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी झुकने से इनकार करते हैं। वे कहते हैं, “मैं कौन हूँ? मैं बूढ़ा नहीं हो सकता। मुझे हर समय साधारण लोगों से अलग होना चाहिए। क्या मैं तुम्हें बूढ़ा दिखता हूँ? कुछ काम होते हैं जो तुम इस उम्र में नहीं कर सकते, लेकिन मैं कर सकता हूँ। तुम्हारे पैर पचास की उम्र में कमजोर हो सकते हैं, लेकिन मेरे पैर फुर्तीले रहते हैं। मैं तो एक छत से दूसरी छत पर कूदने का भी अभ्यास करता हूँ!” वे हमेशा परमेश्वर द्वारा निर्धारित इन सामान्य नियमों को चुनौती देना चाहते हैं, वे लगातार इन्हें तोड़ने की कोशिश करते हैं और दूसरों को यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे साधारण लोगों से अलग, असाधारण और श्रेष्ठ हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं? वे परमेश्वर के वचनों को चुनौती देना चाहते हैं और इस बात को नकारना चाहते हैं कि उसके वचन सत्य हैं। क्या यह सत्य से विमुखता महसूस करने के मसीह-विरोधियों के सार की अभिव्यक्ति नहीं है? (हाँ, है।) एक और पहलू यह है कि मसीह-विरोधी बुरी प्रवृत्तियों और अँधेरे प्रभावों का सम्मान करते हैं; यह और पुष्टि करता है कि वे सत्य के दुश्मन हैं। मसीह-विरोधी शैतान के शासन, और किंवदंतियों में वर्णित बुरी आत्माओं की विभिन्न योग्यताओं, कौशलों और कर्मों के साथ-साथ बुरी प्रवृत्तियों और अँधेरे प्रभावों की गहराई से प्रशंसा करते हैं और उनके प्रति श्रद्धा रखते हैं। इन चीजों में उनका विश्वास अडिग होता है और वे कभी उन पर संदेह नहीं करते। उनके दिल न सिर्फ उनके प्रति विमुखता से मुक्त होते हैं, बल्कि उनके लिए सम्मान, श्रद्धा और ईर्ष्या से भरे होते हैं। यहाँ तक कि अपने दिल की गहराई में वे इन चीजों का घनिष्ठता से अनुगमन करते हैं। मसीह-विरोधी इन बुरी और अँधेरी चीजों के संबंध में अपने दिलों में इसी तरह का रवैया रखते हैं—क्या इसका मतलब यह नहीं है कि वे सत्य से विमुख होते हैं? बिल्कुल है! जो व्यक्ति इन बुरी और अँधेरी चीजों से प्रेम करता है, वह सत्य से प्रेम कैसे कर सकता है? ये वे लोग हैं, जो बुरी शक्तियों और शैतान के गिरोह से संबंधित हैं। बेशक, वे शैतान की चीजों पर अडिग रूप से विश्वास करते हैं, जबकि उनके दिल सत्य और सकारात्मक चीजों से विरक्ति और तिरस्कार से भरे होते हैं।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण छह : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग तीन)

उन्हें मसीह-विरोधी क्यों कहा जाता है? “विरोधी” का क्या मतलब है? इसका मतलब है विरोध और नफरत। इसका मतलब मसीह के प्रति शत्रुता, सत्य के प्रति शत्रुता और परमेश्वर के प्रति शत्रुता है। “शत्रुता” का क्या मतलब है? इसका मतलब है विपरीत पक्ष में खड़ा होना, तुम्हारे साथ दुश्मन जैसा व्यवहार करना, मानो व्यक्ति में बहुत ज्यादा और गहरी नफरत भरी हुई हो; इसका मतलब पूरी तरह से तुम्हारे विरोध में होना है। मसीह-विरोधी ऐसी ही सोच के साथ परमेश्वर के पास जाते हैं। परमेश्वर से नफरत करने वाले लोगों का सत्य के प्रति क्या रवैया होता है? क्या वे सत्य से प्रेम कर पाते हैं? क्या वे सत्य को स्वीकार कर पाते हैं? बिल्कुल नहीं। इसलिए, परमेश्वर के विरोध में जो लोग खड़े होते हैं, वे सत्य से नफरत करने वाले लोग होते हैं। उनमें सबसे मुख्य चीज जो प्रदर्शित होती है, वह है सत्य के प्रति विमुखता और सत्य से नफरत। जैसे ही वे सत्य या परमेश्वर के वचन सुनते हैं, उनके दिलों में नफरत आ जाती है, और जब कोई उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाता है, तो उनके चेहरों पर गुस्से और रोष की ठीक वैसी ही अभिव्यक्ति दिखाई देने लगती है, जैसी लोगों द्वारा सुसमाचार फैलाने के दौरान परमेश्वर के वचन किसी राक्षस को पढ़कर सुनाते समय दिखाई देती है। जो लोग अपने दिलों में सत्य से विमुख होते हैं और सत्य से नफरत करते हैं, वे परमेश्वर के वचनों और सत्य से बेहद विमुखता महसूस करते हैं, उनका रवैया प्रतिरोध का होता है, और वे इस हद तक पहुँच जाते हैं कि जो कोई भी उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाता है या उनके साथ सत्य की संगति करता है, वे उससे नफरत करने लगते हैं, यहाँ तक कि वे उस व्यक्ति को दुश्मन मानने लगते हैं। वे अलग-अलग सत्य और सकारात्मक चीजों से बेहद विमुखता महसूस करते हैं। सभी सत्य के प्रति, जैसे कि परमेश्वर के प्रति समर्पण करना, निष्ठा से अपना कर्तव्य करना, ईमानदार व्यक्ति होना, सभी चीजों में सत्य की तलाश करना, आदि के प्रति—क्या उनमें थोड़ी-सी व्यक्तिपरक तड़प या प्रेम है? नहीं, नाममात्र भी नहीं। इसलिए, उनकी इस प्रकार के प्रकृति सार को देखते हुए, वे पहले से ही परमेश्वर और सत्य के सीधे विरोध में खड़े हैं। तो, निस्संदेह रूप से, ऐसे लोग सत्य या किसी सकारात्मक चीज से गहराई से प्रेम नहीं करते हैं; यहाँ तक कि वे अपने दिल की गहराई में सत्य से विमुखता महसूस करते है और उससे नफरत करते हैं। मिसाल के तौर पर, अगुवाई के पदों पर बैठे लोगों को अपने भाई-बहनों की अलग-अलग राय स्वीकार करने में समर्थ होना चाहिए, उन्हें भाई-बहनों के सामने अपने दिल खोलकर खुद को उजागर करने और उनकी निंदा को स्वीकार करने में समर्थ होना चाहिए, और उन्हें अपने रुतबे का हक नहीं जताना चाहिए। एक मसीह-विरोधी अभ्यास के इन सभी सही तरीकों के बारे में क्या कहेगा? वह कहेगा, “अगर मैं भाई-बहनों की राय सुन लेता, तो क्या मैं अब भी अगुआ बना रहता? क्या अब भी मेरे पास रुतबा और प्रतिष्ठा होती? अगर मेरे पास कोई प्रतिष्ठा नहीं है, तो मैं क्या काम कर सकता हूँ?” यह ठीक उसी प्रकार का स्वभाव है, जैसा मसीह-विरोधी लोगों में होता है; वे सत्य को सबसे सूक्ष्म तरीके से भी स्वीकार नहीं करते हैं, और अभ्यास का तरीका जितना ज्यादा सही होता है, उतना ही वे उसका विरोध करते हैं। वे यह स्वीकार नहीं करते हैं कि सिद्धांत के अनुसार कार्य करना सत्य का अभ्यास करना है। वे क्या सोचते हैं कि सत्य का अभ्यास करना क्या होता है? वे सोचते हैं कि उन्हें परमेश्वर के वचनों, सत्य और प्रेम पर भरोसा करने के बजाय सभी पर साजिशों, चालों और हिंसा का उपयोग करना चाहिए। उनका हर साधन और मार्ग दुष्ट होता है। यह सब मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार को पूरी तरह से दर्शाता है। वे अक्सर जो उद्देश्य, राय, विचार और इरादे प्रकट करते हैं, वे सभी सत्य से विमुखता और सत्य से नफरत के स्वभाव हैं, जो मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार है। तो क्या, इसका मतलब सत्य और परमेश्वर के विरुद्ध खड़ा होना है? इसका मतलब है सत्य और सकारात्मक चीजों से नफरत करना। मिसाल के तौर पर, जब कोई कहता है, “एक सृजित प्राणी होने के नाते, व्यक्ति को सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए। परमेश्वर चाहे जो भी कह दे, मनुष्यों को समर्पण करना चाहिए, क्योंकि हम सृजित प्राणी हैं,” लेकिन मसीह-विरोधी कैसे सोचता है? “समर्पण करूँ? यह असत्य नहीं है कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ, लेकिन जब समर्पण करने की बात आती है, तो यह परिस्थिति पर निर्भर करता है। सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इसमें मेरे लिए कुछ फायदा जरूर होना चाहिए, मेरा कोई नुकसान नहीं होना चाहिए, और मेरे हित सबसे पहले आने चाहिए। अगर यहाँ हासिल करने के लिए इनाम या महान आशीषें हैं, तो मैं समर्पण कर सकता हूँ, लेकिन इनामों के बगैर और किसी मंजिल के बिना, मुझे क्यों समर्पण करना चाहिए? मैं समर्पण नहीं कर सकता।” यह सत्य को नहीं स्वीकार करने का रवैया है। वे शर्तों पर परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं, और अगर उनकी शर्तें पूरी नहीं होती हैं, तो वे ना सिर्फ समर्पण नहीं करते हैं, बल्कि परमेश्वर का विरोध और प्रतिरोध करने के लिए भी जिम्मेदार होते हैं। मिसाल के तौर पर, परमेश्वर चाहता है कि लोग ईमानदार हों, लेकिन ये मसीह-विरोधी मानते हैं कि सिर्फ बेवकूफ लोग ही ईमानदार होने का प्रयास करते हैं, और कि बुद्धिमान लोग ईमानदार होने का प्रयास नहीं करते हैं। इस तरह के रवैये का सार क्या है? यह सत्य से नफरत है। मसीह-विरोधियों का सार ऐसा ही होता है, और उनका सार तय करता है कि वे किस मार्ग पर चलते हैं, और जिस मार्ग पर वे चलते हैं, वही उनके द्वारा की जाने वाली हर चीज को तय करता है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों के दिल जीतने का प्रयास करते हैं

मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार के परिप्रेक्ष्य से देखें तो उन्हें सत्य से बैर होता है। सत्य से बैर होने का यह प्रकृति सार कैसे प्रकट होता है? वह इस तरह कि परमेश्वर के वचन सुनने पर वे विकर्षित और उनींदे हो जाते हैं और तिरस्कार, बेचैनी और सुनने की अनिच्छा जैसे तमाम हाव-भाव प्रकट करते हैं। उनका राक्षसी आचरण इस प्रकार प्रकट होता है। बाहरी तौर पर लगता है कि वे अपना कर्तव्य निभा रहे हैं और वे खुद को परमेश्वर का अनुयायी मानते हैं। तो सत्य पर संगति के समय, परमेश्वर के वचनों पर संगति के समय वे उद्दंड क्यों हो जाते हैं? तब वे स्थिर होकर क्यों नहीं बैठ पाते? मानो परमेश्वर के वचन खंजरनुमा हों। क्या परमेश्वर के वचन उन्हें चुभे? क्या परमेश्वर के वचनों ने उनकी निंदा की? नहीं। इनमें से ज्यादातर वचन लोगों के पोषण के लिए हैं और इन्हें सुनकर लोग जागने, जीने का मार्ग ढूँढ़ने और मानव के समान जीने के लिए नया जीवन पाने में सक्षम होते हैं। तो फिर ये वचन सुनकर कुछ लोग असामान्य रूप से क्यों व्यवहार करते हैं? यह शैतान का असली रूप प्रकट करना है। जब तुम धर्मशास्त्र, पाखंडों, भ्रांतियों या प्रकाशितवाक्य के बारे में बात करते हो तो वे प्रतिकर्षित महसूस नहीं करते। अगर तुम निष्कपट, चापलूस होने के बारे में भी बात करते हो या उन्हें साहसिक कहानियाँ सुनाते हो, तो भी वे प्रतिकर्षित महसूस नहीं करते। लेकिन जैसे ही वे यह सुनते हैं कि परमेश्वर के वचनों का पाठ हो रहा है तो उन्हें नफरत होने लगती है और वे उठकर चले जाना चाहते हैं। अगर तुम उन्हें ठीक ढंग से सुनने की नसीहत देते हो तो वे लड़ने की मुद्रा में आ जाते हैं और तुम्हें गुस्से में घूरने लगते हैं। ये लोग परमेश्वर के वचनों को ग्रहण क्यों नहीं कर पाते? परमेश्वर के वचन सुनकर वे शांत होकर नहीं बैठ पाते—यह क्या चल रहा है? इससे साबित होता है कि उनकी आत्मा असामान्य है, उनकी आत्मा सत्य से विमुख और परमेश्वर विरोधी है। परमेश्वर के वचन सुनते ही वे अंदर से उत्तेजित हो जाते हैं, उनके अंदर का राक्षस जोर मारने लगता है और इससे वे चुपचाप नहीं बैठ पाते। मसीह-विरोधी का यही सार होता है। लिहाजा बाहरी तौर पर मसीह-विरोधी परमेश्वर के उन वचनों से घृणा करते हैं जो उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होते। लेकिन “उनकी धारणाओं के अनुरूप न होने” का वास्तव में क्या आशय है? यह स्पष्ट तौर पर इंगित करता है कि वे इन वचनों की निंदा करते हैं, वे इन्हें परमेश्वर से आया हुआ नहीं मानते, वे इन्हें सत्य नहीं मानते या इन्हें ऐसा जीवन-मार्ग नहीं मानते जो लोगों को बचाता है। उनकी धारणाओं के अनुरूप न होना सिर्फ एक बहाना है, एक सतही बात है। उनकी धारणाओं के अनुरूप न होने का अर्थ क्या है? परमेश्वर के बोले इन सारे वचनों के प्रति क्या हर व्यक्ति में कोई धारणा नहीं होती है? क्या हर कोई इन्हें परमेश्वर के वचन मान सकता है, सत्य मान सकता है? नहीं—हर व्यक्ति में कमोबेश किसी न किसी हद तक ऐसे विचार, धारणाएँ या दृष्टिकोण होते हैं जो परमेश्वर के वचनों से टकराते हैं या उनका खंडन करते हैं। लेकिन अधिकतर लोगों में सामान्य तार्किकता होती है और अपनी धारणाओं से मेल न खाने वाले परमेश्वर के वचनों का सामना होने पर उनमें जो रवैया पैदा होता है उससे उबरने में यह तार्किकता मदद कर सकती है। उनकी तार्किकता उन्हें बताती है, “भले ही ये वचन मेरी धारणाओं के अनुरूप न हों, तो भी ये परमेश्वर के वचन हैं; भले ही ये मेरी धारणाओं के अनुरूप न हों, मैं इन्हें सुनने को इच्छुक न रहूँ, मुझे लगे कि ये गलत हैं और मेरे विचारों से टकराते हैं, तो भी ये वचन सत्य हैं। मैं धीरे-धीरे इन्हें स्वीकार करूँगा और एक दिन जब मैं यह सब पहचान लूँगा तो मैं अपनी धारणाओं को त्याग दूँगा।” उनकी तार्किकता पहले उन्हें अपनी धारणाओं को दरकिनार करने को कहती है; उनकी धारणाएँ सत्य नहीं हैं और ये परमेश्वर के वचनों की जगह नहीं ले सकतीं। उनकी तार्किकता कहती है कि परमेश्वर के वचनों को समर्पण और ईमानदारी के रवैये के साथ स्वीकार करो, न कि अपनी ही धारणाओं और दृष्टिकोणों से परमेश्वर के वचनों का खंडन करते रहो। इस प्रकार जब वे परमेश्वर के वचन सुनते हैं तो वे अपनी धारणाओं से मेल खाने वाले वचनों को स्वीकार कर इन्हें चुपचाप बैठकर सुन सकते हैं। जहाँ तक उनकी धारणाओं से मेल न खाने वाले वचनों का मामला है, उनके लिए भी वे समाधान खोजते हैं, अपनी धारणाओं को दरकिनार करने और परमेश्वर के अनुरूप बनने की कोशिश करते है। अधिकतर तार्किक लोगों का यही सामान्य व्यवहार होता है। लेकिन “अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने” की जो बात मसीह-विरोधी करते हैं वह सामान्य लोगों के समान बात नहीं है। मसीह-विरोधियों के मामले में इसमें गंभीर समस्याएँ हैं; यह पूरी तरह परमेश्वर के कार्य-कलापों, वचनों, सार और स्वभाव विरोधी बात है, ऐसी बात है जिसका संबंध शैतानी स्वभाव सार से है। उनके मामले में यह परमेश्वर के वचनों की निंदा, तिरस्कार और उपहास है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर जो साधारण और सुबोध इंसानी भाषा बोलता है वह सत्य नहीं है और यह लोगों को बचाने का उद्देश्य हासिल नहीं कर सकती। “अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने” से मसीह-विरोधियों का जो आशय होता है उसका यही सटीक अर्थ है। तो फिर इसका सार क्या है? हकीकत में यह परमेश्वर की निंदा, उससे इनकार और उसका तिरस्कार है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग पाँच)

मसीह-विरोधी बुनियादी तौर पर सत्य से विमुख होते हैं जबकि परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी वचन सत्य हैं, जो उनके दिल को पूरी तरह घृणित लगते हैं और वे इन्हें सुनने या स्वीकारने के इच्छुक नहीं रहते हैं। परमेश्वर के जो वचन मानवजाति को उजागर कर उसका न्याय करते हैं वे इन मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों की निंदा होते हैं और वे जब ये वचन सुनते हैं तो इन्हें अपनी निंदा, आलोचना और धिक्कार मानकर असहज और बेचैन हो जाते हैं। वे अपने दिलों में क्या सोचते हैं? “परमेश्वर के कहे हुए ये सारे वचन मेरी आलोचना और निंदा कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि मेरे जैसे व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता; मैं उस प्रकार का व्यक्ति हूँ जिसे हटा दिया जाता है, अस्वीकृत कर दिया जाता है। जब मुझे बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है, तो परमेश्वर में विश्वास रखने का क्या मतलब है? लेकिन तथ्य यह है कि वह अभी भी परमेश्वर है, वह वही देह है जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, जिसने इतने सारे वचन बोले हैं और जिसके इतने सारे अनुयायी हैं। इसके बारे में मुझे क्या करना चाहिए?” यह बात उन्हें व्याकुल कर देती है; अगर वे कोई चीज हासिल नहीं कर सकते तो वे नहीं चाहते कि यह दूसरों को भी मिले। अगर यह उन्हें न मिले और दूसरों को मिल जाए, तो वे बुरी तरह से द्वेषपूर्ण और नाखुश हो जाते हैं। वे उम्मीद करते हैं कि देहधारी परमेश्वर काश परमेश्वर न हो और वह जो कार्य करता है वह नकली हो और परमेश्वर का किया हुआ न हो। अगर यह बात है, तो वे अंदर से संतुलित महसूस करेंगे और समस्या जड़ से हल हो जाएगी। वे मन-ही-मन सोचते हैं, “अगर यह व्यक्ति देहधारी परमेश्वर न हुआ तो क्या इसका मतलब यह है कि उसका अनुसरण करने वाले लोग मूर्ख बनाए जा रहे हैं? अगर यह बात है तो देर-सबेर ये लोग तितर-बितर हो जाएँगे। अगर वे तितर-बितर हो गए और उनमें से किसी को भी कुछ हासिल नहीं हुआ तो यह जानकर भी मैं निश्चिंत और शांत हो लूँगा कि मुझे कुछ नहीं मिला, है ना?” उनकी यह मानसिकता होती है; वे कुछ भी हासिल नहीं कर सकते, इसलिए वे नहीं चाहते कि दूसरों को भी कुछ हासिल हो। दूसरों को कुछ भी हासिल करने से रोकने का सबसे अच्छा हथकंडा है मसीह को नकार देना, मसीह के सार को नकार देना, मसीह के किए कार्यों को नकार देना और मसीह के कहे सभी वचनों को नकार देना। इस तरह से उनकी निंदा नहीं होगी और कुछ भी हासिल न करने को वे स्वीकार लेंगे और शांत रहेंगे और उन्हें इस मामले को लेकर फिर कभी चिंतित होने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मसीह-विरोधियों जैसे लोगों का यही प्रकृति सार है। तो क्या उनमें मसीह को लेकर धारणाएँ होती हैं? और जब उनमें धारणाएँ होती हैं तो क्या वे उन्हें हल करते हैं? क्या वे इन्हें जाने दे सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते। उनकी धारणाएँ कैसे उपजती हैं? उनके लिए धारणाएँ बनाना आसान है : “जब तुम बोलते हो तो मैं तुम्हारी पड़ताल करता हूँ, तुम्हारे वचनों के पीछे के मकसद और उनके स्रोत को समझने का प्रयास करता हूँ। क्या ये वचन तुमने सुने हैं या सीखे हैं या किसी ने तुम्हें ये बोलने का निर्देश दिया है? क्या किसी ने तुम्हारे पास कोई सूचना या शिकायत दर्ज कराई है? तुम किसे उजागर कर रहे हो?” वे इस तरह पड़ताल करते हैं। क्या वे सत्य को समझ सकते हैं? वे सत्य को कभी नहीं समझ सकते; वे अपने हृदय से इसका प्रतिरोध करते हैं। वे सत्य से विमुख हैं, इसका प्रतिरोध और इससे नफरत करते हैं और वे इस प्रकार के प्रकृति सार के साथ धर्मोपदेश सुनते हैं। परिकल्पनाओं और धर्म-सिद्धांतों के अलावा अगर वे कुछ और जुटाते हैं तो वे सिर्फ धारणाएँ हैं। किस तरह की धारणाएँ? “मसीह इस प्रकार बोलता है, कभी-कभी चुटकुले भी सुनाता है; यह सम्मानजनक तो नहीं है! कभी वह प्रतीकात्मक कहावतों का प्रयोग करता है; यह गंभीरता की बात नहीं है! उसकी वाणी में वाक्पटुता नहीं है; वह बहुत अधिक पढ़ा-लिखा नहीं है! कभी-कभी उसे अपने शब्द-चयन के लिए सोच-विचार करना पड़ता है; उसने विश्वविद्यालय में पढ़ाई नहीं की, क्या उसने की? कभी-कभी उसकी वाणी किसी व्यक्ति विशेष को निशाना बनाती है—वह कौन है? क्या किसी ने शिकायत दर्ज कराई है? वह कौन था? जब मसीह बोलता है, तो हमेशा मेरी आलोचना क्यों करता है? क्या वह दिन भर मुझे देख रहा है और मेरी निगरानी कर रहा है? क्या वह पूरा दिन लोगों के बारे में सोचने में बिताता है? मसीह अपने दिल में क्या सोच रहा है? देहधारी परमेश्वर की वाणी ऐसी नहीं लगती कि वह एकछत्र अधिकार वाले स्वर्ग के परमेश्वर की गरजदार आवाज हो—वह जो अभिव्यक्त करता है वह इतना मनुष्य-जैसा क्यों लगता है? मैं उसे चाहे जैसे भी देखूँ, वह बस एक इंसान ही है। क्या देहधारी परमेश्वर में कोई कमजोरी है? क्या वह अपने दिल में लोगों से नफरत करता है? क्या लोगों के साथ बातचीत करने के लिए उससे पास सांसारिक आचरण का कोई फलसफा है?” क्या ये धारणाएँ प्रचुर नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) मसीह-विरोधियों के विचार ऐसी चीजों से भरे होते हैं जिनका सत्य से संबंध नहीं होता, ये सभी विचार शैतान की सोच और तर्क से उपजते हैं, शैतान के सांसारिक आचरण के फलसफे से उत्पन्न होते हैं। वे अंदर तक दुष्टता से भरे होते हैं, सत्य से विमुख दशा और स्वभाव से भरे होते हैं। वे सत्य को खोजने या प्राप्त करने के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर की पड़ताल करने आते हैं। उनकी धारणाएँ कभी भी, कहीं भी उत्पन्न हो सकती हैं, और वे निरीक्षण और पड़ताल करते समय धारणाएँ बनाते हैं। उनकी धारणाएँ उनकी आलोचना और निंदा होने के दौरान उपजती हैं, और वे इन धारणाओं को अपने दिलों में कसकर जकड़ लेते हैं। जब वे देहधारी परमेश्वर के मानवीय पक्ष को देखते हैं, तब धारणाएँ बना लेते हैं। जब वे दिव्य पक्ष को देखते हैं तो जिज्ञासु और चकित हो जाते हैं, जिससे भी धारणाएँ पैदा होती हैं। मसीह के प्रति और उस देह के प्रति जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, उनका रवैया समर्पण भरा या दिल की गहराई से वास्तविक स्वीकृति का नहीं होता है। बल्कि वे मसीह के विरुद्ध खड़े होते हैं, उसकी एकटक दृष्टि, उसके विचारों और व्यवहार को देखते और उनकी पड़ताल करते हैं, यहाँ तक कि मसीह की हर अभिव्यक्ति को देखते और पड़ताल करते हैं, हर तरह के लहजे, बोलने की लय और शब्द-चयन, मसीह की वाणी में आए संदर्भों वगैरह को सुनते और उन पर गौर करते हैं। जब मसीह-विरोधी लोग मसीह का इस तरह निरीक्षण और पड़ताल करते हैं, तो उनके रवैये में यह मंशा नहीं होती कि सत्य को खोजें और उसे समझ लें ताकि वे मसीह को अपना परमेश्वर स्वीकार सकें, मसीह को अपना सत्य मान सकें और अपना जीवन बना सकें। इसके विपरीत वे इस व्यक्ति की पड़ताल करना चाहते हैं, पूरी तरह पड़ताल कर उसे समझना-बूझना चाहते हैं। वे किस चीज को समझने-बूझने की कोशिश कर रहे हैं? वे इस बात की पड़ताल कर रहे हैं कि यह व्यक्ति किस प्रकार से परमेश्वर के समान है, और अगर वह सच में परमेश्वर के समान लगता है तो वे उसे स्वीकार लेते हैं। वे उसकी चाहे कितनी भी पड़ताल कर लें, अगर वह परमेश्वर जैसा न लगे, तो वे उसे स्वीकारने के विचार को पूरी तरह त्याग देते हैं और देहधारी परमेश्वर के बारे में धारणाओं पर कायम रहते हैं या यह मानते हुए कि आशीष पाने की कोई आस नहीं है, वे जल्द रफूचक्कर हो जाने की ताक में रहते हैं।

परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है उसके बारे में धारणाएँ बनाना मसीह-विरोधियों के लिए बिल्कुल सामान्य बात है। अपने मसीह-विरोधी सार के कारण, अपने सत्य-विमुख सार के कारण उनके लिए अपनी धारणाओं को त्याग देना असंभव है। जब कुछ नहीं हो रहा होता है तो वे परमेश्वर के वचनों की पुस्तक को पढ़कर इन वचनों को परमेश्वर के रूप में देखते हैं, लेकिन देहधारी परमेश्वर के संपर्क में आने पर और उसे परमेश्वर के समान न पाकर उनके मन में तुरंत धारणाएँ उत्पन्न होने लगती हैं और उनका रवैया बदल जाता है। जब वे देहधारी परमेश्वर के संपर्क में नहीं होते हैं, तो वे महज परमेश्वर के वचनों की पुस्तक थामकर उसके वचनों को परमेश्वर मानते हैं, और अभी भी वे अपने मन में एक अज्ञात कल्पना और आशीष पाने का इरादा पाल सकते हैं ताकि अनिच्छा से कुछ प्रयास करें, कुछ कर्तव्य निभाएँ और परमेश्वर के घर में एक भूमिका निभाएँ। लेकिन जैसे ही वे उस देह के संपर्क में आते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, उनके मन में धारणाएँ उमड़ने लगती हैं। भले ही उनकी काट-छाँट न की जाए, फिर भी हो सकता है कि अपना कर्तव्य निभाने के प्रति उनका उत्साह काफी क्षीण हो जाए। मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों के साथ और उस देह के साथ जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, इसी तरह व्यवहार करते हैं। वे अक्सर परमेश्वर के वचनों को उस देह से अलग कर देते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, वे परमेश्वर के वचनों को परमेश्वर मानते हैं और जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसे इंसान मानते हैं। जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है जब वह उनकी धारणाओं से मेल नहीं खाता या इनका उल्लंघन करता है तो वे तुरंत परमेश्वर के वचनों की ओर रुख कर इनका प्रार्थनापूर्वक पाठ करते हैं, अपनी धारणाओं को जबरन दबाने और कैद करने की कोशिश करते हैं। फिर वे परमेश्वर के वचनों की आराधना ऐसे करते हैं मानो वे स्वयं परमेश्वर की आराधना कर रहे हों और ऐसा लगता है मानो उनकी धारणाएँ दूर हो गई हों। लेकिन वास्तविकता में मसीह के प्रति उनकी आंतरिक अवज्ञा और अवमानना बिल्कुल भी दूर नहीं हुई है। मसीह से व्यवहार करते हुए मसीह-विरोधी अपने मन में लगातार धारणाओं को जन्म देते रहते हैं और उनसे मृत्यु-पर्यंत हठपूर्वक चिपके रहते हैं। जब उनमें धारणाएँ नहीं होतीं तो वे पड़ताल और विश्लेषण करते हैं; जब उनमें धारणाएँ होती हैं तो वे न केवल पड़ताल और विश्लेषण करते हैं बल्कि इन पर हठपूर्वक कायम भी रहते हैं। वे न तो अपनी धारणाओं को दूर करते हैं और न ही सत्य खोजते हैं; वे इस बात से आश्वस्त होते हैं कि वे सही हैं। क्या वे शैतान के नहीं है? (बिल्कुल।) जब मसीह-विरोधियों के मन में देहधारी परमेश्वर के बारे में धारणाएँ होती हैं, तो उनकी यही अभिव्यक्तियाँ होती हैं।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग तीन)

परमेश्वर ने अनेक वचन कहे हैं और काफी कार्य किया है, फिर भी उसके वचन चाहे कितने ही व्यावहारिक हों, वह जो सत्य लोगों को बताता है वे चाहे कितने ही शिक्षाप्रद हों, उनके लिए इन्हें समझना चाहे कितना ही अत्यावश्यक हो, मसीह-विरोधियों की इनमें रुचि नहीं होती और वे इन्हें अपने दिल में नहीं उतारते हैं। वास्तव में परमेश्वर जितना ज्यादा बोलता है, जितना ज्यादा विशिष्ट कार्य करता है, मसीह-विरोधी उतने ही ज्यादा दूर भागते हैं, चिढ़ते हैं और प्रतिरोधी महसूस करते हैं। यही नहीं, उनमें परमेश्वर के प्रति तिरस्कार और निंदा का भाव भी आ जाता है; वे उसके खिलाफ शोर मचाते हैं : “क्या तुम्हारी सर्वशक्तिमत्ता इन्हीं वचनों में है? क्या तुम बस यही करते हो—वचन व्यक्त करना? अगर तुम बोलोगे नहीं तो क्या सर्वशक्तिमान नहीं रहोगे? अगर तुम सर्वशक्तिमान हो तो फिर बोलो मत? हमें जीवन प्राप्त करने और स्वभाव परिवर्तन हासिल करने में सक्षम बनाने के लिए अपनी वाणी या सत्य पर संगति करने और मनुष्य का सत्य से पोषण करने का उपयोग मत करो। अगर तुम हमें रातों रात देवदूत बना दो, अपने संदेशवाहक बना दो—तो, यह सर्वशक्तिमत्ता होगी!” जैसे-जैसे परमेश्वर अपने वचन सुनाता जाता है और अपना कार्य करता जाता है तो धीरे-धीरे मसीह-विरोधियों की प्रकृति बिना किसी दुराव-छिपाव के प्रकट और उजागर होती जाती है, साथ ही सत्य से विमुख होने और इसके प्रति प्रतिरोधी होने का उनका सार पूरी तरह उघड़कर सामने आ जाता है। जैसे-जैसे समय बीतता है और परमेश्वर अपने कार्य में निरंतर आगे बढ़ता रहता है, परमेश्वर की पहचान और उसके सार से घृणा करने वाला मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार भी धीरे-धीरे उजागर और प्रकट होता जाता है। मसीह-विरोधी अस्पष्ट चीजों का अनुसरण करते हैं; वे संकेत और चमत्कार देखने के पीछे भागते हैं—और वास्तविकता से मेल नहीं खाने वाली इस महत्वाकांक्षा और इच्छा के वश में होकर सत्य से विमुख होने और इससे नफरत करने वाली उनकी प्रकृति सामने आ जाती है। इसके विपरीत जो लोग वास्तव में वास्तविकता और सत्य का अनुसरण करते हैं, जो सकारात्मक चीजों में विश्वास करते हैं और इनसे प्रेम करते हैं, वे परमेश्वर के कार्यों और वचनों की प्रक्रिया में उसकी सर्वशक्तिमत्ता देखते हैं—और ये लोग जो देख सकते हैं, जो हासिल कर सकते हैं और जो जान सकते हैं वो वास्तव में वही चीजें हैं जिन्हें मसीह-विरोधी जानने और हासिल करने में सदा असमर्थ रहते हैं। मसीह-विरोधी मानते हैं कि अगर लोग परमेश्वर से जीवन हासिल करेंगे तो संकेतों और चमत्कारों की जरूरत है; वे मानते हैं कि संकेतों और चमत्कारों के बिना सिर्फ परमेश्वर के वचनों से जीवन और सत्य प्राप्त करना, और उसके फलस्वरूप स्वभाव परिवर्तन हासिल करना और उद्धार प्राप्त करना असंभव बात है। एक मसीह-विरोधी के लिए यह शाश्वत असंभव बात है—इसमें दम नहीं है। इसीलिए वे इस उम्मीद में अथक रूप से प्रतीक्षा और प्रार्थना करते हैं कि परमेश्वर संकेत और चमत्कार दिखाएगा और उनके लिए चमत्कार करेगा—और अगर वह ऐसा नहीं करता तो फिर उसकी सर्वशक्तिमत्ता है ही नहीं। इसका निहितार्थ यह है कि अगर परमेश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है तो फिर निश्चित रूप से उसका अस्तित्व नहीं है। यही मसीह-विरोधियों का तर्क है। वे परमेश्वर की धार्मिकता की भर्त्सना करते हैं और उसकी सर्वशक्तिमत्ता की भर्त्सना करते हैं।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग एक)

मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के स्वभाव सार में धार्मिकता और सर्वशक्तिमत्ता को लेशमात्र भी नहीं मानते हैं और न ही इसमें विश्वास करते हैं, इनके बारे में कोई ज्ञान तो उन्हें बिल्कुल भी नहीं है। परमेश्वर की पवित्रता और विशिष्टता में विश्वास करना, इसे मानना और जानना तो उनके लिए यकीनन और भी कठिन है। इसलिए परमेश्वर जब यह चाहने की बात कहता है कि लोग ईमानदार हों, कि वे ऐसे सरल सृजित प्राणी हों जो अपने स्थान पर कायम रहें तो मसीह-विरोधियों के मन में ख्याल उठने लगते हैं और उनमें एक ऐंठ और भावना आ जाती है। वे कहते हैं : “क्या परमेश्वर उच्च नहीं है? क्या वह सर्वोच्च नहीं है? अगर ऐसा है तो वह मनुष्य से जो अपेक्षाएँ करता है वे भी भव्य और उच्च होनी चाहिए। मुझे लगता था कि परमेश्वर बहुत रहस्यमय है; मैंने नहीं सोचा था कि वह इंसान से ऐसी तुच्छ माँगें करेगा। क्या इन्हें सत्य माना जा सकता है? ये तो बहुत ही साधारण हैं! परमेश्वर की अपेक्षाएँ ऊँची होनी चाहिए : व्यक्ति को अलौकिक होना चाहिए, महान होना चाहिए, सक्षम होना चाहिए—परमेश्वर को इंसान से यही करने की अपेक्षा रखनी चाहिए। वह चाहता है कि व्यक्ति ईमानदार हो—क्या यह वाकई परमेश्वर का कार्य है? क्या यह नकली नहीं है?” अपने दिलों की गहराइयों में मसीह-विरोधी लोग न सिर्फ सत्य का प्रतिरोध करते हैं—जैसा कि वे करते ही है, वे ईशनिंदा भी करते हैं। क्या यह उनका सत्य से घृणा करना नहीं है? वे परमेश्वर की माँगों के प्रति तिरस्कार और नफरत से भरे हुए हैं; वे इन माँगों को तिरस्कार, उपेक्षा, व्यंग्य और उपहास के रवैये के साथ परिभाषित करते हैं और इसी रवैये के साथ इनसे पेश आते हैं। स्पष्ट है कि मसीह-विरोधी लोग अपने स्वभाव सार में घिनौने होते हैं; वे उन चीजों या शब्दों को स्वीकार नहीं पाते जो सच्ची, सुंदर और व्यावहारिक हैं। परमेश्वर का सार सच्चा और व्यावहारिक है और लोगों से उसकी अपेक्षाएँ लोगों की जरूरतों के अनुरूप हैं। जैसा कि मसीह-विरोधी लोग कहते हैं “भव्य और उदात्त”—वह क्या है? यह झूठा, खाली और खोखला है; यह लोगों को भ्रष्ट और गुमराह करता है; यह उन्हें गिराता है और परमेश्वर से बहुत दूर ले जाता है। दूसरी ओर परमेश्वर का जीवन और उसके द्वारा व्यक्त सत्य विश्वसनीय, प्यारे और व्यावहारिक हैं। एक बार व्यक्ति जब कुछ देर के लिए परमेश्वर के वचनों का अनुभव कर लेता है और उन्हें जी लेता है तो वह जान लेगा कि अकेला परमेश्वर का जीवन ही सबसे प्यारा है, कि अकेले उसके वचन ही लोगों को बदल सकते हैं और उनका जीवन बन सकते हैं और यही लोगों की जरूरत हैं—जबकि शैतान और मसीह-विरोधी लोग जो भव्य और उदात्त विचार और कहावतें पेश करते हैं वे परमेश्वर की मनुष्य से अपेक्षाओं की सच्चाई और व्यावहारिकता के बिल्कुल उलट हैं। इसलिए मसीह-विरोधी लोग अपने ऐसे सार के आधार पर परमेश्वर की पवित्रता और विशिष्टता को स्वीकार करने में पूरी तरह असमर्थ रहते हैं। वे कतई किसी सूरत में इन चीजों को नहीं मानेंगे। जहाँ तक परमेश्वर द्वारा लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार के विभिन्न पहलू—उनकी हठधर्मिता और अहंकार, उनके कपटीपन, दुष्टता, सत्य के प्रति विमुख होने और क्रूरता के स्वभाव—उजागर करने की बात है, मसीह-विरोधी लोग इन्हें भी बिल्कुल नहीं स्वीकारते। और, जहाँ तक परमेश्वर द्वारा लोगों का न्याय करने और उन्हें कठोर फटकार लगाने की बात है, मसीह-विरोधी लोग इनमें न सिर्फ परमेश्वर की पवित्रता और मनोहरता नहीं जान पाते—बल्कि, वे दिल से उन वचनों से विमुख रहते हैं जो परमेश्वर सुनाता है और उनका प्रतिरोध करते हैं। जब भी वे ताड़ना, न्याय और मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो उनसे घृणा करते हैं और इन्हें कोसना चाहते हैं। अगर कोई यह कहता है कि वे अहंकारी, हठधर्मी, दुष्ट और सत्य से विमुख इंसान हैं तो वे उस व्यक्ति से बहस कर उसके पुरखों को गालियाँ देंगे; और अगर कोई उनके भ्रष्ट सार का खुलासा कर उनकी निंदा करता है तो उन्हें लगता है कि मानो वह व्यक्ति उनकी जान लेना चाहता था—वे इसे कतई स्वीकार नहीं करते। इसका कारण यह है कि मसीह-विरोधियों का ऐसा सार होता है और वे ऐसी चीजें प्रकट करते हैं जिससे वे अनजाने में ही पहचान लिए जाते हैं, और परमेश्वर के घर और कलीसिया में अनजाने में ही वे अलग-थलग और बेनकाब कर दिए जाते हैं। उनकी महत्वाकांक्षा और इच्छा अक्सर पूरी नहीं होती, इसलिए उनके मन में परमेश्वर के वचनों के प्रति, उसके अस्तित्व के प्रति और इस वाक्यांश के प्रति घृणा बढ़ जाती है कि “परमेश्वर के घर में सत्य का शासन होता है।” अगर तुम यह वाक्यांश उन्हें सुनाओगे तो वे मरने-मारने पर उतर आएँगे और तुम्हें तड़पा-तड़पा कर और सजा दे कर मारना चाहेंगे। क्या यह अपने आप में यह नहीं दिखाता कि मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के प्रति शत्रुवत हैं? वास्तव में, यह दिखाता है!

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग एक)

काट-छाँट के प्रति मसीह-विरोधियों का ठेठ रवैया उन्हें स्वीकार करने या मानने से सख्ती से इनकार करने का होता है। चाहे वे कितनी भी बुराई करें, परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को कितना भी नुकसान पहुँचाएँ, उन्हें इसका जरा भी पछतावा नहीं होता और न ही वे कोई एहसान मानते हैं। इस दृष्टिकोण से, क्या मसीह-विरोधियों में मानवता होती है? बिल्कुल नहीं। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को हर तरह की क्षति पहुँचाते हैं, कलीसिया के कार्य को क्षति पहुँचाते हैं—परमेश्वर के चुने हुए लोग इसे एकदम स्पष्ट देख सकते हैं, और मसीह-विरोधियों के कुकर्मों का अनुक्रम देख सकते हैं। और फिर भी मसीह-विरोधी इस तथ्य को मानते या स्वीकार नहीं करते; वे हठपूर्वक यह स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं कि वे गलती पर हैं, या कि वे जिम्मेदार हैं। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि वे सत्य से विमुख हैं? मसीह-विरोधी सत्य से इस हद तक विमुख रहते हैं। चाहे वे कितनी भी दुष्टता कर लें, तो भी अड़ियल बनकर उसे मानने से इनकार कर देते हैं और अंत तक अड़े रहते हैं। यह पर्याप्त रूप से साबित करता है कि मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीरता से नहीं लेते या सत्य स्वीकार नहीं करते। वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं; वे शैतान के अनुचर हैं, जो परमेश्वर के घर के कार्य को अस्त-व्यस्त करने के लिए आए हैं। मसीह विरोधियों के दिलों में सिर्फ प्रसिद्धि और हैसियत रहती है। उनका मानना है कि अगर उन्होंने अपनी गलती मानी, तो उन्हें जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी, और तब उनकी हैसियत और प्रसिद्धि गंभीर संकट में पड़ जाएगी। परिणामस्वरूप, वे “मरने तक नकारते रहो” के रवैये के साथ प्रतिरोध करते हैं। लोग चाहे उन्हें कैसे भी उजागर करें या उनका कैसे भी गहन-विश्लेषण करें, वे इसे नकारने के लिए जो बन पड़े वो करते हैं। चाहे उनका इनकार जानबूझकर किया गया हो या नहीं, संक्षेप में, एक ओर ये व्यवहार मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख होने और उससे घृणा करने वाले प्रकृति सार को उजागर करते हैं। दूसरी ओर, यह दिखाता है कि मसीह-विरोधी अपने रुतबे, प्रसिद्धि और हितों को कितना सँजोते हैं। इस बीच, कलीसिया के कार्य और हितों के प्रति उनका क्या रवैया रहता है? यह अवमानना और गैर-जिम्मेदारी का रवैया होता है। उनमें अंतःकरण और विवेक की पूर्णतः कमी होती है। क्या मसीह-विरोधियों का जिम्मेदारी से बचना इन मुद्दों को प्रदर्शित नहीं करता है? एक ओर, जिम्मेदारी से बचना सत्य से विमुख होने और उससे घृणा करने के उनके प्रकृति सार को साबित करता है, तो दूसरी ओर, यह उनमें जमीर, विवेक और मानवता की कमी दर्शाता है। उनकी गड़बड़ी और कुकर्म के कारण भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को कितना भी नुकसान क्यों न हो जाए, उन्हें कोई ग्लानि महसूस नहीं होती और वे इससे कभी परेशान नहीं हो सकते। यह किस प्रकार का प्राणी है? अगर वे अपनी थोड़ी भी गलती मान लेते हैं, तो यह थोड़ा-बहुत जमीर और विवेक का होना माना जाएगा, लेकिन मसीह-विरोधियों में इतनी थोड़ी-सी भी मानवता नहीं होती। तो तुम लोग क्या कहोगे कि वे क्या हैं? सारतः, मसीह-विरोधी लोग दानव हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों को चाहे जितना नुकसान पहुँचाते हों, वे उसे नहीं देखते। वे अपने दिलों में इससे जरा भी दुखी नहीं होते, न ही वे खुद को धिक्कारते हैं, एहसानमंद तो वे बिल्कुल भी महसूस नहीं करते। यह वह बिल्कुल नहीं है, जो सामान्य लोगों में दिखना चाहिए। वे दानव हैं, और दानवों में कोई जमीर या विवेक नहीं होता है। चाहे वे कितने भी बुरे काम करें, और उनके कारण कलीसिया के काम को कितने भी बड़े नुकसान उठाने पड़ें, वे अपनी गलती स्वीकारने से पूरी तरह इनकार करते हैं। उनका मानना है कि इसे स्वीकारने का मतलब यह होगा कि उन्होंने कुछ गलत किया है। वे सोचते हैं, “क्या मैं कुछ गलत कर सकता हूँ? मैं कभी कुछ गलत नहीं करूँगा! अगर मुझसे मेरी गलती स्वीकार करवाई जाती है, तो क्या यह मेरे चरित्र का अपमान नहीं होगा? भले ही मैं उस घटना में शामिल था, मगर वह घटना मेरे कारण नहीं हुई, और वहाँ का मुख्य प्रभारी मैं नहीं था। तुम्हें जिसे भी ढूँढ़ना है ढूँढ़ो, मगर मुझे ढूँढ़ते हुए मत आ जाना। चाहे जो भी हो, मैं यह गलती नहीं स्वीकार सकता। मैं यह जिम्मेदारी नहीं ले सकता!” वे सोचते हैं कि अगर उन्होंने अपनी गलती स्वीकार ली तो उनकी निंदा की जाएगी, मौत की सजा सुनाई जाएगी; साथ ही, उन्हें नरक में और आग और गंधक की झील में डाल दिया जाएगा। मुझे बताओ, क्या इस तरह के लोग सत्य स्वीकार सकते हैं? क्या कोई उनसे सच्चे पश्चात्ताप की उम्मीद कर सकता है? दूसरे लोग चाहे सत्य पर कैसे भी संगति करें, मसीह-विरोधी फिर भी इसका प्रतिरोध करेंगे, इसके विरुद्ध खड़े रहेंगे, और अपने दिल की गहराई से इसका खंडन करेंगे। बर्खास्त किए जाने के बाद भी, वे अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करते, और न ही वे पश्चात्ताप का कोई भी लक्षण दिखाते हैं। जब 10 साल बाद मामले का जिक्र किया जाता है, तब भी वे खुद को नहीं जानते, और यह स्वीकार नहीं करते कि उन्होंने गलती की थी। जब 20 साल बाद मामले को उठाया जाता है, तब भी वे खुद को नहीं जानते, और अपने आप को सही ठहराने और अपना बचाव करने की कोशिश करते हैं। और इससे भी बदतर यह है कि जब 30 साल बाद मामले का जिक्र किया जाता है, तब भी वे खुद को नहीं जानते हैं, और अपने बचाव में तर्क देने और खुद को सही ठहराने की कोशिश करते हैं, और कहते हैं : “मैंने कोई गलती नहीं की थी, तो मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता। यह मेरी जिम्मेदारी नहीं थी; इसकी जिम्मेदारी मैं नहीं उठाऊँगा।” और चौंकाने वाली बात तो यह है कि बर्खास्त किए जाने के 30 साल बाद भी, ये मसीह-विरोधी अभी भी कलीसिया द्वारा उनके साथ किए गए व्यवहार के प्रति प्रतिरोध का रवैया रखते हैं। 30 साल बाद भी उनमें कोई बदलाव नहीं आया है। तो, उन्होंने वे तीस साल कैसे बिताए? क्या ऐसा हो सकता है कि उन्होंने परमेश्वर के वचन नहीं पढ़े या आत्म-चिंतन नहीं किया? क्या ऐसा हो सकता है कि उन्होंने परमेश्वर से प्रार्थना नहीं की या उस पर भरोसा नहीं किया? क्या ऐसा हो सकता है कि उन्होंने धर्मोपदेश नहीं सुने और संगति नहीं की? क्या ऐसा हो सकता है कि वे नासमझ हैं, और उनमें सामान्य मानवता की सोच नहीं हैं? उन्होंने वे तीस साल कैसे बिताए यह वाकई एक रहस्य है। घटना के तीस साल बाद भी, वे यह सोचते हुए अभी भी गुस्से से भरे हुए हैं कि भाई-बहनों ने उनके साथ गलत किया, कि परमेश्वर उन्हें नहीं समझता, कि परमेश्वर के घर ने उनके साथ बुरा व्यवहार किया, उनके लिए समस्याएँ खड़ी कीं, उनके लिए चीजें मुश्किल बना दीं, और उन पर अन्यायपूर्वक दोष लगाया। मुझे बताओ, क्या इस तरह के लोग बदल सकते हैं? वे बिल्कुल नहीं बदल सकते। उनके दिलों में सकारात्मक चीजों के प्रति बैर भाव, प्रतिरोध और विरोध है। उनका मानना है कि उनके बुरे कर्मों को उजागर करके और उन्हें काट-छाँट कर, दूसरे लोगों ने उनके चरित्र को नुकसान पहुँचाया, उनकी प्रतिष्ठा को बदनाम किया, और उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे को जबरदस्त नुकसान पहुँचाया है। वे इस मामले में प्रार्थना करने, सत्य खोजने और अपनी गलतियों को पहचानने के लिए कभी भी परमेश्वर के सामने नहीं आएँगे, और उनमें कभी भी पश्चात्ताप करने या अपनी गलतियों को स्वीकारने का रवैया नहीं होगा। वे परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को तो और भी नहीं स्वीकारेंगे। आज भी, परमेश्वर के सामने खुद को सही ठहराते हुए उनके मन में अवज्ञा, असंतोष और शिकायतें हैं, और वे परमेश्वर से इन गलतियों का निवारण करने, इस मामले का खुलासा करने और वास्तव में यह निर्णय करने के लिए कहते हैं कि कौन सही था और कौन गलत; यहाँ तक कि वे इस मामले के कारण परमेश्वर की धार्मिकता पर संदेह करते हैं और इसे नकराते हैं, और इस तथ्य पर भी संदेह करते हैं कि परमेश्वर के घर में सत्य और परमेश्वर का शासन चलता है, और इसे नकारते हैं। मसीह-विरोधियों के काटने-छाँटने का अंतिम परिणाम यही होता है—क्या वे सत्य स्वीकारते हैं? वे सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते; वे इसे स्वीकारने के बिल्कुल खिलाफ हैं। हमें इससे पता चलता है कि मसीह-विरोधी का प्रकृति सार सत्य से विमुख होने और उससे घृणा करने वाला होता है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन)

मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं, और उससे नफरत करते हैं। क्या तुम्हारे लिए यह संभव है कि सत्य से विमुख किसी व्यक्ति को ऐसा बनाओ कि वह सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास करे? (नहीं।) ऐसा करना किसी गाय को पेड़ पर चढ़ाने या भेड़िये को घास खिलाने के बराबर है—क्या यह उनसे असंभव की माँग करना होगा? कभी-कभी तुम किसी भेड़िये को भेड़ों के झुंड में घुसते हुए देखोगे ताकि वह भेड़ों के संग रह सके। यह छल करना है, भेड़ को खाने के लिए मौके का इंतजार करना। उसकी प्रकृति कभी नहीं बदलेगी। इसी तरह किसी मसीह-विरोधी से सत्य का अभ्यास करवाना किसी भेड़िये को घास खिलाने और उसकी भेड़ खाने की प्रवृत्ति का परित्याग करवाने के बराबर है : यह नामुमकिन है। भेड़िये मांसाहारी होते हैं। वे भेड़ों को खाते हैं—वे हर प्रकार के प्राणियों को खाते हैं। यह उनकी प्रकृति है, और इसे नहीं बदला जा सकता। अगर कोई कहे, “मुझे नहीं पता कि मैं मसीह-विरोधी हूँ या नहीं, लेकिन जब भी मैं सत्य पर संगति होते सुनता हूँ, तो मेरा दिल गुस्से से उबल जाता है, और मैं उससे नफरत करता हूँ—और जो भी मेरी काट-छाँट करे, मैं उससे और भी ज्यादा नफरत करता हूँ,” तो क्या यह व्यक्ति मसीह-विरोधी है? (हाँ।) कोई कहता है, “जब तुम पर चीजें आ पड़ती हैं, तो तुम्हें समर्पण कर सत्य को खोजना चाहिए,” और वह पहला व्यक्ति बोलता है, “समर्पण मेरी जूती! चुप करो!” यह कैसी बात है? क्या यह तुनकमिजाजी है? (नहीं।) यह कौन-सा स्वभाव है? (सत्य से नफरत का।) वे इस बारे में सुनना भी पसंद नहीं करते, और जैसे ही तुम सत्य पर संगति करते हो, उनकी प्रकृति फूट पड़ती है, और वे अपना असली रूप दिखा देते हैं। वे सत्य को खोजने या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के बारे में कोई बात सुनना पसंद नहीं करते। उनकी नापसंदगी कितनी ज्यादा है? ऐसी बात सुनने पर वे फूट पड़ते हैं। उनकी शिष्टता ढह जाती है; वे रहस्योद्घाटन करने से नहीं डरते। उनकी नफरत इस हद तक होती है। तो फिर क्या वे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं? (नहीं।) सत्य बुरे लोगों के लिए नहीं है; यह उन लोगों के लिए है जिनमें अंतरात्मा और विवेक है, जिन्हें सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम है। यह उन लोगों से अपेक्षा करता है कि वे उसे स्वीकार कर उसका अभ्यास करें। और जहाँ तक मसीह-विरोधी स्वभाव वाले उन दुष्ट लोगों का सवाल है, जो सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति अत्यधिक शत्रुतापूर्ण हैं, वे कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे। चाहे वे जितने भी वर्ष परमेश्वर में विश्वास रख लें, वे चाहे जितने धर्मोपदेश सुन लें, वे सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे या उसका अभ्यास नहीं करेंगे। यह मत मानो कि वे सत्य का अभ्यास इसलिए नहीं करते क्योंकि वे उसे नहीं समझते, और इसके बारे में ज्यादा सुनने के बाद वे उसे समझ लेंगे। यह असंभव है, क्योंकि वे सभी लोग जो सत्य से विमुख हैं और उससे नफरत करते हैं, वे शैतान के सगे हैं। वे कभी नहीं बदलेंगे, और उन्हें कोई भी दूसरा नहीं बदल सकेगा। यह परमेश्वर से विश्वासघात करने के बाद के प्रधान दूत जैसा ही है : क्या तुम लोगों ने कभी परमेश्वर को यह कहते हुए सुना है कि वह प्रधान दूत को बचाएगा? परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा। तो परमेश्वर ने शैतान के साथ क्या किया? उसने उसे बीच हवा में उछाल दिया और उससे धरती पर अपनी सेवा करने को कहा, वही जो उसे करनी चाहिए। और जब उसने सेवा का काम पूरा कर लिया, और जब परमेश्वर की प्रबंधन योजना पूरी होगी तो वह उसे नष्ट कर देगा और बस काम तमाम। क्या परमेश्वर उससे एक भी अतिरिक्त बात कहता है? (नहीं।) क्यों नहीं? क्योंकि एक शब्द में कहें तो यह व्यर्थ होगा। उससे एक भी बात कहना निरर्थक होगा। परमेश्वर ने उसकी असलियत समझ ली है : मसीह-विरोधी का प्रकृति सार कभी नहीं बदल सकता। यह इसी तरह चलता है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो)

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