10. पौलुस के प्रकृति सार को कैसे पहचानें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
पौलुस का उल्लेख करने पर, तुम लोग उसके इतिहास के बारे में, और उसके विषय में कुछ ऐसी कहानियों के बारे में सोचोगे जो त्रुटिपूर्ण और वास्तविकता से भिन्न हैं। उसे छोटी उम्र से ही माता-पिता द्वारा शिक्षित कर दिया गया था, उसने मेरा जीवन प्राप्त कर लिया था, और मेरे द्वारा पूर्वनिर्धारण के परिणाम स्वरूप वह मेरी अपेक्षा के अनुसार क्षमता से सम्पन्न था। 19 वर्ष की आयु में, उसने जीवन के बारे में विभिन्न पुस्तकें पढ़ीं; इसलिए मुझे इस विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं कि कैसे, अपनी योग्यता, मेरी प्रबुद्धता और रोशनी की वजह से, वह न केवल आध्यात्मिक विषयों पर कुछ अंर्तदृष्टि के साथ बोल सकता था, बल्कि वह मेरे इरादों को समझने में भी समर्थ था। निस्सन्देह, इसमें आन्तरिक व बाहरी वजहें भी शामिल हैं। तथापि, उसकी एक अपूर्णता यह थी कि अपनी प्रतिभा की वजह से, वह प्रायः बकवादी और डींगें मारने वाला बन जाया करता था। परिणाम स्वरूप, उसकी विद्रोहशीलता के कारण, जिसका एक हिस्सा प्रधान स्वर्गदूत का प्रतिनिधित्व करता था, मेरे प्रथम देहधारण के समय, उसने मेरी अवहेलना का हर प्रयास किया। वह उनमें से था जो मेरे वचनों को नहीं जानते, और उसके हृदय से मेरा स्थान पहले ही तिरोहित हो चुका था। ऐसे लोग सीधे तौर पर मेरी दिव्यता का विरोध करते हैं, और मेरे द्वारा मार दिए जाते हैं, तथा अन्त में सिर झुका कर अपने पापों को स्वीकार करते हैं। इसलिए, जब मैंने उसकी दमदार बातों का उपयोग कर लिया—जिसका अर्थ है कि जब उसने कुछ समय तक मेरे लिए काम कर लिया—तो वह एक बार फिर अपने पुराने मार्ग पर चला गया, हालाँकि उसने सीधे तौर पर मेरे वचनों के खिलाफ विद्रोह नहीं किया, फिर भी उसने मेरे आंतरिक मार्गदर्शन और प्रबुद्धता के खिलाफ विद्रोह किया, और इसलिए पहले उसने जो कुछ भी किया वह व्यर्थ हो गया; दूसरे शब्दों में, जिस महिमा के मुकुट के बारे में उसने कहा था, वे खोखले वचन उसकी कल्पना बनकर रह गए थे, क्योंकि आज भी वह मेरे बंधनों के बीच मेरे न्याय के अधीन है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 4
उन लोगों में जो जीवन की तलाश करते हैं, पौलुस ऐसा व्यक्ति था जो स्वयं अपना सार नहीं जानता था। वह किसी भी तरह विनम्र या समर्पित नहीं था, न ही वह अपना सार जानता था, जो परमेश्वर के विरुद्ध था। और इसलिए, वह ऐसा व्यक्ति था जो विस्तृत अनुभवों से नहीं गुजरा था, और ऐसा व्यक्ति था जो सत्य को अभ्यास में नहीं लाया था। ... पौलुस स्वयं अपना सार या भ्रष्टता नहीं जानता था, वह अपने विद्रोहीपन को तो और भी नहीं जानता था। उसने मसीह के प्रति अपनी कुत्सित अवज्ञा का कभी उल्लेख नहीं किया, न ही वह बहुत अधिक पछतावे से भरा था। उसने बस एक स्पष्टीकरण दिया, और, अपने हृदय की गहराई में, वह परमेश्वर के प्रति पूर्ण रूप से नहीं झुका था। यद्यपि वह दमिश्क के रास्ते पर गिर पड़ा था, फिर भी उसने अपने भीतर गहराई से झाँककर नहीं देखा था। वह मात्र काम करते रहने से ही संतुष्ट था, और वह स्वयं को जानने और अपना पुराना स्वभाव बदलने को सबसे महत्वपूर्ण विषय नहीं मानता था। वह तो बस सत्य बोलकर, स्वयं अपने अंतःकरण के लिए औषधि के रूप में दूसरों को पोषण देकर, और अपने अतीत के पापों के लिए अपने को सांत्वना देने और अपने को माफ करने की ख़ातिर यीशु के शिष्यों को अब और न सताकर ही संतुष्ट था। उसने जिस लक्ष्य का अनुसरण किया वह भविष्य के मुकुट और क्षणिक कार्य से अधिक कुछ नहीं था, उसने जिस लक्ष्य का अनुसरण किया वह भरपूर अनुग्रह था। उसने पर्याप्त सत्य की खोज नहीं की थी, न ही उसने उस सत्य की अधिक गहराई में जाने की खोज की थी जिसे उसने पहले नहीं समझा था। इसलिए स्वयं के विषय में उसके ज्ञान को झूठ कहा जा सकता है, और उसने ताड़ना और न्याय स्वीकार नहीं किया था। वह कार्य करने में सक्षम था इसका अर्थ यह नहीं है कि वह स्वयं अपनी प्रकृति या सार के ज्ञान से युक्त था; उसका ध्यान केवल बाहरी अभ्यासों पर था। यही नहीं, उसने जिसके लिए कठिन परिश्रम किया था वह बदलाव नहीं, बल्कि ज्ञान था। उसका कार्य पूरी तरह दमिश्क के मार्ग पर यीशु के प्रकटन का परिणाम था। यह कोई ऐसी चीज नहीं थी जिसे उसने मूल रूप से करने का संकल्प लिया था, न ही यह वह कार्य था जो उसके द्वारा अपने पुराने स्वभाव की काँट-छाँट स्वीकार करने के बाद हुआ था। उसने चाहे जिस प्रकार कार्य किया, उसका पुराना स्वभाव नहीं बदला था, और इसलिए उसके कार्य ने उसके अतीत के पापों का प्रायश्चित नहीं किया बल्कि उस समय की कलीसियाओं के मध्य एक निश्चित भूमिका मात्र निभाई थी। इस जैसे व्यक्ति के लिए, जिसका पुराना स्वभाव नहीं बदला था—कहने का तात्पर्य यह, जिसने उद्धार प्राप्त नहीं किया था, तथा सत्य से और भी अधिक रहित था—वह प्रभु यीशु द्वारा स्वीकार किए गए लोगों में से एक बनने में बिल्कुल असमर्थ था। वह कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जिसमें यीशु मसीह के लिए प्रेम और भय समाया था, न ही वह ऐसा व्यक्ति था जो सत्य की खोज करने में पारंगत था, वह ऐसा व्यक्ति तो और भी नहीं था जो देहधारण के रहस्य की खोज करता था। वह मात्र ऐसा व्यक्ति था जो मिथ्या वाद-विवाद में निपुण था, और जो किसी के भी आगे झुकता नहीं था जो उससे ऊपर थे या जो सत्य से युक्त थे। वह उन लोगों या सत्यों से ईर्ष्या करता था जो उसके विपरीत थे, या उसके प्रति शत्रुतापूर्ण थे, वह उन प्रतिभावान लोगों को प्रमुखता देता था जो बहुत अच्छी छवि प्रस्तुत करते थे और गहन ज्ञान से युक्त थे। वह उन गरीब लोगों से बातचीत करना पसंद नहीं करता था जो सच्चे मार्ग की खोज करते थे और सत्य के अलावा किसी भी चीज की परवाह नहीं करते थे, और इसके बजाय उसने धार्मिक संगठनों के वरिष्ठ व्यक्तियों से सरोकार रखा जो केवल सिद्धांतों की बात करते थे, और जो भरपूर ज्ञान से युक्त थे। उसमें पवित्र आत्मा के नए कार्य के प्रति कोई प्रेम नहीं था, और उसने पवित्र आत्मा के नए कार्य की हलचल की परवाह नहीं की। इसके बजाय, उसने उन नियमों और सिद्धांतों की तरफदारी की जो सामान्य सत्यों से कहीं अधिक ऊँचे थे। अपने जन्मजात सार और अपनी संपूर्ण खोज में, वह सत्य का अनुसरण करने वाला ईसाई कहलाने योग्य नहीं था, परमेश्वर के घर में वफादार सेवक कहलाने योग्य तो और भी नहीं था, क्योंकि उसका पाखंड बहुत अधिक था, और उसका विद्रोहीपन बहुत ज्यादा था। यद्यपि वह प्रभु यीशु के सेवक के रूप में जाना जाता है, किंतु वह स्वर्ग के राज्य के दरवाज़े में प्रवेश करने योग्य बिल्कुल नहीं था, क्योंकि आरंभ से अंत तक उसके कार्यकलापों को धार्मिक नहीं कहा जा सकता है। उसे बस ऐसे मनुष्य के रूप में देखा जा सकता है जो पांखडी था, जिसने अधार्मिकता की थी, किंतु जिसने मसीह के लिए कार्य किया था। यद्यपि उसे दुष्ट नहीं कहा जा सकता है, फिर भी उसे उपयुक्त रूप से ऐसा मनुष्य कहा जा सकता है जिसने अधार्मिकता की थी। उसने बहुत कार्य किया था, फिर भी उसे उसके द्वारा किए गए कार्य की मात्रा के आधार पर नहीं ही परखा जाना चाहिए, बल्कि केवल उसकी गुणवत्ता और सार के आधार पर ही परखा जाना चाहिए। केवल इसी ढंग से इस मामले की तह तक पहुँचना संभव है। वह हमेशा मानता था : “मैं कार्य करने में सक्षम हूँ, मैं अधिकांश लोगों से बेहतर हूँ; मैं प्रभु के बोझ का उतना ध्यान रखता हूँ जितना कोई और नहीं रखता है, और कोई भी उतनी गहराई से पश्चात्ताप नहीं करता है जितना मैं करता हूँ, क्योंकि बड़ी ज्योति मेरे ऊपर चमकी थी, और मैं बड़ी ज्योति देख चुका हूँ, और इसलिए मेरा पश्चात्ताप किसी भी अन्य की अपेक्षा अधिक गहरा है।” यही वह है जो उसने उस समय अपने हृदय के भीतर सोचा था। अपने कार्य के अंत में, पौलुस ने कहा : “मैं लड़ाई लड़ चुका हूँ, मैंने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, और मेरे लिए धर्म का मुकुट रखा हुआ है।” उसकी लड़ाई, कार्य और दौड़ पूरी तरह धार्मिकता के मुकुट के लिए थे, और वह सक्रिय रूप से तेज़ी से आगे नहीं निकला था। यद्यपि वह अपने कार्य में असावधान नहीं था, फिर भी यह कहा जा सकता है कि उसका कार्य बस उसकी ग़लतियों की भरपाई करने के लिए, और उसके अंतःकरण के आरोपों की क्षतिपूर्ति करने के लिए था। वह बस यथासंभव जल्दी से जल्दी अपना कार्य पूरा करने, अपनी दौड़ समाप्त करने, और अपनी लड़ाई लड़ने की आशा करता था, ताकि वह अपना इच्छित धार्मिकता का मुकुट जल्द से जल्द प्राप्त कर सके। वह जिस चीज के लिए लालायित था वह अपने अनुभवों और सच्चे ज्ञान के साथ प्रभु यीशु से मिलना नहीं था, बल्कि यथासंभव जल्द से जल्द अपना कार्य समाप्त करना था, ताकि प्रभु यीशु से मिलने पर वह वे पुरस्कार प्राप्त करेगा जो उसने अपने कार्य से कमाए थे। उसने अपने को आराम देने के लिए, और भविष्य के मुकुट के लिए बदले में एक सौदा करने के लिए अपने कार्य का उपयोग किया था। उसने जिसकी खोज की वह सत्य या परमेश्वर नहीं था, बल्कि केवल मुकुट था। ऐसा अनुसरण मानक स्तर का कैसे हो सकता है? उसकी प्रेरणा, उसका कार्य, उसने जो मूल्य चुकाया, और उसके समस्त प्रयास—उसकी अद्भुत स्वैर कल्पनाएँ उन सबमें व्याप्त थीं, और उसने पूरी तरह स्वयं अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य किया था। उसके कार्य की संपूर्णता में, वह मूल्य चुकाने की रत्ती भर इच्छा नहीं थी जो उसने चुकाया था; वह तो बस सौदा करने में लगा था। उसके प्रयास अपना कर्तव्य निभाने के लिए सहर्ष नहीं किए गए थे, बल्कि सौदे का उद्देश्य प्राप्त करने के लिए सहर्ष किए गए थे। क्या ऐसे प्रयासों का कोई मूल्य है? कौन ऐसे अशुद्ध प्रयासों की प्रशंसा करेगा? किसे ऐसे प्रयासों में रुचि है? उसका कार्य भविष्य के स्वप्नों से भरा था, अद्भुत योजनाओं से भरा था, और उसमें ऐसा कोई मार्ग नहीं था जिससे मानव स्वभाव को बदला जा सके। उसका बहुत कुछ परोपकार ढोंग था; उसका कार्य जीवन प्रदान नहीं करता था, बल्कि शिष्टता का ढकोसला था; यह सौदा करना था। इस जैसा कार्य मनुष्य को अपने मूल कर्तव्य की पुनः प्राप्ति के पथ पर कैसे ले जा सकता है?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है
जब तुम पौलुस द्वारा स्वयं को प्रस्तुत करने के सभी तरीकों को देखते हो, तो तुम्हें उसका प्रकृति सार देखने में सक्षम होना चाहिए और यह निष्कर्ष निकालने में पूरी तरह सक्षम होना चाहिए कि उसकी दिशा, लक्ष्य, स्रोत और उसके प्रयासों की प्रेरणाएं गलत थीं और कि वे चीजें विद्रोही तथा परमेश्वर की प्रतिरोधी थीं, परमेश्वर को नाराज करने वाली और ऐसी थीं जिनसे उसे घिन थी। पौलुस द्वारा स्वयं को प्रस्तुत करने का पहला मुख्य तरीका क्या है? (उसने मुकुट के बदले में कड़ी मेहनत की और काम किया।) तुम लोगों ने उसे खुद को इस तरह प्रस्तुत करते हुए कहाँ देखा, या यह देखा कि वह इस स्थिति में था? (उसके शब्दों के माध्यम से।) उनके प्रसिद्ध कथनों के माध्यम से। आम तौर पर, प्रसिद्ध कहावतें सकारात्मक होती हैं और संकल्प, आशा और आकांक्षा रखने वाले लोगों के लिए सहायक और लाभदायक होती हैं; वे ऐसे लोगों को प्रोत्साहित और प्रेरित कर सकती हैं, लेकिन पौलुस के प्रसिद्ध कथनों का काम क्या था? बहुत से काम थे। क्या तुम उसके ज्यादा प्रसिद्ध कथनों में से किसी एक का उल्लेख कर सकते हो? (“मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)।) ये शब्द उसके प्रकृति सार के किस पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं? हमें इसे सत्य के अनुसार कैसे परिभाषित करना चाहिए? (अभिमानी, आत्म-तुष्ट, और परमेश्वर के साथ सौदा करने वाले के रूप में।) यह उसकी अहंकारी प्रकृति ही थी जिसने उसे ये शब्द कहने के लिए प्रेरित किया—यदि सारे प्रयासों के अंत में मुकुट न मिलना होता तो वह दौड़ में भाग नहीं लेता, काम नहीं करता या परमेश्वर में विश्वास भी नहीं करता। इतने सारे उपदेशों को सुनने के बाद लोगों को अब पौलुस द्वारा उजागर की गई इस अभिव्यक्ति और स्थिति को पहचानने में सक्षम होना चाहिए, लेकिन क्या तुम इसे परिभाषित कर सकते हो? जब हम “सारांश” निकालने को कहते हैं, तो हमारा मतलब किसी चीज को परिभाषित करने से होता है; किसी चीज को परिभाषित करने के लिए तुम जिन शब्दों का उपयोग करते हो वही उस मामले की सच्ची समझ होती है। जब तुम किसी चीज को सटीक तरीके से परिभाषित कर सकते हो, तो यह साबित होता है कि तुम उस मामले को स्पष्ट रूप से देख पा रहे हो; जब तुम किसी चीज को परिभाषित नहीं कर पाते और केवल अन्य लोगों की परिभाषाओं की नकल करते हो, तो साबित होता है कि तुम इसे सच में नहीं समझते। उस समय किस मानसिकता या स्थिति ने पौलुस को ये शब्द बोलने के लिए प्रेरित किया? उसने किस इरादे से ऐसा किया? इन शब्दों से तुम्हें उसके प्रयासों का क्या सार दिखता है? (आशीष पाना।) वह तेजी से भागा, खुद को खपाया और अपने को इतना अधिक समर्पित किया क्योंकि उसका इरादा था आशीर्वाद पाना। यह उसका प्रकृति सार था जो उसके हृदय के अंतःस्थल में रहता था। ... पौलुस ने अच्छी लड़ाई लड़ने, दौड़ लगाने, काम करने, खुद को खपाने और यहाँ तक कि कलीसिया का सिंचन करने जैसे काम भी उन सिक्कों के रूप में किए जिनके बदले धार्मिकता का मुकुट और उस दिशा में जाने वाला पथ मिल सकता था। इसलिए, चाहे उसने कष्ट उठाया हो, खुद को खपाया हो, या दौड़ में भाग लिया हो, उसने चाहे जितना भी कष्ट सहा हो, धार्मिकता का मुकुट हासिल करना ही उसके दिमाग में एकमात्र लक्ष्य था। उसने धार्मिकता का मुकुट और आशीष पाने के लिए प्रयासरत होने को ही परमेश्वर में विश्वास करने के उचित उद्देश्य के रूप में लिया और कष्ट उठाने, खुद को खपाने, काम करने और दौड़ में भाग लेने को इस उद्देश्य की दिशा में जाने वाले पथों के रूप में माना। उसका सारा बाहरी अच्छा व्यवहार दिखावे के लिए था; उसने यह सब अंत में आशीष प्राप्त करने के बदले में किया। यह पौलुस के बड़े पापों में से पहला पाप है।
पौलुस ने जो कुछ भी कहा और किया, जो उसने प्रकट किया, उसके काम और जिस दौड़ में वह दौड़ा उसका इरादा और लक्ष्य, साथ ही इन दोनों चीजों के प्रति उसके रवैये के बारे में क्या कुछ ऐसा है जो सत्य के अनुरूप हो? (नहीं, ऐसा नहीं है।) उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो सत्य के अनुरूप हो, और उसने जो कुछ भी किया वह उसके मुताबिक नहीं था जो प्रभु यीशु ने लोगों से करने को कहा था, लेकिन क्या उसने इस पर विचार किया? (नहीं, उसने विचार नहीं किया।) उसने कभी इस पर विचार ही नहीं किया, न ही कोई तलाश की, तो फिर उसके पास यह मानने का क्या आधार था कि उसकी सोच सही थी? (उसकी धारणाएँ और कल्पनाएँ।) इसमें एक मसला है; वह कुछ ऐसा कैसे बना जिसकी उसने जीवन भर अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्य के रूप में कल्पना की थी? क्या उसने कभी इस पर कोई विचार किया या खुद से पूछा था कि “क्या मैं जो सोच रहा हूँ वह सही है? मेरे अलावा दूसरे लोग तो ऐसा नहीं सोचते। क्या ये कोई समस्या है?” न केवल उसे ऐसे संदेह नहीं थे, बल्कि उसने अपने विचारों को पत्रों में लिखा और उन्हें सभी कलीसियाओं को भेजा, ताकि हर कोई उन्हें पढ़ सके। ऐसे व्यवहार की प्रकृति क्या है? इसमें एक समस्या है; उसने कभी यह सवाल क्यों नहीं किया कि क्या उसकी सोच सत्य के अनुरूप है, सत्य की खोज करती है, या इसकी तुलना प्रभु यीशु ने जो कहा है उससे क्यों नहीं की? इसके बजाय, उसने जो कल्पना की थी और जो उसे अपनी धारणाओं में सही लगा, उसे ही वह लक्ष्य माना जिसे प्राप्त करने का उसे प्रयास करना चाहिए। यहाँ समस्या क्या है? उसने जो कल्पना की और जो सोचा उसे सत्य के रूप में सही माना और प्राप्त करने योग्य लक्ष्य के रूप में अपनाया। क्या यह अत्यधिक अहंकारी और आत्म-तुष्ट होना नहीं है? क्या उसके हृदय में तब भी परमेश्वर के लिए स्थान था? क्या वह तब भी परमेश्वर के वचनों को सत्य मानने में सक्षम था? यदि वह परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मान सकता था, तो परमेश्वर के प्रति उसका रवैया क्या होगा? क्या वह परमेश्वर भी बनना चाहता था? यदि ऐसा न होता, तो वह अपने विचारों और धारणाओं में कल्पित बातों को अनुसरण योग्य लक्ष्यों के रूप में नहीं देखता, न ही वह अपनी धारणाओं या कल्पनाओं का अनुसरण इस तरह करता जैसे वे सत्य ही हों। उसका मानना था कि उसने जो सोचा वह सत्य था, और कि वह सत्य और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप था। वह जिस बात को सही समझता था उसे ही उसने कलीसियाओं में भाई-बहनों के साथ साझा किया और उनके मन में यह बात बिठाई, जिससे हर कोई उसकी कही हास्यास्पद बातों का पालन करने लगा; उसने प्रभु यीशु के शब्दों को अपने शब्दों से बदल दिया, और अपने इन हास्यास्पद शब्दों का इस्तेमाल यह गवाही देने के लिए किया कि उसके लिए जीवित रहना मसीह होना है। क्या यह पौलुस का दूसरा बड़ा पाप नहीं है? यह समस्या अत्यंत गंभीर है!
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पौलुस के प्रकृति सार को कैसे पहचानें
पौलुस का एक और गंभीर पाप है, और वह यह है कि उसने अपना काम पूरी तरह से अपनी मानसिक क्षमता, शैक्षणिक ज्ञान, धार्मिक ज्ञान और सिद्धांत के आधार पर किया। यह ऐसी बात है जो उसके प्रकृति सार से संबंधित है। तुम लोगों को इसका सारांश प्रस्तुत करना चाहिए और फिर जाँच करनी चाहिए कि इन चीजों के प्रति उसका रवैया क्या है। यह एक बहुत ही अहम और महत्वपूर्ण पाप है और इसे लोगों को अवश्य समझना चाहिए। ... पौलुस के पास जन्म से क्या था? (उसकी जन्मजात योग्यताएं।) पौलुस स्वाभाविक रूप से चतुर था, अच्छा वक्ता था, अपनी बात को अच्छी तरह से व्यक्त करता था, और सार्वजनिक रूप से बोलने में हिचकता नहीं था। आओ, अब हम उसकी जन्मजात योग्यताओं, प्रतिभाओं, बुद्धिमत्ता, क्षमताओं के साथ-साथ उसके द्वारा जीवन भर अर्जित किए गए ज्ञान के बारे में बात करने पर ध्यान केंद्रित करें। इस तथ्य का क्या मतलब है कि वह अच्छा वक्ता था? उसने स्वयं को किस प्रकार से प्रकट एवं प्रस्तुत किया? वह ऊँचे सिद्धांतों के बारे में बात करना पसंद करता था; वह लगातार गहन आध्यात्मिक धर्म-सिद्धांतों, सिद्धांतों और ज्ञान तथा अपने प्रसिद्ध ग्रंथों और लोगों द्वारा प्रायः उद्धृत कथनों के बारे में बात करता था। वह कौन सा एक शब्द है जो पौलुस के शब्दों का सार प्रस्तुत करता है? (खोखला।) क्या खोखले शब्द लोगों के लिए रचनात्मक हैं? जब वे उन शब्दों को सुनते हैं, तो उन्हें साहस का अनुभव होता है, लेकिन थोड़ी देर बाद उनका उत्साह ठंडा पड़ जाता है। पौलुस जिन चीजों के बारे में बात करता था वे अस्पष्ट और भ्रम पैदा करने वाली थीं, जिन चीजों को तुम ठोस शब्दों में नहीं बता सकते। जिन सिद्धांतों के बारे में वह बात करता था, उनमें तुम्हें अभ्यास का कोई मार्ग या दिशा नहीं मिल सकती; तुमको ऐसा कुछ भी नहीं मिल सकता जिसे तुम सटीक तरीके से वास्तविक जीवन में लागू कर सको—चाहे सिद्धांत हों या आधार, कोई भी वास्तविक जीवन में लागू नहीं होता। इसीलिए मैं कहता हूँ कि वह जिन धार्मिक सिद्धांतों और आध्यात्मिक सिद्धांतों की बात करता था, वे खोखली और अव्यावहारिक बातें थीं। इन चीजों के बारे में बात करने में पौलुस का लक्ष्य क्या था? कुछ लोग कहते हैं, “वह हमेशा इन चीजों के बारे में बात करता था क्योंकि वह ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी ओर खींचना चाहता था जिससे वे उसे सम्मान और आदर की दृष्टि से देखें। वह प्रभु यीशु का स्थान लेना चाहता था और अधिक लोगों का मन जीतना चाहता था, ताकि उसे आशीष मिले।” क्या यही वह विषय है जिस पर हम आज बात करना चाहते हैं? (नहीं, ऐसा नहीं है।) यह किसी ऐसे व्यक्ति के लिए बेहद सामान्य बात है जिसकी काट-छाँट न की गई हो, जिस पर कोई फैसला न लिया गया हो या जिसकी ताड़ना न की गई हो, जो परीक्षणों या शुद्धिकरण से न गुजरा हो, जिसके पास उसके जैसे विशेष गुण हों और जिसका प्रकृति सार ऐसे मसीह विरोधी का हो जो इस तरह से दिखावा करता हो और उसके जैसे आचरण का प्रदर्शन करता हो। इसलिए हम इस मामले की गहराई में नहीं जाएंगे। हम किस बात की गहराई में जाने वाले हैं? उसकी इस समस्या के सार, उसके ऐसा करने के पीछे के मूल कारण और प्रेरणा, और किस चीज ने उसे इस तरह कार्य करने के लिए प्रेरित किया उसकी गहराई में जाएंगे। इससे फर्क नहीं पड़ता कि आज लोग उन सभी चीजों को धर्म-सिद्धांत, सिद्धांत, धार्मिक ज्ञान, सहज प्रतिभा या चीजों की उसकी अपनी व्याख्या के रूप में देखेंगे या नहीं, आम तौर पर कहें तो, पौलुस की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि वह मानवीय इच्छा से उत्पन्न चीजों को सत्य के रूप में ग्रहण करता था। इसीलिए उसमें लोगों को आकर्षित करने और उन्हें सिखाने के लिए इन धार्मिक सिद्धांतों का निर्णायक, साहसपूर्ण और खुला उपयोग करने की हिम्मत थी। यही समस्या का सार है। क्या यह एक गंभीर समस्या है? (हाँ, यह गंभीर समस्या है।) किन चीजों को वह सत्य मानता था? वह खूबियों के साथ पैदा हुआ था और साथ ही उसने जीवन भर ज्ञान अर्जित किया और धार्मिक सिद्धांत सीखे थे। उसने धार्मिक सिद्धांत शिक्षकों से प्राप्त किया, धर्मग्रंथों को पढ़ कर प्राप्त किया तथा उसने जो समझा और और कल्पना की उससे भी ज्ञान उत्पन्न किया। उसने अपनी मानवीय समझ की धारणाओं और कल्पनाओं को सत्य माना, लेकिन यह सबसे गंभीर समस्या नहीं थी, एक समस्या इससे भी बड़ी थी। उसने उन बातों को सत्य माना, लेकिन क्या उसने उस समय सोचा था कि वे बातें सत्य थीं? क्या उसके पास ऐसी कोई अवधारणा थी कि सत्य है क्या? (नहीं, उसने ऐसा नहीं किया।) तो फिर वह उन चीजों को किस रूप में देखता था? (जीवन के रूप में।) उसने उन सभी चीजों को जीवन माना। उसे लगता था कि वह जितने अधिक उपदेश दे सकेगा, या जितनी ऊँची बातें करेगा, उसका जीवन उतना ही महान होगा। वह उन चीजों को जीवन मानता था। क्या यह गंभीर मामला है? (हाँ, यह गंभीर मामला है।) इसका क्या प्रभाव पड़ा? (इसका प्रभाव उसके द्वारा अपनाए गए मार्ग पर पड़ा।) यह इसका एक पक्ष है। और क्या? (वह सोचता था कि इन चीजों को प्राप्त कर लेने से उसका उद्धार हो जाएगा और वह स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकेगा।) इसका संबंध अभी भी आशीष प्राप्त करने से है; उसने सोचा कि उसका जीवन जितना महान होगा, उसके स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने और स्वर्गारोहण की संभावना उतनी ही अधिक होगी। “स्वर्गारोहण” कहने का दूसरा तरीका क्या है? (परमेश्वर के साथ शासन करना और शक्ति सम्पन्न होना।) स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का उसका उद्देश्य परमेश्वर के साथ शासन करना और सत्ता का संचालन करना था, लेकिन यह उसका अंतिम लक्ष्य नहीं था, उसका एक और भी लक्ष्य था। वह इस बारे में बात करता था उसने इसे कैसे व्यक्त किया है? (“क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है” (फिलिप्पियों 1:21)।) उसने कहा कि उसके लिए जीना मसीह है, और मरना लाभ है। इसका अर्थ क्या है? कि वह मरने के बाद परमेश्वर बन जायेगा? उसकी महत्वाकांक्षा सीमाहीन है! उसकी समस्या बहुत गंभीर है! तो, क्या पौलुस के मामले का विश्लेषण करना हमारे लिए गलत है? बिल्कुल नहीं। उसे अपनी खूबियों और प्राप्त किए ज्ञान को कभी भी जीवन नहीं मानना चाहिए था। यह उसका तीसरा बड़ा पाप है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पौलुस के प्रकृति सार को कैसे पहचानें
“पौलुस की ओर से जो परमेश्वर की इच्छा से यीशु मसीह का प्रेरित होने के लिये बुलाया गया।” पौलुस इस वाक्यांश का अक्सर उपयोग करता था, और इस वाक्यांश में बहुत सारी सूचनाएं हैं। शुरुआत करने वालों के लिए, हम जानते हैं कि पौलुस प्रभु यीशु मसीह का एक प्रेरित है। तो, पौलुस के परिप्रेक्ष्य से प्रभु यीशु मसीह कौन है? वह मनुष्य का पुत्र है और स्वर्ग में परमेश्वर के बाद दूसरा है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि पौलुस ने प्रभु यीशु मसीह को स्वामी कहा या प्रभु कहा, उसके परिप्रेक्ष्य से पृथ्वी पर मसीह परमेश्वर नहीं था, बल्कि एक मनुष्य था जो लोगों को ज्ञान दे सकता था और उनसे अपना अनुसरण करवा सकता था। ऐसे व्यक्ति के प्रेरित के रूप में पौलुस का क्या काम था? सुसमाचार साझा करना, कलीसियों में जाना, धर्मोपदेश देना और पत्र लिखना। उसका मानना था कि वह ये काम प्रभु यीशु मसीह की ओर से कर रहा था। अपने मन में उसने सोचा, “जहां तुम नहीं जा सकोगे, वहां जाकर मैं तुम्हारी मदद करूंगा और जिन जगहों पर तुम नहीं जाना चाहते, वहां मैं तुम्हारी ओर से नजर रखूंगा।” प्रेरित के बारे में पौलुस की अवधारणा यह थी। उसके दिमाग में क्रम संबंधी धारणा यह थी कि वह और प्रभु यीशु दोनों सामान्य लोग हैं। वह स्वयं को और प्रभु यीशु मसीह को एक समान मनुष्य मानता था। उसके मन में उन दोनों के पदों के बीच सार रूप में कोई अंतर नहीं था, न ही उनकी पहचान में कोई अंतर था और उनके सेवा-दायित्वों में अंतर की तो बात ही नहीं थी। केवल उनके नाम, उम्र, पारिवारिक परिस्थितियोँ और पृष्ठभूमियोँ में अंतर था और उनकी बाहरी खूबियाँ और ज्ञान अलग-अलग थे। पौलुस के मन में था कि वह हर तरह से प्रभु यीशु मसीह के समान था और उसे मनुष्य का पुत्र भी कहा जा सकता था। प्रभु यीशु मसीह के बाद उसके दूसरे नंबर पर होने का एकमात्र कारण यह था कि वह प्रभु यीशु का प्रेरित था; वह प्रभु यीशु मसीह की शक्ति का प्रयोग करता था, और प्रभु यीशु मसीह उसे कलीसियों के दौरे पर और कलीसियाई कामों के लिए भेजते थे। एक प्रेरित के रूप में पौलुस इसे ही अपनी स्थिति और पहचान मानता था—उसने इसकी इसी तरह व्याख्या की। इसके अलावा, वाक्यांश “पौलुस की ओर से जो यीशु मसीह का प्रेरित होने के लिये बुलाया गया” में महत्वपूर्ण शब्द है “बुलाया गया।” इस शब्द से हम पौलुस की मानसिकता को देख सकते हैं। उसने छह शब्दों “परमेश्वर की इच्छा से ... बुलाया गया” का उपयोग क्यों किया? उसने यह नहीं सोचा कि उसे प्रभु यीशु मसीह ने अपना प्रेरित बनने के लिए बुलाया था; उसने सोचा, “प्रभु यीशु मसीह के पास मुझे कोई काम करने का आदेश देने की सामर्थ्य नहीं है। मैं वह नहीं कर रहा जो उसने आदेश दिया था; मैं उसके लिए कुछ नहीं कर रहा हूँ, बल्कि मैं स्वर्ग में स्थित परमेश्वर की इच्छा के कारण ये चीजें कर रहा हूँ। मैं प्रभु यीशु मसीह के ही समान हूँ।” इससे एक और बात का संकेत मिलता है—पौलुस ने सोचा कि प्रभु यीशु मसीह उसी की तरह मनुष्य का पुत्र है। ये छह शब्द “परमेश्वर की इच्छा से ... बुलाया गया” बताते हैं कि पौलुस अपने हृदय की गहराई में कैसे प्रभु यीशु मसीह की पहचान को नकारता था और उस पर संदेह करता था। पौलुस ने कहा कि वह परमेश्वर की इच्छा से प्रभु यीशु मसीह का प्रेरित था, जो परमेश्वर ने उससे कहा था, उसे परमेश्वर द्वारा आदेशित और स्थापित किया गया था और वह प्रभु यीशु मसीह का प्रेरित बना क्योंकि परमेश्वर ने उसे बुलाया और ऐसी इच्छा की। पौलुस के मन में उसके और प्रभु यीशु मसीह के बीच यही रिश्ता था। परंतु, यह भी इसका सबसे खराब अंश नहीं है। सबसे ख़राब अंश क्या है? यह कि पौलुस ने सोचा कि वह परमेश्वर की इच्छा से प्रभु यीशु मसीह का प्रेरित है, न कि प्रभु यीशु मसीह की इच्छा से, कि उसे जिसने बुलाया था वह प्रभु यीशु नहीं थे, बल्कि स्वर्ग में स्थित परमेश्वर ने उससे ऐसा करवाया था। उसने सोचा कि किसी के पास उसे प्रभु यीशु मसीह का प्रेरित बनाने की सामर्थ्य या योग्यता नहीं थी; कि केवल स्वर्ग में स्थित परमेश्वर के पास ही वह सामर्थ्य थी; और उसे सीधे स्वर्ग में बैठे परमेश्वर द्वारा निर्देशित किया जा रहा था। तो, यह क्या दर्शाता है? पौलुस हृदय की गहराई से मानता था कि स्वर्ग में परमेश्वर नंबर एक और वह खुद नंबर दो था। तो उसने प्रभु यीशु को किस स्थान पर रखा? (अपने समकक्ष स्थिति में।) यही समस्या है। अपनी जबान से उसने घोषणा की कि प्रभु यीशु ही मसीह था, लेकिन उसने यह नहीं पहचाना कि मसीह का सार परमेश्वर का सार था; वह मसीह और परमेश्वर के बीच के संबंध को नहीं समझता था। यह समझ की कमी ही थी जिससे इतनी गंभीर समस्या पैदा हुई। यह किस तरीके से गंभीर समस्या थी? (उसने यह नहीं स्वीकारा कि प्रभु यीशु देहधारी परमेश्वर था। उसने प्रभु यीशु को नकार दिया था।) हाँ, यह वास्तव में बहुत गंभीर बात है। उसने इस बात से इनकार किया कि प्रभु यीशु मसीह देहधारी परमेश्वर था, कि जब प्रभु यीशु मसीह स्वर्ग से पृथ्वी पर आया तो वह परमेश्वर की देह था, और यह कि प्रभु यीशु परमेश्वर का देहधारी स्वरूप था। क्या यह ऐसा संकेत नहीं करता कि पौलुस ने पृथ्वी पर परमेश्वर के अस्तित्व से इनकार किया? (हाँ, ऐसा ही है।) यदि उसने पृथ्वी पर परमेश्वर के अस्तित्व से इनकार किया, तो क्या वह प्रभु यीशु के वचनों को स्वीकार कर सकता था? (नहीं, वह नहीं कर सकता था।) यदि उसने उसके वचनों को स्वीकार नहीं किया, तो क्या वह उसे स्वीकार कर सकता था? (नहीं, वह नहीं कर सकता था।) उसने प्रभु यीशु मसीह के वचनों, उसकी शिक्षाओं या पहचान को स्वीकार नहीं किया, तो क्या वह प्रभु यीशु मसीह के कार्यों को स्वीकार कर सकता था? (नहीं, वह नहीं कर सकता था।) उसने प्रभु यीशु मसीह द्वारा किए गए कार्य को या इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया कि प्रभु यीशु मसीह परमेश्वर था, फिर भी यह सबसे बुरा अंश नहीं था। सबसे बुरा अंश क्या था? दो हजार साल पहले, प्रभु यीशु सबसे बड़ा कार्य करने के लिए पृथ्वी पर आया—अनुग्रह के युग में छुटकारा दिलाने के कार्य के लिए, जहां उसने देहधारण किया और पापी देह के समान बन गया और समस्त मानवजाति के लिए पाप बलि के रूप में सूली पर चढ़ा दिया गया। क्या ये कोई बड़ा काम था? (हाँ, यह बड़ा काम था।) यह समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाने का काम था और यह स्वयं परमेश्वर द्वारा किया गया था, फिर भी पौलुस ने हठपूर्वक इसका खंडन किया। उसने इस बात से इनकार किया कि प्रभु यीशु ने छुटकारा दिलाने का जो कार्य किया था वह स्वयं परमेश्वर द्वारा किया गया था, जो इस तथ्य से इनकार करना था कि परमेश्वर ने पहले ही छुटकारा देने का कार्य पूरा कर लिया था। क्या यह गंभीर समस्या है? यह अत्यंत गंभीर है! पौलुस ने न केवल प्रभु यीशु मसीह के सूली पर चढ़ने के तथ्य को समझने की कोशिश नहीं की, बल्कि उसने इसे स्वीकार भी नहीं किया और इसे स्वीकार न करने का मतलब इसे नकारना है। उसने यह स्वीकार नहीं किया कि वह परमेश्वर ही था जिसे सूली पर चढ़ाया गया और उसने समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाया, न ही उसने यह स्वीकार किया कि परमेश्वर ने समस्त मानवजाति के लिए पाप बलि के रूप में कार्य किया। इससे संकेत मिलता है कि उसने यह स्वीकार नहीं किया कि परमेश्वर द्वारा अपना कार्य करने के बाद समस्त मानवजाति को छुटकारा मिल गया था, या कि उनके पाप क्षमा कर दिए गए थे। साथ ही, उसने सोचा कि उसके पाप क्षमा नहीं किए गए हैं। उसने इस तथ्य को स्वीकार ही नहीं किया कि प्रभु यीशु ने मानवजाति को छुटकारा दिलाया है। उसके दृष्टिकोण से, वह सब कुछ मिटा दिया गया था। यह सबसे गंभीर मुद्दा है। अभी-अभी मैंने उल्लेख किया कि पौलुस पिछले दो हजार वर्षों में सबसे बड़ा मसीह-विरोधी था; इस तथ्य का खुलासा पहले ही उजागर हो चुका है। यदि ये तथ्य बाइबल में दर्ज नहीं किए गए होते और परमेश्वर ने कहा होता कि पौलुस ने परमेश्वर की अवहेलना की थी और वह मसीह-विरोधी था, तो क्या लोग इस पर विश्वास करते? बिल्कुल नहीं करते। शुक्र है कि बाइबल ने पौलुस के पत्रों का लेखा-जोखा रखा, और उन पत्रों में तथ्यात्मक प्रमाण हैं; अन्यथा, मैं जो कह रहा हूँ उसके पक्ष में कुछ भी नहीं होता और हो सकता था कि तुम लोग इसे स्वीकार न करते। अब, जब हम पौलुस के शब्दों को निकाल कर उन्हें पढ़ते हैं, तो क्या पता चलता है कि प्रभु यीशु द्वारा कही गई सभी बातों को पौलुस कैसे देखता था? वह सोचता था कि प्रभु यीशु की कही बातें उसके अपने एक भी धार्मिक सिद्धांत के बराबर नहीं हैं। इसलिए, प्रभु यीशु के इस दुनिया से चले जाने के बाद, भले ही पौलुस सुसमाचार का प्रचार करता रहा, काम करता रहा, उपदेश देता रहा और कलीसियों की देखभाल करता रहा, फिर भी उसने कभी प्रभु यीशु के वचनों का प्रचार नहीं किया, उनका अभ्यास या अनुभव करने की तो बात ही दूर है। इसके बजाय, उसने पुराने नियम के बारे में अपनी समझ का प्रचार किया, जो कालातीत हो चुकी थी और खोखली बातें भर रह गई थी। पिछले दो हजार वर्षों से जो लोग प्रभु में विश्वास करते हैं वे बाइबल के अनुरूप ऐसा करते हैं, और वे जो कुछ भी स्वीकार करते हैं वे पौलुस के खोखले सिद्धांत हैं। इसके परिणामस्वरूप, लोग दो हजार वर्षों से अंधेरे में हैं। अगर तुम आज धार्मिक लोगों के किसी समूह से कहो कि पौलुस गलत था, तो वे विरोध करेंगे और इस बात को स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि वे सभी पौलुस को ऊंची निगाह से देखते हैं। पौलुस उनका आदर्श और उनका संस्थापक पिता है और वे पौलुस के पुत्र और वंशज हैं। उन्हें किस हद तक गुमराह किया गया है? वे पहले से ही परमेश्वर के विरोध में पौलुस वाले पक्ष में खड़े हैं; उनके मत पौलुस जैसे हैं, उनका प्रकृति सार एक जैसा है और अनुसरण करने का तरीका भी वही है। उन्हें पौलुस द्वारा पूरी तरह से घुला-मिला लिया गया है। यह पौलुस का चौथा बड़ा पाप है। पौलुस ने प्रभु यीशु मसीह की पहचान को अस्वीकार किया, और उसने व्यवस्था के युग के बाद अनुग्रह के युग में परमेश्वर द्वारा किए गए कार्यों से इनकार किया। ये सबसे गंभीर बात है। एक और गंभीर बात यह है कि उसने स्वयं को प्रभु यीशु मसीह के समान श्रेणी में रखा। पौलुस जिस युग में रहा, उसमें वह प्रभु यीशु मसीह से मिला था, परन्तु उसने उसे परमेश्वर के रूप में नहीं देखा; इसके बजाय, उसने प्रभु यीशु मसीह के साथ एक सामान्य व्यक्ति जैसा व्यवहार किया, जैसे कि वह मानव जाति का एक सामान्य सदस्य भर हो; एक ऐसा मनुष्य जिसका प्रकृति सार भ्रष्ट मनुष्यों के ही समान रहा हो। किसी भी तरह से पौलुस ने प्रभु यीशु को मसीह नहीं माना, उसे परमेश्वर मानने की तो बात ही छोड़ो। यह बहुत ही गंभीर मामला है। तो पौलुस ऐसा क्यों करता था? (उसने यह नहीं पहचाना कि देहधारी परमेश्वर में परमेश्वर का सार है, इसलिए उसने प्रभु यीशु मसीह को परमेश्वर नहीं माना।) (उसने प्रभु यीशु के वचनों को सत्य के रूप में नहीं देखा, न ही यह देखा कि प्रभु यीशु मसीह सत्य का प्रतिरूप था।) (ऊपरी तौर पर, पौलुस प्रभु यीशु पर विश्वास करने का दिखावा करता था, लेकिन वास्तव में उसका जिस पर विश्वास था वह स्वर्ग में अवस्थित अस्पष्ट परमेश्वर था।) (उसने सत्य की तलाश नहीं की, इसलिए वह यह जान पाने में असमर्थ रहा कि मसीह ही सत्य और जीवन था।) बताते रहो। (पौलुस ने कहा कि उसके लिए जीवित रहना मसीह होना था। वह परमेश्वर बनना चाहता था और प्रभु यीशु का स्थान लेना चाहता था।) तुम लोगों ने जो कुछ भी कहा वह तथ्यों के अनुरूप है। पौलुस ने जिन-जिन तरीकों से खुद को प्रकट किया और उसका हर एक पाप पहले उल्लिखित पापों से भी अधिक गंभीर था।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पौलुस के प्रकृति सार को कैसे पहचानें
आओ, पौलुस के कहे इस वाक्यांश का विश्लेषण करें : “मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है।” ये प्रभावोत्पादक शब्द हैं। उसके शब्दों का चयन देखो : “धर्म का मुकुट।” आमतौर पर, “मुकुट” शब्द का प्रयोग करना ही काफी साहस का काम है, लेकिन मुकुट को परिभाषित करने के लिए एक गुणात्मक अभिव्यक्ति के रूप में “धर्म” का प्रयोग करने का साहस कौन करेगा? केवल पौलुस ही इस शब्द का उपयोग करने का साहस कर सकता था। उसने इसका प्रयोग क्यों किया? इस शब्द का एक मूल है, और इसे सावधानी से चुना गया है; उसके शब्दों के गहरे संकेतार्थ हैं! कैसे संकेतार्थ? (वह इस शब्द के प्रयोग से परमेश्वर के हाथ को अपनी इच्छित दिशा में ले जाने की कोशिश कर रहा था।) परमेश्वर के हाथ पर दबाव डालने की चाह इसका एक पहलू है। निश्चित ही उसका इरादा लेन-देन करने का था और इसमें भी एक बात परमेश्वर के साथ शर्तें तय करने की कोशिश से संबंधित है। हमेशा इस धर्म के मुकुट के बारे में उपदेश देने के पीछे क्या इसके अलावा कोई और उद्देश्य था? (वह लोगों को गुमराह करना चाहता था और उन्हें यह सोचने को बाध्य़ करना चाहता था कि अगर उसे मुकुट नहीं मिला तो परमेश्वर धार्मिक नहीं है।) इस बारे में उसके प्रचार में उकसाने और गुमराह करने का एक तत्व है और यह पौलुस की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं से जुड़ा है। धर्म का मुकुट अंततः पा लेने की अपनी इच्छा को साकार करने और पूरा करने के लिए उसने हर जगह इसके बारे में प्रचार करने की रणनीति का इस्तेमाल किया। अंशतः, इन शब्दों का प्रचार करने का उसका लक्ष्य लोगों को भड़काना और गुमराह करना देना था; यह सुनने वालों में ऐसा विशेष विचार पैदा करने के लिए था कि “मेरे जैसा व्यक्ति जो खुद को इतना खपाता है, जो चारों ओर इतनी यात्राएं करता है और मेरी तरह अनुसरण करने का प्रयास करता है, वह धर्म का मुकुट पाने में सफल होगा।” इसे सुनने के बाद लोगों को स्वाभाविक रूप से लगता था कि परमेश्वर तभी धार्मिक है जब पौलुस जैसे व्यक्ति को मुकुट मिले। उन्हें लगता था कि उन्हें भी पौलुस की तरह ही अनुसरण करना चाहिए, चतुर्दिक यात्राएं करनी चाहिए और खुद को खपाना चाहिए, कि वे प्रभु यीशु की बातें नहीं सुन सकते और पौलुस ही मानक है, वही प्रभु है, और वही वह दिशा और लक्ष्य है जिसकी ओर लोगों को चलना चाहिए। वे यह भी सोचते थे कि अगर लोग पौलुस की तरह काम करेंगे, तो वे उसके जैसा ही मुकुट, परिणाम और मंजिल पाएंगे। एक लिहाज से पौलुस लोगों को भड़का रहा था और उन्हें गुमराह कर रहा था। दूसरे लिहाज से उसका एक अत्यंत दुष्टतापूर्ण लक्ष्य था। अपने हृदय की गहराई में, वह सोचता था कि “ऐसा होना तो नहीं चाहिए, किंतु यदि मुझे मुकुट नहीं मिलता है और पता चलता है कि यह सिर्फ मेरी अपनी कल्पना और मेरी अपनी कामना थी, तो इसका मतलब यह होगा कि मुझ समेत मसीह में विश्वास करने वाले सभी लोग अपनी आस्था के मामले में गुमराह हुए थे। इसका मतलब होगा कि पृथ्वी पर कोई परमेश्वर मौजूद नहीं है, और, परमेश्वर, मैं स्वर्ग में भी तुम्हारे अस्तित्व को नकार दूंगा और तुम इस संबंध में कुछ भी नहीं कर सकोगे।” वह जो जताना चाह रहा था वह था : “अगर मुझे यह मुकुट नहीं मिला, तो न केवल भाई-बहन तुमको नकार देंगे, बल्कि मैं तुमको उन सभी लोगों को जीतने से रोक दूंगा जिन्हें मैंने उकसाया है और जो इन शब्दों को जानते हैं। मैं उन्हें भी तुम्हें हासिल करने से रोक दूंगा और इसी के साथ मैं स्वर्ग में परमेश्वर के रूप में तुम्हारे अस्तित्व को भी नकार दूंगा। तुम धार्मिक नहीं हो। अगर मैं, पौलुस, मुकुट नहीं पा सकता, तो वह किसी को भी नहीं मिलना चाहिए!” यह पौलुस का भयावह हिस्सा था। क्या यह किसी मसीह-विरोधी का सा व्यवहार नहीं है? यह किसी मसीह-विरोधी दानव का व्यवहार है : लोगों को भड़काना, गुमराह करना और उन्हें अपने आकर्षण में फंसाने के साथ ही खुले तौर पर परमेश्वर के खिलाफ शोर मचाना और उसका विरोध करना। हृदय की गहराई में पौलुस सोचता था, “यदि मुझे मुकुट नहीं मिलता, तो परमेश्वर धार्मिक नहीं है। यदि मुझे मुकुट मिलता है, तभी वह धर्म का मुकुट है, और केवल तभी परमेश्वर की धार्मिकता वास्तव में धार्मिक है।” यह उसके “धर्म का मुकुट” का मूल बिंदु है। इस तरह वह कर क्या रहा था? वह खुले तौर पर उन लोगों को भड़का रहा था और गुमराह कर रहा था जो परमेश्वर का अनुसरण करते थे। साथ ही साथ, वह खुले आम परमेश्वर के विरुद्ध शोर मचाने और उसका विरोध करने के लिए इन तरीकों का उपयोग कर रहा था। दूसरे शब्दों में कहें तो उसका व्यवहार एक विद्रोह का व्यवहार था। इसकी प्रकृति क्या थी? सतही तौर पर, पौलुस द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्द सौम्य और उचित प्रतीत होते हैं और उनमें कुछ भी गलत नहीं लगता—धर्म का मुकुट पाने और धन्य होने के लिए कौन परमेश्वर में विश्वास नहीं करेगा? यहां तक कि बिना काबिलियत वाले लोग भी कम से कम स्वर्ग जाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं। वे स्वर्ग की सड़कों पर झाड़ू लगाने या वहां दरबानी करने का मौका पाने पर भी खुश होंगे। परमेश्वर पर विश्वास में इस इरादे और उद्देश्य का होना उचित और समझ में आने लायक माना जा सकता है। परंतु, यह पौलुस का एकमात्र उद्देश्य नहीं था। जब उसके धर्म के मुकुट के बारे में प्रचार करने की बात आई तो उसने बहुत प्रयास किया, बहुत सारी ऊर्जा खर्च की, और बहुत हो-हल्ला मचाया। पौलुस ने जो बातें कहीं उनसे उसकी दुर्भावनापूर्ण प्रकृति के साथ-साथ उसके गहरे भीतर छिपी कालिमायुक्त बातें भी उजागर हो गईं। उस समय, पौलुस ने बड़ा नाम कमाया और ऐसे बहुत से लोग थे जो उसे अपना आदर्श मानते थे। वह जगह-जगह घूमकर इन सिद्धांतों और ऊंचे लगने वाले विचारों, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ-साथ अपने अध्ययन के दौरान सीखी गई चीजों और अपने मस्तिष्क में पैदा हुए निष्कर्षों का प्रचार करता था। जब पौलुस हर जगह इन बातों का प्रचार करता था, तो उस समय के लोगों पर इसका कितना भारी प्रभाव पड़ा होगा, और इससे उन्हें कितना गंभीर नुकसान पहुँचा होगा और उनके दिलों की गहराई में कितना जहर भर गया होगा? इसके अलावा, उसके पत्रों से ये बातें सीखने वाली बाद की पीढ़ियों के लोगों पर इसका कितना बड़ा प्रभाव पड़ा होगा? जिन लोगों ने उसके शब्दों को पढ़ा है, वे कितनी भी कोशिश कर लें, इन चीजों से छुटकारा नहीं पा सकते—उनमें बहुत गहरे तक विष भर दिया गया है! कितने गहरे तक? एक घटना सामने आई है, जिसे “पौलुस प्रभाव” कहा जाता है। पौलुस प्रभाव क्या है? यह धर्म में एक ऐसी घटना है जिसमें लोग पौलुस के विचारों, नजरिये, तर्कों और उसके द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों के प्रभाव में आते हैं। यह विशेष रूप से उन लोगों को प्रभावित करता है जिनके परिवार कई पीढ़ियों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं—वे परिवार जो कई दशकों से मसीह का अनुसरण करते रहे हैं। वे कहते हैं, “हमारा परिवार पीढ़ियों से प्रभु में विश्वास रखता आया है और सांसारिक प्रवृत्तियों का पालन नहीं करता। हमने खुद को लौकिक दुनिया से दूर कर लिया है, और खुद को परमेश्वर की सेवा में अर्पित करने के लिए अपने परिवार और करियर छोड़ दिए हैं। हम जो भी करते हैं वह सब बिल्कुल पौलुस जैसे ही करते हैं। यदि हमें मुकुट नहीं मिलता है या स्वर्ग में प्रवेश नहीं मिलता है, तो परमेश्वर के आने पर हम उससे झगड़ा करेंगे।” क्या लोग यह तर्क नहीं देते? (हाँ, वे देते हैं।) और यह प्रवृत्ति काफी महत्वपूर्ण है। यह प्रवृत्ति कहां से आती है? (पौलुस ने जो उपदेश दिए उससे।) यह पौलुस द्वारा बनाई गई गांठ का घातक परिणाम है। यदि पौलुस ने लोगों को इस तरह नहीं भड़काया होता और हमेशा यह नहीं कहा होता कि, “मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” और “मेरे लिये जीवित रहना मसीह है,” तो इतिहास के उस युग की पृष्ठभूमि के बिना आज के लोगों को उन चीजों का कोई ज्ञान न होता। यदि उनका सोचने का तरीका ऐसा ही होता, तो भी उनमें पौलुस जैसी धृष्टता नहीं होती। यह सब पौलुस के प्रोत्साहन और उकसावे के कारण हुआ था। यदि कोई ऐसा दिन आता है जब उन्हें आशीर्वाद नहीं मिलता, तो इन लोगों में इतनी हिम्मत होगी कि वे प्रभु यीशु को खुलेआम चुनौती दें, और वे तो तीसरे स्वर्ग तक जाना चाहेंगे ताकि वे प्रभु के साथ इस मुद्दे पर विवाद कर सकें। क्या यह धार्मिक जगत का प्रभु यीशु के विरुद्ध विद्रोह करना नहीं है? यह स्पष्ट है कि धार्मिक जगत पर पौलुस का गंभीर प्रभाव पड़ा है! अब जब मैंने इस बिंदु तक बात कर ली है, तो तुम निष्कर्ष निकाल सकते हो कि पौलुस का पाँचवाँ पाप क्या था, है न? जब पौलुस ने जिस “धर्म का मुकुट” की बात की थी, उसकी उत्पत्ति को सारांशित करने की बात आती है, तो ध्यान “धर्म” शब्द पर केंद्रित होता है। उसने “धर्म” का उल्लेख क्यों किया? ऐसा इसलिए था क्योंकि वह पृथ्वी पर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को भड़काना और गुमराह करना चाहता था, ताकि वे वैसा ही सोचें जैसे वह सोचता था। स्वर्ग में, वह इस शब्द के माध्यम से परमेश्वर पर दबाव डालना, और उसके विरुद्ध हल्ला-गुल्ला करना चाहता था। यही पौलुस का लक्ष्य था। भले ही उसने कभी इन शब्दों का प्रयोग नहीं किया, परंतु “धर्म” शब्द के इस्तेमाल ने पहले ही उसके लक्ष्य और परमेश्वर के खिलाफ शोर मचाने की प्रवृत्ति को पूरी तरह उजागर कर दिया था। वह बात पहले से ही सबके सामने थी; ये सभी तथ्य हैं। इन तथ्यों के आधार पर, क्या पौलुस के प्रकृति सार को केवल अभिमानी, आत्म-तुष्ट, धोखेबाज और सत्य से प्रेम न करने वाले के रूप में समेटा जा सकता है? (नहीं।) ये शब्द उसे पूरी तरह से नहीं व्यक्त कर सकते। मेरे द्वारा इन तथ्यों को सामने लाने और उनका विच्छेदन तथा विश्लेषण करने और परिभाषित करने के बाद, तुम्हें पौलुस के प्रकृति सार को अधिक स्पष्ट और अच्छी तरह से देखने में सक्षम होना चाहिए। यह वह प्रभाव है जो तथ्यों के आधार पर किसी के सार का विश्लेषण करके पाया जा सकता है। जब पौलुस ने परमेश्वर के विरुद्ध शोर-शराबा किया तो वह अकेले में घटित हुआ कोई मामूली भावनात्मक क्षण, थोड़ा सा विद्रोही स्वभाव या समर्पण करने में असमर्थता नहीं थी। यह भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करने वाली कोई साधारण समस्या नहीं थी, बल्कि यह पत्रों के माध्यम से लोगों को उकसाने और गुमराह करने के लिए सभी प्रकार के तरीकों का खुले तौर पर उपयोग करने तक बढ़ चुका सार्वजनिक प्रयास था ताकि सभी लोग गुस्से में एक साथ उठकर परमेश्वर का विरोध और हो-हल्ला करें। पौलुस ने न केवल परमेश्वर के विरुद्ध शोर-शराबा किया बल्कि उसने अन्य सभी को भी परमेश्वर के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए उकसाया—वह केवल अहंकारी नहीं, बल्कि दानव था!
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पौलुस के प्रकृति सार को कैसे पहचानें
पौलुस का एक और प्रसिद्ध वाक्यांश है—वह क्या है? (“क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है” (फिलिप्पियों 1:21)।) उसने प्रभु यीशु मसीह की इस पहचान को स्वीकार नहीं किया कि प्रभु यीशु मसीह पृथ्वी पर सजीव देहधारी परमेश्वर था, न ही इस तथ्य को स्वीकार किया कि प्रभु यीशु मसीह परमेश्वर का प्रतिरूप था। इसके विपरीत, पौलुस स्वयं को मसीह के रूप में देखता था। क्या यह विद्रोह नहीं है? (बिल्कुल है।) यही विद्रोह करना है और इस समस्या का सार बहुत गंभीर है। पौलुस के मन में मसीह वास्तव में कौन था? उसकी पहचान क्या थी? पौलुस में मसीह होने की इतनी तीव्र इच्छा कैसे पैदा हुई थी? अगर पौलुस के मन में मसीह भ्रष्ट स्वभाव वाला कोई सामान्य व्यक्ति, या साधारण भूमिका निभाने वाला कोई महत्वहीन या कोई शक्तिहीन व्यक्ति, किसी तरह की श्रेष्ठ पहचान न रखने वाला, सामान्य लोगों की सीमा से परे कोई क्षमता या कौशल न रखने वाला व्यक्ति होता, तो क्या पौलुस तब भी मसीह बनना चाहता? (नहीं, वह ऐसा नहीं करता।) निश्चित रूप से वह ऐसा नहीं करता। वह स्वयं को सुशिक्षित समझता था और वह सामान्य व्यक्ति नहीं, बल्कि अतिमानव या महान व्यक्ति बनना और दूसरों से आगे निकलना चाहता था—वह ऐसा मसीह कैसे बनना चाहता जिसे दूसरे लोग विनम्र और मामूली समझते हों? इसके मद्देनजर पौलुस के दिल में मसीह की क्या हैसियत और भूमिका रही होगी? मसीह होने के लिए किसी की क्या पहचान और हैसियत होनी चाहिए, और उसे कौन से अधिकार, सामर्थ्य और प्रभाव प्रदर्शित करने चाहिए? इससे जाहिर होता है कि पौलुस ने मसीह के कैसा होने की कल्पना की थी, और वह मसीह के बारे में क्या जानता था, अर्थात, वह मसीह को कैसे परिभाषित करता था। यही कारण है कि पौलुस में मसीह बनने की महत्वाकांक्षा और इच्छा थी। इसका एक निश्चित कारण है कि पौलुस मसीह क्यों बनना चाहता था, और यह उसके पत्रों में आंशिक रूप से प्रकट होता है। आओ, कुछ मामलों का विश्लेषण करें। जब प्रभु यीशु काम कर रहा था, तो उसने कुछ ऐसी चीजें कीं जो मसीह के रूप में उसकी पहचान का प्रतिनिधित्व करती थीं। ये चीजें वे प्रतीक और अवधारणाएँ हैं जिन्हें पौलुस ने मसीह की पहचान के रूप में देखा। ये कौन सी चीजें थीं? (संकेत और चमत्कार दिखाना।) बिल्कुल ठीक। ये चीजें थीं मसीह का लोगों की बीमारियां ठीक करना, दानवों को बाहर करना और संकेत दिखाना, आश्चर्यजनक काम और चमत्कार करना। भले ही पौलुस ने माना था कि प्रभु यीशु मसीह था, यह सिर्फ उसके द्वारा प्रदर्शित संकेतों और चमत्कारों के कारण हुआ था। इसलिए, जब पौलुस प्रभु यीशु के सुसमाचार का प्रचार करता था, तो वह कभी भी प्रभु यीशु के बोले वचनों या उसके दिए उपदेशों के बारे में बात नहीं करता था। छद्म-विश्वासी पौलुस की निगाह में प्रभु यीशु की पहचान और हैसियत के प्रति एक निश्चित सम्मान इस तथ्य ने पैदा किया कि मसीह इतनी सारी बातें बोल सकता था, इतने अधिक उपदेश दे सकता था, इतने ज्यादा काम कर सकता था और इतने सारे लोगों को अपना अनुगामी बना सकता था; उसमें अनंत महिमा और श्रेष्ठता थी जिससे मनुष्यों के बीच प्रभु यीशु की हैसियत विशेष रूप से महान और प्रतिष्ठित हो गई थी। यही वह बात थी जिसे पौलुस ने देखा। अपने काम करते समय प्रभु यीशु मसीह ने जो व्यक्त और प्रकट किया, उसके साथ ही उसकी पहचान और सार से पौलुस ने जो देखा वह परमेश्वर का सार, सत्य, मार्ग या जीवन नहीं था, न ही परमेश्वर की सुंदरता या बुद्धि थी। पौलुस ने क्या देखा? आधुनिक शब्दों में कहें, तो उसे जो दिखा वह प्रसिद्धि की चमक थी, और वह प्रभु यीशु का प्रशंसक बनना चाहता था। जब प्रभु यीशु कुछ कहता या कोई काम करता था, तो बहुत से लोग ध्यान से सुनते थे—वह सब कितना भव्य रहा होगा! यह कुछ ऐसी बात थी जिसकी पौलुस ने लंबे समय तक प्रतीक्षा की थी, वह इस क्षण के आगमन का तीव्र आकांक्षी था। वह उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा था जब वह प्रभु यीशु की तरह अंतहीन उपदेश दे सके, जिसकी ओर बहुत से लोग पूरे ध्यान से, आँखों में प्रशंसा और तीव्र लालसा के भाव के साथ देखते थे और उसका अनुसरण करना चाहते थे। पौलुस प्रभु यीशु के असरदार प्रभाव के सामने नतमस्तक हो गया था। दरअसल, वह वास्तव में इससे हारा नहीं था बल्कि वह ऐसी पहचान और प्रभाव के प्रति ईर्ष्यालु था जिसे लोग आदर देते थे, जिस पर ध्यान देते थे, जिसे आदर्श मानते थे और जिसके बारे में ऊँचा सोचते थे। इसी बात से उसे ईर्ष्या थी। तो वह इसे कैसे हासिल कर सका? उसे विश्वास नहीं था कि प्रभु यीशु मसीह ने ये चीजें अपने सार और पहचान के माध्यम से हासिल की हैं, बल्कि उसका मानना था कि यह उसकी उपाधि के कारण था। इसलिए, पौलुस बड़े व्यक्तित्व वाला बनने और कोई ऐसी भूमिका निभाने की इच्छा रखता था जिससे कि वह मसीह का नाम धारण कर सके। पौलुस ने खुद को ऐसी भूमिका में ढालने के लिए बहुत प्रयास किया, है ना? (हाँ।) उसने क्या प्रयास किए? उसने हर जगह उपदेश दिए और चमत्कार भी दिखाए। अंततः, उसने खुद को परिभाषित करने के लिए एक ऐसे वाक्यांश का इस्तेमाल किया जो उसकी आंतरिक इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करता था। उसने खुद को परिभाषित करने के लिए किस वाक्यांश का प्रयोग किया? (“क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है।”) जीवित रहना मसीह है। यही वह मुख्य चीज है जिसे वह पाना चाहता था; उसकी मुख्य इच्छा मसीह बनने की थी। इस इच्छा का उसके व्यक्तिगत अनुसरणों और जिस रास्ते पर वह चला, उससे क्या संबंध है? (वह ताकत का सम्मान करता था और चाहता था कि लोग उसे सम्मान से देखें।) यह सिद्धांत भर है; तुम्हें कुछ तथ्य बताने चाहिए। पौलुस ने मसीह बनने की अपनी इच्छा व्यावहारिक तरीकों से प्रकट की; उसके बारे में मेरी परिभाषा उसके कहे केवल एक वाक्यांश पर आधारित नहीं है। उसके क्रियाकलापों की शैली, तरीकों और सिद्धांतों से, हम देख सकते हैं कि उसने जो कुछ भी किया वह सब मसीह बनने के उसके लक्ष्य के इर्द-गिर्द घूमता था। यही इस बात का मूल और सार है कि पौलुस ने इतनी सारी चीजें क्यों कहीं और कीं। पौलुस मसीह बनना चाहता था, और इस बात ने उसके अनुसरणों, जीवन में उसके मार्ग और उसके विश्वास को प्रभावित किया। यह प्रभाव किस प्रकार व्यक्त हुआ? (पौलुस ने अपने सभी कार्यों और उपदेशों में दिखावा किया और अपनी गवाही दी।) यह एक तरीका है; पौलुस ने हर मोड़ पर दिखावा किया। उसने लोगों को साफ तौर पर बताया कि उसने कैसे कष्ट सहे, कैसे काम किए और उसके इरादे क्या थे, ताकि जब लोग वे बातें सुनें तो सोचें कि वह बिल्कुल मसीह जैसा दिखता है और वे वास्तव में उसे मसीह कहना चाहें। यही उसका लक्ष्य था। यदि लोग सचमुच उसे मसीह कहते, तो क्या उसने इससे मना किया होता? क्या उसने इसे अस्वीकार कर दिया होता? (नहीं, वह ऐसा नहीं करता।) निश्चय ही उसने अस्वीकार न किया होता—वह निश्चित रूप से अति प्रसन्न होता। यह उसके अनुसरणों से व्यक्त हुए प्रभाव का एक तरीका है। और क्या तरीके थे? (उसने पत्र लिखे।) हाँ, उसने कुछ पत्र लिखे ताकि वे युगों-युगों तक चलते रहें। अपने पत्रों, काम और कलीसियों की देखरेख की पूरी प्रक्रिया में उसने एक बार भी प्रभु यीशु मसीह के नाम का उल्लेख नहीं किया, न ही प्रभु यीशु मसीह के नाम पर कुछ काम किया, न प्रभु यीशु मसीह के नाम का उत्कर्ष ही किया। हमेशा इस तरह से काम करने और बोलने का क्या नकारात्मक प्रभाव हुआ? प्रभु यीशु का अनुसरण करने वाले लोगों को इसने कैसे प्रभावित किया? इसने लोगों से प्रभु यीशु मसीह को अस्वीकृत करवाया और पौलुस ने उनका स्थान ले लिया। उसकी तीव्र इच्छा थी कि लोग पूछें, “प्रभु यीशु मसीह कौन है? मैंने उसके बारे में कभी नहीं सुना। हम मसीह के रूप में पौलुस में विश्वास करते हैं।” इस तरह से वह खुश रहेगा। यही उसका लक्ष्य था, और उसकी चाहतों में से एक चीज थी। उसका प्रभाव प्रकट होने के तरीकों में एक था उसके काम करने का तरीका; वह खोखले विचारों की बकबक करता रहा और लोगों को अपनी कार्यक्षमता और कटिबद्धता दिखाने के लिए खोखले सिद्धांतों के बारे में अंतहीन बातें करता रहा, दिखाता रहा कि उसने लोगों की कितनी मदद की, और कि उसका एक निश्चित प्रभाव था मानो प्रभु यीशु मसीह फिर से प्रकट हो गया हो। वह प्रभाव प्रकट होने का एक अन्य तरीका यह था कि वह कभी भी प्रभु यीशु मसीह का उत्कर्ष नहीं करता था, और उसने निश्चित ही कभी उनके नाम का उत्कर्ष नहीं किया, न ही उसने प्रभु यीशु मसीह के वचनों और कार्यों की गवाही दी, या यह बताया कि उन चीजों से लोगों को कैसे लाभ हुआ। क्या पौलुस ने यह उपदेश दिया कि लोगों को किस प्रकार पश्चात्ताप करना चाहिए? निश्चय ही उसने ऐसा नहीं किया। पौलुस ने कभी भी प्रभु यीशु मसीह के किए कार्यों, उनके बोले वचनों या लोगों को उनके सिखाए सत्यों के बारे में उपदेश नहीं दिया—पौलुस अपने दिल में इन चीजों को नकारता था। पौलुस ने न केवल प्रभु यीशु मसीह के बोले वचनों और लोगों को सिखाए सत्यों से इनकार किया, बल्कि वह अपने शब्दों, कार्यों और शिक्षाओं को ही सत्य मानता था। इन चीजों का इस्तेमाल वह प्रभु यीशु के वचनों को प्रतिस्थापित करने के लिए करता था और लोगों से इस तरह अपने शब्दों का अभ्यास और पालन करवाता था मानो वे सत्य हों। इन अभिव्यक्तियों और प्रकाशनों की वजह क्या थी? (उसकी मसीह बनने की इच्छा।) उसकी सभी गतिविधियां मसीह बनने के उसके इरादे, इच्छा और महत्वाकांक्षा से प्रेरित थीं। उसके अभ्यास और अनुसरणों से इसका नजदीक का संबंध था। यह पौलुस का छठा पाप है। क्या यह गंभीर मामला है? (हाँ, यह गंभीर है।) दरअसल, उसके सभी पाप गंभीर हैं। वे सभी मृत्यु की ओर ले जाते हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पौलुस के प्रकृति सार को कैसे पहचानें
आघात से गिराए जाने के बाद से ही पौलुस यह मानता था कि प्रभु यीशु मसीह का अस्तित्व है और प्रभु यीशु मसीह परमेश्वर है। वह जिस परमेश्वर पर विश्वास करता था वह तत्काल स्वर्ग में रहने वाले परमेश्वर से प्रभु यीशु मसीह में बदल गया था—वह पृथ्वी पर स्थित परमेश्वर में बदल गया था। उस क्षण से वह प्रभु यीशु के आदेशों को मानने से इनकार नहीं कर सका और देहधारी परमेश्वर—प्रभु यीशु—के प्रति समर्पण के बिना श्रम करने लगा। बेशक, उसके श्रम का लक्ष्य आंशिक रूप से खुद को पापों से मुक्त करने के साथ ही आंशिक रूप से आशीर्वाद पाने की अपनी इच्छा पूरी करना और अपनी इच्छित मंजिल प्राप्त करना भी था। जब पौलुस ने कहा “परमेश्वर की इच्छा से,” तो वहां “परमेश्वर” का तात्पर्य यहोवा से था या यीशु से? वह थोड़ा भ्रमित हो गया और सोचने लगा, “मैं यहोवा में विश्वास करता हूँ, तो यीशु मुझे कैसे गिरा सका? जब उसने मुझे गिराया तो यहोवा ने यीशु को रोका क्यों नहीं? उनमें से कौन वास्तव में परमेश्वर है?” वह इसका पता नहीं लगा सका। जो भी हो, वह कभी भी प्रभु यीशु को अपने परमेश्वर के रूप में नहीं देखेगा। भले ही उसने यीशु को मौखिक रूप से स्वीकार लिया था, पर अभी भी उसके मन में संदेह था। जैसे-जैसे समय बीता, वह धीरे-धीरे यह अपने इस विश्वास पर लौट गया कि “केवल यहोवा ही परमेश्वर है,” इसलिए उसके बाद पौलुस के सभी पत्रों में जब उसने “परमेश्वर की इच्छा से” लिखा तो संभवतः वहां “परमेश्वर” मुख्य रूप से यहोवा परमेश्वर को संदर्भित करता था। क्योंकि पौलुस ने कभी स्पष्ट रूप से नहीं कहा कि प्रभु यीशु यहोवा है, उसने हमेशा प्रभु यीशु को परमेश्वर के पुत्र के रूप में देखा, उसे “पुत्र” के रूप में संदर्भित किया, और कभी भी “पुत्र और पिता एक हैं” जैसी कोई बात नहीं कही। इससे साबित होता है कि पौलुस ने कभी प्रभु यीशु को एक सच्चे परमेश्वर के रूप में पहचाना ही नहीं; उसके मन में संदेह था और वह इस पर केवल आधा-अधूरा ही विश्वास करता था। परमेश्वर के प्रति उसके इस दृष्टिकोण और उसके अनुसरण के तरीके को देखते हुए कहा जा सकता है कि पौलुस कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो सत्य का अनुसरण करता रहा हो। उसने कभी भी देहधारण के रहस्य को नहीं समझा, और प्रभु यीशु को कभी एक सच्चा परमेश्वर नहीं माना। इससे यह कहना मुश्किल नहीं है कि पौलुस ऐसा व्यक्ति था जो ताकत का पुजारी था, वह झूठा और चालाक था। पौलुस के दुष्टता, ताकत और हैसियत का पुजारी होने का तथ्य हमें क्या दिखाता है कि उसका विश्वास क्या था? क्या उसे सच्चा विश्वास था? (नहीं।) उसका कोई सच्चा विश्वास नहीं था, तो क्या वह जिस परमेश्वर को परिभाषित करता था वह वास्तव में उसके हृदय में मौजूद था? (नहीं।) फिर भी वह क्यों घूमता रहा, खुद को खपाता रहा, और प्रभु यीशु मसीह के लिए काम करता रहा? (आशीर्वाद प्राप्त करने का उसका इरादा उसे नियंत्रित करता था।) (वह दंडित होने से डरता था।) हम चक्कर काटकर फिर से इसी बिंदु पर वापस आ गए हैं। ऐसा इसलिए था क्योंकि वह दंडित होने से डरता था, और क्योंकि उसके शरीर में एक कांटा था जिसे वह निकाल नहीं सका था, इसलिए उसे हमेशा इधर-उधर यात्राएं करनी पड़ती थीं और काम करना पड़ता था, ताकि उसके भीतर का कांटा उसके सहन करने की क्षमता से अधिक पीड़ा न दे। उसकी इन अभिव्यक्तियों से, उसके शब्दों से, दमिश्क के रास्ते में जो कुछ हुआ उस पर उसकी प्रतिक्रिया से, और दमिश्क को जाने वाली सड़क पर गिरा दिए जाने की तथ्यात्मक घटना के बाद उसके ऊपर पड़े प्रभाव से हम देख सकते हैं कि उसके हृदय में कोई विश्वास नहीं था; इससे कमोबेश आश्वस्त हुआ जा सकता है कि वह छद्म-विश्वासी और अनीश्वरवादी था। उसका दृष्टिकोण था कि “जिसके पास ताकत होगी, मैं उसी पर विश्वास करूंगा। जिसके भी पास मुझे वश में करने की ताकत होगी, मैं उसके लिए काम करूंगा और अपनी सर्वश्रेष्ठ क्षमता से सेवा करूंगा। जो कोई भी मुझे एक मंजिल दे सके, मुकुट दे सके और आशीष पाने की मेरी इच्छा पूरी कर सके, मैं उसी का अनुसरण करूंगा। मैं अंत तक उसका अनुसरण करूंगा।” उसके हृदय में परमेश्वर कौन था? उससे अधिक ताकतवर और उसे अपने वश में कर सकने वाला कोई भी उसका परमेश्वर हो सकता था। क्या यह पौलुस का प्रकृति सार नहीं था? (बिल्कुल था।) तो, वह कौन सी सत्ता थी जिस पर उसने अंततः विश्वास किया, जो दमिश्क के रास्ते में उस पर आघात कर उसे गिरा सकी थी? (प्रभु यीशु मसीह।) “प्रभु यीशु मसीह” वह नाम था जिसका उसने उपयोग किया था, लेकिन जिस सत्ता पर वह वास्तव में विश्वास करता था वह उसके हृदय में स्थित परमेश्वर था। उसका परमेश्वर कहाँ है? यदि तुम उससे पूछते कि, “तुम्हारा परमेश्वर कहाँ है? क्या वह स्वर्ग में है? क्या वह सभी सृजित वस्तुओं में से है? क्या वह वही है जिसकी समस्त मानवजाति पर संप्रभुता है?” तो वह कहता, “नहीं, मेरा परमेश्वर दमिश्क के रास्ते पर है।” वास्तव में वही उसका परमेश्वर था। क्या यही कारण है कि पौलुस प्रभु यीशु मसीह पर अत्याचार करने से लेकर उसका काम करने तक, खुद को खपाने तक और यहां तक कि प्रभु यीशु मसीह के लिए अपने जीवन का बलिदान करने में सक्षम था—यही कारण है कि वह इतना बड़ा बदलाव करने में सक्षम हुआ—क्योंकि उसका विश्वास बदल गया था? क्या इसलिए ऐसा हुआ कि उसकी अंतरात्मा जाग उठी थी? (नहीं।) तो, ऐसा किस कारण से हुआ? क्या बदला? उसका मनोवैज्ञानिक आधार बदल गया था। पहले उसका मनोवैज्ञानिक आधार स्वर्ग में था; वह एक खोखली, अस्पष्ट चीज थी। यदि इस आधार को यीशु मसीह से बदला जाता, तो पौलुस सोचता कि वह बहुत महत्वहीन है—यीशु एक सामान्य व्यक्ति मात्र था, वह मनोवैज्ञानिक आधार नहीं हो सकता था—और पौलुस के मन में तो प्रसिद्ध धार्मिक हस्तियों के प्रति और भी कम सम्मान था। पौलुस बस किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढना चाहता था जिस पर वह भरोसा कर सके, जो उसे वश में करने और आशीष दिलाने में सक्षम हो। उसे लगा कि दमिश्क के रास्ते पर उसे जिस सत्ता का सामना करना पड़ा था वह सबसे शक्तिशाली थी, और वह वही सत्ता थी जिस पर उसे विश्वास करना चाहिए। उसका मनोवैज्ञानिक आधार उसी समय बदल गया जब उसका विश्वास बदला। इसके आधार पर, पौलुस सचमुच परमेश्वर में विश्वास करता था या नहीं? (नहीं।) आओ, अब इसे एक वाक्य में संक्षेपित करें कि किस चीज ने पौलुस के अनुसरणों को और वह जिस रास्ते पर चल रहा था, उसे प्रभावित किया। (उनके मनोवैज्ञानिक आधार ने।) फिर, पौलुस के सातवें पाप को हमें कैसे परिभाषित करना चाहिए? सभी संदर्भों में, पौलुस का विश्वास एक मनोवैज्ञानिक आधार था; जो खाली और अस्पष्ट था। वह शुरू से आखिर तक छद्म-विश्वासी और अनीश्वरवादी था। उसके जैसे छद्म-विश्वासी और नास्तिक ने धार्मिक दुनिया को क्यों नहीं छोड़ा? एक तो उसकी अस्पष्ट कल्पना में मंजिल पाने का मुद्दा था। दूसरी बात यह कि उसके सामने जीवन में भोजन की व्यवस्था करने का मुद्दा था। प्रसिद्धि, लाभ, हैसियत और भोजन की व्यवस्था उसके इस जीवन के मुख्य अनुसरणों में शामिल थीं, और आने वाले संसार में एक मंजिल पाने का विचार उसके लिए सुखद था। ये चीजें ही इस तरह के लोगों के अनुसरण और खुलासे के साथ-साथ वे जिस रास्ते पर चलते हैं उनकी जड़ों और बैसाखी का काम करती हैं। इस परिप्रेक्ष्य से पौलुस क्या था? (छद्म-विश्वासी। अज्ञात परमेश्वर में विश्वास करने वाला।) (अनीश्वरवादी।) यह कहना सही है कि वह एक अनीश्वरवादी था, और वह छद्म-विश्वासी और अवसरवादी था जो ईसाई धर्म में घात लगा कर बैठ गया था। यदि तुम उसे केवल फरीसी कहते हो, तो क्या यह उसे कम आँकना नहीं है? अगर तुम पौलुस द्वारा लिखे गए पत्रों को देखो, और पाओ कि ऊपरी तौर पर वे कहते हैं “परमेश्वर की इच्छा से,” तो तुम्हें लग सकता है कि पौलुस स्वर्ग में स्थित परमेश्वर को सर्वोच्च मानता था और यह केवल लोगों की धारणाओं के कारण या उनकी अज्ञानतावश और परमेश्वर को न समझने के कारण हुआ कि उन्होंने परमेश्वर को तीन स्तरों में विभाजित कर दिया : पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा, और यह सिर्फ मनुष्य की मूर्खता है और कोई बहुत गंभीर समस्या नहीं है, क्योंकि संपूर्ण धार्मिक जगत भी ऐसा ही सोचता है। परंतु, इसका विश्लेषण करने के बाद अब क्या यह वही मामला है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) पौलुस ने परमेश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं किया। यह अनीश्वरवादी और छद्म-विश्वासी होना है, और उसे अनीश्वरवादियों और गैर-विश्वासियों की श्रेणी में ही रखा जाना चाहिए।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पौलुस के प्रकृति सार को कैसे पहचानें
पौलुस का प्रकृति सार क्या था? उसमें कम से कम दुष्टता का एक तत्व तो था। उसने ज्ञान और रुतबा पाने के लिए पागलों की तरह प्रयास किया, वह पुरस्कारों और मुकुट का पीछा करता रहा, और इधर-उधर भागता रहा, काम करता रहा, और सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण किए बिना उस मुकुट के लिए कीमत चुकाता रहा। इसके अलावा, अपने कार्य के दौरान, उसने कभी भी प्रभु यीशु के वचनों की गवाही नहीं दी, न ही उसने यह गवाही दी कि प्रभु यीशु मसीह है, परमेश्वर है, या देहधारी परमेश्वर है, कि प्रभु यीशु परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है, और वह जो भी वचन बोलता है वे परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन हैं। पौलुस इन बातों को समझ नहीं पाया। तो, पौलुस ने कौन सा मार्ग चुना? उसने हठपूर्वक ज्ञान और धर्मशास्त्र का अनुसरण किया, सत्य की अवहेलना की, सत्य स्वीकारने से मना किया और अपने रुतबे का प्रबंधन करने, उसे बनाए रखने और स्थिर करने के कामों में अपनी खूबियों और ज्ञान का उपयोग किया। उसका अंतिम परिणाम क्या रहा? शायद तुम बाहर से यह नहीं देख सकते कि मृत्यु से पहले उसे क्या सजा मिली थी, या क्या उसकी कोई असामान्य अभिव्यक्ति थी, लेकिन उसका अंतिम परिणाम पतरस से अलग था। यह “अंतर” किस बात पर निर्भर करता था? एक बात है व्यक्ति का प्रकृति सार, और दूसरी है वह मार्ग जो वे अपनाते हैं। प्रभु यीशु के प्रति पौलुस के रवैये और दृष्टिकोण के संबंध में, उसका प्रतिरोध सामान्य लोगों के प्रतिरोध से किस प्रकार अलग था? साथ ही, पौलुस द्वारा प्रभु को नकारने और खारिज करने, और पतरस द्वारा परमेश्वर के नाम को नकारने और कमजोरी और भय के कारण प्रभु को पहचानने में तीन बार विफल रहने के बीच क्या अंतर है? पौलुस ने अपना कार्य करने के लिए ज्ञान, शिक्षा और अपनी खूबियों का उपयोग किया। उसने सत्य का बिल्कुल भी अभ्यास नहीं किया, न ही उसने परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण किया। इसलिए, क्या तुम उसके इधर-उधर भाग-दौड़ करते हुए काम करने के दौरान या उसके पत्रों में उसकी कमजोरी देख पाए? तुम नहीं देख पाए, है ना? उसने बार-बार लोगों को सिखाया कि क्या करना है और पुरस्कार, मुकुट और एक अच्छी मंजिल पाने के प्रयास करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया। उसके पास सत्य का अभ्यास करने का कोई अनुभव, समझ या गुणावगुण का विश्लेषण नहीं था। दूसरी ओर, पतरस अपने कार्य बिना शोर-शराबे के करता था। उसके पास वे गहन सिद्धांत या प्रसिद्ध पत्र नहीं थे। अलबत्ता, उसके पास सत्य की थोड़ी वास्तविक समझ और अभ्यास था। यद्यपि उसने अपने जीवन में कमजोरी और भ्रष्टाचार का अनुभव किया था, पर कई परीक्षणों के बाद उसने परमेश्वर के साथ जो रिश्ता बनाया वह मनुष्य और परमेश्वर के बीच का रिश्ता था, जो पौलुस से बिल्कुल अलग था। हालाँकि पौलुस ने काम किए, लेकिन उसने जो कुछ भी किया उसका परमेश्वर से कोई मतलब नहीं था। उसने परमेश्वर के वचनों, उसके कार्य, उसके प्यार या उसके द्वारा मानवजाति के उद्धार की गवाही नहीं दी, और लोगों के प्रति परमेश्वर के इरादों या उसकी अपेक्षाओं के बारे में तो बिल्कुल गवाही नहीं दी। उसने लोगों को अक्सर यह भी बताया कि प्रभु यीशु परमेश्वर का पुत्र था, जिसके कारण अंततः लोगों ने परमेश्वर को त्रिएकता के रूप में देखना शुरू कर दिया। “त्रिएकता” शब्द की उत्पत्ति पौलुस से हुई। यदि “पिता और पुत्र” जैसी कोई चीज न हो, तो क्या “त्रिएकता” का होना संभव है? नहीं संभव है। मानवीय कल्पनाएँ कुछ ज्यादा ही “समृद्ध” हैं। अगर तुम परमेश्वर के देहधारण को नहीं समझ सकते, तो आँख मूँदकर फ़ैसला न सुनाओ या आँख मूँदकर निर्णय न लो। बस प्रभु यीशु के वचनों को सुनो और उसे परमेश्वर के रूप में मानो, जैसे कि परमेश्वर देह में प्रकट होकर मनुष्य बन गया हो। इस तरह से व्यवहार करना अधिक वस्तुनिष्ठ है।
—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग तीन)
पवित्र आत्मा के कार्य का इतने अधिक वर्षों तक अनुभव कर चुकने के बाद भी, पौलुस में हुए बदलाव न के बराबर थे। वह अब भी लगभग अपनी प्राकृतिक अवस्था में ही था, और वह अब भी पहले का पौलुस ही था। बात बस इतनी थी कि कई वर्षों के कार्य की तक़लीफ सहने के बाद, उसने सीख लिया था कि कैसे “कार्य करना” है, और सहनशीलता सीख ली थी, किंतु उसकी पुरानी प्रकृति—उसकी अत्यधिक प्रतिस्पर्धात्मक और स्वार्थलोलुप प्रकृति—अब भी कायम थी। इतने वर्षों तक कार्य करने के बाद भी, वह अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं जानता था, न ही उसने स्वयं को अपने पुराने स्वभाव से मुक्त किया था, और यह उसके कार्य में अब भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता था। उसमें कार्य का अधिक अनुभव मुश्किल से ही था, किंतु इतना थोड़ा-सा अनुभव मात्र उसे बदलने में असमर्थ था और अस्तित्व या उसके अनुसरण के महत्व के बारे में उसके विचारों को नहीं बदल सकता था। हालाँकि उसने मसीह के लिए कई सालों तक कार्य किया था, और प्रभु यीशु को फिर कभी सताया नहीं था, लेकिन उसके हृदय में परमेश्वर के उसके ज्ञान में कोई परिवर्तन नहीं आया था। इसका अर्थ है कि उसने स्वयं को परमेश्वर के प्रति समर्पित करने के लिए कार्य नहीं किया, बल्कि इसके बजाय वह भविष्य की अपनी मंज़िल के ख़ातिर कार्य करने के लिए बाध्य था। क्योंकि, आरंभ में, उसने मसीह को सताया था, और मसीह के प्रति समर्पित नहीं हुआ था; वह सहज रूप से विद्रोही था जो जानबूझकर मसीह का विरोध करता था, और ऐसा व्यक्ति जिसे पवित्र आत्मा के कार्य का कोई ज्ञान नहीं था। जब उसका कार्य लगभग समाप्त हो चुका था, तब भी वह पवित्र आत्मा का कार्य नहीं जानता था, और पवित्र आत्मा के इरादों पर रत्ती भर भी ध्यान दिए बिना, स्वयं अपने चरित्र के अनुसार स्वयं अपनी इच्छा से काम करता था। और इसलिए उसकी प्रकृति मसीह के प्रति शत्रुतापूर्ण थी और सत्य के प्रति समर्पण नहीं करती थी। इस तरह का कोई व्यक्ति, जिसे पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा त्याग दिया गया था, जो पवित्र आत्मा का कार्य नहीं जानता था, और जो मसीह का विरोध भी करता था—ऐसे व्यक्ति को कैसे बचाया जा सकता था? मनुष्य को बचाया जा सकता है या नहीं, यह इस पर निर्भर नहीं करता है कि उसने कितना कार्य किया है, या वह कितना समर्पण करता है, बल्कि इसके बजाय इससे निर्धारित होता है कि वह पवित्र आत्मा के कार्य को जानता है या नहीं, वह सत्य को अभ्यास में ला सकता है या नहीं, और अनुसरण के प्रति उसके विचार सत्य की अनुरूपता में हैं या नहीं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है
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क्या आप वाकई पौलुस को समझते हैं?