11. मसीह-विरोधियों के स्वभाव और मसीह विरोधियों के सार में अंतर

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

जिस व्यक्ति में सिर्फ मसीह-विरोधी का स्वभाव है, उसे सार से मसीह-विरोधी होने की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। जो लोग मसीह-विरोधी के प्रकृति सार वाले होते हैं, केवल वही असली मसीह-विरोधी होते हैं। निश्चित तौर पर दोनों की मानवता में अंतर होता है, और विभिन्न प्रकार की मानवता के शासन के अंतर्गत, सत्य के प्रति उन लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले रवैये भी समान नहीं होते—और जब सत्य के प्रति लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले रवैये समान नहीं होते, तो उनके द्वारा चुने गए रास्ते भी अलग होते हैं; और जब उनके रास्ते अलग होते हैं, उनके कार्यों के परिणामी सिद्धांतों और नतीजों में भी अंतर होता है। चूँकि सिर्फ मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले व्यक्ति की अंतरात्मा काम कर रही होती है, उसमें विवेक होता है, गौरव की भावना होती है और सापेक्ष रूप से कहें तो, वह सत्य से प्रेम करता है, तो जब उनका भ्रष्ट स्वभाव उजागर होता है, तो मन ही मन वे उसकी भर्त्सना करते हैं। ऐसे में वे आत्मचिंतन कर खुद को जान सकते हैं, अपने भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्टता के प्रकाशन को स्वीकार सकते हैं, इस तरह वे दैहिक सुख और भ्रष्ट स्वभाव के विरुद्ध विद्रोह सकते हैं और सत्य का अभ्यास कर परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं। लेकिन मसीह-विरोधी के साथ ऐसा नहीं होता। चूँकि उनकी अंतरात्मा क्रियाशील नहीं होती या उनमें कर्तव्यनिष्ठा के भाव नहीं जगा होता, उनमें गौरव की भावना तो होती ही नहीं, इसलिए जब उनका भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होता है, तो वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार इसका आकलन नहीं करते कि उनका प्रकाशन सही है या गलत, वह भ्रष्ट स्वभाव है या सामान्य मानवता या वह सत्य के अनुरूप है या नहीं। वे इन बातों पर कभी विचार नहीं करते। तो उनका व्यवहार कैसा होता है? वे हमेशा यही मानते हैं कि उन्होंने जो भ्रष्ट स्वभाव दिखाया और जो रास्ता चुना है, वह सही है। उन्हें लगता है कि वे जो कुछ भी करते हैं वह सही है, जो कहते हैं वह सही है; वे अपने विचारों पर अड़े रहते हैं। और इसलिए, वे चाहे कितनी भी बड़ी गलती कर लें, चाहे उनका कितना ही भयंकर भ्रष्ट स्वभाव उजागर हो जाए, वे उस मामले की गंभीरता को नहीं पहचानते और निश्चित रूप से अपने द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव को नहीं समझते। बेशक, वे अपनी इच्छाओं को दरकिनार नहीं करते, परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण के मार्ग को चुनने के पक्ष में अपने भ्रष्ट स्वभाव की अपनी महत्वाकांक्षा के खिलाफ विद्रोह नहीं करते। इन दो अलग-अलग परिणामों से देखा जा सकता है कि अगर एक मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला व्यक्ति अपने दिल में सत्य से प्रेम करता है तो उसके पास उसकी समझ हासिल करने, उसका अभ्यास करने और उद्धार प्राप्त करने का अवसर होता है, जबकि एक मसीह-विरोधी के सार वाला व्यक्ति सत्य नहीं समझ सकता या उसे व्यवहार में नहीं ला सकता और न ही वह उद्धार प्राप्त कर सकता है। दोनों में यही अंतर होता है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण पाँच : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग दो)

घातक बीमारी कौन-सी है : मसीह-विरोधी का सार होना या मसीह-विरोधी का स्वभाव होना? (मसीह-विरोधी का सार होना।) सच में? (हाँ।) इस बारे में ध्यान से सोचो, और फिर दोबारा जवाब दो। (मसीह-विरोधी का सार होना और मसीह-विरोधी का स्वभाव होना, दोनों ही घातक बीमारियाँ हैं।) ऐसा क्यों है? (क्योंकि मसीह-विरोधी के सार वाले लोग सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे, और यही बात मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोगों पर भी लागू होती है। चाहे वे किसी भी समस्या का सामना करें, मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोग कभी भी सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान नहीं देते हैं, और उनमें न्यूनतम मानवता और विवेक भी नहीं होता है; इस तरह के लोग सत्य प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं, और वे उद्धार भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं—यह भी एक घातक बीमारी है।) और कौन बोलना चाहेगा? (मेरी समझ यह है कि इनमें से कोई भी घातक बीमारी नहीं है, लेकिन अगर कोई सत्य का अनुसरण नहीं करता है, तो वह घातक बीमारी है।) यह इस मामले में एक अच्छा नजरिया है। हालाँकि, इसके लिए एक पूर्व-शर्त है, वह है मसीह-विरोधी का सार—जिन लोगों में मसीह-विरोधी का सार है, वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे छद्म-विश्वासी हैं—मसीह-विरोधी का सार होना सबसे खतरनाक चीज है। मसीह-विरोधी के सार का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि ये लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते; वे केवल रुतबे के पीछे भागते हैं, वे स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के शत्रु हैं, वे मसीह-विरोधी हैं, वे शैतान के प्रतिरूप हैं, वे जन्मजात शैतान हैं, उनमें रत्ती भर भी मानवता नहीं है, वे भौतिकतावादी हैं, वे मानक छद्म-विश्वासी हैं, और ऐसे लोग सत्य से विमुख होते हैं। “सत्य से विमुख” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर सत्य है, वे इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और इस तथ्य को तो वे और भी कम स्वीकारते हैं कि परमेश्वर सभी चीजों पर और हर एक चीज पर संप्रभुता रखता है। तो, जब ऐसे लोगों को सत्य का अनुसरण करने का अवसर दिया जाता है, क्या वे ऐसा कर सकते हैं? (नहीं।) क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते, और क्योंकि वे हमेशा के लिए सत्य के शत्रु और परमेश्वर के शत्रु हैं, वे कभी भी सत्य प्राप्त नहीं कर पाएँगे। हमेशा के लिए सत्य प्राप्त करने में असमर्थ रहना एक घातक बीमारी है। और जिन लोगों में मसीह-विरोधी स्वभाव होता है, वे सभी स्वभाव के मामले में उन लोगों जैसे होते हैं जिनके पास मसीह-विरोधी सार है : वे एक जैसी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं, एक जैसे खुलासे करते हैं, और उनका इन अभिव्यक्तियों और खुलासों को प्रदर्शित करने का तरीका, उनके सोचने का तरीका, और परमेश्वर के बारे में उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ सभी एक जैसी होती हैं। हालाँकि, जिन लोगों के पास मसीह-विरोधी स्वभाव होता है, चाहे वे सत्य स्वीकार कर सकें या नहीं और यह तथ्य स्वीकार सकें या नहीं कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, जब तक वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, तब तक उनका मसीह-विरोधी स्वभाव एक घातक बीमारी बन जाता है, और यही वजह है कि उनका परिणाम भी मसीह-विरोधी सार वाले लोगों के परिणाम जैसा ही होगा। फिर भी सौभाग्य से मसीह-विरोधी स्वभाव वाले लोगों में कुछ ऐसे भी हैं जिनमें मानवता, विवेक, जमीर और शर्मो-हया है, जो सकारात्मक चीजों से प्यार करते हैं और जिनके पास परमेश्वर द्वारा बचाए जाने की स्थितियाँ हैं। चूँकि वे सत्य का अनुसरण करते हैं, इसलिए ये लोग स्वभाव में बदलाव प्राप्त करते हैं, अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग देते हैं, और अपने मसीह-विरोधी स्वभाव त्याग देते हैं, ताकि उनका मसीह-विरोधी स्वभाव अब उनके लिए कोई घातक बीमारी न रहे, और तब उनके बचाए जाने की संभावना बनी रहती है। किस परिस्थिति में ऐसा कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी का स्वभाव होना एक घातक बीमारी है? इसके लिए एक पूर्व-शर्त है, जो यह है कि भले ही ये लोग परमेश्वर का अस्तित्व स्वीकारते हैं, परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास रखते हैं, परमेश्वर द्वारा कही गई हर एक बात पर विश्वास करते हैं और उसे स्वीकारते हैं, और अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं, लेकिन एक गड़बड़ है : वे कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं करते या सत्य का अनुसरण नहीं करते। इसलिए उनका मसीह-विरोधी स्वभाव उनके लिए घातक बन जाता है, और यह उनकी जान ले सकता है। जब मसीह-विरोधी सार वाले लोगों की बात आती है, तो परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, इन लोगों के लिए सत्य से प्रेम करना या सत्य स्वीकारना संभव नहीं होता है, और वे कभी भी सत्य प्राप्त नहीं कर सकते। क्या तुम समझते हो? (हाँ।) तुम समझते हो। तो इसे मेरे सामने दोहराओ। (मसीह-विरोधी सार वाले लोग स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के शत्रु होते हैं। वे निश्चित रूप से ऐसे लोग नहीं हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं और उसे स्वीकार सकते हैं, और उनके लिए कभी भी सत्य प्राप्त करना संभव नहीं है, और यही वजह है कि उनके लिए उनका मसीह-विरोधी स्वभाव एक घातक बीमारी है। जबकि कुछ लोग जिनका, इस पूर्व-शर्त के साथ कि उनमें मानवता, विवेक, जमीर और शर्मो-हया है, मसीह-विरोधी स्वभाव है और जो सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, और फिर सत्य का अनुसरण करके स्वभाव में बदलाव प्राप्त करते हैं, वे सही मार्ग पर चल रहे हैं, और उनके लिए उनका मसीह-विरोधी स्वभाव घातक बीमारी नहीं है। यह सब इन लोगों के सार और जिस मार्ग पर वे चलते हैं उससे निर्धारित होता है।) यानी मसीह-विरोधी सार वाले लोगों के लिए कभी भी सत्य का अनुसरण करना संभव नहीं है, और वे कभी भी उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते हैं, जबकि मसीह-विरोधी स्वभाव वाले लोगों को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है : एक प्रकार सत्य का अनुसरण करता है और उद्धार प्राप्त कर सकता है, और दूसरा प्रकार सत्य का अनुसरण बिल्कुल भी नहीं करता है और उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता है। जो लोग उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते हैं वे सभी श्रमिक हैं; कुछ निष्ठावान श्रमिक बच सकते हैं, और यह भी संभव है कि उन्हें एक अलग परिणाम मिले।

मसीह-विरोधी सार वाले लोग उद्धार क्यों नहीं प्राप्त कर सकते? क्योंकि ये लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, न ही वे यह स्वीकारते हैं कि परमेश्वर सत्य है। ये लोग यह नहीं मानते कि सकारात्मक चीजें हैं, और वे सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते। इसके बजाय, वे दुष्ट चीजों और नकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं; वे सभी दुष्ट और नकारात्मक चीजों के प्रतिरूप हैं, और वे सभी नकारात्मक और दुष्ट चीजें अभिव्यक्त करते हैं, और यही वजह है कि वे सत्य से विमुख हैं, सत्य से शत्रुता रखते हैं, और सत्य से घृणा करते हैं। क्या ऐसे सार के साथ वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? (नहीं।) इसलिए, इन लोगों से सत्य का अनुसरण करवाना असंभव है। क्या किसी जानवर को दूसरी तरह के जानवर में बदलना संभव है? उदाहरण के लिए, क्या किसी बिल्ली को कुत्ते या चूहे में बदलना संभव है? (नहीं।) एक चूहा हमेशा चूहा ही रहेगा, अक्सर बिलों में छिपता फिरेगा और छाया में ही रहेगा। बिल्ली हमेशा चूहे की कुदरती दुश्मन रहेगी, और इसे बदला नहीं जा सकता—इसे कभी भी बदला नहीं जा सकता। फिर भी मसीह-विरोधी स्वभाव वाले लोगों में कुछ ऐसे लोग हैं जो सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, जो सत्य का अभ्यास करने और अनुसरण करने के लिए हर संभव प्रयास करने को तैयार रहते हैं; परमेश्वर जो कुछ भी कहता है वे उसका अभ्यास करते हैं, चाहे परमेश्वर कैसे भी उनकी अगुआई करे वे उसका अनुसरण करते हैं, परमेश्वर जो भी करने को कहता है उसे करते हैं, वे जिस मार्ग पर चलते हैं वह पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप होता है, और वे परमेश्वर द्वारा दिए गए दिशानिर्देश और उद्देश्यों के अनुसार आगे बढ़ते हैं। जहाँ तक दूसरे लोगों की बात है, इस तथ्य के अलावा कि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, वे भी मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलते हैं, और यह समझने में अधिक समय नहीं लगता है कि इन लोगों का परिणाम क्या होगा। वे न केवल सत्य प्राप्त नहीं करेंगे, बल्कि बचाए जाने का अवसर भी खो देंगे—ये लोग कितने दयनीय हैं! परमेश्वर उन्हें अवसर देता है और उन्हें सत्य और जीवन की आपूर्ति भी करता है, लेकिन वे इन चीजों को संजोते नहीं हैं, और वे पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर नहीं चलते हैं। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर कुछ लोगों के बजाय दूसरों को तरजीह देता है और उन्हें अवसर नहीं देता है, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि वे इन अवसरों को संजोते नहीं हैं या परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार कार्य नहीं करते हैं, इसलिए वे बचाए जाने का अवसर खो देते हैं। इसलिए, उनका मसीह-विरोधी स्वभाव घातक बन जाता है और उन्हें अपनी जान गँवानी पड़ती है। वे सोचते हैं कि कुछ धर्म-सिद्धांतों को समझने और कुछ बाहरी क्रियाकलाप और अच्छे व्यवहार प्रदर्शित करने का मतलब है कि परमेश्वर उनके मसीह-विरोधी स्वभाव के मामले को नहीं देखेगा, और वे इसे छिपा सकते हैं, नतीजतन उन्हें स्वाभाविक रूप से सत्य का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं है और वे जो चाहे वो कर सकते हैं, और अपनी समझ, तरीकों और इच्छाओं के अनुसार कार्य कर सकते हैं। अंत में, परमेश्वर चाहे उन्हें कितने भी अवसर क्यों न दे, वे अपने ही मार्ग से चिपके रहते हैं, वे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलते हैं, और परमेश्वर के शत्रु बन जाते हैं। वे परमेश्वर के शत्रु इसलिए नहीं बन जाते क्योंकि परमेश्वर ने शुरू से ही उन्हें इस तरह परिभाषित किया था—परमेश्वर ने शुरू में उन्हें कोई परिभाषा नहीं दी थी, क्योंकि परमेश्वर की नजरों में वे उसके शत्रु या मसीह-विरोधी सार वाले लोग नहीं थे, बल्कि वे केवल शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग थे। परमेश्वर चाहे कितने भी सत्य व्यक्त करे, वे फिर भी अपने अनुसरण में सत्य के लिए प्रयास नहीं करते। वे उद्धार के मार्ग पर कदम नहीं रख सकते, और इसके बजाय वे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलते हैं, और आखिरकार बचाए जाने का अपना अवसर खो देते हैं। क्या यह शर्मनाक नहीं है? यह बहुत शर्मनाक है! ये लोग बहुत ही दयनीय हैं। वे दयनीय क्यों हैं? वे कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत समझते हैं और सोचते हैं कि वे सत्य समझते हैं; वे थोड़ी कीमत चुकाते हैं और अपने कर्तव्य करते हुए कुछ अच्छा व्यवहार प्रदर्शित करते हैं और सोचते हैं कि वे सत्य पर अमल कर रहे हैं; उनके पास थोड़ी प्रतिभा, काबिलियत और गुण हैं, और वे कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल सकते हैं, कुछ काम कर सकते हैं, कुछ विशेष कर्तव्य निभा सकते हैं, और उन्हें लगता है कि उन्होंने जीवन प्राप्त कर लिया है; वे थोड़ा कष्ट सह सकते हैं और थोड़ी कीमत चुका सकते हैं, और वे गलती से यह सोच लेते हैं कि वे परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं और परमेश्वर के लिए सब कुछ त्याग सकते हैं। वे अपने बाहरी अच्छे व्यवहार, अपने गुणों और उन शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपयोग करते हैं जिनसे उन्होंने खुद को लैस किया है ताकि ये सत्य का अभ्यास करने की जगह ले सकें—यह उनकी सबसे बड़ी समस्या है, उनका घातक दोष है। यह उन्हें गलत तरीके से विश्वास दिलाता है कि वे पहले से ही उद्धार के मार्ग पर चल पड़े हैं, और उनके पास पहले से ही आध्यात्मिक कद और जीवन है। किसी भी मामले में, अगर ये लोग अंत में उद्धार प्राप्त करने में सक्षम नहीं हैं तो इसके लिए वे खुद के अलावा किसी और को दोषी नहीं ठहरा सकते; ऐसा इसलिए है क्योंकि वे खुद ही सत्य पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रहे हैं, सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हैं, और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने के इच्छुक हैं।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग चार)

वे सभी लोग जो मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलते हैं वे मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोग होते हैं, और मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोग जिस रास्ते पर चलते हैं वह मसीह-विरोधियों का रास्ता होता है—फिर भी मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोगों और मसीह-विरोधियों के बीच थोड़ा-सा अंतर होता है। अगर किसी में मसीह-विरोधी का स्वभाव हो, और वह मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चले, तो वह अनिवार्य रूप से यह नहीं दिखाता कि वह मसीह-विरोधी है। लेकिन अगर वह प्रायश्चित्त न करे और सत्य को स्वीकार न कर सके, तो वह मसीह-विरोधी बन सकता है। अभी भी मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलने वाले लोगों के लिए उम्मीद और प्रायश्चित्त करने का एक मौका बाकी होता है, क्योंकि वे अभी मसीह-विरोधी नहीं बने हैं। अगर वे तमाम किस्म की बुरी चीजें करते हैं, उन्हें मसीह-विरोधी के रूप में वर्गीकृत किया जाता है और इस तरह उन्हें निकालकर सीधे निष्कासित कर दिया जाता है, तो इसके बाद उनके पास प्रायश्चित्त करने का मौका नहीं बचेगा। अगर मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलने वाले किसी व्यक्ति ने अभी बहुत-सी बुरी चीजें न की हों, तो कम-से-कम यह दिखाता है कि वे अभी बुरे व्यक्ति नहीं बने हैं। अगर वे सत्य को स्वीकार कर सकें, तो उनके लिए आशा की एक किरण बची है। चाहे कुछ भी हो जाए, अगर वे सत्य को स्वीकार नहीं करते, तो उनके लिए बचाया जाना बहुत कठिन होगा, भले ही उन्होंने तमाम तरह के बुरे कर्म न किए हों। किसी मसीह-विरोधी को क्यों नहीं बचाया जा सकता? क्योंकि वे सत्य को जरा भी नहीं स्वीकारते। परमेश्वर का घर ईमानदार व्यक्ति होने के बारे में चाहे जैसी भी संगति करे—इस बारे में कि व्यक्ति को किस तरह से खुला और खुले दिल का होना चाहिए, कैसे उसे खुलकर वह बात कहनी चाहिए जो उसे कहनी है, और धोखाधड़ी में नहीं लगना चाहिए—वे उसे स्वीकार ही नहीं सकते। उन्हें निरंतर लगता है कि ईमानदार होने से लोग अपने अवसर खो देते हैं और सत्य बोलना बेवकूफी है। वे ईमानदार इंसान न होने पर अड़े रहते हैं। यही मसीह-विरोधियों की प्रकृति है, जो सत्य से विमुख होती है और उससे नफरत करती है। अगर कोई सत्य को जरा भी न स्वीकारे तो उसे कैसे बचाया जा सकता है? अगर मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलने वाला कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार सके, तो उसके और एक मसीह-विरोधी के बीच एक स्पष्ट अंतर हो जाता है। सभी मसीह-विरोधी वे लोग होते हैं जो सत्य को लेशमात्र भी नहीं स्वीकारते। उन्होंने चाहे जितने भी गलत या बुरे काम किए हों, उन्होंने कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे जितना नुकसान पहुँचाया हो, वे कभी भी आत्म-चिंतन कर खुद को नहीं जानेंगे। अपनी काट-छाँट होने पर भी वे सत्य को बिल्कुल नहीं स्वीकारते; इसीलिए कलीसिया उन्हें बुरे लोगों, मसीह-विरोधियों के रूप में वर्गीकृत करती है। मसीह-विरोधी अधिक-से-अधिक इतना ही स्वीकार करेगा कि उसके क्रिया-कलाप सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और सत्य से मेल नहीं खाते, फिर भी वे कभी यह बिल्कुल भी नहीं मानते कि वे जान-बूझकर बुरे कर्म करते हैं, या जान-बूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। वे बस गलतियाँ मान लेंगे, मगर सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे; और बाद में वे पहले की ही तरह बुरे काम करते जाएँगे, किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं करेंगे। इस तथ्य से कि मसीह-विरोधी कभी सत्य को नहीं स्वीकारता, यह देखा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार सत्य से विमुख होने और उससे नफरत करने का होता है। उन्होंने चाहे जितने भी वर्ष परमेश्वर में विश्वास रखा हो, वे हमेशा की तरह परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले लोग बने रहते हैं। दूसरी ओर, समस्त साधारण, भ्रष्ट मानवजाति में मसीह-विरोधी का स्वभाव हो सकता है, लेकिन उनके और मसीह-विरोधियों के बीच एक अंतर होता है। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर के न्याय और उजागर करने वाले वचन सुनने के बाद उन्हें आत्मसात कर सकते हैं, और उन पर बारम्बार विचार कर सकते हैं, और उन पर आत्म-चिंतन कर सकते हैं। फिर उन्हें एहसास हो सकता है, “तो फिर यह मसीह-विरोधी का स्वभाव है; मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलने का यही मतलब है। कैसा गंभीर मसला है! मुझमें वे दशाएँ हैं, मेरे व्यवहार ऐसे हैं; मुझमें उस प्रकार का सार है—मैं उस किस्म का इंसान हूँ!” फिर वे विचार करते हैं कि वे मसीह-विरोधी के उस स्वभाव का त्याग कैसे करें और कैसे सचमुच प्रायश्चित्त करें, और उसके साथ ही वे मसीह-विरोधियों के रास्ते पर न चलने की अपनी इच्छा निर्धारित कर सकते हैं। अपने कार्य और जीवन में, लोगों, घटनाओं और चीजों और परमेश्वर के आदेश के प्रति अपने रवैये में वे अपने क्रिया-कलापों और व्यवहार पर आत्म-चिंतन कर सकते हैं, और इस पर कि वे परमेश्वर के प्रति समर्पण क्यों नहीं कर सकते, क्यों वे हमेशा शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हैं, वे देह-सुख और शैतान के विरुद्ध विद्रोह क्यों नहीं कर सकते। और इसलिए वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे, उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकारेंगे, और परमेश्वर से विनती करेंगे कि वह उन्हें उनके भ्रष्ट स्वभाव और शैतान के प्रभाव से बचाए। उनके मन में यह करने का संकल्प होना इस बात को साबित करता है कि वे सत्य को स्वीकार कर सकते हैं। इसी तरह से वे एक भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, और अपने मन की ही करते हैं; अंतर यह है कि मसीह-विरोधियों के मन में एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ नहीं होतीं—चाहे कुछ भी हो जाए वे सत्य को स्वीकार भी नहीं करेंगे। यह मसीह-विरोधियों की दुखती रग है। दूसरी ओर, अगर मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार सके, परमेश्वर से प्रार्थना कर सके और उसके भरोसे रह सके, और अगर वह शैतान के भ्रष्ट स्वभाव को त्यागना चाहे, और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना चाहे, तो वह प्रार्थना और वह संकल्प उनके जीवन-प्रवेश में किस तरह से लाभकारी होगा? कम-से-कम इसके कारण वे अपना कर्तव्य करते समय आत्म-चिंतन कर खुद को जान पाएँगे, और समस्याओं का समाधान करने के लिए सत्य का इस तरह से उपयोग कर पाएँगे कि वे अपना कर्तव्य संतोषजनक रूप से कर सकें। यह एक तरीका है जिससे उन्हें लाभ होगा। इससे परे, अपना कर्तव्य निभाने से मिलने वाले प्रशिक्षण से वे सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर आगे बढ़ सकेंगे। वे चाहे जिन भी कठिनाइयों का सामना करें, वे सत्य को खोजने में सक्षम होंगे, सत्य को स्वीकारने और उसका अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित कर सकेंगे; वे धीरे-धीरे अपना शैतानी स्वभाव त्यागने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसकी आराधना करने में सक्षम होंगे। इस प्रकार का अभ्यास करके वे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। मसीह-विरोधी स्वभाव वाले लोग कभी-कभी भ्रष्टता दिखा सकते हैं, और इच्छा न होने पर भी अपनी शोहरत, फायदे और रुतबे के हित में बोल सकते हैं और कार्य कर सकते हैं, और वे अभी भी अपने मन की कर सकते हैं—लेकिन जैसे ही उन्हें यह एहसास होता है कि वे अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हैं, उन्हें पछतावा होगा और वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे। इससे साबित होता है कि वे ऐसे व्यक्ति हैं जो सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, जो परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करते हैं; इससे साबित होता है कि वे जीवन-प्रवेश का अनुसरण कर रहे हैं। किसी व्यक्ति को चाहे जितने भी वर्षों का अनुभव हो, या वह जितनी भी भ्रष्टता प्रकट करता हो, वह अंततः सत्य को स्वीकारने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होगा। वह ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करता है। और जब वह यह सब करता है, तो उससे प्रदर्शित होता है कि उसने सच्चे मार्ग पर पहले ही अपनी नींव रख दी है। लेकिन कुछ लोग जो मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलते हैं, वे सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते। उनके लिए उद्धार प्राप्त करना उतना ही कठिन होगा जितना कि मसीह-विरोधियों के लिए। ऐसे लोग जब मसीह-विरोधियों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन सुनते हैं तो उन्हें कुछ भी महसूस नहीं होता, बल्कि वे उदासीन और अप्रभावित रहते हैं। जब संगति मसीह-विरोधियों के स्वभाव के विषय की ओर आती है, तो वे मान लेंगे कि उनमें मसीह-विरोधी का स्वभाव है और वे मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चल रहे हैं। वे उस बारे में बहुत अच्छी तरह से बोलेंगे। लेकिन जब सत्य का अभ्यास करने का समय आता है, तब भी वे ऐसा करने से मना कर देंगे; तब भी वे अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करेंगे, अपने मसीह-विरोधी वाले स्वभाव के भरोसे रहेंगे। अगर तुम उनसे पूछते हो, “जब तुम मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट करते हो, तो क्या तुम्हारे दिल में संघर्ष होता है? जब तुम अपने रुतबे की सुरक्षा करने के लिए बोलते हो, तो क्या तुम्हें आत्म-भर्त्सना महसूस होती है? मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट करने पर क्या तुम आत्म-चिंतन कर खुद को जान पाते हो? अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में जान लेने पर क्या तुम्हें दिल से पछतावा होता है? क्या बाद में तुम जरा भी प्रायश्चित्त करते हो और बदलते हो?” निश्चित रूप से उनके पास कोई जवाब नहीं होगा, क्योंकि उन्हें इस प्रकार का कोई अनुभव या आमना-सामना नहीं हुआ है। वे कुछ भी कहने में असमर्थ होंगे। क्या ऐसे लोग सच्चा प्रायश्चित्त करने में सक्षम होते हैं? यकीनन यह आसान नहीं होगा। जो लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्हें खुद मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट करने पर पीड़ा होगी, और वे व्याकुल हो जाएँगे; वे यह सोचने लग जाएँगे : “आखिर मैं इस शैतानी स्वभाव को त्याग क्यों नहीं सकता? मैं हमेशा भ्रष्ट स्वभाव क्यों प्रकट करता रहता हूँ? मेरा यह भ्रष्ट स्वभाव इतना अधिक जिद्दी और विकट क्यों है? सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना इतना कठिन क्यों है?” यह दिखाता है कि उनका जीवन अनुभव उथला है, और उनका भ्रष्ट स्वभाव बिल्कुल भी ज्यादा ठीक नहीं हो पाया है। इसीलिए उन पर कोई चीज आ पड़ने पर उनके दिल में इतना भयंकर युद्ध चलने लगता है और इसीलिए वे उस यातना का दंश भी झेलते हैं। हालाँकि उनमें अपने शैतानी स्वभाव को त्यागने का संकल्प होता है, फिर भी वे अपने दिल में इसके विरुद्ध युद्ध किए बिना दृढ़ता से नहीं रह सकते—और वह युद्धरत दशा दिन-ब-दिन तीव्र होती जाती है। और जैसे-जैसे उनका आत्मज्ञान गहराता जाता है और वे यह समझ लेते हैं कि वे कितनी गहराई तक भ्रष्ट हैं, वैसे-वैसे वे सत्य को प्राप्त करने के लिए उतना ही ज्यादा तरसने लगते हैं, और उसे और अधिक सँजोते हैं, और खुद को और अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने की प्रक्रिया के दौरान वे सत्य को स्वीकार कर उसका अनवरत अभ्यास करने में सक्षम होंगे। धीरे-धीरे उनका आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, और उनका जीवन स्वभाव वास्तव में बदलने लगेगा। अगर वे इसी प्रकार अनुभव करने की कोशिश करते रहेंगे, तो उनकी स्थिति साल-दर-साल और ज्यादा बेहतर होती जाएगी, और अंत में, वे देह-सुख पर विजयी होने और अपनी भ्रष्टता को त्यागने, बहुधा सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने में सक्षम होंगे। जीवन प्रवेश आसान नहीं है! यह उस व्यक्ति को पुनर्जीवित करने जैसा होता है जो बस मृत्यु के कगार पर होता है : व्यक्ति जो जिम्मेदारी पूरी कर सकता है, वह है सत्य पर संगति करना, उन्हें सहारा देना, उन्हें पोषण देना या उनकी काट-छाँट करना। अगर वे उसे स्वीकार कर समर्पण कर सकें, तो उनके लिए उम्मीद बची है; हो सकता है कि वे इतने सौभाग्यशाली हों कि वे बच निकलें, और चीजें मृत्यु से पहले ही रुक जाएँ। लेकिन अगर वे सत्य को स्वीकारने से इनकार कर देते हैं और अपने बारे में बिल्कुल भी नहीं जानते, तो वे खतरे में हैं। कुछ मसीह-विरोधी हटा दिए जाने के एक-दो साल तक खुद को जाने बिना गुजार देते हैं, और अपनी गलतियाँ नहीं मानते। ऐसी स्थिति में, उनके अंदर जीवन की कोई निशानी नहीं होती, और यह इस बात का सबूत है कि उनके लिए बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है। जब तुम लोगों की काट-छाँट होती है तो क्या तुम सत्य को स्वीकार पाते हो? (हाँ।) फिर तो उम्मीद बची है—यह अच्छी बात है! अगर तुम सत्य को स्वीकार सकते हो, तो तुम्हारे लिए बचाए जाने की उम्मीद है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो)

कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने अतीत में अक्सर मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट किया था : वे आवारा और स्वेछाचारी थे, वे जो कहें हमेशा वही मानना होता था। लेकिन उन्होंने कोई स्पष्ट बुराई नहीं की और उनकी मानवता भयानक नहीं थी। काट-छाँट से गुजर कर, भाई-बहनों द्वारा मदद किए जाने से, तबादला किए जाने या बदले जाने के माध्यम से, कुछ समय के लिए नकारात्मक होकर वे अंततः इस बात से अवगत हो जाते हैं कि उन्होंने जो पहले प्रकट किया था, वह भ्रष्ट स्वभाव था, वे पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हो जाते और सोचते हैं, “चाहे जो हो, अपना कर्तव्य निभाते रहना सबसे महत्वपूर्ण है। हालाँकि मैं मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहा था, लेकिन मुझे उस श्रेणी में नहीं रखा गया। यह परमेश्वर की दया है, इसलिए मुझे अपने विश्वास और अपने अनुसरण में कड़ी मेहनत करनी चाहिए। सत्य के अनुसरण के मार्ग में कुछ भी गलत नहीं है।” धीरे-धीरे, वे खुद को बदल लेते हैं, और फिर वे पश्चात्ताप करते हैं। उनमें अच्छी अभिव्यक्तियाँ होती हैं, वे अपने कर्तव्य निभाते समय सत्य सिद्धांतों को खोज पाते हैं, और दूसरों के साथ कार्य करते समय भी वे सत्य सिद्धांतों को खोजते हैं। हर लिहाज से वे एक सकारात्मक दिशा में प्रवेश कर रहे होते हैं। तब क्या वे बदले नहीं हैं? वे मसीह-विरोधी के मार्ग से सत्य के अभ्यास और उसको खोजने के मार्ग की ओर मुड़ गए हैं। उनके लिए उद्धार पाने की आशा और मौका है। क्या तुम ऐसे लोगों को इसलिए मसीह-विरोधी की श्रेणी में डाल सकते हो, कि उन्होंने एक बार मसीह-विरोधी के कुछ लक्षण प्रदर्शित किए थे, या वे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चले थे? नहीं। मसीह-विरोधी पश्‍चात्ताप करने के बजाय मरना पसंद करेंगे। उनमें शर्म की कोई भावना नहीं होती; इसके अलावा वे शातिर और दुष्ट स्वभाव के होते हैं, और वे सत्य से अत्यधिक विमुख होते हैं। क्या सत्य से इतना ज्यादा विमुख व्यक्ति उसे अभ्यास में ला सकता है, या पश्‍चात्ताप कर सकता है? यह असंभव होगा। सत्य से उसके बेहद विमुख होने का यह अर्थ है कि वह कभी पश्चात्ताप नहीं करेगा। जो लोग पश्चात्ताप करने में सक्षम होते हैं, उनके बारे में एक बात तो निश्चित है कि उन्होंने भूलें तो की होती हैं, लेकिन परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना को स्वीकार करने में वे सक्षम होते हैं, सत्य को स्वीकार करने में सक्षम होते हैं, और परमेश्वर के वचनों को अपनी व्यक्तिगत सूक्तियों के रूप में लेकर, और परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन की वास्तविकता बनाकर, वे अपने कर्तव्य निभाते समय सहयोग करने की भरसक कोशिश करने में सक्षम होते हैं। वे सत्य को स्वीकार करते हैं, और भीतर गहराई में, वे इससे विमुख नहीं रहते हैं। क्या यह अंतर नहीं है? यही अंतर है। लेकिन मसीह-विरोधी काट-छाँट किए जाने से इनकार किए जाने पर ही नहीं रुकते—वे उस किसी भी व्यक्ति की नहीं सुनते जिसकी बातें सत्य के अनुसार होती हैं, और वे नहीं मानते हैं कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं, न ही वे उन्हें सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी यह प्रकृति किस प्रकार की है? यह सत्य से विमुख होने और उससे तीव्र घृणा करने की है। जब कोई सत्य पर संगति करता है, या अनुभवजन्य गवाही के बारे में बोलता है, तो उनमें तीव्र अस्वीकार पैदा होता है, और वे संगति करने वाले व्यक्ति के प्रति शत्रुतापूर्ण हो जाते हैं। यदि कलीसिया का कोई व्यक्ति विभिन्न ऊटपटांग और बुरी दलीलें फैलाता है, बेतुकी ऊटपटांग बातें बोलता है, तो उन्हें बड़ी खुशी मिलती है; वे फौरन साथ हो लेते हैं और करीबी सहयोग में बेहूदगी में लोटते-पोटते हैं। यह चोर-चोर मौसेरे भाई, एक ही थैली के चट्टे बट्टे वाला मामला है। यदि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सत्य पर संगति करते हुए या अपने आत्म-ज्ञान और सच्चे प्रायश्चित्त के बारे में अनुभवजन्य गवाही देते हुए सुन लेते हैं, तो इससे वे उद्विग्न हो कर खीझने लगते हैं, और वे यह विचार करने लगते हैं कि कैसे उस व्यक्ति को अलग-थलग कर उस पर हमला किया जाए। संक्षेप में कहें तो वे सत्य का अनुसरण करने वाले किसी भी व्यक्ति को स्नेह से नहीं देखते। वे उसे अलग-थलग कर उसका दुश्मन बनना चाहते हैं। जो भी व्यक्ति शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देकर दिखावा करने में निपुण होता है, वे उसे बहुत पसंद करते हैं, और उसे पूरी स्वीकृति देते हैं, मानो उन्हें कोई विश्वासपात्र सहयात्री मिल गया हो। यदि कोई कहे, “जो भी व्यक्ति सर्वाधिक कार्य करेगा है और सर्वोत्तम योगदान देगा, उसे सर्वाधिक पुरस्कार देकर ताज पहनाया जाएगा, और वह परमेश्वर के साथ मिलकर शासन करेगा,” तो वे बेहद उत्साहित होकर जबरदस्त जोश में आ जाएँगे। उन्हें लगेगा कि वे दूसरों से सर्वश्रेष्ठ हैं, वे अंततः भीड़ से अलग हैं, और अब उनके लिए अपना प्रदर्शन करने और अपनी योग्यता दर्शाने को स्थान मिल गया है। तब वे काफी संतुष्ट हो जाएँगे। क्या यह सत्य से विमुख होना नहीं है? मान लो कि तुम उनसे संगति में कहते हो, “परमेश्वर पौलुस जैसे लोगों को पसंद नहीं करता, और वह उन लोगों से सबसे ज्यादा नाराज होता है जो मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलते हैं और जो सारा दिन यह कहते हुए घूमते रहते हैं, ‘प्रभु, प्रभु, क्या मैंने तुम्हारे लिए ज्यादा काम नहीं किया है?’ वह उन लोगों से ज्यादा नाराज होता है जो सारा दिन घूमते हुए उससे पुरस्कार और ताज की भीख माँगते हैं।” ये बातें निश्चित रूप से सत्य हैं, लेकिन ऐसी संगति सुनने पर उनके मन में कैसी भावनाएँ रह जाती हैं? क्या वे आमीन कह कर ऐसे शब्दों को स्वीकारते हैं? उनकी पहली प्रतिक्रिया क्या होती है? दिल में अस्वीकृति और सुनने को लेकर अनिच्छा—उसका यह अर्थ होता है कि, “तुम अपनी बात को लेकर इतने सुनिश्चित कैसे हो सकते हो? क्या तुम्हारी बात ही अंतिम है? तुम जो कह रहे हो उसे मैं नहीं मानता! मुझे जो करना है मैं वही करूँगा। मैं पौलुस जैसा ही रहूँगा और परमेश्वर से ताज माँगूँगा। उस तरह से मैं धन्य हो पाऊँगा और मुझे अच्छी मंजिल मिलेगी!” वे पौलुस के नजरिए बनाए रखने पर जोर देंगे। क्या इस तरह से वे परमेश्वर के विरुद्ध लड़ नहीं रहे हैं? क्या यह परमेश्वर का स्पष्ट विरोध नहीं है? परमेश्वर ने पौलुस के सार को उजागर कर उसका गहन विश्लेषण किया है; उसने उस बारे में काफी कुछ कहा है, और उसका प्रत्येक अंश सत्य है—फिर भी ये मसीह-विरोधी सत्य को या इस तथ्य को नहीं स्वीकारते कि पौलुस के तमाम कार्यकलाप और व्यवहार परमेश्वर के विरुद्ध थे। अपने मन में वे अभी भी सवाल उठाते हैं : “यदि तुम कुछ कहते हो, तो इसका अर्थ यह है कि यह सही है? किस आधार पर? मुझे तो पौलुस ने जो कहा और किया वह सही लगता है। उसमें कुछ भी गलत नहीं है। मैं एक ताज और पुरस्कार का अनुसरण कर रहा हूँ—और मैं इसके काबिल हूँ। क्या तुम मुझे रोक सकते हो? मैं काम करने का प्रयास करूँगा; काफी काम कर लेने के बाद, मेरे पास पूँजी होगी—तब मैं योगदान कर चुका होऊँगा, और ऐसा होने पर मैं स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर पुरस्कार प्राप्त कर पाऊँगा। उसमें कुछ गलत नहीं है!” वे इतने ज्यादा अड़ियल होते हैं। वे सत्य को लेशमात्र भी स्वीकार नहीं करते। तुम उनसे सत्य पर संगति कर सकते हो, लेकिन यह उनके दिमाग में नहीं उतरेगा; वे उससे विमुख हैं। परमेश्वर के वचनों और सत्य के प्रति मसीह-विरोधियों का यही रवैया होता है, और यही परमेश्वर के प्रति भी उनका रवैया होता है। तो सत्य को सुनने के बाद तुम लोगों को क्या महसूस होता है? तुम्हें लगता है कि तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, और तुम उसे नहीं समझते हो। तुम्हें लगता है कि तुम अभी भी बहुत पीछे हो, और तुम्हें सत्य वास्तविकता की ओर प्रयास करने की जरूरत है। और जब कभी तुम खुद को परमेश्वर के वचनों की तुलना में देखते हो तभी तुम्हें लगता है कि तुममें बहुत कमी है, तुम्हारी काबिलियत कमजोर है, और तुममें आध्यात्मिक समझ का अभाव है—तुम अभी भी लापरवाह हो, और तुममें अभी भी दुष्टता है। और फिर तुम निराश हो जाते हो। क्या तुम्हारी यह अवस्था नहीं है? दूसरी ओर, मसीह-विरोधी कभी निराश नहीं होते। वे हमेशा बहुत उत्साही होते हैं, कभी भी आत्म-चिंतन नहीं करते, न खुद को जानते हैं, लेकिन सोचते हैं कि उनमें कोई बड़ी समस्या नहीं है। जो लोग हमेशा अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं, वे ऐसे ही होते हैं—जैसे ही उनके हाथों में सत्ता आती है, वे मसीह-विरोधियों में तब्दील हो जाते हैं।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक)

क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो सत्ता की इच्छा नहीं करता? क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जिसे सत्ता पसंद नहीं है? क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो अपनी हैसियत के लाभों की लालसा नहीं करता? नहीं, ऐसा कोई नहीं है। इसका क्या कारण है? ऐसा इसलिए है क्योंकि शैतान ने सभी लोगों को भ्रष्ट कर दिया है; उन सभी की प्रकृति शैतानी है। एक बात जो सभी लोगों में समान है वह यह है कि उन्हें सत्ता, हैसियत और इस के साथ मिलने वाले लाभों का आनंद लेना बहुत पसंद होता है। यह एक ऐसा गुण है जो सभी लोगों में होता है। तो फिर कुछ लोगों को मसीह-विरोधी क्यों समझा जाता है, जबकि अन्य केवल मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट करते हैं या मसीह-विरोधी के रास्ते पर चलते हैं? इन दोनों समूहों के बीच क्या अंतर हैं? सबसे पहले तो मैं उनकी मानवता के बीच जो अंतर है उसके बारे में बात करूँगा। क्या मसीह-विरोधियों में मानवता होती है? मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलने वाले लोगों और खुद मसीह-विरोधियों की मानवता के बीच क्या अंतर होते हैं? (मसीह-विरोधियों में अंतरात्मा और विवेक नहीं होता, उनमें मानवता नहीं होती, जबकि जो लोग मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलते हैं, उनमें अभी भी थोड़ा-बहुत अंतरात्मा और विवेक होता है। वे अभी भी सत्य को स्वीकार कर सकते हैं और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर सकते हैं, और सच्चा पश्चात्ताप भी दिखा सकते हैं।) पश्चात्ताप को दिखाना अंतर का एक बिंदु है। क्या मसीह-विरोधियों को पश्चात्ताप करना आता है? (नहीं, उन्हें नहीं आता।) मसीह-विरोधी सत्य को थोड़ा सा भी स्वीकार नहीं करते; भले ही वे अपने मुंह के बल क्यों न गिर जाएं, वे पश्चात्ताप नहीं करेंगे। वे खुद को कभी भी नहीं जान सकेंगे। जब मानवता की बात आती है, तो मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलने वाले एक और तरीके से मसीह-विरोधियों से भिन्न होते हैं, जो एक औसत अच्छे व्यक्ति और एक बुरे व्यक्ति के बीच का अंतर होता है। अच्छे व्यक्ति अंतरात्मा और विवेक के साथ बोलते और कार्य करते हैं, जबकि बुरे व्यक्ति के पास अंतरात्मा और विवेक ही नहीं होता है। जब बुरे लोग कोई बुरा कार्य करते हैं और उजागर हो जाते हैं, तो वे बिल्कुल भी नरम नहीं पड़ते : “हम्म, अगर सबको पता भी चल जाए, तो वे क्या बिगाड़ लेंगे? मैं जो चाहे करूँ! मुझे इस बात की कोई परवाह नहीं है कि मुझे कौन उजागर करता है या मेरी आलोचना करता है। कोई भी वास्तव में मेरा क्या ही कर सकता है?” कोई बुरा व्यक्ति चाहे कितने भी बुरे कर्म क्यों न कर ले, उसे शर्मिंदगी महसूस नहीं होती है। जब कोई साधारण व्यक्ति कुछ बुरा करता है, तो वह इसे छिपाना और इस पर पर्दा डालना चाहता है। अगर कोई उसे उजागर कर देता है तो उसे किसी का सामना करने में बहुत शर्म महसूस होती है और यहाँ तक कि वह आगे जीना भी नहीं चाहता : “आह, मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ? मैं सचमुच बहुत बेशर्म हूँ!” वे बेहद पश्चात्ताप करते हैं और यहाँ तक कि खुद को कोसते भी हैं और कसमें खाते हैं कि वे फिर कभी ऐसा कुछ नहीं करेंगे। इस तरह का व्यवहार इस बात का प्रमाण है कि उनमें अभी भी शर्म की भावना मौजूद है और यह कि उनमें अभी भी कुछ मानवता है। जो व्यक्ति बेशर्म होता है उसमें अंतरात्मा और विवेक नहीं होता और सभी बुरे लोग बेशर्म होते हैं। चाहे एक बुरा व्यक्ति किस भी तरह का बुरा कार्य क्यों न करे, इससे उसका चेहरा लाल नहीं होगा या उसके दिल की धड़कनें तेज नहीं होंगी और वह अभी भी बड़ी ढिठाई के साथ अपने कार्यों का बचाव करेगा, नकारात्मक पहलुओं को सकारात्मक बनाएगा और बुरे कर्मों के बारे में ऐसे बात करेगा जैसे वे अच्छे हों। क्या इस तरह के व्यक्ति में कोई शर्म की भावना होती है? (नहीं होती।) अगर उनका रवैया इस तरह का है, तो क्या वे भविष्य में सचमुच पश्चात्ताप करेंगे? नहीं, वे बस वैसे ही करते रहेंगे जैसा वे करते आए हैं। इसका मतलब यह है कि वे बेशर्म हैं और बेशर्मी का मतलब है अंतरात्मा और विवेक का अभाव। अंतरात्मा और विवेक रखने वाले लोग कुछ बुरा करने पर उजागर हो जाते हैं तो किसी का सामना करने में बहुत शर्म महसूस करते हैं और वे ऐसा काम फिर कभी नहीं करते। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें एहसास होता है कि यह एक शर्मनाक बात थी और वे इतने शर्मिंदा होते हैं कि किसी का सामना नहीं कर पाते; उनकी मानवता में शर्म की एक भावना होती है। क्या यह सामान्य मानवता के लिए न्यूनतम मानक नहीं है? (हाँ, है।) क्या किसी ऐसे व्यक्ति को इंसान कहा जा सकता है जिसे शर्म महसूस नहीं होती? नहीं कहा जा सकता। क्या जो व्यक्ति शर्म महसूस नहीं करता, उसका दिमाग एक सामान्य व्यक्ति जैसा होता है? (नहीं होता।) उनका दिमाग एक सामान्य व्यक्ति जैसा नहीं होता, सकारात्मक चीजों के प्रति प्रेम तो दूर की बात है। उनके लिए अंतरात्मा और विवेक का होना एक बहुत उच्च मानक है, जिस पर वे खरे नहीं उतरते। अब मसीह-विरोधियों और मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलने वालों के बीच सबसे बुनियादी अंतर क्या होता है? जब कोई व्यक्ति हैसियत के लिए परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करने पर किसी ऐसे व्यक्ति को उजागर करता है जिसमें मसीह-विरोधी का सार होता है, तो वह यह नहीं सोचेगा कि क्या उसने कुछ गलत किया है। वह इससे कुछ सीख लेकर परमेश्वर से मार्गदर्शन नहीं मांगेगा; बल्कि जैसे ही उसे किसी अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में चुने जाने का मौका मिलेगा, वह हैसियत पाने के लिए पहले की तरह ही परमेश्वर के साथ होड़ लगाना शुरू कर देगा, वह पश्चात्ताप करने के बजाय मरना बेहतर समझेगा। क्या इन लोगों में कोई तर्कशक्ति होती है? (नहीं होती।) और क्या जिन लोगों में कोई तर्क शक्ति नहीं होती, उन्हें कोई शर्म महसूस भी होती है? (नहीं होती।) ऐसे लोगों में न तो कोई तर्क शक्ति होती है और न ही शर्म की कोई भावना होती है। जब सामान्य मानवता, जमीर और विवेक रखने वाले लोग दूसरों को यह कहते हुए सुनते हैं कि वे हैसियत के लिए परमेश्वर के साथ होड़ कर रहे हैं, तो वे सोचेंगे, “अरे नहीं, यह तो एक गंभीर समस्या है! मैं तो परमेश्वर का अनुयायी हूँ! मैं उसके साथ हैसियत के लिए होड़ कैसे कर सकता हूँ? हैसियत के लिए परमेश्वर से होड़ करना कितना शर्मनाक है! मैं कितना सुन्न, मूर्ख और विवेकहीन हो गया हूँ जो मैंने ऐसा किया! मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ?” उन्हें अपनी करनी पर शर्मिंदगी और लज्जा महसूस होगी; और अगर फिर कभी ऐसी स्थिति आएगी, तो उनकी शर्मिंदगी की भावना उनके व्यवहार पर अंकुश लगाएगी। सभी लोगों की प्रकृति का सार शैतान की प्रकृति का सार होता है, लेकिन जिन लोगों में सामान्य मानवता वाली सूझ-बूझ होती है उनमें शर्म की भावना भी होती है और उनका व्यवहार संयमित होता है। जैसे-जैसे एक व्यक्ति की सत्य की समझ धीरे-धीरे गहरी होती जाती है और जैसे-जैसे परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण के बारे में उसका ज्ञान और समझ गहरी होती जाती है, वैसे-वैसे शर्म की यह भावना न्यूनतम दहलीज से आगे बढ़ती जाएगी। वे सत्य और परमेश्वर का भय मानने वाले अपने दिल के द्वारा अधिकाधिक संयमित होते जाते हैं। वे खुद को सुधारना जारी रखते हैं और अधिक से अधिक सत्य के अनुरूप कार्य करते हैं। लेकिन, क्या मसीह-विरोधी सत्य का अनुसरण करेंगे? बिल्कुल भी नहीं करेंगे। उनके पास सामान्य मानवीय विवेक नहीं होती है, वे नहीं जानते कि सत्य का अनुसरण करने का क्या मतलब होता है और वे सत्य से उल्ट चलते हैं और उनके दिल में इसके प्रति थोड़ा सा भी प्रेम नहीं होता है, तो फिर वे सत्य का अनुसरण कैसे कर सकते हैं? सत्य का अनुसरण करना एक सामान्य मानवीय आवश्यकता है; जिन लोगों में धार्मिकता की भूख और प्यास होगी, केवल वही सत्य से प्रेम और उसका अनुसरण करेंगे। जिन लोगों में सामान्य मानवता नहीं है, वे कभी भी सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दो : वे विरोधियों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं

मसीह-विरोधियों के लिए, अगर उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे पर हमला किया जाता है और उन्हें छीन लिया जाता है, तो यह उनकी जान लेने की कोशिश करने से भी अधिक गंभीर मामला होता है। मसीह-विरोधी चाहे कितने भी उपदेश सुन ले या परमेश्वर के कितने भी वचन पढ़ ले, उसे इस बात का दुख या पछतावा नहीं होगा कि उसने कभी सत्य का अभ्यास नहीं किया है, और वह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल रहा है, न ही इस बात पर कि उसका प्रकृति सार मसीह-विरोधियों का है। बल्कि उसकी बुद्धि हमेशा इसी काम में लगी रहती है कि कैसे अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को बढ़ाया जाए। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं, दूसरों के सामने दिखावा करने के लिए करते हैं, परमेश्वर के सामने नहीं। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि ऐसे लोग रुतबे से इतना प्यार करते हैं कि वे इसे अपना जीवन समझते हैं, अपने जीवनभर का लक्ष्य समझते हैं। इसके अलावा, चूँकि वे अपने रुतबे से बहुत प्यार करते हैं, वे सत्य के अस्तित्व में विश्वास ही नहीं करते, और यह तक कहा जा सकता है कि वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते। इस प्रकार, प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल करने के लिए वे चाहे जैसे भी गणना करें, लोगों और परमेश्वर को धोखा देने के लिए चाहे जैसा बनावटी वेश बनाएँ, उनके दिलों की गहराइयों में कोई जागरूकता या धिक्कार नहीं होता, चिंतित होने की तो बात ही दूर है। प्रतिष्ठा और रुतबे की अपनी निरंतर खोज में वे, परमेश्वर ने जो किया है उसका भी मनमाने ढंग से खंडन करते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? अपने दिलों की गहराइयों में मसीह-विरोधी मानते हैं, “समस्त प्रतिष्ठा और रुतबा व्यक्ति के अपने प्रयासों से अर्जित किया जाता है। केवल लोगों के बीच अपनी स्थिति मजबूत करके और प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल करके ही वे परमेश्वर के आशीषों का आनंद ले सकते हैं। जीवन का मूल्य तभी होता है, जब लोग पूर्ण सत्ता और रुतबा हासिल कर लेते हैं। बस यही मनुष्य की तरह जीना है। इसके विपरीत, परमेश्वर के वचन में जिस तरह से जीने के लिए कहा गया है उस तरह जीना बेकार होगा—यानी हर चीज में परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना, स्वेच्छा से सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होना और एक सामान्य व्यक्ति की तरह जीना—इस तरह के व्यक्ति का कोई आदर नहीं करेगा। इंसान को अपने रुतबे, प्रतिष्ठा और खुशी खुद संघर्ष करके अर्जित करनी चाहिए; ये चीजें सकारात्मक और सक्रिय रवैये के साथ लड़कर जीती और हासिल की जानी चाहिए। कोई तुम्हें ये चीजें थाली में परोसकर नहीं देगा—निष्क्रिय होकर प्रतीक्षा करने से केवल विफलता मिलेगी।” मसीह-विरोधी इसी प्रकार हिसाब लगाते रहते हैं। मसीह-विरोधियों का यही स्वभाव है। अगर तुम मसीह-विरोधियों से आशा करते हो कि वे सत्य को स्वीकार लेंगे, अपनी गलतियाँ मान लेंगे, और असल में पछतावा करेंगे, तो यह असंभव है—वे ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकते। मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार शैतान जैसा है, और वे सत्य से नफरत करते हैं, वे चाहे कहीं भी जाएँ, यहाँ तक कि धरती के अंतिम छोर तक चले जाएँ, तो भी प्रतिष्ठा और रुतबा पाने की उनकी महत्वकांक्षा कभी नहीं बदलेगी, और न ही चीजों पर उनके विचार या जिस मार्ग पर वे चलते हैं वह कभी बदलेगा। कुछ लोग कहेंगे : “कुछ मसीह-विरोधी ऐसे होते हैं जो इस पर अपने विचारों को बदल सकते हैं।” क्या यह बात सही है? अगर वे सच में बदल सकते हैं, तो क्या वे अभी भी मसीह-विरोधी हैं? जिन लोगों की प्रकृति मसीह-विरोधी जैसी है, वे कभी नहीं बदलेंगे। जिनका स्वभाव मसीह-विरोधी का है, वे तभी बदलेंगे जब वे सत्य का अनुसरण करेंगे। कुछ लोग जो मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलते हैं, कुछ बुरे काम करते हैं जिससे कलीसिया के काम में गड़बड़ होती है, और भले ही उन्हें मसीह-विरोधी घोषित किया जाता है, बर्खास्त किए जाने के बाद, उन्हें सच में पछतावा होता है, और वे नए सिरे से आचरण करने का संकल्प लेते हैं, और कुछ समय के चिंतन, आत्म-ज्ञान और पश्चात्ताप के बाद, उनमें कुछ वास्तविक बदलाव आता है। ऐसे मामले में, उन्हें मसीह-विरोधी नहीं कहा जा सकता; उनके पास मसीह-विरोधी का केवल स्वभाव है। अगर वे सत्य का अनुसरण करते हैं, तो वे बदल सकेंगे। हालाँकि, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कलीसिया जिन लोगों को मसीह-विरोधी करार देकर निकाल देती है या निष्काषित कर देती है, उनमें से ज्यादातर लोग वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करते या नहीं बदलते। यदि उनमें से कोई ऐसा करता है, तो वे गिने-चुने मामले हैं। कुछ लोग पूछेंगे : “तो क्या उन गिने-चुने मामलों को गलत श्रेणी में डाल दिया गया?” यह नामुमकिन है। आखिर उन्होंने कुछ बुरे काम तो किए ही थे, और इसे खारिज नहीं किया जा सकता। हालाँकि, अगर वे वास्तव में पश्चात्ताप करने में सक्षम हैं, अगर वे कोई कर्तव्य करने के लिए तैयार हैं, और अगर उनके पास अपने पश्चात्ताप की सच्ची गवाही है, तो कलीसिया उन्हें अभी भी स्वीकार सकती है। अगर ये लोग मसीह-विरोधी करार दिए जाने के बाद भी गलती मानने या पश्चात्ताप करने से पूरी तरह इनकार करते हैं, और वे खुद को सही ठहराने के लिए हर मुमकिन प्रयास करते हैं, तो उन्हें मसीह-विरोधियों की श्रेणी में रखना बिल्कुल सटीक और सही है। अगर उन्होंने अपनी गलतियों को स्वीकार लिया होता और सच्चा पछतावा महसूस किया होता, तो कलीसिया उन्हें मसीह-विरोधियों की श्रेणी में कैसे रख सकती थी? यह नामुमकिन होता। चाहे वे कोई भी हों, चाहे उन्होंने कितनी भी बुराई की हो या उनकी गलतियाँ कितनी भी गंभीर हों, कोई व्यक्ति मसीह-विरोधी है या वह मसीह-विरोधी का स्वभाव रखता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या वह सत्य को और काटे-छाँटे जाने को स्वीकारने में सक्षम है, और क्या उसमें सच्चा पछतावा है। अगर वह सत्य को और काटे-छाँटे जाने को स्वीकार सकता है, अगर उसमें सच्चा पछतावा है, और अगर वह अपना पूरा जीवन परमेश्वर के लिए मेहनत करने में बिताने के लिए तैयार है, तो यह वास्तव में थोड़ा पश्चात्ताप दर्शाता है। ऐसे व्यक्ति को मसीह-विरोधी नहीं कहा जा सकता। क्या वे पक्के मसीह-विरोधी लोग सच में सत्य को स्वीकार सकते हैं? बिल्कुल नहीं। क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, और वे सत्य से विमुख हैं, इसलिए वे कभी भी प्रतिष्ठा और रुतबे को नहीं त्याग पाएँगे जो उनके पूरे जीवन से इतनी घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं। मसीह-विरोधी अपने दिलों में दृढ़ता से विश्वास करते हैं कि सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबा होने से ही उन्हें गरिमा मिलती है और वे सच्चे सृजित प्राणी होते हैं, और सिर्फ रुतबा होने पर ही उन्हें पुरस्कृत किया और ताज पहनाया जाएगा, वे परमेश्वर के अनुमोदन के काबिल होंगे, सब-कुछ हासिल करेंगे, और एक वास्तविक व्यक्ति बनेंगे। मसीह-विरोधी रुतबे को क्या समझते हैं? वे उसे सत्य समझते हैं; वे उसे लोगों द्वारा प्राप्य सर्वोच्च लक्ष्य मानते हैं। क्या यह एक समस्या नहीं है? जो लोग रुतबे के प्रति इस तरह आसक्त हो सकते हैं, वे असली मसीह-विरोधी होते हैं। वे पौलुस जैसे लोग ही होते हैं। वे मानते हैं कि सत्य का अनुसरण करना, परमेश्वर के प्रति समर्पण खोजना, और ईमानदारी तलाशना सब वे प्रक्रियाएँ हैं जो व्यक्ति को उच्चतम संभव रुतबे तक ले जाती हैं; वे सिर्फ प्रक्रियाएँ हैं, मानव होने का लक्ष्य और मानक नहीं, और वे पूरी तरह से परमेश्वर को दिखाने के लिए की जाती हैं। यह समझ बेतुकी और हास्यास्पद है! सिर्फ सत्य से नफरत करने वाले बेतुके लोग ही ऐसा हास्यास्पद विचार प्रस्तुत कर सकते हैं।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन)

सभी भ्रष्ट मनुष्यों में दुष्ट स्वभाव होते हैं और उन सभी में दुष्ट स्वभाव के प्रकाशन और अभिव्यक्तियाँ होती हैं। परंतु, आम लोगों के दुष्ट स्वभाव और मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव में अंतर होता है। हालाँकि आम लोगों में भी दुष्ट स्वभाव होता है, लेकिन उनके हृदय में सत्य की लालसा होती है और वे सत्य से प्रेम करते हैं, और परमेश्वर में अपनी आस्था और अपने कर्तव्यों का पालन करने के दौरान वे सत्य को स्वीकार करने में सक्षम होते हैं। हालाँकि वे जितने सत्य व्यवहार में ला सकते हैं वे सीमित होते हैं, फिर भी वे कुछ सत्य अभ्यास में ला सकते हैं, और इस तरह उनके भ्रष्ट स्वभाव को धीरे-धीरे शुद्ध किया जा सकता है और वास्तव में बदला जा सकता है, और अंत में वे मूलतः परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और उद्धार प्राप्त करने में सक्षम होते हैं। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी सत्य से तनिक भी प्रेम नहीं करते, वे सत्य कभी नहीं स्वीकारते, और वे इसे कभी अभ्यास में नहीं लाते। मैं यहाँ जो कुछ भी कहता हूँ, तुम लोगों को उसके अनुसार देखने और समझने का प्रयास करना चाहिए; चाहे वह कलीसिया का अगुआ हो या कार्यकर्ता, या कोई साधारण भाई-बहन, देखो कि क्या वह व्यक्ति अपनी समझ के दायरे में सत्य को अभ्यास में ला सकता है। उदाहरण के लिए, मान लो कि कोई व्यक्ति एक सत्य सिद्धांत समझता है, लेकिन जब उसे अभ्यास में लाने का समय आता है, तो वह उसे बिल्कुल भी अभ्यास में नहीं लाता और वह अपनी मर्जी से और मनमाने ढंग से काम करता है—यह दुष्टता है और ऐसे व्यक्ति को बचाया जाना कठिन है। कुछ लोग वास्तव में सत्य नहीं समझते, लेकिन अपने हृदय में वे ठीक उसी की खोज में होते हैं जो परमेश्वर के इरादों के अनुसार और सत्य के अनुरूप हो। दिल की गहराई से वे सत्य के विरुद्ध नहीं जाना चाहते। चूंकि वे सत्य नहीं समझते, बस इसीलिए वे सिद्धांतों के विपरीत बोलते और कार्य करते हैं, वे गलतियाँ करते हैं, और यहाँ तक कि ऐसे काम भी करते हैं जिससे विघ्न-बाधाएँ पैदा होती हैं—इसकी प्रकृति क्या है? इसकी प्रकृति कुकर्म करने से नहीं जुड़ी है; यह सब मूर्खता और अज्ञानता के कारण होता है। ऐसे लोग ये बुरे काम केवल इसलिए करते हैं क्योंकि वे सत्य नहीं समझते, क्योंकि वे सत्य सिद्धांतों को प्राप्त करने में अक्षम हैं, और क्योंकि उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार उन्हें लगता है कि ये काम करना सही है, इसलिए वे उस तरह से कार्य करते हैं, और इसीलिए परमेश्वर उन्हें मूर्ख और अज्ञानी, कम काबिलियत वाले के रूप में निर्धारित करता है; ऐसा नहीं है कि वे सत्य समझते हुए भी जानबूझकर उसके विरुद्ध जाते हों। जहाँ तक उन अगुआओं और कार्यकर्ताओं का सवाल है जो हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार काम करते हैं और सत्य नहीं समझने के कारण अक्सर परमेश्वर के घर के काम को बाधित करते हैं, तो तुम्हें इन समस्याओं के हल के लिए पर्यवेक्षण और प्रतिबंधों को लागू करने, और सत्य पर अधिक संगति करने का अभ्यास करना चाहिए। यदि किसी की काबिलियत बहुत कम है और वह सत्य सिद्धांतों को नहीं समझ सकता, तो उसे झूठे अगुआ के नाते सेवामुक्त करने का समय आ गया है। यदि वह सत्य समझता है लेकिन जानबूझकर सत्य के विरुद्ध जाता है, तो उसकी काट-छाँट की जानी चाहिए। यदि वह हमेशा सत्य स्वीकार करने में असमर्थ रहता है और कोई पछतावा भी नहीं दिखाता है, तो उससे दुष्ट व्यक्ति के रूप में निपटा जाना चाहिए, और उसे हटा दिया जाना चाहिए। हालाँकि, मसीह-विरोधियों की प्रकृति दुष्ट लोगों या झूठे अगुआओं की प्रकृति से कहीं अधिक गंभीर होती है, क्योंकि मसीह-विरोधी जानबूझकर कलीसिया का काम बाधित करते हैं। वे सत्य समझते हों तब भी वे इसका अभ्यास नहीं करते, वे किसी की नहीं सुनते, और अगर वे सुनते भी हैं, तो वे जो सुनते हैं उसे स्वीकार नहीं करते। भले ही ऊपरी तौर पर वे इसे स्वीकार करते हुए दिखें, लेकिन वे अपने अंतरतम हृदय में इसका प्रतिरोध करते हैं, और जब कार्य करने का समय आता है, तब भी वे परमेश्वर के घर के हितों के बारे में कोई विचार किए बिना अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हैं। जब वे अन्य लोगों के आस-पास होते हैं, तो वे कुछ मानवीय शब्द बोलते हैं और उनमें कुछ हद तक मानव-सादृश्य होते है, लेकिन जब वे लोगों की पीठ पीछे कार्य करते हैं, तो उनकी राक्षसी प्रकृति उभर आती है—ये मसीह-विरोधी हैं। कुछ लोगों को जब रुतबा मिलता है, तो वे हर तरह की बुराई करते हैं और मसीह-विरोधी बन जाते हैं। कुछ लोगों के पास कोई रुतबा नहीं होता, फिर भी उनका प्रकृति सार मसीह-विरोधियों जैसा ही होता है—क्या तुम कह सकते हो कि वे अच्छे लोग हैं? जैसे ही उन्हें रुतबा मिलता है, वे हर तरह के बुरे काम करने लगते हैं—वे मसीह-विरोधी हैं।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग एक)

तुम लोगों को खुद की तुलना मसीह-विरोधियों के विभिन्न खुलासों, अभिव्यक्तियों और उन अभ्यासों से करनी चाहिए जिन्हें मैंने उजागर किया है; अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान, तुम लोग निस्संदेह इनमें से कुछ अभिव्यक्तियों, खुलासों और अभ्यासों को प्रदर्शित करोगे, लेकिन तुम लोग मसीह-विरोधियों से किस तरह अलग हो? क्या तुम लोग खुद पर आई मुसीबतों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार सकते हो? (हाँ, हम कर सकते हैं।) खुद पर आई मुसीबतों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार कर पाना सबसे दुर्लभ चीज है। अगर तुम लोग गलत रास्ते पर चलते हो, कुछ गलत करते हो, अज्ञानतापूर्ण काम करते हो या अपराध करते हो तो क्या तुम खुद को बदल सकते हो? क्या तुम पश्चात्ताप कर सकते हो? (हाँ, हम कर सकते हैं।) पश्चात्ताप करने और खुद को बदलने में सक्षम होना सबसे कीमती और दुर्लभ चीज है। लेकिन मसीह-विरोधियों में बिल्कुल यही कमी होती है। जिन लोगों को परमेश्वर द्वारा बचाया जाएगा उनके पास ही यह चीज होती है। तुम्हारे पास जो होनी चाहिए उनमें सबसे महत्वपूर्ण चीजें कौन-सी हैं? सबसे पहले यह विश्वास करना कि परमेश्वर सत्य है; यह सबसे बुनियादी चीज है। क्या तुम लोग ऐसा कर सकते हो? (हाँ, हम कर सकते हैं।) मसीह-विरोधियों के पास यह सबसे बुनियादी चीज नहीं होती। दूसरी चीज यह स्वीकार करना है कि परमेश्वर का वचन सत्य है; इसे भी सबसे बुनियादी चीज माना जा सकता है। तीसरी चीज परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना है। मसीह-विरोधियों के लिए यह चीज बिल्कुल अप्राप्य है, लेकिन यहीं से चीजें तुम लोगों के लिए मुश्किल होने लगती हैं। चौथी चीज है बिना विवाद किए, बिना खुद को सही ठहराए, बिना तर्क दिए या बिना शिकायत किए सभी चीजों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार करना। मसीह-विरोधियों के लिए यह बिल्कुल नामुमकिन है। पाँचवीं चीज है विद्रोह करने या अपराध करने के बाद पश्चात्ताप करना। इसे हासिल करना तुम लोगों के लिए मुश्किल होगा। यह तब होता है जब अपराध करने के बाद लोग चिंतन-मनन और खोज, उदासी, नकारात्मकता और कमजोरी के दौर से गुजरकर धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त करते हैं। बेशक इसमें समय लगता है। यह एक या दो साल या उससे अधिक भी हो सकता है। कोई व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वभाव को पूरी तरह से समझने और दिल से समर्पण करने के बाद ही सच्चा पश्चात्ताप कर सकता है। भले ही यह आसान नहीं है, लेकिन आखिरकार पश्चात्ताप की अभिव्यक्तियाँ उन लोगों में देखी जा सकती हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं, जो परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन मसीह-विरोधियों के पास यह नहीं होता है। जरा इस बारे में सोचो, अपने पिछले तीन या पाँच साल या यहाँ तक कि 10 या 20 साल का ऐसा क्या है जिसे मसीह-विरोधी कुछ बुरा करने के बाद नहीं कुरेदता? चाहे कितना भी समय बीत गया हो, जब तुम उनसे दोबारा मिलते हो तो वे अभी भी अपने उन तर्कों के बारे में बात करते हैं। वे अभी भी अपने बुरे कर्मों को नहीं पहचानते या उन्हें स्वीकार नहीं करते हैं, और रत्ती भर भी पछतावा नहीं दिखाते हैं। यही मसीह-विरोधियों और साधारण भ्रष्ट लोगों के बीच का फर्क है। मसीह-विरोधी पछतावा क्यों नहीं दिखा सकते हैं? इसका मूल कारण क्या है? वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर सत्य है, जिसके कारण वे सत्य स्वीकारने में असमर्थ होते हैं। यह निराशाजनक है और यह मसीह-विरोधियों के सार से तय होता है। तुम लोग मुझे मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों का गहन-विश्लेषण करते हुए सुनकर सोचते हो : “मेरा खेल खत्म हो गया। मुझमें भी मसीह-विरोधी का स्वभाव है—क्या मैं भी मसीह-विरोधी नहीं हूँ?” क्या यह विवेक की कमी नहीं है? यह सच है कि तुममें मसीह-विरोधी का स्वभाव है, लेकिन तुममें और मसीह-विरोधियों में यह फर्क है कि तुममें अभी भी सकारात्मक चीजें हैं। तुम सत्य स्वीकार सकते हो, अपने पाप कबूलकर पश्चात्ताप कर सकते हो और बदल सकते हो, और ये सकारात्मक चीजें तुम्हें मसीह-विरोधियों का स्वभाव त्यागने में सक्षम बना सकती हैं; तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव स्वच्छ करने और तुम्हें उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बना सकती हैं। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास उम्मीद है? तुम्हारे लिए अभी भी आशा है!

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात)

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