प्रश्न 9: बाइबल प्रभु की गवाही है, और हमारे पंथ की नींव है। इन दो हज़ार वर्षों में, विश्वास करने वाले सभी लोगों ने अपना पंथ बाइबल पर ही आधारित किया है। इसलिए मेरा विश्वास है कि बाइबल प्रभु की प्रतिनिधि है। प्रभु में विश्वास रखने का अर्थ है बाइबल में विश्वास रखना, और बाइबल में विश्वास रखने का अर्थ है प्रभु में विश्वास रखना। चाहे कुछ भी हो, हम बाइबल से दूर नहीं जा सकते। आख़िर हम बाइबल के बिना पंथ का अभ्यास कैसे करेंगे? क्या उसे प्रभु में विश्वास कहा भी जा सकता है? मुझे बताइए, इस प्रकार से पंथ का अभ्यास करने में क्या गलत है?

उत्तर: बहुत से लोगों का विश्वास है कि बाइबल प्रभु की प्रतिनिधि है, परमेश्वर की प्रतिनिधि है और प्रभु में विश्वास करने का अर्थ बाइबल में विश्वास करना है, और बाइबल में विश्वास करना प्रभु में विश्वास करने के समान है। लोग बाइबल को परमेश्वर के समान दर्जा देते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो परमेश्वर को नहीं मानते पर बाइबल को मानते हैं। वे बाइबल को सर्वोच्च मानते हैं और परमेश्वर के स्थान पर बाइबल को रखने का प्रयास भी करते हैं। ऐसे धार्मिक नेता भी हैं जो मसीह को नहीं मानते पर बाइबल को मानते हैं, और दावा करते हैं कि प्रभु के दूसरे अवतरण का उपदेश देने वाले लोग पाखंडी और विधर्मी हैं। यहां ठीक-ठीक मुद्दा क्या है? यह स्पष्ट है, कि धार्मिक विश्व ऐसे बिंदु तक धंस गया है जहां वे केवल बाइबल को ही मानते हैं और प्रभु के लौटने पर विश्वास नहीं करते—उन्हें कोई नहीं बचा सकता। इससे यह स्पष्ट हो जाता है, कि धार्मिक विश्व यीशु-विरोधियों का ऐसा समूह बन चुका है जो परमेश्वर का विरोध करता है और परमेश्वर को अपना शत्रु मानता है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कई धार्मिक नेता पाखंडी फारसी हैं। विशेष रूप से वे जो यह दावा करते हैं कि "प्रभु के दूसरे अवतरण का उपदेश देने वाले लोग पाखंडी और विधर्मी हैं," वे सभी यीशु-विरोधी और अविश्वासी हैं। लगता है कि बहुत से लोग जानते ही नहीं कि परमेश्वर में विश्वास रखने का सही अर्थ क्या है। वे इस अस्पष्ट परमेश्वर में अपने विश्वास को परंपरावादी पंथ कहते हैं और परमेश्वर के स्थान पर बाइबल में विश्वास भी करते हैं। यहां तक कि वे अंत के दिनोंके मसीह के देह-धारण को भी नहीं मानते और उनकी निंदा करते हैं। वे मसीह की बताई किसी भी सच्चाई को अनदेखा और नज़रंदाज़ कर देते हैं। यहां समस्या क्या है? यह काफ़ी गहरा प्रश्न है! जिन दिनों यीशु अपना काम कर रहे थे, क्या यहूदियों का रवैया भी वैसा ही नहीं था? अपना कार्य करने के लिए मसीह के प्रकट होने से पहले, हर इंसान की आस्था बाइबल पर थी। किसकी आस्था सच्ची थी और किसकी झूठी, और निश्चय ही कोई नहीं बता सकता था कि कौन वास्तव में परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर रहा था और कौन उनका विरोध कर रहा था। ऐसा क्यों हुआ कि जब प्रभु यीशु देहधारी हुएऔर अपना कार्य किया, हर इंसान का खुलासा हो गया? इसी में परमेश्वर का सर्वशक्तिमान होना तथा उनकी बुद्धिमत्ता स्थित है। जब सर्वशक्तिमान परमेश्वर, अंतिम दिनों के मसीह, प्रकट होते हैं और अपना कार्य करते हैं, तो बुद्धिमान कुँवारियाँ उनकी वाणी सुनती हैं और परमेश्वर के पदचिह्न देखती हैं इस प्रकार, स्वाभाविक रूप से, उन्हें परमेश्वर के सिंहासन के सामने लाया जाता है। जहाँ तक मूर्ख कुँवारियों का प्रश्न है, क्योंक्योंकि वे बाइबल पर जोर देते हैं और पहचान नहीं पाते हैं कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर, अंतिम दिनों के मसीह ही वास्तव में परमेश्वर हैं, वे इस प्रकार प्रकट होते हैं और त्यागे जाते हैं। अभी के लिये वे अपने तथाकथित विश्वास से अभी भी चिपके हुए हैं, किंतु जब आपदाएँ आएँगी, तो वे बिलखते और दाँत पीसते हुए समाप्त हो जाएँगे। इससे हम देख सकते हैं, कि जो केवल बाइबल से चिपक कर रहते हैं और सत्य को स्वीकार करने में असफल रहते हैं, जो केवल परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन देहधारी मसीह को स्वीकार करने में असफल रहते हैं वे सब अविश्वासी हैं और परमेश्वर के द्वारा निश्चित रूप से हटा दिये जाएँगे। यही सत्य है! आइए देखें कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर इसके बारे में क्याक्या कहते हैं।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "बाइबल के समय से प्रभु में लोगों का विश्वास, बाइबल में विश्वास रहा है। यह कहने के बजाय कि लोग प्रभु में विश्वास करते हैं, यह कहना बेहतर है कि वे बाइबल में विश्वास करते हैं; यह कहने के बजाय कि उन्होंने बाइबल पढ़नी आरंभ कर दी है, यह कहना बेहतर है कि उन्होंने बाइबल पर विश्वास करना आरंभ कर दिया है; और यह कहने के बजाय कि वे प्रभु के सामने लौट आए हैं, यह कहना बेहतर होगा कि वे बाइबल के सामने लौट आए हैं। इस तरह से, लोग बाइबल की आराधना ऐसे करते हैं मानो वह परमेश्वर हो, मानो वह उनका जीवन-रक्त हो और उसे खोना अपने जीवन को खोने के समान हो। लोग बाइबल को परमेश्वर जितना ही ऊँचा समझते हैं, और यहाँ तक कि कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो उसे परमेश्वर से भी ऊँचा समझते हैं। यदि लोगों के पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है, यदि वे परमेश्वर को महसूस नहीं कर सकते, तो वे जीते रह सकते हैं—परंतु जैसे ही वे बाइबल को खो देते हैं, या बाइबल के प्रसिद्ध अध्याय और उक्तियाँ खो देते हैं, तो यह ऐसा होता है, मानो उन्होंने अपना जीवन खो दिया हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बाइबल के विषय में (1))

"वे मेरा अस्तित्व मात्र बाइबल के दायरे में ही सीमित मानते हैं, और वे मेरी बराबरी बाइबल से करते हैं; बाइबल के बिना मैं नहीं हूँ, और मेरे बिना बाइबल नहीं है। वे मेरे अस्तित्व या क्रियाकलापों पर कोई ध्यान नहीं देते, बल्कि पवित्रशास्त्र के हर एक वचन पर परम और विशेष ध्यान देते हैं। बहुत से लोग तो यहाँ तक मानते हैं कि अपनी इच्छा से मुझे ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए, जो पवित्रशास्त्र द्वारा पहले से न कहा गया हो। वे पवित्रशास्त्र को बहुत अधिक महत्त्व देते हैं। कहा जा सकता है कि वे वचनों और उक्तियों को बहुत महत्वपूर्ण समझते हैं, इस हद तक कि हर एक वचन जो मैं बोलता हूँ, वे उसे मापने और मेरी निंदा करने के लिए बाइबल के छंदों का उपयोग करते हैं। वे मेरे साथ अनुकूलता का मार्ग या सत्य के साथ अनुकूलता का मार्ग नहीं खोजते, बल्कि बाइबल के वचनों के साथ अनुकूलता का मार्ग खोजते हैं, और विश्वास करते हैं कि कोई भी चीज़ जो बाइबल के अनुसार नहीं है, बिना किसी अपवाद के, मेरा कार्य नहीं है। क्या ऐसे लोग फरीसियों के कर्तव्यपरायण वंशज नहीं हैं? यहूदी फरीसी यीशु को दोषी ठहराने के लिए मूसा की व्यवस्था का उपयोग करते थे। उन्होंने उस समय के यीशु के साथ अनुकूल होने की कोशिश नहीं की, बल्कि कर्मठतापूर्वक व्यवस्था का इस हद तक अक्षरशः पालन किया कि—यीशु पर पुराने विधान की व्यवस्था का पालन न करने और मसीहा न होने का आरोप लगाते हुए—निर्दोष यीशु को सूली पर चढ़ा दिया। उनका सार क्या था? क्या यह ऐसा नहीं था कि उन्होंने सत्य के साथ अनुकूलता के मार्ग की खोज नहीं की? उनके दिमाग़ में पवित्रशास्त्र का एक-एक वचन घर कर गया था, जबकि मेरी इच्छा और मेरे कार्य के चरणों और विधियों पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। वे सत्य की खोज करने वाले लोग नहीं, बल्कि सख्ती से पवित्रशास्त्र के वचनों से चिपकने वाले लोग थे; वे परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग नहीं, बल्कि बाइबल में विश्वास करने वाले लोग थे। दरअसल वे बाइबल की रखवाली करने वाले कुत्ते थे। बाइबल के हितों की रक्षा करने, बाइबल की गरिमा बनाए रखने और बाइबल की प्रतिष्ठा बचाने के लिए वे यहाँ तक चले गए कि उन्होंने दयालु यीशु को सूली पर चढ़ा दिया। ऐसा उन्होंने सिर्फ़ बाइबल का बचाव करने के लिए और लोगों के हृदय में बाइबल के हर एक वचन की प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए किया। इस प्रकार उन्होंने अपना भविष्य त्यागने और यीशु की निंदा करने के लिए उसकी मृत्यु के रूप में पापबलि देने को प्राथमिकता दी, क्योंकि यीशु पवित्रशास्त्र के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था। क्या वे लोग पवित्रशास्त्र के एक-एक वचन के नौकर नहीं थे?

और आज के लोगों के बारे में क्या कहूँ? मसीह सत्य बताने के लिए आया है, फिर भी वे निश्चित ही उसे इस दुनिया से निष्कासित कर देंगे, ताकि वे स्वर्ग में प्रवेश हासिल कर सकें और अनुग्रह प्राप्त कर सकें। वे बाइबल के हितों की रक्षा करने के लिए सत्य के आगमन को पूरी तरह से नकार देंगे और बाइबल का चिरस्थायी अस्तित्व सुनिश्चित करने के लिए देह में लौटे मसीह को फिर से सूली पर चढ़ा देंगे। मनुष्य मेरा उद्धार कैसे प्राप्त कर सकता है, जब उसका हृदय इतना अधिक द्वेष से भरा है और उसकी प्रकृति मेरे इतनी विरोधी है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें मसीह के साथ अनुकूलता का तरीका खोजना चाहिए)

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, आइए मिलकर विचार करें: प्रभु में विश्वास रखने का मतलब क्या है? बाइबल में विश्वास करने का अर्थ क्या है? बाइबल और प्रभु के बीच क्या संबंध है? पहले कौन आया, बाइबल या प्रभु? तो फिर वह कौन है जो उद्धार का कार्य करता है? तब क्या बाइबल प्रभु के द्वारा किये जाने वाले कार्य की जगह ले सकती है? क्या बाइबल प्रभु का प्रतिनिधित्व कर सकती है? यदि लोग बाइबल पर अंधाविश्वास करें और बाइबल की आराधना करें, तो क्या इसका मतलब यह है कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उनकी आराधना करते हैं? क्या बाइबल का अनुसरण करना परमेश्वर के वचन का अभ्यास करने और अनुभव करने समान है? क्या बाइबल का अनुसरण करने का आवश्यक रूप से यही मतलब है कि वह प्रभु का अनुसरण कर रहा है? इसलिए यदि लोग नहीं कर सकती। को हर चीज के पहले रखें, तो क्या इसका मतलब यह है कि वह प्रभु को महान मानकर उनकी आराधना करते हैं, कि वह प्रभु का आदर करते हैं और उनके आज्ञाकारी हैं? कोई भी इन मुद्दों के सत्य को नहीं देखता है। हजारों सालों तक, लोग बाइबल की अंधवत् आराधना करते आ रहे हैं और बाइबल को वही दर्जा दे रहे हैं जो वे प्रभु को देते हैं। कुछ लोग तो बाइबल का उपयोग प्रभु और उनके कार्यों के बदले में भी लेते हैं, लेकिन कोई भी प्रभु को सच में नहीं जानता और उनके प्रति आज्ञाकारी नहीं है। फरीसियों ने बाइबिल का अनुसरण किया, फिर भी उन्होंने प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ा दिया। मुद्दा क्या था? क्या बाइबल को समझने का मतलब परमेश्वर को जानना है? क्या बाइबल का अनुसरण करने का मतलब परमेश्वर का अनुसरण करना है? फरीसr बाइबल की टीकाओं के विशेषज्ञ थे, लेकिन परमेश्वर को नहीं जानते थे। इसके बजाय, उन्होंने प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ा दिया जिन्होंने सत्य व्यक्त किया और छुटकारा दिलाने का कार्य किया। क्या हम वाकई यह भूल गए हैं? वास्तव में परमेश्वर को सच में जानने का मतलब क्या है? क्या सिर्फ बाइबल की व्याख्या करने और बाइबल के ज्ञान को समझने में सक्षम होना ही परमेश्वर को जानने के रूप में अर्हता प्राप्त करना है? यदि यही मसला है, तो फरीसियों ने क्यों प्रभु यीशु की निंदा की और उनका विरोध किया जबकि उसी समय उन्होंने बाइबल की व्याख्या भी की? इस इस बात की कुंजी कि क्या कोई सच में परमेश्वर को जानकर उनकी आज्ञा का पालन कर पाता है यह है कि क्या वह देहधारी मसीह को जानता और उनकी आज्ञा का पालन करता है या नहीं। समस्त मानवजाति को देहधारी परमेश्वर प्रकट होते हैं, यही वह है जिसे अधिकांश लोग महसूस करने में असफल रहते हैं। फरीसियों पर प्रभु यीशु का श्राप इस तथ्य का प्रमाण है कि परमेश्वर धार्मिकता के साथ हर किसी के साथ व्यवहार करता है। जैसा की स्पष्ट है, यदि कोई प्रभु की आज्ञा पालन और उनकी आराधना नहीं करता है बल्कि केवल बाइबल में अंधविश्वास करता है और उसकी उपासना करता है तो उसे ईश्वर का अनुमोदन नहीं मिलेगा है। यदि मनुष्य का विश्वास पूरी तरह से बाइबल के पालन में हो और उनके दिलों में प्रभु के लिए कोई स्थान नहीं हो, यदि वे प्रभु को महान मान कर उनकी आराधना नहीं कर सकते हों और उनके वचनों का अभ्यास नहीं कर सकते हैं, यदि वे परमेश्वर के कार्य और मार्गदर्शन को स्वीकार करने और उसका पालन करने में असमर्थ हों, तो हर कोई, क्या आप लोग नहीं कहेंगे कि ऐसा मनुष्य एक पाखंडी फरीसी है? क्या ऐसा मनुष्य मसीह विरोधी नहीं है, एक ऐसा मनुष्य जिसने यीशु को अपना दुश्मन बना लिया है? इसलिए, यदि मनुष्य केवल बाइबल से चिपका रहता है, तो इसका निश्चित रूप से यह मतलब नहीं है कि उसने सत्य और जीवन को पा लिया है। बाइबल का अंधवत् अनुसरण और आराधना करना गलत है, ऐसा करके निश्चित रूप से किसी को भी प्रभु का अनुमोदन प्राप्त नहीं होगा। परमेश्वर देहधारी हो चुके हैं और सत्य व्यक्त कर चुके हैं मनुष्य को शुद्ध करने, बचाने और शैतान के प्रभाव से मुक्त करने के लिए ताकि वह परमेश्वर की आज्ञापालन कर सके, उनकी आराधना कर सके और अंत में परमेश्वर द्वारा जीत लिया जा सके। यह देहधारी परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य व अर्थ है। हमारे विश्वास की कुंजी सत्य को तलाशना, और प्रभु के वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है। केवल इसी प्रकार हम पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करेंगे और प्रभु को जानेंगे। तब, हम प्रभु से डरने और प्रभु को अपने दिलों में महिमामंडित कर में सक्षम होंगे। इसके अलावा, हमें उन पर सच्चा विश्वास होगा और सच्चाई से उनकी आज्ञा का पालन करेंगे। यही प्रभु में हमारे विश्वास करने का सच्चा अर्थ है। केवल इसी तरह से विश्वास का अभ्यास करके हमें परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त होगा। इससे, हर कोई साफ-साफ देखता है कि बाइबल में विश्वास करना परमेश्वर में विश्वास करने के समान नहीं है।

तो परमेश्वर और बाइबल के बीच क्या संबंध है? इस प्रश्न के संदर्भ में, प्रभु यीशु ने स्पष्ट कहा है। "धर्मग्रन्थखोजें; क्योंकि तुम सोचते हो कि उनमें शाश्वत जीवन है: और वे वे हैं जो मेरे बारे में गवाही देते हैं। और तुम मेरे पास नहीं आओगे, कि तुम जीवन पा सको" (यूहन्ना 5:39-40)। प्रभु यीशु के वचनों से, यह बहुत स्पष्ट है कि बाइबल परमेश्वर की केवल एक गवाही है, वह अतीत में किए गए परमेश्वर के कार्य का अभिलेख मात्र है। बाइबिल परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं करती है, क्योंकि बाइबल में परमेश्वर के वचनों और कार्य का सीमित वृतांत है। परमेश्वर के वचनों और कार्य का सीमित वृतांत परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता है? परमेश्वर सृष्टिकर्ता है जो सबकुछ भरता है, वह सभी चीजों का स्वामी है। परमेश्वर का जीवन असीम और अक्षय है। परमेश्वर की विपुलता और महानता की थाह मनुष्य कभी नहीं ले सकता है। और बाइबल में पाए जाने वाले परमेश्वर के वचनों और कार्य का सीमित अभिलेख परमेश्वर के जीवन के विशाल समुद्र की एक केवल बूंद है। बाइबल परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकती है? बाइबल परमेश्वर के बराबर कैसे हो सकती है? परमेश्वर मनुष्य को बचाने का कार्य कर सकते हैं, क्या बाइबल मनुष्य को बचाने के लिए कार्य कर सकती है? परमेश्वर सत्य व्यक्त कर सकते हैं, क्या बाइबल ऐसा कर सकती है? परमेश्वर किसी भी समय मनुष्य को प्रबुद्धता प्राप्त करा सकते हैं, ज्योतिर्मय कर सकते हैं, और उसका मार्गदर्शन कर सकते हैं, क्या बाइबल ऐसा कर सकती है? बिल्कुल नहीं! तो, बाइबल परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है! मनुष्य बाइबल को परमेश्वर के बराबर रखता है और सोचता है कि बाइबल परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकती है। क्या यह परमेश्वर के महत्व को कम करना और ईशनिंदा नहीं है? यदि मनुष्य परमेश्वर के कार्य के स्थान पर बाइबल का उपयोग करता है, तो यह परमेश्वर को इनकार करना और उनसे विश्वासघात है। परमेश्वर परमेश्वर हैं, बाइबल बाइबल है। बाइबल परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है, ना ही वह परमेश्वर के कार्य का स्थान ले सकती है। बाइबल परमेश्वर के कार्य का अभिलेख मात्र है। बाइबल के अंदर परमेश्वर के वचन सत्य हैं। वे परमेश्वर के जीवन स्वभाव की अभिव्यक्ति हैं, और परमेश्वर की इच्छा दर्शा सकते हैं। लेकिन परमेश्वर के कार्य का हर चरण केवल उस युग के दौरान मानवजाति के लिए परमेश्वर की अपेक्षा और इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है। वे अन्य युगों में परमेश्वर के वचनों और कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।

बाइबल के अंदर की कहानी के संबंध में, मुझे लगता है कि हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर से एक अंश को देख सकते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "बाइबल की इस वास्तविकता को कोई नहीं जानता कि यह परमेश्वर के कार्य के ऐतिहासिक अभिलेख और उसके कार्य के पिछले दो चरणों की गवाही से बढ़कर और कुछ नहीं है, और इससे तुम्हें परमेश्वर के कार्य के लक्ष्यों की कोई समझ हासिल नहीं होती। बाइबल पढ़ने वाला हर व्यक्ति जानता है कि यह व्यवस्था के युग और अनुग्रह के युग के दौरान परमेश्वर के कार्य के दो चरणों को लिखित रूप में प्रस्तुत करता है। पुराने नियम सृष्टि के समय से लेकर व्यवस्था के युग के अंत तक इस्राएल के इतिहास और यहोवा के कार्य को लिपिबद्ध करता है। पृथ्वी पर यीशु के कार्य को, जो चार सुसमाचारों में है, और पौलुस के कार्य नए नियम में दर्ज किए गए हैं; क्या ये ऐतिहासिक अभिलेख नहीं हैं?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बाइबल के विषय में (4))

"कहा जा सकता है कि जो कुछ उन्होंने दर्ज किया है, वह उनकी शिक्षा और उनकी मानवीय क्षमता के स्तर के अनुसार था। उन्होंने जो कुछ दर्ज किया, वे मनुष्यों के अनुभव थे, और प्रत्येक के पास दर्ज करने और जानने का अपना साधन था, और प्रत्येक अभिलेख अलग था। इसलिए, यदि तुम बाइबल की परमेश्वर के रूप में आराधना करते हो, तो तुम बहुत ही ज़्यादा नासमझ और मूर्ख हो! तुम आज के परमेश्वर के कार्य को क्यों नहीं खोजते हो? केवल परमेश्वर का कार्य ही मनुष्य को बचा सकता है। बाइबल मनुष्य को नहीं बचा सकती, लोग हज़ारों सालों तक इसे पढ़ते रह सकते हैं और फिर भी उनमें ज़रा-सा भी परिवर्तन नहीं होगा, और यदि तुम बाइबल की आराधना करते हो, तो तुम्हें पवित्र आत्मा का कार्य कभी प्राप्त नहीं होगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बाइबल के विषय में (3))

"बाइबल के प्रति लोगों का दृष्टिकोण जूनून और विश्वास का है, और उनमें से कोई भी बाइबल की अंदर की कहानी या सार के बारे में पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो सकता। इसलिए आज भी जब बाइबल की बात आती है, तो लोगों को अभी भी आश्चर्य का एक अवर्णनीय एहसास होता है, और वे उससे और भी अधिक अभिभूत हैं, और उस पर और भी अधिक विश्वास करते हैं। ... बाइबल पर ऐसे अंधे विश्वास के साथ, बाइबल पर ऐसे भरोसे के साथ, उनमें पवित्र आत्मा के कार्य को खोजने की कोई इच्छा नहीं होती। अपनी धारणाओं के अनुसार, लोग सोचते हैं कि केवल बाइबल ही पवित्र आत्मा के कार्य को ला सकती है; केवल बाइबल में ही वे परमेश्वर के पदचिह्न खोज सकते हैं; केवल बाइबल में ही परमेश्वर के कार्य के रहस्य छिपे हुए हैं; केवल बाइबल—न कि अन्य पुस्तकें या लोग—परमेश्वर की हर चीज़ और उसके कार्य की संपूर्णता को स्पष्ट कर सकती है; बाइबल स्वर्ग के कार्य को पृथ्वी पर ला सकती है; और बाइबल युगों का आरंभ और अंत दोनों कर सकती है। इन धारणाओं के कारण लोगों का पवित्र आत्मा के कार्य को खोजने की ओर कोई झुकाव नहीं होता। अतः अतीत में बाइबल लोगों के लिए चाहे जितनी मददगार रही हो, वह परमेश्वर के नवीनतम कार्य के लिए एक बाधा बन गई है। बाइबल के बिना ही लोग अन्यत्र परमेश्वर के पदचिह्न खोज सकते हैं, किंतु आज उसके कदम बाइबल द्वारा रोक लिए गए हैं, और उसके नवीनतम कार्य को बढ़ाना दोगुना कठिन और एक दु:साध्य संघर्ष बन गया है। यह सब बाइबल के प्रसिद्ध अध्यायों एवं उक्तियों, और साथ ही बाइबल की विभिन्न भविष्यवाणियों की वजह से है। बाइबल लोगों के मन में एक आदर्श बन चुकी है, वह उनके मस्तिष्क में एक पहेली बन चुकी है, और वे यह विश्वास करने में सर्वथा असमर्थ हैं कि परमेश्वर बाइबल के बाहर भी काम कर सकता है, वे यह विश्वास करने में असमर्थ हैं कि लोग बाइबल के बाहर भी परमेश्वर को पा सकते हैं, और यह विश्वास करने में तो वे बिलकुल ही असमर्थ हैं कि परमेश्वर अंतिम कार्य के दौरान बाइबल से प्रस्थान कर सकता है और नए सिरे से शुरुआत कर सकता है। यह लोगों के लिए अचिंत्य है; वे इस पर विश्वास नहीं कर सकते, और न ही वे इसकी कल्पना कर सकते हैं। लोगों द्वारा परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार करने में बाइबल एक बहुत बड़ी बाधा बन गई है, और उसने परमेश्वर के लिए इस नए कार्य का विस्तार करना कठिन बना दिया है।" "आख़िरकार, कौन बड़ा है : परमेश्वर या बाइबल? परमेश्वर का कार्य बाइबल के अनुसार क्यों होना चहिए? क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर को बाइबल से आगे निकलने का कोई अधिकार न हो? क्या परमेश्वर बाइबल से दूर नहीं जा सकता और अन्य काम नहीं कर सकता? यीशु और उनके शिष्यों ने सब्त का पालन क्यों नहीं किया? यदि उसे सब्त के प्रकाश में और पुराने विधान की आज्ञाओं के अनुसार अभ्यास करना था, तो आने के बाद यीशु ने सब्त का पालन क्यों नहीं किया, बल्कि इसके बजाय क्यों उसने पाँव धोए, सिर ढका, रोटी तोड़ी और दाखरस पीया? क्या यह सब पुराने विधान की आज्ञाओं में अनुपस्थित नहीं है? यदि यीशु पुराने विधान का सम्मान करता, तो उसने इन सिद्धांतों को क्यों तोड़ा? तुम्हें पता होना चाहिए कि पहले कौन आया, परमेश्वर या बाइबल! सब्त का प्रभु होते हुए, क्या वह बाइबल का भी प्रभु नहीं हो सकता?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बाइबल के विषय में (1))

इस संदर्भ में सत्य को ढूँढ़ना और खोजना कि क्या बाइबल परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकती है और बाइबल और परमेश्वर के बीच क्या संबंध है अत्यंत महत्वपूर्ण है। सबसे पहले हमें जानना चाहिए: परमेश्वर किस प्रकार का परमेश्वर है? केवल परमेश्वर ही मानवजाति को बचा सकता है और उसका मार्गदर्शन कर सकता है। केवल परमेश्वर ही मानवजाति का भाग्य निर्धारित कर सकता है। यह एक व्यापक रूप से अभिस्वीकृत तथ्य है। आइए अब हम इसपर विचार करें: बाइबल कैसे बनी थी? जब परमेश्वर ने अपना कार्य पूरा कर लिया, तो उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए मनुष्यों ने अपनी गवाहियाँ और अनुभव लिखे, और ये गवाहियाँ और अनुभव बाद में बाइबल बनाने के लिए संकलित किए गए। यही कारण है कि हम पूरे यकीन के साथ कह सकते हैं कि बाइबल केवल परमेश्वर के अतीत में किए गए कार्य का अभिलेख मात्र है, यह परमेश्वर के कार्य की गवाही से अधिक कुछ नहीं है। बाइबल परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है, और ना ही वह मनुष्य को बचाने का कार्य करने के लिए परमेश्वर का स्थान ले सकती है। यदि मनुष्य का विश्वास केवल बाइबल पढ़ने पर ही आधारित है न कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने पर, तो उसे कभी भी पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त नहीं होगा और बचाया नहीं जाएगा। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि परमेश्वर का उद्धार कार्य एक अविरत गतिविधि है। इसलिए, हमें को परमेश्वर के कार्य के एक या दो चरणों पर असामान्य रूप से आसक्त नहीं होना चाहिए। हमें परमेश्वर के कार्य के पदचिन्हों का तब तक पालन करना चाहिए जब तक कि परमेश्वर मनुष्य जाति को बचाने के अपने कार्य को पूरा न कर लें। केवल इसी तरह से हमें ईश्वर के द्वारा पूर्ण उद्धार प्राप्त हो सकता है और हम मानवजाति की सुखद मंज़िल में प्रवेश कर सकते हैं। परमेश्वर की प्रबंधकारणीय योजना में कार्य के तीन चरण शामिल हैं: व्यवस्था के युग, अनुग्रह के युग, और राज्य के युग का कार्य। अब हर कोई समझता है कि व्यवस्था का युग वह युग था जब परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन का मार्गदर्शन करने के लिए व्यवस्थाओं का उपयोग किया था। अनुग्रह का युग तब था जब परमेश्वर ने मानवजाति पर छुटकारा दिलाने का कार्य किया। प्रभु यीशु को सूली पर लटकाया गया था ताकि मानवजाति को शैतान की प्रभुता के क्षेत्र से छुटकारा दिलाया जाए, उन्हें उनके पापों के लिए क्षमा किया जाए, और उन्हें परमेश्वर के सामने आने, परमेश्वर से प्रार्थना करने, और उनके साथ बातचीत करने के योग्य बनाया जाए। जहाँ तक राज्य के युग में न्याय के कार्य का सवाल है, यही वह कार्य है जो समस्त मानवजाति को अच्छी तरह से शुद्ध करने, बचाने, और परिपूर्ण करने के लिए है। अगर मानवजाति केवल व्यवस्था के युग और अनुग्रह के युग के कार्य से ही गुजरे लेकिन अंतिम दिनों में परमेश्वर के न्याय को स्वीकार करने में असफल रहे, तो वह अच्छी तरह से परमेश्वर के द्वारा बचायी और जीती नहीं जाएगी। ऐसा क्यों है? हम सभी देख सकते हैं कि अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु का कार्य केवल मानवजाति को छुटकारा दिलाना था। इस युग में, परमेश्वर में विश्वास करने से हमें मात्र हमारे पापों से माफ किए जाने, परमेश्वर से प्रार्थना करने, और परमेश्वर के समस्त अनुग्रह का आनंद की अनुमति मिली, लेकिन हम इस युग में शुद्धता हासिल करने में असफल रहे। क्योंकि हम अंदर से पापी स्वभाव के हैं, और हम अक्सर पाप करते हैं, परमेश्वर से द्वन्द और उनका विरोध करते हैं, प्रभु यीशु ने वादा किया कि वे वापस आएँगे, और सभी सत्यों को व्यक्त करेंगे जो अंतिम दिनों में मानवजाति को बचाते हैं ताकि उन सभी को शुद्ध किया जाए जो परमेश्वर की वाणी सुनते हैं और परमेश्वर के सिंहासन के समक्ष लाए जाते हैं। ठीक जैसे कि प्रभु यीशु ने भविष्यवाणी की: "अभी भी मेरे पास कहने के लिए बहुत सी बातें हैं, लेकिन अभी तुम उन्हें सहन नहीं कर सकते हो। हालाँकि, जब वह, सत्य का आत्मा आएगी, तो वह सच्चाई की ओर तुम्हारा मार्गदर्शन करेगी: क्योंकि वह स्वयं कुछ नहीं बोलेगी; बल्कि वह जो कुछ भी सुनेगी, उसके बारे में वह तुम्हें बताएगी: वह तुम्हें होने वाली घटनाओं के बारे में बताएगी" (यूहन्ना 16:12-13)। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन और कार्य युहन्ना के छंद की संपूर्ण पूर्ति हैं: "जब वह, सत्य का आत्मा आएगी, तो वह सच्चाई की ओर तुम्हारा मार्गदर्शन करेगी।" तो सर्वशक्तिमान परमेश्वर प्रभु यीशु की वापसी है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर वर्तमान में अंतिम दिनों में न्याय के कार्य में लगे हुए हैं, और उन सभी को शुद्ध करने व परिपूर्ण बनाने में लगे हुए हैं जो उनके सिंहासन के समक्ष आ गये हैं, यानी कि, उन बुद्धिमान कुँवारियों को परिपूर्ण कर रहे हैं जो जीते जाने के लिए उनकी वाणी सुनकर उनकी तरफ वापस लौटे हैं ताकि उनको परमेश्वर के राज्य में लाया जाए। यह तथ्य कि परमेश्वर उद्धार कार्य को तीन चरणों में पूरा करते हैं हमें यह देखने की अनुमति देता है कि परमेश्वर हमेशा मानवजाति का मार्गदर्शन करने और उसे बचाने के लिये कार्य करते रहते हैं। परमेश्वर के कार्य का हर चरण पिछले चरण से और उन्नत एवं और गहरा होता है। जहाँ तक बाइबल का प्रश्न है, यह परमेश्वर का अनुसरण करने के लिये हमारे लिये एक आवश्यक किताब से अधिक कुछ नहीं है। मानवजाति के मार्गदर्शन और उसे बचाने के लिए, बाइबल परमेश्वर के कार्य को नहीं कर सकती है।

बाइबल परमेश्वर के कार्यों का एक अभिलेख मात्र है। जब परमेश्वर ने एक कार्य पूरा कर लिया था, तो मनुष्य ने उनके वचनों और कार्य को अभिलिखित किया और बाइबल बनाने के लिए उन्हें संकलित किया। यद्यपि बाइबल मनुष्य के विश्वास के लिए अपरिहार्य है, किंतु केवल पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करके ही मनुष्य बाइबल और सत्य को वास्तव में समझ सकता है। यह सच है। इसलिए, परमेश्वर में विश्वास के लिए हमें मेमने के पदचिन्हों का बारीकी से अनुसरण करने, परमेश्वर के अंतिम दिनों के न्याय के कार्य को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। केवल इसी तरह हम पवित्र आत्मा के कार्य और परमेश्वर द्वारा उद्धार और परिपूर्णता को प्राप्त कर सकते हैं। अगर हम केवल बाइबल को पढ़ते हैं लेकिन अंतिम दिनों के परमेश्वर के वचनों और कार्य को स्वीकार करने में असफल रहते हैं, तो हमें शुद्ध नहीं किया और बचाया नहीं जा सकता है। वास्तव में, यदि परमेश्वर के सभी वचनों को बाइबल में अभिलिखित कर भी लिए गए होते, तब भी पवित्र आत्मा के कार्य के बिना, हम परमेश्वर के वचन को समझने और जानने में असमर्थ होते हैं। सत्य को समझने के लिए, हमें परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास अवश्य करना चाहिए, हमें पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त होगी। केवल इसी प्रकार हम परमेश्वर के वचनों को समझ सकते हैं, सत्य को समझ सकते हैं, सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं और परमेश्वर के द्वारा सिद्ध किये जा सकते हैं। इस संबंध में, हमें एक तथ्य समझने की आवश्यकता है: एक विश्वासी के रूप में, हमारे उद्धार की कुंजी क्या है? पवित्र आत्मा का कार्य, पवित्र आत्मा द्वारा परिपूर्णता कुंजी है। अब, पवित्र आत्मा कौन है? क्या पवित्र आत्मा स्वयं परमेश्वर नहीं है? बाइबल अतीत में परमेश्वर के कार्य का अभिलेख मात्र है। तो यह कैसे स्वयं परमेश्वर का स्थान ले सकती है? इसलिए जैसा कि मैंने कहा है, केवल परमेश्वर ही मनुष्य को बचा सकते हैं, बाइबल मनुष्य को बचाने में अक्षम है। यदि हमारा विश्वास केवल बाइबिल का अनुसरण करने में है और परमेश्वर के अंतिम दिनों के वचनों और कार्य को स्वीकार करने में नहीं है, यदि हम ईश्वर के कार्य के चरणों का अनुसरण नहीं करते हैं, तो हमें त्याग दिया जाएगा व हटा दिया जाएगा। व्यवस्था के युग में, बहुत सारे लोग थे जो प्रभु यीशु के कार्य को स्वीकार करने में असफल रहे, उन्हें हटा दिया गया। जो प्रभु यीशु में विश्वास करते हैं लेकिन सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंतिम दिनों के कार्य को स्वीकार करने में असमर्थ रहते हैं उन्हें भी त्याग दिया जाएगा और हटा दिया जाएगा। यह कहा जा सकता है कि ये मनुष्य अंधे हैं और परमेश्वर को नहीं जानते हैं। उनके लिए बस यही बचता है कि वे आने वाली आपदाओं की मार को विलाप करते हुए और अपने दाँत पीसते हुए सहें।

अंतिम दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा सत्य को व्यक्त करके किया गया न्याय का कार्य ही मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर की प्रबंधकारणीय योजना का मुख्य कार्य है। यह मानवजाति को अच्छी तरह से शुद्ध करने, बचाने और परिपूर्ण करने के परमेश्वर के कार्य का अंतिम चरण भी है। इसलिए यदि विश्वासी बाइबल में वर्णित कार्यों के केवल प्रथम दो चरणों तक ही सीमित रहते हैं लेकिन अंतिम दिनों में मसीह के द्वारा किये गये शुद्धिकरण और उद्धार कार्य को स्वीकार करने में असफल रहते हैं, तो उन्हें कभी बचाया नहीं जाएगा और वे कभी भी परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं करेंगे। चाहे कितने ही सालों तक इन लोगों का परमेश्वर पर विश्वास रहा हो, वह सब शून्य हो जाएगा, क्योंकि वे सब जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंतिम-समय के उद्धार को अस्वीकार करते हैं, परमेश्वर के विरोधी होते हैं, वे सब पाखंडी फरीसी हैं। इस बारे में तो बिल्कुल भी संशय नहीं है। भले ही फरीसियों ने बाइबल के आधार पर प्रभु यीशु को अस्वीकार कर दिया और अंतिम दिनों में, पादरियों और बुज़ुर्गों ने बाइबल के आधार पर सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को अस्वीकार किया, लेकिन उनके तर्क ठहरते नहीं हैं। क्योंकि वह अपने तर्कों को परमेश्वर के वचनों पर आधारित करने के बजाये बाइबल के अक्षर पर आधारित करते हैं। जहाँ तक परमेश्वर का प्रश्न है, चाहे किसी के पास कितने ही कारण हों, जो भी सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंतिम दिनों के कार्य को स्वीकार करने में असफल रहता है वह परमेश्वर का विरोधी और विश्वासघाती है। परमेश्वर की निगाह में, वे सब कुकर्मी हैं, परमेश्वर उन्हें कभी भी अंगीकार नहीं करेंगे। अंतिम दिनों के परमेश्वर के कार्य द्वारा उजागर हुए इन ईसाविरोधियों और अविश्वासियों को आने वाली आपदाओं के दंड को विलाप करते हुए और दाँत पीसते हुए सहना पड़ेगा। परमेश्वर के द्वारा उन्हें हमेशा के लिए त्यागा और हटाया जा चुका है, और उन्हें दुबारा कभी भी परमेश्वर को देखने और उनका अनुमोदन प्राप्त करने का मौका नहीं मिलेगा। यह सत्य है। यहाँ, हम एक तथ्य समझ सकते हैं: बाइबल परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है, और परमेश्वर के कार्य का स्थान निश्चित रुप से नहीं ले सकती है। परमेश्वर परमेश्वर है, बाइबल बाइबल है। तो, क्योंकि हम परमेश्वर में विश्वास करते हैं, इसलिए हमें अवश्य परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना चाहिए और परमेश्वर के कार्य की गति का अनुसरण करना चाहिए, हमें अवश्य अंतिम दिनों में परमेश्वर के द्वारा व्यक्त किए गए वचनों को खाना और पीना चाहिए, और परमेश्वर के द्वारा व्यक्त किए गए सभी सत्यों को स्वीकार करके उनका अनुसरण अवश्य करना चाहिए। यही ईश्वर में विश्वास करने का सही अर्थ है। हर बार जब कार्य करने के लिये परमेश्वर देहधारी बनते हैं तो, उन्हें उन लोगों को त्यागना और हटाना पड़ता है जो केवल बाइबल का अनुसरण करते हैं लेकिन परमेश्वर को जानने और उनकी आज्ञापालन करने में विफल रहते हैं। इसलिए, हम विश्वास के साथ कह सकते हैं, कि ''परमेश्वर पर विश्वास बाइबल से मेल खाना चाहिए, बाइबल का पालन करना ही परमेश्वर पर सच्चा विश्वास करना है, बाइबल ईश्वर का प्रतिनिधित्व करती है'' ऐसे दावे शुद्ध भ्रांतिपूर्ण है। जो कोई भी ऐसे दावे करता है वह अंधा है और परमेश्वर को नहीं जानता है। अगर मनुष्य बाइबल को सबसे ऊपर रखता और परमेश्वर के स्थान पर बाइबल का उपयोग करता, तो क्या वह फरीसियों के मार्ग पर नहीं चल रहा होता? फरीसियों ने परमेश्वर के विरोध में बाइबल का अनुसरण किया, जिसके परिणाम स्वरुप वे परमेश्वर के श्राप को प्राप्त हुए। क्या यह तथ्य नहीं है?

"मेरा प्रभु कौन है" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश

पिछला: प्रश्न 8: 2,000 वर्षों तक, धार्मिक विश्व ने इस विश्वास का समर्थन किया है कि बाइबल परमेश्वर की प्रेरणा से दी गई है, कि यह पूरी तरह परमेश्वर का वचन है, इसलिए, बाइबल प्रभु का प्रतिनिधित्व करती है। जो इस बात से इनकार करते हैं कि बाइबल परमेश्वर की प्रेरणा से दी गई है और उनका वचन है धार्मिक विश्व निश्चित रूप से उनकी निंदा करेगा एवं उन्हें विधर्मी कहेगा। क्या इस समझ में कुछ गलत है?

अगला: प्रश्न 1: आप सब गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु का पुनरागमन हो गया है, कोई और नहीं, स्वयं सर्वशक्तिमान परमेश्वर बनकर, जिन्होंने अंत के दिनों में न्याय कार्य करते समय सत्य व्यक्त किया है। यह कैसे संभव हो सकता है? प्रभु हमें स्वर्ग के राज्य में प्रवेश दिलवाने के लिए वास्तव में आयेंगे, वे अंत के दिनों में न्याय करने के लिए हमें पीछे कैसे छोड़ सकते थे? मुझे लगता है कि प्रभु यीशु में विश्वास करके और पवित्र आत्मा के कार्य को ग्रहण करके, हम पहले ही परमेश्वर के न्याय कार्य का अनुभव करने लगे हैं। प्रभु यीशु के वचन में साक्ष्य है: "क्योंकि यदि मैं न जाऊं, तो वह सहायक तुम्हारे पास न आयेगा; परंतु यदि मैं जाऊंगा, तो मैं उसे तुम्हारे पास भेजूँगा। और वह आकर संसार को पाप और धार्मिकता और न्याय के विषय में निरुत्तर करेगा" (यूहन्ना 16:7-8)। हमें लगता है कि जब प्रभु यीशु पुनर्जीवित होकर स्वर्गारोहित हुए, तो पिंतेकुस्‍त में पवित्र आत्मा मनुष्यों पर कार्य करने के लिए नीचे आया। इससे पहले ही लोग अपने पापों, धर्मपरायणता और न्याय के लिए, स्वयं को दोष दे चुके थे। जब हम प्रभु के सामने स्वीकार कर पश्चाताप कर लेते हैं, तो हम वास्तव में प्रभु के न्याय का अनुभव कर रहे होते हैं। इसलिए हम विश्वास करते हैं कि हालांकि प्रभु यीशु का कार्य छुटकारे का था, प्रभु यीशु के स्वर्गारोहण के बाद, पिंतेकुस्‍त में उतरे पवित्र आत्मा का कार्य अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय कार्य होना चाहिए। यदि यह न्याय कार्य न हुआ होता, तो "वह आकर संसार को पाप और धार्मिकता और न्याय के विषय में निरुत्तर करेगा" कैसे हुआ होता? इसके अलावा, प्रभु में विश्वास करने वाले लोग होने के नाते, पवित्र आत्मा द्वारा अक्सर हमें छुआ, फटकारा और अनुशासित किया जाता है। इसलिए, प्रभु के सामने, हम हमेशा रोते और पश्चाताप करते रहते हैं। प्रभु में अपनी श्रद्धा के कारण हमारे भीतर पैदा हुए बहुत-से अच्छे व्यवहार से ही हम पूरी तरह परिवर्तित हो सके हैं। क्या यह परमेश्वर के न्याय का अनुभव करने के कारण नहीं है? अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर का न्याय कार्य जिसकी आप सब चर्चा कर रहे हैं, वह प्रभु यीशु के कार्य से अलग कैसे है?

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1. प्रभु ने हमसे यह कहते हुए, एक वादा किया, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो" (यूहन्ना 14:2-3)। प्रभु यीशु पुनर्जीवित हुआ और हमारे लिए एक जगह तैयार करने के लिए स्वर्ग में चढ़ा, और इसलिए यह स्थान स्वर्ग में होना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु लौट आया है और पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित कर चुका है। मुझे समझ में नहीं आता: स्वर्ग का राज्य स्वर्ग में है या पृथ्वी पर?

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