54 मेरे हृदय की लालसा

1

मानव-जीवन की लंबी यात्रा

हवा, वर्षा और कई बदलावों से भरी।

लंबे खिंचे साल, कठिन, वीरान।

काले बादल बनाते अँधेरा रसातल।

शैतान का बोलबाला, है वो इतना क्रूर,

उसका तानाशाही शासन विचार करता कैद।

प्रलोभित इंसान खो देता दिशा,

शोहरत, दौलत के पीछे भागते पूरा जख्मी हो जाता।

आहत होकर मानवता की समता खोता।

घावों से भरा, शरीर और मन से थका।

लड़ने का दम नहीं बचा, हताश है।

कोई ठौर नहीं, पीड़ा है, उलझनें हैं।


सच्ची पवित्र भूमि पाने की ललक है।

पूरी दुनिया में खोजती फिरती हूँ।

मायूसी भरे दिल से, प्रार्थना करती हूँ आग्रह से,

आशा है, प्रभु मुझे दुख से बचा लेगा।


2

एक धमाके से सात गर्जनें गूँजती हैं।

अंत के दिनों का मसीह प्रकट होता और कार्य करता।

मैंने ईश-वचन सुने, उसके सामने आयी हूँ।

उसके वचनों का आनंद लेती हूँ, सत्य को जानती हूँ।

मसीह के वचन मुझे सींचते,

मैंने सच्चे ईश-प्रेम का अनुभव किया है।

परीक्षण, पीड़ा और शुद्धिकरण के जरिये,

निरंतर विकास से जीवन समृद्ध होता।

न्याय से गुजरकर मैं भ्रष्टता त्याग देती हूँ,

और शुद्धि और उद्धार पाती हूँ।

अब और न होंगे आँसू, न होंगे संकट।

हृदय खोल झुकूँ ईश्वर के आगे।


अपने प्रेम के कारण ईश्वर ने मुझे चुना;

मैं उसके उद्धार के लिए आभारी हूँ।

करूँ सत्य का अभ्यास, जीऊँ उसके सामने,

निभाके फर्ज़ उसके प्रेम का कर्ज़ चुकाऊँ।

अपने प्रेम के कारण ईश्वर ने मुझे चुना;

मैं उसके उद्धार के लिए आभारी हूँ।

करूँ सत्य का अभ्यास, जीऊँ उसके सामने,

निभाके फर्ज़ उसके प्रेम का कर्ज़ चुकाऊँ।

निभाके फर्ज़ उसके प्रेम का कर्ज़ चुकाऊँ।

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