97. क्या मेजबानी का कर्तव्य निभाने वाला व्यक्ति तुच्छ होता है?

लियू यी, चीन

मैं एक सुदूर पहाड़ी गाँव में पली-बढ़ी थी और हमारे परिवार की गरीबी की वजह से पड़ोसी हमें नीची नजरों से देखते थे। मेरे माता-पिता अक्सर मुझे सिखाते थे, “एक व्यक्ति को महत्वाकांक्षा रखनी चाहिए और सम्मान के साथ जीना चाहिए। अपने पर दूसरों को तुच्छ दृष्टि मत डालने देना। ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।’” इन शब्दों से प्रभावित होकर दूसरों की प्रशंसा पाने के लिए मैंने स्कूल में कड़ी मेहनत की। मैं रोज रात को 11 या 12 बजे तक जाग कर केरोसीन लैंप की रोशनी में पढ़ती थी। नौकरी में आने के बाद भी मैं तय घंटों के अलावा काम करती थी और अपने बॉस की स्वीकृति और सहकर्मियों का सम्मान पाने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत करती थी। मुझे हमेशा एक आदर्श कर्मचारी के रूप में चुना जाता था। इन सम्मानों से मुझे लगा कि मेरा पद और रुतबा ऊँचा हो गया है। परमेश्वर को पाने के बाद मैं उसका अनुसरण करने में भी उत्साहित थी और एक साल बाद मुझे कलीसिया की अगुआ चुन लिया गया। बाद में मुझे एक प्रचारक और पाठ-आधारित कार्य के पर्यवेक्षक के रूप में पदोन्नत किया गया। क्योंकि परमेश्वर को पाने के बाद मैंने हमेशा एक अगुआ या पर्यवेक्षक के रूप में काम किया था, मैं अपने आप को सत्य का अनुसरण करने वाली व्यक्ति समझती थी। लेकिन अगस्त 2022 के आखिर में मुझे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने, वास्तविक काम न करने और अपने कर्तव्य में कोई नतीजा हासिल न करने के कारण बर्खास्त कर दिया गया। घर पर सोच-विचार के उस दौर में मुझे वास्तव में संताप और कष्ट महसूस होता था। इसलिए मैंने खुद से संकल्प लिया, “अगर एक और मौका मिला तो मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाऊँगी।”

एक महीने बाद एक शाम अगुआ ने मुझसे कहा, “वीडियो बनाने वाले कई भाई-बहनों को सुरक्षा सम्बन्धी चिंताओं के चलते जगह बदलने की जरूरत है और उन्हें कोई उपयुक्त मेजबान घर नहीं मिला है। हम चाहेंगे कि तुम उनकी मेजबानी करो।” अगुआ को यह कहते सुनकर मैंने मन में सोचा, “मुझे मेजबानी का काम क्यों दिया जा रहा है? क्या उन्हें लगता है कि बर्खास्तगी के बाद मैंने खुद को जानने के लिए सोच-विचार नहीं किया, इसलिए वे चाहते हैं कि मैं मेजबानी का कर्तव्य निभाकर सेवा प्रदान करूँ? क्या मेजबानी का कर्तव्य तुच्छ नहीं है? अगर भाइयों और बहनों को पता चलेगा तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे कहेंगे कि मैं मेजबानी का कर्तव्य इसलिए निभा रही हूँ क्योंकि मैं सत्य का अनुसरण नहीं करती? मेजबानी के कर्तव्य का मतलब हर रोज बर्तन धोना और थका देने वाला मुश्किल काम है। भले ही मैं इसे अच्छी तरह से क्यों न करूँ, पर भाइयों और बहनों को यह नहीं दिखेगा। इसके अलावा जो लोग कलीसिया में मेजबानी का कर्तव्य निभाते हैं वे ज्यादातर कम क्षमता वाले या ज्यादा उम्र के भाई और बहन होते हैं। भले ही मैं उतनी जवान नहीं हूँ, फिर भी मैं केवल मेजबानी का कर्तव्य निभा सकने लायक स्थिति तक नहीं पहुँची हूँ! इसके अलावा, परमेश्वर को पाने के बाद से मैं हमेशा एक अगुआ और पर्यवेक्षक रही हूँ, फिर अब वे मुझे मेजबानी का कर्तव्य क्यों सौंप रहे हैं?” मैं अपने दिल में समर्पण नहीं कर पाई, इसलिए मैंने मना करने के लिए कुछ बहाने बनाए। अगुआ के जाने के बाद मैंने अंतर्द्वंद्व और पश्चात्ताप महसूस किया। मैंने सोचा कि कैसे इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बावजूद मुझमें अभी भी अपने कर्तव्य के प्रति कोई समर्पण नहीं है। मैं किस तरह एक विश्वासी हूँ? मुझमें किस तरह कोई जमीर या विवेक है? मैंने घुटने टेककर परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर! आज अगुआ ने मेरे लिए मेजबानी का कर्तव्य निभाने की व्यवस्था करने की कोशिश की, लेकिन मैं समर्पण नहीं कर पाई और मैंने मना करने के लिए बहाने भी ढूँढे। मैं नहीं जानती कि मेरे भ्रष्ट स्वभाव के किस पहलू की वजह से ऐसा हुआ। मैं तुझसे प्रबोधन और मार्गदर्शन माँगती हूँ ताकि मुझे खुद को जानने में मदद मिले।” प्रार्थना करने के बाद मुझे कर्तव्य निर्वहन संबंधी परमेश्वर के वचन याद आए, इसलिए मैंने पढ़ने के लिए उन्हें ढूँढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कर्तव्य परमेश्वर से आते हैं; ये वे ज़िम्मेदारियाँ और आदेश हैं जिन्हें परमेश्वर मनुष्य को सौंपता है। तो फिर, मनुष्य को उन्हें कैसे समझना चाहिए? चूंकि यह मेरा कर्तव्य और परमेश्वर द्वारा मुझे दिया गया आदेश है, इसलिए यह मेरा दायित्व और जिम्मेदारी है। यह उचित ही है कि मैं इसे अपना परम कर्तव्य समझूं। मैं इसे मना या अस्वीकार नहीं कर सकता; मैं इसमें चुनाव नहीं कर सकता। जो मुझे सौंपा गया है, निश्चित रूप से मुझे वही करना चाहिए। ऐसा नहीं है कि मैं चयन का हकदार नहीं हूं—पर यह ऐसा है कि मुझे चयन नहीं करना चाहिए। यही वह भाव है जो किसी सृजित प्राणी में होना चाहिए। यह समर्पण का रवैया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “तुम्हारा चाहे जो भी कर्तव्य हो, उसमें ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो। मान लो तुम कहते हो, हालाँकि यह काम परमेश्वर का आदेश और परमेश्वर के घर का कार्य है, पर यदि मैं इसे करूँगा, तो लोग मुझे नीची निगाह से देख सकते हैं। दूसरों को ऐसा काम मिलता है, जो उन्हें विशिष्ट बनाता है। मुझे यह काम दिया गया है, जो मुझे विशिष्ट नहीं बनाता, बल्कि परदे के पीछे मुझसे कड़ी मेहनत करवाता है, यह अनुचित है! मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा। मेरा कर्तव्य वह होना चाहिए, जो मुझे दूसरों के बीच खास बनाए और मुझे प्रसिद्धि दे—और अगर प्रसिद्धि न भी दे या खास न भी बनाए, तो भी मुझे इससे लाभ होना चाहिए और शारीरिक आराम मिलना चाहिए। क्या यह कोई स्वीकार्य रवैया है? मीन-मेख निकालना परमेश्वर से आई चीजों को स्वीकार करना नहीं है; यह अपनी पसंद के अनुसार विकल्प चुनना है। यह अपने कर्तव्य को स्वीकारना नहीं है; यह अपने कर्तव्य से इनकार करना है, यह परमेश्वर के खिलाफ तुम्हारी विद्रोहशीलता की अभिव्यक्ति है। इस तरह मीन-मेख निकालने में तुम्हारी निजी पसंद और आकांक्षाओं की मिलावट होती है। जब तुम अपने लाभ, अपनी ख्याति आदि को महत्त्व देते हो, तो अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया आज्ञाकारी नहीं होता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि कर्तव्य लोगों के लिए परमेश्वर के आदेश हैं और उनकी जिम्मेदारी हैं और हमें कर्तव्यों को श्रेणियों में नहीं बाँटना चाहिए। इसके अलावा, हमें अपने आत्मसम्मान और रुतबे की खातिर कर्तव्यों का चयन अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर नहीं करना चाहिए, बल्कि हमें स्वीकार और समर्पण करना चाहिए और उन्हें एक ऐसे दायित्व के रूप में देखना चाहिए जिससे हम भाग नहीं सकते। जमीर और विवेक से युक्त व्यक्ति होने का यही मतलब है और यही वह रवैया है जो एक व्यक्ति को अपने कर्तव्यों के प्रति रखना चाहिए। परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन पढ़ने पर मुझे एहसास हुआ कि अपने कर्तव्यों के प्रति मेरा रवैया और नजरिया गलत था। मैंने कर्तव्यों को यह मानकर श्रेणियों में बाँट दिया था कि अगुआ या कार्यकर्ता होने का मतलब यह है कि वे सत्य का अनुसरण करते हैं और इससे उन्हें रुतबा और पद मिलता है और वे जहाँ भी जाते हैं उन्हें भाई-बहन आदर से देखते हैं। जहाँ ऐसे कर्तव्य निभाना ज्यादा गौरवशाली लगता था, वहीं मुझे ऐसा लगता था कि मेजबानी का कर्तव्य निभाने के लिए सिर्फ कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, यह मुझे नाम कमाने या कोई रुतबा या पद हासिल करने का कोई मौका नहीं देता और जो लोग यह कर्तव्य निभाते हैं उन्हें दूसरे कभी नहीं सराहेंगे। इस भ्रामक नजरिए की वजह से, जब अगुआ ने मेरे लिए मेजबानी का कर्तव्य निभाने की व्यवस्था की तो मैंने मना करने के बहाने ढूँढ़े। मैंने कलीसिया के कार्य की जरूरतों के बजाय हमेशा अपने आत्मसम्मान का ध्यान रखा। मुझमें कैसे जरा-सी भी मानवता थी? अपने कर्तव्यों के सम्बन्ध में मेरी अपनी पसंद और माँगें नहीं होनी चाहिए। अगुआ ने कलीसिया के काम की जरूरतों के आधार पर मेरे लिए मेजबानी का काम करने की व्यवस्था की थी और मुझे इस व्यवस्था को स्वीकार करने और उसका पालन करने से शुरुआत करनी चाहिए थी।

बाद में मैंने नूह के जहाज बनाने के बारे में परमेश्वर की संगति पढ़ी और मैंने देखा कि परमेश्वर का आदेश मिलने पर नूह ने कोई बहाना नहीं बनाया और उसने बिना शर्त स्वीकार और समर्पण किया। उसने 120 वर्षों तक लगातार प्रयास करते हुए और सुसमाचार का प्रचार करते हुए जहाज का निर्माण किया। हालाँकि मैं अपनी तुलना नूह से नहीं कर सकती हूँ, पर मुझे नूह के उदाहरण का अनुसरण करना चाहिए और एक समर्पित व्यक्ति बनना चाहिए। इसके बाद मैंने अगुआ से कहा कि मैं मेजबानी का कर्तव्य निभाने को तैयार हूँ, लेकिन कुछ ही समय बाद कोविड-19 महामारी के चलते इस कर्तव्य को अस्थायी रूप से स्थगित कर दिया गया। लॉकडाउन हटने के बाद पहली सभा के दौरान अगुआ ने कहा, “अब जब लॉकडाउन हटा दिया गया है, तो हम तुम्हारे मेजबानी के कर्तव्य को फिर से शुरू करने की व्यवस्था करना चाहेंगे।” उस पल मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई क्योंकि वहाँ दो उपयाजकों के अलावा दो सुसमाचार कार्यकर्ता बहनें भी मौजूद थीं। मैं यह सोचकर अगुआ के प्रति मन में शिकायत पालने लगी, “तुम्हें इतने सारे भाई-बहनों के सामने यह बात कहने की क्या जरूरत थी? अब सब जान गए हैं कि मैं मेजबानी का कर्तव्य निभा रही हूँ, मैं फिर कभी अपना चेहरा कैसे दिखाऊँगी?” मुझे लगा कि मेरा चेहरा जल रहा है और भाई-बहन यह सोचकर मेरा मजाक उड़ा रहे हैं कि मैं सत्य का अनुसरण नहीं करती हूँ और इस वजह से मुझे मेजबानी की जिम्मेदारी सौंपी गई है। बाद में भाई-बहनों ने सभा में सक्रिय रूप से इस बात पर संगति की कि कैसे सुसमाचार प्रचार और धार्मिक धारणाओं का समाधान किया जाए, लेकिन मुझे कुछ समझ नहीं आया, क्योंकि मैं बस यही सोचती रही कि जहाँ उनमें से कुछ लोग अगुआ, कार्यकर्ता और सुसमाचार कार्यकर्ता हैं, वहीं मैं सिर्फ मेजबानी का कर्तव्य निभा रही हूँ। मैं इस बारे में जितना ज्यादा सोचती रही, उतनी ही ज्यादा परेशान होती गई। उस सभा के दौरान लगा कि समय वास्तव में बहुत धीरे-धीरे बीत रहा है और मेरे दिमाग में ये शब्द गूँजते रहे “मेजबानी का कर्तव्य निभा रही हूँ”। सभा के बाद मेरा मन इन विचारों से भर गया कि भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे और मुझे लगता था कि चूँकि मेरे मेजबानी के कर्तव्य निभाने की बात हर कोई जान चुका है, इसलिए मैं अपना सम्मान और रुतबा पूरी तरह खो चुकी हूँ। अगले कुछ दिनों तक मुझे कुछ भी करने की इच्छा नहीं हुई और मैं जहाँ भी जाती अपना सिर झुकाकर ही चलती। मैं वास्तव में अपने भाइयों और बहनों से मिलने से डरती थी, क्योंकि मुझे डर था कि उन्हें पता चल जाएगा कि मैं मेजबानी का कर्तव्य निभा रही हूँ।

अगले कुछ दिन मैंने विचार किया, “अगुआ ने साफ तौर पर कलीसिया के कार्य की जरूरतों के कारण मेरे लिए मेजबानी का कर्तव्य निभाने की व्यवस्था की, लेकिन मुझे यह डर क्यों है कि दूसरे यह जान जाएँगे? मैं इस मेजबानी के कर्तव्य को सौंपे जाने के प्रति समर्पण करने को तैयार क्यों नहीं हूँ? किस प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव की वजह से ऐसा हो रहा है?” इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है, और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी लोग जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का होता है, और कुछ नहीं। मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा ही उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : मेरे रुतबे का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे अच्छी प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरा रुतबा बढ़ेगा? यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; इसलिए वे चीजों को इस तरह से देखते हैं। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, ये कोई बाहरी चीज तो बिल्कुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी घने-पुराने जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे दौड़ना नहीं छोड़ेंगे। तुम उन्हें लोगों के किसी भी समूह में रख दो, फिर भी वे सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में ही सोचेंगे। भले ही मसीह-विरोधी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के अनुसरण को परमेश्वर में आस्था के बराबर समझते हैं और उसे समान महत्व देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चलते हैं, तो वे प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण भी करते हैं। कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी अपने दिलों में यह मानते हैं कि परमेश्वर में उनकी आस्था में सत्य का अनुसरण प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण है; प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण सत्य का अनुसरण भी है, और प्रतिष्ठा और रुतबा प्राप्त करना सत्य और जीवन प्राप्त करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रतिष्ठा, लाभ या रुतबा नहीं है, कि कोई उनकी प्रशंसा या सम्मान या उनका अनुसरण नहीं करता है, तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है, और वे मन-ही-मन कहते हैं, क्या परमेश्वर में ऐसा विश्वास असफलता है? क्या यह निराशाजनक है? वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी बातों पर सोच-विचार करते हैं, वे सोचते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, कैसे वे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, ताकि जब वे बात करें तो लोग उन्हें सुनें, और जब वे कार्य करें तो लोग उनका समर्थन करें, और जहाँ कहीं वे जाएँ, लोग उनका अनुसरण करें; ताकि कलीसिया में अंतिम निर्णय उनका ही हो, और उनके पास शोहरत, लाभ और रुतबा हो—वे वास्तव में अपने दिलों में ऐसी चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे भागते हैं। वे हमेशा ऐसी बातों के बारे में ही क्यों सोचते रहते हैं? परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, उपदेश सुनने के बाद, क्या वे वाकई यह सब नहीं समझते, क्या वे वाकई यह सब नहीं जान पाते? क्या परमेश्वर के वचन और सत्य वास्तव में उनकी धारणाएँ, विचार और मत बदलने में सक्षम नहीं हैं? मामला ऐसा बिल्कुल नहीं है। समस्या उनमें ही है, यह पूरी तरह से इसलिए है क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, क्योंकि अपने दिल में वे सत्य से विमुख हो चुके हैं, और परिणामस्वरूप वे सत्य के प्रति बिल्कुल भी ग्रहणशील नहीं होते—जो उनके प्रकृति सार से निर्धारित होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैं समझ गई कि मसीह-विरोधियों को वास्तव में प्रतिष्ठा और रुतबे से लगाव होता है। वे चाहे लोगों के किसी भी समूह में कुछ भी करें, सब कुछ लोगों से प्रशंसा पाने और आराधना कराने के लिए होता है। प्रतिष्ठा और रुतबा ही वे लक्ष्य हैं जिनका वे जीवन भर पीछा करते हैं। अपने अनुसरण पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मेरे विचार बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे एक मसीह-विरोधी के होते हैं। मैंने भी प्रतिष्ठा और रुतबे को हर चीज से ऊपर रखा। बचपन से ही मेरे माता-पिता ने मुझे सिखाया था कि एक व्यक्ति में महत्वाकांक्षा और गरिमा होनी चाहिए, उसे अपने पर दूसरों को तुच्छ दृष्टि नहीं डालने देनी चाहिए और यह भी सिखाया था कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” और “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है।” इस शैतानी जहर की जड़ें मेरे दिल में गहराई तक फैल चुकी थीं और मैं मानती थी कि किसी भी समूह में दूसरों से सम्मान की नजरों से देखे जाने से ही गौरव हासिल होता है। जब मैं स्कूल में थी, मेरा लक्ष्य परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करना था ताकि मैं शिक्षकों और सहपाठियों से सम्मान और तारीफ पा सकूँ। मैं अक्सर होमवर्क करने के लिए देर तक जागती और हर परीक्षा के बाद मुझे अपनी उपलब्धियों के प्रमाणपत्र मिलने पर गर्व महसूस होता था। काम शुरू करने के बाद अपने वरिष्ठ अधिकारियों से पहचान और सहकर्मियों से तारीफ हासिल करने के लिए मैं ओवरटाइम काम करती और यहाँ तक कि अपनी छुट्टी के दिनों में भी काम करती। मैं वास्तव में कड़ी मेहनत करने के लिए उत्सुक थी। परमेश्वर को पाने के बाद भी मैं इस जहर के सहारे जीती रही और मैं चाहे जो भी कर्तव्य निभा रही होती थी, मेरा पहला विचार यह होता था कि क्या मैं प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल कर सकती हूँ और क्या मैं दूसरों का सम्मान हासिल कर पाऊँगी। मुझे लगा कि कलीसिया में एक अगुआ होने से दूसरे लोग मुझे सम्मान से देखेंगे और मुझे पद और रुतबा हासिल होगा और मैं जहाँ भी जाऊँगी, मेरी तारीफ होगी। इसलिए मैं खुशी से इस कर्तव्य को निभाने के लिए सहमत हो गई और सक्रिय रूप से सहयोग करने के लिए कष्ट सहने और कीमत चुकाने को तैयार थी। जब मुझे मेजबानी का कर्तव्य सौंपा गया, मैं अच्छी तरह से जानती थी कि सीसीपी ईसाइयों को अँधाधुँध गिरफ्तार कर रही है और स्थिति गंभीर है और भाई-बहनों को अपने कर्तव्य निभाने के लिए फौरन एक सुरक्षित स्थान की जरूरत है। लेकिन मैंने सिर्फ अपने आत्मसम्मान और रुतबे के बारे में सोचा और मुझे लगा कि मेजबानी का कर्तव्य निभाना महत्वहीन है और इससे दूसरे मुझे तुच्छ समझेंगे, इसलिए मैंने इसे अस्वीकार करने के बहाने ढूँढ़े। मैं प्रतिष्ठा और रुतबे से कसकर बँधी हुई थी और मैं जो कुछ भी करती, हमेशा यही सोचती कि भाई और बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे और मैं प्रतिष्ठा और रुतबे को बाकी सब से ऊपर रखती। मैं सच में स्वार्थी और घृणित थी और मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं थी! मैंने अपनी बर्खास्तगी और सोच-विचार के दौर के बारे में सोचा। उस दौरान मैं अपना कर्तव्य निभाने के बारे में रोज आस लगाए रहती थी। लेकिन अब जब परमेश्वर ने मुझे कर्तव्य निभाने का अवसर दिया, तो मैं नखरे दिखा रही थी, हमेशा अपने आत्मसम्मान के लिए जी रही थी और अपने कर्तव्य को परमेश्वर के आदेश के रूप में देखने में पूरी तरह असफल थी। क्योंकि अगुआ ने मेरे लिए मेजबानी का काम करने की व्यवस्था की थी, मुझे स्वीकार करना था कि यह परमेश्वर की ओर से है और इस कर्तव्य को अच्छी तरह से और गंभीरता से निभाना था ताकि भाइयों और बहनों को अपना कर्तव्य निभाने के लिए एक सुरक्षित वातावरण मिल सके। मैंने पश्चात्ताप में परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे यह कर्तव्य तेरे आयोजनों और व्यवस्थाओं से मिला है, फिर भी मैं अपने आत्मसम्मान से विवश हूँ और खुद को नखरेबाज और समर्पण करने की अनिच्छुक पाती हूँ। मुझमें सचमुच जमीर की कमी है! परमेश्वर, तुझे संतुष्ट करने के लिए मैं समर्पण करने और यह कर्तव्य अच्छी तरह निभाने को तैयार हूँ।”

सोच-विचार के जरिए मुझे एहसास हुआ कि मेजबानी का कर्तव्य निभाने की मेरी अनिच्छा एक और भ्रामक नजरिए से पैदा हुई थी, यानी मैं यह मानती थी कि मेजबानी का कर्तव्य महत्वहीन है और यह काम कम काबिलियत वाले उम्रदराज भाई-बहन करते हैं और यह कि अगुआई का कर्तव्य निभाने वाले लोग जहाँ भी जाते हैं लोग उन्हें आदर भरी नजरों से देखते हैं और वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग होते हैं और इन कर्तव्यों से पता चलता है कि ऐसे व्यक्ति के पास पद और रुतबा है। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “सत्य के सामने हर कोई एक समान है। जो लोग पदोन्नत और विकसित किए जाते हैं, वे दूसरों से बहुत बेहतर नहीं होते। हर किसी ने लगभग एक ही समय तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है। जिन लोगों को पदोन्नत या विकसित नहीं किया गया है, उन्हें भी अपने कर्तव्य करते हुए सत्य का अनुसरण करना चाहिए। कोई भी दूसरों को सत्य का अनुसरण करने के अधिकार से वंचित नहीं कर सकता। कुछ लोग सत्य की अपनी खोज में अधिक उत्सुक होते हैं और उनमें थोड़ी काबिलियत होती है, इसलिए उन्हें पदोन्नत और विकसित किया जाता है। यह परमेश्वर के घर के कार्य की जरूरतों के कारण होता है। तो फिर लोगों को पदोन्नत करने और उनका उपयोग करने के लिए परमेश्वर के घर में ऐसे सिद्धांत क्यों होते हैं? चूँकि लोगों की काबिलियत और चरित्र में अंतर होता है, और प्रत्येक व्यक्ति एक अलग मार्ग चुनता है, इसलिए परमेश्वर में लोगों की आस्था के परिणाम अलग होते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे बचाए जाते हैं और वे राज्य की प्रजा बन जाते हैं, जबकि जो लोग सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते, जो अपना कर्तव्य करने में वफादार नहीं होते, वे हटा दिए जाते हैं। परमेश्वर का घर इस आधार पर लोगों का विकास और उपयोग करता है कि वे सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं, और वे अपना कर्तव्य करने में वफादार हैं या नहीं। क्या परमेश्वर के घर में विभिन्न लोगों के पदानुक्रम में कोई अंतर होता है? फिलहाल, विभिन्न लोगों के स्थान, मूल्य, रुतबे या अवस्थिति में कोई पदानुक्रम नहीं है। कम-से-कम उस अवधि के दौरान जब परमेश्वर लोगों को बचाने और मार्गदर्शन देने के लिए कार्य करता है, विभिन्न लोगों की श्रेणियों, स्थानों, या रुतबे के बीच कोई अंतर नहीं होता। अंतर केवल कार्य के विभाजन और कर्तव्य की भूमिकाओं में होता है। निस्संदेह, इस दौरान, कुछ लोगों को, अपवाद के तौर पर, कुछ विशेष कार्य करने के लिए पदोन्नत और विकसित किया जाता है, जबकि कुछ लोगों को अपनी काबिलियत या पारिवारिक परिवेश में समस्याओं जैसे विभिन्न कारणों से ऐसे अवसर नहीं मिलते। लेकिन क्या परमेश्वर उन लोगों को नहीं बचाता, जिन्हें ऐसे मौके नहीं मिले हैं? ऐसा नहीं है। क्या उनका मूल्य और स्थान दूसरों से कम है? नहीं। सत्य के सामने सभी समान हैं, सभी के पास सत्य का अनुसरण करने और उसे प्राप्त करने का अवसर होता है, और परमेश्वर सबके साथ निष्पक्ष और उचित व्यवहार करता है। लोगों के पदों, मूल्य और रुतबे में ध्यान देने योग्य अंतर किस मुकाम पर दिखाई देते हैं? ये तब दिखाई देते हैं जब लोग अपने मार्ग के अंत पर पहुँचते हैं, परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाता है, और प्रत्येक व्यक्ति द्वारा उद्धार का अनुसरण करने की प्रक्रिया और अपना कर्तव्य निभाने के दौरान प्रदर्शित रवैयों और विचारों और साथ ही परमेश्वर के प्रति उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियों और रवैयों पर अंततः एक निष्कर्ष तैयार हो जाता है—यानी जब परमेश्वर की नोटबुक में एक पूरा रिकॉर्ड दर्ज हो जाता है—उस वक्त, क्योंकि लोगों के नतीजे और मंजिलें अलग होंगी, इसलिए उनके मूल्य, पदों और रुतबे में भी अंतर होंगे। केवल तभी इन तमाम चीजों की झलक मिल सकेगी और करीब-करीब जाँचकर उनका पता लगाया जा सकेगा, जबकि फिलहाल सभी लोग एक समान हैं(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचन हमें बताते हैं कि सत्य और परमेश्वर के वचनों के सामने सब बराबर हैं और यह कि ऊँचे या नीचे माने जाने वाले पदों में मूलरूप से कोई अंतर नहीं है। परमेश्वर के घर में लोगों को उनकी क्षमता, ताकत या कलीसिया की जरूरतों के आधार पर अलग-अलग कर्तव्य सौंपे जाते हैं और व्यक्तियों के बीच एकमात्र अंतर उनके द्वारा किये जाने वाले कर्तव्य का है। लेकिन चाहे जो भी कर्तव्य निभाया जा रहा हो, हर व्यक्ति का पद और रुतबा समान है। एक अगुआ या कार्यकर्ता होने का मतलब यह नहीं है कि किसी व्यक्ति का पद दूसरों से ऊँचा है और मेजबानी का कर्तव्य निभाने वाला व्यक्ति दूसरे कर्तव्य निभाने वालों से पद या रुतबे में किसी भी तरह कम नहीं होता है। लेकिन मेरा मानना था कि एक अगुआ या कार्यकर्ता होना सत्य का अनुसरण करने वालों की पहचान होती है और वे जहाँ भी जाते हैं उनका सम्मान किया जाता है, जबकि मेजबानी का कर्तव्य निभाना केवल एक मुश्किल काम है और इसलिए पद और रुतबे में कम होता है। मेरे विचार सचमुच गलत थे! मुझे कलीसिया की एक बुजुर्ग बहन की याद आई जो परमेश्वर को पाने के बाद से ही मेजबानी का कर्तव्य निभा रही थी, फिर भी उसके इरादे सही थे, वह अपने कर्तव्य के प्रति वफादार थी और उसे परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त था। जबकि कुछ लोग बहुत वर्षों से अगुआ और कार्यकर्ता थे, लेकिन सत्य का अनुसरण न करने के कारण वे केवल प्रतिष्ठा और रुतबा खोजते थे और व्यक्तिगत एजेंडे में जुटे रहते थे, यहाँ तक कि व्यक्तिगत लाभ के लिए वे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा करने और दूसरों पर हमला और उनका बहिष्कार करने की हद तक भी चले जाते थे। आखिरकार उन्हें बुरे लोग या मसीह-विरोधी माना गया और कलीसिया से निष्कासित कर दिया गया और इसके फलस्वरूप, उन्होंने बचाए जाने के अपने मौके को खो दिया। इन तथ्यों से मैंने देखा कि सत्य के सामने सब समान हैं। किसी को बचाया जा सकता है या नहीं, इसका उनके द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों, उनकी उम्र या रुतबे से कोई सम्बन्ध नहीं है। मुख्य बात यह है कि क्या कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है और क्या वह अपने कर्तव्यों के प्रति वफादार है। परमेश्वर धार्मिक है और वह यह देखता है कि क्या लोगों में सत्य है और क्या उनका स्वभाव बदला है। यह वह मानक है जिसके द्वारा परमेश्वर लोगों को मापता है।

कुछ महीनों बाद अगुआ ने मुझसे उन भाई-बहनों की मेजबानी करने के लिए कहा जो पाठ-आधारित कर्तव्य निभा रहे थे। मैं मन ही मन सोचने लगी, “मैं पाठ-आधारित कार्य की पर्यवेक्षक हुआ करती थी और ये लोग मेरी टीम के सदस्य थे, लेकिन अब मैं सिर्फ उनकी मेजबानी कर रही हूँ। वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” जब मैंने इस तरह सोचा तो मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपने आत्मसम्मान और रुतबे के बारे में सोच रही थी। इसलिए मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की और उसके वचनों का एक अंश याद किया : “हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा और हैसियत पर विचार मत कर। तुम्‍हें सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उन्‍हें अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुम्‍हें परमेश्वर के इरादों का ध्‍यान रखना चाहिए और इस पर चिंतन से शुरुआत करनी चाहिए कि तुम्‍हारे कर्तव्‍य निर्वहन में अशुद्धियाँ रही हैं या नहीं, तुम वफादार रहे हो या नहीं, तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही तुम अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार करते रहे हो या नहीं। तुम्‍हें इन चीजों के बारे में अवश्‍य विचार करना चाहिए। अगर तुम इन पर बार-बार विचार करते हो और इन्हें समझ लेते हो, तो तुम्‍हारे लिए अपना कर्तव्‍य अच्‍छी तरह से निभाना आसान हो जाएगा। अगर तुम्‍हारे पास ज्यादा काबिलियत नहीं है, अगर तुम्‍हारा अनुभव उथला है, या अगर तुम अपने पेशेवर कार्य में दक्ष नहीं हो, तब तुम्‍हारे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, हो सकता है कि तुम्‍हें अच्‍छे परिणाम न मिलें—पर तब तुमने अपना सर्वश्रेष्‍ठ दिया होगा। तुम अपनी स्‍वार्थपूर्ण इच्छाएँ या प्राथमिकताएँ पूरी नहीं करते। इसके बजाय, तुम लगातार कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हो। भले ही तुम्‍हें अपने कर्तव्‍य में अच्छे परिणाम प्राप्त न हों, फिर भी तुम्‍हारा दिल निष्‍कपट हो गया होगा; अगर इसके अलावा, इसके ऊपर से, तुम अपने कर्तव्य में आई समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो, तब तुम अपना कर्तव्‍य निर्वहन मानक स्तर का कर पाओगे और साथ ही, तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। किसी के पास गवाही होने का यही अर्थ है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों से मैं उसके इरादों को समझ गई और मैंने अभ्यास का मार्ग भी सीख लिया। पहले मैं हमेशा आत्मसम्मान और रुतबे के लिए जीती थी, लेकिन इस दिन मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार करना और उनके प्रति समर्पित होना चाहिए, कलीसिया के हितों पर विचार करना और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए। इसलिए मैं सहर्ष सहमत हो गई। कुछ दिनों के बाद पाठ-आधारित कर्तव्य निभाने वाले भाई-बहन एक सभा के लिए मेरे घर आए। उन्हें देखकर मुझे ऐसा नहीं लगा कि मेरे आत्मसम्मान को ठेस पहुँची है, बल्कि मैंने यह महसूस किया कि कोई भी कर्तव्य निभाना परमेश्वर की ओर से एक उन्नयन है। आगे चलकर मैंने लगन से सहयोग किया और सोचा कि एक अच्छा परिवेश कैसे कायम रखा जाए ताकि भाई-बहन एक सुरक्षित और शांतिपूर्ण स्थान में संगति कर सकें और अपने कर्तव्य निभा सकें। इस तरह से अभ्यास करके मुझे अपने दिल में शांति और सुकून महसूस हुआ और मुझे यह एहसास हुआ कि मेजबानी का कर्तव्य भी सीखने के लिए सबक और खोजने के लिए सत्य प्रदान करता है।

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