90. मैंने ईमानदार होने का आनंद अनुभव किया

चेंग शाओ, चीन

मार्च 2023 में मैं एक कलीसिया के सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार थी। इस कलीसिया में काम के नतीजे काफी खराब थे। मैंने कुछ समय तक कड़ी मेहनत की, लेकिन फिर भी कोई सुधार नहीं हुआ और मैं वाकई चिंतित हो गई। एक दिन मैंने सुना कि अगुआ काम की समीक्षा करने एक सभा में आने वाले हैं और मुझे बहुत बेचैनी हुई, सोचने लगी, “पिछली बार जब अगुआ आए थे तो उन्होंने हमारे साथ लोगों को विकसित करने के मामले पर संगति की थी, लेकिन मुझे अभी तक कोई उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिला है। जब अगुआ देखेंगे कि मैं इतने लंबे समय से अभ्यास कर रही हूँ लेकिन फिर भी काम अच्छी तरह से नहीं कर पा रही हूँ, तो क्या वे सोचेंगे कि मुझमें कार्य क्षमता की कमी है? अगर ऐसा हुआ तो वे मेरे बारे में बनी अच्छी छवि पूरी तरह से खो देंगे!” उस रात जब मैं सोने की कोशिश कर रही थी तो भी मुझे काम की समीक्षा के लिए आने वाले अगुआओं के ख्याल आते रहे, मैं अपना दिल शांत नहीं कर पाई और वाकई चिंतित हो गई।

अगले दिन जब अगुआ काम की समीक्षा करने आए, मुझे डर था कि वे खराब नतीजे देखेंगे और सोचेंगे कि मैं वास्तविक काम नहीं कर सकती, इसलिए इससे पहले कि वे कोई सवाल पूछते, मैंने जल्दी से समझाया कि कैसे मैंने सुसमाचार कार्यकर्ताओं को दूसरे काम में लगाया था और कैसे मैंने सुसमाचार कार्य का जायजा लिया था। उन्होंने मेरी साथी बहन शाओ लिन से कुछ सवाल पूछे और जब मैंने शाओ लिन को कुछ बिंदु छोड़ते हुए सुना तो मैं तुरंत उसके द्वारा छोड़े गए बिंदुओं के बारे में बताने के लिए कूद पड़ी, मैं अगुआओं को दिखाना चाहती थी कि मेरे पास कुछ कार्य क्षमताएँ हैं और मैं कुछ वास्तविक काम कर सकती हूँ। इस बातचीत के बाद अगुआओं ने कुछ नहीं कहा और मैंने राहत की सांस ली। थोड़ी देर बाद अगुआओं ने हमसे पूछा कि सुसमाचार का प्रचार करने में हमें हाल ही में क्या भटकाव और मुश्किलें आई हैं। मैंने सोचा, “हाल ही में मेरी जिम्मेदारी वाला काम फलदायी नहीं रहा है, शायद उन्हें स्थिति के बारे में बताना बेहतर होगा ताकि वे यह पता लगाने में मदद कर सकें कि ऐसा क्यों है?” लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर मैं इन मुद्दों को उठाती हूँ और उन्हें मेरे कर्तव्यों में अन्य समस्याओं का पता चलता है, क्या इससे और भी स्पष्ट नहीं हो जाएगा कि मुझमें कार्य क्षमताओं की कमी है? अगर मैंने ऐसा कहा तो क्या मैं खुद को अपमानित नहीं कर लूँगी?” इस बात को ध्यान में रखते हुए मैंने अपनी जुबान पर आए शब्दों को निगल लिया। दोपहर को अगुआओं ने मुझे फटकारा और यह कहते हुए काट-छाँट की, “तुम कहती हो कि तुमने यह काम और वह काम किया है, ऐसा लगता है कि कोई समस्या या कमी ही नहीं है, लेकिन काम ने अभी भी कोई नतीजा नहीं दिया है। तुम्हें इसके कारणों पर विचार करना चाहिए।” अगुआओं के जाने के बाद मैं थोड़ी असहज हो गई और मुझे यह न बताने के लिए बहुत अपराध बोध हुआ कि काम के साथ चीजें असल में कैसी चल रही हैं। मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “बहुत-से लोग ईमानदारी से बोलने और कार्य करने की बजाय नरक में दंडित होना पसंद करेंगे। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि जो बेईमान हैं उनके लिए मेरे भंडार में अन्य उपचार भी है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। मुझे अपने कर्तव्य में स्पष्ट रूप से मुश्किलें आ रही थीं, लेकिन जब अगुआ सभा में आए, मैं अपनी कार्य क्षमताओं की कमी उजागर होने और अपना सम्मान खोने से डर रही थी, इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा। इससे मुश्किलें हल नहीं हो पाईं और काम प्रभावित हुआ। मुझे लगा कि यह प्रकृति काफी गंभीर है। मैं दूसरे लोगों और परमेश्वर दोनों को धोखा दे रही थी। मेरा दिल बेचैनी से तिलमिलाने लगा।

इसके बाद मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “मसीह-विरोधी स्वाभाविक रूप से ही दुष्ट होते हैं; उनके दिल में न तो ईमानदारी होती है, न सत्य के प्रति प्रेम होता है और न ही सकारात्मक चीजों के प्रति प्रेम होता है। वे अक्सर अंधेरे कोनों में रहते हैं—वे ईमानदारी के रवैये से कार्य नहीं करते, वे सत्यपूर्वक नहीं बोलते, और वे लोगों और परमेश्वर, दोनों, के प्रति दुष्ट और धोखेबाज हृदय रखते हैं। वे दूसरों को धोखा देना चाहते हैं और परमेश्वर को भी धोखा देना चाहते हैं। वे दूसरों की निगरानी स्वीकार नहीं करते, परमेश्वर की जाँच-पड़ताल का तो सवाल ही नहीं उठता। जब वे लोगों के बीच होते हैं, तो कभी नहीं चाहते कि कोई यह जाने कि वे अंदर ही अंदर क्या सोच रहे हैं और क्या योजना बना रहे हैं, वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं और सत्य के प्रति उनका रवैया कैसा है, इत्यादि; वे नहीं चाहते कि लोग इसके बारे में कुछ भी जानें और वे परमेश्वर को भी अपने जाल में फंसाना चाहते हैं, उसे अंधेरे में रखना चाहते हैं। इसीलिए, जब एक मसीह-विरोधी के पास कोई हैसियत नहीं होती है, जब उसे लोगों के समूह में स्थिति में हेरा फेरी करने का अवसर नहीं मिलता है, तो फिर कोई भी वास्तव में यह नहीं जान सकता कि उसके शब्दों और कार्यों के पीछे क्या मकसद छिपा है। लोग आश्चर्य करेंगे : ‘वे हर दिन किस बारे में सोचते हैं? क्या उनके द्वारा अपने कर्तव्य का पालन करने के पीछे कोई मंशा छिपी है? क्या वे भ्रष्टता प्रकट कर रहे हैं? क्या वे दूसरों के प्रति कोई ईर्ष्या या घृणा महसूस करते हैं? क्या उनके दिल में अन्य लोगों के खिलाफ कोई पूर्वाग्रह होते हैं? दूसरों की बातों के बारे में उनकी क्या राय होती है? जब उनका सामना किसी चीज-विशेष से होता है तो वे क्या सोचते हैं?’ मसीह-विरोधी कभी भी दूसरों को यह नहीं बताते कि उनके साथ वास्तव में क्या हो रहा है। अगर वे किसी विषय पर अपनी राय व्यक्त भी करते हैं, तो वे अस्पष्ट और गोलमोल शब्दों का प्रयोग करते हैं, वे इस तरह से बात करते हैं कि लोग यह समझ नहीं पाते कि वे क्या कहने की कोशिश कर रहे हैं और न ही यह जान पाएँ कि वे क्या कहना चाहते हैं या क्या व्यक्त करने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे हर कोई असमंजस में पड़ जाता है। जब ऐसे किसी व्यक्ति को कोई हैसियत प्राप्त होती है, तो वह अन्य लोगों के सामने अपने व्यवहार में और भी अधिक गुप्त बन जाता है। वह अपनी महत्वाकांक्षाओं, अपनी प्रतिष्ठा, अपनी छवि और अपने नाम, अपनी हैसियत और गरिमा आदि की रक्षा करना चाहता है। यही कारण है कि वे इस बारे में खुलकर नहीं बताना चाहते कि वे कैसे काम करते हैं या कोई काम करने के पीछे उनका क्या उद्देश्य होता है। यहाँ तक कि जब वे कोई गलती भी करते हैं, भ्रष्ट स्वभाव भी प्रकट करते हैं या जब उनके कार्यों के पीछे की मंशा और उद्देश्य गलत होते हैं, तब भी वे दूसरों के सामने खुलना नहीं चाहते और दूसरों को इसके बारे में पता नहीं चलने देना चाहते और वे अक्सर भाइयों और बहनों को धोखा देने के लिए मासूमियत और पूर्णता का दिखावा करते हैं। और ऊपरवाले और परमेश्वर के साथ वे केवल अच्छी-अच्छी बातें करते हैं और अक्सर ऊपर वाले के साथ अपने रिश्ते को बनाए रखने के लिए भ्रामक रणनीति और झूठ का उपयोग करते हैं। जब वे ऊपरवाले को अपने काम के बारे में बताते हैं और ऊपरवाले से बात करते हैं, तो वे कभी भी कोई अप्रिय बात नहीं कहते, ताकि कोई भी उनकी कमजोरी का पता न लगा सके। वे कभी भी यह नहीं बताएँगे कि उन्होंने नीचे क्या कुछ किया है, कलीसिया में कौन से मुद्दे उत्पन्न हुए हैं, उनके काम में कौन सी समस्याएँ या खामियाँ पैदा हुई हैं या वे कौन सी चीजें हैं जिन्हें वे समझ नहीं पाते या पहचान नहीं पाते। वे इन चीजों के बारे में ऊपरवाले से कभी नहीं पूछते न ही मार्गदर्शन मांगते हैं, बल्कि वे सिर्फ अपने काम में सक्षमता और अपने काम को पूरी तरह से करने में सक्षम होने की छवि प्रस्तुत करते हैं और इसका दिखावा करते हैं। वे कलीसिया में मौजूद किसी भी समस्या के बारे में ऊपरवाले को नहीं बताते और चाहे कलीसिया में कितनी भी अव्यवस्था क्यों न हो, उनके काम में कितनी भी खामियाँ क्यों न हों या वे नीचे कुछ भी कर रहे हों, वे बार-बार इन सब बातों को छुपाते हैं, वे कोशिश करते हैं कि ऊपर वाले को कभी भी इन बातों की भनक न लगे या कभी पता न चले, यहाँ तक कि जो लोग इन मामलों से जुड़े हैं या जो उनके बारे में सच्चाई जानते हैं, उन्हें दूर-दराज के स्थानों पर स्थानांतरित कर देते हैं ताकि वे छुपा सकें कि असल में क्या हो रहा है। ये किस प्रकार के अभ्यास हैं? यह किस प्रकार का व्यवहार है? क्या इस प्रकार की अभिव्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति में होनी चाहिए जो सत्य का अनुसरण करता हो? स्पष्ट रूप से, ऐसा नहीं है। यह तो एक राक्षस का व्यवहार है। मसीह-विरोधी अपनी हैसियत या छवि पर असर डालने वाली ऐसी किसी भी चीज को छिपाने और ढँकने का पूरा प्रयास करते हैं, ताकि ये बातें दूसरों से और परमेश्वर से छुपी रहें। यह अपने से ऊपर और नीचे के लोगों को धोखा देना है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद ग्यारह)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मसीह-विरोधी स्वाभाविक रूप से दुष्ट और धोखेबाज होते हैं। अपना सम्मान और रुतबा बचाने के लिए, जब भी उन्हें अपने कर्तव्यों में कोई समस्या या मुश्किल आती है या चाहे वे अपने कर्तव्यों को कितना भी नुकसान पहुँचाएँ, वे इन बातों को छिपाने के लिए दूसरों को धोखा देते हैं और अपने काम में सक्षम होने का दिखावा करते हैं। यह अपने वरिष्ठों और अधीनस्थों दोनों को धोखा देने का राक्षसी व्यवहार है। आत्म-चिंतन करते हुए मैं इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ थी कि जिस काम के लिए मैं जिम्मेदार हूँ, उसकी प्रभावशीलता खराब है और मुझे लोगों को विकसित करने में मुश्किलें आ रही हैं और जब अगुआ सभा में आए तो मुझे इसका जिक्र करना चाहिए था और इसे सुलझाने में उनसे मदद लेनी चाहिए थी। लेकिन मुझे डर था कि वे सोचेंगे कि मुझमें कार्य क्षमता की कमी है और मैं उनकी नजरों में अपनी अच्छी छवि खो दूँगी। उनके द्वारा काम की समीक्षा करने का इंतजार किए बिना ही मैंने जल्दबाजी में बता दिया कि मैं काम का जायजा लेने में कैसे प्रयास कर रही हूँ, मैं चाहती थी कि वे देखें कि मुझमें कार्य क्षमताएँ हैं और मैं वास्तविक समस्याएँ सुलझा सकती हूँ, जिससे ऐसा लगे कि खराब नतीजे मेरी जिम्मेदारी नहीं हैं। जब अगुआ यह देखने आए कि सुसमाचार का काम कैसे चल रहा है तो मैं अच्छी तरह से जानती थी कि मुझे मुश्किलों का उल्लेख करना चाहिए और जितनी जल्दी हो सके समाधान की तलाश करनी चाहिए, लेकिन मैं अपने कर्तव्यों में अपने भटकावों और खामियों के उजागर होने और अपना सम्मान और रुतबा खोने से डर गई, इसलिए मैंने अपना मुँह बंद रखा। मेरी कार्य क्षमताएँ खराब थीं और मेरे कर्तव्यों में कई समस्याएँ थीं और कलीसिया के काम को पहले ही नुकसान उठाना पड़ा था, लेकिन अपना सम्मान और रुतबा बनाए रखने के लिए मैंने दूसरों को यह जताने की कोशिश की कि मैं अपने काम में सक्षम हूँ। मसीह-विरोधी चाहे कोई भी गलत काम या बुराई क्यों न करें, अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने के लिए छिपने और धोखा देने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, वे परमेश्वर के घर के हितों की कोई परवाह नहीं करते। मैं झूठ बोल रही थी और इस सत्य को छिपाने के लिए धोखा दे रही थी कि मैं वास्तविक कार्य नहीं कर सकती, तो मेरे और मसीह विरोधी के बीच क्या अंतर था? इस बारे में सोचने से मुझे बहुत पछतावा हुआ, इसलिए मैंने जल्दी से अगुआओं को अपनी हालिया दशा और अपने कर्तव्यों में नतीजों की कमी के बारे में लिखा। अगुआओं को यह समझ में आने के बाद भले ही उन्होंने धोखबाजी के लिए मेरी काट-छाँट की, उन्होंने मुझे आत्म-चिंतन करने के लिए भी कहा और मेरे काम में प्रभावशीलता की इस कमी के कारण खोजने में मेरी मदद भी की। उन्होंने पाया कि मैं अपने काम में सिर्फ नारेबाजी कर रही थी, मैंने अपने भाई-बहनों की वास्तविक मुश्किलें हल करने वाले समाधानों पर संगति नहीं की और मैं आगे बढ़ने का व्यावहारिक मार्ग देने में नाकाम रही। एक बार जब मैंने अपनी समस्याएँ पहचान लीं तो मेरा दिल बहुत उज्ज्वल हो गया।

इसके बाद मैंने सचेत रूप से ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास किया, लेकिन कभी-कभी मैं खुद को अपने भ्रष्ट स्वभाव के बंधन में पाती थी। एक बार जब अगुआ एक सभा में आए, मुझे याद आया कि वहाँ एक सुसमाचार कार्यकर्ता में बहुत अच्छी काबिलियत थी, लेकिन उसने अपने विचारों के अनुसार काम किया और सिद्धांतों में प्रवेश करने पर ध्यान नहीं दिया। मैंने उसके साथ कई बार संगति की लेकिन कोई सुधार नहीं देखा, इसलिए मैंने सोचा कि मुझे इस मामले को अगुआओं के सामने लाना चाहिए और इसे सुलझाने का तरीका खोजना चाहिए। लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर अगुआओं को मेरी कमियाँ पता चल गईं तो क्या वे कहेंगे कि मेरी कार्य क्षमताओं में कमी है? यह अपमानजनक होगा! शायद मुझे चुप रहना चाहिए।” लेकिन फिर मुझे अपनी पिछली नाकामी से मिली सीख याद आई और मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “अगर तुम लोग अगुआ या कार्यकर्ता हो, तो क्या तुम परमेश्वर के घर द्वारा अपने काम के बारे में पूछताछ किए जाने और उसका निरीक्षण किए जाने से डरते हो? क्या तुम डरते हो कि परमेश्वर का घर तुम लोगों के काम में खामियों और गलतियों का पता लगाएगा और तुम लोगों की काट-छाँट करेगा? क्या तुम डरते हो कि जब ऊपर वाले को तुम लोगों की वास्तविक क्षमता और आध्यात्मिक कद का पता चलेगा, तो वह तुम लोगों को अलग तरह से देखेगा और तुम्हें प्रोन्नति के लायक नहीं समझेगा? अगर तुममें यह डर है, तो यह साबित करता है कि तुम्हारी अभिप्रेरणाएँ कलीसिया के काम के लिए नहीं हैं, तुम प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए काम कर रहे हो, जिससे साबित होता है कि तुममें मसीह-विरोधी का स्वभाव है। अगर तुममें मसीह-विरोधी का स्वभाव है, तो तुम्हारे मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने और मसीह-विरोधियों द्वारा गढ़ी गई तमाम बुराइयाँ करने की संभावना है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने सम्मान और रुतबे को बहुत ज्यादा महत्व देती हूँ और इसने मुझे धोखेबाजी करने और ऐसे काम करने के लिए प्रेरित किया है जिससे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचा है। इसमें मैं एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। फिर मैंने उन मुद्दों के बारे में बात की, जिनके लिए मैं मदद माँगना चाहती थी। अगुआओं ने पाया कि मैं मुद्दों को सुलझाने के लिए सत्य की संगति नहीं कर रही हूँ और इसके बजाय मैं दूसरों को व्याख्यान देने के लिए अपने ओहदे का दुरुपयोग कर रही हूँ। यह लोगों को बेबस कर रहा है और उन्हें उनके कर्तव्यों में कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। जब अगुआओं ने ये मसले बताए तो मुझे लगा कि मेरा चेहरा तमतमा रहा है और मैंने मन ही मन सोचा, “अब वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मुझमें मानवता की कमी है? यह बेहद अपमानजनक है!” मुझे सच बोलने पर पछतावा होने लगा। लेकिन फिर मैंने सोचा, “क्या बोलने का उद्देश्य इन कारणों की पहचान करना और मुद्दों को हल करना नहीं है? अगर मैं अपने सम्मान से बेबस हूँ और इन बातों को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हूँ तो समस्याओं का समाधान कैसे होगा?” इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह अपने खिलाफ विद्रोह करने, स्वीकारने और समर्पण करने में मेरी मदद करे। मुझे यह भी याद आया कि मैंने इस तरह का व्यवहार सिर्फ इस एक सुसमाचार कार्यकर्ता के प्रति ही नहीं, बल्कि दूसरों के प्रति भी किया था। जब मैंने देखा कि उनके कर्तव्यों में उनकी प्रभावशीलता खराब है, मैंने इस पर विचार नहीं किया कि मेरे कौन से कार्य ठीक से नहीं हुए या उनकी मुश्किलों पर गौर नहीं किया, बल्कि मैंने महसूस किया कि मेरा अपना सम्मान और रुतबा खराब हुआ और मैंने उन्हें फटकार लगाई। इससे न केवल उनकी मदद नहीं हुई बल्कि वे बेबस भी हो गए। बाद में मैंने जल्दी से अपने भाई-बहनों से माफी माँगी और अपनी दशा के बारे में संगति करते हुए अपना दिल खोलकर रख दिया। सुसमाचार कार्यकर्ताओं की दशा में थोड़ा सुधार हुआ और वे अपनी कमियाँ पहचानने लगे और सुधार के प्रयास करने के लिए तैयार हो गए। बाद में काम का जायजा लेते समय मैंने संगति के सिद्धांतों और अभ्यास के और अच्छे मार्ग प्रदान करने पर अधिक ध्यान दिया। उस समय भले ही ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करना और अगुआओं के सामने खुलना थोड़ा शर्मिंदा करता था, इससे मुझे अपने मुद्दे पहचानने और समय पर समायोजन करने में मदद मिली और यह मेरे जीवन प्रवेश और मेरे कर्तव्यों के लिए फायदेमंद रहा।

बाद में मैंने यह भी सोचा, “मैं साफ तौर पर जानती हूँ कि ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करना ही परमेश्वर की अपेक्षा है, लेकिन मैं हमेशा नीची नजरों से देखे जाने से क्यों डरती हूँ और ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करने के लिए अनिच्छुक क्यों हूँ?” मैंने मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की और मुझे परमेश्वर की संगति याद आई जिसमें हमारे परिवार द्वारा हमारे अंदर डाली गई एक कहावत का गहन-विश्लेषण किया गया था, “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।” इसलिए मैंने इसे खोजकर पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब परिवार के बुजुर्ग अक्सर तुमसे कहते हैं कि ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,’ तो यह इसलिए होता है ताकि तुम अच्छी प्रतिष्ठा रखने और गौरवपूर्ण जीवन जीने को अहमियत दो और ऐसे काम मत करो जिनसे तुम्हारी बदनामी हो। तो यह कहावत लोगों को सकारात्मक दिशा की ओर लेकर जाती है या नकारात्मक? क्या यह तुम्हें सत्य की ओर ले जा सकती है? क्या यह तुम्हें सत्य समझने की ओर ले जा सकती है? (नहीं, बिल्कुल नहीं।) तुम यकीन से कह सकते हो, ‘नहीं, नहीं ले जा सकती!’ जरा सोचो, परमेश्वर कहता है कि लोगों को ईमानदार लोगों की तरह आचरण करना चाहिए। अगर तुमने कोई अपराध किया है या कुछ गलत किया है या कुछ ऐसा किया है जो परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है या सत्य के विरुद्ध जाता है, तो तुम्हें अपनी गलती स्वीकारनी होगी, खुद को समझना होगा, और सच्चा पश्चात्ताप करने के लिए खुद का विश्लेषण करते रहना होगा और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना होगा। अगर लोग ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करें, तो क्या यह इस कहावत के विरुद्ध नहीं होगा कि ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है’? (हाँ।) यह इसके विरुद्ध कैसे होगा? ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,’ इस कहावत का उद्देश्य यह है कि लोग उज्ज्वल और रंगीन जीवन जिएँ और ऐसे काम ज्यादा करें जिनसे उनकी छवि बेहतर होती है—उन्हें बुरे या अपमानजनक काम या ऐसे काम नहीं करने चाहिए जिनसे उनका कुरूप चेहरा उजागर हो—और वे आत्मसम्मान या गरिमा के साथ न जी पाएँ। अपनी प्रतिष्ठा की खातिर, अपने गौरव और सम्मान की खातिर, व्यक्ति को अपने बारे में सब कुछ नहीं बताना चाहिए, और दूसरों को अपने अँधेरे पक्ष और शर्मनाक पहलुओं के बारे में तो कतई नहीं बताना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति को आत्मसम्मान और गरिमा के साथ जीना चाहिए। गरिमावान होने के लिए अच्छी प्रतिष्ठा होना जरूरी है, और अच्छी प्रतिष्ठा पाने के लिए व्यक्ति को मुखौटा लगाना और अच्छे कपड़े पहनकर दिखाना होता है। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करने के विरुद्ध नहीं है? (हाँ।) जब तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करते हो, तो तुम जो भी करते हो वह इस कहावत से बिल्कुल अलग होता है, ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।’ अगर तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना चाहते हो, तो आत्मसम्मान को अहमियत मत दो; व्यक्ति के आत्मसम्मान की कीमत दो कौड़ी की भी नहीं है। सत्य से सामना होने पर, व्यक्ति को मुखौटा लगाने या झूठी छवि बनाए रखने के बजाय, खुद को उजागर कर देना चाहिए। व्यक्ति को अपने सच्चे विचारों, अपनी गलतियों, सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले पहलुओं वगैरह को परमेश्वर के सामने प्रकट कर देना चाहिए, और अपने भाई-बहनों के सामने भी इनका खुलासा करना चाहिए। यह अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जीने का मामला नहीं, बल्कि एक ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करने, सत्य का अनुसरण करने, एक सच्चा सृजित प्राणी बनने और परमेश्वर को संतुष्ट करने और बचाए जाने की खातिर जीने का मामला है। लेकिन जब तुम यह सत्य और परमेश्वर के इरादे नहीं समझते हो, तो तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई गई चीजें तुम पर हावी हो जाती हैं। इसलिए, जब तुम कुछ गलत करते हो, तो उस पर पर्दा डालकर यह सोचते हुए दिखावा करते हो, ‘मैं इस बारे में कुछ नहीं कहूँगा, और अगर कोई इस बारे में जानता है मैं उसे भी कुछ नहीं कहने दूँगा। अगर तुममें से किसी ने कुछ भी कहा, तो मैं तुम्हें आसानी से नहीं छोडूँगा। मेरी प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा जरूरी है। जीने का मतलब तभी है जब हम अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जिएँ, क्योंकि यह किसी भी चीज से ज्यादा जरूरी है। यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा खो देता है, तो वह अपनी सारी गरिमा खो देता है। तो तुम जो सच है वह नहीं बता सकते, तुम्हें झूठ का सहारा लेना होगा और चीजों को छुपाना होगा, वरना तुम अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा खो बैठोगे, और तुम्हारा जीवन निरर्थक हो जाएगा। अगर कोई तुम्हारा सम्मान नहीं करता है, तो तुम एकदम बेकार हो, सिर्फ रास्ते का कचरा हो।’ क्या इस तरह अभ्यास करके ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना मुमकिन है? क्या पूरी खुलकर बोलना और अपना विश्लेषण करना मुमकिन है? (नहीं, मुमकिन नहीं है।) बेशक, ऐसा करके तुम इस कहावत का पालन कर रहे हो, ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,’ जैसा तुम्हारे परिवार ने तुम्हें सिखाया है। हालाँकि, अगर तुम सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने के लिए इस कहावत को त्याग देते हो, तो फिर यह तुम्हें प्रभावित नहीं करेगी, और यह कोई काम करने के लिए तुम्हारा आदर्श वाक्य या सिद्धांत भी नहीं रहेगी, बल्कि तुम जो भी करोगे वह इस कहावत से बिल्कुल विपरीत होगा कि ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।’ तुम न तो अपनी प्रतिष्ठा की खातिर और न ही अपनी गरिमा की खातिर जियोगे, बल्कि तुम सत्य का अनुसरण करने और ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करने के लिए जियोगे, और परमेश्वर को संतुष्ट करके एक सच्चे सृजित प्राणी की तरह जीने की कोशिश करोगे। अगर तुम इस सिद्धांत का पालन करते हो, तो तुम अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों से मुक्त हो जाओगे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12))। परमेश्वर के वचनों से मुझे पता चला कि मैं हमेशा अपने सम्मान को लेकर चिंताओं से क्यों बेबस रहती हूँ और क्यों एक ईमानदार व्यक्ति होने में असमर्थ हूँ। यह सब मेरे बचपन से ही इस शैतानी जहर से प्रभावित होने का नतीजा था, “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।” मैं अपने सम्मान और रुतबे को हर चीज से ऊपर रखने लगी थी, मानती थी कि दूसरों के बीच सम्मान और रुतबा होना ही गरिमापूर्ण और निष्ठावान गौरवशाली जीवन देता है। अगर मैं अपनी कमियों को उजागर करती तो दूसरे मुझे कमतर आँकते और नीची नजरों से देखते, जिससे मुझे ऐसा लगता जैसे मैं अपना जीवन खो रही हूँ और यह बेहद दर्दनाक था। लेकिन असल में मार्गदर्शन पाने के लिए अपने कर्तव्यों में अपने मुद्दों के बारे में बोलने से मुझे अपनी कमियाँ पहचानने और उन्हें सुलझाने के तरीके खोजने में मदद मिल सकती है, जिससे मैं अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से करने में सक्षम हो सकती हूँ। लेकिन जब मेरे कर्तव्यों में समस्याएँ आईं तो मैंने उन्हें सुलझाने की कोशिश नहीं की, बल्कि अपने सम्मान और रुतबे की रक्षा के लिए धोखेबाजी से पेश आई। जब मेरी हरकतों ने कार्य को नुकसान पहुँचाया, तब भी मैंने अपने कर्तव्यों में इन समस्याओं को छिपाया और इस दौरान मैं लगातार उस काम के बारे में बोलती रही जिसे मैंने पूरा किया था, जिससे अगुआओं को यह विश्वास हो गया कि मेरे कर्तव्यों में कोई कठिनाई नहीं है और समस्याओं का समय पर समाधान नहीं हो पाया। मैंने अपना सम्मान बचाने के लिए झूठ बोला और मैंने कलीसिया के हितों के बारे में सोचे बिना अगुआओं और परमेश्वर दोनों को धोखा देने की कोशिश की। इसमें मेरी गरिमा और निष्ठा कहाँ थी? मैं एक राक्षस के समान जी रही थी। खुद का दिखावा करने या अपना सम्मान बचाने से अपनी गरिमा और निष्ठा को कायम नहीं रखा जा सकता। जब कोई व्यक्ति ईमानदार होने का अभ्यास करने में सक्षम होता है, केवल तभी वह किसी भी कमी या गलती को स्वीकारने का साहस रखता है और अपने मन में परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखते हुए सत्य स्वीकारता है और उसका अभ्यास करता है, तभी उसे निष्ठावान और गरिमापूर्ण व्यक्ति माना जा सकता है। शैतानी जहर के अनुसार जीने से लोग अधिक दुष्ट और धोखेबाज बनते हैं, अधिक से अधिक बुरे काम करते हैं और आखिरकार परमेश्वर उनसे घृणा करता है और हटा देता है।

तब मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश याद आया : “और निजी हितों के पीछे भागने के मूल में क्या है? जड़ यह है कि लोग अपने हितों को बाक़ी सब चीज़ों से ज्‍़यादा महत्‍वपूर्ण मानते हैं। वे अपना स्‍वार्थ साधने के लिए छल-कपट में संलग्न होते हैं, और इससे उनका कपटपूर्ण स्‍वभाव प्रकट हो जाता है। इस समस्‍या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? पहले तुम्हें यह जानना और समझना चाहिए कि हित क्या हैं, वे लोगों के लिए सटीक रूप से क्या लाते हैं, और उनके पीछे भागने के क्या परिणाम होते हैं। अगर तुम इसका पता नहीं लगा सकते, तो उनका त्याग कहना आसान होगा, करना मुश्किल। अगर लोग सत्य नहीं समझते, तो उनके लिए अपने हित छोड़ने से कठिन कुछ नहीं होता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके जीवन के फलसफे होते हैं ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’ और ‘मनुष्य धन के लिए मरता है, जैसे पक्षी भोजन के लिए मरते हैं।’ जाहिर है, वे अपने हितों के लिए जीते हैं। लोग सोचते हैं कि अपने हितों के बिना—अगर उन्‍हें अपने हित छोड़ने पड़े—तो वे जीवित नहीं रह पाएँगे, मानो उनका अस्तित्व उनके हितों से अविभाज्य हो, इसलिए ज्यादातर लोग अपने हितों के अतिरिक्त सभी चीजों के प्रति अंधे होते हैं। वे अपने हितों को किसी भी चीज से ऊपर समझते हैं, वे अपने हितों के लिए जीते हैं, और उनसे उनके हित छुड़वाना उनसे अपना जीवन छोड़ने के लिए कहने जैसा है। तो ऐसी परिस्थितियों में क्‍या किया जाना चाहिए? लोगों को सत्य स्वीकारना चाहिए। सत्य समझकर ही वे अपने हितों के सार की सच्चाई देख सकते हैं; तभी वे उन्हें छोड़ना और उनके प्रति विद्रोह करना शुरू कर सकते हैं, उनसे अलग होने की पीड़ा को सहन करने योग्य हो सकते हैं जो उन्हें प्रिय है। और जब तुम ऐसा कर सकते हो, और अपने हितों को त्याग सकते हो, तो तुम अपने मन में शांति और सुकून की अधिक अनुभूति करोगे और ऐसा करने से तुम अपनी दैहिक इच्छाओं पर जीत पा लोगे। अगर तुम अपने हितों से चिपके रहते हो और उन्‍हें त्‍यागने से इनकार कर देते हो और अगर तुम सत्य को जरा-भी स्वीकार नहीं करते हो—तो मन ही मन तुम कह सकते हो, ‘अपने फायदे के लिए कोशिश करने और किसी भी नुकसान को नकारने में क्या गलत है? परमेश्वर ने मुझे कोई दंड नहीं दिया है, लोग मेरा क्या बिगाड़ लेंगे?’ कोई भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, लेकिन अगर परमेश्वर में तुम्हारी यही आस्था है, तो तुम अंततः सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाओगे। यह तुम्हारी भयंकर हानि होगी—तुम उद्धार नहीं प्राप्‍त कर सकोगे। क्या इससे बड़ा कोई पछतावा हो सकता है? अपने हितों के पीछे भागने का अंततः यही परिणाम होता है। अगर लोग सिर्फ प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, अगर वे सिर्फ अपने हितों के पीछे भागते हैं, तो वे कभी भी सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाएँगे और अंततः वे ही नुकसान उठाएँगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने स्‍वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे याद दिलाया कि केवल अपने हितों को छोड़कर और ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करके ही मैं सत्य और परमेश्वर का उद्धार पा सकती हूँ। सम्मान और रुतबा पाना अस्थायी घमंड को संतुष्ट कर सकता है, लेकिन यह उद्धार की ओर नहीं ले जा सकता। मैंने सोचा कि मैंने उन दो अवसरों पर कैसे सच बोला था। भले ही उस समय यह थोड़ा शर्मनाक लगा, अगुआओं के मार्गदर्शन और सहायता के माध्यम से मैंने पहचाना कि मैंने अपने सम्मान और रुतबे के लिए काम करके गलत रास्ता अपनाया था और मैंने अपने कर्तव्यों में भटकाव देखे और इन मुद्दों को सुलझाने के लिए सिद्धांत और मार्ग खोजे। तुलनात्मक रूप से थोड़ा सा सम्मान कम होना क्या है? अगुआओं को मेरी खराब कार्य क्षमताओं के बारे में पता है और मुझे इसका बहादुरी से सामना करना चाहिए और सही तरीके से पेश आना चाहिए, किसी भी मुद्दे या मुश्किलों को सच्चाई से व्यक्त करना चाहिए और समाधान के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए। केवल इस तरह से अपना कर्तव्य निभाकर मैं प्रगति कर पाऊँगी। इसके विपरीत अगर मैं धोखेबाज बनकर खुद को बचाने की कोशिश करती तो मैं न केवल अपनी समस्याओं को समझने में नाकाम होती, बल्कि मेरे कर्तव्यों की प्रभावशीलता पर भी इसका असर पड़ता और मेरे पास अपराध ही रह जाते। क्या यह मेरी मूर्खता नहीं होती? इसे पहचानते हुए मैंने एक ईमानदार व्यक्ति बनने और उद्धार के मार्ग पर चलने का संकल्प लिया।

इसके बाद मैंने खोज जारी रखी, और मुझे एहसास हुआ कि मुझे हमेशा इस बात का डर लगा रहता था कि अगुआ मेरे काम का पर्यवेक्षण और समीक्षा करेंगे, मुख्य रूप से इसलिए क्योंकि मैं काम में अगुआओं के पर्यवेक्षण का महत्व नहीं समझती थी। मैं शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट हो चुकी थी और किसी भी समय अपने कर्तव्यों में अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार चल सकती थी। इसलिए मुझे अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आवश्यकता थी जो काम का लगातार पर्यवेक्षण और पूछताछ करें, ताकि जब समस्याएँ आएँ तो वे तुरंत संगति कर सकें और उन्हें सुधारने में मदद कर सकें। इससे मुझे ऐसी कोई भी बुराई करने से बचने में भी मदद मिलती जो कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी पैदा करती है। यह मेरे लिए एक सुरक्षा थी! इसके अलावा मैंने अपने सम्मान और रुतबे को बहुत महत्व दिया, अक्सर तुरंत नतीजे चाहे और अपने कर्तव्यों में सिद्धांतों का उल्लंघन किया जबकि यह सोचती रही कि मुझमें अपने कर्तव्यों के लिए जिम्मेदारी की मजबूत भावना है। जब काम के नतीजे खराब थे, तब भी मैं आत्म-चिंतन करने, खुद को जानने और यह पहचानने में नाकाम रही कि ऐसा क्यों हुआ। जब अगुआओं ने इस पर गौर किया, भले ही उन्होंने मुझे उजागर किया और मेरी काट-छाँट की, उनके मार्गदर्शन और संगति के माध्यम से मैं अपनी समस्याएँ पहचानने में सक्षम हुई, और मुझे एहसास हुआ कि अगुआओं का पर्यवेक्षण स्वीकारना जरूरी है। उसके बाद मैंने सचेत होकर ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास किया और चाहे अगुआओं के साथ बातचीत हो या अपने भाई-बहनों के साथ, मैंने ईमानदारी से बोलने का अभ्यास किया। कभी-कभी जब मेरे कर्तव्यों में समस्याएँ आती हैं और मुझे नहीं पता होता है कि उन्हें कैसे हल किया जाए, भले ही मैं खुलना चाहती हूँ, फिर भी मुझे डर रहता है कि लोग मुझे नीची नजरों से देखेंगे, इसलिए मैं जल्दी से अपने खिलाफ विद्रोह कर देती हूँ और खुलकर बात करके और संगति की तलाश करके मैं अनजाने में ही मौजूदा मुद्दों को सुलझाने का तरीका ढूँढ़ लेती हूँ। मुझे एहसास हो गया है कि ईमानदार व्यक्ति होना मेरे कर्तव्यों और मेरे जीवन प्रवेश के लिए बहुत मददगार है। इस अनुभव के माध्यम से मैं ईमानदार व्यक्ति होने का महत्व समझ गई हूँ और मुझे अपने धोखेबाज स्वभाव का कुछ ज्ञान मिला है। मैं इन लाभों का श्रेय परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन को दे सकती हूँ। परमेश्वर का धन्यवाद!

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