40. बदला लेने पर चिंतन
फरवरी 2021 में मैं कलीसिया में पाठ-आधारित कार्य का अपना कर्तव्य निभा रही थी। उस समय हमारी टीम के काम की प्रभावशीलता कम हो रही थी और जब पर्यवेक्षक को इस बारे में पता चला तो उसने पाया कि टीम में कोई सामंजस्यपूर्ण सहयोग नहीं था। बहन शाओयू और टीम अगुआ शू ली शोहरत और लाभ के लिए प्रतिस्पर्धा कर रही थीं और शाओयू अवज्ञाकारी थी क्योंकि उसे टीम अगुआ नहीं चुना गया था। वह अक्सर शू ली की कार्य व्यवस्थाओं पर सवाल उठाती रहती थी, जिससे काम बुरी तरह प्रभावित होता था। इसलिए पर्यवेक्षक ने शाओयू का कर्तव्य किसी और को सौंप दिया। पर्यवेक्षक ने मुझे भी यह कहते हुए उजागर किया, “तुम साफ तौर पर जानती थी कि शाओयू और टीम अगुआ शोहरत और लाभ के लिए प्रतिस्पर्धा कर रही थीं, फिर भी तुमने मदद करने के लिए संगति नहीं की और अक्सर शाओयू का पक्ष लेती थी, उससे सहमति जताती थी जिससे टीम अगुआ इतनी नकारात्मक हो गई कि वह इस्तीफा देना चाहती थी। तुमने कलीसिया के काम की बिल्कुल भी रक्षा नहीं की। क्या तुम इस तरह से काम करने का सार और अंंजाम जानती हो?” उस समय मुझमें जरा भी जागरूकता नहीं थी और मैं मन ही मन तर्क करने लगी और सोचने लगी, “टीम के काम की खराब प्रभावशीलता के लिए मुझे कैसे दोषी ठहराया जा सकता है? अगर शाओयू के सुझाव वाकई सही होते थे तो मैं उन्हें स्वीकार लेती थी। तुम कैसे कह सकती हो कि मैं टीम अगुआ को कमजोर करने के लिए उसके साथ गुटबाजी कर रही थी?” लेकिन मुझे पता था कि यह स्थिति परमेश्वर की अनुमति से आई थी और मुझे इसके प्रति समर्पण करना चाहिए। उसी शाम को मैंनै परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं पर्यवेक्षक द्वारा बताई गई समस्याओं से अवगत नहीं हूँ, मेरा प्रबोधन और मार्गदर्शन करो!” प्रार्थना करने के बाद मैंने चिंतन शुरू किया।
सितंबर 2020 में मैं और शू ली कई कलीसियाओं में धर्मोपदेश लेखों के काम का जायजा लेती थीं। भले ही कभी-कभी हमारी राय अलग-अलग होती थी और कुछ मनमुटाव भी होते थे, फिर भी हम एक-दूसरे के साथ खुली संगति के माध्यम से सामंजस्यपूर्ण सहयोग कर सकती थीं। नवंबर के मध्य तक टीम में दो और बहनें जुड़ गई थीं और हमें टीम अगुआ चुनने की जरूरत थी। हमने सर्वसम्मति से शू ली को टीम अगुआ चुना। शू ली का व्यक्तित्व काफी मुखर था और जब वह देखती कि हम भ्रष्ट हैं या हमें अपने कर्तव्यों के प्रति कोई जिम्मेदारी का एहसास नहीं है तो वह सभाओं के दौरान इस ओर ध्यान दिलाती और हमें परमेश्वर के वचन खाने-पीने के लिए प्रेरित करती ताकि हम आत्म-चिंतन करके खुद को जान सकें। पहले तो मुझे लगता था कि इस तरह का अभ्यास काफी अच्छा है। लेकिन बाद में शू ली ने दो अन्य बहनों के सामने मेरी समस्याएँ उजागर कर दीं और उसका लहजा काफी कठोर था। इससे मेरा मान-सम्मान गिर गया और मेरे लिए इसे स्वीकारना थोड़ा मुश्किल हो गया। मेरे मन में उसके प्रति पूर्वाग्रह पैदा हो गया और हमारे रिश्ते में धीरे-धीरे और दूरी बढ़ती गई। मुझे याद है कि एक बार जब हम साथ में भक्ति कर रहे थे, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद शू ली ने पहले अपनी संगति साझा की, लेकिन उसकी बात खत्म होने से पहले ही मैंने अपनी संगति शुरू कर दी। शू ली ने सख्त चेहरे और कठोर लहजे में मुझसे कहा, “बहन, मैं देख रही हूँ कि तुम बीच में बोलने लगती हो, लेकिन इससे दूसरों की सोच बाधित होती है।” मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई, मेरा चेहरा लाल हो गया और मैंने सोचा, “मुझे पता है कि मेरी बारी आने से पहले बोलना अनुचित और गलत था, लेकिन तुम्हें सबके सामने मेरी समस्या नहीं बतानी चाहिए थी। अब नई बहनें मेरे बारे में क्या सोचेंगी? क्या तुम निजी तौर पर मेरी कमियाँ नहीं बता सकती थी? क्या तुम जानबूझकर मुझे शर्मिंदा करने की कोशिश नहीं कर रही हो?” एक और बार मैं दो बहनों के साथ एक धर्मोपदेश लेख पर चर्चा कर रही थी और दोनों बहनें मेरे दृष्टिकोण से सहमत नहीं थीं। मुझे लगा कि मैं सिद्धांतों को उनसे ज्यादा सटीकता से समझती हूँ, इसलिए मैंने अपने दृष्टिकोण पर जोर दिया और उनसे बहस करती रही। शू ली काफी देर तक हमें बहस करते हुए देखती रही और फिर उसने कहा कि मेरा स्वभाव घमंडी है और मुझे बहनों से गुस्से में बहस नहीं करनी चाहिए। उसने कहा कि मुझे बहनों के साथ सिद्धांतों पर संगति करनी चाहिए और हमें एक-दूसरे की खूबियों से सीखना चाहिए। मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकी और बहुत प्रतिरोधी होकर सोचने लगी, “तुम हमेशा मेरी काट-छाँट क्यों करती हो? क्या तुम्हें लगता है कि मैं आसान निशाना हूँ? जब हम पहले सहयोग करते थे तो मुझे बुरा नहीं लगता था कि तुम मेरी काट-छाँट कर रही हो, लेकिन अब तुम हमेशा बहनों के सामने मेरी काट-छाँट कर रही हो, जानबूझकर मुझे शर्मिंदा कर रही हो। अब बहनें मेरे बारे में क्या सोचेंगी?” जितना मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही गुस्सा आया, मैंने सोचा, “अगर तुम इस तरह मेरी काट-छाँट करोगी तो मैं मौका मिलने पर तुम्हारी समस्याएँ भी बताऊँगी, ताकि तुम महसूस कर सको कि शर्मिंदा होना कैसा होता है!”
बाद में शाओयू इस बात से नाराज हो गई कि उसे टीम अगुआ नहीं चुना गया और उसने सीधे तौर पर और परोक्ष रूप से शू ली से लड़ना शुरू कर दिया। वह लगातार शू ली की कार्य व्यवस्थाओं में खामियाँ निकालती रहती थी और जब शाम का कार्य सामान्य से ज्यादा खिंच जाता था तो शाओयू मुझ पर झल्लाती रहती थी, शिकायत करती थी कि शू ली को कार्य की व्यवस्था करनी नहीं आती। एक सभा के दौरान शाओयू ने अपनी भ्रष्टता के बारे में बताने की आड़ में शू ली को अपनी आलोचनाओं से निशाना बनाया, शू ली पर टालमटोल करने का आरोप लगाया, पूर्व टीम अगुआ के सक्षम होने, कार्य की व्यवस्था करने में अच्छी होने और सौंपे गए दिन ही अपना सारा काम निपटाने के लिए उसकी सराहना की। यह सुनने के बाद मुझे लगा कि कुछ गड़बड़ है, मैंने सोचा, “तुम वाकई खुद को नहीं जानती, तुम बस शिकायत कर रही हो कि शू ली में कार्य क्षमता नहीं है। टीम के पास दर्जनों धर्मोपदेश लेख जमा हैं और शू ली ने हमें काम की खातिर उन्हें जल्दी से निपटाने के लिए अतिरिक्त घंटे काम करने को कहा है। भले ही वह कुछ पहलुओं में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रही हो, तुम मौका मिलने पर उससे इस बारे में बात कर सकती हो। इस तरह की बातें करने से उसके बेबस होने की संभावना है।” मैं शाओयू की समस्या बताना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा कि कैसे शू ली ने पहले भी कई बार मेरी काट-छाँट की थी, कैसे आखिरकार कोई मेरे हित में बोल रहा था और आज यह महसूस करने की उसकी बारी थी कि काट-छाँट होने पर कैसा लगता है। तो मैंने भी सुर में सुर मिलाते हुए कहा, “चूँकि पिछले अगुआ का काम करने का तरीका अच्छा था तो आओ हम फिर से उसी तरीके का इस्तेमाल करना शुरू करें। इस तरह हम अधिक कुशलता से काम कर सकते हैं।” जैसे ही मैंने अपनी बात खत्म की, अनायास शू ली की आँखों में अपराध बोध के आँसू भर गए और उसने कहा, “मुझे वाकई नहीं पता कि काम को कैसे व्यवस्थित किया जाए। अगर तुम्हें भविष्य में मेरी कमियाँ दिखें तो कृपया मेरी और मदद करना।” उसे इतना परेशान देखकर मैं असहज हो गई।
कुछ समय बाद चूँकि हमारी टीम के काम के नतीजे खराब हो गए थे, अगुआ हमें उसमें भटकावों का सारांश देने आई। मैं और शाओयू उन क्षेत्रों के बारे में बताती रहीं जहाँ शू ली में कमी थी। शू ली बहुत शर्मिंदा थी और उसने कहा, “अगर तुम्हें कोई समस्या मिलती है तो उन्हें सुधारने में कृपया मेरी मदद करना।” अगले दिन सभा में शू ली ने अपने अहंकारी और दंभी होने, अपने कर्तव्य में त्वरित नतीजे पाने की अपनी उत्सुकता, दिखावे के लिए काम करने पर ध्यान केंद्रित करने के बारे में बात की और बताया कि कैसे जब उसने देखा कि अगुआ उसे महत्व देती है तो वह जितनी जल्दी हो सके काम को अच्छी तरह से करना चाहती थी, ताकि अगुआ पर अच्छी छाप छोड़ सके। अपनी संगति के बाद उसने हमें उसके मसले बताने करने के लिए कहा। मैंने मन ही मन सोचा, “चूँकि तुमने खुद ही यह बात उठाई है तो मैं भी इस अवसर का इस्तेमाल तुम्हें अन्य बहनों के सामने बुरा दिखाने के लिए कर सकती हूँ।” इसलिए मैंने उसकी सारी समस्याएँ बता दी, कहा कि वह अहंकारी और दंभी है, दिखावा करना पसंद करती है, मनमानी करती है और प्रतिष्ठा और रुतबे की बहुत ज्यादा परवाह करती है। शाओयू ने भी सुर में सुर मिलाया। शू ली ने हमारी आलोचनाएँ सुनकर अपना सिर झुका लिया। जब मैंने देखा कि वह कुछ नहीं बोल रही थी तो मैंने सोचा कि क्या मैंने कुछ ज्यादा ही कर दिया था। लेकिन फिर मैंने सोचा कि मैंने जो कहा वह सच था और उसकी समस्याएँ बताने से उसे आत्म-चिंतन करने में मदद मिलेगी। बाद में शू ली काम की व्यवस्था करने में ज्यादा ही डरपोक हो गई और झिझकने लगी और कुछ चीजें जो वह पहले खुद ही संभाल सकती थी, उनके बारे में अब वह हमसे चर्चा करती थी। शाओयू कभी-कभी प्रशंसा करती थी कि कैसे पुरानी अगुआ काम की व्यवस्था करने में अच्छी थी, जिससे शू ली को ऐसा महसूस होता था कि उसके पास कार्य क्षमता की कमी है, वह हीन भावना में डूब जाती थी और नकारात्मक हो जाती थी। चूँकि मैं अक्सर शाओयू का पक्ष लेती थी, वह और अधिक अशिष्ट हो गई, कभी-कभी तो टीम के काम की व्यवस्था को अपने हाथ में लेकर शू ली को दरकिनार कर देती थी। कभी-कभी शाओयू हमारे सामने खुलेआम शू ली की काट-छाँट करती थी और उसे बहिष्कृत कर देती थी और मैं या तो उसकी बात दोहराती थी या चुप रहती थी। शाओयू ने शू ली को बहुत ज्यादा बेबस कर दिया था और वह बेहद गहरी निराशा में डूब गई थी, उसे लगा कि वह अगुआ नहीं रह सकती और इस्तीफा देना चाहती थी। मुझे एहसास हुआ कि शू ली के साथ शोहरत और लाभ के लिए शाओयू की प्रतिस्पर्धा ने काम को प्रभावित किया था और मुझे शाओयू की समस्याएँ बतानी चाहिए थी। लेकिन जब मैंने सोचा कि कैसे शू ली ने पहले दो बार मेरी काट-छाँट की थी तो मैंने बस आँखें मूंद ली। आखिरकार अगर काम अप्रभावी था तो पर्यवेक्षक द्वारा उसी की काट-छाँट की जानी थी और फिर उसे भी अपनी इज्जत खोने की कड़वाहट चखनी थी। चूँकि हम सामंजस्यपूर्ण सहयोग नहीं करते थे तो काम लगभग पूरी तरह से ठप हो गया था। अपने व्यवहार पर विचार करते हुए मुझे थोड़ा डर लगा, यह देखकर कि मैं शू ली से बदला लेने के लिए इस तरह की द्वेषपूर्ण चीजें करने में सक्षम थी। मैं कलीसिया के काम की बिल्कुल भी रक्षा नहीं कर रही थी। अगर पर्यवेक्षक ने इसके बारे में नहीं बताया होता तो मुझे आत्म-चिंतन करने का मौका नहीं मिलता।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “‘प्रतिशोध की तरफ झुकाव’ वाक्यांश से यह जाहिर है कि ये लोग बिल्कुल भी अच्छे नहीं हैं; बोलचाल की भाषा में कहें, तो ये बुरे लोग हैं। उनकी मानवता की लगातार अभिव्यक्तियों और खुलासों और साथ ही, उनके क्रियाकलाप के सिद्धांतों को देखते हुए, यह कह सकते हैं कि उनके दिल उदार नहीं हैं। जैसी कि आम कहावत है, वे ‘घटिया कारीगरी’ हैं। हम कहते हैं कि वे उदार किस्म के लोग नहीं हैं; ज्यादा खास तौर से, ये व्यक्ति रहमदिल नहीं हैं, बल्कि अपने भीतर प्रतिशोध, दुर्भावना और क्रूरता की भावनाएँ रखते हैं। जब कोई व्यक्ति कुछ ऐसा कहता या करता है जिससे इन व्यक्तियों के हितों, मान-सम्मान या रुतबे पर असर पड़ता है, या जो उन्हें नाराज करता है, तो एक बात यह है कि वे अपने दिलों में शत्रुता रखते हैं। दूसरी बात यह है कि इस शत्रुता के आधार पर वे कार्य करते हैं; वे अपनी नफरत की भड़ास निकालने और अपने गुस्से को शांत करने के उद्देश्य और निर्देश से कार्य करते हैं, जिसे प्रतिशोध लेना कहते हैं। लोगों के बीच हमेशा इस तरह के कुछ लोग होते हैं। चाहे यह कुछ ऐसा हो जिसे लोग नीच या दबंग होना होना या अति संवेदनशील होना कहते हैं, चाहे उनकी मानवता का वर्णन करने या उसे संक्षेप में प्रस्तुत करने के लिए किसी भी शब्द का उपयोग क्यों ना किया जाए, दूसरों के साथ उनके व्यवहार की सामान्य अभिव्यक्ति यह है कि जो कोई भी गलती से या जानबूझकर उन्हें चोट पहुँचाता है या नाराज करता है, उसे कष्ट सहना पड़ता है और उसके अनुरूप परिणाम भुगतने पड़ते हैं। यह वैसी बात है जैसा कुछ लोग कहते हैं : ‘उन्हें नाराज कर दो, और फिर तुम अपने अनुमान से ज्यादा ही भुगतोगे। अगर तुम उन्हें भड़काते हो या चोट पहुँचाते हो, तो हल्की सजा भुगतकर छुटकारा पाने की मत सोचो।’ क्या ऐसे व्यक्ति लोगों के बीच मौजूद हैं? (हाँ, मौजूद हैं।) यकीनन वे मौजूद हैं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (25))। “मसीह-विरोधी अपना कपट और निर्दयता कैसे अभिव्यक्त करते हैं? (झूठ गढ़ने और दूसरों को फँसाने की अपनी क्षमता में।) झूठ गढ़ने और दूसरों को फँसाने में आदतन झूठ बोलना और कपटी और निर्दयी होना दोनों शामिल हैं; ये दोनों लक्षण आपस में घनिष्ठता से जुड़े हैं। उदाहरण के लिए, अगर वे कोई दुष्कर्म करते हैं और जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते, तो वे एक मायावी रूप रचते हैं, झूठ बोलते हैं और लोगों को विश्वास दिलाते हैं कि यह किसी और का काम था, उनका नहीं। वे दोष किसी और पर मढ़ देते हैं, जिससे परिणाम उसे भुगतने पड़ते हैं। यह न सिर्फ दुष्टतापूर्ण और घिनौना है, बल्कि उससे भी ज्यादा कपटपूर्ण और निर्दयी है। मसीह-विरोधियों के कपट और निर्दयता की कुछ अन्य अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? (वे लोगों को सता सकते हैं, उन पर हमला कर सकते हैं और उनसे बदला ले सकते हैं।) लोगों को सताने में सक्षम होना निर्दयी होना है। जो कोई उनकी हैसियत, प्रतिष्ठा या ख्याति के लिए खतरा पैदा करता है, या जो कोई उनके प्रतिकूल होता है, वे उस पर हमला कर उससे बदला लेने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देंगे। कभी-कभी वे लोगों को नुकसान पहुँचाने के लिए दूसरों का इस्तेमाल भी कर सकते हैं—यह कपट और निर्दयता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग एक))। परमेश्वर उजागर करता है कि जो लोग प्रतिशोध की ओर प्रवृत्त होते हैं, वे अच्छे लोग नहीं होते और उनकी मानवता द्वेषपूर्ण होती है। क्या मैं इसी तरह का व्यवहार नहीं कर रही थी? शू ली के साथ अपने पिछले सहयोग पर चिंतन करूँ तो मैं बहन द्वारा मेरी समस्याएँ बताने को स्वीकार सकी थी, क्योंकि इसमें केवल हम दोनों शामिल थे और वाकई मेरे गौरव पर असर नहीं पड़ा था। बाद में जब शू ली टीम अगुआ बनी तो उसने बहनों के सामने दो बार मेरी समस्याएँ उजागर की, जिससे मेरा मान-सम्मान गिर गया। इससे मेरे मन में द्वेष पैदा हो गया और मैं उससे बदला लेने का अवसर ढूँढ़ने लगी थी। ऐसा हुआ कि शाओयू जब शोहरत और लाभ के लिए शू ली के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही थी, शू ली की कमियों का फायदा उठा रही थी, तो मैंने इस अवसर का इस्तेमाल शाओयू की बात दोहराने के लिए किया और ऐसी बातें कहने लगी जिनसे दूसरों की प्रशंसा होती थी और शू ली का अपमान होता था, जिससे शू ली और अधिक हीन भावना महसूस करने लगी और नकारात्मक अवस्था में जीने लगी। जब शू ली ने हमसे उसकी समस्याएँ बताने के लिए कहा तो मैंने इस अवसर का इस्तेमाल उसकी भ्रष्टताओं का खुलासा करने और उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के लिए किया, मेरा इरादा उसे बदनाम करने का था, ताकि मैं अपना कुछ सम्मान वापस पा सकूँ। शाओयू के लिए मेरे निरंतर समर्थन ने उसे और अधिक ढीठ बना दिया था, वह अक्सर शू ली में कमियाँ निकालती और उसे बहिष्कृत करती थी, जिससे शू ली इतनी नकारात्मक हो गई कि वह इस्तीफा देना चाहती थी। मैं शाओयू की समस्याएँ बताना चाहती थी, लेकिन जब मुझे याद आया कि कैसे शू ली ने मेरी काट-छाँट कर मेरा मान-सम्मान गिरा दिया था, तो मैं आँखें मूंद कर बैठ गई और शाओयू को टीम में बाधा और गड़बड़ी पैदा करने दी। मुझे यह भी उम्मीद थी कि पर्यवेक्षक शू ली की काट-छाँट करेगी या उसे किसी और से बदल देगी, ताकि वह भी अपना मान-सम्मान खोने की कड़वाहट का स्वाद चख सके। क्या मैं बदला नहीं ले रही थी और लोगों पर हमला नहीं कर रही थी? ऊपर से मैं शांत रहती थी लेकिन पर्दे के पीछे मैंने टीम अगुआ पर हमला करने और उसे बहिष्कृत करने के लिए शाओयू के साथ गुटबाजी की थी, जिसका मकसद दूसरों को एहसास कराए बिना बदला लेना था। मेरे तरीके किसी मसीह-विरोधी जैसे थे, मैं अपने गंदे काम के लिए दूसरों का इस्तेमाल करती थी। यह बहुत ही भयावह और द्वेषपूर्ण था! मैं सोचती थी कि मेरी मानवता स्वीकार्य है और मेरे पास प्रतिशोधी हृदय नहीं है, लेकिन ऐसा सिर्फ इसलिए था क्योंकि मेरे हितों पर कोई असर नहीं पड़ा था। एक बार मेरे हितों पर अतिक्रमण किया गया तो मेरी द्वेषपूर्ण प्रकृति उजागर हो गई। इस खुलासे के माध्यम से मैंने देखा कि मेरी मानवता अच्छी नहीं थी और मैं सिर्फ अपना सम्मान बचाने के लिए ऐसे द्वेषपूर्ण काम करने में सक्षम थी। मैंने काम में बाधा और गड़बड़ी पैदा की थी, शू ली को बेबस किया था और नुकसान पहुँचाया था और मैंने अपने होशहवास में गंभीर अपराध भी किए थे। जितना ज्यादा मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही ज्यादा परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस किया, इसलिए मैंने उसके सामने पश्चात्ताप किया।
उसके बाद मैं सोचने लगी कि मेरे स्वभाव के इस पहलू का खुलासा करने में मुझे किस चीज ने नियंत्रित किया था? मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “हमला और प्रतिशोध एक प्रकार का क्रियाकलाप और प्रकटावा है जो एक दुर्भावनापूर्ण शैतानी प्रकृति से आता है। यह एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव भी है। लोग इस प्रकार सोचते हैं : ‘अगर तुम मेरे प्रति निष्ठुर रहोगे तो मैं तुम्हारा बुरा करूँगा! अगर तुम मेरे साथ इज्जत से पेश नहीं आओगे तो भाल तुम्हारे साथ मैं इज्जत से क्यों पेश आऊँगा?’ यह कैसी सोच है? क्या यह प्रतिशोध लेने की सोच नहीं है? किसी साधारण व्यक्ति के विचार में क्या यह उचित नजरिया नहीं है? क्या इस बात में दम नहीं है? ‘मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता; यदि मुझ पर हमला किया जाता है, तो मैं निश्चित रूप से जवाबी हमला करूँगा’ और ‘अपनी ही दवा का स्वाद चखो’—अविश्वासी अक्सर आपस में ऐसी बातें कहते हैं, ये सभी तर्क दमदार और पूरी तरह इंसानी धारणाओं के अनुरूप हैं। फिर भी, जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्हें इन वचनों को कैसे देखना चाहिए? क्या ये विचार सही हैं? (नहीं।) ये सही क्यों नहीं हैं? इन्हें किस तरह पहचानना चाहिए? ये चीजें कहाँ से उत्पन्न होती हैं? (शैतान से।) ये शैतान से उत्पन्न होती हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। ये शैतान के किस स्वभाव से आती हैं? ये शैतान की दुर्भावनापूर्ण प्रकृति से आती हैं; इनमें विष होता है, और इनमें शैतान का असली चेहरा अपनी पूर्ण दुर्भावना तथा कुरूपता के साथ होता है। इनमें इस तरह का प्रकृति सार होता है। इस प्रकार की प्रकृति सार वाले नजरियों, विचारों, प्रकटावों, कथनी-करनियों का चरित्र क्या होता है? बेशक, यह मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है—यह शैतान का स्वभाव है। क्या ये शैतानी चीजें परमेश्वर के वचनों के अनुरूप हैं? क्या ये सत्य के अनुरूप हैं? क्या इनका परमेश्वर के वचनों में कोई आधार है? (नहीं।) क्या ये ऐसे कार्य हैं, जो परमेश्वर के अनुयायियों को करने चाहिए, और क्या उनके ऐसे विचार और दृष्टिकोण होने चाहिए? क्या ये विचार और कार्यकलाप सत्य के अनुरूप हैं? (नहीं।)” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने से ही सच्चा बदलाव आ सकता है)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि मेरे अंदर बदला लेने की मानसिकता क्यों थी, खासकर इसलिए क्योंकि मैं इन शैतानी फलसफों के अनुसार जीती थी, जैसे कि “मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता; यदि मुझ पर हमला किया जाता है, तो मैं निश्चित रूप से जवाबी हमला करूँगा,” “दाँत के बदले दाँत, आँख के बदले आँख” और “सज्जन के बदला लेने में देर क्या और सबेर क्या।” इन शैतानी जहरों ने मुझे स्वार्थी, धोखेबाज, कपटी और द्वेषपूर्ण बना दिया था। जब दूसरे मेरे गौरव या हितों पर अतिक्रमण करते थे तो मैं द्वेष रखती थी और बदला लेने के तरीके सोचने और अवसर तलाशने की कोशिश करती थी, पूरी तरह से अपनी मानवता और विवेक खो देती थी। शू ली ने दो बहनों के सामने मेरी समस्याएँ बताई थी, लेकिन मुझे लगता था कि मैंने अपना सम्मान खो दिया है और मुझमें बदला लेने की इच्छा विकसित हो गई थी, मैंने शाओयू के साथ मिलकर उस पर हमला किया और उसे बहिष्कृत कर दिया। मैं वाकई द्वेषपूर्ण थी! सच तो यह है कि शू ली का यह बताना उचित ही था कि सभाओं में संगति में दूसरों के विचारों की श्रृंखला को बाधित करना और तोड़ना एक व्यवधान है। धर्मोपदेश लेखों के बारे में बहनों के साथ चर्चा के दौरान मैंने उन्हें सत्य सिद्धांतों की खोज करने के लिए प्रेरित नहीं किया था, बल्कि अपने अहंकारी स्वभाव पर भरोसा करके उनके साथ बहस की थी, जिसका उद्देश्य उन्हें मेरी बात सुनाना था। मेरे अहंकारी स्वभाव के कारण शू ली का मेरी काट-छाँट करना मेरे लिए चीजें मुश्किल बनाने के लिए नहीं था, बल्कि मुझे खुद को जानने और अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने में मदद करने के लिए था। यह न्याय की भावना रखने की अभिव्यक्ति थी। लेकिन मैंने इसे परमेश्वर से आया मानकर नहीं स्वीकारा। इसके बजाय मैंने उसी को अपना दुश्मन माना जिसने मेरी मदद की थी और मैं गुप्त रूप से बदला लेना चाहती थी, यहाँ तक कि शाओयू के साथ मिलकर शू ली पर हमला किया और उसे बहिष्कृत कर दिया। यह मसीह-विरोधी स्वभाव का खुलासा था। मैंने देखा कि इन शैतानी जहरों के अनुसार जीना कितना भयानक है! मैंने कलीसिया से निष्कासित किए गए मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा। वे अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने पर ध्यान केंद्रित करते थे और किसी को भी अपनी समस्याएँ उजागर करने या बताने नहीं देते थे और जो कोई भी उनकी समस्याएँ उजागर करता उसे सताते थे। उन्होंने परमेश्वर के घर के कार्य को जरा भी कायम नहीं रखा था और अंत में उनके कई बुरे कर्मों के कारण उन्हें निष्कासित कर दिया गया। मेरा व्यवहार मसीह-विरोधियों के व्यवहार से किस तरह अलग था? अगर मैं नहीं बदलती तो मुझे बेनकाब करके हटा दिया जाता। मैंने देखा कि शैतानी जहरों के अनुसार जीने से मुझमें कोई मानवता नहीं बची थी, मैं कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी पैदा करती थी और परमेश्वर की घृणा और तिरस्कार का पात्र बन गई थी। मुझे शैतानी जहरों के अनुसार जीना जारी नहीं रखना चाहिए।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “यदि विश्वासी अपनी बोली और आचरण में हमेशा ठीक उसी तरह लापरवाह और असंयमित हों जैसे अविश्वासी होते हैं, तो ऐसे लोग अविश्वासी से भी अधिक दुष्ट होते हैं; ये मूल रूप से राक्षस हैं। जो लोग कलीसिया के भीतर विषैली, दुर्भावनापूर्ण बातों का गुबार निकालते हैं, भाई-बहनों के बीच अफवाहें व अशांति फैलाते हैं और गुटबाजी करते हैं, तो ऐसे सभी लोगों को कलीसिया से निकाल दिया जाना चाहिए था। अब चूँकि यह परमेश्वर के कार्य का एक भिन्न युग है, इसलिए ऐसे लोग नियंत्रित हैं, क्योंकि उन्हें निश्चित रूप से निकाला जाना है। शैतान द्वारा भ्रष्ट ऐसे सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं। कुछ के स्वभाव पूरी तरह से भ्रष्ट हैं, जबकि अन्य लोग इनसे भिन्न हैं : न केवल उनके स्वभाव शैतानी हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भी बेहद विद्वेषपूर्ण है। उनके शब्द और कृत्य न केवल उनके भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव को प्रकट करते हैं, बल्कि ये लोग असली दानव और शैतान हैं। ... परिवारों के अपने नियम होते हैं और राष्ट्रों के अपने कानून; क्या परमेश्वर के घर में यह बात और भी अधिक लागू नहीं होती? क्या इसके मानक और भी अधिक सख़्त नहीं हैं? क्या इसके पास प्रशासनिक आदेश और भी ज्यादा नहीं हैं? लोग जो चाहें वह करने के लिए स्वतंत्र हैं, परन्तु परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों को इच्छानुसार नहीं बदला जा सकता। परमेश्वर आखिर परमेश्वर है जो मानव के अपराध को सहन नहीं करता; वह परमेश्वर है जो लोगों को मौत की सजा देता है। क्या लोग यह सब पहले से ही नहीं जानते?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैंने देखा कि परमेश्वर का स्वभाव अपमान बर्दाश्त नहीं करता। जहाँ तक परमेश्वर के उन विश्वासियों की बात है जो अविश्वासियों की तरह ही कार्य करते और बोलते हैं, कलीसिया में नकारात्मकता फैलाते हैं, गुटबाजी करते हैं और पर्दे के पीछे लोगों को कमजोर करते हैं, परमेश्वर कहता है कि ऐसे लोग पक्के राक्षस और शैतान हैं। अतीत में जब मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा था तो मैंने इसे अपने ऊपर लागू नहीं किया था, क्योंकि मैं सोचती थी कि मैं परमेश्वर में विश्वास करती हूँ और ऐसे काम नहीं करूँगी। लेकिन जब परमेश्वर ने मुझे बेनकाब करने के लिए परिस्थितियों का आयोजन किया तो मुझे यह देखकर हैरानी हुई कि मैं ऐसे बुरे काम कर सकती हूँ! शू ली से बदला लेने के लिए मैंने देखा कि शाओयू शोहरत और लाभ की प्रतिस्पर्धा में हर मोड़ पर उसका विरोध कर रही थी, लेकिन मैंने शाओयू की समस्याएँ नहीं बताई, बल्कि उसका समर्थन करना चुना। इससे उसका अहंकार और बढ़ गया, जिसके कारण उसने शू ली को और भी नीचा दिखाया और उस पर हमला किया, नतीजतन शू ली नकारात्मकता से भर गई और काम का जायजा लेने की प्रेरणा खो बैठी। इसकी वजह से टीम का काम ठप होने की स्थिति में आ गया। अगर मैंने पहले शाओयू की मदद की होती तो शायद उसने शू ली को नुकसान पहुँचाने और कलीसिया के कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा करने के लिए इतनी सारी चीजें नहीं की होती और टीम का काम ठप नहीं हुआ होता। बदला लेने की चाह में मैंने कलीसिया के हितों का भी त्याग कर दिया, जिसने मूल रूप से कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी पैदा कर दी और मुझे शैतान की भूमिका निभाने के लिए मजबूर कर दिया। शाओयू और मैंने एक गुट बनाया और टीम अगुआ को कमजोर किया, टीम को अराजकता में डाल दिया और काम में देरी की। क्या यह शैतान का काम नहीं था? मैं वाकई परमेश्वर के सामने जीने लायक नहीं थी! मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “जो लोग सच्चे मन से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, परमेश्वर उनके हृदय में बसता है और उनके भीतर हमेशा परमेश्वर का भय मानने और उसे प्रेम करने वाला हृदय होता है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें सावधानी और समझदारी से कार्य करना चाहिए, और वे जो कुछ भी करें वह परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप होना चाहिये, उसके हृदय को संतुष्ट करने में सक्षम होना चाहिए। उन्हें मनमाने ढंग से कुछ भी करते हुए दुराग्रही नहीं होना चाहिए; ऐसा करना संतों की शिष्टता के अनुकूल नहीं होता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचन हमें बताते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने वालों को अपनी करनी और कथनी में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखना चाहिए और उन्हें इतना हठी नहीं होना चाहिए कि जो भी उन्हें अच्छा लगे वही करें। इसके बजाय उन्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने आस-पास के लोगों, घटनाओं और चीजों से पेश आना चाहिए। जो लोग हमें सलाह देते हैं या खासकर काट-छाँट करते हैं, उनके साथ सही तरीके से बर्ताव किया जाना चाहिए और उन पर हमला नहीं किया जाना चाहिए या उनके खिलाफ प्रतिशोध नहीं लिया जाना चाहिए। ये लोग सच बोलते हैं और हमारी सच्ची मदद करते हैं। अगर मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला जरा भी हृदय होता और मैं इन परिस्थितियों में परमेश्वर के इरादे की तलाश करती, तो मैं ऐसे काम नहीं करती जिससे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान होता। जितना मैंने इसके बारे में सोचा, मुझे उतना ही अपराध बोध हुआ और मैं व्यथित हो गई, इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, तुम्हारे प्रकाशन में मैंने देखा कि मेरी मानवता काफी द्वेषपूर्ण है और मैं व्यक्तिगत लाभ के लिए लोगों पर हमला करने और प्रतिशोध लेने और कलीसिया के काम को गंभीर नुकसान पहुँचाने में सक्षम हूँ। परमेश्वर, तुमने मेरे साथ मेरे अपराधों के अनुसार व्यवहार नहीं किया, बल्कि मुझे पश्चात्ताप करने का अवसर दिया है। मैं पश्चात्ताप करने और बदलने के लिए तैयार हूँ।”
बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “प्रेम और नफरत ऐसे गुण हैं जो एक सामान्य इंसान में होने चाहिए, लेकिन तुम्हें साफ तौर पर यह भेद पता होना चाहिए कि तुम किन चीजों से प्रेम करते हो और किनसे नफरत। अपने दिल में, तुम्हें परमेश्वर से, सत्य से, सकारात्मक चीजों और अपने भाई-बहनों से प्रेम करना चाहिए, जबकि दानवों और शैतान से, नकारात्मक चीजों से, मसीह-विरोधियों से और बुरे लोगों से नफरत करनी चाहिए। अगर तुम नफरत वश अपने भाई-बहनों को दबाकर उनसे बदला ले सकते हो तो यह बहुत भयावह होगा और यह दुष्ट व्यक्ति का स्वभाव है। कुछ लोगों में केवल नफरत और दुष्टता के सोच-विचार आते हैं, लेकिन वे लोग कभी कोई दुष्टता नहीं करते। ये बुरे लोग नहीं हैं क्योंकि जब कुछ घटित होता है तो वे सत्य को खोजने में सक्षम होते हैं, और अपने आचरण में और चीजों से निपटने के तरीके में सिद्धांतों का ध्यान रखते हैं! दूसरों से बातचीत करते समय जितना पूछना चाहिए, वे उससे ज्यादा नहीं पूछते हैं; अगर उस व्यक्ति के साथ उनकी पटरी बैठ रही है तो वे बातचीत जारी रखते हैं; अगर पटरी नहीं बैठती तो बातचीत नहीं करेंगे। इसका असर न तो उनके कर्तव्यों पर पड़ता है, न जीवन-प्रवेश पर। उनके दिल में परमेश्वर है और उनका दिल परमेश्वर का भय मानता है। उनमें परमेश्वर के अपमान की इच्छा नहीं होती और वे ऐसा करने से भी डरते हैं। हालाँकि ऐसे लोगों के अंदर कुछ गलत सोच-विचार हो सकते हैं, लेकिन वे उन विचारों के खिलाफ विद्रोह कर उनका परित्याग कर सकते हैं। वे अपने कार्य-कलापों पर लगाम लगाकर रखते हैं और ऐसी कोई बात नहीं बोलते जो अनुचित हो या परमेश्वर का अपमान करती हो। जो लोग इस तरह से बोलते और पेश आते हैं, वे सिद्धांत वाले होते हैं और सत्य का अभ्यास करते हैं। हो सकता है कि तुम्हारा व्यक्तित्व किसी और से मेल न खाए, और तुम उसे पसंद भी न करो, लेकिन जब तुम उसके साथ मिलकर काम करते हो, तो तुम निष्पक्ष रहते हो और अपना कर्तव्य निभाने में अपनी भड़ास नहीं निकालते, या परमेश्वर के परिवार के हितों पर अपनी चिढ़ नहीं दिखाते; तुम सिद्धांतों के अनुसार मामले संभाल सकते हो। यह कौन-सी अभिव्यक्ति है? यह परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होने की अभिव्यक्ति है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर ने हमें दूसरों के साथ पेश आने के सिद्धांत बताए हैं : अगर भाई-बहन ऐसी बातें कहते हैं जो हमें दुख पहुँचाती हैं तो हमें उनके साथ सही तरीके से पेश आना चाहिए। हमें कभी भी लोगों पर हमला नहीं करना चाहिए या प्रतिशोध नहीं लेना चाहिए, न ही अपनी शिकायतें अपने कर्तव्य पर निकालनी चाहिए। अपने कर्तव्यों में भाई-बहनों के साथ काम करते समय हमें दूसरों की खूबियों पर ध्यान देना चाहिए और एक-दूसरे का पूरक बनने का लक्ष्य रखना चाहिए। यह सामंजस्यपूर्ण सहयोग पाने का एकमात्र तरीका है। मैंने मेरे कारण शू ली को हुए नुकसान के बारे में सोचा तो मुझे थोड़ा अपराध बोध हुआ। उसने पहले भी मेरे साथ काम किया था और मेरी बहुत मदद की थी और जब उसने सीधे तौर पर मेरी कुछ कमियाँ बताईं तो मैंने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया। मेरी मानवता वाकई खराब थी! बाद में एक सभा के दौरान मैंने इस बीच प्रकट किए गए अपने द्वेषपूर्ण स्वभाव के बारे में शू ली को खुलकर बताने की पहल की और मैंने उससे माफी माँगी। शू ली ने मेरे खिलाफ कोई द्वेष नहीं रखा बल्कि मुझे प्रोत्साहित करते हुए कहा, “यह अच्छा है कि तुम आत्म-चिंतन कर सकती हो और खुद को पहचान सकती हो। भविष्य में जब हम अपनी भ्रष्टता प्रकट करेंगे तो हमें एक-दूसरे को इसके बारे में बताना चाहिए और एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए, ताकि हम शैतान को काम करने का मौका न दें।” एक बार, शू ली ने अगुआ और पर्यवेक्षक के सामने कहा कि टीम के सदस्यों से मेरी अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा हैं और मैं दूसरों की प्यार से मदद नहीं कर रही हूँ। यह सुनकर मैं असहज हो गई और सोचने लगी, “तुम अगुआ और पर्यवेक्षक के सामने मेरे बारे में ऐसा कैसे बोल सकती हो? वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” भले ही मैं गुस्से में थी, लेकिन मुझे लगा कि पर्यवेक्षक के सामने उससे बहस करना अनुचित है, इसलिए मैंने बस अपने दिल में चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना की। उसी पल मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपने अभिमान के बारे में चिंतित थी, मैंने सोचा कि कैसे मैंने अपने अभिमान की खातिर अपनी बहन के खिलाफ बदला लिया था और कैसे मैंने उसे वाकई नुकसान पहुँचाया था। इस बार मुझे खुद को अलग रखना और उसकी सलाह को स्वीकारना सीखना था। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, परमेश्वर से अपने हृदय की रक्षा करने और मुझे सत्य स्वीकारने का रवैया देने के लिए कहा, ताकि मैं उसके द्वारा व्यवस्थित परिवेश के प्रति समर्पित हो सकूँ। जब मैंने इस तरह सोचा तो मेरा हृदय शांत हो गया। बाद में पर्यवेक्षक ने मेरी समस्याएँ हल करने और मेरी मदद करने के लिए परमेश्वर के वचनों पर संगति की, और मुझे अपनी समस्याओं के बारे में कुछ समझ मिली। शू ली के साथ काम करते हुए मैंने कुछ सबक सीखे और कुछ ही समय बाद हमारे रास्ते अलग हो गए। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ कि उसने ऐसे परिवेश की व्यवस्था की जिसने मुझे अपनी द्वेषपूर्ण प्रकृति को समझने और दूसरों के साथ बातचीत करने का तरीका सीखने की अनुमति दी।