26. आराम की लालसा से मिला एक दर्दनाक सबक
2017 के अंत में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। मुझे थोड़ा दबाव महसूस हुआ क्योंकि मैंने पहले कभी यह कर्तव्य नहीं निभाया था, लेकिन मुझे पता था कि मेरा यह कर्तव्य निभा पाना मुझे परमेश्वर से प्रशंसा और अनुग्रह मिलना है, इसलिए मैं यह भूमिका निभाने के लिए तैयार हो गई। शुरुआत में जब भाई-बहनों का समस्याओं से सामना हुआ तो मैंने परमेश्वर पर भरोसा किया और उन्हें सुलझाने के लिए सत्य सिद्धांत खोजे। कभी-कभी मैं देर रात तक काम करती थी और फिर भी मुझे यह कठिन या थकाऊ नहीं लगता था। कुछ समय बाद कलीसिया के काम की विभिन्न मदों में कुछ सुधार हुआ और मैं इस कर्तव्य से संबंधित कुछ सिद्धांत समझने लगी, जिससे मुझे कुछ हद तक दबाव से राहत मिली।
साल बीतते रहे और मार्च 2021 तक कलीसिया में सदस्यों की बढ़ती संख्या के चलते कार्यभार बढ़ गया था और मैं दबाव में आने लगी। उस समय मेरे साथ सहयोग कर रही बहन जिंग युआन नई सदस्य थी और फिलहाल वह काम में अच्छी नहीं थी और मुश्किलों का सामना होने पर नकारात्मक हो जाती थी, इसलिए कलीसिया का ज्यादातर काम मुझ पर आ गया। पहले तो मैं चीजों को सही ढंग से देख पाती थी, सोचती थी कि चूँकि जिंग युआन को विश्वासी बने कुछ ही समय हुआ है और वह कार्य नहीं सँभाल सकती है, इसलिए यह ठीक ही है कि मैं ज्यादा काम करूँ। दिन में मैं काम करवाने और भाई-बहनों की समस्याएँ सुलझाने के लिए सभाओं में व्यस्त रहती थी। जब मैं रात को घर आती थी तो मुझे कार्य में आ रहे भटकावों और समस्याओं का सारांश भी बनाना पड़ता था। लंबे समय तक ऐसा करने के बाद मुझे लगा कि अगुआ बनना बहुत कठिन और थकाऊ है और मुझे जरा-सी भी फुर्सत नहीं मिलती थी। मेरा स्वास्थ्य खराब था, मुझे पहले कैंसर हुआ था और इससे उबरे मुझे कुछ ही साल हुए थे और डॉक्टर ने मुझे भरपूर आराम करने के लिए कहा था। मैंने मन ही मन सोचा, “मैं हर दिन इतनी व्यस्त रहती हूँ; अगर मैं इसी तरह खुद को थकाती रहूँगी तो क्या मेरी बीमारी वापस नहीं आ जाएगी? अगर ऐसा हुआ तो न सिर्फ मेरे शरीर को नुकसान होगा, बल्कि मैं मर भी सकती हूँ।” यह सोचकर मुझे बहुत चिंता हुई और अब मैं अगुआ का अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी। मैं अपने आराम के लिए थोड़ा और समय देने के लिए कोई आसान काम करना चाहती थी। कई बार ऐसा हुआ जब मैंने अपना इस्तीफा लिखना चाहा। मेरे मन में जब भी यह विचार आता मुझे थोड़ा-सा अपराध बोध होता था। कलीसिया में अगुआ बनने के लिए कोई भी उपयुक्त व्यक्ति नहीं था, इसलिए अगर मैंने इस्तीफा दे दिया तो कलीसिया के काम का क्या होगा? बाद में मैं सुसमाचार कार्य क्रियान्वित करने गई तो मैंने पाया कि भाई-बहनों के कई गलत दृष्टिकोण उनके लिए कठिनाई पैदा कर रहे थे। पहले तो मैं संगति करने और चीजें सुलझाने का प्रयास कर पाई, लेकिन कुछ समय बाद भी सुसमाचार कार्य के नतीजे खराब ही रहे। जब भी मैं यह सोचती थी कि गलतियों की समीक्षा करने और समस्याएँ सुलझाने में मुझे कितना समय और प्रयास झोंकना होगा और कैसे मुझे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के किसी भी मुद्दे की जाँच और समाधान करना जारी रखना होगा और वास्तव में कितना अधिक काम करना होगा तो मैं थकावट महसूस करती थी। मैंने सोचा, “मेरे पास पहले से ही बहुत काम है। मैं यह सब कैसे सँभालूँगी? अगर मेरे शरीर ने जवाब दे दिया तो क्या होगा? मेरा शरीर मेरा ही है, मुझे आराम से चलना होगा, मैं खुद को ऐसे थका नहीं सकती।” इसलिए जब भी मैं भाई-बहनों से मिलती तो बस संक्षेप में पूछ लिया करती थी कि क्या उपदेश के लिए कोई संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता तो नहीं है, और फिर मैं धर्म-सिद्धांत के कुछ शब्द कहती और चली जाती। कुछ ही समय बाद उच्च अगुआओं ने एक पत्र भेजा, जिसमें कहा गया कि अगुआ के वास्तविक कार्य नहीं करने के चलते सुसमाचार कार्य में नतीजे नहीं मिले रहे होंगे। मैं थोड़ी परेशान होकर सोचने लगी, “सुसमाचार कार्य मेरी जिम्मेदारी है और नतीजों की कमी सीधे मुझसे जुड़ी है।” मुझे थोड़ा दबाव भी महसूस हुआ और मैंने सोचा कि कि एक ही पहलू वाला काम करना बेहतर होगा, जैसे कलीसिया के नवागंतुकों का सिंचन करना, ऐसे में मुझे थोड़ा आराम मिल सकता है और इतनी ज्यादा थकान भी नहीं होगी। अगुआ होना बहुत कठिन काम है और अगर काम ठीक से नहीं हुआ तो मुझे ही जिम्मेदारी लेनी होगी। मुझे लगा कि मुझे सीधे जिम्मेदारी स्वीकार कर इस्तीफा दे देना चाहिए। इसलिए जब मैं उच्च अगुआ से मिली तो मैंने अपनी मुश्किलों और कष्टों के बारे में शिकायत की, कहा कि मुझमें यह कर्तव्य निभाने के लिए जरूरी काबिलियत की कमी है और मेरे अगुआ होने से भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में देरी हो रही है और कलीसिया के काम पर असर पड़ रहा है, और यह बुराई करना है। अगुआ ने मेरा इस्तीफा स्वीकार नहीं किया और इसके बजाय मुझे संगति और मदद की पेशकश की। मुझे एहसास हुआ कि मुझमें काबिलियत की कमी नहीं है, बल्कि मैं अपने शरीर की बहुत परवाह करती हूँ। और जब भी मैं यह सोचती हूँ कि मुझे शारीरिक कष्ट झेलना होगा तो मैं अब भी डर जाती हूँ कि मेरा शरीर जवाब दे देगा और सोचती हूँ कि अगर मेरी पुरानी बीमारी लौट आई और मैं मर गई तो क्या होगा। भले ही मैं अपने कर्तव्य निभाते हुए दिखती थी, लेकिन मैं तकलीफ में थी और दबाव महसूस कर रही थी। बाद में सुसमाचार कार्य की प्रभारी बहन ने मुझसे कहा, “तुम्हारी कलीसिया में सुसमाचार कार्य के खराब नतीजे सीधे तुमसे जुड़े हुए हैं।” मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया बल्कि बहाने बनाए और सफाई दी, कहा कि मुझमें काबिलियत की कमी है और मैं कार्य सँभाल नहीं सकती। उसके बाद मैं अपने कर्तव्य में लगातार निष्क्रिय रही।
एक दिन जून 2021 में एक सभा के दौरान पुलिस ने मुझे गिरफ्तार कर लिया। उसी पल मुझे साफ एहसास हुआ कि परमेश्वर मुझे यह दंड दे रहा है। मैं हमेशा अपने कर्तव्य में निष्क्रिय रही थी, हमेशा अपने शरीर की चिंता करती थी और इस्तीफा देना चाहती थी, अगुआ का कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी और अब मैंने अपना कर्तव्य निभाने का मौका गँवा दिया था। मुझे लगा कि परमेश्वर ने इस परिस्थिति का उपयोग कर्तव्य निभाने की मेरी योग्यता रद्द करने के लिए किया है और मेरा दिल पीड़ा से भर गया। बाद में परमेश्वर की सुरक्षा के कारण मुझे जल्दी से रिहा कर दिया गया। पुलिस की निगरानी और गिरफ्तारी से बचने के लिए मुझे कुछ समय के लिए छिपना पड़ा और मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए बाहर नहीं जा सकी। मैं बहुत तकलीफ में थी और बहुत नकारात्मक हो गई थी, सोच रही थी कि क्या इस स्थिति का मतलब यह है कि परमेश्वर मुझे बेनकाब कर रहा है और अब मुझे नहीं चाहता। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और परमेश्वर का इरादा समझा। परमेश्वर कहता है : “कभी-कभी, परमेश्वर तुम्हें प्रकट करने या तुम्हें अनुशासित करने के लिए किसी निश्चित मामले का उपयोग करता है। क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें हटा दिया गया है? क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हारा अंत आ गया है? नहीं। ... दरअसल, कई मामलों में लोगों की चिंता अपने स्वार्थ से ही उपजती है। आम तौर पर, यह भय होता है कि उनके पास कोई परिणाम नहीं होगा। वे हमेशा सोचते हैं, ‘अगर परमेश्वर मुझे प्रकट कर देता है, हटा देता है और नकार देता है, तो क्या होगा?’ यह तुम्हारे द्वारा परमेश्वर को गलत समझना है; यह सिर्फ तुम्हारी एक-तरफा अटकलबाजी है। तुम्हें पता लगाना होगा कि परमेश्वर का इरादा क्या है। जब वह लोगों को प्रकट करता है, तो यह उन्हें हटाने के लिए नहीं होता। लोगों को इसलिए प्रकट किया जाता है ताकि उन्हें अपनी कमियों का, गलतियों का और अपने प्रकृति सारों का पता चले, ताकि वे खुद को जानकर सच्चा पश्चात्ताप करने में समर्थ बन सकें; इस कारण, लोगों को प्रकट इसलिए किया जाता है ताकि उनका जीवन विकसित हो सके। शुद्ध समझ के बिना, लोग परमेश्वर की गलत व्याख्या करके नकारात्मक और कमजोर हो सकते हैं। वे बुरी तरह निराश भी हो सकते हैं। वास्तव में, परमेश्वर द्वारा प्रकट किए जाने का अर्थ आवश्यक रूप से यह नहीं है कि तुम्हें हटा ही दिया जाएगा। यह इसलिए है ताकि तुम अपनी भ्रष्टता जान सको और यह तुमसे पश्चात्ताप करवाने के लिए है। अक्सर, चूँकि लोग विद्रोही हो जाते हैं, और भ्रष्टता प्रकट करने पर वे सत्य में समाधान नहीं ढूँढ़ते, इसलिए परमेश्वर को उन्हें अनुशासित करना पड़ता है। और इसलिए, कभी-कभी, वह लोगों को प्रकट कर उनकी कुरूपता और दयनीयता को प्रकट कर देता है, जिससे वे खुद जान जाते हैं, इससे उनके जीवन को विकसित होने में मदद मिलती है। लोगों को प्रकट करने के दो अलग-अलग निहितार्थ हैं : बुरे लोगों के लिए, प्रकट किए जाने का अर्थ है उन्हें हटाया जाना। जो लोग सत्य स्वीकार कर सकते हैं, उनके लिए यह एक अनुस्मारक और एक चेतावनी है; उनसे आत्मचिंतन कराया जाता है और उन्हें उनकी वास्तविक दशा दिखाई जाती है और उन्हें पथभ्रष्ट और लापरवाह होने से रोका जाता है, क्योंकि अगर ऐसा ही चलता रहा, तो यह खतरनाक होगा। इस तरह से लोगों को प्रकट करना उन्हें चेताना है, अन्यथा वे अपने कर्तव्य निर्वहन में वे भ्रमित और लापरवाह हो जाते हैं, चीजों को गंभीरता से लेने में असफल हो जाते हैं, थोड़े-से परिणाम पाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं, और सोचते हैं कि उन्होंने अपना काम एक स्वीकार्य मानक तक पूरा कर लिया है जबकि सच्चाई यह है कि परमेश्वर की माँगों के अनुसार मापने पर वे मानक से बहुत दूर होते हैं, और फिर भी वे खुद से संतुष्ट रहते हैं और मानते हैं कि वे ठीक-ठाक कर रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में, परमेश्वर लोगों को अनुशासित करता है, उन्हें सावधान कर याद दिलाता है। कभी-कभी, परमेश्वर उनकी कुरूपता प्रकट करता है—जो कि स्पष्ट रूप से उन्हें याद दिलाने के लिए है। ऐसे में तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए : इस तरह से अपने कर्तव्य का पालन करना ठीक नहीं है, तुममें विद्रोह शामिल है, तुममें बहुत अधिक नकारात्मक तत्व हैं, जो कुछ भी तुम करते हो वह अनमना होता है, और यदि तुम अब भी पश्चात्ताप नहीं करते हो, तो न्यायसंगत रूप से तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यदा-कदा, परमेश्वर जब तुम्हें अनुशासित करता है या प्रकट करता है, तो इसका मतलब आवश्यक रूप से यह नहीं होता कि तुम्हें हटा दिया जाएगा। इस बात को सही ढंग से समझा जाना चाहिए। यहाँ तक कि अगर तुम्हें हटा भी दिया जाए, तो तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए और इसके प्रति समर्पित होना चाहिए, और जल्दी से चिंतन और पश्चात्ताप करना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अभ्यास और परमेश्वर को समर्पण करके ही व्यक्ति अपने स्वभाव में बदलाव हासिल कर सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने उसके बारे में मेरी गलतफहमी दूर कर दी। मैंने सोचा था कि गिरफ्तार होना और अपना कर्तव्य गँवाना परमेश्वर द्वारा मुझे बेनकाब करने और निकालने के लिए इस स्थिति का उपयोग करना था, लेकिन असल में यह स्थिति परमेश्वर द्वारा मुझे याद दिलाने और चेतावनी देने के लिए थी और इसने मुझे आत्म-चिंतन करने के लिए प्रेरित किया। मैंने हमेशा मुश्किलों और कष्टों के बारे में शिकायत की थी और अपने कर्तव्य में वास्तविक कार्य करने के बजाय आराम की लालसा की थी, जिससे काम में बाधा ही पैदा हुई। अगर मेरे साथ यह स्थिति नहीं हुई होती तो मैं आत्म-चिंतन नहीं करती और अपने कर्तव्य को हल्के में लेती रहती। इससे काम को अपूरणीय क्षति होती और परमेश्वर क्रोधित होता, जिसके परिणामस्वरूप मुझे पक्का निकाल दिया जाता। मुझे पता था कि मुझे संपूर्ण आत्म-चिंतन करना चाहिए और वाकई पश्चात्ताप करना चाहिए, क्योंकि यही परमेश्वर के इरादे के अनुरूप था। मैं अब परमेश्वर को गलत नहीं समझ सकती थी। इसलिए मैं आत्म-चिंतन करने लगी और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे विनती की कि इस मामले से सबक सीखने में वह मेरा मार्गदर्शन करे।
बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “कर्तव्य करते समय, लोग हमेशा हल्का काम चुनते हैं, ऐसा काम जो थकाए नहीं और जिसमें बाहर जाकर चीजों का सामना करना शामिल न हो। इसे आसान काम चुनना और कठिन कामों से भागना कहा जाता है, और यह दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्ति है। और क्या? (अगर कर्तव्य थोड़ा कठिन, थोड़ा थका देने वाला हो, अगर उसमें कीमत चुकानी पड़े, तो हमेशा शिकायत करना।) (भोजन और वस्त्रों की चिंता और दैहिक आनंदों में लिप्त रहना।) ये सभी दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्तियाँ हैं। जब ऐसे लोग देखते हैं कि कोई कार्य बहुत श्रमसाध्य या जोखिम भरा है, तो वे उसे किसी और पर थोप देते हैं; खुद वे सिर्फ आसान काम करते हैं, और यह कहते हुए बहाने बनाते हैं कि उनकी काबिलियत कम है, कि उनमें उस कार्य को करने की क्षमता नहीं है और वे उस कार्य का बीड़ा नहीं उठा सकते—जबकि वास्तव में, इसका कारण यह होता है कि वे दैहिक सुखों का लालच करते हैं। वे कोई भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे कष्ट नहीं उठाना चाहते। ... ऐसा भी होता है कि लोग अपना कर्तव्य करते समय कठिनाइयों की शिकायत करते हैं, वे मेहनत नहीं करना चाहते, जैसे ही उन्हें थोड़ा अवकाश मिलता है, वे आराम करते हैं, बेपरवाही से बकबक करते हैं, या आराम और मनोरंजन में हिस्सा लेते हैं। और जब काम बढ़ता है और वह उनके जीवन की लय और दिनचर्या भंग कर देता है, तो वे इससे नाखुश और असंतुष्ट होते हैं। वे भुनभुनाते और शिकायत करते हैं, और अपना कर्तव्य करने में अनमने हो जाते हैं। यह दैहिक सुखों का लालच करना है, है न? ... कलीसिया का काम या उनके कर्तव्य कितने भी व्यस्ततापूर्ण क्यों न हों, उनके जीवन की दिनचर्या और सामान्य स्थिति कभी बाधित नहीं होती। वे दैहिक जीवन की छोटी से छोटी बात को लेकर भी कभी लापरवाह नहीं होतीं और बहुत सख्त और गंभीर होते हुए उन्हें पूरी तरह से नियंत्रित करती हैं। लेकिन, परमेश्वर के घर का काम करते समय, मामला चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो और भले ही उसमें भाई-बहनों की सुरक्षा शामिल हो, वे उससे लापरवाही से निपटती हैं। यहाँ तक कि वे उन चीजों की भी परवाह नहीं करती, जिनमें परमेश्वर का आदेश या वह कर्तव्य शामिल होता है, जिसे उन्हें करना चाहिए। वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेतीं। यह देह-सुखों के भोग में लिप्त होना है, है न? क्या दैहिक सुखों के भोग में लिप्त लोग कोई कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त होते हैं? जैसे ही कोई उनसे कर्तव्य करने या कीमत चुकाने और कष्ट सहने की बात करता है, तो वे इनकार में सिर हिलाते रहते हैं। उन्हें बहुत सारी समस्याएँ होती हैं, वे शिकायतों से भरे होते हैं, और वे नकारात्मकता से भरे होते हैं। ऐसे लोग निकम्मे होते हैं, वे अपना कर्तव्य करने की योग्यता नहीं रखते, और उन्हें हटा दिया जाना चाहिए” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2))। “ऐसा इसलिए है क्योंकि जो चीज परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध को सबसे स्पष्ट रूप से दिखाती है, वह यह है कि तुम उन मामलों और कर्तव्यों से कैसे बर्ताव करते हो, जिन्हें परमेश्वर तुम्हें सौंपता और निभाने को देता है, और तुम्हारा रवैया कैसा है। यही मुद्दा है जो सबसे ज्यादा गौर करने लायक और सबसे ज्यादा व्यावहारिक है। परमेश्वर इंतजार कर रहा है; वह तुम्हारा रवैया देखना चाहता है। इस अहम पड़ाव पर, तुम्हें जल्दी करनी चाहिए और परमेश्वर को अपनी स्थिति से अवगत कराना चाहिए, उसका आदेश स्वीकारना और अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए। इस महत्वपूर्ण बिंदु को समझने और परमेश्वर द्वारा सौंपे आदेश को पूरा कर लेने के बाद, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाएगा। जब परमेश्वर तुम्हें कोई कार्य सौंपता है, या तुमसे कोई कर्तव्य निभाने को कहता है, तब अगर तुम्हारा रवैया सतही और उदासीन होता है, और तुम इसे गंभीरता से नहीं लेते, तो क्या यह अपना पूरा मन और ताकत लगाने के बिल्कुल विपरीत नहीं है? क्या तुम इस तरह से अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकते हो? निश्चित रूप से नहीं। तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाओगे। इसलिए, अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारा रवैया उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना तुम्हारे द्वारा चुना गया तरीका और मार्ग। इससे फर्क नहीं पड़ता कि लोगों ने कितने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है, जो लोग अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाएँगे, उन्हें निकाल दिया जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों पर आत्म-चिंतन करते हुए मुझे ऐसा लगा मानो मेरा दिल छलनी हो गया हो, जैसे परमेश्वर मेरे सामने खड़ा हो और मेरा न्याय कर रहा हो। परमेश्वर लोगों को इस उम्मीद में आदेश देता है कि वे इन्हें अपने पूरे दिल और ताकत से पूरा कर सकें, लेकिन मेरा अपने कर्तव्य के प्रति इतना तिरस्कारपूर्ण रवैया था और मैंने अपनी जिम्मेदारियाँ बिल्कुल भी पूरी नहीं कीं। जब मेरे कर्तव्यों में थोड़ी-सी व्यस्तता बढ़ गई या ऐसी मुश्किलें आईं जिनके समाधान के लिए मुझे दिमाग लड़ाने या कीमत चुकाने की जरूरत पड़ी तो मैंने आराम की लालसा और शिकायत की, मुश्किल सहने या कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं हुई। यहाँ तक कि मैं इस्तीफा देकर अपने कर्तव्यों से बचना चाहती थी। मैंने उस समय के बारे में सोचा जब मैंने पहली बार कलीसिया अगुआ का कर्तव्य सँभाला था। भले ही तब करने के लिए बहुत काम था, लेकिन मैंने परमेश्वर पर भरोसा किया और वास्तविक कीमत चुकाई और परमेश्वर ने मेरा मार्गदर्शन किया और काम में कुछ प्रगति हुई। बाद में जैसे-जैसे कलीसिया के सदस्यों की संख्या बढ़ती गई तो काम भी बढ़ गया और मेरी साथी बहन भी फिलहाल नई ही थी, इसलिए कलीसिया के ज्यादातर कामों में मेरी निजी भागीदारी की जरूरत थी। मैं दिन-रात व्यस्त रहती थी और मुझे लगता था कि मैं शारीरिक कष्ट झेल रही हूँ। मुझे खास तौर पर चिंता थी कि मुझे फिर से कैंसर हो सकता है, इसलिए मैं अब अपने कर्तव्यों में दिल नहीं लगाना चाहती थी। सुसमाचार के काम में कोई प्रगति न होते देखकर मैंने मुश्किलों और तकलीफों के बारे में शिकायत की, बहाने बनाए कि मैं काम नहीं कर सकती क्योंकि मुझमें काबिलियत की कमी है, मैं हमेशा आसान काम के लिए अपनी जिम्मेदारियों से बचना चाहती थी। सच तो यह था कि अगर मैं कीमत चुकाने को तैयार होती तो मैं अच्छी तरह से काम कर सकती थी, लेकिन मैं मुसीबत से डरती थी और भाई-बहनों की मुश्किलें सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों की तलाश करने का प्रयास नहीं करना चाहती थी। मुझे यह डर था कि मेरा शरीर जवाब दे देगा, इसलिए मैं बेपरवाह होकर धीमी कार्य प्रगति को चुपचाप देखती रही जिसके परिणामस्वरूप सुसमाचार का काम महीनों तक अप्रभावी रहा। इसका सारा कारण यह था कि मैं आराम की अत्यधिक इच्छा करती थी। यह मामला होने के बावजूद जब बहन ने मेरी काट-छाँट की तो मैंने आत्म-चिंतन करने के बजाय खुद को सही ठहराने की कोशिश की। अपने कर्तव्यों के प्रति मेरे रवैये से परमेश्वर को घृणा और खीझ हुई। परमेश्वर ने इस स्थिति का उपयोग मेरे कर्तव्य रोकने के लिए किया, जिससे परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव पूरी तरह से प्रकट हो गया। लेकिन मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया और सोचा कि परमेश्वर इस स्थिति का उपयोग मुझे बेनकाब कर निकालने के लिए कर रहा है और मैं गलतफहमी में जीती रही। मैं परमेश्वर के अच्छे इरादे जरा भी नहीं समझ पाई! इसका एहसास होने पर मैं परमेश्वर के प्रति बहुत आभारी हो गई और इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैंने अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाईं और जब मुश्किलों का सामना हुआ तो मैंने शिकायत की, सिर्फ अपनी देह की चिंता की और थकने से डरती रही। मैंने तुम्हारे इरादे पर जरा भी विचार नहीं किया। अब मैं अपनी विद्रोही प्रवृत्ति पहचानती हूँ और पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ। मुझे नहीं पता कि भविष्य में मुझे कर्तव्य निभाने का अवसर मिलेगा या नहीं, लेकिन अगर मुझे अवसर मिला तो मैं तुम्हारे इरादे पर विचार करने को तैयार हूँ और अब शारीरिक आराम की लालसा नहीं करूँगी।”
उसके बाद मैं शांत हो गई, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और उससे प्रार्थना की, आत्म-चिंतन किया कि मैं अपने कर्तव्यों में कष्ट सहने या कीमत चुकाने के लिए क्यों तैयार नहीं थी। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? तुम लोगों के बीच कितने सारे वचन कहे गए हैं? क्या तुम लोगों के बीच केवल थोड़ा-सा ही कार्य किया गया है? मैंने तुम लोगों के बीच कितनी आपूर्ति की है? तो फिर तुमने इसे प्राप्त क्यों नहीं किया? तुम्हें किस बात की शिकायत है? क्या यह बात नहीं है कि तुमने इसलिए कुछ भी प्राप्त नहीं किया है क्योंकि तुम देह से बहुत अधिक प्रेम करते हो? क्योंकि तुम्हारे विचार बहुत ज्यादा निरर्थक हैं? क्योंकि तुम बहुत ज्यादा मूर्ख हो? यदि तुम इन आशीषों को प्राप्त करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम परमेश्वर को दोष दोगे कि उसने तुम्हें नहीं बचाया? ... तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर उजागर करता है कि जब लोग अपने कर्तव्यों में मुश्किलों का सामना करते हैं तो वे शिकायत करते हैं और उन्हें करने के लिए तैयार नहीं होते हैं और ऐसे लोग जो आराम की लालसा करते हैं, वे सूअरों की तरह होते हैं, जो सिर्फ खाने-पीने और सोने के लिए ही जीते हैं, कोई सकारात्मक अनुसरण नहीं करते हैं। परमेश्वर के वचनों पर आत्म-चिंतन करते हुए मैंने देखा कि मैं भी ऐसी ही थी। अगुआ का कर्तव्य निभाना मेरे लिए अभ्यास करने का अवसर था, जिससे मुश्किलें आने पर मैं सत्य खोज सकती थी और कार्य की जिम्मेदारी ले सकती थी। लेकिन जब मैंने देखा कि अगुआ होने का मतलब बहुत अधिक चिंता और कड़ी मेहनत करना है तो मैंने प्रतिरोधी महसूस किया और जब सुसमाचार का कार्य अप्रभावी हो गया और मुझे कष्ट सहना पड़ा और कीमत चुकानी पड़ी तो मैंने सिर्फ अपने शरीर की परवाह की, डरती रही कि थकावट के कारण मुझे फिर से कैंसर हो जाएगा, इसलिए मैं बहाने बनाती रही और इस्तीफा देना चाहा। मैंने देखा कि मेरे पास कोई अंतरात्मा या जिम्मेदारी की भावना नहीं थी। मैं अपने कर्तव्यों के प्रति गैर-जिम्मेदार थी और उन्हें हल्के में लेती थी, परिणामस्वरूप सुसमाचार कार्य में कोई प्रगति नहीं हुई और मैंने भाई-बहनों की कोई मदद भी नहीं की। भले ही मैंने खुद को नहीं थकाया, लेकिन कलीसिया के कार्य में देरी कर दी। मैं एक स्वार्थी और गैर-भरोसेमंद इंसान थी, परमेश्वर को मुझसे घृणा और खीझ कैसे न होती? जब कलीसिया में कम सदस्य थे, तब के बारे में सोचते हुए, भले ही काम बहुत था और काम में कुछ मुश्किलें थीं, कीमत चुकाने से कुछ ही समय बाद काम में सुधार के संकेत दिखाई दिए और मुझे कुछ सत्य सिद्धांत समझ में आ गए। जब कलीसिया के सदस्यों की संख्या बढ़ी और काम में कुछ समस्याएँ सामने आईं तो मैं कीमत चुकाने या उन्हें सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करने के लिए तैयार नहीं हुई, क्योंकि मुझे डर था कि मेरा शरीर जवाब दे जाएगा। नतीजतन न सिर्फ काम अप्रभावी रहा बल्कि मुझे कोई सत्य भी नहीं मिला। परमेश्वर ने मेरे लिए इतनी बड़ी कीमत चुकाई है, उसने मेरा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध करने और बदलने के लिए कई परिस्थितियों की व्यवस्था की और उसने मुझे अपने कर्तव्यों के माध्यम से सत्य पाने का अवसर दिया, लेकिन जब शारीरिक पीड़ा से जुड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा तो मैं पीछे हट गई। इसका मतलब यह था कि मैंने न सिर्फ परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादे को निराश किया, बल्कि मैंने कलीसिया के काम को भी नुकसान पहुँचाया और अपने पीछे अपराध छोड़ गई। मुझे बहुत अपराध बोध हुआ और मैंने पश्चात्ताप करने की इच्छा से परमेश्वर से प्रार्थना की।
प्रार्थना करने के बाद मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए। यह मनुष्य का सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीके से विश्वासघात कर रहे हो। इसमें, तुम यहूदा से भी अधिक शोचनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। यह सच था। मैं अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन थी, मैं प्रतिरोधी महसूस किया और मुझमें जिम्मेदारी की भावना की कमी थी। यह परमेश्वर के साथ गंभीर विश्वासघात था और मैं यहूदा से भी अधिक दयनीय थी। यहूदा ने अपने स्वार्थ के लिए प्रभु यीशु फँसा दिया, और उस समय परमेश्वर ने उसे अधिक उपदेश नहीं दिया। लेकिन इस दौर में मैं परमेश्वर के बहुत सारे वचन पढ़ चुकी थी और कुछ सत्य और लोगों को बचाने के परमेश्वर के इरादे समझ चुकी थी, फिर भी परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए अपने कर्तव्य निभाने की पूरी कोशिश करने के बजाय मैंने अपने शरीर की परवाह की और कलीसिया के काम के प्रति गैर-जिम्मेदार रही। क्या मेरे कार्य यहूदा से भी अधिक घृणित नहीं थे? अपने कर्तव्यों में मैंने सिर्फ अपनी देह के बारे में सोचा, हमेशा आसान विकल्प चुना और कलीसिया के काम की पूरी तरह से अवहेलना की। मेरा व्यवहार परमेश्वर के प्रति विश्वासघात का नमूना था और परमेश्वर से शाप और दंड पाने का हकदार था। सच तो यह है कि अगर मैं अपने कर्तव्यों में ज्यादा मेहनती होती और कुछ प्रयास करने और कीमत चुकाने को तैयार होती तो सुसमाचार का काम महीनों तक अप्रभावी नहीं होता। मैंने अपने कर्तव्य हल्के में लिए और सुसमाचार के कार्य में देरी की। यह एक गंभीर अपराध था! इसका एहसास होने पर मैं डर गई। मैंने इस तथ्य पर आत्म-चिंतन किया कि अपने कर्तव्यों के प्रति मेरे रवैये से परमेश्वर को सचमुच खीझ और घृणा हुई और मैं शाप पाने लायक थी। लेकिन परमेश्वर ने मेरे कार्यों के अनुसार मेरे साथ व्यवहार नहीं किया। इसके बजाय उसने मुझे सीसीपी से गिरफ्तार कराने का इस्तेमाल किया ताकि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव पर आत्म-चिंतन करने और उसे पहचानने के लिए उसके सामने आऊँ, उसे यह उम्मीद थी कि मैं अपनी देह के सुख त्यागकर उसकी ओर मुड़ सकूँ। मैं परमेश्वर का न्याय स्वीकारने और परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करने के लिए तैयार थी और भविष्य में चाहे मेरे कर्तव्य कितने भी थकाऊ या कठिन क्यों न हों, मैं उनसे पीछे नहीं हटूँगी और मैं सिर्फ उन्हें करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहती थी।
अपने शरीर के जवाब देने के निरंतर भय और अपनी मृत्यु-भय की स्थिति के समाधान के लिए बाद में मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े जिन्होंने मेरी चिंताओं का समाधान किया। परमेश्वर कहता है : “दरअसल, यदि किसी के हृदय में वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास है, तो उसे सबसे पहले यह जान लेना चाहिए कि व्यक्ति का जीवनकाल परमेश्वर के हाथों में है। व्यक्ति के जन्म और मृत्यु का समय परमेश्वर ने पूर्व नियत किया है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “कुछ लोग अपनी बीमारियों के इलाज के लिए भिन्न-भिन्न तरीके आजमाते हुए हर संभव प्रयास करते हैं, लेकिन चाहे कोई भी उपचार किया जाए, उन्हें ठीक नहीं किया जा सकता है। जितना अधिक उनका इलाज किया जाता है, बीमारी उतनी ही गंभीर होती जाती है। बीमारी के साथ वास्तव में क्या हो रहा है इसका पता लगाने और मूल कारण की तलाश करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने के बजाय, वे मामले को अपने हाथों में लेते हैं। वे बहुत सारे तरीके अपनाते हैं और काफी पैसा भी खर्च करते हैं, लेकिन फिर भी उनकी बीमारी ठीक नहीं होती है। और फिर, जब उन्होंने इलाज करना छोड़ दिया, तो कुछ समय बाद बीमारी अप्रत्याशित रूप से अपने आप ठीक हो जाती है, और उन्हें पता भी नहीं चलता कि यह कैसे हुआ। कुछ लोगों को कोई मामूली-सी बीमारी हो जाती है और वे इसकी ज्यादा चिंता नहीं करते, लेकिन एक दिन उनकी हालत बिगड़ जाती है और वे अचानक मर जाते हैं। यह क्या हो रहा है? लोग इसकी थाह पाने में असमर्थ हैं; वास्तव में, परमेश्वर के दृष्टिकोण से, ऐसा इसलिए है क्योंकि इस दुनिया में उस व्यक्ति का मिशन पूरा हो गया था, इसलिए परमेश्वर उसे ले गया। लोग अक्सर कहते हैं, ‘यदि लोग बीमार नहीं हैं तो वे मरते नहीं हैं।’ क्या वास्तव में ऐसा ही है? ऐसे लोग भी हैं जिन्हें अस्पताल में जाँच के बाद पता चला कि उन्हें कोई बीमारी नहीं है। वे अत्यंत स्वस्थ थे लेकिन कुछ ही दिनों में उनकी मृत्यु हो गई। इसे कहते हैं बिना बीमारी के मरना। ऐसे बहुत से लोग हैं। इसका मतलब यह है कि व्यक्ति अपने जीवनकाल के अंत तक पहुँच चुका है, और उसे आध्यात्मिक जगत में वापस ले जाया जा चुका है। कुछ लोग कैंसर और तपेदिक से बच गए हैं और सत्तर या अस्सी की उम्र में अभी भी जीवित हैं। ऐसे बहुत से लोग हैं। यह सब परमेश्वर के विधान पर निर्भर है। इस समझ का होना ही परमेश्वर में सच्चा विश्वास है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि मेरी बीमारी वापस आएगी या नहीं और मैं मरूँगी या नहीं, यह सब परमेश्वर के हाथों में है और ये ऐसी चीजें नहीं हैं जिन्हें मैं नियंत्रित कर सकती हूँ। जैसे मुझे कैंसर मेरी अपनी इच्छा से नहीं हुआ था और मैं कब बीमार पड़ूँगी और कब ठीक हो जाऊँगी, यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित था। मुझे जो करना चाहिए वो है परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना और मुझे जीवन और मृत्यु के बारे में व्यर्थ चिंता नहीं करनी चाहिए। मुझे हमेशा चिंता रहती थी कि अपने कर्तव्यों में खुद को थका देने से मेरी बीमारी वापस आ जाएगी और मैं मर जाऊँगी, मैंने अपने कर्तव्यों में जिम्मेदारी की भावना नहीं समझी थी और मैंने कलीसिया के काम में देरी की थी। उस समय मुझे समझ आया कि किसी व्यक्ति का जीवन-मरण परमेश्वर के हाथ में है और चाहे मुझे फिर से कैंसर हो या न हो, मुझे अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने होंगे और अगर परमेश्वर मुझे मरने देता है तो मुझे स्वीकारने और समर्पण का रवैया रखना चाहिए, जो परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है।
मैंने यह भी सोचा कि नूह ने परमेश्वर के आदेश को कैसे लिया था। परमेश्वर कहता है : “तमाम तरह की परेशानियों, कठिन स्थितियों और चुनौतियों का सामना करते हुए, नूह कभी पीछे नहीं हटा। जब कभी वह किसी तकनीकी कार्य में नाकाम हो जाता, कोई टूट-फूट हो जाती, तो भले ही नूह अपने दिल में परेशान और चिंतित महसूस करता था, लेकिन जब वह परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचता, जब उसे परमेश्वर के आदेश के तमाम वचन याद आते, परमेश्वर द्वारा अपना उत्कर्ष याद आता, तो अक्सर उसके अंदर प्रेरणा और स्फूर्ति भर जाती : ‘मैं हार नहीं मान सकता, परमेश्वर ने मुझे जो आज्ञा दी है और जो कार्य मुझे सौंपा है, मैं उसे छोड़ नहीं सकता; यह परमेश्वर का आदेश है और चूँकि मैंने इसे स्वीकार किया है, मैंने परमेश्वर के वचन और उसकी वाणी सुनी है, चूँकि मैंने इसे परमेश्वर से स्वीकार किया है, तो मुझे पूरी तरह से समर्पण करना चाहिए और यही वह है जिसे मनुष्य को हासिल करना चाहिए।’ इसलिए उसे कितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, जिस भी तरह के उपहास या बदनामी का सामना करना पड़ा, उसका शरीर कितना भी कमजोर हुआ, कितना भी थका, लेकिन उसने परमेश्वर द्वारा सौंपा गया काम नहीं छोड़ा, उसने परमेश्वर की कही हर बात और आज्ञा को लगातार दिलो-दिमाग में रखा। उसके परिवेश चाहे जैसे बदले, उसने कितनी भी भयंकर कठिनाइयों का सामना किया, पर उसे भरोसा था कि मुसीबतों के ये बादल एक दिन छँट जाएँगे, एकमात्र परमेश्वर के वचन ही शाश्वत हैं और केवल वही जो परमेश्वर ने करने की आज्ञा दी है, निश्चित रूप से पूरा होगा। नूह को परमेश्वर में सच्चा विश्वास था और उसमें वह समर्पण था जो उसमें होना चाहिए था, उसने वह जहाज बनाना जारी रखा जिसके निर्माण के लिए परमेश्वर ने उसे आदेश दिया था। दिन गुजरते गए, साल गुजरते गए और नूह बूढ़ा हो गया, लेकिन उसका विश्वास कम नहीं हुआ, परमेश्वर का आदेश पूरा करने के उसके रवैये और दृढ़-संकल्प में कोई बदलाव नहीं आया। यद्यपि ऐसा भी समय आया जब उसका शरीर थकने लगा, उसे कमजोरी महसूस होने लगी और वह बीमार पड़ गया, दिल से वह कमजोर हो गया, लेकिन परमेश्वर के आदेश को पूरा करने और उसके वचनों के प्रति समर्पण करने का उसका संकल्प और दृढ़ता कम नहीं हुई। जिन वर्षों में नूह ने नाव बनाई, उनमें वह परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों को सुनने और उनके प्रति समर्पण करने का अभ्यास कर रहा था, और वह परमेश्वर का आदेश पूरा करने के लिए जरूरी एक सृजित प्राणी और साधारण व्यक्ति के एक महत्वपूर्ण सत्य का अभ्यास भी कर रहा था” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि नूह परमेश्वर के इरादे पर विचार करने में सक्षम था। जहाज बनाने में बड़ी मुश्किल का सामना करते हुए भले ही उसके शरीर को बहुत कष्ट सहने पड़े, फिर भी वह पीछे नहीं हटा। इसके बजाय वह सौ साल तक दिन-रात परमेश्वर द्वारा दिए गए कार्य में लगा रहा, जब तक कि जहाज नहीं बन गया। नूह के अभ्यास से अपनी तुलना करने पर मुझे बहुत ही शर्म और अपमान का एहसास हुआ। मैंने अपने कर्तव्य में दृढ़ता नहीं दिखाई, बल्कि मैंने मुश्किलों और कष्टों के बारे में शिकायत की और हर मोड़ पर सिर्फ अपने शरीर के बारे में सोचा। मैं किसी भी तरह से नूह के बराबर नहीं थी, मैं सिर्फ अंतरात्मा रहित इंसान थी। मुझे कैंसर था और मैं परमेश्वर की सुरक्षा में ठीक हो गई और अपने कर्तव्य निभाने के इन वर्षों में मेरी बीमारी वापस नहीं आई, लेकिन परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने की कोशिश करने के बजाय, मैं हमेशा अपने शरीर के बारे में सोचती रहती थी, दोबारा कैंसर होने को लेकर चिंतित रहती थी और मैं हमेशा शारीरिक आराम की तलाश करती रहती थी। एक से अधिक बार मैंने अपने कर्तव्य से बचना भी चाहा था। मुझमें परमेश्वर के लिए कोई वफादारी नहीं थी, मैं वाकई स्वार्थी और नीच थी, बिना किसी मानवता या विवेक के! जितना अधिक मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही अधिक मुझे अपराध बोध हुआ और मैंने खुद को परमेश्वर के उत्कर्ष और उद्धार के लायक नहीं माना। मुझे नूह के उदाहरण का अनुसरण करना था और अपनी देह पर ध्यान देना बंद करना था। अगर मुझे अपने कर्तव्यों को पूरा करने का एक और अवसर दिया जाता तो मुझे उसे सँजोना था।
बाद में उच्च अगुआओं ने मुझे नवागंतुकों की एक कलीसिया के काम की देखरेख में लगाया। मैं बहुत खुश थी, जानती थी कि परमेश्वर मुझे पश्चात्ताप करने का मौका दे रहा है। जब मैं नवागंतुकों की कलीसिया में पहुँची तो मैंने देखा कि काम के नतीजे खराब थे, खासकर सुसमाचार कार्य में फिलहाल कोई प्रगति नहीं हुई थी और टीम में कम लोग थे। इससे मुझे लगा कि मुश्किलें वाकई बहुत बड़ी हैं और मैंने सोचा, “इस काम को अच्छी तरह से करने के लिए बहुत प्रयास करना पड़ेगा, साथ ही विभिन्न कार्य सिद्धांतों का अध्ययन और महारत हासिल करनी होगी। मेरा स्वास्थ्य अच्छा नहीं है, अगर मेरा शरीर जवाब दे गया तो क्या होगा?” इसलिए मैं कोई कीमत नहीं चुकाना चाहती थी। लेकिन मुझे एहसास हुआ कि मेरी सोच गलत थी और इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, जब कलीसिया के काम में मुश्किलें आती हैं तो मैं अब अपनी देह पर ध्यान नहीं देना चाहती, तुम्हारे साथ सहयोग करने के लिए मुझमें अंतरात्मा और विवेक होना चाहिए, मेरा मार्गदर्शन करो। मैं काम को अच्छी तरह से करने के लिए भाई-बहनों के साथ पूरी एकता से काम करने के लिए तैयार हूँ।” उसके बाद जब मैंने देखा कि सभाओं के लिए कोई जगह नहीं है तो मैंने उपयुक्त मेजबान घर खोजने का प्रयास किया, ताकि मेरे भाई-बहन कलीसियाई जीवन जी सकें। मुझे तब भी परेशानी हुई जब मैंने देखा कि सुसमाचार का प्रचार करने वाले भाई-बहनें मुश्किलों में जी रहे हैं, लेकिन मैंने सोचा कि सुसमाचार का प्रचार करना परमेश्वर का इरादा है, और मैं मुश्किलों का सामना करने पर पीछे नहीं हट सकती, इसलिए मैंने भाई-बहनों की स्थिति सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों की तलाश की और मैंने संगति की कि नूह ने परमेश्वर के आदेश को किस दृष्टिकोण से लिया था, जिससे भाई-बहनों को सुसमाचार का प्रचार करने का महत्व और परमेश्वर का अत्यावश्यक इरादा समझने में मदद मिली। मेरी संगति के बाद भाई-बहनों की दशाएँ सुधर गईं और वे सुसमाचार का कार्य करने के लिए तैयार हो गए। कुछ समय बाद सुसमाचार कार्य में पहले की तुलना में कुछ सुधार दिखा, यह सब परमेश्वर के मार्गदर्शन के कारण था!
इस अनुभव के माध्यम से मुझे आराम की लालसा के सार और नतीजों के बारे में कुछ समझ मिली और मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में भी कुछ समझ मिली है। आज मैं अपना रवैया सुधारने में सक्षम हूँ और अपने कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी की भावना महसूस करती हूँ। यह नतीजा परमेश्वर के वचनों के कारण मिला। परमेश्वर का धन्यवाद!