8. सौभाग्य के पीछे भागने पर चिंतन

सु मिन, चीन

2022 के अंत में मैंने प्रचारक के रूप में अपना कर्तव्य शुरू किया और कई कलीसियाओं के कार्यों की जाँच करने की जिम्मेदारी ले ली। एक दिन मुझे उच्च-स्तरीय अगुआ का पत्र मिला, जिसमें कहा गया था कि एक कलीसिया में दो अगुआओं की अवस्था खराब है और इससे पहले ही कलीसिया के काम की विभिन्न मदों पर असर पड़ रहा है। उसने मुझे जल्दी से वहाँ जाकर स्थिति समझने और संगति कर इसे सुलझाने के लिए कहा। मैंने मन ही मन सोचा “हाल ही में इस कलीसिया ने कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा गिरफ्तारियों के अभियान को झेला है, कई भाई-बहन सुरक्षा जोखिमों का सामना कर रहे हैं और सामान्य रूप से अपने कर्तव्य नहीं निभा सकते। यह समझा जा सकता है कि इस कठिनाई के कारण दोनों अगुआ थोड़े नकारात्मक हैं। अगर मैं परमेश्वर के कुछ वचन ढूँढ़ूँ और उनके साथ संगति करूँ तो मैं इस समस्या को सुलझा पाऊँगी।” जब मैंने दोनों अगुआओं को देखा तो उनकी अवस्था बहुत खराब थी। उन्होंने कहा कि कलीसिया के काम की विभिन्न मदों में नतीजे नहीं मिलने की वजह यही थी कि वे वास्तविक काम नहीं कर पा रही थीं और वे इतनी निराश थीं कि इस्तीफा देना चाहती थीं। मैंने तुरंत उनके साथ संगति की और कहा, “यह वातावरण परमेश्वर की अनुमति से बना है। हम नकारात्मक अवस्था में नहीं फँसे रह सकते। अब सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हम अपने कर्तव्य निभाने के लिए एक साथ कैसे काम करें ताकि कलीसिया के काम में देरी न हो।” लेकिन चाहे मैंने कितनी भी संगति की हो, दोनों बहनें अपनी नकारात्मक अवस्थाओं में फँसी रहीं, कहती रहीं कि उनकी काबिलियत खराब है, कि उन्होंने सत्य का अनुसरण नहीं किया और वे अगुआई नहीं कर सकतीं। ऐसी स्थिति का सामना करने पर मैंने सोचा, “मैं इतनी बदकिस्मत क्यों हूँ? मैं अभी-अभी प्रचारक बनी हूँ और मुझे यह कलीसिया सौंपा गया है जहाँ अगुआ जिम्मेदारी लेने को लेकर बहुत नकारात्मक हैं। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि सारा काम मेरे कंधों पर आ जाएगा?” उस दौरान मैं एक ही समय में कलीसिया के अगुआओं के साथ उनकी अवस्थाओं को सुलझाने के लिए संगति कर रही थी और कुछ काम कराने के लिए विभिन्न सभाओं में भी जा रही थी। मैं हर दिन इतनी व्यस्त रहती थी कि बहुत थक जाती थी। बाद में एक अगुआ ने इस्तीफा दे दिया। दूसरी अगुआ को एक यहूदा ने धोखा दे दिया और उसे गिरफ्तारी से बचने के लिए अस्थायी रूप से छिपना पड़ा, तो वह अपना काम करने के लिए बाहर नहीं जा सकती थी। यह खबर सुनकर मैंने गहरी आह भरी और सोचा, “इस कलीसिया में बहुत सी समस्याएँ हैं; दोनों अगुआ अपना काम भी नहीं कर पाती हैं। सारा काम मुझ अकेली पर ही आ गया है। मैं इस सब में कब तक व्यस्त रहूँगी?” उन दिनों मेरी हालत घूमते हुए लट्टू की तरह थी जो रुक नहीं सकता था। कभी-कभी मैं काम समझने के लिए दिन में भाई-बहनों से मिलती थी और जब मैं रात को लौटती थी तो उत्तर देने के लिए पत्रों का ढेर लगा होता था। मैं हर रात देर तक व्यस्त रहती थी और फिर भी सारे काम पूरे नहीं कर पाती थी। इन समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करते हुए मैं बुरी तरह थक गई थी, मानसिक और शारीरिक रूप से चुक गई थी। ऐसा लगता था मानो मेरे सीने पर पत्थर रखा हो, जिससे साँस लेना मुश्किल हो रहा हो। मैंने सोचा, “जब से यह कलीसिया मुझे सौंपी गई है, तभी से मुझे एक के बाद एक प्रतिकूल घटनाओं का सामना करना पड़ा है। पुरानी समस्याओं को सुलझाने से पहले ही नई समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। अब तो कोई कलीसिया अगुआ भी नहीं है। मैं अकेली कमांडर की तरह हूँ जिसके पास सलाह लेने के लिए भी कोई नहीं है, मुझे सारा काम खुद ही सँभालना पड़ता है। इस बीच दूसरा प्रचारक तीन अगुआ वाली कलीसिया की जिम्मेदारी निभा रहा है। हालाँकि बहुत सारे काम हैं, लेकिन हर व्यक्ति थोड़ा-बहुत करता है, इसलिए उसे मेरी तरह थकावट नहीं होती। उसकी किस्मत इतनी अच्छी क्यों है? और मुझे इस तरह की कलीसिया क्यों सौंपी गई? मैं कितनी बदकिस्मत हूँ!” जितना मैंने इसके बारे में सोचा, मुझे उतना ही दुख हुआ, मुझे हमेशा लगता था कि मैं बदकिस्मत हूँ क्योंकि वह कलीसिया मुझे सौंपी गई थी। हालाँकि मैं हर दिन अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभाते हुए दिखती थी लेकिन मैं हताश हो गई थी और यहाँ तक कि इस वातावरण से भाग जाना चाहती थी।

हताशा और प्रतिरोध की इस गलत अवस्था में रहते हुए एक दिन मैंने एक गवाही वीडियो देखा जिसमें परमेश्वर के वचनों के एक अंश ने मुझे गहराई से प्रभावित किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “खुद को हमेशा अभागा माननेवालों के साथ समस्या आखिर क्या है? उनके कार्य सही हैं या गलत यह मापने के लिए, और उन्हें किस मार्ग पर चलना चाहिए, किन चीजों का अनुभव करना चाहिए, और सामने आनेवाली समस्याओं के आकलन के लिए वे हमेशा भाग्य के मानक का प्रयोग करते हैं। यह सही है या गलत? (गलत।) वे बुरी चीजों को दुर्भाग्यपूर्ण और अच्छी चीजों को भाग्यशाली या फायदेमंद बताते हैं। यह नजरिया सही है या गलत? (गलत।) ऐसे नजरिये से चीजों को मापना गलत है। यह चीजों को मापने का एक अतिवादी और गलत तरीका और मानक है। ऐसा तरीका लोगों को अक्सर अवसाद में डुबो देता है, यह अक्सर उन्हें परेशान कर देता है, और कभी कोई चीज उनके चाहे जैसे नहीं होती, और उन्हें कभी अपनी चाही हुई चीज नहीं मिलती, जिससे आखिरकार वे निरंतर बेचैन, चिड़चिड़े और परेशान रहने लगते हैं। जब ये नकारात्मक भावनाएँ दूर नहीं होतीं, तो ये लोग निरंतर अवसाद में डूब जाते हैं, और उन्हें लगता है कि परमेश्वर उन पर कृपा नहीं करता। उन्हें लगता है कि परमेश्वर दूसरों से ज्यादा अनुग्रह से पेश आता है, उनसे नहीं, और परमेश्वर दूसरों की देखभाल करता है, उनकी नहीं। ‘हमेशा मैं ही क्यों परेशान और बेचैन रहता हूँ? हमेशा मेरे ही साथ बुरी चीजें क्यों होती हैं? अच्छी चीजें मेरे हाथ क्यों नहीं आतीं? मैं बस एक ही बार माँग रहा हूँ!’ जब तुम चीजों को ऐसे गलत तरीके की सोच और नजरिये से देखोगे, तो अच्छे और खराब भाग्य के झाँसे में फँस जाओगे। जब तुम लगातार इस झाँसे में गिरते रहते हो, तो तुम निरंतर अवसाद-ग्रस्त महसूस करते हो। इस अवसाद के बीच, तुम खास तौर से इस बात को लेकर संवेदनशील रहते हो कि जो चीजें तुम्हारे साथ हो रही हैं वे भाग्यशाली हैं या दुर्भाग्यशाली। ऐसा होने पर, यह साबित हो जाता है कि अच्छे और खराब भाग्य के इस नजरिये और विचार ने तुम्हें नियंत्रण में ले लिया है। जब तुम ऐसे नजरिये से नियंत्रित होते हो, तो लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति तुम्हारे विचार और रवैये सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के दायरे में नहीं रह जाते, बल्कि एक प्रकार की अति में डूब चुके होते हैं। जब तुम ऐसी अति में डूब जाओगे, तो फिर अपने अवसाद में से निकल नहीं पाओगे। तुम बार-बार फिर से अवसाद-ग्रस्त होते रहोगे, और भले ही तुम आम तौर पर अवसाद-ग्रस्त महसूस न करो, मगर जैसे ही कुछ गलत होगा, जैसे ही तुम्हें लगेगा कि कुछ दुर्भाग्यपूर्ण हो गया है, तुम तुरंत अवसाद में डूब जाओगे। यह अवसाद तुम्हारी सामान्य परख और निर्णय-क्षमता और तुम्हारी खुशी, क्रोध, दुख और उल्लास को भी प्रभावित करेगा। जब यह तुम्हारी खुशी, क्रोध, दुख और उल्लास को प्रभावित करता है, तो यह तुम्हारे कर्तव्य-निर्वाह और साथ ही परमेश्वर का अनुसरण करने की तुम्हारे संकल्प और आकांक्षा को भी बाधित और नष्ट करता है। जब ये सकारात्मक चीजें नष्ट हो जाती हैं, तो जो थोड़े-से सत्य तुमने समझे हैं, उन्हें तुम भूल जाते हो और तुम्हारे लिए ये जरा भी उपयोगी नहीं रह जातीं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी वास्तविक अवस्था को उजागर कर दिया। मेरे विचार से बिना किसी मुश्किल के अपना कर्तव्य ठीक से निभाना और सब कुछ ठीक-ठाक होना सौभाग्य था। जब मुझे अपने कर्तव्य में कुछ कठिनाइयों या समस्याओं का सामना करना पड़ता था तो मुझे लगता था कि मैं अभागी और बदकिस्मत हूँ और मैं तुरंत हताशा की मनःस्थिति में चली जाती थी। उदाहरण के लिए जब मैं इस कलीसिया में आई और देखा कि दोनों अगुआ इतनी नकारात्मक थीं कि वे इस्तीफा देना चाहती थीं और कलीसिया के काम में कई कठिनाइयाँ और समस्याएँ थीं तो मैंने इसे परमेश्वर से नहीं स्वीकारा और न ही उसके इरादे की तलाश की या इस बारे में सोचा कि मैं अपनी सारी ऊर्जा काम की जिम्मेदारी निभाने में कैसे लगाऊँ। इसके बजाय मैं हताशा में घिर गई और सोचने लगी कि यह मेरी बदकिस्मती थी कि इन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। खास तौर पर जब बाद में कोई भी अगुआ काम नहीं कर पाया और जब मैंने उस क्षेत्र के बारे में सोचा, जिसकी देखरेख दूसरा प्रचारक कर रहा था, जहाँ अगुआ और कार्यकर्ता सभी अपनी जगह पर थे और काम सुचारू रूप से चल रहा था, मुझे उससे विशेष रूप से ईर्ष्या हुई और मैंने सोचा कि वह भाग्यशाली है, जबकि मैं बदकिस्मत थी और मुझे सभी बुरी चीजों का सामना करना पड़ा। जब मैंने चीजों को इस गलत नजरिए से देखा तो मैं हताशा और प्रतिरोध में डूबती चली गई, मेरे पास अपना कर्तव्य करने के लिए कोई ऊर्जा नहीं बची थी और यहाँ तक कि मैं इस वातावरण से भाग जाना चाहती थी। लेकिन वास्तव में जिन सभी वातावरणों का मैं सामना करती हूँ वे परमेश्वर द्वारा निर्धारित हैं। परमेश्वर का इरादा है कि मैं सत्य की खोज करूँ, परमेश्वर पर भरोसा करूँ और इस वातावरण का व्यावहारिक तरीके से अनुभव करूँ। जब कठिनाइयाँ आती हैं तब भी मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उन्हें सुलझाने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए और उन कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए, जिन्हें मैं सँभाल सकती हूँ। लेकिन मैंने इस बारे में नहीं सोचा था कि ऐसे वातावरण में परमेश्वर का कार्य कैसे अनुभव करूँ और उसकी संप्रभुता और आयोजनों को कैसे समझूँ। जब मुझे असंतोषजनक चीजों का सामना करना पड़ा तो मैंने सोचा कि मैं बदकिस्मत हूँ और मेरी किस्मत खराब है, मैं हताश मनोदशा में जी रही हूँ और परमेश्वर की संप्रभुता की विरोधी हूँ। मैं इस तरह से सबक कैसे सीख सकती हूँ? मैं परमेश्वर के कर्मों को कैसे समझ सकती हूँ? मैं उन लोगों के बारे में सोचने से खुद को रोक नहीं पाई जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते। वे कभी भी परमेश्वर से चीजें नहीं स्वीकारते हैं, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित नहीं होते हैं, और जब चीजें उनकी पसंद के हिसाब से नहीं होती हैं तो वे खुद को छोड़कर हर किसी को दोषी ठहराते हैं। वे अपना पूरा जीवन परमेश्वर को जाने बिना जीते हैं। जहाँ तक मेरी बात है, भले ही मैं परमेश्वर में विश्वास करती थी और कहती थी कि परमेश्वर हर चीज पर संप्रभुता रखता है, फिर भी मैंने हर चीज का मूल्यांकन अविश्वासियों के नजरिए के अनुसार किया। क्या यह एक असली छद्म-विश्वासी का व्यवहार नहीं है?

मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े जो कहते हैं : “ये लोग, जो हमेशा चिंतित रहते हैं कि उनका भाग्य अच्छा है या खराब—चीजों के बारे में क्या उनका नजरिया सही है? क्या अच्छे भाग्य या खराब भाग्य का अस्तित्व है? (नहीं।) यह कहने का क्या आधार है कि इनका अस्तित्व नहीं है? (हर दिन हम जिन लोगों से मिलते हैं और जो चीजें हमारे साथ घटती हैं, वे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं द्वारा तय किए जाते हैं। अच्छा भाग्य या खराब भाग्य जैसी कोई चीज है ही नहीं; हर चीज जरूरत पड़ने पर होती है और उसके पीछे एक अर्थ होता है।) क्या यह सही है? (बिल्कुल।) यह नजरिया सही है, और यही यह कहने का सैद्धांतिक आधार है कि भाग्य का अस्तित्व नहीं है। तुम्हारे साथ चाहे जो हो, अच्छा या बुरा, सब-कुछ सामान्य है, ठीक चार ऋतुओं के मौसम की तरह—प्रत्येक दिन धूपवाला नहीं हो सकता। तुम नहीं कह सकते कि परमेश्वर धूपवाले दिनों की व्यवस्था करता है, और बादलवाले दिनों, वर्षा, हवा और तूफान की व्यवस्था नहीं करता। सभी चीजें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं द्वारा तय होती हैं, और प्राकृतिक पर्यावरण द्वारा उत्पन्न की जाती हैं। यह प्राकृतिक पर्यावरण परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और स्थापित विधियों और नियमों के अनुसार पैदा होता है। ये सब जरूरी और अनिवार्य हैं, इसलिए मौसम चाहे जैसा भी हो, यह प्राकृतिक नियमों से उत्पन्न होता है। इसमें कुछ भी अच्छा या खराब नहीं है—इस बारे में सिर्फ लोगों की भावनाएँ अच्छी या खराब होती हैं। ... तथ्य यह है कि कोई व्यक्ति किसी चीज के बारे में अच्छा महसूस करता है या बुरा, यह उस चीज के सार के बजाय, उसकी अपनी स्वार्थी मंशाओं, आकांक्षाओं और आत्म-हित पर आधारित होता है। इसलिए जिस आधार पर लोग अनुमान लगाते हैं कि कोई चीज अच्छी है या बुरी, वह गलत है। आधार गलत होने के कारण जो अंतिम निष्कर्ष वे निकालते हैं, वे भी गलत होते हैं। अच्छे भाग्य और खराब भाग्य के विषय पर वापस लौटें, तो अब सब जानते हैं कि भाग्य के बारे में यह कहावत निराधार है, और यह न अच्छा होता है न खराब। जिन भी लोगों, घटनाओं और चीजों से तुम्हारा सामना होता है, वे चाहे अच्छे हों या बुरे, सभी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था द्वारा तय किए जाते हैं, इसलिए तुम्हें उचित ढंग से उनका सामना करना चाहिए। परमेश्वर से वह स्वीकार करो जो अच्छा है, और जो कुछ बुरा है, उसे भी परमेश्वर से स्वीकार करो। जब कुछ अच्छा घटे, तो मत कहो कि तुम भाग्यशाली हो, और बुरा घटे तो खुद को अभागा मत कहो। यही कहा जा सकता है कि इन सभी चीजों में लोगों के लिए सीखने के सबक होते हैं, और उन लोगों को इन्हें ठुकराना या इनसे बचना नहीं चाहिए। अच्छी चीजों के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करो, साथ ही बुरी चीजों के लिए भी उसका धन्यवाद करो, क्योंकि इन सभी चीजों की व्यवस्था उसी ने की है। अच्छे लोग, घटनाएँ, चीजें और परिवेश सबक देते हैं जो उन्हें सीखने चाहिए, मगर बुरे लोगों, घटनाओं, चीजों और परिवेशों से और भी ज्यादा सीखने को मिलता है। ये सभी वो अनुभव और कड़ियाँ हैं जो किसी के जीवन का भाग होनी चाहिए। इन्हें मापने के लिए लोगों को भाग्य के विचार का प्रयोग नहीं करना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। “अगर तुम यह ख्याल छोड़ दो कि तुम कितने खुशकिस्मत या बदकिस्मत हो, और इन चीजों से शांत और सही तरीके से पेश आओ, तो तुम्हें पता चलेगा कि ज्यादातर चीजें उतनी प्रतिकूल नहीं हैं या उनसे निपटना उतना मुश्किल नहीं है। जब तुम अपनी महत्वाकांक्षाओं और आकांक्षाओं को जाने देते हो, जो भी दुर्भाग्यपूर्ण घटना तुम्हारे साथ हो, उसे ठुकराना या उससे बचना बंद कर देते हो, और इन चीजों को तुम इस तराजू पर तोलना छोड़ देते हो कि तुम कितने खुशनसीब या बदनसीब हो, तो वे ज्यादातर चीजें जिन्हें तुम दुर्भाग्यपूर्ण और बुरी माना करते थे, वे अब तुम्हें अच्छी लगने लगेंगी—बुरी चीजें अच्छी में तब्दील हो जाएँगी। तुम्हारी मानसिकता बदल जाएगी, चीजों को देखने का तुम्हारा तरीका बदल जाएगा, इससे तुम अपने जीवन अनुभवों के बारे में अलग महसूस कर पाओगे और साथ-साथ तुम्हें मिलने वाले लाभ भी अलग होंगे। यह एक असाधारण अनुभव है, जो तुम्हें ऐसे लाभ पहुँचाएगा जिनकी तुमने कल्पना भी नहीं की थी। यह अच्छी बात है, बुरी नहीं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे प्रबुद्ध किया। दरअसल अच्छी या बुरी किस्मत जैसी कोई चीज नहीं होती। मेरे साथ जो कुछ भी होता है, चाहे वह सतह पर मेरी धारणाओं के अनुरूप हो या नहीं, वह परमेश्वर का आयोजन है और उसका होना निश्चित है और मेरे जीवन में एक आवश्यक अनुभव भी है। परमेश्वर मुझे सबक सिखाने के लिए इन चीजों की व्यवस्था करता है। जब तक मैं सत्य की खोज पर ध्यान केंद्रित करूँगी, मुझे कुछ न कुछ हासिल होगा; जो चीज लोगों को बुरी लगती है, वह अच्छी चीज में बदल सकती है। उदाहरण के लिए जब अय्यूब ने शैतान के प्रलोभनों का सामना किया तो उसने अपनी बहुत सारी संपत्ति गँवा दी, उसके बच्चे कुचलकर मारे गए और उसे खुद भी हर जगह फोड़े हो गए। मानवीय दृष्टिकोण से अय्यूब के साथ एक के बाद एक होने वाली घटनाएँ बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और बदकिस्मत लगती हैं। हालाँकि परमेश्वर के नजरिए से उसने अय्यूब को इन प्रलोभनों का सामना करने की अनुमति दी ताकि उसे परमेश्वर की गवाही देने का मौका मिले, जिससे शैतान के सामने साबित हुआ कि अय्यूब एक धार्मिक व्यक्ति था जो परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था, जिसने शैतान को उस पर फिर आगे आरोप लगाने या हमला करने से रोक दिया। परमेश्वर में अपनी आस्था और भय के साथ अय्यूब इन परीक्षणों के दौरान अपनी गवाही में दृढ़ रहा और उसने परमेश्वर की स्वीकृति पाई। यह बहुत ही सार्थक बात थी! अय्यूब के अनुभव के माध्यम से हम देख सकते हैं कि अच्छी या बुरी किस्मत जैसी कोई चीज नहीं होती और जो कुछ भी होता है वह परमेश्वर की संप्रभुता और आयोजनों के कारण होता है, जो हमें विभिन्न वातावरणों में अलग-अलग सबक सिखाने के लिए बनाए गए हैं। लेकिन मैंने परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं पहचाना और हमेशा अपने साथ होने वाली हर चीज को भाग्य के आधार पर मापा। ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं अपनी देह के बारे में बहुत विचारशील थी, हमेशा देह को कष्ट पहुँचाए बिना आराम से अपने कर्तव्य करना चाहती थी। जब तक यह मेरी देह के लिए फायदेमंद होता था और मुझे कष्ट नहीं उठाना पड़ता था, मुझे लगता था कि मैं भाग्यशाली हूँ। इसके विपरीत अगर मुझे कुछ कठिनाइयों और समस्याओं का सामना करना पड़ता था, कष्ट सहना पड़ता था और कीमत चुकानी पड़ती थी तो मुझे लगता था कि मैं बदकिस्मत हूँ और मैं अक्सर अपने दिल में शिकायत करती थी। चीजों के आकलन के बारे में मेरा नजरिया बहुत विकृत था! अभी मैं एक के बाद एक जिन कठिनाइयों और समस्याओं का सामना कर रही थी, वे सतह पर प्रतिकूल प्रतीत होती थीं लेकिन परमेश्वर ने इन कठिनाइयों का उपयोग मुझे उस पर भरोसा करने सत्य की खोज करने, अपनी देह के खिलाफ विद्रोह करने और कुछ सबक सिखाने के लिए किया था। पहले जब मैं आरामदायक वातावरण में अपना कर्तव्य निभा रही थी और हर दिन एक ही दिनचर्या में जी रही थी तो यह बाहर से आसान लगता था लेकिन मुझे बहुत कम लाभ हुआ। मैं कई सत्य सिद्धांतों को नहीं समझती थी और मेरा जीवन विकास धीमा था, जबकि अब यह वर्तमान वातावरण मेरे जीवन के लिए फायदेमंद था। परमेश्वर का इरादा समझकर मुझे बहुत राहत महसूस हुई, अब मैं हताश और प्रतिरोधी नहीं थी। मैं उस वातावरण के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार थी जो परमेश्वर ने मेरे लिए निर्धारित किया था और व्यावहारिक तरीके से परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिए तैयार थी। इसके बाद मैंने अपना कर्तव्य ईमानदारी से करना शुरू कर दिया, परमेश्वर के घर की आवश्यकताओं के अनुसार कार्य किया। कुछ समय के बाद कलीसिया का कुछ काम धीरे-धीरे ठीक होने लगा। मैं कर्मियों और काम की विभिन्न मदों से और परिचित हो गई और मैंने काम के सिद्धांतों को पहले से बेहतर समझा, जिससे मुझे कुछ आत्मविश्वास मिला। केवल तभी मैंने इन वातावरणों को निर्धारित करने में परमेश्वर की विचारशीलता का प्रत्यक्ष अनुभव किया। मैंने देखा कि आस-पास के लोगों, घटनाओं और चीजों को अच्छे या बुरे भाग्य के नजरिए से न आंकने, सब कुछ परमेश्वर से स्वीकारने और सत्य खोजने से मुझे अपने कर्तव्य में थकान महसूस नहीं हुई। इसके बजाय मैं संतुष्ट और शांत महसूस करने लगी।

एक सभा के बाद अगुआ ने मुझे एक कलीसिया में कुछ सँभालने की जिम्मेदारी सौंपी। मैंने शुरू में इसे एक दिन में पूरा करने की योजना बनाई और फिर मुझे काम के लिए दूसरे कलीसिया में जाना था लेकिन अप्रत्याशित रूप से, जैसे ही मैं इस कलीसिया में पहुँची, कलीसिया पर्यवेक्षक ने घबराते हुए मुझसे कहा, “कुछ हुआ है। कल कई भाई-बहनों को गिरफ्तार किया गया था।” उसकी बात सुनने के बाद मुझे एहसास हुआ कि लगभग सभी अगुआ और कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिए गए थे, जिसका मतलब है कि अब कलीसिया का कोई भी काम सामान्य रूप से करना लगभग असंभव होगा। कलीसिया अगुआओं को भी उन लोगों से संपर्क के कारण छिपना पड़ा और वे अपने कर्तव्य निभाने के लिए बाहर नहीं जा सके। उसके ठीक बाद मुझे उच्च-स्तरीय अगुआ से एक पत्र मिला जिसमें मुझे गिरफ्तारी के बाद की स्थिति सँभालने के लिए अस्थायी रूप से इसी कलीसिया में रहने का निर्देश दिया गया था। पहले तो मैं इसे परमेश्वर की ओर से स्वीकारने और समर्पण करने में सक्षम थी। उस समय विभिन्न मेजबान परिवारों और भाई-बहनों के लिए कई सुरक्षा जोखिम थे और कई कलीसियाई कार्य सँभालने की आवश्यकता थी। मैं पूरे दिन व्यस्त रहती थी और जब मैं रात को अपने मेजबान के घर लौटती थी तो मुझे दूसरी कलीसियाओं से आए पत्रों का जवाब देना होता था। मुझे लगभग हर रात देर तक जागना पड़ता था। माहौल में भी सख्ती थी, और लगभग हर दिन मुझे पत्र मिलते थे कि और भी भाई-बहनों को गिरफ्तार किया गया है। हर बार जब मैं बाहर जाती थी तो मेरी जान गले में अटक जाती थी, मुझे पता नहीं होता था कि मैं इस बार सुरक्षित वापस आ पाऊँगी या नहीं। कुछ समय बीता और मैं शारीरिक और मानसिक रूप से थकान महसूस करने लगी। मैंने देखा कि मेरे आस-पास के दो अगुआ सिर्फ पत्रों का जवाब दे रहे थे और घर पर कुछ काम कर रहे थे, जबकि मैं हमेशा लट्टू की तरह भागती-दौड़ती रहती थी, मेरे पास जितना समय होता था उससे ज्यादा काम होते थे और मेरी नसें तनी रहती थीं, मैंने मन ही मन सोचती थी, “वे जो काम करते हैं, वह बहुत आसान है। उन्हें चिंता करने या इधर-उधर भटकने की जरूरत नहीं है। मेरे विपरीत मुझे आराम करने का कोई मौका भी नहीं मिलता। मैं हमेशा कलीसिया में गिरफ्तारियों से ही क्यों जूझती रहती हूँ? मैं कितनी बदकिस्मत हूँ! ये चीजें एक के बाद एक मेरे साथ ही क्यों होती रहती हैं?” हालाँकि मैंने खुलकर शिकायत करने की हिम्मत नहीं की लेकिन अंदर से मैं बहुत प्रतिरोधी थी और कर्तव्य निभाते समय मैं हमेशा पीछे रहती और अनिच्छुक बनी रहती थी। जब मैं इस गलत अवस्था में थी तो मुझे अपने पिछले अनुभवों की याद आई और मुझे अस्पष्ट जानकारी थी कि यह वातावरण मेरे लिए परमेश्वर ने इसलिए बनाया था ताकि मैं सबक सीख सकूँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, जब मेरे साथ कुछ होता है तो मैं अभी भी अनजाने में उसे अच्छे या बुरे भाग्य के नजरिए से देखती हूँ और फिर भी मुझे लगता है कि यह मेरी बुरी किस्मत और दुर्भाग्य के कारण है। मैं वास्तव में तुम्हारा इरादा नहीं समझ पाती। हे परमेश्वर, मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं इस वातावरण के बीच अनुभव करना सीख सकूँ।”

इसके बाद मैंने सचेत होकर पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचन खोजे, समझना चाहा कि हमेशा अच्छे भाग्य का पीछा करने में दरअसल क्या गलत है। मैंने परमेश्वर के वचनों में यह अंश पढ़ा : “चीजें अच्छी हैं या बुरी, यह मापने के लिए भाग्य का प्रयोग करनेवाले लोगों की सोच और नजरिये क्या होते हैं? ऐसे लोगों का सार क्या होता है? वे अच्छे भाग्य और खराब भाग्य पर इतना अधिक ध्यान क्यों देते हैं? भाग्य पर अत्यधिक ध्यान देनेवाले लोग क्या आशा करते हैं कि उनका भाग्य अच्छा हो या खराब? (वे आशा करते हैं कि यह अच्छा हो।) सही कहा। दरअसल, वे प्रयास करते हैं कि उनका भाग्य अच्छा हो और उनके साथ अच्छी चीजें हों, और वे बस उनका लाभ उठाकर उनसे फायदा कमाते हैं। वे परवाह नहीं करते कि दूसरे कितने कष्ट सहते हैं, या दूसरों को कितनी मुश्किलें या कठिनाइयाँ सहनी पड़ती हैं। वे नहीं चाहते कि ऐसी कोई चीज उनके साथ हो, जिसे वे अशुभ समझते हैं। दूसरे शब्दों में, वे नहीं चाहते कि उनके साथ कुछ बुरा घटे : कोई रुकावट, कोई विफलता या शर्मिंदगी नहीं, काट-छाँट नहीं, चीजें खोना या हारना नहीं, कोई धोखा न खाना। ऐसा कुछ भी हुआ, तो उसे खराब भाग्य के रूप में लेते हैं। अगर बुरी चीजें होती हैं, तो व्यवस्था चाहे जो भी करे, वे अशुभ ही हैं। वे आशा करते हैं कि तमाम अच्छी चीजें—पदोन्नति, सबमें श्रेष्ठ होना, दूसरों के खर्चे पर लाभ उठाना, किसी चीज से फायदा लेना, ढेरों पैसे बनाना, या कोई उच्च अधिकारी बनना—उन्हीं के साथ हों, और उन्हें लगता है कि यह अच्छा भाग्य है। वे भाग्य के आधार पर ही उन लोगों, घटनाओं और चीजों को मापते हैं, जिनसे उनका सामना होता है। वे अच्छे भाग्य का पीछा करते हैं, दुर्भाग्य का नहीं। जैसे ही कोई छोटी-से-छोटी चीज गलत हो जाती है, वे नाराज हो जाते हैं, तुनक जाते हैं और असंतुष्ट हो जाते हैं। दो टूक कहें, तो इस तरह के लोग स्वार्थी होते हैं। वे दूसरे लोगों के खर्चे पर खुद फायदा उठाने, अपना फायदा करने, सबसे ऊपर आकर सबसे अलग दिखने का प्रयास करते हैं। यदि प्रत्येक अच्छी चीज सिर्फ उन्हीं के साथ हो तो वे संतुष्ट हो जाते हैं। यही उनका प्रकृति सार है; यही उनका असली चेहरा है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे बहुत शर्मिंदा किया। यह पता चला कि सौभाग्य की मेरी निरंतर खोज और किसी भी कठिनाई या विपत्ति से बचना दरअसल मेरी स्वार्थी प्रकृति के कारण था। मैं “कभी भी घाटे का सौदा मत करो” के सांसारिक आचरण के फलसफे को मानती थी, हमेशा अपने हितों को आगे रखती थी। मैं हमेशा चाहती थी कि मेरे साथ सभी अच्छी चीजें हों, सब कुछ बिना किसी कठिनाई के आराम से चलता रहे; इसी से मुझे खुशी मिलती थी। एक बार मुझे ऐसी बाधाओं या कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, जिनका असर मेरी देह के हितों पर पड़ा और मुझे कष्ट उठाना पड़ा तो मैं शिकायत करने लगी और चिढ़ने लगी, अपना संतुलन पूरी तरह से गँवा बैठी। परमेश्वर में विश्वास करने से पहले जब मैं ऐसे सहकर्मियों को देखती थी जो अच्छी पृष्ठभूमि से थे, जिनके परिवार के सदस्यों के पास स्थिर नौकरियाँ और अच्छे घर थे, जबकि मैं गरीबी में रहती थी और मेरा अपना घर भी नहीं था और घर पर परिवार के सदस्य बेरोजगार थे और उन्हें मेरी मदद की जरूरत थी तो मैं बहुत असंतुलित महसूस करती थी। मुझे लगता था कि ऐसा परिवार होना मेरा दुर्भाग्य है और मुझे खासकर अपने सहकर्मियों से ईर्ष्या और जलन होती थी। मुझे हमेशा लगता था कि अच्छी चीजें सिर्फ दूसरों के साथ ही होती हैं, मैं सिर्फ एक बदकिस्मत इंसान हूँ। हाल के समय पर विचार करते हुए जब मेरी जिम्मेदारी वाली दो कलीसियाओं को सीसीपी की गिरफ्तारियों का सामना पड़ा था, मुझे तकलीफ उठानी और कीमत चुकानी थी और इससे मेरे दैहिक हितों को भी चोट पहुँचती थी, इसलिए मैंने हर चीज के बारे में शिकायत करना शुरू कर दिया और अपनी बदकिस्मती और दुर्भाग्य को दोष देना शुरू कर दिया। न केवल मैंने अपना कर्तव्य सक्रियता से अच्छी तरह से निभाने के बारे में नहीं सोचा बल्कि मैं हताश और प्रतिरोधी भी हो गई, शिकायत करने लगी कि परमेश्वर मेरे लिए ऐसे ही वातावरण बनाता रहता है। अच्छी किस्मत की मेरी तलाश अनिवार्य रूप से मेरे दैहिक हितों को संतुष्ट करने के लिए थी; मैं चाहती थी कि सभी अच्छी चीजें मेरे साथ हों और हमेशा दूसरों की कीमत पर लाभ कमाना चाहती थी। जहाँ तक उन कार्यों की बात है जिनमें जोखिम उठाने और कष्ट सहने की जरूरत थी, मैंने सोचा कि वे सभी दूसरों को करने चाहिए। जब तक मैं आराम से रह सकूँ और मेरी देह को फायदा हो, मैं संतुष्ट रहूँगी। मैं वाकई बहुत स्वार्थी थी! सतह पर ऐसा लग रहा था कि मैं परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभा रही हूँ लेकिन मेरे दिल ने कलीसिया के काम और परमेश्वर के उत्सुक इरादों के बजाय मेरे दैहिक हितों पर विचार किया। यह परमेश्वर के लिए घृणित और घिनौना था और ऐसे अपना कर्तव्य निभाने से मुझे आखिरकार उसकी स्वीकृति नहीं मिलती।

बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े, जो कहते हैं : “क्या इस अवसाद से बाहर निकलना आसान है? दरअसल, यह आसान है। अपने गलत नजरियों को जाने दो, हर चीज के अच्छा, या ठीक तुम्हारे चाहे जैसा या आसान होने की उम्मीद मत करो। जो चीजें गलत होती हैं, उनसे डरो मत, उनका प्रतिरोध मत करो या उन्हें मत ठुकराओ। इसके बजाय, अपने प्रतिरोध को जाने दो, शांत हो जाओ, समर्पण के रवैये के साथ परमेश्वर के समक्ष आओ, और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हर चीज को स्वीकार करो। तथाकथित ‘अच्छे भाग्य’ के पीछे मत भागो, और तथाकथित ‘खराब भाग्य’ को मत ठुकराओ। तन-मन से परमेश्वर को समर्पित हो जाओ, उसे कार्य और आयोजन करने दो, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर दो। तुम्हें जब और जिस मात्रा में जो चाहिए वह परमेश्वर तुम्हें देगा। वह उस परिवेश, उन लोगों, घटनाओं और चीजों का आयोजन तुम्हारी जरूरत और कमियों के अनुसार करेगा जिनकी तुम्हें आवश्यकता है, ताकि तुम जिन लोगों, घटनाओं और चीजों के संपर्क में आओ, उनसे वे सबक सीख सको जो तुम्हें सीखने चाहिए। बेशक, इन सबके लिए शर्त यह है कि तुम्हारे पास परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण की मानसिकता हो। इसलिए, पूर्णता के पीछे मत भागो; अवाँछित, शर्मिंदा करनेवाली या प्रतिकूल चीजों के होने को मत ठुकराओ या उनसे मत डरो; और बुरी चीजों के होने का अंदर से प्रतिरोध करने के लिए अपने अवसाद का प्रयोग मत करो(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों से मैं उसका इरादा समझ गई। परमेश्वर ने मेरे लिए जो वातावरण बनाए थे, वे सब अच्छे थे और मुझे सबक सिखाने के लिए थे। मुझे इस तथाकथित सौभाग्य और हमेशा आरामदायक वातावरण में कर्तव्य निभाने की इच्छा के पीछे नहीं पड़ना चाहिए। ऐसा करते रहने से केवल निरर्थक श्रम ही होगा। इसके बजाय मुझे परमेश्वर द्वारा बनाए गए वातावरण के प्रति समर्पित होना सीखना चाहिए और चाहे अनुकूल हो या प्रतिकूल, मुझे उनसे सत्य की तलाश करनी चाहिए, अपने द्वारा प्रकट किए भ्रष्ट स्वभावों पर चिंतन करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और देह के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना चाहिए। यही परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है। अब भाई-बहनों को गिरफ्तार किया जा रहा था, दो कलीसिया अगुआओं के लिए सुरक्षा जोखिम थे और कुछ काम नहीं हो पा रहा था। एक अगुआ के रूप में मुझे इस महत्वपूर्ण क्षण में अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। हालाँकि कलीसिया का काम सँभालना मुश्किल होगा और इसमें कुछ दैहिक पीड़ा शामिल होगी, जब तक इससे कलीसिया के काम को लाभ होता है, मुझे सहयोग करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। यह समझकर मैं अब नकारात्मकता में नहीं जी रही थी और मैंने अपने दिल से समझ गई थी कि यही मेरा कर्तव्य है, यही वह जिम्मेदारी है जो मुझे निभानी चाहिए। उसके बाद अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मैंने कलीसिया के काम में किसी भी मुद्दे या विचलन को सुलझाने के लिए सक्रिय रूप से संगति की। अगर मुझे ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता था जिन्हें मैं नहीं समझ पाती थी तो मैं उन पर दोनों अगुआओं से चर्चा करती थी ताकि वे उन्हें तुरंत समझ सकें और फिर हम उन्हें सुलझाने के लिए सिद्धांतों की तलाश करें। इस तरीके से अभ्यास करके भले ही मैं हर दिन व्यस्त रहती थी, जब तक मैं चीजों को उचित ढंग से व्यवस्थित करती थी, मैं उन्हें सँभाल पाती थी और मुझे यह असहनीय या कठिन नहीं लगता था।

एक दिन उच्च-स्तरीय अगुआ ने हमें एक पत्र भेजा जिसमें हमें सफाई और निष्कासन पर सामग्री का एक सेट जल्दी से व्यवस्थित करने के लिए कहा गया, इस बात पर जोर दिया गया था इसे तुरंत करना था और इसे उन लोगों द्वारा एकत्र और व्यवस्थित करना था जिन्हें सुरक्षा जोखिम नहीं थे। यह पत्र पढ़कर मुझे पता चला कि मेरे लिए ऐसा करना सबसे उपयुक्त होगा। लेकिन मैंने सोचा कि मुझे इतने सारे भाई-बहनों के साथ सत्यापन करना होगा और निश्चित रूप से हर दिन इधर-उधर भटकना पड़ेगा, फिर से वही पुराने विचार मेरे मन में आने लगे, “उफ, अगुआ ने साफ तौर पर किसी ऐसे व्यक्ति को बुलाया है जो सुरक्षा जोखिम से मुक्त हो, इसलिए मैं चाहकर भी इसे नहीं टाल सकती। इस तरह इधर-उधर भटकने रहने से कौन जानता है कि इन सामग्रियों को इकट्ठा करने और सत्यापित करने में कितना समय लगेगा।” मुझे लगा कि मैं बदकिस्मत हूँ। जब मेरे मन में यह विचार आया तो मुझे परमेश्वर के ये शब्द याद आ गए : “हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा और हैसियत पर विचार मत कर। तुम्‍हें सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उन्‍हें अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुम्‍हें परमेश्वर के इरादों का ध्‍यान रखना चाहिए और इस पर चिंतन से शुरुआत करनी चाहिए कि तुम्‍हारे कर्तव्‍य निर्वहन में अशुद्धियाँ रही हैं या नहीं, तुम वफादार रहे हो या नहीं, तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही तुम अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार करते रहे हो या नहीं। तुम्‍हें इन चीज़ों के बारे में अवश्‍य विचार करना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे हृदय को उज्ज्वल कर दिया। चाहे मुझे किसी भी कर्तव्य का सामना करना पड़ा हो, उसमें परमेश्वर के इरादे निहित थे। खासकर, चूँकि यह कार्य इतना महत्वपूर्ण था, क्या इस कार्य को करने का अवसर परमेश्वर की ओर से एक उत्कर्ष नहीं था? फिर भी जब कोई कर्तव्य आता था तो सबसे पहले मैं यह सोचती थी कि मेरी देह को फिर से कष्ट सहना पड़ेगा और मुझे लगता था कि मैं बदकिस्मत हूँ। मैं वास्तव में बहुत स्वार्थी थी! मुझे पहले उन दैहिक कठिनाइयों के बारे में सोचने के बजाय कलीसिया के काम को प्राथमिकता देनी चाहिए और परमेश्वर पर भरोसा और सहयोग करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। इस एहसास के साथ मैंने अब इस कर्तव्य का इतना विरोध नहीं किया और मैंने कलीसिया के अगुआओं के साथ चर्चा की कि सामग्री सत्यापित करने के लिए लोगों को कैसे खोजा जाए। सत्यापन प्रक्रिया के दौरान मुझे कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन मैंने उन्हें परमेश्वर की ओर से स्वीकारा और अब कोई शिकायत नहीं की, साथ ही विचलन की समीक्षा की और सहयोग जारी रखने के लिए परमेश्वर पर भरोसा किया। आखिरकार सामग्री सफलतापूर्वक एकत्रित कर ली गई। मैंने परमेश्वर को उनके मार्गदर्शन के लिए ईमानदारी से धन्यवाद दिया!

इस अनुभव से मुझे सौभाग्य की खोज के गलत नजरिए के बारे में कुछ समझ मिली और मैंने देखा कि इस खोज के पीछे एक भ्रष्ट स्वभाव छिपा है जो स्वार्थी और घृणित है। दरअसल परमेश्वर ने मेरे लिए जो भी वातावरण बनाए हैं, चाहे मैं उन्हें अच्छा मानूँ या बुरा, वे मेरे आध्यात्मिक कद और जरूरतों के आधार पर बनाए गए हैं। वे मुझे सत्य की खोज करने, अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानने और इन वातावरणों से सबक सीखने में मदद करने के लिए हैं। उनमें परमेश्वर की बुद्धि और श्रमसाध्य इरादा है। भविष्य में मैं भाग्य के आधार पर अपने सामने आने वाले सभी लोगों, घटनाओं और चीजों पर राय नहीं बनाना चाहती। मैं परमेश्वर द्वारा बनाए गए वातावरण के प्रति समर्पित होना और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना सीखना चाहती हूँ।

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