2. जब मुझे अपनी गलतियाँ स्वीकारने के लिए जूझना पड़ा

क्रिस्टीना, यूएसए

शनिवार, 3 दिसंबर 2022, हल्की बारिश

आज वर्कशीट व्यवस्थित करते समय मुझे संयोग से एक वीडियो मिला जिसे गलत तरीके से दो-दो बार प्रोडक्शन के लिए भेजकर मैंने एक ही काम दोहरा दिया। मुझे बहुत हैरानी हुई। ध्यान से जाँचने के बाद मुझे पता चला कि मैं प्रोडक्शन के लिए भेजने से पहले रिकॉर्ड जाँचना भूल गई थी और इसी कारण यह गलती हुई। मुझे याद आया कि पहले भी रिकॉर्ड न जाँचने के कारण मैं दो बार ऐसी गलती कर चुकी थी। तब अगुआ ने सावधान न रहने के लिए मेरी आलोचना की थी और गलतियों के कारणों का खुलासा कर कहा था कि मैं यही गलती आइंदा दोहराने से बचूँ। मुझे उम्मीद नहीं थी कि इस बार फिर वही गलती कर बैठूँगी। मैं बहुत कमजोर महसूस कर रही थी। “मैं कुछ ही दिनों से सुपरवाइजर बनी हूँ और मैंने फिर से इतनी निम्न स्तर की गलती कर दी है। अगर अगुआ को पता चल गया, तो वह मुझसे कितनी निराश होगी! अगर वह फिर से मेरी आलोचना और काट-छाँट करेगी तो मैं कैसे नजरें मिला पाऊँगी?” मुझे यह भी याद आया कि कुछ दिन पहले हमारे समूह में बहन नादिया को बर्खास्त कर दिया गया था क्योंकि वह हमेशा अपने कर्तव्यों में लापरवाह रहती थी। तब तो मैंने भी उसके साथ अपने कर्तव्य में लापरवाह रहने की प्रकृति और नतीजों पर संगति कर इन्हें उजागर किया था। लेकिन अब मैंने भी अपनी लापरवाही के कारण इतनी निम्न-स्तरीय गलती की है। अगर भाई-बहनों को पता चला तो वे पक्का कहेंगे कि मैं शब्द और धर्म-सिद्धांतों का खूब उपदेश देती हूँ लेकिन अपने कर्तव्य लापरवाही से निभाती हूँ और मेरे पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं है, जिससे मैं सुपरवाइजर बनने लायक नहीं हूँ। जितना अधिक मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही मैं असहज महसूस करने लगी और मुझे उस समय सावधानी से जाँच न करने का पछतावा हुआ। मैं इतनी शर्मिंदा थी कि सबसे सामने अपनी गलती नहीं मान सकती थी, इसलिए मैंने पिछला प्रोडक्शन रिकॉर्ड हटा दिया। उसी पल परमेश्वर के वचनों का एक वाक्यांश मेरे दिमाग में कौंध गया : “मनुष्य के गुप्त कथन और कर्म हमेशा मेरे न्याय के आसन के सामने रहते हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सुसमाचार को फैलाने का कार्य मनुष्य को बचाने का कार्य भी है)। मुझे अपने दिल में डर और कंपकंपी का एहसास हुआ : परमेश्वर मनुष्य के अंतरतम अस्तित्व की जांच करता है। भले ही मैं इसे लोगों से छिपा सकती हूँ पर परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकती। अगर मैं कपट का सहारा लेती हूँ तो परमेश्वर इसे स्पष्टता से देख लेगा और मेरी निंदा करेगा। मैं बहुत डर गई और हटाए गए रिकॉर्ड को मैंने फौरन बहाल कर दिया। इस रिकॉर्ड को देखना एक ऐसे दाग जैसा था जिसे मिटाया नहीं जा सकता था। लेकिन अगुआ के सामने अपनी गलती कबूलने का साहस मुझमें वाकई नहीं था। मैंने सोचा कि अगर मैंने कुछ नहीं कहा तो किसी को पता नहीं चलेगा, इसलिए मैंने जल्दी से वर्कशीट बंद कर दी।

रात भर मैं बिस्तर पर करवटें बदलती रही, सो नहीं पाई, बेचैन रही। मैंने स्पष्ट रूप से एक गलती की जिससे काम को नुकसान हुआ, फिर भी मैंने इसके बारे में नहीं जानने का नाटक किया और अगुआ को इस मुद्दे के बारे में बताने की बात नहीं सोचा। मैं बेशर्मी से धोखेबाजी कर रही थी! बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “परमेश्वर उन लोगों को सिद्ध नहीं बनाता है जो धोखेबाज हैं। अगर तुम लोगों का हृदय ईमानदार नहीं है, अगर तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, तो तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त नहीं किए जाओगे। इसी तरह, तुम कभी भी सत्य को प्राप्त नहीं कर पाओगे, और परमेश्वर को पाने में भी असमर्थ रहोगे। परमेश्वर को न पाने का क्या अर्थ है? अगर तुम परमेश्वर को प्राप्त नहीं करते हो और तुमने सत्य को नहीं समझा है, तो तुम परमेश्वर को नहीं जानोगे और तुम्हारे पास परमेश्वर के अनुकूल होने का कोई रास्ता नहीं होगा, ऐसा हुआ तो तुम परमेश्वर के शत्रु हो। अगर तुम परमेश्वर से असंगत हो, तो परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है; अगर परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है, तो तुम्हें बचाया नहीं जा सकता। अगर तुम उद्धार प्राप्त करने की कोशिश नहीं करते, तो तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो? अगर तुम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते, तो तुम हमेशा परमेश्वर के कट्टर शत्रु बनकर रहोगे और तुम्हारा परिणाम तय हो चुका होगा। इस प्रकार, अगर लोग चाहते हैं कि उन्हें बचाया जाए, तो उन्हें ईमानदार बनना शुरू करना होगा। अंत में जिन्हें परमेश्वर प्राप्त कर लेता है, उन पर एक संकेत चिह्न लगाया जाता है। क्या तुम लोग जानते हो कि वह क्या है? बाइबल में, प्रकाशित-वाक्य में लिखा है : ‘उनके मुँह से कभी झूठ न निकला था, वे निर्दोष हैं’ (प्रकाशितवाक्य 14:5)। कौन हैं ‘वे’? ये वे लोग हैं, जिन्हें परमेश्वर द्वारा बचाया, पूर्ण किया और प्राप्त किया जाता है। परमेश्वर उनका वर्णन कैसे करता है? उनके आचरण की विशेषताएँ और अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? उन पर कोई दोष नहीं है। वे झूठ नहीं बोलते। तुम सब शायद समझ-बूझ सकते हो कि झूठ न बोलने का क्या अर्थ है : इसका अर्थ ईमानदार होना है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। “सभी में कपटी स्वभाव होता है; फर्क सिर्फ इतना है कि यह कितना गंभीर है। भले ही तुम सभाओं में अपना हृदय खोलकर अपनी समस्याओं के बारे में संगति कर लो लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि तुममें कपटी स्वभाव नहीं है? ऐसा नहीं है, तुममें भी कपटी स्वभाव है। मैं यह क्यों कह रहा हूँ? यह रहा उदाहरण : तुम संगति में उन चीजों के बारे में तो खुलकर बात कर सकते हो जो तुम्हारे गर्व या अभिमान को नहीं छूतीं, जो शर्मनाक नहीं हैं और जिनके लिए तुम्हारी काट-छाँट नहीं की जाएगी—लेकिन अगर तुमने कुछ ऐसा किया हो जो सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करता हो, जिससे हर कोई घृणा और विद्रोह करे, तो क्या तुम सभाओं में उसके बारे में खुलकर संगति कर पाओगे? और अगर तुमने कुछ ऐसा किया हो जिसे बयान नहीं किया जा सकता, तो उसके बारे में खुलकर सत्य बताना तुम्हारे लिए और भी मुश्किल होगा। अगर कोई उस पर गौर करे या उसके लिए दोष देने का प्रयास करे, तो तुम उसे छिपाने के लिए अपने सभी हथकंडे अपनाओगे और इस बात से भयभीत रहोगे कि यह मामला उजागर हो सकता है। तुम हमेशा उस पर पर्दा डालने और उससे बच निकलने की कोशिश करोगे। क्या यह कपटी स्वभाव नहीं है? तुम्हें लग सकता है कि अगर तुम इसे जोर से नहीं कहते, तो किसी को इसका पता नहीं चलेगा, यहाँ तक कि परमेश्वर के पास भी इसे जानने का कोई उपाय नहीं होगा। यह गलत है! परमेश्वर लोगों के अंतरतम की पड़ताल करता है। अगर तुम इसे महसूस नहीं कर सकते, तो तुम परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानते। कपटी लोग न सिर्फ दूसरों को छलते हैं—वे परमेश्वर को छलने की कोशिश करने की हिम्मत भी करते हैं और उसका प्रतिरोध करने के लिए कपटपूर्ण हथकंडे आजमाते हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है, और कपटी लोगों से वह सबसे ज्यादा घृणा करता है। अतः कपटी लोग वे हैं जिनके लिए उद्धार प्राप्त करना सबसे कठिन है। कपटी प्रकृति के लोग सबसे ज्यादा झूठ बोलने वाले होते हैं। यहाँ तक कि वे परमेश्वर से भी झूठ बोलते हैं और उसे भी छलने की कोशिश करते हैं, और हठपूर्वक पश्चात्ताप नहीं करते। इसका अर्थ है कि वे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है)। गलती करने के बाद परमेश्वर के वचनों की तुलना अपने विचारों और कार्यों से करने पर मुझे एहसास हुआ कि मैं एक धोखेबाज स्वभाव प्रकट कर रही थी। यह एक तथ्य था कि मैंने अपने कर्तव्य अनमने ढंग से निभाए थे, जिसके परिणामस्वरूप बार-बार काम दोहराना पड़ा और मानव और भौतिक संसाधनों की बर्बादी हुई। मुझे एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए और अगुआ के सामने अपनी गलती सच्चाई से स्वीकारनी चाहिए और जिम्मेदारी लेनी चाहिए। लेकिन मुझे डर था कि अगुआ और भाई-बहन मुझे नीची नजर से देखेंगे, इसलिए मैंने पिछला प्रोडक्शन रिकॉर्ड हटाकर अपनी गलती छिपा दी और सोचा कि किसी को भी समस्या का पता नहीं चलेगा। भले ही मैंने बाद में रिकॉर्ड बहाल कर दिया, फिर भी मैं अपनी गलती स्वीकारना नहीं चाहती थी, मुझे उम्मीद थी कि इसे कोई नहीं पकड़ पाएगा; जब तक किसी को पता नहीं चलता, तब तक मामला अनसुलझा ही रह सकता था। अगर किसी को बाद में इसके बारे में पता चलता है तो मैं कह दूँगी हूँ कि मैंने इसे देखा तो था लेकिन इसका उल्लेख करना भूल गई थी, ऐसा नहीं है कि मैं जानबूझकर इसे छिपा रही थी। इस तरह मैं धोखेबाज दिखे बिना अपनी गलती छिपा सकती थी। मैं बहुत धोखेबाज थी! परमेश्वर का सार पवित्र है और वह ईमानदार लोगों को पसंद करता है और धोखेबाज लोगों से घृणा करता है। यह जानते हुए भी कि परमेश्वर सब कुछ जाँचता है, फिर भी मैं कपट और चालबाजी में लगी रही। मेरे कार्यों से परमेश्वर को घृणा हुई। अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया और ईमानदार नहीं बनी तो भले ही मैंने बाहरी रूप से कितना भी त्याग किया हो, अंत में मुझे बचाया नहीं जाएगा। हालाँकि अगुआ के सामने अपनी गलती स्वीकारना बहुत अपमानजनक था। मुझे डर था कि अगुआ मुझसे निराश हो जाएगी और मेरी काट-छाँट करेगी और मुझमें बोलने की हिम्मत नहीं हुई। मेरे दिल में द्वंद्व और दर्द महसूस हुआ।

सोमवार, 5 दिसंबर 2022, बादल छाए हुए

दो दिन बीत चुके हैं और मुझमें अभी भी अगुआ को बताने की हिम्मत नहीं है। पिछले दो दिनों से मैं इस घटना को भुलाने के लिए बेचैन थी; ऐसा करने से मुझे अपनी गलती स्वीकारने और शर्मिंदगी का सामना करने की जरूरत नहीं पड़ती। मैंने खुद को पूरी तरह से अपने काम में झोंक दिया है, जिससे अस्थायी तौर पर मुझे इस घटना को भूलने में मदद मिली है। लेकिन फुर्सत के पल मिलने पर मैं फिर से इस बारे में सोचने से बच नहीं पाती। यह गलती मुझे एक बुरे सपने की तरह जकड़े रहती है। चाहे मैं खा रही हूँ, सफाई कर रही हूँ या चल रही हूँ, इसके बारे में सोचने से मेरा दिल ऐसा दुखता है मानो इसे मरोड़ दिया गया हो। मानो मेरे दिमाग में कोई आवाज लगातार मुझे दोषी ठहरा रही हो : “तुम एक ईमानदार इंसान नहीं हो; तुम्हें बचाया नहीं जा सकता।” मैं रात को भी चैन से सो नहीं पाती हूँ और मेरा दिल पीड़ा में रहता है। मैं परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचती हूँ : “संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना। मैं जो कहता हूँ वह बहुत सरल है, किंतु तुम लोगों के लिए दुगुना मुश्किल है। बहुत-से लोग ईमानदारी से बोलने और कार्य करने की बजाय नरक में दंडित होना पसंद करेंगे। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि जो बेईमान हैं उनके लिए मेरे भंडार में अन्य उपचार भी है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। परमेश्वर के ये वचन मैंने पहले पढ़े थे तो तब इन्हें पूरी तरह समझ नहीं पाई थी। मैं सोचती थी, “क्या ईमानदार इंसान होना वाकई इतना कठिन है? परमेश्वर स्पष्टता से कहता है कि अगर हम ईमानदार व्यक्ति नहीं बनते हैं तो हमें बचाया नहीं जा सकता। चूँकि मैं दुष्परिणाम जानती हूँ, इसलिए बचाए जाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार ईमानदारी से बोलना और कार्य करना चाहिए, चाहे मुझे कितना भी कष्ट क्यों न सहना पड़े। यह मुश्किल नहीं होना चाहिए! इसके अलावा मेरी प्रकृति सीधे-सादे व्यक्तित्व की है; मैं अपनी बात तुरंत बोल देती हूँ, इसलिए ईमानदार होना और सच बोलना मेरे लिए मुश्किल नहीं होना चाहिए।” लेकिन तथ्यों के प्रकाशन में मुझे एहसास हुआ कि एक ईमानदार इंसान होना उतना आसान नहीं है जितना मैंने सोचा था। मुझमें अपनी गलती स्वीकारने का साहस भी नहीं है। अपने अभिमान और रुतबे को बचाने के लिए मैंने सच्चाई छिपाने के लिए तरकीबें भी अपनाईं। स्पष्टता से जानने के बावजूद कि मैं ईमानदार हुए बिना बच नहीं सकती, मैं अभी भी अपनी गलती स्वीकारना नहीं चाहती। क्या मैं उस प्रकार की इंसान नहीं हूँ जिसके बारे में परमेश्वर ने बताया है कि जो ईमानदारी से बोलने की अपेक्षा नरक में जाना पसंद करेगा? मैंने सोचा हूँ कि कैसे मैं दस साल से अधिक समय से परमेश्वर पर विश्वास कर रही हूँ लेकिन फिर भी इस छोटे से मामले में भी ईमानदार नहीं बन पाई और न ही मैं अपनी गलती को सच्चाई से स्वीकार सकी। मेरे पास थोड़ी सी भी सत्य वास्तविकता नहीं है! मैं खुद से बहुत निराश और हताश हूँ। मैं हमेशा घोषणा करती हूँ कि मैं सत्य का अभ्यास करना चाहती हूँ, लेकिन जब मेरे सामने अपने अभिमान और रुतबे से संबंधित कोई मामला आता है तो मैं जानबूझकर सत्य का अभ्यास करने में नाकाम रहती हूँ। मैं उदास रहती हूँ और भाई-बहनों से बात नहीं करना चाहती; मुझे हमेशा लगता है कि मैं सत्य का अभ्यास नहीं करती और मैं एक ईमानदार इंसान नहीं हूँ, इसलिए मैं उनका सामना नहीं कर सकती। रात में सोने से पहले मैंने रो-रोकर अपने दिल का दर्द बयाँ कर परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं कितनी दयनीय हूँ। मैं इतनी छोटी सी बात में भी सत्य का अभ्यास नहीं कर सकती; मैं एक भी सच्चा बयान नहीं बोल सकती या अपनी गलती स्वीकार नहीं सकती। मैं शैतान द्वारा बुरी तरह भ्रष्ट हो चुकी हूँ! हे परमेश्वर, मैं बहुत निराश हूँ। मैं इस तरह नहीं जीना चाहती; मुझे बचा लो।”

सोमवार, 12 दिसंबर 2022, बादल छाए हुए, मौसम साफ हो रहा है

मैं असल में अगुआ के सामने अपनी गलती स्वीकारना चाहती थी लेकिन जब बोलने का समय आया तो मेरे मन में अभी भी काफी आशंका थी। मुझे हैरानी हुई : मेरे लिए अपनी गलती स्वीकारना और सच बोलना इतना कठिन क्यों है? मुझे ईमानदार होने से क्या रोक रहा है? मैंने बहन ट्रेसी को अपनी दशा बताई तो उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा, जिससे आखिरकार इस मामले में मुझे कुछ समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर कोई काम करते समय तुम्हारे अंदर इच्छाशक्ति है, तो तुम इसे एक ही झटके में अच्छी तरह से कर सकते हो; लेकिन बिना किसी झूठ के सिर्फ एक बार सच कहने से तुम हमेशा के लिए ईमानदार व्यक्ति नहीं बन जाओगे। ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए अपना स्वभाव बदलना जरूरी है, और इसके लिए दस-बीस वर्षों का अनुभव लगता है। ईमानदार व्यक्ति बनने के बुनियादी मानक को पूरा करने के लिए सबसे पहले, तुम्हें अपने झूठ और कपटपूर्ण स्वभाव को त्याग देना चाहिए। क्या यह सबके लिए कठिन नहीं है? यह एक बहुत बड़ी चुनौती है। परमेश्वर अब लोगों के एक समूह को पूर्ण बनाना और प्राप्त करना चाहता है, और सत्य का अनुसरण करने वाले सभी लोगों को न्याय और ताड़ना, परीक्षणों और शोधन को स्वीकारना चाहिए, जिसका उद्देश्य उनके कपटी स्वभावों का समाधान करना और उन्हें ऐसा ईमानदार व्यक्ति बनाना है जो परमेश्वर के प्रति समर्पित रहें। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे एक झटके में हासिल किया जा सकता है; इसके लिए सच्ची आस्था की आवश्यकता होती है, और इसे हासिल करने से पहले व्यक्ति को बहुत-से परीक्षणों और काफी शोधन से गुजरना पड़ता है। अगर परमेश्वर तुमसे अभी ईमानदार व्यक्ति बनने और सच बोलने के लिए कहे, कुछ ऐसा जिसमें तथ्य शामिल हों, और कुछ ऐसा जिससे तुम्हारा भविष्य और भाग्य जुड़ा हो, जिसके परिणाम शायद तुम्हारे लिए फायदेमंद न हों, और दूसरे अब तुम्हें सम्मान से न देखें, और तुम्हें ऐसा लगे कि तुम्हारी प्रतिष्ठा नष्ट हो गई है—तो क्या ऐसी परिस्थिति में तुम बेबाक होकर सच बोल सकते हों? क्या तुम अभी भी ईमानदार रह सकते हो? यह करना सबसे कठिन काम है, अपना जीवन त्यागने से भी कहीं अधिक कठिन। तुम कह सकते हो, ‘मेरे सच बोलने से काम नहीं चलेगा। मैं सच बोलने के बजाय परमेश्वर के लिए मरना पसंद करूँगा। मैं ईमानदार व्यक्ति बिल्कुल भी नहीं बनना चाहता। हर कोई मुझे नीची निगाह से देखे और मुझे एक आम व्यक्ति समझे, इसके बजाय मैं मर जाना पसंद करूँगा।’ यह क्या दिखाता है कि लोग किस चीज को सबसे ज्यादा सँजोते हैं? लोग जिसे सबसे ज्यादा सँजोते हैं, वह उनका उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा है—ऐसी चीजें जो उनके शैतानी स्वभावों से नियंत्रित होती हैं। जीवन गौण होता है। हालात मजबूर करें वे अपनी जान देने की ताकत जुटा लेंगे, लेकिन हैसियत और प्रतिष्ठा त्यागना आसान नहीं है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनके लिए अपनी जान देना अत्यंत महत्वपूर्ण नहीं है; परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग सत्य को स्वीकार करें, और वास्तव में ऐसे ईमानदार लोग बनें जो अपने दिल की बात कहते, खुलकर बोलते और सबके सामने खुद को उजागर करते हैं। क्या ऐसा करना आसान है? (नहीं, यह आसान नहीं है।) वास्तव में, परमेश्वर तुमसे अपना जीवन त्यागने के लिए नहीं कहता। क्या तुम्हारा जीवन तुम्हें परमेश्वर ने ही नहीं दिया था? परमेश्वर के लिए तुम्हारे जीवन का क्या उपयोग होगा? परमेश्वर उसे नहीं चाहता। वह चाहता है कि तुम ईमानदारी से बोलो, दूसरों को यह बताओ कि तुम किस तरह के व्यक्ति हो और अपने दिल में क्या सोचते हो। क्या तुम ये बातें कह सकते हो? यहाँ, यह कार्य कठिन हो जाता है, और तुम कह सकते हो, ‘मुझे कड़ी मेहनत करने दो, मुझमें उसे करने की ताकत होगी। मुझे अपनी सारी संपत्ति का त्याग करने दो, और मैं ऐसा कर सकता हूँ। मैं आसानी से अपने माता-पिता, अपने बच्चे, अपनी शादी और आजीविका का त्याग कर दूँगा। लेकिन अपने दिल की बात कहना, ईमानदारी से बोलना—यही एक काम मैं नहीं कर सकता।’ क्या कारण है कि तुम ऐसा नहीं कर सकते? इसका कारण यह है कि तुम्हारे ऐसा करने के बाद, जो कोई भी तुम्हें जानता है या तुमसे परिचित है, वह तुम्हें अलग तरह से देखेगा। वह अब तुम्हारा सम्मान नहीं करेगा। तुम्हारी साख मिट जाएगी और तुम बुरी तरह से अपमानित होगे, तुम्हारी सत्यनिष्ठा और गरिमा खत्म हो जाएगी। दूसरों के दिलों में तुम्हारी ऊँची हैसियत और प्रतिष्ठा नहीं रहेगी। इसलिए, ऐसे हालात में, चाहे कुछ भी हो जाए, तुम सच नहीं कहोगे। जब लोगों के सामने यह स्थिति आती है, तो उनके दिलों में एक जंग होती है, और जब वह जंग खत्म होती है, तो कुछ लोग अंततः अपनी कठिनाइयों से निकल आते हैं, जबकि अन्य इससे निकल नहीं पाते, और अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभावों और अपनी हैसियत, प्रतिष्ठा और तथाकथित गरिमा से नियंत्रित होते रहते हैं। यह एक कठिनाई है, है न? केवल ईमानदारी से बोलना और सच बोलना कोई महान चीज नहीं है, फिर भी बहुत-से वीर नायक, बहुत-से ऐसे लोग जिन्होंने परमेश्वर के लिए खुद को समर्पित करने, खुद को खपाने और परमेश्वर के लिए अपना जीवन बिताने की शपथ ली है, और बहुत-से ऐसे लोग जिन्होंने परमेश्वर से बड़ी-बड़ी बातें कही हैं, ऐसा करना असंभव पाते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं अगुआ के सामने अपनी गलती स्वीकारने की हिम्मत नहीं कर पाई क्योंकि मैं अपने अभिमान और रुतबे को बहुत महत्व देती हूँ और मैं दूसरों की नजरों में अपनी छवि को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित रहती हूँ। बचपन से ही मैं शैतान के जहरों को समझदारी वाली बातें मानती आई हूँ जैसे कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” और “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है।” मैंने हमेशा अपने अभिमान और रुतबे को बहुत महत्व दिया है। मैं जो भी करती हूँ, उससे मैं दूसरों पर अच्छी छाप छोड़ना चाहती हूँ और उनकी तारीफ पाना चाहती हूँ। जब मैं खराब प्रदर्शन करती हूँ और अपना सम्मान खो देती हूँ तो मुझे बहुत दुख होता है। मुझे याद है कि जब मैं स्कूल में थी तो शिक्षक गलती करने वाले छात्रों से हाथ उठाने के लिए कहते थे। जब मैं बार-बार गलतियाँ करती थी तो मुझे लगता था कि शिक्षक और मेरे सहपाठी मुझे बेवकूफ समझेंगे और मुझ पर हँसेंगे, इसलिए मैं अपना हाथ खड़ा करने की हिम्मत नहीं करती थी। जब शिक्षक मेरे पास से गुजरते थे तो मैं अपनी गलतियाँ छिपा लेती थी ताकि शिक्षक उन्हें न देख सकें। अपना अभिमान कायम रखने के लिए मैंने छोटी उम्र में ही चालाकी और धोखेबाजी सीख ली थी। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद मैंने कलीसिया में वीडियो प्रोडक्शन पर काम किया। मुझे पता था कि इस काम में विवरणों पर बहुत ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि कोई भी छोटी सी गलती बहुत बड़ा नुकसान पहुंचा सकती है। इसलिए मैंने भरसक सावधानी बरतने की कोशिश की, मैं चाहती थी कि भाई-बहन सोचें कि मैं मेहनती और जिम्मेदार हूँ और मेरा अच्छा प्रभाव पड़े। मुझे यह भी उम्मीद थी कि अगुआ मेरी कद्र करेगी। खासकर हाल ही में वीडियो कार्य का प्रभारी बनने के बाद मुझे लगा कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हर कोई मुझे अच्छा मानता है और मुझे एक गंभीर, जिम्मेदार और भरोसेमंद इंसान के रूप में देखता है। इसलिए गलतियाँ करने पर मुझे पहली फिक्र अपने अभिमान और रुतबे की होती थी। मुझे चिंता होती थी कि अगर अगुआ को पता चल गया कि मैंने ऐसी बुनियादी गलती की है तो वह निश्चित रूप से मुझ पर भरोसा नहीं करेगी या मेरी कद्र नहीं करेगी और भाई-बहन मुझे नीची नजर से देखेंगे और सोचेंगे कि मैं गैर-जिम्मेदार और घटिया हूँ, जिससे मेरी बरसों की बनी-बनाई अच्छी छवि नष्ट हो जाएगी। अपने अभिमान की रक्षा करने और सबकी नजरों में अपनी अच्छी छवि बनाए रखने के लिए मैंने छल-कपट और धोखाधड़ी की और अपनी गलती छिपाने की कोशिश की। मैंने तो यहां तक सोचा कि इस मुद्दे को नजरअंदाज कर दूँ, किसी से इसका जिक्र न करूँ ताकि इसे अहमियत न मिले और मैं बच निकलूँ। मैं बहुत धोखेबाज थी! मैं अच्छी तरह जानती थी कि परमेश्वर हर चीज की जाँच करता है, फिर भी मैंने अपनी गलती छिपाने की कोशिश की, दिखाया कि मैं न केवल धोखेबाज हूँ, बल्कि बहुत ही अड़ियल भी हूँ। मुझे एहसास हुआ कि मेरा अभिमान और रुतबा एक ईमानदार इंसान होने में सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। अगर मैं अपने अभिमान और रुतबे के बंधन और बाध्यता से मुक्त नहीं हो पाई तो मैं सत्य का अभ्यास नहीं कर पाऊँगी और अंत में मुझे हटा दिया जाएगा।

मैंने परमेश्वर के ये वचन भी पढ़े : “जब लोग ईमानदार होने का अनुभव करते हैं, तो कई व्यावहारिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। कभी-कभी वे बिना सोचे-समझे बोल देते हैं, वे क्षण भर के लिए चूक कर बैठते हैं और झूठ बोल देते हैं, क्योंकि वे गलत इरादे या उद्देश्य, या अभिमान और गर्व से संचालित होते हैं, और नतीजतन, उन्हें इसे छिपाने के लिए ज्यादा से ज्यादा झूठ बोलना पड़ता है। अंत में उन्हें अपने दिल में सहजता महसूस नहीं होती, लेकिन वे वो झूठ वापस नहीं ले पाते, उनमें अपनी गलतियाँ सुधारने का, यह स्वीकारने का साहस नहीं होता कि उन्होंने झूठ बोले थे, और इस तरह उनकी गलतियाँ लगातार होती जाती हैं। इसके बाद हमेशा ऐसा होता है जैसे उनका दिल किसी चट्टान से दबा जा रहा हो; वे हमेशा अपना भेद खोलने, गलती स्वीकारने और पश्चात्ताप करने का अवसर ढूँढ़ना चाहते हैं, लेकिन वे इसे कभी अभ्यास में नहीं लाते। अंततः वे इस पर विचार कर मन ही मन कहते हैं, ‘मैं जब भविष्य में अपना कर्तव्य निभाऊँगा तो इसकी भरपाई कर दूँगा।’ वे हमेशा कहते हैं कि वे इसकी भरपाई कर देंगे, लेकिन कभी करते नहीं। यह झूठ बोलने के बाद माफी माँगने जितना आसान नहीं है—क्या तुम झूठ बोलने और धोखे में शामिल होने के नुकसान और परिणामों की भरपाई कर सकते हो? अगर अत्यधिक आत्म-घृणा के बीच तुम पश्चात्ताप का अभ्यास करने में सक्षम रहते हो और फिर कभी उस तरह की चीज नहीं करते, तो तुम्हें परमेश्वर की सहनशीलता और दया प्राप्त हो सकती है। अगर तुम मीठी बातें बोलते हो और कहते हो कि तुम भविष्य में अपने झूठ की भरपाई कर दोगे, लेकिन वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करते, और बाद में झूठ बोलना और धोखा देना जारी रखते हो, तो तुम पश्चात्ताप करने से इनकार करने में बेहद जिद्दी हो, और तुम्हें निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा। ... लोगों को धोखा देना एक भ्रष्ट स्वभाव का प्रकाशन है, यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करना और उसका विरोध करना है, इसलिए यह तुम्हें पीड़ा पहुँचाएगा। जब तुम झूठ बोलते और धोखा देते हो, तो तुम्हें लग सकता है कि तुमने बहुत चतुराई और चालाकी से बात की है, और तुमने अपने धोखे का कोई छोटा-मोटा सुराग भी नहीं छोड़ा—लेकिन बाद में तुम्हें तिरस्कार और दोषारोपण का बोध होगा, जो जीवन भर तुम्हारा पीछा कर सकता है। अगर तुम इरादतन और जानबूझकर झूठ बोलते और धोखा देते हो, और एक दिन तुम्हें इसकी गंभीरता का एहसास होता है, तो यह चाकू की तरह तुम्हारे दिल को बेध देगा, और तुम हमेशा गलती सुधारने का मौका ढूँढ़ोगे। और तुम्हें यही करना चाहिए, बशर्ते तुम्हारे पास जमीर न हो और तुमने कभी अपने जमीर के अनुसार जीवन न जिया हो, और तुममें कोई मानवता और कोई चरित्र या गरिमा न हो। अगर तुममें थोड़ा चरित्र और गरिमा है, और थोड़ी जमीर की जागरूकता है, तो जब तुम्हें एहसास होगा कि तुम झूठ बोल रहे हो और धोखा देने में संलग्न हो, तो तुम्हें अपना यह व्यवहार शर्मनाक, अपमानजनक और ओछा लगेगा; तुम खुद से घृणा करोगे और खुद को तुच्छ समझोगे, और झूठ और धोखे का मार्ग छोड़ दोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मैं बहुत प्रभावित हुई। पिछले कुछ दिनों में मैंने कर्तव्य निभाने में अपनी गलती के बारे में किसी को नहीं बताया। भले ही मेरे अभिमान को कोई आँच नहीं आई है, फिर भी जब मैं खाली होती हूँ तो मेरे दिल में लगातार चुभन होती है। इससे मैं हर दिन बेचैन और असहज रहती हूँ; मैं रात को ठीक से सो नहीं पाती और मेरा दिल अपराध बोध से भरा रहता है। मुझे गहराई से लगता है कि एक ईमानदार इंसान बने बिना शांति या खुशी नहीं मिलती। धोखे और दिखावे का सहारा लेकर मैंने फिलहाल अपना अभिमान तो बचा लिया लेकिन अपनी गरिमा और ईमानदारी गवाँ दी और अपराध बोध से होने वाला दर्द बहुत बढ़ गया। पीछे मुड़कर देखती हूँ तो मुझे एहसास होता है कि मैंने कई बार वही गलतियाँ कीं क्योंकि मैंने वीडियो बनाने से पहले पिछले रिकॉर्ड की जाँच नहीं की। अगर मैंने काम की प्रक्रियाओं का पालन किया होता और सब कुछ ठीक से जाँच लिया होता तो इन गलतियों से बचा जा सकता था। हालाँकि अगुआ ने मेरी पहली दो गलतियों के बाद फॉर्म भरने और जाँचने के महत्व पर जोर दिया था पर मुझे यह प्रक्रिया बहुत परेशानी भरी लगी और मैं जोखिम उठाती रही और सोचा कि जाँच न करने से शायद कोई समस्या नहीं होगी। कभी-कभी जब मैं व्यस्त होती तो मैं इस चरण को छोड़ देती थी। मैंने देखा कि अपने कर्तव्य निभाने में न सिर्फ मैं अनमनी थी, बल्कि अहंकारी और आत्मतुष्ट भी थी और बहुत ही घिनौनी थी। जब गलतियाँ हुईं तो मैंने उन्हें छिपाने की भी कोशिश की; मैंने भेष बदला और झूठी छवि के साथ दूसरों को धोखा दिया। यह वास्तव में घृणित और बेशर्मी है! इस मुद्दे की गंभीरता समझते हुए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और पश्चात्ताप किया।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश भी पढ़ा और अभ्यास का मार्ग पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “केवल ईमानदार लोग ही स्वर्ग के राज्य में साझीदार हो सकते हैं। यदि तुम ईमानदार व्यक्ति बनने की कोशिश नहीं करोगे, सत्य का अनुसरण करने की दिशा में अनुभव प्राप्त नहीं करोगे और अभ्यास नहीं करोगे, यदि अपना भद्दापन उजागर नहीं करोगे और यदि खुद को खोल कर पेश नहीं करोगे, तो तुम कभी भी पवित्र आत्मा का कार्य और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर पाओगे। चाहे तुम कुछ भी करो, या कोई भी कर्तव्य निभाओ, तुम्हारा रवैया ईमानदार होना चाहिए। ईमानदार रवैये के बिना तुम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभा सकते। अगर तुम अपना कर्तव्य हमेशा लापरवाही से निभाते हो, और तुम कोई काम अच्छी तरह नहीं कर पाते, तो तुम्हें आत्मचिंतन कर खुद को जानना चाहिए, और अपना गहन विश्लेषण करने के लिए खुल जाना चाहिए। फिर तुम्हें सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए, और अगली बार लापरवाह होने के बजाय बेहतर करने की कोशिश करनी चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरा हृदय झट से निष्कलुष हो गया। जब कर्तव्य पालन में गलतियाँ होती हैं तो मुझे आत्म-चिंतन करना चाहिए, विचलनों का सारांश देना चाहिए और सबके सामने खुलकर और आत्म-चिंतन करते हुए उनके पर्यवेक्षण को स्वीकारना चाहिए। इससे भविष्य में गलतियाँ रोकने में मदद मिल सकती है और यह एक ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास भी है। मेरी सुपरवाइजर की यह भूमिका ऐसा अवसर है जो परमेश्वर ने मुझे अभ्यास करने के लिए सौंपा है। इसके अलावा परमेश्वर के घर ने कभी भी यह अपेक्षा नहीं की है कि लोग अपने कर्तव्य निभाते समय कोई गलती न करें, गलतियाँ करने के लिए लोगों को वर्गीकृत करना तो दूर की बात है। महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या कोई व्यक्ति गलती करने के बाद तुरंत कारणों का सारांश दे सकता है, आत्म-चिंतन कर सकता है, सत्य सिद्धांतों की तलाश कर सकता है और वही गलतियाँ दोहराने से बच सकता है। अगर कोई अपना कर्तव्य निभाते हुए लगातार लापरवाह न रहे और सुधार से परे न हो तो परमेश्वर का घर उसके साथ सही व्यवहार करेगा और अवसर देगा। भ्रष्ट स्वभावों से प्रेरित होकर अपने कर्तव्य निभाने में मेरी लापरवाही गलतियों का कारण बनी, जिससे कलीसिया के हितों को नुकसान हुआ। यह एक तथ्य है। मुझे एक ईमानदार इंसान होना चाहिए, खुद को बेनकाब करना चाहिए और अपना गहन विश्लेषण करना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए सत्य खोजने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और अपने कर्तव्य पूरी लगन से निभाने चाहिए। सत्य स्वीकारने का यही रवैया होता है। अगर मैं गलतियाँ छिपाती हूँ और धोखा देती हूँ और अपने कर्तव्य निभाने में स्पष्ट रूप से लापरवाही बरतने के बावजूद झूठी छवि के जरिए अपनी गलतियों पर पर्दा डालकर दूसरों को भ्रमित करती हूँ तो भले ही मैं फौरी तौर पर अपने अभिमान और रुतबे को कायम रख लूँ, मेरी लापरवाही की समस्या अनसुलझी रहेगी और मैं मानक के अनुसार अपने कर्तव्य अच्छे से नहीं पाऊँगी। यह वास्तव में खुद को नुकसान पहुँचाना है। मैं अब अपने अभिमान को बचाने के लिए खुद को अच्छा दिखाकर पेश नहीं कर सकती; मुझे सत्य का अभ्यास करना चाहिए और एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए। मैंने दूसरे भाई-बहनों के बारे में सोचा जिन्हें भी प्रोडक्शन में दोहराव से समस्याएँ थीं। एक सुपरवाइजर के रूप में मुझे खुद मिसाल पेश करनी चाहिए, अपनी समस्याएँ उजागर करनी चाहिए, सबके साथ इनका सारांश बनाकर एक रास्ता खोजना चाहिए और काम को नुकसान पहुँचा सकने वाली एक जैसी गलतियाँ दोहराने से सबको रोकना चाहिए। यह सोचकर मुझे सत्य का अभ्यास करने की प्रेरणा मिली और अपनी गलती स्वीकार करने का साहस मिला।

बुधवार, 14 दिसंबर 2022, धूप खिली है

सभा के दौरान मैंने अपनी अवस्था सबके साथ खुलकर साझा की, अपनी भ्रष्टता और गलती को उजागर किया और सभी को इन सबक से सीखने की याद दिलाई। सभा के बाद मुझे लगा जैसे मेरे सीने से एक भारी बोझ आखिर उतर गया है। मेरे दिल को राहत मिली और मैंने उस मिठास और सहजता का अनुभव किया जो खुलेपन और सच बोलने से आती है। मेरी उम्मीदों के विपरीत अगुआ ने मुझे नीची नजरों से नहीं देखा बल्कि मेरी मदद करने के लिए परमेश्वर के वचनों की संगति की, जो बहुत ही शिक्षाप्रद थी। मैंने अपने कर्तव्य निभाने में बेपरवाह होने की समस्या सुलझाने पर ध्यान केंद्रित करने का मन बना लिया, ताकि मेरे कर्तव्यों से अच्छे परिणाम प्राप्त हो सकें।

इस अनुभव के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि एक ईमानदार व्यक्ति होना उतना आसान नहीं है जितना मैंने सोचा था। यह एक सीधा-सादा व्यक्तित्व और मुँहफट होना नहीं है। यह मेरी विकृत समझ थी। मैं शैतान द्वारा बुरी तरह भ्रष्ट हो गई हूँ, धोखेबाजी, अहंकार और स्वार्थ जैसे भ्रष्ट स्वभावों से भर गई हूँ। अपने अभिमान और रुतबे की रक्षा के लिए मैं झूठ बोल सकती हूँ और धोखा दे सकती हूँ। मुझे परिवर्तन से गुजरने के लिए परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना और काट-छाँट को स्वीकार करने की आवश्यकता है। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया जो मैंने पहले पढ़ा था : “परमेश्वर की दृष्टि में, ईमानदार इंसान होने में समर्थ होने में आचरण और व्यवहार में परिवर्तन के साथ और भी बहुत कुछ लगता है; इसमें व्यक्ति की मानसिकता और विभिन्न मामलों पर उसके नजरियों में अनिवार्य परिवर्तन भी शामिल होते हैं। उसमें अब झूठ बोलने और धोखा देने का इरादा नहीं होता है, और उसकी बातों या कृत्यों में बिल्कुल भी झूठ या धोखा नहीं होता है। उसकी बातें और कृत्य ज्यादा-से-ज्यादा सच्चे हो जाते हैं, वह ज्यादा-से-ज्यादा ईमानदारी के बोल बोलता है। मिसाल के तौर पर, जब तुम से पूछा जाए कि क्या तुमने कुछ किया है, तो मान लेने पर भले ही थप्पड़ लगे या कोई दंड मिले, तुम सत्य बोल पाते हो। इसे मानने से भले ही तुम पर कोई भारी जिम्मेदारी आ जाए, फाँसी या विनाश का सामना करना पड़े, फिर भी तुम सत्य बताकर परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करने को तैयार हो जाते हो। यह एक संकेत है कि परमेश्वर के वचनों के प्रति तुम्हारा रवैया बहुत दृढ़ हो गया है। चाहे जब भी हो, परमेश्वर द्वारा अपेक्षित अभ्यास के किसी एक मानक को चुनना तुम्हारे लिए कोई समस्या नहीं रही; तुम इसे सहज ही प्राप्त कर बाहरी हालात के नियंत्रणों के बिना, अगुआओं और कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शन के बिना या अपने भीतर परमेश्वर की पड़ताल का एहसास किए बिना इसका अभ्यास कर सकते हो। तुम इन चीजों को अपने आप बड़ी आसानी से कर पाते हो। बाहरी हालात के नियंत्रणों के बिना, और परमेश्वर के अनुशासन के डर से नहीं, अपने जमीर की उलाहना के डर से नहीं और निश्चित रूप से दूसरों द्वारा उपहास या निरीक्षण के डर से नहीं—इनमें से किसी की वजह से नहीं—तुम सक्रिय रूप से अपने व्यवहार को जाँच सकते हो, उसकी शुद्धता को माप सकते हो और आकलन कर सकते हो कि क्या यह सत्य के अनुरूप है और परमेश्वर को संतुष्ट करता है। उस मुकाम पर, तुम मूल रूप से परमेश्वर की दृष्टि में एक ईमानदार इंसान होने के मानक पर खरे उतरे हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (3))। परमेश्वर द्वारा अपेक्षित एक ईमानदार व्यक्ति के मानक से अपनी तुलना करते हुए मैं जानती हूँ कि मैं अभी भी बहुत पीछे हूँ। लेकिन मैं एक ईमानदार इंसान बनने के लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने का प्रयास करने के लिए तैयार हूँ, हर परिस्थिति सामने आने पर परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने को तैयार हूँ, सच्चाई से बोलने पर ध्यान केंद्रित करने और सत्य का अभ्यास करने को तैयार हूँ।

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