77. आराम की लालसा करने से कुछ हासिल नहीं होता

क्रिस्टन, स्वीडन

जुलाई 2021 में, मुझे वीडियो के काम का प्रभारी बनाया गया। शुरू में, मैं अक्सर भाई-बहनों को कर्तव्य निभाने में होने वाली मुश्किलों और परेशानियों पर ध्यान देती थी, फिर इनका हल निकालने के लिए उनके साथ मिलकर सत्य खोजती थी। कुछ समय बीतने के बाद ही, काम के नतीजों में सुधार दिखने लगा। मैंने सोचा, “अब काम में लगातार सुधार हो रहा है, तो कोई बड़ी समस्या नहीं होनी चाहिए। कोई समस्या आई भी, तो काम के नतीजों पर असर नहीं पड़ेगा, हम समय रहते उसे हल कर लेंगे।” यह देखकर कि हर कोई अपने कर्तव्यों में बढ़-चढ़ कर जुटा है और कीमत चुका सकता है, मैंने सोचा मुझे ज्यादा फिक्र करने की ज़रूरत नहीं है। उस दौरान, हर चीज की खोज-खबर लेने का मतलब था अक्सर देर से सोना, और कभी-कभी तो मैं इतनी व्यस्त रहती कि समय पर खाना भी नहीं खा पाती थी। मुझे काफी थकान महसूस होती थी, मेरी सेहत भी खास अच्छी नहीं थी, तो मैंने सोचा कि ज्यादा दबाव लेना ठीक नहीं होगा। उसके बाद, मैं काम को लेकर थोड़ी बेफिक्र रहने लगी, इसकी खोज-खबर रखने पर ज़्यादा ध्यान देना छोड़ दिया। कभी-कभी मैं यूं ही थोड़ी पूछताछ कर लेती, पर भाई-बहनों के कर्तव्यों की बारीकियों में शायद ही कभी जाती, यह सोचना भी छोड़ दिया कि हमारे काम के नतीजों में आगे सुधार कैसे हो।

जल्दी ही, हमारे तैयार किए गए कई वीडियो में समस्याएं दिखने लगीं, उन पर दोबारा काम करना पड़ा, जिससे काम की प्रगति पर सीधा असर पड़ा। इस हालत को देखकर, मुझे बड़ी चिंता हुई। मुझे यह भी एहसास हुआ कि ऐसा अपने-आप नहीं हुआ, इसमें मेरे सीखने के लिए कुछ सबक थे, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उसकी इच्छा को समझने के लिए राह दिखाने की विनती की। प्रार्थना के बाद, मैंने टीम अगुआ से पूछा कि हमें इन समस्याओं का सामना क्यों करना पड़ा। टीम अगुआ ने कहा, “कुछ भाई-बहन झट से कामयाब होना चाहते थे, और सिद्धांतों के बिना कर्तव्य निभाते थे। वे केवल प्रगति पर ध्यान देते थे, गुणवत्ता पर नहीं। दूसरी वजह यह है कि मैंने काम की खोज-खबर नहीं ली, समय रहते समस्याओं का पता नहीं लगाया।” इस पर मैं गुस्से से सोचने लगी, “कितनी बार तुम्हें इन समस्याओं के बारे में बताया है? ये अभी भी क्यों आ रही हैं?” मैं टीम अगुआ को फटकारना चाहती थी, तभी मैंने सोचा, “क्या टीम अगुआ और मेरी समस्या एक ही नहीं है? आखिर, मैंने भी तो कोई खोज-खबर नहीं ली।” इसलिए मैं चुप ही रही। फिर, मैंने इस दौरान बनाए गए सभी वीडियो की फौरन जांच की, तो पाया कि कुछ लोगों ने अपने कर्तव्यों में कोई प्रगति नहीं की थी, कुछ तो बदतर हो गए थे। ये कुछ ऐसी स्पष्ट समस्याएं थीं, पर पहले मुझे ये क्यों नहीं दिखी? मैं जानती थी कि यह व्यावहारिक काम न करने की वजह से हुआ था। मुझे पछतावा हुआ, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, आत्मचिंतन करके खुद को जानने के लिए राह दिखाने की विनती की।

अगले दिन, अपने धार्मिक कार्यों के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा : “यदि तुम परमेश्वर के वचनों को पढ़ने में मेहनत नहीं करते, सत्य नहीं समझते, तो तुम आत्मचिंतन नहीं कर सकते; तुम केवल सांकेतिक प्रयास करने और कोई बुरा कर्म या अपराध न करने मात्र से संतुष्ट रहोगे और इसे पूंजी के रूप में उपयोग करोगे। तुम हर दिन जैसे-तैसे गुजार दोगे, भ्रम की स्थिति में रहोगे, केवल नियत समय पर काम करोगे, आत्मचिंतन करने में कभी दिल नहीं लगाओगे या खुद को जानने का प्रयास नहीं करोगे; तुम हमेशा सतही और लापरवाह रहोगे। इस तरह, तुम कभी भी स्वीकार्य स्तर पर अपना कर्तव्य नहीं निभा पाओगे। किसी चीज में अपना सारा प्रयास लगाने के लिए, पहले तुम्हें पूरी तरह उसमें अपना मन लगाना होगा; अगर तुम पहले किसी चीज में पूरी तरह अपना मन लगाते हो, तभी तुम अपना सारा प्रयास उसमें लगा सकते हो और अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकते हो। आज, ऐसे लोग हैं जो अपने कर्तव्य के निर्वहन में मेहनत करना शुरू कर चुके हैं, वे सोचने लगे हैं कि परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करने के लिए एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को ठीक से कैसे निभाया जाए। वे नकारात्मक और आलसी नहीं हैं, वे निष्क्रिय होकर ऊपर से आदेश आने की प्रतीक्षा नहीं करते, बल्कि थोड़ी पहल करते हैं। तुम लोगों के कर्तव्य प्रदर्शन को देखते हुए, तुम पहले की तुलना में थोड़े अधिक प्रभावी हो। हालांकि यह अभी भी मानक से नीचे है, फिर भी इसमें थोड़ी-बहुत वृद्धि तो हुई है—जो कि अच्छा है। लेकिन तुम्हें यथास्थिति से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, तुम्हें खोजते और बढ़ते रहना चाहिए—तभी तुम अपना कर्तव्य बेहतर ढंग से निभाकर एक स्वीकार्य-स्तर तक पहुँच पाओगे। हालाँकि, जब कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो वे कभी भी अपना सौ प्रतिशत नहीं देते, इसे अपना सर्वस्व नहीं देते, वे केवल अपने प्रयास का 50 से 60 प्रतिशत ही देते हैं और अपना कार्य पूरा होने तक कामचलाऊ ढंग से कार्य करते रहते हैं। वे कभी भी सामान्य स्थिति को बनाए नहीं रख पाते : जब उन पर नजर रखने या उनका समर्थन करने वाला कोई नहीं होता, तो वे सुस्त होकर हिम्मत हार जाते हैं; जब सत्य पर संगति करने वाला कोई होता है, तो वे उत्साहित रहते हैं, लेकिन यदि कुछ समय के लिए उनके साथ सत्य पर संगति न की जाए, तो वे उदासीन हो जाते हैं। जब वे इस तरह अनिश्चितता की स्थिति में रहते हैं, तो यहाँ समस्या क्या है? जब लोगों ने सत्य प्राप्त नहीं किया होता, तो उनकी स्थिति ऐसी ही होती है, वे सभी जुनून में जीते हैं—जिसे बनाए रखना बेहद कठिन होता है : कोई न कोई ऐसा होना चाहिए जो हर दिन उन्हें उपदेश दे और उनके साथ संगति करे; जब कोई उनका सिंचन और देखभाल करने वाला तथा उनका समर्थन करने वाला नहीं होता, तो वे फिर से ठंडे पड़ जाते हैं और सुस्त हो जाते हैं। और जब उनका हृदय शिथिल हो जाता है, तो वे अपने कर्तव्य पालन में कम प्रभावी हो जाते हैं; यदि वे अधिक मेहनत करते हैं, तो उनकी प्रभावशीलता बढ़ जाती है, कर्तव्य निर्वहन में उनके नतीजे बेहतर हो जाते हैं, और उन्हें अधिक लाभ होता है। क्या तुम लोगों का यह अनुभव है? तुम लोग कह सकते हो, ‘हमें अपना कर्तव्य निभाने में हमेशा परेशानी क्यों होती है? जब इन समस्याओं का समाधान हो जाता है, तो हम उत्साहित हो जाते हैं; जब नहीं होता, तो हम उदासीन हो जाते हैं। जब हमारे कर्तव्य निभाने का कोई परिणाम आता है, जब परमेश्वर हमारे विकास की प्रशंसा करता है, तो हम प्रसन्न होते हैं, हमें लगता है कि हमने अंततः बढ़त हासिल की है, लेकिन जैसे ही कोई समस्या आती है, तो हम फिर से नकारात्मक हो जाते हैं—हमारी अवस्था हमेशा एक-समान क्यों नहीं रहती?’ दरअसल, इसका मुख्य कारण यह है कि तुम लोग बहुत कम सत्य समझते हो, तुम्हारे अनुभवों और प्रवेश में गहराई की कमी है, तुम अभी भी बहुत से सत्य नहीं समझते, तुममें इच्छाशक्ति की कमी है और तुम बस अपना कर्तव्य निभाकर ही संतुष्ट हो जाते हो। यदि तुम्हें सत्य की समझ नहीं है, तो तुम अपने कर्तव्य का पालन ठीक से कैसे कर सकते हो? वास्तव में, परमेश्वर लोगों से जो माँगता है, उसे लोग प्राप्त कर सकते हैं; अगर तुम लोग अपने अंतःकरण से काम लो, अपना कर्तव्य निभाते समय अपने अंतःकरण का अनुसरण करो, तो तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना आसान होगा—और यदि तुम सत्य स्वीकार सको, तो तुम अपना कर्तव्य पालन ठीक से कर सकते हो। तुम लोगों को इस तरह से सोचना चाहिए : ‘इन वर्षों में परमेश्वर में विश्वास रखते हुए, इन वर्षों में परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हुए, मैंने बहुत कुछ पाया है, परमेश्वर ने मुझ पर महान अनुग्रह और आशीर्वाद बरसाया है। मैं परमेश्वर के हाथों में जीता हूँ, मैं उसके प्रभुत्व और संप्रभुता में जीता हूँ, उसी ने मुझे ये सांसें दी हैं, इसलिए मुझे अपना मन लगाना और पूरी ताकत से अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास करना चाहिए—यही कुंजी है।’ लोगों में इच्छाशक्ति होनी चाहिए; जिनमें इच्छाशक्ति है, वही वास्तव में सत्य के लिए प्रयास कर सकते हैं, सत्य समझ लेने के बाद ही वे अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकते हैं, परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं और शैतान को शर्मसार कर सकते हैं। यदि तुममें इस प्रकार की ईमानदारी है, और तुम अपने लिए कोई योजना नहीं बनाते हो, बल्कि सत्य प्राप्त कर अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहते हो, तो तुम्हारा कर्तव्य-निष्पादन सामान्य हो जाएगा और पूरे समय स्थिर रहेगा; तुम्हारे सामने चाहे कोई भी परिस्थिति हो, तुम दृढ़ता से अपना कर्तव्य निभाने में लगे रहोगे। चाहे तुम्हें कोई भी गुमराह या परेशान करने आए, और चाहे तुम्हारी मनःस्थिति चाहे अच्छी हो या बुरी, तब भी तुम अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभा पाओगे। इस तरह, तुम्हारी ओर से परमेश्वर का मन निश्चिंत हो सकता है, पवित्र आत्मा सत्य सिद्धांत समझने में तुम्हें प्रबुद्ध कर पाएगा और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। परिणामस्वरूप, तुम्हारा कर्तव्य-निष्पादन यकीनन मानक के अनुरूप होगा। यदि तुम ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाओगे, विनम्रता से अपना कर्तव्य-पालन करोगे, धूर्तता से काम नहीं करोगे या चालबाजी नहीं करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें स्वीकार कर लेगा। परमेश्वर लोगों का मन, विचार और इरादे देखता है। यदि तुम्हारे दिल में सत्य के लिए तड़प है और तुम सत्य खोज सकते हो, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध और रोशन करेगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है)। परमेश्वर के वचन पर विचार करने के बाद मैंने आत्मचिंतन किया, तो एहसास हुआ कि मैंने हाल ही में अपने कर्तव्य में कुछ नतीजे हासिल किए थे, मैं आत्मतुष्ट हो गई; दैहिक सुख की परवाह करने लगी। मैं काफी देर तक व्यस्त रहने के बाद थक जाती थी, तो सोचा खुद को थोड़ी राहत दी जाए, फिर अपने कर्तव्य में ढिलाई बरतकर आराम करने लगी। मैंने बेपरवाह रवैया अपनाया, सही समय पर दूसरों के कर्तव्यों के प्रदर्शन की जानकारी लेने में नाकाम रही। मैं जानती थी कि हमारे काम की कुछ समस्याएं अभी भी हल नहीं हुई हैं, फिर भी मैंने इसे जरूरी नहीं समझा। मैंने सोचा कि इसका असर हमारे मौजूदा नतीजों पर नहीं पड़ा। सभी अपना काम जैसे-तैसे करते हैं और अपने कर्तव्यों में ढीले पड़ जाते हैं, इसके बावजूद मैंने कोई खोज-खबर नहीं ली, मैंने अपने कर्तव्य में लापरवाही की, मैंने ध्यान नहीं दिया और गैर-जिम्मेदार बनी रही। फिर काम में समस्याएं कैसे नहीं आतीं? कलीसिया ने मुझे अभ्यास का मौका दिया, मुझे निरीक्षक बनने के अनुमति दी, इस उम्मीद में कि मैं अपने कर्तव्य पर ध्यान दूंगी, जिम्मेदार बनूंगी, अपना कर्तव्य और जिम्मेदारियां निभाने में कोई कसर नहीं छोडूंगी। यही प्रगति करने का एकमात्र रास्ता है। मगर मैंने अपने कर्तव्य को एक नौकरी समझ लिया, मानो मैं किसी और के लिए काम कर रही थी। कम चिंता और कम योगदान करने के सभी मौके लपके। मुझे काम की कोई चिंता या अनिवार्यता महसूस नहीं हुई। मैंने कभी नहीं सोचा कि चीजों को बेहतर कैसे करें या सबसे अच्छे नतीजे कैसे हासिल करें। मैंने सिर्फ यही सोचा कि कैसे मुझे कम तकलीफ और थकान हो। मैंने परमेश्वर की इच्छा का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि अपना कर्तव्य निभाने को लेकर मेरा रवैया गलत था और मैं परमेश्वर से खिलवाड़ कर रही थी।

एक सभा में, मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश देखा जिसमें झूठे अगुआओं का खुलासा किया था, इसका मुझ पर गहरा असर पड़ा। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “चूँकि नकली अगुआ कार्य की प्रगति की स्थिति नहीं समझते, इसलिए वे उसमें उत्पन्न होने वाली समस्याएँ तुरंत पहचानने में असमर्थ होते हैं—उन्हें हल करना तो दूर की बात है—जिसके कारण अक्सर बार-बार देरी होती है। किसी-किसी कार्य में, चूँकि लोगों को सिद्धांतों की समझ नहीं होती और उसकी जिम्मेदारी लेने या उसका संचालन करने के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं होता, इसलिए कार्य करने वाले लोग अक्सर नकारात्मकता, निष्क्रियता और प्रतीक्षा की स्थिति में रहते हैं, जो कार्य की प्रगति को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। अगर अगुआ ने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की होतीं—अगर उसने कार्य का संचालन किया होता, उसे आगे बढ़ाया होता, उसका निरीक्षण किया होता, और परियोजना का मार्गदर्शन करने के लिए उस क्षेत्र को समझने वाले किसी व्यक्ति को ढूँढ़ा होता, तो बार-बार देरी होने के बजाय काम तेजी से आगे बढ़ता। फिर, अगुआओं के लिए कार्य की वास्तविक स्थिति समझना-बूझना महत्वपूर्ण है। निस्संदेह, अगुआओं के लिए यह समझना-बूझना भी बहुत आवश्यक है कि कार्य कैसे प्रगति कर रहा है, क्योंकि प्रगति कार्य की दक्षता और उन परिणामों से संबंधित है जो उस कार्य से मिलने चाहिए। अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह समझ न हो कि कलीसिया का कार्य कैसा चल रहा है, और वे चीजों के बारे में जानकारी प्राप्त नहीं करते या उनका निरीक्षण नहीं करते, तो कलीसिया के कार्य की प्रगति धीमी होनी तय है। यह इस तथ्य के कारण है कि कर्तव्य निभाने वाले ज्यादातर लोग पक्के आलसी होते हैं, उनमें दायित्व की भावना नहीं होती, वे अक्सर नकारात्मक, निष्क्रिय और अनमने होते हैं। अगर दायित्व की भावना और कार्य-क्षमताओं से युक्त ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो खास तौर पर काम की जिम्मेदारी ले सके, समयबद्ध तरीके से कार्य की प्रगति जान सके, और कर्तव्य निभाने वाले लोगों का निर्देशन और निरीक्षण कर सके, साथ ही उन्हें अनुशासित और उनकी काट-छाँट कर सके, तो स्वाभाविक रूप से, कार्य-कुशलता का स्तर बहुत नीचा होगा और कार्य के परिणाम प्राप्त नहीं होंगे। अगर अगुआ और कार्यकर्ता इसे स्पष्ट रूप से देख तक नहीं सकते, तो वे मूर्ख और अंधे हैं। इसलिए, अगुआ और कार्यकर्ताओं को काम की प्रगति पर तुरंत ध्यान देना होगा और इसइस पर नजर रखकर अवगत रहना होगा, यह देखना होगा कि कर्तव्य निभाने वाले लोगों की ऐसी कौन-सी समस्याएँ हैं जिन्हें हल करने की आवश्यकता है, और यह समझना चाहिए कि बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिए किन समस्याओं का समाधान किया जाना चाहिए। ये सारी चीजें बहुत महत्वपूर्ण हैं और अगुआ के रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति को इनके बारे में स्पष्ट होना चाहिए। अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए, तुम्हें नकली अगुआ की तरह नहीं होना चाहिए, जो कुछ सतही काम करता है और फिर सोचता है कि उसने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाया है। नकली अगुआ अपने काम में लापरवाह और असावधान होते हैं, उनमें जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, समस्याएँ आने पर वे उनका समाधान नहीं करते, और चाहे वे जो भी काम कर रहे हों, वे उसे सिर्फ सतही तौर पर करते हैं। वे अनमने होते हैं; वे अच्छे लेकिन खोखले शब्द बोलते हैं, सिद्धांत झाड़ते हैं, और अपना काम बेमन से करते हैं। सामान्य तौर पर, नकली अगुआ इसी तरह काम करते हैं। हालाँकि, मसीह-विरोधियों की तुलना में, नकली अगुआ खुल्लमखुल्ला दुष्टता और जानबूझकर बुराई नहीं करते, लेकिन उनके काम की प्रभावशीलता देखते हुए, उन्हें लापरवाह और अनमने, दायित्व वहन न करने वाले, जिम्मेदारी न उठाने वाले ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करना उचित है, जिनमें अपने काम के प्रति जिम्मेदारी या समर्पण की भावना नहीं होती(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे काफी अपराध-बोध हुआ। क्या मेरा व्यवहार किसी झूठे अगुआ जैसा ही नहीं था? मैं आलसी थी, अपने शारीरिक सुख की सोचती थी, मैंने काम की खोज-खबर नहीं ली, निगरानी नहीं की, जिसका हमारे काम की पूरी प्रगति और नतीजों पर बहुत गंभीर असर पड़ा। मैं बस कल्पना करती रही कि काम अच्छी तरह चल रहा है और ज़्यादा समस्याएं नहीं हैं, मगर दरअसल, कई समस्याएं अभी भी अनसुलझी थीं। मैंने अपना दायित्व नहीं उठाया और गैर-जिम्मेदार बनी रही, अपनी सभी समस्याओं से आँखें मूँदे रही। आत्मचिंतन से यह एहसास हुआ कि मेरी सोच गलत थी। जब मैंने भाई-बहनों को अपने-अपने कर्तव्यों में सक्रिय होकर प्रगति करते देखा, तो मैंने सोचा कि सभी लोग अपने कर्तव्यों में काफी प्रेरित हैं, उनकी निगरानी करने की ज़रूरत नहीं है। परमेश्वर के वचन ने बहुत पहले खुलासा कर दिया था कि लोगों में जड़ता है, उनके भ्रष्ट स्वभाव की जड़ें बहुत गहरी हैं। सत्य हासिल करने और अपने स्वभाव में बदलाव लाने से पहले, लोग हमेशा शारीरिक सुख और आराम की लालसा करते हैं, वे अपने कर्तव्य में लापरवाह होते हैं, चालाकी करते हैं, चालें चलते हैं, कभी-कभी वे अपने विचारों पर काम करते हैं, सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास नहीं करते। मैं भी उनसे अलग नहीं थी। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बिना, भाई-बहनों की निगरानी और उनके चेताए बिना, हम आसानी से ढीले पड़ सकते हैं, हमारे कर्तव्यों में समस्याएं दिख सकती हैं। इसलिए, मुझे काम की खोज-खबर रखने और निगरानी करने की जरूरत है, हमारे कर्तव्यों की समस्याओं और भटकावों का फौरन पता लगाकर हल करना होगा, ताकि काम सुचारु रूप से चल सके। मगर मैं लोगों की भ्रष्ट प्रकृति को नहीं समझती थी, लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचन के अनुसार नहीं देखती थी। मैंने बस अपनी कल्पनाओं पर भरोसा किया, काम की जांच नहीं की, खोज-खबर नहीं ली, समय रहते समस्याएं हल नहीं कीं, फिर भी अच्छे नतीजे की चाह रखी। यह व्यावहारिक काम न करने वाले झूठे अगुआ का लक्षण है। हालांकि मैंने जाहिर तौर पर कोई बुराई नहीं की थी, पर मेरी गैर-जिम्मेदारी से काम पर बुरा असर पडा और उसमें देरी हुई, यह घाटा भरा नहीं जा सकता। इन बातों का एहसास होने पर, मैंने अपनी हालत के बारे में भाई-बहनों के सामने खुलकर बात और संगति की। बताया कि कैसे सभी कर्तव्यों को हल्के में लेते थे, और अपने कर्तव्यों में प्रगति नहीं कर पाते थे, हमने साथ मिलकर हल भी खोजे। इसके बाद, मैं अपने कर्तव्य में थोड़ी और गंभीर रहने लगी। काम खत्म करने के बाद, विचार करती कि क्या अब भी सुधार की कोई गुंजाइश है। मैं अक्सर कामकाज की खोज-खबर लेती, उस पर ध्यान देती और फिर हमारे नतीजों में कुछ सुधार दिखने लगा।

जल्दी ही, वीडियो बनाते हुए हमारे सामने एक समस्या आ गई, टीम अगुआ ने मुझसे पूछा कि क्या मेरे पास कोई अच्छी तरकीब या सुझाव है। मुझे कोई जवाब नहीं सूझा, तो मैंने कहा, “अभी तो कोई अच्छा हल नहीं दिख रहा, इस बारे में थोड़ा और सोचते हैं।” मगर इसके बाद, मैंने फौरन समस्या को हल करने की कोशिश नहीं की, क्योंकि मैं जानती थी कि इस मुश्किल हालात से सिर्फ कुछ शब्द बोलकर निकला नहीं जा सकता था। मुझे जानकारी जुटाने और थोड़ा शोध करने की ज़रूरत थी। इसमें काफी समय और प्रयास लगता, मुझे लगातार चीज़ों को आजमाना और नतीजों का आकलन करना होता। आखिर में कामयाबी मिलेगी या नहीं, कहना मुश्किल था। अगर बात नहीं बनी, तो क्या मेरी सारी मेहनत बेकार नहीं चली जाएगी? इस बारे में जितना सोचा, उतना ही मुझे यह थकाऊ काम लगने लगा। मैंने सोचा, “चलो छोड़ो, जैसे चल रहा है चलने दो। फिलहाल हमारे काम के नतीजे अच्छे हैं, तो इसे हल करने की कोई जल्दी नहीं है।” फिर मैंने समस्या को ताक पर रख दिया। मगर मुझे थोड़ी बेचैनी हुई। ऐसा नहीं था कि इसे हल करने का कोई तरीका नहीं था। मुझे बस थोड़ी और कीमत चुकानी थी। फिर टीम अगुआ ने कहा, “भाई-बहनों को मुश्किलें आ रही हैं; हमें इन मुश्किलों को हल करना होगा।” टीम अगुआ के याद दिलाने पर मैंने विचार किया, “निरीक्षक के तौर पर, क्या मुझे मुश्किलों से निबटने और लोगों की समस्याएं हल करने में आगे नहीं रहना चाहिए? मगर मैं मुश्किलों को देखकर उनसे दूर भागने लगी, मुझमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं थी।” मुझे अपराध-बोध हुआ, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, काम में मुश्किलों का सामना होने पर, मैं कड़ी मेहनत नहीं करना चाहती, हमेशा अपने शारीरिक सुख की सोचती हूँ। मैं जानती हूँ यह तुम्हारी इच्छा के अनुरूप नहीं है। मुझे राह दिखाओ ताकि मैं आत्मचिंतन करके अपनी गलत हालत को बदल सकूं।”

अपने धार्मिक कार्यों के दौरान, मैंने इस बारे में सोचा कि मैं कर्तव्य में हमेशा शारीरिक सुख की परवाह क्यों करती हूँ और व्यावहारिक काम करने के लिए कीमत क्यों नहीं चुका पाती। एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। “मनुष्य की देह साँप के समान है : इसका सार उसके जीवन को हानि पहुँचाना है—और जब पूरी तरह से उसकी मनमानी चलने लगती है, तो तुम जीवन पर से अपना अधिकार खो बैठते हो। देह शैतान से संबंधित है। इसके भीतर असंयमित इच्छाएँ हैं, यह केवल अपने बारे में सोचता है, यह आरामतलब है और फुरसत में रंगरलियाँ मनाता है, सुस्ती और आलस्य में धँसा रहता है, और इसे एक निश्चित बिंदु तक संतुष्ट करने के बाद तुम अंततः इसके द्वारा खा लिए जाओगे। कहने का अर्थ है कि, यदि तुम इसे इस बार संतुष्ट करोगे, तो अगली बार यह और अधिक की माँग करने आ जाएगा। इसकी हमेशा असंयमित इच्छाएँ और नई माँगें रहती हैं, और अपने आपको और अधिक पोषित करवाने और उसके सुख के बीच रहने के लिए तुम्हारे द्वारा अपने को दिए गए बढ़ावे का फायदा उठाता है—और यदि तुम इस पर विजय नहीं पाओगे, तो तुम अंततः स्वयं को बरबाद कर लोगे। तुम परमेश्वर के सामने जीवन प्राप्त कर सकते हो या नहीं, और तुम्हारा परम अंत क्या होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम देह के प्रति अपना विद्रोह कैसे कार्यान्वित करते हो। परमेश्वर ने तुम्हें बचाया है, और तुम्हें चुना और पूर्वनिर्धारित किया है, फिर भी यदि आज तुम उसे संतुष्ट करने के लिए तैयार नहीं हो, तुम सत्य को अभ्यास में लाने के लिए तैयार नहीं हो, तुम अपनी देह के विरुद्ध एक सच्चे परमेश्वर-प्रेमी हृदय के साथ विद्रोह करने के लिए तैयार नहीं हो, तो अंततः तुम अपने आप को बरबाद कर लोगे, और इस प्रकार चरम पीड़ा सहोगे। यदि तुम हमेशा अपनी देह को खुश करते हो, तो शैतान तुम्हें धीरे-धीरे निगल लेगा, और तुम्हें जीवन या पवित्रात्मा के स्पर्श से रहित छोड़ देगा, जब तक कि वह दिन नहीं आ जाता, जब तुम भीतर से पूरी तरह अंधकारमय नहीं हो जाते। जब तुम अंधकार में रहोगे, तो तुम्हें शैतान के द्वारा बंदी बना लिया जाएगा, तुम्हारे हृदय में अब परमेश्वर नहीं होगा, और उस समय तुम परमेश्वर के अस्तित्व को नकार दोगे और उसे छोड़ दोगे(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैंने जाना कि मेरी हालत कितनी खतरनाक थी; मैं इस शैतानी फलसफे के अनुसार जी रही थी, “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।” मैं बेहद स्वार्थी थी, चाहे जो भी हो जाए, मैं हमेशा अपने शारीरिक सुख को आगे रखती थी। जब मेरे कर्तव्य में ऐसी समस्या आई जिसे हल करना जरूरी था, तो मैंने यह नहीं सोचा कि कलीसिया का हित कैसे हो। मैंने हमेशा अपने शरीर की परवाह की, हमेशा कम तकलीफ उठाने और कम कीमत चुकाने की सोची। दरअसल, कुछ समस्याओं को तो मैं कीमत चुकाकर, थोड़ा अध्ययन करके और समझकर आसानी से हल कर सकती थी, मगर क्योंकि मैंने अपने शरीर की बहुत अधिक परवाह की, तकलीफ नहीं उठानी चाही, इसलिए मुझे लगा शोध में बहुत दिमाग खपाना होगा। नतीजतन, समस्या हल नहीं हुई और काम में भी सुधार नहीं हुआ। परमेश्वर के वचन खुलासा करते हैं कि लोगों का शरीर वास्तव में शैतान का है, शरीर की हमेशा कई इच्छाएं और मांगें होती हैं। हम इसे जितना संतुष्ट करते हैं, इसकी इच्छा उतनी ही बढ़ती है, हमारी शारीरिक इच्छाओं और हमारे कर्तव्यों के बीच टकराव होने पर, अगर हम हमेशा आराम की लालसा रखते हैं, तो हम शारीरिक सुख की परवाह करेंगे और कलीसिया के कार्य को ताक पर रख देंगे। इससे शरीर संतुष्ट होता है, पर कलीसिया के कार्य को नुकसान होता है, हम अंधकार में गिर जाते हैं और अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। शारीरिक सुख में लिप्त होने और आराम की लालसा रखने के परिणाम गंभीर हैं। मैं शारीरिक सुख के सार को नहीं जान पाई, हमेशा आराम की लालसा करती रही। मैंने शारीरिक आनंद को हर चीज से ज्यादा अहम माना। क्या मेरा लक्ष्य और नजरिया अविश्वासियों जैसा ही नहीं था? अविश्वासी अक्सर कहते हैं, “खुद से प्रेम करो,” यानी अपने शरीर को तकलीफ मत होने दो, शरीर की सभी इच्छाओं और मांगों को पूरा करो। वे सिर्फ शारीरिक सुख के लिए जीते हैं, मानव जीवन का महत्व और अर्थ नहीं समझते, उनके जीवन में सही दिशा और मकसद नहीं होता है। वे अपनी जिंदगी खालीपन में गुजारते हैं, उनका जीना पूरी तरह से व्यर्थ होता है। क्या इस तरह से जीने का कोई अर्थ है? कलीसिया में कुछ लोग हमेशा शारीरिक सुख की लालसा करते हैं, वे सत्य की खोज नहीं करते, अपने कर्तव्यों की अनदेखी करते हैं, चालें चलते हैं, ढीले पड़ जाते हैं, जिससे कलीसिया के काम को गंभीर नुकसान पहुँचता है, अंत में, उन्हें बर्खास्त कर बाहर कर दिया जाता है। फिर मैंने खुद के बारे में सोचा। मैंने बरसों परमेश्वर में विश्वास किया, पर मेरे विचार बिल्कुल नहीं बदले। मैंने अपने शारीरिक हितों को सत्य से अधिक अहम माना। मैंने सिर्फ आराम की लालसा की, कर्तव्य निभाने के लिए जैसे-तैसे काम किया। अगर यही चलता रहा, तो क्या परमेश्वर मुझे भी ठुकराकर निकाल नहीं देगा? इसका एहसास होते ही, मुझे बहुत डर लगने लगा। अब मैं शारीरिक सुख की परवाह नहीं कर सकती। मैं ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाना और अपनी जिम्मेदारियां पूरी करना चाहती थी।

एक दिन, परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जो लोग वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे अपनी लाभ-हानि की गणना किए बिना स्वेच्छा से अपने कर्तव्य निभाते हैं। चाहे तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो या नहीं, तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते समय अपने अंतःकरण और विवेक पर निर्भर होना चाहिए और सच में प्रयास करना चाहिए। प्रयास करने का क्या मतलब है? यदि तुम केवल कुछ सांकेतिक प्रयास करने और थोड़ी शारीरिक कठिनाई झेलने से संतुष्ट हो, लेकिन अपने कर्तव्य को बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेते या सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते, तो यह लापरवाही और बेमन से काम करना है—इसे वास्तव में प्रयास करना नहीं कहते। प्रयास करने का अर्थ है उसे पूरे मन से करना, अपने दिल में परमेश्वर का भय मानना, परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील रहना, परमेश्वर की अवज्ञा करने और उसे आहत करने से डरना, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए किसी भी कठिनाई को सहना : यदि तुम्हारे पास इस तरह से परमेश्वर से प्रेम करने वाला दिल है, तो तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा पाओगे। यदि तुम्हारे मन में परमेश्वर का भय नहीं है, तो अपने कर्तव्य का पालन करते समय, तुम्हारे मन में दायित्व वहन करने का भाव नहीं होगा, उसमें तुम्हारी कोई रुचि नहीं होगी, अनिवार्यतः तुम लापरवाह और अनमने रहोगे, तुम चलताऊ काम करोगे और उससे कोई प्रभाव पैदा नहीं होगा—जो कि कर्तव्य का निर्वहन करना नहीं है। यदि तुम सच में दायित्व वहन करने की भावना रखते हो, कर्तव्य निर्वहन को निजी दायित्व समझते हो, और तुम्हें लगता है कि यदि तुम ऐसा नहीं समझते, तो तुम जीने योग्य नहीं हो, तुम पशु हो, अपना कर्तव्य ठीक से निभाकर ही तुम मनुष्य कहलाने योग्य होऔर अपनी अंतरात्मा का सामना कर सकते हो—यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय दायित्व की ऐसी भावना रखते हो—तो तुम हर कार्य को निष्ठापूर्वक करने में सक्षम होगे, सत्य खोजकर सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाओगे और इस तरह अच्छे से अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे। अगर तुम परमेश्वर द्वारा सौंपे गए मिशन, परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो त्याग किए हैं और उसे तुमसे जो अपेक्षाएँ हैं, उन सबके योग्य हो, तो इसी को वास्तव में प्रयास करना कहते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। “जब तुममें स्वार्थ और अपने फायदे के लिए साजिशें प्रकट हों, और तुम्हें इसका एहसास हो जाए, तो तुम्हें इसे हल करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करके सत्य को खोजना चाहिए। पहली बात जो तुम्हें पता होनी चाहिए वह यह है कि अपने सार में इस तरह का व्यवहार सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन है, कलीसिया के काम के लिए नुकसानदायक है, यह स्वार्थी और घृणित व्यवहार है, यह ऐसा व्यवहार नहीं है जो अंतरात्मा और विवेक वाले लोगों को करना चाहिए। तुम्हें अपने निजी हितों और स्वार्थ को एक तरफ रखकर कलीसिया के काम के बारे में सोचना चाहिए—परमेश्वर की यही इच्छा है। प्रार्थना और आत्मचिंतन करने के बाद, अगर तुम्हें सच में यह एहसास होता है कि इस तरह का व्यवहार स्वार्थी और घृणित है, तो अपने स्वार्थ को दरकिनार करना आसान हो जाएगा। जब तुम अपने स्वार्थ और फायदे के लिए साजिशें रचने को एक तरफ रख दोगे, तो तुम खुद को स्थिर महसूस करोगे, और तुम्हें सुख-शांति का एहसास होगा, लगेगा कि अंतरात्मा और विवेक वाले व्यक्ति को कलीसिया के काम के बारे में सोचना चाहिए, उन्हें अपने निजी हितों पर ध्यान गड़ाए नहीं रहना चाहिए, जो कि स्वार्थी, घृणित और अंतरात्मा या विवेक से रहित होना कहलाएगा। निस्वार्थ ढंग से काम करना, कलीसिया के काम के बारे में सोचना, और विशेष रूप से ऐसी चीजें करना जिससे परमेश्वर संतुष्ट होता है, यह धार्मिक और सम्मानजनक है और इससे तुम्हारे अस्तित्व का महत्व होगा। पृथ्वी पर इस तरह का जीवन जीते हुए तुम खुले दिल के और ईमानदार रहते हो, सामान्य मानवता और मनुष्य की सच्ची छवि के साथ जीते हो, और न सिर्फ तुम्हारी अंतरात्मा साफ रहती है बल्कि तुम परमेश्वर की सभी कृपाओं के भी पात्र बन जाते हो। तुम जितना ज्यादा इस तरह जीते हो, खुद को उतना ही स्थिर महसूस करते हो, उतनी ही सुख-शांति और उतना ही उज्जवल महसूस करते हो। इस तरह, क्या तुम परमेश्वर में अपनी आस्था के सही रास्ते पर कदम नहीं रख चुके होगे?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। मैं समझ गई कि अच्छे से कर्तव्य निभाने के लिए, मुझे कड़ी मेहनत करनी होगी। मैं सिर्फ बाहर से कड़ी मेहनत करती और कीमत चुकाती नहीं रह सकती। सबसे अधिक मायने रखता है अपने दिल में जिम्मेदारी उठाना, कलीसिया के काम को सबसे ऊपर रखना, भरसक कोशिश करना, और जो मुझे हासिल करना चाहिए उसे हासिल करना। सिर्फ इसी तरीके से, मैं अपना कर्तव्य निभा पाऊंगी और एक इंसान जैसी जिंदगी जी पाऊंगी। भले ही मेरे कर्तव्य में कई तरह की मुश्किलें और समस्याएं आईं, पर इन मुश्किलों से गुजरकर ही, मैं आराम की लालसा करने और प्रगति की परवाह न करने की अपनी पतित दशा को जान पाई। मुझे अनुसरण पर अपनी गलत सोच का एहसास हुआ, जिससे मैं प्रायश्चित करके खुद को बदल पाई। इन मुश्किलों और समस्याओं ने मेरे लिए सत्य हासिल करने और अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने का मौका दिया। साथ ही, मुझे उनसे अपनी पेशेवर कमियों का भी पता चला, जिससे मैं अपने पेशेवर कौशल को सुधारकर अपने कर्तव्य में प्रगति कर पाई। इन मुश्किलों के जरिये ही मैं आगे बढ़ पाई, तो क्या यह एक अच्छी बात नहीं है? परमेश्वर की इच्छा को समझने के बाद, मुझे नई प्रेरणा मिली। फिर, मैंने हमारी समस्याओं और मुश्किलों को लेकर परमेश्वर से प्रार्थना की, उसका मार्गदर्शन माँगा, और अपने भाई-बहनों के साथ समाधानों पर चर्चा की। अपने दिल की गहराइयों से, अब मैं आलसी या लापरवाह होना नहीं चाहती थी, मैंने पेशेवर कौशल सीखने के लिए भी कड़ी मेहनत की। जब मेरे सामने मुश्किलें आतीं और हार मानने की सोचती, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करके शारीरिक सुख को त्याग देती, और समस्या का हल ढूँढने के लिए व्यावहारिक रूप से कीमत चुकाती। कुछ समय बाद, मुझे आखिर एक रास्ता दिखा, और समस्या जल्दी ही सुलझ गई, और पहले के मुकाबले वीडियो कार्य के नतीजों में थोड़ा सुधार हुआ। इस तरह कर्तव्य करके मैं निश्चिंत थी। दरअसल, समस्याएं हल करना और व्यावहारिक काम करना उतना मुश्किल नहीं था, मुझे ज्यादा तकलीफ भी नहीं उठनी पड़ी। मैं बस थोड़ी और कर्तव्यनिष्ठ हुई, जिसके बाद परमेश्वर ने मेरा मार्गदर्शन किया। मेरा प्रवेश अभी भी बहुत सीमित है, इसलिए मैं आगे से, अपने कर्तव्य में अपने भ्रष्ट स्वभाव को सुधारने पर पूरा ध्यान दूंगी, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, दिल से अपना कर्तव्य निभाउंगी!

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