3. परमेश्वर के वचनों ने मेरी गलतफहमियाँ दूर कर दीं

फ्लेवियन, बेनिन

सितंबर 2019 में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। फिर मुझे कलीसिया की सभाओं के समूह का अगुआ चुन लिया गया, और भाई-बहनों ने कहा कि मैं चीजें जल्दी समझता था और मेरी क्षमता अच्छी थी। बहुत जल्द ही, सुसमाचार के उपयाजक के तौर पर मेरा चयन हो गया, और मैं और सक्रिय होकर अपने कर्तव्यों में लग गया। मैं रोज सुसमाचार का प्रचार और सभाओं की मेजबानी करने में व्यस्त रहता। मेरे भाई-बहन मेरी संगति पसंद करते और कलीसिया के अगुआ भी मेरी तारीफ करते। इससे मुझे बहुत खुशी होती थी, मुझे लगता था कि मेरी क्षमता खासतौर पर सच में बहुत अच्छी है। अधिक लोगों की प्रशंसा पाने के लिए, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े, और परमेश्वर के घर की कई फिल्में देखीं और ईश-वचनों के वीडियो पाठ देखे। लेकिन सिर्फ अपने दिखावे के लिए शब्दों और सिद्धांतों की समझ पाकर मैं संतुष्ट था, मैंने न परमेश्वर की इच्छा जानी, न सत्य का अभ्यास किया। सभाओं में मैं अपनी समझ के दिखावे के लिए विस्तार से संगति करता। मैं उन बातों पर भी संगति करता जिनकी मुझे कोई ज़्यादा समझ नहीं थी ताकि दूसरे लोग सोचें कि मैं सब जानता हूँ। अपने अगुआ के सामने अच्छी छवि बनाने के लिए मैं मज़बूत होने का नाटक करता। जैसे शुरू में, मेरे मन में परमेश्वर के कार्य के बारे में धारणाएँ थीं, फिर लगा कि अगर मैंने किसी को बताया, तो अगुआ को लगेगा कि मैं सत्य नहीं समझता। इसलिए जानबूझकर अगुआ से मैं अपने विचार छिपाता। मानो मैंने एक मुखौटा लगा रखा था। जो दूसरों के सामने प्रकट होता था वह एक भ्रम था।

कुछ महीनों बाद, मैं कलीसिया का अगुआ और सुसमाचार कार्य का प्रभारी बन गया। इस कार्य के लिए क्षमता, विवेक और काम करने की काबिलियत चाहिए। मुझे लगा कलीसिया में मेरे अलावा किसी में यह योग्यता नहीं है, इसीलिए इस कर्तव्य को निभाने के लिए परमेश्वर ने मुझे चुना था। लगातार तरक्की पाकर लगा कि मैं दूसरों से अलग हूँ, सत्य की खोज में सबसे उत्साही हूँ, वह व्यक्ति जिसे परमेश्वर चाहता और पसंद करता है। मुझे यह भी लगा कि मैं कलीसिया में एक खास व्यक्ति था और मेरे बगैर काम नहीं चल सकता था। मैंने यह भी सोचा कि सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार होना कलीसिया के द्वार का पहरेदार होने जैसा था, और मुझे तय करना था कि उसके घर में कौन प्रवेश करेगा और कौन नहीं। धीरे-धीरे, मैं और अहंकारी होता चला गया, खुद को दूसरों से ऊपर समझने लगा, लगा मैं हुक्म चला सकता हूँ और मेरे भाई-बहन “संचालक” हैं और उन्हें मेरी बात माननी ही पड़ती है। कलीसिया के कार्य में, मैं हमेशा सब कुछ तय करना और अपनी बात ऊपर रखना चाहता था। मुझे लगता था कि मुझमें योग्यता थी, सिद्धांतों में महारत थी, इसलिए मुझे दूसरों के विचार या सलाह की ज़रूरत नहीं थी। मैं हमेशा भाई-बहनों को हिकारत से देखता। औसत क्षमता की एक समूह अगुआ थी जिसे मैं नीची दृष्टि से देखता था। बिना इसकी परवाह किए कि वह अपने कर्तव्य में कितनी प्रभावी थी, मैं उसे मनमाने ढंग से हटाना चाहता था। और तो और, मैं भाई-बहनों को अपने अधीन समझता था, लगता था मैं जैसे चाहे उनकी आलोचना कर सकता हूँ। एक बहन का अपने कर्तव्यों में अभ्यास का अपना तरीका था, पर मुझे लगता था कि वह सही नहीं कर रही थी, तो सिद्धांतों पर संगति किए बिना ही, मैंने उसकी सख्त आलोचना की। इससे वह इतनी निराश हो गई कि मेरे साथ काम नहीं करना चाहती थी। बाद में एक सभा में, अगुआ ने सबसे उनकी परेशानी पूछी, और इस बहन ने सीधे कहा, “भाई फ्लेवियन को कुछ समस्या है। वह सत्य पर संगति नहीं करता, वह हमेशा लोगों की आलोचना करता है, और जब-जब वह मेरी आलोचना करता है तो बेहद कठोर होता है।” इसके बाद और भी कई भाई-बहनों ने बताया कि मैं लोगों की मनमाने ढंग से आलोचना करता हूँ, परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मेरे अहंकार का खुलासा किया।

दरअसल, कुछ लोग पहले ही मुझसे मेरे अहंकारी व्यवहार का ज़िक्र कर चुके थे। कुछ भाई-बहनों ने काम की पूछताछ में मेरी बेहद सख्ती देखी तो मुझे संदेश भेजकर कहा कि “भाई, इस तरह बोलना अच्छा नहीं। इससे भाई-बहन निराश महसूस करेंगे।” मेरे भाई-बहनों ने यह भी कहा कि मैं दूसरों को नीचा दिखाता हूँ, कि मैं खुद को भाई-बहनों के बराबर नहीं रखता, कुछ तो मुझसे बात ही नहीं करना चाहते, और कुछ इतना प्रताड़ित महसूस करते हैं कि वे अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते। भाई-बहनों द्वारा बार-बार फटकारे और काट-छाँट किए जाने पर, मेरे अहम को चोट लगी। मुझे लगता था कि मैं परमेश्वर का चहेता और पसंदीदा हूँ, लेकिन जब भाई-बहनों ने मुझे उजागर कर ठुकरा दिया तो मेरा दिल टूट गया और मैं बहुत निराश हो गया। मैंने अनुसरण की इच्छा खो दी, और अपने कर्तव्यों में बस किसी तरह लगा रहता, अपने भाई-बहनों के काम को नहीं देखता था, और न उनकी कठिनाइयां या समस्याएं हल करने पर ध्यान केंद्रित करता था। उनकी सबसे अहम जरूरतों की मुझे परवाह नहीं रही।

फिर एक बहन ने मुझे परमेश्वर के वचन का अंश भेजा। यह मेरी हालत के लिए बिल्कुल उपयुक्त था। परमेश्वर कहते हैं : “शैतान द्वारा मनुष्यों को भ्रष्ट किए जाने के बाद से उनकी प्रकृति बिगड़नी शुरू हो गई है और उन्होंने धीरे-धीरे सामान्य लोगों में मौजूद समझ को खो दिया है। मनुष्य होते हुए भी लोगों ने मनुष्य की तरह बरताव करना बंद कर दिया है; बल्कि, वे जंगली आकांक्षाओं से भरे हुए हैं; वे मनुष्य की स्थिति पार कर चुके हैं, फिर भी, वे और भी ऊँचे जाने की लालसा रखते हैं। यह ‘और भी ऊँचे’ क्या दर्शाता है? वे परमेश्वर से बढ़कर होना चाहते हैं, स्वर्ग से बढ़कर होना चाहते हैं, और बाकी सभी से बढ़कर होना चाहते हैं। लोगों के इस तरह के स्वभाव दिखाने का मूल कारण क्या है? कुल मिलाकर यही नतीजा निकलता है कि मनुष्य की प्रकृति बहुत अधिक अहंकारी है। ज्यादातर लोग ‘अहंकार’ शब्द का अर्थ समझते हैं। यह एक निंदात्मक शब्द है। अगर कोई अहंकार दिखाता है, तो दूसरे सोचते हैं कि वह अच्छा इंसान नहीं है। जब भी कोई अविश्‍वसनीय रूप से अहंकारी होता है, तो दूसरे हमेशा मान लेते हैं कि वह कुकर्मी है। कोई भी इस शब्द को अपने साथ जोड़ा जाना पसंद नहीं करता। पर तथ्य यह है कि हर कोई अहंकारी है, और सभी भ्रष्ट मनुष्यों का यही सार है। कुछ लोग कहते हैं, ‘मैं जरा भी अहंकारी नहीं हूँ। मैंने कभी भी महादूत नहीं बनना चाहा, न ही मैंने कभी परमेश्वर से या दूसरों से ऊंचा उठना चाहा है। मैं हमेशा एक ऐसा व्यक्ति रहा हूँ जो शिष्ट और कर्तव्यनिष्ठ है।’ कोई जरूरी नहीं है; ये शब्द गलत हैं। जब लोगों की प्रकृति और सार अहंकारी हो जाते हैं, तो वे परमेश्वर की अवज्ञा और विरोध करते हैं, उसके वचनों पर ध्यान नहीं देते, उसके बारे में धारणाएं उत्पन्न करते हैं, उसे धोखा देने वाले, अपना उत्कर्ष करने वाले और अपनी ही गवाही देने वाले काम करते हैं। तुम्हारा कहना है कि तुम अहंकारी नहीं हो, लेकिन मान लो कि तुम्हें कलीसिया चलाने और उसकी अगुआई करने की जिम्मेदारी दे दी जाती है; मान लो कि मैंने तुम्हारे साथ काट-छाँट नहीं की, और परमेश्वर के परिवार के किसी सदस्य ने तुम्हारी आलोचना या सहायता नहीं की है : कुछ समय तक उसकी अगुआई करने के बाद, तुम लोगों को अपने पैरों पर गिरा लोगे और उनसे अपने सामने इस हद तक समर्पण करवा लोगे कि वे तुम्हारी प्रशंसा और आदर करने लगें। और तुम ऐसा क्यों करोगे? यह तुम्हारी प्रकृति द्वारा निर्धारित होगा; यह स्वाभाविक प्रकटीकरण के अलावा और कुछ नहीं होगा। तुम्हें इसे दूसरों से सीखने की आवश्यकता नहीं है, और न ही दूसरों को तुम्हें यह सिखाने की आवश्यकता है। तुम्हें दूसरों की आवश्यकता नहीं है कि वे तुम्हें निर्देश दें या उसे करने के लिए तुम्हें विवश करें; इस तरह की स्थिति स्वाभाविक रूप से आती है। तुम जो भी करते हो, वह इसलिए होता है कि लोग तुम्हारी बड़ाई करें, तुम्हारी प्रशंसा करें, तुम्हारी आराधना करें, तुम्हारे आगे समर्पण करें और हर बात में तुम्हारी सुनें। जब तुम अगुआ बनने की कोशिश करते हो, तो स्वाभाविक रूप से इस तरह की स्थिति पैदा होती है और इसे बदला नहीं जा सकता। यह स्थिति कैसे पैदा होती है? ये मनुष्य की अहंकारी प्रकृति से निर्धारित होती है। अहंकार की अभिव्यक्ति परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध है। जब लोग अहंकारी, दंभी और आत्मतुष्ट होते हैं, तो उनकी अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने और अपने तरीके से चीज़ों को करने की प्रवृत्ति होती है। वे दूसरों को भी अपनी ओर खींचकर उन्हें अपने आलिंगन में ले लेते हैं। लोगों का ऐसी अहंकारी हरकतें करने में सक्षम होना साबित करता है कि उनकी अहंकारी प्रकृति का सार शैतान का है; प्रधान दूत का है। जब उनका अहंकार और दंभ एक निश्चित स्तर पर पहुँच जाता है, तो उनके दिलों में परमेश्वर के लिए स्थान नहीं रहता, और परमेश्वर अलग रख दिया जाता है। तब वे परमेश्वर बनना चाहते हैं, लोगों से अपना आज्ञापालन करवाते हैं और प्रधान दूत बन जाते हैं। यदि तुम्हारी प्रकृति ऐसी ही शैतानी अहंकारी है, तो तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होगा। भले ही तुम परमेश्वर पर विश्वास करो, परमेश्वर तुम्हें नहीं पहचानेगा, वह तुम्हें कुकर्मी समझेगा और बाहर निकाल देगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी स्वभाव है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने अब तक के अपने व्यवहार पर विचार किया। जब मैंने विश्वास रखना शुरू किया था, तब से हरेक ने मुझे हमेशा सराहा और प्रोत्साहित किया था। वे कहते थे कि मुझमें अच्छी क्षमता और संगति करने की योग्यता है। मुझे कई बार तरक्की भी मिली, तो मैं खुद को विशेष और दूसरे भाई-बहनों से से खास और बेहतर समझने लगा और यह मानने लगा कि मैं उनका अधिकारी बनने योग्य था। मेरी अहंकारी और आत्मतुष्ट प्रकृति और हैसियत के पीछे भागने वाली मेरी महत्वाकांक्षा ने मेरे दिमाग में यह बात डाल दी कि मैं परमेश्वर का चहेता और कृपापात्र हूँ। लगा मैं असाधारण और दूसरों से श्रेष्ठ हूँ, तो मैं दूसरों को डांटकर बेबस करने के लिए पद का दुरुपयोग करने लगा। यहां तक कि मैंने अपने भाई-बहनों को नियंत्रित कर उनसे अपनी बात मनवानी चाही। मैं महादूत जैसा व्यवहार कर रहा था! मैं खुद को बहुत ऊँचा समझता था। भाई-बहनों द्वारा काट-छाँट किए और ठुकराए जाने के बाद मुझे लगा मैं उतना पूर्ण नहीं जितना सोचा करता था। मैंने मान लिया था कि मैं दूसरों से बहुत ऊपर था और परमेश्वर का कृपापात्र था, पर वह पूरी तरह से मेरी कल्पना थी।

कई दिन बाद, मैंने मसीह-विरोधियों को उजागर करने और उनका विश्लेषण करने वाले परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े। परमेश्वर कहते हैं : “अपनी हैसियत के लिए और अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए, कलीसिया को नियंत्रित करने और परमेश्वर बनने के अपने लक्ष्य के लिए मसीह-विरोधी कोई भी कीमत चुकाएँगे। वे अक्सर देर रात तक काम करते हैं और पौ फटते ही जाग जाते हैं, सवेरे-सवेरे अपने उपदेशों का पूर्वाभ्यास करते हैं, और वे दूसरों द्वारा कही गई शानदार बातों को नोट भी करते हैं, ताकि खुद को उस सिद्धांत से लैस कर सकें, जिसकी उन्हें ऊँचे-ऊँचे उपदेश देने के लिए आवश्यकता होती है। हर दिन, वे सोचते हैं कि अपने ऊँचे-ऊँचे उपदेश देते हुए उन्हें परमेश्वर के कौन-से वचन इस्तेमाल करने हैं, किन वचनों से चुने हुए लोगों से सराहना और प्रशंसा मिलेगी, और फिर वे उन वचनों को रट लेते हैं। फिर, वे विचार करते हैं कि उन वचनों की व्याख्या इस तरह कैसे की जाए कि उनकी प्रतिभा और अंतर्दृष्टि का प्रदर्शन हो। परमेश्वर के वचनों को वास्तव में अपने हृदय पर अंकित करने के लिए वे उन्हें कई गुना ज्यादा सुनने का प्रयास करते हैं। यह सब वे उतने ही श्रम से करते हैं, जितना श्रम छात्र कॉलेज में स्थान प्राप्त करने की होड़ में करते हैं। जब कोई अच्छा उपदेश देता है, या कुछ रोशनी प्रदान करने वाला या कुछ सिद्धांत प्रदान करने वाला उपदेश देता है, तो मसीह-विरोधी उसे एकत्र और संकलित कर लेगा और उसे अपने उपदेश में शामिल कर लेगा। मसीह-विरोधी के लिए श्रम की कोई भी मात्रा बहुत बड़ी नहीं होती। तो उनकी इस मेहनत के पीछे क्या मकसद और मंशा होती है? वह है : परमेश्वर के वचनों का प्रचार करने, उन्हें स्पष्ट रूप से और आसानी से कहने, उन पर धाराप्रवाह नियंत्रण रखने में सक्षम होना, ताकि अन्य लोग देख सकें कि मसीह-विरोधी उनसे अधिक आध्यात्मिक है, परमेश्वर के वचनों को अधिक सँजोने वाला है, परमेश्वर से अधिक प्रेम करने वाला है। इस तरह, मसीह-विरोधी अपने आस-पास के कुछ लोगों से सराहना प्राप्त कर लेता है और अपनी आराधना करवा लेता है। मसीह-विरोधी को लगता है कि यह करने योग्य चीज है और किसी भी प्रयास, कीमत या कठिनाई के लायक है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग सात))। “मसीह-विरोधियों के व्यवहार का सार अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करने, लोगों को धोखा देकर फँसाने और उच्च हैसियत प्राप्त करने के लिए लगातार विभिन्न साधनों और तरीकों का इस्तेमाल करना है, ताकि लोग उनका अनुसरण और आराधना करें। संभव है कि अपने दिल की गहराइयों में वे जानबूझकर मानवजाति को लेकर परमेश्वर से होड़ न कर रहे हों, पर एक बात तो पक्की है : जब वे मनुष्यों को लेकर परमेश्वर के साथ होड़ नहीं भी कर रहे होते, तब भी वे उनके बीच रुतबा और सत्ता पाना चाहते हैं। अगर वह दिन आ भी जाए, जब उन्हें यह एहसास हो जाए कि वे रुतबे के लिए परमेश्वर के साथ होड़ कर रहे हैं और वे अपने-आप पर थोड़ी-बहुत लगाम लगा लें, तो भी वे रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए विभिन्न हथकंडे अपनाते हैं; उन्हें अपने दिल में स्पष्ट होता है कि वे कुछ लोगों की स्वीकृति और सराहना प्राप्त करके वैध रुतबा प्राप्त कर लेंगे। संक्षेप में, हालाँकि मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं, उससे वे अपने कर्तव्य निभाते प्रतीत होते हैं, लेकिन उसका परिणाम लोगों को धोखा देना होता है, उनसे अपनी आराधना और अनुसरण करवाना होता है—ऐसे में, इस तरह अपना कर्तव्य निभाना उनके लिए अपना उत्कर्ष करना और अपनी गवाही देना होता है। लोगों को नियंत्रित करने और कलीसिया में रुतबा और सत्ता हासिल करने की उनकी महत्वाकांक्षा कभी नहीं बदलती। ऐसे लोग पूरे मसीह-विरोधी होते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद पाँच : वे लोगों को गुमराह करने, फुसलाने, धमकाने और नियंत्रित करने का काम करते हैं)। परमेश्वर कहता है कि मसीह विरोधी दूसरों की स्तुति और आराधाना पाने की खातिर, बाहरी कष्टों का उपयोग लोगों को धोखा देने के लिए करते हैं। क्या यह मैं नहीं था? मैं भी तो शोहरत और रुतबे के पीछे भाग रहा था, और जो कुछ किया वह सब-कुछ सम्मान पाने के लिए था। मैंने परमेश्वर के वचनों को पढ़ने में बहुत सारा समय लगाया था, कभी-कभी रात भर जागा था, लेकिन मेरा उद्देश्य सिर्फ यह था कि ज़्यादा से ज़्यादा सिद्धांत समझकर दिखावा कर सकूँ, लोगों से सम्मान और प्रशंसा पा सकूँ। परमेश्वर के वचनों ने वे सभी अभिव्यक्ति प्रकट कर दीं, जो मुझमें थीं। मुझे लगा परमेश्वर पहले ही मेरी निंदा कर चुका था, मैं त्याग दिया जाऊँगा और मैं बहुत बेचैन हो गया। लेकिन मैंने भाई-बहनों को अपनी असली स्थिति बताने की हिम्मत नहीं की, डर था कि वे मुझे मसीह-विरोधी कहकर निकाल देंगे। मैंने दूसरों के सामने अपनी चिंता छिपाने की कोशिश की, पर मेरा दिल तड़प रहा था, और लग रहा था मानो मुझे मौत की सजा दी गई हो। उसी दौरान, कलीसिया में एक मसीह-विरोधी का पता चला और उसे निकाल दिया गया। बाहर से वह परमेश्वर के लिए खुद को खपाती और दूसरे भाई-बहनों के साथ संगति के लिए उसके वचन खोजती दिखती थी, पर खुद परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं करती थी, और कभी कुछ ऐसा होता जो उसकी धारणाओं से अलग होता, तो वह नकारात्मकता फैलाती, उसने तो अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को नकारते हुए सच्चे मार्ग की जाँच करने वालों को भी परेशान किया। मैंने पाया कि मेरी कुछ अभिव्यक्तियां उसकी तरह ही थीं। जैसे, मैं अक्सर भाई-बहनों के साथ संगति के लिए परमेश्वर के वचन खोजता, पर खुद उन वचनों का अभ्यास नहीं करता था। समस्या सुलझाने के लिए परमेश्वर की इच्छा खोजने या सत्य के अभ्यास पर ध्यान देने के बजाय अपने दिमाग और काबिलियत पर भरोसा करता। इसके अलावा, मुझमें एक मसीह-विरोधी की अभिव्यक्तियाँ भी थीं जिन्हें परमेश्वर के वचनों ने प्रकट किया था। मुझे डर था कि मैं मसीह-विरोधी बन जाऊंगा, निकाल दिया जाऊंगा। क्योंकि मुझे लगता था कि अपनी खराब प्रकृति के कारण मैं भाई-बहनों को धोखा देकर उन पर काबू कर सकता हूँ, फिर एक दिन मसीह-विरोधी की तरह, मैं भी कलीसिया के काम में बाधा डालूँगा। इसने मेरा डर और बढ़ा दिया। मुझे आशीष पाने की आशा नज़र नहीं आती थी, फिर मैं शिकायतें करने लगा, “परिवार की न सुनकर मैंने परमेश्वर में विश्वास किया, अपना कर्तव्य निभाया। सुसमाचार का प्रचार करने के लिए मैंने अपना भविष्य और शहर भी छोड़ दिया। इतनी बड़ी कीमत चुकाकर भी अंत में दंड भुगतने के लिए मैं नरक जा रहा हूँ। अगर पता होता कि इसका अंत ऐसा होगा, तो खुद को इतना न खपाता। कम से कम मृत्यु से पहले कुछ दैहिक-सुख ही भोग लेता।” उस समय मैंने केवल अपनी मंज़िल की सोची, परमेश्वर की इच्छा खोजने पर ध्यान नहीं दिया, सो मैं हमेशा परमेश्वर से सतर्क रहता था और उसे गलत समझता था। मुझे लगा कि अगर मैं इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाता रहा, तो यकीनन उजागर कर निकाल दिया जाऊँगा, तो मैंने अपने अगुआ पद से इस्तीफा दे दिया। मुझे डर था कि मेरे भाई-बहन मेरा असली चेहरा देखकर मेरी आलोचना करेंगे और मेरे साथ काट-छाँट करेंगे, तो मैंने उनके सामने दिल की बात नहीं कही, न ही मैंने उन्हें सहयोगी बनाया। भाई-बहनों से मेरी दूरी बढ़ती ही गई। बाद में मैंने सुसमाचार के प्रचार का बहाना बनाया और अपने अविश्‍वासी परिवार के पास लौट आया। परिवार के दबाव और बाधाओं के चलते मैं और भी निराश हो गया। हालाँकि मैं अभी भी सभाओं में भाग लेता था पर अनमने भाव से। मैं बहुत कमज़ोर था, मुझे लगा कि मैं अंत पर पहुँच गया हूँ, तो मैंने कलीसिया छोड़ने का निर्णय किया।

कलीसिया छोड़कर मेरे मन में खालीपन आ गया था। मैं दिनभर अपने कमरे में बंद रहता, कुछ करने का मन न करता। हालाँकि परिवार ने अब सताना बंद कर दिया था, शरीर को भी आराम था, लेकिन मैं हमेशा चिंतित और बहुत दोषी महसूस करता था। मुझे लगातार चिंता रहती थी कि विश्वासघात के कारण परमेश्वर मुझे दंड देगा, मुझे नरक और मृत्यु का डर सताता रहता था। मैंने अपनी चिंता कम करने की कोशिश की पर कोई फायदा नहीं हुआ। मैंने सामाजिक विज्ञान की बहुत सारी किताबें पढ़ीं, मुझे उम्मीद थी कि इन्हें पढ़ने से सुकून मिलेगा, पर मुझे अंदरूनी पीड़ा से राहत नहीं मिली। लगा अब बस निष्क्रिय बैठकर मौत का इंतज़ार करना है। एक दिन मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे इस दुर्दशा से बाहर निकाले। बाद में मैंने भक्तिगीत सुनने और परमेश्वर के वचन पढ़ने शुरू किए। उसके वचनों ने मेरी अंतरात्मा को हिलाया और मुझे जगा दिया। परमेश्वर कहते हैं : “कुछ लोगों का स्वभाव मसीह-विरोधी वाला होता है, और वे अक्सर कुछ भ्रष्ट स्वभावों के उद्गार प्रकट करते हैं, लेकिन उनमें ऐसे उद्गार होने के साथ-साथ, वे आत्मचिंतन कर खुद को जानते भी हैं, और सत्य स्वीकारकर उसका अभ्यास करने में सक्षम होते हैं, और कुछ समय बाद उनमें बदलाव देखा जा सकता है। ऐसे लोगों के उद्धार की संभावना है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपना उन्नयन करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। “कुछ ऐसे लोग भी हैं जो परमेश्वर के वचन पढ़ कर अक्सर धारणाएँ और गलतफहमियाँ बना लेते हैं, क्योंकि परमेश्वर लोगों की भ्रष्ट दशाओं का खुलासा करता है और उनकी निंदा करते हुए कुछ बातें कहता है। वे यह सोच कर निराश और कमजोर हो जाते हैं कि वे ही परमेश्वर के वचनों का निशाना थे, परमेश्वर उन्हें छोड़ रहा है, और वह उन्हें नहीं बचाएगा। वे इतने निराश हो जाते हैं कि उन्हें आँसू आ जाते हैं और अब परमेश्वर का अनुसरण नहीं करना चाहते। यह वास्तव में परमेश्वर को लेकर गलतफहमी है। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अर्थ नहीं समझते, तो तुम्हें परमेश्वर को रेखांकित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। तुम नहीं जानते कि परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति को त्यागता है, और वह लोगों को किन हालात में छोड़ता है, या वह लोगों को किन हालात में किनारे कर देता है; इन सभी के लिए सिद्धांत और संदर्भ हैं। अगर तुम्हें इन विस्तृत मामलों में पूरी अंतर्दृष्टि नहीं है, तो तुम्हारे अतिसंवेदनशील होने की बड़ी संभावना होगी और तुम परमेश्वर के केवल एक वचन के आधार पर खुद को परिसीमित कर लोगे। क्या यह समस्या नहीं है? लोगों का न्याय करते समय परमेश्वर उनके किस मुख्य पहलू की निंदा करता है? परमेश्वर जिसका न्याय कर खुलासा करता है, वह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार होते हैं, वह उनके शैतानी स्वभावों और शैतानी प्रकृति की निंदा करता है, वह परमेश्वर के प्रति उनके विद्रोह और विरोध की विभिन्न अभिव्यक्तियों और व्यवहारों की निंदा करता है, वह परमेश्वर की आज्ञा न मान पाने, हमेशा परमेश्वर का विरोध करने, हमेशा अपनी अभिप्रेरणाएँ और लक्ष्य रखने के लिए उनकी निंदा करता है—लेकिन ऐसी निंदा का यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर ने शैतानी स्वभाव वाले लोगों को त्याग दिया है। अगर यह तुम्हें स्पष्ट नहीं है, तो तुममें समझने की क्षमता नहीं है, जो तुम्हें कुछ हद तक मानसिक रोग वाले लोगों जैसा बना देता है, हमेशा हर चीज के प्रति शक्की और परमेश्वर की गलत व्याख्या करने वाला। ऐसे लोगों में सच्ची आस्था नहीं है, फिर वे बिल्कुल अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कैसे कर सकते हैं? परमेश्वर से निंदा का सिर्फ एक वक्तव्य सुन कर तुम सोचते हो कि परमेश्वर द्वारा निंदित होने के कारण लोग उसके द्वारा त्याग दिए गए हैं और अब वे बचाए नहीं जाएँगे, और इस वजह से तुम निराश हो जाते हो, और खुद को मायूसी में डुबो लेते हो। यह परमेश्वर की गलत व्याख्या करना है। असल में परमेश्वर ने लोगों को नहीं त्यागा है। उन्होंने परमेश्वर की गलत व्याख्या कर खुद को त्याग दिया है। लोग खुद को त्याग दें इससे ज्यादा गंभीर कुछ नहीं होता, जैसा कि पुराने नियम के वचनों में साकार हुआ है : ‘मूढ़ लोग निर्बुद्धि होने के कारण मर जाते हैं’ (नीतिवचन 10:21)। लोग खुद को मायूसी में डुबो लें उससे ज्यादा मूर्खतापूर्ण व्यवहार कुछ भी नहीं है। कभी-कभी तुम परमेश्वर के ऐसे वचन पढ़ते हो जो लोगों को रेखांकित करते हुए-से लगते हैं; असल में ये लोगों को रेखांकित नहीं करते, बल्कि ये परमेश्वर की इच्छा और राय की अभिव्यक्ति हैं। ये सत्य और सिद्धांत के वचन हैं, वे किसी का रेखांकन नहीं कर रहे हैं। क्रोध या रोष के समय में बोले गए परमेश्वर के वचन उसका स्वभाव भी दर्शाते हैं, ये वचन सत्य हैं और इसके अलावा सिद्धांत से संबंधित हैं। लोगों को यह बात समझनी चाहिए। यह कहने के पीछे परमेश्वर का उद्देश्य लोगों को सत्य और सिद्धांतों को समझने देना है; यह किसी को भी परिसीमित करने के लिए बिल्कुल नहीं है। इसका लोगों की अंतिम मंजिल और पुरस्कार से कोई लेना-देना नहीं है, यह लोगों का अंतिम दंड तो है ही नहीं। ये महज लोगों का न्याय करने और उनकी काट-छाँट करने के लिए बोले गए वचन हैं, ये लोगों के परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे न उतरने पर उसके क्रोध का परिणाम हैं, ये लोगों को जगाने, उन्हें प्रेरित करने के लिए बोले गए हैं, और ये वचन परमेश्वर के दिल से निकले हैं। फिर भी कुछ लोग परमेश्वर द्वारा न्याय के सिर्फ एक वक्तव्य से गिर पड़ते हैं और उसका त्याग कर देते हैं। ऐसे लोग नहीं जानते कि उनके लिए अच्छा क्या है, उन पर तर्क का प्रभाव नहीं होता, और वे सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते। ... ऐसा समय भी होता है जब परमेश्वर लोगों को दूर रखता है, ऐसा समय भी होता है जब वह उन्हें कुछ समय के लिए किनारे कर देता है ताकि वे आत्मचिंतन कर सकें, लेकिन परमेश्वर उनका त्याग नहीं करता; वह उन्हें प्रायश्चित्त करने का अवसर देता है। परमेश्वर सिर्फ उन लोगों को त्याग देता है जो अनेक बुरे कर्म करते हैं, जो गैर-विश्वासी और मसीह-विरोधी हैं। कुछ लोग कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि मुझमें पवित्र आत्मा ने कार्य नहीं किया है, बहुत समय से मुझे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता नहीं मिली है। क्या परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया है?’ यह एक गलतफहमी है। इसमें स्वभाव की समस्या भी है : लोग अत्यधिक भावुक होते हैं, वे हमेशा अपने तर्क के पीछे चलते हैं, हमेशा हठी और तर्कहीन होते हैं—क्या यह स्वभाव की समस्या नहीं है? तुम कहते हो कि परमेश्वर ने तुम्हें त्याग दिया है, वह तुम्हें नहीं बचाएगा, तो क्या उसने तुम्हारा अंत तय कर दिया है? परमेश्वर ने तुमसे गुस्से में सिर्फ कुछ वचन बोले हैं। तुम कैसे कह सकते हो कि उसने तुम्हें छोड़ दिया है, वह तुम्हें अब नहीं चाहता? ऐसे मौके आते हैं जब तुम पवित्र आत्मा का कार्य महसूस नहीं कर सकते, लेकिन परमेश्वर ने तुम्हें अपने वचन पढ़ने से वंचित नहीं किया है, न ही उसने तुम्हारा अंत नियत किया है या उद्धार का तुम्हारा रास्ता बंद किया है—तो फिर तुम किस बात को ले कर इतने नाराज हो? तुम एक बुरी दशा में हो, तुम्हारी मंशाओं के साथ समस्या है, तुम्हारे विचार और नजरिये के साथ समस्याएँ हैं, तुम्हारी मानसिक दशा विकृत है—फिर भी तुम सत्य खोज कर इन चीजों को दुरुस्त करने की कोशिश नहीं करते, बल्कि इसके बजाय निरंतर परमेश्वर की गलत व्याख्या कर उसे दोष देते हो, परमेश्वर पर जिम्मेदारी डालते हो, और यह भी कहते हो, ‘परमेश्वर मुझे नहीं चाहता, इसलिए मैं अब उसमें विश्वास नहीं रखता।’ क्या तुम तर्कहीन नहीं हो? क्या तुम अनुचित नहीं हो?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1))। परमेश्वर के वचन मेरे दिल को छू गए। मै समझ गया कि परमेश्वर ने न मुझे छोड़ा था, न मेरी निंदा की, न ही मेरा परिणाम तय किया। दरअसल, परमेश्वर को पता था कि मुझे शैतान ने कैसे भ्रष्ट किया था। परमेश्वर ने सही समय पर भाई-बहनों को मुझे उजागर करने दिया और अपने वचनों का प्रयोग कर मेरे भ्रष्ट स्वभाव और मेरे गलत रास्ते को प्रकट किया, क्योंकि इसी तरीके से मैं खुद को जान सकता था। खुद को बदलने का यह एक सुनहरी मौका था! परमेश्वर का न्याय, ताड़ना, और काट-छाँट मेरी आलोचना करने या मुझे त्यागने के लिए नहीं बल्कि मुझे बचाने के लिए थे! परमेश्वर को आशा थी कि मैं वास्तव में खुद को जान सकता हूँ, और सच्चा पश्चाताप कर सकता हूँ। मगर मैंने अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों और धारणाओं के कारण परमेश्वर की इच्छा को गलत समझा, मुझे विश्वास था कि चूँकि मेरी अभिव्यक्तियां मसीह-विरोधी थीं तो निश्चित ही परमेश्वर मुझे नहीं चाहता और दूसरों की तरह मेरा विनाश होना तय है। मेरा विश्वास था कि यदि मेरे जैसे मसीह-विरोधी स्वभाव वाला कोई व्यक्ति कलीसिया में रहता है, तो वह देर-सबेर कलीसिया के कार्य को बाधित कर देगा। लेकिन वास्तव में उजागर हुईं मेरी सभी अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर की नजर में सामान्य थीं। मैंने मसीह-विरोधी स्वभाव दिखाया था, लेकिन मैं अभी भी मसीह-विरोधी नहीं हुआ था। परमेश्वर मसीह-विरोधी सार वालों को त्यागता और दंडित करता है। वे पश्चाताप नहीं कर पाते, क्योंकि उनका प्रकृति सार बुरा होता है, उन्हें सत्य से घृणा और चिढ़ होती है। चाहे वो कितना भी गलत करें, वो अपनी गलतियां स्वीकार नहीं करते, अपनी प्रतिष्ठा तथा रुतबे के लिए कुछ भी कर गुज़रते हैं, चाहे फिर उन्हें मौत ही क्यों न आ जाए। मुझे अभी भी लगता था कि मैं बेहद गहराई तक भ्रष्ट हूँ, और मुझे अपनी गलती का पता था, इसलिए मेरे पास अब भी पश्‍चाताप का मौका था। मेरा तो बस स्वभाव ही मसीह-विरोधी था, मैं मसीह-विरोधी नहीं था, जिसमें थोड़ी सी भी सच्चाई स्वीकार करने की क्षमता नहीं थी या जिसने सत्य का तिरस्कार किया था। परमेश्वर ने मेरी उजागर हुई भ्रष्टता के आधार पर मेरी निंदा नहीं की थी, बल्कि पश्चाताप की प्रतीक्षा करते हुए, जितना संभव हो सके मुझे बचाने की कोशिश की थी। लेकिन मैं परमेश्वर के विरुद्ध धारणाओं के साथ जी रहा था और मैंने यह मानकर कि परमेश्वर मुझे त्याग देगा, उसे गलत समझा था। इसलिए मैंने इस्तीफा दे दिया और कलीसिया छोड़ दी, इस चिंता में कि अगर मैं कलीसिया में रहा तो मैं इसके काम को बाधित करना जारी रखूंगा और मुझे इससे भी बड़ी सजा भुगतनी पड़ेगी। मैं परमेश्वर की इच्छा नहीं समझा, न ही परमेश्वर के प्रेम या स्वभाव को जानता था। मुझे लगा जब परमेश्वर मुझे नहीं चाहता, तो मेरे सारे प्रयास व्यर्थ हैं। अगर दैहिक सुखों का भी आनंद नहीं लिया, तो इस संसार में मेरे लिए कुछ नहीं बचेगा। अब अपनी करनी को देखकर मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। मैंने जीवनभर परमेश्वर का अनुसरण करने की कसमें खाईं थीं, पर जैसे ही मेरा न्याय होना शुरू हुआ और मैं उजागर हुआ, मैं निष्क्रिय हो गया, परमेश्वर के उद्धार को नकारकर उसमें विश्वास गँवा बैठा, और बेझिझक मैंने निजी हितों, दुनिया में लौटकर दैहिक सुखों के पीछे भागने का विकल्प चुन लिया। मेरा विवेक कहां गया? मुझे गहरा पछतावा हुआ। परमेश्वर की इच्छा समझने पर ऐसा लगा कि मेरे अंदर जीवन के लिए फिर से आशा जगी, लगा जैसे मरकर वापस लौटा हूँ। मैंने अपनी सभी निजी योजनाएं, पढ़ाई-लिखाई और कार्य त्याग दिए, और निष्ठापूर्वक परमेश्वर के वचनों पर मनन और भजन करने लगा, उसके वचनों के पाठ सुनने और उसके वचनों में उसकी इच्छा खोजने लगा। यह परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर फिर से चलना शुरू करने जैसा था। धीरे-धीरे मैंने एक बार फिर परमेश्वर की कृपा पाई और उसकी उपस्थिति का आनंद महसूस किया। मुझे आंतरिक शांति और आनंद मिला, और मन में कलीसिया लौटने की फिर इच्छा हुई। हालाँकि मुझे नहीं पता था कि कलीसिया मुझे स्वीकारेगी या नहीं। इसलिए मैंने परमेश्वर से दया दिखाने और मुझे बचाने की प्रार्थना की।

कुछ हफ्ते बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा और उसकी इच्छा को थोड़ा और समझा। परमेश्वर कहते हैं : “कार्य का यह चरण शुरू होने के कई वर्षों बाद, एक व्यक्ति था जो परमेश्वर में विश्वास करता था लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करता था; वह केवल पैसा कमाना और एक साथी खोजना चाहता था, अमीरों जैसा जीवन जीना चाहता था, इसलिए उसने कलीसिया छोड़ दी। कुछ वर्ष इधर-उधर भटकने के बाद वह अचानक वापस आ गया। उसका दिल पश्चात्ताप से भरा हुआ था, उसने अनगिनत आँसू बहाए। यह साबित करता है कि उसके हृदय ने परमेश्वर को पूरी तरह नहीं छोड़ा, जो एक अच्छी बात है; उसके पास अभी भी बचाए जाने का एक अवसर और आशा है। अगर वह विश्वास करना छोड़ देता, अविश्वासियों जैसा बन जाता, तो वह पूरी तरह से खत्म हो जाता। अगर वह सच में पश्चात्ताप कर सकता है, तो उसके लिए अब भी उम्मीद है; यह एक दुर्लभ और अनमोल बात है। चाहे परमेश्वर कैसे भी कार्य करे, और चाहे वह लोगों के साथ कैसे भी व्यवहार करे—यहाँ तक कि चाहे वह उनसे घृणा करे, उन्हें नापसंद करे या उन्हें शाप दे—अगर कोई ऐसा दिन आता है कि लोग खुद को बदल सकते हैं, तो मुझे बहुत खुशी होगी; क्योंकि इसका मतलब यह होगा कि लोगों के मन में अभी भी परमेश्वर के लिए थोड़ा-सा स्थान तो है, कि उन्होंने अपनी मानवीय समझ या अपनी मानवता पूरी तरह से नहीं खोई है, कि वे अभी भी परमेश्वर में विश्वास करना चाहते हैं, और उसके अस्तित्व को स्वीकार करके उसके सम्मुख लौटने का कम-से-कम थोड़ा-बहुत इरादा रखते हैं। जिन लोगों के दिल में वास्तव में परमेश्वर है, चाहे उन्होंने कभी भी परमेश्वर का घर छोड़ा हो, यदि वे वापस आते हैं, और अभी भी इस परिवार को प्रिय मानते हैं, तो मैं भावुकता से उससे जुड़ जाऊंगा और कुछ सुकून पाऊँगा। लेकिन अगर वे कभी वापस नहीं लौटते, तो मैं इसे दयनीय समझूँगा। यदि वे वापस आकर वास्तव में पश्चात्ताप कर सकते हैं, तो मेरा दिल विशेष रूप से संतुष्टि और सुकून से भर जाएगा। इस व्यक्ति का अभी भी लौटने में सक्षम होना यह दर्शाता है कि वह परमेश्वर को नहीं भूला था; वह इसलिए लौटा क्योंकि उसके दिल में वह अभी भी परमेश्वर के लिए ललक थी। हमारा मिलन बहुत ही मार्मिक था। जब वह गया था, तो वह निश्चित रूप से काफी नकारात्मक था, और वह खराब अवस्था में था; पर अगर वह अब वापस आ सकता है, तो इससे साबित होता है कि उसकी अभी भी परमेश्वर में आस्था है। हालाँकि, वह आगे भी कलीसिया में बना रह सकता है या नहीं, यह अज्ञात है, क्योंकि लोग बहुत जल्दी बदल जाते हैं। अनुग्रह के युग में, यीशु में लोगों के लिए रहम और अनुग्रह था। यदि सौ में से एक भेड़ खो जाए, तो वह निन्यानबे को छोड़कर एक को खोजता था। यह पंक्ति कोई यांत्रिक कार्य नहीं दर्शाती, न ही यह कोई नियम है, बल्कि यह मानव जाति के उद्धार को लेकर परमेश्वर के गहरे इरादे, और मानव जाति के लिए परमेश्वर के गहरे प्रेम को दर्शाता है। यह कोई काम करने का तरीका नहीं है, बल्कि यह उसका स्वभाव है और उसकी मानसिकता है। इसलिए, कुछ लोग छह महीने या साल भर के लिए कलीसिया से चले जाते हैं, या बहुत-सी कमजोरियों या गलत धारणाओं के शिकार हैं, और फिर भी बाद में वास्तविकता के प्रति जाग्रत होने, ज्ञान प्राप्त करने, अपने-आपको बदलने और सही मार्ग पर लौटने की उनकी क्षमता मुझे खासतौर से सुकून देती है, और मुझे थोड़ा-सा आनंद देती है। आज के इस मौज-मस्ती और वैभवता के संसार में, और बुराई के इस युग में परमेश्वर को स्वीकार करने और सही रास्ते पर लौट आने में सक्षम हो पाना ऐसी चीज है, जो खुशी और रोमांच प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए बच्चों का पालन-पोषण करने को लो : चाहे तुम्हारे प्रति उनका व्यवहार संतानोचित हो या न हो, अगर वे तुम्हारा कोई संज्ञान लिए बिना घर छोड़कर चले जाएँ और कभी न लौटें, तो तुम्हें कैसा महसूस होगा? अपने दिल की गहराई में तुम तब भी उनकी चिंता करते रहोगे, और तुम हमेशा यह सोचोगे, ‘मेरा बेटा कब लौटेगा? मैं उसे देखना चाहता हूँ। आखिर वह मेरा बेटा है, और मैंने उसे यूं ही नहीं पाला-पोसा और प्यार किया।’ तुम हमेशा इसी तरह सोचते रहे हो; तुम हमेशा उस दिन की बाट जोहते रहे हो। इस संबंध में हर कोई ऐसा ही महसूस करता है, परमेश्वर तो और भी ऐसा महसूस करता है—क्या वह और अधिक यह आशा नहीं करता कि भटकने के बाद मनुष्य अपनी वापसी का रास्ता खोज ले, कि उड़ाऊ पुत्र वापस आ जाए? आजकल लोगों की आध्यात्मिक कद-काठी बहुत छोटी है, पर वह दिन आएगा जब वे परमेश्वर की इच्छा को समझ जाएंगे, लेकिन अगर उनका सच्चे विश्वास की ओर कोई झुकाव न हो, वे अविश्वासी हों, तो वे परमेश्वर की चिंता के लायक नहीं हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे हिला दिया, और मेरे चेहरे पर आँसुओं की धारा बह निकली। लगा जैसे परमेश्वर मुझसे रूबरू होकर बात कर रहा है, जैसे एक माँ अपने बच्चे से बात करती है। परमेश्वर ने मुझे तब बचाया जब मैं पूरी तरह हताश था, दिखाया कि उसका प्रेम कितना सच्चा है! मैं समझ गया कि परमेश्वर यूँ ही लोगों की निंदा या उन्हें नहीं मारता। परमेश्वर ने इंसान को बचाने के लिए अंत के दिनों में देहधारण किया। परमेश्वर ने मुझे नहीं छोड़ा था, जैसा कि मुझे लगा था। इसके बजाय मेरे भ्रष्ट स्वभाव और गलत रास्ते पर चलने के कारण उसने अपना चेहरा छिपा लिया था। ये उसकी धार्मिकता और पवित्रता थी, ताकि मैं अनुशासित होऊँ और मुझमें बदलाव आए। परमेश्वर को मेरे पश्‍चाताप की प्रतीक्षा थी, लेकिन मेरे मन में परमेश्वर के बारे में बहुत-सी धारणाएँ और गलतफहमियाँ थीं। मैं हमेशा व्यक्तिगत दृष्टिकोण पर अड़कर अपनी धारणाओं को परमेश्वर की इच्छा से बदलता रहा, मानो मुझे सत्य पता था। हालाँकि मैं बहुत विद्रोही था, लेकिन परमेश्वर जानता था मुझमें क्या कमी है, और मैं कहाँ गिरकर नाकाम होऊँगा। जितना मैंने सोचा था, परमेश्वर का प्रेम उससे कहीं बड़ा था। परमेश्वर ने कदम-कदम पर मार्गदर्शन कर मुझे जगाया। मैंने जाना कि लोगों को बचाने का परमेश्वर का इरादा नेक है। अगर लोग उसके नाम में निष्ठा रखकर उसके मार्ग पर चलते रहेंगे, तो वह उद्धार का हाथ बढ़ाता रहेगा। परमेश्वर सभी के जीवन के लिए उत्तरदायी है, लेकिन लोगों को सक्रिय रूप से एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारियां पूरी करनी चाहिए। मेरे जैसे कायर लोगों को परमेश्वर पसंद नहीं करता, वह संकल्प वाले लोगों को पसंद करता है। जब तक मैंने ईमानदारी से पश्चाताप किया, और सत्य की खोज करने और खुद को बदलने का प्रयास किया, तब तक बहुत देर नहीं हुई थी। मेरे पास अभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव को बदलने और बचाए जाने का मौका था। परमेश्वर की इच्छा समझने पर, मेरी नकारात्मकता और गलतफहमी दूर हो गई।

बाद में मैंने उसके वचनों का एक और अंश पढ़ा जिसने मुझे परमेश्वर के न्याय-कार्य की समझ दी। परमेश्वर कहते हैं : “आज परमेश्वर तुम लोगों का न्याय करता है, तुम लोगों को ताड़ना देता है, और तुम्हारी निंदा करता है, लेकिन तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि तुम्हारी निंदा इसलिए की जाती है, ताकि तुम स्वयं को जान सको। वह इसलिए निंदा करता है, शाप देता है, न्याय करता और ताड़ना देता है, ताकि तुम स्वयं को जान सको, ताकि तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन हो सके, और, इसके अलावा, तुम अपनी कीमत जान सको, और यह देख सको कि परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक और उसके स्वभाव और उसके कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार हैं, और वह मनुष्य के उद्धार के लिए अपनी योजना के अनुसार कार्य करता है, और कि वह धार्मिक परमेश्वर है, जो मनुष्य को प्यार करता है, उसे बचाता है, उसका न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है। यदि तुम केवल यह जानते हो कि तुम निम्न हैसियत के हो, कि तुम भ्रष्ट और अवज्ञाकारी हो, परंतु यह नहीं जानते कि परमेश्वर आज तुममें जो न्याय और ताड़ना का कार्य कर रहा है, उसके माध्यम से वह अपने उद्धार के कार्य को स्पष्ट करना चाहता है, तो तुम्हारे पास अनुभव प्राप्त करने का कोई मार्ग नहीं है, और तुम आगे जारी रखने में सक्षम तो बिल्कुल भी नहीं हो। परमेश्वर मारने या नष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि न्याय करने, शाप देने, ताड़ना देने और बचाने के लिए आया है। उसकी 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना के समापन से पहले—इससे पहले कि वह मनुष्य की प्रत्येक श्रेणी का परिणाम स्पष्ट करे—पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य उद्धार के लिए होगा; इसका प्रयोजन विशुद्ध रूप से उन लोगों को पूर्ण बनाना—पूरी तरह से—और उन्हें अपने प्रभुत्व की अधीनता में लाना है, जो उससे प्रेम करते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर लोगों को कैसे बचाता है, यह सब उन्हें उनके पुराने शैतानी स्वभाव से अलग करके किया जाता है; अर्थात्, वह उनसे जीवन की तलाश करवाकर उन्हें बचाता है। यदि वे ऐसा नहीं करते, तो उनके पास परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने का कोई रास्ता नहीं होगा। उद्धार स्वयं परमेश्वर का कार्य है, और जीवन की तलाश करना ऐसी चीज है, जिसे उद्धार स्वीकार करने के लिए मनुष्य को करना ही चाहिए। मनुष्य की निगाह में, उद्धार परमेश्वर का प्रेम है, और परमेश्वर का प्रेम ताड़ना, न्याय और शाप नहीं हो सकता; उद्धार में प्रेम, करुणा और, इनके अलावा, सांत्वना के वचनों के साथ-साथ परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए असीम आशीष समाविष्ट होने चाहिए। लोगों का मानना है कि जब परमेश्वर मनुष्य को बचाता है, तो ऐसा वह उन्हें अपने आशीषों और अनुग्रह से प्रेरित करके करता है, ताकि वे अपने हृदय परमेश्वर को दे सकें। दूसरे शब्दों में, उसका मनुष्य को स्पर्श करना उसे बचाना है। इस तरह का उद्धार एक सौदा करके किया जाता है। केवल जब परमेश्वर मनुष्य को सौ गुना प्रदान करता है, तभी मनुष्य परमेश्वर के नाम के प्रति समर्पित होता है और उसके लिए अच्छा करने और उसे महिमामंडित करने का प्रयत्न करता है। यह मानवजाति के लिए परमेश्वर की अभिलाषा नहीं है। परमेश्वर पृथ्वी पर भ्रष्ट मानवता को बचाने के लिए कार्य करने आया है—इसमें कोई झूठ नहीं है। यदि होता, तो वह अपना कार्य करने के लिए व्यक्तिगत रूप से निश्चित ही नहीं आता। अतीत में, उद्धार के उसके साधन में परम प्रेम और करुणा दिखाना शामिल था, यहाँ तक कि उसने संपूर्ण मानवजाति के बदले में अपना सर्वस्व शैतान को दे दिया। वर्तमान अतीत जैसा नहीं है : आज तुम लोगों को दिया गया उद्धार अंतिम दिनों के समय में प्रत्येक व्यक्ति का उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकरण किए जाने के दौरान घटित होता है; तुम लोगों के उद्धार का साधन प्रेम या करुणा नहीं है, बल्कि ताड़ना और न्याय है, ताकि मनुष्य को अधिक अच्छी तरह से बचाया जा सके। इस प्रकार, तुम लोगों को जो भी प्राप्त होता है, वह ताड़ना, न्याय और निर्दय मार है, लेकिन यह जान लो : इस निर्मम मार में थोड़ा-सा भी दंड नहीं है। मेरे वचन कितने भी कठोर हों, तुम लोगों पर जो पड़ता है, वे कुछ वचन ही हैं, जो तुम लोगों को अत्यंत निर्दय प्रतीत हो सकते हैं, और मैं कितना भी क्रोधित क्यों न हूँ, तुम लोगों पर जो पड़ता है, वे फिर भी कुछ शिक्षाप्रद वचन ही हैं, और मेरा आशय तुम लोगों को नुकसान पहुँचाना या तुम लोगों को मार डालना नहीं है। क्या यह सब तथ्य नहीं है? जान लो कि आजकल हर चीज उद्धार के लिए है, चाहे वह धार्मिक न्याय हो या निर्मम शुद्धिकरण और ताड़ना। भले ही आज प्रत्येक व्यक्ति का उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकरण किया जा रहा हो या मनुष्य की श्रेणियाँ प्रकट की जा रही हों, परमेश्वर के समस्त वचनों और कार्य का प्रयोजन उन लोगों को बचाना है, जो परमेश्वर से सचमुच प्यार करते हैं। धार्मिक न्याय मनुष्य को शुद्ध करने के उद्देश्य से लाया जाता है, और निर्मम शुद्धिकरण उन्हें निर्मल बनाने के लिए किया जाता है; कठोर वचन या ताड़ना, दोनों शुद्ध करने के लिए किए जाते हैं और वे उद्धार के लिए हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने जाना कि मैं उसके न्याय के कार्य को समझ नहीं पाया था। जब मैंने पहली बार परमेश्वर के कार्य को स्वीकार किया, तो यह परमेश्वर के प्रेम, उसकी दया और पवित्र आत्मा की रोशनी और प्रबुद्धता का आनंद उठाने जैसा था। अनुग्रह का आनंद लेकर मैं संतुष्ट था। मुझे लगा कि मैं एक छोटा बच्चा हूँ, जिसे परमेश्वर के हाथों में लेकर संजोता है, लगा मैं विशेष हूँ, पूर्ण हूँ, और इस तरह कठोरता के साथ मेरा न्याय नहीं होना चाहिए। तो जब परमेश्वर के कठोर वचनों ने मेरी भ्रष्टता और मेरे मसीह-विरोधी स्वभाव को उजागर किया, तो मुझे लगा कि परमेश्वर मुझे त्यागने वाला था। वास्तव में, मैं परमेश्वर की इच्छा को समझ नहीं पाया था। लेकिन शैतान इंसान को बुरी तरह भ्रष्ट कर चुका था और केवल परमेश्वर का कठोर न्याय और ताड़ना ही लोगों के भ्रष्ट स्वभाव को बदलकर शैतान की सत्ता की अधीनता से बचा सकते थे। मुझे शैतान ने बुरी तरह भ्रष्ट कर दिया था। मैं इतना अहंकारी और आत्मतुष्ट हो गया था कि मुझे जगाने के लिए परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना की आवश्यकता थी। केवल ऐसा कार्य ही मुझे शैतान द्वारा मेरी भ्रष्टता की कुरूपता दिखा सकता था और तभी मैं खुद से घृणा कर शैतान को त्याग सकता था। इसके बिना, मुझे यही लगता कि मैं पूर्ण हूँ और परमेश्वर मुझे चाहता है, फिर मैं कभी सत्य खोजने के लिए नहीं मुड़ता या आत्म-चिंतन करता। मैं मरते दम तक मसीह-विरोधी के गलत मार्ग पर ही चलता रहता। परमेश्वर में विश्वास करके भी मैं बिल्कुल कष्ट नहीं उठाना चाहता था, परमेश्वर के लाड़-प्यार में बिगड़ना चाहता था, मैं हमेशा बच्चे की तरह परमेश्वर का अनुग्रह और दया चाहता था। इस तरह वो मुझे कैसे शुद्ध करता? मेरी अज्ञानता और स्वार्थ के कारण मैं परमेश्वर को नहीं समझा, उससे दूर हो गया, उसे धोखा दिया। मैं नहीं देख पाया कि उसके न्याय कार्य के पीछे उसका प्रेम और उद्धार था। मैंने अपनी अज्ञानता और स्वार्थ की भारी कीमत चुकाई। परमेश्वर के न्याय-कार्य और ताड़ना की विशाल महत्ता समझकर, मेरे अंदर फिर से उसका अनुसरण और उसके कार्य का अनुभव करने का विश्वास जागा। मैं समझ गया था, भले ही परमेश्वर का कार्य मेरी धारणाओं के अनुरूप न हो, लेकिन यह मुझे शुद्ध करने और मेरे भ्रष्ट स्वभाव को बदलने के लिए था, और यह मुझे शैतान की सत्ता की अधीनता से बचाने के लिए था। परमेश्वर का न्याय और उसकी ताड़ना मनुष्य को बचाने का उसका सबसे बेहतर मार्ग है।

इसके बाद मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े और परमेश्वर की आवश्यकताओं को समझा। परमेश्वर चाहता था कि मैं सच्चा सृजित प्राणी बनकर उसकी संप्रभुता और प्रावधान को स्वीकारूँ, अपना कर्तव्य निभाऊँ, उसे जानूँ, उसकी गवाही दूँ। दरअसल, मेरी हैसियत भाई-बहनों जितनी ही थी। परमेश्वर ने मुझे कुछ हुनर या प्रतिभा दी थी या मुझे अगुआ के पद पर सेवा करने का मौका दिया था, पर इसका मतलब ये नहीं कि मेरी हैसियत भाई-बहनों से ऊँची हो गई थी। मैं सृजित प्राणी ही रहूँगा और तब भी एक भ्रष्ट व्यक्ति रहूँगा जिसे परमेश्वर के उद्धार की जरूरत है ये हुनर और प्रतिभा परमेश्वर से मिले थे, तो मुझे अपना दिखावा नहीं करना चाहिए था। मुझे बेहतर ढंग से अपने कर्तव्य पर ध्यान देकर परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए था। इन बातों का एहसास होने पर, मुझे अभ्यास का मार्ग मिला, और मुझे राहत की अनुभूति हुई। अब मैं जल्दी से कलीसिया लौटकर फिर से अपने कर्तव्यों में लग जाना चाहता था। अबकी बार मैंने परमेश्वर का अनुसरण कर कर्तव्य निभाने का दृढ़-संकल्प लिया था। मैंने अपने कंप्यूटर और फोन से वह सब हटा दिया जो परमेश्वर में विश्वास से संबंधित नहीं था, सब कुछ दरकिनार करके उसका अनुसरण करना चाहा। कुछ दिनों बाद, मैं कलीसिया लौट गया और सुसमाचार का प्रचार करना जारी रखा। मैं परमेश्वर का बेहद कृतज्ञ था। अपने कर्तव्यों के दौरान मैंने भाई-बहनों के साथ पूरा सहयोग किया। जब भी कोई समस्या आती, मैं भाई-बहनों की राय और सुझाव माँगता और उन्हें शामिल करने को कहता। अब मैं खुद को ऊपर नहीं रखता था, और अपने विचार भाई-बहनों पर नहीं थोपता था। इसके बजाय, मैं चीजों पर बात करता और हरेक से उन पर चर्चा करता। सम्मान पाने के लिए मैं अब दिखावा नहीं करता था, न ही उन्हें नियंत्रित करता था। अब मुझे सत्ता नहीं चाहिए थी। इसके बजाय मैंने सबके साथ मिलकर सत्य सिद्धांतों की खोज करना सीखा। इस तरह अभ्यास करके मुझे काफी राहत का अनुभव हुआ, जो पहले कभी महसूस नहीं हुआ था।

इस अनुभव के बाद से मैंने अपने भ्रष्ट स्वभाव की कुछ समझ प्राप्त की है। परमेश्वर के कार्य और मानवजाति को बचाने की उसकी इच्छा के बारे में भी मैंने कुछ समझ प्राप्त की है, साथ ही मेरी आस्था दृढ़ हुई है। मुझे सचमुच लगता है कि परमेश्वर का न्याय और ताड़ना निंदा का, विनाश का मामला नहीं है बल्कि उसका प्रेम और उद्धार है। जैसा परमेश्वर के वचन कहते हैं : “परमेश्वर की ताड़ना और न्याय प्रकाश है, मनुष्य के उद्धार का प्रकाश है, और मनुष्य के लिए इससे बेहतर कोई आशीष, अनुग्रह या सुरक्षा नहीं है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर का धन्यवाद!

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