अध्याय 32

परमेश्वर के वचन लोगों को सिर खुजलाता छोड़ देते हैं; यह ऐसा है, मानो जब परमेश्वर बोलता है, तो वह मनुष्य को दूर कर रहा हो और हवा से बातें कर रहा हो, मानो मनुष्य के कर्मों पर अब और ध्यान देने का उसका कोई विचार न हो, और मनुष्य के आध्यात्मिक कद से वह पूरी तरह बेपरवाह हो, मानो जो वचन वह कहता है, वे लोगों की धारणाओं की ओर निर्देशित न हों, बल्कि परमेश्वर की मूल इच्छा के अनुसार मनुष्य को दूर करते हों। असंख्य कारणों से परमेश्वर के वचन मनुष्य के लिए अग्राह्य और अभेद्य हैं। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। परमेश्वर के सभी वचनों का मूल उद्देश्य यह नहीं है कि लोग उनसे जानकारी पाएँ या तरकीबें सीखें; इसके बजाय, वे उन साधनों में से एक हैं, जिनसे परमेश्वर ने शुरू से आज तक कार्य किया है। बेशक, परमेश्वर के वचनों से लोग चीजें हासिल करते हैं : रहस्यों से संबंधित चीजें या पतरस, पौलुस और अय्यूब से संबंधित चीजें—लेकिन यही है वह, जिसे उन्हें प्राप्त करना चाहिए, जिसे हासिल करने में वे सक्षम हैं और जो उनके आध्यात्मिक कद के उपयुक्त है, ये चीजें प्राप्त करने में वे जिस हद तक जा सकते हैं, उस हद तक पहले ही जा चुके हैं। ऐसा क्यों है कि परमेश्वर जो परिणाम प्राप्त करने के लिए कहता है, वह उच्च नहीं है, फिर भी उसने इतने वचन कहे हैं? यह उस ताड़ना से जुड़ा है जिसके बारे में वह बोलता है, और स्वाभाविक रूप से, इसे लोगों के जाने बिना ही हासिल किया जाता है। आज लोग परमेश्वर के वचनों के हमलों के तहत कहीं अधिक पीड़ा सहन करते हैं। सतही रूप से, उनमें से किसी के साथ भी निपटा नहीं गया लगता, लोगों को अपना काम करने में स्वतंत्र करना शुरू कर दिया गया है, और सेवाकर्मियों को परमेश्वर के लोगों के रूप में उन्नत किया गया है—इसमें, लोगों को लगता है कि उन्होंने आनंद में प्रवेश किया है। वास्तव में, सच तो यह है कि उन सभी ने शुद्धिकरण से अधिक कठोर ताड़ना में प्रवेश किया है। जैसा कि परमेश्वर कहता है, “मेरे कार्य के कदम निकटता से अगले कदम से जुड़े हैं, प्रत्येक कदम पिछले से अधिक उच्च है।” परमेश्वर ने सेवाकर्मियों को अथाह कुंड से उठा लिया है और उन्हें आग और गंधक की झील में डाल दिया है, जहाँ ताड़ना और भी अधिक गंभीर है। इस प्रकार, वे और भी अधिक कष्ट भुगतते हैं, जिससे वे बड़ी मुश्किल से बच पाते हैं। क्या ऐसी ताड़ना अधिक गंभीर नहीं है? ऐसा क्यों है कि एक उच्चतर क्षेत्र में प्रवेश करने के बाद लोगों को खुशी की जगह दुःख महसूस होता है? ऐसा क्यों कहा जाता है कि शैतान के हाथों से बचाने के बाद उन्हें बड़े लाल अजगर को दे दिया जाता है? क्या तुम्हें याद है, जब परमेश्वर ने कहा था, “कार्य का अंतिम चरण बड़े लाल अजगर के घर में पूरा किया जाता है”? क्या तुम्हें याद है, जब परमेश्वर ने कहा था, “आखिरी कठिनाई बड़े लाल अजगर के सामने परमेश्वर की सशक्त, जबरदस्त गवाही देना है”? अगर लोग बड़े लाल अजगर को न दिए जाते, तो वे उसके सामने गवाही कैसे दे पाते? किसने कभी खुद को मारने के बाद ऐसे शब्द कहे हैं, “मैंने शैतान को हरा दिया है”? अपने ही देह को दुश्मन के रूप में देखना और फिर खुद को मार डालना—इसका व्यावहारिक महत्व क्या है? परमेश्वर ने ऐसा क्यों कहा? “मैं लोगों के दागों को नहीं, बल्कि उनके उस हिस्से को देखता हूँ जो बेदाग है, और इससे संतुष्टि पाता हूँ।” अगर यह सच होता कि परमेश्वर चाहता है कि वे ही लोग उसकी अभिव्यक्ति बनें जो कि बेदाग हैं, तो उसने मनुष्य के परिप्रेक्ष्य से लोगों की धारणाओं पर प्रहार करते हुए धैर्य और ईमानदारी के साथ इतने वचन क्यों कहे होते? वह इससे खुद को परेशान क्यों करता? वह ऐसा करने की मुसीबत क्यों मोल लेता? इस प्रकार यह दर्शाया गया है कि परमेश्वर के देहधारण का वास्तविक महत्व है, कि वह देहधारण करने और अपना कार्य पूरा करने के बाद देह को “बट्टे खाते” नहीं डालेगा। ऐसा क्यों कहा जाता है कि “सोना शुद्ध नहीं हो सकता और मनुष्य पूर्ण नहीं हो सकता”? इन वचनों को कैसे समझाया जा सकता है? जब परमेश्वर मनुष्य के सार के बारे में बोलता है, तो उसके वचनों का क्या अर्थ होता है? लोगों की नजर में, देह कुछ भी करने में असमर्थ या फिर बहुत अपूर्ण लगता है। परमेश्वर की नजर में, यह बिलकुल भी महत्वपूर्ण नहीं है—लेकिन लोगों के लिए यह बड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा है। ऐसा लगता है, मानो वे इसे सुलझाने में पूरी तरह असमर्थ हों, मानो इसे किसी स्वर्गिक निकाय द्वारा व्यक्तिगत रूप से सँभाला जाना चाहिए—क्या यह इंसानी धारणा नहीं है? “लोगों की नजरों में मैं बस आकाश से उतरा हुआ एक ‘नन्हा सितारा’ हूँ, स्वर्ग का एक छोटा-सा सितारा, और आज धरती पर मेरा आगमन परमेश्वर द्वारा आदेशित था। परिणामस्वरूप, लोगों ने ‘मैं’ और ‘परमेश्वर’ शब्दों की अधिक व्याख्या दी है।” जब मनुष्य कुछ भी नहीं हैं, तो परमेश्वर उनकी धारणाएँ विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रकट क्यों करता है? क्या यह भी परमेश्वर की बुद्धि हो सकती है? क्या ऐसे वचन हास्यास्पद नहीं हैं? जैसा कि परमेश्वर कहता है, “यद्यपि एक जगह है जो मैंने लोगों के दिलों में बनाई है, उनके लिए यह आवश्यक नहीं है कि मैं वहाँ बस जाऊं। इसके बजाय, वे अपने दिलों में ‘किसी पवित्र’ के अचानक आ पहुँचने की प्रतीक्षा करते हैं। चूँकि मेरी पहचान बहुत ‘तुच्छ’ है, मैं लोगों की माँगों से मेल नहीं खाता हूँ और इस प्रकार उनके द्वारा बहिष्कृत कर दिया जाता हूँ।” चूँकि परमेश्वर के बारे में लोगों का अनुमान “बहुत ऊँचा” है, इसलिए बहुत-सी चीजें परमेश्वर के लिए “अप्राप्य” हैं, यह उसे “कठिनाई में” डाल देता है। लोग कम ही जानते हैं कि वे जिन चीजों के लिए परमेश्वर के सक्षम होने की माँग करते हैं, वे उनकी धारणाएँ हैं। क्या यह “चालाक व्यक्ति अपनी ही चालाकी का शिकार हो सकता है” का वास्तविक अर्थ नहीं है? यह वास्तव में “नियमतः चतुर, लेकिन इस बार मूर्ख” वाला मामला है! तुम लोग अपने उपदेश में लोगों से अपनी धारणाओं के परमेश्वर को त्याग देने के लिए कहते हो, लेकिन क्या तुम लोगों की धारणाओं का परमेश्वर चला गया है? परमेश्वर के इन वचनों की क्या व्याख्या की जा सकती है, “जो माँगें मैं मनुष्य से करता हूँ, वे किसी भी सूरत में ज्यादा नहीं हैं”? वे लोगों को नकारात्मक और स्वच्छंद बनाने के लिए नहीं हैं, बल्कि उन्हें परमेश्वर के वचनों की शुद्ध समझ देने के लिए हैं—क्या तुम समझते हो? क्या देहधारी परमेश्वर वास्तव में “उच्च और शक्तिशाली ‘मैं’” है, जैसा कि लोग कल्पना करते हैं?

यद्यपि ऐसे लोग हैं, जिन्होंने परमेश्वर द्वारा कहे गए सभी वचन पढ़े है और जो उनकी एक सामान्य रूपरेखा प्रदान कर सकते हैं, लेकिन यह बताने में कौन सक्षम है कि परमेश्वर का अंतिम लक्ष्य क्या है? मानव-जाति में यही कमी है। परमेश्वर चाहे जिस भी दृष्टिकोण से बोले, उसका समग्र उद्देश्य यह है कि लोग देहधारी परमेश्वर को जानें। अगर उसमें कुछ भी मानवता न होती—अगर उसके पास सिर्फ स्वर्ग के परमेश्वर के गुण ही होते—तो परमेश्वर को इतना कुछ कहने की कोई आवश्यकता न होती। कहा जा सकता है कि लोगों में जो कमी है, वह उस प्रत्यक्ष सामग्री के रूप में कार्य करती है, जो परमेश्वर के वचनों से संबंधित है। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य में जो अभिव्यक्त होता है, वही उसकी पृष्ठभूमि है, जो परमेश्वर उसकी धारणाओं के बारे में कहता है, और इस प्रकार, लोग परमेश्वर के कथनों के काम आते हैं। स्वाभाविक रूप से, यह उस पर आधारित है, जो परमेश्वर मनुष्य की धारणाओं के बारे में कहता है—केवल इसी तरह से इसे सिद्धांत और वास्तविकता का संयोजन कहा जा सकता है; केवल तभी लोगों को खुद को जानने के बारे में प्रभावी ढंग से संजीदा किया जा सकता है। अगर देहधारी परमेश्वर लोगों की धारणाओं के अनुरूप होता और अगर परमेश्वर भी अपनी गवाही देता, तो इसका क्या मतलब होता? ठीक इसी कारण से परमेश्वर अपना महान सामर्थ्य विशिष्ट रूप से दर्शाने के लिए लोगों की धारणाओं का उपयोग करते हुए नकारात्मक पक्ष से काम करता है। क्या यह परमेश्वर की बुद्धि नहीं है? परमेश्वर सभी के लिए जो कुछ भी करता है, वह अच्छा है—तो इस समय प्रशंसा क्यों न की जाए? अगर चीजें एक निश्चित बिंदु पर पहुँच गईं, या वह दिन आ गया, तो क्या तुम पतरस की तरह परीक्षणों के बीच अपने दिल की गहराई से प्रार्थना करने में सक्षम होगे? जब तुम, पतरस की तरह, शैतान के हाथों में होते हुए भी परमेश्वर की स्तुति करने में सक्षम होते हो, तो केवल यही “शैतान के बंधन से मुक्त होने, देह पर काबू पाने और शैतान पर विजय पाने” का सही अर्थ होगा। क्या यह परमेश्वर की कहीं अधिक वास्तविक गवाही नहीं है? केवल यही “कार्य करने के लिए दिव्यता के आने और सात गुना तेज आत्मा के मनुष्य में काम करने” से हासिल किया गया परिणाम है, और यही “देह से बाहर आते आत्मा” द्वारा प्राप्त किया गया परिणाम है। क्या ऐसे कार्य वास्तविक नहीं हैं? तुम वास्तविकता पर ध्यान दिया करते थे, लेकिन क्या तुम्हें आज वास्तविकता का सच्चा ज्ञान है? “जो माँगें मैं मनुष्य से करता हूँ, वे किसी भी सूरत में ज्यादा नहीं हैं, फिर भी लोग ऐसा नहीं मानते हैं। इस प्रकार, उनकी ‘नम्रता’ उनके हर कदम से प्रकट होती है। वे हमेशा मेरे आगे चलने को प्रवृत्त होते हैं, मेरी अगुआई करते हुए, बहुत डरते हुए कि कहीं मैं खो न जाऊँ, भयातुर होते हैं कि मैं पहाड़ों के भीतर प्राचीन जंगलों में कहीं भटक जाऊँगा। नतीजतन, लोग हमेशा मेरी अगुआई करते रहते हैं, बहुत भयभीत रहते हैं कि मैं कालकोठरी में चला जाऊँगा।” इन सरल वचनों के बारे में तुम लोगों को क्या ज्ञान है—क्या तुम वास्तव में इनमें निहित परमेश्वर के वचनों का मूल समझ सकते हो? क्या तुम लोगों ने ध्यान दिया है कि तुम लोगों की किन धारणाओं के बारे में परमेश्वर ने इस तरह के वचन कहे हैं? क्या तुम हर दिन इस महत्वपूर्ण बिंदु पर ध्यान देते हो? इसके शीघ्र बाद आने वाले अगले भाग के एक वाक्य में परमेश्वर कहता है, “फिर भी लोग मेरी इच्छा से अनजान हैं और मुझसे चीजों के लिए प्रार्थना करते रहते हैं, जैसे कि मेरे द्वारा उनको जो दिया गया है, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ हो, मानो माँग आपूर्ति से अधिक हो।” इस वाक्य में देखा जा सकता है कि तुम लोगों के भीतर क्या धारणाएँ हैं। तुम लोगों ने बीते समय में जो कुछ किया, परमेश्वर उसे याद नहीं रखता या उसकी तहकीकात नहीं करता, इसलिए अतीत के मामलों के बारे में और मत सोचो। अधिक महत्वपूर्ण यह है कि क्या तुम भविष्य के मार्ग में “अंतिम युग में पतरस की भावना” पैदा करने में सक्षम हो—क्या तुममें इसे प्राप्त करने की आस्था है? परमेश्वर मनुष्य से जो चाहता है, वह पतरस के अनुकरण से ज्यादा कुछ नहीं है, कि अंततः लोग बड़े लाल अजगर को लज्जित करने के लिए कोई मार्ग बना सकें। इसी कारण से परमेश्वर कहता है, “मैं यही आशा करता हूँ कि लोगों में मेरे साथ सहयोग करने का संकल्प हो। मैं नहीं कहता कि वे मुझे उत्तम भोजन बनाकर दें, या मेरे लिए सिर टिकाने की उपयुक्त जगह की व्यवस्था करें...।” दुनिया में लोगों को 1990 के दशक की “ली फेंग की भावना” लाने को कहा जाता है, लेकिन परमेश्वर के घर में, परमेश्वर चाहता है कि तुम लोग “पतरस की अद्वितीय शैली” रचो। क्या तुम परमेश्वर की इच्छा समझते हो? क्या तुम वास्तव में इसके लिए प्रयास करने में सक्षम हो?

“मैं ब्रह्मांडों के ऊपर विहार करता हूँ, और ज्यों-ज्यों मैं चलता हूँ, मैं पूरे ब्रह्मांड के लोगों को देखता हूँ। धरती पर लोगों की भीड़ में कभी कोई ऐसा नहीं रहा, जो मेरे कार्य के लिए उपयुक्त हो या जो मुझसे वास्तव में प्यार करता हो। इसलिए, इस समय मैं निराशा में आहें भरता हूँ, और लोग तुरंत तितर-बितर हो जाते हैं, फिर इकट्ठे नहीं होते, बुरी तरह से भयभीत रहते हैं कि मैं उन्हें ‘एक ही जाल में पकड़ लूँगा’।” ज्यादातर लोगों को शायद इन वचनों को समझना बहुत मुश्किल लगता है। वे पूछते हैं कि क्यों परमेश्वर मनुष्य से ज्यादा कुछ नहीं चाहता, फिर भी वह निराशा में आहें भरता है कि उसके कार्य के लिए कोई भी उपयुक्त नहीं है। क्या यहाँ कोई विरोधाभास है? शाब्दिक रूप से कहूँ तो, हाँ, है, लेकिन वास्तव में कोई विरोधाभास नहीं है। शायद तुम अभी भी याद कर सकते हो कि परमेश्वर ने कहा था, “मेरे सारे वचनों का वह प्रभाव होगा जो मैं चाहता हूँ।” जब परमेश्वर देह में कार्य करता है, तो लोग उसके प्रत्येक कार्य पर नजर रखते हैं कि वह असल में क्या करने वाला है। जब परमेश्वर आध्यात्मिक क्षेत्र में शैतान को लक्षित करते हुए अपना नया कार्य करता है, तो दूसरे शब्दों में, देहधारी परमेश्वर की वजह से पृथ्वी पर लोगों के बीच सभी तरह की धारणाएँ उत्पन्न होती हैं। जब परमेश्वर निराशा में आहें भरता है—अर्थात्, जब वह मनुष्यों की सभी धारणाओं के बारे में बोलता है, तो लोग उनसे निपटने की पूरी कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि ऐसे लोग भी होते हैं, जो मानते हैं कि उनके लिए कोई उम्मीद नहीं, क्योंकि परमेश्वर कहता है कि जिन भी लोगों में उसके बारे में धारणाएँ हैं, वे सब उसके शत्रु हैं—और इस वजह से लोग कैसे न “तितर-बितर” हों? विशेष रूप से आज, जबकि ताड़ना आ चुकी है, लोग और ज्यादा भयभीत हैं कि परमेश्वर उन्हें मिटा देगा। वे मानते हैं कि उन्हें ताड़ना देने के बाद परमेश्वर “उन सबको एक ही जाल में पकड़ लेगा”। लेकिन तथ्य इस प्रकार नहीं हैं : जैसा कि परमेश्वर कहता है, “मैं अपनी ताड़ना के बीच लोगों को ‘रोकना’ नहीं चाहता कि वे कभी भाग न जाएँ। चूँकि मेरे प्रबंधन में मनुष्य के कर्मों की कमी है, इसलिए मेरे कार्य को सफलतापूर्वक पूरा करना संभव नहीं है, यह मेरे कार्य को प्रभावी ढंग से आगे बढ़ने से रोकता है।” परमेश्वर की इच्छा यह नहीं है कि सभी लोगों को मौत के घाट उतार दिए जाने के साथ उसका कार्य पूरा हो—इसका क्या मतलब होगा? लोगों में कार्य करके और उन्हें ताड़ना देकर परमेश्वर उनके माध्यम से अपने कर्म स्पष्ट करता है। चूँकि लोगों ने कभी नहीं समझा कि परमेश्वर के वचनों के लहजे में पहले से ही ताड़ना है, इसलिए अपनी चेतना में उनका कभी कोई प्रवेश नहीं हुआ है। लोग अपना संकल्प व्यक्त करने में असमर्थ हैं, और इस प्रकार परमेश्वर शैतान के सामने कुछ नहीं कह सकता, और यह परमेश्वर के काम को आगे बढ़ने से रोकता है। इसलिए परमेश्वर कहता है, “एक बार मैंने मनुष्य को अपने घर में अतिथि के रूप में आमंत्रित किया, फिर भी वह मेरी पुकार सुनकर यहाँ-वहाँ भागता-फिरता रहा—मानो उसे अतिथि के तौर पर आमंत्रित करने के बजाय, मैं उसे फाँसी-स्थल पर ले आया था। इस प्रकार, मेरा घर खाली रह गया, क्योंकि मनुष्य हमेशा मुझसे बचता था और मेरे प्रति चौकन्ना रहता था। इसकी वजह से मेरे पास अपने कार्य के हिस्से को पूरा करने का कोई साधन नहीं बचा।” यह अपने काम में मनुष्य की गलतियों के कारण है कि परमेश्वर स्पष्ट रूप से मनुष्य से अपनी अपेक्षाएँ सामने रखता है। और चूँकि लोग कार्य का यह कदम पूरा करने में नाकाम रहते हैं, इसीलिए परमेश्वर अधिक कथन जोड़ता है—यह ठीक वही “मनुष्य पर किए गए कार्य का दूसरा हिस्सा” है, जिसके बारे में परमेश्वर बोलता है। लेकिन मैं “उन सभी को एक ही जाल में पकड़ने” के बारे में विस्तार से बात नहीं करूँगा, जिसके बारे में परमेश्वर बोलता है, क्योंकि आज के कार्य से इसका ज़्यादा सरोकार नहीं है। स्वाभाविक रूप से, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन” में शामिल उसके कई वचन मनुष्य से संबंधित हैं—लेकिन लोगों को परमेश्वर की इच्छा समझनी चाहिए; चाहे वह कुछ भी कहता हो, उसके इरादे हमेशा अच्छे होते हैं। कहा जा सकता है कि चूँकि जिन साधनों के द्वारा परमेश्वर बोलता है, वे बहुत सारे हैं, इसलिए लोग परमेश्वर के वचनों के बारे में शत-प्रतिशत निश्चित नहीं हैं, और वे मानते हैं कि परमेश्वर के अधिकांश वचन उसके कार्य की जरूरतों के कारण कहे गए हैं, और उनमें ऐसा बहुत कम है, जो वास्तविक हो। यह बात उन्हें अपने ही विचारों से व्याकुल और बोझिल बना देती है—क्योंकि उनकी धारणाओं में परमेश्वर बहुत बुद्धिमान है, और इसलिए वह पूरी तरह से उनकी पहुँच से परे है, ऐसा लगता है जैसे वे कुछ नहीं जानते, और उन्हें नहीं पता कि परमेश्वर के वचनों को कैसे खाया जाए। लोग परमेश्वर के वचनों को अमूर्त और जटिल बना देते हैं—जैसा कि परमेश्वर कहता है, “लोग हमेशा मेरे कथनों में कुछ मसाला डालना चाहते हैं।” चूँकि उनके विचार बहुत जटिल और परमेश्वर द्वारा “मुश्किल से प्राप्य” हैं, इसलिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश मनुष्य द्वारा निरुद्ध है, जिससे परमेश्वर के पास बेबाक तरीके से बोलने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह जाता। चूँकि लोगों की माँगें “बहुत ऊँची” हैं और चूँकि उनकी कल्पना बहुत उर्वर है—मानो वे शैतान के कर्म देखने के लिए आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करने में सक्षम हों—इस बात ने परमेश्वर के वचनों को कम कर दिया है, क्योंकि परमेश्वर जितना अधिक कहता है, लोगों के चेहरे उतने ही अधिक उदास हो जाते हैं। क्यों वे अपने अंत पर विचार करने के बजाय बस आज्ञापालन नहीं कर सकते? इससे क्या लाभ है?

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