185 परमेश्वर मनुष्य को किस तरह देखता है
1 जब प्रभु यीशु ने लोगों की पापमय ज़िंदगी का अनुभव कर लिया और उसे देख लिया, तो उसके हृदय में एक प्रबल इच्छा प्रकट हुई—मनुष्यों को उनकी पाप में संघर्ष करती ज़िंदगी से छुटकारा दिलाने की। इस इच्छा ने उसे अधिकाधिक यह महसूस करवाया कि उसे यथाशीघ्र सूली पर चढ़ना चाहिए और मानवजाति के पाप अपने ऊपर ले लेने चाहिए। लोगों के साथ रहने और उनके पापमय जीवन की दुर्गति देखने, सुनने और महसूस करने के बाद उस समय प्रभु यीशु के ये विचार थे।
2 देहधारी परमेश्वर द्वारा मानवजाति के लिए इस प्रकार की इच्छा करना, उसके द्वारा इस प्रकार का स्वभाव व्यक्त और प्रकट करना—क्या यह कोई औसत व्यक्ति कर सकता है? यद्यपि देहधारी परमेश्वर का बाहरी रूप-रंग ठीक मनुष्य के समान है, और यद्यपि वह मानवीय ज्ञान सीखता है और मानवीय भाषा बोलता है, और कभी-कभी अपने विचार मनुष्य की पद्धतियों या बोलने के तरीकों से भी व्यक्त करता है, फिर भी, जिस तरीके से वह मनुष्यों को और चीज़ों के सार को देखता है, वह भ्रष्ट लोगों द्वारा मनुष्यों को और चीज़ों के सार को देखने के तरीके के समान बिलकुल नहीं है। उसका परिप्रेक्ष्य और वह ऊँचाई, जिस पर वह खड़ा है, किसी भ्रष्ट व्यक्ति के द्वारा अप्राप्य है।
3 ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर सत्य है, क्योंकि उसके द्वारा धारित देह में भी परमेश्वर का सार है, और उसके विचार तथा जो कुछ उसकी मानवता के द्वारा प्रकट किया जाता है, वे भी सत्य हैं। देहधारी परमेश्वर का देह कितना ही साधारण, कितना ही सामान्य, कितना ही निम्न क्यों न हो, या लोग उसे कितनी ही नीची निगाह से क्यों न देखते हों, मानवजाति के प्रति उसके विचार और उसका रवैया ऐसी चीज़ें है, जो किसी भी मनुष्य में नहीं हैं, जिनका कोई मनुष्य अनुकरण नहीं कर सकता। वह मानवजाति का अवलोकन हमेशा दिव्यता के परिप्रेक्ष्य से, सृजनकर्ता के रूप में अपनी स्थिति की ऊँचाई से करेगा। वह मानवजाति को हमेशा परमेश्वर के सार और मानसिकता से देखेगा। वह मानवजाति को एक औसत व्यक्ति की निम्न ऊँचाई से, या एक भ्रष्ट व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से बिलकुल नहीं देख सकता।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III' से रूपांतरित