185 परमेश्वर मनुष्य को किस तरह देखता है
1
यीशु ने जब देखी, इंसान की पापमय ज़िंदगी,
उसके दिल में लोगों को उनके संघर्ष से
मुक्त कराने की प्रबल इच्छा जगी।
उसे जल्द ही क्रूस पर उनके पाप सहने होंगे।
यीशु के विचार ऐसे थे इंसानों के बीच रहने,
पाप में जीने का उनका दुख महसूस करने के बाद।
देहधारी ईश्वर का इंसान के लिए ऐसी इच्छा रखना—
क्या यह किसी आम इंसान का स्वभाव है?
वो मानवजाति को हमेशा
सृष्टिकर्ता के पद की ऊँचाई से दिव्य आँखों से देखे।
वो मानवजाति को भ्रष्ट, औसत लोगों की नज़रों से नहीं,
ईश्वर के सार और मन से देखे।
2
ऊपर से तो ईश्वर इंसान का रूप धरे,
उसका ज्ञान और उसकी भाषा सीखे,
अपने विचार व्यक्त करने को
उसके तरीके इस्तेमाल करे,
पर वो इंसान को ऐसे देखे जैसे इंसान न देख सके।
ईश्वर चीज़ों के सार को जैसे देखे
वो भ्रष्ट इंसान के देखने के तरीके से बिल्कुल अलग है।
उसका नज़रिया, जिस ऊंचाई पर खड़ा है वो
कोई भी भ्रष्ट इंसान उसे कभी न पा सके।
वो मानवजाति को हमेशा
सृष्टिकर्ता के पद की ऊँचाई से दिव्य आँखों से देखे।
वो मानवजाति को भ्रष्ट, औसत लोगों की नज़रों से नहीं,
ईश्वर के सार और मन से देखे।
3
चूंकि स्वयं ईश्वर सत्य है,
उसके देह में भी ईश-सार है,
इंसान के रूप में उसके विचार
और अभिव्यक्तियाँ सत्य हैं।
उसका देह कितना भी निम्न हो,
लोग उससे अवमानना से पेश आएँ,
इंसान के प्रति उसके रवैये और विचार की
कोई नकल न कर सके, उन्हें धारण न कर सके।
वो मानवजाति को हमेशा
सृष्टिकर्ता के पद की ऊँचाई से दिव्य आँखों से देखे।
वो मानवजाति को भ्रष्ट, औसत लोगों की नज़रों से नहीं,
ईश्वर के सार और मन से देखे।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III से रूपांतरित