298 कौन समझता है परमेश्वर की व्यथा?
I
क्या तुम्हारे दिल में है परमेश्वर?
क्या तुमने कभी सोचा क्या है उसकी इच्छा, इन्सान से वो क्या है चाहता?
परमेश्वर ने दर्द और अपमान सहा, उसको कोई नहीं समझता।
इन्सान का दिल है स्वार्थी, दुष्ट और कपट से भरा।
II
कौन परमेश्वर को आराम दे सकता? कौन समझ सकता है उसकी व्यथा?
साल दर साल, दिन-ब-दिन परमेश्वर ऊब गया है इन्सान की दुष्टता से।
परमेश्वर में विश्वास तो है, पर सत्य ढूंढते नहीं,
परमेश्वर के दिल को हम समझेंगे कैसे?
ढीठाई से खोजते हैं, शोहरत और फायदा,
हम परमेश्वर की ख़ुशी और गम की परवाह कर सकते हैं कैसे?
परमेश्वर को कौन समझ सकता है? कौन समझ सकता है?
किसने उसके बारे में कभी सोचा है? कभी सोचा है?
कौन उसे आराम पहुंचा सकता है?
तुम्हारा दिल है कहाँ? है कहाँ?
क्यों आखिर क्यों करते हो परमेश्वर की उपेक्षा?
जब तक जागोगे तुम, परमेश्वर तो जा चुका होगा, होगा।
दे दो परमेश्वर को पूरा दिल अपना। अर्पित करो प्रेम सच्चा।
अकेला है परमेश्वर, जो करते हैं उससे सच्चा प्यार, इंतज़ार करता है उनका।