सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3)

इन दिनों कर्तव्य निभाने वाले लोग अधिकाधिक व्यस्त होते जा रहे हैं। उन्हें लगता है कि समय बहुत तेजी से बीत रहा है, कि वह पर्याप्त नहीं है। ऐसा क्यों है? वस्तुतः ऐसा इसलिए है कि वे अब सत्य को समझते हैं और कई मामलों में अंतर्दृष्टि रखते हैं। जिम्मेदारी की भावना उन्हें अधिकाधिक चिंतित कर रही है, और वे अपने कर्तव्य और अधिक परिश्रमपूर्वक निभा रहे हैं, और अधिक विस्तृत कार्य कर रहे हैं। इसलिए, उन्हें लगता है कि उन्हें अधिकाधिक कर्तव्य निभाने चाहिए। इसीलिए वे अपने कर्तव्यों में अधिकाधिक व्यस्त होते जा रहे हैं। इसके अलावा, कर्तव्य निभाने वाले ज्यादातर लोगों को रोज परमेश्वर के वचन पढ़ने होते हैं और सत्य के बारे में संगति करनी होती है। उन्हें आत्मचिंतन करना होता है, और जब कोई समस्या आती है तो उसे हल करने के लिए सत्य खोजना पड़ता है। उन्हें कुछ पेशेवर कौशल भी सीखने होते हैं। उन्हें हमेशा लगता है कि समय पर्याप्त नहीं है और हर दिन बहुत तेजी से बीत जाता है। रात में, वे उस बारे में गौर से सोचते हैं जो उन्होंने उस दिन किया था, और उन्हें ऐसा लगता है कि उन्होंने जो किया उसका कोई विशेष मूल्य नहीं है, उसका कोई बड़ा नतीजा नहीं निकला। वे खुद को बहुत छोटे आध्यात्मिक कद के और हीन महसूस करते हैं और अपना आध्यात्मिक कद तेजी से बढ़ाने के लिए उत्सुक रहते हैं। उनमें से कुछ कहते हैं, “इस काम से कब फुरसत मिलेगी? मैं कब अपना हृदय शांत कर परमेश्वर के वचन ठीक से पढ़ पाऊँगा, और खुद को ठीक से सत्य से सुसज्जित कर पाऊँगा? हफ्ते में एक-दो सभाओं से मुझे जो हासिल होता है, उसकी एक सीमा है। हमें सभाओं में ज्यादा जाना चाहिए और ज्यादा प्रवचन सुनने चाहिए—सत्य समझने का यही एकमात्र तरीका है।” इसलिए वे प्रतीक्षा करते और तरसते हैं, और पलक झपकते ही तीन, चार, पाँच साल बीत जाते हैं, तो उन्हें लगता है कि समय बहुत तेजी से बीत जाता है। कुछ लोग दस साल के विश्वास के बाद भी कुछ खास अनुभवात्मक गवाही नहीं दे पाते। वे बेचैन हो जाते हैं, डरते हैं कि उन्हें छोड़ दिया जाएगा, और जल्दी से खुद को और अधिक सत्य से लैस करना चाहते हैं। यही कारण है कि उन्हें समय का दबाव महसूस होता है। ऐसे सोचने वाले बहुत हैं। कर्तव्य निभाने का दायित्व उठाने वाले और सत्य का अनुसरण करने वाले सभी लोग महसूस करते हैं कि समय बहुत जल्दी बीत जाता है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, जो ऐशो-आराम के लिए ललचाते हैं, उन्हें नहीं लगता कि समय तेजी से भाग रहा है; उनमें से कुछ तो शिकायत भी करते हैं, “परमेश्वर का दिन कब आएगा? हमेशा यही कहा जाता है कि उसका कार्य अंत के करीब है—तो यह अभी तक खत्म क्यों नहीं हुआ? परमेश्वर का कार्य पूरे ब्रह्मांड में कब फैलेगा?” जो लोग ऐसी बातें कहते हैं, उन्हें लगता है कि समय बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। दिल से उन्हें सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं है; वे हमेशा दुनिया में वापस जाकर अपना तुच्छ जीवन जीना चाहते हैं। उनकी यह दशा स्पष्ट रूप से उन लोगों से भिन्न होती है, जो सत्य का अनुसरण करते हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले लोग अपने कर्तव्यों में चाहे जितने व्यस्त रहें, फिर भी वे खुद पर पड़ने वाली समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोज सकते हैं, और उन चीजों के बारे में संगति की माँग कर सकते हैं जो उनके द्वारा सुने गए प्रवचनों में उन्हें स्पष्ट नहीं होतीं, और रोज शांतचित्त होकर यह चिंतन कर सकते हैं कि उन्होंने कैसा प्रदर्शन किया, फिर परमेश्वर के वचनों पर विचार कर अनुभवात्मक गवाही के वीडियो देख सकते हैं। इससे उन्हें लाभ होता है। अपने कर्तव्यों में वे चाहे जितने व्यस्त रहें, इससे उनके जीवन-प्रवेश में कोई बाधा नहीं आती, न ही उसमें देरी होती है। सत्य से प्रेम करने वाले लोगों के लिए इस तरह अभ्यास करना स्वाभाविक है। सत्य से प्रेम न करने वाले लोग अपने कर्तव्य में चाहे व्यस्त हों या न हों और उन पर चाहे जो समस्या आन पड़े, वे सत्य नहीं खोजते और आत्मचिंतन करने और खुद को जानने के लिए परमेश्वर के सामने खुद को शांत करने के लिए तैयार नहीं होते। इसलिए, वे चाहे अपने कर्तव्य में व्यस्त हों या फुरसत में हों, वे सत्य का अनुसरण नहीं करते। तथ्य यह है कि अगर व्यक्ति के पास सत्य की खोज करने वाला दिल है, और वह सत्य की लालसा रखता है और जीवन-प्रवेश और स्वभावगत बदलाव का दायित्व उठाता है, तो वह दिल से परमेश्वर के करीब आएगा और उससे प्रार्थना करेगा, फिर चाहे वह अपने कर्तव्य में कितना भी व्यस्त क्यों न हो। वह निश्चित रूप से पवित्र आत्मा की कुछ प्रबुद्धता और प्रतिभा प्राप्त करेगा, और उसका जीवन लगातार बढ़ेगा। अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता और जीवन-प्रवेश या स्वभावगत बदलाव का कोई दायित्व नहीं उठाता, या अगर उसे इन चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं है, तो वह कुछ भी हासिल नहीं कर सकता। व्यक्ति में भ्रष्टता के जो उद्गार हैं, उन पर चिंतन करना कहीं भी, किसी भी समय किया जाने वाला काम है। उदाहरण के लिए, अगर किसी ने अपना कर्तव्य निभाते समय भ्रष्टता दिखाई है, तो अपने दिल में उसे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, और आत्मचिंतन कर अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना चाहिए, और उसे हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। यह दिल का मामला है; इसका मौजूदा कार्य से कोई संबंध नहीं है। क्या यह करना आसान है? यह इस पर निर्भर करता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो या नहीं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, उन्हें जीवन में विकास के मामलों में कोई दिलचस्पी नहीं होती। वे ऐसी चीजों पर विचार नहीं करते। केवल सत्य का अनुसरण करने वाले लोग ही जीवन में विकास के लिए कठिन परिश्रम करने के इच्छुक होते हैं; केवल वे ही अक्सर उन समस्याओं पर विचार करते हैं जो वास्तव में मौजूद होती हैं, और इस पर भी कि उन समस्याएँ को हल करने के लिए सत्य कैसे खोजें। असल में, समस्याएँ हल करने की प्रक्रिया और सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया एक ही चीज है। अगर व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाते समय समस्याएँ हल करने के लिए सत्य की खोज पर लगातार ध्यान केंद्रित करता है, और इस तरह कई वर्षों के अभ्यास में उसने काफी समस्याओं का समाधान किया है, तो उसके कर्तव्य का प्रदर्शन निश्चित रूप से मानक के अनुरूप है। ऐसे लोगों में भ्रष्टता का उद्गार बहुत कम होता है, और उन्हें अपने कर्तव्य निभाने में बहुत सच्चा अनुभव प्राप्त होता है। इस तरह वे परमेश्वर के लिए गवाही देने के योग्य होते हैं। ऐसे लोग पहली बार अपना कर्तव्य सँभालने से शुरू करके परमेश्वर के लिए गवाही देने में सक्षम होने तक के अनुभव से कैसे गुजरते हैं? वे समस्याओं के समाधान के लिए सत्य खोजने पर भरोसा करके ऐसा करते हैं। इसीलिए सत्य का अनुसरण करने वाले लोग अपने कर्तव्यों में चाहे कितने ही व्यस्त क्यों न हों, वे समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजेंगे और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने में सफल होंगे, और वे सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में सक्षम होंगे। यह जीवन-प्रवेश की प्रक्रिया है, और यह सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने की भी प्रक्रिया है। कुछ लोग हमेशा कहते रहते हैं कि वे अपने कर्तव्यों में इतने व्यस्त रहते हैं कि उनके पास सत्य का अनुसरण करने का समय ही नहीं होता। यह मान्य नहीं है। सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति चाहे जो भी कार्य कर रहा हो, जैसे ही उसे किसी समस्या का पता चलता है, वह उसे हल करने के लिए सत्य खोजेगा और सत्य समझकर उसे प्राप्त करेगा। यह निश्चित है। कई लोग हैं, जो सोचते हैं कि सत्य केवल प्रतिदिन सभाओं में जाने से ही समझा जा सकता है। इससे ज्यादा गलत कुछ नहीं हो सकता। सत्य ऐसी चीज नहीं है, जिसे केवल सभाओं में जाकर प्रवचन सुनने से समझा जा सके; व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने की भी आवश्यकता है, और उसे समस्याएँ खोजकर उनका समाधान करने की प्रक्रिया की भी आवश्यकता है। अहम यह है कि उन्हें सत्य खोजना सीखना चाहिए। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे उसे नहीं खोजते, चाहे उन पर कितनी भी समस्याएँ क्यों न आएँ; सत्य के प्रेमी उसे खोजते हैं, चाहे वे अपने कर्तव्यों में कितने भी व्यस्त क्यों न हों। इसलिए, हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि जो लोग हमेशा शिकायत करते रहते हैं कि वे अपने कर्तव्यों में इतने व्यस्त रहते हैं कि उनके पास सभाओं में जाने का समय नहीं है, इसलिए परिणामस्वरूप उन्हें सत्य का अनुसरण छोड़ना पड़ता है, वे सत्य के प्रेमी नहीं हैं। वे बेतुकी समझ वाले लोग हैं, जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है। जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं या प्रवचन सुनते हैं, तो वे अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन में उनका अभ्यास या क्रियान्वयन क्यों नहीं कर सकते? परमेश्वर के वचनों को वे अपने वास्तविक जीवन में क्रियान्वित क्यों नहीं कर सकते? यह ये दिखाने के लिए पर्याप्त है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, इसलिए अपने कर्तव्य निभाने में उन्हें चाहे जो भी कठिनाई आए, वे सत्य नहीं खोजते या उसका अभ्यास नहीं करते। स्पष्ट रूप से ये लोग मजदूर हैं। हो सकता है, कुछ लोग सत्य का अनुसरण करना चाहते हों, पर उनकी क्षमता बहुत खराब है। वे अपना जीवन भी अच्छी तरह व्यवस्थित नहीं कर पाते; जब उनके पास दो-तीन चीजें करने के लिए होती हैं, तो वे नहीं जानते कि कौन-सी चीज पहले करनी है और कौन-सी आखिर में। अगर उन पर दो-तीन समस्याएँ आ पड़ती हैं, तो उन्हें समझ नहीं आता कि उन्हें कैसे हल किया जाए। उनका सिर घूम जाता है। क्या ऐसे लोग सत्य तक पहुँच प्राप्त कर सकते हैं? क्या वे समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजने में सफल हो सकते हैं? जरूरी नहीं, क्योंकि उनकी क्षमता बहुत खराब है। बहुत-से लोग सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक हैं, फिर भी, दस-बीस वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बावजूद वे कोई अनुभवात्मक गवाही नहीं दे पाते, और उन्हें बिल्कुल भी सत्य प्राप्त नहीं हुआ होता। इसका मुख्य कारण यह है कि उनकी क्षमता बहुत खराब है। कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं, इसका संबंध इस बात से नहीं है कि वह अपने कर्तव्य में कितना व्यस्त है या उसके पास कितना समय है; यह इस पर निर्भर करता है कि वह हृदय से सत्य से प्रेम करता है या नहीं। सच तो यह है कि सभी के पास समय की प्रचुरता समान होती है; अलग बात यह है कि हर व्यक्ति उसे खर्च कहाँ करता है। यह संभव है कि जो व्यक्ति कहता है कि उसके पास सत्य का अनुसरण करने के लिए समय नहीं है, वह अपना समय दैहिक सुखों पर खर्च कर रहा हो, या वह किसी बाहरी उद्यम में व्यस्त हो। वह उस समय को समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजने में खर्च नहीं करता। अपने अनुसरण में लापरवाही बरतने वाले लोग ऐसे ही होते हैं। इससे उनके जीवन-प्रवेश के बड़े मामले में देरी होती है।

अपनी पिछली दो सभाओं में हमने “सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है” विषय पर और साथ ही उस विषय की कुछ विशिष्ट बातों पर संगति की। आओ, उससे शुरुआत करते हैं, जिस पर हमने अपनी पिछली सभा में संगति की थी। हमने “सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है” की एक सटीक परिभाषा स्थापित की, फिर कुछ विशिष्ट समस्याओं और लोगों के व्यवहार के विशिष्ट तरीकों के बारे में संगति की, जो सत्य का अनुसरण करने के अर्थ में शामिल हैं। पिछली सभा में हमारी संगति का आखिरी विषय क्या था? (परमेश्वर ने एक प्रश्न रखा : यह देखते हुए कि मनुष्य जिसे अच्छा और सही मानता है वह सत्य नहीं है, फिर भी वह उसका इस तरह अनुसरण क्यों करता है मानो वह सत्य हो?) यह देखते हुए कि जिन चीजों को मनुष्य अच्छा और सही मानता है वे सत्य नहीं हैं, वह फिर भी यह समझते हुए कि वह सत्य का अनुसरण कर रहा है, उन्हें इस तरह क्यों कायम रखता है मानो वे सत्य हों? पिछली बार हमने तीन चीजों पर संगति की थी, जो इस प्रश्न का समाधान करती हैं। पहली : जिन चीजों का मनुष्य अनुसरण करता है वे सत्य नहीं हैं, तो वह फिर भी उनका अभ्यास इस तरह क्यों करता है मानो वे सत्य हों? चूँकि मनुष्य को सही और अच्छी लगने वाली चीजें ऐसी लगती हैं मानो वे सत्य हों, इसलिए मनुष्य उन चीजों का, जिन्हें वह अच्छा और सही समझता है, इस तरह अनुसरण करता है मानो वे सत्य हों। क्या यह इसे व्यक्त करने का एक स्पष्ट तरीका नहीं है? (है।) तो, इस प्रश्न का सटीक उत्तर क्या है? लोग जिन चीजों को सही और अच्छा समझते हैं, उन्हें कायम रखते हैं मानो वे सत्य हों, और ऐसा करते हुए वे समझते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं। क्या यह पूरा उत्तर नहीं है? (है।) दूसरी : मनुष्य उन चीजों को, जिन्हें वह अच्छा और सही समझता है, इस तरह कायम रखते हुए मानो वे सत्य हों, यह क्यों समझता है कि वह सत्य का अनुसरण कर रहा है? इसका उत्तर इस तरह दिया जा सकता है : क्योंकि मनुष्य को धन्य होने की इच्छा है। मनुष्य उन चीजों का, जिन्हें वह अच्छा और सही समझता है, इच्छा और महत्वाकांक्षा के साथ अनुसरण करता रहता है, और इस तरह समझता है कि वह सत्य का अभ्यास और अनुसरण कर रहा है। सार में, यह परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश है। तीसरी : अगर व्यक्ति में सामान्य जमीर और विवेक है, तो उन मामलों में, जिनमें वे सत्य नहीं समझते, वे सहज रूप से विनियमों, कानूनों, नियमों आदि का पालन करते हुए अपने जमीर और विवेक के अनुसार कार्य करना चुनेंगे। हम कह सकते हैं कि मनुष्य सहज रूप से उन चीजों को कायम रखता है, जिन्हें वह अपने जमीर में सकारात्मक, रचनात्मक और मानवता के अनुरूप मानता है, मानो वे सत्य हों। इसे मनुष्य के जमीर और विवेक के मापदंडों के भीतर हासिल किया जा सकता है। बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर के घर में सामान्य रूप से कड़ी मेहनत कर सकते हैं; वे मजदूरी करने और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार रहते हैं, क्योंकि उनमें सामान्य जमीर और विवेक होता है। आशीष प्राप्त करने के लिए वे कष्ट भी उठाएँगे और कोई कीमत भी चुकाएँगे। इसलिए, मनुष्य अपने जमीर और विवेक के मापदंडों के भीतर जो कुछ भी करने में सक्षम होता है, उसे भी सत्य का अभ्यास और अनुसरण मानता है। उस प्रश्न के उत्तर के ये तीन मुख्य हिस्से हैं। पिछली बार हमने इन तीन हिस्सों के बारे में सामान्य तरीके से संगति की थी; आज हम इन तीन बिंदुओं द्वारा अपने पीछे छोड़ी जाने वाली समस्याओं के बारे में विशिष्ट, विस्तृत संगति करेंगे, और प्रत्येक बिंदु द्वारा अपरिहार्य बनाई जाने वाली समस्याओं का गहन-विश्लेषण करेंगे, और साथ ही इस बात का भी कि प्रत्येक तत्त्व सत्य की खोज से कैसे भिन्न है या उसके विपरीत है, ताकि तुम ज्यादा स्पष्ट रूप से जान सको कि सत्य का अनुसरण करना क्या है और वास्तव में, उस अनुसरण का अभ्यास कैसे किया जाना है। ऐसा करना लोगों के लिए अपने दैनिक जीवन में सत्य का सटीक रूप से अभ्यास और अनुसरण करने के लिए एक बेहतर प्रोत्साहन के रूप में कार्य करेगा।

हम संगति की शुरुआत पहले विषय से करेंगे। सीधे शब्दों में कहें तो, पहले विषय के रूप में हमारी संगति उन चीजों पर ध्यान केंद्रित करेगी जिन्हें मनुष्य अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानता है। हमारी संगति को इस विषयवस्तु पर ध्यान केंद्रित क्यों करना चाहिए? यह विषयवस्तु किन समस्याओं के बारे में है? पहले इस पर विस्तार से विचार करो। अगर हम सभाओं में इसके बारे में ठीक से संगति न करें, तो क्या तुम इनका सटीक ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होगे? अगर इसके बारे में हमने कोई विशेष संगति न की, और तुम लोग सिर्फ अपने चिंतन के अनुसार चले, या अगर तुमने इसे अनुभव करने और जानने में समय बिताया, तो क्या तब तुम जान पाओगे कि यह विषयवस्तु किन सत्यों के बारे में बात करती है? क्या तुम चिंतन से उनका पता लगा पाओगे? (नहीं।) हम “चीजें जिन्हें मनुष्य अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानता है” वाक्यांश के शब्दों पर विचार करने से शुरुआत करेंगे और देखेंगे कि इसके बारे में तुम लोगों का ज्ञान कहाँ तक जाता है। पहले, इस वाक्यांश का अहम भाग, जिसके बारे में हम संगति करने जा रहे हैं, क्या कहता है? क्या तुम लोग नहीं बता सकते? क्या यह एक गूढ़ वाक्यांश है? क्या इसमें कोई रहस्य है? (यह मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं पर विचार करता है।) यह तो मोटी बात हो गई; कोई उदाहरण दो। (मनुष्य अपनी धारणाओं में विश्वास करता है कि अगर वह त्याग कर सकता है, खुद को खपा सकता है, पीड़ा सह सकता है और कीमत चुका सकता है, तो वह परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करने में सक्षम होगा। कुछ परंपरागत संस्कृति की बातें भी हैं—संतानोचित निष्ठा और महिलाओं द्वारा अपने पति की देखभाल और अपने बच्चों का पालन-पोषण करने जैसी चीजें। लोग इन्हें भी अच्छी चीजें मानते हैं।) तुम्हें कुछ उदाहरण मिल गए हैं। क्या तुम लोगों ने बात समझ ली है? इनमें से कौन-से हिस्से हमारे विषय को छूते हैं? (त्याग, खपना, कष्ट सहना और कीमत चुकाना।) (संतानोचित निष्ठा और महिलाओं द्वारा अपने पति की देखभाल और अपने बच्चों का पालन-पोषण करना।) हाँ। क्या और भी हैं? (फरीसियों की तरह धर्मपरायणता, धैर्य और सहनशीलता का प्रदर्शन।) विनम्रता, धैर्य, सहनशीलता—इसका संबंध कुछ विशिष्ट, व्यवहारगत प्रदर्शनों और कहावतों से है। चूँकि हम ऐसी विषयवस्तु के बारे में संगति करने जा रहे हैं, इसलिए हमें विशिष्ट कहावतों का उपयोग करते हुए विशिष्ट रूप से संगति करनी चाहिए। अगर हम प्रश्न पर इस तरह ध्यान केंद्रित करें, तो लोग ज्यादा सही और सटीक समझ प्राप्त कर सकते हैं। अभी तक तुम लोग कोई उदाहरण नहीं दे पाए, इसलिए मैं बस आगे बढ़कर संगति करता हूँ, ठीक है? (बिल्कुल।) चीन की पाँच हजार साल की संस्कृति “विशाल और गहन” है, जो तमाम लोकप्रिय कहावतों और मुहावरों से भरी है। उसमें कई प्रशंसित “प्राचीन संत” भी हैं, जैसे कन्फ्यूशियस, मेंसियस, इत्यादि। उन्होंने कन्फ्यूशीवाद की चीनी शिक्षाएँ सृजित कीं, जिनमें परंपरागत चीनी संस्कृति का मुख्य भाग शामिल है। चीनी परंपरागत संस्कृति में लोगों की पीढ़ियों द्वारा तैयार की गई बहुत सारी भाषा, शब्दावली और कहावतें हैं। उनमें से कुछ पुरातनता की ओर संकेत करती हैं, कुछ नहीं करतीं; कुछ आम लोगों से आती हैं और दूसरी प्रसिद्ध व्यक्तियों से। हो सकता है, तुम लोगों को परंपरागत संस्कृति ज्यादा पसंद न आए, या तुमने खुद को आधारभूत, परंपरागत संस्कृति से दूर कर लिया हो, या तुम लोग इतने युवा हो कि अभी तक चीन की “विशाल और गहन” परंपरागत संस्कृति के गहन अध्ययन या अनुसंधान में संलग्न न हुए हो, इसलिए तुम अभी तक इसके बारे में नहीं जानते या ऐसी चीजें नहीं समझते। यह वास्तव में एक अच्छी चीज है। हालाँकि, हो सकता है, व्यक्ति इसे समझता न हो, लेकिन उसकी सोच और धारणाएँ परंपरागत संस्कृति की चीजों से अचेतन रूप से मन में बैठती और संक्रमित होती हैं। वह अनजाने ही इन चीजों के अनुसार जीने लगता है। बाप-दादाओं से चली आ रही, अर्थात् मनुष्य के पूर्वजों से चली आ रही परंपरागत संस्कृति इस बारे में तमाम तरह के बहुत-से दावे करती है कि मनुष्य को कैसे बोलना, कार्य और आचरण करना चाहिए। और हालाँकि परंपरागत संस्कृति के विभिन्न कथनों के बारे में लोगों की अलग-अलग समझ और विचार हो सकते हैं, फिर भी वे सामान्यतः परंपरागत संस्कृति की ऐसी चीजों के बारे में आश्वस्त होते हैं। इस अवलोकन से हम देख सकते हैं कि परंपरागत संस्कृति की तमाम चीजें मनुष्य के जीवन और अस्तित्व पर, लोगों और चीजों के प्रति उसके विचार पर, और उसके आचरण और कार्यकलाप पर प्रभाव की स्रोत हैं। हालाँकि मनुष्य के विभिन्न जाति-समूह अपने नैतिक मानकों और नैतिक मानदंडों से संबंधित अपने कथनों में भिन्न हैं, फिर भी उनके पीछे के सामान्य विचार एक-जैसे हैं। आज हम उनमें से कुछ के बारे में विस्तार से संगति कर उनका गहन-विश्लेषण करेंगे। भले ही हम उन सभी चीजों का उल्लेख और गहन-विश्लेषण नहीं कर पाएँगे जिन्हें मनुष्य सही और अच्छी मानता है, फिर भी उनकी सामान्य विषयवस्तु सत्य के अनुसरण की परिभाषा में बताए गए इन दो तत्त्वों के अलावा कुछ नहीं है : लोगों और चीजों पर व्यक्ति के विचार, और व्यक्ति कैसे आचरण और कार्य करता है। एक है विचार, दूसरा है व्यवहार। इसका मतलब यह है कि मनुष्य दुनिया के लोगों और घटनाओं को उन चीजों के माध्यम से देखता है, जिन्हें वह अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानता है, और वह उन चीजों को उस नींव, आधार और मानदंड के रूप में लेता है जिसके द्वारा वह आचरण और कार्य करता है। तो, ये अच्छी और सही चीजें असल में क्या हैं? मोटे तौर पर कहें तो, जिन चीजों को मनुष्य अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानता है, वे और कुछ नहीं बल्कि ये अपेक्षाएँ हैं कि मनुष्य अच्छा व्यवहार करे और उसमें अच्छी मानवीय नैतिकता और चरित्र हों। ये ही वो दो चीजें हैं। इस पर सोचो : क्या ये ही मूल रूप से वे दो चीजें नहीं हैं? (हाँ, हैं।) एक है अच्छा व्यवहार; दूसरा है मानवीय चरित्र और नैतिकता। मनुष्य ने मूल रूप से दो चीजें उस मानवता को मापने के मानकों के रूप में स्थापित की हैं, जिनके साथ व्यक्ति जीता और आचरण करता है : एक है मनुष्य के लिए बाहरी रूप से अच्छा व्यवहार करने की अपेक्षा, दूसरी यह कि वह नैतिक रूप से आचरण करे। वह व्यक्ति की अच्छाई मापने के लिए इन दो कारकों का उपयोग करता है। चूँकि वह व्यक्ति की अच्छाई मापने के लिए इन दो कारकों का उपयोग करता है, इसलिए लोगों के व्यवहार और नैतिकता का मूल्यांकन करने के मानक सामने आए, और हुआ यह कि लोगों ने स्वाभाविक रूप से मनुष्य के नैतिक आचरण या उसके व्यवहार के बारे में तमाम तरह के कथन सुनने शुरू कर दिए। ये विशिष्ट कहावतें कौन-सी हैं? क्या तुम लोग जानते हो? कुछ सरल चीजें, जैसे : लोगों का व्यवहार मापने के लिए कौन-से मानक और कहावतें हैं? सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना—इनका संबंध बाहरी व्यवहार से है। क्या विनम्र होना भी इनमें शामिल है? (हाँ।) बाकी सब कमोबेश समान हैं, और उपमा देखकर तुम लोगों को पता चल जाएगा कि कौन-से शब्द और कथन मनुष्य का व्यवहार मापने के मानक हैं, तो कौन-से कथन उसकी नैतिकता मापने के मानक हैं। तो, “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए”—यह बाहरी व्यवहार का मानक है या नैतिकता का? (इसका संबंध नैतिक मूल्यों और सदाचार से है।) उदारता के बारे में क्या खयाल है? (यह भी नैतिक मूल्यों के बारे में है।) यह सही है। इनका संबंध नैतिक मूल्यों से, मनुष्य के नैतिक चरित्र से है। मनुष्य के व्यवहार से संबंधित मुख्य कथन हैं विनम्र होना, सौम्य और परिष्कृत होना, और सुशिक्षित और समझदार होना। ये सभी वे चीजें हैं, जिन्हें मनुष्य अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानता है; ये वे चीजें हैं, जिन्हें वह परंपरागत संस्कृति के दावों के आधार पर सकारात्मक या कम से कम जमीर और विवेक के अनुरूप मानता है, न कि नकारात्मक चीजें। यहाँ हम जिन चीजों के बारे में बात कर रहे हैं, वे ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोग आम तौर पर सही और अच्छी मानते हैं। तो, मेरे द्वारा अभी कहे गए तीन कथनों के अलावा, मनुष्य के अच्छे व्यवहार के बारे में और कौन-से कथन हैं? (बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना।) बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना, मिलनसार होना, सुलभ होना—ये सभी वे चीजें हैं, जिनसे लोग कुछ हद तक परिचित हैं और जिन्हें समझते हैं। सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना, विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना, मिलनसार होना, सुलभ होना—जनमानस में इन व्यवहारों वाले सभी लोग अच्छे व्यक्ति, दयालु व्यक्ति, मानवता वाले व्यक्ति माने जाते हैं। सभी लोग दूसरों को उनके व्यवहार के आधार पर मापते हैं; वे व्यक्ति की अच्छाई उसके बाहरी व्यवहार से आँकते हैं। लोग परंपरागत संस्कृति के विचारों और मतों और व्यक्ति के दिखाई देने वाले व्यवहारों के अनुसार यह फैसला, निर्धारण और मापन करते हैं कि कोई व्यक्ति सुसंस्कृत और मानवता से युक्त और बातचीत और भरोसे के काबिल है या नहीं? क्या लोगों में भौतिक संसार को समझने की क्षमता है? जरा-सी भी नहीं। लोग सिर्फ व्यक्ति के व्यवहार से ही निर्णय कर पाते और पहचान पाते हैं कि वह अच्छा है या बुरा, या वह किस तरह का व्यक्ति है; सिर्फ व्यक्ति के साथ मिलजुलकर, बातचीत और सहयोग करके ही लोग इन चीजों का निरीक्षण और निर्धारण कर पाते हैं। चाहे तुम अपने माप में स्पष्ट रूप से “सुशिक्षित और समझदार होना,” “मिलनसार होना,” “बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना” जैसे कथनों का उपयोग करते हो या नहीं, तुम्हारे माप के मानक इन कथनों से आगे नहीं जाते। जब व्यक्ति दूसरे की आंतरिक दुनिया नहीं देख पाता, तो वह उसके व्यवहार और क्रियाकलाप देखकर और व्यवहार के ये मानदंड लागू करके मापता है कि वह अच्छा है या बुरा, नेक है या नीच। वह अनिवार्यतः इन्हीं का उपयोग करता है। क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) अभी-अभी उल्लिखित कथनों के आधार पर, मनुष्य के पास माप के लिए कौन-से मानक हैं? वे कौन-सी चीजें हैं, जिन्हें मनुष्य अपनी धारणाओं में अच्छी और सही मानता है? नैतिक आचरण से संबंधित चीजों से शुरुआत करने के बजाय, आओ, अपनी संगति और गहन-विश्लेषण उन अच्छी, सही और सकारात्मक चीजों से शुरू करते हैं जिन्हें मनुष्य अपने व्यवहार में प्रकट करता है। आओ, देखें कि क्या ये सचमुच सकारात्मक चीजें हैं। तो, क्या हमारे द्वारा सूचीबद्ध कथनों में कुछ ऐसा है, जो सत्य को छूता है? क्या उनकी कोई भी विषयवस्तु सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) अगर किसी का लक्ष्य ऐसा व्यक्ति बनना है, ऐसे व्यवहार और ऐसी सूरत वाला व्यक्ति बनना, तो क्या वह सत्य का अनुसरण कर रहा है? क्या उसका अनुसरण सत्य के अनुसरण से संबंधित है? क्या इन व्यवहारों से युक्त व्यक्ति सत्य का अभ्यास और अनुसरण कर रहा है? क्या इन व्यवहारों और प्रदर्शनों से युक्त व्यक्ति सच्चे अर्थों में एक अच्छा व्यक्ति है? उत्तर नकारात्मक है—वह अच्छा व्यक्ति नहीं है। यह आसानी से देखा जा सकता है।

आओ, पहले इस कथन पर नजर डालते हैं कि व्यक्ति को सुशिक्षित और समझदार होना चाहिए। यह बताओ कि “सुशिक्षित और समझदार होना” कथन का अपने आपमें क्या अर्थ है। (यह किसी ऐसे व्यक्ति का वर्णन करता है, जो काफी शोभनीय और शिष्ट है।) “शोभनीय” होने का क्या अर्थ है? (इसका अर्थ कुछ हद तक नियम पालन करने वाला है।) सही है। ऐसा व्यक्ति किन नियमों का पालन करता है? तुम्हारा उत्तर जितना ज्यादा विशिष्ट होगा, इस मामले और इसके सार के बारे में तुम्हारी समझ उतनी ही ज्यादा गहन होगी। तो, नियम पालन करने वाला होने का क्या मतलब है? एक उदाहरण प्रस्तुत है। भोजन करते समय युवा पीढ़ी को तब तक नहीं बैठना चाहिए, जब तक उसके बड़े न बैठ जाएँ, और जब उसके बड़े न बोल रहे हों, तो उसे चुप रहना चाहिए। बड़ों के लिए छोड़ा गया भोजन कोई तब तक नहीं खा सकता, जब तक बड़े खाने के लिए न कहें। इसके अलावा, खाते समय बात न करना, या दाँत न दिखाना, या जोर से न हँसना, या होंठ न चाटना, या थाली में खोजबीन न करना। बड़ी पीढ़ी के खा चुकने पर युवा पीढ़ी को तुरंत खाना बंद कर देना चाहिए और उठ खड़े होना चाहिए। अपने बड़ों को विदा करने के बाद ही वे खाना जारी रख सकते हैं। क्या यह नियमों का पालन नहीं है? (बिल्कुल, है।) ये नियम कमोबेश हर घर-परिवार में, हर नाम और वंश के परिवारों में हैं। सभी लोग थोड़ी-बहुत मात्रा में इन नियमों का पालन करते हैं, और होता यह है कि वे उनसे प्रतिबंधित हो जाते हैं। अलग-अलग परिवारों में अलग-अलग नियम होते हैं—और उन्हें स्थापित कौन करता है? उस परिवार के पूर्वजों और विभिन्न युगों के आदरणीय बुजुर्गों ने उन्हें स्थापित किया होता है। अहम अवकाश और स्मारक दिवस मनाते समय वे विशेष महत्व प्राप्त कर लेते हैं; तब बिना किसी अपवाद के सभी को उनका अनुसरण करना चाहिए। अगर कोई नियम तोड़ता है या उनका उल्लंघन करता है, तो उसे परिवार के नियमों के अनुसार कड़ी सजा दी जाएगी। कुछ लोगों को पारिवारिक वेदी पर क्षमा के लिए घुटने तक टेकने पड़ सकते हैं। नियम ऐसे ही होते हैं। अभी हम सिर्फ किसी विशेष घर या परिवार में लागू हो सकने वाले कुछ नियमों के बारे में बात कर रहे थे। क्या ऐसे नियम “शोभनीय” होने के अर्थ का हिस्सा नहीं हैं? (हाँ, हैं।) किसी व्यक्ति को सिर्फ खाना खाते देखकर बताया जा सकता है कि वह शोभनीय है या नहीं। अगर वह खाना खाते समय अपने होंठ चाटता है, या भोजन में मीनमेख निकालता है, या हमेशा दूसरों को निवाले परोसता रहता है, और भोजन करते समय बात करता रहता है, और जोर-जोर से हँसता है, यहाँ तक कि कुछ मामलों में अपनी चॉपस्टिक से उसकी तरफ इशारा तक करता है जिससे वह बात कर रहा होता है, तो इन सबमें वह अपनी अशोभनीयता का प्रदर्शन करता है। किसी व्यक्ति को अशोभनीय कहने का तात्पर्य यह है कि दूसरे लोग उसके व्यवहार को लेकर उसे डाँटते हैं, उस पर सवाल उठाते हैं और उसका तिरस्कार करते हैं। जबकि जो लोग शोभनीय होते हैं, वे भोजन करते समय बोलते नहीं, हँसी-ठट्ठा नहीं करते, भोजन में मीनमेख नहीं निकालते या दूसरों को निवाले नहीं परोसते। वे काफी नियम पालन करते हैं। दूसरे लोग उनका व्यवहार और प्रदर्शन देखते हैं और उसके आधार पर कहते हैं कि यह शोभनीय व्यक्ति है। और अपनी इस शोभनीयता के कारण वे दूसरों का आदर-सम्मान हासिल करते हैं, और स्नेह भी। यह शोभनीयता में अंतर्निहित चीज का एक हिस्सा है। तो, शोभनीयता असल में क्या है? हमने अभी-अभी कहा : “शोभनीयता” का संबंध सिर्फ लोगों के व्यवहार से है। जैसे पिछले उदाहरणों में, भोजन करते समय पीढ़ीगत प्राथमिकता का क्रम रहा है। सभी को अपना आसन नियमों के अनुसार लगाना चाहिए; उन्हें गलत स्थान पर नहीं बैठना चाहिए। बुजुर्ग और युवा पीढ़ियाँ समान रूप से पारिवारिक नियमों का पालन करती हैं, जिनका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता, और वे बहुत नियमित, बहुत सज्जन, बहुत महान, बहुत गरिमापूर्ण दिखते हैं—फिर भी, चाहे वे कितने भी ऐसे क्यों न दिखें, यह सब सिर्फ बाहरी अच्छे व्यवहार के रूप में सामने आता है। क्या इसमें भ्रष्ट स्वभाव शामिल हैं? नहीं; यह लोगों के बाहरी व्यवहार मापने के लिए एक मानक से ज्यादा कुछ नहीं है। कौन-से व्यवहार? मुख्य रूप से उनकी बोलचाल और क्रियाकलाप। उदाहरण के लिए, भोजन करते समय बात नहीं करनी चाहिए या चबाते समय शोर नहीं करना चाहिए। भोजन के लिए बैठते समय पहले कौन बैठेगा, इसका एक क्रम होता है। सामान्यतः खड़े होने और बैठने के उचित तरीके होते हैं। ये सब बातें व्यवहार से ज्यादा कुछ नहीं हैं, ये सारे बाहरी व्यवहार हैं। तो, क्या लोग वास्तव में इन नियमों का पालन करने के इच्छुक होते हैं? लोग इस मुद्दे पर अपने मन में क्या सोचते हैं? वे इसके बारे में कैसा महसूस करते हैं? क्या इन दयनीय नियमों का पालन करना लोगों के लिए लाभकारी है? क्या ये उन्हें जीवन में उन्नति प्रदान कर सकते हैं? इन दयनीय नियमों का पालन करने में क्या समस्या है? क्या इसका इस मुद्दे से कोई लेना-देना है कि चीजों और जीवन-स्वभाव के बारे में व्यक्ति के दृष्टिकोण में कोई बदलाव आया है? बिल्कुल नहीं। इसका संबंध सिर्फ लोगों के व्यवहार से है। यह बस लोगों के व्यवहार के बारे में कुछ अपेक्षाएँ बनाता है, अपेक्षाएँ जो इस बात से संबंधित हैं कि लोगों को कौन-से नियम हासिल कर उनका पालन करना है। इन नियमों के बारे में कोई चाहे कुछ भी सोचे, चाहे वह इनसे नफरत कर इनका तिरस्कार ही क्यों न करे, उसके पास अपने परिवार और पूर्वजों और अपनी घरेलू नियमावली के कारण उनसे बँधे रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। फिर भी कोई इस बात की जाँच नहीं करता कि इन नियमों के बारे में लोगों के विशिष्ट विचार क्या हैं, या अपनी सोच में लोग इन्हें कैसे देखते और लेते हैं, या इनके प्रति उनका दृष्टिकोण और रवैया क्या है। तुम्हारे लिए इस निर्दिष्ट दायरे में अच्छा व्यवहार प्रदर्शित करना और इन नियमों का पालन करना पर्याप्त है। जो लोग ऐसा करते हैं, वे शोभनीय लोग हैं। “सुशिक्षित और समझदार होना” अपनी विभिन्न माँगें सिर्फ लोगों के व्यवहार पर रखता है। इसका उपयोग सिर्फ लोगों का व्यवहार सीमित करने के लिए किया जाता है, व्यवहार जिसमें लोगों के बैठने और खड़े होने की मुद्रा, उनकी शारीरिक गतिविधियाँ, उनके संवेदी अंगों के हावभाव, उनकी आँखें कैसी दिखनी चाहिए, उनका मुँह कैसे चलना चाहिए, उनका सिर कैसे मुड़ना चाहिए, इत्यादि शामिल हैं। यह लोगों को बाहरी व्यवहार के लिए एक मानक देता है, बिना इस बात की परवाह किए कि उनके मन, स्वभाव और उनकी मानवता का सार कैसा है। ऐसा है सुशिक्षित और समझदार होने का मानक। अगर तुम यह मानक पूरा करते हो, तो तुम सुशिक्षित और समझदार व्यक्ति हो, और अगर तुममें सुशिक्षित और समझदार होने का अच्छा व्यवहार है, तो दूसरों की नजर में, तुम वह व्यक्ति हो जिसे सम्मान और आदर दिया जाना आवश्यक है। क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) तो, क्या इस कथन के ध्यान का केंद्र मनुष्य का व्यवहार है? (हाँ।) इस व्यवहारगत मानक का असल में क्या उपयोग है? मुख्य रूप से, इसका उपयोग यह मापना है कि व्यक्ति शोभनीय और अच्छी तरह से नियमित है या नहीं, वह दूसरों के साथ अपने व्यवहार में आदर-सम्मान अर्जित कर सकता है या नहीं, और वह प्रशंसा के योग्य है या नहीं। लोगों को इस तरह से मापना पूरी तरह से सत्य-सिद्धांतों के विपरीत है। यह निरर्थक है।

अभी हमारी संगति मुख्य रूप से व्यक्ति को विकसित किए जाने से संबंधित थी, जो कि “सुशिक्षित और समझदार बनो” कथन की थोपी हुई अपेक्षाओं में से एक है। “समझदार होने” का तात्पर्य क्या है? (तहजीब और शिष्टाचार की समझ दिखाना।) यह थोड़ा सतही है, लेकिन यह इसका हिस्सा है। क्या “समझदार होने” का मतलब सद्बुद्धि होना, तर्क का अनुगामी होना नहीं है? क्या हम इसके साथ इतनी दूर तक जा सकते हैं? (हाँ।) तहजीब और शिष्टाचार की समझ दिखाना, और सद्बुद्धि होना। तो, यह सब एक-साथ रखते हुए, अगर व्यक्ति “सुशिक्षित और समझदार होने” वाले व्यवहारों से युक्त है, तो वह वास्तव में इसे समग्र रूप से कैसे दिखाता है? क्या तुम लोगों ने ऐसा व्यक्ति देखा है, जो सुशिक्षित और समझदार हो? क्या तुम लोगों के बुजुर्गों और रिश्तेदारों या दोस्तों में कोई सुशिक्षित और समझदार व्यक्ति है? उसका विशिष्ट लक्षण क्या है? वह असाधारण संख्या में नियमों का पालन करता है। वह अपनी बोलचाल को लेकर काफी सतर्क रहता है, जो न तो रूखी होती है, न ही अपरिपक्व, न ही दूसरों को चोट पहुँचाने वाली होती है। जब वह बैठता है तो ठीक से बैठता है; जब वह खड़ा होता है तो सही मुद्रा में खड़ा होता है। हर लिहाज से उसका व्यवहार दूसरों को परिष्कृत और संतुलित लगता है, जो उसे देखकर स्नेह और ईर्ष्या महसूस करते हैं। जब वह लोगों से मिलता है, तो अपना सिर नीचा कर लेता है, शरीर झुका लेता है, झुककर प्रणाम करता है और आदर से घुटने टेक देता है। वह समाज के निचले तबके की आदत या गुंडागर्दी के बिना, सार्वजनिक शालीनता और व्यवस्था के नियमों का सख्ती से पालन करते हुए विनम्रता से बात करता है। कुल मिलाकर, उसका बाहरी व्यवहार उसे देखने वालों में सांत्वना और प्रशंसा प्रकट करता है। हालाँकि इसके बारे में एक परेशान करने वाली चीज है : उसके लिए हर चीज के नियम हैं। खाने के अपने नियम हैं; सोने के अपने नियम हैं; चलने के अपने नियम हैं; यहाँ तक कि घर से जाने और वापस आने के भी नियम हैं। जब कोई ऐसे व्यक्ति के साथ होता है, तो वह काफी विवश और असहज महसूस करता है। तुम नहीं जानते कि वह कब कोई नियम दिखा देगा, और अगर तुमने लापरवाही से उसका उल्लंघन किया, तो तुम काफी लापरवाह और अज्ञानी दिखते हो, जबकि वह बहुत परिष्कृत दिखाई देता है। वह मुस्कुराता भी सलीके से है जिसमें दाँत नहीं दिखते और रोता भी सलीके से है, वह दूसरों के सामने कभी नहीं रोता, बल्कि देर रात जब दूसरे सो रहे होते हैं तो वह अपने कंबल में मुँह ढककर रोता है। वह जो कुछ भी करता है, वह नियमबद्ध होता है। इसे ही “शिक्षा-दीक्षा” कहा जाता है। ऐसे लोग शिष्टाचार के देश में, एक बहुत बड़े परिवार में रहते हैं; उनके पास बहुत सारे नियम और बहुत सारी शिक्षा-दीक्षा होती है। तुम इसे चाहे जैसे कहो, सुशिक्षित और समझदार होने में शामिल अच्छे व्यवहार भी व्यवहार ही हैं—बाहरी तौर पर अच्छे व्यवहार, जो व्यक्ति के मन में उस वातावरण द्वारा बैठाए जाते हैं जिसमें उसका लालन-पालन होता है, और जो धीरे-धीरे व्यक्ति में उन उच्च मानकों और सख्त अपेक्षाओं द्वारा कड़े किए जाते हैं, जिन्हें वह अपने व्यवहार पर रखता है। ऐसे व्यवहारों का लोगों पर जो भी प्रभाव हो, वे मनुष्य के बाहरी व्यवहार से ज्यादा किसी चीज को नहीं छूते, और हालाँकि ऐसे बाहरी व्यवहारों को मनुष्य अच्छे व्यवहार मानता है, ऐसे व्यवहार जिनके लिए लोग प्रयास करते हैं और जिनका अनुमोदन करते हैं, फिर भी वे मनुष्य के स्वभाव से अलग चीज हैं। किसी का बाहरी व्यवहार कितना भी अच्छा हो, वह उसका भ्रष्ट स्वभाव नहीं छिपा सकता; किसी का बाहरी व्यवहार कितना भी अच्छा हो, वह उसके भ्रष्ट स्वभाव में बदलाव का स्थान नहीं ले सकता। हालाँकि एक सुशिक्षित और समझदार व्यक्ति का व्यवहार काफी अनुशासित होता है, जिससे दूसरों का काफी आदर-सम्मान प्राप्त होता है, लेकिन जब उसका भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होता है, तो उसका वह अच्छा व्यवहार किसी काम नहीं आता। उसका व्यवहार कितना भी नेक और परिपक्व क्यों न हो, जब सत्य-सिद्धांतों को छूने वाली कोई चीज उस पर आन पड़ती है, तो उसका वह अच्छा व्यवहार किसी काम नहीं आता, न ही वह उसे सत्य समझने के लिए प्रेरित करता है—इसके बजाय, चूँकि वह अपनी इस धारणा में विश्वास करता है कि सुशिक्षित और समझदार होना एक सकारात्मक चीज है, इसलिए वह उस चीज को सत्य समझने लगता है, जिससे वह परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों को मापता और उन पर सवाल उठाता है। वह अपनी बोलचाल को भी उसी कथन के अनुसार मापता है और उसी के अनुसार कार्य करता है, और दूसरों को मापने के लिए भी यही उसका मानक होता है। अब “सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है” की परिभाषा देखो—पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना। अब, क्या सुशिक्षित और समझदार बनने का आह्वान करने वाले बाहरी व्यवहार के मानक का परमेश्वर के वचनों और सत्य से कोई लेना-देना है? (नहीं।) ये असंबंधित ही नहीं हैं—ये विरोधी भी हैं। विरोध कहाँ है? (ऐसी कहावतें लोगों को सिर्फ बाहरी अच्छे व्यवहार पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित करेंगी, जबकि उनके अंदर के इरादों और भ्रष्ट स्वभावों को नजरअंदाज कर देंगी। वे ऐसा इसलिए करती हैं ताकि लोग इन अच्छे व्यवहारों से गुमराह होकर इस बात पर विचार न करें कि उनके विचारों और धारणाओं में क्या है, और ताकि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव देखने में असमर्थ रहें, यहाँ तक कि दूसरों के व्यवहार के अनुसार उनसे आँख मूँदकर ईर्ष्या और उनकी आराधना भी कर सकें।) ऐसे होते हैं परंपरागत संस्कृति के कथन स्वीकारने के परिणाम। इसलिए, जब मनुष्य इन अच्छे व्यवहारों का प्रदर्शन देखता है, तो वह उन व्यवहारों को सँजो लेता है। वह यह विश्वास करने से शुरुआत करता है कि ये व्यवहार अच्छी और सकारात्मक चीजें हैं, और उनके सकारात्मक चीजें होने के आधार पर वह उनके साथ ऐसा व्यवहार करता है, मानो वे सत्य हों। फिर, वह इसे उस मानदंड के रूप में इस्तेमाल करता है, जिसके द्वारा वह स्वयं को रोकता और दूसरों को मापता है; वह इसे लोगों और चीजों के बारे में अपने विचारों के आधार के रूप में लेता है, और सामान्यतः वह इसे अपने आचरण और कार्यों के आधार के रूप में भी लेता है। तो क्या यह सत्य के विपरीत नहीं है? (हाँ, है।) व्यक्ति को सुशिक्षित और समझदार होना चाहिए, यह कथन लोगों को गुमराह करता है या नहीं, फिलहाल हम इस बात को छोड़ देते हैं और इस कथन पर ही बात करते हैं। “सुशिक्षित और समझदार होना”—यह एक सभ्य, नेक वाक्यांश है। हर कोई इस कथन को पसंद करता है और इस धारणा के आधार पर कि यह सही है, अच्छा है और एक मानदंड है, मनुष्य इस कथन का इस्तेमाल दूसरों को मापने और लोगों और चीजों को देखने के लिए करता है। सामान्य रूप से वह इसे अपने आचरण और कार्यों का आधार भी बनाता है। उदाहरण के लिए, मनुष्य किसी की अच्छाई को मापने का आधार परमेश्वर के वचनों को नहीं बनाता। वह इसका आधार किसे बनाता है? “क्या यह व्यक्ति सुशिक्षित और समझदार है? क्या इसका बाहरी व्यवहार सुसंस्कृत है? क्या यह सुनियंत्रित है? क्या यह दूसरों का सम्मान करता है? क्या इसमें शिष्टाचार है? क्या यह दूसरों से बात करते समय विनम्र रवैया अपनाता है? क्या उसे सद्व्यवहार आता है, जैसे कि कोंग रोंग[क] ने एक बार बड़ी नाशपातियाँ त्यागकर दिखाया था? क्या यह ऐसा व्यक्ति है?” वे ये सवाल और विचार किस आधार पर उठाते हैं? पहले तो यह सुशिक्षित और समझदार होने की कसौटी पर आधारित है। क्या इसे अपनी कसौटी के रूप में इस्तेमाल करना उनके लिए सही है? (नहीं।) यह सही क्यों नहीं है? कितना आसान जवाब है, फिर भी तुम लोग इसे नहीं दे पाते। क्योंकि परमेश्वर इस तरह माप नहीं करता, न ही वह मनुष्य से ऐसा करवाना चाहता है। अगर मनुष्य ऐसा करता है, तो वह गलती पर है। अगर कोई किसी व्यक्ति या घटना को इस तरह से मापता है, अगर वह इसे लोगों और चीजों को देखने के मानक के रूप में इस्तेमाल करता है, तो वह सत्य और परमेश्वर के वचनों का उल्लंघन करता है। यह परंपरागत धारणाओं और सत्य के बीच संघर्ष है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) परमेश्वर मनुष्य से दूसरों का माप किस आधार पर करवाता है? वह मनुष्य को लोगों और चीजों को किसके अनुसार दिखवाता है? (अपने वचनों के अनुसार।) वह मनुष्य को लोगों को अपने वचनों के अनुसार दिखवाता है। विशेष रूप से, इसका अर्थ है उसके वचनों के अनुसार यह मापना कि व्यक्ति में मानवता है या नहीं। यह तो रहा इसका एक हिस्सा। इसके अलावा, यह आधार भी है कि वह व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं, उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है या नहीं, और वह सत्य के प्रति समर्पित हो सकता है या नहीं। क्या ये इसकी विशिष्टताएँ नहीं हैं? (हाँ, हैं।) तो, मनुष्य दूसरे की अच्छाई किस आधार पर मापता है? इस आधार पर कि वे सुसंस्कृत और सुनियंत्रित हैं या नहीं, खाना खाते समय अपने होंठ चाटते या निवाले खोजते हैं या नहीं, भोजन के लिए बैठने से पहले अपने बड़ों के बैठने का इंतजार करते हैं या नहीं। दूसरों को मापने के लिए वह ऐसी चीजों का इस्तेमाल करता है। क्या इन चीजों का इस्तेमाल करना सुशिक्षित और समझदार होने जैसे व्यवहार के मानक का इस्तेमाल करना नहीं है? (हाँ, है।) क्या ऐसे माप सटीक हैं? क्या वे सत्य के अनुरूप हैं? (नहीं।) यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं। तो फिर, इस तरह के माप से अंततः क्या नतीजा निकलता है? मापने वाला मानता है कि जो भी व्यक्ति सुशिक्षित और समझदार है, वह अच्छा व्यक्ति है, और अगर तुम उससे सत्य के बारे में संगति करवाओगे, तो वह हमेशा लोगों के मन में वही घरेलू नियम और शिक्षाएँ और अच्छे व्यवहार बैठाएगा। और लोगों के मन में ये चीजें बैठाने का नतीजा अंततः यह होता है कि ये चीजें लोगों को अच्छे व्यवहारों की ओर तो ले जाएँगी, लेकिन उन लोगों का भ्रष्ट सार बिल्कुल नहीं बदलेगा। काम करने का यह तरीका सत्य और परमेश्वर के वचनों से बिल्कुल अलग है। ऐसे लोगों में सिर्फ कुछ अच्छे व्यवहार होते हैं। तो, क्या अच्छे व्यवहार के कारण उनके अंदर के भ्रष्ट स्वभाव बदले जा सकते हैं? क्या वे परमेश्वर के प्रति समर्पण और निष्ठा प्राप्त कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। ये लोग क्या बन गए हैं? फरीसी, जिनमें सिर्फ बाहरी अच्छा व्यवहार होता है, लेकिन जो मूलभूत रूप से सत्य नहीं समझते और परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं हो सकते। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) फरीसियों को देखो—दिखने में क्या वे निर्दोष नहीं थे? वे सब्त मनाते थे; सब्त के दिन वे कुछ नहीं करते थे। वे बोलचाल में विनम्र, काफी नियंत्रित और नियमों का पालन करने वाले, काफी सुसंस्कृत, काफी सभ्य और विद्वान थे। चूँकि वे स्वाँग रचने में अच्छे थे और परमेश्वर का भय बिल्कुल भी नहीं मानते थे, बल्कि उसकी आलोचना और निंदा करते थे, इसलिए अंत में उन्हें परमेश्वर द्वारा शाप दिया गया। परमेश्वर ने उन्हें पाखंडी फरीसी ठहराया, जो सभी दुष्ट हैं। ऐसे ही, जिस तरह के लोग सुशिक्षित और समझदार बनने के अच्छे व्यवहार को अपने आचरण और कार्य की कसौटी के रूप में इस्तेमाल करते हैं, वे स्पष्ट रूप से वे लोग नहीं हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। जब वे इस नियम का इस्तेमाल दूसरों को मापने और अपना आचरण और कार्य करने के लिए करते हैं, तो वे निस्संदेह सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे होते; और जब वे किसी व्यक्ति या चीज के बारे में कोई निर्णय लेते हैं, तो उस निर्णय के मानक और आधार सत्य के अनुरूप नहीं होते, बल्कि उसका उल्लंघन करते हैं। एकमात्र चीज जिस पर वे ध्यान केंद्रित करते हैं, वह है व्यक्ति का व्यवहार, उसके तरीके, न कि उसका स्वभाव और सार। उनका आधार परमेश्वर के वचन नहीं होते, सत्य नहीं होता; इसके बजाय, उनके माप परंपरागत संस्कृति के सुशिक्षित और समझदार होने जैसे व्यवहार के मानक पर आधारित होते हैं। इस तरह के माप का निष्कर्ष यह होता है कि अगर व्यक्ति में सुशिक्षित और समझदार होने जैसे बाहरी अच्छे व्यवहार हैं, तो वह अच्छा और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। जब लोग ऐसे वर्गीकरण अपनाते हैं, तो उन्होंने स्पष्ट रूप से सत्य और परमेश्वर के वचनों के प्रति विरोधी रुख अपना लिया होता है। और जितना ज्यादा वे लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने के लिए इस व्यवहारगत मानदंड का इस्तेमाल करते हैं, इसका नतीजा उन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य से और भी दूर ले जाता है। फिर भी, वे जो कर रहे होते हैं, उसका आनंद लेते हैं और मानते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं। परंपरागत संस्कृति के कुछ अच्छे कथनों को कायम रखकर वे मानते हैं कि वे सत्य और सच्चे मार्ग को कायम रख रहे हैं। लेकिन वे इन चीजों का चाहे जितना पालन करें, इन पर चाहे जितना जोर दें, अंततः उन्हें परमेश्वर के वचनों का, सत्य का कोई अनुभव नहीं होगा या पूरी समझ नहीं होगी, न ही वे परमेश्वर के प्रति जरा भी समर्पित होंगे। इससे परमेश्वर के प्रति सच्चा भय तो बिल्कुल भी उत्पन्न नहीं हो सकता। ऐसा तब होता है, जब लोग सुशिक्षित और समझदार होने जैसे तमाम अच्छे व्यवहार अपनाते हैं। मनुष्य अच्छे व्यवहार पर, उसे जीने पर, उसका अनुसरण करने पर जितना ज्यादा ध्यान केंद्रित करता है, उतना ही वह परमेश्वर के वचनों से दूर होता जाता है—और मनुष्य परमेश्वर के वचनों से जितना ज्यादा दूर होता है, वह सत्य समझने में उतना ही कम सक्षम होता है। यह बिल्कुल सामान्य है। अगर किसी का व्यवहार सुधरता है, तो क्या इसका मतलब यह है कि उसका स्वभाव बदल गया है? क्या तुम लोगों को इसका अनुभव है? क्या तुम लोगों ने कभी अनजाने में सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति बनने का प्रयास किया है? (हाँ।) ऐसा इसलिए है, क्योंकि सभी लोग समझते हैं कि सुशिक्षित, समझदार बनने से व्यक्ति दूसरों को काफी सम्मानित और नेक प्रतीत होता है। दूसरे लोग उसका बहुत आदर करते हैं। ऐसा ही होता है, है न? (बिल्कुल।) इसलिए, इन अच्छे व्यवहारों का होना कोई बुरी बात नहीं होनी चाहिए। लेकिन क्या ये अच्छे व्यवहार, ये अच्छे प्रदर्शन प्राप्त करने से मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव का समाधान हो सकता है? क्या यह लोगों को बुरे काम करने से रोक सकता है? अगर नहीं, तो ऐसे अच्छे व्यवहारों का क्या लाभ है? यह सिर्फ अच्छा रूप-रंग है; यह किसी काम का नहीं है। क्या ऐसे अच्छे व्यवहार वाले लोग परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं? क्या वे सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकते हैं? स्पष्ट रूप से नहीं। अच्छा व्यवहार मनुष्य के सत्य के अभ्यास का स्थान नहीं ले सकता। यह वैसा ही है, जैसा फरीसियों के साथ था। उनका व्यवहार बहुत अच्छा था, और वे काफी पवित्र थे, लेकिन उन्होंने प्रभु यीशु के साथ कैसा व्यवहार किया? किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि वे मानवजाति के उद्धारकर्ता को क्रूस पर चढ़ा सकते हैं। इसलिए, जिन लोगों का सिर्फ बाहरी व्यवहार अच्छा है लेकिन उन्होंने सत्य प्राप्त नहीं किया है, वे खतरे में हैं। वे परमेश्वर का विरोध और उसके साथ विश्वासघात करते हुए वैसे ही चलते रह सकते हैं, जैसे चलते रहे हैं। अगर तुम इसे नहीं समझ सकते, तो तुम हमेशा की तरह अभी भी लोगों के अच्छे व्यवहार से गुमराह हो सकते हो।

सुशिक्षित और समझदार बनना मनुष्य की एक परंपरागत धारणा है। यह पूरी तरह से सत्य के विपरीत है। यह देखते हुए कि यह सत्य के विपरीत है, अगर मनुष्य को सत्य को अभ्यास में लाना हो तो उसके पास वास्तव में क्या होना चाहिए? वह कौन-सी वास्तविकता है, जिसे जब जीया जाता है, तो वह सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप होती है? क्या तुम जानते हो? इस तरह की संगति के साथ, कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम कहते हो कि सुशिक्षित और समझदार बनना सत्य के अनुरूप नहीं है, कि यह सिर्फ एक बाहरी अच्छा व्यवहार है। तो, अब हम सुशिक्षित, समझदार लोग नहीं रहेंगे। जीवन ज्यादा बेफिक्र होगा, यह किसी भी नियम से बेबस या नियंत्रित नहीं होगा। हम जो चाहते हैं वह कर सकेंगे, जैसे चाहें वैसे जी सकेंगे। तब हम कितने बेफिक्र होंगे! यह देखते हुए कि मनुष्य का अच्छा व्यवहार उसके परिणाम से संबंधित नहीं है, हम अब ज्यादा स्वतंत्र हैं। हमें विकसित होने, नियमों या उस जैसी किसी भी चीज के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है।” क्या इसका यह निष्कर्ष निकालना सही है? (नहीं।) यह एक विकृत समझ है; वे अतियों पर जाने की गलती करते हैं। तो क्या कोई है, जो ऐसी गलती करेगा? कुछ लोग हो सकते हैं, जो कहते हैं, “चूँकि सुसंस्कृत लोग अभी भी परमेश्वर का विरोध और उससे विश्वासघात कर सकते हैं, इसलिए मैं सुसंस्कृत व्यक्ति नहीं बनूँगा। मैं सुसंस्कृत लोगों के प्रति तिरस्कार महसूस करने लगा हूँ। मैं उन लोगों से घृणा करता हूँ, जो सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत, विनम्र हैं, जो बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करते हैं, जो मिलनसार हैं। जो कोई ये चीजें प्रदर्शित करता है, मैं उसे देखकर अपनी नाक-भौं सिकोड़ लेता हूँ और उसे सरे-आम डाँटता हूँ : ‘तुम्हारा व्यवहार फरीसियों जैसा है। इसका उद्देश्य दूसरों को गुमराह करना है। यह सत्य का अनुसरण करना नहीं है, इसका अभ्यास करना तो बिल्कुल भी नहीं है। हमें बरगलाने की कोशिश बंद करो—हम तुम्हारे धोखे में नहीं आएँगे, न तुम्हारी चाल में फँसेंगे!’” क्या तुम लोग इस तरह पेश आओगे? (नहीं।) तुम्हारा ऐसा न करना सही है। अगर तुम इतना मूर्खतापूर्ण कुछ करोगे तो इसका मतलब होगा कि तुम्हारे विकृतियों से प्रभावित होने की बहुत ज्यादा संभावना है। विकृत समझ वाले कुछ लोगों में सत्य की शुद्ध समझ-बूझ का अभाव होता है—उनमें समझने-बूझने की क्षमता नहीं होती। वे बस नियमों का पालन ही कर सकते हैं, इसलिए वे इसी तरह पेश आते हैं। तो, हम इस समस्या के बारे में संगति और गहन-विश्लेषण क्यों करते हैं? मुख्य रूप से, लोगों को यह समझाने के लिए कि सत्य का अनुसरण करना बाहरी अच्छे व्यवहार का अनुसरण करना नहीं है, न ही इसका उद्देश्य तुम्हें एक शिष्ट, सुनियंत्रित, सुसंस्कृत व्यक्ति बनाना है। बल्कि, इसका उद्देश्य यह है कि तुम सत्य समझो, उसका अभ्यास करो, और सत्य के आधार पर कार्य करने में सक्षम रहो, जिसका अर्थ है कि तुम जो कुछ भी करते हो उसका आधार परमेश्वर के वचनों में है, कि यह सब सत्य के अनुरूप है। जो व्यवहार सत्य के अनुरूप होते हैं और जिनका आधार परमेश्वर के वचन होते हैं, वे सुशिक्षित और समझदार बनने के समान नहीं होते, न ही वे परंपरागत संस्कृति और परंपरागत नैतिकता द्वारा मनुष्य से अपेक्षित मानकों के समान होते हैं। ये दो अलग चीजें हैं। परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और सिर्फ वे ही एकमात्र मानदंड हैं जिसके द्वारा मनुष्य की अच्छाई-बुराई, उसका सही-गलत मापा जाता है। दूसरी ओर, परंपरागत संस्कृति का सुशिक्षित और समझदार बनने का मानक सत्य-सिद्धांतों के मानक से बहुत पीछे रह जाता है। परमेश्वर ने कब, कार्य के किस चरण के दौरान तुमसे कहा था कि तुम्हें एक सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति, एक सुसंस्कृत, नेक, अधम रुचियों से रहित व्यक्ति बनना चाहिए? क्या परमेश्वर ने ऐसा कुछ कहा है? (नहीं।) उसने नहीं कहा। तो, मनुष्य के व्यवहार के संबंध में परमेश्वर क्या कहता और अपेक्षा रखता है? पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य को अपनी कसौटी मानकर आचरण और कार्य करो। तो फिर परमेश्वर के वचनों का वह आधार क्या है? अर्थात्, तुम्हें कौन-सा सत्य अपनी कसौटी के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए और किस तरह का जीवन जीना चाहिए, ताकि तुम सत्य का अनुसरण और अभ्यास कर पाओ? क्या यह ऐसी चीज नहीं है, जिसे समझा जाना चाहिए? (हाँ, है।) तो, मनुष्य से परमेश्वर के वचनों की व्यवहारगत अपेक्षाओं के मानक क्या हैं? क्या तुम लोग उसके ऐसे वचन ढूँढ़ सकते हो, जो इस बारे में स्पष्ट हों? (परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मुझे बहुत उम्मीदें हैं। मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग उपयुक्त और अच्छी तरह से व्यवहार करो, अपना कर्तव्य निष्ठा से निभाओ, सत्य और मानवता को अपनाओ, ऐसे व्यक्ति बनो जो अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि अपना जीवन भी परमेश्वर के लिए न्योछावर कर सके, वगैरह-वगैरह। ये सारी आशाएँ तुम लोगों की कमियों, भ्रष्टता और विद्रोहीपन से उत्पन्न होती हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे)।) ये सभी वचन मनुष्य के आचरण के लिए सिद्धांत और अपेक्षाएँ हैं। तो, परमेश्वर के और कौन-से वचन हैं, जो विशिष्ट अभ्यास से संबंधित हैं? (एक और अंश है, जो कहता है, “तुम्हारा चित्त निरंतर शांत स्थिति में रहना चाहिए, और जब तुम्हारे साथ कुछ बीते तो तुम्हें उतावला, पूर्वाग्रही, जिद्दी, कट्टर, कृत्रिम या नकली नहीं होना चाहिए, ताकि तुम बुद्धि के साथ कार्य करने में सक्षम हो सको। यही सामान्य मानवता की उचित अभिव्यक्ति है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्‍ट स्‍वभाव दूर करने का मार्ग)।) यह थोड़ा विशिष्ट अभ्यास है। ये मनुष्य के बाहरी व्यवहार और तरीकों के लिए विशिष्ट नुस्खे और अपेक्षाएँ हैं। क्या इन्हें परमेश्वर के वचनों का आधार माना जा सकता है? क्या ये पर्याप्त विशिष्ट हैं? (हाँ।) इन्हें दोबारा पढ़ो। (“तुम्हारा चित्त निरंतर शांत स्थिति में रहना चाहिए, और जब तुम्हारे साथ कुछ बीते तो तुम्हें उतावला, पूर्वाग्रही, जिद्दी, कट्टर, कृत्रिम या नकली नहीं होना चाहिए, ताकि तुम बुद्धि के साथ कार्य करने में सक्षम हो सको। यही सामान्य मानवता की उचित अभिव्यक्ति है।”) इन विषयों पर ध्यान दो; ये वे सिद्धांत हैं, जिनका पालन तुम्हें भविष्य में कार्य करते समय करना चाहिए। ये लोगों से कहते हैं कि उन्हें अपने आचरण और कार्यों में तर्कसंगत रूप से चीजों का सामना करना सीखना चाहिए, और इसके अलावा उन्हें जमीर और विवेक के साथ कार्य करने की नींव से सत्य-सिद्धांत खोजने में सक्षम होना चाहिए। इस तरह आचरण और कार्य करो, तो वहाँ सिद्धांत होंगे और साथ ही अभ्यास का एक मार्ग भी होगा।

वे कुछ चीजें, जिनके बारे में हमने अभी बात की थी : “जब तुम्हारे साथ कुछ बीते तो तुम्हें उतावला, पूर्वाग्रही, जिद्दी, कट्टर, कृत्रिम या नकली नहीं होना चाहिए, ताकि तुम बुद्धि के साथ कार्य करने में सक्षम हो सको”—क्या ये चीजें आसानी से की जा सकती हैं? बिल्कुल, कुछ समय के प्रशिक्षण के साथ ये सभी चीजें हासिल की जा सकती हैं। अगर कोई व्यक्ति वास्तव में ऐसा नहीं कर सकता, तो फिर क्या किया जाना चाहिए? अगर तुम सिर्फ एक काम भी करते हो तो ठीक रहेगा, यानी किसी समस्या का सामना या दूसरों के साथ बातचीत करते हुए कम-से-कम एक चीज ऐसी है जिसका पालन करना ही चाहिए : तुम्हें इस तरह आचरण और कार्य करना है, जो दूसरों को शिक्षा दे। यह सबसे बुनियादी बिंदु है। अगर तुम इसके अनुसार और इसे अपनी कसौटी मानकर इसका अभ्यास और पालन करते हो, तो तुम, मुख्य रूप से, दूसरों को कोई बड़ा नुकसान नहीं पहुँचाओगे, न ही तुम खुद कोई बड़ा नुकसान उठाओगे। इस तरह आचरण और कार्य करो, जो दूसरों को शिक्षा दे—क्या इसमें कोई विवरण है? (हाँ, है।) अपनी आत्म-संतुष्टि दूसरों के हितों को नुकसान पहुँचाने पर आधारित न करो; अपनी खुशी और सुख दूसरों के कष्ट के ऊपर निर्मित न करो। शिक्षा देने का यही अर्थ है। ऐसी शिक्षा को समझने का सबसे बुनियादी तरीका क्या है? इसका मतलब यह है कि तुम्हारा व्यवहार दूसरों के लिए सहनीय होना चाहिए, जैसा कि मानवता के जमीर और विवेक से मापा जाता है; वह मानवता के जमीर और विवेक के अनुरूप होना चाहिए। क्या ऐसा नहीं है कि कोई सामान्य मानवता वाला व्यक्ति इस पर खरा उतर सके? (ऐसा है।) मान लो, कोई व्यक्ति कमरे में आराम कर रहा है, और तुम अपने आस-पड़ोस की परवाह किए बिना अंदर जाते हो, और गाना-बजाना शुरू कर देते हो। क्या यह उचित होगा? (नहीं।) क्या यह अपनी मौज-मस्ती और खुशी दूसरे की पीड़ा पर निर्मित करना नहीं होगा? (होगा।) अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचन पढ़ रहा है या सत्य के बारे में संगति कर रहा है, और तुम्हें उसके साथ बस अपनी समस्याओं के बारे में बात करनी है, तो क्या यह उसके लिए सम्मानजनक है? क्या यह उसके लिए अशिक्षाप्रद नहीं है? (है।) अशिक्षाप्रद होने का क्या मतलब है? कम-से-कम इसका यह मतलब तो है ही कि तुम दूसरों का सम्मान नहीं करते। तुम्हें दूसरों के भाषण या कार्यों में बाधा नहीं डालनी चाहिए। क्या यह ऐसी चीज नहीं है, जिसे सामान्य मानवता हासिल कर सकती हो? अगर तुम इसे भी हासिल नहीं कर सकते, तो वाकई तुममें जमीर और विवेक नहीं है। क्या जमीर या विवेक से रहित लोग सत्य में पैठ बना सकते हैं? नहीं बना सकते। सत्य का अभ्यास करना ऐसी चीज है, जिसे कम-से-कम जमीर और विवेक वाले लोग ही प्राप्त कर सकते हैं, और अगर तुम सत्य का अनुसरण करोगे, तो कम-से-कम तुम्हारी कथनी-करनी जमीर और विवेक के मानकों के अनुरूप होनी चाहिए; तुम्हारे आस-पास के लोगों को तुम्हें सहनीय और स्वीकार्य समझना चाहिए। हमने अभी यही कहा है : अपने कार्य कम-से-कम दूसरों को शालीन और शिक्षाप्रद लगने दो। क्या शिक्षाप्रद होना दूसरों के लिए लाभकारी होने के समान है? नहीं, वास्तव में—शिक्षाप्रद होने का अर्थ दूसरों के स्थान का पारस्परिक रूप से सम्मान करना है, न कि उसे बाधित करना, अवरुद्ध करना या उसमें हस्तक्षेप करना; यह अपने व्यवहार के कारण दूसरों को नुकसान या पीड़ा न होने देना है। शिक्षाप्रद होने का यही अर्थ है। तुम लोग इसे कैसे समझते हो? शिक्षाप्रद होने का मतलब यह नहीं है कि तुम दूसरों को कितना लाभ पहुँचाते हो; इसका यह मतलब है कि वे अपने वाजिब हितों और अधिकारों का लाभ उठाने में सक्षम हो सकें, और तुम अपनी मनमानी और अनुचित व्यवहार से उन्हें इनका इस्तेमाल करने से न रोको या वंचित न करो। क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) अब तुम लोग परमेश्वर के कुछ ऐसे वचन जानते हो, जो मनुष्य के आचरण और कार्यों के लिए उसकी अपेक्षाओं से संबंधित हैं, फिर भी मैं तुम लोगों को बताता हूँ, सबसे बुनियादी चीज यह है कि तुम्हें अपने आचरण और कार्यों में दूसरों के लिए शिक्षाप्रद होना चाहिए। कार्य का यही सिद्धांत है। क्या तुम समझ गए हो कि शिक्षाप्रद होना क्या होता है? (हाँ।) कुछ लोग हैं, जो इस बात पर कोई विचार नहीं करते कि उनकी कथनी-करनी से दूसरों को शिक्षा मिलती है या नहीं, फिर भी वे सुशिक्षित, समझदार होने का दावा करते हैं। क्या यह धोखाधड़ी नहीं है? आचरण और कार्य में दूसरों के लिए शिक्षाप्रद होना—क्या इससे कोई सबक नहीं सीखा जा सकता? यह एक व्यवहारगत प्रदर्शन हो सकता है, फिर भी क्या इसे करना आसान है? अगर कोई व्यक्ति थोड़ा भी सत्य समझता है, तो वह जान जाएगा कि सिद्धांतों के अनुरूप कैसे कार्य करना है, किस तरह कार्य करें जिससे दूसरों को शिक्षा मिले और दूसरों को लाभ हो। अगर व्यक्ति सत्य को नहीं समझता, तो वह नहीं जानेगा कि क्या करना है; वह सिर्फ अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करके ही कार्य कर सकता है। कुछ लोग अपने दैनिक जीवन में कभी सत्य नहीं खोजते, चाहे उन पर कुछ भी संकट आ पड़े। वे बस अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हैं, बिना इसकी परवाह किए कि इससे दूसरों को कैसा महसूस होता है। क्या ऐसे कार्य में सिद्धांत हैं? तुम लोगों को यह देखने में सक्षम होना चाहिए कि उसमें सिद्धांत हैं या नहीं, है न? तुम सभी लोग अक्सर सभाओं में एकत्र होकर परमेश्वर के वचन पढ़ते हो; अगर तुम वाकई थोड़ा सत्य समझने में सक्षम हो, तो तुम कुछ मामलों का सत्य-सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास कर उनमें संलग्न होने में सक्षम होगे। ऐसे अभ्यास से तुम्हें कैसा महसूस होता है? इससे दूसरों को कैसा महसूस होता है? अगर तुम इसे महसूस करने के लिए कड़ी मेहनत करो, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि किस तरह का अभ्यास दूसरों के लिए शिक्षाप्रद है। आम तौर पर जब तुम लोगों पर कुछ संकट आ पड़ता है, चाहे वह कुछ भी हो, तो तुम ऐसे वास्तविक मुद्दों पर कोई विचार नहीं करते कि उस तरह से कैसे कार्य किया जाए, जो सामान्य मानवता या सत्य के अभ्यास को छूता हो। इसलिए, जब तुम पर कुछ संकट आ पड़ता है, तब अगर कोई तुमसे पूछे कि किस तरह का अभ्यास या कार्य दूसरों के लिए शिक्षाप्रद होगा, तो तुम लोगों को जवाब देना मुश्किल हो जाएगा, मानो कोई स्पष्ट मार्ग ही न हो। सभाओं में मैं वास्तविक जीवन की इन तमाम समस्याओं के बारे में ही बात करता हूँ, फिर भी जब तुम लोग इनका सामना करते हो, तो तुम कभी दृढ़ नहीं रह पाते और तुम्हें कुछ नहीं सूझता। क्या इसमें कोई विसंगति नहीं है? (है।) तो फिर तुम लोगों ने परमेश्वर में अपने विश्वास से क्या हासिल किया है? कुछ सिद्धांत, कुछ नारे। तुम कितने दरिद्र और दयनीय हो!

जिन ऐसी चीजों पर हमने चर्चा की है जिन्हें मनुष्य अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानता है, उनमें से एक—सुशिक्षित और समझदार बनना—में मनुष्य की कुछ विशिष्ट धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, साथ ही कुछ परंपरागत तरीके भी हैं जिनसे मनुष्य इस व्यवहार को समझता है। संक्षेप में, अब इस व्यवहारगत प्रदर्शन पर नजर डालने पर हम देखते हैं कि इसका सत्य या सच्ची मानवता से कोई संबंध नहीं है। इसका कारण यह है कि यह सत्य से बहुत पीछे है और इसकी उससे तुलना नहीं की जा सकती, और इसके अलावा, ऐसा व्यवहार मूलभूत रूप से लोगों और चीजों पर मनुष्य के विचारों के साथ-साथ उसके आचरण और कार्य के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानकों के अनुरूप नहीं है, जिसके साथ यह पूरी तरह से असंगत है और जिसके साथ इसका कोई संबंध नहीं है। यह सिर्फ मनुष्य का व्यवहार है। मनुष्य ऐसा व्यवहार चाहे कितनी भी अच्छी तरह प्रदर्शित करे, और वह चाहे कितने भी पर्याप्त रूप से इसका अभ्यास करे, यह सिर्फ व्यवहार का एक रूप है। यह सच्ची सामान्य मानवता कहलाने योग्य भी नहीं है। यह कथन कि व्यक्ति को सुशिक्षित और समझदार होना चाहिए, मनुष्य के बाहरी व्यवहार को पूर्ण बनाने का एक तरीका मात्र है। खुद को आकर्षक और सुंदर बनाने के लिए मनुष्य सुशिक्षित और समझदार व्यक्ति बनने के लिए कड़ी मेहनत करता है, जिससे वह दूसरों का सम्मान और आदर जीतता है, और अपने समूह में अपना स्थान और मूल्य बढ़ाता है। लेकिन तथ्य यह है कि ऐसा व्यवहार उस नैतिकता, निष्ठा और गरिमा के स्तर तक भी नहीं पहुँच पाता, जो एक सच्चे व्यक्ति में होनी चाहिए। सुशिक्षित और समझदार बनना एक ऐसा कथन है जो परंपरागत संस्कृति से आता है, और यह व्यावहारिक प्रदर्शनों का वह समुच्चय है जिसे भ्रष्ट मनुष्य ने अपने लिए ऐसी चीज के रूप में निर्धारित किया है जिसे वह मानता है कि बरकरार रखा जाना चाहिए। ये व्यवहारगत प्रदर्शन व्यक्ति की अपने समूह में प्रतिष्ठा और मूल्य बढ़ाने के लिए हैं, ताकि वह दूसरों का सम्मान जीत सके और सबसे मजबूत बन सके, अपने समूह में तिरस्कृत न किया जाए या धमकाया न जाए। इस बाहरी व्यवहार का मानवता की नैतिकता या गुणवत्ता से कोई लेना-देना नहीं है, फिर भी मनुष्य इसे इतना ऊपर रखता है और इसे इतना महत्व देता है। तुम खुद देखो कि इसमें कितना फर्जीवाड़ा होगा! इसलिए, अगर तुम्हारा वर्तमान लक्ष्य एक सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति बनना है, और तुम अपने व्यवहार को नियंत्रित कर रहे हो, सुशिक्षित और समझदार बनने के लक्ष्य की दिशा में कड़ी मेहनत और अभ्यास कर रहे हो, तो मैं तुमसे आग्रह करता हूँ कि इस पर तुरंत रोक लगा दो। ऐसे व्यवहार और तरीके तुम्हें सिर्फ खुद को ज्यादा से ज्यादा छिपाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं और तुम्हें ज्यादा से ज्यादा पाखंडी बना सकते हैं, और ऐसा होते ही तुम एक ईमानदार व्यक्ति, एक सरल, साफदिल व्यक्ति बनने से और ज्यादा दूर हो जाओगे। जितना ज्यादा तुम एक सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति बनने का प्रयास करोगे, उतना ही ज्यादा तुम खुद को छिपाओगे, और जितना ज्यादा तुम खुद को छिपाओगे—तुम्हारा छद्मवेश जितना गहरा होगा, दूसरों के लिए तुम्हारी माप लेना या तुम्हें समझना उतना ही कठिन होगा, और तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव उतना ही ज्यादा छिपा रहेगा। ऐसा करोगे, तो सत्य की स्वीकृति और उद्धार प्राप्त करना बहुत कठिन होगा। तो, इन बिंदुओं के आलोक में क्या एक सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति बनने का मार्ग सत्य का अनुसरण करने के मार्ग के समान है? क्या यह उचित अनुसरण है? (नहीं।) क्या सुशिक्षित और समझदार बनने के व्यवहार के पीछे दूसरों के साथ और खुद अपने प्रति ज्यादा धोखाधड़ी नहीं छिपी है, इसके नकारात्मक सार और इसके नकारात्मक परिणाम तो खैर हैं ही? (बिल्कुल छिपी है।) सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति अपने पीछे कई अकथनीय रहस्य छिपाता है, और उनसे भी ज्यादा, वह तमाम गलत विचार, धारणाएँ, दृष्टिकोण, रवैये और भाव छिपाता है जो दूसरों के लिए अज्ञात होते हैं, दूसरों के लिए नीच, गंदे, बुरे और घिनौने होते हैं। सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति के अच्छे व्यवहार के पीछे उसका ज्यादा भ्रष्ट स्वभाव छिपा होता है। इस व्यवहारगत प्रदर्शन की आड़ में ऐसे व्यक्ति में अपने भ्रष्ट स्वभाव का सामना करने का साहस नहीं होता, न ही उसमें अपना भ्रष्ट स्वभाव स्वीकारने का आत्मविश्वास होता है। अपने भ्रष्ट स्वभाव, अपने विकृत ज्ञान, अपने बुरे विचारों, इरादों और लक्ष्यों के बारे में—या जैसा कि हो सकता है, यहाँ तक कि अपने दुर्भावनापूर्ण, विषैले विचारों के बारे में भी खुलकर बोलने का साहस और आत्मविश्वास तो उसमें बिल्कुल नहीं होता। उसके पीछे बहुत-सी चीजें छिपी होती हैं, और कोई उन्हें नहीं देख सकता; लोग अपने सामने सिर्फ तथाकथित “अच्छे व्यक्ति” को देखते हैं, जिसमें सुशिक्षित और समझदार बनने का अच्छा व्यवहार होता है। क्या यह धोखाधड़ी का मामला नहीं है? (है।) उस व्यक्ति का संपूर्ण व्यवहार, प्रदर्शन, अनुसरण और सार धोखाधड़ी का मामला है। वह दूसरों को धोखा दे रहा है, और वह खुद को धोखा दे रहा है। ऐसे व्यक्ति का अंतिम परिणाम क्या होगा? एक सुशिक्षित, समझदार व्यक्ति होने के लिए वह परमेश्वर को त्याग देता है, सच्चे मार्ग से मुँह मोड़ लेता है, और परमेश्वर उससे तिरस्कार करता है। सुशिक्षित और समझदार बनने के अच्छे व्यवहार के पीछे हर छिपे कोने में, मनुष्य अपने छद्मवेश और धोखाधड़ी की तकनीकों और व्यवहारों को छिपाता है, और ऐसा करके वह अपने अहंकारी, दुष्ट, सत्य-विमुख, शातिर और दुराग्रही स्वभाव छिपाता है। इसलिए व्यक्ति जितना ज्यादा सुशिक्षित और समझदार होता है, वह उतना ही ज्यादा धोखेबाज होता है, और व्यक्ति जितना ज्यादा सुशिक्षित और समझदार व्यक्ति बनने का प्रयास करता है, उतना ही कम वह सत्य का प्रेमी होता है और उतना ही ज्यादा सत्य और परमेश्वर के वचनों से विमुख व्यक्ति होता है। मुझे बताओ, क्या ऐसा ही नहीं है? (ऐसा ही है।) फिलहाल हम सुशिक्षित और समझदार बनने के अच्छे व्यवहार के बारे में अपनी संगति यहीं समाप्त करते हैं।

अभी हमने परंपरागत संस्कृति में अच्छे व्यवहार के बारे में एक कथन पर संगति की : सुशिक्षित और समझदार बनना। हम अन्य कुछ कथनों के बारे में अलग-अलग संगति नहीं करेंगे। अच्छे व्यवहार के बारे में सभी कथन सामूहिक रूप से मनुष्य के बाहरी व्यवहार और छवि को पूर्ण बनाने का एक तरीका मात्र हैं। “पूर्ण बनाना” इसे अच्छी तरह से शब्दबद्ध करता है; इसे और ज्यादा सटीक रूप से कहें तो, असल में यह छद्मवेश का एक रूप है, छल से दूसरों के मन में अपने बारे में अच्छी भावनाएँ पैदा करवाने, उनसे अपना सकारात्मक मूल्यांकन करवाने, उनसे अपना सम्मान करवाने के लिए झूठे दिखावे का इस्तेमाल करने का एक तरीका है। जबकि व्यक्ति के दिल का काला पक्ष, उसके भ्रष्ट स्वभाव और उसका असली चेहरा सब छिपे रहते हैं और अच्छी तरह से पेश किए जाते हैं। हम इसे इस तरह भी कह सकते हैं : इन अच्छे व्यवहारों के प्रभामंडल के नीचे जो छिपा रहता है, वह भ्रष्ट मानवता के प्रत्येक सदस्य का भ्रष्ट असली चेहरा है। जो छिपा होता है वह है दुष्ट मानवजाति के प्रत्येक सदस्य का अहंकारी स्वभाव, धोखेबाज स्वभाव, दुष्ट स्वभाव और सत्य से विमुख रहने वाला स्वभाव। चाहे व्यक्ति का बाहरी व्यवहार सुशिक्षित और समझदार हो या सौम्य और परिष्कृत, या चाहे वह मिलनसार, सुलभ, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला हो या ऐसी कोई भी चीज—इनमें से जो भी वह दिखाता है, वह एक बाहरी व्यवहार से ज्यादा कुछ नहीं है, जिसे दूसरे लोग देख सकते हैं। यह उसे अच्छे व्यवहार के माध्यम से उसकी प्रकृति और सार के ज्ञान तक नहीं ले जा सकता। हालाँकि मनुष्य सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत, सुलभ और मिलनसार होने के बाहरी व्यवहारों से अच्छा दिखता है, इतना कि संपूर्ण मानव-जगत उनके साथ मित्रवत् पेश आता है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इन अच्छे व्यवहारों के आवरण के नीचे मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव वाकई मौजूद रहते हैं। मनुष्य का सत्य से विमुख होना, परमेश्वर के प्रति उसका प्रतिरोध और विद्रोहशीलता, सृष्टिकर्ता के बोले गए वचनों से विमुख होने और सृष्टिकर्ता का विरोध करने की उसका प्रकृति सार—ये वास्तव में वहाँ मौजूद रहते हैं। इसमें कुछ भी झूठ नहीं है। कोई व्यक्ति अच्छा होने का चाहे कितना भी दिखावा करे, चाहे उसके व्यवहार कितने भी सभ्य और शोभनीय लगें, चाहे कितनी भी अच्छी तरह या खूबसूरती से वह खुद को पेश करे, या वह कितना भी कपटी हो, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रत्येक भ्रष्ट व्यक्ति शैतानी स्वभाव से भरा होता है। इन बाहरी व्यवहारों के मुखौटे के अंदर, वह परमेश्वर का विरोध और उसके प्रति विद्रोह करता रहता है, सृष्टिकर्ता का विरोध और उसके प्रति विद्रोह करता रहता है। निस्संदेह, इन अच्छे व्यवहारों का लबादा और आवरण ओढ़े हुए मनुष्य हर दिन, हर घंटे और पल, हर मिनट और सेकंड, हर मामले में भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है, जिसके दौरान वह भ्रष्ट स्वभावों और पाप के बीच रहता है। यह एक निर्विवाद तथ्य है। मनुष्य के आकर्षक व्यवहारों, मधुर शब्दों और झूठे दिखावों के बावजूद उसका भ्रष्ट स्वभाव बिल्कुल भी कम नहीं हुआ, न ही उसके बाहरी व्यवहारों के कारण उसमें कोई बदलाव आया है। इसके विपरीत, चूँकि उसके पास इन बाहरी अच्छे व्यवहारों का आवरण है, इसलिए उसका भ्रष्ट स्वभाव लगातार प्रकट होता है, और वह बुराई करने और परमेश्वर का विरोध करने की दिशा में अपने कदम कभी नहीं रोकता—और निस्संदेह, अपने शातिर और दुष्ट स्वभावों से संचालित उसकी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और असाधारण अपेक्षाएँ लगातार विस्तृत और विकसित हो रही हैं। मुझे बताओ, ऐसा विनम्र, मिलनसार, सुलभ व्यक्ति कहाँ है, जिसकी जीवंत छवि और जिसके आचरण और कार्यों का आधार सकारात्मक और परमेश्वर के वचनों, सत्य के अनुरूप हो? कहाँ है ऐसा सुशिक्षित, समझदार, सौम्य और परिष्कृत व्यक्ति, जो सत्य से प्रेम करता हो, जो अपने जीवन की दिशा और लक्ष्य परमेश्वर के वचनों में खोजने को तैयार हो, जिसने मानवजाति के उद्धार में योगदान दिया हो? क्या तुम ऐसा एक भी व्यक्ति ढूँढ़ सकते हो? (नहीं।) तथ्य यह है कि मानवजाति में जो व्यक्ति जितना ज्यादा ज्ञानी होता है; जितना ज्यादा शिक्षित होता है और जितने ज्यादा विचार, हैसियत और प्रतिष्ठा उसके पास होती है—भले ही उसे एक सुशिक्षित और समझदार, मिलनसार, सुलभ व्यक्ति कहा जा सकता हो—उतना ही ज्यादा लिखित रूप में किए गए उसके दावे लोगों को गुमराह कर सकते हैं, और उतनी ही ज्यादा वह बुराई करता है, और उतना ही ज्यादा गंभीर परमेश्वर के प्रति उसका प्रतिरोध होता है। ज्यादा प्रतिष्ठा और रुतबे वाले लोग दूसरों को और भी ज्यादा गुमराह करते हैं, और परमेश्वर के विरुद्ध अपने प्रतिरोध में वे और भी ज्यादा जंगली होते हैं। पूरी मानवजाति में उसके प्रसिद्ध लोगों, उसके महान लोगों, उसके विचारकों, शिक्षकों, लेखकों, क्रांतिकारियों, राजनेताओं या किसी भी क्षेत्र के ऐसे दिग्गजों को देखो—उनमें से कौन सुशिक्षित और समझदार, सुलभ और मिलनसार नहीं है? उनमें से किसने बाहरी तौर पर ऐसा व्यवहार नहीं किया, जिससे दूसरों की प्रशंसा मिले और वह दूसरों के सम्मान के योग्य हो? फिर भी क्या उन्होंने वास्तव में मानवजाति के लिए योगदान किया है? क्या उन्होंने मानवजाति को सही मार्ग पर चलाया है, या उसे भटकाया है? (भटकाया है।) क्या वे मानवजाति को सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में लाए हैं, या उसे शैतान के पैरों के नीचे ले गए हैं? (शैतान के पैरों के नीचे ले गए हैं।) क्या उन्होंने मानवजाति को सृष्टिकर्ता की संप्रभुता, पोषण और मार्गदर्शन का हिस्सा बनाया है, या उसे शैतान के पद-दलन, क्रूरता और दुर्व्यवहार का सामना करने दिया है? इतिहास के तमाम वीर व्यक्तियों, प्रसिद्ध, महान, श्रेष्ठ, असाधारण, सशक्त लोगों में से, उनका कौन-सा अधिकार और रुतबा लाखों-करोड़ों लोगों की हत्या से प्राप्त नहीं हुआ? उनकी ऐसी कौन-सी प्रतिष्ठा है जो उन्हें मानवजाति के साथ धोखाधड़ी करने, उसे गुमराह करने और प्रलोभन देने से प्राप्त नहीं हुई? बाहर से वे दूसरों के साथ अपनी दैनिक मुलाकातों में सुलभ और काफी सहज लगते हैं, खुद को दूसरों के बराबर रखते हैं और अपनी बोलचाल में मिलनसार होते हैं—लेकिन पर्दे के पीछे जो वे करते हैं, वह पूरी तरह से अलग होता है। उनमें से कुछ दूसरों को फँसाने की साजिश रचते हैं; कुछ लोग दूसरों को सताने और नुकसान पहुँचाने के लिए चालबाजी में लगे रहते हैं; दूसरे लोग बदला लेने के मौके तलाशते हैं। अधिकांश राजनेता लोगों के लिए बेहद क्रूर और हानिकारक हैं। उन्होंने अनगिनत लोगों के सिर पर और उनके खून में अपने पैर जमाकर अपना रुतबा और प्रभाव हासिल किया, फिर भी सार्वजनिक विन्यास में, लोग जो देखते हैं वह उनका सुलभ रूप और मिलनसार व्यवहार है। लोग जो देखते हैं, वह उनके द्वारा दिखाया जाने वाला सौम्य और परिष्कृत, सुशिक्षित और समझदार, अत्यधिक विनम्र रूप है। बाहर से वे विनम्र, सौम्य और परिष्कृत होते हैं, लेकिन उसके पीछे वे अनगिनत लोगों की हत्या कर देते हैं, अनगिनत लोगों की संपत्ति हड़प लेते हैं, अनगिनत लोगों पर हावी होकर उनके साथ खिलवाड़ करते हैं। वे हर अच्छा शब्द बोलते हैं और हर बुरा काम करते हैं, और बेशर्मी से, निर्लज्जता से, वे अपने मंच से प्रवचन देते हैं, दूसरों को सिखाते हैं कि कैसे सुलभ, सुशिक्षित और समझदार लोग बनें, कैसे देश और मानवजाति के लिए योगदान करने वाले लोग बनें, कैसे लोगों की सेवा करें और जनता के सेवक बनें, कैसे राष्ट्र के प्रति समर्पित हों। क्या यह बेशर्मी नहीं है? ढीठ, लालची मैल, वे सब! संक्षेप में, नैतिकता की परंपरागत धारणाओं के अनुरूप अच्छे व्यवहार वाला व्यक्ति होना सत्य का अनुसरण करना नहीं है; यह एक सच्चे सृजित प्राणी होने का प्रयास नहीं है। इसके विपरीत, इन अच्छे व्यवहारों के अनुसरण के पीछे कई काले और बताए न जा सकने वाले रहस्य छिपे होते हैं। मनुष्य चाहे जिस भी प्रकार के अच्छे व्यवहार का अनुसरण करे, उसके पीछे ज्यादा लोगों से चाहत और सम्मान प्राप्त करने, अपनी हैसियत बढ़ाने और लोगों को यह सोचने के लिए प्रेरित करने के सिवा कोई लक्ष्य नहीं होता कि वह सम्माननीय और भरोसा और आदेश पाने योग्य है। अगर तुम ऐसे शिष्ट व्यक्ति होने का प्रयास करते हो, तो क्या यह गुणवत्ता में उन लोगों के समान नहीं है, जो प्रसिद्ध और महान हैं? अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जो केवल शिष्ट है, लेकिन परमेश्वर के वचनों से प्रेम नहीं करता और सत्य नहीं स्वीकारता, तो गुणवत्ता में तुम उन जैसे ही हो। और नतीजा क्या होता है? तुमने जो त्याग दिया है, वह सत्य है; तुमने जो खो दिया है, वह उद्धार का तुम्हारा अवसर है। यह सबसे मूर्खतापूर्ण व्यवहार है—यह एक मूर्ख की पसंद और अनुसरण है। क्या तुम लोगों ने कभी वह व्यक्ति बनना चाहा है, जो महान, प्रसिद्ध, मंच पर असाधारण रूप से बड़ा होता है, जिसकी तुमने इतने लंबे समय तक प्रशंसा की है? वह मिलनसार और सुलभ व्यक्ति? वह विनम्र, सौम्य और परिष्कृत, सुशिक्षित और समझदार व्यक्ति? वह व्यक्ति, जो बाहर से मित्रवत् और प्यारा लगता है? क्या तुम लोगों ने पहले इस तरह के लोगों का अनुसरण और आराधना नहीं की है? (हाँ।) अगर तुम अब भी इस तरह के लोगों का अनुसरण कर रहे हो, अब भी इस तरह के लोगों को पूज रहे हो, तो मैं तुम्हें बता दूँ : तुम मृत्यु से दूर नहीं हो, क्योंकि जिन लोगों को तुम पूजते हो, वे दुष्ट लोग हैं जो अच्छा होने का दिखावा करते हैं। परमेश्वर दुष्ट लोगों को नहीं बचाएगा। अगर तुम दुष्ट लोगों की पूजा करते हो और सत्य नहीं स्वीकारते, तो अंत में तुम भी नष्ट हो जाओगे।

“अच्छे” व्यवहार के पीछे के सार जैसे कि सुलभ और मिलनसार होने को एक शब्द में बयाँ किया जा सकता है : दिखावा। ऐसा “अच्छा” व्यवहार परमेश्वर के वचनों से उत्पन्न नहीं होता, न ही सत्य का अभ्यास या सिद्धांत के अनुसार कार्य करने से होता है। फिर यह कैसे उत्पन्न होता है? यह लोगों के इरादों, षड्यंत्रों से पैदा होता है, उनके दिखावे, नाटक करने और धोखेबाज होने से पैदा होता है। जब लोग इन “अच्छे” व्यवहारों से चिपके रहते हैं, तो उनका उद्देश्य मनचाही चीजें पाना होता है; यदि न मिलें, तो वे कभी भी इस तरह से खुद को दुखी करके अपनी इच्छाओं के विपरीत नहीं जिएंगे। अपनी इच्छाओं के विपरीत जीने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि उनकी वास्तविक प्रकृति शिष्टता, निष्कपटता, सौम्यता, दयालुता और सदाचार की नहीं होती, जैसा कि लोग सोचते हैं। वे अंतरात्मा और विवेकानुसार नहीं जीते; बल्कि, वे एक उद्देश्य-विशेष या अपेक्षा को पूरा करने के लिए जीते हैं। मनुष्य की वास्तविक प्रकृति क्या है? वह भ्रमित और अबोध होती है। परमेश्वर द्वारा प्रदत्त नियमों और आज्ञाओं के बिना, लोगों को पता नहीं होता कि पाप क्या है। क्या मानवजाति पहले ऐसी ही नहीं थी? जब परमेश्वर ने नियम और आज्ञाएं जारी कीं, तब जाकर लोगों को पाप के बारे में कुछ समझ आया। लेकिन तब भी उनके मन में सही-गलत या सकारात्मक और नकारात्मक चीजों की कोई धारणा नहीं थी। तो ऐसी स्थिति में, वे बोलने और पेश आने के सही सिद्धांतों से अवगत कैसे हो सकते थे? क्या उन्हें पता था कि सामान्य मानवता में पेश आने के कौन से तरीके, कौन-से अच्छे व्यवहार होने चाहिए? क्या वे जान सकते थे कि वास्तव में अच्छा व्यवहार किस तरह से आता है, इंसानियत से जीने के लिए उन्हें किन बातों का पालन करना चाहिए? उन्हें जानकारी नहीं हो सकती थी। लोग अपनी शैतानी प्रकृति के कारण, अपनी सहज प्रवृत्ति के कारण, केवल दिखावा कर सकते थे, शालीनता और गरिमा से जीने का नाटक कर सकते थे—इन्हीं चीजों ने सुशिक्षित और समझदार होने, सौम्य और परिष्कृत होने, विनम्र होने, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने, मिलनसार और सुलभ होने जैसे कपट को जन्म दिया; इस प्रकार धोखे की ये तरकीबें और तकनीकें सामने आईं। और एक बार जब ये चीजें सामने आ गईं, तो लोग चुनकर इनमें से कई कपटों से चिपक गए। कुछ लोगों ने मिलनसार और सुलभ होना चुना, कुछ ने सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत होना चुना, कुछ ने विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना चुना और कुछ ने तो इन सारी चीजों को ही चुन लिया। फिर भी मैं ऐसे “अच्छे” व्यवहारों वाले लोगों को एक शब्द-युग्म से परिभाषित करता हूँ। वह शब्द-युग्म क्या है? “चिकने पत्थर।” चिकने पत्थर क्या होते हैं? ये नदी के वे चिकने पत्थर होते हैं, जिनका नुकीलापन लंबे समय से बहते जल से घिस-घिसकर चिकना हो गया है। हालाँकि उन पर पैर रखने से चोट नहीं लगती है, लेकिन लापरवाही करने पर लोग उन पर फिसल सकते हैं। दिखने में और आकार में, ये पत्थर बहुत सुंदर होते हैं, लेकिन घर ले जाने पर बेकार साबित होते हैं, किसी काम के नहीं होते। मगर तुम उन्हें फेंकना भी नहीं चाहते, लेकिन रखने का भी कोई मतलब नहीं होता—“चिकना पत्थर” यही होता है। मेरे हिसाब से, ऐसे अच्छे व्यवहार वाले लोग नीरस होते हैं। वे बाहर से अच्छे होने का ढोंग करते हैं, लेकिन कभी सत्य नहीं स्वीकारते, वे अच्छी लगने वाली बातें करते हैं, लेकिन वास्तविक कुछ नहीं करते। वे चिकने पत्थरों के अलावा और कुछ नहीं होते। अगर तुम उनके साथ सत्य और सिद्धांतों पर संगति करते हो, तो वे तुमसे सौम्य और परिष्कृत, और विनम्र होने के बारे में बोलते हैं। अगर तुम उनसे मसीह-विरोधियों को पहचानने के बारे में बात करते हो, तो वे तुमसे बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने, और सुशिक्षित और समझदार होने के बारे में बोलते हैं। अगर तुम उनसे कहते हो कि व्यक्ति के आचरण में सिद्धांत होने चाहिए, कि व्यक्ति को अपने कर्तव्य में सिद्धांतों की खोज करनी चाहिए और हठधर्मिता से कार्य नहीं करना चाहिए, तो उनका रवैया क्या होगा? वे कहेंगे, “सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना दूसरी बात है। मैं बस सुशिक्षित और समझदार बनना चाहता हूँ, और दूसरों से अपने कार्यों की स्वीकृति पाना चाहता हूँ। अगर मैं बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करता हूँ, और मुझे दूसरे लोगों की स्वीकृति मिलती है, तो यह काफी है।” वे केवल अच्छे व्यवहारों की परवाह करते हैं, सत्य पर ध्यान नहीं देते। वे आम तौर पर बुजुर्गों, अपने वरिष्ठों, योग्यताएँ रखने वालों, अपने समूह के भीतर अच्छी नैतिक स्थिति और प्रतिष्ठा वाले लोगों का सम्मान करने में सक्षम होते हैं, साथ ही युवा और कमजोर लोगों के समुदायों की बहुत अच्छी, प्रेमपूर्ण देखभाल भी करते हैं। वे खुद को महान प्रदर्शित करने के लिए बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने के सामाजिक नियम का सख्ती से पालन करते हैं। हालाँकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जब उनके हित और यह नियम आपस में टकराते हैं, तो वे नियम किनारे रखकर अपने हितों की रक्षा के लिए बिना किसी की बाध्यताएँ “सहे” सिर के बल चल पड़ते हैं। हालाँकि उनका अच्छा व्यवहार उन सभी का अनुमोदन प्राप्त करता है, जिनसे वे मिलते, परिचित या वाकिफ होते हैं, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भले ही वे इन अच्छे व्यवहारों का प्रदर्शन करते हों जिनकी दूसरों द्वारा प्रशंसा की जाती है, लेकिन वे अपने हितों को थोड़ा-सा भी नुकसान नहीं पहुँचाते, और किसी की बाध्यताएँ “सहे” बिना, हर जरूरी तरीके से अपने हितों के लिए लड़ते हैं। उनके द्वारा बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह सिर्फ एक अस्थायी व्यवहार होता है, जो उनके हितों में हस्तक्षेप न करने की नींव पर निर्मित होता है। इसका दायरा आचरण के एक तरीके तक सीमित है। वे उन्हीं मामलों में ऐसा कर सकते हैं, जिनमें यह उनके हितों को बिल्कुल भी नहीं छूता या उनका अतिक्रमण नहीं करता, लेकिन जब उनके हित आड़े आते हैं, तो अंततः वे उन्हीं के लिए लड़ेंगे। इसलिए, उनके द्वारा बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह, वास्तव में उनके हितों के अनुसरण में हस्तक्षेप नहीं करती, न ही यह उस अनुसरण को प्रतिबंधित कर सकती है। बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने का व्यवहार एक ऐसा अच्छा व्यवहार है, जिसे लोग सिर्फ कुछ परिस्थितियों में ही कर सकते हैं, बशर्ते वह उनके हितों के आड़े न आए। यह ऐसी चीज नहीं है, जो व्यक्ति के जीवन, उसकी हड्डियों के अंदर से उत्पन्न होती हो। चाहे कोई कितना भी इस तरह का व्यवहार कर सकता हो, चाहे वह कितने भी लंबे समय तक दृढ़ रह सकता हो, इससे वे भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदल सकते, जिन पर मनुष्य जीने के लिए निर्भर रहता है। इसका मतलब यह है कि किसी में यह अच्छा व्यवहार न हो, तब भी वह भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है—लेकिन जब वह इस अच्छे व्यवहार को अपना लेता है, तो उसके भ्रष्ट स्वभावों में जरा भी सुधार या बदलाव नहीं होता। इसके विपरीत वह उन्हें और भी गहरे छिपाता जाता है। ये वे अनिवार्य चीजें हैं, जो ऐसे अच्छे व्यवहारों के पीछे छिपी रहती हैं।

परंपरागत संस्कृति के सौम्य और परिष्कृत, विनम्र, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाले, मिलनसार और सुलभ होने के अच्छे व्यवहारों के बारे में हमारी संगति और गहन-विश्लेषण के लिए और कुछ नहीं कहना है। वे सुशिक्षित और समझदार होने के समान ही हैं और सार में कमोबेश एक जैसे हैं। वे सारहीन हैं। लोगों को ये अच्छे व्यवहार छोड़ देने चाहिए। लोगों को परमेश्वर के वचनों को ही अपना आधार और सत्य को अपना मापदंड बनाने का सर्वाधिक प्रयास करना चाहिए; तभी वे रोशनी में रह सकते हैं और एक सामान्य व्यक्ति के समान जी सकते हैं। अगर तुम रोशनी में रहना चाहते हो, तुम्हें सत्य के अनुसार कार्य करना चाहिए; तुम्हें ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए जो ईमानदार बातें कहता हो और ईमानदार चीजें करता हो। मूलभूत बात है अपने आचरण में सत्य-सिद्धांत होना; जब लोग सत्य-सिद्धांत गँवा देते हैं, और केवल अच्छे व्यवहार पर ध्यान देते हैं, तो इससे अनिवार्य रूप से जालसाजी और ढोंग का जन्म होता है। यदि लोगों के आचरण में कोई सिद्धांत न हों, तो फिर उनका व्यवहार कितना भी अच्छा क्यों न हो, वे पाखंडी होते हैं; वे कुछ समय के लिए दूसरों को गुमराह कर सकते हैं, लेकिन वे कभी भी भरोसेमंद नहीं होंगे। जब लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य और आचरण करते हैं, तभी उनकी बुनियाद सच्ची होती है। अगर वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण नहीं करते, और केवल अच्छा व्यवहार करने का दिखावा करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो इसके परिणामस्वरूप क्या वे अच्छे लोग बन सकते हैं? बिल्कुल नहीं। अच्छे सिद्धांत और व्यवहार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदल सकते, और वे उसका सार नहीं बदल सकते। केवल सत्य और परमेश्वर के वचन ही लोगों के भ्रष्ट स्वभाव, विचार और राय बदल सकते हैं, और उनका जीवन बन सकते हैं। मनुष्य अपनी परंपरागत संस्कृति और धारणाओं में जिन विभिन्न अच्छे व्यवहारों को ऐसा समझता है, जैसे कि सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत, विनम्र, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला, मिलनसार और सुलभ होना, वे मात्र व्यवहार हैं। वे जीवन नहीं हैं, सत्य तो बिल्कुल भी नहीं हैं। परंपरागत संस्कृति सत्य नहीं है, न उसके द्वारा प्रचारित कोई अच्छा व्यवहार ही सत्य है। मनुष्य परंपरागत संस्कृति को चाहे कितना भी पकड़ ले और अपने जीवन में चाहे जितने भी अच्छे व्यवहार अपना ले, इससे उसके भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदल सकते। इसलिए, परंपरागत संस्कृति हजारों वर्षों से मनुष्य के मन में बैठी हुई है, लेकिन उसका भ्रष्ट स्वभाव बिल्कुल नहीं बदला है; इसके बजाय, उसकी भ्रष्टता और भी गहरी हो गई है, और दुनिया और भी ज्यादा अंधकारमय और बुरी हो गई है। इसका सीधा संबंध परंपरागत संस्कृति की शिक्षा से है। परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन मानकर ही मनुष्य एक सच्चे इंसान के समान जी सकते हैं। यह निर्विवाद है। तो, परमेश्वर के वचन मनुष्य के व्यवहार के लिए किस तरह के मानदंड और अपेक्षाएँ निर्धारित करते हैं? व्यवस्थाओं और आज्ञाओं में जो स्थापित है, उसके अलावा, मनुष्य के व्यवहार के लिए प्रभु यीशु की अपेक्षाएँ भी हैं, विशेषकर अंत के दिनों के परमेश्वर के न्याय में मनुष्य के लिए अपेक्षाएँ और नियम। जहाँ तक मनुष्य का संबंध है, ये सबसे अनमोल वचन हैं, और ये उसके आचरण के लिए सबसे बुनियादी सिद्धांत हैं। तुम लोगों को अपने आचरण और कार्य के लिए परमेश्वर के वचनों में सबसे बुनियादी व्यवहारगत मानदंडों का पता लगाना चाहिए। ऐसा करके तुम परंपरागत चीनी संस्कृति के अच्छे व्यवहारों के बहकावे में आने और गुमराह होने से छुटकारा पा सकोगे। तब तुम्हें आचरण और कार्य के लिए मार्ग और सिद्धांत मिल जाएँगे, जिसका अर्थ यह भी है कि तुम्हें उद्धार का मार्ग और उसके सिद्धांत मिल जाएँगे। अगर तुम लोग परमेश्वर के वर्तमान वचनों को अपना आधार बनाते हो और अभी संगति किए जा रहे सत्य को अपनी कसौटी मानते हो, और इन्हें अच्छे व्यवहार के उन मानकों की जगह इस्तेमाल करते हो, जिन्हें मनुष्य अपनी धारणाओं में रखता है, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण कर रहा है। मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ सभी मामलों में इस बारे में हैं कि उसे किस तरह का व्यक्ति होना चाहिए और किस मार्ग पर चलना चाहिए। वह यह अपेक्षा कभी नहीं करता कि मनुष्य पृथक् रूप से किसी आचरण से युक्त हो। वह चाहता है कि लोग ईमानदार बनें, धोखेबाज नहीं; वह मनुष्य से अपेक्षा करता है कि वह सत्य स्वीकारकर उसका अनुसरण करे, और उसके प्रति वफादार रहे, विनम्र रहे और उसकी गवाही दे। उसने यह अपेक्षा कभी नहीं की है कि मनुष्य सिर्फ कुछ अच्छे व्यवहार करे, कि यह अपने आप ठीक होगा। फिर भी चीन की परंपरागत संस्कृति मनुष्य का ध्यान सिर्फ अच्छे व्यवहार, अच्छे बाहरी प्रदर्शनों पर केंद्रित करवाती है। वह इस पर प्रकाश डालने के लिए कुछ भी नहीं करती कि मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव क्या हैं या उसकी भ्रष्टता कहाँ से उत्पन्न होती है, वह उस मार्ग को इंगित करने में सक्षम तो बिल्कुल भी नहीं है, जिससे उसके भ्रष्ट स्वभाव दूर होते हैं। इसलिए परंपरागत संस्कृति मनुष्य में चाहे किसी भी अच्छे व्यवहार होने की वकालत करे, जब बात मनुष्य के अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ने और एक सच्चे मनुष्य के समान जीने की आती है, तो इसका कोई फायदा नहीं होता। नैतिकता के बारे में उसके कथन कितने भी भव्य या आकर्षक हों, वह मनुष्य के भ्रष्ट सार को बदलने के लिए कुछ नहीं कर सकती। परंपरागत संस्कृति के समावेश और प्रभाव के तहत भ्रष्ट मनुष्य में कई अवचेतन चीजें आ गई हैं। यहाँ “अवचेतन” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि जब मनुष्य परंपरागत संस्कृति द्वारा अलक्षित रूप से प्रभावित और संक्रमित कर दिया जाता है, तो स्पष्ट वचनों, कथनों, नियमों या उचित तरीके से कार्य करने के ज्ञान के अभाव में वह सहज रूप से लोगों के परंपरागत विचारों और तरीकों का अभ्यास और पालन करता है। ऐसी परिस्थितियों में, ऐसी स्थिति में रहते हुए, जैसा कि सभी लोग करते हैं, वह अनजाने ही अपने अवचेतन में यह सोचने लगता है, “सुशिक्षित और समझदार होना बहुत अच्छा है—यह सकारात्मक और सत्य के अनुरूप है; सौम्य और परिष्कृत होना बहुत अच्छा है—लोगों को ऐसा ही होना चाहिए, परमेश्वर इसे पसंद करता है, और यह सत्य के अनुरूप है; विनम्र, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला, मिलनसार और सुलभ होना सभी सामान्य मानवता के भीतर के प्रदर्शन हैं—ये परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुरूप हैं।” परमेश्वर के वचनों में कोई स्पष्ट आधार न मिलने के बावजूद वह अपने दिल में महसूस करता है कि परमेश्वर के वचन और मनुष्य से उसकी अपेक्षाएँ और परंपरागत संस्कृति के अपेक्षित मानक लगभग समान हैं, उनके बीच कोई बड़ा अंतर नहीं है। क्या यह परमेश्वर के वचनों की तोड़-मरोड़ और उनकी झूठी व्याख्या नहीं है? क्या परमेश्वर के वचनों में ऐसी बातें कही गई हैं? नहीं कही गईं, और न ही उसका आशय इन चीजों से होता है; ये चीजें तो मनुष्य द्वारा परमेश्वर के वचनों की तोड़-मरोड़ और झूठी व्याख्याएँ हैं। परमेश्वर के वचनों में कभी ये चीजें नहीं कही गईं, इसलिए तुम लोगों को किसी भी परिस्थिति में उस तरह से नहीं सोचना है। तुम्हें परमेश्वर के वचन विस्तार से पढ़ने चाहिए और उसके वचनों द्वारा मनुष्य से की गई व्यावहारिक अपेक्षाएँ ठीक तरह से पता लगानी चाहिए, फिर उसके वचनों के कुछ और अंश ढूँढ़ने चाहिए, उन्हें इकट्ठा करना चाहिए, और उनका प्रार्थना-पाठ करना चाहिए और संकलित रूप में उनके बारे में संगति करनी चाहिए। जब तुम्हें उनका ज्ञान हो जाए, तभी तुम्हें उनका अभ्यास और अनुभव करना है। यह परमेश्वर के वचनों को तुम्हारे वास्तविक जीवन में लाता है, जहाँ वे लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों के साथ-साथ तुम्हारे आचरण और कार्यकलाप का आधार बन जाते हैं। लोगों के बोलने का और उनके कार्यों का आधार क्या होना चाहिए? परमेश्वर के वचन। तो, लोगों के बोलने और उनके कार्यों के लिए परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ और मानक हैं? (कि वे लोगों के लिए रचनात्मक हों।) सही कहा। सबसे बुनियादी तौर पर तुम्हें सच बोलना चाहिए, ईमानदारी से बोलना चाहिए और दूसरों को फायदा पहुँचाना चाहिए। कम से कम, तुम्हारा बोलना लोगों को शिक्षित करे, उन्हें छले नहीं, गुमराह न करे, उनका मजाक न उड़ाए, उन पर व्यंग्य न करे, उनका उपहास न करे और उनकी हँसी न उड़ाए, उन्हें जकड़े नहीं, उनकी कमजोरियाँ उजागर न करे, न उन्हें चोट पहुँचाए। यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है। यह मानवता का गुण है। क्या परमेश्वर ने तुम्हें बताया है कि कितनी ऊँची आवाज में बोलना है? क्या उसने यह अपेक्षा की है कि तुम मानक भाषा का प्रयोग करो? क्या उसने यह अपेक्षा की है कि तुम लच्छेदार बयानबाजी या उदात्त, परिष्कृत भाषा-शैली का इस्तेमाल करो? (नहीं।) उसने इन सतही, पाखंडपूर्ण, झूठी, निरर्थक चीजों में से किसी की भी लेशमात्र अपेक्षा नहीं की है। परमेश्वर की सभी अपेक्षाएँ वे चीजें हैं, जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए, वे मनुष्य की भाषा और व्यवहार के लिए मानक और सिद्धांत हैं। कोई कहाँ जन्मा है या कौन-सी भाषा बोलता है, यह मायने नहीं रखता। हर हाल में, तुम जो भी शब्द बोलो—उनकी शब्दावली और विषयवस्तु—दूसरों के लिए शिक्षाप्रद होनी चाहिए। उनके लिए शिक्षाप्रद होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि दूसरे लोग उन्हें सुनकर सच मानें, उनसे समृद्ध होकर सहायता प्राप्त करें, सत्य समझ सकें, अब और भ्रमित न हों, न ही आसानी से दूसरों से गुमराह हों। इसलिए परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग सच बोलें, वही कहें जो वे सोचते हैं, दूसरों को छलें नहीं, उन्हें गुमराह न करें, उनका मजाक न उड़ाएँ, उन पर व्यंग्य न करें, उनका उपहास न करें, उनकी हँसी न उड़ाएँ, या उन्हें जकड़ें नहीं, या उनकी कमजोरियाँ उजागर न करें, या उन्हें चोट न पहुँचाएँ। क्या ये बोलने के सिद्धांत नहीं हैं? यह कहने का क्या मतलब है कि लोगों की कमजोरियाँ उजागर नहीं की जानी चाहिए? इसका मतलब है दूसरे लोगों पर कीचड़ न उछालना। उनकी आलोचना या निंदा करने के लिए उनकी पिछली गलतियाँ या कमियाँ न पकड़े रहो। तुम्हें कम से कम इतना तो करना ही चाहिए। सक्रिय पहलू से, रचनात्मक वक्तव्य किसे कहा जाता है? वह मुख्य रूप से प्रोत्साहित करने वाला, उन्मुख करने वाला, राह दिखाने वाला, प्रोत्साहित करने वाला, समझने वाला और दिलासा देने वाला होता है। साथ ही, कुछ विशेष परिस्थितियों में, दूसरों की गलतियों को सीधे तौर पर उजागर करना और उनकी काट-छाँट करना जरूरी हो जाता है, ताकि वे सत्य का ज्ञान पाएँ और उनमें पश्चात्ताप की इच्छा जागे। केवल तभी यथोचित प्रभाव प्राप्त होता है। इस तरह से अभ्यास करना लोगों के लिए बहुत लाभकारी होता है। यह उनकी वास्तविक मदद है, और यह उनके लिए रचनात्मक है, है न? उदाहरण के लिए, मान लो, तुम बेहद उद्दंड और अहंकारी हो। तुम्हें इसका कभी पता नहीं चला, लेकिन कोई व्यक्ति जो तुम्हें अच्छी तरह से जानता है, स्पष्टवादिता से काम लेते हुए तुम्हें तुम्हारी समस्या बता देता है। तुम मन ही मन सोचते हो, “क्या मैं उद्दंड हूँ? क्या मैं अहंकारी हूँ? किसी और ने मुझे बताने की हिम्मत नहीं की, लेकिन वह मुझे समझता है। उसका यह कह सकना बताता है कि यह वास्तव में सच है। मुझे इस पर चिंतन करने पर कुछ समय लगाना चाहिए।” इसके बाद तुम उस व्यक्ति से कहते हो, “दूसरे लोग मुझसे केवल अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं, वे मेरा प्रशंसा-गान करते हैं, कोई मुझे खुलकर नहीं बताता, किसी ने कभी मेरी इन कमियों और समस्याओं को नहीं उठाया। केवल तुम ही मुझे बता पाए हो, तुम ही मेरे साथ खुल पाए हो। यह बहुत अच्छा रहा, इससे मेरी बहुत बड़ी मदद हुई।” यह घनिष्ठ होना है, है न? धीरे-धीरे, दूसरा व्यक्ति तुम्हें अपने मन की बात, तुम्हारे बारे में अपने विचार और इस मामले में अपनी धारणाएँ, कल्पनाएँ, नकारात्मकता और कमजोरी के बारे में अपने अनुभव बताता है, और यह भी कि कैसे वह सत्य की खोज करके इससे बचने में सक्षम रहा। यह घनिष्ठ होना है; यह आत्माओं का मिलन है। और संक्षेप में, बोलने के पीछे का सिद्धांत क्या है? वह यह है : वह बोलो जो तुम्हारे दिल में है, और अपने सच्चे अनुभव सुनाओ और बताओ कि तुम वास्तव में क्या सोचते हो। ये शब्द लोगों के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद हैं, वे लोगों को पोषण प्रदान करते हैं, वे उनकी मदद करते हैं, वे सकारात्मक हैं। वे नकली शब्द कहने से इनकार कर दो, जो लोगों को लाभ नहीं पहुँचाते या उन्हें कुछ नहीं सिखाते; यह उन्हें नुकसान पहुँचने या उन्हें गलती करने, नकारात्मकता में डूबने और नकारात्मक प्रभाव ग्रहण करने से बचाएगा। तुम्हें सकारात्मक बातें कहनी चाहिए। तुम्हें लोगों की यथासंभव मदद करने, उन्हें लाभ पहुँचाने, उन्हें पोषण प्रदान करने, उनमें परमेश्वर में सच्ची आस्था पैदा करने का प्रयास करना चाहिए; और तुम्हें लोगों को मदद लेने देनी चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अपने अनुभवों से और समस्याएँ हल करने के अपने ढंग से बहुत-कुछ हासिल करने देना चाहिए, और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने के मार्ग को समझने में सक्षम होने देना चाहिए, उन्हें जीवन-प्रवेश करने और अपना जीवन विकसित करने देना चाहिए—जो कि तुम्हारे शब्दों में सिद्धांत के होने और उनके लोगों के लिए शिक्षाप्रद होने का परिणाम है। इसके अलावा, जब लोग गपशप और हँसी-ठठ्ठा करने इकट्ठे होते हैं, तो यह सिद्धांतहीन होता है। वे अपने भ्रष्ट स्वभाव ही प्रकट करते हैं। यह परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं है, और वे सत्य-सिद्धांत कायम नहीं रख रहे। ये सब मनुष्य के सांसारिक आचरण के फलसफे हैं—वे वैसे ही जी रहे हैं, जैसे उनके भ्रष्ट स्वभाव उन्हें प्रेरित करते हैं।

परमेश्वर चाहता है कि मनुष्य अपनी बोलचाल में सिद्धांतवादी और दूसरों के लिए शिक्षाप्रद हो। क्या इसका मनुष्य के बाहरी अच्छे व्यवहारों से कोई लेना-देना है? (नहीं।) इसका उनसे बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है। मान लो, तुम दूसरों पर रोब नहीं झाड़ते या अपनी बोलचाल में झूठे और चालबाज नहीं हो, बल्कि तुम दूसरों को प्रोत्साहित करने, उनका मार्गदर्शन करने और उन्हें दिलासा देने में भी सक्षम हो। अगर तुम ये दोनों चीजें कर लेते हो, तो क्या इन्हें सुलभ रवैये के साथ करने की आवश्यकता है? क्या तुम्हें सुलभता हासिल करनी जरूरी है? क्या तुम ये चीजें सिर्फ विनम्र, सौम्य और परिष्कृत होने जैसी बाह्यताओं के व्यवहारगत ढाँचे के भीतर ही कर सकते हो? इसकी कोई जरूरत नहीं है। दूसरों के लिए तुम्हारी कथनी के शिक्षाप्रद होने की पूर्व-शर्त यह है कि वह परमेश्वर के वचनों और उनकी अपेक्षाओं पर आधारित हो—कि वह परंपरागत संस्कृति के बीच स्थापित अच्छे व्यवहारों के बजाय सत्य पर आधारित हो। जब तुम्हारी कथनी सैद्धांतिक और दूसरों के लिए शिक्षाप्रद होती है, तो तुम चाहे बैठकर बोल सकते हो या खड़े होकर; ऊँची आवाज में बोल सकते हो या धीमी आवाज में; कोमल शब्दों में बोल सकते हो या कठोर शब्दों में। अगर अंतिम नतीजा सकारात्मक रहता है, तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी कर देते हो और दूसरा पक्ष लाभान्वित होता है, तो यह सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप है। अगर तुम जिसका अनुसरण करते हो वह सत्य है, और तुम जिसका अभ्यास करते हो वह सत्य है, और तुम्हारे भाषण और कार्यों का आधार परमेश्वर के वचन और सत्य-सिद्धांत हैं, और अगर दूसरे तुमसे लाभ और उपलब्धि प्राप्त कर सकते हैं, तो क्या यह तुम दोनों के लिए ही लाभदायक नहीं होगा? अगर परंपरागत संस्कृति की सोच से विवश होकर तुम दिखावा करते हो और दूसरे भी ऐसा ही करते हैं, और उनके चापलूसी करने पर तुम भी शिष्टतापूर्ण बातें करते हो, दोनों एक-दूसरे के लिए दिखावा करते हो, तो तुम दोनों में से कोई भी किसी काम का नहीं है। वह और तुम पूरे दिन खुशामद और शिष्टतापूर्ण बातें करते रहते हो, जिसमें सत्य का एक भी शब्द नहीं होता, और जीवन में परंपरागत संस्कृति द्वारा प्रचारित अच्छे व्यवहार को अपनाते हो। हालाँकि बाहर से इस तरह का व्यवहार परंपरागत दिखता है लेकिन यह सब पाखंड है, ऐसा व्यवहार है जो दूसरों को चकमा देता है और गुमराह करता है, ऐसा व्यवहार है जो लोगों को फँसाता और ठगता है, जिसमें ईमानदारी का एक शब्द नहीं होता। अगर तुम ऐसे इंसान से मित्रता करते हो, तो अंत में तुम्हें फँसाया और ठगा जाना तय है। उनके अच्छे व्यवहार से ऐसा कुछ नहीं मिलता, जो तुम्हें शिक्षित करता हो। तुम्हें सिखाने के लिए उसमें सिर्फ झूठ और कपट होता है : तुम उनके साथ ठगी करते हो, वे तुम्हारे साथ ठगी करते हैं। अंततः तुम अपनी निष्ठा और गरिमा का अत्यधिक क्षरण महसूस करोगे, जिसे तुम्हें सहना ही होगा। तुम्हें अभी भी दूसरों से बहस या उनसे बहुत ज्यादा अपेक्षा किए बिना खुद को विनम्रता, सुशिक्षित और समझदार तरीके से पेश करना होगा। तुम्हें अभी भी धैर्यवान और सहिष्णु होना होगा, एक दीप्तिमान मुस्कराहट के साथ बेफिक्री और व्यापक उदारता का स्वाँग करना होगा। ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिए कितने वर्षों तक प्रयास करना होगा? अगर तुम खुद से दूसरों के सामने ऐसे ही जीने की अपेक्षा करते हो, तो क्या तुम्हारा जीवन तुम्हें थका नहीं देगा? इतना प्रेम होने का दिखावा करना, पूरी तरह से जानते हुए कि तुममें वह नहीं है—ऐसा पाखंड कोई आसान चीज नहीं है! एक इंसान के रूप में तुम खुद को इस तरह से पेश करने की थकावट और ज्यादा दृढ़ता से महसूस करोगे; तुम अपने अगले जन्म में इंसान के रूप में पैदा होने के बजाय गाय या घोड़े, सुअर या कुत्ते के रूप में पैदा होना पसंद करोगे। तुम उन्हें बहुत झूठे और दुष्ट ही पाओगे। मनुष्य उस तरह क्यों जीता है, जो उसे इतना थका देता है? क्योंकि वह परंपरागत धारणाओं के बीच जीता है, जो उसे विवश कर जकड़ लेती हैं। अपने भ्रष्ट स्वभाव पर भरोसा करके वह पाप में रहता है, जिससे वह खुद को छुड़ा नहीं सकता। उसके पास कोई मार्ग नहीं होता। वह जो जीता है, वह एक सच्चे मनुष्य की समानता नहीं होती। लोगों के बीच व्यक्ति बुनियादी ईमानदारी का एक शब्द भी नहीं सुन या प्राप्त कर सकता, यहाँ तक कि पति-पत्नी, माँ-बेटी, पिता-पुत्र, एक-दूसरे के सबसे करीबी लोगों के बीच भी—एक भी अंतरंग शब्द नहीं सुना जाता, कोई गर्मजोशी भरा शब्द या ऐसा शब्द जिससे दूसरों को सांत्वना मिल सके। तो फिर ये बाहरी अच्छे व्यवहार क्या कार्य करते हैं? ये अस्थायी रूप से लोगों के बीच सामान्य दूरी और सामान्य रिश्ते बनाए रखने का काम करते हैं। लेकिन इन अच्छे व्यवहारों के पीछे कोई भी किसी दूसरे के साथ गहराई से जुड़ने की हिम्मत नहीं करता, जिसे मनुष्य ने इस वाक्यांश में सारांशित किया है : “दूरी सुंदरता को जन्म देती है।” इससे मनुष्य की वास्तविक प्रकृति का पता चलता है, है न? दूरी सुंदरता को कैसे जन्म दे सकती है? ऐसे जीवन की झूठी और बुरी हकीकत में मनुष्य लगातार बढ़ते अकेलेपन, अलगाव, अवसाद, क्रोध और असंतोष में रहता है, उसे आगे कोई मार्ग दिखाई नहीं देता। यही अविश्वासियों की सच्ची स्थिति है। हालाँकि, आज तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो। तुम परमेश्वर के घर में आए हो और तुमने उसके वचनों का पोषण स्वीकारा है, और तुम अक्सर प्रवचन सुनते हो। लेकिन अपने दिल में तुम अभी भी उन अच्छे व्यवहारों को पसंद करते हो, जिन्हें परंपरागत संस्कृति बढ़ावा देती है। यह कुछ साबित करता है : तुम सत्य नहीं समझते और तुम्हारे पास कोई वास्तविकता नहीं है। तुम अब भी अपने जीवन में इतने उदास, इतने अकेले, इतने दयनीय, इतने आत्म-तिरस्कृत क्यों हो? इसका एकमात्र कारण यह है कि तुम सत्य नहीं स्वीकारते और बिल्कुल भी नहीं बदले हो। दूसरे शब्दों में, तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को नहीं देखते और न ही आचरण और कार्य करते हो। तुम अभी भी भ्रष्ट स्वभावों और परंपरागत धारणाओं के भरोसे जी रहे हो। इसीलिए तुम्हारा जीवन अभी भी इतना एकाकी है। तुम्हारा कोई मित्र नहीं है, कोई नहीं है जिस पर तुम विश्वास कर सको। तुम दूसरों से वह प्रोत्साहन, मार्गदर्शन, सहायता या शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते, जो तुम्हें मिलनी चाहिए, न ही तुम दूसरों को प्रोत्साहन, मार्गदर्शन या सहायता प्रदान कर सकते हो। यहाँ तक कि इनमें से सबसे न्यूनतम व्यवहारों में भी तुम परमेश्वर के वचनों को अपने आधार और सत्य को अपनी कसौटी के रूप में नहीं लेते, इसलिए लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों या तुम्हारे आचरण और कार्यकलाप का उल्लेख करने की और भी कम जरूरत है—ये सत्य, परमेश्वर के वचनों से एक लाख मील दूर हैं!

हमने अभी इस बारे में संगति की है कि मनुष्य के व्यवहार से परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं : वह चाहता है कि मनुष्य की वाणी और कार्य सिद्धांतवादी और दूसरों के लिए शिक्षाप्रद हों। तो इस आधार पर क्या अब सभी लोग जानते हैं कि मनुष्य जो अच्छे व्यवहार प्रकट करता है उनका कोई महत्व है—क्या वे सँजोने लायक हैं? (नहीं हैं।) तो यह देखते हुए कि तुम लोग इन्हें सँजोने लायक नहीं मानते, तुम्हें लोगों को क्या करना चाहिए? (उन्हें त्याग देना चाहिए।) व्यक्ति उन्हें कैसे त्यागता है? उन्हें त्यागने के लिए व्यक्ति के पास उनके अभ्यास के लिए एक विशिष्ट मार्ग और कदम होने चाहिए। पहले, व्यक्ति को अपनी यह जाँच करनी चाहिए कि क्या उसमें परंपरागत संस्कृति द्वारा प्रचारित सुशिक्षित और समझदार होने और सौम्य और परिष्कृत होने का व्यवहार झलकता है। ऐसी जाँच का क्या स्वरूप होता है और उसकी क्या विषय-वस्तु होती है? यही कि तुम्हें यह देखना होगा कि लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों के साथ ही तुम्हारे आचरण और कार्यकलाप का आधार क्या है, और यह देखना होगा कि शैतान की कौन-सी चीजें तुम्हारे दिल में गहरी जड़ें जमा चुकी हैं और तुम्हारे खून और हड्डियों में समा गई हैं। उदाहरण के लिए, मान लो, कोई ऐसा व्यक्ति है जो बचपन से लाड़-प्यार में पला-बढ़ा है, जो आत्म-नियंत्रण के बारे में ज्यादा नहीं जानता, फिर भी जिसकी मानवता बुरी नहीं है। वह सच्चा विश्वासी है, वह ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करता है और अपना कर्तव्य निभाता है, और वह कष्ट सहकर कीमत चुका सकता है। उसमें बस एक ही चीज गलत है : जब वह खाना खाता है, तो खाने में नखरे दिखाता है और अपने होंठ चाटता है। यह सुनकर तुम इतने परेशान होते हो कि तुम्हें अपना खाना दूभर हो जाता है। पहले तुम ऐसे लोगों के प्रति विशेष घृणा महसूस किया करते थे। तुम सोचते कि उनमें शिष्टाचार नहीं है और वे आत्म-नियंत्रण करना नहीं जानते, कि वे सुशिक्षित या समझदार नहीं हैं। अपने दिल में तुम उनका तिरस्कार कर यह सोचते थे कि ऐसे लोग नीच और गरिमाहीन होते हैं, कि वे कभी ऐसे लोग नहीं होंगे जिन्हें परमेश्वर चुनता है, और ऐसे लोग तो बिल्कुल भी नहीं होंगे जिनसे वह प्रेम करता है। तुम्हारे ऐसा मानने का क्या आधार था? क्या तुमने उनका सार समझ लिया था? क्या तुम उन्हें उनके सार के आधार पर माप रहे थे? तुम्हारे माप का क्या आधार था? जाहिर है, तुम परंपरागत चीनी संस्कृति के विभिन्न कथनों के आधार पर लोगों को माप रहे थे। तो, इस समस्या का पता चलने पर तुम्हें उन सत्यों के आधार पर क्या सोचना चाहिए, जिनके बारे में हमने आज संगति की है? “हे परमेश्वर, मैं उन्हें हेय दृष्टि से देखा करता था। मैंने कभी उनकी संगति खुशी से नहीं सुनी। जब भी वे कुछ कहते या करते थे, चाहे वे उसे करने में कितने भी सही क्यों न हों या उनकी संगति के वचन कितने भी व्यावहारिक क्यों न हों, जैसे ही मैं उनके होंठ चाटने और खाने में नखरे दिखाने के बारे में सोचता, उनकी बात सुनने की मेरी इच्छा खत्म हो जाती। मैं हमेशा उन्हें अशिष्ट या क्षमताहीन व्यक्ति समझता। अब, परमेश्वर की ओर से ऐसी संगति के माध्यम से मैं देख रहा हूँ कि लोगों के बारे में मेरे विचार परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं हैं; इसके बजाय, मैं उन बुरी आदतों और व्यवहारों को, जो लोगों के जीवन में होते हैं—खासकर उन स्थानों पर जहाँ उनमें शिष्टाचार की कमी होती है या जहाँ वे अशोभनीय होते हैं—ऐसा समझता, मानो वे उनकी मानवता-सार के उद्गार हों। अब, परमेश्वर के वचनों के आधार पर मापे जाने पर, वे सभी चीजें छोटी-छोटी गलतियाँ हैं जो उनकी मानवता-सार से संबंध नहीं रखतीं। वे सिद्धांत की समस्याएँ होने के आसपास भी नहीं ठहरतीं।” क्या यह आत्मपरीक्षण नहीं है? (है।) जो लोग परमेश्वर के वचन स्वीकार सकते हैं और सत्य समझ सकते हैं, वे ये चीजें स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं। तो, यहाँ से क्या किया जाना है? क्या कोई मार्ग है? अगर तुम यह माँग करो कि वे ये बुरी आदतें तुरंत छोड़ दें, तो क्या ऐसा हो जाएगा? (नहीं।) ऐसे छोटे-छोटे दोष अंतर्निहित होते हैं और इन्हें बदलना कठिन होता है। ये कोई ऐसी चीज नहीं हैं, जिसे व्यक्ति एक-दो दिन में बदल सके। व्यवहार संबंधी समस्याएँ हल करना ज्यादा कठिन नहीं है, लेकिन जीवन की आदतों में दोष होने के कारण उनसे छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति को कुछ समय की दरकार होती है। चूँकि वे व्यक्ति की मानवता की गुणवत्ता या उसके मानवता-सार से संबंध नहीं रखतीं, इसलिए उन्हें बहुत ज्यादा महत्व न दो या उन्हें छोड़ने से इनकार न करो। जीवन में सभी की अपनी-अपनी आदतें और तरीके होते हैं। कोई भी शून्य से नहीं आता। सभी में कुछ कमियाँ होती हैं, और वे जो भी हों, अगर वे दूसरों को प्रभावित करती हैं, तो उन्हें सुधारा जाना चाहिए। सौहार्दपूर्ण बातचीत इसी तरह हासिल की जा सकती है। लेकिन हर मामले में आदर्श होना संभव नहीं है। लोग बहुत अलग-अलग जगहों से आते हैं और जीवन में उनकी आदतें भी सब अलग-अलग होती हैं, इसलिए उन्हें एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु होना चाहिए। यह ऐसी चीज है, जो सामान्य मानवता में होनी ही चाहिए। छोटी-छोटी समस्याएँ दिल पर मत लो। सहिष्णुता बरतो। दूसरों के साथ पेश आने का यह सबसे उपयुक्त तरीका है। यह सहिष्णुता का सिद्धांत है, वह सिद्धांत और तरीका जिसके द्वारा ऐसे मामले सँभाले जाते हैं। लोगों की छोटी-छोटी खामियों के आधार पर उनका सार और मानवता निर्धारित करने की कोशिश मत करो। यह आधार पूरी तरह से सिद्धांतों के विपरीत है, क्योंकि किसी में चाहे जो भी खामियाँ या नुक्स हों, वे उस व्यक्ति के सार के बारे में नहीं बताते, न ही उनका मतलब यह होता है कि वह व्यक्ति परमेश्वर का सच्चा विश्वासी नहीं है, और यह तो बिल्कुल भी नहीं होता कि वह ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो सत्य का अनुसरण करता है। हमें लोगों की खूबियाँ देखनी चाहिए और उनके बारे में अपने विचार परमेश्वर के वचनों और मनुष्य से उसकी अपेक्षाओं पर आधारित करने चाहिए। लोगों के साथ उचित व्यवहार करने का यही तरीका है। सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति को लोगों को किस तरह देखना चाहिए? लोगों और चीजों के बारे में उसके विचार, और उसका आचरण और कार्य, सभी परमेश्वर के वचनों के अनुसार होने चाहिए और सत्य उनकी कसौटी होनी चाहिए। तो, तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को कैसे समझते हो? देखो कि उसमें जमीर और विवेक है या नहीं, वह एक अच्छा इंसान है या बुरा। उनके साथ संपर्क के दौरान तुम देख सकते हो कि उनमें कुछ छोटी-मोटी खामियाँ और कमियाँ हैं, फिर भी उनकी मानवता काफी अच्छी है। वे लोगों के साथ बातचीत में सहनशील और धैर्यवान हैं, और जब कोई नकारात्मक और कमजोर होता है, तो वे उसके प्रति प्रेमपूर्ण होते हैं और उसे पोषण प्रदान कर उसकी मदद कर सकते हैं। दूसरों के प्रति उनका यही रवैया रहता है। तो फिर, परमेश्वर के प्रति उनका क्या रवैया रहता है? परमेश्वर के प्रति उनके रवैये में, यह और भी ज्यादा मापने योग्य है कि उनमें मानवता है या नहीं। हो सकता है कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसमें वे विनम्र होते हों, खोज करते हों, लालसा रखते हों, और अपना कर्तव्य निभाने और दूसरों के साथ बातचीत करने के दौरान—जब वे कार्रवाई करते हैं—तो उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता हो। ऐसा नहीं है कि वे दुस्साहसी होते हैं, खराब ढंग से पेश आते हैं, और ऐसा भी नहीं है कि वे कुछ भी कर देते हैं और कुछ भी कह देते हैं। जब कुछ ऐसा होता है जिसमें परमेश्वर या उसका कार्य शामिल होता है, तो वे बहुत सतर्क रहते हैं। जब तुम यह सुनिश्चित कर लेते हो कि उनमें ये प्रदर्शन हैं, तो उनकी मानवता से निकलने वाली चीजों के आधार पर, तुम कैसे मापोगे कि वह व्यक्ति अच्छा है या बुरा? इसे परमेश्वर के वचनों के आधार पर मापो, और इसे इस आधार पर मापो कि उनमें जमीर और विवेक है या नहीं, और सत्य तथा परमेश्वर के प्रति उनके दृष्टिकोण के आधार पर मापो। उन्हें इन दो पहलुओं से मापकर तुम देखोगे कि हालाँकि उनके व्यवहार में कुछ समस्याएँ और दोष हैं, फिर भी वे जमीर और विवेक वाले व्यक्ति हो सकते हैं, जिनके पास परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला और उसका भय मानने वाला दिल और सत्य के प्रति प्रेम और स्वीकृति का रवैया है। अगर ऐसा है, तो परमेश्वर की नजर में वे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें बचाया जा सकता है, ऐसे व्यक्ति जिनसे वह प्रेम करता है। और यह देखते हुए कि परमेश्वर की नजर में वे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें बचाया जा सकता है और जिनसे वह प्रेम करता है, तुम्हें उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? तुम्हें लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना और उसके वचनों के अनुसार ही मापना चाहिए। वे सच्चे भाई-बहन हैं और तुम्हें उनके साथ सही तरह से और पूर्वाग्रह के बिना पेश आना चाहिए। उन्हें रंगीन चश्मे से न देखो या परंपरागत संस्कृति के कथनों के अनुसार न मापो—इसके बजाय उन्हें परमेश्वर के वचनों से मापो। जहाँ तक उनके व्यवहार संबंधी दोषों का सवाल है, अगर तुम दिल से दयालु हो, तो तुम्हें उनकी मदद करनी चाहिए। उन्हें बताओ कि उचित तरीके से कैसे कार्य करना है। अगर वे अपने व्यवहार संबंधी दोष स्वीकार सकते हों लेकिन तुरंत छोड़ न सकते हों, तो तुम क्या करोगे? तुम्हें सहिष्णुता से काम लेना चाहिए। अगर तुम सहिष्णु नहीं हो, तो इसका मतलब है कि तुम दिल से दयालु नहीं हो, और तुम्हें उनके प्रति अपने रवैये में सत्य खोजना चाहिए, और अपनी कमियों पर विचार कर उन्हें जानना चाहिए। तुम इसी तरह लोगों के साथ सही ढंग से पेश आ सकते हो। अगर, इसके विपरीत, तुम कहते हो, “उस व्यक्ति में बहुत सारे दोष हैं। वह बुरे संस्कार वाला है, वह नहीं जानता कि आत्म-नियंत्रण कैसे किया जाए, वह दूसरों का सम्मान करना नहीं जानता, और वह शिष्टाचार भी नहीं जानता। तो फिर, वह अविश्वासी है। मैं उसके साथ जुड़ना नहीं चाहता, मैं उसे देखना नहीं चाहता, और वह जो कुछ भी कहना चाहता है, चाहे वह कितना भी सही क्यों न हो, मैं उसे सुनना नहीं चाहता। कौन विश्वास करेगा कि वह परमेश्वर का भय मानता है और उसके प्रति समर्पित होता है? क्या वह इसके लायक है? क्या उसमें क्षमता है?” तो यह कैसा रवैया है? क्या दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार करना दयापूर्ण सहायता है? क्या यह सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या तुम्हारी ओर से दूसरों के प्रति ऐसा व्यवहार सत्य की समझ और अभ्यास है? क्या यह प्रेमपूर्ण है? क्या तुम हृदय से परमेश्वर का भय मानते हो? अगर व्यक्ति के परमेश्वर में विश्वास में बुनियादी दयालुता का भी अभाव है, तो क्या ऐसे व्यक्ति के पास सत्य-वास्तविकता है? अगर तुम अपनी धारणाओं से चिपके रहते हो, और लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचार तुम्हारी भावनाओं, प्रभावों, प्राथमिकताओं और धारणाओं पर आधारित रहते हैं, तो यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि तुम सत्य का लेश मात्र भी नहीं समझते और अभी भी शैतानी फलसफों पर निर्भर होकर जी रहे हो। यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि तुम सत्य के प्रेमी या उसका अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो। कुछ लोग बहुत आत्मतुष्ट होते हैं। तुम उनके साथ कितनी भी संगति करो, फिर भी वे अपने ही विचारों से चिपके रहते हैं : “मैं एक विनम्र व्यक्ति हूँ जो बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करता है—तो क्या? मैं कम से कम एक अच्छा इंसान हूँ। मेरे आचरण में क्या अच्छा नहीं है? कम से कम हर कोई मेरा सम्मान करता है।” मुझे तुम्हारे अच्छे इंसान होने पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन अगर तुम वैसे ही दिखावा करते रहे जैसे तुम कर रहे हो, तो क्या तुम सत्य और जीवन प्राप्त कर पाओगे? तुम जिस रूप में एक अच्छे इंसान हो, वह शायद तुम्हारी निष्ठा का उल्लंघन न करे या तुम्हारे आचरण के लक्ष्य और दिशा के खिलाफ न जाए, लेकिन एक चीज है जो तुम्हें समझनी चाहिए : तुम ऐसे ही करते रहे, तो सत्य समझने या सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम नहीं रहोगे, और अंत में, तुम सत्य या जीवन, या परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं कर पाओगे। यही एकमात्र संभावित नतीजा है।

मैंने अभी इस बारे में संगति की कि जन-धारणा वाले अच्छे व्यवहारों को कैसे लिया जाए, और सत्य का अनुसरण करने जैसे अच्छे व्यवहारों की पहचान कैसे की जाए। क्या अब तुम लोगों के पास कोई मार्ग है? (हाँ।) तुम्हें क्या करना चाहिए? (पहले, यह विचार करना चाहिए कि क्या खुद व्यक्ति में वैसे व्यवहार हैं। फिर, यह विचार करना चाहिए कि लोगों और चीजों पर उसके विचारों के आम आधार और मानदंड क्या हैं।) बिल्कुल सही कहा। तुम्हें स्पष्ट रूप से यह देखने से शुरुआत करनी चाहिए कि क्या लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे पूर्व विचारों में या तुम्हारे आचरण और कार्यकलाप में ऐसा कुछ है, जो मेरी आज की संगति के विपरीत या विरुद्ध है। इस पर विचार करो कि लोगों और चीजों को देखते हुए तुम जो परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण अपनाते हो, उसका आधार क्या है, क्या तुम्हारा आधार परंपरागत संस्कृति के मानक या किसी महान और प्रसिद्ध व्यक्ति की कहावतें हैं या परमेश्वर के वचन और सत्य हैं। इसके बाद, इस पर विचार करो कि क्या परंपरागत संस्कृति और महान, प्रसिद्ध लोगों के विचार और दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप हैं, वे कहाँ सत्य के साथ टकराते हैं, वे वास्तव में कहाँ गलत हो जाते हैं। ये आत्मचिंतन के दूसरे चरण की विशिष्ट बातें हैं। अब, तीसरा चरण। जब तुम्हें पता चले कि लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों को लेकर दृष्टिकोण, तरीके, आधार और मानदंड के साथ ही तुम्हारा आचरण और कार्यकलाप मनुष्य की इच्छा, समाज की बुरी प्रवृत्तियों और परंपरागत संस्कृति से पैदा होते हैं और वे सत्य के विपरीत हैं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? क्या तुम्हें परमेश्वर के प्रासंगिक वचन खोजकर उन्हें अपना आधार नहीं बनाना चाहिए? (बिल्कुल, बनाना चाहिए।) परमेश्वर के उन वचनों में सत्य-सिद्धांत खोजो, जो लोगों और चीजों को देखने के साथ-साथ आचरण और कार्यकलाप का उल्लेख करते हैं। तुम्हें इसे मुख्य रूप से इस पर आधारित करना चाहिए कि परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, या, सटीक रूप से कहें तो, परमेश्वर के वचनों के सत्य-सिद्धांतों पर। ये सत्य-सिद्धांत लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों और तुम्हारे आचरण और कार्यकलाप के आधार और मानदंड बनने चाहिए। यह करना सबसे कठिन काम है। व्यक्ति को पहले अपने विचार, धारणाएँ, मत और रवैये नकारने चाहिए। इसमें मनुष्य के कुछ गलत, विकृत विचार शामिल हैं। व्यक्ति को उन विचारों का पता लगाना चाहिए, उन्हें जानना चाहिए और उनका गहन विश्लेषण करना चाहिए। इसका दूसरा भाग यह है कि जब लोगों को परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों में उचित कथन मिल जाए, तो उन्हें उस पर गहराई से विचार करना चाहिए और उसके बारे में संगति करनी चाहिए, और जब उन्हें स्पष्ट हो जाए कि सत्य-सिद्धांत क्या हैं, तो तुरंत यह प्रश्न उठता है कि उन्हें कैसे सत्य स्वीकारना और उसका अभ्यास करना है। मुझे बताओ, जब व्यक्ति सत्य-सिद्धांत समझ लेता है, तो क्या वह जल्दी ही उन्हें स्वीकारने और उनके प्रति समर्पित होने में सक्षम हो जाता है? (नहीं।) मनुष्य की विद्रोहशीलता और उसके भ्रष्ट स्वभाव पल भर में हल नहीं किए जा सकते। मनुष्य में भ्रष्ट स्वभाव हैं, और भले ही वह जानता हो कि परमेश्वर के वचनों का क्या अर्थ है, फिर भी वह उन्हें तुरंत अभ्यास में नहीं ला सकता। हर मामले में सत्य को अभ्यास में लाना उसके लिए एक युद्ध है। मनुष्य का स्वभाव विद्रोही है। वह अपना पूर्वाग्रह, सनकीपन, हठ, अहंकार, आत्म-तुष्टि या आत्म-निष्ठा नहीं छोड़ सकता, न अपने असंख्य औचित्य और बहाने, और न ही अपना आत्म-सम्मान, हैसियत, प्रतिष्ठा या घमंड छोड़ सकता है। इसलिए, जब तुम ऐसी चीज छोड़ते हो, जिसे तुम अपनी धारणाओं में अच्छी मानते हो, तो तुम्हें अपने ये हित और अपनी सँजोकर रखी हुई चीजें त्यागनी होंगी। जब तुम ये सभी चीजें त्याग और छोड़ सकते हो, तभी तुम्हें सत्य-सिद्धांतों के अनुसार परमेश्वर के वचनों के आधार पर अभ्यास करने की आशा या मौका मिलेगा। खुद को छोड़ना और नकारना—यही वह मोड़ है, जिससे निकलना सबसे कठिन है। हालाँकि, जैसे ही तुम इसे पार कर लोगे, तुम्हारे दिल में कोई बड़ी कठिनाई नहीं बचेगी। जब तुम सत्य समझ लेते हो और अच्छे व्यवहारों का सार समझने में सक्षम हो जाते हो, तब लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचार बदल जाएँगे, और फिर तुम धीरे-धीरे परंपरागत संस्कृति की ऐसी चीजें त्यागने में सक्षम हो जाओगे। इसलिए, लोगों और चीजों के बारे में मनुष्य के गलत विचार, उसके कार्यों के तौर-तरीके और उसके कार्यों के पीछे के स्रोत और उद्देश्य बदलना—यह आसान बात नहीं है। जिस चीज को बदलना सबसे कठिन है, वह यह है कि मनुष्य में भ्रष्ट स्वभाव हैं। चीजों के बारे में मनुष्य के विचार और उसकी जीवनशैली उसके भ्रष्ट स्वभावों से उत्पन्न होती है। भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें अहंकारी, आत्म-तुष्ट और हठी बनाते हैं; वे तुमसे दूसरों का तिरस्कार करवाते हैं, हमेशा अपना नाम और रुतबा बरकरार रखने पर ध्यान केंद्रित करवाते हैं, इस पर ध्यान केंद्रित करवाते हैं कि क्या तुम सम्मान हासिल कर सकते हो और हमेशा अपनी भविष्य की संभावनाओं और नियति को ध्यान में रखते हुए दूसरों के बीच प्रमुखता पा सकते हो, इत्यादि। ये सभी वे चीजें हैं, जो तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों से पैदा होती हैं और तुम्हारे हितों पर प्रकाश डालती हैं। जब तुम इनमें से हर चीज लेकर उसे खंड-खंड कर समझते और नकारते हो, तब तुम उसे त्यागने में सक्षम होते हो। उन्हें थोड़ा-थोड़ा करके छोड़ने के बाद ही तुम अडिग रूप से और पूरी तरह से लोगों और चीजों के बारे में अपने विचारों और अपने आचरण और कार्यकलाप में परमेश्वर के वचनों को अपने आधार और सत्य को अपनी कसौटी के रूप में लेने में सक्षम होगे।

लोगों और चीजों के बारे में अपने विचारों और अपने आचरण और कार्यकलाप में परमेश्वर के वचनों को अपना आधार बनाओ—इन वचनों को हर व्यक्ति समझता है। इन्हें समझना आसान है। मनुष्य अपनी तार्किकता और विचारों में, अपने दृढ़ संकल्पों और आदर्शों में इन वचनों को समझने में सक्षम है और इनका पालन करने के लिए तैयार है। इसमें कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। लेकिन हकीकत में जब मनुष्य सत्य का अभ्यास करता है तो इनके अनुसार जीना उसके लिए कठिन होता है, और ऐसा करने में आने वाली बाधाएँ और परेशानियाँ सिर्फ उसके बाहरी परिवेश से निकलीं कठिनाइयाँ नहीं होतीं। इसका मुख्य कारण उसके भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित है। मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव उसकी विभिन्न परेशानियों का उद्गम है। जब इसका समाधान हो जाता है, तो मनुष्य की तमाम परेशानियाँ और कठिनाइयाँ कोई बड़ी समस्या नहीं रह जातीं। तो इससे यह पता चलता है कि सत्य का अभ्यास करने में मनुष्य की सभी कठिनाइयाँ उसके भ्रष्ट स्वभाव के कारण होती हैं। इसलिए, जैसे-जैसे तुम परमेश्वर के इन वचनों का अभ्यास करते हो और सत्य का अभ्यास करने की इस वास्तविकता में प्रवेश करते हो, वैसे-वैसे तुम इस चीज के प्रति और ज्यादा जागरूक होते जाते हो : “मेरा स्वभाव भ्रष्ट है। मैं वह ‘भ्रष्ट मनुष्य’ हूँ जिसकी परमेश्वर बात करता है, शैतान द्वारा अंदर तक भ्रष्ट किया गया ऐसा व्यक्ति जो शैतानी स्वभावों के अनुसार जीता है।” क्या ऐसा ही नहीं होता? (ऐसा ही होता है।) इसलिए, अगर मनुष्य को सत्य का अनुसरण और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करना है, तो नकारात्मक चीजों को जानना और उनकी असलियत समझना जीवन-प्रवेश का महज पहला कदम है, बिल्कुल शुरुआती कदम। तो, ऐसा क्यों है कि बहुत-से लोग कुछ सत्य समझते हैं पर उन्हें अभ्यास में नहीं ला पाते? क्यों वे सब धर्म-सिद्धांतों के बहुत सारे वचनों और वाक्यांशों का प्रचार कर सकते हैं, लेकिन सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर ही नहीं पाते? क्या ऐसा है कि वे सत्य के बारे में कुछ नहीं समझते? नहीं—बात इसके ठीक विपरीत है। सत्य के बारे में उनकी सैद्धांतिक, शब्द और वाक्यांश स्तर की समझ बिल्कुल वैसी ही होती है, जैसी होनी चाहिए। ये उनकी जुबान पर चढ़े होते हैं और जब वे इन्हें सुनाते हैं तो आसानी से झरने लगते हैं। बेशक, उनमें दृढ़ संकल्प होता है और उनकी मनःस्थिति और आकांक्षाएँ अच्छी होती हैं; वे सभी सत्य की दिशा में प्रयास करने के इच्छुक होते हैं। फिर भी ऐसा क्यों है कि वे सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते, बल्कि सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने में असमर्थ रहते हैं? ऐसा इसलिए है, क्योंकि जो शब्द, अक्षर और सिद्धांत वे समझते हैं, वे उनके वास्तविक जीवन में प्रकट नहीं हो पाते। तो फिर यह समस्या कहाँ से उपजती है? इसका उद्गम बीच में उनके भ्रष्ट स्वभाव की उपस्थिति में होता है, जो चीजें बाधित करता है। यही कारण है कि कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी होती है और वे यह नहीं समझते कि सत्य का अनुसरण करना क्या होता है, जो सत्य को अभ्यास में लाने में असफल होने या गिरने या न कर पाने पर हर बार प्रतिज्ञा करके अपनी इच्छा की घोषणा करते हैं। वे ऐसी अनगिनत प्रतिज्ञाएँ और घोषणाएँ करते हैं, फिर भी इससे समस्या का समाधान नहीं होता। वे अपनी इच्छा का संकल्प लेने और प्रतिज्ञाएँ करने के चरण पर रुक जाया करते हैं। वे वहीं अटके रह जाते हैं। सत्य का अभ्यास करते हुए बहुत-से लोग हमेशा अपनी इच्छा निर्धारित कर शपथ लेते हैं और कहते हैं कि वे संघर्ष करेंगे। वे रोजाना अपना उत्साह बढ़ाते हैं। तीन, चार, पाँच वर्षों का संघर्ष—और अंत में इसका नतीजा क्या होता है? कुछ भी संपन्न नहीं हुआ होता, और सबका अंत विफलता में होता है। जो थोड़ा-बहुत सिद्धांत वे समझते हैं, वह कहीं भी लागू नहीं हो पाता। जब उन पर कोई चीज आन पड़ती है, तो वे नहीं जानते कि उसे कैसे देखें, और वे उसका ओर-छोर समझ नहीं पाते। अपना आधार बनाने के लिए वे परमेश्वर के वचन नहीं ढूँढ़ पाते; वे नहीं जानते कि चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार कैसे देखें, न ही वे यह जानते हैं कि परमेश्वर के वचनों में सत्य का कौन-सा तत्त्व उस मामले पर लागू होता है जो उन पर आन पड़ा है। तब वे बड़ी चिंता से ग्रस्त हो जाते हैं, खुद से नफरत करते हैं और प्रार्थना कर परमेश्वर से और ज्यादा शक्ति और आस्था देने के लिए कहते हैं, और अंत में अभी भी अपना उत्साह बढ़ाते हैं। क्या वे मूर्ख व्यक्ति नहीं हैं? (हैं।) वे बिल्कुल बच्चों की तरह होते हैं। क्या सत्य के अनुसरण के प्रति मनुष्य का दैनिक व्यवहार वास्तव में इतना ही बचकाना नहीं है? मनुष्य सदैव अपनी इच्छा का संकल्प लेकर और प्रतिज्ञा करके, खुद को संयमित करके और अपना उत्साह बढ़ाकर सत्य का अभ्यास करने के लिए खुद को प्रोत्साहित करना चाहता है, लेकिन सत्य का अभ्यास और उसमें प्रवेश मनुष्य के आत्म-प्रोत्साहन से नहीं आता। इसके बजाय तुम्हें वास्तव में मेरे बताए तरीके और कदमों के अनुसार प्रवेश और अभ्यास करना चाहिए, एक के बाद दूसरा कदम रखते हुए, दृढ़ और स्थिर गति के साथ चलते हुए। सिर्फ इसी तरह तुम्हें नतीजे मिलेंगे; सिर्फ इसी तरह तुम सत्य का अनुसरण कर रहे होगे और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। इससे बचने का कोई छोटा रास्ता नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि थोड़े-से दिल, खुद को खपाने की थोड़ी-सी इच्छा, बड़ी इच्छाशक्ति और महान लक्ष्य के साथ, सत्य तुम्हारी वास्तविकता बन जाएगा, बल्कि व्यक्ति को लोगों, घटनाओं और चीजों के बीच अपने वास्तविक जीवन में खोजने, प्रवेश करने, अभ्यास करने और समर्पण करने के बुनियादी सबक सीखने चाहिए। ये सबक सीखने के बाद ही मनुष्य सत्य और परमेश्वर के वचनों के संपर्क में आ सकता है या उनका अनुभव कर सकता है या उन्हें जान सकता है। ऐसा किए बिना मनुष्य को अपने दिल का खालीपन भरने के लिए थोड़े-से सिद्धांत से ज्यादा कुछ हासिल नहीं होगा, चाहे वह खुद को प्रेरित, प्रोत्साहित करने और अपना उत्साह बढ़ाने में कितने भी साल बिता दे। उसे सिर्फ थोड़ी-सी क्षणिक आध्यात्मिक संतुष्टि महसूस होगी, सच्चा सार जरा भी प्राप्त नहीं होगा। सच्चा सार जरा भी प्राप्त न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों और तुम्हारे आचरण और कार्यकलाप का आधार परमेश्वर के वचन नहीं हैं। परमेश्वर के ऐसे कोई वचन नहीं मिलते, जो लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों या आचरण और कार्यकलाप पर तुम्हारे दृष्टिकोण में आधार के रूप में काम करते हों। तुम एक भ्रमित जीवन जीते हो, सहायता-विहीन जीवन जीते हो, और जितनी ज्यादा बार ऐसा होता है कि तुम्हें एक ऐसे मुद्दे का सामना करना पड़ता है, जिसके लिए तुम्हें अपने विचार, सिद्धांत और रुख प्रदर्शित करने की आवश्यकता होती है, उतनी ही ज्यादा तुम्हारी अज्ञानता, मूर्खता, खोखलापन और लाचारी जाहिर होती है। सामान्य परिस्थितियों में तुम कुछ सही सिद्धांत और जुमले दोहराने में सक्षम रहते हो, मानो तुम सब-कुछ समझ गए हो। लेकिन जब कोई समस्या उत्पन्न हो जाती है और कोई तुमसे तुम्हारी स्थिति घोषित करवाने और यह स्थापित करवाने के लिए आता है कि तुम्हारा क्या मत है, तो तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ नहीं होगा। कुछ लोग कहेंगे, “कहने के लिए कुछ नहीं? ऐसा नहीं है—बल्कि ऐसा है कि मैं उन्हें कहने की हिम्मत नहीं करूँगा।” अच्छा, तुम हिम्मत क्यों नहीं करोगे? यह दर्शाता है कि तुम इस चीज को लेकर अनिश्चित हो कि तुम जो कर रहे हो, वह सही है या नहीं। तुम इसके बारे में अनिश्चित क्यों होगे? क्योंकि जब तुम वह चीज कर रहे थे, तो तुमने कभी इसकी पुष्टि नहीं की कि तुम जो कर रहे हो उसका आधार क्या है, न ही उसे करने में तुम्हारे क्या सिद्धांत हैं, और न निश्चित रूप से यह कि तुम मामले को परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर देख और कर रहे हो। इसलिए, जब कोई समस्या आती है, तो तुम अनाड़ी और अशक्त दिखने लगते हो। कुछ लोग आश्वस्त नहीं होते। वे कहते हैं, “मैं वैसा नहीं हूँ। मैं कॉलेज में पढ़ा हूँ। मैंने स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की है,” या “मैं एक दार्शनिक, एक प्रोफेसर, एक उच्च कोटि का बुद्धिजीवी हूँ,” या “मैं एक सुसंस्कृत व्यक्ति हूँ। जो मैं कहता हूँ, तुम उसे छापने के लिए ले जा सकते हो,” या “मैं एक महत्वपूर्ण विद्वान हूँ,” या “मैं एक प्रतिभा हूँ।” क्या ये चीजें दोहराना तुम्हारे लिए किसी काम का है? ये तुम्हारे गुण नहीं हैं। ज्यादा से ज्यादा, इन चीजों का मतलब यह है कि तुम्हारे पास थोड़ा ज्ञान है। यह परमेश्वर के घर में उपयोगी होगा या नहीं, यह कहना कठिन है, लेकिन कम से कम यह निश्चित है कि तुम्हारा वह ज्ञान सत्य के समान नहीं है, और यह तुम्हारा आध्यात्मिक कद नहीं दर्शाता। यह कहने का क्या मतलब है कि तुम्हारा ज्ञान तुम्हारा आध्यात्मिक कद नहीं दर्शाता? ऐसी चीजें तुम्हारा जीवन नहीं हैं; वे तुम्हारे शरीर के बाहर हैं। तो फिर तुम्हारा जीवन क्या है? यह एक ऐसा जीवन है, जिसका आधार और मानदंड शैतान के तर्क और फलसफे हैं, यहाँ तक कि अपने ज्ञान, अपनी संस्कृति, अपने उस दिमाग से भी तुम इन चीजों को दबा नहीं सकते या उन्हें नियंत्रित नहीं कर सकते। इसलिए, किसी समस्या के आने पर तुम्हारी प्रतिभा और मेधा का झरना और तुम्हारा प्रचुर ज्ञान किसी काम नहीं आएगा—या ऐसा भी हो सकता है कि जब तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का एक पहलू सामने आए, तो तुम्हारा धैर्य, संस्कार, ज्ञान और इस तरह की तमाम चीजें तुम्हारे जरा भी काम न आएँ। तब तुम असहाय महसूस करोगे। ये सभी चीजें वे अजीब तरीके हैं, जिनमें सत्य का अनुसरण न करना और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश की कमी मनुष्य में अभिव्यक्त होती है। क्या सत्य में प्रवेश करना आसान है? क्या इसमें कोई चुनौती है? कहाँ है? अगर तुम मुझसे पूछो तो इसमें कोई चुनौती नहीं है। अपनी इच्छा का संकल्प लेने या प्रतिज्ञाएँ करने पर ध्यान केंद्रित न करो। वे बेकार हैं। जब तुम्हारे पास अपनी इच्छा का संकल्प लेने या प्रतिज्ञाएँ करने का समय हो, तो उस समय को परमेश्वर के वचनों के लिए मेहनत करने में लगाओ। विचार करो कि वे क्या कहते हैं, उनका कौन-सा हिस्सा तुम्हारी वर्तमान स्थिति का जिक्र करता है। अपनी इच्छा निर्धारित करना बेकार है। तुम अपनी इच्छा निर्धारित करने में अपना सिर फोड़कर खून भी बहा दो, तो भी यह बेकार होगा। यह किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकता। तुम मनुष्य और राक्षसों को इस तरह धोखा दे सकते हो, लेकिन परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकते। परमेश्वर तुम्हारी इस इच्छा से प्रसन्न नहीं होता। कितनी बार तुमने अपनी इच्छा निर्धारित की है? तुम प्रतिज्ञाएँ करते हो, फिर उन्हें छोड़ देते हो, और छोड़ने के बाद उन्हें फिर से करते हो, और फिर उन्हें छोड़ देते हो। यह तुम्हें किस तरह का व्यक्ति बनाता है? तुम अपना वचन कब निभाओगे? तुम अपना वचन निभाते हो या नहीं, या अपनी इच्छा का संकल्प लेते हो या नहीं, यह कोई मायने नहीं रखता। तुम कोई प्रतिज्ञा करते हो या नहीं, इसका भी कोई असर नहीं पड़ता। वह क्या है, जो अहम है? वह यह है कि तुम जो सत्य समझते हो, उसे अभी, तुरंत, फौरन अभ्यास में लाते हो। भले ही वह सबसे स्पष्ट सत्य हो, जो दूसरों का ध्यान सबसे कम आकर्षित करता है और तुम खुद उस पर सबसे कम बल देते हो, उसका तुरंत अभ्यास करो—उसमें तुरंत प्रवेश करो। अगर तुम ऐसा करते हो, तो तुम तुरंत सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर लोगे, और तुरंत ही सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल पड़ोगे। तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति बनने के कगार पर होगे। इस नींव पर तुम जल्दी ही एक ऐसे व्यक्ति बनने में सक्षम होगे, जो परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखता है और आचरण और कार्य करता है। यह कितना बड़ा उपहार होगा—कितना ठोस मूल्य होगा!

परंपरागत संस्कृति में अच्छे व्यवहार से संबंधित कहावतों पर संगति करने के बाद, क्या तुम लोगों ने उनके बारे में कोई समझ हासिल की है? तुम्हें इस तरह के अच्छे व्यवहार को कैसे लेना चाहिए? कुछ लोग कह सकते हैं, “आज से मैं सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत, या विनम्र व्यक्ति नहीं बनूँगा। मैं एक तथाकथित ‘अच्छा’ व्यक्ति नहीं बनूँगा; मैं वह नहीं बनूँगा जो बड़ों का सम्मान या छोटों की परवाह करता है; मैं मिलनसार, सुलभ व्यक्ति नहीं बनूँगा। इनमें से कुछ भी सामान्य मानवता का स्वाभाविक उद्गार नहीं है; यह कपटपूर्ण व्यवहार है जो नकली और झूठा है, और यह सत्य के अभ्यास के स्तर तक नहीं पहुँचता। मैं किस तरह का व्यक्ति बनूँगा? मैं एक ईमानदार व्यक्ति बनूँगा; मैं एक ईमानदार व्यक्ति बनने से शुरुआत करूँगा। अपनी वाणी में मैं अशिक्षित, नियमों को न समझने वाला, ज्ञान की कमी वाला, और दूसरों द्वारा नीची निगाह से देखा जाना वाला हो सकता हूँ, लेकिन मैं स्पष्ट रूप से, ईमानदारी से और बिना झूठ के बोलूँगा। एक व्यक्ति के रूप में और अपने कार्यों में मैं कृत्रिम नहीं बनूँगा और कोई दिखावा नहीं करूँगा। जब भी मैं बोलूँगा, दिल से बोलूँगा—मैं वही कहूँगा जो मैं मन में सोचता हूँ। अगर मुझे किसी से घृणा है, तो मैं खुद को जाँचूँगा, और कुछ भी ऐसा नहीं करूँगा जो उसे चोट पहुँचाता हो; मैं केवल वही चीजें करूँगा, जो रचनात्मक हों। जब मैं बोलूँगा, तो मैं अपने निजी लाभ पर ध्यान नहीं दूँगा, और न ही अपनी प्रतिष्ठा या इज्जत से जकड़ा जाऊँगा। इतना ही नहीं, मैं यह इरादा भी नहीं रखूँगा कि लोग मेरे बारे में ऊँची राय रखें। मैं केवल इस बात को महत्व दूँगा कि परमेश्वर प्रसन्न है या नहीं। लोगों को आहत न करना मेरी आधार-रेखा होगी। मैं जो करूँगा, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार करूँगा; मैं दूसरों को नुकसान पहुँचाने के लिए काम नहीं करूँगा, न ही मैं परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने वाला काम करूँगा। मैं केवल वही करूँगा जो दूसरों के लिए फायदेमंद हो, मैं केवल एक ईमानदार और परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला व्यक्ति बनूँगा।” क्या यह व्यक्ति में बदलाव नहीं है? अगर वह वास्तव में इन शब्दों का अभ्यास करता है, तो वह वास्तव में बदल चुका होगा। उसके भविष्य और भाग्य बदलकर बेहतर हो जाएंगे। वह शीघ्र ही सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलेगा, शीघ्र ही सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करेगा, और शीघ्र ही उद्धार की आशा रखने वाला व्यक्ति बन जाएगा। यह अच्छी चीज है, सकारात्मक चीज है। क्या इसके लिए तुम्हें अपनी इच्छा निर्धारित करने या प्रतिज्ञा करने की आवश्यकता है? इसके लिए किसी चीज की आवश्यकता नहीं है : न इसकी कि तुम परमेश्वर के लिए अपनी इच्छा निर्धारित करो; न ही इसकी कि तुम अपने पूर्व अपराधों, गलतियों और विद्रोहशीलता की सूची बनाओ, परमेश्वर के सामने पाप कबूलने और उससे क्षमा माँगने की जल्दबाजी करो। ऐसी औपचारिकताओं की कोई जरूरत नहीं है। बस अभी, तुरंत, फौरन कुछ सच्चा और दिल से कहो, और बिना झूठ या चालाकी के कुछ ठोस करो। तब तुमने कुछ हासिल किया होगा, और तुम्हारे लिए एक ईमानदार व्यक्ति बनने की आशा होगी। जब व्यक्ति ईमानदार बन जाता है, तो उसे सत्य-वास्तविकता प्राप्त हो जाती है और वह एक इंसान की तरह जीना शुरू कर देता है। ऐसे ही लोग होते हैं, जिन्हें परमेश्वर अनुमोदित करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।

5 फ़रवरी 2022

फुटनोट :

क. कोंग रोंग एक प्रसिद्ध चीनी कहानी का पात्र है, जिसके जरिये परंपरागत रूप से बच्चों को शिष्टाचार और भाइयों के प्रेम के मूल्यों की शिक्षा दी जाती है। कहानी यह है कि जब चार-वर्षीय कोंग रोंग के परिवार को नाशपातियों की टोकरी मिली, तो कैसे उसने अपने बड़े भाइयों को बड़ी-बड़ी नाशपातियाँ दीं और खुद सबसे छोटी नाशपाती ली।

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