सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (2)

अपनी पिछली सभा में हमने सत्य का अनुसरण करने के अर्थ के बारे में संगति की थी। आओ एक समीक्षा के साथ शुरू करें : सत्य का अनुसरण करने का अर्थ क्या है? क्या तुम्हारे पास इस सवाल का जवाब है? क्या तुम लोगों ने हमारी पिछली संगति के बाद इस पर विचार किया था? हमारे किसी विषय पर संगति पूरी कर लेने के बाद तुम्हें उन पर विचार करने और फिर अपने वास्तविक जीवन में व्यावहारिक रूप से उनका अनुभव करने और उनसे गुजरने की आवश्यकता होगी। तभी तुम सच्चा ज्ञान प्राप्त कर पाओगे; तभी तुम वास्तव में उन विषयों को समझ और सराह पाओगे जिन पर तुम विचार करते रहे हो; तभी तुम सच्चा अनुभव और ज्ञान पेश कर पाओगे। क्या ऐसा नहीं है? (बिलकुल।) तो, क्या तुम लोगों ने उस सवाल पर मनन किया? सत्य का अनुसरण करने का अर्थ क्या है? सत्य के अनुसरण में कौन-से तत्त्व शामिल हैं? इसमें कौन-सी मुख्य चीजें शामिल हैं? क्या तुम लोगों ने उन चीजों का सारांश तैयार किया है? (पिछली बार परमेश्वर ने सत्य के अनुसरण के संबंध में मनुष्य के विभिन्न गलत विचारों, दृष्टिकोणों और रवैयों के बारे में संगति करने से शुरुआत की थी, फिर परमेश्वर ने सत्य का अनुसरण करने के पाँच चरणों पर विस्तार से संगति की थी।) हमारी पिछली संगति के अनिवार्य रूप से दो प्रमुख भाग थे : सत्य के अनुसरण के संबंध में बहुत-से लोगों की कुछ नकारात्मक दशाएँ या गलत विचार, सत्य का अनुसरण करने के बारे में लोगों की गलतफहमियाँ, और साथ ही सत्य का अनुसरण न करने को लेकर लोगों के बहाने और औचित्य—यह था पहला प्रमुख भाग। दूसरा था इस बारे में संगति कि सत्य का अनुसरण कैसे करें, जिसमें पाँच चरण शामिल थे। हालाँकि इसके केवल दो भाग थे, फिर भी हमने उनमें से प्रत्येक के भीतर बहुत सारे विवरणों और विशिष्ट बातों पर गौर किया। मैंने सत्य के अनुसरण के बारे में मनुष्य के कुछ भ्रामक ज्ञान और समझ को उजागर किया, और मैंने सत्य का अनुसरण करने में मनुष्य के सामने आने वाली कई कठिनाइयाँ भी उजागर कीं, साथ ही कुछ बहाने, औचित्य और हीले-हवाले भी उजागर किए, जो सत्य से उकताए हुए लोग उसका अनुसरण न करने पर देते हैं। जब सत्य के अनुसरण की बात आती है, तो लोग जो नकारात्मक, निष्क्रिय रवैया और अनुभूति प्रदर्शित करते हैं, वे उन जीवन-शैलियों और अनुसरणों के अनुरूप होती हैं जिन पर वे अपने वास्तविक जीवन में कायम रहते हैं, साथ ही वे सत्य के प्रति उनके रवैये के अनुरूप भी होते हैं—वे सभी लोगों के विशिष्ट व्यवहारों और विशिष्ट उद्गारों से संबंधित होते हैं। फिर, मनुष्य के विभिन्न व्यवहारों के आधार पर, मैंने सत्य का अनुसरण करने के मार्ग के संबंध में कुछ विशिष्ट विधियाँ और अभ्यास के चरण पेश किए थे। क्या यह सब तुम्हें स्पष्ट है? (हाँ।) क्या वाकई? फिर तुम कुछ बोलते क्यों नहीं? ऐसा लगता है कि यह अभी भी तुम्हें उतना स्पष्ट नहीं है; और भी बहुत-कुछ है, जिस पर हमें संगति करने की आवश्यकता है।

परमेश्वर में विश्वास करने में सबसे बड़ी बात सत्य का अनुसरण करना है। सत्य का अनुसरण करने का अर्थ क्या है? जब सत्य का अनुसरण करने की बात आती है, तो लोगों की सभी अभिव्यक्तियाँ उनकी कई परेशानियों और कठिनाइयों को उजागर कर देती हैं, और लोगों के पास सत्य का अनुसरण न करने के लिए तमाम तरह के औचित्य और बहाने होते हैं—बाधाएँ इतनी बड़ी हैं। अपनी विभिन्न कठिनाइयों के कारण सत्य का अनुसरण करने की बात आने पर लोग बहुत परेशान और असहज दिखते हैं और सोचते हैं कि यह बहुत कठिन है। वास्तव में, अपने आप में इस प्रश्न—“सत्य का अनुसरण करने का अर्थ क्या है?”—का उत्तर देना आसान है, तो ऐसा क्यों है कि लोग सत्य का अनुसरण नहीं कर पाते? इसका कारण क्या है? सभी शेखी बघारते हैं कि उनमें विवेक और समझ है, कि वे वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, कि वे अपना कर्तव्य पूरा कर सकते हैं, कि वे कष्ट सहने और कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं। ऐसा कैसे है कि इन अच्छे व्यवहारों की नींव होने पर भी वे सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने में असमर्थ रहते हैं? उनके पास इतनी अच्छी मानवता, सत्यनिष्ठा और बड़ी प्रतिष्ठा है; अपने अनुसरण के बारे में उनकी अपनी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और अभिलाषाएँ हैं; उनके अपने व्यक्तिपरक परिश्रम हैं, कठिनाइयाँ सहने की उनकी इच्छा और कीमत चुकाने का रवैया है; सत्य स्वीकारने के लिए लालायित रहने का उनका सक्रिय, सकारात्मक, ऊर्ध्वदर्शी रवैया है। उनकी नींव इन चीजों की बनी होने पर भी ऐसा कैसे है कि वे सत्य का अनुसरण करने के योग्य नहीं हैं? ऐसा क्यों है कि वे सत्य का अनुसरण हासिल नहीं कर पाते? समस्या की जड़ कहाँ है? (मनुष्य सत्य से प्रेम नहीं करता और उसकी प्रकृति ही उससे उकताने की है।) यह एक सटीक उत्तर है। सबसे बुनियादी कारण यह है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं। मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव शैतान का है, और जो कुछ भी शैतान का है, वह परमेश्वर और सत्य का विरोधी है। इसलिए, लोगों से सत्य का अनुसरण करने के लिए कहना उनसे अपना अंतर्निहित जीवन और विशेषताएँ, और अनुसरण का अपना अंतर्निहित तरीका और जीवन के बारे में दृष्टिकोण त्यागने की अपेक्षा करने के समान है। ये गलत चीजें छोड़ना, अपनी दैहिक प्राथमिकताएँ त्यागना, और इनके बजाय परमेश्वर के वचनों और सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना, जो उनकी देह को पसंद नहीं है, जो उनके पास नहीं है, और जिसका वे तिरस्कार करते हैं, जिससे घृणा करते हैं और जिसे नकारते हैं—यही है जो उन्हें मुश्किल लगता है। तुमसे सत्य का अनुसरण करने के लिए कहना तुमसे अपना अंतर्निहित जीवन छोड़ने के लिए कहने के समान है। क्या यह वैसा ही नहीं है, जैसे तुमने अपना जीवन अर्पित कर दिया हो? (यह वैसा ही है।) यह तुम्हारे द्वारा अपना जीवन अर्पित करना ही है। क्या लोग चीजों के लिए स्वेच्छा से अपना जीवन अर्पित करते हैं? (नहीं।) अपने हृदय की गहराइयों में वे कहते हैं, “मैं नहीं करूँगा”—सौ बार, हजार बार, दस हजार बार : “मैं नहीं करूँगा।” कुछ भी हो, लोगों के लिए अपनी अंतर्निहित, शैतानी चीजें छोड़ना कठिन है। यह एक तथ्य है, ऐसा तथ्य जिसे तुम लोगों ने गहराई से और वास्तव में अनुभव किया है। अपने हृदय की गहराइयों से लोग सत्य का अनुसरण करने के लिए देह-सुख त्यागने के या अपना वह जीवन छोड़ने के इच्छुक नहीं होते, जिसकी प्रकृति और सार शैतान का है; वे अपने अंतर्निहित, शैतानी लक्षणों या अपनी शैतानी प्रकृति त्यागने के इच्छुक नहीं होते। इसलिए, शैतानी स्वभावों के अनुसार जीने वाले शैतानी प्रकृति के लोगों के लिए, सत्य से प्रेम करना और उसका अनुसरण करना उनकी इच्छा के विपरीत होता है, और वे ऐसा करने के लिए अनिच्छुक रहते हैं। इसका मूल क्या है? वह यह है कि मनुष्य के भीतर के लक्षण शैतान के हैं, और वे कुदरती तौर पर परमेश्वर के विरोधी हैं। इसलिए, सत्य सुनने और समझने के बाद केवल वे लोग ही उसे अभ्यास में लाने में सक्षम रहते हैं, जो सत्य से प्रेम करते हैं, जो उसके लिए प्रयास करने और कीमत चुकाने के लिए तैयार होते हैं, जिनमें यह इच्छा, आकांक्षा और अभिलाषा होती है। केवल वे ही सत्य के अनुसार जीने और उसकी वास्तविकता को जीने में सक्षम हैं। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो सत्य का अभ्यास करने के इच्छुक होते हैं, लेकिन उन्हें उनकी शैतानी प्रकृति और स्वभाव बाधित करते हैं; चाहें भी तो वे सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते। तथ्य यह है कि वास्तविक जीवन में सत्य का अभ्यास करना बहुत कठिन कार्य है। तुमसे अपने पसंदीदा कपड़े और गहने, या वे चीजें जिनका तुम आनंद लेते हो, या नौकरी और कैरियर जिसे तुम पसंद करते हो, या अपनी खूबियाँ और शौक, या ऐसी कोई भी चीज छोड़ने के लिए कहना एक बात है। तुम इनमें से किसी को भी छोड़ सकते हो; इन्हें छोड़ना आसान है। लेकिन तुमसे अपने देह-सुख और अपने शैतानी स्वभाव का त्याग करवाना, सत्य का अभ्यास करवाना और परमेश्वर के प्रति समर्पण करवाना—यह कहीं अधिक कठिन है। एक थोड़े कम सटीक वाक्यांश का उपयोग करके इसे बताऊँ तो यह बत्तख को मचान पर या बैल को पेड़ पर चढ़ने के लिए मजबूर करने जैसा होगा—ये चीजें उनके लिए बहुत कठिन हैं। अब, बिल्ली को पेड़ पर चढ़ाना आसान होगा; यह उसके लिए स्वाभाविक है। लेकिन किसी बिल्ली को मांस के बदले घास खिलाना बिलकुल असंभव होगा। अगर तुम किसी व्यक्ति से थोड़ा-सा कष्ट उठाने, थोड़ी-सी कीमत चुकाने और शेष जीवन विनम्रतापूर्वक जीने के लिए कहो, तो यह ऐसी चीज है जिसे करने की इच्छा रखने वाला कोई भी व्यक्ति हासिल कर सकता है। असल में, कोई भी शारीरिक कठिनाई ऐसे व्यक्ति के लिए बड़ी समस्या नहीं होती, जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करता है और सत्य के लिए तरसता है। उदाहरण के लिए, शारीरिक सुख-सुविधाओं में लिप्त न होना; या अपनी रोज की नींद का समय कम करना; या लगातार दस साल तक बेघर रहना; या बहुत खराब भोजन, कपड़ों, आवास और परिवहन से काम चलाना—ऐसी कठिनाइयाँ कोई भी उठा सकता है या और ऐसी कीमतें कोई भी चुका सकता है, बशर्ते उसमें ऐसा करने की इच्छा हो, और वह सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार हो, और उसमें थोड़ा आत्म-संयम हो। लेकिन अगर तुम किसी से देह-सुख और शैतान को त्यागने के लिए, पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार और उसके वचनों के आधार पर कार्य करने के लिए, सत्य के अनुसार अभ्यास करने और इस प्रकार परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के लिए कहोगे, तो किसी भी व्यक्ति को यह कठिन लगेगा। मनुष्य की कठिनाइयाँ यही हैं। इसलिए, सत्य का अनुसरण करने में, ऐसा नहीं है कि लोग बस एक संकल्प लेकर इसे करना शुरू कर सकते हैं, या आत्म-संयम का अभ्यास और नियमों का पालन कर सकते हैं, और फिर सत्य को अभ्यास में ला सकते और सत्य प्राप्त कर सकते हैं। सत्य का अनुसरण करना भ्रष्ट मनुष्य के लिए सबसे कठिन और सबसे दुष्कर चीज है। इस समस्या की जड़ कहाँ है? (यह शैतान के स्वभाव में निहित है।) यह सही है। शैतान का स्वभाव मनुष्य की सबसे बड़ी चुनौती है। हो सकता है कि व्यक्ति की काबिलियत कम हो या उसका मिजाज और व्यक्तित्व खराब हो, हो सकता है उसके पास कोई उल्लेखनीय खूबी, प्रतिभा या गुण न हो—इनमें से कोई भी चीज उसके लिए बड़ी चुनौती नहीं होगी। अंततः, समस्या मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में होती है। भ्रष्ट स्वभाव लोगों के हाथ-पैर, उनके मन और ख्याल, उनके विचार, उनके सोचने का तरीका, और उनकी आत्मा की गहराई को अपने नियंत्रण की ऐसी मजबूत पकड़ में रखता है कि सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर एक-एक इंच चलना उनके लिए कठिन होता है। हो सकता है कि व्यक्ति तीन या पाँच साल तक बिना कुछ हासिल किए परमेश्वर में विश्वास करता रहे; यहाँ तक कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने दस, बीस या तीस साल तक विश्वास किया है, और इससे केवल थोड़ी-सी चीजें ही प्राप्त की हैं। उनमें से कुछ ने तो कुछ भी प्राप्त नहीं किया है—वे खाली-हाथ लोग कितने दरिद्र और दयनीय हैं! उन्होंने तीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, लेकिन वे दरिद्र और अंधे ही हैं, उनके पास दिखाने के लिए कुछ नहीं है। जब वे नकारात्मकता में पड़ते हैं, तो वे नहीं जानते कि उससे कैसे उबरें; जब वे परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों में पड़ते हैं, तो वे नहीं जानते कि उन्हें कैसे दूर करें; जब उन पर विपत्ति आती है, तो वे नहीं जानते कि उसका सामना कैसे करें, न ही वे यह जानते हैं कि उस तरह की कठिनाई कैसे दूर की जाए। क्या स्वयं को संयमित करने की व्यक्तिपरक इच्छाशक्ति के उपयोग मात्र से या धैर्य के सहारे अनंत रूप से प्रयास करते रहने से समस्याएँ हल की जा सकती हैं? लोग परिस्थितियों से कदम-दर-कदम तब तक जूझते रहते हैं जब तक कि वे गुजर नहीं जातीं, लेकिन उनके भ्रष्ट स्वभाव फिर भी बने रहते हैं। उनका समाधान नहीं होता है। चाहे उन्होंने कितनी भी बार नकारात्मकता या परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों का अनुभव किया हो, या परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखी हों, या विफल हुए हों, गिरे हों और कमजोर हुए हों, फिर भी आज तक वे न तो जरा-सी भी अनुभवात्मक गवाही देने में सक्षम हैं, न ही उनके पास परमेश्वर के वचनों के अपने ज्ञान, अनुभव या अनुभूति के बारे में कहने के लिए एक भी चीज है। उनके हृदय खाली हैं; उनकी आत्मा में गहराई नहीं है। उनके पास सत्य की कोई अनुभवात्मक समझ नहीं है, और उन्हें परमेश्वर के वचनों का कोई सच्चा ज्ञान नहीं है, और वे उसके कार्य और स्वभाव के ज्ञान से और भी दूर हैं। क्या वे दरिद्र, अंधे और दयनीय नहीं हैं? (हैं।) अगर कोई सत्य का अनुसरण नहीं करता, तो चाहे वह कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहा हो, यह व्यर्थ है। तो फिर, व्यक्ति खुद को इस मुकाम तक क्यों आने देगा? इसका कारण कहाँ है? यहाँ भी समस्या मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में ही उत्पन्न होती है। यह वस्तुपरक कारण है।

हम यह पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि लोगों द्वारा सत्य का अनुसरण न करने का वस्तुपरक कारण क्या है। अब हम व्यक्तिपरक कारण के बारे में कुछ बात करेंगे। व्यक्तिपरक कारण यह है कि भले ही लोगों ने परमेश्वर के कार्य और उसके सभी वचनों से या अपने वास्तविक जीवन से यह जान लिया हो कि उनका स्वभाव भ्रष्ट है, पर वे कभी खुद को तुलना के लिए परमेश्वर के वचनों और सत्य के सामने नहीं रखते, वे कभी अपने भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान प्राप्त नहीं करते और उसे त्यागते नहीं, और वे कभी परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं करते। बात यह है कि भले ही लोग परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर बहुत अधिक श्रम कर सकते हैं और खप सकते हैं, भले ही वे बहुत कठिन परिश्रम कर सकते हैं, अत्यधिक कष्ट उठा सकते हैं और इसके लिए बहुत-सी कीमत चुका सकते हैं, पर ये सब केवल बाहरी व्यवहार हैं। ये यह साबित नहीं करते कि व्यक्ति सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल पड़ा है। जिन लोगों ने सबसे अधिक कष्ट उठाया है, वे वो हैं जिन्होंने शुरुआती दिनों में ही परमेश्वर का अनुसरण करना शुरू कर दिया था, जिन्होंने लगभग बीस वर्ष की आयु में अपने कर्तव्य सँभाल लिए थे। ये लोग अब लगभग पचास वर्ष के हैं और अभी तक अविवाहित हैं। तुम कह सकते हो कि उन्होंने अपनी जवानी परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए समर्पित कर दी है, और परिवार और विवाह का त्याग किया है। क्या यह बड़ी कीमत है? (हाँ।) उन्होंने अपनी जवानी त्याग दी और अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया, पर इससे हुआ क्या? उन्होंने जो कीमत चुकाई वह बड़ी थी, लेकिन अंत में उन्हें जो हासिल हुआ, वह उनके व्यय के बराबर या उसके अनुरूप नहीं है। यहाँ क्या समस्या है? जिस रवैये और संकल्प के साथ वे कीमत चुकाते हैं, और उनके खपने की अवधि, परिमाण और मात्रा के आधार पर, ऐसा लगता है जैसे उन्हें सत्य समझना चाहिए और उसका अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए। तुम सोचोगे कि उनके पास परमेश्वर के लिए गवाही और श्रद्धालु हृदय होना चाहिए; कि उन्हें परमेश्वर का ज्ञान होना चाहिए; कि उन्हें पहले से ही परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चल चुका होना चाहिए; कि उन्हें पहले ही सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर चुका होना चाहिए। लेकिन वास्तव में, यह सिर्फ एक अनुमान है—इन दोनों चीजों का केवल एक तार्किक संबंध है, यह तथ्यों या जिसे ये लोग जीते हैं, उसके अनुरूप नहीं है। यहाँ क्या समस्या है? क्या हमें इसे जाँच और चर्चा का विषय नहीं बनाना चाहिए? क्या यह ऐसी समस्या नहीं है, जिस पर गहन विचार किया जाना चाहिए? (यह ऐसी समस्या है।) जिन लोगों ने दो या तीन वर्षों से परमेश्वर के कार्य का यह चरण स्वीकारा है, उनके बीच में अनुभव और गवाही वाले लोगों की कोई कमी नहीं है। वे इस बात की गवाही देते हैं कि कैसे परमेश्वर के वचनों ने उन्हें बदल दिया है और उन्हें ईमानदार इंसान बना दिया है; वे इस बात की गवाही देते हैं कि कैसे परमेश्वर के वचनों ने उन्हें सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर सत्य समझने दिया है; वे इस बात की गवाही देते हैं कि कैसे परमेश्वर के वचनों ने उनके भ्रष्ट स्वभावों, उनके अहंकार और छल-कपट, उनके विद्रोह, उनकी रुतबे की लालसा, उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं आदि का समाधान कर दिया है। परमेश्वर में विश्वास करने के मात्र दो-तीन वर्षों के बाद ही ये लोग अनुभव करने और गवाही देने में सक्षम हैं; उन्हें परमेश्वर के वचनों की गहरी अनुभवात्मक समझ है, और वे उसके वचनों की सच्चाई महसूस कर सकते हैं। फिर, क्यों कुछ लोगों ने बीस-तीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है और इतनी ज्यादा कीमत चुकाई है, इतना ज्यादा कष्ट उठाया है और इतनी ज्यादा भागदौड़ की है, लेकिन उनके हृदय की गहराई और उनके आध्यात्मिक संसार खाली और खोखले हैं? बहुत-से लोग, जो इस तरह की स्थिति में हैं, अक्सर खोया हुआ महसूस करते हैं। वे हमेशा कहते हैं, “मैं तो खो गया हूँ।” मैं कहता हूँ, “तुमने अब तक बीस-तीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है। तुम अभी भी कैसे खोए हुए हो? यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि तुमने कुछ भी प्राप्त नहीं किया है।” आज भी कुछ लोग नकारात्मक और कमजोर हैं। वे कहते हैं, “मैंने इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है, लेकिन प्राप्त क्या किया है?” अक्सर, जब वे नकारात्मक और कमजोर होते हैं, या जब वे अपनी हैसियत और लाभों से वंचित हो जाते हैं, या जब उनका अहंकार संतुष्ट नहीं होता, तो वे परमेश्वर को दोष देते हैं और इतने वर्षों तक उस पर विश्वास करने पर पछताते हैं। उन्हें उसके वचनों पर विश्वास करने पर ही पछतावा होता है, उन्हें इस बात पर पछतावा होता है कि उन्होंने परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपनी नौकरी, शादी और परिवार, कॉलेज जाने का अपना मौका दृढ़ रहकर जाने दिया। उनमें से कुछ तो कलीसिया छोड़ने की भी सोचते हैं। वे अब अपनी आस्था के बारे में पछतावे से इतने भरे होते हैं—उन्होंने इसकी परवाह ही क्यों की? उन्होंने बीस या तीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, उन्होंने बहुत-से सत्य सुने हैं और परमेश्वर के कार्य का बहुत ज्यादा अनुभव किया है, लेकिन उनके हृदय में अभी भी गहराई नहीं है, और वे अक्सर अराजकता, भ्रम, पछतावे, अनिच्छा, यहाँ तक कि अपने भविष्य के बारे में अनिश्चितता की स्थितियों में डूब जाते हैं—इसका क्या कारण है? क्या ऐसे लोग दया के पात्र हैं? (नहीं।) जब भी मैं इन लोगों को देखता हूँ, जब भी मैं उनकी खबरें सुनता हूँ और उनकी हाल की गतिविधियों के बारे में जानता हूँ, तो मुझे उनके बारे में पूर्वाभास हो जाता है। उनके बारे में मेरे मन में एक विचार आता है। ऐसा कैसे है कि उनकी स्थिति और उनकी आंतरिक दुनिया मुझे इतनी परिचित लगती है? वे अभी भी कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर के घर में रहते हैं—वह क्या है, जिस पर वे भरोसा कर रहे हैं? क्या यह अनुग्रह द्वारा उद्धार की मानसिकता है? क्या यह ये मानसिकता है कि अगर व्यक्ति अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करता है, तो यह अनिवार्य रूप से उसे उद्धार की ओर ले जाएगा? या यह भाग्य और संयोग पर आधारित मानसिकता है? यह इनमें से कुछ नहीं है। तो वह क्या है? यह वैसा ही है, जैसा पौलुस ने कहा था : “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। इस अंश का विश्लेषण करके इसे सरल शब्दों में कहें तो, इन शब्दों में एक लेन-देन का लक्षण है, इनके भीतर सौदा करने का एक रवैया, विचार और योजना है, और ये इच्छा और महत्वाकांक्षा की जगह से आते हैं। तुम इन शब्दों में क्या तथ्य देखते हो? लोग परमेश्वर में अपने विश्वास में किस चीज के पीछे भागते हैं? (मुकुट और आशीषों के पीछे।) हाँ। वे आशीषों और अच्छी मंजिल के पीछे भागते हैं। उस अच्छी मंजिल और उन आशीषों के लिए के बदले में वे कौन-सी चीज देंगे? वे उनके लिए किस चीज का विनिमय करेंगे? (अपनी मेहनत-मशक्कत का, अपने बलिदानों और व्यय का, अपने कष्ट उठाने और कीमत चुकाने का।) पौलुस के शब्दों में, वे अपनी कुश्तियाँ लड़ चुके हैं, उन्होंने अपनी दौड़ पूरी कर ली है। वे मानते हैं कि उन्होंने वह सब-कुछ किया है जो उन्हें करना चाहिए था, इसलिए उन्हें वह अच्छी मंजिल और वे आशीष मिलने चाहिए, जिन्हें परमेश्वर ने मनुष्य के लिए तैयार किया है। वे सोचते हैं कि यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यही है जो परमेश्वर को करना चाहिए—जो उसे अवश्य करना चाहिए—और अगर वह नहीं करता, तो वह परमेश्वर नहीं है। जाहिर है, इसमें परमेश्वर के प्रति कोई आज्ञाकारिता नहीं है, सत्य का अनुसरण करने का कोई रवैया नहीं है, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने का कोई रवैया या योजना नहीं है। यह सिर्फ उन कुछ चीजों का व्यापार करने की इच्छा है, जो वे उन आशीषों के लिए करने में सक्षम हैं जिनका परमेश्वर ने मनुष्य से वादा किया है। इसलिए, जिन लोगों के बारे में हम अभी बात कर रहे थे, वे अक्सर महसूस करते हैं कि उनके भीतर की दुनिया में एक खालीपन है और उनके पास अपने दिल की गहराई में भरोसा करने के लिए कुछ नहीं है, फिर भी वे हमेशा की तरह चलते रहते हैं, ऐसी कीमत चुकाते हुए और इस तरह पीड़ा झेलते हुए, अपनी कुश्ती लड़ने और दौड़ पूरी करने में लगे रहते हैं। वे किस पर भरोसा करते हैं? वह है पौलुस के वे उद्धरण, जिनसे वे चिपके रहते हैं और जिन पर आँख मूँदकर विश्वास करते हैं, जो उनकी “आस्था” को सहारा देते हैं। वे पुरस्कार और मुकुट पाने की अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छा पर भरोसा करते हैं। वे महान आशीष प्राप्त करने के लिए लेनदेनपरक विनिमय का उपयोग करने के अपने सपनों पर भरोसा करते हैं। वे परमेश्वर के कार्य की समझ या परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हुए सत्य का अनुसरण करके प्राप्त किए जाने वाले अनुभव और ज्ञान पर भरोसा नहीं करते। यह वह चीज नहीं है, जिस पर वे भरोसा करते हैं।

हमने अभी जिस विषय पर संगति की है, उस पर नजर डालें तो देखा जा सकता है कि हालाँकि सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर कई व्यावहारिक चुनौतियाँ हैं, और साथ ही भ्रष्ट स्वभावों की बेड़ियाँ और बाधाएँ, और बहुत-सी कठिनाइयाँ और अड़चनें हैं, फिर भी व्यक्ति को यह विश्वास करना चाहिए कि अगर उसके पास सच्ची आस्था है, तो परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा के कार्य पर भरोसा करके वह सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने में पूरी तरह सक्षम होगा। पतरस इसकी एक मिसाल है। परमेश्वर पर अपने विश्वास में, बहुत-से लोग सिर्फ परमेश्वर के लिए काम करने पर ध्यान देते हैं, वे सिर्फ कष्ट उठाने और कीमत चुकाने से ही संतुष्ट हो जाते हैं, लेकिन वे सत्य का अनुसरण बिलकुल नहीं करते। नतीजतन दस, बीस, तीस साल तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी उनके पास परमेश्वर के कार्य का सच्चा ज्ञान नहीं होता, और वे सत्य या परमेश्वर के वचनों के को लेकर किसी भी तरह के अनुभव या ज्ञान के बारे में नहीं बोल पाते। सभाओं के दौरान, जब वे अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में थोड़ी बात करने की कोशिश करते हैं, तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता; उन्हें बचाया जाएगा या नहीं, इसका उन्हें बिलकुल भी पता नहीं होता। यहाँ क्या समस्या है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे ऐसे ही होते हैं। चाहे वे कितने भी वर्षों से विश्वासी रहे हों, वे सत्य समझने में असमर्थ होते हैं, उसका अभ्यास तो बिलकुल नहीं करते। जो सत्य को बिल्कुल-भी स्वीकार ही नहीं करता, वह भला उसकी वास्तविकता में प्रवेश कैसे कर सकता है? कुछ ऐसे लोग हैं, जो इस समस्या की असलियत नहीं देख पाते। वे मानते हैं कि सिद्धांतों के शब्दों और वाक्यांशों की तोतारटंत करने वाले लोग अगर सत्य का अभ्यास करते हैं, तो वे भी उसकी वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं। क्या यह सही है? सिद्धांतों के शब्दों और वाक्यांशों की तोतारटंत करने वाले लोग सत्य समझने में स्वाभाविक रूप से असमर्थ होते हैं—तो वे उसका अभ्यास कैसे कर सकते हैं? वे जिनका अभ्यास करते हैं, वे सत्य का उल्लंघन करतेप्रतीत नहीं होते, और अच्छे कर्म, अच्छे व्यवहार लगते हैं, पर उन अच्छे कर्मों और अच्छे व्यवहारों को सत्य की वास्तविकता कैसे कहा जा सकता है? जो लोग सत्य नहीं समझते, वे नहीं जानते कि सत्य की वास्तविकता क्या है; वे लोगों के अच्छे कर्मों और अच्छे व्यवहारों को ही सत्य का अभ्यास मानते हैं। यह बेतुका है, है न? यह धार्मिक लोगों के विचारों और दृष्टिकोणो से किस प्रकार भिन्न है? और गलत समझ की ऐसी समस्याओं का समाधान कैसे किया जा सकता है? लोगों को पहले परमेश्वर के वचनों से उसकी इच्छा समझनी चाहिए, उन्हें जानना चाहिए कि सत्य समझना क्या है, और सत्य का अभ्यास क्या है, ताकि वे दूसरों को देखकर उन्हें पहचान पाएँ कि वे वास्तव में क्या हैं, और यह बता पाएँ कि उनमें सत्य की वास्तविकता है या नहीं। परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के उद्धार का उद्देश्य है लोगों को सत्य समझाकर उनसे उसका अभ्यास करवाना; तभी लोग अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़ पाएँगे, और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम होंगे, और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकेंगे। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, और सिर्फ अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर के लिए खपने, कष्ट सहने और कीमत चुकाने से संतुष्ट हो, तो क्या तुम जो कुछ भी करते हो, वह तुम्हारे सत्य के अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण को दर्शाएगा? क्या वह साबित करेगा कि तुमने अपने जीवन-स्वभाव में बदलाव किए हैं? क्या वह दर्शाएगा कि तुम्हारे पास परमेश्वर का सच्चा ज्ञान है? नहीं। तो, तुम जो कुछ भी करते हो, वह क्या दर्शाता है? वह सिर्फ तुम्हारी व्यक्तिगत पसंद, समझ और खयाली पुलाव को ही दर्शा सकता है। ये वे चीजें होंगी जिन्हें तुम करना पसंद करते हो, जिन्हें करने के तुम इच्छुक हो; तुम जो कुछ भी करते हो, वह सिर्फ तुम्हारी इच्छाओं, संकल्प और आदर्शों को ही संतुष्ट करता है। जाहिर है, यह सत्य का अनुसरण करना नहीं है। तुम्हारे किन्हीं भी क्रियाकलापों या व्यवहारों का सत्य से यापरमेश्वर की अपेक्षाओं से कोई संबंध नहीं है। तुम्हारे सभी क्रियाकलाप और व्यवहार अपने लिए हैं; तुम सिर्फ अपने आदर्शों, प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए काम कर रहे हो, लड़ और दौड़ रहे हो—यह तुम्हें पौलुस जैसा ही बनाता है, जिसने अपने पूरे जीवन में केवल पुरस्कृत होने, मुकुट पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए मेहनत और कार्य किया—यह दर्शाता है कि तुम स्पष्ट रूप से पौलुस के मार्ग पर चल रहे हो। कुछ लोग कहते हैं, “मैं स्वेच्छा से मेहनत और काम करता हूँ। मैंने परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश नहीं की है।” चाहे तुमने परमेश्वर के साथ किसी तरह से सौदा करने की कोशिश की हो या नहीं, चाहे तुम्हारे मन या व्यवहार में परमेश्वर के साथ सौदा करने का स्पष्ट इरादा हो या नहीं—चाहे तुम्हारी ऐसी कोई योजना और लक्ष्य हो या नहीं—तुम अपने परिश्रम और कार्य, अपनी कठिनाइयों, और स्वयं द्वारा चुकाई गई कीमतों के बदले में स्वर्ग के राज्य के पुरस्कार और मुकुट पाने का प्रयास कर रहे हो। इस समस्या का सार यह है कि तुम परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश कर रहे हो—बात सिर्फ इतनी है कि तुम्हें पता नहीं कि तुम ऐसा कर रहे हो। बहरहाल, अगर कोई आशीष पाने के लिए कठिनाइयों से गुजरता और कीमत चुकाता है, तो उसके अनुसरण का सार वही होता है जो पौलुस का था। वे किस प्रकार समान हैं? वे दोनों प्रयास हैं कि अपने अच्छे व्यवहारों—अपने श्रम, जिन कठिनाइयों से वे गुजरते हैं, जो कीमत वे चुकाते हैं, इत्यादि—के बदले में परमेश्वर के आशीष पाएँ, वे आशीष पाएँ जिनका वह मनुष्य से वादा करता है। क्या ये चीजें सार में एक जैसी नहीं हैं? (हैं।) वे सार में एक जैसी हैं; उनमें कोई वास्तविक अंतर नहीं है। अगर तुम पौलुस के मार्ग पर नहीं, बल्कि पतरस के मार्ग पर चलना चाहते हो और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? इसमें कोई संदेह नहीं : तुम्हें सत्य का अनुसरण करना सीखना चाहिए। तुम्हें सत्य, और साथ ही परमेश्वर का न्याय और ताड़ना, और काट-छाँट और निपटारा स्वीकारने में सक्षम होना चाहिए; तुम्हें खुद को जानने और अपने स्वभाव में बदलाव लाने पर ध्यान देना चाहिए, और परमेश्वर से प्रेम करने का अभ्यास करने कोशिश करनी चाहिए। सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने और पतरस के मार्ग पर चलने का यही अर्थ है। पतरस के मार्ग पर चलने के लिए तुम्हें पहले यह समझना चाहिए कि परमेश्वर मनुष्य से क्या अपेक्षा करता है और वह कौन-सा मार्ग है जो परमेश्वर ने मनुष्य को बताया है। तुम्हें उद्धार की ओर ले जाने वाले परमेश्वर में विश्वास के मार्ग और उस मार्ग में भेद करने में सक्षम होना चाहिए, जो तबाही और विनाश की ओर ले जाता है। तुम्हें मन से इस पर चिंतन करना चाहिए कि ऐसा क्यों है कि तुम पौलुस के मार्ग पर चल पाए, और यह पता लगाने की आवश्यकता है कि कौन-सा स्वभाव तुम्हें उस मार्ग पर चलने की आज्ञा देता है। तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों में मौजूद सबसे प्रमुख और स्पष्ट चीजें पहचाननी चाहिए, जैसे कि अहंकार, या छल, या बुराई। इन भ्रष्ट स्वभावों से शुरु करते हुए चिंतन करो, विश्लेषण करो और आत्मज्ञान प्राप्त करो। अगर तुम सच्चा आत्-ज्ञान और खुद से घृणा हासिल कर सकते हो, तो तुम्हारे लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ना और सत्य को अभ्यास में लाना आसान होगा। तो, इसका विशेष रूप से अभ्यास कैसे किया जाए? आओ, अहंकारी स्वभाव के उदाहरण का इस्तेमाल करते हुए इसके बारे में सरल ढंग से संगति करें। अपने दैनिक जीवन में, बोलते, आचरण करते और मामले सँभालते समय, अपना कर्तव्य निभाते हुए, दूसरों के साथ संगति आदि करते हुए, मामला चाहे जो भी हो, या तुम कहीं भी हो, या जो भी परिस्थितियाँ हों, तुम्हें हर समय यह जाँचने पर ध्यान देना चाहिए कि तुमने किस प्रकार का अहंकारी स्वभाव दिखाया है। तुम्हें अहंकारी स्वभाव से आने वाले उन सभी उद्गारों, विचारों और भावों को खोद-खोदकर निकालना चाहिए जिनके बारे में तुम जानते हो और जिन्हें अनुभव कर सकते हो, साथ ही अपने इरादों और लक्ष्यों को भी—विशेष रूप से, हमेशा ऊँचाई से दूसरों को भाषण देने की इच्छा रखना; किसी की आज्ञा न मानना; खुद को दूसरों से बेहतर समझना; दूसरे जो कहते हैं उसे स्वीकार न करना, चाहे वे कितने भी सही क्यों न हों; खुद गलत होने पर भी दूसरों से अपनी बात मनवाना और उसके प्रति समर्पण करवाना; दूसरों की अगुआई करने की सतत प्रवृत्ति होना; अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा तुम्हारी काट-छाँट और निपटारा किए जाने पर उन्हें झूठा कहकर उनकी निंदा करते हुए अवज्ञाकारी होना और औचित्य पेश करना; हमेशा दूसरों की निंदा करना और खुद को ऊपर उठाना; हमेशा यह सोचना कि तुम अन्य सबसे बेहतर हो; हमेशा एक प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित व्यक्ति बनने की इच्छा रखना; हमेशा दिखावा करना पसंद करना, ताकि दूसरे तुम्हें सम्मान दें और तुम्हारी आराधना करें…। भ्रष्टता के इन उद्गारों पर चिंतन करने और उनका विश्लेषण करने के अभ्यास के जरिये तुम जान सकते हो कि तुम्हारा अहंकारी स्वभाव कितना भद्दा है, और तुम खुद को नापसंद करते हुए खुद से घृणा कर सकते हो, और अपने अहंकारी स्वभाव से और भी ज्यादा नफरत कर सकते हो। इस तरह तुम इस बात पर विचार करने के इच्छुक होगे कि तुमने सभी मामलों में अहंकारी स्वभाव दिखाया है या नहीं। इसका एक हिस्सा इस बात पर चिंतन करना है कि तुम्हारे बोलने में कौन-से अहंकारी और आत्म-तुष्ट स्वभाव प्रवाहित होते हैं—तुम कितनी शेखी भरी, अहंकारी, मूर्खतापूर्ण बातें कहते हो। दूसरा हिस्सा इस बात पर चिंतन करना है कि अपनी धारणाओं, कल्पनाओं, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हुए तुम कितनी बेतुकी, मूर्खतापूर्ण चीजें करते हो। केवल इस तरह का आत्मचिंतन ही आत्मज्ञान उत्पन्न कर सकता है। जब तुम सच्चा आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों में एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए अभ्यास के मार्ग और सिद्धांत खोजने चाहिए, और फिर अभ्यास करना चाहिए, अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों में बताए गए मार्गों और सिद्धांतों के अनुसार दूसरों से संपर्क और बातचीत करनी चाहिए। कुछ समय, शायद एक-दो महीने, इस तरह से अभ्यास कर लेने पर तुम इसे लेकर दिल में एक उजाला महसूस करोगे, और तुम्हें इससे कुछ हासिल होगा और तुम सफलता का स्वाद चख लोगे। तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे पास एक ईमानदार, समझदार व्यक्ति बनने का मार्ग है, और तुम बहुत अधिक स्थिरचित्त महसूस करोगे। हालाँकि तुम अभी सत्य के विशेष रूप से गहन ज्ञान के बारे में बात नहीं कर पाओगे, पर तुमने उसके बारे में कुछ बोधात्मक ज्ञान और साथ ही अभ्यास का एक मार्ग भी प्राप्त कर लिया होगा। हालाँकि तुम इसे शब्दों में स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाओगे, फिर भी तुम्हें इस बात की थोड़ी समझ होगी कि अहंकारी स्वभाव लोगों को क्या नुकसान पहुँचाता है और कैसे उनकी मानवता विकृत कर देता है। उदाहरण के लिए, अहंकारी, आत्म-तुष्ट लोग अक्सर डींग मारने वाली, जंगली बातें कहते हैं, और दूसरों को धोखा देने के लिए झूठ बोलते हैं; वे आडंबरपूर्ण शब्द बोलते हैं, नारे लगाते हैं और लंबी-चौड़ी बातें करते हैं। क्या ये अहंकारी स्वभाव की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं? क्या ये अहंकारी स्वभाव दिखाना बहुत मूर्खतापूर्ण नहीं है? अगर तुम वास्तव में यह समझने में सक्षम हो कि तुमने ऐसा अहंकारी स्वभाव दिखाया है तो जरूर तुमने अपना सामान्य इंसानी विवेक खो दिया होगा, और अहंकारी स्वभाव के भीतर जीने का मतलब है कि तुम मानवता के बजाय दानवता को जी रहे हो, तो तुमने वास्तव में पहचान लिया होगा कि भ्रष्ट स्वभाव एक शैतानी स्वभाव है, और तुम शैतान और भ्रष्ट स्वभावों से दिल से घृणा करने में सक्षम होगे। छह महीने या साल भर के ऐसे अनुभव के बाद, तुम सच्चा आत्म-ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम हो जाओगे, और अगर तुम फिर से अहंकारी स्वभाव प्रदर्शित करोगे, तो तुरंत उसके बारे में जान जाओगे, और उसे छोड़ने और त्यागने में सक्षम हो जाओगे। तुम बदलना शुरू कर चुके होगे, और धीरे-धीरे अपना अहंकारी स्वभाव छोड़ने में सक्षम हो जाओगे, और सामान्य रूप से दूसरों के साथ हिल-मिलकर रह पाओगे। तुम ईमानदारी से और दिल से बोल पाओगे; तुम अब झूठ नहीं बोलोगे या अहंकारी बातें नहीं कहोगे। तब क्या तुममें थोड़ा-सा विवेक और कुछ ईमानदार व्यक्ति की समानता नहीं होगी? क्या तुम वह प्रवेश प्राप्त नहीं कर चुके होगे? यह वह क्षण है, जब तुम कुछ हासिल करना शुरू करोगे। जब तुम इस तरह ईमानदार होने का अभ्यास करोगे, तो तुम चाहे किसी भी तरह का अहंकारी स्वभाव क्यों न दिखाओ, सत्य खोजने और आत्मचिंतन करने में सक्षम होगे, और कुछ समय तक इस तरह से एक ईमानदार व्यक्ति होने का अनुभव करने के बाद तुम अनजाने ही और धीरे-धीरे एक ईमानदार व्यक्ति होने के बारे में सत्यों और परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों को समझने लगोगे। और जब तुम अपने अहंकारी स्वभाव का विश्लेषण करने के लिए उन सत्यों का उपयोग करते हो, तो तुम्हारे हृदय की गहराइयों में परमेश्वर के वचनों की प्रबुद्धता और रोशनी होगी, और तुम्हारा हृदय उज्ज्वल महसूस करने लगेगा। तुम स्पष्ट रूप से वह भ्रष्टता देख सकोगे जो अहंकारी स्वभाव लोगों में लाता है, और वह कुरूपता देखोगे, जिसे जीने के लिए वह उन्हें मजबूर करता है, और उन सभी भ्रष्ट अवस्थाओं को समझने में सक्षम होगे, जिनमें लोग स्वयं को तब पाते हैं जब वे अहंकारी स्वभाव प्रकट करते हैं। अधिक विश्लेषण करने पर तुम शैतान की कुरूपता और अधिक स्पष्ट रूप से देखोगे, और तुम शैतान से और भी अधिक घृणा करोगे। इस तरह तुम्हारे लिए अपना अहंकारी स्वभाव त्यागना आसान हो जाएगा। जब तुम्हारा ज्ञान इस हद तक पहुँच जाएगा, तो परमेश्वर के प्रासंगिक वचन और सत्य तुम्हारे लिए पारदर्शी रूप से बोधगम्य हो जाएँगे, और तुम जान जाओगे कि परमेश्वर मनुष्य से केवल वही चाहता है जो सामान्य मानवता के लोगों के पास होना चाहिए और जिसे उन्हें जीना चाहिए। इसके साथ, सत्य का अभ्यास करना अब तुम्हें कठिन नहीं लगेगा। इसके बजाय, तुम विश्वास करोगे कि सत्य का अभ्यास करना स्वर्ग द्वारा आदेशित और पृथ्वी द्वारा स्वीकृत है, कि मनुष्य को इसी तरह जीना चाहिए। उस समय, परमेश्वर के वचनों और सत्य का तुम्हारा अभ्यास पूरी तरह स्वत:स्फूर्त, सकारात्मक और सक्रिय होगा, और साथ ही तुम सत्य से और भी अधिक प्रेम करोगे। तुम्हारे हृदय में सकारात्मक चीजों की संख्या बढ़ेगी, और वहाँ धीरे-धीरे परमेश्वर का सच्चा ज्ञान उत्पन्न होगा। सत्य को वास्तव में समझने का यही अर्थ है। सभी मामलों पर तुम्हारा सही विचार और दृष्टिकोण होगा, और यह सच्चा ज्ञान और ये सही विचार धीरे-धीरे तुम्हारे दिल में जड़ें जमा लेंगे। सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने का यही अर्थ है—यह ऐसी चीज है, जिससे तुम्हें कोई वंचित नहीं कर सकता, न तुमसे कोई चुरा नहीं सकता। इन सकारात्मक चीजों को थोड़ा-थोड़ा करके संचित करने के बाद तुम अपने दिल की गहराइयों में बहुत समृद्ध महसूस करोगे। तुम अब यह महसूस नहीं करोगे कि परमेश्वर में विश्वास करना बेकार है, और तुम्हारे हृदय का खोखलापन दूर हो जाएगा। जब तुम यह महसूस कर लोगे कि सत्य समझना और मानव-जीवन का प्रकाश देखना कितना अद्भुत है, तो तुममें सच्ची आस्था उत्पन्न होगी। और जब तुममें परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने की आस्था होगी, और जब तुम देखोगे कि सत्य का अनुसरण करना और उद्धार प्राप्त करना कितना वास्तविक और व्यावहारिक है, तो तुम सकारात्मक और सक्रिय रूप से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करोगे। तुम अपने सच्चे अनुभव और ज्ञान के बारे में संगति करोगे, और इस तरह परमेश्वर की गवाही दोगे और ज्यादा लोगों की परमेश्वर के वचनों की शक्ति और सत्य से मनुष्य को होने वाले लाभों के बारे में जानने में मदद करोगे। तब तुममें सत्य का अभ्यास करने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए और अधिक आस्था होगी—और इसके साथ ही, तुम वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पित हो जाओगे। जब तुम अपनी सच्ची अनुभवात्मक गवाही के बारे में बात करोगे, तो तुम्हारा हृदय और उज्ज्वल हो जाएगा। तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे पास सत्य का अभ्यास करने का ज्यादा मार्ग है, और साथ ही, तुम देखोगे कि तुममें बहुत सारी कमियाँ हैं, और बहुत सारे सत्य हैं जिनका तुम्हें अभ्यास करना चाहिए। ऐसी अनुभवात्मक गवाही न केवल दूसरों के लिए फायदेमंद और शिक्षाप्रद है—बल्कि तुम महसूस करोगे कि तुमने भी सत्य के अनुसरण में कुछ हासिल किया है, और तुमने वास्तव में परमेश्वर के आशीष प्राप्त किए हैं। जब कोई इस तरह से परमेश्वर के कार्य का तब तक अनुभव करता है जब तक कि वह उसके लिए गवाही देने में सक्षम नहीं हो जाता, तो यह न केवल ज्यादा लोगों को अपने भ्रष्ट स्वभाव जानने, उन स्वभावों की बेड़ियाँ, बाधाएँ और पीड़ा दूर करने की ओर ले जा सकता है और उन्हें शैतान की शक्ति से निकलने में सक्षम बना सकता है—बल्कि यह उस व्यक्ति को सत्य का अनुसरण करने और पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर चलने के लिए अधिकाधिक आस्था भी दे सकता है। क्या ऐसा अनुभव सच्ची गवाही नहीं बन जाता? यही है सच्ची गवाही। क्या परमेश्वर के लिए ऐसी गवाही देने में सक्षम व्यक्ति को लगेगा कि उसमें विश्वास करना नीरस या निरर्थक या खोखला है? बिल्कुल नहीं। जब व्यक्ति परमेश्वर के लिए गवाही दे सकता है और जब उसे परमेश्वर का सच्चा ज्ञान होता है, तो उसके दिल की गहराई शांति और आनंद से भर जाती है, और वह समृद्ध और बेहद स्थिरचित्त महसूस करता है। जब व्यक्ति ऐसी स्थिति और क्षेत्र में रहता है, तो यह स्वाभाविक है कि वह खुद को पीड़ित होने के लिए, कीमत चुकाने के लिए, अवरुद्ध होने के लिए मजबूर नहीं करेगा। वह खुद को अपने शरीर को अनुशासित करने और देह-सुख त्यागने के लिए बाध्य नहीं करेगा। इससे ज्यादा वह सकारात्मक रूप से अपने भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान प्राप्त करेगा। वह परमेश्वर के स्वभाव और स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश भी करेगा, और समझेगा कि परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और उसे संतुष्ट करने के लिए व्यक्ति को क्या करना चाहिए। इस तरह वह परमेश्वर के वचनों के बीच उसकी इच्छा समझेगा, और सत्य के अभ्यास के सिद्धांत खोजेगा, अपने भीतर की क्षणिक भावनाओं पर ध्यान नहीं देगा। जैसे कि, चीजें घटित होने पर खुद को संयमित न कर पाना, बदमिजाज होना, खराब मन:स्थिति में रहना, उस दिन फिर से गुस्सा होना, उस दिन फिर से कुछ खराब या आदर्श से कमतर ढंग का काम करना, या ऐसा ही कोई तुच्छ मामला। जब तक ये चीजें तुम्हारे सत्य के अभ्यास में बाधा नहीं डालतीं, तब तक इनके बारे में चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने वाले और उसकी इच्छा के अनुरूप अभ्यास करने के तरीकों पर ध्यान केंद्रित रखना चाहिए। इस तरह सत्य का अभ्यास करके तुम जीवन में तेजी से प्रगति करोगे और सत्य का अनुसरण करने और पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर चल पड़े होगे। तुम्हारा हृदय अब खोखला नहीं रहेगा; तुम्हें परमेश्वर पर सच्ची आस्था होगी, और तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य में पहले से कहीं अधिक रुचि रखोगे, और उन्हें पहले से अधिक सँजोओगे। तुम परमेश्वर की इच्छा और उसकी अपेक्षाएँ अधिक से अधिक समझ पाओगे। जब व्यक्ति इस स्तर पर पहुँचता है, तो वह पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर चुका होता है।

अभी बहुत-से लोग जिस चीज का अभ्यास कर रहे हैं और जिसमें प्रवेश कर रहे हैं, वह सत्य की वास्तविकता नहीं है, बल्कि वे एक ऐसी स्थिति में प्रवेश करते हैं, जिसमें वे बाहर से अच्छे व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, कीमत चुकाने के इच्छुक होते हैं, कष्ट उठाने के लिए तैयार हैं, और सब-कुछ खपाने के लिए तत्पर हैं। लेकिन उनके दिलों की गहराई में कुछ नहीं होता, और उनके आंतरिक संसार में उनके पास कोई सहारा देने वाला नहीं होता। उनके पास कोई सहारा क्यों नहीं होता? क्योंकि जब कोई बात हो जाती है, तो उनके पास कोई मार्ग नहीं होता; वे ख्याली पुलाव पर भरोसा करते हैं, और उनके पास सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांत नहीं होते। जब उनके अंदर से भ्रष्ट स्वभाव उत्सर्जित होता है, तो वे केवल आत्मसंयम का अभ्यास कर पाते हैं, वे उसका समाधान करने के लिए सत्य नहीं खोज पाते। लोगों के लिए सौभाग्य की बात है कि उनकी पुरानी देह में एक सहज क्षमता है : वह कष्ट उठा सकता है। अविश्वासियों के बीच एक कहावत है जो इस प्रकार है, “ऐसा कोई कष्ट नहीं जिसे सहा नहीं जा सकता, बस आशीष ही हैं जिनका आनंद नहीं लिया जा सकता।” मनुष्य की देह में एक जन्मजात, सहज क्षमता होती है : वह बहुत अधिक आशीषों का आनंद नहीं ले सकता, लेकिन वह कोई भी कष्ट उठाने, सहने और खुद को रोकने में सक्षम है। क्या यह अच्छी चीज है? यह गुण है या एक दोष, एक कमी? क्या उनकी यह कहावत सत्य है? (नहीं।) यह सत्य नहीं है, और अगर कोई चीज सत्य नहीं है, तो वह बकवास है। वह कहावत केवल खोखले शब्द है, वह तुम्हारी किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकती, न ही वह तुम्हारी व्यावहारिक कठिनाइयों का समाधान कर सकती है। सटीक रूप से कहूँ तो, वह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हल नहीं कर सकती। इसलिए उसे कहने का कोई फायदा नहीं। हालाँकि तुम्हें इसका कुछ ज्ञान हो सकता है, तुम इससे अवगत हो सकते हो, और तुमने इसे गहराई से अनुभव किया हो सकता है, फिर भी इसका कोई उपयोग नहीं है। अविश्वासियों की अन्य कहावतें भी हैं, जैसे, “मैं मरने से नहीं डरता, तो जीने से क्यों डरूँ?” और “सर्दी आ चुकी है, तो वसंत कितनी दूर होगा?” ये बहुत भव्य कथन हैं, है न? काफी प्रेरणादायक और दार्शनिक, है न? अविश्वासी इन कथनों को “आत्मा के लिए चिकन-सूप” कहते हैं। क्या तुम इस तरह की कहावतें पसंद करते हो? (नहीं।) क्यों नहीं? कुछ लोग कह सकते हैं, “हमें वे बस पसंद नहीं हैं। ये सब तो अविश्वासी कहते हैं; हमें परमेश्वर के वचन पसंद हैं।” तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों का कौन-सा हिस्सा पसंद है? किस वाक्यांश को तुम सत्य मानते हो? तुमने किस वाक्यांश का अनुभव किया है, किसका अभ्यास किया है और किसमें प्रवेश किया है, और किसे प्राप्त किया है? सिर्फ इन अविश्वासियों की कहावतें नापसंद करना बेकार है; हो सकता है तुम उन्हें पसंद न करो, लेकिन तुम उनका सार स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकते। क्या ये कहावतें सही हैं? (नहीं।) सही हों या नहीं, अविश्वासियों के शब्दों का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। भले ही लोग उन्हें अच्छा और सही मानें, वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं, और वे सत्य के स्तर तक नहीं उठ सकतीं। वे सभी सत्य का उल्लंघन करने वाली और उससे शत्रुता करने वाली हैं। अविश्वासी सत्य नहीं स्वीकारते, इसलिए उनके साथ सही-गलत पर बहस करने की आवश्यकता नहीं है। हम केवल इतना कर सकते हैं कि उनके शब्दों को भ्रमित बकवास मानें, और उनकी चिंता छोड़ दें। “बकवास” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है ऐसे शब्द, जो लोगों के लिए, उनके जीवन के लिए, उनके चलने के रास्तों के लिए, या उनके उद्धार के लिए बिल्कुल भी शिक्षाप्रद या मूल्यवान नहीं हैं। ऐसी सारी बातें बकवास हैं; इन्हें खोखले शब्द भी कहा जा सकता है। इनका मनुष्य के जीवन और मृत्यु या उन रास्तों से कोई लेना-देना नहीं है, जिन पर वे चलते हैं, और यह वह बकवास है जिसका कोई सकारात्मक प्रकार्य नहीं है। लोग ऐसा वाक्यांश सुनते हैं और अपना जीवन वैसे ही जीते रहते हैं जैसा वे चाहते हैं, जैसा उन्होंने हमेशा जिया है; इस तरह के वाक्यांश से कोई तथ्य नहीं बदलेगा, क्योंकि वह सत्य नहीं है। केवल सत्य ही मनुष्य के लिए शिक्षाप्रद है; उसका अथाह मूल्य है। मैं यह क्यों कहता हूँ? क्योंकि सत्य लोगों की नियति, और उनके विचार और नजरिये, और उनके आंतरिक संसार बदल सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सत्य मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव दूर कर सकता है; वह व्यक्ति के लक्षण बदल सकता है, उनके शैतानी लक्षणों को सत्य के गुणों में बदल सकता है—वह भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीने वाले व्यक्ति को बदलकर उसे सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने वाला व्यक्ति बना सकता है। जब व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को आधार मानकर सत्य की वास्तविकता को जीता है, तो क्या इस तरह उसका जीवन नहीं बदल जाता? जब व्यक्ति का जीवन बदलता है, तो इसका मतलब है कि उसके विचार और दृष्टिकोण बदल गए हैं; इसका मतलब है कि लोगों और चीजों के बारे में उसका नजरिया, रवैया और विचार बदल गए हैं; इसका मतलब है कि घटनाओं और चीजों के बारे में उसका रुख और विचार पहले से अलग हैं। अविश्वासियों की वे सब कहावतें खोखले शब्द और बकवास हैं। वे किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकतीं। जो कहावत मैंने अभी कही थी—“ऐसा कोई कष्ट नहीं जिसे सहा नहीं जा सकता, बस आशीष ही हैं जिनका आनंद नहीं लिया जा सकता।”—क्या यह बकवास और खोखले शब्द नहीं हैं? (हैं।) तुम कष्ट उठा सकते हो—तो क्या? तुम सत्य प्राप्त करने के लिए कष्ट नहीं उठाते; तुम प्रतिष्ठा और हैसियत का आनंद लेने के लिए कष्ट उठाते हो। तुम्हारे कष्टों का कोई मूल्य या महत्व नहीं है। तथ्यों पर नजर डालो : तुमने बहुत-कुछ सहा है और बहुत बड़ी कीमत चुकाई है, फिर भी तुम खुद को नहीं जानते, और तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होने वाले विचार और भाव तक नहीं समझ सकते, न ही तुम उन्हें हल कर सकते हो। तब, क्या तुम्हें लगता है कि तुम जीवन में प्रवेश कर सकते हो? क्या तुम्हारे कष्ट उठाने का कोई मूल्य है? उसका कोई मूल्य नहीं है। कुछ लोगों के कष्ट उठाने का मूल्य होता है। उदाहरण के लिए, सत्य प्राप्त करने के लिए लोग जिस कष्ट से गुजरते हैं, उसका मूल्य है : जब व्यक्ति सत्य प्राप्त कर लेता है, तो वह दूसरों को शिक्षित कर सकता है और उन्हें पोषण प्रदान कर सकता है। बहुत-से लोग सुसमाचार फैलाने, कलीसिया और परमेश्वर के घर के कार्य का विस्तार करने और स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाने में मदद करने के लिए कष्ट सहते और कीमत चुकाते हैं। इससे हम देख सकते हैं कि जो लोग सत्य प्राप्त करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कष्ट उठाते और कीमत चुकाते हैं, वे इससे कुछ प्राप्त करेंगे। ये लोग परमेश्वर की स्वीकृति पाएँगे। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, और भले ही वे परमेश्वर के लिए खुद को खपाते और कष्ट सहते हों, और उसकी दया प्राप्त करते हों, पर यह दया परमेश्वर के रहम और सहनशीलता से और मनुष्य पर दिखाई जाने वाली कृपा और मनुष्य पर किए जाने वाले अनुग्रह के प्रतिबिंब से ज्यादा कुछ नहीं है। किस प्रकार का अनुग्रह? कुछ भौतिक आशीष—इससे ज्यादा कुछ नहीं। क्या तुम यही चाहते हो? क्या परमेश्वर में विश्वास करने में यही तुम्हारा अंतिम लक्ष्य है? मुझे नहीं लगता ऐसा है। जिस दिन से तुम परमेश्वर में विश्वास करने लगे हो, क्या तुमने सिर्फ उसकी दया, उसकी सुरक्षा, और उसके द्वारा दिए जाने वाले कुछ भौतिक आशीषों की ही कामना की है? क्या ये ही वे चीजें हैं, जो तुम चाहते हो? क्या ये ही वे चीजें हैं, जिनका तुम अपने विश्वास में अनुसरण करते हो? (नहीं।) क्या ये चीजें तुम्हारे उद्धार का मुद्दा हल कर सकती हैं? (नहीं।) ऐसा लगता है कि तुम लोग काफी स्पष्ट रूप से सोच रहे हो। तुम समझते हो कि क्या निर्णायक है और क्या महत्वपूर्ण है। तुम भ्रमित नहीं हो। तुम जानते हो कि किस चीज में वजन है और किसमें नहीं। हालाँकि तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल सकते हो या नहीं, यह देखा जाना बाकी है।

परमेश्वर में विश्वास करना अनुग्रह या परमेश्वर की सहनशीलता और दया प्राप्त करने के बारे में नहीं है। फिर वह किस बारे में है? वह बचाए जाने के बारे में है। तो, उद्धार का चिह्न क्या है? परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानक क्या हैं? बचाए जाने के लिए किस चीज की आवश्यकता है? व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव के समाधान की। यही इस मामले का मूल बिंदुहै। इसलिए, अंतत:, पूर्ण विचार करने के बाद, चाहे तुमने कितना भी कष्ट सहा हो या कितनी भी बड़ी कीमत चुकाई हो, या तुम कितने भी सच्चे विश्वासी होने का दावा करो—अगर, अंत में, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का बिल्कुल भी समाधान नहीं हुआ है, तो इसका अर्थ है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो। या यह कहा जा सकता है कि चूँकि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, इसलिए तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं हुआ है। इसका अर्थ यह है कि तुमने उद्धार के मार्ग पर बिल्कुल भी कदम नहीं रखा है; इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर जो कुछ भी कहता है और मनुष्य को बचाने के लिए वह जो भी कार्य करता है, उसने तुममें कुछ भी हासिल नहीं किया है, उसके द्वारा तुम कोई गवाही देने में सक्षम नहीं हुए, और वह तुम्हारे भीतर कोई परिणाम नहीं लाया है। परमेश्वर कहेगा, “चूँकि तुमने कष्ट सहा है और कीमत चुकाई है, इसलिए मैंने तुम्हें वह अनुग्रह, आशीष, देखभाल और सुरक्षा दी है, जिसके तुम इस जीवन और इस संसार में हकदार हो। पर तुम्हारा उस चीज में कोई हिस्सा नहीं है, जिसका हकदार मनुष्य बचा लिए जाने के बाद होता है। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि मैंने तुम्हें पहले ही वह प्रदान कर दिया है, जिसके तुम इस जीवन और इस संसार में हकदार हो; उद्धार के बाद मनुष्य जिसका हकदार होता है, उसमें तुम्हारे लिए कुछ नहीं है, क्योंकि तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर नहीं चले।” तुम उनमें से नहीं हो जो बचाए जाएँगे, तुम एक सच्चे सृजित प्राणी नहीं बने हो, और परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहता। परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, जो केवल काम करते हैं, भाग-दौड़ करते हैं, कष्ट उठाते हैं और उसके लिए कीमत चुकाते हैं, जो कुछ हद तक सच्चा विश्वास करते हैं और थोड़ी आस्था रखते हैं, और कुछ नहीं। ऐसे लोग उसके विश्वासियों के समूहों में हर जगह पाए जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में, उनमें से बहुत-से ऐसे लोग हैं, जो परमेश्वर के लिए अनगिनत काम करते और सेवा प्रदान करते हैं। अगर वे ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें परमेश्वर ने पूर्वनियत किया और चुना है, जिन्हें परमेश्वर अपने घर में वापस ले आया है, तो उनमें से कोई भी उसके लिए काम करने और सेवा प्रदान करने के लिए अनिच्छुक नहीं होगा। ऐसा क्यों है? क्योंकि यह करना बहुत आसान है। यही कारण है कि ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो परमेश्वर के लिए सेवा और श्रम करते हैं। यहाँ तक कि मसीह-विरोधी और दुष्ट लोग भी ऐसा करने में सक्षम हैं, जैसे पौलुस। क्या पौलुस जैसे बहुत-से लोग नहीं हैं? (हाँ, हैं।) अगर तुम किसी कलीसिया में जाकर इस तरह से प्रचार करते हो—“अगर तुम भाग-दौड़ करने, कष्ट उठाने और परमेश्वर के लिए कीमत चुकाने को तैयार हो, तो धार्मिकता का मुकुट तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा होगा”—क्या तुम्हें लगता है कि बहुत सारे लोग तुम्हारी पुकार का जवाब देंगे? बहुत सारे देंगे। लेकिन दुर्भाग्य से, अंत में, ये वे लोग नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर बचाएगा या जिन्हें बचाया जा सकता है। ऐसे लोग बस सेवा प्रदान करने के स्तर पर ठहरे रहते हैं; वे सिर्फ परमेश्वर की सेवा करने के इच्छुक होते हैं। दूसरे शब्दों में, ये लोग केवल परमेश्वर से सौभाग्य, उसके अनुग्रह और आशीष पाने के लिए अपने श्रम की अदला-बदली करने के इच्छुक होते हैं। वे अपने जीवित रहने के तरीके, या अपने जीने के ढंग या वह नींव नहीं बदलना चाहते, जिस पर वे जीवित रहने के लिए निर्भर रहते हैं; वे अपने भ्रष्ट स्वभाव बदलने या उद्धार प्राप्त करने के लिए सत्य का अनुसरण करने हेतु परमेश्वर का न्याय और ताड़ना नहीं स्वीकारना चाहते। स्वाभाविक रूप से, तुम यह भी कह सकते हो कि ये लोग केवल कष्ट उठाने और कीमत चुकाने के इच्छुक होते हैं, ये केवल अपना सब-कुछ त्यागने और अर्पित करने के इच्छुक होते हैं, ये वह सब खपाना चाहते हैं जो वे खपा सकते हैं, चाहे उसकी जो भी कीमत हो, और ये हर संभव तरीके से श्रम करने के लिए तैयार रहते हैं—लेकिन अगर तुम इनसे खुद को जानने, सत्य स्वीकारने, अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने, देह-सुख त्यागने, सत्य का अभ्यास करने, और नीनवे के लोगों की तरह अपनी बुराई छोड़कर वापस परमेश्वर की ओर मुड़ने, और उसके वचनों पर ध्यान देने और उसके वचनों के अनुसार जीने के लिए कहते हो, तो यह इनके लिए यह अत्यंत कठिन होगा। क्या ऐसा ही नहीं है? (ऐसा ही है।) क्या यह काफी तकलीफदेह नहीं है? परमेश्वर ने बहुत अधिक कार्य किया है और बहुत सारे वचन बोले हैं, तो लोगों को ऐसा क्यों लगता है कि सत्य का अनुसरण करना बहुत कठिन है? वे हमेशा उसके प्रति उदासीन क्यों रहते हैं? वर्षों तक प्रवचन सुनने के बाद भी उनका बदलने का कोई इरादा नहीं है। उन्होंने अपने दिल की गहराइयों से कभी परमेश्वर के सामने ईमानदारी से पश्चात्ताप नहीं किया है, न ही उन्होंने कभी यह तथ्य सच में माना या स्वीकारा है कि उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं। चीजों बारे में अपने विचारों और कार्यकलापों दोनों में उन्होंने कभी अपने दृष्टिकोण नहीं छोड़े और सत्य नहीं खोजा; वे हर मामले के प्रति अपना दृष्टिकोण उलटने और परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करने का रवैया नहीं रखते। इसलिए, ऐसे बहुत-से लोग हैं, जिन्होंने बहुत-कुछ अनुभव किया है और बहुत काम किया है, जो काफी समय से अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, लेकिन फिर भी कोई गवाही नहीं दे सकते। उन्हें अभी भी परमेश्वर के वचनों का कोई ज्ञान या अनुभव नहीं है, और जब वे परमेश्वर के वचनों के बारे में अपने अनुभव और ज्ञान की बात करते हैं, तो बहुत शर्मिंदा और असहाय होते हैं, और वे अत्यंत अयोग्य दिखाई देते हैं। इसका कारण यह है कि उन्हें सत्य का कोई ज्ञान नहीं है या उन्हें उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। दूसरी ओर, श्रम करना बहुत सरल, बहुत आसान है। इसलिए, हर कोई परमेश्वर की सेवा करने के लिए तैयार है, लेकिन कोई सत्य का अनुसरण करना नहीं चुनता।

तो अब, सत्य का अनुसरण करने का वास्तव में क्या अर्थ है? हमने बहुत-कुछ कहा है; क्या हमें यह परिभाषित नहीं करना चाहिए कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? क्या तुम लोग इसे परिभाषित कर सकते हो? यह एक बहुत ही सरल परिभाषा होनी चाहिए, है न? अगर तुम लोग केवल शब्दों पर विचार, चिंतन-मनन-करो, तो क्या यह तुम्हें समझ आ जाएगी? शायद कुछ लोग हों जो कहें, “सत्य का अनुसरण करना एक बड़ा विषय है। इसे कुछ ही वाक्यों में स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं किया जा सकता। मैं नहीं जानता कि इसके बारे में क्या कहूँ। कौन-से शब्द इसका वर्णन कर सकते हैं? सत्य का अनुसरण करना एक बड़ा मामला है, और इसे भव्यतम शब्दों में ही उचित रूप से वर्णित और परिभाषित किया जा सकता है—वास्तव में सभी को प्रभावित करने का यही एकमात्र तरीका है!” क्या तुम लोग सोचते हो कि ऐसा ही होना चाहिए? (नहीं।) तो ठीक है, रोजमर्रा की भाषा में सत्य का अनुसरण करने को परिभाषित करो। (सत्य का अनुसरण करने का अर्थ है अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए सत्य का उपयोग करना।) क्या यह परिभाषा कहे जाने योग्य है? क्या तुम इससे कोई निष्कर्ष निकाल रहे हो? क्या सत्य का अनुसरण करने को परिभाषित करना आसान है? इसे परिभाषित करना कोई आसान काम नहीं है; तुम्हें इस पर विचार करने के लिए कुछ प्रयास करने की आवश्यकता है। सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? आओ, इसे परिभाषित करने का प्रयास करें, ठीक है? सभी इंसानी भाषाओं में सबसे अच्छी भाषा वह होती है, जो सरल, बोलचाल की और सच्ची व सटीक हो। हम किसी अनजानी भाषा में या कुछ भव्य शब्दों के साथ नहीं बोलेंगे। हम आम लोगों की रोजमर्रा की भाषा इस तरह बोलेंगे, जो धाराप्रवाह, बोलचाल की और समझने में आसान हो, ताकि लोग हमारा कहा तुरंत समझ सकें। नाबालिगों या उन लोगों के अलावा, जो इसे समझने में बहुत नादान या मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं, सामान्य रूप से सोचने वाला कोई भी वयस्क हमारे द्वारा इस्तेमाल की गई भाषा सुनते ही समझने में सक्षम हो जाएगा। बोलचाल की भाषा होने का यही अर्थ है; इसे ही रोजमर्रा की भाषा कहा जाता है। तो, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? परमेश्वर के वचनों के आधार पर, परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना—सत्य का अनुसरण करने का यही अर्थ है। सत्य का अनुसरण करने की सटीक परिभाषा यही लगती है। प्रश्न : सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? उत्तर : परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना। सत्य का अनुसरण करने की यही परिभाषा है। सरल है न? तुममें से कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम इस पूरे समय इस बात पर संगति कर रहे हो कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, जबकि उसकी परिभाषा केवल यह एक वाक्य है। क्या यह इतनी सरल है?” हाँ, यह इतनी ही सरल है। यह इतनी सरल परिभाषा है, फिर भी यह बहुत-से संबंधित विषयों को स्पर्श करती है—और वे सभी संबंधित विषय सत्य का अनुसरण करने के विषय को स्पर्श करते हैं। इन विषयों में मनुष्य की कठिनाइयाँ, और मनुष्य के विचार और दृष्टिकोण, और साथ ही सत्य का अनुसरण करने के प्रति मनुष्य के असंख्य बहाने, औचित्य, तरीके और दृष्टिकोण शामिल हैं। सत्य का अनुसरण करने के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध और उसके ऐसा करने से इनकार करने का विषय भी है, जो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों के कारण होते हैं। बेशक, जिन चीजों के बारे में मैंने तुम्हें बताया है—सत्य का अनुसरण करने के कई मार्ग और कदम, व्यक्ति द्वारा सत्य का अनुसरण करने का तरीका, सत्य का अनुसरण करने से प्राप्त होने वाले परिणाम, और सत्य की वास्तविकता जो उसे जीने वाले लोगों में देखी जा सकती है—ये भी सत्य का अनुसरण करने के विषय को स्पर्श करते हैं। इसका अंतिम परिणाम परमेश्वर के वचनों और मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के कार्य की अनुभवात्मक गवाही है, जो तब उत्पन्न होती है जब लोग सत्य का अनुसरण करते हैं और उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करते हैं। यह सबसे बड़ा परिणाम है। ऐसी गवाही की एक विशेषता यह है कि यह परमेश्वर के कार्य के परिणामों की गवाही देती है; दूसरी विशेषता यह है कि यह उन सकारात्मक प्रभावों की गवाही देती है, जो सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों में देखे जा सकते हैं, यानी उनके भ्रष्ट स्वभाव कम या ज्यादा सीमा तक हल कर लिए गए हैं। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति जो बहुत अहंकारी हुआ करता था, जो मनमाना, लापरवाह और अपने कार्यों में अपने आप में कानून हुआ करता था, वह परमेश्वर के वचन पढ़कर सीखता है कि यह एक भ्रष्ट स्वभाव है, और फिर इसे स्वीकारता और मानता है। धीरे-धीरे, इस भ्रष्ट स्वभाव के चलते दूसरों का और उसका जो नुकसान होता है, उसे उसका पता चलता है : छोटे दृष्टिकोण से, यह लोगों के लिए हानिकारक है, और बड़े दृष्टिकोण से, यह कलीसिया के कार्य को अव्यवस्थित, बाधित और क्षतिग्रस्त करता है। यह परिणामों का एक हिस्सा है; यह वह चीज है जो व्यक्ति तब सीखता है जब वह परमेश्वर के वचन समझता है। इसके अलावा, परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के आधार पर, वह अपना भ्रष्ट स्वभाव स्वीकारता है, और फिर, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित स्थितियों में वह धीरे-धीरे पश्चात्ताप करने लगता है और वे जीवन-शैलियाँ और अपने आचरण और कार्यों के वे दृष्टिकोण छोड़ देता है, जिन्हें वह कभी रखता था। वह परमेश्वर के वचनों में अभ्यास के सिद्धांत और मार्ग ढूँढ़ता है और परमेश्वर द्वारा दिए गए अभ्यास के सिद्धांतों के अनुसार मामले सँभालता है। यह सच्चा पश्चात्ताप और वास्तव में खुद को बदलना है। वह परमेश्वर के वचनों के आधार पर आचरण और कार्य करने में सक्षम होता है, और अंततः, जब भी वह कार्य करता है, तो सत्य के सिद्धांत खोजता है, और परमेश्वर के वचनों को अपना आधार बनाने की वास्तविकता के एक हिस्से को जीता है। यह अहंकारी स्वभाव को हल करने का एक उदाहरण है। इससे प्राप्त अंतिम परिणाम यह होता है कि यह व्यक्ति अब अहंकार से नहीं जीता; इसके बजाय उसमें जमीर और विवेक होता है, वह सत्य के सिद्धांत खोजने में सक्षम होता है और वास्तव में सत्य के प्रति समर्पित होता है; वह जिस चीज का अभ्यास करता और जिसे जीता है, उस पर उसका भ्रष्ट स्वभाव हावी नहीं रह जाता, इसके बजाय वह सत्य को अपनी कसौटी मानता है और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता को जीता है—यही परिणाम है। क्या यह परिणाम सत्य का अनुसरण करने से प्राप्त नहीं होता? (होता है।) यह उस प्रकार का परिणाम है, जो सत्य का अनुसरण व्यक्ति में लाता है। और परमेश्वर की नजर में, इस तरह से जीना उसकी और उसके कार्य की सच्ची गवाही है; यह वह परिणाम है जो तब प्राप्त होता है जब सृजित प्राणी परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना और खुलासे से होकर गुजरता है। यह सच्ची गवाही है, और यह परमेश्वर के लिए महिमा की बात है। निस्संदेह, मनुष्य के लिए यह कोई महिमा की बात नहीं है; इसे केवल एक सम्माननीय और गर्व की बात कहा जा सकता है, और यह वह गवाही है जो परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के बाद एक सृजित प्राणी के पास होनी चाहिए और जिसे उसे जीना चाहिए। यह वह सकारात्मक प्रभाव है, जो सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति में प्राप्त होता है। परमेश्वर भी ऐसे अनुभव और ज्ञान को, और जिसे ये लोग जीते हैं उसे, अपने कार्य द्वारा प्राप्त परिणाम मानता है। उसकी नजर में, यह वह गवाही है जो बड़ी ताकत के साथ शैतान पर पलटवार करती है। यही है, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और जिसे वह सँजोता है।

हमने अभी-अभी परिभाषित किया है कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है। इस परिभाषा के जरिये, क्या सत्य का अनुसरण करने के अर्थ के बारे में तुम लोगों का दृष्टिकोण वास्तविकता के करीब आया है? (हाँ।) अब जबकि हमने सत्य का अनुसरण उस रूप में परिभाषित कर दिया है जिसे तुम लोग समझते हो, तो तुम लोगों को अपने पिछले अनुसरणों को कैसे देखना चाहिए? यह संभव है कि तुम लोगों में से अधिकांश ऐसे लोग नहीं हैं, जो सत्य का अनुसरण करते हैं। यह सुनना तुम लोगों को थोड़ा परेशान कर सकता है, है न? परिभाषा एक बार और पढ़ो। (सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? उत्तर : परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना।) अब तुम लोग इसे सटीक रूप से कह सकते हो। आगे विचार करने पर, क्या यह सही है? (हाँ।) अगर तुम इस परिभाषा के आधार पर अपने पिछले अनुसरण और अभ्यास मापो, तो परिणाम क्या होगा? तुम यह जान पाओगे कि तुम लोगों में वर्तमान में सत्य की वास्तविकता है या नहीं, और तुम यह सत्यापित कर पाओगे कि तुम लोगों का वर्तमान आचरण सत्य का अनुसरण है या नहीं। यह इसे कहने का कोई खयाली तरीका नहीं है, है न? यह काफी बोलचाल की भाषा है, है न? (हाँ।) यह वह आम भाषा है, जिसे कोई भी आम व्यक्ति समझ सकता है। हालाँकि यह समझने में काफी आसान लग सकता है, लेकिन लोगों को एक समस्या है। वह क्या समस्या है? कि जब वे परिभाषा समझ जाते हैं, तो असहज और परेशान महसूस करते हैं। वे परेशान क्यों होते हैं? क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके पिछले कष्टों और उनके द्वारा चुकाई गई कीमतों की निंदा की गई है, कि उन्होंने वह व्यर्थ ही किया है, इस कारण वे उखड़ा-उखड़ा महसूस करते हैं। यह सुनकर कुछ लोग कहेंगे, “ओह—तो यह है सत्य का अनुसरण करने की परिभाषा। अगर हम उस परिभाषा के अनुसार चलते हैं, तो क्या हमारे द्वारा चुकाई गई सभी कीमतें और हमारे पिछले सभी व्यय व्यर्थ नहीं गए? अगर तुमने यह परिभाषित नहीं किया होता कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, तो हम यह सोचते रहते कि हम अपने अनुसरणों में अच्छा कर रहे हैं; अब जबकि तुमने इसे यह परिभाषा दे दी है, तो क्या हमारे सब अनुसरण और हमारे द्वारा चुकाई गई सभी कीमतें बेकार नहीं चली गईं? क्या मुकुट पाने और पुरस्कृत होने के हमारे सारे सपने नष्ट नहीं हो गए हैं? सत्य समझ लेने पर हमें आशीष मिलने चाहिए और हमारे सपने सच होने चाहिए, तो अब जबकि हम सत्य समझते हैं, हमारा न्याय क्यों किया जा रहा है? क्यों हम निराशा से अँधेरे में जी रहे हैं? हमारे अतीत और वर्तमान की निंदा कर दी गई है, पता नहीं भविष्य कैसा होगा। ऐसा लगता है कि हमारे आशीष पाने की कोई आशा नहीं है।” क्या ऐसा ही है? क्या लोगों का इस तरह सोचना सही है? (नहीं।) तो क्या लोगों को इसके बारे में इस तरह सोचना चाहिए? (नहीं।) उन्हें इस तरह नहीं सोचना चाहिए। लेकिन इसके बारे में एक अच्छी बात है : तुम सत्य का अनुसरण करने की इस परिभाषा का बार-बार प्रार्थना-पाठ कर सकते हो, फिर अपने अतीत पर नजर डालो, अपने वर्तमान पर नजर डालो, और अपने भविष्य पर नजर डालो। तुम परेशान महसूस कर सकते हो, लेकिन इस एहसास का मतलब है कि तुम सुन्न नहीं हो। तुम अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य पर विचार करना जानते हो, और तुम अपनी संभावनाओं के लिए योजना बनाना और उनके बारे में सोचना, उनके बारे में चिंता करना और उनके बारे में क्षुब्ध होना जानते हो। यह एक अच्छी बात है। यह साबित करता है कि तुम अभी जीवित हो, कि तुम एक जीवित व्यक्ति हो, और तुम्हारा दिल मरा नहीं है। चिंता की बात तब होती है, जब व्यक्ति से चाहे कुछ भी कहा जाए या उसके साथ सत्य का अनुसरण करने के मार्ग की कितनी भी स्पष्ट संगति की जाए, वह उदासीन रहता है। वह सोचता है, “मैं तो ऐसा ही हूँ; क्या फर्क पड़ता है कि मुझे आशीष मिलता है या मुझ पर आपदा आ पड़ती है? मेरा न्याय करो, मेरी निंदा करो—जो तुम्हारे जी में आए करो!” उसे चाहे कुछ भी कहा जाए, वह उसके प्रति सुन्न रहता है। यह परेशानी की बात है। परेशानी से मेरा क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम सत्य के बारे में उसके साथ कितनी भी संगति करो, वह इसे नहीं समझेगा; वह एक मृत व्यक्ति है, जिसमें आत्मा नहीं है। उसे परमेश्वर में विश्वास करने, सत्य का अनुसरण करने, बचाए जाने, या मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के कार्य जैसी चीजों के बारे में कोई जानकारी नहीं है, और वह ऐसी चीजें नहीं समझता। यह संगीत के स्वरों में अंतर न कर पाने वाले व्यक्ति को गाना सिखाने की कोशिश करने या रंग न देख पाने वाले व्यक्ति को रंग मिलाना सिखाने जैसा है : यह संभव ही नहीं है। इन चीजों पर संगति करना उसके लिए कोई महत्व या मूल्य नहीं रखता, क्योंकि तुम चाहे कुछ भी कहो, वह चाहे गहरा हो या उथला, विशिष्ट हो या व्यापक, कोई फर्क नहीं पड़ेगा—उसे किसी भी हालत में कुछ भी महसूस नहीं होगा। वह चश्मा पहने अंधे व्यक्ति की तरह होता है, वह चश्मा पहने या न पहने, उसकी दृष्टि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कुछ लोग अक्सर कहते हैं, “सर्दी आ चुकी है, तो वसंत कितनी दूर होगा?” और “मैं मरने से नहीं डरता, तो जीने से क्यों डरूँ?” और “मैं अपने हाथ हिलाता हूँ, पर बादल का एक कण भी नहीं हटाऊँगा।” ये सब आत्माहीन, मृत लोगों के शब्द हैं, जो खुद को बहुत चतुर समझते हैं। इसे आध्यात्मिक शब्दावली में कहें तो, उनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है। जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ की कमी होती है, वे जीवित होते हुए भी मृत होते हैं। क्या मृत लोग जीवित लोगों की बातें समझ सकते हैं? वे सोचते हैं, “सत्य का अनुसरण करने के बारे में यह सारी बात, और लोगों और चीजों पर व्यक्ति के विचार, और व्यक्ति का व्यवहार और उसके कार्य—इसका मुझसे क्या लेना-देना है? मैं मरने से नहीं डरता, तो जीने से क्यों डरूँ?” जो ऐसा सोचता है, वह गया काम से। वह मृतकों में से एक है। सत्य का अनुसरण करने की परिभाषा के साथ ऐसा ही है। इस परिभाषा को पढ़ने के बाद भविष्य के मार्ग के लिए तुम्हारे चाहे जो भी इरादे या योजनाएँ हों, या तुम कैसे बदलोगे, यह सब तुम्हारे व्यक्तिगत अनुसरण पर निर्भर करता है। ये वे वचन हैं, जिन्हें मुझे कहने की आवश्यकता है और वे कार्य हैं, जो मुझे करने की आवश्यकता है। मैंने वह सब कह दिया है जिसकी मुझे आवश्यकता थी, और मैंने वह सब कह दिया जो मुझे कहना था। अगर तुम लोग वास्तव में सत्य से प्रेम करते हो और उसका अनुसरण करने की इच्छा रखते हो, तो अच्छा होगा कि तुम इस बात के आने पर कि तुम लोग आम तौर पर लोगों और चीजों को कैसे देखते हो, और कैसे व्यवहार और कार्य करते हो, सत्य का अनुसरण करने की वह परिभाषा अपना लो जो मैंने तुम्हारे अनुसरण के लिए लक्ष्य और दिशा के रूप में दी है, या उसे संदर्भ के रूप में अपना लो, ताकि तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के वचनों और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सको। अगर तुम ऐसा करते हो, तो निकट भविष्य में तुम निश्चित रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर कुछ प्राप्त करोगे। कुछ लोग कह सकते हैं, “सत्य का अनुसरण करने में देर क्या सबेर क्या।” यह गलत है—अगर तुम परमेश्वर का कार्य समाप्त होने के बाद तक सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो वास्तव में बहुत देर हो जाएगी। इस विचार को कैसे समझाया जाए? सत्य का अनुसरण परमेश्वर का कार्य समाप्त होने से पहले होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, यह कथन तब तक सत्य है जब तक परमेश्वर अपने कार्य की समाप्ति दर्शाने के लिए घंटी नहीं बजा देता। लेकिन जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाता है और वह कहता है, “मैं मनुष्य को बचाने का और कार्य नहीं करूँगा, और मैं ऐसे और कोई वचन नहीं बोलूँगा जिससे लोगों को उद्धार प्राप्त करने में मदद मिले या जिसमें मनुष्य का उद्धार शामिल हो। मैं ऐसी और चीजें नहीं बोलूँगा,” तब उसका कार्य वास्तव में समाप्त हो चुका होगा। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के लिए तब तक प्रतीक्षा करते हो, तो वास्तव में बहुत देर हो चुकी होगी। जो भी हो, अगर तुम अब भी सत्य का अनुसरण करना शुरू कर देते हो, तो तुम्हारे पास अभी भी समय होगा—तुम्हारे पास अभी भी उद्धार प्राप्त करने का अवसर है। अब से धीरे-धीरे परमेश्वर के वचनों के अनुसार और सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने का भरसक प्रयास करो। थोड़े ही समय में मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव उजागर करने वाले परमेश्वर के सभी वचन पढ़ने और समझने का प्रयास करो, और आत्मचिंतन कर खुद को जानने का अभ्यास करो। ऐसा करना तुम्हारे जीवन-प्रवेश के लिए बहुत लाभदायक है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के उन वचनों को लो, जो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव उजागर करते हैं, जो मसीह-विरोधियों के स्वभाव का उल्लेख करते हैं। क्या ये सबसे मूलभूत वचन नहीं हैं? (हैं।) और तुम्हें उन शब्दों को अपना आधार बनाकर क्या करना चाहिए? अपनी निंदा करनी चाहिए? खुद को शाप देना चाहिए? अपने भविष्य और नियति से खुद को बेदखल कर देना चाहिए? नहीं—तुम्हें उनका उपयोग अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने के लिए करना है। इससे बचने की कोशिश न करो। यह वह मोड़ है, जिससे हर व्यक्ति को गुजरना ही पड़ेगा। इसका क्या अर्थ है कि हर व्यक्ति को इससे गुजरना ही पड़ेगा? यह ठीक उसी तरह है, जैसे हर व्यक्ति एक माँ और पिता से पैदा होता है, फिर बड़ा होता है, फिर बूढ़ा होता है, फिर मर जाता है। ये ऐसे मोड़ हैं, जिनसे हर व्यक्ति को एक-एक करके गुजरना ही पड़ता है। सत्य का अनुसरण करना कितना महत्वपूर्ण है? यह उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि मनुष्य का रोज का खाना-पीना। अगर तुम रोज का खाना-पीना छोड़ दो, तो तुम्हारी देह जीवित नहीं रह पाएगी; तुम्हारा जीवन जारी नहीं रह पाएगा। “परमेश्वर के वचनों के अनुसार” का अर्थ है कि तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखना, और व्यवहार और कार्य करना चाहिए, जो कि बदले में तुम्हारे दृष्टिकोण, तरीके और अभ्यास को जन्म देगा। बेशक, “परमेश्वर के वचनों के अनुसार” “सत्य को कसौटी मानने” के बराबर है। इसलिए, सत्य का अनुसरण करने की परिभाषा में “परमेश्वर के वचनों के अनुसार” अपने आप में पर्याप्त है। फिर “सत्य को कसौटी मानने” को क्यों जोड़ा जाना चाहिए? क्योंकि कुछ विशिष्ट समस्याएँ हैं, जिनकी परमेश्वर के वचनों में चर्चा नहीं की गई है। ऐसे मामलों में तुम्हें सत्य के सिद्धांत खोजने चाहिए, और उन सिद्धांतों के भीतर लोगों और चीजों को देखना चाहिए, और व्यवहार और कार्य करना चाहिए। ऐसा करने से तुम निश्चित रूप से पूर्ण सटीकता प्राप्त कर लोगे। पूर्ण सटीकता प्राप्त करने से पहले व्यक्ति को अपना भ्रष्ट स्वभाव जानना चाहिए और अपने भ्रष्ट उद्गारों और भ्रष्ट सार को स्वीकारना चाहिए। इसके बाद उन्हें ईमानदारी से पश्चात्ताप करना चाहिए, और इस प्रकार वास्तव में खुद को बदलना चाहिए। इस शृंखला की प्रत्येक प्रक्रिया अपरिहार्य है, ठीक किसी व्यक्ति के खाना खाने की तरह : भोजन उसके मुँह में डाला जाना चाहिए, और वह उसकी ग्रासनली से उसके पेट में जाएगा, जिसके बाद वह पच जाता है और अवशोषित हो जाता है। तभी वह धीरे-धीरे उसके रक्त में प्रवेश कर सकता है और उसके शरीर के लिए आवश्यक पोषण बन सकता है। लोग सत्य का अनुसरण करते हैं और उसे अपनी कसौटी मानने लगते हैं, फिर वे सत्य को अभ्यास में ला सकते हैं, उसे जी सकते हैं और उसकी वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं। इस क्रम में प्रत्येक सामान्य प्रक्रिया अपरिहार्य है; ये वे अनिवार्य कदम हैं, जो सत्य का अनुसरण करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को सत्य के किसी भी तत्त्व की खोज में अवश्य उठाने चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं, “सत्य का अनुसरण करने के लिए मुझे इन कदमों और प्रक्रियाओं की आवश्यकता नहीं है। मैं बस सीधे सत्य खोजूँगा और फिर उसे अभ्यास में लाऊँगा और उसे अपनी वास्तविकता बनाऊँगा।” यह एकांगी समझ है, लेकिन अगर यह परिणाम दे सके, तो निश्चित रूप से यह एक बेहतर तरीका है। यह दर्शाता है कि तुमने अपने भ्रष्ट स्वभाव को नियमित रूप से जानने के दौरान पहले ही एक निश्चित मात्रा में ज्ञान और सफलता अर्जित कर ली है, इसलिए तुम जाँचने, जानने, स्वीकारने, पश्चात्ताप करने आदि की प्रक्रियाएँ छोड़ सकते हो, और सीधे सत्य के सिद्धांत खोज सकते हो। सीधे सत्य के सिद्धांत खोजने के लिए व्यक्ति का एक निश्चित आध्यात्मिक कद होना चाहिए। ऐसा आध्यात्मिक कद होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का सच्चा ज्ञान है, और जब वे किसी ऐसी चीज के बारे में सत्य नहीं समझते जो उन पर पड़ती है, तो उन्हें खुद को जानने, या पश्चात्ताप करने, या अपना ढर्रा बदलने की जरूरत नहीं है। उन्हें बस इतना करना है कि सीधे तौर पर सत्य के सिद्धांतों की समझ हासिल करनी है, और फिर उनके अनुसार अभ्यास करना है। यह पर्याप्त है। यह किसी साधारण व्यक्ति का आध्यात्मिक कद नहीं है। ऐसे आध्यात्मिक कद वाले व्यक्ति ने कम से कम परमेश्वर के कठोर न्याय, ताड़ना, अनुशासन और परीक्षण की प्रक्रिया का अनुभव किया होता है। वह उसके प्रति समर्पित हो चुका होता है और पहले से ही पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर होता है। ऐसे लोगों को अपनी भ्रष्टता जानने, फिर उसे स्वीकारने, पश्चात्ताप करने और खुद को बदलने जैसी प्रक्रियाओं की आवश्यकता नहीं होती। तो फिर तुम लोगों का क्या? क्या तुममें से अधिकांश लोगों को खुद को जानने से शुरुआत करने की आवश्यकता है? अगर तुम खुद को नहीं जानते, तो तुम आश्वस्त नहीं होगे, और तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना आसान नहीं होगा, और न ही तुम सच्चा पश्चात्ताप करने में सक्षम होगे। अगर तुम वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करते, तो क्या तुम सत्य के प्रति समर्पित हो सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हो? निश्चित रूप से नहीं हो सकते, और उस स्थिति में, तुम वह व्यक्ति नहीं हो जिसे बचाया जाएगा।

इस संगति के बाद, क्या तुम लोगों के पास अब सत्य का अनुसरण करने के लिए थोड़ा-सा मार्ग है? क्या तुम्हारे पास उसका अनुसरण करने का आत्मविश्वास है? (हाँ।) अच्छा है; अगर तुम्हारे पास कोई मार्ग न होता तो यह चिंता की बात होती। तुममें से कुछ ऐसे हो सकते हैं, जो प्रवचन के बाद नकारात्मक महसूस करें। “ओह, नहीं—मेरी क्षमता खराब है। मैंने प्रवचन सुना, पर मैं इसमें से कुछ भी नहीं समझ पाया; मैं बस थोड़ा-सा सिद्धांत समझता हूँ। लगता है, मुझमें ज्यादा आध्यात्मिक समझ नहीं है। मैं सत्य के अनुसरण को लेकर निरुत्साहित महसूस करता हूँ। अपना कर्तव्य निभाने में, मैं बस थोड़ा-सा श्रम ही कर सकता हूँ। मुझमें बहुत सारी कमियाँ हैं और मैं भ्रष्ट स्वभावों से भरा हुआ हूँ। मुझे लगता है कि इसे बदला नहीं जा सकता। यह ऐसा ही रहेगा। सिर्फ एक सेवाकर्ता होना ही मेरे लिए काफी है।” क्या इस तरह के नकारात्मक विचारों वाला कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर रवाना हो सकता है? यह थोड़ा खतरनाक लगता है, क्योंकि ये नकारात्मक विचार ही सत्य के अनुसरण में एक बड़ी बाधा बनते हैं। अगर व्यक्ति इनका समाधान नहीं करता, तो वह इस मार्ग पर नहीं चल पाएगा, चाहे यह कितना भी अच्छा क्यों न हो। कुछ लोग सत्य का अनुसरण करने के मार्ग में कई बार विफल होकर गिरे हैं, और वे अंततः निरुत्साहित हो जाते हैं : “बस बहुत हुआ—मुझे अब सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है। धन्य होना मेरे भाग्य में ही नहीं है। क्या परमेश्वर ने खुद यह नहीं कहा : ‘क्या तुम्हारे पास आशीष पा सकने लायक मुँह है?’ आईने में देखते ही नजर आ जाता है कि मैं दिखने में औसत हूँ, मेरी आँखों में चमक नहीं और नैन-नक्श अच्छे नहीं, जरा भी परिष्कृत नहीं हैं। जैसे चाहे देखो, मैं आशीषित व्यक्ति की तरह नहीं दिखता। अगर परमेश्वर ने इसे पूर्वनिर्धारित नहीं किया है, तो लोग जितना चाहें उतना अनुसरण कर सकते हैं, कोई फायदा नहीं होगा!” इन लोगों की मानसिकता देखो : उनके दिलों में इतनी घिनौनी चीजों हैं, जिनका अभी समाधान होना बाकी है, फिर वे सत्य के अनुसरण के मार्ग पर कैसे चल सकते हैं? सत्य का अनुसरण करना जीवन का सबसे बड़ा मामला है, और सबसे खराब चीज जो तुम कर सकते हो, वह है इसे हमेशा आशीष प्राप्त करने से जोड़ना। व्यक्ति को पहले आशीष प्राप्त करने की अपनी मंशा का समाधान करना चाहिए। इसके बाद सत्य का अनुसरण करना थोड़ा आसान हो जाएगा। जब सत्य के अनुसरण की बात आती है, तो सबसे महत्वपूर्ण बात यह देखना नहीं कि इस मार्ग पर बहुत-से लोग हैं या नहीं, और अधिकांश लोग जिसे चुनते हैं उसका अनुसरण करना नहीं बल्कि पतरस का अनुकरण करते हुए सिर्फ परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने का प्रयास करने पर ध्यान देना है। सबसे महत्वपूर्ण बात वर्तमान को स्पष्ट रूप से देखना और उसमें जीना है, यह जानना है कि वह कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव है जो वर्तमान में तुम प्रकट करते हो, और उसे हल करने के लिए तत्काल और तुरंत उसका समाधान करना, सत्य खोजकर पहले उसका विश्लेषण कर उसे अच्छी तरह से जानना और फिर परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करना है। जब तुम पश्चात्ताप करते हो, तो सत्य को अभ्यास में लाना अत्यंत महत्वपूर्ण है—वास्तविक परिणाम प्राप्त करने का यही एकमात्र तरीका है। अगर तुम परमेश्वर से सिर्फ यह कहते हो, “परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ। मुझे क्षमा करो। मैं गलत था। कृपया मुझे क्षमा करो!” और सोचते हो कि परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए तुम्हें बस इतना ही करने की आवश्यकता है, तो क्या इससे काम चलेगा? (नहीं।) अगर तुम हमेशा परमेश्वर से यह कहने के इच्छुक रहते हो, “परमेश्वर, मुझे क्षमा करो। मैं गलत था,” और आशा करते हो कि तुम्हारे यह कहते ही परमेश्वर कहेगा, “ठीक है। जो कर रहे हो करते रहो”—अगर तुम हमेशा इस तरह की स्थिति में रहते हो, तो तुम सत्य में प्रवेश करने में असमर्थ होगे। तो, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना और पश्चात्ताप कैसे करना चाहिए? क्या कोई मार्ग है? जिसके पास इसका अनुभव है, वह इसके बारे में कुछ बोल सकता है। कोई नहीं? लगता है, आम तौर पर तुम लोग कभी पश्चात्ताप की प्रार्थना नहीं करते, न ही तुम अपने पाप स्वीकारते हो और परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करते हो। तो, तुम लोगों को अपनी इच्छाएँ और इरादे कैसे छोड़ने चाहिए? तुम्हें अपनी भ्रष्टता कैसे हल करनी चाहिए? क्या तुम्हारे पास अभ्यास का मार्ग है? उदाहरण के लिए, अगर तुम्हारे पास अहंकारी स्वभाव हल करने का कोई मार्ग नहीं है, तो तुम्हें परमेश्वर से इस तरह प्रार्थना करनी चाहिए : “परमेश्वर, मेरा अहंकारी स्वभाव है। मुझे लगता है कि मैं दूसरों से ज्यादा अच्छा हूँ, दूसरों से बेहतर हूँ, दूसरों से ज्यादा चतुर हूँ, और मैं दूसरों से वैसा ही करवाना चाहता हूँ जैसा मैं कहता हूँ। यह बहुत नासमझी है। यह जानते हुए भी कि यह अहंकार है, मैं इसे क्यों नहीं छोड़ पाता? मैं विनती करता हूँ कि तुम मुझे अनुशासित करो और फटकारो। मैं अपना अहंकार और अपनी इच्छा छोड़कर तुम्हारी इच्छा खोजने के लिए तैयार हूँ। मैं तुम्हारे वचन सुनने और उन्हें अपना जीवन और कार्य करने के सिद्धांत मानने के लिए तैयार हूँ। मैं तुम्हारे वचनों को जीने के लिए तैयार हूँ। मैं विनती करता हूँ कि तुम मेरा मार्गदर्शन करो, मैं विनती करता हूँ कि तुम मेरी सहायता और अगुआई करो।” क्या इन शब्दों में समर्पण का रवैया है? समर्पित होने की इच्छा है? (हाँ।) कुछ लोग कह सकते हैं, “सिर्फ एक बार प्रार्थना करने से काम नहीं चलता। जब मुझ पर कुछ आकर पड़ता है, तो मैं अभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीता हूँ, और मैं अभी भी प्रभारी बनना चाहता हूँ।” उस स्थिति में, प्रार्थना करते रहो : “परमेश्वर, मैं बहुत अहंकारी हूँ, बहुत विद्रोही हूँ! मैं तुमसे विनती करता हूँ कि तुम मुझे अनुशासित करो, मेरे बुरे काम वहीं के वहीं रोक दो, और मेरे अहंकारी स्वभाव पर लगाम लगाओ। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मेरा मार्गदर्शन और अगुआई करो, ताकि मैं तुम्हारे वचनों को जी सकूँ, और तुम्हारे वचनों और तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य और अभ्यास कर सकूँ।” प्रार्थना और याचना में परमेश्वर के सामने और ज्यादा आओ, और उसे कार्य करने दो। तुम्हारे शब्द जितने सच्चे होंगे, और तुम्हारा दिल जितना ईमानदार होगा, देह और खुद को नकारने की तुम्हारी इच्छा उतनी ही ज्यादा होगी। जब यह अपनी मरजी के अनुसार कार्य करने की तुम्हारी इच्छा को दबा देती है, तो तुम्हारा दिल धीरे-धीरे बदलने लगता है—और जब ऐसा होता है, तो तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास करने और उसके सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने की आशा होगी। जब तुम प्रार्थना करोगे, तो परमेश्वर तुमसे कुछ नहीं कहेगा, या तुम्हें कोई संकेत नहीं देगा, या तुमसे कोई वादा नहीं करेगा, बल्कि वह तुम्हारे दिल की और तुम्हारे शब्दों के पीछे की मंशा की जाँच करेगा; वह देखेगा कि तुम जो कहते हो, वह ईमानदार और सच्चा है या नहीं, और तुम उससे सच्चे दिल से याचना और प्रार्थना कर रहे हो या नहीं। जब परमेश्वर देखता है कि तुम्हारा हृदय ईमानदार है, तो वह तुम्हारी अगुआई और मार्गदर्शन करेगा, जैसा कि तुमने उससे करने के लिए कहा और प्रार्थना की थी, बेशक वह तुम्हें फटकारेगा और अनुशासित भी करेगा। जब परमेश्वर तुम्हारी याचना पूरी कर देगा, तो तुम्हारा हृदय प्रबुद्ध हो जाएगा और कुछ हद तक बदल जाएगा। इसके विपरीत, अगर परमेश्वर से तुम्हारी याचनाएँ और प्रार्थनाएँ झूठी हैं, और तुम्हारी पश्चात्ताप करने की कोई सच्ची इच्छा नहीं है, बल्कि तुम अपने शब्दों से बेमन से सिर्फ परमेश्वर को मनाने और मूर्ख बनाने की कोशिश कर रहे हो, तो जब परमेश्वर तुम्हारे हृदय को जाँच लेगा, तो वह तुम्हारे लिए कुछ नहीं करेगा, और वह तुमसे घृणा करेगा और तुम्हें नकार देगा। इन परिस्थितियों में, तुम्हें यह भी नहीं लगेगा कि परमेश्वर तुमसे कुछ कहता है, या कुछ करता है, या कोई भी कार्रवाई करता है, लेकिन परमेश्वर तुम में कोई कार्य नहीं करेगा, क्योंकि तुम दिल से बेईमान हो। और जब परमेश्वर कोई काम नहीं करेगा, तो क्या होगा? जैसे तुमने इरादा किया था, वैसे ही तुम्हारे दिल में पश्चात्ताप करने की इच्छा नहीं होगी, और यह बिल्कुल भी बदला नहीं होगा। और इसलिए, उस परिवेश में और उस घटना में जो तुम पर आ पड़ी है, तुम जो भी करोगे, वह सत्य के सिद्धांतों पर आधारित होने के बजाय अभी भी मानवीय इच्छा और भ्रष्ट स्वभावों द्वारा निर्धारित किया जाएगा। तुम अभी भी अपनी इच्छा और अभिलाषा के अनुसार कार्य और अभ्यास करोगे। परमेश्वर से तुम्हारी प्रार्थनाओं का परिणाम वही होगा, जो तुम्हारे प्रार्थना करने से पहले था; कोई बदलाव नहीं होगा। खुद को बिल्कुल भी बदले बिना तुम अभी भी वही करोगे, जो तुम्हें पसंद है। इसका अर्थ यह है कि, सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में लोगों के व्यक्तिपरक प्रयास महत्वपूर्ण हैं, और उतना ही महत्वपूर्ण है यह कि वे सत्य समझते हैं या नहीं। साथ ही, जब लोग सत्य समझते हैं और उसका अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन ऐसा करना मुश्किल पाते हैं, तो उन्हें परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए, और अपना दिल और सच्ची प्रार्थनाएँ अर्पित करनी चाहिए। यह भी बहुत महत्वपूर्ण है; ये सभी चीजें अपरिहार्य हैं। अगर तुम सिर्फ यह कहते हुए सरसरी तौर पर, सतही तरीके से परमेश्वर से प्रार्थना करते हो : “परमेश्वर, मैं गलत था। मुझे क्षमा करो,” और अगर तुम अपने दिल में परमेश्वर के साथ उतने ही अनमने रहते हो, जितना कि तुम अपनी प्रार्थना के शब्दों में होते हो, तो परमेश्वर कोई काम नहीं करेगा, न ही वह तुम पर ध्यान देगा। अगर तुम कहते हो, “परमेश्वर, मुझे क्षमा करो। मैं गलत था,” तो परमेश्वर निश्चित रूप से नहीं कहेगा : “ठीक है।” तुम्हारे द्वारा परमेश्वर से बोले गए सरसरी, सतही शब्दों के कारण वह तुमसे पूछेगा : “तुम किस तरह से गलत थे? तुम्हारा क्या करने का इरादा है? क्या तुम पश्चात्ताप करोगे? क्या तुम अपनी बुराई छोड़ दोगे और खुद को बदलोगे? क्या तुम अपनी इच्छा, इरादे और रुचियाँ छोड़कर खुद को बदलने के लिए दौड़ पड़ोगे? क्या तुम खुद को बदलने का संकल्प ले सकते हो?” हो सकता है, ऐसा होने पर तुम परमेश्वर को खुद से कुछ भी कहते हुए न सुनो, लेकिन अगर तुम परमेश्वर से कहते हो, “परमेश्वर, मुझे क्षमा करो। मैं गलत था,” तो परमेश्वर के दृष्टिकोण से, उसका रवैया वैसा ही होगा जैसा मैंने अभी कहा : वह इन वचनों से तुमसे सवाल करेगा। वह तुमसे कैसे सवाल करेगा? वह यह देखता रहेगा कि यह कहने के बाद : “परमेश्वर, मुझे क्षमा करो। मैं गलत था,” तुम क्या करते हो और क्या विकल्प चुनते हो। वह देखेगा कि क्या तुममें सच में अपनी भ्रष्टता स्वीकारने और उससे घृणा करने से पैदा हुआ सच्चा पश्चात्ताप है। परमेश्वर यह देखेगा कि उसके प्रति तुम्हारा रवैया क्या है, सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है, तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को कैसे लेते हो और उस पर तुम्हारे क्या विचार हैं, और क्या तुम अपने गलत विचार और गलत तरीके छोड़ने का इरादा रखते हो; वह तुम्हारे चयन देखेगा, वह यह देखेगा कि क्या तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना चुनते हो, आगे बढ़ते हुए तुम्हें कैसे कार्य करना चाहिए और कौन-से सिद्धांत कायम रखने चाहिए, तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो या नहीं और उसके प्रति समर्पित हो सकते या नहीं। परमेश्वर तुम्हारे हर कदम, हर इरादे और चुनाव का निरीक्षण करेगा, और यह करते हुए वह यह देखेगा कि उन चयनों के बाद तुम जो चीजें करते हो, क्या वे वास्तव में पश्चात्ताप के कार्यकलाप हैं और क्या तुम खुद को बदल रहे हो। यही अहम मुद्दा है।

पश्चात्ताप करना चुनने के बाद लोग खुद को कैसे बदलें? सत्य का अभ्यास करने और वास्तव में बदलने के लिए अपनी इच्छाएँ, विचार और दृष्टिकोण, और काम करने के अपने पुराने तरीके छोड़कर। खुद को वास्तव में बदलने का यही अर्थ है। अगर तुम सिर्फ खुद को बदलने के इच्छुक होने का दावा करते हो, लेकिन दिल से तुम अभी भी अपनी इच्छाओं से चिपके रहते हो, सत्य त्याग रहे हो, और अपने पुराने ढर्रे पर चल रहे हो, तो तुम वास्तव में खुद को नहीं बदल रहे हो। अगर तुम प्रार्थना करते समय सिर्फ परमेश्वर से यही कहते हो, “परमेश्वर, मुझे क्षमा करो। मैं गलत था,” लेकिन अपने आगामी समस्त व्यवहार में तुम अभी भी अपनी इच्छा के अनुसार ही चुनाव, कार्य और अभ्यास करते और जीते हो, इन सभी चीजों में सत्य के विपरीत चलते हो, तो परमेश्वर के दृष्टिकोण से, तुम्हें कैसे परिभाषित किया जाना चाहिए? तुमने खुद को नहीं बदला है। कम से कम, वह कहेगा कि तुम्हारा खुद को बदलने का इरादा नहीं है। तुम परमेश्वर से कह सकते हो, “परमेश्वर, मुझे क्षमा करो। मैं गलत था,” लेकिन ये सिर्फ सतही शब्द हैं, यह तुम्हारे दिल की गहराई से आया हुआ पश्चात्ताप और पाप का स्वीकरण नहीं है। ये गलती स्वीकारने और पछताने का रवैया नहीं दर्शाते; ये सिर्फ खोखले शब्द हैं। परमेश्वर वह नहीं सुनता जो तुम कहते हो—वह देखता है कि तुम क्या सोच रहे हो, क्या योजना बना रहे हो, और क्या षड्यंत्र रच रहे हो। और जब परमेश्वर देखता है कि तुम्हारे कार्यों के आधार और सिद्धांत अभी भी सत्य के विपरीत हैं, तो वह तुम पर एक सच्चा, वास्तविक और सटीक निर्णय पारित करेगा। वह कहेगा, “तुमने खुद को बदला नहीं है, और तुम खुद को बदल नहीं रहे हो।” और जब परमेश्वर यह कहता है, जब परमेश्वर तुम पर यह फैसला सुनाता है, तो वह फिर तुमसे सरोकार नहीं रखता। और जब परमेश्वर तुमसे सरोकार नहीं रखता, तो आने वाले दिनों में तुम्हारा दिल अंधकारमय हो जाएगा, और तुम जो कुछ भी करोगे उसमें प्रबुद्धता और रोशनी की कमी होगी, और जब तुम भ्रष्ट स्वभाव दिखाओगे तो तुम्हें बिल्कुल भी पता नहीं चलेगा, न ही तुम इसके लिए अनुशासित किए जाओगे। तुम सुन्न और सुस्त होते जाओगे, और खोखला महसूस करोगे, और यह भी महसूस करोगे कि तुम्हारे पास भरोसा करने के लिए कुछ नहीं है। सबसे बुरी बात यह होगी कि तुम अपने मनमाने, लापरवाही भरे व्यवहार में लिप्त रहोगे, और अपने भ्रष्ट स्वभाव को फूलने और बेरोकटोक बढ़ने दोगे। यही होगा। इस तरह से कार्य करने वाले व्यक्ति का अंतिम परिणाम क्या होगा? जब व्यक्ति सत्य को छोड़ देता है, तो वह अपने ऊपर यह परिणाम लाता है कि परमेश्वर उसके साथ सरोकार नहीं रखता। हालाँकि हो सकता है, परमेश्वर तुमसे कुछ न कहे या तुम्हें स्पष्ट रूप से कोई संकेत न दे, लेकिन तुम इसे महसूस कर पाओगे। तुम्हारे विचारों और ख्यालों, तुम्हारी वास्तविक अवस्थाओं और सत्य के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण के आधार पर, यह स्पष्ट होगा कि तुम्हारी समग्र स्थिति सुन्नता, नीरसता, हठधर्मिता और ऐसी ही अन्य अभिव्यक्तियों की होगी। ये बातें लोगों में झलकती हैं। इसलिए, इससे अपने वास्तविक जीवन और उन चीजों की तुलना करने के बाद, जिनका तुम लोग अभ्यास करते हो, तुम लोग निम्नलिखित का अध्ययन या जाँच करना चाह सकते हो : जब तुम परमेश्वर की ओर बिल्कुल भी नहीं मुड़े होते, तो तुम उससे बहुत-सी अच्छी लगने वाली, मीठी बातें कह सकते हो, लेकिन जब तुम ऐसा करते हो तो तुम किस प्रकार की अवस्था और स्थिति में होते हो? और जब तुम वास्तव में खुद को बदल लेते हो, तो भले ही तुम मीठे या अच्छे लगने वाले शब्दों के साथ परमेश्वर से प्रार्थना नहीं कर पाते, और अपने दिल से थोड़ा ही बोल पाते हो, पर तब तुम किस प्रकार की अवस्था और स्थिति में होते हो? दोनों स्थितियाँ बिल्कुल अलग हैं। हो सकता है, परमेश्वर लोगों को उनके दैनिक जीवन में स्पष्ट रूप से कोई संकेत न दे या उनसे स्पष्ट शब्दों में बात न करे, लेकिन लोगों को अपने दैनिक जीवन में पवित्र आत्मा का कार्य, और वह सब-कुछ जो वह करता है, और हर वह इच्छा जिसे वह व्यक्त करना चाहता है, महसूस करने में सक्षम होना चाहिए। स्वाभाविक रूप से, प्रेक्षक भी इन चीजों का पता लगा सकते हैं। जो व्यक्ति सुन्न और मंदबुद्धि था, वह अचानक चतुर बन सकता है, या जो व्यक्ति आम तौर पर चतुर होता है, अचानक सुन्न, मंदबुद्धि और बेकार हो सकता है। ये दोनों स्थितियाँ या अवस्थाएँ एक ही समय में एक व्यक्ति में या अलग-अलग लोगों में हो सकती हैं—ऐसा अक्सर होता है। इससे देखा जा सकता है कि कई मामलों में व्यक्ति का चतुर या मूर्ख होना उसके मस्तिष्क, विचारों या क्षमता से नहीं होता; यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है। क्या यह स्पष्ट है? (हाँ।) तुम ये चीजें तब तक नहीं समझ पाओगे, जब तक तुम इनका अनुभव नहीं कर लेते। इनका अनुभव करके तुम जान जाओगे—इनके बारे में तुम्हारा अनुभव जितना गहरा होगा, तुम्हारी समझ उतनी ही गहन होगी, और इनकी सराहना भी उतनी ही गहरी होगी। परमेश्वर की इच्छा उसके कार्यों में होती है; वह तुम्हें उसका कोई स्पष्ट संकेत नहीं देगा, न ही वह तुम्हें उसके बारे में स्पष्ट रूप से बताएगा या उसके बारे में तुमसे बात करेगा, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उसका तुम्हारे बारे में कोई रुख नहीं है। इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हारे किसी भी विचार, ख्याल, अवस्था या रवैये पर परमेश्वर का कोई विचार नहीं है। जब कोई खुद पर कुछ आ पड़ने पर अपने व्यक्तिगत इरादों और योजनाओं को प्रश्रय देता है, जब वह स्पष्ट रूप से भ्रष्ट स्वभाव प्रदर्शित करता है—ठीक यही वे क्षण होते हैं, जब उसे आत्मचिंतन करने और सत्य तलाशने की आवश्यकता होती है, और ये वे महत्वपूर्ण क्षण भी होते हैं, जब परमेश्वर उस व्यक्ति की जाँच करता है। इसलिए तुम सत्य तलाशने, सत्य स्वीकारने और वास्तव में पश्चात्ताप करने में सक्षम हो या नहीं—यही वे क्षण होते हैं, जो व्यक्ति को सबसे ज्यादा प्रकट करते हैं। ऐसे समय में, तुम्हें यह स्वीकारना चाहिए कि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है, और तुम्हें वास्तव में पश्चात्ताप करने के लिए तैयार रहना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के सामने इसकी ईमानदारी से घोषणा करनी चाहिए, न कि बेपरवाही से यह कहना चाहिए कि, “परमेश्वर, मुझे क्षमा करो। मैं गलत था।” परमेश्वर को तुमसे जो चाहिए, वह तुम्हारी बेपरवाही नहीं, बल्कि सच्चे पश्चात्ताप का रवैया है। अगर तुम्हें कठिनाइयाँ हैं, तो परमेश्वर तुम्हारी मदद करेगा, तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, और सत्य स्वीकारने और उसका अनुसरण करने के मार्ग की ओर कदम-दर-कदम तुम्हारी अगुआई करेगा। अगर तुम्हारा पश्चात्ताप सिर्फ शब्दों में मौजूद है, या अगर तुम पश्चात्ताप करने का इरादा रखते हो और अपने इरादे और इच्छाएँ छोड़ना चाहते हो लेकिन तुम इसके बारे में ईमानदार नहीं हो और ऐसा करने की इच्छा नहीं रखते, तो बेशक परमेश्वर तुम्हें मजबूर नहीं करेगा। जब परमेश्वर की बात आती है, तो मनुष्य के प्रति उसके रवैये में “होना ही चाहिए” जैसा कुछ नहीं होता; परमेश्वर तुम्हें स्वतंत्रता और विकल्प देता है, और प्रतीक्षा करता है। वह किसकी प्रतीक्षा करता है? वह प्रतीक्षा करता है कि देखे आखिरकार तुम क्या चुनाव करते हो और तुम पश्चात्ताप करने का इरादा रखते हो या नहीं। अगर तुम पश्चात्ताप करने का इरादा रखते हो, तो कब करने वाले हो? तुम्हारा पश्चात्ताप कैसे अभिव्यक्त होगा? अगर तुम पश्चात्ताप करने का इरादा रखते हो और ऐसा करने के इच्छुक हो, लेकिन कार्य करते समय अपने हितों की रक्षा करने का प्रयास करते हो, और तुम अभी भी अपनी हैसियत नहीं खोना चाहते हो, तो यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि तुम वास्तव में पश्चात्ताप नहीं कर रहे हो, तुम उसके बारे में ईमानदार नहीं हो। तुम बस थोड़ा-सा पश्चात्ताप करना चाहते हो, लेकिन तुम्हें वास्तव में कोई पछतावा नहीं है। अगर तुम सिर्फ पश्चात्ताप करने का इरादा रखते हो, लेकिन वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करते, तो क्या परमेश्वर तुममें कार्य करेगा? वह नहीं करेगा। वह कहेगा, “अच्छा, तुम्हारा कब पश्चात्ताप करने का इरादा है?” तुम्हें नहीं पता होगा। क्या परमेश्वर तुमसे दोबारा पूछेगा? नहीं—वह कहेगा, “तो, तुम्हें वास्तव में पछतावा नहीं है। तो फिर मैं बस इंतजार करूँगा।” हो सकता है, तुम्हारा पश्चात्ताप करने का इरादा न हो, तुम पश्चात्ताप करने या अपनी हैसियत और हित छोड़ने के इच्छुक न हो। तो ठीक है। परमेश्वर तुम्हें स्वतंत्रता देता है, और तुम अपनी पसंद से चुनाव कर सकते हो। परमेश्वर तुम्हें मजबूर नहीं करेगा। लेकिन तुम्हारे विचार करने के लिए एक तथ्य है, कि अगर तुम नीनवे के लोगों की तरह खुद को नहीं बदलते और पश्चात्ताप नहीं करते, तो इसका क्या परिणाम होगा? तुम नष्ट हो जाओगे। अगर, इस समय तुम सिर्फ पश्चात्ताप करने का इरादा रखते हो, लेकिन तुमने पश्चात्ताप करने की दिशा में कोई वास्तविक कार्य नहीं किया है, तो परमेश्वर तुमसे कोई सरोकार नहीं रखेगा। वह तुमसे कोई सरोकार क्यों नहीं रखेगा? परमेश्वर कहता है, “तुम सच्चे नहीं हो, तुम अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं कर रहे, और तुम्हारा हृदय अभी भी डगमगा रहा है।” पल भर विचार करने के बाद, तुम कह सकते हो कि तुम पश्चात्ताप करने को तैयार हो, लेकिन यह बिना किसी कार्य या किसी ठोस योजना के सिर्फ तुम्हारा एक विचार है, एक खोखला बयान है। इसलिए परमेश्वर कहता है, “मैं तुम जैसे लोगों को किनारे कर दूँगा। मुझे तुमसे कोई सरोकार नहीं। जैसा चाहो वैसा करो!” जब एक दिन, तुम्हें एहसास होगा, “अरे नहीं, मुझे पश्चात्ताप करने की जरूरत है,” तो तुम्हें इसे कैसे करना चाहिए? परमेश्वर तुम्हारे इन शब्दों से मूर्ख नहीं बनेगा और आँख मूँदकर कार्य करते हुए यह नहीं कहेगा, “यह पश्चात्ताप करना चाहता है, इसलिए अब मुझे इसे आशीष देना होगा, है न?” परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा। वह क्या करेगा? वह तुम्हारी जाँच करेगा। तुम्हारा पश्चात्ताप करने का इरादा है; तुम पश्चात्ताप करना चाहते हो, और इसके लिए तुम्हारा दावा पहले से थोड़ा ज्यादा मजबूत है, लेकिन कौन जानता है कि तुम्हारे वास्तव में ऐसा करने में कितना समय लगेगा। अगर तुमने पश्चात्ताप करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए हैं या तुम्हारे पास उसकी कोई ठोस योजना नहीं है, तो यह सच्चा पश्चात्ताप नहीं है। तुम्हें वास्तविक कार्य करना चाहिए। जब तुम वास्तविक कार्रवाई करोगे, तो परमेश्वर का कार्य आएगा। क्या परमेश्वर के कार्य और लोगों के साथ उसके व्यवहार के सिद्धांत नहीं हैं? जब परमेश्वर कार्य करता है, तो व्यक्ति प्रबुद्धता प्राप्त करता है, उसकी आँखें चमकती हैं, वह सत्य समझने और उसकी वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होता है, और उसकी उपलब्धियाँ सौ गुना, हजार गुना बढ़ जाती हैं। जब ऐसा होता है, तो तुम वास्तव में धन्य हो जाते हो। तो, ये चीजें प्राप्त करने के लिए लोगों को किस आधार पर निर्माण करना चाहिए? (वास्तव में पश्चात्ताप करने की क्षमता पर।) यह सही है। जब लोग वास्तव में अपने हित और इच्छाएँ छोड़ देते हैं, जब वे परमेश्वर के सामने वास्तव में पश्चात्ताप करते हैं—अर्थात वे अपने बुरे काम वहीं के वहीं रोक देते हैं; और अपनी बुराई, अपनी इच्छाएँ और इरादे त्याग देते हैं; और परमेश्वर के सामने पाप कबूलते हैं; और परमेश्वर की अपेक्षाएँ और उसके वचन स्वीकारते हैं—तो वे खुद को बदलने की वास्तविकता में प्रवेश करना शुरू कर देते हैं। सिर्फ यही सच्चा पश्चात्ताप है।

अभी-अभी हमने उन समस्याओं पर संगति की, जो अक्सर मनुष्य के सत्य के अनुसरण के दौरान पाई जाती हैं, और जिन्हें सत्य का अनुसरण करने वाले पहचान और जान सकते हैं। ये ही वे समस्याएँ हैं, जिन्हें हल किया जाना चाहिए। हो सकता है कि हमने अतीत में इन समस्याओं की बहुत ज्यादा व्याख्या या विश्लेषण न किया हो, हो सकता है कि हम इनके बारे में किसी स्पष्ट निष्कर्ष पर भी न पहुँचे हों, लेकिन सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में मनुष्य द्वारा अनुभव किए जाने वाले प्रत्येक कदम और इस प्रक्रिया के दौरान उनके विभिन्न व्यवहारों और अवस्थाओं के संबंध में परमेश्वर के पास तदनुरूपी वचन और कार्य, और उन्हें देखने और हल करने के प्रासंगिक उपाय और तरीके हैं। लोग इन सभी चीजों को थोड़ा-बहुत अनुभव कर और समझ सकते हैं; उन्हें परमेश्वर को गलत नहीं समझना चाहिए, या परमेश्वर के बारे में ऐसी कोई धारणा या कल्पना नहीं रखनी चाहिए, जो वास्तविकता से मेल न खाती हो। इसके अलावा, परमेश्वर लोगों को सत्य के अनुसरण में शामिल हर कदम, कार्य और अभ्यास करने के हर तरीके के बारे में चुनाव करने के लिए पर्याप्त स्वतंत्रता और पर्याप्त साधन देता है—वह लोगों को बाध्य नहीं करता। हालाँकि ये वचन और अपेक्षाएँ पाठ में मुद्रित किए गए हैं और स्पष्ट, सटीक भाषा में बोले गए हैं, फिर भी, एक व्यक्ति स्वतंत्र रूप से चुन सकता है कि वह इन सत्यों को कैसे लेगा। परमेश्वर लोगों को मजबूर नहीं करता। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक हो, तो तुम्हारे पास बचाए जाने की आशा है। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक नहीं हो, अगर तुम इन सत्यों की परवाह नहीं करते और इन्हें खारिज कर देते हो, अगर तुम सत्य के अनुसरण का अभ्यास करने के इन तरीकों में बिल्कुल भी रुचि नहीं रखते—तो भी ठीक है। परमेश्वर तुम्हें मजबूर नहीं करेगा। अगर तुम सिर्फ परमेश्वर के लिए परिश्रम करने के इच्छुक हो, तो यह भी ठीक है। जब तक तुम सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करते, तब तक परमेश्वर का घर तुम्हें स्वयं अपना विकल्प चुनने देगा। हालाँकि सत्य का अनुसरण उद्धार की प्राप्ति से अभिन्न रूप से संबद्ध है और उसके साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा है, फिर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो सत्य का अनुसरण करने में रुचि नहीं रखते, जिनका इसके बारे में कोई विचार या इसे करने का इरादा नहीं है, न ही कोई योजना है। तो क्या इन लोगों की निंदा की जाती है? असल में नहीं। अगर ये लोग अपने कर्तव्य निभाने में परमेश्वर के घर की अपेक्षाएँ पूरी करते हैं, तो वे वहाँ अपने कर्तव्य निभाते रह सकते हैं। परमेश्वर का घर तुम्हें इस वजह से कर्तव्य निभाने के अधिकार से वंचित नहीं करेगा कि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते। लेकिन इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना आज तक “श्रम” के रूप में वर्गीकृत किया गया है। “श्रम” इसे कहने का एक अच्छा तरीका है, यह वह शब्द है जिसे परमेश्वर का घर इस्तेमाल करता है, लेकिन वास्तव में, इसे “नौकरी करना” भी कहा जा सकता है। तुममें से कुछ लोग कह रहे होंगे, “जब तुम नौकरी करते हो, तो तुम्हें वेतन मिलता है।” हाँ, तुम्हें नौकरी करने की मजदूरी मिल सकती है। तो, तुम्हारी मजदूरी क्या है? वे सब अनुग्रह, जो परमेश्वर ने तुम्हें दिए हैं—तुम्हारी मजदूरी हैं। और जहाँ तक सत्य के अनुसरण की बात है, तुम जो कुछ भी करने का इरादा रखते हो, या करने की योजना बनाते हो, या करना चाहते हो, मैं तुम्हें अब स्पष्ट रूप से बता सकता हूँ कि तुम स्वतंत्र हो। तुम सत्य का अनुसरण कर पाओ तो ठीक है; न कर पाओ तो भी ठीक है। लेकिन आखिरी बात जो मैं तुम लोगों से कहूँगा, वह यह है कि सिर्फ सत्य का अनुसरण करके ही व्यक्ति को बचाया जा सकता है। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम्हारे बचाए जाने की आशा शून्य है। यही तथ्य मैं तुमसे कहूँगा। तुम लोगों को यह तथ्य बताया जाना चाहिए, ताकि यह स्पष्ट रूप से, असंदिग्ध रूप से, सटीक रूप से, और प्रत्यक्ष रूप से तुम्हारे दिलों में समा जाए—ताकि तुम अपने दिलों में स्पष्ट रूप से जान सको कि वह कौन-सी नींव है, जिस पर उद्धार की आशा निर्मित की जाती है। अगर तुम यह सोचते हुए सिर्फ श्रम करने से संतुष्ट रहते हो, “अगर मैं सिर्फ अपना कर्तव्य निभा सकता हूँ और परमेश्वर के घर से बाहर नहीं निकाला जाता, तो यह चलेगा; मुझे सत्य का अनुसरण करने जैसी कठिन चीज करने की परेशानी नहीं उठानी,” तो क्या तुम्हारा यह दृष्टिकोण कायम रहेगा? हालाँकि तुम अभी भी परमेश्वर में विश्वास करते हो, या कर्तव्य निभाते हो, पर क्या तुम आश्वस्त हो कि तुम अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हो? जो भी हो, सत्य का अनुसरण करना जीवन में एक बहुत बड़ी बात है, यह शादी करके बच्चे पैदा करने, अपने बेटे-बेटियों की परवरिश करने, अपना जीवन जीने और संपत्ति बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह परमेश्वर के घर में कोई कर्तव्य निभाने और भविष्य बनाने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। कुल मिलाकर, सत्य का अनुसरण करना व्यक्ति के जीवन-पथ पर सबसे महत्वपूर्ण चीज होती है। अगर तुम लोगों ने अभी तक सत्य के अनुसरण में रुचि विकसित नहीं की है, तो कोई तुम लोगों पर फैसला सुनाते हुए यह नहीं कहेगा कि तुम लोग भविष्य में सत्य का अनुसरण नहीं करोगे। मैं भी तुम लोगों पर फैसला सुनाते हुए यह नहीं कहूँगा कि अगर तुम अभी सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो भविष्य में भी कभी नहीं करोगे। जो हो रहा है वह ऐसा नहीं है। ऐसा कोई तार्किक संबंध नहीं है; यह तथ्य नहीं है। जो भी हो, मुझे आशा है कि निकट भविष्य में, या इसी क्षण, तुम लोग सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल सकोगे, और सत्य का अनुसरण करने वाले लोग बन सकोगे, और उन लोगों में शामिल हो सकोगे, जिनके पास उद्धार की आशा है।

सत्य के अनुसरण का सीधा संबंध उद्धार की प्राप्ति से है, इसलिए सत्य के अनुसरण का विषय कोई छोटा विषय नहीं है। हालाँकि यह एक सामान्य विषय हो सकता है, लेकिन यह बहुत सारे सत्यों को छूता है। वास्तव में, यह विषय मनुष्य की संभावनाओं और नियति के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा है, और हालाँकि हम इसके बारे में अक्सर संगति करते हैं, लेकिन लोग अभी भी सत्य के अनुसरण के संबंध में उन विभिन्न सत्यों और समस्याओं पर बहुत स्पष्ट नहीं हैं, जिन्हें समझने की उन्हें आवश्यकता है। इसके बजाय, वे बस लोगों द्वारा अच्छे माने जाने वाले विभिन्न व्यवहारों और दृष्टिकोणों को, और साथ ही लोगों की नजरों में कुछ अपेक्षाकृत सक्रिय, ऊर्ध्वदर्शी और सकारात्मक विचारों और मतों को लेकर एक भ्रमित तरीके से सत्य के रूप में उनका अनुसरण करते हैं। यह एक भयंकर भूल है। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं, जिन्हें लोग अच्छी, सही और ठीक मानते हैं, जो सटीक रूप से कहें तो, सत्य नहीं हैं। उनमें से कुछ, ज्यादा से ज्यादा, सत्य के अनुरूप हो सकती हैं, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वे सत्य हैं। ज्यादातर लोगों को सत्य के अनुसरण के बारे में भारी गलतफहमियाँ हैं, और वे उसके प्रति काफी गलत समझ और पूर्वाग्रह रखते हैं। इसलिए हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम इस पर स्पष्ट रूप से संगति करें, और लोगों को इसके भीतर के वे सत्य, जिन्हें उन्हें समझना चाहिए, और वे समस्याएँ, जिन्हें उन्हें हल करना चाहिए, समझाएँ। क्या सत्य के अनुसरण से संबंधित विशिष्ट सामग्री के बारे में, जिस पर हमने अभी संगति की है, तुम लोगों के कोई विचार हैं? क्या तुम्हारी कोई योजनाएँ या इरादें हैं? अब जबकि हमने अपनी संगति के माध्यम से, सत्य का अनुसरण करने के अर्थ की एक ज्यादा विशिष्ट परिभाषा दे दी है, बहुत-से लोग जो करते और प्रकट करते थे, उन चीजों के बारे में थोड़ा उलझन में हैं, और साथ ही इस बारे में भी कि भविष्य में वे क्या करने का इरादा रखते हैं। वे परेशान हैं, और कुछ तो यह भी महसूस करते हैं कि उनके लिए कोई आशा नहीं बची, और उन्हें निकाल दिए जाने का खतरा है। अगर सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति किए जाने बाद भी लोग उत्साहहीन महसूस करते हैं, तो क्या उनकी दशा सही है? क्या यह सामान्य है? (नहीं, यह सामान्य नहीं है।) अगर तुमने पहले सत्य का अनुसरण किया होता और इस संगति को सुनकर उसकी पुष्टि प्राप्त की होती, तो क्या तुम ज्यादा ऊर्जावान महसूस न करते? (हाँ।) तो लोग उत्साहहीन क्यों महसूस करते हैं? इस उत्साहहीनता की जड़ क्या है? जितना ज्यादा पारदर्शी और स्पष्ट रूप से सत्य पर संगति की जाती है, लोगों के पास उतना ही ज्यादा मार्ग होना चाहिए—तो, अगर लोगों के पास ज्यादा मार्ग है, तो वे ज्यादा उत्साहहीन क्यों महसूस करते हैं? क्या यहाँ समस्या नहीं है? (है।) क्या समस्या है? (अगर व्यक्ति जानता है कि सत्य का अनुसरण करना अच्छा है, लेकिन उसका अनुसरण करने का इच्छुक नहीं है, तो इसका कारण यह है कि वह सत्य से प्रेम नहीं करता।) लोग सत्य से प्रेम नहीं करते या उसका अनुसरण करने का इरादा नहीं रखते—इसीलिए वे उत्साहहीन महसूस करते हैं। और उनके पिछले कार्यों का क्या? (उनकी निंदा की जाती है।) “निंदा” बहुत सही शब्द नहीं है—सटीक रूप से कहें तो, उनके पिछले कार्यों को मान्यता नहीं दी गई है। अपने कार्यों को मान्यता न मिलना, यह किस तरह का परिणाम है? जब व्यक्ति के कार्यों को मान्यता नहीं मिलती, तो क्या हो रहा है? इसका क्या मतलब है? सीधी बात है—अगर व्यक्ति के कार्यों को मान्यता नहीं मिलती, तो यह दर्शाता है कि वह सत्य का अनुसरण नहीं कर रहा, बल्कि वह उन चीजों का अनुसरण कर रहा है, जिन्हें मनुष्य सही और अच्छा मानता है, और वह अभी भी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जी रहा है। क्या यही नहीं हो रहा? (हो रहा है।) यही हो रहा है। जब लोगों के कार्यों को परमेश्वर द्वारा मान्यता नहीं दी जाती, तो वे परेशान महसूस करते हैं। क्या ऐसे समय उनके पास अभ्यास का कोई सकारात्मक और सही मार्ग नहीं होता? क्या व्यक्ति के लिए यह सही होगा कि वह इसलिए नकारात्मक हो जाए, अपना कर्तव्य त्याग दे और निराशा में डूब जाए कि उसके कार्यों को मान्यता नहीं मिली? क्या यह अभ्यास का सही मार्ग है? (नहीं।) यह अभ्यास का सही मार्ग नहीं है। जब व्यक्ति पर ऐसा कुछ पड़ता है, और उन्हें अपनी समस्याओं का पता चलता है, तो उन्हें तुरंत अपना रास्ता बदल लेना चाहिए। अगर हमारी संगति के माध्यम से तुम्हें सत्य का अनुसरण करने के अर्थ का और इसका पता चलता है कि तुम्हारे पिछले कार्यों और व्यवहारों का सत्य के अनुसरण से कोई लेना-देना नहीं था, तो चाहे यह तुम्हें परेशान करे या नहीं, पहला काम यह करो कि अभ्यास के अपने पुराने, गलत तरीके और विधियाँ, और साथ ही अपने अनुसरण का गलत मार्ग पलट दो। तुम्हें ये चीजें तुरंत पलट देनी चाहिए। जब परमेश्वर द्वारा व्यक्ति के पिछले कार्य खारिज कर दिए जाते हैं और उन्हें मान्यता नहीं दी जाती, जब परमेश्वर कहता है कि वे कार्य केवल श्रम थे, और उनका सत्य का अनुसरण करने से कोई लेना-देना नहीं, तो कुछ लोग सोचेंगे, “ओह, हम मनुष्य वास्तव में मूर्ख और अंधे हैं। हम सत्य नहीं समझते और चीजों की असलियत नहीं देख पाते—और इस पूरे समय हम मान रहे थे कि हम सत्य का अभ्यास और अनुसरण कर रहे हैं, और परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं। अब जाकर हमें पता चला है कि अपने तथाकथित ‘सत्य के अनुसरण’ में हमने जो कुछ किया, वह केवल अच्छे इंसानी व्यवहार थे—वे सिर्फ वो चीजें थीं, जिन्हें लोग अपनी देह की विभिन्न सहज योग्यताओं, क्षमताओं और गुणों के आधार पर करते हैं। वे सत्य के अनुसरण के सार, परिभाषा और अपेक्षाओं से बहुत अलग हैं; उनका इससे कोई लेना-देना ही नहीं है। हमें इसके बारे में क्या करना चाहिए?” यह एक बड़ी समस्या है और इसे हल किया जाना चाहिए। इसे हल करने का क्या तरीका है? प्रश्न उठाया गया है : यह देखते हुए कि जिन व्यवहारों और दृष्टिकोणों को लोग पहले अच्छा मानते थे, उन्हें समान रूप से खारिज कर दिया गया है, और परमेश्वर उन्हें याद नहीं रखता, न ही उसने उन्हें सत्य के अनुसरण के रूप में परिभाषित किया है—तो फिर, सत्य का अनुसरण क्या है? इसका उत्तर यह है कि सत्य के अनुसरण की परिभाषा का सावधानी से प्रार्थना-पाठ करना चाहिए, और उस परिभाषा से अभ्यास करने का मार्ग खोजना चाहिए, और उसे अपने जीवन की वास्तविकता में बदलना चाहिए। लोगों ने अतीत में सत्य के अनुसरण का अभ्यास नहीं किया, इसलिए अब से उन्हें सत्य के अनुसरण की परिभाषा को अपने आधार के रूप में और अपने व्यवहार की नींव के रूप में लेना चाहिए। तो, सत्य के अनुसरण की क्या परिभाषा है? वह यह है : परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना। इसे और ज्यादा स्पष्ट या सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। मनुष्य के पिछले सभी कार्य और व्यवहार क्या थे? क्या वे परमेश्वर के वचनों के अनुरूप थे, सत्य उनकी कसौटी था? याद करो—क्या ऐसा था? (नहीं।) कहा जा सकता है कि ऐसे कार्य और व्यवहार कभी-कभार ही पाए जाते हैं, वे वास्तव में कहीं नहीं पाए जाते। तो, क्या मनुष्य ने परमेश्वर में इतने वर्षों तक विश्वास करने, और उसके वचनों को पढ़ने और उनकी संगति करने से वास्तव में कुछ भी हासिल नहीं किया है? क्या लोगों ने परमेश्वर के वचनों के अनुसार एक भी चीज का अभ्यास नहीं किया है? जिस परिभाषा की हमने यहाँ बात की है, “परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना,” किस पर निर्देशित है? यह किस समस्या का समाधान करने के लिए है? यह मनुष्य की किन समस्याओं और उसके स्वभाव के सार के किन पहलुओं पर निर्देशित है? लोग अब सत्य का अनुसरण करने की परिभाषा समझ सकते हैं, लेकिन जब यह बात आती है कि उनके पिछले कार्यों को मान्यता क्यों नहीं दी गई, और क्यों उन्हें सत्य का अनुसरण न करने के रूप में परिभाषित किया गया, तो ये चीजें उनके लिए अस्पष्ट, समझ से बाहर और अज्ञात बनी रहती हैं। कुछ लोग कहेंगे, “जब से हमने परमेश्वर का नाम स्वीकारा है, तब से हमने कितना त्याग किया है : हमने अपने परिवार और काम त्याग दिए, और हमने अपनी संभावनाएँ भी त्याग दीं। हममें से कुछ ने अच्छी नौकरियों से इस्तीफा दे दिया; हममें से कुछ ने सुखी परिवार छोड़ दिए; हममें से कुछ के पास अच्छे वेतन और असीमित संभावनाओं वाला बहुत अच्छा करियर था, हमने वह सब जाने दिया। ये वे चीजें हैं, जिनका हमने त्याग किया है। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद से हमने विनम्र, धैर्यवान और सहिष्णु होना सीखा है। दूसरों के साथ बातचीत करते समय हम उनके साथ बहस में नहीं पड़ते, हम कलीसिया में आने वाले किसी भी मामले को सँभालने की पूरी कोशिश करते हैं, और जब भी हमारे भाई-बहनों को कोई कठिनाई होती है, हम प्यार से उनकी मदद करने का भरसक प्रयास करते हैं। हम दूसरों को नुकसान पहुँचाने से बचते हैं और यथासंभव दूसरों के हितों को क्षति नहीं पहुँचाते। क्या इन दृष्टिकोणों का वास्तव में सत्य का अनुसरण करने से कोई लेना-देना नहीं है?” अब ध्यान से सोचो : मनुष्य के त्याग, व्यय, परिश्रम, सहनशीलता, धैर्य, यहाँ तक कि कष्ट उठाना भी, किससे संबंधित है? ये चीजें कैसे हासिल की जाती हैं? ये किस पर आधारित हैं? कौन-सी प्रेरक शक्ति लोगों को इन्हें करने के लिए प्रेरित करती है? इस पर विचार करो। क्या ये चीजें गहन विचार के योग्य नहीं हैं? (हाँ, हैं।) अच्छा, चूँकि ये गहन विचार के योग्य हैं, आओ आज हम इनकी छानबीन और जाँच करें; आओ देखें कि इन चीजों का, जिन्हें मनुष्य ने हमेशा अच्छा, सही और उत्कृष्ट माना है, सत्य के अनुसरण से कोई लेना-देना है या नहीं।

हम मनुष्य के त्याग, परिश्रम और उसके द्वारा चुकाई जाने वाली कीमतों को देखने से आरंभ करेंगे। इन त्यागों, परिश्रमों और कीमतों के संदर्भ या परिवेश पर ध्यान न दें तो, इन चीजों के लिए मुख्य प्रेरक शक्ति कहाँ से आती है? मेरे विचार से इसके दो स्रोत हैं। पहला है, जब लोग अपने विचारों और धारणाओं में यह सोचते हैं, “अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तो तुम्हें खुद को त्याग देना और खपाना चाहिए, और उसके लिए कीमत चुकानी चाहिए। जब लोग ऐसा करते हैं, तो परमेश्वर को अच्छा लगता है। जब लोग आराम में लिप्त होते हैं और सांसारिक चीजों के पीछे दौड़ते हैं, या जब वे उसका नाम स्वीकारने और उसका अनुयायी बनने का दावा करने के बाद भी उदासीन रहकर अपना ही जीवन जीते रहते हैं, तो उसे अच्छा नहीं लगता। जब लोग ऐसा करते हैं, तो परमेश्वर इसे पसंद नहीं करता।” लोगों की व्यक्तिपरक इच्छा के अनुसार, यह विचार एक हकीकत है। परमेश्वर और उसके नए कार्य को स्वीकारने का व्यक्ति का चाहे जो भी कारण हो, उनकी व्यक्तिपरक इच्छा इस तरह से कार्य करने के लिए सहमत होगी, यह विश्वास करते हुए कि परमेश्वर को तभी अच्छा लगता है, जब लोग इस तरह से कार्य करते हैं, और इस तरह से कार्य करके ही वे परमेश्वर की खुशी और संतुष्टि प्राप्त करेंगे। उन्हें लगता है कि अगर लोग लगन से संघर्ष और प्रयास करते हैं, और बदले में कुछ भी माँगे बिना कोशिश करते हैं, और अगर लोग कीमत चुकाने के लिए अपने सुख-दुख की परवाह नहीं करते, और प्रयास करना, कीमत चुकाना और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना और अर्पित करना जारी रखते हैं, तो परमेश्वर निश्चित रूप से प्रसन्न होगा। इसलिए, जब कोई इस पर विश्वास कर लेता है, तो वह पुनर्विचार किए बिना सिर झुका लेता है, और बाकी सब की परवाह किए बिना, वह हर उस चीज का त्याग कर देता है जिसका वह त्याग कर सकता है, और हर वह चीज अर्पित कर देता है जिसे वह अर्पित कर सकता है, और हर वह पीड़ा सह कर सकता है, जिसे वह सह सकता है। लोग ये दृष्टिकोण अपनाते हैं, पर क्या उनमें से किसी ने परमेश्वर से यह पूछने के लिए अपना सिर उठाया है, “परमेश्वर, क्या जो चीजें मैं कर रहा हूँ, वे वही चीजें हैं जिनकी तुम्हें आवश्यकता है? परमेश्वर, क्या तुम मेरे व्यय, मेरे परिश्रम, मेरी पीड़ा और मेरे द्वारा चुकाई गई कीमतों को मान्यता देते हो?” लोग कभी परमेश्वर से यह नहीं पूछते, और यह जाने बिना कि परमेश्वर की क्या प्रतिक्रिया या रवैया है, यह विश्वास करते हुए कि परमेश्वर उनके इस तरह से कष्ट उठाने पर खुश और संतुष्ट ही होगा, वे इच्छा से प्रयास करते रहते हैं, खुद को अर्पित करते और खपाते रहते हैं। कुछ लोग तो इस डर से पकौड़े तक खाना छोड़ देते हैं कि अगर उन्होंने ऐसा किया, तो परमेश्वर अप्रसन्न हो जाएगा। इसके बजाय, वे यह मानते हुए कि पकौड़े खाना आराम में लिप्त होना है, उबली हुई मकई की रोटी खाते हैं। वे तभी सहज महसूस करते हैं, जब वे उबली हुई मकई की रोटी, बासी पराँठे और अचार खाते हैं, और जब वे सहज महसूस करते हैं, तो सोचते हैं कि परमेश्वर निश्चित रूप से संतुष्ट होगा। वे अपनी भावनाओं, आनंद, दुःख, क्रोध और खुशी को गलती से परमेश्वर की भावनाएँ, आनंद, दुःख, क्रोध और खुशी समझ लेते हैं। क्या यह बेतुका नहीं है? बहुत-से लोग उन चीजों को सत्य मान लेते हैं, जिन्हें मनुष्य सही मानता है, और उन्हें मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं के रूप में वर्णित करते हुए परमेश्वर पर थोप देते हैं, क्योंकि सभी लोग यही मानते हैं। और जब लोग इस तरह का विश्वास रखते हैं, तो बहुत संभावित और स्वाभाविक है कि वे अनजाने ही उन कथनों, व्यवहारों और दृष्टिकोणों को सत्य के रूप में चित्रित करें। और चूँकि लोगों ने निर्धारित कर लिया है कि ये चीजें सत्य हैं, इसलिए वे सोचते हैं कि ये अभ्यास के सिद्धांत होने चाहिए, जिनका मनुष्य को अवश्य पालन करना चाहिए, और अगर कोई इस तरह से इनका अभ्यास और पालन करता है, तो वह परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कर रहा है, सत्य का अनुसरण कर रहा है, और बेशक, उसकी इच्छा पूरी कर रहा है। और चूँकि लोग “परमेश्‍वर की इच्छा पूरी कर रहे हैं,” तो क्या उनकी कठिनाइयाँ सार्थक नहीं हैं? क्या वे सही तरह से कीमत नहीं चुका रहे? क्या यह ऐसी चीज नहीं है, जिससे परमेश्वर संतुष्ट होता है और जिसे वह याद रखता है? लोग सोचते हैं कि यह निश्चित रूप से ऐसी ही चीज है। मनुष्य जिसे “सत्य” मानता है, उसके और परमेश्वर के वचनों के बीच यही दूरी और अंतर है। लोग समान रूप से हर उस चीज को सत्य के रूप में वर्गीकृत करते हैं, जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं में मनुष्य के नैतिक चरित्र के अनुरूप है और अच्छी, उत्कृष्ट और सही है, और फिर वे खुद से कड़ी अपेक्षाएँ करते हुए उस दिशा में कार्य और अभ्यास करने का प्रयास करते हैं। वे मानते हैं कि इस तरह वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं, कि वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति से कम नहीं हैं, और बेशक, वे पूरी तरह से ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें बचाया जा सकता है। तथ्य यह है कि परमेश्वर के वचनों और सत्य का उन चीजों से कोई लेना-देना नहीं है, जिन्हें लोग अपनी धारणाओं में अच्छा, सही और सकारात्मक मानते हैं। फिर भी जब लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़ते और अपने हाथों में पकड़ते हैं, तो वे हर उस चीज को लेकर, जो—उनकी धारणाओं में—अच्छी, सही, सुंदर, दयालु, सकारात्मक है और मनुष्य द्वारा जिसके सत्य और सकारात्मक होने की वकालत की जाती है, अथक रूप से उसका अनुसरण करते हैं, और न केवल खुद उसका अनुसरण कर उसे प्राप्त करना आवश्यक समझते हैं, बल्कि दूसरों से भी उसका अनुसरण कर उसे प्राप्त करने की अपेक्षा करते हैं। जिन चीजों को मनुष्य अच्छा मानता है, लोग उन्हें ही हमेशा गलत ढंग से सत्य समझ लेते हैं, और फिर उन चीजों द्वारा अपेक्षित मानकों और दिशा के अनुसार अनुसरण करते हैं, और इस तरह मानते हैं कि वे पहले से ही सत्य का अनुसरण कर रहे हैं और सत्य की वास्तविकता को जी रहे हैं। यह सत्य के अनुसरण के बारे में लोगों की गलत समझ का एक पहलू है। वह गलत समझ यह है कि लोग जिसे—अपनी धारणाओं में—अच्छा, सही और सकारात्मक मानते हैं, उसे अपने मानकों के रूप में ले लेते हैं, और उसे मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं, और उसके वचनों की अपेक्षाओं और मानकों का स्थान दे देते हैं। लोग जिन चीजों को अपनी धारणाओं में सही और अच्छा मानते हैं, उन्हें सत्य समझने की भूल करते हैं, और सिर्फ इतना ही नहीं—वे इन चीजों का पालन और अनुसरण भी करते हैं। क्या यह समस्या नहीं है? (हाँ, है।) यह मनुष्य के विचारों और नजरियों की समस्या है। जब लोग ऐसा करते हैं, तो वे किससे प्रेरित होते हैं? वह मूल कारण क्या है, जो उन्हें इन विचारों और गलत समझ की ओर ले जाता है? मूल कारण यह है कि लोग मानते हैं कि परमेश्वर इन चीजों को पसंद करता है, इसलिए वे इन्हें उस पर थोप देते हैं। उदाहरण के लिए, परंपरागत संस्कृति लोगों को मेहनती और मितव्ययी होने के लिए कहती है; मेहनत और मितव्ययिता मानवीय गुण हैं। “तुम्हें शीर्ष पर पहुँचने के लिए बहुत कष्ट सहना है,” ऐसा ही एक और गुण है, और ऐसा ही गुण है “जैसा तुम्हारा मालिक आज्ञा दे, वैसा करो, वरना तुम्हें अपने सबसे श्रमसाध्य प्रयासों से भी कुछ हासिल नहीं होगा” इत्यादि। हर जाति और समूह में, लोग मानते हैं कि जिस भी चीज को वे अच्छी, सही, सकारात्मक, सक्रिय और ऊर्ध्वमुखी मानते हैं, वह सत्य है, और वे इन चीजों से ऐसे पेश आते हैं मानो वे सत्य हों, और उन्हें परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सभी सत्यों का स्थान दे देते हैं। जिन चीजों पर मनुष्य दृढ़ता से विश्वास करता है और जो शैतान की हैं, उन्हें वे सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानक मान लेते हैं। वे अपने अनुसरण को उन आदर्शों, दिशाओं और लक्ष्यों की ओर निर्देशित करते हैं, जिन्हें वे सही सोचते और मानते हैं। यह एक भयंकर भूल है। मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं से आने वाली ये चीजें परमेश्वर के वचनों के बिल्कुल भी अनुरूप नहीं हैं, और ये पूरी तरह से सत्य के विपरीत हैं।

मैं उन चीजों के कुछ उदाहरण दूँगा, जिन्हें लोग अपनी धारणाओं में अच्छी और सही मानकर सत्य समझने की भूल करते हैं, ताकि यह विचार बहुत अमूर्त न रहे, और तुम लोग इसे समझ सको। उदाहरण के लिए : कुछ स्त्रियाँ परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शृंगार करना और गहने पहनना बंद कर देती हैं। वे यह सोचते हुए अपना शृंगार और गहने एक तरफ रख देती हैं कि परमेश्वर के विश्वासियों को उचित व्यवहार करना चाहिए, कि वे शृंगार नहीं कर सकतीं या सज-सँवर नहीं सकतीं। कुछ लोगों के पास कार होती है, लेकिन वे उसे चलाते नहीं, बल्कि साइकिल चलाते हैं। उन्हें लगता है कि कार चलाना आराम में लिप्त होना है। कुछ लोग इतने समृद्ध होते हैं कि मांस खा सकते हैं, लेकिन यह सोचकर नहीं खाते कि अगर वे हमेशा मांस खाएँगे, और कोई ऐसा समय आया जब परिस्थितियाँ उन्हें मांस न खाने दे, तो वे नकारात्मक और कमजोर हो जाएँगे, और परमेश्वर को धोखा दे देंगे। इसलिए, वे पहले से उसके अभाव की पीड़ा झेलना सीख लेते हैं। दूसरों को लगता है कि परमेश्वर के विश्वासी के रूप में उन्हें अच्छा व्यवहार करना चाहिए, इसलिए वे अपनी खामियों और बुरी आदतों का जायजा लेते हैं, और अपने बोलने का लहजा बदलने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, गुस्से पर काबू रखते हैं, और खुद को परिष्कृत करने और अशिष्ट न होने की पूरी कोशिश करते हैं। वे सोचते हैं कि जब व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करने लगता है, तो उसे स्वयं को नियंत्रित और संयमित करना चाहिए, उसे दूसरों की नजरों में एक अच्छा इंसान और सदाचारी होना चाहिए। उन्हें लगता है कि ऐसा करके वे कीमत चुका रहे हैं, परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं और सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। कुछ लोग समय-समय पर सज-सँवरकर खरीदारी करने जाते हैं और ऐसा करने पर दोषी महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि अब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, इसलिए वे शृंगार नहीं कर सकते और सज-सँवर नहीं सकते और अच्छे कपड़े नहीं पहन सकते। वे मानते हैं कि अगर वे शृंगार करते हैं, सजते-सँवरते हैं और अच्छे कपड़े पहनते हैं, तो परमेश्वर इससे घृणा करेगा और इसे नापसंद करेगा। वे मानते हैं कि परमेश्वर आदिम मानव को पसंद करता है, कि परमेश्वर उद्योग या आधुनिक विज्ञान या कोई प्रवृत्ति पसंद नहीं करता। उन्हें लगता है कि इन चीजों का अनुसरण करना छोड़कर ही वे सत्य का अनुसरण करते हैं। क्या यह विकृत समझ नहीं है? (है।) क्या इन लोगों ने परमेश्वर के वचन ध्यान से पढ़े हैं? क्या उन्होंने उसके वचनों को सत्य माना है? (नहीं।) और चूँकि उन्होंने परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं माना है, तो क्या वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं? (नहीं।) यही कारण है कि ये दृष्टिकोण और अभिव्यक्तियाँ सिर्फ लोगों द्वारा उन चीजों को सत्य समझना है, जिन्हें वे अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानते हैं, और इन चीजों को सत्य का स्थान देना है। वे इच्छा से इन चीजों का अभ्यास करते हैं, जिसके बाद वे समझते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं, और वे ऐसे लोग हैं, जिनमें सत्य की वास्तविकता है। उदाहरण के लिए, ऐसे लोग हैं जिन्होंने परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के बाद से टेलीविजन शो नहीं देखा है, या समाचार नहीं देखे हैं, यहाँ तक कि खरीदारी करने भी नहीं गए हैं। वे कई रातें घास के ढेर में सोए हैं और कई दिन कुत्तों के बाड़ों के पास रहकर बिताए हैं, क्योंकि वे सुसमाचार फैला रहे हैं और अपने कर्तव्य निभा रहे हैं। ठंडा खाना खाने से उनके पेट में बहुत दर्द हुआ है, नींद की कमी और अल्प आहार से उनका कई पाउंड वजन कम हुआ है और उन्हें बहुत परेशानी हुई है। वे इन सभी चीजों को अच्छी तरह से जानते हैं, और एक-एक करके उनका हिसाब जोड़ते हैं। वे इन चीजों के इतने स्पष्ट अभिलेख क्यों रखते हैं? इसका कारण यह है कि वे मानते हैं कि ये व्यवहार और दृष्टिकोण सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर को संतुष्ट करना है, और अगर वे इन सभी अच्छे व्यवहारों को प्राप्त कर लेते हैं, तो परमेश्वर उनका अनुमोदन करेगा। इसलिए, लोग शिकायत नहीं करते और बिना किसी झिझक के इन चीजों का अभ्यास करते हैं। वे कभी इनके बारे बात करते, इन्हें दोहराते और याद करते नहीं थकते, और उनके दिल बहुत गद्गद महसूस करते हैं। और फिर भी, जब वे परमेश्वर के परीक्षणों का सामना करते हैं, जब उसके द्वारा व्यवस्थित परिवेश वैसा नहीं होता जैसा वे चाहते हैं, जब उनसे उसकी अपेक्षाएँ और उसके कार्य, उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होते, तब वे चीजें जिन्हें ये लोग सही मानते हैं, और साथ ही वे कीमतें जो वे चुकाते हैं, और उनके अभ्यास किसी काम के नहीं होंगे। ये चीजें उन्हें परमेश्वर के प्रति समर्पित होने या जिन परिवेशों का वे सामना कर रहे हैं, उनके भीतर उसे जानने में जरा-सी भी मदद नहीं करेंगी। इसके विपरीत, वे उनके परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में अड़चनें और बाधाएँ बन जाएँगी। इसका कारण यह है कि लोगों ने कभी यह नहीं जाना कि जिन चीजों को वे सही मानते हैं, वे मूलभूत रूप से सत्य नहीं हैं, और वे जो अभ्यास करते हैं, वह सत्य का अनुसरण नहीं है। तो फिर, लोगों को इन चीजों से क्या लाभ होने वाला है? सिर्फ एक तरह का अच्छा व्यवहार। लोग उनसे सत्य और जीवन प्राप्त नहीं करेंगे। फिर भी वे गलत ढंग से मानते हैं कि ये अच्छे व्यवहार सत्य की वास्तविकता हैं, और वे अपने निश्चय में और भी ज्यादा दृढ़ महसूस करते हैं कि जिन चीजों को वे अपनी धारणाओं में सही मानते हैं, वे सत्य और सकारात्मक चीजें हैं, और परिणामस्वरूप, यह निश्चय उनके दिलों में जड़ें जमा लेता है। लोग जिन चीजों को अपनी धारणाओं में सही मानते हैं, उनकी जितनी ज्यादा आराधना और आँख मूँदकर उन पर जितना विश्वास करते हैं, उतना ही ज्यादा वे सत्य को नकारते हैं, और परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके वचनों से उतना ही दूर होते जाते हैं। और साथ ही, लोग जितनी ज्यादा कीमत चुकाते हैं, उतना ही ज्यादा वे सोचते हैं कि वे पूँजी प्राप्त कर रहे हैं, और उतना ही ज्यादा वे मानते हैं कि वे बचाए जाने और परमेश्वर का वादा प्राप्त करने के योग्य हैं। क्या यह एक दुष्चक्र नहीं है? (बिलकुल है।) इस समस्या की जड़ क्या है? मुख्य अपराधी क्या है? (लोगों का अपनी धारणाओं को सकारात्मक चीजें समझना और उन्हें परमेश्वर के वचनों का स्थान देना।) लोग परमेश्वर के वचनों की जगह अपनी धारणाओं को दे देते हैं, वे परमेश्वर के वचनों को एक तरफ रख देते हैं, और वे अनिवार्य रूप से उनकी उपेक्षा करते हैं। दूसरे शब्दों में, वे परमेश्वर के वचनों को बिल्कुल भी सत्य नहीं मानते। यह कहना सुरक्षित है कि लोग, परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, परमेश्वर के वचन पढ़ सकते हैं, लेकिन वे जिसका अनुसरण करते हैं, जिसे चुनते हैं और जिसका अभ्यास करते हैं, वह अभी भी मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित होता है, और उन्होंने परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चलना शुरू नहीं किया है। लोगों की अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर में विश्वास करने की समस्या वास्तव में कहाँ से उत्पन्न होती है? मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ कहाँ से उत्पन्न होती हैं? वे कहाँ से आती हैं? कहा जा सकता है कि वे मुख्य रूप से परंपरागत संस्कृति से, और मनुष्य की विरासत से, और साथ ही धार्मिक दुनिया के अनुकूलन और प्रभाव से आती हैं। मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ इन चीजों से सीधे तौर पर संबंधित हैं।

लोग अपने विचारों और नजरियों में और किन बातों को अच्छा, सही और सकारात्मक मानते हैं? तुम उदाहरण के तौर पर कुछ का नाम ले सकते हो। लोग अक्सर कहते हैं, “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है” और “निष्कपट लोग हमेशा जीतते हैं”—ये कुछ उदाहरण हैं, है न? (हाँ।) और ये भी हैं : “भलाई का बदला भलाई से और बुराई का बदला बुराई से दिया जाता है; आज नहीं तो कल,” “बुराई में बने रहना आत्म-विनाश लाता है,” “परमेश्वर जिसे नष्ट करता है, पहले उसकी बुद्धि हर लेता है,” “शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी,” “अन्य अनुसरण छोटे हैं, किताबें उन सबसे श्रेष्ठ हैं,” इत्यादि। यह सारी बकवास वीभत्स है। ऐसी बातें सुनकर मैं क्रोध से भर जाता हूँ, लेकिन लोग इन्हें बड़ी सरलता से कह देते हैं। वे ऐसी बातें इतनी आसानी से कैसे कह पाते हैं? ऐसा क्यों है कि मैं इन्हें नहीं कह पाता? मुझे ये बातें, ये कहावतें पसंद नहीं। यह तथ्य कि तुम लोग इन कहावतों को इतनी आसानी से बता रहे हो, ये तुम्हारी जबान से धाराप्रवाह बह रही हैं, और जिस तरह से तुम इन्हें बेहिचक बोलते हो, यह साबित करता है कि तुम लोग विशेष रूप से इन चीजों को पसंद और इनकी आराधना करते हो। तुम लोग इन खोखली, भ्रामक, अवास्तविक चीजों की आराधना करते हो, और साथ ही, तुम इन्हें अपने आदर्श वाक्य, और अपने कार्यों के सिद्धांत, मानदंड और आधार मानते हो। और फिर, तुम यह भी सोचते हो कि परमेश्वर भी इन चीजों पर विश्वास करता है, कि उसके वचन इन्हीं विचारों के प्रति बस एक भिन्न दृष्टिकोण हैं, कि ये चीजें उसके वचनों का व्यापक अर्थ हैं : लोगों से अच्छा बनने का आह्वान। क्या यह नजरिया सही है? क्या ये चीजें परमेश्वर के वचनों और उसके द्वारा व्यक्त सत्यों का अर्थ हैं? बिल्कुल नहीं; परमेश्वर का जो मतलब है, उसका इन चीजों से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, सत्य के प्रति लोगों का रवैया बदलना होगा, और सत्य की उनकी पहचान ठीक किए जाने की आवश्यकता है—जिसका अर्थ है कि जिस मानक से वे सत्य को अवस्थित करते हैं, उसे ठीक करने और बदलने की आवश्यकता है। अन्यथा, उनके लिए सत्य स्वीकारना कठिन होगा, और उनके पास उसका अनुसरण करने के मार्ग पर चलने का कोई उपाय नहीं होगा। सत्य क्या है? मोटे तौर पर कहें तो, परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं। ज्यादा विशिष्ट रूप से कहें तो, फिर—सत्य क्या है? मैंने तुम्हें पहले भी बताया है। मैंने क्या कहा था? (“सत्य लोगों के व्यवहार, कार्यों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है।”) यह सही है। सत्य लोगों के व्यवहार, कार्यों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है। तो, क्या सत्य का उन चीजों से कोई लेना-देना है, जिन्हें लोग अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानते हैं? (नहीं है।) वे इंसानी चीजें कहाँ से आती हैं? (शैतान के जीवन-दर्शन से, और कुछ ऐसे विचारों से जो परंपरागत संस्कृति द्वारा मनुष्य में डाले जाते हैं।) सही कहा। सटीक रूप से, ये चीजें शैतान से उत्पन्न होती हैं। और मनुष्य में ये चीजें डालने वाले प्रतिष्ठित, प्रसिद्ध लोग कौन हैं? क्या वे शैतान नहीं हैं? (हैं।) तुम्हारे वे सभी कुलपिता शैतान हैं—वे जीवित और साँस ले रहे शैतान हैं। जरा इन कहावतों को देखो, जिन्हें चीनी लोग मानते हैं : “जब कोई दोस्त दूर से आता है तो कितना आनंद होता है,” “तुम आ गए हो तो रह भी सकते हो,” “अपने माता-पिता के जीवित रहते दूर की यात्रा मत करो,” “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए,” “तीन संतानोचित दोषों में से कोई वारिस न होना सबसे बुरा है,” “मृतकों का सम्मान करो,” “जब व्यक्ति मृत्यु के करीब आता है तो उसके शब्द सच्चे और दयालु होते हैं।” इन वचनों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करो—क्या इनमें से कोई सत्य है? (नहीं।) ये सब बकवास और भ्रांतियाँ हैं। मुझे बताओ, लोग कितने मूर्ख होंगे जो परमेश्वर का कार्य स्वीकारने के बाद भी इन भ्रांतियों और बकवास को सत्य समझने की भूल करते हैं? क्या इन लोगों में सत्य समझने की क्षमता है? (नहीं।) ऐसे लोग बेतुके प्रकार के और सत्य समझने में पूरी तरह से अक्षम होते हैं। और तुम लोग—अब परमेश्वर के इतने सारे वचन पढ़ लेने के बाद, क्या तुम्हारे पास सत्य का थोड़ा-सा भी ज्ञान नहीं है? (हाँ, है।) सत्य कहाँ से आता है? (वह परमेश्वर से आता है।) सत्य परमेश्वर से आता है। ऐसे किसी भी वचन पर विश्वास मत करो, जो परमेश्वर द्वारा नहीं कहा गया है। वे शैतानी जीवन-दर्शन और परंपरागत संस्कृति के वे विचार सत्य नहीं हैं, और किसी को इनके अनुसार या इन्हें अपने मानदंड बनाकर लोगों और चीजों को नहीं देखना चाहिए, या आचरण या कार्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये परमेश्वर से नहीं आतीं। अगर कोई चीज मनुष्य से आती है, चाहे वह परंपरागत संस्कृति से आती हो या किसी प्रसिद्ध व्यक्ति से, या चाहे वह ज्ञानार्जन का उत्पाद हो या समाज का, या चाहे वह जिस भी वंश या जाति के लोगों से आती हो—वह सत्य नहीं है। फिर भी, ठीक यही चीजें हैं, जिन्हें लोग सत्य समझते हैं, जिनका वे सत्य के बदले अनुसरण और अभ्यास करते हैं। और इस पूरे समय वे सोचते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं, कि वे परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के करीब हैं, जबकि वास्तव में सच इसका ठीक उलटा है : जब तुम इन चीजों के आधार पर अनुसरण और अभ्यास करते हो, तो तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य से और भी दूर हो जाते हो।

जिन चीजों को मनुष्य अच्छी और सकारात्मक मानता है, लोगों का उन्हें सत्य समझना और उनका इस तरह अनुसरण करना, जैसे कि वे सत्य हों, स्वाभाविक रूप से बेतुका है। यह कैसे हो सकता है कि जिन लोगों ने परमेश्वर का कार्य स्वीकारा है और उनके बहुत-से वचन पढ़े हैं, वे अभी भी मनुष्य द्वारा अच्छी मानी जाने वाली चीजों को सत्य समझते हैं और उनका इस तरह अनुसरण करते हैं, जैसे कि वे सत्य हों? यहाँ क्या समस्या है? यह ये दिखाने के लिए पर्याप्त है कि लोग यह नहीं समझते कि सत्य क्या है, और उन्हें सत्य का कोई वास्तविक ज्ञान नहीं है। यह उस प्रश्न का एक कारक है, जो मैंने अभी पूछा था : “यह देखते हुए कि ये चीजें सत्य नहीं हैं, लोग इनका अभ्यास कैसे करते रह सकते हैं और कैसे यह सोच सकते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं?” मैं दूसरे कारक के बारे में बात करूँगा, जो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव का उल्लेख करता है। लोग मानते हैं कि जिन चीजों को वे अपनी धारणाओं में अच्छी, सही और सकारात्मक मानते हैं, वे सत्य हैं, और इस आधार पर वे यह विश्वास करते हुए एक साजिश रचते हैं कि जब उन्होंने परमेश्वर को संतुष्ट कर दिया है और परमेश्वर खुश है, तो वह उन्हें वे आशीष प्रदान करेगा, जिनका उसने मनुष्य से वादा किया है। क्या यह साजिश परमेश्वर के साथ सौदा करने का प्रयास नहीं है? (है।) एक संदर्भ में, लोग एक गलत, बेतुकी समझ रखते हुए इन चीजों पर कायम रहते हैं और इनका अनुसरण करते हैं, और साथ ही, वे अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं के साथ परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश करते हैं। क्या यह दूसरा कारक नहीं है? (है।) हमने अतीत में इस कारक के बारे में अक्सर संगति की है, इसलिए अब हम इस पर विस्तार से बात नहीं करेंगे। तो, मैं तुम लोगों से पूछता हूँ : जब परमेश्वर में विश्वास करने वाला कोई व्यक्ति त्याग करता है, पीड़ित होता है, खुद को खपाता है और परमेश्वर के लिए कीमत चुकाता है, तो क्या ऐसा करने में उसका कोई इरादा और लक्ष्य नहीं होता? (होता है।) क्या कोई है, जो कहता हो, “मैं कुछ नहीं चाहता और कुछ नहीं माँगता। चाहे कैसी भी परिस्थितियाँ हों, मैं त्याग करूँगा, खुद को खपाऊँगा और कीमत चुकाऊँगा। इसके पीछे और कुछ नहीं है। मेरी कोई व्यक्तिगत इच्छा और महत्वाकांक्षा नहीं है। परमेश्वर जैसे भी मेरे साथ व्यवहार करे, ठीक है। वह मुझे पुरस्कृत करे, न करे—कुछ भी हो, मैंने उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य किया है, मैंने खुद को अर्पित कर दिया है, मैंने सब-कुछ त्याग दिया है, मैंने कीमत चुकाई है और कष्ट सहे हैं”? क्या ऐसे लोग हैं? (नहीं।) आज तक ऐसा व्यक्ति पैदा नहीं हुआ है। कुछ लोग कह सकते हैं, “ऐसे व्यक्ति को शून्य में रहना होगा।” अगर कोई व्यक्ति शून्य में भी रहता हो, तो भी वह ऐसा नहीं होगा : उसमें तब भी भ्रष्ट स्वभाव, महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होंगी, और वह तब भी परमेश्वर के साथ सौदा करने का प्रयास करेगा। तो, इस प्रश्न में दूसरा कारक यह है कि जब लोग उन चीजों को सत्य समझते हैं, जिन्हें वे अपनी धारणाओं में सही मानते हैं, तो वे एक साजिश रचते हैं। और वह साजिश क्या होती है? इन चीजों का अभ्यास इसलिए करना, ताकि इनका विनिमय उन आशीषों से, जिनका वादा परमेश्वर ने मनुष्य से किया है, और एक सुंदर मंजिल से किया जा सके। वे मानते हैं कि अगर मनुष्य किसी चीज को सकारात्मक समझता है, तो वह सही होनी चाहिए, इसलिए वे जो भी सही समझते हैं, वह करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, और सोचते हैं कि उनके इस तरह अभ्यास करने से परमेश्वर उन्हें आशीष देने के लिए बाध्य है। यह है मनुष्य की साजिश। यह दूसरा कारक विशुद्ध रूप से उन लोगों से संबंधित है, जो अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करने और परमेश्वर के साथ सौदा करने का प्रयास कर रहे हैं। अगर तुम्हें इस पर यकीन न आए, तो लोगों को सौदे करने से मना करने की कोशिश करो, और उनसे उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ छीन लो—उन्हें उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ छोड़ने को कहो। वे तुरंत पीड़ा सहने और कीमत चुकाने की ऊर्जा खो देंगे। वे ये चीजें करने के लिए ऊर्जा क्यों खो देंगे? क्योंकि उन्हें लगेगा कि उन्होंने अपनी संभावनाएँ और नियति खो दी है, कि अब उन्हें आशीष मिलने की कोई आशा नहीं है, और उनके पास पाने के लिए कुछ नहीं है। जिस चीज का वे अभ्यास करते हैं, वह सत्य नहीं है, और जिस चीज का वे अनुसरण करते हैं, वह सत्य नहीं है, बल्कि वे चीजें हैं, जिन्हें वे सकारात्मक समझते हैं, और फिर भी, जब उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ चूर-चूर हो जाती हैं, तो वे अब इन चीजों की कीमत चुकाने के लिए भी तैयार नहीं होते। मुझे बताओ, लोगों के पास क्या है? क्या उनमें सच्ची आस्था है? (नहीं।) बात थोड़ी और आगे बढ़ाएँ तो, क्या लोग वफादार हैं? कुछ लोग कह सकते हैं, “परमेश्वर अब जो कुछ भी कहता है, हम उसका अनुसरण करते हैं। चाहे वह कुछ भी कहे, हम नकारात्मक या निरुत्साहित नहीं होते, पीछे नहीं हटते, हार तो बिल्कुल भी नहीं मानते। भले ही परमेश्वर हमें न चाहता हो, और वह कहता हो कि हम सेवाकर्ता और मजदूर हैं, कि हम वे लोग नहीं हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं, और हमें बचाए जाने की कोई आशा नहीं है, फिर भी हम बिना किसी हिचकिचाहट के उसका अनुसरण करेंगे और अपने कर्तव्य निभाने में दृढ़ रहेंगे। क्या यह वफादारी नहीं है? क्या यह आस्था रखना नहीं है? क्या वफादार होना और आस्था रखना सत्य का अनुसरण करने के समान ही नहीं है? क्या इसका मतलब यह नहीं है कि हम कुछ हद तक सत्य का अनुसरण कर रहे हैं?” मुझे बताओ, क्या यह सत्य का अनुसरण करना है? (नहीं।) यह कहने का क्या अर्थ है कि यह सत्य का अनुसरण करना नहीं है? इसका अर्थ है कि मनुष्य के सभी “जीवन-अवलंब” हटा दिए गए हैं, कि उनके पास तिनके तक का सहारा नहीं है। तो फिर क्या किया जाए? क्या कुछ है, जो किया जा सकता हो? चाहे लोग इस बारे में कुछ कर सकते हों या नहीं, यह सुनकर उन्हें कैसा लगता है? वे अत्यंत निराश महसूस करते हैं : “क्या वाकई इसका यह अर्थ है कि मुझे आशीष मिलने की कोई आशा नहीं है? यह हो क्या रहा है?” इन परिस्थितियों में लोग पूरी तरह से आपा खो बैठते हैं। अब जबकि मेरे वचनों ने तुम लोगों से तुम्हारे सारे “जीवन-अवलंब” छीन लिए हैं, तो मैं देखूँगा कि तुम लोग यहाँ से कहाँ जाते हो। कुछ लोग कहते हैं, “श्रम करना, या सौदे करने की कोशिश करना, या विकृत समझ रखना, या कष्ट सहना और कीमत चुकाना सही नहीं है—तो आखिर क्या करना सही है? परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे, हम उसे नहीं छोड़ेंगे। हम अपने कर्तव्य निभाते रहेंगे। क्या यह सत्य का अभ्यास करने के बराबर नहीं है?” इस प्रश्न को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए। चूँकि लोग सत्य नहीं समझते और हमेशा सत्य का अभ्यास करने के अर्थ को लेकर एक विकृत समझ रखते हैं, इसलिए वे मानते हैं कि त्याग करना, खपना, कष्ट उठाना और कीमत चुकाना ही सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के प्रति समर्पित होना है। यह एक भयंकर त्रुटि है। सत्य का अभ्यास करना परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना है, लेकिन लोगों को उनका सिद्धांतों के साथ अभ्यास करना चाहिए—उन्हें ऐसा मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर बिल्कुल नहीं करना चाहिए। परमेश्वर जो चाहता है, वह है एक सच्चा हृदय, ऐसा हृदय जो उससे प्रेम करता हो, ऐसा हृदय जो उसे संतुष्ट करता हो। सिर्फ इस तरह से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना ही सत्य का अभ्यास करना है। अगर कोई परमेश्वर के लिए खुद को खपाने पर हमेशा परमेश्वर के साथ सौदा करना और अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करना चाहता है, तो वह सत्य का अभ्यास नहीं कर रहा, बल्कि उसके साथ खेल कर रहा है और उसे रौंद रहा है, और वह पाखंडी है। तो, अगर कोई परमेश्वर के न्याय के वचन स्वीकारने में सक्षम है, और परमेश्वर को नहीं छोड़ता और आशीष प्राप्त करने के अपने इरादे और इच्छाएँ चूर-चूर होने के बावजूद अपना कर्तव्य निभाने में लगा रहता है, जबकि उसके पास आशा रखने और प्रेरित होने के लिए कुछ नहीं होता, तो क्या यह सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने के बराबर है? मेरे विचार से, अगर हम सत्य का अनुसरण करने के अर्थ की परिभाषा के आधार पर इसे मापें, तो यह अभी भी सत्य का अनुसरण करना नहीं है, और यह सत्य का अनुसरण करने के मानक पर बिल्कुल भी खरा नहीं उतरता। अब जबकि हमारे पास सत्य के अनुसरण की एक सटीक परिभाषा है, हमें लोगों के कार्यों, आचरण और अभिव्यक्तियों का मूल्यांकन करते समय इसका सख्ती से पालन करना चाहिए। व्यक्ति के पास आशीष पाने की कोई आशा न होते हुए भी उसकी परमेश्वर के साथ बने रहने और अपना कर्तव्य निभाने में जुटे रहने की क्षमता के आधार पर क्या मूल्यांकन किया जा सकता है? सृजित प्राणियों के रूप में लोग अपनी मानवता में दो प्रशंसनीय चीजों के साथ पैदा होते हैं, और अगर तुम उनका उपयोग कर पाओ, तो यह सुनिश्चित करेगा कि तुम—न्यूनतम रूप में—परमेश्वर का अनुसरण तो करते हो। क्या तुम लोग जानते हो कि वे दो चीजें क्या हैं? (जमीर और विवेक।) सही है। दो चीजें हैं, जो मनुष्य की मानवता के भीतर सबसे ज्यादा मूल्यवान हैं—जब लोग सत्य नहीं समझते, जब उनमें बहुत खराब क्षमता होती है, और वे परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य के संबंध में किसी ज्ञान या प्रवेश से रहित होते हैं, और वे अभी भी दृढ़ता से अपनी जगह खड़े रह सकते हैं, तो वह मूल पूर्व-शर्त क्या है, जो उन्हें इसे प्राप्त करने देती है? उनके पास सामान्य मानवता का जमीर और विवेक होना चाहिए। तो, उत्तर स्पष्ट है। चूँकि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, और आशीष पाने की उनकी कोई इच्छा या महत्वाकांक्षा नहीं होती, चूँकि आशीष पाने की उनकी इच्छा उनसे छीन ली गई है, इसलिए अगर वे अभी भी परमेश्वर का अनुसरण और अपने कर्तव्य पूरे कर सकते हैं, तो वे ऐसा किस आधार पर करते हैं? उन्हें क्या चीज प्रेरित करती है? उनके कार्यों के लिए कोई आधार या प्रेरणा नहीं है—अगर लोगों में सामान्य मानवता का जमीर और विवेक है, तो वे ये चीजें कर सकते हैं। अभी स्थिति ऐसी है : तुम सत्य नहीं समझते, यह एक तथ्य है—और सिद्धांतों की तुम्हारी समझ बेकार है, इसका यह मतलब नहीं है कि तुमने सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है। तुम जानते हो कि अपने लिए संभावनाओं और नियति का अनुसरण करने के लिए परमेश्वर के साथ सौदा करने का प्रयास करना गलत है, लेकिन वास्तव में उल्लेखनीय चीज यह होगी कि संभावनाओं और नियति का अनुसरण करने की और आशीष पाने की अपनी इच्छा की निंदा कर उन्हें छीन लिए जाने के बाद भी तुम परमेश्वर का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने में खुश रहो। अगर तुम सत्य प्राप्त किए बिना परमेश्वर का अनुसरण करने में सक्षम होते, तो यह किस पर निर्भर करता? यह तुम्हारे जमीर और विवेक पर निर्भर करता। व्यक्ति का जमीर और विवेक उसके सामान्य अस्तित्व, जीवन, और लोगों और चीजों के प्रति उसके आचरण को बनाए रख सकता है। तो, अपने जमीर और विवेक के आधार पर अपना कर्तव्य निभाने और सत्य का अभ्यास करने में क्या फासला है? सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति की अभिव्यक्ति यह होती है कि वह सत्य को अपना मानदंड मानकर, परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखता, आचरण और कार्य करता है, जबकि सिर्फ अपने जमीर और विवेक के आधार पर कार्य करने वाले शायद सत्य का अनुसरण न कर सकते हों, लेकिन वे फिर भी श्रम कर सकते हैं, अपने कर्तव्य निभा सकते हैं, और अपने बेदाग रिकॉर्ड के साथ परमेश्वर के घर में रह सकते हैं। यह किस चीज पर निर्भर करता है? वे सत्य को अपना मानदंड मानकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने के बजाय अपने जमीर और विवेक के मानदंड के आधार पर ऐसा करते हैं। तो, इसे ध्यान में रखते हुए, अगर तुम सिर्फ अपने जमीर और विवेक के आधार पर अपना कर्तव्य निभाते हो, तो क्या उसके और सत्य का अनुसरण करने के बीच एक फासला नहीं है? (है।) अपने जमीर और विवेक के आधार पर कर्तव्य निभाना सिर्फ श्रम करने से संतुष्ट होना है; यह अच्छी तरह से श्रम करने, व्यवधान या गड़बड़ियाँ पैदा न करने, आज्ञापालन करने और समर्पित होने, अन्य लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करने और अच्छे संबंध रखने, और अपने रिकॉर्ड पर कोई दाग न लगने देने जैसी चीजों को अपने मानकों के रूप में लेना है। क्या यह सत्य का अनुसरण करने के स्तर तक पहुँचता है? नहीं पहुँचता। चाहे व्यक्ति के पास कितने भी अच्छे व्यवहार क्यों न हों, अगर उसे अपने भ्रष्ट स्वभावों का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं है, और न ही उसे अपनी विद्रोहशीलता, धारणाओं, परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों और अपनी विभिन्न नकारात्मक अवस्थाओं का कोई ज्ञान है; और अगर इन चीजों का समाधान करना उसके लिए असंभव है; अगर उसके लिए सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांत समझना असंभव है; और अगर उसके भ्रष्ट स्वभावों के उद्गारों में से एक का भी समाधान नहीं हुआ है; और अगर वह अभी भी अहंकारी और आत्म-तुष्ट, मनमाना और लापरवाह, कुटिल और धोखेबाज है, और कभी-कभी वह नकारात्मक और कमजोर हो जाता है और परमेश्वर पर संदेह करता है, इत्यादि—अगर ये चीजें अभी भी उसके भीतर मौजूद हैं, तो क्या वह परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण हासिल कर सकता है? अगर ये भ्रष्ट स्वभाव अभी भी उसके भीतर हैं, तो क्या वह वास्तव में परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर पाएगा? अगर व्यक्ति में सिर्फ अच्छे व्यवहार हैं, तो क्या यह सत्य के अनुसरण की अभिव्यक्ति है? (नहीं।) मनुष्य में सबसे अच्छी चीजें क्या हैं? सिर्फ मनुष्य का जमीर और विवेक; केवल यही दो सकारात्मक चीजें हैं, और यही मनुष्य में सराहनीय है। लेकिन इनमें से कोई भी सत्य से संबंधित नहीं है; ये मनुष्य द्वारा सत्य के अनुसरण के लिए सबसे बुनियादी पूर्व-शर्तों से ज्यादा कुछ नहीं हैं, जिसका अर्थ है कि अगर तुम्हारे पास मानवता का सामान्य जमीर और विवेक है, और तुम सत्य समझने में सक्षम हो, तो खुद पर चीजें पड़ने पर तुम सही विकल्प चुनने में सक्षम होगे। मनुष्य में जो जमीर और विवेक है, वह यह है : परमेश्वर सृष्टि का प्रभु है, और तुम एक सृजित प्राणी हो; परमेश्वर ने तुम्हें चुना है, इसलिए यह सही ही है कि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित हो जाओ और उसके लिए खुद को खपाओ, और यह सही ही है कि तुम उसके वचन सुनो। यह “सही ही है” तुम्हारे जमीर और विवेक द्वारा निर्धारित किया जाता है—लेकिन क्या तुमने परमेश्वर के वचन सुने हैं? तुम्हारे कार्यों के पीछे क्या सिद्धांत और तरीके हैं? तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है—क्या तुमने उसे त्यागा है? क्या तुमने उसे हल किया है? ऐसी चीजों का “सही ही है” से कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम इस नींव से आगे नहीं जाते कि क्या करना सही ही है और कैसे यह करना सही ही है, और तुम “सही ही है” के मापदंडों के बीच रहते हो, तो क्या यह तुम्हारे जमीर और विवेक का परिणाम नहीं है? (है।) तुम्हारा जमीर तुमसे कहता है, “परमेश्वर ने मुझे बचाया है, इसलिए मुझे उसके लिए खपना चाहिए। परमेश्वर ने मेरा जीवन बचाया है और मुझे दूसरा जीवन दिया है, इसलिए यह सही ही है कि मैं उसके प्यार का बदला चुकाऊँ। परमेश्वर सृष्टि का प्रभु है, और मैं एक सृजित प्राणी हूँ, इसलिए मुझे उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए।” क्या यह तुम्हारे जमीर और विवेक का परिणाम नहीं है? (है।) लोगों में उनके जमीर और विवेक के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले विभिन्न व्यवहार, अभ्यास के तरीके, रवैये और विचार उन मापदंडों से आगे नहीं जाते, जिनमें उनके जमीर और विवेक स्वाभाविक रूप से सक्षम हैं, और वे सत्य का अभ्यास करने के मानदंडों पर खरे नहीं उतर पाते। क्या ऐसा नहीं है? (है।) उदाहरण के लिए, कुछ लोग कह सकते हैं, “परमेश्वर के घर ने कर्तव्य निभाने देकर मुझे उन्नत किया है, और परमेश्वर का घर मुझे खाना देता है, कपड़े देता है और मेरे रहने का इंतजाम करता है। परमेश्वर का घर मेरे जीवन के हर पहलू का ध्यान रखता है। मैंने परमेश्वर के अनुग्रह का भरपूर आनंद लिया है, इसलिए मुझे उसके प्रेम का प्रतिदान देना चाहिए; मुझे अपने कर्तव्य में लापरवाह होकर परमेश्वर को धोखा नहीं देना चाहिए, कोई गड़बड़ी या परेशान करने वाली चीज तो बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर का घर मेरे लिए जो भी व्यवस्था करे, मैं उसके प्रति समर्पित होने को तैयार हूँ। परमेश्वर का घर मुझसे जो भी करवाए, मैं शिकायत नहीं करूँगा।” इस तरह की घोषणा ठीक है; क्या जमीर और विवेक रखने वाले व्यक्ति के लिए ऐसा करना बहुत आसान नहीं है? (है।) क्या यह सत्य के अभ्यास के स्तर तक पहुँच सकता है? (नहीं पहुँच सकता।) यह सत्य का अभ्यास करने से कम पड़ता है। इसलिए, चाहे व्यक्ति कितने भी अच्छे जमीर वाला या कितने भी सामान्य विवेक वाला हो, या सब-कुछ अपने जमीर और विवेक के नियंत्रण के तहत करने में सक्षम हो, और चाहे उसके कार्य कितने भी उचित और सभ्य हों, या दूसरे इन कार्यों की कितनी भी प्रशंसा करें, वे अच्छे इंसानी व्यवहार होने से आगे नहीं जाते। उन्हें सिर्फ अच्छे इंसानी व्यवहारों के दायरे में ही वर्गीकृत किया जा सकता है; वे मूलभूत रूप से सत्य का अभ्यास करने से पीछे रह जाते हैं। जब तुम दूसरों के साथ अपनी बातचीत अपने विवेक पर आधारित करते हो, तो तुम बोलचाल में थोड़े ज्यादा सौम्य होगे, तुम दूसरों पर हमला नहीं करोगे, या गुस्सा नहीं होगे, तुम दूसरों का दमन नहीं करोगे, या उन्हें नियंत्रित नहीं करोगे, या उन्हें धौंस नहीं दोगे या उनसे लाभ उठाने की कोशिश नहीं करोगे, इत्यादि—ये सभी वे चीजें हैं, जो सामान्य मानवता के विवेक द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं—लेकिन क्या ये सत्य का अभ्यास करने से संबंधित हैं? नहीं, ये नहीं हैं। ये वे चीजें हैं, जो मनुष्य के विवेक से प्राप्त की जा सकती हैं, और इनके और सत्य के बीच एक निश्चित दूरी है।

मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि अपने जमीर और विवेक के आधार पर कार्य करना सत्य का अभ्यास करने से संबंधित नहीं है? मैं एक उदाहरण दूँगा। मान लो, कोई व्यक्ति तुम्हारे प्रति दयालु रहा है, और उसके साथ तुम्हारे अच्छे संबंध हैं, और वह अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारता है, और फिर तुम्हें सुसमाचार सुनाता है—जो परमेश्वर द्वारा तुम्हें सुसमाचार सुनाने के लिए उसका उपयोग करने के समान है। परमेश्वर का नया कार्य स्वीकारने के बाद तुम उसके प्रति और भी ज्यादा आभारी महसूस करते हो, और हमेशा उसका बदला चुकाने की इच्छा रखते हो। इसलिए, तुम जो कुछ भी करते हो, उसमें उसे थोड़ी छूट देते हो, और तुम उससे जो भी कहते हो, उसमें हमेशा विशेष रूप से विनम्र रहते हो। तुम उसके प्रति विशेष रूप से श्रद्धालु, आदरपूर्ण और सहिष्णु रहते हो, और चाहे वह जो भी बुरे काम करे, या उसका चरित्र कैसा भी हो, तुम उसके प्रति इतने ज्यादा धैर्यवान और उदार रहते हो कि जब भी वे चुनौती का सामना करने पर मदद माँगने तुम्हारे पास पहुँचते हैं, तो तुम बिना शर्त उनकी मदद करते हो। तुम ऐसा क्यों करते हो? तुम्हारे कार्यों को क्या प्रभावित कर रहा है? (मेरा जमीर।) यह तुम्हारे जमीर के प्रभाव के रूप में किया जाता है। तुम्हारे जमीर के इस प्रभाव को सकारात्मक या नकारात्मक नहीं कहा जा सकता; कोई सिर्फ इतना ही कह सकता है कि तुममें जमीर और थोड़ी-सी मानवता है, और कि जब कोई तुम पर दया करता है, तो तुम आभारी होते हो और उसका बदला चुकाते हो। इस दृष्टिकोण से, तुम एक सही व्यक्ति हो। लेकिन अगर हम इसे सत्य का उपयोग करके मापें, तो हम एक अलग निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। मान लो, किसी दिन वह व्यक्ति बुराई करे और कलीसिया द्वारा निकाला जाने वाला हो, और तुम अभी भी उसे अपने जमीर का उपयोग करके मापो, और कहो, “यही था जिसने मुझे सुसमाचार सुनाया था। मैं जीते-जी इसकी दया नहीं भूलूँगा; अगर यह न होता, तो मैं वहाँ नहीं होता जहाँ मैं अभी हूँ। भले ही आज इसने बुराई की है, फिर भी मैं इसे उजागर नहीं कर सकता। भले ही मैंने देखा कि इसने जो किया, वह दुष्टता थी, पर मैं ऐसा नहीं कह सकता, क्योंकि इसने मेरी बहुत मदद की है। हो सकता है, मैं इसका बदला न चुका पाऊँ, लेकिन मैं इस पर हमला नहीं कर सकता। अगर कोई दूसरा इसकी रिपोर्ट करना चाहता है, तो कर सकता है, लेकिन मैं नहीं करूँगा। मैं इसके घावों पर नमक नहीं छिड़क सकता—अगर मैंने ऐसा किया, तो यह मुझे किस तरह का व्यक्ति बनाएगा? क्या यह मुझे बिना जमीर का व्यक्ति नहीं बना देगा? क्या जमीर-विहीन व्यक्ति पशु मात्र नहीं है?” तुम क्या सोचते हो? ऐसी परिस्थितियों में जमीर का क्या प्रभाव पड़ता है? क्या वहाँ पड़ने वाला जमीर का प्रभाव सत्य का उल्लंघन नहीं है? (है।) इससे हम देख सकते हैं कि कभी-कभी जमीर का प्रभाव भावनाओं से विवश और प्रभावित होता है और नतीजतन उसके निर्णय सत्य के सिद्धांतों से टकराते हैं। इस प्रकार, हम एक तथ्य स्पष्ट रूप से देख सकते हैं : व्यक्ति के जमीर का प्रभाव सत्य के मानक से कमतर होता है, और कभी-कभी लोग अपने जमीर के आधार पर कार्य करते हुए सत्य का उल्लंघन कर देते हैं। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, लेकिन सत्य से नहीं जीते, बल्कि अपने जमीर के आधार पर कार्य करते हो, तो क्या तुम बुराई और परमेश्वर का विरोध कर सकते हो? तुम वास्तव में कुछ बुरी चीजें करने में सक्षम होगे—यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि अपने जमीर के आधार पर काम करना कभी गलत नहीं होता। यह दर्शाता है कि अगर व्यक्ति परमेश्वर को संतुष्ट करना और उसकी इच्छा के अनुरूप होना चाहता है, तो केवल अपने जमीर के आधार पर कार्य करना बहुत ही अपर्याप्त है। परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए व्यक्ति को सत्य के आधार पर कार्य करना चाहिए। जब तुम अपने जमीर को सत्य मानते हो और उसे अन्य सभी से श्रेष्ठ समझते हो, तब तुमने सत्य को कहाँ रखा है? तुमने उसकी जगह अपने जमीर को दे दी है; क्या यह सत्य का प्रतिरोध करना नहीं है? क्या यह सत्य का विरोध करना नहीं है? अगर तुम अपने जमीर से जीते हो, तो तुम सत्य का उल्लंघन कर सकते हो, और सत्य का उल्लंघन करना परमेश्वर का प्रतिरोध करना है। ऐसे कई लोग हैं, जो परमेश्वर में विश्वास करने के बाद अपने जमीर को अपनी बोलचाल और कार्यों का मानक समझते हैं, और अपने जमीर के आधार पर आचरण भी करते हैं। क्या अपने जमीर के आधार पर कार्य करना सत्य का अभ्यास करना है, या नहीं है? क्या व्यक्ति का जमीर सत्य की जगह ले सकता है? अपने जमीर के आधार पर कार्य करना सत्य के आधार पर कार्य करने से असल में किस तरह भिन्न है? कुछ लोग हमेशा अपने जमीर के आधार पर कार्य करने पर जोर देते हैं, और सोचते हैं कि वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हैं। क्या यह नजरिया सही है? (नहीं।) क्या व्यक्ति के जमीर की भावनाएँ सत्य की जगह ले सकती हैं? (नहीं ले सकतीं।) ये लोग क्या गलती कर रहे हैं? (सत्य का उल्लंघन कर रहे हैं, जो परमेश्वर का प्रतिरोध करना है।) सही कहा। वे अपने जमीर की भावनाओं को सत्य के समान मानते हैं, जो उन्हें सत्य का उल्लंघन कर सकने वाला बनाता है। इस तरह का व्यक्ति हमेशा अपने जमीर को कसौटी मानकर उसके मानक के आधार पर लोगों और चीजों को देखता है, और आचरण और कार्य करता है। उसका जमीर उसे उलझाता और नियंत्रित करता है, और साथ ही, उसका विवेक भी उसके जमीर के नियंत्रण में होता है। अगर कोई अपने जमीर से नियंत्रित होता है, तो क्या वह अभी भी सत्य खोज सकता है और उसके अनुसार अभ्यास कर सकता है? नहीं कर सकता। तो क्या जमीर सत्य की जगह ले सकता है? नहीं ले सकता। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “चूँकि हम अपने जमीर का उपयोग यह मापने के लिए नहीं कर सकते कि हम दूसरे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, और हम अपने जमीर को सत्य नहीं मान सकते, तो क्या अपने जमीर के मानकों का उपयोग यह मापने के लिए करना कि हम परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, सही है?” यह प्रश्न विचारणीय है। किसी भी हालत में, व्यक्ति का जमीर सत्य की जगह नहीं ले सकता। अगर तुम्हारे पास सत्य नहीं है और तुम अपने जमीर के आधार पर परमेश्वर के पास जाते हो, तो यह इंसानी मानक के अनुसार ठीक माना जाएगा, लेकिन इस मानक के सहारे तुम परमेश्वर के प्रति प्रेम या समर्पण प्राप्त करने में सक्षम नहीं होगे—ज्यादा से ज्यादा तुम सत्य का उल्लंघन करने या परमेश्वर का प्रतिरोध करने से बच पाओगे, जो अपने आप में काफी अच्छा है। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम्हें अन्य लोगों के साथ अपने जमीर का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, और तुम्हें परमेश्वर के साथ भी अपने जमीर का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है।” यह सही है या नहीं? वाद और सिद्धांत के दृष्टिकोण से यह गलत लगता है, है न? तो, इसे मापने के लिए सत्य का उपयोग करो—क्या यह तुम्हें सही लगता है? क्या परमेश्वर लोगों से कहता है कि वे अपने जमीर का उपयोग करके उसके पास आएँ? परमेश्वर मनुष्य से क्या चाहता है? वह मनुष्य को अपने पास कैसे आते देखना चाहता है? तुम्हारे पास जमीर हो सकता है, लेकिन क्या तुम ईमानदार हो? अगर तुम्हारे पास जमीर तो है लेकिन तुम ईमानदार नहीं हो, तो इससे काम नहीं चलेगा। परमेश्वर जो चाहता है, वह यह है कि मनुष्य उसके पास ईमानदारी से आए। बाइबल में लिखा है, “और तू प्रभु अपने परमेश्‍वर से अपने सारे मन से, और अपने सारे प्राण से, और अपनी सारी बुद्धि से, और अपनी सारी शक्‍ति से प्रेम रखना” (मरकुस 12:30)। परमेश्वर क्या चाहता है? (कि लोग परमेश्वर से अपने सारे मन से, और अपनी सारी बुद्धि से, और अपने सारे प्राण से प्रेम करें।) परमेश्वर लोगों से क्या चाहता है? (उनकी ईमानदारी।) सही है। क्या परमेश्वर ने कहा है, “तुम लोगों को मुझसे अपने जमीर और विवेक, और अपनी सहज प्रवृत्ति से प्रेम करना चाहिए”? क्या परमेश्वर ने ऐसा कहा? (नहीं, उसने नहीं कहा।) परमेश्वर ऐसा क्यों नहीं कहता? (क्योंकि जमीर सत्य नहीं है।) जमीर क्या है? (मानवता का निम्नतम मानक।) यह सही है, जमीर और विवेक मानवता के निम्नतम और सबसे बुनियादी मानक हैं। तुम कैसे बता सकते हो कि कोई व्यक्ति अच्छा है या नहीं और उसमें मानवता है या नहीं? तुम इसे कैसे माप सकते हो? तुम इसे किससे मापते हो? निम्नतम और सबसे बुनियादी मानक यह है कि क्या उस व्यक्ति के पास जमीर और विवेक हैं। यही वह मानक है, जिससे तुम माप सकते हो कि किसी व्यक्ति में मानवता है या नहीं। तो, यह मापने का मानक क्या है कि व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं? व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं, यह तुम इस आधार पर बता सकते हो कि उसके पास जमीर और विवेक हैं या नहीं—क्या ये वचन सत्य हैं? क्या ये सही हैं? (नहीं।) तो फिर वह क्या है, जो परमेश्वर मनुष्य से चाहता है? (ईमानदारी।) परमेश्वर मनुष्य की ईमानदारी चाहता है। वह ईमानदारी किससे बनी है? ईमानदारी दिखाने के लिए व्यक्‍ति को क्या करना चाहिए? अगर व्यक्ति प्रार्थना करते हुए यह कह तो देता है कि वह परमेश्वर को अपनी ईमानदारी अर्पित करता है, लेकिन बाद में वह ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाता नहीं या अपना कर्तव्य वफादारी से नहीं निभाता, तो क्या यह ईमानदारी है? यह ईमानदारी नहीं है—यह धोखा है। तो, कौन-सा व्यवहार ईमानदारी की अभिव्यक्ति है? विशिष्ट अभ्यास क्या है? क्या तुम जानते हो? क्या यह परमेश्वर के प्रति समर्पण का रवैया नहीं है? (है।) व्यक्ति सिर्फ तभी ईमानदार होता है, जब उसमें समर्पण का रवैया होता है। क्या यह जमीर से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ नहीं है? मनुष्य का जमीर और विवेक ईमानदारी के भी करीब नहीं है, उनके बीच एक दूरी है। लोगों का जमीर और विवेक उनके अस्तित्व, उनके सामान्य जीवन और अन्य लोगों के साथ उनके संबंध बनाए रखने के लिए सबसे बुनियादी शर्तों से ज्यादा कुछ नहीं हैं। अगर लोग अपना जमीर और विवेक खो दें, तो वे सबसे बुनियादी स्तर पर भी जीवित रहने, या सामान्य जीवन जीने, या अन्य लोगों के साथ संबंध रखने में सक्षम नहीं होंगे। जरा उन लोगों को, जिनके पास जमीर या विवेक नहीं है, उन दुष्ट लोगों को देखो—क्या समूह में कोई स्वेच्छा से उनके साथ बातचीत करेगा? (नहीं।) कोई भी स्वेच्छा से उनके साथ बातचीत नहीं करेगा। उनके साथ बातचीत करते समय लोग क्या महसूस करते हैं? नाराजगी, घृणा—वे उनसे भयभीत, विवश और बाध्य भी महसूस कर सकते हैं। ऐसे लोगों में सामान्य मानवता का जमीर और विवेक तक नहीं होता, और कोई भी स्वेच्छा से उनके साथ बातचीत नहीं करेगा। मुझे बताओ, क्या परमेश्वर इन लोगों को बचाएगा? (नहीं।) अगर कोई किसी दुष्ट व्यक्ति को अपमानित करे, और वह दुष्ट व्यक्ति उसे जवाब देते हुए कहे : “अगर परिस्थितियों ने साथ दिया, तो मैं तुम्हें मार डालूँगा—मैं तुम्हें नष्ट कर दूँगा!” फिर चाहे वे वास्तव में उन चीजों को करने में सक्षम हों या नहीं, क्या यह तथ्य कि वे ऐसी चीजें कह सकते हैं, उन्हें एक दुष्ट व्यक्ति नहीं बना देता? (बना देता है।) तो, वे किस तरह के व्यक्ति होते हैं, जिनके शब्द दूसरों में भय उत्पन्न कर देते हैं? क्या वे जमीर और विवेक वाले व्यक्ति होते हैं? (नहीं।) और क्या जमीर और विवेक से रहित लोगों में मानवता होती है? (नहीं।) कौन उस तरह के दुष्ट व्यक्ति के साथ बातचीत करने का साहस करेगा, जिसमें मानवता ही नहीं है? क्या उन दुष्ट लोगों के अन्य लोगों के साथ सामान्य संबंध होते हैं? (नहीं होते।) अन्य लोगों के साथ उनके संबंधों की स्थिति क्या होती है? हर कोई उनसे डरता है, हर कोई उनके द्वारा प्रतिबंधित और विवश रहता है—वे जिससे भी मिलते हैं, उसी को धौंस देना चाहते हैं, और सभी को दंडित करना चाहते हैं। क्या ऐसे लोगों में सामान्य मानवता होती है? कोई भी उस तरह के व्यक्ति से बातचीत करने की हिम्मत नहीं करता, जिसमें जमीर और विवेक नहीं होता। वे एक सामान्य मानव-जीवन तक नहीं जी सकते, इसलिए वे दानवों और जानवरों से अलग नहीं हैं। समूहों में वे हमेशा दूसरों पर प्रहार करते हैं, एक के बाद दूसरे व्यक्ति को दंडित करते हैं। अंत में सभी उनसे दूरी बना लेते हैं, सभी उनकी उपेक्षा करते हैं। वे कितने भयावह होंगे! वे सामान्य मानवीय संबंध बनाने में भी अक्षम होते हैं और किसी समूह के भीतर पैर नहीं जमा सकते—वे किस तरह की चीज होते हैं? ऐसे लोगों में मानवता भी नहीं होती—क्या वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? (नहीं।) किस तरह के व्यक्ति में मानवता नहीं होती? जानवर, दानव। परमेश्वर जो सत्य व्यक्त करता है, उन्हें वह मनुष्य को प्रदान करता है, न कि जानवरों और दानवों को। जमीर और विवेक रखने वाले ही मनुष्य कहलाने के योग्य हैं। मुझे फिर से बताओ : क्या सामान्य मानवता को पूरी तरह से जीने के लिए केवल व्यक्ति का जमीर और विवेक से युक्त होना ही काफी है? कोई कह सकता है कि इसमें फासला है, क्योंकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं। अपने भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा पा सकने और सामान्य मानवता को जी सकने से पहले उन्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं, “मेरे पास जमीर और विवेक है। अगर मैं यह सुनिश्चित कर लूँ कि मैं कोई बुराई नहीं करूँगा, तो मुझमें सत्य की वास्तविकता होगी।” क्या यह सही है? अगर किसी के पास जमीर और विवेक है, तो इसका मतलब यह नहीं कि वह पहले ही सत्य का अनुसरण कर रहा है—और न ही इस तथ्य का कि वह अपने जमीर और विवेक के अनुसार जी रहा है, तात्पर्य यह है। तो, वास्तव में जमीर और विवेक क्या हैं? मनुष्य का जमीर और विवेक मानवता के सबसे बुनियादी चिह्नक और गुण हैं, जो सत्य का अनुसरण करने के लिए लोगों में होने चाहिए। इन दो चीजों के अनुसार जीने का मतलब यह नहीं कि व्यक्ति सत्य का अनुसरण कर रहा है, और इससे यह तो बिल्कुल भी साबित नहीं होता कि उसमें सत्य की वास्तविकता है। जिस उदाहरण के बारे में मैंने अभी बात की है, उससे यह देखा जा सकता है कि जब व्यक्ति अपने जमीर और विवेक के आधार पर लोगों और चीजों को देखता है, और आचरण और कार्य करता है, तो उसके सत्य और सिद्धांतों का उल्लंघन करने की संभावना होती है। वे इन चीजों को सत्य को अपना मानदंड बनाकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार करने के मानक से पीछे रह जाते हैं। इसलिए, चाहे तुम्हारे पास कितना भी जमीर हो, और चाहे तुम्हारा विवेक कितना भी सामान्य क्यों न हो, अगर तुम सत्य को अपनी कसौटी बनाकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को नहीं देख सकते, उसके अनुसार आचरण और कार्य नहीं कर सकते, तो तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे। इसी तरह, चाहे तुम अपने जमीर और विवेक की सहज प्रवृत्ति के दायरे में कितने भी कष्ट उठाओ और श्रम करो, यह नहीं कहा जा सकता कि तुम सत्य का अनुसरण कर रहे हो।

अभी हमने तीन चीजों का विश्लेषण किया, जिनमें से सभी लोगों में सत्य के अनुसरण के बारे में व्याप्त पूर्वाग्रह और गलतफहमियाँ थीं। मुझे बताओ, वे तीन चीजें क्या थीं? (पहली यह थी कि लोग उन चीजों को सत्य समझने की गलती करते हैं, जिन्हें वे अपनी धारणाओं में अच्छी, सही और सकारात्मक मानते हैं, और उनका अपने मानकों के रूप में उपयोग करते हैं—और उन्हें मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं, और उसके वचनों की अपेक्षाओं और मानकों की जगह दे देते हैं—जिसके बाद वे उन चीजों का अनुसरण और अभ्यास करते हैं। दूसरी यह थी कि लोग अपनी भ्रामक समझ से चिपके होने की नींव पर इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पालते हुए परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश करते हैं। लोग मानते हैं कि जब वे परमेश्वर को संतुष्ट कर लेते हैं और परमेश्वर प्रसन्न होता है, तो परमेश्वर उन्हें अपनी प्रतिज्ञा प्रदान करेगा। तीसरी यह थी कि लोग मानते हैं कि अपने जमीर और विवेक के आधार पर आचरण और कार्य करने के द्वारा वे पहले ही सत्य का अभ्यास कर रहे हैं।) इन तीन चीजों को एक तरफ रखते हुए, सत्य का अनुसरण करने का वास्तव में क्या अर्थ है? आओ सत्य के अनुसरण की अपनी परिभाषा पर वापस लौटें : परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना। ये वचन लोगों को यह समझाने के लिए पर्याप्त हैं कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है और ऐसा कैसे करना है। हम सत्य का अनुसरण करने के अर्थ के बारे में पहले ही बहुत-कुछ बोल चुके हैं। तो फिर, इसका अनुसरण कैसे किया जाता है? हमने इस बारे में अभी और पहले भी बहुत संगति की है : चाहे तुम लोगों और चीजों को देख रहे हो, या आचरण और कार्य कर रहे हो, यह सत्य को अपनी कसौटी मानकर, परमेश्वर के वचनों के अनुसार होना चाहिए। यही सत्य का अनुसरण है। अन्य कोई भी चीज, जो इन वचनों से संबंधित नहीं है, सत्य का अनुसरण नहीं है। निस्संदेह, अगर “परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना” मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों की ओर निर्देशित नहीं है, तो यह मनुष्य के कुछ विचारों, दृष्टिकोणों और धारणाओं पर बात करता है। और अगर यह इन चीजों पर बात करता है, और इसका उद्देश्य मनुष्य को सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने और परमेश्वर के वचनों और सत्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम बनाना है, तो स्वाभाविक रूप से, वह इसका अंतिम प्रभाव होगा। “परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना” बिल्कुल स्पष्ट और साफ है। वह मार्ग, जो यह अंततः लोगों को देता है, वह उन्हें अपने अभ्यासों में अपने पूर्वाग्रह दूर करने और अपनी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ छोड़ने में सक्षम बनाता है। साथ ही, लोगों को इस विश्वास के पीछे छिपकर नहीं रहना चाहिए कि वे श्रेष्ठ हैं, कि उनमें मानवता, और जमीर और विवेक हैं, और इसे परमेश्वर के वचनों को अपने आधार और सत्य को अपनी कसौटी के रूप में लेने के अभ्यास के सिद्धांत की जगह नहीं देनी चाहिए। तुम्हारे पास जो भी औचित्य हों, तुममें जो भी खूबियाँ और फायदे हों, वे सत्य को अपनी कसौटी मानकर, परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने की जगह लेने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। यह बिल्कुल निश्चित है। इसके विपरीत, अगर लोगों और चीजों पर तुम्हारे विचारों और तुम्हारे आचरण और कार्यों के आरंभ-बिंदु पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुसार है, और सत्य तुम्हारे अभ्यास का सिद्धांत है, तो तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। अन्यथा, तुम नहीं कर रहे। कुलमिलाकर में, लोगों का इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं के बीच रहना, सौदे करने के इरादे से काम करना, या सत्य के अनुसरण और उसके अभ्यास की जगह लगातार इस विश्वास को देना कि उनमें बड़ी मात्रा में अच्छा नैतिक आचरण है—ऐसे सभी दृष्टिकोण मूर्खतापूर्ण हैं। इनमें से कोई भी सत्य के अनुसरण की अभिव्यक्ति नहीं है, और अंततः, इन मूर्खतापूर्ण दृष्टिकोणों का परिणाम यह होता है कि लोग सत्य नहीं समझते, वे परमेश्वर की इच्छा समझने में असमर्थ रहते हैं, और वे उद्धार के मार्ग पर चलने में अक्षम होते हैं। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) निस्संदेह, जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनमें—उन लोगों के अलावा जिन्हें बचाया नहीं जा सकता—कुछ ऐसे हैं जो सेवाकर्ता बनने के इच्छुक हैं और जो जीवित बचेंगे। यह ठीक है, इसे सत्य का अनुसरण न करने का एक अच्छा विकल्प माना जा सकता है। तुम विशेष रूप से कौन-सा मार्ग चुनते हो, यह तुम लोगों पर है। शायद कुछ लोग कहेंगे, “इतनी संगति के बाद भी तुमने अभी तक हमें यह नहीं बताया कि लोगों और चीजों को कैसे देखें, या कैसे आचरण और कार्य करें।” क्या मैंने नहीं बताया? (बताया है।) व्यक्ति को किसके अनुसार लोगों और चीजों को देखना, और आचरण और कार्य करना चाहिए? (परमेश्वर के वचनों के अनुसार।) और किसे अपनी कसौटी मानकर यह करना चाहिए? (सत्य को अपनी कसौटी मानकर।) तो परमेश्वर के वचन क्या हैं? सत्य कहाँ है? (परमेश्वर के वचन सत्य हैं।) परमेश्वर के बहुत सारे वचन हैं, वे लोगों को इस बात के हर पहलू के बारे में बताते हैं कि लोगों और चीजों को कैसे देखना है, और कैसे आचरण और कार्य करना है, इसलिए अभी हम इन चीजों के विस्तार में नहीं जाएँगे। एक बार फिर से पढ़ो कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है। (सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना।) तुम्हें लोगों को ये वचन अपने दिलों में अंकित कर लेने चाहिए, और इनका उपयोग अपने जीवन के आदर्श-वाक्य के रूप में करना चाहिए। इन्हें अक्सर बाहर निकालो, ताकि तुम इनके बारे में सोच सको और इन पर विचार कर सको; अपने व्यवहार, जीवन में अपने रवैये, चीजों पर अपने विचारों और अपने इरादों और लक्ष्यों को तुलना के लिए उनके सामने रखो। तब तुम स्पष्ट रूप से महसूस कर पाओगे कि तुम्हारी वास्तविक अवस्था क्या है, और तुम जो स्वभाव दिखाते हो उसका सार क्या है। इन वचनों से उनकी तुलना करो, और इन वचनों को अपने अभ्यास के सिद्धांतों, मार्ग और दिशा के रूप में लो। जब तुम इस तरह से अनुसरण करते हो, जब तुम पूरी तरह से इन वचनों में प्रवेश करने और इन्हें जीने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम समझ जाओगे कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है। स्वाभाविक रूप से, जब तुम इन वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करते हो, तो तुम पहले ही सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल चुके होते हो। जब तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, तो इसका क्या परिणाम होगा? तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की गड़बड़ी, नियंत्रण और बाधाओं के कारण होने वाला संकट अधिकाधिक हलका होता जाएगा। ऐसा क्यों? क्योंकि तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे पास अपने भ्रष्ट स्वभाव को हल करने का एक मार्ग है, और तुम्हारे बचने की आशा है। तभी तुम महसूस करोगे कि वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करने और उसके वचनों को खाने-पीने का जीवन संतोषप्रद, शांतिपूर्ण और आनंदमय है। कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, उन्हें अभी भी लगता है कि जीवन बहुत खोखला है, और भरोसा करने के लिए उनके पास कुछ नहीं है। अक्सर वे यह भी महसूस करते हैं कि भ्रष्ट स्वभाव के भीतर रहना वास्तव में पीड़ादायक है, और हालाँकि वे उसे त्यागना चाहते हैं, पर त्याग नहीं पाते। वे हमेशा अपने भ्रष्ट स्वभाव से विवश, बँधे हुए और बाध्य रहते हैं, जिससे उन्हें बहुत कष्ट होता है, लेकिन उनके पास अनुसरण करने के लिए कोई मार्ग नहीं होता। उनके ये कटु दिन अनंत हैं। अगर वे सत्य स्वीकार सकें और उद्धार प्राप्त कर सकें, तो ये कटु दिन बीत जाएँगे। लेकिन इन सबके परिणाम तुम लोगों के भविष्य के अनुसरण और प्रवेश पर निर्भर करते हैं।

29 जनवरी, 2022

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