सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1)

आज की संगति एक ऐसे विषय पर है जिससे हर व्यक्ति परिचित है। यह परमेश्वर में मनुष्य के विश्वास और उसके अनुसरण से निकटता से जुड़ा है, और यह एक ऐसा विषय है जिससे लोग रोज रूबरू होते और सुनते हैं। तो वह विषय क्या है? वह विषय है सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है। इस विषय के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? क्या यह तुम्हारे लिए नया है? क्या यह दमदार है? चाहे यह विषय कितना भी दमदार हो, मुझे पता है कि यह तुम लोगों में से प्रत्येक के लिए प्रासंगिक है; यह लोगों के उद्धार, परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में उनके प्रवेश और उनके स्वभावगत परिवर्तन, और उनके भावी परिणाम और मंजिल के लिए प्रासंगिक है। तुममें से ज्यादातर लोग अब सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक हैं और जागने लगे हैं, लेकिन तुम इस बारे में बहुत निश्चित नहीं हो कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है या सत्य का अनुसरण कैसे किया जाना चाहिए। इसलिए आज इस विषय पर संगति करना हमारे लिए आवश्यक है। सत्य का अनुसरण एक ऐसा विषय है, जिससे लोग अक्सर अपने दैनिक जीवन में रूबरू होते हैं; यह एक व्यावहारिक समस्या है, जिसका सामना लोग तब करते हैं जब उनके दैनिक जीवन के दौरान, अपने कर्तव्यों का पालन आदि करते हुए चीजें उन पर पड़ती हैं। जब ज्यादातर लोगों पर कुछ आ पड़ता है, तो वे केवल परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए स्व-प्रेरित प्रयास करते हैं, और वे अपने विचार नकारात्मक होने से रोकते हैं, इस आशा से कि ऐसा करके वे नकारात्मकता या परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों में डूबने से खुद को रोकेंगे, और खुद को उसके कार्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम करेंगे। बेहतर क्षमता वाले लोग परमेश्वर के वचनों के भीतर सकारात्मक और सक्रिय रूप से सत्य के सभी पहलुओं की खोज करने में सक्षम होते हैं; वे सिद्धांतों, परमेश्वर की अपेक्षाओं और अभ्यास के मार्गों की तलाश करते हैं। या वे अपने पर आन पड़ने वाली चीजों के माध्यम से खुद को जाँचने, चिंतन करने और ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होते हैं और इस तरह सत्य सिद्धांतों को समझ कर सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लेते हैं। लेकिन यह ज्यादातर लोगों के लिए एक बड़ी बाधा बनी हुई है, और वे ये चीजें कर सकते हैं या नहीं, यह अनिश्चित है। ज्यादातर लोगों ने अभी तक वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश नहीं किया है। इसलिए, भले ही तुम लोगों को इस पर चिंतन करने का समय दिया जाए, पर तुम्हारे लिए इस साधारण, सामान्य और विशिष्ट विषय की व्यावहारिक, वस्तुनिष्ठ और सच्ची समझ तक पहुँचना आसान नहीं होगा। इसलिए, अपने मुख्य विषय पर लौटते हुए, आओ सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, इस पर संगति करें। तुम लोग चिंतन करने में कुशल नहीं हो, लेकिन मुझे उम्मीद है कि तुम लोग सुनने में अच्छे हो—न केवल अपने कानों से, बल्कि अपने दिल से भी। मुझे उम्मीद है कि तुम पूरे दिल से इसे समझोगे-बूझोगे, और तुम इसे गंभीरता से लोगे, एक महत्वपूर्ण चीज की तरह, वह सब जिसे तुम समझने में सक्षम हो, और वह सब जो तुम्हारी अवस्था, तुम्हारे स्वभाव और तुम्हारी स्थिति के प्रत्येक पहलू से मेल खाता हो। उसके बाद, मुझे उम्मीद है कि तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए निकल पड़ोगे, और अभ्यास के सभी सिद्धांतों को गंभीरता से लेने का प्रयास करोगे, ताकि जब संबंधित मुद्दे उठें, तो तुम्हारे पास अनुसरण करने के लिए एक मार्ग हो, और तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास के मार्ग के रूप में लेने और उन्हें इस रूप में कार्यान्वित कर उनका पालन करने में सक्षम रहो। यह सबसे अच्छा होगा।

सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? यह एक अवधारणात्मक प्रश्न हो सकता है, लेकिन यह परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में सबसे व्यावहारिक प्रश्न भी है। लोग सत्य का अनुसरण कर सकते हैं या नहीं, यह सीधे तौर पर उनकी प्राथमिकताओं, उनकी क्षमता और उनके अनुसरण से संबंधित है। सत्य के अनुसरण में कई व्यावहारिक तत्त्व शामिल हैं। हमें एक-एक करके उन पर संगति करनी चाहिए, ताकि तुम लोग सत्य को जितनी जल्दी हो सके समझ सको, और जान सको कि वास्तव में उसका अनुसरण करने का क्या अर्थ है और इससे कौन-से मुद्दे संबंधित हैं। इस तरह, तुम अंततः यह समझने में सक्षम होगे कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है। पहले, आओ इस पर चर्चा करें : क्या तुम लोग इस उपदेश को सुनकर सत्य का अनुसरण कर रहे हो? (नहीं।) उपदेश सुनना केवल सत्य का अनुसरण करने की तैयारी की एक पूर्व-अपेक्षा और क्रिया है। सत्य का अनुसरण करने में कौन-से तत्त्व शामिल हैं? कई विषय हैं जो सत्य के अनुसरण से संबंध रखते हैं, और स्वाभाविक रूप से ऐसी कई समस्याएँ भी हैं जो लोगों में मौजूद हैं, जिन पर हमें यहाँ चर्चा करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कहते हैं, “अगर व्यक्ति प्रतिदिन परमेश्वर के वचन खाता-पीता और सत्य के बारे में संगति करता है, सामान्य रूप से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम है, कलीसिया जो भी व्यवस्था करती है वो सब करता है और कभी विघ्न नहीं डालता या गड़बड़ी पैदा नहीं करता है—और भले ही वह कभी-कभी सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन कर देता है लेकिन ऐसा जानबूझकर या इरादतन नहीं करता—तो क्या यह ये नहीं दर्शाता कि वह सत्य का अनुसरण करता है?” यह अच्छा प्रश्न है। कई लोगों का यही ख्याल होता है। सबसे पहले, तुम्हें यह समझना चाहिए कि क्या व्यक्ति लगातार इस तरह का अभ्यास करके सत्य और सत्य की समझ हासिल करने में सक्षम हो सकता है। तुम लोग अपने विचार साझा करो। (भले ही इस तरह का अभ्यास सही है, यह धार्मिक अनुष्ठान के समान ज्यादा लगता है—यह नियम का पालन करना है। इसके द्वारा सत्य की समझ या सत्य हासिल नहीं हो सकता।) तो, असल में ये किस तरह के व्यवहार हैं? (ये सतही रूप से अच्छे व्यवहार हैं।) मुझे यह उत्तर पसंद आया। ये केवल ऐसे अच्छे व्यवहार हैं, जो व्यक्ति के परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, विभिन्न अच्छी और सकारात्मक शिक्षा द्वारा प्रभावित होने के बाद उसके अंतःकरण और विवेक की नींव पर उत्पन्न होते हैं। लेकिन ये अच्छे व्यवहारों से ज्यादा कुछ नहीं हैं, और वे सत्य का अनुसरण तो बिल्कुल नहीं हैं। तो फिर, इन अच्छे व्यवहारों का मूल क्या है? उन्हें क्या चीज जन्म देती है? ये व्यक्ति के अंतःकरण और विवेक, उसकी नैतिकता, परमेश्वर में विश्वास करने के प्रति उसकी अनुकूल भावनाओं और उसके आत्म-संयम से उत्पन्न होते हैं। चूँकि वे अच्छे व्यवहार हैं, इसलिए सत्य से उनका कोई संबंध नहीं है, और निश्चित रूप से वे एक ही चीज नहीं हैं। अच्छे व्यवहारों का होना सत्य का अभ्यास करने के समान नहीं है, और अगर कोई व्यक्ति अच्छा व्यवहार करता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसे परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त है। अच्छे व्यवहार और सत्य का अभ्यास दो अलग-अलग चीजें हैं—और उनका एक-दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सत्य का अभ्यास करना परमेश्वर की अपेक्षा है और यह पूरी तरह से उसके इरादों के अनुरूप है; अच्छा व्यवहार मनुष्य की इच्छा से उपजता है और इसमें मनुष्य के इरादे और उद्देश्य समाए होते हैं—यह ऐसी चीज है, जिसे मनुष्य अच्छा समझता है। भले ही अच्छे व्यवहार दुष्ट कर्म नहीं हैं, फिर भी वे सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता। ये व्यवहार चाहे जितने भी अच्छे हों, मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के कितने भी अनुरूप हों, इनका सत्य से कोई संबंध नहीं होता। इसलिए अच्छे व्यवहार की मात्रा कितनी भी हो, उसे परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिल सकती। चूँकि अच्छे व्यवहार को इस तरह से परिभाषित किया गया है, इसलिए स्पष्टतः अच्छे व्यवहार का सत्य के अभ्यास से कोई संबंध नहीं है। अगर लोगों को उनके व्यवहार के अनुसार प्रकारों में बाँटा जाए, तो ये अच्छे व्यवहार, ज्यादा से ज्यादा, वफादार श्रमिकों के कार्य होंगे, इससे ज्यादा कुछ नहीं। उनका सत्य के अभ्यास या परमेश्वर के प्रति सच्चे समर्पण से कोई संबंध नहीं है। वे सिर्फ एक प्रकार का व्यवहार हैं और वे लोगों के स्वभावगत परिवर्तन, सत्य के प्रति उनके समर्पण और स्वीकृति, परमेश्वर के भय और बुराई से दूर रहने, या ऐसे किसी भी अन्य व्यावहारिक तत्त्व से पूरी तरह से अप्रासंगिक हैं, जो वास्तव में सत्य से जुड़ा होता है। तो फिर उन्हें अच्छे व्यवहार क्यों कहा जाता है? यहाँ एक व्याख्या है, और स्वाभाविक रूप से यह इस प्रश्न के सार की भी व्याख्या है। वह यह है कि ये व्यवहार केवल लोगों की धारणाओं, उनकी प्राथमिकताओं, उनकी इच्छा और उनके स्व-प्रेरित प्रयासों से उत्पन्न होते हैं। वे पश्चात्ताप की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं जो सत्य और परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकारने के द्वारा सच्चा आत्म-ज्ञान पाने से आता है, न ही ये सत्य का अभ्यास करने के व्यवहार या कार्य हैं, जो तब उत्पन्न होते हैं जब लोग परमेश्वर के प्रति समर्पित होने का प्रयास करते हैं। क्या तुम इसे समझते हो? इसका अर्थ है कि इन अच्छे व्यवहारों में व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन, या परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना से गुजरने का परिणाम, या अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने से उत्पन्न होने वाला सच्चा पश्चात्ताप किसी भी तरह शामिल नहीं है। वे निश्चित रूप से परमेश्वर और सत्य के प्रति मनुष्य के सच्चे समर्पण से जुड़े नहीं होते हैं; और परमेश्वर के प्रति भय और प्रेम से भरा हृदय होने से तो और भी संबंधित नहीं हैं। अच्छे व्यवहारों का इन चीजों से बिलकुल भी लेना-देना नहीं है; वे केवल ऐसी चीज हैं जो मनुष्य से आती हैं और जिसे मनुष्य अच्छा समझता है। फिर भी ऐसे बहुत-से लोग हैं जो इन अच्छे व्यवहारों को किसी व्यक्ति के सत्य के अभ्यास का चिह्न समझते हैं। यह एक गंभीर गलती है, एक बेतुका दृष्टिकोण और समझ है। ये अच्छे व्यवहार सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान करना है, और यंत्रवत ढंग से काम करना है। ये सत्य का अभ्यास करने से जरा-सा भी संबंधित नहीं हैं। परमेश्वर शायद सीधे इनकी निंदा न करे, पर वह इन्हें कतई स्वीकृति नहीं देता; यह निश्चित है। तुम लोगों को यह जानना चाहिए कि ये बाहरी क्रियाएँ, जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप हैं, और ये अच्छे व्यवहार सत्य का अभ्यास नहीं हैं, न ही ये सत्य के अनुसरण की अभिव्यक्ति हैं। इस संगति को सुनने के बाद तुम लोगों को सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, इसका महज थोड़ा-सा अवधारणात्मक ज्ञान मिला है, सत्य का अनुसरण करने की एक सरल अवधारणा की प्रारंभिक समझ मिली है। अगर तुम वाकई सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, इसे समझना चाहते हो, तो और भी बहुत-कुछ है जिस पर हमें संगति करनी चाहिए।

सत्य का अनुसरण करने के लिए व्यक्ति को उसे समझना चाहिए; केवल सत्य को समझकर ही व्यक्ति उसका अभ्यास कर सकता है। क्या लोगों के अच्छे व्यवहार सत्य के अभ्यास से संबंधित होते हैं? क्या अच्छे व्यवहार सत्य के अनुसरण से उपजे हैं? कौन-सी अभिव्यक्तियाँ और कार्य सत्य के अभ्यास से संबंधित हैं? सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों में कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं? तुम्हें इन सवालों को समझने की जरूरत है। सत्य के अनुसरण पर संगति करने के लिए हमें पहले लोगों की कठिनाइयों और इसके प्रति उनके गलत दृष्टिकोणों के बारे में बात करनी चाहिए। पहले इनका समाधान जरूरी है। शुद्ध समझ वाले कुछ लोग हैं, जो इस बारे में अपेक्षाकृत स्पष्ट दृष्टिकोण रखते हैं कि सत्य क्या है। उनके पास सत्य का अनुसरण करने का एक मार्ग है। ऐसे अन्य लोग हैं, जो यह नहीं समझते कि सत्य क्या है, और हालाँकि उनकी इसमें रुचि है, पर वे नहीं जानते कि इसका अभ्यास कैसे किया जाए। वे मानते है कि अच्छे काम करना और अच्छा व्यवहार करना और सत्य का अभ्यास करना एक समान है—कि सत्य का अभ्यास करना अच्छे काम करना है। परमेश्वर के बहुत-से वचन पढ़े बिना, उन्हें यह समझ नहीं आता कि अच्छे काम करना और अच्छा व्यवहार करना, सत्य का अभ्यास करने से पूरी तरह अलग है। तुम देख सकते हो कि लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ कितनी बेतुकी हैं—जो लोग सत्य नहीं समझते, वे कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते! बहुत-से लोगों ने वर्षों तक अपने कर्तव्य निभाए हैं, वे रोज खुद को व्यस्त रखते हैं और काफी कठिनाइयों से गुजर चुके हैं, इसलिए वे खुद को ऐसे लोग समझते हैं जो सत्य का अभ्यास करते हैं और जिनमें सत्य वास्तविकता है। लेकिन वे कोई अनुभवात्मक गवाही नहीं दे सकते। यहाँ समस्या क्या है? अगर वे सत्य समझते हैं, तो वे अपने वास्तविक अनुभवों के बारे में क्यों नहीं बोल सकते? क्या यह एक विरोधाभासी बात नहीं है? कुछ लोग कहते हैं, “जब मैं पहले अपना कर्तव्य निभा रहा था, तब मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, और मैंने परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पठन नहीं किया। मैंने बहुत समय नष्ट किया। मैं अपने काम में बहुत तल्लीन रहता था, यह सोचते हुए कि अपने कर्तव्य में व्यस्त रहना सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होने के समान है—पर मैं बस अपना समय नष्ट कर रहा था।” यहाँ निहितार्थ क्या है? यह कि उन्होंने सत्य का अनुसरण इसलिए टाल दिया, क्योंकि वे अपना कर्तव्य निभाने में बहुत व्यस्त थे। क्या वास्तव में यही मामला है? कुछ बेतुके लोग मानते हैं कि अगर वे अपने कर्तव्य में व्यस्त रहेंगे, तो उनके भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट होने का समय नहीं मिलेगा, वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट नहीं करेंगे या भ्रष्ट स्थिति में नहीं रहेंगे, और इसलिए, उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए परमेश्वर के वचन खाने-पीने की जरूरत नहीं। क्या यह विचार सही है? जब लोग अपने कर्तव्यों में व्यस्त होते हैं, तो क्या वे वास्तव में भ्रष्ट स्वभाव प्रकट नहीं करते? यह एक बेतुका विचार है—यह एक सफेद झूठ है। वे कहते हैं कि उनके पास सत्य का अनुसरण करने का समय नहीं है, क्योंकि वे अपने कर्तव्य में व्यस्त रहते हैं। यह विशुद्ध भ्रांति है; वे व्यस्तता को बहाने की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। हमने जीवन-प्रवेश और कर्तव्य निभाने से संबंधित सत्यों पर कई बार संगति की है : कर्तव्य निभाते हुए समस्याएँ हल करने के लिए सत्य की खोज करके ही लोग जीवन में आगे बढ़ सकते हैं। इसलिए, अगर व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाते समय सिर्फ खुद को कार्यों में व्यस्त रखता है, अगर वह समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजने में विफल रहता है, तो वह कभी सत्य नहीं समझ पाएगा। कुछ लोग, जो सत्य से प्रेम नहीं करते, सिर्फ श्रम करने से संतुष्ट रहते हैं और उसके बदले में स्वर्ग के राज्य के आशीष पाने की आशा करते हैं। वे यह बहाना बनाकर मामला समेट लेते हैं कि वे अपना कर्तव्य निभाने में इतने व्यस्त हैं कि उनके पास सत्य का अनुसरण करने का समय नहीं है; वे यह तक कहते हैं कि वे अपना कर्तव्य निभाने में इतने व्यस्त हैं कि वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट नहीं करते। इसका तात्पर्य यह है कि चूँकि वे अपने कर्तव्य में व्यस्त हैं, इसलिए उनका भ्रष्ट स्वभाव गायब हो गया है, वह अब मौजूद ही नहीं है। यह झूठ है, है न? क्या उनका दावा तथ्यों के अनुरूप है? बिलकुल नहीं—इसे सबसे बड़ा झूठ कहा जा सकता है। यह कैसे हो सकता है कि किसी व्यक्ति के कर्तव्य में व्यस्त होने के कारण भ्रष्ट स्वभाव खुद को प्रकट न करे? क्या ऐसे लोगों का अस्तित्व है? क्या ऐसी अनुभवात्मक गवाही मौजूद है? हरगिज नहीं। लोग शैतान द्वारा बुरी तरह से भ्रष्ट किए जा चुके हैं; उन सभी की शैतानी प्रकृति है, और वे सभी शैतानी स्वभावों में रहते हैं। क्या मनुष्य के भीतर कुछ भी सकारात्मक है, भ्रष्टता के अलावा भी कुछ है? क्या कोई है, जो बिना भ्रष्ट स्वभाव के पैदा हुआ हो? क्या कोई जन्म से ही वफादारी से कर्तव्य निभाने के काबिल है? क्या कोई जन्म से ही परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उससे प्रेम करने में सक्षम है? बिल्कुल नहीं। चूँकि सभी लोगों की शैतानी प्रकृतियाँ हैं और वे भ्रष्ट स्वभावों से भरे हैं, इसलिए अगर वे सत्य समझने और उसका अभ्यास करने में सक्षम नहीं हैं, तो वे सिर्फ अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार ही जी सकते हैं। इसलिए, यह कहना बेतुकापन और भ्रांति है कि अगर व्यक्ति अपने कर्तव्य में व्यस्त रहता है, तो वह भ्रष्ट स्वभाव प्रकट नहीं करेगा। यह लोगों को गुमराह करने के लिए गढ़ा गया सफेद झूठ है। चाहे लोग अपना कर्तव्य निभाने में व्यस्त हो या नहीं, चाहे उनके पास परमेश्वर के वचन पढ़ने का समय हो या नहीं, जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे उसका अनुसरण न करने के कारण और बहाने खोज ही लेंगे। ये लोग स्पष्ट रूप से श्रमिक हैं। अगर कोई श्रमिक परमेश्वर के वचन नहीं खाता-पीता और सत्य नहीं स्वीकारता, तो क्या वह अच्छी तरह श्रम कर पाएगा? हरगिज नहीं। वे सभी, जो सत्य नहीं स्वीकारते, जमीर और विवेक से रहित होते हैं, वे ऐसे लोग हैं जो अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते हैं और बहुत सारी बुराइयाँ करते हैं। वे किसी भी तरह से निष्ठावान श्रमिक नहीं हैं, और भले ही वे श्रम करते हों, उनमें कुछ भी अच्छा नहीं है। इसके बारे में तुम सुनिश्चित हो सकते हो।

कुछ लोग अपने परिवारों में बहुत ज्यादा उलझे रहते हैं और अक्सर चिंता में डूबे रहते हैं। जब वे उन छोटे भाई-बहनों को देखते हैं, जिन्होंने परमेश्वर का अनुसरण करने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपने परिवार और करियर त्याग दिए हैं, तो वे उनसे ईर्ष्या करते हुए कहते हैं, “परमेश्वर इन युवाओं पर मेहरबान रहा है। इन्होंने शादी करने और बच्चे पैदा करने से पहले, छोटी उम्र में ही उस पर विश्वास करना शुरू कर दिया; इनके कोई पारिवारिक बंधन नहीं हैं और इन्हें इस बात की चिंता करने की जरूरत नहीं कि ये कैसे गुजारा करेंगे। इन्हें ऐसी कोई चिंता नहीं है, जो इन्हें परमेश्वर का अनुसरण करने और अपने कर्तव्य निभाने से रोकती हो। वे ठीक परमेश्वर के कार्य और अंत के दिनों में उसके सुसमाचार के विस्तार के समय पर आए—परमेश्वर ने इन्हें ये अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान की हैं। वे अपने कर्तव्य निभाने के लिए शरीर और आत्मा से खुद को समर्पित कर सकते हैं। वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं है। परमेश्वर ने मेरे लिए उपयुक्त परिवेश की व्यवस्था नहीं की है—मेरे पारिवारिक झंझट बहुत ज्यादा हैं और मुझे उन्हें सुलझाने के लिए पैसा कमाना है। यहीं मेरी असली समस्याएँ हैं। इसलिए मेरे पास सत्य का अनुसरण करने का समय नहीं है। सत्य का अनुसरण उन लोगों के लिए है, जो पूरे समय अपना कर्तव्य निभाते हैं और जो ऐसे बंधनों में नहीं बंधे हैं। मैं पारिवारिक झंझटों से घिरा हूँ और मेरा दिल गुजारा चलाने की ओछी बातों से भरा है, इसलिए मेरे पास परमेश्वर के वचन खाने-पीने या अपना कर्तव्य निभाने के लिए समय या ऊर्जा नहीं है। तुम चाहे मेरी परिस्थितियों के जिस भी पहलू को देखो, मेरे पास सत्य का अनुसरण करने का कोई उपाय नहीं है। तुम इसके लिए मुझे दोष नहीं दे सकते। सत्य का अनुसरण करना मेरी नियति है ही नहीं, और मेरी परिस्थितियाँ मुझे कर्तव्य निभाने नहीं देतीं। मैं बस इतना ही कर सकता हूँ कि अपने पारिवारिक झंझट खत्म होने, अपने बच्चों के आत्मनिर्भर होने और अपने सेवानिवृत्त होकर भौतिक चिंताओं से मुक्त होने की प्रतीक्षा करूँ—फिर मैं सत्य का अनुसरण करूँगा।” इस तरह के लोग अपने दैनिक जीवन में कठिनाई का अनुभव करते हैं, और वे कभी-कभी अपने दैनिक जीवन के छोटे-मोटे मामलों में अपना भ्रष्ट स्वभाव उमड़ता महसूस कर सकते हैं। वे इन चीजों का पता लगा सकते हैं, लेकिन चूँकि वे धर्मनिरपेक्ष दुनिया के जाल में फँस गए हैं, इसलिए वे मानते हैं कि इस तरह जीकर, परमेश्वर में विश्वास करके, उपदेश सुनकर और आराम से गुजारा करके वे अच्छा कर रहे हैं। वे मानते हैं कि सत्य का अनुसरण प्रतीक्षा कर सकता है, और उनके जो भी भ्रष्ट स्वभाव हैं, उन्हें आने वाले कुछ वर्षों में दूर करें तो बहुत देर नहीं होगी। सत्य का अनुसरण करने के बड़े मामले को वे इस तरह टाल देते हैं और उसे बार-बार स्थगित कर देते हैं। वे हमेशा क्या कहते हैं? “सत्य का अनुसरण करने के लिए कभी देर नहीं होती। मैं इसे कुछ साल दूँगा। जब तक परमेश्वर का कार्य समाप्त नहीं हो जाता, तब तक मेरे पास समय है—मेरे पास अभी भी अवसर है।” तुम इस विचार के बारे में क्या सोचते हो? (यह गलत है।) क्या उन्होंने सत्य का अनुसरण करने का दायित्व उठाया है? (नहीं।) तो फिर उन्होंने कौन-सा दायित्व उठाया है? क्या यह गुजारा चलाने, अपने परिवार का भरण-पोषण करने, अपने बच्चे पालने का दायित्व नहीं है? वे अपनी सारी ऊर्जा अपने बच्चों, अपने परिवारों, अपने दिनों और जीवन को समर्पित कर देते हैं, और केवल इन चीजों का इंतजाम करने के बाद ही वे सत्य का अनुसरण शुरू करने की योजनाएँ बनाते हैं। तो क्या उनके ये बहाने वाजिब हैं? क्या वे उनके सत्य के अनुसरण की बाधाएँ नहीं हैं? (वे हैं।) ये लोग परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं में विश्वास तो करते हैं, लेकिन साथ ही उस परिवेश के बारे में शिकायत भी करते हैं जिसकी व्यवस्था परमेश्वर ने उनके लिए की है। वे परमेश्वर की अपेक्षाओं की अवहेलना करते हैं और उनके साथ सक्रिय रूप से बिल्कुल भी सहयोग नहीं करते। इसके बजाय, वे केवल अपनी देह, परिवार और रिश्तेदारों को संतुष्ट करने की परवाह करते हैं। सत्य का अनुसरण न करने का वे क्या कारण देते हैं? “हम बस जिंदा रहने की कोशिश में ही बहुत व्यस्त हैं और थक गए हैं। हमारे पास सत्य का अनुसरण करने का समय नहीं है; हमारे पास सत्य का अनुसरण करने के लिए सही परिवेश नहीं है।” वे क्या दृष्टिकोण रखते हैं? (सत्य का अनुसरण करने के लिए कभी देर नहीं होती।) “सत्य का अनुसरण करने के लिए कभी देर नहीं होती। मैं इसे कुछ वर्षों में करूँगा।” क्या यह मूर्खता नहीं है? (है।) यह मूर्खता है—वे अपने बहानों से खुद को मूर्ख बना रहे हैं। क्या परमेश्वर का कार्य तुम्हारी प्रतीक्षा करेगा? (नहीं।) “मैं इसे कुछ वर्षों में करूँगा”—उन “कुछ वर्षों” का क्या अर्थ है? उनका अर्थ है कि तुम्हें बचाए जाने की उम्मीद कम है और तुम्हारे पास परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिए कम वर्ष होंगे। कुछ वर्ष ऐसे ही बीतेंगे, फिर कुछ और वर्ष ऐसे ही बीत जाएँगे और इससे पहले कि तुम जान पाओ, दस वर्ष बीत चुके होंगे, और तुमने बिल्कुल भी सत्य नहीं समझा होगा, न ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश किया होगा, और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का एक कतरा भी दूर नहीं हुआ होगा। एक ईमानदार शब्द बोलना भी तुम्हारे लिए ऐसा संघर्षपूर्ण है। क्या यह खतरनाक नहीं है? क्या यह दुख की बात नहीं है? (है।) जब लोग सत्य का अनुसरण न करने को सही ठहराने के लिए ये सब बहाने और कारण पेश करते हैं, तो अंत में वे किसे नुकसान पहुँचाते हैं? (खुद को।) यह सही है—अंत में वे खुद को ही नुकसान पहुँचाते हैं। और जब वे अपनी मृत्यु-शय्या पर होंगे, तो वे परमेश्वर में अपने विश्वास के वर्षों में सत्य प्राप्त न करने के लिए खुद से घृणा करेंगे, और वे अपने पूरे जीवन पछताएँगे!

कुछ लोग कुछ हद तक सुशिक्षित होते हैं, लेकिन उनकी क्षमता कम होती है और उनमें आध्यात्मिक समझ नहीं होती। वे कितने भी उपदेश सुन लें, सत्य नहीं समझ पाते। उनकी हमेशा अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं, और वे हमेशा हैसियत के लिए संघर्ष करते रहते हैं। अगर उनके पास हैसियत न हो, तो वे सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे। वे कहते हैं, “परमेश्वर का घर कभी मेरे लिए ऐसा कर्तव्य निभाने की व्यवस्था नहीं करता, जो मेरा महत्व दर्शाता हो, जैसे पाठ-आधारित कार्य, ए.वी. कार्य, कलीसिया का अगुआ होना, या किसी समूह का निरीक्षक होना। वे मुझे ऐसा कोई महत्वपूर्ण काम करने के लिए नहीं देते। परमेश्वर का घर मुझे उन्नत या विकसित नहीं करता, और हर बार जब कलीसिया में चुनाव होता है, कोई मुझे वोट नहीं देता, और कोई मुझे पसंद नहीं करता। क्या वाकई मुझमें वांछनीय गुण नहीं हैं? मैं एक बुद्धिजीवी हूँ, सुशिक्षित हूँ, लेकिन परमेश्वर का घर मुझे कभी उन्नत या विकसित नहीं करता, इसलिए मुझमें सत्य का अनुसरण करने की कोई प्रेरणा नहीं है। जिन भाई-बहनों ने परमेश्वर में उसी समय विश्वास करना शुरू किया था जब मैंने किया था, वे सभी महत्वपूर्ण कर्तव्य निभा रहे हैं, और अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में काम कर रहे हैं—ऐसा क्यों है कि मुझे बेकार छोड़ दिया गया है? मुझे सिर्फ समय-समय पर सुसमाचार फैलाने की एक सहायक भूमिका निभाने को मिलती है, और वे मुझे गवाही भी नहीं देने देते। जब भी परमेश्वर का घर लोगों को महत्वपूर्ण कार्यों के लिए उन्नत करता है, तो वहाँ मेरे लिए कुछ नहीं होता; मुझे सभाओं की अगुआई तक नहीं करने दी जाती, और वे मुझे कोई जिम्मेदारी नहीं देते। मुझे महसूस होता है कि मेरे साथ बहुत अन्याय हो रहा है। यह वह परिवेश है, जिसकी व्यवस्था परमेश्वर ने मेरे लिए की है। मैं अपने अस्तित्व का मूल्य महसूस क्यों नहीं कर सकता? क्यों परमेश्वर दूसरों से तो प्यार करता है, पर मुझसे नहीं? क्यों वह दूसरों को तो विकसित करता है, पर मुझे नहीं? परमेश्वर के घर को मुझे और ज्यादा दायित्व देना चाहिए, और मुझे निरीक्षक या ऐसा ही कुछ बनाना चाहिए। इस तरह मुझमें सत्य का अनुसरण करने की थोड़ी प्रेरणा होगी। बिना प्रेरणा के मैं सत्य का अनुसरण कैसे कर सकता हूँ? सत्य का अनुसरण करने के लिए लोगों को हमेशा थोड़ी प्रेरणा की आवश्यकता होती है; हमें उसका अनुसरण करने के लाभ देखने में सक्षम होने की आवश्यकता है। मैं जानता हूँ कि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं जिन्हें बदलने की आवश्यकता है, और मैं जानता हूँ कि सत्य का अनुसरण करना एक अच्छी बात है, वह हमें बचाए जाने और पूर्ण किए जाने देता है—लेकिन मेरा कभी किसी महत्वपूर्ण चीज के लिए उपयोग नहीं किया जाता, और मुझे सत्य का अनुसरण करने के लिए कोई प्रोत्साहन महसूस नहीं होता! जब भाई-बहन मेरा सम्मान और समर्थन करेंगे, तब मैं सत्य का अनुसरण करने लगूँगा—तब तक बहुत देर नहीं हुई होगी।” क्या इस तरह के लोग नहीं हैं? (हैं।) उनके साथ क्या समस्या है? समस्या यह है कि वे हैसियत और प्रतिष्ठा चाहते हैं। स्पष्ट रूप से, वे सत्य के प्रेमी नहीं हैं, फिर भी वे परमेश्वर के घर में प्रतिष्ठा और पद पाना चाहते हैं। क्या यह बेशर्मी नहीं है? तुम्हारा एक श्रमिक होना काफी है; तुम एक निष्ठावान श्रमिक बन सकते हो या नहीं, यह देखना बाकी है। यह तुम्हें स्पष्ट क्यों नहीं है? क्या तुम समझते हो कि अगर तुम्हारे पास हैसियत और प्रतिष्ठा होगी, तो तुम बचा लिए जाओगे? कि तुम ऐसे व्यक्ति होगे, जो सत्य का अनुसरण करता है? क्या तुम्हारी ये भावनाएँ सही हैं? (नहीं।) ये लोग अलग दिखना चाहते हैं, अपनी उपस्थिति महसूस कराना चाहते हैं, और जब उनकी इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं तो शिकायत करते हैं कि परमेश्वर अन्यायी है, लोगों के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार करता है, उसका घर उन्हें बढ़ावा नहीं देता, भाई-बहन उन्हें नहीं चुनते—निश्चित रूप से ये चीजें सत्य का अनुसरण करने के लिए आवश्यक नींव नहीं हैं। क्या परमेश्वर के वचनों में कहीं भी यह कहा गया है कि सत्य का अनुसरण करने वाले को सभी के द्वारा अपनाया जाना चाहिए और भाई-बहनों द्वारा उसे सम्मान दिया जाना चाहिए? या उन्हें कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाने और महत्वपूर्ण कार्य करने में सक्षम होना चाहिए और परमेश्वर के घर में बड़ा योगदान भी करना चाहिए? क्या परमेश्वर के वचन कहते हैं कि केवल ऐसे लोग ही सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, केवल वे ही सत्य का अनुसरण करने योग्य हैं? क्या उसके वचन कहते हैं कि केवल वे लोग ही सत्य का अनुसरण करने के मानदंड पूरे करते हैं, केवल वे ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं, या अंत में, केवल उन्हें ही बचाया जा सकता है? क्या यह परमेश्वर के वचनों में कहीं लिखा है? (नहीं।) यह स्पष्ट है कि इस प्रकार के व्यक्ति द्वारा किए गए दावे गलत हैं। तो, वे ऐसी बातें क्यों कहते हैं? क्या वे सत्य का अनुसरण न करने का बहाना नहीं बना रहे? (बना रहे हैं।) वे हैसियत और प्रतिष्ठा से प्रेम करते हैं। उन्हें सिर्फ प्रतिष्ठा और व्यक्तिगत लाभ के पीछे भागने और परमेश्वर में अपने विश्वास में हैसियत के पीछे दौड़ने से मतलब है। उन्हें लगता है कि इसे जोर से कहना शर्मनाक होगा, इसलिए वे सत्य का अनुसरण न करने के ढेरों कारण पेश कर अपना बचाव करते हुए कलीसिया, भाई-बहनों और परमेश्वर पर दोष मढ़ते हैं। क्या यह भयावह नहीं है? क्या वे निर्दोष पक्ष पर उँगली उठाने वाले दुष्ट लोग नहीं हैं? (हैं।) वे अकारण परेशानी पैदा कर रहे हैं और दूसरों को अतार्किक माँगों से तंग कर रहे हैं; वे पूरी तरह जमीर या विवेक से रहित हैं! सत्य का अनुसरण न करना अपने आप में एक पर्याप्त गंभीर समस्या है, ऊपर से वे बहस करने का प्रयास करते और हठी हो जाते हैं—यह वास्तव में अनुचित है, है न? सत्य का अनुसरण स्वैच्छिक होता है। यदि तुम सत्य से प्रेम करते हो, तो पवित्र आत्मा तुममें कार्य करेगा। जब तुम सत्य से प्रेम करते हो, जब तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर निर्भर होते हो, तुम पर चाहे जो भी अत्याचार या क्लेश आन पड़े तुम आत्मचिंतन कर स्वयं को जानने का प्रयास करते हो और जब तुम खुद में पता चली समस्याओं का समाधान करने के लिए सक्रिय रूप से सत्य खोजते हो और अपना कर्तव्य ठीकठाक निभा लेते हो तो तुम अपनी गवाही में दृढ़ रहने में सक्षम रहोगे। जब लोग सत्य से प्रेम करते हैं, तो ये अभिव्यक्तियाँ उनमें सहज ही दिखती हैं। वे स्वतः, खुशी से, बिना किसी दबाव और बिना किसी अतिरिक्त शर्त के घटित होती हैं। अगर लोग परमेश्वर का इस तरह अनुसरण कर सकें, तो अंततः वे सत्य और जीवन प्राप्त कर पाएंगे और वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करेंगे, और मनुष्य की छवि जिएंगे। क्या सत्य का अनुसरण करने के लिए तुम्हें कोई अतिरिक्त शर्त पूरी किए जाने की आवश्यकता है? नहीं। परमेश्वर में विश्वास स्वैच्छिक है, यह ऐसी चीज है जिसे व्यक्ति अपने लिए चुनता है और सत्य का अनुसरण करना पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है; परमेश्वर इसका अनुमोदन करता है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे दैहिक सुख त्यागने के इच्छुक नहीं हैं और फिर भी परमेश्वर के आशीष प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन जब उनका सामना कुछ क्लेशों और उत्पीड़न या थोड़े-से उपहास और बदनामी से होता है, तो वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं, और फिर परमेश्वर में विश्वास या उसका अनुसरण नहीं करना चाहते। वे उसे दोष तक दे सकते हैं और नकार सकते हैं। क्या यह अनुचित नहीं है? वे आशीष पाना चाहते हैं और फिर भी दैहिक सुखों के पीछे भागते हैं, और जब उन्हें कोई क्लेश या उत्पीड़न होता है, तो वे परमेश्वर को दोष देते हैं। सत्य से प्रेम न करने वाले ये लोग इतने अविवेकी होते हैं। उनके लिए अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना कठिन होगा; जैसे ही वे कुछ क्लेशों या उत्पीड़न का सामना करेंगे, वे उजागर हो जाएँगे और हटा दिए जाएँगे। ऐसे बहुत लोग हैं। परमेश्वर पर विश्वास करने का तुम्हारा जो भी कारण हो, अंततः परमेश्वर तुम्हारे परिणाम का निर्धारण इस आधार पर करेगा कि तुमने सत्य प्राप्त किया है या नहीं। अगर तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, तो तुम्हारे द्वारा दिए गए किसी भी औचित्य या बहाने में दम नहीं होगा। तुम चाहे जैसे तर्क करने का प्रयास करो, खुद के लिए जैसी मर्जी हो वैसी मुसीबत खड़ी करो—क्या परमेश्वर परवाह करेगा? क्या परमेश्वर तुमसे बात करेगा? क्या वह तुमसे बहस और बातचीत करेगा? क्या वह तुमसे परामर्श लेगा? जवाब क्या है? नहीं। वह बिल्कुल नहीं करेगा। तुम्हारा तर्क चाहे जितना भी मजबूत हो, वह टिक नहीं पाएगा। तुम्हें परमेश्वर के इरादों को गलत नहीं समझना चाहिए और ये नहीं सोचना चाहिए कि अगर तुम तमाम कारण दो और बहाने बनाओ तो तुम्हें सत्य का अनुसरण करने की जरूरत नहीं। परमेश्वर चाहता है कि तुम हर तरह के परिवेश में और खुद पर पड़ने वाले हर मामले में सत्य खोजने में सक्षम बनो, और अंततः सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सत्य प्राप्त करो। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए चाहे जिन परिस्थितियों की व्यवस्था की हो, चाहे जिन लोगों और घटनाओं से तुम्हारा सामना हो और चाहे जिस परिवेश में तुम खुद को पाओ, तुम्हें उनका सामना करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोजना चाहिए। ये ही वे सबक हैं, जो तुम्हें सत्य का अनुसरण करने में सीखने चाहिए। यदि तुम हमेशा इन परिस्थितियों से निकल भागने के लिए बहाने खोजोगे, इनसे बचोगे, नकारोगे, विरोध करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें त्याग देगा। तर्क करने, हठी या टेढ़ा होने का कोई अर्थ नहीं है—अगर परमेश्वर तुमसे सरोकार नहीं रखता, तो तुम उद्धार का अवसर खो दोगे। परमेश्वर के लिए, ऐसी कोई समस्या नहीं जिसे हल नहीं किया जा सकता; उसने प्रत्येक व्यक्ति के लिए व्यवस्था की है, और उसके पास उन्हें सँभालने का तरीका है। परमेश्वर तुमसे इस बात की चर्चा नहीं करेगा कि तुम्हारे कारणों और बहानों का औचित्य है या नहीं। परमेश्वर यह नहीं सुनेगा कि अपने बचाव में तुम जो तर्क दे रहे हो, वह विवेकपूर्ण है या नहीं। वह तुमसे केवल यही पूछेगा, “क्या परमेश्वर के वचन सत्य हैं? क्या तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है? क्या तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए?” तुम्हें बस एक ही तथ्य के बारे में स्पष्ट होने की आवश्यकता है : परमेश्वर सत्य है, तुम एक भ्रष्ट मनुष्य हो, इसलिए तुम्हें खुद ही सत्य तलाशने की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। कोई भी समस्या या कठिनाई, कोई भी कारण या बहाना नहीं चलेगा—अगर तुम सत्य नहीं स्वीकारते, तो तुम नष्ट हो जाओगे। सत्य का अनुसरण करने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति जो भी कीमत चुकाता है, वह सार्थक है। लोगों को सत्य स्वीकारने और जीवन प्राप्त करने के लिए अपने सभी बहाने, औचित्य और परेशानियाँ छोड़ देनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर के वचन और सत्य ही वह जीवन है जिसे उन्हें प्राप्त करना चाहिए, और यह ऐसा जीवन है जिसे किसी भी चीज से बदला नहीं जा सकता। अगर तुम इस अवसर को खो देते हो, तो तुम न केवल अपने शेष जीवन में पछताओगे—यह महज खेद की बात नहीं है—बल्कि तुमने खुद को लगभग पूरी तरह से नष्ट कर लिया होगा। फिर तुम्हारे लिए कोई परिणाम या कोई गंतव्य नहीं होगा, और एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारा मार्ग अवरुद्ध हो चुका होगा। तुम्हें फिर कभी बचाए जाने का अवसर नहीं मिलेगा। क्या तुम लोग समझ रहे हो? (हाँ, समझ रहे हैं।) सत्य का अनुसरण न करने के बहाने या कारण न ढूँढ़ो। वे किसी काम के नहीं; तुम सिर्फ खुद को बेवकूफ बना रहे हो।

कुछ अगुआ कभी सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं करते, वे अपने आप में कानून होते हैं, मनमाने और अविवेकी होते हैं। संभव है भाई-बहन इसका उल्लेख करते हुए कहें, “तुम कार्य करने से पहले कभी-कभार ही किसी से परमर्श करते हो। हमें तुम्हारे फैसले और निर्णय तब तक पता नहीं चलते, जब तक कि तुम उन्हें ले नहीं लेते। तुम किसी से चर्चा क्यों नहीं करते? जब तुम कोई निर्णय लेते हो, तो हमें पहले बताते क्यों नहीं? भले ही तुम जो कर रहे हो वह सही हो, और तुम्हारी क्षमता हमसे ज्यादा हो, फिर भी तुम्हें पहले हमें उसके बारे में सूचित करना चाहिए। कम से कम, हमें यह जानने का अधिकार है कि क्या हो रहा है। हमेशा खुद को ही कानून मानकर काम करने के द्वारा तुम मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहे हो!” और इस पर तुम अगुआ को क्या कहते सुनते हो? “मेरे घर में, मैं मालिक हूँ। छोटे-बड़े सभी मामले मैं ही तय करता हूँ। मैं इसी का आदी हूँ। जब मेरे विस्तारित परिवार में किसी को कोई समस्या होती है, तो वह मेरे पास आता है और क्या करना है इसका निर्णय मुझे लेने को कहता है। वे जानते हैं कि में समस्याएँ सुलझाने में अच्छा हूँ। इसलिए अपने परिवार के मामलों का मैं ही कर्ता-धर्ता हूँ। जब मैं कलीसिया से जुड़ा, तो मैंने सोचा था कि मुझे चीजों को लेकर और झंझट मोल नहीं लेनी होगी, लेकिन फिर मुझे अगुआ चुन लिया गया। क्या करूँ, मजबूरी है—मैं पैदा ही इसके लिए हुआ था। परमेश्वर ने मुझे यह हुनर दिया। मैं फैसले करने और दूसरे लोगों के लिए निर्णय लेने को ही पैदा हुआ हूँ।” यहाँ निहितार्थ यह है कि अधिकारी होना उनकी किस्मत में है, और दूसरे लोग पैदल सैनिक और गुलाम बनने के लिए पैदा हुए हैं। उन्हें लगता है कि उनकी बात ही अंतिम होनी चाहिए और दूसरे लोगों को उनकी बात सुननी चाहिए। यहाँ तक कि जब भाई-बहन इस अगुआ की समस्या देखकर उसे बताते हैं, तो वह इसे स्वीकारेगा नहीं, और न ही अपनी काट-छाँट स्वीकारेगा। वह तब तक लड़ता और विरोध करता रहेगा, जब तक कि भाई-बहन जोरों से उसे हटाने की माँग नहीं करते। हर समय, वह अगुआ यही सोचेगा कि, “मेरी क्षमता ही ऐसी है कि मैं जहाँ भी जाता हूँ, वहीं मेरी किस्मत में प्रभारी होना बदा होता है। जैसी तुम लोगों की क्षमता है, तुम हमेशा गुलाम और नौकर ही बनोगे। दूसरों से आदेश पाना तुम्हारा भाग्य है।” अकसर ऐसी बातें कहकर वे किस तरह का स्वभाव प्रकट कर रहे हैं? स्पष्ट रूप से, यह एक भ्रष्ट स्वभाव है, यह अहंकार, दंभ, और अत्यधिक अहंभाव रखना है, फिर भी वे बेशर्मी से इसका प्रदर्शन करते और दिखाते हैं मानो यह उनकी खूबी और गुण हो। जब कोई व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है, तो उसे आत्मचिंतन करना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना, पश्चात्ताप करना और इससे विद्रोह करना चाहिए और उसे तब तक सत्य का अनुसरण करना चाहिए, जब तक कि वह सिद्धांतों के अनुसार कार्य न करने लगे। लेकिन यह अगुआ इस तरह से अभ्यास नहीं करता। बल्कि वह अपने विचारों और तरीकों पर अड़े रहकर सुधरता नहीं। इन व्यवहारों से, तुम देख सकते हो कि वह जरा भी सत्य नहीं स्वीकारता और सत्य का अनुसरण करने वाल इंसान तो बिलकुल नहीं है। वह ऐसे किसी भी व्यक्ति की नहीं सुनता जो उसे उजागर कर उसकी काट-छाँट करता है, इसके बजाय वह अपनी सफाई देता रहता है : “हम्म—मैं ऐसा ही हूँ! इसे कहते हैं क्षमता और प्रतिभा—क्या तुम लोगों में से किसी में हैं ये चीजें? मेरी किस्मत में प्रभारी होना बदा है। मैं जहाँ भी जाता हूँ, अगुआ रहता हूँ। मैं अपनी बात मनवाने का और बिना दूसरों से परामर्श किए सभी चीजों को लेकर फैसले करने का आदी हूँ। मैं ऐसा ही हूँ, यह मेरा अपना आकर्षण है।” क्या यह हद दर्जे की बेशर्मी नहीं है? वे यह स्वीकार नहीं करते कि उनका स्वभाव भ्रष्ट है, और वे स्पष्ट रूप से परमेश्वर के वचन नहीं स्वीकारते, जो मनुष्य का न्याय कर उसे उजागर करते हैं। इसके विपरीत, वे अपने विधर्म और भ्रांतियों को सत्य मानते हैं, और बाकी सबसे उन्हें स्वीकार करवाने, उनका आदर करवाने की कोशिश करते हैं। दिल ही दिल में वे मानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के घर में राज करना चाहिए सत्य को नहीं, उन्हें ही सारे निर्णय लेने चाहिए। क्या यह खुल्लमखुल्ला बेशर्मी नहीं है? वे कहते हैं कि वे सत्य का अनुसरण करना चाहते हैं, लेकिन उनका व्यवहार इसके बिल्कुल विपरीत होता है। वे कहते हैं कि वे परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण करते हैं, लेकिन वे हमेशा सत्ता का उपयोग करना चाहते हैं, अपनी बात मनवाना चाहते हैं, और सभी भाई-बहनों से अपने प्रति समर्पण और अपना आज्ञापालन करवाना चाहते हैं। वे दूसरों को अपना निरीक्षण नहीं करने देते या खुद को सलाह नहीं देने देते, भले ही वे जो कर रहे होते हैं, वह उचित या सिद्धांतों के अनुसार हो या नहीं। इसके बजाय, वे मानते हैं कि बाकी सभी लोगों को उनकी बातें और फैसले मानने चाहिए और उनका पालन करना चाहिए। वे अपने कार्यों पर बिल्कुल भी विचार नहीं करते। चाहे भाई-बहन उन्हें कैसे भी सलाह दें और उनकी मदद करें, चाहे परमेश्वर का घर उनकी कैसे भी काट-छाँट करें या भले ही उन्हें कई बार बर्खास्त कर दिया जाए, वे अपनी समस्याओं पर विचार नहीं करते। वे हमेशा अपनी इसी बात पर कायम रहते हैं : “अपने घर में मैं ही मालिक हूँ। मैं ही सारे फैसले करता हूँ। सारे मामलों में मेरी ही चलती है। इसी का मैं अभ्यस्त हो चुका हूँ और इसका कोई विकल्प नहीं है।” वे वास्तव में अविवेकी हैं और कभी सुधर नहीं सकते! वे इन नकारात्मक अभ्यासों का इस तरह प्रचार करते हैं, जैसे कि वे सकारात्मक चीजें हों, और खुद को हमेशा बहुत ऊँचा समझते हैं। वे कितने बेशर्म हैं! ये लोग सत्य बिल्कुल भी नहीं स्वीकारते और कभी सुधर नहीं सकते—इसलिए तुम निश्चित हो सकते हो कि वे उससे प्रेम नहीं करते या उसका अनुसरण नहीं करते। वे दिल से सत्य विमुख हो चुके हैं और उससे शत्रुता रखते हैं। अपनी इच्छाएँ पूरी करने और हैसियत हासिल करने के लिए वे जो कीमत चुकाते हैं और जिन कठिनाइयों से गुजरते हैं, वे सब व्यर्थ हैं। परमेश्वर उनमें से किसी का भी अनुमोदन नहीं करता, वह उनसे घृणा करता है। यह सत्य के प्रति उनके विरोध और परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध की अभिव्यक्ति है। इसके बारे में पूरी तरह से निश्चित हुआ जा सकता है, और जो लोग सत्य समझते हैं, वे सभी इसे समझ सकते हैं।

कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, पर उनमें कोई सत्य वास्तविकता नहीं है; वे वर्षों उपदेश सुन चुके हैं, पर वे सत्य नहीं समझते। भले ही उनकी काबिलियत अच्छी नहीं है, पर उनमें ऐसी बेजोड़ “प्रतिभाएँ” जरूर हैं : झूठ बोलकर उस पर लीपापोती करना और दूसरों को अलंकारिक शब्दों से धोखा देकर बहकाना। अगर वे एक दर्जन वाक्य कहें, तो उनके भीतर एक दर्जन मिलावटें होंगी—उनमें से हरेक में कुछ हद तक अशुद्धता होगी। सटीकता से कहें तो, वे जो कुछ भी कहते हैं, वह सच नहीं होता। लेकिन चूँकि उनकी क्षमता खराब है और वे काफी शिष्ट दिखाई देते हैं, इसलिए वे सोचते हैं, “मैं प्रकृति से एक डरपोक, भोला व्यक्ति हूँ, और मेरी क्षमता खराब है। मैं जहाँ भी जाता हूँ, मुझे धौंस दी जाती है, और जब लोग मुझे धौंस देते हैं, तो मुझे बस उसे सहना और भुगतना पड़ता है। मैं पलटकर उन्हें जवाब देने या उनसे लड़ने की हिम्मत नहीं करता—मैं बस इतना कर पाता हूँ कि छिप जाऊँ, झुक जाऊँ और सह लूँ। मैं वह ‘ईमानदार लेकिन अज्ञानी आदमी’ हूँ, जिसके बारे में परमेश्वर के वचन बताते हैं, मैं उसके लोगों में से एक हूँ।” अगर कोई उनसे पूछे, “फिर तुम झूठ कैसे बोलते हो?” वे कहेंगे, “मैंने कब झूठ बोला? मैंने किसे धोखा दिया? मैंने झूठ नहीं बोला! मैं इतना भोला व्यक्ति हूँ, झूठ कैसे बोल सकता हूँ? मेरा दिमाग चीजों पर प्रतिक्रिया करने में धीमा है, और मैं बहुत पढ़ा-लिखा नहीं हूँ—मैं झूठ बोलना नहीं जानता! जो लोग धोखेबाज हैं, वे पलक झपकते ही कुछ दुष्ट विचार और षड्यंत्र रच सकते हैं। मैं उस तरह चालाक नहीं हूँ, और मुझे हमेशा धौंस दी जाती है। तो मैं वह ईमानदार व्यक्ति हूँ, जिसके बारे में परमेश्वर बोलता है, और मुझे झूठा या चालबाज कहने का तुम लोगों के पास कोई आधार नहीं है। इस बात में कोई दम नहीं है—तुम लोग बस मुझे बदनाम करने की कोशिश कर रहे हो। मुझे पता है, तुम सभी लोग मुझे हेय दृष्टि से देखते हो : तुम सोचते हो कि मैं मूर्ख हूँ और मेरी क्षमता खराब है, इसलिए तुम सभी मुझे धौंस देना चाहते हो। अकेला परमेश्वर ही है जो मुझे धौंस नहीं देता, वह मेरे साथ अनुग्रह से पेश आता है।” इस तरह का व्यक्ति यह तक नहीं स्वीकारता कि वह झूठ बोलता है, और वह यह कहने की जुर्रत करता है कि वह वो ईमानदार व्यक्ति है, जिसके बारे में परमेश्वर बात करता है, और इस कथन के साथ वह खुद को सीधे सिंहासन पर आरूढ़ कर लेता है। उसका मानना है कि वह प्रकृति से ईमानदार लेकिन अज्ञानी व्यक्ति है और परमेश्वर उससे प्रेम करता है। वह सोचता है कि उसे सत्य का अनुसरण या आत्मचिंतन करने की जरूरत नहीं। उसे लगता है कि जब से वह पैदा हुआ है, तभी से उसके मुँह से कोई झूठ नहीं निकला। चाहे कोई कुछ भी कहे, वह झूठ बोलने की बात नहीं स्वीकारता, इसके बजाय वह बहस और अपना बचाव करने के लिए वही पुराने बहाने बनाता है। क्या उसने आत्मचिंतन किया है? एक तरह से किया है। उस “आत्मचिंतन” से उसे क्या मिला? “मैं वह ईमानदार लेकिन अज्ञानी व्यक्ति हूँ, जिसकी परमेश्वर बात करता है। मैं थोड़ा अज्ञानी हो सकता हूँ, लेकिन मैं एक ईमानदार व्यक्ति हूँ।” क्या वह अपने मुँह मियाँ मिट्ठू नहीं बन रहा? उसे यह स्पष्ट नहीं है कि वह क्या है, एक अज्ञानी व्यक्ति या एक ईमानदार व्यक्ति, लेकिन वह खुद को एक ईमानदार व्यक्ति मानता है। क्या वह खुद को जानता है? अगर कोई मूर्ख है जिस पर लोग धौंस जमाते है और वह कायरतापूर्ण जीवन जीता है, तो क्या इसका मतलब यह है कि वह अनिवार्य रूप से अच्छा व्यक्ति है? और अगर दूसरे लोग किसी को अच्छा व्यक्ति समझते हैं, तो क्या इसका मतलब यह है कि उसे सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं? क्या ऐसे लोगों के पास स्वाभाविक रूप से सत्य होता है? कुछ लोग कहते हैं, “मैं बहुत ही भोला आदमी हूँ, मैं हमेशा सच बोलने की कोशिश करता हूँ, बस मैं थोड़ा-सा अज्ञानी हूँ। मुझे सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं, मैं पहले से ही एक अच्छा और ईमानदार व्यक्ति हूँ।” ऐसा कहकर क्या वे यह नहीं कह रहे कि उनके पास सत्य है और उनका स्वभाव भ्रष्ट नहीं है? पूरी मानव-जाति शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट की जा चुकी है। सभी लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं, और जब किसी में भ्रष्ट स्वभाव होता है, तो वह जब चाहे झूठ बोल सकता है, छल कर सकता है और धोखा दे सकता है। यहाँ तक कि वह अहंकारी स्वभाव प्रकट करते हुए अपनी किसी तुच्छ उपलब्धि या योगदान का दिखावा भी कर सकता है। इस पूरे समय में वह परमेश्वर के बारे में धारणाओं से भरा रहता है और उससे असंयमित माँगें करता रहता है, और उससे बहस करने की कोशिश करता है। क्या ये समस्याएँ नहीं हैं? क्या यह भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? क्या इसके जाँच की आवश्यकता नहीं है? है। लेकिन इन लोगों ने पहले ही ऐसे ईमानदार लोगों के रूप में अपना अभिषेक कर लिया है, जो कभी झूठ नहीं बोलते या दूसरों को धोखा नहीं देते; वे ढिंढोरा पीटते हैं कि उनमें कपटपूर्ण स्वभाव नहीं है, इसलिए उन्हें सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए, इस तरह का व्यवहार करने वाला कोई भी व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं कर रहा, और उनमें से किसी ने भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है। जब वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, तो वे अक्सर अपनी मूर्खता, कैसे उन्हें हमेशा धौंस दी जाती है, और अपनी विशेष रूप से कमजोर क्षमता को लेकर फूट-फूटकर रोते हैं : “परमेश्वर, केवल तुम्हीं मुझसे प्रेम करते हो; केवल तुम्हीं मुझ पर दया करते हो और मेरे साथ अनुग्रह से पेश आते हो। सभी लोग मुझे धौंस देते हैं, और कहते हैं कि मैं झूठा हूँ—लेकिन मैं झूठा नहीं हूँ!” फिर, वे अपने आँसू पोंछकर खड़े हो जाते हैं, और जब दूसरे लोगों को देखते हैं तो सोचते हैं, “तुम लोगों में से किसी से भी परमेश्वर प्रेम नहीं करता। केवल मुझी से करता है।” ये लोग खुद को ऊँचा समझते हैं और यह नहीं स्वीकारते कि वे परमेश्वर द्वारा बताए गए भ्रष्ट स्वभावों के विभिन्न व्यवहारों और उद्गारों में से किसी को भी प्रदर्शित करते हैं। यहाँ तक कि जब उन पर कोई विशेष समस्या आती है और उनके भीतर एक भ्रष्ट अवस्था या उद्गार उत्पन्न करती है, तो वे बस पल भर के विचार के बाद उसे मौखिक रूप से स्वीकार लेते हैं, और फिर मामला खत्म कर देते हैं। वे सत्य बिल्कुल भी नहीं खोजते, न ही यह तथ्य स्वीकारते हैं कि उनमें भ्रष्टता है और वे एक भ्रष्ट इंसान हैं। बेशक, किसी विशेष मामले में भ्रष्ट स्वभाव दिखाने की बात तो वे बिल्कुल भी नहीं स्वीकारते। चाहे वे कितनी भी समस्याएँ उत्पन्न करें और कितने ही भ्रष्ट स्वभाव प्रदर्शित करें, वे हमेशा यही बात कहते हैं : “मैं वह ईमानदार लेकिन अज्ञानी मनुष्य हूँ, जिसके बारे में परमेश्वर बात करता है। मैं उसकी दया का पात्र हूँ, और वह मुझे बहुत आशीष देगा।” और इसलिए, इन शब्दों से उन्हें लगता है कि उन्हें सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं; ऐसे लोग सत्य का अनुसरण न करने के लिए ऐसी बातें करके बहाने बनाते हैं। क्या ऐसे लोग बेतुके नहीं हैं? (हैं।) वे बेतुके और अज्ञानी हैं। वे कितने बेतुके हैं? इतने कि वे परमेश्वर के वचनों में से अपने फायदे का कोई वाक्यांश पकड़ लेते हैं और उसे उस मुहर के रूप में इस्तेमाल करते हैं, जिससे परमेश्वर को मजबूर किया जा सके और खुद को सत्य का अनुसरण न करने से दोषमुक्त किया जा सके, और मनुष्य को उजागर कर उसका न्याय करने वाले परमेश्वर के वचनों से इस तरह पेश आते हैं जैसे उनका उनसे कुछ लेना-देना न हो। उन्हें लगता है कि उन्हें उनको सुनने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वे पहले से ही ईमानदार व्यक्ति हैं। सीधे शब्दों में कहें तो, ऐसे लोग दयनीय रूप से अभागे होते हैं। उनकी काबिलियत कम होती है, उन्हें कोई समझ नहीं होती और उनमें बहुत कम शर्म होती है, फिर भी वे आशीष प्राप्त करना चाहते हैं। भले ही उनमें कम काबिलियत होती है, और उनमें न तो समझ होती है और न ही शर्म, फिर भी वे बहुत घमंडी होते हैं और साधारण लोगों को हेय दृष्टि से देखते हैं। उनमें उन खूब काबिल लोगों के लिए कोई सम्मान नहीं होता, जो सत्य का अनुसरण करने में सक्षम होते हैं और सत्य वास्तविकता पर संगति कर सकते हैं। वे सोचते हैं, “वैसे भी तुम लोगों की ये खूबियाँ किस काम की हैं? तुम सभी सत्य का अनुसरण करते रहो और खुद को जानते रहो—मुझे यह सब करने की आवश्यकता नहीं। मैं एक ईमानदार व्यक्ति हूँ; मैं थोड़ा अज्ञानी हो सकता हूँ, लेकिन वास्तव में यह कोई मुद्दा नहीं है। और मैं जो भ्रष्ट स्वभाव दिखाता हूँ, उसके बारे में भी चिंता करने की कोई बात नहीं। जब तक मैं खुद को कुछ अच्छे व्यवहारों से लैस किए रहता हूँ, तब तक मैं ठीक रहूँगा।” वे खुद से क्या अपेक्षा करते हैं? “हर हाल में, परमेश्वर मेरे दिल को जानता है, और उसमें मेरी आस्था सच्ची है। यह काफी है। अनुभवात्मक गवाही और परमेश्वर के वचनों के ज्ञान के बारे में दिन-रात बात करना—इस सारी बातचीत का क्या काम है? कुल मिलाकर, परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास करना ही काफी है।” क्या इससे बढ़कर भी कोई मूर्खता हो सकती है? पहली बात, ऐसे लोगों की सत्य में बिल्कुल भी रुचि नहीं होती; दूसरे, यह कहना उचित है कि उनमें सत्य या परमेश्वर के वचनों को समझने की कोई क्षमता नहीं है। और फिर भी, वे खुद को बहुत ऊँचा और ऐसा दिखाते हैं मानो वे दूसरों से महत्वपूर्ण हों। वे सत्य का अनुसरण न करने का औचित्य या अनुसरण का कोई तरीका या कोई ऐसी चीज तलाशते हैं, जिसे वे खूबी के रूप में देखते हैं ताकि सत्य के अनुसरण का स्थान इसे दे सकें। क्या यह मूर्खता नहीं है? (है।)

सत्य का अनुसरण न करने वाले कुछ लोगों में मानवता के संबंध में कोई बड़ी समस्या नहीं होती। वे नियमों से चिपके रहते हैं और अच्छा व्यवहार करते हैं। ऐसी महिलाएँ भद्र और गुणी, प्रतिष्ठित और शालीन होती हैं, और फालतू के काम नहीं करतीं। वे अपने माता-पिता के सामने अच्छी लड़कियाँ होती हैं, अपने पारिवारिक जीवन में अच्छी पत्नियाँ और माताएँ होती हैं, और कर्तव्यपरायणता से अपने घरों की देखभाल करते हुए अपने दिन बिताती हैं। ऐसे पुरुष भोले और कर्तव्यपरायण होते हैं और अच्छा व्यवहार करते हैं; वे संतान का कर्तव्य निभाने वाले पुत्र होते हैं, शराब या सिगरेट-बीड़ी नहीं पीते, चोरी या लूटमार नहीं करते, जुआ नहीं खेलते या वेश्याओं से संबंध नहीं रखते—वे आदर्श पति होते हैं, और घर के बाहर शायद ही कभी दूसरों से झगड़ते या इस बारे में तकरार करते हैं कि कौन सही या गलत है। कुछ लोग सोचते हैं कि परमेश्वर के एक विश्वासी के रूप में ये चीजें हासिल करना काफी है, और जो ऐसा करते हैं, वे मानक, स्वीकार्य रूप से अच्छे लोग हैं। वे मानते हैं कि अगर वे परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के बाद से परोपकारी और मददगार, विनम्र और धैर्यवान, और सहिष्णु हो जाते हैं, और अगर वे कलीसिया द्वारा व्यवस्थित कार्य को बिना अनमने हुए लगन से और अच्छी तरह से करते हैं, तो उन्होंने सत्य वास्तविकता प्राप्त कर ली है और वे परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के करीब हैं। वे सोचते हैं कि अगर वे काम में जुट जाते हैं और थोड़ा और प्रयास करते हैं, अगर वे परमेश्वर के ज्यादा वचन पढ़ते हैं, अगर वे उनके ज्यादा वाक्यांश याद करते हैं और उनका दूसरों को ज्यादा उपदेश देते हैं, तो वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं। लेकिन वे अपनी भ्रष्टता के उद्गार को नहीं पहचानते, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को नहीं जानते, और यह तो वे बिल्कुल भी नहीं जानते कि कि भ्रष्ट स्वभाव कैसे उत्पन्न होता है, या उसे कैसे जानना और हल करना चाहिए। वे इनमें से कुछ नहीं जानते। क्या ऐसे लोग हैं? (हाँ।) वे अपनी स्वाभाविक “अच्छाई” को ऐसा मानक मानते हैं, जिसे सत्य का अनुसरण करने वालों को प्राप्त करना चाहिए। अगर कोई उन्हें घमंडी, धोखेबाज और दुष्ट कहता है तो वे इस पर खुले तौर पर विवाद नहीं करेंगे और विनम्रता, धैर्य और स्वीकृति का रवैया दिखाएँगे। लेकिन मन ही मन, इसे गंभीरता से लेने के बजाय वे इसका विरोध करेंगे : “मैं अहंकारी हूँ? अगर मैं अहंकारी हूँ, तो पृथ्वी पर एक भी अच्छा व्यक्ति नहीं है! अगर मैं धोखेबाज हूँ, तो दुनिया में कोई भी ईमानदार नहीं है! अगर मैं दुष्ट हूँ तो दुनिया में कोई भी शालीन नहीं है! क्या आजकल मेरे जैसा अच्छा व्यक्ति मिलना आसान है? नहीं—यह असंभव है!” उन्हें धोखेबाज या अहंकारी कहना या यह कहना कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, नहीं चलेगा, और उन्हें छद्म-विश्वासी कहना तो निश्चित रूप से नहीं चलेगा। वे मेज पर हाथ मारते हुए बहस करेंगे : “तो, तुम कहते हो, मैं एक छद्म-विश्वासी हूँ? अगर मुझे नहीं बचाया जा सकता, तो तुम लोगों में से किसी को नहीं बचाया जा सकता!” कोई उन्हें यह कहकर उजागर कर सकता है, “तुम सत्य नहीं स्वीकारते। जब लोग तुम्हारी समस्याएँ बताते हैं, तो तुम काफी विनम्र और धैर्यवान दिखाई देते हो, लेकिन मन ही मन तुम वास्तव में प्रतिरोधी होते हो। सत्य पर संगति करते हुए तुम जो उपदेश देते हो, वह सही होता है, लेकिन तथ्य यह है कि तुम परमेश्वर का ऐसा एक भी वचन नहीं स्वीकारते, जो मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव सार उजागर कर उसका न्याय करता है। तुम उनका विरोध करते हो और उनसे विमुख हो। तुम्हारा स्वभाव दुष्ट है।” अगर तुम उन्हें “दुष्ट” कहते हो, तो वे इसे स्वीकार ही नहीं सकते। “दुष्ट, और मैं? अगर मैं दुष्ट होता, तो तुम लोगों को बहुत पहले ही पैरों तले रौंद चुका होता! अगर मैं दुष्ट होता, तो तुम लोगों को पहले ही नष्ट कर चुका होता!” तुम उनके बारे में जो कुछ भी उजागर करते हो या उनके साथ जो कुछ भी संगति करते हो, वे उसे सही ढंग से समझ नहीं पाते। चीजों को सही ढंग से समझने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि कोई चाहे जो भी समस्याएँ तुम में प्रकट करे, तुम यह जाँचने के लिए उनकी तुलना परमेश्वर के वचनों से करते हो कि तुम्हारे इरादों और विचारों में वाकई कोई त्रुटि थी या नहीं, और चाहे तुम में कितनी भी समस्याएँ प्रकट हों, तुम उन सभी को स्वीकृति और समर्पण के दृष्टिकोण से लेते हो। वास्तव में इसी तरह अपनी समस्याओं का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। अपने भ्रष्ट स्वभाव का ज्ञान अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार प्राप्त नहीं किया जा सकता, यह परमेश्वर के वचनों के आधार पर किया जाना चाहिए। तो, आत्म-ज्ञान के लिए क्या पूर्व-अपेक्षा है? तुम्हें यह तथ्य स्वीकारना चाहिए कि शैतान ने मानवजाति को गुमराह कर भ्रष्ट कर दिया है और सभी लोगों का स्वभाव भ्रष्ट है। यह तथ्य स्वीकारकर ही तुम परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के अनुसार आत्म-चिंतन कर सकते हो, और इस आत्म-चिंतन की प्रक्रिया में धीरे-धीरे अपनी समस्याओं पर से पर्दा हटा सकते हो। बिना तुम्हारे जाने ही, तुम्हारी समस्याएँ थोड़ी-थोड़ी करके सतह पर आ जाएँगी, और तब तुम स्पष्ट रूप से समझ जाओगे कि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव क्या है। और इस आधार पर तुम यह ज्ञान प्राप्त कर सकते हो कि तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो और तुम्हारा सार क्या है। इस तरह तुम परमेश्वर द्वारा कही और प्रकट की गई सभी चीजें स्वीकारने लगोगे, और फिर परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का वह मार्ग खोजोगे जो उसने मनुष्य के लिए निर्धारित किया है, और उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करोगे और जियोगे। सत्य का अनुसरण करने का यही अर्थ है। लेकिन क्या इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर के वचन इसी तरह ग्रहण करता है? नहीं—वह यह स्वीकारने का दिखावा कर सकता है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और भ्रष्ट मानवजाति को उजागर करने वाले उसके सभी वचन तथ्य हैं, लेकिन अगर तुम उससे अपना भ्रष्ट स्वभाव जानने के लिए कहो, तो वह इसे न तो स्वीकारेगा और न ही मानेगा। वह मानता है कि इससे उसका कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वह खुद को प्रतिष्ठित और शालीन व्यक्ति समझता है—ईमानदार व्यक्ति, सच्चरित्र जन। क्या ईमानदार व्यक्ति होने का मतलब यह है कि उसके पास सत्य है? ईमानदार व्यक्ति होना किसी की मानवता की सकारात्मक अभिव्यक्ति मात्र है; यह सत्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता। तो, सिर्फ इसलिए कि तुममें सामान्य मानवता की एक विशेषता है, इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हें सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है, न ही इसका मतलब यह है कि तुम पहले ही सत्य प्राप्त कर चुके हो—और इसका यह मतलब तो बिल्कुल भी नहीं कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है। क्या यही मामला नहीं है? (यही है।) ये तथाकथित “सच्चरित्र लोग” मानते हैं कि उनका स्वभाव अहंकारी, धोखेबाज या सत्य-विमुख नहीं है, और उनका स्वभाव दुष्ट और शातिर तो निश्चित रूप से नहीं है। वे सोचते हैं कि इनमें से कोई भी भ्रष्ट स्वभाव उनके भीतर मौजूद नहीं है, क्योंकि वे सच्चरित्र लोग हैं, वे प्रकृति से ही ईमानदार और दयालु हैं, उन्हें हमेशा दूसरों द्वारा धौंस दी जाती है, और हालाँकि वे कम क्षमता वाले और अज्ञानी हैं, फिर भी वे ईमानदार हैं। यह “ईमानदारी” सच्ची ईमानदारी नहीं है, यह भोलापन, कायरता और अज्ञानता है। क्या ऐसे लोग महामूर्ख नहीं हैं? सभी उन्हें अच्छा इंसान समझते हैं। क्या यह नजरिया सही है? क्या जिन्हें लोग अच्छा समझते हैं, उनका स्वभाव भ्रष्ट है? उत्तर है “हाँ”—यह निश्चित है। क्या भोले लोग झूठ नहीं बोलते? क्या वे दूसरों को धोखा नहीं देते या छद्म वेश धारण नहीं करते? क्या वे स्वार्थी नहीं होते? क्या वे लालची नहीं होते? क्या वे उच्च पद की इच्छा नहीं रखते? क्या वे तमाम असंयमित इच्छाओं से मुक्त हैं? हरगिज नहीं। उनके कोई बुराई न करने का एकमात्र कारण यह है कि उन्हें सही अवसर नहीं मिला। और वे इस पर गर्व करते हैं—वे खुद को सच्चरित्र लोगों के रूप में अभिषिक्त करते हैं और मानते हैं कि उनका स्वभाव भ्रष्ट नहीं है। इसलिए, अगर कोई उनमें किसी प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव, उद्गार या अवस्था की ओर इशारा करता है, तो वे यह कहते हुए उसका खंडन कर देते हैं, “मैं ऐसा नहीं करता! मैं ऐसा नहीं हूँ, और मैं इस तरह नहीं करता या ऐसा नहीं सोचता। तुम लोगों ने मुझे गलत समझा है। तुम सभी लोग देखते हो कि मैं भोला हूँ, मूर्ख हूँ, डरपोक हूँ, इसलिए तुम मुझे धौंस देते हो।” ऐसे लोगों का क्या किया जाए, जो इस तरह पलटवार करते हैं? अगर किसी ने ऐसे लोगों को गुस्सा दिलाने की हिम्मत की, तो वे हमेशा के लिए उस व्यक्ति के पीछे पड़ जाएँगे। वे इस बात को जाने नहीं देंगे; वह चाहे जितनी भी कोशिश कर ले, उनसे पीछा नहीं छुड़ा पाएगा। ये अविवेकी, लगातार तंग करने वाले लोग फिर भी यही सोचते हैं कि वे सत्य का अनुसरण करने वाले हैं, कि वे भोले, अज्ञानी लोग हैं जिनमें कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। अक्सर, वे यह भी कहते हैं, “मैं अज्ञानी हो सकता हूँ, लेकिन मैं भोला हूँ—मैं एक ईमानदार व्यक्ति हूँ, और परमेश्वर मुझसे प्रेम करता है!” उनके लिए ये चीजें पूँजी हैं। क्या यह बेशर्मी नहीं है? तुम कहते हो कि परमेश्वर तुमसे प्रेम करता है। क्या यह सही है? क्या तुम्हारे पास ऐसा कहने का आधार है? क्या तुम्हारे पास पवित्र आत्मा का कार्य है? क्या परमेश्वर ने कहा है कि वह तुम्हें पूर्ण बनाएगा? क्या परमेश्वर की तुम्हारा उपयोग करने की योजना है? अगर परमेश्वर ने तुमसे ये बातें नहीं कही हैं, तो तुम यह नहीं कह सकते कि वह तुमसे प्रेम करता है—तुम केवल यह कह सकते हो कि वह तुम पर दया करता है, जो पहले ही एक बड़ी बात है। अगर तुम कहते हो कि परमेश्वर तुमसे प्रेम करता है, तो यह केवल तुम्हारी व्यक्तिगत समझ है; इससे यह साबित नहीं होता कि परमेश्वर वास्तव में तुमसे प्रेम करता है। क्या परमेश्वर ऐसे व्यक्ति से प्रेम करेगा, जो सत्य का अनुसरण नहीं करता? क्या परमेश्वर एक अज्ञानी, डरपोक व्यक्ति से प्रेम करेगा? अज्ञानी और डरपोक पर परमेश्वर दया करता है—इतना सच है। परमेश्वर उन लोगों से प्रेम करता है, जो वास्तव में ईमानदार हैं, जो सत्य का अनुसरण करते हैं, जो सत्य का अभ्यास कर सकते हैं और उसके प्रति समर्पित हो सकते हैं, जो उसका गुणगान कर सकते हैं और उसकी गवाही दे सकते हैं, जो उसके इरादों के प्रति विचारशील हो सकते हैं और उससे ईमानदारी से प्रेम कर सकते हैं। केवल उन्हें ही परमेश्वर का प्रेम मिलता है, जो वास्तव में परमेश्वर के लिए खुद को खपा सकते हैं और निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य निभाते हैं; केवल उन्हें ही परमेश्वर का प्रेम मिलता है जो सत्य के साथ ही अपनी काट-छाँट भी स्वीकार सकते हैं। जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते, जो अपनी काट-छाँट नहीं स्वीकारते, वे ऐसे लोग होते हैं जिनका परमेश्वर तिरस्कार कर देता है। अगर तुम सत्य से विमुख हो गए हो और परमेश्वर के कहे सभी वचनों का विरोध करते हो, तो परमेश्वर भी तुमसे विमुख होकर तुम्हें ठुकरा देगा। अगर तुम हमेशा खुद को एक अच्छा व्यक्ति, एक दयनीय, सरल और भोला व्यक्ति समझते हो, लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो क्या परमेश्वर तुमसे प्रेम करेगा? यह असंभव है; उसके वचनों में इसका कोई आधार नहीं है। परमेश्वर यह नहीं देखता कि तुम भोले हो या नहीं, न ही वह इसकी परवाह करता है कि तुम किस प्रकार की मानवता या क्षमता के साथ पैदा हुए हो—वह देखता है कि उसके वचन सुनकर तुम उन्हें स्वीकारते हो या उन्हें अनदेखा कर देते हो, उनके प्रति समर्पित होते हो या उनका विरोध करते हो। वह देखता है कि उसके वचन तुम पर प्रभाव डालते और तुममें फलीभूत होते हैं या नहीं, कि तुम उसके द्वारा बोले गए अनेक वचनों की सच्ची गवाही दे सकते हो या नहीं। अगर अंत में तुम्हारा अनुभव होता है कि, “मैं भोला हूँ, मैं डरपोक हूँ, मैं जिससे भी मिलता हूँ वही मुझे धौंस देता है। सब मुझे हेय दृष्टि से देखते हैं,” तो परमेश्वर कहेगा कि यह गवाही नहीं है। अगर तुम यह जोड़ते हो, “मैं वह ईमानदार लेकिन अज्ञानी व्यक्ति हूँ, जिसके बारे में परमेश्वर बोलता है,” तो परमेश्वर कहेगा कि तुम झूठ से भरे हो और तुम्हारे मुँह से सत्य का एक भी शब्द नहीं निकल सकता। अगर परमेश्वर तुमसे अपेक्षाएँ करता है, और तुम न केवल पूरी तरह उनके प्रति समर्पण करने में विफल होते हो, बल्कि यह कहते हुए परमेश्वर से बहस करने और अपने लिए बहाने बनाने का प्रयास करते हो, “मैंने कष्ट उठाया है और कीमत चुकाई है, और मैं परमेश्वर से प्रेम करता हूँ,” तो यह स्वीकार्य नहीं होगा। क्या तुम सत्य का अनुसरण करते हो? तुम्हारी सच्ची अनुभवजन्य गवाही कहाँ है? परमेश्वर के प्रति तुम्हारा प्रेम कैसे प्रकट होता है? अगर तुम साक्ष्य प्रदान नहीं कर सकते, तो कोई भी आश्वस्त नहीं होगा। तुम कहते हो, “मैं एक सच्चरित्र व्यक्ति हूँ और शालीनता से काम करता हूँ। मैं व्यभिचार में लिप्त नहीं होता और अपने कार्यों में सभी नियमों का पालन करता हूँ। मैं एक शिष्ट व्यक्ति हूँ। मैं शराब पीने, वेश्या से संबंध बनाने और जुआ खेलने नहीं जाता। मैं परमेश्वर के घर में विघ्न नहीं डालता, गड़बड़ी नहीं करता या कलह नहीं बोता, मैं कष्ट सहता हूँ और कड़ी मेहनत करता हूँ। क्या ये इस बात के संकेत नहीं कि मैं सत्य का अनुसरण करता हूँ? मैं पहले से ही सत्य का अनुसरण कर रहा हूँ।” और परमेश्वर कहेगा : क्या तुमने अपने भ्रष्ट स्वभाव को हल कर लिया है? तुम्हारी सत्य के अनुसरण की गवाही कहाँ है? क्या तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों की स्वीकृति और प्रशंसा प्राप्त कर सकते हो? अगर तुम कोई अनुभवजन्य गवाही नहीं दे सकते, और फिर भी कहते हो कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो जो परमेश्वर से प्रेम करता है, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो झूठे शब्दों से दूसरों को गुमराह करता है—तुम एक अविवेकी दानव और शैतान हो, और तुम्हें शाप मिलना चाहिए। तुम्हारे लिए परमेश्वर द्वारा निंदित और हटाया जाना ही शेष है।

कुछ लोग अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर मनमाने और लापरवाह ढंग से कार्य करते हैं। वे बेहद सनकी होते हैं : जब वे खुश होते हैं तो अपने कर्तव्य का थोड़ा-सा पालन करते हैं, और जब खुश नहीं होते तो रूठ जाते हैं और कहते हैं, “आज मेरा मूड खराब है। मैं कुछ नहीं खाऊँगा और अपना कर्तव्य नहीं निभाऊँगा।” तब दूसरों को उनसे बात करके कहना पड़ता है : “यह नहीं चलेगा। तुम इतने सनकी नहीं हो सकते।” और वे लोग इस पर क्या कहेंगे? “मुझे पता है कि यह नहीं चलेगा, लेकिन मैं एक धनी, विशिष्ट परिवार में पला-बढ़ा हूँ। मेरे दादा-दादी और चाची-ताई सबने मुझे लाड़-प्यार कर बिगाड़ दिया, और मेरे माता-पिता की तो पूछो ही मत। मैं उनका दुलारा था, उनकी आँख का तारा, और उन्होंने मेरी हर बात मानी और मुझे बिगाड़ा। मेरा यह सनकी मिजाज उसी परवरिश की देन है, इसलिए जब मैं परमेश्वर के घर में कोई कर्तव्य निभाता हूँ, तो मैं दूसरों के साथ चीजों पर चर्चा नहीं करता, या सत्य नहीं खोजता, या परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं होता। क्या इसके लिए मैं दोषी हूँ?” क्या उनकी समझ सही है? क्या उनका रवैया सत्य का अनुसरण करने वाला है? (नहीं।) जब भी कोई उनकी थोड़ी-सी भी गलती सामने लाता है, जैसे कि कैसे वे भोजन करते समय सबसे अच्छे खाद्य पदार्थ झटक लेते हैं, कैसे वे सिर्फ अपनी परवाह करते हैं और दूसरों के बारे में नहीं सोचते, तो वे कहते हैं, “मैं बचपन से ऐसा ही हूँ। मैं इसका आदी हूँ। मैंने कभी दूसरे लोगों के बारे में नहीं सोचा। मैंने हमेशा एक विशिष्ट जीवन जिया है, ऐसे माता-पिता के साथ जो मुझसे प्रेम करते हैं और ऐसे दादा-दादी के साथ जो मुझसे लाड़-प्यार करते हैं। मैं अपने पूरे परिवार की आँख का तारा हूँ।” यह ढेर सारी बकवास और भ्रांति है। क्या यह बेशर्मी और सरेआम निर्लज्जता नहीं है? तुम्हारे माता-पिता तुमसे लाड़ करते हैं—क्या इसका मतलब यह है कि बाकी सभी को भी ऐसा करना चाहिए? तुम्हारे रिश्तेदार तुमसे प्रेम करते हैं और तुमसे लाड़ करते हैं—क्या यह तुम्हें परमेश्वर के घर में लापरवाही और मनमानी करने का कारण देता है? क्या यह वाजिब कारण है? क्या अपने भ्रष्ट स्वभाव के प्रति यह सही रवैया है? क्या यह सत्य का अनुसरण करने का दृष्टिकोण है? (नहीं।) जब इन लोगों पर कोई चीज आकर पड़ती है, जब उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव या अपने जीवन से संबंधित कोई समस्या होती है, तो वे उसका उत्तर देने के लिए, उसे समझाने के लिए, उसे सही ठहराने के लिए वस्तुगत कारण खोजते हैं। वे कभी सत्य नहीं खोजते या परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, और आत्मचिंतन करने के लिए परमेश्वर के सामने नहीं आते। आत्म-चिंतन के बिना क्या कोई अपनी समस्याएँ और भ्रष्टता जान सकता है? (नहीं।) और अपनी भ्रष्टता जाने बिना क्या वह पश्चात्ताप कर सकता है? (नहीं।) अगर कोई पश्चात्ताप नहीं कर सकता, तो वह कौन-सी स्थिति है जिसमें वह निरपवाद रूप से रह रहा होगा? क्या यह खुद को क्षमा करने की स्थिति नहीं होगी? यह महसूस करने की स्थिति नहीं होगी कि भले ही उन्होंने भ्रष्टता दिखाई है, पर उन्होंने बुराई नहीं की है या प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन नहीं किया है—कि भले ही ऐसा करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था, पर यह जानबूझकर नहीं किया गया था, और यह क्षम्य है? (हाँ।) अच्छा, क्या सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति की इस तरह की स्थिति होनी चाहिए? (नहीं।) अगर कोई वास्तव में कभी पश्चात्ताप नहीं करता और हमेशा इसी तरह की स्थिति में रहता है, तो क्या वह खुद को बदलने में सक्षम होगा? नहीं, वह कभी सक्षम नहीं होगा। और अगर व्यक्ति खुद को नहीं बदलता, तो वह वास्तव में अपनी बुराई छोड़ने में असमर्थ होगा। वास्तव में अपनी बुराई छोड़ने में असमर्थ होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि व्यक्ति वास्तव में सत्य का अभ्यास कर सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकता। यह परिणाम स्पष्ट है। अगर तुम अपनी बुराई नहीं छोड़ सकते या सत्य का अभ्यास कर सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते, फिर भी चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हारे बारे में अपना मन बदल ले, तुम्हें पवित्र आत्मा का कार्य हासिल हो जाए, परमेश्वर की प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त हो जाए, और परमेश्वर तुम्हारे अपराध क्षमा कर तुम्हारी भ्रष्टता दूर कर दे, तो क्या यह संभव है? (नहीं।) अगर यह संभव नहीं, तो क्या परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास तुम्हारे उद्धार में परिणत हो सकता है? (नहीं।) अगर व्यक्ति खुद को क्षमा करने और सराहने की स्थिति में जीता है, तो वह सत्य का अनुसरण करने में मीलों पीछे रह जाता है। जिन चीजों में वह खुद को व्यस्त रखता है, जिन्हें देखने, सुनते और करने के लिए दौड़ता है, वे कुछ हद तक परमेश्वर में विश्वास करने से संबंधित हो सकती हैं, लेकिन सत्य का अनुसरण या उसका अभ्यास करने से उनका कोई लेना-देना नहीं है। यह परिणाम स्पष्ट है। और चूँकि वे सत्य का अनुसरण या अभ्यास करने से संबंधित नहीं हैं, इसलिए उस व्यक्ति ने आत्मचिंतन नहीं किया होगा, न ही उसे आत्मज्ञान होगा। वह नहीं जान पाएगा कि वह किस हद तक भ्रष्ट हो चुका है, और वह नहीं जान पाएगा कि पश्चात्ताप का अभ्यास कैसे किया जाए, इसलिए इस बात की संभावना और भी कम है कि उसे सच्चा पश्चात्ताप हासिल होगा या परमेश्वर उसके बारे में अपना मन बदल लेगा। अगर तुम ऐसी स्थिति में रहते हो और चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हारे बारे में अपना मन बदल ले, तुम्हें क्षमा कर दे या तुम्हारा अनुमोदन करे, तो यह वास्तव में कठिन होगा। यहाँ “अनुमोदन” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि तुम जो करते हो, परमेश्वर उसे स्वीकारता है, उसका अनुमोदन करता है और उसे याद रखता है। अगर तुम इनमें से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते, तो यह साबित करता है कि तुम जो कुछ भी करते हो उसमें, अपने परिश्रम में, अपने उद्गारों और व्यवहार में सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे। चाहे तुम कुछ भी सोचो, यहाँ तक कि चाहे तुम कुछ अच्छे व्यवहार करने में भी सक्षम रहो, ये व्यवहार सिर्फ यह दर्शाते हैं कि तुम्हारी मानवता के भीतर थोड़ा जमीर और विवेक है। लेकिन ये अच्छे व्यवहार सत्य के अनुसरण की अभिव्यक्ति नहीं हैं, क्योंकि तुम्हारा आरंभ-बिंदु, इरादे और मंशाएँ सत्य का अनुसरण करने वाले नहीं हैं। ऐसा कहने के क्या आधार हैं? आधार ये हैं कि तुम्हारा कोई भी विचार, क्रियाकलाप या कर्म सत्य के अनुसरण के लिए नहीं है, और उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। व्यक्ति जो कुछ भी करता है, अगर वह परमेश्वर की स्वीकृति और मान्यता प्राप्त करने के लिए नहीं होता, तो वह जो कुछ भी करता है, वह परमेश्वर की स्वीकृति या मान्यता प्राप्त करने में सक्षम नहीं होगा, और यह स्पष्ट है कि ये व्यवहार और अभ्यास सिर्फ अच्छे इंसानी व्यवहार ही कहे जा सकते हैं। वे इस बात के संकेत नहीं कि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है, और इस बात के संकेत निश्चित रूप से नहीं कि वह सत्य का अनुसरण कर रहा है। जो लोग विशेष रूप से सनकी होते हैं और अक्सर लापरवाह और मनमाने ढंग से व्यवहार करते हैं, वे परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना नहीं स्वीकारते, न ही वे अपनी काट-छाँट स्वीकारते हैं। वे अक्सर सत्य का अनुसरण न कर पाने और अपनी काट-छाँट न स्वीकार पाने के लिए बहाने भी बनाते हैं। यह कौन-सा स्वभाव है? जाहिर है, यह सत्य-विमुख स्वभाव है—शैतान का स्वभाव है। मनुष्य में शैतान की प्रकृति और उसका स्वभाव है, इसलिए निस्संदेह लोग शैतान के हैं। वे दानव हैं, शैतान के वंशज हैं और बड़े लाल अजगर की संतान हैं। कुछ लोग इस बात को स्वीकार कर पाते हैं कि वे दानव हैं, शैतान हैं, और बड़े लाल अजगर की संतान हैं, वे आत्म-ज्ञान के बारे में बहुत सुंदर ढंग से बोलते हैं। लेकिन जब वे कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं और कोई उन्हें उजागर कर उनकी काट-छाँट करता है, तो वे पूरी ताकत से खुद को सही ठहराने की कोशिश करेंगे और वे सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे। यहाँ मुद्दा क्या है? इसमें, ये लोग पूरी तरह उजागर हो जाते हैं। खुद को जानने की बात करते हुए वे बहुत ही सुंदर ढंग से बात करते हैं, तो फिर ऐसा क्यों है कि जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे सत्य स्वीकार नहीं पाते? यहाँ एक समस्या है। क्या इस तरह की बात काफी सामान्य नहीं है? क्या इसे समझना आसान है? हाँ, वास्तव में आसान है। काफी लोग ऐसे होते हैं जो आत्मज्ञान की बात करते समय यह मानते हैं कि वे दानव और शैतान हैं, लेकिन बाद में न तो वे पश्चात्ताप करते हैं और न ही बदलते हैं। तो जिस आत्मज्ञान की वे बात करते हैं, वह सच है या झूठ? क्या उन्हें अपने बारे में सच्चा ज्ञान है या यह दूसरों को बरगलाने के लिए बस एक चाल है? उत्तर स्वतः स्पष्ट है। तो यह देखने के लिए कि क्या व्यक्ति के पास सच्चा आत्मज्ञान है, तुम्हें केवल उसके बारे में उसे बात करते नहीं सुनना चाहिए—तुम्हें काट-छाँट के प्रति उसका रवैया देखना चाहिए, और यह भी कि वह सत्य स्वीकार सकता है या नहीं। यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। जो व्यक्ति अपनी काट-छाँट स्वीकार नहीं करता, उसमें सत्य न स्वीकारने और उसे स्वीकार करने से इंकार करने का सार होता है, और उसका स्वभाव सत्य-विमुख होता है। इसमें कोई संदेह नहीं है। कुछ लोगों ने चाहे कितनी भी भ्रष्टता दिखाई हो, वे दूसरों को अपने साथ काट-छाँट करने की अनुमति नहीं देते—कोई भी उनकी काट-छाँट नहीं कर सकता। वे अपने आत्मज्ञान के बारे में, जैसे चाहें वैसे बोल सकते हैं, लेकिन यदि कोई और उन्हें उजागर करे, उनकी आलोचना करे या उनकी काट-छाँट करे, तो चाहे वह कितना भी निष्पक्ष या तथ्यों के अनुरूप क्यों न हो, वे उसे नहीं स्वीकारेंगे। दूसरा व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव के उनके किसी भी तरह के उद्गार को उजागर करे, वे अत्यंत विरोधी बने रहेंगे और लेशमात्र भी सच्चे समर्पण के बिना, अपने लिए सुनने में अच्छे लगने वाले तर्क देते रहते हैं। अगर ऐसे लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो संकट आ पड़ेगा। कलीसिया में उन्हें छू नहीं सकते और वे आलोचना से परे होते हैं। जब लोग उनके बारे में कुछ अच्छा कहते हैं, तो इससे उन्हें खुशी मिलती है; जब लोग उनकी बुराई सामने लाते हैं, तो वे गुस्सा हो जाते हैं। अगर कोई उन्हें उजागर करते हुए कहता है : “तुम एक अच्छे इंसान हो, पर बहुत सनकी हो। तुम हमेशा मनमाने और लापरवाह ढंग से काम करते हो। तुम्हें अपनी काट-छाँट स्वीकारने की जरूरत है। क्या तुम्हारे लिए इन कमियों और भ्रष्ट स्वभावों से छुटकारा पाना बेहतर नहीं होगा?” तो उत्तर में वे कहेंगे, “मैंने कुछ बुरा नहीं किया है। मैंने पाप नहीं किया है। तुम मेरी काट-छाँट क्यों कर रहे हो? जब मैं बच्चा था, तभी से घर पर मेरे माता-पिता और दादा-दादी दोनों ने मुझसे लाड़-प्यार किया है। मैं उनका दुलारा हूँ, उनकी आँखों का तारा हूँ। अब, यहाँ परमेश्वर के घर में, कोई मुझसे बिल्कुल भी लाड़ नहीं करता—यहाँ रहने में कोई मजा नहीं! तुम लोग हमेशा मेरी कोई न कोई गलती पकड़कर मेरी काट-छाँठ करने की कोशिश करते हो। मैं इस तरह कैसे जी सकता हूँ?” यहाँ क्या समस्या है? स्पष्ट-दृष्टि वाला व्यक्ति फौरन तुम्हें बता सकता है कि इन लोगों को उनके माता-पिता और परिवार ने बिगाड़ दिया है, और ये अभी भी नहीं जानते कि कैसे खुद को ढालना है या कैसे स्वतंत्र रूप से जीना है। तुम्हारे परिवार ने तुमसे ऐसे प्रेम किया है मानो तुम कोई आदर्श हो और तुम ब्रह्मांड में अपनी जगह नहीं जानते। तुमने अहंकार, आत्म-तुष्टि और अत्यधिक सनकीपन के अवगुण विकसित कर लिए हैं, जिनका तुम्हें नहीं पता और जिन पर चिंतन करना तुम्हें नहीं आता। तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, पर उसके वचन नहीं सुनते या सत्य का अभ्यास नहीं करते। क्या तुम परमेश्वर में इस तरह के विश्वास के साथ सत्य प्राप्त कर सकते हो? क्या तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो? क्या तुम सच्ची इंसानियत को जी सकते हो? हरगिज नहीं। परमेश्वर का विश्वासी होने के नाते तुम्हें कम से कम सत्य स्वीकारना चाहिए और खुद को जानना चाहिए। केवल इसी तरह तुम बदल पाओगे। अगर तुम अपनी आस्था में हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर निर्भर रहते हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के बजाय केवल शांति और सुख खोजते हो, अगर तुम सच्चा पश्चात्ताप करने में असमर्थ हो और अपने जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव नहीं लाते, तो परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास व्यर्थ है। परमेश्वर का विश्वासी होने के नाते तुम्हें सत्य अवश्य समझना चाहिए। तुम्हें खुद को जानने का प्रयास करना चाहिए। चाहे तुम पर कुछ भी आ पड़े, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, और तुम्हारे भीतर से जो भी भ्रष्ट स्वभाव निकलता है, परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य पर संगति करके तुम्हें उसका समाधान करना चाहिए। अगर कोई तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के बारे में बताता है, या तुम खुद उसकी जाँच करने की पहल करते हो, अगर तुम सचेत रूप से उसे परमेश्वर के वचनों के समक्ष तुलना करने के लिए रख सकते हो, आत्म-निरीक्षण कर सकते हो, अपनी जाँच कर सकते और खुद को जान सकते हो, फिर अपनी समस्या दूर कर सकते हो और पश्चात्ताप का अभ्यास कर सकते हो, तो तुम एक इंसान के रूप में जीने में सक्षम हो जाओगे। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें सत्य स्वीकारना चाहिए। अगर तुम हमेशा अपने परिवार के लाड़-प्यार की भावना का आनंद लेते रहते हो, हमेशा उनकी आँखों का तारा, उनका दुलारा होने से प्रसन्न रहते हो, तो तुम क्या हासिल कर पाओगे? चाहे तुम अपने परिवार के कितने भी प्यारे हो और उनके कितने भी दुलारे हो, अगर तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं है, तो तुम कचरा हो। परमेश्वर में विश्वास करने का मूल्य तभी है, जब तुम सत्य का अनुसरण करते हो। जब तुम सत्य समझ जाते हो, तब तुम्हें पता चलता है कि कैसे आचरण करना है, और तब तुम जानोगे कि सच्ची खुशी का अनुभव करने और परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला व्यक्ति बनने के लिए कैसे जीना है। कोई भी पारिवारिक परिवेश, और कोई भी व्यक्तिगत खूबी, योग्यता या गुण सत्य वास्तविकता की जगह नहीं ले सकता, और न ही ऐसी कोई चीज तुम्हारे लिए सत्य का अनुसरण न करने का बहाना बन सकती है। सत्य प्राप्त करना ही एकमात्र चीज है, जो लोगों को सच्ची खुशी दिला सकती है, उन्हें एक सार्थक जीवन जीने दे सकती है, और उन्हें एक खूबसूरत मंजिल प्रदान कर सकती है। यही मामले का सच है।

कलीसिया में अगुआ और कार्यकर्ता बनने के बाद कुछ लोग खुद को मूल्यवान मानते हैं और सोचते हैं कि अंततः उन्हें चमकने का अवसर मिल गया है। वे अपने बारे में अच्छा महसूस करते हैं और अपनी खूबियों का उपयोग करना शुरू कर देते हैं; वे अपनी महत्वाकांक्षाओं को खुली छूट दे देते हैं और अपनी पूरी क्षमताओं का प्रदर्शन करते हैं। इन लोगों के पास अच्छा दर्जा और शिक्षा, संगठनात्मक कौशल और अगुआ के तौर-तरीके होते हैं। वे अपनी कक्षा में शीर्ष पर थे और स्कूल में छात्र संघ के प्रमुख थे, वे जिस कंपनी में काम करते थे, उसके प्रबंधक या अध्यक्ष थे, और जब वे परमेश्वर में विश्वास करने लगे और उसके घर आए, तो वे अगुआ के रूप में चुन लिए गए, इसलिए वे मन ही मन सोचते हैं, “स्वर्ग मुझे कभी निराश नहीं करता। मुझ जैसे सक्षम व्यक्ति के लिए ध्यान आकर्षित न करना कठिन होगा। जैसे ही मैंने कंपनी-अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दिया, मैं परमेश्वर के घर आ गया और एक अगुआ की भूमिका ग्रहण कर ली। कोशिश करके भी मैं एक साधारण व्यक्ति नहीं बन सकता। यह परमेश्वर द्वारा मेरा उत्कर्ष है, उसने मेरे लिए यही करने की व्यवस्था की है, इसलिए मैं इसके प्रति समर्पित हो जाऊँगा।” अगुआ बनने के बाद वे अपना अनुभव, ज्ञान, संगठनात्मक कौशल और अगुआई-शैली उपयोग में लाते हैं। वे सोचते हैं कि वे सक्षम और निर्भीक, और वास्तव में निपुण और प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। तो, अफसोस की बात है कि यहाँ एक समस्या है। ये निपुण, प्रतिभाशाली अगुआ, जो अगुआई करने की क्षमता के साथ पैदा हुए थे—कलीसिया में क्या करने में सबसे अच्छे हैं? एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने, सारी सत्ता अपने हाथ में लेने और चर्चाओं पर हावी होने में। अगुआ बनने के बाद वे काम करने, इधर-उधर दौड़ने-भागने, कठिनाइयों से गुजरने, और अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर कीमत चुकाने के अलावा कुछ नहीं करते हैं। वे और किसी चीज की परवाह नहीं करते। वे मानते हैं कि उनकी व्यस्तता और कार्य परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, उनमें कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, कलीसिया को उनकी हमेशा आवश्यकता रहती है, और भाई-बहनों को भी उनकी आवश्यकता है। वे मानते हैं कि उनके बिना कोई काम नहीं हो सकता, वे सब-कुछ अपने ऊपर ले सकते हैं और सत्ता पर एकाधिकार कर सकते हैं। और उनके पास अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का अच्छा तरीका होता है। वे सभी तरह की खोजपूर्ण, नई चीजों में सक्षम होते हैं, वे खास तौर पर अधिकारियों की तरह काम करने और शान बघारने में कुशल होते हैं, और दूसरों को ऊँचे स्तर से भाषण देने के अभ्यस्त होते हैं। सिर्फ एक ही महत्वपूर्ण चीज है, जो वे नहीं कर सकते : अगुआ बनने के बाद, वे दूसरों से दिल से बात करने, खुद को जानने, अपनी भ्रष्टता पर ध्यान देने या भाई-बहनों के सुझाव सुनने में सक्षम नहीं होते। अगर कोई कार्य-चर्चा के दौरान कुछ अलग विचार पेश करता है, तो ये अगुआ न केवल उन्हें नकार देंगे—बल्कि यह कहकर ऐसा करने को उचित भी ठहराएँगे, “तुम लोगों ने इस प्रस्ताव को लेकर पूरी तरह नहीं सोचा है। मैं कलीसिया का अगुआ हूँ—अगर मैं तुम लोगों के कहे अनुसार करता हूँ और कुछ गलत नहीं होता, तब तो ठीक है, लेकिन अगर कुछ बुरा होता है, तो जिम्मेदारी अकेले मुझ पर आएगी। इसलिए, ज्यादातर समय तुम लोग अपनी राय व्यक्त कर सकते हो—हम वह औपचारिकता निभा सकते हैं—लेकिन अंत में, मुझे ही चुनाव करना चाहिए और तय करना चाहिए कि चीजें कैसे की जानी हैं।” समय के साथ ज्यादातर भाई-बहन काम के बारे में चर्चाओं में भाग लेना या संगति करना बंद कर देते हैं, और ये अगुआ काम में आने वाली किसी भी समस्या के बारे में उनसे संगति करने की जहमत नहीं उठाते। वे बिना किसी से एक शब्द भी बोले निर्णय लेते और फैसले सुनाते रहेंगे, और फिर भी अपने औचित्यों से भरे रहेंगे। वे मानते हैं, “कलीसिया, अगुआ की कलीसिया है, अगुआ योजना बनाते हैं। भाई-बहन किस दिशा में जाते हैं और किस मार्ग पर चलते हैं, इस पर अंतिम निर्णय अगुआ का ही होता है।” स्वाभाविक रूप से, ये अगुआ भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश, उनके चलने के मार्ग और उनके अनुसरण की दिशा को नियंत्रित करते हैं। जब उन्हें “कप्तान” बना दिया जाता है, तो वे सत्ता पर एकाधिकार करके एक स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लेते हैं। उनके कार्यों में कोई पारदर्शिता नहीं होती और इसका एहसास किए बिना ही वे सत्य का अनुसरण करने वाले और समझने की क्षमता रखने वाले कुछ लोगों का दमन कर देते हैं और कुछ भाई-बहनों को बाहर कर देते हैं। इस पूरे समय, वे फिर भी यही सोचते हैं कि ऐसा करके वे कलीसिया के काम और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों की रक्षा कर रहे हैं। वे सब-कुछ इतने सटीक तर्क, इतने अधिक औचित्यों और बहानों के साथ करते हैं—और अंत में, इसका उद्देश्य क्या है? वे जो कुछ भी करते हैं, अपनी हैसियत और सत्ता पर अपने एकाधिकार की रक्षा के लिए करते हैं। वे लौकिक समाज और पारिवारिक जीवन से व्यवहार के सिद्धांत, तौर-तरीके और साधन परमेश्वर के घर में लाते हैं, और सोचते हैं कि ऐसा करके वे उसके हितों की रक्षा कर रहे हैं। फिर भी वे खुद को कभी नहीं जानते या आत्मचिंतन नहीं करते। भले ही कोई यह बताए कि वे सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं, भले ही उन्हें परमेश्वर की प्रबुद्धता, अनुशासन और ताड़ना का सामना करना पड़े, उन्हें इसका कोई बोध नहीं होगा। समस्या कहाँ है? जिस दिन से उन्होंने अगुआ का पद सँभाला है, अपने कर्तव्य को एक करियर की तरह माना है, और यही बात उनका मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना नियत कर देती है और यह सुनिश्चित करती है कि वे सत्य का अनुसरण करने में असमर्थ रहें। और फिर भी, इस “करियर” के दौरान, वे मानते हैं कि वे जो कुछ भी करते हैं, वह सत्य का अनुसरण करना है। वे सत्य के अनुसरण को कैसे देखते हैं? वे भाई-बहनों और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने की आड़ में अपनी हैसियत और अधिकार की रक्षा करते हैं और मानते हैं कि यह उनकी सत्य के अनुसरण की अभिव्यक्ति है। जब वे इस पद पर होते हैं, तो वे उस भ्रष्ट स्वभाव के बारे में बिल्कुल नहीं जानते जो उनसे अभिव्यक्त और प्रवाहित होता है। यहाँ तक कि अगर उन्हें कभी-कभी हल्का-सा आभास होता भी है कि यह एक भ्रष्ट स्वभाव है, परमेश्वर इससे नफरत करता है, यह एक शातिर, अड़ियल स्वभाव है, तो वे यह सोचते हुए जल्दी से अपना मन बदल लेते हैं : “यह नहीं चलेगा। मैं अगुआ हूँ, और मुझमें अगुआ की गरिमा होनी आवश्यक है। मैं भाई-बहनों को अपने भ्रष्ट स्वभाव का उद्गार नहीं देखने दे सकता।” और इसलिए, हालाँकि वे महसूस करते हैं कि उन्होंने बहुत अधिक भ्रष्ट स्वभाव दिखाया है और अपनी हैसियत और अधिकार सुरक्षित रखने के लिए कई ऐसी चीजें की हैं जो सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं, फिर भी जब कोई उन्हें उजागर करता है, तो वे कुतर्क का सहारा लेते हैं या उसे अवरुद्ध करने की कोशिश करते हैं, ताकि कोई और उसके बारे में न जान सके। जैसे ही वे अधिकार और हैसियत हासिल कर लेते हैं, वे खुद को महान, सही, आलोचना से परे और संदेहातीत समझते हुए एक पवित्र और अनुल्लंघनीय स्थिति में रख लेते हैं। और इस तरह के पद पर आसीन होने के बाद, वे समान रूप से ऐसी किसी भी विरोधी आवाज, सुझाव या सलाह का विरोध कर उसे नकार देते हैं, जो भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश और कलीसिया के कार्य के लिए लाभकारी हो सकती है। सत्य का अनुसरण न करने के लिए वे क्या बहाना बनाते हैं? वे कहते हैं, “मेरे पास हैसियत है, मैं प्रतिष्ठित व्यक्ति हूँ—इसका मतलब है कि मेरी गरिमा है और मैं पवित्र और अनुल्लंघनीय हूँ।” क्या वे ऐसे कारण देकर और ऐसे बहाने बनाकर सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? (नहीं।) वे ऐसा नहीं कर सकते। वे हमेशा अपने रुतबे के फायदे उठाते हुए अपने उच्च आसन से बोलते और कार्य करते हैं। ऐसा करके वे खुद को आग में झोंक लेते हैं और खुद को उजागर किया जाना जरूरी बना देते हैं। क्या ऐसे लोग दयनीय नहीं होते? वे दयनीय और घृणित होते हैं, और वीभत्स भी—वे अत्यधिक घिनौने होते हैं! अगुआ के रूप में वे खुद को एक संत की छवि में तैयार करते हैं। एक संत, एक महान, गौरवशाली और सही व्यक्ति—ये उपाधियाँ क्या हैं? ये बेड़ियाँ हैं, और जो भी इन्हें धारण करता है, वह फिर सत्य का अनुसरण नहीं कर सकता। अगर कोई ये बेड़ियाँ धारण करता है, तो इसका मतलब है कि उसका अब सत्य का अनुसरण करने से कोई संबंध नहीं रहा। इन लोगों के सत्य का अनुसरण न करने का मुख्य कारण क्या है? वास्तव में, कारण यह है कि उन्हें हैसियत द्वारा विवश कर दिया गया है। वे हमेशा मन ही मन सोचते हैं : “मैं अगुआ हूँ। मैं यहाँ का प्रभारी हूँ। मैं प्रतिष्ठित और हैसियतदार व्यक्ति हूँ। मैं एक गौरवशाली व्यक्ति हूँ। मुझमें अहंकारी या दुष्ट स्वभाव नहीं हो सकता। मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में खुलकर बात नहीं कर सकता—मुझे अपनी गरिमा और प्रतिष्ठा की रक्षा करनी है। मुझे लोगों से अपना आदर और आराधना करवानी है।” वे हमेशा इन चीजों से विवश रहते हैं, इसलिए वे खुलकर बोलने या आत्मचिंतन कर खुद को जानने में असमर्थ रहते हैं। इन चीजों से वे बरबाद हो जाते हैं। क्या उनके विचार और मानसिकता सत्य के अनुरूप होते हैं? बिल्कुल स्पष्ट है कि नहीं होते। क्या वे व्यवहार, जो वे आम तौर पर अपने कर्तव्यों में प्रदर्शित करते हैं—अहंकार और आत्मतुष्टि, इस तरह काम करना जैसे वे अपने आप में कानून हों, ढोंग, छल-कपट, इत्यादि—क्या ये अभ्यास सत्य का अनुसरण हैं? (नहीं।) बिल्कुल स्पष्ट है, इनमें से कुछ भी सत्य का अनुसरण नहीं है। और सत्य का अनुसरण न करने का वे क्या औचित्य बताते या क्या कारण देते हैं? (वे मानते हैं कि अगुआ हैसियत और प्रतिष्ठा वाले लोग होते हैं, और अगर उनका स्वभाव भ्रष्ट हो भी, तो भी उसे उजागर नहीं किया जा सकता।) क्या यह एक बेतुका दृष्टिकोण नहीं है? अगर व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव होने की बात स्वीकारता तो है पर उसे उजागर नहीं होने देता, तो क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य स्वीकारता है? अगर तुम अगुआ होकर सत्य नहीं स्वीकार सकते, तो तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करोगे? तुम्हारी भ्रष्टता कैसे साफ होगी? और अगर तुम्हारी भ्रष्टता साफ नहीं की जा सकती और तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते रहते हो, तो तुम ऐसे अगुआ हो जो व्यावहारिक कार्य नहीं कर सकता—तुम एक नकली अगुआ हो। अगुआ होने के नाते तुम्हारे पास हैसियत जरूर है, लेकिन यह सिर्फ एक अलग काम, एक अलग कर्तव्य होने का मामला है—इसका मतलब यह नहीं कि तुम एक प्रतिष्ठित व्यक्ति बन गए हो। तुम इसलिए दूसरों की तुलना में अधिक गौरवशाली या विशिष्ट प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति नहीं बन जाते, कि तुमने यह हैसियत प्राप्त की है और एक अलग कर्तव्य निभाया है। अगर वास्तव में ऐसे लोग हैं जो इस तरह सोचते हैं, तो क्या वे बेशर्म नहीं हैं? (वे, हैं।) इसे कहने का आम बोलचाल का तरीका क्या है? वे खुलेआम निर्लज्ज हैं, है न? जब वे अगुआ नहीं होते, तो लोगों के साथ ईमानदारी से पेश आते हैं; वे अपने भ्रष्टता के उद्गार के बारे में खुलकर बात करने और अपने भ्रष्ट स्वभावों का विश्लेषण करने में सक्षम रहते हैं। जब वे अगुआ के रूप में पद ग्रहण कर लेते हैं, तो वे पूरी तरह से दूसरे व्यक्ति बन जाते हैं। मैं क्यों कहता हूँ कि वे दूसरे व्यक्ति बन जाते हैं? क्योंकि वे मुखौटा लगा लेते हैं और असली व्यक्ति उसके पीछे रहता है। मुखौटा कोई भाव प्रकट नहीं करता, कोई रोना, हँसना, खुशी या गुस्सा नहीं, कोई दुःख या आनंद नहीं, कोई भावनाएँ और इच्छाएँ नहीं—और निश्चित रूप से कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं। हर समय उसकी अभिव्यक्ति और स्थिति समान रहती है, जबकि अगुआ की सभी वास्तविक अवस्थाएँ, व्यक्तिगत विचार और भाव मुखौटे के पीछे छिपे रहते हैं, जहाँ उन्हें कोई नहीं देख सकता। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता ऐसे होते हैं, जो हमेशा खुद को प्रतिष्ठित और हैसियतदार समझते हैं। वे डरते हैं कि अगर कोई उनकी काट-छाँट करेगा, तो वे अपनी गरिमा खो बैठेंगे, इसलिए वे सत्य नहीं स्वीकारते। मधुर, झूठे वचन बोलने और अपने भ्रष्ट स्वभाव पर पर्दा डालने की क्षमता वे अपने रुतबे और अधिकार से प्राप्त करते हैं। साथ ही, वे यह मानने की गलती भी करते हैं कि वे अपनी हैसियत के कारण दूसरों की तुलना में अधिक प्रतिष्ठित और पवित्र हैं, और इसलिए उन्हें सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं—कि सत्य का अनुसरण करना दूसरों का काम है। सोचने का यह तरीका गलत और कुछ हद तक बेशर्म और बेहूदा है। इस तरह का व्यक्ति इसी तरह व्यवहार करता है। ऐसे लोगों के व्यवहार के सार से यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि वे सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे। इसके बजाय वे हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ रहे हैं। जब वे काम करते हैं, तो वे अपने रुतबे और अधिकार की रक्षा कर रहे होते हैं, और यह सोचकर खुद को भुलावा दे रहे होते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं। वे पौलुस की ही तरह हैं, और जो कार्य उन्होंने किया है और जो कर्तव्य निभाए हैं, कलीसिया का कार्य करने में जो काम उन्होंने किए हैं, और परमेश्वर के घर का काम करते हुए उन्होंने जो उपलब्धियाँ हासिल की हैं, उनका लगातार सारांश बनाते हैं। वे लगातार इन चीजों की गणना करते हैं, जैसे कि जब पौलुस ने कहा था, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। इससे उसका मतलब था कि अपनी दौड़ पूरी करने और अच्छी कुश्ती लड़ने के बाद यह समय था इस बात की गणना करने का कि उसके पास उद्धार का कितना बड़ा अवसर है, उसका योगदान कितना बड़ा रहा है, उसका पुरस्कार कितना बड़ा होगा, और यह परमेश्वर से अपने योगदान का पुरस्कार माँगने का समय था। उसका मतलब था कि अगर परमेश्वर ने उसे मुकुट पुरस्कार में नहीं दिया, तो वह परमेश्वर को धार्मिक परमेश्वर नहीं समझेगा, वह समर्पण करने से इनकार कर देगा, यहाँ तक कि परमेश्वर की अधार्मिकता के बारे में शिकायत भी करेगा। क्या इस तरह की मानसिकता और स्वभाव वाला ऐसा व्यक्ति, सत्य का अनुसरण कर रहा है? क्या वह ऐसा व्यक्ति है, जो वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है? क्या वह खुद को परमेश्वर के आयोजनों पर छोड़ सकता है? क्या यह एक ही नजर में स्पष्ट नहीं है? वह सोचता है कि उसका दौड़ना-भागना और लड़ाइयाँ लड़ना सत्य का अनुसरण, वह सत्य बिल्कुल नहीं खोजता और उसमें वास्तव में उसका अनुसरण करने की अभिव्यक्तियाँ नहीं होतीं—इसलिए वह ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो सत्य का अनुसरण करता है।

हमारी संगति ने अभी-अभी मुख्य रूप से मनुष्य की कौन-सी समस्याएँ उजागर की हैं? विशेष रूप से, इसने मनुष्य के कौन-से भ्रष्ट स्वभाव मुख्य रूप से उजागर किए? एक मूलभूत स्वभाव है मनुष्य का सत्य से विमुख होना और उसे स्वीकारने से मना करना; यह एक बहुत ही विशिष्ट प्रकार का व्यवहार है। एक और मुख्य चीज है, जो हर व्यक्ति के स्वभाव सार में मौजूद होती है : हठधर्मिता। यह भी काफी ठोस और स्पष्ट रूप से प्रकट होती है, है न? (हाँ, होती है।) ये दो मुख्य तरीके हैं, जिनसे मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव अभिव्यक्त और प्रकट होता है। ये विशिष्ट व्यवहार, ये विशिष्ट विचार, दृष्टिकोण इत्यादि, वास्तव में और सटीक रूप से दर्शाते हैं कि मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के भीतर सत्य से विमुख होने का एक तत्त्व है। निस्संदेह, मनुष्य के स्वभाव में जो अधिक प्रमुख है, वह हठधर्मिता की अभिव्यक्तियाँ हैं : परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, और परमेश्वर के कार्य के दौरान मनुष्य के जो भी भ्रष्ट स्वभाव उजागर होते हैं, लोग हठपूर्वक उसे स्वीकारने से मना करते हैं और उसका विरोध करते हैं। स्पष्ट प्रतिरोध या तिरस्कारपूर्ण अस्वीकृति के अतिरिक्त, निश्चित रूप से, एक अन्य प्रकार का व्यवहार है, जो तब प्रकट होता है जब लोग परमेश्वर के कार्य से कोई सरोकार नहीं रखते, जैसे कि परमेश्वर के कार्य का उनसे कोई लेना-देना न हो। परमेश्वर से सरोकार न रखने का क्या अर्थ है? यह तब होता है, जब व्यक्ति कहता है, “तुम्हें जो कहना है, कहो—इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे किसी न्याय या खुलासे का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। मैं इसे स्वीकारता या मानता नहीं।” क्या हम इस तरह के रवैये को “हठधर्मी” कह सकते हैं? (हाँ।) यह हठधर्मिता की अभिव्यक्ति है। ये लोग कहते हैं, “मैं वैसे ही जीता हूँ, जैसे मैं चाहता हूँ, जिस तरह से मुझे आराम मिलता है, और जिस तरह से मुझे खुशी मिलती है। तुम जिन व्यवहारों के बारे में बात करते हो, जैसे कि अहंकार, छल, सत्य-विमुख होना, दुष्टता, क्रूरता, इत्यादि—अगर वे मुझमें हैं भी, तो क्या? मैं उनकी जाँच नहीं करूँगा, या उन्हें नहीं जानूँगा, या उन्हें नहीं स्वीकारूँगा। मैं ऐसे ही परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, तुम क्या कर लोगे?” यह हठधर्मिता का रवैया है। जब लोग परमेश्वर के वचनों से सरोकार नहीं रखते या उन पर ध्यान नहीं देते, जिसका अर्थ है कि वे समान रूप से परमेश्वर की उपेक्षा करते हैं, चाहे वह कुछ भी कहे, चाहे वह अनुस्मारकों के रूप में बोले या चेतावनियों या उपदेशों के रूप में—चाहे वह बोलने का कोई भी तरीका इस्तेमाल करे, या चाहे उसके भाषण का स्रोत और लक्ष्य कुछ भी हों—तो उनका हठधर्मी रवैया होता है। इसका मतलब यह है कि वे परमेश्वर के अत्यावश्यक इरादे पर कोई ध्यान नहीं देते, मनुष्य को बचाने की उसकी ईमानदार, नेकनीयत इच्छा पर तो बिल्कुल भी नहीं। परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, लोगों में सहयोग करने का संकल्प नहीं होता और वे सत्य की दिशा में प्रयास करने के इच्छुक नहीं होते। यहाँ तक कि अगर वे मानते भी हों कि परमेश्वर का न्याय और प्रकाशन पूरी तरह से तथ्यात्मक है, तो भी उनके दिलों में कोई पछतावा नहीं होता, और वे पहले की तरह ही विश्वास करते रहते हैं। अंत में, जब वे अनेक उपदेश सुन लेते हैं, तो भी वे यही बात कहते हैं : “मैं एक सच्चा विश्वासी हूँ, किसी भी स्थिति में, मेरी मानवता खराब नहीं है, मैं जानबूझकर बुराई नहीं करूँगा, मैं चीजें त्यागने में सक्षम हूँ, मैं कठिनाई झेल सकता हूँ, और मैं अपनी आस्था के लिए कीमत चुकाने को तैयार हूँ। परमेश्वर मुझे नहीं त्यागेगा।” क्या यह वैसा ही नहीं है, जैसा पौलुस ने कहा था : “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है”? लोगों का इसी तरह का रवैया होता है। ऐसे रवैये के पीछे कौन-सा स्वभाव है? हठधर्मिता। क्या हठधर्मी स्वभाव बदलना मुश्किल है? क्या ऐसा करने का कोई मार्ग है? सबसे सरल और सबसे सीधा तरीका है परमेश्वर के वचनों और स्वयं परमेश्वर के प्रति अपना रवैया बदलना। तुम ये चीजें कैसे बदल सकते हो? अपने हठधर्मी रवैये से उत्पन्न होने वाली अवस्थाओं और मनोदशाओं का विश्लेषण करके और उन्हें जानकर, और यह देखकर कि तुम्हारे कौन-से कार्य और शब्द, तुम्हारे कौन-से दृष्टिकोण और इरादे जिनसे तुम चिपके रहते हो, यहाँ तक कि विशेष रूप से तुम्हारे कौन-से विचार और भाव जिन्हें तुम प्रकट करते हो, तुम्हारे हठधर्मी स्वभाव के प्रभाव में हैं। एक-एक करके इन व्यवहारों, उद्गारों और अवस्थाओं की जाँच कर उन्हें हल करो, और फिर, उन्हें बदल दो—जैसे ही तुम किसी चीज की जाँच कर उसका पता लगा लो, जल्दी से उसे बदल दो। उदाहरण के लिए, हम अभी अपनी पसंद और मूड के आधार पर कार्य करने के बारे में बात कर रहे थे, जो कि सनक है। सनकी स्वभाव के साथ में सत्य विमुख होने का लक्षण भी होता है। अगर तुम्हें पता चले कि तुम उस तरह के व्यक्ति हो, उस तरह के भ्रष्ट स्वभाव के हो, और तुम आत्मचिंतन नहीं करते या उसे हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, हठपूर्वक सोचते हो कि तुम बिल्कुल ठीक हो, तो यह हठधर्मिता है। इस प्रवचन के बाद तुम अचानक महसूस कर सकते हो, “मैंने इस तरह की बातें कही हैं, और मेरे इस तरह के विचार हैं। मेरा यह स्वभाव ऐसा है जो सत्य विमुख है। चूँकि मामला ऐसा है, तो मैं इस स्वभाव को हल करना शुरू करूँगा।” तो तुम इसे हल करना शुरू कैसे करोगे? अपनी श्रेष्ठता की भावना, अपनी सनक और अपनी मनमानी छोड़ने से शुरू करो; चाहे तुम अच्छे मूड में हो या बुरे, यह देखो कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं। अगर तुम दैहिक इच्छाओं से विद्रोह कर परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप अभ्यास कर पाओ, तो वह तुम्हें कैसे देखेगा? अगर तुम वास्तव में ये भ्रष्ट व्यवहार दूर करना शुरू कर पाओ, तो यह इस बात का संकेत है कि तुम सकारात्मक और सक्रिय रूप से परमेश्वर के कार्य में सहयोग कर रहे हो। तुम अपने सत्य-विमुख स्वभाव से सचेत होकर विद्रोह कर इसका समाधान कर रहे होगे, और साथ ही तुम अपने हठधर्मी स्वभाव का समाधान भी कर रहे होगे। जब तुम इन दोनों भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कर लोगे, तो तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसे संतुष्ट करने में सक्षम होगे, और यह उसे प्रसन्न करेगा। अगर तुम लोग इस संगति की विषयवस्तु समझ गए हो और इस तरह से दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने का अभ्यास करते हो, तो मुझे बहुत खुशी होगी। तब मेरे कहे ये वचन व्यर्थ नहीं जाएँगे।

हठधर्मिता भ्रष्ट स्वभाव की समस्या है; यह व्यक्ति की प्रकृति में होती है, और इसे सुलझाना आसान नहीं। जब किसी का हठधर्मी स्वभाव होता है, तो वह मुख्य रूप से औचित्य और सुनने में अच्छे लगने वाले तर्क देने, अपने ही विचारों से चिपके रहने और नई चीजें आसानी से स्वीकार न करने की प्रवृत्ति के रूप में अभिव्यक्त होता है। कई बार ऐसा होता है कि लोग जानते हैं कि उनके विचार गलत हैं, फिर भी वे अपने घमंड और गर्व की खातिर उनसे चिपके रहते हैं, अंत तक अड़े रहते हैं। इस तरह का हठधर्मी स्वभाव बदलना मुश्किल है, भले ही व्यक्ति उसके बारे में जानता हो। हठधर्मिता की समस्या हल करने के लिए मनुष्य के अहंकार, छल, क्रूरता, सत्य-विमुखता और ऐसे अन्य स्वभावों को जानना आवश्यक है। जब व्यक्ति अपने ही अहंकार, छल, क्रूरता को जान लेता है, यह भी जान लेता है कि वह सत्य विमुख हो चुका है, कि वह सत्य का अभ्यास करने की इच्छा रखते हुए भी दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने को तैयार नहीं है, कि वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहते हुए भी हमेशा बहाने बनाता है और अपनी कठिनाइयाँ समझाता है, तो वह आसानी से पहचान लेगा कि उसमें हठधर्मिता की समस्या है। यह समस्या हल करने के लिए व्यक्ति में पहले सामान्य इंसानी समझ होनी चाहिए और उसे परमेश्वर के वचन सुनना सीखने से शुरुआत करनी चाहिए। अगर तुम परमेश्वर की भेड़ बनना चाहते हो, तो तुम्हें उसके वचन सुनना सीखना चाहिए। और तुम्हें उन्हें कैसे सुनना चाहिए? कोई भी ऐसी समस्या सुनने के द्वारा, जिसे परमेश्वर अपने वचनों में उजागर करता है, जो तुम्हारे लिए प्रासंगिक है। अगर तुम्हें कोई समस्या मिलती है, तो तुम्हें उसे स्वीकारना चाहिए; तुम्हें यह नहीं मानना चाहिए कि यह समस्या दूसरे लोगों की है, कि यह हर किसी की या मानव-जाति की समस्या है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं। तुम्हारा ऐसा विश्वास रखना गलत होगा। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या तुम में ऐसी भ्रष्ट दशाएँ या विकृत विचार हैं जिन्हें परमेश्वर उजागर कर रहा है। उदाहरण के लिए, जब तुम किसी के भीतर से अहंकारी स्वभाव के प्रकट होने की अभिव्यक्तियों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन सुनते हो, तो तुम्हें अपने मन में सोचना चाहिए : “क्या मैं अहंकार की अभिव्यक्तियाँ दिखाता हूँ? मैं एक भ्रष्ट मानव हूँ, तो मैं अवश्य ही उनमें से कुछ अभिव्यक्तियाँ दिखाता होऊँगा; मुझे इस बात पर विचार करना चाहिए कि मैं ऐसा कहाँ करता हूँ। लोग कहते हैं कि मैं अहंकारी हूँ, कि मैं हमेशा खुद को दूसरों से ज्यादा महत्वपूर्ण मानकर चलता हूँ, कि जब मैं बोलता हूँ तो लोगों को विवश कर देता हूँ। क्या वास्तव में यही मेरा स्वभाव है?” चिंतन के माध्यम से, तुम अंततः जान जाओगे कि परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन पूरी तरह से सटीक है—कि तुम एक अहंकारी व्यक्ति हो। और चूँकि परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन पूरी तरह से सटीक है, चूँकि वह बिना किसी विसंगति के तुम्हारी स्थिति से पूरी तरह मेल खाता है, और आगे विचार करने पर और भी सटीक प्रतीत होता है, तो तुम्हें उसके वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकारनी चाहिए, और उनके अनुसार अपने भ्रष्ट स्वभाव के सार को पहचानना और जानना चाहिए। तब तुम सच्चा पछतावा महसूस कर पाओगे। परमेश्वर में विश्वास करते हुए, केवल इस तरह से उसके वचन खाने-पीने से ही तुम खुद को जान सकते हो। अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए तुम्हें परमेश्वर के वचनों का न्याय और खुलासा स्वीकारना चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते, तो तुम्हारे पास अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने का कोई उपाय नहीं होगा। अगर तुम एक चतुर व्यक्ति हो, जो देखता है कि परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन आम तौर पर सटीक होता है, या अगर तुम स्वीकार सकते हो कि उसका आधा हिस्सा सही है, तो तुम्हें फौरन उसे स्वीकार लेना चाहिए और परमेश्वर के सामने समर्पण कर देना चाहिए। तुम्हें उससे प्रार्थना कर आत्मचिंतन भी करना चाहिए। तभी तुम समझ पाओगे कि परमेश्वर के प्रकाशन के सभी वचन सटीक होते हैं, कि वे सभी तथ्य हैं, उससे कम कुछ नहीं हैं। परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय के साथ उसके सामने समर्पण करके ही लोग वास्तव में आत्मचिंतन कर सकते हैं। तभी वे अपने भीतर मौजूद विभिन्न प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव देख पाएँगे, और यह भी कि वे वास्तव में अहंकारी और आत्मतुष्ट हैं, जिनमें जरा-सी भी समझ नहीं है। अगर कोई सत्य से प्रेम करता है, तो वह परमेश्वर के सामने दंडवत होने में भी सक्षम होगा, उसके सामने स्वीकारेगा कि वह गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया है, और उसका न्याय और ताड़ना स्वीकारने की इच्छा रखता है। इस तरह, वह पछतावे से भरा दिल विकसित कर सकता है, खुद को नकारना और खुद से नफरत करना शुरू कर सकता है, और पहले सत्य का अनुसरण न करने पर पछताते हुए सोच सकता है, “जब मैंने परमेश्वर के वचन पढ़ने शुरू किए थे, तो मैं उनका न्याय और ताड़ना स्वीकारने में असमर्थ क्यों था? उसके वचनों के प्रति मेरा यह रवैया अहंकारी था, है न? मैं इतना अहंकारी कैसे हो सकता हूँ?” कुछ समय तक इस तरह बार-बार आत्मचिंतन करने के बाद, वह पहचान लेगा कि वह वास्तव में अहंकारी है, कि वह यह स्वीकारने में पूरी तरह से सक्षम नहीं है कि परमेश्वर के वचन सत्य और तथ्य हैं, और उसमें वास्तव में रत्ती भर भी समझ नहीं है। लेकिन खुद को जानना एक कठिन चीज है। हर बार जब व्यक्ति चिंतन करता है, तो वह अपने बारे में सिर्फ थोड़ा अधिक और थोड़ा ज्यादा गहरा ज्ञान प्राप्त कर पाता है। भ्रष्ट स्वभाव का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करना कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे थोड़े समय में पूरा किया जा सकता हो; व्यक्ति को परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़ने चाहिए, अधिक प्रार्थना करनी चाहिए और अधिक आत्मचिंतन करना चाहिए। सिर्फ इसी तरह वह धीरे-धीरे खुद को जान सकता है। वे सभी जो वाकई खुद को जानते हैं, अतीत में कुछ बार असफल हुए और लड़खड़ाए हैं, जिसके बाद, उन्होंने परमेश्वर के वचन पढ़े, उससे प्रार्थना की, और आत्मचिंतन किया, और इस तरह वे अपनी भ्रष्टता का सत्य स्पष्ट रूप से देख पाए, और यह महसूस कर पाए कि वे वाकई अत्यधिक भ्रष्ट और सत्य वास्तविकता से सर्वथा वंचित थे। अगर तुम इस प्रकार परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हो, और जब तुम पर चीजें आ पड़ती हैं, तो उससे प्रार्थना करते और सत्य खोजते हो, तो तुम धीरे-धीरे स्वयं को जान जाओगे। फिर एक दिन, अंततः तुम्हारे हृदय में स्पष्ट समझ आ जाएगी : “मैं दूसरों की तुलना में थोड़ी बेहतर क्षमता का हो सकता हूँ, लेकिन यह मुझे परमेश्वर द्वारा दी गई थी। मैं हमेशा शेखी बघारता हूँ, जब बोलता हूँ तो दूसरों से आगे निकलने का प्रयास करता हूँ, कोशिश करता हूँ कि लोग मेरे तरीके से काम करें। मुझमें वाकई समझ नहीं है—यह अहंकार और आत्मतुष्टि है! आत्मचिंतन से मैंने अपने अहंकारी स्वभाव के बारे में जान लिया है। यह परमेश्वर का प्रबोधन और अनुग्रह है, और मैं इसके लिए उसका धन्यवाद करता हूँ!” अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में जानना अच्छी बात है या बुरी? (अच्छी बात है।) यहाँ से, तुम्हें खोजना चाहिए कि समझदारी और आज्ञाकारिता के साथ कैसे बोलना और कार्य करना है, दूसरों के साथ बराबरी पर कैसे खड़े होना है, दूसरों को बाधित किए बिना उनके साथ उचित व्यवहार कैसे करना है, अपनी क्षमता, गुणों और खूबियों आदि पर सही तरीके से विचार कैसे करना है। इस तरह, जैसे एक बार में एक प्रहार करने से पहाड़ धूल में बदल जाता है, वैसी ही तुम्हारे अहंकारी स्वभाव का समाधान हो जाएगा। उसके बाद, जब तुम दूसरों के साथ बातचीत करोगे या कोई कर्तव्य निभाने के लिए उनके साथ काम करोगे, तो तुम उनके विचारों पर सही तरह से विचार कर पाओगे और उन्हें सुनते हुए उन पर सावधानी और करीब से ध्यान दे पाओगे। और जब तुम उन्हें सही राय देते हुए सुनोगे, तो तुम्हें पता चलेगा, “ऐसा लगता है कि मेरी काबिलियत सबसे अच्छी नहीं है। बात तो यह है कि सभी की अपनी खूबियाँ हैं; वे मुझसे बिल्कुल भी हीन नहीं हैं। पहले मैं सोचता था कि मेरी काबिलियत दूसरों से बेहतर है। वह आत्म-प्रशंसा और संकीर्ण सोच वाली अज्ञानता थी। किसी कूपमंडूक की तरह मेरा दृष्टिकोण बहुत ही सीमित था। ऐसी सोच समझ से पूरी तरह रहित थी—यहबेशर्मी थी! अपने अहंकारी स्वभाव द्वारा मैं अंधा और बहरा हो गया था था। दूसरे लोगों की बातें मैं समझ नहीं पाता था, और मैं सोचता कि मैं उनसे बेहतर हूँ, कि मैं सही हूँ, जबकि वास्तव में मैं उनमें से किसी से भी बेहतर नहीं हूँ!” तब से, तुम्हें अपनी कमियों और छोटे आध्यात्मिक कद की सच्ची समझ और ज्ञान होगा। इसके बाद, जब तुम दूसरों के साथ संगति करोगे, तो उनके विचार ध्यान से सुनोगे, और तुम्हें पता चलेगा, “बहुत-से लोग मुझसे बेहतर हैं। मेरी काबिलियत और समझने की क्षमता, दोनों ही हद-से-हद औसत दर्जे की हैं।” यह बोध होने पर क्या तुम अपने बारे में कुछ जान नहीं जाओगे? यह अनुभव करके और बार-बार परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्म-चिंतन करके तुम ऐसा सच्चा आत्मज्ञान पा लोगे जो गहराता जाता है। तब तुम अपनी भ्रष्टता, दरिद्रता और दयनीयता, अपनी शोचनीय कुरूपता का सत्य समझने लगोगे, और उस समय तुम्हें खुद से अरुचि और अपने भ्रष्ट स्वभाव से नफरत होने लगेगी। फिर तुम्हारे लिए दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करना आसान हो जाएगा। परमेश्वर के कार्य का अनुभव इसी तरह किया जाता है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपनी भ्रष्टता के उद्गार पर चिंतन करना चाहिए। खास तौर से, किसी भी तरह के हालात भ्रष्ट स्वभाव उजागर करने बाद, तुम्हें बार-बार आत्मचिंतन करना और खुद को जानना चाहिए। तब तुम्हारे लिए अपना भ्रष्ट सार स्पष्ट रूप से देखना आसान हो जाएगा, और तुम अपनी भ्रष्टता, अपनी देह और शैतान से हृदय से घृणा करने में सक्षम हो जाओगे। और तुम दिल से सत्य से प्रेम करने और उसके लिए प्रयास करने में सक्षम होगे। इस तरह, तुम्हारा अहंकारी स्वभाव कम होता जाएगा और धीरे-धीरे तुम उसे त्याग दोगे। तुम अधिक से अधिक समझ प्राप्त करोगे, और तुम्हारे लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान हो जाएगा। दूसरों की नजरों में, तुम पहले से ज्यादा स्थिर और व्यावहारिक प्रतीत होगे और तुम अधिक निष्पक्षता से बोलते हुए प्रतीत होगे। तुम दूसरों को सुनने में सक्षम होगे और उन्हें बोलने का समय दोगे। दूसरों के सही होने पर तुम्हारे लिए उनकी बातें स्वीकार करना आसान होगा, और लोगों के साथ तुम्हारी बातचीत उतनी कठिन नहीं होगी। तुम किसी के भी साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग करने में सक्षम होगे। अगर इस तरह तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, तो क्या तब तुममें समझ और मानवता नहीं होगी? इस प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव के समाधान का वही तरीका है।

आओ अब उस हठधर्मी स्वभाव के मुद्दे के माध्यम से भ्रष्ट स्वभाव हल करने के तरीके पर थोड़ी संगति करें, जिसका मैंने अभी उल्लेख किया है। भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए व्यक्ति को पहले सत्य स्वीकारने में सक्षम होना चाहिए। सत्य स्वीकारना परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारना है; यह उसके उन वचनों को स्वीकारना है जो मनुष्य की भ्रष्टता का सार उजागर करते हैं। अगर तुम परमेश्वर के वचनों के आधार पर अपने भ्रष्टता के उद्गार, अपनी भ्रष्ट अवस्थाएँ, और अपने भ्रष्ट इरादे और व्यवहार जानकर उनका विश्लेषण कर लेते हो, और अपनी समस्याओं के सार से पर्दा हटाने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव का ज्ञान प्राप्त कर लोगे, और उसे हल करने की प्रक्रिया शुरू कर दोगे। दूसरी ओर, अगर तुम इस तरह से अभ्यास नहीं करते, तो न सिर्फ तुम अपना हठधर्मी स्वभाव हल करने में असमर्थ होगे, बल्कि तुम्हारे पास अपने भ्रष्ट स्वभाव को मिटाने का भी कोई उपाय नहीं होगा। प्रत्येक व्यक्ति में अनेक भ्रष्ट स्वभाव होते हैं। व्यक्ति को उन्हें कहाँ से सुलझाना शुरू करना चाहिए? पहले, व्यक्ति को अपनी हठधर्मिता का समाधान करना चाहिए, क्योंकि हठधर्मी स्वभाव लोगों को परमेश्वर के करीब आने, सत्य खोजने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने से रोकता है। हठधर्मिता मनुष्य के परमेश्वर से प्रार्थना और संगति करने में सबसे बड़ी बाधा है; परमेश्वर के साथ मनुष्य के सामान्य संबंध में सबसे अधिक हस्तक्षेप यही करती है। जब तुम अपने हठधर्मी स्वभाव का समाधान कर लेते हो, तो दूसरों का समाधान करना आसान हो जाएगा। भ्रष्ट स्वभाव का समाधान आत्मचिंतन और आत्मज्ञान से शुरू होता है। तुम जिन भी भ्रष्ट स्वभावों के बारे में जानते हो, उनका समाधान करो—जितना अधिक तुम उनका ज्ञान प्राप्त करोगे, उतना ही तुम समाधान कर पाओगे; उनके बारे में तुम्हारा ज्ञान जितना गहरा होगा, उतनी ही अच्छी तरह से उनका समाधान कर सकोगे। यह भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने की प्रक्रिया है; यह परमेश्वर से प्रार्थना करके, आत्मचिंतन करके और परमेश्वर के वचनों के माध्यम से खुद को जानकर और अपने भ्रष्ट स्वभाव के सार का विश्लेषण करके किया जाता है, तब तक जब तक कि व्यक्ति अपनी दैहिक इच्छाओं से विद्रोह और सत्य का अभ्यास करने में सक्षम नहीं हो जाता। अपने भ्रष्ट स्वभाव का सार जानना कोई आसान काम नहीं है। खुद को जानना मोटे तौर पर यह कहना नहीं है, “मैं एक भ्रष्ट व्यक्ति हूँ; मैं दानव हूँ; मैं शैतान की संतान, बड़े लाल अजगर का वंशज हूँ; मैं परमेश्वर के प्रति प्रतिरोधी और शत्रुतापूर्ण हूँ; मैं उसका दुश्मन हूँ।” जरूरी नहीं कि ऐसी बातों का मतलब है कि तुम्हें अपनी भ्रष्टता का सही ज्ञान है। हो सकता है कि तुमने ये शब्द किसी और से सीख लिए हों और अपने बारे में ज्यादा न जानते हो। सच्चा आत्म-ज्ञान मनुष्य के सीखने या आलोचनाओं पर आधारित नहीं होता, यह परमेश्वर के वचनों पर आधारित होता है—यह भ्रष्ट स्वभावों के परिणाम और उनके परिणामस्वरूप अनुभव की गई पीड़ा को देखना है यह महसूस करना है कि भ्रष्ट स्वभाव न केवल तुम्हें, बल्कि दूसरे लोगों को भी नुकसान पहुँचाता है। यह तथ्य समझना है भ्रष्ट स्वभाव शैतान में उत्पन्न होते हैं, वे शैतान के जहर और फलसफे हैं, और वे पूरी तरह से सत्य और परमेश्वर के शत्रु हैं। जब तुम इस समस्या को समझ लोगे, तो तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का पता चल जाएगा। कुछ लोग यह मान लेने के बाद कि वे दुष्ट और शैतान हैं, अपनी काट-छाँट स्वीकार नहीं करते। वे यह स्वीकार नहीं करते कि उन्होंने कुछ गलत किया है या सत्य का उल्लंघन किया है। उनकी समस्या क्या है? वे अभी भी खुद को नहीं जानते। कुछ लोग कहते हैं कि वे दुष्ट और शैतान हैं, फिर भी अगर तुम उनसे पूछो कि “तुम खुद को दुष्ट और शैतान क्यों बताते हो?” तो वे उत्तर नहीं दे पाएँगे। इससे साबित होता है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव या प्रकृति सार को नहीं जानते। अगर वे यह देख पाते कि उनकी प्रकृति शैतान की प्रकृति है, कि उनका भ्रष्ट स्वभाव शैतान का स्वभाव है, और वे यह स्वीकार पाते कि इसीलिए वे दुष्ट और शैतान हैं, तो वे अपने प्रकृति सार को जान चुके होते। सच्चा आत्म-ज्ञान परमेश्वर के वचनों के खुलासे, न्याय, अभ्यास और अनुभव के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। यह सत्य समझने से प्राप्त होता है। अगर कोई सत्य नहीं समझता, तो वह अपने आत्मज्ञान के बारे में चाहे जो कुछ भी कहे, वह खोखला और अव्यावहारिक होता है, क्योंकि वे उन चीजों को खोज या समझ नहीं पाते हैं, जो मूल में हैं और आवश्यक हैं। स्वयं को जानने के लिए व्यक्ति यह स्वीकारना होगा कि उसने किसी विशिष्ट परिस्थिति में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए, उसका इरादा क्या था, उसने कैसे व्यवहार किया, उसमें किस चीज की मिलावट थी, और वह सत्य क्यों नहीं स्वीकार सका। उसे ये चीजें स्पष्ट रूप से बताने में सक्षम होना चाहिए, तभी वह खुद को जान सकता है। जब कुछ लोगों को काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, तो वे स्वीकार करते हैं कि वे सत्य-विमुख हो चुके हैं, कि उन्हें परमेश्वर के बारे में संदेह और गलतफहमियाँ हैं, और वे उससे सतर्क रहते हैं। वे यह भी स्वीकारते हैं कि मनुष्य का न्याय करने और उसे उजागर करने वाले परमेश्वर के सभी वचन तथ्यपरक हैं। यह दर्शाता है कि उन्हें थोड़ा आत्म-ज्ञान है। लेकिन चूँकि उन्हें परमेश्वर या उसके कार्य का ज्ञान नहीं है, चूँकि वे उसके इरादे नहीं समझते, इसलिए उनका यह आत्म-ज्ञान काफी उथला होता है। अगर कोई सिर्फ अपनी भ्रष्टता स्वीकारता है लेकिन समस्या की जड़ नहीं खोज पाया, तो क्या परमेश्वर के प्रति उसके संदेहों, गलतफहमियों और सतर्कता का समाधान किया जा सकता है? नहीं, वे नहीं कर सकते। यही कारण है कि आत्म-ज्ञान व्यक्ति द्वारा अपनी भ्रष्टता और समस्याओं की स्वीकृति मात्र से बढ़कर है—उसे सत्य भी समझना चाहिए और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का जड़ से समाधान करना चाहिए। अपनी भ्रष्टता के सत्य को देखने और सच्चा पश्चात्ताप करने का यही तरीका है। जब सत्य से प्रेम करने वाले स्वयं को जान जाते हैं, तो वे सत्य खोजने और समझने और अपनी समस्याओं का समाधान करने में भी सक्षम हो जाते हैं। केवल इसी तरह का आत्म-ज्ञान परिणाम देता है। जब भी सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति परमेश्वर के वचनों का ऐसा वाक्यांश पढ़ता है जो मनुष्य को उजागर कर उसका न्याय करता है, तो सबसे पहले वह विश्वास करता है कि मनुष्य को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन वास्तविक और तथ्यपरक हैं, कि मनुष्य का न्याय करने वाले परमेश्वर के वचन सत्य हैं और वे परमेश्वर की धार्मिकता दर्शाते हैं। सत्य के प्रेमियों को कम से कम इतना तो पहचान पाना चाहिए। अगर कोई परमेश्वर के वचन पर विश्वास ही नहीं करता, और यह नहीं मानता कि इंसान को उजागर और उसका न्याय करने वाले परमेश्वर के वचन, तथ्य और सत्य हैं, तो क्या वह उसके वचनों के आधार पर स्वयं को जान सकता है? निश्चित रूप से नहीं—वह चाहे तो भी ऐसा नहीं कर सकता। अगर तुम अपने विश्वास में दृढ़ हो सकते हो कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, और उन सभी पर विश्वास कर सकते हो, चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे या उसके बोलने का तरीका कैसा भी हो, अगर तुम परमेश्वर के वचनों को न समझने पर भी, उन पर विश्वास करने और उन्हें स्वीकार करने में सक्षम हो, तो तुम्हारे लिए उनके द्वारा आत्म-चिंतन करना और खुद को जानना आसान होगा। आत्मचिंतन सत्य पर आधारित होना चाहिए। यह संदेह से परे है। केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं—मनुष्य का कोई भी शब्द और शैतान की कोई भी बात सत्य नहीं है। शैतान हजारों वर्षों से मानवजाति को तमाम तरह के ज्ञानार्जन, शिक्षाओं और सिद्धांतों से भ्रष्ट कर रहा है, और लोग इतने सुन्न और मंदबुद्धि हो गए हैं कि उन्हें न केवल जरा-सा भी आत्मज्ञान नहीं है, बल्कि वे पाखंडों और भ्रांतियों को भी मानते हैं और सत्य स्वीकारने से मना करते हैं। इस तरह के मनुष्य बचाए नहीं जा सकते। जो लोग परमेश्वर पर सच्ची आस्था रखते हैं, वे मानते हैं कि केवल उसके वचन ही सत्य हैं, वे परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर खुद को जानने में सक्षम होते हैं और इस तरह वे सच्चा पश्चात्ताप हासिल कर सकते हैं। कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते; वे केवल मनुष्य के सीखने के आधार पर आत्म-चिंतन करते हैं, और वे पापपूर्ण व्यवहार से अधिक कुछ भी स्वीकार नहीं करते, और इस दौरान, वे अपने भ्रष्ट सार की असलियत देखने में असमर्थ रहते हैं। ऐसा आत्म-ज्ञान एक निष्फल प्रयास होता है और यह कोई परिणाम नहीं देता। व्यक्ति को आत्म-चिंतन परमेश्वर के वचनों के आधार पर करना चाहिए, और चिंतन के बाद, धीरे-धीरे वे भ्रष्ट स्वभाव जानने चाहिए जिन्हें वह प्रकट करता है। व्यक्ति को अपनी कमियाँ, अपना मानवता सार, चीजों पर अपने विचार, अपना जीवन-दृष्टिकोण और मूल्य सत्य के आधार पर मापने और जानने में सक्षम होना चाहिए, और फिर इन सभी चीजों के बारे में सटीक मूल्यांकन और फैसले पर पहुँचना चाहिए। इस प्रकार वह धीरे-धीरे आत्म-ज्ञान प्राप्त कर सकता है। लेकिन आत्म-ज्ञान व्यक्ति द्वारा जीवन में अधिक अनुभव प्राप्त करने पर अधिक गहरा हो जाता है, और सत्य प्राप्त करने से पहले, व्यक्ति के लिए अपने प्रकृति सार की असलियत को पूरी तरह से जानना असंभव है। अगर कोई वास्तव में स्वयं को जानता है, तो वह देख सकता है कि भ्रष्ट मनुष्य वास्तव में शैतान की संतान और उसके मूर्त रूप हैं। वह महसूस करेगा कि वह परमेश्वर के सामने जीने लायक नहीं है और वह उसके प्रेम और उद्धार के अयोग्य है, और उसके सामने पूर्णतया दंडवत कर पाएगा। केवल इस स्तर का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम लोग ही वास्तव में खुद को जानते हैं। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए आत्म-ज्ञान एक पूर्व-शर्त है। अगर कोई सत्य का अभ्यास करना और वास्तविकता में प्रवेश करना चाहता है, तो उसे खुद को जानना होगा। सब लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं और न चाहते हुए भी वे इन भ्रष्ट स्वभावों से बँधकर इनके काबू में रहते हैं। वे सत्य का अभ्यास करने या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में असमर्थ हैं। इसलिए अगर वे ये चीजें करना चाहते हैं, तो उन्हें पहले खुद को जानना चाहिए और अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करना चाहिए। अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने की प्रक्रिया के माध्यम से ही व्यक्ति सत्य समझ सकता है और परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त कर सकता है; केवल तभी व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है और उसकी गवाही दे सकता है। इसी तरह व्यक्ति सत्य प्राप्त करता है। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की प्रक्रिया अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने की प्रक्रिया है। तो, अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए व्यक्ति को क्या करना चाहिए? पहले, व्यक्ति को अपना भ्रष्ट सार जानना चाहिए। खास तौर से, इसका मतलब यह जानना है कि व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव कैसे उत्पन्न हुआ, और उनके द्वारा स्वीकार किए गए शैतान के किन दानवी शब्दों और भ्रांतियों ने इसे जन्म दिया। जब व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के आधार पर ये मूल कारण पूरी तरह से समझ और पहचान लेता है, तो वह फिर अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीने को तैयार नहीं होगा, और सिर्फ परमेश्वर के प्रति समर्पित होना और उसके वचनों के अनुसार जीना चाहेगा। जब भी कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करेगा, तो वह उसे पहचानने, नकारने और अपनी दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने में सक्षम होगा। इस तरह अभ्यास और अनुभव करने से, वह धीरे-धीरे अपने सभी भ्रष्ट स्वभाव त्याग देगा।

कुछ लोग कहते हैं, “जब मैंने परमेश्वर के खुलासे और न्याय के वचन पढ़े, तो मैंने आत्म-चिंतन कर जाना कि मैं अहंकारी, धोखेबाज, स्वार्थी, दुष्ट, हठी हूँ और मुझमें इंसानियत नहीं है।” कुछ लोग हैं, जो यहाँ तक कहते हैं कि वे अत्यंत अहंकारी हैं, कि वे पशु हैं, कि वे दुष्ट और शैतान हैं। क्या यही सच्चा आत्मज्ञान है? अगर वे दिल से बोल रहे हैं, और किसी चीज की नकल मात्र नहीं कर रहे, तो यह दर्शाता है कि उन्हें कम से कम कुछ आत्म-ज्ञान है, एकमात्र प्रश्न यह है कि वह उथला है या गहरा। अगर वे किसी चीज की नकल कर रहे हैं, किसी और के शब्द दोहरा रहे हैं, तो यह सच्चा आत्म-ज्ञान नहीं है। अपने भ्रष्ट स्वभाव का ज्ञान ठोस होना चाहिए, जिसमें हर मामला और स्थिति शामिल हो—अर्थात ऐसी अवस्थाएँ, उद्गार, व्यवहार, विचार और मत जैसे विवरण, जिनका संबंध भ्रष्ट स्वभाव से है। तभी वास्तव में खुद को जाना जा सकता है। और जब व्यक्ति वास्तव में खुद को जान जाता है, तो उसके हृदय में पछतावा उत्पन्न होगा, और वह सच्चा पश्चात्ताप करने में सक्षम होगा। पश्चात्ताप करने के लिए सबसे पहले किस चीज का अभ्यास करना चाहिए? (अपनी गलतियाँ स्वीकारनी चाहिए।) “अपनी गलतियाँ स्वीकारना,” यह इसे व्यक्त करने का सही तरीका नहीं है; बल्कि, यह स्वीकार करने और जानने का मामला है कि व्यक्ति का एक भ्रष्ट स्वभाव है। अगर व्यक्ति कहता है कि उसका भ्रष्ट स्वभाव एक प्रकार की गलती है, तो वह गलत है। भ्रष्ट स्वभाव एक ऐसी चीज है, जो व्यक्ति की प्रकृति से संबंधित है, ऐसी चीज जो व्यक्ति को नियंत्रित करती है। यह एक बार होने वाली गलती जैसी चीज नहीं है। कुछ लोग, भ्रष्टता प्रकट करने के बाद, परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं : “हे परमेश्वर, मुझसे गलती हो गई। मुझे अफसोस है।” यह गलत है। इसे “पाप को स्वीकार करना” कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। जिस विशिष्ट तरीके से लोग पश्चात्ताप करते हैं, वह है खुद को जानना और अपनी समस्याएँ सुलझाना। जब कोई व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता या कोई अपराध करता है, और उसे एहसास होता है कि वह परमेश्वर का विरोध कर रहा है और उसकी नफरत को भड़का रहा है, तो उसे आत्मचिंतन करना और परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों के भीतर खुद को जानना चाहिए। परिणामस्वरूप, उसे अपने भ्रष्ट स्वभाव का कुछ ज्ञान प्राप्त होगा और वह यह स्वीकार करेगा कि यह शैतान के विषों और भ्रष्टता से आता है। इसके बाद, जब उसे सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांत मिल जाएँगे, और वह सत्य को अमल में ला सकेगा, तब यह सच्चा पश्चात्ताप होगा। चाहे व्यक्ति कोई भी भ्रष्टता प्रकट करे, अगर वह पहले अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने में सक्षम होता है, उसका समाधान करने के लिए सत्य की तलाश कर पाता है, और सत्य का अभ्यास करने लगता है, तो यह सच्चा पश्चात्ताप है। कुछ लोग अपने बारे में थोड़ा-सा जानते हैं लेकिन उनमें न तो पश्चात्ताप के कोई चिह्न दिखते हैं, न ही सत्य का अभ्यास करने के प्रमाण दिखते हैं। आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी अगर वे खुद को बदलते नहीं हैं तो यह सच्चे पश्चात्ताप से कोसों दूर है। सच्चा पश्चात्ताप हासिल करने के लिए व्यक्ति को अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने चाहिए। तो अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए व्यक्ति को खास कर कैसे अभ्यास और प्रवेश करना चाहिए? एक उदाहरण पेश है। लोगों के कपटपूर्ण स्वभाव होते हैं, वे हमेशा झूठ बोलते और धोखा देते रहते हैं। अगर तुम यह बात मानते हो, तो अपने कपट का समाधान करने के लिए अभ्यास का सबसे सरल और सबसे सीधा सिद्धांत एक ईमानदार व्यक्ति बनना, सच बोलना और ईमानदार चीजें करना है। प्रभु यीशु कहते हैं : “परन्तु तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो।” एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। यह सरल अभ्यास सबसे प्रभावी है, साथ ही इसे समझना और अमल में लाना भी आसान है। लेकिन, चूँकि लोग बहुत गहराई तक भ्रष्ट हैं, चूँकि उन सभी की शैतानी प्रकृति है और वे शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं, इसलिए उनके लिए सत्य का अभ्यास करना काफी कठिन है। वे ईमानदार होना चाहेंगे, लेकिन हो नहीं सकते। वे झूठ बोलने और छल-कपट में लिप्त रहने से खुद को रोक नहीं पाते, और हो सकता है इसका पता चलने के बाद उन्हें ग्लानि महसूस हो, फिर भी वे अपने भ्रष्ट स्वभाव की बाधाएँ दूर नहीं कर पाएंगे, और वे पहले की तरह झूठ बोलते और धोखा देते रहेंगे। इस समस्या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? इसका एक हिस्सा यह जानना है कि व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव का सार बदसूरत और घिनौना होता है, और अपने दिल से इससे नफरत करने में सक्षम होना है; दूसरा भाग है खुद को इस सत्य सिद्धांत के अनुसार अभ्यास करने के लिए प्रशिक्षित करना, “परन्तु तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो।” जब तुम इस सिद्धांत का अभ्यास कर रहे होते हो, तो तुम अपने कपटी स्वभाव का समाधान करने की प्रक्रिया में होते हो। स्वाभाविक रूप से, अगर तुम अपना कपटपूर्ण स्वभाव दूर करते हुए सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास कर लेते हो, तो यह तुम्हारे खुद को बदलने और सच्चे पश्चात्ताप की शुरुआत की अभिव्यक्ति है, और परमेश्वर इसे मंजूरी देता है। इसका अर्थ यह है कि जब तुम खुद को बदलोगे, तो परमेश्वर तुम्हारे बारे में अपने विचार बदलेगा। वास्तव में, परमेश्वर का ऐसा करना मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों और विद्रोहशीलता के लिए एक प्रकार की क्षमा है। वह लोगों को क्षमा कर देता है और उनके पाप या अपराध याद नहीं रखता। क्या यह पर्याप्त विशिष्ट है? क्या तुम लोग इसे समझ गए हो? एक उदाहरण और है। मान लो, तुम्हारा स्वभाव अहंकारी है, और तुम्हारे साथ चाहे कुछ भी हो जाए, तुम बहुत हठीले रहते हो—तुम हमेशा चाहते हो कि फैसले तुम करो, और दूसरे तुम्हारी बात मानें और वही करें जो तुम उनसे करवाना चाहते हो। फिर वह दिन आता है, जब तुम यह महसूस करते हो कि यह एक अहंकारी स्वभाव के कारण हुआ है। तुम्हारा यह स्वीकार करना कि यह एक अहंकारी स्वभाव है, आत्म-ज्ञान की ओर पहला कदम है। यहाँ से तुम्हें परमेश्वर के वचनों के उन कुछ अंशों की तलाश करनी चाहिए, जो अहंकारी स्वभाव का खुलासा करते हों, जिनसे तुम्हें अपनी तुलना करनी चाहिए, और आत्मचिंतन कर खुद को जानना चाहिए। अगर तुम पाते हो कि तुलना पूरी तरह से उपयुक्त है, और तुम स्वीकार करते हो कि परमेश्वर द्वारा उजागर किया गया अहंकारी स्वभाव तुममें मौजूद है, और फिर यह समझते और प्रकाश में लाते हो कि तुम्हारा अहंकारी स्वभाव कहाँ से आता है, और यह क्यों उत्पन्न होता है, और शैतान के कौन-से जहर, विधर्म और भ्रांतियाँ इसे नियंत्रित करती हैं, तो, इन सभी प्रश्नों का मर्म देखने के बाद, तुम अपने अहंकार की जड़ तक पहुँच चुके होगे। यही सच्चा आत्म-ज्ञान है। जब तुम्हारे पास इसकी अधिक सटीक परिभाषा होगी कि कैसे तुम यह भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, तो यह तुम्हारे लिए अपने बारे में गहन और अधिक व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करना सुगम बनाएगा। तुम्हें आगे क्या करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के वचनों में सत्य सिद्धांतों की तलाश करनी चाहिए और समझना चाहिए कि किस प्रकार का मानवीय आचरण और बोली सामान्य मानवता की अभिव्यक्तियाँ हैं। अभ्यास का मार्ग पा लेने के बाद तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, और जब तुम्हारा हृदय बदल जाएगा, तब तुम सच में पश्चात्ताप कर लोगे। न केवल तुम्हारे बोलने और कार्य करने में सिद्धांत होंगे, बल्कि तुम इंसानी सदृशता को भी जी रहे होगे और धीरे-धीरे अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़ रहे होगे। दूसरे लोग तुम्हें एक नए व्यक्ति के रूप में देखेंगे : तुम वह पुराना, भ्रष्ट व्यक्ति नहीं रहोगे जो तुम कभी थे, बल्कि परमेश्वर के वचनों में पुनः जन्मा व्यक्ति होगे। ऐसा व्यक्ति वह होता है जिसका जीवन-स्वभाव बदल गया है।

खुद को जानना कोई सरल कार्य नहीं है। यह सत्य स्वीकारने के साथ-साथ परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने से प्राप्त होता है, और सच्चा आत्म-ज्ञान सिर्फ परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार करके ही प्राप्त किया जा सकता है। जिन लोगों ने न्याय और ताड़ना का अनुभव नहीं किया है, वे ज्यादा से ज्यादा अपनी गलतियाँ और स्वयं द्वारा गलत की गई चीजें स्वीकार सकते हैं। उनके लिए अपना प्रकृति सार स्पष्ट रूप से देखना बहुत कठिन होगा। ऐसा क्यों था कि जब अनुग्रह के युग में विश्वासियों ने कुछ पाप करने बंद कर दिए और अपना व्यवहार सुधार लिया, तब भी उन्होंने कभी अपने जीवन-स्वभाव में बदलाव हासिल नहीं किया? भले ही वे परमेश्वर में विश्वास करते थे, फिर भी उन्होंने उसका विरोध, यहाँ तक कि उसके साथ विश्वासघात क्यों किया? भ्रष्ट मानवजाति के लिए इस मुद्दे का स्रोत पहचानना कठिन है। सभी लोगों में शैतानी स्वभाव क्यों होते हैं? ऐसा इसलिए है, क्योंकि शैतान ने मानवजाति को भ्रष्ट कर दिया है, और लोगों ने उसके दानवी शब्दों और फलसफे स्वीकार लिए हैं। इसी ने भ्रष्ट स्वभावों को जन्म दिया, और इसी तरह शैतान का स्वभाव मनुष्य द्वारा परमेश्वर के प्रतिरोध का स्रोत बन गया। लोगों के लिए इसे पहचानना सबसे मुश्किल काम है। मानवजाति को शैतान के प्रभाव से बचाने और मानवजाति के पाप और परमेश्वर के प्रति विरोध का स्रोत हल करने के लिए परमेश्वर अंत के दिनों में अपना न्याय का कार्य कर रहा है। शैतान ने हजारों वर्षों से मानवजाति को भ्रष्ट किया है, और उसकी प्रकृति ने मनुष्य के हृदयों में जड़ें जमा ली हैं। इसलिए, आत्मचिंतन और आत्मज्ञान के सिर्फ एक-दो प्रयासों से किसी भी प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव सुलझाया या हटाया नहीं जा सकता। भ्रष्ट स्वभाव लगातार और बार-बार बाहर आते रहते हैं, इसलिए लोगों को सत्य स्वीकारने और अपने शैतानी स्वभावों के साथ एक लंबी लड़ाई लड़ने की जरूरत है, जब तक कि वे शैतान पर काबू नहीं पा लेते। सिर्फ तभी वे अपने भ्रष्ट स्वभाव पूरी तरह से दूर कर सकते हैं। इसलिए, लोगों को निरंतर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, सत्य खोजना चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए, खुद को जानना चाहिए और सत्य का अभ्यास करना चाहिए, जब तक कि उनमें से भ्रष्टता निकलनी बंद न हो जाए, उनके जीवन-स्वभाव बदल न जाएँ, और वे परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त न कर लें। तभी वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करेंगे। हो सकता है, प्रत्येक लड़ाई के परिणाम तुरंत स्पष्ट न हों, और तुम बाद में भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर सकते हो। तुम थोड़ा निराश और हतोत्साहित महसूस कर सकते हो, लेकिन हार मानने को तैयार नहीं हो, और तुम अभी भी परमेश्वर की ओर देखते हुए और उस पर भरोसा करते हुए कड़ी मेहनत कर सकते हो। अगर तुम दो-तीन वर्षों तक इसी तरह से जुटे रहे, तो तुम वास्तव में सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होगे, और तुम्हारे हृदय में शांति और आनंद होगा। तब तुम स्पष्ट रूप से देखोगे कि तुम्हारी हर विफलता, हर प्रयास और हर प्राप्ति इस बात का एक अच्छा संकेत था कि तुम अपने स्वभाव में बदलाव की ओर बढ़ रहे थे और अपने बारे में परमेश्वर का मन बदल रहे थे। भले ही प्रत्येक बदलाव मानव-चेतना के लिए अगोचर है, फिर भी प्रत्येक मोड़ के साथ आने वाला स्वभावगत बदलाव किसी अन्य क्रिया या वस्तु से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अपने स्वभावगत बदलाव और जीवन प्रवेश में व्यक्ति को यही मार्ग अपनाना चाहिए। स्वभावगत बदलाव के अनुसरण का अभ्यास इसी तरह किया जाना चाहिए। बेशक, लोगों को इस बात की सटीक समझ होनी चाहिए कि स्वभावगत बदलाव कैसे होता है : यह कोई चकित और प्रसन्न करने वाला आकस्मिक, धरती हिला देने वाला बदलाव नहीं होता, जैसा कि वे कल्पना करते हैं। यह इस तरह से नहीं होता। अनजाने, धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा करके बदलव होता है। जब कोई सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होता है, तो वह कुछ प्राप्त करेगा। जब तुम तीन, पाँच, दस वर्षों तक इस मार्ग पर चलने के बाद पीछे मुड़कर देखते हो, तो तुम यह जानकर चकित होगे कि उन दस वर्षों में तुम्हारा स्वभाव बहुत बदल गया है, कि तुम पूरी तरह से भिन्न हो। हो सकता है, तुम्हारा व्यक्तित्व और मिजाज न बदला हो, या तुम्हारी जीवन-शैली और ऐसी अन्‍य चीजें न बदली हों, लेकिन तुम जो स्वभाव, अवस्थाएँ और व्यवहार दिखाते हो, वे बहुत अलग होंगे, मानो तुम वास्तव में एक अलग व्यक्ति बन गए हो। ऐसा बदलाव क्यों होगा? क्योंकि उन दस वर्षों में परमेश्वर के वचनों से कई बार तुम्हारा न्याय, ताड़ना, काट-छाँट, परीक्षण और शोधन हो चुका होगा, और तुम बहुत-से सत्य समझ चुके होगे। यह चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों में बदलाव, जीवन और मूल्यों के बारे में तुम्हारे दृष्टिकोण में बदलाव के साथ शुरू होगा होगा, जिसके बाद तुम्हारे जीवन-स्वभाव में बदलाव आएगा, उस नींव में बदलाव आएगा जिस पर तुम जीवित रहने के लिए निर्भर करते हो—और जब ये बदलाव होते हैं, तुम धीरे-धीरे दूसरे व्यक्ति, एक नए व्यक्ति बन जाओगे। तुम्हारा व्यक्तित्व, मिजाज, जीवन-शैली, यहाँ तक कि तुम्हारी वाणी और आचार-व्यवहार अपरिवर्तित रह सकते हैं, लेकिन तुमने अपना जीवन-स्वभाव बदल लिया होगा, और यह अकेले ही एक मौलिक, अनिवार्य बदलाव है। स्वभावगत बदलाव के क्या लक्षण हैं? यह विशेष रूप से कैसे अभिव्यक्त होता है? यह चीजों के बारे में व्यक्ति के विचारों में बदलाव के साथ शुरू होता है—यह तब होता है, जब गैर-विश्वासियों की चीजों को लेकर व्यक्ति के मन में जो अनगिनत विचार हैं वे वैसे-वैसे बदलने लग जाते हैं, जैसे-जैसे वह सत्य की समझ प्राप्त करने लगता है, और वे विचार परमेश्वर के वचनों के सत्य के करीब आने लगते हैं। यह स्वभावगत बदलाव का पहला चरण है। इसके अलावा, आत्मचिंतन और आत्मज्ञान के जरिये लोग सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। अपने भीतर पैदा होने वाले विभिन्न इरादों, उद्देश्यों, विचारों और भावों, धारणाओं, दृष्टिकोणों और रवैयों पर चिंतन करके वे अपनी समस्याओं का पता लगा सकते हैं और उनके लिए पश्चात्ताप महसूस करना शुरू कर सकते हैं। फिर, वे दैहिक इच्छाओं से विद्रोह कर सत्य को अभ्यास में ला सकते हैं। और ऐसा करके वे परमेश्वर के वचनों और सत्य को और भी ज्यादा सँजोने लगेंगे, और स्वीकारेंगे कि मसीह सत्य, मार्ग और जीवन है। वे मसीह का अनुसरण करने और उसके प्रति समर्पित होने के ज्यादा इच्छुक होंगे, और महसूस करेंगे कि परमेश्वर मनुष्य को उजागर करने, उसका न्याय कर उसे ताड़ना देने और लोगों के भ्रष्ट स्वभाव बदलने के लिए सत्य व्यक्त करता है, और ऐसा करके परमेश्वर मनुष्य को एक वास्तव में व्यावहारिक तरीके से बचाता और पूर्ण करता है। वे महसूस करेंगे कि परमेश्वर के न्याय और ताड़ना या उसके वचनों के पोषण और मार्गदर्शन के बिना लोगों के पास उद्धार प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं होता, न ही वे इस तरह के पुरस्कार प्राप्त कर सकते थे। वे परमेश्वर के वचनों से प्रेम करने लगेंगे, और महसूस करेंगे कि वे अपने वास्तविक जीवन में उन पर निर्भर हैं, कि पोषण और मार्गदर्शन पाने और अपने लिए रास्ता साफ करवाने की खातिर उन्हें परमेश्वर के वचनों की आवश्यकता है। उनके हृदय शांति से भर जाएँगे, और जब उन पर कुछ आ पड़ेगा, तो वे अनजाने ही आधार के रूप में इस्तेमाल करने के लिए परमेश्वर के वचन खोजेंगे, और उनके भीतर सिद्धांतों और अभ्यास के मार्ग की तलाश करेंगे। यह खुद को जानने से प्राप्त होने वाला एक परिणाम है। एक और परिणाम है : लोग अब अपने भ्रष्ट स्वभावों के उद्गार को हठधर्मिता के दृष्टिकोण से नहीं लेंगे, जैसा कि वे कभी किया करते थे। इसके बजाय, वे अपना हृदय शांत कर ईमानदारी के रवैये के साथ परमेश्वर के वचन सुन सकेंगे, और वे सत्य और सकारात्मक चीजें स्वीकार सकेंगे। इसका अर्थ यह है कि अब जब वे कोई भ्रष्ट स्वभाव दिखाएँगे, तो पहले जैसे नहीं रहेंगे—हठधर्मी, मुश्किल से वश में आने वाले, बेहद आक्रामक, अहंकारी, ढीठ और शातिर नहीं रहेंगे—बल्कि वे सक्रिय रूप से आत्मचिंतन करेंगे और अपनी वास्तविक समस्याओं के बारे में ज्ञान प्राप्त करेंगे। हो सकता है, वे न जान पाएँ कि उनके भ्रष्ट स्वभाव का सार क्या है, लेकिन वे खुद को शांत करने, परमेश्वर से प्रार्थना करने और सत्य खोजने में सक्षम होंगे, जिसके बाद वे अपनी समस्याएँ और अपना भ्रष्ट स्वभाव स्वीकारकर परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करेंगे, और भविष्य में अलग तरह से आचरण करने का संकल्प लेंगे। यह पूरी तरह समर्पण का रवैया है। इस तरह, वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला हृदय प्राप्त कर लेंगे। परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, जो कुछ भी वह उनसे अपेक्षा करता है, जो भी कार्य वह करता है या जो भी परिवेश वह उनके लिए व्यवस्थित करता है, लोगों के लिए उसके प्रति समर्पण करना आसान होगा। उनके भ्रष्ट स्वभाव उनके लिए उतनी बड़ी बाधा नहीं पेश करेंगे, उन्हें सुलझाना और उन पर विजय पाना आसान होगा। उस समय, सत्य को अभ्यास में लाना उनके लिए सरल होगा, और वे परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने में सक्षम होंगे। ये स्वभावगत बदलाव के संकेत हैं। जब कोई सत्य को अभ्यास में ला सकता है और परमेश्वर के प्रति वास्तव में समर्पण कर सकता है, तो यह कहना उचित होगा कि उसके जीवन-स्वभाव में पहले ही बदलाव आ चुका है—एक सच्चा बदलाव, जिसे पूरी तरह से सत्य के अनुसरण के जरिये प्राप्त किया जाता है। और इस प्रक्रिया के दौरान लोगों में उत्पन्न होने वाले सभी व्यवहार, चाहे वे सकारात्मक व्यवहार हों या सामान्य नकारात्मकता और कमजोरी, अनिवार्य और अपरिहार्य होते हैं। सकारात्मक व्यवहार हैं, तो नकारात्मकता और कमजोरी के व्यवहार भी अवश्य होंगे—लेकिन नकारात्मकता और कमजोरी अस्थायी होती है। जब व्यक्ति का एक निश्चित आध्यात्मिक कद हो जाता है, तो उसकी नकारात्मक, कमजोर मनोदशाएँ पहले से कम होंगी और सकारात्मक व्यवहार और प्रवेश ज्यादा होगा, और उसके क्रियाकलाप अधिकाधिक सैद्धांतिक होते जाएँगे। ऐसा व्यक्ति वो है जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है और जिसका जीवन-स्वभाव उसके भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध होने के बाद बदल गया है। कहा जा सकता है कि यही वे नतीजे हैं जिन्हें सत्य का अनुसरण करने वाले लोग परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव करके, और बार-बार अपनी काट-छाँट, परीक्षण और शोधन करवाकर प्राप्त करते हैं।

चूँकि अब सभी लोगों ने सत्य का अनुसरण करने की विशिष्ट, सामान्य प्रक्रियाएँ सुन और समझ ली हैं, इसलिए उन्हें अब सत्य से विमुख होने या उसका विरोध करने या उसका अनुसरण न करने के लिए एक-एक से औचित्य या बहाने नहीं गढ़ने चाहिए। इन सत्यों को समझने और इस मुद्दे को स्पष्ट रूप से देखने के बाद, क्या अब तुम्हें सत्य का अनुसरण न करने के जो कारण और बहाने लोग देते हैं, उनकी समझ है? अगर कोई वृद्ध व्यक्ति कहता है, “मैं बूढ़ा हूँ। मैं किसी युवा व्यक्ति की तरह प्रेरित या उत्साहित नहीं हूँ। उम्र के साथ मैंने युवावस्था की आक्रामकता और महत्वाकांक्षा खो दी है, और मैं अब अहंकार नहीं दिखाता। इसलिए तुम्हारा यह कहना कि मैं अहंकारी हूँ, बकवास है—मैं अहंकारी नहीं हूँ!” क्या वह व्यक्ति सही है? (नहीं।) स्पष्ट रूप से नहीं। तुम सभी को अब ऐसे शब्दों की समझ है। तुम उस व्यक्ति को उजागर करने में सक्षम होगे और कहोगे, “भले ही आप बूढ़े हैं, आपका स्वभाव अभी भी अहंकारी है। आप जीवन भर अहंकारी रहे हैं और कभी इसका समाधान नहीं किया। क्या आप अहंकारी बने रहना चाहते हैं?” कुछ युवा लोग कहते हैं, “मैं बहुत छोटा हूँ, मैंने समाज के अराजक हिस्सों का अनुभव या अलग-अलग समूहों के भीतर संघर्ष और आवाजाही नहीं की है। मेरे पास वे अनुभव नहीं हैं, जो दुनिया भर में घूम चुके लोगों के पास हैं—और बेशक, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मैं उन चंट बुड्ढों की तरह धूर्त या विश्वासघाती नहीं हूँ। एक युवा व्यक्ति के नाते मेरा थोड़ा अहंकारी स्वभाव होना सामान्य है; कम-से-कम मैं किसी बूढ़े व्यक्ति की तरह मतलबी, कपटी और दुष्ट नहीं हूँ।” क्या यह कहना उचित है? (नहीं।) हर व्यक्ति में भ्रष्ट स्वभाव होता है। इसका उम्र या लिंग से कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे पास वही है, जो दूसरों के पास है और उनके पास वही है जो तुम्हारे पास है। किसी पर उँगली उठाने की जरूरत नहीं है। बेशक, यह मान लेना ही काफी नहीं है कि हर किसी का स्वभाव भ्रष्ट है। चूँकि तुमने स्वीकारा है कि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है, इसलिए तुम्हें उसका समाधान करने के लिए सत्य खोजना चाहिए—जब तक तुम सत्य प्राप्त नहीं कर लेते और तुम्हारा स्वभाव बदल नहीं जाता, तब तक तुम अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाओगे। भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करना अंततः तुम्हारे सत्य स्वीकारने, अपने कारण और बहाने छोड़ने और अपने भ्रष्ट स्वभाव का ठीक से सामना कर पाने पर निर्भर करता है। तुम्हें इससे बचना या बहाने बनाकर टालना नहीं चाहिए, और तुम्हें निश्चित रूप से इसे अस्वीकार नहीं करना चाहिए। ये चीजें हासिल करना आसान है। क्या करना सबसे कठिन है? एक चीज है जो दिमाग में आती है। ऐसे लोग हैं जो कहते हैं, “तुम चाहे कहो कि मैं सत्य का अनुसरण करता हूँ या नहीं करता, चाहे कहो कि मैं सत्य से प्रेम नहीं करता या मैं उससे विमुख हो चुका हूँ, चाहे मुझे मेरा स्वभाव भ्रष्ट होने के लिए उजागर करो—मैं तुम्हें नजरअंदाज कर दूँगा। जो कुछ परमेश्वर का घर मुझसे करने को कहता है या जो भी काम करने की आवश्यकता होती है, मैं वह करता हूँ। मैं प्रवचनों और सभाओं के दौरान सुनता हूँ, जब हर कोई परमेश्वर के वचन खा-पी रहा होता है तो मैं भी साथ में पढ़ता हूँ, मैं तुम लोगों के साथ बैठकर अनुभवात्मक गवाही के वीडियो देखता हूँ, और मैं तभी खाता हूँ जब तुम लोग खाते हो। मैं तुम लोगों के साथ कदम से कदम मिलकर चलता हूँ। तुम लोगों में से कौन कह सकता है कि मैं सत्य का अनुसरण नहीं करता? मैं इसी तरह विश्वास करता हूँ, इसलिए तुम जो चाहे कर या कह सकते हो, मेरी बला से!” इस प्रकार का व्यक्ति बहाने न बनाने या औचित्य न बताने का दिखावा करता है, लेकिन सत्य का अनुसरण करने का भी उसका कोई इरादा नहीं होता। यह ऐसा है, मानो परमेश्वर के उद्धार-कार्य का उससे कोई लेना-देना न हो, मानो उसे उसकी कोई आवश्यकता न हो। इस तरह के लोग स्पष्ट रूप से नहीं कहते, “मेरी मानवता अच्छी है, मैं सच में परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, मैं चीजें त्यागने के लिए तैयार हूँ, मैं कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम हूँ। इसके बावजूद क्या मुझे परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारने की आवश्यकता है?” वे इसे स्पष्ट रूप से नहीं कहते, उनका सत्य के प्रति स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं होता, और वे बाहरी तौर पर परमेश्वर के कार्य की निंदा नहीं करते। लेकिन परमेश्वर ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है? अगर वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, अगर वे परमेश्वर के वचनों के प्रति बहुत उदासीन रहते हैं और उनकी अवहेलना करते हैं, तो उनके प्रति परमेश्वर का रवैया बहुत स्पष्ट है। वह बाइबल की इस पंक्ति की तरह है, “इसलिये कि तू गुनगुना है, और न ठंडा है और न गर्म, मैं तुझे अपने मुँह में से उगलने पर हूँ” (प्रकाशितवाक्य 3:16)। परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, और यह एक परेशानी की बात है। क्या कलीसिया में ऐसे लोग हैं? (हाँ।) तो, उन्हें कैसे छाँटा जाए? उन्हें छाँटकर कहाँ रखना चाहिए? उन्हें छाँटने की जरूरत नहीं। संक्षेप में, ऐसे लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते। वे सत्य नहीं स्वीकारते, न आत्मचिंतन करते और न खुद को जानते हैं, और उनके पास पश्चात्ताप का हृदय नहीं होता—इसके बजाय परमेश्वर में उनकी एक उलझी हुई और भ्रांत आस्था होती है। परमेश्वर का घर उनसे जो कुछ भी करने को कहता है, वे उसे बिना कोई गड़बड़ी या व्यवधान पैदा किए करते हैं। उनसे पूछो, “क्या तुम्हारी कोई धारणा है?” “नहीं।” “क्या तुम्हारा कोई भ्रष्ट स्वभाव है?” “नहीं।” “क्या तुम उद्धार प्राप्त करना चाहते हो?” “पता नहीं।” “क्या तुम स्वीकारते हो कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं?” “पता नहीं।” उनसे कुछ भी पूछो, वे यही कहते हैं कि उन्हें पता नहीं। क्या ऐसे लोगों के साथ कोई समस्या है? (हाँ।) समस्या है, फिर भी उन्हें लगता है कि यह कोई समस्या नहीं, और इसे हल करने की आवश्यकता नहीं। बाइबल कहती है : “इसलिये कि तू गुनगुना है, और न ठंडा है और न गर्म, मैं तुझे अपने मुँह में से उगलने पर हूँ।” यह वाक्यांश—“मैं तुझे अपने मुँह में से उगलने पर हूँ”—ऐसे लोगों से निपटने का सिद्धांत है; उन्हें यही परिणाम मिलता है। न ठंडे न गर्म होने का अर्थ है कि इन लोगों के पास कोई विचार नहीं है; इसका अर्थ है कि चाहे तुम उनके साथ स्वभावगत बदलाव या उद्धार के मामलों पर कैसे भी संगति करो, वे उदासीन रहते हैं। यहाँ “उदासीन” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि वे ऐसे मामलों में रुचि नहीं रखते और उनके बारे में सुनने को तैयार नहीं होते। कुछ लोग कह सकते हैं, “कोई विचार न होने या भ्रष्टता की अभिव्यक्तियाँ होने में क्या गलत है?” क्या निरी बकवास है! ये निष्प्राण, मृत लोग हैं, न ठंडे और न गर्म, और परमेश्वर के पास इन पर कार्य करने का कोई उपाय नहीं है। जब उन लोगों की बात आती है जिन्हें बचाया नहीं जा सकता, तो परमेश्वर उन्हें उगल देता है और उनसे सरोकार नहीं रखता। वह उन पर कार्य नहीं करता, और हम ऐसे लोगों का किसी प्रकार का मूल्यांकन नहीं करेंगे, हम उन्हें सिर्फ नजरअंदाज करेंगे। अगर कलीसिया में ऐसे लोग हैं, तो वे तब तक रह सकते हैं जब तक वे कोई गड़बड़ी नहीं करते—अगर वे गड़बड़ी करते हैं, तो उन्हें निकाल देना चाहिए। इस चीज का समाधान करना आसान है। मेरे वचन उन लोगों की ओर निर्देशित हैं, जो सत्य स्वीकार सकते हैं, जो उसका अनुसरण करना चाहते हैं और उसके बारे में एक स्पष्ट दृष्टिकोण रखते हैं, जो स्वीकारते हैं कि उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं और उन्हें बचाया जा सकता है; उनका लक्ष्य वे लोग हैं जो परमेश्वर के वचन समझ सकते हैं और उसकी वाणी सुन सकते हैं, उनका लक्ष्य परमेश्वर की भेड़ें हैं—वे लोग ही हैं, जिनकी ओर परमेश्वर के वचन निर्देशित हैं। परमेश्वर के वचन उन लोगों की ओर निर्देशित नहीं हैं, जो उसके प्रति न तो ठंडे हैं न गर्म। ऐसे लोगों की सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं होती, और वे परमेश्वर के वचनों और कार्य के प्रति न तो ठंडे होते हैं न गर्म। ऐसे लोगों से निपटने का तरीका यह कहना कि “छोड़ो। तुम कैसे हो, इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं”—उन्हें अनदेखा करना और उन पर ऊर्जा बरबाद न करना है।

हमने अभी सत्य का अनुसरण करने के विषय से संबंधित कुछ नकारात्मक उदाहरणों पर संगति की है। लोग अक्सर अनजाने ही अपने भ्रष्ट स्वभावों के उद्गारों को नकारने के लिए विभिन्न औचित्य, बहाने और कारण सोचते हैं—बेशक, वे अक्सर खुद को और दूसरों को धोखा देते हुए अपने भ्रष्ट स्वभावों की मौजूदगी भी छिपाते हैं। ये मनुष्य के मूर्खतापूर्ण और बुद्धिहीन तरीके हैं। एक ओर लोग स्वीकारते हैं कि मनुष्य का न्याय करने वाले परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं; दूसरी ओर वे अपने भ्रष्ट स्वभावों की मौजूदगी, और साथ ही सत्य का उल्लंघन करने वाले अपने गलत व्यवहारों से इनकार करते हैं। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि वे सत्य नहीं स्वीकारते। तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है, इसे चाहे तुम नकारो या स्वीकारो या चाहे अपने भ्रष्ट व्यवहार के उद्गारों के लिए बहाने, औचित्य या सही लगने वाले तर्क पेश करो—संक्षेप में, अगर तुम सत्य नहीं स्वीकारते, तो तुम परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते। यह निर्विवाद है। जो कोई भी सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं करता, उसे अंततः उजागर कर हटा दिया जाएगा, चाहे वह कितने भी वर्षों से विश्वासी क्यों न हो। यह परिणाम भयानक है। आपदाएँ आने और तुम्हारे उजागर होने में देर नहीं लगेगी, और जब आपदाएँ आएँगी, तब तुम भयभीत महसूस करोगे। तुम्हारे पास कई औचित्य और पर्याप्त बहाने हो सकते हैं, या हो सकता है कि तुमने अच्छी तरह भेष बदलकर खुद को पूरी तरह से छिपा लिया हो, लेकिन एक तथ्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता : तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव ज्यों का त्यों है, वह बिल्कुल नहीं बदला। तुम वास्तव में खुद को जानने में असमर्थ हो, तुम सच्चा पश्चात्ताप करने में सक्षम नहीं हो, और अंत में, तुम वास्तव में खुद को बदलने या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम नहीं होगे, और परमेश्वर तुम्हारे बारे में अपना मन नहीं बदलेगा। तब क्या तुम बड़ी मुसीबत में नहीं पड़ोगे? तुम हटाए जाने के खतरे में होगे। इसीलिए चतुर व्यक्ति ये नासमझी भरे बहाने और मूर्खतापूर्ण औचित्य छोड़ देगा और अपना छद्म वेश और आवरण उतार देगा। वह उस भ्रष्ट स्वभाव का ठीक से सामना करेगा, जिसे वह दिखाता है और उसे सँभालने और हल करने के लिए सही तरीकों का उपयोग करेगा, और वह जो कुछ भी करता है उसे सत्कर्म बनाने का प्रयास करेगा, ताकि परमेश्वर उसके बारे में अपना मन बदल ले। अगर परमेश्वर तुम्हारे बारे में अपना मन बदलता है, तो यह साबित करता है कि उसने वास्तव में तुम्हें तुम्हारे पिछले विद्रोह और प्रतिरोध से दोषमुक्त कर दिया है। तुम शांति और आनंद महसूस करोगे, और अब ऐसे दबे हुए महसूस नहीं करोगे, जैसे कोई बोझ उठा लिया हो। यह भावना तुम्हारी आत्मा की पुष्टि है; तुम्हें अब उद्धार की आशा है। यह वह आशा है, जिसका विनिमय तुमने सत्य के अनुसरण और अपने अच्छे कर्मों के लिए चुकाई गई कीमतों से किया था। यह वह परिणाम है, जिसे तुमने सत्य का अनुसरण करके और अच्छे कर्म तैयार करके प्राप्त किया है। इसके विपरीत, तुम खुद को पहले ही काफी चतुर समझ सकते हो, और हर बार भ्रष्टता जाहिर करने पर खुद को बचाने और दोषमुक्त करने के लिए पर्याप्त औचित्य खोजने में सक्षम हो सकते हो। तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव छिपा सकते हो और उस पर बढ़िया आवरण चढ़ा सकते हो, और इस प्रकार चतुराई से उस पर चिंतन करने और उसे जानने से बच सकते हो, मानो तुमने कोई भ्रष्टता दिखाई ही न हो। परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित विभिन्न परिवेशों द्वारा उजागर होने पर तुम उससे बार-बार बचकर खुद को काफी चतुर समझ सकते हो। तुमने आत्मचिंतन कर खुद को जाना नहीं होगा, तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया होगा, और तुमने परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने के कई अवसर खो दिए होंगे। इसके क्या परिणाम होंगे? आओ इसे फिलहाल एक तरफ रख दें कि तुम पश्चात्ताप करने और उद्धार प्राप्त करने में सक्षम हो या नहीं, और सिर्फ यह कहें कि अगर परमेश्वर तुम्हें बार-बार पश्चात्ताप करने के मौके देता है, और उनमें से कोई भी तुम्हें कभी भी अपना मन बदलने के लिए मजबूर नहीं करता, तो तुम बड़ी मुसीबत में होगे। तुम कितनी अच्छी तरह से अपना बचाव करते हो, खुद को कितनी अच्छी तरह पेश करते हो, खुद को कितनी अच्छी तरह से छिपाते हो, कितनी अच्छी तरह से बहाना बनाते और खुद को सही ठहराते हो, इससे क्या लाभ होगा? अगर परमेश्वर ने तुम्हें बार-बार अवसर दिए हैं, और इसने तुम्हें अपना मन बदलने के लिए भी मजबूर नहीं किया, तो तुम खतरे में हो। क्या तुम जानते हो कि वह खतरा क्या है? तुम हठपूर्वक अपने भ्रष्ट स्वभाव के लिए बहाने बनाते रहते हो, सत्य का अनुसरण न करने के लिए बहाने और औचित्य पेश करते हो, और परमेश्वर के न्याय और कार्य का विरोध कर उसे नकारते हो, और फिर भी, तुम खुद को बहुत अच्छा समझते हो और मानते हो कि तुम्हारा अंतःकरण साफ है। तुम परमेश्वर के घर के हाथों अपनी निगरानी और काट-छाँट स्वीकारने से मना करते हो, परमेश्वर के प्रति विद्रोह से भरे दिल के साथ उसके न्याय, ताड़ना और उद्धार से बार-बार बचते हो—परमेश्वर पहले से ही तुमसे घृणा करता है और वह तुम्हें पहले ही छोड़ चुका है, और फिर भी, तुम सोचते हो कि तुम अभी भी बचाए जा सकते हो। क्या तुम नहीं जानते कि तुम पहले ही गलत मार्ग पर बहुत आगे तक जा चुके हो और तुम पहले ही छुटकारे से परे हो? परमेश्वर के घर में परमेश्वर राज करता है। क्या तुम्हें लगता है कि जब तुम उसका विरोध और तरह-तरह की बुराइयाँ करते हो, तो तुम परमेश्वर के अधिकार से बाहर हो? तुम परमेश्वर का न्याय और ताड़ना नहीं स्वीकारते, तुमने सत्य और जीवन प्राप्त नहीं किया है, और तुम्हारे पास कोई भी अनुभवात्मक गवाही नहीं है। इसके लिए परमेश्वर तुम्हारी निंदा करता है। तुम अपने ऊपर विपदा ला रहे हो। इसमें चतुराई की कोई बात नहीं—यह मूर्खता है, अत्यधिक मूर्खता! यह विनाशकारी है! हमने यहाँ यह बता दिया है—अगर तुम्हें यकीन न हो, तो बस प्रतीक्षा करो और देखो। बेहतर होगा, तुम यह न सोचो कि अगर तुम्हारे पास सत्य का अनुसरण न करने के लिए औचित्यों का पुलिंदा है, और तुम्हारे पास तुम्हारी वाक्पटुता और षड्यंत्र है, कि अगर कोई तुम्हें बहस में मात नहीं दे सकता और भाई-बहन तुम्हें उजागर नहीं कर सकते, और अगर कलीसिया के पास तुम्हें बाहर निकालने का कोई कारण नहीं है, तो परमेश्वर का घर तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। तुम इस बारे में गलत हो। तुम परमेश्वर से लड़ते रहो; मैं देखूँगा कि तुम कब तक उसका मुकाबला कर पाते हो! क्या तुम उस दिन तक उसका मुकाबला कर पाओगे, जब परमेश्वर अपना कार्य पूरा करने के बाद अच्छे लोगों को पुरस्कार और दुष्टों को दंड नहीं देगा? क्या तुम यह सुनिश्चित कर सकते हो कि तुम आपदाओं में नहीं मरोगे—कि तुम उनसे बचे रहोगे? क्या तुम वाकई अपने भाग्य पर संप्रभुता रखते हो? अपने औचित्यों और बहानों से तुम कुछ समय के लिए परमेश्वर के घर की जाँच-पड़ताल से बच सकते हो; वे तुम्हें कुछ समय के लिए अपना अधम अस्तित्व घसीटने में सक्षम कर सकते हैं। तुम अस्थायी रूप से लोगों की आँखों में धूल झोंकने में सक्षम हो सकते हो, और कलीसिया में भेष बदलकर दूसरों को धोखा देते रह सकते हो और वहाँ एक स्थान भर सकते हो—लेकिन तुम परमेश्वर के निरीक्षण या जाँच से बच नहीं सकते। परमेश्वर व्यक्ति का परिणाम इस आधार पर तय करता है कि उसके पास सत्य है या नहीं; वह अपना काम और मड़ाई स्वयं करता है। चाहे तुम किसी भी प्रकार के व्यक्ति या कोई भी शैतान हो, तुम परमेश्वर के न्याय और दंड से बच नहीं सकते। जैसे ही परमेश्वर के चुने हुए लोग सत्य समझेंगे और विवेक प्राप्त करेंगे, कोई नहीं बच पाएगा, तभी तुम कलीसिया से बाहर निकाल दिए जाओगे। हो सकता है, कुछ लोगों को यकीन न आए और वे भुनभुनाएँ, “मैंने परमेश्वर के लिए इतनी भाग-दौड़ की है, उसके लिए इतना काम किया है और इतनी कीमत चुकाई है। मैंने अपना परिवार और शादी त्याग दी; मैंने परमेश्वर और उसके काम के लिए अपनी जवानी झोंक दी। मैंने अपना करियर छोड़ दिया और अपने जीवन की आधी ऊर्जा यह सोचते हुए खर्च कर दी कि मुझे निश्चित तौर पर वे आशीष मिलेंगे, जो वह प्रदान करता है। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि सत्य का अनुसरण और उसका अभ्यास न करने के कारण मुझे हटा दिया जाएगा!” क्या तुम नहीं जानते कि परमेश्वर के घर में सत्य राज करता है? क्या तुम्हें यह स्पष्ट नहीं कि परमेश्वर किसे पुरस्कार देता है और किसे आशीष प्रदान करता है? अगर तुम्हारा त्याग और व्यय सच्ची अनुभवात्मक गवाही में परिणत होता है, और वे परमेश्वर के कार्य की गवाही भी देते हैं, तो परमेश्वर तुम्हें पुरस्कार और आशीष देगा। अगर तुम्हारा त्याग और व्यय सच्ची अनुभवात्मक गवाही नहीं हैं, और परमेश्वर के कार्य की गवाही तो बिल्कुल भी नहीं हैं, अगर इसके बजाय वे तुम्हारे बारे में गवाही हैं, तुम्हारी उपलब्धियों को मान्यता देने के लिए परमेश्वर से एक अनुरोध हैं, तो तुम उसी रास्ते पर चल रहे हो जिस पर पौलुस चला था। तुम जो कर रहे हो, वह बुराई है और यह परमेश्वर का विरोध करना है, और परमेश्वर तुमसे कहेगा, “मुझसे दूर हो जाओ, कुकर्मी!” और इसका क्या अर्थ होगा? यह इस बात का सबूत होगा कि तुम सड़ चुके हो, आपदाओं में गिरने और दंडित होने के लिए अभिशप्त हो। तुम पर विपदा आएगी। पौलुस, हैसियत, स्वयं द्वारा किए गए काम, अपनी योग्यता और अपने गुणों के मामले में अपने समय के औसत व्यक्ति से श्रेष्ठ था—लेकिन इससे क्या हुआ? परमेश्वर में अपने विश्वास में शुरू से अंत तक पौलुस परमेश्वर के साथ सौदा करने, शर्तें तय करने की कोशिश कर रहा था; उसने परमेश्वर से पुरस्कार और मुकुट माँगा। अंत में, उसने वास्तव में पश्चात्ताप नहीं किया, न ही बहुत-से अच्छे कर्म तैयार किए—और स्वाभाविक रूप से, उसके पास ज्यादा सच्ची अनुभवात्मक गवाही भी नहीं थी। क्या वह वास्तव में पश्चात्ताप किए बिना भी परमेश्वर की क्षमा प्राप्त कर सकता था? क्या वह परमेश्वर को अपने बारे में मन बदलने के लिए राजी कर सकता था? यह असंभव होता। पौलुस ने अपना पूरा जीवन प्रभु के लिए बिताया, पर चूँकि वह एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चला था और उसने पश्चात्ताप करने से बिल्कुल इनकार कर दिया था, इसलिए उसे न सिर्फ पुरस्कृत नहीं किया गया—उसे परमेश्वर द्वारा दंडित भी किया गया। कहने की जरूरत नहीं कि उसे जो परिणाम भुगतने पड़े, वे विनाशकारी थे। इसलिए, मैं अब तुम्हें स्पष्ट रूप से बता रहा हूँ कि अगर तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य का अनुसरण करता है, तो तुम्हें कम से कम थोड़ी समझ होनी चाहिए और परमेश्वर के साथ बहस नहीं करनी चाहिए या अपना परिणाम और मंजिल को दाँव में जीतने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, जैसे कि तुम जुआ खेल रहे हो। यह परमेश्वर के साथ सौदा करने का प्रयास है, जो उसका विरोध करने का एक तरीका है। उन लोगों का क्या अच्छा अंत हो सकता है, जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी उसका विरोध करते हैं? मृत्यु के सामने लोग शिष्ट बन जाते हैं; जिन्हें विवेक छू नहीं पाता, वे तब तक अपना रास्ता नहीं छोड़ते जब तक कि वे मृत्यु के द्वार पर न पहुँच जाएँ। बचाए जाने का सबसे अच्छा, सरल और समझदारी भरा तरीका है अपने सभी बहाने, औचित्य और शर्तें छोड़ना, और अपने पैर मजबूती से जमीन पर रखते हुए सत्य स्वीकारना और उसका अनुसरण करना, जिससे परमेश्वर तुम्हारे बारे में अपना मन बदल सके। जब परमेश्वर तुम्हारे बारे में अपना मन बदलता है, तो तुम्हें बचाए जाने की आशा होती है। मनुष्य के उद्धार की आशा परमेश्वर द्वारा दी जाती है, और परमेश्वर द्वारा तुम्हें यह आशा देने की पूर्व-शर्त यह है कि तुम वह सब-कुछ छोड़ दो जिसे तुम सँजोते हो और उसके साथ सौदेबाजी की कोशिश किए बिना उसका और सत्य का अनुसरण करने के लिए सब-कुछ त्याग दो। यह महत्व नहीं रखता कि तुम बूढ़े हो या जवान, पुरुष हो या महिला, शिक्षित हो या अशिक्षित, और न यही महत्व रखता है कि तुम कहाँ पैदा हुए थे। परमेश्वर इनमें से कोई चीज नहीं देखता। तुम कह सकते हो, “मेरा मिजाज अच्छा है। मैं धैर्यवान, सहिष्णु और दयालु हूँ। अगर मैं अंत तक धैर्य रखे रहूँगा, तो इससे परमेश्वर मेरे बारे में अपना मन बदल लेगा।” ये चीजें बेकार हैं। परमेश्वर तुम्हारा मिजाज या तुम्हारा व्यक्तित्व या तुम्हारी शिक्षा या तुम्हारी उम्र नहीं देखता, और न ही यह कोई महत्व रखता है कि तुमने कितना कष्ट उठाया है या कितना काम किया है। परमेश्वर तुमसे पूछेगा, “आस्था के तमाम वर्षों में क्या तुम्हारा स्वभाव बदला है? वह क्या है जिसके अनुसार तुम जीते हो? क्या तुमने सत्य का अनुसरण किया है? क्या तुमने परमेश्वर के वचन स्वीकार किए हैं?” तुम कह सकते हो, “मैंने उन्हें सुना और स्वीकारा है।” तब परमेश्वर तुमसे पूछेगा, “चूँकि तुमने उन्हें सुना और स्वीकारा है, तो क्या तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव हल हो गया है? क्या तुमने वास्तव में पश्चात्ताप किया है? क्या तुमने वास्तव में परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण किया और उन्हें स्वीकारा है?” तुम कहते हो, “मैंने कष्ट सहा है और कीमत चुकाई है; मैंने खुद को खपाया है और चीजें त्यागी हैं, और मैंने भेंटें चढ़ाई हैं—मैंने अपने बच्चे भी परमेश्वर को अर्पित किए हैं।” तुम्हारी तमाम भेंटें व्यर्थ हैं। इस तरह की चीजों का स्वर्ग के राज्य के आशीषों के लिए विनिमय नहीं किया जा सकता या परमेश्वर द्वारा तुम्हारे बारे में मन बदलने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। अपने बारे में परमेश्वर का मन बदलवाने का एकमात्र तरीका है सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल पड़ना। कोई दूसरा विकल्प नहीं है। जब उद्धार की बात आती है, तो मनुष्य को अवसरवादी या धूर्त नहीं होना चाहिए, और यहाँ बेईमानी का कोई रास्ता नहीं है। क्या तुम समझ रहे हो? तुम्हें इस पर स्पष्ट होना चाहिए। इस बारे में भ्रमित न होना—अगर तुम होगे भी, तो परमेश्वर नहीं होगा। तो अब से तुम्हें क्या करना चाहिए? अपने रवैया उलट लो और नजरिया बदल डालो, और चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, परमेश्वर के वचनों को अपनी नींव बनने दो। न तो कोई मानव-निर्मित “अच्छाई,” कोई इंसानी बहाना, कोई इंसानी फलसफा, ज्ञान, नैतिकता, आचार-विचार या जमीर, और न ही मनुष्य की तथाकथित सत्यनिष्ठा और गरिमा सत्य का स्थान ले सकती है। इन चीजों को एक तरफ रख दो, अपना हृदय मौन कर लो, और अपने समस्त आचरण और कार्यों की नींव परमेश्वर के वचनों के भीतर खोजो। और ऐसा करते हुए परमेश्वर के वचनों के भीतर मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के विभिन्न पहलुओं का उसका प्रकाशन खोजो। उनसे अपनी तुलना करो और अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करो। जितनी जल्दी हो सके, खुद को जानने का प्रयास करो, भ्रष्टता दूर करो और पश्चात्ताप करके खुद को पूरा बदल डालने की जल्दी करो। अपनी बुराई त्याग दो और अपने आचरण और कार्यों में सत्य सिद्धांत खोजो, उन सभी को परमेश्वर के वचनों पर आधारित करो—तुम्हें इन चीजों को इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं पर बिल्कुल भी आधारित नहीं करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के साथ सौदा करने की बिल्कुल भी कोशिश नहीं करनी चाहिए; तुम्हें अपने महत्वहीन कष्टों और बलिदानों का परमेश्वर के पुरस्कारों और आशीषों के लिए विनिमय करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। ऐसी मूर्खतापूर्ण चीजें करना बंद करो, कहीं ऐसा न हो कि परमेश्वर तुम पर क्रोधित हो जाए और तुम्हें शाप देकर मिटा दे। क्या यह स्पष्ट है? क्या तुम लोग इसे समझ गए हो? (हाँ।) तो ठीक है, आगे बढ़ते हुए इस पर सावधानी से विचार करो।

जिस भी चीज पर हमने अभी-अभी संगति की, वह सत्य के अनुसरण से संबंधित थी, और हालाँकि हमने इस वैचारिक प्रश्न का कोई विशिष्ट उत्तर नहीं दिया कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, फिर भी हम कुछ ऐसी संगति में शामिल हुए जो सत्य के अनुसरण को लेकर मनुष्य की विभिन्न गलतफहमियों और विकृत ज्ञान के साथ ही व्यक्ति द्वारा सत्य का अनुसरण करते समय मौजूद रहने वाली विभिन्न कठिनाइयों और समस्याओं को लक्षित करती थी। समापन करते हुए मैं सारांश प्रस्तुत करना चाहूँगा कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, वे तरीके जिनसे सत्य का अनुसरण प्रकट होता है, और सत्य का अनुसरण करने के लिए अभ्यास का मार्ग वास्तव में क्या है। तो, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? सत्य का अनुसरण करना परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव शुरू करना है, और फिर सत्य की समझ प्राप्त करना और परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने की प्रक्रिया के माध्यम से सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना है, और ऐसा व्यक्ति बनना है जो वास्तव में परमेश्वर को जानता है और उसके प्रति समर्पण करता है। यही वह अंतिम परिणाम है जो सत्य का अनुसरण करने से प्राप्त होता है। निस्संदेह, सत्य का अनुसरण अनेक कदमों वाली प्रक्रिया है, और उसे कई चरणों में विभाजित किया गया है। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद जब तुम पाते हो कि वे सत्य और वास्तविकता हैं, तो तुम परमेश्वर के वचनों के भीतर आत्मचिंतन करना शुरू करोगे और आत्म-ज्ञान प्राप्त करोगे। तुम देखोगे कि तुम बहुत विद्रोही हो और बहुत सारी भ्रष्टता दिखाते हो। तुम सत्य को अभ्यास में लाने और परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए तरसोगे और सत्य की दिशा में प्रयास करना शुरू कर दोगे। यही वह परिणाम है, जो आत्मचिंतन और आत्मज्ञान से आता है। उसी क्षण से तुम्हारे जीवन के अनुभव शुरू हो जाते हैं। जब तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होने वाली अवस्थाओं और समस्याओं की जाँच-पड़ताल करना शुरू कर देते हो, तो यह साबित करता है कि तुमने सत्य का अनुसरण करना शुरू कर दिया है। तुम घटित होने वाली किसी भी समस्या या स्वयं द्वारा दिखाई जाने वाली किसी भी भ्रष्टता पर सक्रिय रूप से चिंतन और उसकी जाँच करने में सक्षम होगे। और जब तुम यह जान जाते हो कि वे वास्तव में भ्रष्टता के उद्गार और भ्रष्ट स्वभाव हैं, तो तुम स्वाभाविक रूप से सत्य खोजकर उन समस्याओं को हल करना शुरू करोगे। जीवन-प्रवेश आत्मचिंतन से शुरू होता है; यह सत्य का अनुसरण करने का पहला कदम है। इसके ठीक बाद, आत्मचिंतन और आत्मज्ञान के माध्यम से तुम देखोगे कि परमेश्वर के खुलासे के सभी वचन तथ्यों के अनुरूप हैं। तब तुम उनके प्रति हृदय से समर्पित हो पाओगे, और परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकार पाओगे। यह सत्य का अनुसरण करने का दूसरा कदम है। ज्यादातर लोग परमेश्वर के उन वचनों को स्वीकारने में सक्षम होते हैं, जो मनुष्य के भ्रष्ट व्यवहारों को प्रकट करते हैं, लेकिन वे परमेश्वर के उन वचनों को आसानी से नहीं स्वीकार पाते, जो मनुष्य के भ्रष्ट सार को उजागर करते हैं। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद वे अपनी अत्यधिक गहरी भ्रष्टता को नहीं स्वीकारते; वे सिर्फ परमेश्वर के उन वचनों को स्वीकारते हैं जो मनुष्य के भ्रष्ट व्यवहारों को प्रकट करते हैं। इस वजह से, वे परमेश्वर का न्याय और ताड़ना दिल से नहीं स्वीकार पाते। इसके बजाय, वे उसे एक तरफ कर देते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मुझमें बस कुछ ही भ्रष्ट व्यवहार हैं, लेकिन मैं कुछ अच्छी चीजें कर सकता हूँ। मैं एक अच्छा इंसान हूँ, मैं शैतान का नहीं हूँ। मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, इसलिए मुझे परमेश्वर का होना चाहिए।” क्या यह बकवास नहीं है? तुम मानव-संसार में पैदा हुए हो, तुम शैतान की सत्ता में रहे हो, और तुमने परंपरागत संस्कृति की शिक्षा प्राप्त की है। तुम्हारी जन्मजात विरासत और वह ज्ञान जो तुमने सीखा है, शैतान से आया है। तुम जिन महान और प्रसिद्ध लोगों की पूजा करते हो, वे सभी शैतान के हैं। क्या यह कहना कि तुम शैतान के नहीं हो, तुम्हें उसकी भ्रष्टता से बच निकलने देगा? यह ठीक उसी तरह है, जैसे छोटे बच्चे जिस क्षण से अपना मुँह खोलते हैं, उसी क्षण से झूठ बोलने और दूसरों का अपमान करने में सक्षम होते हैं। उन्हें ऐसा करना कौन सिखाता है? कोई नहीं। वह शैतान की भ्रष्टता के परिणाम के अलावा और क्या हो सकता है? ये तथ्य हैं। लोग आध्यात्मिक जगत के शैतान और दुष्ट आत्माओं को नहीं देख सकते, लेकिन जीवित राक्षस और दानवों के राजा मानव-संसार में हर जगह हैं। ये सभी शैतान के अवतार हैं। यह एक ऐसा तथ्य है, जिसे सभी लोगों को स्वीकारना चाहिए। जो लोग सत्य समझते हैं, वे ये चीजें समझ सकते हैं, और वे स्वीकार सकते हैं कि परमेश्वर के खुलासे के सभी वचन तथ्य हैं। कुछ लोग खुद को जानने की बात कर सकते हैं, लेकिन वे कभी यह नहीं स्वीकारते कि परमेश्वर के वचनों द्वारा प्रकट की गई भ्रष्टताएँ तथ्यात्मक हैं, या उसके वचन सत्य हैं। यह सत्य स्वीकारने में असमर्थ होने के बराबर है। अगर व्यक्ति इस तथ्य को नहीं स्वीकारता कि उसका स्वभाव भ्रष्ट है, तो वह सच्चा पश्चात्ताप नहीं कर पाएगा। निस्संदेह, इस तथ्य को मानने और स्वीकारने के लिए कि सभी लोगों का स्वभाव भ्रष्ट है, व्यक्ति को कुछ समय के लिए परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना आवश्यक है। कई भ्रष्ट स्वभावों के उद्गार के बाद वह स्वाभाविक रूप से उस तथ्य के सामने अपना सिर झुका लेगा। उसके पास यह मानने के अलावा कि मनुष्य को उजागर करने वाले, उसका न्याय और निंदा करने वाले परमेश्वर के सभी वचन तथ्य और सत्य हैं, और उन्हें पूरी तरह से स्वीकारने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। परमेश्वर के वचनों द्वारा जीते जाने का यही अर्थ है। जब लोग परमेश्वर के वचनों के आधार पर अपने भ्रष्ट स्वभावों और भ्रष्ट सार को जानने में सक्षम होते हैं, और यह स्वीकारते हैं कि उनमें शैतानी स्वभाव है और उनकी भ्रष्टता गहरी है, तब वे परमेश्वर का न्याय और ताड़ना पूरी तरह से स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित होने के इच्छुक होंगे, जो मानव-जाति को प्रकट कर उसका न्याय करते हैं, चाहे वे कितने भी कठोर या चुभने वाले क्यों न हों। जब तुम यह समझ और थोड़ा जान जाते हो कि परमेश्वर के वचन भ्रष्ट मानवजाति को कैसे परिभाषित, वर्गीकृत और निंदित करते हैं, साथ ही वे भ्रष्ट मानवजाति का कैसे न्याय और खुलासा करते हैं, जब तुम वास्तव में परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकार लेते हो और अपने भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार को जानना शुरू कर देते हो, जब तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव, शैतान और अपनी देह से घृणा करना शुरू कर देते हो—और जब तुम सत्य प्राप्त करने, एक मनुष्य के रूप में जीने और ऐसा व्यक्ति बनने के लिए लालायित रहते हो, जो वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है—तभी तुम अपने स्वभाव में बदलाव लाने पर ध्यान देना शुरू करते हो। यह सत्य का अनुसरण करने का तीसरा कदम है।

वास्तव में खुद को जानने का अर्थ है परमेश्वर के वचनों के आधार पर अपने भ्रष्ट स्वभाव पर चिंतन कर उसे जानना और उससे अपने भ्रष्ट सार और अपनी भ्रष्टता के तथ्य का ज्ञान प्राप्त करना। जब व्यक्ति ऐसा करता है, तो वह पूरी स्पष्टता के साथ मानवजाति की भ्रष्टता की अत्यधिक गहराई देखेगा—वह देखेगा कि लोग उस तरह से नहीं जीते, जैसा कि उनसे अपेक्षित है, और मानवता सिर्फ भ्रष्ट स्वभावों को जीती है, और मनुष्य में जरा-सा भी जमीर या विवेक नहीं है। वह देखेगा कि चीजों के बारे में लोगों के सभी विचार शैतान के हैं, और यह कि उनमें से कोई भी सही या सत्य के अनुरूप नहीं है, और लोगों की प्राथमिकताएँ, अनुसरण, और वे रास्ते जो वे चुनते हैं, उन सबमें शैतान के विषों की मिलावट होती है, और इन सबमें मनुष्य की असंयमित इच्छाएँ और आशीष प्राप्त करने का इरादा रहता है। वह देखेगा कि मनुष्य जो स्वभाव प्रकट करता है वह हूबहू शैतान का स्वभाव और प्रकृति सार होता है। खुद को इस हद तक जानना कोई साधारण बात नहीं है; इसे सिर्फ परमेश्वर के वचनों के आधार पर ही प्राप्त किया जा सकता है। अगर यह परंपरागत संस्कृति के नैतिक सिद्धांतों, कथनों और विचारों के आधार पर किया जाए, तो क्या कोई सच्चा आत्मज्ञान प्राप्त कर पाएगा? बिल्कुल नहीं। तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव इन शैतानी फलसफों और सिद्धांतों के भीतर से आया है। क्या अपना आत्मज्ञान शैतान की इन चीजों पर आधारित करना बेतुका नहीं होगा? क्या यह कोरी बकवास नहीं होगी? इसलिए, आत्मज्ञान को परमेश्वर के वचनों पर आधारित होना चाहिए। केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं, और केवल परमेश्वर के वचन ही वह मानदंड हैं जिसके द्वारा सभी लोगों, मामलों और चीजों को मापा जाता है। अगर तुम वास्तव में देखते हो कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और वे ही एकमात्र सही आधार हैं जिस पर सभी लोगों, मामलों और चीजों को मापा जा सकता है, तो तुम्हारे पास आगे बढ़ने का मार्ग है। तब तुम प्रकाश में जी सकते हो, जो कि परमेश्वर के सामने जीना है। जब लोग परमेश्वर के वचनों के भीतर अपने भ्रष्ट सार का सच्चा ज्ञान प्राप्त करते हैं, तो वे बाद में कैसे व्यवहार और अभ्यास करेंगे? (वे प्रायश्चित करेंगे।) यह सही है। जब व्यक्ति अपने प्रकृति सार को जान लेता है तो उसके दिल में सहज रूप से ग्लानि पैदा होगी और वह पश्चात्ताप करने लगेगा। इसका मतलब यह है कि वह अपने भ्रष्ट स्वभावों से छुटकारा पाने की कोशिश करेगा, और अब शैतानी स्वभावों के अनुसार नहीं जिएगा। इसके बजाय वह परमेश्वर के वचनों के अनुसार जिएगा और आचरण करेगा, और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में सक्षम होगा। यही सच्चा पश्चात्ताप है। यह सत्य के अनुसरण का चौथा चरण है। तुम सभी लोगों को स्पष्ट है कि सच्चा पश्चात्ताप क्या होता है, तो अब, तुम्हें इसका अभ्यास कैसे करना चाहिए? खुद को बदलने का अभ्यास करो। इसका अर्थ है उन चीजों को छोड़ देना, जिनसे तुम चिपके हो और जिन्हें तुम सही समझते हो, शैतानी स्वभाव के अनुसार न जीना, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार होना। खुद को बदलने का यही मतलब है। विशेष रूप से, तुम्हें पहले खुद को नकारना चाहिए और परमेश्वर के वचनों के आधार पर यह विवरण देना चाहिए कि तुम्हारे विचार, मत, कार्य और कर्म सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, और वे कैसे उत्पन्न हुए। अगर तुम यह निर्धारित करते हो कि ये चीजें भ्रष्ट स्वभाव की देन हैं और शैतानी फलसफों से पैदा हुई हैं, तो तुम्हें उनके प्रति निंदा और धिक्कार का रवैया अपनाना चाहिए। ऐसा करना दैहिक इच्छाओं और शैतान से विद्रोह करने में मददगार है। यह किस प्रकार का व्यवहार है? क्या यह अपने भ्रष्ट स्वभाव को नकारना, परित्याग करना, छोड़ना और उससे विद्रोह करना नहीं है? जिन चीजों को तुम सही मानते हो उन्हें नकारना, अपने स्वार्थ त्यागना, अपने गलत इरादों से विद्रोह करना और इस प्रकार अपनी राह में बदलाव करना इतना सरल नहीं है, और इससे जुड़े कई महीन ब्योरे हैं। अगर तुम पश्चात्ताप करने के इच्छुक हो लेकिन तुम बस मुँहजुबानी यह कहते हो और अपने भ्रष्ट स्वभाव को नकारते, त्यागते, छोड़ते नहीं या उससे विद्रोह नहीं करते तो यह पश्चात्ताप की निशानी नहीं है, और तुमने व्यावहारिक रूप से अभी तक पश्चात्ताप शुरू नहीं किया है। सच्चे पश्चात्ताप की निशानी क्या है? पहले, तुम उन चीजों से इनकार करते हो जिन्हें तुम सही मानते हो, उदाहरण के लिए : परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाएँ और उससे की जाने वाली माँगें, साथ ही चीजों पर तुम्हारे विचार, समस्याओं से निपटने के तुम्हारे तरीके और उपाय, तुम्हारा इंसानी अनुभव, आदि। इन सभी चीजों से इनकार करना हृदय से पश्चात्ताप करने और परमेश्वर की ओर मुड़ने का एक ठोस अभ्यास है। तुम गलत चीजें तभी छोड़ सकते हो, जब तुम उनकी असलियत देखकर उन्हें नकार देते हो। अगर तुम इन चीजों को नहीं नकारते, और अभी भी उन्हें अच्छा और सही मानते हो, तो तुम उन्हें नहीं छोड़ पाओगे, तब भी नहीं जब दूसरे तुमसे ऐसा करने को कहेंगे। तुम कहोगे, “मैं अत्यधिक सुशिक्षित हूँ, और मेरे पास अनुभव का खजाना है। मेरा मानना है कि ये चीजें सही हैं, मैं इन्हें क्यों छोड़ दूँ?” अगर तुम अपने तरीकों से चिपके रहते हो और ऐसा करने में लगे रहते हो, तो क्या तुम सत्य स्वीकार पाओगे? यह कतई आसान नहीं होगा। अगर तुम सत्य प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें पहले उन चीजों से इनकार करना चाहिए जो तुम्हें सही और सकारात्मक लगती हैं, फिर स्पष्ट रूप से देखो कि ये चीजें सार रूप में नकारात्मक हैं, कि ये शैतान द्वारा उत्पन्न होती हैं, कि ये सभी ऊपर से अच्छी दिखने वाली भ्रांतियाँ हैं—और कि शैतानी चीजें थामे रहना तुम्हें केवल बुराई करने, परमेश्वर का विरोध करने और अंततः दंडित और नष्ट किए जाने की ओर ले जाएगा। अगर तुम स्पष्ट रूप से देख पाओ कि जिन विचारों और विषों से शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करता है, वे मनुष्य को बरबादी की ओर ले जाने में सक्षम हैं, तो तुम उन्हें पूरी तरह से त्याग पाओगे। बेशक नकारना, त्यागना, छोड़ना, विद्रोह करना आदि सभी वे रवैये और तरीके हैं जिन्हें व्यक्ति शैतान की ताकतों और प्रकृति के साथ ही उन फलसफों, तर्क, विचारों और दृष्टिकोणों के खिलाफ अपनाता है, जिनका उपयोग शैतान लोगों को गुमराह करने के लिए करता है। जैसे कि अपनी देह के हित छोड़ना; अपनी देह की प्राथमिकताएँ और अनुसरण त्यागना; शैतान के फलसफे, विचारों, पाखंड और भ्रांतियों को त्यागना; शैतान के प्रभाव और उसकी दुष्ट शक्तियों से विद्रोह करना। अभ्यासों की यह पूरी शृंखला, वे सभी तरीके और मार्ग हैं, जिनके द्वारा लोग पश्चात्ताप का अभ्यास कर सकते हैं। सच्चे पश्चात्ताप में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति को बहुत-से सत्य समझने चाहिए, तभी वह खुद को पूरी तरह से नकार कर अपनी दैहिक इच्छाओं से विद्रोह कर सकता है। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम मानते हो कि तुम जानकार और अनुभव में समृद्ध हो, और तुम्हें परमेश्वर के घर की परिसंपत्ति और बहुत उपयोगी होना चाहिए। और फिर भी, सत्य के बारे में कई वर्षों तक उपदेश सुनने और कुछ सत्य समझने के बाद, तुम्हें लगता है कि तुम्हारा ज्ञान और सीख बेकार हैं और परमेश्वर के घर के लिए जरा भी काम के नहीं है। तुम महसूस करते हो कि यह सत्य और परमेश्वर के वचन ही हैं जो लोगों को बचा सकते हैं, और यह सत्य ही है जो व्यक्ति का जीवन हो सकता है। तुम्हें यह महसूस होने लगता है कि किसी व्यक्ति के पास कितना भी ज्ञान या अनुभव हो, इसका मतलब यह नहीं कि उसके पास सत्य है, और इंसानी चीजें इंसानी धारणाओं के चाहे कितने भी समनुरूप हों, वे सत्य नहीं हैं। तुम महसूस करते हो कि ये सभी चीजें शैतान से आती हैं, और ये सभी नकारात्मक चीजें हैं जिनका सत्य से कोई संबंध नहीं है। तुम कितने भी शिक्षित, ज्ञानी और अनुभवी क्यों न हो, अगर तुम्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है और तुम सत्य को नहीं समझ सकते, तो इसका कोई फायदा नहीं। अगर तुम्हें अगुआ के रूप में सेवा करनी हो, तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं होगी और तुम समस्याएँ हल करने में सक्षम नहीं होगे। अगर तुम्हें एक अनुभवजन्य गवाही लिखनी हो, तो तुम्हारे मुँह से शब्द न निकलेगा। अगर तुम्हें परमेश्वर के लिए गवाही देनी हो, तो तुम्हें उसके बारे में ज्ञान नहीं होगा। अगर तुम्हें सुसमाचार फैलाना हो, तो तुम लोगों की धारणाओं का समाधान करने के लिए सत्य पर संगति करने में असमर्थ होगे। अगर तुम्हें नवागतों का सिंचन करना हो, तो तुम्हें दर्शनों के सत्य के बारे में स्पष्टता नहीं होगी और तुम केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार कर पाओगे। अगर तुम अपनी धारणाएँ दूर नहीं कर सकते तो तुम नए विश्वासियों की धारणाओं का समाधान कैसे कर सकते हो? तुम इनमें से कोई काम नहीं कर सकते—तो तुम क्या कर सकते हो? अगर तुमसे मेहनत-मजदूरी करने के लिए कहा जाए, तो तुम इसे अपनी प्रतिभा की बरबादी समझोगे। तुम कहते हो कि तुम प्रतिभाशाली हो, फिर भी तुम कोई कार्य नहीं कर सकते और न ही कोई कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो—तो तुम आखिर क्या कर सकते हो? ऐसा नहीं है कि परमेश्वर का घर तुम्हें उपयोग में लाना नहीं चाहता, बात तो यह है कि जो कर्तव्य तुम्हें निभाना था, उसे तुमने निभाया नहीं। तुम इसके लिए कलीसिया को दोष नहीं दे सकते। फिर भी, तुम अपने मन में सोच सकते हो, “क्या परमेश्वर मनुष्य से बहुत अधिक अपेक्षा नहीं करता? ये अपेक्षाएँ पूरी करना मेरे बस के बाहर है। मुझसे इतनी माँग क्यों की जाती है?” अगर कोई परमेश्वर के बारे में इतनी बड़ी गलतफहमी पालता है, तो यह साबित करता है कि उसे परमेश्वर का कोई ज्ञान नहीं और वह सत्य लेशमात्र भी नहीं समझता। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे विचार सही हैं और उन्हें पलटने की आवश्यकता नहीं है, और अगर तुम सैद्धांतिक रूप से स्वीकार करते हो कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, लेकिन तुम जिस कचरे से चिपके हुए हो उसे नहीं छोड़ पाते, तो यह दर्शाता है कि तुम अभी तक सत्य नहीं समझते। तुम्हें परमेश्वर के सामने आकर सत्य पर और अधिक खोज करनी चाहिए, और तुम्हें उसके वचन और अधिक पढ़ने चाहिए और अधिक उपदेश सुनने चाहिए और संगति करनी चाहिए, तब तुम धीरे-धीरे समझ जाओगे कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। एक व्यक्ति के रूप में सत्य और परमेश्वर के साथ पेश आने का तुम्हारा पहला तरीका समर्पण का होना चाहिए। यह मनुष्य का अपरिहार्य कर्तव्य है। अगर तुम इन चीजों को समझने में सक्षम हो, तो इसका अर्थ है कि तुम अपनी राह बदल रहे हो। अपनी राह बदलना ही पश्चात्ताप के लिए अभ्यास का मार्ग है; यह उन चीजों को पूरी तरह से त्यागना है जिन्हें तुमने कभी सही समझा था, जो शैतान से आती हैं, और उस मार्ग को नए सिरे से चुनना है जिस पर तुम चलोगे। यह परमेश्वर के वचनों को उसकी अपेक्षाओं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अमल में लाना और सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलना है। अपनी राह बदलने का यही अर्थ है। यह वास्तव में परमेश्वर के सामने आना और पश्चात्ताप की वास्तविकता में प्रवेश करना है। जब व्यक्ति सत्य को अमल में ला सकता है, तो यह कहने की जरूरत नहीं होती कि उसने सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना शुरू कर सच्चा पश्चात्ताप कर लिया है। जब मनुष्य वास्तव में पश्चात्ताप करता है, तभी कहा जा सकता है कि वह उद्धार के मार्ग पर चल पड़ा है। ऐसा करना सत्य का अनुसरण करने के चौथे कदम में संलग्न होना है।

जब व्यक्ति वास्तव में पश्चात्ताप कर लेता है, तो वह सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल चुका होगा, वह मूल रूप से परमेश्वर के कार्य के बारे में कोई धारणा या गलतफहमी नहीं पालेगा, वह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार होगा, और वह परमेश्वर के कार्य का औपचारिक रूप से अनुभव करना शुरू कर देगा। व्यक्ति के परमेश्वर में पहली बार विश्वास करने लगने और उसके औपचारिक रूप से परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करने के बीच परिवर्तन की एक लंबी अवधि होती है। परिवर्तन की यह अवधि वह चरण है, जो व्यक्ति के परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने से लेकर तब तक चलता है, जब तक वह वास्तव में पश्चात्ताप नहीं कर लेता। अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, तो वह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का लेशमात्र भी नहीं स्वीकारेगा, न ही थोड़ा-भी सत्य स्वीकारेगा, और वह कभी खुद को जानने में सक्षम नहीं होगा। ऐसे लोगों को हटा दिया जाएगा। अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है, तो परमेश्वर के वचन पढ़ने और उपदेश सुनने के द्वारा वह समान रूप से वास्तव में कुछ हासिल करने में सक्षम होगा, और यह जानेगा कि परमेश्वर का कार्य मनुष्य को बचाने का है, और आत्मचिंतन कर जिन सत्यों को वह समझता है उनमें खुद को जानेगा; वह अपने भ्रष्ट स्वभावों से ज्यादा से ज्यादा घृणा करने लगेगा और सत्य में और ज्यादा रुचि लेने लगेगा, वह अनजाने ही सच्चा आत्मज्ञान प्राप्त कर लेगा, और वह वास्तव में पछताएगा और पश्चात्ताप करेगा। जब सत्य से प्रेम करने वाले लोग परमेश्वर के वचन पढ़ते या उपदेश सुनते हैं, तो वे स्वाभाविक रूप से ऐसे परिणाम प्राप्त करते हैं। वे धीरे-धीरे खुद को जानने लगते हैं और सच्चा पश्चात्ताप हासिल कर लेते हैं। जब व्यक्ति वास्तव में पश्चात्ताप कर लेता है, तो उसे कैसे अभ्यास करना चाहिए? उसे सभी चीजों में सत्य खोजना चाहिए; उस पर चाहे जो भी विपत्ति आए, उसे परमेश्वर के वचनों के आधार पर सिद्धांत और अभ्यास के मार्ग खोजने में सक्षम होना चाहिए, और फिर सत्य का अभ्यास शुरू कर देना चाहिए। यह सत्य का अनुसरण करने का पाँचवाँ कदम है। सत्य खोजने का क्या उद्देश्य है? सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करना। पर सत्य का अभ्यास व्यक्ति को सत्य सिद्धांतों के अनुसार करना चाहिए। सिर्फ यही सत्य का सटीक अभ्यास है; सिर्फ यही व्यक्ति को परमेश्वर की स्वीकृति दिलाता है। इसीलिए सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाना ही वह उद्देश्य है जिसे सत्य का अनुसरण करने से हासिल किया जाना है। इस कदम तक पहुँचने का अर्थ है कि व्यक्ति सत्य का अभ्यास करने की वास्तविकता में प्रवेश कर चुका है। सत्य की खोज मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए की जाती है। जब व्यक्ति सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होता है, तो उसके भ्रष्ट स्वभाव स्वाभाविक रूप से दूर हो जाएँगे, और उसके सत्य का अभ्यास करने से वह परिणाम प्राप्त होता है जिसकी परमेश्वर माँग करता है। यही वह प्रक्रिया है, जो सच्चे पश्चात्ताप से सत्य का अभ्यास करने तक ले जाती है। भ्रष्ट स्वभावों के बीच रहना शैतान की शक्ति के अधीन रहना था, अपने सभी कार्यों और व्यवहारों की परमेश्वर द्वारा निंदा और तिरस्कार किया जाना था; अब, सत्य स्वीकारने में सक्षम होना, वास्तव में पश्चात्ताप कर लेना, सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में सक्षम होना, और उसके वचनों के अनुसार जीना—बेशक, इसे परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है। सत्य का अनुसरण करने वालों को अक्सर आत्मचिंतन करना चाहिए। उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव स्वीकारने चाहिए और परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारनी चाहिए, उन्हें अपने भ्रष्ट सार का सच्चा ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और पश्चात्ताप करने वाला हृदय विकसित करना चाहिए; पश्चात्ताप करने के बाद उन्हें सभी चीजों में सत्य खोजना शुरू करना चाहिए, सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करना चाहिए। सत्य का अनुसरण करना और व्यक्ति के जीवन-प्रवेश का धीरे-धीरे गहरा होना यही हासिल कर सकता है। अगर व्यक्ति वास्तव में खुद को नहीं जानता, तो उसके लिए परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के प्रति समर्पण करना या वास्तव में पश्चात्ताप करना असंभव है। और अगर व्यक्ति वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करता, तो वह शैतानी स्वभाव के अनुसार जीता रहेगा। उसमें सच्चा बदलाव नहीं आएगा, चाहे वह कितने भी वर्ष परमेश्वर में विश्वास कर ले। बस, उसका व्यवहार थोड़ा बदल जाएगा। सत्य का अनुसरण न करने वालों के लिए सत्य को अपने जीवन के रूप में स्वीकार करना असंभव है, इसलिए यह निश्चित है कि उनके कार्य और व्यवहार अभी भी एक भ्रष्ट स्वभाव के उद्गार ही होंगे, ये चीजें सत्य के साथ असंगत और परमेश्वर की विरोधी ही होंगी। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे सत्य को अपने जीवन के रूप में स्वीकार सकते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्याग सकते हैं, सत्य को अभ्यास में ला सकते हैं, और परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण हासिल कर सकते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे तब सत्य खोजेंगे, जब ऐसी चीजें होंगी जो उन्हें अस्पष्ट होंगी। वे अब अपने लिए साजिश नहीं करेंगे और परमेश्वर के प्रति सुसंगत हृदय के साथ सभी बुराइयों से दूर रहेंगे। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे परमेश्वर के प्रति और ज्यादा समर्पित हो जाते हैं, और वे परमेश्वर का भय मान सकते हैं और बुराई से दूर रह सकते हैं, और पहले से भी ज्यादा उस तरह रह सकते हैं जैसा मनुष्य से अपेक्षित है। ऐसे बदलाव उन लोगों के लिए असंभव हैं, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे किसका अनुसरण करते हैं? वे प्रतिष्ठा, लाभ और हैसियत का अनुसरण करते हैं; वे आशीषों और पुरस्कारों का अनुसरण करते हैं। उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ लगातार बढ़ती जाती हैं, और जीवन में उनके पास सही लक्ष्य नहीं होता। वे चाहे किसी भी चीज का अनुसरण करना चाहते हों, अगर वे अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाते तो वे हार नहीं मानते, और अपना विचार तो वे बिल्कुल भी नहीं बदलते। जैसे ही परिस्थितियाँ अनुमति देती हैं और हालात सही होते हैं, वे बुराई करने और परमेश्वर का विरोध करने में सक्षम हो जाते हैं, और वे एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयास कर सकते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला या उसके प्रति समर्पण करने वाला दिल नहीं होता, और अंत में तमाम बुराइयाँ करने और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने के लिए वह उन्हें सिर्फ मिटा ही सकता है। सत्य का अनुसरण न करने वाले सभी लोग सत्य-विमुख होते हैं और सभी सत्य-विमुख लोग बुराई-प्रेमी होते हैं। अपनी आत्माओं और हड्डी और रक्त में वे सिर्फ प्रतिष्ठा, लाभ, रुतबे और प्रभाव का सम्मान करते हैं; वे शैतानी स्वभावों के अनुसार जीने और अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए स्वर्ग, पृथ्वी और मनुष्य के खिलाफ लड़ने में खुश रहते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसा जीवन आनंदपूर्ण है; वे एक उत्कृष्ट व्यक्ति के रूप में जीना और एक नायक के रूप में मरना चाहते हैं। जाहिर है, वे विनाश के शैतानी मार्ग पर चल रहे हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले जितना ज्यादा उसे समझते हैं, उतना ही ज्यादा वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं और महसूस करते हैं कि सत्य कितना मूल्यवान है। वे परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारने के इच्छुक होते हैं, और चाहे वे कितनी भी कठिनाइयाँ सहें, वे सत्य का अनुसरण करने और उसे प्राप्त करने के लिए संकल्पित होते हैं। इसका अर्थ है कि वे उद्धार और पूर्णता के मार्ग पर चल पड़े हैं, और वे परमेश्वर के साथ सुसंगत होने में सक्षम हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हैं, वे सृजित प्राणी के रूप में अपने मूल आसन पर लौट आए हैं और उनके पास परमेश्वर का भय मानना वाला दिल है। वे उचित रूप से परमेश्वर की अगुआई, मार्गदर्शन और आशीष प्राप्त कर सकते हैं, और परमेश्वर अब उनका तिरस्कार नहीं करता। यह कैसी अद्भुत बात है! जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे अपने भ्रष्ट स्वभाव नहीं छोड़ सकते, इसलिए उनका हृदय परमेश्वर से और भी दूर हो जाता है, और वे सत्य से विमुख होकर उसे नकार देते हैं। नतीजतन, वे परमेश्वर के प्रति अधिकाधिक प्रतिरोधी होते जाते हैं और उसके विरोध के मार्ग पर चल पड़ते हैं। वे बिल्कुल पौलुस की तरह होते हैं, खुले तौर पर परमेश्वर से अपना इनाम माँगते हैं। अगर वह उन्हें नहीं मिलता, तो वे परमेश्वर के साथ बहस करने और उसका विरोध करने का प्रयास करते हैं, और अंत में, मसीह-विरोधी बनकर शैतान का घृणित चेहरा पूरी तरह से उजागर कर देते हैं, जिसके बाद परमेश्वर उन्हें शाप देकर नष्ट कर देता है। दूसरी ओर, जो सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हैं, वे सत्य स्वीकार कर उसके प्रति समर्पित हो सकते हैं। वे अपना शैतानी भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकते हैं, वे अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर के प्रेम का प्रतिफल देने के लिए सब-कुछ त्यागने को तैयार रहते हैं, और वे ऐसे लोग बनने में सक्षम हैं, जो परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसकी आराधना करते हैं। जो व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के लिए तैयार है, और जो पूरी तरह से ऐसा करता है, वह एक सृजित प्राणी के मूल आसन पर पूरी तरह से वापस आ गया है, और वह हर चीज में परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम है। इसका अर्थ है कि उसमें मूलभूत इंसानी सदृशता है। सच्चे रूप से मानव के समान होने का क्या अर्थ होता है? ऐसा तब होता है जब व्यक्ति अय्यूब और पतरस की तरह सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण कर उसका भय मानता है। ऐसे ही लोगों पर परमेश्वर वास्तव में आशीष बरसाता है।

आज हमने सत्य का अनुसरण करने के जिन प्रमुख कदमों के बारे में संगति की है, वे इतने सरल हैं। उन कदमों को मेरे सामने दोहराओ। (पहला, परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्मचिंतन करो; दूसरा, उन तथ्यों को मानो और स्वीकारो जिन्हें परमेश्वर के वचन प्रकट करते हैं; तीसरा, अपने भ्रष्ट स्वभाव और सार को जानो, और अपने भ्रष्ट स्वभाव और शैतान से घृणा करना शुरू करो; चौथा, पश्चात्ताप का अभ्यास करो और अपने सभी बुरे कर्म एक तरफ कर दो; पाँचवाँ, सत्य सिद्धांत खोजो और सत्य पर अमल करो।) यही वो पाँच कदम हैं। भ्रष्ट स्वभावों के बीच रहने वाले लोगों के लिए इनमें से प्रत्येक कदम का अभ्यास करना बहुत कठिन है, प्रत्येक कदम में कई बाधाएँ और कठिनाइयाँ शामिल हैं, और इन सभी का अभ्यास कर उन्हें प्राप्त करने के लिए कठिन श्रम करना आवश्यक है, और निश्चित रूप से, व्यक्ति मार्ग में कुछ असफलताएँ और नाकामियाँ अनुभव करने से नहीं बच सकता—लेकिन मैं तुम लोगों से यही कहूँगा : हिम्मत मत हारो। हालाँकि दूसरे लोग यह कहते हुए तुम्हारी निंदा कर सकते हैं, “तुम तो गए काम से,” “तुम बेकार हो,” “तुम ऐसे ही हो—तुम इसे नहीं बदल सकते”—उनके शब्द कितने भी अप्रिय क्यों न हों, तुम्हें अपनी सूझ-बूझ में स्पष्ट होना चाहिए। हिम्मत मत हारो, और हार मत मानो, क्योंकि सिर्फ सत्य का अनुसरण करने का मार्ग, सिर्फ इन कदमों का प्रवेश और अभ्यास ही वास्तव में तुम्हें अपनी विपदा से बचने में सक्षम बनाएगा। चतुर लोग अपनी सारी कठिनाइयाँ एक ओर रख देना पसंद करेंगे; वे असफलताओं और नाकामियों से बचने की कोशिश नहीं करेंगे, और वे आगे बढ़ते रहेंगे, चाहे यह कितना भी कठिन क्यों न हो। भले ही तुम तीन या पाँच वर्षों तक खुद को जानने-परखने के चरण पर ही रहते हो या आठ-दस वर्ष बाद भी तुम सिर्फ यही जान पाते हो कि तुममें कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं लेकिन तुम सत्य को नहीं समझ पाते या अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं छोड़ पाते, तो भी मैं तुम लोगों से एक ही बात कहूँगा : हिम्मत न हारो। भले ही तुम अभी तक असल बदलाव ला पाने में सक्षम नहीं हो, लेकिन तुम पहले तीन कदमों में पहले ही प्रवेश कर चुके हो, तो बाकी बचे दो कदमों में प्रवेश न कर पाने की चिंता क्यों करते हो? चिंता मत करो; कड़ी मेहनत करो, ज्यादा जोर लगाओ और तुम वहाँ पहुँच ही जाओगे। कुछ ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो चौथे कदम—पश्चात्ताप पर आ जाते हैं, लेकिन वे सत्य सिद्धांत खोजने से पीछे रह जाते हैं और इस कदम में प्रवेश नहीं कर पाते। तब क्या करना चाहिए? तुम्हें भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। जब तक तुममें ऐसा करने की इच्छा है, तब तक तुम्हें सभी चीजों में सत्य खोजने के अनुसरण में लगे रहना चाहिए, और परमेश्वर से ज्यादा प्रार्थना करनी चाहिए—ऐसा करना अक्सर फलदायी होता है। अपनी क्षमता और परिस्थितियों के आधार पर जितनी अच्छी तरह तुम कर सकते हो, उतनी अच्छी तरह से कोशिश करो, और जो तुम हासिल कर सकते हो, उसे हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करो। जब तक तुम वह सब करते रहते हो जो तुम कर सकते हो, तुम्हारा जमीर साफ रहता है और तुम निश्चित रूप से ज्यादा लाभ प्राप्त करने में सक्षम होगे। एक भी और सत्य समझ सको तो यह अच्छी बात है—तुम्हारा जीवन इससे थोड़ा ज्यादा सुखी और थोड़ा ज्यादा आनंदमय हो जाएगा। संक्षेप में, सत्य का अनुसरण कोई खोखली चीज नहीं है; इसके प्रत्येक कदम के लिए अभ्यास का एक विशिष्ट मार्ग है, और इसके लिए लोगों को कुछ दर्द सहने और एक निश्चित कीमत चुकाने की आवश्यकता होती है। सत्य अकादमिक अध्ययन का क्षेत्र या कोई सिद्धांत या नारा या तर्क नहीं है; यह खोखला नहीं है। प्रत्येक सत्य को समझने और जानने से पहले लोगों को कई वर्षों तक उसका अनुभव और अभ्यास करने की आवश्यकता होती है। लेकिन चाहे तुम कोई भी कीमत चुकाओ या कोई भी प्रयास करो, अगर तुम्हारा दृष्टिकोण, तरीका, मार्ग और दिशा सही हैं, तो देर-सवेर वह दिन आएगा जब तुम एक बड़ा इनाम पाओगे, सत्य प्राप्त करोगे, और परमेश्वर को जानने और उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम होगे—और इस तरह तुम पूरी तरह से संतुष्ट होगे।

8 जनवरी 2022

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