सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (4)

आओ, हम यह याद करने से शुरुआत करें कि हमने अपनी पिछली सभा में किस पर संगति की थी। (अपनी पिछली सभा में हमने “सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है” विषय पर संगति की थी। हमने पहले इस प्रश्न पर ध्यान केंद्रित किया था : “यह देखते हुए भी कि वे चीजें, जिन्हें लोग अच्छा और सही मानते हैं, सत्य नहीं हैं, लोग उन चीजों से ऐसे क्यों चिपके रहते हैं मानो वे सत्य हों, और सोचते हैं कि ऐसा करके वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं?” तुमने इसके तीन कारण बताए। तुमने मुख्य रूप से उनमें से पहले के बारे में बात की, जो यह था कि वास्तव में वे चीजें कौन-सी हैं जिन्हें लोग अपनी धारणाओं में अच्छी और सही मानते हैं।) अपनी पिछली सभा में हमने मुख्य रूप से पहले कारण के बारे में संगति की थी। हमने उन चीजों के बारे में बात की, जिन्हें लोग अपनी धारणाओं में अच्छी और सही मानते हैं, और हमने उन चीजों को दो व्यापक श्रेणियों में विभाजित किया : “अच्छे व्यवहार” और “अच्छा नैतिक आचरण।” कुल मिलाकर मैंने “अच्छे व्यवहारों” की पहली श्रेणी के छह उदाहरण दिए : सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना, विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला होना, मिलनसार होना और सुलभ होना। हमने अभी तक दूसरी श्रेणी, “अच्छे नैतिक आचरण” के बारे में संगति नहीं की है। कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर संगति करने के बाद हमें उनकी थोड़ी समीक्षा करनी चाहिए, उस संगति के सत्य और सिद्धांत सरल और स्पष्ट करने चाहिए, जिससे हर चीज साफ और स्पष्ट हो जाए। ऐसा करने से तुम्हें सत्य समझने में आसानी होगी। पिछली बार हमारी संगति में कुछ खंड और साथ ही कुछ विशिष्ट उदाहरण शामिल थे। वह बहुत बड़ी लगती है, पर असल में हमने उन व्यापक खंडों के भीतर कुछ विशिष्ट चीजों के बारे में ही संगति की थी, और हमने उन विशिष्ट चीजों को आगे और विभाजित कर दिया था, ताकि संगति थोड़ी स्पष्ट और ज्यादा विशिष्ट हो जाए। हमने अच्छे व्यवहारों के छह उदाहरण दिए, पर हरेक के बारे में एक-एक करके विस्तार से संगति नहीं की। इन उदाहरणों में सुशिक्षित और समझदार होना इस बात का एक उत्कृष्ट निरूपण है कि लोग अपनी धारणाओं में किसे सही और अच्छा मानते हैं। हमने इस उदाहरण पर थोड़ी और संगति की। बाकी इसके समान ही हैं; तुम लोग उनका विश्लेषण करके समझने के लिए इसी तरह की विधि इस्तेमाल कर सकते हो।

आज इससे पहले कि हम अपनी संगति की उचित विषयवस्तु पर आएँ, मैं तुम्हें दो छोटी कहानियाँ सुनाऊँगा। क्या तुम लोगों को कहानियाँ सुनना पसंद है? (बिल्कुल।) कहानी सुनना ज्यादा थका देने वाला नहीं होता और उसके लिए बहुत ज्यादा एकाग्रता की जरूरत नहीं होती। इसमें ज्यादा मेहनत भी नहीं लगती और यह काफी दिलचस्प काम हो सकता है। इसलिए ध्यान से सुनना और कहानियों की विषयवस्तु सुनते हुए यह विचार भी करना कि मैं उन्हें क्यों सुना रहा हूँ—उनमें कौन-से विशिष्ट, केंद्रीय विचार हैं या दूसरे शब्दों में, उन्हें सुनकर लोग कौन-सी व्यावहारिक चीजें सीख सकते हैं। ठीक है—आओ, अपनी कहानियाँ शुरू करते हैं। ये शाओशाओ और शाओजी की कहानियाँ हैं।

शाओशाओ और शाओजी की कहानियाँ

शाओशाओ को कुछ समय से आँखों में दर्द के साथ नजर में धुँधलापन, रोशनी में चुँधियाने, हवा लगने से आँसू आने, आँखों में कुछ किरकिरी होने और ऐसे ही अन्य लक्षण महसूस हो रहे थे। वह आँखें मलता था, पर इससे ज्यादा आराम नहीं मिलता था। शाओशाओ नहीं जानता था कि क्या गड़बड़ है। उसने सोचा, “मेरी आँखों में पहले कभी कोई समस्या नहीं हुई, और मेरी नजर ठीक है। यह हो क्या रहा है?” जब वह आईना देखता था तो आँखें पहले जैसी ही लगती थीं—बस थोड़ी ज्यादा लाल और कभी-कभी थोड़ी खून की लाली नजर आती थी। यह शाओशाओ के लिए हैरान और थोड़ा परेशान करने वाली बात थी। शुरू में उसने इस पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन जब उसके लक्षण अक्सर नजर आने लगे, तो अंततः उससे बरदाश्त नहीं हुआ। उसने इस बारे में ध्यान से सोचा : “क्या मुझे डॉक्टर के पास जाना चाहिए, या इसे खुद ठीक करने की कोशिश करनी चाहिए? इसके बारे में जानकारी तलाशना सिरदर्द होगा और मैं इस बात का गलत निदान भी कर सकता हूँ कि वास्तविक समस्या क्या है। बेहतर होगा कि मैं सीधे डॉक्टर के पास जाऊँ; वह निश्चित रूप से सटीक निदान देगा।” तो शाओशाओ डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर ने उसकी जाँच की और कोई बड़ी समस्या नहीं पाई। उसने कुछ आम आई-ड्रॉप्स लिख दिए और शाओशाओ को सलाह दी कि वह अपनी आँखों का ध्यान रखे और उनसे ज्यादा काम न ले। शाओशाओ को यह जानकर बहुत राहत मिली कि उसकी आँखों में कोई बड़ी समस्या नहीं थी। घर लौटकर शाओशाओ ने डॉक्टर के बताए अनुसार उतनी ही बार और उतनी ही मात्रा में आँखों में दवाई डाली और कुछ ही दिनों में उसके लक्षणों में सुधार हो गया। शाओशाओ के दिल से एक बड़ा बोझ उतर गया : उसे लगा कि अगर दवा इसे ठीक कर सकती है तो यह समस्या गंभीर नहीं हो सकती। लेकिन यह एहसास ज्यादा देर तक नहीं रहा और कुछ समय बाद उसके लक्षण फिर उभर आए। शाओशाओ ने आई-ड्रॉप की खुराक बढ़ा दी, उसे अपनी आँखें थोड़ी बेहतर लगीं और लक्षण कुछ दब गए। लेकिन कुछ ही दिनों बाद आँखें फिर पहले जैसी हो गईं और लक्षण बदतर और बार-बार उभरने लगे। शाओशाओ इसका मतलब नहीं समझ पाया, उसने अपने ऊपर दुख की एक और लहर बरपती महसूस की : “मुझे क्या करना चाहिए? डॉक्टर की दी हुई दवा काम नहीं कर रही। क्या इसका मतलब यह है कि मेरी आँखों में कुछ गंभीर समस्या है? मैं इसे नजरअंदाज नहीं कर सकता।” इस बार उसने दोबारा डॉक्टर के पास जाकर आँखों की परेशानी के बारे में सलाह न लेने का फैसला किया। इसके बजाय उसने समस्या खुद हल करने का फैसला किया। उसने अपने लक्षणों से संबंधित तमाम तरह के ऑनलाइन वीडियो देखकर जानकारी ली। उनमें से ज्यादातर में कहा गया था कहा कि ये समस्याएँ आँखों के गलत इस्तेमाल के कारण होती हैं, उसे अपनी आँखों का ध्यान रखने की आवश्यकता है और उसके लिए उनका सही उपयोग करना और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। शाओशाओ ने महसूस किया कि यह सलाह उपयोगी नहीं है और यह उसकी समस्या का समाधान नहीं कर सकती। इसलिए, उसने जानकारी तलाशना जारी रखा। एक दिन अचानक उसे एक स्रोत मिला, जिसमें कहा गया था कि उसके लक्षण रेटिना में खून बहने के कारण हो सकते हैं, जो ग्लूकोमा यानी काला मोतिया होने का पूर्व लक्षण हो सकता है। यह भी संभव है कि ये लक्षण बढ़ने पर मोतियाबिंद बन जाए। “ग्लूकोमा” और “मोतियाबिंद” शब्द पढ़कर शाओशाओ का सिर भन्ना गया। उसकी आँखों में अँधेरा छा गया और वह लगभग बेहोश हो गया, उसका दिल जोरों से धड़कने लगा। “हे परमेश्वर, यह क्या हो रहा है? क्या मुझे वास्तव में ग्लूकोमा और मोतियाबिंद होने वाला है? मैंने सुना है कि मोतियाबिंद के लिए सर्जरी की जरूरत पड़ती है, और ग्लूकोमा होने पर अंधे होने की संभावना होती है! यह मेरा अंत होगा, है न? मैं अभी भी जवान हूँ—अगर मैं अंधा हो गया, तो अंधे व्यक्ति के रूप में मैं अपना बाकी जीवन कैसे बिताऊँगा? यहाँ से मेरे लिए क्या उम्मीद बचती है? क्या मुझे अपना जीवन अँधेरे में नहीं बिताना पड़ेगा?” जब शाओशाओ ने उस पेज पर “ग्लूकोमा” और “मोतियाबिंद” शब्द देखे, तो उसने पाया कि वह अब हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकता। वह व्याकुल था और अवसाद और निराशा में गहरा डूब रहा था। वह नहीं जानता था कि क्या करे या आने वाले दिनों का सामना कैसे करेगा। वह उदासी से भर गया और उसके सामने जो कुछ भी था, वह धुंध में खो गया। इस समस्या का सामना करते हुए शाओशाओ पूरी तरह से निराशा में जा गिरा। उसकी जीने में रुचि नहीं रही और वह अपना कर्तव्य निभाने के लिए ऊर्जा नहीं जुटा पाया। वह वापस डॉक्टर के पास नहीं जाना चाहता था या अपनी आँखों की समस्याओं के बारे में अन्य लोगों से बात नहीं करना चाहता था। बेशक, वह इस बात से डरता था कि लोग जान जाएँगे कि उसे ग्लूकोमा या मोतियाबिंद होने वाला है। शाओशाओ के दिन इसी तरह अवसाद, नकारात्मकता और भ्रम में बीतते रहे। उसकी अपने लिए भविष्यवाणियाँ करने या अपने भविष्य के लिए योजनाएँ बनाने की हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि उसकी नजर में भविष्य एक भयानक, हृदयविदारक चीज थी। वह अपने दिन अवसाद और निराशा में, भयानक मनोदशा में बिताता था। उसकी प्रार्थना करने या परमेश्वर के वचन पढ़ने की इच्छा न होती, और वह दूसरे लोगों से तो बिल्कुल भी बात नहीं करना चाहता था। ऐसा लगता था, मानो वह एक बिल्कुल अलग व्यक्ति बन गया हो। इसके कुछ दिनों बाद शाओशाओ के मन में अचानक यह विचार आया : “लगता है मैं एक बेचारगी की हालत में फँस गया हूँ। चूँकि मेरा भविष्य निराशाजनक है और परमेश्वर ने मेरी रक्षा करने के बजाय मुझे यह बीमारी होने दी, तो मैं अपना कर्तव्य के लिए भरसक प्रयास क्यों करता रहूँ? जिंदगी छोटी है; चूँकि मेरी दृष्टि अभी भी अच्छी है, तो मैं इस मौके का फायदा कुछ ऐसे काम करने के लिए क्यों न उठाऊँ जो मुझे पसंद हैं और खुद को खुश क्यों न करूँ? मेरा जीवन इतना थकाऊ क्यों होना चाहिए? मैं खुद को चोट क्यों पहुँचाऊँ और अपने साथ इतना बुरा व्यवहार क्यों करूँ?” और इसलिए जब शाओशाओ सो, खा या काम नहीं कर रहा होता था तो अपना अधिकांश समय इंटरनेट पर गेम खेलने, वीडियो देखने, बिंज-वाचिंग शो देखने में बिताता, और जब वह बाहर जाता था तो अपना फोन भी साथ ले जाता और उस पर लगातार गेम खेलता था। वह अपने दिन इंटरनेट की दुनिया में तल्लीन होकर बिताता। स्वाभाविक रूप से, ऐसा करने से उसकी आँखों का दर्द बद से बदतर होता गया और उसके लक्षण भी और ज्यादा गंभीर हो गए। जब वह इसे और बरदाश्त न कर पाता, तो अपने लक्षण कम करने के लिए अपनी कुछ आई-ड्रॉप्स इस्तेमाल कर लेता, और जब वे थोड़े बेहतर हो जाते, तो वह फिर से इंटरनेट में डूब जाता और अपनी पसंद की चीजें देखने लगता। यह अपने दिल में गहरे मौजूद डर और आतंक दूर करने का उसका तरीका था, और यह उसका समय काटने, अपने दिन बिताने का भी तरीका था। जब भी उसकी आँखों में दर्द होता और उसके लक्षण बिगड़ते, शाओशाओ अवचेतन रूप से अपने आस-पास के लोगों को देखता और सोचता, “दूसरे लोग भी मेरी तरह ही अपनी आँखें इस्तेमाल करते हैं। उनकी आँखें लाल क्यों नहीं होतीं, उनसे हर समय आँसू क्यों नहीं बहते और ऐसा क्यों नहीं महसूस होता कि उनमें कुछ फँसा हुआ है? मुझे ही यह बीमारी क्यों है? क्या परमेश्वर पक्षपात नहीं कर रहा? मैंने परमेश्वर के लिए खुद को इतना खपाया है; वह मेरी रक्षा क्यों नहीं करता? परमेश्वर कितना अन्यायी है! क्यों अन्य सभी लोग परमेश्वर की सुरक्षा पाने के लिए पर्याप्त भाग्यशाली हैं और मैं नहीं? सारी बदकिस्मती हमेशा मुझ पर ही आकर क्यों पड़ती है?” शाओशाओ जितना ज्यादा सोचता, उतना ही ज्यादा गुस्सा और नाराज होता, और जितना ज्यादा वह गुस्सा होता, उतना ही ज्यादा वह अपनी कड़वाहट और गुस्सा दूर करने के लिए ऑनलाइन मनोरंजन और मनोविनोद करना चाहता। वह जल्द से जल्द अपने नेत्र-रोग से छुटकारा पाना चाहता था, लेकिन जितना ज्यादा वह अपनी कड़वाहट और क्रोध से छुटकारा पाना चाहता, उसके पास उतना ही कम सुख और शांति होती, और उतना ही ज्यादा वह खुद को अभागा महसूस करता, चाहे वह इंटरनेट में कितना भी तल्लीन क्यों न रहता हो। और अपने दिल में वह परमेश्वर के अन्यायी होने की शिकायत करता। इसी तरह एक के बाद एक दिन बीतते गए। शाओशाओ की आँखों की समस्या में कोई सुधार नहीं हुआ और उसकी मनोदशा बद से बदतर होती गई। इस पृष्ठभूमि में शाओशाओ ने खुद को और भी ज्यादा शक्तिहीन और बदकिस्मत महसूस किया। शाओशाओ का जीवन ऐसे ही चलता रहा। कोई उसकी मदद नहीं कर सकता था, और उसने कोई मदद नहीं माँगी। उदास और शक्तिहीन होकर वह बस रोजाना मानसिक व्यग्रता से गुजरता रहा।

यह शाओशाओ की कहानी थी। हम इसे यहीं खत्म करेंगे। आगे शाओजी की कहानी है।

अपना कर्तव्य निभाते समय शाओजी को भी उसी समस्या का सामना करना पड़ा जो शाओशाओ के सामने आई थी। उसकी नजर धुँधली हो गई, और आँखें अक्सर सूजी और दुखती हुई महसूस होतीं। इसके साथ अक्सर यह एहसास भी होता कि उसकी आँखों में कुछ फँस गया है, और आँखें मलने के बाद भी उनमें कोई सुधार न होता। उसने सोचा, “यह क्या हो रहा है? मेरी आँखें बड़ी अच्छी हुआ करती थीं; मैं पहले कभी किसी नेत्र-चिकित्सक के पास नहीं गया। अब इनमें क्या हो रहा है? क्या मेरी आँखों में कोई समस्या हो सकती है?” आईने में देखने पर उसकी आँखें पहले से कुछ अलग न दिखतीं। उसे बस अपनी आँखों में जलन महसूस होती, और जब वह जोर से पलक झपकाता तो आँखों में और भी दर्द और सूजन महसूस होती और उनसे पानी बहने लगता। आँखों में कुछ गड़बड़ी लगने पर उसने सोचा, “आँखों की समस्या एक बड़ी बात है। मुझे इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। फिर भी, मुझे उतनी परेशानी नहीं लगती और इससे मेरे जीवन या मेरे कर्तव्य पर असर नहीं पड़ा है। हाल-फिलहाल कलीसिया का कार्य बहुत व्यस्त रहा और डॉक्टर के पास जाने से मेरे कर्तव्य पर असर पड़ता। फुरसत मिलते ही मैं इसके बारे में जानकारी खोजूँगा।” यह निर्णय लेने के बाद शाओजी ने अपने कर्तव्य से कुछ फुरसत मिलने पर प्रासंगिक जानकारी खोजी, और उसे पता चला कि उसकी आँखों में कोई बड़ी समस्या नहीं है—उसकी तकलीफ आँखों के लंबे समय तक अत्यधिक उपयोग से पैदा हुई थी। आँखों के उचित उपयोग, सही देखभाल और कुछ उपयुक्त व्यायामों से उसकी आँखें वापस सामान्य हो जाएँगी। यह पढ़कर शाओजी बहुत खुश हुआ। “यह कोई बड़ी समस्या नहीं है, इसलिए इसके बारे में ज्यादा चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। यह स्रोत कहता है कि मुझे अपनी आँखों का सही उपयोग और सही ढंग से व्यायाम करना है—इसलिए मैं बस यह देखूँगा कि उन्हें वापस सामान्य स्थिति में लाने के लिए अपनी आँखों का सही तरीके से उपयोग कैसे करूँ और मुझे कौन-से व्यायाम करने चाहिए।” इसके बाद उसने ज्यादा प्रासंगिक जानकारी तलाशी और उसमें से अपनी स्थिति के अनुकूल कुछ तौर-तरीके और तकनीकें चुनीं। तब से अपने सामान्य जीवन जीने और अपना कर्तव्य निभाने के अलावा शाओजी के पास एक नया काम था : अपनी आँखों की देखभाल का जिम्मा। उसने आँखों की देखभाल की उन तकनीकों का रोजाना अभ्यास किया जो उसने सीखी थीं। उन्हें आजमाने पर उसने यह जानने की कोशिश की कि क्या वे उन लक्षणों को कम कर रही हैं जो उसकी आँखों में दिखे थे। कुछ समय तक उनका परीक्षण करने और उन्हें आजमाने के बाद शाओजी ने महसूस किया कि कुछ तरीके काम के थे, जबकि अन्य केवल सैद्धांतिक रूप से अच्छे थे, व्यवहार में नहीं—इनसे कम-से-कम उसकी समस्या ठीक नहीं हो सकती थी। इसलिए, उस शुरुआती दौर के अपने निष्कर्षों के आधार पर, शाओजी ने आँखों को दुरुस्त रखने के कुछ तरीके और तकनीकें चुन लीं, जो उसके लिए उपयोगी रही थीं। जब भी ऐसा करने से उसके कर्तव्य में देरी न होती, वह रोजाना उचित रूप से आँखों का उपयोग और देखभाल करता था। कुछ समय बाद, शाओजी की आँखें वास्तव में अधिकाधिक बेहतर होने लगीं; उसके पिछले लक्षण—लाली, दर्द, जलन, इत्यादि—धीरे-धीरे कम होने लगे, और उनकी बारंबारता भी घटने लगी। शाओजी ने खुद को बहुत भाग्यशाली महसूस किया। “परमेश्वर की अगुआई के लिए उसका धन्यवाद। यह उसका अनुग्रह और मार्गदर्शन है।” उसकी आँखों की समस्याएँ कम होने लगी थीं और उसके लक्षण कम गंभीर होते जा रहे थे, फिर भी शाओजी ने बिना आलस किए बिना आँखों की देखभाल के उन तरीकों का अभ्यास और अपनी आँखों का सही उपयोग करना जारी रखा। कुछ समय बाद उसकी आँखें पूरी तरह से सामान्य हो गईं। इस अनुभव से शाओजी ने अपनी आँखें स्वस्थ रखने के कुछ तरीके सीखे और यह भी सीखा कि अपनी आँखों का उपयोग कैसे करना है और कैसे सही ढंग से जीना है। उसने जीवन की अपनी पिटारी में कुछ सकारात्मक, व्यावहारिक ज्ञान जोड़ा। शाओजी बहुत खुश हुआ। उसे लगा कि भले ही उसने कुछ उतार-चढ़ाव झेले थे और उसे कुछ असामान्य अनुभव हुए, लेकिन अंततः उसने इससे कुछ अनमोल जीवन-अनुभव प्राप्त किया था। जब भी उसके आस-पास कोई कहता कि उसकी आँखों में दर्द होता है, कि उनमें सूजन और पीड़ा है, शाओजी उन्हें अपने अनुभव और अपने आजमाए तरीकों और तकनीकों के बारे में खुलकर बताता। शाओजी की मदद से उन नेत्ररोगियों ने भी अपनी आँखों का सही इस्तेमाल करने और अपनी आँखें स्वस्थ रखने के उपाय और तरीके सीख लिए। शाओजी खुश था, और वह अपने आसपास के लोगों के लिए बहुत मददगार था। और इसलिए, उस दौरान शाओजी और अन्य लोगों ने कुछ व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया, जो लोगों को मनुष्यों के रूप में अपने जीवन में होना चाहिए। सभी ने खुशी-खुशी एक-साथ काम किया और अपने कर्तव्य निभाए। शाओजी अपनी आँखों की समस्या के कारण नकारात्मकता या शक्तिहीनता के आगे झुका नहीं, न ही उसने कभी अपने दुर्भाग्य की शिकायत की। भले ही शाओशाओ की तरह उसने भी जानकारी तलाशते हुए कुछ डरावने दावे देखे, लेकिन उसने उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। इसके बजाय उसने सक्रियतापूर्वक और ठीक से अपनी समस्या का समाधान किया। जब यही चीज शाओशाओ के साथ हुई तो वह बार-बार अवसाद, शक्तिहीनता और भ्रम में पड़ गया। दूसरी ओर, शाओजी न केवल अवसाद और भ्रम में पड़ने से बचा, बल्कि वह परमेश्वर के प्रति आक्रोश में भी नहीं फँसा—यहाँ तक कि उसने इन घटनाओं से जीवन के प्रति ज्यादा लाभदायक, सक्रिय और सकारात्मक रवैया भी प्राप्त किया। उसने अपनी भी मदद की और दूसरों की भी।

ये शाओशाओ और शाओजी की कहानियाँ थीं। अब तुमने उन दोनों की कहानियाँ सुन ली हैं। क्या तुम लोगों ने इन्हें समझा है? तुम लोग इनमें से किसे पसंद करते हो : शाओशाओ को या शाओजी को? (शाओजी को।) तो, शाओशाओ के बारे में क्या बुरा है? (जब उस पर संकट आया तो वह उसका ठीक से सामना नहीं कर पाया। वह नकारात्मक और प्रतिरोधी था।) नकारात्मक और प्रतिरोधी होना अपना विनाश खुद करना है। जब अन्य लोगों पर संकट आता है तो वे उन्हें हल करने के लिए सत्य खोज सकते हैं, लेकिन जब शाओशाओ पर संकट आया तो वह सत्य नहीं खोज पाया, उसने नकारात्मकता और प्रतिरोध का विकल्प चुना। वह अपनी ही बरबादी को न्योता दे रहा था। हो सकता है कि आजकल उन्नत सूचनाएँ हों लेकिन इस शैतानी दुनिया में झूठ और छल बहुत ज्यादा है। दुनिया झूठ-फरेब से भरी पड़ी है। इस अराजक दुनिया में किसी मुद्दे या किसी तरह की जानकारी से रूबरू होते समय लोगों में बुद्धिमत्ता होनी चाहिए, उन्हें बुद्धिमान, ग्रहणशील और समझदार होना चाहिए। उन्हें उचित दृष्टिकोण से विभिन्न प्रकार की सूचनाओं को सख्ती से छानना चाहिए। लोगों को किसी भी दावे पर तत्काल विश्वास नहीं करना चाहिए, और उन्हें निश्चित रूप से किसी भी प्रकार की जानकारी को तुरंत नहीं स्वीकारना चाहिए। शैतान की दुनिया में सभी लोग झूठ बोलते हैं, और झूठे कभी जवाबदेह नहीं ठहराए जाते। वे झूठ बोलते हैं, और बस। इस संसार में कोई भी झूठ की निंदा नहीं करता; कोई भी चालाकी की निंदा नहीं करता। मनुष्य के हृदय की थाह लेना कठिन है, और हर झूठ के पीछे एक इरादा और एक लक्ष्य होता है। उदाहरण के लिए, तुम डॉक्टर के पास जाते हो, और वह कहता है, “तुम्हारी बीमारी का जल्दी से इलाज करने की आवश्यकता है। अगर हम जल्दी से इलाज नहीं करते, तो यह कैंसर बन सकता है!” अगर तुम डरपोक हो, तो डर जाओगे : “अरे नहीं! यह कैंसर बन सकता है! चलो, इसका तुरंत इलाज करते हैं!” और नतीजतन, जितना ज्यादा तुम उसे ठीक करने की कोशिश करते हो, वह उतना ही बिगड़ता जाता है, और तुम अस्पताल पहुँच जाते हो। वास्तव में डॉक्टर ने जो कहा था, वह यह था कि तुम्हारी बीमारी कैंसर बन सकती है, जिसका अर्थ है कि वह अभी कैंसर नहीं है, लेकिन तुमने गलत समझ लिया कि उसका तत्काल इलाज किया जाना चाहिए, मानो वह कैंसर हो। क्या तुम ऐसा करके मृत्यु को दावत नहीं दे रहे हो? अगर तुम उसका कैंसर के रूप में इलाज करते हो, तो जितना ज्यादा तुम उसे ठीक करने की कोशिश करोगे, उतनी ही जल्दी तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। तब क्या तुम ज्यादा समय तक जीवित रह पाओगे? (नहीं।) तुम्हारी बीमारी वास्तव में कैंसर नहीं है, तो डॉक्टर तुमसे क्यों कहता है कि अगर तुम इसका इलाज नहीं करते, तो यह कैंसर बन जाएगी? वह तुम्हारे पैसे ठगने के लिए ऐसा कहता है ताकि तुम अपनी बीमारी का इलाज ऐसे करवाओ, मानो वह कोई गंभीर बीमारी हो। अगर तुम जानते कि वह एक छोटी-सी बीमारी है, तो तुम उसका इलाज करवाने की कोशिश न करते, और वह तुम्हारा पैसा प्राप्त करने में सक्षम न होता। कई डॉक्टर जब अपने रोगियों को देखते हैं तो वे उन्हें पकड़ लेते हैं, जैसे कोई राक्षस किसी व्यक्ति को पकड़ लेता है, वे उसे कसकर पकड़ लेते हैं और जाने नहीं देते। यह अधिकांश डॉक्टरों द्वारा अपने रोगियों के साथ अपनाया जाने वाला एक सामान्य नजरिया है। वे तुम्हें यह बताने से शुरू करते हैं कि वे कितने प्रसिद्ध हैं, वे कितनी अच्छी चिकित्सा करते हैं, उन्होंने कितने लोगों को ठीक किया है, उन्होंने कौन-सी बीमारियाँ ठीक की हैं, और वे कितने समय से चिकित्सा कर रहे हैं। वे तुम्हें उन पर भरोसा करने, सीधे बैठने और उनका इलाज स्वीकारने पर मजबूर कर देते हैं। फिर, वे तुम्हें बताते हैं कि तुम्हें एक बड़ी बीमारी होने वाली है, और अगर तुम इलाज नहीं करवाते तो तुम्हारी मृत्यु हो सकती है। मरते तो सभी हैं, लेकिन क्या सच में यही बीमारी होगी, जो तुम्हें मारती है? आवश्यक रूप से नहीं। प्रत्येक व्यक्ति का जीवन-मरण परमेश्वर के हाथ में है। वही है, जो उन्हें तय करता है, डॉक्टर नहीं। डॉक्टर अक्सर इस हथकंडे का इस्तेमाल लोगों को बरगलाने के लिए करते हैं। जो डरपोक और मौत से डरते हैं, वे हर जगह चिकित्सकीय सलाह लेते हैं और डॉक्टरों को अपने स्वास्थ्य के बारे में घोषणाएँ करने देते हैं। अगर उनके डॉक्टर कहते हैं कि उन्हें कैंसर होने की संभावना है, तो वे उन पर विश्वास कर लेते हैं, और वे डॉक्टरों से उसका इलाज करवाने के लिए दौड़ पड़ते हैं, ताकि कैंसर से उनकी मृत्यु का जोखिम दूर हो सके। क्या वे सिर्फ खुद को डरा नहीं रहे होते? (वे डरा रहे होते हैं।) हम अब डॉक्टरों के बारे में बात करना बंद करेंगे और शाओशाओ और शाओजी के बारे में बोलना जारी रखेंगे। अपने आसपास होने वाली हर चीज के बारे में उनके परिप्रेक्ष्य, दृष्टिकोण और रुख बिल्कुल अलग हैं। शाओशाओ और कुछ नहीं बल्कि नकारात्मकता का एक पुलिंदा है, जबकि शाओजी उस संकट को दूर करने में सक्षम है जो उस पर पड़ता है। उसमें सामान्य मानवता का विवेक और समझ है और वह सक्रिय तरीके से चीजों का सामना करता है। वह अपना कर्तव्य भी निभाता रहता है। वे दोनों बिल्कुल अलग हैं। जब शाओशाओ पर कुछ पड़ता है, तो वह स्थिति को निराशाजनक समझकर बट्टे खाते में डाल देता है और लापरवाही से काम करता है। वह उसे हल करने के लिए उचित तरीके और साधन नहीं खोजता, और वह अविवेकी, भ्रमित, मूर्ख, अक्खड़ और हठी भी है—और काफी द्वेषपूर्ण भी। जब वह बीमार होता है या किसी कठिनाई का सामना करता है, या उसके साथ कुछ बुरा हो जाता है, तो वह आशा करता है कि ऐसा बाकी सबके साथ भी होगा। अपनी रक्षा न करने के लिए वह परमेश्वर से घृणा करता है, और वह अपना क्रोध प्रकट करना चाहता है। लेकिन वह क्रोध प्रकट करने और दूसरों पर अपना गुस्सा उतारने की हिम्मत नहीं कर पाता, इसलिए वह अपनी भड़ास निकालकर खुद ही अपना गुस्सा उतारता है। क्या यह एक शातिर स्वभाव नहीं है? (है।) जब कोई छोटी-सी चीज भी तुम्हारे अनुरूप न हो, तो क्रोधित, नफरती और ईर्ष्यालु होना—यह दुष्टता है। जब शाओजी पर संकट आता है तो उसमें सामान्य मानवता का विवेक और समझ होती है। उसके पास बुद्धि है और वह ऐसे विकल्प चुनता है, जो सामान्य मानवता वाले व्यक्ति को चुनने चाहिए। हालाँकि शाओजी को भी वही बीमारी थी जो शाओशाओ को थी, लेकिन अंत में उसकी समस्या का समाधान हो गया, जबकि शाओशाओ कभी अपनी समस्या का समाधान नहीं कर पाया, वह लगातार बिगड़ती गई और कहीं ज्यादा प्रबल हो गई। शाओशाओ की समस्या एक गंभीर समस्या है, और वह सिर्फ दैहिक बीमारी नहीं है—उसने वह स्वभाव उजागर किया जो उसके दिल की गहराइयों में था; उसने अपनी जिद, हठधर्मिता, मूर्खता और द्वेषपूर्णता उजागर की। इन दोनों में यही अंतर है। अगर तुम लोगों के पास इस बात का ज्यादा विस्तृत ज्ञान और समझ हो कि ये दो लोग कैसे रहते हैं, और साथ ही चीजों से निपटने के उनके रवैयों और तरीकों की भी, तो तुम लोग उसके बारे में बाद में संगति करना जारी रख सकते हो, तुलना के लिए खुद को उसके सामने खड़ा कर सकते हो, और उससे एक सबक ले सकते हो। बेशक, तुम्हें शाओजी की तरह सक्रिय तरीके से चीजों में प्रवेश करना चाहिए। तुम्हें जीवन को सही तरीके से लेना चाहिए, और पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने का प्रयास करना चाहिए, ताकि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति बन जाओ। तुम्हें शाओशाओ की तरह नहीं होना चाहिए। क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) तुम्हें इसी तरह अनुसरण और अभ्यास करना चाहिए।

अब हम इस पर एक नजर डालेंगे कि हमने अपनी पिछली सभा में किस पर संगति की थी। हमने लोगों की धारणाओं में सही और अच्छी माने जाने वाली चीजों के पहले पहलू—अच्छे व्यवहारों—के बारे में बात की और सद्व्यवहार के छह उदाहरणों की सूची बनाई। ये सभी परंपरागत संस्कृति की प्रचारित चीजें हैं और ऐसे अच्छे व्यवहार हैं जिन्हें लोग अपने वास्तविक जीवन में पसंद करते हैं। क्या तुम लोग बता सकते हो कि ये क्या थे? (सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना, विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला होना, मिलनसार होना और सुलभ होना।) हमने कोई और उदाहरण नहीं दिया। हो सकता है, दूसरे देशों की परंपरागत संस्कृतियों के अच्छे व्यवहार परंपरागत चीनी संस्कृति के छह प्रतिनिधि अच्छे व्यवहारों से कुछ भिन्न हों, लेकिन हम उनकी सूची नहीं बनाएंगे। पिछली बार हमने इन छह अच्छे व्यवहारों की कुछ विशिष्ट विषयवस्तु पर संगति कर उनका विश्लेषण किया था। कुल मिलाकर, ये बाहरी अच्छे व्यवहार मानवता के भीतर सकारात्मक चीजों को नहीं दर्शाते, और यह तो बिल्कुल भी नहीं दर्शाते कि व्यक्ति का स्वभाव बदल गया है—इनसे निश्चित रूप से यह साबित नहीं होता कि व्यक्ति सत्य को समझता है और सत्य-वास्तविकता को जीता है। ये सिर्फ बाहरी व्यवहार हैं जिन्हें मनुष्य देख सकता है। सरल शब्दों में कहें तो ये मनुष्य की बाहरी अभिव्यक्तियाँ हैं। ये बाहरी अभिव्यक्तियाँ और उद्गार सिर्फ औपचारिकताएँ हैं जिन्हें लोग एक-दूसरे के साथ बातचीत और मेलजोल करते हुए और एक साथ रहते हुए बरतते हैं। “औपचारिकताओं” का क्या अर्थ है? इनका अर्थ उन सबसे सतही चीजों से है जो लोगों के देखने पर उन्हें सुकून देती हैं। ये न तो लोगों का सार दर्शाती हैं, न ही उनके विचार और दृष्टिकोण, न ही सकारात्मक चीजों के प्रति उनका रवैया, और सत्य के प्रति लोगों का रवैया तो वे बिलकुल भी नहीं दर्शातीं। बाहरी व्यवहारों के संबंध में मनुष्य की मूल्यांकन की अपेक्षाएँ और मानक सिर्फ ऐसी औपचारिकताएँ हैं जिन्हें लोग समझ-बूझ और पूरी कर सकते हैं। इनका मनुष्य के सार से कुछ भी लेना-देना नहीं है। लोग सतही तौर पर कितने भी मिलनसार और सुलभ क्यों न हों, और चाहे दूसरे लोग उनके द्वारा जिए जाने वाले बाहरी व्यवहार को कितना भी पसंद करते हों, उनका कितना भी आदर-सम्मान और आराधना करते हों, इसका यह मतलब नहीं है कि उनमें मानवता है, न ही इसका मतलब यह है कि उनका प्रकृति-सार अच्छा है या वे सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं या न्याय की भावना रखते हैं, और इसका निश्चित रूप से यह मतलब तो बिल्कुल नहीं है कि वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण कर सकते हैं। मनुष्य ने जिन तमाम अच्छे व्यवहारों की रूपरेखा पेश की है वे कुछ बाहरी अभिव्यक्तियों और उन जी गई चीजों से ज्यादा कुछ नहीं हैं जिन्हें मानवजाति खुद को जीवन के अन्य रूपों से अलग करने के लिए बढ़ावा देती है। उदाहरण के लिए, सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना और विनम्र होना—ये अच्छे व्यवहार सिर्फ यह दिखाते हैं कि नियमों का पालन न करने वाले जानवरों के उलट इंसान बाहरी रूप से काफी शिष्ट, नम्र, शिक्षित और सुसंस्कृत है। लोग खाने-पीने के बाद अपने हाथ या रुमाल से अपना मुँह पोंछते हैं, खुद को थोड़ा साफ करते हैं। अगर तुम कुत्ते के खाने-पीने के बाद उसका मुँह पोंछने की कोशिश करो हो तो वह खुश नहीं होगा। जानवर ऐसी चीजें नहीं समझते। तो फिर लोग ऐसी चीजों को क्यों समझते हैं? क्योंकि लोग “उच्चतर जानवर” हैं। उन्हें ये चीजें समझनी चाहिए। तो ये अच्छे व्यवहार महज ऐसी चीजें हैं जिनका उपयोग मनुष्य उस जैविक समूह के व्यवहार को साधने के लिए करता है जिसका नाम मानवजाति है, और ये मानवजाति को निचले स्तर के जीवों से अलग करने के अलावा कुछ नहीं करतीं। इनका आचरण से या सत्य के अनुसरण या परमेश्वर की आराधना से बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है। इसका मतलब यह है कि हो सकता है, तुम बाहरी रूप से सुशिक्षित और समझदार होने, सौम्य और परिष्कृत होने आदि के मानकों और अपेक्षाओं पर खरे उतरो, हो सकता है तुम्हारे पास ये अच्छे व्यवहार हों, पर इसका मतलब यह नहीं है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसमें मानवता है, या ऐसे व्यक्ति हो जिसके पास सत्य है, या ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है। इसका इनमें से किसी भी चीज से कोई मतलब नहीं। इसके विपरीत, इसका मतलब सिर्फ यह है कि व्यवहारगत शिक्षा की प्रणाली और शिष्टाचार के मानदंडों से गुजरने के बाद तुम्हारी बोली, हाव-भाव, शिष्टाचार आदि थोड़े और ज्यादा अनुशासित हो गए हैं। यह दर्शाता है कि तुम जानवरों से बेहतर हो और तुममें थोड़ी-सी मनुष्य की समानता है—लेकिन यह तुम्हें सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति के रूप में नहीं दिखाता। यह भी कहा जा सकता है कि इसका सत्य के अनुसरण से कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारा इन अच्छे व्यवहारों से युक्त होने का यह मतलब हरगिज नहीं कि तुम्हारे पास सत्य का अनुसरण करने के लिए सही स्थितियाँ हैं, और इसका यह मतलब तो बिल्कुल भी नहीं कि तुम पहले ही सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सत्य प्राप्त कर चुके हो। यह ये चीजें बिल्कुल भी नहीं दर्शाता।

जिस किसी ने भी कोई बिल्ली या कुत्ता पाला है, उसे लगेगा कि उसमें कुछ प्यारा है। कुछ कुत्ते-बिल्लियों में वास्तव में कुछ शऊर होते हैं। जब कुछ बिल्लियाँ अपने मालिक के कमरे में जाना चाहती हैं, तो वे प्रवेश करने से पहले दरवाजे पर कुछ बार म्याऊँ करेंगी। अगर मालिक कुछ नहीं कहता तो वे भीतर नहीं जाएँगी, वे सिर्फ तभी प्रवेश करेंगी जब उनका मालिक कहेगा : “अंदर आओ।” बिल्लियाँ भी इस तरह के शिष्टाचार का अभ्यास कर सकती हैं, वे अपने मालिक के कमरे में जाने से पहले अनुमति माँगना जानती हैं। क्या यह एक तरह का अच्छा व्यवहार नहीं है? अगर जानवरों में भी इस तरह का अच्छा व्यवहार हो सकता है तो लोगों के अच्छे व्यवहार उन्हें जानवरों से कितना ऊँचा बना सकते हैं? यह सामान्य ज्ञान का न्यूनतम स्तर है, जो लोगों के पास होना चाहिए—इसे सिखाने की आवश्यकता नहीं है, यह निहायत सामान्य बात है। लोगों को लग सकता है कि इस तरह का अच्छा व्यवहार अपेक्षाकृत उचित है और यह उन्हें कुछ हद तक सहज महसूस करा सकता है, पर क्या इन अच्छे व्यवहारों को जीना उनकी मानवता की गुणवत्ता या सार को दर्शाता है? (नहीं।) यह ऐसा नहीं दर्शाता। ये सिर्फ ऐसे नियम और तौर-तरीके हैं जो व्यक्ति के कार्यों में होने चाहिए—इनका व्यक्ति की मानवता की गुणवत्ता और सार से कोई लेना-देना नहीं है। उदाहरण के लिए, कुत्ते-बिल्लियों को लो—उनमें क्या समानता है? जब लोग उन्हें कुछ खाने को देते हैं तो वे अपनापन और आभार जताते हैं। उनका इस तरह का आचरण होता है, और वे इस तरह का व्यवहार प्रदर्शित कर सकते हैं। उनमें अलग बात यह है कि एक चूहे पकड़ने का विशेषज्ञ है तो दूसरा घर की रखवाली करने का। बिल्ली अपने मालिक को किसी भी समय और किसी भी स्थान पर छोड़ सकती है; जब उसे मौज-मस्ती करनी होती है तब बिल्ली अपने मालिक को भूल जाती है और उस पर ध्यान नहीं देती। कुत्ता अपने मालिक को कभी नहीं छोड़ता; अगर वह तुम्हें अपने स्वामी के रूप में पहचानता है तो मालिकों के बदलने के बाद भी वह तुम्हें पहचानता है और अपना मालिक मानता है। बिल्लियों और कुत्तों के बीच, उनके व्यवहार की नैतिक गुणवत्ता और उनके सार के संदर्भ में, यही अंतर है। अब बात करते हैं लोगों की। जिन व्यवहारों को मनुष्य अच्छा मानता है, जैसे कि सुशिक्षित और समझदार होना, विनम्र होना, सुलभ होना, आदि, उनमें से भले ही कुछ ऐसे भी हैं जो अन्य प्रजातियों के व्यवहारों को पीछे छोड़ देते हैं—यानी मनुष्य जो कर सकता है वह अन्य प्रजातियों की क्षमताओं से बढ़कर है—फिर भी ये बाहरी व्यवहारों और नियमों से ज्यादा कुछ नहीं हैं, ये सिर्फ वे नजरिये हैं जिनका उद्देश्य लोगों के व्यवहार को साधना और उन्हें दूसरे जीवों से अलग करना है। इन अच्छे व्यवहारों के होने से लोगों को यह लग सकता है कि वे दूसरे जीवों से अलग या बेहतर हैं, लेकिन तथ्य यह है कि कुछ मामलों में लोग जानवरों से भी बदतर व्यवहार करते हैं। जैसे, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला होने का उदाहरण ही ले लो। पशु जगत में भेड़िये इस मामले में लोगों से बेहतर हैं। भेड़ियों के झुंड में वयस्क भेड़िये शिशु भेड़िये की देखभाल करते हैं, फिर चाहे वह किसी का भी बच्चा हो। वे उसे सताते नहीं या नुकसान नहीं पहुँचाते। मनुष्य यह नहीं कर पाता और इस तरह मानवजाति भेड़ियों के झुंड से भी बदतर है। मानवजाति में बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह किस तरह की जाती है? क्या लोग वास्तव में ऐसा कर पाने में सक्षम हैं? अधिकांश लोग “छोटों की परवाह” करने में सक्षम नहीं हैं, लोगों में इस तरह का अच्छा व्यवहार नहीं होता, जिसका अर्थ है कि उनमें उस तरह की मानवता नहीं होती है। उदाहरण के लिए : जब कोई बच्चा अपने माता-पिता के साथ होता है तो उस बच्चे से बात करते समय लोग काफी मिलनसार और सुलभ होंगे—लेकिन जब उसके माता-पिता वहाँ नहीं होते तो लोगों का शैतानी पक्ष सामने आ जाता है। अगर बच्चा उनसे बात करता है तो वे उसे अनदेखा कर देंगे, यहाँ तक कि वे बच्चे को नापसंद कर उसके साथ दुर्व्यवहार करेंगे। वे कितने दुष्ट हैं! दुनिया के कई देशों में बाल-तस्करी असामान्य बात नहीं है—यह वैश्विक समस्या है। अगर लोगों में बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने का अच्छा व्यवहार भी न हो, और बच्चों को धौंस देते हुए उन्हें अपनी अंतरात्मा में कोई पीड़ा महसूस न हो, तो मुझे बताओ यह किस तरह की मानवता है? वे फिर भी बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने का ढोंग करते हैं लेकिन यह सिर्फ एक मुखौटा होता है। मैं यह उदाहरण क्यों देता हूँ? क्योंकि भले ही मानवजाति ने ये अच्छे व्यवहार सामने रखे हैं और लोगों के व्यवहार के लिए ये अपेक्षाएँ और मानक पेश किए हैं, फिर भी मनुष्य का भ्रष्ट सार कभी नहीं बदला जा सकता, चाहे लोग इन पर खरा उतरने में सक्षम हों या नहीं, या उनमें कितने भी अच्छे व्यवहार हों। लोगों और चीजों के बारे में मनुष्य के विचारों के मापदंड और उसके आचरण और कार्यकलाप के मानदंड पूरी तरह से भ्रष्ट मनुष्य के विचारों और दृष्टिकोणों से उत्पन्न होते हैं, और ये भ्रष्ट स्वभावों द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। भले ही मानवजाति ने जो अपेक्षाएँ और मानक सामने रखे हैं, उन्हें अच्छे और उच्च मानक माना जाता है, पर क्या लोग उन्हें प्राप्त करने में सक्षम हैं? (नहीं।) यह एक समस्या है। यहाँ तक कि अगर व्यक्ति बाहरी रूप से थोड़ा बेहतर काम भी करता है, और इसके लिए पुरस्कृत भी किया और पहचाना जाता है, तो भी उसमें ढोंग और चालाकी की मिलावट होती है, क्योंकि, जैसा कि सभी मानते हैं, थोड़ी-सी अच्छाई करना आसान है—मुश्किल है पूरे जीवन अच्छाई करना। अगर वह वास्तव में एक अच्छा व्यक्ति है तो उसके लिए अच्छे कार्य करना इतना कठिन क्यों है? इसलिए, कोई भी व्यक्ति मानवजाति के तथाकथित “अच्छे” और मान्यताप्राप्त मानकों पर खरा नहीं उतर सकता। यह सब शेखी बघारना, धोखाधड़ी और कल्पना है। भले ही लोग बाहरी रूप से इनमें से कुछ मानक पूरे कर सकते हों और उनमें थोड़ा-सा अच्छा व्यवहार हो—जैसे सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना, विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला होना, मिलनसार होना और सुलभ होना—हालाँकि लोगों के पास इनमें से कुछ चीजें हो सकती हैं और उन्हें वे कर सकते हैं, लेकिन यह सिर्फ थोड़े समय के लिए, अस्थायी रूप से या किसी क्षणिक परिवेश में होता है। उनमें ये अभिव्यक्तियाँ तभी होती हैं, जब उन्हें उनकी आवश्यकता होती है। जैसे ही कोई चीज उनके रुतबे, गौरव, धन, हितों, यहाँ तक कि उनके भाग्य और उनकी संभावनाओं को छूती है तो उनकी प्रकृति और क्रूर अंतरात्मा फूट पड़ेगी। फिर वे सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत, विनम्र, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाले, मिलनसार या सुलभ नहीं दिखेंगे। इसके बजाय वे एक-दूसरे से लड़ेंगे और एक-दूसरे के खिलाफ साजिश रचेंगे, प्रत्येक व्यक्ति दूसरे को मात देने की कोशिश करेगा, उसे फँसाएगा और मारेगा। ऐसी चीजें बहुत बार होती हैं—अपने हितों, अपनी हैसियत या अपने अधिकार के लिए दोस्त, रिश्तेदार, यहाँ तक कि बाप-बेटे भी एक-दूसरे का संहार करने की कोशिश करेंगे, जब तक कि उनमें से सिर्फ एक बचा नहीं रह जाता। लोगों की दयनीय स्थिति साफ दिखती है। इसीलिए सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना, विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला होना, मिलनसार होना और सुलभ होना क्षणिक परिस्थितियों की उपज ही कहलाया जा सकता है। कोई भी व्यक्ति वास्तव में इन्हें नहीं जी सकता—यहाँ तक कि चीनियों द्वारा पूजे जाने वाले संत और महापुरुष भी इन चीजों में सक्षम नहीं थे। इसलिए ये तमाम शिक्षाएँ और सिद्धांत बेतुके हैं। ये सब शुद्ध बकवास हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले लोग अपने निजी हितों से जुड़े मामले परमेश्वर के वचनों के अनुसार और सत्य को अपनी कसौटी मानकर हल करने में सक्षम होते हैं, और वे सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में सक्षम होते हैं। इस तरह, उनमें जो सत्य-वास्तविकता होती है, वह मानवजाति द्वारा स्वीकृत अच्छे व्यवहार के मानकों को पीछे छोड़ देती है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे अपने हितों की बाधा पार नहीं कर पाते, और इस तरह, वे सत्य को अमल में नहीं ला पाते। यहाँ तक कि वे अच्छे व्यवहार जैसे नियमों का पालन भी नहीं कर पाते। तो फिर, लोगों और चीजों के बारे में उनके विचारों का और उनके आचरण और कार्यकलाप का आधार और मानदंड क्या होता है? निश्चित रूप से येसिर्फ नियम और सिद्धांत होते हैं, ये शैतान के फलसफे और कानून होते हैं, न कि परमेश्वर के वचनों का सत्य। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे लोग सत्य नहीं स्वीकारते, और सिर्फ अपने हित साधने में लगे रहते हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से वे सत्य को अमल में नहीं ला सकते। यहाँ तक कि वे अच्छे व्यवहार भी कायम नहीं रख पाते—वे इसका दिखावा करने की कोशिश करते हैं, लेकिन वे अपने स्वाँग बनाए नहीं रख पाते। इसमें वे अपना असली रंग दिखा देते हैं। अपने हितों के लिए वे संघर्ष करेंगे, छीनेंगे और लूटेंगे, वे साजिश और छल-प्रपंच रचेंगे, दूसरों को दंडित करेंगे, यहाँ तक कि किसी को मार भी डालेंगे। वे ये सभी बुरी चीजें कर सकते हैं—क्या इससे उनकी प्रकृति उजागर नहीं होती? और जब उनकी प्रकृति उजागर हो जाती है, तो दूसरे लोग उनकी कथनी-करनी के इरादे और आधार आसानी से देख सकते हैं; दूसरे बता सकते हैं कि वे लोग पूरी तरह से शैतान के फलसफों के अनुसार जी रहे हैं, कि लोगों और चीजों के बारे में उनके विचारों और उनके आचरण और कार्यकलाप का आधार शैतान के फलसफे हैं। उदाहरण के लिए : “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “दुनिया पैसों के इशारों पर नाचती है,” “जहाँ जीवन है वहाँ आशा है,” “एक छोटे मन से कोई सज्जन व्यक्ति नहीं बनता है, वैसे ही वास्तविक मनुष्य को क्रूर होना चाहिए,” “अगर तुम निर्दयी हो तो मैं निष्पक्ष नहीं होऊँगा,” “अपनी ही दवा का स्वाद चखो,” इत्यादि—तर्क और नियमों की ये शैतानी लकीरें लोगों के भीतर हावी हो जाती हैं। जब लोग इन चीजों के अनुसार जीते हैं तो सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना, विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाले होना आदि जैसे अच्छे व्यवहार ऐसे नकाब बन जाते हैं जिनका उपयोग लोग खुद को छिपाने के लिए करते हैं, ये मुखौटे बन जाते हैं। ये मुखौटे क्यों बन जाते हैं? क्योंकि लोग वास्तव में जिस नींव और जिन नियमों के अनुसार जीते हैं, वे सत्य नहीं हैं, बल्कि शैतान द्वारा मनुष्य के मन में बैठाई गई चीजें हैं। और इस तरह जो व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, उस पर मनुष्य के सबसे मूलभूत जमीर और नैतिकता का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जब उनके हितों से जुड़ी कोई बात घटित होती है तो उनका असली रूप सामने आ जाएगा और उस समय लोगों को उनका असली चेहरा दिखाई देगा। लोग दहलकर कहेंगे, “पर क्या वे आम तौर पर बहुत सज्जन, विनम्र और भले मानस नहीं होते? ऐसा क्यों है कि जब उन पर कोई संकट आता है तो वे पूरी तरह से अलग व्यक्ति में बदलते लगते हैं?” वास्तव में वह व्यक्ति नहीं बदला; बात बस इतनी है कि तब तक उसका रूप प्रकट और उजागर नहीं हुआ था। जब तक चीजें उनके हितों को नहीं छूतीं और उनके उग्रता से लड़ने की नौबत नहीं आ जाती, तब तक वे जो कुछ भी करते हैं वह छल और छलावा ही होता है। अपने हित प्रभावित होने या खतरे में पड़ने और स्वाँग रचना बंद कर देने पर अपने अस्तित्व के जो नियम और आधार वे प्रकट करते हैं, वे ही उनकी प्रकृति, सार और असली स्वरूप होते हैं। इसलिए व्यक्ति के अच्छे व्यवहार चाहे किसी भी तरह के हों—अन्य लोगों को उसका बाहरी व्यवहार कितना भी बेदाग क्यों न लगे—इसका मतलब यह नहीं है कि वह सत्य का अनुसरण और सकारात्मक चीजों से प्रेम करने वाला व्यक्ति है। कम-से-कम इसका यह मतलब तो नहीं है कि उसमें सामान्य मानवता है, और इसका मतलब यह तो बिल्कुल भी नहीं है कि वह भरोसेमंद या बातचीत करने लायक है।

अच्छे व्यवहारों के भीतर, हमने सुशिक्षित और समझदार होने, सौम्य और परिष्कृत होने, विनम्र होने, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाले होने, मिलनसार होने और सुलभ होने के उदाहरण दिए हैं। अब हम एक उदाहरण के रूप में बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने को लेंगे और इस पर विस्तार से संगति करेंगे। बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना मानव-जीवन में एक बहुत ही सामान्य घटना है। यहाँ तक कि यह कुछ जानवरों की आबादियों के भीतर भी दिख सकता है, इसलिए, स्वाभाविक रूप से, इसे मनुष्यों के बीच और भी ज्यादा दिखना चाहिए, उनमें तो जमीर और विवेक होता है। मनुष्यों को इस व्यवहार का पालन अन्य प्रजातियों की तुलना में बेहतर, ज्यादा ठोस और व्यावहारिक ढंग से करना चाहिए, सिर्फ सतही ढंग से नहीं। बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने के इस अच्छे व्यवहार का पालन करने में मनुष्य को अन्य प्रजातियों से बेहतर होना चाहिए, क्योंकि मनुष्यों में जमीर और विवेक होता है, जो अन्य प्रजातियों में नहीं होता। इस अच्छे व्यवहार के पालन में मनुष्यों को यह प्रदर्शित करने में सक्षम होना चाहिए कि उनकी मानवता अन्य प्रजातियों के सार से बढ़कर है, अलग है। लेकिन क्या मनुष्य सच में ऐसा करते हैं? (नहीं।) क्या पढ़े-लिखे, जानकार लोग ऐसा करते हैं? (वे भी नहीं करते।) आओ, आम लोगों को अलग रखकर अभिजात वर्ग और राजदरबार के मामलों के बारे में बात करते हैं। वर्तमान में, कई देश शाही परिवारों की कई उत्तेजक कहानियाँ उजागर करने वाले अनेक शाही नाटक प्रस्तुत कर रहे हैं। महल के सदस्य और आम लोग इस मामले में एक-जैसे हैं कि वे दोनों वरिष्ठता-अनुक्रम पर बहुत जोर देते हैं। शाही घरानों के लोगों ने आम लोगों की तुलना में बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने के अच्छे व्यवहार के बारे में ज्यादा विशिष्ट शिक्षा पाई है, और शाही घरानों में युवा पीढ़ी आम लोगों की तुलना में अपने बड़ों के प्रति आदरपूर्ण होने और उन्हें सम्मान देने में बेहतर हैं—इसमें बहुत ज्यादा शिष्टाचार शामिल होता है। जब बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने की बात आती है, तो शाही परिवारों में अच्छे व्यवहार के इस पहलू के लिए विशेष रूप से उच्च अपेक्षाएँ होती हैं, जिसका उन्हें अक्षरशः पालन करना होता है। सतह पर वे, आम लोगों की ही तरह, परंपरागत संस्कृति की बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने की अपेक्षा का पालन करते दिखाई देते हैं—पर फिर भी, चाहे जितनी भी अच्छी तरह से या उपयुक्त रूप से वे ऐसा करते हों, चाहे जितने भी सभ्य और निंदा से परे वे नजर आते हों, इस निंदा से परे व्यवहार के मुखौटे के पीछे तमाम तरह के सत्ता-हस्तांतरण और विभिन्न ताकतों के बीच सत्ता के लिए संघर्ष छिपा होता है। पुत्रों और पिताओं, पोतों और दादाओं, सेवकों और स्वामियों, मंत्रियों और राजाओं के बीच—सतह पर, वे सभी व्यवहार के उस सबसे बुनियादी मानदंड : बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने का पालन करते प्रतीत होते हैं। पर चूँकि राजसी सत्ता और विभिन्न अन्य ताकतें सभी इसमें शामिल होती हैं, इसलिए यह बाहरी व्यवहार किसी काम नहीं आता। यह उस नतीजे को प्रभावित करने में पूरी तरह से अक्षम होता है जो आखिरकार राजसी सत्ता के हस्तांतरण और विभिन्न ताकतों के बीच के संघर्ष से मिलता है। स्वाभाविक रूप से इस तरह का अच्छा व्यवहार मूलभूत रूप से ऐसे किसी भी व्यक्ति को नियंत्रित करने में अक्षम होता है, जो सिंहासन का लालच करता है या सत्ता के लिए महत्वाकांक्षाएँ रखता है। आम लोग बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने के नियम का पालन करते हैं, जो उनके पूर्वजों ने उन्हें दिया था। वे भी इस नियम की सीमाओं के बीच रहते हैं। चाहे जितने हित आपस में टकराएँ, या उन हितों के टकराने पर चाहे जो संघर्ष उत्पन्न हो जाएँ, इसके बाद भी आम लोग एक-साथ रहने में सक्षम होते हैं। लेकिन शाही परिवारों में चीजें अलग होती हैं, क्योंकि उनके हित और सत्ता-विवाद ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। वे निरंतर लड़ते हैं, और अंतिम परिणाम यह होता है कि जीतने वाले राजा बन जाते हैं और हारने वाले अपराधी—या तो एक पक्ष मरता है या दूसरा। जीतने वाले और हारने वाले सभी समान रूप से बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने का नियम बरकरार रखते हैं, पर चूँकि प्रत्येक पक्ष अलग-अलग मात्रा में ताकत रखता है और उनकी अलग-अलग इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ होती हैं, या प्रत्येक पक्ष की ताकत के बीच असमानताओं के कारण, अंत में कुछ जीवित रह जाते हैं, जबकि अन्य नष्ट हो जाते हैं। इसे क्या निर्धारित करता है? क्या यह बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने के नियम से निर्धारित होता है? (नहीं।) तो, इसे क्या निर्धारित करता है? (मनुष्य की शैतानी प्रकृति।) इस सब से मेरा क्या तात्पर्य है? मेरा तात्पर्य है कि ये नियम, मनुष्य के नए, तथाकथित अच्छे व्यवहार, कुछ भी निर्धारित नहीं कर सकते। व्यक्ति किस मार्ग पर चलेगा, यह इस बात से जरा भी तय नहीं होता कि क्या वह सुशिक्षित और समझदार है, मिलनसार है, या अपने बाहरी व्यवहार में बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला है, यह मनुष्य की प्रकृति से निर्धारित होता है। संक्षेप में, परमेश्वर का घर अच्छे व्यवहार के बारे में मनुष्यों के बीच उदित हुए इन कथनों को बढ़ावा नहीं देता। ये व्यवहार, जिन्हें मनुष्य अच्छे समझता है, एक प्रकार के अच्छे व्यवहार और अभिव्यक्ति से ज्यादा कुछ नहीं हैं; ये सत्य को नहीं दर्शाते, और अगर किसी में ये अच्छे व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ हैं, तो इसका मतलब यह नहीं कि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है, इसका यह मतलब तो बिल्कुल भी नहीं कि वह सत्य का अनुसरण कर रहा है।

चूँकि ये व्यवहार, जिन्हें मनुष्य अच्छा मानता है, परमेश्वर की ओर से नहीं आते, न ही उसका घर उन्हें बढ़ावा देता है, और वे परमेश्वर के इरादों के अनुरूप तो बिल्कुल भी नहीं होते, और चूँकि वे परमेश्वर के वचनों और उसके द्वारा की जाने वाली अपेक्षाओं के प्रतिकूल होते हैं, तो क्या मनुष्य के व्यवहार के लिए परमेश्वर की भी कुछ अपेक्षाएँ हैं? (हाँ, हैं।) परमेश्वर ने भी अपना अनुसरण करने वाले विश्वासियों के व्यवहार के बारे में कुछ कथन प्रस्तुत किए हैं। वे उन अपेक्षाओं से अलग हैं, जो परमेश्वर ने सत्य के संबंध में मनुष्य से की हैं, और वे कुछ हद तक सरल हैं, पर उनमें कुछ विशिष्ट बातें अवश्य हैं। अपना अनुसरण करने वालों से परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं? उदाहरण के लिए, संत जैसी शालीनता रखना—क्या यह मनुष्य के व्यवहार के लिए एक अपेक्षा नहीं है? (है।) लंपट न होना, संयमित रहना, असामान्य वस्त्र न पहनना, धूम्रपान या मद्यपान न करना, दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करना, साथ ही मूर्ति-पूजा न करना, अपने माता-पिता का सम्मान करना, इत्यादि भी हैं। ये सभी व्यवहारगत अपेक्षाएँ हैं, जिन्हें परमेश्वर ने अपने अनुयायियों के लिए सामने रखा है। ये सबसे बुनियादी अपेक्षाएँ हैं और इन्हें नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। परमेश्वर की उन लोगों के व्यवहार के संबंध में विशिष्ट अपेक्षाएँ हैं, जो उसका अनुसरण करते हैं, और वे अविश्वासियों द्वारा प्रस्तुत किए गए अच्छे व्यवहारों से भिन्न हैं। अविश्वासियों द्वारा प्रस्तावित अच्छे व्यवहार लोगों को, अन्य निचले जानवरों से अलग करते हुए, उच्च जानवर बनाने के अलावा और कुछ नहीं करते। जबकि, परमेश्वर द्वारा अपने अनुयायियों से की जाने वाली अपेक्षाएँ उन्हें अविश्वासियों से अलग करती हैं, उन लोगों से अलग करती हैं जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते। वे जानवरों से अलग होने के बारे में नहीं हैं। अतीत में “पवित्रीकरण” की भी बात होती थी। यह इसे कहने का कुछ हद तक अतिशयोक्तिपूर्ण और गलत तरीका है, लेकिन परमेश्वर ने अपने अनुयायियों के लिए उनके व्यवहार के संबंध में कुछ अपेक्षाएँ रखी हैं। बताओ, वे कौन-सी अपेक्षाएँ हैं? (संतों जैसी शालीनता रखना, लंपट न होना, संयमित रहना, असामान्य वस्त्र न पहनना, धूम्रपान या मद्यपान न करना, दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करना, मूर्ति-पूजा न करना और अपने माता-पिता का सम्मान करना।) इनके अलावा और क्या? (दूसरों की संपत्ति का गबन न करना, चोरी न करना, झूठी गवाही न देना, व्यभिचार न करना।) ये भी हैं। ये व्यवस्था के अंग हैं, ये वे कुछ अपेक्षाएँ हैं, जो परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार के बारे में बिल्कुल शुरुआत में रखी थीं, और ये आज तक वास्तविक और व्यावहारिक बनी हुई हैं। परमेश्वर अपने अनुयायियों के व्यवहार को विनियमित करने के लिए इन अपेक्षाओं का उपयोग करता है, जिसका अर्थ है कि ये बाहरी व्यवहार उन लोगों के चिह्न हैं, जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। अगर तुममें ये व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ ऐसे मौजूद हैं कि दूसरे तुम्हें देखकर जान जाते हैं कि तुम परमेश्वर में विश्वास करने वाले हो, तो वे कम से कम तुम्हारा अनुमोदन कर तुम्हारी प्रशंसा करेंगे। वे कहेंगे कि तुममें संतों जैसी शालीनता है, कि तुम परमेश्वर में विश्वास करने वाले जैसे दिखते हो, न कि किसी अविश्वासी जैसे। कुछ लोग, जो परमेश्वर में विश्वास करने लगते हैं, अविश्वासियों जैसे ही बने रहते हैं, अक्सर धूम्रपान करते हैं, मद्यपान करते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो व्यभिचार और चोरी तक करते हैं। यहाँ तक कि उनका व्यवहार भी असंयमित होता है और परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं होता, और जब कोई अविश्वासी उन्हें देखता है, तो वह कहता है, “क्या ये वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं? तो फिर ये उन लोगों की तरह क्यों हैं, जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते?” दूसरे लोग उस व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करते या उस पर भरोसा नहीं करते, इसलिए जब वह व्यक्ति सुसमाचार फैलाने की कोशिश करता है, तो लोग उसे स्वीकारते नहीं। अगर व्यक्ति वह कर सकता है जिसकी परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा करता है, तो वह सकारात्मक चीजों का प्रेमी होता है, दयालु होता है और उसमें सामान्य मानवता होती है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के वचन सुनते ही उन्हें अमल में ला सकता है, और वह जो अभ्यास करता है उसमें कोई ढोंग नहीं होता, क्योंकि उसने कम से कम अपने जमीर और विवेक के आधार पर उस तरह से कार्य किया है। परमेश्वर की मनुष्य से विशिष्ट अपेक्षाएँ उन अच्छे व्यवहारों से किस रूप में भिन्न होती हैं, जिन्हें मनुष्य बढ़ावा देता है? (परमेश्वर की मनुष्य से अपेक्षाएँ विशिष्ट रूप से व्यावहारिक हैं, वे लोगों को सामान्य मानवता को जीने में सक्षम बना सकती हैं, जबकि परंपरागत संस्कृति सिर्फ कुछ ऐसे व्यवहारों की माँग करती है जो दिखावे के लिए हैं, जिनका कोई वास्तविक कार्य नहीं है।) यह सही है। परंपरागत संस्कृति द्वारा मनुष्य से अपेक्षित तमाम व्यवहार नकली और स्वाँग हैं। वे एक ढोंग हैं। उनका पालन करने वाले भले ही मधुर वचन बोलें, लेकिन भीतर चीजें बिलकुल दूसरी होती हैं। ये अच्छे व्यवहार एक नकाब हैं, एक भ्रम हैं। ये वे चीजें नहीं हैं, जो व्यक्ति की मानवता के सार से निकलती हैं, ये वे छद्म वेश हैं जिन्हें मनुष्य अपने गौरव के लिए, अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए ओढ़ता है। वे एक दिखावा हैं, एक तरह का पाखंडी नजरिया, एक ऐसी चीज जिसे व्यक्ति जानबूझकर दूसरों को दिखाने के लिए करता है। कभी-कभी लोग नहीं समझ पाते कि किसी व्यक्ति का व्यवहार असली है या नकली, लेकिन समय पर सब उस व्यक्ति के असली रंग देख लेते हैं। यह ठीक वैसा ही है, जैसा कि पाखंडी फरीसियों के साथ था, जिनमें बहुत सारे बाहरी अच्छे व्यवहार और उनकी तथाकथित धर्मपरायणता की बहुत सारी अभिव्यक्तियाँ थीं, फिर भी जब प्रभु यीशु सत्य व्यक्त करने और छुटकारे का कार्य करने के लिए आया, तो उन्होंने उसकी निंदा की और उसे सूली पर चढ़ाया, क्योंकि वे सत्य से विमुख होकर उससे घृणा करते थे। यह दिखाता है कि लोगों के अच्छे व्यवहार और बाहरी नजरिये उनका प्रकृति सार नहीं दर्शाते। वे लोगों के प्रकृति सार से संबंधित नहीं होते। जबकि परमेश्वर मनुष्य से जो नियम पूरे करने की माँग करता है, उन्हें अभ्यास में लाया जा सकता है और वास्तव में जिया जा सकता है, बशर्ते व्यक्ति वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करता हो और जमीर और विवेक रखता हो। तुम्हें ये चीजें करनी चाहिए, चाहे तुम उन्हें दूसरों के सामने करो या उनकी पीठ पीछे; चाहे तुम्हारा मानवता सार कैसा भी हो, तुम्हें परमेश्वर द्वारा सामने रखी गई इन अपेक्षाओं को पूरा करना ही चाहिए। चूँकि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, इसलिए तुम्हें खुद को संयमित कर उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, चाहे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव कितना भी गंभीर क्यों न हो। इस तरह कुछ समय तक अनुभव करने के बाद तुम्हारे पास सच्चा प्रवेश होगा और तुम सच में बदल गए होगे। यह सच्चा बदलाव वास्तविक है।

आओ, जल्दी से इसका सारांश बनाते हैं : लोगों के व्यवहार के लिए परमेश्वर की किस तरह की अपेक्षाएँ हैं? लोगों को सिद्धांतवादी और संयमित रहना चाहिए, और उन्हें बिना किसी दिखावे के, गरिमा के साथ इस तरह जीना चाहिए कि दूसरे उनका सम्मान करें। ये मनुष्य से परमेश्वर की व्यवहारगत अपेक्षाएँ हैं। इसका मतलब यह है कि व्यक्ति को इस तरह से अभ्यास करना चाहिए और उसमें इस तरह की वास्तविकता होनी चाहिए, भले ही वह दूसरों की उपस्थिति में हों या नहीं, या वह जिस भी परिवेश में हो या जिस किसी के भी सामने हो। सामान्य मनुष्यों में ये वास्तविकताएँ होनी चाहिए; अपने आचरण के संदर्भ में व्यक्ति को कम से कम यह तो करना ही चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कोई बहुत जोर से बोलता है, पर वह दूसरों के साथ गाली-गलौज या अभद्र भाषा का इस्तेमाल नहीं करता, और वह जो कहता है वह सत्य और सटीक होता है, और यह अन्य लोगों पर हमला नहीं करता। भले ही वह व्यक्ति किसी को बुरा कहे या यह कहे कि वह व्यक्ति अच्छा नहीं है, यह तथ्यात्मक है। हालाँकि उसके बाहरी शब्द और कार्य अविश्वासियों द्वारा सामने रखी गई मिलनसार या सौम्य और परिष्कृत होने की अपेक्षाओं के अनुरूप न हों, वह जो कहता है उसकी विषयवस्तु, और उसकी बातों के सिद्धांत और आधार उसे गरिमा और निष्ठा के साथ जीने देते हैं। सिद्धांतवादी होने का यही अर्थ है। वे उन चीजों के बारे में लापरवाही से बात नहीं करते जिन्हें वे नहीं जानते, न ही वे उन लोगों का मनमाने ढंग से मूल्यांकन करते हैं जिन्हें वे स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते। हालाँकि वे सतह पर बहुत सौम्य नहीं दिखते, और वे सुसंस्कृत और नियमों के पाबंद होने का वह व्यवहारगत मानक पूरा नहीं करते, जिसके बारे में अविश्वासी बात करते हैं, पर चूँकि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है और वे वचन और कर्म में संयमित होते हैं, इसलिए जिसे वे जीते हैं, वह सुशिक्षित और समझदार होने, सौम्य और परिष्कृत होने और विनम्र होने के उन व्यवहारों को काफी पीछे छोड़ देता है, जिनके बारे में मनुष्य बात करता है। क्या यह संयमित और सिद्धांतवादी होने की अभिव्यक्ति नहीं है? (है।) जो भी हो, अगर तुम लोग अच्छे व्यवहार की उन अपेक्षाओं को बारीकी से देखो, जिन्हें परमेश्वर अपने विश्वासियों के लिए सामने रखता है, तो उनमें से कौन-सी अपेक्षा इस बारे में ठोस नियम नहीं है कि लोगों को व्यावहारिक रूप से किसे जीना चाहिए? उनमें से कौन-सी अपेक्षा लोगों को स्वाँग रचने के लिए कहती है? उनमें से कोई नहीं, है न? अगर तुम लोगों को कोई संदेह हों, तो तुम बोल सकते हो। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कह सकते हैं, “जब परमेश्वर कहता है कि दूसरे लोगों के साथ मारपीट या गाली-गलौज मत करो, तो यह थोड़ा झूठा लगता है, क्योंकि अभी ऐसे लोग हैं जो कभी-कभी दूसरों के साथ गाली-गलौज करते हैं, और परमेश्वर उनकी निंदा नहीं करता।” जब परमेश्वर अन्य लोगों के साथ गाली-गलौज न करने के लिए कहता है, तो “गाली-गलौज” का क्या अर्थ होता है? (जब व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वभाव के कारण अपनी भावनाओं का गुबार निकालता है।) अपनी भावनाएँ बाहर निकालना, गंदी बातें बोलना—यही गाली-गलौज है। अगर किसी व्यक्ति के बारे में कही गई बात अप्रिय किंतु उसके भ्रष्ट सार के अनुरूप हो, तो यह गाली-गलौज नहीं है। उदाहरण के लिए, हो सकता है किसी ने कलीसिया के काम को बाधित और अव्यवस्थित किया हो और बहुत सारी बुराई की हो, और तुम उससे कहते हो, “तुमने बहुत बुराई की है। तुम बदमाश हो—तुम इंसान नहीं हो!” क्या यह गाली-गलौज माना जाएगा? या एक भ्रष्ट स्वभाव का उद्गार? या अपनी भावनाएँ बाहर निकालना? या संतों जैसी शालीनता न रखना माना जाएगा? (यह तथ्यों के अनुरूप है, इसलिए इसे गाली-गलौज नहीं माना जाता।) यह सही है, इसे गाली-गलौज नहीं माना जाता। यह तथ्यों के अनुसार है—ये सच्चे शब्द हैं, सच्चाई से बोले गए हैं, और कुछ भी ढका-छिपाया नहीं गया है। हो सकता है, यह सुशिक्षित और समझदार होने या सौम्य और परिष्कृत होने के अनुरूप न हो, पर यह तथ्यों के अनुरूप अवश्य है। डाँटा-फटकारा गया व्यक्ति अपनी तुलना उन शब्दों से करके अपनी जाँच करेगा, और देखेगा कि उसे इसलिए डाँटा-फटकारा गया था क्योंकि उसने कुछ गलत किया था और बहुत ज्यादा दुष्टता की थी। वह यह सोचकर खुद से घृणा करेगा, “मैं वास्तव में किसी काम का नहीं हूँ! जो मैंने किया, वह कोई घटिया व्यक्ति ही करेगा—मैं मनुष्य नहीं हूँ! उनका मुझे इस तरह डाँटना-फटकारना सही और अच्छा था!” इसे स्वीकारने के बाद वह अपने प्रकृति सार के बारे में थोड़ा ज्ञान प्राप्त करेगा और कुछ समय के अनुभव और खुलासे के बाद वह वास्तव में पश्चात्ताप करेगा। फिर वह जान जाएगा कि भविष्य में अपना कर्तव्य निभाते हुए उसे सिद्धांत खोजना है। क्या डाँट-फटकार ने उसे जगाया नहीं? तो फिर क्या इस तरह की डाँट-फटकार में और परमेश्वर की लोगों से दूसरों के साथ गाली-गलौज न करने की अपेक्षा में शामिल “गाली-गलौज” में कोई अंतर नहीं है? (अंतर है।) क्या अंतर है? परमेश्वर की इस अपेक्षा में कि लोग दूसरों के साथ गाली-गलौज न करें, शामिल “गाली-गलौज” का क्या अर्थ है? इसका एक पहलू यह है कि अगर विषयवस्तु और शब्द अश्लील हैं, तो यह अच्छा नहीं है। परमेश्वर अपने अनुयायियों के मुँह से अभद्र भाषा नहीं सुनना चाहता। वह ये शब्द सुनना पसंद नहीं करता। लेकिन अगर तथ्य प्रकट करते समय कुछ अप्रिय शब्दों का प्रयोग किया जाता है, तो ऐसे मामलों को अपवाद के रूप में लिया जा सकता है। यह गाली-गलौज नहीं है। दूसरा पहलू है : गाली-गलौज के व्यवहार का सार क्या है? क्या यह गर्ममिजाजी का उद्गार नहीं है? अगर कोई समस्या सामान्य संगति, उपदेश और संवाद के माध्यम से स्पष्ट और पारदर्शी रूप से समझाई जा सकती हो, तो इसके बजाय व्यक्ति के साथ गाली-गलौज क्यों करना? ऐसा करना अच्छा नहीं है, यह अनुचित है। उन सकारात्मक नजरियों से तुलना की जाए, तो गाली-गलौज कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं है। यह अपनी भावनाएँ बाहर निकालना और अपनी गर्ममिजाजी उजागर करना है, और परमेश्वर नहीं चाहता कि लोग किसी भी तरह के मामले को सँभालने में अपनी नकारात्मक भावनाएँ बाहर निकालें या गर्ममिजाजी प्रकट करें। जब मनुष्य गर्ममिजाजी प्रकट करते हैं और अपनी भावनाएँ व्यक्त करते हैं, तो वे अक्सर जो व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, वह भाषा का उपयोग कर गाली-गलौज और हमला करने का होता है। वे वही कहेंगे जो सबसे अप्रिय होता है, दूसरे पक्ष को चोट पहुँचाता है और उनका क्रोध शांत करता है। और जब वे अपनी बात खत्म कर लेते हैं, तो वे न सिर्फ दूसरे पक्ष को कलंकित कर चुके और चोट पहुँचा चुके होंगे—बल्कि वे खुद को भी कलंकित कर चुके और चोट पहुँचा चुके होंगे। यह वह रवैया या तरीका नहीं है, जो परमेश्वर के अनुयायियों को चीजों को सँभालने में अपनाना चाहिए। इसके अलावा, भ्रष्ट मनुष्यों में हमेशा बदला लेने की, अपनी भावनाएँ और असंतोष व्यक्त करने की, अपना क्रोध प्रकट करने की मानसिकता होती है। वे हर मोड़ पर दूसरों के साथ गाली-गलौज करना चाहते हैं, और जब छोटी-बड़ी कोई भी बात सामने आती है, तो जो व्यवहार वे तुरंत प्रदर्शित करते हैं, वह गाली-गलौज का होता है। यहाँ तक कि जब उन्हें पता होता है कि इस तरह के व्यवहार से समस्या हल नहीं होगी, तब भी वे ऐसा करते हैं। क्या यह शैतानी व्यवहार नहीं है? वे इसे तब भी करेंगे जब वे अपने घर में अकेले होंगे, जब कोई उन्हें नहीं सुन सकता। क्या यह अपनी भावनाएँ व्यक्त करना नहीं है? क्या यह अपनी गर्ममिजाजी प्रकट करना नहीं है? (है।) आम तौर पर अपनी गर्ममिजाजी प्रकट करने और अपनी भावनाएँ व्यक्त करने का अर्थ, किसी चीज को देखने और सँभालने के तरीके के रूप में अपने क्रोध का उपयोग करना है; इसका मतलब सभी मामलों का सामना क्रोधपूर्ण रवैये के साथ करना है, जिसका एक व्यवहार और अभिव्यक्ति गाली-गलौज है। चूँकि यह गाली-गलौज का सार है, इसलिए क्या यह अच्छी बात नहीं कि परमेश्वर चाहता है कि मनुष्य ऐसा न करे? (यह अच्छी बात है।) क्या परमेश्वर का मनुष्य से यह अपेक्षा करना उचित नहीं कि वह दूसरों के साथ गाली-गलौज न करे? क्या इससे मनुष्य का भला नहीं होता? (होता है।) अंततः, परमेश्वर की इस अपेक्षा का लक्ष्य, कि मनुष्य को दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज नहीं करनी चाहिए, लोगों से संयम बरतवाना और उन्हें हमेशा अपनी भावनाओं और गर्ममिजाजी के बीच रहने से रोकना है। अपनी भावनाओं और गर्ममिजाजी के बीच रहने वाले किसी के साथ गाली-गलौज करते हुए चाहे जो भी कहें, उनके भीतर से जिसका उद्गार होता है, वह एक भ्रष्ट स्वभाव ही है। वह कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव है? कम से कम, क्रूरता और अहंकार का स्वभाव। क्या यह परमेश्वर का इरादा है कि किसी भी समस्या का समाधान भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर किया जाए? (नहीं।) परमेश्वर नहीं चाहता कि उसके अनुयायी अपने आसपास होने वाली किसी भी चीज को देखने के लिए इस तरह के तरीकों का उपयोग करें, जिसका निहितार्थ यह है कि जब लोग अपने आसपास होने वाली हर चीज के प्रति दूसरों के साथ मारपीट और गाली-गलौज करने का रवैया अपनाते हैं, तो परमेश्वर इसे पसंद नहीं करता। तुम लोगों के साथ गाली-गलौज करके किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकते, और ऐसा करने से सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने की तुम्हारी क्षमता प्रभावित होती है। कम से कम, यह कोई सकारात्मक व्यवहार तो नहीं है, न ही यह कोई ऐसा व्यवहार है जो सामान्य मानवता वाले लोगों में होना चाहिए। यही कारण है कि परमेश्वर ने अपना अनुसरण करने वाले लोगों के लिए यह अपेक्षा रखी कि वे दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करें। “गाली-गलौज” के भीतर भावनाएँ और गर्ममिजाजी होती है। “भावनाएँ”—ये विशेष रूप से किसके संदर्भ में है? इसमें शामिल हैं घृणा और शाप, दूसरों का बुरा होने की कामना करना, यह आशा करना कि उसकी इच्छा के अनुसार दूसरों को उनके किए का फल मिलेगा, और दूसरों का अंत बुरा होगा। भावनाओं में विशेष रूप से ऐसी नकारात्मक चीजें ही आती हैं। तो, “गर्ममिजाजी” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है व्यक्ति का अतिवादी, निष्क्रिय, नकारात्मक और बुरे तरीकों का उपयोग करके अपनी भावनाएँ व्यक्त करना, और उन चीजों और लोगों के मिटने की कामना करना जिन्हें वह पसंद नहीं करता, या उनके आपदा में पड़ने की कामना करना ताकि वह उनके दुर्भाग्य में आनंदित हो सके, जैसा कि वह चाहता था। यह गर्ममिजाजी है। गर्ममिजाजी में क्या शामिल है? घृणा, वैर और शाप, साथ ही कुछ दुर्भावना—ये सभी चीजें गर्ममिजाजी में शामिल हैं। क्या इनमें से कोई सकारात्मक है? (नहीं।) जब व्यक्ति इन भावनाओं और गर्ममिजाजी के बीच रहता है, तो वह किस स्थिति में होता है? क्या वह एक पागल दानव में बदलने के करीब नहीं होता? जितना ज्यादा तुम लोगों के साथ गाली-गलौज करते हो, उतने ही ज्यादा तुम क्रोधित होते हो, और उतने ही ज्यादा क्रूर हो जाते हो, और उतनी ही ज्यादा तुम लोगों के साथ गाली-गलौज करना चाहते हो, और अंत में, तुम जाकर किसी को पीट देना चाहोगे। और जब तुम किसी को पीटते हो, तो तुम उसे घातक रूप से घायल करना चाहोगे, उसकी जान लेना चाहोगे, जिसका अर्थ है : “मैं तुम्हें नष्ट कर दूँगा! मैं तुम्हें मार डालूँगा!” एक छोटी-सी भावना—एक नकारात्मक भावना—व्यक्ति की गर्ममिजाजी में वृद्धि और विस्फोट करने की ओर ले जाती है, और अंत में, यह लोगों द्वारा जीवन के नुकसान और विनाश की कामना करने का कारण बनती है। क्या यह ऐसी चीज है, जो सामान्य मानवता वाले लोगों में होनी और उन्हें प्राप्त करनी चाहिए? (नहीं, यह ऐसी चीज नहीं है।) यह किसका चेहरा है? (यह शैतान का चेहरा है।) यह शैतान है, जो अपना असली रूप दिखा रहा है। यह वही चेहरा है जो किसी दानव के पास तब होता है, जब वह किसी व्यक्ति को निगलने वाला होता है। उसकी दानवी प्रकृति सतह पर आ जाती है और नियंत्रित नहीं की जा सकती। पागल दानव होने का यही मतलब है। कितने पागल हो जाते हैं ये लोग? ये उस दानव में बदल जाते हैं, जो मनुष्य की देह और आत्मा निगलना चाहता है। गाली-गलौज का सबसे गंभीर परिणाम यह होता है कि वह किसी साधारण मामले को पूरी तरह उलट सकता है और किसी की मृत्यु का कारण बन सकता है। कई मुद्दे दो लोगों के बीच थोड़े-से मनमुटाव से शुरू होते हैं, जिसके कारण वे एक-दूसरे पर चिल्लाते और एक-दूसरे के साथ गाली-गलौज करते हैं, फिर एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं, जिसके बाद दूसरे को मार डालने की इच्छा होती है, जो फिर तथ्य बन जाती है—उनमें से एक मारा जाता है, और दूसरा हत्या का दोषी ठहराया जाकर मौत की सजा पाता है। अंत में दोनों पक्ष हार जाते हैं। यही अंतिम परिणाम होता है। वे गाली-गलौज कर चुके, अपनी भावनाओं का गुबार निकाल चुके, अपनी सारी गर्ममिजाजी प्रकट कर चुके, और दोनों नरक में चले गए। यह परिणाम है। मनुष्य को अपनी भावनाओं की निकासी और अपनी गर्ममिजाजी में वृद्धि और विस्फोट से यही परिणाम मिलते हैं। यह अच्छा परिणाम नहीं, बुरा परिणाम है। देखो, एक साधारण, नकारात्मक भावना के कारण किए गए व्यवहार के परिणामस्वरूप मनुष्य इसी तरह का नतीजा भुगतता है। लोग ऐसा नतीजा नहीं देखना चाहते, न ही वे इसे भुगतने को तैयार होते हैं, पर चूँकि लोग हर तरह की बुरी भावनाओं के बीच रहते हैं, और चूँकि वे गर्ममिजाजी के जाल में उलझे और उससे नियंत्रित होते हैं, जो अक्सर बढ़ती और फूटती रहती है, इसलिए अंततः ऐसे ही परिणाम उत्पन्न होते हैं। मुझे बताओ, क्या गाली-गलौज एक सरल व्यवहार है? हो सकता है, जो गाली-गलौज लोग अपने दैनिक जीवन के दौरान करते हैं, उसका ऐसा बुरा परिणाम न हो—अर्थात्, गाली-गलौज की सभी घटनाओं का ऐसा बुरा परिणाम होना जरूरी नहीं है। फिर भी गाली-गलौज का यही सार होता है। यह व्यक्ति की भावनाओं की निकासी और उसकी गर्ममिजाजी की वृद्धि और विस्फोट है। इसलिए, मनुष्य से परमेश्वर की यह अपेक्षा कि वे दूसरों के साथ गाली-गलौज न करें, उसके लिए निश्चित रूप से लाभदायक है—यह उसे सैकड़ों तरीकों से लाभ पहुँचाती है और हानि एक भी तरीके से नहीं पहुँचाती—और साथ ही, यह परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए इस अपेक्षा को सामने रखने के महत्व का हिस्सा है। दूसरों के साथ गाली-गलौज न करने की अपेक्षा सत्य का अभ्यास या अनुसरण करने के स्तर तक भले न उठ पाए, पर इस तरह की अपेक्षा का पालन मनुष्य को फिर भी करना चाहिए।

क्या लोग केवल आत्म-संयम पर भरोसा करके परमेश्वर की यह अपेक्षा पूरी कर सकते हैं कि उन्हें एक-दूसरे के साथ गाली-गलौज नहीं करनी चाहिए? जब लोगों को गुस्सा आता है, तो बहुत बार वे खुद को रोक नहीं पाते। तो, लोग एक-दूसरे के साथ गाली-गलौज न करने की यह अपेक्षा कैसे पूरी कर सकते हैं? जब तुम किसी के साथ गाली-गलौज करने वाले होते हो, खासकर जब तुम खुद को रोकने में असमर्थ रहते हो, तो तुम्हें जल्दी से प्रार्थना करनी चाहिए। अगर तुम कुछ समय के लिए प्रार्थना करते हो और ईमानदारी से परमेश्वर से विनती करते हो, तो तुम्हारा क्रोध कम होने की संभावना है। उस समय तुम खुद को प्रभावी ढंग से रोकने में सक्षम रहोगे और अपनी भावनाएँ और क्रोध नियंत्रित कर पाओगे। उदाहरण के लिए, कभी-कभी लोग कुछ ऐसा कह सकते हैं जिससे तुम अपमानित महसूस कर सकते हो, या वे तुम्हारी पीठ पीछे तुम्हारी आलोचना कर सकते हैं, या जाने-अनजाने तुम्हें ठेस पहुँचा सकते हैं, या तुम्हारा थोड़ा फायदा उठा सकते हैं, तुम्हारा कुछ चुरा सकते हैं, यहाँ तक कि तुम्हारे अहम हितों को चोट पहुँचा सकते हैं। जब ये चीजें तुम पर आकर पड़ेंगी, तो तुम सोचोगे : “उसने मुझे चोट पहुँचाई, इसलिए मैं उससे नफरत करता हूँ, मैं चिल्लाकर उसे गाली देना चाहता हूँ, मैं उससे बदला लेना चाहता हूँ, यहाँ तक कि मैं उसे मारना भी चाहता हूँ। मैं उसे सबक सिखाने के लिए उसकी पीठ पीछे एक गंदी चाल चलना चाहता हूँ।” क्या यह सब बुरी भावनाओं के कारण नहीं होता है? बुरी भावनाओं का परिणाम यह होता है कि तुम ये चीजें करना चाहोगे। जितना ज्यादा तुम इसके बारे में सोचोगे, उतने ही ज्यादा क्रोधित होगे, और उतना ही ज्यादा तुम सोचोगे कि यह व्यक्ति तुम्हें धौंस दे रहा है और तुम्हारी गरिमा और चरित्र अपमानित हुए हैं। तुम अंदर से असहज महसूस करोगे और बदला लेना चाहोगे। क्या यह वह उग्र आवेग नहीं है, जो इन नकारात्मक भावनाओं ने तुममें पैदा किया है? (यह वही है।) बदला लेने की तुम्हारी यह इच्छा किस तरह का व्यवहार है? क्या तुम क्रोध प्रकट करने वाले नहीं हो? ऐसे समय तुम्हें खुद को शांत रखना चाहिए; सबसे पहले, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, खुद पर संयम रखना चाहिए, सत्य का चिंतन और खोज करनी चाहिए, और बुद्धिमानी से पेश आना चाहिए। यह उस स्थिति से बचने का एकमात्र तरीका है, जिसमें तुम उत्तेजित हो जाते हो, और जिसमें तुम्हारे भीतर घृणा, भावनाएँ और क्रोध पैदा होता है। कुछ लोग कह सकते हैं : “अगर दो लोग पूरे दिन एक-साथ काम करते हैं, तो इस तरह की स्थिति से बचने का कोई उपाय नहीं है।” अगर तुम इस स्थिति से बच न भी सको, तो भी तुम्हें प्रतिशोध नहीं लेना चाहिए, तुम्हें संयमित रहना चाहिए। तुम संयमित कैसे रह सकते हो? सबसे पहले, तुम्हें मन ही मन सोचना चाहिए : “अगर मैं प्रतिशोध लूँगा, तो निश्चित रूप से परमेश्वर इससे प्रसन्न नहीं होगा, इसलिए मैं ऐसा नहीं कर सकता। नफरत, बदला और घिन ये सभी वे चीजें हैं, जो परमेश्वर को नापसंद हैं।” परमेश्वर को ये चीजें पसंद नहीं हैं, लेकिन तुम फिर भी इन्हें करना चाहते हो और खुद को नियंत्रित नहीं कर पाते। तुम्हें इसका समाधान कैसे करना चाहिए? स्वाभाविक रूप से, तुम्हें परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए; अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करोगे, तो तुम इसका समाधान नहीं कर पाओगे। इसके अलावा, अगर तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और तुम बहुत क्रोधी हो, और तुम वाकई अपनी भावनाएँ और क्रोध नियंत्रित नहीं कर पाते और बदला लेना चाहते हो, तो भी तुम्हें उस व्यक्ति को गाली देने के लिए अपना मुँह बिल्कुल नहीं खोलना चाहिए। तुम जहाँ भी हो, वहाँ से जा सकते हो और किसी अन्य को हस्तक्षेप करके स्थिति सुलझाने दे सकते हो। तुम्हें चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के वचनों के कुछ प्रासंगिक वाक्यांशों का पाठ करना चाहिए। इस तरह परमेश्वर से प्रार्थना करो, तुम्हारा क्रोध धीरे-धीरे दूर हो जाएगा। तुम्हें एहसास होगा कि लोगों के साथ गाली-गलौज करने से समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता और यह भ्रष्टता का प्रकाशन होगा, और यह सिर्फ परमेश्वर को शर्मिंदा ही कर सकता है। क्या इस तरह प्रार्थना करने से तुम्हारी समस्या का समाधान नहीं होगा? तुम लोग इस समाधान के बारे में क्या सोचते हो? (यह अच्छा है।) यह सब परमेश्वर द्वारा प्रस्तुत इस व्यावहारिक नियम पर मेरी संगति के लिए है : “दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करो।”

मैंने अभी-अभी उन अच्छे व्यवहारों पर संगति की, जिन्हें परमेश्वर लोगों से बनाए रखने के लिए कहता है, वे क्या हैं? (संतों जैसी शालीनता रखना, लंपट न होना, संयमित रहना, असामान्य वस्त्र न पहनना, दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करना, धूम्रपान या मद्यपान न करना, मूर्ति-पूजा न करना, अपने माता-पिता का सम्मान करना, चोरी न करना, दूसरों की संपत्ति का गबन न करना, व्यभिचार न करना और झूठी गवाही न देना।) हाँ, ये सभी सही हैं। मुझे बताओ, क्या कानून में रखी गई अपेक्षाएँ, जैसे चोरी न करना और दूसरों का फायदा न उठाना, अब भी मान्य हैं? क्या वे अभी भी प्रभावी हैं? (वे अभी भी मान्य और प्रभावी हैं।) तो फिर, अनुग्रह के युग की आज्ञाओं के बारे में क्या खयाल है? (वे भी अभी भी मान्य हैं।) तो, परमेश्वर ने ये विशिष्ट अपेक्षाएँ क्यों सामने रखीं? ये विशिष्ट अपेक्षाएँ मनुष्य के अभ्यास के किस पहलू को छूती हैं? अगर परमेश्वर ने ये अपेक्षाएँ सामने नहीं रखी होतीं, तो क्या लोग इन चीजों को समझ पाते? (वे नहीं समझ पाते।) लोग इन्हें नहीं समझ पाते। मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए परमेश्वर ने जो विशिष्ट अपेक्षाएँ सामने रखी हैं, वे असल में सामान्य मानवता को जीने से संबंधित हैं। ये विशिष्ट अपेक्षाएँ सामने रखने का उद्देश्य लोगों को सकारात्मक और नकारात्मक चीजों को सटीक रूप से समझने और पहचानने में सक्षम बनाना था, और यह भी कि क्या सही है और क्या गलत; यह लोगों को यह सिखाने के लिए था कि व्यभिचार एक नकारात्मक चीज है, कि यह शर्मनाक है, परमेश्वर इससे घृणा करता है, मनुष्य इसका तिरस्कार करता है, और लोगों को इस मामले में खुद को संयमित रखना चाहिए, कि उन्हें यह कार्य नहीं करना चाहिए, या इस संबंध में गलतियाँ नहीं करनी चाहिए; यह लोगों को यह सिखाने के लिए भी था कि दूसरों का फायदा उठाना, चोरी करना आदि जैसे सभी व्यवहार नकारात्मक चीजें हैं, जो लोगों को नहीं करनी चाहिए। अगर तुम्हें ये चीजें करना पसंद है, और तुमने ये चीजें की हैं, तो तुम अच्छे इंसान नहीं हो। व्यक्ति अच्छी और बुरी मानवता वाले व्यक्ति के बीच या सकारात्मक और नकारात्मक व्यक्ति के बीच अंतर कैसे कर सकता है? सबसे पहले, तुम्हें इस बात की पुष्टि करनी चाहिए—लोगों को सिर्फ परमेश्वर के वचनों के आधार पर ही सटीक रूप से पहचाना जा सकता है और उसी आधार पर सकारात्मक और नकारात्मक लोगों में अंतर किया जा सकता है। लोगों को सिर्फ उन अपेक्षाओं और मानकों के आधार पर ही स्पष्ट रूप से पहचाना और समझा जा सकता है, जो परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए सामने रखे हैं। मैं एक उदाहरण देता हूँ : अगर किसी व्यक्ति में चोरी की प्रवृत्ति है और वह दूसरे लोगों की चीजें चुराना पसंद करता है, तो उसकी मानवता कैसी है? (बुरी।) चोरी करना बहुत बुरा काम है, इसलिए जो लोग चोरी करते हैं, वे बुरे लोग होते हैं। अन्य सभी लोग उनसे सावधान रहते हैं, उनसे दूर रहते हैं और उन्हें चोर समझते हैं। लोगों के मन में, चोर नकारात्मक चरित्र होते हैं, चोरी नकारात्मक चीज और पापपूर्ण व्यवहार है। तो क्या इसकी पुष्टि नहीं हो गई? यह रहा एक और उदाहरण : मान लो कोई व्यभिचारी है, और कुछ लोग नहीं जानते कि यह सकारात्मक चीज है या नकारात्मक—तो उनके लिए इसे सटीक रूप से मापने का एकमात्र तरीका परमेश्वर के वचनों के अनुसार मापना है, क्योंकि सिर्फ परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। व्यभिचार के कृत्य के बारे में कानूनी प्रणालियाँ और नैतिकता अब चाहे जो भी नए दावे करे, वे सत्य नहीं हैं। परमेश्वर द्वारा कहे गए वचन, “व्यभिचार न करो,” सत्य हैं, और सत्य कभी नहीं मिटेगा। जिस क्षण से परमेश्वर ने यह अपेक्षा सामने रखी, “व्यभिचार न करो,” सभी लोगों को व्यभिचारियों का तिरस्कार करना और उनसे दूर रहना शुरू कर देना चाहिए था। ऐसे लोगों में मानवता नहीं होती, और, कम से कम, अगर तुम उन्हें मानवता के परिप्रेक्ष्य से मापो, तो वे अच्छे लोग नहीं होते। जो भी व्यक्ति इस तरह के व्यवहार में संलग्न है और जिसमें इस तरह की मानवता है, वह शर्मनाक है, मनुष्य उनसे घृणा करते हैं, समूहों के भीतर उन्हें हेय दृष्टि से देखा और तिरस्कृत किया जाता है, और जनसाधारण उन्हें नकार देता है। परमेश्वर के वचनों के आधार पर हम पुष्टि कर सकते हैं कि व्यभिचार एक नकारात्मक चीज है, और जो लोग ऐसा करते हैं, वे नकारात्मक व्यक्ति होते हैं। समाज की प्रवृत्तियाँ चाहे कितनी भी बुरी क्यों न हो जाएँ, व्यभिचार और परस्त्रीगमन नकारात्मक चीजें हैं, और जो लोग इनमें संलग्न हैं, वे नकारात्मक व्यक्ति हैं। यह बिल्कुल निश्चित है और तुम्हें इसे समझना चाहिए; तुम्हें समाज की बुरी प्रवृत्तियों से भटकना या बहकना नहीं चाहिए। इनके अलावा, कुछ और विशिष्ट अपेक्षाएँ हैं : परमेश्वर लोगों से कहता है कि मूर्ति-पूजा न करो, अपने माता-पिता का सम्मान करो, दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करो, संतों जैसी शालीनता रखो, इत्यादि। ये तमाम विशिष्ट अपेक्षाएँ वे मानक हैं, जिनके द्वारा परमेश्वर मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करता है। दूसरे शब्दों में, लोगों को सत्य प्रदान करने से पहले परमेश्वर ने उन्हें सिखाया कि कौन-से कार्य सही और सकारात्मक हैं और कौन-से गलत और नकारात्मक, उसने उन्हें बताया कि अच्छा इंसान कैसे बनें और सामान्य मानवता वाला व्यक्ति बनने के लिए उनमें कौन-से अच्छे व्यवहार होने चाहिए, और साथ ही एक सामान्य मानवता वाले व्यक्ति के रूप में उन्हें कौन-सी चीजें करनी चाहिए और कौन-सी नहीं, ताकि वे सही चुनाव कर सकें। मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने वाली ये सभी माँगें ऐसी चीजें हैं, जिन्हें हर सामान्य व्यक्ति को वास्तव में जीना चाहिए, और वह आधार हैं जिस पर हर व्यक्ति वास्तव में अपने सामने आने वाली सभी चीजों का मुकाबला करता है और उन्हें सँभालता है। उदाहरण के लिए, मान लो तुम देखते हो कि किसी अन्य व्यक्ति के पास कुछ अच्छा है और तुम उसे हथियाना चाहते हो, लेकिन फिर सोचते हो : “परमेश्वर कहता है कि दूसरे लोगों की चीजें चुराना गलत है, उसने कहा था कि हमें चोरी नहीं करनी चाहिए या दूसरों का फायदा नहीं उठाना चाहिए, इसलिए मैं दूसरों की चीजें नहीं चुराऊँगा।” क्या तब चोरी करने के व्यवहार पर लगाम नहीं लगी? और संयमित रहने के साथ-साथ क्या तुम्हारा व्यवहार भी नियंत्रित नहीं हुआ है? परमेश्वर द्वारा इन अपेक्षाओं को सामने रखने से पहले, जब लोग किसी अन्य व्यक्ति के पास कुछ अच्छा देखते थे, तो वे उसे हथिया लेना चाहते थे। वे यह नहीं सोचते थे कि ऐसा करना गलत या शर्मनाक है, या परमेश्वर इससे घृणा करता है, या यह एक नकारात्मक चीज है, या यह पाप है; वे इन चीजों को नहीं जानते थे, उनमें ये अवधारणाएँ नहीं थीं। जब परमेश्वर ने यह अपेक्षा सामने रखी, “चोरी मत करो,” तब लोगों को इस तरह के काम करने के लिए एक मानसिक सीमा प्रदान की गई, और इस सीमा के जरिये उन्होंने सीखा कि चोरी करने और चोरी न करने अंतर है। चोरी करना कुछ नकारात्मक करने, कुछ बुरा या दुष्टतापूर्ण करने के समान है, और यह शर्मनाक है। चोरी न करना मानवता की नैतिकता का पालन करना है और इसमें मानवता है। मनुष्य के व्यवहार के संबंध में परमेश्वर की माँगें न सिर्फ लोगों के नकारात्मक व्यवहार और नजरियों का समाधान करती हैं, बल्कि वे मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित भी करती हैं, और लोगों को सामान्य मानवता के साथ जीने, सामान्य व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ रखने और कम से कम, लोगों की तरह, सामान्य लोगों जैसा दिखने में सक्षम बनाती हैं। मुझे बताओ, क्या ये अपेक्षाएँ, जो परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए रखी हैं, बहुत अर्थपूर्ण नहीं हैं? (हैं।) वे अर्थपूर्ण हैं। लेकिन, मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने वाली ये विशिष्ट अपेक्षाएँ अभी भी उन सत्यों से काफी दूर हैं, जिन्हें परमेश्वर अभी व्यक्त कर रहा है, और उन्हें सत्य के स्तर तक नहीं उठाया जा सकता। ऐसा इसलिए है कि, बहुत समय पहले, व्यवस्था के युग के दौरान, ये अपेक्षाएँ सिर्फ कानून थीं जो मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करती थीं, यह परमेश्वर द्वारा लोगों को यह बताने के लिए सबसे सरल और सीधी भाषा का उपयोग था कि उन्हें कौन-सी चीजें करनी चाहिएँ और कौन-सी नहीं, और वह इसके लिए कुछ नियम बना रहा था। अनुग्रह के युग में, ये अपेक्षाएँ सिर्फ आज्ञाएँ थीं, और वर्तमान समय में, सिर्फ यह कहा जा सकता है कि ये व्यक्ति द्वारा अपना व्यवहार मापने और चीजों का मूल्यांकन करने की मानदंड हैं। हालाँकि ये मानदंड सत्य के स्तर तक नहीं उठाए जा सकते, और उनके और सत्य के बीच एक निश्चित दूरी है, फिर भी वे मनुष्य द्वारा सत्य के अनुसरण और अभ्यास के लिए एक आवश्यक पूर्व-शर्त हैं। जब व्यक्ति इन नियमों, इन कानूनों और आज्ञाओं, इन अपेक्षाओं और व्यवहार संबंधी मानदंडों का पालन करता है, जिन्हें परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए स्थापित किया है, तो यह कहा जा सकता है कि वे सत्य का अभ्यास और अनुसरण करने की बुनियादी पूर्व-शर्तें पूरी करते हैं। अगर कोई व्यक्ति धूम्रपान और मद्यपान करता है, अगर उसका व्यवहार लंपट है और वह व्यभिचार करता है, दूसरे लोगों का फायदा उठाता है और अक्सर चोरी करता है, और तुम कहते हो, “यह व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है और यह निश्चित रूप से उसका अभ्यास कर उद्धार प्राप्त कर सकता है,” तो क्या इस कथन में दम होगा? (नहीं होगा।) इसमें दम क्यों नहीं होगा? (वह व्यक्ति परमेश्वर की सबसे बुनियादी अपेक्षाएँ भी पूरी करने में सक्षम नहीं है, वह संभवतः सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता, और अगर कोई कहता है कि उसे सत्य से प्रेम है, तो यह झूठ होगा।) यह सही है। इस व्यक्ति में सबसे बुनियादी स्तर का आत्म-संयम भी नहीं है। इसका निहितार्थ यह है कि उसके पास जमीर और विवेक की वह सबसे बुनियादी मात्रा भी नहीं है, जो व्यक्ति में होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, इस व्यक्ति में सामान्य मानवता का जमीर और विवेक नहीं है। जमीर और विवेक न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि इस व्यक्ति ने परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन, परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए रखी गई अपेक्षाएँ और परमेश्वर द्वारा स्थापित किए गए नियम सुने तो हैं, पर उन्हें गंभीरता से बिल्कुल नहीं लिया है। परमेश्वर कहता है कि दूसरे लोगों का सामान चुराना बुरा है और लोगों को चोरी नहीं करनी चाहिए, और यह व्यक्ति आश्चर्य करता है : “लोगों को चोरी क्यों नहीं करने दी जाती? मैं बहुत गरीब हूँ, अगर मैं चोरी न करूँ तो कैसे जी पाऊँगा? अगर मैं चीजें न चुराऊँ या दूसरे लोगों का फायदा न उठाऊँ, तो क्या मैं अमीर बन सकता हूँ?” क्या उसमें सामान्य मानवता के जमीर और विवेक की कमी नहीं है? (बेशक है।) वह परमेश्वर द्वारा मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए सृजित माँगें पूरी करने में असमर्थ है, इसलिए वह ऐसा व्यक्ति नहीं है, जिसमें सामान्य मानवता होती है। अगर कोई कहे कि जिस व्यक्ति में सामान्य मानवता नहीं है वह सत्य से प्रेम करता है, तो क्या यह संभव है? (यह संभव नहीं है।) वह सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता, और हालाँकि परमेश्वर कहता है कि लोगों को चोरी या व्यभिचार नहीं करना चाहिए, फिर भी वह ये अपेक्षाएँ पूरी करने में असमर्थ है और परमेश्वर के इन वचनों से विमुख हो चुका है—तो क्या वह सत्य से प्रेम करने में सक्षम है? सत्य इन व्यवहार संबंधी मानदंडों से कहीं ज्यादा ऊँचा है—क्या वह उसे प्राप्त कर सकता है? (नहीं।) सत्य कोई साधारण व्यवहार संबंधी मानदंड नहीं है, यह सिर्फ लोगों द्वारा पाप करते समय सत्य के बारे में सोचने या मनमाने और लापरवाह हो जाने, और फिर संयमित हो जाने, और अब पाप न करने या मनमाने ढंग से और लापरवाही से कार्य न करने का मामला नहीं है। सत्य सिर्फ इस सरल तरीके से लोगों के व्यवहार को नियंत्रित नहीं करता—सत्य व्यक्ति का जीवन बन सकता है और व्यक्ति से संबंधित हर चीज पर हावी हो सकता है। जब लोग सत्य को अपने जीवन के रूप में स्वीकारते हैं, तो यह उनके द्वारा परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने, सत्य को जानने और सत्य का अभ्यास करने से प्राप्त होता है। जब लोग सत्य स्वीकारते हैं, तो उनके भीतर एक संघर्ष पैदा होता है और उनके भ्रष्ट स्वभावों के प्रकट होने की संभावना रहती है। जब लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए सत्य का उपयोग करने में सक्षम होते हैं, तो सत्य उनका जीवन और वह सिद्धांत बन सकता है, जिसके द्वारा वे आचरण करते और जीते हैं। यह ऐसी चीज है, जिसे सिर्फ सत्य से प्रेम करने वाले और मानवता रखने वाले लोग ही प्राप्त कर सकते हैं। क्या वे लोग, जो सत्य से प्रेम नहीं करते और जिनमें मानवता का अभाव है, इस स्तर तक पहुँच सकते हैं? (नहीं।) सही है, चाहकर भी वे इस स्तर तक नहीं पहुँच कर सकते।

अगर हम इन अपेक्षाओं पर नजर डालें, जो परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए सृजित की हैं, तो क्या परमेश्वर द्वारा बोले गए तमाम वचनों और उसके द्वारा रखी गई तमाम विशिष्ट शर्तों में से कोई अनावश्यक है? (नहीं।) क्या वे सार्थक हैं? क्या उनका कोई मूल्य है? (हाँ।) क्या लोगों को उनका पालन करना चाहिए? (हाँ।) यह सही है, लोगों को उनका पालन करना चाहिए। और साथ ही, उनका पालन करते हुए लोगों को वे कथन त्याग देने चाहिए, जो पारंपरिक संस्कृति ने उन्हें सिखाए हैं, जैसे सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना, इत्यादि। उन्हें परमेश्वर द्वारा मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए रखी गई प्रत्येक अपेक्षा का पालन करना चाहिए और सख्ती से परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण करना चाहिए। उन्हें परमेश्वर द्वारा रखी गई तमाम अपेक्षाओं का बारीकी से पालन करते हुए सामान्य मानवता को जीना चाहिए, और स्वाभाविक रूप से, उन्हें सख्ती से इन अपेक्षाओं के अनुसार लोगों और चीजों का मूल्यांकन और अपना आचरण और कार्य करना चाहिए। हालाँकि ये अपेक्षाएँ सत्य के मानकों पर खरी नहीं उतरतीं, फिर भी वे सब परमेश्वर के वचन हैं, और चूँकि वे परमेश्वर के वचन हैं, इसलिए उनका लोगों पर सकारात्मक और सक्रिय मार्गदर्शक प्रभाव हो सकता है। मैंने सत्य के अनुसरण को कैसे परिभाषित किया था? पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना। परमेश्वर के वचनों में बहुत-सी चीजें शामिल हैं। कभी-कभी उसके वचनों का एक वाक्यांश सत्य का एक तत्त्व दर्शा देता है। कभी-कभी सत्य का एक तत्त्व प्रस्तुत करने के लिए कई वाक्यांश या एक अनुच्छेद आवश्यक होता है। कभी-कभी सत्य का एक तत्त्व व्यक्त करने के लिए एक पूरा अध्याय आवश्यक होता है। सत्य सरल प्रतीत होता है, परंतु वास्तव में यह बिलकुल भी सरल नहीं है। सत्य को व्यापक अर्थों में वर्णित करें तो, परमेश्वर ही सत्य है। परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, परमेश्वर के वचन विशाल हैं और उनमें बहुत सारी सामग्री शामिल है, और वे सभी सत्य की अभिव्यक्तियाँ हैं। उदाहरण के लिए, परमेश्वर ने जो कानून और आज्ञाएँ निर्धारित की हैं, और साथ ही व्यवहार संबंधी जो अपेक्षाएँ परमेश्वर ने इस नए युग में सामने रखी हैं, वे सब परमेश्वर के वचन हैं। हालाँकि इनमें से कुछ वचन सत्य के स्तर तक नहीं पहुँचते, और हालाँकि वे सत्य की श्रेणी में नहीं आते, फिर भी वे सकारात्मक चीजें हैं। हालाँकि वे सिर्फ ऐसे वचन हैं, जो मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करते हैं, फिर भी लोगों को उन पर कायम रहना चाहिए। लोगों में, कम से कम, इस तरह के व्यवहार होने चाहिए, और उन्हें इन मानकों से कम नहीं होना चाहिए। इसलिए, लोगों और चीजों के बारे में व्यक्ति के विचार और उनका आचरण और कार्यकलाप परमेश्वर के इन वचनों पर आधारित होने चाहिए। लोगों को उनका पालन करना चाहिए, क्योंकि वे परमेश्वर के वचन हैं; सभी को परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना चाहिए, क्योंकि वे परमेश्वर के वचन हैं। क्या यह सही नहीं है? (है।) मैंने पहले इस जैसा कुछ कहा है : परमेश्वर जो कहता है वही उसका मतलब होता है, वह जो कहता है वही होता है और वह जो करता है वो हमेशा कायम रहेगा, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर के वचन कभी नहीं मिटेंगे। वे क्यों नहीं मिटेंगे? क्योंकि चाहे परमेश्वर कितने भी वचन बोले, और चाहे परमेश्वर उन्हें कभी भी बोले, वे सब सत्य हैं और वे कभी नहीं मिटते। यहाँ तक कि जब दुनिया एक नए युग में प्रवेश करेगी, तब भी परमेश्वर के वचन नहीं बदलेंगे, और वे नहीं मिटेंगे। मैं यह क्यों कहता हूँ कि परमेश्वर के वचन मिटते नहीं? क्योंकि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और जो सत्य है वह कभी नहीं बदलेगा। इसलिए, वे सभी नियम और आज्ञाएँ, जिन्हें परमेश्वर ने सामने रखा और कहा है, और वे सभी विशिष्ट अपेक्षाएँ जो उसने मनुष्य के व्यवहार के संबंध में सामने रखी हैं, कभी नहीं मिटेंगी। परमेश्वर के वचनों में की गई प्रत्येक अपेक्षा सृजित मनुष्य के लिए लाभदायक है, वे सब मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करती हैं, और वे सामान्य मानवता को जीने, और लोगों को कैसे आचरण करना चाहिए, इसके संबंध में शिक्षाप्रद और मूल्यवान हैं। ये सभी वचन लोगों को बदल सकते हैं और उन्हें सच्चे इंसान की तरह जीने लायक बना सकते हैं। इसके विपरीत, अगर लोग परमेश्वर के इन वचनों और परमेश्वर द्वारा मनुष्य से की गई अपेक्षाओं को नकारते हैं, और इसके बजाय, अच्छे व्यवहार से संबंधित उन कथनों का पालन करते हैं जिन्हें मनुष्य ने सामने रखा है, तो वे बड़े खतरे में हैं। न सिर्फ उनमें अधिकाधिक मानवता और विवेक नहीं होगा, बल्कि वे अधिकाधिक धोखेबाज और नकली भी हो जाएँगे, और वे चालाकी करने में और ज्यादा सक्षम हो जाएँगे, और जिस मानवता को वे जिएँगे, उसमें और ज्यादा चालाकी शामिल होगी। वे न सिर्फ दूसरे लोगों को धोखा देंगे, बल्कि परमेश्वर को भी धोखा देने का प्रयास करेंगे।

परमेश्वर द्वारा मनुष्य के व्यवहार के संबंध में रखी गई माँगों में एक माँग यह भी है : “अपने माता-पिता का सम्मान करो।” लोगों में आम तौर पर अन्य माँगों के बारे में कोई विचार या धारणा नहीं होती, तो “अपने माता-पिता का सम्मान करो,” इस अपेक्षा के बारे में तुम लोगों के क्या विचार हैं? क्या तुम लोगों के विचारों और परमेश्वर के कहे सत्य सिद्धांत के बीच कोई विरोधाभास है? अगर तुम इसे स्पष्ट रूप से समझ पाते हो, तो यह अच्छा है। जो लोग सत्य को नहीं समझते, जो सिर्फ यह जानते हैं कि नियमों का पालन कैसे किया जाए और शब्द और धर्म-सिद्धांत कैसे बघारे जाएँ, उनमें विवेक की कमी होती है; जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो वे हमेशा इंसानी धारणाएँ पालते हैं, उन्हें हमेशा लगता है कि कुछ विरोधाभास हैं, और वे उसके वचनों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते। जबकि सत्य समझने वालों को परमेश्वर के वचनों में कोई विरोधाभास नहीं दिखता, उन्हें लगता है कि उसके वचन बेहद स्पष्ट हैं, क्योंकि उन्हें आध्यात्मिक समझ होती है और वे सत्य समझने में सक्षम हैं। कभी-कभी तुम लोग परमेश्वर के वचन स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते और कोई प्रश्न नहीं पूछ पाते—अगर तुम लोग कोई प्रश्न नहीं पूछते, तो ऐसा लगता है मानो तुम्हें कोई समस्या नहीं है, लेकिन असल में तुम लोगों को बहुत सारी समस्याएँ और बहुत सारी कठिनाइयाँ होती हैं, बस तुम लोगों को इसका पता नहीं होता। यह दर्शाता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। पहले, आओ परमेश्वर की इस अपेक्षा पर गौर करते हैं कि लोगों को अपने माता-पिता का सम्मान करना चाहिए—यह अपेक्षा सही है या गलत? लोगों को इसका पालन करना चाहिए या नहीं? (करना चाहिए।) यह निश्चित है और इसे नकारा नहीं जा सकता; इस पर संकोच या सोच-विचार करने की कोई जरूरत नहीं, यह अपेक्षा सही है। इसमें सही क्या है? परमेश्वर ने यह अपेक्षा क्यों रखी? “अपने माता-पिता का सम्मान करने” की जो बात परमेश्वर करता है, उसका क्या तात्पर्य है? क्या तुम जानते हो? तुम लोग नहीं जानते। तुम कभी कुछ क्यों नहीं जानते? अगर किसी चीज में सत्य शामिल रहता है, तो तुम उसे नहीं जानते, और फिर भी तुम शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में अनवरत बोल सकते हो—यहाँ क्या समस्या है? तो फिर तुम लोग परमेश्वर के इन वचनों का अभ्यास कैसे करते हो? क्या इसमें सत्य शामिल नहीं है? (है।) जब तुम देखते हो कि परमेश्वर के वचनों का एक वाक्यांश है जिसमें कहा गया है, “तुम्हें अपने माता-पिता का सम्मान करना चाहिए,” तो तुम मन ही मन सोचते हो, “परमेश्वर मुझसे मेरे माता-पिता का सम्मान करने के लिए कह रहा है, इसलिए मुझे उनका सम्मान करना होगा,” और तुम ऐसा करना शुरू कर देते हो। तुम वही करते हो, जो तुम्हारे माता-पिता तुमसे कहते हैं—जब तुम्हारे माता-पिता बीमार होते हैं, तो तुम उनके बिस्तर के पास रहकर उनकी सेवा करते हो, उन्हें कुछ पीने के लिए देते हो, उनके खाने के लिए कुछ अच्छा पकाते हो, और त्योहारों पर अपने माता-पिता के लिए उनकी पसंद की चीजें उपहारों के रूप में खरीदते हो। जब तुम देखते हो कि वे थके हुए हैं, तो तुम उनके कंधे सहलाते हो और उनकी पीठ की मालिश करते हो, और जब भी उन्हें कोई समस्या होती है, तुम उसे हल करने का उपाय सोच पाते हो। इन सबके कारण तुम्हारे माता-पिता तुमसे बहुत संतुष्ट महसूस करते हैं। तुम अपने माता-पिता का सम्मान करते हो, परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करते हो और सामान्य मानवता को जीते हो, इसलिए तुम स्थिरचित्त महसूस करते हो और सोचते हो : “देखो—मेरे माता-पिता कहते हैं कि जबसे मैंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया है, तबसे मैं बदल गया हूँ। वे कहते हैं कि मैं अब उनका सम्मान करने में सक्षम और ज्यादा समझदार हो गया हूँ। वे बहुत प्रसन्न हैं और सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करना बहुत अच्छा है, क्योंकि परमेश्वर में विश्वास करने वाले बेटी-बेटे न सिर्फ अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, बल्कि जीवन में सही मार्ग पर भी चलते हैं और इंसान की तरह जीते हैं—वे अविश्वासियों से बहुत बेहतर हैं। परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना शुरू कर दिया है और मेरे माता-पिता मुझमें यह बदलाव देखकर वाकई खुश हैं। मुझे खुद पर बहुत गर्व महसूस हो रहा है। मैं परमेश्वर की महिमा बढ़ा रहा हूँ—परमेश्वर निश्चित रूप से मुझसे संतुष्ट होगा और कहेगा कि मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ, जो अपने माता-पिता का सम्मान करता है और संतों जैसी शालीनता रखता है।” एक दिन, कलीसिया सुसमाचार फैलाने के लिए तुम्हारे कहीं और जाने की व्यवस्था करती है, और संभव है कि तुम लंबे समय तक घर नहीं लौट पाओगे। तुम यह महसूस करते हुए जाने के लिए सहमत हो जाते हो कि तुम परमेश्वर का आदेश टाल नहीं सकते, और यह विश्वास करते हो कि तुम्हें घर पर अपने माता-पिता का सम्मान और बाहर परमेश्वर के आदेश का पालन, दोनों करने चाहिए। लेकिन जब तुम इस विषय पर अपने माता-पिता से चर्चा करते हो, तो वे गुस्सा हो जाते हैं और कहते हैं : “तुम अवज्ञाकारी बच्चे हो! हमने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा करने में बहुत मेहनत की है, और अब तुम उठकर जा रहे हो। जब तुम चले जाओगे, तो हम बूढ़ों की देखभाल कौन करेगा? अगर हम बीमार पड़ गए या किसी तरह की आपदा आ गई, तो हमें अस्पताल कौन ले जाएगा?” वे तुम्हारे जाने से सहमत नहीं होते, और तुम चिंता करते हो : “परमेश्वर हमें अपने माता-पिता का सम्मान करने के लिए कहता है, लेकिन मेरे माता-पिता मुझे कर्तव्य निभाने के लिए जाने नहीं देंगे। अगर मैं उनकी आज्ञा मानता हूँ, तो मुझे परमेश्वर का आदेश दरकिनार करना होगा, जो परमेश्वर को पसंद नहीं आएगा। लेकिन अगर मैं परमेश्वर की आज्ञा मानता हूँ और जाकर अपना कर्तव्य निभाता हूँ, तो मेरे माता-पिता नाखुश होंगे। मुझे क्या करना चाहिए?” तुम सोच-विचार करते रहते हो : “चूँकि परमेश्वर ने यह अपेक्षा सामने रखी है कि लोगों को पहले अपने माता-पिता का सम्मान करना चाहिए, इसलिए मैं उसकी वह माँग कायम रखूँगा। मुझे दूर जाकर अपना कर्तव्य निभाने की जरूरत नहीं।” तुम अपना कर्तव्य छोड़कर घर पर अपने माता-पिता का सम्मान करना चुनते हो, लेकिन तुम स्थिरचित्त महसूस नहीं करते। तुम्हें लगता है कि तुमने भले ही अपने माता-पिता का सम्मान किया है, लेकिन तुमने अपना कर्तव्य नहीं निभाया है, और तुम्हें लगता है कि तुमने परमेश्वर को निराश किया है। इस समस्या का समाधान कैसे किया जा सकता है? तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर तक तक सत्य खोजना चाहिए, जब तक कि एक दिन तुम सत्य को न समझ लो और यह न जान लो कि अपना कर्तव्य निभाना सबसे महत्वपूर्ण चीज है। तब तुम स्वाभाविक रूप से घर छोड़कर अपना कर्तव्य निभा पाओगे। कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर चाहता है कि मैं अपना कर्तव्य निभाऊँ, और वह यह भी चाहता है कि मैं अपने माता-पिता का सम्मान करूँ। क्या यहाँ विरोधाभास और द्वंद्व नहीं है? आखिर मुझे किस तरह अभ्यास करना चाहिए?” “अपने माता-पिता का सम्मान करना” एक ऐसी अपेक्षा है जिसे परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार के संबंध में सामने रखा है, लेकिन क्या परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए सब-कुछ त्यागना और परमेश्वर का आदेश पूरा करना परमेश्वर की अपेक्षा नहीं है? क्या इसकी परमेश्वर और भी ज्यादा माँग नहीं करता? क्या यह और भी ज्यादा सत्य का अभ्यास नहीं है? (बेशक है।) अगर ये दोनों अपेक्षाएँ आपस में टकराती हों, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं : “तो, मुझे अपने माता-पिता का सम्मान करना है और परमेश्वर का आदेश पूरा करना है, और मुझे परमेश्वर के वचनों का पालन करना है और सत्य का अभ्यास करना है—ठीक है, यह आसान है। मैं घर पर सब-कुछ ठीक कर दूँगा, अपने माता-पिता के रहने की तमाम जरूरतें पूरी होने का इंतजाम कर दूँगा, उनके लिए एक नर्स रख लूँगा और फिर अपना कर्तव्य निभाने चला जाऊँगा। मैं हफ्ते में एक बार जरूर वापस आकर देख लिया करूँगा कि मेरे माता-पिता ठीक हैं, और फिर चला जाया करूँगा; अगर कुछ परेशानी हुई, तो दो दिन रुक भी जाऊँगा। यह नहीं हो सकता कि मैं हमेशा उनसे दूर रहूँ और कभी वापस न आऊँ, न यही हो सकता है कि मैं हमेशा घर पर रहूँ और अपना कर्तव्य निभाने कभी बाहर न जाऊँ। क्या यह दोनों हाथों में लड्डू होना नहीं है?” तुम इस समाधान के बारे में क्या सोचते हो? (यह नहीं चलेगा।) यह एक कल्पना है, यथार्थ नहीं। तो, इस तरह की स्थिति का सामना करने पर तुम्हें वास्तव में सत्य के अनुरूप कैसे कार्य करना चाहिए? (जब परमेश्वर के प्रति वफादारी और माता-पिता के प्रति कर्तव्य की बात आती है, तो दोनों हाथों में लड्डू होना असंभव है—मुझे अपना कर्तव्य ऊपर रखना चाहिए।) परमेश्वर ने लोगों को पहले अपने माता-पिता का सम्मान करने के लिए कहा, और उसके बाद, परमेश्वर ने लोगों के लिए सत्य का अभ्यास करने, अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने के संबंध में उच्चतर अपेक्षाएँ सामने रखीं—तुम्हें इनमें से किसका पालन करना चाहिए? (उच्चतर अपेक्षाओं का।) क्या उच्चतर अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना सही है? क्या सत्य को उच्च और निम्न सत्य या पुराने और नए सत्य में विभाजित किया जा सकता है? (नहीं।) तो जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो, तब तुम्हें किसके अनुसार अभ्यास करना चाहिए? सत्य का अभ्यास करने का क्या अर्थ है? (मामले सिद्धांतों के अनुसार सँभालना।) मामले सिद्धांतों के अनुसार सँभालना सबसे महत्वपूर्ण बात है। सत्य का अभ्यास करने का अर्थ है विभिन्न समयों, स्थानों, परिवेशों और संदर्भों में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना; यह चीजों पर हठपूर्वक नियम लागू करने के बारे में नहीं है, यह सत्य सिद्धांत कायम रखने के बारे में है। सत्य का अभ्यास करने का यही अर्थ है। इसलिए, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने और परमेश्वर द्वारा रखी गई अपेक्षाओं का पालन करने के बीच कोई विरोध नहीं है। इसे और ज्यादा ठोस रूप से कहें तो, अपने माता-पिता का सम्मान करने और परमेश्वर ने तुम्हें जो आदेश और कर्तव्य दिया है उसे पूरा करने के बीच कोई विरोधाभास नहीं है। इनमें से कौन-से परमेश्वर के वर्तमान वचन और अपेक्षाएँ हैं? तुम्हें पहले इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए। परमेश्वर अलग-अलग लोगों से अलग-अलग चीजों की माँग करता है; उनके लिए उसकी विशिष्ट अपेक्षाएँ हैं। जो लोग अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में सेवा करते हैं, उन्हें परमेश्वर ने बुलाया है, इसलिए उन्हें त्याग करना ही होगा, वे अपने माता-पिता का सम्मान करते हुए उनके साथ नहीं रह सकते। उन्हें परमेश्वर का आदेश स्वीकारना चाहिए और उसका अनुसरण करने के लिए सब-कुछ त्याग देना चाहिए। यह एक तरह की स्थिति है। आम अनुयायी परमेश्वर द्वारा नहीं बुलाए गए, इसलिए वे अपने माता-पिता के साथ रहकर उनका सम्मान कर सकते हैं। ऐसा करने का कोई पुरस्कार नहीं है और इसके परिणामस्वरूप उन्हें कोई आशीष नहीं मिलेगा, लेकिन अगर वे संतानोचित निष्ठा नहीं दिखाते, तो उनमें मानवता की कमी है। असल में, अपने माता-पिता का सम्मान करना सिर्फ एक तरह की जिम्मेदारी है और यह सत्य के अभ्यास से कम है। परमेश्वर के प्रति समर्पण ही सत्य का अभ्यास है, परमेश्वर का आदेश स्वीकारना ही परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की निशानी है, और परमेश्वर के अनुयायी वे होते हैं जो अपने कर्तव्य निभाने के लिए सब-कुछ त्याग देते हैं। संक्षेप में, सबसे महत्वपूर्ण कार्य जो तुम्हारे सामने है, वह है अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना। यही सत्य का अभ्यास है और यह परमेश्वर के प्रति समर्पण की एक निशानी है। तो वह कौन-सा सत्य है, जिसका लोगों को अब मुख्य रूप से अभ्यास करना चाहिए? (अपना कर्तव्य निभाना।) सही कहा, निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभाना सत्य का अभ्यास करना है। अगर व्यक्ति अपना कर्तव्य ईमानदारी से नहीं निभाता, तो वह सिर्फ मजदूरी कर रहा है।

अभी हम किस प्रश्न पर चर्चा कर रहे थे? (परमेश्वर ने पहले लोगों से अपेक्षा की कि वे अपने माता-पिता का सम्मान करें, फिर उसने उनके सत्य का अभ्यास करने, अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने के संबंध में उच्चतर अपेक्षाएँ सामने रखीं, तो लोगों को पहले किसका पालन करना चाहिए?) तुम लोगों ने अभी कहा कि लोगों को उच्चतर अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। सैद्धांतिक स्तर पर यह कथन सही है—मैं क्यों कहता हूँ कि यह सैद्धांतिक स्तर पर सही है? इसका मतलब यह है कि अगर तुम्हें इस मामले में नियम और सूत्र लागू करने हों, तो यह उत्तर सही होगा। लेकिन जब लोगों का सामना वास्तविक जीवन से होता है, तो यह कथन अक्सर अव्यवहार्य होता है और इसे क्रियान्वित करना कठिन होता है। तो, इस प्रश्न का उत्तर कैसे दिया जाना चाहिए? पहले, तुम्हें वह स्थिति और जीवन-परिवेश देखना चाहिए जिसका तुम सामना कर रहे हो, और उस संदर्भ पर नजर डालनी चाहिए जिसमें तुम हो। अगर अपने जीवन-परिवेश और उस संदर्भ के आधार पर, जिसमें तुम खुद को पाते हो, अपने माता-पिता का सम्मान करने से परमेश्वर का आदेश पूरा करने और अपना कर्तव्य निभाने में कोई टकराव नहीं होता—या, दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता का सम्मान करने से तुम्हारे निष्ठापूर्वक कर्तव्य-प्रदर्शन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता—तो तुम एक ही समय में उन दोनों का अभ्यास कर सकते हो। तुम्हें अपने माता-पिता से बाहरी रूप से अलग होने, उन्हें बाहरी रूप से त्यागने या नकारने की जरूरत नहीं। यह किस स्थिति में लागू होता है? (जब अपने माता-पिता का सम्मान करना व्यक्ति के कर्तव्य-प्रदर्शन से नहीं टकराता।) यह सही है। दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालने की कोशिश नहीं करते, और वे भी विश्वासी हैं, और वे वाकई तुम्हें अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाने और परमेश्वर का आदेश पूरा करने में समर्थन और प्रोत्साहन देते हैं, तो तुम्हारे माता-पिता के साथ तुम्हारा रिश्ता, आम शाब्दिक अर्थ में, रिश्तेदारों के बीच का दैहिक रिश्ता नहीं है, वह कलीसिया के भाई-बहनों के बीच का रिश्ता है। उस स्थिति में, उनके साथ कलीसिया के साथी भाई-बहनों की तरह बातचीत करने के अलावा तुम्हें उनके प्रति अपनी कुछ संतानोचित जिम्मेदारियाँ भी पूरी करनी चाहिए। तुम्हें उनके प्रति थोड़ा अतिरिक्त सरोकार दिखाना चाहिए। अगर इससे तुम्हारा कर्तव्य-प्रदर्शन प्रभावित नहीं होता, यानी, अगर वे तुम्हारे दिल को विवश नहीं करते, तो तुम अपने माता-पिता को फोन करके उनका हालचाल पूछ सकते हो और उनके लिए थोड़ा सरोकार दिखा सकते हो, तुम उनकी कुछ कठिनाइयाँ हल करने और उनके जीवन की कुछ समस्याएँ सुलझाने में मदद कर सकते हो, यहाँ तक कि तुम उनके जीवन-प्रवेश के संदर्भ में उनकी कुछ कठिनाइयाँ हल करने में भी मदद कर सकते हो—तुम ये सभी चीजें कर सकते हो। दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा नहीं डालते, तो तुम्हें उनके साथ यह रिश्ता बनाए रखना चाहिए, और तुम्हें उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। और तुम्हें उनके लिए सरोकार क्यों दिखाना चाहिए, उनकी देखभाल क्यों करनी चाहिए और उनका हालचाल क्यों पूछना चाहिए? क्योंकि तुम उनकी संतान हो और तुम्हारा उनके साथ यह रिश्ता है, तुम्हारी एक और तरह की जिम्मेदारी है, और इस जिम्मेदारी के कारण तुम्हें उनकी थोड़ी और खैर-खबर लेनी चाहिए और उन्हें और ज्यादा ठोस सहायता प्रदान करनी चाहिए। अगर यह तुम्हारे कर्तव्य-प्रदर्शन को प्रभावित नहीं करता और अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और तुम्हारे कर्तव्य-प्रदर्शन में बाधा नहीं डालते या गड़बड़ी नहीं करते, और वे तुम्हें रोकते भी नहीं, तो तुम्हारे लिए उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना स्वाभाविक और उचित है और तुम्हें इसे उस हद तक करना चाहिए, जिस हद तक तुम्हारा जमीर तुम्हें न धिक्कारे—यह सबसे न्यूनतम मानक है, जिसे तुम्हें पूरा करना चाहिए। अगर तुम अपनी परिस्थितियों के प्रभाव और बाधा के कारण घर पर अपने माता-पिता का सम्मान नहीं कर पाते, तो तुम्हें इस नियम का पालन करने की जरूरत नहीं। तुम्हें अपने आपको परमेश्वर के आयोजनों के हवाले कर देना चाहिए और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए, और तुम्हें अपने माता-पिता का सम्मान करने पर जोर देने की जरूरत नहीं है। क्या परमेश्वर इसकी निंदा करता है? परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता; वह लोगों को ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं करता। अब हम किस पर संगति कर रहे हैं? हम इस बारे में संगति कर रहे हैं कि जब अपने माता-पिता का सम्मान करना लोगों के कर्तव्य-प्रदर्शन के साथ टकराता है, तो उन्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए; हम अभ्यास के सिद्धांतों और सत्य पर संगति कर रहे हैं। अपने माता-पिता का सम्मान करना तुम्हारी जिम्मेदारी है, और अगर परिस्थितियाँ अनुकूल हों तो तुम यह जिम्मेदारी निभा सकते हो, लेकिन तुम्हें अपनी भावनाओं से विवश नहीं होना चाहिए। उदाहरण के लिए, अगर तुम्हारे माता-पिता में से कोई बीमार पड़ जाए और उसे अस्पताल जाना पड़े, और उनकी देखभाल करने वाला कोई न हो, और तुम अपने कर्तव्य में इतने व्यस्त हो कि घर नहीं लौट सकते, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? ऐसे समय, तुम अपनी भावनाओं से विवश नहीं हो सकते। तुम्हें मामला प्रार्थना के हवाले कर देना चाहिए, उसे परमेश्वर को सौंप देना चाहिए और उसे परमेश्वर के आयोजनों की दया पर छोड़ देना चाहिए। इसी तरह का रवैया तुम्हारे अंदर होना चाहिए। अगर परमेश्वर तुम्हारे माता-पिता का जीवन लेना चाहता है और उन्हें तुमसे दूर करना चाहता है, तो भी तुम्हें समर्पित होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “भले ही मैं समर्पण कर चुका हूँ, फिर भी मैं दुखी महसूस करता हूँ और मैं इस बारे में कई दिनों से रो रहा हूँ—क्या यह एक दैहिक भावना नहीं है?” यह कोई दैहिक भावना नहीं है, यह मानवीय दयालुता है, यह मानवता होना है और परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता। तुम रो सकते हो, लेकिन अगर तुम कई दिनों तक रोते रहते हो और सो या खा नहीं पाते, और तुम्हारी अपना कर्तव्य करने की मनोदशा नहीं है, यहाँ तक कि तुम घर जाकर अपने माता-पिता से मिलना भी चाहते हो, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा सकते, और तुम सत्य को अमल में नहीं लाए हो, जिसका अर्थ है कि तुम अपने माता-पिता का सम्मान करके अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रहे हो, तुम अपनी भावनाओं के बीच जी रहे हो। अगर तुम अपनी भावनाओं के बीच जीते हुए अपने माता-पिता का सम्मान करते हो, तो तुम अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रहे, और तुम परमेश्वर के वचनों का पालन नहीं कर रहे, क्योंकि तुमने परमेश्वर का आदेश त्याग दिया है, और तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करता है। इस तरह की स्थिति का सामना करने पर अगर इससे तुम्हारे कर्तव्य में देरी न होती हो या तुम्हारे कर्तव्य का निष्ठावान प्रदर्शन प्रभावित न होता हो, तो तुम अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए कुछ ऐसी चीजें कर सकते हो जिन्हें करने में तुम सक्षम हो, और वे जिम्मेदारियों पूरी कर सकते हो जिन्हें पूरा करने में तुम सक्षम हो। संक्षेप में, यही है जो लोगों को करना चाहिए और जिसे वे मानवता के दायरे में करने में सक्षम हैं। अगर तुम अपनी भावनाओं में फँस जाते हो और इससे तुम्हारा कर्तव्य-प्रदर्शन बाधित होता है, तो यह पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के विपरीत है। परमेश्वर ने तुमसे कभी ऐसा करने की अपेक्षा नहीं की, परमेश्वर सिर्फ यह माँग करता है कि तुम अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करो, बस। संतानोचित निष्ठा होने का यही अर्थ है। जब परमेश्वर “अपने माता-पिता का सम्मान करने” की बात कहता है, तो इसका एक संदर्भ होता है। तुम्हें बस कुछ जिम्मेदारियाँ निभाने की जरूरत है, जिन्हें हर तरह की परिस्थितियों में हासिल किया जा सकता है, इसके अलावा कुछ नहीं। जहाँ तक तुम्हारे माता-पिता के गंभीर रूप से बीमार पड़ने या उनकी मृत्यु का सवाल है, तो क्या ये बातें तुम्हें तय करनी हैं? उनका जीवन कैसा है, वे कब मरेंगे, किस बीमारी से मरेंगे या कैसे मरेंगे—क्या इन बातों का तुमसे कोई लेना-देना है? (नहीं।) उनका तुमसे कोई लेना-देना नहीं। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, ताकि मैं अपने माता-पिता का सम्मान कर सकूँ। मुझे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे बीमार न पड़ें, खासकर उन्हें कैंसर या किसी तरह की घातक बीमारी न हो। मुझे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे 100 वर्ष की आयु तक जीवित रहें। तभी मैं वास्तव में उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभा पाऊँगा।” क्या ये बेतुके किस्म के लोग नहीं हैं? यह स्पष्ट रूप से मनुष्य की कल्पना है, परमेश्वर की माँग बिल्कुल नहीं। तुम्हें यह भी नहीं पता कि तुम खुद 100 साल तक जीवित रह पाओगे या नहीं, फिर भी तुम माँग करते हो कि तुम्हारे माता-पिता उस उम्र तक जीवित रहें—यह एक मूर्ख का सपना है! जब परमेश्वर “अपने माता-पिता का सम्मान करने” की बात करता है, तो वह बस तुमसे अपनी वे जिम्मेदारियाँ पूरी करने के लिए कहता है, जो सामान्य मानवता के दायरे में आती हैं। अगर तुम अपने माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार नहीं करते या ऐसा कुछ नहीं करते जो तुम्हारे जमीर और नैतिकता के विपरीत हो, तो इतना काफी है। क्या यह परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं है? (है।) बेशक, हमने अभी उस मामले का भी उल्लेख किया है, जिसमें तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालते हैं, उनका प्रकृति सार छद्म-विश्वासियों और अविश्वासियों का या बुरे लोगों और राक्षसों तक का है, और वे उस मार्ग पर नहीं हैं जिस पर तुम हो। दूसरे शब्दों में, वे बिल्कुल भी तुम्हारे जैसे व्यक्ति नहीं हैं, और हालाँकि तुम कई वर्षों तक उनके साथ एक ही घर में रहे हो, लेकिन उनके अनुसरण या चरित्र तुम्हारे जैसे नहीं हैं, और निश्चित रूप से उनकी प्राथमिकताएँ या आकांक्षाएँ तुम्हारे जैसी नहीं हैं। तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और वे परमेश्वर में बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते, यहाँ तक कि वे परमेश्वर का विरोध भी करते हैं। इन परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिए? (उन्हें नकार देना चाहिए।) परमेश्वर ने तुम्हें इन परिस्थितियों में उन्हें नकारने या कोसने के लिए नहीं कहा है। परमेश्वर ने ऐसा नहीं कहा। परमेश्वर की “अपने माता-पिता का सम्मान करने” की अपेक्षा अभी भी कायम है। इसका मतलब यह है कि अगर तुम अपने माता-पिता के साथ रह रहे हो, तो तुम्हें अभी भी अपने माता-पिता का सम्मान करने की यह अपेक्षा कायम रखनी चाहिए। इस बात में कोई विरोधाभास नहीं है, है न? (नहीं है।) इसमें बिल्कुल भी कोई विरोधाभास नहीं है। दूसरे शब्दों में, जब तुम उनसे मिलने के लिए घर लौट पाते हो, तो तुम उनके लिए खाना पका सकते हो या कुछ पकौड़ियाँ तल सकते हो, और अगर संभव हो तो उनके लिए कुछ स्वास्थ्य-उत्पाद खरीद सकते हो, वे तुमसे बहुत संतुष्ट होंगे। अगर तुम अपनी आस्था के बारे में बात करते हो और वे इसे स्वीकारते नहीं या विश्वास नहीं करते, यहाँ तक कि वे तुम्हारे साथ गाली-गलौज भी करते हैं, तो तुम्हें उन्हें सुसमाचार सुनाने की आवश्यकता नहीं है। अगर तुम्हारे लिए उनसे मिलना संभव हो, तो इस तरह अभ्यास करना; अगर नहीं, तो कुछ नहीं किया जा सकता, यह परमेश्वर का आयोजन है, तुम्हें जल्दी से उनसे दूरी बना लेनी चाहिए और उनसे बचना चाहिए। इसके लिए क्या सिद्धांत है? अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं करते और वे तुम्हारे समान नहीं बोलते या समान शौक और लक्ष्य साझा नहीं करते और उस मार्ग पर नहीं चलते जिस पर तुम चलते हो, यहाँ तक कि परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालते हैं और सताते हैं, तब तुम उन्हें पहचान सकते हो, उनका सार समझ सकते हो और उन्हें नकार सकते हो। बेशक, अगर वे परमेश्वर को गाली देते हैं या तुम्हें कोसते हैं, तो तुम उन्हें अपने दिल में कोस सकते हो। तो, “अपने माता-पिता का सम्मान करना,” जिसकी परमेश्वर बात करता है, किसे संदर्भित करता है? तुम्हें इसका अभ्यास कैसे करना चाहिए? अर्थात्, अगर तुम अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो, तो उन्हें थोड़ा पूरा करो, और अगर तुम्हें उसका मौका नहीं मिलता, या अगर उनके साथ तुम्हारी बातचीत में टकराव पहले ही बहुत ज्यादा हो गया है, और तुम्हारे बीच द्वंद्व है, और तुम पहले ही उस बिंदु पर पहुँच गए हो जहाँ तुम अब एक-दूसरे को नहीं देख सकते, तो तुम्हें जल्दी से उनसे अलग हो जाना चाहिए। जब परमेश्वर इस तरह के माता-पिता का सम्मान करने की बात करता है, तो उसका मतलब है कि तुम्हें उनकी संतान होने की अपनी स्थिति के परिप्रेक्ष्य से अपनी संतानोचित जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए, और वे चीजें करनी चाहिए जो एक बच्चे को करनी चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए या उनके साथ बहस नहीं करनी चाहिए, तुम्हें उनके साथ मार-पीट नहीं करनी चाहिए या उन पर चिल्लाना नहीं चाहिए, उनके साथ गाली-गलौज नहीं करना चाहिए और अपनी पूरी क्षमता से उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। ये वे चीजें हैं, जो मानवता के दायरे में की जानी चाहिए; ये वे सिद्धांत हैं जिनका पालन “अपने माता-पिता का सम्मान करने” के संबंध में करना चाहिए। क्या इन्हें करना आसान नहीं है? तुम्हें यह कहते हुए अपने माता-पिता के साथ क्रोधपूर्ण व्यवहार करने की आवश्यकता नहीं है : “हे राक्षसो और छद्म-विश्वासियो, परमेश्वर तुम लोगों को आग और गंधक की झील और अथाह गड्ढे में जाने का शाप देता है, वह तुम्हें नरक के अठारहवें स्तर पर भेज देगा!” यह आवश्यक नहीं है, तुम्हें इस चरम सीमा तक जाने की जरूरत नहीं है। अगर परिस्थितियाँ अनुकूल हों और स्थिति की माँग हो, तो तुम अपने माता-पिता के प्रति अपनी संतानोचित जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो। अगर यह आवश्यक न हो, या अगर परिस्थितियाँ अनुकूल न हों और यह संभव न हो, तो तुम इस दायित्व से मुक्त हो सकते हो। तुम्हें सिर्फ इतना करने की जरूरत है कि जब तुम अपने माता-पिता से मिलो और उनके साथ बातचीत करो, तो अपनी संतानोचित जिम्मेदारियाँ पूरी कर दो। जब तुम ऐसा कर लेते हो, तो तुम्हारा कार्य पूरा हो जाता है। तुम इस सिद्धांत के बारे में क्या सोचते हो? (यह अच्छा है।) अपने माता-पिता समेत, अन्य सभी लोगों के प्रति तुम्हारे व्यवहार के सिद्धांत होने चाहिए। तुम जल्दबाजी में कार्य नहीं कर सकते, और अपने माता-पिता के साथ सिर्फ इसलिए गाली-गलौज नहीं कर सकते कि वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास के लिए तुम्हें सताते हैं। दुनिया में बहुत सारे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, बहुत सारे अविश्वासी हैं, और बहुत सारे लोग हैं जो परमेश्वर का अपमान करते हैं—क्या तुम उन सभी को कोसोगे और उन सभी पर चिल्लाओगे? अगर नहीं, तो तुम्हें अपने माता-पिता पर भी नहीं चिल्लाना चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता पर चिल्लाते हो, पर उन दूसरे लोगों पर नहीं, तो तुम क्रोध के बीच जी रहे हो, और परमेश्वर इसे पसंद नहीं करता। ऐसा मत सोचो कि अगर तुम अपने माता-पिता के साथ बिना किसी वाजिब कारण के गाली-गलौज करते हो और यह कहते हुए उन्हें कोसते हो कि वे राक्षस, जीते-जागते शैतान और शैतान के अनुचर हैं, और उन्हें नरक में जाने का शाप देते हो, तो परमेश्वर तुमसे संतुष्ट होगा—ऐसा बिल्कुल नहीं है। सक्रियता के इस झूठे प्रदर्शन के कारण परमेश्वर तुम्हें स्वीकार्य नहीं पाएगा या यह नहीं कहेगा कि तुममें मानवता है। इसके बजाय, परमेश्वर कहेगा कि तुम्हारे कार्यों में भावनाएँ और क्रोध शामिल है। परमेश्वर को तुम्हारा इस तरह पेश आना पसंद नहीं आएगा, यह बहुत चरम स्थिति है और उसके इरादों के अनुरूप नहीं है। अपने माता-पिता समेत, अन्य सभी लोगों के प्रति तुम्हारे व्यवहार के सिद्धांत होने चाहिए; चाहे वे परमेश्वर में विश्वास करते हों या नहीं, और चाहे वे दुष्ट लोग हों या नहीं, तुम्हें उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। परमेश्वर ने मनुष्य को यह सिद्धांत बताया है : यह दूसरों के साथ उचित व्यवहार करने के बारे में है—बात बस इतनी है कि लोगों की अपने माता-पिता के प्रति अतिरिक्त जिम्मेदारी है। तुम्हें बस यह जिम्मेदारी निभाने की जरूरत है। चाहे तुम्हारे माता-पिता विश्वासी हों या नहीं, चाहे वे अपने विश्वास का अनुसरण करते हों या नहीं, चाहे जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण और उनकी मानवता तुम्हारे साथ मेल खाती हो या नहीं, तुम्हें बस उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने की जरूरत है। तुम्हें उनसे बचने की जरूरत नहीं—बस हर चीज परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के अनुसार स्वाभाविक रूप से होने दो। अगर वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालते हों, तो भी तुम्हें अपनी पूरी क्षमता से अपनी संतानोचित जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, ताकि कम से कम तुम्हारा जमीर उनके प्रति ऋणी महसूस न करे। अगर वे तुम्हें बाधित नहीं करते और परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का समर्थन करते हैं, तो तुम्हें भी सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, उचित हो तो उनके साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। संक्षेप में कहें तो चाहे कुछ भी हो, मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ नहीं बदलतीं और लोगों को जिन सत्य सिद्धांतों का अभ्यास करना चाहिए, वे नहीं बदल सकते। इन मामलों में तुम्हें बस सिद्धांत कायम रखने और वे जिम्मेदारियाँ निभाने की जरूरत है, जिन्हें तुम निभा सकते हो।

अब मैं इस बारे में बात करूँगा कि परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार के संबंध में “अपने माता-पिता का सम्मान करो” जैसी अपेक्षा क्यों रखी। परमेश्वर की अन्य सभी अपेक्षाएँ व्यवहार संबंधी नियम हैं, जो प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत आचरण से संबंधित हैं, तो परमेश्वर ने संतानोचित निष्ठा के मामले में एक अलग तरह की माँग क्यों रखी? मुझे बताओ : अगर व्यक्ति अपने माता-पिता का भी सम्मान नहीं कर सकता, तो उसका प्रकृति सार कैसा है? (बुरा।) उसके माता-पिता ने उसे जन्म देने और पाल-पोसकर बड़ा करने में बहुत कष्ट सहे, उसका पालन-पोषण करना निश्चित रूप से आसान नहीं रहा होगा—और वास्तव में, वे अपेक्षा नहीं करते कि उनका बच्चा उन्हें बहुत खुशी या संतुष्टि देगा, वे बस आशा करते हैं कि बच्चा बड़ा होने के बाद एक खुशहाल जीवन जिए और उन्हें उसके बारे में बहुत ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं होगी। लेकिन उनका बच्चा प्रयास नहीं करता या कड़ी मेहनत नहीं करता और वह अच्छी तरह से नहीं जीता—वह अपनी देखभाल के लिए अभी भी अपने माता-पिता पर निर्भर है, और वह एक जोंक बन गया है जो न सिर्फ अपने माता-पिता का सम्मान नहीं करता, बल्कि अपने माता-पिता को उनकी जायदाद से निकालने के लिए धमकाने और ब्लैकमेल करने की इच्छा भी रखता है। अगर वह इस तरह का घृणित व्यवहार करने में सक्षम है, तो वह किस तरह का व्यक्ति है? (खराब मानवता वाला व्यक्ति।) वह उन लोगों के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं निभाता, जिन्होंने उसे जन्म दिया और पाल-पोसकर बड़ा किया, और वह इस बारे में बिल्कुल भी दोषी महसूस नहीं करता—अगर तुम उसे इस दृष्टिकोण से देखो, तो क्या उसमें जमीर है? (नहीं है।) वह किसी के साथ भी मारपीट और गाली-गलौज करेगा, जिसमें उसके माता-पिता भी शामिल हैं। वह अपने माता-पिता के साथ किसी अन्य व्यक्ति की तरह ही व्यवहार करता है—जब मन हुआ, उन्हें मारता-पीटता और उनके साथ गाली-गलौज करता है। जब वह दुखी महसूस करता है, तो अपना गुस्सा अपने माता-पिता पर निकालता है, बरतन-भाँड़े तोड़कर उन्हें डराता है। क्या ऐसे व्यक्ति में विवेक होता है? (नहीं।) अगर व्यक्ति के पास जमीर या विवेक नहीं है और वह अपने माता-पिता के साथ भी बस यूँ ही दुर्व्यवहार करने में सक्षम है, तो क्या वह इंसान है? (नहीं।) तो फिर वह क्या है? (जानवर।) वह जानवर है। क्या यह कथन सटीक है? (हाँ, है।) वास्तव में, अगर कोई व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति अपनी कुछ जिम्मेदारियाँ निभाता है, उनकी देखभाल करता है और उनसे बहुत प्रेम करता है—क्या ये ऐसी चीजें नहीं हैं, जो सामान्य मानवता वाले लोगों में सामान्य रूप से होनी चाहिए? (हाँ, ये ऐसी चीजें ही हैं।) अगर कोई व्यक्ति अपने माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार और गाली-गलौज करता है, तो क्या उसका जमीर इसे स्वीकार सकता है? क्या कोई सामान्य व्यक्ति ऐसा कुछ कर सकता है? जिन लोगों में जमीर और विवेक है, वे ऐसा नहीं कर सकते—अगर वे अपने माता-पिता को क्रोधित करेंगे, तो कई दिनों तक दुखी महसूस करेंगे। कुछ लोगों का मिजाज उग्र होता है और वे हताशा के क्षण में अपने माता-पिता पर क्रोधित हो सकते हैं, लेकिन ऐसा करने के बाद उनका जमीर उन्हें धिक्कारेगा और चाहे वे माफी न माँगें, पर वे दोबारा ऐसा नहीं करेंगे। यह ऐसी चीज है, जो सामान्य मानवता वाले लोगों में होनी चाहिए, यह सामान्य मानवता का उद्गार है। जिन लोगों में मानवता नहीं है, वे बिना कुछ महसूस किए अपने माता-पिता के साथ किसी भी तरह का दुर्व्यवहार कर सकते हैं और वे यही करते हैं। अगर उनके माता-पिता ने उन्हें बचपन में एक बार पीटा हो, तो वे इसे जीवन भर याद रखेंगे, और बड़े होने के बाद वे अभी भी अपने माता-पिता को पीटना और उन पर पलटवार करना चाहेंगे। ज्यादातर लोग बचपन में अपने माता-पिता द्वारा पीटे जाने पर पलटवार नहीं करेंगे; 30 वर्ष की आयु के भी कुछ लोग अपने माता-पिता द्वारा पीटे जाने पर पलटवार नहीं करते और इसके बारे में एक शब्द भी नहीं बोलते, भले ही इससे उन्हें दुख होता हो। सामान्य मानवता वाले लोगों में यही होना चाहिए। वे इसके बारे में एक शब्द भी क्यों नहीं बोलेंगे? अगर कोई और उन्हें पीटता, तो क्या वे ऐसा होने देते और उस व्यक्ति को खुद को पीटने देते? (नहीं।) अगर यह कोई और व्यक्ति होता, फिर चाहे वह कोई भी होता, तो वे उसे खुद को पीटने न देते—वे उसे खुद को गाली का एक शब्द भी न बोलने देते। तो चाहे उनके माता-पिता उन्हें कितना भी पीटें, वे पलटवार क्यों नहीं करते या क्रोधित क्यों नहीं होते? वे इसे सहन क्यों करते हैं? क्या ऐसा इसलिए नहीं है कि उनकी मानवता के भीतर जमीर और विवेक है? वे मन ही मन सोचते हैं : “मेरे माता-पिता ने मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया। हालाँकि उनका मुझे पीटना सही नहीं है, फिर भी मुझे इसे सहन करना चाहिए। इसके अलावा, मैंने ही उन्हें क्रोधित किया था, इसलिए मैं पिटने के काबिल हूँ। वे ऐसा सिर्फ इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि मैंने उनकी अवज्ञा की और उन्हें क्रोधित कर दिया। मैं पिटने लायक ही हूँ! मैं दोबारा ऐसा कभी नहीं करूँगा।” क्या यही वह विवेक नहीं है, जो सामान्य मानवता वाले लोगों में होना चाहिए? (हाँ है।) सामान्य मानवता का यही विवेक उन्हें अपने माता-पिता का इस तरह का व्यवहार सहने देता है। यह सामान्य मानवता है। तो, क्या जो लोग इस तरह का व्यवहार सह नहीं पाते, जो अपने माता-पिता पर पलटवार करते हैं, उनमें यह मानवता होती है? (नहीं होती।) यह सही है, उनमें यह नहीं होती। जिन लोगों में सामान्य मानवता का जमीर और विवेक नहीं होता, वे अपने माता-पिता तक के साथ मार-पीट और गाली-गलौज करने में सक्षम होते हैं, तो वे परमेश्वर और कलीसिया में अपने भाई-बहनों के साथ कैसा व्यवहार करने में सक्षम होंगे? वे उन लोगों के साथ इस तरह से व्यवहार करने में सक्षम हैं, जिन्होंने उन्हें जन्म दिया और पाल-पोसकर बड़ा किया, तो क्या वे उन अन्य लोगों की और भी कम परवाह नहीं करेंगे, जिनका उनसे खून का रिश्ता नहीं है? (हाँ।) वे परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार करेंगे, जिसे वे देख या छू नहीं सकते? क्या वे परमेश्वर के साथ जमीर और विवेक से व्यवहार कर पाएँगे? क्या वे उन सभी परिवेशों के प्रति समर्पित हो पाएँगे, जिन्हें परमेश्वर ने आयोजित किया है? (नहीं।) अगर परमेश्वर को उनकी काट-छाँट करनी हो, उनका न्याय करना हो या उन्हें ताड़ना देनी हो, तो क्या वे उसका प्रतिरोध करेंगे? (हाँ।) इस पर विचार करो : व्यक्ति का जमीर और विवेक क्या कार्य करते हैं? एक निश्चित सीमा तक, व्यक्ति का जमीर और विवेक उसके व्यवहार को सीमित और नियंत्रित कर सकते हैं—ये उन्हें अपने साथ कुछ घटित होने पर सही रवैया रखने और सही विकल्प चुनने, और जो कुछ भी उन पर पड़ता है उसे अपने जमीर और विवेक के साथ पेश आने में सक्षम बनाते हैं। अधिकांश समय, जमीर और विवेक के आधार पर कार्य करने से लोगों को बड़े पैमाने पर दुर्भाग्य से बचने में मदद मिलेगी। निःसंदेह, जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे इस नींव पर सत्य का अनुसरण करने, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने का मार्ग चुनने में सक्षम होते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनमें मानवता की कमी होती है और उनमें इस तरह का जमीर और विवेक नहीं होता—इसके परिणाम गंभीर होते हैं। वे परमेश्वर के साथ कुछ भी करने में सक्षम होते हैं—ठीक उसी तरह जैसे फरीसियों ने प्रभु यीशु के साथ व्यवहार किया था, वे परमेश्वर का अपमान करने, परमेश्वर से बदला लेने, परमेश्वर की निंदा करने, यहाँ तक कि परमेश्वर पर आरोप लगाने और उसे धोखा देने में भी सक्षम होते हैं। यह समस्या बहुत गंभीर है—क्या यह परेशानी की द्योतक नहीं है? जिन लोगों में मानवता के विवेक की कमी होती है, वे अकसर अपने क्रोध के जरिये दूसरों से बदला लेते हैं; वे मानवता के विवेक के नियंत्रण में नहीं होते, इसलिए उनके लिए कुछ अतिवादी विचार और दृष्टिकोण विकसित करना और फिर किसी अतिवादी व्यवहार में संलग्न होना और जमीर और विवेक से रहित कई तरीकों से कार्य करना आसान होता है, और अंततः, इसके परिणाम पूरी तरह से नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं। मैंने “अपने माता-पिता का सम्मान करने” और सत्य के अभ्यास पर संगति कमोबेश पूरी कर ली है—अंत में बात मानवता पर ही आ जाती है। परमेश्वर ने “अपने माता-पिता का सम्मान करने” जैसी माँग क्यों रखी? क्योंकि यह मनुष्य के आचरण से संबंधित है। एक ओर, परमेश्वर इस माँग का उपयोग मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए करता है, और साथ ही, वह इससे लोगों की मानवता का परीक्षण करता है और उसे परिभाषित करता है। अगर व्यक्ति अपने माता-पिता के साथ जमीर और विवेक से व्यवहार नहीं करता, तो निश्चित रूप से उसमें मानवता नहीं है। कुछ लोग कहते हैं : “अगर माता-पिता में अच्छी मानवता न हो और उन्होंने अपने बच्चे के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी तरह से न निभाई न हों—तो क्या उस व्यक्ति को फिर भी उनके प्रति संतानोचित निष्ठा दिखानी चाहिए?” अगर उसके पास जमीर और विवेक है, तो एक बेटी या बेटे के रूप में वह अपने माता-पिता के साथ गाली-गलौज नहीं करेगा। जो लोग अपने माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, उनमें जमीर और विवेक बिल्कुल नहीं होता। इसलिए परमेश्वर चाहे जो अपेक्षा रखता हो, चाहे यह उस रवैये से संबंधित हो जिससे लोग अपने माता-पिता के साथ व्यवहार करते हैं, या उस मानवता से जिसे लोग आम तौर पर जीते और प्रकट करते हैं, चाहे जो हो, चूँकि परमेश्वर ने बाहरी व्यवहारों से संबंधित ये नजरिये निर्धारित किए हैं, इसलिए ऐसा करने के पीछे उसके अपने कारण और उद्देश्य अवश्य होंगे। परमेश्वर निर्धारित ये व्यवहार संबंधी अपेक्षाएँ भले ही कुछ हद तक सत्य से दूर हैं, फिर भी ये ऐसे मानक हैं जिन्हें परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए तय किया है। ये सभी महत्वपूर्ण हैं और आज भी मान्य हैं।

मैंने अभी-अभी परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए रखे गए व्यवहार संबंधी मानदंडों और उन सत्यों, जिनकी वह माँग करता है, के बीच विभिन्न संबंधों और अंतरों पर संगति की। इस बिंदु पर, क्या हमने कमोबेश उन अच्छे व्यवहारों पर संगति पूरी नहीं ली है, जो उन चीजों का हिस्सा हैं जिन्हें लोग अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानते हैं? इस पर अपनी संगति समाप्त करने के बाद, हमने उन कुछ मानकों और कहावतों पर बातचीत की, जिन्हें परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार को, और जिसे मनुष्य जीता है उसे, नियंत्रित करने के लिए आगे रखा है, और हमने कुछ उदाहरण सूचीबद्ध किए हैं, जैसे कि : दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करना, अपने माता-पिता का सम्मान करना, धूम्रपान या मद्यपान न करना, चोरी न करना, दूसरों का फायदा न उठाना, झूठी गवाही न देना, मूर्ति-पूजा न करना, इत्यादि। निस्संदेह, ये सिर्फ प्रमुख हैं, और बहुत सारे विवरण और भी हैं जिनमें हम नहीं जाएँगे। तो, इन चीजों के बारे में संगति करने के बाद, तुम लोगों को कौन-से सत्य प्राप्त होने चाहिए थे? तुम्हें किन सिद्धांतों का अभ्यास करना चाहिए? तुम्हें क्या करना चाहिए? क्या तुम्हें बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने की जरूरत है? क्या तुम्हें एक विनम्र व्यक्ति बनने की जरूरत है? क्या तुम्हें मिलनसार और सुलभ होने की जरूरत है? क्या महिलाओं को सौम्य और परिष्कृत या सुशिक्षित और समझदार होने की जरूरत है? क्या पुरुषों को महान, महत्वाकांक्षी और निपुण व्यक्ति बनने की जरूरत है? उन्हें इसकी जरूरत नहीं है। निस्संदेह, हमने काफी सहभागिता की है। ये चीजें, जिनकी पारंपरिक संस्कृति वकालत करती है, स्पष्ट रूप से शैतान द्वारा लोगों को गुमराह करने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं। ये बहुत भ्रामक चीजें हैं, और ये ऐसी चीजें हैं जो लोगों को धोखा देती हैं। तुम लोगों को खुद जाँच करनी चाहिए और देखना चाहिए कि क्या तुम अभी भी इनमें से कोई भी विचार और दृष्टिकोण या व्यवहार और अभिव्यक्ति पालते हो। अगर हाँ, तो तुम्हें उन्हें हल करने के लिए जल्दी से सत्य खोजना चाहिए, और फिर तुम्हें सत्य स्वीकारना चाहिए और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना चाहिए। इस तरह, तुम परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करने में सक्षम होगे। तुम लोगों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि जब तुम पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जीते थे तो तुम्हारी आंतरिक स्थिति कैसी थी और अपने दिल की गहराई में तुम कैसा महसूस करते थे, तुमने क्या हासिल किया और परिणाम क्या रहा, और फिर यह देखो कि परमेश्वर ने मनुष्य से जिन मानकों की माँग की है, उनके अनुसार आचरण करना कैसा लगता है, जैसे संयमित रहना, संतों जैसी शालीनता रखना, दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करना, इत्यादि। देखो कि इनमें से जीवन का कौन-सा तरीका तुम्हें ज्यादा आसानी से, स्वतंत्र रूप से, लगातार और शांति से जीने देता है और तुम्हें ज्यादा मानवता के साथ जीने में सक्षम बनाता है, और कौन-सा तरीका ऐसा महसूस कराता है जैसे तुम झूठा मुखौटा लगाकर जी रहे हो, और तुम्हारे जीवन को बहुत नकली और दयनीय बनाता है। देखो कि इनमें से जीवन का कौन-सा तरीका तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं के ज्यादा से ज्यादा करीब रहने देता है और परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता ज्यादा से ज्यादा सामान्य बनाता है। जब तुम वास्तव में इसका अनुभव करोगे, तो तुम्हें पता चल जाएगा। सिर्फ परमेश्वर के वचनों और सत्य का अभ्यास ही तुम्हें मुक्ति और आजादी दिला सकता है और परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करने दे सकता है। उदाहरण के लिए, मान लो, दूसरे लोगों से यह कहलवाने के लिए कि तुम बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करते हो, कि तुम नियमों का पालन करते हो, और कि तुम एक अच्छे इंसान हो, जब भी तुम उम्र में बड़े किसी भाई या बहन से मिलते हो, तुम उन्हें “बड़ा भाई” या “बड़ी बहन” कहकर बुलाते हो, कभी भी उन्हें उनके नाम से बुलाने की हिम्मत नहीं करते, और उन्हें उनके नाम से बुलाने में बहुत शर्मिंदगी महसूस करते हो, और सोचते हो कि ऐसा करना बहुत अपमानजनक होगा। बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने की यह परंपरागत धारणा तुम्हारे दिल में छिपी है, इसलिए जब तुम उम्र में बड़े किसी व्यक्ति को देखते हो, तो तुम बहुत सौम्य और दयालु व्यवहार करते हो, मानो तुम बहुत नियम-पालक और सुसंस्कृत हो, और तुम कमर को 15 डिग्री के कोण से 90 डिग्री के कोण तक झुकाए बिना नहीं रह पाते। तुम उम्र में बड़े लोगों के साथ सम्मानजनक व्यवहार करते हो—तुम्हारे सामने वाला व्यक्ति जितनी ज्यादा उम्र का होगा, तुम उतने ही ज्यादा शिष्ट होने का दिखावा करोगे। क्या इस तरह शिष्ट होना अच्छी बात है? यह बिना रीढ़ की हड्डी और बिना गरिमा के जीना है। ऐसे लोग जब किसी छोटे बच्चे को देखते हैं, तो बिल्कुल बच्चे की तरह ही प्यारा और चंचल व्यवहार करते हैं। जब वे अपने किसी हमउम्र को देखते हैं, तो बिल्कुल सीधे खड़े हो जाते हैं और वयस्क की तरह व्यवहार करते हैं, ताकि दूसरे लोग उनका अनादर करने का साहस न कर सकें। वे किस तरह के व्यक्ति हैं? क्या वे अनेक चेहरों वाले व्यक्ति नहीं हैं? वे कितनी जल्दी बदल जाते हैं, है न? जब वे किसी बूढ़े व्यक्ति को देखते हैं, तो उसे “बड़े दादा जी” या “बड़ी दादी जी” कहकर बुलाते हैं। जब वे किसी अपने से थोड़े बड़े व्यक्ति को देखते हैं, तो उसे “अंकल,” “आंटी,” “बड़े भाई,” या “बड़ी बहन” कहते हैं। जब वे किसी अपने से छोटे व्यक्ति से मिलते हैं, तो उसे “छोटे भाई” या “छोटी बहन” कहते हैं। वे लोगों को उनकी उम्र के अनुसार अलग-अलग उपाधियाँ और उपनाम देते हैं, और इन संबोधनों का बहुत सटीक और सही उपयोग करते हैं। ये चीजें उनकी हड्डियों में जड़ें जमा चुकी हैं और वे बड़ी आसानी से इनका उपयोग करने में सक्षम हैं। विशेष रूप से जब वे परमेश्वर में विश्वास करने लगते हैं, तो वे और भी ज्यादा आश्वस्त महसूस करते हैं कि : “मैं अब परमेश्वर का विश्वासी हूँ, मुझे नियम का पालन करने वाला और सुसंस्कृत होना चाहिए; मुझे सुशिक्षित और समझदार होना चाहिए; मैं उन अविश्वासी, समस्याग्रस्त युवाओं की तरह नियम नहीं तोड़ सकता या विद्रोही नहीं हो सकता—लोग इसे पसंद नहीं करेंगे। अगर मैं चाहता हूँ कि सभी मुझे पसंद करें, तो मुझे बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करनी होगी।” इसलिए, वे अपने व्यवहार को और भी सख्ती से नियंत्रित करते हैं, विभिन्न आयु-वर्ग के लोगों को अलग-अलग स्तरों में विभाजित करते हैं, उन्हें तमाम उपाधियाँ और उपनाम देते हैं, और इसे अपने दैनिक जीवन में लगातार अभ्यास में लाते हैं, और फिर ज्यादा से ज्यादा सोचते हैं : “मुझे देखो, मैं परमेश्वर में विश्वास करने के बाद वास्तव में बदल गया हूँ। मैं सुशिक्षित, समझदार और विनम्र हूँ, मैं बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करता हूँ, और मैं मिलनसार हूँ। मैं वाकई इंसान की तरह जी रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि मिलने वाले हर व्यक्ति को कैसे उसकी उपाधि से बुलाना है, चाहे उसकी जो भी उम्र हो। मेरे माता-पिता को मुझे सिखाना नहीं पड़ा और मेरे आस-पास के लोगों को मुझे यह करने के लिए कहना नहीं पड़ा, मैं बस जानता था कि इसे कैसे करना है।” इन अच्छे व्यवहारों का अभ्यास करने के बाद उन्हें लगता है कि उनमें वास्तव में मानवता है, कि वे वास्तव में नियमों का पालन करने वाले हैं, और परमेश्वर को यह जरूर पसंद होगा—क्या वे खुद को और दूसरों को धोखा नहीं दे रहे? अब से तुम्हें ये चीजें त्यागनी होंगी। इससे पहले, मैंने डेमिंग और शाओमिंग की कहानी सुनाई थी—वह कहानी बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने से संबंधित थी, है न? (हाँ, थी।) जब कुछ लोग एक बूढ़े व्यक्ति को देखते हैं, तो सोचते हैं कि उन्हें “बड़े भाई” या “बड़ी बहन” कहना पर्याप्त दयालुतापूर्ण नहीं है और इससे लोगों को यह नहीं लगेगा कि वे पर्याप्त सुसंस्कृत हैं, इसलिए वे उन्हें “बड़े दादा जी” या “बड़ी आंटी जी” कहते हैं। ऐसा लगता है कि तुमने उन्हें पर्याप्त सम्मान दिया है, पर उनके प्रति तुम्हारा सम्मान आता कहाँ से है? तुम्हारा चेहरा ऐसे व्यक्ति का नहीं है, जो दूसरों का सम्मान करता हो। तुम्हारी शक्ल भयावह और क्रूर, ढीठ और अहंकारी है, और तुम अपने कार्यों में किसी भी अन्य व्यक्ति से ज्यादा अहंकारी हो। न केवल तुम सत्य सिद्धांत नहीं खोजते, बल्कि तुम किसी और से परामर्श भी नहीं करते; तुम अपने आप में कानून हो और तुममें जरा-सी भी मानवता नहीं है। तुम यह देखते हो कि किसकी हैसियत है, और फिर इस आशा से उन्हें “बड़े अंकल” या “बड़ी आंटी” कहते हो कि इसके लिए तुम्हें लोगों की प्रशंसा मिलेगी—क्या इस तरह का दिखावा करना उपयोगी है? अगर तुम इस तरह दिखावा करोगे, तो क्या तुममें मानवता और नैतिकता रहेगी? इसके विपरीत, जब अन्य लोग तुम्हें ऐसा करते देखेंगे, तो वे तुमसे और भी ज्यादा घृणा महसूस करेंगे। जब ऐसे मामले उठते हैं जिनमें परमेश्वर के घर के हित शामिल होते हैं, तो तुम वास्तव में परमेश्वर के घर के हितों को धोखा देने में सक्षम होते हो। तुम सिर्फ खुद को संतुष्ट करने के लिए जीते हो, और इस तरह की मानवता होने पर भी तुम लोगों को “बड़ी आंटी” कहते हो—क्या यह दिखावा नहीं है? (यह दिखावा ही है।) तुम दिखावा करने में वाकई अच्छे हो! मुझे बताओ, क्या ऐसे लोग घिनौने नहीं हैं? (वे घिनौने हैं।) इस तरह के लोग हमेशा परमेश्वर के घर के हितों को धोखा देते हैं—वे उनकी रक्षा बिल्कुल नहीं करते। वे उसी हाथ को दाँतों से काटते हैं जो उन्हें खाना खिलाता है, और वे परमेश्वर के घर में रहने लायक नहीं हैं। अपनी जाँच करो और देखो कि तुम अभी भी कौन-से विचार, दृष्टिकोण, रवैये, नजरिये और लोगों के साथ व्यवहार करने के तरीके रखते हो, जो ऐसी चीजें हैं जिन्हें मानवजाति आम तौर पर अच्छे व्यवहार समझती है, लेकिन जो असल में वे चीजें हैं जिनसे परमेश्वर घृणा करता है। तुम लोगों को ये बेकार चीजें जल्दी से छोड़ देनी चाहिए और तुम्हें उनसे बिल्कुल भी चिपके नहीं रहना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “ऐसा करने में क्या गलत है?” अगर तुम ऐसा करते हो, तो मुझे तुमसे घिन आएगी और मैं तुमसे घृणा करूँगा, तुम्हें ऐसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “तुम्हारे हमसे घृणा करने से फर्क नहीं पड़ता, आखिर हम तुम्हारे साथ तो रहते नहीं।” भले ही हम साथ न रहते हों, फिर भी तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। मुझे तुम लोगों से घृणा महसूस होगी, क्योंकि तुम सत्य स्वीकारने या उसका अभ्यास करने में सक्षम नहीं हो, जिसका अर्थ है कि तुम लोगों को बचाया नहीं जा सकता। इसलिए बेहतर होगा कि तुम जितनी जल्दी हो सके, इन चीजों को त्याग दो। दिखावा मत करो और झूठे मुखौटे के पीछे मत रहो। मुझे लगता है कि पश्चिमी लोग इस संबंध में बहुत सामान्य हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में तुम्हें बस लोगों को उनके नाम से बुलाने की जरूरत है। तुम्हें अजीब तरह से इस व्यक्ति को “दादा जी” और उस व्यक्ति को “दादी जी” कहने की जरूरत नहीं, और तुम्हें इस बात की चिंता करने की जरूरत नहीं कि लोग तुम्हारा मूल्यांकन कर रहे हैं—तुम बस लोगों को गरिमापूर्ण तरीके से उनके नाम से बुला सकते हो, और जब लोग तुम्हें ऐसा करते सुनेंगे, तो वे, वयस्क और बच्चे समान रूप से, बहुत खुश महसूस करेंगे और सोचेंगे कि तुम सम्मान देने वाले व्यक्ति हो। इसके विपरीत, अगर तुम उनका नाम जानते हो और फिर भी उन्हें “श्रीमान” या “आंटी” कहते हो, तो वे खुश नहीं होंगे, वे तुम्हें नजरअंदाज करेंगे, और यह तुम्हें बहुत अजीब लगेगा। पश्चिमी संस्कृति परंपरागत चीनी संस्कृति से भिन्न है। चीनी लोग परंपरागत संस्कृति से शिक्षित और प्रभावित हैं और वे हमेशा ऊँचाई पर खड़े होना चाहते हैं, समूह में बड़े बनना चाहते हैं और अन्य लोगों से अपना सम्मान कराना चाहते हैं। उनके लिए “दादा जी” या “दादी जी” कहलाना पर्याप्त नहीं है, वे चाहते हैं कि लोग उसके आगे “बड़े” जोड़ें और उन्हें “बड़े दादा जी,” “बड़ी दादी जी,” या “बड़े अंकल” कहें। फिर “बिग आंटी” या “बिग अंकल” भी हैं—अगर उन्हें “बड़े” नहीं कहा जाता, तो वे “बिग” कहलाना चाहते हैं। क्या ऐसे लोग घृणित नहीं हैं? यह किस तरह का स्वभाव है? क्या यह अधम नहीं है? यह बहुत घृणित है! इस तरह के लोग न सिर्फ दूसरों का सम्मान पाने में असमर्थ होते हैं, बल्कि दूसरे लोग उनसे घृणा और उनका तिरस्कार करते हैं, वे उनसे दूर हो जाते हैं और उन्हें नकार देते हैं। इसलिए परमेश्वर के परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं को उजागर करने और इन चीजों से तिरस्कार करने के पीछे एक कारण है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इन चीजों में शैतान की चालें और उसका स्वभाव शामिल है और ये व्यक्ति के आचरण के तरीकों और दिशा को प्रभावित कर सकती हैं। बेशक, ये उस परिप्रेक्ष्य को भी प्रभावित कर सकती हैं जिससे व्यक्ति लोगों और चीजों को देखता है, और साथ ही, ये लोगों को अंधा कर सही मार्ग चुनने की उनकी क्षमता भी प्रभावित कर देती हैं। तो क्या लोगों को ये चीजें त्याग नहीं देनी चाहिए? (त्याग देनी चाहिए।)

चीनी लोग परंपरागत संस्कृति से बहुत गहराई से प्रभावित रहे हैं। बेशक, दुनिया के हर देश की अपनी परंपरागत संस्कृति होती है और ये परंपरागत संस्कृतियाँ सिर्फ छोटे मामलों में ही भिन्न होती हैं। हालाँकि उनकी कुछ कहावतें परंपरागत चीनी संस्कृति की कहावतों से भिन्न हैं, फिर भी उनकी प्रकृति समान ही है। ये सभी कहावतें इसलिए अस्तित्व में हैं, क्योंकि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं और उनमें सामान्य मानवता का अभाव है, इसलिए वे कुछ बहुत ही भ्रामक व्यवहारों का उपयोग करते हैं, जो सतह पर अच्छे लगते हैं, जो मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप होते हैं, जिन्हें क्रियान्वित करना, खुद को आकर्षक बनाना लोगों के लिए आसान होता है, ताकि वे बहुत सज्जन, महान और सम्माननीय दिखें, और ऐसा लगे कि उनमें गरिमा और ईमानदारी है। लेकिन परंपरागत संस्कृति के यही पहलू हैं जो लोगों की आँखें धुँधली कर और उन्हें धोखा देते हैं, और यही वे चीजें हैं जो लोगों को सच्चे इंसान की तरह जीने से रोकती हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि शैतान इन चीजों का उपयोग लोगों की मानवता को भ्रष्ट करने और उन्हें सही मार्ग से भटकाने के लिए करता है। क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) परमेश्वर लोगों से कहता है कि वे चोरी न करें, व्यभिचार न करें, इत्यादि, जबकि शैतान लोगों से कहता है कि उन्हें सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत, विनम्र इत्यादि होना चाहिए—क्या ये परमेश्वर द्वारा रखी गई माँगों के ठीक विपरीत नहीं हैं? क्या ये परमेश्वर की माँगों के सुविचारित विरोधाभास नहीं हैं? शैतान लोगों को सिखाता है कि बाहरी तरीकों, व्यवहारों और जिसे वे जीते हैं, उसका उपयोग दूसरों को धोखा देने के लिए कैसे करें। परमेश्वर लोगों को क्या सिखाता है? यही कि उन्हें गलत ढंग से दूसरे लोगों का विश्वास हासिल करने के लिए बाहरी व्यवहारों का उपयोग नहीं करना चाहिए और इसके बजाय उन्हें उसके वचनों और सत्य के आधार पर आचरण करना चाहिए। इस तरह वे दूसरे लोगों के विश्वास और भरोसे के पात्र बन जाएँगे—सिर्फ ऐसे लोगों में ही मानवता होती है। क्या यहाँ कोई फर्क नहीं है? बहुत बड़ा फर्क है। परमेश्वर तुम्हें बताता है कि तुम्हें आचरण कैसे करना है, जबकि शैतान तुम्हें बताता है कि दिखावा कैसे करना है और दूसरों को धोखा कैसे देना है—क्या यह एक बड़ा अंतर नहीं है? तो, क्या अब तुम समझ गए हो कि लोगों को आखिर क्या चुनना चाहिए? इनमें से कौन-सा मार्ग सही है? (परमेश्वर के वचन।) यह सही है, परमेश्वर के वचन ही जीवन में सही मार्ग हैं। चाहे परमेश्वर के वचन मनुष्य के व्यवहार के संबंध में जिस भी तरह की अपेक्षा रखते हों, भले ही वह परमेश्वर द्वारा मनुष्य को बोला गया एक नियम, एक आदेश या एक कानून हो, वे सभी निस्संदेह सही हैं और लोगों को उनका पालन करना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के वचन हमेशा सही मार्ग और सकारात्मक चीजें होंगे, जबकि शैतान के शब्द लोगों को धोखा देते और भ्रष्ट करते हैं, उनमें शैतान के षड्यंत्र होते हैं, और वे सही मार्ग नहीं हैं, भले ही वे लोगों की रुचियों या धारणाओं और कल्पनाओं से कितने भी मेल खाते हों। क्या तुम इसे समझते हो? (हाँ।) आज की संगति की विषयवस्तु सुनने के बाद तुम लोगों को कैसा लग रहा है? क्या इसका संबंध सत्य से है? (हाँ, है।) क्या तुम लोगों ने सत्य के इस पहलू को पहले समझा था? (स्पष्ट रूप से नहीं।) क्या अब तुम इसे स्पष्ट रूप से समझते हो? (पहले से कहीं ज्यादा।) संक्षेप में, इन सत्यों को समझना लोगों के लिए बाद में लाभदायक होगा। यह उनके सत्य के भावी अनुसरण, उनके मानवता को जीने और जीवन में उनके अनुसरण के लक्ष्य और दिशा के लिए फायदेमंद होगा।

26 फ़रवरी 2022

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