सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (14)

हमने पारंपरिक संस्कृति में नैतिक आचरण संबंधी दावों के मुद्दे पर संगति करने और उनका विश्लेषण करने में कुछ समय बिताया है—क्या तुम लोगों के पास इसका कोई वास्तविक अनुभव है? (पहले, मैं यह तो मानता था कि नैतिक आचरण के बारे में ये वक्तव्य सत्य नहीं हैं, लेकिन मुझे यह एहसास नहीं था कि ये मानव जाति को कितनी गहराई तक भ्रष्ट कर चुके हैं। तुम्‍हारी संगति और विश्लेषण से ही मुझे एहसास हुआ है कि नैतिक आचरण के बारे में शैतान ने लोगों के मन में जो विभिन्न वक्तव्य बैठा दिए हैं, वे लोगों को भले ही सही और अच्छे प्रतीत होते हैं, लेकिन उन्होंने लोगों को वैचारिक रूप से भ्रष्ट, पंगु और बंधक बना दिया है, जिससे लोग परमेश्वर को नकारकर उसका विरोध करने लगे हैं, और उससे और भी दूर हो गए हैं। शैतान इसी तरह मानवजाति को आज तक सिलसिलेवार ढंग से भ्रष्ट करता आया है।) यदि मैंने इन चीजों पर विस्तार से संगति नहीं की, तो क्या लोग स्वयं इन्‍हें पहचान पाएँगे? क्या वे नैतिक आचरण संबंधी इन वक्तव्यों के सार का विश्लेषण कर सकते हैं? (लोग नैतिक आचरण संबंधी इन वक्तव्यों के सार का विश्लेषण नहीं कर सकते या उनका मर्म नहीं समझ सकते।) लंबे अनुभव के बाद क्‍या होगा? (लोग नैतिक आचरण संबंधी कुछ वक्तव्यों से जुड़ी समस्‍याओं को पहचानने में तो सक्षम होंगे, लेकिन वे उनके सार का स्पष्ट विश्‍लेषण करने में सक्षम नहीं होंगे।) लोग अक्सर पारंपरिक संस्कृति की प्रसिद्ध कहावतों और सत्य को एक समान मानना पसंद करते हैं और उनमें घालमेल कर देते हैं, खासकर उन चीजों में जो बाहरी तौर पर सत्य से मिलती-जुलती हैं, या जो मानवीय नैतिकता, इंसानी विवेक के मानकों और मानवीय भावनाओं के अनुरूप प्रतीत होती हैं। हर कोई मानता है कि ये चीजें सकारात्मक और सत्य के अनुरूप हैं, लेकिन यह कोई नहीं देख पाता कि ये शैतान की उपज हैं और वास्तव में नकारात्मक चीजें हैं। तो क्या शैतान मनुष्य के मन में कुछ सकारात्मक चीजें भी बिठाता है? (नहीं।) इन चीजों में कुछ भी सकारात्मक नहीं है। इसके विपरीत, ये सभी चीजें नकारात्मक और शैतानी जहर हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। तो, क्या तुम लोगों ने इन नकारात्मक चीजों और शैतानी जहरों को जान और खोज लिया है? क्या तुम लोगों के दिमाग में पारंपरिक संस्कृति की इन चीजों जैसा कुछ बचा है जिसे तुम लोग सही मानते हो? यदि है, तो यह एक अभिशाप, एक कैंसर है! अब तुम लोगों को इस पर और अधिक विचार करना चाहिए, और अपने दैनिक जीवन में इसका सावधानी से अवलोकन करते हुए इस पर ध्यान देना चाहिए। देखो कि क्या दूसरे जो कहते हैं और जो तुम सुनते हो, या जो चीजें तुम पर प्रभाव डालती हैं या जो तुम्‍हें याद रहती हैं, या उन चीजों में जिन्हें तुम अपने दिल में स्वीकार करते हो और मूल्यवान मानते हो, उनमें कुछ ऐसा है जो उन चीजों से मिलता-जुलता हो जिनकी पारंपरिक संस्कृति वकालत करती है। यदि है, तो तुम्हें उसे पहचानना और उसका विश्लेषण करना चाहिए, और फिर उसे पूरी तरह से त्याग देना चाहिए। यह तुम्‍हारे सत्य के अनुसरण में लाभकारी होगा।

कुछ लोग अनुभवजन्‍य गवाही के लेखों में यह उक्ति लिखते हैं, “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है,”—तुम लोगों को समझना चाहिए कि यह वक्तव्य सही है या गलत, यह सकारात्मक चीज है या नकारात्मक, और क्या यह सत्य से, परमेश्वर की अपेक्षाओं से और उन सिद्धांतों से संबंधित है जो विभिन्‍न मामलों से निपटते समय लोगों के पास होने चाहिए। क्या यह वक्तव्य “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” सच है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? क्या यह परमेश्वर द्वारा स्थापित नियमों और विनियमों से उपजा है? क्या इसका इस तथ्य से कोई लेना-देना है कि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है? आगे बढ़ो और इस वक्तव्य के बारे में अपना ज्ञान और समझ साझा करो। (मैंने यह पहले भी कहा है, खासकर कलीसिया के कार्य को व्‍यवस्‍थ‍ित करते समय। यदि कार्मिकों को सिद्धांतों के अनुसार उचित रूप से कार्य नहीं सौंपा जाता है, तो कभी-कभी इससे काम गड़बड़ा जाता है। यदि कार्मिकों को सिद्धांतों के अनुसार कार्य सौंपा जाता है, तो इसे अच्छी तरह से किया जा सकता है। उस समय, मैं लोगों की भूमिकाओं को बहुत महत्वपूर्ण और सार्थक समझता था, यही कारण है कि मैंने यह उक्ति उद्धृत की : “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है।” अब मुझे एहसास है कि परमेश्वर की संप्रभुता और सर्वशक्तिमत्ता को लेकर मुझमें समझ की कमी थी। मैंने हमेशा लोगों की भूमिका पर ध्यान दिया, और मेरे दिल में परमेश्‍वर के लिए बिल्कुल जगह नहीं थी।) और कौन अपने विचार साझा करना चाहेगा? (यह कथन “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” परमेश्वर के नहीं, बल्कि मनुष्यों के विषय में गवाही देता है, मानो कि सफलता मानवीय प्रयासों पर निर्भर करती हो। यह परमेश्वर की संप्रभुता को नकारना है और यह शैतान के लिए गवाही देने के बराबर है। यदि यह वक्तव्य लोगों के दिल में बैठा दिया जाता है, तो समय बीतने पर, जब उन्हें समस्याओं का सामना करना पड़ेगा तो वे सोचेंगे कि सफल होने के लिए उन्हें सिर्फ सही लोगों को ढूँढने की आवश्यकता है, और उनका विश्‍वास परमेश्‍वर में नहीं होगा या वे उस पर भरोसा नहीं करेंगे। इसलिए, यह बहुत ही विकृत वक्तव्य है।) इस वक्तव्य के बारे में तुम लोगों की समझ मूल रूप से यह है कि यह सही या सकारात्मक बात नहीं है, और यह निश्चित रूप से सत्‍य नहीं है। तो तुम लोग इसका उपयोग क्यों करते हो? यदि तुम लोग इसका प्रयोग करते हो तो इससे कौन सी समस्या सामने आती है? (यह कि हमें इस वक्तव्य की सही समझ नहीं है।) तुम्‍हारी इस समझ की कमी का कारण क्या है? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम लोग अभी भी मानते हो कि इस वक्तव्य का एक सही और वैध पहलू है? (हाँ।) तो, इस वक्तव्य में गलत क्या है? तुम ऐसा क्यों कहते हो कि यह एक सही या सकारात्मक बात नहीं है? पहले, यह देखते हैं कि क्या यह चीजों के वस्तुनिष्ठ नियमों के अनुरूप है। ऊपरी तौर पर, ऐसा प्रतीत होता है कि किसी कार्य को लोग निष्‍पादित करते हैं। वे कार्य की व्यवस्था करते हैं, कार्य को निष्‍पादित करते हैं, और उसकी निगरानी करते हैं। वे प्रत्येक चरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, और अंततः वे उस कार्य के परिणामों और प्रगति को निर्धारित करते हैं। बाह्य रूप से, ऐसा लगता है कि चीजों के विकास का कारण, उनकी प्रक्रिया और उनके परिणाम सभी लोगों द्वारा निर्धारित होते हैं। लेकिन वास्तव में, इस सबको शासित, आयोजित और व्यवस्‍थ‍ित करने वाला कौन है? क्या इसका लोगों से कोई लेना-देना है? क्या लोग निष्क्रिय रूप से अपनी नियति और अपने संप्रभु शासक के आयोजनों को स्वीकार कर रहे हैं, या वे सक्रिय रूप से हर चीज को स्वयं नियंत्रित कर रहे हैं? (वे निष्क्रिय रूप से स्वीकार कर रहे हैं।) सभी लोग निष्क्रिय रूप से परमेश्वर की संप्रभुता, आयोजन और व्यवस्थाओं को स्वीकार कर रहे हैं। यहाँ लोगों की भूमिका क्या है? क्या वे परमेश्वर के हाथों की कठपुतलियाँ नहीं हैं? (हैं।) लोग कठपुतलियों की तरह हैं जिन्‍हें डोर से खींचा जा रहा है। खींची जाने वाली डोर उनके कार्य और अभिव्‍यक्ति को निर्धारित करती है। लोग कहाँ जाएँगे, क्या बोलेंगे और प्रतिदिन क्या करेंगे—यह सब किसके हाथ में है? (परमेश्‍वर के हाथ में।) यह सब परमेश्‍वर के हाथ में है। लोग निष्क्रिय रूप से परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकार करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान, परमेश्वर ही निर्धारित करता है कि वह क्या करेगा, वह किसी को उजागर करेगा या नहीं, वह इस मामले में कब और क्या बदलाव और प्रगति लाएगा, अंतिम परिणाम क्या होगा, और वह किसे उजागर या बहिष्‍कृत करेगा; वह निर्धारित करता है कि इस मामले से लोग क्या सबक सीखेंगे, कौन से सत्य समझेंगे और परमेश्वर के बारे में किस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करेंगे, वह लोगों के किन विचारों को पलट देगा, और वह उन्हें किन धारणाओं से छुटकारा दिलाएगा। क्या लोग ये सब कर सकते हैं जो परमेश्वर करता है? क्या वे ऐसा कर सकते हैं? (नहीं, वे नहीं कर सकते।) लोग ये सब नहीं कर सकते। किसी भी मामले के संपूर्ण विकास के दौरान, लोग बस निष्क्रिय रूप से और सचेत रूप से या अनजाने में चीजें कर रहे होते हैं, लेकिन कोई भी व्यक्ति पूरे मामले के कारणों, प्रक्रिया, अंतिम परिणामों और प्राप्त परिणामों को पहले से नहीं देख सकता है, न ही कोई व्यक्ति इनमें से किसी भी चीज को नियंत्रित कर सकता है। इस सबको पहले से कौन देखता और नियंत्रित करता है? केवल परमेश्‍वर! चाहे ब्रह्माण्ड में होने वाली कोई महत्वपूर्ण घटना हो या किसी ग्रह के किसी कोने में होने वाली कोई छोटी-सी घटना, यह लोगों पर निर्भर नहीं करती है। कोई भी व्यक्ति हर चीज को संचालित करने वाले नियमों, या सभी चीजों की प्रगति की प्रक्रिया और उनके अंतिम परिणामों को नियंत्रित नहीं कर सकता। कोई भी व्यक्ति हर चीज का भविष्य नहीं देख सकता या भविष्यवाणी नहीं कर सकता कि क्या होने वाला है, सभी चीजों के अंतिम परिणाम को नियंत्रित करना तो दूर की बात है। केवल परमेश्वर, जो सभी चीजों पर संप्रभु है, इन सब पर नियंत्रण और शासन करता है। लोग एकमात्र यही प्रभाव डाल सकते हैं कि वे बड़े और छोटे दोनों ही तरह के परिवेश के भीतर, और परमेश्‍वर द्वारा शासित, आयोजित और व्‍यवस्‍थ‍ित विभिन्‍न प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के साथ विभिन्‍न भूमिकाएँ निभा सकते हैं जो सकारात्‍मक या नकारात्‍मक हो सकती हैं। लोगों का इतना ही प्रभाव और इतनी ही भूमिका है। जब कोई चीज सफल नहीं होती है, या जब परिणाम अपेक्षा के अनुरूप अच्छे नहीं प्रतीत होते, और परिणाम वह नहीं होता है जो लोग देखना चाहते हैं, जब परिणाम उनके लिए बहुत दु:ख और पीड़ा लेकर आता है, तो ये भी ऐसी चीजें हैं जिन पर उनकी कोई संप्रभुता नहीं है, उन्हें लोगों द्वारा पहले से नहीं देखा जा सकता है, और जिन्हें निश्चित रूप से उनके द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। यदि किसी चीज का अंतिम परिणाम बहुत अच्छा है, यदि उसका बहुत सकारात्मक और सक्रिय प्रभाव है, यदि वह लोगों के लिए बहुत शिक्षाप्रद है, और उसका उन पर गहरा प्रभाव पड़ता है, तो यह परमेश्वर की ओर से है। यदि किसी चीज का वांछित परिणाम प्राप्त नहीं होता है, यदि परिणाम बहुत अच्छा या आशावादी नहीं है, और यदि लोगों पर उसका सकारात्मक और सक्रिय प्रभाव पड़ने के बजाय कुछ नकारात्मक प्रभाव पड़ता प्रतीत होता है, तो उस मामले की पूरी प्रक्रिया भी परमेश्वर द्वारा आयोजित और व्यवस्थित है। इस पर किसी व्यक्ति का नियंत्रण नहीं है। चलो, हम दूर की बातें नहीं करते; हम इस बारे में बात करते हैं कि कलीसिया में क्या देखा जा सकता है, जैसे कि मसीह-विरोधियों का प्रकट होना। जब कोई मसीह-विरोधी आगे आता है और कार्य करना शुरू करता है, और उसे अगुआ या कार्यकर्ता के पद पर पदोन्नत किया जाता है, और वह कलीसिया में कोई महत्वपूर्ण कार्य का प्रभार लेता है, उस क्षण से ले‍कर उस बिंदु तक जब उसे एक मसीह-विरोधी के रूप में प्रकट किया जाता है, भाई-बहनों द्वारा उसे पहचाना और उजागर किया जाता है, और अंततः बहिष्‍कृत और अस्‍वीकृत कर दिया जाता है—इस पूरी प्रक्रिया के दौरान बहुत से लोग धोखा खाते हैं, कुछ लोग मसीह-विरोधी का अनुसरण भी करते हैं, और कुछ लोगों को मसीह-विरोधी प्रभाव के कारण अपने जीवन-प्रवेश में नुकसान भी उठाना पड़ता है, इत्यादि। हालाँकि यह सब शैतान के व्‍यवधान से उत्पन्न होता है और शैतान के सेवकों का काम है, तो क्या इसका मतलब यह है कि परमेश्‍वर इन सभी चीजों के घटित होने और विकास को नहीं देखता है? क्या परमेश्‍वर नहीं जानता कि एक मसीह-विरोधी के प्रकट होने के परिणाम क्या होंगे? क्या परमेश्‍वर नहीं जानता कि कलीसिया और भाई-बहनों पर किसी मसीह-विरोधी का क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या यह सब केवल लोगों की विफलता का परिणाम है? जब इस तरह की नकारात्मक चीजें उभरने लगती हैं, तो अक्सर लोग सोचते हैं, “अरे नहीं, शैतान ने कम समझ का फायदा उठाया, यह शैतान था जो चीजों में व्‍यवधान डाल रहा था।” निहितार्थ यह है, “परमेश्‍वर चीजों पर नजर क्यों नहीं रख रहा था? क्या परमेश्वर सभी चीजों की पड़ताल नहीं करता? क्या परमेश्वर सर्वव्यापी नहीं है? क्या परमेश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है? परमेश्वर का अधिकार और शक्ति कहाँ थी?” लोगों के दिलों में शंकाएँ पैदा होती हैं। इन शंकाओं का स्रोत क्या है? चूँकि घटना का परिणाम नकारात्मक, अवांछित है, और वह नहीं है जो लोग देखना चाहते हैं, और उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ तो बिल्कुल भी मेल नहीं खाता है, इससे परमेश्वर में उनके पवित्र विश्वास को झटका लगता है। लोग इसे समझ नहीं पाते और सोचते हैं : “यदि परमेश्वर संप्रभु है और हर चीज को नियंत्रित करता है, तो मसीह-विरोधी द्वारा लोगों को धोखा देने जैसा कुछ हमारी आँखों के ठीक सामने क्यों होगा? कलीसिया में और भाई-बहनों के बीच ऐसी अवांछनीय चीज क्यों होगी?” लोगों के दिल में शंकाएँ पैदा होने लगती हैं और उनके इस विश्वास को चुनौती मिलती है कि “परमेश्वर सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है”। जब परमेश्वर में लोगों के विश्वास को चुनौती मिलती है, तब यदि तुम उनसे पूछो, “परमेश्वर के बारे में तुममें विकसित धारणाओं के लिए कौन दोषी है?” तो वे कहेंगे, “शैतान दोषी है।” लेकिन चूँकि शैतान को मनुष्य देख नहीं सकता है, तो अंततः यह जिम्मेदारी किस पर आनी चाहिए? यह मसीह-विरोधी पर आनी चाहिए या मसीह-विरोधी के समूह पर। लोग कहेंगे कि जिन लोगों को मसीह-विरोधी ने धोखा दिया और जिन्‍हें जीवन में नुकसान उठाना पड़ा, वे मसीह-विरोधी से गुमराह होने लायक ही थे। आखिरकार पूरे मामले में लोगों की समझ किस वक्तव्य पर आ टिकती है? “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है।” वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। इसमें वे परमेश्‍वर को कहाँ रखते हैं? वे नहीं समझते कि परमेश्वर संप्रभु है, इसलिए जो कुछ भी घटित होता है उसका श्रेय वे इस खोखले सिद्धांत को देते हैं कि “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है।”

जब लोग अपने आस-पास अपेक्षाकृत कुछ अच्छी और सकारात्मक चीजें घटित होते देखते हैं, जैसे कि जब पवित्र आत्मा शक्तिशाली कार्य करता है, और हर किसी में बहुत अधिक विश्वास होता है, जब लोग उत्पीड़न और प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच भी दृढ़ रहते हैं, कोई यहूदा नहीं बनता और जब परमेश्वर के घर की वस्तुओं और भाई-बहनों के जीवन को कोई नुकसान नहीं होता है, तो लोग कहते हैं, “यह परमेश्वर की सुरक्षा है। यह सफलता लोगों के कारण नहीं मिली थी; यह निस्संदेह परमेश्‍वर का कार्य है।” मान लो कि जो चीजें लोग अपने आसपास घटित होते हुए देखते हैं वे अवांछनीय हैं, उदाहरण के लिए, कलीसिया को बड़े लाल अजगर द्वारा दमन और गिरफ्तारी का सामना करना पड़ता है, और कलीसिया की संपत्ति शैतान द्वारा जब्त कर ली जाती है। मान लो कि भाई-बहनों के जीवन को नुकसान होता है, और परमेश्‍वर के चुने हुए लोग हर जगह बिखरे हुए हैं, विस्थापित हो गए हैं और घर लौटने में असमर्थ हैं। मान लो कि कलीसिया का जीवन नष्ट हो गया है, और कलीसिया के सदस्य अब पहले जैसा कलीसियाई जीवन नहीं जी सकते हैं। कल्पना करो कि वे अब अपने भाई-बहनों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का आनंदमय, सुखी जीवन नहीं जी सकते हैं, परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने के लिए एक साथ इकट्ठा नहीं हो सकते हैं, और अपने कर्तव्य पूरा नहीं कर सकते हैं, और कुछ दुष्ट लोग और अविश्वासी दूसरों को धोखा देने के लिए धारणाएँ फैलाना शुरू कर देते हैं, जिससे परमेश्‍वर में उनका विश्‍वास नहीं रहता और वे नकारात्‍मक और कमजोर हो जाते हैं। ऐसे समय में लोग शिकायत किए बिना नहीं रह पाते। वे परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत करने का साहस नहीं कर पाते, इसलिए वे इस तरह से शिकायत करते हैं : “अमुक एक दुष्ट व्यक्ति है, अमुक शैतान है, अमुक दानव है। यदि वे सभाओं में लापरवाह रहने के कारण गिरफ्तार नहीं होते, तो हम घर लौटने में असमर्थ होने की इस स्थिति में नहीं पहुँचते। यदि उनकी गलती नहीं होती, तो हम अभी भी खुशी-खुशी कलीसिया का जीवन जी रहे होते, परमेश्वर के वचनों को खा-पी रहे होते और सामान्य रूप से अपने कर्तव्यों को पूरा कर रहे होते। यह सब एक व्यक्ति विशेष, एक दानव, एक शैतान, या एक शैतानी शासन के कारण है।” भले ही लोग परमेश्‍वर के प्रति मन में कोई शिकायत रखने की हिम्मत नहीं करते या पूरी स्थिति की जिम्मेदारी परमेश्‍वर पर नहीं डालते, लेकिन उस समय, उनमें परमेश्‍वर के प्रति न तो बड़ा और न ही मामूली, अकथनीय अविश्वास विकसित हो चुका होता है। इन अविश्वासपूर्ण विचारों से क्या उपजेगा? लोग कहेंगे, “मैंने इस अनुभव से एक सबक सीखा है। अब से, मैं अपने सामने आने वाली हर चीज पर ध्यानपूर्वक विचार करूँगा और कोई कदम उठाने से पहले दो बार सोचूँगा। मैं लापरवाह नहीं बनूँगा और आसानी से किसी पर भरोसा नहीं करूँगा। मैं सभी परिस्थितियों में अतिरिक्त सावधान रहूँगा और अपनी सुरक्षा करना सीखूँगा।” क्या उनके हृदय में अभी भी परमेश्वर है? क्या वे अब भी परमेश्वर पर भरोसा करते हैं और उस पर विश्वास रखते हैं? कुछ लोग कहते हैं, “विश्वास कैसे नहीं होगा? अपने हृदय में, मैं अब भी परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, और मेरी अभी भी उस पर सच्ची निर्भरता है।” लेकिन गुप्त रूप से वे खुद से कहते हैं, “परमेश्‍वर के वचनों पर इतनी आसानी से भरोसा मत करो। परमेश्‍वर हमेशा लोगों का परीक्षण और शोधन करता है। परमेश्‍वर पर भरोसा नहीं किया जा सकता! जरा देखो, हमारी आँखों के ठीक सामने क्या हुआ। हमारे कलीसिया के सदस्यों को बड़े लाल अजगर द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। परमेश्‍वर ने हमारी रक्षा क्यों नहीं की? क्या परमेश्‍वर अपने घर के हितों को नुकसान पहुँचते देखना चाहता है? क्या परमेश्‍वर तब उदासीन महसूस करता है जब वह अविश्वासियों को लोगों को धोखा देते हुए देखता है? यदि परमेश्वर सचमुच यह देखता है, तो वह परवाह क्यों नहीं करता? वह इसे रोकता या अवरुद्ध क्यों नहीं करता? वह हमें प्रबुद्ध क्यों नहीं करता ताकि हम समझ सकें कि हमें धोखा देने वाला व्यक्ति एक दुष्ट व्यक्ति और अविश्वासी है, ताकि हम यथाशीघ्र खुद को उससे दूर कर लें, और इन सभी परिणामों से बचें? जब अविश्वासी लोगों को धोखा दे रहा होता है, तो परमेश्‍वर हमारी रक्षा क्यों नहीं करता? एक त्वरित चेतावनी भी काफी होगी!” न तो उन्हें इन सभी “क्यों” का उत्तर मिलता है और न ही मिल सकता है। अंत में, यह अनुभव करने के बाद, वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं : “मैं उन मामलों में परमेश्‍वर पर भरोसा करूँगा जहाँ मुझे उस पर भरोसा करना चाहिए, और मैं उन मामलों में खुद पर भरोसा करूँगा जहाँ मुझे परमेश्‍वर पर भरोसा नहीं करना चाहिए। मैं मूर्खता नहीं कर सकता। हम भाई-बहनों को गर्माहट के लिए एकजुट होना और एक-दूसरे की मदद करना सीखना चाहिए। जहाँ तक बाकी सब चीजों की बात है, जैसा परमेश्‍वर चाहे, वैसा करे। हम इसे नियंत्रित नहीं कर सकते।” यदि बड़ा लाल अजगर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गिरफ्तार कर लेता है, तो कलीसिया का कार्य और कलीसिया का जीवन बहुत बाधित हो जाएगा और भाई-बहनों का कर्तव्य निर्वहन बहुत प्रभावित होगा। ऐसे समय में अविश्वासी और मसीह-विरोधी प्रकट होकर अफवाह और भ्रांतियाँ फैलाएँगे हुए, रुकावट डालेंगे और धोखा देंगे, यह दावा करते हुए कि गिरफ्तारियाँ हुईं क्योंकि अगुआ और कार्यकर्ता परमेश्‍वर की इच्छा के विरुद्ध गए थे, और लोग इन मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों से धोखा खाएँगे। जब ऐसी घटनाएँ घटती हैं जो लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं या मानवीय भावनाओं के अनुरूप नहीं होती हैं, तो लोग उनसे कभी सबक नहीं लेते हैं। लोग इन घटनाओं से कभी भी परमेश्वर की संप्रभुता, आयोजन और स्वभाव को नहीं समझ पाते हैं। लोग कभी भी परमेश्वर की इच्छा को या फिर यह नहीं समझ पाते हैं कि परमेश्वर उन्हें कौन-से सबक सिखाना चाहता है, वह उन्हें कौन-सी शिक्षा देना चाहता है, और इन घटनाओं से उन्हें क्‍या समझाना चाहता है। लोग इनमें से कुछ भी नहीं जानते हैं, और वे नहीं जानते कि इनका अनुभव कैसे किया जाए। इसलिए, जब उन सभी चीजों की बात आती है जो लोग अपने आस-पास घटित होते देखते हैं, तो लोग वास्तव में मानते हैं कि यह उक्ति कि “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” सटीक है, और यह इस तथ्य की तुलना में अधिक विश्वसनीय और वास्तविक है कि “परमेश्‍वर सभी चीजों पर संप्रभु है, परमेश्‍वर सर्वव्यापी है, और परमेश्‍वर हर चीज की पड़ताल करता है।” वास्तव में, हृदय की गहराई में, तुम लोग अब भी यह विश्‍वास रखते हो कि यह उक्ति “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” अधिक वास्तविक है, कि मनुष्य सब कुछ निर्धारित करते हैं, और यह कहना कि परमेश्‍वर सब तय करता है, थोड़ा अस्पष्ट लगता है। लोग ऐसा क्यों सोचते हैं कि यह अस्पष्ट है? लोगों को यह कथन कि “परमेश्वर सब कुछ तय करता है” भरोसे लायक क्यों नहीं लगता है? सिद्धांत रूप में, ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग सत्य को नहीं समझते हैं और परमेश्‍वर को नहीं जानते हैं, लेकिन वास्तव में, इसका कारण क्या है? (वास्तव में, लोग यह स्वीकार या विश्वास नहीं करते हैं कि परमेश्‍वर हर चीज पर संप्रभु है।) यह कहना कि लोग इसमें विश्वास नहीं करते हैं या स्वीकार नहीं करते हैं कि परमेश्‍वर हर चीज पर संप्रभु है, सही है, लेकिन एक अधिक विशिष्ट कारण है, जो यह है कि इस उक्ति “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” से लोगों के उस दोषपूर्ण दृष्टिकोण का पता चलता है, जो वे अच्छी और बुरी चीजों को देखने के तरीके के प्रति रखते हैं। लोग मानते हैं कि जो चीजें उन्हें शांति, आनंद, आराम और खुशी देती हैं वे अच्छी हैं और परमेश्वर से आती हैं। कुछ चीजें हैं जो लोगों को असहज या भयभीत कर देती हैं, जो उन्‍हें रुलाती, पीड़ा देती हैं या इतने दुःख से भर देती हैं कि वे चाहते हैं कि वे मर जाना चाहते हैं—कुछ चीजें लोगों के लिए सामान्य कलीसियाई जीवन और अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए सामान्य परिवेश पाना भी असंभव बना देती हैं। इस प्रकार की चीजों को लोग “बुरी चीजें” मानते हैं। “बुरी चीजें” शब्द को उद्धरण चिह्नों में रखा जाना चाहिए। क्या “बुरी चीजें” लोगों पर अच्छा प्रभाव डाल सकती हैं? लोग इन अच्छे प्रभावों को देख या महसूस नहीं कर सकते हैं, इसलिए, उनके दिमाग में, जिस “हर चीज” पर परमेश्‍वर का प्रभुत्व है, उसमें केवल वे चीजें शामिल हैं जो उन्हें शांति, आनंद, तृप्ति, लाभ, शिक्षा और फायदे देती हैं, और वे चीजें जो परमेश्‍वर में उनके विश्वास को मजबूत करती हैं। ये वे चीजें हैं जिनके बारे में लोग मानते हैं कि ये, हर चीज पर परमेश्वर की संप्रभुता से संबंधित हैं। इसके विपरीत, यदि, ऊपरी तौर पर, कुछ चीजें लोगों के जीवन को कष्ट पहुँचाती, और कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचाती प्रतीत होती हैं, और यदि कुछ लोगों को धोखा दिया जाता है, और कुछ को बहिष्‍कृत भी कर दिया जाता है, और यदि कुछ लोगों के साथ कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटता है और वे कुछ दर्द सहते हैं, तो लोगों को लगता है कि इन चीजों का परमेश्‍वर की संप्रभुता से कोई लेना-देना नहीं है, और यह शैतान का काम है। लोग मानते हैं कि यदि यह परमेश्वर का कार्य होता, तो ये नकारात्मक चीजें दिखाई नहीं देतीं या अस्तित्व में ही नहीं होतीं, लोगों ने यही निर्धारित किया है। इसलिए, “परमेश्वर हर चीज पर संप्रभु है” उक्त‍ि के बारे में लोगों की समझ बहुत एकतरफा और उथली है। यह मानवीय धारणाओं तक ही सीमित है, यह मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत है, और यह तथ्यों से मेल नहीं खाता है। मैं तुम्‍हें एक उदाहरण देता हूँ। परमेश्‍वर ने सभी प्रकार के कीड़े-मकौड़े और पक्षी बनाए। कुछ लोग कहते हैं, “मेरा मानना है कि परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजें महत्वपूर्ण हैं, वे सभी कीड़े लाभकारी और अच्छे हैं। मधुमक्खियाँ परमेश्‍वर द्वारा बनाई गई थीं, और सभी प्रकार के अच्छे पक्षी परमेश्‍वर द्वारा बनाए गए थे। मच्छर हमेशा लोगों को काटते हैं और बीमारियाँ फैलाते हैं, इसलिए मच्छर अच्छे नहीं होते। शायद मच्छरों को परमेश्‍वर ने नहीं बनाया है।” क्या यह एक विकृत समझ नहीं है? वास्तव में, सभी चीजें परमेश्‍वर द्वारा बनाई गई थीं। केवल एक ही परमेश्‍वर है, जो कि सृष्टिकर्ता है, और जो कुछ भी जीवित है और जो जीवित नहीं है वह परमेश्‍वर से आता है। अपनी धारणाओं में, लोग केवल यह मानते हैं कि विभिन्न लाभकारी कीड़े, पक्षी और अन्य लाभकारी जीव परमेश्‍वर से आते हैं—जहाँ तक मक्खियों, मच्छरों, खटमलों और कुछ माँसाहारी पशुओं की बात है जिन्हें मनुष्य विशेष रूप से हिंसक मानता है, तो वे जीव परमेश्‍वर से आए नहीं लगते हैं, और यदि वे आते भी हैं, तो वे अच्छी चीजें नहीं हैं। क्या यह एक मानवीय धारणा नहीं है? लोगों के विचारों और धारणाओं में, इन चीजों को धीरे-धीरे व्यवस्थित रूप से वर्गीकृत किया गया है : जो कुछ भी मनुष्य को पसंद है या जो उसे लाभ पहुँचाता है, उसे सकारात्मक और परमेश्‍वर द्वारा सृजित माना जाता है, जबकि जो कुछ भी मनुष्य को नापसंद है या जो उसे नुकसान पहुँचाता है उसे नकारात्मक और परमेश्‍वर द्वारा सृजित नहीं माना जाता है, और हो सकता है कि वह शैतान या प्रकृति द्वारा निर्मित हो। लोग मन में, अक्सर अनजाने में यह विश्वास करते हैं कि : “मक्खियाँ, मच्छर और खटमल अच्छी चीजें नहीं हैं, उन्‍हें परमेश्‍वर ने नहीं बनाया था। परमेश्‍वर निश्चित रूप से ऐसी चीजें नहीं बनाएगा।” या वे सोचते हैं, “शेर और बाघ हमेशा भेड़ और जेबरा खाते हैं, वे बहुत क्रूर हैं। वे अच्छी चीजें नहीं हैं। भेड़िये दुष्‍ट, कुटिल, भयानक, हिंसक और क्रूर होते हैं। भेड़िये बुरे हैं, लेकिन गायें और भेड़ें अच्छी हैं, और कुत्ते तो और भी अच्छे हैं।” परमेश्‍वर द्वारा बनाई गई कोई चीज अच्छी है या नहीं, इसे मानवीय भावनात्मक जरूरतों या स्वाद के आधार पर नहीं मापा जाता है—इन चीजों को इस तरह नहीं मापा जाता है। परमेश्‍वर ने सभी प्रकार के पशुओं को बनाया, जिनमें जेबरा, हिरण और विभिन्न प्रकार के शाकाहारी पशु शामिल हैं, साथ ही शेर, बाघ, तेंदुए और मगरमच्छ जैसे भयानक माँसाहारी जानवर भी शामिल हैं, जो विशेष रूप से हिंसक हैं, जिनमें कुछ शिकारी भी शामिल हैं जो एक ही बार में अपने शिकार को मार सकते हैं। भले ही ये पशु इंसानों की नजर में अच्छे हों या बुरे, ये सभी परमेश्‍वर द्वारा बनाए गए थे। कुछ लोग शेरों को जेबरा खाते हुए देखते हैं और सोचते हैं, “अरे नहीं! बेचारा जेबरा! शेर इतने भयानक होते हैं कि जेबरा खा जाते हैं।” जब वे एक भेड़िये को भेड़ खाते हुए देखते हैं, तो सोचते हैं, “भेड़िये कितने क्रूर और धूर्त होते हैं। परमेश्‍वर ने भेड़िये क्यों बनाए? भेड़ें बहुत प्यारी, दयालु और कोमल होती हैं। परमेश्‍वर ने केवल कोमल जानवर ही क्यों नहीं बनाए? भेड़िये भेड़ों के स्वाभाविक शत्रु हैं, तो फिर परमेश्‍वर ने भेड़िये और भेड़ दोनों को क्यों बनाया?” वे इसके पीछे के रहस्य को नहीं समझते और हमेशा मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं को आश्रय देते हैं। जब कलीसिया में मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों को धोखा देने की घटनाएँ होती हैं, तो कुछ लोग कहते हैं, “यदि परमेश्‍वर को इस मानवजाति पर दया आती है, तो उसने शैतान को क्यों बनाया? वह शैतान को मानवजाति को भ्रष्ट करने की अनुमति क्यों देता है? चूँकि परमेश्वर ने हमें चुना है, तो वह मसीह-विरोधियों को कलीसिया में आने की अनुमति क्यों देता है?” तुम्हें समझ नहीं आता, है न? यह परमेश्वर की संप्रभुता है। परमेश्वर इसी तरह से सभी चीजों पर शासन करता है, और केवल जब वह उन पर इस तरह से शासन करता है तभी सभी चीजें उसके द्वारा निर्धारित नियमों और व्यवस्थाओं के अंतर्गत सामान्य रूप से अस्तित्व में रह सकती हैं। यदि परमेश्‍वर तुम्‍हारी रक्षा करता और मसीह-विरोधियों को कलीसिया में आने से रोक देता, तो क्या तुम जान पाते कि मसीह-विरोधी क्या होते हैं? क्या तुम जान पाते कि किसी मसीह-विरोधी का स्वभाव कैसा होता है? यदि तुम्‍हें किसी से मिले बिना, केवल मसीह-विरोधियों को पहचानने के बारे में कुछ शब्द और सिद्धांत बताए जाते, तो क्या तुम मसीह-विरोधियों को पहचानने में सक्षम होते? (नहीं।) बिल्‍कुल नहीं। यदि मसीह-विरोधियों और दुष्टों को प्रकट होने की अनुमति नहीं दी जाती, तो तुम हमेशा ग्रीनहाउस में एक फूल की तरह रहते : जैसे ही तापमान में अचानक बदलाव होता, तुम अचानक ठंड के कारण मुरझा जाते, उसे सहन करने में असमर्थ रहते। इसलिए, यदि लोग सत्य को समझना चाहते हैं, तो उन्हें उन सभी परिवेशों, और उन सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को स्वीकार और उनके प्रति समर्पण करना होगा जिन्‍हें परमेश्वर शासित और आयोजित करता है। “सभी लोगों, घटनाओं और चीजों” में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों शामिल हैं, इसमें वे चीजें शामिल हैं जो तुम्‍हारी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ मेल खाती हैं, और वे भी जो मेल नहीं खाती हैं। इसमें वे चीजें शामिल हैं जिन्हें तुम सकारात्मक मानते हो और वे नकारात्मक चीजें भी जिन्हें तुम नापसंद करते हो, इसमें वे चीजें शामिल हैं जो तुम्‍हारी भावनाओं के अनुरूप हैं, और वे चीजें भी जो तुम्‍हारी भावनाओं या अभिरुचि के अनुरूप नहीं हैं। तुम्हें इन सभी चीजों को स्वीकार करना होगा। इन सब चीजों को स्वीकार करने का उद्देश्य क्या है? यह सिर्फ तुम्‍हें ज्ञान देने और तुम्‍हारे अनुभवों को बढ़ाने के लिए नहीं है, बल्कि यह तुम्‍हें इन तथ्‍यों के माध्‍यम से परमेश्‍वर के वचनों को अधिक व्यावहारिक और ठोस रूप से जानने, सत्य को समझने और परमेश्‍वर के वचनों की सत्यता और सटीकता का अनुभव करने में सक्षम बनाने के लिए है। अंततः तुम पुष्टि करोगे कि परमेश्‍वर के वचन सत्य हैं, तुम विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों से सबक सीखोगे, खुद को और अधिक सत्य समझने, कई चीजों की असलियत देख पाने और खुद को और अधिक समृद्ध बनाने में सक्षम बना पाओगे। इससे अंतिम परिणाम यह प्राप्‍त होगा कि तुम विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के उद्भव और विकास के माध्यम से सृष्टिकर्ता के बारे में ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होगे, तुम उसके स्वभाव और सार को समझ पाओगे, और यह जानोगे कि वही सब चीजों को नियंत्रित और आयोजित करता है।

जिन घटनाओं को तुम अपने आस-पास घटित होते हुए देखते हो, उन्हें चाहे मनुष्य अच्छी मानता हो या बुरी, वे तुम्हारी इच्छा के अनुसार हों या नहीं, वे तुम्‍हें खुशी और आनंद देती हों या दुःख और दर्द, तुम्‍हें उन्हें ऐसे लोगों, घटनाओं और चीजों के रूप में लेना चाहिए जिनसे सबक सीखे जा सकते हैं और जिनमें सत्य खोजे जा सकते हैं, और तुम्‍हें उन्हें परमेश्‍वर से आने वाली चीजों के रूप में देखना चाहिए। वे चीजें संयोग से नहीं होतीं, मनुष्‍य के कारण नहीं होतीं, वे किसी व्यक्ति के कारण नहीं होतीं, और वे कोई ऐसी चीज नहीं हैं जिसे कोई व्यक्ति नियंत्रित कर सके। बल्कि, यह परमेश्वर ही है जो इन सभी चीजों पर शासन करता है; परमेश्वर इन सभी चीजों का आयोजन और व्यवस्था करता है। किसी भी घटना का घटित होना मानवीय इच्छा पर निर्भर नहीं है, ऐसा नहीं है कि कोई भी व्यक्ति केवल अपनी इच्छा से किसी घटना को नियंत्रित कर सकता है। परमेश्वर सभी लोगों, घटनाओं और चीजों के प्र‍कटन, विकास और रूपांतरण की पूरी प्रक्रिया को तब तक शासित और आयोजित करता है जब तक कि वे अपने अंतिम परिणाम तक नहीं पहुँच जातीं। यदि तुम्हें इस पर विश्वास नहीं है, तो मेरे द्वारा बताए गए वचनों और सिद्धांतों के अनुसार चीजों का अनुभव और निरीक्षण करने का प्रयास करो। देखो कि क्या जो मैं कहता हूँ वह सच है। देखो कि क्या यह कथन, “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है,” जिस पर तुम विश्‍वास करते हो सही है या फिर यह कथन, “परमेश्‍वर सभी लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रकटन और विकास को तब तक शासित और आयोजित करता है, जब तक वे अपने अंतिम परिणाम तक नहीं पहुँच जातीं,” सही है। देखो कि इन दोनों कथनों में से कौन-सा सही है, कौन-सा तथ्यों के अनुरूप है, किससे लोग शिक्षा और लाभ पाते हैं, और कौन-सा लोगों को परमेश्वर को जानने और उसमें असली विश्वास रखने में सक्षम बनाता है। जब तुम अपने आस-पास होने वाली हर चीज का इस दृष्टिकोण और रवैये के साथ अनुभव करते हो कि परमेश्वर हर चीज पर शासन और उसका आयोजन करता है, तो चीजों पर तुम्‍हारा दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य पूरी तरह से अलग होगा। यदि तुम सभी चीजों और मामलों को, “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है,” इस कथन के नजरिए से ही देखने पर अड़े रहते हो तो इसे आसान तरीके से कहें तो, जब तुम पर कोई विपत्ति आएगी, तो तुम सत्‍य के सिद्धांतों को खोजने और परमेश्‍वर के वचनों के आधार पर उसकी इच्‍छा समझने के बजाय स्वाभाविक रूप से और न चाहते हुए भी सही और गलत के विचार में उलझ जाओगे, लोगों को जिम्‍मेदार ठहराने की कोशिश करोगे, और विभिन्न घटनाओं के कारणों, विभिन्न मामलों में प्रतिकूल परिणाम देने वाले कारकों आदि का विश्लेषण करने लगोगे। “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है,” इस कथन पर तुम जितना अधिक विश्वास करोगे, उतना ही अधिक गैर-विश्वासियों के विचार तुम पर हावी होंगे। तब तुम्‍हारे द्वारा अनुभव की जाने वाली हर चीज का अंतिम परिणाम सत्य के विरोधाभास में रहने लगेगा, और परमेश्वर में तुम्‍हारा विश्वास केवल एक सिद्धांत या नारा बनकर रह जाएगा। उस समय तक तुम पूर्ण रूप से एक गैर-विश्वासी बन चुके होगे। दूसरे शब्दों में, “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है,” इस कथन पर तुम जितना अधिक विश्वास करोगे, उतना ही अधिक तुम गैर-विश्वासी साबित होगे। यदि तुम्‍हारे हृदय में परमेश्वर या परमेश्वर के वचन नहीं हैं, यदि तुम परमेश्वर के किसी भी वचन, सत्य या सकारात्मक चीज को बिल्कुल भी मानते या स्वीकार नहीं करते, यदि उनका तुम्‍हारे हृदय में कोई स्थान नहीं है, तो तुम्‍हारी आत्मा की गहराई पर पूरी तरह से शैतान ने कब्जा कर लिया है, उसमें क्रमिक विकास और भौतिकवाद के विचार भर दिए गए हैं, जो सभी दुष्‍ट शैतान के झूठ हैं। तुम उन सभी तथ्यों पर विश्वास करते हो जिन्‍हें तुम अपनी आँखों से देखते हो, लेकिन तुम यह नहीं मानते कि जो ब्रह्मांड में हर चीज पर शासन करता है, जिसे कोई भी व्यक्ति नहीं देख सकता, उसका वास्तव में अस्तित्व है। यदि तुम हर चीज को “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” के परिप्रेक्ष्य से देखते हो, तो तुम शैतान और भौतिकवादियों से बिल्कुल भी अलग नहीं हो। लेकिन अगर तुम हर चीज को इस नजरिए से देखते हो कि “दुनिया में हर चीज को परमेश्वर शासित और आयोजित करता है” तो भले ही तुम कुछ चीजों को स्पष्ट रूप से न देख पाओ, लेकिन तुम उन विशिष्ट घटनाओं के बारे में उत्तर खोज पाओगे जिन्हें तुम अपने आस-पास घटित होते हुए देखते हो, मामले की जड़ की तलाश कर पाओगे, और परमेश्‍वर के वचनों में समस्या का सार और सत्‍य खोज पाओगे। तुम यह नहीं जाँच रहे होगे कि कौन सही था और कौन गलत, तुम केवल किसी को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश नहीं कर रहे होगे; इसके बजाय, तुम मामले की तुलना परमेश्वर के वचनों से कर पाओगे, समस्या की जड़ का पता लगाओगे, मुद्दे के मर्म की पहचान करोगे, और यह पता लगाओगे कि लोग कहाँ असफल हुए, उनमें क्या कमी थी, उन्होंने कैसा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया, वे विद्रोही कैसे थे, और पूरे घटनाक्रम के दौरान उनके कौन से पहलू परमेश्वर के साथ असंगत थे। तुम यह पता लगाने में सक्षम होगे कि उन चीजों को करने में परमेश्वर के इरादे और लक्ष्य क्या थे, वह लोगों में क्या प्राप्त करना चाहता था, वह कैसे परिणाम प्राप्त करना चाहता था, वह क्या चाहता था कि लोग कौन-से लाभ प्राप्त करें, और कौन-से सिद्धांतों का पालन करें। जब तुम किसी विशिष्ट घटना को इन दृष्टिकोणों से समझोगे और देखोगे तो तुम्हारी आंतरिक अवस्था बदल जाएगी। चीजों पर तुम्हारा दृष्टिकोण अनजाने में ही परमेश्वर के वचनों द्वारा मार्गदर्शि‍त और निर्देशित होगा। तुम अनजाने में ही परमेश्वर के वचनों में प्रबोधन और दिशा और साथ ही सत्य के वे सिद्धांत प्राप्त करोगे जिनका ऐसे मामले सामने आने पर तुम्हें पालन और अभ्यास करना चाहिए। जब तुम वास्तव में सत्य के इन सिद्धांतों में प्रवेश करोगे, तो तुम्हारा परमेश्वर पर सच्चा विश्वास और निर्भरता होगी, तुम ईमानदारी से प्रार्थना और याचना करोगे, तुममें सच्ची आज्ञाकारिता होगी, और तुम सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास करने में सक्षम होगे—इसका अंतिम परिणाम क्या होगा? पूरे घटनाक्रम के दौरान, तुम मामले की सच्चाई को स्पष्ट रूप से देखोगे, सबक सीखोगे, स्वयं पर पड़ने वाली हर चीज को सही ढंग से समझ पाओगे, और यह देख पाओगे कि यह परमेश्वर की व्यवस्था से हो रहा है, और इसमें परमेश्वर की सद्भावना समाहित है। और इस तरह, जैसा कि लोग अक्सर कहते हैं, तुम “बुरी चीज से एक अच्छी चीज बना लोगे”, तुम स्वाभाविक रूप से हर उस घटना को सकारात्मक तौर पर लेने में सक्षम होगे जिसकी लोग निंदा, भर्त्सना करते और जिससे वे घृणा करते हैं, और यह स्वीकार करने में सक्षम होगे कि यह परमेश्वर द्वारा शासित और व्यवस्थि‍त है, और इसे परमेश्वर से प्राप्त किया जाना चाहिए। तुम इसे एक ऐसी चीज के रूप में देखोगे जिसमें परमेश्वर के श्रमसाध्य प्रयास, उसकी इच्छा और उसकी अपेक्षाएँ शामिल हैं। इसका अनुभव करने की प्रक्रिया में, तुम अनजाने में ही समझ जाओगे कि पूरे मामले के आयोजन में परमेश्वर के इरादे क्या थे। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम उसकी इच्छा समझ जाओगे, और जब ऐसा हो जाएगा, तब तुम सहज ही इसमें समाहित सत्यों को समझ जाओगे, और तुम इस पूरे घटनाक्रम में शामिल सभी लोगों और मामलों को समझने में सक्षम होगे। यदि, पूरे घटनाक्रम के दौरान, तुम समस्या को “दुनिया में हर चीज परमेश्वर शासित और आयोजित करता है” के परिप्रेक्ष्य से देखते हो, तो इससे तुम्हें बहुत लाभ होगा। तुम सत्य को, परमेश्वर में सच्चे विश्वास को और इस बात की समझ को प्राप्त कर लोगे कि सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता है। तुम इस मामले में परमेश्वर की इच्छा और उसके नेक इरादों को समझोगे। निःसंदेह, तुम्हें “परमेश्वर सर्वव्यापी है” वाक्यांश की समझ और अनुभव भी प्राप्त होगा, जो पहले केवल तुम्हारी चेतना में मौजूद था। यदि पूरे घटनाक्रम के दौरान, तुम समस्या को “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” के नजरिए से देखते हो, तो तुम शिकायत करोगे, परमेश्वर की उपेक्षा करोगे, और तुम्हें लगेगा कि परमेश्वर बहुत दूर और अस्पष्ट है। यह शब्द “परमेश्वर”, परमेश्वर की पहचान, परमेश्वर का सार और परमेश्वर की इच्छा से संबंधि‍त सब कुछ बहुत दूर और खोखला प्रतीत होगा। तुम मानोगे कि संपूर्ण घटनाक्रम का घटना, उसका विकास और परिणाम, सब कुछ मानवीय हेरफेर पर निर्भर था, और पूरे मामले में मानवीय कारक समाए हुए हैं। इसलिए तुम लगातार यह सोचते हुए इन बातों पर मनन करते रहोगे कि “इस स्तर पर गलती किसने की? उस स्तर पर किसकी लापरवाही से नुकसान हुआ? इस चरण को किसने बाधित, अवरोधि‍त और बरबाद किया? मैं यह सुनिश्चित करूँगा कि वे इसकी कीमत चुकाएँ।” तुम व्यक्तियों और मामलों पर ध्यान केंद्रित करोगे, लगातार सही और गलत की दुनिया में रहोगे, जबकि परमेश्वर के वचनों, सत्य, जिम्मेदारियों, कर्तव्यों और उन दायित्वों की पूरी तरह उपेक्षा करोगे जिन्हें सृजित प्राणियों द्वारा पूर्ण किया जाना चाहिए, और साथ ही उन दृष्टिकोणों और स्थितियों की भी उपेक्षा करोगे जिन्हें तुम्हें कायम रखना चाहिए। तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा। पूरे घटनाक्रम के दौरान, न तो तुम्हारे और परमेश्वर के बीच, और न ही तुम्हारे और परमेश्वर के वचनों के बीच कोई संबंध रहेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी परिस्थिति का सामना होने पर तुम केवल लोगों और चीजों पर ध्यान केन्द्रित करोगे। तुम उस मामले की तुलना करने के लिए एक भी ऐसा शब्द नहीं सोच पाओगे जो सत्य के अनुरूप हो, न ही कोई सत्य कथन सोच पाओगे जो परमेश्वर से आता हो, तुम परिस्थ‍िति के विश्लेषण के लिए इसका आधार के तौर पर प्रयोग नहीं कर सकोगे, तुम परिस्थिति से सबक नहीं सीखोगे या कोई समझ हासिल नहीं करोगे, तुम अपने विश्वास को मजबूत नहीं करोगे, या परमेश्वर को नहीं जान पाओगे। तुम इसमें से कुछ भी नहीं करोगे। पूरे घटनाक्रम के दौरान, तुम “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है,” इस लोकप्रिय कथन से ही चिपके रहोगे, जो, अधिक सटीक रूप से कहें तो, गैर-विश्वासियों का तर्क और दृष्टिकोण है। इसके विपरीत, मान लो कि घटना की शुरुआत से ही, तुम उसे एक सृजित प्राणी के दृष्टिकोण से स्वीकार कर सकते हो, बिना यह जाँचे कि कोई व्यक्ति सही है या गलत, बिना किसी व्यक्ति या वस्तु का अत्यधिक विश्लेषण किए, और बिना लोगों और चीजों पर ध्यान केंद्रित किए। मान लो कि इसके बजाय तुम सक्रिय रूप से परमेश्वर के वचनों में उत्तर खोजते हो, प्रार्थना करने सक्रिय रूप से परमेश्वर के सामने आते हो और उस पर भरोसा करते हो, और परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन माँगते हो, जिससे परमेश्वर अपना कार्य और आयोजन कर पाता है। मान लो कि तुम्हारा दृष्टिकोण परमेश्वर के प्रति श्रद्धा और आज्ञाकारिता का है, सत्य के प्रति तृष्णा और परमेश्वर के साथ सक्रिय सहयोग का है—यह एक गैर-विश्वासी का दृष्टिकोण और रवैया नहीं है, बल्कि वह दृष्टिकोण और रुख है जो परमेश्वर के एक सच्चे अनुयायी का होना चाहिए। ऐसे दृष्टिकोण और रुख के साथ, तुम अनजाने में वह हासिल कर लोगे जो तुमने पहले कभी अनुभव नहीं किया है, जो कि वे सत्य वास्तविकताएँ हैं जो तुम्हारे पास पहले नहीं थीं। सत्य की ये वास्तविकताएँ वास्तव में वे प्रभाव हैं जिन्हें परमेश्वर संपूर्ण घटनाक्रम पर अपनी संप्रभुता के माध्यम से तुममें प्राप्त करना चाहता है। यदि परमेश्वर जो हासिल करना चाहता है, उसे पा लेता है, तो उसका कार्य व्यर्थ नहीं जाएगा क्योंकि तब उसने तुममें वांछित प्रभाव प्राप्त कर लिए होंगे। ये प्रभाव क्या हैं? परमेश्वर चाहता है कि तुम देखो कि वास्तव में क्या चल रहा है, यह कि कुछ भी संयोग से नहीं होता है, न ही लोगों के कारण होता है, बल्कि सब परमेश्वर के नियंत्रण में है। परमेश्वर चाहता है कि तुम उसके वास्तविक अस्तित्व का अनुभव करो और इस तथ्य को समझो कि वह संप्रभु है और सभी चीजों का भाग्य उसी के द्वारा आयोजित है और यह एक तथ्य है, कोई खोखला कथन नहीं।

यदि, अपने अनुभवों के माध्यम से, तुम्हें वास्तव में इस तथ्य का एहसास होता है कि परमेश्वर हर चीज पर शासन करता है और वह सभी चीजों के भाग्य को आयोजित करता है, तो तुम अय्यूब की तरह यह वक्तव्य देने में सक्षम होगे: “मैं ने कानों से तेरा समाचार सुना था, परन्तु अब मेरी आँखें तुझे देखती हैं; इसलिये मुझे अपने ऊपर घृणा आती है, और मैं धूल और राख में पश्‍चाताप करता हूँ” (अय्यूब 42:5-6)। क्या यह एक अच्छा वक्तव्य है? (हाँ।) यह वक्तव्य सुनकर बहुत अच्छा लगता है, और यह प्रेरक है। क्या तुम इस वक्तव्य की सत्यता का अनुभव करना चाहते हो? क्या तुम समझना चाहते हो कि जब अय्यूब ने ये शब्द कहे तो उसे कैसा महसूस हुआ? (हाँ।) क्या यह महज एक सामान्य इच्छा है, या कोई प्रबल इच्छा? (प्रबल इच्छा।) संक्षेप में, तुम्हारे पास इस प्रकार का संकल्प और इच्छा है। तो यह इच्छा कैसे पूरी हो सकती है? वैसे ही जैसे मैंने पहले कहा था। तुम्हें एक सृजित प्राणी के दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है, और जरूरत है कि तुम उन सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को जिनका तुमसे सामना होता है, उन्हें यह मानने के परिप्रेक्ष्य से देखो कि परमेश्वर सभी चीजों का शासक है और हर चीज को नियंत्रित और आयोजित करता है। तुम्हें इससे सबक सीखने चाहिए, परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसमें उसकी इच्छा को समझना चाहिए, और यह पहचानना चाहिए कि परमेश्वर तुममें क्या हासिल और पूर्ण करना चाहता है। ऐसा करने से, जल्द ही एक दिन, और निकट भविष्य में, तुम भी वैसा ही महसूस करोगे जैसा अय्यूब ने ये शब्द कहते हुए किया था। जब मैं तुम लोगों को यह कहते हुए सुनता हूँ कि तुम वास्तव में अनुभव करना चाहते हो कि जब अय्यूब ने ये शब्द बोले तो उसे कैसा महसूस हुआ था, तो मुझे पता है कि 99 प्रतिशत से अधिक लोगों ने पहले कभी ऐसी भावों का अनुभव नहीं किया है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि तुम लोगों ने कभी एक सृजित प्राणी के दृष्टिकोण से नहीं देखा और इस तथ्य का अनुभव नहीं किया है कि सृष्ट‍िकर्ता सभी चीजों पर शासन करता है और हर चीज को नियंत्रित करता है, जैसा कि अय्यूब ने किया था। यह सब मानवीय अज्ञानता, मूर्खता और विद्रोह के कारण है और साथ ही शैतान द्वारा किए गए धोखे और भ्रष्टाचार के कारण है, जिसके कारण लोग अनजाने में अपने साथ होने वाली हर चीज को एक गैर-विश्वासी के दृष्टिकोण से तोलते और देखते हैं और यहाँ तक कि अपने आस-पास होने वाली हर चीज को अविश्वासियों द्वारा आमतौर पर प्रयुक्त कुछ विधियों और सैद्धांतिक आधारों से देखने और पहचानने की कोशि‍श करते हैं। अंततः वे जिन निष्कर्षों पर पहुँचते हैं उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता, कुछ तो सत्य के विपरीत भी होते हैं। इससे दीर्घावधि‍ में लोग इस तथ्य का अनुभव नहीं कर पाते कि सृष्टिकर्ता सभी चीजों पर शासन और उन्हें नियंत्रित करता है, और उस भाव को भी महसूस नहीं कर पाते जि‍सका एहसास अय्यूब को ये शब्द कहने पर हुआ था। यदि तुम अय्यूब जैसे परीक्षणों से गुजरे हो, फिर चाहे वे बड़े हों या छोटे, और तुमने यह महूसस किया है कि परमेश्वर कार्यरत है और उन कार्यों में परमेश्वर की संप्रभुता है, यदि तुमने शासन करने और इन मामलों के आयोजन में परमेश्वर के विशिष्ट इरादों को भी पहचान लिया है, साथ ही उस तरीके को भी जिसका लोगों को अनुसरण करना चाहिए, तो अंत में, तुम अन्य चीजों के साथ-साथ उन सकारात्मक प्रभावों को अनुभव करने में सक्षम होगे जो परमेश्वर पूरे घटनाक्रम के दौरान तुममें प्राप्त करना चाहता था, परमेश्वर के नेक इरादों और तुमसे जुड़ी अपेक्षाओं को भी अनुभव करने में सक्षम होगे। तुम्हें ये सब अनुभव होगा। जब तुम यह सब अनुभव करोगे, तो तुम केवल इतना ही विश्वास नहीं करोगे कि परमेश्वर सत्य बोल सकता है और तुम्हें जीवन प्रदान कर सकता है, बल्क‍ि तुम्हें ठोस तरीके से यह एहसास होगा कि सृष्ट‍िकर्ता का वास्तव में अस्तित्व है, और तुम्हें इस तथ्य का भी एहसास होगा कि सृष्टिकर्ता ने सभी चीजों को बनाया है और वह उन पर शासन करता है। इन सभी चीजों के अनुभव के दौरान, परमेश्वर और सृष्ट‍िकर्ता में तुम्हारा विश्वास बढ़ जाएगा। साथ ही, इससे तुम्हें इस तथ्य का एहसास होगा कि तुमने वास्तव में सृष्ट‍िकर्ता के साथ बातचीत की है, और यह परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास, तुम्हारे भरोसे, परमेश्वर का अनुसरण करने के तुम्हारे तरीके और इस तथ्य की मूर्त और पूर्ण रूप से पुष्टि करेगा कि परमेश्वर का सब पर शासन है और वह सर्वव्यापी है। यह पुष्टि होने और इसका एहसास हो जाने पर, तुम लोग क्या सोचते हो कि तुम्हारा हृदय खुशी और आनंद से भर जाएगा या फिर दुःख और दर्द से? (खुशी और आनंद से।) निश्चित रूप से खुशी और आनंद से! भले ही तुमने पहले कितना भी दुःख और दर्द अनुभव किया हो, वह धुएँ के गुबार की तरह छँट जाएगा, और तुम्हारा हृदय खुशी से पागल हो जाएगा, तुम आनंद मना रहे होगे और खुशी से उछल रहे होगे। जब तुम देखोगे कि सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य की वास्तव में पुष्टि हो गई है और तुम्हें अपने भीतर इसका अनुभव हुआ है, तो यह वास्तव में तुम्हारे परमेश्वर से आमने-सामने मिलने और उससे बातचीत करने के बराबर होगा। उस समय, तुम्हें वैसा ही महसूस होगा जैसा अय्यूब को हुआ था। उस समय अय्यूब ने क्या कहा था? (“मैं ने कानों से तेरा समाचार सुना था, परन्तु अब मेरी आँखें तुझे देखती हैं; इसलिये मुझे अपने ऊपर घृणा आती है, और मैं धूल और राख में पश्‍चाताप करता हूँ।”) अय्यूब ने अतीत के प्रति अपनी घृणा व्यक्त करने के लिए बाहरी तौर पर खुद से घृणा और पश्चात्ताप के व्यवहार और कार्यों का सहारा लिया, लेकिन वास्तव में, हृदय की गहराई में, वह खुश और आनंदमय था। क्यों? क्योंकि उसने अप्रत्याशित रूप से सृष्टिकर्ता का चेहरा देख लिया था, वह उससे आमने-सामने मिला था, और एक घटना में, एक सामान्य और संयोग से हुई घटना में, उसका परमेश्वर से सामना हो गया था। मुझे बताओ, कौन-सा सृजित प्राणी, परमेश्वर का कौन-सा अनुयायी परमेश्वर को देखने को लालायित नहीं होता? जब ऐसी स्थिति आती है, जब ऐसी घटना घट जाती है, तो कौन खुश नहीं होगा, कौन उत्साहित नहीं होगा? हर कोई उत्साहित होगा; वह उत्साहित और आनंदित महसूस करेगा। यह कुछ ऐसा होगा जिसे वह जब तक जीवित रहेगा, कभी नहीं भूलेगा, और यह याद रखने लायक चीज है। इस बारे में सोचो, क्या इसके अनेक फायदे नहीं हैं? मुझे आशा है कि भविष्य में, तुम लोग वास्तव में यह भाव महसूस करोगे, इस तरह का अनुभव प्राप्त करोगे, और तुम लोगों का ऐसा आमना-सामना होगा। जब कोई व्यक्ति वास्तव में परमेश्वर का चेहरा देखता है और वास्तव में उन्हीं भावों का अनुभव करने में सक्षम होता है जो अय्यूब ने महसूस किए थे जब उसने यहोवा परमेश्वर को सामने पाया था, तो यह परमेश्वर में उनके विश्वास में एक मील का पत्थर बन जाता है। यह कितनी अद्भुत बात है! प्रत्येक व्यक्ति ऐसे परिणाम और ऐसी स्थिति की आशा करता है, और हर कोई इसका अनुभव करने और वैसा आमना-सामना होने की आशा करता है। चूँकि तुम्हें ऐसी उम्मीदें हैं, इसलिए अपने आस-पास होने वाली हर चीज का अनुभव करते समय तुम्हें सही दृष्ट‍िकोण और रुख रखना चाहिए, हर चीज को उस तरीके से अनुभव करना और समझना चाहिए जिस तरह से परमेश्वर सिखाता और निर्देश देता है, परमेश्वर से सब कुछ प्राप्त करना सीखना चाहिए और सत्य को अपनी कसौटी मानकर हर चीज को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना चाहिए। इस तरह, तुम्हें एहसास भी नहीं होगा और तुम्हारा विश्वास निरंतर बढ़ता जाएगा, और यह तथ्य कि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है और हर चीज पर शासन करता है, धीरे-धीरे तुम्‍हारे हृदय में पुष्ट और सत्यापित हो जाएगा। जब यह सब तुममें पुष्ट हो जाएगा, तो क्या तुम तब भी अपने आध्‍यात्मिक कद के न बढ़ने की चिंता करोगे? (नहीं।) लेकिन अभी थोड़ा चिंतित होना तुम्‍हारे लिए सामान्य है, क्योंकि तुम्‍हारा आध्‍यात्मिक कद बहुत छोटा है, और ऐसी कई चीजें हैं जिन्हें तुम नहीं समझ सकते—तुम्‍हारे लिए चिंता न करना असंभव होगा, यह कुछ ऐसा है जिसे तुम टाल नहीं सकते। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों के भीतर बहुत-सी चीजें हैं जो ज्ञान, मनुष्य, शैतान, समाज इत्यादि से आती हैं। ये सभी चीजें उन दृष्टिकोणों को जिनसे लोग परमेश्वर के पास आते हैं और विभिन्न चीजों का अनुभव करते समय उन्हें कैसा दृष्टिकोण और रुख अपनाना चाहिए, इसको गहराई से प्रभावित करती हैं। इसलिए, जब चीजें तुम्‍हारे सामने आएँ तो सही रुख और परिप्रेक्ष्य रखने में सक्षम होना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिए तुम्‍हें न केवल सकारात्मक, बल्कि नकारात्मक चीजों का भी अनुभव करना होगा। इन नकारात्मक चीजों का सार समझने और पहचानने से, तुम और अधिक सबक सीखोगे और परमेश्‍वर के कार्यों और सभी चीजों पर शासन करने में उसकी सर्वशक्तिमानता और प्रज्ञा को समझ पाओगे।

अब, क्या तुम पूरी तरह से समझते हो कि यह कथन “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” गलत है? (हाँ, हम समझते हैं।) क्या इस कथन के कोई सही पहलू हैं? क्या कोई वैध तत्व हैं? (नहीं हैं।) कोई भी नहीं? (कोई भी नहीं।) यह समझना सही है कि इसके कोई वैध पहलू नहीं हैं। यह एक सैद्धांतिक समझ है। फिर, वास्तविक जीवन में, अवलोकन और अनुभव के माध्यम से, तुम पाओगे कि यह कथन “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” गलत, बेतुका और गैर-विश्वासी का दृष्टिकोण है। जब तुम्हें इस तथ्य का पता चलता है, और तुम इस कथन में त्रुटि प्रदर्शित करने के लिए तथ्यों का उपयोग कर सकने में सक्षम होते हो, तो तुम इसे पूरी तरह से त्याग दोगे और खारिज कर दोगे, और फिर इसका प्रयोग नहीं करोगे। तुम अभी इस बिंदु तक नहीं पहुँचे हो। हालाँकि तुमने मेरी बात स्‍वीकार कर ली है, लेकिन बाद में जब परिस्थितियों का सामना होगा, तो तुम विचार करोगे, “उस समय मैंने सोचा था कि ‘सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है,’ इस कथन में कुछ भी सही नहीं है, तो अब मुझे क्यों लगता है कि यह थोड़ा तो सही है?” तुम अंदर-ही-अंदर संघर्ष करना शुरू कर दोगे और फिर से विरोधाभासों का अनुभव करने लगोगे। तो फिर तुम्‍हें क्या करना चाहिए? सबसे पहले, तुम्‍हें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। उन सभी विचारों और दृष्टिकोणों से स्‍वयं को मुक्‍त कर दो जो इस कथन पर कायम रहने से उत्पन्न होते हैं। इस कथन से उत्पन्न होने वाले सभी कार्य बंद कर दो। लोगों या मामलों पर ध्यान केंद्रित मत करो। पहले परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना करो, फिर परमेश्वर के वचनों में आधार और सिद्धांत खोजो। खोज की प्रक्रिया में, तुम अनजाने में प्रबोधन प्राप्त करोगे और सत्य समझ जाओगे। स्वयं सिद्धांतों की खोज करना तुम्हारे लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है, इसलिए मामले में शामिल सभी लोगों को इकट्ठा करो और परमेश्वर के वचनों के भीतर सत्य के आधार और सिद्धांतों की मिलकर खोज करो। फिर प्रार्थना-पाठ करो, परमेश्वर के संबंधि‍त वचनों पर संगति करो, और तुलना के लिए उन्‍हें देखो। परमेश्वर के वचनों से तुलना करने के बाद, सही दृष्टिकोणों को स्वीकार करो और गलत दृष्टिकोण स्वाभाविक रूप से छूट जाएँगे। तब से, इन सिद्धांतों के अनुसार मुद्दों को हल करो और उनसे निपटो। यह विधि सुनने में कैसी लगती है? (अच्छी।) सत्य की खोज की प्रक्रिया में, तुम्हें उन कार्यों को छोड़ देना चाहिए जो “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” के दृष्टिकोण से उत्पन्न होते हैं। परमेश्वर के इससे संबंधि‍त वचन खोजो और परमेश्वर के वचनों के आधार पर समस्याओं का समाधान करो और उनसे निपटो। सत्य की खोज करने और समस्याओं का इस प्रकार समाधान करने से तुम्हारे गलत दृष्टिकोणों का समाधान हो जायेगा। यदि तुम चीजों से परमेश्वर के वचनों और सत्य के सिद्धांतों के आधार पर निपटते हो, तो मामलों से निपटने का तुम्हारा तरीका और दृष्टिकोण तदनुसार बदल जाएगा। नतीजतन, मामले का नतीजा सही दिशा में आगे बढ़ेगा। लेकिन, समस्याओं को हल करने और मामलों से निपटने में “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” के परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण का उपयोग करने से वह घातक दिशा में आगे बढ़ेगा। उदाहरण के लिए, जब मसीह-विरोधी कलीसिया में लोगों को धोखा देते हैं, तब यदि लोग सत्य की तलाश नहीं करते, बल्कि केवल लोगों और मामलों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, सही और गलत पर चर्चा करते हैं और लोगों को जवाबदेह ठहराते हैं, तो अंतिम परिणाम यह होगा कि वे कुछ व्यक्तियों से निपटकर मामले को हल हुआ समझ लेंगे। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुमने कहा था कि यह एक घातक दिशा में आगे बढ़ रहा है, लेकिन मैंने कोई घातक परिणाम नहीं देखा है। मसीह-विरोधियों को निष्कासित कर दिया गया है, तो क्या समस्या हल नहीं हो गई है? घातक परिणाम कहाँ है?” क्या इस अनुभव से सभी ने कोई सबक सीखा? क्या इससे उन्होंने सत्य समझा? क्या वे मसीह-विरोधियों को पहचान सकते हैं? क्या वे परमेश्वर की इच्छा समझते हैं? क्या उन्हें परमेश्वर की संप्रभुता का एहसास हो गया? इनमें से कोई भी सकारात्मक प्रभाव नहीं हुआ। इसके विपरीत, लोग शैतानी दर्शन के अनुसार जीना जारी रखते हैं, एक-दूसरे पर अविश्वास करते हैं और एक-दूसरे से सावधान रहते हैं, और एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालते हैं। जब किसी स्थिति से सामना होता है, तो वे केवल खुद को बचाने के लिए तुरंत अपनी रक्षा करते हैं। वे जिम्मेदारी लेने और निपटे जाने से डरते हैं। वे कोई सबक नहीं सीखते और परमेश्वर से कुछ भी प्राप्त नहीं करते, परमेश्वर की इच्छा पता लगाना तो दूर की बात है। क्या लोग इस तरह से जीवन में आगे बढ़ सकते हैं? अंततः, लोग केवल यही जान पाते हैं कि वे अपने अगुआओं के सामने क्या कर सकते हैं या क्या नहीं, उन्‍हें खुश करने के लिए क्या कहें और क्या करें और क्‍या कहने और करने से वे उनसे नाराज होंगे और उन्हें नापसंद करेंगे। परिणामस्वरूप, लोग एक-दूसरे के प्रति सतर्क हो जाते हैं, अपने ही दायरे में रहने लगते हैं, छद्म वेश धारण कर लेते हैं, और कोई भी खुलकर व्यवहार नहीं करता। इस तरह अपने दायरे में और सतर्क तथा भेष बदलकर जीते हुए, क्या लोग परमेश्वर के सामने आए हैं? नहीं, वे नहीं आए हैं। कई चीजों का अनुभव करने के बाद, लोग परिस्थितियों से बचना सीख जाते हैं, और वे दूसरों के साथ बातचीत करने और समस्याओं का सामना करने से डरते हैं। अंत में, वे स्वयं को पूरी तरह से अपने दायरे में कैद कर लेते हैं, किसी के सामने नहीं खुलते, और उनके हृदय परमेश्वर से रहित हो जाते हैं। इस तरह से परमेश्वर पर विश्वास करना पूरी तरह से शैतानी दर्शन पर आधारित है। चाहे वे कितने भी अनुभवों से गुजरें, वे कोई सबक नहीं सीख सकते, खुद को नहीं जान सकते, अपने भ्रष्ट स्वभाव को छोड़ने की तो बात ही छोड़ो। क्या वे इस तरह से सत्य को समझ सकते हैं और परमेश्वर को जान सकते हैं? क्या वे सच्चा पश्चात्ताप महसूस कर सकते हैं? नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते। इसके बजाय, वे दूसरों से सावधान रहना, अपनी रक्षा करना, दूसरों के शब्दों और भावों का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करना और हवा के रुख के अनुसार चलना सीख जाते हैं। वे तरकीबें इस्तेमाल करना सीखते हैं और पहले से भी अधिक चतुर बन जाते हैं, और झगड़ों व लड़ाइयों से निपटने में अधिक सक्षम हो जाते हैं। जब समस्याओं का सामना करना पड़ता है, तो वे जिम्मेदारी लेने से बचते हैं और उसे दूसरों पर डाल देते हैं। उनका अब परमेश्वर, उसके वचनों या सत्य से कोई संबंध नहीं रह जाता। उनके हृदय परमेश्वर से और भी दूर होते चले जाते हैं। क्या यह एक घातक विकास नहीं है? (हाँ।) चीजें इस तरह से घातक रूप से आगे कैसे बढ़ीं? यदि लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार अन्‍य लोगों और चीजों को देखते और आचरण व कार्य करते हैं, सत्य को अपने सिद्धांत के रूप में अपनाते हैं; यदि वे किसी समस्या से सामना होने पर परमेश्वर के वचनों को आधार के रूप में खोजते हैं, उसके वचनों में उत्तर खोजते हैं, परमेश्वर के वचनों से समस्या की जड़ को पहचानते हैं और तुलना के लिए उन्‍हें देखते हैं, और सभी समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने के लिए उसके वचनों का उपयोग करते हैं, तो परमेश्वर के वचन आगे बढ़ने का मार्ग प्रदान करेंगे ताकि लोग अवरोधि‍त न हों, या वे इन मामलों में फँसे या उलझे नहीं। अंत में, वे अभ्यास के उन सिद्धांतों को समझेंगे जिनकी परमेश्वर को ऐसे मामलों में अपेक्षा होती है और उनके पास अनुसरण करने के लिए एक मार्ग होगा। यदि चुनौतियों का सामना होने पर हर कोई परमेश्वर के समक्ष आता, परमेश्वर से सब स्वीकार करता, उस पर भरोसा करना सीखता, और खोज की प्रक्रिया में आधार के रूप में सत्य के सिद्धांतों को खोजता, तब भी क्या लोग एक-दूसरे से सावधान रहते? क्या कोई तब भी मुद्दे की जड़ का समाधान किए बिना सही और गलत की खोज करता? (नहीं, कोई ऐसा नहीं करता।) यहाँ तक कि अगर कोई ऐसा व्यक्ति है जो सत्य का अभ्यास नहीं करता और फिर भी ऐसे मामलों का अनुसरण करता है, तो वह सभी के द्वारा अस्वीकृत, बहिष्कृत है। यदि लोग चीजों से सामना होने पर उन्हें परमेश्वर से स्वीकार कर सकें, तो स्थिति अनुकूल रूप से आगे बढ़ेगी। लोग अंततः परमेश्वर के वचनों को जानेंगे-समझेंगे और सत्य को प्राप्त करेंगे। लोग सत्य का अभ्यास करते हैं, और वे जो हासिल करते हैं वह सत्य प्राप्त करने और परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम होने का सही लक्ष्य है। उनका विश्वास बढ़ेगा, परमेश्वर के बारे में उनकी समझ बढ़ेगी और उनमें उसके प्रति श्रद्धा विकसित होगी। क्या यह अनुकूल रूप से आगे बढ़ना नहीं है? (हाँ।) ऐसे परिणाम कैसे मिलते हैं? क्या ऐसा इसलिए है कि लोग हर मामले में जो परिप्रेक्ष्य और रुख अपनाते हैं वह सही और सत्य के अनुरूप होता है? (हाँ।) सीधे-सरल शब्दों में, इस परिप्रेक्ष्य और रुख का अर्थ है, परमेश्वर से चीजें ग्रहण करना, जो स्वाभाविक रूप से विकास की अनुकूल दिशा और विकास के अनुकूल कदमों की ओर ले जाता है, और जिससे सत्य को समझने और परमेश्वर को जानने का परिणाम स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता है। लेकिन, यदि लोग परमेश्वर से चीजें ग्रहण नहीं करते, बल्कि मानवीय और शैतानी दर्शन से चीजों को देखते हैं, मामलों को देखने के लिए शैतानी दर्शन पर भरोसा कर लोगों और चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो जो कुछ भी उत्पन्न होगा, वह घातक होगा। अंतिम परिणाम यह होगा कि कोई भी सत्य समझ नहीं पाएगा और लाभ प्राप्त नहीं कर पाएगा। यह परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे किया जाए, यह न जानने का परिणाम है। इसलिए, कुछ कलीसियाओं में कुछ कर्तव्यपालकों के बीच असामंजस्यपूर्ण माहौल रहता है। वे हमेशा एक-दूसरे पर संदेह करते हैं, एक-दूसरे से सावधान रहते हैं, एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हैं, एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं और एक-दूसरे से बहस करते हैं। वे अपने हृदय की गहराइयों में गुप्त रूप से लड़ रहे होते हैं। इससे एक बात की पुष्टि होती है : इस समूह में कोई भी ऐसा नहीं है जो सत्य की खोज करता हो, कोई भी ऐसा नहीं है जो मुद्दों से सामना होने पर उन्हें परमेश्वर से स्वीकार करता हो। वे सभी गैर-विश्वासी हैं और सत्य का अनुसरण नहीं करते। इसके विपरीत, कुछ कलीसियाओं में, कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो आध्यात्म‍िक कद में छोटे होने और सत्य को अधि‍क न समझने के बावजूद, छोटी या बड़ी हर परिस्थिति में वास्तव में परमेश्वर से मामलों को स्वीकार करने में सक्षम होते हैं, और फिर उसके वचनों के अनुसार अभ्यास और अनुभव करते हैं, और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करते हैं। हालाँकि ये लोग जो एक साथ अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, कभी-कभी लड़ते-झगड़ते और बहस करते हैं, लेकिन उनके बीच एक ऐसा माहौल है, जो अविश्वासियों के बीच नहीं पाया जाता। जब वे कुछ भी करने के लिए एकजुट होते हैं तो यह विशेष रूप से सामंजस्यपूर्ण होता है, परिवार या रिश्तेदारों की तरह, उनके दिलों के बीच कोई दूरी नहीं होती है, और वे अपने काम में एकजुट रहते हैं। इस तरह का सौहार्द्रपूर्ण माहौल होने से पता चलता है कि कम-से-कम निरीक्षक या कुछ प्रमुख व्यक्ति सत्य की खोज करते हैं और समस्याओं का सामना होने पर मामलों को ठीक तरह से संभालते हैं, और उन्होंने “परमेश्वर से सब कुछ स्वीकार करने” के सिद्धांत को लागू करने में वास्तव में परिणाम प्राप्त किए हैं। ऐसे कई लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन चूँकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते या परमेश्वर के वचनों को गंभीरता से नहीं लेते, इसलिए कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी उन्होंने जीवन में प्रवेश नहीं किया है। उनके साथ कुछ भी क्यों न हो, वे उसे परमेश्वर से स्वीकार नहीं करते और इसके बजाय चीजों को समझने के लिए हमेशा मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करते हैं। वे परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर सकते। कलीसिया में, अगर कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जो आध्यात्मिक मामलों को समझते हैं और देख सकते हैं कि कई चीजें परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और आदेशि‍त की जाती हैं, तो वे परमेश्वर पर भरोसा कर सकते हैं, सक्रिय रूप से सत्य की खोज और उसका अभ्यास कर सकते हैं और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार चीजों को संभाल सकते हैं। ऐसे कलीसिया में, पवित्र आत्मा के कार्य का वातावरण उत्पन्न होता है। निश्चित रूप से, लोग इस विशेष रूप से सुखद सौहार्द्रपूर्ण माहौल को महसूस कर सकते हैं, और उनकी मनोस्थ‍िति स्वाभाविक रूप से सर्वोत्तम स्थिति में होती है। और भी विशेष रूप से, लोगों के बीच आपसी समझ, साझा महत्वाकांक्षा, लक्ष्य और दिलों में गहराई से अनुसरण करने की प्रेरणा होती है। इसी वजह से उन्हें एकजुट किया जा सकता है। ऐसे कलीसिया में, तुम विशेष रूप से सौहार्द्रपूर्ण माहौल का अनुभव कर सकते हो। यह माहौल लोगों को आत्मविश्वास से भर देता है और उन्हें प्रगति के लिए प्रेरित करता है। वे अपने हृदय में सशक्त महसूस करते हैं और मानो उनके पास परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की अटूट शक्त‍ि हो। यह एहसास अविश्वसनीय रूप से सुखद है। जो कोई भी ऐसी कलीसिया की सभाओं में भाग लेता है, वह इस माहौल और आत्मविश्वास के भाव का आनंद ले सकता है। ऐसे समय में उन्हें ऐसा महसूस होता है मानो वे परमेश्वर के आलिंगन में रह रहे हों, मानो वे हर दिन उसकी उपस्थिति में हों। यह सचमुच एक अलग अनुभव है। उन कलीसियाओं में, जहाँ पवित्र आत्मा कार्य नहीं करता है, अधिकतर लोग सत्य के अनुयायी नहीं होते। वे परिस्थितियों का सामना करते हुए परमेश्वर से चीजें स्वीकार नहीं कर पाते, और हर चीज को नियंत्रित करने के लिए मानवीय तरीकों और साधनों पर भरोसा करते हैं। ऐसे जनसमूह में लोगों में भि‍न्न भावनाएँ होती हैं और लोगों के बीच के रिश्ते और उत्पन्न माहौल भी अलग-अलग होते हैं। तुम्हें पवित्र आत्मा के कार्य का या एक-दूसरे से प्रेम का माहौल बिल्कुल भी महसूस नहीं होता। इसके बजाय, तुम्हें केवल एक ठंडापन महसूस हो पाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग एक-दूसरे के प्रति उदासीन रहते हैं। वे सभी एक-दूसरे से सावधान रहते हैं, एक-दूसरे से बहस करते हैं, गुप्त रूप से एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं, और एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए संघर्ष करते हैं। कोई भी दूसरे के प्रति समर्पण नहीं करता, बल्क‍ि वे एक-दूसरे को दबाते, बहिष्कृत और दंडित करते हैं। वे कार्यस्थल, व्यापार जगत और राजनीति में मौजूद अविश्वासियों की तरह हैं, और तुम्हें घृणा, नफरत और भय का अनुभव कराते हैं, जिससे तुममें सुरक्षा की भावना नहीं रहती। यदि तुम लोगों के किसी भी समूह में ऐसी भावनाओं का अनुभव करते हो, तो तुम इस कथन की सटीकता देखोगे, “मानव जाति को शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया है,” और इससे तुम पवित्र के कार्य से और भी अधि‍क प्रेम करने लगोगे। पवित्र आत्मा के कार्य के बिना, यानी जब मनुष्य, शैतान, ज्ञान, या गैर-विश्वासी शासन करते हैं, तब माहौल पूरी तरह से अलग होता है। तब तुम्हें असहजता और आनंदहीनता का एहसास होगा, और जल्द ही तुम विवश और उदास महसूस करोगे। यह भावना शैतान और भ्रष्ट मानवजाति से आती है, यह सटीक बात है। इसी के साथ इस विषय पर सहभागिता का समापन होता है।

पारंपरिक संस्कृति में नैतिक आचरण संबंधी कथनों के संबंध में, पिछली बार मैंने “देश का भाग्य प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व है” पर संगति की थी। इसके बाद आज मैं “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” पर संगति करूँगा। जिस पिछले वाक्यांश “सफलता और विफलता लोगों पर निर्भर करती है” पर मैंने संगति की थी, यह वाक्यांश भी स्पष्ट रूप से गैर-विश्वासियों का दृष्टिकोण है। गैर-विश्वासियों का दृष्टिकोण लोगों के बीच प्रचलित है और हर जगह सुना जा सकता है। जिस पल से लोग बोलना शुरू करते हैं, वे अन्य लोगों, गैर-विश्वासियों, शैतान और दुनिया से सभी प्रकार के कथन सीखते हैं। इसकी शुरुआत प्रारंभिक शिक्षा से होती है जहाँ उन्हें उनके माता-पिता और परिवार सिखाते हैं कि वे कैसा आचरण करें, क्या कहें, उनके पास कौन से नैतिक मूल्य होने चाहिए, उनके विचार और चरित्र कैसा होना चाहिए इत्यादि। समाज में प्रवेश करने के बाद भी, लोग अचेतन रूप से शैतान द्वारा स्वयं में विभिन्न सिद्धांतों और मतों का आरोपण स्वीकार करते हैं। “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो” इसे परिवार या समाज द्वारा हर व्यक्ति में एक ऐसे नैतिक आचरण के रूप में स्थापित किया जाता है जो लोगों में अवश्य होना चाहिए। यदि तुम्हारा नैतिक आचरण ऐसा है, तो लोग कहते हैं कि तुम उत्तम, सम्माननीय, सत्यनिष्ठ हो और समाज में तुम्हारा बहुत आदर और सम्मान किया जाता है। चूँकि यह वाक्यांश “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो” लोगों और शैतान से आता है, इसलिए यह हमारे लिए विश्लेषण और समझने की वस्तु बन जाता है और एक ऐसी वस्तु जिसका हम त्याग कर देते हैं। हम इस वाक्यांश को समझते और फिर त्याग क्यों देते हैं? आओ, पहले जाँच करते हैं कि क्या यह वाक्यांश और इसका पालन करने वाला व्यक्ति सही है। क्या एक ऐसा व्यक्ति होना वास्तव में उत्तमता है जिसके पास “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करने” का नैतिक चरित्र हो? क्या ऐसे व्यक्ति के पास सत्य की वास्तविकता होती है? क्या उसमें वह मानवता और आचरण के सिद्धांत होते हैं जो परमेश्वर ने कहा था कि सृजित प्राणियों में होने चाहिए? क्या तुम सभी, “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो” इस वाक्यांश को समझते हो? पहले अपने शब्दों में समझाओ कि इस वाक्यांश का क्या अर्थ है। (इसका मतलब यह है कि जब कोई तुम्हें कोई काम सौंपे, तो तुम्हें उसे पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए।) क्या ऐसा नहीं होना चाहिए? अगर कोई तुम्हें कुछ काम सौंपता है, तो क्या वह तुम्हारे बारे में ऊँची राय नहीं रखता? वह तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखता है, तुम पर विश्वास करता है और तुम्हें भरोसेमंद मानता है। इसलिए, दूसरे लोग तुमसे कुछ भी करने के लिए क्यों न कहें, तुम्हें सहमत होना चाहिए और उसे उनकी आवश्यकताओं के अनुसार अच्छी तरह से करना चाहिए, ताकि वे खुश और संतुष्ट रहें। ऐसा करने पर, तुम एक अच्छे इंसान होंगे। निहितार्थ यह है कि जिस व्यक्ति ने तुम्हें कार्य सौंपा है उसका संतुष्ट होना, न होना ही यह निर्धारित करता है कि तुम्हें एक अच्छा इंसान माना जाए या नहीं। क्या इसे इस प्रकार समझाया जा सकता है? (हाँ।) तो क्या दूसरों की नजरों में एक अच्छे इंसान के रूप में देखा जाना और समाज द्वारा मान्यता पाना आसान नहीं है? (हाँ।) इसका क्या मतलब है कि यह “आसान” है? इसका मतलब है कि मानक अत्‍यंत निम्न है और बिल्कुल भी उत्तम नहीं है। यदि तुम “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो” के नैतिक मानक को पूरा करते हो, तो तुम्‍हें ऐसे मामलों में अच्छे नैतिक चरित्र वाला व्यक्ति माना जाता है। स्पष्ट रूप से, इसका मतलब है कि तुम लोगों के विश्वास के, उनके द्वारा कार्य सौंपे जाने के लायक हो, तुम एक प्रतिष्ठित और अच्छे व्यक्ति हो। इस कथन का यही अर्थ है। क्या तुम लोग ऐसा नहीं सोचते? क्या तुम्‍हें, “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” इस वाक्यांश की परख और मूल्यांकन के मानकों पर कोई आपत्ति है? यदि तुम कोई ऐसा उदाहरण प्रदान कर सको जो इस कथन का खंडन करता हो और इसकी भ्रांति को उजागर करता हो, अर्थात्, तुम इसे गलत साबित करने के लिए किसी वास्तविक उदाहरण का प्रयोग कर सको, तो यह कथन जायज नहीं रह जाएगा। अब, हो सकता है कि सिद्धांत रूप में तुम लोग पहले से ही यह मानते हो कि यह कथन निश्चित रूप से गलत है क्योंकि यह सत्य नहीं है और परमेश्वर की ओर से नहीं आया है। इस कथन को पलटने के लिए तुम तथ्यों का प्रयोग कैसे कर सकते हो? उदाहरण के लिए, यदि आज तुम इतने व्‍यस्‍त हो कि किराने का सामान खरीदने नहीं जा सकते तो तुम अपने पड़ोसी को तुम्‍हारे लिए यह काम करने का दायित्व सौंप सकते हो। तुम उसे ठीक-ठीक बता सकते हो कि खाने-पीने का कौन-सा सामान, कितना और कब खरीदना है। इसके बाद, वह तुम्‍हारे अनुरोध के हिसाब से किराने का सामान खरीदता है और उसे समय पर तुम तक पहुँचा देता है। क्या इसे उनका “अन्य लोगों द्वारा उन्‍हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करना” माना जाता है? क्या इसे उनका प्रतिष्ठित होना माना जाएगा? यह तो हाथ हिलाने जितना काम मात्र है। क्या किसी की कुछ खरीदने में मदद कर सकना उच्च नैतिक चरित्र वाला होना माना जाता है? (ऐसा नहीं है।) जहाँ तक बात यह है कि वे बुरे काम करते हैं या नहीं, और उनका चरित्र क्या है, क्या इन चीजों का “अन्य लोगों द्वारा उन्‍हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करने” की उनकी क्षमता से जरा-सा भी लेना-देना है? यदि कोई व्यक्ति उस छोटी-सी चीज को पूरा करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर सकता है जो अन्य लोगों ने उसे सौंपी है, तो क्या उसका नैतिक चरित्र मानकों के अनुरूप है? क्या इतना छोटा-सा कार्य पूरा कर पाना यह साबित करता है कि वह वास्तव में उच्च चरित्र वाला व्यक्ति है? कुछ लोग कहते हैं, “वह व्यक्ति बहुत भरोसेमंद है। जब भी इसे कुछ करने के लिए कहा जाता है, चाहे काम कुछ भी या कितना भी हो, वह हमेशा उसे पूरा करता है। वह भरोसेमंद और अच्‍छे नैतिक चरित्र वाला है।” दूसरे उसे इस प्रकार देखते और मूल्‍यांकित करते हैं। क्या ऐसा मूल्यांकन सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) तुम दोनों पड़ोसी हो। पड़ोसी आम तौर पर एक-दूसरे के खि‍लाफ नहीं होते या एक-दूसरे को नुकसान नहीं पहुँचाते क्योंकि उनका एक-दूसरे से काम पड़ता रहता है। यदि झगड़े होंगे तो बाद में बातचीत करना मुश्किल हो जाएगा। हो सकता है कि पड़ोसी ने यही सोचकर तुम्‍हारी मदद की हो। यह भी हो सकता है कि यह छोटा-सा उपकार करना उसके लिए आसान था, यह कोई कठिन कार्य नहीं था और इससे उसे कोई नुकसान नहीं हुआ। इसके अलावा, इससे उसे अच्छा प्रभाव छोड़ने और अच्छी प्रतिष्ठा हासिल करने में मदद मिली, जिससे उसे फायदा हुआ। इसके अलावा, छोटी-मोटी मदद से तुम पर उपकार करके, क्या उसके लिए भविष्य में तुमसे मदद माँगना आसान नहीं होगा? शायद भविष्य में वह तुमसे कोई बड़ा उपकार चाहे और तुम वह करने के लिए बाध्य होगे। क्या इस व्यक्ति ने अपने विकल्प खुले रखे हैं? जब लोग एक-दूसरे की मदद करते हैं, बातचीत करते हैं और एक-दूसरे के साथ व्यवहार रखते हैं, तो उसका एक उद्देश्य होता है। यदि वे देखते हैं कि तुम किसी काम के नहीं हो, और बाद में वे तुमसे मदद नहीं माँगने वाले, तो हो सकता है कि वे इस उपकार द्वारा तुम्‍हारी मदद न करें। संभव है कि तुम्‍हारे परिवार में डॉक्टर, वकील, सरकारी अधिकारी या सामाजिक प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति हों, जो किसी तरह से उस व्यक्ति के काम आ सकते हों। वह अपने विकल्प खुले रखने के लिए तुम्‍हारी मदद कर सकता है। भविष्य में शायद कहीं वह तुम्हारा प्रयोग करे, या कम-से-कम तुम्हारे घर से सामान उधार लेना उसके लिए आसान हो जाए। कभी-कभी तुम उनसे छोटे-मोटे एहसान लेते हो और कुछ दिनों बाद वे चीजें उधार लेने तुम्‍हारे घर आ जाते हैं। लोग तब तक हाथ नहीं हिलाएँगे जब तक कि उससे उन्‍हें कोई फायदा न हो! देखो कि तुम्‍हारे मदद माँगने पर कैसे चेहरे पर मुस्कान के साथ वे बहुत आसानी से तैयार हो गए, मानो उन्होंने कोई सोच-विचार न किया हो; लेकिन वास्तव में उन्होंने मन में सावधानी से पूरा हिसाब-किताब किया था, क्योंकि कोई भी इतने सरल विचारों वाला नहीं होता। एक बार, मैं अपने कपड़े ठीक करवाने किसी जगह गया। कपड़े ठीक करने वाली बुजुर्ग महिला की एक बेटी थी जो अपने देश लौट रही थी। उसके पड़ोसी के पास कार थी, इसलिए बुजुर्ग महिला ने अपनी बेटी को हवाई अड्डे तक ले जाने का काम अपने पड़ोसी को सौंप दिया ताकि उसे टैक्सी का किराया न देना पड़े। पड़ोसी सहमत हो गया और बुजुर्ग महिला प्रसन्न हो गई। लेकिन, यह पड़ोसी इतना सीधा-सच्चा नहीं था। वह यह काम मुफ्त में नहीं करना चाहता था। सहमत हो जाने के बाद वह वहीं रुका रहा, फिर धीरे से कपड़े का एक टुकड़ा निकालकर बोला, “क्या तुम्हें लगता है कि मेरे कपड़े ठीक हो सकते हैं?” बुजुर्ग महिला अचंभित रह गई और उसकी मुखमुद्रा से लग रहा था कि मानो वह कहना चाह रही हो, “यह व्यक्ति इतनी छोटी-सी बात का फायदा क्यों उठा रहा है? यह इतनी आसानी से तैयार हो गया, लेकिन अब मालूम पड़ा कि यह मुफ्त में यह नहीं करना चाहता।’’ बुजुर्ग महिला ने पल दो पल में तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, “ठीक है, इसे वहाँ रख दो, और तुम्हारे लिए मैं इसे ठीक कर दूँगी।” पैसों का कोई जिक्र तक नहीं। देखो कि कैसे किसी को साधारण-से काम के लिए बाहर भेजना कपड़े ठीक करके संतुलित किया जाता है। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि कोई भी नुकसान में नहीं रहता? क्या परस्पर बातचीत सरल है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) कुछ भी सरल नहीं है। इस मानव समाज में, हर इंसान की मानसिकता लेन-देन की होती है, और हर कोई लेन-देन में संलग्न रहता है। हर कोई दूसरों से माँगें करता है और सभी खुद कोई नुकसान उठाए बिना दूसरों की कीमत पर लाभ कमाना चाहते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “उन लोगों में से जो ‘अन्य लोगों ने उन्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करते हैं’, ऐसे भी अनेक लोग हैं जो दूसरे लोगों की कीमत पर लाभ नहीं कमाना चाहते। उनका लक्ष्य बस चीजों को अच्छी तरह से संभालने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना होता है, इन लोगों में वास्तव में यह गुण होता है।” यह कथन गलत है। भले ही वे धन, भौतिक चीजें या किसी भी प्रकार का लाभ न चाहते हों, वे प्रसिद्धि अवश्य चाहते हैं। यह “प्रसिद्धि” क्या है? इसका अर्थ है, “लोगों ने अपने कार्य संभालने के लिए मुझ पर जो भरोसा किया, उसे मैंने स्वीकारा है। जिस व्यक्ति ने मुझे कार्य सौंपा है वह भले ही मौजूद हो या नहीं, जब तक मैं इसे अच्छी तरह से संभालने की पूरी कोशिश करता हूँ, मेरी प्रतिष्ठा अच्छी रहेगी। कम-से-कम कुछ लोगों को पता चलेगा कि मैं एक अच्छा, उच्च चरित्र वाला और अनुकरणीय व्यक्ति हूँ। मैं लोगों के बीच एक जगह बना सकता हूँ और लोगों के समूह में एक अच्छी प्रतिष्ठा रख सकता हूँ। इसके लिए इतना करना तो बनता ही है!” अन्य लोग कहते हैं, “‘अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो’ और चूँकि लोगों ने हमें कार्य सौंपा है, तो चाहे वे मौजूद हों या नहीं, हमें उनके कार्यों को अच्छी तरह से संभालना चाहिए और अंत तक निभाना चाहिए। भले ही हम एक स्थायी विरासत न छोड़ पाएँ, कम-से-कम वे यह कहकर पीठ पीछे हमारी आलोचना तो नहीं कर सकते कि हमारी कोई विश्वसनीयता नहीं है। हम आने वाली पीढ़ियों के साथ भेदभाव नहीं होने देंगे और उन्हें ऐसा घोर अन्याय नहीं सहने देंगे।” वे क्या चाह रहे हैं? वे अभी भी प्रसिद्धि की तलाश में हैं। कुछ लोग धन और संपत्ति को बहुत महत्व देते हैं, जबकि अन्य प्रसिद्धि को महत्व देते हैं। “प्रसिद्धि” का क्या मतलब है? लोगों में “प्रसिद्धि” के लिए विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? इसका अर्थ है, एक अच्छा और उच्च चरित्र वाला व्यक्ति, एक आदर्श, सदाचारी व्यक्ति या संत कहलाना। बल्कि‍ कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो एक तो “अन्य लोगों ने उन्हें जो कुछ भी सौंपा उसे ईमानदारी से संभालने के लिए अपनी पूरी कोशि‍श करने” में सफल रहे और ऐसा चरित्र भी रखते हैं, इसलिए उनकी हमेशा प्रशंसा की जाती है, और उनके वंशजों को उनकी प्रसिद्धि से लाभ मिलता है। तुम देखो, यह उन थोड़े से लाभों से कहीं अधिक मूल्यवान है जो उन्हें वर्तमान में मिल सकते हैं। इसलिए, तथाकथित नैतिक मानक का पालन करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने के लिए अपनी पूरी कोशि‍श करो” का शुरुआती बिंदु इतना आसान नहीं है। वह एक व्यक्ति के रूप में अपने दायित्वों और जिम्मेदारियों को पूरा करने की कोशिश मात्र नहीं कर रहा है, बल्कि इस जीवन में या पुनर्जन्म में व्यक्तिगत लाभ या प्रतिष्ठा पाने के लिए इसका अनुसरण कर रहा है। बेशक, ऐसे लोग भी हैं जो पीठ पीछे आलोचना और बदनामी से बचना चाहते हैं। संक्षेप में, लोगों के लिए इस तरह का काम करने का शुरुआती बिंदु सरल नहीं होता है, यह मानवता के दृष्ट‍िकोण का शुरुआती बिंदु नहीं है, न ही यह मानव जाति की सामाजिक जिम्मेदारी वाला शुरुआती बिंदु है। ऐसे काम करने वाले लोगों के इरादे और शुरुआती बिंदु से देखें, तो जो लोग इस वाक्यांश पर कायम रहते हैं कि “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो”, उनका कोई सरल उद्देश्य बिल्कुल नहीं होता।

अभी, हमने लोगों के इरादों और कार्य करने के उद्देश्‍य और लोगों की महत्‍वाकांक्षाओं और इच्‍छाओं के लिहाज से नैतिक आचरण के बारे में यह जो कथन है कि “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” इसका विश्लेषण किया है। यह एक पहलू है। दूसरे पहलू से, “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो” में एक अन्य त्रुटि है। वह क्या है? लोग “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो” के व्यवहार को अत्‍यंत उत्तम मानते हैं, लेकिन उन्‍हें नहीं पता कि वे यह नहीं पहचान सकते कि दूसरों द्वारा सौंपी गई चीजें न्यायसंगत हैं या अन्यायपूर्ण। यदि कोई तुम्हें बहुत सामान्य काम सौंपता है, कुछ ऐसा जो आसानी से पूरा किया जा सकता है, जो बताने लायक नहीं है, तो इसमें वफादारी नहीं आती है, क्योंकि जब लोग एक-दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं और एक-दूसरे के साथ उनका अच्छा तालमेल होता है, तो एक-दूसरे को कार्य सौंपना सामान्य बात है। यह हाथ हिलाने जितना आसान है। यह इस सवाल से संबंधित नहीं है कि किसी का नैतिक चरित्र उत्तम है या निम्न। यह उस स्तर तक नहीं पहुँचता है। लेकिन, यदि कोई व्यक्ति तुम्हें बहुत महत्वपूर्ण कार्य सौंपता है, एक इतना बड़ा कार्य जो जीवन और मृत्यु, भाग्य या भविष्य से जुड़ा हो, और तब भी तुम इसे एक सामान्य मामले की तरह लेते हो, बिना उसे समझे अच्छी तरह संभालने की पूरी कोशि‍श करते हो, तो वहाँ समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। कैसी समस्याएँ? यदि तुम्हें सौंपा गया कार्य उचित, विवेकपूर्ण, न्यायसंगत, सकारात्मक है और इससे दूसरों को कोई नुकसान या हानि नहीं होगी या मानव जाति पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा, तब तो कार्य को स्वीकार करना और उसे ईमानदारी से संभालने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना ठीक है। यह एक जिम्मेदारी है जिसे तुम्हें पूरा करना चाहिए और एक सिद्धांत है जिसका तुम्हें पालन करना चाहिए। लेकिन, यदि तुम्हारे द्वारा स्वीकार किया गया कार्य अन्यायपूर्ण है और इससे दूसरों को या मानव जाति को नुकसान, अशांति, विनाश, या यहाँ तक कि जीव हानि होगी, और तुम फिर भी इसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करते हो, तो यह तुम्हारे नैतिक चरित्र के बारे में क्या बताता है? वह अच्छा है या बुरा? (वह बुरा है।) यह कैसे बुरा है? कुछ लोग किसी अन्यायी व्यक्ति का अनुसरण करते हैं या उससे मित्रता कर लेते हैं और दोनों एक-दूसरे को घनिष्ठ मित्र मानते हैं। उन्हें इसकी परवाह नहीं होती कि वह मित्र अच्छा है या बुरा; अगर उनका मित्र उन्हें कोई कार्य सौंपता है, तो वे उसे अच्छी तरह से संभालने की पूरी कोशिश करेंगे। यदि मित्र उनसे किसी को मार डालने के लिए कहता है तो वे उसे मार डालेंगे, यदि वह उनसे किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए कहता है तो वह उसे नुकसान पहुँचा देंगे, और यदि वह उनसे कुछ नष्ट करने के लिए कहता है तो वे उसे नष्ट कर देंगे। जब तक यह उनके मित्र द्वारा उन्हें सौंपा गया कार्य है, वे इसे बिना सोचे-समझे और बिना विचार-विमर्श के करेंगे। वे मानते हैं कि वे इस दावे को पूरा कर रहे हैं कि “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो।” यह उनकी मानवता और नैतिक चरित्र के बारे में क्या बताता है? वह अच्छा है या बुरा? (वह बुरा है।) बुरे लोग भी “अन्य लोगों ने उन्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश कर सकते हैं,” लेकिन जिस तरह के काम दूसरे लोगों ने उन्हें सौंपे हैं और जिन्हें वे अच्छी तरह से संभालने की पूरी कोशिश करते हैं, वे सभी बुरी और नकारात्मक चीजें हैं। यदि अन्य लोगों ने तुम्हें जो काम सौंपा है, वह लोगों को नुकसान पहुँचाना, उन्हें मार डालना, दूसरों की संपत्ति चुराना, बदला लेना या कानून तोड़ना है, तो क्या यह सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) ये सभी ऐसी चीजें हैं जो लोगों को नुकसान पहुँचाती हैं, ये बुरे कर्म और अपराध हैं। यदि कोई तुम्हें कोई बुरा काम सौंपता है, और तुम तब भी “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो” के इस पारंपरिक सांस्कृतिक सिद्धांत का यह कहते हुए पालन करते हो, “चूँकि तुमने मुझे काम सौंपा है, इसका मतलब है कि तुम मुझ पर भरोसा करते हो, मेरे बारे में अच्छी राय रखते हो और मुझे अपना मानते हो, दोस्त मानते हो, न कि कोई बाहरी व्यक्ति। इसलिए, तुमने मुझे जो कुछ भी सौंपा है, मैं उसे ईमानदारी से निभाने की पूरी कोशिश करूँगा। मुझे अपने जीवन की कसम कि तुम मुझे जो कुछ भी सौंपोगे, उसे अच्छी तरह से निभाऊँगा, और अपने शब्दों से कभी पलटूँगा नहीं,” तो फिर यह किस तरह का व्यक्ति है? क्या यह सचमुच बदमाश नहीं है? (हाँ।) यह बहुत बड़ा बदमाश है। तो तुम्हें “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” जैसी चीजों को कैसे लेना चाहिए? यदि कोई तुम्हें कोई साधारण कार्य सौंपता है, जो लोक-व्यवहार में बहुत सामान्य कार्य है, तो यदि तुम उसे करते भी हो, तो यह नहीं कहा जा सकता कि तुम्हारा नैतिक चरित्र उत्तम है या नहीं। यदि कोई तुम्हें बहुत महत्वपूर्ण और बड़ा कार्य सौंपता है, तो तुमको यह समझना चाहिए कि वह कार्य सकारात्मक है या नकारात्मक, और क्या यह कुछ ऐसा है जिसे तुम्हारा आंतरिक गुण हासिल कर सकता है। यदि वह ऐसा कार्य नहीं है जिसे तुम हासिल कर सकते हो, तो तुम वह करो जो तुम कर सकते हो। यदि वह एक नकारात्मक कार्य है, एक ऐसा कार्य जो कानून तोड़ता है, दूसरों के हितों या जीवन को नुकसान पहुँचाता है, या दूसरों की संभावनाओं और भविष्य तक को नष्‍ट करता है, और तुम तब भी “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” के नैतिक मानक का पालन करते हो, तो तुम बदमाश हो। इन दृष्टिकोणों के आधार पर, लोगों को उन्हें सौंपे गए कार्यों को स्वीकार करते समय जिस सिद्धांत का पालन करना चाहिए वह यह नहीं होना चाहिए कि “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो।” यह कथन सटीक नहीं है, इसमें बड़ी खामियाँ और समस्याएँ हैं और यह लोगों के साथ बड़ा छल करता है। इस कथन को स्वीकार करने के बाद, बेशक कई लोग इसका प्रयोग दूसरों के नैतिक आचरण के मूल्यांकन के लिए और निश्चित रूप से, खुद को मापने और अपनी नैतिकता को बाँधने के लिए करेंगे। फिर भी वे नहीं जानते कि दुनिया में कौन दूसरों को कार्य सौंपने के योग्य है, और बहुत कम लोग दूसरों को ऐसे कार्य सौंपते हैं जो न्यायसंगत, सकारात्मक, दूसरों के लिए फायदेमंद, मूल्यवान और मानवता के लिए समृद्धि लाने वाले होते हैं। ऐसा कोई कार्य नहीं होता। इसलिए, यदि तुम किसी व्यक्ति की नैतिकता की गुणवत्ता को मापने के लिए “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” के मानक का प्रयोग करते हो, तो न केवल इसमें बहुत सारे संदेह और समस्याएँ हैं जिससे यह जाँच पर खरा नहीं उतरता, बल्कि यह लोगों में गलत अवधारणाएँ भी आरोपित करता है, और ऐसे मामलों से निपटने के लिए गलत सिद्धांत और गलत दिशा देता है, लोगों की सोच को भ्रमित, पंगु और गुमराह करता है। इसलिए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम इस कथन का विश्लेषण या विच्छेदन कैसे करते हो, इसके अस्तित्व का कोई मोल नहीं है, यह कुछ ऐसा नहीं है जिसका लोगों को अभ्यास करना चाहिए, और इससे लोगों को किसी भी तरह से लाभ नहीं होता है।

“अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” वाक्यांश में एक और त्रुटि है। एक अन्‍य दृष्टिकोण से, जो दुष्ट व्यक्ति दूसरों का इस्‍तेमाल करना, उनका फायदा उठाना और उन्‍हें नियंत्रित करना चाहते हैं, और जो निहित स्वार्थ रखते हैं, सामाजिक स्‍तर और सत्‍ता वाले हैं, उन लोगों को यह कथन शोषण करने का अवसर और दूसरों का इस्‍तेमाल करने, उनका फायदा उठाने और उन्‍हें नियंत्रित करने का एक बहाना देता है। यह उन्हें अपने कार्य निपटाने के लिए लोगों का रणनीतिक इस्‍तेमाल करने में सक्षम बनाता है। जो लोग उनके लिए कार्य नहीं संभालते या उनके लिए अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं करते, उन्‍हें ऐसा मान लिया जाता है जिन्‍हें दूसरे कार्य नहीं सौंप सकते और जो कार्यों को ईमानदारी से संभालने के लिए अपना सर्वश्रेष्‍ठ नहीं दे सकते। उन पर निम्न नैतिक चरित्र वाला होने का ठप्पा लगा दिया जाता है जो भरोसे के लायक नहीं हैं, ऊँची राय या सम्मान के लायक नहीं हैं, और समाज में निम्‍न कोटि के हैं। ऐसे लोगों को किनारे कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि तुम्‍हारा बॉस तुम्‍हें कोई कार्य सौंपता है और तुम सोचते हो, “चूँकि मेरा बॉस यह कार्य लेकर आया है, तो चाहे यह जो कुछ भी हो, मुझे इस पर सहमत होना होगा। चाहे यह कितना भी कठिन क्यों न हो, भले ही इसके लिए कितने भी जोखिम क्‍यों न उठाने पड़ें, मुझे इसे करना ही होगा,” तो तुम सहमत हो जाते हो। इसकी एक वजह यह है कि वह तुम्‍हारा बॉस है, और तुम मना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। दूसरी यह कि वह अक्सर तुम पर दबाव डालते हुए कहता है, “केवल वे जो अन्‍य लोगों ने उन्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करते हैं, अच्छे सहयोगी हैं।” उसने तुम्‍हें मानसिक रूप से तैयार करने के लिए पहले ही तुम्‍हें यह अवधारणा घोंटकर पिला दी है। जब वह कोई अनुरोध करता है, तो तुम सम्‍मान के कारण उसका अनुपालन करने के लिए बाध्य होते हो और इनकार नहीं कर पाते; अन्यथा, अंत तुम्‍हारे लिए अच्छा नहीं होगा। इसलिए, तुम्‍हें उसके लिए काम करने में अपनी सारी ऊर्जा लगानी पड़ती है। भले ही उसे आसानी से निपटाया न जा सके, तुम्‍हें उसे पूरा करने का तरीका खोजना पड़ता है। तुम्‍हें अपने संबंधों का प्रयोग करना पड़ता है, पिछले दरवाजे से जाना पड़ता है और उपहारों पर पैसा खर्च करना पड़ता है। अंत में, जब कार्य पूरा हो जाता है, तो तुम खर्च किए गए धन का उल्लेख भी नहीं कर सकते या कोई माँग नहीं कर सकते। और तुम्‍हें कहना पड़ता है, “‘लोगों को अन्‍य लोगों ने जो भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करनी चाहिए।’ आप मेरे बारे में अच्‍छी राय रखते हैं और मुझे बहुत महत्व देते हैं, इसलिए मुझे इस कार्य को अच्छी तरह से संभालने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए।” वास्तव में, केवल तुम ही जानते हो कि तुमने कितनी परेशानी और कठिनाई झेली है। यदि तुम ऐसा करने में सफल हो जाते हो, तो लोग कहेंगे कि तुम उच्‍च चरित्र वाले हो। लेकिन यदि तुम असफल रहते हो, तो लोग तुम्‍हें हेय दृष्टि से देखेंगे, तुमसे नफरत करेंगे और तुम्‍हें उनका तिरस्कार सहना पड़ेगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस सामाजिक वर्ग या जातीय समूह से हो, जब कोई तुम्‍हें कोई कार्य सौंपता है, तो तुम्‍हें अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना ही होगा और कोई कसर नहीं छोड़नी होगी, तुम उस काम से इनकार नहीं कर सकते। ऐसा क्यों? जैसा कि कहा जाता है, “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो।” चूँकि तुमने किसी का भरोसा स्वीकार कर लिया है, इसलिए तुम्‍हें इसे अंत तक ईमानदारी से संभालना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कार्य सफलतापूर्वक, अच्छी और पूरी तरह से किया गया हो और उस व्यक्ति द्वारा अनुमोदित हो, और फिर उसे रिपोर्ट करना चाहिए। भले ही वे इसके बारे में पूछताछ न करें, तुम्‍हें इसे संभालने में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए। कुछ लोगों का मूल रूप से तुम्‍हारे साथ कोई वास्तविक संबंध नहीं होता है, जैसे कि तुम्‍हारे विस्तारित परिवार में दूर के रिश्तेदार। वे देखते हैं कि तुम्‍हारे पास समाज में अच्छी नौकरी या रुतबा और प्रतिष्ठा है, या कुछ प्रतिभा है, इसलिए वे तुम्‍हें कोई-न-कोई कार्य सौंप देते हैं। क्या मना करना ठीक है? वास्तव में, ऐसा करना बिल्‍कुल ठीक है, लेकिन मनुष्यों के जटिल सामाजिक रिश्तों और “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” के विचार से प्रभावित जनमत के दबाव के कारण, जब कोई ऐसा व्यक्ति जिसका मूल रूप से तुमसे कोई भी रिश्ता नहीं है, तुमसे अपने लिए कुछ करने के लिए कहता है, तो तुम्‍हें वह सब करना पड़ता है। बेशक, तुम ऐसा करने से मना कर सकते हो। ऐसा करने पर शायद तुम केवल एक व्यक्ति को अपमानित करो या कुछेक रिश्तेदारों के साथ तुम्‍हारा संबंध टूट जाए, या हो सकता है कि कुछ रिश्तेदार तुम्‍हें बहिष्कृत कर दें। लेकिन फिर, इससे क्या फर्क पड़ता है? वास्तव में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम उनके साथ नहीं रहते, और तुम्‍हारा भाग्य उनके हाथों में नहीं है। तो तुम उस काम को करने से इनकार क्यों नहीं कर सकते? इसके अपरिहार्य कारणों में से एक यह है कि “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो” के संबंध में लोगों की राय तुम्‍हें बाध्य कर रही है और दबा रही है। अर्थात्, किसी भी सामाजिक समुदाय में, तुम्‍हें अक्सर नैतिक मानक और लोगों की राय द्वारा “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करने” के लिए बाध्य किया जाता है। कार्यों को ईमानदारी से निपटाने के लिए अपनी पूरी कोशिश करना, सामाजिक जिम्मेदारी को पूरा करने या किसी सृजित प्राणी के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करने के बारे में नहीं है। इसके बजाय, तुम्‍हें नैतिक मानक संबंधी कथनों और सामाजिक राय की अदृश्य जंजीरों ने बंदी बना लिया है। तुम्हारे इसके द्वारा बंधक बनाए जाने की संभावना क्यों है? एक पहलू यह है कि तुम यह अंतर नहीं कर पाते हो कि पूर्वजों से प्राप्‍त ये नैतिक कथन सही हैं या नहीं, न ही यह समझ पाते हो कि लोगों को उनका पालन करना चाहिए या नहीं। दूसरा पहलू यह है कि तुममें इस पारंपरिक संस्कृति के कारण उपजे सामाजिक दबाव और जनमत से मुक्त होने के साहस और शक्ति की कमी है। परिणामस्वरूप, तुम इसकी जंजीरों से और स्‍वयं पर इसके प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकते। दूसरा कारण यह है कि समाज के किसी भी समुदाय या समूह में लोग चाहते हैं कि दूसरे लोग उन्हें उच्च नैतिक चरित्र वाला, एक अच्छा, विश्वसनीय व्यक्ति, भरोसेमंद और काम सौंपे जाने के योग्य व्यक्ति समझें। वे सभी ऐसी छवि स्थापित करना चाहते हैं जो सम्मान अर्जित करे और दूसरों को यह विश्वास दिलाए कि वे भावनाओं और वफादारी से युक्त हाड़-मांस वाले एक सम्मानित व्यक्ति हैं, न कि निर्दयी या अजनबी। यदि तुम समाज में घुलना-मिलना चाहते हो और उससे स्वीकृति‍ एवं अनुमोदन चाहते हो, तो सबसे पहले तुम्‍हें उनके सामने एक उच्च नैतिक चरित्र वाले, ईमानदार और विश्वसनीय व्यक्ति के रूप में पहचान बनानी होगी। इसलिए, भले ही वे तुमसे कैसा भी अनुरोध करें, तुम उन्हें संतुष्ट करने, उन्हें खुश करने की पूरी कोशिश करते हो, और फिर उनसे यह प्रशंसा पाते हो कि तुम उच्च नैतिक चरित्र वाले एक भरोसेमंद व्‍यक्ति हो और लोग तुम्‍हारे साथ जुड़ने के इच्छुक हैं। इस तरह से तुम अपने जीवन में अपने अस्तित्‍व का एहसास कर पाते हो। यदि तुम्‍हें समाज, जनता और अपने सहयोगियों और दोस्तों से अनुमोदन मिल जाए, तो तुम विशेष रूप से पुष्टिकारक और संतोषजनक जीवन जिओगे। लेकिन, अगर तुम उनसे अलग तरीके से रहते हो, यदि तुम्‍हारे विचार और दृष्टिकोण उनसे भिन्न हैं, यदि जीवन में तुम्‍हारा मार्ग उनसे भिन्न है, यदि कोई नहीं कहता कि तुम उच्च नैतिक चरित्र वाले हो, भरोसेमंद हो, मामले सौंपे जाने योग्य हो, या तुममें गरिमा है, और यदि वे सभी तुम्‍हें छोड़ देते हैं और अलग-थलग कर देते हैं, तो तुम एक उदास और अवसादग्रस्‍त जीवन जिओगे। तुम उदास और अवसादग्रस्‍त क्यों महसूस करते हो? ऐसा इसलिए कि तुम्‍हारे आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है। तुम्‍हारा आत्म-सम्मान कहाँ से आता है? यह समाज और लोगों की मंजूरी और स्वीकृति से आता है। यदि वे तुम्‍हें जरा-भी नहीं स्वीकारते, यदि वे तुम्‍हारी प्रशंसा या सराहना नहीं करते, और यदि वे तुम्‍हें प्रशंसा, स्नेह या सम्मान की नजर से नहीं देखते तो तुम्‍हें लगता है कि तुम्हारा जीवन गरिमाहीन है। तुम बहुत व्‍यर्थ महसूस करते हो, और तुम्‍हें अपने अस्तित्‍व का कोई एहसास नहीं होता। तुम नहीं जानते कि तुम्‍हारा क्‍या मोल है और अंत में, तुम्हें पता नहीं होता कि कैसे जीना है। तुम्‍हारा जीवन अवसादग्रस्‍त और पीड़ामय हो जाता है। तुम हमेशा यह प्रयास करते रहते हो कि लोग तुम्‍हें स्वीकार करें, लोगों और समाज में घुलने-मिलने का प्रयास कर रहे होते हैं। इसलिए, “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो” के नैतिक मानक से चिपके रहना, ऐसे सामाजिक परिवेश में रहने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए बहुत महत्वपूर्ण मामला है। यह किसी व्यक्ति के नैतिक चरित्र को मापने और यह जानने का भी एक महत्वपूर्ण संकेतक है कि क्या उसे दूसरे स्वीकार करते हैं। लेकिन क्या माप का यह मानक सही है? निश्चित रूप से नहीं। दरअसल, इसे बेतुका भी कहा जा सकता है।

“अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो”, इस नैतिक कथन का एक और पहलू है जिसे समझने की जरूरत है। यदि तुम्‍हें सौंपा गया कार्य तुम्‍हारा बहुत ज्‍यादा समय और ऊर्जा नहीं लेता, और तुम्‍हारी क्षमता में है, या यदि तुम्‍हारे पास सही माहौल और परिस्थितियाँ हैं, तो मानवीय विवेक और तर्क से, जहाँ तक तुम्हारी क्षमता है, उतना तुम दूसरों के लिए कुछ चीजें कर सकते हो और उनकी तार्किक और उचित माँगों को पूरा कर सकते हो। लेकिन, यदि तुम्‍हें सौंपा गया कार्य तुम्‍हारा अत्‍यधिक समय और ऊर्जा लेता है, और उसमें तुम्‍हारा बहुत सारा समय खप जाता है, इस हद तक कि तुम्‍हें अपने जीवन का और इस जीवन में अपने कर्तव्‍यों और दायित्‍वों का बलिदान देना पड़ता है और एक सृजित प्राणी के रूप में तुम अपना कर्तव्य बिल्कुल नहीं निभा पाते और उन्हें तुम्हारे बदले किसी और को दे दिया जाता है तो तुम क्‍या करोगे? तुम्‍हें मना कर देना चाहिए क्योंकि वह तुम्‍हारी जि‍म्मेदारी या दायित्व नहीं है। जहाँ तक किसी व्यक्ति के जीवन की जिम्मेदारियों और दायित्वों का सवाल है, तो माता-पिता की देखभाल, बच्चों के पालन-पोषण और समाज में कानून के दायरे में रहते हुए सामाजिक जिम्मेदारियों को पूर्ण करने के अलावा, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी व्यक्ति की ऊर्जा, समय और जीवन, एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूर्ण करने में खर्च होनी चाहिए, न कि किसी अन्य व्‍यक्ति द्वारा सौंपे गए ऐसे कार्य में जो उसका समय और ऊर्जा ले लेता हो। ऐसा इसलिए कि परमेश्‍वर व्यक्ति का सृजन करता है, उसे जीवन प्रदान करता है, और उसे इस दुनिया में लाता है, इसलिए नहीं कि वह दूसरों के लिए काम करे और उनकी जिम्मेदारियों को पूरा करे। लोगों को सबसे अधिक परमेश्‍वर द्वारा सौंपे कार्य को स्‍वीकार करना चाहिए। केवल परमेश्वर द्वारा सौंपा कार्य ही सच्चा होता है, और मनुष्य द्वारा सौंपा कार्य स्वीकार करने का अर्थ अपने समुचित कर्तव्यों का पालन न करना है। कोई भी तुमसे यह कहने के योग्य नहीं है कि तुम अपनी वफादारी, ऊर्जा, समय, या यहाँ तक ​​कि अपनी युवावस्‍था और संपूर्ण जीवन उनके द्वारा सौंपे गए कार्यों को समर्पित करो। केवल परमेश्वर ही लोगों से एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूर्ण करने को कहने का अधिकारी है। ऐसा क्यों? यदि तुम्‍हें सौंपे गए किसी भी कार्य में तुम्‍हें काफी समय और ऊर्जा खपानी पड़ती है, तो वह तुम्‍हें एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूर्ण करने और यहाँ तक कि जीवन में सही मार्ग पर चलने में भी रुकावट पैदा करेगा। वह तुम्‍हारे जीवन की दिशा और लक्ष्य बदल देगा। यह कोई अच्छी बात नहीं है, बल्कि अभिशाप है। यदि वह तुम्‍हारा काफी समय और ऊर्जा ले लेता है, और यहाँ तक कि तुमसे तुम्‍हारा यौवन भी छीन लेता है, तुम्‍हें सत्य और जीवन प्राप्त करने के अवसरों से वंचित कर देता है, तो इस प्रकृति का सौंपा गया हर कार्य शैतान की ओर से आता है, किसी व्यक्ति मात्र से नहीं। यह मामले को समझने का एक अन्‍य तरीका है। यदि कोई तुम्‍हें ऐसा कार्य सौंपता है जिसमें तुम्‍हारे बहुत सारे समय तथा ऊर्जा का व्‍यय और बरबादी होती है, और यहाँ तक कि तुम्‍हें अपनी युवावस्‍था और अपने संपूर्ण जीवन का बलिदान देना पड़ता है, वह समय भी खप जाता है जो तुम्‍हें एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करने में व्यतीत करना चाहिए, तो न केवल वह व्यक्ति तुम्‍हारा मित्र नहीं है, बल्कि उसे तुम्‍हारा दुश्‍मन और शत्रु भी माना जा सकता है। अपने जीवन में, परमेश्वर द्वारा तुम्हें प्रदान किए गए माता-पिता, बच्चों और परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा करने के अलावा, तुम्‍हारा सारा समय और ऊर्जा एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य निभाने के लिए समर्पित और उसी में खर्च होने चाहिए। कोई भी तुम्‍हें कोई कार्य सौंपने के बहाने तुम्‍हारा समय और ऊर्जा लेने या छीनने के योग्य नहीं है। यदि तुम इस सलाह पर ध्यान नहीं देते और अपने समय और ऊर्जा का एक बड़ा हिस्‍सा बरबाद करने वाले किसी के द्वारा सौंपे गए कार्य को स्‍वीकार कर लेते हो तो एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए तुम्हें मिलने वाला समय तुलनात्मक रूप से कम हो जाएगा, हो सकता है समय बचे ही न, पूरा समय दूसरे काम में ही लग जाए। अपना कर्तव्य पूरा करने के समय और ऊर्जा न बचने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि सत्य का अनुसरण करने का तुम्‍हारा अवसर कम हो गया है। जब सत्य का अनुसरण करने का अवसर कम हो जाता है, तो क्या इसका मतलब यह भी नहीं है कि तुम्‍हें बचाए जाने की संभावना भी कम हो गई है? (हाँ।) यह तुम्‍हारे लिए आशीर्वाद है या अभिशाप? (एक अभिशाप।) यह निस्संदेह एक अभिशाप है। यह उस लड़की की तरह होना है जिसका एक प्रेमी है, और वह उससे कहता है, “तुम परमेश्‍वर में विश्वास कर सकती हो, लेकिन जब तक मैं सफल, अमीर और प्रभावशाली नहीं बन जाता, और जब तक मैं तुम्‍हें एक कार, एक घर और एक बड़ी हीरे की अँगूठी खरीदकर नहीं दे पाता, तब तक तुम्हें मेरा इंतजार करना होगा, फिर मैं तुमसे शादी कर लूँगा।” लड़की कहती है, “फिर इन कुछ सालों तक मैं परमेश्‍वर में विश्वास नहीं करूँगी या अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करूँगी। सबसे पहले मैं तुम्‍हारे साथ कड़ी मेहनत करूँगी और तुम्‍हारे अमीर होने, अधिकारी बनने, तुम्‍हारी इच्‍छाओं के पूरे होने का इंतजार करूँगी और फिर अपने कर्तव्‍य पूरे करूँगी।’’ यह लड़की होशियार है या मूर्ख? (मूर्ख।) यह बहुत मूर्ख है! तुमने उसकी सफलता हासिल करने, अमीर और शक्तिशाली बनने तथा धन और प्रसिद्धि पाने में मदद की, लेकिन उस समय की भरपाई कौन करेगा जो तुमने खो दिया? तुमने एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया है, तो इस नुकसान की भरपाई कौन करेगा; इसका भुगतान कौन करेगा? परमेश्वर पर विश्वास करने के इन कुछ वर्षों में, तुमने वह सत्य प्राप्त नहीं किया है जो तुम्‍हें प्राप्‍त करना चाहिए था, और तुमने वह जीवन भी प्राप्त नहीं किया है जो तुम्‍हें प्राप्‍त करना चाहिए था। इस सत्य और इस जीवन की भरपाई कौन करेगा? कुछ लोग परमेश्‍वर में तो विश्वास करते हैं लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते। इसके बजाय, वे अपने कई वर्ष अन्‍य लोगों द्वारा सौंपे गए कार्य, उनकी इच्छा या माँग को पूरा करने में बिताते हैं। अंत में, उन्हें न केवल कुछ भी हासिल नहीं होता बल्कि वे सत्य प्राप्त करने के लिए अपने कर्तव्य को निभाने का अवसर भी चूक जाते हैं। उन्हें परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं होता; नुकसान बहुत बड़ा है, और कीमत बहुत अधिक! क्या केवल दूसरों का विश्वास तोड़ने से बचने के लिए, इसलिए कि लोग उनके बारे में अच्‍छी बातें कहें, उन्‍हें उच्च नैतिक चरित्र वाला, प्रतिष्ठित और भरोसेमंद व्यक्ति मानें, और सफलतापूर्वक “अन्य लोगों ने उन्‍हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करने के लिए” परमेश्वर में विश्वास करना और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य का निर्वहन छोड़ देना मूर्खतापूर्ण नहीं है? ऐसे लोग भी हैं जो दोनों करने की कोशिश करते हैं, एक तरफ लोगों को संतुष्ट करते हैं और दूसरी ओर कर्तव्‍य निभाने के लिए थोड़ी ऊर्जा भी बचाकर रखते हैं, वे दूसरों को खुश करते हैं लेकिन साथ ही परमेश्‍वर को भी खुश करना चाहते हैं। अंत में क्या होता है? तुम लोगों को खुश कर सकते हो, लेकिन एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्‍हारा कर्तव्य पूरा नहीं होता, तुम सत्य को बिल्कुल भी नहीं समझ पाते, और बहुत कुछ खो देते हो! यद्यपि तुमने लोगों के लिए चीजों को ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश की है, उन्‍होंने यह कहते हुए तुम्‍हारी प्रशंसा की है कि तुम अपना वचन निभाते हो और उच्च नैतिक चरित्र वाले व्यक्ति हो, लेकिन तुमने परमेश्‍वर से सत्य प्राप्त नहीं किया है, न ही तुम्हें परमेश्वर का अनुमोदन या स्वीकृति प्राप्त हुई है। ऐसा इसलिए कि लोगों के लिए चीजों को ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करना, वह नहीं है जो परमेश्वर मानवता के लिए चाहता है, न ही यह परमेश्वर द्वारा तुम्‍हें सौंपा गया कोई कार्य है। लोगों के लिए चीजों को ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करना पथ से भटकना है, यह अपने समुचित कर्तव्यों का पालन नहीं करना है, और इसका कोई मोल या महत्व नहीं है। यह याद रखे जाने लायक एक अच्छा कार्य तो बिल्‍कुल भी नहीं है। तुमने अपनी ऊर्जा और समय का एक बड़ा हिस्सा दूसरों के लिए निवेश किया है, और ऐसा करने से न केवल परमेश्‍वर तुम्‍हें याद नहीं रखता, बल्कि तुमने सत्य का अनुसरण करने का सबसे अच्छा अवसर और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने का कीमती समय भी खो दिया है। जब तक तुम पीछे मुड़कर सत्य का अनुसरण करना और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाना चाहते हो, तब तक तुम पहले ही बूढ़े हो चुके होते हो, तुममें ऊर्जा और शारीरिक बल कम हो जाता है और तुम बीमारियों से ग्रस्त हो चुके होते हो। क्या इसका कोई फायदा है? तुम स्वयं को परमेश्वर के लिए कैसे खपा सकते हो? सत्य का अनुसरण करने और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के लिए बचे हुए समय का उपयोग करना थकाऊ है। तुम्‍हारी शारीरिक शक्ति तुम्हारा साथ नहीं दे पाती, याददाश्त कमजोर हो जाती है और तुममें पहले जितनी ऊर्जा नहीं रहती। तुम्‍हें सभाओं के दौरान अक्सर झपकी आ जाती है, और जब तुम अपने कर्तव्यों को निभाने का प्रयास करते हो तो तुम्‍हारे शरीर में हमेशा कष्‍ट और बीमारियाँ रहती हैं। तब, तुम्‍हें इसका पछतावा होगा। “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करके” तुमने क्या हासिल किया है? अधिक से अधिक, तुम दूसरों को रिश्‍वत देकर उनकी प्रशंसा पा सकते हो। लेकिन लोगों की प्रशंसा का क्या काम? क्या यह परमेश्वर के अनुमोदन को दर्शा सकती है? यह इसे थोड़ा भी नहीं दर्शा सकती। ऐसे में, किसी व्यक्ति का वह प्रशंसा वाक्य बेकार है। क्या प्रशंसा पाने के लिए इतने बड़े दर्द को सहने और बचाए जाने के अवसर को गँवाने का कोई औचित्‍य है? तो, अब लोगों को क्या समझने की जरूरत है? यदि कोई व्‍यक्ति तुम्‍हें कोई कार्य सौंपता है, चाहे वह कुछ भी क्‍यों न हो, अगर उसमें एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना या परमेश्वर द्वारा तुम्‍हें सौंपी गई किसी चीज को पूरा करना शामिल नहीं है, तो तुम्‍हें मना करने का अधिकार है क्योंकि वह तुम्‍हारा दायित्व नहीं है, जिम्‍मेदारी होना तो दूर की बात है। कुछ लोग कह सकते हैं, “यदि मैं इनकार करता हूँ, तो लोग कहेंगे कि मुझमें नैतिक मूल्‍य नहीं हैं, या वे कहेंगे कि मैं एक अच्छा मित्र या अधिक वफादार नहीं हूँ।” यदि तुम्हें इसकी चिंता है, तो आगे बढ़ो और उसे करो, और बाद में देखो कि उसके परिणाम क्या होते हैं। ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने दूसरों का कार्य खत्‍म नहीं किया है और उस कार्य को करना जारी भी नहीं रख सकते क्योंकि वे अपने कर्तव्‍य निभा रहे हैं। वे सोचते हैं, “मैं इस कार्य को आधा-अधूरा छोड़ दूँ, यह कोई अच्‍छी बात नहीं है। एक व्यक्ति के तौर पर मुझमें विश्वसनीयता होनी चाहिए। व्यक्ति को काम शुरू से अंत तक पूरा करना चाहिए, यह नहीं कि शुरुआत तो मजबूत हो और अंत कमजोर। यदि मैं दूसरों के लिए जो कार्य करने का वादा करता हूँ, वे आधे-अधूरे हुए हैं और मैं बाकी काम नहीं करता, तो मैं इसे दूसरों के सामने उचित नहीं ठहरा सकता, यह ईमानदारी की कमी होना है!” यदि तुम्‍हारे मन में ऐसे विचार हैं और तुम अपने अभिमान का त्‍याग नहीं कर सकते, तो तुम आगे बढ़कर दूसरों के लिए कार्य कर सकते हो, और जब तुम्‍हारा काम पूरा हो जाए तो देखो कि तुमने क्या हासिल किया है और क्या अपना वचन निभाने और इस प्रकार की ईमानदारी रखने का वास्तव में कोई मोल है। क्या यह एक महत्वपूर्ण कार्य में विलंब करना नहीं है? यदि इसके कारण तुम्‍हें अपने कर्तव्य निभाने में देरी हो सकती है और तुम्‍हारा सत्य प्राप्त करना प्रभावित हो सकता है, तो यह तुम्‍हारे जीवन को जोखिम में डालने के बराबर है, है न? यदि तुम नैतिक आचरण पर इन कथनों और आवश्यकताओं को एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य निभाने और सत्य का अनुसरण करने से अधिक महत्वपूर्ण मानते हो, तो तुम स्वयं को इन कथनों द्वारा बंधक बनाए जाने और बाध्‍य करने से मुक्त नहीं कर सकते। यदि तुम उन्हें समझ सकते हो और उनके वास्तविक सार को स्पष्ट रूप से देख सकते हो, उन्हें त्यागने का और उन चीजों के अनुसार नहीं जीने का निर्णय लेते हो, तो तुम्‍हारे पास नैतिक आचरण के इन कथनों के बंधन से मुक्त होने की आशा है। तुम्‍हारे पास एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य पूरे करने और सत्य प्राप्त करने की भी आशा है।

इतनी संगति करने के बाद, क्या अब तुम्‍हारी किसी व्यक्ति की नैतिकता को परखने के, “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” इस कथन और मानक के संबंध में थोड़ी समझ बनी है? (हाँ) तो सार रूप में कहें तो, हमें कितने पहलुओं से समझना चाहिए कि यह वाक्य सही है या गलत? सबसे पहले तो, यह स्पष्ट है कि यह कथन सत्य या परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं है, और यह सत्य का कोई सिद्धांत नहीं है जिसका लोगों को पालन करना चाहिए। तो फिर तुम्‍हें इस मामले से कैसे निपटना चाहिए? इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें कार्य सौंपने वाला कौन है, तुम्‍हें मना करने और यह कहने का अधिकार है, “मैं तुम्‍हारी मदद नहीं करना चाहता; मैं तुम्‍हारे प्रति वफादार रहने के लिए बाध्य नहीं हूँ।’’ यदि तुमने उस समय उनके द्वारा सौंपा कार्य स्वीकार कर लिया था, लेकिन अब जबकि तुम मामले को समझ गए हो, तो तुम मदद नहीं करना चाहते और महसूस करते हो कि उसे पूरा करने की कोई आवश्यकता या बाध्‍यता नहीं है, तो मामला वहीं समाप्त हो जाता है। क्या यह अभ्यास का सिद्धांत है? (हाँ।) तुम “नहीं” कह सकते हो और मना कर सकते हो। दूसरे, इस कथन में कि “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” क्या गलत है? यदि कोई तुम्‍हें कोई सरल कार्य सौंपता है जो आसानी से हो जाता है, तो यह लोगों के बीच बातचीत और व्यवहार की एक आम बात है। इससे यह नहीं बताया जा सकता कि तुम वफादार हो या नहीं या तुम्‍हारा नैतिक चरित्र उच्च है या नहीं, इसका प्रयोग किसी व्यक्ति की नैतिकता मापने के लिए एक मानक के रूप में नहीं किया जा सकता। क्या किसी की ऐसे कार्य में मदद करना जिसमें बहुत कम प्रयास की आवश्यकता है, यह दर्शाता है कि वह व्यक्ति नैतिक और भरोसेमंद है? जरूरी नहीं, क्योंकि हो सकता है कि उस व्यक्ति ने पर्दे के पीछे कई बुरे काम किए हों। यदि उसने कई बुरे काम किए हैं, लेकिन बहुत कम प्रयास से दूसरों की मदद करने के लिए कुछ किया है, तो क्या इसे उच्च नैतिक चरित्र माना जाएगा? (नहीं, ऐसा नहीं है।) इसलिए, यह उदाहरण, “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” इस कथन को उलट देता है। यह सही नहीं है और इसका प्रयोग किसी व्यक्ति के नैतिक चरित्र को मापने के लिए एक मानक के रूप में नहीं किया जा सकता। यह कुछ सामान्य चीजों से निपटने का तरीका है। तो तुम्‍हें कुछ विशेष मामलों से कैसे निपटना चाहिए? यदि कोई तुम्‍हें कोई विशेष महत्वपूर्ण कार्य सौंपता है जो तुम्‍हारी क्षमताओं से बढ़कर है, और तुम्‍हें वह थकाऊ और श्रमसाध्य लगता है और तुम उसे करने में असमर्थ हो, तो तुम बिना बुरा महसूस किए उसके लिए मना कर सकते हो। इसके अतिरिक्त, यदि कोई तुम्‍हें ऐसा कोई कार्य सौंपता है जो विवेकसम्‍मत नहीं है, अवैध है या दूसरों के हितों के लिए हानिकारक है, तो तुम्‍हें विशेष रूप से वह कार्य नहीं करना चाहिए। तो, जब कोई तुम्‍हें कोई कार्य सौंपता है, तो तुम्‍हें कौन-सी मुख्य बात समझने की आवश्यकता है? एक बात तो तुम्‍हें यह समझने की जरूरत है कि सौंपा गया कार्य तुम्‍हारी जि‍म्मेदारी या दायित्व है या नहीं और क्या तुम्‍हें उसे स्वीकार करना चाहिए। दूसरी बात, इसे स्वीकार करने के बाद, तुम इसे करते हो या नहीं, और इसे अच्छी तरह से संभालते हो या खराब तरीके से, क्‍या यह वफादारी और नैतिकता से संबंधित है? यही समझने की मूल बात है। समझने का एक अन्य पहलू सौंपे गए कार्य की प्रकृति है कि वह उचित, वैध, सकारात्मक है या नकारात्मक। इन तीन पहलुओं के माध्यम से इसे समझा जा सकता है। अब, जो अभी संगति की गई थी उस पर विचार करो और उसे सारांशित करो और अपनी राय तथा विचारों पर चर्चा करो। (“अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” इस नैतिक कथन के संबंध में पहली बात, लोग दूसरों के लिए काम करने के लिए बाध्य नहीं हैं, वे मना कर सकते हैं, यह हर किसी का अधिकार है। दूसरी बात, भले ही वे दूसरों द्वारा सौंपे गए किसी कार्य को स्वीकार कर भी लें, पर वे उसे करते हैं या नहीं और अच्छी तरह से करते हैं या खराब तरह से, इसका उनकी नैतिकता से कोई संबंध नहीं है, और इसका प्रयोग किसी व्यक्ति के नैतिक चरित्र को मापने के लिए एक मानक के रूप में नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा, यदि किसी को सौंपा गया कार्य अवैध और अपराध है, तो उसे बिल्कुल नहीं करना चाहिए। यदि वह उसे करता है तो यह एक अपराध है और उसे सजा भुग‍तनी होगी। इन बिंदुओं के माध्यम से, हम वास्तव में “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो” के दृष्टिकोण को पलट सकते हैं।) सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह कथन गलत है। यह कहाँ गलत है? सबसे पहले, ऐसे मामलों से निपटने और उन्‍हें संभालने के लिए यह जो सिद्धांत लागू करने को कहता है, वह गलत है। इसके अतिरिक्त, किसी व्यक्ति के नैतिक चरित्र का मूल्यांकन करने के लिए इस कथन का प्रयोग करना भी गलत है। इसके अलावा, इस कथन का प्रयोग किसी व्यक्ति के नैतिक चरित्र को मापने, उसे बांधने और नियंत्रित करने, काम करवाने के लिए उनका इस्‍तेमाल करने और उनके द्वारा उसका समय, ऊर्जा और धन खर्च करवाकर ऐसी जिम्मेदारियों को पूरा करवाना जो उसकी नहीं हैं या जिसे वहन करने का वह अनिच्छुक है, एक तरह का अपहरण है और यह गलत भी है। ये कुछ त्रुटियाँ, “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” इस कथन के महत्‍व और विशुद्धता को पलटने के लिए पर्याप्त हैं। संक्षेप में इसे सारांशित करते हैं। सबसे पहले, यह कथन “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो” लोगों को बताता है कि उन्हें सौंपे गए कार्यों को कैसे संभालना है। तात्पर्य यह है कि जब कोई तुम्‍हें कोई कार्य सौंपता है, चाहे वह उचित हो या नहीं, अच्छा हो या बुरा, या सकारात्मक हो या नकारात्मक, अगर वह कार्य तुम्‍हें सौंपा गया है, तो तुम्‍हें अपना वचन निभाना होगा। उन्हें संतुष्ट करने के लिए कार्य को अच्छी तरह से करना और पूरा करना तुम्‍हारा दायित्व है। केवल इसी प्रकार का व्यक्ति विश्वसनीय हो सकता है। यह लोगों को बिना विवेक के कार्य करने के लिए बाध्य करता है, जो सबसे पहले तो एक गलत बात है, एक ऐसी गलत बात जो सिद्धांतों के विरुद्ध जाती है। दूसरी बात, लोग “अन्य लोगों ने उन्‍हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश” कर सकते हैं या नहीं, इस मानक का प्रयोग उनके नैतिक चरित्र को मापने के लिए एक आधार के रूप में किया जाता है। क्या माप का यह मानक एक और गलती नहीं कर रहा है? यदि हर कोई उसे सौंपे गए बुरे या दुष्‍टतापूर्ण कार्यों को ईमानदारी से निभाने की पूरी कोशिश करे, तो क्या यह समाज उलट-पुलट नहीं हो जाएगा? इसके अतिरिक्त, यदि इस कथन का प्रयोग हमेशा लोगों के नैतिक चरित्र को मापने के लिए एक मानक के रूप में किया जाता है, तो यह स्वाभाविक रूप से लोगों के विचारों को बांधने और प्रतिबंधित करने के लिए एक सामाजिक माहौल, सार्वजनिक राय और सामाजिक दबाव पैदा करेगा। इसके क्या परिणाम होंगे? “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” इस कथन के अस्तित्व के कारण और समाज में ऐसी सार्वजनिक राय होने के कारण तुम सामाजिक दबाव में रहते हो और ऐसी परिस्थ‍ितियों में इस प्रकार कार्य करने के लिए मजबूर होते हो। तुम अपनी इच्‍छा से इस प्रकार कार्य नहीं करते, यह तुम्‍हारी अपनी क्षमताओं की सीमा के भीतर नहीं है और यह तुम्‍हारे दायित्वों को पूरा नहीं कर रहा है। तुम ऐसा करने के लिए मजबूर हो, और यह माँग तुम्‍हारे दिल की गहराइयों से नहीं आती, न ही सामान्‍यतः मानवता की माँग है, और यह तुम्‍हारे भावनात्मक संबंधों को बनाए रखने की माँग नहीं है। यह सामाजिक दबाव के कारण होता है, जो नैतिक अपहरण के समान है। यदि तुम उन कार्यों को करने में विफल रहते हो जिन्हें तुम दूसरों के लिए करने को सहमत हुए थे, तो तुम्‍हारे माता-पिता, परिवार, सहकर्मी और मित्र तुम्‍हारी आलोचना करते हुए कहेंगे, “तुम्‍हें क्‍या लगता है कि तुम क्‍या कर रहे हो? कहावत है कि ‘अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो।’ जब तुम सहमत हुए थे, तो तुमने कार्य पूरा क्यों नहीं किया? यदि तुम सहमत हुए थे तो तुम्‍हें वह ठीक से करना चाहिए था!” यह सुनने के बाद, तुम्‍हें लगता है कि तुम गलत हो, इसलिए तुम आज्ञाकारी तरीके से कार्य करने लगते हो। कार्य करते समय भी तुम इसे करना नहीं चाहते; तुममें क्षमता नहीं है, और तुम इसे संभाल नहीं पा रहे, लेकिन फिर भी तुम्‍हें दाँत पीसते हुए ही सही, इसे करना होगा। अंत में, तुम्‍हारा पूरा परिवार इसे करने में तुम्‍हारी मदद करता है, और इसमें बहुत सारा पैसा, ऊर्जा लगते हैं और कष्ट आते हैं और यह जैसे-तैसे पूरा हो पाता है। जिस व्यक्ति ने तुम्हें यह सौंपा है, वह तो प्रसन्न है, परन्तु तुम्हारे मन को बहुत कष्ट हुआ है और तुम थक गए हो। भले ही तुम इसे बिना मन के और अनिच्छा से करो, फिर भी तुम हार नहीं मानोगे, और अगली बार जब तुम्‍हारा ऐसी स्थिति से सामना होगा तो तुम फिर से वही सब करोगे। ऐसा क्यों है? क्योंकि तुम आत्म-सम्मान चाहते हो, तुम्‍हें गौरवान्वित होना पसंद है, और साथ ही, तुम जनमत का दबाव सहन नहीं कर सकते। भले ही कोई तुम्‍हें गलत न माने, तुम स्वयं की आलोचना करते हुए कहोगे, “मैंने वह नहीं किया जो मैंने दूसरों के लिए करने को कहा था। यह मैं क्या कर रहा हूँ? मुझे तो खुद से घृणा हो रही है। क्या यह अनैतिक नहीं है?” खुद तुम भी स्वयं का अपहरण कर रहे हो; क्या तुम्‍हारा दिमाग पहले ही कैद हो चुका है? (हाँ।) वास्तव में, उस कार्य का तुमसे थोड़ा भी लेना-देना नहीं है। ऐसा करने से तुम्‍हें कोई लाभ या शिक्षा नहीं मिलती। अगर तुम उसे न करो, तो भी कोई समस्‍या नहीं है और केवल कुछ ही लोग तुम्‍हारी आलोचना करेंगे। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? इससे तुम्‍हारे भाग्‍य में कोई बदलाव नहीं आएगा। लोग तुमसे कुछ भी क्‍यों न करने को कहें, जब तक वह परमेश्‍वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है, तुम इनकार कर सकते हो। इन तीन बिंदुओं के आधार पर, “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो” इस कथन का विश्‍लेषण करने पर क्‍या तुम्‍हें इस कथन का सार समझ में आया है? (हाँ।)

जब कोई तुम्‍हें कुछ कार्य सौंपता है, तो तुम्‍हें किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? क्या इसे क्रियान्वित करने के लिए कोई सिद्धांत नहीं होने चाहिए? सत्य की दृष्टि से इसका आधार क्या है? अभी-अभी, मैंने सबसे महत्वपूर्ण बिंदु का उल्लेख किया, जो यह है कि किसी के जीवनकाल में, माता-पिता की देखभाल करने, बच्चों का पालन-पोषण करने और कानून के ढांचे के भीतर अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को पूर्ण करने के अलावा, किसी के द्वारा सौंपा कार्य स्वीकार करने या किसी के लिए काम करने की कोई बाध्यता नहीं है तथा किसी और के मामलों या सौंपे कार्य के लिए जीने की कोई जरूरत नहीं है। मानव जीवन का मोल और अर्थ केवल एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने में ही पाया जा सकता है। इसके अलावा, किसी के लिए कुछ करने का जरा भी अर्थ नहीं है; यह सब बेकार का काम है। इसलिए, यह कथन “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” लोगों द्वारा लोगों पर थोपी गई बात है और इसका परमेश्वर से कोई संबंध नहीं है। यह कथन परमेश्वर की मनुष्यों से अपेक्षा बिल्‍कुल नहीं है। यह दूसरों द्वारा तुम्‍हारा शोषण करने, नैतिक रूप से तुम्‍हारा अपहरण करने और तुम्‍हें नियंत्रित तथा बाध्य करने से पैदा होता है। इसका परमेश्वर द्वारा सौंपे गए दायित्व या एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्‍हारे कर्तव्य पालन से थोड़ा-सा भी संबंध नहीं है। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) इस दुनिया में, पूरे ब्रह्मांड में, एक सृजित प्राणी के रूप में, परमेश्‍वर और उसके द्वारा सौंपे गए कार्यों के प्रति वफादार होने और एक इंसान के रूप में अपने कर्तव्य के प्रति वफादार होने के अलावा, कोई भी और कुछ भी तुम्‍हारी वफादारी के योग्‍य नहीं है। यह स्पष्ट है कि “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” आचरण का कोई सिद्धांत नहीं है। यह त्रुटिपूर्ण है और सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। यदि कोई तुम्‍हें कोई कार्य सौंपता है, तो तुम्‍हें क्या करना चाहिए? यदि तुम्‍हें सौंपा गया कार्य कुछ ऐसा है जिसके लिए बहुत ही कम प्रयास की आवश्यकता है, जहाँ तुम्‍हें केवल बोलने या कोई छोटा-सा कार्य करने की आवश्यकता है, और तुम्‍हारे पास उसे करने की पर्याप्‍त योग्‍यता है, तो तुम अपनी मानवता और करुणा के नाते मदद कर सकते हो; तो इसे गलत नहीं माना जाता। यह एक सिद्धांत है। हालाँकि, यदि तुम्‍हें सौंपा गया कार्य तुम्‍हारा बहुत-सा समय और ऊर्जा ले लेता है, या तुम्‍हारा काफी सारा समय भी बरबाद कर देता है, तो तुम्‍हारे पास इनकार करने का अधिकार है। भले ही वे तुम्‍हारे माता-पिता हों, तुम्‍हें अस्वीकार करने का अधिकार है। उनके प्रति वफादार रहने या उनके द्वारा सौंपा कार्य करने की कोई आवश्यकता नहीं है, यह तुम्‍हारा अधिकार है। यह अधिकार कहाँ से आता है? यह तुम्‍हें परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया है। यह दूसरा सिद्धांत है। तीसरा सिद्धांत यह है कि यदि कोई तुम्‍हें कुछ कार्य सौंपता है, तो भले ही उसमें ज्यादा मात्रा में समय और ऊर्जा की खपत न हो, लेकिन वह तुम्‍हारे कर्तव्य पालन को बाधित या प्रभावित कर सकता हो, या अपना कर्तव्‍य निभाने की तुम्‍हारी इच्‍छा और साथ ही परमेश्‍वर के प्रति तुम्‍हारी वफादारी को खत्‍म कर सकता हो तो तुम्‍हें उसे भी अस्वीकार कर देना चाहिए। यदि तुम्‍हें कोई ऐसा कार्य सौंपता है जो तुम्‍हारे सत्‍य के अनुसरण को प्रभावित कर सकता हो, सत्‍य का अनुसरण करने की तुम्‍हारी इच्‍छा और गति को बाधित कर सकता हो या उसमें रुकावट डाल सकता हो और तुम्‍हें आधे रास्‍ते ही हार मान लेने को मजबूर करता हो, तो तुम्‍हें उसके लिए तो और भी इनकार कर देना चाहिए। तुम्‍हें ऐसी किसी भी चीज से इनकार कर देना चाहिए जो तुम्‍हारे कर्तव्य पालन या सत्य के अनुसरण को प्रभावित करती हो। यह तुम्‍हारा अधिकार है; तुम्‍हें “नहीं” कहने का अधिकार है। तुम्‍हें अपना समय और ऊर्जा निवेश करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम उन सभी चीजों के लिए इनकार कर सकते हो जिनका तुम्‍हारे कर्तव्य पालन, सत्य की खोज या तुम्‍हारे उद्धार के लिए कोई अर्थ, मोल, सीख, सहायता या लाभ नहीं है। क्या इसे एक सिद्धांत माना जा सकता है? हाँ, यह एक सिद्धांत है। तो यदि तुम इन सिद्धांतों के अनुसार देखते हो, तो लोगों को अपने जीवन में जिन सौंपे गए कार्यों को स्वीकार करना चाहिए, वे कहाँ से आ सकते हैं? (परमेश्वर से।) यह सही है, वे केवल परमेश्‍वर से ही आ सकते हैं। “परमेश्वर से” शब्द अपेक्षाकृत खोखले और सूदूर हैं, तो यह सौंपा गया कार्य वास्तव में क्या होना चाहिए? (अपना कर्तव्य निभाना।) यह सही है, इसका मतलब कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाना है। परमेश्वर के लिए व्यक्तिगत रूप से यह असंभव है कि वह तुमसे कहे, “तुम जाकर सुसमाचार फैलाओ” “तुम कलीसिया का नेतृत्व करो,” या “तुम पाठ-आधारित कार्य करो।” परमेश्वर के लिए तुम्‍हें व्यक्तिगत रूप से बताना असंभव है, लेकिन परमेश्वर ने अपने घर की व्यवस्था के माध्यम से तुम्‍हें तुम्‍हारा कर्तव्य सौंपा है। परमेश्वर के घर की सभी व्यवस्थाएँ परमेश्वर से उत्पन्न होती हैं और परमेश्वर से ही आती हैं, तो क्या तुम्‍हें परमेश्वर के व्यक्तिगत रूप से बताने की आवश्‍यकता है? तुम पहले ही परमेश्वर की संप्रभुता और आयोजन के सभी लोगों, घटनाओं और चीजों का अनुभव कर चुके हो और तुम्‍हारे भाव सच्‍चे हैं। तुमने जो अनुभव किया है वह परमेश्वर के कार्य, सत्य और उसकी प्रबंधन योजना से संबंधित है। क्या यह एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना नहीं है? यह सौंपा गया कार्य स्वीकार करने के पहलू से है। दूसरी बात, जो कुछ परमेश्वर की ओर से सौंपा गया है उसके अलावा, कोई अन्य चीज नहीं है जिसके प्रति लोगों को वफादार होना चाहिए। केवल परमेश्वर ही अटूट विश्वासनीयता का पात्र है; लोग इसके योग्य नहीं हैं। तुम्‍हारे पूर्वजों, माता-पिता या वरिष्ठों सहित कोई भी योग्य नहीं है। क्यों? सर्वोच्च सत्य यह है कि यह स्वर्ग द्वारा निर्धारित और पृथ्वी द्वारा स्वीकृत मामला है कि सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के प्रति वफादार रहें। क्या तुम्‍हें इस सत्य का विश्लेषण करने की आवश्यकता है? नहीं, क्योंकि लोगों के बारे में सब कुछ परमेश्वर से आता है, यह स्वर्ग द्वारा निर्धारित और पृथ्वी द्वारा स्वीकृत मामला है कि सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के प्रति वफादार रहें। यह एक सर्वोच्च सत्य है जिसे लोगों को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए! दूसरा सत्य जो लोगों को समझना चाहिए वह यह है कि परमेश्वर के प्रति वफादार रहने से, लोगों को परमेश्वर से जो कुछ भी प्राप्त होता है वह सत्य, जीवन और मार्ग है। उनका लाभ समृद्ध और प्रचुर है, विशेष रूप से प्रचुर और विपुल है। जब मनुष्य सत्य, जीवन और मार्ग प्राप्त कर लेते हैं, तो उसका जीवन मूल्यवान हो जाता है। इसलिए, जब तुम परमेश्वर के प्रति वफादार होते हो, तो तुम्‍हारे द्वारा बलिदान किए गए समय, ऊर्जा और लागत को सकारात्मक रूप से पुरस्कृत किया जाएगा, और तुम्‍हें कभी पछतावा नहीं होगा। अब तक, कुछ लोगों ने बीस या तीस वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण किया है, और कुछ ने तीन से पाँच वर्ष या दस वर्ष तक परमेश्वर का अनुसरण किया है। मेरा मानना है कि उनमें से अधिकांश को कोई पछतावा नहीं है और उन्होंने कुछ हद तक लाभ पाया है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, जितना अधिक वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं उतना ही अधिक उन्हें लगता है कि उनमें बहुत अधिक कमी है और सत्य बहुमूल्य है। सत्य का अनुसरण करने की उनकी इच्छा बढ़ती है, और उन्हें लगता है कि उन्होंने परमेश्वर को बहुत देर से स्वीकार किया है और यदि उन्होंने उसे तीन से पाँच साल या दस साल पहले स्वीकार किया होता, तो वे कितना सत्य समझ गए होते! कुछ लोग बहुत देर से परमेश्वर को स्वीकार करने पर पछतावा करते हैं, इस बात पर पछताते हैं कि उन्होंने सत्य का अनुसरण किए बिना कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया और अपना समय बरबाद किया, और इस बात पर पछताते हैं कि उन्होंने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाए बिना कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया। संक्षेप में, चाहे कोई व्यक्ति कितने भी समय तक परमेश्वर में विश्वास करे, वे सभी कुछ न कुछ हासिल करते हैं और महसूस करते हैं कि सत्य का अनुसरण करना अविश्वसनीय रूप से महत्वपूर्ण है। यह दूसरा सत्य है : कि परमेश्वर के प्रति वफादार रहने से, लोगों को परमेश्वर से जो कुछ भी प्राप्त होता है वह सत्य, मार्ग और जीवन है, और उन्हें बचाया जा सकता है, वे अब शैतान की शक्ति के अधीन नहीं जीते हैं। तीसरा सत्य यह है कि यदि लोग परमेश्वर के प्रति शाश्वत निष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, तो उनका अंतिम गंतव्य क्या होगा? (बचाया जाना और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लिए बने रहना।) जब लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हैं और अंततः बचाए जाते हैं, तो उन्हें जो गंतव्य मिलता है वह नरक में डाल दिया जाना और नष्ट होना नहीं है, बल्कि एक नए इंसान के रूप में बने रहना है, जीवित रहने में सक्षम होना है। यदि लोग जीवित रहते हैं तो उनके परमेश्वर के दर्शन करने की आशा रहेगी। यह कितना बड़ा आशीर्वाद है! परमेश्वर के प्रति वफादार होने के मामले में, क्या लोगों के लिए इन तीन सत्यों को समझना पर्याप्त है? (हाँ।) यदि लोग दूसरों का अनुसरण करें और उनके प्रति वफादार रहें तो क्या लाभ हैं? यदि तुम दूसरों के प्रति वफादार रहो, तो लोग कहते हैं कि तुम्‍हारे पास अच्छे नैतिक गुण हैं। तुम्‍हारी अच्‍छी प्रतिष्‍ठा है, और तुम्‍हें केवल यही छोटा-सा लाभ मिलता है। क्या तुमने जीवन और सत्य प्राप्त कर लिया है? तुम्‍हें यह बिल्कुल भी हासिल नहीं होता है। जब तुम किसी व्यक्ति के प्रति वफादार होते हो, तो वह तुम्हें क्या दे सकता है? अधिक से अधिक, तुम उनके करिअर में तेजी से सफल होने के दौरान उनके साथ जुड़ने से लाभान्वित हो सकते हो, बस इतना ही। उसका मूल्य क्या है? क्या यह खोखला नहीं है? जो चीजें सत्य से संबंधित नहीं हैं वे बेकार हैं, चाहे तुम उन्हें कितना भी हासिल क्‍यों न कर लो। इसके अलावा, यदि तुम लोगों का अनुसरण करते हो और उनके प्रति वफादार रहते हो, तो उसका दुष्परिणाम हो सकता है। तुम एक शिकार, भेंट बन सकते हो। यदि तुम जिस व्यक्ति के प्रति वफादार हो, वह सही रास्ते पर नहीं चलता है, तो तुम्‍हारे उसका अनुसरण करने से क्या होगा? क्या तुम सही रास्ते पर चलोगे? (नहीं।) यदि तुम उनका अनुसरण करते हो, तो तुम भी सही रास्ते पर नहीं चलोगे; बल्कि, तुम भी बुराई करने में उनका अनुसरण करोगे और दंडित होने के लिए नरक में जाओगे, और फिर तुम्‍हारा खेल खत्‍म हो जाएगा। यदि तुम किसी व्यक्ति के प्रति वफादार हो, तो भले ही तुम बहुत-से अच्छे काम कर लो, तुम्‍हें परमेश्‍वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं होगा। यदि तुम दानव राजाओं, शैतान, या मसीह-विरोधियों के प्रति वफादार रहते हो, तो तुम शैतान के सहयोगी और अनुचर बन जाते हो। इसका परिणाम केवल शैतान के साथ दफनाया जाना, शैतान के लिए बलि बन जाना हो सकता है। अविश्वासियों का कहना है, “राजा की संगत में रहना बाघ की संगत में रहने जितना खतरनाक है।” तुम दानव राजाओं के प्रति कितने भी वफादार क्‍यों न हों, अंत में, उनके द्वारा तुम्‍हारा प्रयोग कर लेने के बाद वे तुम्‍हें निगल लेंगे और अपना शिकार बना लेंगे। तुम्‍हारी जान हमेशा खतरे में रहेगी। दानव राजाओं और शैतान के प्रति वफादार रहने का यही भाग्यफल है। दानव राजा और शैतान कभी भी तुम्‍हें तुम्‍हारे जीवन की सही दिशा और उद्देश्य नहीं दिखाएँगे, और तुम्‍हारा जीवन के सही रास्‍ते पर मार्गदर्शन नहीं करेंगे। तुम उनसे कभी भी सत्य या जीवन प्राप्त नहीं कर पाओगे। उनके प्रति तुम्‍हारी वफादारी का अंत या तो उनके साथ नष्ट हो जाना है और उनकी बलि बन जाना, या उनके द्वारा फँसाया जाना, विकृत कर दिया जाना और निगल लिया जाना है; यह सब नरक में जाने का अंतिम परिणाम है। यह एक निर्विवाद तथ्य है। इसलिए, कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कितना भी प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित या प्रभावशाली व्यक्ति हो, वह इस योग्य नहीं है कि तुम उसके प्रति वफादार रहो और उसके लिए अपना पूरा जीवन बलिदान कर दो। वह इस योग्य नहीं है, और उसमें तुम्‍हारे भाग्य को बनाने या बिगाड़ने की शक्ति नहीं है। क्या सत्य के इस सिद्धांत को समझना, लोगों का अनुसरण करने और उनके प्रति वफादार रहने जैसी समस्याओं को हल करने के लिए पर्याप्त है? (हाँ।) तीन सिद्धांत हैं जिनका पालन दूसरों द्वारा तुम्‍हें सौंपे गए कार्यों से निपटने के दौरान किया जाना चाहिए, और लोगों की परमेश्‍वर के प्रति वफादारी के मोल और महत्व पर तीन सिद्धांतों पर संगति की गई थी—क्या तुम लोग इन सभी सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से समझते हो? (हाँ।) संक्षेप में, “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो”, इस कथन का विश्लेषण करने का उद्देश्य तुम्‍हें इसका बेतुकापन और झूठ स्पष्ट रूप से देखने में मदद करना है ताकि तुम इसे त्‍याग सको। हालाँकि, इसे छोड़ देना ही पर्याप्त नहीं है; तुम्हें उन अभ्यास सिद्धांतों को भी समझना होगा जो लोगों के पास होने चाहिए, साथ ही ऐसे मामलों में परमेश्वर की इच्छा को भी समझना चाहिए। “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो” के नैतिक कथन के संबंध में मुख्य बात मूल रूप से यही है। मैंने बस विभिन्न पहलुओं और दृष्टिकोणों से विश्लेषण किया, और फिर विशेष रूप से अभ्यास के सिद्धांतों पर संगति की जो परमेश्‍वर ने लोगों के समक्ष प्रकट किए हैं, और इस पर संगति की कि परमेश्‍वर की इच्छा क्या है, और लोगों को कौन से सत्य समझना चाहिए। इन बिंदुओं को समझने के बाद, लोगों को बुनियादी तौर पर यह समझना चाहिए कि “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो” के नैतिक कथन को कैसे समझा जाए।

“अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,” इस विषय का विश्लेषण करना वास्तव में काफी सरल है, और लोग इसे आसानी से पहचान और समझ सकते हैं। यह वाक्यांश भी नैतिकतावादियों द्वारा लोगों को पंगु बनाने, लोगों के विचारों को भ्रमित करने और सामान्य सोच को बाधित करने के लिए प्रस्‍तुत एक कथन है, और यह सामान्य मानवीय विवेक, तर्क या सामान्य मानवीय आवश्यकताओं पर आधारित नहीं है। ऐसे विचार तथाकथित विचारकों और नैतिकतावादियों द्वारा गढ़े जाते हैं, जिन्हें सद्गुण के रूप में प्रचारित किया जाता है। ये न केवल आधारहीन और निरर्थक हैं, बल्कि अनैतिक भी हैं। इसे अनैतिक क्यों माना जाता है? क्योंकि यह सामान्य मानवता की आवश्यकताओं से उत्पन्न नहीं होता है, इसे मानवीय क्षमताओं के दायरे में हासिल नहीं किया जा सकता है, और यह कोई दायित्व या कर्तव्य नहीं है जिसे मनुष्यों को निभाना चाहिए। वे तथाकथित नैतिकतावादी, “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो” इस वाक्यांश को आचरण के ऐसे मानक के रूप में लेते हैं जिसकी वे लोगों से सख्ती से माँग करते हैं, जिससे एक प्रकार का सामाजिक माहौल और सार्वजनिक राय बनती है। फिर इस जनमत से लोगों का दमन किया जाता है और उन्हें इसी तरह जीने के लिए मजबूर किया जाता है। इस तरह, लोगों के विचार अदृश्य रूप से इस प्रकार की शैतानी सोच से बंध जाते हैं। एक बार जब किसी व्यक्ति के विचार बंधे होते हैं, तो उसके कार्य भी स्पष्ट रूप से इस कथन और जनता की राय से बंधे होते हैं। बंधे होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि लोग यह नहीं चुन सकते कि वे क्या करें, वे स्वतंत्र रूप से मानवीय प्रकृति की इच्छाओं और माँगों के अनुसार नहीं चल सकते, और जो वे करना चाहते हैं उसे करने के लिए अपने विवेक और तर्क के अनुसार नहीं चल सकते। इसके बजाय, वे एक विकृत विचार, एक प्रकार के वैचारिक सिद्धांत और सामाजिक राय से विवश और बंधे हुए हैं, जिससे लोग अलग या मुक्त नहीं हो सकते। लोग अनजाने में इस तरह के सामाजिक परिवेश और वातावरण में रहते हैं और इससे मुक्त नहीं हो पाते हैं। यदि लोग सत्य को नहीं समझते हैं, यदि वे इन कथनों में मौजूद भ्रांतियों और त्रुटियों को स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकते हैं, और यदि वे अपने विचारों को बांधने वाले इन कथनों से होने वाले नुकसान और परिणामों को समझ नहीं सकते हैं, तो वे कभी भी पारंपरिक संस्कृति और सामाजिक राय द्वारा लगाए गए अवरोधों, बंधनों और दबावों से मुक्‍त नहीं हो पाएँगे। वे लोग केवल इन चीजों पर भरोसा करके ही जी पाएँगे। लोगों के इन चीजों पर भरोसा करके जीने का कारण यह है कि वे नहीं जानते कि सही रास्ता क्या है, उनके आचरण की दिशा और उद्देश्य क्या हैं, और न ही स्‍वयं के आचरण के सिद्धांत क्या हैं। वे पारंपरिक संस्कृति के विभिन्न नैतिक कथनों से स्वाभाविक और निष्क्रिय रूप से भ्रमित होते हैं, इन गलत सिद्धांतों द्वारा गुमराह और नियंत्रित होते हैं। जब लोग सत्य समझ जाते हैं, तो उनके लिए इन अफवाहों और भ्रांतियों को समझना और अस्वीकार करना आसान हो जाता है। वे शैतान द्वारा बनाए गए समाज में जनमत, वातावरण और माहौल से बंधे, अपहृत या शोषित नहीं रह जाते हैं। इस तरह, उनके जीवन की दिशा और उद्देश्य पूरी तरह से बदल जाते हैं, और वे परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके वचनों के अनुसार जी सकते हैं और अस्तित्व में रह सकते हैं। वे अब विभिन्न शैतानी सिद्धांतों और पारंपरिक संस्कृति की विभिन्न भ्रांतियों से भ्रमित या बंधे नहीं रहते। जब लोग नैतिक आचरण के बारे में पारंपरिक संस्कृति में विभिन्न कथनों को पूरी तरह से त्याग देते हैं, तो यही वह क्षण होता है जब वे खुद को शैतान के भ्रष्टाचार, धोखे और बंधन से पूरी तरह मुक्त कर लेते हैं। इस आधार पर, जब तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सत्य और अभ्यास के उन सिद्धांतों को समझ जाते हो जिन्हें वह मनुष्यों को देता है, तो तुम्‍हारे जीवन का उद्देश्य पूरी तरह से बदल जाता है और तुम्‍हारे पास एक नया जीवन होता है। जब तुम्‍हारे पास एक नया जीवन होता है, तो तुम एक नवजात मनुष्‍य होते हो और तुम एक नए इंसान होते हो। चूँकि तुम्‍हारे मन में संग्रहीत विचार अब शैतान द्वारा तुम्‍हारे अंदर डाले गए विभिन्न पाखंडों और भ्रांतियों से भरे हुए नहीं हैं, और इसके बजाय सत्य ने इन शैतानी चीजों का स्थान ले लिया है, जिसके बाद, परमेश्‍वर के वचनों के मार्गदर्शन में, सत्य लोगों के भीतर जीवन बन जाता है, इस बात को दिशा दिखाता और संचालित करता है कि वे लोगों और चीजों को कैसे देखते हैं, कैसा आचरण और कार्य करते हैं। वे मानव जीवन के सही मार्ग पर चलते हैं और प्रकाश में रह सकते हैं। क्या यह परमेश्वर के वचनों के माध्यम से पुनर्जन्म होने जैसा नहीं है? ठीक है, तो चलो आज की संगति यहीं समाप्त करते हैं।

2 जुलाई, 2022

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