सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (15)

वर्तमान में आपदाएँ बद से बदतर होती जा रही हैं। न सिर्फ महामारी फैलती जा रही है, बल्कि लोगों पर अकाल भी मँडरा रहा है। कुछ क्षेत्रों में युद्ध छिड़ गया है और दुनिया भर के कई देशों में अराजकता है। वहाँ पहले से ही बड़े पैमाने पर फूट है। अतीत में यह कहा गया है कि, “युद्ध की लपटें चक्कर लगाती हैं, तोप का धुआं हवा में भर गया है, मौसम गर्म हो गया, जलवायु परिवर्तित हो रही है, महामारी फैलेगी,” और यह भविष्यवाणी पहले से ही सच हो रही है। महामारी फैल रही है और कम नहीं हो रही, और अविश्वासी भीषण तंगहाली में जी रहे हैं। हर दिन और साल पिछले दिन और साल से बदतर है, और वे पहले ही आपदा में घिर चुके हैं। वे सभी इस पीड़ा से मुक्त होना चाहते हैं और आपदा से बचना चाहते हैं। वे सभी उम्मीद करते हैं कि सरकार उन्हें बचा लेगी और उन्हें आपदा से छुटकारा दिलाएगी, लेकिन सरकार लहरों के थपेड़े खाते रेत के महल की तरह है—शक्तिहीन और खुद को भी बचाने में असमर्थ, किसी और की तो बात ही छोड़ दो। अब किसी भी दिन सरकार गिर सकती है और नष्ट हो सकती है; यह अपरिहार्य है। तुम सभी ने देखा है कि अविश्वासियों पर क्या बीत रही है—वे वाकई पीड़ित हैं! इस समय तुम लोगों का क्या हाल है? क्या तुम उनसे बहुत बेहतर स्थिति में नहीं हो? (हाँ, हैं।) तुम कैसे उनसे बेहतर स्थिति में हो? (हम अभी भी परमेश्वर के वचन एक-साथ पढ़ने और सत्य पर संगति करने में सक्षम हैं। हम अभी भी परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने और जीवन-प्रवेश खोजने में सक्षम हैं। हमारे दिल शांत और चिंता से मुक्त हैं। हम अविश्वासियों की तुलना में बहुत बेहतर स्थिति में हैं।) कम से कम, जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे अविश्वासियों की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं, क्योंकि उनके पास भरोसा करने के लिए कुछ है। वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास करते हैं; वे मानते हैं कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है, और वे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं में विश्वास करते हैं। चूँकि परमेश्वर में उनकी आस्था और वास्तविक विश्वास है, इसलिए उनके पास भरोसा करने के लिए कुछ वास्तविक है, और सुरक्षा की भावना है। जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनके दिल में वास्तविक सहारे की भावना होती है, साथ ही सुरक्षा, शांति और खुशी की भावना भी होती है, चाहे बाहर का व्यापक परिवेश कितना भी खतरनाक या अराजक क्यों न हो। इसलिए, चाहे लोग किसी भी स्थिति का अनुभव करें, चाहे बाहर का परिवेश कैसे भी बदले, चाहे कुछ भी हो, चाहे कोई आपदा, युद्ध या महामारी हो, और चाहे कोई बड़ी घटना हो या छोटी समस्या, अगर वे ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने, परमेश्वर के वचन खाने-पीने, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और सत्य प्राप्त करने की कोशिश करने के लिए खुद को समर्पित कर सकते हैं, क्योंकि वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं और धर्मनिरपेक्ष प्रवृत्तियों से दूर रहते हैं। यह बात अपरिवर्तित रहती है। सबसे अहम चीज और सबसे अहम लक्ष्य, जिसे तुम्हें परमेश्वर में अपने विश्वास में खोजना चाहिए, बदल नहीं सकता, और वह है सत्य का अनुसरण करना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना और परमेश्वर की सुंदर गवाही देना। यह बिल्कुल नहीं बदल सकता।

चाहे दुनिया कैसे भी बदले, चाहे शैतान की ताकतें कैसे भी लड़ें-झगड़ें और चाहे यह समाज और दुनिया कितनी भी अराजक हो जाए, शैतान के धोखे, भ्रष्टता, बंधन और मानवजाति पर नियंत्रण जैसी अपरिहार्य समस्याएँ अपरिवर्तित रहती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि विभिन्न पाखंड और भ्रांतियाँ जो शैतान लोगों में भरता है, और वे तमाम विचार और शब्द जो परमेश्वर का विरोध करते हैं और परमेश्वर द्वारा मनुष्यों और सभी चीजों की रचना के नियमों और विनियमों के विपरीत हैं, अपरिवर्तित रहते हैं। एक बात तो यह है कि ये शैतानी चीजें नहीं बदली हैं। दूसरी बात यह कि चाहे इस दुनिया की अवस्था और संरचना कैसे भी बदल जाए, शैतान द्वारा लोगों के दिलों में गहराई से रोपे गए पाखंड और भ्रांतियाँ दूर नहीं हुईं। ऐसा इसलिए नहीं है कि दुनिया अराजकता की स्थिति में है, या शैतान की हालत अब खराब है और वह दुनिया को नियंत्रित करने में इतना कमजोर हो गया है कि जिन पाखंडों और भ्रांतियों से वह लोगों को धोखा देता और भ्रष्ट करता है, वे लोगों के दिलों से मिट गए हैं। यह मामला नहीं है। शैतान के पाखंड और भ्रांतियाँ अभी भी लोगों के दिलों में मौजूद हैं और कोई उन्हें दूर नहीं कर सकता। शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट करने की शुरुआत से ही, शैतान के पाखंड और भ्रांतियाँ धीरे-धीरे हर सृजित मनुष्य के दिलो-दिमाग में गहराई से रोपी गई हैं। ये चीजें आज भी लोगों के दिलो-दिमाग में पूरी तरह से अपरिवर्तित हैं। यहाँ तक कि परमेश्वर द्वारा कई वर्षों तक कार्य करने और लोगों को बहुत सारा सत्य प्रदान करने के बाद भी, लोग अभी भी शैतान द्वारा उनमें डाले गए विभिन्न विचार, मत और कहावतें पहचानने में असमर्थ हैं, परिवेशगत कारकों के प्रभाव की अनुपस्थिति में सक्रिय रूप से इन चीजों को पहचानने या इन्हें अपने दिल से निकाल देने का प्रयास करना तो दूर की बात है। न ही वे, परमेश्वर के वचनों का पोषण और मार्गदर्शन मिलने के बावजूद सक्रिय रूप से उन विभिन्न विचारों और कथनों को नकारने में सक्षम हैं, जो शैतान ने उनमें डाले हैं। हालाँकि शुरुआत में लोगों को शैतान द्वारा निष्क्रिय रूप से भ्रष्ट किया गया था, फिर भी शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट करने की पूरी प्रक्रिया के दौरान, लोगों ने शैतान के स्वभाव के अनुसार जीना शुरू कर दिया, और चीजों को शैतान की सोच और परिप्रेक्ष्य के अनुसार देखा। धीरे-धीरे, लोगों ने शैतान के साथ अधिकाधिक सक्रिय रूप से सहयोग करना शुरू कर दिया, और परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने, परमेश्वर से विमुख होने और परमेश्वर को त्यागने में और अधिक सक्रिय हो गए, जब तक कि अंत में शैतान ने उन पर पूर्ण नियंत्रण नहीं कर लिया। जब शैतान के बुरे और हास्यास्पद विचार और दृष्टिकोण पूरी तरह से लोगों में भर जाते हैं, तब वे पूरी तरह से शैतान द्वारा कैद कर लिए जाते हैं और उसके गुलाम बन जाते हैं, या, अधिक सटीक रूप से कहें तो, वे शैतान का मूर्त रूप बन जाते हैं। जब ऐसा होता है, तो लोग पूरी तरह से शैतान के स्वभाव को जीते हैं। वे न सिर्फ शैतान के फलसफे और विचारधारा के अनुसार जीते हैं, बल्कि शैतान ने उनमें जो विभिन्न धारणाएँ और विचार डाले हैं, वे उनकी प्रकृति में शामिल हो गए हैं। अधिक सटीक रूप से कहें तो, लोग न सिर्फ शैतान की छवि को जी रहे हैं, बल्कि वे शैतान के रूप में, दानव के रूप में जी रहे हैं। जब ऐसा होता है, तब लोग शैतान द्वारा निष्क्रिय रूप से भ्रष्ट, प्रभावित, ठगे या नियंत्रित नहीं किए जाते, बल्कि वे परमेश्वर का विरोध करते हुए पूरी तरह से शैतान के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। जब लोग इस हद तक भ्रष्ट हो जाते हैं, तो तुम कह सकते हो कि वे शैतान के लिए एक निकास और उसका मूर्त रूप बन गए हैं। परमेश्वर के लिए एक ऐसे सृजित प्राणी को बचाने के लिए, जो शैतान के लिए एक निकास और उसका मूर्त रूप है, सत्य प्रदान करने और लोगों के विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों और क्रियाकलापों को, जो परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं, प्रकट करने के अलावा शैतान की तरह के उन विचारों, परिप्रेक्ष्यों और कथनों को उजागर कर उनका विश्लेषण करना ज्यादा अहम है, जिन्हें लोग अपने दिलों में गहराई से रखते हैं। लोगों और शैतान के विचार, परिप्रेक्ष्य और कथन एक-जैसे हैं। शैतान इन चीजों के अनुसार जीवन जीता है, और इसी तरह, चूँकि लोगों को शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया है, इसलिए वे भी स्वाभाविक रूप से इन्हीं चीजों के अनुसार जी रहे हैं। यह बिल्कुल इसी वजह से है कि चूँकि लोग इन चीजों के अनुसार जीते हैं और इन परिप्रेक्ष्यों से इतने प्रभावित, शासित और नियंत्रित होते हैं कि सत्य का एक भाग समझने और यह जानने के बाद भी कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, वे परमेश्वर में अपने विश्वास के आधार पर उसके सामने सिर झुका नहीं सकते या पूरी तरह से उसके प्रति समर्पित नहीं हो सकते, न ही वे सच्चे दिल से उसकी आराधना कर सकते हैं। लोगों के सच्चे दिल से परमेश्वर की आराधना न कर पाने का कारण यह है कि अपने दिलो-दिमाग की गहराई में वे अभी भी शैतान के विभिन्न विचारों और परिप्रेक्ष्यों से ग्रस्त और नियंत्रित हैं। यही कारण है कि जब लोग परमेश्वर का कार्य स्वीकार लेते और जीत लिए जाते हैं, तो वे परमेश्वर के वचनों को जीवन के रूप में स्वीकारने में सक्षम होने के बावजूद शैतान के विभिन्न पाखंडों और भ्रांतियों को पूरी तरह से त्यागने में असमर्थ होते हैं; वे अभी भी अंधकार के प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पाते और परमेश्वर के प्रति वास्तव में आज्ञाकारी नहीं बन पाते या उसकी आराधना नहीं कर पाते। इसलिए, अगर परमेश्वर को मानवजाति को बचाना है, तो एक तो उसे लोगों का न्याय कर उनके भ्रष्ट स्वभावों को स्वच्छ करने के लिए सत्य व्यक्त करना होगा; लोगों को सत्य समझकर परमेश्वर को जानने और उसकी आज्ञा मानने के लिए प्रेरित करना होगा; लोगों को सिखाना होगा कि उन्हें कैसे आचरण करना चाहिए और वे सही मार्ग पर कैसे चल सकते हैं; और लोगों को बताना होगा कि उन्हें सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए, वे अपना कर्तव्य कैसे अच्छी तरह से निभा सकते हैं और सत्य-वास्तविकताओं में कैसे प्रवेश कर सकते हैं। दूसरे, उसे शैतान के विचार और दृष्टिकोण उजागर करने होंगे। उसे उन विभिन्न पाखंडों और भ्रांतियों को उजागर कर उनका विश्लेषण करना होगा, जिनके द्वारा शैतान लोगों को भ्रष्ट करता है, ताकि लोग उन्हें पहचान सकें। तब लोग इन शैतानी चीजों को अपने दिलों से निकाल सकते हैं, स्वच्छ हो सकते हैं और उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह, लोग समझेंगे कि सत्य क्या है, और वे शैतान के स्वभाव, शैतान की प्रकृति और उसके पाखंड और भ्रांतियाँ भी पहचान पाएँगे। जब लोग स्वीकारते हैं कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और उनमें परमेश्वर का अनुसरण करने की आस्था होती है, तो वे अपने दिल की गहराई में शैतान की कुरूपता देख पाएँगे और वास्तव में शैतान को नकार देंगे। तब इन लोगों के हृदय पूरी तरह से परमेश्वर की ओर लौट सकते हैं। कम से कम, जब व्यक्ति का हृदय परमेश्वर की ओर लौटना शुरू कर रहा होता है, लेकिन अभी तक पूरी तरह से वापस नहीं लौटा होता, अर्थात् जब उसके हृदय में अभी तक सत्य नहीं होता, और अभी तक उसे परमेश्वर द्वारा प्राप्त नहीं किया गया होता, तो वह अपने जीवन में उन सभी कथनों को पहचानने, उनका विश्लेषण कर उन्हें समझने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करेगा, जिन्हें शैतान लोगों में भरता है, और अंततः शैतान को त्याग देगा। इस तरह, लोगों के दिलों में शैतान का स्थान लगातार घटते-घटते पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। उसकी जगह परमेश्वर के वचन, परमेश्वर से मिलीं शिक्षाएँ, परमेश्वर से मिले सत्य-सिद्धांत इत्यादि ले लेंगे। सकारात्मकता और सत्य का यह जीवन धीरे-धीरे लोगों के भीतर जड़ें जमा लेगा और उनके दिलों में सबसे अहम जगह ले लेगा, और नतीजतन, लोगों के दिलों पर परमेश्वर का प्रभुत्व होगा। अर्थात्, जब लोगों को भ्रष्ट बनाने वाले विभिन्न शैतानी विचारों, दृष्टिकोणों, पाखंडों और भ्रांतियों को पहचानकर उनकी असलियत जान ली जाएगी, और लोगों को उनका तिरस्कार और त्याग करने के लिए प्रेरित कर लिया जाएगा तो सत्य धीरे-धीरे लोगों के दिलों पर कब्जा कर लेगा। वह धीरे-धीरे लोगों का जीवन बन जाएगा और वे सक्रिय रूप से परमेश्वर का आज्ञापालन और अनुसरण करेंगे। परमेश्वर चाहे कैसे भी कार्य और अगुआई करे, लोग सक्रिय रूप से सत्य और परमेश्वर के वचन स्वीकारने और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम होंगे। इसके अलावा, इस अनुभव के माध्यम से वे सक्रिय रूप से सत्य के लिए प्रयास करेंगे और सत्य की समझ हासिल करेंगे। इसी तरह से लोग परमेश्वर में सच्ची आस्था विकसित करते हैं, और जैसे-जैसे सत्य उन्हें ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट होता जाता है, उनकी आस्था लगातार बढ़ती जाती है। जब लोगों में परमेश्वर में सच्ची आस्था होती है, तो इससे उनमें परमेश्वर का भय भी पैदा होता है। जब लोग परमेश्वर का भय मानते हैं, तो उनके दिल की गहराई में परमेश्वर को पाने और स्वेच्छा से उसके प्रभुत्व के प्रति समर्पित होने की इच्छा होती है। वे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति, और अपनी नियति के लिए परमेश्वर की योजनाओं के प्रति समर्पित होते हैं। वे परमेश्वर द्वारा उनके लिए निर्धारित हर दिन और हर विशेष परिस्थिति के प्रति समर्पित होते हैं। जब लोगों में ऐसी इच्छा और प्यास होती है, तो वे परमेश्वर की अपेक्षाओं को भी सक्रिय रूप से स्वीकार कर उनके प्रति समर्पित होते हैं। जब इसके नतीजे लोगों में ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट और ज्यादा से ज्यादा वास्तविक हो जाते हैं, तो शैतान के कथन, विचारधारा और परिप्रेक्ष्य लोगों के दिलों में अपना प्रभाव खो देते हैं। दूसरे शब्दों में, लोगों पर शैतान के कथनों, विचारधारा और परिप्रेक्ष्यों का वश और प्रभाव घटता जाता है। संघर्ष की एक अवधि के बाद, और लोगों के परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के लिए सक्रिय सहयोग और संकल्प की एक अवधि के बाद वे शैतान के बंधन और नियंत्रण से मुक्त होने में सक्षम होंगे। जब लोग इस बिंदु पर पहुँचेंगे, तो वे शैतान के प्रभुत्व से निकल चुके होंगे। वे उन कथनों, सोच और परिप्रेक्ष्यों को पूरी तरह से त्याग देंगे, जिनका उपयोग शैतान ने उन्हें धोखा देने के लिए किया था, और परमेश्वर में उनकी आस्था और भी ज्यादा बढ़ जाएगी। निस्संदेह, यह प्रभाव परमेश्वर के वचनों और कार्य पर निर्भर करता है, और इससे भी ज्यादा अहम रूप से, लोगों के अनुसरण और सहयोग पर निर्भर करता है। अगर कोई व्यक्ति सत्य और उपदेश बहुत ज्यादा सुनता है, लेकिन फिर भी उसे शैतान के विचारों और परिप्रेक्ष्यों के बारे में कोई जानकारी नहीं है और वह इन चीजों से घृणा नहीं करता, और अगर व्यक्ति इन शैतानी चीजों को सक्रिय रूप से पहचानना, समझना और त्यागना नहीं चाहता, बल्कि इनके प्रति निष्क्रिय नजरिया अपनाता है या इन्हें अनदेखा करता है, तो शैतान के विभिन्न विचार और दृष्टिकोण अभी भी उस व्यक्ति में गहराई से समाए रहेंगे। ऐसे लोग अपने दैनिक जीवन में और अपने पूरे जीवन-मार्ग के दौरान अभी भी न चाहते हुए भी शैतान के विभिन्न विचारों और परिप्रेक्ष्यों से प्रभावित और नियंत्रित होंगे, और लोगों और चीजों के बारे में उनके विचार और उनका आचरण और उनके कार्य अभी भी शैतान से उत्पन्न होंगे। अगर यह सब शैतान से उत्पन्न होता है, तो फिर परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास कोई सच्ची आस्था नहीं बल्कि सिर्फ परमेश्वर के अस्तित्व की स्वीकृति है, और तुम परमेश्वर की पहचान और सार कभी भी सच्चे मन से नहीं स्वीकार पाओगे। निस्संदेह, तुम्हारा हृदय अपने आप परमेश्वर की ओर नहीं मुड़ेगा, और तुम अपना हृदय परमेश्वर की ओर नहीं लौटा पाओगे। यह कहा जा सकता है कि तुम परमेश्वर के सौंपे हुए कर्तव्य और दायित्वों के प्रति थोड़ा-सा भी सच्चा समर्पण करने में सक्षम नहीं हो, और परमेश्वर के प्रति सचमुच आज्ञाकारी होना तो दूर रहा, तुम वास्तव में उसका भय नहीं मान सकते हो। अगर तुम ये चीजें पूरी करने में विफल रहते हो, तो इसका स्पष्ट परिणाम क्या होगा? तुम बचाए नहीं जाओगे। क्या यही होगा? (हाँ।) यही होगा। यह स्पष्ट है कि जिन विचारों, दृष्टिकोणों और धारणाओं से शैतान लोगों को भ्रष्ट करता है और जिन्हें उनके दिलों में गहरे रोपता है, यही वो चीजें हैं जो लोगों को परमेश्वर की वाणी सुनने, परमेश्वर के वचनों पर विश्वास करने, सकारात्मक चीजें स्वीकारने और निश्चित रूप से सत्य स्वीकारने और सत्य में प्रवेश करने से रोकती हैं। ये चीजें मनुष्यों के भ्रष्ट स्वभावों से ऊपरी तौर पर भिन्न होती हैं। लेकिन इन चीजों का सार शैतान की प्रकृति का हिस्सा है और ये वे चीजें हैं जिनसे शैतान मनुष्यों को भ्रष्ट करता है। बाहर से देखें तो शैतान के मानवजाति को भ्रष्ट करने वाले कार्यकलापों और शैतान के अच्छा करने के दिखावे में साफ अंतर है, लेकिन यह ऐसा अंतर है जिसे पहचानना साधारण लोगों के लिए मुश्किल है। लेकिन शैतान द्वारा लोगों को धोखा देने और भ्रष्ट करने के दुष्परिणाम बेहद स्पष्ट हैं। यह स्पष्ट तथ्य है कि इसने मुख्यधारा के समस्त समाज को परमेश्वर को नकारने, उसका प्रतिरोध करने, यहाँ तक कि उसके विरोध में खड़े होने के लिए प्रेरित किया है।

लोगों के भीतर का शैतानी स्वभाव पूरी तरह से उन्हें शैतान से मिले धोखे और भ्रष्टता का नतीजा होता है। यही नहीं, लोग जिन तमाम शैतानी पाखंडों, भ्रांतियों, फलसफों और नियमों को मानते हैं, और जीवन और मूल्यों के बारे में उनका दृष्टिकोण, ये सारी चीजें शैतान से मिले धोखे और भ्रष्टता की ठोस अभिव्यक्तियाँ हैं। दूसरे शब्दों में, लोगों को धोखा देने और परमेश्वर से विमुख कर उसे नकारने के लिए बाध्य करने के बाद शैतान पूरी तरह से उनके मन में तमाम तरह के शैतानी विचार, मत, पाखंड और भ्रांतियाँ बैठा देता है। इतना ही नहीं, शैतान खुले तौर पर तमाम तरह की धारणाओं, मतों और कथनों सहित बहुत सारा ऐसा दुष्प्रचार फैलाता है जिसे लोग दिल में बैठा लेते हैं और इसी के प्रभाव में आकर हर चीज से निपटते हैं। नतीजतन, उनके भीतर विभिन्न भ्रष्ट शैतानी स्वभाव विकसित हो जाते हैं। यही तरीका है, जो शैतान लोगों को भ्रष्ट करने के लिए अपनाता है। अर्थात्, जब लोगों की आत्मा में भारी खोखलापन होता है, जब वे सही नहीं सोच रहे होते और जब वे एक खाली बर्तन होते हैं, तो शैतान के विभिन्न कथन उनके दिलों में जाकर रच-बस जाते हैं। उदाहरण के लिए, जब “कभी कोई उद्धारकर्ता नहीं हुआ,” “आकाश और पृथ्वी और सभी चीजें प्रकृति द्वारा बनाई गई हैं,” “मैं अपने दोस्त के लिए गोली खा लूँगा,” “महिला को धार्मिक, दयालु, सौम्य और नैतिक होना चाहिए,” “पुरुषों को मर्दाना होना चाहिए,” इत्यादि जैसे कथन गढ़े जाते हैं, तो लोग अनजाने में ही उनसे प्रभावित हो जाते हैं। इन बुरी ताकतों, पाखंडों और भ्रांतियों के बारे में जागरूकता के बिना, और उन्हें पहचानने की क्षमता या उनका विरोध करने की शक्ति के बिना लोग शैतान के तमाम तरह के विचार और मत स्वीकार लेते हैं। जिस प्रक्रिया से लोग ये शैतानी विचार और दृष्टिकोण स्वीकारते हैं, वह ठीक वही प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों को धोखा दिया जाता है, उकसाया जाता है और भ्रष्ट किया जाता है। उदाहरण के लिए, अगर तुम एक ऐसी महिला हो जो नहीं जानती कि महिला के जीने का सही तरीका क्या है और उसे क्या चीजें करनी चाहिए, तो शैतान अपने पाखंड और भ्रांतियाँ सामने रख देगा, जैसे, “महिला को धार्मिक, दयालु, सौम्य और नैतिक होना चाहिए, घर पर रहना चाहिए और बाहर नहीं जाना चाहिए,” “महिला का अकुशल होना गुण है,” इत्यादि। तुम सोचते हो कि ये कहावतें काफी बुद्धिमत्तापूर्ण और अच्छी लगती हैं, इसलिए तुम इन्हें स्वीकार लेते हो। जब ये पाखंड और भ्रांतियाँ समाज और पृथ्वी पर फैल रही होती हैं, तो महिला होने के नाते तुम इन्हें अनजाने में ही स्वीकार लोगी और इन पर सख्ती से खरा उतरना चाहोगी। पहले, तुम यह मानते हुए उनसे अपनी तुलना करोगी कि चूँकि तुम एक महिला हो, इसलिए तुम्हें धार्मिक, दयालु, सौम्य और नैतिक होना चाहिए, घर पर रहना चाहिए, गुणहीन महिला होना चाहिए, आदि। इस प्रक्रिया के दौरान, तुम धीरे-धीरे समाज में प्रचलित कथनों, विचारों और दृष्टिकोणों के उकसावे, बहकावे और प्रभाव में आने लगोगी, और अंत में इनमें समा जाओगी। और भी ठीक से कहें तो, शैतान के विचारों और दृष्टिकोणों के धोखे में आकर तुम इन्हीं से बँधकर चलने लगोगे, और फिर अनजाने में ही इन्हीं के अनुसार दिल की गहराई से खुद से अपेक्षाएँ करोगे और दूसरों को भी देखोगे। इसलिए, तुम्हारे ये विचार और कथन तुम्हारे दिल में गहराई तक जाकर सोच और राय बना लेंगे, और फिर तुम दैनिक जीवन में इन्हें अपने आचरण और व्यवहार के मानदंड और आधार बना लोगे। शैतान के विभिन्न विचार और मत इसी ढंग से धीरे-धीरे समाज और समुदाय में आम चलन बन जाते हैं। जैसे-जैसे यह चलन समाज में बढ़ता जाता है और इसके उकसावे और प्रभाव में आने वाली आबादी बढ़ती जाती है तो यह चलन एक तरह की शक्ति बन जाता है। इसके शक्ति बनने पर मानवजाति पूरी तरह इन विचारों और दृष्टिकोणों की गिरफ्त और नियंत्रण में आ जाती है, या दूसरे शब्दों में, वह उनके वश में आ जाती है। ज्यादा सटीक रूप से कहें तो लोगों को शैतान ने बंधक बना लिया है। उदाहरण के लिए, शैतान की दुनिया में, “पुरुषों को मर्दाना, सख्त और महत्वाकांक्षी होना चाहिए,” “पुरुषों में दूरगामी महत्वाकांक्षाएँ, सपने और अदम्य भावना होनी चाहिए,” “पुरुषों को अपना विकास करना चाहिए, अपना परिवार बनाना चाहिए, देश पर शासन करना चाहिए और दुनिया में शांति लानी चाहिए,” “पुरुषों को शक्ति का उपयोग करना, स्थिति पर नियंत्रण रखना और दुनिया पर हावी होना सीखना चाहिए,” “पुरुष आसानी से आँसू नहीं बहाते,” इत्यादि। प्रत्येक मनुष्य प्रारंभ से ही इन अपेक्षाओं, विचारों और दृष्टिकोणों से बँधा हुआ है। महिला-पुरुष दोनों ही पारंपरिक संस्कृति के विभिन्न कथनों से नियंत्रित और बँधे होते हैं। अगर पुरुष यह नहीं जानते कि किसी पुरुष को कैसे कार्य करना चाहिए, या अपने समुदाय, समाज या देश में खुद को कैसे स्थापित करना चाहिए, तो वे इन विचारों और दृष्टिकोणों को सुनकर अनजाने में ही इन्हें स्वीकार लेंगे। वे धीरे-धीरे इनके आदी बनते जाएँगे और फिर एक दिन इन्हें खुद से सख्त माँग करने के मानदंड और आधार के रूप में अपना लेंगे। इसके अलावा, वे इन विचारों और दृष्टिकोणों को अभ्यास में लाएँगे, हकीकत में ऐसा व्यक्ति होने का अनुभव करेंगे और फिर इन लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में काम करके एक मिसाल पेश करेंगे। उदाहरण के लिए, पुरुषों को दूरगामी महत्वाकांक्षाएँ रखनी चाहिए, बड़े काम करने चाहिए और बड़ा करियर बनाना चाहिए। उन्हें प्रेमपूर्ण रिश्ते नहीं रखने चाहिए, न ही अपने माता-पिता का सहारा बनने या बच्चों का पालन-पोषण करने को अपनी जीवन भर की जिम्मेदारी या लक्ष्य बनाना चाहिए। बल्कि, उन्हें अपने क्षितिज का विस्तार करना चाहिए, अपनी आकांक्षाओं का अनुसरण करना चाहिए, स्थिति को नियंत्रित करना सीखना चाहिए, यहाँ तक कि मानवजाति और महिलाओं को नियंत्रित करने की शक्ति भी हासिल करनी चाहिए। लोग इन विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकार चुके हैं; वे अपने जीवन में इनके अनुसार अभ्यास कर और जी रहे हैं, और इनके द्वारा अपेक्षित लक्ष्यों का अनुसरण कर रहे हैं। इसके अलावा, जब ये विचार और दृष्टिकोण निर्मित होकर लोगों के दिलों में गहराई से जड़ें जमा लेते हैं, तो वे मानवजाति, समाज और पूरी दुनिया को इनके माध्यम से देखते हैं। जब ये मनुष्य के हृदय में इतनी गहरी जड़ें जमा लेते हैं कि इन्हें उखाड़ा नहीं जा सकता, तो वह “पुरुषों को मर्दाना और सख्त होना चाहिए” जैसे विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार ही लोगों और चीजों को देखकर आचरण और कार्य करता है। पुरुषों की विश्व-दृष्टि और जीवन-दृष्टि का उद्गम और मूल कारण यही है। जब पुरुष शैतान के बैठाए विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार लोगों और चीजों को देखकर आचरण और कार्य करते हैं, तो ये विचार और दृष्टिकोण अलक्षित रूप से लोगों और समाज में फैल जाते हैं, और धीरे-धीरे हर व्यक्ति के दिल में गहरे पैठ जाते हैं—पुरुषों के ही नहीं, बल्कि महिलाओं के दिल में भी। जब ये चीजें हर व्यक्ति के दिल में गहरे पैठ जाती हैं, यहाँ तक कि उन छोटे बच्चों के दिलों में भी बैठा दी जाती हैं जो अभी बोलना सीख रहे होते हैं, तो ये विचार और दृष्टिकोण समुदाय और समाज में आम प्रथा बन जाते हैं। यह प्रथा तब तक ज्यादा से ज्यादा तेजी से फैलती जाएगी और ज्यादा से ज्यादा व्यापक होती जाएगी, जब तक कि सभी इसे अच्छी तरह से नहीं जान जाते, और इसे शत-प्रतिशत मान्यता और स्वीकृति नहीं दे देते। जब चीजें इस चरण तक आगे बढ़ जाती हैं, तो समाजशास्त्री, राजनेता और राष्ट्राध्यक्ष, या ज्यादा सटीक रूप से कहें तो शैतान का अनुसरण करने वाले दुष्ट राजा मानवजाति के बीच इन विचारों और दृष्टिकोणों की स्थिति मजबूत करने के लिए आगे बढ़ते हैं। वे इन चीजों को लिख डालते हैं, और तमाम तरह के परिस्थितिजन्य साक्ष्यों, अनुकूल परिस्थितियों, लोगों, घटनाओं और चीजों का उपयोग करके व्यवस्थित रूप से इन कथनों को व्यापक रूप से प्रचारित-प्रसारित कर देते हैं, ताकि ये कथन मानवजाति के बीच फैल कर समाज में एक सामाजिक माहौल और एक निश्चित नैतिक संहिता का निर्माण कर दें। इस नैतिक संहिता के जरिये वे लोगों को नियंत्रित और बाध्य कर देते हैं और इस बिंदु पर शैतान का लक्ष्य हासिल हो जाता है। जब शैतान यह लक्ष्य हासिल कर लेता है, तो इन विचारों और दृष्टिकोणों से महिला-पुरुष समेत पूरी मानवजाति को धोखा देकर भ्रष्ट और वश में कर लिया जाता है। क्या तुम लोग जानते हो कि जब शैतान के विचारों और दृष्टिकोणों से मानवजाति को धोखा देकर भ्रष्ट और वश में किया जाता है, तो क्या दुष्परिणाम निकलते हैं? तुम लोगों को क्या लगता है कि शैतान इन विचारों, कथनों, पाखंडों और भ्रांतियों को सामने क्यों रखता है? क्या यह सिर्फ मानवजाति को भ्रष्ट करने के लिए है? क्या यह सिर्फ लोगों को छीनने के लिए है? इन सबका निशाना कौन है? (परमेश्वर।) सही है, तुम लोगों को इस बारे में स्पष्ट होना होगा। शैतान द्वारा की जाने वाली तमाम बुरी चीजों में, और खास तौर से उन तमाम चीजों में जो शैतान मानवजाति को धोखा देने, परेशान करने, नियंत्रित करने और भ्रष्ट करने के लिए करता है, लोग सिर्फ इस्तेमाल में आने वाली चीजें और साधन होते हैं। वे सिर्फ ऐसे पात्र होते हैं जिनका उपयोग शैतान अपनी तमाम क्षमताएँ और कौशल काम में लाने के लिए करता है। शैतान जो कुछ भी करता है उसके निशाने पर लोगों के बजाय परमेश्वर होता है। वह परमेश्वर का विरोध करना चाहता है और लोग सिर्फ ऐसे पात्र या साधन होते हैं जिनका उपयोग वह ऐसा करने के लिए करता है। तो, शैतान परमेश्वर से क्यों लड़ना चाहता है? वह मानवजाति को इस तरह भ्रष्ट क्यों करना चाहता है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि मानवजाति की रचना परमेश्वर ने की है और वह इसे बचाना चाहता है। शैतान जानवरों, पौधों या दूसरे ग्रहों के वासियों को भ्रष्ट क्यों नहीं करता? क्योंकि परमेश्वर जानवरों, पौधों या दूसरे ग्रहों के वासियों, या किसी मनुष्येतर प्राणी को बचाने की कोशिश नहीं करता। परमेश्वर मनुष्यों को बचाने का प्रयास करता है, जिन्हें उसने इस पृथ्वी पर सृजित किया है। वह पृथ्वी पर मनुष्यों के इस समूह को प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है। कैसे मनुष्यों को? उन मनुष्यों के समूह को, जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं और मृत्यु तक उसके वफादार रहते हैं, जो परमेश्वर के साथ एक दिल और एक दिमाग वाले हैं, और जो परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं। यही वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर प्राप्त करना चाहता है। इससे पहले कि परमेश्वर इन लोगों को बचाकर प्राप्त करने का अपना कार्य करे, शैतान उन्हें भ्रष्ट करने की कोशिश कर बाजी मार लेना चाहता है। शैतान कहता है, “परमेश्वर, क्या तुम मानवजाति को बचाना चाहते हो? तो मैं पहले ही उसे भ्रष्ट कर दूँगा। जब लोग इस हद तक भ्रष्ट हो जाएँगे कि वे मानव के बजाय पूरी तरह से दानव हो जाएँगे, तो तुम उन्हें नहीं बचा पाओगे। तुम सफल नहीं हो पाओगे, और अंत में असफल हो जाओगे।” शैतान का लक्ष्य यही है। अब उस प्रश्न पर वापस आते हैं, जो मैंने पहले पूछा था। जब शैतान मानव-स्वभाव को भ्रष्ट करता है, और मानव-मन और हृदय को धोखा देने, पंगु बनाने और नियंत्रित करने के लिए विभिन्न पाखंड और भ्रांतियाँ और तमाम तरह के विचार और दृष्टिकोण भी सामने रखता है, तो उसका उद्देश्य क्या होता है? तुम लोग इसका उत्तर नहीं दे सकते; तुम लोग इसे नहीं समझते। जब शैतान यह सब करता है तो वह लोगों को निशाना नहीं बना रहा होता, भले ही वे लोग ही होते हैं जिन्हें वह भ्रष्ट और नियंत्रित करता है। बल्कि, इस सब के निशाने पर परमेश्वर ही होता है। लोगों को भ्रष्ट करने का शैतान का अंतिम लक्ष्य या परिणाम क्या होता है? यही कि लोगों को परमेश्वर के विरोध में खड़ा करना। जब लोग परमेश्वर के पूर्ण विरोधी और उसके शत्रु बन जाते हैं तो शैतान मानता है कि उसकी साजिश और स्वार्थी गणनाएँ सफल हो जाएँगी, और पृथ्वी पर लोग उसकी आराधना और अनुसरण करेंगे। इसलिए, जब शैतान के विभिन्न विचार, कथन, पाखंड और भ्रांतियाँ लोगों के दिलों में गहरी जड़ें जमा लेती हैं, तो वे फिर कभी नहीं मानेंगे कि परमेश्वर का अस्तित्व है, या उसके आयोजन और व्यवस्थाएँ, या उसकी संप्रभुता नहीं स्वीकारेंगे। लोग परमेश्वर को पूरी तरह से नकार देंगे और उसके साथ विश्वासघात करेंगे। शैतान सोचता है कि लोगों को इस हद तक भ्रष्ट करना पर्याप्त है कि वे परमेश्वर को नकार सकें। क्यों? क्योंकि उस समय, जिन लोगों को परमेश्वर बचाना चाहता है, शैतान उन्हें पूरी तरह से बंदी बनाकर उन पर कब्जा कर लेगा, और वे पूरी तरह से परमेश्वर के विरोधी बन जाएँगे, और पूरी तरह से और सरासर परमेश्वर के विरोधी बन जाएँगे। यही शैतान का उद्देश्य है। क्या यह सच है कि तुम लोगों ने इस बारे में पहले कभी नहीं सोचा? (हाँ।) तुम लोग नहीं समझते। लोग सोचते हैं, “शैतान हमें पकड़ने, फँसाने, हमें नुकसान पहुँचाने, हमें मरने देने, हमें नरक में भेजने और हमें परमेश्वर के उद्धार और जीवन में सही मार्ग से दूर रखने के लिए भ्रष्ट करता है। शैतान हमें कष्ट सहने को मजबूर करता है।” यह इसका एक हिस्सा है, लेकिन यह सिर्फ एक वस्तुनिष्ठ प्रभाव है जो शैतान के हर काम से उत्प्रेरित होता है, और यह वास्तव में अंतर्निहित लक्ष्य नहीं है। क्या तुम लोग अब समझ गए हो कि अंतर्निहित लक्ष्य क्या है? मुझे बताओ, शैतान लोगों के दिमाग को धोखा क्यों देता है, उसे नियंत्रित और कैद क्यों करता है? (शैतान जो कुछ भी करता है, उसका निशाना परमेश्वर होता है, और उसका अंतर्निहित लक्ष्य सभी लोगों को परमेश्वर के विरुद्ध खड़ा करना है।) और कुछ? (चूँकि परमेश्वर मनुष्यों को बचाना चाहता है, इसलिए शैतान उन्हें भ्रष्ट कर परमेश्वर के विरुद्ध खड़ा कर देना चाहता है, ताकि वे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त न कर पाएँ। शैतान मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन योजना नष्ट करना चाहता है।) शैतान लोगों के मन में तमाम तरह के पाखंड और भ्रांतियाँ बैठाता है, और जब ये गलत विचार और दृष्टिकोण, पाखंड और भ्रांतियाँ लोगों के दिलों में गहरी जड़ें जमा लेती हैं, तो वे उनके दिमाग को नियंत्रित और कैद कर लेती हैं। इससे एक विशेष स्थिति उत्पन्न होती है। कैसी स्थिति? ऐसी स्थिति जिसमें परमेश्वर का विरोध पूरी तरह से निर्मित हो जाता है, मानवजाति परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से शत्रुतापूर्ण शक्ति बन जाती है, और शैतान खुश होता है। यही वह लक्ष्य है जिसे शैतान हासिल करने की कोशिश कर रहा है। यह सब करने में शैतान का क्या उद्देश्य है? इसका सार एक वाक्य में बताओ। (शैतान लोगों के मन में हर तरह के पाखंड और भ्रांतियाँ बैठाता है, और जब ये गलत विचार और दृष्टिकोण, पाखंड और भ्रांतियाँ लोगों के दिलों में गहरी जड़ें जमा लेती हैं, तो एक ऐसी स्थिति बन जाती है जिसमें परमेश्वर का विरोध पूरी तरह से निर्मित हो जाता है, और मनुष्य ऐसे लोग बन जाते हैं जो परमेश्वर का विरोध करते हैं। वे परमेश्वर के दुश्मन बन जाते हैं और शैतान अपना लक्ष्य हासिल कर लेता है।) यही है उत्तर—क्या यह आसान नहीं है? (हाँ, है।) यही वह लक्ष्य और परिणाम है जिसे शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करके प्राप्त करना चाहता है।

क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर उन चीजों के बारे में जानता है, जो शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करने के लिए करता है? (हाँ।) तो फिर परमेश्वर शैतान को ऐसा करने क्यों देता है? इसे स्पष्ट करने के लिए तुम लोग सत्य के बारे में जो समझते हो, उसका उपयोग करो। क्या इसके बारे में एक कहावत नहीं है? “परमेश्वर की बुद्धि का प्रयोग शैतान की चालबाजी के आधार पर किया जाता है।” यह इस कहावत के सच होने का उदाहरण है, है न? (हाँ।) साथ ही, क्या “शैतान परमेश्वर के कार्य में विषमता और सेवा की वस्तु है” वाक्यांश यहाँ लागू होता है? (हाँ।) ये दोनों कथन प्रासंगिक हैं और उपर्युक्त प्रश्न को समझाने के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं। क्या यह सही नहीं है? (हाँ, है।) ऐसा ही है। अगर कोई यह सवाल उठाए, तो तुम उसे कैसे समझाओगे? अगर तुम अस्पष्ट रूप से बस यह कहते हो, “परमेश्वर की बुद्धि का प्रयोग शैतान की चालबाजी के आधार पर किया जाता है,” तो वे भ्रमित हो जाएँगे और समझ नहीं पाएँगे। क्या तुम लोग जानते हो कि इसे ज्यादा विस्तार से कैसे समझाया जाए? यह समझाना आसान है, है न? परमेश्वर शैतान को मानवजाति को भ्रष्ट करने वाली चीजें इसलिए नहीं करने देता कि परमेश्वर उन्हें रोकने या उन पर ध्यान देने में असमर्थ है, बल्कि एक कारण से करने देता है। वह कारण यह है कि, जैसा कि मैंने पहले कहा था, “परमेश्वर की बुद्धि का प्रयोग शैतान की चालबाजी के आधार पर किया जाता है।” यह सिर्फ एक कथन या सिद्धांत नहीं, बल्कि एक निर्विवाद सत्य है, जिसे इस तथ्य से सत्यापित किया जा सकता है कि शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट करने के बाद परमेश्वर उसे बचा सकता है। मानव-स्वभावों को भ्रष्ट करने और लोगों के मन को नियंत्रित और कैद करने के लिए उनके मन में तमाम तरह के पाखंड और भ्रांतियाँ बैठाने में शैतान का क्या उद्देश्य है? क्या उसका अंतिम लक्ष्य परमेश्वर के कार्य को दबाना और उसकी प्रबंधन योजना को हवा में उड़ा देना है? क्या यह शैतान की चालबाजी है? (हाँ।) यह शैतान की चालबाजी है। जब शैतान ऐसी चालें चलता है, तो परमेश्वर क्या सोचता है? परमेश्वर क्या करता है? उसके मन में क्या होता है? इस सब में उसकी बुद्धि कैसे प्रकट होती है? परमेश्वर शैतान की चालबाजी का उपयोग करता है। शैतान की एक चाल है। वह कहता है, “मैं लोगों को तब तक उकसाता और भ्रष्ट करता हूँ, जब तक वे मेरे जैसे नहीं हो जाते। वे छोटे-मोटे शैतान बन जाते हैं जो मेरे विचार और दृष्टिकोण साझा करते हैं, मेरे शैतानी दृष्टिकोण के अनुसार लोगों और चीजों को देखकर आचरण और कार्य करते हैं, और परमेश्वर के विरोधी हो जाते हैं। मैं परमेश्वर द्वारा सृजित तमाम लोगों को लेकर उन्हें अपना, शैतान का, बना देना चाहता हूँ, ताकि लोगों में परमेश्वर का कार्य व्यर्थ और बेकार हो जाए। निश्चित रूप से इससे परमेश्वर की प्रबंधन योजना हवा में उड़ जाएगी।” क्या यह शैतान की चाल है? (हाँ।) तो फिर परमेश्वर क्या सोचता है? और वह क्या करता है? परमेश्वर कहता है, “शैतान, तू लोगों को परेशान करने और धोखा देने के लिए पाखंड और भ्रांतियाँ फैलाता है, और परमेश्वर के कार्य को बाधित और नष्ट करने के लिए कई चीजें करता है। इससे लोगों में सिर्फ कुछ पाखंड और भ्रांतियाँ पैदा होंगी, ताकि वे उनके अनुसार जिएँ और परमेश्वर का विरोध करें। तब मैं अपने वचनों और कार्य को मानवजाति की भ्रष्टता पर आधारित करूँगा, उन पाखंडों और भ्रांतियों को उजागर करूँगा जिनका उपयोग तुम मानवजाति को भ्रष्ट करने के लिए करते हो, लोगों के विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों का न्याय करूँगा और लोगों को तुम्हारे द्वारा उनके मन में बैठाए गए विभिन्न विचारों और कथनों की पहचान करने दूँगा। इस तरह, न सिर्फ लोग सत्य और परमेश्वर को समझेंगे, बल्कि वे शैतान के विभिन्न कथनों, विचारों और दृष्टिकोणों का पता भी लगा पाएँगे और शैतान के स्वभाव, सार और विभिन्न बुरे कर्मों की असलियत भी जान लेंगे। सत्य की समझ को अपनी नींव के रूप में इस्तेमाल करके लोग शैतान को ज्यादा सटीकता से और ज्यादा ताकत के साथ पहचान और नकार पाएँगे। नकार के पहलू से, लोग अब शैतान के बहकावे में नहीं आएँगे और उसके द्वारा दूसरी बार बंदी नहीं बनाए जाएँगे और निगले नहीं जाएँगे। सकारात्मक पहलू से, वे परमेश्वर के अस्तित्व और उसकी पहचान पर, और इस तथ्य पर कि वह सभी प्राणियों और चीजों पर प्रभुत्व रखता है, विश्वास करने और इसकी पुष्टि करने में ज्यादा सक्षम होंगे। ये दो चीजें हासिल हो जाने के बाद लोग परमेश्वर का आदर करेंगे और सच्चे मन से उसकी आज्ञा का पालन करेंगे। परमेश्वर उनके दिल जीत लेगा, या, ज्यादा सटीक रूप से कहें तो परमेश्वर उन्हें प्राप्त कर लेगा। जब लोग इस स्तर पर पहुँच जाएँगे, तो उन्हें शैतान फिर कभी धोखा नहीं दे पाएगा और उनका उपयोग नहीं कर सकेगा। बल्कि, वे शैतान का पूरी तरह से पता लगाने, उसे समझने और उसे अपने दिल की गहराई से नकारने में सक्षम होंगे। वे स्वीकारेंगे कि वे परमेश्वर के सृजन हैं, स्वेच्छा से सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और उसके आयोजन स्वीकारेंगे, और इस प्रकार पूरी तरह से परमेश्वर के पास लौट आएँगे।” परमेश्वर की विशिष्ट व्यवस्था और योजना यही है। निस्संदेह, यह भी कहा जा सकता है कि यह वह विचार और भाव है, जो परमेश्वर के हृदय की गहराई में है। परमेश्वर इसी तरह सोचता है, उसके विचार इसी तरह काम करते हैं, और उसने इसे इसी तरह आयोजित किया है। जबकि शैतान लोगों को धोखा देकर भ्रष्ट करता आ रहा है, तो परमेश्वर समस्त प्राणियों और चीजों को क्रमबद्ध ढंग से व्यवस्थित करता आ रहा है, और अपनी योजना और प्रबंधन को अब तक लगातार संगठित तरीके से कदम-दर-कदम आगे बढ़ाता आ रहा है। शैतान ने मानवजाति को पूरी तरह से भ्रष्ट कर उस पर कब्जा कर लिया है। लेकिन, यह एक निर्विवाद तथ्य है कि शैतान के तमाम तरह के जहरों से ओतप्रोत और भरी हुई यह मानवजाति जब परमेश्वर द्वारा बुलाई जाती है और उसकी आवाज सुनती है, तो वह अभी भी परमेश्वर के सामने आ सकती है, उसका आह्वान स्वीकार कर सकती है, और उसका न्याय और ताड़ना प्राप्त करने के लिए तैयार हो सकती है। भले ही परमेश्वर ऐसी मानवजाति की शैतान जैसी और अपनी शत्रु होने के कारण निंदा करे और उसे शाप दे, फिर भी वह उसे कभी नहीं छोड़ेगी। भले ही लोगों के दिमाग और विचार उन चीजों से भरे हुए हों जो शैतान ने उनमें डाले हैं, जिससे वे अभी भी शैतान के विचारों और दृष्टिकोणों से गहरे प्रभावित और नियंत्रित होकर लोगों और चीजों को देखते हों, आचरण और कार्य करते हों, फिर भी उनके दिल ज्यादा से ज्यादा ईमानदारी और तत्परता से परमेश्वर की ओर मुड़ रहे हैं। क्या यह एक निर्विवाद तथ्य नहीं है? (हाँ, है।) यही नहीं, निकट भविष्य में जब परमेश्वर शैतान के समस्त दुष्कर्म उजागर कर देगा, तो शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट की जा चुकी यह मानवजाति शैतान को पूरी तरह से त्यागने, उसे “ना” कहने और अपना दिल परमेश्वर को लौटाने में सक्षम होगी। वे सभी परमेश्वर की संप्रभुता, आयोजनों और व्यवस्थाओं के अनुसार दृढ़ता से उसका अनुसरण करने के लिए तैयार होंगे। परमेश्वर के महान कार्य के सफल समापन की यही दिशा है, है न? (हाँ।) खासकर इस बारे में संगति करने के बाद कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, और भी ज्यादा लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानते हुए, लोगों और चीजों को देखकर आचरण और कार्य करने का संकल्प लेंगे। चाहे लोगों का संकल्प मजबूत हो या कमजोर, या उन्होंने इस वास्तविकता में प्रवेश किया हो या नहीं—जो भी हो, यह तथ्य कि ऐसी मानवजाति में, जो शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट की जा चुकी है, उसे त्यागने और शैतान द्वारा उसमें डाले गए विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों के बजाय परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानते हुए, लोगों और चीजों को देखकर आचरण और कार्य करने का संकल्प है, अपने आप में इस बात का संकेत है कि परमेश्वर पहले ही जीत चुका है। तो शैतान पहले ही अपमानित हो चुका है, है न? (हाँ।) इसलिए, यह कथन कि “परमेश्वर की बुद्धि का प्रयोग शैतान की चालबाजी के आधार पर किया जाता है,” सिर्फ खोखले शब्द नहीं है, बल्कि एक व्यावहारिक, वस्तुनिष्ठ और निर्विवाद तथ्य है। शैतान जो भी बुराई कर रहा है, वह उस बिंदु तक पहुँच गई है, जहाँ वह मानवता को धोखा देकर नियंत्रित कर रही है। उसका मानना है कि उसने परमेश्वर के कार्य को बाधित और नष्ट कर दिया है और परमेश्वर के लिए अपनी प्रबंधन योजना जारी रखना असंभव है। इसलिए, शैतान सोचता है कि वह जीत गया है। लेकिन शैतान मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन योजना की गति धीमी नहीं कर सकता, चाहे वह कितना भी उतावला क्यों न हो जाए, न ही वह परमेश्वर की प्रबंधन योजना की शानदार सफलता और शैतान पर विजय रोक सकता है। अब परमेश्वर का कार्य पूरे ब्रह्मांड में फैल चुका है और परमेश्वर के वचन लाखों घरों तक फैल चुके हैं। यह परमेश्वर की शानदार सफलता का प्रमाण है।

अगर कोई तुम लोगों से दोबारा पूछे, “शैतान लोगों के दिमाग को धोखा क्यों देता है, नियंत्रित और कैद क्यों करता है? परमेश्वर शैतान को ऐसा क्यों करने देता है?” तो क्या तुम लोग इन सवालों का जवाब दे पाओगे? भले ही तुम इसे पूरी तरह से न समझा पाओ, फिर भी तुम कम से कम अपनी कुछ समझ तो साझा कर ही सकते हो। शैतान यह सब क्यों कर रहा है? परमेश्‍वर द्वारा उसे यह सब करने देने का क्या महत्व है? तुम्हें इन चीजों पर विचार करना चाहिए और तुम्हारे हृदय में इसका सटीक उत्तर होना चाहिए। परमेश्वर मानवजाति को बचाने के लिए छह हजार वर्षों से काम कर रहा है। कुछ लोग इसे नहीं समझते और कहते हैं, “परमेश्वर छह हजार वर्षों से कार्य कर रहा है? क्या यह बहुत लंबा समय नहीं है?” चाहे परमेश्वर के कार्य में कितना भी समय लगे, उसके समस्त क्रियाकलाप बेहद अहम हैं। न सिर्फ उसके कार्य की अवधि अहम है; उसके कार्य द्वारा प्राप्त अंतिम परिणाम और भी ज्यादा अहम है। अगर यह तथ्य न होता कि परमेश्वर मानवता को बचाने के लिए छह हजार वर्षों से काम कर रहा है, तो मानवजाति की संवेदनशून्यता और मंदबुद्धि उसे परमेश्वर को जानने या उसके द्वारा पूरी तरह से बचाए जाने से रोक देती। क्या लोग मसीह-विरोधियों को पहचानने और उनका प्रकृति-सार जानने में सक्षम होंगे, अगर उन्होंने सिर्फ एक-दो बार ही मसीह-विरोधियों द्वारा दिए गए धोखे और अशांति का अनुभव किया हो? क्या चार-पाँच बार अनुभव करना पर्याप्त होगा? मुझे नहीं लगता। लोगों को इसे तब तक कई बार अनुभव करना होगा, जब तक कि वे मसीह-विरोधियों का प्रकृति-सार पूरी तरह से नहीं देख लेते। सिर्फ तभी वे वास्तव में मसीह-विरोधियों को पहचानकर उन्हें पूरी तरह से त्याग सकते हैं। खास तौर से, अगर लोगों को बहुत कम समय के लिए बड़े लाल अजगर के उन्मत्त दमन और क्रूर उत्पीड़न का सामना करना पड़े, तो वे उसे पूरी तरह से अनुभव नहीं कर पाएँगे और जल्दी ही भूल जाएँगे। लिहाजा वे बड़े लाल अजगर से सचमुच नफरत कर उसे नकारेंगे नहीं। शैतान का क्रूर उत्पीड़न एक छापे की तरह लोगों के दिलों में दागा जाना चाहिए, ताकि वे अपने दिल की गहराई से उससे नफरत कर सकें और उसका असली चेहरा स्पष्ट रूप से देख सकें। अगर किसी व्यक्ति को सिर्फ एक-दो बार थोड़े समय के लिए सताया गया है, तो उसके लिए शैतान से नफरत कर उसे त्यागना कठिन होगा। अवसर मिलने पर वह अभी भी शैतान के बारे में अच्छा बोलेगा और उसकी प्रशंसा के गीत गाएगा। कोई व्यक्ति शैतान को कई बार सौंपा जाना चाहिए, ताकि वह उसकी यातना और क्रूरता से पीड़ित हो, तभी वह शैतान की बुराई, कुरूपता, नीचता और निर्लज्जता स्पष्ट रूप से देखकर उसे पूरी तरह से त्याग पाएगा। ये चीजें पूरी तरह से लंबे समय तक अनुभव की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, इस्पात-निर्माण में, आग में थोड़े समय के लिए डालने पर अच्छा इस्पात तैयार नहीं किया जा सकता; सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करने के लिए इस्पात को पूरी तरह से बार-बार गर्म और ठंडा किया जाना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि परमेश्वर के कार्य के प्रत्येक चरण को लंबा समय चाहिए; हर चरण एक लंबी अवधि की माँग करता है। इसे इसी तरह किया जाना चाहिए; वरना अच्छा परिणाम प्राप्त नहीं किया जा सकता। प्रत्येक युग की बड़ी परिस्थितियों के प्रभाव के कारण मानव-हृदय की गहराई में और मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में अलग-अलग स्तर के बदलाव होंगे, और इनमें से प्रत्येक बदलाव उस कार्य से संबंधित होगा, जो परमेश्वर प्रत्येक चरण में लोगों में करना चाहता है। अंत के दिनों में इतने बड़े पैमाने पर काम करने और इतना कुछ बोलने के लिए परमेश्वर के फिर से देहधारण करने का कारण यह है कि इस अंतिम चरण में मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव, उसके विचार और दृष्टिकोण, और समाज का व्यापक परिवेश और पृष्ठभूमि, सभी उस कार्य की पृष्ठभूमि में उपयुक्त बैठते हैं, जो परमेश्वर अंत के दिनों में करना चाहता है। समाज के रुझान, रीति-रिवाज, प्रतिमान या स्थितियाँ, राजनीतिक स्थिति, यहाँ तक कि शैतानी राष्ट्रों की राजनीतिक शक्ति भी, सभी बड़े परिवेश के कारक हैं। ऐसे समय में, जबकि ये कारक पृष्ठभूमि में हैं, लोगों का आंतरिक परिदृश्य और भ्रष्ट स्वभाव, अर्थात् संपूर्ण मानवजाति की आंतरिक अवस्था ठीक वैसी ही है, जैसी परमेश्वर को अपने कार्य के लिए चाहिए। यह परमेश्वर के लिए अपना प्रताप, धार्मिकता, दया और प्रेमपूर्ण दयालुता प्रकट करने के लिए अपना न्याय और ताड़ना प्रारंभ करने का सबसे उपयुक्त समय है। जब ये सभी कारक परिपक्व होकर पूरी तरह से तैयार हो जाते हैं, तो परमेश्वर अपना कार्य शुरू करता है। यह वह कार्य है, जिसे परमेश्वर व्यापक पृष्ठभूमि के प्रभाव में करना चाहता है। तुम लोगों के लिए यह समझना ही काफी है। अच्छी क्षमता वाले कुछ लोग समझ जाएँगे, जबकि अन्य जो अनुभवी नहीं हैं, शायद न समझ पाएँ। खास तौर पर, जो लोग राजनीतिक स्थिति और समाज के रुझानों का सार नहीं समझ सकते, और जिनकी सोच पर्याप्त परिपक्व नहीं हैं, वे छोटे आध्यात्मिक अनुभवों और छोटी गवाहियों से ही संतुष्ट रहते हैं, और वे शायद परमेश्वर के कार्य में शामिल व्यापक राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के बारे में ज्यादा न समझ पाएँ। यह मायने नहीं रखता कि तुम लोग इन चीजों को कितना समझ पाते हो; जैसे-जैसे तुम धीरे-धीरे उनका ज्यादा अनुभव लोगे, वे स्पष्ट होती जाएँगी, क्योंकि उनमें परमेश्वर की प्रबंधन योजना और परमेश्वर का कार्य शामिल है, जो एक महान परिकल्पना है। हम इस विषय पर ज्यादा संगति नहीं करेंगे, क्योंकि तुम लोग ज्यादा गहराई में जाने के लिए तैयार नहीं हो।

पिछली बार हमने नैतिक आचरण से संबंधित इस कथन पर संगति समाप्त की थी : “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे अच्छी तरह से सँभालने की पूरी कोशिश करो।” इसके बाद, हम इस कथन पर संगति करेंगे, “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है।” सबसे पहले, हमें यह पता लगाने का प्रयास करना चाहिए कि नैतिक आचरण से संबंधित इस कथन में गलत सोच और विचारों का विश्लेषण कैसे किया जाए, और इसे गढ़ने के पीछे शैतान का क्या इरादा है। एक चीनी मुहावरा है, “व्यक्ति के वास्तविक इरादे जानना कठिन है,” तो शैतान के वास्तविक इरादे कहाँ छिपे होते हैं? हमें इसी का अनावरण और विश्लेषण करने की आवश्यकता है। “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है” एक और विचार और कथन है, जिसे शैतान लोगों के बीच कहता है, और बाहर से यह काफी नेक प्रतीत होता है; यह भावोत्तेजक और सशक्त है। तो, इस कथन में इतना प्रभावशाली क्या है? क्या यह सँजोने और गंभीरता से लेने लायक है? क्या इस वैचारिक दृष्टिकोण के अनुसार लोगों और चीजों को देखना, आचरण और कार्य करना उचित है? क्या इसमें कोई खूबी है? क्या यह सकारात्मक कथन है? अगर यह कोई सकारात्मक चीज या सही विचार नहीं है, तो इसका लोगों पर क्या नकारात्मक प्रभाव होता है? जब शैतान ऐसा कथन कहता है और लोगों के मन में यह विचार बैठाता है, तो उसका क्या इरादा होता है? हमें इसे कैसे पहचानना चाहिए? अगर तुम इसे पहचान सकते हो, तो इस वाक्यांश को तुम अपने दिल की गहराई से नकारकर ठुकरा दोगे, और इससे कभी प्रभावित नहीं होगे। भले ही यह वाक्यांश तुम्हारे दिमाग में कौंधेगा और समय-समय पर तुम्हें अंदर तक परेशान करेगा, लेकिन अगर तुम इसे पहचानने में सक्षम हो, तो तुम इससे बँधे या अटके नहीं रहोगे। क्या तुम लोगों को लगता है कि “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है” कथन में कोई खूबी है? क्या यह ऐसा कथन है, जिसका लोगों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है? (नहीं।) क्या तुम लोग सज्जन बनना चाहोगे? सज्जन बनना अच्छी बात है या बुरी? सज्जन बनना बेहतर है या नकली सज्जन बनना? सज्जन बनना बेहतर है या खलनायक बनना? क्या तुम लोगों ने इन मुद्दों के बारे में नहीं सोचा है? (नहीं।) हालाँकि तुम लोगों ने इन चीजों के बारे में नहीं सोचा है, फिर भी एक चीज निश्चित है : तुम लोग अक्सर “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है” और “वास्तविक सज्जन आत्मा से इतना उदार होता है कि अगर कोई उसे ठेस पहुँचाता है तो वह इसका बुरा नहीं मानता और उसे माफ कर सकता है। इसे कहते हैं सज्जन!” जैसी बातें कहते हुए अक्सर “सज्जन” शब्द का इस्तेमाल करते हो। यह तथ्य कि तुम ये बातें कह सकते हो, तुम्हारे बारे में क्या साबित करता है? क्या यह साबित करता है कि तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों में सज्जन की एक निश्चित हैसियत है, और सज्जन के बारे में वैचारिक कहावतें तुम्हारे दिमाग में मौजूद हैं? क्या हम यह कह सकते हैं? (हाँ।) तुम समाज के उन लोगों का अनुमोदन और प्रशंसा करते हो, जो सज्जनों की तरह व्यवहार करते हैं या जिन्हें सज्जन कहा जाता है, और तुम सज्जन बनने और खलनायक के बजाय सज्जन समझे जाने के लिए कड़ी मेहनत करते हो। अगर कोई कहता है, “तुम असली खलनायक हो,” तो तुम बहुत दुखी हो जाते हो। लेकिन अगर कोई कहता है, “तुम असली सज्जन हो,” तो तुम प्रसन्न हो जाते हो। इसका कारण यह है कि तुम्हें लगता है कि अगर कोई तुम्हें सज्जन कहकर तुम्हारी सराहना करता है, तो तुम्हारा चरित्र ऊँचा हो जाता है, और तुम्हारे आचरण करने और मामले सँभालने के तरीकों की पुष्टि हो जाती है। निस्संदेह, समाज में इस तरह की पुष्टि मिलने के बाद तुम्हें लगता है कि तुम्हारी हैसियत उत्कृष्ट है और तुम निम्न वर्ग के या तुच्छ व्यक्ति नहीं हो। वास्तविक सज्जन, चाहे वह मिथक हो या वास्तव में मौजूद हो, लोगों के दिलों की गहराई में एक निश्चित स्थान रखता है। इसलिए, जब मैंने तुम लोगों से पूछा कि सज्जन बेहतर है या खलनायक, तो तुम लोगों में से किसी ने भी उत्तर देने का साहस नहीं किया। क्यों? क्योंकि तुम लोगों ने सोचा, “तुम यह कैसे पूछ सकते हो? बेशक खलनायक बनने से बेहतर सज्जन बनना है। क्या सज्जन अच्छा, ईमानदार और उच्च नैतिक चरित्र वाला नहीं होता? यह कहना कि सज्जन होना अच्छा नहीं है, सहज बुद्धि के विपरीत है, है न? यह सामान्य मानवता के विरुद्ध होगा, है न? अगर सज्जन अच्छा नहीं होता, तो किस तरह का व्यक्ति अच्छा होता है?” तो तुम लोगों ने जवाब देने की हिम्मत नहीं की, क्या यह सच नहीं है? (हाँ, सच है।) क्या यह पुष्टि करता है कि तुम लोगों के दिल में सज्जन और खलनायक के बीच एक स्पष्ट पसंद है? तुम लोग किसे पसंद करते हो? (सज्जन को।) तो हमारा उद्देश्य स्पष्ट है। आओ, सज्जन की पहचान और विश्लेषण करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। किसी को भी खलनायक पसंद नहीं है, यह स्पष्ट है। तो सज्जन असल में क्या होता है? अगर तुम पूछो, “सज्जन बनना बेहतर है या खलनायक?” मेरे लिए, उत्तर स्पष्ट है : दोनों बुरे हैं, क्योंकि न तो सज्जन कोई सकारात्मक चरित्र है, न ही खलनायक। बात सिर्फ इतनी है कि लोग खलनायक के व्यवहार, कार्यों, चरित्र और नैतिकता को अपेक्षाकृत खराब मानते हैं, इसलिए उसे पसंद नहीं करते। जब खलनायक की निम्न नैतिकता और चरित्र खुलेआम प्रदर्शित होता है, तो लोग उसे और भी ज्यादा खलनायक समझते हैं। लेकिन सज्जन अक्सर अपने बोलने और कार्य करने का सुरुचिपूर्ण तरीका, अपनी अच्छी नैतिकता और परिष्कृत चरित्र प्रदर्शित करता है, और लोग उसका सम्मान करते हैं और उससे समृद्ध महसूस करते हैं। नतीजतन, वे उसे सज्जन कहते हैं। जब कोई सज्जन खुद को इस तरह प्रस्तुत करता है, तो उसकी प्रशंसा की जाती है, उसे सराहा जाता है और उच्च सम्मान दिया जाता है। इसलिए, लोग सज्जन को पसंद करते हैं और खलनायक को नापसंद करते हैं। लेकिन, वह कौन-सा आधार है जिस पर लोग किसी को सज्जन या खलनायक निर्धारित करते हैं? (उसके बाहरी व्यवहार के आधार पर।) लोग व्यक्ति को उसके व्यवहार के आधार पर महान या नीच आँकते हैं, लेकिन लोग दूसरों को उनके व्यवहार के आधार पर क्यों आँकते हैं? इसका उत्तर यह है कि ज्यादातर लोगों के पास जो क्षमता होती है, वह सिर्फ इस स्तर तक पहुँचने में ही सक्षम होती है। वे सिर्फ यह देख पाते हैं कि किसी व्यक्ति का व्यवहार अच्छा है या बुरा; वे उस व्यक्ति का सार स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते। नतीजतन, वे सिर्फ उसके व्यवहार के आधार पर ही यह निर्धारित कर पाते हैं कि व्यक्ति सज्जन है या खलनायक। तो, क्या परखने का यह तरीका सही है? (नहीं।) यह पूरी तरह से गलत है। तो फिर, क्या किसी सज्जन को परिष्कृत चरित्र और अच्छी नैतिकता वाले व्यक्ति के रूप में देखना सटीक है? (नहीं।) बिल्कुल सही, यह सटीक नहीं है। सज्जनों की यह व्याख्या करना गलत है कि वे परिष्कृत चरित्र वाले, नैतिक, प्रतिष्ठित और सदाचारी होते हैं। इसलिए, अब इसे देखते हुए, क्या “सज्जन” शब्द सकारात्मक है? (नहीं।) यह सकारात्मक नहीं है। कोई सज्जन किसी खलनायक से ज्यादा महान नहीं होता। तो, अगर कोई पूछता है, “क्या सज्जन बनना बेहतर है या खलनायक?” तो जवाब क्या है? (दोनों बुरे हैं।) यह सटीक है। अगर कोई पूछे कि वे दोनों बुरे क्यों हैं, तो उत्तर सरल है। सज्जन और खलनायक दोनों ही सकारात्मक चरित्र नहीं हैं; उनमें से कोई भी वास्तव में अच्छा व्यक्ति नहीं है। वे शैतान के भ्रष्ट स्वभाव और जहर से भरे हैं। वे शैतान द्वारा नियंत्रित और विषाक्त हैं, और उसके तर्क और नियमों के अनुसार जी रहे हैं। इसलिए, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जहाँ खलनायक अच्छा व्यक्ति नहीं होता, वहीं सज्जन भी सकारात्मक व्यक्ति नहीं हो सकता। भले ही सज्जन दूसरों को अच्छा व्यक्ति दिखाई दे, वह सिर्फ अच्छा होने का दिखावा कर रहा होता है। वह परमेश्वर द्वारा स्वीकृत ईमानदार व्यक्ति नहीं है, और ऐसा व्यक्ति तो बिल्कुल नहीं है जो परमेश्वर का भय मानता हो और बुराई से दूर रहता हो। बात सिर्फ इतनी है कि सज्जन थोड़ा ज्यादा बार अच्छा और थोड़ा कम बार खराब व्यवहार करता है, जबकि खलनायक थोड़ा ज्यादा बार खराब और थोड़ा कम बार अच्छा व्यवहार करता है। सज्जन को थोड़ा ज्यादा सम्मान दिया जाता है, जबकि खलनायक को थोड़ा ज्यादा तिरस्कृत किया जाता है। सज्जन और खलनायक के बीच यही एकमात्र अंतर है। अगर लोग उनके व्यवहार के अनुसार उनका मूल्यांकन करेंगे, तो उन्हें यही एकमात्र परिणाम प्राप्त होगा।

लोग व्यक्ति के व्यवहार के आधार पर यह तय करते हैं कि वह सज्जन है या खलनायक। वे कह सकते हैं, “यह व्यक्ति सज्जन है, क्योंकि इसने सभी के लाभ के लिए बहुत सारे काम किए हैं। सभी ऐसा सोचते हैं। इसलिए, वह एक सज्जन और उच्च नैतिक चरित्र वाला व्यक्ति है।” अगर सभी कहते हैं कि कोई व्यक्ति सज्जन है, तो क्या इससे वह व्यक्ति एक अच्छा इंसान और सकारात्मक चरित्र वाला बन जाता है? (नहीं।) क्यों नहीं? क्योंकि सभी लोग भ्रष्ट हैं, उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं और उनमें सत्य-सिद्धांत नहीं हैं। इसलिए, चाहे कोई भी कहे कि कोई व्यक्ति सज्जन है, यह कथन शैतान और एक भ्रष्ट व्यक्ति की ओर से आता है। लोगों के मूल्यांकन का मानक सही नहीं है, इसलिए उससे मिलने वाला परिणाम भी सही नहीं होता। परमेश्वर कभी सज्जनों या खलनायकों के संदर्भ में बात नहीं करता। वह लोगों से नकली सज्जन के बजाय सच्चा सज्जन बनने की अपेक्षा नहीं करता, न ही वह कभी यह कहता है, “तुम सभी लोग खलनायक हो। मुझे खलनायक नहीं, सज्जन चाहिए।” क्या परमेश्वर ऐसा कहता है? (नहीं।) वह ऐसा नहीं कहता। परमेश्वर कभी किसी व्यक्ति की कथनी-करनी से यह आकलन या निर्धारण नहीं करता कि वह अच्छा है या बुरा। बल्कि, वह उसके सार के अनुसार उसका मूल्यांकन और निर्धारण करता है। इसका क्या अर्थ है? पहली बात, इसका अर्थ यह है कि लोगों का मूल्यांकन उनकी मानवता की गुणवत्ता, और उनमें जमीर और समझ है या नहीं, इसके आधार पर किया जाता है। दूसरे, उनका मूल्यांकन सत्य और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये के आधार पर किया जाता है। परमेश्वर इसी तरह मूल्यांकन और निर्धारण करता है कि कोई व्यक्ति श्रेष्ठ है या निम्न। इसलिए, परमेश्वर के वचनों में सज्जन या खलनायक जैसी कोई चीज नहीं है। कलीसिया में, परमेश्वर जिन लोगों को बचाता है, उनसे सज्जन बनने की अपेक्षा नहीं करता, या सज्जन होने के विचार को बढ़ावा नहीं देता, और वह लोगों से खलनायकों की आलोचना करने के लिए नहीं कहता। परमेश्वर का घर निश्चित रूप से नैतिक आचरण से संबंधित पारंपरिक सांस्कृतिक विचारों के अनुसार यह निर्णय नहीं करता कि कौन उच्च नैतिक चरित्र वाला है। यहाँ किसी ऐसे व्यक्ति को बढ़ावा और प्रोत्साहन नहीं दिया जाता जो सज्जन हो, और किसी ऐसे व्यक्ति का सफाया कर उसे बाहर नहीं निकाला जाता जो खलनायक हो। परमेश्वर का घर अपने सिद्धांतों के अनुसार लोगों को बढ़ावा और प्रोत्साहन देता है या सफाया कर बाहर निकालता है। वह लोगों को नैतिक आचरण से संबंधित मानकों और कहावतों के अनुसार नहीं देखता, और जो सज्जन है उसे बढ़ावा नहीं देता और जो खलनायक है उसे नकारता नहीं। बल्कि, वह सभी लोगों के साथ परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार व्यवहार करता है। तुम लोग कलीसिया में उन कुछ लोगों के बारे में क्या सोचते हो, जो हमेशा सज्जन बनने की कोशिश करते हैं? (वे बेकार हैं।) कुछ नए विश्वासी हमेशा लोगों को सज्जन या खलनायक के मानक के अनुसार परखते हैं। जब वे कलीसिया के अगुआओं को विघ्न और गड़बड़ियाँ पैदा करने वाले लोगों की काट-छाँट करते और उनसे निपटते देखते हैं, तो कहते हैं, “यह अगुआ सज्जन नहीं है! जब कोई भाई-बहन कोई छोटी-सी गलती कर देता है, तो यह उसे पकड़ लेता है और छोड़ता नहीं। कोई सज्जन इसकी परवाह नहीं करेगा। सज्जन सहनशील, क्षमाशील, यहाँ तक कि तुष्टीकरण करने वाला होगा—वह कहीं ज्यादा बरदाश्त करने वाला होगा! यह अगुआ लोगों पर बहुत सख्ती करता है। यह बिल्कुल खलनायक है!” ये लोग कहते हैं कि जो लोग परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करते हैं, वे सज्जन नहीं हैं। वे कहते हैं कि जो लोग गंभीरता, सावधानी और जिम्मेदारी से काम करते हैं, वे खलनायक होते हैं। तुम उन लोगों के बारे में क्या सोचते हो, जो दूसरों को इस तरह से देखते हैं? क्या वे लोगों को सत्य या परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखते हैं? (नहीं।) वे लोगों को सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देखते। यही नहीं, वे ऐसे विचार, दृष्टिकोण, तरीके और साधन अपनाते हैं जिनके जरिये शैतान लोगों का मूल्यांकन करता है, और इन्हें कलीसिया में फैला देते और जारी कर देते हैं। ये चीजें स्पष्ट रूप से अविश्वासियों और गैर-विश्वासियों के विचार और दृष्टिकोण हैं। अगर तुम समझदार नहीं हो और सोचते हो कि सज्जन उच्च नैतिक चरित्र वाला अच्छा व्यक्ति होता है, ऐसा व्यक्ति जो कलीसिया में एक स्तंभ है, तो तुम उससे धोखा खा सकते हो। चूँकि तुम्हारे विचार और दृष्टिकोण उसके जैसे ही हैं, इसलिए जब कोई व्यक्ति सज्जनों के बारे में टिप्पणी करता या कथन कहता है, तो तुम निश्चित रूप से इसमें शामिल हो जाओगे और अनजाने ही गुमराह हो जाओगे। लेकिन अगर तुम ऐसी चीजों के बारे में समझदारी दिखाओगे, तो तुम ऐसे कथनों को नकार दोगे और उनसे गुमराह नहीं होगे। इसके बजाय, तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों और चीजों का मूल्यांकन और सही-गलत का निर्णय करने पर जोर दोगे। तब तुम लोगों और चीजों को सटीक रूप से देखोगे और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करोगे। जो गैर-विश्वासी सत्य का अनुसरण नहीं करते, जो नासमझ हैं और परमेश्वर के घर के नियमों का पालन करने के इच्छुक नहीं हैं, वे भाई-बहनों को गुमराह करने और सत्य की उनकी समझ बाधित करने के लिए अक्सर ऐसे विचार और दृष्टिकोण लाते हैं, जो शैतान से आते हैं और अविश्वासियों के बीच आम हैं। अगर लोग समझदार नहीं हैं, तो भले ही वे उन लोगों द्वारा गुमराह या परेशान न किए जा सकें, लेकिन वे अक्सर उनके कथनों से नियंत्रित होंगे, और कार्य करने या बोलने से कतराएँगे। वे सत्य सिद्धांतों को कायम रखने की हिम्मत नहीं करेंगे और परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने पर जोर नहीं देंगे, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने की हिम्मत करना तो दूर की बात है। क्या यह शैतान के विचारों और कथनों की समझ की कमी के कारण होता है? (हाँ।) जाहिर तौर पर यही कारण है। कलीसिया में “सज्जन” और “खलनायक” शब्द मान्य नहीं हैं। अविश्वासी लोग दिखावा करने और मुखौटों के पीछे रहने में कुशल हैं। वे खलनायक के बजाय सज्जन बनने की वकालत करते हैं, और वे अपने जीवन में इन छद्मवेशों को अपनाते हैं। वे इन चीजों का उपयोग लोगों के बीच खुद को स्थापित करने, खुद को ख्याति और अच्छी प्रतिष्ठा देने के लिए अन्य लोगों को बरगलाने और प्रसिद्धि और सौभाग्य प्राप्त करने के लिए करते हैं। परमेश्वर के घर से इन सभी चीजों को निकाल बाहर कर प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। इन्हें परमेश्वर के घर में या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच फैलने नहीं देना चाहिए, न ही इन चीजों को परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परेशान और गुमराह करने का अवसर दिया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए है, क्योंकि ये सभी चीजें शैतान से आती हैं, इनका परमेश्वर के वचनों में कोई आधार नहीं है, और ये निश्चित रूप से वे सत्य सिद्धांत नहीं हैं जिनका लोगों को इस दृष्टि से पालन करना चाहिए कि वे लोगों और चीजों को कैसे देखें, आचरण और कार्य कैसे करें। इसलिए, “सज्जन,” “नकली सज्जन” और “खलनायक” किसी व्यक्ति के सार को परिभाषित करने के लिए सही शब्द नहीं हैं। क्या मैंने “सज्जन” शब्द की स्पष्ट रूप से व्याख्या कर दी है? (हाँ।)

आओ, “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है” कहावत पर एक और नजर डालें और देखें कि इसका वास्तव में क्या अर्थ है। इस वाक्यांश का शाब्दिक अर्थ यह है कि सज्जन को अपने शब्द गंभीरता से लेने चाहिए। जैसा कि कहा जाता है, व्यक्ति उतना ही अच्छा होता है, जितने अच्छे उसके शब्द होते हैं; सज्जन को अपने कहे पर कायम रहना चाहिए और अपने वादों पर अमल करना चाहिए। इसलिए, उच्च नैतिक चरित्र वाला सज्जन बनने के लिए, जिसे बहुत पसंद किया जाता है और अत्यधिक सम्मान दिया जाता है, व्यक्ति को इस कहावत के अनुसार कार्य करना चाहिए “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है।” अर्थात् सज्जन को विश्वसनीय होना चाहिए। वह जो कहता और वादा करता है, उसे उसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए और उसका पालन सुनिश्चित करना चाहिए। वह अपने शब्दों से पीछे नहीं हट सकता या दूसरों से किए गए वादे पूरे करने में विफल नहीं हो सकता। जो व्यक्ति अक्सर दूसरों से किए गए अपने वादे पूरे करने में विफल रहता है, वह सज्जन या अच्छा व्यक्ति नहीं है, बल्कि खलनायक है। “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है” वाक्यांश की व्याख्या इसी तरह की जा सकती है। यह मुख्य रूप से नैतिकता और विश्वसनीयता के संदर्भ में सज्जन के शब्दों और कार्यों पर जोर देता है। पहली बात, मैं पूछता हूँ कि “सज्जन का वचन” में “वचन” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ दो चीजें हैं : वादा जो वह करता है, या कुछ करने की प्रतिज्ञा। जैसा कि मैंने पहले कहा, सज्जन अच्छे लोग नहीं होते, बल्कि शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किए गए साधारण लोग होते हैं। तो, लोगों के सार के संदर्भ में, वे कौन-से मुख्य तरीके हैं जिनसे लोग खुद को उन चीजों में प्रकट करते हैं जिनका वे वादा करते हैं? अहंकारपूर्वक बोलना, बढ़ा-चढ़ाकर बोलना, अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना, अपने बारे में वे बातें कहना जो सच नहीं होतीं, ऐसी बातें कहना जो तथ्यों से मेल नहीं खातीं, झूठ बोलना, कठोरता से बोलना और भड़ास निकालना। ये तमाम चीजें उन चीजों में पाई जा सकती हैं, जो लोग कहते हैं और जिनका वादा करते हैं। तो, जब कोई व्यक्ति ये बातें कहता है और तुम उससे अपना वादा निभाने, अपना कहा पूरा करने और अपने शब्दों से पीछे न हटने के लिए कहते हो, और अगर वह इसका पालन करता है, तो तुम्हें लगता है कि वह सज्जन और अच्छा व्यक्ति है। क्या यह बेतुका नहीं है? अगर भ्रष्ट लोगों की रोजाना कही जाने वाली बातों की सावधानीपूर्वक जाँच-पड़ताल की जाए, तो तुम पाओगे कि वे शत-प्रतिशत झूठी, खोखली बातें या अर्धसत्य हैं। एक भी बात सटीक, सच्ची या तथ्यपरक नहीं है। इसके बजाय, उनके कथन तथ्यों को तोड़ते-मरोड़ते हैं, काले को सफेद बताते हैं, और उनमें से कुछ तो बुरे इरादे भी रखते हैं या शैतानी चालें भी चलते हैं। अगर ये सभी शब्द पूरे किए जाएँ, तो इससे बहुत अराजकता फैल जाएगी। हम इस बारे में बात न करके कि इससे लोगों के एक बड़े समूह में क्या होगा, बस इस बारे में बात करते हैं कि क्या किसी परिवार में ऐसा कोई तथाकथित सज्जन है जो लगातार अविवेकपूर्ण टिप्पणियाँ करता हो, और ढेर सारे निरर्थक सिद्धांत और अहंकार से भरी, गलत, भयावह और दुष्टतापूर्ण बातें उगलता हो। अगर वह अपने शब्दों को गंभीरता से ले और उसका वचन उसका अनुबंध हो, तो क्या परिणाम होंगे? यह परिवार कितना अराजक हो जाएगा? यह ठीक बड़े लाल अजगर के देश के शैतान राजा की तरह है। चाहे उसकी नीतियाँ कितनी भी बेतुकी या बुरी हों, वह फिर भी उन्हें आगे रखता है, और उसके मातहत लोग इन नीतियों को पूरी तरह से कार्यान्वित और लागू करते हैं—कोई उनका विरोध करने या उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं करता, जिससे राष्ट्रीय अराजकता पैदा होती है। इसके अलावा, विभिन्न आपदाएँ आ रही हैं और युद्ध की तैयारी शुरू हो गई है। पूरा देश घोर असमंजस में डूबा हुआ है। अगर कोई शैतान नेता किसी देश या राष्ट्र में लंबे समय तक शासन करे, तो उस देश के लोग गंभीर संकट में पड़ जाएँगे। चीजें कितनी अराजक हो जाएँगी? अगर लोग शैतान राजाओं द्वारा जारी की गई तमाम बेहूदी चीजें, भ्रांतियाँ और झूठ अपनाकर उन्हें क्रियान्वित कर दें, तो क्या इससे मानवजाति का कुछ भी भला होगा? मानवजाति सिर्फ ज्यादा से ज्यादा अराजक, अंधकारमय और दुष्ट बन जाएगी। सौभाग्य से “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है” खोखले शब्दों से ज्यादा कुछ नहीं है; यह सिर्फ एक शब्दाडंबर है, शैतान इसे साकार करने में सक्षम नहीं है, और जो वह कहता है उसे हासिल करने में सक्षम नहीं है। इसलिए, दुनिया में अभी भी थोड़ी व्यवस्था है और लोग अभी भी अपेक्षाकृत स्थिर हैं। अगर ऐसा न होता, तो मानव-जगत का हर कोना, हर वह जगह जहाँ “सज्जन” हैं, अराजकता में पड़ा होता। तो यह “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है” कहावत से जुड़ी गलत चीजों में से एक है। लोगों के सार के परिप्रेक्ष्य से हम देख सकते हैं कि उनके विचार, उनकी बातें और उनके वादे अविश्वसनीय हैं। एक और चीज जो इसमें गलत है, वो यह है कि मानवजाति इस वैचारिक दृष्टिकोण से नियंत्रित होती है, “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है।” लोग सोचते हैं, “हमें अपने कहे पर कायम रहना चाहिए और वही करना चाहिए जो हम कहते हैं कि हम करने जा रहे हैं, क्योंकि सज्जन बनने का यही तरीका है।” यह वैचारिक दृष्टिकोण लोगों की सोच पर हावी हो जाता है और वह मानक बन जाता है, जिसके द्वारा वे किसी व्यक्ति को देखते, उसका मूल्यांकन करते और उसकी विशेषताएँ बताते हैं। क्या यह उचित और सटीक है? (नहीं, यह सटीक नहीं है।) यह सटीक क्यों नहीं है? पहली बात, क्योंकि लोग जो कहते हैं उसका कोई महत्व नहीं है और वह सिर्फ खोखले शब्द, झूठ और अतिशयोक्ति होती है। दूसरे, लोगों को नियंत्रित करने के लिए इस वैचारिक दृष्टिकोण का उपयोग करना और उनसे अपने शब्दों पर कायम रहने की अपेक्षा करना अनुचित है। किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता या हीनता मापने के लिए लोग अक्सर “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है” का उपयोग करते हैं। अनजाने ही लोग अक्सर इस बात की चिंता करते हैं कि अपने वादे कैसे पूरे किए जाएँ और इसी से नियंत्रित होते हैं। अगर वे अपने वादे पूरे नहीं कर पाते, तो उन्हें दूसरों के भेदभाव और डाँट-फटकार का शिकार होना पड़ता है, और अगर वे किसी छोटी-मोटी चीज पर अमल नहीं कर पाते तो उनके लिए समुदाय में खुद को स्थापित करना कठिन होता है। यह इन लोगों के साथ अन्याय है और अमानवीय है। अपने भ्रष्ट स्वभावों के कारण लोग अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार बोलते हैं, जो कहना चाहते हैं सो कहते हैं; वे इसकी परवाह नहीं करते कि उनके कथन कितने बेतुके या तथ्यों के विपरीत हैं। भ्रष्ट लोग ऐसे ही होते हैं। हर चीज का अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करना स्वाभाविक है : मुर्गे को कुड़कुड़ करना सीखना चाहिए, कुत्ते को भौंकना और भेड़िये को गुर्राना सीखना चाहिए। अगर कोई चीज इंसान नहीं है, फिर भी उससे इंसानी चीजें कहने और करने की सख्त अपेक्षा की जाए, तो यह उसके लिए बहुत कठिन होगा। लोगों में शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है, ऐसा स्वभाव जो अहंकारी और कपटी है, इसलिए उनका झूठ बोलना, बढ़ा-चढ़ाकर बोलना और खोखले शब्द बोलना स्वाभाविक है। अगर तुम सत्य समझते हो और लोगों की असलियत देख सकते हो, तो यह सब तुम्हें सामान्य और साधारण लगेगा। तुम्हें लोगों और चीजों को देखने और यह निर्णय करने और बताने के लिए कि लोग अच्छे या भरोसेमंद हैं या नहीं, इस गलत विचार का उपयोग नहीं करना चाहिए कि “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है।” मूल्यांकन का यह तरीका सही नहीं है और इसे नहीं अपनाया जाना चाहिए। सही तरीका क्या है? लोगों का भ्रष्ट स्वभाव होता है, इसलिए उनका बढ़ा-चढ़ाकर बोलना और ऐसी बातें कहना जो उनकी वास्तविक स्थिति प्रतिबिंबित नहीं करतीं, सामान्य है। तुम्हें इसे सही ढंग से सँभालना चाहिए। तुम्हें किसी व्यक्ति से सज्जन के मानकों के अनुसार अपने वादे पूरे करने के लिए नहीं कहना चाहिए, और तुम्हें निश्चित रूप से दूसरों को या खुद को इस विचार से नहीं बाँधना चाहिए कि “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है।” यह ठीक नहीं है। यही नहीं, किसी व्यक्ति की मानवता और नैतिक चरित्र को इस आधार पर आँकना कि वह सज्जन है या नहीं, एक बुनियादी गलती है, न कि सही दृष्टिकोण। इसका आधार गलत है और परमेश्वर के वचनों या सत्य के अनुरूप नहीं है। इसलिए, धर्मनिरपेक्ष दुनिया किसी व्यक्ति का मूल्यांकन करने के लिए चाहे जिस भी तरह के वैचारिक दृष्टिकोणों का उपयोग करे, और चाहे धर्मनिरपेक्ष दुनिया सज्जन होने की वकालत करे या खलनायक होने की, परमेश्वर के घर में “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है” कहावत को बढ़ावा नहीं दिया जाता, किसी को भी सज्जन बनने की अनुशंसा नहीं की जाती और तुम्हें निश्चित रूप से इस कहावत के अनुसार कार्य करने की आवश्यकता नहीं है कि “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है।” अगर तुम सख्ती से खुद से सज्जन होने की माँग करते भी हो और इस कहावत को चरितार्थ करते भी हो कि “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है,” तो भी क्या? तुम इसे बहुत अच्छी तरह से कर सकते हो और ऐसे विनम्र सज्जन बन सकते हो जो अपने वादे निभाता है और अपने वचन पूरे करने में कभी विफल नहीं होता। लेकिन अगर तुम कभी परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को नहीं देखते, आचरण और कार्य नहीं करते, या सत्य सिद्धांतों का पालन नहीं करते, तो तुम पूरी तरह से गैर-विश्वासी हो। भले ही बहुत-से लोग तुमसे सहमत होते हों और तुम्हारा समर्थन करते हों, कहते हों कि तुम सज्जन हो, अपना कहा पूरा करने में कभी विफल नहीं होते और अपने वादों को गंभीरता से लेते हो, तो भी क्या? क्या इसका मतलब यह है कि तुम सत्य समझते हो? क्या इसका मतलब यह है कि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो? चाहे तुम इस नैतिक कथन का कि “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है,” कितनी भी अच्छी तरह और उचित ढंग से पालन करते हो, अगर तुम परमेश्वर के वचन नहीं समझते, और सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं देखते और कार्य करते, तो फिर तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति मिलने से रही।

इस विचार की त्रुटियों की पहचान और विश्लेषण करने के बाद कि “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है,” आओ देखते हैं कि परमेश्वर लोगों से उनकी कथनी-करनी को लेकर क्या अपेक्षा करता है। परमेश्वर लोगों से किस तरह का व्यक्ति बनने की अपेक्षा करता है? (एक ईमानदार व्यक्ति।) यह सही है। ईमानदार बनो, झूठ मत बोलो, छल-कपट मत करो, धोखेबाज मत बनो और चालाकी मत करो। कार्य करते हुए परमेश्वर के वचन और सत्य सिद्धांत खोजो। बस यही कुछ चीजें अपेक्षित हैं; यह बहुत सरल है। अगर तुम बेईमानी से बात करते हो, तो खुद को सुधारो। अगर तुम बढ़ा-चढ़ाकर बोलते हो, झूठ बोलते हो या अपनी औकात से बाहर जाकर बोलते हो, तो इस पर विचार करो और इससे अवगत हो जाओ, और इसे हल करने के लिए सत्य खोजो। तुम्हें वही चीजें कहनी चाहिए, जो तुम्हारी वास्तविक स्थिति, तुम्हारे दिल की समझ और तथ्यों को दर्शाती हों। इसके अलावा, अगर तुम वे काम कर सकते हो जिनका तुमने दूसरों से वादा किया है, तो उन्हें करो। अगर नहीं कर सकते, तो तुरंत उन्हें बताओ। कहो, “क्षमा करें, मैं यह नहीं कर सकता। मुझमें क्षमता नहीं है और मैं अच्छा काम नहीं कर पाऊँगा। मैं आपको अटकाना नहीं चाहता, इसलिए बेहतर होगा कि आप किसी और से मदद माँग लें।” तुम्हें हमेशा अपनी बात पर टिके रहने की जरूरत नहीं है, तुम अपने वादे से मुकर सकते हो। बस एक ईमानदार इंसान बनो। तुम जो कहते और करते हो, उसमें झूठ बोलने या धोखा देने की कोशिश करने के बजाय ईमानदार रहो, और हर स्थिति में सत्य सिद्धांत खोजो। यह बहुत सरल है; यह बहुत आसान है। परमेश्वर लोगों से जो कुछ करने के लिए कहता है, क्या उसका कोई हिस्सा ऐसा है जो उन्हें दिखावा करने पर मजबूर करता हो? क्या उसने कभी लोगों से बहुत ज्यादा माँगा है, उनसे उससे ज्यादा करने के लिए कहा है जितना वे सह या कर सकते हैं? (नहीं।) अगर लोगों के पास आवश्यक क्षमता, समझने की योग्यता, शारीरिक ऊर्जा या ताकत नहीं है, तो परमेश्वर उनसे कहता है कि उनका उतना ही करना पर्याप्त है जितना वे कर सकते हैं, भरसक प्रयास करो और अपना सब-कुछ दे दो। तुम कहते हो, “मैंने इसे वह सब-कुछ दे दिया है जो मेरे पास है, लेकिन मैं अभी भी परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी नहीं कर सकता। मैं बस इतना ही कर सकता हूँ, लेकिन पता नहीं परमेश्वर इससे संतुष्ट होगा या नहीं।” असल में, ऐसा करके तुम पहले ही परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर चुके हो। परमेश्वर लोगों को इतना भारी बोझ नहीं देता कि वे उठा न सकें। अगर तुम पचास किलो वजन ही उठा सकते हो, तो परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हें पचास किलो से ज्यादा वजन नहीं देगा। वह तुम पर दबाव नहीं डालेगा। इसी तरह परमेश्वर सबके साथ है। और तुम किसी चीज से नियंत्रित नहीं होगे—न किसी व्यक्ति से, न किसी वैचारिक दृष्टिकोण से। तुम स्वतंत्र हो। कुछ होने पर तुम्हें चुनने का अधिकार है। तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना चुन सकते हो, तुम अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं के अनुसार अभ्यास करना चुन सकते हो, या, बेशक, तुम अपने मन में शैतान के बैठाए वैचारिक दृष्टिकोणों से चिपके रहना चुन सकते हो। तुम इनमें से कोई भी विकल्प चुनने के लिए स्वतंत्र हो, लेकिन तुम जो भी विकल्प चुनते हो, उसकी जिम्मेदारी तुम्हें लेनी होगी। परमेश्वर तुम्हें सिर्फ मार्ग दिखाता है; वह तुम पर कुछ करने या न करने के लिए दबाव नहीं डालता। परमेश्वर द्वारा तुम्हें मार्ग दिखाए जाने के बाद चुनाव तुम्हारा है। तुम्हारे पास पूर्ण मानवाधिकार हैं, जिनमें चुनने का पूर्ण अधिकार भी शामिल है। तुम सत्य, अपनी इंसानी इच्छाएँ, या, बेशक, शैतान के वैचारिक दृष्टिकोण भी चुन सकते हो। तुम चाहे जिसे चुनो, अंतिम परिणाम तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा; कोई भी इसे तुम्हारी ओर से वहन नहीं करेगा। जब तुम चुनाव करते हो, तो परमेश्वर किसी भी तरह से हस्तक्षेप नहीं करता, न ही वह तुम्हें मजबूर करने के लिए कुछ करता है। तुम जैसा चाहो वैसा चुन सकते हो, चाहे वह कोई भी विकल्प हो। अंत में, परमेश्वर सिर्फ इसलिए तुम पर प्रशंसा का अंबार नहीं लगाएगा, तुम्हें कोई बड़ा फायदा नहीं पहुँचागा, तुम्हारे दिल में कोई सुखद एहसास पैदा नहीं करेगा या तुम्हें बेहद महान महसूस नहीं कराएगा कि तुमने सही मार्ग और सत्य चुना। वह ऐसा नहीं करेगा। अपनी इंसानी इच्छाएँ चुनने पर परमेश्वर तुरंत तुम्हें अनुशासित या शापित भी नहीं करेगा, या दंड के रूप में तुम पर तुरंत आपदा भी नहीं बरसाएगा, भले ही तुम अपने मन में शैतान के बैठाए गए विचारों के अनुसार लापरवाही से कार्य करो। जब तुम कोई विकल्प चुन रहे होते हो, तो सब-कुछ स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ता है, और तुम्हारे चुनने के बाद भी सब-कुछ स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ता रहता है। परमेश्वर बस अवलोकन करता है, यह सब होता हुआ देखता है, और कारण, प्रक्रिया और परिणाम पर नजर रखता है। बेशक, अंत में, जब लोगों का न्याय किया जाता है और उनका अंत निर्धारित किया जाता है, तो परमेश्वर तुम्हारी तमाम व्यक्तिगत पसंदगियों के आधार पर तुम्हारे द्वारा अपनाए गए मार्ग को वर्गीकृत करेगा, यह जानने के लिए उस मार्ग को समग्र रूप से देखेगा कि तुम वास्तव में किस प्रकार के व्यक्ति हो, और इससे यह निर्धारित करेगा कि तुम्हारा अंत किस तरह का होना चाहिए। परमेश्वर का यही तरीका है। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) जब परमेश्वर अपना कार्य कर रहा होता है, तो वह कभी किसी कथन, कहावत या वैचारिक दृष्टिकोण को लोगों के बीच ऐसी प्रवृत्ति नहीं बनने देता, जो उनके विचारों को सीमित और नियंत्रित करके अनिच्छा से वह करवाए जो परमेश्वर उनसे कराना चाहता है। यह परमेश्वर का कार्य करने का तरीका नहीं है। परमेश्वर लोगों को पूर्ण स्वतंत्रता और चुनने का अधिकार देता है, और वे पूर्ण मानवाधिकारों और चुनने के पूर्ण अधिकार का आनंद लेते हैं। लोग अपने सामने आने वाली हर स्थिति में किसी वस्तु-विशेष की बनावट समझने और आँकने के लिए शैतान के वैचारिक दृष्टिकोण स्वीकार और इस्तेमाल करना चुन सकते हैं, या परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार ऐसा करना भी चुन सकते हैं। क्या यह तथ्य है? (हाँ।) परमेश्वर लोगों को बाध्य नहीं करता; परमेश्वर जो करता है, वह सभी के लिए उचित होता है। जो लोग सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, वे अंततः सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हैं, सत्य प्राप्त करते हैं, परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखते हैं, परमेश्वर के प्रति वास्तव में समर्पित हो सकते हैं और वे बचाए जाएँगे, क्योंकि वे सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो सत्य से प्रेम नहीं करते, और जो हमेशा अपनी इच्छा के अनुसार लापरवाही से कार्य करते हैं, वे सत्य से तंग आ चुके हैं और उसे किसी भी तरह से नहीं स्वीकारते। वे बस परमेश्वर की ताड़ना और न्याय से डरते हैं, और इस बात से डरते हैं कि उन्हें दंडित किया जाएगा, इसलिए वे परमेश्वर के घर में दिखावे के लिए अनिच्छा से थोड़ा-सा काम करते हैं, थोड़ी सेवा करते हैं और कुछ अच्छा व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। लेकिन वे कभी सत्य नहीं स्वीकारते या परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं करते, और वे सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने के मार्ग पर नहीं हैं। नतीजतन, वे कभी सत्य नहीं समझ पाएँगे या सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाएँगे, और इसलिए बचाए जाने का अवसर चूक जाएँगे। इनमें से ज्यादातर लोग सेवाकर्ता हैं। भले ही वे कोई बुराई न करें, विघ्न-बाधाएँ पैदा न करें, और मसीह-विरोधियों और दुष्टों की तरह परमेश्वर के घर से बहिष्कृत और निष्कासित न किए जाएँ, लेकिन अंततः, वे मुश्किल से “सेवाकर्ता” की उपाधि ही प्राप्त कर पाएँगे, और यह स्पष्ट नहीं है कि उन्हें बख्शा जाएगा या नहीं। लोगों का एक समूह और है, जो शैतान से संबंधित है और उसके तमाम विचारों और दृष्टिकोणों पर हठपूर्वक कायम है। ये लोग मर जाएँगे, पर सत्य नहीं स्वीकारेंगे या सत्य और परमेश्वर के वचनों के साथ नहीं चलेंगे। वे तो तमाम सकारात्मक चीजों और परमेश्वर के विपरीत भी रहते हैं। चूँकि वे कलीसिया के काम में बाधा डालते हैं और उसमें गड़बड़ी करते हैं, कई बुरी चीजें करते हैं और पूरी तरह से शैतान की भूमिका निभाते हैं, इसलिए इनमें से कुछ लोग अंततः कलीसिया से निकाल दिए जाते हैं, और कुछ निष्कासित कर दिए जाते हैं या उनके नाम रजिस्टर से काट दिए जाते हैं। अगर कुछ लोग अपना नाम कटवाने या निष्कासित होने से बच भी जाते हैं, तो भी अंततः परमेश्वर को उन्हें बाहर निकालना ही होगा। वे बचाए जाने का अवसर खो देते हैं, क्योंकि वे सत्य और परमेश्वर का उद्धार नहीं स्वीकारते, और अंततः जब दुनिया नष्ट हो जाएगी तो वे शैतान के साथ नष्ट हो जाएँगे। देखो, परमेश्वर इतने स्वतंत्र और मुक्तिदायक तरीके से कार्य करता है कि हर चीज स्वाभाविक रूप से घटित होती है। परमेश्वर लोगों में उनका मार्गदर्शन करने, उन्हें प्रबुद्ध करने और उनकी मदद करने, और कभी-कभी उन्हें याद दिलाने, सांत्वना देने और प्रोत्साहित करने के लिए काम करता है। यह परमेश्वर के स्वभाव का वह पक्ष है, जो प्रचुर दया दिखाता है। जब परमेश्वर अपनी दया दिखाता है तो लोग उसके अनुग्रह और आशीषों की प्रचुरता का आनंद लेते हैं, और नियंत्रित या बाध्य किए जाने की किसी भावना के बिना, और निश्चित रूप से किसी कथन या वैचारिक दृष्टिकोण से सीमित किए जाने की भावना के बिना भी पूर्ण स्वतंत्रता और उद्धार का आनंद लेते हैं। जिस समय परमेश्वर यह कार्य करता है, उसी समय वह लोगों को प्रशासनिक नियमों और कलीसिया की विभिन्न प्रणालियों से नियंत्रित भी करता है, और उनकी भ्रष्टता और अवज्ञा की काट-छाँट करता है, उनसे निपटता है, उनका न्याय करता है और उन्हें ताड़ना देता है। वह उनमें से कुछ को अनुशासित और दंडित भी करता है, या अपने वचनों से उन्हें उजागर करता और फटकारता है, साथ ही अन्य कार्य भी करता है। हालाँकि, जब लोग इस सब का आनंद लेते हैं, तो वे परमेश्वर की प्रचुर दया और गहन क्रोध का भी आनंद लेते हैं। जब परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का दूसरा पक्ष—गहन क्रोध—लोगों के सामने प्रकट होता है, तब भी वे स्वतंत्र और मुक्त महसूस करते हैं, न कि नियंत्रित, बँधे हुए या सीमित। जब लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के किसी भी पहलू का अनुभव करेंगे और वह उनमें कार्य करेगा तो वे वास्तव में परमेश्वर का प्रेम महसूस करेंगे। उनमें प्राप्त परिणाम सकारात्मक होंगे, वे इससे लाभान्वित होंगे, और निस्संदेह सबसे बड़े लाभार्थी होंगे। परमेश्वर इसी तरह से काम करता है, कभी लोगों को मजबूर नहीं करता, बाध्य नहीं करता, दबाता या बाँधता नहीं, बल्कि उन्हें मुक्त, स्वतंत्र, निश्चिंत और खुश महसूस कराता है। लोग चाहे परमेश्वर की दया और प्रेमपूर्ण दयालुता का आनंद लें या उसकी धार्मिकता और प्रताप का, अंततः वे परमेश्वर से सत्य प्राप्त करते हैं, जीवन का अर्थ और मूल्य समझते हैं, जिस मार्ग पर उन्हें चलना चाहिए उसे और मनुष्य होने की दिशा और लक्ष्य समझते हैं। उन्हें इतना अधिक मिलता है! लोग शैतान के प्रभुत्व में रहते हैं, और अपने मन में उसके बैठाए विभिन्न झूठे विचारों और दृष्टिकोणों से बद्ध, सीमित और पंगु बने रहते हैं। यह असहनीय है, लेकिन उनमें इससे मुक्त होने की ताकत नहीं होती। जब लोग परमेश्वर के पास आते हैं तो उनका रवैया चाहे जैसा भी हो, उनके प्रति परमेश्वर का रवैया हमेशा एक-समान रहेगा। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर का स्वभाव और सार नहीं बदलता। वह हमेशा सत्य व्यक्त करता है, और ऐसा करते हुए अपना स्वभाव और सार प्रकट करता है। वह लोगों में इसी तरह कार्य करता है। वे परमेश्वर की प्रेमपूर्ण दयालुता और दया, और साथ ही उसकी धार्मिकता और प्रताप का पूरी तरह से आनंद लेते हैं, और जो लोग इस परिवेश में रहते हैं वे धन्य हैं। अगर ऐसे परिवेश में लोग सत्य का अनुसरण करने, उससे प्रेम करने और अंततः उसे प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं, बचाए जाने का अवसर चूक जाते हैं, और कुछ तो शैतान की तरह दंडित और नष्ट भी कर दिए जाते हैं, तो इसका सिर्फ एक ही कारण है, और वह है एक तथ्य। तुम लोगों को क्या लगता है कि वह क्या है? लोग अपनी प्रकृति के अनुसार एक निश्चित मार्ग पर चलेंगे और उनका एक निश्चित अंत होगा। जिस समय अंततः प्रत्येक व्यक्ति का अंत निर्धारित किया जाएगा, वह वही समय होगा जब उन्हें उनके प्रकार के अनुसार समूहों में बाँटा जाएगा। अगर वे सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, तो जब परमेश्वर अंततः बोलेगा और कार्य करेगा, तब वे परमेश्वर के पास लौट आएँगे और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलेंगे, चाहे शैतान ने उनमें कितनी भी नकारात्मक चीजें क्यों न डाली हों। लेकिन अगर कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता और इससे चिढ़ता है, तो उसका यह स्वभाव अपरिवर्तित रहेगा और उसे निर्देशित करेगा, चाहे परमेश्वर कितना भी बोले, उसके वचन कितने भी ईमानदार हों, वह कितना भी काम करे और उसके चिह्न और चमत्कार कितने भी अद्भुत हों। दुष्ट लोग तो और भी ज्यादा अति करते हैं। वे न सिर्फ सत्य से चिढ़ते हैं, बल्कि उनका सार भी बुरा होता है और सत्य से घृणा करता है। वे परमेश्वर के विरोधी होते हैं और शैतान के खेमे के होते हैं। अगर वे परमेश्वर में विश्वास करते भी हों, तो भी वे अंततः शैतान के पास लौट जाएँगे। इन तीनों तरह के लोगों ने शैतान की भ्रष्टता का अनुभव किया है, और शैतान के विभिन्न कथनों और वैचारिक दृष्टिकोणों से धोखा खाया है और कैद किए गए हैं। तो, अंततः क्यों कुछ लोग बचाए जा सकते हैं और अन्य नहीं? यह मुख्य रूप से उस मार्ग पर निर्भर करता है, जिसका लोग अनुसरण करते हैं और इस पर भी कि वे सत्य से प्रेम करते हैं या नहीं। इसका संबंध इन दो चीजों से है। तो फिर, क्यों कुछ लोग सत्य से प्रेम करने में सक्षम हैं और अन्य नहीं? क्यों कुछ लोग सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल सकते हैं, जबकि दूसरे नहीं चल सकते, और कुछ लोग तो खुले तौर पर परमेश्वर से झगड़ते भी हैं और सार्वजनिक रूप से सत्य को बदनाम भी करते हैं? यहाँ क्या चल रहा होता है? क्या यह उनके प्रकृति सार से निर्धारित होता है? (हाँ।) उन सभी ने शैतान की भ्रष्टता का अनुभव किया है, लेकिन हर व्यक्ति का सार अलग है। मुझे बताओ, क्या परमेश्वर अपना कार्य बुद्धि से करता है? क्या परमेश्वर मनुष्य की असलियत देखने में सक्षम है? (हाँ।) तो फिर परमेश्वर लोगों को स्वतंत्र रूप से चुनने का अधिकार क्यों देता है? परमेश्वर सभी को बलपूर्वक शिक्षा क्यों नहीं देता? ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत और उजागर करना चाहता है। परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता; परमेश्वर जो भी कार्य करता है उसके पीछे सिद्धांत होते हैं, और वह किसी व्यक्ति में जो कार्य करता है, वह इस पर आधारित होता है कि वह किस तरह का व्यक्ति है। किसी व्यक्ति की श्रेणी कैसे प्रकट होती है? लोगों को किस आधार पर विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया जाता है? यह उन चीजों पर, जिन्हें लोग पसंद करते हैं और उस मार्ग पर, जिस पर वे चलते हैं, आधारित है। क्या यह सही नहीं है? (हाँ, है।) परमेश्वर लोगों को उनकी पसंद की चीजों और उनके अपनाए हुए मार्ग के अनुसार वर्गीकृत करता है, उनकी श्रेणी के आधार पर यह निर्धारित करता है कि उन्हें बचाया जा सकता है या नहीं, और इसके अनुसार उनमें कार्य करता है कि उन्हें बचाया जा सकता है या नहीं। यह वैसा ही है, जैसे कुछ लोग मीठा खाना पसंद करते हैं तो कुछ मसालेदार, कुछ नमकीन और कुछ खट्टा। अगर ये विभिन्न प्रकार के भोजन मेज पर रखे जाएँ, तो लोगों को यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि क्या खाएँ और क्या न खाएँ। जो लोग मसालेदार खाना पसंद करते हैं वे कुछ मसालेदार खाएँगे, जो लोग मीठा खाना पसंद करते हैं वे कुछ मीठा खाएँगे और जो लोग नमकीन खाना पसंद करते हैं वे कुछ नमकीन खाएँगे। उन्हें स्वतंत्र रूप से चयन करने दिया जा सकता है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें यह चुनने का अधिकार है कि वे सत्य से प्रेम करें या नहीं और वे कौन-सा मार्ग अपनाएँ, लेकिन यह निर्णय करना उन पर निर्भर नहीं है कि उन्हें बचाया जाएगा या नहीं और अंततः उनका अंत क्या होगा। क्या तुम देखते हो कि परमेश्वर के कार्य के पीछे सिद्धांत हैं? (हाँ।) उसके कार्य के पीछे सिद्धांत हैं, और सबसे महान सिद्धांतों में से एक है लोगों को उनके अनुसरणों और मार्ग के अनुसार वर्गीकृत करना और हर चीज स्वाभाविक रूप से होने देना। लोग इसे समझने में हमेशा असफल रहते हैं और पूछते हैं, “हमेशा कहा जाता है कि परमेश्वर के पास अधिकार है, लेकिन वे कहाँ है? परमेश्वर अपना अधिकार दिखाने के लिए थोड़ा जबरदस्ती क्यों नहीं समझाता?” परमेश्वर का अधिकार इस तरह अभिव्यक्त नहीं होता; परमेश्वर इस तरह अपना अधिकार लोगों के सामने जाहिर नहीं करता।

क्या तुम लोग अब इस नैतिक कथन को समझने में सक्षम हो कि “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है”? क्या तुम लोग यह भी समझते हो कि परमेश्वर लोगों से क्या चाहता है? (हाँ।) तुम्हारी समझ क्या है? (परमेश्वर चाहता है कि लोग ईमानदार हों।) लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ बहुत साधारण हैं। वह चाहता है कि लोग ईमानदार हों, सामने आने वाले मामले सत्य सिद्धांतों के अनुसार सँभालें, दिखावा न करें, सिर्फ सतही व्यवहार पर ध्यान न दें, बल्कि सिद्धांतों के अनुसार काम करने पर ध्यान दें। तुम जो मार्ग अपनाते हो, अगर वह सही है, और जिन सिद्धांतों के अनुसार तुम आचरण करते हो वे सही और परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुरूप हैं, तो यह पर्याप्त है। क्या यह सरल नहीं है? (है।) शैतान के पास सत्य नहीं है, न ही वह सत्य स्वीकारता है, इसलिए वह लोगों को ऐसे कथनों से धोखा देता है जिन्हें लोग अच्छे और सही समझते हैं, और उनसे बुरे काम करने वाले खलनायकों के बजाय अच्छा व्यवहार करने वाले सज्जन बनने की कोशिश करवाता है। लोग शैतान द्वारा जल्दी से गुमराह हो जाते हैं, क्योंकि ये चीजें लोगों की धारणाओं और पसंद के अनुरूप होती हैं, और वे उन्हें आसानी से स्वीकार सकते हैं। शैतान लोगों से ऐसी चीजें करवाता है, जो सिर्फ अच्छी प्रतीत होती हों। इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुमने पर्दे के पीछे कितना भी बुरा काम किया है, तुम्हारा स्वभाव कितना भी भ्रष्ट है, या तुम बुरे हो या नहीं हो; अगर तुमने शैतान के कथनों और अपेक्षाओं के अनुसार अपना बाहरी स्वरूप छिपा रखा है, और दूसरे लोग तुम्हें अच्छा व्यक्ति कहते हैं, तो तुम अच्छे व्यक्ति हो। ये अपेक्षाएँ और मानक स्पष्ट रूप से लोगों को धोखेबाज और बुरे होने, मुखौटा पहनने, और सही मार्ग पर चलने से रोकने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इसलिए, क्या हम कह सकते हैं कि शैतान द्वारा लोगों में डाला गया हर विचार और दृष्टिकोण उन्हें एक के बाद एक गलत मार्ग पर ले जा रहा है? (हाँ।) परमेश्वर आज जो कार्य करना चाहता है, वह लोगों को शैतान के विभिन्न पाखंड और भ्रांतियाँ समझने, शैतान को समझकर नकारने, और फिर उनके विभिन्न स्वच्छंद मार्गों से वापस सही मार्ग पर लाने में सहायक है, ताकि वे सिद्धांतों के अनुसार लोगों और चीजों को देखकर आचरण और कार्य कर सकें। इनमें से कोई भी सिद्धांत लोगों से नहीं आता, बल्कि ये सत्य सिद्धांत हैं। जब लोग इन सत्य सिद्धांतों को समझ जाते हैं, और इनका अभ्यास करने और इनकी वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम हो जाते हैं, तो परमेश्वर के वचन और उसका जीवन धीरे-धीरे इन लोगों में गढ़ दिए जाएँगे। अगर लोग परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में लेते हैं, तो वे फिर कभी शैतान से गुमराह नहीं होंगे और गलत मार्ग, शैतान के मार्ग और उस मार्ग पर नहीं चलेंगे जिससे लौटा नहीं जा सकता। ये लोग परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं करेंगे, चाहे शैतान इन्हें कितना भी धोखा दे और भ्रष्ट करे। चाहे दुनिया कैसे भी बदले और चाहे कैसा भी समय आए, इनका जीवन क्षीण या नष्ट नहीं होगा, क्योंकि इनके पास परमेश्वर के वचन इनके जीवन की तरह हैं, और चूँकि इनका जीवन क्षीण या नष्ट नहीं होगा, इसलिए ये इस तरह के जीवन के साथ सह-अस्तित्व में रहेंगे और सदैव जीवित रहेंगे। क्या यह अच्छी चीज है? (हाँ।) जब लोगों को बचाया जाता है, तो उन्हें भरपूर आशीष मिलता है!

इस समय तुम लोगों के लिए एकमात्र सबसे अहम चीज क्या है? वह है ज्यादा सत्य से सुसज्जित होना। जब तुम सत्य से ज्यादा सुसज्जित होते हो, और ज्यादा सुन लेते, अनुभव कर लेते और समझ लेते हो, सिर्फ तभी तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखकर आचरण और कार्य कर पाओगे, और जान पाओगे कि वास्तव में सत्य सिद्धांत क्या हैं। सिर्फ तभी तुम नहीं भटकोगे, और परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों को इंसानी इच्छा और उन विचारों और दृष्टिकोणों से नहीं बदलोगे जो शैतान ने तुम्हारे मन में बैठाए हैं। क्या यही मामला नहीं है? (यही है।) इसलिए, सबसे अहम और जरूरी चीजों में से एक जो तुम लोगों को अभी करनी चाहिए, वह है सत्य से सुसज्जित होना और परमेश्वर के वचनों को और ज्यादा समझना। तुम्हें खुद को परमेश्वर के वचनों पर लागू करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों में कई चीजें शामिल हैं, और उनमें सत्य की कई मदें हैं। तुम्हें बिना किसी देरी के खुद को इन सभी सत्यों से सुसज्जित करना चाहिए। अगर तुम खुद को सुसज्जित नहीं करते, तो कुछ घटित होने पर तुम परमेश्वर के वचनों को नींव के रूप में इस्तेमाल नहीं कर पाओगे, और सिर्फ अपनी इच्छा के अनुसार मामले से निपटोगे। नतीजतन, तुम सिद्धांतों का उल्लंघन करोगे, और तुम्हारे अपराध एक दाग की तरह तुम्हारे साथ रहेंगे। अगर तुम नहीं जानते कि कुछ घटित होने पर सत्य कैसे खोजें, और उसे सिर्फ अपनी इच्छा के अनुसार और अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए सँभालते हो, और अगर तुम अपनी इच्छा पर भरोसा करते हो और तुम्हारे अंदर अशुद्धियाँ हैं लेकिन तुम नहीं जानते कि कैसे आत्म-चिंतन कर आत्म-जागरूक बनें, न ही यह जानते हो कि खुद को परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर कैसे कसें, तो तुम खुद को नहीं जानोगे, और वास्तव में पश्चात्ताप नहीं कर पाओगे। अगर तुम वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें कैसे देखेगा? इसका मतलब है कि तुममें अड़ियल स्वभाव है और तुम सत्य से चिढ़ते हो, जो एक और दाग छोड़ देगा, और यह एक और गंभीर अपराध है। क्या अनेक दाग और अपराध जमा करना तुम्हारे लिए लाभदायक है? (नहीं।) नहीं, यह लाभदायक नहीं है। तो अपराधों का समाधान कैसे किया जा सकता है? पिछली बार मैंने “अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे” नामक अध्याय सुनाया था। इसका मतलब यह है कि अपराधों का सीधा संबंध व्यक्ति के अंत से होता है। जो लोग हमेशा अपराध करते हैं, उनके साथ क्या हो रहा है? उनमें से कुछ लोग कहते हैं, “यह जानबूझकर नहीं किया गया था। उस समय मेरा इरादा कुछ भी बुरा करने का नहीं था।” क्या यह एक अच्छा बहाना है? अगर तुम्हारा यह इरादा नहीं था, तो क्या यह अपराध नहीं था? क्या तुम्हें चिंतन करके पश्चात्ताप करने की आवश्यकता नहीं है? यह जानबूझकर नहीं किया गया था, तो क्या यह तब भी अपराध नहीं है? तुमने जानबूझकर ऐसा नहीं किया, लेकिन तुमने परमेश्वर के स्वभाव और प्रशासनिक आदेशों को ठेस पहुँचाई, क्या यह सच नहीं है? (हाँ, है।) यह एक तथ्य है, इसलिए यह एक अपराध था। बहाने बनाने से कोई फायदा नहीं। तुम कहते हो, “मैं उम्र में छोटा हूँ। मैं ज्यादा शिक्षित नहीं हूँ और मुझे समाज का ज्यादा अनुभव नहीं है। मैं नहीं जानता था कि यह गलत है—किसी ने मुझे नहीं बताया।” या तुम कहते हो, “स्थिति बहुत खतरनाक थी। मैंने यह काम आवेश में आकर कर दिया।” क्या ये अच्छे कारण हैं? इनमें से कोई भी अच्छा कारण नहीं है। अगर तुम्हारे पास अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने का अवसर है, तो तुम्हारे पास सत्य खोजने का भी अवसर है, और तुम्हें अपने कार्यों के लिए सत्य को एक सिद्धांत के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए। तो जब तुम्हारे पास सत्य खोजने का अवसर था, तब तुमने अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करना क्यों चुना? एक कारण तो यह है कि सत्य के बारे में तुम्हारी समझ बहुत उथली है और तुम आम तौर पर सत्य का अनुसरण करने और खुद को परमेश्वर के वचनों से सुसज्जित करने को महत्व नहीं देते। एक कारण और स्थिति और है, और वह भी सच है : तुम आम तौर पर अपने दिल में परमेश्वर या परमेश्वर के वचनों को रखे बिना काम करते हो। परमेश्वर के वचनों ने कभी तुम्हारे हृदय पर शासन नहीं किया है। तुम हठी होने के आदी हो, और आदतन सोचते हो कि तुम सही हो, आदतन हर मामले पर नियंत्रण रखते हो, और आदतन अपनी पसंद के अनुसार काम करते हो। तुम सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना करने की प्रक्रिया और औपचारिकताएँ पूरी करते हो। परमेश्वर के वचनों का तुम्हारे हृदय में कोई स्थान नहीं है और वे उस पर शासन नहीं कर सकते। तुम जो कुछ भी करते हो, उसकी कमान संभालना तुम्हारे लिए स्वाभाविक है, और नतीजतन, तुम सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हो। क्या यह अपराध है? बेशक—यह एक अपराध है। तो फिर तुम बहाने क्यों बना रहे हो? कोई बहाना वैध नहीं है। अपराध तो अपराध है। अगर तुम कई अपराध करते हो, परमेश्वर के घर के हितों और कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाते हो, और अंततः परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित करते हो, तो तुम्हारे उद्धार का मौका खत्म हो जाएगा। यह “अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे” की सटीक व्याख्या है; यह एक तथ्य है। यह लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के कारण होता है, जो तमाम तरह के व्यवहारों को जन्म देता है, जिससे उस मार्ग का निर्माण होता है जिस पर लोग चलते हैं। यह गलत मार्ग लोगों को अपना कर्तव्य निभाते समय अहम और नाजुक क्षणों में तमाम तरह के अपराध करने के लिए प्रेरित करता है। अगर तुमने बहुत ज्यादा अपराध किए हैं और वे जमा हो जाते हैं, तो फिर तुम्हारे उद्धार का अवसर तो हाथ से गया। लोग हमेशा अपराध क्यों करते हैं? मूल कारण यह है कि वे कभी परमेश्वर के वचनों से सुसज्जित नहीं होते या शायद ही कभी होते हैं, और वे शायद ही कभी परमेश्वर के वचनों या सत्य सिद्धांतों के आधार पर कुछ करते हैं—अंत में वे हमेशा अपराध करते हैं। जब लोग अपराध करते हैं, तो हमेशा खुद को माफ कर देते हैं और कारण और बहाने बना देते हैं, जैसे, “मेरा ऐसा करने का इरादा नहीं था। मेरे इरादे अच्छे थे। ऐसा इसलिए हो गया, क्योंकि स्थिति अत्यावश्यक थी। ऐसा इस शख्स की वजह से हुआ। यह तमाम तरह के वस्तुगत कारणों से हुआ। ...” चाहे कारण जो भी, अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर कार्य नहीं करते, तो तुम परमेश्वर के प्रति अपराध और उसका विरोध करने के लिए उत्तरदायी होगे। यह एक निर्विवाद तथ्य है। इस तथ्य के अनुसार, तुम्हारा अंत वैसा ही होगा जैसा मैंने पहले कहा था : “अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे”। यही तुम्हारा अंत होगा। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ, मैं समझ रहा हूँ।)

कुछ लोगों का स्वभाव इतना अड़ियल होता है और वे इतने बेईमान होते हैं कि वे हमेशा ईर्ष्यापूर्वक सोचते हैं, “थोड़ा-सा अपराध कुछ मायने नहीं रखता। परमेश्वर लोगों को दंड नहीं देता। वह दयालु और प्रेममय है, और लोगों के प्रति क्षमाशील और धैर्यवान है। परमेश्वर का दिन अभी भी दूर है। मैं उसके द्वारा जारी इन सत्यों का अनुसरण बाद में कर लूँगा, जब मुझे अवसर मिलेगा। हालाँकि परमेश्वर ने ये वचन ईमानदार और अत्यावश्यक लहजे में कहे थे, लेकिन हमें परमेश्वर पर विश्वास करने और बचाए जाने के अभी भी बहुत सारे अवसर मिलेंगे।” वे हमेशा बेमुरौवत होते हैं, वे कभी वक्त की नजाकत नहीं समझते, उनमें परमेश्वर के प्रति उत्कट इच्छा या सत्य की प्यास नहीं होती। वे हमेशा अड़ियल दिल वाले होते हैं, और वे हमेशा सत्य को और परमेश्वर के वचनों की माँगों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर देते हैं। अगर वे अपना कर्तव्य ऐसे रवैये और इस अवस्था में निभाते हैं, तो अंततः क्या होगा? वे लगातार अपराध करेंगे और दाग लगवाएँगे! किसी व्यक्ति के लिए लगातार दाग लगवाना और अपराध करना, और फिर भी इसे गंभीरता से न लेना और इसके बारे में इतना बेपरवाह होना खतरनाक है। सिर्फ इसलिए कि परमेश्वर इस समय तुम्हारी निंदा नहीं करता, इसका मतलब यह नहीं है कि वह भविष्य में भी तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। संक्षेप में कहें तो ऐसी अवस्था में रहने वाला व्यक्ति खतरे में है। वह परमेश्वर के वचन, बचाए जाने का अवसर या अपना कर्तव्य निभाने का अवसर नहीं सँजोता, परमेश्वर द्वारा अपने लिए आयोजित हर स्थिति सँजोना तो दूर की बात है। वह हमेशा सुस्त और बेपरवाह रहता है, और हर चीज लापरवाह, ढीले और अनमने ढंग से करता है। ऐसा व्यक्ति खतरे में है। कुछ लोग अभी भी यह सोचते हुए अपने बारे में अच्छा महसूस करते हैं, “जब मैं कुछ करता हूँ, तो परमेश्वर मेरे साथ होता है, मेरे पास परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन है, कभी-कभी मेरे पास परमेश्वर का अनुशासन भी होता है, और वह मेरी प्रार्थनाओं में मेरे साथ होता है!” परमेश्वर का अनुग्रह प्रचुर है—निश्चित रूप से तुम्हारे आनंद लेने के लिए पर्याप्त है—तुम जो चाहो वह सब ले सकते हो और कभी उसका उपयोग नहीं करते, तो भी क्या? परमेश्वर का अनुग्रह सत्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता, और तुम्हारे परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने का मतलब यह नहीं कि तुम्हारे पास सत्य है। परमेश्वर के पास हर व्यक्ति के लिए दया है, लेकिन परमेश्वर की दया अति उदार नहीं है। परमेश्वर के पास मानव-जीवन और प्रत्येक सृजित प्राणी के लिए दया है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उसके कार्य में कोई सिद्धांत नहीं है, कि उसका स्वभाव धार्मिक नहीं है, और यह भी कि वह लोगों से जिन मानकों की अपेक्षा करता है और जिनसे वह उनका मूल्यांकन करता है, वे बदल जाएँगे। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) तुम्हें लगता है कि परमेश्वर तुमसे कभी नाराज नहीं हुआ है, परमेश्वर तुम्हारे प्रति हमेशा दयालु और विचारशील रहता है, और वह तुम्हारी बेहद परवाह करता है, तुमसे प्रेम करता है और तुम्हें बहुत सँजोता है। तुम परमेश्वर की गर्मजोशी, परमेश्वर का पोषण, परमेश्वर की सहायता, यहाँ तक कि परमेश्वर का पक्षपात और अनुग्रहशीलता भी महसूस करते हो। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर तुमसे सबसे ज्यादा प्रेम करता है, और भले ही वह दूसरों को त्याग दे, लेकिन तुम्हें कभी नहीं त्यागेगा। इसलिए तुम आत्मविश्वास से भरे हुए हो, और तुम्हें लगता है कि तुम्हारा सत्य का अनुसरण न करना, अपना कर्तव्य निभाते समय कष्ट न उठाना और कीमत न चुकाना, और स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश न करना उचित है। परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हें नहीं त्यागेगा। क्या तुम्हारा यह दृढ़ विश्वास परमेश्वर के वचनों पर आधारित है? अगर किसी दिन तुम वास्तव में परमेश्वर की उपस्थिति महसूस न कर पाए, तो तुम्हारे दिल में घबराहट होगी और तुम सोचोगे, “क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया है?” तुम्हें यह स्पष्ट होना चाहिए कि तुम्हारा अंत क्या होगा। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और अत्यधिक आत्मतुष्ट हैं, उनका अंत बिल्कुल भी अच्छा नहीं होगा। लोगों से प्रेम करने और उन्हें सँजोने, लोगों पर दया करने, लोगों पर अनुग्रह करने, यहाँ तक कि लोगों के एक निश्चित अनुपात के साथ अनुकूल या दयालु व्यवहार करने में परमेश्वर का उद्देश्य और साथ ही इन कार्यों का सार निश्चित रूप से तुमसे लाड़ लड़ाना या तुम्हें खुश करना, या तुम्हें गलत मार्ग पर ले जाना या तुम्हें भटका देना, या तुम्हें सत्य या सच्चे मार्ग से विमुख कर देना नहीं है। यह सब करने में परमेश्वर का उद्देश्य तुम्हें सही मार्ग पर चलने में सहायता करना, तुम्हें उसके लिए जबरदस्त इच्छा रखने वाला दिल रखने के लिए प्रेरित करना, उसमें तुम्हारी आस्था बढ़ाना और फिर एक ऐसा दिल विकसित करना है, जो सचमुच उसका भय मानता हो। अगर तुम हमेशा परमेश्वर के स्नेह का आनंद लेना चाहते हो और उसके प्रेमपात्र बने रहना चाहते हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम गलत हो। तुम परमेश्वर के प्रेमपात्र नहीं हो, और तुम्हारे लिए उसकी दयालुता या पक्षपात निश्चित रूप से स्नेह या तुष्टि नहीं है। यह सब करने में परमेश्वर का उद्देश्य तुम्हें परमेश्वर के वचन सँजोने, सत्य स्वीकारने और उसके अनुग्रह और आशीषों से मजबूत होने में सक्षम बनाना है, ताकि तुममें सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने और जीवन में सही मार्ग अपनाने की इच्छा और दृढ़ता हो। निस्संदेह, यह निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि जब परमेश्वर ये सत्य जारी करता है, तो समझो तुम्हें पोषण मिल गया, तुमने जीवन प्राप्त कर लिया और तुमने उसके प्रेम का आनंद ले लिया। अगर तुम परमेश्वर को उसकी दयालुता के लिए धन्यवाद दे सकते हो, अपने उचित स्थान पर मजबूती से खड़े हो सकते हो, परमेश्वर के वचनों से ज्यादा सुसज्जित हो सकते हो, उसके वचनों को ज्यादा सँजो सकते हो, अपना कर्तव्य निभाते समय सत्य सिद्धांतों की खोज कर सकते हो, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखकर आचरण और कार्य करने का प्रयास कर सकते हो, तो तुम उसे विफल नहीं करते। लेकिन अगर तुम अपने प्रति परमेश्वर की दयालुता और पक्षपात का लाभ उठाते हो, अपने प्रति उसकी करुणा की उपेक्षा करते हो, चीजें अपने तरीके से करने पर जोर देते हो, और मनमाने और लापरवाह ढंग से कार्य करते हो, सिवाय परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने और अपने बारे में अच्छा महसूस करने के कभी खुद को परमेश्वर के वचनों से सुसज्जित नहीं करते, सत्य के लिए प्रयास करने की इच्छा नहीं रखते, या परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को नहीं देखते, आचरण और कार्य नहीं करते, तो, जब तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते—अर्थात्, जब तुम बार-बार परमेश्वर को निराश करते हो, तो तुम्हारे प्रति परमेश्वर का अनुग्रह, करुणा और प्रेमपूर्ण दयालुता देर-सबेर समाप्त हो जाएगी। जिस दिन ये चीजें समाप्त हो जाती हैं, उसी दिन परमेश्वर अपना सारा अनुग्रह छीन लेता है। जब तुम परमेश्वर की उपस्थिति तक महसूस नहीं करते, तब तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम वास्तव में अंदर क्या महसूस करते हो। तुम्हारे अंदर अँधेरा होगा। तुम उदास और असहज, चिंतित और खोखले महसूस करोगे। तुम्हें लगेगा कि भविष्य अनिश्चित है। तुम भयभीत हो जाओगे और लगातार घबराए रहोगे। ये बहुत भयानक चीज है। इसलिए, लोगों को परमेश्वर ने उन्हें जो कुछ भी दिया है, उसे सँजोना सीखना चाहिए, जो कर्तव्य उन्हें निभाना चाहिए उसे सँजोना सीखना चाहिए, और साथ ही, यह भी जानना चाहिए कि प्रतिदान कैसे करना है। असल में, परमेश्वर का यह अनुरोध कि तुम प्रतिदान करो, इससे संबंध नहीं रखता कि तुम उसके प्रति कितना योगदान देते हो, या उसके लिए तुम्हारी गवाही कितनी शानदार है। परमेश्वर यही चाहता है कि तुम सही मार्ग पर चलो, उस मार्ग पर जिस पर वह तुम्हें चलाना चाहता है। लोगों के आनंद लेने के लिए परमेश्वर का अनुग्रह पर्याप्त है। वह लोगों को यह अनुग्रह प्रदान करने में कंजूसी नहीं करता, न ही वह लोगों को यह अनुग्रह प्रदान करने पर पछताएगा। अगर परमेश्वर किसी व्यक्ति को आशीष देता है और उसके प्रति दयालु होता है, तो वह हमेशा स्वेच्छा से ऐसा करता है। यह उसके सार, स्वभाव और पहचान का हिस्सा है। वह लोगों को ये चीजें देकर कभी अफसोस नहीं करता या पछतावे से नहीं भरता। लेकिन, मान लो, लोग अच्छे-बुरे में भेद करना या अनुग्रह को सराहना नहीं जानते। वे हमेशा परमेश्वर को नीचा दिखाते हैं और उसे बार-बार निराश करते हैं। चाहे परमेश्वर ने कितनी भी बड़ी कीमत चुकाई हो या कितने भी लंबे समय तक इंतजार किया हो, लोग फिर भी उसे अनदेखा करते हैं और उसके अच्छे इरादे नहीं समझते। लोग सिर्फ परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेना चाहते हैं—जितना ज्यादा मिल जाए, उतना बेहतर। चाहे वे परमेश्वर के कितने भी अनुग्रह और आशीषों का आनंद लेते हों, वे परमेश्वर का प्रेम लौटाना नहीं जानते, न ही अपना हृदय परमेश्वर को लौटाना और उसका अनुसरण करना जानते हैं। क्या तुम लोगों को लगता है कि अगर लोग परमेश्वर के साथ इस तरह व्यवहार करेंगे, तो वह संतुष्ट होगा? (नहीं।) परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए व्यक्ति को किस तरह का सच्चा रवैया रखना चाहिए? लोगों को पश्चात्ताप करना चाहिए, व्यावहारिक अभिव्यक्तियाँ दिखानी चाहिए और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए। उन्हें विभिन्न कारणों और बहानों का सहारा नहीं लेना चाहिए। मानवजाति के लिए परमेश्वर का अनुग्रह, क्षमा और करुणा ऐसी पूँजी या ऐसे बहाने नहीं हैं, जिनमें लिप्त रहा जाए। चाहे परमेश्वर कुछ भी करे, या वह लोगों में किसी भी तरह के प्रयास, मूल्य या विचार का निवेश करे, उसका सिर्फ एक ही अंतिम उद्देश्य होता है। वो यह है कि वह लोगों से सही मार्ग की ओर मुड़ने और उस पर चलने की आशा करता है। सही मार्ग क्या है? वह है सत्य का अनुसरण करना और उससे ज्यादा सुसज्जित होना। लोग जिस मार्ग पर चलते हैं, अगर वह परमेश्वर के वचनों के अनुरूप है और उसकी कसौटी सत्य है, तो परमेश्वर लोगों में जो लागत लगाता है और उनसे जो अपेक्षाएँ रखता है, वे प्रतिफलित होंगी। क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर लोगों से ऊँची अपेक्षाएँ रखता है? (नहीं।) परमेश्वर लोगों से ऊँची अपेक्षाएँ नहीं रखता, और उसमें लोगों के लौटने का इंतजार करने के लिए पर्याप्त धैर्य और प्रेम है। जब तुम परमेश्वर की ओर मुड़ते हो, तो वह तुम्हें न सिर्फ कुछ अनुग्रह और आशीष प्रदान करेगा, बल्कि तुम्हारा पोषण भी करेगा, सत्य में, जीवन में और जिस मार्ग पर तुम चलते हो उस पर तुम्हारा समर्थन और मार्गदर्शन भी करेगा। परमेश्वर तुममें और भी बड़ा कार्य करेगा। वह इसी का इंतजार कर रहा है। इस कार्य को करने से पहले परमेश्वर अथक रूप से लोगों का मार्गदर्शन करता है, उनका समर्थन करता है और उन्हें अनुग्रह और आशीष प्रदान करता है। यह सब परमेश्वर का मूल इरादा नहीं था, न ही यह कुछ ऐसा है जो वह खास तौर पर करना चाहता है। लेकिन, उसके पास लोगों के लिए कोई भी कीमत चुकाने और इस कार्य को हर कीमत पर करने के लिए बाध्य होने के अलावा कोई चारा नहीं है। यह सब कार्य करने के बाद अंततः परमेश्वर जो चाहता है, वह यह देखना है कि लोग पीछे मुड़ सकें। अगर लोग उसके इरादे और सोच और यह बात समझ लें कि वह वास्तव में ऐसा क्यों करना चाहता है, तो वे उसकी सुंदरता पहचान लेंगे, उनका कुछ आध्यात्मिक कद हो जाएगा और वे बड़े हो जाएँगे। जब लोग परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए प्रत्येक सत्य के प्रति सावधान होना और उस पर कड़ी मेहनत करना और प्रत्येक सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना शुरू कर देते हैं, तो परमेश्वर प्रसन्न होता है। फिर उसे लोगों के साथ रहने और उन्हें सांत्वना देने, प्रेरित करने, प्रोत्साहित करने और नसीहत देने का सरल कार्य नहीं करना पड़ता। बल्कि, वह उन्हें सत्य, जीवन और उस मार्ग के संदर्भ में जिस पर वे चलते हैं, और ज्यादा प्रदान कर सकता है। वह लोगों पर ज्यादा बड़ा और ठोस कार्य कर सकता है। परमेश्वर ऐसा कार्य करना क्यों पसंद करता है? इसलिए कि ऐसा कार्य करते समय वह लोगों में आशा देखता है, उनका भविष्य देखता है और देखता है कि लोग दिल और दिमाग से उसके साथ जुड़े हुए हैं। यह लोगों और परमेश्वर दोनों के लिए एक बहुत बड़ी बात है, और ऐसी चीज है जिसकी वह लंबे समय से प्रतीक्षा कर रहा है। जब कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करने का मार्ग अपनाता है, तो धीरे-धीरे उसमें शैतान से लड़ने के लिए ज्यादा ताकत और वास्तविक आध्यात्मिक कद हो जाता है, और वह परमेश्वर के प्रति अपनी गवाही में दृढ़ता से खड़ा रहता है, और परमेश्वर को एक और सृजित इंसान को अपने लिए शैतान के विरूद्ध खड़े होकर लड़ते देखने की ज्यादा आशा होती है। यह परमेश्वर की महिमा है। जैसे-जैसे लोगों का आध्यात्मिक कद बढ़ता है, वे ज्यादा मजबूत होते जाते हैं, ज्यादा से ज्यादा गवाही देते हैं और परमेश्वर से अधिकाधिक भयभीत और आज्ञाकारी होते जाते हैं, यानी इस बात की आशा होती है कि परमेश्वर विजेताओं का एक समूह प्राप्त करेगा और लोगों के माध्यम से और उनके बीच महिमामंडित होगा। क्या यह अच्छी चीज है? (हाँ, है।) परमेश्वर इसी की प्रतीक्षा करता है और यही तुमसे उसकी आशा और अपेक्षा है। वह काफी समय से इसका इंतजार कर रहा है। अगर लोग परमेश्वर के हृदय को समझें और उसके प्रति विचारशील हो पाएँ, तो वे उस पर काम करेंगे जो वह उनसे चाहता है, और उसके लिए कीमत चुकाएँगे जो वह उनसे कहता है। परमेश्वर जो करना चाहता है, उसमें वे सहयोग करेंगे, उसकी इच्छाएँ पूरी करेंगे और उसके दिल को सांत्वना देंगे। लेकिन अगर तुम ऐसा नहीं करना चाहते, तो परमेश्वर तुम्हें मजबूर नहीं करेगा। तुम कहते हो, “मुझे यह क्यों नहीं चाहिए? मैं वह क्यों नहीं करना चाहता, जो परमेश्वर चाहता है? जब मैं परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के बारे में सोचता हूँ, तो मैं बेचैन, असहज और आज्ञा मानने के लिए अनिच्छुक महसूस क्यों करता हूँ?” तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने की आवश्यकता नहीं है; यह स्वैच्छिक है। तुम्हें चुनने का अधिकार है, और तुम स्वतंत्र हो। परमेश्वर लोगों को मजबूर नहीं करता। मैं तुम लोगों को यह सिर्फ इसलिए बता रहा हूँ, ताकि तुम लोग इस वास्तविकता को पूरी तरह से समझ सको कि परमेश्वर क्या करना चाहता है, तुम लोग क्या जिम्मेदारी निभाते हो और परमेश्वर तुम लोगों से क्या अपेक्षा करता है। क्या यह स्पष्ट है? (हाँ।) अच्छा है कि यह स्पष्ट है। अगर यह स्पष्ट है, तो लोगों के हृदय जागरूक हो जाएँगे। वे अंदर ही अंदर जान जाएँगे कि आगे किस चीज पर मेहनत करनी है, क्या करना है और उन्हें क्या कीमत चुकानी चाहिए; उनके पास दिशा होगी।

आज, मैंने नैतिक आचरण से संबंधित इस कथन पर संगति की, “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है।” पूर्व में, शैतान द्वारा प्रचारित नैतिक आचरण से संबंधित कई अन्य कथनों पर संगति करने के बाद, इस कथन को समझना थोड़ा आसान हो जाता है। चाहे कोई भी नैतिक कथन हो, शैतान मूल रूप से मानव-व्यवहार को बाँधने और नियंत्रित करने के लिए एक तरह की राय का उपयोग करना और फिर समाज में एक प्रवृत्ति बनाना चाहता है। यह प्रवृत्ति बनाकर वह पूरी मानवता के दिमाग को धोखा देना, नियंत्रित करना और कैद करना चाहता है और ऐसा करके पूरी मानवता को परमेश्वर के विरुद्ध कर देना चाहता है। लोगों के परमेश्वर के विरुद्ध होने के बाद शैतान यह देखना चाहता है कि परमेश्वर के पास लोगों पर कार्रवाई करने या कार्य करने का कोई उपाय नहीं है। यही वह लक्ष्य है जिसे शैतान हासिल करना चाहता है और यही उन सभी चीजों का सार है जो शैतान करता है। ये कथन व्यवहार के जिस पहलू का या जिन भी विचारों और दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करते हों, शैतान द्वारा प्रचारित नैतिक आचरण से संबंधित ये कथन, हर हाल में, सत्य से असंबद्ध हैं, और सत्य के विपरीत भी हैं। शैतान द्वारा प्रचारित नैतिक आचरण से संबंधित इन कथनों से लोगों को कैसे निपटना चाहिए? एक बहुत ही सरल और मूल सिद्धांत यह है कि शैतान की ओर से आने वाला हर कथन ऐसा होता है, जिसे हमें उजागर करना चाहिए, जिसका विश्लेषण करना चाहिए और जिसे समझकर नकार देना चाहिए। चूँकि वे शैतान से आते हैं, इसलिए अगर हमारे दिल उन्हें समझ लें, तो हम उनकी निंदा कर उन्हें नकार सकते हैं। हम शैतान की चीजों को कलीसिया में मौजूद रहने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को धोखा देने, भ्रष्ट करने और परेशान करने नहीं दे सकते। यह लक्ष्य अवश्य प्राप्त किया जाना चाहिए, जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोग शैतान को नकार दें, और उनमें शैतान के पाखंडों और भ्रांतियों का एक भी संकेत न देखा जा सके। परमेश्वर के चुने हुए लोगों के दिलों पर इन पाखंडों और भ्रांतियों के बजाय परमेश्वर के वचनों और सत्य को राज करना चाहिए और उनका जीवन बनना चाहिए। परमेश्वर ऐसी ही मानवजाति प्राप्त करना चाहता है। हम आज की संगति यहीं समाप्त करते हैं।

9 जुलाई, 2022

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