सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (13)

पिछली सभा में हमने मुख्य रूप से परंपरागत संस्कृति की कहावत, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” पर संगति की और उसका विश्लेषण किया। शैतान लोगों को मतारोपित करने के लिए परंपरागत सांस्कृति की जिन कहावतों और सिद्धांतों का उपयोग करता है, वे सही नहीं हैं, और न ही वे ऊँचे लगने वाले शब्द हैं जिनका वह लोगों से पालन कराता है। इसके विपरीत, उनमें लोगों को भ्रमित और गुमराह करने वाला और उनकी सोच को सीमित करने वाला प्रभाव है। आम जनता को परंपरागत संस्कृति के इन गलत विचारों और नजरियों की शिक्षा देकर और मतारोपित और प्रभावित कर उनका अंतिम उद्देश्य उन्हें शासक वर्ग के प्रभुत्व के अधीन होने के लिए आश्वस्त करना है, और यहाँ तक कि उन लोगों की वफादारी के साथ शासकों की सेवा करना है जो अपने देश और पार्टी से प्यार करते हैं, और जिन्होंने अपने घर की रक्षा और राज्य की सुरक्षा के लिए दृढ़ संकल्प ले रखा है। यह इतना दिखाने के लिए काफी है कि राष्ट्रीय सरकार मानवजाति पर और विभिन्न जातीय समूहों पर शासकों के नियंत्रण को सुविधाजनक बनाने और शासकों के शासन की स्थिरता और उनके नियंत्रण में समाज के सद्भाव और स्थिरता को और बढ़ाने के लिए परंपरागत संस्कृति की शिक्षा को लोकप्रिय बनाती है। शासक वर्ग परंपरागत संस्कृति की शिक्षा को चाहे कितना भी प्रचारित करे, बढ़ावा दे और लोकप्रिय बनाए, सामान्य तौर पर, नैतिक आचरण की इन कहावतों ने लोगों को भ्रमित और गुमराह ही किया है, और सच-झूठ, अच्छे-बुरे, सही-गलत और सकारात्मक-नकारात्मक चीजों में अंतर करने की क्षमता को गंभीर रूप से बाधित कर दिया है। यह भी कहा जा सकता है कि नैतिक आचरण की ये कहावतें काले और सफेद को पूरी तरह से उलट देती हैं, सच और झूठ को मिला देती हैं, और आम जनता को भ्रमित कर देती हैं, जिससे लोग परंपरागत संस्कृति के इन मतों से धोखा खा जाते हैं, एक ऐसे संदर्भ में जिसमें वे नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत, क्या सच है और क्या झूठ, कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं और कौन-सी नकारात्मक, क्या परमेश्वर से आता है और क्या शैतान से आता है। जिस तरह से परंपरागत संस्कृति सभी प्रकार की चीजों को परिभाषित करती है और सभी प्रकार के लोगों को अच्छे या बुरे, दयालु या दुष्ट की श्रेणियों में बाँटती है, उसने मनुष्यों को परेशान, भ्रमित और गुमराह कर दिया है; यहाँ तक कि लोगों के विचारों को नैतिक आचरण की विभिन्न कहावतों तक ही सीमित कर दिया है, जिसका परंपरागत संस्कृति समर्थन करती है, जिसके कारण वे खुद को छुड़ाने में असमर्थ होते हैं। नतीजतन, बहुत से लोग स्वेच्छा से शैतान राजाओं के प्रति निष्ठा रखने की प्रतिज्ञा करते हैं, अंत तक अंधभक्ति दिखाते हैं और मृत्यु तक उस प्रतिज्ञा का सम्मान करते हैं। यह स्थिति आज तक जारी है, और फिर भी कुछ लोग होश में आए हैं। भले ही आजकल परमेश्वर में विश्वास करने वाले बहुत से लोग सत्य को पहचान सकते हैं, लेकिन इसे स्वीकारने और अभ्यास में लाने में उनके सामने कई बाधाएँ आती हैं। यह कहा जा सकता है कि ये बाधाएँ मुख्य रूप से परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों से आती हैं, जो लंबे समय से उनके दिलों में जड़ें जमा चुकी हैं। लोगों ने पहले उन्हें सीखा और वे अब तक प्रभावी हैं, वे पहले से ही लोगों के विचारों को नियंत्रित कर रहे थे, जो लोगों के सत्य स्वीकार करने और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करने में बहुत सारी बाधाएँ और बहुत अधिक प्रतिरोध पैदा करता है। यह इसका एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि चूँकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव है, जो कुछ हद तक उस तरीके के कारण है जिससे परंपरागत संस्कृति लोगों को भ्रमित और भ्रष्ट करती है। परंपरागत संस्कृति ने अच्छे-बुरे और सच-झूठ को मापने के तरीके पर लोगों के विचारों को गंभीर रूप से प्रभावित और उनमें हस्तक्षेप किया है, और लोगों में कई गलत धारणाएँ, विचार और नजरिए पैदा किए हैं। इस वजह से लोग सकारात्मक, सुंदर और अच्छी चीजों और परमेश्वर द्वारा बनाए सभी चीजों के नियमों और इस तथ्य को स्वीकारने में असमर्थ हो गए हैं कि परमेश्वर सभी चीजों पर शासन करता है। इसके बजाय, लोग धारणाओं और सभी प्रकार के अस्पष्ट और अवास्तविक विचारों से भरे हुए हैं। ये उन विभिन्न विचारों के परिणाम हैं जो शैतान लोगों के मन में बिठा देता है। दूसरे परिप्रेक्ष्य से, परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण के बारे में सभी विभिन्न कहावतें झूठी कहावतें हैं जो लोगों की सोच को भ्रष्ट करती हैं, उनका दिमाग खराब करती हैं, और उनकी सामान्य वैचारिक प्रक्रियाओं को नुकसान पहुँचाती हैं, जिससे सकारात्मक चीजों और सत्य को लेकर लोगों की स्वीकृति पर गंभीर प्रभाव पड़ता है; साथ ही, इससे परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजों के नियमों और व्यवस्थाओं के बारे में लोगों की विशुद्ध व्याख्या और समझ पर भी बहुत बुरा असर पड़ता है।

एक ओर, परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की विभिन्न कहावतों ने लोगों के सोचने के सही तरीकों को खराब कर दिया है जिससे लोग सही-गलत में अंतर करते हैं; साथ ही, उनकी स्वतंत्र इच्छा को भी बाधित कर दिया है। इसके अलावा, नैतिक आचरण की इन विभिन्न कहावतों को स्वीकार कर लोग पाखंडी और नकली बन गए हैं। वे बहाने बनाने में अच्छे हैं—यहाँ तक कि हिरण को घोड़ा कहने, काले को सफेद और सफेद को काला कहने, और नकारात्मक, कुरूप और बुरी चीजों को सकारात्मक, सुंदर और अच्छी चीजें मानने और न मानने में सक्षम हैं—और वे पहले ही बुराई को पूजने की सीमा तक पहुँच चुके हैं। पूरे मानव समाज में, चाहे कोई भी अवधि या वंश परंपरा हो, लोग जिन चीजों का समर्थन करते हैं और जिनके प्रति श्रद्धा रखते हैं वे मूल रूप से परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की ये कहावतें हैं। नैतिक आचरण की इन कहावतों के गंभीर प्रभाव के तहत, यानी परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की इन कहावतों की लगातार अधिक गहन और पूर्ण मतारोपण के तहत, लोग अनजाने में इन कहावतों को अपने अस्तित्व की पूंजी और अस्तित्व के नियमों के रूप में अपना लेते हैं। लोग बिना विवेक के उन्हें पूरी तरह से स्वीकार लेते हैं, उन्हें सकारात्मक चीजों और एक मार्गदर्शक विचारधारा और मानदंड मानते हैं कि उन्हें दूसरों के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए, लोगों और चीजों को कैसे देखना चाहिए, और कैसे आचरण और कार्य करना चाहिए। लोग इन्हें समाज में अपनी जगह बनाने या शोहरत और प्रतिष्ठा पाने या सम्मान और श्रद्धा पाने के लिए सर्वोच्च नियम मानते हैं। किसी भी अवधि में, किसी भी समाज या राष्ट्र के किसी भी समूह को ले लो—जिन लोगों का वे आदर करते हैं, जिन पर श्रद्धा रखते हैं, और जिन्हें मानवजाति में सर्वोत्तम घोषित करते हैं, वे उन लोगों से अधिक कुछ नहीं हैं जिन्हें मनुष्य नैतिक प्रतिमान कहते हैं। ऐसे लोग चाहे पर्दे के पीछे कैसा भी जीवन जिएँ, उनके क्रियाकलापों के इरादे और मंशाएँ और उनकी मानवता का सार चाहे जो भी हो, चाहे वे वास्तव में कैसा भी आचरण करते हों और दूसरों से कैसे भी निपटते हों, और चाहे सुंदर और अच्छे नैतिक आचरण की आड़ में छिपे व्यक्ति का सार जैसा भी हो, इन चीजों की परवाह कोई नहीं करता और न ही आगे इसकी छानबीन करने की कोशिश करता है। अगर वे वफादार, देशभक्त हैं और शासकों के प्रति निष्ठा दिखाते हैं, लोग उन्हें अपना आदर्श मानते हैं और उनका गुणगान करते हैं, और यहाँ तक कि नायकों के रूप में उनका अनुकरण करते हैं, क्योंकि यह देखने के लिए कि व्यक्ति दयालु है या दुष्ट, अच्छा है या बुरा और उसकी प्रतिष्ठा मापने के लिए सभी उसके बाहरी नैतिक आचरण को ही आधार मानते हैं। हालाँकि बाइबल में नूह, इब्राहीम, मूसा, अय्यूब और पतरस जैसे कई प्राचीन संतों और साधुओं की कहानियां और कई पैगम्बरों वगैरह की कहानियां साफ तौर पर दर्ज हैं, और हालाँकि कई लोग ऐसी कहानियों से परिचित हैं, फिर भी ऐसा कोई भी देश, राष्ट्र या समूह नहीं है जो इन प्राचीन संतों और साधुओं की मानवता और नैतिक चरित्र को व्यापक रूप से बढ़ावा देता हो—या उनके परमेश्वर की आराधना करने के उदाहरण, या यहाँ तक कि उनके द्वारा प्रकट किए गए परमेश्वर के भय को—चाहे समाज में, पूरे देश में या लोगों के बीच प्रचारित करता हो। कोई भी एक देश, राष्ट्र या समूह ऐसा नहीं करता। यहाँ तक कि ऐसे देशों में भी, जहाँ ईसाई धर्म राज्य धर्म है, या मुख्य रूप से धार्मिक आबादी वाले देशों में, अभी भी इन प्राचीन संतों और साधुओं के मानव चरित्र पर, या परमेश्वर का भय मानने और उसकी आज्ञा का पालन करने को लेकर बाइबल में दर्ज उनकी कहानियों पर कोई ध्यान नहीं देता और उनमें श्रद्धा नहीं रखता है। यह किस समस्या की ओर संकेत करता है? भ्रष्ट मानवजाति इस हद तक गिर गई है कि लोग सत्य से ऊब चुके हैं, सकारात्मक चीजों से ऊब चुके हैं और बुराई को पूजते हैं। यदि परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से लोगों के बीच वचन व्यक्त नहीं करता और कार्य नहीं करता, लोगों को स्पष्ट रूप से नहीं बताया होता कि क्या सकारात्मक है और क्या नकारात्मक, क्या सही है और क्या गलत, क्या सुंदर और अच्छा है, और क्या कुरूप है वगैरह, तो मानवजाति कभी भी अच्छे-बुरे और सकारात्मक-नकारात्मक चीजों के बीच अंतर करने में सक्षम नहीं होती। मानवजाति की शुरुआत से ही, और यहाँ तक कि मानव विकास के दौरान भी, परमेश्वर के प्रकटन और कार्य के ये कर्म और ऐतिहासिक रिकॉर्ड आज तक यूरोप और अमेरिका के कुछ देशों और जातीय समूहों में पारित किए गए हैं। हालाँकि, मनुष्य अभी भी सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच, या सुंदर, अच्छी चीजों और कुरूप, बुरी चीजों के बीच अंतर करने में असमर्थ है। लोग न केवल इनमें अंतर करने में असमर्थ हैं, बल्कि वे सक्रिय रूप से और अपनी इच्छा से शैतान के सभी प्रकार के दावों को भी स्वीकारते हैं, जैसे कि नैतिक आचरण की कहावतें और विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों के बारे में शैतान की गलत परिभाषाएँ और अवधारणाएँ। यह क्या दर्शाता है? क्या यह दिखा सकता है कि मानवजाति के पास स्वतंत्र रूप से सकारात्मक चीजों को स्वीकारने की सहज बुद्धि नहीं है, ना ही वह सकारात्मक और नकारात्मक चीजों, अच्छाई और बुराई, सही और गलत, और सच और झूठ के बीच अंतर कर सकती है? (हाँ।) मानवजाति के बीच, एक ही समय में दो प्रकार की चीजें प्रचलित होती हैं, जिनमें से एक शैतान से आती है, जबकि दूसरी परमेश्वर से आती है। लेकिन अंत में, संपूर्ण मानव समाज में और मानवजाति के विकास के संपूर्ण इतिहास में, परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन, और वे सभी सकारात्मक बातें जो वह मानवजाति को सिखाता और समझाता है, संपूर्ण मानवजाति उसके प्रति श्रद्धा नहीं रख सकती है, और यहाँ तक कि वे मानवजाति के बीच मुख्यधारा भी नहीं बन सकती हैं, न ही वे लोगों में सही विचार लाते हैं, और न ही परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजों के बीच सामान्य रूप से जीने के लिए मार्गदर्शन देती हैं। लोग अनजाने में ही शैतान की विभिन्न टिप्पणियों, विचारों, अवधारणाओं के मार्गदर्शन में रहते हैं और इन गलत विचारों के मार्गदर्शन में जीते हैं। इस तरह से जीवन जीने में, वे ऐसा निष्क्रिय रूप से नहीं, बल्कि सक्रिय रूप से करते हैं। परमेश्वर ने जो कुछ किया है, सभी चीजों को बनाने और उन पर शासन करने में उसकी सफलता, कुछ देशों में परमेश्वर के कार्य द्वारा छोड़े गए कई वचन, और साथ ही विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों की परिभाषाएँ जो आज तक चली आ रही हैं, इन सबके बावजूद मनुष्य अभी भी अनजाने में उन विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों के अधीन जीता है जो शैतान लोगों के मन में बिठा देता है। शैतान द्वारा समर्थित और लोगों के मन में डाले गए ये विभिन्न विचार और दृष्टिकोण पूरे मानव समाज में मुख्यधारा के विचार और दृष्टिकोण हैं, यहाँ तक कि उन देशों में भी जहाँ ईसाई धर्म व्यापक रूप से फैला है। वहीं, परमेश्वर अपना कार्य करके मानवजाति के लिए चाहे कितने भी सकारात्मक कथन, सकारात्मक विचार और नजरिये, और लोगों, मामलों और चीजों की सकारात्मक परिभाषाएँ छोड़ जाए, वे केवल संसार के कुछ कोनों में ही मौजूद हैं, या इससे भी बदतर, बस अल्पसंख्यक जातीय समूहों में कुछ गिने-चुने लोगों के पास ही हैं, और केवल कुछ लोगों के होठों पर ही रहते हैं, लेकिन जीवन में मार्गदर्शन और अगुआई करने के लिए उन्हें सकारात्मक चीजों के रूप में लोगों द्वारा सक्रियता से स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इन दो प्रकार की चीजों की तुलना करने से, और शैतान की नकारात्मक चीजों के प्रति और परमेश्वर की विभिन्न सकारात्मक चीजों के प्रति मानवजाति के विभिन्न रवैयों को देखते हुए, यह कहा जा सकता है कि संपूर्ण मानवजाति बुराई के हाथों में है। यह एक तथ्य है और यकीनन इसकी पुष्टि की जा सकती है। इस तथ्य का मुख्य रूप से अर्थ यह है कि लोगों के विचार, सोचने के तरीके, और लोगों, मामलों और चीजों से निपटने के तरीके, सभी शैतान के विभिन्न विचारों और नजरियों से नियंत्रित, प्रभावित और परिवर्तित होते हैं, और यहाँ तक कि उनके द्वारा ही सीमित भी होते हैं। मानव विकास के पूरे इतिहास में, चाहे वह कोई भी चरण या अवधि हो—चाहे वह अपेक्षाकृत पिछड़ा युग हो या आज का आर्थिक रूप से विकसित युग—और क्षेत्र, राष्ट्रीयता या लोगों का समूह चाहे जो भी हो, मानवजाति के अस्तित्व के साधन, अस्तित्व की नींव, और लोगों, मामलों और चीजों से निपटने के तरीके को लेकर उनके विचार, सभी परमेश्वर के वचनों के बजाय शैतान द्वारा लोगों के मन में बिठाए गए विभिन्न विचारों पर आधारित हैं। यह बहुत ही निराशाजनक बात है। परमेश्वर अपना कार्य करने और मानवजाति को बचाने ऐसी स्थिति में आता है जिसमें मनुष्यों को शैतान द्वारा बहुत गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया है, और जिसमें उनके विचारों और दृष्टिकोणों के साथ-साथ सभी प्रकार के लोगों, मामलों और चीजों को देखने के उनके तरीके, जीवन जीने और दुनिया के साथ पेश आने के उनके तरीके पूरी तरह से शैतान के विचारों द्वारा सीमित कर दिए गए हैं। तुम कल्पना कर सकते हो कि ऐसे संदर्भ में मानवजाति को बचाने का परमेश्वर का कार्य कितना कठिन और मुश्किल है। यह कैसा संदर्भ है? जिस संदर्भ में परमेश्वर अपना कार्य करने आता है वह ऐसा है जिसमें लोगों के दिल और दिमाग लंबे समय से पूरी तरह से शैतानी फलसफों और जहर से भरे हुए और सीमित हैं। वह ऐसे संदर्भ में अपना कार्य करने नहीं आता जिसमें लोगों की कोई विचारधारा नहीं होती है, या लोगों, मामलों और चीजों पर उनके कोई विचार नहीं होते हैं, बल्कि वह ऐसे संदर्भ में कार्य करने आता है जिसमें लोगों के पास विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों को देखने के तरीके होते हैं, और जिसमें देखने, सोचने और जीने के इन तरीकों को शैतान ने गंभीर रूप से भ्रमित और गुमराह कर दिया है। कहने का मतलब यह है कि परमेश्वर कार्य करने और मानवजाति को बचाने एक ऐसे संदर्भ में आता है जिसमें लोगों ने शैतान के विचारों और दृष्टिकोणों को पूरी तरह से स्वीकार लिया है, और वे शैतानी विचारों से भरे, प्रभावित, बंधे हुए और नियंत्रित हैं। परमेश्वर इस प्रकार के लोगों को बचा रहा है, जो दर्शाता है कि उसका कार्य कितना कठिन है। परमेश्वर चाहता है कि ऐसे लोग जो शैतानी विचारों से ओत-प्रोत और उनके द्वारा सीमित किए गए हैं, वे सकारात्मक और नकारात्मक चीजों, सुंदरता और कुरूपता, सही और गलत, सत्य और दुष्ट भ्रांति को पहचानकर उनके बीच अंतर करें, और अंत में उस लक्ष्य तक पहुँचे जहाँ वे शैतान द्वारा उनके दिलों की गहराई में बिठाए गए सभी विभिन्न विचारों और भ्रांतियों से घृणा करें और उन्हें ठुकरा सकें, और इस प्रकार जीवन जीने के सभी सही विचारों और सही तरीकों को स्वीकारें जो परमेश्वर से आते हैं। यही परमेश्वर द्वारा मानवजाति के उद्धार का विशेष अर्थ है।

मानवता आज चाहे किसी भी अवधि में हो, या समाज विकास के किसी भी चरण में हो, या शासकों का शासन करने का तरीका जो भी हो—चाहे वह सामंती तानाशाही हो या लोकतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था—इनमें से कोई भी चीज इस तथ्य को नहीं बदलती कि विभिन्न वैचारिक सिद्धांतों और नैतिक आचरण की जिन कहावतों का शैतान समर्थन करता है वे मानव समाज में व्याप्त हैं। सामंती समाज से लेकर आधुनिक समाज तक, भले ही शासकों के शासन का दायरा, मार्गदर्शक सिद्धांत और तरीके बार-बार बदलते हैं, और विभिन्न जातीय समूहों, नस्लों और विभिन्न विश्वासी समुदायों की संख्या भी लगातार बदल रही है, शैतान द्वारा लोगों के मन में बिठाई गई परंपरागत संस्कृति की विभिन्न कहावतें अभी भी प्रचलित हैं और फैल रही हैं, ये लोगों के विचारों और उनकी आत्मा की अंतरतम गहराइयों में अंदर तक जड़ें जमा रही हैं, उनके अस्तित्व में बने रहने के तरीकों को नियंत्रित कर रही हैं, और लोगों, मामलों और चीजों पर उनके विचारों और नजरिये को प्रभावित कर रही हैं। बेशक, यह जहर परमेश्वर के प्रति लोगों के रवैयों को भी गंभीर रूप से प्रभावित करता है, और सत्य और सृष्टिकर्ता के उद्धार को स्वीकारने के लिए मानवजाति की इच्छा और लालसा को बुरी तरह से नष्ट कर देता है। इसलिए, परंपरागत संस्कृति से निकली नैतिक आचरण की प्रतिनिधि बातें हमेशा से पूरी मानवजाति में लोगों की सोच को नियंत्रित करती रही हैं, और मानवजाति के बीच उनकी प्रभावशाली स्थिति और भूमिका किसी भी अवधि या सामाजिक संदर्भ में कभी नहीं बदली है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई शासक किस अवधि में शासन करता है, या चाहे वह मेहनती है या पिछड़ी सोच वाला, या चाहे उसका शासन करने का तरीका लोकतांत्रिक हो या तानाशाही, इनमें से कोई भी परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों से मनुष्यों में डाले गए भ्रम और नियंत्रण को रोक या खत्म नहीं कर सकता है। चाहे कोई भी ऐतिहासिक अवधि हो, या कोई भी जातीय समूह हो, या मानव आस्था में कितना भी विकास हुआ हो या बदलाव आया हो, और जीवन और सामाजिक प्रवृत्तियों के बारे में अपनी सोच के संदर्भ में मनुष्यों ने कितनी भी प्रगति की हो और कितना भी बदलाव किया हो, परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कहावतों का जो प्रभाव मनुष्यों की सोच पर होता है वह कभी नहीं बदला है, और लोगों पर उनका असर कभी खत्म नहीं हुआ है। इस दृष्टिकोण से, नैतिक आचरण की कहावतों ने लोगों की सोच को बहुत गहराई तक सीमित कर दिया है, जिससे न केवल मनुष्यों के बीच के संबंधों पर, बल्कि सत्य के प्रति लोगों के दृष्टिकोण पर भी गंभीर प्रभाव पड़ रहा है, और सृजित मनुष्यों और सृष्टिकर्ता के बीच संबंधों को बुरी तरह से प्रभावित और क्षतिग्रस्त कर रहा है। बेशक, यह भी कहा जा सकता है कि परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति को लुभाने, बहकाने, सुन्न और सीमित करने के लिए शैतान परंपरागत संस्कृति के विचारों का उपयोग करता है, और वह इन तरीकों का उपयोग मनुष्यों को परमेश्वर से छीन लेने के लिए करता है। परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण के विचार जितना अधिक व्यापक रूप से मानवजाति के बीच प्रसारित होते हैं, और जितनी गहराई से वे लोगों के दिलों में जड़ें जमाते हैं, मनुष्य परमेश्वर से उतना ही दूर होता जाएगा, और उनके उद्धार की आशा भी उतनी ही क्षीण होती जाएगी। जरा इस बारे में सोचो, आदम और हव्वा साँप के बहकावे में आकर अच्छे और बुरे के ज्ञान के पेड़ का फल खाने से पहले यह मानते थे कि यहोवा परमेश्वर उनका प्रभु और उनका पिता है। लेकिन जब साँप ने हव्वा को यह कहकर बहकाया, “क्या परमेश्वर ने कहा था, तुम लोग इस वाटिका के किसी वृक्ष का फल न खाना?” (उत्पत्ति 3:1) और “निश्चित नहीं कि तुम लोग मरोगे : वरन् परमेश्वर आप जानता है कि जिस दिन तुम लोग उसका फल खाओगे उसी दिन तुम्हारी आँखें खुल जाएँगी, और तुम लोग भले बुरे का ज्ञान पाकर परमेश्वर के तुल्य हो जाओगे” (उत्पत्ति 3:4-5)। तब आदम और हव्वा साँप के बहकावे में आ गए, और परमेश्वर के साथ उनके संबंध में तुरंत बदलाव आ गया। कैसा बदलाव आया? वे अब परमेश्वर के सामने नग्न होकर नहीं आते थे, बल्कि खुद को ढकने और छुपाने के लिए चीजें खोजते थे, और परमेश्वर की उपस्थिति के प्रकाश से बचते थे; जब परमेश्वर ने उन्हें ढूँढा, तो वे उससे छिप गए और अब पहले की तरह उससे आमने-सामने बात नहीं करते थे। परमेश्वर के साथ आदम और हव्वा के संबंध में यह बदलाव इसलिए नहीं आया क्योंकि उन्होंने अच्छे-बुरे के ज्ञान के पेड़ का फल खाया, बल्कि इसलिए कि साँप—शैतान—द्वारा बोले गए शब्दों ने लोगों के मन में गलत तरह की सोच पैदा की, परमेश्वर पर संदेह करने, उससे दूर चले जाने और उससे छिपने के लिए उन्हें बहकाया और गुमराह किया। इस प्रकार, लोग अब परमेश्वर की उपस्थिति के प्रकाश को सीधे नहीं देखना चाहते थे, और उसके सामने पूरी तरह से बेपर्दा होकर नहीं आना चाहते थे, इससे लोगों और परमेश्वर के बीच एक अलगाव पैदा हो गया। यह अलगाव कैसे आया? यह अलगाव माहौल बदलने या समय बीतने के कारण नहीं, बल्कि इसलिए आया क्योंकि लोगों के दिल बदल गए। लोगों के दिल कैसे बदल गए? लोगों ने खुद तो बदलाव की पहल नहीं की। बल्कि यह बदलाव साँप के कहे शब्दों के कारण आया, जिसने परमेश्वर के साथ लोगों के संबंधों में कलह पैदा कर दी, उन्हें परमेश्वर और उसकी उपस्थिति के प्रकाश से दूर कर दिया और उसकी देखभाल को ठुकराकर उसके वचनों पर संदेह करने के लिए बहकाया। इस बदलाव के परिणाम क्या थे? लोग अब वैसे नहीं रहे जैसे वे हुआ करते थे, उनके दिल और विचार अब उतने शुद्ध नहीं रहे, वे अब परमेश्वर को परमेश्वर और अपने सबसे करीब नहीं मानते थे, बल्कि उस पर संदेह करते और उससे डरते थे, और इस प्रकार वे उससे दूर हो गए और उनमें परमेश्वर से छिपने और उससे दूर रहने की चाहत वाली मानसिकता विकसित हुई, और यही मानवजाति के पतन की शुरुआत थी। मानवजाति के पतन की शुरुआत शैतान के कहे गए शब्दों से हुई, ऐसे शब्द जो जहरीले, लुभावने और गुमराह करने वाले थे। इन शब्दों से लोगों में जो विचार पैदा हुए, उन्होंने उन्हें परमेश्वर पर संदेह करने, उसे गलत समझने, और उससे आशंकित रहने पर मजबूर कर दिया, उन्हें परमेश्वर से अलग कर दिया जिससे वे अब न केवल परमेश्वर का सामना नहीं करना चाहते थे, बल्कि उससे छिपना चाहते थे, और यहाँ तक कि अब उसकी बातों में विश्वास भी नहीं करते थे। परमेश्वर ने इस बारे में क्या कहा? परमेश्वर ने कहा : “तू वाटिका के सब वृक्षों का फल बिना खटके खा सकता है; पर भले या बुरे के ज्ञान का जो वृक्ष है, उसका फल तू कभी न खाना : क्योंकि जिस दिन तू उसका फल खाएगा उसी दिन अवश्य मर जाएगा” (उत्पत्ति 2:16-17)। जबकि, शैतान ने कहा कि जिन लोगों ने अच्छे और बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल खाया है, निश्चित नहीं कि वे मरेंगे। शैतान के कहे भ्रामक शब्दों के कारण, लोगों ने परमेश्वर के वचनों पर संदेह करना और उन्हें नकारना शुरू कर दिया, यानी लोगों ने अपने दिलों में परमेश्वर के बारे में अलग राय बना ली, और वे अब पहले की तरह शुद्ध नहीं रहे। लोगों की इन रायों और शंकाओं के कारण, अब वे परमेश्वर के वचनों में विश्वास नहीं करते थे, और उन्होंने यह विश्वास रखना भी छोड़ दिया कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और लोगों और परमेश्वर के बीच एक अपरिहार्य संबंध है, और यहाँ तक कि उन्होंने यह विश्वास करना भी बंद कर दिया कि परमेश्वर लोगों की रक्षा और देखभाल कर सकता है। जिस पल से लोगों ने इन चीजों पर विश्वास करना बंद किया, तभी से वे परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा को स्वीकारना नहीं चाहते थे, और बेशक अब वे परमेश्वर के मुँह से निकले किसी भी वचन को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं थे। मानवजाति का पतन शैतान के लुभावने शब्दों के कारण शुरू हुआ, और उस विचार और दृष्टिकोण से शुरू हुआ जो शैतान ने लोगों के मन में बिठा दिए थे।

हमने अभी जिस विषय पर संगति की है वह परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कहावतों के सार का एक पहलू है, और यह शैतान द्वारा मानवजाति की भ्रष्टता की ओर संकेत करता है, उसे साबित करता है, और उसका प्रतीक भी है। इन समस्याओं के सार के हिसाब से देखें, बिना किसी अपवाद के सभी मनुष्य—चाहे वे छोटे बच्चे हों या बुजुर्ग, या वे किसी भी सामाजिक वर्ग में रहते हों, या किसी भी सामाजिक पृष्ठभूमि से आते हों—शैतान की विभिन्न टिप्पणियों द्वारा सीमित किए गए हैं, उन्हें इसकी गहराई की पहचान भी नहीं है, और वे पूरी तरह से अस्तित्व की एक ऐसी स्थिति के भीतर रहते हैं जो शैतानी विचारों से ओत-प्रोत है। बेशक, निर्विवाद तथ्य क्या है? यह कि शैतान लोगों को भ्रष्ट कर रहा है। वह मनुष्य के विभिन्न अंगों को नहीं, बल्कि उनके विचारों को भ्रष्ट करता है। मनुष्यों के विचारों को भ्रष्ट करने से पूरी मानवजाति परमेश्वर के विरुद्ध हो जाती है, ताकि परमेश्वर द्वारा सृजित मनुष्य उसकी आराधना न कर सकें, बल्कि परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने, उसका विरोध करने, विश्वासघात करने और उसे ठुकराने के लिए शैतान के सभी प्रकार के विचारों और नजरियों का उपयोग करें। यह शैतान की महत्वाकांक्षा और धूर्त साजिश है, और बेशक यही शैतान का असली चेहरा है, और इसी तरह शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करता है। हालाँकि, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि शैतान ने कितने हजार वर्षों तक मानवजाति को भ्रष्ट किया है, या कितने तथ्य शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट करने की ओर इशारा करते हैं, या जिन विभिन्न विचारों और नजरियों से वह मानवजाति को भ्रष्ट करता है वो कितने ही बेतुके और गलत हैं, और उनसे मनुष्य की सोच कितनी गहराई तक सीमित हो गई है—संक्षेप में, इन सबके बावजूद, जब परमेश्वर लोगों को बचाने का अपना कार्य करने आता है, और जब वह सत्य व्यक्त करता है, भले ही लोग ऐसे संदर्भ में रहते हों, तब भी परमेश्वर उन्हें शैतान के प्रभुत्व से छीनकर उन्हें वापस ला सकता है। और बेशक, परमेश्वर अभी भी लोगों को सत्य समझा सकता है, उनकी भ्रष्टता का सार और सत्य जानने, उनसे अपने शैतानी स्वभावों को दूर करने, परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने और उसका भय मानकर बुराई से दूर रहने में उनकी मदद कर सकता है। यही अंतिम परिणाम अनिवार्य रूप से हासिल किया जाएगा, और यही वह प्रवृत्ति भी है जिसमें परमेश्वर की 6,000 साल की प्रबंधन योजना निश्चित रूप से फलदायी होगी, और जिसमें परमेश्वर अपनी महिमा के साथ सभी देशों और लोगों के सामने प्रकट होगा। जैसे कि परमेश्वर के वचन कहते हैं, “परमेश्वर अपने वचन का पक्का है, और उसका वचन पूरा होगा, और जो वह पूरा करता है वह हमेशा के लिए रहता है।” यह वाक्य सत्य है। क्या तुम लोगों को इस पर विश्वास है? (हाँ।) यह एक ऐसा तथ्य है जो हर हाल में पूरा होगा। क्योंकि परमेश्वर के कार्य का अंतिम चरण मानवजाति को सत्य और जीवन प्रदान करने का कार्य है। केवल तीस वर्षों से अधिक की छोटी सी अवधि में, बहुत-से लोग परमेश्वर के समक्ष आए हैं, उसके द्वारा जीते गए हैं, और अब अटल संकल्प के साथ उसका अनुसरण करते हैं। वे शैतान से कोई लाभ नहीं चाहते, वे परमेश्वर की ताड़ना और न्याय, और उसके उद्धार को स्वीकारने के इच्छुक हैं, और हर कोई सृजित प्राणियों के रूप में अपने स्थान को फिर से ग्रहण करने और सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकारने के इच्छुक हैं। क्या यह परमेश्वर की योजना के फलीभूत होने का संकेत नहीं है? (हाँ।) यह एक स्थापित तथ्य है और ऐसा तथ्य भी है जो पहले ही घटित हो चुका है, और बेशक यह कुछ ऐसा है जो अभी घटित हो रहा है और जो पहले ही घटित हो चुका है। चाहे शैतान मानवजाति को कैसे भी भ्रष्ट करता हो, या वह चाहे जो भी तरीका अपनाता हो, परमेश्वर के पास हमेशा मनुष्यों को शैतान के प्रभुत्व से वापस छीनने, उन्हें बचाने, उन्हें अपने समक्ष वापस लाने और मानवजाति और सृष्टिकर्ता के बीच के संबंध को बहाल करने के तरीके होंगे। यही परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और अधिकार है, और चाहे तुम इस पर विश्वास करो या न करो, देर-सबेर वो दिन जरूर आएगा।

पिछली सभा में हमने नैतिक आचरण की कहावत, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” पर संगति की थी और इस कहावत में निहित अपेक्षाओं, अभिव्यक्तियों, विचारों और दृष्टिकोणों का विश्लेषण करने और उन्हें उजागर करने में कुछ समय बिताया था, और अब लोगों ने इसके सार की थोड़ी समझ प्राप्त कर ली है। बेशक, इस पहलू से संबंधित विषयों के संदर्भ में, हमने इस बात पर भी संगति की थी कि वास्तव में परमेश्वर का इरादा क्या है, उसका रवैया क्या है, इसमें क्या सत्य शामिल है, और लोगों को मृत्यु को कैसे देखना चाहिए। सत्य और परमेश्वर के इरादे को समझने के बाद, जब भी लोग ऐसी चीजों का सामना करते हैं, तो उन्हें इन समस्याओं को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना चाहिए और उनसे सत्य के अनुसार निपटना चाहिए, ताकि वे परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर सकें। इसके अलावा, नैतिक आचरण की वह कहावत जिसका हमने पिछली बार जिक्र किया था—“वसंत के रेशम के कीड़े मरते दम तक बुनते रहेंगे, और मोमबत्तियाँ बाती खत्म होने तक जलती रहेंगी”—यह भी बहुत सतही है, और इसके विचार का क्षेत्र बहुत अशिष्ट है, तो इसका और विश्लेषण करना सार्थक नहीं होगा। नैतिक आचरण की अगली कहावत जिस पर हम संगति करेंगे, “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” विश्लेषण करने लायक है। जो चीजें विश्लेषण करने लायक हैं वे लोगों के विचारों और धारणाओं में एक निश्चित स्थान बनाती हैं। एक विशेष अवधि के दौरान, वे लोगों की सोच, उनके अस्तित्व में बने रहने के तरीके, उनके मार्ग और बेशक उनकी पसंद को प्रभावित करेंगीं। मानवजाति को भ्रष्ट करने के लिए परंपरागत संस्कृति का उपयोग करके शैतान यही परिणाम हासिल करता है। “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” इस कहावत की लोगों के दिलो-दिमाग में एक खास जगह है, यानी यह कहावत जिस प्रकार की समस्या की ओर इशारा करती है वह विशेष रूप से प्रतिनिधि है। अपने देश के भाग्य के महत्वपूर्ण मोड़ पर, लोग इस कहावत के आधार पर चुनाव करेंगे, और यह उनकी सोच और सामान्य वैचारिक प्रक्रियाओं को बांध देगा और सीमित कर देगा। इसलिए, ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों का विश्लेषण करना सार्थक है। हमने पहले जिन कहावतों का जिक्र किया है, अर्थात “उठाए गए धन को जेब में मत रखो,” “मैं अपने दोस्त के आरोप अपने ऊपर ले लूँगा” “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” वगैरह की तुलना करने पर, नैतिक आचरण के मानक, “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” का शैतान की दुनिया में ऊँचा स्थान है। नैतिक आचरण की जिन कहावतों का हमने पहले विश्लेषण किया था, वे जीवन में एक प्रकार के व्यक्ति या एक प्रकार की मामूली बातों को संदर्भित करती हैं, जिनमें से सभी सीमित हैं, जबकि यह कहावत व्यापक दायरे को घेरती है। यह “छोटे स्वार्थ” के दायरे में आने वाली चीजों की नहीं, बल्कि “बड़े स्वार्थ” से संबंधित कई समस्याओं और चीजों की परवाह करती है। इसलिए, लोगों के दिलों में इसका एक महत्वपूर्ण स्थान रहता है, और इसका विश्लेषण यह देखने के लिए किया जाना चाहिए कि क्या इसे लोगों के दिलों में एक खास जगह बनाने देना चाहिए, और यह पता लगाना भी जरूरी है कि लोगों को नैतिक आचरण की इस कहावत को किस तरह से सत्य के अनुरूप देखना चाहिए।

“प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” यह कहावत सभी को अपने देश के भाग्य के लिए जवाबदेह बनने का सुझाव देकर, लोगों को अपनी जिम्मेदारी का ध्यान रखने पर मजबूर करती है। यदि तुम अपने देश के भाग्य के लिए अपनी जिम्मेदारी निभाते हो, तो सरकार तुम्हें उच्च सम्मान से पुरस्कृत करेगी और तुम्हें एक महान चरित्र वाले व्यक्ति के रूप में देखा जाएगा; जबकि, यदि तुम अपने देश के भाग्य की चिंता नहीं करते, और इसके लड़खड़ाने पर चुपचाप खड़े रहते हो, और इस मामले को बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानते, या तुम इस पर हँसते हो, तो इसे अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने में पूरी तरह से विफल होने के रूप में देखा जाता है। यदि तुम्हारे देश को जरूरत पड़ने पर तुम अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करते, तो तुम किसी लायक नहीं हो, और तुम वास्तव में एक महत्वहीन व्यक्ति हो। ऐसे लोगों को समाज में अलग कर दिया जाता है और उनका मजाक बनाया जाता है, उनके साथी उनका तिरस्कार करते हैं, और उन्हें नीची नजर से देखते हैं। किसी भी संप्रभु राज्य के किसी भी नागरिक के लिए, “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” एक ऐसी कहावत है जिसे लोगों की मंजूरी प्राप्त है, एक ऐसी कहावत है जिसे लोग स्वीकार सकते हैं, और यह एक ऐसी कहावत भी है जिसका मानवजाति सम्मान करती है। यह एक ऐसा विचार भी है जिसे मानवजाति महान मानती है। जो व्यक्ति अपनी जन्मभूमि के भाग्य की चिंता करने और इसकी परवाह करने में सक्षम है, और इसके प्रति जिम्मेदारी की गहरी भावना रखता है, वह अधिक धार्मिक व्यक्ति है। जो लोग अपने परिवार वालों के बारे में चिंता और उनकी परवाह करते हैं उनमें कम धार्मिकता होती है, जबकि जो लोग अपने देश के भाग्य की परवाह करते हैं वे अधिक धार्मिकता की भावना रखने वाले लोग होते हैं, और उनकी सोच यह होती है कि शासकों और अन्य लोगों को उनकी प्रशंसा तो करनी ही चाहिए। संक्षेप में, इस तरह के विचारों को निर्विवाद रूप से मनुष्यों के लिए सकारात्मक महत्व वाला और मानवजाति का सकारात्मक मार्गदर्शन करने वाला माना जाता है, और बेशक वे सकारात्मक चीजें भी मानी जाती हैं। क्या तुम लोग भी ऐसा ही सोचते हो? (हाँ।) तुम लोगों का इस तरह से सोचना सामान्य है। इसका मतलब है कि तुम लोगों की सोच सामान्य लोगों से अलग नहीं है और तुम भी सामान्य लोग ही हो। सामान्य लोग लोकप्रिय विचारों और बाकी मानवजाति से आने वाले सभी विभिन्न तथाकथित सकारात्मक, सक्रिय, खुली सोच वाले और महान विचारों और टिप्पणियों को स्वीकार सकते हैं। ये सामान्य लोग हैं। जिन विचारों को आम लोग स्वीकारते और उनका सम्मान करते हैं क्या यह जरूरी है कि वे सकारात्मक हों? (नहीं।) सैद्धांतिक रूप से कहा जाए, तो वे सकारात्मक नहीं हैं, क्योंकि वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं, वे परमेश्वर से नहीं आते हैं, और मानवजाति को यह सब परमेश्वर ने नहीं सिखाया है या न ही उसने बताया है। तो वास्तव में तथ्य क्या हैं? इस मामले को कैसे समझाया जाना चाहिए? अब मैं इसे विस्तार से समझाऊँगा, और जब मेरी बात पूरी हो जाएगी, तब तुम लोग समझ जाओगे कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” की कहावत कोई सकारात्मक चीज नहीं है। इससे पहले कि मैं जवाब बताऊँ, पहले इस कहावत के बारे में सोचो, “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” : क्या यह वाकई एक सकारात्मक बात है? क्या लोगों को अपने देश से प्यार करवाना गलत है? कुछ लोग कहते हैं : “हमारी जन्मभूमि का भाग्य हमारे अस्तित्व, हमारी खुशी और हमारे भविष्य पर असर डालता है। क्या परमेश्वर लोगों को अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ होने, अपने बच्चों का अच्छे से पालन-पोषण करने और अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए नहीं कहता है? अपने देश में कुछ जिम्मेदारियाँ पूरी करने में क्या गलत है? क्या यह सकारात्मक बात नहीं है? भले ही यह सत्य के स्तर तक ऊँचा नहीं उठता है, फिर भी यह एक सही विचार होना चाहिए, है ना?” जहाँ तक लोगों का सवाल है, तो ये कारण जायज हैं, है न? लोग इन दावों, इन कारणों और यहाँ तक कि इन औचित्यों का उपयोग इस कहावत की सत्यता पर बहस करने के लिए करते हैं कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है।” तो क्या यह कहावत वास्तव में सही है या नहीं? यदि यह सही है, तो इसमें सही क्या है? यदि यह सही नहीं है तो इसमें गलत क्या है? यदि तुम लोग इन दो सवालों के जवाब स्पष्ट रूप से दे सकते हो, तो तुम वास्तव में सत्य के इस पहलू को समझ जाओगे। कुछ अन्य लोग भी हैं जो कहते हैं : “‘प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है’ की कहावत सही नहीं है। देश शासकों द्वारा शासित और राजनीतिक प्रणालियों द्वारा संचालित होते हैं। जब भी राजनीति का सवाल होता है, तो हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं होती, क्योंकि परमेश्वर मानव राजनीति में शामिल नहीं होता। इसलिए, हम भी राजनीति में शामिल नहीं होते हैं, तो इस कहावत का हमसे कोई लेना-देना नहीं है; जो कुछ भी राजनीति से संबंधित है उसका हमसे कोई लेना-देना नहीं है। जो भी राजनीति में शामिल होता है और राजनीति को पसंद करता है, वह देश के भाग्य के लिए जिम्मेदार है। हम इस कहावत को नहीं मानते, हमारे नजरिये से यह कोई सकारात्मक बात नहीं है।” क्या यह व्याख्या सही है या गलत? (गलत।) यह गलत क्यों है? तुम लोग सैद्धांतिक रूप से जानते हो कि यह स्पष्टीकरण सही नहीं है, यह समस्या की जड़ को हल नहीं करता है, और यह समस्या के सार को समझाने के लिए काफी नहीं है। यह केवल एक सैद्धांतिक व्याख्या है, लेकिन इस मामले के सार को स्पष्ट नहीं करती है। चाहे यह किसी भी प्रकार की व्याख्या हो, अगर यह इस समस्या के विशिष्ट सार की बात करने में विफल रहती है, तो यह वास्तविक व्याख्या नहीं है, यह सटीक जवाब नहीं है, और यह सत्य भी नहीं है। तो, नैतिक आचरण की इस कहावत में क्या गलत है कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है”? इस समस्या का संबंध किस सत्य से है? इस संबंध में सत्य को एक या दो वाक्यों में स्पष्ट रूप से समझाया नहीं जा सकता। इसमें निहित सत्य को समझाने के लिए तुम लोगों को बहुत कुछ समझाना होगा। तो आओ इस पर सरल शब्दों में संगति करें।

“प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” इस कहावत को कैसे देखा और समझा जाना चाहिए? क्या यह एक सकारात्मक बात है? इस कहावत को समझाने के लिए, सबसे पहले यह देखते हैं कि देश क्या है। लोगों के मन में देश की अवधारणा क्या है? क्या देश की अवधारणा यह है कि वो बहुत बड़ा है? सैद्धांतिक रूप से कहें, तो देश किसी क्षेत्र का ऐसा विस्तार है जिसमें वे सभी घर शामिल हैं जिन पर एक शासक ही शासन करता है और जो एक ही सामाजिक व्यवस्था द्वारा संचालित होती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अनेकों घर मिलकर एक देश बनता है। क्या समाज इसे इसी तरह परिभाषित करता है? (हाँ।) जब छोटे घर होंते हैं तभी उनसे एक बड़ा घर बन सकता है, और एक बड़ा घर ही देश है—यही एक देश की परिभाषा है। तो क्या यह परिभाषा स्वीकार्य है? क्या तुम लोग मन ही मन इससे देश को पहचानते हो? यह परिभाषा किसके स्वाद और रुचियों के लिए सबसे उपयुक्त है? (शासकों के लिए।) सही बात है, यह सबसे पहले शासकों के लिए ही उपयुक्त होनी चाहिए। क्योंकि सभी घरों को अपने प्रभुत्व में रखने से, सत्ता उनके हाथों में होती है। तो, जहाँ तक शासकों का सवाल है, यह एक मान्य परिभाषा है और वे इससे इसे पहचानते हैं। शासकों के लिए देश की परिभाषा चाहे जो भी हो, किसी आम इंसान के लिए देश और उसमें रहने वाले हर व्यक्ति के बीच एक दूरी होती है। आम लोगों के लिए, यानी हरेक देश में अलग-अलग लोगों के लिए, एक देश की परिभाषा शासकों या शासक वर्ग द्वारा अपनाई गई परिभाषा से बिल्कुल अलग होती है। शासक वर्ग जिस तरह से किसी देश को परिभाषित करता है वह उनके प्रभुत्व और उनके निहित हितों पर आधारित होता है। वे ऊँचे स्थान पर खड़े होकर देश को परिभाषित करने के लिए महत्वाकांक्षा और इच्छा से ओत-प्रोत अपने उस प्रेक्षण स्थल और खुले परिप्रेक्ष्य का उपयोग करते हैं। उदाहरण के लिए, शासक देश को अपना घर, अपनी भूमि मानते हैं, और सोचते हैं कि उन्हें यह उनके आनंद के लिए प्रदान किया गया है, और देश का कोना-कोना, हर संसाधन और यहाँ तक कि इसमें मौजूद हर व्यक्ति उनका होना चाहिए, उनके नियंत्रण में रहना चाहिए, और उन्हें इन सबका आनंद लेने के साथ-साथ लोगों पर अपनी मनमर्जी से प्रभुत्व जमाने में सक्षम होना चाहिए। लेकिन आम लोगों की ऐसी इच्छाएँ नहीं होती हैं, न ही उनकी ऐसी स्थितियाँ होती हैं, और बेशक उनके पास किसी देश को परिभाषित करने के लिए इतना व्यापक परिप्रेक्ष्य भी नहीं होता है। तो आम लोगों के लिए, किसी स्वतंत्र व्यक्ति के लिए, एक देश की उनकी परिभाषा क्या है? यदि वे सुशिक्षित हैं और नक़्शे पढ़ सकते हैं, तो वे केवल इतना ही जानते हैं कि उनके देश का क्षेत्रफल कितना है, कौन-से पड़ोसी देश इसे घेरे हुए हैं, इसमें कितनी नदियाँ और झीलें हैं, और कितने पहाड़, कितने जंगल, कितनी भूमि है, और उनके देश में कितने लोग हैं...। किसी देश के बारे में उनकी अवधारणा केवल नक्शे और शब्दों पर आधारित होती है, यह लिखित रूप में बस एक सैद्धांतिक अवधारणा है, और वास्तविकता में मौजूद देश से बिल्कुल भी मेल नहीं खाती है। ऐसा व्यक्ति जो बहुत सुशिक्षित है और उसका एक खास सामाजिक रुतबा है, उसके लिए एक देश की अवधारणा कुछ ऐसी ही है। तो, समाज के निचले स्तर पर मौजूद आम लोगों के बारे में क्या ख्याल है? उनके लिए देश की परिभाषा क्या है? मेरे ख्याल से, इन लोगों के लिए देश की परिभाषा उनके परिवार की जमीन के मामूली टुकड़े, गाँव के पूर्वी छोर पर मौजूद विशाल विलोव के वृक्ष, पश्चिमी छोर पर मौजूद पहाड़, गाँव के प्रवेश द्वार की सड़क और उस सड़क से अक्सर गुजरने वाली कारों के साथ-साथ गाँव में घटी कुछ अपेक्षाकृत सनसनीखेज घटनाओं, और यहाँ तक कि कुछ छोटी-मोटी बातों से अधिक और कुछ भी नहीं है। आम लोगों के लिए देश की अवधारणा कुछ ऐसी ही होती है। भले ही इस परिभाषा की सीमाएँ बहुत छोटी हैं और इसका दायरा बहुत संकीर्ण है, जहाँ तक ऐसे सामाजिक संदर्भ में रहने वाले आम लोगों का सवाल है, यह बहुत यथार्थवादी और व्यावहारिक है—उनके लिए, देश का मतलब इससे अधिक कुछ भी नहीं है। बाहर की दुनिया में चाहे जो हो जाए, देश में चाहे जो हो जाए, उनके लिए ये महज कुछ मामूली महत्वपूर्ण खबरें हैं जिन्हें वो चाहें तो सुनें, नहीं तो नजरंदाज कर दें। तो, उन्हें तात्कालिक हित किन चीजों से जुड़े हैं? इस बात से कि इस साल उन्होंने जो अनाज की फसल बोई है, क्या उससे भरपूर फसल होगी, क्या यह उनके परिवार के भरण-पोषण के लिए काफी होगी, अगले साल क्या बोया जाएगा, कहीं उनकी जमीन में बाढ़ तो नहीं घिर जाएगी, कहीं दबंगों द्वारा हमला करके उस पर कब्जा तो नहीं कर लिया जाएगा, और अन्य ऐसे मामले और चीजें जो जीवन से निकटता से संबंधित हैं, जैसे कि गाँव की कोई इमारत, कोई नदी, कोई पगडंडी वगैरह। वे जिस चीज की परवाह करते हैं और जिसके बारे में बात करते हैं, और जो चीज उनके मन पर गहरी छाप छोड़ती है, वह ज्यादा कुछ नहीं बल्कि उनके आस-पास के लोग, मामले और चीजें हैं जो उनके जीवन से निकटता से संबंधित हैं। उन्हें इस बात का कोई अंदाजा नहीं है कि देश का दायरा कितना बड़ा है, न ही उन्हें देश की उन्नति या अवनति का कोई अंदाजा है। चीजें जितनी नई-नई होती हैं और देश के मामले जितने अधिक महत्वपूर्ण होते हैं, वे ऐसे लोगों से उतने ही दूर होते हैं। इन आम लोगों के लिए, देश की अवधारणा केवल वे लोग, मामले और चीजें हैं जिन्हें वे अपने मन में रख सकते हैं और जिन लोगों, मामलों और चीजों के संपर्क में वे अपने जीवन में आते हैं। यदि उन्हें देश के भाग्य के बारे में जानकारी मिलती भी है तो वो उनसे कोसों दूर होती है। उनसे दूर होने का मतलब है कि उनके दिलों में इन बातों की कोई जगह नहीं होती है, और उनके जीवन पर इनका कोई असर नहीं पड़ेगा, इसलिए देश की उन्नति और अवनति से उनका कोई लेना-देना नहीं है। उनके दिलों में, उनके देश का भाग्य क्या है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि इस वर्ष उन्होंने जो फसलें बोई हैं, क्या उन्हें स्वर्ग का आशीष प्राप्त है, क्या फसल भरपूर है, उनका परिवार कैसे चल रहा है, और रोजमर्रा की जिंदगी की अन्य छोटी-छोटी बातें, जबकि राष्ट्रीय मामलों का उनसे कोई संबंध नहीं है। राष्ट्रीय महत्व, राजनीति, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मामले, देश का क्षेत्रफल बढ़ा है या सिकुड़ गया है, शासकों ने किन स्थानों का दौरा किया है, और शासक वर्ग के भीतर क्या चीजें घटित हुई हैं—ये चीजें आम लोगों की समझ से परे हैं। यदि वे उन्हें समझ भी सकते, तो इससे क्या फर्क पड़ता? यदि रात के खाने के बाद उन्होंने इस बारे में बात भी की कि शासक वर्ग के साथ क्या चल रहा है, तो वे इस बारे में क्या कर पाते? अपना पेट भरने के बाद, उन्हें अभी भी अपना अस्तित्व बचाना है और खेतों में काम करने जाना है। उनके खेतों में उगने वाली फसलों से अधिक वास्तविक कुछ भी नहीं लगता जो अच्छी फसल पैदा कर सके। व्यक्ति केवल उसी चीज की परवाह करता है जो उसके दिल के करीब होती है। किसी व्यक्ति का क्षितिज उतना ही व्यापक होता है जितनी चीजें उसके दिल में बैठती हैं। सामान्य लोगों का क्षितिज केवल वहीं तक सीमित होता है जहाँ तक वे अपने आस-पास के स्थानों को देख सकते हैं और जहाँ वे जा सकते हैं। जहाँ तक उनके देश के भाग्य और राष्ट्रीय महत्व के मामलों का सवाल है, वे बहुत दूर और उनकी पहुँच से बाहर हैं। इसलिए, जब देश का भाग्य दांव पर होता है, या देश किसी शक्तिशाली दुश्मन के आक्रमण का सामना कर रहा होता है, तो वे तुरंत सोचते हैं, “क्या मेरी फसलें आक्रमणकारियों द्वारा जब्त कर ली जाएँगी? इस साल, यदि हमारे अनाज बिकेंगे तभी हम अपने बच्चों की फीस भरकर उन्हें कॉलेज भेज पाएँगे!” ये वो चीजें हैं जो आम लोगों के लिए सबसे अधिक व्यावहारिक संदर्भ रखती हैं, जिन्हें वो समझ सकते हैं, और जो उनके मन और आत्मा के लिए सहने लायक होती हैं। सामान्य लोगों के लिए, “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” की कहावत बहुत दुष्कर है। वे नहीं जानते कि इसका अनुसरण कैसे करना है, और वे इस भारी बोझ और दुष्कर जिम्मेदारी को उठाना नहीं चाहते। किसी देश के बारे में आम लोगों की अवधारणा कुछ ऐसी ही होती है। इसलिए, उनके जीवन का दायरा, और जिन चीजों में उनकी सोच और भावनाएँ बसती हैं, वे उनके गाँव की मिट्टी और पानी से अधिक कुछ भी नहीं हैं जो उन्हें दिन में तीन बार भोजन और उनके भरण-पोषण के लिए आवश्यक सभी चीजें देती हैं, जिनमें उनके गाँव की हवा और वातावरण भी शामिल है। इन चीजों के अलावा और क्या हो सकता है? भले ही कुछ लोग अपने गाँव के उस परिचित परिवेश से दूर चले जाएँ जहाँ वे पैदा हुए और पले-बढ़े, जब भी देश लड़खड़ा रहा होता है और राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को निभाने की उनकी बारी आती है, तो कोई भी पूरे देश की रक्षा करने के बारे में नहीं सोचता। तो फिर लोग क्या सोचते हैं? वे केवल अपने गाँव की रक्षा करने और जमीन के उस हिस्से की रक्षा के लिए अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के बारे में सोचते हैं जो उनके दिल में बसती है, और यहाँ तक कि इसके लिए अपने जीवन का बलिदान भी दे सकते हैं। चाहे लोग कहीं भी चले जाएँ, उनके लिए “देश” शब्द बस एक सर्वनाम, एक चिह्नक और एक प्रतीक मात्र है। जो चीज वास्तव में उनके दिलों में काफी जगह लेती है वह देश का क्षेत्र नहीं है, और न ही शासकों का शासन है, बल्कि वह पहाड़, जमीन का टुकड़ा, नदी और कुआँ है जो उन्हें दिन में तीन बार भोजन और जीवन प्रदान करते हैं, और जीवित रहने में उनकी मदद करते हैं; बस इतना ही। लोगों के मन में देश की यही अवधारणा है—यह बहुत वास्तविक, बहुत ठोस, और बेशक बहुत सटीक भी है।

परंपरागत संस्कृति में, विशेषकर नैतिक आचरण के बारे में सोचते समय, इस विचार का हमेशा समर्थन क्यों क्यों किया जाता है कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है?” इसका संबंध शासक के शासन और इस विचार का समर्थन करने वाले लोगों के इरादों और उद्देश्यों दोनों से है। यदि हरेक व्यक्ति के मन में देश की परिभाषा इतनी महत्वहीन, इतनी ठोस और इतनी वास्तविक होगी, तो देश की रक्षा कौन करेगा? शासक के शासन को कौन कायम रखेगा? क्या यहाँ समस्याएँ नहीं हैं? यहाँ सचमुच समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। यदि किसी देश के बारे में हर किसी की अवधारणा ऐसी होती, तो क्या शासक महज एक पुतला बनकर नहीं रह जाता? यदि किसी शासक के देश को किसी शक्तिशाली शत्रु के आक्रमण का सामना करना पड़े और उसकी रक्षा प्रणाली केवल शासक पर या शासक वर्ग पर निर्भर होती है, तो क्या वे संघर्ष करते, असहाय, अलग-थलग और कमजोर दिखाई नहीं देंगे? विचारकों ने अपने दिमाग का उपयोग करके इन समस्याओं का जवाब दिया है। उनका मानना था कि देश की रक्षा करने और शासक के शासन को बनाए रखने के लिए, योगदान देने वाले केवल कुछ ही लोगों पर निर्भर रहना मुमकिन नहीं था, इसके बजाय पूरी आबादी को देश के शासक की सेवा करने के लिए प्रेरित करना आवश्यक था। यदि ये विचारक लोगों से सीधे शासक की सेवा करने और देश की रक्षा करने को कहेंगे, तो क्या लोग ऐसा करने को तैयार होंगे? (नहीं, वे नहीं तैयार होंगे।) जाहिर है कि लोग ऐसा नहीं करना चाहेंगे, क्योंकि इस अनुरोध के पीछे का उद्देश्य बहुत स्पष्ट होगा, और वे इसके लिए सहमत नहीं होंगे। वे विचारक जानते थे कि उन्हें लोगों के मन में सुखद लगने वाली, श्रेष्ठ और सतही रूप से भव्य अभिव्यक्ति पैदा करनी चाहिए और उन्हें बताना चाहिए कि जो कोई भी इस तरह से सोचता है वो महान नैतिक आचरण वाला है। इस तरह, लोग इस विचार को आसानी से स्वीकार लेंगे, और इस विचार के लिए त्याग करेंगे और योगदान भी देंगे। तब तो उनका लक्ष्य पूरा हो जाएगा, है न? इसी सामाजिक संदर्भ में, और शासकों की जरूरतों के जवाब में, यह कहावत और विचार सामने आया कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है”। मानव स्वभाव ऐसा है कि चाहे कोई भी विचार सामने आए, हमेशा कुछ ऐसे लोग होंगे जो उसे प्रचलित और नया मानेंगे, और इसी आधार पर उसे स्वीकार करेंगे। कुछ लोग इस कहावत को स्वीकारते हैं कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” तो क्या इससे शासक को लाभ नहीं होता है? इसका मतलब है कि शासक के शासन के लिए त्याग करने और योगदान देने वाले लोग मौजूद होंगे। इसलिए शासक को लंबे समय तक शासन करने की उम्मीद होती है, है न? और क्या तब उनका शासनकाल अपेक्षाकृत अधिक स्थिर नहीं होगा? (हाँ।) इसलिए, जब शासक के शासन पर कोई चुनौती आती है या उसे विध्वंश का सामना करना पड़ता है, या उसके देश को किसी शक्तिशाली दुश्मन के आक्रमण का सामना करना पड़ता है, तो जो लोग इस विचार को स्वीकारते हैं कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” वे बहादुरी से और देश की रक्षा के लिए योगदान देने या अपना जीवन बलिदान करने के लिए निडरता से आगे बढ़ेंगे। इसका अंतिम लाभ किसे होता है? (शासक को।) अंतिम लाभ शासक को होता है। उन लोगों का क्या होता है जो इस विचार को स्वीकारते हैं कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” और जो इसके लिए अपना बहुमूल्य जीवन त्यागने को तैयार रहते हैं? वे शासक के लिए मार्गदर्शक पत्थर और खपाए जा सकने वाले मोहरे बन जाते हैं, वे इस विचार के शिकार बन जाते हैं। समाज के निचले स्तर पर रहने वाले आम लोगों के पास देश की कोई निश्चित, स्पष्ट अवधारणा या स्पष्ट परिभाषा नहीं होती है। वे नहीं जानते कि देश क्या होता है, न ही यह जानते हैं कि देश कितना बड़ा है, और उन्हें देश के भाग्य से जुड़ी महत्वपूर्ण बातों की तो बिल्कुल भी जानकारी नहीं होती है। क्योंकि लोगों की देश की परिभाषा और अवधारणा अस्पष्ट है, शासक वर्ग उन्हें धोखा देने के लिए “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” की कहावत का उपयोग करता है और उनके मन में यह विचार डाल देता है, ताकि हर कोई देश की रक्षा के लिए खड़ा हो सके और शासक वर्ग के लिए अपना जीवन दांव पर लगा दे, और इस प्रकार उनका उद्देश्य पूरा हो जाएगा। वास्तव में, जहाँ तक आम लोगों का सवाल है, चाहे देश पर कोई भी शासन करता हो, या चाहे आक्रमणकारी मौजूदा शासकों से बेहतर हों या बदतर, अंत में, उनके परिवार की जमीन के छोटे से टुकड़े पर हर साल फसल उगानी ही है, और उनके गाँव के पूर्वी छोर पर खड़ा पेड़ अब तक नहीं बदला है, गाँव के पश्चिमी छोर वाला पहाड़ नहीं बदला है, गाँव के बीच में मौजूद कुआँ भी नहीं बदला है, और उनके लिए बस यही सब मायने रखता है। गाँव के बाहर क्या कुछ होता है, कितने शासक आते-जाते हैं, या वे देश पर कैसे शासन करते हैं, इन सब बातों से उनका कोई लेना-देना नहीं है। आम लोगों का जीवन ऐसा ही है। उनका जीवन बहुत वास्तविक और सरल है, और देश के बारे में उनकी अवधारणा परिवार की अवधारणा की तरह ही ठोस है, अंतर बस यह है कि इसका दायरा परिवार से बड़ा है। जबकि, जब देश पर कोई शक्तिशाली दुश्मन आक्रमण करता है और उसका अस्तित्व और उत्तरजीविता संतुलन में होती है, और शासक का शासनकाल अवरुद्ध और अस्थिर हो जाता है, तो “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” की कहावत को स्वीकारने वाले लोग इस विचार के प्रभाव में आ जाते हैं, और वे बस देश के भाग्य को प्रभावित करने वाली और शासक के शासन में हस्तक्षेप करने वाली इन चीजों को बदलने के लिए अपनी व्यक्तिगत शक्तियों का उपयोग करना चाहते हैं। फिर अंत में क्या होता है? वास्तव में वे क्या बदल पाते हैं? भले ही वे शासक को सत्ता में बनाए रखने में कामयाब हो जाएँ, तो क्या इसका मतलब यह है कि उन्होंने कोई धार्मिक काम किया है? क्या इसका मतलब यह है कि उनका त्याग सकारात्मक था? क्या यह याद रखने लायक है? इतिहास के एक विशेष कालखंड में वे लोग, जिन्होंने इस विचार से महान स्थान हासिल किया कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” उन्होंने देश की रक्षा करने और शासकों को सत्ता में बनाए रखने में इस विचार की भावना को जोशोखरोश से कायम रखा, लेकिन जिन शासकों को उन्होंने सत्ता में रखा उनका शासनकाल पिछली सोच वाला और रक्तरंजित था और उनके लिए मानवजाति का कोई अर्थ या मूल्य नहीं था। इस नजरिये से देखें, तो इन लोगों ने जो तथाकथित जिम्मेदारी निभाई वह सकारात्मक थी या नकारात्मक? (नकारात्मक।) तुम कह सकते हो कि यह नकारात्मक थी, याद रखने लायक नहीं थी, और लोग इससे घृणा करते थे। इसके विपरीत, आम लोग इस विचार को गहराई से नहीं मानते हैं कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” जिसका समर्थन उन षडयंत्रकारी विचारकों द्वारा किया जाता है और न ही वे इसे वास्तव में स्वीकारते और लागू करते हैं। इसलिए, उनका जीवन अपेक्षाकृत स्थिर होता है। भले ही उनकी जीवन भर की उपलब्धियाँ उन लोगों जितनी प्रभावशाली नहीं हैं जो अपने देश के भाग्य के लिए अपनी जान दे देते हैं, लेकिन उन्होंने एक सार्थक चीज की है। यह कौन-सी सार्थक चीज है? यह कि वे देश के भाग्य में कृत्रिम रूप से हस्तक्षेप नहीं करते हैं, और न ही यह निर्धारित करने की प्रक्रिया में दखल देते हैं कि देश के शासक कौन हैं। इसके बजाय, वे बस एक अच्छा जीवन जीना, जमीन पर काम करना, अपने गाँव की रक्षा करना, साल भर के भोजन का इंतजाम करना, और अपने देश को कोई दिक्कत पहुँचाए बिना, देश से भोजन या पैसे की माँग किए बिना, और सही समय आने पर उचित करों का भुगतान करके भरपूर, आरामदायक, शांतिपूर्ण और स्वस्थ जीवन जीना चाहते हैं—यही उस जिम्मेदारी को निभाना है जिसे एक नागरिक को निभाना चाहिए। यदि तुम विचारकों के विचारों के किसी भी हस्तक्षेप से मुक्त रह सकते हो, और अपनी जगह के हिसाब से जमीन से जुड़े रहकर एक सामान्य व्यक्ति के रूप में अपना जीवन जी सकते हो, आत्मनिर्भर हो सकते हो, तो इतना काफी है, तुमने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली है। यही सबसे महत्वपूर्ण बात और सबसे बड़ी जिम्मेदारी है जिसे इस धरती पर रहने वाले लोगों को निभाना चाहिए। अपने अस्तित्व और अपनी बुनियादी जरूरतों का ध्यान रखना ऐसी समस्याएँ हैं जिन्हें खुद ही हल किया जाना चाहिए, जबकि देश के भाग्य से जुड़ी महत्वपूर्ण बातों और देश पर शासन करने के शासक के तरीके से जुड़े मामलों के लिए, आम लोगों के पास उसमें हस्तक्षेप करने या उनके बारे में कुछ भी करने की क्षमता नहीं है। वे इन सभी मामलों को केवल नियति पर छोड़ सकते हैं, और प्रकृति को अपना काम करने दे सकते हैं। स्वर्ग जो चाहेगा, वैसा ही होगा। आम लोग बहुत कम जानते हैं, और इसके अलावा, स्वर्ग ने लोगों को अपने देश के प्रति इस प्रकार की जिम्मेदारी नहीं सौंपी है। आम लोगों के दिलों में सिर्फ अपना घर ही होता है और अगर वे अपने घर को बनाए रखते हैं, तो उतना ही काफी है, और उन्होंने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली है।

नैतिक आचरण की अन्य कहावतों की तरह, “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” एक ऐसा विचार और दृष्टिकोण है जो शासकों को सत्ता में बनाए रखने के लिए विचारकों द्वारा सामने रखा गया है, और बेशक यह एक ऐसा विचार और दृष्टिकोण भी है जिसका समर्थन किया जाता है, ताकि ज्यादा लोग शासकों का समर्थन करें। वास्तव में, लोग चाहे जिस किसी भी सामाजिक वर्ग में रहते हों, यदि उनकी कोई महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ नहीं हैं, और वे राजनीति में नहीं आना चाहते हैं या शासक वर्ग से उनका कोई लेना-देना नहीं है, तो मानवता के परिप्रेक्ष्य से लोगों के लिए देश की परिभाषा उन स्थानों से अधिक कुछ नहीं है जिन्हें वे अपनी नजर से देख सकते हैं, या वह भूमि जिसे वे पैदल नाप सकते हैं, या वह क्षेत्र जिसके भीतर वे खुशी से, स्वतंत्रता से और कानूनी रूप से रह सकते हैं। जो कोई भी देश के बारे में ऐसी अवधारणा रखता है, वह भूमि जहाँ वे रहते हैं और उनका जीवन क्षेत्र उन्हें एक स्थिर, खुशहाल और स्वतंत्र जीवन दे सकता है, जो उनके जीवन की बुनियादी जरूरत है। यह बुनियादी जरूरत एक दिशा और लक्ष्य भी है जिसकी रक्षा करने की कोशिश लोग करते हैं। जैसे ही इस बुनियादी जरूरत पर कोई चुनौती या परेशानी आती है, या इसमें हस्तक्षेप किया जाता है, तो लोग निश्चित रूप से तत्काल उठ खड़े होंगे और इसकी रक्षा करेंगे। यह बचाव उचित है, और यह मानवता की जरूरतों और अस्तित्व में बने रहने की जरूरतों से भी उत्पन्न होता है। किसी को भी लोगों को यह बताने की जरूरत नहीं है कि “जब तुम्हारे गाँव और आवास को किसी विदेशी दुश्मन के आक्रमण का सामना करना पड़े, तो तुम्हें आगे बढ़कर उनकी रक्षा करनी चाहिए, दृढ़ता से खड़े होकर आक्रमणकारियों से लड़ना चाहिए।” वे खुद ही दृढ़ता से खड़े होकर उनका बचाव करेंगे। यह मानवीय प्रवृत्ति है, और साथ ही मानव अस्तित्व की आवश्यकता भी है। जब एक सामान्य व्यक्ति की बात आती है, तुम्हें अपनी मातृभूमि और अपने निवास स्थान की रक्षा करने को प्रोत्साहित करने के लिए, “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” जैसे विचारों का उपयोग करने की कोई जरूरत नहीं है। यदि कोई सचमुच ऐसे विचार लोगों के मन में डालना चाहता है तो उसका मकसद इतना सरल नहीं है। उनका लक्ष्य यह नहीं है कि लोग अपने निवास स्थान की रक्षा करें, अपने जीवन की बुनियादी जरूरतों को पक्का करें, ताकि लोग बेहतर जीवन जी सकें। उनका एक और लक्ष्य है, जो और कुछ नहीं बल्कि शासकों को सत्ता में बनाए रखना है। लोग अपने निवास स्थान की रक्षा के लिए सहज रूप से कोई भी बलिदान देंगे, और यह पक्का करने के लिए कि जीवित रहने की उनकी बुनियादी जरूरतें पूरी हो रही हैं, सचेत रूप से अपने निवास स्थान और जीवन परिवेश की रक्षा करेंगे, दूसरों को उन्हें यह बताने के लिए किसी आडंबरपूर्ण अभिव्यक्ति का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है कि उन्हें क्या करना है, या दृढ़ता से खड़े होकर अपने घरों की रक्षा कैसे करनी है। यह सहज बुद्धि, यह मूल चेतना जानवरों के पास भी होती है, और मनुष्यों के पास तो होती ही है, जो किसी भी जानवर से उच्च स्तर के सृजित प्राणी हैं। यहाँ तक कि जानवर भी विदेशी दुश्मनों के आक्रमण से अपने आवास और क्षेत्र, अपने घर और अपने समुदाय की रक्षा करेंगे। और अगर जानवरों में ऐसी चेतना है, तो इंसानों में भी जरूर होगी! इसलिए, उन विचारकों द्वारा प्रस्तावित यह विचार कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” मानवजाति के सभी सदस्यों के लिए अनावश्यक है। और जब लोगों के दिलों में गहराई से बसी किसी देश की परिभाषा की बात आती है, तो यह विचार भी मूल रूप से बेमानी है। लेकिन फिर भी उन विचारकों ने इसे क्यों प्रस्तावित किया? क्योंकि वे एक और लक्ष्य पूरा करना चाहते थे। उनका वास्तविक लक्ष्य लोगों को उनके मौजूदा निवास स्थान में बेहतर जीवन जीने में सक्षम बनाना नहीं था, न ही उन्हें जीने के लिए अधिक स्थिर, आनंदमय और खुशहाल वातावरण देना था। उन्होंने न तो लोगों की सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य से, और न ही लोगों के आवासों की रक्षा के परिप्रेक्ष्य से, बल्कि शासकों के परिप्रेक्ष्य और नजरिये से, लोगों के मन में यह विचार डाला कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” और उन्हें इस विचार को धारण करने के लिए प्रेरित किया। यदि तुम ऐसे विचार नहीं रखते, तो तुम्हारी सोच का दायरा निम्नतर माना जाएगा, हर कोई तुम्हारा उपहास उड़ाएगा और हरेक जातीय समूह तुम्हें नीची नजर से देखेगा; यदि तुम ऐसा विचार नहीं रखते, यदि तुम्हारे पास यह महान धार्मिकता और मानसिकता नहीं है, तो तुम्हें निम्नतर नैतिक चरित्र वाला, स्वार्थी और घृणित नीच व्यक्ति माना जाएगा। ये तथाकाथित नीच लोग समाज में तिरस्कृत होते हैं, उनके साथ भेदभाव किया जाता है और समाज उनसे घृणा करता है।

इस संसार में, समाज में, जो किसी गरीब या पिछड़े देश में पैदा हुए हैं, या जो निम्न-दर्जे वाले देश से आते हैं, वे चाहे कहीं भी जाएँ, जैसे ही वे अपनी राष्ट्रीयता बताएँगे, उनका दर्जा तुरंत निर्धारित हो जाएगा और उन्हें दूसरों से कमतर समझा जाएगा, नीची नजरों से देखा जाएगा और और उनके साथ भेदभाव किया जाएगा। यदि तुम्हारी राष्ट्रीयता किसी शक्तिशाली देश की है, तो किसी भी जातीय समूह के बीच तुम्हारा दर्जा बहुत ऊँचा होगा, और तुम्हें दूसरों से श्रेष्ठ माना जाएगा। इसलिए, इस विचार का कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” लोगों के दिलों में एक महत्वपूर्ण स्थान है। किसी देश के बारे में लोगों की एक बहुत ही सीमित और ठोस अवधारणा होती है, लेकिन क्योंकि जिस तरह से पूरी मानवजाति किसी जातीय समूह और किसी अलग देश के व्यक्ति के साथ व्यवहार करती है, और जिस तरीके और मानदंड के आधार पर वह उनका दर्जा निर्धारित करती है, उसका उनके देश के भाग्य से काफी लेना-देना है; हर कोई मन ही मन अलग-अलग स्तरों पर इस विचार से प्रभावित है कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है।” तो लोगों को इस विचार के प्रभाव से कैसे छुटकारा पाना चाहिए? आओ सबसे पहले देखें कि यह विचार लोगों को कैसे प्रभावित करता है। भले ही किसी देश के बारे में लोगों की परिभाषा उस विशिष्ट वातावरण से आगे नहीं बढ़ती है जिसमें वे रहते हैं, और लोग केवल जीने के अपने बुनियादी अधिकार और जीवित रहने की जरूरतों को पूरा करते रहना चाहते हैं ताकि वे बेहतर तरीके से जी सकें; आजकल पूरी मानवजाति लगातार आगे बढ़ रही है और अपना दायरा बढ़ा रही है, और मनुष्य अनजाने में इस विचार को स्वीकार रहे हैं कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है।” कहने का मतलब यह है कि मानवता के परिप्रेक्ष्य से, लोग देश की ऐसी खोखली और भव्य परिभाषाओं को स्वीकारना नहीं चाहते हैं, जैसे कि “एक महान राष्ट्र,” “एक प्रगतिशील राजवंश,” “एक महाशक्ति,” “एक तकनीकी शक्ति,” “एक सैन्य शक्ति” वगैरह। सामान्य मानवता में ऐसी कोई अवधारणा नहीं है, और लोग अपने दैनिक जीवन में इन चीजों के चक्कर में उलझे नहीं रहना चाहते हैं। लेकिन साथ ही, बाकी मानवजाति के साथ घुलने-मिलने पर लोग फिर भी किसी शक्तिशाली देश की राष्ट्रीयता पाने की उम्मीद करते हैं। विशेष रूप से, जब तुम विदेश यात्रा करते हो और अन्य जाति के लोगों के बीच होते हो, तो तुम दृढ़ता से यह महसूस करोगे कि तुम्हारे देश के भाग्य का तुम्हारे अहम हितों पर बहुत असर पड़ता है। यदि तुम्हारा देश शक्तिशाली, समृद्ध और संसार में ऊँचे दर्जे वाला है, तो लोगों के बीच तुम्हारा दर्जा तुम्हारे देश के दर्जे की तरह ऊँचा होगा और तुम्हें बहुत सम्मान दिया जाएगा। यदि तुम किसी गरीब देश, छोटे राष्ट्र या किसी अनजान जातीय समूह से आते हो, तो तुम्हारी राष्ट्रीयता और जातीयता को ध्यान में रखते हुए, तुम्हारा दर्जा निम्नतर होगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कैसे व्यक्ति हो, या तुम्हारी राष्ट्रीयता क्या है, या तुम किस जाति से संबंध रखते हो, यदि तुम केवल एक छोटे से क्षेत्र में रहते हो, तो यह विचार कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” का तुम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। लेकिन जब पूरी मानवजाति से विभिन्न देशों के लोग एक साथ आते हैं, तो यह विचार कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” अधिक लोगों द्वारा स्वीकारा जाता है। यह स्वीकृति निष्क्रिय नहीं है, बल्कि यह तुम्हारी व्यक्तिपरक इच्छाशक्ति की गहरी अनुभूति है कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” की कहावत सही है, क्योंकि तुम्हारे देश का भाग्य लोगों के बीच तुम्हारे दर्जे, तुम्हारी प्रतिष्ठा और अहमियत से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है। जिस बिंदु पर, तुम्हें अब यह महसूस नहीं होगा कि तुम्हारे देश की अवधारणा और परिभाषा केवल वह छोटी सी जगह है जहाँ तुम पैदा हुए और पले-बढ़े हो। इसके बजाय, तुम आशा करते हो कि तुम्हारा देश बड़ा और मजबूत बनेगा। हालाँकि, जब तुम अपने देश लौटते हो, तो तुम्हारे मन में यह एक बार फिर से बहुत विशिष्ट बन जाता है। यह विशेष जगह कोई आकारहीन राष्ट्र नहीं, बल्कि तुम्हारे गाँव का रास्ता, नदी और कुआँ है, और तुम्हारे घर के खेत हैं जहाँ तुम फसलें उगाते हो। इसलिए, जहाँ तक अपने देश लौटने की बात है, यह अधिक विशिष्ट रूप से तुम्हारा अपने गाँव, अपने घर लौटना है। और जब तुम घर लौटते हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश मौजूद है या नहीं, या शासक कौन है, या देश का क्षेत्र कितना बड़ा है, या देश की आर्थिक स्थिति कैसी है, या देश गरीब है या अमीर—इनमें से कुछ भी तुम्हारे लिए मायने नहीं रखता। अगर तुम्हारा घर अभी भी वहीं है, तो जब तुम वापस लौटने के इरादे से अपना बैग कंधे पर उठाओगे, तुम्हारे पास एक दिशा और एक लक्ष्य होगा। अगर तुम्हारे पास अपनी टोपी टाँगने के लिए अभी भी जगह है, और जिस स्थान पर तुम पैदा हुए और पले-बढ़े हो वह स्थान अब तक मौजूद है, तो तुममें अपनेपन और गंतव्य की भावना रहेगी। भले ही वह देश जहाँ तुम्हारी जन्मभूमि स्थित है अब मौजूद नहीं है और शासक बदल गया है, अगर तुम्हारा घर अभी भी वहीं है, तो तुम्हारे पास पहले की तरह वापस लौटने के लिए एक घर होगा। यह लोगों के मन में देश की एक बहुत ही विरोधाभासी और अस्पष्ट अवधारणा है, लेकिन घर की एक बहुत ही ठोस अवधारणा भी है। लोग वास्तव में इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” का विचार सही है या नहीं। लेकिन क्योंकि इस विचार का उनके विशिष्ट सामाजिक दर्जे पर खास प्रभाव पड़ता है, लोग अनजाने में देश, राष्ट्रीयता और जाति की एक मजबूत भावना विकसित कर लेते हैं। जब लोग केवल अपने गाँव के छोटे से क्षेत्र में रहते हैं, तो वे इस विचार से कुछ हद तक दूर रहते हैं और इसका प्रतिरोध करते हैं कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है।” लेकिन जब भी वे अपने गाँव और मातृभूमि को छोड़कर अपने देश के शासन से दूर जाते हैं, तो उनमें अनजाने में इस विचार के प्रति एक खास जागरूकता और स्वीकृति होती है कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है।” उदाहरण के लिए, जब तुम विदेश जाते हो, और अगर कोई तुमसे पूछता है कि तुम किस देश से हो, तो तुम सोचोगे, “अगर मैंने कहा कि मैं सिंगापुर का हूँ, तो लोग मेरे बारे में बहुत अच्छा सोचेंगे; अगर मैंने कहा कि मैं चीनी हूँ, तो लोग मुझे नीची नजरों से देखेंगे।” तो फिर तुम उन्हें सच बताने की हिम्मत नहीं करोगे। लेकिन एक दिन तुम्हारी राष्ट्रीयता उजागर हो जाती है। लोगों को पता चलता है कि तुम चीनी हो, और तब से, वे तुम्हें एक अलग नजरिये से देखने लगते हैं। तुम्हारे साथ भेदभाव किया जाता है, तुम्हें नीची नजरों से देखा जाता है और यहाँ तक कि तुम्हें दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। ऐसे में, तुम अनजाने में सोचते हो : “‘प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है’ की कहावत बिल्कुल सही है! मैं सोचता था कि मैं अपने देश के भाग्य के लिए जिम्मेदार नहीं हूँ, लेकिन अब ऐसा लगता है कि देश का भाग्य हर किसी को प्रभावित करता है। जब देश उन्नति करता है, तो सभी लोग उन्नति करते हैं, लेकिन जब देश का पतन होता है, तो सभी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। क्या हमारा देश गरीब नहीं है? क्या यहाँ तानाशाही नहीं चलती? और क्या यहाँ के शासकों की प्रतिष्ठा खराब नहीं है? यही कारण है कि लोग मुझे नीची नजरों से देखते हैं। जरा देखो, पश्चिमी देशों में रहने वाले लोग कितने संपन्न और खुशहाल हैं। उन्हें कहीं भी जाने और किसी भी चीज में विश्वास रखने की आजादी है। जबकि कम्युनिस्ट शासन के तहत, हमें परमेश्वर में विश्वास करने के कारण सताया जाता है और हम दूर-दूर भागते रहते हैं, घर नहीं लौट पाते। कितना अच्छा होता अगर हम किसी पश्चिमी देश में पैदा हुए होते!” ऐसे में, तुम्हें लगता है कि राष्ट्रीयता बेहद महत्वपूर्ण है, और तुम्हारे देश का भाग्य तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। किसी भी मामले में, जब लोग ऐसे माहौल और संदर्भ में रहते हैं, तो वे अनजाने में इस विचार से प्रभावित होते हैं कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” और अलग-अलग स्तर तक इसके नियंत्रण में होते हैं। ऐसे में, लोगों के व्यवहार और लोगों, मामलों और चीजों के बारे एं उनके विचार, परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण अलग-अलग स्तर तक बदल जाएँगे, और बेशक इससे अलग-अलग तीव्रता के परिणाम और असर सामने आते हैं। इसलिए, लोगों की सोच पर “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” की कहावत के प्रभाव के संबंध में एक निश्चित मात्रा में ठोस सबूत मौजूद है। भले ही मानवता के परिप्रेक्ष्य से देखने पर किसी देश के बारे में लोगों की अवधारणा इतनी स्पष्ट नहीं है, फिर भी कुछ सामाजिक संदर्भों में, देश से संबंधित राष्ट्रीयता का अभी भी लोगों पर प्रभाव पड़ता है। अगर लोग सत्य नहीं समझते हैं और इन समस्याओं को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते हैं, तो वे इस विचार के बंधनों और विनाशकारी प्रभावों से खुद को छुटकारा नहीं दिला पाएँगे, जो चीजों से निपटने के प्रति उनकी मनोदशा और रवैये को भी प्रभावित करेगा। चाहे मानवता के परिप्रेक्ष्य से देखा जाए या सामान्य माहौल बदलने पर लोगों की सोच में बदलाव और सफलता के संदर्भ में, शैतान द्वारा सामने रखे गए इस विचार का कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” लोगों पर एक निश्चित प्रभाव पड़ता है, और मनुष्य की सोच पर इसका एक निश्चित क्षयकारी असर भी पड़ता है। क्योंकि लोग यह नहीं समझते कि किसी देश के भाग्य जैसे मामलों को सही ढंग से कैसे समझाया जाए, और वे इस मामले में शामिल सत्य को नहीं समझते, विभिन्न माहौल में वे अक्सर इस विचार से प्रभावित या भ्रष्ट हो जाते हैं, या यह उनकी मनोदशा को प्रभावित करता है—यह किसी काम का नहीं होता है।

जहाँ तक किसी देश के भाग्य की बात है, क्या लोगों को यह समझना चाहिए कि परमेश्वर इसे कैसे देखता है, और लोगों को इसे सही तरीके से कैसे देखना चाहिए? (हाँ।) लोगों को यह अच्छी तरह से समझना चाहिए कि इस मामले के संबंध में उन्हें क्या दृष्टिकोण अपनाना है, ताकि वे “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” जैसे विचार के क्षयकारी असर और प्रभाव से खुद को छुटकारा दिला सकें। आओ पहले देखें कि क्या किसी देश के भाग्य को कोई एक व्यक्ति, कोई ताकत या कोई जातीय समूह प्रभावित कर सकता है। किसी देश का भाग्य कौन तय करता है? (यह परमेश्वर तय करता है।) सही बात है, इस मूल कारण को समझा जाना चाहिए। किसी देश का भाग्य परमेश्वर की संप्रभुता से निकटता से जुड़ा हुआ है, और इसका किसी और चीज से कोई संबंध नहीं है। कोई भी ताकत, विचार या व्यक्ति किसी देश का भाग्य नहीं बदल सकता है। किसी देश की नियति में कौन-सी चीजें शामिल हैं? देश की उन्नति और उसका पतन। चाहे देश विकसित हो या पिछड़ा हुआ, और इसकी भौगोलिक स्थिति चाहे जो भी हो, इसका क्षेत्रफल कितना है, इसका आकार और इसके सभी संसाधन—जमीन पर, जमीन के अंदर और आकाश में कितने संसाधन मौजूद हैं—देश का शासक कौन है, सत्ता के पदानुक्रम में किस प्रकार के लोग शामिल हैं, शासक के मार्गदर्शक राजनीतिक सिद्धांत और शासन करने का तरीका क्या है, क्या वे परमेश्वर को पहचानते हैं, उसकी आज्ञा का पालन करते हैं, और परमेश्वर के प्रति उनका रवैया क्या है वगैरह—इन सभी बातों का देश के भाग्य पर असर पड़ता है। ये चीजें किसी एक व्यक्ति द्वारा निर्धारित नहीं की जाती हैं, फिर किसी ताकत की बात तो दूर है। कोई एक व्यक्ति या ताकत अंतिम फैसला नहीं लेती है और न ही शैतान लेता है। तो फिर अंतिम फैसला कौन लेता है? केवल परमेश्वर अंतिम फैसला लेता है। मनुष्य इन चीजों को नहीं समझता, और न ही शैतान समझता है, लेकिन वह अवज्ञाकारी है। वह लगातार मनुष्यों पर नियंत्रण रखना और उन पर हावी होना चाहता है, इसलिए वह नैतिक आचरण और सामाजिक रीति-रिवाज जैसी चीजों को बढ़ावा देने के लिए लगातार कुछ उत्तेजक और भ्रामक विचारों और मतों का उपयोग करके लोगों को इन विचारों को स्वीकारने के लिए मजबूर करता है, जिससे शासकों की सेवा के लिए लोगों का शोषण किया जाता है, और शासक सत्ता में बने रहते हैं। लेकिन वास्तव में, चाहे शैतान कुछ भी करे, किसी देश के भाग्य का शैतान से कोई संबंध नहीं है, न ही इस बात से कोई संबंध है कि परंपरागत संस्कृति के इन विचारों को कितने जोशोखरोश से, कितनी गहराई से और कितने व्यापक रूप से प्रसारित किया जाता है। किसी भी अवधि में किसी भी देश की रहन-सहन की स्थितियाँ और अस्तित्व में बने रहने का स्वरूप—चाहे वह अमीर हो या गरीब, पिछड़ा हो या विकसित, साथ ही संसार के कई देशों के बीच उसका दर्जा चाहे जैसा भी हो—इन सबका शासकों के शासन की ताकत, इन विचारकों के विचारों के सार या जिस जोशोखरोश से वे उन्हें प्रसारित करते हैं उनसे उनका कोई लेना-देना नहीं है। किसी देश का भाग्य केवल परमेश्वर की संप्रभुता और उस अवधि से संबंधित है जब परमेश्वर पूरी मानवजाति का प्रबंधन करता है। जिस भी अवधि में परमेश्वर को जो भी कार्य करने की आवश्यकता होती है, जिन चीजों पर शासन करना होता है और जिन चीजों का आयोजन करना होता है, और पूरे समाज को जिस किसी भी दिशा में लेकर जाना होता है, और समाज के किसी भी स्वरूप को सामने लाना होता है—उस अवधि के दौरान, कुछ विशेष नायक प्रकट होंगे, और कुछ महान और विशेष चीजें घटित होंगी। उदाहरण के लिए, युद्ध या कुछ देशों की भूमि पर दूसरे देशों का कब्जा होना, या कुछ विशेष, उभरती हुई टेक्नोलॉजी का उद्भव, या यहाँ तक कि पृथ्वी के सभी महासागरों और महाद्वीपीय प्लेटों की हलचल वगैरह—ये सभी चीजें परमेश्वर की संप्रभुता और उसके हाथों व्यवस्था के अधीन हैं। यह भी संभव है कि एक साधारण व्यक्ति की उपस्थिति पूरी मानवजाति को एक बड़ा कदम आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करेगी। यह भी उतना ही संभव है कि एक बहुत ही सामान्य, महत्वहीन घटना के घटित होने से मानवजाति का बड़े पैमाने पर प्रवासन शुरू हो सकता है, या यह भी हो सकता है कि किसी महत्वहीन घटना के प्रभाव में, पूरी मानवजाति एक बड़े परिवर्तन के दौर से गुजरेगी, या अर्थव्यवस्था, सैन्य मामले, व्यवसाय या चिकित्सा उपचार वगैरह के संदर्भ में अलग-अलग स्तरों पर बदलाव होगा। ये बदलाव पृथ्वी पर किसी भी देश के भाग्य के साथ-साथ किसी भी देश की उन्नति और अवनति को प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि किसी भी देश का भाग्य, उसका उत्थान और पतन, चाहे वह शक्तिशाली देश हो या कमजोर, सभी मानवजाति के बीच परमेश्वर के प्रबंधन और उसकी संप्रभुता से संबंधित हैं। तो फिर, परमेश्वर चीजों को इस प्रकार से क्यों करना चाहता है? हर चीज के मूल में उसके इरादे ही हैं। संक्षेप में, किसी भी देश या राष्ट्र के अस्तित्व, उत्थान और पतन का किसी भी जाति, किसी शक्ति, किसी शासक वर्ग, शासन के किसी तरीके या किसी खास व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। वे केवल सृष्टिकर्ता की संप्रभुता से संबंधित हैं, और वे उस अवधि से भी संबंधित हैं जिसके दौरान सृष्टिकर्ता मानवजाति का प्रबंधन करता है, और यह उस अगले कदम से भी संबंधित हैं जो सृष्टिकर्ता मानवजाति का प्रबंधन और अगुआई करने के लिए उठाएगा। इसलिए, परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह किसी भी देश, राष्ट्र, जाति, समूह या खास व्यक्ति के भाग्य को प्रभावित करता है। इस दृष्टिकोण से, यह कहा जा सकता है कि किसी भी व्यक्ति, जाति, राष्ट्र और देश की नियति वास्तव में एक-दूसरे से जुड़ी और निकटता से बंधी हुई है, और उनके बीच एक अटूट संबंध है। हालाँकि, इन चीजों के बीच का संबंध इस विचार और दृष्टिकोण के कारण नहीं बनता है कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” बल्कि यह सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के कारण बनता है। मूल रूप से ऐसा इसलिए है क्योंकि इन चीजों की नियति एकमात्र सच्चे परमेश्वर, सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन है, और यह कि उनके बीच एक अटूट संबंध है। यही किसी देश के भाग्य का मूल कारण और सार है।

बहुसंख्यक आबादी के परिप्रेक्ष्य से देखें, तो किसी को अपने देश के भाग्य के संबंध में क्या दृष्टिकोण रखना चाहिए? सबसे पहले तो यह देखना चाहिए कि देश बहुसंख्यक आबादी की सुरक्षा करने और उन्हें संतुष्ट रखने के लिए कितना कुछ करता है। यदि अधिकांश आबादी अच्छी तरह से रहती है, उनके पास आजादी और स्वतंत्र रूप से बोलने का अधिकार है, यदि राज्य सरकार द्वारा लागू की गई सभी नीतियाँ बहुत तर्कसंगत हैं और लोग उन्हें निष्पक्ष और उचित मानते हैं, यदि सामान्य लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा की जा सकती है, और यदि लोगों से उनका जीवन जीने का अधिकार नहीं छीना जाता है, तो लोग स्वाभाविक रूप से इस देश पर निर्भर हो जाएँगे, वहाँ रहकर खुशी महसूस करेंगे और तहेदिल से इससे प्यार करेंगे। तब, हर कोई इस देश के भाग्य के प्रति जिम्मेदार होगा, और लोग वास्तव में इस देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करना चाहेंगे, और वे चाहेंगे कि इसका अस्तित्व हमेशा बना रहे क्योंकि इससे उनके जीवन को और उनसे जुड़ी हर चीज को लाभ होता है। यदि यह देश सामान्य लोगों के जीवन की रक्षा नहीं कर सकता है, उन्हें वह मानवाधिकार नहीं देता है जिसके वे हकदार हैं, और उनके पास अभिव्यक्ति की आजादी भी नहीं है, और यदि लोग अपने मन की बात कहते हैं तो उन पर प्रतिबंध लगाए जाते हैं और कार्रवाई की जाती है, और यहाँ तक कि लोगों को अपने मन की बात कहने और उस पर चर्चा करने के लिए भी मना किया जाता है, और यदि, जब लोगों को धमकी, अपमान और उत्पीड़न सहना पड़ता है, तब देश को परवाह नहीं होती है, और यदि किसी भी प्रकार की कोई आजादी नहीं है, और लोगों को उनके बुनियादी मानव अधिकारों और जीवन के अधिकार से वंचित किया जाता है, और यदि परमेश्वर में विश्वास करने और उसका अनुसरण करने वालों को दबाया और सताया जाता है, ताकि वे घर न लौट पाएँ, और यदि सजा की माफी के तौर पर विश्वासियों की जान ली जाती है, तो यह देश राक्षसों का देश है, शैतान का देश है, और यह कोई वास्तविक देश नहीं है। ऐसी स्थिति में, क्या अब भी हर किसी को इसके भाग्य के लिए जिम्मेदार होना चाहिए? यदि लोग पहले से ही अपने दिलों में इस देश से घृणा और नफरत करते हैं, तो भले ही वे सैद्धांतिक रूप से इसकी जिम्मेदारी स्वीकारें, पर वे यह जिम्मेदारी पूरी करने के लिए तैयार नहीं होंगे। यदि कोई शक्तिशाली शत्रु इस देश पर आक्रमण करने आता है, तो अधिकांश लोग देश के आसन्न पतन की आशा भी रखेंगे, ताकि वे सुखी जीवन जी सकें। इसलिए, किसी देश के भाग्य के लिए हर कोई जिम्मेदार है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी सरकार लोगों के साथ कैसा व्यवहार करती है। अहम बात यह है कि क्या इसे जनता का समर्थन प्राप्त है—यह मुख्य रूप से इस पहलू के आधार पर निर्धारित किया जाता है। बुनियादी तौर पर कहा जाए, तो दूसरा पहलू यह है कि किसी भी देश में जो कुछ भी होता है उसके पीछे कई कारण और कारक होते हैं जिनकी वजह से ऐसा होता है, और यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे कोई सामान्य या मामूली व्यक्ति प्रभावित कर सकता है। इसलिए, जब देश के भाग्य की बात आती है, तो किसी एक व्यक्ति या जातीय समूह के पास अंतिम फैसला लेने या हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होता है। क्या यह तथ्य नहीं है? (हाँ।) उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे देश का शासक वर्ग अपने क्षेत्र का विस्तार करके पड़ोसी देश की प्रमुख भूमि, बुनियादी ढाँचे और संसाधनों को जब्त करना चाहता है। यह फैसला लेने के बाद, शासक वर्ग सैन्य बल तैयार करना, धन जुटाना, सभी प्रकार की चीजें जमा करना और भूमि का विस्तार कब शुरू करना है, इस पर चर्चा करना शुरू कर देता है। क्या आम लोगों को यह सब जानने का अधिकार है? तुम्हें जानने का अधिकार भी नहीं है। तुम बस इतना ही जानते हो कि हाल के वर्षों में राज्य कर बढ़ गया है, अलग-अलग बहानों से लगाए गए कर और शुल्क में बढ़ोतरी हुई है, और राष्ट्रीय कर्ज भी बढ़ा है। तुम्हारा एकमात्र दायित्व करों का भुगतान करना है। जहाँ तक सवाल है कि देश का क्या होगा और शासक क्या करेंगे, तो क्या इसका तुमसे कोई लेना-देना है? जब देश युद्ध करने का फैसला लेता है, उस क्षण तक वह किस देश और किन भूमियों पर आक्रमण करेगा, और वह उन पर कैसे आक्रमण करेगा, ये ऐसी बातें हैं जो केवल शासक वर्ग ही जानता है, और यह युद्ध में भेजे जाने वाले सैनिकों को भी नहीं पता होता। उन्हें जानने का अधिकार भी नहीं है। जहाँ शासक इशारा करे वहाँ उन्हें लड़ना ही पड़ता है। वे क्यों लड़ रहे हैं, कब तक लड़ना है, वे जीत सकते हैं या नहीं, और वे कब घर जा सकते हैं, यह सब उन्हें नहीं पता, वे कुछ भी नहीं जानते। कुछ लोगों के बच्चों को युद्ध में भेज दिया जाता है, लेकिन माता-पिता होने के नाते उन्हें इसकी जानकारी तक नहीं होती। इससे भी बुरी बात यह है कि जब उनके बच्चों की मृत्यु होती है तो उन्हें पता भी नहीं चलता। जब तक उनकी अस्थियाँ वापस नहीं लाई जाती हैं, तब तक उन्हें पता ही नहीं चलता कि उनके बच्चे अब नहीं रहे। तो मुझे बताओ, क्या तुम्हारे देश का भाग्य, और तुम्हारा देश जो चीजें करेगा, और वह क्या फैसले लेगा, उसका एक सामान्य व्यक्ति के रूप में तुमसे कोई लेना-देना है? क्या देश तुम्हें यानी एक सामान्य व्यक्ति को इन चीजों के बारे में बताता है? क्या तुम्हारे पास फैसले लेने की प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार है? फैसले लेने की प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार तो दूर की बात है, तुम्हें तो जानने का अधिकार भी नहीं है। तुम्हारे लिए तुम्हारा देश चाहे जो भी मायने रखता हो, यह कैसे विकसित होता है, यह किस दिशा में बढ़ रहा है और यह कैसे शासित होता है, क्या इसका तुमसे कोई संबंध है? इसका तुमसे कोई संबंध नहीं है। ऐसा क्यों? क्योंकि तुम एक साधारण व्यक्ति हो, और यह सब बातें केवल शासकों से संबंधित हैं। अंतिम फैसला शासकों और सत्ताधारी वर्ग और निहित स्वार्थ रखने वाले लोगों का होता है, लेकिन एक सामान्य व्यक्ति के रूप में इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तो, तुममें थोड़ी आत्म-जागरूकता होनी चाहिए। तर्कहीन चीजें मत करो; किसी शासक के लिए अपनी जान देने या खुद को नुकसान पहुँचाने की कोई जरूरत नहीं है। मान लेते हैं कि देश के शासक तानाशाह हैं, और सत्ता राक्षसों के हाथों में है जो अपने उचित कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देते, और जो सारा दिन शराब पीने और व्यभिचार करने में लगे रहते हैं, फिजूलखर्ची करते हैं और लोगों के लिए कुछ नहीं करते। देश कर्ज और अराजकता में डूब जाता है, और शासक भ्रष्ट और नाकारा होते हैं, जिस वजह से कोई विदेशी दुश्मन देश पर आक्रमण कर देता है। तभी शासक आम लोगों के बारे में सोचते हैं, उन्हें पुकारते हुए कहते हैं : “‘प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है।’ यदि देश तबाह हो जाता है, तो कठिनाई का जीवन तुम लोगों का इंतजार कर रहा होगा। फिलहाल देश संकट में है और आक्रमणकारी हमारी सीमाओं में घुस आए हैं। देश की रक्षा करने के लिए, फौरन युद्ध के मैदान में आओ, समय आ गया है जब देश को तुम लोगों की जरूरत है!” तुम इस पर गहराई से विचार करते हुए सोचते हो, “सही बात है, ‘प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है।’ देश को आखिर एक बार मेरी जरूरत है, और क्योंकि मुझ पर यह जिम्मेदारी है, तो मुझे देश की रक्षा के लिए अपना जीवन बलिदान करना चाहिए। हमारा देश दूसरे हाथों में नहीं जा सकता, अगर यह शासक सत्ता में नहीं रहा तो हम तबाह हो जाएँगे!” क्या ऐसा सोचना मूर्खता है? इन तानाशाही शासनों के शासक परमेश्वर को नकारते और उसका विरोध करते हैं, दिन भर खाते-पीते और मौज-मस्ती करते हैं, लापरवाही से व्यवहार करते हैं, आम लोगों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, और जनता को नुकसान पहुँचाते और उनके साथ क्रूरता करते हैं। यदि तुम इन जैसे शासकों की रक्षा करने के लिए बहादुरी और निडरता से तुरंत तैयार होते हो, युद्ध के मैदान में उनके लिए तोप के गोले बनकर उनके लिए अपना जीवन बलिदान कर देते हो, तो तुम निहायत ही मूर्ख हो, और अंध निष्ठा दिखाने की कसम खा रहे हो! मैं क्यों कहता हूँ कि तुम निहायत मूर्ख हो? युद्ध के मैदान में सैनिक वास्तव में किसके लिए लड़ रहे हैं? वे किसके लिए अपना जीवन बलिदान कर रहे हैं? वे किसके लिए तोप के गोले का काम कर रहे हैं? और यदि सभी लोगों में से तुम, एक कमजोर और दुर्बल आम इंसान युद्ध में जाता है, तो यह केवल मूर्खता का प्रदर्शन और व्यर्थ का बलिदान है। यदि युद्ध होता है, तो तुम्हें व्यर्थ बलिदान और प्रतिरोध करने के बजाय, परमेश्वर से अपनी रक्षा करने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए, ताकि तुम किसी सुरक्षित जगह पर जा सको। निरर्थक बलिदान की क्या परिभाषा है? निहायत मूर्खता। देश में स्वाभाविक रूप से ऐसे लोग होंगे जो शासकों की रक्षा करने और उनके लिए अपना जीवन दांव पर लगाने के लिए, “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” की भावना को कायम रखना चाहेंगे। ऐसे लोगों के हितों पर और उनके जीवित रहने पर देश के भाग्य का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है, तो उन्हें ही देश के मामलों को संभालने दो। तुम एक साधारण व्यक्ति हो, तुम्हारे पास देश की रक्षा करने की कोई शक्ति नहीं है, और इन चीजों का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। वास्तव में किस तरह का देश रक्षा करने लायक है? यदि यह स्वतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला देश है, और शासक वास्तव में लोगों के लिए काम करता है और उन्हें सामान्य जीवन की गारंटी दे सकता है, तो ऐसा देश रक्षा और सुरक्षा करने के लायक है। आम लोगों को लगता है कि ऐसे देश की रक्षा करना अपने घर की रक्षा करने के समान है, जो एक अटल जिम्मेदारी है, तो वे देश के लिए काम करने और अपनी जिम्मेदारी निभाने को तैयार होते हैं। लेकिन यदि राक्षस या शैतान इस देश पर शासन करते हैं, और शासक इस हद तक दुष्ट और नाकारा हैं कि इन राक्षस राजाओं का शासन निरुत्साह हो जाता है और उन्हें सत्ता छोड़ देनी चाहिए, तो परमेश्वर किसी शक्तिशाली देश को इस पर आक्रमण करने के लिए खड़ा कर देगा। यह मनुष्यों के लिए स्वर्ग से आया एक संकेत है, जो उन्हें बता रहा है कि इस शासन के शासकों को सत्ता छोड़ देनी चाहिए, और वे ऐसी शक्ति रखने या इस भूमि पर प्रभुत्व रखने या इस देश के लोगों को उनके लिए प्रावधान कराने के लायक नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने देश की आबादी के कल्याण के लिए कुछ भी नहीं किया, और न उनके शासन से आम लोगों को किसी भी तरह का लाभ हुआ या न ही उनके जीवन में कोई खुशी आई है। उन्होंने केवल आम लोगों को परेशान किया, उन्हें नुकसान पहुँचाया, उन पर अत्याचार और उनके साथ दुर्व्यवहार किया है। इसलिए ऐसे शासकों को सत्ता छोड़ देनी चाहिए और अपने पदों से हट जाना चाहिए। यदि इस शासन को किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था द्वारा बदल दिया जाता है और सदाचारी लोग सत्ता में आते हैं, तो यह आम जनता की आशाओं और अपेक्षाओं को पूरा करेगी, और यह स्वर्ग की इच्छा के अनुरूप भी होगा। जो लोग स्वर्ग के तरीकों का पालन करते हैं वे उन्नति करेंगे, जबकि जो लोग स्वर्ग का विरोध करते हैं वे तबाह हो जाएँगे। एक सामान्य नागरिक के रूप में, यदि तुम लगातार इस विचार से गुमराह होते हो कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” और हमेशा शासक वर्ग को अपना आदर्श मानते हो और उसका अनुसरण करते हो, तो तुम यकीनन जल्दी मारे जाओगे और तुम्हारी शासक वर्ग के लिए बलि का बकरा और अंत्येष्टि की वस्तु बनने की संभावना रहेगी। यदि तुम सत्य का अनुसरण करते हो, शैतान द्वारा धोखा खाने से बचते हो और उसके प्रभाव से बचकर अपना जीवन बचा सकते हो, तो तुम एक सकारात्मक देश को उभरते हुए, और संत-महात्माओं और बुद्धिमान शासकों को सत्ता संभालते हुए, और अच्छी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करते हुए देख सकते हो और तुम्हें एक सुखी जीवन जीने का सौभाग्य प्राप्त होगा। क्या यह एक बुद्धिमान व्यक्ति की पसंद नहीं है? देश पर आक्रमण करने वाले हर किसी को शत्रु या शैतान मत समझो—यह गलत है। यदि तुम हमेशा शासकों को सर्वोच्च और अन्य सभी से ऊपर मानते हो, और चाहे वे कितने भी बुरे काम करें, या परमेश्वर का कितना भी विरोध करें और विश्वासियों पर कितना भी अत्याचार करें, फिर भी उन्हें इस भूमि के शाश्वत स्वामी मानते हो, तो यह एक भयंकर गलती है। जरा इस बारे में सोचो, एक बार जब अतीत के उन सामंती शासक राजवंशों को समूल नष्ट कर दिया गया, और मनुष्य विभिन्न प्रकार की अपेक्षाकृत लोकतांत्रिक सामाजिक व्यवस्थाओं में रहने लगे, तो वे कुछ हद तक स्वतंत्र और खुशहाल हो गए, उनका जीवन भौतिक रूप से पहले की तुलना में बेहतर हो गया, और विभिन्न चीजों को देखने के लिए मानवजाति के दर्शन, अंतर्दृष्टि और दृष्टिकोण में पहले की तुलना में काफी प्रगति हुई। यदि सभी लोग अपनी सोच में पिछड़े होते, और लगातार यह विश्वास करते कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” और पुरानी परंपराओं को वापस लाना चाहते, सम्राटों के शासन को बहाल करना चाहते, और एक सामंती व्यवस्था में लौटना चाहते, तो क्या मानवजाति उतनी विकसित होती जितनी विकसित आज के समय में है? क्या उनका परिवेश वैसा ही होता जैसा अभी है? जाहिर है कि ऐसा नहीं होता। इसलिए, जब देश संकट में हो, यदि देश का कानून यह तय करता हो कि तुम्हें अपने नागरिक कर्तव्यों को पूरा करना होगा और सैन्य सेवा करनी होगी, तो तुम्हें कानून के अनुसार सैन्य सेवा करनी चाहिए। यदि तुम्हें अपनी सैन्य सेवा के दौरान युद्ध में जाना पड़े, तो तुम्हें इसी तरह अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए, क्योंकि कानून यही कहता है। तुम कानून नहीं तोड़ सकते, और तुम्हें इसका पालन करना ही होगा। यदि कानून के अनुसार इसकी आवश्यकता नहीं है तो तुम अपने हिसाब से कुछ भी चुन सकते हो। यदि तुम जिस देश में रहते हो वह परमेश्वर को मानता है, उसका अनुसरण करता है, उसकी आराधना करता है और उसे परमेश्वर की आशीष प्राप्त है, तो ऐसे देश की रक्षा की जानी चाहिए। यदि तुम जिस देश में रहते हो वह परमेश्वर का विरोध और उस पर अत्याचार करता है, और ईसाइयों को गिरफ्तार करके सताता है, तो ऐसा देश राक्षसों द्वारा शासित एक शैतानी देश है। पागलपन भरे क्रोध के साथ लगातार परमेश्वर का विरोध करके, इसने पहले ही परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाई है, और परमेश्वर ने उसे शाप दिया है। जब ऐसा देश किसी विदेशी शत्रु के आक्रमण का सामना करता है, और अपनी सीमाओं के अंदर और बाहर परेशानियों से घिरा होता है, तो यह परमेश्वर और मानवजाति के बीच व्यापक रोष, असंतोष और नाराजगी का समय होता है। क्या यह वो समय नहीं है जब परमेश्वर इस देश को नष्ट करने के लिए माहौल तैयार करना चाहता है? इसी समय में परमेश्वर अपना कार्य शुरू करता है। परमेश्वर ने लोगों की प्रार्थनाएँ सुन ली हैं, और समय आ गया है कि वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ हुए अन्याय का निवारण करे। यह अच्छी बात है और अच्छी खबर भी है। जब परमेश्वर राक्षसों और शैतान को नष्ट करने वाला होता है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए अत्यधिक उत्साहित होने और चारों ओर यह समाचार फैलाने का समय भी होता है। इस समय, तुम्हें शासक वर्ग के लिए अपनी जान जोखिम में नहीं डालनी चाहिए। तुम्हें अपनी बुद्धि का उपयोग करके शासक वर्ग द्वारा लगाई गई बाधाओं को दूर करना चाहिए, और फौरन अपनी जान बचाकर भागना चाहिए और खुद की रक्षा करनी चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “यदि मैं भाग जाऊँ तो क्या मैं भगोड़ा बन जाऊँगा? क्या यह स्वार्थी होना नहीं है?” तुम भगोड़े भी नहीं हो सकते, तुम बस अपने घर की रक्षा करो और आक्रमणकारियों द्वारा बमबारी करके उस पर कब्जा करने का इंतजार करो, और फिर देखो कि परिणाम क्या निकलता है। सच तो यह है कि जब राष्ट्रीय महत्व की कोई बड़ी घटना घटती है तो आम लोगों को अपने लिए चुनाव करने का अधिकार नहीं होता। किसी के पास केवल निष्क्रिय रहकर प्रतीक्षा करने, इस घटना पर नजर रखने और इसके अपरिहार्य परिणामों को सहने के अलावा और कोई चारा नहीं होता है। क्या यह एक तथ्य नहीं है? (हाँ।) यह वास्तव में एक तथ्य है। किसी भी स्थिति में, पलायन सबसे बुद्धिमानी भरा कदम है। अपने जीवन की रक्षा और अपने परिवार की सुरक्षा करना तुम्हारी जिम्मेदारी है। यदि हर किसी को अपने देश के भाग्य के लिए जिम्मेदार ठहराया गया, और इसके कारण सभी लोग मारे गए, और देश में केवल भूमि का विस्तार बचा रह गया, तो क्या देश का सार अभी भी मौजूद होगा? तब “देश” महज एक खोखला शब्द होगा, है न? तानाशाहों की नजरों में मानव जीवन उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं, उनके आक्रामक कार्यों और उनके किसी भी फैसले और क्रियाकलापों की तुलना में सबसे कम मूल्यवान चीज है, लेकिन परमेश्वर की नजरों में, मानव जीवन सबसे महत्वपूर्ण चीज है। जो लोग तानाशाहों के लिए तोप के गोले बनने को तैयार हैं और “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” की भावना को कायम रखना चाहते हैं उन्हें शासकों के लिए योगदान और बलिदान देने दो। जो लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हैं उन पर शैतान के देश के लिए बलिदान देने का कोई दायित्व नहीं है। तुम इसे इस तरह भी कह सकते हो—शैतान के कर्तव्यनिष्ठ संतानों और उसका अनुसरण करने वालों को शैतान के शासन और उसकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के लिए बलिदान होने दो। उन्हें तोप के गोले बनने देना ही सही है। किसी ने भी उन्हें इतनी बड़ी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ रखने के लिए मजबूर नहीं किया है। वे बस शासकों का अनुसरण करना पसंद करते हैं और शैतानों के प्रति वफादारी निभाने का इरादा रखते हैं, भले ही इसमें उनकी मृत्यु हो जाए। अंत में, वे शैतान के लिए बलिदान के शिकार और अंतिम संस्कार के आभूषण बन जाते हैं, और वे इसी के लायक हैं।

जब कोई देश दूसरे देश पर आक्रमण करता है, या जब किसी दूसरे देश के साथ किसी असमान लेन-देन के कारण युद्ध की नौबत आती है, तो आखिर में आम लोग यानी इस भूमि में रहने वाले सभी लोग इसके शिकार होते हैं। यह एक तथ्य है कि यदि कोई एक पक्ष समझौता करने में सक्षम हो, अपनी महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं और सत्ता को छोड़ दे और आम लोगों के अस्तित्व के बारे में सोचे, तो कुछ युद्धों को टाला जा सकता है। कई युद्ध वास्तव में शासकों द्वारा अपने शासन से चिपके रहने के कारण होते हैं, वे अपने हाथ में आई सत्ता को छोड़ना या खोना नहीं चाहते, बल्कि हठपूर्वक अपनी मान्यताओं पर कायम रहते हैं, सत्ता से चिपके रहते हैं और अपने हितों के लिए अड़े रहते हैं। एक बार जब युद्ध छिड़ जाता है तो आम जनता या सामान्य लोग ही इसके पीड़ित होते हैं। युद्ध के समय में वे दूर-दूर तक बिखरे रहते हैं और इन सबका विरोध करने में सबसे कम सक्षम होते हैं। क्या ये शासक आम लोगों के बारे में सोचते हैं? सोचो अगर कोई ऐसा शासक हो जो कहता हो, “अगर मैं अपनी मान्यताओं और अपने सिद्धांतों पर कायम रहता हूँ, तो इससे युद्ध छिड़ सकता है, और इसके पीड़ित आम लोग ही होंगे। अगर मैं जीत भी गया, तो यह भूमि हथियारों और गोला-बारूद से नष्ट हो जाएगी, और जिन घरों में लोग रहते हैं वे नष्ट हो जाएँगे, और फिर इस भूमि में रहने वाले लोगों को भविष्य में खुशहाल जीवन नहीं मिलेगा। आम लोगों की रक्षा के लिए, मैं सत्ता छोड़ दूँगा, हथियार त्याग दूँगा और आत्मसमर्पण करके समझौता कर लूँगा,” और फिर इससे युद्ध टल जाता है। क्या ऐसा कोई शासक है? (नहीं।) वास्तव में, आम लोग लड़ना नहीं चाहते, न ही वे राजनीतिक शक्तियों के बीच प्रतिद्वंद्विता या प्रतिस्पर्धा में भाग लेना चाहते हैं। उन सभी को शासक द्वारा निष्क्रिय रूप से युद्ध के मैदान में और बलि का बकरा बनने के लिए भेज दिया जाता है। ये सभी लोग जिन्हें युद्ध के मैदान में भेजा जाता है, चाहे वे मरें या जीवित रहें, आखिर में शासक को सत्ता में बनाए रखने के लिए काम करते हैं। तो क्या सारा फायदा शासक को ही होता है? (हाँ।) युद्ध से आम लोगों को क्या लाभ हो सकता है? आम लोग इससे केवल तबाह हो सकते हैं, और अपने घरों और जिस परिवेश पर वे निर्भर हैं उसके विनाश का सामना कर सकते हैं। कुछ लोग अपने परिवारों को खो देते हैं, और इससे भी अधिक लोग विस्थापित और बेघर हो जाते हैं, जिनके वापस लौटने की कोई संभावना नहीं होती। और फिर भी, शासक बड़े पैमाने पर दावा करता है कि युद्ध लोगों के घरों और उनके अस्तित्व की रक्षा के लिए शुरू किया गया था। क्या इस दावे में दम है? क्या यह कपट और दिखावा नहीं है? अंत में, इसका सारा दुष्परिणाम आम जनता को भुगतना पड़ता है और इसका सबसे बड़ा लाभार्थी शासक होता है। वे लोगों पर शासन करना जारी रख सकते हैं, भूमि पर शासन कर सकते हैं, सत्ता अपने हाथों में रखकर शासक के स्थान पर खड़े होकर आदेश देते रह सकते हैं, जबकि सामान्य लोग बिना किसी भविष्य और बिना किसी आशा के गंभीर संकट में जीते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” का विचार बिल्कुल सही है। अब इस पर गौर करें तो क्या यह सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) इस कहावत में थोड़ी भी सच्चाई नहीं है। चाहे इसे लोगों के मन में इस विचार को बिठाने की शैतान की मंशाओं के परिप्रेक्ष्य से देखा जाए, या मानव विकास के संपूर्ण इतिहास में विभिन्न चरणों में शासकों की योजनाओं, इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं के परिप्रेक्ष्य से, या किसी देश के भाग्य से संबंधित तथ्य के नजरिये से देखा जाए, इन घटनाओं के घटित होने को किसी भी सामान्य इंसान, व्यक्ति या जातीय समूह द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता। अंत में, पीड़ित मासूम आम जनता और सामान्य लोग ही होते हैं, जबकि सबसे ज्यादा फायदा देश के शासक वर्ग, सर्वोच्च स्थान पर बैठे शासकों का होता है। जब देश संकट में होता है, तो वे आम लोगों को तोप के गोले के रूप में इस्तेमाल करने के लिए युद्धभूमि में अग्रिम मोर्चे पर भेज देते हैं। जब देश संकट में नहीं होता है तो आम आदमी का हाथ ही उन्हें खाना खिलाता है। वे आम लोगों का शोषण करते हैं, उनका खून बहाते हैं और उनके सहारे जीवन गुजारते हैं, लोगों को उनका भरण-पोषण करने के लिए मजबूर करते हैं, और आखिर में लोगों के मन में यह विचार पैदा करके उन्हें इसे स्वीकारने के लिए मजबूर करते हैं कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है।” जो इसे स्वीकार नहीं करता उसे देशद्रोही करार दिया जाता है। ये शासक यह संदेश दे रहे हैं : “मेरे शासन का उद्देश्य है कि तुम लोग खुशहाल जीवन जियो। मेरे शासन के बिना, तुम लोग जीवित नहीं रह पाओगे; इसलिए, तुम लोगों को वही करना होगा जो मैं कहता हूँ, आज्ञाकारी नागरिक बनो, और अपने देश के भाग्य के लिए खुद को समर्पित करने और खुद का बलिदान करने के लिए हमेशा तैयार रहो।” देश कौन है? देश का पर्याय कौन है? शासक देश के पर्याय होते हैं। लोगों के मन में यह विचार पैदा करके कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” एक ओर वे लोगों को बिना किसी विकल्प, हिचकिचाहट या आपत्ति के अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, वे लोगों को बता रहे हैं कि देश का भाग्य और उसके शासकों के सत्ता में बने रहने या नहीं बने रहने का सवाल जनता के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, इसलिए उन्हें देश और उसके शासकों, दोनों की रक्षा के लिए बहुत सावधानी बरतनी चाहिए, ताकि उनके सामान्य तौर पर अस्तित्व में बने रहने की गारंटी मिल सके। क्या वास्तव में ऐसा है? (नहीं।) जाहिर है कि ऐसी कोई बात नहीं है। जो शासक परमेश्वर की आज्ञा का पालन नहीं कर सकते, उसकी इच्छा पूरी नहीं कर सकते, या आम लोगों की खातिर काम नहीं कर सकते, उन्हें सबका समर्थन नहीं मिलेगा, और वे अच्छे शासक नहीं होंगे। यदि, आम लोगों की भलाई की खातिर काम करने के बजाय, शासक केवल अपना हित साधते हैं, लोगों पर अत्याचार करते हैं, और परजीवियों की तरह उनका पसीना और खून निचोड़ते हैं, तो ऐसे शासक शैतान और राक्षस हैं, और चाहे वे कितने भी शक्तिशाली क्यों न हों, लोगों का समर्थन पाने के लायक नहीं हैं। यदि देश में ऐसे शासक नहीं होते, तो क्या इसका अस्तित्व होता? क्या लोगों का जीवन बचता? वे सभी एकदम इसी तरह अस्तित्व में रहते, और यहाँ तक कि लोग बेहतर जीवन जी सकते। यदि लोग इस प्रश्न का सार स्पष्ट रूप से देखें कि अपने देश के प्रति उनके दायित्व और जिम्मेदारियाँ क्या होनी चाहिए, तो चाहे वे किसी भी देश में रहते हों, उन्हें उस देश की प्रमुख समस्याओं, और राजनीति से संबंधित समस्याओं और उस देश के भाग्य के बारे में सही विचार रखने चाहिए। जब ये सही विचार सामने आएँगे, तो तुम देश के भाग्य से जुड़े मामलों में सही चुनाव करने में सक्षम होगे। जब किसी देश के भाग्य की बात आती है, तो क्या तुम लोग मूल रूप से उस सत्य को समझते हो जिसे लोगों को समझना चाहिए? (हाँ।)

मैंने नैतिक आचरण की कहावत, “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है” के बारे में काफी संगति कर ली है। जहाँ तक देश की अवधारणा का संबंध है, समाज के लोगों पर “देश” शब्द का प्रभाव क्या है, जब देश के भाग्य की बात आती है तो लोगों की अपने देश और राष्ट्र के प्रति क्या जिम्मेदारियाँ होनी चाहिए, उन्हें क्या विकल्प चुनने चाहिए, और इस मामले में परमेश्वर मानवजाति से क्या स्पेक्षा रखता है, क्या मैंने इन सारी बातों पर स्पष्ट रूप से संगति कर ली है? (हाँ।) तो फिर आज के लिए हमारी संगति यहीं समाप्त होती है।

11 जून, 2022

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