सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (12)

पिछली सभा में मैंने किस बारे में संगति की थी, कोई बता सकता है? (पिछली बार परमेश्वर ने दो पहलुओं के बारे में संगति की थी। एक पहलू यह था कि जब कलीसिया में अलग-अलग अवधियों या अलग-अलग चरणों में कुछ विशेष घटनाएँ घटती हैं—उदाहरण के लिए, कुछ लोग बड़े लाल अजगर द्वारा गिरफ्तार कर लिए जाते हैं, कुछ अगुआओं और कर्मियों को बदल दिया जाता है, कुछ लोग बीमार हो जाते हैं, और कुछ लोगों को जिंदगी और मौत की समस्याओं का सामना करना पड़ता है—ये घटनाएँ कोई संयोग नहीं हैं, इसलिए हमें उनके बारे में सत्य खोजना चाहिए। परमेश्वर ने अभ्यास के कुछ मार्ग भी दिए हैं। इन परिस्थितियों का सामना करते समय, हमें दो चीजों का पालन करना चाहिए : पहला, एक सृजित प्राणी का उचित स्थान ग्रहण करना; दूसरा, एक ईमानदार और समर्पित दिल रखना—बात चाहे न्याय और ताड़ना, परीक्षण और शोधन का सामना करने की हो, या अनुग्रह और आशीष पाने की, हमें इन सभी चीजों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारना चाहिए। इसके अलावा, परमेश्वर की संगति ने परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की एक कहावत का विश्लेषण किया था, जो यह है कि “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए।”) नैतिक आचरण की कहावतों से जुड़ी समस्याएँ, पिछली संगति का मुख्य विषय भी थीं। मैंने परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कुछ आम कहावतों, अपेक्षाओं और परिभाषाओं को उजागर करते हुए, इस विषय पर लंबे समय तक संगति की है। इन विषयों पर संगति करने से, क्या तुम लोगों को नैतिक आचरण की इन कहावतों की कोई नई समझ या नई परिभाषा मिली है? क्या तुम इन कथनों की वास्तविकता समझ गए हो और क्या तुमने इनका सार स्पष्ट रूप से देख लिया है? क्या तुम इन चीजों को अपने दिल की गहराई से निकाल सकते हो, उन्हें त्याग सकते हो, उन्हें सत्य मानना बंद कर सकते हो, उन्हें सकारात्मक चीजों के रूप में देखना और सत्य समझकर उनका अनुसरण और पालन करना बंद कर सकते हो? खास तौर पर दैनिक जीवन में नैतिक आचरण की कहावतों से संबंधित कुछ बातों का सामना करते समय, क्या तुम्हारे भीतर जागरूकता होती है, और क्या तुम विचारपूर्वक इस बात पर चिंतन कर सकते हो कि तुम अभी भी नैतिक आचरण की इन कहावतों से प्रभावित होते हो या नहीं? क्या तुम इन चीजों से लाचार, बाधित, और नियंत्रित हो? क्या तुम मन में अभी भी नैतिक आचरण की कहावतों का उपयोग खुद को बाधित करने और अपनी बातों और व्यवहार के साथ-साथ चीजों के प्रति अपने रवैये को प्रभावित करने के लिए कर सकते हो? अपने विचार बताओ। (परमेश्वर द्वारा संगति में परंपरागत संस्कृति का विश्लेषण करने से पहले, मुझे यह नहीं पता था कि नैतिक आचरण के ये विचार और नजरिये गलत थे, या वो मुझे कितना नुकसान पहुँचा सकते थे, लेकिन अब मैं थोड़ा-बहुत जान गया हूँ।) अच्छी बात है कि तुममें थोड़ी जागरूकता आ गई है। यकीनन, कुछ समय बाद, तुम नैतिक आचरण की इन कहावतों की गलतियों को पहचान पाओगे। व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से, तुम्हें उन्हें त्यागने और उन्हें सकारात्मक चीजें न मानने में भी सक्षम होना चाहिए, लेकिन निष्पक्ष दृष्टिकोण से, तुम्हें अभी भी दैनिक जीवन में नैतिक आचरण की ऐसी कहावतों को सावधानीपूर्वक समझना, खोजकर निकालना, और पहचानना होगा, ताकि तुम उनकी वास्तविकता को स्पष्ट रूप से देखकर उन्हें त्याग सको। व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से जागरूक होने का मतलब यह नहीं है कि तुम अपने दैनिक जीवन में परंपरागत संस्कृति के इन गलत विचारों और नजरियों को त्यागने में सक्षम हो। इन चीजों का सामना करते समय, तुम्हें अचानक महसूस हो सकता है कि ये कहावतें उचित हैं, और शायद तुम उन्हें पूरी तरह से त्याग न पाओ। ऐसे मामलों में, तुम्हें अपने अनुभवों में सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों के अनुसार परंपरागत संस्कृति के इन गलत विचारों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करना चाहिए, और उस मुकाम पर पहुँचना चाहिए जहाँ तुम स्पष्ट रूप से यह देखने में सक्षम हो जाओ कि परंपरागत संस्कृति की उन कहावतों का सार सत्य के विपरीत, अवास्तविक, गुमराह करने वाले और लोगों के लिए हानिकारक है। केवल इसी तरह से इन बेतुके विचारों का विष तुम्हारे दिल से हमेशा के लिए साफ हो सकता है। अब तुम लोगों ने धर्म-सिद्धांत के संदर्भ में परंपरागत संस्कृति की विभिन्न कहावतों की खामियों को पहचान लिया है, और यह अच्छी बात है, लेकिन यह केवल एक शुरुआत है। परंपरागत संस्कृति का विषैला प्रभाव भविष्य में पूरी तरह से खत्म होगा या नहीं, यह लोगों के सत्य का अनुसरण करने के तरीके पर निर्भर करता है।

नैतिक आचरण की कहावत चाहे जो भी हो, यह नैतिक आचरण पर एक प्रकार का वैचारिक दृष्टिकोण है जिसका मानवजाति समर्थन करती है। हमने पहले नैतिक आचरण की विभिन्न कहावतों में से कुछ का सार उजागर किया था, लेकिन जिन पहलुओं पर हमने पहले संगति की थी, उनके अलावा भी यकीनन नैतिक आचरण की कुछ और कहावतें हैं जिन्हें उजागर किया जाना चाहिए, ताकि नैतिक आचरण की उन अनगिनत कहावतों को, जिनका लोग समर्थन करते हैं, गहराई से समझा और पहचाना जा सके। तुम लोगों को यह जरूर करना चाहिए। नैतिक आचरण पर इस कहावत के संबंध में, “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए,” जिस पर हमने पिछली बार संगति की थी, इस वाक्य के अर्थ को देखा जाए तो, यह मुख्य रूप से पुरुषों के लिए है। यह पुरुषों से की गई अपेक्षा है, और यह उन लोगों के लिए एक मानक भी है जिन्हें मानवजाति “मर्दाना, साहसी पुरुष” कहती है। हमने पुरुषों से संबंधित इस मानक को उजागर कर इसका विश्लेषण किया। पुरुषों से इस अपेक्षा के अलावा, यह कहावत भी है, “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए,” जिस पर हमने पहले संगति की थी, और जो महिलाओं के संदर्भ में है। इन दोनों कहावतों से यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि मानवजाति की परंपरागत संस्कृति न केवल महिलाओं से ऐसी अवास्तविक, अमानवीय अपेक्षाएँ करती है जो मानव प्रकृति से मेल नहीं खाती, बल्कि पुरुषों को भी नहीं बख्शती है, उनसे ऐसी माँगें और अपेक्षाएँ रखती है जो अनैतिक, अमानवीय और मानव प्रकृति के विपरीत हैं, जिससे न केवल महिलाएँ बल्कि पुरुष भी अपने मानव अधिकारों से वंचित हो जाते हैं। इस दृष्टिकोण से, निष्पक्ष रहना उचित मालूम पड़ता है, यानी न तो महिलाओं से नरमी बरतना और न ही पुरुषों को बख्शना। जो भी हो, महिलाओं और पुरुषों के प्रति परंपरागत संस्कृति की अपेक्षाओं और मानकों को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि इस दृष्टिकोण में गंभीर समस्याएँ हैं। जहाँ एक ओर, परंपरागत संस्कृति महिलाओं के लिए नैतिक आचरण के मानक सामने रखती है वहीं दूसरी ओर, मर्दाना, साहसी पुरुषों के लिए भी आचरण के मानदंड निर्धारित करती है, इन अपेक्षाओं और मानकों को देखते हुए यह स्पष्ट है कि यहाँ निष्पक्षता नहीं है। क्या ऐसा नहीं कहा जा सकता? (हाँ।) महिलाओं के नैतिक आचरण के लिए ये अपेक्षाएँ और मानक महिलाओं की आजादी को गंभीर रूप से सीमित करते हैं, ये न केवल महिलाओं के विचारों को, बल्कि उनके पैरों को भी जंजीरों में जकड़ देते हैं, उनसे घर पर रहने और अकेला जीवन जीने, कभी घर नहीं छोड़ने और बाहरी दुनिया से कम से कम संपर्क रखने की अपेक्षा की जाती है। महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होने की शिक्षा देने के अलावा, महिलाओं से सार्वजनिक जगहों पर न जाने, दूर की यात्रा न करने, और कोई करियर न बनाने की अपेक्षा करके, वे उनके कार्यक्षेत्र और जीवन के दायरे पर भी सख्त नियम लागू करते हैं, कोई बड़ी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और आदर्श रखना तो दूर की बात है, और यहाँ तक कि वे ऐसा अमानवीय दावा भी करते हैं—महिला का अकुशल होना उसका सद्गुण है। यह सुनकर तुम लोगों को कैसा महसूस होता है? क्या यह दावा वास्तव में सही है कि “महिला का अकुशल होना उसका सद्गुण है।” किसी महिला में कोई कौशल न होना उसका सद्गुण कैसे हो सकता है? इस “सद्गुण” शब्द का अर्थ क्या है? इसका मतलब सद्गुणों की कमी होना है या सद्गुणी होना? अगर बिना कौशल वाली सभी महिलाओं को सद्गुणी माना जाता है, तो क्या कौशल वाली सभी महिलाओं में सद्गुणों की कमी है और उनमें कोई नैतिकता नहीं है? क्या यह कुशल महिलाओं की आलोचना और निंदा है? क्या यह महिलाओं के मानव अधिकारों का गंभीर हनन है? क्या यह महिलाओं की गरिमा का अपमान है? (हाँ।) यह न केवल महिलाओं के अस्तित्व को अनदेखा करता है, बल्कि उनके अस्तित्व की उपेक्षा भी करता है, जो महिलाओं के प्रति अन्याय और अनैतिक है। तो, “महिला का अकुशल होना उसका सद्गुण है,” इस कहावत के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? क्या यह अमानवीय है? (हाँ।) “अमानवीय” शब्द को कैसे समझना चाहिए? क्या इसमें सद्गुण की कमी है? (हाँ।) इसमें जरा भी सद्गुण नहीं है। एक चीनी कहावत का उपयोग करें, तो इसमें आठ जन्मों के सद्गुण का अभाव है। इस प्रकार का दावा यकीनन अमानवीय है! जो लोग इस दावे का ढिंढोरा पीटते हैं कि “महिला का अकुशल होना उसका सद्गुण है,” उनकी कुछ परोक्ष मंशाएँ और इरादे होते हैं : वे नहीं चाहते कि महिलाएँ कुशल हों, और वे नहीं चाहते कि महिलाएँ समाज के काम में हिस्सा लेकर पुरुषों से बराबरी करें। वे केवल यही चाहते हैं कि महिलाएँ पुरुषों की सेवा में साधन बनें और घर पर रहते हुए दब्बू बनकर पुरुषों की सेवाटहल करने के अलावा कुछ और न करें—उन्हें लगता है कि “सद्गुण” का यही अर्थ है। वे महिलाओं को बेकार साबित करना और उनकी अहमियत को ठुकराना चाहते हैं, उन्हें पुरुषों की गुलाम मात्र बनाकर हमेशा के लिए उनसे पुरुषों की सेवा कराते हैं, उन्हें कभी भी पुरुषों के साथ बराबरी के स्तर पर खड़े होकर समान व्यवहार का आनंद लेने नहीं देते। यह दृष्टिकोण सामान्य मनुष्य की सोच से आता है या फिर शैतान की? (शैतान की।) सही कहा, यह शैतान की ही सोच है। महिलाओं में चाहे कोई भी सहज या शारीरिक कमजोरियाँ हों, इनमें से कोई भी समस्या नहीं है और यह पुरुषों के लिए महिलाओं की निंदा करने, महिलाओं की गरिमा का अपमान करने और महिलाओं को उनकी आजादी या मानव अधिकारों से वंचित करने का बहाना या कारण नहीं बनना चाहिए। जिन कमजोरियों और स्वाभाविक नाजुकता को लोग महिलाओं के साथ जोड़ते हैं, परमेश्वर की नजरों में वह कोई समस्या नहीं है। और ऐसा क्यों है? क्योंकि महिलाओं को परमेश्वर ने बनाया है, जिन चीजों को लोग कमजोरियाँ और समस्याएँ मानते हैं वे परमेश्वर की दी हुई हैं। वे परमेश्वर द्वारा बनाई और पूर्व निर्धारित की गई हैं, और वास्तव में खामियाँ या समस्याएँ नहीं हैं। ये चीजें जो मनुष्यों और शैतान की नजरों में कमजोरियाँ और खामियाँ लगती हैं, वास्तव में प्राकृतिक और सकारात्मक चीजें हैं, और वे परमेश्वर के बनाए उन प्राकृतिक नियमों के अनुरूप भी हैं जो उसने मानवजाति का सृजन करते समय बनाए थे। जो चीजें मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, उन्हें खामियाँ, कमजोरियाँ, और सहज कमियों की समस्याएँ बताकर, केवल शैतान ही परमेश्वर के बनाए प्राणियों की इस तरह बदनामी कर सकता है, और तिल का ताड़ बनाता है, और उन चीजों का उपयोग करके लोगों पर लांछन लगाता है, उनका मजाक बनाता है, उनकी बदनामी करता है, और उन्हें समाज से बहिष्कृत करने के साथ-साथ महिलाओं को उनके जीवन जीने के अधिकार से वंचित करता है; साथ ही, उन्हें मानवजाति के बीच अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने के अधिकार और अपने कौशल और विशेष प्रतिभाओं को प्रदर्शित करने के अधिकार से भी वंचित करता है। उदाहरण के लिए, महिलाओं का विवरण देने और उनकी अहमियत कम कर उन्हें बेकार बताने के लिए समाज में अक्सर “छुईमुई” या “नारी सुलभ” जैसे शब्दों का उपयोग किया जाता है। ऐसे और कौन से शब्द हैं? “डरपोक,” “लंबे बाल पर छोटे दिमाग वाली,” “बड़े वक्षों वाली कमअक्ल युवती” वगैरह, ये सभी महिलाओं का अपमान करने वाले शब्द हैं। जैसा कि तुम बता सकते हो, इन शब्दों का उपयोग महिलाओं की अलग खासियतों या महिला से जुड़े उपनामों का उल्लेख करके उनका अपमान करने के लिए किया जाता है। स्पष्ट है कि समाज और मानवजाति महिलाओं को पुरुषों से बिल्कुल अलग दृष्टिकोण से देखते हैं, ऐसा दृष्टिकोण जो असमान भी है। क्या यह अनुचित नहीं है? यह पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता के आधार से बात करना या मामलों को देखना नहीं है, बल्कि यह पुरुष की प्रधानता और पुरुषों और महिलाओं के बीच पूर्ण असमानता के दृष्टिकोण से महिलाओं को नीची नजर से देखना है। इसलिए, समाज में या मनुष्यों के बीच, ऐसे कई शब्द उभरे हैं जो लोगों, घटनाओं और चीजों से जुड़ी विभिन्न समस्याओं का वर्णन करने के लिए महिलाओं की खासियतों और महिलाओं के उपनामों का इस्तेमाल करते हैं। उदाहरण के लिए, “छुईमुई,” “नारी सुलभ,” “डरपोक,” “लंबे बाल पर छोटे दिमाग वाली,” “बड़े वक्षों वाली कमअक्ल युवती,” जैसे शब्द जिनका अभी हमने उल्लेख किया था, इनका इस्तेमाल लोग न केवल महिलाओं को परिभाषित करने और उन्हें निशाना बनाने के लिए करते हैं, बल्कि महिलाओं की खासियतों और महिला से जुड़े शब्दों का इस्तेमाल करके ऐसे लोगों, घटनाओं, और चीजों का मजाक बनाने, नीचा दिखाने, और बेनकाब करने के लिए भी करते हैं जिनसे वे घृणा करते हैं। यह वैसा ही है जैसे किसी को अमानवीय बताते हुए, कोई कहे कि इस व्यक्ति के पास भेड़िये का दिल और कुत्ते के फेफड़े हैं, क्योंकि लोग सोचते हैं कि न तो भेड़िये का दिल और न ही कुत्ते के फेफड़े अच्छी चीजें हैं, इसलिए वे ऐसे व्यक्ति की नीचता का वर्णन करने के लिए इन दोनों चीजों का एक साथ इस्तेमाल करते हैं जिसने अपनी मानवता खो दी है। इसी तरह, चूँकि मनुष्य महिलाओं से घृणा करते हैं और उनके अस्तित्व की उपेक्षा करते हैं, इसलिए वे उन लोगों, घटनाओं और चीजों का वर्णन करने के लिए महिला से जुड़े शब्दों का उपयोग करते हैं जिनसे वे घृणा करते हैं। यह साफ तौर पर महिलाओं का अपमान है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) जो भी हो, जिस तरह से मानवजाति और समाज महिलाओं को देखता और उन्हें परिभाषित करता है वह अनुचित और तथ्यों के विपरीत है। संक्षेप में, महिलाओं के प्रति मानवजाति के रवैये को दो शब्दों में बताया जा सकता है, जो हैं “अपमानजनक” और “दमनकारी”। महिलाओं को अपने पैरों पर खड़े होकर कोई काम करने की अनुमति नहीं है, और न ही कोई सामाजिक दायित्व और जिम्मेदारियाँ निभाने की अनुमति है, समाज में कोई भूमिका निभाना तो दूर की बात है। संक्षेप में, महिलाओं को समाज में किसी भी काम में हिस्सा लेने के लिए घर से बाहर जाने की अनुमति नहीं है—यह महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करना है। महिलाओं को न तो स्वतंत्र रूप से कल्पना करने की अनुमति है, न ही खुलकर बोलने की, स्वतंत्र रूप से काम करना तो दूर की बात है, उन्हें वैसा कुछ भी करने की अनुमति नहीं है जो उन्हें करना चाहिए। क्या यह महिलाओं का उत्पीड़न नहीं है? (हाँ, है।) परंपरागत संस्कृति द्वारा महिलाओं का उत्पीड़न उन पर थोपी गई नैतिक आचरण की अपेक्षाओं से स्पष्ट है। परिवार, समाज और समुदाय द्वारा महिलाओं से की गई विभिन्न अपेक्षाओं को देखते हुए, महिलाओं का उत्पीड़न आधिकारिक तौर पर तब शुरू हुआ जब पहली बार समुदायों का गठन हुआ और लोगों ने पुरुषों और महिलाओं के बीच स्पष्ट विभाजन कर दिया। यह अपने चरम पर कब पहुँचा? परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की विभिन्न कहावतों और अपेक्षाओं के क्रमिक उद्भव के बाद महिलाओं का उत्पीड़न अपने चरम पर पहुँच गया। क्योंकि लिखित नियम और स्पष्ट कहावतें मौजूद हैं, तो समाज में इन लिखित नियमों और स्पष्ट कहावतों ने जनमत को आकार दिया और यह एक प्रकार का दबाव भी बन गया। यह जनमत और दबाव पहले से ही महिलाओं के लिए एक प्रकार की कठोर बंदिश और बेड़ियाँ बन गए हैं, जो केवल अपनी नियति को स्वीकार सकती हैं, क्योंकि मानवजाति के बीच और समाज के विभिन्न कालावधियों में जीते हुए, महिलाओं के पास अन्याय और अपमान सहने, अपना अनादर कराने, और समाज के साथ-साथ पुरुषों का गुलाम बनने के अलावा और कोई चारा नहीं है। आज तक, नैतिक आचरण के विषय पर बने लंबे समय से चले आ रहे और प्राचीन विचार और कहावतें आज भी पुरुषों और बेशक महिलाओं सहित आधुनिक मानव समाज को गहराई से प्रभावित करती हैं। महिलाएँ न चाहते हुए भी और अनजाने में नैतिक आचरण की इन कहावतों और बड़े पैमाने पर समाज की राय का इस्तेमाल खुद को बाँधने के लिए करती हैं, और यकीनन वे इन बंधनों और बंदिशों से मुक्त होने के लिए अवचेतन रूप से संघर्ष भी कर रही हैं। क्योंकि लोग समाज में जनमत की इस मजबूत शक्ति का प्रतिरोध नहीं कर सकते—या अधिक सटीक रूप से कहें, तो मनुष्य परंपरागत संस्कृति की विभिन्न कहावतों के सार को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते हैं, न ही उनकी वास्तविकता पहचान सकते हैं—इसलिए वे इन बंधनों और बंदिशों को तोड़कर बाहर निकलने में असमर्थ हैं, भले ही वे ऐसा करना चाहते हों। व्यक्तिपरक स्तर पर, ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग इन समस्याओं को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते हैं; निष्पक्ष स्तर पर, ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग न तो सत्य समझते हैं, न ही सृष्टिकर्ता द्वारा लोगों को बनाने का असल अर्थ समझते हैं, न ही यह समझ पाते हैं कि उसने पुरुष और महिला प्रकृति क्यों बनाई। इसलिए, पुरुष और महिला दोनों सामाजिक नैतिकता के इस विशाल ढांचे के भीतर रहकर जीवन जीते हैं, और इस विशाल सामाजिक परिवेश के अंदर चाहे वे कितना भी कठिन संघर्ष करें, फिर भी वे परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कहावतों की बेड़ियों से बच नहीं सकते, ऐसी कहावतें जो हरेक व्यक्ति के दिमाग में अदृश्य बेड़ियाँ बन गई हैं।

परंपरागत संस्कृति की वे कहावतें जो महिलाओं का उत्पीड़न करती हैं, न केवल महिलाओं के लिए, बल्कि यकीनन पुरुषों के लिए भी अदृश्य बेड़ियों की तरह हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि मानवजाति के बीच पैदा होने, और इस समाज के समान रूप से महत्वपूर्ण सदस्य होने के नाते, पुरुष के मन में नैतिकता की इन परंपरागत संस्कृतियों को समान रूप से बैठाया जाता है और वे इससे प्रभावित होते हैं। ये बातें हर पुरुष के मन में गहराई से जड़ें जमा चुकी हैं, और सभी पुरुष अनजाने में ही परंपरागत संस्कृति से प्रभावित और जकड़े हुए हैं। उदाहरण के लिए, पुरुष भी “छुईमुई,” “महिला का अकुशल होना उसका सद्गुण है,” “महिलाओं को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए,” और “महिलाओं को पवित्र होना चाहिए” जैसी अभिव्यक्तियों में दृढ़ता से विश्वास करते हैं और वे भी परंपरागत संस्कृति की इन चीजों से उतनी ही गहराई तक सीमित हैं जितनी कि महिलाएँ हैं। एक ओर, महिलाओं का उत्पीड़न करने वाली ये कहावतें पुरुषों का रुतबा बढ़ाने में बहुत फायदेमंद और सहायक हैं, और इससे यह देखा जा सकता है कि समाज में पुरुषों को इस संबंध में जनमत से बहुत मदद मिली है। इसलिए, वे महिलाओं का उत्पीड़न करने वाले इन विचारों और अभिव्यक्तियों को आसानी से स्वीकार लेते हैं। दूसरी ओर, पुरुष भी नैतिकता की परंपरागत संस्कृति की इन बातों से गुमराह और प्रभावित होते हैं, तो यह भी कहा जा सकता है कि महिलाओं के अलावा—पुरुष—परंपरागत संस्कृति के ज्वार का अन्य शिकार हैं। कुछ लोग कहते हैं : “समाज व्यापक रूप से पुरुषों के अधिकारों की श्रेष्ठता का समर्थन करता है, तो पुरुषों के पीड़ितों में शामिल होने की बात क्यों कहना?” इसे इस दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए कि मानवजाति नैतिकता की परंपरागत संस्कृति से प्रलोभित, गलत दिशा दिखाई गई, गुमराह, सुन्न और सीमित है। परंपरागत संस्कृति में नैतिकता के विचारों से महिलाओं को गहरा नुकसान पहुँचाया गया है, और पुरुषों को भी इसी तरह गहराई से गुमराह और पीड़ित किया गया है। “गुमराह” का दूसरा अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि लोगों के पास पुरुषों का आकलन करने और महिलाओं को परिभाषित करने का कोई सही दृष्टिकोण नहीं है। चाहे वे इन चीजों को किसी भी कोण से देखें, यह सब परंपरागत संस्कृति पर आधारित है, न कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य या मानवजाति के लिए परमेश्वर द्वारा बनाए विभिन्न नियमों और व्यवस्थाओं पर, और न ही यह उन सकारात्मक चीजों पर आधारित है जो परमेश्वर ने मानवजाति के सामने उजागर किए हैं। इस दृष्टिकोण से, पुरुष भी उन पीड़ितों में शामिल हैं जिन्हें परंपरागत संस्कृति द्वारा प्रलोभित किया, गलत दिशा दिखाई, गुमराह, सुन्न और सीमित किया गया है। तो सिर्फ इसलिए कि महिलाओं का समाज में कोई दर्जा नहीं है, पुरुषों को उन्हें अत्यंत दयनीय नहीं समझना चाहिए, और सिर्फ इसलिए संतुष्ट नहीं होना चाहिए क्योंकि उनका सामाजिक दर्जा महिलाओं की तुलना में ऊँचा है। इतनी जल्दी खुश मत हो; दरअसल पुरुष भी बहुत दयनीय स्थिति में हैं। यदि तुम उनकी तुलना महिलाओं से करो, तो वे भी उतने ही दयनीय हैं। मैं यह क्यों कहता हूँ कि वे सभी समान रूप से दयनीय हैं? आओ, पुरुषों के लिए समाज और मानवजाति की परिभाषा और मूल्यांकन और उन्हें सौंपी गई कुछ जिम्मेदारियों पर फिर से नजर डालें। पुरुषों से मानवजाति की जिस अपेक्षा के बारे में हमने पिछली बार संगति की थी—“धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए”—इसके मद्देनजर, इस अपेक्षा का अंतिम लक्ष्य पुरुषों को मर्दाना और साहसी पुरुषों के रूप में परिभाषित करना है, जो पुरुषों के लिए एक आदर्श उपाधि है। एक बार जब किसी व्यक्ति को “मर्दाना, साहसी पुरुष” की आदर्श उपाधि से नवाज दिया जाता है, तो वह इस उपाधि पर खरा उतरने के लिए बाध्य होता है, और अगर वह इस पर खरा उतरना चाहता है, तो उसे कई निरर्थक त्याग करने और इस तरह से कई काम करने होंगे जो सामान्य मानवता के खिलाफ हों। उदाहरण के लिए, अगर तुम पुरुष हो और चाहते हो कि समाज तुम्हें एक मर्दाना, साहसी पुरुष के रूप में पहचाने, तो तुममें कोई कमजोरी नहीं होनी चाहिए, तुम किसी भी तरह से डरपोक नहीं हो सकते, तुम्हारे पास दृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए, तुम थके होने की शिकायत नहीं कर सकते, तुम आँसू नहीं बहा सकते या कोई मानवीय कमजोरी नहीं दिखा सकते, यहाँ तक कि तुम दुखी नहीं हो सकते और ढीले भी नहीं पड़ सकते। हर समय तुम्हारी आँखों में चमक, दृढ़ निश्चय और निडरता होनी चाहिए, और “मर्दाना, साहसी पुरुष” की उपाधि के अनुसार खरा उतरने के लिए तुम्हें अपने दुश्मनों पर गुस्सा दिखाने में भी सक्षम होना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि तुम्हें इस जीवन में साहस जुटाना होगा और अपनी रीढ़ सीधी करनी होगी। तुम एक औसत दर्जे का, साधारण, आम या सामान्य व्यक्ति नहीं हो सकते। “मर्दाना, साहसी पुरुष” कहलाने के योग्य होने के लिए तुम्हें नश्वर प्राणी मात्र की सीमा से परे जाना होगा और असाधारण इच्छाशक्ति, असाधारण दृढ़ता, सहनशीलता और अटलता रखने वाला असाधारण मनुष्य बनना होगा। यह पुरुषों के प्रति परंपरागत संस्कृति की अनेक अपेक्षाओं में से एक है। कहने का तात्पर्य यह है कि पुरुष शराब पी सकते हैं, वेश्याओं से संबंध बना सकते हैं और जुआ खेल सकते हैं, बस उन्हें महिलाओं की तुलना में अधिक मजबूत होना चाहिए और उनमें बेहद दृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए। चाहे तुम पर कोई भी मुसीबत आए, तुम्हें झुकना नहीं चाहिए, झिझकना नहीं चाहिए, या “ना” नहीं कहना चाहिए; और घबराहट, भय या कायरता नहीं दिखानी चाहिए। तुम्हें सामान्य मानवता की इन अभिव्यक्तियों को छिपाना और उन पर पर्दा डालना चाहिए, और चाहे जो हो जाए उन्हें किसी भी तरह प्रकट नहीं होने देना चाहिए, न ही किसी को उन्हें देखने देना चाहिए, यहाँ तक कि अपने माता-पिता, अपने सबसे करीबी रिश्तेदारों या उन लोगों को भी नहीं जिन्हें तुम सबसे ज्यादा चाहते हो। ऐसा क्यों? क्योंकि तुम एक मर्दाना और साहसी पुरुष बनना चाहते हो। मर्दाना, साहसी पुरुषों की एक और विशेषता यह है कि कोई भी व्यक्ति, घटना या चीज उनके संकल्प को डिगा नहीं सकती है। जब भी कोई पुरुष कुछ करना चाहता है—जब उसकी कोई आकांक्षाएँ, आदर्श या इच्छाएँ हों, जैसे कि अपने देश की सेवा करना, अपने दोस्तों के प्रति वफादारी दिखाना या उनके लिए गोली खाना, या वह जो भी करियर बनाना चाहता है, या उसकी जो भी महत्वाकांक्षा हो, चाहे वह सही हो या गलत—कोई भी उसे रोक नहीं सकता, और न ही महिलाओं के प्रति उसका प्रेम, न ही उसके रिश्तेदार, परिवार या सामाजिक जिम्मेदारियाँ उसके संकल्प को बदल सकती हैं, और न ही उसे अपनी आकांक्षाओं, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने पर मजबूर कर सकती हैं। जिन लक्ष्यों को वह पाना चाहता है या जिस मार्ग पर वह चलना चाहता है, और उसके संकल्प को कोई भी नहीं बदल सकता। साथ ही, उसे कभी भी खुद को आराम नहीं करने देना चाहिए। जैसे ही वह आराम करेगा, ढीला पड़ने लगेगा, और फिर से अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करना, अपने माता-पिता के लिए एक अच्छा बेटा बनना, अपने बच्चों की देखभाल करना और एक सामान्य व्यक्ति बनना चाहेगा, और अपने आदर्शों, आकांक्षाओं, अपने लिए निर्धारित उन मार्ग और लक्ष्यों को त्याग देगा जिन्हें वह हासिल करना चाहता है, तब वह मर्दाना, साहसी पुरुष नहीं कहलाएगा। और अगर वह मर्दाना, साहसी पुरुष नहीं है, तो वह क्या है? वह एक बड़ा नरमदिल, निकम्मा व्यक्ति बन जाता है, जो ऐसे लक्षण हैं जिनसे पूरा समाज और वह खुद भी घृणा करता है। जब किसी पुरुष को एहसास होता है कि उसके कार्यों और आचरण में समस्याएँ और कमियाँ हैं जो एक मर्दाना, साहसी पुरुष होने के मानक को पूरा नहीं करती हैं, तो वह अंदर-ही-अंदर खुद से घृणा करेगा, और उसे लगेगा कि इस समाज में उसका कोई स्थान नहीं है, उसकी क्षमताओं का कोई उपयोग नहीं है और उसे एक मर्दाना, साहसी पुरुष, यहाँ तक कि एक सामान्य पुरुष तक नहीं कहा जा सकता है। मर्दाना, साहसी पुरुषों की एक और विशेषता यह है कि उन्हें ताकत से झुकाया नहीं जा सकता, जो एक प्रकार की भावना है जो उनका किसी भी प्रकार की शक्ति, हिंसा, धमकी या इस तरह की चीजों के काबू में आना नामुमकिन बना देती है। चाहे उन्हें किसी भी प्रकार की शक्ति, हिंसा, धमकी का सामना करना पड़े या उनकी जान पर भी बन आए, ऐसे पुरुष मौत से नहीं डरते हैं और कई विपत्तियों को पार कर सकते हैं। उन्हें फिरौती के लिए पकड़ना या उनसे समर्पण करने के लिए मजबूर करना बेकार है, वे केवल जीवित रहने के लिए किसी भी ताकत के आगे नहीं झुकेंगे, और न ही कोई समझौता करेंगे। अगर वे किसी जिम्मेदारी, दायित्व या अन्य कारण से ताकत या किसी भी प्रकार के दबाव के आगे झुक गए, तो भले ही वे जीवित रह पाएँ, उन्हें नैतिकता की उस परंपरागत संस्कृति के कारण अपने व्यवहार से घृणा होगी, जिसे वे अपना आदर्श मानते हैं। जापान में बुशिदो की भावना कुछ ऐसी ही है। एक बार जब तुम असफल या शर्मिंदा हो जाते हो, तो तुम्हें अपनी आँतें काटकर आत्महत्या कर लेनी चाहिए। क्या जीवन इतनी आसानी से मिलता है? लोग केवल एक बार जीते हैं। अगर एक छोटी-सी असफलता या झटका भी मृत्यु के विचारों को प्रेरित कर देता है, तो क्या यह परंपरागत संस्कृति के प्रभाव का नतीजा है? (हाँ।) जब कोई समस्या सामने आती है और वे तुरंत फैसला नहीं ले पाते या कोई ऐसा विकल्प नहीं चुन पाते हैं जो परंपरागत संस्कृति की अपेक्षाओं के अनुरूप हो, या वे अपनी गरिमा और चरित्र को साबित नहीं पाते, या यह साबित नहीं कर पाते हैं कि वे एक मर्दाना, साहसी पुरुष हैं, तो वे मृत्यु की खोज में आत्महत्या कर लेते हैं। पुरुष परंपरागत संगति के गंभीर प्रभाव के कारण और इसके द्वारा अपनी सोच को सीमित करने के कारण ही ऐसे विचार और दृष्टिकोण रखते हैं। अगर लोग परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों से प्रभावित नहीं होते, तो इतने सारे पुरुष आत्महत्या नहीं कर रहे होते, अपनी आँतें नहीं काट रहे होते। जहाँ तक एक मर्दाना, साहसी पुरुष की परिभाषा का संबंध है, पुरुष बहुत सकारात्मकता से और आश्वस्त होकर परंपरागत संस्कृति के इन विचारों और नजरियों को स्वीकार करते हैं, और उन्हें सकारात्मक चीजें मानते हैं जिसके द्वारा वे खुद को और अन्य पुरुषों को आँकते और विवश करते हैं। पुरुषों के विचारों और नजरियों, आदर्शों, लक्ष्यों और उनके द्वारा चुने गए रास्तों को देखा जाए, तो इन सबसे यह साबित होता है कि सभी पुरुष परंपरागत संस्कृति से बहुत अधिक प्रभावित हैं और इसका विष उनमें गहराई तक फैल चुका है। वीरतापूर्ण कारनामों की अनेक कहानियाँ और खूबसूरत दंत कथाएँ इस बात की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं कि कैसे परंपरागत संस्कृति लोगों के दिमाग में गहराई तक जड़ें जमा चुकी है। इस दृष्टिकोण से, क्या पुरुषों में भी पारंपरिक संस्कृति का विष उतनी ही गहराई तक समाया है जितना कि महिलाओं में? परंपरागत संस्कृति पुरुषों और महिलाओं पर अपेक्षाओं के अलग-अलग मानक रखती है, महिलाओं का तिरस्कार करती है, उन्हें नीचा दिखाती है, प्रतिबंधित करती है और उन्हें बिना किसी रोक-टोक के नियंत्रित करती है, जबकि पुरुषों को कायर या सामान्य, साधारण व्यक्ति न बनने के लिए प्रबलता से प्रेरित करती, लुभाती, और भड़काती है। पुरुषों से यह अपेक्षा होती है कि वे जो भी करते हैं वह महिलाओं से अलग होना चाहिए, उनसे बढ़कर होना चाहिए, उनसे ऊपर होना चाहिए और उन पर हावी होना चाहिए। उन्हें समाज, मानवजाति, समाज की प्रवृत्तियों और दिशा और समाज में हर चीज पर अपना नियंत्रण रखना चाहिए। पुरुषों को समाज में सबसे शक्तिशाली होना चाहिए, उनके पास समाज और मनुष्यों को नियंत्रित करने की शक्ति होनी चाहिए, और इस शक्ति में महिलाओं पर शासन करना और उन्हें नियंत्रित करना भी शामिल है। पुरुषों को इसी का अनुसरण करना चाहिए, और यही एक मर्दाना, साहसी पुरुष बनने का वीरतापूर्ण तरीका भी है।

आज के दौर में, कई देश लोकतांत्रिक समाज बन गए हैं जिनमें महिलाओं और बच्चों के अधिकारों और हितों की कुछ हद तक गारंटी रहती है, और लोगों पर परंपरागत संस्कृति के इन विचारों और नजरियों का प्रभाव और बाध्यताएँ अब इतनी ज्यादा स्पष्ट नहीं हैं। आखिरकार, कई महिलाएँ समाज में आगे बढ़ चुकी हैं, और कई क्षेत्रों और कई पेशों में उनकी भागीदारी बढ़ रही है। हालाँकि, परंपरागत संस्कृति के विचारों ने लंबे समय से मनुष्यों के मन में गहराई तक जड़ें जमा रखी हैं—न केवल महिलाओं के मन में, बल्कि पुरुषों के मन में भी—इसलिए पुरुष और महिला दोनों विभिन्न चीजों को करने और उनके बारे में सोचते समय अनजाने में परंपरागत संस्कृति के दृष्टिकोण और सहूलियतों को अपनाते हैं। बेशक, वे परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों के मार्गदर्शन में विभिन्न प्रकार के करियर और काम भी चुनते हैं। आज के समाज में, भले ही पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता में कुछ हद तक सुधार हुआ है, परंपरागत संस्कृति में पुरुषों की श्रेष्ठता का विचार अभी भी लोगों के मन पर हावी है, और ज्यादातर देशों में, शिक्षा मूल रूप से परंपरागत संस्कृति के इन बुनियादी विचारों पर आधारित है। इस कारण, भले ही इस समाज में, मनुष्य विभिन्न मसलों पर बात करने के लिए परंपरागत संस्कृति की इन कहावतों का उपयोग शायद ही कभी करते हों, फिर भी वे परंपरागत संस्कृति के वैचारिक ढांचे के भीतर कैद हैं। आधुनिक समाज किसी महिला की प्रशंसा के लिए कैसे शब्दों का उपयोग करता है? “मर्दाना महिला” और “शक्तिशाली महिला” जैसे शब्दों का। संबोधन के ये शब्द सम्मान सूचक हैं या अपमानजनक? कुछ महिलाएँ कहती हैं : “किसी ने मुझे एक मर्दाना महिला कहा, जो मुझे बहुत प्रशंसात्मक बात लगी। कितना अच्छा है ना? मैं पुरुष समाज में घुल-मिल गई हूँ और मेरा दर्जा बढ़ गया है। भले ही मैं एक महिला हूँ, लेकिन ‘मर्दाना’ शब्द जोड़ने से मैं मर्दाना महिला बन जाती हूँ, फिर मैं पुरुषों के बराबर हो सकती हूँ, जो एक तरह का सम्मान है!” मानव समाज में कोई समुदाय या समूह किसी महिला को इस तरह पहचानता और स्वीकार करता है, तो यह बेहद सम्मान की बात है, है न? अगर किसी महिला को मर्दाना महिला कहा जाता है, तो इससे साबित होता है कि यह महिला बहुत सक्षम है, पुरुषों से कमतर नहीं बल्कि उनके सामान है, और उसका करियर, प्रतिभा और यहाँ तक कि उसका सामाजिक दर्जा, उसकी बुद्धि और वह साधन जिससे वह समाज में एक मुकाम हासिल करती है, वे उसकी पुरुषों के साथ तुलना करने के लिए पर्याप्त हैं। मेरे हिसाब से, ज्यादातर महिलाओं के लिए “मर्दाना महिला” की उपाधि समाज की ओर से उनके लिए एक इनाम है, एक प्रकार के सामाजिक दर्जे की मान्यता है जो आधुनिक समाज महिलाओं को देता है। क्या कोई महिला मर्दाना महिला बनना चाहती है? परिस्थितियाँ चाहे जो भी हों और भले ही यह उपाधि अप्रिय हो, लेकिन किसी महिला को मर्दाना कहना यकीनन उसके बहुत सक्षम और काबिल होने की प्रशंसा करना, और पुरुषों की नजरों में उसे शाबाशी देना है। जहाँ तक पुरुषों की उपाधियों का सवाल है, लोग अब भी परंपरागत धारणाओं पर कायम हैं, जो कभी नहीं बदलतीं। उदाहरण के लिए, कुछ पुरुष कैरियर के बारे में ज्यादा नहीं सोचते और सत्ता या रुतबे के पीछे नहीं भागते हैं, बल्कि अपनी वर्तमान स्थिति को स्वीकारते हैं, और अपनी साधारण नौकरी और जीवन से संतुष्ट होते हैं, और अपने परिवार की बहुत देखभाल करते हैं। ऐसे पुरुषों को यह समाज कैसे नाम देता है? क्या ऐसे पुरुषों को निकम्मा कहा जाता है? (हाँ।) कुछ पुरुष अपने कामकाज को लेकर बहुत सावधान और काम को ध्यान से करने वाले होते हैं, चीजों को कदम-दर-कदम और बहुत सावधानी से करते हैं। कुछ लोग उन्हें क्या कहते हैं? “थोड़े महिलाओं जैसे” या “छुईमुई।” दरअसल, पुरुषों का अपमान गंदे शब्दों से नहीं, बल्कि महिलाओं से जुड़े शब्दों से किया जाता है। अगर लोग महिलाओं को ऊपर उठाना चाहते हैं, तो वे किसी महिला का दर्जा बढ़ाने और उसकी क्षमता की पुष्टि करने के लिए “मर्दाना महिला” और “शक्तिशाली महिला” जैसे शब्दों का उपयोग करते हैं, जबकि “छुईमुई” जैसे शब्दों का उपयोग पुरुषों को नीचा दिखाने और उनके मर्दाना न होने पर उन्हें फटकारने के लिए किया जाता है। क्या समाज में बड़े पैमाने पर ऐसा ही नहीं होता है? (हाँ।) आधुनिक समाज में उभरी ये कहावतें इस समस्या को साबित करती हैं कि भले ही ऐसा लगे कि परंपरागत संस्कृति आधुनिक जीवन और लोगों के दिमाग से बहुत दूर जा चुकी है, और भले ही अब लोग इंटरनेट या विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के आदी हो गए हैं, या सभी प्रकार की आधुनिक जीवनशैली को अपनाने के पीछे पागल हैं, और भले ही लोग आधुनिक जीवन परिवेश में बेहद आराम से रहते हों, या उनके पास मानव अधिकार और आजादी हो, यह सब केवल एक मुखौटा भर है; सच तो यह है कि परंपरागत संस्कृति का काफी सारा जहर उनके दिमाग में अब भी घुला हुआ है। भले ही लोगों को थोड़ी भौतिक स्वतंत्रता मिली है, लोगों और चीजों के बारे में उनके कुछ प्रमुख विचार बदल गए हैं, और ऐसा लगता है कि वे कुछ हद तक खुली सोच रख सकते हैं, और संभवतः इस आधुनिक समाज में समाचारों के तेजी से प्रसार और उन्नत सूचना प्रौद्योगिकी की बदौलत उन्होंने नई अंतर्दृष्टि प्राप्त कर ली है, और भले ही वे बाहरी दुनिया को जानते हैं और उसमें बहुत-सी चीजों को देखा है, पर मनुष्य अभी भी नैतिक आचरण के असंख्य कहावतों की छाया में रहते हैं जिनका परंपरागत संस्कृति समर्थन करती है। भले ही कुछ लोग यह कहें, “मैं सबसे अपरंपरागत व्यक्ति हूँ, मैं बहुत आधुनिक हूँ, मैं आधुनिकतावादी हूँ,” और उन्होंने नाक में सोने की नथ और कान में बाली पहनी है, और उनके कपड़े ब्रांडेड और बहुत आधुनिक हैं, फिर भी लोगों और चीजों के बारे में और अपने आचरण और व्यवहार को लेकर उनके विचार परंपरागत संस्कृति से अलग नहीं हो सकते हैं। लोग परंपरागत संस्कृति के बिना क्यों नहीं चल सकते? क्योंकि उनका दिल और दिमाग परंपरागत संस्कृति में रच-बस गया है और उसमें कैद हो गया है। वह सब कुछ जो उनकी आत्मा की अंतरतम गहराइयों में उभरता है, और यहाँ तक कि वे विचार जो पल भर के लिए उनके मन में कौंधते हैं, सभी परंपरागत संस्कृति की शिक्षा और उपदेश से आते हैं और यह सब परंपरागत संस्कृति के इस विशाल ढांचे के भीतर उत्पन्न होता है, न कि उससे प्रभाव से अलग होकर। क्या ये तथ्य साबित करते हैं कि मनुष्य पहले से ही परंपरागत संस्कृति की कैद में है? (हाँ।) मनुष्य पहले से ही परंपरागत संस्कृति में कैद है। चाहे तुम पढ़े-लिखे हो या नहीं, तुमने उच्च शिक्षा प्राप्त की हो या नहीं, जब तक तुम मनुष्यों के बीच रहोगे, मानवजाति की नैतिकता की परंपरागत संस्कृति तुम्हारे दिमाग में चीजें भरती रहेगी और तुम उससे हर हाल में प्रभावित होगे, क्योंकि परंपरागत संस्कृति की चीजें एक प्रकार का अदृश्य दबाव और प्रभाव डालती हैं जो हर जगह मौजूद है, न केवल स्कूलों और लोगों की किताबों में, बल्कि खास तौर से उनके परिवारों में और बेशक समाज के हर कोने में भी। इस तरह, लोग अनजाने में ही इन चीजों से प्रेरित, प्रभावित, गुमराह और गलत रास्ते ले जाए गए होते हैं। इस तरह मनुष्य परंपरागत संस्कृति के बंधनों, बेड़ियों और नियंत्रण में रहते हैं, और चाहकर भी इससे छिप नहीं सकते या बच नहीं सकते। वे इस प्रकार के सामाजिक माहौल में जीते हैं। वर्तमान स्थिति यही है, और यही तथ्य भी हैं।

हमने पिछली बार नैतिक आचरण की जिन कहावतों और उनके सार पर संगति की थी, उसके आधार पर इसे देखा जाए तो, परंपरागत संस्कृति की ऐसी कहावतें मानवजाति के भ्रष्ट स्वभाव और सार को छिपाए हुए हैं, और यकीनन वे इस तथ्य को भी छिपाए हुए हैं कि शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करता है। परंपरागत संस्कृति में पुरुषों और महिलाओं की जिन परिभाषाओं पर हमने आज संगति की है, वे नैतिक आचरण की कहावतों के एक और आवश्यक पहलू को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं। वह कौन-सा सार है? नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें न केवल लोगों की सोच को गुमराह करती, गलत रास्ते ले जाती और सीमित करती हैं, बल्कि यकीनन वे विभिन्न लोगों, मसलों और चीजों के बारे में अन्य लोगों के मन में गलत अवधारणाएँ और विचार भी पैदा करती हैं। यह एक तथ्य है, और नैतिक आचरण की कहावतों का एक और आवश्यक पहलू भी है जिसका शैतान समर्थन करता है। इस दावे को कैसे साबित किया जा सकता है? क्या नैतिक आचरण की कहावतों में पुरुषों और महिलाओं की परिभाषाएँ, जिनके बारे में हमने अभी संगति की है, इस बात को साबित करने के लिए काफी नहीं हैं? (काफी हैं।) वे वाकई इस बात को साबित करने के लिए काफी हैं। नैतिक आचरण की कहावतें केवल सही और गलत व्यवहार, अच्छे और बुरे अभ्यास की बात करती हैं, और वे अच्छाई और बुराई, सही और गलत के बारे में केवल सतही तौर पर बात करती हैं। जब लोगों, मसलों और चीजों की बात आती है, तो वे लोगों को यह नहीं जानने देती हैं कि सकारात्मक और नकारात्मक, अच्छा और बुरा, सही और गलत क्या है। वे लोगों से जिन चीजों का पालन कराती हैं, वे आचरण और व्यवहार के लिए ऐसे सही मानदंड या सिद्धांत नहीं हैं जो मानवता के अनुरूप हों या लोगों के लिए फायदेमंद हों। चाहे नैतिक आचरण की ये कहावतें मानवता के प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करती हों या नहीं, या लोग उनका पालन करने को तैयार हों या नहीं, वे लोगों को सही और गलत, अच्छे और बुरे के बीच अंतर किए बिना सख्ती से इस कुरीति से चिपके रहने के लिए मजबूर करती हैं। अगर तुम उनका पालन नहीं कर पाते हो, तो समाज तुम्हें धिक्कारेगा और तुम्हारी निंदा करेगा, और यहाँ तक कि तुम भी खुद को धिक्कारोगे। क्या यह इस बात का सच्चा प्रतिबिंब है कि परंपरागत संस्कृति मनुष्य की सोच को किस प्रकार सीमित करती है? यह वास्तव में इस बात का सच्चा प्रतिबिंब है कि कैसे परंपरागत संस्कृति मनुष्य की सोच को सीमित करती है। जब परंपरागत संस्कृति नई कहावतों, अपेक्षाओं और नियमों को जन्म देती है, या जनमत को आकार देती है, या समाज में एक प्रवृत्ति या परंपरा स्थापित करती है, तो तुम निस्संदेह इस प्रवृत्ति या परंपरा के साथ चल पड़ोगे, और “ना” कहने या इसे ठुकराने की हिम्मत नहीं करोगे, कोई संदेह और अलग राय सामने रखना तो दूर की बात है। तुम्हें इसके सामने समर्पण करना ही होगा, नहीं तो समाज तुम्हारा तिरस्कार और तुमसे घृणा करेगा, और यहाँ तक कि जनमत तुम्हें धिक्कारेगा और मानवजाति तुम्हारी निंदा करेगी। धिक्कारे और निंदा किए जाने के क्या नतीजे होते हैं? अब तुम लोगों के बीच नहीं रह पाओगे, क्योंकि तुम्हारी कोई गरिमा नहीं होगी, क्योंकि तुम सामाजिक नीतियों का पालन नहीं कर सकते, तुममें कोई नैतिकता नहीं है, और वह नैतिक आचरण भी नहीं है जिसकी परंपरागत संस्कृति अपेक्षा करती है, इसलिए समाज में तुम्हारी कोई हैसियत नहीं होगी। समाज में कोई हैसियत न होने के क्या परिणाम होते हैं? यह कि तुम इस समाज में रहने योग्य नहीं होगे, और तुम्हारे मानव अधिकारों के सभी पहलू छीन लिए जाएँगे, यहाँ तक कि तुम्हारे जीने के अधिकार, बोलने के अधिकार, और अपने दायित्वों को पूरा करने के अधिकार पर भी अंकुश और प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। परंपरागत संस्कृति मानवजाति पर इसी प्रकार प्रभाव डालती और उसे धमकाती है। हर कोई इसका शिकार है, और बेशक हर कोई इसे लागू करने वाला भी है। तुम ऐसे जनमत के शिकार हो जाते हो, तुम स्वाभाविक रूप से समाज के सभी विभिन्न लोगों के शिकार बन जाते हो, और साथ ही तुम परंपरागत संस्कृति पर अपनी स्वीकृति के भी शिकार हो जाते हो। अंतिम विश्लेषण में, तुम परंपरागत संस्कृति की इन चीजों का शिकार बन जाते हो। क्या परंपरागत संस्कृति की इन चीजों का मानवजाति पर बड़ा प्रभाव पड़ता है? (हाँ।) उदाहरण के लिए, यदि किसी महिला के बारे में यह अफवाह फैलती है कि वह सच्चरित्र, दयालु, विनम्र, और नैतिक नहीं है, और वह एक अच्छी महिला नहीं है, तो बाद में जब भी वह कोई नया काम शुरू करने या किसी समूह से जुड़ने जाएगी, और जैसे ही लोगों को उससे जुड़ी कहानियों के बारे में पता लगेगा और वे अफवाह फैलाने वालों की बात सुनकर उसकी निंदा करेंगे, तो वह किसी की नजर में अच्छी महिला नहीं मानी जाएगी। एक बार यह स्थिति उत्पन्न हो गई, तो उसके लिए समाज में अपना रास्ता बनाना या जीना कठिन हो जाएगा। कुछ लोगों के पास अपनी पहचान छुपाने और किसी दूसरे शहर या परिवेश में जाकर बस जाने के सिवाय कोई चारा नहीं होता। क्या जनमत शक्तिशाली है? (हाँ।) यह अदृश्य शक्ति किसी को भी बर्बाद और तहस-नहस कर सकती है और उसे पैरों तले रौंद सकती है। उदाहरण के लिए, यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करती हो, तो जाहिर है कि चीन के सामाजिक माहौल में तुम्हारा जीवित रहना कठिन है। जीवित रहना इतना कठिन क्यों है? क्योंकि एक बार जब तुम परमेश्वर में विश्वास कर लेती हो, अपना कर्तव्य निभाती हो और उसके लिए खुद को खपाती हो, तो कभी-कभी तुम अपने परिवार की देखभाल को प्राथमिकता नहीं दे पाओगी, और वे अविश्वाशी राक्षस तुम्हारे बारे में अफवाहें फैलाएँगे कि “तुम सामान्य जीवन नहीं जी रही,” “अपने परिवार को अकेला छोड़ दिया है,” “किसी के साथ भाग गई हो,” वगैरह। भले ही ये दावे तथ्यों के अनुरूप नहीं हैं, बल्कि सिर्फ अटकलें और झूठी अफवाहें हैं, लेकिन इन आरोपों का निशाना बनते ही तुम बहुत कठिन परिस्थिति में फँस जाओगी। जब भी तुम बाहर खरीदारी करने जाओगी, तो लोग तुम्हें देखकर मुँह बनाएँगे, और तुम्हारे पीठ-पीछे बड़बड़ाते हुए ऐसी टिप्पणी करेंगे, “यह धार्मिक व्यक्ति है, इसमें महिला के सद्गुण नहीं हैं, यह घृणित जीवन जीती है, और सारा दिन इधर-उधर भागती रहती है। यह महिला उनमें से है जो सामान्य जीवन जीने का प्रयास नहीं करती। वह इधर-उधर भाग-दौड़ क्यों कर रही है? महिलाओं को तीन आज्ञाकारिताओं और चार सद्गुणों वाली कन्फ्यूशियन संहिता का पालन करना चाहिए, और अपने पतियों की सेवा-टहल करते हुए अपने बच्चों को बड़ा करना चाहिए।” यह सुनकर तुम्हें कैसा महसूस होगा? क्या तुम्हें बहुत गुस्सा आएगा? तुम्हारा परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने से उन्हें क्या लेना-देना? इससे उनका कोई लेना-देना नहीं है, फिर भी वे इस बात को रात के खाने के बाद की गपशप का विषय बना देते हैं, और इस पर टिपण्णी करते हुए ऐसे बात करते हैं मानो यह कोई जरूरी मसला हो। क्या समाज में ऐसा ही नहीं होता? क्या हर जगह ऐसा होता नहीं दिखता? मान लो, तुम्हारी कोई सहकर्मी है जिसके साथ पहले तुम्हारी अच्छी बनती थी, लेकिन जब उसे पता चला कि तुम परमेश्वर में विश्वास करती हो, तो वह तुम्हारे पीठ-पीछे हर तरह की अफवाहें फैलाने लगी, जिससे अब कई लोग तुमसे दूर रहने लगे हैं और अब तुम्हारे साथ उनके अच्छे संबंध नहीं हैं। भले ही अपने काम के प्रति तुम्हारा रवैया पहले जैसा ही है, मगर जैसे ही लोग इस अफवाह को सुनेंगे, क्या तब भी तुम्हारे लिए इस काम में आगे बढ़ते रहना आसान होगा? (नहीं, यह आसान नहीं होगा।) क्या तुम्हारे प्रति लोगों का रवैया पहले से अलग होगा? (हाँ।) वे सभी किस बारे में बात करेंगे? “यह महिला सामान्य जीवन जीने का प्रयास नहीं करती है। धर्म में विश्वास करने से उसे क्या मिलेगा?” और “पुरुष धर्म में विश्वास क्यों करते हैं? केवल हारे हुए लोग ही धर्म में विश्वास करते हैं! यह काम महिलाओं का है, जबकि मर्दाना, साहसी पुरुषों को अपने करियर पर ध्यान देना चाहिए!” क्या किसी ने ये बातें कही हैं? (हाँ।) ये शब्द कहाँ से आते हैं? तुम्हारे परमेश्वर में विश्वास करने से उन्हें क्या लेना-देना? लोग जिसमें चाहे उसमें विश्वास करने के लिए स्वतंत्र हैं, और दूसरों को दखल देने का कोई अधिकार नहीं है। तो वे तुम्हारे बारे में क्यों बात करते हैं? जैसे ही तुम परमेश्वर में विश्वास करने लगते हो, वे तुम्हारी अंधाधुंध आलोचना क्यों करते हैं? कुछ हद तक, उनकी टिप्पणियों का संदर्भ यकीनन परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों और आस्था के प्रति राष्ट्रीय सरकार के रवैये पर आधारित होता है। भले ही, सतही तौर पर वे तुम्हारे बारे में बात करते हैं, पर वास्तव में वे अंधाधुंध तुम्हारी आलोचना करते हैं, तुम्हारे बारे में झूठी कहानियाँ सुनाते हैं, और मनमाने ढंग से तुम्हारी निंदा करते हैं। बात चाहे जो हो, लोगों की टिप्पणियों और आलोचनाओं का आधार, और साथ ही तुम्हारी आस्था के प्रति उनके विचार और दृष्टिकोण, परंपरागत संस्कृति और नास्तिक विचारधारा से काफी हद तक प्रभावित होते हैं। महिला कैसे बनना है और पुरुष कैसे बनना है यह सिखाने के अलावा, परंपरागत संस्कृति के अन्य मूलभूत विचार क्या हैं? यह कि कोई स्वर्ग या परमेश्वर नहीं है। दूसरे शब्दों में, ये नास्तिक विचार और दृष्टिकोण हैं। इसलिए, वे आस्था रखने वालों को अस्वीकार करते हैं, खास तौर से उन्हें जो एकमात्र सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। अगर तुम अंधविश्वासी चीजों में शामिल हो, किसी कुपंथ से संबंधित हो, या किन्हीं धार्मिक गतिविधियों में शामिल होते हो, तो वे तुम्हें नजरंदाज कर सकते हैं। अगर तुम अंधविश्वासी हो, तो वे अभी भी तुम्हारे साथ जुड़े रह सकते हैं, लेकिन जैसे ही तुम परमेश्वर में विश्वास करने लगोगे, हर दिन उसके वचन पढ़ने, सुसमाचार फैलाने, अपना कर्तव्य निभाने, और परमेश्वर का अनुसरण करने लगोगे, तो वे तुम्हारे विरोधी बन जाएँगे। तुम्हारे प्रति उनके विरोध का स्रोत क्या है? सटीक रूप से कहें, तो एक पहलू यह है कि वे अविश्वासी हैं और सभी शैतान का अनुसरण करते हैं और शैतान के हैं; दूसरा पहलू यह है कि वे चीजों को परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों और बड़े लाल अजगर की नीतियों और कानूनों के अनुसार देखते हैं—ये निष्पक्ष तथ्य हैं। जब भी वे ऐसे लोगों, घटनाओं और चीजों को देखते हैं जो परंपरागत संस्कृति के विचारों के अनुरूप नहीं हैं, और जब वे देखते हैं कि विश्वासी राज्य के दमन का निशाना हैं और उन्हें घेरा जा रहा है, तो वे उनसे घृणा करते हैं, अंधाधुंध उन पर उँगली उठाते हैं, उनकी आलोचना और निंदा करते हैं, और परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों पर निगरानी रखने और उनकी रिपोर्ट करने में सरकार का सहयोग करते हैं। उनके ऐसा करने का आधार क्या है? यह मुख्य रूप से परंपरागत संस्कृति, नास्तिक विचारधारा और बड़े लाल अजगर की बुरी नीतियों पर आधारित है। उदाहरण के लिए, वे परमेश्वर में विश्वास करने वालों की आलोचना करते हुए कहते हैं : “यह एक ऐसी महिला है जो सामान्य जीवन जीने का प्रयास नहीं करती। वह इधर-उधर भाग-दौड़ क्यों कर रही है?” और “यह एक ऐसा पुरुष है जो सही करियर बनाने पर ध्यान नहीं देता। वह धर्म में विश्वास करके क्या करना चाहता है? योग्य पुरुषों की दूरगामी महत्वाकांक्षाएँ होती हैं। मर्दाना, साहसी पुरुषों को अपने करियर पर ध्यान देना चाहिए!” इसके बारे में सोचो, क्या ये सभी घिसे-पिटे कथन साफ तौर पर परंपरागत संस्कृति से नहीं लिए गए हैं? (हाँ।) वे सभी परंपरागत संस्कृति से ही लिए गए हैं। ये साधारण और सांसारिक लोग किसी विश्वास का अनुसरण नहीं करते हैं, बल्कि सिर्फ खाने, पीने, और शारीरिक सुखों के पीछे भागते हैं। उनके मन न केवल बुरी प्रवृत्तियों से भरे हुए हैं, बल्कि वे परंपरागत संस्कृति की इन चीजों से भी गहराई से बंधे हुए और सीमित हैं, जिनके प्रभाव में वे अनजाने में जीते हैं, इसलिए किसी भी व्यक्ति या चीज से निपटते हुए इन दृष्टिकोणों को अपनाना उनके लिए स्वाभाविक है। यह कुछ ऐसा है जो आधुनिक समाज के किसी भी कोने में हो सकता है, और यह एकदम सामान्य है। शैतान द्वारा नियंत्रित दुनिया में, और बुराई और व्यभिचार के युग में चीजें ऐसी ही हैं।

नैतिक आचरण की कहावतें न केवल लोगों में गलत अवधारणाएँ और विचार पैदा करती हैं, बल्कि उन्हें कुछ अतिवादी विचारों को अपनाने और उनका पालन करने के साथ-साथ विशेष संदर्भों और परिस्थितियों में कुछ अतिवादी व्यवहार अपनाने के लिए प्रोत्साहित करती और उकसाती भी हैं। उदाहरण के लिए, जैसा कि पहले बताया गया है, “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” ऐसी अपेक्षा है जो शैतान दोस्तों से व्यवहार करने के मामले में लोगों के नैतिक आचरण को नियंत्रित करने के लिए सामने रखता है। जाहिर है, नैतिक आचरण के इस पहलू की कहावतों का उद्देश्य लोगों को अपने दोस्तों के साथ व्यवहार करते समय तर्कहीन और अनुचित विचार और दृष्टिकोण रखने के लिए बाध्य करना, और यहाँ तक कि उन्हें अपने दोस्तों के लिए लापरवाही से अपना जीवन दाँव पर लगाने के लिए प्रेरित करना भी है। नैतिक आचरण के संबंध में शैतान मनुष्य से ऐसे चरम और अतिवादी अपेक्षाएँ रखता है। सच तो यह है कि नैतिक आचरण की कुछ अन्य कहावतें भी हैं जो “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” के समान हैं और वे इसी तरह लोगों से चरम व्यवहार अपनाने की अपेक्षा रखती हैं। ये सब अमानवीय और तर्कहीन कहावतें हैं। लोगों के मन में परंपरागत संस्कृति के विचार और दृष्टिकोण भरने के साथ-साथ, शैतान लोगों से इन तर्कहीन विचारों और अमानवीय कहावतों का पालन करने की भी अपेक्षा करता है, और उन्हें इन विचारों और प्रथाओं का कठोरता से पालन करने को मजबूर भी करता है। ऐसा कहा जा सकता है कि यह मानवजाति के साथ खिलवाड़ करने और उसे बर्बाद करने के समान है! ये कौन-सी कहावतें हैं? उदाहरण के लिए, दो कहावतें “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” और “वसंत के रेशम के कीड़े मरते दम तक बुनते रहेंगे, और मोमबत्तियाँ बाती खत्म होने तक जलती रहेंगी” लोगों को—“मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा”—से भी ज्यादा स्पष्ट तरीके से बताती हैं कि जीवन को संजोना नहीं है और उसे इसी तरह से बर्बाद करना है। जब लोगों से अपेक्षित है कि वे अपने जीवन का त्याग करें, तो इसे इतना अधिक संजोना नहीं चाहिए, बल्कि इन कहावतों का पालन करना चाहिए, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” और “वसंत के रेशम के कीड़े मरते दम तक बुनते रहेंगे, और मोमबत्तियाँ बाती खत्म होने तक जलती रहेंगी।” तुम सभी कमोबेश नैतिक आचरण की इन दो कहावतों का शाब्दिक अर्थ समझते हो, लेकिन वे वास्तव में क्या घोषणा कर रहे हैं और किस तरह भड़का रहे हैं? तुम्हें किसके लिए “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो”? किसके लिए “वसंत के रेशम के कीड़े मरते दम तक बुनते रहेंगे, और मोमबत्तियाँ बाती खत्म होने तक जलती रहेंगी”? लोगों को खुद से सवाल और आत्मचिंतन करना चाहिए : क्या ये कहावतें जो सुझाव देती हैं वैसा करना सार्थक है? ऐसी कहावतें पहले तुम्हारे दिमाग को गुमराह और सुन्न कर देती हैं, तुम्हारे दर्शन में बाधा डालती हैं, फिर तुम्हें गलत दिशा दिखाकर, गलत परिभाषाएँ और गलत दृष्टिकोण देकर तुमसे तुम्हारे मानव अधिकार छीन लेती हैं, और फिर इस देश, समाज और राष्ट्र के लिए या करियर और प्रेम के लिए तुम्हें अपनी जवानी और जीवन त्यागने पर मजबूर करती हैं। इस तरह, मनुष्य अनजाने में ही उलझन भरी, भ्रमित अवस्था में शैतान को अपना जीवन सौंप देते हैं, और यहाँ तक कि वे ऐसा अपनी इच्छा से और बिना किसी शिकायत या पछतावे के करते हैं। फिर जिस पल वे अपना जीवन त्यागते हैं, तब जाकर उन्हें सब कुछ समझ में आने लगता है, और वे ठगा हुआ महसूस करते हैं कि वे निरर्थक कारणों से ऐसा कर रहे हैं, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, और पछतावे के लिए कोई समय नहीं बचता। इस प्रकार, वे अपना जीवन गुमराह होने, मूर्ख बनाए जाने, नष्ट किए जाने, बरबाद होने और शैतान के पैरों तले रौंदे जाने में बिताते हैं, और अंत में, उनके पास जो सबसे कीमती चीज होता है—जीवन—वह भी उनसे छीन लिया जाता है। परंपरागत संस्कृति में मनुष्यों को नैतिक आचरण की कहावतों से शिक्षित किए जाने का यही परिणाम होता है, और यह पूरी तरह से साबित करता है कि शैतान की सत्ता में रहने वाले और उससे गुमराह किए और मूर्ख बनाए जाने वाले लोगों के लिए कैसा दुर्भाग्य इंतजार कर रहा है। मानवजाति के साथ व्यवहार करने में शैतान जिन विभिन्न युक्तियों का उपयोग करता है, उनका वर्णन किन शब्दों से किया जा सकता है? सबसे पहले, “सुन्न” “गुमराह” जैसे शब्द आते हैं, इनके बाद और क्या है? कुछ बताओ। (मूर्ख बनाना, बर्बाद करना, रौंदना, तबाह करना।) इनके अलावा “उकसाना”, “लुभाना”, “किसी का जीवन माँगना” और अंत में, “लोगों के साथ खिलवाड़ करना और उन्हें निगल जाना” भी शामिल है। यह शैतान द्वारा लोगों को भ्रष्ट करने का परिणाम है। लोग शैतान की सत्ता के अधीन और शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हैं। अगर परमेश्वर ने सत्य व्यक्त नहीं किया होता और लोगों को बचाने के लिए न्याय और ताड़ना का कार्य नहीं किया होता, तो क्या संपूर्ण मानवजाति को शैतान तबाह कर, निगलकर, नष्ट नहीं कर देता?

परंपरागत संस्कृति में मानवजाति किन बातों का ढिंढोरा पीटती है? “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” का क्या अर्थ है? इस कहावत की मुख्य अपेक्षा यह है कि जब भी लोग कुछ करें, उन्हें ईमानदार और मेहनती होना चाहिए, अपना सब कुछ झोंक देना चाहिए और मरते दम तक भरसक कोशिश करनी चाहिए। ऐसा करके वास्तव में लोग किसकी सेवा कर रहे हैं? जाहिर है कि वे अपने समाज, अपनी जन्मभूमि और राष्ट्र की सेवा कर रहे हैं। तो इस समाज, इस जन्मभूमि और इस राष्ट्र पर किसका नियंत्रण है? यकीनन शैतान और दुष्ट राजाओं का है। तो शैतान और दुष्ट राजा परंपरागत संस्कृति के जरिये लोगों को गुमराह करके क्या हासिल करना चाहते हैं? एक तो वे देश को शक्तिशाली और राष्ट्र को समृद्ध बनाना चाहते हैं, और दूसरा वे लोगों से अपने पूर्वजों को मान-सम्मान दिलाना और पीढ़ियों तक याद रखवाना चाहते हैं। इस तरह लोगों को लगेगा कि इन सभी चीजों को करने से बड़ा कोई सम्मान नहीं है, वे दुष्ट राजाओं के एहसानमंद होकर राष्ट्र, समाज और मातृभूमि के लिए अपना जीवन न्योछावर करने को तैयार रहेंगे। वास्तव में ऐसा करके वे केवल शैतान और दुष्ट राजाओं की सेवा कर रहे हैं, शैतान और दुष्ट राजाओं के प्रभावशाली पदों की सेवा में लगे हैं, और उनकी खातिर अपना बहुमूल्य जीवन त्याग रहे हैं। अगर परंपरागत संस्कृति की कहावतें लोगों को एक सृजित प्राणी के रूप में अपने पूरे दिल, दिमाग और ताकत से अपना कर्तव्य पूरा करने और एक मनुष्य के समान जीने के लिए कहने के बजाय राष्ट्र की खातिर, दुष्ट राजाओं की खातिर या किसी अन्य उद्देश्य के लिए लोगों को मरने के लिए कहती हैं तो वे उन्हें गुमराह कर रही हैं। ऊपरी तौर पर वे आडंबरपूर्ण और सुखद शब्दों में लोगों को देश और राष्ट्र के लिए अपना योगदान देने के लिए कहती हैं, लेकिन सच तो यह है कि वे शैतान और दुष्ट राजाओं के प्रभावशाली पदों की सेवा करने के लिए लोगों को जीवन भर कोशिश करते रहने, और यहाँ तक कि अपने जीवन का बलिदान करने के लिए मजबूर करती हैं। क्या यह लोगों को गुमराह करना, मूर्ख बनाना और नुकसान पहुँचाना नहीं है? परंपरागत संस्कृति द्वारा विकसित विभिन्न कहावतें लोगों से यह अपेक्षा नहीं रखतीं कि उन्हें वास्तविक जीवन में सामान्य मानवता कैसे जीनी चाहिए, न ही यह अपेक्षा रखती हैं कि वे अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को कैसे पूरा करें, बल्कि वे लोगों से यह अपेक्षा रखती हैं कि उन्हें व्यापक समाज में यानी शैतान की सत्ता में किस तरह का नैतिक आचरण करना चाहिए। इसी तरह नैतिक आचरण की कहावत, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” भी मनुष्य को समाज, राष्ट्र और विशेष रूप से अपनी जन्मभूमि के प्रति वफादार रहने के लिए मजबूर करने का सिद्धांत है। इस प्रकार का सिद्धांत लोगों से राष्ट्र, जन्मभूमि और समाज की सेवा करने के लिए मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करने की अपेक्षा रखता है। जो मेहनती होते हैं और मरते दम तक अपना सब कुछ झोंक देते हैं, सिर्फ वही लोग महान, गुणी और आने वाली पीढ़ियों के लिए पूजनीय और स्मरणीय माने जाते हैं। इस कहावत के पहले भाग, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” का अर्थ है मेहनती बनना और अपना सब कुछ झोंक देना। क्या इस वाक्यांश में कोई समस्या है? अगर हम इसे मानवीय प्रवृत्ति के परिप्रेक्ष्य से और मानवता क्या हासिल कर सकती है इसके नजरिए से देखें, तो इस वाक्यांश में कोई बड़ी समस्या नहीं है। इसमें लोगों से मेहनती होने और कोई काम करते समय या किसी उद्देश्य को पूरा करते समय अपना सब कुछ झोंक देने की अपेक्षा की जाती है। इस रवैये में मूल रूप से कुछ भी गलत नहीं है, यह काफी हद तक सामान्य मानवता के मानक के अनुरूप ही है और कार्य करते समय लोगों का इस तरह का रवैया होना चाहिए। इस संदर्भ में यह अपेक्षाकृत सकारात्मक बात है। यानी कुछ करते समय तुम्हें बस मेहनती होने, अपना सब कुछ झोंक देने, अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने और अपनी अंतरात्मा के अनुसार जीने की जरूरत है। सामान्य मानवता, विवेक और समझ वाले किसी भी व्यक्ति के लिए इससे अधिक सामान्य कुछ भी नहीं है, और यह कोई अतिवादी अपेक्षा भी नहीं है। लेकिन अतिवादी क्या है? यह इस कहावत का वह हिस्सा है जो लोगों से “मरते दम तक” न रुकने की अपेक्षा रखता है। “मरते दम तक” वाक्यांश में एक समस्या है, जो यह है कि तुम्हें न केवल मेहनती होना चाहिए और अपना सब कुछ झोंक देना चाहिए, बल्कि तुम्हें अपना जीवन भी त्यागना होगा और केवल तभी रुक सकते हो जब तुम मर जाओगे, नहीं तो तुम रुक नहीं सकते। इसका मतलब है कि तुम्हें अपनी जिंदगी और जिंदगीभर की मेहनत झोंकनी होगी। तुम स्वार्थी मंशाएँ नहीं पाल सकते और जब तक जीवित हो, छोड़कर जा नहीं सकते। अगर तुम मरते दम तक डटे रहने के बजाय बीच में ही छोड़कर चले जाते हो, तो यह अच्छा नैतिक आचरण नहीं माना जाता। यह परंपरागत संस्कृति में लोगों के नैतिक आचरण को मापने का एक मानक है। अगर किसी कार्य को करने में कोई व्यक्ति पहले से ही मेहनती था और जो कुछ हासिल कर सकता था या जब तक वो इसे करना चाहता था, उसने अपना सब कुछ इसमें झोंक दिया, बस मरते दम तक इसे नहीं किया और बीच में ही इसे छोड़कर उसने कोई दूसरा उद्देश्य अपने हाथ में लेने या अपने बाद के सालों में आराम करने और अपना ख्याल रखने का फैसला किया, तो यह “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” नहीं है, इसलिए इस व्यक्ति के पास अच्छा नैतिक आचरण नहीं है। यह कैसा मानक है? यह सही है या गलत? (गलत है।) जाहिर है, यह मानक सामान्य मानवता की प्रवृत्ति और सामान्य लोगों के अधिकारों के अनुरूप नहीं है। यह लोगों से केवल मेहनती होने और अपना सब कुछ झोंक देने की अपेक्षा ही नहीं करता, बल्कि उन्हें निरंतर कोशिश करते रहने और मरते दम तक न रुकने को मजबूर करता है—लोगों से उसकी यही अपेक्षा रहती है। तुम चाहे कितने ही मेहनती क्यों न हो या कोई काम करते हुए उसमें अपना सब कुछ झोंक देने के लिए कितना ही प्रयास क्यों न करते हो, अगर तुम इसे जारी रखने के इच्छुक नहीं हो और इसे बीच में ही छोड़ देते हो तो तुम अच्छे नैतिक आचरण वाले व्यक्ति नहीं कहलाओगे; जबकि अगर तुम औसत परिश्रम करते हो और अपना सब कुछ नहीं झोंकते, लेकिन मरते दम तक कोशिश करते रहते हो, तो तुम अच्छे नैतिक आचरण वाले व्यक्ति हो। क्या परंपरागत संस्कृति में लोगों के नैतिक आचरण को मापने का यही मानक है? (हाँ।) वास्तव में परंपरागत संस्कृति में लोगों के नैतिक आचरण को मापने का मानक यही है। इस तरह से देखें तो क्या “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो,” यह अपेक्षा सामान्य मानवता की जरूरतों को पूरा करती है? जहाँ तक लोगों का सवाल है, क्या यह उचित और मानवीय है? (नहीं, यह अनुचित और अमानवीय है।) तुम ऐसा क्यों कहते हो? (यह ऐसी अपेक्षा नहीं है जिसे सामान्य मानवता के दायरे में रखा गया है; यह कुछ ऐसा है जिसे लोग चुनने के लिए तैयार नहीं हैं, और यह विवेक और समझ के विपरीत भी है।) इस मानक का मुख्य अर्थ यह है कि यह लोगों से निजी पसंद, और निजी इच्छाओं और आदर्शों को त्यागने की अपेक्षा करता है। अगर तुम्हारी काबिलियत और प्रतिभाओं को समाज, मानवजाति, राष्ट्र, तुम्हारी जन्मभूमि और शासकों की सेवा में लगाया जा सकता है, तो तुम्हें बिना शर्त आज्ञापालन करना चाहिए और तुम्हारी कोई और पसंद नहीं होनी चाहिए। तुम्हें मरते दम तक अपना जीवन समाज, राष्ट्र, अपनी जन्मभूमि और यहाँ तक कि शासकों के लिए समर्पित कर देना चाहिए। इस जीवन में तुम्हें जो उद्देश्य सौंपा गया है, उसका कोई और विकल्प नहीं हो सकता—तुम अपने लिए कोई और ध्येय नहीं चुन सकते। तुम केवल राष्ट्र, मानव जाति, समाज, अपनी जन्मभूमि और यहाँ तक कि शासकों की खातिर जी सकते हो। तुम केवल उनकी सेवा कर सकते हो, और स्वार्थी मंशाएँ पालना तो दूर की बात है, तुम्हारी कोई व्यक्तिगत आकांक्षा भी नहीं होनी चाहिए। तुम्हें न केवल अपनी जवानी त्यागकर अपनी सारी ताकत लगानी होगी, बल्कि अपना जीवन भी न्योछावर करना होगा, और यही एकमात्र तरीका है जिससे तुम अच्छे नैतिक आचरण वाले व्यक्ति बन सकते हो। मानवजाति ऐसे अच्छे नैतिक आचरण को क्या कहती है? महान धार्मिकता। तो फिर “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” को व्यक्त करने का दूसरा तरीका क्या है? इस आम कहावत के बारे में क्या खयाल है, “महान शूरवीर अपने देश और लोगों के लिए अपनी भूमिका निभाते हैं”? यह कहती है कि तथाकथित महान शूरवीर नायकों को अपने देश और अपने लोगों के लिए सब कुछ न्योछावर कर देना चाहिए। क्या उन्हें यह अपने परिवार, माता-पिता, पत्नी-बच्चों और भाई-बहनों के लिए करना चाहिए? क्या उन्हें एक व्यक्ति के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को पूरा करने के लिए ऐसा करना चाहिए? नहीं। बल्कि उन्हें देश और राष्ट्र के प्रति वफादार और समर्पित होना चाहिए। यह “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” कहने का एक और तरीका है। “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो,” यह अपेक्षा जिस “मेहनती होने और अपना सब कुछ झोंकने” की बात करती है, वह केवल एक कहावत है जिसे लोग स्वीकार कर सकते हैं, और जिसका इस्तेमाल लोगों को अपनी इच्छा से “मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने” को प्रेरित करने के लिए किया जाता है। इस आजीवन समर्पण का लक्ष्य कौन है? (देश और राष्ट्र।) तो देश और राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कौन करता है? (शासक।) सही कहा, शासक करते हैं। कोई भी एक व्यक्ति या स्वतंत्र समूह देश और राष्ट्र का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। शासकों को ही देश और राष्ट्र का प्रवक्ता कहा जा सकता है। ऊपरी तौर पर यह कहावत “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” लोगों को यह नहीं बताती कि उन्हें देश, राष्ट्र और शासकों के लिए मेहनत से अपना कर्तव्य निभाना है और मरते दम तक अपना सब कुछ झोंक देना है। फिर भी सच यही है कि यह लोगों को मरते दम तक अपना जीवन शासकों और दुष्ट राजाओं को समर्पित करने के लिए मजबूर करती है। यह कहावत समाज में या मानव जाति के बीच किसी भी तुच्छ व्यक्ति के लिए नहीं है; यह उन सभी लोगों के लिए है जो समाज, मानव जाति, अपनी जन्मभूमि, राष्ट्र और खास तौर से शासकों के लिए बड़े योगदान दे सकते हैं। किसी भी राजवंश में, किसी भी युग में और किसी भी राष्ट्र में, हमेशा कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनके पास विशेष खूबियाँ, योग्यताएँ और प्रतिभाएँ होती हैं जिन्हें समाज “बखूबी इस्तेमाल” करता है, और जिनका शासक फायदा उठाते और सम्मान करते हैं। उनकी विशेष प्रतिभाओं और क्षमताओं के कारण, और चूँकि वे अपनी प्रतिभाओं और शक्तियों का समाज, राष्ट्र, अपनी जन्मभूमि और शासकों के प्रभुत्व के भीतर अच्छा उपयोग कर पाते हैं, इसलिए इन शासकों की नजरों में वे अक्सर ऐसे व्यक्ति माने जाते हैं, जो मानव जाति पर अधिक प्रभावी ढंग से शासन करने, समाज को बेहतर ढंग से स्थिर रखने और जन भावनाओं को शांत करने में उनकी सहायता कर सकते हैं। शासक इस प्रकार के व्यक्ति का अक्सर शोषण करते हैं, वे आशा करते हैं कि ऐसे लोगों का कोई “तुच्छ स्वार्थ” नहीं, बल्कि केवल “महान स्वार्थ” होता है और वे अपनी शूरवीर वाली भावना का सदुपयोग करके महान शूरवीर नायक बन सकते हैं, जिनके दिलों में केवल देश और देशवासी होते हैं, और वे लगातार देश और देशवासियों की चिंता करते हैं, और यहाँ तक कि कोई कार्य स्वीकार कर और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करते रहते हैं। अगर वे वास्तव में ऐसा कर सकते हैं, अगर वे अपनी पूरी मेहनत से और अपनी पूरी शक्ति से देश और देशवासियों की सेवा कर सकते हैं, और यहाँ तक कि मरते दम तक ऐसा करने के लिए तैयार रहते हैं, तो वे यकीनन किसी शासक के लिए सक्षम सहायक साबित होते हैं, और यहाँ तक कि उन्हें किसी खास युग में राष्ट्र या समाज या यहाँ तक कि संपूर्ण मानव जाति का गौरव माना जाता है। जब भी किसी युग में समाज में ऐसे लोगों का एक समूह होता है, या मुट्ठी भर धार्मिक वफादार लोग होते हैं, जिन्हें महान शूरवीर नायकों के रूप में सम्मानित किया जाता है, और जो समाज, मानवजाति, अपनी जन्मभूमि, राष्ट्र और शासक की सेवा में मरते दम अपना सब कुछ झोंक सकते हैं, तब मानवजाति इस युग को इतिहास का गौरवशाली युग मानती है।

चीनी इतिहास में कितने महान शूरवीर नायक अपने देश और लोगों की सेवा करने में सब कुछ न्योछावर करने में सक्षम थे, और वे मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करते रहे? क्या तुम लोग उनमें से कुछ के नाम बता सकते हो? (चू यान, झुग लियांग, और यू फेई वगैरह।) चीनी इतिहास में वास्तव में बस मुट्ठी भर मशहूर हस्तियाँ ही हैं जो देश और लोगों के बारे में चिंता कर पाए, जो अपने देश और राष्ट्र की सेवा करने के कार्य को स्वीकारने, लोगों के जीवन की रक्षा करने और मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने में सक्षम थे। इतिहास के हर युग में चीन में और उसके बाहर भी, चाहे वह राजनीतिक क्षेत्र की बात हो या सामान्य आबादी में, ऐसे लोग मौजूद हैं—चाहे वे राजनेता हों या घुमंतु योद्धा—जो परंपरागत सांस्कृतिक की ऐसी कहावतों का पालन करते हैं, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो।” ऐसे लोग इस अपेक्षा का निष्ठापूर्वक पालन करने में सक्षम होते हैं, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो,” और वे देश और लोगों की सेवा करने और उनके बारे में चिंता करने के इस विचार का भी कठोरता से पालन करने में सक्षम होते हैं। वे नैतिक आचरण की ऐसी कहावतों का पालन करने में सक्षम हैं, और खुद से सख्ती से ये चीजें करने की अपेक्षा करते हैं। बेशक वे ऐसा अपनी प्रसिद्धि के लिए करते हैं, ताकि भविष्य में लोग उन्हें याद रखें। यह एक पहलू है। दूसरा पहलू, यह कहा जाना चाहिए कि ऐसे व्यवहार इन लोगों के परंपरागत संस्कृति के विचार मन में बैठने और उनसे प्रभावित होने के कारण उभरते हैं। तो क्या ये अपेक्षाएँ जो परंपरागत संस्कृति लोगों पर थोपती है, मानवता के दृष्टिकोण से उचित हैं? (नहीं।) वे उचित क्यों नहीं हैं? कोई व्यक्ति चाहे कितना भी सक्षम क्यों न हो, या वह कितना ही गुणी, प्रतिभाशाली या ज्ञानी क्यों न हो, उसकी पहचान और प्रवृत्ति एक मनुष्य की होती है, तो उसके लिए इस दायरे से परे जाना नामुमकिन होता है। वे दूसरों की तुलना में बस थोड़े अधिक गुणी होते हैं और उनमें दूसरों से थोड़ी अधिक काबिलियत होती है, और चीजों पर उनके दृष्टिकोण औसत व्यक्ति से उच्च स्तर के होते हैं, उनके पास चीजों को करने के अधिक विविध और लचीले तरीके होते हैं, वे अधिक कुशल होते हैं और बेहतर परिणाम हासिल करते हैं—बस इतना ही है। लेकिन वे चाहे कितने भी कुशल हों या उनके परिणाम कितने भी अच्छे हों, फिर भी वे अपनी पहचान और दर्जे के मामले में सामान्य लोगों की तरह ही होते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि वे अभी भी सामान्य लोग हैं? क्योंकि जो व्यक्ति देह में जीता है, चाहे उसका दिमाग कितना भी तेज क्यों न हो, या वह कितना भी प्रतिभाशाली या ऊँची काबिलियत वाला क्यों न हो, केवल सृजित मनुष्यों के जीवन जीने के नियमों का ही पालन करता है, और इससे अधिक कुछ नहीं। उदाहरण के लिए कुत्तों को देखो। चाहे वे कितने भी लंबे, छोटे, मोटे या पतले हों, या वे किसी भी नस्ल के हों, या चाहे वे किसी भी उम्र के हों, जब भी वे किसी अन्य कुत्ते के संपर्क में आते हैं, तो वे आम तौर पर उसकी गंध को सूंघकर उस कुत्ते के लिंग, व्यक्तित्व और अपने प्रति उनके रवैये को जान जाते हैं। संचार का यह तरीका कुत्तों के लिए जीवन जीने की प्रवृत्ति है, और यह कुत्तों के जीवित रहने की व्यवस्थाओं और नियमों में से एक है, जिन्हें परमेश्वर ने बनाया है। इसी प्रकार लोग भी परमेश्वर के बनाए गए नियमों के भीतर जीते हैं। चाहे तुम कितने भी तेज-तर्रार या जानकार क्यों न हो, चाहे तुम कितनी भी ऊँची काबिलियत के और प्रतिभाशाली व्यक्ति क्यों न हो, चाहे तुम कितने भी सक्षम क्यों न हो या तुम्हारे प्रयास कितने भी महान क्यों न हों, तुम्हारे लिए हर दिन छह से आठ घंटों की नींद लेना और तीन बार भोजन करना जरूरी है। अगर तुमने एक बार भी भोजन करना छोड़ दिया तो तुम्हें भूख लगेगी और पर्याप्त मात्र में पानी नहीं पिया तो तुम्हें प्यास लगेगी। स्वस्थ रहने के लिए तुम्हें नियमित रूप से व्यायाम भी करना होगा। जैसे-जैसे तुम्हारी उम्र बढ़ती जाएगी, तुम्हारी दृष्टि धुंधली होती जाएगी और तुम्हें सभी प्रकार की बीमारियाँ हो सकती हैं। यह जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु का सामान्य प्राकृतिक नियम है और यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित है। इस नियम को न तो कोई तोड़ सकता है, न ही इससे बच सकता है। इसके आधार पर चाहे तुम कितने भी सक्षम क्यों न हो, और तुम्हारी काबिलियत और प्रतिभा कुछ भी हो, तुम अभी भी एक सामान्य व्यक्ति ही हो। यहाँ तक कि अगर तुम पंख लगाकर आकाश के चारों ओर दो चक्कर लगा लो, फिर भी अंत में तुम्हें धरती पर वापस आकर अपने दो पैरों पर ही चलना होगा, थकने पर आराम करना होगा, भूख लगने पर खाना होगा और प्यास लगने पर पानी पीना होगा। यह मानवीय प्रवृत्ति है, और परमेश्वर ने तुम्हारे लिए यही प्रवृति निर्धारित की है। तुम न ही इसे कभी बदल सकते हो और न ही इससे बच सकते हो। चाहे तुम्हारी क्षमताएँ कितनी भी महान हों, तुम इस नियम का उल्लंघन नहीं कर सकते, और इस दायरे से आगे नहीं जा सकते हो। इसलिए चाहे लोग कितने भी सक्षम क्यों न हों, लोगों के नाते उनकी पहचान और दर्जा नहीं बदलता और न ही सृजित प्राणियों के रूप में उनकी पहचान और दर्जा कभी बदलता है। अगर तुम मानव जाति के लिए कुछ विशेष और महान योगदान दे सको, तब भी तुम एक इंसान ही रहोगे, और जब भी तुम्हारा सामना किसी खतरे से होगा, तुम भयभीत और घबराए हुए महसूस करोगे, तुम्हारा दम निकल जाएगा, यहाँ तक कि तुम्हारा अपनी शारीरिक क्रियाओं पर भी नियंत्रण नहीं रहेगा। तुम ऐसा व्यवहार क्यों करोगे? क्योंकि तुम इंसान हो। चूँकि तुम इंसान हो, तुम में वो व्यवहार हैं जो इंसानों में होने चाहिए। ये प्रकृति के नियम हैं, और कोई भी इनसे नहीं बच सकता। सिर्फ इसलिए कि तुमने कई असाधारण योगदान दिए हैं, इसका यकीनन यह मतलब नहीं है कि तुम अतिमानवीय या असाधारण हो गए हो या अब एक सामान्य व्यक्ति नहीं रहे। यह सब नामुमकिन है। इसलिए यह सोचना भी कि तुम अपने देश और राष्ट्र की सेवा करने में अपना सब कुछ झोंक सकते हो, और मरते दम तक भरसक कोशिश कर सकते हो, तो चूँकि तुम सामान्य मानवता के दायरे में रहते हो तुम्हें अपने दिल की गहराई में एक बड़ा भारी बोझ उठाना होगा! तुम्हें सारे दिन देश और लोगों के बारे में चिंता करनी होगी और अपने दिल में पूरी आबादी और देश के लिए जगह बनानी होगी, इस विश्वास के साथ कि जितना बड़ा मंच उतना बड़ा तुम्हारा दिल—लेकिन क्या ऐसा ही होता है? (नहीं।) कोई व्यक्ति सिर्फ अलग सोच रखकर कभी भी साधारण लोगों से अलग नहीं हो जाएगा, न ही वह साधारण लोगों से अलग या श्रेष्ठ होगा, या न ही उसे सामान्य मानवता के नियमों और जीवन जीने के नियमों का उल्लंघन करने की अनुमति मिलेगी, सिर्फ इस कारण से कि उसके पास विशेष उपहार या प्रतिभाएँ हैं, या क्योंकि उसने मानव जाति के लिए महान योगदान दिया है। इसलिए मानव जाति से “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” की यह अपेक्षा बहुत अमानवीय है। भले ही किसी व्यक्ति में साधारण लोगों की तुलना में अधिक प्रतिभा और विचार हों, या उसके पास बेहतर दूरदर्शिता और परख हो, या वह मामलों से निपटने में साधारण लोगों की तुलना में बेहतर हो, या लोगों को देखने और पढ़ने में बेहतर हो—या वे साधारण लोगों से चाहे किसी भी तरह से अलग हों—वे देह में जीते हैं और उनके लिए सामान्य मानवता का जीवन जीने की व्यवस्थाओं और नियमों का पालन करना जरूरी है। चूँकि उनके लिए सामान्य मानवता का जीवन जीने की व्यवस्थाओं और नियमों का पालन करना जरूरी है, तो क्या उनसे ऐसी अवास्तविक अपेक्षाएँ रखना अमानवीय नहीं है जो मानवता के अनुरूप नहीं हैं? क्या यह एक तरह से उनकी मानवता को रौंदना नहीं है? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं : “स्वर्ग ने मुझे जो उपहार और प्रतिभाएँ दी हैं, उनके साथ मैं असाधारण हूँ, और कोई साधारण व्यक्ति नहीं हूँ। मुझे स्वर्ग के नीचे की हर चीज यानी लोग, राष्ट्र, मेरी जन्मभूमि और दुनिया को अपने दिल में रखना चाहिए।” मैं तुम को बता दूँ कि इन बातों को अपने दिल में रखना एक अतिरिक्त बोझ है, जो शासक वर्ग और शैतान ने तुम पर थोपा है, तो ऐसा करके तुम खुद को विनाश के मार्ग पर डाल रहे हो। अगर तुम दुनिया, लोग, राष्ट्र, अपनी जन्मभूमि और शासकों के आदर्शों और इच्छाओं को अपने दिल में रखना चाहते हो, तो तुम जल्दी मरोगे। अगर तुम इन बातों को अपने दिल में रखते हो, तो यह बारूद के ढेर और विस्फोटकों की बोरी पर बैठने जैसा है। ऐसा करना बहुत खतरनाक है, और पूरी तरह से निरर्थक है। जब तुम इन बातों को अपने दिल में रखते हो, तो तुम यह सोचकर अपने आप से अपेक्षा करते हो, “मुझे कोई कार्य स्वीकार करना और मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करना चाहिए। मुझे राष्ट्र और मानव जाति के महान ध्येय में योगदान करना चाहिए और मानव जाति के लिए अपना जीवन अर्पित कर देना चाहिए।” ऐसी महान और ऊँची महत्वाकांक्षाएँ तुम्हें केवल असामयिक अंत, अप्राकृतिक मृत्यु या पूर्ण विनाश की ओर ही ले जाएँगी। जरा सोचो, दुनिया को अपने दिलों में बसाने वाली उन मशहूर ऐतिहासिक हस्तियों में से कितनों की मौत सुखद हुई है? कुछ ने नदी में कूदकर आत्महत्या की, कुछ को शासकों ने मार डाला, कुछ का सिर गिलोटिन पर धड़ से अलग कर दिया गया, और कुछ को रस्सी से गला घोंटकर मार डाला गया। क्या इंसानों के लिए पूरी दुनिया को अपने दिल में रखना संभव है? क्या किसी की जन्मभूमि के महान हित, किसी राष्ट्र की समृद्धि, देश की नियति और मानव जाति का भाग्य ऐसी चीजें हैं जिन्हें कोई अपने कंधों पर ले सकता है और अपने दिल में उनके लिए जगह बना सकता है? यदि तुम अपने माता-पिता और बच्चों, अपने करीबियों और प्रियजनों, अपनी जिम्मेदारियों और स्वर्ग द्वारा तुम्हें सौंपे गए लक्ष्य के लिए अपने दिल में जगह बना सकते हो, तो तुम पहले से ही बहुत अच्छा कर रहे हो और अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी कर रहे हो। तुम्हें देश और लोगों के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है, और एक महान शूरवीर नायक बनने की भी जरूरत नहीं है। वे कौन लोग हैं जो दुनिया, राष्ट्र और अपनी जन्मभूमि को सदैव अपने दिलों में रखना चाहते हैं? वे सभी अति महत्वाकांक्षी लोग हैं जो अपनी क्षमताओं को अधिक आंक लेते हैं। क्या तुम्हारा दिल सचमुच इतना बड़ा है? कहीं तुम अति महत्वाकांक्षी तो नहीं हो? वास्तव में तुम्हारी महत्वाकांक्षा का स्रोत क्या है? इन चीजों को अपने दिल में रखकर तुम क्या हासिल कर सकते हो? तुम किसके भाग्य में फेरबदल और नियंत्रण कर सकते हो? तुम तो खुद के भाग्य को भी नियंत्रित नहीं कर सकते और फिर भी तुम दुनिया, राष्ट्र और मानव जाति को अपने दिल में रखना चाहते हो। क्या यह शैतान की महत्वाकांक्षा नहीं है? तो जो लोग खुद को सक्षम व्यक्ति मानते हैं, ईमानदारी से “कोई कार्य स्वीकार कर मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करने” की अपेक्षा पूरी करना चाहते हैं, वे बर्बादी के रास्ते पर चल रहे हैं, यह मौत की तलाश करना है! जो कोई भी देश और लोगों के बारे में चिंता करना चाहता है, जो लोगों और अपनी जन्मभूमि की सेवा करने के कार्य को स्वीकारना चाहता है, और अपने मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करता है, वह अपने विनाश की ओर बढ़ रहा है। क्या ये लोग प्रेम के लायक हैं? (नहीं, वे प्रेम के लायक नहीं हैं।) न केवल ये लोग प्रेम के लायक नहीं हैं, बल्कि थोड़े दयनीय और हँसी के पात्र भी हैं, और वाकई बेहद मूर्ख भी हैं!

एक व्यक्ति के रूप में तुम्हें परिवार के भीतर अपने दायित्वों और जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए, किसी भी सामाजिक या जातीय समूह में अपनी भूमिका ठीक से निभानी चाहिए और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए, समाज की व्यवस्थाओं और नियमों का पालन करना चाहिए और बड़ी-बड़ी बातें कहने के बजाय तर्कसंगत रूप से काम करना चाहिए। वह करना जो लोग कर सकते हैं और जो उन्हें करना चाहिए—यही उचित है। जहाँ तक परिवार, समाज, देश और लोगों की बात है, तो तुम्हें उनकी सेवा के कार्य को स्वीकारने और मरते दम तक अपनी पूरी कोशिश करने की जरूरत नहीं है। तुम्हें अपने पूरे दिल, दिमाग और ताकत से केवल परमेश्वर के परिवार में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने की जरूरत है, कुछ और करने की नहीं। तो तुम्हें अपना कर्तव्य अच्छे से कैसे निभाना चाहिए? परमेश्वर के वचनों का अनुसरण करना और परमेश्वर की अपेक्षानुसार सत्य सिद्धांतों का पालन करना ही पर्याप्त है। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा, उसके चुने हुए लोगों, उसकी प्रबंधन योजना, उसके तीन चरणों के कार्य और मानव जाति को बचाने के उसके कार्य को पूरे दिन अपने दिल में रखने की जरूरत नहीं है। इन बातों को अपने दिल में रखना जरूरी नहीं है। यह जरूरी क्यों नहीं है? क्योंकि तुम एक साधारण व्यक्ति हो, तुच्छ प्राणी हो, और चूँकि तुम परमेश्वर के हाथों बने एक सृजित प्राणी हो, तो तुम्हें केवल ईमानदारी से अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकारने और परमेश्वर के सभी आयोजनों के प्रति समर्पित होने का रुख अपनाना चाहिए और अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए, इतना ही काफी है। क्या यह अपेक्षा अत्यधिक है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) क्या परमेश्वर तुमसे अपने जीवन का बलिदान करने को कहता है? (नहीं।) परमेश्वर तुमसे अपने जीवन का बलिदान करने को नहीं कहता, जबकि नैतिक आचरण की यह कहावत तुमसे अपेक्षा रखती है कि “अगर तुम्हारे पास थोड़ी-सी भी क्षमता, हृदय और उदात्त भावना है, तो तुम्हें आगे बढ़कर अपनी जन्मभूमि और राष्ट्र की सेवा करने के कार्य को स्वीकारना जाना चाहिए। अपना जीवन, अपने परिवार और रिश्तेदारों और अपनी जिम्मेदारियों को त्याग दो। खुद को इस समाज, इस मानव जाति के बीच रखो, और देश के महान ध्येय, देश का पुनरुद्धार करने के महान ध्येय, और पूरी मानव जाति को बचाने के महान लक्ष्य को मरते दम तक अपने साथ लेकर चलो।” क्या यह अपेक्षा बहुत ज्यादा है? (हाँ।) एक बार जब लोग इस तरह के अतिवादी विचारों को स्वीकार कर लेते हैं, तो वे खुद को ऊँचा मानने लगते हैं। खास तौर पर विशेष प्रतिभा और विशेष रूप से बड़ी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं वाले कुछ लोगों की बात करें, तो वे इतिहास में अपना नाम दर्ज कराना चाहते हैं, ताकि आने वाली पीढ़ियां उन्हें याद रखें, और वे इस जीवन में कुछ ध्येय पूरा करना चाहते हैं, इसलिए वे परंपरागत संस्कृति के विचारों को विशेष महत्व देते हैं और उनका सम्मान करते हैं। जैसे परंपरागत संस्कृति की ओर से आगे बढ़ाई गई ये कहावतें हैं, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” और “मृत्यु हिमालय से भारी या पंख से भी हल्की हो सकती है;” ऐसे लोग हिमालय से भी अधिक वजनदार होने लिए कृतसंकल्प हैं। “मृत्यु हिमालय से भारी हो सकती है,” इस कहावत का क्या अर्थ है? यह छोटे-मोटे लाभों के लिए मरने की बात नहीं है, न ही यह एक साधारण व्यक्ति का जीवन जीने या सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने या प्रकृति की व्यवस्थाओं का पालन करने की बात है। बल्कि यह मानव जाति के महान ध्येय, राष्ट्र के पुनरुद्धार, देश की समृद्धि, समाज के विकास, और मानव जाति को मार्ग दिखाने के लिए मरने की बात है। इंसानों के इन अवास्तविक विचारों ने उन्हें संकट में डाल दिया है। क्या इस तरह लोग खुशी से रह पाएँगे? (नहीं।) वे खुशी से नहीं रह पाएँगे। एक बार जब लोग संकट में आ जाते हैं, तो वे साधारण लोगों से अलग सोचते और कार्य करते हैं, और अलग-अलग चीजों के पीछे भागने लगते हैं। वे अपनी महत्वाकांक्षी योजनाओं पर काम करना चाहते हैं, बड़े उपक्रमों और महान कारनामों को पूरा करना चाहते हैं, और पल भर में बड़ी-बड़ी चीजें हासिल करना चाहते हैं। धीरे-धीरे कुछ लोग राजनीति में आ जाते हैं, क्योंकि राजनीति का क्षेत्र ही उनकी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं : “राजनीति का क्षेत्र बहुत गंदा है, मैं राजनीति में शामिल नहीं होऊँगा, लेकिन अभी भी मैं मानव जाति के हित में कुछ योगदान करना चाहता हूँ।” तो वे किसी गैर-राजनीतिक संगठन से जुड़ जाते हैं। कुछ अन्य लोग कहते हैं : “मैं किसी गैर-राजनीतिक संगठन में शामिल नहीं होऊँगा। मैं अकेला नायक बनूँगा, गरीबों की मदद करने के लिए अमीरों को लूटने और भ्रष्ट अधिकारियों, स्थानीय अत्याचारियों, बुरे लोगों, दुष्ट पुलिसवालों, डाकुओं और गुंडों को मारने के साथ-साथ आम लोगों और गरीबों की मदद करने में अपनी विशेषज्ञता का अच्छा उपयोग करूँगा।” वे चाहे कोई भी मार्ग अपनाएँ, वे परंपरागत संस्कृति के प्रभाव में आकर ही ऐसा करते हैं और इनमें से कोई भी मार्ग सही नहीं है। चाहे लोगों की अभिव्यक्तियाँ सामाजिक रुझानों और लोकप्रिय रुचियों के साथ कितनी भी मिलती हों, वे यकीनन परंपरागत संस्कृति से प्रभावित होती हैं, क्योंकि मानव जाति हमेशा “देश और लोगों के बारे में चिंता करो,” “स्वर्ग के नीचे की हर चीज को अपने दिल में रखो,” “महान शूरवीर,” और “अपनी जन्मभूमि का हित” जैसी अभिव्यक्तियों को कोई कार्य स्वीकार कर मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करने के प्रति समर्पित होने और उनका अनुसरण करने का लक्ष्य मानती है। यही वास्तविक स्थिति है। क्या कभी किसी ने ऐसा कहा है, “मैं जीवन में कोई कार्य स्वीकार कर मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करने के लिए किसान बनना चाहता हूँ”? क्या कभी किसी ने ऐसा कहा है, “मैं जीवन भर कोई कार्य स्वीकार कर मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करने के लिए मवेशियों और भेड़ों को चराता रहूँगा”? क्या इन परिस्थितियों में किसी ने इस कहावत का इस्तेमाल किया है? (नहीं।) “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो,” इस कहावत के जरिए लोग एक प्रकार की महत्वाकांक्षा और अवास्तविक इच्छा के साथ अपने अंदर की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को छुपाने के लिए ऐसी सुखद लगने वाली वाक्पटुता का उपयोग करते हैं। जाहिर है कि “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” वाली कहावत ने देश और लोगों के बारे में चिंता करने और स्वर्ग के नीचे की सभी चीजों को अपने दिल में रखने जैसे अवास्तविक और विकृत विचारों और प्रथाओं को भी जन्म दिया है, जिससे बड़ी संख्या में आदर्शवादियों और दूरदर्शी लोगों को नुकसान पहुँचा है।

अब जब हमने “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” वाली कहावत का विश्लेषण और इस पर विस्तार से संगति कर ली है, तो क्या तुम लोग वह सब कुछ समझते हो जो कहा गया है? (हाँ।) संक्षेप में, अब हम यकीन कर सकते हैं कि यह कहावत सकारात्मक नहीं है, और इसका कोई सकारात्मक या व्यावहारिक अर्थ नहीं है। तो इसका लोगों पर कैसा प्रभाव पड़ता है? क्या यह कहावत घातक है? क्या यह लोगों की जिंदगी माँगती है? क्या इसे “घातक कहावत” कहना उचित है? (हाँ।) सच तो यह है कि यह कहावत तुम्हारी जान ले लेती है। यह तुम्हें ऐसा महसूस कराने के लिए अच्छे-अच्छे शब्दों का उपयोग करती है कि कार्य स्वीकार करने और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने के प्रयास में अपना जीवन खपा देने में सक्षम होना कितना महान और गौरवशाली है और इससे तुम कितने बड़े दिलवाले बन जाते हो। इतना बड़ा दिल होने का मतलब है कि अब तुम्हारे मन में जलावन की लकड़ी, चावल, तेल, नमक, सोया सॉस, सिरका, चाय और घरेलू जीवन की ऐसी अन्य चीजों के बारे में सोचने के लिए कोई जगह नहीं है, फिर अपनी पत्नी और बच्चों की देखभाल या आरामदायक बिस्तर की चाह रखना तो दूर की बात है। किसी बड़े दिल वाले व्यक्ति के लिए कुछ विशेष चीजों के बिना काम करना ठीक कैसे हो सकता है? क्या अपने दिल में केवल जलावन की लकड़ी, चावल, तेल, नमक, सोया सॉस, सिरका और चाय जैसी चीजों के लिए जगह रखना बहुत सांसारिक बात है? तुम्हें अपने दिल में उन चीजों के लिए जगह बनानी चाहिए जो एक औसत व्यक्ति नहीं बना सकता, जैसे कि राष्ट्र, तुम्हारी जन्मभूमि के महान उद्यम, मानव जाति की नियति वगैरह—यह होता है “जब स्वर्ग किसी व्यक्ति को बड़ी जिम्मेदारी देने वाला होता है।” एक बार जब लोगों के मन में ऐसा खयाल आता है, तो वे कार्य स्वीकार कर अपने मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करते हैं; वे नैतिक आचरण की इस कहावत का उपयोग कर लगातार खुद को प्रेरित करेंगे, और सोचेंगे, “मुझे अपनी जन्मभूमि और मानव जाति की नियति की सेवा करने के कार्य को स्वीकारना चाहिए और मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करना चाहिए, यही मेरा आजीवन प्रयास और आकांक्षा है।” लेकिन फिर मालूम पड़ता है कि वे अपनी जन्मभूमि और राष्ट्र के महान ध्येय को पूरा करने का बोझ अपने कंधों पर उठाने में सक्षम नहीं हैं, और फिर वे इतने थक जाते हैं कि कार्य स्वीकार करने और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करते हुए खून की उल्टियाँ करने लगते हैं। ऐसे लोग नहीं जानते कि लोगों को कैसे जीना चाहिए, या मानवता क्या है, या मानवीय भावनाएँ क्या हैं, या प्रेम क्या है, या नफरत क्या है, और यहाँ तक कि देश और लोगों के बारे में चिंता करते हुए इतना अधिक रोते हैं कि उनकी आँखों से आँसुओं की धार बहने लगती है, और आखिरी साँस तक वे अपनी जन्मभूमि और राष्ट्र के महान उपक्रम को नहीं छोड़ पाते। क्या “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” एक घातक कहावत है जो लोगों की जिंदगी माँगती है? क्या ऐसे लोग दयनीय मौत नहीं मरते? (हाँ।) यहाँ तक कि मृत्यु के समय भी ऐसे लोग अपने खोखले विचारों और आदर्शों को त्यागने से इनकार कर देते हैं, और अंत में वे अपने अंदर शिकायतें और नफरत लिए ही मर जाते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि वे अपने अंदर शिकायतें और नफरत लेकर मरते हैं? क्योंकि वे राष्ट्र, अपनी जन्मभूमि, मानव जाति की नियति और शासकों द्वारा उन्हें सौंपे गए लक्ष्य को छोड़ नहीं पाते। वे सोचते हैं, “आह, मेरा जीवन कितना छोटा है। अगर मैं कुछ हजार साल और जीवित रह पाता, तो मैं देख पाता कि मानव जाति का भविष्य किस ओर जा रहा है।” वे अपनी पूरी जिंदगी स्वर्ग के नीचे की हर चीज को अपने दिल में रखकर बिताते हैं, और अंत में भी इसे नहीं छोड़ पाते। यहाँ तक कि मृत्यु के समय भी वे अपनी पहचान को, या उन्हें क्या करना चाहिए या क्या नहीं करना चाहिए, नहीं जान पाते। सच तो यह है कि वे साधारण लोग हैं, और उन्हें साधारण लोगों का जीवन जीना चाहिए, लेकिन उन्होंने शैतान के गुमराह करने और परंपरागत संस्कृति के विष को स्वीकार कर लिया है, और खुद को संसार का उद्धारकर्ता मान बैठे हैं। क्या यह दयनीय नहीं है? (हाँ।) यह अत्यंत दयनीय है! मुझे बताओ, अगर कू युआन राष्ट्र की महान धार्मिकता के इस परंपरागत विचार से प्रभावित न होता, तो क्या वह खुद नदी में कूदकर आत्महत्या करता? क्या उसने अपना जीवन त्यागने का इतना बड़ा कदम उठाया होता? (नहीं।) यकीनन उसने ऐसा न किया होता। वह परंपरागत संस्कृति का एक शिकार था, जिसने अंत तक जीने से पहले ही जल्दबाजी में अपना जीवन त्याग दिया। अगर वह इन चीजों से प्रभावित नहीं होता, देश और लोगों की चिंता न करता, बल्कि अपना जीवन जीने पर ध्यान देता, तो क्या वह बूढ़ा होकर एक स्वाभाविक मौत मर पाता? क्या उसकी सामान्य मौत हो सकती थी? अगर उसने कार्य स्वीकार कर मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करने की आकांक्षा नहीं रखी होती, तो क्या वह जीवन में अधिक खुश, स्वतंत्र और अधिक शांति से रह पाता? (हाँ।) यही कारण है कि “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” एक घातक कहावत है जो लोगों की जिंदगी माँगती है। जब कोई व्यक्ति इस तरह की सोच से संक्रमित हो जाता है, तो वह पूरा दिन देश और लोगों की चिंता करने में बिताना शुरू कर देता है, और वर्तमान स्थिति को बदलने में सक्षम हुए बिना ही अंत में चिंता कर-करके मर जाता है। क्या कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो के विचार और दृष्टिकोण ने उसका जीवन नहीं छीन लिया? ऐसे विचार और दृष्टिकोण वास्तव में घातक हैं और लोगों की जिंदगी माँगते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? देश या राष्ट्र के भाग्य के लिए कौन अपने दिल में जगह बना सकता है? कौन अपने कंधों पर इतना बड़ा बोझ उठा सकता है? क्या यह किसी की क्षमताओं को बढ़ा-चढ़ाकर आँकना नहीं है? लोग अपनी क्षमताओं को इतना बढ़ा-चढ़ाकर क्यों आँकते हैं? क्या कुछ लोग खुद ही यह सब अपने ऊपर ले लेते हैं? क्या ऐसा है कि वे अपने आप ही ऐसा करने को तैयार होते हैं? सच तो यह है कि वे शिकार हैं, लेकिन किस चीज के? (उन विचारों और दृष्टिकोणों के जो शैतान लोगों में डालता है।) सही सुना, वे शैतान के शिकार हैं। शैतान लोगों के मन में ये विचार डालता है, उन्हें बताता है कि “तुम्हें एक साधारण जीवन जीने के बजाय स्वर्ग के नीचे की हर चीज को अपने दिलों में रखना चाहिए, आम जनता को अपने दिलों में रखना चाहिए, देश और लोगों की चिंता करनी चाहिए, एक घुमंतू शूरवीर बनना चाहिए, अमीरों को लूटकर गरीबों की मदद करने वाला धार्मिक व्यक्ति बनना चाहिए, मानव जाति के भाग्य में योगदान देना चाहिए, और कार्य स्वीकारकर मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए। पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियाँ क्यों निभाएँ? उन चीजों का जिक्र करने का कोई मतलब नहीं है, जो लोग ये काम करते हैं वे चींटियों जैसे हैं। तुम कोई चींटी नहीं हो और न ही तुम्हें गौरैया बनना चाहिए। बल्कि तुम्हें बाज बनना चाहिए, अपने पंख फैलाकर उड़ना चाहिए, और बड़ी आकांक्षाएँ रखनी चाहिए।” इस तरह की उत्तेजना और प्रेरणा लोगों को इस सोच में उलझा देती है, “बिल्कुल सही बात है! मैं गौरैया नहीं बन सकता, मुझे ऊँची उड़ान भरने वाला बाज बनना चाहिए।” हालाँकि चाहे वे कितनी भी कोशिश कर लें, ऊँची उड़ान नहीं भर पाते और आखिर में थक कर अचानक मर जाते हैं, और अपनी बनाई चीजों को खुद ही बर्बाद कर लेते हैं। सच तो यह है कि तुम कुछ भी नहीं हो। तुम न तो गौरैया हो, और न ही बाज हो। तो तुम हो क्या? (एक सृजित प्राणी।) सही सुना, तुम एक साधारण व्यक्ति हो, एक साधारण सृजित प्राणी हो। दिन में अपने तीन बार के भोजन में से एक बार के भोजन को छोड़ना तो ठीक है, लेकिन कई दिनों तक बिना खाए रहना ठीक नहीं है। तुम बूढ़े होगे, बीमार पड़ोगे, और फिर मर जाओगे, तुम बस एक साधारण व्यक्ति हो। जिन लोगों में थोड़ी सी प्रतिभा और क्षमता होती है वे अत्यधिक अहंकारी हो सकते हैं, और शैतान द्वारा इस तरह से प्रोत्साहन, प्रलोभन दिए जाने, उकसाए और गुमराह किए जाने के बाद भ्रमित होकर दरअसल यह सोच बैठते हैं कि वे इस संसार के उद्धारकर्ता हैं। वे पूरे भरोसे के साथ उद्धारकर्ता के स्थान पर बैठ जाते हैं, देश और राष्ट्र की सेवा करने के कार्य को स्वीकारकर अपने मरते दम सर्वश्रेष्ठ करने के प्रयास में लग जाते हैं, और वे मानव जाति के लक्ष्य, जिम्मेदारियों, दायित्वों या जीवन के बारे में कुछ भी नहीं सोचते, जो परमेश्वर द्वारा लोगों को दी गई सबसे कीमती चीज है। इस वजह से उन्हें लगता है कि जीवन महत्वपूर्ण या कीमती नहीं है, बल्कि उनकी जन्मभूमि का हित सबसे कीमती चीज है, और उन्हें स्वर्ग के नीचे की हर चीज को अपने दिल में रखना चाहिए, देश और लोगों की चिंता करनी चाहिए, कि ऐसा करके उनके पास सबसे मूल्यवान चरित्र और सर्वोत्तम नैतिकता होगी, और सभी लोगों को इसी तरह रहना चाहिए। शैतान लोगों के मन में ये विचार बिठा देता है, उन्हें गुमराह करके सृजित प्राणियों और साधारण लोगों के रूप में अपनी पहचान त्यागने और कुछ ऐसे काम करने के लिए प्रोत्साहित करता है जो वास्तविकता से मेल नहीं खाते। इसका परिणाम क्या होता है? वे खुद को अपने विनाश के रास्ते पर ले जाते हैं, और अनजाने में चरम सीमा तक चले जाते हैं। “चरम सीमा तक जाने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ मनुष्य के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं से और उन प्रवृत्तियों से दूर बहुत दूर भटक जाना है जो परमेश्वर ने मानव जाति के लिए पूर्वनिर्धारित की हैं। आखिर में ऐसे लोगों के लिए आगे बढ़ने का रास्ता बंद हो जाता है, जो उनके ही विनाश का मार्ग भी होता है।

लोगों को कैसे जीना चाहिए, इस संबंध में मानव जाति से परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं? सच तो यह है कि वे बहुत सरल हैं। ये अपेक्षाएँ एक सृजित प्राणी का उचित स्थान ग्रहण करना और उस कर्तव्य को पूरा करना है जो किसी व्यक्ति को पूरा करना चाहिए। परमेश्वर ने तुम्हें अतिमानवीय या प्रख्यात व्यक्ति बनने के लिए नहीं कहा है, न ही उसने तुम्हें आकाश में उड़ने के लिए पंख दिए हैं। उसने तुम्हें केवल दो हाथ और दो पैर दिए, जिनसे तुम कदम-दर-कदम जमीन पर चल सकते हो और जरूरत पड़ने पर दौड़ सकते हो। परमेश्वर ने तुम्हारे जो आंतरिक अंग बनाए हैं, वे भोजन को पचाते और अवशोषित करते हैं, और तुम्हारे पूरे शरीर को पोषण देते हैं, इसलिए तुम्हें दिन में तीन बार भोजन करने की दिनचर्या का पालन करना चाहिए। परमेश्वर ने तुम्हें स्वतंत्र इच्छा, सामान्य मानवता की बुद्धि, विवेक और समझ दी है जो एक इंसान के पास होनी चाहिए। अगर तुम इन चीजों का अच्छी तरह से और सही ढंग से उपयोग करते हो, शरीर को जीवित रखने के नियमों का पालन करते हो, अपने स्वास्थ्य की उचित देखभाल करते हो, दृढ़ता से वह सब करते हो जो परमेश्वर तुमसे चाहता है, और वह सब हासिल करते हो जिसकी परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है, तो इतना काफी है, और यह बहुत आसान भी है। क्या परमेश्वर ने तुमसे कार्य स्वीकार करने और मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करने को कहा है? क्या उसने तुम्हें खुद को कष्ट देने के लिए कहा है? (नहीं।) परमेश्वर ऐसी चीजों की अपेक्षा नहीं करता। लोगों को खुद को कष्ट नहीं देना चाहिए, बल्कि व्यावहारिक ज्ञान से शरीर की विभिन्न आवश्यकताओं को ठीक से पूरा करना चाहिए। प्यास लगने पर पानी पियो, भूख लगने पर खाना खाओ, थके होने पर आराम करो, देर तक बैठे रहने के बाद व्यायाम करो, बीमार पड़ने पर डॉक्टर के पास जाओ, दिन में तीन बार भोजन करो और सामान्य मानवता का जीवन जीते रहो। बेशक तुम्हें अपने सामान्य कर्तव्य भी निभाते रहना चाहिए। अगर तुम्हारे कर्तव्यों में कुछ विशेषज्ञ ज्ञान शामिल है जिसे तुम नहीं समझते, तो तुम्हें अध्ययन करके उसका अभ्यास करना चाहिए। यह सामान्य जीवन है। अभ्यास के विभिन्न सिद्धांत जिन्हें परमेश्वर लोगों के लिए सामने रखता है, वे सभी चीजें हैं जिन्हें सामान्य मानवता की बुद्धि समझ सकती है, ऐसी चीजें जिन्हें लोग समझ और स्वीकार सकते हैं, और जो सामान्य मानवता के दायरे से जरा भी बाहर नहीं हैं। वे सभी मनुष्यों की प्राप्ति के दायरे में हैं, और किसी भी तरह से जो उचित है उसकी सीमा का उल्लंघन नहीं करते। परमेश्वर लोगों से अतिमानवीय या प्रख्यात व्यक्ति बनने की अपेक्षा नहीं रखता, जबकि नैतिक आचरण की कहावतें लोगों को अतिमानवीय या प्रख्यात व्यक्ति बनने की आकांक्षा रखने के लिए मजबूर करती हैं। उन्हें न केवल अपने देश और राष्ट्र के महान हित का ख्याल रखना होगा, बल्कि उन्हें इस कार्य को स्वीकारकर मरते दम तक अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास भी करना होगा। यह उन्हें अपना जीवन छोड़ने के लिए मजबूर करता है, जो पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षाओं के विपरीत है। लोगों के जीवन के प्रति परमेश्वर का रवैया क्या होता है? परमेश्वर लोगों को हर परिस्थिति में सुरक्षित रखता है, उन्हें प्रलोभन और अन्य खतरनाक परिस्थितियों में पड़ने से बचाता है, और उनके जीवन की रक्षा करता है। ऐसा करने में परमेश्वर का उद्देश्य क्या होता है? इसका उद्देश्य लोगों को अच्छा जीवन जीने देना है। लोगों को अच्छा जीवन जीने देने का उद्देश्य क्या है? परमेश्वर तुम्हें अतिमानव बनने के लिए मजबूर नहीं करता, और न ही वह तुम्हें स्वर्ग के नीचे की हर चीज को अपने दिल में रखने को कहता है और न ही देश और लोगों के बारे में चिंता करने को कहता है; सभी चीजों पर शासन करने, सभी चीजों का आयोजन करने और मानव जाति पर शासन करने के लिए परमेश्वर की जगह लेना तो दूर की बात है। बल्कि वह तुमसे अपेक्षा करता है कि तुम एक सृजित प्राणी का उचित स्थान ग्रहण करो, एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को पूरा करो और उन कर्तव्यों का पालन करो जो लोगों को करने चाहिए और वह करना चाहिए जो लोगों को करना चाहिए। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें करनी चाहिए, और उनमें मानव जाति के भाग्य पर शासन करना, स्वर्ग के नीचे की हर चीज को अपने दिल में रखना, या मानव जाति, अपनी जन्मभूमि, कलीसिया, परमेश्वर की इच्छा, या मानव जाति को बचाने के उसके महान उपक्रम को पूरा करना शामिल नहीं है। ये चीजें शामिल नहीं हैं। तो तुम्हें जो चीजें करनी चाहिए उनमें क्या शामिल है? इनमें वह आदेश शामिल है जो परमेश्वर तुम्हें देता है, वे कर्तव्य जो परमेश्वर तुम्हें सौंपता है, और ऐसी हर अपेक्षा जो परमेश्वर का घर प्रत्येक अवधि में तुमसे करता है। क्या यह सरल नहीं है? क्या इसे करना आसान नहीं है? इसे करना बहुत ही सरल और आसान है। लेकिन लोग हमेशा परमेश्वर को ही गलत समझते हैं, और सोचते हैं कि वह उन्हें गंभीरता से नहीं लेता है। ऐसे लोग हैं जो सोचते हैं, “जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें खुद को इतना महत्वपूर्ण नहीं समझना चाहिए, उन्हें अपने शरीर के बारे में चिंतित नहीं होना चाहिए, अधिक कष्ट सहना चाहिए और रात को जल्दी नहीं सोना चाहिए, क्योंकि अगर वे जल्दी सो गए तो परमेश्वर उनसे नाराज हो सकता है। उन्हें जल्दी उठना चाहिए और देर से सोना चाहिए, और रात भर मेहनत करके अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। भले ही वे परिणाम न दें, फिर भी उन्हें सुबह दो या तीन बजे तक जगे रहना चाहिए।” नतीजा यह कि ऐसे लोग अपने आप ही खुद को इतना ज्यादा थका देते हैं कि उन्हें चलने में भी बहुत मेहनत करनी पड़ती है, और फिर भी कहते हैं कि अपना कर्तव्य निभाने से उन्हें थकावट होती है। क्या यह लोगों की मूर्खता और अज्ञानता के कारण नहीं है? कुछ अन्य लोग भी हैं जो सोचते हैं, “जब हम थोड़े विशेष और अच्छे कपड़े पहनते हैं तो इससे परमेश्वर खुश नहीं होता है, न ही वह इस बात से खुश होता है कि हम हर दिन मांस और अच्छा खाना खाते हैं। परमेश्वर के घर में हम केवल कोई कार्य स्वीकार कर मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास ही कर सकते हैं,” और उन्हें लगता है कि परमेश्वर के विश्वासी होने के नाते उन्हें मरते दम तक अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, नहीं तो परमेश्वर उन्हें नहीं छोड़ेगा। क्या वास्तव में ऐसा है? (नहीं।) परमेश्वर चाहता है कि लोग अपना कर्तव्य जिम्मेदारी और वफादारी के साथ पूरा करें, लेकिन वह उन्हें अपने शरीर को कष्ट देने के लिए मजबूर नहीं करता, और वह उन्हें बेपरवाह होने या समय बर्बाद करने के लिए तो बिल्कुल भी नहीं कहता। मैं देखता हूँ कि कुछ अगुआ और कर्मी लोगों को इस तरह से अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए व्यवस्थित करते हैं, वे दक्षता की अपेक्षा नहीं करते, बल्कि केवल लोगों का समय और ऊर्जा बर्बाद करते हैं। सच तो यह है कि वे लोगों का जीवन बर्बाद कर रहे हैं। अंत में, लंबे समय में कुछ लोगों को स्वास्थ्य समस्याएँ, पीठ दर्द की सामस्या, और घुटनों में दर्द की शिकायत रहने लगती है, और कंप्यूटर की स्क्रीन देखते ही उन्हें चक्कर आने लगता है। यह कैसे हो सकता है? यह किसने किया? (वे खुद ही इसका कारण थे।) परमेश्वर के घर की अपेक्षा होती है कि हर कोई अधिक से अधिक रात 10 बजे तक आराम करने चला जाए, लेकिन कुछ लोग रात 11 या 12 बजे तक नहीं सोते, जिसका असर दूसरे लोगों के आराम पर पड़ता है। कुछ लोग जीवन की सुख-सुविधाओं का लालच रखने और सामान्य रूप से आराम करने वालों को भी धिक्कारते हैं। यह गलत है। अगर तुम्हारे शरीर को पर्याप्त आराम नहीं मिलता तो तुम अच्छा काम कैसे कर सकते हो? परमेश्वर इस बारे में क्या कहता है? परमेश्वर का घर इसे कैसे नियंत्रित करता है? सब कुछ परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर के घर के नियमों के अनुसार किया जाना चाहिए, और केवल यही सही है। कुछ लोग बेतुकी समझ रखते हैं, वे हमेशा चरम सीमा तक चले जाते हैं और यहाँ तक कि दूसरों को बाध्य भी करते हैं। यह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। कुछ लोग बस बेतुके और मूर्ख होते हैं जिनके पास कोई विवेक नहीं होता, और उन्हें लगता है कि अपने कर्तव्य निभाने के लिए देर रात तक जागना जरूरी है; चाहे वे काम में व्यस्त हों या नहीं, वे थके होने पर भी खुद को आराम नहीं करने देते, बीमार होने पर किसी से कुछ नहीं कहते, और इससे भी बढ़कर डॉक्टर के पास नहीं जाते हैं, जो उन्हें समय की बर्बादी लगती है जिससे उनके कर्तव्य निर्वहन में देरी हो सकती है। क्या यह दृष्टिकोण सही है? इतने सारे धर्मोपदेश सुनने के बाद भी विश्वासी ऐसे बेतुके विचार लेकर क्यों आते हैं? परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाएँ कैसे नियंत्रित होती हैं? तुम्हें नियमित रूप से रात 10 बजे तक आराम करने चले जाना चाहिए और सुबह 6 बजे उठ जाना चाहिए, और यह ध्यान रखना चाहिए कि तुम्हें आठ घंटे की अच्छी नींद मिले। इसके अलावा इस बात पर भी बार-बार जोर दिया जाता है कि तुम्हें काम के बाद व्यायाम करके अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए, स्वस्थ आहार और दिनचर्या का पालन करना चाहिए, ताकि तुम अपना कर्तव्य निभाते समय स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से बचे रहो। लेकिन कुछ लोग इसे समझ नहीं पाते हैं, वे सिद्धांतों या नियमों का पालन नहीं कर पाते, बेवजह देर तक जागते हैं और गलत तरह की चीजें खाते हैं। जब वे बीमार पड़ जाते हैं, तो अपना कर्तव्य नहीं निभा पाते, और तब पछतावा करने से कुछ नहीं बदलता। मैंने हाल ही में सुना कि कुछ लोग बीमार पड़ गए हैं। क्या यह उनके द्वारा सिद्धांतों का पालन किए बिना अपना कर्तव्य निभाने और लापरवाही से कार्य करने के कारण नहीं हुआ है? यह सच है कि तुम अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाते हो, लेकिन तुम अपने शरीर के प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकते। यदि तुम उनका उल्लंघन करते हो, तो बीमार पड़ जाओगे। तुम्हें अपने स्वास्थ्य की देखभाल कैसे करनी है इसकी सामान्य समझ अवश्य होनी चाहिए। तुम्हें उचित समय पर व्यायाम और नियमित समय पर भोजन करना चाहिए। तुम बहुत ज्यादा शराब नहीं पी सकते और न ही ज्यादा खाना खा सकते हो, तुम केवल अपनी पसंद की चीजें और अस्वास्थ्यकर आहार नहीं ले सकते। इसके अलावा तुम्हें अपनी मनोदशा नियंत्रित रखने, परमेश्वर के सामने रहने और सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान देने और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने की आवश्यकता है। इस तरह तुम्हारे दिल में शांति और खुशी होगी, और तुम खोखला या उदास महसूस नहीं करोगे। विशेष रूप से अगर लोग भ्रष्ट स्वभावों को त्याग दें और सामान्य मानवता को जिएँ, तो उनकी मानसिक स्थिति पूरी तरह से सामान्य रहेगी और उनका शरीर स्वस्थ रहेगा। मैंने तुम लोगों से कभी देर से सोने और जल्दी उठने या दिन में दस घंटे से ज्यादा काम करने के लिए नहीं कहा। यह सब इसलिए है क्योंकि लोग नियमों के अनुसार व्यवहार और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते। आखिरकार लोग इतने नासमझ होते हैं कि वे अपने स्वास्थ्य को हल्के में लेने लगते हैं। मैंने देखा कि कुछ स्थानों पर लोग हमेशा अपने कर्तव्यों को घर के अंदर रहकर ही निभा रहे थे, धूप सेंकने या सक्रिय रहने के लिए बाहर नहीं जा रहे थे, तो मैंने लोगों के लिए कुछ फिटनेस उपकरणों की व्यवस्था की और उन्हें हफ्ते में एक या दो बार व्यायाम करने के लिए कहा, जो एक स्वस्थ दिनचर्या के लिए होता है। जो लोग ठीक से व्यायाम नहीं करते वे स्वाभाविक रूप से बीमार हो जाएँगे और इसका असर उनके सामान्य जीवन पर भी पड़ता है। ऐसी व्यवस्था करके क्या मुझे इसका ध्यान रखने की जरूरत है कि कौन कितनी बार व्यायाम कर रहा है? (नहीं।) मुझे ऐसा करने की जरूरत नहीं है, मैंने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी है, अपनी बात रख दी है, और बिना किसी झूठ के तुम सब को सच्चाई से बता दिया है कि क्या करना है, तुम्हें बस निर्देशानुसार इसे करते जाना है। लेकिन लोग इसे नहीं समझते, सोचते हैं कि वे अभी जवान और स्वस्थ हैं, तो वे मेरे शब्दों को गंभीरता से नहीं लेते। यदि तुम लोग अपने स्वास्थ्य को ही महत्व नहीं देते, तो मेरा इस बारे में चिंता करना बेकार है—बस बीमार पड़ने पर दूसरों को दोष मत देना। लोग व्यायाम करने पर ध्यान नहीं देते हैं। एक पहलू यह है कि उनके मन में कुछ गलत विचार और दृष्टिकोण होते हैं। दूसरा यह कि उनमें आलस्य की घातक समस्या होती है। यदि लोगों को कोई छोटी-मोटी शारीरिक बीमारी होती है, तो उन्हें बस अपने स्वास्थ्य की देखभाल पर ध्यान देना और अधिक सक्रिय रहना होगा। लेकिन कुछ लोग बीमार पड़ने पर व्यायाम करने और अपने स्वास्थ्य की देखभाल करने के बजाय जाकर इंजेक्शन लगवाना या कोई दवा लेना पसंद करते हैं। इसकी वजह आलस होता है। लोग आलसी हैं और व्यायाम करने में आनाकानी करते हैं, इसलिए उनसे कुछ भी कहना बेकार है। आखिर में बीमार पड़ने पर वे दूसरों को दोष नहीं दे सकते; वे अंदर से खुद जानते हैं कि वास्तविक कारण क्या है। हरेक व्यक्ति को रोज सामान्य मात्रा में व्यायाम करना चाहिए। हर दिन मुझे कम से कम एक या दो घंटे पैदल चलना और कुछ जरूरी व्यायाम करने होते हैं। यह न केवल मेरे शरीर को मजबूत रखने में मदद करता है, बल्कि बीमारी को रोकने और मुझे शारीरिक रूप से बेहतर महसूस कराने में भी मदद करता है। व्यायाम केवल बीमारी से बचाव के लिए नहीं होता, बल्कि यह एक सामान्य शारीरिक जरूरत भी है। इस मामले में मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षा यह है कि उनमें थोड़ी सी अंतर्दृष्टि हो। नासमझ मत बनो, और अपने शरीर को कष्ट मत दो, बल्कि इसके प्राकृतिक नियमों का पालन करो। अपनी देह का दुरुपयोग मत करो, और न ही इसके बारे में ज्यादा चिंता करो। क्या इस सिद्धांत को समझना आसान है? (हाँ।) वास्तव में इसे समझना बहुत आसान है, मुख्य बात यह है कि लोग इसे अभ्यास में लाते हैं या नहीं। लोगों की घातक कमजोरियों में से एक और क्या है? वे हमेशा अपनी कल्पना को अपने साथ उड़ने देते हैं, सोचते हैं, “अगर मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, तो मैं बीमार नहीं पड़ूँगा, मैं बूढ़ा नहीं होऊँगा, और यकीनन नहीं मरूँगा।” ये बिल्कुल बकवास है। परमेश्वर ऐसी अलौकिक चीजें नहीं करता। वह लोगों को बचाता है, उनसे वादे करता है, और उन्हें सत्य खोजने और समझने, अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने, उसका उद्धार प्राप्त करने, और मानव जाति की खूबसूरत मंजिल में प्रवेश करने के लिए कहता है। लेकिन परमेश्वर ने लोगों से कभी यह वादा नहीं किया है कि वे बीमार नहीं पड़ेंगे या बूढ़े नहीं होंगे, न ही उसने लोगों से यह वादा किया है कि वे मरेंगे नहीं। और बेशक परमेश्वर ने लोगों से ऐसी कोई अपेक्षा नहीं रखी है कि उन्हें “कोई कार्य स्वीकार कर मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करना चाहिए।” जब अपना कर्तव्य निभाने और कलीसिया का कार्य करने, कष्ट उठाने, त्याग करने, खुद को खपाने, और चीजों को छोड़ने की बात आती है, तो लोगों को सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। अपने जीवन और शारीरिक जरूरतों से निपटते समय लोगों में थोड़ी व्यावहारिक समझ होनी चाहिए, और उन्हें अपने शरीर की सामान्य जरूरतों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, उन कानूनों और नियमों का उल्लंघन करना तो दूर की बात है जो परमेश्वर ने लोगों के लिए बनाए हैं। बेशक यह कम-से-कम व्यावहारिक सामान्य समझ है जो लोगों में होनी चाहिए। यदि लोग अपने शरीर की जरूरतों और नियमों के हिसाब से चलना भी नहीं जानते, और उनके पास थोड़ी भी व्यावहारिक समझ नहीं है, बल्कि वे केवल कल्पनाओं और धारणाओं पर भरोसा करते हैं, और यहाँ तक कि अपने शरीर से व्यवहार के कुछ अतिवादी विचार और अतिवादी तरीके अपनाते हैं, तो ऐसे लोगों की समझ बेतुकी है। ऐसी काबिलियत वाले लोग किस प्रकार का सत्य समझ सकते हैं? इसे लेकर यहाँ सवाल खड़ा है। अपने शरीर के साथ व्यवहार को लेकर लोगों से परमेश्वर की क्या अपेक्षा है? जब परमेश्वर ने लोगों को सृजित किया, तो उसने उनके लिए कुछ नियम भी बनाए, तो वह तुमसे अपेक्षा करता है कि तुम अपने शरीर के साथ इन्हीं नियमों के अनुसार व्यवहार करो। यही वह अपेक्षा और मानक है जो परमेश्वर लोगों के लिए निर्धारित करता है। धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा मत करो। क्या तुम समझ रहे हो?

नैतिक आचरण की इस कहावत, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” की शिक्षा और प्रभाव में आकर लोग यह नहीं जानते कि अपने शरीर के साथ कैसा व्यवहार करें या सामान्य जीवन कैसे जिएँ। यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि लोग अपनी मृत्यु से निपटना नहीं जानते, और न ही सार्थक तरीके से जीना जानते हैं। तो चलो अब हम लोगों की मृत्यु से निपटने को लेकर परमेश्वर के रवैये को देखते हैं। चाहे कर्तव्य निर्वहन का कोई भी पहलू हो, लोगों के लिए अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में परमेश्वर का लक्ष्य सत्य को समझना, उसे अभ्यास में लाना, अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करना, एक सामान्य मनुष्य की छवि को जीना, और सीधे मृत्यु की ओर भागने के बजाय उद्धार प्राप्त करने के मानक तक पहुँचना होता है। कुछ लोगों को गंभीर बीमारी या कैंसर हो जाता है और वे सोचते हैं, “परमेश्वर मुझसे मरने और अपना जीवन त्यागने के लिए कह रहा है, तो मैं ऐसा ही करूँगा!” वास्तव में परमेश्वर ने ऐसा नहीं कहा, न ही उसके मन में ऐसा कोई विचार आया। यह सिर्फ लोगों की गलतफहमी है। तो परमेश्वर क्या चाहता है? हरेक व्यक्ति कुछ वर्षों तक जीता है, लेकिन उनका जीवनकाल अलग-अलग होता है। हरेक इंसान तभी मरता है जब परमेश्वर इसे निर्धारित करता है, और यह सही समय और सही स्थान पर होता है। यह सब परमेश्वर द्वारा निर्धारित है। वह ऐसा उस व्यक्ति के जीवनकाल और उसकी मृत्यु के निर्धारित स्थान और तरीके के अनुसार करता है, न कि किसी को मनमाने तरीके से मरने देता है। परमेश्वर किसी व्यक्ति के जीवन को बहुत महत्वपूर्ण मानता है, वह उसकी मृत्यु और उसके भौतिक जीवन के अंत को भी बहुत महत्वपूर्ण मानता है। यह सब परमेश्वर द्वारा निर्धारित है। इस दृष्टिकोण से देखने पर चाहे परमेश्वर लोगों से अपने कर्तव्यों का पालन करने या उसका अनुसरण करने की अपेक्षा करता हो या नहीं, वह लोगों से मृत्यु की ओर तेजी से भागने के लिए तो नहीं ही कहता। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि परमेश्वर तुमसे यह अपेक्षा नहीं करता कि तुम अपना कर्तव्य निभाने या परमेश्वर के लिए खुद को खपाने या उसके आदेश की खातिर किसी भी समय अपना जीवन त्यागने के लिए तैयार रहो। तुम्हें ऐसी तैयारी करने, ऐसी मानसिकता रखने, और यकीनन इस तरह से योजना बनाने या सोचने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि परमेश्वर तुम्हारी जान नहीं लेना चाहता। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? जाहिर है कि तुम्हारा जीवन परमेश्वर का है, उसी ने ही इसे तुम्हें दिया है, तो वह इसे वापस क्यों लेना चाहेगा? क्या तुम्हारा जीवन मूल्यवान है? परमेश्वर के दृष्टिकोण से सवाल इसके मूल्यवान होने या न होने का नहीं, बल्कि सवाल सिर्फ परमेश्वर की प्रबंधन योजना में तुम्हारी भूमिका का है। जहाँ तक तुम्हारे जीवन का सवाल है, यदि परमेश्वर इसे छीनना चाहता, तो वह इसे किसी भी समय, किसी भी स्थान पर और किसी भी पल छीन सकता था। इसलिए किसी भी व्यक्ति का जीवन उसके लिए महत्वपूर्ण है, और उसके कर्तव्यों, दायित्वों और जिम्मेदारियों के साथ-साथ परमेश्वर के आदेश के लिए भी महत्वपूर्ण है। बेशक यह परमेश्वर की संपूर्ण प्रबंधन योजना में उनकी भूमिका के लिए भी महत्वपूर्ण है। भले ही यह महत्वपूर्ण है, पर परमेश्वर को तुम्हारा जीवन छीनने की कोई जरूरत नहीं। क्यों? जब तुमसे तुम्हारा जीवन छीन लिया जाता है, तो तुम एक मृत व्यक्ति बन जाते हो, और तुम्हारा कोई इस्तेमाल नहीं रहता। केवल जब तुम जीवित रहते हो, उस मानव जाति के बीच होते हो जिस पर परमेश्वर शासन करता है, तभी तुम वह भूमिका निभा सकोगे जो तुम्हें इस जीवन में निभानी चाहिए, और उन जिम्मेदारियों, दायित्वों और कर्तव्यों को भी पूरा कर पाओगे जो तुम्हें इस जीवन में पूरे करने हैं, और वे कर्तव्य पूरे कर सकोगे, जिन्हें पूरा करने की अपेक्षा परमेश्वर तुमसे इस जीवन में करता है। इस तरह जीवित रहकर ही तुम्हारा जीवन मूल्यवान हो सकता है और उसके मूल्य का सही उपयोग हो सकता है। तो “परमेश्वर के लिए मरना” या “परमेश्वर के कार्य के लिए अपना जीवन त्यागना” जैसी बातों को लापरवाही से मत दोहराओ, न ही उन्हें अपने मन में या अपने दिल की गहराइयों में रखो; यह अनावश्यक है। जब कोई व्यक्ति लगातार परमेश्वर की खातिर मरना और अपने कर्तव्य के लिए खुद को अर्पित करना और अपना जीवन त्यागना चाहता है, तो यह सबसे घटिया, बेकार और घृणित बात होती है। क्यों? यदि तुम्हारा जीवन समाप्त हो जाएगा, और तुम देह में नहीं रहोगे, तो तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य कैसे पूरा कर पाओगे? यदि सभी लोग मर गए तो परमेश्वर अपने कार्य के जरिए किसे बचाएगा? यदि ऐसे मनुष्य ही नहीं होंगे जिन्हें बचाने की आवश्यकता है, तो परमेश्वर की प्रबंधन योजना का कार्यान्वयन कैसे होगा? क्या मानव जाति को बचाने का परमेश्वर का कार्य अभी भी अस्तित्व में रहेगा? क्या यह तब भी जारी रहेगा? इन पहलुओं से गौर करें, तो क्या लोगों के लिए अपने शरीर की अच्छी देखभाल करना और स्वस्थ जीवन जीना महत्वपूर्ण बात नहीं है? क्या यह सार्थक नहीं है? यह यकीनन सार्थक है और लोगों को ऐसा ही करना चाहिए। जहाँ तक उन बेवकूफों की बात है जो लापरवाही से कहते हैं, “यदि बद से बदतर समय आया, तो मैं परमेश्वर के लिए जान दे दूँगा,” और जो लापरवाही से मुत्यु को महत्वहीन बना सकते हैं, अपना जीवन त्याग सकते हैं, अपने शरीर को हानि पहुँचा सकते हैं, वे किस तरह के लोग हैं? क्या वे विद्रोही लोग हैं? (हाँ।) ये सबसे विद्रोही लोग हैं, और इनका तिरस्कार कर इन्हें ठुकरा देना चाहिए। जब कोई व्यक्ति लापरवाही से यह कह पाता है कि वह परमेश्वर के लिए जान दे देगा, तो हो सकता है वह बिना सोचे अपना जीवन समाप्त करने, अपना कर्तव्य छोड़ने, परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए आदेश को छोड़ने, और अपने भीतर परमेश्वर के वचनों को पूरा नहीं होने देने के बारे में सोच रहा है। क्या यह चीजों को करने का मूर्खतापूर्ण तरीका नहीं है? तुम लापरवाही से और आसानी से अपना जीवन त्यागकर यह कह सकते हो कि तुम इसे परमेश्वर को अर्पित करना चाहते हो, लेकिन क्या परमेश्वर को तुमसे ऐसा करवाने की जरूरत है? तुम्हारा जीवन परमेश्वर का ही है, और वह जब चाहे इसे छीन सकता है, तो फिर उसे अपना जीवन अर्पित करने का क्या मतलब? यदि तुम इसे अर्पित नहीं करते हो, मगर परमेश्वर को इसकी जरूरत है, तो क्या वह इसके लिए तुमसे विनती करेगा? क्या उसे इस बारे में तुमसे बात करनी होगी? नहीं, वह ऐसा नहीं करेगा। लेकिन परमेश्वर तुम्हारा जीवन किसलिए चाहेगा? यदि परमेश्वर ने तुम्हारा जीवन वापस ले लिया, तो तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा पाओगे, और परमेश्वर की प्रबंधन योजना से एक व्यक्ति गायब हो जाएगा। क्या वह इससे खुश और संतुष्ट होगा? वास्तव में इससे कौन खुश और संतुष्ट होगा? (शैतान।) अपना जीवन त्यागकर तुम क्या हासिल कर पाओगे? और तुम्हारा जीवन छीनकर परमेश्वर को क्या हासिल हो पाएगा? यदि तुम बचाए जाने का अवसर खो देते हो, तो इससे परमेश्वर का फायदा होगा या नुकसान? (नुकसान।) परमेश्वर के लिए यह कोई फायदा नहीं बल्कि नुकसान है। परमेश्वर तुम्हें एक सृजित प्राणी के रूप में, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने देने के लिए, एक सृजित प्राणी का जीवन जीने और इसका स्थान ग्रहण करने देता है, और ऐसा करके परमेश्वर तुम्हें सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने, उसके प्रति समर्पित होने, उसकी इच्छा समझने और उसे जानने, उसके इरादों के अनुसार चलने, मानव जाति को बचाने के उसके कार्य को पूरा करने में उसके साथ सहयोग करने और अंत तक उसका अनुसरण करने की अनुमति देता है। यही धार्मिकता है और यही तुम्हारे जीवन के अस्तित्व का मूल्य और अर्थ है। यदि तुम्हारा जीवन इसके लिए है, और तुम इसके लिए ही स्वस्थ जीवन जीते हो, तो यह सबसे सार्थक चीज है, और जहाँ तक परमेश्वर की बात है, यही सच्चा समर्पण और सहयोग है—उसके लिए यह सबसे संतोषजनक चीज है। परमेश्वर अपनी ताड़ना और न्याय के जरिए देह में रहने वाले सृजित प्राणी को अपना भ्रष्ट स्वभाव त्यागते, शैतान द्वारा उसमें डाले गए अनगिनत भ्रामक विचारों को ठुकराते, परमेश्वर के सत्यों और अपेक्षाओं को स्वीकारने में सक्षम होते, सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के प्रति पूरी तरह समर्पित होते, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करते, और एक सच्चा सृजित प्राणी बनने में सक्षम होते देखना चाहता है। परमेश्वर यही देखना चाहता है, और यही मानव जीवन के अस्तित्व का मूल्य और अर्थ है। इसलिए किसी भी सृजित प्राणी के लिए मृत्यु अंतिम मंजिल नहीं है। मानव जीवन के अस्तित्व का मूल्य और अर्थ मरना नहीं है, बल्कि परमेश्वर के लिए जीना है, परमेश्वर के लिए और अपने कर्तव्य के लिए जीवित रहना है, एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए जीवित रहना है, परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलना और शैतान को नीचा दिखाना है। यही एक सृजित प्राणी के जीवन का मूल्य है, और यही उसके जीवन का अर्थ भी है।

जहाँ तक लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं का संबंध है, परमेश्वर लोगों के जीवन और मृत्यु के साथ जिस तरह का व्यवहार करता है वह परंपरागत संस्कृति में “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” वाली कहावत से पूरी तरह अलग है। शैतान लगातार चाहता है कि लोग मर जाएँ। लोगों को जीवित देखकर उसे असहज महसूस होता है, और वह लगातार यही सोचता रहता है कि उनकी जान कैसे ली जाए। एक बार जब लोग शैतान की परंपरागत संस्कृति के भ्रामक विचारों को स्वीकार लेते हैं, तो वे केवल अपने देश और राष्ट्र के लिए, या अपने करियर के लिए, प्यार के लिए, या अपने परिवार के लिए अपना जीवन त्याग देना चाहते हैं। वे लगातार अपने जीवन का तिरस्कार करते हैं, कहीं भी और किसी भी समय मरने और अपना जीवन त्यागने के लिए तैयार रहते हैं, और परमेश्वर द्वारा उन्हें दिए गए जीवन को सबसे कीमती चीज और ऐसी चीज नहीं मानते जिसे संजोया जाना चाहिए। परमेश्वर द्वारा उन्हें मिले जीवन को जीते हुए भी वे अपने जीवनकाल के दौरान अपने कर्तव्यों और दायित्वों को पूरा करने में असमर्थ रहते हैं, बल्कि वे शैतान की भ्रांतियों और दानवी शब्दों को स्वीकारते हैं, हमेशा अपने कार्य को स्वीकारने और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ प्रयास करने में लगे रहते हैं और किसी भी समय परमेश्वर की खातिर मरने के लिए खुद को तैयार करते रहते हैं। तथ्य यह है कि यदि तुम वाकई मर जाते हो, तो यह परमेश्वर के लिए नहीं बल्कि शैतान के लिए होगा, और परमेश्वर तुम्हें याद नहीं रखेगा। क्योंकि केवल जीवित व्यक्ति ही परमेश्वर का गुणगान कर सकते हैं और उसकी गवाही दे सकते हैं, और केवल जीवित व्यक्ति ही सृजित प्राणियों का उचित स्थान ग्रहण करके अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकते हैं, और इस तरह उन्हें कोई पछतावा नहीं होता, और वे शैतान को नीचा दिखाने में सक्षम होते हैं, और सृष्टिकर्ता के चमत्कारिक कर्मों और उसकी संप्रभुता की गवाही देते हैं—केवल जीवित लोग ही ये काम कर सकते हैं। यदि तुम्हारे पास जीवन ही नहीं है, तो इन सबका कोई अस्तित्व ही नहीं होगा। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) इसलिए नैतिक आचरण की इस कहावत को सामने रखकर, “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो,” शैतान निस्संदेह मानव जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहा है और उसे रौंद रहा है। शैतान मानव जीवन का सम्मान नहीं करता, बल्कि लोगों से “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” जैसे विचारों को मनवाकर उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करता है। लोग ऐसे विचारों के अनुसार जीते हैं, और जीवन को नहीं संजोते या उसे मूल्यवान नहीं मानते हैं, तो वे लापरवाही से अपना जीवन त्याग देते हैं, जो परमेश्वर द्वारा लोगों को दी गई सबसे कीमती चीजों में से एक है। यह छल-कपट और अनैतिक बात है। जब तक परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए निर्धारित समय-सीमा पूरी नहीं होती, तब तक तुम्हें महत्वहीन ढंग से यूँ ही अपना जीवन त्यागने की बात नहीं करनी चाहिए। जब तक तुम में साँस बाकी है, तब तक हार मत मानो, अपना कर्तव्य मत त्यागो, और सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें सौंपा गया दायित्व और आदेश छोड़कर मत भागो। क्योंकि किसी भी सृजित प्राणी का जीवन केवल सृष्टिकर्ता के लिए और केवल उसकी संप्रभुता, आयोजन और व्यवस्थाओं के लिए होता है, और यह केवल सृष्टिकर्ता की गवाही देने और मानव जाति को बचाने के उसके कार्य को पूरा करने और उसका मूल्य चुकाने के लिए ही अस्तित्व में होता है। तुम देख सकते हो कि मानव जीवन के प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण शैतान के नजरिये से बिल्कुल अलग है। तो वास्तव में मानव जीवन को कौन संजोता है? (परमेश्वर।) केवल परमेश्वर ऐसा करता है, जबकि लोग खुद अपने जीवन को संजोना नहीं जानते। केवल परमेश्वर ही मानव जीवन को संजोता है। हालाँकि मनुष्य प्यारे या प्यार करने के योग्य नहीं हैं, और वे गंदगी, विद्रोहीपन और शैतान द्वारा उनमें डाले गए कई प्रकार के बेतुके विचारों और नजरियों से भरे हुए हैं, और भले ही वे शैतान को आदर्श मानते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, यहाँ तक कि इसके लिए परमेश्वर का विरोध भी करते हैं, फिर भी क्योंकि मनुष्य को परमेश्वर ने सृजित किया है, और वह उन्हें साँस और जीवन देता है, केवल वही मानव जीवन को संजोता है, केवल वही लोगों से प्रेम करता है, और केवल वही मानव जाति की निरंतर देखभाल करता और उसे संजोता है। परमेश्वर मनुष्यों को संजोता है—उनके शरीरों को नहीं बल्कि उनके जीवन को संजोता है, क्योंकि केवल वे मनुष्य जिन्हें परमेश्वर ने जीवन दिया है, आखिर में उसकी आराधना करने वाले सृजित प्राणी बन सकते हैं और उसके लिए गवाही दे सकते हैं। लोगों और इन सृजित प्राणियों के लिए परमेश्वर के पास कार्य, आदेश और अपेक्षाएँ होती हैं। इसलिए परमेश्वर उनके जीवन को संजोता और बचाकर रखता है। यह सत्य है। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) तो एक बार जब लोग सृष्टिकर्ता परमेश्वर के इरादों को समझ जाते हैं, तो उन्हें अपने शारीरिक जीवन के साथ कैसा व्यवहार करना है, और अपना जीवन जीने के नियमों और जरूरतों से कैसे निपटना है, इसके लिए सिद्धांत नहीं होने चाहिए? ये सिद्धांत किस पर आधारित हैं? वे परमेश्वर के वचनों पर आधारित हैं। इनका अभ्यास करने के सिद्धांत क्या हैं? निष्क्रिय रूप में लोगों को शैतान द्वारा उनमें डाले गए कई प्रकार के भ्रामक विचारों को त्याग देना चाहिए, शैतान के विचारों की भ्रामकता को उजागर करना और पहचानना चाहिए—जैसे कि यह कहावत “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो”—जो लोगों को शक्तिहीन कर देती है, उन्हें नुकसान पहुँचाती और सीमित करती है, उन्हें इन विचारों को त्याग देना चाहिए; इसके अलावा सक्रिय रूप में उन्हें सटीक रूप से समझना चाहिए कि मानव जाति के लिए सृष्टिकर्ता परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं, और परमेश्वर के वचनों को अपने हर कार्य का आधार बनाना चाहिए। इस तरह लोग भटकाव के बिना सही तरीके से अभ्यास करने में सक्षम होंगे, और सही मायनों में सत्य का अनुसरण कर सकेंगे। सत्य का अनुसरण करना क्या है? (पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना।) इन शब्दों में इसे सारांशित करना सही है।

आज हमने मुख्य रूप से इस बारे में संगति की है कि मृत्यु के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए और जीवन के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। शैतान लोगों को रौंदता है, तबाह करता है और उनका जीवन छीन लेता है। वह लोगों के मन में भ्रामक प्रकार के विचार और दृष्टिकोण डालकर उन्हें गुमराह और शक्तिहीन कर देता है, और लोगों को उनके पास मौजूद सबसे कीमती चीज—अपने जीवन—का तिरस्कार करने पर मजबूर करता है, जिससे परमेश्वर के कार्य में बाधा आती है और उसका नुकसान होता है। जरा सोचो, अगर पूरी दुनिया में सभी लोग मरना चाहेंगे, और लापरवाही से ऐसा कर पाएँगे, तो क्या समाज अराजकता में नहीं घिर जाएगा? क्या तब मनुष्य के लिए जीवन जीना और जीवित रहना कठिन हो जाएगा? (हाँ।) तो मानव जीवन के प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण क्या होता है? वह इसे संजोता है। परमेश्वर मानव जीवन को संजोता और इसे बचाकर रखता है। परमेश्वर के इन वचनों से लोगों को अभ्यास का कौन सा मार्ग प्राप्त करना चाहिए? अपने जीवनकाल के दौरान जब उनके पास अभी भी जीवन और साँस है, जो कि परमेश्वर द्वारा उन्हें दी गई सबसे कीमती चीजें हैं, लोगों को सही ढंग से सत्य का अनुसरण और उसे समझना चाहिए, और परमेश्वर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों के अनुसार बिना किसी पछतावे के एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए, ताकि एक दिन वे सृजित प्राणियों का स्थान ग्रहण कर सकें, सृष्टिकर्ता की गवाही दे सकें और उसकी आराधना कर सकें। ऐसा करने पर वे शैतान के लिए नहीं बल्कि परमेश्वर की संप्रभुता, उसके कार्य और उसकी गवाही के लिए जीकर अपने जीवन को मूल्य और अर्थ देंगे। लोगों के जीवन का मूल्य और अर्थ तभी है जब वे परमेश्वर के कर्मों और कार्य के बारे में गवाही दे सकें। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि मानव जीवन तब अपने सबसे गौरवशाली समय पर पहुँच जाएगा। ऐसा कहना बिल्कुल सही नहीं है, क्योंकि अभी वो समय नहीं आया है। जब तुम वास्तव में सत्य समझ लेते हो, सत्य प्राप्त कर लेते हो, परमेश्वर के बारे में जान लेते हो, और परमेश्वर की आराधना करने के लिए एक सृजित प्राणी का स्थान ग्रहण कर सकते हो, और परमेश्वर के साथ-साथ सृष्टिकर्ता की संप्रभुता, उसके कर्मों, उसके सार और उसकी पहचान के बारे में गवाही दे सकते हो, तब तुम्हारे जीवन का मूल्य अपने चरम पर और अपनी पूर्ण सीमा तक पहुँच जाएगा। यह सब कहने का उद्देश्य और अर्थ तुम लोगों को जीवन के अस्तित्व के मूल्य और अर्थ के साथ-साथ यह समझाना है कि तुम्हें अपने जीवन के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, ताकि तुम इसके आधार पर वह मार्ग चुन सको जिस पर तुम्हें चलना चाहिए। परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होने का यही एकमात्र रास्ता है।

4 जून 2022

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