सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (11)

हरेक अवधि में और हरेक चरण में, कलीसिया में कुछ विशेष चीजें घटित होती हैं जो लोगों की धारणाओं के विपरीत होती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग बीमार हो जाते हैं, अगुआओं और कर्मियों को बदल दिया जाता है, कुछ लोग उजागर करके बाहर निकाल दिए जाते हैं, कुछ को जिंदगी और मौत की परीक्षा का सामना करना पड़ता है, कुछ कलीसियाओं में दुष्ट लोग और मसीह-विरोधी भी होते हैं जो परेशानियाँ खड़ी करते हैं, वगैरह। ये चीजें समय-समय पर होती रहती हैं, लेकिन ये संयोगवश बिल्कुल नहीं होती हैं। ये सभी चीजें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के परिणाम हैं। एक बहुत शांत अवधि में अचानक कई घटनाएं या असामान्य चीजें घटित हो सकती हैं, जो या तो तुम लोगों के आस-पास होंगी या व्यक्तिगत रूप से तुम लोगों के साथ होंगी, और ऐसी घटनाएं लोगों के जीवन की सामान्य व्यवस्था और सामान्य गतिविधि में बाधक बनती हैं। बाहर से, ये चीजें लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं होती हैं, लोग नहीं चाहते कि उनके साथ ऐसी चीजें हों या वे इन्हें घटित होते देखना नहीं चाहते हैं। तो क्या इन चीजों के घटित होने से लोगों को फायदा होता है? लोगों को उनसे कैसे निपटना चाहिए, उनका अनुभव कैसे करना चाहिए और उन्हें कैसे समझना चाहिए? क्या तुम लोगों में से किसी ने इसके बारे में सोचा है? (हमें यह समझना चाहिए कि यह परमेश्वर की संप्रभुता का परिणाम है।) क्या इतना समझ लेना काफी होगा कि यह परमेश्वर की संप्रभुता का परिणाम है? क्या तुमने इससे कोई सबक सीखा है? क्या तुम आगे समझ सकते हो कि परमेश्वर इन सभी चीजों पर कैसे संप्रभुता रखता है? परमेश्‍वर की संप्रभुता में विशेष रूप से क्या शामिल है? लोगों में ऐसे कौन-से विशिष्ट लक्षण दिखते हैं जिनके बारे में उन्हें जानना और समझना चाहिए? क्या तुम लोगों ने अपने आस-पास घटित घटनाओं से कोई सबक सीखा है? क्या तुम उन्हें परमेश्वर की ओर से आई घटनाएं मानकर स्वीकार सकते हो, और इनसे कुछ हासिल कर सकते हो? या मन ही मन ये सोचकर बेपरवाह हो जाते हो, “यह सब परमेश्वर की संप्रभुता का परिणाम है, बस परमेश्वर को समर्पित हो जाओ, इसमें ज्यादा सोचने जैसा कुछ भी नहीं है,” और ऐसी सरल चीजें सोचकर इन्हें यूँ ही हाथ से निकल जाने देते हो? इनमें से कौन-सी परिस्थितियाँ तुम लोगों पर लागू होती हैं? कभी-कभी कलीसिया में बड़ी घटनाएँ हो जाती हैं; उदाहरण के लिए, सुसमाचार के कार्य को फैलाने में, अप्रत्याशित रूप से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं या अचानक कुछ कठिनाइयाँ, उतार-चढ़ाव, बाधाएँ सामने आती हैं या यहाँ तक कि बाहरी ताकतों की रुकावटों और गड़बड़ी को भी झेलना होता है। कभी-कभी किसी कलीसिया में या अपना कर्तव्य निभा रहे लोगों के बीच कुछ असाधारण घटित हो जाता है। चाहे सामान्य समय हो या असामान्य, क्या तुम लोगों ने कभी घटित होने वाली इन असाधारण चीजों पर विचार किया है? तुम्हारा अंतिम निष्कर्ष क्या था? या ऐसा है कि ज्यादातर समय तुम कुछ समझ ही नहीं पाते हो? कुछ लोग इन चीजों के बारे में बस अंदर ही अंदर सोचते हैं, और इन्हें समझने के लिए सत्य खोजे बिना बस छोटी-सी प्रार्थना कह देते हैं। वे बस यह स्वीकार लेते हैं कि ये चीजें परमेश्वर से आई हैं और बस इतना ही काफी है। क्या यह काम में लापरवाही नहीं है? ज्यादातर लोग बस जैसे-तैसे काम करते हैं। और जब बहुत कम काबिलियत वाले लोग इन चीजों का सामना करते हैं, तो उन्हें कुछ समझ नहीं आता और वे उलझन में पड़ जाते हैं; वे बड़ी आसानी से परमेश्वर के प्रति धारणाएँ और गलतफहमियाँ पाल सकते हैं, और परमेश्वर की संप्रभुता और आयोजन को लेकर संदेह कर सकते हैं। लोगों के पास पहले ही परमेश्वर की कोई समझ नहीं थी, और जब उनका सामना कुछ ऐसी चीजों से होता है जो उनकी धारणाओं के विपरीत होती हैं, तो वे सत्य नहीं खोजते या दूसरों के साथ संगति नहीं करते, बल्कि केवल अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर उनसे पेश आते हैं, और आखिर में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, “ये चीजें परमेश्वर की ओर से आई हैं या नहीं, यह अभी भी निश्चित नहीं है” और फिर वे परमेश्वर के बारे में आशंकाएँ पालने और यहाँ तक कि उसके वचनों पर भी संदेह करने लगते हैं। इस कारण, परमेश्वर को लेकर उनके संदेह, अटकलें और सावधानी अधिक से अधिक गंभीर हो जाती है, और वे अपने कर्तव्य निर्वहन की प्रेरणा खो देते हैं। वे कष्ट सहना और त्याग करना नहीं चाहते, वे ढीले पड़ जाते हैं, और प्रतिदिन जैसे-तैसे अपना काम निकालते हैं। कुछ विशेष घटनाओं का अनुभव करने के बाद, जो थोड़ा सा उत्साह, संकल्प और इच्छा उनमें पहले थी, वह भी गायब हो जाती है, उनके मन में बस भविष्य के लिए अपनी योजनाएँ बनाने और अपना रास्ता निकालने के ख्याल बाकी रह जाते हैं। ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं हैं। क्योंकि लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और उसे खोजते नहीं, तो जब भी उनके साथ कोई बात हो जाती है तो वे उसे अपने नजरिये से देखते हैं, बिना यह स्वीकारना सीखे कि यह परमेश्वर की ओर से आया है। वे जवाब पाने के लिए परमेश्वर के वचनों में सत्य नहीं खोजते हैं, और वे इन चीजों पर संगति करके इन्हें हल करने के लिए ऐसे लोगों को भी नहीं खोजते जो सत्य को समझते हों। बल्कि, वे अपने साथ हुई बातों को समझने और उनका आकलन करने के लिए हमेशा दुनिया से निपटने के अपने ज्ञान और अनुभव का उपयोग करते हैं। और अंतिम परिणाम क्या निकलता है? वे खुद को एक अजीब स्थिति में फँसा लेते हैं जहाँ से निकलने का कोई रास्ता नहीं होता है—सत्य नहीं खोजने का यही परिणाम होता है। कुछ भी संयोग से नहीं होता, हर चीज पर परमेश्वर का शासन है। हालाँकि लोग इसे सैद्धांतिक रूप से समझ और स्वीकार सकते हैं, फिर भी लोगों को परमेश्वर की संप्रभुता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? लोगों को यही सत्य खोजना और समझना चाहिए, और विशेष रूप से इसका अभ्यास करना चाहिए। यदि लोग केवल सैद्धांतिक रूप से परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकारते हैं, पर इसकी वास्तविक समझ नहीं रखते, और उनकी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं का समाधान नहीं हुआ है, तो चाहे उन्होंने कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, और चाहे उन्होंने कितनी ही चीजों का अनुभव किया हो, वे अंत में सत्य प्राप्त नहीं कर पाएँगे। यदि लोग सत्य नहीं खोजते हैं, तो वे परमेश्वर के कार्य को नहीं जान सकते। वे जितनी अधिक चीजों का अनुभव करेंगे, परमेश्वर के बारे में उनकी धारणाएँ उतनी ही अधिक होंगी, वे उससे उतना ही अधिक सवाल करेंगे और बेशक, परमेश्वर को लेकर उनकी अटकलें, गलतफहमी और सावधानी और भी अधिक गंभीर हो जाएगी। सच तो यह है कि जो कुछ भी होता है वह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था का परिणाम है। परमेश्वर का इन सभी चीजों को करने का उद्देश्य और महत्व उसके बारे में तुम्हारी गलतफहमी और संदेह को बढ़ाना नहीं है, बल्कि तुम्हारे मन की धारणाओं और कल्पनाओं के साथ-साथ परमेश्वर के प्रति तुम्हारे संदेह, गलतफहमी, सावधानी और साथ ही ऐसी अन्य नकारात्मक चीजों को दूर करना और उनका हल करना है। यदि तुम समस्याएँ आने पर समय रहते उन्हें हल नहीं करते हो, तो जब ये समस्याएँ तुम्हारे अंदर इकठ्ठा हो जाएँगी और अधिक से अधिक गंभीर बन जाएँगी, और तुम्हारा उत्साह या संकल्प कर्तव्य निभाने में तुम्हारा साथ देने के लिए पहले से ही काफी नहीं है, तो तुम नकारात्मकता में गिर जाओगे, यहाँ तक कि तुम पर परमेश्वर को छोड़ देने का खतरा बन जाएगा, और यकीनन तुम दृढ़ नहीं रह सकोगे। अब, कुछ लोग ना चाहते हुए भी अपने कर्तव्य निभाने की थोड़ी-सी कोशिश करते हैं, पर यह सिर्फ आशीष पाने के लिए है, वे सत्य नहीं खोजते, और जब उन पर कोई मुसीबत आती है तो वे नकारात्मक हो जाते हैं। सत्य नहीं खोजने वाले लोग ऐसे ही होते हैं। क्योंकि वे दर्शनों के सत्य को लेकर पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं, और उनके पास परमेश्वर के कार्य की वास्तविक समझ नहीं है, तो यदि वे अपने कर्तव्य निभाते और परमेश्वर के लिए खुद को खपाते भी हैं, तो उनका दिल मजबूत नहीं होता, और जो थोड़े-बहुत सिद्धांत वे समझते हैं, वे उन्हें लंबे समय तक बचा नहीं पाते और वे गिर पड़ते हैं। यदि लोग नियमित रूप से सभा नहीं करते, उपदेश नहीं सुनते या अपनी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, तो वे दृढ़ रहने में असमर्थ होंगे। इसलिए, जो लोग कर्तव्य निभाते हैं उनके लिए नियमित रूप से सत्य पर संगति करना जरूरी है, और जब भी उनके साथ कोई बात हो जाती है और वे धारणाएँ पालने लगते हैं, तो उन्हें समय रहते सत्य खोजकर इसे हल करना चाहिए। केवल इसी तरह से वे अपने कर्तव्य पालन में वफादार बने रहकर अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना सुनिश्चित कर सकते हैं।

परमेश्वर में विश्वास का मार्ग पथरीला और ऊबड़-खाबड़ है। यह परमेश्वर द्वारा नियत किया गया है। चाहे कुछ भी हो, चाहे वह लोगों की इच्छा के अनुरूप या उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो या नहीं, या वे उसके बारे में पहले से जान सकते हो या नहीं, उसका घटित होना परमेश्वर की संप्रभुता और उसके आयोजन से अलग नहीं किया जा सकता। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह इस मायने में विशेष अर्थ रखता है कि वह लोगों को उससे सबक लेने और परमेश्वर की संप्रभुता जानने देता है। परमेश्वर की संप्रभुता जानने का लक्ष्य यह नहीं है कि लोगों को परमेश्वर का विरोध करना चाहिए, न ही यह है कि परमेश्वर को समझने के बाद लोगों के पास उसके साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए अधिक शक्ति और पूँजी होनी चाहिए। बल्कि, यह है कि जब चीजें उन पर पड़ती हैं, तो लोगों को उन्हें परमेश्वर से आया मानकर ग्रहण करना सीखना चाहिए, इसे समझने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए, और फिर सच्चा समर्पण हासिल करने के लिए सत्य का अभ्यास करना चाहिए और परमेश्वर में सच्चा विश्वास विकसित करना चाहिए। क्या तुम लोग इसे समझते हो? (हाँ।) तो, तुम लोग इसे कैसे व्यवहार में लाते हो? क्या ऐसी चीजों के संबंध में तुम लोगों के अभ्यास का मार्ग सही है? क्या तुम अपने ऊपर पड़ने वाली हर चीज समर्पण वाले हृदय और सत्य की खोज करने के दृष्टिकोण के साथ लेते हो? अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है, तो तुम ऐसी मानसिकता से युक्त होगे। तुम पर जो कुछ भी पड़ेगा, तुम उसे परमेश्वर की ओर से आया हुआ समझकर स्वीकार करोगे, और तुम सत्य की खोज करते रहोगे और उसकी इच्छा समझोगे, और लोगों और चीजों को उसके वचनों के आधार पर देखोगे। खुद पर पड़ने वाली सभी चीजों में तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर उसे जानने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होगे। यदि तुम सत्य खोजने वालों में से नहीं हो, तो चाहे तुम पर कोई भी मुसीबत आए, तुम उससे परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं निपटोगे, और ना ही सत्य खोजोगे। तुम परिणाम के तौर पर कोई भी सत्य हासिल किए बिना, बस लापरवाही करते रहोगे। परमेश्वर लोगों को सत्य की खोज करने, उसके कर्मों को समझने, और उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को देखने के लिए प्रशिक्षित करने के इरादे से ऐसी कई चीजों की व्यवस्था करके पूर्ण बनाता है जो उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होती हैं, ताकि उनका जीवन धीरे-धीरे विकसित होता रहे। ऐसा क्यों है कि सत्य खोजने वाले परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं, सत्य प्राप्त करते हैं और परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाते हैं, जबकि सत्य नहीं खोजने वालों को बहार निकाल दिया जाता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि सत्य खोजने वाले किसी भी मुसीबत में सत्य खोज सकते हैं, इसलिए उनके पास पवित्र आत्मा का कार्य और प्रबुद्धता होती है, और इसलिए वे सत्य का अभ्यास करके परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं, और उसके द्वारा पूर्ण बनाए जा सकते हैं; जबकि, जो सत्य से प्रेम नहीं करते, उन्हें लगता है कि परमेश्वर का कार्य उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं है, और फिर भी वे सत्य खोजकर इसे ठीक नहीं करते हैं; यहाँ तक कि वे नकारात्मक होकर शिकायत भी कर सकते हैं। समय के साथ, परमेश्वर को लेकर उनकी धारणाएँ बढ़ती जाती हैं, और वे उस पर संदेह करना और उसे नकारना शुरू कर देते हैं। नतीजतन, उन्हें परमेश्वर के कार्य द्वारा त्याग कर बाहर निकाल दिया जाता है। यही वजह है कि सत्य के प्रति लोगों का रवैया नकारात्मक और निष्क्रिय होने के बजाय, इसे खोजने, इसका अभ्यास करने और परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने का प्रयास करने वाला होना चाहिए। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिए, उन्हें कई चीजों का सामना करना होगा, और उन सभी को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना होगा; साथ ही चिंतन-मनन करने, सत्य की खोज करने और उस पर संगति करने में अधिक समय बिताना होगा, ताकि वे परमेश्वर के कार्य को जान सकें और उसके साथ तालमेल बिठा सकें। केवल इसी तरह वे सत्य को समझ सकते हैं, दिन-ब-दिन इसकी गहराई में जा सकते हैं, और केवल इसी तरह से परमेश्वर के वचन और सत्य का हर पहलू लोगों में जड़ें जमा सकता है। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने को वास्तविक जीवन से अलग नहीं किया जा सकता है, फिर परमेश्वर द्वारा निर्धारित विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों के परिवेश से इसे अलग करना तो दूर की बात है, वरना लोग सत्य समझने और उसे हासिल करने में सक्षम नहीं होंगे। ज्यादातर लोग नहीं जानते कि जब कोई समस्या आने पर परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करना चाहिए। वे नहीं जानते कि अपनी धारणाओं और कल्पनाओं को हल करने के लिए, या अपनी गलत समझ और बेतुके विचारों को ठीक करने के लिए सत्य कैसे खोजें। इस कारण, कई चीजों का अनुभव करने के बाद भी, वे सत्य समझ नहीं पाते और उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता—यह समय की बर्बादी है। चाहे उन पर कोई भी समस्या आए, आखिर में लोगों को परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने का अभ्यास करना चाहिए। इस समर्पण का मतलब यह नहीं है कि लोगों को नकारात्मक रूप से, निष्क्रिय रूप से या अंतिम उपाय के रूप में समर्पण करना चाहिए, बल्कि यह है कि उनके पास सकारात्मक, सक्रिय इरादा और सत्य का अभ्यास करने का एक मार्ग है। परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने का क्या अर्थ है? इसका मतलब यह है कि परमेश्वर चाहे कोई भी व्यवस्था करे, तुम पर कोई भी समस्या आए, परमेश्वर को अपना कार्य करने दो और उसके प्रति समर्पित होना सीखो। कोई इच्छा या व्यक्तिगत योजना मत रखो और चीजों को अपने तरीके से करने की कोशिश मत करो। जिन चीजों को लोग पसंद करते हैं, जिनका अनुसरण करते हैं और जिनकी चाहत रखते हैं, वे सभी बेतुकी और बेकार चीजें हैं। लोग परमेश्वर की बहुत अधिक अवज्ञा करते हैं। वह लोगों से पूरब की ओर जाने को कहता है, तो वे पूरब की ओर नहीं जाना चाहते। अगर वे अनिच्छा से समर्पण करते भी हैं, तो अंदर ही अंदर पश्चिम की ओर जाने के बारे में सोचते हैं। यह सच्चा समर्पण नहीं है। सच्चे समर्पण का मतलब है कि जब परमेश्वर तुम्हें पूरब की ओर जाने के लिए कहे, तो तुम्हें पूरब की ओर जाना चाहिए, और दक्षिण, उत्तर या पश्चिम की ओर जाने के सभी विचारों को त्यागकर खारिज कर देना चाहिए; तुम्हें दैहिक इच्छाओं को त्यागने में सक्षम होना चाहिए, और परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिखाए गए मार्ग और दिशा में चलकर अभ्यास करना चाहिए। समर्पण का यही मतलब है। समर्पण का अभ्यास करने के सिद्धांत क्या हैं? ये हैं, परमेश्वर के वचनों को सुनना और समर्पण करना, और उसके कहे अनुसार अभ्यास करना। अपने खुद के इरादे मत पालो, और तुम मनमौजी भी नहीं हो सकते। चाहे तुम परमेश्वर के वचनों को स्पष्ट रूप से समझते हो या नहीं, तुम्हें विनम्रतापूर्वक उन्हें अभ्यास में लाना चाहिए, और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार काम करना चाहिए। अभ्यास और अनुभव की प्रक्रिया से, तुम अनायास ही सत्य समझ जाओगे। यदि तुम कहते हो कि तुमने समर्पण कर दिया है, पर कभी भी अपनी आंतरिक योजनाओं और इच्छाओं को नहीं त्याग पाते हो, तो क्या यह कहना कुछ और सोचना कुछ और नहीं है? (हाँ।) यह सच्चा समर्पण नहीं है। यदि तुम सच्चा समर्पण नहीं करते हो, तो कोई मुसीबत आने पर तुम्हारे मन में परमेश्वर से कई अपेक्षाएं होंगी, और अंदर-ही-अंदर तुम परमेश्वर से अपनी अपेक्षाओं को पूरा करने को लेकर अधीर होगे। यदि परमेश्वर वैसा नहीं करता जैसा तुम चाहते हो, तो तुम बहुत पीड़ित और परेशान महसूस करोगे, तुम्हें बहुत कष्ट सहना पड़ेगा, और तुम परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं और अपने लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित माहौल के प्रति समर्पित नहीं हो पाओगे। ऐसा क्यों है? क्योंकि तुम हमेशा अपनी अपेक्षाएं और इच्छाएं रखते हो, और तुम अपने व्यक्तिगत विचारों को त्याग नहीं पाते हो, और सभी फैसले खुद ही लेना चाहते हो। इसलिए, जब भी तुम्हारा सामना ऐसी चीजों से होता है जो तुम्हारी धारणाओं के विपरीत हैं, तो तुम समर्पण नहीं कर पाते, और तुम्हारे लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना कठिन हो जाता है। हालाँकि लोग सैद्धांतिक रूप से जानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करना और अपने विचारों को त्याग देना चाहिए, पर वे उन्हें त्याग नहीं पाते, लगातार इस डर में होते हैं कि वे फायदे में नहीं रहेंगे और नुकसान उठाना पड़ेगा। मुझे बताओ, क्या यह उन्हें बड़ी मुसीबत में नहीं डाल रहा? क्या तब उनकी पीड़ा नहीं बढ़ जाती है? (हाँ।) यदि तुम सब कुछ छोड़ सकते हो, और उन चीजों और अपेक्षाओं को त्याग सकते हो जो तुम्हें पसंद हैं, लेकिन जो परमेश्वर के इरादों के विपरीत हैं, यदि तुम सक्रिय रूप से और अपनी इच्छा से उन्हें त्याग सकते हो, और परमेश्वर के सामने शर्तें नहीं रखते, बल्कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने को तैयार होते हो, तो तुम्हारी कठिनाइयाँ और बाधाएँ बहुत छोटी होंगी। यदि परमेश्वर के प्रति किसी व्यक्ति के समर्पण में बाधाएँ कम हो जाती हैं, तो क्या उनकी पीड़ा कम नहीं हो जाएगी? जैसे-जैसे उनकी पीड़ा कम होगी, तो वह कष्ट भी बहुत कम हो जाएगा जो उन्हें बेकार में उठाना पड़ता है। क्या तुम लोग आगे बढ़कर इस तरह से अनुभव करोगे? शायद अभी नहीं। जब कुछ लोग किसी को कठिनाइयों का सामना करते देखते हैं, तो वे तुरंत खुद को उस व्यक्ति के स्थान पर रखकर उसके बारे सोचते हैं। जब भी वे किसी को किसी प्रकार की पीड़ा, बीमारी, क्लेश या विपत्ति का सामना करते देखते हैं, तो वे तुरंत अपने बारे में सोचते हैं और आशंकित होते हैं, “अगर मेरे साथ ऐसा होता, तो मैं क्या करता? इससे पता चलता है कि विश्वासी अभी भी इन चीजों का सामना कर सकते हैं और ऐसी पीड़ा झेल सकते हैं। तो वास्तव में परमेश्वर कैसा परमेश्वर है? यदि परमेश्वर उस आदमी के साथ इतना निर्दयी व्यवहार करता है, तो क्या वह मेरे साथ भी वैसा ही व्यवहार करेगा? इससे पता चलता है कि परमेश्वर विश्वसनीय नहीं है। किसी भी स्थान पर और किसी भी समय, वह लोगों के लिए एक अनपेक्षित माहौल बनाता है, और उन्हें लगातार शर्मनाक स्थितियों में और किसी भी परिस्थिति में डाल सकता है।” वे डरते हैं कि यदि उन्होंने विश्वास नहीं किया, तो उन्हें आशीष नहीं मिलेगी, लेकिन यदि वे विश्वास करना जारी रखते हैं, तो उन्हें आपदा का सामना करना पड़ेगा। इस वजह से, परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना करते हुए लोग बस यही हैं, “परमेश्वर, मैं तुमसे आशीष देने की विनती करता हूँ,” और यह कहने की हिम्मत नहीं करते, “परमेश्वर, मेरी परीक्षा लो, मुझे अनुशासित करो, और जैसा तुम चाहो वैसा करो, मैं इसे स्वीकार करने को तैयार हूँ”—वे इस तरह प्रार्थना करने का साहस नहीं करते। कुछ बाधाओं और विफलताओं का अनुभव करने के बाद, लोगों का संकल्प और साहस कम हो जाता है, उनमें परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव, उसकी ताड़ना और न्याय, और उसकी संप्रभुता की अलग “समझ” होती है, और वे परमेश्वर को लेकर सावधान भी हो जाते हैं। इस तरह, लोगों और परमेश्वर के बीच एक दीवार, एक अलगाव बन जाता है। क्या लोगों में इन स्थितियों का होना सही है? (नहीं।) तो क्या ये स्थितियाँ तुम लोगों के भीतर विकसित होती हैं? क्या ऐसा होता है कि तुम इन स्थितियों में रहते हो? (हाँ।) ऐसी समस्याओं को कैसे हल किया जाना चाहिए? क्या सत्य नहीं खोजना ठीक है? यदि तुम सत्य नहीं समझते और विश्वास नहीं करते हो, तो तुम्हारे लिए अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना कठिन होगा, और जब भी विपत्तियों और आपदाओं से तुम्हारा सामना होगा, चाहे वे प्राकृतिक हों या मानव निर्मित, तुम गिर जाओगे।

अय्यूब ने अपने परीक्षण के बाद, ये शब्द कहे : “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। आजकल बहुत-से लोग इस वाक्य का पाठ करना सीखते हैं, और वे इसे स्पष्टता से दोहराते हैं। लेकिन जब भी वे इसका पाठ करते हैं, तो वे यह सोचते हैं कि यहोवा सिर्फ देता है, लेकिन इस पर कभी विचार नहीं करते कि जब यहोवा छीन लेगा तो क्या होगा, और तब लोग किस प्रकार की पीड़ा, कठिनाई और अजीब दुर्दशा का अनुभव करेंगे, या कैसे माहौल के अनुसार लोगों का हृदय परिवर्तन होगा। वे कभी इस पर दोबारा विचार नहीं करते, बस यही दोहराते रहते हैं, “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है,” यहाँ तक कि इस वाक्य का एक नारे और सिद्धांत के रूप में इतना अधिक उपयोग करते हैं कि वे हर अवसर पर इसे तोते की तरह दोहराते रहते हैं। हर व्यक्ति अपने मन में, बस उन सभी अनुग्रहों, आशीषों और वादों की बातें सोचता रहता है जो यहोवा लोगों को देता है, लेकिन वे इस बारे में कभी नहीं सोचते—या कल्पना भी नहीं कर सकते हैं—कि जब यहोवा इन सभी चीजों को वापस ले लेगा, तो उनकी क्या हालत होगी। परमेश्वर में विश्वास रखने वाला हर व्यक्ति केवल परमेश्वर के अनुग्रह, आशीष, वादों को स्वीकारने के लिए तैयार है, और केवल उसकी दया और करुणा को स्वीकारना चाहता है। कोई भी परमेश्वर की ताड़ना और न्याय, उसके परीक्षण और शोधन, या उसके द्वारा वंचित किए जाने को स्वीकारने की प्रतीक्षा या तैयारी नहीं करता है; एक भी व्यक्ति परमेश्वर के न्याय और ताड़ना, उसके द्वारा वंचित किए जाने या उसके शाप को स्वीकारने के लिए तैयारी नहीं करता है। लोगों और परमेश्वर के बीच यह रिश्ता सामान्य है या असामान्य? (असामान्य।) तुम इसे असामान्य क्यों कहते हो? इसमें कहाँ कमी रह जाती है? इसमें कमी यह है कि लोगों के पास सत्य नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों के पास बहुत सारी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, वे लगातार परमेश्वर को गलत समझते हैं, और सत्य खोजकर इन चीजों को ठीक नहीं करते हैं—इससे समस्याएँ उत्पन्न होने की संभावना सबसे अधिक होती है। विशेष रूप से, लोग केवल आशीष पाने के लिए ही परमेश्वर में विश्वास करते हैं। वे परमेश्वर के साथ बस सौदा करना चाहते हैं, उससे चीजों की मांग करते है, पर वे सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। यह बहुत ही खतरनाक है। जैसे ही उनका सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो उनकी धारणाओं के विपरीत है, तो उनमें तुरंत परमेश्वर को लेकर धारणाएं, शिकायतें और गलतफहमियां विकसित हो जाती हैं, और वे उसे धोखा देने की हद तक भी जा सकते हैं। क्या इसके परिणाम गंभीर हैं? ज्यादातर लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हुए किस मार्ग पर चलते हैं? भले ही तुम लोगों ने बहुत सारे उपदेश सुने होंगे और महसूस किया होगा कि तुम बहुत-से सत्यों को समझ गए हो, पर सच तो यह है कि तुम लोग अभी भी केवल भर पेट रोटी खाने के लिए परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चल रहे हो। यदि तुम्हारा मन पहले से ही न्याय और ताड़ना, परीक्षणों और शोधन को स्वीकारने के लिए तैयार है, और तुमने मानसिक रूप से खुद को आपदा झेलने के लिए भी तैयार कर लिया है, और यदि, तुमने परमेश्वर के लिए खुद को कितना ही खपाया हो और अपना कर्तव्य निभाने में कितने ही त्याग किए हो, तुम्हें वास्तव में अय्यूब जैसे परीक्षणों का सामना करना पड़ा हो, और परमेश्वर ने तुमसे तुम्हारी सारी संपत्ति छीन ली हो, यहाँ तक कि तुम्हारा जीवन खत्म होने के कगार पर हो, तब तुम क्या करोगे? तुम्हें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं से कैसे निपटना चाहिए? तुम्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए? परमेश्वर ने तुम्हें जो भी काम सौंपा है, उससे तुम कैसे निपटोगे? क्या तुम्हारे पास सही समझ और सही दृष्टिकोण है? इन प्रश्नों का उत्तर देना आसान है या नहीं? यह तुम लोगों के सामने खड़ी की गई एक बड़ी बाधा है। क्योंकि यह एक बाधा और समस्या है, तो क्या इसका समाधान नहीं किया जाना चाहिए? (हाँ।) इसका समाधान कैसे करें? क्या इसे सुलझाना आसान नहीं है? मान लो कि इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास रखने, परमेश्वर के इतने सारे वचन पढ़ने, इतने सारे उपदेश सुनने और इतने सारे सत्य समझने के बाद, तुम पहले से ही परमेश्वर को सब कुछ आयोजित करने देने के लिए तैयार हो, चाहे वे आशीषें हों या आपदाएँ। और मान लो कि तुम्हारे खुद की इच्छाओं को त्यागने और खुद को खपाने, और तुम्हारे द्वारा किए गए त्यागों और जीवनभर की ऊर्जा लगाने के बाद भी, बदले में तुम्हें बस परमेश्वर का शाप मिलता है या वह तुम्हें वंचित करता है। तब भी, अगर तुम शिकायत नहीं करते, तुम्हारी अपनी कोई इच्छा या अपेक्षा नहीं रहती है, बल्कि तुम केवल परमेश्वर के प्रति समर्पण करना और खुद को उसके आयोजनों की दया पर रखना चाहते हो, और तुम्हें लगता है कि परमेश्वर की संप्रभुता के बारे में थोड़ी सी भी समझ और थोड़ा सा भी समर्पण तुम्हारे जीवन को सार्थक बनाता है—यदि तुम्हारे पास ऐसा सही दृष्टिकोण है, तो क्या कुछ कठिनाइयों को हल करना आसान नहीं है? क्या अब तुम लोगों को परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का सच्चा ज्ञान है? क्या तुम्हारे दिल की गहराई में अभी भी अपने निजी भविष्य और भाग्य के लिए योजनाएं हैं? क्या तुम सब कुछ छोड़कर ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपा सकते हो? क्या तुमने इन समस्याओं पर सावधानी से चिंतन और विचार करने में समय और ऊर्जा खर्च की है? या क्या तुमने सत्य समझने और परमेश्वर की संप्रभुता को जानने के लिए कुछ चीजों का अनुभव किया है? यदि तुमने ऐसी व्यावहारिक समस्या के बारे में कभी नहीं सोचा है कि परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोगों को उसकी संप्रभुता और सृष्टिकर्ता के आयोजनों और व्यवस्थाओं से कैसे निपटना चाहिए, जो कि तुम लोगों के सामने सबसे बड़ी समस्या भी है, और तुम लोगों को इसका एहसास तक नहीं है कि यह दर्शन का सबसे बड़ा सत्य है, तो फिर अगर किसी दिन कोई बड़ी घटना या आपदा घटित हुई, तब क्या तुम अपनी गवाही पर दृढ़ रह सकोगे? यह कहना मुश्किल है, और यह अभी भी एक अज्ञात कारक है, है ना? (हाँ।) क्या इस समस्या पर अच्छी तरह से चिंतन नहीं किया जाना चाहिए? (हाँ।) तुम लोगों के पास उस भविष्य का सामना करने के लिए पर्याप्त आध्यात्मिक कद कैसे हो सकता है जिसकी तुम कल्पना नहीं कर सकते? परमेश्वर द्वारा निर्धारित माहौल में तुम अपनी गवाही में कैसे दृढ़ रह सकते हो? क्या इस समस्या पर गंभीरता से विचार और चिंतन नहीं किया जाना चाहिए? यदि तुम लगातार यह सोचते हो, “मैं प्रकृति से एक अच्छा इंसान हूँ, और मैंने परमेश्वर के अनुग्रह, आशीषों और सुरक्षा का भरपूर आनंद लिया है। जब दूसरों को कठिनाई का सामना करना पड़ता है, तो वे असहाय स्थिति में होते हैं, लेकिन जब भी मुझे कठिनाई का सामना करना पड़ता है, तो मेरे पास परमेश्वर का प्रावधान, मार्गदर्शन और सहायता होती है। अब मैं अपना कर्तव्य निभाने में कठिनाइयों को सहने और त्याग करने में सक्षम हूँ, परमेश्वर में मेरी आस्था अधिक मजबूत हो गई है, और मैं एक महत्वपूर्ण कर्तव्य भी पूरा कर रहा हूँ। मुझे एहसास है कि परमेश्वर मुझ पर विशेष रूप से दयालु है, और मेरे पास उसकी सुरक्षा और आशीष है। यदि मैं ऐसा करता रहता हूँ, तो भले ही भविष्य में मुझे कुछ ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन का सामना करना पड़े, मैं उन्हें सहन कर पाऊँगा। अंत में, मैं यकीनन उन लोगों में से एक रहूँगा जिन्हें आशीष मिलेगी, परमेश्वर मुझे जरूर अपने राज्य में ले जाएगा, और मैं वो दिन जरूर देखूँगा जब परमेश्वर का महिमागान होगा!” इस तरह की सोच के बारे में क्या ख्याल है? तुम्हें लगता है कि तुम अलग हो, परमेश्वर तुम पर विशेष अनुग्रह करता है, और अगर परमेश्वर किसी को निकालेगा या त्यागेगा, तो वह तुम नहीं होगे। क्या ये विचार सही हैं? (नहीं।) वे सही क्यों नहीं हैं? (इस तरह से सोचना सामान्य नहीं है।) क्या ये शब्द परमेश्वर के बारे में वास्तविक ज्ञान दर्शाते हैं? या फिर क्या यह बहुत अधिक व्यक्तिपरक और काल्पनिक होना है? क्या ऐसे विचार रखने वाले लोग सत्य का अनुसरण करने वालों में से हैं? (नहीं।) तो क्या वे सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं? (नहीं।) क्या वे परमेश्वर की ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन और यहां तक कि उसके शापों को स्वीकारने के लिए तैयार हैं? (नहीं।) जब उन लोगों को परमेश्वर की ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन का सामना करना होगा, तो वे क्या करेंगे? क्या उनके मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ या शिकायतें विकसित होंगी? क्या वे इन चीजों को परमेश्वर की ओर से आया मानकर सच्चा समर्पण कर सकते हैं? (नहीं।) कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि इसे हासिल करना मुश्किल होगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे केवल अनुग्रह पाने या पेट भर रोटी खाने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर में क्रोध और प्रताप भी है, और परमेश्वर के स्वभाव को नाराज नहीं किया जा सकता। परमेश्वर सभी के साथ उचित व्यवहार करता है, और जब किसी सृजित प्राणी की बात आती है, तो परमेश्वर के स्वभाव में करुणा और प्रेम के साथ-साथ प्रताप और क्रोध भी होता है। हरेक व्यक्ति के साथ परमेश्वर के व्यवहार में उसके धार्मिक स्वभाव की करुणा, प्रेम, प्रताप और क्रोध बदलता नहीं है। परमेश्वर कभी भी केवल गिने-चुने लोगों पर दया और प्रेम और केवल दूसरों पर प्रताप और क्रोध नहीं दिखाएगा। परमेश्वर ऐसा कभी नहीं करेगा क्योंकि वह धार्मिक परमेश्वर है, और सबके साथ निष्पक्ष रहता है। परमेश्वर की करुणा, प्रेम, प्रताप, और क्रोध सभी के लिए है। परमेश्वर लोगों को अनुग्रह और आशीष दे सकता है, और उनकी सुरक्षा कर सकता है। साथ ही साथ, परमेश्वर लोगों का न्याय करके और उन्हें ताड़ना और शाप देकर, उनसे वो सब कुछ छीन भी सकता है जो उसने उन्हें दिया है। परमेश्वर लोगों को बहुत कुछ देता है, पर वह उनसे सब कुछ छीन भी सकता है। यह परमेश्वर का स्वभाव है, और उसे सबके साथ यही करना चाहिए। इसलिए, यदि तुम सोचते हो, “मैं परमेश्वर की नजरों में खास हूँ, उसकी आँखों का तारा हूँ। वह मेरा न्याय करके मुझे ताड़ना बिल्कुल नहीं दे सकता, और किसी हाल में मुझसे वह सब नहीं छीनेगा जो उसने मुझे दिया है, ऐसा हुआ तो मैं परेशान और व्यथित हो जाऊँगा,” तो क्या यह सोच गलत नहीं है? क्या यह परमेश्वर के बारे में धारणा नहीं है? (हाँ।) तो, इन सत्यों को समझने से पहले, क्या तुम केवल परमेश्वर के अनुग्रह, करुणा, और प्रेम का आनंद उठाने के बारे में नहीं सोचते रहते? इस वजह से, तुम बार-बार यह भूल जाते हो कि परमेश्वर प्रतापी और क्रोधी भी है। भले ही तुम्हारे होठ कहते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है, और जब वह तुम पर करुणा और प्रेम दिखाता है, तो तुम उसका धन्यवाद और उसकी स्तुति करने में सक्षम हो, और जब परमेश्वर तुम्हारा न्याय करने और ताड़ना देने में तुम पर प्रताप और क्रोध दिखाता है, तो तुम बहुत परेशान हो जाते हो। तुम सोचते हो, “काश ऐसा परमेश्वर होता ही नहीं।” “काश परमेश्वर ने मेरे साथ ये सब ना किया होता, काश परमेश्वर मुझे निशाना नहीं बनाता, काश परमेश्वर का इरादा ऐसा नहीं होता, काश ये सब दूसरों के साथ होता। क्योंकि मैं एक दयालु व्यक्ति हूँ, और मैंने कुछ भी बुरा नहीं किया है, और मैंने कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने की भारी कीमत चुकाई है, तो परमेश्वर को इतना निर्दयी नहीं होना चाहिए। मुझे परमेश्वर की करुणा और प्रेम के साथ-साथ उसके प्रचुर अनुग्रह और आशीष का आनंद लेने का हकदार और योग्य होना चाहिए। परमेश्वर मेरा न्याय नहीं करेगा या मुझे ताड़ना नहीं देगा, और न ही उसके पास ऐसा करने वाला दिल है।” क्या यह महज मनमानी और गलत सोच है? (हाँ।) यह किस तरह से गलत है? यहाँ गलत बात यह है कि तुम खुद को एक सृजित प्राणी, सृजित मानवता का सदस्य नहीं मानते। तुम गलती से खुद को सृजित मानवता से अलग करके एक विशेष समूह या अलग प्रकार का सृजित प्राणी मानते हो, खुद को एक विशेष दर्जा दे देते हो। क्या यह अहंकारी और दंभी होना नहीं है? क्या यह विवेकहीन होना नहीं है? क्या यह वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला व्यक्ति है? (नहीं।) बिल्कुल नहीं।

परमेश्वर के परिवार में, भाई-बहनों के बीच, तुम्हारा रुतबा या स्थान चाहे कितना भी ऊँचा हो, या तुम्हारा कर्तव्य कितना भी महत्वपूर्ण हो, और तुम्हारी प्रतिभा और योगदान कितना ही महान हो, या तुमने कितने ही लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया हो, परमेश्वर की नजर में तुम एक सृजित प्राणी ही हो, एक सामान्य सृजित प्राणी, और जो महान पदवियां और उपाधियाँ तुमने खुद को दी हैं उनका कोई अस्तित्व नहीं है। यदि तुम हमेशा उन्हें ताज या पूंजी की तरह मानते हो जो तुम्हें एक विशेष समूह से संबंधित होने या एक विशेष हस्ती बनाता है, तो ऐसा करके तुम परमेश्वर के विचारों का विरोध और प्रतिरोध करते हो, और परमेश्वर के साथ सुसंगत नहीं हो। इसके परिणाम क्या होंगे? क्या यह तुम्हें उन कर्तव्यों का विरोध करने के लिए प्रेरित करेगा जिन्हें एक सृजित प्राणी को निभाना चाहिए? परमेश्वर की नजरों में, तुम एक सृजित प्राणी हो, पर खुद को ऐसा नहीं मानते। क्या तुम सचमुच ऐसी मानसिकता के साथ परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हो? तुम हमेशा मनमाने ढंग से सोचते हो, “परमेश्वर को मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, वह कभी भी मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता।” क्या इससे परमेश्वर के साथ टकराव पैदा नहीं होता? जब परमेश्वर तुम्हारी धारणाओं, मानसिकता और जरूरतों के विपरीत कार्य करेगा, तो तुम्हारा दिल क्या सोचेगा? परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जैसे माहौल बनाए हैं तुम उनसे कैसे निपटोगे? क्या तुम समर्पण करोगे? (नहीं।) तुम समर्पण नहीं करोगे, और तुम निश्चित रूप से विरोध, प्रतिरोध, और शिकायत करोगे, असंतोष दिखाओगे, अपने दिल में बार-बार इस पर विचार करते हुए सोचोगे, “मगर परमेश्वर तो मेरी रक्षा करता था और मेरे साथ कृपापूर्ण व्यवहार करता था। वह अब क्यों बदल गया है? मैं अब और नहीं जी सकता!” फिर तुम चिड़चिड़े होकर असामान्य व्यवहार करने लगते हो। यदि, घर पर, तुमने अपने माता-पिता के साथ ऐसा व्यवहार किया, तो यह क्षमा योग्य होगा और वे तुम्हारे साथ कुछ नहीं करेंगे। लेकिन यह परमेश्वर के घर में स्वीकार्य नहीं है। क्योंकि तुम बालिग हो और एक विश्वासी भी हो, यहाँ तक कि अन्य लोग भी तुम्हारी बकवास सुनने के लिए खड़े नहीं होंगे—क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर ऐसा व्यवहार बर्दाश्त करेगा? क्या उसके साथ ऐसा करने पर वह तुम्हें माफ कर देगा? नहीं, वह ऐसा नहीं करेगा। क्यों नहीं करेगा? परमेश्वर तुम्हारा माता-पिता नहीं है, वह परमेश्वर है, वह सृष्टिकर्ता है, और सृष्टिकर्ता कभी भी किसी सृजित प्राणी को चिड़चिड़े और विवेकहीन होने या उसके सामने नखरे दिखाने की अनुमति नहीं देगा। जब परमेश्वर तुम्हें ताड़ना देता है, तुम्हारा न्याय करता है, तुम्हारी परीक्षा लेता है या तुमसे चीजें छीन लेता है, तुम्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में डालता है, तो वह सृष्टिकर्ता के साथ व्यवहार में एक सृजित प्राणी का रवैया देखना चाहता है, वह देखना चाहता है कि सृजित प्राणी कौन-सा मार्ग चुनता है, और वह तुम्हें कभी भी चिड़चिड़े और विवेकहीन होने, या बेतुके बहाने करने की अनुमति नहीं देगा। इन चीजों को समझने के बाद, क्या लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि सृष्टिकर्ता जो कुछ भी करता है उससे कैसे निपटा जाए? सबसे पहले, लोगों को सृजित प्राणियों के रूप में अपना उचित स्थान समझना चाहिए और सृजित प्राणियों के रूप में अपनी पहचान स्वीकारनी चाहिए। क्या तुम यह स्वीकार सकते हो कि तुम एक सृजित प्राणी हो? यदि तुम इसे स्वीकार कर सकते हो, तो तुम्हें एक सृजित प्राणी के रूप में अपना उचित स्थान समझना चाहिए और सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए, और यदि तुम थोड़ा कष्ट उठाते भी हो, तो तुम्हें शिकायत नहीं करनी चाहिए। समझदार व्यक्ति होने का यही मतलब है। यदि तुम यह नहीं सोचते कि तुम एक सृजित प्राणी हो, बल्कि मानते हो कि तुम्हारे पास पदवी और सिर पर प्रभामंडल है, और तुम एक रुतबे वाले व्यक्ति, एक महान अगुआ, संचालक, संपादक या परमेश्वर के परिवार में निर्देशक हो, और तुमने परमेश्वर के परिवार के कार्य में महान योगदान दिया है—यदि तुम ऐसा सोचते हो, तो तुम एकदम विवेकहीन और निहायत ही बेशर्म व्यक्ति हो। क्या तुम लोग रुतबा, स्थान, और अहमियत रखने वाले व्यक्ति हो? (हम ऐसे नहीं हैं।) तो फिर तुम क्या हो? (मैं एक सृजित प्राणी हूँ।) सही कहा, तुम बस एक सामान्य सृजित प्राणी हो। लोगों के बीच, तुम अपनी योग्यताओं का प्रदर्शन कर सकते हो, बड़े होने का फायदा उठा सकते हो, अपने योगदानों के बारे में डींगें हाँक सकते हो, या अपनी बहादुरी के कारनामों के बारे में बात कर सकते हो। लेकिन परमेश्वर के समक्ष, इन चीजों का कोई अस्तित्व नहीं है, और तुम्हें कभी भी उनके बारे में बात नहीं करनी चाहिए, या उनका दिखावा नहीं करना चाहिए, या खुद के बहुत अनुभवी होने का घमंड नहीं करना चाहिए। यदि तुम अपनी योग्यताओं का दिखावा करोगे तो चीजें उलट-पुलट हो जाएंगी। परमेश्वर तुम्हें एकदम विवेकहीन और बेहद अहंकारी मानेगा। तुम्हारे अस्वीकार और नफरत के कारण वह तुम्हें किनारे कर देगा, फिर तुम मुसीबत में पड़ जाओगे। तुम्हें सबसे पहले एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी पहचान और स्थिति को स्वीकारना होगा। दूसरों के बीच तुम्हारा रुतबा चाहे जैसा भी हो, या तुम्हारा स्थान कितना ही खास हो है, या तुम्हारे पास कितनी भी खूबियाँ हों, या चाहे परमेश्वर ने तुम्हें किसी प्रकार की विशेष प्रतिभा दी हो, ताकि तुम लोगों के बीच श्रेष्ठ होने का आनंद ले सको—जब तुम परमेश्वर के सामने आते हो, तो इन चीजों का कोई मूल्य या महत्व नहीं होता है। इसलिए, तुम्हें दिखावा नहीं करना चाहिए, बल्कि परमेश्वर के समक्ष विनम्र होकर बस एक सृजित प्राणी बनना चाहिए। परमेश्वर के समक्ष, तुम केवल सृजित मानवता के सदस्य हो। चाहे तुम कितने भी मशहूर हो, कितने भी प्रतिभाशाली या गुणी हो, और चाहे लोगों के बीच तुम्हारी कोशिशें कितनी भी महान क्यों न हों, परमेश्वर के सामने ये चीजें जिक्र करने लायक भी नहीं हैं, दिखावा करना तो दूर की बात है, और तुम्हें बस एक सृजित प्राणी के रूप में अपना सही स्थान स्वीकार लेना चाहिए। यह पहली बात है। दूसरी बात यह है कि अंदर से परमेश्वर की ताड़ना और न्याय का विरोध करके और उसे ठुकराते हुए, या तुम्हारे लिए परमेश्वर के परीक्षणों और शोधन से डरकर, केवल परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों का आनंद लेने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। ये डर और विरोध किसी काम का नहीं है। कुछ लोग कहते हैं : “यदि मैं परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन को स्वीकारने के लिए तैयार हूँ, तो क्या मैं इन कष्टों से बच सकता हूँ?” परमेश्वर ये सभी चीजें इस आधार पर नहीं करता कि तुम उसे पसंद करते हो या नहीं, या यह तुम्हारी व्यक्तिपरक इच्छा या तुम्हारी पसंद के अनुसार है या नहीं, बल्कि वह सब कुछ अपनी इच्छा, अपनी सोच और अपनी योजनाओं के अनुसार करता है। इसलिए, एक सृजित प्राणी के रूप में, परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष को स्वीकारने के अलावा, तुम्हें अपने हृदय में परमेश्वर के वचनों की ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन को वास्तव में स्वीकारने और उनका अनुभव करने में भी सक्षम होना चाहिए। कुछ लोग कहेंगे : “क्या तुम्हारा मतलब यह है कि परमेश्वर कहीं भी और किसी भी समय लोगों पर अनुग्रह दिखा सकता है, मगर परमेश्वर की ताड़ना, न्याय, परीक्षण, शोधन, और आपदाएँ भी लोगों पर कहीं भी और किसी भी समय आ सकती हैं?” क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर की ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन लोगों पर मनमाने ढंग से पड़ेगा, जिससे उनके लिए बचाव करना असंभव हो जाएगा? (ऐसा नहीं होगा।) बिल्कुल नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। भ्रष्ट मनुष्य परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के योग्य नहीं हैं—तुम लोगों को इसके बारे में पता होना चाहिए। लेकिन तुम्हें यह भी समझना चाहिए कि परमेश्वर का तुम्हें प्रकाशित और उजागर करना, अनुशासित करना, ताड़ना देना, और उसका न्याय, परीक्षण, और शोधन, और यहाँ तक कि उसका तुम्हें शाप देना भी तुम्हारे आध्यात्मिक कद, तुम्हारी परिस्थितियों, और बेशक तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर आधारित है। यदि परमेश्वर तुम्हें स्वीकारता है, तो उसका न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन उचित समय से तुम पर पड़ेगा। परमेश्वर में अपने विश्वास के दौरान, उसकी आशीषें और अनुग्रह के साथ ही उसके प्रकाशन, ताड़ना, अनुशासन, न्याय, परीक्षण और शोधन जैसी चीजें हर समय और सभी जगहों पर तुम्हारे साथ रहती हैं। बेशक, हर समय और सभी जगह का मतलब उचित मात्रा में, सही समय पर और परमेश्वर की योजना के आधार पर है। यह लोगों के साथ मनमाने ढंग से नहीं होता है, और इसका मतलब यह नहीं है कि जैसे ही लोग सावधानी बरतना बंद करेंगे, तो अचानक उन पर कोई बड़ी आपदा आ जाएगी। ऐसा बिल्कुल नहीं है। यदि तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद नहीं है और परमेश्वर ने तुम्हें लेकर अब तक कोई योजना नहीं बनाई है, तो चिंता मत करो, मुमकिन है कि केवल परमेश्वर का अनुग्रह, आशीष और उसकी मौजूदगी तुम्हारे साथ है। यदि तुम्हारे पास पर्याप्त आध्यात्मिक कद नहीं है, या तुम विशेष रूप से प्रतिरोधी हो और परमेश्वर की ताड़ना, न्याय, परीक्षणों और शोधन से डरते हो, तो परमेश्वर तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध तुम पर ये चीजें नहीं थोपेगा, इसलिए तुम्हें इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। ये चीजें घटित हों या न हों, लोगों को परमेश्वर के कार्य को जानना चाहिए और उसकी इच्छा को समझना चाहिए। परमेश्वर के वचनों के सही ज्ञान से ही लोगों का दृष्टिकोण सही हो सकता है, उनकी स्थिति सामान्य हो सकती है, और कोई भी मुसीबत आने पर वे उसका सामना कर सकते हैं। क्या अब तुम लोग परमेश्वर की ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन को स्वीकारने के लिए तैयार हो? क्या तुम लोग इन्हें स्वीकारना चाहते हो? (हाँ, जरूर।) तुमने मुँह से ‘हाँ’ तो कह दिया, पर तुम्हारा दिल अब भी बहुत भयभीत है। यदि, हाँ कहने के तुरंत बाद, तुम पर अचानक कोई आपदा आ पड़े, तो तुम उससे कैसे निपटोगे? क्या तुम फूट-फूटकर रोने लगोगे? क्या तुम मौत से डरोगे? क्या तुम्हें आशीष न मिलने की चिंता सताएगी? क्या तुम्हें इस बात की चिंता होगी कि तुम वह दिन नहीं देख पाओगे जब परमेश्वर का महिमागान होगा? जब लोगों पर मुसीबत आती है तो वे इन्हीं समस्याओं का सामना करते हैं। संक्षेप में, यदि कोई व्यक्ति परीक्षणों और विपत्तियों के बीच दृढ़ रहना चाहता है, तो उसके पास दो चीजें होनी चाहिए। सबसे पहले, एक सृजित प्राणी के रूप में अपना उचित स्थान पहचानो। तुम्हारे दिल में यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि तुम एक सामान्य सृजित प्राणी हो, भ्रष्ट मानवता के बीच एक सामान्य व्यक्ति हो, तुम असाधारण या विशेष नहीं हो, और तुम्हें एक सृजित प्राणी के रूप में अपना उचित स्थान समझना चाहिए। दूसरा, तुम्हारे पास परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला एक सच्चा दिल होना चाहिए, और तुम्हें हर समय परमेश्वर से आशीष, अनुग्रह के साथ ही ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन को स्वीकारने के लिए तैयार रहना चाहिए। जैसा कि अय्यूब ने कहा, “क्या हम जो परमेश्‍वर के हाथ से सुख लेते हैं, दु:ख न लें?” (अय्यूब 2:10), और “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। यह एक तथ्य है, और यह तथ्य कभी नहीं बदलेगा। तुम समझते हो, है ना? (हाँ।) यदि तुम्हारे पास ये दो चीजें होंगी, तो तुम आसानी से दृढ़ रहने और सामान्य आपदाओं और विपत्तियों से उबरने में सक्षम होगे। हालांकि, ऐसा हो सकता है कि तुम मजबूत और शानदार गवाही ना दे पाओ, पर कम-से-कम तुम भटकोगे नहीं, ठोकर नहीं खाओगे, या धोखा नहीं दोगे। तब क्या तब तुम सुरक्षित नहीं होगे? (हाँ।) फिर तुम लोगों को इन दो चीजों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, और देखना चाहिए कि इसे हासिल करना आसान है या नहीं, और क्या तुम उन्हें अपने दिल की गहराई से स्वीकार सकते हो या नहीं। इन चीजों को जानने के बाद, कुछ परीक्षणों का सामना करते हुए, तुम लोग इन सबको कितने अलग तरीके से देखोगे और समझोगे, यह तुम्हारा अपना मामला है। इस विषय पर हमारी संगति यहीं समाप्त होती है।

परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कहावतों पर चर्चा में पिछली बार हमने किन कहावतों पर संगति की थी? (हमने तीन कहावतों पर संगति की थी, “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम खुद नहीं चाहते” और “मैं अपने दोस्त के आरोप अपने ऊपर ले लूँगा।”) पिछली बार हमने नैतिक आचरण की इन तीन अपेक्षाओं और कहावतों पर, और नैतिक आचरण की कहावतों के सार पर भी संगति की थी। नैतिक आचरण की कहावतों के सार के बारे में हमने क्या संगति की थी? (परमेश्वर ने नैतिक आचरण की कहावतों और सत्य के बीच का अंतर बताया था। नैतिक आचरण की कहावतें लोगों के व्यवहार को सीमित करती हैं और उन्हें केवल नियमों के अनुसार चलने पर मजबूर करती हैं, जबकि परमेश्वर के वचनों का सत्य लोगों को सत्य के वे सिद्धांत बताता है जो उन्हें समझने चाहिए, और उनके लिए अभ्यास के कुछ मार्ग दिखाता है, ताकि जब उनके साथ कोई बात हो जाए तो उनके पास अभ्यास करने के लिए सिद्धांत और एक दिशा हो। यही वे पहलू हैं जिनके आधार पर नैतिक आचरण की कहावतें सत्य से अलग हैं।) पिछली बार, हमने संगति की थी कि नैतिक आचरण की कहावतों के अनुसार लोगों को मुख्य रूप से कुछ कुछ अभ्यास और नियमों का पालन करना आवश्यक है, और इसमें लोगों के व्यवहार को सीमित करने के लिए नियमों के इस्तेमाल पर ज्यादा जोर दिया जाता है। जबकि लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ मुख्य रूप से उनके लिए अभ्यास के मार्ग बताती हैं जो इस बात पर आधारित होता है कि सामान्य मानवता क्या हासिल कर सकती है, और अभ्यास के इन व्यापक मार्गों को सिद्धांत कहा जाता है। इसका मतलब यह है कि जब भी तुम पर कोई मुसीबत आएगी, तो परमेश्वर तुम्हें अभ्यास का सटीक और सकारात्मक मार्ग बताने के साथ-साथ तुम्हारे अभ्यास के लिए सिद्धांत, लक्ष्य और दिशा भी बताएगा। वह नहीं चाहता कि तुम नियमों का पालन करो, बल्कि वह चाहता है तुम इन सिद्धांतों के अनुसार चलो। इस तरह, लोग सत्य की वास्तविकता को जीते हैं, और जिस मार्ग पर वे चलेंगे वह सही होगा। आज हम देखेंगे कि नैतिक आचरण की कहावतों के साथ आवश्यक प्रकृति की अन्य समस्याएं क्या हैं। नैतिक आचरण की कई कहावतें न केवल लोगों के विचारों को सीमित करती हैं, बल्कि उनकी सोच को भ्रमित और सुन्न भी कर देती हैं। वहीं, कुछ और कट्टरपंथी कहावतें भी हैं जो लोगों की जानें ले लेती हैं। उदाहरण के लिए, हमारी पिछली संगति में बताई गई यह भड़कीली कहावत, “मैं अपने दोस्त के आरोप अपने ऊपर ले लूँगा,” जो न केवल लोगों के विचारों को नियंत्रित और सीमित करती है, बल्कि उनकी जिंदगी पर भी कब्जा कर लेती है, जिससे वे न सिर्फ अपनी जिंदगी को संजोने में असमर्थ होते हैं, बल्कि मनमानी वजहों से, आवेग में आकर और लापरवाह तरीके से अपनी जान देने को भी तैयार होते हैं। क्या यह लोगों की जान लेना नहीं है? (हाँ।) इससे पहले कि लोग यह समझ सकें कि जीवन क्या है, और उन्हें जीवन में सही मार्ग मिले, वे थोड़ी-सी दयालुता के बदले में मनमाने ढंग से इसे किसी तथाकथित दोस्त के लिए त्याग देते हैं, और अपने जीवन को बेकार और निरर्थक मान लेते हैं। यह ऐसी सोच का नतीजा है जो परंपरागत संस्कृति लोगों को सिखाती है। यह देखते हुए कि कैसे नैतिक आचरण की कहावतें लोगों के विचारों को सीमित कर सकती हैं, उनके बारे में एक भी सकारात्मक बात नहीं है, और यह देखते हुए कि कैसे वे मनमाने ढंग से लोगों की जान ले सकती हैं, उनका यकीनन लोगों पर कोई सकारात्मक प्रभाव या फायदा नहीं होता है। इसके अलावा, लोग इन विचारों से धोखा खाकर भ्रमित हो जाते हैं। अपने मिथ्या घमंड और अभिमान की खातिर, और जनमत की निंदा से बचने के लिए, उन्हें नैतिक आचरण की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने के लिए मजबूर किया जाता है। लोग पहले से ही नैतिक आचरण की इन विभिन्न कहावतों और विचारों से पूरी तरह से बंधे, बेबस और जकड़े हुए हैं, जिससे उनके पास कोई और विकल्प नहीं बचा है। मानवजाति नैतिक आचरण की कहावतों की बेड़ियों में बंधकर जीने को तैयार है और उसके पास ज्यादा सम्मानजनक जीवन जीने, दूसरों के सामने अच्छा दिखने, ऊँचा दर्जा रखने और लोगों से अच्छी बातें सुनने के साथ-साथ चुगली का निशाना बनने से बचने और अपने परिवार का नाम ऊँचा करने की खातिर कोई स्वतंत्र विकल्प नहीं रह गया है। लोगों के इन विचारों और नजरिए के साथ-साथ इन घटनाओं के मद्देनजर, जहाँ वे नैतिक आचरण की कहावतों से नियंत्रित होते हैं, भले ही कुछ हद तक ये कहावतें मानव व्यवहार को सीमित और नियंत्रित करती हैं, लेकिन काफी हद तक वे इन तथ्यों को छिपाती भी हैं कि शैतान लोगों को भ्रष्ट करता है, और लोगों के स्वभाव भ्रष्ट और शैतानी प्रकृति हैं। वे लोगों के बाहरी व्यवहार से उनकी असलियत को छिपा लेती हैं ताकि वे बाहरी तौर पर सम्मानजनक, सुसंस्कृत, शिष्ट, दयालु, प्रतिष्ठित और इज्जतदार जीवन जी सकें। इसलिए, अन्य लोग उनके बाहरी व्यवहार से केवल यह निर्धारित कर सकते हैं कि वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं—जैसे, वे सम्मानित हैं या नीच, अच्छे हैं या बुरे। ऐसी परिस्थितियों में, हर कोई नैतिक आचरण की विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर यह देखता और आंकता है कि कोई व्यक्ति अच्छा है या बुरा, मगर कोई भी लोगों के सतही नैतिक आचरण के पीछे के भ्रष्ट सार को नहीं देख सकता, और न ही वह नैतिक आचरण के परदे के पीछे छिपी विभिन्न प्रकार की धूर्तता और दुष्टता को साफ तौर पर देख सकता है। इस तरह, लोग नैतिक आचरण के लबादे का इस्तेमाल करके अपने भ्रष्ट सार को काफी हद तक छिपा लेते हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि कोई महिला बाहरी तौर पर सच्चरित्र, दयालु, विनम्र और नैतिक है, जिसे अपने आस-पास के लोगों से प्रशंसा और सराहना मिलती है। वह उचित व्यवहार करती है, शिष्ट है, दूसरों के साथ मेलजोल में विशेष रूप से सहनशील है, द्वेष नहीं रखती है, अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ है, एक अच्छी पत्नी और माँ की भूमिका निभाती है, कठिनाइयों को सहन कर सकती है और अन्य महिलाओं के लिए एक आदर्श मानी जाती है। बाहर से उसमें कोई समस्या नहीं नजर आती है, लेकिन कोई नहीं जानता कि वह अंदर से क्या और कैसे सोचती है। वह अपनी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ कभी नहीं बताती, और न ही इन्हें बताने की हिम्मत करती है। वह ऐसा क्यों करती है? क्योंकि वह खुद को एक ऐसी महिला के रूप में पेश करना चाहती है जो सच्चरित्र, दयालु, विनम्र और नैतिक है। अगर वह वास्तव में खुलकर बोलती है और अपने दिल की बात और अपनी कुरूपता को उजागर करती है, तो वह एक सच्चरित्र, दयालु, विनम्र और नैतिक महिला नहीं बन पाएगी, यहाँ तक कि दूसरे लोग उसकी आलोचना और तिरस्कार करेंगे, इसलिए वह सिर्फ खुद को छिपाती और दिखावा करती है। सच्चरित्र, दयालु, विनम्र और नैतिक होने के इस बाहरी व्यवहार के पीछे छिपने का मतलब है कि लोग केवल उसके अच्छे कर्मों को देखते हैं और उसकी प्रशंसा करते हैं, और इस तरह उसने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है। लेकिन चाहे वह कैसे भी खुद को छिपाए और दूसरों को धोखा दे, क्या वह वास्तव में उतनी अच्छी है जितना लोग उसे बनाते हैं? बिल्कुल नहीं। क्या उसमें वाकई भ्रष्ट स्वभाव है? क्या उसमें भ्रष्टता का सार है? क्या वह कपटी है? अहंकारी है? दुराग्रही है? दुष्ट है? (हाँ।) उसमें यकीनन ये चीजें हैं, पर यह सब छिपी हुई हैं—यह एक तथ्य है। कुछ चीनी ऐतिहासिक हस्तियों को प्राचीन संतों और साधुओं की तरह पूजा जाता है। यह दावा करने का आधार क्या है? कुछ सीमित, अप्रमाणित अभिलेखों और कही-सुनी कहानियों के आधार पर ही संत और साधु के रूप में उनकी स्तुति की जाती है। सच तो यह है कि कोई नहीं जानता कि वास्तव में उनके मुख्य कार्य और आचरण कैसे थे। क्या अब तुम लोगों को इन समस्याओं की पूरी समझ है? तुममें से कुछ लोगों को काफी हद तक इसकी गहरी समझ होनी चाहिए, क्योंकि तुम लोगों ने बहुत सारे उपदेश सुने हैं, और मानव भ्रष्टता के सार और सत्य को बहुत स्पष्ट रूप से देखा है। अगर लोग कुछ सत्यों को समझते हैं, तो वे कुछ लोगों, बातों और चीजों को पूरी तरह से समझने में सक्षम होंगे। क्या एक सच्चरित्र, दयालु, विनम्र और नैतिक महिला—चाहे उसका बाहरी व्यवहार और नैतिक आचरण कितना ही आदर्श क्यों न हो, और चाहे वह खुद को कितनी ही अच्छी तरह से छिपाए और दिखावा करे—अपना अहंकारी स्वभाव दिखाएगी? (हाँ।) वह यकीनन ऐसा करेगी। तो क्या उसमें दुराग्रही स्वभाव है? (हाँ।) वह सोचती है कि वह सही है और उसे लगता है वह सच्चरित्र, दयालु, विनम्र, नैतिक और अच्छी इंसान है, जिससे साबित होता कि वह बहुत दंभी और दुराग्रही है। सच तो यह है कि अंदर से वह अपने असली चेहरे और कमियों को पहचानती है, लेकिन फिर भी वह अपने सदगुणों का ढिंढोरा पीटती है। क्या यह दुराग्रह नहीं है? क्या यह अहंकार नहीं है? इसके अलावा, उसका खुद को एक सच्चरित्र, दयालु, विनम्र और नैतिक इंसान घोषित करना केवल एक अच्छी छाप छोड़ने और अपने परिवार को सम्मान दिलाने की खातिर है। क्या ऐसे विचार और इरादे बेतुके और दुष्ट नहीं हैं? उसे लोगों से तारीफ मिलती है और वह अच्छा नाम कमाती है, लेकिन अंदर से वह अपने इरादों, विचारों और अपनी शर्मनाक करतूतों को लगातार छिपाती रहती है और उनके बारे में किसी को कुछ भी नहीं बताती है। उसे डर है कि जब लोग उसकी असलियत जान जाएंगे, तो वे उस पर टिप्पणी करेंगे, उसकी आलोचना करेंगे और उसे ठुकरा देंगे। यह कैसा स्वभाव है? क्या यह धूर्तता नहीं है? (हाँ।) तो, चाहे उसका बाहरी व्यवहार कितना भी सही और सम्मानजनक हो, या उसका नैतिक आचरण कितना भी अनुकरणीय क्यों न हो, उसमें वाकई भ्रष्ट स्वभाव है, बात बस इतनी है कि जिन अविश्वासियों ने कभी परमेश्वर के वचन नहीं सुने हैं और जो सत्य को नहीं समझते, वे इसे समझ या जान नहीं सकते हैं। वह अविश्वासियों को धोखा देने में सक्षम हो सकती है, लेकिन वह परमेश्वर के विश्वासियों और सत्य समझने वालों को धोखा नहीं दे सकती है। ऐसा ही है ना? (हाँ।) ऐसा इसलिए है क्योंकि वह शैतान की भ्रष्टता के अधीन रही है, और उसमें भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार है। यह एक तथ्य है। चाहे उसका नैतिक आचरण कितना भी आदर्श हो या उसका दर्जा कितना भी ऊँचा हो, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि उसमें भ्रष्ट स्वभाव है और इसे बदला नहीं जा सकता। जब लोग सत्य समझ जाएंगे, तो वे उसकी असलियत को पहचान सकेंगे। हालाँकि, नैतिक आचरण की इन कहावतों का इस्तेमाल शैतान मनुष्यों को धोखा देने के लिए करता है, और बेशक उनके विचारों को सुन्न और सीमित करने के लिए भी करता है, जिससे वे गलती से यह सोच बैठते हैं कि अगर उन्होंने नैतिक आचरण की इन अपेक्षाओं और मानकों को पूरा किया, तो वे अच्छे लोग हैं और सही मार्ग पर चल रहे हैं। वास्तव में, सच इसके विपरीत है। भले ही कुछ लोग नैतिक आचरण की कहावतों के अनुरूप कुछ अच्छे व्यवहार प्रदर्शित करें, वे जीवन में सही मार्ग पर नहीं चल पाए हैं। बल्कि, वे गलत मार्ग पर चल पड़े हैं और पाप में जी रहे हैं। वे पाखंड के मार्ग पर चल पड़े हैं और शैतान के जाल में फंस गए हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों में केवल कुछ अच्छे नैतिक आचरण होने से उनके भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार में जरा-सा भी बदलाव नहीं आएगा। बाहरी नैतिक आचरण केवल सजावट मात्र है, सिर्फ दिखावे के लिए है, उनकी वास्तविक प्रकृति और वास्तविक स्वभाव अभी भी उजागर होगी। शैतान लोगों को उनके व्यवहार और बाहरी स्वरूप के जरिए सीमित और नियंत्रित करता है, जिससे लोग अच्छा व्यवहार करके को छिपाते और दिखावा करते हैं; साथ ही, लोगों के अच्छे व्यवहार का इस्तेमाल करके शैतान इस तथ्य को छिपाता है कि उसने मानवजाति को भ्रष्ट कर दिया है, और बेशक, वह इस तथ्य को भी छिपाता है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव है। एक अर्थ में, शैतान का उद्देश्य लोगों को नैतिक आचरण की इन कहावतों के नियंत्रण के अधीन लाना है, ताकि वे अच्छे कर्म ज्यादा करें और बुरे कर्म कम करें, और ऐसी चीजें तो बिल्कुल न करें जो शासक वर्ग के विरोध में हों। इससे मानवजाति पर शासक वर्ग के प्रभुत्व और नियंत्रण को और अधिक फायदा मिलता है। दूसरे अर्थ में, जब लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों को अपने आचरण और कार्यों के लिए सैद्धांतिक आधार के रूप में स्वीकार लेते हैं, तो वे खुद को सत्य और सकारात्मक चीजों से दूर करने और उनका विरोध करने लगते हैं। बेशक, जब परमेश्वर के कहे वचनों और उन सकारात्मक चीजों या सत्यों की बात आती है जो परमेश्वर लोगों को सिखाता है, तो उनके लिए इसे समझना और समझाना मुश्किल हो जाता है या उनमें सभी प्रकार के प्रतिरोध और धारणाएँ विकसित हो सकती हैं। एक बार जब लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों के अधीन हो जाते हैं, तो उनके लिए परमेश्वर के वचनों और सत्य को स्वीकारना कठिन हो जाता है, और बेशक भ्रष्ट स्वभाव को समझना और उसे बदलना तो और भी अधिक कठिन हो जाता है। इसलिए, नैतिक आचरण की विभिन्न कहावतों और विचारों ने परमेश्वर के वचनों को स्वीकारने और समझने को लेकर काफी हद तक लोगों के सामने बाधा खड़ी कर दी है, और बेशक लोग जिस हद तक सत्य स्वीकारते हैं उस पर भी असर डाला है। लोगों में सभी प्रकार के अनुचित और नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण विकसित करने के लिए शैतान नैतिक आचरण की कहावतों को धर्मोपदेश के रूप में इस्तेमाल करने का तरीका अपनाता है, ताकि वे इन विचारों और दृष्टिकोणों के आधार पर लोगों और चीजों को देखें, और ऐसे ही आचरण और कार्य करें। जब लोगों और चीजों पर अपने विचार व्यक्त करने और उनके आचरण और कार्यों को पहचानने के सैद्धांतिक आधार और मानक के रूप में लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों के पीछे के विचारों को अपना लेते हैं, तो उनका भ्रष्ट स्वभाव न केवल बदला या कम किया नहीं जा सकता, बल्कि इसके विपरीत, कुछ हद तक यह और भी गंभीर हो जाएगा, और परमेश्वर के प्रति उनकी अवज्ञा और प्रतिरोध और भी बदतर हो जाएगा। इसलिए, जब परमेश्वर लोगों को बचाता है, जब उन्हें परमेश्वर के वचन उपलब्ध कराए जाते हैं, तो लोगों के भ्रष्ट स्वभाव नहीं, बल्कि विभिन्न शैतानी फलसफे, नैतिक आचरण की कहावतें, और शैतान से आने वाले विभिन्न शैतानी विचार और दृष्टिकोण सबसे बड़ी अड़चन बन जाती हैं। यह शैतान का मानवजाति को भ्रष्ट करने का परिणाम है और यह नैतिक आचरण की विभिन्न कहावतों का भ्रष्ट मनुष्यों पर पड़ने वाला नकारात्मक प्रभाव भी है। नैतिक आचरण की कहावतों का प्रचार और समर्थन करके शैतान वास्तव में यही लक्ष्य हासिल करना चाहता है।

हमारी पिछली सभा में हमने मुख्य रूप से नैतिक आचरण की तीन कहावतों पर संगति की थी, जो ये थीं, “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम खुद नहीं चाहते,” और “मैं अपने दोस्त के आरोप अपने ऊपर ले लूँगा।” आज हम इस कहावत पर संगति करेंगे, “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए।” नैतिक आचरण की यह कहावत भी मानवजाति के बीच देखी गई है, जो भ्रष्ट मनुष्यों के विचारों और नजरिए से आई है। बेशक, अधिक सटीक रूप से यह शैतान द्वारा मानवजाति की भ्रष्टता और धोखे से उत्पन्न होती है। इसका प्रभाव और प्रकृति वही है जो नैतिक आचरण की उन कहावतों की है जिन पर हमने पहले संगति की थी, भले ही इसका नजरिया अलग हो। वे दोनों ही एक जैसे निर्भीक और भव्य कथन हैं, बड़े उत्साही, जोशीले और साहसी। यदि लोगों ने कभी परमेश्वर के वचन नहीं सुने होते और सत्य नहीं समझा होता, तो उन्हें लगता कि ये आत्मा को एकदम झकझोर देने वाले और खून में उबाल लाने वाले कथन हैं। इन शब्दों को सुनकर, उनमें तुरंत साहस भर जाएगा और वे अपनी मुट्ठियाँ भींच लेंगे। अब वे शांत नहीं बैठ पाएंगे या अपने आंतरिक उत्साह को काबू में नहीं कर पाएंगे, और उन्हें लगेगा कि चीनी संस्कृति और अजगर की भावना यही है। क्या तुम लोग अब भी ऐसा ही महसूस करते हो? (नहीं।) अब ये शब्द सुनकर तुम्हें कैसा महसूस होता है? (अब मुझे लगता है कि ये शब्द अच्छे या सकारात्मक नहीं हैं।) तुम पहले की तुलना में अब अलग क्यों महसूस करते हो? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि जब लोग बूढ़े हो जाते हैं और उन्होंने इतना अधिक कष्ट उठाया होता है, तो वे अपनी जवानी और भड़काऊ जोड़ खो देते हैं? या ऐसा इसलिए है क्योंकि जब लोग कुछ सत्यों को समझ जाते हैं, तो वे यह पहचान सकते हैं कि नैतिक आचरण की ये कहावतें बहुत खोखली, अवास्तविक और बेकार हैं? (मुख्य रूप से ये कहावतें सत्य के अनुरूप नहीं हैं और अव्यावहारिक भी हैं।) वास्तव में, नैतिक आचरण की ये कहावतें बहुत खोखली और अवास्तविक हैं। तो, जहाँ तक नैतिक आचरण की इस कहावत की बात है, “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए,” आओ हम इसका विश्लेषण और चीर-फाड़ करके देखें कि इसमें क्या गलत है; हम उन सिद्धांतों पर विचार करेंगे जिन पर हमने पहले संगति की थी, ताकि विशेष रूप से इस कहावत के बेतुकेपन और इसमें छिपी शैतान की कपटी साजिशों को उजागर किया जा सके। क्या तुम लोग इसका विश्लेषण करना जानते हो? मुझे इस वाक्य का सटीक अर्थ बताओ। (ये एक दिलेर और बहादुर इंसान बनने के लिए मेंसियस द्वारा प्रस्तावित तीन मानदंड हैं। इसकी आधुनिक व्याख्या है : कीर्ति और धन किसी का संकल्प भंग नहीं कर सकते, गरीबी और निम्न स्तरीय परिस्थितियां किसी की दृढ़ इच्छा-शक्ति को नहीं बदल सकतीं, और ताकत और हिंसा का भय किसी से समर्पण नहीं करा सकता है।) नैतिक आचरण की जिस कहावत पर हमने पहले बात की थी—“महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और सदाचारी होना चाहिए”—वह महिलाओं के लिए है, पर यह जाहिर तौर पर पुरुषों के लिए है। चाहे कीर्ति और धन से भरे जीवन की बात हो, या गरीबी के हालात हों, या ताकत और हिंसा का सामना करना हो, सभी प्रकार के माहौल में पुरुषों से अपेक्षाएँ रखी जाती हैं। पुरुषों से कुल मिलाकर कितनी अपेक्षाएँ रखी जाती हैं? पुरुषों में मजबूत इच्छा-शक्ति होने, दृढ़ संकल्प होने और ताकत और हिंसा के सामने अडिग रहने की अपेक्षा की जाती है। इस बारे में सोचो कि ये अपेक्षाएं जो सामने रखी गई हैं, क्या सामान्य मानवता से संबंधित हैं, और क्या वे वास्तविक जीवन के उस माहौल से संबंधित हैं जिसमें लोग रहते हैं। दूसरे शब्दों में, इस बारे में सोचो कि पुरुषों से की गई ये अपेक्षाएं खोखली और अवास्तविक हैं या नहीं। महिलाओं के नैतिक आचरण के लिए परंपरागत संस्कृति की अपेक्षाएं यह हैं कि महिला को सच्चरित्र, दयालु और विनम्र होना चाहिए; “सच्चरित्र” का अर्थ है महिलाओं वाले गुण होना, “दयालु” का अर्थ है दया रखने वाला दिल होना, “विनम्र” का अर्थ है सुसभ्य महिला होना, और “नैतिक” का अर्थ है एक नैतिक व्यक्ति होना और अच्छा नैतिक आचरण रखना। ये सभी अपेक्षाएँ एकदम सामान्य हैं। पुरुषों का सच्चरित्र, दयालु, विनम्र या नैतिक होना जरूरी नहीं है, जबकि महिलाओं में मजबूत इच्छा-शक्ति और दृढ़ संकल्प होना जरूरी नहीं है, और जब भी उनका सामना ताकत और हिंसा से होता है, तो वे झुक सकती हैं। कहने का मतलब यह है कि नैतिक आचरण की यह अपेक्षा, “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए” महिलाओं को पर्याप्त छूट देती है, क्योंकि यह उनके प्रति विशेष रूप से सहनशील और विचारशील है। इस सहनशीलता और विचारशीलता का क्या अर्थ है? क्या उन्हें अलग ढंग से समझा जा सकता है? (यह एक तरह का भेदभाव है।) मुझे भी ऐसा ही लगता है। सच तो यह है कि इसमें महिलाओं के खिलाफ भेदभाव है, खसकर यह मानना कि महिलाओं में मजबूत इच्छा-शक्ति नहीं होती है, वे डरपोक, शर्मीली होती हैं, और उनसे केवल बच्चे पैदा करने, एक अच्छी पत्नी और माँ होने की भूमिका निभाने, घरेलू कामकाज को संभालने, और दूसरों के साथ झगड़ा या गपशप नहीं करने की अपेक्षा की जाती है। उनसे करियर बनाने और मजबूत इच्छाशक्ति रखने की अपेक्षा करना नामुमकिन होगा—वे इसमें असमर्थ हैं। इसलिए, दूसरे नजरिए से देखें, तो महिलाओं के लिए ये अपेक्षाएँ पूरी तरह से भेदभावपूर्ण और अपमानजनक हैं। नैतिक आचरण की यह कहावत, “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए” पुरुषों के लिए है। इसमें अपेक्षा की जाती है कि पुरुषों में मजबूत इच्छाशक्ति और अविरल संकल्प के साथ-साथ ऐसी मर्दाना और साहसी भावना हो जो ताकत और हिंसा के आगे न झुके। क्या यह अपेक्षा सही है? क्या यह उचित है? पुरुषों के प्रति ये अपेक्षाएँ दर्शाती हैं कि जिस व्यक्ति ने नैतिक आचरण की इस कहावत को प्रस्तावित किया है, वह पुरुषों के बारे में बहुत ऊँचा सोचता है, क्योंकि पुरुषों के प्रति उनकी अपेक्षाएँ महिलाओं की तुलना में अधिक हैं। इसका मतलब यह समझा जा सकता है कि उनके लैंगिक सार, उनकी सामाजिक स्थिति और मर्दाना प्रवृत्ति के मद्देनजर, पुरुषों को महिलाओं से ऊपर होना चाहिए। क्या नैतिक आचरण की यह कहावत इसी दृष्टिकोण से तैयार की गई थी? (हाँ।) जाहिर तौर पर यह एक ऐसे समाज की उपज है जिसमें पुरुषों और महिलाओं के बीच असमानता है। इस समाज में, पुरुष महिलाओं के साथ भेदभाव करते हैं और उन्हें अपमानित करते रहते हैं, महिलाओं के जीवन के दायरे को सीमित करते हैं, महिलाओं के अस्तित्व की अहमियत को नजरअंदाज करते हैं, लगातार अपनी अहमियत को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं, अपनी सामाजिक स्थिति को बढ़ाते हैं, और अपने अधिकारों को महिलाओं के अधिकारों पर हावी होने देते हैं। समाज में इसके प्रभाव और परिणाम क्या हैं? इस समाज पर पुरुषों का शासन और वर्चस्व है। यह एक पुरुष-प्रधान समाज है, जिसमें महिलाओं को पुरुषों के नेतृत्व, दमन और नियंत्रण में रहना पड़ता है। साथ ही, पुरुष किसी भी तरह का काम कर सकते हैं, जबकि महिलाओं के कामकाज के दायरे को कम और सीमित कर दिया जाता है। पुरुष समाज में सभी अधिकारों का पूरा आनंद ले सकते हैं, जबकि महिलाओं को मिलने वाले अधिकारों का दायरा जानबूझकर सीमित किया जाता है। जिस काम को पुरुष नहीं करना चाहते या जिसे करने का विकल्प वे नहीं चुनते, या जिसे करने पर उनके साथ भेदभाव किया जाएगा, उन्हें महिलाओं के लिए छोड़ा जा सकता है। उदाहरण के लिए, कपड़े धोना, खाना पकाना, सेवा उद्योग का काम और काफी कम आय और निम्न सामाजिक रुतबे वाले पेशे या ऐसे काम जिनमें लोग भेदभाव करते हैं, महिलाओं के लिए सुरक्षित रखे गए हैं। दूसरे शब्दों में, पेशा चुनने के विकल्प और सामाजिक रुतबे के संदर्भ में पुरुष अपने मर्दाना अधिकारों का पूरा आनंद ले सकते हैं, और उन विशेष अधिकारों का आनंद ले सकते हैं जो समाज पुरुषों को देता है। ऐसे समाज में पुरुष पहले स्थान पर हैं जबकि महिलाएँ दूसरे स्थान पर, यहाँ तक कि उन्हें चुनाव करने की छूट बिल्कुल नहीं है, अपनी पसंद चुनने का भी अधिकार नहीं है। वे केवल निष्क्रिय रहकर खुद के चुने जाने की प्रतीक्षा कर सकती हैं, और अंत में यह समाज उन्हें बाहर निकालकर रास्ते से हटा देता है। इसलिए, महिलाओं से इस समाज की अपेक्षाएँ काफी कम हैं, जबकि पुरुषों से बहुत सख्त और कठोर अपेक्षाएँ हैं। हालाँकि, चाहे ये पुरुषों के लिए हों या महिलाओं के लिए, नैतिक आचरण की इन अपेक्षाओं को प्रस्तुत करने का इरादा और लक्ष्य लोगों से समाज, राष्ट्र और देश की बेहतर सेवा करवाना और बेशक, आखिर में शासक वर्ग और शासकों की सेवा करवाना है। “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए,” इस कहावत से यह समझना आसान है कि जिस व्यक्ति ने नैतिक आचरण की इस अपेक्षा को प्रस्तुत किया था वह पुरुषों के प्रति पक्षपाती है। उस व्यक्ति की नजर में, पुरुषों के पास मजबूत इच्छा-शक्ति, दृढ़ संकल्प और ऐसी भावना होनी चाहिए जो ताकत और हिंसा के आगे न झुके। इन अपेक्षाओं से, क्या तुम उस व्यक्ति का उद्देश्य पहचान सकते हो जिसने यह कहावत प्रस्तुत की थी? इसका उद्देश्य इस समाज में उपयोगी और मजबूत इरादों वाले पुरुषों को समाज, राष्ट्र और देश की बेहतर सेवा करने और आखिरकार सत्ता में बैठे लोगों की बेहतर सेवा करने में सक्षम बनाना और इस समाज में पुरुषों की अहमियत और कामकाज को बेहतर ढंग से सामने लाना था। ऐसे लोगों को ही मर्दाना और साहसी कहा जा सकता है। अगर लोग इन अपेक्षाओं को पूरा करने में नाकामयाब रहते हैं, तो इन नैतिकतावादियों और शासकों की नजर में, उन्हें मर्दाना और साहसी नहीं कहा जाएगा, बल्कि उन्हें औसत दर्जे के लोग और अछूत कहा जाएगा और उनके साथ भेदभाव होगा। कहने का मतलब यह है कि अगर किसी व्यक्ति के पास मजबूत इच्छा-शक्ति, दृढ़ संकल्प और ऐसी भावना नहीं है जो उनकी अपेक्षा के अनुसार ताकत और हिंसा के सामने न झुके, बल्कि वह बिना किसी उपलब्धियों वाला एक साधारण, औसत दर्जे का व्यक्ति है, और केवल अपना जीवन जी सकता है, और समाज, देश और राष्ट्र के लिए अपना योगदान नहीं दे सकता, और शासकों, देश या राष्ट्र द्वारा किसी महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है, तो समाज ऐसे व्यक्ति को नहीं स्वीकारेगा और उसे अहमियत नहीं देगा, और न ही सत्ता में बैठे लोगों उसे कोई महत्व देंगे और शासकों या नैतिकतावादियों द्वारा उसे पुरुषों के बीच एक औसत दर्जे का, अछूत और नीच व्यक्ति माना जाएगा। यही बात है ना? (हाँ।) क्या तुम लोग इस कहावत से सहमत हो? क्या यह कहावत उचित है? क्या यह पुरुषों के लिए उचित है? (नहीं, यह अनुचित है।) क्या पुरुषों को अपने देश के लिए पूरी दुनिया, राष्ट्र और महान कार्यों पर नजर रखनी चाहिए? क्या वे केवल सामान्य, कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति नहीं हो सकते? क्या वे रो नहीं सकते, प्रेम नहीं कर सकते, छोटी-मोटी स्वार्थी मंशाएँ नहीं पाल सकते, या अपने प्रियजनों के साथ एक साधारण जीवन नहीं जी सकते? क्या मर्दाना और साहसी कहलाने के लिए उनका पूरी दुनिया पर नजर रखना जरूरी है? क्या उन्हें पुरुष माने जाने के लिए मर्दाना और साहसी कहलाना जरूरी है? क्या पुरुष की परिभाषा यह है कि तुम्हें मर्दाना और साहसी होना चाहिए? (नहीं।) ये विचार पुरुषों का अपमान हैं, ये पुरुषों पर व्यक्तिगत हमले के समान हैं। क्या तुम लोगों में से कोई भी ऐसा महसूस करता है? (हाँ।) क्या पुरुषों में मजबूत इच्छा-शक्ति न होना ठीक है? क्या पुरुषों में दृढ़ संकल्प न होना ठीक है? जब लोग ताकत और हिंसा के खिलाफ खड़े होते हैं, तो क्या जीवित रहने के लिए उनका किसी के सामने झुकना और समझौता करना ठीक है? (हाँ, ठीक है।) क्या पुरुषों के पास वह सब ना होना भी ठीक है जो महिलाओं के पास नहीं है? क्या पुरुषों का मर्दाना और साहसी होने के बजाय केवल एक सामान्य इंसान बनकर खुद को आराम देना ठीक है? (हाँ, यह ठीक है।) इस तरह, लोग स्वतंत्र हो जाएँगे, इंसान होने का मार्ग और भी व्यापक हो जाएगा, और लोग जीवन में इतने थके हुए नहीं होंगे, बल्कि सामान्य रूप से जिंदगी जी सकेंगे।

अभी भी ऐसे बहुत से देश हैं जहाँ परंपरागत संस्कृति के विचार, जैसे कि “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए” लोगों को सीमित करते हैं। ये देश अभी भी पुरुष-प्रधान समाज हैं जिनमें पुरुष ही निर्णय लेते हैं, और परिवार से लेकर समाज तक और पूरे देश पर शासन करते हैं; वे हर जगह प्राथमिकता लेते हैं, वे हर परिस्थिति में जीतते हैं, और हर बात में खुद को श्रेष्ठ समझते हैं। इसी के साथ, ऐसे समाज, राष्ट्र और देश पुरुषों से ऊँची अपेक्षाएँ रखते हैं, जो उन पर बहुत अधिक दबाव डालती हैं और इससे कई प्रतिकूल परिणाम सामने आते हैं। कुछ पुरुष जो अपनी नौकरी खो देते हैं वे इस बारे में अपने परिवार को बताने की हिम्मत तक नहीं कर पाते। दिन-ब-दिन वे कंधे पर बैग टांगकर नौकरी पर जाने का नाटक करते हैं, लेकिन वास्तव में वे बाहर निकलकर सड़कों पर भटकते रहते हैं। कभी-कभी वे देर रात घर आते हैं और अपने परिवार वालों से झूठ भी बोलते हैं कि वे दफ्तर में ओवरटाइम कर रहे हैं। फिर अगले दिन, वे सड़कों पर भटकते हुए दिखावा करना जारी रखते हैं। परंपरागत संस्कृति के इन विचारों के साथ-साथ पुरुषों की सामाजिक जिम्मेदारियाँ और समाज में उनकी स्थिति, उन पर पड़ने वाले दबाव और यहाँ तक कि उनके अपमान का स्रोत भी बन जाती है, और यह पुरुषों की मानवता को विकृत कर देती है, जिससे कई लोग चिड़चिड़े, उदास महसूस करने लगते हैं और कठिनाइयों से घिर जाने पर अक्सर टूटने के कगार पर पहुँच जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे सोचते हैं कि वे पुरुष हैं, तो उन्हें अपना परिवार चलाने के लिए पैसा कमाना चाहिए, एक पुरुष होने की अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, पुरुषों को रोना या दुखी होना नहीं चाहिए और बेरोजगार भी नहीं होना चाहिए, बल्कि उन्हें समाज का स्तंभ और परिवार की रीढ़ होना चाहिए। जैसा कि अविश्वासी कहते हैं, “पुरुष आसानी से आँसू नहीं बहाते,” पुरुष में कमजोरियाँ नहीं होनी चाहिए, ना ही उसमें कोई कमी होनी चाहिए। ये विचार और नजरिये नैतिकतावादियों द्वारा पुरुषों को गलत तरीके से वर्गीकृत करने और लगातार पुरुषों का दर्जा ऊँचा उठाने के कारण उत्पन्न हुए हैं। ये विचार और नजरिये न केवल पुरुषों को हर तरह की परेशानी, खीज और पीड़ा में डालते हैं, बल्कि उनके मन में बेड़ियाँ भी बन जाते हैं, जिससे समाज में उनका ओहदा, स्थिति और मेलजोल का तरीका भी बेहद असहज हो जाता है। जैसे-जैसे पुरुषों पर दबाव बढ़ता है, उन पर इन विचारों और नजरियों का नकारात्मक प्रभाव भी बढ़ता है। कुछ पुरुष तो समाज में पुरुषों की स्थिति की गलत व्याख्या के कारण खुद को महान पुरुषों की श्रेणी में रख लेते हैं, वे सोचते हैं कि पुरुष महान और महिलाएं मामूली हैं, और इसलिए पुरुषों को हर चीज में अगुआई करना और घर का मुखिया बनना चाहिए, और जब चीजें सही तरह से ना चलें, तो वे महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा तक कर सकते हैं। ये सभी समस्याएं मानवजाति द्वारा पुरुषों को गलत तरीके से वर्गों में बांटने से संबंधित हैं, है ना? (हाँ।) तुम देख सकते हो कि दुनिया के ज्यादातर देशों में, पुरुषों की सामाजिक स्थिति महिलाओं की तुलना में ऊँची है, खासकर परिवार में। पुरुषों को काम पर जाने और पैसे कमाने के अलावा कुछ नहीं करना होता है, जबकि महिलाएँ घर के सभी काम करती हैं, चाहे यह कितना भी थकाऊ या कठिन हो, वे इस बारे में बहस या शिकायत नहीं कर सकती हैं, न ही दूसरों को बताने की हिम्मत करती हैं। महिलाओं की स्थिति किस हद तक नीची है? उदाहरण के लिए, खाने की मेज पर सबसे स्वादिष्ट भोजन पहले पुरुषों को मिलता है, जबकि महिलाएँ दूसरे नंबर पर आती हैं, और परिवार के पंजीकरण दस्तावेजों में पुरुष को घर का मुखिया और महिला को परिवार की सदस्या माना जाता है। इन छोटी-छोटी बातों से ही हम पुरुषों और महिलाओं के दर्जे में असमानता देख सकते हैं। लिंग भेद के कारण पुरुषों और महिलाओं के बीच श्रम का विभाजन अलग-अलग है, लेकिन क्या परिवार में पुरुषों और महिलाओं के दर्जे में इतनी बड़ी असमानता अनुचित नहीं है? क्या यह परंपरागत संस्कृति की शिक्षा का परिणाम नहीं है? समाज में, केवल महिलाएँ ही यह नहीं सोचतीं कि पुरुष अधिक विशिष्ट और श्रेष्ठ हैं, बल्कि पुरुष भी सोचते हैं कि वे महिलाओं की तुलना में श्रेष्ठ और उच्च श्रेणी के हैं, क्योंकि पुरुष समाज, राष्ट्र और देश में मूल्यों का अधिक निर्माण कर सकते हैं और अपनी काबिलियत का अधिक इस्तेमाल कर सकते हैं, जबकि महिलाएँ ऐसा नहीं कर सकती हैं। क्या यह तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना नहीं है? तथ्यों को इतना तोड़ा-मरोड़ा क्यों गया? क्या इसका सीधा संबंध सामाजिक शिक्षा और परंपरागत संस्कृति के प्रभाव और उनके द्वारा विचारों को मन में बैठाने से है? (हाँ।) इसका सीधा संबंध परंपरागत संस्कृति की शिक्षा से है। चाहे वास्तविक समाज की बात हो या किसी राष्ट्र या देश की, मानवजाति के बीच भटकाने वाली जो भी समस्याएँ सामने आती हैं, वे सभी मुट्ठी भर समाजशास्त्रियों या शासकों द्वारा समर्थित कुछ गलत विचारों के कारण होती हैं, और वे सीधे तौर पर किसी समाज, राष्ट्र या देश के नेताओं द्वारा समर्थित गलत विचारों से संबंधित होती हैं। यदि वे जिन विचारों और नजरियों का समर्थन करते हैं वे अधिक सकारात्मक और सत्य के करीब हों, तो मानवजाति के बीच समस्याएँ अपेक्षाकृत कम होंगी; यदि वे जिन विचारों का समर्थन करते हैं वे पक्षपाती, गलत और मानवता को विकृत करने वाले हों, तो समाज के भीतर, किसी जातीय समूह या किसी देश के भीतर भटकाने वाली कई असामान्य चीजें घटित होंगी। यदि समाजशास्त्री पुरुषों के अधिकारों का समर्थन करते हैं, पुरुषों की अहमियत को बढ़ाते हैं, और महिलाओं की अहमियत और गरिमा को कम करते हैं, तो जाहिर तौर पर इस समाज में, पुरुषों और महिलाओं के सामाजिक दर्जे में भारी असमानता होगी; साथ ही, पेशे, सामाजिक स्थिति और सामाजिक कल्याण में अंतर जैसी विभिन्न असमानताएँ भी होंगी, और परिवार में पुरुषों और महिलाओं के दर्जे में भी बहुत असमानता होगी और श्रम का विभाजन भी पूरी तरह भिन्न होगा—यह सब भटकाव ही है। भटकाने वाली इन समस्याओं के सामने आने का संबंध उन लोगों से है जो इन विचारों और नजरियों का समर्थन करते हैं और ऐसा इन राजनेताओं और समाजशास्त्रियों के कारण होता है। यदि मानवजाति के पास शुरू से ही इन मामलों पर सही दृष्टिकोण और सही कहावतें होतीं, तो विभिन्न देशों या राष्ट्रों में भटकाव की इन समस्याओं में काफी कमी आ जाती।

हमने अभी जिस विषय पर संगति की है उसके आधार पर, पुरुषों के साथ व्यवहार के लिए सही दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? सामान्य इंसान कहलाने के लिए पुरुषों में किस प्रकार का व्यवहार, मानवता, अनुसरण और सामाजिक दर्जा होना चाहिए? पुरुषों को अपनी सामाजिक जिम्मेदारियाँ कैसे निभानी चाहिए? लिंग भेद के अलावा, क्या पुरुषों और महिलाओं के बीच उनकी सामाजिक जिम्मेदारी और सामाजिक दर्जे के संदर्भ में भी अंतर होना चाहिए? (नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए।) तो पुरुषों के साथ ऐसा व्यवहार कैसे किया जाए जो सही, निष्पक्ष, मानवीय और सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप हो? हमें अभी यही बात समझनी चाहिए। तो फिर, आओ इस बारे में बात करें कि पुरुषों के साथ वास्तव में कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। क्या पुरुषों और महिलाओं की सामाजिक जिम्मेदारियों में अंतर किया जाना चाहिए? क्या पुरुषों और महिलाओं का सामाजिक दर्जा समान होना चाहिए? क्या पुरुषों का दर्जा अनावश्यक रूप से ऊँचा उठाना और महिलाओं को कमतर आंकना उचित है? (नहीं, यह अनुचित है।) तो फिर, पुरुषों और महिलाओं के सामाजिक दर्जे को निष्पक्ष और तर्कसंगत ढंग से कैसे देखा जाए? इसके क्या सिद्धांत हैं? (यह कि पुरुष और महिलाएँ समान हैं और उनके साथ निष्पक्ष व्यवहार किया जाना चाहिए।) निष्पक्ष व्यवहार सैद्धांतिक आधार है, लेकिन इसे इस तरह से व्यवहार में कैसे लाया जाए जो निष्पक्षता और तर्कसंगतता को दर्शाता हो? क्या इसका व्यावहारिक समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है? सबसे पहले, हमें यह निर्धारित करना होगा कि पुरुषों और महिलाओं का दर्जा समान है—यह निर्विवाद है। इसलिए, पुरुषों और महिलाओं के बीच श्रम का सामाजिक विभाजन भी एक जैसा होना चाहिए, और उन्हें उनकी काबिलियत और कार्य करने की क्षमता के अनुसार देखा और व्यवस्थित किया जाना चाहिए। खास तौर पर जब मानव अधिकारों की बात आती है तो महिलाओं को भी उन चीजों का लाभ मिलना चाहिए जिनका पुरुष आनंद ले सकते हैं, ताकि समाज में पुरुषों और महिलाओं का एकसमान दर्जा सुनिश्चित हो सके। चाहे महिला हो या पुरुष, जो कोई भी काम कर सकता है या जो अगुआ बनने में सक्षम है, उसे यह मौका दिया जाना चाहिए। इस सिद्धांत के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है? (अच्छा है।) यह पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता को दर्शाता है। उदाहरण के लिए, यदि दो पुरुष और दो महिलाएँ अन्गिशामक दल में भर्ती के लिए आवेदन कर रही हैं, तो किसे काम पर रखा जाना चाहिए? इसके लिए निष्पक्ष व्यवहार ही सैद्धांतिक आधार और सिद्धांत है। तो फिर, वास्तव में यह कैसे किया जाना चाहिए? जैसा कि मैंने अभी कहा, अपनी क्षमता और काबिलियत के अनुसार जो भी इस काम को करने में सक्षम है उसे यह काम करने दो। बस इसी सिद्धांत के अनुसार, यह देखते हुए लोगों को चुनो कि उनमें से कौन शारीरिक रूप से स्वस्थ है और बेडौल नहीं है। अग्निशमन का काम आपात स्थिति में तेजी से काम करने का है। यदि तुम कछुए या बूढ़ी गाय की तरह बहुत बेडौल, मंदबुद्धि और सुस्त हो, तो चीजों में देरी करोगे। काबिलियत, क्षमता, अनुभव, अग्निशमन के काम में सक्षमता वगैरह के संदर्भ में हरेक उम्मीदवार की विशेषताओं का पता लगाने के बाद, निष्कर्ष यह निकला कि इस काम के लिए एक पुरुष और एक महिला उपयुक्त मिली : पुरुष लंबा है, शारीरिक रूप से मजबूत है, उसके पास इस काम का अनुभव है, और उसने कई बार आग बुझाने और लोगों को बचाने के काम में भाग लिया है; महिला फुर्तीली है, उसने कठोर प्रशिक्षण लिया है, वह आग बुझाने और उससे संबंधित काम की प्रक्रियाओं के बारे में जानकार है, उसमें काबिलियत है, और उसने दूसरे कामों में भी खुद को साबित किया है और इनाम जीते हैं। तो, आखिर में, दोनों को चुन लिया जाता है। क्या यह सही है? (हाँ।) इसे कहते हैं बिना किसी का पक्ष लिए सबसे अच्छे उम्मीदवार को चुनना। इसका मतलब है, इस प्रकार के व्यक्ति को चुनते समय, यह नियम ध्यान में मत रखो कि उसे पुरुष होना चाहिए या महिला—पुरुष और महिलाएँ बिल्कुल एक समान हैं, और जो भी इस काम को करने के काबिल है वो यह काम करेगा। इसलिए, किसी काम के लिए एक महिला को चुनना है या पुरुष को, यह फैसला लेते समय निष्पक्ष व्यवहार के सर्वोपरि सिद्धांत के अलावा, जो विशिष्ट सिद्धांत अभ्यास में लाया जाना चाहिए वह है कि जो भी काबिल और काम करने में सक्षम है, उसे काम करने देना चाहिए, चाहे वह पुरुष हो या महिला। ऐसा करने से, अब तुम इस विचार से बेबस या बाध्य नहीं हो कि “पुरुष महिलाओं से श्रेष्ठ हैं,” और कोई भी पुराना विचार इस मामले पर तुम्हारे फैसले या चुनाव को प्रभावित नहीं करेगा। तुम्हारे दृष्टिकोण से, जो कोई भी इस काम को करने में सक्षम है, उसे यह काम करने दिया जाना चाहिए, चाहे वह पुरुष हो या महिला—क्या यह निष्पक्ष होना नहीं है? सबसे पहली बात, किसी मामले को संभालते समय, तुम्हारे मन में पुरुषों या महिलाओं के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं है। तुम मानते हो कि कई उत्कृष्ट और प्रतिभाशाली महिलाएँ हैं, और तुम ऐसी कई महिलाओं को जानते भी हो। इसलिए, तुम्हारी अंतर्दृष्टि तुम्हें यकीन दिलाती है कि महिलाओं की काम करने की क्षमता पुरुषों की तुलना में कम नहीं है, और समाज में महिलाओं की अहमियत भी पुरुषों की तुलना में कम नहीं है। जब तुम्हारे पास यह अंतर्दृष्टि और समझ आ जाएगी, तो तुम भविष्य में कोई भी काम करते समय इस तथ्य के आधार पर सटीक निर्णय लोगे और सही विकल्प चुनोगे। दूसरे शब्दों में, यदि तुम किसी के प्रति पक्षपात नहीं करते, और कोई लैंगिक पूर्वाग्रह नहीं रखते, तो इस संबंध में तुम्हारी मानवता अपेक्षाकृत सामान्य होगी, और तुम निष्पक्ष तरीके से काम कर सकोगे। परंपरागत संस्कृति में पुरुषों के महिलाओं से श्रेष्ठ माने जाने की बाधाएँ दूर होंगी, तुम्हारे विचार अब सीमित नहीं रहेंगे, और तुम परंपरागत संस्कृति के इस पहलू से प्रभावित नहीं होगे। संक्षेप में, समाज में विचार या परंपराओं की प्रचलित प्रवृत्तियाँ चाहे जो भी हों, तुम पहले ही इन रूढ़ियों को पार कर चुके होगे, और अब तुम उनसे सीमित और प्रभावित नहीं होगे, बल्कि तथ्यों और सच का सामना कर सकोगे। बेशक, इससे भी बेहतर यह है कि तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार लोगों और चीजों को देख सकते हो, उसके अनुसार आचरण और कार्य कर सकते हो, जिसका परिणाम होगा कि “पुरुषों को मर्दाना और साहसी होना चाहिए, जबकि महिलाओं को शर्मीली होना चाहिए” जैसे विचार और दृष्टिकोण तुम्हारे मन में नहीं होंगे। तो, क्या मनुष्यों के बीच तुम्हारे विचार और दृष्टिकोण अधिक प्रगतिशील हैं? (हाँ।) तुलनात्मक रूप से कहें, तो यह प्रगति है। चाहे पुरुष हो या महिला, बूढ़ा हो या जवान, तुम्हारे पास आने पर उन सबके साथ निष्पक्ष व्यवहार होगा। वास्तव में, यह लोगों को नुकसान पहुँचाने के बजाय उन्हें शिक्षित करना है। यदि तुम अभी भी परंपरागत संस्कृति के विचारों से चिपके हुए हो और यह दावा करते हो कि “प्राचीन काल से, पुरुषों को महिलाओं की तुलना में ऊँचा दर्जा प्राप्त है, और जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं की तुलना में उत्कृष्ट और प्रतिभाशाली पुरुष अधिक हैं। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि पुरुष महिलाओं की तुलना में ज्यादा मजबूत हैं, और समाज में पुरुषों की अहमियत महिलाओं की तुलना में ज्यादा है। यदि समाज में उनकी अहमियत ज्यादा है, तो क्या उनका सामाजिक दर्जा भी ऊँचा नहीं होना चाहिए? इसलिए, इस समाज में, अंतिम फैसला पुरुषों को लेना चाहिए और वर्चस्व वाला ओहदा हासिल करना चाहिए, जबकि महिलाओं को पुरुषों की बात सुननी चाहिए, और उनके द्वारा नियंत्रित और शासित होना चाहिए”—तो इस प्रकार की सोच बहुत पिछड़ी और पतनशील है, और सत्य के सिद्धांतों के जरा भी अनुरूप नहीं है। यदि तुम्हारे विचार और नजरिये इसी प्रकार के हैं, तो तुम केवल महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करोगे, उन्हें दबाओगे, और सामाजिक विचारधाराओं द्वारा निंदित होकर बाहर निकाल दिए जाओगे। पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता एक सही दृष्टिकोण है जिसे दुनिया भर में पहले ही मान्यता प्राप्त है, और यह पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार किया जाना चाहिए, पुरुषों को ऊँची दृष्टि से और महिलाओं को नीची दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए, और महिलाओं की अहमियत को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए, न ही उनकी कार्य क्षमता और काबिलियत को अनदेखा किया जाना चाहिए। यह पहले से ही हर देश की जागरूक आबादी के बीच मौलिक आम सहमति है। यदि तुम्हारे प्रमुख विचार अभी भी परंपरागत संस्कृति से प्रभावित हैं, और तुम्हें अभी भी लगता है कि पुरुष विशिष्ट हैं जबकि महिलाएँ निचले दर्जे की हैं, तो कोई भी काम करते समय तुम्हारी दृष्टि और तुम्हारी पसंद पुरुषों के पक्ष में होगी, और तुम महिलाओं की तुलना में पुरुषों को ज्यादा अवसर दोगे। तुम सोचोगे कि भले ही कुछ पुरुष थोड़े कम सक्षम हों, फिर भी वे महिलाओं की तुलना में अधिक मजबूत हैं, और पुरुष जो कर सकते हैं महिलाएँ उसकी बराबरी या उसे हासिल नहीं कर सकती हैं। यदि तुम्हारी सोच ऐसी है, तो तुम्हारा दृष्टिकोण पक्षपाती होगा, और तुम्हारे सोचने के तरीके की वजह से तुम्हारा फैसला और अंतिम निर्णय एकतरफा होगा। उदाहरण के लिए, अग्निशमन दल में भर्ती को लेकर हमने अभी जो बात कही थी, उसे लेकर तुम पशोपेश में हो और सोच रहे हो “क्या महिलाएँ सीढ़ियाँ चढ़ सकती हैं? महिलाएँ कितना कर पाएँगी? किसी महिला की फूर्ती का क्या उपयोग है? भले ही उसने कठोर प्रशिक्षण लिया हो, मगर इसका कोई फायदा नहीं है।” लेकिन फिर तुम लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने के बारे में सोचते हो, तो आखिर में दो पुरुषों और एक महिला को चुन लेते हो। सच तो यह है कि इस मामले में एक महिला को चुनकर तुम लापरवाही से काम कर रहे हो और उसे खुश करने और उसका मान बचाने के लिए अच्छा काम करने का दिखावा कर रहे हो। काम करने के इस तरीके के बारे में क्या ख्याल है? न केवल तुम इस तरह से लोगों को चुनते हो, बल्कि काम सौंपते समय, तुम ऐसा दृष्टिकोण भी अपनाते हो जो महिला को कमतर आंकता है, यहाँ तक कि उसे छोटे और हल्के काम सौंपते हो। तुम अभी भी सोचते हो कि तुममें मानवीय भावना है और तुम एक महिला को प्राथमिकता देकर उसकी देखभाल और सुरक्षा कर रहे हो। सच तो यह है कि एक महिला के दृष्टिकोण से, तुमने उसके आत्मसम्मान को बहुत ठेस पहुँचाई है। तुमने ऐसा कैसे किया? क्योंकि तुम सोचते हो कि महिलाएँ कमजोर और अतिसंवेदनशील हैं, कि महिलाएँ शर्मीली और पुरुष मर्दाना हैं, इसलिए महिलाओं की रक्षा की जानी चाहिए। ऐसे विचार कहाँ से आए? क्या यह परंपरागत संस्कृति के प्रभाव के कारण है? (हाँ।) समस्या की जड़ यहीं है। लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने के बारे में चाहे तुम जो भी कहो, तुम्हारे कामों से स्पष्ट है कि तुम यकीनन अभी भी परंपरागत संस्कृति में इस विचार से बंधे और सीमित हो कि “पुरुष महिलाओं से श्रेष्ठ हैं।” तुम्हारे कार्यों से स्पष्ट है कि तुमने खुद को इस विचार से मुक्त नहीं किया है। क्या ऐसा है? (हाँ।) यदि तुम खुद को इन बंधनों से मुक्त करना चाहते हो, तो तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, इन विचारों के सार को पूरी तरह से समझना चाहिए, और परंपरागत संस्कृति के इन विचारों के प्रभाव या नियंत्रण में काम नहीं करना चाहिए। तुम्हें उन्हें हमेशा के लिए पूरी तरह से त्याग कर छोड़ देना चाहिए और परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों के अनुसार लोगों और चीजों को नहीं देखना चाहिए, न उसके अनुसार आचरण और कार्य करना चाहिए; न ही परंपरागत संस्कृति के आधार पर कोई फैसला लेना और चुनाव करना चाहिए, बल्कि परमेश्वर के वचनों और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार लोगों और चीजों को देखना चाहिए, उनके अनुसार आचरण और कार्य करना चाहिए। इस तरह, तुम सही मार्ग पर चलोगे, और परमेश्वर द्वारा स्वीकृत एक सच्चे सृजित प्राणी होगे। वरना, तुम शैतान के नियंत्रण में ही रहोगे, और शैतान के प्रभुत्व में जीते रहोगे, और तुम परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं जी पाओगे : ये इस मामले के तथ्य हैं।

अब क्या तुम लोग नैतिक आचरण के बारे में इस कहावत का सार समझते हो, “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए”? और क्या तुम उस सामाजिक संदर्भ को भी समझते हो, जिसमें यह कहावत पेश की गई थी? (हाँ।) पुरुषों की सामाजिक स्थिति में सुधार लाने और उन्हें बड़े अधिकार दिलाने के लिए, उनसे उच्च अपेक्षाएं रखना, लोगों के मन में पुरुषों की छवि बनाना और उस छवि को मर्दानगी और साहस का स्वरूप देना जरूरी है। यही वह छवि है जो इस कहावत से व्यक्त होती है “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए” जिसके बारे में लोग बात करते हैं। नैतिक आचरण की इस कहावत को सामने रखने वाले नैतिकतावादियों का एक पहलू लोगों को यह बताना है कि जो लोग इस कहावत पर खरे उतरते हैं, वे असली मर्दाना पुरुष हैं, यानी वे लोगों को पुरुष की परिभाषा बता रहे हैं; दूसरा पहलू यह है कि वे इस बात का समर्थन कर रहे हैं कि पुरुषों को मजबूती से खड़े होकर समाज में अपनी मौजूदगी दिखानी चाहिए, अपरंपरागत होने का दिखावा करना चाहिए, अपनी सामाजिक स्थिति पर मजबूत पकड़ हासिल करनी चाहिए और सामाजिक मुख्यधारा पर अधिकार जमाना चाहिए। यह सोच कि “पुरुष महिलाओं से श्रेष्ठ हैं” अब तक कायम है। भले ही कुछ देशों या जातियों ने इस संबंध में सुधार किया है, फिर भी ऐसी सोच कई अन्य देशों और राष्ट्रों में मजबूती से फैली हुई है, जहां यह अभी भी राष्ट्रीय और सामाजिक रुझानों को नियंत्रित करती है और उन पर हावी होती है, और समाज में पुरुषों और महिलाओं के बीच श्रम विभाजन के साथ-साथ उनकी सामाजिक स्थिति और सामाजिक मूल्य पर भी हावी है; आज के जमाने में भी ज्यादा कुछ नहीं बदला है। कहने का मतलब यह है कि कई देशों और राष्ट्रों में, महिलाओं के साथ अभी भी भेदभाव किया जाता है और उन्हें बाहर रखा जाता है। यह बहुत ही निराशाजनक बात है और दुनिया की सबसे बड़ी असमानता है। महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है या नहीं और उन्हें बाहर रखा जाता है या नहीं, या वे पुरुषों के बराबर हैं या नहीं, इस तथ्य से पता लगाया जा सकता है कि कोई देश या राष्ट्र प्रगतिशील है या पिछड़ा।

अभी हमने इस बारे में संगति की कि परमेश्वर के बनाए पुरुषों और महिलाओं से कैसा व्यवहार करना चाहिए, और उनके प्रति हमें क्या सही दृष्टिकोण रखना चाहिए। पुरुषों और महिलाओं दोनों में सामान्य मानवता होती है और वे सामान्य मानवीय बुद्धि और विवेक से संपन्न होते हैं—ये चीजें पुरुषों और महिलाओं दोनों में पाई जाती हैं। लिंग भेद के अलावा, पुरुष और महिलाएं अपनी सोच, प्रवृत्ति, विभिन्न मामलों पर उनकी प्रतिक्रिया, उनकी काबिलियत और क्षमता और अन्य प्रकार के पहलुओं के मामले में दरअसल एक समान हैं। हालांकि, यह नहीं कहा जा सकता कि वे बिल्कुल एक जैसे हैं, लेकिन वे कमोबेश एक जैसे ही हैं। उनके जीवन की आदतें और जीवन जीने के नियम के साथ-साथ समाज, सांसारिक रुझानों, लोगों, घटनाओं, चीजों और परमेश्वर की सभी रचनाओं के प्रति उनके विचार, दृष्टिकोण और नजरिये एक समान हैं; इसके अलावा, उनकी शारीरिक और मानसिक प्रतिक्रियाओं सहित कुछ विशेष मामलों पर उनकी प्रतिक्रियाएँ भी एक समान होती हैं। ये चीजें एक समान क्यों हैं? क्योंकि पुरुषों और महिलाओं दोनों को एक ही सृष्टिकर्ता ने बनाया है, और उनके जीवन की सांस, उनकी स्वतंत्र इच्छा, वे सभी विभिन्न गतिविधियाँ जो वे कर सकते हैं, उनकी दिनचर्या वगैरह, सभी सृष्टिकर्ता से आती हैं। इन घटनाओं को देखते हुए, लैंगिक भेद और कुछ अलग-अलग चीजों या पेशेवर कौशल को छोड़कर, जिनमें वे माहिर हैं, पुरुषों और महिलाओं के बीच कोई असमानता नहीं है। उदाहरण के लिए, कई काम जो पुरुष कर सकते हैं वे महिलाएं भी कर सकती हैं। कई महिलाएं वैज्ञानिक, पायलट और अंतरिक्ष यात्री हैं, कई महिला राष्ट्रपति और सरकारी अधिकारी भी हैं, जो साबित करता है कि लैंगिक भेद के बावजूद, पुरुष और महिलाएं जो काम कर सकती हैं, वे कमोबेश एक समान हैं। जब शारीरिक सहनशीलता और भावनाओं को व्यक्त करने की बात आती है, तो पुरुष और महिलाएं कमोबेश एक जैसी ही होती हैं। जब किसी महिला का रिश्तेदार मरता है, तो वह उसके शोक में रो-रोकर अधमरी हो जाती है; जब किसी पुरुष के माता-पिता या प्रेमिका की मौत होती है, तो वह भी इतनी जोर से विलाप करता है कि धरती हिल जाती है; जब महिलाओं को तलाक का सामना करना पड़ता है, तो वे निराश, उदास और दुखी हो जाती हैं, और आत्महत्या की कोशिश भी कर सकती हैं, वहीं पत्नी छोड़कर चली जाए तो पुरुष भी उदास हो जाएंगे, और कुछ तो बिस्तर में मुँह छिपाकर रोएंगे भी। क्योंकि वे पुरुष हैं, वे दूसरों के सामने इस पीड़ा की शिकायत करने की हिम्मत नहीं करते, और उन्हें बाहर से मजबूत होने का दिखावा करना पड़ता है, लेकिन जब आस-पास कोई नहीं होता है, तो वे भी एक सामान्य व्यक्ति की तरह रोते हैं। जब भी कुछ विशेष चीजें घटित होती हैं, तो पुरुष और महिलाएं दोनों ही उम्मीद के मुताबिक भावुक हो जाती हैं, चाहे इसका मतलब रोना हो या हंसना। इसके अलावा, परमेश्वर के घर में विभिन्न कर्तव्य निभाने और काम करने वाले कर्मियों में, महिलाओं को प्रोन्नत होने, प्रशिक्षित होने और महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त होने के अवसर मिलते हैं, जबकि पुरुषों के पास भी तरक्की पाने, प्रशिक्षित होने और महत्वपूर्ण कार्य सौंपे जाने के समान अवसर होते हैं—ये अवसर एक जैसे और एक सामान होते हैं। महिलाओं के दैनिक जीवन में और उनके कर्तव्यों निर्वहन में दिखने वाली विभिन्न प्रकार की भ्रष्टता पुरुषों में दिखने वाली भ्रष्टता से अलग नहीं है। यहां तक कि महिलाओं में भी कुछ कुकर्मी और मसीह-विरोधी हैं जो कलीसिया के कार्य में बाधा और रुकावट डालती हैं—पुरुषों में भी ऐसा ही होता है न? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों के भ्रष्ट स्वभाव एक जैसे हैं। यदि वे दुष्ट लोग हैं जो कुकर्म करते हैं, कलीसिया के कार्य में रुकावट और बाधा डालते हैं, और अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें बाहर निकाले जाते समय क्या पुरुषों और महिलाओं के बीच कोई अंतर किया जाएगा? नहीं, सबको एक ही तरह से बाहर निकाला जाएगा। क्या तुम लोगों को लगता है कि बाहर निकाले जाने वालों में महिलाओं से ज्यादा पुरुष हैं? दोनों लगभग एक समान हैं। जो कुकर्म करते हैं, बाधा और रुकावट डालते हैं, और मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों में गिने जाते हैं, वे चाहे महिला हों या पुरुष, उन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “महिलाएं बाधा और रुकावट डालने वाले काम नहीं कर सकतीं, महिलाओं के लिए ऐसे काम करना कितना शर्मनाक होगा, महिलाओं को अपनी गरिमा बनाए रखने की चिंता अधिक करनी चाहिए! मामूली महिलाएं इतने बड़े कुकर्म कैसे कर सकती हैं? वे ऐसा नहीं कर सकतीं, उन्हें पश्चाताप का मौका देना चाहिए। पुरुष निर्भीक होते हैं, वे बुरे काम करने के लिए पैदा हुए हैं, वे मसीह-विरोधी होने और कुकर्म करने के लिए ही पैदा हुए हैं। भले ही वे कोई छोटा कुकर्म करें, और भले ही हमें परिस्थितियों की स्पष्ट समझ न हो, फिर भी उन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए।” क्या परमेश्वर का घर ऐसा करता है? (नहीं।) परमेश्वर का घर ऐसा नहीं करता है। परमेश्वर का घर सिद्धांतों के आधार पर लोगों को हटाता है। वह पुरुषों और महिलाओं के बीच अंतर नहीं करता है, और उसे महिलाओं या पुरुषों की गरिमा बचाने की फिक्र नहीं रहती है, बल्कि वह सबके साथ निष्पक्ष व्यवहार करता है। यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसने कोई कुकर्म किया है और तुम पर बाहर निकाले जाने और निलंबित किए जाने के सिद्धांत लागू होते हैं, तो परमेश्वर का घर तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार हटा देगा; यदि तुम ऐसी महिला हो जिसने बाधा और रुकावट डाली है, और तुम एक दुष्ट इंसान और मसीह-विरोधी हो, तो तुम्हें भी इसी तरह बाहर निकाला या निलंबित किया जाएगा; सिर्फ एक महिला होने के नाते और आँसू बहाने के कारण तुम्हें छोड़ा नहीं जाएगा। परमेश्वर के घर को सिद्धांतों के अनुसार चीजों को संभालना चाहिए। महिला विश्वासी आशीष पाने के पीछे भागती हैं, और आशीष पाने की इच्छा और इरादा रखती हैं। और क्या पुरुषों में भी ऐसा होता है? हाँ, बिल्कुल, इसी तरह पुरुषों में भी आशीष पाने की महत्वाकांक्षा और इच्छा महिलाओं से कम नहीं होती है। परमेश्वर के प्रति किसका प्रतिरोध ज्यादा गंभीर है, पुरुषों का या महिलाओं का? दोनों एक जैसे ही हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कहेंगे : “आखिरकार मैं अब सत्य समझ गया हूँ, महिलाएं और पुरुष दोनों ही सामान रूप से भ्रष्ट हैं! मैं सोचता था कि पुरुष मर्दाना और साहसी होते हैं, और उन्हें खुद को सज्जन व्यक्ति के रूप में पेश करना चाहिए, हर काम ईमानदारी से, सम्मानित तरीके से और निष्कपट होकर करना चाहिए; एकदम महिलाओं से विपरीत, जो छोटी सोच रखती हैं, छोटी-छोटी बातों पर बखेड़ा खड़ा करती हैं, लगातार लोगों के पीठ पीछे बातें करती हैं, और निष्कपट होकर काम नहीं करती हैं। लेकिन मैंने यह नहीं सोचा था कि आधे से ज्यादा बुरे लोग पुरुष ही हैं, और वे जो बुरी चीजें करते हैं वे और भी बड़ी और अधिक संख्या में होती हैं।” अब तुम इन बातों को समझ गए हो। संक्षेप में, चाहे पुरुष हो या महिला, हर किसी का भ्रष्ट स्वभाव एक जैसा ही है, बस लोगों की मानवता अलग-अलग है—पुरुषों और महिलाओं को देखने का यही एकमात्र उचित तरीका है। क्या इस दृष्टिकोण में कोई पक्षपात है? (नहीं।) क्या यह इस विचार से प्रभावित है कि पुरुष महिलाओं से श्रेष्ठ हैं? (नहीं।) यह इन बातों से बिल्कुल भी प्रभावित नहीं है। कोई व्यक्ति अच्छा है या बुरा, यह पता लगाने के लिए हमें पहले यह नहीं देखना चाहिए कि वह पुरुष है या महिला, बल्कि उसकी मानवता को देखना चाहिए, और फिर उसके भ्रष्ट स्वभाव के सभी विभिन्न पहलुओं की अभिव्यक्तियों के आधार पर उसके सार का आकलन करना चाहिए—लोगों के साथ उचित व्यवहार करने का यही तरीका है।

जिन घटनाओं के बारे में हमने पहले संगति की है, उन्हें देखते हुए, लैंगिक भेद के अलावा, पुरुषों और महिलाओं के बीच कोई अंतर नहीं है, फिर चाहे बात उनके सहज ज्ञान की अभिव्यक्ति की हो, या उनके विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों के उजागर होने या उनकी प्रकृति और सार की। लोगों के शारीरिक सार और उनके स्वभाव के साथ-साथ उनके सहज ज्ञान, इच्छाशक्ति और स्वतंत्र इच्छा के संदर्भ में, जो परमेश्वर ने लोगों को बनाते समय उन्हें प्रदान की थी, लोगों के बीच कोई अंतर नहीं है। इसलिए, जब लोग पुरुषों और महिलाओं को देखते हैं, तो उन्हें उनकी शक्ल-सूरत के आधार पर नहीं, बल्कि परमेश्वर के वचनों के आधार पर देखना चाहिए; परंपरागत संस्कृति के विचारों के आधार पर देखने का तो सवाल ही नहीं है, जो यह दुनिया लोगों को सिखाती है। उन्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर क्यों देखना चाहिए? उन्हें परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों के आधार पर क्यों नहीं देखना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं : “मानव इतिहास की सहस्राब्दियों के दौरान, किताबों में बहुत सारे दावे किए गए हैं और लेख लिखे गए हैं। क्या मानवजाति का कोई भी विचार और कहावत सही नहीं है? क्या उनमें कोई भी सत्य नहीं है?” ये शब्द बेतुके क्यों हैं? मनुष्य सृजित प्राणियों में गिने जाते हैं, उन्हें सहस्राब्दियों से शैतान ने भ्रष्ट किया है, और वे शैतानी स्वभाव से भरे हुए हैं, जो मानव समाज में ऐसे अंधकार और बुराई का कारण बनते हैं। कोई भी स्पष्ट रूप से मूल कारणों को नहीं देख सकता है, या शैतान को नहीं पहचान सकता है, या वास्तव में परमेश्वर को नहीं जान सकता है। इसलिए, भ्रष्ट मानवजाति के विचार सत्य के अनुरूप नहीं हैं, और केवल सृष्टिकर्ता ही इस बारे में सब कुछ जानता है। यह एक प्रामाणिक तथ्य है। सत्य केवल परमेश्वर के वचनों से ही प्राप्त किया जा सकता है, जबकि मानव संसार की संस्कृति शैतान की भ्रष्टता से बनी है। लोगों ने कभी भी परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं किया है, और कोई भी परमेश्वर को नहीं जान सकता है, इसलिए मानवजाति की परंपरागत संस्कृति में सत्य उत्पन्न करना असंभव है, क्योंकि सभी सत्य परमेश्वर से आते हैं और मसीह द्वारा व्यक्त किए जाते हैं। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के कारण, सभी मनुष्यों में शैतानी प्रकृति और स्वभाव हैं। वे सभी मशहूर व्यक्तियों और महान हस्तियों की भक्ति करते हैं, और सभी शैतान का अनुसरण करते हैं। कुछ चीजों को देखते या परिभाषित करते समय मनुष्य की अपनी छिपी मंशाएं और उद्देश्य होते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये मंशाएं और उद्देश्य किसके लिए काम करते हैं या इनका असली मकसद क्या है, सभी भ्रष्ट स्वभावों नियंत्रित हैं। इसलिए, भ्रष्ट मनुष्यों द्वारा परिभाषित चीजें और वे जिन विचारों का समर्थन करते हैं सभी शैतान की कपटी साजिशों से प्रभावित हैं। यह इसका एक पहलू है। निष्पक्ष दृष्टिकोण से, दूसरा पहलू यह है कि मनुष्य चाहे कितने भी सक्षम क्यों न हों, कोई भी सृजित मनुष्यों के कार्यों, सहज ज्ञान और सार को नहीं समझता है। क्योंकि मनुष्य को किसी व्यक्ति ने नहीं बनाया है, कुछ तथाकथित महान व्यक्तियों, राक्षस राजाओं, शैतान या बुरी आत्माओं ने नहीं बनाया है, इसलिए मनुष्य लोगों के सहज ज्ञान, कार्यों और सार को बिल्कुल भी नहीं समझते हैं। तो, लोगों के सहज ज्ञान, कार्य और सार को सबसे अच्छी तरह कौन जानता है? केवल सृष्टिकर्ता ही सबसे अच्छी तरह जानता है। जिसने मनुष्यों को बनाया है वह उनके कार्यों, सहज ज्ञान और सार को सबसे अच्छी तरह जानता है और बेशक, वह इंसानों को परिभाषित करने और पुरुषों या महिलाओं के मूल्य, पहचान और सार को निर्धारित करने के लिए सबसे योग्य है। क्या यह एक निष्पक्ष तथ्य नहीं है? (हाँ।) परमेश्वर मनुष्यों को बनाने के लिए जिस चीज का उपयोग करता है, उन्हें बनाते समय जो सहज वह लोगों को ज्ञान देता है, उनके शरीर के कार्य और नियम, वे क्या करने के लिए उपयुक्त हैं या क्या करने के लिए उपयुक्त नहीं हैं, और यहां तक कि उनका जीवनकाल कितना लंबा होना चाहिए—यह सब परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित है। सिर्फ परमेश्वर ही अपने बनाए सृजित मनुष्यों को सबसे अच्छी तरह समझता है, और सृजित मानवजाति के बारे में उससे अधिक और कोई अधिक नहीं समझता। क्या यह तथ्य नहीं है? (हाँ।) इसलिए, मनुष्य को परिभाषित करने और पुरुषों या महिलाओं की पहचान, उनकी स्थिति, मूल्य और कार्य के साथ-साथ लोगों को जिस सही मार्ग पर चलना चाहिए, उसे निर्धारित करने के लिए परमेश्वर सबसे अधिक योग्य है। परमेश्वर सबसे अच्छी तरह जानता है कि उसके बनाए मनुष्यों को क्या चाहिए, वे क्या हासिल कर सकते हैं, और क्या कुछ उनकी काबिलियत के दायरे में है। दूसरे नजरिये से, सृजित मनुष्य को सृष्टिकर्ता द्वारा कहे गए वचनों की सबसे अधिक जरूरत है। केवल परमेश्वर ही निजी तौर पर मनुष्यों की अगुआई, उनका भरण-पोषण और चरवाही कर सकता है। भ्रष्ट मानवजाति के बारे में वे सभी कहावतें जो परमेश्वर की ओर से नहीं आती हैं, भ्रामक हैं, खासकर परंपरागत संस्कृति की कहावतें, जो लोगों को गुमराह, सुन्न, सीमित कर देती हैं, और यकीनन एक प्रकार की बाधा और नियंत्रण का कम करती हैं। एक और पहलू यह है कि परमेश्वर ने मनुष्यों को बनाया है, और मनुष्यों के लिए परमेश्वर की सबसे बड़ी चिंता यह है कि वे जीवन में सही मार्ग पर चल सकते हैं या नहीं। जबकि, समाज, राष्ट्र और देश निम्न वर्गों के जीवन की परवाह किए बिना, केवल शासक वर्ग के हितों और राजनीतिक शासन की स्थिरता पर ध्यान देते हैं। इस वजह से, कुछ चरम और अराजक चीजें घटित होती हैं। वे लोगों सही मार्ग नहीं दिखाते हैं, ताकि लोग मूल्य और स्पष्टता का जीवन जी सकें और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकें; बल्कि वे अपने शासन, अपने करियर और अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को पूरा करने के लिए लोगों का शोषण करना चाहते हैं। चाहे वे कोई भी दावा करें, या कोई भी विचार और नजरिया सामने रखें, इन सबका उद्देश्य लोगों को धोखा देना, उनके विचारों को सीमित करना और मानवजाति को नियंत्रित करना है, ताकि लोग उनकी सेवा करें और उनके प्रति वफादार रहें। वे मानवजाति के भविष्य या संभावनाओं पर विचार नहीं करते, न ही यह सोचते हैं कि लोग बेहतर ढंग से जीवित कैसे रह सकते हैं। लेकिन परमेश्वर जो करता है वह पूरी तरह से अलग है, यानी परमेश्वर जो करता है वह उसकी योजना के अनुसार होता है। मनुष्यों को बनाने के बाद, वह उन्हें आचरण करने के लिए अधिक सत्य और सिद्धांतों को समझने की दिशा में उनका मार्गदर्शन करता है, और उन्हें शैतान द्वारा मानवजाति की भ्रष्टता के वास्तविक तथ्यों को स्पष्ट रूप से दिखाता है। इस आधार पर, सत्य के इन सिद्धांतों के अनुसार, जो परमेश्वर लोगों को सिखाता है और उन्हें फटकारने के लिए उपयोग करता है, वे जीवन में सही मार्ग पर चलने में सक्षम होते हैं।

परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण के ये नियम और परंपराएं बहुत व्यापक हैं और सभी प्रकार के पहलुओं से लोगों की सोच को प्रभावित, भ्रमित और सीमित करते हैं। आज हमने पुरुषों और महिलाओं के संबंध में परंपरागत संस्कृति की कुछ बेतुकी और भ्रामक कहावतों और विचारों पर संगति की है, जिन्होंने पुरुषों और महिलाओं के बारे में लोगों के सही विचारों को काफी हद तक प्रभावित किया है, और उन्हें बहुत-सी बेड़ियों, बंधनों, बाधाओं, भेदभाव और इसी तरह की अन्य सीमाओं के अधीन कर दिया है। लोग इन सभी तथ्यों को देख सकते हैं, और लोगों पर परंपरागत संस्कृति के प्रभाव और परिणाम भी यही हैं।

14 मई, 2022

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