सत्य वास्तविकता क्या है?

ऐसे बहुत से लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन कुछ ही हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। तुम कैसे जान सकते हो कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं? तुम कैसे आकलन कर सकते हो कि कोई सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति है या नहीं? मान लो, कोई व्यक्ति है, जो सात-आठ वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता है। वह कई शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल सकता है, उसके मुँह से आध्यात्मिक शब्दावली झरती हो, वह अक्सर दूसरों की मदद कर सकता हो, वह बहुत उत्साही लगता है, वह चीजों को त्यागने में सक्षम है, और वह अपने कर्तव्य पूरे जोश से निभाता है। फिर भी, कोई उसे सत्य का बहुत अभ्यास करते नहीं देख पाता, न ही वह जीवन प्रवेश के वास्तविक अनुभवों पर चर्चा करने में सक्षम होता, और उसके जीवन स्वभाव में बदलाव तो और भी कम दिखता है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ऐसा व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता। अगर कोई वास्तव में सत्य से प्रेम करता है, तो कुछ समय तक चीजों का अनुभव करने के बाद, वह अपनी समझ के बारे में बात करने में सक्षम होगा, और कम से कम कुछ चीजों में सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम होगा; उसे जीवन प्रवेश का कुछ अनुभव होगा, और कम से कम उसके व्यवहार में कुछ बदलाव दिखेंगे। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, उनकी आध्यात्मिक अवस्था में लगातार सुधार होता है, धीरे-धीरे परमेश्वर में उनका विश्वास बढ़ता है, वे जो भी जाहिर करते हैं उन्हें उसकी और अपने भ्रष्ट स्वभावों की कुछ समझ होती है, और उन्हें इस बात का व्यक्तिगत अनुभव और वास्तविक अंतर्दृष्टि पैदा हो जाती है कि परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए कैसे कार्य करता है। ये सब चीजें उनमें धीरे-धीरे उन्नत हो जाती हैं। अगर तुम किसी व्यक्ति में ये अभिव्यक्तियाँ देखो हो, तो तुम निश्चित रूप से जान सकते हो कि वह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति है। लोग जब पहली बार परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करते हैं तो वे काफी उत्साहित होते हैं, लेकिन वे परमेश्वर में विश्वास के बारे में कुछ भी नहीं जानते। वे सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ है अच्छा इंसान बनना और सही रास्ते पर चलना। बाद में परमेश्वर के वचनों को खा और पी कर, और धर्मोपदेशों तथा संगति को सुनकर वे तमाम मामलों को समझने में सक्षम हो जाते हैं। उन्हें पता चलता है कि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं और उनके समाधान के लिए उन्हें सत्य की तलाश करनी चाहिए, और कि उन्हें परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करना चाहिए, और वे समझ जाते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है। धीरे-धीरे वे परमेश्वर के कार्य और मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के इरादों को थोड़ा-थोड़ा समझने लगते हैं। यह समझ थोड़ी-थोड़ी एकत्रित होती जाती है, और वे धीरे-धीरे परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते पर चल पड़ते हैं। सत्य वास्तविकताओं के बारे में उनकी समझ और अनुभव धीरे-धीरे उन्नत होते जाते हैं, और वे शाब्दिक व्याख्याओं या शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर नहीं अटकते। यदि किसी व्यक्ति ने कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है और वह शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना जारी रखता है, तथा परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में अक्सर कुछ आकर्षक बातें कहता है, और ऐसा लगता है कि उसकी आस्था अच्छी तरह चल रही है, लेकिन वह जीवन अनुभव के बारे में या अपने आप को जानने के बारे में बात नहीं कर सकता, और छद्म-विश्वासियों और बुरे लोगों को पहचानने में असमर्थ होने जैसी समस्याएँ उसमें मौजूद हैं, तो इसका मतलब है कि वह परमेश्वर के कार्य को नहीं जानता और यह निश्चित किया जा सकता है कि उसने परमेश्वर में विश्वास के अपने पिछले कुछ वर्षों के दौरान सत्य का अनुसरण नहीं किया है। यह बहुत साफ संकेत है।

यह जानने के लिए कि किसी अगुआ या कार्यकर्ता के पास सत्य वास्तविकता है या नहीं, पहले यह देखो कि क्या उसकी संगति में सच्ची गवाही और नई रोशनी होती है। जब तुमने कुछ लोगों को कुछ वर्षों से नहीं देखा होता, तो शुरू-शुरू में उनकी संगति नई और ताजा लग सकती है क्योंकि वे धर्मोपदेश सुनने के बाद एक नई रोशनी के साथ बोल सकते हैं। हालाँकि जब तुम उनके साथ दो-तीन दिन बिता लेते हो, तो वे फिर से अपने अतीत के छोटे-छोटे अनुभवों और गवाहियों के बारे में बात करना शुरू कर देते हैं कि कैसे परमेश्वर ने उन्हें बचाया और कैसे उसने उन पर अनुग्रह किया और उन्हें आशीष दिए। एक सप्ताह से भी कम समय में वे उन सतही अनुभवों और ज्ञान को दोहराने लगते हैं जिनके बारे में वे पहले बात कर चुके होते हैं। क्या यह प्रगति है? तब एक नजर में तुम देख सकते हो कि यह प्रगति नहीं है। कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद वे कई शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से लैस होते हैं और वे कुछ ऐसी बातें कह सकते हैं जो सही हैं, लेकिन जब उनके साथ कुछ बुरा होता है, तो वे अब भी भ्रमित हो जाते हैं और उन स्थितियों को संभाल नहीं पाते। वे सत्य सिद्धांतों को नहीं ढूँढ़ पाते, न ही वे लोगों को पहचान पाते हैं। क्या यही प्रगति है? (नहीं।) यह प्रगति नहीं है। हालाँकि कई वर्षों तक उन्होंने अपने कर्तव्य निभाए होते हैं, फिर भी यदि तुम उनसे पूछो कि क्या वे परमेश्वर के प्रति निष्ठा प्राप्त कर चुके हैं, तो वे इसे स्वयं ही नहीं समझ पाते। हर हाल में वे हर सभा में समय पर पहुँचते हैं और सामान्यतः अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते प्रतीत होते हैं, लेकिन अगर तुम उनसे पूछो कि क्या उनमें कोई वास्तविक परिवर्तन आया है, तो वे स्पष्ट उत्तर नहीं दे पाते। यह एक समस्या है। इससे पता चलता है कि वे सत्य को नहीं समझते। यदि वे सत्य को समझ पाते, तो वे इन समस्याओं को स्पष्ट रूप से देख पाते। कुछ लोगों को अपने कर्तव्य में कुछ परिणाम मिले होते हैं, लेकिन यदि तुम उनसे पूछो कि वे अपने कर्तव्यों का पालन क्यों करते हैं, तो वे केवल इतना कह पाते हैं कि सृजित प्राणियों को कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, लेकिन वे इसके विवरणों के बारे में स्पष्ट नहीं होते। यदि तुम उनसे पूछो कि क्या उनके पास अपने कर्तव्य-पालन में अभ्यास के सिद्धांत हैं, तो वे इस बारे में ठीक-ठीक मापन नहीं कर सकते। ऐसे में क्या तुम कहोगे कि वे अपने कर्तव्यों का पर्याप्त रूप से पालन कर सकते हैं? (नहीं, वे नहीं कर सकते।) यह प्रगति नहीं है। क्या प्रगति न करना परेशान करने वाली बात नहीं है? यदि तुम उनसे पूछो कि कर्तव्यों का पालन करते समय उनकी काट-छाँट को वे कैसे ग्रहण करते हैं तो वे कहेंगे कि वे सुनते हैं, आज्ञा पालन करते हैं, और विरोध नहीं करते। सालों पहले उनके पास यही सिद्धांत था, और उनके पास अब भी यही सिद्धांत है, यह नहीं बदला। जो भी हो, वे बस वही करते हैं, जो उन्हें बताया जाए। यदि तुम उनसे पूछो कि क्या अपने साथ होने वाली काट-छाँट से उन्हें कुछ समझ आई है, क्या उन्हें अपनी विद्रोही स्थिति और भ्रष्ट प्रकृति का पता चला है, या क्या उनका आत्म-ज्ञान अधिक गहरा हो गया है, तो वे उस बारे में कुछ नहीं जानते-समझते। हर कीमत पर वे एक नियम पर कायम रहते हैं : काट-छाँट का सामना करते समय उन्हें आज्ञा पालन करना चाहिए, अपनी मानसिकता को समायोजित करना चाहिए, विरोध नहीं करना चाहिए या सफाई नहीं देनी चाहिए, और सब कुछ सहन करते हुए चुपचाप आज्ञा माननी चाहिए। उनका दृष्टिकोण पहले भी यही था और अब तो ऐसा पहले से भी ज्यादा ऐसा ही है। क्या यह सत्य को पा लेने की अभिव्यक्ति है? (नहीं।) परमेश्वर में विश्वास करने की प्रक्रिया में इन लोगों ने सत्य के किसी भी पहलू की वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, और उन्होंने सत्य के किसी भी पहलू के सिद्धांतों को अच्छी तरह से नहीं समझा है। भले ही उनसे कहा गया हो कि “जब तुम पर मुसीबत आए, तो तुम्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए, सत्य सिद्धांतों को अच्छी तरह से समझना चाहिए और इस दायरे से बाहर नहीं जाना चाहिए,” फिर भी वे नहीं जानते कि बुरा समय आने पर सत्य सिद्धांतों की तलाश कैसे करें, वे बहुत ध्यानपूर्वक काम नहीं करते और उनसे निकलने का अपना रास्ता गड़बड़ा देते हैं। ऐसा लगता है कि वे व्यापक दिशा-निर्देशों का पालन करते हैं, कि वे आज्ञाकारी हैं और बात सुनते हैं, कि जो भी काम उनके हाथ में हो उसे वे बेमन से नहीं बल्कि अच्छी तरह से करते हैं, और कि वे कलीसिया के हितों की रक्षा कर सकते हैं, लेकिन क्या वे सत्य के हर पहलू के विवरणों को समझते हैं? क्या वे उन्हें अभ्यास में ला सकते हैं? यह इस बात पर निर्भर करता है कि लोगों के पास सत्य के प्रत्येक पक्ष का सच्चा ज्ञान और अनुभव है या नहीं। वे सत्य के विभिन्न पक्षों के बीच के संबंध को नहीं जानते, न ही यह जानते हैं कि कुछ घटित होने की स्थिति में सत्य के कौन से पहलू और कौन सी स्थितियाँ विशेष रूप से शामिल होती हैं, या किस स्वभाव के कारण वह स्थिति उत्पन्न हुई है। दो लोग यदि एक ही बात कहते हों, तो वे उन दो लोगों की प्रकृति के बीच अंतर नहीं जानते, न ही यह जानते हैं कि उनके साथ कैसा व्यवहार करें। क्या यह सत्य को समझना है? यह सत्य को समझना नहीं है। यदि तुमने तीन से पाँच साल तक परमेश्वर में विश्वास किया है लेकिन सत्य के इन व्यावहारिक पक्षों को नहीं जानते, और यदि तुम आठ या दस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आ रहे हो और फिर भी इस बात को नहीं जानते, तो तुम्हें सत्य प्राप्त नहीं हुआ है। तुम लोगों में अब क्या कमी है? ज्यादातर लोग परमेश्वर में ऐसे विश्वास करते हैं जैसे कि वे किसी युद्ध के मोर्चे पर खड़े हों और सोचते हैं कि यदि वे बिलकुल अंत तक “परमेश्वर में विश्वास” वाक्यांश पर कायम रहे, तो वे सफल हों जाएंगे। हालाँकि वे सत्य को खोजने या उसे स्वीकार करने की पहल नहीं करते; वे अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने, अपनी गवाही पर दृढ़ रहने और दुश्मन शैतान को हराने में विफल रहते हैं; और उन्हें सत्य एवं जीवन नहीं मिला होता। यह कितनी गंभीर गलती है! कितनी दुःखद बात है कि बिना किसी जीवन अनुभव के कोई कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करता आया हो। जब लोग ऐसी स्थिति में पड़ते हैं, तो वे केवल ऊपरी तौर पर हर दिन व्यस्त रहते हैं, कुछ नियमों का पालन करते हैं, इस दायरे में प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन नहीं करते, और जो काम उनके हाथ में हो उसे पूरा करते हैं। मनुष्य की दृष्टि में यह उचित माना जाता है और यदि तुम सत्य का प्रयोग करते हुए इस दशा को मापोगे, तो पाओगे कि उन्होंने कोई भयावह भूल नहीं की है। विश्वास करने के इस तरीके के बारे में तुम क्या सोचते हो? (परमेश्वर को यह पसंद नहीं है।) ऐसा व्यवहार सिर्फ सैद्धांतिक होता है। तुम अपने परिप्रेक्ष्य से देखो तो इस प्रकार का विश्वास सत्य प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि तुम कभी प्रगति नहीं करते। जब कुछ समय के लिए परमेश्वर का घर परमेश्वर को जानने से संबंधित सत्य की बात करता है, तो तुम परमेश्वर को जानने पर ध्यान केंद्रित करते हो; जब वह स्वभावगत परिवर्तन की बात करता है, तो तुम स्वभावगत परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित करते हो; जब वह देहधारी परमेश्वर को जानने की बात करता है, तो तुम देहधारी परमेश्वर को जानने पर ध्यान केंद्रित करते हो; जब वह परमेश्वर के कार्य के दर्शन के बारे में बात करता है, तो तुम दर्शन से संबंधित सत्य पर ध्यान केंद्रित करते हो; जब वह सुसमाचार फैलाने के बारे में सत्य की बात करता है, तो तुम सत्य के इस पहलू पर ध्यान केंद्रित करते हो। परमेश्वर का घर जो कुछ भी कहता है, तुम उसे सुनते और समझते हो, इसलिए जब कोई तुम्हारे पोषण के लिए धर्मोपदेश नहीं दे रहा होता, तो क्या तुम अपने रास्ते पर चलोगे? क्या तुम तब भी आगे बढ़ पाओगे? तुम कैसे चलोगे? उदाहरणार्थ, जब लोग सभाओं में इस बात पर संगति करते हैं कि परमेश्वर का समर्पण क्या होता है, तो तुम कहते हो, “मुझे इसका बहुत गहरा अनुभव नहीं है, मुझे बस इतना लगता है कि परमेश्वर के प्रति समर्पण अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।” जब लोग तुमसे पूछते हैं कि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करते हो, तो तुम कहते हो, “परमेश्वर के प्रति समर्पण का अर्थ है यह विचार करना कि जब तुम पर मुसीबत आ पड़े तो परमेश्वर क्या कहता है, और उसी के वचनों के अनुसार कार्य करना।” जब लोग ज्यादा विवरणों के बारे में संगति करने के लिए पूछते हैं, कि कोई मुसीबत आ जाने पर समर्पण करने में असमर्थ होने पर क्या करें, या जब तुम्हारे व्यक्तिगत हित उसमें शामिल हों तो क्या करें, तो तुम कहते हो, “मैंने अभी तक उन चीजों का अनुभव नहीं किया है।” इसका मतलब है कि तुमने अभी तक प्रवेश प्राप्त नहीं किया है। कुछ समय के लिए परमेश्वर का घर परमेश्वर को जानने से संबंधित सत्य पर बात करता है। जब कोई व्यक्ति तुमसे पूछता है कि क्या तुमने अपने परमेश्वर संबंधी ज्ञान में प्रगति की है, तो तुम कहते हो, “मैंने प्रगति की है। मेरा मानना है कि परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण बात है परमेश्वर को जानना। यदि लोग परमेश्वर को नहीं जानेंगे, तो वे हमेशा परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करेंगे, और यदि लोग हमेशा ऐसा करेंगे तो वे अंधकार में गिर जाएँगे, केवल सतही शब्द ही बोल पाएँगे, और वे किसी भी सत्य को नहीं समझ पाएँगे, वे ठीक गैर-विश्वासियों जैसे होंगे—वे हमेशा ऐसे काम करेंगे जो सत्य के विरुद्ध जाते हैं, और वे हमेशा ऐसे काम करेंगे जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हों।” वह व्यक्ति फिर पूछता है, “तो तुम परमेश्वर को कैसे जानते हो? जब तुम अपने दैनिक जीवन में परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर की संप्रभुता और परमेश्वर के मार्गदर्शन का अनुभव करते हो, तो किन चीजों की पहचान परमेश्वर के मार्गदर्शन के रूप में करते हो, और किन चीजों में तुम परमेश्वर की संप्रभुता को स्पष्ट रूप से महसूस कर पाते हो? तुम परमेश्वर की संप्रभुता को कैसे समझते हो? वास्तविक जीवन में तुम्हें जो अनुभव होता है और जो महसूस करते हो उसके आधार पर तुम परमेश्वर की संप्रभुता में उसके स्वभाव का कौन सा पक्ष देखते हो?” इस पर यदि तुम कुछ भी कहने में असमर्थ हो, तो इससे साबित होता है कि तुम्हारे पास कोई अनुभव नहीं है। यदि तुम कहते हो कि “एक बात है जिसमें मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन मिलने का एहसास होता है,” तो यह बस थोड़ा सा एहसास करना है, और इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हें परमेश्वर के बारे में ज्ञान है। वस्तुतः वास्तविक जीवन में हर चीज परमेश्वर के शासन में है तथा उसी की व्यवस्था के अनुसार है और नियत है। यदि लोगों ने बहुत अनुभव कर लिया हो, तो वे महसूस कर सकते हैं कि कुछ भी सरल नहीं है, और सब कुछ इसलिए होता है ताकि लोग सबक सीख सकें, और परमेश्वर की संप्रभुता तथा उसकी सर्वशक्तिमत्ता को देख सकें, और अंततः परमेश्वर के स्वभाव को जान सकें। जब तुम इस परिणाम को प्राप्त कर लोगे केवल तभी तुम जान पाओगे कि परमेश्वर के इरादों के अनुसार उसके प्रति समर्पण कैसे करना है, और तभी तुम्हारे पास पूरी तरह अपने अभ्यास में आगे बढ़ने का मार्ग होगा। अनुभव के इस स्तर पर न केवल किसी व्यक्ति की आस्था दृढ़ से दृढ़तर होती है, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें परमेश्वर के स्वभाव की समझ हो जाती है, और वे जानते हैं कि परमेश्वर के सामने समर्पण कैसे करना है। यही सत्य प्राप्त होना है।

कुछ लोगों के सत्य के अनुसरण में सदैव विचलन होते हैं; दिखावा करने के लिए वे हर वक्त कुछ आध्यात्मिक सिद्धांतों और खोखले सिद्धांतों के बारे में थोथी बातों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे अनुसरण के बारे में तुम क्या सोचते हो? तुम लोग खुद को सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति मानो या न मानो, इस समय सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या तुमने कुछ व्यावहारिक चीजें हासिल की हैं, अर्थात व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया है? (मुझे थोड़ा सा हासिल हुआ है।) तुमने क्या हासिल किया है? क्या तुम इसका मूल्यांकन कर सकते हो? (मुझे इस बात की थोड़ी समझ और अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई है कि इस बुरी दुनिया में लोग शैतान द्वारा कैसे भ्रष्ट किए जाते हैं।) तुम्हें थोड़ा ज्ञान प्राप्त हो गया है। तो क्या यह ज्ञान तुम्हारे जीवन की दिशा, तुम्हारे जीवन के लक्ष्य और तुम्हारे वास्तविक जीवन में तुम्हारे आचरण के सिद्धांतों को बदल सकता है? चाहे तुम जैसे भी लोगों के समूह में रहते हो, क्या यह ज्ञान या वे सत्य जिन्हें तुमने समझ लिया है, तुम्हारे जीवन और जीवन के लक्ष्य को प्रभावित कर पाते हैं? यदि वे तुम्हें पूरी तरह से नहीं बदल सकते, तो भी कम से कम थोड़ा सा बदलाव तो होना चाहिए और तुम्हारी कथनी-करनी में कुछ संयम होना चाहिए। फिलहाल क्या तुम लोगों में से ज्यादातर अभी भी अपने आध्यात्मिक कद के मामले में इसी स्तर पर अटके हुए नहीं हैं? (हाँ।) इसमें उन्नति की आवश्यकता है। यदि सत्य के बारे में तुम्हारी समझ बहुत सतही है, तो यह अच्छा नहीं है, साथ ही केवल थोड़े से सिद्धांत बोलने में सक्षम होना तथा थोड़ा सीमित रहना भी कुछ अच्छा नहीं है। अभ्यास करने का मार्ग पाने और जीवन में अपना लक्ष्य बदलने में सक्षम होने के लिए तुम्हें सत्य को समझना ही होगा। यदि वे सभी सत्य जिन्हें तुम समझ चुके हो और वे सभी धर्मोपदेश जिन्हें तुमने सुना है, पहले ही तुम्हारे हृदय में स्वीकार किए जा चुके हैं और तुम्हारे जीवन को प्रभावित कर सकते हैं, तुम्हारे आचरण की दिशा और लक्ष्य बदल सकते हैं, और आचरण के तुम्हारे सिद्धांतों को बदल सकते हैं, तो क्या यह थोड़ा सा संयम स्वीकार करने से मिलने वाले प्रभावों से कुछ बेहतर नहीं है? इस वक्त तुम लोग संयम स्वीकारने और विनियमों का पालन करने पर अटके हो—क्या यही सक्रिय अभ्यास करने और प्रवेश करने का मार्ग है? कदापि नहीं। यदि तुम हमेशा संयमों को स्वीकार करने या विनियमों का पालन करने पर अटके रहोगे, तो इसके क्या परिणाम होंगे? क्या तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे? क्या तुम वास्तविक परिवर्तन से गुजर पाओगे? इसके अलावा सीमित रहते हुए और विनियमों का पालन करते हुए सत्य का अभ्यास करने से क्या तुम्हें कोई परिणाम मिला है? तनिक भी नहीं। इसलिए सत्य को समझने पर ध्यान केंद्रित करना अभी भी सबसे महत्वपूर्ण चीज है। सीमित रहने और विनियमों का पालन करने का मतलब यह नहीं है कि तुम सत्य को समझते हो, अपने सत्य का अभ्यास करने की तो बात ही छोड़ दो। जीवन भर सीमित रहने और विनियमों का पालन करने से सत्य को समझने और सत्य का अभ्यास करने का प्रभाव प्राप्त नहीं होगा। यह व्यर्थ है! इसलिए सीमित रहने और विनियमों का पालन करने में कोई कितने भी कष्ट सह ले, उसका जरा सा भी मूल्य या अर्थ नहीं होता।

धर्मोपदेश सुनने और सत्य को समझने के बाद क्या तुम लोगों ने किसी वास्तविक परिवर्तन का अनुभव किया है? उदाहरण के लिए, यह सोचना कि विशिष्ट ज्ञान और सिद्धांतों के तुम्हारे पिछले अनुसरण, और शोहरत, फायदे तथा हैसियत के तुम्हारे अनुसरण परमेश्वर में विश्वास नहीं है बल्कि इसका संबंध धार्मिक विश्वास से है, और यह कि शोहरत, फायदे और हैसियत का अनुसरण नीचतापूर्ण काम है, और यह कि यदि तुम इसी तरह जीते हो और अपना आचरण ऐसे ही बनाए रखते हो, तो तुम पूरी तरह से वह राक्षस बन जाओगे जिसे नरक में जाना चाहिए, और यह कि उस तरह का जीवन बहुत पीड़ादायक होता है। क्या तुम लोगों के पास यह अनुभव और ज्ञान है? तुम्हारे पास क्या व्यक्तिगत अनुभव है? कि ज्ञान और शोहरत, फायदे, और हैसियत के पीछे पड़े रहना बहुत थकाऊ होता है! तुम्हें लगता है कि वहाँ बहुत सारे विवाद हैं, बहुत अधिक परेशानी है, और गैर-विश्वासियों के बीच जीवन थकाने वाला और बहुत पीड़ादायक होता है। तुम कहते हो, “मैं इस तरह नहीं जी सकता। अगर मैं उनकी तरह जीने लगा तो मुझे भी उतनी ही पीड़ा होगी जितनी उन्हें होती है। मुझे जीवन जीने के उनके तरीके से दूर होना है।” क्या यह तुम्हारा निजी अनुभव है? तुमने गहराई से अनुभव किया है कि भ्रष्ट मानवजाति सत्य को जरा भी स्वीकार नहीं करती, कि वे सब लड़ते रहते हैं, योजना बनाते हैं और एक-दूसरे को धोखा देने की कोशिश में लगे रहते हैं, कि वे गुप्त रूप से एक-दूसरे को कमजोर करते हैं, और बस थोड़े से लाभ के लिए वे एक-दूसरे को तब तक पीटते रहते हैं जब तक कि खून न बहने लगे। तुमने अनुभव किया है कि उनमें से कोई भी जीवन के सही रास्ते पर चलना नहीं चाहता, और इसके बजाय अपना काम कराने के लिए उनका भरोसा युक्तियों और योजनाओं पर रहता है। ऐसे वातावरण में रहते हुए तुम्हें सबसे अधिक क्या महसूस होता है? तुम्हें लगता है कि उस दुनिया में किसी तरह की निष्पक्षता या धार्मिकता नहीं है, कि यह बहुत दुष्ट और बहुत अंधकारमय है, और लोग वहाँ राक्षसों की तरह रहते हैं। तुम सोचते हो कि अगर तुम अच्छा इंसान बनने की कोशिश करो तो यह आसान नहीं होगा और तुम ऐसा नहीं कर पाओगे। तुमको लगता है कि यदि तुम उस दुनिया के अनुकूल होना चाहोगे, तो तुमको भी राक्षस बनना होगा और राक्षस की तरह रहना होगा ताकि तुम राक्षसों के समूहों के साथ घुल-मिल सको और सामाजिक रुझानों से जुड़ सको; भोजन के एक निवाले के लिए संघर्ष और अपनी आजीविका तथा अस्तित्व के लिए तुम्हें उनसे लड़ना होगा और ऐसी बातें कहनी और करनी होंगी जो तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध हों। हर दिन इस तरह जीना कितना पस्त कर देने वाला होगा, किंतु यदि तुम उस तरह नहीं रहोगे तो लोग तुम्हें अलग कर देंगे, और तुम्हारे पास जीने का कोई रास्ता नहीं बचेगा। इस प्रकार के जीवन परिवेश में तुमने क्या अनुभव किया है? दर्द, कष्ट और बेबसी। तुमने लोगों के बीच मौजूद दुष्टता, क्रूरता और अंधेरे का अनुभव किया है और तुम्हें मानव जीवन की रोशनी नहीं दिख पाती। जब तुमने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया और परमेश्वर के वचनों को पढ़ने में मन लगाने लगे, तो तुमने क्या अनुभव किया? (मैंने अपने हृदय में सत्य को समझा, मुझे लगा कि परमेश्वर में विश्वास करना बेहतर है, और मुझे अपने मन में आराम महसूस हुआ।) परमेश्वर के घर में रहते हुए तुम आनंदित महसूस करते हो, तुम पर परमेश्वर का आशीष है, और तुम बहुत से सत्य समझ सकते हो; जब तुम अपने भाई-बहनों के साथ होते हो, तो तुम एक-दूसरे की मदद और समर्थन कर सकते हो, एक-दूसरे से बराबरी का व्यवहार कर सकते हो और सद्भाव के साथ जी सकते हो। हर दिन तुम अपने हृदय में सहजता का बोध करते हो, स्वतंत्र और उन्मुक्त महसूस करते हो। तुम्हें धोखा मिलने की चिंता करने की जरूरत नहीं होती और अब तुम उत्पीड़ित और दूसरों के दुर्व्यवहार का शिकार नहीं होते। बुरे कर्म करने वालों को धीरे-धीरे प्रकट करके हटा दिया जाता है, और उनकी संख्या कम से कम रह जाती है। परमेश्वर के घर पर सत्य और परमेश्वर का शासन होता है। परमेश्वर के चुने हुए लोग स्वतंत्र रूप से बेरोक-टोक बोल सकते हैं, उन्हें चुनाव करने और बुरे लोगों को उजागर करने का अधिकार होता है। जो लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते और आगे भी बुरे कर्म करने में सक्षम हैं, उन्हें धीरे-धीरे बाहर निकाल दिया जाता है। परमेश्वर के घर में लोगों को सताए जाने या दबाए जाने की कोई परिघटना नहीं होती। कोई मुद्दा होता भी है तो हर कोई उस पर चर्चा करता है। यदि कोई समस्या होती है, तो उसे हल करने के लिए अगुआ और कार्यकर्ता सत्य पर संगति करते हैं। लोग धीरे-धीरे सत्य को समझने लगते हैं, और अराजक चीजों का घटित होना कम से कमतर होता जाता है। परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, सत्य द्वारा सीमित हो सकते हैं, और अपने शब्दों और कार्यों के संदर्भ में कुछ बदलाव कर सकते हैं। यदि कोई बुरा काम करता है तो हर कोई उसे स्पष्ट रूप से देख सकता है और उसकी सूचना दे सकता है। इसलिए परमेश्वर के घर में बुरे लोग कम होते हैं। अब तुम पहले से अधिक महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर का वातावरण सचमुच अच्छा है-भाई-बहन एक-दूसरे से प्यार करते हैं और जिसे भी कोई कठिनाई या विचलन हो, वह सहायता प्राप्त कर सकता है; जिस किसी को भी कठिनाइयाँ हों, वह उन्हें हल कर सकता है, और यदि ऐसी समस्याएँ हैं जिन्हें हल नहीं किया जा सकता, तो लोग परमेश्वर से उम्मीद कर सकते हैं और उस पर भरोसा कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार उनका समाधान कर सकते हैं। परमेश्वर के घर में रहते हुए तुम आह्लादित और आशावान रहते हो, तुम प्रकाश देख सकते हो, और तुम पूरी तरह से परमेश्वर के प्रेम और उद्धार का आनंद ले सकते हो। यह वातावरण लोगों के जीवन में प्रगति के लिए बहुत फायदेमंद होता है। कलीसिया में जहाँ वातावरण में सत्य होता है, वहाँ रहते हुए तुम धीरे-धीरे सत्य को समझ सकते हो, तुम्हारा हृदय धीरे-धीरे पहले से ज्यादा चमकदार हो जाएगा, और तुम स्वतंत्र एवं मुक्त महसूस करोगे। ये सत्य को समझने से प्राप्त होने वाले परिणाम हैं। जिन लोगों ने सत्य को प्राप्त कर लिया है उनकी एक स्पष्ट खूबी होती है : वे अपेक्षाकृत स्वतंत्र और मुक्त होते हैं। उन्हें सीमित होने की आवश्यकता नहीं होती, सत्य उनके शब्दों और कर्मों को प्रभावित करेगा, और यह उनके जीवन के तरीके और उनके जीवन की दिशा को बदल देगा। जब तुम्हारे भीतर परमेश्वर के प्रति भय वाला हृदय उदित होता है, और जब तुम्हारे पास ऐसा हृदय होता है जो तुम्हारा मार्गदर्शन करने वाले परमेश्वर से डरता है, तो तुम जो चीजें करोगे उनकी प्रकृति उन कामों की प्रकृति से बिल्कुल अलग होगी जो तुम आत्म-नियंत्रण और सीमित होने पर किया करते थे। इन परिस्थितियों में यदि तुम्हें कोई हैसियत दे दी जाए और तुम्हारे पास दूसरों को कष्ट देने का मौका और सही परिस्थितियाँ हों, तो भी क्या तुम ऐसा करोगे? (नहीं।) क्यों नहीं करोगे? क्या इसलिए कि लोगों को कष्ट पहुँचाने की तुम्हारी कोई योजना नहीं है, या इसलिए कि तुम्हारे पास लोगों को कष्ट पहुँचाने की क्षमता नहीं है? (ऐसा इसलिए है कि मेरा स्वभाव बदल चुका होगा।) यह सही है, तुम में परमेश्वर का भय रखने वाला हृदय होगा, और तुम्हारे कार्यों में सिद्धांत और आधार रेखा होगी। इस बिंदु पर तुमको चाहे जिस प्रलोभन का सामना करना पड़े, तुम अपने दिल से कह सकोगे कि “ऐसा करने से परमेश्वर प्रसन्न नहीं होता, और मैं ऐसे काम नहीं कर सकता जो परमेश्वर को नाराज करते हों।” तुम्हारा आध्यात्मिक कद स्वाभाविक रूप से इस स्तर तक पहुँच जाएगा, और तुम ऐसे शब्द कहने में सक्षम हो पाओगे। अभी क्या तुम लोग इस स्तर को इतने स्वाभाविक रूप से पा सकते हो? (अभी नहीं।) इससे साबित होता है कि सत्य का अभी तक तुम्हारे भीतर प्रभाव नहीं पड़ा है; यह केवल तुम्हारे व्यवहार को सीमित कर रहा है, लेकिन यह तुम्हारे मन को दृढ़ता से सीमत नहीं कर सकता, या तुम्हारे जीवन की दिशा नहीं बदल सकता, और न ही तुम्हारे आचरण के सिद्धांतों और लक्ष्य को बदल रहा है।

तुम सब लोगों ने अब परमेश्वर में विश्वास के क्रम में सत्य के अनुसरण पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया है तो तुम लोग अपने आचरण को किस चीज पर आधारित करते हो? मनुष्य के आचरण की आधार रेखा, अंतरात्मा और नैतिकता। ये चीजें सत्य से कितनी दूर हैं? क्या अंतरात्मा, मनुष्य के आचरण की आधार रेखा, और नैतिकता का संबंध सत्य से है? वे इससे दूर हैं। अपना आचरण अंतरात्मा पर आधारित करना तुम्हें हद से हद एक अच्छा आदमी बना सकता है लेकिन यह परमेश्वर की अपेक्षा से बहुत दूर है। परमेश्वर लोगों से चाहता है कि वे अपना आचरण सत्य पर आधारित रखें और उसके वचनों के अनुसार जीवन जिएँ। जब परमेश्वर में विश्वास करने वाला कोई व्यक्ति सत्य को ग्रहण कर पाता है, समझ कर अभ्यास में ला पाता है, तथा सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अपने को सीमित रख पाता है, तो वह सयाना हो जाएगा। यदि वह सत्य का अनुसरण नहीं करता, तो वह कभी सयाना नहीं होगा। कुछ लोगों ने सत्य का अनुसरण करना शुरू कर दिया है, और उनका संकल्प यह कहता है, “मुझे सत्य की ओर बढ़ने के प्रयास में अपनी पूरी शक्ति लगानी चाहिए और परमेश्वर के वचनों तथा सत्य के अनुसार अभ्यास करने का कड़ा प्रयत्न करना चाहिए, नियमों के अनुसार काम करना चाहिए, सिद्धांतों और सीमाओं के भीतर कार्य करना चाहिए एवं उन चीजों को करने से बचना चाहिए जो परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करती हों या परमेश्वर के विरुद्ध पाप करती हों और ऐसा करने में किसी को मुझे प्रबंधित करने, सीमित करने या पर्यवेक्षण करने की आवश्यकता नहीं होगी। यद्यपि कोई मेरी निगरानी नहीं कर रहा है, किंतु अगर कुछ करने से परमेश्वर का स्वभाव नाराज हो, हृदय में परमेश्वर का भय न रहे, और परमेश्वर को नाराजगी हो, तो मैं वह चीज बिलकुल नहीं करूँगा। यदि मेरे मन में वैसा विचार हुआ भी तो भी मैं स्वयं को सीमित कर सकूँगा—मैं उसे कार्यान्वित नहीं करूँगा।” यह अवस्था सक्रिय एवं सकारात्मक है। उदाहरण के लिए, मान लें कि परमेश्वर का घर किसी को किसी बहुमूल्य वस्तु की सुरक्षा करने के लिए कहता है, और इसके बारे में केवल कुछ ही लोग जानते हैं। जब अन्य लोगों को इस मामले का पता चलता है, तो वह व्यक्ति उस वस्तु की अच्छी तरह से देखभाल करने, उसकी चिंता करने और उसके खोने, क्षतिग्रस्त होने, चोरी होने या बर्बाद होने से बचाने में सक्षम होता है। साथ ही वह लालच और स्वामित्व के भाव से भी दूर रहने और अपने दिल में उस वस्तु के प्रति पूरी तरह से पवित्र भाव रखने में सक्षम होता है। क्या वह अच्छा इंसान नहीं है? वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि वह अच्छा व्यक्ति है क्योंकि उसके मन में उस वस्तु का दुरुपयोग करने की कोई योजना या विचार नहीं हैं। इससे भी एक कदम आगे वह अपने पद के प्रति पूरी निष्ठा के साथ इस वस्तु की रक्षा करने में सक्षम है और इस जिम्मेदारी को पूरे मन से और अपनी सर्वोत्तम क्षमता के साथ निभाता है, और कहा जा सकता है कि वह इसे पूरे हृदय से अपना काम अच्छी तरह से कर रहा है। लेकिन एक दिन चीजें बदल जाती हैं। इस मामले की जानकारी रखने वाले कुछ लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाता है, और कुछ को अलग-अलग स्थानों पर स्थानांतरित कर दिया जाता है। अब वही एकमात्र व्यक्ति बचा है जो उस वस्तु के बारे में जानता है। इन परिस्थितियों में क्या उसका परिवेश नहीं बदल गया है? हाँ, उसका परिवेश बदल गया है, और परीक्षा आ चुकी है। शुरू में उनका मन स्थिर रहता है, और वह अभी भी गंभीरता से और जिम्मेदारी से बिना किसी अन्य विचार के वस्तु की रक्षा करता है। बाद में उसे पता चलता है कि जिन लोगों को इस बारे में पता था वे गायब हो गए हैं। तब भी वह सोचता है, “मैं इस वस्तु के बारे में कोई षड्यंत्र नहीं कर सकता; मैं इसे अच्छी तरह से सुरक्षित रखे रखूँगा। भले ही लोग इसके बारे में नहीं जानते, परमेश्वर तो जानता है!” क्या वह अच्छा व्यक्ति नहीं है? (वर्तमान में भी वह अच्छा प्रतीत होता है।) ऐसा क्यों है? क्योंकि जब अच्छा इंसान होने के मानकों से मापा जाता है, तो इस स्तर तक पहुँचा हुआ व्यक्ति पहले ही बहुत अच्छा होगा। लेकिन एक दिन उसके परिवार में एक बड़ा संकट आ जाता है, उसे तत्काल धन की आवश्यकता होती है, और उसके पास पर्याप्त धन नहीं होता। उसका परिवेश फिर बदल गया है और जब परिवेश बदलता है तो एक बार फिर उसकी परीक्षा का समय आ गया है। पहले तो वह किसी से पैसा उधार लेने का विचार करता है, लेकिन दो-तीन असफल प्रयासों के बाद उसके दिल में हलचल होने लगती है : “मेरे पास क्या यह कीमती वस्तु नहीं रखी है? जब यह वस्तु ठीक मेरे सामने है तो क्या पैसा उधार लेना मूर्खता की बात नहीं होगी? कोई नहीं जानता कि यह वस्तु मेरी सुरक्षा में है। इसके अलावा यह वस्तु यहाँ धूल खा रही है। क्या मेरे लिए इसका उपयोग करना उचित नहीं होगा? मैं यह कर सकता हूँ!” तब उसे एक बेहतर तार्किक विचार सूझता है, “क्या यह परमेश्वर द्वारा मेरे लिए तैयार नहीं किया गया था? परमेश्वर मुझ पर कृपालु है, परमेश्वर को धन्यवाद!” वह इसके बारे में जितना अधिक सोचता है, उसे उतना ही अधिक लगता है कि यह करना उचित है। दो-तीन दिनों की उधेड़बुन के बाद वह अपने हृदय में शांति महसूस करता है, और उसकी अंतरात्मा उसे नहीं फटकारती। अंततः वह निर्णय लेता है, “मैं तो इस धन का प्रयोग करूँगा!” क्या हुआ? (उसकी सोच में बदलाव आना शुरू हुआ।) उसकी सोच में यह बदलाव कैसे आया? (यह परिवेश के कारण हुआ।) तो क्या समस्या परिवेश की है? क्या परिवेश ने उसे बदल दिया? (नहीं।) तो हम इसकी सटीक व्याख्या कैसे कर सकते हैं? जब पहले भी दो बार उसका परिवेश बदला था, तब उसका मन क्यों नहीं डगमगाया था? (वह अत्यधिक गरीबी और हताशा का दौर नहीं था।) इस बिंदु तक पहुँचने से पहले किसी व्यक्ति के सच्चे आंतरिक विचार और सच्चे स्वभाव उजागर नहीं होते। क्या हम उस समय कह सकते हैं कि यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति निष्ठावान है? या कि वह सत्य से प्रेम करता है? हम ऐसा कह सकते हैं क्योंकि जब उसने बिना किसी अन्य कल्पना या सक्रिय विचार के दी गई वस्तु की रक्षा की, तो वह उसे पूरे दिल और क्षमता से निभाने में सफल रहा। उसने उस वस्तु के बारे में कभी कोई बुरी योजना नहीं बनाई—कितना महान व्यक्ति है! हालाँकि जब उसके जीवन का परिवेश बदला और उसे लगा कि वह इस तरह फँसा है कि जिससे निकलने का कोई रास्ता नहीं है, तो उसके सक्रिय विचार उभरे और उसने दी गई वस्तु के बारे में षड्यंत्र बुनना शुरू कर दिया। वास्तव में ऐसा नहीं है कि उसके मन में ये विचार पहले नहीं थे, लेकिन उसने उन्हें अपने मन में छिपा लिया था। उपयुक्त परिवेश मिलने पर उसके विचार स्वाभाविक रूप से झरने के पानी की तरह सामने आ गए। अंत में उसने यह कहते हुए अपने विचारों के लिए “आधार” भी ढूँढ़ लिया कि परमेश्वर ने यह वस्तु उसके लिए ही तैयार की थी। जब ये “आधार” मिले, तो क्या उसकी दुष्ट प्रकृति उजागर नहीं हुई? उसकी निष्ठा, अच्छाई और न्याय की भावना कहाँ गए? (वे गायब हो गए।) तो क्या उसकी पिछली अभिव्यक्तियाँ सिर्फ दिखावा थीं? वे कोई दिखावा नहीं थीं; वे भी प्राकृतिक खुलासे थे, लेकिन वे गहरे नहीं थे। वे सबसे सतही खुलासे थे, वे सतही परिघटनाएँ थीं। मानवता की ऊपरी सतह के स्तर की परिघटनाओं में कुछ भ्रम होते हैं, और कभी-कभी लोग उन्हें समझ नहीं पाते और आसानी से धोखा खा जाते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग छह महीने या एक साल तक अपना कर्तव्य बहुत अच्छे से निभाते दिखते हैं, लेकिन एक साल के बाद वे नकारात्मक हो जाते हैं। दो साल के बाद वे भाग सकते हैं और धर्मनिरपेक्ष दुनिया में लौट सकते हैं; कुछ पैसा कमाने के लिए और कुछ अपना जीवन जीने के लिए। तो उनके छह महीने या एक वर्ष के प्रदर्शन के आधार तुम्हारे लिए यह तय करना गलत होगा कि वे परमेश्वर के लिए खुद को ईमानदारी से खपाने वाले लोग हैं। उन छह महीनों या एक साल के दौरान का उनका व्यवहार वास्तव में एक भ्रम होता है, अस्थायी उत्साह होता है। उनके असली हाव-भाव और परमेश्वर में उनके विश्वास के पीछे के इरादों में घालमेल तब उजागर होती है जब उनका कुछ परिवेशों और प्रलोभनों से सामना होता है। क्या यह तथ्य नहीं है? वे बिल्कुल भी नहीं बदले हैं। परमेश्वर लोगों में ठीक-ठीक क्या बदलाव करना चाहता है? लोगों से सत्य स्वीकार करवा कर परमेश्वर किन समस्याओं का समाधान करना चाहता है? (मनुष्य की प्रकृति के भीतर की चीजों का समाधान चाहता है।) यह सही है, मनुष्य की प्रकृति के भीतर की ही चीजें हैं जिनका समाधान किया जाना चाहिए। जब तक लोगों के साथ कुछ दुर्भाग्यपूर्ण नहीं होता, तब तक उनके पास एक बुनियादी नैतिक आधार होता है और वे दूसरों का फायदा नहीं उठाते। खास तौर पर उम्रदराज लोग अक्सर कहते हैं, “न दूसरों के माल पर नीयत बुरी रखो, न अपना माल गँवाओ।” कहने का मतलब यह है कि अपनी चीजें यूँ ही किसी को न दो, और दूसरों की चीजों के प्रति लालच या लोभपूर्ण विचार न रखो। यह ठीक वही बात है जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए और यह सत्य तक नहीं पहुँचती। तो क्या लोग इसे हासिल कर सकते हैं? (वे नहीं कर सकते।) लोग इसे प्राप्त भी नहीं कर सकते, और फिर भी वे कहते हैं कि लोभपूर्ण विचार न रखो। अपने भीतर लोभपूर्ण विचार आने का इंतजार किए बिना दूसरों का सामान हड़प कर लेना व्यक्ति की प्रकृति के वर्चस्व का परिणाम होता है। जब तक परिवेश इसकी अनुमति देता है, लोगों को इस बारे में सोचने की भी जरूरत नहीं होती और वे अपने भीतर की दुष्ट प्रकृति, और अपने चालबाज, लालची और धोखेबाज स्वभावों को प्रकट करते रहते हैं। सुरक्षा के लिए दी गई वस्तु का दुरुपयोग करने वाले जिस व्यक्ति का उदाहरण अभी मैंने दिया था—उसके कौन से विचार और अभिव्यक्तियाँ कपटपूर्ण थीं? (उसने यह दावा करते हुए परमेश्वर की वस्तु हड़प कर ली थी कि परमेश्वर ने ही उसे तैयार करके उसके लिए रास्ता बनाया था।) यह धोखेबाजी है, यह अपने साथ-साथ दूसरों को भी धोखा देना है। उसने खुद को धोखा दिया और उसने परमेश्वर को भी धोखा देने की कोशिश की। उसने सुनने में अच्छे लगने वाले शब्दों का प्रयोग अपने आपको छलने और अपनी अंतरात्मा को सांत्वना देने के लिए किया ताकि वह इसके आरोपों से बच सके। इतना ही नहीं, उसने अपने लिए एक सुंदर झूठ गढ़ा, और इस झूठ का उपयोग परमेश्वर को मूर्ख बनाने और जाल में फँसाने के लिए करना चाहा। क्या यह धोखेबाजी नहीं है? (हाँ।) यह धोखेबाजी है। जब तुम्हारा ऐसे परिवेशों से सामना होता है, और तुम्हारी प्रकृति विचारों को जन्म देती है और तुम्हें कुछ करने को प्रेरित करती है, तो इसका असर सबसे पहले तुम्हारे भीतर अंतरात्मा पर पड़ता है, उसके बाद उन सत्य पर पड़ता है जिन्हें तुम समझते हो, वह तुम्हें एहसास कराता है कि इस तरह से सोचने से तुम कहीं नहीं पहुँचोगे, कि यह घृणा योग्य और दुष्टता है, और तुम जो सोचते हो और जिस पर विश्वास करते हो, वह सत्य नहीं है। यद्यपि तुम्हारे भीतर अस्थायी रूप से ऐसा कार्य करने का मनोवेग होता है, फिर भी परमेश्वर से प्रार्थना करने के बाद तुम सोचते हो, “मैं यह नहीं कर सकता; इससे परमेश्वर नाराज होगा। यह दुष्टता है! ऐसा करना सत्य के साथ असंगत है, और क्या यह परमेश्वर को धोखा देने जैसा नहीं होगा? मैं इसे कभी नहीं कर सकता। यह कुछ ऐसा है जो पवित्र है, यह परमेश्वर का है, और इसे बिल्कुल भी नहीं छुआ जाना चाहिए। यद्यपि इस चीज के बारे में कोई नहीं जानता, और केवल परमेश्वर इसके बारे में जानता है, और चूँकि केवल परमेश्वर ही इसके बारे में जानता है, मैं इसे बिल्कुल नहीं छू सकता।” यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार सोच सकता है, तो उसमें वास्तव में आध्यात्मिक कद होता है। यदि वह अपने अच्छे इरादों और नैतिक आधार रेखा पर भरोसा करता, तो क्या वह खुद को रोक पाता? क्या वह गारंटी दे सकता था कि वह उस भेंट की चोरी नहीं करेगा? (वह यह नहीं कर पाता।) इसे प्राप्त करने के लिए किसी व्यक्ति के पास क्या होना चाहिए? (उसके हृदय में परमेश्वर का भय होना चाहिए।) केवल वे सत्य जिन्हें तुम समझते हो, परमेश्वर के बारे में तुम्हारा ज्ञान, और तुम्हारे हृदय में परमेश्वर का भय ही तुम्हारे हृदय और कार्यों को रोक सकता है और निर्धारित कर सकता है कि तुम कौन सा मार्ग चुनोगे और तुम परमेश्वर के इरादों के अनुसार कैसे आचरण करोगे। सत्य और परमेश्वर के वचनों के अलावा क्या कोई दूसरी चीज है जो लोगों को इसे पाने में मदद कर सकती है? नहीं, ऐसी कोई चीज नहीं है। यही एकमात्र रास्ता है; यह तुम्हें परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने में सक्षम बना सकता है। तुम्हारे सामने चाहे जैसे भी परिवेश हों, चाहे वे परीक्षण हों या प्रलोभन, वे परमेश्वर के प्रति तुम्हारी निष्ठा और समर्पण को नहीं बदल सकते। एक बार जब तुम अपना संकल्प दृढ़ कर लोगे, तो वह कभी नहीं बदलेगा। तुम कितने ही कठिन परिवेश का सामना करो, चाहे वह तुम्हारे लिए विशेष रूप से बड़ा प्रलोभन हो, तुम्हारा संकल्प अपरिवर्तित रहेगा, और चीजों को करने के तुम्हारे सिद्धांत अपरिवर्तित रहेंगे। इस प्रकार तुम अपनी गवाही पर दृढ़ रहोगे, और सत्य प्राप्त कर लोगे। इस मामले में परमेश्वर दोबारा तुम्हारी परीक्षा नहीं लेगा। तुम इस पर काबू पा चुके होगे और मजबूती से खड़े रहोगे। बिलकुल अभी क्या अधिकांश लोग इस आध्यात्मिक कद तक पहुँच सकते हैं? (वे नहीं पहुँच सकते।) वे अभी भी उस तक नहीं पहुँच सकते, जिससे साबित होता है कि सत्य उनका जीवन नहीं बन पाया है। तो अब उनके जीवन में कौन सी चीजें हैं? दुनियावी चीजों से निपटने के शैतान के फलसफे, शैतान के जहर, और कुछ मानवीय मूल प्रवृत्तियाँ, यानी नैतिकता और मानवीय आचरण की आधार रेखा को पकड़े रहना, साथ ही कुछ आध्यात्मिक सिद्धांत और अभिव्यक्तियाँ जो उन्होंने परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के बाद हासिल कीं। इन चीजों को समझ लेने के बाद लोग हमेशा सोचते हैं, “मैंने सत्य को पा लिया है। मैं परमेश्वर में अपने विश्वास के बारे में बहुत कुछ समझ चुका हूँ। मैं बदल गया हूँ और मैंने कुछ हासिल कर लिया है।” वह क्या है जो उन्होंने हासिल किया है? दरअसल ये सिर्फ सतही स्तर की चीजें हैं। यह बस उनके व्यवहार को कुछ सीमित रखना होता है, और उनके व्यवहार को कुछ हद तक अधिक विनियमित करना भर होता है। इसके अलावा वे अपने दिमाग और दिल में अधिक सकारात्मक तरीके से विचार कर सकते हैं और सकारात्मक चीजों के बारे में अधिक सोच सकते हैं। अपने परिवेश के प्रभाव के कारण, अक्सर धर्मोपदेश सुनने के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का पालन करने और अधिक से अधिक सकारात्मक चीजों के संपर्क में रहने के कारण वे कुछ सकारात्मक तरीकों से प्रभावित होते हैं। ये वे लाभ और परिवर्तन हैं जो कलीसिया के परिवेश में लोगों को मिलते हैं। लेकिन सत्य लोगों में कितने बड़े और कितने सारे परिवर्तन लाता है? यह उनके अनुसरण पर निर्भर करता है। यदि तुम वास्तव में सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो, तो सत्य के व्यावहारिक पहलुओं के रूप में तुम्हें हमेशा कुछ न कुछ हासिल होगा, और प्रत्येक चरण में तुम थोड़ा सा इसे हासिल करोगे और थोड़ा सा समझोगे। अपने हृदय में लोग समझते हैं और इस बात की अनुभूति रखते हैं कि उन्होंने कुछ हासिल किया है या नहीं। अधिकांश लोग अब क्या महसूस करते हैं? यह कि अच्छे इरादों के आधार पर वे अक्सर लगन के साथ और जानबूझकर कुछ अच्छे कर्म करते हैं, ऐसी चीजें जिनके बारे में लोग मानेंगे कि उनमें अंतरात्मा और विवेक है, और ऐसी चीजें जिनके कारण दूसरे उन पर आरोप नहीं लगा सकेंगे या आलोचना नहीं करेंगे। यद्यपि वे अच्छे कर्म हैं, फिर भी उन्हें सत्य का अभ्यास करना नहीं कहा जा सकता। क्या ऐसा मामला नहीं है? (हाँ।) अधिकांश लोगों के कार्यों का एक मौलिक सिद्धांत होता है, जो अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करने का होता है। उन्हें लगता है कि सत्य अगाध है, बहुत अमूर्त है और लोगों से बहुत दूर प्रतीत होता है। लोग सत्य को अच्छी तरह से नहीं समझते और वे इसे स्पष्ट रूप से समझा नहीं सकते, इसलिए वे केवल अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करते हैं, और दिन-ब-दिन उलझे रहते हैं। कुछ लोग अंतरात्मा के बारे में जरा भी जागरूक नहीं होते और वे अंतरात्मा के मानकों के अनुसार कार्य नहीं करते। कुछ लोग बिना कोई परिणाम पाए अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हैं; वे बस मुफ्तखोरी कर रहे हैं और परमेश्वर की कृपा का आनंद ले रहे हैं, लेकिन बदले में कुछ नहीं दे रहे हैं, और उनके दिल में कोई अपराध बोध भी नहीं है। क्या इन लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक है? तुम यदि उनसे पूछो कि “इस तरह जीने के बारे में आप कैसा महसूस करते हैं?” तो वे कहते हैं, “परमेश्वर के इरादे बहुत महान हैं, मैं उन तक नहीं पहुँच सकता। जो भी हो, मैं ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति हूँ, और मैंने बुराई नहीं की है। मैं अपने हृदय में शांति महसूस करता हूँ।” क्या ऐसे लोग सत्य का अभ्यास करते हैं? यद्यपि वे अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हैं, पर क्या वे ईमानदारी से स्वयं को परमेश्वर के लिए खपा रहे हैं? मनुष्य के परिप्रेक्ष्य से लगता है कि वे अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं, लेकिन उन्हें इसमें कोई परिणाम नहीं मिलता। क्या परमेश्वर उन्हें स्वीकार कर सकता है? वे कह सकते हैं, “मैं अपने कर्तव्य अपनी अंतरात्मा के आधार पर करता हूँ, मैं बेकार नहीं हूँ, आलसी नहीं हूँ, और मैं इसकी कीमत चुकाता हूँ।” लेकिन क्या अंतरात्मा का यह मानक इस बात का सूचक है कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं? तुम लोगों के पास जब समय हो, तब तुम्हें इस पर विचार करना चाहिए, संगति करने के लिए कोई विषय लेकर आना चाहिए, और देखना चाहिए कि सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम्हें कैसे काम करना चाहिए। केवल अंतरात्मा के मानक या अच्छा मनुष्य होने और अच्छा व्यवहार करने के मानकों पर मत रुको। चापलूस बनकर संतुष्ट न रहो। तुम्हें सत्य की ऊँचाई का अनुसरण और उसमें प्रवेश करना चाहिए। केवल इसी तरह से तुम परमेश्वर के इरादे पूरे कर सकते हो और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो। यदि तुम हमेशा अपनी अंतरात्मा को संतुष्ट करना चाहते हो, और सोचते हो कि तब तक सब ठीक है जब तक कि तुम नैतिक आधार रेखा का उल्लंघन नहीं करते, तो तुम जब कोई चीज करोगे तब हमेशा इसी दायरे में बँधे रहोगे, और इस दायरे से आगे नहीं जा सकोगे, जिसका मतलब है कि सत्य का तुमसे कभी कोई लेना-देना नहीं होगा। यदि तुम्हारे कार्यों और शब्दों का सत्य से कभी कोई लेना-देना ही नहीं होगा, तब भी क्या तुम सत्य को प्राप्त कर सकोगे? तुम्हारे लिए सत्य को पाना कठिन होगा।

प्राचीन काल में, विद्वान लोग अक्सर “कन्फ्यूशियस का साहित्य संग्रह,” “ताओ ते चिंग,” और “तीन चरित्रों वाला शास्त्रीय साहित्य” का अध्ययन करते थे। शास्त्रीय कथन बुदबुदाते हुए वे पूरे दिन सिर हिलाते रहते थे, मानो धर्मग्रंथों का जाप कर रहे हों और उनके होठों पर शास्त्रीय कथन हों। कुछ किताबें पढ़ने और कुछ टैंग और सॉन्ग कविताओं को याद करने के बाद वे खुद को जानकार मानने लगते थे और पूरा दिन खुद को बहुत प्रभावशाली समझते हुए दूसरों को व्याख्यान देने में बिताते थे। अपने पूरे जीवन में वे कोई भी उचित उपलब्धि अर्जित नहीं कर पाते थे और केवल संतों की लिखी उन कुछ पुस्तकों के आधार पर आचरण करते थे, जिनको उन्होंने पढ़ा होता था। वे कुछ भी नहीं समझते थे और वे कुछ जान भी नहीं पाते थे। वे जीवन भर उलझे रहते थे और कुछ भी हासिल नहीं कर पाते थे। और फिर भी वे अपने हृदय में अपने आप से प्रसन्न रहते थे, सोचते थे कि वे बहुत कुछ समझते हैं और दूसरे सभी लोगों से श्रेष्ठ हैं। एक मुहावरा है “तुमसे भी ज्यादा पवित्र मैं”—यह बहुत सही बैठता है और तुम लोगों को इस स्थिति में बिल्कुल नहीं रहना चाहिए। कुछ लोगों को हमेशा लगता है कि उनके पास ज्ञान है, और उनके हृदय में दयालुता तथा धार्मिकता है। परिणामस्वरूप उन सभी को लगता है कि वे दूसरों से भी अधिक पवित्र हैं, और सोचते हैं कि वे अच्छा आदमी और सज्जन कहलाने के पूरी तरह योग्य हैं। कुछ लोग वफादारी को विशेष महत्व देते हैं और अपने दोस्तों के लिए गोली भी खा सकते हैं। कुछ लोग विशेष रूप से अंतरात्मा को महत्व देते हैं और इन शब्दों पर खरे उतरते हैं कि : “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए।” कुछ लोग विवाह नहीं करते और वे आत्म-चिंतन के माध्यम से अपने मस्तिष्क और शरीर को विकसित करते हुए अमर होने का प्रयास करते हैं। कुछ लोग पूरी तरह से संतों की पुस्तकों का अध्ययन करने में समर्पित हो जाते हैं और बाहरी मामलों पर कोई ध्यान नहीं देते। क्या ये तथाकथित अच्छे लोग सचमुच अच्छे लोग हैं? वे अपने ज्ञान के आधार पर जीते हैं, और वे थोड़ी अंतरात्मा के आधार पर बोलते और कार्य करते हैं, तो क्या इन लोगों को सत्य वास्तविकता प्राप्त माना जा सकता है? क्या सचमुच गारंटी दी जा सकती है कि वे कोई बुरा काम नहीं करेंगे? कुछ लोग दूसरों के प्रति अच्छे इरादे रखते हैं और अक्सर दान और सहायता देते रहते हैं, इसलिए वे खुद को महान परोपकारी मानते हैं। लेकिन क्या हमेशा पारंपरिक संस्कृति के दावों पर विश्वास करते हुए यह तय करना ठीक है कि कोई व्यक्ति अच्छा है या बुरा? दूसरों का मूल्यांकन करने और अपना दिखावा करने के लिए हमेशा नैतिक मानकों का उपयोग करना दूसरे से अधिक पवित्र होना होता है। क्या खुद को दूसरों से ज्यादा पवित्र मानने वाले इन लोगों के पास सत्य है? क्या वे सत्य को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं? बिलकुल नहीं। यदि उन्हें शक्ति और रुतबा हासिल हो जाता, तो क्या वे परमेश्वर का विरोध और परमेश्वर पर विश्वास करने वाले लोगों पर क्रूरता से अत्याचार कर सकते थे? वे ऐसा करने में बहुत सक्षम होते हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि उनकी प्रकृति में अभी भी दुर्भावना है, और उनकी प्रकृति शैतान की है। इसके आधार पर यह तय किया जा सकता है कि हमेशा ज्ञान और पारंपरिक संस्कृति के आधार पर जीवन जीने वाले सभी लोग पाखंडी होते हैं, जो बुराई कर सकते हैं और परमेश्वर के विरुद्ध जा सकते हैं। कुछ लोगों का कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास है, फिर भी आश्चर्य की बात है कि उन्हें पारंपरिक संस्कृति और ज्ञान की कोई समझ नहीं है। वे पूरी तरह से यह नहीं समझ पाते कि सार रूप में ये चीजें शैतानी फलसफे, तर्क और कानून हैं, और ऐसा ज्ञान और संस्कृति हैं जिससे लोगों को नुकसान होता है। क्या ऐसे लोगों के पास सत्य वास्तविकता है? जो लोग पारंपरिक संस्कृति और ज्ञान को नहीं जान सकते, और उनके बारे में कोई समझ नहीं रखते, वे ऐसे लोग हैं जो सत्य को जरा भी नहीं समझते, और जिनके पास थोड़ी सी भी सत्य वास्तविकता नहीं है। ऐसे लोग हैं जो सोचते हैं कि कुछ तरह का ज्ञान भी लोगों को अच्छा बनने में मदद कर सकता है और इस प्रकार का ज्ञान लोगों को अच्छे कर्म करने के लिए निर्देशित करता है। ये बहुत गलत बात है। ज्ञान जीवन नहीं है; यह एक प्रकार का विनियम है, यह सत्य के विपरीत है और यह एक भ्रांति है। किसी व्यक्ति का ज्ञान कितना भी ऊँचा या गहरा हो, वह मानवजाति के भ्रष्ट सार, या अपनी प्रकृति, या मानवजाति की भ्रष्टता को भी नहीं जान सकता। फिर उसके ज्ञान का क्या उपयोग है? क्या यह सबसे सतही और भ्रामक सिद्धांत नहीं है? कन्फ्यूशियसवादी सिद्धांत और “ताओ ते चिंग” की तरह-इन तथाकथित शास्त्रीय चीनी संतों की पुस्तकों में दिखावे से भरे शब्द हैं, वे शैतानी शब्द हैं जो लोगों को गुमराह करते हैं, वे आडंबरपूर्ण पाखंड और भ्रांतियां हैं, और वे शैतानी जहर और तर्क हैं। कुछ लोग इन चीजों की सत्य के रूप में पूजा करते हैं—क्या वे अभी भी परमेश्वर में विश्वास रखते हैं? यदि तुम अपने हृदय में परमेश्वर पर विश्वास करते हो और प्रतिदिन प्रवचन सुनते हो और परमेश्वर के वचनों का पाठ करते हो, तो तुम सत्य को क्यों नहीं समझ पाते? तुम सत्य को अपने अनुसरण का लक्ष्य क्यों नहीं बना पाते? ये लोग सबसे मूर्ख और पूरी तरह से अज्ञानी लोग हैं, वे मानव रूप में जंगली जानवर हैं, और वे अमानवीय हैं।

सत्य क्या है? सबसे पहले यह तय किया जाना चाहिए कि सांसारिक आचरण के फलसफे निश्चित रूप से सत्य नहीं हैं, और मशहूर हस्तियों और महान हस्तियों के ध्येय वाक्य सत्य नहीं हैं। कन्फ्यूशीवाद और ताओवाद की बातें, अच्छे व्यवहार और विरासत में मिले वे कार्य जिन्हें भ्रष्ट मानव जाति सामान्यतः पहचानती है, वे चीजें और सिद्धांत जो लोगों के दिमागों को निर्देशित करते हैं, इत्यादि—इनमें से कोई भी चीज सत्य नहीं है। क्या दूसरों की मदद करके खुशी पाना सत्य है? (नहीं।) दूसरों की मदद करने से खुशी पाना और परोपकारी होना अच्छे काम हैं, और एक सहृदय व्यक्ति कम से कम दयालु होता है और दूसरों पर दया करने में सक्षम होता है—यह सत्य के अनुरूप क्यों नहीं है? (लोगों की मदद कैसे करनी है इसका उनके पास कोई सिद्धांत नहीं हैं।) क्या सिद्धांतों के बिना लोगों की मदद करना अच्छा इंसान होना है? यह खुशामदी होना और सभी के साथ अच्छे संबंध रखने की कोशिश करना है। क्या अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित प्रेम दिखाना सत्य है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना एक सही और सकारात्मक बात है, लेकिन हम यह क्यों कहते हैं कि यह सत्य नहीं है? (क्योंकि लोग अपने माता-पिता के साथ संतानोचित व्यवहार करने में किसी सिद्धांत का पालन नहीं करते और वे यह भेद नहीं कर पाते कि उनके माता-पिता वास्तव में किस प्रकार के लोग हैं।) एक व्यक्ति को अपने माता-पिता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसका संबंध सत्य से है। यदि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास करते हैं और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करते हैं, तो क्या तुम्हें उनके प्रति संतानोचित व्यवहार करना चाहिए? (हाँ।) तुम संतानोचित कैसे होते हो? तुम उनके साथ अपने भाई-बहनों से अलग व्यवहार करते हो। तुम उनके द्वारा बताए गए हर काम को करते हो, और यदि वे बूढ़े हों, तो तुम्हें हर हाल में उनकी देखभाल के लिए उनके पास रहना होता है, जो तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वाह के लिए बाहर जाने से रोकता है। क्या ऐसा करना सही है? (नहीं।) ऐसे समय में तुम्हें क्या करना चाहिए? यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यदि तुम अपने घर के आस-पास ही कहीं अपना कर्तव्य निभाते हुए भी उनकी देखभाल कर पा रहे हो, और तुम्हारे माता-पिता को परमेश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था पर आपत्ति नहीं है, तो तुम्हें एक पुत्र या पुत्री के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए और अपने माता-पिता के कुछ काम करते हुए उनकी मदद करनी चाहिए। यदि वे बीमार हों, तो उनकी देखभाल करो; अगर उन्हें कोई परेशानी हो, तो उनकी परेशानी दूर करो; अपने बजट के अनुरूप उनके लिए पोषक आहार खरीदो। परंतु, यदि तुम अपने कर्तव्य में व्यस्त रहते हो, जबकि तुम्हारे माता-पिता की देखभाल करने वाला और कोई न हो, और वे भी परमेश्वर में विश्वास करते हों, तो तुम्हें क्या करने का फैसला करना चाहिए? तुम्हें कौन-से सत्य का अभ्यास करना चाहिए? चूँकि अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना सत्य नहीं, बल्कि केवल एक मानवीय जिम्मेदारी और दायित्व है, तो तुम्हें तब क्या करना चाहिए जब तुम्हारा दायित्व तुम्हारे कर्तव्य से टकराता हो? (अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए; कर्तव्य को पहले रखना चाहिए।) दायित्व अनिवार्य रूप से व्यक्ति का कर्तव्य नहीं है। अपना कर्तव्य निभाने का चुनाव करना सत्य का अभ्यास करना है, जबकि दायित्व पूरा करना सत्य का अभ्यास करना नहीं है। अगर तुम्हारी स्थिति ऐसी हो, तो तुम यह जिम्मेदारी या दायित्व पूरा कर सकते हो, लेकिन अगर वर्तमान परिवेश इसकी अनुमति न दे, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, “मुझे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए—यही सत्य का अभ्यास करना है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना अपने जमीर से जीना है, और यह सत्य का अभ्यास करने से कम बात है।” इसलिए, तुम्हें अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए और उस पर कायम रहना चाहिए। अगर अभी तुम्हारे पास कोई कर्तव्य नहीं है और तुम घर से दूर रहकर काम नहीं करते, और अपने माता-पिता के पास रहते हो, तो उनकी देखभाल करने के तरीके खोजो। उन्हें थोड़ा बेहतर जीने और उनके कष्ट कम करने में मदद करने की पूरी कोशिश करो। लेकिन यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि तुम्हारे माता-पिता किस तरह के लोग हैं। अगर तुम्हारे माता-पिता खराब मानवता के हैं, यदि वे तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने से लगातार रोकते हैं, और अगर वे तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने से दूर खींचते रहते हैं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें किस सत्य का अभ्यास करना चाहिए? (अस्वीकार का।) उस समय तुम्हें उन्हें अस्वीकार कर देना चाहिए। तुमने अपना दायित्व पूरा किया है। तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, इसलिए उनके प्रति संतानोचित आदर प्रदर्शित करने का तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है। अगर वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परिवार हैं, तुम्हारे माता-पिता हैं। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तो तुम लोग अलग-अलग मार्ग पर चल रहे हो : वे शैतान में विश्वास करते हैं और बुरे कर्मों के बादशाह की पूजा करते हैं, और वे शैतान के मार्ग पर चलते हैं, वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास करने वालों से भिन्न मार्गों पर चल रहे हैं। अब तुम एक परिवार नहीं हो। वे परमेश्वर में विश्वास करने वालों को अपना विरोधी और शत्रु मानते हैं, इसलिए उनकी देखभाल करने का तुम्हारा दायित्व नहीं रह गया है और तुम्हें उनसे पूरी तरह से संबंध तोड़ लेना चाहिए। सत्य क्या है : अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना या अपना कर्तव्य निभाना? बेशक, अपना कर्तव्य निभाना सत्य है। परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाना केवल अपना दायित्व पूरा करना और वह करना नहीं है जो व्यक्ति को करना चाहिए। यह सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना है। यहाँ परमेश्वर का आदेश है; यह तुम्हारा दायित्व है, तुम्हारी जिम्मेदारी है। यह सच्ची जिम्मेदारी है, जो सृष्टिकर्ता के समक्ष अपनी जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना है। यह सृष्टिकर्ता की लोगों से अपेक्षा है और यह जीवन का बड़ा मामला है। लेकिन अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित सम्मान दिखाना किसी व्यक्ति की जिम्मेदारी और दायित्व मात्र है। यह निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा आदेशित नहीं है और यह परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप तो यह उससे भी कम है। इसलिए, अपने माता-पिता का संतानोचित सम्मान करने और अपना कर्तव्य निभाने में से अपना कर्तव्य निभाना ही सत्य का अभ्यास करना है। एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना सत्य और एक अनिवार्य कर्तव्य है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित सम्मान प्रदर्शित करने का संबंध लोगों के प्रति संतानोचित व्यवहार करने से है। इसका मतलब यह नहीं कि व्यक्ति अपना कर्तव्य निभा रहा है, न ही इसका मतलब यह है कि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है। इस तरह से इन चीजों के बारे में संगति करने के बाद तुम लोगों को स्वयं इन चीजों में अंतर करने में सक्षम होना चाहिए, और जानना चाहिए कि क्या सत्य है और क्या सत्य नहीं है। अब इस बारे में सोचो कि लोग किन दूसरी चीजों का सम्मान करते हैं जिन्हें सत्य माना जाता है? (समाज में अक्सर “सकारात्मक ऊर्जा” शब्द का प्रयोग किया जाता है; यह भी एक नकारात्मक बात है और सत्य नहीं है।) गैर-विश्वासी लोग जिन शब्दों के बारे में बात करते हैं उनमें से अधिकांश शैतानी बातें हैं। “सकारात्मक ऊर्जा” शब्द किस पृष्ठभूमि से निकला? समाज में जो लोकप्रिय कहावतें, अजीब सिद्धांत, या प्रचलित शब्द बनते हैं उन सभी की एक पृष्ठभूमि होती है। क्या तुम लोग उस पृष्ठभूमि को जानते हो जिससे यह प्रचलित शब्द निकला है? चीन में सामाजिक माहौल तेजी से दुष्टतापूर्ण होता जा रहा है, और लोग दुष्टता की वकालत करते हैं। दुष्ट लोग चाहे जो कहें या करें, लोग उसका अनुसरण करते हैं। हालाँकि कुछ लोग इसे बर्दाश्त नहीं कर पाते और इस पर टिप्पणी करते हैं, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं होता, और कोई भी प्रतिक्रिया नहीं देता। चीन में दुष्टता एक प्रवृत्ति बन गई है और लोगों का कोई समूह इस दुष्ट प्रवृत्ति को नहीं रोक सकता। हर किसी को लगता है कि दिन-ब-दिन देश का नैतिक स्तर और गिरता जा रहा है। सारी शक्ति दुष्ट राक्षसों के पास है, और वे देश और उसके लोगों को पूरी तरह से नियंत्रित करते हैं। शैतान जो चाहते हैं वही करते हैं, और कोई उन्हें रोक नहीं सकता। जनता को मूर्ख बनाने के लिए सत्तासीन लोगों ने जनता को गुमराह करने और धोखा देने वाली कई दिखावटी चीजें की हैं, यहाँ तक कि यह दावा भी किया है कि ये सभी कार्य सकारात्मक ऊर्जा से संबंधित हैं। यही वह पृष्ठभूमि है जहाँ से “सकारात्मक ऊर्जा” का उदय हुआ है। गैर-विश्वासियों का “सकारात्मक ऊर्जा” से क्या तात्पर्य है? इसे वे खरापन या एक प्रकार का अच्छा व्यवहार कहते हैं। वास्तव में क्या यह सकारात्मक ऊर्जा समाज में प्रभाव डाल सकती है? क्या यह दुष्ट प्रवृत्तियों की बाढ़ का समाधान कर सकती है? क्या यह दुष्ट प्रवृत्तियों को बढ़ने से रोक सकती है? यह नहीं कर सकती; यह कुछ भी नहीं बदल सकती। यह क्यों कुछ नहीं बदल सकती? “सकारात्मक ऊर्जा” शब्द बहुत शक्तिशाली लगता है, तो फिर यह कुछ भी बदल क्यों नहीं सकता या किसी समस्या का समाधान क्यों नहीं कर सकता? यह बच्चों की दिन भर इंटरनेट की लत की समस्या तक को बदल या हल नहीं कर सकता। अतीत में लोगों के बीच तब भी थोड़ा-बहुत स्नेह, थोड़ी अंतरात्मा और तर्क हुआ करता था, और पड़ोसियों के बीच भी थोड़ी शिष्टता होती थी, लेकिन अब बात अलग है। मानवीय रिश्ते ढुलमुल और अस्थिर हो गए हैं, और सभी लोग एक-दूसरे के लिए अजनबी की तरह हैं। जब लोग अपने पड़ोसियों के साथ दुर्घटनाएँ होते देखते हैं, तब भी परवाह नहीं करते, और न ही किसी को मदद के लिए पुकारते देखकर वे आगे आने का साहस करते हैं। यहाँ समस्या क्या है? क्या कोई सकारात्मक ऊर्जा न होने के कारण लोग ऐसे बन जाते हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि समाज में पहले सकारात्मक ऊर्जा थी? नहीं, यह ऐसा ही था। “सकारात्मक ऊर्जा” केवल सुनने में अच्छा लगने वाला शब्द है, इसमें कुछ भी व्यावहारिक नहीं है। यह एक खोखला सिद्धांत है जो पूरी तरह से अप्रभावी है।

मुझे बताओ कौन बदतर है : अतीत के लोग या आज के लोग? (आज के लोग बदतर हैं।) तुम लोगों ने यह कैसे जाना? तुम लोगों का दृष्टिकोण यह है कि आजकल लोग कठोर दिल वाले हैं, और उनमें पारिवारिक प्रेम और वास्तविक मित्रता नहीं होती, कि किसी को भी वफादारी या अंतरात्मा की परवाह नहीं है, और लोग हमेशा कहते रहते हैं, “अंतरात्मा का मूल्य कितना है?” “अंतरात्मा का क्या है? सबसे पहले है पैसा कमाना!” तुम सोचते हो कि लोगों ने अपनी अंतरात्मा खो दी है, और अब लोगों के लिए सामान बेचते समय दूसरों को धोखा देना और लूटना सामान्य हो गया है, और जिसे भी वे ठग सकते और धोखा दे सकते हैं उसे ठगते और धोखा देते हैं। इसके विपरीत तुम्हें लगता है कि पुराने जमाने में कुशल व्यापारियों के सामान बेचने के सिद्धांत होते थे, कि वे अपना सामान निश्चित कीमतों पर बेचते थे, अपने सभी ग्राहकों, युवा हों या बूढ़े, सभी के साथ ईमानदार बने रहते थे, और किसी को धोखा नहीं देते थे। इसलिए तुम सोचते हो कि अतीत में लोग अब की तुलना में बेहतर थे। तो यह “बेहतर” किसके बारे में बता रहा है? यह वास्तव में अंतरात्मा और उनके जिए जाने वाले व्यवहार पर आधारित है। यदि तुम इसके आधार पर लोगों को आँकते हो, तो अतीत में लोग अब की तुलना में बेहतर थे। अतीत में लोग अधिक सरल और निष्कपट थे, और उनमें अंतरात्मा और शर्म की भावना होती थी। उनके आचरण की एक आधार रेखा थी और वे कम से कम ऐसा कुछ भी नहीं करते थे जिसमें अंतरात्मा ही न हो, न ही वे ऐसा कुछ करते थे जिससे लोग उनकी पीठ पीछे उनकी आलोचना करें या जिससे उनकी बदनामी हो। आज लोग उन चीजों की परवाह नहीं करते; उन्हें शर्म का एहसास नहीं होता। वे केवल पैसा और अपना नाम कमाना चाहते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि आजकल के लोग बहुत बुरे हैं। तो आज के इतने बुरे लोग इस तरह से विकसित कैसे हुए? क्या वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी, प्राचीन काल से लेकर आज तक बढ़ते नहीं गए हैं? आज के लोग प्राचीन काल के लोगों से भिन्न नहीं हैं। उनका डीएनए नहीं बदला है और न ही उनकी शक्ल बदली है। बात सिर्फ इतनी है कि पुराने जमाने के मुकाबले रहने की स्थितियाँ बेहतर हैं। आज लोग अधिक जटिल चीजें सीखते हैं और अधिक क्षेत्रों में कुशल होते हैं, उनका ज्ञान प्राचीन लोगों की तुलना में अधिक है, उनके पास प्राचीन लोगों की तुलना में अधिक कौशल हैं, और उनके पास अहंकार की पूंजी है। अगर हम इसे इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो क्या यह कहना सही है कि आज के लोग अतीत के लोगों से भी बदतर हैं? हम कैसे मूल्यांकन करें कि यह कथन सटीक है और सत्य के अनुरूप है? आओ इसे इस तरह समझते हैं : यदि तुम ऐतिहासिक नाटक देखते हो, चाहे वे शाही दरबार से संबंधित हों, जांगहू[क] के बारे में हों या आम लोगों के जीवन के बारे में हों, उनके कथानक संघर्ष से भरे होंगे। यही मानवता का सच्चा पक्ष है। सत्ता और अपनी इच्छित वस्तुओं के लिए मनुष्य एक दूसरे से जीवन-मृत्यु का संघर्ष करते हैं। इसमें मानव स्वभाव बहुत गहनता और सजीवता से उजागर होता है और यह बिल्कुल शैतान जैसा होता है। तो क्या यह सच है कि वे सभी चीजें जिन्हें तुम अभी घटित होते देख रहे हो, वे केवल एक ही समयावधि में घटित हुई हैं? क्या पृथ्वी पर कुछ स्थानों पर लोग इतनी भयंकर लड़ाई इसलिए करते हैं कि वहाँ फेंगशुई खराब है, और क्योंकि वहाँ गंदे राक्षसों के झुंड रहते हैं? या फिर ऐसा है कि उन लोगों के जींस खराब हैं, जो उन्हें प्रकृति से आक्रामक बनाते हैं? (दोनों में से कोई बात नहीं है।) फिर ये संघर्ष कैसे उत्पन्न होते हैं? वे सभी सत्ता, रुतबे और स्वार्थ के लिए लड़े जाते हैं। इसमें सामाजिक स्तर से कोई फर्क नहीं पड़ता, ऊँचे से लेकर निचले स्तर तक लोग हमेशा लड़ते और प्रतिस्पर्धा करते रहे हैं, तब तक लड़ते रहे हैं जब तक वे थक नहीं जाते, और अपनी मृत्यु के कगार तक प्रतिस्पर्धा करते रहते हैं। इन परिघटनाओं से हम क्या देख सकते हैं? पूरे मानव इतिहास के संपूर्ण विकास के इन सूक्ष्म ब्रह्मांडों और ऐतिहासिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य से निर्णय करें, तो मानव जाति की प्रकृति कभी नहीं बदली है। जब तक लोग शैतान की शक्ति के अधीन रहते हैं, तब तक प्रत्येक युग और प्रत्येक चरण में जीवन की सामग्री वही रहती है, जैसे उसका सार भी वही रहता है। ऐसा इसलिए है कि मानव संघर्ष के लक्ष्य, कारण और उसकी जड़ें हमेशा एक जैसी ही रहती हैं—वे सभी संघर्ष सत्ता, हैसियत और अंतिम रूप से अपने स्वार्थ के लिए किए जाते हैं। संघर्ष के सभी साधन एक ही स्रोत से निकलते हैं—शैतान की प्रकृति और स्वभाव से। मनुष्य के संघर्ष के साधन और तरीके अपरिवर्तित क्यों रहे हैं? यह पूरी तरह से मानव की प्रकृति के कारण है। लोग अपने दिमाग पर जोर देते हैं और एक दूसरे को लड़कर नुकसान पहुँचाने, छल करने, धोखा देने, और कपट करने के साधन तलाशते रहते हैं-वे सभी प्रकार के धूर्त तरीकों का उपयोग करते हैं। चाहे प्रमुख राजनीतिक संघर्ष हों या साधारण परिवारों के बीच के संघर्ष, वे हमेशा अपने हितों के लिए लड़ते रहते हैं। यह मानवता का असली चेहरा है, मानव जाति का असली रंग है। जो मानव जाति आज तक विकसित हुई है वह अभी भी वही मानव जाति है और वह अभी भी वही शैतान है जो मानव जाति को भ्रष्ट करता है। यद्यपि बाहरी वातावरण धीरे-धीरे बदल रहा है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि मानव प्रकृति बदल गई है। हालाँकि मानव के संघर्षों के तरीके और साधन थोड़े बदले हुए हो सकते हैं, पर मनुष्य की लड़ने की प्रकृति और इन संघर्षों की शुरुआत का बिंदु बिल्कुल नहीं बदला है। मनुष्य की अब भी एक प्रकृति होती है, और अभी भी इन संघर्षों का एक लक्ष्य और एक ही स्रोत होता है—ये चीजें बिल्कुल भी नहीं बदली हैं। तुम लोगों ने कहा था कि अतीत में लोग बेहतर थे। वे किस प्रकार बेहतर थे? वे पारंपरिक संस्कृति से थोड़ा सीमित थे, इसलिए वे कमोबेश कुछ ही अच्छे कर्म करने में सक्षम थे। अब मानवजाति आज के दौर तक विकसित हो चुकी है, और जीवन की गुणवत्ता चाहे जितनी ऊँची हो, लोग चाहे जितना ज्ञान और शिक्षा प्राप्त कर लें, या उनके अनुभव का विस्तार हो जाए, परंतु मानव प्रकृति नहीं बदली है। इसके अलावा समाज के विकास के साथ, मानव प्रकृति के प्रकाशन पहले से ज्यादा दुष्ट, मुखर और निर्लज्ज होते जा रहे हैं। चाहे परमेश्वर जितने भी वचन बोले या वह कितने भी सत्य व्यक्त करे, लोग उसे अनदेखा करते हैं। लोग सत्य को बिल्कुल प्रेम नहीं करते, इसके बजाय वे सत्य से और भी अधिक विमुख हो गए हैं, और उसके प्रति पहले से भी अधिक घृणा का अनुभव करते हैं। क्या अब भी समाज में अच्छे काम करने वाले लोग बचे हैं? (हाँ, लेकिन पहले से कम हैं।) तो क्या तुम कह सकते हो कि ये लोग अच्छे हैं, और कि वे बुरे नहीं बने हैं? (नहीं।) निश्चित रूप से वे किसी निर्वात में नहीं रह रहे हैं? वे किस तरह के अच्छे काम करते हैं? वे केवल अच्छा व्यवहार करते हैं और अच्छे इरादे रखते हैं। यदि तुम उनसे परमेश्वर में विश्वास के मामलों में बात करो, जैसे कि अच्छा इंसान बनने के लिए परमेश्वर में विश्वास करना और परमेश्वर की आराधना करना, तो उनकी प्रतिक्रियाओं पर ध्यान देना। यदि उन्हें सुनाई पड़े कि परमेश्वर में विश्वास करने पर सरकार लोगों को सताएगी, तो वे तुम्हारे साथ शत्रुवत व्यवहार करेंगे और तुम्हारा मजाक उड़ाएँगे। यदि तुम्हारा पीछा किया जा रहा है और तुम्हें सताया जा रहा है, और तुम कुछ देर के लिए उनके घरों में छिपने की कोशिश करो, तो वे तुम्हारी सूचना दे देंगे और तुम्हें सरकार को सौंप देंगे। वे किसी कार दुर्घटना के शिकार व्यक्ति की जान बचाने के लिए उसे अस्पताल ले जाएँगे, पर वे परमेश्वर में विश्वास करने वाले एक भले व्यक्ति को बुरे राक्षसों के हाथों भी सौंप देंगे, ताकि वे उसके साथ दुर्व्यवहार कर उसे सता कर मार डालें। तुम इसकी व्याख्या कैसे करोगे? कौन सा व्यवहार उनकी प्रकृति को दर्शाता है? बाद वाला काम उनकी प्रकृति को दर्शाता है। वे दूसरे लोगों को बचाते हैं, और वे दूसरे लोगों को घातक स्थितियों में भी डालते हैं। ऐसे लोग इंसान हैं या राक्षस? अगर केवल एक ऐसा दिन हो जब कोई व्यक्ति अपने शैतानी स्वभाव को न छोड़े, तो वह बुरा काम करने और परमेश्वर का प्रतिरोध करने में सक्षम हो जाएगा। जब तक कोई परमेश्वर का विरोध कर सकता है, वह अच्छा इंसान नहीं है। क्या यह कथन सही है? (हाँ।) इसके बारे में क्या सही है? (वे जिसका अभ्यास करते हैं वह सत्य नहीं है। चाहे उनके बाहरी कार्य और आचरण कितने भी अच्छे हों, उनकी प्रकृति अभी भी परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण होती है।) उनकी प्रकृति परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है। यह कथन सत्य है। हम इस कथन की व्याख्या कैसे करते हैं? हम ऐसा क्यों कहते हैं कि जो व्यक्ति परमेश्वर के प्रति शत्रुता रखता है, वह अच्छा व्यक्ति नहीं है? (परमेश्वर सभी सकारात्मक चीजों का प्रतीक है। यदि कोई परमेश्वर के प्रति शत्रु भाव रख सकता है, तो उसके अंदर जो कुछ है वह सब नकारात्मक है।) सिद्धांत रूप में यह ऐसा ही है, और वह कथन सत्य है। कोई व्यक्ति बाहर से चाहे जितना अच्छा या पवित्र दिखे, उसे दूसरों की मदद करने में चाहे जितनी खुशी मिलती हो या वह दूसरों के प्रति कितना ही दयालु हो, अगर वह सकारात्मक बातें सुनकर विमुखता और विकर्षण महसूस करता है, और अगर वह सत्य को सुनने पर स्वीकार नहीं कर पाता और उससे विमुख महसूस करता है, तो वह किस तरह का व्यक्ति है? वह अच्छा व्यक्ति नहीं है। जो लोग सकारात्मक चीजों और सत्य के शत्रु हैं, वे अच्छे लोग नहीं हैं। सामान्य तौर पर तुम ऐसा कह सकते हो। निःसंदेह, इसके भीतर बहुत विस्तार की बातें हैं। मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ जिससे तुम समझ जाओगे कि यह कथन सत्य क्यों है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग अपने परिवारों को त्याग देते हैं क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। वे इस वजह से प्रसिद्ध हो जाते हैं और सरकार अक्सर उनके घर की तलाशी लेती है, उनके माता-पिता को परेशान करती है और यहाँ तक कि उनके माता-पिता को उन्हें सौंपने के लिए धमकाती भी है। उनके सभी पड़ोसी उनके बारे में बात करते हुए कहते हैं, “इस आदमी में जरा भी अंतरात्मा नहीं है। वह अपने बुजुर्ग माता-पिता की परवाह नहीं करता। न केवल वह संतानोचित आचरण नहीं करता, बल्कि वह अपने माता-पिता के लिए बहुत परेशानी का कारण भी है। वह माता-पिता के प्रति अनुचित आचरण करने वाली संतान है!” क्या इनमें से एक भी शब्द सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) लेकिन क्या ये सभी शब्द गैर-विश्वासियों की नजर में सही नहीं माने जाते? गैर-विश्वासियों के बीच उन्हें लगता है कि इसे देखने का यह सबसे वैध और तर्कसंगत तरीका है, और यह मानवीय नैतिकता के अनुरूप है, और मानव आचरण के मानकों के अनुरूप है। इन मानकों में चाहे कितनी ही चीजें शामिल हों, जैसे माता-पिता के प्रति संतानवत सम्मान कैसे दिखाया जाए, बुढ़ापे में उनकी देखभाल कैसे की जाए और उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था कैसे की जाए, या उनकी कितनी देखभाल की जाए, और बेशक ये मानक सत्य के अनुरूप हों या नहीं, गैर-विश्वासियों की नजर में वे सकारात्मक चीजें होती हैं, वे सकारात्मक ऊर्जा हैं, वे सही चीजें हैं, और लोगों के सभी लोगों के समूहों में उन्हें अनिंद्य माना जाता है। गैर-विश्वासियों में लोगों के लिए जीवन का यही मानक हैं, और तुम्हें उनके दिलों में ठीक-ठाक अच्छा इंसान बनने के लिए ये चीजें करनी होंगी। तुम्हारे परमेश्वर में विश्वास करने तथा सत्य को समझने के पहले क्या तुम्हारा भी दृढ़ विश्वास नहीं था कि इस तरह का आचरण करना ही अच्छा इंसान होना है? (हाँ।) इसके अलावा तुम स्वयं अपना मूल्यांकन करने और स्वयं को सीमित करने के लिए भी इन चीजों का उपयोग करते थे और तुम खुद को इसी प्रकार का व्यक्ति बनाना चाहते थे। यदि तुम अच्छा इंसान बनना चाहते थे तो तुमने निश्चित रूप से इन चीजों को अपने आचरण के मानकों में शामिल किया होगा : अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित आचरण कैसे करें, उनकी चिंताएँ कम कैसे करें, उन्हें सम्मान और श्रेय कैसे दिलाएँ, और अपने पूर्वजों को गौरवान्वित कैसे करें। तुम्हारे दिल में आचरण के यही मानक थे और तुम्हारे आचरण की दिशा यही थी। हालाँकि जब तुम लोगों ने परमेश्वर के वचनों और उसके उपदेशों को सुना तो तुम्हारा दृष्टिकोण बदलना शुरू हो गया, और तुम समझ गए कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाने के लिए तुम्हें सब कुछ त्यागना होगा, और कि परमेश्वर चाहता है कि लोग इस तरह का आचरण करें। यह निश्चित करने से पहले कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना सत्य है, तुम सोचते थे कि तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना चाहिए, लेकिन तुम्हें यह भी लगता था कि एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और तुम्हें अपने अंदर इनके बीच संघर्ष की स्थिति महसूस होती थी। परमेश्वर के वचनों के निरंतर सिंचन और मार्गदर्शन के माध्यम से तुम धीरे-धीरे सत्य को समझने लगे, और तब तुम्हें एहसास हुआ कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना पूरी तरह से प्राकृतिक और उचित है। आज तक बहुत से लोग सत्य को स्वीकार करने और मनुष्य की पारंपरिक धारणाओं और कल्पनाओं से आचरण के मानकों को पूरी तरह से त्यागने में सक्षम हुए हैं। जब तुम इन चीजों को पूरी तरह से छोड़ देते हो, तो जब तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाते हों, तो तुम गैर-विश्वासियों की आलोचना और उनकी निंदा से सीमित नहीं रह जाते, और तुम उन्हें आसानी से त्याग सकते हो। तो तुम्हारे हृदय से वे पुरानी पारंपरिक धारणाएँ क्यों गायब हो गईं? क्या ऐसा है कि तुम बुरे हो गए हो? क्या तुम्हारा हृदय कठोर हो गया है और तुम्हारी अंतरात्मा गुम हो गई है? (नहीं।) वास्तव में तुम्हारी अंतरात्मा नहीं बदली है, तुम अब भी वही व्यक्ति हो, और तुम्हारा व्यक्तित्व, प्राथमिकताएँ, अंतरात्मा और नैतिकता के मानक नहीं बदले हैं। तो जब गैर-विश्वासी तुम्हारे बारे में अच्छी-बुरी बातें बनाते हैं और निंदा करते हैं, तो तुम दुःखी या पीड़ित महसूस क्यों नहीं करते और इसके बजाय अपने हृदय में शांति और आनंद क्यों महसूस करते हो? यह बिलकुल रूपांतरण है, तुम ऐसे कैसे बन गए? (परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और कुछ सत्यों को समझना शुरू करके मैंने मूल्यांकन के सही मानक हासिल कर लिए हैं, और यह अंतर करने में सक्षम हो गया हूँ कि उनके शब्द सिर्फ भ्रांतियां हैं।) गैर-विश्वासी हमारे बारे में अफवाहें फैलाते हुए कहते हैं, “परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद वे अपने परिवारों की देखभाल नहीं करते, उन्हें अपने परिवारों से कोई प्यार नहीं है, और वे विशेष रूप से उत्साहहीन हो जाते हैं-वे ठंडे खून वाले जानवरों जैसे बन जाते हैं।” बाहर से ऐसा लग सकता है लेकिन यह वास्तविकता नहीं है। यहाँ एक आवश्यक समस्या यह है कि दृष्टिहीन लोगों के पास देखने का कोई तरीका नहीं होता। क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है लोग जब परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करते हैं उसके बाद सत्य लोगों को निरुत्साही हृदय वाला बना देता है? (नहीं।) तो, वास्तव में क्या हो रहा है? (विभिन्न चीजों के बारे में विश्वासियों के दृष्टिकोण बदल गए हैं; वे सत्य को समझ गए हैं और उनमें नीर-क्षीर विवेक आ गया है।) यह परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के माध्यम से प्राप्त हुआ परिणाम है। यह परिणाम कैसे प्राप्त होता है? चीजों पर तुम्हारा दृष्टिकोण किस बात से बदल गया? यह बदलाव कब शुरू हुआ? यह परमेश्वर के वचन हैं जो लोगों का नजरिया बदलते हैं, जीवन और विभिन्न मामलों पर उनके सभी नजरिए बदलते हैं, और उन्हें गैर-विश्वासियों से अलग करते हैं।

अतीत में, लोग हमेशा अपनी-अपनी अंतश्चेतना के अनुसार कार्य करते थे और सभी को मापने के लिए उनका उपयोग करते थे। लोगों को हमेशा जमीर का इम्तहान पास करना पड़ता था, उन्हें हमेशा लगता था कि गपशप डराने वाली चीज है, और खुद पर हँसे जाने या बदनाम होने अथवा “बिना अंतश्चेतना वाला और बुरा व्यक्ति” कहे जाने से डरते थे। इसलिए, उन्हें वातावरण से तालमेल बनाने के लिए अनिच्छापूर्वक कुछ चीजें कहनी और करनी पड़ती थीं। अब इन चीजों का मापन कैसे किया जाना चाहिए? (सत्य सिद्धांतों से।) उस समय चीजें कैसी थीं, जब लोगों का जीवन गैर-विश्वासियों की धारणाओं और भ्रांतियों से बँधा हुआ था? उदाहरण के तौर पर, जब से तुम छोटे थे, तुम्हारे माता-पिता तुम्हें इस तरह के शब्दों से समझाते रहते थे : “बड़े होकर तुम्हें हमें गौरवान्वित करना चाहिए; तुम्हें हमारे परिवार का नाम रोशन करना चाहिए!” ये शब्द तुम्हारे लिए क्या रहे हैं? प्रोत्साहन या अवरोध? सकारात्मक प्रभाव या एक प्रकार का नकारात्मक नियंत्रण? तथ्य यह है कि ये एक प्रकार का नियंत्रण हैं। तुम्हारे माता-पिता ऐसे किसी कथन या सिद्धांत के आधार पर, जिसे लोग सही और अच्छा मानते हैं, तुम्हारे लिए एक लक्ष्य निर्धारित कर देते हैं, जिससे तुम उस लक्ष्य की पूर्ति में अपना जीवन व्यतीत करते हो और अंततः अपनी स्वतंत्रता खो देते हो। आखिर तुम अपनी स्वतंत्रता खोकर उसके नियंत्रण में क्यों आ जाते हो? क्योंकि लोग सोचते हैं कि अपने परिवार का नाम रोशन करना एक अच्छी चीज है, जिसे किया जाना चाहिए। अगर तुम्हारे विचार वैसे नहीं हैं या तुम वे चीजें करने की इच्छा नहीं रखते जो तुम्हारे परिवार का नाम रोशन करती हैं, तो तुम्हें धरती का बोझ, निकम्मा, नाकारा समझा जाता है, और लोग तुम्हें हेय दृष्टि से देखेंगे। सफल होने के लिए तुम्हें कड़ी मेहनत से अध्ययन करना चाहिए, और अधिक कौशल प्राप्त करने चाहिए और अपने परिवार का नाम रोशन करना चाहिए। इस तरह, लोग भविष्य में तुम्हें धौंस नहीं देंगे। क्या इस लक्ष्य के लिए तुम जो कुछ भी करते हो, वे वास्तव में बेड़ियाँ नहीं हैं जो तुम्हें बाँधती हैं? (हैं।) चूँकि सफलता के पीछे दौड़ना और परिवार का नाम रोशन करना तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षा है, और चूँकि वे तुम्हारा भला चाहते हैं ताकि तुम एक अच्छा जीवन जी सको और अपने परिवार को गौरवान्वित कर सको, इसलिए तुम्हारा ऐसी जीवन-शैली की आकांक्षा करना एकदम स्वाभाविक है। लेकिन वास्तव में, ये चीजें एक तरह की परेशानियाँ और बेड़ियाँ हैं। जब लोग सत्य नहीं समझते, तो वे सोचते हैं कि ये चीजें सकारात्मक हैं, सत्य हैं, सही मार्ग हैं, और इसलिए वे उन्हें सच समझ लेते हैं और उनका पालन या अनुसरण करते हैं और जब वे शब्द और अपेक्षाएँ उनके माता-पिता की हों, तो वे उनका पूरी तरह से पालन करते हैं। अगर तुम इन शब्दों के अनुसार जीते हो, कड़ी मेहनत करते हो और अपनी युवावस्था और अपना पूरा जीवन उन्हें समर्पित कर देते हो, और अंत में शीर्ष पर पहुँच जाते हो, एक अच्छा जीवन जीते हो, और अपने परिवार को गौरवान्वित करते हो, तो तुम अन्य लोगों के लिए प्रतिभाशाली हो सकते हो, लेकिन अंदर से तुम अत्यधिक खोखले हो। तुम नहीं जानते कि जीवन का क्या अर्थ है, या भविष्य क्या मंजिल सँजोए है, या लोगों को जीवन में किस तरह का मार्ग अपनाना चाहिए। तुमने जीवन के उन रहस्यों के बारे में कुछ भी समझा या प्राप्त नहीं किया होता जिनके उत्तर तुम पाना, जानना और समझना चाहते हो। क्या तुम अपने माता-पिता के अच्छे इरादों से प्रभावी रूप से बरबाद नहीं हो गए हो? क्या तुम्हारी जवानी और तुम्हारा पूरा जीवन तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाओं से बरबाद नहीं हो गए हैं, जो उनके शब्दों में “तुम्हारे भले के लिए” है? (हो गए हैं।) तो, क्या तुम्हारे माता-पिता का “तुम्हारे भले के लिए” अपेक्षाएँ करना सही है या गलत? हो सकता है, तुम्हारे माता-पिता वास्तव में सोचते हों कि वे तुम्हारे भले के लिए काम कर रहे हैं, लेकिन क्या वे ऐसे लोग हैं जो सत्य समझते हैं? क्या उनके पास सत्य है? (नहीं है।) बहुत-से लोग अपना पूरा जीवन अपने माता-पिता के इन शब्दों से चिपके हुए बिता देते हैं, “तुम्हें हमें गौरवान्वित करना चाहिए, तुम्हें परिवार का नाम रोशन करना चाहिए”—शब्द जो उन्हें प्रेरित और जीवन भर प्रभावित करते हैं। जब माता-पिता कहते हैं, “यह तुम्हारे भले के लिए है,” तो यह व्यक्ति के जीवन के पीछे का आवेग बन जाता है, जो काम करने के लिए एक दिशा और लक्ष्य प्रदान करता है। नतीजतन, उस व्यक्ति का जीवन कितना भी मोहक क्यों न हो, कितना भी गरिमापूर्ण और सफल क्यों न हो, वह वास्तव में बरबाद हो जाता है। क्या ऐसा नहीं है? (है।) क्या इसका मतलब यह है कि अगर व्यक्ति अपने माता-पिता की अपेक्षाओं के अनुसार नहीं जीता, तो वह बरबाद नहीं होता? नहीं; उसका भी अपना एक लक्ष्य होता है। वह कौन-सा लक्ष्य होता है? वह अभी भी वही होता है, अर्थात् “एक अच्छा जीवन जीना और अपने माता-पिता को गौरवान्वित करना,” इसलिए नहीं कि उसके माता-पिता ने उसे ऐसा करने के लिए कहा है, बल्कि इसलिए कि उसने यह लक्ष्य कहीं और से स्वीकार लिया है। वह अभी भी इन शब्दों के अनुसार जीना चाहता है और अपने परिवार को गौरवान्वित करना चाहता है, और शीर्ष पर पहुँचना चाहता है, और एक सम्मानित, प्रतिष्ठित व्यक्ति बनना चाहता है। उसका लक्ष्य नहीं बदला है; वह अभी भी ये चीजें हासिल करने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर देता है, और पूरा जीवन इन चीजों को हासिल करने के प्रयास में लगा देता है। तो, जब लोग सत्य नहीं समझते और कई तथाकथित सही सिद्धांतों, सही कथनों और समाज में प्रचलित सही विचारों को स्वीकार लेते हैं, तो वे उन्ही सही चीजों को अपने जीवन के प्रयासों की दिशा, नींव और प्रेरणा में बदल देते हैं। अंत में, लोग इन लक्ष्यों की खातिर हठपूर्वक और खुलकर जीते हैं, जीवन भर तब तक संघर्ष करते हैं जब तक कि मर नहीं जाते, कुछ लोग तो उस समय भी सत्य देखने के लिए तैयार नहीं होते। कितना दयनीय जीवन जीते हैं लोग! लेकिन जब तुम सत्य समझ जाते हो, तो क्या तुम धीरे-धीरे ये तथाकथित सही चीजें, सही शिक्षाएँ और सही कथन, और साथ ही खुद से अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ भी पीछे नहीं छोड़ देते? जब तुम धीरे-धीरे ये तथाकथित सही चीजें पीछे छोड़ देते हो, और वह मानक जिससे तुम चीजें मापते हो, अब परंपरागत संस्कृति के कथनों पर आधारित नहीं रहता, तो क्या तुम अब उन कथनों से मुक्त नहीं हो जाते? और अगर तुम उन चीजों से बँधे नहीं रहते, तो क्या तुम मुक्त होकर जीते हो? हो सकता है, तब तुम पूरी तरह से मुक्त न हुए हो, लेकिन कम से कम बेड़ियाँ ढीली तो हो ही गई होती हैं। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी लोगों की बहुत सी धारणाएं, कल्पनाएं, इरादे और अशुद्धियां तथा सांसारिक आचरण के फलसफे, धोखाधड़ी वाले विचार, भ्रष्ट प्रकृति आदि अस्तित्व में बने रहते हैं। जब ये चीजें हल हो जाती हैं और लोग पूरी तरह से सत्य के साथ जीने में सक्षम हो जाते हैं, तभी वे परमेश्वर के सामने जी सकेंगे और उनकी वास्तव में पूर्ण मुक्ति तथा स्वतंत्रता होगी।

सत्य की प्राप्ति के लिए प्रयासरत होने और उसे प्राप्त करने की बात आने पर पहली प्राथमिकता क्या होती है? इसमें सबसे पहले अब तक सही मानी जाती रही उन बड़ी भ्रांतियों और सुनीसुनाई बातों की चीरफाड़ करना होता है जिनका संबंध पारंपरिक धारणाओं से होता है। जब तुम उनका सार पूरी तरह से समझ लो, तो उन्हें निकाल फेंको। ये चीजें लोगों को बांधने वाले बंधनों की पहली परत होती हैं। तुम लोगों के दिल में इनमें से कितनी चीजें अब भी मौजूद हैं? क्या तुम लोगों ने उन्हें पूरी तरह से निकाल फेंका है? (पूरी तरह से नहीं।) क्या इन चीजों को निकाल फेंकना आसान है? उदाहरण के लिए, कुछ लोग अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहते हैं लेकिन अनुभूतियों के कारण वे यह भी महसूस करते हैं कि उन्हें अपने माता-पिता का सम्मान करना चाहिए। यदि तुम केवल अपनी अनुभूतियों की काट-छाँट करते रहते हो, अपने आप से कहते हो कि माता-पिता तथा परिवार के बारे में न सोचकर केवल परमेश्वर के बारे में सोचना और सत्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, फिर भी अपने माता-पिता के बारे में सोचना बंद नहीं कर पाते तो इससे मूलभूत समस्या का समाधान नहीं हो सकता। इस समस्या के समाधान के लिए तुम्हें उन चीजों का विश्लेषण करने की आवश्यकता है जिन्हें तुम अब तक सही मानते थे, साथ ही तुम्हें उन कही-सुनी बातों, ज्ञान और सिद्धांतों का भी विश्लेषण करना होगा जो मानवीय धारणाओं के अनुरूप हैं और तुम्हें विरासत में मिले हैं। इसके अलावा, अपने माता-पिता से पेश आते समय एक संतान के रूप में उनकी देखभाल के दायित्वों को पूरा करने या न करने का फैसला पूरी तरह से तुम्हारी व्यक्तिगत स्थितियों और परमेश्वर के आयोजनों के आधार पर होना चाहिए। क्या यह बात मामले को बिलकुल ठीक तरीके से स्पष्ट नहीं करती? जब कुछ लोग अपने माता-पिता से अलग होते हैं तो उन्हें लगता है कि उनके माता-पिता का उन पर बहुत कर्ज है लेकिन वे उनके लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। लेकिन, वे जब माता-पिता के साथ रह रहे होते हैं तो संतानोचित तरीके से बिलकुल नहीं रहते और माता-पिता के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह नहीं करते। क्या ऐसा आदमी वास्तव में संतानोचित दायित्वों का निर्वाह करने वाला व्यक्ति है? वह केवल खोखली बातें करने वाला है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो, क्या सोचते हो, या क्या योजना बनाते हो, वे सब महत्वपूर्ण बातें नहीं हैं। महत्वपूर्ण यह है कि क्या तुम यह समझ सकते हो और सचमुच विश्वास कर सकते हो कि सभी सृजित प्राणियों का नियंत्रण परमेश्वर के हाथों में हैं। कुछ माता-पिताओं को ऐसा आशीष मिला होता है और ऐसी नियति होती है कि वे घर-परिवार का आनंद लेते हुए एक बड़े और समृद्ध परिवार की खुशियां भोगें। यह परमेश्वर का अधिकारक्षेत्र है, और परमेश्वर से मिला आशीष है। कुछ माता-पिताओं की नियति ऐसी नहीं होती; परमेश्वर ने उनके लिए ऐसी व्यवस्था नहीं की होती। उन्हें एक खुशहाल परिवार का आनंद लेने, या अपने बच्चों को अपने साथ रखने का आनंद लेने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। यह परमेश्वर की व्यवस्था है और लोग इसे जबरदस्ती हासिल नहीं कर सकते। चाहे कुछ भी हो, अंततः जब संतानोचित शील की बात आती है, तो लोगों को कम से कम समर्पण की मानसिकता रखनी चाहिए। यदि वातावरण अनुमति दे और तुम्हारे पास ऐसा करने के साधन हों, तो तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित दायित्व निर्वाह का शील दिखाना चाहिए। अगर वातावरण उपयुक्त न हो और तुम्हारे पास साधन न हों, तो तुम्हें जबरन ऐसा करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए—इसे क्या कहते हैं? (समर्पण।) इसे समर्पण कहा जाता है। यह समर्पण कैसे आता है? समर्पण का आधार क्या है? यह परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और परमेश्वर द्वारा शासित इन सभी चीजों पर आधारित है। यद्यपि लोग चुनना चाह सकते हैं, लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकते, उन्हें चुनने का अधिकार नहीं है, और उन्हें समर्पण करना चाहिए। जब तुम महसूस करते हो कि लोगों को समर्पण करना चाहिए और सब कुछ परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित है, तो क्या तुम्हें अपने हृदय में शांति महसूस नहीं होती? (हां।) क्या तुम्हारी अंतरात्मा तब भी धिक्कार का अनुभव करती रहेगी? उसे अब लगातार धिक्कार की अनुभूति नहीं होगी, और अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित दायित्वों का निर्वाह न कर पाने का विचार अब तुम पर हावी नहीं होगा। इतने पर भी कभी-कभी तुम्हें ऐसा महसूस हो सकता है क्योंकि मानवता में ये एक तरह से सामान्य विचार या सहज प्रवृत्ति है और कोई भी इससे बच नहीं सकता। उदाहरण के लिए, अपनी माँ को बीमार देखकर साधारण लोग व्यथित महसूस करते हैं और चाहते हैं कि काश माँ की जगह उसका कष्ट वे खुद भोग लेते। कुछ लोग कहते हैं, “काश मेरी माँ ठीक हो जाए, भले इसके लिए मेरी ज़िंदगी के कुछ साल कम हो जाएं!” यह मानवता का सकारात्मक पक्ष है; यह मानवीय मूल प्रवृत्ति है। तो, जब तुम अपनी माँ को बीमार देख कर व्यथित महसूस करते हो, तो क्या परेशानी का वह भाव किसी तरह की समस्या है? नहीं, यह कोई समस्या नहीं है, क्योंकि यह एक ऐसी चीज़ है जो सामान्यतः मानवता में होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में व्यथित होना अच्छी बात है; इससे साबित होता है कि तुम्हारे पास दिल है और तुममें मानवता है। इस दुनिया में तुम्हारी माँ वह व्यक्ति है जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे सर्वाधिक निकट बनाया है। यदि वह बीमार है और पीड़ा में है और तुम उससे बेअसर हो, तो क्या तुम मनुष्य हो? यदि तुम कहो कि तुम्हारे भीतर उसके लिए कोई अनुभूति नहीं है, उसकी पीड़ा के लिए कोई अनुभूति नहीं है और तुम केवल तब पीड़ा महसूस करते हो जब परमेश्वर को पीड़ा होती है, तो क्या यह कथन सत्य है? यह सत्य नहीं है; यह झूठ है। तुम्हारी माँ ने तुम्हें जन्म दिया, इतने सालों तक तुम्हें पाला, वह तुम्हारे सबसे करीब है और वह तुम्हें सबसे ज्यादा प्यार करती है। जब वह बीमार होती है और पीड़ा में होती है, तब यदि तुम्हें अपने दिल में कोई कष्ट महसूस नहीं होता है, तो तुम्हारा दिल बहुत कठोर हो चुका है! यह सामान्य नहीं है; तुम इस प्रकार का व्यक्ति बनने का प्रयास न करो। ऐसी स्थिति पर कष्ट महसूस करना बहुत सामान्य है, लेकिन यदि तुम कष्ट की इस अनुभूति के कारण अपना कर्तव्य निभाना बंद कर दो और परमेश्वर को दोष देने लगो, तो क्या यह सामान्य बात है? (नहीं, यह सामान्य नहीं है।) यह सामान्य क्यों नहीं है? क्योंकि तुम्हारी सोच सत्य के अनुरूप नहीं है और वह वैसी नहीं है जैसी सामान्य मानवता में होनी चाहिए, इसलिए वह सामान्य नहीं है। लोगों का स्वभाव शैतानी है, वे अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार ही जीते हैं, इसलिए वे सत्य का अतिक्रमण कर सकते हैं और अपनी अंतश्चेतना और विवेक वैसे ही खो सकते हैं जैसे वे अचानक मानसिक रूप से बीमार हो गए हों। यह सामान्य नहीं है, तो यह प्रकट कैसे होता है? यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव के कारण होता है। एक बार जब उनका भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो जाता है तो वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकते हैं, और वे ऐसे विचार सामने रख सकते हैं जो सत्य के अनुरूप न हों और मनमाने तरीके से कहीं भी और कभी भी परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हों। यह ऐसे ही होता है।

सभी भ्रष्ट मनुष्यों में अनुभूतियों होती हैं और वे अक्सर उनसे बाधित होते हैं जिसके कारण वे परमेश्वर को समर्पण करने या सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं। परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के लिए हर व्यक्ति को अनुभूतियों का मुद्दा हल करना होता है। किस प्रकार की अनुभूतियां लोगों को सत्य का अभ्यास करने में सबसे अधिक बाधित करती हैं जिन्हें त्याग ही देना चाहिए? वे किस प्रकार की अनुभूतियां हैं जिन्हें सामान्य मानवता का हिस्सा होना चाहिए, न कि कोई समस्या? किस प्रकार की अनुभूतियां भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित हैं? ये बातें स्पष्ट रूप से समझी जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे बच्चे को डराया-धमकाया गया है और उसकी मां के रूप में तुम उसकी रक्षा करती हो और उस परिवार की तलाश करती हो जिसने तुम्हारे बच्चे के साथ दुर्व्यवहार किया है ताकि उनसे इस मसले पर बहस-मुबाहिसा कर सको—क्या यह सामान्य है? चूंकि तुम्हारे बच्चे का मामला है, इसलिए उसकी रक्षा करना तुम्हारे लिए उचित और सामान्य है। लेकिन यदि तुम्हारा बच्चा दूसरे बच्चों को डराता-धमकाता है, यदि वह अच्छे व्यवहार वाले बच्चों के साथ भी आक्रामकता से पेश आता है, और तुम यह देखते हुए भी इसकी परवाह नहीं करती और विश्वास करती हो कि तुम्हारा बच्चा बहुत अच्छा है, और तुम उसे गुपचुप तरीके से दूसरों के साथ मारपीट करना भी सिखाती हो, और जब दूसरे लोग लोग तुमसे इस बारे में बात करने आएं, तब भी तुम अपने बच्चे का बचाव करती हो, तो क्या यह व्यवहार सही है? नहीं, यह सही नहीं है। ऐसे व्यवहार में क्या समस्या है? यह अनुभूतियों से संचालित व्यवहार है। मैं ऐसा क्यों कहता हूं कि यह अनुभूतियों से संचालित है? तुम्हें लगता है कि दूसरे लोग तुम्हारे बच्चे को धमकाएं यह अस्वीकार्य है, और यदि तुम्हारे बच्चे को थोड़ा सा भी कष्ट होता है, तो तुम तुरंत समस्या के समाधान के लिए निकल पड़ती हो और दूसरों से सफाई मांगती हो, तो तुम तब क्यों अंधी हो जाती हो जब तुम्हारा बच्चा दूसरों के बच्चों को धमकाता है? तुम अपने बच्चे को दूसरों के साथ मार-पीट के लिए भी प्रोत्साहित करती हो, क्या यह दुर्भावनापूर्ण नहीं है? जो लोग ऐसा करते हैं वे स्वभाव से दुर्भावनापूर्ण होते हैं। इसे अनुभूतियों के संदर्भ में कैसे समझाया जा सकता है? किन लक्षणों से अनुभूतियों का पता चलता है? निश्चित रूप से वह कोई सकारात्मक चीज नहीं है। यह भौतिक संबंधों और देह की पसंद की संतुष्टि पर ध्यान केंद्रित करना है। पक्षपात करना, दूसरों की कमियों को ढंकना, अत्यधिक स्नेह करना, लाड़-दुलार करना और मनमानी करने देना आदि सब अनुभूतियों में शामिल हैं। कुछ लोग अनुभूतियों के बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं, वे अपने साथ होने वाली हर चीज के बारे में अपनी अनुभूतियों के आधार पर ही प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं; अपने दिलों में वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह गलत है, फिर भी वे वस्तुनिष्ठ होने में असमर्थ रहते हैं, सिद्धांत के अनुसार कार्य करना तो दूर की बात है। जब लोग हमेशा अनुभूतियों के वश में रहते हैं, तो क्या वे सत्य का अभ्यास कर पाते हैं? यह अत्यंत कठिन है। सत्य का अभ्यास करने में बहुत-से लोगों की असमर्थता अनुभूतियों के कारण होती है; वे अनुभूतियों को विशेष रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं, वे उन्हें सबसे आगे रखते हैं। क्या वे सत्य से प्रेम करने वाले लोग हैं? हरगिज नहीं। सार में, अनुभूतियां क्या होती हैं? वे एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव हैं। अनुभूतियों की अभिव्यक्तियोँ को कई शब्दों का उपयोग करते हुए बताया जा सकता है : पक्षपात, सिद्धांतहीन तरीके से दूसरों की रक्षा करने की प्रवृत्ति, भौतिक संबंध बनाए रखना, और पक्षपात; ये ही अनुभूतियां हैं। लोगों में अनुभूतियां होने और उन्ही अनुभूतियों के अनुसार जीवन जीने के क्या संभावित परिणाम हो सकते हैं? परमेश्वर लोगों की अनुभूतियों से सर्वाधिक घृणा क्यों करता है? कुछ लोग हमेशा अपनी अनुभूतियों से विवश रहते हैं और सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, और यद्यपि वे परमेश्वर को समर्पण करना चाहते हैं किंतु ऐसा नहीं कर पाते, इसलिए वे अनुभूतिक स्तर पर पीड़ा का अनुभव करते हैं। ऐसे बहुत से लोग हैं जो सत्य को समझते हैं लेकिन उसे अभ्यास में नहीं ला सकते; ऐसा भी इसलिए है कि वे अनुभूतियों से विवश हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए घर छोड़ देते हैं, लेकिन वे दिन-रात, हर समय, अपने परिवार के बारे में सोचते रहते हैं और अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह से निर्वाह नहीं कर पाते। क्या यह कोई समस्या नहीं है? कुछ लोगों के गुप्त आकर्षण होते हैं, और उनके दिल में केवल उस प्रेमपात्र व्यक्ति के लिए जगह होती है, इससे उनका कर्तव्य निष्पादन प्रभावित होता है। क्या यह कोई समस्या नहीं है? कुछ लोग दूसरों की प्रशंसा करते हैं और उन्हें अपना आदर्श मानते हैं; वे उस व्यक्ति के अलावा किसी की भी बात इस हद तक नहीं सुनते कि वे परमेश्वर की कही बातें भी नहीं सुनते हैं। कोई उनके साथ सत्य पर सहभागिता करे, तो भी वे उसे स्वीकार नहीं करते; वे केवल उस व्यक्ति की बातें सुनते हैं जो उनका आदर्श होता है। कुछ लोगों के हृदय में एक आदर्श छवि होती है, और वे दूसरों को को अपने आदर्श के बारे में बोलने या उस तक पहुंचने की अनुमति नहीं देते। यदि कोई उनके आदर्श से जुड़ी समस्याओं के बारे में बात करता है, तो वे क्रोधित हो जाते हैं और अपने आदर्श का बचाव करते हुए उस व्यक्ति की बातों को उलटने लग जाते हैं। वे अपने आदर्श की सभी अन्यायों से सुरक्षा करते हैं और अपनी शक्ति भर अपने आदर्श की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए सब कुछ करते हैं; अपने शब्दों के माध्यम से वे अपने आदर्श की गलतियोँ को सही ठहराते हैं, और वे लोगों को अपने आदर्श के बारे में सच्ची बात बोलने नहीं देते, उन्हें उजागर नहीं करने देते। यह न्याय नहीं है; इन्हें अनुभूतियां कहा जाता है। क्या अनुभूतियां केवल किसी के परिवार की ओर ही निर्दिष्ट होती हैं? (नहीं।) अनुभूतियां काफी व्यापक होती हैं; वे एक प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव होती हैं, वे केवल परिवार के सदस्यों के बीच सांसारिक संबंधों से जुड़ी नहीं होतीं, वे उस दायरे तक ही सीमित नहीं होतीं। उनका संबंध तुम्हारे किसी वरिष्ठ या किसी ऐसे व्यक्ति से भी हो सकता है जिसने तुम्हारे हित में कुछ किया हो या तुम्हारी मदद की हो, या जिसका तुम्हारे साथ बहुत करीबी रिश्ता हो या जिसका तुम्हारे साथ मेलजोल हो, या कोई तुम्हारे ही शहर का रहने वाला या मित्र, यहां तक कि कोई ऐसा व्यक्ति भी हो सकता है जिसके तुम प्रशंसक होओ—यह कुछ निश्चित नहीं है। तो, क्या अनुभूतियों को त्याग देना अपने माता-पिता या परिवार के बारे में न सोचने जितना ही सरल है? (नहीं।) क्या अनुभूतियों को निकाल फेंकना इतना आसान है? ज्यादातर लोग जब 30 साल से आगे की उम्र में पहुंचते हैं और स्वतंत्र रूप से रहने लगते हैं, तो उन्हें घर की बहुत ज्यादा याद नहीं आती, और उम्र 40 की दहाई में पहुंचने तक यह पूरी तरह से सामान्य बात हो जाती है। जब लोग अवयस्क होते हैं, तो उन्हें घर की बहुत याद आती है और वे अपने माता-पिता को नहीं छोड़ पाते क्योंकि उनमें तब तक स्वतंत्र रूप से जीवन बिताने की क्षमता नहीं होती। अपने परिवार और माता-पिता की याद आना सामान्य बात है। यह अनुभूतियों का मामला नहीं है। अनुभूतियों से जुड़ा मामला तो यह तब बनता है जब किसी चीज को करने के बारे में तुम्हारे रवैये और नजरिये में अनुभूतियों का अपमिश्रण हो जाता है। क्योंकि शारीरिक स्तर पर तुम और तुम्हारे माता-पिता के बीच खून का बंधन है, और तुम इतने सालों तक साथ-साथ रहे हो इसलिए तुम्हारा अपने माता-पिता को याद करना सामान्य बात है। कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें अपने माता-पिता की बिल्कुल भी याद नहीं आती। लेकिन शायद उन लोगों ने हाल ही में घर छोड़ा होता है, और हर एक जगह उन्हें अछूती और नई दिखती है, उन्हें लगता है कि अंततः वे माता-पिता की डांट-फटकार से बच गए हैं और कोई उन्हें नियंत्रण में रखने की कोशिश करने वाला नहीं है, इसलिए उन्हें खुशी महसूस होती है। लेकिन क्या प्रसन्नता का अनुभव करने का अर्थ यह है कि उनमें कोई अनुभूति नहीं है? नहीं ऐसा नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता हूं, और बहुत से सत्यों को समझने लगा हूं। मैं अपना कर्तव्य निभाने में अनुभूतियों से विवश नहीं होता और अब मुझमें कोई अनुभूति नहीं है।” क्या यह कथन व्यावहारिक है? स्पष्टतः ये शब्द किसी ऐसे व्यक्ति के हैं जिसे सत्य की समझ नहीं है। जब लोग कई उपदेश सुनते हैं, कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझते हैं, और कुछ आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में बात करने लायक हो जाते हैं, तो वे सोचते हैं कि मेरा कद बड़ा हो गया है और मैंने बहुत से सचों को समझ लिया है। यदि मुझे गिरफ्तार किया गया, तो मैं यहूदा जैसा नहीं होऊंगा। मुझमें कम से कम यह विश्वास और संकल्प है। क्या यह बड़ा कद नहीं है? जब मैं परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के दिनों का उत्साह याद करता हूँ, तो याद आता है कि मैं अपना पूरा जीवन परमेश्वर को समर्पित करना चाहता था। मेरा वह उत्साह और मेरी वह प्रतिज्ञा जरा भी न बदली है और न ही धुंधलाई है। क्या यह प्रगति नहीं है? क्या यह एक सतही परिघटना है? (हाँ।) ये सभी सतही परिघटनाएँ हैं। यदि कोई वास्तविक प्रगति करना चाहता है, तो उसे सत्य को समझना होगा। क्या सिद्धांतों और आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में बात करने में सक्षम होने से वास्तविक परिवर्तन आ सकता है? (नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।) यदि तुम अपनी स्वयं की समस्याओं को भी हल नहीं कर सकते हैं और किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, तो क्या तुम दूसरों के लिए हितकारी हो सकते हो? केवल उपदेश सुनना और सिद्धांतों को समझना निरर्थक है; तुम्हें परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करना चाहिए। जब तुम सत्य को समझ जाते हो, तो तुम्हें उसका अभ्यास अवश्य करना चाहिए; केवल तभी तुम वास्तविकता पर अधिकार कर सकोगे। तुम केवल सत्य का अभ्यास करके ही उसे अधिक गहराई से समझ सकते हो, तुम सत्य को केवल तभी प्राप्त कर सकते हो जब उसे सचमुच समझ लो, और केवल सत्य को प्राप्त करके ही तुम बड़े हो सकते हो।

अब जब मैं तुम्हारे साथ संगति कर चुका हूं और तुम्हें यह पहचानने में मदद की है कि सत्य क्या है और सही वचन क्या हैं, तो इससे तुम क्या समझे? (कि हमें चीजों को सत्य सिद्धांतों के आधार पर देखना होता है, और हम आम बाहरी सद्व्यवहार या आध्यात्मिक सिद्धांतों को सत्य नहीं मान सकते।) सद्व्यवहार और सही बातें बोलने से कोई व्यक्ति बदल नहीं सकता। वे बातें अपने आप में कितनी भी सच्ची क्यों न हों, वे सत्य बिलकुल नहीं हैं और उनका सत्य से कोई लेना-देना भी नहीं है। यदि तुम हमेशा उनसे चिपके रहते हो और उन्हें सत्य मानते हो, तो तुम सत्य को कभी नहीं समझ पाओगे और कभी भी सत्य को प्राप्त नहीं कर पाओगे। यह एक पक्ष है। इसका एक दूसरा पक्ष यह है कि क्या आध्यात्मिक सिद्धांत किसी व्यक्ति को सत्य समझने योग्य बना सकते हैं? (नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते।) क्यों? यद्यपि सभी आध्यात्मिक सिद्धांतों को सही शब्द माना जा सकता है, लेकिन उनसे किसी व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदला जा सकता। तो, किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव को बदलने के लिए वास्तव में किस चीज पर भरोसा किया जा सकता है? कुछ लोग कहते हैं कि सत्य पर निर्भर रहो, कुछ लोग सत्य को समझने और स्वीकार करने पर निर्भर रहने को कहते हैं, और कुछ अन्य लोग सत्य का अभ्यास करने पर निर्भर करने को कहते हैं। क्या ये सही शब्द हैं? शाब्दिक दृष्टिकोण से इन सबमें एक सही पक्ष है, लेकिन वे सभी बहुत छिछले सिद्धांत हैं; ये सिद्धांत तुम्हारी रक्षा नहीं सकते और न ही तुम्हारी कठिनाइयों का समाधान कर सकते हैं। जब तुम किसी स्थिति में फंसे होते हो और लोग तुमसे कहते हैं कि तुम्हें सत्य स्वीकार करना चाहिए, तो तुम कहते हो, “मैं इसे कैसे स्वीकार कर सकता हूं? मेरे लिए यह कठिन है, और मैं इसे नहीं छोड़ सकता!” क्या ये सिद्धांत तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास करने का मार्ग बन सकते हैं? (नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।) कुछ लोग कहते हैं कि जब तुम किसी स्थिति में फंसे होते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों को ज्यादा आत्मसात करना चाहिए। तुमने यह बात कई बार सुनी होगी, लेकिन इससे तुम्हारी कौन सी कठिनाई हल हुई है? परमेश्वर के वचनों को अधिक आत्मसात करना सही है, लेकिन तुम्हें परमेश्वर के वचनों के कौन से पक्ष को आत्मसात करना चाहिए? उन वचनों को अपनी कठिनाइयों से कैसे जोड़ना चाहिए? जब तुम उन्हें कठिनाइयों के साथ से जोड़ लेते हो, तो तुम उनका समाधान कैसे करते हो? अभ्यास का मार्ग क्या है? अपनी कठिनाइयों को हल करने के लिए तुम्हें सत्य के किस पहलू का इस्तेमाल करना चाहिए? क्या ये वास्तविक समस्याएँ नहीं हैं? (हाँ।) ये वास्तविक समस्याएँ हैं। इसलिए, सही सिद्धांत लोगों की व्यावहारिक कठिनाइयों को भी हल नहीं कर सकते, उनके भ्रष्ट स्वभावों को ठीक करना तो दूर की बात है। लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का ठीक-ठीक समाधान क्या हो सकता है? सभी लोग जानते हैं कि केवल सत्य ही लोगों के भ्रष्ट स्वभावों की समस्या का समाधान कर सकता है, लेकिन अगर लोग यह नहीं समझते कि सत्य क्या है, या अगर वे सत्य की खोज नहीं करते हैं या स्वीकार नहीं करते हैं तो क्या उनके भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो सकता है? (नहीं।) इसलिए, किसी के भ्रष्ट स्वभाव के निराकरण के लिए उसे परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना चाहिए। कहने का मतलब यह है कि केवल परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करके ही किसी का भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध किया जा सकता है। इस हेतु लोगों को सत्य प्राप्त करने की चेष्टा करने के लिए और परिणाम प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के कार्य में सहयोग करने की आवश्यकता होगी। यदि तुम सत्य के लिए प्रयत्नशील नहीं होते और केवल आध्यात्मिक सिद्धांतों को समझने पर ध्यान केंद्रित करते हो, तथा बिना यह जाने कि वे सत्य हैं या नहीं, उन्हें सत्य के रूप में स्वीकार करते हो, तो क्या इससे तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान हो सकता? इसके अलावा, यदि तुम सत्य को नहीं समझते, तो क्या जब तुम अपना कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करोगे, तब उसे समझ सकोगे? क्या तुम परमेश्वर के वचनों से इसकी तुलनात्मक जांच कर सकते हो? तुम ऐसा बिलकुल नहीं कर सकते। तुम आँख मूँद कर विनियम लागू कर सकते हो, जो तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने में और भी असमर्थ है। भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करने में सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों को सच्चाई समझनी चाहिए। अभी, अधिकांश लोग सिद्धांतों को सत्य मानते हैं और यह नहीं समझते कि सत्य क्या है। वैसे ही, जैसे कि मैंने अभी अनुभूतियों वाले उदाहरण में उल्लेख किया था, माँ की दृष्टि में पहली बात अपने बच्चे को दुर्व्यवहार से बचाना था, जो उचित है। तुम लोगों के दृष्टिकोण से, “ये अनुभूतियां हैं; तुम ऐसा नहीं कर सकते। इस तरह के व्यवहार की आलोचना और निंदा की जानी चाहिए।” तुम लोग उन चीजों को परिभाषित करते हो जिनमें सत्य शामिल नहीं है, जो सत्य से असंबंधित हैं, और वास्तव में कुछ ऐसी चीजें जो लोगों को स्वाभाविक रूप से करनी चाहिए, उन्हें सत्य का उल्लंघन करने वाली बातों के रूप में परिभाषित करते हो, और फिर उन चीजों को नकार देते हो। तुम लोग सोचते हो कि इस सिद्धांत का पालन करना सत्य का अभ्यास करना है। और जहाँ तक अपने बच्चे द्वारा दूसरे के बच्चों को डराने-धमकाने की बात को नज़रअंदाज़ करने वाले माँ के दूसरे दृष्टिकोण की बात है, तो जब वास्तव में भ्रष्ट स्वभाव उजागर करने और सत्य का अभ्यास करने का कोई मामला होता है, तो तुम सोचते हो, “जब तक वह बुरा काम नहीं कर रहा है, तब तक यह कोई बड़ी समस्या नहीं है।” तुम लोगों के विचार और समझ ऐसी क्यों है? (क्योंकि हम सत्य को नहीं समझते हैं।) समस्या इसमें है! तो, चूंकि वे सत्य को नहीं समझते, इसलिए बहुत बार लोग वही दृष्टिकोण अपनाते हैं जिसे वे सही मानते हैं, और सोचते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। सत्य को नहीं समझने के कारण कई बार लोग केवल विनियमों को अपना सकते हैं और उनका पालन कर सकते हैं, पर जब किसी मामले का सामना करना पड़े, तो वे नहीं जानते कि इससे कैसे पार पाना है क्योंकि वे विनियमों का पालन करने को सत्य का अभ्यास करने के समान मानते हैं। क्या परमेश्वर में इस तरह से आस्था रखने वाले लोग जीवन में प्रगति कर सकते हैं? क्या उन्हें सत्य की समझ हासिल हो सकती है और वे वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? बहुत से लोग मानते हैं कि शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करने में सक्षम होने का अर्थ सत्य को समझना और परमेश्वर में पर्याप्त विश्वास करने वाला होना है। फिर, वे अभी भी कई मामलों में भ्रष्ट स्वभाव क्यों प्रकट करते हैं? वे अपने सामने आने वाली व्यावहारिक समस्याओं का समाधान क्यों नहीं कर पाते? इससे साबित होता है कि शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करने में सक्षम होना सत्य को समझना बिलकुल नहीं है। तुम कितने ही सिद्धांतों के बारे में बात कर लो, इससे यह साबित नहीं होता कि तुमने सत्य को प्राप्त कर लिया है। तुम्हें व्यावहारिक समस्याओं को हल करने और अभ्यास के सिद्धांतों को खोजने में सक्षम होना चाहिए। केवल यही सत्य को वास्तव में समझना है। बहुत से लोग सोचते हैं कि जब तक वे अपने कर्तव्यों का पालन करने में, कष्ट सहने में और कीमत चुकाने में सक्षम हैं, तब तक वे चाहे कितने भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें, वह कोई बड़ी समस्या नहीं है। वे सोचते हैं कि जब तक वे अपने कर्तव्य निभाते हैं, कष्ट सहते हैं, और परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करते, तब तक वे परमेश्वर से प्रेम कर रहे हैं और उसके प्रति वफादारी दिखा रहे हैं। लोगों में सत्य की समझ न होने के कारण कई बार ऐसा होता है कि वे कुछ नेक इरादे दिखाते हैं, लेकिन वास्तव में वे कलीसिया का काम बाधित कर रहे होते हैं और परेशानी खड़ी कर रहे होते हैं, फिर भी उन्हें लगता है कि वे परमेश्वर और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा कर रहे हैं। यह क्या हो रहा है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि लोग सत्य को नहीं समझते और उनके पास सत्य का व्यावहारिक ज्ञान नहीं होता, जिसके कारण वे लगातार ऐसे काम करने की ओर खिंचते जाते हैं जो सत्य के विपरीत होते हैं। इस दौरान वे सोचते हैं कि वे सही काम कर रहे हैं, कि उन्होंने सत्य का अभ्यास किया है, और कि उन्होंने परमेश्वर के इरादों के अनुरूप काम किया है। यही उनकी सबसे बड़ी कठिनाई है। यद्यपि यह एक कठिनाई है, पर हमेशा इसे हल करने का एक तरीका होता है। इसका एकमात्र तरीका यह है कि जब किसी समस्या का सामना करते हुए भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो, तो आत्ममंथन जरूर करो और सत्य की खोज करो ताकि उसे समझ सको। जब तक तुम्हारे भीतर भ्रष्ट स्वभाव हैं, तब तक तुम्हारे भीतर तरह-तरह की दशाएं उत्पन्न होती रहेंगी। जब लोग अलग-अलग वातावरण और दशाओं में रहते हैं, तो वे कुछ विचार, दृष्टिकोण और इरादे प्रकट करते हैं—ये उनकी सच्ची आंतरिक दशाएं हैं। लोगों के विचारों, दृष्टिकोणों और इरादों का प्रेक्षण करके तुम उनके स्वभाव को देख सकते हो और जान सकते हो कि उनकी प्रकृति क्या है। आत्ममंथन करने और इस तरह से दूसरों के बारे में विचार करने के माध्यम से परिणाम प्राप्त करना आसान होता है। केवल अपने स्वयं के भ्रष्ट स्वभावों को जानने और उनके सार को अच्छी तरह से समझने पर ही तुम अपने आप को जानने के विषय में पूरे परिणाम प्राप्त कर सकते हो। उस स्थिति में तुम्हारे पास स्वाभाविक रूप से एक रास्ता होगा कि तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों के समाधान के लिए सत्य की खोज कैसे करनी चाहिए। लोग जब तक सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, तब तक उनके भ्रष्ट स्वभावों को शुद्ध किया जा सकता है, और उनके भ्रष्टाचार की समस्या को आसानी से हल किया जा सकता है। यदि लोग सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते, तो वे कभी भी अपने जीवन के स्वभाव में बदलाव नहीं कर पाएंगे। अब, तुम सब सत्य को पाने के लिए प्रयास करने के इच्छुक हो, इसलिए तुम्हें अपना ध्यान सत्य पर केंद्रित करना चाहिए।

लोगों की प्रकृति का समाधान करने के लिए हमें इसे लोगों के काम करने के तरीकों के बजाय उसकी जड़, उनके स्वभावों से समझना चाहिए। हमें वस्तुनिष्ठ कारणों और स्थितियों पर भी जोर नहीं देना चाहिए, बल्कि हमें इसकी तुलना सत्य से करनी चाहिए। परमेश्वर के वचनों में व्यक्त सत्य लोगों के भ्रष्ट स्वभावों पर केंद्रित होता है। अनुभूतियों का उदाहरण लें जिनका जिक्र पहले किया जा चुका है : लोग सोचते हैं कि कभी-कभी अपने माता-पिता की याद आना या घर की याद आना अनुभूतियाँ हैं। क्या ये वही बातें हैं जिन्हें परमेश्वर अनुभूतियों के रूप में संदर्भित करता है? (नहीं।) तब तुम जिन अनुभूतियों को समझते हो, वे वैसी ही नहीं हैं जिनके बारे में परमेश्वर बात करता है। तुम जिन अनुभूतियों के बारे में बात करते हो, वे सामान्य मानवीय अवस्थाओं से संबंधित हैं, उनका संबंध किसी भ्रष्ट स्वभाव से नहीं है। यदि तुम अपने दैहिक संबंधियों के साथ मूर्तियों जैसा व्यवहार करते हो और यह तुम्हारे परमेश्वर का अनुसरण या उसे समर्पण न करने का कारण बनता है, तो तुम्हारी अनुभूतियाँ बहुत प्रबल हैं, और इसका संबंध भ्रष्ट स्वभाव से है। इसलिए इसमें यह मुद्दा शामिल है कि क्या तुम्हें सत्य की शुद्ध समझ है। तुम जिस बात को घर की याद या किसी के माता-पिता के प्रति थोड़ी दयालुता को अनुभूतियों के रूप में देखते हो, तो क्या यह सत्य की विकृत समझ नहीं है? वास्तव में तुम जो समझते हो वह सत्य नहीं है और सत्य के अनुरूप भी नहीं है; यह मात्र एक बाहरी परिघटना है। परमेश्वर किन अनुभूतियों की बात करता है? व वह दूसरा दृष्टिकोण हैं कि जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है कि एक माँ अपने बच्चे से किस तरह का व्यवहार करती है, जो पक्षपात की स्थिति और किसी को सिद्धांतहीन संरक्षण देना साबित करता है। ये वे अनुभूतियाँ हैं जिन्हें परमेश्वर उजागर करता है—इस मामले में माँ द्वारा भ्रष्ट स्वभाव का प्रकाशन है। क्या वे दोनों दृष्टिकोण सिरे से ही भिन्न नहीं हैं? पहला दृष्टिकोण एक सामान्य घटना है और उसकी काट-छाँट करने की कोई आवश्यकता नहीं है, न ही उसकी गहराई में जाने, उसका विश्लेषण करने की आवश्यकता है, सत्य से उसकी तुलना करने या सत्य के किसी निश्चित पहलू का अभ्यास करने या किसी चीज को छोड़ने की तो और भी आवश्यकता नहीं है। तो फिर क्या यह दृष्टिकोण उचित है? क्या इस तरह से कार्य करना आवश्यक है? यह आवश्यक नहीं है; इस दृष्टिकोण में कुछ भी सही या गलत नहीं है। दूसरे दृष्टिकोण में एक स्वभाव शामिल है। अनुभूतियों की किस प्रकार की अभिव्यक्ति में भ्रष्ट स्वभाव शामिल होते हैं? (पक्षपात, दूसरों की सिद्धांतहीन सुरक्षा, देह के रिश्तों को बनाए रखना और न्याय का अभाव।) ये वो चीजें हैं जो परमेश्वर द्रारा कहे जाने वाले “अनुभूतियाँ” शब्द में शामिल होती हैं। यदि तुम इतना समझ सकते हो और सचमुच इन चीजों से खुद को जोड़ सकते हो, तो तुम्हें इन भ्रष्ट स्वभावों को हल करने का प्रयास करना चाहिए। तुम्हारे सभी कार्य केवल तभी सत्य का अभ्यास हो सकते हैं जब तुम इन अनुभूतियों से विवश नहीं होते। तब तुम जिन दशाओं को अनुभूतियों में शामिल मानते हो वे परमेश्वर द्वारा कहे गए “अनुभूतियों” शब्द के बिलकुल अनुरूप होंगी। यही वह सत्य है जिसे तुम समझोगे। यदि तुमसे इस बारे में संगति करने के लिए कहा जाए कि अनुभूतियाँ क्या हैं और तुम माँ के पहले दृष्टिकोण के बारे में बोलते हो, तो यह सत्य को न समझने की अभिव्यक्ति है। यदि तुम माँ के दूसरे दृष्टिकोण के बारे में संगति करते हो और उसके भ्रष्ट स्वभाव का विश्लेषण करते हो, तो तुम सत्य को समझते हो। यदि तुम जिन चीजों के बारे में संगति करते हो, जिनका अनुभव करते हो और समझते हो, वे परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुरूप हैं और उनमें कोई विरोधाभास या असंगति नहीं है, तो इससे साबित होता है कि तुम परमेश्वर के वचनों को समझते हो, कि तुमने उनका अर्थ समझ लिया है, और कि तुम उनका अभ्यास कर कार्यान्वित कर सकते हो। तब तुमने सत्य और जीवन प्राप्त कर लिया होगा और इसका तात्पर्य यह है कि तुम पहले ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुके होगे। उस समय जब तुम इस प्रकार की चीज को दोबारा देखोगे, तो तुम इसे पहचानने में सक्षम होगे और तुम जान जाओगे कि किस प्रकार के प्रकाशन सामान्य हैं और किस प्रकार के प्रकाशन भ्रष्ट स्वभाव के हैं, और तुम अपने हृदय में इस बारे में पूरी तरह स्पष्ट रहोगे। इस तरह क्या तुम्हारे कार्य सटीक नहीं होंगे? क्या तुम्हारे कार्य सत्य के अनुरूप नहीं होंगे? क्या तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं होगी? यदि तुम सटीकता से कार्य करते हो और सत्य को समझते हो, तो क्या तुम्हारी समझ और अनुभव जिस पर तुम संगति करते हो, दूसरों की मदद करने और उनकी कठिनाइयों को हल करने में सक्षम नहीं होंगे? (होंगे।) यही सत्य का व्यावहारिक पक्ष है।

कुछ लोग खराब काबिलियत के कारण अपने कर्तव्यों का भली-भाँति निर्वाह नहीं करते, लेकिन वे हमेशा दावा करते हैं कि ऐसा उनमें अंतरात्मा की कमी के कारण होता है। कौन सी व्याख्या सटीक है? (यह कि उनकी काबिलियत खराब है।) कभी-कभी जब कोई व्यक्ति कोई कर्तव्य निभा रहा होता है, तो वह संबंधित पेशेगत ज्ञान की मूलभूत बातें जान सकता है, लेकिन वह उसके अधिक उन्नत पहलुओं को नहीं समझ पाता क्योंकि उसने उन बातों को पहले कभी नहीं सीखा होता। उनका अगुआ उन पर बेमन से काम करने वाला, झूठा और काम से भागने वाला होने का ठप्पा लगाता है, लेकिन वास्तव में उनमें केवल पेशेवर ज्ञान की कमी होती है और उन्होंने अभी तक उन चीजों को नहीं सीखा है, लेकिन वे पहले से ही अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर रहे हैं। फिर भी उनका अगुआ कहता है कि वे बेमन से काम करने वाले हैं—यह बात तथ्यों के अनुरूप नहीं है। यह शब्दों का अंधाधुंध प्रयोग और अंधाधुंध लेबलिंग है। लोग दूसरों के प्रति अंधाधुंध शब्दों का प्रयोग और अंधाधुंध लेबलिंग क्यों करते हैं? क्या ऐसा इसलिए नहीं है कि वे सत्य को नहीं समझते? कुछ लोग निश्चित रूप से हाँ कहेंगे, कुछ लोग कहेंगे कि ऐसा इसलिए है कि उनकी काबिलियत खराब है और वे बहुत उलझाव का शिकार हैं और कुछ दूसरे लोग कहेंगे कि ऐसा इसलिए है क्योंकि उनकी मानवता बहुत बुरी है और उनके इरादे गलत हैं। कौन सी व्याख्या सही है? वास्तव में ये तीनों दशाएँ मौजूद होती हैं और कोई निर्णय विशिष्ट मामले के अनुसार ही लिया जाना चाहिए। यदि ऐसा उनके सत्य को न समझने के कारण हुआ है, लेकिन कोई कहता है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनकी काबिलियत खराब है और वे बहुत भ्रमित हैं, तो ये शब्द सही नहीं हैं। यदि यह स्पष्ट रूप से उनकी दुष्ट मानवता और गुप्त उद्देश्यों के कारण हो, लेकिन कोई कहे कि ऐसा इसलिए है कि उनकी काबिलियत खराब है और वे बहुत भ्रमित हैं, तो यह तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना है और इससे बुरे लोगों को बच निकलने में मदद मिल सकती है। ऐसे दूसरे मामले भी हैं जो लोगों द्वारा सत्य को न समझने के कारण होते हैं, लेकिन दूसरे लोग कहते हैं कि ये उन लोगों की बुरी मानवता के कारण हुए हैं। चीजों को देखने का यह तरीका सही नहीं है और संभव है कि वे अच्छे लोगों के साथ बुरे लोगों जैसा व्यवहार करें, जिसके बुरे परिणाम होंगे। ऐसे बहुत से लोग हैं जो इन चीजों में भेद नहीं कर पाते और समस्या के सार को पूरी तरह से नहीं समझ पाते। वे आँख मूँद कर विनियम लागू करते हैं और अपने विचारों के आधार पर निष्कर्ष निकालते हैं और तब महसूस करते हैं कि उनमें विवेक है और वे चीजों को साफ-साफ देख सकते हैं। क्या यह अहंकार और आत्मतुष्टता नहीं है? यदि किसी की मानवता खराब है और वह अपने गुप्त इरादों के आधार पर लोगों पर अंधाधुंध ढंग से ठप्पे लगाता है और उनकी निंदा करता है, तो यह बुरे व्यक्ति की प्रकृति है। ऐसे लोग कम हैं; अधिकांश लोग इस प्रकार का कार्य इसलिए करते हैं क्योंकि वे सत्य को नहीं समझते। जो लोग सत्य को नहीं समझते वे अंधाधुंध ढंग से विनियम लागू करते हैं और अंधाधुंध ढंग से आध्यात्मिक वचनों का प्रयोग करते हैं। उदाहरण के लिए कुछ लोगों की मानवता में स्पष्ट रूप से समस्या होती है, वे हमेशा काम में ढील देने के तरीकों की तलाश में रहते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करते समय कोई कोशिश नहीं करते, लेकिन नासमझ लोग इसे खराब काबिलियत का मामला बताते हैं। कुछ लोगों में स्पष्ट रूप से न्याय की भावना होती है और जब वे सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाली कोई चीज देखते हैं, तो वे उसे सामने लाते हैं और कलीसिया के हितों की रक्षा करते हैं, लेकिन सत्य को न समझने वाले लोग उन्हें अक्सर अहंकारी और आत्मतुष्ट करार देते हैं और यहाँ तक कि उनके साथ बुरे लोगों जैसा व्यवहार किया जाता है, जो वास्तव में अच्छे लोगों के प्रति अन्याय है। कुछ लोगों का आध्यात्मिक कद स्पष्ट रूप से छोटा होता है और वे अपनी अनुभूतियों से विवश होकर क्षणिक रूप से कमजोर हो जाते हैं, और जो लोग सत्य को नहीं समझते वे उन लोगों को बहुत कठोर भावनाओं वाले और परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हृदय न रखने वाले व्यक्तियों के रूप में दिखाते हैं। जिन लोगों में सत्य का अभाव होता है वे ऐसे ही होते हैं—पृष्ठभूमि या वास्तविक स्थिति पर विचार किए बिना वे अंधाधुंध ढंग से विनियम लागू करते रहते हैं, एक पल में एक बात तो अगले ही पल दूसरी बात कहते हैं। क्या ऐसे लोग समस्याओं के हल के लिए सत्य का उपयोग कर सकते हैं? (वे नहीं कर सकते।) जब सत्य को न समझने वाले लोग समस्याओं को हल करने का प्रयास करते हैं, तो वे सही उपाय नहीं कर पाते। उनके प्रयास ऐसे होते हैं जैसे वे पेट दर्द से पीड़ित व्यक्ति के इलाज की कोशिश में उसके सिर का इलाज कर रहे हों; वे समस्या की जड़ ही नहीं तलाश पाते। वे नहीं समझते कि समस्या की जड़ कहाँ है या परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं और क्या संदर्भित करते हैं। यह सत्य को समझना नहीं है। क्या अब तुम लोग सत्य को बहुत ज्यादा या थोड़ा बहुत समझते हो? (थोड़ा सा।) उदाहरण के लिए मान लो कि कोई पूछता है, “जब यह मामला तुम पर पड़ता है, तो तुम समर्पण क्यों नहीं करते?” लोग अक्सर जवाब में कहते हैं, “क्योंकि मैं परमेश्वर को नहीं जानता!” क्या यह स्पष्टीकरण सही है? कभी-कभी यह सही होता है और कभी-कभी नहीं। अधिकांश मौकों पर यह सही नहीं होता और यह केवल अंधाधुंध ढंग से ठप्पा लगाना है। लोग आध्यात्मिक शब्दावली को थोड़ा सा समझ लेते हैं और फिर उसे लागू करके उसका अंधाधुंध प्रयोग करते हैं और परिणामस्वरूप अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। कुछ गलत व्याख्याएँ होती हैं और कुछ निर्णय होते हैं और इसके हानिकारक परिणाम उत्पन्न होते हैं और यहाँ तक कि अराजकता भी पैदा होती है। जिन लोगों को आध्यात्मिक समझ नहीं होती, जब वे कुछ सीख जाते हैं तो उसे लागू करके उसका अंधाधुंध उपयोग करते हैं। उनमें गलतियाँ करने की संभावना सबसे अधिक होती है और वे बार-बार सैद्धांतिक गलतियाँ कर सकते हैं। वहीं जिन लोगों में समझने की क्षमता है, वे कुछ गलतियाँ कर सकते हैं, लेकिन वे गलतियाँ सिद्धांत का मसला नहीं होतीं और वे उन गलतियों से सबक सीख सकते हैं। यदि लोगों की समझ बेतुकी है, यदि वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय उनकी गलत व्याख्या करते हैं, यदि धर्मोपदेश सुनते समय उनकी समझ में विचलन होता है और यदि वे गलतियाँ निकालने और छोटे-छोटे दोष गिनाने वाले हैं, तो यह बहुत परेशान करने वाली बात है। उनके लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना न केवल असंभव है, बल्कि समय के साथ वे ऊलजलूल तरीके से काम करने लगेंगे और कलीसिया के काम में व्यवधान पैदा करेंगे। यह एक गंभीर परिणाम होता है।

अब तुम लोगों को विचार करना चाहिए : तुम अक्सर जिन वचनों, सिद्धांतों और आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में बात करते हो, क्या वे सत्य हैं? क्या तुम लोग सत्य को समझते हो या तुम केवल धर्म-सिद्धांतों को समझते हो? कितनी सत्य वास्तविकताएँ तुम लोगों की समझ के दायरे में हैं? एक बार जब तुम इन बातों को समझ लोगे तो तुम्हें वास्तव में आत्म-ज्ञान हो जाएगा और तुम्हें अपना माप स्वयं पता चल जाएगा। उदाहरण के लिए, तुम लोगों ने ईमानदार व्यक्ति कैसे बनें के सत्य पर बहुत सारी संगति की है, लेकिन क्या तुमने वास्तव में उन्हें समझा है? संभव है कि तुम लोग कुछ वचनों पर संगति कर सकते हो और कुछ समझ के बारे में बात कर सकते हो, लेकिन तुम लोगों ने इनमें से कितनी वास्तविकताओं में प्रवेश किया है? क्या अब तुम लोग वास्तव में ईमानदार व्यक्ति हो? क्या तुम इस बारे में स्पष्ट रूप से बोल सकते हो? कुछ लोग कहते हैं, “ईमानदार व्यक्ति होने का अर्थ है झूठ न बोलना, जो तुम्हारे दिल में हो वही कहना, कुछ भी न छिपाना और किसी चीज से न बचना। यह ईमानदार व्यक्ति होने का मानक है।” तुम इस कथन के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) तुम शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोल सकते हो, लेकिन जब अभ्यास के विवरणों या विशिष्ट समस्याओं की बात आती है, तो तुम्हारे पास शब्द नहीं होते। यह सत्य को समझना नहीं है। लोग सत्य को नहीं समझते, लेकिन वे हमेशा सोचते हैं, “मैं पहले से ही बहुत कुछ समझता हूं, लेकिन परमेश्वर मेरा उपयोग नहीं करता। यदि परमेश्वर मेरा उपयोग करे और मैं कलीसिया का अगुआ बन जाऊँ, तो मैं यह सुनिश्चित कर सकता हूँ कि हर भाई-बहन की समझ में सत्य आ जाए।” क्या यह बहुत बड़ी बात नहीं है? क्या तुममें सचमुच वह क्षमता है? क्या डींगें हाँकने और शेखी मारने वाले ईमानदार लोग हैं? ये लोग सत्य को नहीं समझते, फिर भी डींगें हाँकते और शेखी बघारते हैं—क्या वे दयनीय नहीं हैं? (हाँ, वे दयनीय हैं।) तुम लोग अब कई धर्मोपदेश सुन रहे हो, लेकिन यदि तुम लोग सत्य को कभी नहीं समझते, तो देर-सबेर तुम फरीसियों के समान मार्ग पर चलोगे और तब तुम लोग आधुनिक फरीसी बन जाओगे। क्या यह संभावना नहीं है? (हाँ।) इसकी पूरी संभावना है। लोगों की शैतानी प्रकृतियाँ गहराई तक व्याप्त हैं। यदि वे थोड़ा ज्ञान या शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं, और कुछ सही सिद्धांतों और ऊँचे धर्मोपदेशों का उपदेश दे सकते हैं, तो बहुत संभावना है कि वे फरीसी बन जाएँगे। यदि तुम फरीसी नहीं बनना चाहते या फरीसी के मार्ग पर नहीं चलना चाहते, तो इससे बचने का एकमात्र तरीका है सत्य को समझने और वास्तविकता में प्रवेश करने का प्रयास करना, और जिन सिद्धांतों को तुम समझते हो उन्हें सत्य की वास्तविकता में बदलना। तो एक ईमानदार व्यक्ति होने के सत्य को वास्तव में समझना क्या माना जाता है? तुम लोगों को स्वयं इस पर विचार करना चाहिए और जब तुम्हारे पास कुछ खाली समय हो तो इस पर संगति करनी चाहिए। एक ईमानदार व्यक्ति ठीक-ठीक क्या होता है? परमेश्वर के वचनों में वह जिन ईमानदार लोगों की बात करता है, उन लोगों से कौन से मानक अपेक्षित हैं? परमेश्वर द्वारा वांछित इन मानकों में से किनका लोग अभ्यास कर सकते हैं? परमेश्वर जिस ईमानदार व्यक्ति की बात करता है, वह कैसा होता है? एक ईमानदार व्यक्ति होना लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के किस पहलू को लक्षित करता है? क्या ये प्रश्न गहराई से विचार करने लायक नहीं हैं? परमेश्वर लोगों से जिन वचनों और सत्यों का अभ्यास करने की अपेक्षा करता है, उनका लक्ष्य लोगों के काम करने के तरीकों या व्यवहार पर केंद्रित नहीं है। वे लोगों की शैतानी प्रकृति और स्वभावों पर लक्षित हैं। इसीलिए ये वचन सत्य कहे जाते हैं। यदि उनका एकमात्र उद्देश्य लोगों के व्यवहार को बदलना और लोगों को सोचना सिखाना होता, तो वे सत्य नहीं होते, केवल एक प्रकार का सिद्धांत होते। यह कहा जा सकता है कि कोई भी शिक्षक लोगों पर थोड़ा प्रभाव डालकर उनके व्यवहार में थोड़ा बदलाव ला सकता है, और इन शिक्षाओं को व्यवहार में लाकर और उनका सारांश देकर लोगों के व्यवहार को धीरे-धीरे नियंत्रित किया जा सकता है। इस प्रकार का ज्ञान बहुत सारा है, लेकिन ये बातें सत्य नहीं हैं, क्योंकि ये लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं कर सकती हैं, न ही वे उनके पापों की जड़ की समस्या का समाधान कर सकती हैं। केवल परमेश्वर के वचन ही लोगों को शुद्ध कर सकते हैं और उनकी भ्रष्टता का निवारण कर सकते हैं, केवल परमेश्वर के वचन ही लोगों की शैतानी प्रकृति का पूरी तरह से समाधान कर सकते हैं, और इसलिए केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। परमेश्वर के वचनों के सत्य का वास्तविक महत्व क्या है? यह मनन करने, विचार करने और अक्सर औरों के साथ मिलकर संगति करने लायक बात है। इसे कभी न भूलो : जो चीजें केवल लोगों का व्यवहार बदल सकती हैं वे सत्य नहीं हैं; वे केवल ज्ञान और नियम हैं। सत्य न केवल लोगों के व्यवहार को बदल सकता है बल्कि उनके भ्रष्ट स्वभावों को भी बदल सकता है। इसके अलावा यह उनके विचारों और धारणाओं को बदल सकता है और किसी व्यक्ति का जीवन बन सकता है। वह सत्य है। अब ऐसे बहुत कम लोग हैं जो इस मामले को साफ तौर पर देख सकते हों। कई लोगों को कभी एहसास ही नहीं होता कि जो चीजें व्यवहार को नियंत्रित करती हैं और लोगों को बाहरी रूप से अच्छा जीवन जीने लायक बनाती हैं, वे सत्य नहीं होतीं, और वे सभी ज्ञान, सिद्धांत और शैतानी फलसफे हैं। जब लोग उन चीजों को स्वीकार करते हैं, तो यद्यपि उनका बाहरी व्यवहार तेजी से श्रेष्ठ, सम्मानजनक और परिष्कृत हो जाता है, परंतु उनके हृदय कपट और दुष्टता से भर जाते हैं और काले से काले होते जाते हैं। ये चीजें शैतान के जहर और सिद्धांत हैं, ऐसी चीजें हैं जिनका उपयोग शैतान लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करने के लिए करता है। वे बिल्कुल भी सत्य नहीं हैं और वे परमेश्वर की ओर से नहीं आतीं। केवल सत्य ही वह चीज है जो लोगों को ईमानदार, मुक्त और स्वतंत्र बनने में सक्षम बनाता हैं, जो उन्हें सृष्टिकर्ता को जानने में सक्षम बनाता हैं, परमेश्वर से डरने वाले हृदय से युक्त बनाता हैं, और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित बनाता है। चाहे तुम जिस दृष्टिकोण को स्वीकार करो और चाहे तुम जिस रास्ते पर चलो, अगर तुम्हारा व्यवहार सुधरता है और तुम लोकप्रियता हासिल करते हो, लेकिन तुम्हारा हृदय परमेश्वर से बहुत कम डरता है, और परमेश्वर में सच्चा विश्वास बहुत कम है, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता बहुत खराब है, और तुम्हारा दिल परमेश्वर से और दूर चला जाता है, तो जिन चीजों से तुम चिपके हो, वे सकारात्मक चीजें नहीं हैं और वे निश्चित रूप से सत्य नहीं हैं। यदि तुम कोई रास्ता या जीवन मार्ग चुनते हो और तुम कुछ चीजों को स्वीकार करते हो और ये चीजें तुम्हें वास्तविक और ईमानदार बनाती हैं और तुम्हें सकारात्मक चीजों से प्यार करने वाला और दुष्ट तथा नकारात्मक चीजों से नफरत करने वाला बनाती हैं, और तुममें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय विकसित करती हैं, और तुम्हें स्वेच्छा से सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करने वाला बनाती हैं, तो वे चीजें सत्य हैं और वे वास्तव में परमेश्वर की ओर से आई हैं। तुम लोग इन मानकों के अनुसार चीजों को माप सकते हो। कुछ धर्म-सिद्धांत ऐसे हैं जिन्हें कहने में बहुत से लोग सक्षम हैं और वर्षों से कहते आ रहे हैं। हालाँकि इन बातों को कई बार कहने के बाद भी लोगों के आंतरिक स्वभाव नहीं बदले हैं, उनकी अवस्थाएँ जरा भी नहीं बदली हैं और लोगों के दृष्टिकोण, सोचने के तरीके और उनके कार्यों के पीछे के शुरुआती बिंदु और इरादों में किसी भी तरह का बदलाव नहीं आया है। तो तुम्हें जल्दी से उन चीज़ों को छोड़ना चाहिए और उनसे चिपकना बंद कर देना चाहिए; वे निश्चित रूप से सत्य नहीं हैं। जब लोग पहली बार कुछ वचनों का अभ्यास करना शुरू करते हैं, तो ऐसा करना भारी और कठिन लगता है और वे सिद्धांतों को समझ नहीं पाते। हालाँकि कुछ समय तक उनका अनुभव और अभ्यास करने के बाद उन्हें लगता है कि उनकी आंतरिक स्थिति में सुधार हुआ है, कि उनके हृदय परमेश्वर के करीब आ गए हैं, कि उनके पास परमेश्वर से डरने वाला और परमेश्वर से खौफ खाने वाला हृदय है, कि वे ऐसे नहीं रहे कि कोई मुसीबत आने पर अड़ियल या विद्रोही हो जाएँ, कि उनके व्यक्तिगत इरादे और इच्छाएँ पहले जितनी दृढ़ नहीं रह गई हैं, और कि वे परमेश्वर को समर्पण कर सकते हैं। यह अवस्था सकारात्मक है; ये वचन सत्य हैं और ये सही मार्ग हैं। तुम लोग इन सिद्धांतों के आधार पर चीजों को समझ सकते हो। सत्य को एक वाक्य में परिभाषित करना आसान नहीं होगा। अगर मैं इसे एक वाक्य में परिभाषित करूँ और तुम इसे सुनने के बाद सत्य समझ सको, तो यह अच्छा होगा। लेकिन अगर तुमने इसे एक विनियम और पालन करने योग्य धर्म-सिद्धांत के रूप में देखा, तो यह परेशानी की बात होगी-वह आध्यात्मिक समझ का न होना है। इसलिए मैंने तुम लोगों को ये सिद्धांत दिए हैं और तुम लोगों को इन सिद्धांतों के अनुसार तुलना करना, अनुभव करना, अभ्यास करना और अनुभवात्मक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। बस केवल इन सिद्धांतों के अनुसार कार्य न करो और स्वयं को नियंत्रित न करो, बल्कि इन्हीं सिद्धांतों के अनुसार तुम्हें दूसरे लोगों और चीजों को देखना और लोगों का मूल्यांकन भी करना चाहिए। इस तरीके से अनुभव और अभ्यास करने से तुम्हें पता चल जाएगा कि सत्य क्या है। यदि लोग यह नहीं समझते कि सत्य क्या है, और यदि वे नहीं जानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, तो क्या वे जीवन प्राप्त कर सकते हैं? क्या वे जीवन स्वभाव में परिवर्तन हासिल कर सकते हैं? यद्यपि बाहर से परमेश्वर अपने वचनों में लोगों से जो अपेक्षाएँ रखता है, वे बहुत ऊँचे मानकों की नहीं हैं और वे काफी सरल हैं, यदि तुम यह नहीं समझते हैं कि सत्य का निहित अर्थ क्या है या सत्य में कितना व्यावहारिक तत्व शामिल है, और तुम सत्य को केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के संदर्भ में समझते हो, तो तुम कभी भी सत्य की वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं कर पाओगे जिनमें प्रवेश की परमेश्वर लोगों से अपेक्षा रखता है।

26 मई 2017

फुटनोट :

क. जांगहू चीनी शब्द है जो प्राचीन चीन की युद्ध कलाओं के पेशेवरों और अपराधियों की विलक्षण दुनिया के बारे में बताता है।

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