छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है

परमेश्वर में मनुष्य की आस्था का प्रयोजन क्या है? (बचाया जाना।) उद्धार परमेश्वर में आस्था का एक स्थायी विषय है। तो उद्धार कैसे प्राप्त किया जा सकता है? (सत्य का अनुसरण करके और हमेशा परमेश्वर के सामने जीकर।) यह एक तरह का अभ्यास है। हमेशा परमेश्वर के सामने जीने से क्या हासिल होता है? इसका क्या उद्देश्य है? (परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बनाना।) (परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहना और सत्य को समझकर परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त करना।) और क्या? (सत्य खोजना, सत्य को अपना जीवन बनाना।) ये बातें अक्सर प्रवचनों के दौरान कही जाती हैं, ये आध्यात्मिक वाक्यांश हैं। और क्या है? (परमेश्वर के न्याय, ताड़ना परीक्षणों और शोधन के साथ-साथ उसके हाथों अपनी काट-छाँट का अनुभव करना, ताकि हम इस प्रक्रिया के दौरान अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए आत्मचिंतन कर खुद को जानें और सत्य खोजें, साथ ही परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त कर अंततः सत्य और मानवता युक्त व्यक्ति बनें।) ऐसा लगता है कि तुम लोगों ने पिछले कई वर्षों के प्रवचनों से काफी-कुछ समझ लिया है। तो क्या तुम्हारी समझ में आ चुकीं इन चीजों का उपयोग कुछ वास्तविक समस्याएँ और कठिनाइयाँ हल करने के लिए तुम्हारे अनुभवों में किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, गलत विचार और मत, कभी-कभी की नकारात्मकता और कमजोरी, और साथ ही धारणाओं और कल्पनाओं से संबंधित कुछ मसले : क्या ये चीजें जल्दी से हल की जा सकती हैं? कुछ लोग कुछ छोटी समस्याएँ हल करने में सक्षम हो सकते हैं, लेकिन बड़ी, मूल-कारण वाली समस्याओं से उन्हें भी जूझना पड़ सकता है। सत्यों के बारे में अपनी मौजूदा समझ के स्तर के आधार पर क्या तुम लोग अय्यूब जैसे परीक्षणों का सामना करने पर अडिग रह पाओगे? (हम अडिग रहने का संकल्प तो लेंगे, पर हम नहीं जानते कि अपने साथ वाकई कुछ होने पर हमारा असली आध्यात्मिक कद क्या होगा।) लेकिन तुम्हारे साथ कुछ नहीं भी हो तो क्या तुम्हें अपना असली आध्यात्मिक कद नहीं जानना चाहिए? इसे न जानना खतरनाक है! क्या तुम लोग जानते हो कि बार-बार दोहराई जाने वाली इन आध्यात्मिक कहावतों और ठेठ उक्तियों के व्यावहारिक पहलू क्या हैं? क्या तुम इनमें से प्रत्येक वाक्यांश का वास्तविक निहितार्थ समझते हो? क्या तुम समझते हो कि उनमें मौजूद सत्य आखिर है क्या? अगर तुम इन चीजों को जानते हो और इनका अनुभव कर चुके हो, तो यह सिद्ध करता है कि तुम सत्य समझते हो। अगर तुम सिर्फ कुछ आध्यात्मिक कहावतें और वाक्यांश दोहराने में सक्षम हो, लेकिन अपने साथ वाकई कुछ होने पर ये तुम्हारे किसी काम के न हों और तुम्हारी परेशानियाँ हल न कर सकें तो यह साबित करता है कि परमेश्वर में विश्वास करने के इन तमाम वर्षों के बाद भी तुम सत्य को नहीं समझते और तुम्हारे पास कोई वास्तविक अनुभव नहीं है। मेरे यह कहने का क्या अर्थ है? परमेश्वर में अपने विश्वास में यहाँ तक पहुँचकर लोग धर्मनिष्ठों या अविश्वासियों की तुलना में सत्य को थोड़ा ज्यादा समझते हैं, परमेश्वर के कार्य के कुछ दर्शन समझते हैं और कुछ नियामक मामलों का पालन कर लेते हैं, और कहा जा सकता है कि उनमें परमेश्वर की संप्रभुता को लेकर एक निश्चित समझ और सराहना का भाव होता है, कुछ सच्ची समझ-बूझ होती है—लेकिन क्या इन चीजों से उनके जीवन-स्वभाव में बदलाव आया है? कुल मिलाकर, तुममें से हर कोई उन अक्सर सुने हुए सत्यों के बारे में थोड़ी बात कर सकता है जो दर्शनों से संबंधित हैं : परमेश्वर के कार्य के दर्शन, परमेश्वर के कार्य का प्रयोजन और मनुष्य के लिए परमेश्वर की इच्छा; और जिस ज्ञान की तुम लोग बात करते हो वह धर्मवादियों की तुलना में बहुत ऊँचा होता है—लेकिन क्या यह सब तुम लोगों के स्वभाव में बदलाव ला सकता है, या तुम लोगों के स्वभाव में आंशिक बदलाव भी ला सकता है? क्या तुम लोग इसे मापने में सक्षम हो? यह अत्यंत महत्वपूर्ण है।

हाल ही में इस विषय पर संगति की गई थी कि पृथ्वी पर मौजूद परमेश्वर को वास्तव में कैसे जाना जाए, कैसे पृथ्वी पर मौजूद परमेश्वर के साथ बातचीत की जाए, और कैसे परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध स्थापित किया जाए। क्या ये सबसे व्यावहारिक प्रश्न नहीं हैं? ये सभी सत्य अभ्यास के पहलू से संबंधित हैं और इन चीजों पर संगति करने का उद्देश्य लोगों को यह बताना है कि अपने दैनिक जीवन में परमेश्वर में विश्वास कैसे करना है, कैसे परमेश्वर के साथ बातचीत करनी है और कैसे परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बनाना है। अभ्यास से संबंधित सत्यों के संदर्भ में बात करें तो तुम लोगों ने जिन किन्हीं सत्यों को सुना है, समझा है और जिन्हें तुम अभ्यास में लाने में सक्षम हो, क्या वे सभी तुम लोगों का स्वभाव बदलने में सक्षम हैं? क्या यह कहा जा सकता है कि अगर लोग इस तरह से सत्य को अभ्यास में लाते हैं और वास्तव में उसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं तो वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं; और अगर उन्होंने इन सत्यों को अपनी वास्तविकता बना लिया है, तो वे अपने स्वभाव में बदलाव लाने में सक्षम हैं? (हाँ, कहा जा सकता है।) बहुत-से लोग इस बात से निपट अनजान हैं कि स्वभाव में बदलाव क्या होते हैं। वे सोचते हैं कि बहुत-से आध्यात्मिक सिद्धांतों को दोहरा पाना और बहुत-से सत्यों को समझना स्वभाव में बदलाव दर्शाता है। यह गलत है। किसी सत्य को समझने के बिंदु से लेकर उस सत्य को अभ्यास में लाने और फिर स्वभाव में बदलावों तक जीवन-अनुभव की एक लंबी प्रक्रिया होती है। तुम लोग स्वभाव में बदलाव को कैसे समझते हो? इस मुकाम तक तुम लोगों ने जो कुछ भी अनुभव किया है उसमें, क्या तुम्हारे जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव आया है? तुम लोग शायद इन चीजों को न देख पाओ और यह सब परेशानी की बात है। “स्वभाव में बदलाव” में “बदलाव” शब्द को समझना वास्तव में बहुत कठिन नहीं है, तो फिर “स्वभाव” क्या है? (मानव-अस्तित्व की व्यवस्था, शैतान का जहर।) और क्या? (जो मनुष्य में स्वाभाविक है, जो जीवन के सार में है।) तुम लोग ये आध्यात्मिक शब्द उछालते रहते हो, लेकिन ये सब धर्म-सिद्धांत और रूपरेखाएँ हैं, इनमें कोई विवरण नहीं है। यह सत्य के सार को समझना नहीं है। हम अक्सर स्वभाव में बदलावों की बात करते हैं और ऐसे विषयों पर हमेशा परमेश्वर में लोगों की आस्था की शुरुआत से ही चर्चा की जाती रही है, फिर चाहे वे किसी सभा में भाग ले रहे हों या प्रवचन सुन रहे हों; ये वे चीजें हैं जिन्हें लोगों को परमेश्वर में विश्वास करते समय समझने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन जब यह बात आती है कि आखिर स्वभाव में बदलाव क्या होते हैं, क्या उनके अपने स्वभाव में कोई बदलाव आया है और क्या बदलाव लाना संभव है—कई लोग इन चीजों से अनभिज्ञ हैं, उन्होंने इनके बारे में कभी नहीं सोचा, न ही वे यह जानते हैं कि इनके बारे में सोचना कहाँ से शुरू करें। स्वभाव क्या है? यह एक प्रमुख विषय है। जब तुम इसे समझ जाते हो, तब तुम कमोबेश इस तरह के सवाल समझ पाओगे कि तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव आया है या नहीं, यह किस हद तक बदला है, इसमें कितने बदलाव हुए हैं, और क्या कुछ चीजों का अनुभव करने के बाद तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव हुआ है। स्वभाव में बदलावों पर चर्चा करने के लिए तुम्हें पहले यह जानना चाहिए कि स्वभाव क्या होता है। हर कोई “स्वभाव” शब्द को जानता है, हर कोई इससे परिचित है। लेकिन सभी लोग नहीं जानते कि स्वभाव क्या होता है। वास्तव में स्वभाव क्या होता है, इसे कुछ ही शब्दों में स्पष्ट रूप से नहीं समझाया जा सकता, और इसे किसी संज्ञा के रूप में नहीं समझाया जा सकता, क्योंकि यह बहुत अमूर्त है और समझने में आसान नहीं है। मैं एक उदाहरण देता हूँ, जिससे तुम लोग समझ जाओगे। भेड़ें और भेड़िये दोनों जानवर हैं। भेड़ें घास खाती हैं और भेड़िये मांस खाते हैं। यह उनकी प्रकृति से तय होता है। अगर किसी दिन भेड़ें मांस खा लें और भेड़िये घास खा लें तो क्या उनकी प्रकृति बदल जाएगी? (नहीं।) अगर कोई भेड़ घास न खाए, तो वह बहुत भूखी हो जाएगी। उसे कुछ मांस दोगे तो वह उसे खा लेगी, लेकिन भेड़ फिर भी तुम्हारे प्रति बहुत विनम्र रहेगी। यह स्वभाव है, यह भेड़ का प्रकृति सार है। भेड़ की विनम्रता किस प्रकार दिखती है? (वह लोगों पर हमला नहीं करती।) सही कहा—यह विनम्र स्वभाव है। भेड़ में प्रदर्शित स्वभाव नम्रता और आज्ञाकारिता है। वह शातिर नहीं होती, बल्कि विनम्र और दयालु होती है। भेड़िये अलग होते हैं। उनका स्वभाव शातिर होता है और वे तमाम छोटे जानवरों को खाते हैं। किसी भूखे भेड़िये का सामना करना बहुत खतरनाक होता है, भले ही तुम उसे न भड़काओ, वह तुम्हें खाने की कोशिश कर सकता है। भेड़िये का स्वभाव विनम्र या दयालु नहीं होता, बल्कि क्रूर और भयंकर होता है, जिसमें रत्ती भर भी सहानुभूति या दया नहीं होती। भेड़िये का स्वभाव ही ऐसा है। भेड़ और भेड़ियों के स्वभाव उनका प्रकृति सार को दर्शाते हैं। मैं यह क्यों कहता हूँ? क्योंकि बात चाहे जो भी हो, इन जानवरों में प्रकट होने वाली चीजें इंसानी दखल या उकसावे के बिना स्वाभाविक रूप से प्रकटहोती हैं; उन्हें इंसानी दखल की आवश्यकता नहीं होती, वे स्वाभाविक रूप से प्रकट होती हैं। भेड़ियों की प्रचंडता और क्रूरता मनुष्यों द्वारा उनसे जबरन नहीं निकलवाई जाती, न ही भेड़ों की दयालुता और विनम्रता उनमें मनुष्यों द्वारा डाली जाती है; वे इन चीजों के साथ पैदा हुए थे, ये चीजें स्वाभाविक रूप से प्रकट होती हैं, ये उनका सार हैं। यह स्वभाव है। क्या यह उदाहरण तुम्हें इस बात की कुछ समझ देता है कि स्वभाव क्या होता है? (बिल्कुल।) यह कोई संकल्पनात्मक मामला नहीं है, हम किसी संज्ञा की व्याख्या नहीं कर रहे। इसमें सत्य है। तो, यहाँ सत्य क्या है? मानव-स्वभाव मानव-प्रकृति से संबंधित है। मानव-स्वभाव और मानव-प्रकृति दोनों ही चीजें शैतान की हैं, ये परमेश्वर की विरोधी और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। अगर लोग परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं करते और बदलते नहीं, तो लोग जिसे जीते और स्वाभाविक रूप से प्रकट करते हैं, वह बुराई, नकारात्मक और सत्य के उल्लंघन के अलावा और कुछ नहीं होगा—इसमें कोई संदेह नहीं।

हमने अभी-अभी भेड़ और भेड़ियों के स्वभाव के बारे में बात की। ये दोनों पूरी तरह से अलग जानवर हैं : इनमें अपने स्वभाव और अपनी चीजें प्रकट होती हैं। लेकिन इसका मानव-स्वभाव से क्या संबंध है? इस उदाहरण के माध्यम से फिर से यह देखते हुए कि वास्तव में मानव-स्वभाव क्या है, भ्रष्ट स्वभाव किस प्रकार के होते हैं? (हम आम तौर पर लोगों के साथ बातचीत करके यह जान सकते हैं कि उनका स्वभाव किस तरह का है। उदाहरण के लिए, किसी से बात करते हुए हमें लग सकता है कि वे इस तरह घुमा-फिराकर बोलते हैं, हमेशा गोलमोल बातें करते हैं कि दूसरे यह नहीं बता सकते कि उनका वास्तव में क्या मतलब है, जिसका अर्थ है कि उनका कपटी स्वभाव है। वे आम तौर पर जो कहते और करते हैं, उससे और उनके क्रियाकलाप और व्यवहार से हम एक मोटी समझ ले सकते हैं।) लोगों के साथ बातचीत करके तुम उनके स्वभाव की कुछ समस्याएँ देख सकते हो। ऐसा लगता है कि इस उदाहरण को सुनने के बाद तुम लोगों को एक मोटी समझ मिल चुकी है कि स्वभाव क्या होते हैं। तो सभी लोगों में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव होते हैं? ऐसे कौन-से स्वभाव हैं जिन्हें लोग जानते नहीं और महसूस नहीं कर पाते, फिर भी ये यकीनन भ्रष्ट स्वभाव होते हैं? उदाहरण के लिए मान लो कि कुछ लोग अत्यधिक भावुक हैं और परमेश्वर कहता है, “तुम अत्यधिक भावुक हो। जब किसी ऐसे व्यक्ति की बात हो जिसे तुम पसंद करते हो या जब कोई ऐसी बात हो जिसका संबंध तुम्हारे परिवार से हो तो चाहे जो भी यह समझने की कोशिश करे कि उनकी स्थिति क्या है या वास्तव में क्या चल रहा है, तुम उसके बारे में कुछ नहीं बताते और उसे बचाते रहते हो। यह भावुकता है।” वे इसे सुनते हैं, और इसे समझते, स्वीकारते और तथ्य मानते हैं। वे स्वीकारते हैं कि परमेश्वर के वचन सही हैं, कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और वे इसका खुलासा करने के लिए परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं। क्या इससे उनका स्वभाव देखा जा सकता है? क्या यह स्पष्ट है कि वे सत्य स्वीकारते हैं, तथ्य स्वीकारते हैं, प्रतिरोध नहीं करते और समर्पित हैं? (नहीं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि समस्याओं का सामना करने पर वे कैसे पेश आते हैं और क्या उनकी कथनी-करनी एक है।) तुमने करीब-करीब सही बताया। उस समय वे स्वीकार रहे होते हैं—लेकिन बाद में जब उनके साथ ऐसा कुछ होता है तो उनके कार्य करने के तरीके में कोई बदलाव नहीं आता। यह एक प्रकार के स्वभाव को दर्शाता है। कौन-सा स्वभाव? वे उस समय सुन रहे थे, फिर उन्होंने इसके बारे में सोचा और मन-ही-मन कहा, “इतने सारे उपदेश सुनने के बाद भी मुझे कैसे पता नहीं चलेगा कि मैं भावुक हूँ? मैं भावुक हूँ, लेकिन भावुक कौन नहीं होता? अगर अपने परिवार और अपने करीबी लोगों को मैं नहीं बचाऊँगा तो कौन बचाएगा? एक सक्षम व्यक्ति को भी तीन अन्य लोगों के समर्थन की जरूरत पड़ती है।” वे वास्तव में यही सोचते हैं। जब कार्य करने का समय आता है तो वे अपने हृदय में क्या सोचते हैं और क्या योजना बनाते हैं, और परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया, यह सब उनके स्वभाव से निर्धारित होता है। उनका रवैया कैसा होता है? “परमेश्वर जो चाहे वह कह और उजागर कर सकता है, और उसके सामने होने पर मुझसे जो अपेक्षित है, वह मैं स्वीकारूँगा, लेकिन मैंने मन बना लिया है और अपनी भावनाएँ परे रखने का मेरा कोई इरादा नहीं है।” क्या यही उनका स्वभाव है? उनका स्वभाव खुद सामने आ चुका है और उनका असली चेहरा उजागर हो गया है, है ना? क्या वे सत्य स्वीकारने वाले व्यक्ति हैं? (नहीं।) तो यह क्या है? यह अवज्ञा है। परमेश्वर के सामने वे आमीन कहते हैं और स्वीकृति का ढोंग करते हैं। लेकिन उनका दिल जस-का-तस रहता है। वे परमेश्वर के वचनों को गंभीरता से नहीं लेते, वे उन्हें सत्य नहीं समझते और उन्हें सत्य के रूप में अमल में तो बिल्कुल भी नहीं लाते। यह एक प्रकार का स्वभाव है, है ना? और क्या इस तरह का स्वभाव एक विशेष प्रकार की प्रकृति का खुलासा नहीं है? (बिल्कुल है।) तो इस तरह के स्वभाव का सार क्या है? क्या यह हठधर्मिता है? (हाँ।) हठधर्मिता : यह एक प्रकार का मानव-स्वभाव है और यह सभी लोगों में पाया जाता है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह एक स्वभाव है? यह ऐसी चीज है जो लोगों के प्रकृति सार से उत्पन्न होती है। तुम्हें इसके बारे में सोचना नहीं पड़ता, दूसरों को तुम्हें सिखाना नहीं पड़ता या तुम्हारे विचारों को गढ़ना नहीं पड़ता, न ही शैतान को तुम्हें गुमराह करने की जरूरत पड़ती है; यह स्वभाव तुममें सहज रूप से प्रकट होता है, यह तुम्हारी प्रकृति से उत्पन्न होता है। कुछ लोग चाहे जो भी बुरे काम क्यों न करें, हमेशा शैतान को दोष देते हैं। वे हमेशा यही कहते हैं, “शैतान ने मेरे दिमाग में यह विचार बैठाया, शैतान ने मुझसे ऐसा करवाया।” वे हर बुरी चीज शैतान के सिर पर डाल देते हैं और अपनी प्रकृति की समस्याएँ कभी नहीं स्वीकारते। क्या यह सही है? क्या तुम्हें शैतान गहराई से भ्रष्ट नहीं कर चुका है? अगर तुम इसे नहीं स्वीकारते, तो ऐसा कैसे है कि तुममें शैतान का स्वभाव प्रकट हुआ है? बेशक, ऐसे दौर भी आते हैं जब शैतान गड़बड़ियां पैदा करता है जिसमें किसी दुष्ट व्यक्ति या मसीह-विरोधी से लोगों को गुमराह कर उन्हें कुछ करने के लिए उकसाना शामिल है, या जब कोई दुष्ट आत्मा काम कर उन्हें विचार भेजती है—लेकिन ये सिर्फ अपवाद हैं; अधिकांश समय लोग अपनी शैतानी प्रकृति के अनुसार चलकर तमाम तरह के भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं। जब लोग अपनी-अपनी पसंद और झुकाव के अनुसार कार्य करते हैं, जब वे अपने ही साधनों, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार कार्य करते हैं तब वे अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जी रहे होते हैं, और जब वे इन चीजों के अनुसार जी रहे होते हैं तो वे अपनी प्रकृति के अनुसार जी रहे होते हैं। ये निर्विवाद तथ्य हैं। जब लोग अपनी शैतानी प्रकृति से संचालित होते हैं, जब वे अपनी शैतानी प्रकृति के अनुसार जीते हैं, तो उनमें जो कुछ भी प्रकट होता है वह उनका भ्रष्ट स्वभाव है; इसे शैतान के सिर पर नहीं डाला जा सकता, तुम यह नहीं कह सकते कि ये शैतान के भेजे विचार हैं। लोग गहराई से भ्रष्ट हो चुके हैं, इसलिए वे शैतान के हैं, और चूँकि लोग शैतान से अलग नहीं हैं, और वे जीते-जागते राक्षस हैं, जीते-जागते शैतान हैं, इसलिए तुम्हें अपने भीतर प्रकट होने वाली हर शैतानी चीज शैतान के सिर पर नहीं डालनी चाहिए। तुम कोई शैतान से अलग नहीं हो, और यही तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव है।

जब लोगों का हठी स्वभाव होता है तो उनकी कैसी मनोदशा होती है? वे मुख्य रूप से जिद्दी और आत्मतुष्ट होते हैं। वे हमेशा अपने ही विचारों से चिपके रहते हैं, हमेशा अपनी ही बात को सही मानते हैं और निहायत कड़े और दुराग्रही होते हैं। यह हठधर्मिता का रवैया है। वे पुराने जमाने के किसी घिसे-पिटे रिकार्ड की तरह एक ही रट लगाए रहते हैं, किसी की नहीं सुनते, कोई कार्य पद्धति चाहे सही हो या गलत उसी पर अड़े रहते हैं, उसे ही अपनाने पर जोर देते हैं; उनमें थोड़ा-सा भी बदलने की भावना नहीं होती। जैसी कि कहावत है, “मरे हुए सूअर उबलते पानी से नहीं डरते।” लोग अच्छी तरह जानते हैं कि क्या करना सही है, फिर भी वे वैसा नहीं करते, दृढ़तापूर्वक सत्य स्वीकारने से मना कर देते हैं। यह एक प्रकार का स्वभाव है : हठधर्मिता। तुम लोग किस प्रकार की स्थितियों में हठी स्वभाव प्रकट करते हो? क्या तुम प्रायः हठी होते हो? (हाँ।) बहुत बार! और चूँकि हठधर्मिता तुम्हारा स्वभाव है, इसलिए वह तुम्हारे जीवन में हर दिन और हर पल तुम्हारे साथ रहती है। हठधर्मिता लोगों को परमेश्वर के सामने आ पाने से रोकती है, वह उन्हें सत्य स्वीकार पाने से रोकती है और वह उन्हें सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने से रोकती है। और अगर तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाते, तो क्या तुम्हारे स्वभाव के इस पहलू में बदलाव हो सकता है? बड़ी मुश्किल से ही हो सकता है। क्या अब तुम लोगों के स्वभाव के इस हठधर्मिता वाले पहलू में कोई बदलाव आया है? और कितना बदलाव आया है? उदाहरण के लिए मान लो, तुम बेहद जिद्दी हुआ करते थे लेकिन अब तुममें थोड़ा बदलाव आया है : जब तुम किसी समस्या का सामना करते हो तो तुममें कुछ अंतःकरण की भावना होती है और तुम मन-ही-मन कहते हो, “इस मामले में मुझे कुछ सत्य का अभ्यास करना है। चूँकि परमेश्वर ने इस हठी स्वभाव को उजागर कर दिया है—चूँकि मैंने इसे सुना है और अब मैं इसे जानता हूँ—इसलिए मुझे बदलना होगा। जब मैंने अतीत में कुछ बार इस तरह की चीजों का सामना किया था, तो मैं अपनी दैहिक इच्छाओं के अनुसार चलकर असफल रहा था और मैं इससे खुश नहीं हूँ। इस बार मुझे सत्य का अभ्यास करना चाहिए।” ऐसी आकांक्षा के साथ सत्य का अभ्यास करना संभव है, और यह बदलाव है। जब तुम कुछ समय इस तरह से अनुभव कर लेते हो और तुम और ज्यादा सत्यों को अभ्यास में लाने में सक्षम होते हो और इससे बड़े बदलाव आते हैं और तुम्हारा विद्रोही और हठी स्वभाव पहले से कम प्रकट होता है तो क्या तुम्हारे जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव आता है? अगर तुम्हारा विद्रोही स्वभाव स्पष्ट रूप से पहले से ज्यादा कम हो गया है, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारा समर्पण बढ़ गया है तो फिर वास्तविक बदलाव आ चुका है। तो सच्चा समर्पण पाने के लिए तुम्हें किस हद तक बदलना चाहिए? तुम तब सफल होगे जब तुममें थोड़ी-सी भी हठधर्मिता नहीं होगी, बल्कि सिर्फ समर्पण होगा। यह एक धीमी प्रक्रिया है। स्वभाव में बदलाव रातोरात नहीं होते, इसमें अनुभव का लंबा दौर लगता है, यहाँ तक कि पूरा जीवन भी लग सकता है। कभी-कभी बड़े-बड़े कष्ट सहने पड़ते हैं, मरने और पुनः जन्म लेने जैसे कष्ट, अपने सड़े-गले अंग काटने से भी ज्यादा दर्दनाक और कठिन कष्ट। तो क्या तुम लोगों के हठी स्वभाव में कोई बदलाव आया है? क्या तुम इसे माप सकते हो? (पहले, मैं मानता था कि कुछ चीजें एक निश्चित तरीके से की जानी चाहिए। जब लोग अलग दृष्टिकोण पेश करते थे तो मैं सुनता नहीं था, और मुझे इस बात का होश तब जाकर आया जब मैं अपने सामने आई वास्तविक असफलताओं से टकराया। अब मैं थोड़ा बेहतर हूँ। लोग अलग-अलग विचार रखते हैं तो मैं विरोध तो करता हूँ, लेकिन बाद में उनकी कुछ बातें स्वीकारने में सक्षम रहता हूँ।) रवैये में बदलाव एक दूसरी तरह का बदलाव है; इसका मतलब है कि थोड़ा बदलाव आया है। यह पहले जैसा नहीं है जब तुम जानते थे कि दूसरा व्यक्ति सही है, फिर भी तुम अपनी मरजी पर अड़े रहकर उसे नकार देते थे और उसकी बात स्वीकारने से मना कर देते थे; अब ऐसा नहीं है। तुम्हारे रवैये में पहले ही उलटफेर हो चुका है। इतना बदलकर भी तुम कितने बदले हो? दस प्रतिशत भी नहीं। दस प्रतिशत बदलाव का अर्थ है कि जब दूसरा व्यक्ति अपनी अलग राय बता चुका होता है तो तुममें कम-से-कम विरोध की कोई भावना या प्रतिरोध के विचार नहीं होते; तुम्हारा रवैया सामान्य रहता है। भले ही यह तुम्हें अभी भी दिल से स्वीकार्य नहीं होता, फिर भी तुम्हारा रवैया अड़ियल नहीं रहता, तुम उस व्यक्ति के साथ इस पर चर्चा कर सकते हो, अभ्यास करते हुए तुममें कुछ समर्पण होता है, और तुम सिर्फ अपने विचारों के अनुसार काम नहीं करते। बाद में कभी ऐसे मौके भी आते हैं जब तुम अपने विचारों से चिपके रहते हो तो कभी तुम दूसरे लोगों की कही बात स्वीकार लेते हो। स्वभाव में बदलाव आते-जाते रहते हैं। खुद में थोड़ा बदलाव ला पाने के लिए तुम्हें अनगिनत झटकों का अनुभव करना होगा, सफल होने के लिए अनगिनत असफलताओं का अनुभव करना होगा, इसलिए कई वर्षों के परीक्षणों और शोधनों का अनुभव किए बिना तुम्हारा स्वभाव बदलना आसान नहीं है। कभी-कभी जब लोगों की मनोदशा अच्छी होती है तो वे दूसरों की सही बातें स्वीकारने में सक्षम होते हैं, लेकिन जब वे उदास होते हैं तो सत्य नहीं खोजते। क्या इससे चीजों में देरी नहीं होती? कभी-कभी जब तुम्हारी अपने साथी के साथ अच्छे से नहीं निभ रही होती है तो तुम सत्य सिद्धांत नहीं खोजते और शैतान के फलसफों के अनुसार जीते हो। कभी-कभी जब तुम दूसरों के साथ सहयोग कर रहे होते हो और उनमें तुमसे बेहतर काबिलियत होती है और वे तुमसे बेहतर होते हैं, तो तुम उनके सामने विवश महसूस करते हो, और किसी समस्या का सामना करने पर तुममें सिद्धांतों पर कायम रहने का साहस नहीं होता। कभी-कभी तुम अपने साथी से बेहतर होते हो, और वे मूर्खतापूर्ण ढंग से कार्य करते हैं, और तुम उन्हें हेय दृष्टि से देखते हो और उनके साथ सत्य पर संगति करने को तैयार नहीं होते। कभी-कभी तुम सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, लेकिन देह की भावनाओं से नियंत्रित होते हो। कभी-कभी तुम दैहिक सुखों का लालच करते हो और चाहकर भी दैहिक इच्छाओं से विद्रोह नहीं कर पाते। कभी-कभी तुम उपदेश सुनकर सत्य को तो समझ लेते हो, लेकिन इसे अमल में नहीं ला पाते। क्या ये समस्याएँ सुलझाना आसान है? इन्हें अपने आप सुलझाना आसान नहीं। परमेश्वर ही लोगों को परीक्षणों और शोधन के अधीन कर सकता है, जिससे उन्हें बहुत पीड़ा होती है और अंततः वे सत्य के बिना अपने भीतर खालीपन महसूस करते हैं, मानो सत्य के बिना जी न सकते हों। यह लोगों को आस्था बढ़ाने के लिए परिष्कृत करता है और उन्हें ऐसा महसूस कराता है कि उन्हें सत्य के लिए प्रयास करना चाहिए, कि जब तक वे सत्य को अभ्यास में नहीं लाते तब तक उनके दिल को चैन नहीं मिलेगा, और अगर वे परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर पाएँगे तो उन्हें भयंकर पीड़ा होगी। परीक्षणों और शोधन का ऐसा ही प्रभाव होता है। स्वभाव में बदलाव इतने कठिन होते हैं। मैं तुम लोगों से क्यों कहता हूँ कि वे आसान नहीं हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि मुझे तुम लोगों के नकारात्मक पड़ने का डर न हो? यह तुम लोगों को यह बताने के लिए है कि स्वभाव में बदलाव कितने महत्वपूर्ण हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम सभी लोग इस पर ध्यान दो, उन अवास्तविक, पाखंडपूर्ण और झूठी आध्यात्मिक छवियों का अनुसरण करना बंद करो, हमेशा उन काल्पनिक आध्यात्मिक सिद्धांतों, प्रथाओं और नियमों का पालन करना बंद करो; वरना तुम्हें नुकसान होगा और फायदा तो बिल्कुल भी नहीं होगा।

अभी हमने स्वभाव के एक पहलू हठधर्मिता के बारे में बात की। हठधर्मिता अक्सर एक तरह का रवैया होता है जो लोगों के दिल की गहराइयों में छिपा होता है। आम तौर पर यह बाहर से स्पष्ट नहीं होता, लेकिन जब यह जाहिर होता है तो इसका पता लगाना आसान होगा, और लोग कहेंगे, “ये अड़ियल हैं! ये सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते—ये बहुत हठी हैं!” हठी स्वभाव वाले एक ही नजरिये पर टिके रहते हैं और सिर्फ एक ही चीज से चिपके रहते हैं, उसे कभी छोड़ते नहीं। तो क्या यह लोगों के स्वभाव का एकमात्र पक्ष है? बेशक नहीं—और भी कई पक्ष हैं। देखो, क्या तुम लोग बता सकते हो कि मैं आगे किस तरह के स्वभाव का वर्णन करने वाला हूँ। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर के घर में मैं परमेश्वर के अलावा किसी के प्रति समर्पण नहीं करता क्योंकि सत्य सिर्फ परमेश्वर के पास है; लोगों के पास सत्य नहीं होता है, उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं, वे जो कुछ भी कहते हैं उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता, इसलिए मैं सिर्फ परमेश्वर के प्रति समर्पण करता हूँ।” क्या उनका यह कहना सही है? (नहीं।) क्यों नहीं? यह कैसा स्वभाव है? (अहंकारी और दंभी।) (शैतान और प्रधान दूत के स्वभाव।) यह एक अहंकारी स्वभाव है। हमेशा यह मत कहो कि यह शैतान और प्रधान दूत का स्वभाव है, बोलने का यह तरीका बहुत मोटा और अस्पष्ट है। शैतान और प्रधान दूत के भ्रष्ट स्वभाव संख्या में बहुत ज्यादा हैं। प्रधान दूत, दुष्टात्माओं और शैतान के बारे में एक-साथ बात करना बहुत मोटी बात है और लोगों के लिए इसे समझना आसान नहीं है। यह कहना ज्यादा पते की बात है कि यह एक अहंकारी स्वभाव है। बेशक, यही अकेले प्रकार का स्वभाव नहीं है जो वे प्रकट करते हैं, बात बस यह है कि अहंकारी स्वभाव इतने स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाता है। इसे अहंकारी स्वभाव कहने से लोग आसानी से समझ सकेंगे, इसलिए कहने का यह तरीका सबसे उपयुक्त है। कुछ लोगों के पास कुछ कौशल, कुछ गुण, कुछ छोटी-मोटी अभिरुचियाँ होती हैं और वे कलीसिया के लिए कई कर्म कर चुके होते हैं। ये लोग यही सोचते हैं, “परमेश्वर में तुम लोगों की आस्था का मतलब दिन भर किसी आध्यात्मिक व्यक्ति की तरह परमेश्वर के वचन पढ़ना, उनकी नकल करना, उन्हें लिखना, याद करना है। इसमें क्या तुक है? क्या तुम कुछ वास्तविक कार्य कर सकते हो? जब तुम कुछ नहीं करते, तो खुद को आध्यात्मिक कैसे कह सकते हो? तुम लोगों में जीवन नहीं है। मुझमें जीवन है, मैं जो कुछ भी करता हूँ वह वास्तविक होता है।” यह कैसा स्वभाव है? उनके पास कुछ विशेष कौशल होते हैं, कुछ गुण होते हैं, वे थोड़ा अच्छा कर सकते हैं और वे इन चीजों को जीवन मान लेते हैं। नतीजतन, वे किसी का आज्ञापालन नहीं करते, वे किसी को उपदेश देने से नहीं डरते, वे सभी को हेय दृष्टि से देखते हैं—क्या यह अहंकार है? (हाँ।) यह अहंकार है। आम तौर पर लोग किन परिस्थितियों में अहंकार प्रकट करते हैं? (जब उनमें कुछ गुण या विशेष कौशल होते हैं, जब वे कुछ व्यावहारिक चीजें कर सकते हैं, जब उनके पास आध्यात्मिक पूँजी होती है।) यह एक प्रकार की स्थिति होती है। तो क्या जिन लोगों में गुण या कोई विशेष कौशल नहीं होते, वे अहंकारी नहीं होते? (वे भी अहंकारी होते हैं।) जिस व्यक्ति के बारे में हमने अभी बात की है, वह अक्सर कहेगा, “मैं परमेश्वर के अलावा किसी के प्रति समर्पण नहीं करता,” और यह सुनकर लोग अपने मन में सोचेंगे, “यह व्यक्ति सत्य के प्रति कितना समर्पित है, यह सत्य के अलावा किसी के प्रति समर्पण नहीं करता, यह जो कहता है वह सही है!” वास्तव में, इन सही लगने वाले शब्दों के भीतर एक प्रकार का अहंकारी स्वभाव है : “मैं परमेश्वर के अलावा किसी के प्रति समर्पण नहीं करता” का स्पष्ट अर्थ है कि वह किसी के प्रति समर्पण नहीं करता। मैं तुमसे पूछता हूँ, क्या ऐसी बातें कहने वाले वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाते हैं? वे कभी भी परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकते। इस तरह की बातें कह सकने वाले लोग निस्संदेह सबसे ज्यादा अहंकारी होते हैं। बाहर से उनका कहा सही लगता है—पर वास्तव में यह सबसे कपटपूर्ण तरीका है जिससे अहंकारी स्वभाव अभिव्यक्त होता है। वे इन “परमेश्वर के अलावा” शब्दों का उपयोग यह साबित करने की कोशिश में करते हैं कि वे तर्कसंगत हैं, लेकिन वास्तव में यह किसी जगह सोना गाड़कर उसके ऊपर यह लिखने जैसा है कि “यहाँ कोई सोना नहीं गड़ा है।” क्या यह मूर्खता नहीं है? तुम लोग क्या कहते हो, किस तरह का व्यक्ति सबसे अहंकारी होता है? लोग ऐसी कौन-सी बातें कह सकते हैं, जो उन्हें सबसे ज्यादा अहंकारी बनाती हैं? शायद तुम लोगों ने पहले कुछ अहंकार भरी बातें सुनी हों। इनमें से सबसे अहंकार भरी बात क्या है? क्या तुम लोग जानते हो? क्या कोई यह कहने की हिम्मत करता है, “मैं किसी के प्रति समर्पण नहीं करता—स्वर्ग या पृथ्वी के प्रति भी नहीं, यहाँ तक कि परमेश्वर के वचनों के प्रति भी नहीं”? सिर्फ बड़ा लाल अजगर दानव ही ऐसा कहने का साहस करता है। परमेश्वर में विश्वास करने वाला कोई भी ऐसा नहीं कहेगा। लेकिन परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग अगर यह कहें कि “मैं परमेश्वर के अलावा किसी के प्रति समर्पण नहीं करता” तो वे बड़े लाल अजगर से बहुत अलग नहीं हैं, वे दुनिया में अव्वल स्थान पर आने की बराबरी करते हैं, वे सबसे अहंकारी हैं। तुम लोग क्या सोचते हो, सभी लोग अहंकारी हैं लेकिन क्या उनके अहंकार में कोई अंतर है? तुम कहाँ भेद करते हो? सभी भ्रष्ट मनुष्यों में अहंकारी स्वभाव होते हैं, लेकिन उनके अहंकार में अंतर होता है। जब व्यक्ति का अहंकार एक निश्चित स्तर तक पहुँच जाता है, तो वह सारा विवेक खो देता है। अंतर यह है कि क्या किसी के कहने में कोई विवेकपूर्ण बात है। कुछ लोग अहंकारी होते हैं, फिर भी उनमें थोड़ा-सा विवेक होता है। अगर वे सत्य स्वीकार लेते हैं तो अभी भी उनके पास उद्धार की आशा होती है। कुछ लोग इतने अहंकारी होते हैं कि उनमें कोई विवेक नहीं होता—उनके अहंकार की कोई सीमा नहीं होती—और ऐसे लोग कभी भी सत्य नहीं स्वीकार पाते। अगर लोग इतने अहंकारी हों कि उनमें कोई विवेक न हो, तो वे सारी शर्म खो देते हैं और सिर्फ मूर्खतापूर्वक अहंकारी होते हैं। ये सभी एक अहंकारी स्वभाव के खुलासे और अभिव्यक्तियाँ हैं। अगर उनका स्वभाव अहंकारी न होता, तो वे ऐसा कैसे कह सकते थे कि “मैं परमेश्वर के अलावा किसी के प्रति समर्पण नहीं करता”? वे निश्चित रूप से न कहते। निस्संदेह, अगर किसी व्यक्ति का अहंकारी स्वभाव है तो उसमें अहंकार की अभिव्यक्ति होती है और वह यकीनन ऐसी अहंकार भरी बातें कहेगा और करेगा जिनमें किसी तरह का विवेक नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं, “मुझमें अहंकारी स्वभाव नहीं है लेकिन मुझमें ऐसी चीजें प्रकट होती हैं।” क्या इन शब्दों में दम है? (नहीं।) दूसरे कहते हैं, “मुझसे रहा नहीं जाता। जैसे ही मैं असावधान होता हूँ, कोई अहंकारी बात कह बैठता हूँ।” क्या इन शब्दों में दम है? (नहीं।) क्यों नहीं? इन शब्दों का मूल कारण क्या है? (खुद को न जानना।) नहीं—वे जानते हैं कि वे अहंकारी हैं, लेकिन जब वे दूसरों को यह कहते हुए अपना मजाक उड़ाते सुनते हैं कि “तुम इतने अहंकारी कैसे हो? तुम किस बात पर इतने घमंडी हो?” तो उन्हें शर्म आती है, इसीलिए वे ऐसी बातें कहते हैं। उनका अभिमान इसे बर्दाश्त नहीं कर पाता, वे इसे ढकने, छिपाने, आकर्षक रूप में पेश करने और खुद को मुसीबत से बचाने का बहाना ढूँढ़ते हैं। इसलिए उनकी बातों में दम नहीं होता। जब तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान होना बाकी रहता है, तो जब तुम कुछ नहीं भी बोलते तब भी अहंकारी होते हो। अहंकार लोगों की प्रकृति में है, वह उनके दिलों में छिपा है और कभी भी उजागर हो सकता है। इसीलिए जब तक स्वभाव में कोई बदलाव नहीं होता, तब तक लोग अहंकारी और आत्मतुष्ट बने रहते हैं। मैं एक उदाहरण देता हूँ। एक नवनिर्वाचित अगुआ एक कलीसिया में आकर देखता है कि उसके प्रति लोगों के दृष्टिकोण और हाव-भाव काफी उत्साहहीन हैं। वह मन-ही-मन सोचता है कि “क्या यहाँ मेरी अगवानी नहीं होगी? मैं नवनिर्वाचित अगुआ हूँ; तुम मुझसे ऐसे रवैये के साथ कैसे पेश आ सकते हो? तुम मुझसे प्रभावित क्यों नहीं हो? मुझे भाई-बहनों ने चुना है, इसलिए मेरा आध्यात्मिक कद तुम लोगों से ज्यादा है, है ना?” लिहाजा वह कहता है, “मैं नवनिर्वाचित अगुआ हूँ। हो सकता है कुछ लोग मुझे न स्वीकारें, लेकिन कोई बात नहीं। चलो आपस में एक प्रतियोगिता करके देख लेते हैं कि परमेश्वर के वचनों के ज्यादा अंश किसे कंठस्थ हैं, कौन दर्शनों के सत्यों पर संगति कर सकता है। मैं किसी भी ऐसे व्यक्ति को अगुआ का पद सौंप दूँगा जो मुझसे ज्यादा स्पष्ट रूप से सत्यों पर संगति कर सकता हो। बताओ, तुम लोग क्या कहते हो?” यह कैसी युक्ति है? जब लोग उसके प्रति उदासीन होते हैं, तो वह नाराज होकर उनके लिए मुसीबतें खड़ी करता रहता है और उनसे बदला लेना चाहता है; अब जबकि वह अगुआ है तो वह लोगों पर हावी होना चाहता है—वह चोटी पर रहना चाहता है। यह कैसा स्वभाव है? (अहंकारी।) तो क्या अहंकारी स्वभाव हल करना आसान है? (नहीं।) लोगों के अहंकारी स्वभाव बार-बार प्रकट होते हैं। दूसरों को नई प्रबुद्धता और समझ पर संगति करते सुनना कुछ लोगों के लिए कष्टप्रद होता है : “मेरे पास इस बारे में कहने के लिए कुछ क्यों नहीं है? यह नहीं चलेगा, मुझे सोचना होगा और कुछ बेहतर करना होगा।” और इसलिए वे दूसरों से आगे निकलने की कोशिश करते हुए ढेर सारा सिद्धांत उगल देते हैं। यह कैसा स्वभाव है? यह नाम और लाभ के लिए होड़ करना है; यह भी अहंकार है। जहाँ तक स्वभाव की बात है, भले ही तुम चुपचाप बैठे रहे, न कुछ कहो, न करो, फिर भी तुम्हारा स्वभाव तुम्हारे दिल में मौजूद रहेगा और तुम्हारे विचारों और तुम्हारी हाव-भाव से भी प्रकट हो सकता है। अगर लोग इसे दबाने या नियंत्रित करने के तरीके आजमाएँ और इसे प्रकट होने से रोकने के लिए हमेशा सावधान रहें, तो क्या इसका कोई फायदा है? (नहीं।) कुछ लोग कोई अहंकार भरी बात कहते ही महसूस कर लेते हैं : “मैंने अपना अहंकारी स्वभाव फिर प्रकट कर दिया है—कितनी शर्म की बात है! मुझे दोबारा कभी कोई अहंकार भरी बात नहीं कहनी चाहिए।” लेकिन अपना मुँह बंद रखने की कसमें खाना कुछ काम नहीं आता, यह तुम पर नहीं, बल्कि तुम्हारे स्वभाव पर निर्भर है। इसलिए अगर तुम नहीं चाहते कि तुम्हारा अहंकारी स्वभाव प्रकट हो तो तुम्हें इसे सुधार लेना चाहिए। यह अपने कुछ शब्द सुधार लेने या काम करने के किसी तरीके को सुधारने का मामला नहीं है, और किसी नियम का पालन करने का मामला तो बिल्कुल भी नहीं है। यह अपने स्वभाव की समस्या हल करने का मामला है। अब जबकि मैंने इस विषय पर बात कर ली है कि स्वभाव वास्तव में क्या होता है, तो क्या तुम लोगों को अपने बारे में कहीं ज्यादा गहरी और पैनी समझ नहीं मिल गई है? (बिल्कुल।) खुद को जानना अपने बाहरी चरित्र, मिजाज, बुरी आदतें, अतीत में की गईं अज्ञानतापूर्ण और मूर्खतापूर्ण चीजें जानने का मामला नहीं है—यह इनमें से कुछ भी नहीं है। बल्कि, यह अपना भ्रष्ट स्वभाव और वे बुराइयाँ जानना है जिन्हें व्यक्ति परमेश्वर के विरोध में करने में सक्षम है। यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। कुछ लोग कहते हैं, “मेरा विस्फोटक मिजाज है और इसे बदलने के लिए मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं इस स्वभाव को कब बदल सकता हूँ?” तो कुछ दूसरे लोग कहते हैं, “मैं खुद को व्यक्त करने में बहुत बुरा हूँ, मैं अच्छा वक्ता नहीं हूँ। मैं अपनी हर बात से लोगों को आहत कर बैठता हूँ या उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचा देता हूँ। यह कब बदलेगा?” क्या उनका यह कहना सही है? (नहीं।) वे कहाँ गलती करते है? (यह अपनी प्रकृति के भीतर की चीजें न पहचानना है।) सही कहा। चरित्र प्रकृति को निर्धारित नहीं करता। किसी का व्यक्तित्व कितना भी अच्छा क्यों न हो, फिर भी उसमें भ्रष्ट स्वभाव हो सकता है।

अभी मैंने स्वभाव के दो पहलुओं के बारे में बात की। पहला हठधर्मिता, दूसरा अहंकार। हमें अहंकार के बारे में बहुत ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति बहुत अहंकारी व्यवहार प्रकट करता है, और तुम लोगों को बस यह जानने की जरूरत है कि अहंकार स्वभाव का एक पहलू है। एक अन्य प्रकार का स्वभाव भी होता है। कुछ लोग कभी किसी को सच नहीं बताते। लोगों से कहने से पहले वे अपने दिमाग में हर चीज पर सोच-विचार कर उसे चमकाते हैं। तुम नहीं बता सकते कि उनकी कौन-सी बातें सच हैं और कौन-सी झूठी। वे आज एक बात कहते हैं तो कल दूसरी, वे एक व्यक्ति से एक बात कहते हैं तो दूसरे से कुछ और। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह अपने आप में विरोधाभासी होता है। ऐसे लोगों पर कैसे विश्वास किया जा सकता है? तथ्यों की सटीक समझ प्राप्त करना बहुत कठिन हो जाता है, तुम उनसे कोई सीधी बात नहीं बुलवा सकते। यह कौन-सा स्वभाव है? यह कपट है। क्या कपटी स्वभाव बदलना आसान है? इसे बदलना सबसे मुश्किल है। जिस भी चीज में स्वभाव शामिल होते हैं, वह व्यक्ति की प्रकृति से संबंधित होती है, और व्यक्ति की प्रकृति से जुड़ी चीजों से मुश्किल किसी भी चीज का बदलना नहीं होता। “कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती” कहावत बिल्कुल सच है। कपटी लोग चाहे किसी भी चीज के बारे में बात करें या कुछ भी करें, वे हमेशा अपने लक्ष्य और इरादे रखते हैं। अगर उनका कोई लक्ष्य या इरादा न हो, तो वे कुछ नहीं कहेंगे। अगर तुम यह समझने की कोशिश करो कि उनके लक्ष्य और इरादे क्या हैं, तो वे एकाएक बोलना बंद कर देते हैं। अगर उनके मुँह से अचानक कोई सच निकल भी जाए, तो वे उसे तोड़ने-मरोड़ने का कोई तरीका सोचने के लिए किसी भी हद तक जाएँगे, ताकि तुम्हें भ्रमित कर सच जानने से रोक सकें। कपटी व्यक्ति चाहे कुछ भी करें, वे उसके बारे में किसी को पूरा सच पता नहीं चलने देंगे। लोग चाहे उनके साथ कितना भी समय बिता लें, कोई नहीं जानता कि उनके दिमाग में वास्तव में क्या चल रहा है। ऐसी होती है कपटी लोगों की प्रकृति। कपटी व्यक्ति चाहे कितना भी बोल लें, दूसरे लोग कभी नहीं जान पाएँगे कि उनके इरादे क्या हैं, वे वास्तव में क्या सोच रहे हैं, या वे ठीक-ठीक क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। यहाँ तक कि उनके माता-पिता को भी यह जानने में मुश्किल होती है। कपटी लोगों को समझने की कोशिश करना बेहद मुश्किल है, कोई नहीं जान सकता कि उनके दिमाग में क्या है। कपटी लोग ऐसे ही बोलते या करते हैं : वे कभी अपने मन की बात नहीं कहते या जो वास्तव में चल रहा होता है, उसे व्यक्त नहीं करते। यह एक प्रकार का स्वभाव है, है न? जब तुम्हारा स्वभाव कपटी होता है, तो तुम चाहे कुछ भी कहो या करो—यह स्वभाव हमेशा तुम्हारे भीतर रहता है, तुम्हें नियंत्रित करता है, तुमसे खेल कराता है और तुम्हें छल-कपट में संलग्न करता है, तुमसे लोगों के साथ खिलवाड़ कराता है, सत्य पर पर्दा डलवाता है और तुमसे अपने असली मनोभाव छिपवाता है। यह कपट है। कपटी लोग अन्य किन विशिष्ट व्यवहारों में संलग्न होते हैं? मैं एक उदाहरण देता हूँ। दो लोग बात कर रहे हैं, और उनमें से एक अपने आत्मज्ञान के बारे में बोल रहा है; यह व्यक्ति इस बारे में बात करता रहता है कि वह कैसे सुधरा है, और दूसरे व्यक्ति को इस पर विश्वास करने के लिए प्रेरित करने की कोशिश करता है, लेकिन वह उसे मामले के वास्तविक तथ्य नहीं बताता। इसमें कुछ छिपाया जा रहा है और यह एक खास स्वभाव का संकेत देता है—कपट का। देखें, तुम लोग इसे पहचान पाते हो या नहीं। यह व्यक्ति कहता है, “मैंने हाल ही में कुछ चीजें अनुभव की हैं, और मुझे लगता है कि इन वर्षों में परमेश्वर में मेरा विश्वास व्यर्थ रहा है। मुझे कुछ हासिल नहीं हुआ है। मैं बहुत दीन और दयनीय हूँ! हाल ही में मेरा व्यवहार बहुत अच्छा नहीं रहा है, लेकिन मैं पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हूँ।” लेकिन यह कहने के कुछ समय बाद ही उसमें पश्चात्ताप का लक्षण कहीं दिखाई नहीं देता। यहाँ क्या समस्या है? दरअसल, वह झूठ बोलता है और दूसरों को बहकाता है। जब दूसरे लोग उसे ऐसी बातें कहते हुए सुनते हैं, तो वे सोचते हैं, “इस व्यक्ति ने पहले सत्य का अनुसरण नहीं किया था, लेकिन यह तथ्य कि अब यह ऐसी बातें कह सकता है, दिखाता है कि इसने वास्तव में पश्चात्ताप किया है। इस बारे में कोई संदेह नहीं है। हमें इसे पहले की तरह नहीं, बल्कि एक नए, बेहतर आलोक में देखना चाहिए।” ये शब्द सुनकर लोग ऐसे ही सोचते-विचारते हैं। लेकिन क्या उस व्यक्ति की वर्तमान दशा वैसी ही है जैसा वह कहता है? हकीकत यह है कि ऐसा नहीं है। उसने वास्तव में पश्चात्ताप नहीं किया है, लेकिन उसके शब्द यह भ्रम देते हैं कि उसने ऐसा किया है, और कि वह बदलकर बेहतर हो गया है और पहले से अलग है। यही वह अपने शब्दों से हासिल करना चाहता है। लोगों को छलने के लिए इस तरह से बोलकर वह कैसा स्वभाव प्रकट कर रहा है? यह कपट है—और यह बहुत घातक है! तथ्य यह है कि उसे इस बात का बिल्कुल भी एहसास नहीं है कि वह परमेश्वर में अपने विश्वास में विफल हो गया है, कि वह बहुत दीन और दयनीय है। वह लोगों को छलने के लिए, दूसरों को अपने बारे में अच्छा सोचने और अच्छी राय रखने के लिए प्रेरित करने का अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक शब्द और भाषा उधार ले रहा है। क्या यह कपट नहीं है? यह कपट है, और जब कोई बहुत ज्यादा कपटी होता है, तो उसके लिए खुद को बदलना आसान नहीं होता।

एक और प्रकार का व्यक्ति होता है, जो कभी सरलता या खुलेपन से बात नहीं करता। वह हमेशा चीजें ढकता-छिपाता रहता है, हर मोड़ पर लोगों से जानकारी बटोरता है और उनकी मंशा जानने की कोशिश करता है। वह हमेशा दूसरों के बारे में पूरा सच जानना चाहता है, लेकिन अपने दिल की बात नहीं बताता। उससे बातचीत करने वाला कोई भी व्यक्ति उसके बारे में पूरा सच जानने की कभी उम्मीद नहीं कर सकता। ऐसे लोग नहीं चाहते कि दूसरों को उनकी योजनाओं का पता चले, और वे इन्हें किसी के साथ साझा नहीं करते। यह कैसा स्वभाव है? यह एक कपटी स्वभाव है। ऐसे लोग अत्यंत चालाक होते हैं, उनकी थाह कोई नहीं ले सकता। अगर किसी का कपटी स्वभाव है, तो वह निस्संदेह एक कपटी व्यक्ति है, और वह प्रकृति सार में कपटी है। क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर में अपने विश्वास में सत्य का अनुसरण करता है? अगर वह दूसरे लोगों के सामने सच नहीं बोलता, तो क्या वह परमेश्वर के सामने सच बोलने में सक्षम है? हरगिज नहीं। कपटी व्यक्ति कभी सच नहीं बोलता। वह परमेश्वर में विश्वास कर सकता है, पर क्या उसका विश्वास सच्चा होता है? परमेश्वर के प्रति उसका किस तरह का रवैया होता है? उसके मन में निश्चित ही अनेक संदेह होंगे : “कहाँ है परमेश्वर? मैं उसे नहीं देख सकता। क्या सबूत है कि वह वास्तविक है?” “परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है? वाकई? शैतान का शासन परमेश्वर में विश्वास करने वालों का पूरी तरह दमन कर उन्हें गिरफ्तार कर रहा है। परमेश्वर इसे नष्ट क्यों नहीं कर देता?” “परमेश्वर लोगों को वास्तव में कैसे बचाता है? क्या उसका उद्धार वास्तविक है? यह बहुत स्पष्ट नहीं है।” “परमेश्वर में विश्वास करने वाला स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकता है या नहीं? बिना किसी पुष्टि के यह कहना मुश्किल है।” अपने दिल में परमेश्वर के बारे में इतने सारे संदेहों के रहते क्या वह खुद को उसके लिए ईमानदारी से खपा सकता है? यह असंभव है। जिन लोगों ने परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपना सब-कुछ त्याग दिया है, जो परमेश्वर के लिए खुद को खपाकर अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, उन सभी को देखकर वे सोचते हैं, “मुझे अपने पास कुछ रोककर रखने की जरूरत है। मैं उनकी तरह मूर्ख नहीं हो सकता। अगर मैं सब-कुछ परमेश्वर को अर्पित कर दूँ तो मैं भविष्य में कैसे जिऊँगा? मेरी देखभाल कौन करेगा? मुझे एक आकस्मिक योजना की जरूरत है।” तुम देख सकते हो कि कपटी लोग कितने “चतुर” होते हैं, वे कितनी आगे की सोचते हैं। कुछ लोग सभाओं में दूसरों को अपनी भ्रष्टता की जानकारी के बारे में खुलकर बोलते, संगति में अपने हृदय में छिपी बातें पेश करते और सच्चाई से यह कहते देखकर कि उन्होंने कितनी बार व्यभिचार किया है, सोचते हैं, “अरे मूर्ख! ये निजी बातें हैं; तुम इन्हें दूसरों को क्यों बताते हो? तुम मुझसे ये चीजें नहीं उगलवा सकते!” ऐसे होते हैं कपटी लोग—वे ईमानदार होने के बजाय मरना पसंद करेंगे और वे किसी को पूरा सत्य नहीं बताते। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने अपराध किया है और कुछ बुरी चीजें की हैं, और लोगों को इनके बारे में आमने-सामने बताने में मुझे थोड़ी शर्म महसूस होती है। आखिरकार ये निजी चीजें हैं और शर्मनाक हैं। पर मैं उन्हें परमेश्वर से दबा-छिपा नहीं सकता। मुझे परमेश्वर को ये चीजें बिना ढके खुलकर बतानी चाहिए। मैं दूसरे लोगों को अपने विचार या निजी मामले बताने की हिम्मत नहीं करूँगा, पर परमेश्वर को मुझे बताना होगा। चाहे मैं और किसी से भी चीजें छिपाकर रखूँ, लेकिन परमेश्वर से छिपाकर नहीं रख सकता।” ईमानदार व्यक्ति परमेश्वर के प्रति यही रवैया रखता है। लेकिन कपटी मनुष्य सबसे सावधान रहते हैं, वे किसी पर विश्वास नहीं करते और किसी के साथ ईमानदारी से नहीं बोलते। वे किसी को भी पूरा सत्य नहीं बताते और कोई भी उन्हें समझ नहीं सकता। ये सबसे कपटी लोग हैं। सभी में कपटी स्वभाव होता है; फर्क सिर्फ इतना है कि यह कितना गंभीर है। भले ही तुम सभाओं में अपना हृदय खोलकर अपनी समस्याओं के बारे में संगति कर लो लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि तुममें कपटी स्वभाव नहीं है? ऐसा नहीं है, तुममें भी कपटी स्वभाव है। मैं यह क्यों कह रहा हूँ? यह रहा उदाहरण : तुम संगति में उन चीजों के बारे में तो खुलकर बात कर सकते हो जो तुम्हारे गर्व या अभिमान को नहीं छूतीं, जो शर्मनाक नहीं हैं और जिनके लिए तुम्हारी काट-छाँट नहीं की जाएगी—लेकिन अगर तुमने कुछ ऐसा किया हो जो सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करता हो, जिससे हर कोई घृणा और विद्रोह करे, तो क्या तुम सभाओं में उसके बारे में खुलकर संगति कर पाओगे? और अगर तुमने कुछ ऐसा किया हो जिसे बयान नहीं किया जा सकता, तो उसके बारे में खुलकर सत्य बताना तुम्हारे लिए और भी मुश्किल होगा। अगर कोई उस पर गौर करे या उसके लिए दोष देने का प्रयास करे, तो तुम उसे छिपाने के लिए अपने सभी हथकंडे अपनाओगे और इस बात से भयभीत रहोगे कि यह मामला उजागर हो सकता है। तुम हमेशा उस पर पर्दा डालने और उससे बच निकलने की कोशिश करोगे। क्या यह कपटी स्वभाव नहीं है? तुम्हें लग सकता है कि अगर तुम इसे जोर से नहीं कहते, तो किसी को इसका पता नहीं चलेगा, यहाँ तक कि परमेश्वर के पास भी तुम्हारे साथ कुछ करने का कोई उपाय नहीं होगा। यह गलत है! परमेश्वर लोगों के अंतरतम की पड़ताल करता है। अगर तुम इसे महसूस नहीं कर सकते, तो तुम परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानते। कपटी लोग न सिर्फ दूसरों को छलते हैं—वे परमेश्वर को छलने की कोशिश करने की हिम्मत भी करते हैं और उसका प्रतिरोध करने के लिए कपटपूर्ण हथकंडे आजमाते हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है, और कपटी लोगों से वह सबसे ज्यादा घृणा करता है। अतः कपटी लोग वे हैं जिनके लिए उद्धार प्राप्त करना सबसे कठिन है। कपटी प्रकृति के लोग सबसे ज्यादा झूठ बोलने वाले होते हैं। यहाँ तक कि वे परमेश्वर से भी झूठ बोलते हैं और उसे भी छलने की कोशिश करते हैं, और हठपूर्वक पश्चात्ताप नहीं करते। इसका अर्थ है कि वे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते। अगर कोई सिर्फ समय-समय पर भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है, अगर वह झूठ बोलता और लोगों को छलता है, लेकिन सरल है और परमेश्वर के सामने खुलकर पश्चात्ताप करता है, तो ऐसे व्यक्ति के अभी भी उद्धार प्राप्त करने की आशा होती है। अगर तुम वाकई विवेकवान व्यक्ति हो, तो तुम्हें परमेश्वर के सामने खुलना चाहिए, उससे दिल से बात करनी चाहिए और आत्मचिंतन कर खुद को जानना चाहिए। तुम्हें अब परमेश्वर से झूठ नहीं बोलना चाहिए, तुम्हें किसी भी समय उसके साथ छल करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, और उससे कुछ छिपाने की कोशिश तो बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए। तथ्य यह है कि कुछ ऐसी चीजें हैं, जिनके बारे में लोगों को जानने की जरूरत नहीं है। अगर तुम उनके बारे में परमेश्वर के साथ खुले हो, तो यह ठीक है। जब तुम काम करो, तो सुनिश्चित करो कि परमेश्वर से राज न रखो। तुम परमेश्वर से वे सब बातें कह सकते हो, जो दूसरे लोगों से कहने लायक नहीं हैं। ऐसा करने वाला व्यक्ति बुद्धिमान होता है। भले ही ऐसी कुछ चीजें हों जिनके बारे में उसे दूसरों के सामने खुलकर बात करने की जरूरत महसूस न हो, लेकिन इसे कपट नहीं कहा जाना चाहिए। कपटी लोग अलग होते हैं : वे मानते हैं कि उन्हें सब-कुछ छिपाना चाहिए, कि वे अन्य लोगों को कुछ नहीं बता सकते, खासकर जब बात निजी मामलों की हो। अगर उन्हें कुछ कहने से लाभ नहीं होगा तो वे इसे परमेश्वर से भी नहीं कहेंगे। क्या यह कपटी स्वभाव नहीं है? ऐसा व्यक्ति वास्तव में कपटी होता है! अगर कोई इतना कपटी है कि परमेश्वर को भी सच नहीं बताता और परमेश्वर से सब-कुछ गुप्त रखता है, तो क्या वह ऐसा व्यक्ति भी है जो परमेश्वर में विश्वास रखता है? क्या उसे परमेश्वर में सच्ची आस्था है? वह ऐसा व्यक्ति है, जो परमेश्वर पर संदेह करता है और अपने हृदय में उस पर विश्वास नहीं करता। तो क्या उसकी आस्था झूठी नहीं है? वह गैर-विश्वासी है, नकली विश्वासी है। क्या तुम लोग कभी परमेश्वर पर संदेह कर उससे सावधान रहते हो? (बिल्कुल।) परमेश्वर पर संदेह करना और उससे सावधान रहना, यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह एक कपटी स्वभाव है। हर किसी का कपटी स्वभाव होता है, मामला सिर्फ इसकी गंभीरता का है। अगर तुम सत्य को स्वीकार कर सकते हो तो पश्चात्ताप कर बदल सकते हो।

कुछ लोग अपने साथ कुछ होने पर भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, धारणाएँ और विचार रखते हैं, अन्य लोगों के बारे में पूर्वाग्रह रखते और राय बनाते हैं और पीठ पीछे उनकी जड़ें खोदते हैं। वे आत्मचिंतन कर सकते हैं और इन चीजों के बारे में पूरी तरह से खुलकर बोल सकते हैं, लेकिन जब वे कुछ शर्मनाक चीजें करते हैं, तो उन्हें गुप्त रखना चाहते हैं और हमेशा के लिए अपने दिल में बंद कर लेते हैं। न सिर्फ वे दूसरों के साथ उन चीजों के बारे में बात नहीं करते, बल्कि जब वे प्रार्थना करते हैं तो वे उनके बारे में परमेश्वर को भी नहीं बताते। यहाँ तक कि वे उन चीजों को ढकने या छिपाने के लिए झूठ गढ़ने की हर संभव कोशिश भी करते हैं। यह एक कपटी स्वभाव है। जब तुम इस तरह के विचार रखते हो, जब तुम इस तरह की मनोदशा में जीते हो तो तुम्हें आत्मचिंतन कर स्पष्ट रूप से देख लेना चाहिए कि तुम कोई ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, तुममें ऐसा कुछ अभिव्यक्त नहीं होता जिसे परमेश्वर एक ईमानदार व्यक्ति के रूप में वर्णित करे, कि तुम पूरी तरह एक कपटी व्यक्ति हो और तुम मूर्ख, कम काबिल और मंदबुद्धि होकर भी एक कपटी व्यक्ति ही हो। खुद को जानने का यही अर्थ है। खुद को जानने में तुम्हें कम-से-कम खुद से प्रकट होने वाली स्पष्ट भ्रष्टता साफ तौर पर देख और समझ पाने और उसे हल करने के लिए सत्य खोज पाने में सक्षम होना चाहिए। अगर तुम वास्तव में अपना कपटी स्वभाव जानते हो, तो तुम्हें अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपने कपटी स्वभाव को समझकर इसका विश्लेषण करना चाहिए और इसका सार समझना चाहिए; तब तुम्हारे पास अपना कपटपूर्ण भ्रष्ट स्वभाव त्यागने की आशा होगी। कुछ लोग कपटी लोगों और ईमानदार लोगों के बीच अंतर स्पष्ट रूप से नहीं बता सकते—जिसका अर्थ है कि उनमें बहुत कम काबिलियत है। कुछ लोग अक्सर अपनी कम काबिलियत, मूर्खता, अज्ञानता, फूहड़ बोलचाल, बेढंगेपन और ठगे जा सकने को ईमानदारी के सबूत के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। वे हमेशा दूसरों से कहते हैं, “मैं बहुत ईमानदार हूँ, नतीजतन मुझे अक्सर बहुत नुकसान उठाना पड़ता है, मैं दूसरों का फायदा उठाना नहीं जानता—फिर भी परमेश्वर मुझे पसंद करता है, क्योंकि मैं एक ईमानदार व्यक्ति हूँ।” क्या ये शब्द सही हैं? ऐसे शब्द हास्यास्पद हैं, ये लोगों को गुमराह करने के लिए रचे गए हैं, ये ढिठाई और बेशर्मी से भरे हैं। मूर्ख और बेवकूफ लोग ईमानदार कैसे हो सकते हैं? ये दो अलग चीजें हैं। अपनी मूर्खतापूर्ण करनीको ईमानदारी समझना एक बड़ी गलती है। सभी देख सकते हैं कि मूर्ख भी अहंकारी और दंभी हो सकते हैं, अपने बारे में ऊँची राय रख सकते हैं। लोग चाहे कितने भी अज्ञानी और कम काबिल क्यों न हों, फिर भी वे झूठ बोल सकते हैं और दूसरों को धोखा दे सकते हैं। क्या यह सब तथ्य नहीं है? क्या मूर्ख और कम काबिल लोग वास्तव में कभी कोई बुरा नहीं करते? क्या उनमें वाकई भ्रष्ट स्वभाव नहीं होते? निश्चित रूप से होते हैं। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि वे ईमानदार हैं और वे अपने झूठ के बारे में दूसरों से खुलकर बात करते हैं, लेकिन वे अपनी शर्मनाक करनी के बारे में खुलकर बात करने की हिम्मत नहीं करते। जब कलीसिया उनकी समस्याओं से निपटती है तो उन्हें यह गवारा नहीं होता और वे बिल्कुल भी समर्पण नहीं करते, बल्कि वे बगलें झाँककर सत्य से बिदकते रहते हैं। ऐसे कपटी व्यक्ति सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते और बिल्कुल भी समर्पण नहीं करते, फिर भी खुद को ईमानदार समझते हैं। क्या यह सरासर बेशर्मी नहीं है? यह नितांत मूर्खता है! इस तरह का व्यक्ति बिल्कुल भी ईमानदार नहीं होता, न ही वह निष्कपट होता है। बेवकूफ लोग बेवकूफ ही होते हैं; मूर्ख मूर्ख ही होते हैं। सिर्फ भोले-भाले निष्कपट लोग ही ईमानदार होते हैं।

कपटी लोग कैसे पहचाने जा सकते हैं? कपटी लोगों का आचार-व्यवहार कैसा होता है? चाहे वे किसी के साथ भी जुड़ें या संलग्न हों, वे कभी किसी को यह नहीं परखने देते कि वास्तव में उनके साथ क्या हो रहा है; वे हमेशा दूसरों से सावधान रहते हैं, वे हमेशा लोगों की पीठ पीछे काम करते हैं और कभी नहीं बताते कि वे वास्तव में क्या सोच रहे हैं। वे कभी-कभी खुद को जानने के बारे में थोड़ा-बहुत बोल सकते हैं, लेकिन वे महत्वपूर्ण बिंदुओं या प्रमुख शब्दों का कोई उल्लेख नहीं करते, और वे कुछ अनचाहे मुँह से निकल जाने से डरते हैं। वे इस डर से इन चीजों के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं कि कहीं दूसरों को उनकी खामियों का पता न चल जाए। यह एक प्रकार का कपटी स्वभाव है। साथ ही, कुछ लोग जान-बूझकर मुखौटा पहन लेते हैं, ताकि दूसरे सोचें कि वे निष्कपट हैं, कष्ट सह सकते हैं और शिकायत नहीं करते, या वे आध्यात्मिक हैं और सत्य से प्रेम और उसका अनुसरण करते हैं। वे स्पष्ट रूप से इस प्रकार के व्यक्ति नहीं होते, लेकिन वे दूसरों के सामने इसका दिखावा करते हैं। यह भी एक कपटी स्वभाव है। कपटी लोग जो कुछ भी कहते और करते हैं, उसके पीछे कोई न कोई मंतव्य होता है। अगर उनका कोई मंतव्य न हो तो वे बोलते नहीं या कार्य नहीं करते। उनके भीतर एक स्वभाव होता है, जो उन्हें ऐसा करने के लिए नियंत्रित करता है, और वह है कपटपूर्ण स्वभाव। जब लोगों का स्वभाव कपटी होता है, तो क्या उसे बदलना आसान होता है? तुम लोग कितना बदले हो? क्या तुमने ईमानदारी के अनुसरण के मार्ग पर प्रवेश किया है? (हाँ, हम इसी दिशा में काम कर रहे हैं।) तुमने कितने कदम उठाए हैं? या तुम इसे करने की इच्छा के स्तर पर ही अटके हुए हो? (यह अभी भी ऐसी चीज है, जो हम करना चाहते हैं। कभी-कभी, जब हम कुछ कर बैठते हैं तो उसके बाद ही यह एहसास होता है कि इसमें छल-कपट था और हम लोगों पर झूठी छाप छोड़ने की कोशिश कर रहे थे; सिर्फ तभी हमें एहसास होता है कि हम कपटी हैं।) तुम्हें यह कपट तो लगता है—लेकिन क्या तुम यह महसूस कर पाए कि यह एक प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव है? और भला ये कपटपूर्ण चीजें आती कहाँ से हैं? (हमारी प्रकृति से।) सही बताया, ये तुम्हारी प्रकृति से आती हैं। और क्या ये भ्रष्ट चीजें तुम्हें परेशान करती हैं? इनसे दूर जाना मुश्किल है, इनसे निपटना मुश्किल है, बचना मुश्किल है—और ये बहुत तकलीफदेह भी हैं। इन्हें कष्टप्रद क्या चीज बनाती है? उनके बारे में क्या चीज तुम्हें पीड़ा देती है? (हम बदलना चाहते हैं, लेकिन जब नहीं बदल पाते तो बहुत पीड़ा होती है।) यह एक पहलू है, लेकिन इसे कष्टप्रद नहीं माना जाता। जब व्यक्ति अपने कपटी स्वभाव से नियंत्रित होता है तो वह कभी भी और कहीं भी झूठ बोलकर दूसरों को धोखा दे सकता है, और चाहे उसके साथ कुछ भी हो जाए, वह यही सोचता है कि लोगों को ठगने और गुमराह करने के लिए झूठ कैसे बोले जाएँ। अगर वे खुद को रोकना भी चाहें, तो भी रोक नहीं पाते, इसमें उनकी इच्छा काम नहीं आती। समस्या यहीं है। यह स्वभाव की समस्या है। कपटी स्वभाव कितने तरीकों से प्रकट हो सकता है? जाँच-पड़ताल, छल, एहतियात और साथ ही संदेह, ढोंग और झूठ से। ऐसे व्यवहार जिस स्वभाव को उजागर और प्रकट करते हैं, वह कपटीपन है। इन विषयों पर संगति करने के बाद क्या तुम लोगों को कपटी स्वभाव का स्पष्ट ज्ञान हो गया है? क्या अब भी तुम्हारे बीच ऐसे लोग हैं जो कहते हैं, “मुझमें कपटी स्वभाव नहीं है, मैं कपटी व्यक्ति नहीं हूँ, मैं करीब-करीब एक ईमानदार व्यक्ति हूँ”? (नहीं।) बहुत-से लोग हैं, जो बिल्कुल नहीं समझते कि ईमानदार व्यक्ति वास्तव में क्या होता है। कुछ लोग कहते हैं कि ईमानदार लोग वे हैं जो निष्कपट और स्पष्टवादी होते हैं, जो जहाँ भी जाते हैं धौंस देकर निकाल दिए जाते हैं, या जो बोलने और काम करने में दूसरे लोगों की तुलना में हमेशा धीमे होते हैं। कुछ मूर्ख और अज्ञानी लोग भी, जो ऐसी मूर्खता करते हैं कि दूसरे उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं, खुद को ईमानदार व्यक्ति बताते हैं। इसी तरह खुद को हीन समझने वाले समाज के निचले तबके के तमाम अशिक्षित लोग भीखुद को ईमानदार बताते हैं। उनकी गलती कहाँ है? वे नहीं जानते कि ईमानदार व्यक्ति क्या होता है। उनकी गलतफहमी का स्रोत क्या है? इसका मुख्य कारण यह है कि वे सत्य को नहीं समझते। उनका मानना है कि परमेश्वर जिन “ईमानदार लोगों” की बात करता है, वे मूर्ख और बुद्धिहीन हैं, अशिक्षित हैं, बोलचाल में मंद हैं, दमित और उत्पीड़ित हैं, और आसानी से ठगे और छले जाते हैं। निहितार्थ यह है कि परमेश्वर के उद्धार के पात्र समाज के सबसे निचले पायदान के वो बुद्धिहीन लोग हैं जिन्हें दूसरे अक्सर इधर-उधर धकेल देते हैं। इन दीन-दरिद्रों को नहीं तो परमेश्वर किसे बचाएगा? क्या वे यही नहीं मानते? क्या परमेश्वर वाकई इन्हीं लोगों को बचाता है? यह परमेश्वर की इच्छा की गलत व्याख्या है। परमेश्वर उन लोगों को बचाता है, जो सत्य से प्रेम करते हैं, जिनमें समझने की क्षमता है, वे सभी ऐसे लोग हैं जिनमें जमीर और विवेक है, जो परमेश्वर के आदेश पूरे करने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने में सक्षम हैं। ये वे लोग हैं, जो सत्य स्वीकारने और अपने भ्रष्ट स्वभाव त्यागने में सक्षम हैं, ये वे लोग हैं जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं और परमेश्वर की आराधना करते हैं। भले ही इनमें से ज्यादातर लोग समाज के निचले स्तर से, मजदूरों और किसानों के परिवारों से हैं, लेकिन वे निश्चित रूप से भ्रमित व्यक्ति, अनाड़ी या निकम्मे नहीं हैं। इसके विपरीत, वे चतुर लोग हैं जो सत्य को स्वीकारने, उसका अभ्यास करने और उसके प्रति समर्पित होने में सक्षम हैं। वे सब न्यायी लोग हैं, जो परमेश्वर का अनुसरण करने और सत्य और जीवन प्राप्त करने के लिए सांसारिक वैभव और धन-दौलत त्याग देते हैं—वे सबसे बुद्धिमान लोग हैं। ये सब ईमानदार लोग हैं, जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं और वास्तव में उसके लिए खुद को खपाते हैं। वे परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष प्राप्त कर सकते हैं और उन्हें उसके लोगों और उसके मंदिर के स्तंभों में पूर्ण किया जा सकता है। वे सोने, चांदी और बहुमूल्य रत्नों के लोग हैं। जिन्हें त्यागा जाएगा वे तो भ्रमित, मूर्ख, बेतुके और निकम्मे लोग हैं। गैर-विश्वासी और बेतुके लोग परमेश्वर के कार्य और प्रबंधन-योजना को किस रूप में देखते हैं? डंपिंग ग्राउंड के रूप में, है न? ये लोग न सिर्फ कम क्षमता के होते हैं, बल्कि बेतुके भी होते हैं। वे चाहे परमेश्वर के कितने भी वचन पढ़ लें, सत्य को नहीं समझ पाते, और चाहे कितने भी उपदेश सुन लें, वास्तविकता में प्रवेश करने में असमर्थ रहते हैं—अगर वे इतने मूर्ख हैं, तो क्या फिर भी उन्हें बचाया जा सकता है? क्या परमेश्वर इस तरह के किसी व्यक्ति को चाहता है? वे चाहे जितने वर्षों से विश्वासी हों, फिर भी वे किसी सत्य को नहीं समझते, बकवास करते हैं और खुद को ईमानदार मानते हैं—क्या उन्हें कोई शर्म नहीं है? ऐसे लोग सत्य को नहीं समझते। वे हमेशा परमेश्वर की इच्छा की गलत व्याख्या करते हैं, और फिर भी वे जहाँ भी जाते हैं, अपनी गलत व्याख्याएँ दोहराते हैं, इन्हें सत्य के रूप में प्रचारित कर लोगों से कहते हैं, “थोड़ा-सा धमकाया जाना अच्छा है, लोगों को थोड़ा नुकसान उठाना चाहिए, उन्हें थोड़ा मूर्ख होना चाहिए—ये परमेश्वर के उद्धार के पात्र हैं और ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाएगा।” जो लोग ऐसी बातें कहते हैं, वे घिनौने हैं; इससे परमेश्वर का बहुत अपमान होता है! यह कितनी घिनौनी बात है! परमेश्वर के राज्य के स्तंभ और वे विजेता जिन्हें परमेश्वर बचाता है, वे सब ऐसे लोग होते हैं, जो सत्य को समझते हैं और बुद्धिमान हैं। ये वे लोग हैं, जिनका स्वर्गिक राज्य में हिस्सा होगा। जो मूर्ख और अज्ञानी हैं, बेशर्म और नासमझ हैं, जिन्हें सत्य की रत्ती भर भी समझ नहीं, जो अनाड़ी और मूर्ख हैं—क्या वे सभी निकम्मे नहीं हैं? ऐसे लोगों का स्वर्गिक राज्य में हिस्सा कैसे हो सकता है? परमेश्वर जिन ईमानदार लोगों के बारे में बात करता है, वे वो हैं जो सत्य को समझने के बाद उसे अभ्यास में ला सकते हैं, जो बुद्धिमान और चतुर हैं, जो परमेश्वर के सामने सरलता से खुल जाते हैं, और जो सिद्धांत के अनुसार कार्य करते हैं और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह समर्पण करते हैं। इन सभी लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, वे सिद्धांतों के अनुसार काम करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और वे सभी परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का अनुसरण करते हैं और अपने हृदय में परमेश्वर से प्रेम करते हैं। सिर्फ वे ही वास्तव में ईमानदार लोग हैं। अगर कोई यह भी नहीं जानता कि ईमानदार होने का क्या अर्थ है, अगर वह यह नहीं देख सकता कि ईमानदार लोगों का सार परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना है, या यह कि ईमानदार लोग इसलिए ईमानदार होते हैं क्योंकि वे सत्य से प्रेम करते हैं, क्योंकि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, क्योंकि वे सत्य का अभ्यास करते हैं—तो इस प्रकार का व्यक्ति बहुत मूर्ख है और उसमें वास्तव में विवेक की कमी है। ईमानदार लोग वैसे सरल, भ्रमित, अज्ञानी और मूर्ख बिल्कुल नहीं होते, जैसी लोग कल्पना करते हैं; वे सामान्य मानवता वाले ऐसे लोग हैं, जिनमें जमीर और विवेक होता है। ईमानदार लोगों के बारे में होशियारी की बात यह है कि वे परमेश्वर के वचन सुनने और ईमानदार होने में सक्षम होते हैं, और यही कारण है कि वे परमेश्वर का आशीष पाते हैं।

परमेश्वर के इस अनुरोध से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं है कि लोग ईमानदार हों—वह कहता है कि लोग उसके सामने रहें, उसकी जाँच स्वीकारें और रोशनी में रहें। ईमानदार लोग ही मानवजाति के सच्चे सदस्य हैं। जो लोग ईमानदार नहीं हैं, वे जानवर हैं, वे इंसानों के भेष में घूमने वाले जानवर हैं, वे इंसान नहीं हैं। ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार व्यवहार करना चाहिए; तुम्हें न्याय, ताड़ना और काट-छाँट से गुजरना चाहिए। जब तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध हो जाता है और तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में सक्षम हो जाते हो, तभी तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनते हो। जो लोग अज्ञानी, मूर्ख और सरल हैं, वे बिल्कुल ईमानदार लोग नहीं होते। ईमानदार होने की माँग करके परमेश्वर लोगों से सामान्य मानवता रखने, अपना कपट और छद्मवेश त्यागने, दूसरों से झूठ न बोलने या चालाकी न करने, वफादारी के साथ अपना कर्तव्य निभाने, और परमेश्वर से वास्तव में प्रेम करने और उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम होने के लिए कहता है। सिर्फ यही लोग परमेश्वर के राज्य के लोग हैं। परमेश्वर माँग करता है कि लोग मसीह के अच्छे सैनिक बनें। मसीह के अच्छे सैनिक कौन हैं? उन्हें सत्य वास्तविकता से लैस होना चाहिए और मसीह के साथ एक-चित्त और एक-मन होना चाहिए। हर समय और हर स्थान पर उन्हें परमेश्वर का गुणगान करने और उसकी गवाही देने और शैतान के साथ युद्ध करने के लिए सत्य का उपयोग करने में सक्षम होना चाहिए। सभी चीजों में उन्हें परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना चाहिए, गवाही देनी चाहिए और सत्य वास्तविकता को जीना चाहिए। उन्हें शैतान को अपमानित करने और परमेश्वर के लिए अद्भुत जीत हासिल करने में सक्षम होना चाहिए। मसीह का अच्छा सैनिक होने का यही अर्थ है। मसीह के अच्छे सैनिक विजेता हैं, ये वे हैं जो शैतान पर विजय पाते हैं। लोगों से ईमानदार होने और कपटी न होने की अपेक्षा करके परमेश्वर उन्हें मूर्ख बनने के लिए नहीं कहता, बल्कि यह कहता है कि वे अपने कपटी स्वभाव त्याग दें, उसके प्रति समर्पण करें और उसके लिए महिमा लाएँ। यही है, जो सत्य का अभ्यास करके हासिल किया जा सकता है। यह व्यक्ति के व्यवहार में बदलाव नहीं है, यह कम या ज्यादा बोलने का मामला नहीं है और न ही इसका संबंध इस बात से है कि व्यक्ति कैसे कार्य करता है। बल्कि इसका संबंध व्यक्ति की कथनी-करनी, उसके विचारों और दृष्टिकोणों, उसकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के पीछे की मंशा से है। भ्रष्ट स्वभाव के खुलासों और त्रुटि से संबंधित हर चीज जड़ से बदलनी होगी, ताकि वह सत्य के अनुरूप हो सके। अगर व्यक्ति को अपने स्वभाव में बदलाव लाना है, तो उसे शैतान के स्वभाव के सार की असलियत समझने में सक्षम होना चाहिए। अगर तुम कपटी स्वभाव के सार की असलियत समझ सकते हो, यह समझ लेते हो कि यह शैतान का स्वभाव और शैतान का चेहरा है, अगर तुम शैतान से घृणा कर सकते हो और शैतान को त्याग सकते हो, तो तुम्हारे लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव को छोड़ना आसान होगा। अगर तुम नहीं जानते कि तुम्हारे भीतर एक कपटपूर्ण मनोदशा है, अगर तुम कपटी स्वभाव के खुलासों को नहीं पहचानते, तो तुम नहीं जान पाओगे कि इसे हल करने के लिए सत्य कैसे खोजा जाए, और तुम्हारे लिए अपने कपटी स्वभाव को बदलना कठिन होगा। तुम्हें पहले यह पहचानना होगा कि तुमसे क्या चीजें प्रकट होती हैं, और वे भ्रष्ट स्वभाव के कौन-से पहलू हैं। अगर तुम्हारे द्वारा प्रकट की जाने वाली चीजें कपटी स्वभाव की हैं, तो क्या तुम अपने हृदय में उनसे घृणा करोगे? और अगर करते हो, तो तुम्हें कैसे बदलना चाहिए? तुम्हें अपनी मंशाओं की काट-छाँट करअपने विचार सही करने होंगे। अपनी समस्याएँ हल करने के लिए पहले तुम्हें अपनी कपटपूर्ण मनोदशा और अपने कपटी स्वभाव के उद्गारों के मामले में सत्य खोजना चाहिए, जो कुछ परमेश्वर कहता है उसे प्राप्त कर उसे संतुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए, और ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो परमेश्वर या अन्य लोगों को धोखा देने की कोशिश नहीं करता, यहाँ तक कि उन्हें भी नहीं जो थोड़े मूर्ख या अज्ञानी हैं। किसी मूर्ख या अज्ञानी को धोखा देने की कोशिश करना बहुत ही अनैतिक है—यह तुम्हें शैतान बना देता है। ईमानदार व्यक्ति होने के लिए तुम्हें किसी को छलना या उससे झूठ बोलना नहीं चाहिए। लेकिन दानवों और शैतान के मामले में तुम्हें अपने शब्द बुद्धिमानी से चुनने चाहिए; अगर तुम ऐसा नहीं करते, तो तुम उनके द्वारा मूर्ख बनाए जा सकते हो और परमेश्वर को लज्जित कर सकते हो। अपने शब्द बुद्धिमानी से चुनने और सत्य का अभ्यास करने से ही तुम शैतान को हराकर शर्मिंदा कर पाओगे। जो लोग अज्ञानी, मूर्ख और हठी हैं, वे कभी सत्य को नहीं समझ पाएँगे; उन्हें सिर्फ गुमराह किया जा सकता है, उनके साथ खिलवाड़ किया जा सकता है और उन्हें शैतान द्वारा रौंदा और अंत में निगला जा सकता है।

आगे, आओ चौथे प्रकार के स्वभाव के बारे में बात करते हैं। सभाओं के दौरान कुछ लोग अपनी अवस्थाओं पर थोड़ी संगति कर सकते हैं, लेकिन जब मुद्दों के सार की बात आती है, उनके निजी मंसूबों और विचारों की बात आती है, तो वे टालमटोल करने लगते हैं। जब लोग उन्हें निजी मंसूबे और लक्ष्य वाले व्यक्ति के रूप में उजागर करते हैं, तो वे सिर हिलाकर इसे स्वीकारते दिखाई देते हैं। लेकिन जब लोग किसी चीज को गहराई से उजागर करने या उसका गहन-विश्लेषण करने की कोशिश करते हैं, तो वे इसे बर्दाश्त नहीं कर पाते और उठकर चले जाते हैं। क्यों निर्णायक क्षण में वे खिसक लेते हैं? (वे सत्य नहीं स्वीकारते और अपनी समस्याओं का सामना करने को तैयार नहीं होते।) यह स्वभाव की समस्या है। जब वे अपने भीतर की समस्याएँ हल करने के लिए सत्य स्वीकारने को तैयार नहीं होते, तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि वे सत्य से विमुख रहते हैं? कुछ अगुआ और कार्यकर्ता किस तरह के उपदेश सुनने को बहुत कम तैयार होते हैं? (मसीह-विरोधियों और नकली अगुआओं को कैसे पहचानें विषय पर उपदेश।) सही कहा। वे सोचते हैं, “मसीह-विरोधियों, नकली अगुआओं और फरीसियों की पहचान करने के बारे में ये तमाम बातें—तुम इस बारे में इतना कुछ क्यों कहते रहते हो? तुम मुझे तनावग्रस्त कर रहे हो।” यह सुनकर कि नकली अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहचानने की बात होगी, वे जाने का कोई बहाना ढूँढ़ लेते हैं। यहाँ “जाने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ खिसकने, छिपने से है। वे छिपने की कोशिश क्यों करते हैं? जब दूसरे लोग तथ्यात्मक बात करते हैं, तो तुम्हें सुनना चाहिए : सुनना तुम्हारे लिए अच्छा है। जो चीजें कठोर हों या जिन्हें स्वीकारना कठिन लगे, उन्हें लिख लो; फिर तुम्हें उन चीजों पर अक्सर सोचना चाहिए, उन्हें धीरे-धीरे समझना चाहिए और धीरे-धीरे बदलना चाहिए। तो फिर छिपना क्यों है? ऐसे लोगों को लगता है कि ये आलोचनात्मक शब्द बहुत कठोर हैं और इन्हें सुनना आसान नहीं, इसलिए उनके भीतर प्रतिरोध और विद्वेष विकसित हो जाता है। वे मन ही मन कहते हैं, “मैं कोई मसीह-विरोधी या नकली अगुआ नहीं हूँ—मेरे बारे में क्यों बोलते रहते हो? दूसरे लोगों के बारे में बात क्यों नहीं करते? बुरे लोगों को पहचानने के बारे में कुछ कहो, मेरे बारे में बात मत करो!” वे टालमटोल करने वाले और विरोधी हो जाते हैं। यह कौन-सा स्वभाव है? अगर वे सत्य स्वीकारने को तैयार नहीं होते और हमेशा अपने बचाव में तर्क-वितर्क और बहस करते हैं, तो क्या यहाँ भ्रष्ट स्वभाव की समस्या नहीं है? यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं में ऐसी मनोदशा होती है, तो साधारण भाई-बहनों का क्या? (उनमें भी होती है।) जब सब पहली बार मिलते हैं, तो वे सभी बहुत स्नेही होते हैं और शब्द और धर्म-सिद्धांत रट कर बहुत खुश होते हैं। वे सभी सत्य से प्रेम करते प्रतीत होते हैं। लेकिन जब व्यक्तिगत समस्याओं और वास्तविक कठिनाइयों की बात आती है, तो कई लोग मूढ़ हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग लगातार शादी से विवश रहते हैं। वे कर्तव्य निभाने या सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक नहीं रहते और उनके लिए शादी सबसे बड़ी बाधा और सबसे बड़ा बोझ बन जाती है। सभाओं में जब सभी इस मनोदशा पर संगति कर रहे होते हैं, तो वे दूसरों की संगति के शब्दों से अपनी तुलना कर महसूस करते हैं कि जैसे उन्हीं के बारे में बात हो रही है। वे कहते हैं, “तुम लोगों के सत्य पर संगति करने से मुझे कोई समस्या नहीं है लेकिन मेरी बात क्यों करते हो? क्या तुम लोगों की अपनी कोई समस्या नहीं है? मेरे ही बारे में बात क्यों करते हो?” यह कौन-सा स्वभाव है? जब तुम सत्य की संगति करने के लिए एकत्र होते हो तो तुम्हें वास्तविक मुद्दों का गहन विश्लेषण करना चाहिए और हरेक को इन समस्याओं पर अपनी समझ बताने देनी चाहिए; सिर्फ तभी तुम खुद को जान पाते हो और अपनी समस्याएँ हल कर पाते हो। लोग इसे स्वीकार क्यों नहीं कर पाते? यह कौन-सा स्वभाव है, जब लोग अपनी काट-छाँट स्वीकारने में असमर्थ रहते हैं और सत्य नहीं स्वीकार पाते? क्या तुम्हें इसे स्पष्ट रूप से नहीं समझना चाहिए? ये सभी सत्य से विमुख होने की अभिव्यक्तियाँ हैं—यही समस्या का सार है। जब लोग सत्य से विमुख होते हैं, तो उनके लिए सत्य स्वीकारना बहुत कठिन होता है—और अगर वे सत्य नहीं स्वीकार पाते तो क्या उनके भ्रष्ट स्वभाव की समस्या ठीक की जा सकती है? (नहीं।) तो इस तरह का व्यक्ति, ऐसा व्यक्ति जो सत्य स्वीकारने में अक्षम है—क्या वह सत्य प्राप्त करने में सक्षम है? क्या उसे परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकता है? निश्चित रूप से नहीं। क्या सत्य न स्वीकारने वाले लोग परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास करते हैं? बिल्कुल नहीं। जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनका सबसे महत्वपूर्ण पहलू सत्य स्वीकारने में सक्षम होना है। जो लोग सत्य नहीं स्वीकार सकते, वे ईमानदारी से परमेश्वर पर विश्वास बिल्कुल नहीं करते। क्या ऐसे लोग उपदेश के दौरान शांत बैठने में सक्षम होते हैं? क्या वे कुछ हासिल करने में सक्षम होते हैं? वे नहीं हो सकते। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उपदेश लोगों की विभिन्न भ्रष्ट अवस्थाएँ उजागर करते हैं। परमेश्वर के वचनों के गहन विश्लेषण से लोग ज्ञान प्राप्त करते हैं, और फिर अभ्यास के सिद्धांतों पर संगति करते हुए उन्हें अभ्यास का मार्ग दिया जाता है, और इस तरह एक परिणाम प्राप्त होता है। जब ऐसे लोग यह सुनते हैं कि जो मनोदशा उजागर की जा रही है, वह उनसे संबंधित है—कि वह उन्हीं की समस्याओं से संबंधित है—तो उनकी शर्म उन्हें गुस्से से भर देती है और वे उठकर सभा छोड़कर भी जा सकते हैं। अगर वे नहीं भी जाते तो भी उन्हें अंदर से चिढ़ महसूस हो सकती है और बुरा लग सकता है, ऐसे में उनके सभा में शामिल होने या उपदेश सुनने का कोई मतलब नहीं रह जाता। क्या उपदेश सुनने का उद्देश्य सत्य को समझना और अपनी वास्तविक समस्याएँ हल करना नहीं है? अगर तुम हमेशा अपनी समस्याएँ उजागर होने से डरते हो, अगर तुम लगातार अपना जिक्र होने से डरते हो तो परमेश्वर पर विश्वास ही क्यों करते हो? अगर अपनी आस्था में तुम सत्य नहीं स्वीकार सकते तो तुम सचमुच परमेश्वर में विश्वास नहीं करते। अगर तुम हमेशा उजागर किए जाने से डरते हो तो अपनी भ्रष्टता की समस्या कैसे हल कर पाओगे? अगर तुम अपनी भ्रष्टता की समस्या हल नहीं कर सकते तो परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है? परमेश्वर में आस्था का उद्देश्य परमेश्वर से उद्धार स्वीकारना, अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करना और एक सच्चे इंसान के समान जीना है और ये सब सत्य स्वीकारने के माध्यम से प्राप्त किए जाते हैं। अगर तुम सत्य को या अपनी काट-छाँट या खुद को उजागर किया जाना भी बिल्कुल नहीं स्वीकार सकते, तो तुम्हारे पास परमेश्वर से उद्धार पाने का कोई उपाय नहीं बचता। तो तुम्हीं बताओ : हर कलीसिया में ऐसे कितने लोग हैं जो सत्य स्वीकार सकते हैं? जो सत्य नहीं स्वीकार सकते, वे बहुत हैं या थोड़े? (बहुत।) क्या यह ऐसी स्थिति है जो कलीसियाओं में चुने हुए लोगों के बीच वास्तव में मौजूद है, क्या यह एक वास्तविक समस्या है? जो सत्य स्वीकारने और अपनी काट-छाँट स्वीकारने में असमर्थ हैं, ऐसे सभी लोग सत्य से विमुख रहते हैं। सत्य-विमुख होना एक प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव है और अगर इसे बदला न जा सके तो क्या उन्हें बचाया जा सकता है? हरगिज नहीं। आज कई लोगों को सत्य स्वीकारने में कठिनाई होती है। यह कतई आसान नहीं है। इसे हल करने के लिए व्यक्ति को परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शोधन का कुछ अनुभव करना होगा। तो तुम लोग क्या कहते हो : जब लोग अपनी काट-छाँट नहीं स्वीकार पाते, जब वे अपनी तुलना परमेश्वर के वचनों से या उपदेशों के दौरान उजागर की जाने वाली अवस्थाओं से नहीं करते तो यह कैसा स्वभाव है? (सत्य से विमुख होने का स्वभाव।) यही चौथा भ्रष्ट स्वभाव है : सत्य से विमुख होना। वे किस तरह विमुख रहते हैं? (वे परमेश्वर के वचन पढ़ना या उपदेश सुनना नहीं चाहते और सत्य की संगति नहीं करना चाहते।) ये सबसे स्पष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई यह कहता है कि “तुम वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हो। तुमने कर्तव्य निभाने के लिए परिवार और करियर को दरकिनार कर पिछले कई वर्षों में बहुत-कुछ सहा और काफी कीमत चुकाई है। परमेश्वर ऐसे लोगों को आशीष देता है। परमेश्वर के वचन कहते हैं कि जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं, उन्हें बहुत आशीष मिलेंगे” तो तब तुम आमीन कहते हो और ऐसे सत्य स्वीकार लेते हो। लेकिन जब वह व्यक्ति आगे कहता है, “लेकिन तुम्हें सत्य के लिए प्रयास करते रहना चाहिए! अगर लोगों के हर काम के पीछे अपनी मंशाएँ होंगी और वे हमेशा अपने इरादों के अनुसार अनियंत्रित व्यवहार करेंगे तो वे देर-सवेर परमेश्वर को नाराज कर देंगे और उसकी घृणा झेलेंगे” तो इस तरह की बातें सुनकर तुम इन्हें नहीं स्वीकार सकते। सत्य पर संगति सुनकर तुम इसे स्वीकारने में असमर्थ तो रहते ही हो, क्रोधित भी हो जाते हो और मन-ही-मन करारा जवाब देते हो : “तुम लोग सारा दिन सत्य पर संगति करने में बिता देते हो लेकिन मैंने तुममें से किसी को स्वर्ग जाते नहीं देखा है।” यह कौन-सा स्वभाव है? (सत्य से विमुख होना।) जब बात अभ्यास में बदलती है, जब लोग तुम्हारे साथ गंभीर हो जाते हैं, तो तुममें अत्यधिक घृणा, अधीरता और प्रतिरोध प्रदर्शित होता है। यह सत्य से विमुख होना है। और सत्य से विमुख होने का इस तरह का स्वभाव मुख्य रूप से कैसे प्रकट होता है? अपनी काट-छाँट न स्वीकारने के रूप में। अपनी काट-छाँट न स्वीकारना इस प्रकार के स्वभाव से अभिव्यक्त होने वाली एक तरह की मनोदशा है। अपनी काट-छाँट होने पर ये लोग मन ही मन विशेष रूप से प्रतिरोधी होते हैं। वे सोचते हैं, “मैं यह नहीं सुनना चाहता! नहीं सुनना चाहता!” या “दूसरे लोगों की काट-छाँट क्यों नहीं करते? मुझे ही काट-छाँट के लिए क्यों चुना?” सत्य से विमुख होने का क्या अर्थ है? सत्य विमुख होना उसे कहते हैं जब कोई व्यक्ति किसी भी सकारात्मक चीज में, सत्य में, परमेश्वर जो कहता है उसमें, या परमेश्वर की इच्छा से जुड़ी किसी भी चीज में बिल्कुल भी रुचि नहीं रखता। कभी-कभी उसे इन चीजों से घृणा होती है, कभी-कभी वह इनसे अलग रहता है, कभी-कभी वह इनके प्रति अनादर और बेरुखी दिखाता है और इन्हें महत्वहीन मानता है और इनके प्रति निष्ठाहीन और अनमना रहता है या इनकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेता। सत्य सुनने पर घृणा होना ही सत्य से विमुख रहने की मुख्य अभिव्यक्ति नहीं होती है। इसमें सत्य का अभ्यास के प्रति अनिच्छा और सत्य के अभ्यास का समय आने पर पीछे हटना भी शामिल है, मानो सत्य का उससे कोई लेना-देना न हो। जब कुछ लोग सभाओं में संगति करते हैं, तो उनमें बड़ा जोश दिखता है, वे दूसरों को गुमराह कर उनका दिल जीतने के लिए शब्द और धर्म-सिद्धांत दोहराना और बड़ी-बड़ी बातें करना पसंद करते हैं। जब वे ऐसा करते हैं, तो वे ऊर्जा से भरे हुए और उत्साहित प्रतीत होते हैं और लगातार बोलते रहते हैं। इस बीच दूसरे लोग सुबह से रात तक पूरा दिन आस्था से जुड़े मामलों में व्यस्त रहते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ते रहते हैं, प्रार्थना करते रहते हैं, भजन सुनते रहते हैं, नोट्स लेते रहते हैं, मानो वे पल-भर के लिए भी परमेश्वर से अलग न रह सकते हों। सुबह से शाम तक वे अपना कर्तव्य निभाने में व्यस्त रहते हैं। क्या ये लोग वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं? क्या इनमें सत्य से विमुख होने का स्वभाव नहीं होता? उनकी वास्तविक अवस्था कब देखी जा सकती है? (जब सत्य का अभ्यास करने का समय आता है, तो वे भाग जाते हैं, और वे काट-छाँट स्वीकारने को तैयार नहीं होते।) क्या ऐसा इसलिए हो सकता है कि वे लोग जो कुछ सुनते हैं उसे समझ नहीं पाते या इसलिए कि चूँकि वे सत्य नहीं समझते इसलिए वे उसे स्वीकारने को तैयार नहीं होते? उत्तर इनमें से कोई नहीं है। वे अपनी प्रकृति से संचालित होते हैं। यह स्वभाव की समस्या है। अपने दिल में ये लोग खूब अच्छी तरह से जानते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, कि वे सकारात्मक हैं, कि सत्य का अभ्यास करने से व्यक्ति के स्वभावों में बदलाव आ सकता है और वह उन्हें परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में सक्षम बना सकता है, लेकिन वे उन्हें स्वीकारते नहीं या उनका अभ्यास नहीं करते। यही सत्य से विमुख होना है। तुम लोगों ने किनमें सत्य से विमुख रहने का स्वभाव देखा है? (गैर-विश्वासियों में।) गैर-अविश्वासी सत्य से विमुख रहते हैं, यह बहुत स्पष्ट है। परमेश्वर के पास ऐसे लोगों को बचाने का कोई उपाय नहीं है। तो परमेश्वर के विश्वासियों में तुम लोगों ने किन मामलों में लोगों को सत्य से विमुख होते हुए देखा है? हो सकता है जब तुमने उनके साथ सत्य पर संगति की हो तो वे उठकर चले न गए हों और जब संगति ने उनकी अपनी कठिनाइयों और समस्याओं को छुआ हो तो उन्होंने उनका सही ढंग से सामना किया हो—और फिर भी उनमें सत्य से विमुख रहने का स्वभाव हो। इसे कहाँ देखा जा सकता है? (वे अक्सर उपदेश सुनते हैं, लेकिन सत्य को अभ्यास में नहीं लाते।) जो लोग सत्य को अभ्यास में नहीं लाते, उनमें निर्विवाद रूप से सत्य से विमुख रहने का स्वभाव होता है। कुछ लोग कभी-कभार सत्य का थोड़ा-सा अभ्यास करने में सक्षम रहते हैं तो क्या उनमें सत्य से विमुख रहने का स्वभाव होता है? ऐसा स्वभाव उन लोगों में भी पाया जाता है जो अलग-अलग मात्रा में सत्य का अभ्यास करते हैं। तुम्हारे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होने का मतलब यह नहीं कि तुममें सत्य से विमुख रहने का स्वभाव नहीं है। सत्य का अभ्यास करने का मतलब यह नहीं कि तुम्हारा जीवन-स्वभाव तुरंत बदल गया है—ऐसा नहीं है। तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का समाधान करना चाहिए, अपने जीवन-स्वभाव में बदलाव लाने का यही एकमात्र तरीका है। एक बार सत्य का अभ्यास करने का मतलब यह नहीं कि अब तुममें भ्रष्ट स्वभाव नहीं रहा। तुम एक क्षेत्र में सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो लेकिन जरूरी नहीं कि तुम अन्य क्षेत्रों में भी सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो। इससे जुड़े संदर्भ और कारण अलग-अलग हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भ्रष्ट स्वभाव मौजूद है, यही समस्या की जड़ है। इसलिए जब व्यक्ति का स्वभाव बदल जाता है तो सत्य का अभ्यास करने में आड़े आने वाली उसकी तमाम कठिनाइयाँ, बहाने और हीले-हवाले—ये तमाम समस्याएँ ठीक हो जाती हैं और उसका समस्त विद्रोहीपन, त्रुटियाँ और दोष दूर हो जाते हैं। अगर लोगों के स्वभाव नहीं बदलते, तो उन्हें सत्य का अभ्यास करने में हमेशा कठिनाई होगी और वे हमेशा बहाने बनाएँगे और हीले-हवाले करेंगे। अगर तुम सत्य का अभ्यास करने और हर चीज में परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना चाहते हो तो पहले तुम्हारे स्वभाव में बदलाव आना चाहिए। तभी तुम समस्याओं का जड़ से समाधान कर पाओगे।

सत्य से विमुख रहने का स्वभाव मुख्य रूप से किसके संदर्भ में है? आओ, पहले एक प्रकार की मनोदशा पर चर्चा करते हैं। कुछ लोगों को उपदेश सुनने में गहरी दिलचस्पी होती है, और जितना ज्यादा वे सत्य पर संगति सुनते हैं, उनका हृदय उतना ही उज्ज्वल होता है और वे उतने ही ज्यादा प्रफुल्लित होते हैं। उनमें सकारात्मक और सक्रिय रवैया आ जाता है। क्या यह साबित करता है कि उनमें सत्य से विमुख रहने का स्वभाव नहीं है? (नहीं।) उदाहरण के लिए, परमेश्वर में आस्था के बारे में सुनकर सात-आठ साल के कुछ बच्चों की रुचि जाग जाती है और वे हमेशा परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और अपने माता-पिता के साथ सभाओं में जाते हैं तो कुछ लोग कहने लगते हैं, “इस बच्चे में सत्य से विमुख रहने का स्वभाव नहीं है, यह बहुत चतुर है, यह परमेश्वर में विश्वास करने के लिए ही पैदा हुआ है, इसे परमेश्वर ने चुना है।” हो सकता है उसे परमेश्वर ने चुना हो, लेकिन ये शब्द सिर्फ आधे ही सही हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे अभी छोटे हैं और उनके अनुसरण की दिशा और जीवन में उनके लक्ष्यों ने अभी आकार नहीं लिया है। जब जीवन और समाज के बारे में उनके नजरियों ने अभी आकार नहीं लिया है तो कहा जा सकता है कि उनकी बाल-आत्माएँ सकारात्मक चीजों से प्रेम करती हैं, लेकिन तुम यह नहीं कह सकते कि उनमें सत्य से विमुख होने का स्वभाव नहीं है। मैं यह क्यों कहता हूँ? इसलिए कि वे छोटे हैं। उनकी मानवता अभी अपरिपक्व है, उनके पास अनुभव की कमी है, उनका क्षितिज सीमित है और वे बिल्कुल भी नहीं समझते कि सत्य क्या है। उनके पास सिर्फ सकारात्मक चीजों का स्वाद है। तुम यह नहीं कह सकते कि वे सत्य से प्रेम करते हैं, और यह तो बिल्कुल भी नहीं कह सकते कि उनके पास सत्य वास्तविकता है। और तो और, बच्चों के पास कोई अनुभव भी नहीं होता, इसलिए कोई भी यह नहीं देख सकता कि उनके हृदय में क्या छिपा है, उनका प्रकृति सार किस तरह का है। सिर्फ इसलिए कि वे परमेश्वर में आस्था रखने और उपदेश सुनने में रुचि रखते हैं, लोग यह तय मान लेते हैं कि वे सत्य से प्रेम करते हैं—जो कि अज्ञानता और मूर्खता की अभिव्यक्ति है, क्योंकि बच्चों को यह ज्ञान नहीं होता कि सत्य क्या है, इसलिए कोई इस मामले का जिक्र तक नहीं कर सकता कि वे सत्य को पसंद करते हैं या सत्य विमुख होते हैं। सत्य से विमुख होना मुख्य रूप से सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति रुचि की कमी और घृणा को दर्शाता है। सत्य विमुख होना उसे कहते हैं जब लोग सत्य को समझने और यह जानने में तो सक्षम होते हैं कि सकारात्मक चीजें क्या होती हैं, फिर भी वे सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रतिरोधी, लापरवाह, प्रतिकूल, टालमटोल और उदासीन रवैये और मनोदशा के साथ पेश आते हैं। यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव है। क्या इस तरह का स्वभाव हर किसी में होता है? कुछ लोग कहते हैं, “हालाँकि मैं जानता हूँ कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, फिर भी मैं उन्हें पसंद या स्वीकार नहीं करता, या कम-से-कम मैं उसे अभी नहीं स्वीकार सकता।” यहाँ क्या मामला है? यह सत्य विमुख होना है। उनके अंदर का स्वभाव उन्हें सत्य नहीं स्वीकारने देता। सत्य न स्वीकारने की कौन-सी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं? कुछ लोग कहते हैं, “मैं सभी सत्य समझता हूँ, बस मैं उन्हें अभ्यास में नहीं ला सकता।” इससे पता चलता है कि यह व्यक्ति सत्य से विमुख है और सत्य से प्रेम नहीं करता, इसलिए यह किसी भी सत्य को अमल में नहीं ला सकता। कुछ लोग कहते हैं, “मैं जो इतना पैसा कमा पाया हूँ, उसका संप्रभु परमेश्वर है। परमेश्वर ने मुझे सचमुच आशीष दिया है, परमेश्वर ने मेरे साथ बहुत अच्छा किया है, परमेश्वर ने मुझे बहुत धन-दौलत दी है। मेरा पूरा परिवार अच्छा पहनता-खाता है, उसे न तो कपड़े-लत्तों की कमी है और न खाने-पीने की।” खुद को परमेश्वर का आशीष मिला देख ये लोग अपने हृदय में परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं, वे जानते हैं कि यह सब परमेश्वर द्वारा संचालित था, और अगर उन्हें परमेश्वर का आशीष न मिला होता—अगर वे अपनी प्रतिभा के ही भरोसे रहते—तो उन्होंने निश्चित रूप से यह सब पैसा न कमाया होता। वे वास्तव में अपने हृदय में यही सोचते हैं, वे वास्तव में यही जानते हैं और वास्तव में परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं। लेकिन एक दिन ऐसा भी आता है, जब उनका व्यवसाय विफल हो जाता है, जब वे मुश्किल दौर में होते हैं और गरीबी का शिकार हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे सुविधाभोगी हो जाते हैं और इस पर कोई ध्यान नहीं देते कि अपना कर्तव्य ठीक से कैसे निभाया जाए, और वे अपना पूरा समय धन-दौलत के पीछे भागते हुए धन के गुलाम बनकर बिताते हैं, जो उनके कर्तव्य निर्वहन पर असर डालता है, इसलिए परमेश्वर उनसे यह छीन लेता है। अपने दिल में वे जानते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें बहुत आशीष दिया है, और उन्हें इतना कुछ दिया है, फिर भी उनमें परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान करने की कोई इच्छा नहीं होती, वे बाहर जाकर अपना कर्तव्य निभाना नहीं चाहते, वे बुजदिल होते हैं और लगातार गिरफ्तारी से भयभीत रहते हैं, ये तमाम धन-दौलत और सुख-सुविधाएँ खोने से डरते हैं, नतीजतन परमेश्वर उनसे ये चीजें छीन लेता है। उनका हृदय दर्पण की तरह साफ है, वे जानते हैं कि परमेश्वर ने उनसे ये चीजें ले ली हैं, और परमेश्वर उन्हें अनुशासित कर रहा है, इसलिए वे प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर! तुमने मुझे एक बार आशीष दिया था, तो तुम मुझे दूसरी बार भी आशीष दे सकते हो। तुम्हारा अस्तित्व शाश्वत है, इसलिए तुम्हारे आशीष भी मनुष्य के साथ हैं। मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूँ! चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हारे आशीष और वादा नहीं बदलेगा। अगर तुम मुझसे ले भी लेते हो, तब भी मैं समर्पण करूँगा।” लेकिन “समर्पण” शब्द उनके मुँह से खोखला लगता है। मुँह से वे कहते हैं कि वे समर्पण कर सकते हैं, लेकिन बाद में वे इसके बारे में सोचते हैं, और उन्हें कुछ स्वीकार्य नहीं लगता : “पहले चीजें कितनी अच्छी हुआ करती थीं। परमेश्वर ने यह सब क्यों छीन लिया? क्या घर पर रहकर अपना कर्तव्य निभाना वैसा ही नहीं था, जैसा कि अपना कर्तव्य निभाने के लिए बाहर जाना? मैं किस चीज में देरी कर रहा था?” वे हमेशा अतीत को याद करते रहते हैं। उनमें परमेश्वर के प्रति एक तरह की शिकायत और असंतोष रहता है और वे लगातार उदास रहते हैं। क्या परमेश्वर अभी भी उनके हृदय में होता है? उनके दिल में पैसा, भौतिक सुख-सुविधाएँ और वह अच्छा समय ही रहता है। परमेश्वर का उनके हृदय में कोई स्थान नहीं रहता, वह अब उनका परमेश्वर नहीं रहता। भले ही वे जानते हैं कि “परमेश्वर ने दिया और परमेश्वर ने ले लिया” सत्य है, फिर भी वे “परमेश्वर ने दिया” शब्दों को पसंद करते हैं और “परमेश्वर ने ले लिया” शब्दों से विमुख रहते हैं। स्पष्ट रूप से, सत्य की उनकी स्वीकृति चयनात्मक है। जब परमेश्वर उन्हें आशीष देता है, तब तो वे इसे सत्य के रूप में स्वीकारते हैं—लेकिन जैसे ही परमेश्वर उनसे लेता है, वे इसे नहीं स्वीकार पाते। वे परमेश्वर की ऐसी संप्रभुता नहीं स्वीकार पाते, इसके बजाय वे विरोध करते हैं और असंतुष्ट हो जाते हैं। जब उन्हें अपना कर्तव्य निभाने के लिए कहा जाता है तो वे कहते हैं, “अगर परमेश्वर मुझे आशीष देगा और मुझ पर अनुग्रह करेगा, तो मैं अपना कर्तव्य निभाऊँगा। परमेश्वर के आशीषों के बिना और अपने परिवार के ऐसी गरीबी की हालत में रहते हुए मैं अपना कर्तव्य कैसे निभाऊँ? मैं नहीं निभाना चाहता!” यह कौन-सा स्वभाव है? भले ही अपने हृदय में वे व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर के आशीषों का और इस बात का अनुभव करते हैं कि कैसे उसने उन्हें इतना कुछ दिया, लेकिन जब परमेश्वर उनसे ले लेता है तो वे इसे स्वीकारने के इच्छुक नहीं होते। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे पैसा और अपना आरामदायक जीवन नहीं छोड़ सकते। भले ही उन्होंने इसके बारे में कोई खास हो-हल्ला न किया हो, भले ही परमेश्वर के सामने हाथ न पसारा हो और भले ही उन्होंने अपने प्रयासों पर भरोसा करके अपनी पिछली संपत्तियाँ वापस लेने की कोशिश न की हो, पर वे परमेश्वर के कार्यों से पहले ही निराश हो चुके होते हैं, वे स्वीकारने में पूरी तरह अक्षम होकर कहते हैं, “परमेश्वर इस तरह से कार्य करे, यह वास्तव में बेरुखी है। यह समझ से परे की बात है। मैं कैसे परमेश्वर में विश्वास करता रहूँ? मैं अब यह नहीं मानना चाहता कि वह परमेश्वर है। अगर मैं यह नहीं मानता कि वह परमेश्वर है तो वह परमेश्वर नहीं है।” क्या यह एक तरह का स्वभाव है? (बिल्कुल।) इस तरह का स्वभाव शैतान का होता है, शैतान इसी तरह से परमेश्वर को नकारता है। इस तरह का स्वभाव सत्य से विमुख होने और सत्य से घृणा करने का होता है। जब लोग सत्य से इस हद तक विमुख होते हैं तो यह उन्हें कहाँ ले जाता है? यह उनसे परमेश्वर का विरोध करवाता है और यह उनसे हठपूर्वक अंत तक परमेश्वर का विरोध करवाता है—जिसका अर्थ है कि उनके लिए सब-कुछ खत्म हो गया है।

भला सत्य-विमुख स्वभाव की प्रकृति क्या होती है? जो लोग सत्य से विमुख होते हैं, वे सकारात्मक चीजों से या किसी भी ऐसी चीज से प्रेम नहीं करते जो परमेश्वर करता है। उदाहरण के लिए, अंत के दिनों के दौरान परमेश्वर के न्याय के कार्य को ही ले लो : कोई भी इस कार्य को स्वीकारना नहीं चाहता। कुछ ही लोग परमेश्वर द्वारा लोगों को उजागर करने, लोगों की निंदा करने, लोगों को ताड़ना देने, लोगों की परीक्षा लेने, लोगों का शोधन करने, लोगों को ताड़ित करने और लोगों को अनुशासित करने के बारे में उपदेश सुनने को तैयार रहते हैं, फिर भी वे परमेश्वर द्वारा लोगों को आशीष देने, लोगों को प्रोत्साहित करने और लोगों के लिए उसके वादों के बारे में सुनकर खुश होते हैं—कोई भी इन चीजों को अस्वीकार नहीं करता। यह अनुग्रह के युग की तरह है, जब परमेश्वर ने मनुष्य को क्षमा करने, माफ करने, आशीष देने और अनुग्रह प्रदान करने का कार्य किया, जब उसने बीमारों को चंगा किया और दुष्टात्माओं को निकाला, और लोगों से वादे किए—लोग वह सब स्वीकारने के लिए तैयार थे, उन सभी ने यीशु के मनुष्य के प्रति अत्यधिक प्रेम के लिए उसकी प्रशंसा की। लेकिन अब जब राज्य का युग आ गया है और परमेश्वर न्याय का कार्य करता है और बहुत-से सत्य व्यक्त करता है, तो कोई परवाह नहीं करता। परमेश्वर लोगों को चाहे कैसे भी उजागर कर उनका न्याय करे, वे उसे स्वीकारते नहीं, यहाँ तक कि मन ही मन कहते हैं, “क्या परमेश्वर ऐसा कर सकता है? क्या परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता?” अगर उनकी काट-छाँट की जाती है, उन्हें ताड़ना दी जाती है या अनुशासित किया जाता है तो वे और भी धारणाएँ बना लेते हैं और मन ही मन कहते हैं, “यह परमेश्वर का प्रेम कैसे है? ये न्याय और निंदा के शब्द बिल्कुल भी प्यारे नहीं हैं, मैं इन्हें नहीं स्वीकारता। मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ!” यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव है। सत्य सुनकर कुछ लोग कहते हैं, “कैसा सत्य? यह सिर्फ एक सिद्धांत है। यह बहुत महान, बहुत शक्तिशाली, बहुत पवित्र लगता है—लेकिन ये सिर्फ सुहावने शब्द हैं।” क्या यह सत्य से विमुख रहने का स्वभाव नहीं है? यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव है। क्या तुम लोगों में इस तरह का स्वभाव है? (हाँ, है।) अभी मैंने किस मनोदशा का उल्लेख किया, जिसके तुम लोग सबसे ज्यादा शिकार हो सकते हो, जिसे तुम लोग सबसे ज्यादा देखते हो और जिसे सबसे ज्यादा गहराई से समझते हो? (अपना कर्तव्य निभाते समय कठिनाई का सामना न करना चाहना, परमेश्वर के हाथों न्याय होने और ताड़ना पाने की इच्छा न रखना, सब-कुछ आराम से चलते रहने की कामना करना।) परमेश्वर की संप्रभुता को नकारना, परमेश्वर के अनुशासन और ताड़ना को नकारना, स्पष्ट रूप से यह जानकर भी कि इसमें परमेश्वर अच्छा कर रहा है अपने हृदय में प्रतिरोध करना : यह एक तरह की अभिव्यक्ति है। और क्या है? (अपना कर्तव्य निभाने में प्रभावी रहने पर खुश होना और प्रभावी न रहने पर नकारात्मक, कमजोर और सक्रिय रूप से सहयोग करने में असमर्थ होना।) यह किस तरह की अभिव्यक्ति है? (हठधर्मिता की।) तुम्हें इस बारे में सटीक होना चाहिए। भ्रमित मत होओ और विचारहीन दावे मत करो। कभी-कभी लोगों की मनोदशाएँ अत्यधिक जटिल होती है; वे सिर्फ एक ही तरह की नहीं होतीं, बल्कि दो-तीन मिलीजुली मनोदशाएँ होती हैं। तो फिर तुम इसे कैसे समझाते हो? कभी-कभी एक स्वभाव दो मनोदशाओं में प्रकट होगा तो कभी-कभी तीन मनोदशाओं में, लेकिन इनके अलग-अलग होने के बावजूद अंत में यह एक ही तरह का स्वभाव होता है। तुम्हें सत्य से विमुख रहने के इस स्वभाव को समझना चाहिए, और तुम लोगों को जाँच करनी चाहिए कि सत्य से विमुख रहने की अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं। इस तरह, तुम इस सत्य विमुख स्वभाव को वास्तव में समझ पाओगे। तुम सत्य से विमुख हो। तुम अच्छी तरह जानते हो कि कोई चीज सही है—उसका परमेश्वर के वचन या सत्य सिद्धांत होना जरूरी नहीं, कभी-कभी यह सकारात्मक चीज, सही चीज, सही शब्द, सही सुझाव होता है—फिर भी तुम कहते हो, “यह सत्य नहीं है, ये सिर्फ सही शब्द हैं। मैं इन्हें सुनना नहीं चाहता—मैं लोगों की बातें नहीं सुनता!” यह कौन-सा स्वभाव है? इसमें अहंकार, हठधर्मिता और सत्य-विमुखता है—इस तरह के तमाम स्वभाव मौजूद हैं। हर तरह का स्वभाव कई तरह की मनोदशाएँ उत्पन्न कर सकता है। एक मनोदशा कई अलग-अलग स्वभावों से संबंधित हो सकती है। तुम्हें इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि ये मनोदशाएँ किस तरह के स्वभावों से उत्पन्न होती हैं। इस तरह तुम विभिन्न प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव पहचानने लगोगे।

अभी हमने जिन चार प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों के बारे में संगति की है, उनमें से कोई भी एक स्वभाव लोगों को मौत की सजा देने के लिए पर्याप्त है—क्या ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण है? (नहीं।) लोगों के भ्रष्ट स्वभाव कैसे घटित होते हैं? वे सभी शैतान से आते हैं। लोग शैतान, दानवों और प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित व्यक्तियों से निकलने वाले तमाम पाखंडों और भ्रांतियों से ओतप्रोत हो जाते हैं और इस तरह ये तमाम भ्रष्ट स्वभाव उत्पन्न होते हैं। ये स्वभाव सकारात्मक हैं या नकारात्मक? (नकारात्मक।) तुम किस आधार पर कहते हो कि वे नकारात्मक हैं? (सत्य के आधार पर।) चूँकि ये स्वभाव सत्य का उल्लंघन और परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं और परमेश्वर के स्वभाव और स्वरूप का शत्रुतापूर्ण विरोध करते हैं, इसलिए अगर इनमें से एक भ्रष्ट स्वभाव भी लोगों में पाया जाता है, तो वे ऐसे व्यक्ति बन जाते हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। अगर इन चारों में से हर स्वभाव व्यक्ति के भीतर पाया जाए तो यह परेशानी की बात है, वह परमेश्वर का शत्रु बन जाता है और उनकी मृत्यु निश्चित है। चाहे जो भी स्वभाव हो, अगर तुम उसे सत्य के तराजू पर तोलो, तो तुम देखोगे कि अभिव्यक्त होने वाला प्रत्येक सार परमेश्वर के विरुद्ध, परमेश्वर के प्रतिरोध में और परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है। इसलिए अगर तुम्हारे स्वभाव नहीं बदलते तो फिर तुम परमेश्वर के अनुरूप नहीं होगे, तुम सत्य से घृणा करोगे और तुम परमेश्वर के शत्रु होगे।

अब हम पाँचवीं तरह के स्वभाव के बारे में बात करते हैं। मैं एक उदाहरण देता हूँ और तुम लोग यह पता लगाने की कोशिश कर सकते हो कि यह किस तरह का स्वभाव है। कल्पना करो कि दो लोग बात कर रहे हैं, और उनमें से एक कुछ ज्यादा ही मुँहफट है, जिससे दूसरा व्यक्ति नाराज हो जाता है। वह अपने मन में सोचता है कि “तुम मेरे स्वाभिमान को इतनी चोट क्यों पहुँचा रहे हो? क्या तुम्हें लगता है कि मैं अपने साथ किसी को दुर्व्यवहार करने दूँगा?” और इसलिए उसके भीतर घृणा पैदा हो जाती है। देखा जाए तो इस समस्या को हल करना आसान है। अगर एक व्यक्ति किसी दूसरे को चोट पहुँचाने वाली कोई बात कह दे लेकिन फिर उससे माफी माँग ले तो मामला खत्म हो जाएगा। लेकिन अगर नाराज पक्ष इस मामले को भुला न पाए और मानता हो कि “सज्जन के बदला लेने में देर क्या और सबेर क्या” तो यह कैसा स्वभाव है? (दुर्भावना।) सही कहा—यह दुर्भावना है, और यह एक शातिर स्वभाव वाला व्यक्ति है। कलीसिया में कुछ लोगों की काट-छाँट की जाती है क्योंकि वे अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते। व्यक्ति की काट-छाँट करने में अक्सर उस व्यक्ति को फटकार लगाना और शायद डाँटना भी शामिल रहता है। इससे तय है कि वे परेशान होकर बहाने ढूँढ़ेंगे और पलटकर जवाब देना चाहेंगे। वे इस तरह की बातें कहते हैं, “हालाँकि तुमने सही बातें कहकर मेरी काट-छाँट की लेकिन तुम्हारी कुछ बातें बहुत ही आपत्तिजनक थीं, तुमने मुझे अपमानित किया और मेरी भावनाओं को ठेस पहुँचाई। मैंने इन तमाम वर्षों में परमेश्वर में विश्वास किया है, कभी कोई योगदान न करते हुए कड़ी मेहनत की है—मेरे साथ इस तरह का व्यवहार कैसे किया जा सकता है? तुम किसी और की काट-छाँट क्यों नहीं करते? मुझे यह मंजूर नहीं, न ही मैं इसे सह सहता हूँ!” यह एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव है, है न? (हाँ।) यह भ्रष्ट स्वभाव सिर्फ शिकायतों, अवज्ञा और विरोध के माध्यम से प्रकट हो रहा है, लेकिन यह अभी अपने चरम पर नहीं पहुँचा है, अपनी पराकाष्ठा पर नहीं पहुँचा है, हालाँकि यह पहले से ही कुछ संकेत दे रहा है, और यह पहले से ही उस बिंदु पर पहुँचना शुरू कर चुका है जहाँ से यह अपने चरम पर पहुँचने वाला है। इसके शीघ्र बाद उनका क्या रुख होता है? वे समर्पित नहीं रह पाते, चिड़चिड़े और विद्रोही होकर द्वेषपूर्वक पेश आने लगते हैं। वे इसे तर्कसंगत ठहराना शुरू कर देते हैं : “जब अगुआ और कार्यकर्ता लोगों की काट-छाँट करते हैं तो वे हमेशा सही नहीं होते। तुम सब लोग इसे स्वीकार सकते हो, लेकिन मैं नहीं। तुम लोग इसे इसलिए स्वीकार सकते हो, क्योंकि तुम लोग मूर्ख और डरपोक हो। मैं इसे नहीं स्वीकारता! चलो इस पर चर्चा करते हैं और देखते हैं कि कौन सही या गलत है।” तब लोग उनके साथ यह कहते हुए संगति करते हैं, “सही हो या गलत, पहली चीज जो तुम्हें करनी चाहिए वह है आज्ञापालन। क्या यह संभव है कि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में जरा भी दाग न लगा हो? क्या तुम हर चीज ठीक करते हो? अगर तुम हर चीज ठीक भी करते हो, तो भी तुम्हारी काट-छाँट तुम्हारे लिए मददगार है! हमने तुम्हारे साथ कई बार सिद्धांतों पर संगति की लेकिन तुमने उसे कभी नहीं सुना और बिना विचारे अपनी मर्जी से काम करते रहे जिससे कलीसिया के काम में बाधाएँ आईं और बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ, तो फिर तुम कैसे अपनी काट-छाँट का सामना नहीं कर सकते? हो सकता है कि शब्द कठोर हों और इन्हें सुनना कठिन हो लेकिन यह सामान्य बात है, है न? तो तुम किस बारे में बहस कर रहे हो? क्या दूसरों को तुम्हारी काट-छाँट करने दिए बिना तुम्हें बस बुरे काम करने देना चाहिए?” लेकिन क्या यह सुनने के बाद वे अपनी काट-छाँट होना स्वीकार पाएँगे? वे नहीं स्वीकार पाएँगे। वे बस बहाने बनाकर प्रतिरोध करते रहेंगे। उन्होंने कौन-सा स्वभाव प्रकट किया? शैतानी; यह एक शातिर स्वभाव है। उनका वास्तव में क्या मतलब था? “मैं लोगों द्वारा परेशान किया जाना बर्दाश्त नहीं करता। कोई मुझे नुकसान पहुँचाने की कोशिश न करे। अगर यह दिखा दूँ कि मुझसे उलझना आसान नहीं है, तो तुम भविष्य में मेरी काट-छाँट करने की हिम्मत नहीं करोगे। क्या मैं तब जीत नहीं जाऊँगा?” इसके बारे में क्या खयाल है? स्वभाव उजागर हो गया है, है न? यह एक शातिर स्वभाव है। शातिर स्वभाव वाले लोग न सिर्फ सत्य से विमुख रहते हैं—वे सत्य से घृणा भी करते हैं! जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे या तो भागने की कोशिश करते हैं या इसे नजरअंदाज कर देते हैं—अपने दिलों में वे बेहद शत्रुतापूर्ण होते हैं। यह सिर्फ बहाने बनाने का मामला नहीं है। उनका यह रवैया बिल्कुल नहीं होता। वे अड़ियल और प्रतिरोधी होते हैं, वे किसी चुड़ैल की तरह पलटकर जवाब भी देते हैं। वे अपने दिल में सोचते हैं, “मैं समझता हूँ कि तुम मुझे अपमानित करने की कोशिश कर रहे हो और जानबूझकर मुझे शर्मिंदा कर रहे हो, और भले ही तुम्हारे सामने तुम्हारा विरोध करने की मेरी हिम्मत नहीं होती, लेकिन मुझे बदला लेने का मौका मिल ही जाएगा! तुम्हें लगता है कि तुम बस मेरी काट-छाँट कर मुझे धौंस दे सकते हो? मैं सबको अपनी तरफ कर तुम्हें अलग-थलग कर दूँगा और फिर तुम्हें तुम्हारी करनी का मजा चखाऊँगा!” वे अपने दिल में यही सोचते हैं; उनका शातिर स्वभाव अंततः प्रकट हो जाता है। अपने लक्ष्य हासिल करने और अपनी भड़ास निकालने के लिए वे बहाने ढूंढ़ने की पूरी कोशिश करते हैं, जिससे वे खुद को सही ठहरा सकें और सभी को अपने पक्ष में कर सकें। तभी वे खुश और शांत होते हैं। यह दुर्भावनापूर्ण है, है न? यह एक शातिर स्वभाव है। जब तक उनकी काट-छाँट नहीं होती, तब तक ऐसे लोग छोटे मेमनों के समान होते हैं। जब उनकी काट-छाँट की जाती है या जब उनका वास्तविक स्वरूप उजागर किया जाता है, तो वे तुरंत मेमने से भेड़िये में बदल जाते हैं और उनका भेड़ियापन बाहर आ जाता है। यह एक शातिर स्वभाव है, है न? (हाँ।) तो यह अधिकांश समय दिखाई क्यों नहीं देता? (उन्हें उकसाया नहीं गया होता।) यह सही है, उन्हें उकसाया नहीं गया होता और उनके हित खतरे में नहीं पड़े होते है। यह ऐसा ही है, जैसे भेड़िया जब भूखा नहीं होता तो तुम्हें नहीं खाता—तब क्या तुम कह सकते हो कि वह भेड़िया नहीं है? अगर तुम उसे भेड़िया कहने के लिए उसके तुम्हें खाने की कोशिश करने तक इंतजार करोगे, तो बहुत देर हो चुकी होगी, है न? यहाँ तक कि जब वह तुम्हें खाने की कोशिश नहीं करता, तब भी तुम्हें हर समय सतर्क रहना होता है। भेड़िया तुम्हें नहीं खा रहा, इसका मतलब यह नहीं कि वह तुम्हें खाना नहीं चाहता, सिर्फ इतना है कि अभी उसके खाने का समय नहीं हुआ है—और जब समय आ जाता है, तो उसकी भेड़िया-प्रकृति हमला कर देती है। काट-छाँट हर तरह के इंसान को बेनकाब कर देती है। कुछ लोग मन ही मन सोचते हैं, “सिर्फ मेरी ही काट-छाँट क्यों की जा रही है? क्यों हमेशा मुझे ही चुना जाता है? क्या वे मुझे एक आसान निशाना समझते हैं? मैं उस तरह का व्यक्ति नहीं हूँ जिससे तुम पंगा ले सकते हो!” यह कौन-सा स्वभाव है? अकेले वे ही ऐसे इंसान कैसे हो सकते हैं जिनकी काट-छाँट की जाती हो? चीजें असल में इस तरह नहीं होतीं। तुम लोगों में से किसकी काट-छाँट नहीं की गई है? तुम सबकी काट-छाँट की गई है। कभी-कभी अगुआ और कार्यकर्ता अपने काम में स्वच्छंद और लापरवाह होते हैं या फिर वे उसे कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार पूरा नहीं करते—और उनमें से अधिकांश की काट-छाँट की जाती है। यह कलीसिया के कार्य की रक्षा करने और लोगों को मनमाने ढंग से काम करने से रोकने के लिए किया जाता है। यह किसी व्यक्ति विशेष को निशाना बनाने के लिए नहीं किया जाता। उन्होंने जो कहा, वह स्पष्ट रूप से तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करना है और यह एक शातिर स्वभाव का प्रकटीकरण भी है।

शातिर स्वभाव और किन तरीकों से अभिव्यक्त होता है? यह सत्य से विमुख होने से कैसे संबंधित है? वास्तव में, जब सत्य से विमुख होने की प्रवृत्ति प्रतिरोध और आलोचना के लक्षणों के साथ गंभीर रूप से अभिव्यक्त होता है तो वह एक शातिर स्वभाव को प्रकट करती है। सत्य से विमुख होने की प्रवृत्ति में सत्य में रुचि की कमी से लेकर सत्य से विमुख तक कई अवस्थाएँ शामिल हैं और यह परमेश्वर की आलोचना और निंदा करने की ओर बढ़ती जाती है। जब सत्य से विमुख होना एक निश्चित बिंदु पर पहुँच जाता है तो लोगों के परमेश्वर को नकारने, परमेश्वर से घृणा करने और परमेश्वर का विरोध करने की संभावना होती है। ये तमाम मनोदशाएँ एक शातिर स्वभाव हैं, है न? (बिल्कुल।) इसलिए जो लोग सत्य से विमुख रहते हैं, उनकी और भी गंभीर मनोदशा होती है और इसी में एक तरह का स्वभाव छिपा होता है : शातिर स्वभाव। उदाहरण के लिए, कुछ लोग यह तो स्वीकारते हैं कि सब-कुछ परमेश्वर द्वारा शासित है, लेकिन जब परमेश्वर उनसे कुछ ले लेता है और उनके हितों का नुकसान होता है, तो वे बाहर से तो शिकायत या विरोध नहीं करते लेकिन भीतर से उनमें स्वीकृति या समर्पण नहीं होता। उनका रवैया निष्क्रिय होकर बैठने और विनाश की प्रतीक्षा करने का होता है—जो स्पष्ट रूप से सत्य से विमुख होने की मनोदशा है। एक और दशा और भी गंभीर होती है : वे निष्क्रिय रूप से बैठकर विनाश की प्रतीक्षा नहीं करते, बल्कि परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों का विरोध करते हैं, और परमेश्वर के उनसे चीजें ले लेने का प्रतिरोध करते हैं। वे कैसे प्रतिरोध करते हैं? (कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी डालकर उसे बाधित करके या फिर चीजों को तोड़-मरोड़कर अपना राज्य स्थापित करने की कोशिश करके।) यह एक रूप है। कलीसिया के कुछ अगुआओं को जब हटा दिया जाता है तो वे कलीसियाई जीवन जीते हुए हमेशा चीजों में गड़बड़ी कर कलीसिया को परेशान करते हैं, वे नए चुने गए अगुआओं की हर बात का विरोध और उनकी अवज्ञा करते हैं, और उनकी पीठ पीछे उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। यह कौन-सा स्वभाव है? यह एक शातिर स्वभाव है। वे वास्तव में यह सोचते हैं, “अगर मैं अगुआ नहीं बन सकता, तो कोई और भी इस पद पर नहीं रह सकता, मैं उन सभी को भगा दूँगा! अगर मैं तुम्हें बाहर कर दूँ तो मैं पहले की तरह प्रभारी बन जाऊँगा!” यह सिर्फ सत्य से विमुख रहना नहीं है, यह शातिरपन है! रुतबा पाने के लिए पैंतरे चलना, अधिकार क्षेत्र के लिए पैंतरे चलना, व्यक्तिगत हितों और प्रतिष्ठा के लिए पैंतरे चलना, बदला लेने के लिए कुछ भी करना, अपना सारा हुनर झोंककर वह सब करना जो व्यक्ति कर सकता है, अपने लक्ष्य सिद्ध करने, अपनी प्रतिष्ठा, अभिमान और रुतबा बचाने या बदला लेने की इच्छा पूरी करने के लिए हर हथकंडा अपनाना—ये सब शातिरपन की अभिव्यक्तियाँ हैं। शातिर स्वभाव के कुछ व्यवहारों में बहुत-कुछ ऐसा कहना शामिल होता है, जो गड़बड़ी करने और विघ्न पैदा करने वाला होता है; कुछ व्यवहारों में अपना लक्ष्य सिद्ध करने के लिए कई बुरे काम करना शामिल होता है। चाहे कथनी हो या करनी, ऐसे लोग जो कुछ भी करते हैं वह सत्य के विपरीत होता है और सत्य का उल्लंघन करता है, और यह सब शातिर स्वभाव का प्रकटीकरण है। कुछ लोग इन चीजों को समझने में असमर्थ होते हैं। अगर गलत बोली या व्यवहार स्पष्ट न हो, तो वे उसकी असलियत नहीं समझ सकते। लेकिन सत्य को समझने वाले लोगों की नजरों में वह सब कुछ बुरा होता है जो बुरे लोग कहते और करते हैं, और इसमें कभी कुछ भी सही या सत्य के अनुरूप नहीं हो सकता; इन लोगों की ये बातें और काम 100 प्रतिशत बुरे कहे जा सकते हैं और वे पूरी तरह से शातिर स्वभाव का प्रकटीकरण होते हैं। यह शातिर स्वभाव प्रकट करने से पहले दुष्ट लोगों की कौन-सी प्रेरणाएँ होती हैं? वे किस तरह के लक्ष्य सिद्ध करने की कोशिश कर रहे होते हैं? वे ऐसी चीजें कैसे कर सकते हैं? क्या तुम लोग इसे समझ सकते हो? मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ। किसी व्यक्ति के घर में कुछ हो जाता है। इसे बड़ा लाल अजगर निगरानी में रख देता है और वह व्यक्ति वापस घर नहीं जा सकता, जिससे उसे बहुत पीड़ा होती है। कुछ भाई-बहन उसे आश्रय देते हैं, और यह देखकर कि उसके मेजबानों के घर में सब-कुछ कितना अच्छा है, वह मन-ही-मन सोचता है, “तुम्हारे घर को कुछ कैसे नहीं हुआ? यह मेरे घर कैसे हुआ? यह सही नहीं है। यह नहीं चलेगा, तुम्हारे घर में भी कुछ हो जाए, मुझे इसका कोई तरीका सोचना होगा, ताकि तुम भी अपने घर न आ पाओ। मैं तुम्हें उसी कष्ट का अनुभव कराऊँगा, जो मैंने झेला है।” वह चाहे कुछ करे या न करे, उसकी सोच हकीकत में बदले या न बदले, उसका लक्ष्य पूरा हो या न हो, फिर भी उसकी ऐसी ही मंशा होती है। यह एक तरह का स्वभाव है, है न? (बिल्कुल।) अगर वह अच्छा जीवन नहीं जी सकता, तो वह अन्य लोगों को भी अच्छा जीवन नहीं जीने देता। यह कैसा स्वभाव है? (दुर्भावना से भरा।) एक शातिर स्वभाव—यह पाजी इंसान है! जैसी कि कहावत है, वह अंदर तक सड़ा हुआ है। इससे पता चलता है कि वह कितना शातिर है। ऐसे स्वभाव की प्रकृति क्या होती है? जब उसमें यह स्वभाव प्रकट होता है तो यह गहन-विश्लेषण करो कि उसकी प्रेरणाएँ, इरादे और लक्ष्य क्या होते हैं? यह स्वभाव प्रकट करने का शुरुआती बिंदु क्या है? वह क्या हासिल करना चाहता है? उसके घर में कुछ हुआ था और उसके मेजबानों के घर में उसका अच्छा भरण-पोषण किया जा रहा था—तो वह इस घर में गड़बड़ी क्यों करना चाहेगा? क्या वह सिर्फ तभी खुश होता है जब वह अपने मेजबानों के लिए भी चीजें गड़बड़ कर दे, ताकि उसके मेजबानों के घर पर भी कुछ हो जाए और उसके मेजबान अपने घर वापस न जा सकें? उसे तो अपनी खातिर भी इस स्थान की रक्षा करनी चाहिए, इसके साथ कुछ होने से रोकना चाहिए, और अपने मेजबानों को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए, क्योंकि उन्हें नुकसान पहुँचाना खुद को नुकसान पहुँचाने के समान है। तो वास्तव में ऐसा करने के पीछे उसका क्या उद्देश्य होता है? (जब उसके लिए चीजें ठीक नहीं चल रही होतीं तो वह नहीं चाहता कि चीजें किसी और के लिए भी अच्छी हों।) इसे शातिरपन कहा जाता है। वह यह सोचता है, “मेरा घर बड़े लाल अजगर ने नष्ट कर दिया है और अब मेरे पास घर नहीं है। लेकिन आश्रय लेने के लिए तुम्हारे पास अभी भी एक अच्छा घर है। यह ठीक नहीं है। मुझे तुम्हारा घर वापस जा पाना सख्त नापसंद है। मैं तुम्हें सबक सिखाने जा रहा हूँ। मैं कुछ ऐसा कर दूँगा जिससे तुम घर न लौट सको और मेरी तरह बेघर हो जाओ। इससे चीजें निष्पक्ष लगेंगी।” क्या ऐसा करना दुर्भावनापूर्ण और बदनीयती नहीं है? यह कैसी प्रकृति है? (शातिर प्रकृति।) दुष्ट लोग जो कुछ भी कहते और करते हैं, उसके पीछे कोई लक्ष्य सिद्ध करना होता है। वे आम तौर पर किस तरह की चीजें करते हैं? वे कौन-सी सबसे आम चीजें हैं जो दुष्ट स्वभाव वाले लोग करते हैं? (वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी पैदा कर बाधा डालते हैं और उसे तहस-नहस करते हैं।) (वे लोगों के मुँह पर तो उनकी चापलूसी करके फायदा उठाने की कोशिश करते हैं, लेकिन पीठ पीछे उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं।) (वे लोगों पर हमला करते हैं, प्रतिशोधी होते हैं और दुर्भावना से लोगों पर प्रहार करते हैं।) (वे अफवाहें फैलाकर बदनामी करते हैं।) (वे दूसरों की बदनामी, आलोचना और निंदा करते हैं।) इन कार्यों की प्रकृति कलीसिया के कार्य को बाधित और तहस-नहस करना है, और ये सभी चीजें परमेश्वर का विरोध और उस पर हमला करने की अभिव्यक्तियाँ और शातिर स्वभाव का प्रकटीकरण हैं। जो लोग ये चीजें करने में सक्षम हैं, वे निस्संदेह दुष्ट लोग हैं और जिन लोगों में शातिर स्वभाव की कुछ खास अभिव्यक्तियाँ होती हैं उन्हें दुष्ट लोगों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। दुष्ट व्यक्ति का सार क्या होता है? यह दानव का, शैतान का सार होता है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। क्या तुम लोग ये कार्य करने में सक्षम हो? तुम लोग इनमें से कौन-से कार्य करने में सक्षम हो? (आलोचनात्मक होना।) तो क्या तुम लोगों पर हमला करने या उनसे बदला लेने की हिम्मत करते हो? (कभी-कभी मेरे मन में इस तरह के विचार होते जरूर हैं, लेकिन मैं उन्हें क्रियान्वित करने की हिम्मत नहीं करता।) तुम लोगों के मन में बस ये विचार होते हैं लेकिन तुम उन पर अमल करने की हिम्मत नहीं करते। अगर निम्न स्तर का कोई व्यक्ति तुम्हें नुकसान पहुँचाए तो क्या तुम बदला लेने का साहस करोगे? (कभी-कभी मैं ऐसा करूँगा, मैं ऐसे काम करने में सक्षम हूँ।) अगर यह व्यक्ति बहुत मजबूत हो—अगर वह बहुत मुखर हो और तुम्हें चोट पहुँचाए—तो क्या तुम बदला लेने की हिम्मत करोगे? शायद कुछ ही लोग ऐसा करने से न डरें। क्या कमजोरों को तंग करने वाले और बलवानों से डरने वाले ऐसे लोगों में दुष्ट स्वभाव होते हैं? (बिल्कुल।) व्यवहार चाहे किसी भी तरह का हो और उसके निशाने पर जो भी हो, अगर तुम अन्य भाई-बहनों से बदला लेने का दुष्कर्म करने में सक्षम हो, तो यह साबित करता है कि तुम्हारे भीतर एक शातिर स्वभाव है। यह शातिर स्वभाव ऊपरी तौर पर देखने में ज्यादा अलग नहीं लगता, लेकिन तुम्हें इसे पहचानने में सक्षम होना चाहिए और तुम्हें यह पहचानने में भी सक्षम होना चाहिए कि तुम निशाना किसे बना रहे हो। अगर तुम शैतान के प्रति उग्र हो और उसे हराकर अपमानित करने में सक्षम हो तो क्या इसे एक शातिर स्वभाव माना जाता है? ऐसा नहीं है। यह सही के लिए खड़ा होना और अपने दुश्मन के सामने निडर होना है। इसे न्याय की भावना होना कहते हैं। शातिर स्वभाव होना किन परिस्थितियों में माना जाता है? अगर तुम अच्छे लोगों या भाई-बहनों को धौंस देते हो, रौंदते और अपमानित करते हो तो यह एक शातिर स्वभाव माना जाएगा। इसलिए तुममें अंतकरण और विवेक होना चाहिए, तुम्हें लोगों और मामलों को सिद्धांतों के साथ देखना चाहिए, दुष्ट लोगों और दानवों को पहचानने में सक्षम होना चाहिए, तुममें न्याय की भावना होनी चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों और भाई-बहनों के प्रति सहिष्णु और धैर्यवान रहकर सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। यह पूरी तरह से सही और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। शातिर स्वभावों वाले लोग ऐसे सिद्धांतों के अनुसार लोगों से व्यवहार नहीं करते। अगर कोई व्यक्ति, वह चाहे कोई भी हो, कुछ ऐसा करे जो उनके लिए हानिकारक हो तो वे बदला लेने की कोशिश करेंगे—यह शातिरपन है। दुष्ट लोगों के कार्य करने में कोई सिद्धांत नहीं होता है। वे सत्य नहीं खोजते। चाहे व्यक्तिगत द्वेष के कारण कार्य करना हो या कमजोरों को तंग करना और बलवानों से डरना या किसी से प्रतिशोध लेने का साहस करना, इन सबका संबंधशातिर स्वभाव से है और ये सभी भ्रष्ट स्वभाव के घटक हैं। इसमें कोई शक नहीं है।

शातिर स्वभाव वाले व्यक्ति की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति क्या होती है? यह तब होती है जब किसी भोले-भाले व्यक्ति से सामना होने पर, जिसे तंग करना आसान हो, वह उसे तंग करना और उसके साथ खिलवाड़ करना शुरू कर देता है। यह आम बात है। जब कोई अपेक्षाकृत दयालु व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति को देखता है जो निष्कपट और कायर होता है, तो उसमें उसके लिए करुणा का भाव होगा और अगर वह उसकी मदद न कर पाए तो भी उसे धौंस नहीं देगा। जब तुम देखते हो कि तुम्हारा कोई भाई-बहन निष्कपट है तो उसके साथ कैसा व्यवहार करते हो? क्या तुम उसे धौंस देते हो या चिढ़ाते हो? (मैं शायद उसे हेय दृष्टि से देखूँगा।) लोगों को हेय दृष्टि से देखना उन्हें देखने-परखने का एक तरीका है, एक तरह की मानसिकता है, और तुम उनसे कैसे व्यवहार करते और बोलते हो, इसका संबंध तुम्हारे स्वभाव से है। तुम्हीं बताओ, तुम लोग डरपोक और कायर लोगों के साथ कैसे व्यवहार करते हो? (मैं उन्हें आदेश देता हूँ और उन्हें तंग करता हूँ।) (जब मैं उन्हें गलत ढंग से कर्तव्य निभाते देखता हूँ तो मैं उन्हें अलग-थलग कर बाहर कर देता हूँ।) तुम्हारी ये बातें शातिर स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं और लोगों के स्वभाव से संबंधित हैं। ऐसी और भी बहुत-सी बातें हैं, इसलिए इनके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। क्या तुम लोग कभी ऐसे व्यक्ति से मिले हो, जिसने खुद को नाराज करने वाले किसी व्यक्ति के मरने की कामना की हो, यहाँ तक कि परमेश्वर से भी उसे शाप देकर धरती से मिटा देने की प्रार्थना की हो? भले ही किसी भी मनुष्य में ऐसी शक्ति नहीं है, फिर भी वह मन ही मन सोचता है कि अगर ऐसा होता तो कितना अच्छा होता, या फिर वह परमेश्वर से प्रार्थना कर उसे ऐसा करने को कहता है। क्या तुम लोगों के दिल में ऐसे विचार होते हैं? (जब हम सुसमाचार का प्रचार करते हुए उन दुष्ट लोगों का सामना करते हैं जो हम पर हमला करते हैं और पुलिस में हमारी रिपोर्ट करते हैं, तो मुझे उनके प्रति घृणा महसूस होती है और ऐसे विचार आते हैं, “वह दिन आएगा जब तुम्हें परमेश्वर दंडित करेगा”।) यह काफी वस्तुनिष्ठ मामला है। तुम पर हमला किया गया, तुम्हें कष्ट हुआ, तुम्हें पीड़ा महसूस हुई, तुम्हारी व्यक्तिगत निष्ठा और स्वाभिमान पूरी तरह से कुचल दिया गया—ऐसी परिस्थितियों में ज्यादातर लोगों के लिए इससे उबरना मुश्किल होगा। (कुछ लोग हमारी कलीसिया के बारे में ऑनलाइन अफवाहें फैलाते हैं, वे कई आरोप लगाते हैं, और जब मैं उन्हें पढ़ता हूँ तो मुझे बहुत गुस्सा आता है और मेरे दिल में बहुत नफरत पैदा होती है।) यह शातिरपन है या गर्ममिजाजी या फिर यह सामान्य मानवता है? (यह सामान्य मानवता है। शैतानों और परमेश्वर के शत्रुओं से घृणा न करना सामान्य मानवता नहीं है।) सही कहा। यह सामान्य मानवता का प्रकटीकरण, अभिव्यक्ति और प्रतिक्रिया है। अगर लोग नकारात्मक चीजों से नफरत या सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते, अगर उनके पास अंतकरण के मानक नहीं हैं तो वे इंसान नहीं हैं। इन परिस्थितियों में व्यक्ति के कौन-से कार्यकलाप शातिर स्वभाव में बदल सकते हैं? अगर यह घृणा और जुगुप्सा किसी खास तरह के व्यवहार में बदल जाती है, अगर तुम तमाम विवेक खो देते हो, और तुम्हारे कार्यकलाप मानवता के लिए खतरा बताने वाली किसी निश्चित लाल रेखा को पार कर जाते हैं, अगर तुम उन्हें मार भी सकते हो और कानून तोड़ सकते हो, तो यह शातिरपन है, यह गर्ममिजाजी से पेश आना है। जब लोग सत्य को समझते हैं और दुष्ट लोगों को पहचानने में सक्षम होकर दुष्टता से घृणा करते हैं तो यह सामान्य मानवता है। लेकिन अगर लोग चीजों को गर्ममिजाजी से सँभालते हैं तो वे सिद्धांतों के बिना कार्य कर रहे होते हैं। क्या यह बुराई करने से कोई अलग बात है? (बिल्कुल।) इसमें एक अंतर है। अगर कोई व्यक्ति अत्यंत बुरा है, अत्यंत शातिर है, अत्यंत दुष्ट है, अत्यधिक अनैतिक है और तुम उसके प्रति बहुत ज्यादा घृणा महसूस करते हो और यह घृणा इस हद तक पहुँच जाती है कि तुम परमेश्वर से उसे शाप देने के लिए कहते हो तो यह ठीक है। लेकिन दो-तीन बार प्रार्थना करने के बाद भी परमेश्वर ऐसा न करे और तुम मामले अपने हाथ में ले लेते हो तो क्या यह ठीक है? (नहीं।) तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर अपने विचार और राय व्यक्त कर सकते हो, फिर सत्य सिद्धांत खोज सकते हो, उस स्थिति में तुम चीजों को सही ढंग से सँभालने में सक्षम होगे। लेकिन तुम्हें परमेश्वर से न तो यह माँग करनी चाहिए, न ही उसे बाध्य करने की कोशिश करनी चाहिए कि वह तुम्हारी ओर से बदला ले, तुम्हें अपनी गर्ममिजाजी को बेवकूफी भरे काम तो बिल्कुल नहीं करने देने चाहिए। तुम्हें मामले को तर्कसंगत ढंग से लेना चाहिए। तुम्हें धैर्य रखना चाहिए, परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए और परमेश्वर से प्रार्थना करने में ज्यादा समय बिताना चाहिए। देखो कि परमेश्वर कैसे बुद्धि के साथ शैतान और दानवों से पेश आता है और इस तरह तुम धैर्य रख सकते हो। विवेकशील होने का अर्थ है यह सब कुछ परमेश्वर को सौंपकर उसे कार्य करने देना। एक सृजित प्राणी को यही करना चाहिए। गर्ममिजाजी से काम मत लो। गर्ममिजाजी से कार्य करना परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं है, परमेश्वर इसकी निंदा करता है। ऐसे अवसरों पर लोगों में प्रकट होने वाला स्वभाव मानवीय कमजोरी या क्षणिक क्रोध नहीं होता, बल्कि एक शातिर स्वभाव होता है। जब यह निश्चित हो जाता है कि यह एक शातिर स्वभाव है, तो तुम संकट में होते हो और तुम्हारे बचने की संभावना नहीं होती। ऐसा इसलिए है, क्योंकि जब लोगों में शातिर स्वभाव होते हैं, तो इस बात की अत्यधिक संभावना होती है कि वे अंतकरण और विवेक का उल्लंघन करेंगे और कानून तोड़ने और परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करेंगे। तो इससे कैसे बचा जा सकता है? कम-से-कम तीन लाल रेखाएँ पार नहीं करनी चाहिए : पहली, अंतकरण और विवेक का उल्लंघन करने वाली चीजें न करना, दूसरी कानून न तोड़ना और तीसरी परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन न करना। इसके अतिरिक्त, कुछ भी अतिवादी या ऐसा कोई कार्य न करना जो कलीसिया के कार्य में बाधा डाले। अगर तुम इन सिद्धांतों का पालन करते हो तो कम-से-कम तुम्हारी सुरक्षा सुनिश्चित होगी और तुम्हें बहिष्कृत नहीं किया जाएगा। अगर तुम तमाम तरह की बुराइयाँ करने के कारण अपनी काट-छाँट किए जाने का शातिर ढंग से विरोध करते हो, तो यह और भी खतरनाक है। इस बात की संभावना है कि तुम सीधे तौर पर परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचा दोगे और कलीसिया से बाहर या निष्कासित कर दिए जाओगे। परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाने की सजा कानून तोड़ने की सजा से कहीं ज्यादा गंभीर है—यह मृत्यु से भी बदतर नियति है। कानून तोड़ने पर ज्यादा से ज्यादा जेल की सजा होती है; कुछ कठिन वर्ष बिताए और बाहर आ गए, बस। लेकिन अगर तुम परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाते हो, तो तुम अनंत दंड भुगतोगे। इसलिए, अगर शातिर स्वभाव वाले लोगों में कोई तर्कसंगतता नहीं है, तो वे अत्यधिक खतरे में हैं, उनके बुराई करने की संभावना है और उन्हें दंड दिया जाना और उनका प्रतिफल भुगतना निश्चित है। अगर लोगों में थोड़ी-सी भी तर्कसंगतता है, वे सत्य खोजने और उसके प्रति समर्पित होने में सक्षम हैं और बहुत ज्यादा बुराई करने से बच सकते हैं तो उनके निश्चित रूप से बचाए जाने की आशा है। व्यक्ति के लिए तर्कसंगतता और विवेक होना महत्वपूर्ण है। विवेकशील व्यक्ति सत्य स्वीकार सकता है और अपनी काट-छाँट को सही तरीके से ले सकता है। विवेकहीन व्यक्ति अपनी काट-छाँट किए जाने पर खतरे में होता है। उदाहरण के लिए, मान लो कि अपनी काट-छाँट होने पर किए जाने के बाद कोई व्यक्ति अगुआ पर बहुत क्रोधित हो जाता है। उसका अगुआ के बारे में अफवाह फैलाने और उस पर हमला करने का मन करता है, लेकिन वह परेशानी होने के डर से ऐसा करने की हिम्मत नहीं करता। ऐसा स्वभाव उसके हृदय में पहले से मौजूद होता है लेकिन यह कहना कठिन है कि वह इस पर अमल करेगा या नहीं। अगर इस तरह का स्वभाव किसी के दिल में है, अगर ये विचार मौजूद हैं, तो भले ही वह इन पर अमल न करे, वह पहले से ही खतरे में है। जब परिस्थितियाँ अनुमति देती हैं—जब उसे अवसर मिलता है—तो वह इन पर अच्छी तरह अमल कर सकता है। अगर उसका शातिर स्वभाव मौजूद है, अगर उसका समाधान नहीं होता, तो देर-सवेर यह व्यक्ति बुराई करेगा। तो अन्य कौन-सी परिस्थितियाँ हैं, जिनमें व्यक्ति शातिर स्वभाव प्रकट करता है? तुम्हीं बताओ। (अपने कर्तव्य में अनमना रहने के कारण मुझे उसमें नतीजे नहीं मिले, फिर सिद्धांतों के अनुसार अगुआ ने मुझे बदल दिया तो मैंने अपने अंदर कुछ प्रतिरोधी भावना महसूस की। फिर जब मैंने देखा कि उसने एक भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है, तो मैंने उसकी रिपोर्ट करने के लिए एक पत्र लिखने के बारे में सोचा।) क्या यह विचार शून्य से उपजा है? बिल्कुल नहीं। यह तुम्हारी प्रकृति से उत्पन्न हुआ था। देर-सवेर, लोगों की प्रकृति में मौजूद चीजें प्रकट हो जाती हैं, कोई नहीं जानता कि वे किस प्रसंग या संदर्भ में प्रकट हो जाएँगी और अमल में आ जाएँगी। कभी-कभी लोग कुछ नहीं करते, लेकिन ऐसा इसलिए होता है क्योंकि स्थिति इसकी अनुमति नहीं देती। हालाँकि अगर वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हुए तो वे इसे हल करने के लिए सत्य खोजने में सक्षम होंगे। अगर वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग नहीं हैं तो वे जैसा चाहेंगे वैसा ही करेंगे, और जैसे ही स्थिति अनुमति देगी, वे बुराई कर डालेंगे। इसलिए अगर भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं किया जाता, तो इस बात की पूरी संभावना है कि लोग खुद को परेशानी में डाल लेंगे, इस स्थिति में उन्हें वही काटना होगा जो उन्होंने बोया है। कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और अपने कर्तव्य निभाने में लगातार अनमने बने रहते हैं। जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे इसे स्वीकार नहीं करते, वे कभी पश्चात्ताप नहीं करते और अंततः उन्हें चिंतन के उद्देश्य से बहिष्कृत कर दिया जाता है। कुछ लोग कलीसिया से इसलिए निकाल दिए जाते हैं, क्योंकि वे कलीसियाई जीवन में लगातार बाधा पहुँचाते रहते हैं और दूसरों को बिगाड़ने वाले सड़े हुए सेब बन गए हैं; और कुछ लोग इसलिए निकाल दिए जाते हैं, क्योंकि वे तमाम तरह के बुरे काम करते हैं। इसलिए, चाहे कोई जिस भी तरह का व्यक्ति हो, अगर वह बार-बार भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है और उसे हल करने के लिए सत्य नहीं खोजता, तो उसके बुराई करने की संभावना रहती है। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में सिर्फ अहंकार ही नहीं, बल्कि दुष्टता और शातिरपन भी शामिल है। अहंकार और शातिरपन बस सामान्य कारक हैं।

तो शातिर स्वभाव प्रकट करने की यह समस्या कैसे हल की जानी चाहिए? लोगों को यह पहचानना चाहिए कि उनका भ्रष्ट स्वभाव क्या है। कुछ लोगों का स्वभाव कुछ ज्यादा ही शातिर, द्वेषपूर्ण और अहंकारी होता है और वे पूरी तरह से बेईमान होते हैं। यह दुष्ट लोगों की प्रकृति है और ये लोग सबसे खतरनाक लोग होते हैं। जब ऐसे लोगों के पास सत्ता होती है तो सत्ता दानवों के हाथ में होती है, सत्ता शैतान के पास सत्ता होती है। परमेश्वर के घर में तमाम बुरे कार्य करने के कारण सभी दुष्ट लोगों का खुलासा कर उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है। जब तुम दुष्ट लोगों के साथ सत्य की संगति करने या उनकी काट-छाँट करने की कोशिश करते हो तो इस बात की बहुत ज्यादा संभावना होती है कि वे तुम पर हमला करेंगे या तुम्हारी आलोचना करेंगे, यहाँ तक कि तुमसे बदला भी लेंगे, जो उनके स्वभावों के बहुत दुर्भावनापूर्ण होने के दुष्परिणाम हैं। यह असल में बहुत ही आम बात है। उदाहरण के लिए, ऐसे दो लोग हो सकते हैं जिनकी आपस में अच्छी पटती है, जो एक-दूसरे के प्रति बहुत विचारशील होते हैं और एक-दूसरे को समझते हैं—लेकिन वे अपने हितों से संबंधित किसी एक ही बात पर बँटकर एक-दूसरे से संबंध तोड़ लेते हैं। कुछ लोग एक-दूसरे के दुश्मन बनकर बदला लेने की कोशिश भी करते हैं। वे सब बड़े शातिर होते हैं। जब लोगों के कर्तव्य निभाने की बात आती है तो क्या तुम लोगों ने ध्यान दिया है कि उनमें प्रकट होने वाली कौन-सी चीजें शातिर स्वभाव के अंतर्गत आती हैं? ये चीजें निश्चित रूप से मौजूद होती हैं और तुम्हें इन्हें जड़ से उखाड़ देना चाहिए। यह इन चीजों को समझने और पहचानने में तुम लोगों की मदद करेगा। अगर तुम नहीं जानते कि इन्हें कैसे जड़ से उखाड़ना और पहचानना है, तो तुम लोग कभी बुरे लोगों को नहीं पहचान पाओगे। मसीह-विरोधियों से गुमराह होने और उनके काबू में आने के बाद कुछ लोगों के जीवन को नुकसान पहुँचता है और सिर्फ तभी उन्हें पता चलता है कि मसीह-विरोधी क्या होता है और शातिर स्वभाव क्या होता है। सत्य के बारे में तुम लोगों की समझ बहुत सतही है। अधिकांश सत्यों के बारे में तुम्हारी समझ मौखिक या लिखित स्तर पर रुक जाती है या तुम सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत समझते हो, और ये वास्तविकता से बिल्कुल भी मेल नहीं खाते। अनेक प्रवचन सुनने के बाद तुम्हारे हृदय में समझ और प्रबुद्धता प्रतीत होती है; लेकिन जब वास्तविकता का सामना होता है, तो फिर भी तुम चीजों को उनके असली रूप में नहीं पहचान पाते। सैद्धांतिक रूप से कहूँ तो तुम सभी जानते हो कि एक मसीह-विरोधी की अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं लेकिन जब तुम किसी वास्तविक मसीह-विरोधी को देखते हो तो तुम उसे मसीह-विरोधी के रूप में पहचानने में असमर्थ होते हो। ऐसा इसलिए है कि तुम्हारे पास बहुत कम अनुभव है। जब तुम ज्यादा अनुभव ले लेते हो, जब तुम्हें मसीह-विरोधी पर्याप्त चोट पहुँचा देते हैं, तो तुम अच्छी तरह से और वास्तव में उनकी असलियत पहचानने में सक्षम होते हो। आज हालाँकि अधिकांश लोग सभाओं के दौरान ईमानदारी से प्रवचन सुनते हैं और सत्य के लिए प्रयास करना चाहते हैं, लेकिन प्रवचन सुनकर वे उनका सिर्फ शाब्दिक अर्थ समझते हैं, वे सैद्धांतिक स्तर से आगे नहीं बढ़ पाते और सत्य के व्यावहारिक पहलू का अनुभव करने में अक्षम रहते हैं। इसलिए सत्य वास्तविकता में उनका प्रवेश बहुत ही सतही होता है, जिसका अर्थ है कि वे दुष्ट लोगों और मसीह-विरोधियों की पहचान नहीं कर सकते। मसीह-विरोधियों में दुष्ट लोगों का सार होता है, लेकिन मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों के अलावा भी क्या अन्य लोगों में शातिर स्वभाव नहीं होते? वास्तव में अच्छे लोग होते नहीं हैं। जब कुछ गलत नहीं होता तो वे सभी खुश रहते हैं, लेकिन जब उनका सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो उनके हितों को नुकसान पहुँचाती है, तो वे बुरे हो जाते हैं। यह एक शातिर स्वभाव है। यह शातिर स्वभाव किसी भी समय प्रकट हो सकता है; यह स्वतः होता है। तो यहाँ वास्तव में क्या हो रहा है? क्या यह दुष्टात्माओं के वश में होने का मामला है? क्या यह दानवी देह धारण का मामला है? अगर इन दोनों में से कोई भी बात है, तो उस व्यक्ति में दुष्ट लोगों का सार है और उसका कुछ नहीं हो सकता। अगर उसका सार दुष्ट व्यक्ति का नहीं है, और उसमें बस यह भ्रष्ट स्वभाव है, तो उसकी मनोदशा लाइलाज नहीं है, और अगर वह सत्य स्वीकार सके, तो उसके बचने की अभी भी आशा है। तो शातिर, भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कैसे किया जाए? पहले, जब तुम मामलों का सामना करो, तो तुम्हें अक्सर प्रार्थना करनी चाहिए और इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि तुम्हारी प्रेरणाएँ और इच्छाएँ क्या हैं। तुम्हें परमेश्वर की जाँच स्वीकारनी चाहिए और अपने व्यवहार पर नियंत्रण रखना चाहिए। इसके अलावा, तुम्हें बुरे शब्द या व्यवहार प्रकट नहीं करने चाहिए। अगर व्यक्ति अपने दिल में गलत इरादे और द्वेष पाए, अगर उसकी बुरे काम करने की इच्छा हो, तो उसे इसका समाधान करने के लिए सत्य खोजना चाहिए, इस मामले को समझने और हल करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचन तलाशने चाहिए, परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, उसकी सुरक्षा माँगनी चाहिए, परमेश्वर के सामने कसम खानी चाहिए, और सत्य न स्वीकारने और बुराई करने पर खुद को शाप देना चाहिए। परमेश्वर के साथ इस तरह संगति करना सुरक्षा प्रदान करता है और व्यक्ति को बुराई करने से रोकता है। अगर व्यक्ति के साथ कुछ होता है और उसके बुरे इरादे सामने आते हैं, लेकिन वह उस पर ध्यान नहीं देता और बस चीजों को चलने देता है, या यह मानकर चलता है कि उसे इसी तरह से कार्य करना चाहिए, तो वह बुरा व्यक्ति है, और ऐसा व्यक्ति नहीं है जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास और सत्य से प्रेम करता है। ऐसा व्यक्ति अभी भी परमेश्वर में विश्वास करना और परमेश्वर का अनुसरण करना, और आशीष पाकर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना चाहता है—क्या यह संभव है? वह सपना देख रहा है। पाँचवीं तरह का स्वभाव है शातिरपन। यह भी भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित मुद्दा है और इस विषय पर कमोबेश इतना ही कहना अपेक्षित है।

तुम्हें छठी तरह के भ्रष्ट स्वभाव—दुष्टता—से भी परिचित होना चाहिए। आओ, तब से शुरुआत करते हैं, जब लोग सुसमाचार का प्रचार करते हैं। सुसमाचार का प्रचार करते समय कुछ लोग दुष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं। वे सिद्धांत के अनुसार प्रचार नहीं करते, न ही वे जानते हैं कि किस तरह के लोग सत्य से प्रेम करते हैं और किनमें मानवता है; वे हमेशा विपरीत लिंग के किसी ऐसे सदस्य की तलाश करते हैं जिसके साथ उनकी पटरी बैठती हो, जिसे वे पसंद करते हों और जिससे उनकी बनती हो। वे उन लोगों के आगे प्रचार नहीं करते, जिन्हें वे पसंद नहीं करते या जिनसे उनकी नहीं बनती। चाहे कोई व्यक्ति सुसमाचार प्रचार के सिद्धांतों के अनुरूप हो या नहीं—अगर वह ऐसा है जिसमें वे रुचि रखते हैं तो वे प्रयास करना नहीं छोड़ते। हो सकता है, अन्य लोग उनसे कहें कि यह व्यक्ति सुसमाचार प्रचार के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, फिर भी वे उसे सुसमाचार सुनाने पर जोर देते हैं। उनके अंदर एक ऐसा स्वभाव होता है जो उनके कार्य नियंत्रित करता है, उन्हें सुसमाचार फैलाने के नाम पर अपनी कामुक इच्छाएँ पूरी करने और अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है। यह किसी दुष्ट स्वभाव से कम नहीं है। ऐसे भी लोग हैं, जो अच्छी तरह जानते हैं कि ऐसा करके वे गलती कर रहे हैं, और ऐसा करने से परमेश्वर नाराज होता है और इससे उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन होता है—फिर भी वे रुकते नहीं। यह एक तरह का स्वभाव है, है कि नहीं? (बिल्कुल।) यह एक दुष्ट स्वभाव की अभिव्यक्तियों में से एक है, लेकिन सिर्फ कामुक इच्छाओं के खुलासे को ही दुष्टता नहीं कहा जाना चाहिए; दुष्टता का दायरा देह की वासना से कहीं ज्यादा व्यापक है। जरा सोचो : दुष्ट स्वभाव की और कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं? चूँकि यह एक स्वभाव है, इसलिए यह कार्य करने के एक तरीके से कहीं ज्यादा है, इसमें कई अलग-अलग मनोदशाएँ, अभिव्यक्तियाँ और खुलासे शामिल हैं, यही इसे एक स्वभाव के रूप में परिभाषित करता है। (सांसारिक प्रवृत्तियों के साथ चलना, संसार की प्रवृत्तियों से संबंधित चीजें न छोड़ना।) दुष्ट प्रवृत्तियाँ न छोड़ना स्वभाव का एक प्रकार है। संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों में संलग्न होना, उनके पीछे भागना, उन्हीं में मग्न रहना, बड़ी लगन से उनका अनुसरण करना। कुछ लोग ऐसे हैं जो इन चीजों को कभी नहीं छोड़ते, चाहे कैसे भी सत्य पर संगति की जाए, चाहे कैसे भी उनकी काँट-छाँट की जाए; उनकी यह प्रवृत्ति दीवानगी की हद तक भी पहुँच जाती है। यह दुष्टता है। तो जब लोग दुष्ट प्रवृत्तियों का अनुसरण करते हैं, तो कौन-सी अभिव्यक्तियाँ उनमें दुष्ट स्वभाव दर्शाती हैं? वे इन चीजों से प्रेम क्यों करते हैं? इन दुष्ट सांसारिक प्रवृत्तियों में ऐसा क्या है जो उन्हें मानसिक संतुष्टि देता है, जो उनकी जरूरतें पूरी करता है और उनकी पसंद और इच्छाएँ पूरी करता है? उदाहरण के लिए मान लो, वे फिल्मी सितारों को पसंद करते हैं : इन फिल्मी सितारों के जीवन में ऐसी क्या बात है जो लोगों में दीवानगी पैदा कर उनसे अपना अनुसरण करवाती है? यह उन लोगों के ठाठ-बाठ, हुनर, चेहरे-मोहरे और यश के साथ ही उस तरह का तड़क-भड़क भरा जीवन है, जिसके लिए लोग लालायित रहते हैं। ये सभी चीजें जिनका वे अनुसरण करते हैं—क्या सभी दुष्ट चीजें हैं? (बिल्कुल।) ऐसा क्यों कहा जाता है कि ये दुष्ट चीजें हैं? (क्योंकि वे सत्य और सकारात्मक चीजों के विरुद्ध हैं और परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप नहीं हैं।) यह सिद्धांत है। इन मशहूर हस्तियों और फिल्मी सितारों का विश्लेषण करो : उनकी जीवन-शैली, उनका आचरण, यहाँ तक कि उनका सार्वजनिक व्यक्तित्व और पहनावा भी जिसे हर कोई पूजता है। वे ऐसा जीवन क्यों जीते हैं? और वे दूसरों को अपना अनुसरण करने के लिए प्रेरित क्यों करते हैं? वे इस सब में काफी मेहनत करते हैं। यह छवि गढ़ने के लिए उनके पास अपने मेकअप आर्टिस्ट और पर्सनल स्टाइलिस्ट होते हैं। तो अपनी यह छवि गढ़ने के पीछे उनका क्या उद्देश्य होता है? लोगों को आकर्षित करना, उन्हें गुमराह करना, उनसे अपना अनुसरण करवाना—और इससे लाभ उठाना। और इसलिए लोग चाहे इन फिल्मी सितारों की प्रसिद्धि को पूजें या उनकी शक्ल-सूरत या उनके जीवन को, ये वास्तव में मूर्खतापूर्ण और बेतुकी हरकतें हैं। अगर व्यक्ति में तार्किकता हो, तो वह दानवों को क्यों पूजेगा? दानव ऐसी चीजें हैं जो लोगों को गुमराह करती हैं, धोखा देती हैं और नुकसान पहुँचाती हैं। दानव परमेश्वर में विश्वास नहीं करते और उनमें सत्य की स्वीकृति बिल्कुल नहीं होती। सारे दानव शैतान का अनुसरण करते हैं। उन लोगों के क्या लक्ष्य होते हैं, जो दानवों और शैतान का अनुसरण कर उन्हें पूजते हैं? वे इन दानवों का अनुकरण करना चाहते हैं, उन्हीं की तरह आचरण करना चाहते हैं, इस उम्मीद में कि एक दिन वे भी दानव बन जाएँगे, वैसे ही सुंदर और सेक्सी, जैसे ये दानव और मशहूर हस्तियाँ हैं। वे इस अनुभूति का आनंद लेना पसंद करते हैं। व्यक्ति चाहे किसी भी मशहूर हस्ती या प्रतिष्ठित व्यक्ति को पूजे, इन सितारों का अंतिम लक्ष्य एक ही होता है—लोगों को गुमराह करना, उन्हें आकर्षित करना और उनसे अपनी पूजा और अपना अनुसरण करवाना। क्या यह दुष्ट स्वभाव नहीं है? यह एक दुष्ट स्वभाव है, और यह इससे ज्यादा स्पष्ट नहीं हो सकता है।

दुष्ट स्वभाव दूसरे तरीके से भी प्रकट होते हैं। कुछ लोग देखते हैं कि परमेश्वर के घर में आयोजित सभाओं में हमेशा परमेश्वर के वचन पढ़ने से लेकर सत्य की संगति करने, आत्म-ज्ञान, कर्तव्य के उचित निर्वाह, सिद्धांतों के अनुसार कैसे कार्य करें से लेकर कैसे परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहें, कैसे सत्य को समझें और उसका अभ्यास करें, और सत्य के तमाम दूसरे पहलुओं पर चर्चा होती है। इतने वर्षों तक सुनने के बाद वे जितना ज्यादा सुनते हैं, उतने ही ज्यादा उकताने लगते हैं और यह कहते हुए शिकायत करने लगते हैं, “क्या परमेश्वर में आस्था का उद्देश्य आशीष प्राप्त करना नहीं है? हम क्यों हमेशा सत्य के बारे में बात और परमेश्वर के वचनों पर संगति करते हैं? क्या इसका कोई अंत है? मैं इससे ऊब गया हूँ!” लेकिन वे सांसारिक दुनिया में नहीं लौटना चाहते। वे मन ही मन सोचते हैं, “परमेश्वर में आस्था बहुत नीरस है, उबाऊ है—मैं इसे थोड़ी और रोचक कैसे बना सकता हूँ? मुझे कोई रोचक चीज खोजनी होगी,” इसलिए वे पूछते फिरते हैं, “कलीसिया में परमेश्वर के कितने विश्वासी हैं? कितने अगुआ और कार्यकर्ता हैं? कितनों को बदला गया है? कितने युवा विश्वविद्यालयों के छात्र और स्नातक छात्र हैं? क्या किसी को संख्या मालूम है?” वे इन चीजों और आँकड़ों को सत्य मानते हैं। यह कौन-सा स्वभाव है? यह दुष्टता है, जिसे आम तौर पर “नीचता” कहा जाता है। उन्होंने बहुत-से सत्य सुन चुके हैं, लेकिन वे इनमें से किसी एक पर भी पर्याप्त ध्यान देने या ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित नहीं हुए। जैसे ही किसी के पास कोई गप या अंदर की खबर होती है, तुरंत उनके कान खड़े हो जाते हैं, वे उसे चूक जाने से डरते हैं। यह नीचता है, है न? (बिल्कुल।) नीच लोगों की क्या विशेषता होती है? उन्हें सत्य के प्रति जरा-सी भी रुचि नहीं होती। वे सिर्फ बाहरी मामलों में रुचि रखते हैं, और बिना थके और लोलुपता से गपशप और ऐसी चीजों की तलाश करते हैं जिनका उनके जीवन प्रवेश या सत्य से कोई संबंध नहीं होता। उन्हें लगता है कि इन सारी चीजों और जानकारी का पता लगाने और यह सब अपने दिमाग में रखने का मतलब है कि उनमें सत्य वास्तविकता है, कि वे पूर्णरूपेण परमेश्वर के घर के सदस्य हैं, कि परमेश्वर निश्चित रूप से उन्हें स्वीकृति देगा और वे परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने में सक्षम होंगे। क्या तुम लोगों को लगता है कि वास्तव में ऐसा है? (नहीं।) तुम लोग इसकी असलियत समझ सकते हो, लेकिन परमेश्वर के कई नए विश्वासी नहीं समझ सकते। वे इसी जानकारी पर ध्यान धरे रहते हैं, उन्हें लगता है कि इन चीजों को जानना उन्हें परमेश्वर के घर का सदस्य बनाता है—लेकिन वास्तव में, परमेश्वर ऐसे लोगों से सबसे ज्यादा घृणा करता है, वे सभी लोगों में सबसे बेकार, सतही और अज्ञानी होते हैं। परमेश्वर ने अंत के दिनों में लोगों का न्याय कर उन्हें शुद्ध करने का कार्य करने के लिए देह धारण किया है, जिसका परिणाम लोगों को जीवन के रूप में सत्य देना है। लेकिन अगर लोग परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने पर ध्यान नहीं देते और हमेशा अफवाहें तलाशने की कोशिश कर कलीसिया के आंतरिक मामलों के बारे में और ज्यादा जानने की कोशिश करते हैं तो क्या वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं? क्या वे उचित कार्य करने वाले लोग हैं? मेरे विचार से वे दुष्ट लोग हैं। वे विश्वासी नहीं हैं। ऐसे लोगों को नीच भी कहा जा सकता है। वे सिर्फ सुनी-सुनाई बातों पर ध्यान देते हैं। इससे उनकी जिज्ञासा शांत होती है, लेकिन परमेश्वर उनका तिरस्कार करता है। वे ऐसे लोग नहीं हैं जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, सत्य का अनुसरण करने वाले लोग तो वे बिल्कुल भी नहीं हैं। वे असल में शैतान के सेवक हैं जो कलीसिया के कार्य में बाधा डालने आते हैं। इससे भी बढ़कर, जो लोग हमेशा परमेश्वर की जाँच और अन्वेषण करते रहते हैं, वे बड़े लाल अजगर के नौकर-चाकर हैं। परमेश्वर इन लोगों से सबसे ज्यादा नफरत और तिरस्कार करता है। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तो तुम परमेश्वर पर भरोसा क्यों नहीं करते? जब तुम परमेश्वर की जाँच और अन्वेषण करते हो तो क्या तुम सत्य की खोज कर रहे होते हो? क्या सत्य की खोज का उस परिवार से कोई संबंध है जिसमें मसीह का जन्म हुआ था या उस परिवेश से कोई संबंध है जिसमें वह पला-बढ़ा था? जो लोग हमेशा परमेश्वर की सूक्ष्म जाँच किया करते हैं—क्या वे घृणित नहीं हैं? अगर तुम्हारे मन में मसीह की मानवता से संबंधित चीजों के बारे में हमेशा धारणाएँ रहती हैं तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों के ज्ञान का अनुसरण करने में ज्यादा समय लगाना चाहिए; जब तुम सत्य को समझोगे, तभी अपनी धारणाओं की समस्या दूर कर पाओगे। क्या मसीह की पारिवारिक पृष्ठभूमि या उसके जन्म की परिस्थितियों की जाँच करने से तुम परमेश्वर को जान पाओगे? क्या इससे तुम मसीह का दिव्य सार खोज लोगे? बिल्कुल नहीं। जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे परमेश्वर के वचनों और सत्य के प्रति समर्पित होते हैं, सिर्फ यही मसीह का दिव्य सार जानने में सहायक है। लेकिन जो लोग लगातार परमेश्वर की जाँच करते रहते हैं, वे लगातार नीचता में क्यों लगे रहते हैं? आध्यात्मिक समझ से रहित इन तुच्छ लोगों को जल्दी से परमेश्वर के घर से बाहर निकल जाना चाहिए! सभाओं और उपदेशों के दौरान इतने सारे सत्य व्यक्त किए गए हैं, इतनी सारी संगति की गई है—फिर भी तुम लोग परमेश्वर की जाँच क्यों करते हो? इसका क्या अर्थ है कि तुम लोग हमेशा परमेश्वर की जाँच कर रहे हो? यही कि तुम अत्यंत दुष्ट हो! और तो और, ऐसे लोग भी हैं, जो सोचते हैं कि यह सब तुच्छ जानकारी प्राप्त करने से उन्हें पूँजी मिलती है और वे इसे लोगों को दिखाते फिरते हैं। और अंत में क्या होता है? वे परमेश्वर के लिए तिरस्कार योग्य और घृणित हैं। क्या वे इंसान भी हैं? क्या वे जीते-जागते राक्षस नहीं हैं? वे परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग कैसे हैं? वे अपने तमाम विचार दुष्टता और कुटिलता के तरीके को समर्पित कर देते हैं। ऐसा लगता है, जैसे वे सोचते हों कि जितना ज्यादा वे सुनी-सुनाई बातें जानते हैं, उतना ही ज्यादा वे परमेश्वर के घर के सदस्य होते हैं और उतना ही ज्यादा वे सत्य समझते हैं। इस तरह के लोग बेहद बेतुके होते हैं। परमेश्वर के घर में उनसे ज्यादा घृणित कोई नहीं होता।

कुछ लोग अपनी आस्था में लगातार अवास्तविक चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग हमेशा इस बात की जाँच करते रहते हैं कि परमेश्वर का राज्य कैसा है, तीसरा स्वर्ग कहाँ है, पाताल लोक कैसा होता है और नरक कहाँ है। वे जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय हमेशा रहस्यों की जाँच-पड़ताल करते रहते हैं। यह नीचता है, दुष्टता है। ऐसे लोग भी हैं जो चाहे कितने भी प्रवचन और संगति सुन लें, फिर भी यह नहीं समझते कि सत्य क्या है, और न ही वे इस बात से अवगत हैं कि इसे अभ्यास में कैसे लाना चाहिए। जब भी उनके पास समय होता है, वे परमेश्वर के वचनों की पड़ताल करते हैं, इनकी शब्द-योजना पर गौर करते हैं, इनमें किसी तरह की सनसनी खोजते हैं, और हमेशा यह भी जाँचते रहते हैं कि परमेश्वर के वचन पूरे हुए हैं या नहीं। अगर हुए हैं तो वे मान लेते हैं कि यह परमेश्वर का कार्य है, और अगर पूरे नहीं हुए तो उसके परमेश्वर का कार्य होने से इनकार कर देते हैं। क्या वे बेतुके नहीं हैं? क्या यह नीचता नहीं है? क्या लोग हमेशा यह देख पाने में सक्षम हैं कि परमेश्वर के वचन कब पूरे हुए हैं? लोगों का यह देखने में सक्षम होना अनिवार्य नहीं है कि परमेश्वर के कुछ वचन कब पूरे हुए हैं। लोगों के विचार से उसके कुछ वचन पूरे हुए नहीं लगते, लेकिन परमेश्वर के विचार से वे पूरे हो गए हैं। लोगों के पास इन चीजों को स्पष्ट रूप से देखने का कोई उपाय नहीं है; अगर वे 20 प्रतिशत भी समझ पाएँ तो भाग्यशाली हैं। कुछ लोग पूरा समय परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करने में लगा देते हैं, पर सत्य का अभ्यास करने या वास्तविकता में प्रवेश करने पर कोई ध्यान नहीं देते। क्या यह अपने उचित कर्तव्यों की उपेक्षा करना नहीं है? उन्होंने बहुत सारे सत्य सुने हैं, फिर भी अभी तक उन्हें नहीं समझते, और वे लगातार भविष्यवाणियाँ पूरी होने का प्रमाण खोज रहे हैं, जैसे यही उनका जीवन और प्रेरणा हो। उदाहरण के लिए कुछ लोग प्रार्थना करते हुए इस तरह की बातें कहते हैं, “परमेश्वर, अगर तुम चाहते हो कि मैं ऐसा करूँ, तो मुझे कल सुबह छह बजे जगा देना; वरना मुझे सात बजे तक सोने देना।” वे अक्सर इसी तरह से कार्य करते हैं, वे इसका अपने एक सिद्धांत के रूप में उपयोग करते हैं, इसका अभ्यास ऐसे करते हैं मानो यह सत्य हो। इसे नीचता कहते हैं। अपने कार्यों में वे हमेशा भावनाओं पर भरोसा करते हैं, अलौकिक पर ध्यान केंद्रित करते हैं, सुनी-सुनाई बातों और अन्य अवास्तविक चीजों पर भरोसा करते हैं; वे लगातार अपनी ऊर्जा बेकार की चीजों पर केंद्रित करते हैं। यह दुष्टता है। तुम उनके साथ चाहे जैसे सत्य की संगति कर लो, उन्हें लगता है कि सत्य का कोई उपयोग नहीं है, और वह उतना सटीक नहीं है जितना कि भावनाओं पर भरोसा करना या तुलना के माध्यम से सत्यापन करना। यह नीचता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर लोगों के भाग्य का संप्रभु है और वही इसकी व्यवस्था करता है, और भले ही वे कहते हैं कि वे परमेश्वर के वचनों को सत्य मानते हैं, फिर भी वे अपने हृदय में सत्य नहीं स्वीकारते, वे चीजों को कभी परमेश्वर के वचनों के माध्यम से नहीं देखते। अगर कोई प्रसिद्ध व्यक्ति कुछ कहता है, तो वे मान लेते हैं कि यह सत्य है और उससे सहमत हो जाते हैं। अगर कोई भाग्य बताने वाला या चेहरा पढ़ने वाला उन्हें बताता है कि वे अगले साल प्रबंधक के रूप में पदोन्नत हो जाएँगे, तो वे उस पर विश्वास कर लेते हैं। क्या यह नीचता नहीं है? वे शकुन-विद्या, भविष्य-कथन और अलौकिक चीजों पर विश्वास करते हैं, और सिर्फ इन्हीं नीच चीजों पर विश्वास करते हैं। यह ठीक वैसा ही है, जैसे कुछ लोग कहते हैं, “मैं सभी सत्य समझता हूँ, बस मैं उन्हें अभ्यास में नहीं ला सकता। पता नहीं, क्या समस्या है।” अब हमारे पास इस प्रश्न का उत्तर है : वे नीच हैं। ऐसे लोगों के साथ तुम चाहे जैसे भी सत्य पर संगति कर लो, वह उन्हें समझ नहीं आएगा, न ही तुम्हें उसका कोई प्रभाव दिखेगा। ये लोग न सिर्फ सत्य से विमुख होते हैं, बल्कि इनमें दुष्ट स्वभाव भी है। सत्य से विमुख होने की सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति क्या है? यह कि व्यक्ति सत्य को समझता है, पर उसे अमल में नहीं लाता। वह उसे सुनना नहीं चाहता, उसका प्रतिरोध करता है और उससे कुढ़ता होता है। वह जानता है कि सत्य सही और अच्छा है, पर उसे अमल में नहीं लाता, वह इस मार्ग को अपनाने के लिए तैयार नहीं होता, न ही वह कष्ट सहना या कोई कीमत चुकाना चाहता है, कोई नुकसान उठाना तो दूर की बात है। दुष्ट लोग ऐसे नहीं होते। वे सोचते हैं कि दुष्ट चीजें सत्य हैं, कि यही सही मार्ग है, और वे इन चीजों के पीछे भागते हैं, उनका अनुकरण करने की कोशिश करते हैं और अपनी ऊर्जा लगातार उन्हीं पर केंद्रित करते हैं। परमेश्वर का घर अक्सर प्रार्थना के सिद्धांतों पर संगति करता है : लोग बिना समय की पाबंदी के जब और जहाँ चाहें, प्रार्थना कर सकते हैं, उन्हें बस परमेश्वर के सामने आने, मन-ही-मन वचन दोहराने और सत्य खोजने की जरूरत है। ये वचन बार-बार सुने और आसानी से समझे जाने चाहिए, लेकिन दुष्ट लोग इस पर कैसे अमल करते हैं? हर दिन भोर के सहगान के दौरान वे बिना नागा किए दक्षिण की ओर मुँह करते हैं, घुटनों के बल बैठकर दोनों हाथ जमीन पर रखते हुए परमेश्वर के सामने प्रार्थना में जितना हो सके, झुकते हैं। उन्हें लगता है कि सिर्फ ऐसे समय ही परमेश्वर उनकी प्रार्थना सुन पाएगा, क्योंकि यही समय होता है जब परमेश्वर व्यस्त नहीं होता, उसके पास समय होता है, इसलिए वह सुनता है। क्या यह हास्यास्पद नहीं है? क्या यह दुष्टता नहीं है? कुछ दूसरे लोग कहते हैं कि प्रार्थना करने का सबसे कारगर समय रात एक-दो बजे का होता है, जब सब-कुछ शांत होता है। वे ऐसा क्यों कहते हैं? उनके भी अपने कारण हैं। वे कहते हैं कि उस समय बाकी सब सो रहे होते हैं; परमेश्वर के पास उनके मामलों से निपटने के लिए सिर्फ तभी समय होता है, जब वह व्यस्त नहीं होता। क्या यह बेतुका नहीं है? क्या यह दुष्टता नहीं है? तुम उनके साथ सत्य पर चाहे जैसे संगति कर लो, वे इसे स्वीकारने से मना कर देते हैं। वे सबसे बेतुके लोग हैं और सत्य समझने में अक्षम हैं। कुछ अन्य लोग भी हैं, जो कहते हैं, “जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो उन्हें अच्छे काम करने चाहिए और दयालु होना चाहिए, उन्हें जीव-हत्या कर मांस नहीं खाना चाहिए। मांस खाना जीव-हत्या है, पाप है और जो ऐसा करता है उसे परमेश्वर नहीं चाहता।” क्या इन बातों का कोई आधार है? क्या परमेश्वर ने कभी ऐसा कुछ कहा है? (नहीं।) तो यह किसने कहा? यह एक बेहूदा किस्म के अविश्वासी ने कहा था। असल में जो लोग ऐसा कहते हैं, जरूरी नहीं कि वे मांस न खाते हों—या हो सकता है कि वे दूसरे लोगों के सामने मांस न खाते हों, पर अकेले में वे बहुत मांस खाते हैं। ये लोग ढोंग करने में उस्ताद हैं और जहाँ भी जाते हैं, भ्रांतियाँ फैलाते हैं। यह दुष्टता है। ऐसे लोग बहुत नीच होते हैं। वे इन पाखंडों और भ्रांतियों को आज्ञाएँ और विनियम मानते हैं, यहाँ तक कि वे इनका इस तरह अभ्यास करते और इनसे इस तरह चिपके रहते हैं मानो वे सत्य हों या परमेश्वर की माँगें हों, और पूरी ताकत और बेशर्मी से दूसरों को भी ऐसा करने की सीख देते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि इन लोगों के काम करने का तरीका, चीजों को कहने का तरीका और उनके अनुसरण के साधन दुष्टतापूर्ण होते हैं? (क्योंकि इनका सत्य से कोई संबंध नहीं होता।) तो क्या जिस किसी चीज का सत्य से संबंध नहीं होता, वह दुष्ट होती है? ऐसी समझ अत्यधिक समस्यात्मक है। लोगों के दैनिक जीवन में ऐसी चीजें भी होती हैं जिनका सत्य से कोई संबंध नहीं होता। यह कहना कि वे दुष्ट हैं, क्या तथ्यों को तोड़-मरोड़ नहीं देता? जिस किसी चीज की परमेश्वर निंदा नहीं करता, उसे दुष्ट नहीं कहा जा सकता, सिर्फ उसे ही दुष्ट कहा जा सकता है जिसकी परमेश्वर निंदा करता है। सत्य से असंबद्ध हर चीज को दुष्ट के रूप में परिभाषित करना एक बड़ी गलती होगी। उदाहरण के लिए, जीवन की जरूरतों के विवरण—जैसे खाना-पीना, सोना, आराम करना—क्या ये सत्य से जुड़े हैं? क्या ये चीजें दुष्ट हैं? ये सभी सामान्य जरूरतें हैं, ये लोगों की दिनचर्या का हिस्सा हैं, ये दुष्ट नहीं हैं। तो जिन कार्यों का मैंने अभी-अभी उल्लेख किया, उन्हें दुष्ट के रूप में क्यों वर्गीकृत किया गया? क्योंकि काम करने के ये तरीके लोगों को ऐसे रास्ते पर ले जाते हैं, जो गलत और हास्यास्पद हैं—वे उन्हें धर्म के रास्ते पर ले जाते हैं। उनका इस तरह से अभ्यास करना और दूसरों को ऐसा करने की शिक्षा देना लोगों को दुष्टता के रास्ते पर ले जाता है। यह अवश्यंभावी नतीजा है। जब लोग दुष्ट सांसारिक प्रवृत्तियों को पूजकर दुष्टता के मार्ग पर चलते हैं, तो उनका क्या हश्र होता है? वे भ्रष्ट हो जाते हैं, विवेक खो देते हैं, उनमें कोई शर्म नहीं रहती, और अंततः वे पूरी तरह से सांसारिक प्रवृत्तियों के असर में आकर विनाश की ओर चल पड़ते हैं, जो अविश्वासियों से अलग नहीं है। कुछ लोग इन पाखंडों और भ्रांतियों को ऐसे विनियम या आज्ञाएँ तो मानते ही हैं जिनका अनुसरण या पालन किया जाना है, इन्हें सत्य भी मानते हैं। वे बेतुके व्यक्ति होते हैं, जिनमें आध्यात्मिक समझ का सर्वथा अभाव होता है। अंततः उन्हें सिर्फ बाहर ही निकाला जा सकता है। क्या पवित्र आत्मा किसी ऐसे व्यक्ति में कार्य कर सकता है, जिसकी सत्य की समझ इतनी विकृत हो? (नहीं।) इन लोगों में पवित्र आत्मा कार्य नहीं करता, बल्कि दुष्ट आत्माएँ कार्य करती हैं, क्योंकि जिस मार्ग पर ये लोग चलते हैं, वह दुष्टता का मार्ग है, वे तेजी से बुरी आत्माओं के मार्ग पर बढ़ रहे हैं—जो ठीक वही है जो दुष्ट आत्माएँ चाहती हैं। और इसका नतीजा क्या होता है? ये लोग बुरी आत्माओं के वश में हो जाते हैं। पहले मैंने कहा था कि “दानव और शैतान, दहाड़ते हुए शेर की तरह घूम रहे हैं और ऐसे लोगों की तलाश कर रहे हैं जिन्हें वे फाड़ खाएँ।” जब लोग कुटिल और दुष्ट मार्ग पर चलते हैं, उन्हें दुष्ट आत्माएँ अनिवार्य रूप से छीन लेती हैं। परमेश्वर को तुम्हें बुरी आत्माओं को देने की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम्हारी रक्षा नहीं की जाएगी और परमेश्वर तुम्हारे साथ नहीं होगा। अगर परमेश्वर तुम्हें प्राप्त नहीं कर सकता तो वह तुम्हारी परवाह नहीं करेगा, और दुष्ट आत्माएँ इस अवसर का फायदा उठाकर तुम पर अधिकार कर लेंगी। यही दुष्परिणाम है, है न? वे सभी जो सत्य विमुख हैं और लगातार परमेश्वर के देहधारण के कार्य की निंदा करते हैं, जो सांसारिक प्रवृत्तियों के साथ चलते हैं, जो परमेश्वर के वचनों और बाइबल की खुल्लमखुल्ला गलत व्याख्या करते हैं, जो पाखंड और भ्रांतियाँ फैलाते हैं—उनके ये सारे कृत्य दुष्ट स्वभावों से पैदा होते हैं। कुछ लोग आध्यात्मिकता का अनुसरण करते हैं, और चूँकि उनकी समझ विकृत होती है, इसलिए वे लोगों को गुमराह करने के लिए कई भ्रांतियाँ गढ़ते हैं, और वे आदर्शवादी और सिद्धांतकार बन जाते हैं, यह भी नीचता है। वे दुष्ट लोग हैं। फरीसियों की तरह, उन्होंने जो कुछ भी किया वह पाखंड था, उन्होंने सत्य का अभ्यास नहीं किया और लोगों से आदर पाने और पूजे जाने के लिए उन्हें गुमराह किया। जब प्रभु यीशु कार्य करने के लिए प्रकट हुआ, तो उन्होंने उसे सूली पर भी चढ़ा दिया। यह दुष्टता थी और अंत में, परमेश्वर ने उन्हें शाप दिया। आज मजहबी दुनिया न सिर्फ परमेश्वर के प्रकटन और कार्य की आलोचना और निंदा करती है, बल्कि सबसे घिनौनी बात यह है कि वह बड़े लाल अजगर के पक्ष में भी खड़ी है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सताने में बुरी ताकतों के साथ भी जुड़ी है और परमेश्वर के शत्रु के रूप में उनके साथ खड़ी है। यह दुष्ट है। धार्मिक समुदाय ने शैतान की दुष्ट ताकतों से कभी घृणा नहीं की है, वह बड़े लाल अजगर के देश की दुष्टता से घृणा नहीं करता, बल्कि उसके लिए प्रार्थना करता है और उसे आशीष देता है। यह दुष्टता है। कोई भी व्यवहार, जो शैतान और दुष्ट आत्माओं से जुड़ा है या उनके साथ सहयोग कर रहा है, सामूहिक रूप से दुष्ट कहा जा सकता है। अभ्यास करने के जो तरीके सचमुच विकृत, बुरे, अतिवादी और असंयत हैं—वे दुष्ट भी हैं। कुछ लोग लगातार परमेश्वर को गलत समझते हैं, और ये गलतफहमियाँ दूर नहीं की जा सकतीं, चाहे उनके साथ सत्य पर कितनी भी संगति क्यों न कर ली जाए। वे हमेशा अपने ही तर्कों का प्रचार करते हैं, अपनी ही भ्रांतियों पर जोर देते हैं। और क्या इसमें भी थोड़ी-सी दुष्टता नहीं है? कुछ लोगों के मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ होती हैं; अपने साथ कई बार सत्य पर संगति किए जाने के बाद वे कहते हैं कि वे समझते हैं और उनकी धारणाएँ हल हो गई हैं, लेकिन वे फिर भी अपनी धारणाओं से चिपके रहते हैं, हमेशा नकारात्मक रहते हैं, और अपने बहानों से कसकर चिपके रहते हैं। यह दुष्टता है, है न? यह भी एक तरह की दुष्टता ही है। संक्षेप में कहें तो ऐसा हर इंसान नीच और कुछ हद तक दुष्ट है जिसने कुछ अनुचित किया है मगर जो सत्य पर चाहे जैसे संगति कर लें, अपनी गलती स्वीकारने से इनकार कर देता है। दुष्ट स्वभावों वाले इन लोगों का परमेश्वर द्वारा बचाया जाना आसान नहीं है क्योंकि वे सत्य नहीं स्वीकार सकते और अपनी दुष्ट भ्रांतियाँ छोड़ने से इनकार करते हैं; उनके लिए वास्तव में कुछ नहीं किया जा सकता।

हमने अभी-अभी कुल छह स्वभावों पर संगति की है : हठधर्मिता, अहंकार, कपट, सत्य से विमुखता, शातिरपन और दुष्टता। क्या इन छह स्वभावों के गहन-विश्लेषण ने तुम लोगों को स्वभाव में बदलावों के बारे में एक नया ज्ञान और समझ दी है? स्वभाव में बदलाव असल में क्या हैं? क्या इसका मतलब किसी खास दोष से छुटकारा पाना, किसी खास व्यवहार को सुधारना या किसी खास चरित्रगत लक्षण को बदलना है? बिल्कुल नहीं। तो क्या तुम लोग अब इस बारे में थोड़ा और स्पष्ट हो गए हो कि स्वभाव का आशय क्या है? क्या इन छह स्वभावों को मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों, मनुष्य के प्रकृति सार के रूप में बताया जा सकता है? (हाँ।) ये छह स्वभाव सकारात्मक चीजें हैं या नकारात्मक? (नकारात्मक चीजें।) ये स्पष्ट रूप से मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव हैं, ये मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों के मुख्य पहलू हैं। इनमें से एक भी भ्रष्ट स्वभाव ऐसा नहीं है जो परमेश्वर और सत्य के प्रति शत्रुतापूर्ण न हो, और इनमें से एक भी सकारात्मक नहीं है। इसलिए ये छह स्वभाव छह पहलू हैं जिन्हें सामूहिक रूप से भ्रष्ट स्वभाव कहा जाता है। भ्रष्ट स्वभाव मनुष्य का प्रकृति सार होते हैं। “सार” को कैसे समझाया जा सकता है? सार का आशय मनुष्य की प्रकृति से है। मनुष्य की प्रकृति का अर्थ उन चीजों से है जिन पर मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए निर्भर करता है, वे चीजें जो उसके जीने के तरीके को नियंत्रित करती हैं। लोग अपनी प्रकृति के अनुसार जीते हैं। तुम चाहे जो कुछ जीते हो, चाहे तुम्हारे लक्ष्य और दिशा कुछ भी हों, तुम जिन भी नियमों के अनुसार जीते हो, तुम्हारा प्रकृति सार नहीं बदलता—यह निर्विवाद तथ्य है। इसीलिए जब तुम्हारे पास सत्य नहीं होता और तुम इन भ्रष्ट स्वभावों के भरोसे जीते हो तो तुम जो कुछ भी जीते हो वह परमेश्वर के विरुद्ध, सत्य के विपरीत और परमेश्वर की इच्छा के प्रतिकूल होता है। तुम्हें अब यह समझना चाहिए : अगर लोगों के स्वभाव नहीं बदलते तो क्या वे उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? (नहीं।) यह असंभव होगा। इसलिए अगर लोगों के स्वभाव नहीं बदलते, तो क्या वे परमेश्वर के अनुरूप हो सकते हैं? (नहीं।) यह अत्यंत कठिन होगा। जब इन छह स्वभावों की बात आती है, तो वह चाहे कोई भी हो और तुममें जिस किसी हद तक अभिव्यक्त या प्रकट होता हो, अगर तुम इन भ्रष्ट स्वभावों की बाधाओं से मुक्त नहीं हो पाते, तो चाहे तुम्हारे कार्यों के मंसूबे या लक्ष्य कुछ भी हों, और चाहे तुम जानबूझकर कार्य कर रहे हो या नहीं, तुम जो कुछ भी करते हो उसकी प्रकृति अनिवार्य रूप से परमेश्वर के विरुद्ध होगी और परमेश्वर अनिवार्य रूप से उसकी निंदा करेगा—जो एक अत्यंत गंभीर दुष्परिणाम है। तो क्या परमेश्वर में विश्वास करने वाला प्रत्येक व्यक्ति अंततः परमेश्वर से निंदा पाना चाहता है? (नहीं।) और चूँकि यह वह परिणाम नहीं है जिसकी लोग कामना करते हैं, इसलिए क्या करना उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण है? उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार को जानना चाहिए, सत्य को समझना चाहिए, और फिर सत्य स्वीकारना चाहिए—धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा करके, परमेश्वर की बनाई परिस्थितियों में इन भ्रष्ट स्वभावों को त्याग कर परमेश्वर और सत्य के साथ अनुरूपता प्राप्त करनी चाहिए। यह अपने स्वभाव में बदलावों का मार्ग है।

पहले, ऐसे लोग थे जो अपने स्वभाव बदलने को बहुत सरल और सीधा समझते थे। वे मानते थे कि “अगर मैं खुद को परमेश्वर विरोधी बातें या ऐसा कोई कृत्य न करने के लिए बाध्य करता हूँ जो कलीसिया के काम में गड़बड़ी पैदा करे या उसे बाधित अवरुद्ध करे, और अगर मेरे पास सही परिप्रेक्ष्य है, मेरा हृदय सही है, मैं थोड़ा और सत्य समझता हूँ, और ज्यादा प्रयास करता हूँ, ज्यादा कष्ट उठाता हूँ और ज्यादा कीमत चुकाता हूँ तो कुछ वर्षों के बाद मैं निश्चित रूप से अपने स्वभाव में बदलाव लाने में सक्षम हो जाऊँगा।” क्या इन बातों में दम है? (नहीं।) उनकी गलती कहाँ है? (उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का कोई ज्ञान नहीं है।) अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने का क्या उद्देश्य है? (उसे बदलना।) और इस बदलाव का क्या परिणाम होता है? सत्य प्राप्त करना। यह मापने के लिए कि तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव आया है या नहीं, यह देखना जरूरी है कि तुम्हारे कार्य सत्य के अनुरूप हैं या सत्य के विरुद्ध, वे मानव-इच्छा से पैदा हुए हैं या परमेश्वर की इच्छा पूरी करने से। यह देखने के लिए कि तुम्हारा स्वभाव किस हद तक बदल चुका है, यह देखना जरूरी है कि क्या तुम आत्मचिंतन कर सकते हो, और जब तुम भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो तो क्या तुम अपने देह-सुख, मंसूबों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो, और ऐसा करते हुए क्या तुम सत्य के अनुसार अभ्यास कर सकते हो। सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने की तुम्हारी क्षमता की सीमा और क्या तुम्हारा अभ्यास पूरी तरह से सत्य के मानकों के अनुरूप है, ये दो चीजें यह साबित करती हैं कि तुम्हारे स्वभाव में कितना बड़ा बदलाव आया है। यह आनुपातिक होता है। उदाहरण के लिए हठधर्मी स्वभाव को लो : शुरुआत में जब तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया था, तब तुमने सत्य को नहीं समझा था, न ही तुम इस बात से अवगत थे कि तुममें हठधर्मी स्वभाव है, और जब तुमने सत्य सुना, तब तुमने मन-ही-मन सोचा, “सत्य हमेशा लोगों के दाग कैसे उजागर कर सकता है?” यह सुनकर तुम्हें लगा कि परमेश्वर के वचन सही हैं, लेकिन अगर एक-दो साल बाद भी तुम उनमें से किसी को भी गंभीरता से नहीं लेते, किसी को नहीं स्वीकारते तो यह हठधर्मिता है, है न? अगर दो-तीन साल के बाद भी तुम इनमें से किसी को स्वीकार नहीं करते, अगर तुम्हारी आंतरिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं होता, और हालाँकि तुम अपना कर्तव्य निभाने में पीछे नहीं रहे, और तुमने बहुत-कुछ सहा है, तो भी तुम्हारी हठधर्मी मनोदशा बिल्कुल भी ठीक या जरा-सी भी कम नहीं हुई है, तो क्या तुम्हारे स्वभाव के इस पहलू में कोई बदलाव आया है? (नहीं।) तो फिर तुम क्यों इधर-उधर भाग-दौड़ और काम कर रहे हो? तुम्हारे ऐसा करने का चाहे जो भी कारण हो, तुम आँख मूँदकर इधर-उधर भाग-दौड़ और काम कर रहे हो, क्योंकि तुमने इतनी भाग-दौड़ की है और इतना काम किया है और फिर भी तुम्हारे स्वभाव में जरा भी बदलाव नहीं आया है। फिर वह दिन आता है जब तुम अचानक मन-ही-मन सोचते हो, “ऐसा कैसे है कि मैं गवाही का एक शब्द भी नहीं बोल पा रहा हूँ? मेरा जीवन-स्वभाव बिल्कुल भी नहीं बदला है।” इस समय तुम महसूस करते हो कि यह समस्या कितनी गंभीर है, और तुम मन-ही-मन सोचते हो, “मैं वास्तव में विद्रोही और हठी हूँ! मैं सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति नहीं हूँ! मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है! इसे परमेश्वर में आस्था कैसे कहा जा सकता है? मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता आया हूँ, फिर भी मैं मनुष्य की छवि को नहीं जीता, न ही मेरा हृदय परमेश्वर के करीब है! मैं परमेश्वर के वचनों को भी गंभीरता से नहीं ले रहा हूँ; न ही कुछ गलत करते हुए मुझमें पश्चात्ताप का कोई भाव होता है और न ही पश्चात्ताप करने की प्रवृत्ति होती है—क्या यह हठधर्मिता नहीं है? क्या मैं विद्रोह का पुत्र नहीं हूँ?” तुम खुद को परेशान महसूस करते हो। और इसका क्या मतलब है कि तुम परेशान महसूस करते हो? इसका मतलब है कि तुम पश्चात्ताप करना चाहते हो। तुम अपनी हठधर्मिता और विद्रोह से अवगत हो। और इस समय तुम्हारा स्वभाव बदलने लगता है। अनजाने ही तुम्हारी चेतना के भीतर कुछ ऐसे विचार और इच्छाएँ होती हैं जिन्हें तुम बदलना चाहते हो, और अब तुम खुद को परमेश्वर के साथ गतिरोध की स्थिति में नहीं पाते। तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर के साथ अपने संबंध सुधारना चाहते हो, अब उतने हठी नहीं हो, अपने दैनिक जीवन में परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने में सक्षम हो, उनका सत्य सिद्धांतों के रूप में अभ्यास करने में सक्षम हो—तुममें यह चेतना है। यह अच्छा है कि तुम इन चीजों के प्रति सचेत हो, पर क्या इसका मतलब यह है कि तुम तुरंत बदल पाओगे? (नहीं।) तुम्हें कई वर्षों के अनुभव से गुजरना होगा, उस दौरान तुम्हारे हृदय में पहले से कहीं ज्यादा स्पष्ट जागरूकता होगी, और तुममें एक सशक्त प्रेरणा होगी, और तुम अपने हृदय में सोचोगे, “यह सही नहीं है—मुझे अपना समय नष्ट करना बंद करना चाहिए। मुझे सत्य का अनुसरण करना चाहिए, मुझे कुछ सही करना चाहिए। अतीत में मैं अपने उचित कर्तव्यों की उपेक्षा करता रहा हूँ, सिर्फ भोजन और वस्त्र जैसी भौतिक चीजों के बारे में सोचता रहा हूँ, और सिर्फ ख्याति और लाभ के पीछे भागता रहा हूँ। नतीजतन, मुझे सत्य बिल्कुल भी प्राप्त नहीं हुआ है। मुझे इसका पछतावा है और मुझे पश्चात्ताप करना चाहिए!” इस बिंदु पर तुम परमेश्वर में आस्था के सही मार्ग पर चलते हो। अगर लोग सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान देना शुरू कर देते हैं तो क्या यह उन्हें अपने स्वभाव में बदलावों के एक कदम करीब नहीं ले जाता? चाहे तुमने जितने भी समय परमेश्वर में विश्वास किया हो, अगर तुम अपना मैलापन महसूस कर सकते हो—कि तुम हमेशा बस अनायास बहते रहे हो, और कई वर्षों तक बस बहते रहने के बाद, तुमने कुछ भी प्राप्त नहीं किया है, और तुम अभी भी अपने अंदर खोखलापन महसूस करते हो—और अगर तुम इससे असहज महसूस करते हो, और आत्मचिंतन शुरू कर देते हो, और तुम्हें लगता है कि सत्य का अनुसरण न करना समय नष्ट करना है तब ऐसे समय तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर के प्रोत्साहन के वचन मनुष्य के प्रति उसका प्रेम हैं, और तुम परमेश्वर के वचन न सुनने के लिए और जमीर और समझ की इतनी कमी होने के कारण खुद से घृणा करोगे। तुम्हें पछतावा होगा, फिर तुम खुद को नए सिरे से संचालित कर वास्तव में परमेश्वर के सामने जीना चाहोगे और मन-ही-मन कहोगे, “मैं अब परमेश्वर को चोट नहीं पहुँचा सकता। परमेश्वर ने बहुत-कुछ बोला है, और उसका प्रत्येक वचन मनुष्य के लिए लाभकारी और उसे सही राह दिखाने वाला है। परमेश्वर बहुत प्यारा और मनुष्य के प्रेम के बहुत योग्य है!” यह लोगों में परिवर्तन की शुरुआत है। यह समझ होना कितनी अच्छी बात है! अगर तुम इतने जड़ हो कि ये चीजें भी नहीं जानते, तो तुम संकट में हो, है न? आज लोग महसूस करते हैं कि परमेश्वर में आस्था की कुंजी परमेश्वर के वचनों को ज्यादा पढ़ना है, कि सत्य को समझना सबसे महत्वपूर्ण है, कि सत्य को समझकर खुद को जानना महत्वपूर्ण है, और सिर्फ सत्य का अभ्यास करने और सत्य को अपनी वास्तविकता बनाने में सक्षम होना ही परमेश्वर में आस्था के सही मार्ग में प्रवेश करना है। तो तुम लोगों को के हिसाब से अपने हृदय में यह ज्ञान होने और भावना आने के लिए तुम्हारे पास कितने वर्षों का अनुभव होना चाहिए? जो लोग चतुर हैं, जिनमें अंतर्दृष्टि है, जिनमें परमेश्वर के लिए एक तीव्र इच्छा है—ऐसे लोग एक-दो साल में खुद को पूरी तरह बदलने और प्रवेश शुरू करने में सक्षम हो सकते हैं। लेकिन जो लोग भ्रमित हैं, जो जड़ और मंदबुद्धि हैं, जिनमें अंतर्दृष्टि की कमी है—वे तीन या पाँच साल हैरान रहकर गुजारेंगे और इस बात से अनजान रहेंगे कि उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया है। अगर वे उत्साह के साथ अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो वे दस साल से ज्यादा समय तक हैरान रह सकते हैं और फिर भी कोई स्पष्ट लाभ नहीं उठा सकते या अपनी अनुभवात्मक गवाहियों पर बोलने में सक्षम नहीं हो सकते। जब उन्हें दूर भेजा जाता है या बाहर निकाला जाता है, तभी वे अंततः जागकर मन-ही-मन सोच पाते हैं, “मेरे पास वास्तव में कोई सत्य वास्तविकता नहीं है। मैं वास्तव में सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति नहीं रहा हूँ!” क्या इस बिंदु पर उनका जागरण थोड़ी देर से नहीं हुआ है? कुछ लोग हैरान होकर धीरे-धीरे बहते जाते हैं, सदा परमेश्वर के दिन के आने की आशा करते हैं, लेकिन सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं करते। नतीजतन, दस साल से ज्यादा समय बीत जाता है और उन्हें कोई लाभ नहीं होता या वे कोई गवाही साझा नहीं कर पाते। जब उनकी कठोरता से काट-छाँट की जाती है और उन्हें चेतावनी दी जाती है, तब कहीं उन्हें अंततः महसूस होता है कि परमेश्वर के वचन उनके हृदय को भेदते हैं। उनका हृदय कितना हठी है! उनकी काट-छाँट न किया जाना और उन्हें दंडित न किया जाना कैसे ठीक है? उन्हें कठोरता से अनुशासित न किया जाना कैसे ठीक है? उन्हें जागरूक करने के लिए क्या किया जाना चाहिए, ताकि वे प्रतिक्रिया दें? जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे इतने हठी होते हैं कि अपनी गलती मानने में बहुत देर कर देते हैं। जब वे बहुत ज्यादा शैतानी और बुरे काम कर चुके होते हैं, तभी उन्हें एहसास हो पाता है और वे मन-ही-मन कहते हैं, “क्या परमेश्वर में मेरी आस्था खत्म हो गई है? क्या परमेश्वर अब मुझे नहीं चाहता? क्या मुझे शाप दे दिया गया है?” वे चिंतन करने लगते हैं। जब वे नकारात्मक होते हैं, तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करने के ये तमाम वर्ष व्यर्थ चले गए, वे आक्रोश से भर जाते हैं और खुद को निकम्मा समझकर खुद से आशा छोड़ देना चाहते हैं। लेकिन जब वे होश में आते हैं, तो उन्हें एहसास होता है कि “क्या मैं सिर्फ खुद को चोट नहीं पहुँचा रहा हूँ? मुझे फिर से सँभलना चाहिए। मुझसे कहा गया था कि मैं सत्य से प्रेम नहीं करता। मुझसे ऐसा क्यों कहा गया था? मैं कैसे सत्य से प्रेम नहीं करता? अफसोस! न केवल मैं सत्य से प्रेम नहीं करता, बल्कि उन सत्यों को अमल में भी नहीं ला सकता, जिन्हें मैं समझता हूँ! यह सत्य से विमुख होने की अभिव्यक्ति है!” यह सोचकर उन्हें कुछ ग्लानि होती है और कुछ डर भी लगता है : “अगर मैं ऐसे ही करता रहा, तो निश्चित रूप से मुझे दंड दिया जाएगा। नहीं, मुझे जल्दी से पश्चात्ताप करना चाहिए—परमेश्वर के स्वभाव को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए।” इस समय क्या उनकी हठधर्मिता का स्तर कम हो गया है? मानो उनके दिल में सुई चुभ गई हो; वे कुछ महसूस करते हैं। और जब तुम्हें यह एहसास होता है, तो तुम्हारा हृदय द्रवित हो जाता है और तुम सत्य में रुचि लेने लगते हो। तुम्हें यह रुचि क्यों होती है? क्योंकि तुम्हें सत्य की जरूरत है। तुम्हारे पास सत्य नहीं होगा तो अपनी काट-छाँट होने पर तुम इसके प्रति समर्पण नहीं कर पाओगे या सत्य नहीं स्वीकार पाओगे और अपनी परीक्षा होने पर तुम अडिग नहीं रह पाओगे। अगर तुम अगुआ बनते हो तो क्या तुम नकली अगुआ बनने और मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने से बच पाओगे? तुम नहीं बच पाओगे। क्या तुम रुतबा पाने और दूसरों से प्रशंसा पाने की भावना से उबर सकते हो? क्या तुम उन परिस्थितियों से उबर सकते हो जिनमें तुम्हें डाला जाता है और उन परीक्षाओं पर विजय पा सकते हो जो तुमसे ली जाती हैं? तुम खुद को बहुत अच्छी तरह जानते-समझते हो, और तुम कहोगे, “अगर मैं सत्य को नहीं समझता, तो मैं इन सब पर काबू नहीं पा सकता—मैं कचरा हूँ, मैं कुछ भी करने में सक्षम नहीं हूँ।” यह कैसी मानसिकता है? यह सच की जरूरत होना है। जब तुम जरूरतमंद होते हो, जब तुम सबसे ज्यादा असहाय होते हो तो तुम सिर्फ सत्य पर निर्भर होना चाहोगे। तुम्हें लगेगा कि किसी और पर निर्भर नहीं हुआ जा सकता और सिर्फ सत्य पर निर्भर रहना ही तुम्हारी समस्याओं का समाधान कर सकता है, और तुम्हें काट-छाँट, परीक्षणों और प्रलोभनों से पार पाने दे सकता है, और किसी भी स्थिति से पार पाने में मदद कर सकता है। और तुम सत्य पर जितना ज्यादा निर्भर होगे, उतना ही ज्यादा तुम महसूस करोगे कि सत्य अच्छा है, उपयोगी है और तुम्हारे लिए सबसे बड़ी मदद है और वह तुम्हारी तमाम कठिनाइयाँ हल कर सकता है। इस समय तुममें सत्य के लिए ललक होगी। जब लोग इस बिंदु पर पहुँचते हैं तो क्या उनका भ्रष्ट स्वभाव घटने या धीरे-धीरे बदलने लगता है? जब लोग सत्य को समझने और स्वीकारने लगते हैं, तब से उनका चीजों को देखने का तरीका बदलने लगता है, जिसके बाद उनके स्वभाव भी बदलने लगते हैं। यह एक धीमी प्रक्रिया है। शुरुआती चरणों में लोग ये छोटे बदलाव महसूस नहीं कर पाते; लेकिन जब वे सच में सत्य को समझ जाते हैं और इसका अभ्यास करने में सक्षम हो जाते हैं तो आवश्यक बदलाव होने लगते हैं, और वे ऐसे बदलावों को महसूस करने में सक्षम हो जाते हैं। जिस मुकाम से लोगों में सत्य के लिए लालसा और भूख जागने लगती है और वे सत्य खोजना चाहते हैं, उस मुकाम तक पहुँचने में जब उनके साथ कुछ होता है और सत्य की अपनी समझ के आधार पर वे सत्य को अमल में लाने और परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में सक्षम होते हैं, और अपनी इच्छा के अनुसार कार्य नहीं करते, अपने इरादों पर काबू पाने में सक्षम होते हैं, अपने अहंकारी, विद्रोही, हठधर्मी और विश्वासघाती हृदय पर विजय प्राप्त करते हैं, तब क्या थोड़ा-थोड़ा करके सत्य उनका जीवन नहीं बन जाता? और जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है तो तुम्हारे भीतर के अहंकारी, विद्रोही, हठी और विश्वासघाती स्वभाव तुम्हारा जीवन नहीं रह जाते और वे तुम्हें और नियंत्रित नहीं कर सकते। और इस समय तुम्हारे आचरण का मार्गदर्शन कौन करता है? परमेश्वर के वचन। जब परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन बन जाते हैं तो क्या कोई बदलाव आता है? (बिल्कुल।) और बाद में तुम जितना ज्यादा बदलते हो, चीजें उतनी ही बेहतर होती जाती हैं। यही वह प्रक्रिया है जिसके जरिये लोगों के स्वभाव बदलते हैं, और यह सफलता मिलने में लंबा समय लगता है।

स्वभाव में बदलाव आने में कितना समय लगता है, यह व्यक्ति पर निर्भर करता है; इसके लिए कोई निर्धारित समय-सीमा नहीं है। अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम और उसका अनुसरण करता है तो उसके स्वभाव में बदलाव सात, आठ या दस वर्षों में दिखाई देंगे। अगर वे औसत काबिलियत वाले हैं और सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक भी हैं तो उनके स्वभाव में बदलाव दिखने में लगभग पंद्रह-बीस साल लग सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण है व्यक्ति का सत्य का अनुसरण करने का निश्चय और उनमें कितनी अंतर्दृष्टि हैं, ये निर्धारक कारक हैं। हर तरह का भ्रष्ट स्वभाव हर व्यक्ति में अलग-अलग मात्रा में मौजूद है, ये सभी मनुष्य की प्रकृति हैं और ये सभी गहराई तक जड़ें जमाए हुए हैं। लेकिन सत्य का अनुसरण और अभ्यास करके और परमेश्वर का न्याय, ताड़ना, काट-छाँट, परीक्षण और शोधन स्वीकार करके हर स्वभाव में अलग-अलग मात्रा में बदलाव प्राप्त किया जा सकता है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर ऐसा है तो क्या स्वभाव में बदलाव सिर्फ समय का फेर नहीं हैं? जब समय आएगा तो मैं जान जाऊँगा कि स्वभाव में बदलाव क्या होते हैं और मैं प्रवेश करने लायक हो जाऊँगा।” क्या यही मामला है? (नहीं।) बिल्कुल नहीं। अगर स्वभाव में बदलाव प्राप्त करने के लिए समय ही सब कुछ होता तो जिन्होंने अपने पूरे जीवन परमेश्वर में विश्वास किया है, उन सभी लोगों को सामान्य रूप से अपने स्वभाव में बदलाव ले आना चाहिए था। लेकिन क्या वास्तव में चीजें ऐसी ही हैं? क्या इन लोगों ने सत्य प्राप्त कर लिया है? क्या वे अपने स्वभाव में बदलाव ला पाए हैं? वे बदलाव नहीं ला पाए हैं। परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग तो बैल के शरीर के बालों के समान असंख्य हैं, लेकिन जिनके स्वभाव बदल गए हैं, वे एक सींग वाले घोड़े यूनिकॉर्न की तरह दुर्लभ हैं। अपने स्वभावों में वास्तव में बदलाव लाने के लिए लोगों को सत्य के अनुसरण पर भरोसा करना चाहिए; उन्हें पवित्र आत्मा के कार्य पर भरोसा करने पर पूर्ण बनाया जाता है। स्वभाव में बदलाव सत्य का अनुसरण करने से लाए जाते हैं। एक ओर लोगों को कीमत चुकानी चाहिए, जब सत्य का अनुसरण करने की बात आती है तो उन्हें कीमत चुकानी चाहिए और सत्य प्राप्त करने के लिए कोई भी कठिनाई बहुत छोटी नहीं होती। इसके अलावा पवित्र आत्मा के कार्य करने और पूर्ण बनाए जाने के लिए लोगों को परमेश्वर द्वारा सही तरह के व्यक्ति, दयालु व्यक्ति और ऐसे व्यक्ति के रूप में मान्य किया जाना चाहिए जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करता है। लोगों का सहयोग अपरिहार्य है लेकिन पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करना और भी महत्वपूर्ण है। अगर लोग सत्य का अनुसरण या उससे प्रेम नहीं करते, अगर वे कभी परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान देना नहीं जानते, परमेश्वर से प्रेम करना तो बिल्कुल भी नहीं जानते, अगर उनमें कलीसिया के कार्य के प्रति दायित्व की भावना नहीं है, और दूसरों के प्रति कोई प्रेम नहीं है—और अगर खासकर अपना कर्तव्य निभाते समय उनमें कोई निष्ठा नहीं है—तो वे परमेश्वर के प्रिय नहीं हैं और परमेश्वर उन्हें कभी पूर्ण नहीं बना सकता। इसलिए लोगों को अंधे दावे नहीं करने चाहिए, बल्कि परमेश्वर की इच्छा समझनी चाहिए। परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे या करे, उन्हें समर्पण करने में सक्षम होना चाहिए और कलीसिया के कार्य की रक्षा करने के लिए उनके हृदय सही होने चाहिए, सिर्फ तभी पवित्र आत्मा कार्य कर सकता है। अगर लोग परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने का अनुसरण करने की इच्छा रखते हैं, तो उनके पास ऐसा हृदय होना चाहिए जो परमेश्वर से प्रेम करता हो, ऐसा हृदय जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता हो, ऐसा हृदय जो परमेश्वर का भय मानता हो, और अपना कर्तव्य निभाते समय उन्हें परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए और परमेश्वर को संतुष्टि प्रदान करनी चाहिए। तभी वे पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकेंगे। जब लोगों के पास पवित्र आत्मा का कार्य होता है तो परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए वे प्रबुद्ध हो जाते हैं, उनके पास अपने कर्तव्य के निर्वाह में सत्य और सिद्धांतों का अभ्यास करने का एक मार्ग होता है, जब वे संकट में होते हैं तो परमेश्वर उनका मार्गदर्शन करता है, और चाहे वे कितने भी पीड़ित हों, उनका हृदय प्रफुल्लित और शांत होता है। जब वे इस तरह दस-बीस वर्षों तक पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से गुजरते हैं, तो अनजाने ही वे बदल जाते हैं। जितनी जल्दी बदलाव, उतनी ही जल्दी शांति; जितनी जल्दी बदलाव, उतनी ही जल्दी वे खुश हो सकते हैं। जब लोगों का स्वभाव बदलता है, तभी वे सच्ची शांति और आनंद पा सकते हैं, सिर्फ तभी वे वास्तव में सुखी जीवन जी सकते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनके पास कोई आध्यात्मिक शांति या आनंद नहीं होता, उनके दिन पहले से ज्यादा खाली और ज्यादा असह्य हो जाते हैं। जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनके दिन दर्द और पीड़ा से भरे होते हैं। और इसलिए जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो सत्य प्राप्त करने से बढ़कर कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं होता। सत्य को प्राप्त करना जीवन प्राप्त करना है, और सत्य को जितनी जल्दी प्राप्त कर लिया जाए, उतना ही अच्छा है। सत्य के बिना लोगों का जीवन खोखला है। सत्य प्राप्त करना शांति और आनंद प्राप्त करना है, परमेश्वर के सामने जीने में सक्षम होने, पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा प्रबुद्ध और निर्देशित होने और उसकी अगुआई प्राप्त करने के लिए उनके हृदय में ज्यादा से ज्यादा प्रकाश होगा, और परमेश्वर में उनकी आस्था निरंतर बढ़ती जाएगी। तो क्या अब, स्वभाव में बदलावों से संबंधित सत्य तुम लोगों को ज्यादा स्पष्ट है? (हाँ, अब हम समझ गए हैं।) अगर यह वाकई तुम्हें स्पष्ट है, तो तुम्हारे पास एक मार्ग है और तुम जानते हो कि सत्य का अनुसरण करने में कैसे प्रभावी होना है।

28 अप्रैल 2017

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