प्रश्न 2: प्रभु यीशु और सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर एक ही परमेश्‍वर हैं, लेकिन विभिन्न युगों में अलग-अलग कार्य करते हैं। प्रभु यीशु ने छुटकारे का कार्य किया और पश्चाताप का मार्ग बताया। अंत के दिनों में, सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर मानवजाति के न्याय और शुद्धिकरण का कार्य करते हैं और उन्हें अनन्‍त जीवन का मार्ग देते हैं। मेरे पास अभी भी एक सवाल है, पश्चाताप के मार्ग और अनन्‍त जीवन के मार्ग के बीच क्या अंतर है?

उत्तर: परमेश्‍वर सिर्फ़ एक ही हैं और मानवजाति को बचाने का उनका कार्य एक या दो चरणों में पूरा नहीं किया जा सकता है। क्योंकि मानव जाति को बचाने के लिए परमेश्‍वर की प्रबंधन योजना में कार्य के तीन चरण हैं, प्रत्येक चरण में परमेश्‍वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्‍य अलग हैं, और यह धीरे-धीरे गहरा होता है, ताकि आख़िर में यह पूर्ण हो जाए। परमेश्‍वर अलग-अलग युगों में उस समय की मनुष्य की ज़रूरतों के आधार पर विभिन्न कार्य करते हैं, इस तरह से प्रत्येक युग में परमेश्‍वर मनुष्य को अलग मार्ग देते हैं। आप पूछते हैं कि पश्चाताप के मार्ग और अनन्‍त जीवन के मार्ग के बीच क्या अंतर है, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। यह एक सत्‍य है जिसे परमेश्‍वर में विश्वास रखने वाले हर सच्चे विश्वासी को समझना चाहिए, क्योंकि यह इससे संबंधित है कि मनुष्य कैसे सत्य को जान कर अनन्‍त जीवन पाता है। अब हम सभी जानते हैं कि प्रभु यीशु ने अनुग्रह के युग में छुटकारे का कार्य किया और मनुष्य को पश्चाताप का मार्ग दिया। जैसा कि प्रभु यीशु ने कहा था: "मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है" (मत्ती 4:17)। जिसका अर्थ है कि अगर मनुष्य स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना चाहता है तो उसे परमेश्‍वर के सामने अपने पापों का स्वीकार और पश्चाताप करना चाहिए। पूर्व के पापों को स्‍वीकारने के बाद, ऐसे पाप क्षमा कर दिए जाएंगे। मनुष्य अब पाप नहीं करेगा, पश्चाताप करेगा और फ़िर से जन्म लेगा। यह पश्चाताप है लेकिन उस समय, प्रभु यीशु ने सिर्फ़ मनुष्यों को अपने पापों को स्‍वीकारने और पश्चाताप करने की शिक्षा दी, पाप न करना, बुरा न करना, अपने आप को अस्वीकार करना, क्रूस उठाना और प्रभु का अनुसरण करना, अपने पूरे हृदय, आत्मा, और मन से प्रभु से प्रेम करना, विनम्रता, सहनशीलता और धैर्य के साथ, दूसरों को ख़ुद की तरह प्रेम करना, और दूसरों को सात गुना सात बार क्षमा करना, आदि। ये मनुष्य के पश्चाताप के मार्ग हैं। जब मनुष्य अपने पापों को कबूल करता है और प्रभु यीशु के सामने पश्चाताप करता है, तो इन पापों को क्षमा किया जाएगा, जिससे मनुष्य परमेश्‍वर के सामने प्रार्थना करने और उनके साथ सहभागिता करने लायक हो जाता है, और परमेश्‍वर के दिए गए भरपूर अनुग्रह और सत्‍य का आनंद लेता है। लेकिन हम इससे इनकार नहीं कर सकते कि भले ही मनुष्य के पाप क्षमा कर दिए जाते हों, उसकी पापी प्रकृति अभी भी उसके अंदर मौजूद है, और वह अभी भी परमेश्‍वर के साथ विश्वासघात और विरोध कर सकता है। यह सिद्ध करता है कि हालाँकि मनुष्य के पापों को क्षमा किया जा सकता है, मगर वह फ़िर भी पाप कर सकता है और पवित्र नहीं बन सकता। प्रभु यीशु ने सिर्फ़ छुटकारे का कार्य किया, जो सिर्फ़ मनुष्य को अपने पापों को कबूल करने, पश्चाताप करने, परमेश्‍वर के पास लौटने, और परमेश्‍वर द्वारा दिए गए अनुग्रह का आनंद लेने की गुंजाइश देता है। इससे पता चलता है कि प्रभु यीशु द्वारा व्यक्त किये गये सत्य मनुष्य के पश्चाताप करने का मार्ग है। जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर कहते हैं: "उस समय, यीशु ने अनुग्रह के युग में अपने अनुयायियों को इन विषयों पर बस उपदेशों की एक श्रृंखला दी, जैसे कि कैसे अभ्यास करें, कैसे एक साथ इकट्ठा हों, प्रार्थना में कैसे याचना करें, दूसरों से कैसा व्यवहार करें इत्यादि। उसने अनुग्रह के युग का कार्य किया, और उसने केवल यह प्रतिपादित किया कि शिष्य और वे लोग जो उसका अनुसरण करते हैं, कैसे अभ्यास करें। उसने केवल अनुग्रह के युग का ही कार्य किया और अंत के दिनों का कोई कार्य नहीं किया। ... प्रत्येक युग में परमेश्वर के कार्य की स्पष्ट सीमाएँ हैं; वह केवल वर्तमान युग का कार्य करता है और कभी भी कार्य का आगामी चरण पहले से नहीं करता। केवल इस तरह से उसका प्रत्येक युग का प्रतिनिधि कार्य सामने लाया जा सकता है। यीशु ने केवल अंत के दिनों के चिह्नों के बारे में बात की, इस बारे में बात की कि किस प्रकार से धैर्यवान बनें, कैसे बचाए जाएँ, कैसे पश्चाताप करें, कैसे अपने पापों को स्वीकार करें, सलीब को कैसे धारण करें और कैसे पीड़ा सहन करें; उसने कभी इस पर कुछ नहीं कहा कि अंत के दिनों में मनुष्य को किस प्रकार प्रवेश हासिल करना चाहिए या उसे परमेश्वर की इच्छा को किस प्रकार से संतुष्ट करने की कोशिश करनी चाहिए..." (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, वो मनुष्य, जिसने परमेश्वर को अपनी ही धारणाओं में सीमित कर दिया है, किस प्रकार उसके प्रकटनों को प्राप्त कर सकता है?)। "पापबलि के माध्यम से मनुष्य के पाप क्षमा किए जा सकते हैं, परंतु मनुष्य इस समस्या को हल करने में पूरी तरह असमर्थ रहा है कि वह आगे कैसे पाप न करे और कैसे उसका भ्रष्ट पापी स्वभाव पूरी तरह से मिटाया और रूपांतरित किया जा सकता है। मनुष्य के पाप क्षमा कर दिए गए थे और ऐसा परमेश्वर के सलीब पर चढ़ने के कार्य की वजह से हुआ था, परंतु मनुष्य अपने पुराने, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव में जीता रहा। इसलिए मनुष्य को उसके भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से पूरी तरह से बचाया जाना आवश्यक है, ताकि उसका पापी स्वभाव पूरी तरह से मिटाया जा सके और वह फिर कभी विकसित न हो पाए, जिससे मनुष्य का स्वभाव रूपांतरित होने में सक्षम हो सके। इसके लिए मनुष्य को जीवन में उन्नति के मार्ग को समझना होगा, जीवन के मार्ग को समझना होगा, और अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के मार्ग को समझना होगा। साथ ही, इसके लिए मनुष्य को इस मार्ग के अनुरूप कार्य करने की आवश्यकता होगी, ताकि उसका स्वभाव धीरे-धीरे बदल सके और वह प्रकाश की चमक में जी सके, ताकि वह जो कुछ भी करे, वह परमेश्वर की इच्छा के अनुसार हो, ताकि वह अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दूर कर सके और शैतान के अंधकार के प्रभाव को तोड़कर आज़ाद हो सके, और इसके परिणामस्वरूप पाप से पूरी तरह से ऊपर उठ सके। केवल तभी मनुष्य पूर्ण उद्धार प्राप्त करेगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))। सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के वचन हमें साफ़-साफ़ बताते हैं कि प्रभु यीशु ने छुटकारे का कार्य किया, और जो उन्होंने हमें दिया वह सिर्फ़ पश्चाताप का ही मार्ग था, लेकिन उन्होंने मनुष्य को उसकी शैतानी प्रकृति को त्‍यागने और पवित्र बनने के लिए अनन्‍त जीवन का मार्ग नहीं दिया। इसलिए, अंत के दिनों में, सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर आ गए हैं, और प्रभु यीशु के छुटकारे के कार्य की नींव पर, उन्होंने "परमेश्‍वर के भवन से शुरू करते हुए न्याय" का कार्य किया और हमें अनन्‍त जीवन का मार्ग दिया है। सिर्फ़ अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर द्वारा दिए गए अनन्‍त जीवन के मार्ग को अपना कर क्या लोग परमेश्‍वर की इच्छा के प्रति आज्ञाकारी बन सकते हैं, पूरी तरह से शैतान के बुरे असर से बच सकते हैं, पवित्रता की स्थिति में पहुँच सकते हैं, और परमेश्‍वर के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं?

हमने अभी पश्चाताप के तरीके के बारे में सहभागिता की, और मुझे लगता है कि आप सभी इसे समझते हैं। अब मैं इस बारे में बात करना चाहूँगी कि अनन्‍त जीवन का मार्ग क्या है, और फ़िर मैं पश्चाताप के मार्ग और अनन्‍त जीवन के मार्ग के बीच के अंतर के बारे में बात करूँगी। जब हम अनन्‍त जीवन के मार्ग के बारे में बात करते हैं, तो हम सिर्फ़ पापों को स्‍वीकारने और पश्चाताप के बारे में बात नहीं कर रहे हैं, हम सत्‍य के उस मार्ग के बारे में बात कर रहे हैं जो लोगों को अनन्‍त जीवन प्रदान करता है। और अधिक विशिष्‍ट रूप से कहें तो, लोग उद्धार कैसे पाते हैं, शैतान के असर से कैसे मुक्त होते हैं, सत्‍य को जीवन के रूप में कैसे पाते हैं, परमेश्‍वर के अनुरूप कैसे बनते हैं, और परमेश्‍वर द्वारा कैसे प्राप्त किये जाते हैं। यह अनन्‍त जीवन का मार्ग है। इसलिए, जो लोग अनन्‍त जीवन का मार्ग पाते हैं, ये वही लोग हैं जो सत्य को पाते हैं, जो सत्य को जीवन के रूप में पाते हैं, और ये परमेश्‍वर द्वारा पूर्ण किए वही लोग हैं जो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। क्या ये वो लोग नहीं हैं जो अनन्‍त जीवन का मार्ग पाते हैं? क्या वे लोग जो सत्‍य को अपने जीवन के रूप में पाते हैं, वे कभी परमेश्‍वर का विरोध करेंगे या परमेश्‍वर को धोखा देंगे? वो लोग जो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करते हैं, क्या वे कभी मरेंगे, या उन्हें कभी नरक में भेजा जाएगा? इसलिए, कोई भी व्यक्ति जो सत्‍य को जीवन के रूप में पाता है, वह परमेश्‍वर को जानेगा, और इस तरह अनन्‍त जीवन का मार्ग पाएगा, समझ गए? आइए इस विषय पर सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के वचनों पर नजर डालें।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अंत के दिनों का मसीह जीवन लेकर आता है, और सत्य का स्थायी और शाश्वत मार्ग लेकर आता है। यह सत्य वह मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्य जीवन प्राप्त करता है, और यह एकमात्र मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्य परमेश्वर को जानेगा और परमेश्वर द्वारा स्वीकृत किया जाएगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है)

"अंत के दिनों का कार्य यहोवा और यीशु के कार्य को और उन सभी रहस्यों को प्रकट करता है, जिन्हें मनुष्य द्वारा समझा नहीं गया था, ताकि मानवजाति की मंज़िल और अंत प्रकट किया जा सके और मानवजाति के बीच उद्धार का समस्त कार्य समाप्त हो सके। अंत के दिनों में कार्य का यह चरण सभी चीज़ों को समाप्ति की ओर ले आता है। मनुष्य द्वारा समझे न गए सभी रहस्यों को प्रकट किया जाना आवश्यक है, ताकि मनुष्य उन्हें उनकी गहराई तक जान सकें और उनके हृदयों में उनकी एक पूरी तरह से स्पष्ट समझ उत्पन्न हो सके। केवल तभी मानवजाति को प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है। ... तो मनुष्य द्वारा नहीं समझे गए सभी रहस्यों को प्रकट कर दिया गया होगा, पहले नहीं समझे गए सभी सत्यों को स्पष्ट कर दिया गया होगा, और मानवजाति को उसके भविष्य के मार्ग और मंज़िल के बारे में बता दिया गया होगा। यह संपूर्ण कार्य वर्तमान चरण में किया जाना है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))

"कार्य के इस अंतिम चरण में परिणाम वचन के माध्यम से प्राप्त किए जाते है। वचन के माध्यम से मनुष्य अनेक रहस्यों और पिछली पीढ़ियों के दौरान किए गए परमेश्वर के कार्य को समझ जाता है; वचन के माध्यम से मनुष्य को पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध किया जाता है; वचन के माध्यम से मनुष्य पिछली पीढ़ियों के द्वारा कभी न सुलझाए गए रहस्यों को, और साथ ही अतीत के समयों के नबियों और प्रेरितों के कार्य को, और उनके कार्य करने के सिद्धांतों को समझ जाता है; वचन के माध्यम से मनुष्य स्वयं परमेश्वर के स्वभाव को और साथ ही मनुष्य की विद्रोहशीलता और विरोध को भी समझ जाता है, और वह अपने सार को जान जाता है। कार्य के इन चरणों और बोले गए सभी वचनों के माध्यम से मनुष्य पवित्रात्मा के कार्य को, देहधारी परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य को, और इससे भी बढ़कर, उसके संपूर्ण स्वभाव को जान जाता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))

"अंत के दिनों का मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन तमाम विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)

सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के वचनों के ज़रिए हम देख सकते हैं कि अनन्‍त जीवन का मार्ग कोई ऐसी चीज़ नहीं हैं जिसे कुछ नियमों के ज़रिये सिखाया जा सके, न ही इंसानों की पाप करने और परमेश्‍वर का विरोध करने की प्रवृत्ति का समाधान महज कुछ अंशों से किया जा सकता है। मानव जाति शैतान के द्वारा गंभीर रूप से भ्रष्‍ट बना दी गयी है, और वह सभी तरह के शैतानी ज़हर से भरी है। वे बेहद अहंकारी, घमंडी और आत्‍म-केंद्रित, और परमेश्‍वर के प्रति धारणाओं, काल्‍पनिक विचारों और बेहिसाब मांगों से भरे हुए हैं। उन्‍हें परमेश्‍वर का वास्‍तविक ज्ञान बिल्‍कुल भी नहीं है, उनके मन में सच्‍चा भय, आज्ञापालन या प्रेम काफी कम है। अगर लोग अपने शैतानी स्वभावों से मुक्‍त होकर पवित्र होना चाहते हैं, या सच में परमेश्वर को जानना, उनका आज्ञापालन करना, उनके प्रति भय रखना और उनसे प्रेम करना और परमेश्‍वर के अनुरूप बनना चाहते हैं, तो इसके लिए उन्हें सत्‍य के कई पहलुओं को समझने की ज़रूरत है। जैसा कि भ्रष्‍ट मानव जाति के लिए अंत के दिनों में ज़रूरी होता है, "परमेश्‍वर के भवन से शुरू होने वाले न्याय" का कार्य परमेश्‍वर करते हैं, और वे शैतान के असर से मनुष्यों की पूर्ण मुक्ति और उद्धार के लिए लिए आवश्‍यक सभी सत्‍य व्‍यक्त करते हैं। इसलिए, अनन्‍त जीवन का मार्ग सत्य के एक या दो पहलुओं तक सीमित नहीं है, यह सत्‍य के कई सारे पहलुओं से युक्‍त है। अगर लोग अंत के दिनों में परमेश्‍वर के कार्य का अनुभव करने लगते हैं, तो वे मानव जाति को बचाने के लिए परमेश्‍वर द्वारा व्‍यक्‍त किये गए पूर्ण सत्‍य को समझने लगते हैं, और सत्‍य की वास्‍तविकता में प्रवेश कर जाते हैं, इसके बाद बिना किसी संदेह के वे अपने जीवन में स्वभावगत परिवर्तन पा सकते हैं, और परमेश्‍वर के सच्‍चे आज्ञाकारी और भक्‍त जैसे बन जाते हैं। वे ऐसे लोग हैं जो अनन्‍त जीवन का मार्ग पा लेते हैं। अनन्‍त जीवन का मार्ग क्‍या है? वे सभी सत्‍य जो मानव जाति को उद्धार देने के लिए परमेश्‍वर अंत के दिनों में व्‍यक्‍त करते हैं। अंत के दिनों में परमेश्‍वर का कार्य मनुष्‍यों में सत्य की बारिश करना है ताकि ये सत्य मनुष्‍य का जीवन बन जायें। जो लोग परमेश्‍वर के इन वचनों के साथ जीवन जीते हैं वे अनन्‍त जीवन का मार्ग पा लेते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई व्‍यक्ति परमेश्‍वर के वचनों को कितनी गहराई तक महसूस करता है। जब तक हम विभिन्‍न सत्‍यों की वास्‍तविकता को कुछ हद तक अपने पास रखते हैं, सच्‍चे इंसान की तरह जीवन-यापन करते हैं, ईमानदार रहते हैं और परेमश्‍वर के सच्‍चे आज्ञाकारी होते हैं, सिद्धांत के अनुसार अपना आचरण करते हैं, परमेश्‍वर का भय करते हैं और बुराई से परहेज़ करते हैं, हम मानवता और सत्‍य से परिपूर्ण व्‍यक्ति बन जाते हैं, और इस तरह हम अनन्‍त जीवन का मार्ग पाते हैं। जब हम अनन्‍त जीवन का मार्ग पा लेते हैं तो हम पाप और शैतान के असर से मुक्‍त हो जाते हैं, इसका अर्थ है कि हम अब और अधिक पाप नहीं करते, परमेश्‍वर का विरोध या उनके साथ धोखा नहीं करते। परमेश्‍वर का सच्‍चा ज्ञान पाकर, हम स्वभावगत परिवर्तन पा सकते हैं। तब हम परमेश्‍वर के आज्ञाकारी, उनके भक्‍त और प्रेमी होकर उनके अनुरूप बन जाते हैं, और परमेश्‍वर की इच्‍छा का पालन करने वाले बन जाते हैं। जब हम अनन्‍त जीवन का मार्ग पा लेते हैं तो फ़िर हम कभी नहीं मरेंगे। हमें परमेश्‍वर के आशीर्वाद का सुख और स्‍वर्ग के राज्य में प्रवेश मिलेगा, जिसका हमसे वादा किया गया था।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब मानवता सही मार्ग पर होगी, लोग सामान्य मानवीय जीवन जिएँगे। वे सब अपने-अपने कर्तव्य निभाएँगे और परमेश्वर के प्रति पूर्णतः वफ़ादार होंगे। वे अपनी अवज्ञा और अपने भ्रष्ट स्वभाव को पूरी तरह छोड़ देंगे और वे अवज्ञा और प्रतिरोध दोनों के बिना परमेश्वर के लिए और परमेश्वर के कारण जिएंगे। वे पूर्णतः परमेश्वर को समर्पित होने में सक्षम होंगे। यही परमेश्वर और मानवता का जीवन होगा; यह राज्य का जीवन होगा और यह विश्राम का जीवन होगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)

"मैं सिंहासन पर विश्राम करता हूँ, मैं संपूर्ण ब्रह्माण्ड के ऊपर आराम से पीठ टिकाता हूँ, और मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ, क्योंकि सभी चीज़ों ने अपनी पवित्रता पुनः प्राप्त कर ली है, और मैं एक बार फिर सिय्योन के भीतर शांतिपूर्वक निवास कर सकता हूँ, और पृथ्वी पर लोग मेरे मार्गदर्शन के अधीन शांत, संतुष्ट जीवन जी सकते हैं। सभी लोग सब कुछ मेरे हाथों में प्रबंधित कर रहे हैं, सभी लोगों ने अपनी पूर्व बुद्धिमता और मूल प्रकटन पुनः प्राप्त कर लिया है; वे धूल से अब और ढके नहीं हैं, बल्कि, मेरे राज्य में, हरिताश्म के समान पवित्र हैं, प्रत्येक का चेहरा मनुष्य के हृदय के भीतर पवित्र जन के चेहरे के समान है, क्योंकि मनुष्यों के बीच मेरा राज्य स्थापित हो गया है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 16)

"राज्य में, परमेश्वर के साथ परमेश्वर के लोग जो जीवन जीते हैं, वह अत्यंत उल्लासमय है। सागर लोगों के आशीषित जीवन पर आनंद से नृत्य करते हैं, पर्वत लोगों के साथ मेरी प्रचुरता का आनंद लेते हैं। सभी लोग प्रयास कर रहे हैं, मेहनत कर रहे हैं, मेरे राज्य में अपनी निष्ठा दिखा रहे हैं। राज्य में, अब न विद्रोह है, न प्रतिरोध है; स्वर्ग और धरती एक-दूसरे पर निर्भर हैं, इंसान और मैं गहरी भावना के साथ निकट आते हैं, जीवन के मधुर सुख-चैन के माध्यम से, एक-दूसरे की ओर झुक रहे हैं..." (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, ओ लोगो! आनंद मनाओ!)

"सिंहासन से बहता है जीवन जल" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश

पिछला: प्रश्न 1: सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है," तो मुझे वह याद आया जो प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा" (यूहन्ना 4:14)। हम पहले से ही जानते हैं कि प्रभु यीशु जीवन के सजीव जल का स्रोत हैं, और अनन्‍त जीवन का मार्ग हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर और प्रभु यीशु समान स्रोत हों? क्या उनके कार्य और वचन दोनों पवित्र आत्मा के कार्य और वचन हैं? क्या उनका कार्य एक ही परमेश्‍वर करते हैं?

अगला: प्रश्न 3: आप कहते हैं कि सिर्फ़ परमेश्‍वर की इच्छा का पालन करने वाले अनन्‍त जीवन का मार्ग पाते हैं। जब हमने प्रभु में विश्वास करना शुरू किया था, तो हमने प्रभु का सुसमाचार फैलाने के लिए काफी कष्ट सहा और इसकी कीमत चुकाई। हम प्रभु के झुंड के चरवाहे बने, क्रूस उठाया और प्रभु का अनुसरण किया, हमने नम्रता, धैर्य और सहिष्णुता का पालन किया। क्या आप ये कह रहे हैं कि हम परमेश्‍वर की इच्छा का पालन नहीं कर रहे हैं? हम जानते हैं कि अगर हम इसे जारी रखते हैं, तो हम पवित्र हो जायेंगे और स्वर्ग के राज्य में स्वर्गारोहित किये जायेंगे। क्या आपका मतलब है कि प्रभु के वचनों को इस तरह समझना और उनको अमल में लाना गलत है?

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1. प्रभु ने हमसे यह कहते हुए, एक वादा किया, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो" (यूहन्ना 14:2-3)। प्रभु यीशु पुनर्जीवित हुआ और हमारे लिए एक जगह तैयार करने के लिए स्वर्ग में चढ़ा, और इसलिए यह स्थान स्वर्ग में होना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु लौट आया है और पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित कर चुका है। मुझे समझ में नहीं आता: स्वर्ग का राज्य स्वर्ग में है या पृथ्वी पर?

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