सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन

अंश 10

ऐसे बहुत लोग हैं, जो अपने कर्तव्य में व्यस्त होते ही अनुभव करने में असमर्थ हो जाते हैं और सामान्य स्थिति बनाए नहीं रख पाते, और नतीजतन, लगातार सभा आयोजित कर अपने साथ सत्य की संगति किए जाने की माँग करते रहते हैं। यहाँ क्या चल रहा है? वे सत्य नहीं समझते, वे सच्चे मार्ग में नींव नहीं जमा पाए हैं, ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते समय जोश से प्रेरित होते हैं, और लंबे समय तक नहीं सह सकते हैं। जब लोग सत्य नहीं समझते, तो वे जो कुछ भी करते हैं उसमें कोई सिद्धांत नहीं होता। अगर उनके लिए कुछ करने की व्यवस्था की जाती है, तो वे उसमें गड़बड़ी कर देते हैं, वे जो करते हैं उस पर न तो ध्यान देते हैं, न ही सिद्धांत की तलाश करते हैं, उनके दिलों में कोई आज्ञाकारिता नहीं होती—जो यह साबित करता है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने में असमर्थ हैं। चाहे तुम कुछ भी करो, तुम्हें सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि तुम इसे क्यों कर रहे हो, वह कौन सी मंशा है जो तुम्हें ऐसा करने के लिए निर्देशित करती है, तुम्हारे ऐसा करने का क्या महत्व है, मामले की प्रकृति क्या है, और क्या तुम जो कर रहे हो वह कोई सकारात्मक चीज़ है या कोई नकारात्मक चीज़ है। तुम्हें इन सभी मामलों की एक स्पष्ट समझ अवश्य होनी चाहिए; सिद्धान्त के साथ कार्य करने में समर्थ होने के लिए यह बहुत आवश्यक है। अगर तुम अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए कुछ कर रहे हो, तो तुम्हें यह विचार करना चाहिए : मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे करना चाहिए, ताकि मैं इसे बस लापरवाही से न करूँ? इस मामले में तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। परमेश्वर से प्रार्थना करना सत्य, अभ्यास करने का तरीका, परमेश्वर का इरादा और परमेश्वर को संतुष्ट करने का तरीका खोजने के लिए है। प्रार्थना ये प्रभाव प्राप्त करने के लिए है। परमेश्वर से प्रार्थना करना, परमेश्वर के निकट आना और परमेश्वर के वचन पढना कोई धार्मिक अनुष्ठान या बाहरी क्रिया-कलाप नहीं हैं। यह परमेश्वर की इच्छा को खोजने के बाद सत्य के अनुसार अभ्यास करने के उद्देश्य से किया जाता है। अगर तुम उस समय हमेशा कहते हो “परमेश्वर को धन्यवाद”, जब तुमने कुछ नहीं किया होता, और तुम बहुत आध्यात्मिक और गहरी पहुँच रखने वाले लग सकते हो, लेकिन अगर कार्य करने का समय आने पर भी तुम जैसा चाहते हो वैसा ही करते हो, सत्य की खोज बिलकुल नहीं करते, तो यह “परमेश्वर का धन्यवाद” एक मंत्र से ज्यादा कुछ नहीं है, यह झूठी आध्यात्मिकता है। अपना कर्तव्य करते समय तुम्हें हमेशा सोचना चाहिए : “मुझे यह कर्तव्य कैसे पूरा करना चाहिए? परमेश्वर की इच्छा क्या है?” अपने कार्यों के लिए सिद्धांत और सत्य खोजने हेतु परमेश्वर से प्रार्थना करना और उसके करीब जाना, अपने दिल में परमेश्वर की इच्छा की तलाश करना, और जो भी तुम करते हो उसमें परमेश्वर के वचनों या सत्य के सिद्धांतों से न भटकना—केवल ऐसा करने वाला इंसान ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करता है; यह सब उन लोगों के लिए अप्राप्य है जो सत्य से प्रेम नहीं करते। ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो चाहे कुछ भी करें, अपने ही विचारों का पालन करते हैं, और चीजों को अत्यधिक एकांगी तरीके से समझते हैं, और सत्य की तलाश भी नहीं करते। वहाँ सिद्धांत का पूर्ण अभाव रहता है, और अपने दिल में वे इस पर कोई विचार नहीं करते कि परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार या उस तरीके से कैसे कार्य करो जो परमेश्वर को संतुष्ट करता है, और केवल हठपूर्वक अपनी ही इच्छा का पालन करना जानते हैं। ऐसे लोगों के दिल में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं, “जब मेरे सामने कठिनाई आती है, तो मैं केवल परमेश्वर से ही प्रार्थना करता हूँ, लेकिन फिर भी ऐसा नहीं लगता कि इसका कोई प्रभाव होता है—इसलिए आम तौर पर अब जब मेरे साथ कुछ घटता है, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करता, क्योंकि परमेश्वर से प्रार्थना करना बेकार है।” ऐसे लोगों के दिलों से परमेश्वर बिलकुल नदारद होता है। वे सत्य की तलाश नहीं करते, फिर चाहे वे कुछ भी कर रहे हों; वे केवल अपने विचारों का ही पालन करते हैं। तो क्या उनके कार्यों के सिद्धांत हैं? निश्चित रूप से नहीं। वे सब-कुछ एकांगी तरीके से देखते हैं। यहाँ तक कि जब लोग उनके साथ सत्य के सिद्धांतों की संगति करते हैं, तो वे उन्हें स्वीकार नहीं कर पाते, क्योंकि उनके कार्यों में कभी कोई सिद्धांत नहीं रहा होता, उनके हृदय में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं होता, और उनके हृदय में उनके सिवा कोई नहीं होता। उन्हें लगता है कि उनके इरादे नेक हैं, कि वे बुराई नहीं कर रहे, कि उनके इरादों को सत्य का उल्लंघन करने वाला नहीं माना जा सकता, उन्हें लगता है कि अपने इरादों के अनुसार कार्य करना सत्य का अभ्यास करना होना चाहिए, कि इस प्रकार कार्य करना परमेश्वर का आज्ञापालन करना है। वस्तुतः, इस मामले में वे वास्तव में परमेश्वर की तलाश या उससे प्रार्थना नहीं कर रहे, बल्कि आवेग पर कार्य करते हुए, अपने ही जोशीले इरादों के अनुसार, वे उस तरह अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे जिस तरह परमेश्वर कहता है, उनमें परमेश्वर की आज्ञाकारिता वाला दिल नहीं है, उनमें यह इच्छा अनुपस्थित रहती है। लोगों के अभ्यास में यह सबसे बड़ी गलती होती है। अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो और फिर भी वह तुम्हारे दिल में नहीं है, तो क्या तुम परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश नहीं कर रहे? और परमेश्वर पर ऐसी आस्था का क्या परिणाम हो सकता है? तुम इससे क्या हासिल कर सकते हो? और परमेश्वर पर ऐसी आस्था का क्या मतलब है?

अगर तुमने कुछ ऐसा किया है, जो सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन कर परमेश्वर को अप्रसन्न करता है, तो तुम्हें आत्मचिंतन करके खुद को जानने की कोशिश कैसे करनी चाहिए? जब तुम उसे करने जा रहे थे, तब क्या तुमने उससे प्रार्थना की थी? क्या तुमने कभी यह विचार किया, “क्या चीजें इस तरह से करना सत्य के अनुरूप है? अगर यह बात परमेश्वर के सामने लाई जाएगी, तो उसे कैसी लगेगी? अगर उसे इसका पता चलेगा, तो वह खुश होगा या कुपित? वह इसका तिरस्कार करेगा या इससे घृणा करेगा?” तुमने यह जानने की कोशिश नहीं की, है ना? यहाँ तक कि अगर दूसरे लोगों ने तुम्हें याद भी दिलाया, तो तुम तब भी यही सोचोगे कि यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, और यह किसी भी सिद्धांत के खिलाफ नहीं जाता और न ही कोई पाप है। नतीजतन, तुमने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर दिया और उसे क्रोध करने के लिए उकसाया, इस हद तक कि उसे तुमसे नफरत हो जाए। यह लोगों के विद्रोहीपन से उत्पन्न होता है। इसलिए, तुम्हें सभी चीजों में सत्य खोजना चाहिए। तुम्हें इसी का पालन करना चाहिए। अगर तुम पहले से प्रार्थना करने के लिए ईमानदारी से परमेश्वर के सामने आ सको, और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य की तलाश कर सको, तो तुम गलती नहीं करोगे। सत्य के तुम्हारे अभ्यास में कुछ विचलन हो सकते हैं, लेकिन इससे बचना कठिन है, और कुछ अनुभव प्राप्त करने के बाद तुम सही ढंग से अभ्यास करने में सक्षम होगे। लेकिन अगर तुम जानते हो कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है, फिर भी इसका अभ्यास नहीं करते, तो समस्या सत्य के प्रति तुम्हारी नापसंदगी है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे उसे कभी नहीं खोजेंगे, चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए। केवल सत्य से प्रेम करने वालों के पास ही परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, और जब ऐसी चीजें होती हैं जो उन्हें समझ नहीं आतीं, तो वे सत्य की खोज करने में सक्षम होते हैं। अगर तुम परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ सकते और अभ्यास करना नहीं जानते, तो तुम्हें सत्य समझने वाले कुछ लोगों के साथ सहभागिता करनी चाहिए। अगर तुम्हें सत्य समझने वाले लोग न मिल पाएँ, तो तुम्हें शुद्ध समझ वाले कुछ लोगों को ढूँढ़कर एकचित्त होकर एक-साथ परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से खोजना चाहिए, परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए, और परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए एक रास्ता खोले जाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। अगर तुम सभी सत्य के लिए तरसते हो, सत्य की खोज करते हो, और सत्य पर एक-साथ सहभागिता करते हो, तो एक समय आएगा जब तुममें से किसी को कोई अच्छा समाधान सूझ जाएगा। अगर तुम सभी को वह समाधान उपयुक्त लगता है और वह एक अच्छा उपाय है, तो यह पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी के कारण हो सकता है। फिर अगर तुम अभ्यास का और भी सटीक मार्ग तलाशने के लिए एक-साथ संगति करते रखते हो, तो यह निश्चित रूप से सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होगा। अपने अभ्यास में, अगर तुम पाते हो कि तुम्हारे अभ्यास का तरीका अभी भी कुछ ठीक नहीं है, तो तुम्हें उसे जल्दी से सही करने की आवश्यकता है। अगर तुम थोड़ी गलती करते हो, तो परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा, क्योंकि तुम जो करते हो उसमें तुम्हारे इरादे सही हैं, और तुम सत्य के अनुसार अभ्यास कर रहे हो। तुम बस सिद्धांतों के बारे में थोड़े भ्रमित हो और तुमने अपने अभ्यास में एक त्रुटि कर दी है, जो क्षम्य है। लेकिन जब ज्यादातर लोग चीजें करते हैं, तो वे इसे किए जाने के तरीके को लेकर अपनी कल्पना के आधार पर इसे करते हैं। सत्य के अनुसार अभ्यास कैसे करें या परमेश्वर की स्वीकृति कैसे प्राप्त करें, इस पर विचार करने के लिए वे परमेश्वर के वचनों को आधार नहीं बनाते। इसके बजाय, वे केवल इस बारे में सोचते हैं कि कैसे स्वयं को लाभ पहुँचाया जाए, कैसे दूसरों से अपना आदर करवाया जाए, और कैसे दूसरों से अपनी प्रशंसा करवाई जाए। वे चीजें पूरी तरह से अपने विचारों के आधार पर और विशुद्ध रूप से खुद को संतुष्ट करने के लिए करते हैं, जो परेशानी खड़ी करता है। ऐसे लोग कभी सत्य के अनुसार कार्य नहीं करेंगे, और परमेश्वर हमेशा उनसे घृणा करेगा। अगर वास्तव में तुम्हारे पास अंतरात्मा और विवेक है, तो चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें प्रार्थना करने और खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आने में सक्षम होना चाहिए, अपने कामों में उद्देश्यों और मिलावट की गंभीरता से जाँच करने में सक्षम होना चाहिए, यह तय करने में सक्षम होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार क्या करना उचित है, और बार-बार तोलना और विचारना चाहिए कि कौन-से कार्य परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं, कौन-से कार्य परमेश्वर को नाराज करते हैं, और कौन-से कार्य परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करते हैं। तुम्हें मन में इन मामलों पर तब तक बार-बार विचार करना चाहिए, जब तक तुम उन्हें स्पष्ट रूप से समझ नहीं लेते। अगर तुम जान जाते हो कि कुछ करने के पीछे तुम्हारे अपने उद्देश्य हैं, तो तुम्हें इस पर चिंतन करना चाहिए कि तुम्हारे उद्देश्य क्या हैं, वे खुद को संतुष्ट करने के लिए हैं या परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, वे तुम्हारे लिए फायदेमंद हैं या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए, और उनके क्या परिणाम होंगे...। अगर तुम अपनी प्रार्थनाओं में इस तरह से और अधिक खोज और चिंतन करते हो, और सत्य खोजने के लिए खुद से और प्रश्न पूछते हैं, तो तुम्हारे कार्यों में विचलन कम होते जाएँगे। इस तरह से सत्य खोज सकने वाले लोग ही परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील रहकर उसका भय मानते हैं, क्योंकि ऐसे में तुम परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं के अनुसार और आज्ञाकारी हृदय से खोजते हो, और इस तरह खोजने से तुम जिन निष्कर्षों पर पहुँचते हो, वे सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होंगे।

अगर किसी विश्वासी के कर्म सत्य के अनुरूप नही हैं, तो वह किसी अविश्वासी के समान ही है। वह उस तरह का इंसान है, जिसके दिल में परमेश्वर नहीं होता, और जो परमेश्वर से भटक जाता है, और ऐसा इंसान परमेश्वर के घर में काम पर रखे गए उस कर्मचारी की तरह होता है, जो अपने मालिक के लिए कोई छोटे-मोटे कार्य कर देता है, कुछ मुआवज़ा पाता है और फिर चला जाता है। यह ऐसा इंसान बिलकुल नहीं हो सकता, जो परमेश्वर पर विश्वास करता है। परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करने के लिए क्या करना है, यह वह पहली चीज़ है, जिसके बारे में तुम्हें चीजें करते समय सोचना और काम करना चाहिए; यह तुम्हारे अभ्यास का सिद्धांत और दायरा होना चाहिए। तुम जो कर रहे हो वह सत्य के अनुरूप है या नहीं, इसका निश्चय तुम्हें इसलिए करना चाहिए, क्योंकि अगर वह सत्य के अनुरूप है, तो वह निश्चित रूप से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। ऐसा नहीं है कि तुम्हें यह मापना चाहिए कि यह बात सही है या गलत है, या क्या यह हर किसी की रुचि के अनुरूप है, या क्या यह तुम्हारी अपनी इच्छाओं के अनुसार है; बल्कि तुम्हें यह निश्चित करना चाहिए कि यह सत्य के अनुरूप है या नहीं, और यह कलीसिया के काम और हितों को लाभ पहुँचाता है या नहीं। अगर तुम इन बातों पर विचार करते हो, तो तुम चीज़ों को करते समय परमेश्वर की इच्छा के अधिकाधिक अनुरूप होते जाओगे। अगर तुम इन पहलुओं पर विचार नहीं करते, और चीज़ों को करते समय केवल अपनी इच्छा पर निर्भर रहते हो, तो तुम्हारा उन्हें गलत तरीके से करना गारंटीशुदा है, क्योंकि मनुष्य की इच्छा सत्य नहीं है और निश्चित रूप से, वह परमेश्वर के साथ असंगत होती है। अगर तुम परमेश्वर द्वारा अनुमोदित होने की इच्छा रखते हो, तो तुम्हें सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, न कि अपनी इच्छा के अनुसार। कुछ लोग अपने कर्तव्य पूरे करने के नाम पर कुछ निजी मामलों में संलग्न रहते हैं। उनके भाई और बहन इसे अनुचित मानते हैं और इसके लिए उन्हें फटकारते हैं, लेकिन ये लोग भूल स्वीकार नहीं करते। उन्हें लगता है कि यह एक व्यक्तिगत मामला है, जिसमें कलीसिया का कार्य, वित्त या उसके लोग शामिल नहीं हैं, और यह कोई बुरा काम काम नहीं है, इसलिए लोगों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कुछ चीज़ें तुम्हें निजी मामले लग सकती हैं, जिन पर कोई सिद्धांत या सत्य लागू नहीं होता। किंतु, तुम्हारे द्वारा किए गए कार्य को देखते हुए, तुम बहुत स्वार्थी रहे। तुमने कलीसिया के कार्य या परमेश्वर के घर के हितों पर कोई ध्यान नहीं दिया, न ही इस बात पर ध्यान दिया कि क्या यह परमेश्वर के लिए संतोषजनक होगा; तुम केवल अपने फायदे पर विचार करते रहे। इसमें पहले ही संतों का औचित्य और साथ ही इंसान की मानवता शामिल हैं। भले ही तुम जो कर रहे थे, उससे चर्च के हित नहीं जुड़े थे, न ही उसमें सत्य शामिल था, फिर भी अपने कर्तव्य के पालन करने का दावा करते हुए एक निजी मामले में संलग्न होना सत्य के अनुरूप नहीं है। चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, चाहे मामला कितना भी बड़ा या छोटा हो, और चाहे वह परमेश्वर के परिवार में तुम्हारा कर्तव्य हो या तुम्हारा निजी मामला, तुम्हें इस बात पर विचार करना ही चाहिए कि जो तुम कर रहे हो वह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है या नहीं, साथ ही क्या यह ऐसा कुछ है जो किसी मानवता युक्त इंसान को करना चाहिए। अगर तुम जो भी करते हो उसमें उस तरह सत्य की तलाश करते हो तो तुम ऐसे इंसान हो जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करता है। अगर तुम हर बात और हर सत्य को इस ढंग से लेते हो, तो तुम अपने स्वभाव में बदलाव हासिल करने में सक्षम होगे। ऐसे लोग हैं, जो सोचते हैं, “जब मैं अपना कर्तव्य करता हूँ, तब मेरा सत्य का अभ्यास करना तो ठीक है, लेकिन जब मैं अपने निजी कार्य कर रहा होता हूँ, तो मुझे परवाह नहीं कि सत्य क्या कहता है—मैं वही करूँगा जो मुझे पसंद है, जो कुछ भी मुझे अपने फायदे के लिए करना पड़े।” इन शब्दों से तुम देख सकते हो कि वे सत्य के प्रेमी नहीं हैं। वे जो कुछ करते हैं, उसमें कोई सिद्धांत नहीं होता। इस बात पर विचार तक किए बिना कि परमेश्वर के घर पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, वे जो कुछ भी उनके लिए फायदेमंद होगा, करेंगे। नतीजतन, जब वे कुछ कर लेते हैं, तो परमेश्वर उनमें मौजूद नहीं होता, और वे अंधकार और उदासी महसूस करते हैं, और नहीं जानते कि क्या हो रहा है। क्या वे अपने इस रेगिस्तान के ही लायक नहीं है? अगर तुम अपने कार्यों में सत्य का अभ्यास नहीं करते और परमेश्वर का अपमान करते हो, तो तुम उसके खिलाफ पाप कर रहे हो। अगर कोई इंसान सत्य से प्रेम नहीं करता और अक्सर अपनी इच्छा के अनुसार काम करता है, तो वह अक्सर परमेश्वर को रुष्ट करेगा। परमेश्वर उससे घृणा करेगा और अस्वीकार कर उसे एक किनारे कर देगा। ऐसा इंसान जो कुछ करता है, वह अक्सर परमेश्वर की स्वीकृति पाने में विफल हो जाता है, और अगर वह पश्चाताप न करे, तो सजा उससे दूर नहीं है।

अंश 11

कोई भी काम ठीक से करने के लिए सत्‍य-सिद्धांत का पता लगाना जरूरी है। व्‍यक्ति को इस पर एकाग्रता के साथ विचार करना चाहिए कि किसी काम को करते हुए उसे ठीक तरह से कैसे किया जाए, और परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना और खोज करते हुए खुद को शांत रखना जरूरी है। कुछ भी करने से पहले दूसरों के साथ संवाद करना आवश्‍यक है, और अगर संवाद के लिए कोई उपलब्‍ध न हो, तो व्‍यक्ति को खुद ही चिंतन-मनन और प्रार्थना करनी चाहिए, और उस काम को सही ढंग से करने के तरीके की खोज करनी चाहिए। परमेश्वर के समक्ष स्‍वयं को शांत करना यही है। परमेश्वर के समक्ष शांत रहने के लिए तुम्हें विचार-शून्य होने की जरूरत नहीं है; तुम्‍हें अपने हृदय में खोज और प्रतीक्षा के रवैये के साथ, इस मसले को संभालने के उपयुक्त तरीके़ की खोज करते हुए कार्य और चिंतन-मनन करना भी अनिवार्य है। अगर तुम्‍हें उस मसले के बारे में जरा भी अनुमान नहीं है, तो उसके बारे में जानने और पूछताछ करने के लिए किसी को खोजो। पूछताछ करने की इस अवधि में तुम्‍हारा रवैया कैसा होना चाहिए? दरअसल तुम्‍हें खोज और प्रतीक्षा करते हुए यह देखना चाहिए कि परमेश्वर किस तरह काम करता है। पवित्र आत्‍मा तुम्‍हारा प्रबोधन और मार्गदर्शन इस तरह नहीं करता जैसे वह कोई रोशनी जलाकर तुम्हारे दिल को अचानक रोशन कर देता हो। परमेश्वर निरंतर तुम्हें उत्‍प्रेरित करने और समझाने के लिए किसी व्‍यक्ति या किसी घटना का इस्‍तेमाल करता है। प्रार्थना करते हुए गंभीर भाव से घुटने टेकने और घंटों तक उसी मुद्रा में बने रहने से परे भी खोज करने के बहुत-से तरीके हैं; घुटने टेककर बैठे रहने से दूसरे काम लटके रहते हैं। कभी-कभी, कोई व्‍यक्ति चलते हुए भी किसी मसले पर सोच-विचार कर सकता है; कभी-कभी कोई मसला पैदा होने पर कोई सामूहिक संवाद करने के लिए उतावला हो सकता है; कभी कोई ऊपरवाले से मदद माँग सकता है; कभी कोई खुद ही परमेश्वर के वचनों को पढ़ सकता है; अगर मामला तात्‍कालिक हो, तो तुम स्थिति की वास्‍तविकता को समझने के लिए भाग सकते हो, और फिर सिद्धांतों के मुताबिक मसले से निपटते हुए सत्य की खोज कर सकते हो और मन-ही-मन प्रार्थना और खोज करते रह सकते हो। यही वह तरीका है जो तुम लोगों को अपनाना चाहिए—परिपक्व तरीका! कुछ भी अप्रत्‍याशित घटित होने पर, यदि तुम परेशान हो जाते हो, घबरा जाते हो, और अभिभूत हो जाते हो, तो फिर तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, तुमने पहले कुछ भी अनुभव नहीं किया है, और अपने आध्यात्मिक कद को बढ़ाने के लिए तुम्हें चीजों को अनुभव करना होगा और खुद को प्रशिक्षित करना होगा। तुम लोगों को खोज करने के कई तरीके सीखने चाहिए : जब तुम अपने कर्तव्‍य में व्‍यस्‍त हो, तो अपनी व्‍यस्‍तता के साथ तालमेल बनाकर खोज करो; जब तुम्‍हारे पास समय हो, तो समय की उपलब्‍धता के अनुरूपखोज और प्रतीक्षा करो। बहुत-से अलग-अलग तरीके़ हैं। अगर प्रतीक्षा के लिए पर्याप्‍त समय है, तो कुछ देर प्रतीक्षा करो। बड़े मामलों में तुम हड़बड़ी नहीं कर सकते; हड़बड़ी में गलतियाँ करने के परिणाम अकल्‍पनीय हो सकते हैं। श्रेष्‍ठ परिणाम हासिल करने के लिए तुम्‍हें प्रतीक्षा करते हुए देखना चाहिए कि आगे क्‍या होता है, या फिर यह देखना चाहिए कि क्या तुम किसी ऐसे व्‍यक्तिसे उत्प्रेरित होते हो जिसे उस स्थिति का ज्ञान है। ये सब खोज करने के तरीके हैं। परमेश्वर लोगों को प्रबुद्ध करने के लिए किसी एक तरीके का इस्‍तेमाल नहीं करता है; न तो वह मात्र अपने वचनों से तुम्‍हें प्रबुद्ध करता है, न ही वह तुम्‍हारे आस-पास मौजूद लोगों से तुम्‍हें हमेशा मार्गदर्शन मुहैया कराता है। परमेश्वर तुम्‍हें तुम्‍हारी दक्षता के दायरे में न आने वाले मसलों के बारे में, ऐसी चीजों के बारे में जिनसे तुम्‍हारा सामना कभी नहीं हुआ है, किस तरह प्रबुद्ध करता है? परमेश्वर कभी-कभी तुम्हें विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के माध्यम से प्रबुद्ध करता है, इस मामले में तुम्हें किसी विशेषज्ञ की खोज करने या ऐसे व्यक्तिकी सलाह लेने की जरूरत है जो इस क्षेत्र को समझता है। कोई भी व्यक्ति जो इस क्षेत्र को समझता है उसे ढूंढने के लिए तुम्हें जल्दी करनी चाहिए, उनसे कुछ मदद लो, फिर सिद्धांतों के अनुसार काम करो, और जब तुम ऐसा करते हो परमेश्वर तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। फिर भी तुम्हें पेशेवर कौशल के बारे में या उपलब्ध विशेषज्ञता के बारे में थोड़ा समझना चाहिए, और इसके बारे में तुम्हारी कुछ अवधारणा होनी चाहिए; तुम्हें क्या करना चाहिए इसके बारे में परमेश्वर तुम्हें इसी आधार पर प्रबुद्ध करेगा।

व्यक्ति जो कुछ भी करता है, उसका संभावित पथ निर्धारित करने के लिए सोच सकता है, रूपरेखा बना सकता है, योजनाएँ बना सकता है, सलाह ले सकता है, और कई स्रोतों से इसके बारे में पूछताछ कर सकता है, लेकिन सफलता फिर भी परमेश्वर पर ही निर्भर है। यह कहावत कि, “मनुष्य प्रस्ताव रखता है, लेकिन निपटारा तो परमेश्वर ही करता है” सच है। यह भी गजब की बात है कि अविश्वासी लोगों ने अनुभव के माध्यम से इस कहावत का निचोड़ निकाला है, और यदि परमेश्वर पर विश्वास करने वाले लोग इसे स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते हैं, तो वे बहुत अज्ञानी हैं और वे किसी भी सत्य को समझ नहीं पाए हैं। लोगों को अपने हृदय में दृढ़ विश्वास रखना चाहिए कि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है, और लोग जो करना चाहते हैं, यदि वह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है तो उसे परमेश्वर का आशीष मिलेगा। यह नियम तुम्हारे हृदय में मौजूद होना चाहिए, तुम्हें पता होना चाहिए कि परमेश्वर सभी पर संप्रभुता रखता है, और यह कि अंतिम निर्णय मनुष्य के हाथों में नहीं है। इसलिए, कोई चाहे कुछ भी करे, पहले उसे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, यह देखने के लिए कि क्या उसके हृदय में कोई परिवर्तन हुआ है, फिर यह देखने के लिए सत्य खोजना चाहिए कि क्या वह कार्रवाई सत्य के अनुसार है और क्या यह कार्य संभव है। यदि यह तुरंत निर्धारित नहीं किया जा सकता है, तो तुम्हे प्रतीक्षा करनी चाहिए। कार्य करने के लिए जल्दीबाजी मत करो। तब तक प्रतीक्षा करो जब तक कि तुम मसले को ठीक से समझ नहीं जाते, जब तक तुम यह महसूस नहीं करते कि सही समय आ गया है, अब और प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है और तुम्हें इसे करना ही चाहिए, और तुम्हारे हृदय में पर्याप्त निश्चितता है कि तुम इसे कर सकते हो—तब तुम यह कार्य कर सकते हो। यदि मामले को पूरी तरह से समझने में तुम सक्षम नहीं हो, कुछ दिनों तक प्रतीक्षा करने के बाद इसमें तुम्हारी कोई रुचि नहीं है, और तुम निश्चित नहीं हो कि यह कार्य सफल होगा, तो इससे यह साबित होता है कि यह मामला व्यक्ति की इच्छा से उत्पन्न हुआ है, और परमेश्वर ने इसके लिए अनुमति नहीं दी है, इसलिए तुम्हें इसे जल्दी से त्याग देना चाहिए। जब परमेश्वर से कुछ आता है, तो तुम्हें हमेशा इसमें विश्वास की अनुभूति होगी, और यह विश्वास किसी भी स्थिति में खत्म नहीं होगा। अंततः, तुम्हारे हृदय में और अधिक स्पष्टता आएगी, मानो तुमने इस मसले को स्पष्ट रूप से देखा हो। ऐसा ही होता है जब परमेश्वर की ओर से कुछ आया हो। परमेश्वर लोगों से प्रतीक्षा करवाता है, और इसका मतलब है परमेश्वर के रहस्योद्घाटन की प्रतीक्षा करना, जिसके बाद तुम्हारे लिए सब कुछ स्पष्ट हो जाता है, इसलिए यह प्रतीक्षा आवश्यक है। हालांकि, जिन तरीकों से तुम्हें सहयोग करना चाहिए उनके संबंध में, तुम्हें कार्य करना चाहिए और पूछताछ करनी चाहिए, और इस पूछताछ की प्रक्रिया में, परमेश्वर किसी व्यक्ति या घटना के माध्यम से तुम्हें तथ्य बता सकता है। यदि तुम पूछताछ नहीं करते हो, और तुम्हारे हृदय में उलझन और अनिश्चितता है, तो तुम नहीं जान पाओगे कि तथ्य क्या हैं। लेकिन यदि तुम पूछताछ करते हो, तो तुम तथ्यों की खोज कर पाओगे, और यह परमेश्वर ही होगा जो तुम्हें उन तथ्यों से अवगत करवाएगा। क्या परमेश्वर के कार्य व्यावहारिक नहीं हैं? परमेश्वर लोगों, घटनाओं और चीजों के माध्यम से तुम्हारा मार्गदर्शन करता है और तुम्हें प्रबुद्ध करता है, और वह तुम्हें अपने अनुभव की प्रक्रिया में मामलों को समझने और अंतर्दृष्टि प्राप्त करने का निर्देश देता है, तुम्हें बताता है कि कैसे कार्य करना है। परमेश्वर तुम्हें कोई कथन, कोई विचार या कोई सुझाव ऐसे ही हवा में नहीं दे देता, परमेश्वर ऐसा नहीं करता है। जब तुमने पूछताछ कर ली है और स्थिति के बारे में सभी तथ्य तुम्हारे सामने आ गए हैं, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम्हारे मन में पहले ऐसे विचार और भावनाएँ क्यों थीं, तुम इसे अपने मन में समझोगे। क्या यह परिणाम तुम्हारे पूछताछ समाप्त करते ही नहीं आता? जब यह बात आती है कि तुम्हें कार्य कैसे करना चाहिए, तो परमेश्वर इसमें शामिल नहीं होगा; तुम्हें पहले से ही पता होगा कि कार्य कैसे करना है। इसी तरह से परमेश्वर कार्य करता है और लोगों का मार्गदर्शन करता है जो अद्भुत और व्यावहारिक दोनों है, जो कि जरा भी अलौकिक नहीं है। आलसी लोग हमेशा चाहते हैं कि यह अलौकिक तरीकों से हो, वे चाहते हैं कि परमेश्वर उन्हें सीधे-सीधे बताए कि उन्हें क्या करना है, वे सबसे छोटा रास्ता अपनाना चाहते हैं और यह कार्य वे परमेश्वर से करवाना चाहते हैं। वे सक्रिय रूप से खोजबीन नहीं करते हैं, और बिल्कुल भी सहयोग नहीं करते हैं, इसलिए उनकी इच्छाएँ असफल हो जाती हैं। धर्मनिष्ठ लोग, सत्य-प्रेमी लोग, सभी चीजों में परमेश्वर के समक्ष रहते हैं और परमेश्वर के समक्ष अपने हृदय को शांत रखते हैं। जब उन पर कोई मुसीबत आती है, और वे नहीं जानते कि क्या करना है, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करने और परमेश्वर से माँगने में सक्षम होते हैं और देखते हैं कि परमेश्वर क्या चाहता है। उनके पास खोजी हृदय है, और इसलिए परमेश्वर इस मामले में उनका मार्गदर्शन करता है। और जब अंत में परिणाम आता है, तब वे परमेश्वर के हाथ के आयोजनों को देख सकते हैं। यह कहना कोई खोखला वाक्यांश नहीं है कि परमेश्वर की संप्रभुता सभी चीजों पर कायम है। इसलिए, ऐसे मामलों का अधिक अनुभव होने पर, तुम्हें पता चल जाएगा कि परमेश्वर कोई कल्पना नहीं है, वह कोई मिथक नहीं है, और वह खोखला नहीं है। परमेश्वर तुम्हारे आस-पास ही होगा; तुम उसके अस्तित्व को महसूस कर पाओगे, उसके मार्गदर्शन को महसूस कर पाओगे, और उसके हाथ के आयोजनों और व्यवस्थाओं को महसूस कर पाओगे। इस तरह, तुम परमेश्वर की वास्तविकता और व्यावहारिकता को और अधिक महसूस करोगे। हालाँकि, यदि तुम इस तरह से अनुभव करने में असमर्थ हो, तो तुम कभी भी इन चीजों को महसूस नहीं कर पाओगे। तुम सोचोगे, “परमेश्वर है कि नहीं? कहाँ है वह? मैंने इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है और हर कोई कहता है कि वह अस्तित्व में है, तो फिर मैं उसे क्यों नहीं देख पाया? वे सभी कहते हैं कि वह मनुष्य को बचाता है, तो फिर मुझे यह महसूस कैसे नहीं हुआ कि परमेश्वर किस तरह लोगों पर कार्य करता है?” तुम इन चीजों को कभी महसूस नहीं करोगे, इसलिए तुम अपने हृदय में कभी भी सहजता महसूस नहीं करोगे। केवल स्वयं महसूस करके ही तुम यह सत्यापित कर पाओगे कि दूसरे जो कहते हैं और अनुभव करते हैं वह परमेश्वर द्वारा पूरा किया जाता है। परमेश्वर का कार्य चमत्कारी है और इसकी थाह पाना कठिन है, फिर भी यह व्यावहारिक है; तुम्हें इन दो पहलुओं को अवश्य समझना चाहिए। यह चमत्कारी है और इसकी थाह पाना कठिन है, इसका मतलब यह है कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह बुद्धिमतापूर्ण है, और मनुष्य के लिए अप्राप्य है; यह परमेश्वर की पहचान और उसके सार से निर्धारित होता है। फिर भी एक और पहलू है, जो यह है कि परमेश्वर के कार्य अविश्वसनीय रूप से व्यावहारिक हैं। यहाँ “व्यावहारिक” का क्या अर्थ है? इसका मतलब यह है कि मनुष्य परमेश्वर के कार्यों को समझ सकता है, यह कि मनुष्य की सोच, मन, विचार, बुद्धि, मौजूदा क्षमता और सहज-ज्ञान परमेश्वर के कार्यों को समझ सकता है—परमेश्वर के कार्य अलौकिक या खोखले नहीं हैं। जब तुम कुछ सही ढंग से करते हो, तो परमेश्वर तुम्हें बताएगा कि यह सही है, और तुम इसकी पुष्टि कर पाओगे; जब तुम कुछ गलत करते हो, तो परमेश्वर धीरे-धीरे तुम्हें समझाएगा, वह तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, और तुम्हें बताएगा कि तुमने यह गलत किया है, और बताएगा कि यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का प्रकाशन है, और तब तुम परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता महसूस करोगे। यहाँ “व्यावहारिक” का यही अर्थ है।

अंश 12

समस्याओं का सामना करते समय सत्य खोजना बहुत महत्वपूर्ण है। अगर तुम सत्य खोजते हो, तो तुम न केवल समस्या हल करने में सक्षम होगे, बल्कि सत्य का अभ्यास कर उसे प्राप्त करने में भी सक्षम होगे। अगर तुम सत्य नहीं खोजते, बल्कि अपने तर्क पर जोर देते हो और हमेशा अपनी राय के अनुसार काम करते हो, तो तुम न केवल अपनी भ्रष्टता की समस्या हल करने में असफल होगे, बल्कि जानबूझकर पाप भी करोगे, और यह परमेश्वर का विरोध करने का मार्ग है। उदाहरण के लिए, मान लो अपने कर्तव्य निभाने में तुम्हारी काट-छाँट की जाती है, और तुम सत्य नहीं खोजते, बल्कि हठपूर्वक अपने तर्क पर जोर देते हो। तुम सोच सकते हो, “मैंने अपना काम किया है, और मैंने साफ तौर पर कुछ बुरा नहीं किया है, लेकिन सिर्फ कुछ गलतियों के लिए न केवल मेरी काट-छाँट की जाती है, बल्कि मुझे उजागर कर अपमानित भी किया जाता है, जो मेरे प्रति नापसंदगी दर्शाता है। परमेश्वर का प्रेम कहाँ है? मैं उसे क्यों नहीं देख सकता? कहा जाता है कि परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है, तो ऐसा कैसे है कि परमेश्वर दूसरों से प्रेम करता है लेकिन मुझसे नहीं करता?” सारी शिकायतें उड़ेल दी जाती हैं। क्या ऐसी दशा में लोग सत्य प्राप्त कर सकते हैं? नहीं कर सकते। जब परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते में समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, और उन्हें हल करने, खुद को बदलने और अपने भ्रामक दृष्टिकोण और कट्टर विचार छोड़ने के बजाय तुम हठपूर्वक परमेश्वर का विरोध करते हो, तो इसका परिणाम केवल यह हो सकता है कि परमेश्वर तुम्हें छोड़ देगा, और तुम भी उससे मुँह मोड़ लोगे। तुम परमेश्वर के प्रति शिकायतों से भरे होगे, उसकी संप्रभुता पर संदेह कर उसे नकार दोगे और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार नहीं होगे। इससे भी बदतर, तुम इस बात से इनकार करोगे कि परमेश्वर सत्य और धार्मिकता है, और यह परमेश्वर का विरोध करने का सबसे गंभीर रूप है। लेकिन अगर तुम सभी चीजों में सत्य खोजते हो, तो तुम परमेश्वर के इरादे समझ चुके होगे और तुम्हें वह मार्ग मिल चुका होगा जिस पर तुम चल सकते हो। ऐसा करके तुम न केवल इस बात की पुष्टि करोगे कि जिस परमेश्वर पर तुम विश्वास करते हो, वह सत्य, मार्ग, जीवन और प्रेम है; बल्कि तुम इस बात की पुष्टि भी करोगे कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है सही करता है, उसके द्वारा मनुष्य का परीक्षण और शोधन सही है, जिसका उद्देश्य मनुष्य का उद्धार और शुद्धिकरण है। तुम परमेश्वर की धार्मिकता और पवित्रता का ज्ञान प्राप्त कर लोगे, और साथ ही तुम परमेश्वर के कार्य को भी जान लोगे और उसके प्रेम की महानता देखोगे। यह कितना बड़ा इनाम है! क्या तुम सत्य खोजे बिना, परमेश्वर और उसके कार्य को हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर लेकर ऐसा इनाम प्राप्त कर सकते हो? निश्चित रूप से नहीं। चूँकि मनुष्य शैतान द्वारा बहुत गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया है, इसलिए उसके तमाम क्रियाकलाप और कर्म और वह सब जो वह प्रकट करता है, शैतान के स्वभाव के हैं, और वे सब सत्य के विपरीत और परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। मनुष्य परमेश्वर के महान प्रेम का आनंद लेने के योग्य नहीं है। फिर भी परमेश्वर मनुष्य के प्रति बहुत चिंतित है, उसे रोजाना अनुग्रह प्रदान करता है, और उसका परीक्षण और शोधन करने हेतु उसके लिए तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों की व्यवस्था करता है, ताकि वह बदल सके। परमेश्वर हर तरह के परिवेश के जरिये मनुष्य का खुलासा करता है, उसे आत्मचिंतन कर खुद को जानने, सत्य समझने और जीवन प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है। परमेश्वर मनुष्य से बहुत प्रेम करता है, और उसका प्रेम इतना वास्तविक है कि मनुष्य उसे देख और छू सकता है। अगर तुमने यह सब अनुभव किया है, तो तुम महसूस कर सकते हो कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है, मनुष्य के उद्धार की खातिर करता है, और यह सबसे सच्चा प्रेम है। अगर परमेश्वर ऐसा व्यावहारिक कार्य न करता, तो कोई न कह सकता कि मनुष्य कितना गिर गया है! फिर भी ऐसे बहुत लोग हैं जो परमेश्वर का सच्चा प्रेम नहीं देखते, जो अभी भी प्रसिद्धि, फायदे और रुतबे के पीछे भागते हैं, जो बाकी लोगों से कहीं बेहतर होने का प्रयास करते हैं, जो हमेशा दूसरों को फँसाने और नियंत्रित करने की इच्छा रखते हैं। क्या वे खुद को परमेश्वर के साथ होड़ में नहीं रख रहे? अगर वे ऐसा ही करते रहे, तो परिणाम अकल्पनीय होंगे! अपने न्याय के कार्य से परमेश्वर मनुष्य की भ्रष्टता उजागर करता है, ताकि वह उसे जान सके। वह मनुष्य के गलत अनुसरणों पर रोक लगाता है। परमेश्वर उत्कृष्ट कार्य करता है! भले ही परमेश्वर जो करता है, वह मनुष्य को प्रकट कर उसका न्याय करता है, लेकिन उसे बचाता भी है। यह सच्चा प्रेम है। जब तुम्हें खुद इसका एहसास हो जाता है, तो क्या तुम सत्य के इस पहलू को प्राप्त नहीं कर लेते? जब कोई व्यक्ति खुद इसे महसूस कर लेता है और यह समझ प्राप्त कर लेता है, और जब वह ये सत्य समझ लेता है, तो क्या उसे फिर भी परमेश्वर के प्रति शिकायतें होती हैं? नहीं—वे सब खत्म हो जाती हैं। फिर वह स्वेच्छा और दृढ़ता से परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सकता है। अगली बार जब कोई परीक्षण या शोधन होता है, या उसकी काट-छाँट की जाती है, तो उसे तुरंत एहसास हो जाता है कि परमेश्वर जो कर रहा है वह सही है, और परमेश्वर उसे उजागर कर बचा रहा है। वह जल्दी ही अपने तर्क पर जोर न देकर, धारणाओं और शिकायतों से मुक्त होकर, परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हुए उसे स्वीकारने और समर्पित होने में सक्षम हो जाता है। अगर लोग इस हद तक समर्पित हो सकते हैं, तो यह कई शोधनों का अनुभव करने के जरिये, पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा पूर्ण किए जाने से होता है।

अंश 13

अब ऐसे बहुत लोग हैं, जो सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और जब उन पर दुर्भाग्य आता है तो सत्य की खोज करने में सक्षम होते हैं। अगर तुम अपने भीतर के गलत उद्देश्य और असामान्य अवस्थाएँ सुलझाना चाहते हो, तो ऐसा करने के लिए तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए। सर्वप्रथम, तुम्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर संगति में अपने बारे में खुलकर बोलना सीखना चाहिए। बेशक, तुम्हें खुली संगति के लिए सही पात्र का चयन करना चाहिए—कम से कम, तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति चुनना चाहिए जो सत्य से प्रेम करता हो और उसे स्वीकार करता हो, जिसकी मानवता ज्यादातर लोगों से बेहतर हो, जो अपेक्षाकृत ईमानदार और सच्चा हो। निस्संदेह यह बेहतर होगा कि तुम कोई ऐसा व्यक्ति चुनो जो सत्य समझता हो, जिसकी संगति से तुम्हें महसूस हो कि तुम्हारी मदद हुई है। इस तरह का व्यक्ति ढूँढ़ना, जिसके साथ संगति में तुम्हें खुलना है और अपनी कठिनाइयाँ हल करनी हैं, कारगर हो सकता है। अगर तुम गलत व्यक्ति चुनते हो, ऐसा व्यक्ति जो सत्य से प्रेम नहीं करता बल्कि जिसमें सिर्फ कोई गुण या प्रतिभा है, तो वह तुम्हारा मजाक उड़ाएगा, तुम्हारा तिरस्कार करेगा और तुम्हें नीचा दिखाएगा। यह तुम्हारे लिए लाभदायक नहीं होगा। एक लिहाज से, खुद को खोलना और प्रकट करना वह दृष्टिकोण है, जिसे व्यक्ति को परमेश्वर के सामने आने और उससे प्रार्थना करने के लिए अपनाना चाहिए; इसका ताल्लुक इस बात से भी है कि कैसे व्यक्ति को सत्य के बारे में दूसरों के साथ संगति करनी चाहिए। यह सोचकर भावनाएँ छिपाए न रखो, “मेरे मकसद और कठिनाइयाँ हैं। मेरी आंतरिक स्थिति अच्छी नहीं है—वह नकारात्मक है। मैं किसी को नहीं बताऊँगा। मैं बस इसे छिपाकर रखूँगा।” अगर तुम हमेशा चीजें हल न करके उन्हें छिपाकर रखते हो, तो तुम और ज्यादा नकारात्मक हो जाओगे, और तुम्हारी स्थिति और भी खराब हो जाएगी। तुम परमेश्वर से प्रार्थना करने को तैयार नहीं होगे। इसे उलटना मुश्किल काम है। और इसलिए, तुम्‍हारी हालत कैसी भी क्‍यों न हो, चाहे तुम नकारात्‍मक हो, या मुश्किल में हो, तुम्‍हारे उद्देश्‍य या योजनाएँ चाहे जो भी हों, छानबीन के माध्यम से तुमने जो कुछ भी क्‍यों न जाना या समझा हो, तुम्‍हें खुलकर बात कहना और संगति करना सीखना ही होगा, और जैसे ही तुम संगति करते हो, पवित्र आत्‍मा काम करता है। और पवित्र आत्‍मा अपना काम कैसे करता है? वह तुम्‍हें प्रबुद्ध और रोशन करता है और समस्‍या की गंभीरता समझने देता है, वह तुम्‍हें समस्‍या की जड़ और सार से अवगत कराता है, फिर तुम्हें थोड़ा-थोड़ा करके सत्य और अपने इरादे समझाता है, और तुम्हें अभ्यास का मार्ग देखने और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने देता है। जब व्यक्ति खुलकर संगति कर सकता है, तो इसका मतलब है कि उसका सत्य के प्रति ईमानदार रवैया है। कोई व्यक्ति ईमानदार है या नहीं, यह सत्य के प्रति उसके दृष्टिकोण से मापा जाता है। जब कोई ईमानदार व्यक्ति कठिनाइयों का सामना करता है, तो चाहे वह कितना भी नकारात्मक या कमजोर क्यों न हो, वह हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करेगा और संगति करने के लिए दूसरों की तलाश करेगा, समाधान ढूँढ़ने की कोशिश करेगा, और यह खोजेगा कि अपनी समस्या या कठिनाई कैसे दूर की जाए ताकि परमेश्वर के इरादे पूरे किए जा सकें। वह किसी आंतरिक परेशानी के कारण शिकायत करने के लिए किसी को नहीं तलाशता : वह तो सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने की कठिनाई का समाधान और उससे बाहर आने का उपाय ढूँढ़ता है। अपने दिल में अनसुलझी नकारात्मक और बुरी चीजें छिपाने से अपना कर्तव्य-निर्वाह और जीवन-प्रवेश सीधे तौर पर प्रभावित होगा। परमेश्वर के प्रति शुद्ध और खुला न रहना, बल्कि अपने दिल में हमेशा कपट पाले रखना बहुत खतरनाक है। कपटी लोग मुखौटा लगाने में माहिर होते हैं, चाहे उन पर कुछ भी मुसीबत आ पड़े, और चाहे वे जो भी धारणाएँ या असंतोष महसूस करें, वे संगति नहीं करेंगे। बाहर से वे सामान्य दिखते हैं, लेकिन वास्तव में उनके दिल नकारात्मकता से इतने ज्यादा भरे होते हैं कि वे मुश्किल से ही उठ पाते हैं, और तुम बता नहीं पाओगे। अगर तुम उनके साथ संगति करते भी हो, तो वे तुम्हें सत्य नहीं बताएँगे। वे किसी को नहीं बताएँगे कि वे कितनी शिकायतों, गलतफहमियों और धारणाओं से भरे हुए हैं; वे इस डर से चीजों पर हमेशा बहुत अधिक नियंत्रण रखते हैं कि अगर दूसरे लोग उनके बारे में जान गए तो वे उनका पहले जितना आदर नहीं करेंगे और उन्हें अस्वीकार कर देंगे। भले ही वे अपने कर्तव्य निभाते हैं, फिर भी उनके पास जीवन-प्रवेश नहीं होता और जो कुछ भी करते हैं, उसमें सत्य-सिद्धांत नहीं खोजते; बाहर से, वे शिथिल प्रतीत होते हैं, उनमें न तो आगे बढ़ने की शक्ति होती है न ही पीछे हटने की, और यह संकट का लक्षण है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनके दिल में एक बीमारी होती है; बीमारी उनके दिलों में होती है, और वे प्रकाश में आने से डरते हैं। वे हर चीज को एकदम गुप्त रखते हैं, कभी दूसरों के सामने खुलने की हिम्मत नहीं करते; उनमें जीवन का संचार नहीं होता, जिससे उनके दिल में मौजूद बीमारी एक घातक ट्यूमर बन जाती है, और इस तरह वे संकट में पड़ जाते हैं। अगर लोग सत्य स्वीकारने में शुद्ध और खुले नहीं हो सकते, और अगर वे सत्य पर संगति के माध्यम से अपनी समस्याएँ हल नहीं कर सकते, तो ऐसे लोग अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभा सकते, और देर-सबेर उनका खुलासा करके उन्हें हटा दिया जाना चाहिए।

अंश 14

कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जिओगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे। संगति करते समय कैसे खुलना है, यह सीखना जीवन-प्रवेश की ओर पहला कदम है। इसके बाद, तुम्हें अपने विचारों और कार्यों का विश्लेषण करना सीखना होगा, ताकि यह देख सको कि उनमें से कौन-से गलत हैं और किन्हें परमेश्वर पसंद नहीं करता, और तुम्हें उन्हें तुरंत उलटने और सुधारने की आवश्यकता है। इन्हें सुधारने का मकसद क्या है? इसका मकसद यह है कि तुम अपने भीतर उन चीजों से पीछा छुड़ाओ जो शैतान से संबंधित हैं और उनकी जगह सत्य को लाते हुए, सत्य को स्वीकार करो और उसका पालन भी करो। पहले, तुम हर काम अपने कपटी स्वभाव के अनुसार करते थे, जो कि झूठ और कपट है; तुम्हें लगता था कि तुम झूठ बोले बिना कुछ नहीं कर सकते। अब जब तुम सत्य समझने लगे हो, और शैतान के काम करने के ढंग से नफरत करते हो, तो तुमने उस तरह काम करना बंद कर दिया है, अब तुम ईमानदारी, पवित्रता और समर्पण की मानसिकता के साथ कार्य करते हो। यदि तुम अपने मन में कुछ भी नहीं रखते, दिखावा नहीं करते, ढोंग नहीं करते, चीजें नहीं छिपाते, यदि तुम भाई-बहनों के सामने अपने आपको खोल देते हो, अपने अंतरतम विचारों और सोच को छिपाते नहीं, बल्कि दूसरों को अपना ईमानदार रवैया दिखा देते हो, तो फिर धीरे-धीरे सत्य तुम्हारे अंदर जड़ें जमाने लगेगा, यह खिल उठेगा और फलदायी होगा, धीरे-धीरे तुम्हें इसके परिणाम दिखाई देने लगेंगे। यदि तुम्हारा दिल ईमानदार होता जाएगा, परमेश्वर की ओर उन्मुख होता जाएगा और यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना जानते हो, और इन हितों की रक्षा न कर पाने पर जब तुम्हारी अंतरात्मा परेशान हो जाए, तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम पर सत्य का प्रभाव पड़ा है और वह तुम्हारा जीवन बन गया है। एक बार जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो ईशनिंदा करता है, परमेश्वर का भय नहीं मानता, कर्तव्य निभाते समय अनमना रहता है या कलीसिया के काम में गड़बड़ी कर बाधा डालता है, तो तुम सत्य-सिद्धांतों के अनुसार प्रतिक्रिया दोगे, तुम आवश्यकतानुसार उसे पहचानकर उजागर कर पाओगे। अगर सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है और तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के भीतर रहते हो, तो जब तुम्हें उन बुरे लोगों और शैतानों का पता चलता है जो कलीसिया के कार्य में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते हैं, तुम उन पर ध्यान नहीं दोगे और उन्हें अनसुना कर दोगे; अपने विवेक द्वारा धिक्कारे जाए बिना, तुम उन्हें नजरअंदाज कर दोगे। तुम यह भी सोचोगे कि कलीसिया के कार्य में कोई भी बाधाएँ डाले तो इससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे कितना भी नुकसान पहुँचे, तुम परवाह नहीं करते, हस्तक्षेप नहीं करते, या दोषी महसूस नहीं करते—जो तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति बनाता है जिसमें जमीर और विवेक नहीं है, एक छद्म-विश्वासी बनाता है, मजदूर बनाता है। तुम जो खाते हो वह परमेश्वर का है, तुम जो पीते हो वह परमेश्वर का है, और तुम परमेश्वर से आने वाली हर चीज का आनंद लेते हो, फिर भी तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान तुमसे संबंधित नहीं है—जो तुम्हें गद्दार बनाता है, जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो क्या तुम इंसान भी हो? यह एक दानव है, जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है। तुम परमेश्वर में विश्वास का दिखावा करते हो, चुने हुए होने का दिखावा करते हो, और तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो। तुम एक इंसान का जीवन नहीं जी रहे, इंसान से ज्यादा राक्षस जैसे हो, और स्पष्ट रूप से छद्म-विश्वासियों में से एक हो। अगर तुम्हें परमेश्वर में सच्चा विश्वास है, तब यदि तुमने सत्य और जीवन नहीं भी प्राप्त किया है, तो भी तुम कम से कम परमेश्वर की ओर से बोलोगे और कार्य करोगे; कम से कम, जब परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान किया जा रहा हो, तो तुम उस समय खड़े होकर तमाशा नहीं देखोगे। यदि तुम अनदेखी करना चाहोगे, तो तुम्हारा मन कचोटेगा, तुम असहज हो जाओगे और मन ही मन सोचोगे, “मैं चुपचाप बैठकर तमाशा नहीं देख सकता, मुझे दृढ़ रहकर कुछ कहना होगा, मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, इस बुरे बर्ताव को उजागर करना होगा, इसे रोकना होगा, ताकि परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान न पहुँचे और कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त न हो।” यदि सत्य तुम्हारा जीवन बन चुका है, तो न केवल तुममें यह साहस और संकल्प होगा, और तुम इस मामले को पूरी तरह से समझने में सक्षम होगे, बल्कि तुम परमेश्वर के कार्य और उसके घर के हितों के लिए भी उस ज़िम्मेदारी को पूरा करोगे जो तुम्हें उठानी चाहिए, और उससे तुम्हारे कर्तव्य की पूर्ति हो जाएगी। यदि तुम अपने कर्तव्य को अपनी जिम्मेदारी, अपना दायित्व और परमेश्वर का आदेश समझ सको, और यह महसूस करो कि परमेश्वर और अपनी अंतरात्मा का सामना करने के लिए यह आवश्यक है, तो क्या फिर तुम सामान्य मानवता की निष्ठा और गरिमा को नहीं जी रहे होगे? तुम्हारा कर्म और व्यवहार “परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो” होगा, जिसके बारे में वह बोलता है। तुम इन वचनों के सार का पालन कर रहे होगे और उनकी वास्तविकता को जी रहे होगे। जब सत्य किसी व्यक्ति का जीवन बन जाता है, तब वह इस वास्तविकता को जीने में सक्षम होता है। लेकिन अगर तुमने अभी तक इस वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो जब तुम धोखा, छल या स्वांग प्रकट करते हो या जब तुम मसीह-विरोधियों की बुरी शक्तियों को परमेश्वर के घर के कार्य में गड़बड़ी करते और विघ्न डालते देखते हो, तो तुम्हें कुछ भी महसूस नहीं होता और कुछ भी अनुभव नहीं होता। चाहे ये चीज़ें ठीक तुम्हारे सामने हो रही हों, तुम फिर भी हँस पाते हो और सहज अंतरात्मा के साथ खा और सो पाते हो और तुम्हें थोड़ा-सा भी खेद नहीं होता। इन दोनों जीवन में से तुम कोई भी जीवन जी सकते हो, तुम लोग कौन-सा चुनते हो? क्या यह स्वतः सिद्ध नहीं है कि सच्ची मानव-सदृशता, सकारात्मक चीजों की वास्तविकता क्या है, और नकारात्मक चीजों की दुष्ट राक्षसी प्रकृति क्या है? जब सत्य लोगों का जीवन नहीं बना होता, तो वे काफी दयनीय और दुखद जीवन जीते हैं। चाहकर भी सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होना; चाहकर भी परमेश्वर से प्रेम करने में असमर्थ होना; और लालायित होकर भी परमेश्वर के लिए खुद को खपाने में अशक्त होना—वे प्रभारी बनने में असमर्थ रहते हैं—यह भ्रष्ट मनुष्यों की दयनीयता और दुःख है। यह समस्या हल करने के लिए व्यक्ति को सत्य स्वीकार कर उसका अनुसरण करना चाहिए; नया जीवन पाने के लिए उसे अपने दिल में सत्य का स्वागत करना चाहिए। चाहे वे कुछ भी करें या सोचें, जो लोग सत्य स्वीकारने में असमर्थ होते हैं, वे सत्य का अभ्यास करने में भी असमर्थ होते हैं, और भले ही बाहरी तौर पर वे अच्छा करते हों, यह फिर भी दिखावा और धोखा ही होता है—यह फिर भी पाखंड ही होता है। इसलिए, अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम जीवन प्राप्त नहीं करोगे, और यही समस्या की जड़ है।

ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का केवल संकल्प और इच्छा ही होती है; सत्य उनका जीवन नहीं बना है। इसके परिणाम स्वरूप, जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे राक्षसी लोगों या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह कलीसिया के कार्य में बाधा पड़ती है, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फ़िर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? दोनों में से कुछ नहीं; यह मुख्य रूप से भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित होने का परिणाम है। तुम्हारे द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों में से एक है कपटी स्वभाव; जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो पहली चीज जो तुम सोचते हो वह है तुम्हारे हित, पहली चीज जिस पर तुम विचार करते हो वह है नतीजे, कि यह तुम्हारे लिए फायदेमंद होगा या नहीं। यह एक कपटी स्वभाव है, है न? दूसरा है स्वार्थी और नीच स्वभाव। तुम सोचते हो, “परमेश्वर के घर के हितों के नुकसान से मेरा क्या लेना-देना? मैं कोई अगुआ नहीं हूँ, तो मुझे इसकी परवाह क्यों करनी चाहिए? इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है।” ऐसे विचार और शब्द तुम सचेतन रूप से नहीं सोचते, बल्कि ये तुम्हारे अवचेतन द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं—जो वह भ्रष्ट स्वभाव है जो तब दिखता है जब लोग किसी समस्या का सामना करते हैं। ऐसे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे सोचने के तरीके को नियंत्रित करते हैं, वे तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देते हैं और तुम जो कहते हो उसे नियंत्रित करते हैं। अपने दिल में, तुम खड़े होकर बोलना चाहते हो, लेकिन तुम्हें आशंकाएँ होती हैं, और जब तुम बोलते भी हो, तो इधर-उधर की हाँकते हो, और बात बदलने की गुंजाइश छोड़ देते हो, या फिर टाल-मटोल करते हो और सत्य नहीं बताते। स्पष्टदर्शी लोग इसे देख सकते हैं; वास्तव में, तुम अपने दिल में जानते हो कि तुमने वह सब नहीं कहा जो तुम्हें कहना चाहिए था, कि तुमने जो कहा उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, कि तुम सिर्फ बेमन से कह रहे थे, और समस्या हल नहीं हुई है। तुमने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है, फिर भी तुम खुल्लमखुल्ला कहते हो कि तुमने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है, या जो कुछ हो रहा था वह तुम्हारे लिए अस्पष्ट था। क्या यह सच है? और क्या तुम सचमुच यही सोचते हो? क्या तब तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव के नियंत्रण में नहीं हो? भले ही तुम जो कुछ कहते हो उसका कुछ हिस्सा तथ्यों के अनुरूप हो, लेकिन मुख्य स्थानों और महत्वपूर्ण मुद्दों पर तुम झूठ बोलते हो और लोगों को धोखा देते हो, जो साबित करता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो झूठ बोलता है, और जो अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीता है। तुम जो कुछ भी कहते और सोचते हो, वह तुम्हारे मस्तिष्क द्वारा संसाधित किया गया होता है, जिससे तुम्हारा हर कथन नकली, खोखला, झूठा हो जाता है; वास्तव में, तुम जो कुछ भी कहते हो वह तथ्यों के विपरीत, खुद को सही ठहराने की खातिर, अपने फायदे के लिए होता है, और तुम्हें लगता है कि जब तुम लोगों को गुमराह करते हो और उन्हें विश्वास दिला देते हो, तो तुम अपने लक्ष्य हासिल कर लेते हो। ऐसा है तुम्हारे बोलने का तरीका; यह तुम्हारा स्वभाव भी दर्शाता है। तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव से नियंत्रित हो। तुम जो कहते और करते हो, उस पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं होता। यहाँ तक कि अगर तुम चाहते भी, तो भी तुम सच न बता पाते या वह न कह पाते जो तुम वास्तव में सोचते हो; चाहकर भी तुम सत्य का अभ्यास न कर पाते; चाहकर भी तुम अपनी जिम्मेदारियाँ न निभा पाते। तुम जो कुछ भी कहते, करते हो और जिसका भी अभ्यास करते हो, वह सब झूठ है, और तुम सिर्फ अनमने हो। तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव की बेड़ियों में जकड़े हुए और उससे नियंत्रित हो। हो सकता है कि तुम सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास करना चाहो, लेकिन यह तुम पर निर्भर नहीं है। जब तुम्हारे शैतानी स्वभाव तुम्हें नियंत्रित करते हैं, तो तुम वही कहते और करते हो जो तुम्हारा शैतानी स्वभाव तुमसे करने को कहता है। तुम भ्रष्ट देह की कठपुतली के अलावा और कुछ नहीं हो, तुम शैतान का एक औजार बन गए हो। बाद में तुम्हें एक बार फिर भ्रष्ट देह का अनुसरण करने पर और इस बात पर पछतावा महसूस होता है कि तुम सत्य का अभ्यास करने में विफल कैसे हो सकते हो। तुम मन ही मन सोचते हो, “मैं अपने दम पर देह की इच्छाओं पर विजय नहीं पा सकता और मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। मैं उन लोगों को रोकने के लिए खड़ा नहीं हुआ जो कलीसिया के काम में बाधा डाल रहे थे, और मेरा जमीर मुझे कचोट रहा है। मैंने मन बना लिया है कि जब दोबारा ऐसा होगा, तो मुझे उनका डटकर मुकाबला करना होगा और उनकी काट-छाँट करनी होगी जो अपने कर्तव्यों के निर्वाह में कुकर्म कर रहे हैं और कलीसिया के काम में बाधा डाल रहे हैं, ताकि वे अच्छा व्यवहार करें और लापरवाही से काम करना बंद कर दें।” अंततः बोलने का साहस जुटाने के बाद, जैसे ही दूसरा व्यक्ति क्रोधित होता है और मेज पर हाथ पटकता है, तुम डरकर पीछे हट जाते हो। क्या तुम प्रभारी बनने में सक्षम हो? दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति किस काम की? दोनों ही बेकार हैं। तुम लोगों ने ऐसी कई घटनाओं का सामना किया होगा : तुम कठिनाइयों में पड़ जाते हो और उन्हें सहज स्वीकार लेते हो, तुम्हें लगता है कि तुम कुछ नहीं कर सकते और निराश होकर हार मान लेते हो, तुम निराशा में डूब जाते हो और तय कर लेते हो कि तुम्हारे लिए कोई आशा नहीं है और इस बार तुम्हें पूरी तरह से निकाल दिया गया है। तुम मानते हो कि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो फिर पश्चात्ताप क्यों नहीं करते? क्या तुमने सत्य का अभ्यास किया है? निश्चित रूप से तुम कई वर्षों तक धर्मोपदेशों में भाग लेने के बाद भी कुछ नहीं समझ पाए होगे। तुम बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास क्यों नहीं करते? तुम कभी सत्य नहीं खोजते, उसका अभ्यास करना तो दूर की बात है। तुम सिर्फ लगातार प्रार्थना कर रहे हो, संकल्प कर रहे हो, महत्वाकांक्षाएँ तय कर रहे हो और अपने दिल में प्रतिज्ञा कर रहे हो। और नतीजा क्या होता है? तुम खुशामदी बने रहते हो, तुम अपने सामने आने वाली समस्याओं के बारे में स्पष्टवादी नहीं होते, तुम बुरे लोगों को देखकर उन पर ध्यान नहीं देते, जब कोई बुराई या गड़बड़ी करता है तो तुम प्रतिक्रिया नहीं देते, और अगर तुम व्यक्तिगत रूप से प्रभावित नहीं होते तो तुम अलग रहते हो। तुम सोचते हो, “मैं ऐसी किसी चीज के बारे में बात नहीं करता, जिसका मुझसे कोई सरोकार नहीं है। अगर वह मेरे हितों, मेरी शान या मेरी छवि को ठेस नहीं पहुँचाती, तो मैं बिना किसी अपवाद के हर चीज की उपेक्षा करता हूँ। मुझे बहुत सावधान रहना होगा, क्योंकि जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है। मैं कोई बेवकूफी नहीं करूँगा!” तुम पूरी तरह से और अटूट रूप से दुष्टता, कपट, कठोरता और सत्य से विमुखता के अपने भ्रष्ट स्वभावों से नियंत्रित हो। इन्हें सहना तुम्हारे लिए वानर राजा द्वारा पहने गए उस सुनहरे सरबंद[क] से ज्यादा मुश्किल हो गया है जो असहनीय ढंग से कसता जाता था। भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में रहना बहुत थकाऊ और कष्टदायी है! तुम लोग इस बारे में क्या कहते हो : अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो क्या अपनी भ्रष्टता छोड़ना आसान है? क्या यह समस्या सुलझाई जा सकती है? मैं तुम लोगों को बताता हूँ : अगर तुम लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और अपने विश्वास में भ्रमित रहते हो, अगर तुम सत्य का अभ्यास किए बिना वर्षों तक उपदेश सुनते रहते हो, और अगर तुम अंत तक विश्वास करते रहते हो कि तुम कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलकर दूसरों को धोखा दे सकते हो, तो तुम पूरी तरह से एक धार्मिक धोखेबाज, एक पाखंडी फरीसी हो, और इस तरह से तुम्हारा अंत हो जाएगा। तुम लोगों का यही परिणाम होगा। अगर तुम इससे भी बदतर हो, तो एक ऐसी स्थिति आ सकती है जिसमें तुम प्रलोभन में पड़ जाओगे, अपना कर्तव्य छोड़ दोगे, और ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो परमेश्वर को धोखा देता है—उस स्थिति में तुम पिछड़ जाओगे और निकाल दिए जाओगे। यह हमेशा संकट के कगार पर रहना है! इसलिए, अभी सत्य का अनुसरण करने से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं है। सत्य का अभ्यास करने से बेहतर कुछ नहीं है।

फुटनोट :

क. वानर राजा का सुनहरा सरबंद एक महत्वपूर्ण वस्तु है, जो उत्कृष्ट चीनी उपन्यास “पश्चिम की यात्रा” में दिखाई देती है। इस कहानी में वानर राजा के अनियंत्रित व्यवहार की प्रतिक्रिया में उसकी खोपड़ी के चारों ओर दर्दनाक तरीके से कसकर उसके विचारों और कार्यों को नियंत्रित करने के लिए सुनहरे सरबंद का उपयोग किया गया था।


अंश 15

अगर लोगों के पास सत्य से प्रेम करने वाला दिल होगा, तो उनमें सत्य का अनुसरण करने की शक्ति होगी, और वे सत्य का अभ्यास करने के लिए कड़ी मेहनत कर सकते हैं। वे उसे त्याग सकते हैं जिसे त्यागना चाहिए, और उसे छोड़ सकते हैं जिसे छोड़ना चाहिए। विशेष रूप से, जो चीजें तुम्हारी प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत से संबंधित हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए। अगर तुम उन्हें नहीं छोड़ते, तो इसका मतलब है कि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते और तुममें सत्य का अनुसरण करने की शक्ति नहीं है। जब तुम्हारे साथ घटनाएँ घटें, तो तुम्हें सत्य खोजकर इसका अभ्यास करना चाहिए। अगर, ऐसे समय में, जब तुम्हें सत्य का अभ्यास करने की आवश्यकता होती है, तुम्हारा हृदय हमेशा स्वार्थी बना रहे और तुम अपना स्वार्थ नहीं छोड़ सकते, तो तुम सत्य पर अमल नहीं कर पाओगे। अगर तुम किसी भी परिस्थिति में सत्य की तलाश या उसका अभ्यास नहीं करते, तो तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति नहीं हो। चाहे तुमने कितने भी वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास किया हो, तुम सत्य प्राप्त नहीं करोगे। कुछ लोग हमेशा प्रसिद्धि, लाभ और स्वार्थ के पीछे दौड़ते रहते हैं। कलीसिया उनके लिए जिस भी कार्य की व्यवस्था करे, वे हमेशा यह सोचते हुए उसके बारे में विचार करते हैं, “क्या इससे मुझे लाभ होगा? अगर होगा, तो मैं इसे करूँगा; अगर नहीं होगा, तो मैं नहीं करूँगा।” ऐसा व्यक्ति सत्य का अभ्यास नहीं करता—तो क्या वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? निश्चित रूप से नहीं निभा सकता। भले ही तुमने कोई बुराई न की हो, फिर भी तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति नहीं हो। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते, और कुछ भी तुम पर आ पड़े, तुम सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत, अपने स्वार्थ और जो तुम्हारे लिए अच्छा है, उसकी परवाह करते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो केवल स्वार्थ से प्रेरित होता है और स्वार्थी और नीच है। इस तरह का व्यक्ति अपने लिए कुछ अच्छा या लाभदायक पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करता है, सत्य या परमेश्वर का उद्धार पाने के लिए नहीं। इसलिए इस प्रकार के लोग छद्म-विश्वासी होते हैं। जो लोग वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे सत्य की खोज और अभ्यास कर सकते हैं, क्योंकि वे अपने हृदय में जानते हैं कि मसीह सत्य है, और उन्हें परमेश्वर के वचन सुनने चाहिए और परमेश्वर पर उसकी अपेक्षा के अनुसार विश्वास करना चाहिए। अगर तुम अपने साथ कुछ होने पर सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, लेकिन अपनी प्रतिष्ठा, हैसियत और इज्जत पर विचार करते हो, तो ऐसा करना कठिन होगा। इस तरह की स्थिति में प्रार्थना, खोज और आत्मचिंतन करके और आत्म-जागरूक होने से सत्य से प्रेम करने वाले लोग अपने ही स्वार्थ या भले की चीजें छोड़ पाएँगे, और सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में सक्षम होंगे। ऐसे लोग वे होते हैं, जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास और सत्य से प्रेम करते हैं। और जब लोग हमेशा अपने स्वार्थ के बारे में सोचते हैं, जब वे हमेशा अपने गौरव और अहंकार की रक्षा करने की कोशिश करते हैं, जब वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं लेकिन उसे ठीक करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते, तो इसका क्या परिणाम होता है? यही कि वे जीवन-प्रवेश नहीं कर पाते हैं, और उनके पास सच्ची अनुभवजन्य गवाही की कमी है। और यह खतरनाक है, है न? अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे पास कोई अनुभवजन्य गवाही नहीं है, तो समय आने पर तुम्हें बेनकाब कर निकाल दिया जाएगा। अनुभवजन्य गवाही से रहित लोगों का परमेश्वर के घर में क्या उपयोग है? वे कोई भी कर्तव्य खराब तरीके से निभाने और कुछ भी ठीक से न कर पाने के लिए बाध्य हैं। क्या वे सिर्फ कचरा नहीं हैं? वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी अगर लोग कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो वे छद्म-विश्वासी हैं; वे बुरे लोग हैं। अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे अपराध बहुत अधिक बढ़ जाते हैं, तो तुम्हारा परिणाम निश्चित है। यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि तुम्हारे सभी अपराध, वह गलत मार्ग जिस पर तुम चलते हो, और पश्चात्ताप करने से तुम्हारा इनकार—ये सभी मिलकर बुरे कर्मों का ढेर बन जाते हैं; और इसलिए तुम्हारा परिणाम यह है कि तुम नरक में जाओगे—तुम्हें दंडित किया जाएगा। क्या तुम लोग सोचते हो कि यह कोई साधारण मामला है? अगर तुम्हें दंडित नहीं किया गया है, तो तुम्हें इस बात का कोई अंदाजा नहीं होगा कि यह कितना भयानक है। जब वह दिन आएगा जब तुम वास्तव में विपदा का सामना करोगे, और तुम्हारा सामना मृत्यु से होगा, तो पछताने में बहुत देर हो चुकी होगी। अगर परमेश्वर पर अपनी आस्था में तुम सत्य नहीं स्वीकारते, अगर तुम वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करते हो लेकिन तुममें कोई बदलाव नहीं आया, तो अंतिम परिणाम यह होगा कि तुम्हें निकालकर त्याग दिया जाएगा। अपराध सबसे होते हैं। मुख्य बात है उन अपराधों को ठीक करने के लिए सत्य खोजने में सक्षम होना, और इससे यह सुनिश्चित होगा कि ये अपराध कम से कम हों। यदि तुम कभी अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते भी हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कब करते हो, और तुम हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करने और उस पर भरोसा करने में सक्षम हो, इसे ठीक करने के लिए सत्य की तलाश करते हो, और अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करते हो, तो तुमने कोई दुष्ट काम नहीं किया होगा। इसी तरीके से विश्वासी लोगों को भ्रष्ट स्वभाव की समस्या ठीक करनी चाहिए, और इसी तरह से परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना चाहिए। जब तुम्हारे साथ कुछ अप्रत्याशित घटता है तब यदि तुम कभी भी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हो और कभी सत्य की खोज नहीं करते हो, या यदि तुम सत्य को समझते हो लेकिन इसे अभ्यास में नहीं लाते हो, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? यह स्वतः स्पष्ट है। तुम कितने भी चालाक और चिकनी-चुपड़ी बातें करने वाले हो, क्या तुम परमेश्वर की पारखी दृष्टि से बच सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के हाथ के आयोजनों से बच सकते हो? यह असंभव है। बुद्धिमान लोगों को परमेश्वर के सामने आना चाहिए और पश्चात्ताप करना चाहिए, उसकी ओर देखना चाहिए, उस पर भरोसा करना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभावों को ठीक करना चाहिए और सत्य का अभ्यास करना चाहिए। तब तुम दैहिक इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर लोगे, और शैतान के प्रलोभनों पर विजय पा लोगे। भले ही तुम कई बार विफल रहो, तुम्हें दृढ़ रहना चाहिए। जब तुम सभी बाधाओं के बावजूद दृढ़ रहोगे, तो एक समय आएगा जब तुम सफल हो जाओगे, और तुम परमेश्वर का अनुग्रह, उसकी दया और उसका आशीष प्राप्त करोगे, और तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने में सक्षम होगे, अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभा सकोगे, और परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे।

जब तुम लोगों के साथ कुछ अप्रत्याशित घटता है, तो तुम कितनी बार सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के कार्य को बनाए रखने का विकल्प चुनते हो? (अक्सर नहीं। ज्यादातर समय मैं अपनी छवि या अपने हित को बनाए रखना चुनता हूँ, और मुझे बाद में इसका एहसास होता है, लेकिन अपने प्रति विद्रोह करना आसान नहीं है। अगर कोई मेरे साथ सत्य पर संगति करता है तो इससे मुझे कुछ शक्ति मिलती है और मैं कुछ हद तक अपने प्रति विद्रोह कर सकता हूँ। लेकिन जब सत्य के बारे में मेरे साथ संगति करने वाला कोई नहीं होता है, तो मैं परमेश्वर से दूर हो जाता हूँ और हमेशा इसी स्थिति में रहता हूँ।) देह के प्रति विद्रोह करना कठिन है, सत्य का अभ्यास करना और भी कठिन है, क्योंकि तुम्हारे पास एक शैतानी स्वभाव है जो तुम्हें रोकता है, और एक भ्रष्ट स्वभाव है जो तुम्हें परेशान करता है, और इन्हें सत्य को समझे बिना ठीक नहीं किया जा सकता है। तुम लोग परमेश्वर की उपस्थिति में प्रतिदिन कितना समय चुपचाप बिता सकते हो? आध्यात्मिक रूप से सूखा महसूस करने से पहले तुम कितने दिनों तक परमेश्वर के वचन पढ़े बिना रह सकते हो? (मुझे लगता है कि मैं परमेश्वर के वचन पढ़े बिना एक दिन भी नहीं रह सकता। मुझे सुबह परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ना होता है और फिर उस पर ध्यान लगाना होता है। इससे मुझे परमेश्वर के करीब होने का एहसास होता है। अगर कोई ऐसा दिन हो, जहाँ मैं व्यस्तता से काम करने में इधर-उधर भाग रहा हूँ, न तो परमेश्वर के वचनों को खा-पी रहा हूँ, न ही बहुत अधिक प्रार्थना कर रहा हूँ, तो मैं खुद को परमेश्वर से बहुत दूर महसूस करता हूँ।) यदि तुम लोग यह भाँप लेते लेते हो कि परमेश्वर से दूर रहने से तुम्हारा काम नहीं चलेगा तो फिर अभी भी तुम्हारे लिए आशा बची है। यदि तुम विश्वासी व्यक्ति हो और सत्य प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम निष्क्रिय नहीं रह सकते और अपने साथ सत्य पर संगति करने के लिए हमेशा किसी की राह ताकते नहीं रह सकते हो। तुम्हें सक्रिय रूप से परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना, परमेश्वर से प्रार्थना करना और सत्य की खोज करना सीखना चाहिए। यदि तुम तब तक प्रतीक्षा करते हो जब तक तुम्हारी आत्मा अंधकारमय न हो जाए और तुम परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और उनसे प्रार्थना करने से पहले उन्हें महसूस नहीं कर सकते, तो तुम केवल यथास्थिति बनाए रख सकते हो। यद्यपि नाममात्र का “विश्वास” बनाए रखना अच्छा है, लेकिन इससे तुम्हारे जीवन में कोई विकास नहीं होगा, और जब तुम्हारी आत्मा झुलस और सुन्न हो जाएगी, और तुम परमेश्वर से बहुत दूर हो चुके होगे, तो तुम खतरे में होगे। एक प्रलोभन तुम्हें मिलता है, और तुम लड़खड़ा जाते हो; तुम सब लोग बहुत आसानी से शैतान की गिरफ्त में आ जाते हो। यदि तुम्हारे पास कोई अनुभव नहीं है, तुम कोई सत्य नहीं समझते हो, न तो परमेश्वर के वचन पढ़ने पर और न ही उपदेश सुनने पर ध्यान केंद्रित करते हो, और तुममें सामान्य आध्यात्मिक जीवन का अभाव है, तो तुम्हारे लिए आध्यात्मिक कद बढ़ाना मुश्किल होगा, और तुम्हारी प्रगति निश्चित रूप से बहुत धीमी होगी। इस धीमी प्रगति के क्या कारण हैं? इसके क्या दुष्परिणाम हैं? तुम्हें इन बातों के बारे में स्पष्ट होना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर लोगों की भ्रष्टता किस प्रकार उजागर करता है, उन्हें उसके प्रति समर्पण कर उसे स्वीकारना चाहिए। उन्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए और खुद को परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर कसना चाहिए, ताकि वे आत्म-ज्ञान प्राप्त कर सकें और धीरे-धीरे सत्य को समझ सकें। यही वह चीज है जो परमेश्वर को सबसे अधिक प्रसन्न करती है, और पवित्र आत्मा निश्चित रूप से उनमें कार्य करेगा, और खुद वे निश्चित रूप से परमेश्वर के इरादों को समझेंगे। तुम्हें हर समय परमेश्वर के वचनों और सत्य को अपने हृदय में रखना चाहिए, ताकि जब तुम वास्तविक जीवन में किसी समस्या का सामना करो, तो तुम उसे परमेश्वर के वचनों और सत्य से जोड़ सको और तुलना कर सको। फिर, समस्या का समाधान आसान हो जाएगा। उदाहरण के लिए, हर कोई निरोगी और स्वस्थ शरीर चाहता है; हर कोई यह तमन्ना करता है, लेकिन तुम्हें अपने दैनिक जीवन में इसका अभ्यास कैसे करना चाहिए? सबसे पहले, तुम्हें नियमित दिनचर्या बनानी चाहिए, अस्वास्थ्यकर या वर्जित चीजें नहीं खानी चाहिए और उचित मात्रा में व्यायाम करना चाहिए। जब तुम ये तरीके एक साथ आजमाते हो, और जो कुछ भी अभ्यास करते हो वह शारीरिक स्वास्थ्य के लक्ष्य के आसपास घूमता है, तो इसके परिणाम धीरे-धीरे तुम्हारे सामने होंगे। कुछ वर्षों के बाद, तुम दूसरों की तुलना में ज्यादास्वस्थ होगे, और अच्छे परिणाम प्राप्त करोगे। तुम्हें ये परिणाम कैसे मिले? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हारे कार्य और लक्ष्य एक सीध में थे, और तुम्हारा अभ्यास और सिद्धांत एक सीध में थे। परमेश्वर में विश्वास करना भी ऐसा ही है। यदि तुम ऐसा व्यक्ति बनना चाहते हो जो सत्य से प्रेम करता है और सत्य का अभ्यास करता है, और बदले हुए स्वभाव का व्यक्ति बनना चाहता है, तो जब तुम्हारे साथ कुछ अप्रत्याशित घटनाएँ घटती हैं, तो तुम्हें उन लक्ष्यों से, जिनका तुम अनुसरण कर रहे हो, और इसमें शामिल सच्चाइयों से उन्हें जोड़ना होगा। तुम चाहे जो भी लक्ष्य अपनाओ, जब तक वे वही हैं जो परमेश्वर मनुष्य से चाहता है, तो ये वे दिशा और लक्ष्य हैं जिनका एक विश्वासी के रूप में अनुसरण किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के मार्ग पर चलना : परमेश्वर का भय मानना और दुष्टता से दूर रहना। जब एक बार तुम्हें यह दिशा, यह लक्ष्य मिल जाए, तो तुरंत इसे अभ्यास में लाने का कोई तरीका तुम्हारे पास होना चाहिए। जब मैं यह कहता हूँ कि “परमेश्वर के मार्ग” का अनुसरण करो, तो “परमेश्वर के मार्ग” का क्या अर्थ है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। और परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना क्या है? उदाहरण के लिए जब तुम किसी का मूल्यांकन करते हो—यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से संबंधित है। तुम उसका मूल्यांकन कैसे करते हो? (हमें ईमानदार, न्यायपूर्ण और निष्पक्ष होना चाहिए और हमारे शब्द हमारी भावनाओं पर आधारित नहीं होने चाहिए।) जब तुम ठीक वही कहते हो जो तुम सोचते हो और जो तुमने देखा है, तो तुम ईमानदार होते हो। सबसे पहले, ईमानदार होने का अभ्यास और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण एक सीध में होते हैं। परमेश्वर लोगों को यही सिखाता है; यह परमेश्वर का मार्ग है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। क्या ईमानदार होना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का अंग नहीं है? और क्या यह परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो तुमने जो देखा है और जो तुम सोचते हो, वह वो नहीं होता जो तुम्हारे मुँह से निकलता है। कोई तुमसे पूछता है, “उस व्यक्ति के बारे में तुम्हारी क्या राय है? क्या वह कलीसिया के कार्य में जिम्मेदार है?” और तुम उत्तर देते हो, “वह बहुत अच्छा है, वह मुझसे भी अधिक जिम्मेदार है, मुझसे भी ज्यादा काबिल है, उसकी मानवता भी अच्छी है। वह परिपक्व और स्थिर है।” लेकिन तुम अपने दिल में क्या यही सोच रहे होते हो? तुम वास्तव में यह देखते हो कि भले ही वह व्यक्ति काबिल है, लेकिन वह भरोसेमंद नहीं, बल्कि कपटी और बहुत मतलबी है। अपने मन में तुम वास्तव में यही सोच रहे होते हो, लेकिन बोलने की बारी आने पर तुम्हारे मन में आता है कि “मैं सच नहीं बोल सकता, मुझे किसी को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए,” इसलिए तुम जल्दी से कुछ और कह देते हो, तुम उसके बारे में कहने के लिए अच्छी बातें चुनते हो, और तुम जो कुछ भी कहते हो, वह वास्तव में वह नहीं होता जो तुम सोचते हो, वह सब झूठ और फर्जीवाड़ा होता है। क्या यह दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो? नहीं। तुमने शैतान का मार्ग अपनाया है, राक्षसों का मार्ग अपनाया है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? यह सत्य का मार्ग है, वह आधार है जिसके अनुसार लोगों को आचरण करना चाहिए, और यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है। भले ही तुम किसी अन्य व्यक्ति से बात कर रहे हो, लेकिन परमेश्वर भी सुनता है, तुम्हारा दिल देख रहा है, और तुम्हारे दिल की जाँच-पड़ताल करता है। लोग वह सुनते हैं जो तुम कहते हो, पर परमेश्वर तुम्हारा दिल जाँचता है। क्या लोग इंसान के दिल की जाँच-पड़ताल करने में सक्षम हैं? ज्यादा से ज्यादा, लोग यह देख सकते हैं कि तुम सच नहीं बोल रहे; वे वही देख सकते हैं, जो सतह पर होता है; लेकिन परमेश्वर ही तुम्हारे दिल की गहराई में देख सकता है। केवल परमेश्वर ही देख सकता है कि तुम क्या सोच रहे हो, क्या योजना बना रहे हो, तुम्हारे दिल में कौन-सी छोटी योजनाएँ, कौन-से कपटी तरीके, कौन-से सक्रिय विचार हैं। यह देखकर कि तुम सच नहीं बोल रहे, परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या राय बनाता है, वह तुम्हारा क्या मूल्यांकन करता है? यही कि इस मामले में तुमने परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं किया, क्योंकि तुमने सच नहीं बोला। यदि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास कर रहे थे, तो तुम्हें सत्य बोलना चाहिए था : “वह काबिल तो है, लेकिन भरोसेमंद नहीं है।” तुम्हारा मूल्यांकन चाहे सटीक होता या नहीं, यह ईमानदार और दिल से आया होता और तुम्हें अपना यही दृष्टिकोण और स्थिति जाहिर करनी चाहिए थी। लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया—तो क्या तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर रहे थे? (नहीं।) यदि तुमने सच नहीं बोलते, तो क्या तुम्हारे इस बात पर जोर देने का कोई मतलब है कि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर उसे संतुष्ट कर रहे हो? क्या तुम्हारे नारों पर परमेश्वर ध्यान देगा? क्या परमेश्वर इस बात पर ध्यान देगा कि तुम कैसे चिल्लाते हो, कितना जोर से चिल्लाते हो या तुम्हारी इच्छा कितनी प्रबल है? क्या वह इस बात पर ध्यान देगा कि तुम कितनी बार चिल्लाते हो? वह इन चीजों को नहीं देखता। परमेश्वर यह देखता है कि कुछ होने पर तुम सत्य का अभ्यास करते हो या नहीं, जब तुम्हारे साथ कोई घटना हो जाती है तो तुम क्या विकल्प चुनते हो और कैसे सत्य का अभ्यास करते हो। यदि तुम संबंध बनाए रखना पसंद करते हो, अपना हित और अपनी छवि बनाए रखना पसंद करते हो और सब कुछ अपने संरक्षण के लिए करते हो, और परमेश्वर देख लेता है कि कोई बात होने पर यही तुम्हारा दृष्टिकोण और रवैया होता है, तो वह तुम्हारा मूल्यांकन करेगा : वह कहेगा कि तुम उसके मार्ग का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो। तुम कहते हो कि तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो और परमेश्वर के मार्ग पर चलना चाहते हो, तो जब कुछ अप्रत्याशित घटनाएँ तुम्हारे साथ घटती हैं, तुम इसे तब अभ्यास में क्यों नहीं लाते? तुम जो शब्द बोलते हो वह हृदय से निकले हो सकते हैं, और वे तुम्हारी इच्छा और आकांक्षाएँ व्यक्त कर सकते हैं, या यह भी हो सकता है कि तुम्हारा हृदय द्रवित हो गया हो, और फूट-फूट कर रोते हुए तुम ईमानदार शब्द कह रहे हो, लेकिन ईमानदारी से बोलने का मतलब क्या यह है कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो? क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हारे पास सच्ची गवाही है? ऐसा जरूरी नहीं है। यदि तुम सत्य के अनुयायी हो, तो तुम सत्य का अभ्यास कर लोगे; यदि तुम सत्य के प्रेमी नहीं हो, तो तुम केवल वही बातें कहोगे जो सुनने में अच्छी लगें, और बात वहीं समाप्त हो जाएगी। फरीसी लोग धर्म-सिद्धांत का प्रचार करने और नारे लगाने में सर्वश्रेष्ठ थे। वे अक्सर नुक्कड़ों पर खड़े होकर चिल्लाते थे, “हे शक्तिशाली परमेश्वर!” या “पूज्य परमेश्वर!” दूसरों को वे विशेष रूप से पवित्र लगते थे, उन्होंने कानून के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया था, लेकिन क्या परमेश्वर ने उनका अनुमोदन किया? नहीं किया। उसने उनकी निंदा कैसे की? उन्हें पाखंडी फरीसी की उपाधि देकर। पहले जमाने में फरीसी इस्रायल में एक सम्मानित वर्ग होता था, तो यह नाम अब एक बिल्ला क्यों बन गया है? ऐसा इसलिए है क्योंकि फरीसी लोग एक खास किस्म के व्यक्ति के परिचायक बन गये हैं। इस प्रकार के व्यक्ति की क्या विशेषताएँ होती हैं? वे झूठ बोलने में, बनने-ठनने में और दिखावा करने में कुशल हैं; वे महान कुलीनता, पवित्रता, ईमानदारी और पारदर्शी शालीनता का दिखावा करते हैं, और वे जो नारे लगाते हैं वे अच्छे तो लगते हैं, लेकिन पता चलता है, वे बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं। उनका व्यवहार कितना अच्छा है? वे धर्मग्रंथ पढ़ते हैं और उपदेश देते हैं; वे दूसरों को कानून और नियमों का पालन करना और परमेश्वर का विरोध न करना सिखाते हैं। यह सब अच्छा व्यवहार है। वे जो कुछ भी कहते हैं वह अच्छा लगता है, लेकिन, दूसरे लोगों के पीछे मुड़ते ही, वे चुपचाप चढ़ावा चुरा लेते हैं। प्रभु यीशु ने कहा कि वे “मच्छर को तो छान डालते हो, परन्तु ऊँट को निगल जाते हो” (मत्ती 23:24)। इसका मतलब यह है कि उनका सारा व्यवहार सतही तौर पर अच्छा लगता है—वे दिखावटी नारे लगाते हैं, वे ऊँचे-ऊँचे सिद्धांत बघारते हैं, और उनकी बातें सुखद लगती हैं, फिर भी उनके कर्म गड़बड़झाला हैं, और पूरी तरह से परमेश्वर के प्रतिरोधी हैं। उनका बाहरी व्यवहार सब दिखावा है, सब कपटपूर्ण है; उनके हृदय में न तो सत्य के लिए, न ही सकारात्मक चीजों के लिए जरा भी प्यार है। वे सत्य, सकारात्मक चीजों और जो कुछ भी परमेश्वर से आता है उससे विमुख रहते हैं। उन्हें क्या पसंद है? क्या उन्हें निष्पक्षता और धार्मिकता पसंद है? (नहीं।) तुम कैसे बता सकते हो कि उन्हें ये चीजें पसंद नहीं हैं? (प्रभु यीशु ने स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाया, जिसे उन्होंने स्वीकारने से ही मना नहीं किया, बल्कि इसकी निंदा भी की।) यदि वे इसकी निंदा न करते, तो क्या यह बताना संभव होता? नहीं। प्रभु यीशु के प्रकटन और कार्य ने सभी फरीसियों को प्रकट कर दिया, और प्रभु यीशु की निंदा और प्रतिरोध करने के कारण ही अन्य लोग उनके पाखंड को देख पाए। यदि प्रभु यीशु का प्रकटन और कार्य न होता, तो फरीसियों को कोई नहीं समझ पाता, और फरीसियों के सिर्फ बाहरी आचरण को देखकर तो लोगों को ईर्ष्या भी होती। लोगों का विश्वास जीतने के लिए झूठे सद्व्यवहार का सहारा लेकर क्या फरीसियों ने बेईमानी और मक्कारी नहीं की? क्या ऐसे मक्कार लोग सत्य से प्रेम कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं कर सकते। अच्छा आचरण दिखाने के पीछे उनका क्या उद्देश्य था? एक उद्देश्य तो लोगों को ठगना ही था। दूसरा, लोगों को गुमराह कर उनका दिल जीतना था, ताकि लोग उनके बारे में अच्छा सोचें और उनका आदर करें। और अंततः, वे पुरस्कृत होना चाहते थे। यह कैसा घोटाला था! क्या ये कुशल चालें थीं? क्या ऐसे लोगों को निष्पक्षता और धार्मिकता पसंद थी? बिल्कुल भी नहीं। उन्हें सिर्फ पद, प्रसिद्धि और लाभ से प्यार था, और वे सिर्फ पुरस्कार और ताज चाहते थे। उन्होंने कभी भी उन वचनों का अभ्यास नहीं किया जो परमेश्वर ने लोगों को सिखाए थे, और उन्होंने कभी भी सत्य वास्तविकताओं को थोड़ा-सा भी नहीं जिया। उनका सारा ध्यान अच्छे आचरण के जरिये छद्मवेश धारण करने और अपने पाखंडी तरीकों से लोगों को धोखा देकर और उनके दिल जीतकर अपनी पद-प्रतिष्ठा बचाने पर था, जिसका उपयोग वे फिर पूँजी जुटाने और रोजी-रोटी कमाने के लिए करते थे। क्या यह घिनौना नहीं है? उनके इस आचरण से तुम समझ सकते हो कि वे अपने सार रूप में सत्य से प्रेम नहीं करते थे, क्योंकि उन्होंने कभी इसका अभ्यास नहीं किया। कौन-सी चीज ये दर्शाती है कि वे सत्य का अभ्यास नहीं करते थे? सबसे बड़ी बात है : प्रभु यीशु छुटकारे का कार्य करने आया, और प्रभु यीशु के सभी वचन सत्य हैं और उनमें अधिकार है। फरीसियों ने इस पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की? भले ही उन्होंने माना कि प्रभु यीशु के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है, लेकिन उन्होंने इन्हें स्वीकार करना तो दूर रहा, इनकी निंदा और भर्त्सना की। ऐसा क्यों किया? ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते थे, और अपने हृदय में वे सत्य से विमुख थे और उससे घृणा करते थे। उन्होंने स्वीकार किया कि प्रभु यीशु ने जो कुछ भी कहा वह सही था, कि उसके शब्दों में अधिकार और सामर्थ्य थी, कि वह किसी भी तरह से गलत नहीं था, और उसका विरोध करके उन्हें कोई लाभ नहीं था। परन्तु वे प्रभु यीशु की निंदा करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मिलकर चर्चा की और षड्यंत्र रचकर कहा, “उसे सलीब पर चढ़ा दो। वह रहेगा या हम,” और इस तरह फरीसियों ने प्रभु यीशु का अनादर किया। उस समय न कोई सत्य को समझ पाया, और न ही कोई प्रभु यीशु को देहधारी परमेश्वर के रूप में पहचान सकता था। हालाँकि, एक मनुष्य के दृष्टिकोण से, प्रभु यीशु ने कई सत्य व्यक्त किए, राक्षसों को बाहर निकाला और रोगियों को ठीक किया। उसने कई चमत्कार किए, पाँच रोटियों और दो मछलियों से 5,000 लोगों का पेट भरा, कई सारे अच्छे कर्म किए और लोगों पर इतना अधिक अनुग्रह बरसाया। ऐसे नेक और धार्मिक लोग बहुत ही कम हैं, तो फरीसी प्रभु यीशु की निंदा क्यों करना चाहते थे? वे उसे सलीब पर चढ़ाने के लिए इतने आमादा क्यों थे? उन्होंने प्रभु यीशु के बजाय एक अपराधी को रिहा करना पसंद किया, यह दर्शाता है कि धार्मिक दुनिया के फरीसी कितने दुष्ट और दुर्भावनाग्रस्त थे। वे बहुत दुष्ट थे! फरीसियों के दुष्ट विश्वासघाती चेहरे और उनके दिखावटी, बाहरी परोपकारी चेहरे के बीच इतना बड़ा अंतर था कि बहुत से लोग यह समझ नहीं पाए कि कौन-सा असली है और कौन-सा नकली, लेकिन प्रभु यीशु के प्रकटन और कार्य ने उन सबको प्रकट कर दिया। फरीसी आम तौर पर खुद को इतनी अच्छी तरह छिपाते थे और बाहर से इतने धर्मात्मा लगते थे कि किसी ने भी कल्पना नहीं की होगी कि वे इतनी क्रूरता से प्रभु यीशु का विरोध और उत्पीड़न कर सकते हैं। यदि तथ्य प्रकट न हुए होते, तो कोई भी उनकी असलियत नहीं जान पाता। देहधारी परमेश्वर की सत्य की अभिव्यक्ति मनुष्य के बारे में इतना खुलासा करती है!

अंश 16

सत्य को समझने और उसका अभ्यास करने का उद्देश्य यह है कि लोग सत्य को जिएँ, मानव के समान जिएँ और जिन सत्यों को वे समझते हैं और अभ्यास में लाने में सक्षम हैं, उन्हें अपना जीवन बनाएँ। उन्हें अपना जीवन बनाने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि ये सत्य लोगों के कार्यों, जीवन, आचरण और अस्तित्व का आधार और स्रोत बन जाएँ—ये सत्य लोगों के जीने का ढंग बदल दें। पहले लोग किस आधार पर जीते थे? चाहे उनमें दृढ़ विश्वास रहा हो या न रहा हो, वे शैतानी स्वभावों पर भरोसा करके जीते थे और वे परमेश्वर के वचनों या सत्य के आधार पर नहीं जीते थे। क्या एक सृजित प्राणी को इसी तरह जीना चाहिए? (नहीं।) परमेश्वर मनुष्य से क्या चाहता है? (यही कि लोग उसके वचनों के अनुसार जिएँ।) परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना—क्या यही वह लक्ष्य नहीं है जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों को रखना चाहिए? (हाँ, यही वह लक्ष्य है।) एक सृजित प्राणी के पास परमेश्वर के वचनों पर भरोसा करके जीने का स्वरूप होना चाहिए। परमेश्वर की दृष्टि में ऐसे लोग ही सच्चे सृजित प्राणी हैं। इसलिए तुम्हें नियमित रूप से यह सोचना चाहिए कि तुम्हारे कौन-से वचन, तुम्हारे कौन-से कार्य, तुम्हारे व्यवहार के कौन-से सिद्धांत, तुम्हारे अस्तित्व के कौन-से लक्ष्य और दुनिया से निपटने के तुम्हारे कौन-से तरीके सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं, परमेश्वर द्वारा मनुष्य से की जाने वाली अपेक्षाओं के अनुरूप हैं और इनमें से कौन-से परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं से कतई संबंधित नहीं हैं। अगर तुम अक्सर इन चीजों के बारे में चिंतन-मनन करोगे तो तुम धीरे-धीरे प्रवेश हासिल कर लोगे। अगर तुम इन चीजों के बारे में सोच-विचार नहीं करते हो, तो सिर्फ सतही प्रयास करने का कोई लाभ नहीं है; बेमन से कार्य करने, नियमों का पालन करने और अनुष्ठानों में शामिल होने से अंततः तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। तो परमेश्वर में आस्था आखिर क्या है? परमेश्वर में आस्था असल में परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने और शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए मनुष्य को एक ऐसे सच्चे सृजित प्राणी में बदलने की प्रक्रिया है, जैसा कि वह परमेश्वर की दृष्टि में है। यदि कोई जीने के लिए अपने शैतानी स्वभाव और प्रकृति पर निर्भर रहता है, तो क्या वह परमेश्वर की दृष्टि में योग्य सृजित प्राणी है? (नहीं।) तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तुम परमेश्वर को स्वीकारते हो, तुम परमेश्वर की संप्रभुता स्वीकारते हो और यह स्वीकारते हो कि तुम्हें सब कुछ परमेश्वर देता है, लेकिन क्या तुम परमेश्वर के वचनों को जीते हो? क्या तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार जीते हो? क्या तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो? क्या तुम जैसा सृजित प्राणी परमेश्वर के सामने आ पाता है? क्या तुम परमेश्वर के साथ रहने में सक्षम हो? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है? क्या जिसे तुम जीते हो और जिस रास्ते पर तुम चलते हो, वह परमेश्वर के अनुकूल है? (नहीं।) तो परमेश्वर में तुम्हारी आस्था का क्या अर्थ है? क्या तुमने सही रास्ते पर प्रवेश किया है? परमेश्वर में तुम्हारी आस्था केवल शब्द और स्वरूप में ही है। तुम परमेश्वर के नाम में विश्वास करते हो और उसके नाम को स्वीकारते हो, और तुम स्वीकारते हो कि परमेश्वर तुम्हारा सृष्टिकर्ता और संप्रभु है लेकिन तुमने परमेश्वर की संप्रभुता या परमेश्वर के आयोजन मूल रूप से स्वीकार नहीं किए हैं, और तुम पूरी तरह परमेश्वर के अनुरूप नहीं हो सकते। अर्थात परमेश्वर में तुम्हारी आस्था का अर्थ पूरी तरह से चरितार्थ नहीं हुआ है। भले ही तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, लेकिन तुमने अपनी भ्रष्टता त्याग कर उद्धार प्राप्त नहीं किया है, और अपनी आस्था में तुम्हें जिस सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए था, उसमें तुमने प्रवेश नहीं किया है। यह एक गलती है। इसे इस तरह से देखें तो परमेश्वर में आस्था कोई साधारण बात नहीं है।

अब क्या तुम लोगों को दिल से महसूस होता है कि परमेश्वर के वचन समझना और सत्य का अभ्यास करना महत्वपूर्ण है? (महसूस होता है।) तुम सभी जानते हो कि सत्य का अभ्यास करना महत्वपूर्ण है, फिर भी ऐसा करना कोई साधारण बात नहीं है बल्कि यह कठिनाइयों से घिरा हुआ है। इसे कैसे ठीक किया जा सकता है? जब भी तुम पर कठिनाइयाँ आएँ, तुम्हें प्रार्थना करते हुए परमेश्वर के सम्मुख आकर परमेश्वर के वचनों में सत्य जरूर खोजना चाहिए, ताकि तुम अपनी कठिनाइयाँ दूर कर सको, अपनी कमजोरियाँ और बाहरी परिवेश की कठिनाइयाँ दूर कर सको, और सत्य का अभ्यास कर सको। यह अनुभव करके तुम्हारे पास परमेश्वर की स्वीकृति पाने की आशा रहेगी। यदि तुमने सत्य को और समझ लिया और तुम सत्य का अभ्यास करने में भी सक्षम हो, तो फिर तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने वाले व्यक्ति बन सकते हो, और ऐसा करके तुम्हारी आस्था को परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी। यदि तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का नाम स्वीकारते हो, और तुम मानते हो कि सभी चीजों पर उसकी संप्रभुता है और वह समस्त सृष्टि का प्रभु है, लेकिन तुम्हारे जीवन में सत्य से, परमेश्वर की अपेक्षाओं से या एक सृजित प्राणी को क्या करना चाहिए उससे संबंधित एक अंश भी नहीं है तो क्या तुम्हारा परिणाम अंततः कष्टकारी नहीं होगा? जिसका इन चीजों से कोई लेना-देना नहीं है, क्या वह परमेश्वर के पास आ सकता है? तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर के पास आ सकते हो, लेकिन क्या परमेश्वर तुम्हारी जैसी आस्था को स्वीकृति देता है? वह स्वीकृति नहीं देता, और इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि परमेश्वर तुम जैसे सृजित प्राणी को न तो स्वीकृति देता है और न उसे ऐसे प्राणी की आवश्यकता है। यदि परमेश्वर तुम्हारी आस्था को न तो स्वीकारता है और न स्वीकृति देता है, तो क्या वह एक व्यक्ति के रूप में तुम्हें स्वीकृति दे सकता है? (वह नहीं दे सकता।) यही अंत है : परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाएगा और तुम्हारा परिणाम तय हो चुका होगा! क्या तुम लोग अपने लिए यही परिणाम चाहते हो? (नहीं, हम यह परिणाम नहीं चाहते हैं।) तुम लोग किस प्रकार का परिणाम चाहते हो? (परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने वाला।) परमेश्वर द्वारा स्वीकृत होने के लिए तुम्हें सबसे पहले क्या समझना चाहिए? तुम्हें सबसे पहले क्या करना चाहिए? सबसे पहले, तुम्हें यह जानना चाहिए कि लोगों की कौन-सी करनी परमेश्वर को प्रसन्न करती है और कौन-सी करनी उसे अप्रसन्न करती है। पहले इन चीजों का सारांश तैयार करो ताकि तुम्हें इनकी स्पष्ट समझ हो जाए; फिर जब तुम काम करोगे तो तुम्हें पता लग जाएगा कि कैसे कार्य करना है। यह इतना सरल है। क्या ऐसी चीजों का सारांश तैयार करना आसान है? यह बहुत आसान है। जिन्होंने अतीत में बुरे कर्म किए और जो निष्कासित कर दिए गए थे, उन लोगों की उन चीजों का संक्षिप्त विवरण तैयार करो जो उन्होंने परमेश्वर से घृणा करने के लिए की थीं, उनकी विफलताओं ने जो सबक सिखाए उनका संक्षिप्त विवरण तैयार करो और उनमें से कोई भी बुरी चीज मत करो। फिर, जिन लोगों को परमेश्वर ने स्वीकृति दी थी, उनके अच्छे व्यवहार का सारांश तैयार करो और उन चीजों को और अधिक करो। इस तरह तुम परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर लोगे। तुम्हें पता लगाना होगा कि परमेश्वर की इच्छा के सर्वाधिक अनुरूप बनने के लिए तुम्हें क्या करना है और क्या अभ्यास करना है, और तुम्हें अच्छी तरह समझ लेना होगा कि परमेश्वर कैसे लोगों और कैसी चीजों से सबसे अधिक घृणा करता है, और परमेश्वर कैसे लोगों और कैसी चीजों से प्रसन्न होता है। तुम्हें पता होना चाहिए कि इनके बीच अंतर कैसे किया जाए, और उनका वर्गीकरण करना और संक्षिप्त विवरण तैयार करना सबसे अच्छा है ताकि उनकी स्पष्ट समझ हो सके। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मानक और सीमा को अपने हृदय में रखो। इस सिद्धांत, इस मानक, इस सीमा के साथ तुम्हारे पास कार्य करने के सिद्धांत होंगे, और तुम सिद्धांतों के अनुसार चीजें कर सकोगे। यदि तुम्हारे पास यह सिद्धांत और मानक नहीं है, तो चीजें करते समय तुम्हारे पास कोई निश्चितता नहीं होगी, और तुम यह नहीं बता पाओगे कि तुम जो चीजें करते हो उनमें से कौन-सी बुरी और कौन-सी अच्छी हैं। हो सकता है तुम्हें कोई चीज बुरी न लगे, लेकिन परमेश्वर की नजर में वह बुरी है; या हो सकता है कि तुम्हें कोई चीज अच्छी लगे, जबकि परमेश्वर की नजर में वह बुरी है। यदि तुम ये सब चीजें करते हो तो क्या यह परेशानी वाली बात नहीं है? यदि तुम जानबूझकर और अनवरत ऐसे काम करते हो जिन्हें परमेश्वर स्वीकृति नहीं देता और तुम केवल कुछ ही ऐसे काम करते हो जिन्हें परमेश्वर स्वीकृति देता है लेकिन तुम मानते हो कि तुमने बहुत सारे ऐसे काम किए हैं तो क्या तुम भ्रमित नहीं हो रहे हो? यदि तुम जो अधिकांश कार्य करते हो वे परमेश्वर की दृष्टि में बुरे हैं तो क्या वह तब भी तुम्हें स्वीकृति दे सकता है? (वह स्वीकृति नहीं दे सकता।) यह जानते हुए भी कि परमेश्वर किसी चीज को स्वीकृति नहीं देता है, तुम्हें इसे करना चाहिए या नहीं? (मुझे इसे नहीं करना चाहिए।) क्या तुम्हारा इसे करना बुरा कर्म है या अच्छा कर्म? (बुरा कर्म है।) यदि तुम पहचान लो कि यह एक बुरा कर्म है और बाद में इसे दोबारा कभी न करो तो इसे क्या कहा जाएगा? अपने हाथों से हिंसा का त्याग करना, जो सच्चे पश्चात्ताप की अभिव्यक्ति है। यदि तुम जानते हो कि तुमने बुराई की है और निश्चित हो कि परमेश्वर इसे स्वीकृति नहीं देता है तो तुम्हारे पास पश्चात्ताप करने वाला हृदय होना चाहिए। यदि तुम आत्म-चिंतन नहीं करते और इसके बजाय अपनी बुरी करनी का बचाव कर इसे जायज ठहराते हो तो तुम मुसीबत में हो : तुम्हें निश्चित रूप से बाहर कर दिया जाएगा, और तुम आगे अपना कर्तव्य निभाने योग्य नहीं रहोगे। तो अपना कर्तव्य निभाने में किस सिद्धांत में पारंगत होना है और कौन-सा मार्ग अपनाया जाना है? परमेश्वर की स्वीकृति पाने के लिए किस इरादे से आगे बढ़ना चाहिए? (सत्य खोजो और सभी चीजों में परमेश्वर के इरादे समझो।) हर कोई यह जानता है, लेकिन क्या इसे जानकर अभ्यास में लाया जा सकता है? एक बार जब तुम इसे समझ लेते हो तो क्या तुम इसे अभ्यास में ला सकते हो? (नहीं, हम नहीं ला सकते।) तो फिर तुम क्या कर सकते हो? तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा करना चाहिए, तुम्हें सत्य के लिए कष्ट सहना चाहिए और अपनी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ, इरादे और दैहिक सुख-सुविधाएँ दरकिनार करनी चाहिए। यदि तुम उन्हें दरकिनार नहीं करते, फिर भी सत्य प्राप्त करना चाहते हो तो क्या तुम कोरी कल्पनाओं में लिप्त नहीं हो? कुछ लोग सत्य को समझना और प्राप्त करना, दोनों काम करना चाहते हैं; वे स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाना चाहते हैं लेकिन वे कोई भी चीज त्याग नहीं सकते। वे अपना भविष्य नहीं त्याग सकते, वे दैहिक सुख-सुविधाएँ नहीं त्याग सकते, वे अपने परिवार का साथ, अपने बच्चे और अपने माता-पिता नहीं त्याग सकते, न ही वे अपने इरादे, अपने उद्देश्य या अपनी इच्छाएँ त्याग सकते हैं। उन पर चाहे जो संकट आए, वे हमेशा खुद को, अपने मामलों को और अपनी स्वार्थी इच्छाओं को तरजीह देते हैं, और सत्य को अंतिम स्थान पर रखते हैं; दैहिक हितों की पूर्ति और अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव उनके लिए सर्वोपरि होते हैं, और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और परमेश्वर को संतुष्ट करना गौण होकर अंतिम स्थान पाते हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं? क्या वे कभी सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं या परमेश्वर की इच्छा संतुष्ट कर सकते हैं? (वे ऐसा कभी नहीं कर सकते।) यदि जाहिर तौर पर तुमने अपना कर्तव्य निभाया है और निठल्ले नहीं बैठे रहे हो, लेकिन तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव बिल्कुल भी नहीं सुधरा है तो क्या यह परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण है? (नहीं है।) तुम सभी लोग ये बातें समझते हो, लेकिन जब सत्य को व्यवहार में लाने की बात आती है, तो यह कठिन काम हो जाता है। तुम जो कष्ट सहते हो और कीमत चुकाते हो, वे सत्य का अभ्यास करने में खर्च किए जाने चाहिए, न कि नियमों और प्रक्रियाओं का पालन करने में। तुम सत्य के लिए चाहे जितने कष्ट सहो, ये कम हैं, और परमेश्वर की इच्छा संतुष्ट करने हेतु सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम जो कष्ट सहते हो, वे परमेश्वर को स्वीकार्य हैं और उसके द्वारा स्वीकृत हैं।

अब तुम लोगों के सामने क्या समस्याएँ हैं? एक तो यह है कि तुम कई सत्यों के विवरण नहीं समझते हो और उनका अंतर पहचानने के लिए तुम्हारे हृदय में कोई मानक नहीं है; इसके अलावा, तुम जिन सत्यों को समझते हो उनका अभ्यास करना कठिन है। मान लो कि शुरुआत में सत्य का अभ्यास करना कठिन है, लेकिन तुम इसका जितना अधिक अभ्यास करते हो, यह उतना ही आसान होता जाता है; तुम इसका जितना अधिक अभ्यास करोगे, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की प्रबलता उतनी ही कम होती जाती है; सत्य उत्तरोत्तर प्रबल होता जाता है, साथ ही सत्य का अभ्यास करने की इच्छा भी प्रबल होती जाती है; तुम्हारी स्थिति अधिक से अधिक सामान्य होती जाती है; और देह की स्वार्थी इच्छाएँ और तुम्हारे मानवीय विचार कम प्रभावी होते जाते हैं। यह सामान्य है, और तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति मिलने की उम्मीद है। लेकिन मान लो कि तुम लंबे समय से सत्य का अभ्यास कर रहे हो, फिर भी तुम्हारे हित, स्वार्थी इच्छाएँ, इरादे और भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे जीवन के हर पहलू और हिस्से में अभी भी आगे रहते हैं। सत्य का अभ्यास करना तुम्हारे लिए अभी भी बहुत कठिन काम है, और भले ही तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, तुम जो कुछ भी कर रहे हो उसके अधिकांश का सत्य के अभ्यास से कोई संबंध नहीं है। क्या तुम लोगों को यह परेशानी की बात नहीं लगती? यह निश्चित रूप से परेशानी की बात है! इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस कलीसिया में हो या तुम्हारा परिवेश कैसा है, ये चीजें महत्वपूर्ण नहीं हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या सत्य का अनुसरण करने की तुम्हारी स्थिति उत्तरोत्तर बेहतर हो रही है, क्या परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध अधिक सामान्य हो रहा है, क्या तुम्हारा विवेक, तुम्हारा तर्क और तुम्हारी मानवता अधिक सामान्य होती जा रही है, और क्या परमेश्वर के प्रति तुम्हारी भक्ति और आज्ञाकारिता बढ़ रही है। यदि तुममें सकारात्मक चीजें बढ़ और प्रबल हो रही हैं, तो आशा है कि तुम सत्य प्राप्त करोगे। यदि तुममें इन सकारात्मक चीजों का कभी भी कोई संकेत नहीं है, तो तुमने रत्ती भर भी प्रगति नहीं की है, और तुम्हारे स्वभाव में लेशमात्र भी बदलाव नहीं आया है। यदि तुम सत्य का बिल्कुल भी अभ्यास नहीं करते तो तुम जीवन-प्रवेश कैसे पा लोगे? कुछ लोग कहते हैं, “मैंने इसका अभ्यास किया है और कड़ी मेहनत की है। तो फिर मुझे कोई परिणाम क्यों नहीं दिख रहा?” परिणामों में इस तरह के अभाव का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम लोगों ने सत्य का अभ्यास नहीं किया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने कितनी बार इसका अभ्यास करने की कोशिश की, अंतिम परिणाम यह है कि तुम अभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव और शैतानी प्रकृति के अधीन हो, जिसका अर्थ है कि तुम अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव पर विजय पाने के लिए सत्य वास्तविकता और परमेश्वर के वचन का उपयोग नहीं कर रहे हो। क्या इसे इस तरह कहा जा सकता है? (कहा जा सकता है।) तो क्या तुम विजेता हो या विफल? (विफल।) यह एक विफल व्यक्ति होना है, तुम विजेता नहीं हो। जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो, तो तुम्हारे हृदय में एक संघर्ष चल रहा होता है। तुम अपने इरादों को दरकिनार नहीं कर सकते, लेकिन तुम यह तो समझते ही हो कि सत्य क्या कहता है और परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं। संघर्ष की प्रक्रिया में तुम सत्य को दरकिनार कर देते हो; तुम इसका अभ्यास नहीं करते। अंततः सत्य का अभ्यास किए बिना तुम अपनी स्वार्थी इच्छाओं की पूर्ति करते हो, अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो और तुम जो जी रहे होते हो वह तुम्हारी शैतानी प्रकृति होती है। तो अंतिम परिणाम क्या है? (विफल होना।) मान लो कि अंत में तुम इस संघर्ष में विजयी नहीं होते और पहले की तरह ही अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते रहते हो : तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने का विकल्प नहीं चुनते, अपने व्यक्तिगत हितों को प्राथमिकता देते हो, अपनी इच्छाओं और स्वार्थ की पूर्ति करते हो लेकिन परमेश्वर को संतुष्ट नहीं करते, और सत्य का पक्ष नहीं लेते हो। इसका मतलब है कि तुम पूरी तरह असफल हो, और यह एक प्रकार के संघर्ष का परिणाम है। दूसरे प्रकार के संघर्ष का परिणाम क्या होता है? जब कुछ अप्रत्याशित घटनाएँ घटती हैं, तो लोगों में आंतरिक संघर्ष भी होते हैं। वे परेशान, दुखी और कमजोर महसूस करते हैं, यहाँ तक कि उनकी गरिमा और चरित्र को भी चुनौती दी जाती है, और उनका घमंड संतुष्ट नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा, उन्हें काट-छाँट और निपटान झेलना पड़ता है, या दूसरे उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं, या उन्हें अपमानित किया जाता है, जिससे उनकी गरिमा और चरित्र दोनों का ह्रास होता है। लेकिन इस तरह की स्थिति का सामना होने पर वे परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं, और ऐसा करके उनके हृदय मजबूत होते हैं, और वे सत्य खोजकर इन चीजों को स्पष्ट रूप से देख लेते हैं। वे दृढ़ संकल्प और विलक्षण शक्ति के साथ सत्य का अभ्यास करेंगे। “मुझे न कोई छवि चाहिए, न रुतबा, न थोथा घमंड। भले ही दूसरे लोग मुझे हेय दृष्टि से देखते हैं और गलत समझते हैं, फिलहाल मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने और सत्य का अभ्यास करने का फैसला करता हूँ ताकि परमेश्वर मुझे स्वीकृति दे और इस मामले में मुझसे प्रसन्न हो, और मैं परमेश्वर के हृदय को ठेस न पहुँचा सकूँ।” वे अंततः अपनी छवि और थोथा घमंड, अपने इरादे, अपनी महत्वाकांक्षाएँ और स्वार्थ दरकिनार कर देंगे, और फिर परमेश्वर, सत्य और न्याय का पक्ष लेंगे। सत्य का अभ्यास करने के बाद उनके हृदय संतुष्ट, शांत और आह्लादित होते हैं। वे परमेश्वर का आशीष महसूस करते हैं और महसूस करते हैं कि सत्य का अभ्यास करना अच्छा है; सत्य का अभ्यास करने से उनके हृदय को संतोष और पोषण मिलता है, और उन्हें लगता है कि वे अपने शैतानी और भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित होने और बंदी बनाए जाने के बजाय मनुष्यों की तरह जी रहे हैं। परमेश्वर की गवाही देने और जैसा कि एक सृजित प्राणी को होना चाहिए, उस गवाही और स्थिति पर दृढ़ता से कायम रहने के बाद, वे मानसिक शांति, आनंद और अपने हृदय में खुशी महसूस करते हैं। यह दूसरे प्रकार का परिणाम है। इस तरह का परिणाम कैसा है? (अच्छा है।) लेकिन क्या यह “अच्छा” परिणाम हासिल करना आसान है? (नहीं है।) यह “अच्छा” परिणाम संघर्ष की प्रक्रिया के माध्यम से ही हासिल किया जाना है, और यह संभव है कि संघर्ष में लोग एक-दो बार असफल हों। लेकिन असफलता अपने साथ सबक लेकर आती है : यह लोगों को सत्य का अभ्यास न करने के कारण उनके विवेक पर पड़ने वाले भार का एहसास कराती है, यह एहसास कराती है कि वे परमेश्वर के ऋणी हैं और उनके हृदय कष्ट और दर्द सहते हैं। बाद में जब ऐसी परिस्थितियाँ सामने आएँगी तो लोग अनजाने में ही अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभावों पर काबू पाने में बेहतर होते जाएँगे; धीरे-धीरे वे परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करने के लिए निश्चित रूप से सत्य का अभ्यास करने का चयन करेंगे। यह शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव पर काबू पाने और परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए सत्य का अभ्यास करने की सामान्य प्रक्रिया है।

अब क्या तुम लोगों को सत्य का अभ्यास करना कठिन लगता है? या क्या सत्य का अभ्यास न करते हुए अपनी इच्छानुसार कार्य करना कठिन है? (सत्य का अभ्यास करना कठिन है।) जैसा चाहें वैसा करने के बारे में क्या ख्याल है? (यह आसान है।) इससे तुम लोगों के वास्तविक आध्यात्मिक कद का पता चलता है : तुम लोगों में से कोई भी कतई नहीं बदला है और तुम अभी भी सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हो। ऐसा आध्यात्मिक कद कितना दयनीय है! तुम सभी को लगता है कि सत्य का अभ्यास करना कठिन है और जैसा चाहें वैसा करना आसान है, जिससे साबित होता है कि तुम अभी भी सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हो। तुम्हारे लिए देह की वरीयताओं का पालन करना स्वाभाविक हो गया है; तुम इसके आदी हो गए हो जैसे कि यह एक नियम हो, और इसलिए तुम्हें लगता है कि सत्य का अभ्यास करना बहुत कठिन है : तुम्हें अपने आत्म-सम्मान और रुतबे को नुकसान होने का डर लगातार सताता रहता है, इसलिए तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते हो और इसके बजाय अपने विचारों के अनुसार कार्य करते हो। एक ही विचार से, अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव के कारण व्यक्ति कायर बन जाता है, असफल हो जाता है और अपनी गवाही और परमेश्वर की स्वीकृति खो देता है। यह कितना आसान है। लेकिन क्या सत्य का अभ्यास करने वाला और परमेश्वर की गवाही देने वाला बनना इतना आसान है? इसके लिए एक प्रक्रिया होनी चाहिए। जब कोई सत्य स्वीकारता है, तो उसके मन में हमेशा एक संघर्ष चलता रहता है, चीजें एक पल में इधर गिरती हैं, और दूसरे पल में उधर। एक अनवरत आंतरिक संघर्ष चलता रहता है, और अंत में यह संघर्ष एक निष्कर्ष पर पहुँचता है : जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं वे इसका अभ्यास करते हैं, गवाही देते हैं और विजयी होते हैं; जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते उनमें बहुत अधिक मनमर्जी होती है, उनमें मानवता की बहुत कमी होती है, वे नीच चरित्र के घृणित लोग होते हैं—ऐसे लोग अपने स्वार्थ और इच्छाएँ पूरी करने का विकल्प चुनते हैं, और पूरी तरह से अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव के वश में होते हैं। जब तुम लोगों के दैनिक जीवन में चीजें घटित होती हैं तो क्या तुम अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव को काबू कर पाते हो? या तुम उस स्वभाव के अधीन होकर उससे नियंत्रित होते हो? तुम ज्यादातर किस प्रकार की स्थिति में रहते हो? इस आधार पर तुम अनुमान लगा सकते हो कि तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति हो या नहीं। यदि तुम ज्यादातर समय अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव पर काबू पा सकते हो और गवाही देने वाले व्यक्ति बन सकते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अभ्यास करता है और सत्य से प्रेम करता है। यदि अधिकांश समय तुम अपनी स्वार्थी इच्छाएँ पूरी करते हो और अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव पर काबू पाने और सत्य के पक्ष में खड़े होने, सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने में असमर्थ रहते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो न तो सत्य का अभ्यास करता है और न ही उसके पास सत्य वास्तविकता है। यह स्पष्ट है कि जिनके पास सत्य वास्तविकता नहीं है, वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं लेकिन उनके पास जीवन प्रवेश नहीं है। तो अपने आप को मापो : तुम लोग अधिकांश समय किसके पक्ष में खड़े होते हो? देह के पक्ष में या सत्य के पक्ष में? जिन मामूली चीजों का सत्य से सरोकार नहीं होता वे मायने नहीं रखतीं, लेकिन जब ऐसी बड़ी चीजें घटित हों जहाँ तुम्हें कोई फैसला करने की जरूरत पड़े तो क्या तुम सत्य के पक्ष में खड़े होते हो या देह के पक्ष में? (शुरू में हम देह के पक्ष में खड़े होते हैं; लेकिन एक संघर्ष के बाद जब हम प्रार्थना और खोज के माध्यम से कुछ सत्य को समझ लेते हैं तो हम सत्य के पक्ष में खड़े होते हैं।) यह कहना सटीक है कि एक बार जब कोई सत्य को समझ लेता है तो सत्य के पक्ष में खड़ा हो सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि देह की इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह करने का मतलब यही हो कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। यह मत समझो कि तुम देह की इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह करके और मनचाही चीजें न करके सत्य का अभ्यास कर रहे हो; बल्कि यह समझो कि सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम्हें सत्य के सिद्धांतों का पालन और अभ्यास करना होगा। तो तुम लोगों की सामान्य स्थितियाँ क्या हैं? (जिसे हम देह की इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह कहते हैं वह वास्तव में सत्य का अभ्यास नहीं है; यह तो दरअसल आत्म-नियंत्रण करना हुआ।) अधिकतर लोगों के मामले में ऐसा ही प्रतीत होता है, क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) तो फिर तुम लोग अभी किस स्थिति में हो? क्या तुम्हें अभी भी सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करना बाकी है? (हाँ, हमें अभी भी सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करना बाकी है।) जीवन प्रवेश के बिना परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब है कि तुमने अभी तक सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है; तुम लोग इसी अवस्था में रहते हो, इसलिए तुम लोग कई चीजों में अंतर पहचान नहीं पाते। ऐसा क्यों है कि तुम उनमें अंतर पता नहीं कर पाते? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुमने अभी तक केवल कुछ वचनों और सिद्धांतों को समझा है लेकिन सत्य को नहीं समझा है और वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, इसलिए तुम लोगों को कई उन स्थितियों के बारे में कोई जानकारी नहीं है जिन पर चर्चा की जा रही है। तुम लोगों को अभी तक उन स्थितियों का कोई अनुभव नहीं है, इसलिए तुम उन्हें स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकते हो। असल में बात यही है। जो कुछ भी है, तुम्हें इसे स्वयं अनुभव करना होगा और अनुभव करने के बाद तुम्हें पता चल जाएगा कि विवरण क्या हैं। तुम्हारी भावनाओं, विचारों और तुम्हारे अनुभव की प्रक्रिया में सबमें विवरण होंगे, और ये विवरण वास्तविकता की बातें हैं। उनके बिना, तुम्हारे पास केवल सतही स्तर का ज्ञान है, इसलिए तुम इसे तोते की तरह दोहराते हो। सतही स्तर के ज्ञान का मतलब है कि तुम शाब्दिक समझ पर ही अटके हुए हो, तुमने अभी तक इसे आत्मसात नहीं किया है और तुम अभी भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने से बहुत दूर हो। क्या इसे इस तरह कहा जा सकता है? (कहा जा सकता है।) तुम लोगों को आज की संगति के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, और चिंतन करना सीखना चाहिए। सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम्हें चिंतन भी करना होगा और अभ्यास करते समय चिंतन करने में और चिंतन करते हुए अभ्यास करने में तुम सत्य के विवरण अधिक से अधिक समझोगे, सत्य के बारे में तुम्हारा ज्ञान और गहरा हो जाएगा, और इस तरह तुम वास्तव में अनुभव कर सकते हो कि सत्य वास्तविकता क्या है। एक बार जब तुम इसे सीख और अनुभव कर लोगे तभी तुम सत्य वास्तविकता प्राप्त कर पाओगे।

अंश 17

लोग सोचते हैं कि सत्य का अभ्यास करना कठिन है, तो फिर कुछ लोग इसका अभ्यास करने में सक्षम क्यों हैं? यह सब इस पर निर्भर करता है कि व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि जो लोग सत्य का अभ्यास करते हैं वे अच्छी मानवता वाले लोग होते हैं। यह कथन सही है। कुछ लोगों में अच्छी मानवता होती है और वे कुछ सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं। हालाँकि, कुछ लोगों में मानवता की कमी होती है, और उनके लिए सत्य का अभ्यास करना कठिन होता है, जिसका अर्थ यह है कि ऐसा करने के लिए उन्हें कुछ हद तक कष्ट सहना पड़ता है। मुझे बताओ, क्या जो व्यक्ति सत्य का अभ्यास नहीं करता वह अपने कार्यों में सत्य की तलाश करता है? वह इसकी तलाश कतई नहीं करता। वह अपने इरादे लेकर आता है और सोचता है कि उन्हें पूरा करना अच्छा और उसके हित में होगा, इसलिए वह अपने इन इरादों के अनुसार कार्य करता है। वह सत्य का अभ्यास नहीं करता इसका कारण है क्योंकि उसके हृदय में कुछ ग़लत है, और उसका हृदय सही नहीं है। वह खोजता नहीं है, वह जाँच नहीं करता है, और न ही वह परमेश्वर के सामने प्रार्थना करता है; वह बस ढिठाई से अपनी स्वयं की इच्छाओं के अनुसार ही कार्य करता है। इस प्रकार के व्यक्ति में साधारणतया सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं होता है। हालाँकि उसके मन में सत्य के प्रति कोई प्रेम नहीं है, किन्तु वह सिद्धांतों के अनुरूप कुछ चीजें कर सकता है और ऐसी चीजें कर सकता है जो सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करती हैं। हालाँकि, उल्लंघन की ऐसी कमी का मतलब यह नहीं है कि उसने परमेश्वर की इच्छा चाही है। केवल यही कहा जा सकता है कि यह महज संयोग है। कुछ लोग कुछ निश्चित चीजें बिना खोजे भ्रामक और अव्यवस्थित रीति से करते हैं, लेकिन वे तथ्य के बाद ही अपने आपको जाँच पाते हैं। यदि उन्हें पता लगता है कि ऐसी चीज़ों को करना सत्य के साथ मेल नहीं खाता है, तो वे अगली बार से ऐसा करने से परहेज करेंगे। इससे यह माना जा सकता है कि उनमें सत्य के लिए थोड़ा सा प्रेम है। इस किस्म का व्यक्ति थोड़ा सा परिवर्तित होने में सक्षम होता है। ऐसे लोग जिनमें सत्य के लिए प्रेम नहीं है वे न तो उसे उस समय खोजेंगे, और न ही उसके बाद वे अपने आपको जाँचेंगे। वे कभी बारीकी से नहीं जाँचते हैं कि अंत में वे जो करते हैं वे सही हैं या गलत, इस प्रकार वे हमेशा सिद्धान्तों और सत्य का उल्लंघन करते हैं। भले ही वे कुछ ऐसा करें जो सिद्धान्तों का उल्लंघन नहीं करता है, फिर भी यह सत्य के अनुरूप नहीं होता है, और सिद्धान्तों का यह तथा-कथित गैर-उल्लंघन साधारणतया दृष्टिकोण का मामला है। अतः इस प्रकार का व्यक्ति किस दशा में होता है जब वे अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हैं? वे विस्मित और नासमझ दशा में कार्य नहीं कर रहे हैं, और ऐसा नहीं था कि वे इस बारे में अस्पष्ट थे कि इस तरह से कार्य करना वास्तव में सत्य के अनुरूप था या नहीं। यह वह परिस्थिति नहीं है जिसके अंतर्गत वे अपने आपको पाते हैं, बल्कि वे ढिठाई से अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य करने पर अड़े रहते हैं; उन्होंने उस तरह से कार्य करने का मन बना लिया है, और उनका सत्य की खोज करने का इरादा बिलकुल भी नहीं है। यदि वे सचमुच में परमेश्वर की इच्छा खोजते हैं, तो परमेश्वर की इच्छा पूरी तरह से समझने से पहले, वे निम्नलिखित कार्रवाई पर विचार करेंगे : “मैं पहले आगे बढ़ूँगा और उसे इस तरह से करूँगा। यदि यह सत्य के अनुरूप है, तो मैं उसे इसी तरीके से करता रहूँगा; और यदि यह सत्य के अनुरूप नहीं है, तो मैं जल्दी से इसे ठीक करूँगा तथा इस तरह से कार्य करना बंद कर दूँगा।” यदि वे इस तरह से सत्य की खोज करने में सक्षम हैं, तो वे भविष्य में परिवर्तित होने के योग्य होंगे। इस इरादे के बिना, वे परिवर्तित होने के योग्य नहीं होंगे। एक व्यक्ति जिसके पास हृदय है वह केवल एक बार ही ग़लती कर सकता है जब वह कार्यवाही का प्रारम्भ करता है, अधिक से अधिक दो बार—एक या दो बार, न कि तीन और चार बार, यह सामान्य भावना है। यदि वे उसी ग़लती को तीन या चार बार करते हैं, तो इससे साबित होता है कि उन्हें सत्य से कोई प्रेम नहीं है, और न ही वे सत्य की खोज करते हैं। इस प्रकार का व्यक्ति निश्चित रूप से मानवता वाला व्यक्ति नहीं है। यदि एक-दो बार गलती करने के बाद उनके ह्रदय में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है, और उनकी अंतरात्मा में कोई हलचल नहीं होती है, तो वे वही गलती तीन-चार बार करेंगे, और इस प्रकार के व्यक्ति बदलने में असमर्थ हैं, वे बस इसी तरह के इंसान हैं—मुक्ति के लिए पूरी तरह अयोग्य। यदि एक बार गलती करने के बाद, उन्हें लगता है कि उन्होंने जो किया है उसमें कुछ गड़बड़ है, और वे इसके लिए अपने आपसे बहुत घृणा करते हैं और अपने ह्रदय में अपराध-बोध महसूस करते हैं; यदि उनकी स्थिति इस प्रकार की है, तो वे दोबारा इसी तरह के मामलों में शामिल होने पर बेहतर कार्य करेंगे, और धीरे-धीरे वे उसी प्रकार की गलती नहीं करेंगे। वे मन में चाहकर भी उस पर अमल नहीं करेंगे। यह परिवर्तन का एक पहलु है। कदाचित् तुम कहोगे : “मेरा भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदल सकता।” क्या यह सच है कि यह बदल नहीं सकता? बात सिर्फ इतनी है कि तुम बदलना नहीं चाहते हो। यदि तुम सत्य का अभ्यास करने के इच्छुक हो, तो क्या तुम फिर भी बदलने में असमर्थ होओगे? जो लोग ऐसा कहते हैं उनमें इच्छाशक्ति की कमी है। वे सभी घृणित अधम लोग हैं। वे दुख सहने को तैयार नहीं हैं। वे सत्य का अभ्यास नहीं करना चाहते हैं; उसके बजाए वे कहते हैं कि सत्य उनको बदल नहीं सकता है। क्या ऐसे लोग बहुत अधिक धोखेबाज नहीं हैं? बात यह है कि वे सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हैं, उनकी मानवता त्रुटिपूर्ण है, और फिर भी वे कभी भी अपने स्वयं के स्वभाव को नहीं जानते हैं। वे प्रायः संदेह करते हैं कि परमेश्वर का कार्य मनुष्य को सम्पूर्ण कर सकता है या नहीं। ऐसे व्यक्ति कभी भी परमेश्वर को अपना ह्रदय देने का इरादा नहीं रखते, और न ही कभी कठिनाई सहने की कोई योजना बनाते हैं। उनके यहाँ रहने का एकमात्र कारण केवल यह दूर की कौड़ी है कि शायद उन्हें भविष्य में सौभाग्य प्राप्त हो जाए। इस तरह का व्यक्ति मानवता से रहित है। यदि वे मानवता वाले व्यक्ति होते, जब पवित्र आत्मा उन पर स्पष्ट रूप में कार्य नहीं कर रहा होता है, और उनमें सत्य की थोड़ी सी समझ है, तब भी क्या वे गलत कार्यों में संलग्न हो सकते हैं? मानवता वाला व्यक्ति, चाहे पवित्र आत्मा उन पर कार्य कर रहा हो या नहीं, गलत कार्य करने में असमर्थ होगा। कुछ मानवता विहीन लोग केवल उसी अवस्था में कुछ अच्छे कार्य कर सकते हैं जब पवित्र आत्मा उनके ऊपर कार्य कर रहा हो। उनके ऊपर पवित्र आत्मा के कार्य के बगैर, उनकी प्रकृति का खुलासा हो जाता है। किन लोगों के ऊपर पवित्र आत्मा हमेशा काम करता रह सकता है? अविश्वासियों में से कुछ लोगों के पास अच्छी मानवता है, पवित्र आत्मा भी उनके ऊपर कार्य नहीं कर रहा है, फिर भी वे विशेष रूप से बुरे कार्यों में संलग्न नहीं होते हैं। यदि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तो तुम बुरे कार्यों में संलग्न कैसे हो सकते हो? यह मानव प्रकृति की समस्या को प्रदर्शित करता है। लोगों के ऊपर पवित्र आत्मा के कार्य के बगैर उनकी प्रकृति का खुलासा हो जाता है। उनके ऊपर पवित्र आत्मा के कार्य करने से, पवित्र आत्मा उन्हें प्रेरित करेगा, लोगों को प्रबुद्धता और रोशनी प्रदान करेगा, शक्ति के विस्फोट के साथ उन्हें लैस करेगा, ताकि वे कुछ अच्छे कार्य करने में सक्षम हों। यहाँ, यह उनकी प्रकृति के अच्छे होने का मामला नहीं है, बल्कि पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा प्राप्त परिणामों का मामला है। लेकिन जब पवित्र आत्मा लोगों पर काम नहीं कर रही होती, वे अपनी इच्छाओं का पालन करना पसंद करते हैं, जिसके कारण वे अनजाने में कुछ बुरे काम कर बैठते हैं। तभी उनकी असली प्रकृति उजागर होती है।

लोगों की प्रकृति का समाधान कैसे किया जा सकता है? इसकी शुरुआत मानव प्रकृति का सार समझने से होती है, जिसका परमेश्वर के वचनों के अनुसार विश्लेषण किया जाना चाहिए ताकि यह देखा जा सके कि यह सकारात्मक है या नकारात्मक और क्या यह परमेश्वर का विरोध करती है या परमेश्वर के प्रति समर्पण करती है। ऐसा तब तक करना चाहिए जब तक अपनी प्रकृति के सार का एहसास न हो जाए, और तब वे वास्तव में खुद से नफरत कर सकते हैं और अपने देहसुख के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं। साथ ही, व्यक्ति को परमेश्वर की इच्छा और माँगों को समझना चाहिए। सत्य की खोज में तुम्हारा लक्ष्य क्या है? तुम्हें अपने जीवन स्वभाव में बदलाव लाने होंगे। जब तुम्हारा स्वभाव बदल जाएगा, तो तुम्हें सत्य प्राप्त हो जाएगा। अपने वर्तमान आध्यात्मिक कद के साथ, तुम खुद को बुरा कर्म करने, परमेश्वर का विरोध करने या सत्य का उल्लंघन करने वाले काम करने से कैसे रोक सकते हो? यदि तुम बदलना चाहते हो तो तुम्हें इन मामलों पर विचार करना होगा। बुरी प्रकृति की समस्या का मुकाबला करने के लिए, तुम्हें यह समझना होगा कि तुम्हारे पास कौन से भ्रष्ट स्वभाव हैं और तुम क्या करने में सक्षम हो। तुम्हें यह समझना होगा कि अपनी बुरी प्रकृति को नियंत्रित करने के लिए कौन से उपाय करने हैं और उन्हें कैसे अभ्यास में लाना है। यह प्रमुख मुद्दा है। जब तुम्हारे मन में भ्रम हो या तुम्हारी आत्मा में अंधकार हो, तो तुम्हें पता होना चाहिए कि इसे दूर करने के लिए सत्य की तलाश कैसे करें, अपने कर्तव्यों को ठीक से कैसे पूरा करें और सही रास्ता कैसे अपनाएँ। तुम्हें अपने लिए एक सिद्धांत स्थापित करना होगा। यह व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है और इस पर निर्भर करता है कि वह परमेश्वर चाहने वाला व्यक्ति है या नहीं। एक व्यक्ति है जो अक्सर अपना आपा खो देता है। उसने एक पट्टिका बनाई और उस पर ये शब्द लिखे, “अपने गुस्से पर लगाम लगाओ।” फिर, उसने खुद को संयमित रखने और खुद को चेतावनी देने के लिए इसे अपने अध्ययन कक्ष की दीवार पर लटका दिया। शायद यह किसी काम का हो, लेकिन क्या यह समस्या को पूरी तरह से हल कर सकता है? कदापि नहीं। इसके बावजूद लोगों को खुद पर संयम रखना चाहिए। सबसे पहले उनके भ्रष्ट स्वभाव की समस्या हल करने की आवश्यकता है। अपनी प्रकृति की समस्याओं को हल करने के लिए, उन्हें स्वयं को जानने से शुरुआत करनी होगी। केवल अपने भ्रष्ट स्वभाव के सार को स्पष्ट रूप से देखकर ही वे स्वयं से नफरत कर सकते हैं और देहसुख के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं। देहसुख के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए भी सिद्धांतों की आवश्यकता होती है। क्या कोई भ्रमित मन से देहसुख के विरुद्ध विद्रोह कर सकता है? जैसे ही कोई समस्या आती है, लोग देहसुख के आगे समर्पण कर देते हैं। कुछ लोग सुंदर स्त्री को देख कर राह में रुक जाते हैं; ऐसे मामले में तुम्हें स्वयं के लिए एक आदर्श-वाक्य तय करना होगा। जब कोई सुंदर स्त्री तुम्हारे पास आए तो क्या तुम्हें वहाँ से चले जाना चाहिए या फिर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें क्या करना चाहिए यदि वह आगे बढ़कर तुम्हारा हाथ पकड़ लेती है? यदि तुम्हारे कोई सिद्धांत नहीं हैं, तो ऐसी स्थिति से सामना होने पर तुम लड़खड़ा जाओगे। यदि तुम धन एवं संपत्ति देखकर स्वयं लालच में अंधे हो जाते हो, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इस प्रश्न पर खासतौर से ध्यान देना चाहिए, और इसके समाधान के लिए स्वयं को प्रशिक्षित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, और समय के साथ, तुम आहिस्ता-आहिस्ता अपने देहसुख त्याग पाओगे। भ्रष्ट प्रकृति के समाधान के विषय में, एक सिद्धांत है जो काफी महत्वपूर्ण है, और वह यह है कि तुम्हें अपनी सारी समस्याएँ परमेश्वर के सामने लानी चाहिए और अपने आप को जाँचना चाहिए। उसके अलावा, उस दिन से हर शाम तुम्हें अपनी स्थितियों की जाँच करनी चाहिए और अपने व्यवहार का सूक्ष्म निरीक्षण करना चाहिए : तुम्हारे कौन-से कृत्य सत्य के अनुरूप किए गए थे और किन कृत्यों से सिद्धान्तों का उल्लंघन हुआ था? यह एक और सिद्धांत है। ये दो बिन्दु बहुत महत्वपूर्ण हैं : पहले के संबंध में, जब तुम्हारा भ्रष्टाचार उजागर हो तो तुम्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए। दूसरे के संबंध में, तुम्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए और तथ्य के बाद सत्य की खोज करनी चाहिए। तीसरा बिंदु यह है कि तुम्हें यह स्पष्ट होना चाहिए कि सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांत के साथ कार्य करने का क्या मतलब है। यदि तुम वास्तव में ये मामले समझ सकते हो, तो तुम चीजों को सही ढंग से कर सकते हो। यदि तुम इन तीन सिद्धांतों का पालन करते हो, तो तुम खुद को संयमित कर सकते हो, अपनी भ्रष्ट प्रकृति उजागर या व्यक्त होने से रोक सकते हो। ये तुम्हारी प्रकृति का समाधान करने के बुनियादी सिद्धांत हैं। इन सिद्धांतों के साथ, यदि तुम सत्य की ओर काम करने का प्रयास करते हो और जब पवित्र आत्मा तुम पर काम नहीं करता है तब भी सामान्य स्थिति में रहते हो या यदि तुम किसी के द्वारा संगति प्रदान किए बिना भी लंबे समय तक रह पाते हो, तो तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम करता है और देहसुख के विरुद्ध विद्रोह करता है। जो लोग सत्य पर संगति करने, अपनी काट-छाँट के लिए हमेशा दूसरों पर निर्भर रहते हैं, वे गुलाम हैं। ऐसे लोग विकलांग होते हैं और स्वतंत्र रूप से रहने में असमर्थ होते हैं। जो लोग सिद्धांतों के बिना कार्य करते हैं वे लापरवाही से कार्य करेंगे और यदि कुछ समय के लिए उनकी काट-छाँट या संगति नहीं की गई तो वे खुद पर नियंत्रण खो देंगे। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर को कैसे आश्वस्त कर सकता है? इसलिए, प्रकृति की समस्या हल करने के लिए तुम्हें इन तीन सिद्धांतों का पालन करना होगा। ये तुम्हें बड़े अपराध करने से रोकेंगे और सुनिश्चित करेंगे कि तुम परमेश्वर का विरोध न करो या उसके साथ विश्वासघात न करो।

अंश 18

कई लोगों ने इसी समस्या का जिक्र किया है : ऊपर दी गई संगति सुनने के बाद, वे स्पष्टता और ऊर्जावान महसूस करते हैं और नकारात्मक नहीं रहते। हालाँकि, उनकी यह स्थिति केवल दस दिनों तक ही रहती है और उसके बाद यह फिर से असामान्य हो जाती है, और उनमें ऊर्जा की कमी हो जाती है। वे नहीं जानते कि आगे कैसे बढ़ना है और क्या करना है। यह समस्या क्या है? इसकी जड़ क्या है? क्या तुम लोगों ने कभी इस बारे में सोचा है? कुछ लोग कहते हैं कि इसका मूल कारण यह है कि लोग सत्य पर ध्यान नहीं देते हैं। तो फिर संगति सुनने के बाद तुम्हारी स्थिति सामान्य कैसे हो जाती है? ऐसा क्यों है कि तुम सत्य सुनने के बाद विशेष रूप से खुश और स्वतंत्र महसूस करते हो? कुछ लोग कहते हैं कि यह पवित्र आत्मा का कार्य है। तो फिर लगभग दस दिनों के बाद पवित्र आत्मा कार्य क्यों नहीं करता? कुछ लोग कहते हैं कि ऐसा इसलिए है क्योंकि वे अब बेहतर बनने का प्रयास नहीं कर रहे और आलसी हो गए हैं। तो फिर पवित्र आत्मा अब भी उन लोगों पर कार्य क्यों नहीं करता जो बेहतर बनने का प्रयास करते हैं? क्या तुम भी बेहतर बनने का प्रयास नहीं कर रहे हो? पवित्र आत्मा कार्य क्यों नहीं करता? लोग जो भी कारण बता रहे हैं, वे वास्तविकता से मेल नहीं खाते। समस्या यह है कि चाहे पवित्र आत्मा कार्य करे या न करे, मनुष्य के सहयोग को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जब सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति सत्य को स्पष्ट समझने में सक्षम हो जाता है, तो वह हमेशा एक सामान्य स्थिति बनाए रखेगा, भले ही उस अवधि में पवित्र आत्मा कार्य कर रहा हो या नहीं। दूसरी ओर, जब कुछ लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, चाहे वे सत्य को विशेष रूप से स्पष्ट समझते हों और चाहे पवित्र आत्मा पूर्णता से कार्य कर रहा हो, तब भी वे सीमित सत्य का ही अभ्यास कर सकते हैं। वे खुशी के चंद लमहों में ही सत्य का मामूली अभ्यास कर पाएँगे। अधिकांश समय, वे अभी भी अपनी व्यक्तिगत पसंद के अनुसार कार्य करेंगे, और अक्सर अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करेंगे। इसलिए, किसी व्यक्ति की स्थिति सामान्य है या नहीं और वह सत्य का अभ्यास कर सकता है या नहीं, यह पूरी तरह से पवित्र आत्मा के कार्य पर निर्भर नहीं करता है। यह इस बात पर भी पूरी तरह निर्भर नहीं है कि उस व्यक्ति के लिए सत्य स्पष्ट है या नहीं। यह इस पर निर्भर करता है कि क्या वह व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है और क्या वह सत्य का अभ्यास करने का इच्छुक है। आम तौर पर, जब कोई व्यक्ति धार्मिक उपदेश और संगति सुनता है तो कुछ समय के लिए, उसकी स्थिति बिल्कुल सामान्य हो जाती है। यह सत्य को समझने का परिणाम है; सत्य तुम्हें तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से अवगत कराता है, इससे तुम्हारा दिल खुश और मुक्त हो जाता है, और तुम्हारी स्थितियाँ बेहतर हो जाती हैं। लेकिन कुछ समय के बाद, तुम्हारा सामना अचानक किसी ऐसी चीज से हो सकता है जिसे तुम अनुभव करना नहीं जानते, तुम्हारा हृदय पहले से अधिक अंधकारमय हो जाता है और तुम अनजाने में सत्य को अपने दिमाग के तहखाने में धकेल देते हो; अपने कार्यों में तुम परमेश्वर की इच्छा तलाश करने की कोशिश नहीं करते हो, तुम हर बात अपने मन के मुताबिक करते हो, और तुम सत्य का अभ्यास करने का इरादा बिलकुल नहीं रखते हो। जैसे-जैसे समय बीतता है, तुम उस सत्य को खो देते हो जिसे तुम पहले कभी समझते थे। तुम लगातार अपना स्वभाव प्रकट करते हो, जब तुम्हारा सामना अप्रत्याशित घटनाओं से होता है, तुम कभी भी परमेश्वर की इच्छा नहीं खोजते हो, और जब तुम परमेश्वर के करीब भी होते हो, तब भी तुम बिना उत्साह के बस काम करते हो। उस पल जब तुम महसूस करते हो कि तुम्हारा दिल परमेश्वर से बहुत दूर हो गया है, और तुम पहले से ही कई चीजों में परमेश्वर का विरोध कर चुके हो और और यहाँ तक कि उसकी कुछ ईशनिंदा भी कर चुके हो। ये बहुत परेशान करने वाली बात है। अभी भी उन लोगों के लिए छुटकारा है जो इस पथ पर बहुत दूर नहीं निकल गए हैं, लेकिन उन लोगों के लिए जो इस हद तक बढ़ गए हैं कि परमेश्वर की निन्दा करते हैं और खुद को परमेश्वर के मुकाबले में खड़ा करते हैं, पद के लिए और भोजन और कपड़े के लिए होड़ करते हैं, उनके लिए कोई छुटकारा नहीं है। सत्य की स्पष्ट रूप से संगति करने का उद्देश्य लोगों को सत्य समझकर उसका अभ्यास करने और अपने स्वभाव में परिवर्तन हासिल करने में सक्षम बनाना है। यह सत्य को समझने के बाद उनके दिलों में प्रकाश और थोड़ी-सी खुशी लाना भर नहीं है। अगर तुम सत्य समझते हो लेकिन सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो सत्य के बारे में संगति करने और उसे समझने का कोई मतलब नहीं है। जब लोग सत्य समझते हैं लेकिन उस पर अमल नहीं करते, तो इसमें क्या समस्या है? यह इस बात का प्रमाण है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, कि वे अपने हृदय में सत्य को स्वीकार नहीं करते, ऐसे में वे परमेश्वर के आशीषों और उद्धार के अवसर से चूक जाएँगे। लोग उद्धार प्राप्त करने में सक्षम हैं या नहीं, इसमें यह महत्वपूर्ण है कि वे सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास करने में सक्षम हैं या नहीं। अगर तुमने उन सभी सत्यों पर अमल किया है जिन्हें तुम समझते हो, तो तुम्हें पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता, रोशनी और मार्गदर्शन मिलेगा, और तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होगे, सत्य की गहरी समझ प्राप्त करोगे, सत्य प्राप्त करोगे, और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करोगे। कुछ लोग सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होते हैं, वे हमेशा शिकायत करते हैं कि पवित्र आत्मा उन्हें प्रबुद्ध या रोशन नहीं करता, कि परमेश्वर उन्हें शक्ति नहीं देता। यह गलत है; यह परमेश्वर को गलत समझना है। पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी लोगों के सहयोग की नींव पर निर्मित होती है। लोगों को ईमानदार और सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार होना चाहिए, और चाहे उनकी समझ गहरी हो या सतही, उन्हें सत्य को अमल में लाने में सक्षम होना चाहिए। तभी वे पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध और रोशन किए जाएँगे। अगर लोग सत्य समझते हैं लेकिन उसे अमल में नहीं लाते—अगर वे केवल इस बात की प्रतीक्षा करते हैं कि पवित्र आत्मा कार्य करके उन्हें सत्य को अमल में लाने के लिए बाध्य करे—तो क्या वे अत्यधिक निष्क्रिय नहीं हैं? परमेश्वर कभी लोगों को कुछ भी करने के लिए बाध्य नहीं करता। अगर लोग सत्य को समझते हैं लेकिन उसे अमल में लाने के इच्छुक नहीं हैं, तो यह दर्शाता है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, या उनकी स्थिति असामान्य है और उसमें किसी प्रकार की रुकावट है। लेकिन अगर लोग परमेश्वर से प्रार्थना करने में सक्षम हैं, तो परमेश्वर भी कार्य करेगा; अगर वे सत्य का अभ्यास करने के अनिच्छुक हैं और परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, केवल तभी पवित्र आत्मा के पास उनमें कार्य करने का कोई उपाय नहीं होगा। वास्तव में, लोगों को चाहे किसी भी प्रकार की कठिनाई हो, उसे हल किया जा सकता है; मुख्य बात यह है कि वे सत्य के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम हैं या नहीं। आज, तुम लोगों में भ्रष्टता की समस्याएँ कैंसर नहीं हैं, वे कोई लाइलाज बीमारी नहीं हैं। अगर तुम लोग सत्य का अभ्यास करने का संकल्प कर सको, तो तुम्हें पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त होगा, और इन भ्रष्ट स्वभावों को बदलना संभव होगा। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुम सत्य का अभ्यास करने का संकल्प कर सकते हो, यही कुंजी है। अगर तुम सत्य का अभ्यास करते हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, तो तुम पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने में सक्षम होगे, और निश्चित रूप से बचाए जा सकोगे। अगर, जिस मार्ग पर तुम चल रहे हो वह गलत है, तो तुम पवित्र आत्मा का कार्य खो दोगे, एक गलत कदम दूसरे गलत कदम को जन्म देगा, और तुम्हारे लिए सब खत्म हो जाएगा, और चाहे तुम कितने भी वर्षों तक विश्वास करते रहो, तुम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकोगे। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जब काम कर रहे होते हैं, तो वे इस बारे में कभी नहीं सोचते कि काम उस तरह कैसे किया जाए, जिससे परमेश्वर के घर को लाभ हो और जो परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हो—नतीजतन वे बहुत-कुछ ऐसा करते हैं जो स्वार्थ और नीचता से भरा होता है, जो परमेश्वर के लिए तुच्छ और घिनौना होता है; और ऐसा करने से वे उजागर कर निकाल दिए जाते हैं। अगर, सभी चीजों में, लोग सत्य की खोज करने और सत्य के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम होते हैं, तो वे पहले ही परमेश्वर पर आस्था के सही मार्ग पर प्रवेश कर चुके होते हैं, और इसलिए उनके परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप इंसान बनने की आशा होती है। कुछ लोग सत्य समझते हैं, लेकिन उस पर अमल नहीं करते। इसके बजाय, वे मानते हैं कि सत्य इससे अधिक कुछ नहीं है, और अपनी प्रवृत्तियों और भ्रष्ट स्वभावों को हल करने में असमर्थ होते हैं। क्या ऐसे लोगों पर हँसी नहीं आएगी? क्या वे हास्यास्पद नहीं होते? क्या वे खुद को सबसे बुद्धिमान नहीं समझते? अगर लोग सत्य के अनुसार कार्य करने में सक्षम हों, तो उनके भ्रष्ट स्वभाव बदल सकते हैं। अगर उनका विश्वास और परमेश्वर के प्रति उनकी सेवा उनके अपने स्वाभाविक व्यक्तित्व के अनुसार है, तो उनमें से एक भी अपने स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त करने में सक्षम नहीं होगा। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो दिन भर खुद गलत चुनाव करने के कारण होने वाली चिंता में फँसे रहते हैं। आसानी से उपलब्ध सत्य उन्हें दिया जाता है तो वे उस पर कोई विचार नहीं करते या उसे अमल में लाने का प्रयास नहीं करते, बल्कि अपना अलग रास्ता चुनने पर जोर देते हैं। यह कैसा बेतुका बरताव है; वास्तव में, जब उनके पास आशीषें होती हैं तब भी वे उनका आनंद नहीं ले पाते हैं, और जीवन में कठिनाइयाँ झेलना उनकी नियति है। सत्य का अभ्यास करना बहुत आसान है; तुम अभ्यास करते हो या नहीं, बस यही मायने रखता है। अगर तुम ऐसे इंसान हो, जिसने सत्य का अभ्यास करने का संकल्प लिया है, तो तुम्हारी नकारात्मकता, कमजोरी और भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे दूर होकर बदल जाएँगे; यह इस पर निर्भर करता है कि तुम्हारा हृदय सत्य से प्रेम करता है या नहीं, तुम सत्य को स्वीकार करने में सक्षम हो या नहीं, सत्य प्राप्त करने के लिए तुम कष्ट उठा सकते और कीमत चुका सकते हो या नहीं। अगर तुम वास्तव में सत्य से प्रेम करते हो, तो तुम सत्य प्राप्त करने के लिए सभी प्रकार के दर्द सहने में सक्षम होगे, चाहे लोग बदनाम करें, आलोचना करें या चाहे इसे लोगों द्वारा अस्वीकार किया जा रहा हो। तुम्हें यह सब धैर्य और सहनशीलता के साथ सहन करना चाहिए; और परमेश्वर तुम्हें आशीष देगा और तुम्हारी रक्षा करेगा, वह तुम्हारा त्याग या उपेक्षा नहीं करेगा—यह पक्का है। अगर तुम परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय से प्रार्थना करते हो, परमेश्वर पर निर्भर रहते हो और परमेश्वर का आदर करते हो, तो ऐसा कुछ नहीं होगा जिसे तुम पार न कर सको। तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट हो सकता है, और तुम अपराध कर सकते हो, लेकिन अगर तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय है, और अगर तुम सावधानी से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, तो तुम निर्विवाद रूप से दृढ़ रहने में सक्षम होगे, और निर्विवाद रूप से परमेश्वर द्वारा तुम्हारी अगुआई और सुरक्षा की जाएगी।

कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो केवल काम और प्रचार करने, दूसरों का भरण-पोषण करने के लिए खुद को सत्य से लैस करते हैं, अपनी समस्याएँ हल करने के लिए नहीं, सत्य को अमल में लाने के लिए नहीं। उनकी संगति शुद्ध समझ की और सत्य के अनुरूप हो सकती है, लेकिन वे खुद को उससे नहीं मापते, न ही वे उसका अभ्यास या अनुभव करते हैं। यहाँ क्या समस्या है? क्या उन्होंने वाकई सत्य को अपने जीवन के रूप में स्वीकार किया है? नहीं, उन्होंने नहीं किया। व्यक्ति जिस सिद्धांत का प्रचार करता है, वह कितना भी शुद्ध क्यों न हो, इसका अर्थ यह नहीं कि उसमें सत्य वास्तविकता है। सत्य से लैस होने के लिए, व्यक्ति को पहले खुद उसमें प्रवेश करना चाहिए, और उसे समझकर अमल में लाना चाहिए। अगर व्यक्ति अपने प्रवेश पर ध्यान केंद्रित नहीं करता, बल्कि दिखावा करने के उद्देश्य से दूसरों के सामने सत्य का प्रचार करता है, तो उसका इरादा गलत है। कई नकली अगुआ हैं जो इसी तरह काम करते हैं, जो सत्य वे समझते हैं, उस पर लगातार दूसरों के साथ संगति करते, नए विश्वासियों को पोषण प्रदान करते, लोगों को सत्य का अभ्यास करने, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने, नकारात्मक न होने की शिक्षा देते हैं। ये तमाम शब्द अच्छे और बढ़िया हैं—प्रेमपूर्ण भी हैं—लेकिन उन्हें बोलने वाले सत्य का अभ्यास क्यों नहीं करते? उनका कोई जीवन-प्रवेश क्यों नहीं है? यहाँ चल क्या रहा है? क्या ऐसा व्यक्ति वास्तव में सत्य से प्रेम करता है? कहना मुश्किल है। इस्राएल के फरीसियों ने दूसरों के सामने बाइबल की व्याख्या इसी तरह की थी, लेकिन वे खुद परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन नहीं कर पाए। जब प्रभु यीशु ने प्रकट होकर कार्य किया, तो उन्होंने परमेश्वर की वाणी सुनी लेकिन प्रभु का विरोध किया। उन्होंने प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ाया और परमेश्वर ने उन्हें शाप दिया। इसलिए, जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते या उसका अभ्यास नहीं करते, उन सबकी परमेश्वर द्वारा निंदा की जाएगी। वे कितने अभागे हैं! अगर उनके द्वारा प्रचारित शब्द और धर्म-सिद्धांत दूसरों की मदद कर सकता है, तो वह उनकी मदद क्यों नहीं कर सकता? हम ऐसे व्यक्ति को पाखंडी कह सकते हैं, जिसमें कोई वास्तविकता नहीं है। वे दूसरों को सत्य का शाब्दिक अर्थ प्रदान करते हैं, वे दूसरों से उसका अभ्यास करवाते हैं, लेकिन खुद उसका थोड़ा-सा भी अभ्यास नहीं करते। क्या ऐसा व्यक्ति बेशर्म नहीं होता? उसमें सत्य वास्तविकता नहीं होती, फिर भी वह दूसरों को शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के उपदेश देकर उसके होने का दिखावा करता है। क्या यह सोचा-समझा धोखा और नुकसान नहीं है? अगर ऐसे लोग उजागर कर बाहर निकाले जाते हैं, तो इसके लिए केवल वे ही दोषी होंगे। वे दया के पात्र नहीं होंगे। क्या कोई ऐसा व्यक्ति जो केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करता है लेकिन सत्य का अभ्यास नहीं करता, सच्चा परिवर्तन प्राप्त कर सकता है? क्या ऐसे लोग दूसरों को धोखा नहीं दे रहे हैं और खुद को नुकसान नहीं पहुँचा रहे हैं? सत्य पाने का प्रयास पूरी तरह अभ्यास पर आधारित है। सत्य का अभ्यास करने का उद्देश्य अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करना और सच्ची मानवीय सदृशता को जीना है, लेकिन वे अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं पहचानते या अपनी कठिनाइयों को हल करने के लिए सत्य का उपयोग नहीं करते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे दूसरों को कैसे सींचते हैं, उनका भरण-पोषण कैसे करते हैं या उनका समर्थन कैसे करते हैं, वे कभी भी वास्तविक परिणाम प्राप्त नहीं करेंगे क्योंकि उनके पास जीवन में प्रवेश करने या अपना स्वभाव बदलने का कोई मार्ग नहीं है। यदि सत्य के बारे में संगति करने से लोगों की कठिनाइयों या समस्याओं का समाधान नहीं होता है, तो क्या वे केवल ऐसे शब्द और धर्म-सिद्धांत नहीं बोल रहे हैं जो सुनने में तो अच्छे लगते हैं लेकिन बेकार हैं? यदि तुम अपने स्वभाव में बदलाव लाना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने और उन्हें अनुभव करने पर ध्यान देना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम सत्य का कौन सा पहलू समझते हो, तुम्हें उन्हें अभ्यास में लाने पर ध्यान देना होगा। केवल सत्य के अभ्यास से ही तुम्हें समस्याओं का पता चलेगा, और विशेष रूप से, जब तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होंगे तो तुम उन्हें पहचान पाओगे। यदि तुम इन समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की तलाश कर सकते हो, तो तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करोगे, और तुम्हारा जीवन स्वभाव बदल जाएगा। जब तुम सत्य का अभ्यास करने पर चर्चा करोगे तो तुम्हारे पास एक रास्ता होगा, और जब तुम सत्य के बारे में संगति करोगे तो तुम समस्याएँ हल करने में सक्षम होओगे। इससे पता चलता है कि यदि तुम सत्य का अभ्यास करने के इच्छुक हो, तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता होगी। यदि तुम सत्य का अभ्यास करने के इच्छुक हो, तो तुम दूसरों की सहायता करने के लिए योग्य होओगे। बदले में, परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा करेगा, और लोग तुम्हें स्वीकार करेंगे।

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