परमेश्वर का कार्य और स्वभाव जानने के बारे में वचन

अंश 19

अधिकांश लोग परमेश्वर का कार्य नहीं समझते, इसलिए उनमें आस्था का अत्यंत अभाव होता है। परमेश्वर का कार्य जानना आसान नहीं है; सबसे पहले यह जानना होगा कि परमेश्वर के समूचे कार्य के पीछे एक योजना है और यह सब परमेश्वर द्वारा नियत समय पर किया जाता है। मनुष्य इसकी थाह कभी नहीं पा सकता कि परमेश्वर क्‍या कार्य करता है और कब करता है; परमेश्वर निश्चित समय पर निश्चित कार्य करता है, और वह देरी नहीं करता; कोई उसका कार्य नष्‍ट नहीं कर सकता। अपनी योजना के अनुसार और अपने इरादों के अनुसार कार्य करना वह सिद्धांत है जिसके अनुसार वह अपना कार्य करता है, और कोई व्‍यक्ति इसे बदल नहीं सकता। इसी में तुम्‍हें परमेश्वर का स्‍वभाव देखना चाहिए। परमेश्वर का कार्य किसी का इंतजार नहीं करता, और जब कोई कार्य करने का समय हो, तो उसे करना ही चाहिए। तुम सभी लोगों ने पिछले कुछ वर्षों में परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है। कोई उस तरीके को कैसे नष्ट कर सकता है, जिससे वह लोगों के लिए प्रावधान करता है, उसे जिन वचनों को कहने की आवश्यकता होती है कौन उसे उन्हें कहने से रोक सकता है और जब उसे कार्य करने की आवश्यकता होती है तो कौन उसे उन्हें करने से रोक सकता है? पहली बार सुसमाचार फैलाना शुरू करते समय ज्यादातर लोगों ने कलीसिया के लोगों और धार्मिक लोगों को परमेश्वर के वचनों की किताबें बाँटी। इसका परिणाम क्या हुआ? इनमें से बहुत कम लोगों ने परमेश्वर के वचनों की जाँच-पड़ताल की; उनमें से अधिकांश लोग निंदा करने वाले, आलोचना करने वाले और शत्रुता से भरे हुए थे। कुछ लोगों ने किताबें जला दीं, कुछ लोगों ने उन्हें जब्त कर लिया, कुछ लोगों ने उन लोगों को पीटा जो सुसमाचार फैला रहे थे और उन्हें अपना अपराध स्वीकार करने के लिए मजबूर किया, और कुछ लोगों ने उन्हें गिरफ्तार करने और उन पर अत्याचार करने के लिए पुलिस भी बुला ली। उस समय, सभी संप्रदायों ने उन्मत्त हो कर विरोध किया, लेकिन अंततः, राज्य का सुसमाचार फिर भी चीन की मुख्य भूमि पर सब जगह प्रसारित कर दिया गया। परमेश्वर की इच्छा के क्रियान्वयन में कौन बाधा डाल सकता है? परमेश्वर के राज्य सुसमाचार के फैलाव को कौन रोक सकता है? परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज सुनती हैं, और जो लोग परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाने चाहिए वे देर-सबेर प्राप्त कर लिए जाएँगे। यह ऐसी चीज है जिसे कोई नष्ट नहीं कर सकता है। यह नीतिवचन के उस वाक्य के समान है जिसमें कहा गया है, “राजा का मन नालियों के जल के समान यहोवा के हाथ में रहता है, जिधर वह चाहता उधर उसको मोड़ देता है” (नीतिवचन 21:1)। यह उन तुच्छ लोगों के मामले में और भी अधिक उपयुक्त है, है ना? परमेश्वर कब कौन सा कार्य करेगा इस बारे में उसकी अपनी योजनाएँ और व्यवस्थाएँ हैं। कुछ लोग हमेशा यह अनुमान लगाते हैं कि परमेश्वर के लिए यह या वह करना असंभव है, लेकिन ऐसे विचार लोगों की कोरी कल्पनाएँ हैं। लोग चाहे कितना भी नुकसान करें और शैतान चाहे कितनी भी परेशानी खड़ी करे, इससे कुछ नहीं होगा, और वे परमेश्वर का कार्य नहीं रोक पाएँगे। पवित्र आत्मा का कार्य ही सब कुछ तय करता है, और पवित्र आत्मा के कार्य के बिना लोग कुछ भी पूरा नहीं कर सकते हैं। इस संबंध में लोगों के पास किस प्रकार का विवेक होना चाहिए? जब किसी व्यक्ति को पता चले कि पवित्र आत्मा कार्य नहीं कर रहा है, तो उसे अपनी धारणाओं को जाने देना चाहिए और सावधान रहना चाहिए कि वह आँख बंद करके कुछ भी न करे। परमेश्वर के इरादों को खोजना और परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करना ही बुद्धिमानी है। कुछ लोग हमेशा अपनी मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करते हैं और परमेश्वर की जगह ले लेते हैं, और इसका परिणाम यह होता है कि पवित्र आत्मा कार्य नहीं करता है और उनके प्रयास व्यर्थ होते हैं। हालाँकि, लोगों को वही करना चाहिए जो उन्हें करना चाहिए, और उन्हें अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। तुम कुछ गलत करने के डर से खाली बैठकर प्रतीक्षा नहीं करते रह सकते हो, और तुम निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते हो, “परमेश्वर ने अभी तक यह नहीं किया है, और परमेश्वर ने अभी तक यह नहीं कहा है कि वह मुझसे क्या करवाना चाहता है, इसलिए मैं फिलहाल कुछ नहीं करूँगा।” क्या यह तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में विफलता नहीं है? तुम्हें इस पर विचार करना चाहिए, क्योंकि यह कोई छोटी बात नहीं है, और सोच की एकमात्र त्रुटि भी तुम्हारी संभावनाओं को नुकसान पहुँचा सकती है या तुम्हें बर्बाद कर सकती है।

अपनी प्रबंधन योजना के तहत, परमेश्वर जो भी कार्य करता है वह निर्धारित समय पर, सही समय पर, बहुत सटीक तरीके से करता है, और उन लोगों की कल्पना के अनुसार बिल्कुल नहीं करता है जो कहते हैं, “इस काम से कुछ नहीं होगा, उस काम से कुछ नहीं होगा, यह तुम्हें कहीं नहीं ले जायेगा!” परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और परमेश्वर के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। व्यवस्था के युग से लेकर अनुग्रह के युग और फिर राज्य के युग तक, परमेश्वर के कार्य का हर चरण उन लोगों की धारणाओं के विपरीत किया गया है, जो सोचते हैं कि यह सब असंभव है। फिर भी, अंत में सब कुछ ठीक हो जाता है, और शैतान पूरी तरह से बदनाम और विफल हो जाता है, और लोग शर्म से अपना मुँह ढक लेते हैं। लोग क्या कर सकते हैं? वे सत्य का अभ्यास भी नहीं कर सकते, लेकिन फिर भी वे अहंकारी और दंभी हो सकते हैं और सोचते हैं कि वे कुछ भी कर सकते हैं, और उनके दिल अत्यधिक इच्छाओं से भरे होते हैं, और वे बिल्कुल भी सच्ची गवाही नहीं देते हैं। ऐसे लोग भी हैं जो सोचते हैं, “परमेश्वर का दिन जल्द ही आ रहा है, हमें अब और कष्ट नहीं सहना पड़ेगा, हमारा जीवन अच्छा होगा, और अंत निकट है।” मैं तुम लोगों को बता दूँ, ऐसे लोग बस मस्ती के लिए साथ आ रहे हैं और मजे कर रहे हैं, और अंत में उन्हें केवल दंड मिलेगा और कुछ भी नहीं! परमेश्वर का दिन देखने और महाविपत्ति से बचने की खातिर परमेश्वर में विश्वास रखने से क्या किसी को सत्य और जीवन प्राप्त करने में मदद मिल सकती है? जो कोई महाविपत्ति से बचने और परमेश्वर का दिन देखने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखता है वह नष्ट हो जाएगा। हालाँकि, जो लोग सत्य का अनुसरण करने में और स्वभाव में परिवर्तन के माध्यम से बचाए जाने में विश्वास रखते हैं वे जीवित रहेंगे। ये ही परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हैं। उन भ्रमित विश्वासियों को अंत में कुछ भी हासिल नहीं होगा, उनका कार्य व्यर्थ होगा, और उन्हें और भी अधिक दंडित किया जाएगा। सभी लोगों में अंतर्दृष्टि की भारी कमी है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, लेकिन अपने कार्यों पर ध्यान नहीं देते हैं और हमेशा दुष्ट चीजों के बारे में सोचते रहते हैं, वे दुराचारी होते हैं, वे छद्म-विश्वासी हैं और केवल खुद को नुकसान पहुँचा सकते हैं। क्या विश्वासी और गैर-विश्वासी दोनों ही परमेश्वर के हाथों में नहीं हैं? परमेश्वर के हाथ से कौन बच सकता है? कोई नहीं बच सकता! जो लोग बच जाते हैं उन्हें अंततः परमेश्वर के पास लौटना होगा और दंडित होना होगा। यह तो जाहिर है, लोग इसे स्पष्ट रूप से क्यों नहीं देख पाते?

भले ही कुछ लोग सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हों, फिर भी उन्हें परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता का जरा भी ज्ञान नहीं होता है। वे निम्नलिखित प्रश्न को लेकर लगातार भ्रमित रहते हैं : “जब परमेश्वर सर्वशक्तिमान और अधिकार-संपन्न है, और वह सभी चीजों पर संप्रभुता रखने में सक्षम है, फिर भी उसने शैतान को क्यों बनाया, उसे 6,000 वर्षों तक मानवजाति को भ्रष्ट करने और दुनिया को ऐसी अव्यवस्था की स्थिति में झोंकने की अनुमति क्यों दी? परमेश्वर शैतान को नष्ट क्यों नहीं करता? यदि शैतान को हटा दिया जाए तो क्या लोगों का जीवन अच्छा नहीं होगा?” अधिकांश लोग इसी तरह सोचते हैं। क्या तुम लोग अब इस मुद्दे को समझा सकते हो? इससे दृष्टि से संबंधित सत्य जुड़े हुए हैं। इस प्रश्न पर कई लोगों ने विचार किया है, लेकिन अब जब तुम्हारे पास एक तरह की नींव है, तो तुम लोग इस वजह से परमेश्वर पर संदेह नहीं करोगे। हालाँकि, इस बारे में उलझन दूर की जानी चाहिए। ऐसे कुछ लोग हैं जो पूछते हैं, “परमेश्वर ने प्रधान स्वर्गदूत को अपने साथ विश्वासघात करने की अनुमति क्यों दी? क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर नहीं जानता था कि प्रधान स्वर्गदूत उसके साथ विश्वासघात करने में सक्षम था? क्या परमेश्वर इसे नियंत्रित करने में विफल रहा, क्या उसने इसकी अनुमति दी, या परमेश्वर का कोई उद्देश्य था?” लोगों के लिए यह प्रश्न करना सामान्य है, और उन्हें पता होना चाहिए कि इस प्रश्न में परमेश्वर की संपूर्ण प्रबंधन योजना शामिल है। परमेश्वर ने वहाँ के लिए एक प्रधान स्वर्गदूत की व्यवस्था की और परमेश्वर के साथ इस प्रधान स्वर्गदूत का विश्वासघात परमेश्वर द्वारा स्वीकृत और व्यवस्थित दोनों था—यह निश्चित रूप से परमेश्वर की प्रबंधन योजना की सीमा में आता है। प्रधान स्वर्गदूत द्वारा परमेश्वर के साथ विश्वासघात के बाद परमेश्वर ने उसे मानवजाति को भ्रष्ट करने की अनुमति दी, जिसे उसने स्वयं बनाया था। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर शैतान को नियंत्रित करने में विफल रहे, जिसके वजह से मानवजाति को साँप ने बहका दिया और शैतान ने भ्रष्ट कर दिया, बल्कि यह परमेश्वर थे जिन्होंने शैतान को ऐसा करने की अनुमति दी। ऐसा होने देने के लिए अपनी अनुमति प्रदान करने के बाद ही परमेश्वर ने अपनी प्रबंधन योजना और मानवजाति को बचाने का अपना कार्य आरंभ किया। क्या मनुष्य इस रहस्य की थाह पा सकता है? शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट कर दिए जाने पर, परमेश्वर ने मानवजाति के प्रबंधन का अपना कार्य आरंभ किया। पहले, उन्होंने इज़राइल में व्यवस्था के युग का काम किया। दो हजार साल बीत जाने के बाद, उन्होंने अनुग्रह के युग में क्रूस पर चढ़ने का कार्य किया, और सारी मानवजाति को छुटकारा मिल गया। अंत के दिनों के दौरान, उसने देहधारण किया ताकि अंत के दिनों में लोगों के एक समूह को जीत कर उसे बचा सके। अंत के दिनों में जन्म लेने वाले लोग किस प्रकार के थे? ये वो लोग हैं जो हजारों सालों से शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए हैं, जो इतनी गहराई तक भ्रष्ट किए गए हैंकि उनमें मानव सदृशता नहीं है। परमेश्वर के वचनों द्वारा न्याय, ताड़ना और उजागर करने के अनुभव के बाद, परमेश्वर द्वारा उनको जीत लिये जाने के बाद, उन्होंने परमेश्वर के वचनों में से सत्य को प्राप्त कर लिया है; ये वो लोग हैं जो परमेश्वर द्वारा ईमानदारी से भरोसा दिलाए गए हैं, जिन्हें परमेश्वर की समझ आ गई है, जो परमेश्वर की आज्ञा का पालन पूरी तरह से कर सकते हैं और उसके इरादों को संतुष्ट कर सकते हैं। अंत में, परमेश्वर की प्रबंधन योजना के माध्यम से प्राप्त किये गए लोगों के समूह में इसी तरह के लोग होंगे। क्या तुम लोग सोचते हो कि जो लोग शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किए गए हैं, वे परमेश्वर के इरादों संतुष्ट करेंगे, या क्या ये वे लोग होंगे जो शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए हैं और अंततः बचा लिए गए हैं? वे लोग जो संपूर्ण प्रबंधन योजना के द्वारा प्राप्त किए जाएँगे, वे ऐसा समूह हैं जो परमेश्वर के इरादों को समझ सकते हैं, जो परमेश्वर से सत्य प्राप्त करते हैं, जिनके पास उस तरह का जीवन और मनुष्य के समान गुण होता है जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करते हैं। जब पहली बार परमेश्वर द्वारा मनुष्यों का सृजन हुआ था, तो उनके पास केवल मानव सदृशता और मानव जीवन था। हालाँकि, उनके पास वह सत्य नहीं था जो परमेश्वर मनुष्यों से चाहता है और वे वह सदृशता नहीं जी सके जिसकी परमेश्वर ने मनुष्यों से हमेशा अपेक्षा की है। लोगों का समूह जो अंततः प्राप्त किया जाएगा उसमें वे लोग हैं जो अंत तक टिके रहेंगे, और यही वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर प्राप्त करता है, जिनसे वह प्रसन्न होता है, और जो उसे संतुष्ट करते हैं। प्रबंधन कार्य के कई हजार वर्षों के दौरान, इन लोगों ने, जिन्हें उसने अंततः बचाया है, सबसे अधिक लाभ प्राप्त किया है; इन लोगों ने जो सत्य प्राप्त किया है वह वास्तव में परमेश्वर द्वारा शैतान के साथ युद्ध के माध्यम से उन्हें दिया गया सिंचन और पोषण है। इस समूह के लोग उनके मुकाबले बेहतर हैं जिनका सृजन परमेश्वर ने बिल्कुल आरंभ में किया था; भले ही वे भ्रष्ट थे, यह तो अपरिहार्य था, और यह ऐसा मामला है जो परमेश्वर की प्रबंधन योजना के अंतर्गत आता है। यह उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता को पूरी तरह से प्रकट करता है, और साथ ही, यह भी प्रकट करता है कि परमेश्वर ने जो भी व्यवस्थित, नियोजित और हासिल किया है वह परम महानतम है। यदि बाद में तुमसे दोबारा पूछा जाए : “यदि परमेश्वर सर्वशक्तिमान हैं, तो फिर भी प्रधान स्वर्गदूत उसके साथ विश्वासघात कैसे कर सकता है? फिर परमेश्वर ने उसे त्याग कर धरती पर फेंक दिया जहाँ उसने उसे मानवजाति को भ्रष्ट करने दिया। इसकी क्या महत्ता है?” तुम यह कह सकते हो : “यह मामला परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण के अधीन आता है और यह सबसे महत्वपूर्ण है। मनुष्य पूरी तरह से इसकी थाह नहीं पा सकता है, लेकिन जिस स्तर तक मनुष्य समझ और पहुँच सकता है, वहाँ से यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर ने जो किया वह बहुत अर्थपूर्ण है। इसका अर्थ निश्चित रूप से यह नहीं है कि परमेश्वर की यह अस्थायी चूक है, या वह नियंत्रण खो देता है और उसके पास चीजों के प्रबंध का कोई उपाय नहीं होता है, और फिर वह उसके खिलाफ शैतान की चालबाजियों से यह कहते हुए ऐसा करवाता है ‘प्रधान स्वर्गदूत ने वैसे भी विश्वासघात किया, इसलिए मैं भी ऐसा कर सकता हूँ, और फिर वह पूरी मानवजाति को भ्रष्ट कर चुका होगा, तब मैं मानवजाति को बचाऊँगा।’ बात बिलकुल भी ऐसी नहीं है।” लोगों को कम-से-कम इतना तो पता होना ही चाहिए कि यह मामला परमेश्वर की प्रबंधन योजना के दायरे में आता है। कौन सी योजना? पहले चरण में, एक प्रधान स्वर्गदूत था; दूसरे चरण में, प्रधान स्वर्गदूत ने विश्वासघात किया; तीसरे चरण में, प्रधान स्वर्गदूत के विश्वासघात के बाद, वह मानवजाति को भ्रष्ट करने के लिए उनके बीच आया, और फिर परमेश्वर ने मानवजाति के प्रबंधन का काम आरंभ किया। जब लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं तो उन्हें परमेश्वर की प्रबंधन योजना की दूरदर्शिता को अवश्य समझना चाहिए। कुछ लोग सत्य के इस पहलू को कभी नहीं समझते हैं, हमेशा महसूस करते हैं कि न सुलझ सकने लायक बहुत से विरोधाभास हैं। समझ के बिना वे अनिश्चित महसूस करते हैं, और यदि वे आश्वस्त नहीं हैं, तो उनके पास आगे बढ़ने के लिए कोई ऊर्जा नहीं होती है। सत्य के बिना कोई भी प्रगति करना कठिन है, इसलिए किसी समस्या का सामना होने पर सत्य न खोजने वालों के लिए, यह वास्तव में कठिन होता है। क्या इस संगति से तुम्हें समझने में मदद मिली? प्रधान स्वर्गदूत के विश्वासघात के बाद ही परमेश्वर ने मानवजाति को बचाने की प्रबंधन योजना बनाई थी। प्रधान स्वर्गदूत ने अपना विश्वासघात कब शुरू किया? निश्चित रूप से कुछ चीजें थीं जो उसके विश्वासघात का खुलासा करती थीं, प्रधान स्वर्गदूत के विश्वासघात की एक प्रक्रिया थी, यह निश्चित रूप से उतना सरल नहीं हो सकता जितना कि आलेख इसे बताता है। यह यहूदा के यीशु के साथ विश्वासघात जैसा है—उसकी एक प्रक्रिया थी। उसने यीशु का अनुसरण करने के तुरंत बाद ही उसे धोखा नहीं दिया। यहूदा को सत्य से प्रेम नहीं था, उसे पैसे का लालच था और वह हमेशा चोरी करता रहता था। परमेश्वर ने उसे शैतान को सौंप दिया, शैतान ने उसे विचार दिये और फिर उसने यीशु को धोखा देना शुरू कर दिया। यहूदा धीरे-धीरे भ्रष्ट होता गया और कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में, जब समय आया, तो उसने यीशु को धोखा दिया। लोगों की भ्रष्टता का एक नियमित ढाँचा है, और यह उतना सरल नहीं है जितना लोग इसकी कल्पना करते हैं। फिलहाल, लोग परमेश्वर की प्रबंधन योजना की चीजों को केवल इसी हद तक समझ सकते हैं, लेकिन जब उनका आध्यात्मिक कद बढ़ेगा तो वे इसका महत्व और अधिक गहराई से समझ पाएँगे।

अंश 20

सभी भ्रष्ट मनुष्यों में शैतानी प्रकृति होती है। उन सबमें शैतानी स्वभाव होता है और वे कहीं भी, कभी भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। कुछ लोग पूछते हैं, “परमेश्वर ने मनुष्यों को बनाया और वे परमेश्वर के हाथों में हैं। तो फिर परमेश्वर मनुष्यों की रक्षा क्यों नहीं करता, इसके बजाय उन्हें परमेश्वर को धोखा क्यों देने देता है? तो क्या परमेश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है?” यह वाकई एक सवाल है। इसमें तुम्हें क्या दिक्कतें नजर आ रही हैं? परमेश्वर का एक सर्वशक्तिमान पक्ष है और उसका एक व्यावहारिक पक्ष भी है। लोग शैतान के हाथों भ्रष्ट हुए बिना भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। मनुष्यों के पास इस संबंध में स्वयं अपनी कोई इच्छा नहीं होती है कि उन्हें परमेश्वर की आराधना किस प्रकार करनी चाहिए और शैतान को कैसे त्यागना चाहिए, कैसे शैतान से नहीं जुड़ना चाहिए और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए। परमेश्वर के पास सत्य, जीवन और मार्ग है, परमेश्वर का अपमान नहीं किया जा सकता है...। मनुष्यों के पास इनमें से कुछ भी नहीं होता है। वे शैतान की प्रकृति की इन चीजों की असलियत नहीं समझते और सत्य को बिल्कुल भी नहीं समझते, इसलिए वे कहीं भी, कभी भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। यही नहीं, शैतान के हाथों भ्रष्ट होने के बाद उनके भीतर शैतान की चीजें आ जाती हैं और उनके लिए परमेश्वर को धोखा देना और भी आसान हो जाता है। समस्या यही है। यदि तुम परमेश्वर का सिर्फ व्यावहारिक पक्ष देखते हो, उसका सर्वशक्तिमान पक्ष नहीं देखते तो तुम्हारे लिए परमेश्वर को धोखा देना और मसीह को एक साधारण व्यक्ति मानकर देखना आसान होगा और तुम कभी नहीं जान पाओगे कि वह मनुष्यजाति को बचाने के लिए आखिर इतने सारे सत्य कैसे प्रदान कर सकता है। यदि तुम परमेश्वर का सिर्फ सर्वशक्तिमान पक्ष देखते हो और उसका व्यावहारिक पक्ष नहीं देखते तो तुम्हारे लिए परमेश्वर का विरोध करना भी आसान होगा। यदि तुम इन दोनों में से कोई भी पक्ष नहीं देखते तो इसकी संभावना और भी अधिक है कि तुम परमेश्वर का विरोध करोगे। इसलिए परमेश्वर को जानना क्या दुनिया में सबसे कठिन बात नहीं है? लोग परमेश्वर को जितना अधिक जान जाते हैं, वे उतना ही अधिक परमेश्वर के इरादे समझ लेते हैं और यह समझ जाते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसका अर्थ जरूर होता है। यदि लोगों के पास परमेश्वर का सच्चा ज्ञान हो, तो वे ऐसे नतीजे हासिल कर सकते हैं। भले ही परमेश्वर का एक व्यावहारिक पक्ष है लेकिन लोग उसे कभी पूरी तरह से नहीं जान सकते। परमेश्वर अत्यंत महान और अद्भुत रूप से अथाह है तो दूसरी तरफ लोगों की सोच बहुत सीमित है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि मनुष्य हमेशा परमेश्वर के सामने एक बच्चा होता है? इसका यही मतलब है।

जब परमेश्वर कुछ कहता या करता है तो लोग हमेशा गलत समझते हैं, “परमेश्वर ऐसा कैसे कर सकता है? परमेश्वर सर्वशक्तिमान है!” लोगों की हमेशा अपनी ही धारणाएँ होती हैं। जहाँ तक परमेश्वर के सांसारिक कष्ट सहने की बात है, कुछ लोग सोचते हैं, “क्या परमेश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है? क्या उसे सांसारिक कष्टों का स्वाद चखने की आवश्यकता है? क्या परमेश्वर को नहीं पता कि सांसारिक कष्ट कैसे होते हैं?” यह परमेश्वर की कार्यप्रणालियों का व्यावहारिक पक्ष है। अनुग्रह के युग में यीशु को मानवजाति के छुटकारे के लिए सलीब पर चढ़ाया गया था, लेकिन मनुष्य परमेश्वर को नहीं समझता और अपने मन में हमेशा परमेश्वर के बारे में कुछ धारणाएँ पालकर कहता है : “सारी मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए परमेश्वर को शैतान से केवल यह कहना था, ‘मैं सर्वशक्तिमान हूँ। तू मानवजाति को मेरे पास आने से रोकने की हिम्मत करता है? तुझे मानवजाति को मुझे सौंपना ही होगा।’ इन कुछ वचनों के साथ हर चीज़ का समाधान किया जा सकता था—तो क्या परमेश्वर के पास अधिकार नहीं था? कुल मिलाकर परमेश्वर को बस इतना कहने की आवश्यकता थी कि मानवजाति को मुक्त किया गया था और मनुष्य के पापों को क्षमा किया गया था, तो मनुष्य निष्पाप हो जाता। क्या ये चीज़ें परमेश्वर के वचनों द्वारा तय नहीं की जा सकतीं थीं? यदि परमेश्वर के वचनों से स्वर्ग एवं पृथ्वी और सभी वस्तुएं अस्तित्व में आ गई थीं, तो परमेश्वर इस मुद्दे को क्यों नहीं सुलझा सका? क्यों परमेश्वर को स्वयं सलीब पर चढ़ने की आवश्यकता पड़ी थी?” परमेश्वर का सर्वशक्तिमान पहलू और उसका व्यावहारिक पहलू दोनों यहाँ पर कार्य कर रहे थे। उसके व्यावहारिक पहलू के सम्बन्ध में, देहधारी परमेश्वर ने पृथ्वी पर अपने साढ़े-तैंतीस सालों में अत्यधिक दुख सहा था, और अंत में सलीब पर लटका दिया गया जब तक कि उसका सारा लहू सूख नहीं गया। उसने बहुत ही भयानक दुख सहा फिर पुनर्जीवित हो गया, और परमेश्वर का पुनरुत्थान उसकी सर्वशक्तिमत्ता का ही एक पहलू था। परमेश्वर ने कोई संकेत नहीं किया था, या कोई लहू नहीं बहाया था या वर्षा नहीं की थी और यह नहीं कहा था कि यह एक पापबलि है। उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया था, बल्कि उसने मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए व्यक्तिगत रूप में देहधारण किया था और उसे सलीब पर कीलों से ठोंक दिया गया था, ताकि मानवजाति इस कार्य को जान पाए। इस कार्य की वजह से, मानवजाति परमेश्वर को जान पाई कि परमेश्वर ने उसे छुटकारा दिया है और यह प्रमाण है कि परमेश्वर ने वस्तुतः मनुष्य को बचाया है। कोई भी देहधारण कार्य को क्रियान्वित करे या यदि आत्मा उस कार्य को सीधे तौर पर करे, यह सब जरूरी है। इसका अर्थ है कि चीज़ों को इस रीति से करने से उस कार्य को बहुत ही मूल्यवान और महत्वपूर्ण बना दिया जाता है, और चीज़ों को केवल इस रीति से करने से ही मानवजाति उसके लाभों की फसल काट सकती है। यह इसलिए है क्योंकि सम्पूर्ण मानवजाति परमेश्वर के प्रबंधन का उद्देश्य है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि यह शैतान के साथ युद्ध करने और उसे अपमानित करने के लिए ही मानवजाति का प्रबंधन किया गया था। और वास्तव में, क्या यह अंत में मनुष्य के लिए अच्छा नहीं है? यह इतना मूल्यवान और महत्वपूर्ण है कि मनुष्य को इसका उत्सव मनाना चाहिये। क्योंकि परमेश्वर ऐसे लोगों को बनाना चाहता है जो परमेश्वर की एक समझ के साथ क्लेश से उभरे हैं, जिन्हें परमेश्वर के द्वारा पूर्ण बनाया गया है और जो शैतान की भ्रष्टता से होकर आए हैं; अतः इस कार्य को निश्चित रूप से इसी रीति से ही किया जाना चाहिए। परमेश्वर अपने कार्य की प्रत्येक अवस्था में किस पद्धति को नियोजित किया जाए उसका निर्णय मानवजाति की आवश्यकताओं पर आधारित होता है। परमेश्वर का कार्य निश्चित रूप से अंधाधुंध तरीकों का उपयोग करके नहीं किया जाता है। परन्तु लोगों की अपनी पसंद और अपनी अवधारणाएं होती हैं। उदाहरण के लिए, यीशु के सलीब पर चढ़ने के बारे में, लोग सोचते हैं : “परमेश्वर को सलीब पर चढ़ाए जाने का हमसे क्या लेना-देना है?” वे सोचते हैं कि कोई सम्बन्ध नहीं है, किन्तु मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर को सलीब पर चढ़ना ही था। सलीब पर चढ़ाया जाना उस समय का सबसे हृदयविदारक कष्ट था, क्या आत्मा को सलीब पर चढ़ाया जा सकता था? आत्मा को सलीब पर नहीं चढ़ाया जा सकता और वह परमेश्वर का आदिरूप नहीं हो सकता, खून बहाना और मरना तो दूर की बात है। केवल देहधारी को ही सलीब पर चढ़ाया जा सकता था और यह पाप-बलि का प्रमाण था। उसके शरीर ने पापी शरीर का रूप धारण किया और मानवजाति के लिए कष्टों का बोझ उठाया। आत्मा मानवजाति के लिए कष्ट नहीं उठा सकता, न ही वह लोगों के पापों का प्रायश्चित कर सकता है। यीशु को मानवजाति के खातिर सलीब पर चढ़ाया गया था। यह परमेश्वर का व्यावहारिक पक्ष है। परमेश्वर ऐसा कर सकता है और इस तरह से लोगों से प्रेम कर सकता है, जबकि मनुष्य ऐसा नहीं कर सकते। यह परमेश्वर का सर्वशक्तिमान पक्ष है।

परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसमें उसके सर्वशक्तिमान पक्ष के साथ ही उसका व्यावहारिक पक्ष भी शामिल होता है। परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता उसका सार है, उसकी व्यावहारिकता भी उसका सार है; इन दोनों पहलुओं को अलग नहीं किया जा सकता। परमेश्वर का वास्तविक और व्यावहारिक तरीके से कर्म करना उसके व्यावहारिक पहलू का काम है और उसका इस तरह से कार्य कर सकना उसके सर्वशक्तिमान पहलू को भी दर्शाता है। तुम यह नहीं कह सकते, “चूँकि परमेश्वर व्यावहारिक ढंग से कार्य करता है, इसलिए वह व्यावहारिक है, उसका केवल एक व्यावहारिक पक्ष है और उसका कोई सर्वशक्तिमान पहलू नहीं है”; यदि तुम ऐसा कहोगे, तो यह एक विनियम बन जाएगा। यह व्यावहारिक पहलू है लेकिन एक सर्वशक्तिमान पहलू भी है। जो कुछ भी परमेश्वर करता है उसमें उसकी सर्वशक्तिमत्ता और उसकी व्यावहारिकता के दोनों पहलू शामिल होते हैं, और यह सब कुछ उसके सार के आधार पर किया जाता है; यह उसके स्वभाव का एक प्रकटीकरण है, और यह उसके सार और जो वह है उसका एक प्रकाशन है। लोग सोचते हैं कि अनुग्रह के युग में परमेश्वर दया और प्रेम था; किन्तु अभी भी उसका क्रोध और उसका न्याय बरकरार था। परमेश्वर द्वारा फरीसियों और सारे यहूदियों को कोसना-क्या यह उसका क्रोध एवं धार्मिकता नहीं थी? तुम नहीं कह सकते कि अनुग्रह के युग में परमेश्वर केवल दया और प्रेम था, कि मूलतः उसके अंदर कोई क्रोध, कोई न्याय या अभिशाप नहीं था—ऐसा कहना लोगों में परमेश्वर के कार्य के बारे में समझ की कमी को दर्शाता है। अनुग्रह के युग में परमेश्वर का कार्य कुल मिलाकर उसके स्वभाव का एक प्रकटीकरण था। परमेश्वर ने जो कुछ भी किया जिसे मनुष्य देख सकता था वह यह साबित करने के लिए था कि वह स्वयं परमेश्वर है और यह कि वह सर्वशक्तिमान है, और यह साबित करने के लिए था कि स्वयं उसके पास ही परमेश्वर का सार है। क्या इस वर्तमान अवस्था के दौरान परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के कार्य का अर्थ यह था कि उसमें कोई दया या प्रेम नहीं है? नहीं। यदि तुम परमेश्वर के सार को केवल एक वाक्य या कथन में समेटने की कोशिश करते हो तो तुम बहुत घमंडी और आत्मतुष्ट हो, मूर्ख और अज्ञानी हो और यह दर्शाता है कि तुम परमेश्वर को नहीं जानते। कुछ लोग कहते हैं, “हमें परमेश्वर को जानने के बारे में सत्य बताओ, इसे साफ-साफ समझाओ।” तो परमेश्वर को जानने वाले व्यक्ति को क्या कहना चाहिए? वह यही कहेगा, “परमेश्वर को जानने का विषय इतना जटिल है कि मैं इसे चंद वाक्यों में साफ-साफ नहीं समझा सकता। चाहे मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ, मैं इसे बोधगम्य नहीं बना सकता। अगर तुम्हें इसका साराँश पता है तो यही काफी है। कोई भी परमेश्वर को पूरी तरह नहीं जान सकता।” परमेश्वर को न जानने वाला घमंडी इंसान कहेगा, “मुझे पता है वह किस तरह का परमेश्वर है, मैं उसे वाकई समझता हूँ।” क्या यह बड़बोलापन नहीं है? जो भी ऐसी बातें करता है वह घनघोर घमंडी है! कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें अगर लोगों ने अनुभव न किया हो या कुछ तथ्य न देखे हों, तो वे इसे वास्तव में नहीं जान सकते या इसका अनुभव नहीं कर सकते, इसलिए उन्हें लगता है कि परमेश्वर को जानना काफी अमूर्त है। जो लोग नहीं जानते वे केवल एक तरह का वक्तव्य सुनते हैं, वे इसके पीछे के तर्क को तो समझते हैं लेकिन इसे जानते नहीं हैं। सिर्फ इसलिए कि तुम इसे नहीं जानते तो इसका मतलब यह नहीं है कि यह सत्य नहीं है। जिनके पास कोई अनुभव नहीं होता उन्हें यह अमूर्त लगता है, लेकिन यह वास्तव में अमूर्त नहीं है। यदि किसी व्यक्ति के पास वास्तव में अनुभव है तो वह परमेश्वर के वचनों का मिलान अपने समुचित प्रसंगों से कर पाएगा और इन्हें लागू करके अभ्यास में लाएगा। सत्य को समझना यही कहलाता है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों के सिर्फ शाब्दिक अर्थ पर ध्यान देते हो लेकिन तुम्हें व्यावहारिक समझ नहीं है तो क्या तुम सत्य को समझ सकते हो? तुम्हें अभ्यास में लाकर इनका अनुभव करना चाहिए। सत्य को समझना इतना आसान नहीं है।

परमेश्वर ने अनुग्रह के युग में पूरी मानवजाति का उद्धार किया। यह परमेश्वर का सर्वशक्तिमान पक्ष है और उसकी सर्वशक्तिमत्ता में उसके सभी व्यावहारिक कार्य शामिल हैं। लोगों पर विजय प्राप्त करने का अपना कार्य करने के कारण सभी लोग उसके सामने झुक जाते हैं और उसे स्वीकार कर पाते हैं। अगर लोग परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और व्यावहारिकता को एक-दूसरे से अलग मानते हैं तो वे इन्हें पूरी तरह समझ नहीं पाएंगे। परमेश्वर को समझने के लिए तुम्हें उसकी सर्वशक्तिमत्ता और व्यावहारिकता के दोनों पहलुओं के अपने ज्ञान को मिलाना होगा; तभी तुम नतीजे हासिल कर पाओगे। वास्तविक और व्यावहारिक रूप से अपना कार्य कर पाने और सत्य को व्यक्त करने के द्वारा मानवता की भ्रष्टता को शुद्ध करने और उसका समाधान करने की परमेश्वर की क्षमता और साथ ही लोगों की सीधे तौर पर अगुआई कर पाने में उसका सक्षम होना—ये बातें परमेश्वर के व्यावहारिक पक्ष को दिखाती हैं। परमेश्वर अपने स्वभाव और स्वरूप को प्रकट करता है और वो सारे कार्य कर सकता है जो मनुष्य नहीं कर सकते; इसमें परमेश्वर के सर्वशक्तिमान पक्ष को देखा जा सकता है। परमेश्वर के पास यह अधिकार है कि वह जो कुछ भी कहता है उसे साकार कर सके, अपने आदेशों को दृढ़ रख सके और अपनी कही बातों को पूरा करवा सके। परमेश्वर के बोलते समय उसकी सर्वशक्तिमत्ता प्रकट होती है। सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता है, वह शैतान से चतुराई से अपनी सेवा करवाता है, लोगों की परीक्षा लेने और उनका शोधन करने के लिए परिवेशों की व्यवस्था करता है और वह उनके स्वभाव को शुद्ध करता और बदलता है—ये सभी चीजें परमेश्वर के सर्वशक्तिमान पक्ष की अभिव्यक्तियाँ हैं। परमेश्वर का सार सर्वशक्तिमान और व्यावहारिक दोनों है, और ये दोनों पहलू एक दूसरे के पूरक हैं। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह उसके अपने स्वभाव का प्रकटीकरण और अपने स्वरूप का प्रकाशन है। परमेश्वर के स्वरूप में उसकी सर्वशक्तिमत्ता, उसकी धार्मिकता और उसका प्रताप शामिल है। प्रारम्भ से लेकर अंत तक परमेश्वर का कार्य उसके सार का प्रकाशन और उसके स्वरूप का प्रकटीकरण है। उसके सार के दो पहलू हैं : एक उसकी सर्वशक्तिमत्ता का पहलू है, दूसरा उसकी व्यावहारिकता का पहलू है। चाहे तुम परमेश्वर के कार्यों के किसी भी चरण को देखो, ये दो पहलू परमेश्वर के हर कार्य में होते हैं। यह परमेश्वर को समझने का एक रास्ता है।

अंश 21

चाहे परमेश्वर अपने कार्य अपने देहधारण के माध्यम से करे या अपने आत्मा के माध्यम से, सब कुछ उसकी प्रबंधन योजना के अनुसार किया जाता है। कोई भी कार्य किसी खुल्लमखुल्ला या गुप्त तरीके से या मानवीय आवश्यकताओं के अनुसार नहीं किया जाता, बल्कि सब कुछ पूरी तरह से उसकी प्रबंधन योजना के अनुसार किया जाता है। ऐसा नहीं है कि अंत के दिनों का कार्य परमेश्वर की मर्जी के अनुसार किसी भी तरह से किया जा सकता है। इस चरण में उसके कार्य के पिछले दो चरणों के आधार पर कार्य किया जाता है। उसके कार्य के दूसरे चरण अर्थात अनुग्रह के युग के कार्य के कारण मानवजाति को छुटकारा मिला और यह कार्य देहधारण के जरिए पूरा किया गया। परमेश्वर के कार्य के वर्तमान चरण को पूरा करना आत्मा के लिए असंभव नहीं है, वह इसे करने में सक्षम है, लेकिन देहधारण के जरिए इसे करना अधिक उपयुक्त है, क्योंकि इस प्रकार लोगों को अधिक प्रभावी ढंग से बचाया जा सकता है। आखिरकार, देहधारण के कथन लोगों को जीतने के मामले में पवित्र आत्मा के प्रत्यक्ष कथनों से अधिक बेहतर हैं और वे परमेश्वर के बारे में लोगों के ज्ञान को बढ़ाने में भी बेहतर हैं। आत्मा कार्य करते समय लोगों के साथ हमेशा नहीं रह सकता, आत्मा के लिए उस प्रकार लोगों के साथ रहना और सीधे तौर पर आमने-सामने बात करना संभव नहीं है जैसा उसका देहधारण अभी कर रहा है, और कभी-कभी आत्मा के लिए देहधारण की तरह लोगों के अंदर की बातों को प्रकट करना संभव नहीं होता है। इस चरण में देहधारण का कार्य मुख्य रूप से लोगों को जीतना और जीतने के बाद उन्हें पूर्ण बनाना है, ताकि वे परमेश्वर को जान सकें और उसकी आराधना कर सकें। यह युग को समाप्त करने का कार्य है। यदि इस चरण का उद्देश्य लोगों को जीतना नहीं होता, बल्कि केवल उन्हें यह बताना होता कि परमेश्वर वास्तव में मौजूद है, तो आत्मा इस चरण को कर सकता था। तुम लोग यह सोच सकते हो कि यदि इस चरण का कार्य आत्मा द्वारा किया जाता, तो वह देह की जगह ले सकता था और देह के समान ही कार्य कर सकता था, और क्योंकि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, इसीलिए चाहे देह कार्य करे या आत्मा, दोनों से समान परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। हालाँकि, तुम लोगों का ऐसा सोचना गलत होगा। परमेश्वर अपने प्रबंधन के अनुसार और मनुष्य को बचाने की अपनी योजना और चरणों के अनुसार कार्य करता है। यह वैसा नहीं है जैसी तुम कल्पना करते हो, क्योंकि आत्मा सर्वशक्तिमान है, देह सर्वशक्तिमान है और स्वयं परमेश्वर भी सर्वशक्तिमान है, इसलिए वह जो चाहे कर सकता है। परमेश्वर अपनी प्रबंधन योजना के अनुसार कार्य करता है, और उसके कार्य के प्रत्येक चरण के अपने कुछ कदम होते हैं। इस चरण के कार्यों को पूरा करने का तरीका और इससे जुड़ी सारी जानकारी पूर्व नियोजित है। परमेश्वर के कार्य का पहला चरण इस्राएल में पूरा हुआ था और यह अंतिम चरण अब बड़े लाल अजगर के देश अर्थात चीन में हो रहा है। कुछ लोग कहते हैं, “क्या परमेश्वर यह कार्य किसी दूसरे देश में नहीं कर सकता?” इस चरण की प्रबंधन योजना के अनुसार यह कार्य चीन में ही किया जाना चाहिए। चीन के लोग पिछड़े हुए हैं, उनका जीवन पतनशील है और वहां कोई मानवाधिकार या स्वतंत्रता नहीं है। यह एक ऐसा देश है जहाँ शैतान और दुष्ट राक्षस सत्ता में हैं। चीन में प्रकट होने और कार्य करने का उद्देश्य ऐसे लोगों को बचाना है जो संसार के सबसे अंधकारमय भाग में रह रहे हैं और जिन्हें शैतान के द्वारा सबसे अधिक गहराई तक भ्रष्ट किया गया है। यह शैतान को वास्तव में पराजित करने और पूरी तरह से महिमा प्राप्त करने का एकमात्र तरीका है। यदि परमेश्वर किसी अन्य देश में प्रकट होता और कार्य करता तो यह उतना महत्वपूर्ण नहीं होता। परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण आवश्यक है, और परमेश्वर द्वारा इस तरीके से पूरा किया जाता है जैसे उसे पूरा किया जाना चाहिए। कुछ चीजों को देह के कार्य के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है और कुछ चीजों को आत्मा के कार्य के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। देह या आत्मा में से जो भी तरीका सबसे अच्छे परिणाम देगा उसी के अनुसार परमेश्वर उनमें से किसी एक के माध्यम से कार्य करने का निर्णय लेता है। ऐसा नहीं है जैसा कि तुम लोगों का सुझाव है कि किसी भी तरीके से कार्य करना ठीक होगा या यह कि परमेश्वर बस यूँ ही मानव रूप धारण करके अपना कार्य कर सकता है, और यह कि आत्मा भी किसी व्यक्ति से आमने-सामने मिले बिना इस कार्य को कर सकता है, और यह कि इन दोनों तरीकों से कुछ विशेष परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। तुम लोगों को इस बारे में कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिए। परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, लेकिन उसका एक व्यावहारिक पक्ष भी है, और लोग इस पक्ष को नहीं देख सकते। लोग परमेश्वर को एक अलौकिक शक्ति के रूप में देखते हैं और वे उसकी थाह नहीं ले सकते, इसलिए वे उसके बारे में धारणाएँ बनाते हैं और सभी प्रकार की अवास्तविक कल्पनाएँ करते हैं। बहुत ही कम लोग समझ पाते हैं कि परमेश्वर के वचन और कार्य सत्य हैं, वे व्यावहारिक हैं, वे सबसे यथार्थपरक चीजें हैं और यह कि उन्हें मनुष्य के द्वारा छुआ और देखा जा सकता है। यदि कई वर्षों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के बाद लोगों के पास वाकई काबिलियत और समझने की क्षमता होती तो उन्हें यह जान जाना चाहिए था कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सभी वचन सत्य वास्तविकताएँ हैं, यह कि वह जो भी कार्य और चीजें करता है वे सत्य और सिद्धांतों पर आधारित होते हैं, और यह कि वह जो कुछ भी करता है उसका बहुत महत्व होता है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह अर्थपूर्ण होता है, आवश्यक होता है और उससे सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। इन सभी का एक निश्चित उद्देश्य, योजना और महत्व होता है। क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर का कार्य बिना सोचे-समझे बोले गए वचनों के आधार पर किया जाता है? उसका एक सर्वशक्तिमान पक्ष है लेकिन उसका एक व्यावहारिक पक्ष भी है। तुम लोगों का ज्ञान एकतरफा है। परमेश्वर के सर्वशक्तिमान पक्ष के बारे में तुम्हारी समझ बहुत गलत है, और यदि हम उसके व्यावहारिक पक्ष के बारे में तुम्हारी समझ की बात करें तो इस मामले में तो तुम्हारी समझ और भी ज्यादा गलत है।

परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों में से पहला चरण आत्मा के द्वारा पूरा किया जाता है, जबकि अंतिम दो चरण देहधारण के द्वारा पूरे किए जाते हैं, और उसके कार्य का प्रत्येक चरण बहुत आवश्यक होता है। उदाहरण के लिए, क्रूस पर चढ़ाए जाने को ही ले लो, यदि आत्मा को क्रूस पर चढ़ाया जाता तो इसका कोई अर्थ नहीं होता, क्योंकि लोग तो आत्मा को देख या छू ही नहीं सकते हैं, और आत्मा को कुछ भी महसूस नहीं होता या उसे कोई पीड़ा नहीं होती। नतीजतन, इस क्रूस पर चढ़ाए जाने का कोई अर्थ ही नहीं होगा। अंत के दिनों में पूरा होने वाला चरण लोगों को जीतने का चरण है, जो एक ऐसा कार्य है जिसे देह ही कर सकता है—जब इस कार्य की बात आती है तो आत्मा देहधारण का स्थान नहीं ले सकता, और आत्मा के द्वारा किया जाने वाला कार्य देह के द्वारा नहीं किया जा सकता। जब परमेश्वर अपने कार्य के किसी चरण को करने के लिए देह या आत्मा को चुनता है, तो यह चयन एक आवश्यक निर्णय होता है और यह सब सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करने और उसकी प्रबंधन योजना के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। परमेश्वर का एक सर्वशक्तिमान पक्ष और एक व्यावहारिक पक्ष है। वह अपने कार्य के प्रत्येक चरण में व्यावहारिक तरीके से कार्य करता है। लोग कल्पना करते हैं कि परमेश्वर न तो बात करता है और न ही सोचता है और वह अपनी इच्छा से जो चाहे करता है, लेकिन ऐसा नहीं है। उसके पास बुद्धि है, उसके पास वह सब कुछ है जो वह स्वयं है और यही उसका सार है। जब वह कार्य करता है, तो उसे अपने स्वभाव, अपने सार, अपनी बुद्धि और अपने स्वरूप और अपनी वास्तविकता को प्रकट करने और व्यक्त करने की आवश्यकता होती है, ताकि लोग इन बातों को समझ सकें, जान सकें और इन्हें प्राप्त कर सकें। वह कोई भी कार्य अचानक से नहीं करता है, और वह लोगों की कल्पनाओं के आधार पर तो बिल्कुल भी कार्य नहीं करता, वह कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार और उन परिणामों के अनुसार कार्य करता है जिन्हें प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। वह व्यावहारिक तरीके से बात करता है, वह दिन-प्रतिदिन काम करता है और कष्ट उठाता है और जब वह कष्ट उठाता है, तो उसे भी दर्द महसूस होता है। ऐसा नहीं है कि जिस समय देहधारण कार्य करता और बोल रहा होता है तो आत्मा मौजूद होता है, और यह कि जब देहधारण कार्य नहीं करता और बोल नहीं रहा होता तो आत्मा चला जाता है। यदि ऐसा होता, तो वह कष्ट नहीं सहता और यह कोई देहधारण नहीं होता। लोग परमेश्वर के व्यावहारिक पक्ष को नहीं देख सकते और इसलिए लोग परमेश्वर को अच्छी तरह से नहीं जानते, और उसके बारे में उनकी समझ केवल सतही होती है। लोग कहते हैं कि परमेश्वर व्यावहारिक और सामान्य है या यह कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है—ये सभी ऐसी बातें हैं जो उन्होंने दूसरों से सीखी हैं, क्योंकि उनके पास सच्चा ज्ञान या असली अनुभव नहीं है। जब देहधारण की बात आती है तो देहधारण के सार पर इतना जोर क्यों दिया जाता है? आत्मा के सार पर क्यों नहीं? असल ध्यान देह के कार्य पर दिया जाता है, आत्मा का कार्य केवल सहयोग और सहायता करना है, और इससे देह के कार्य के परिणाम प्राप्त होते हैं। प्रत्येक चरण में, लोग परमेश्वर के बारे में थोड़ा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन जब वे उसके बारे में थोड़ा और जानना चाहते हैं तो वे इसमें आगे बढ़ने या इसे प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं; जब परमेश्वर थोड़ा बोलता है तो लोग भी थोड़ा ही समझते हैं, लेकिन उसके बारे में उनका ज्ञान अभी भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं होता है, और वे इसके आवश्यक भाग को आसानी से नहीं समझ सकते। यदि तुम लोगों को लगता है कि आत्मा वह सब कुछ कर सकता है जो देह कर सकता है और यह कि आत्मा देह का स्थान ले सकता है, तो तुम लोग देह के महत्व, देह के कार्य और देह की वास्तविकता को कभी नहीं जान पाओगे।

अंश 22

“वचन देह में प्रकट होता है” की सामग्री विशेष रूप से काफी समृद्ध है, इसमें सत्य के विभिन्न पहलुओं के साथ-साथ कुछ भविष्यसूचक बयान भी शामिल हैं, जो आने वाले युगों की स्थिति के बारे में भविष्यवाणी करते हैं। वास्तव में ये भविष्यवाणियाँ बहुत सामान्य हैं और इस पुस्तक में शामिल अधिकांश शब्द जीवन प्रवेश पर चर्चा करते हैं, मानवीय प्रकृति को उजागर करते हैं और इस पर बात करते हैं कि हम परमेश्वर और उसके स्वभाव के बारे में कैसे जान सकते हैं। और जहाँ तक यह बात है कि आगे कौन सा युग आने वाला है, कुल कितने युग होंगे, मानवजाति को किस प्रकार की परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा, क्या यह सच नहीं है कि इस पुस्तक में इसका कोई निश्चित खाका, कोई संदर्भ या कोई विशिष्ट युग नहीं बताया है? कहने का मतलब यह है कि लोगों को आने वाले युगों के बारे में चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, वह समय अभी तक नहीं आया है और अभी भी बहुत दूर है। अगर मैं तुम लोगों को इन चीजों के बारे में बताऊँ, तो भी तुम लोग इन्हें समझ नहीं पाओगे और इसके अलावा, लोगों को अभी इन चीजों को समझने की जरूरत भी नहीं है। इन चीजों का लोगों के जीवन स्वभाव में बदलाव से बहुत कम संबंध होता है। तुम लोगों को केवल उन शब्दों को समझने की जरूरत है जो मानव स्वभाव को उजागर करते हैं। बस यह तुम्हारे लिए काफी है। अतीत में, कुछ भविष्यवाणियाँ हुईं थीं, जैसे सहस्राब्दी राज्य, परमेश्वर और मनुष्य का एक साथ विश्राम में प्रवेश करना, और वचन के युग के बारे में भी। भविष्यवाणी के सारे वचन जल्द ही आने वाले समय से संबंधित हैं; जिन का उल्लेख नहीं किया गया वे वो चीज़ें हैं जो बहुत दूर हैं। तुम्हें उन चीज़ों का अध्ययन करने की आवश्यकता नहीं है जो बहुत दूर हैं; जिसके बारे में तुम्हें नहीं पता होना चाहिए वह तुम्हें नहीं बताया जाएगा; जो तुम्हें पता होना चाहिए वह वो पूरी सच्चाई है जो परमेश्वर से आती है—उदाहरण के लिए, मनुष्य के प्रति व्यक्त किया गया परमेश्वर का स्वभाव, अर्थात् परमेश्वर के पास क्या है और परमेश्वर क्या है, जो परमेश्वर के वचनों से प्रकट होता है, और न्याय और ताड़ना के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति का प्रकाशन, साथ ही जीवन में परमेश्वर द्वारा लोगों को दिया गया मार्गदर्शन, क्योंकि लोगों को बचाने के परमेश्वर के कार्य के मूल में इन चीज़ों को शामिल किया गया है।

मानवजाति के प्रबंधन के कार्य को करते समय इन चीज़ों को कहने में परमेश्वर का मुख्य उद्देश्य लोगों को जीतना तथा बचाना, और उनके स्वभाव को बदलना, है। वर्तमान में, वचन का युग एक यथार्थवादी युग है, मनुष्य को जीतने और बचाने के लिए सच्चाई का युग है; बाद में और भी वचन होंगे—अभी काफ़ी कुछ है जो नहीं कहा गया है। कुछ लोग सोचते हैं कि ये मौजूदा वचन पूरी तरह से परमेश्वर की अभिव्यक्ति हैं—यह एक बेहद गलत व्याख्या है, क्योंकि वचन के युग के कार्य की चीन में बस केवल शुरूआत ही हुई है, लेकिन भविष्य में परमेश्वर के सार्वजनिक रूप से प्रकट होने और कार्य करने के बाद, और भी वचन होंगे। राज्य का युग कैसा होगा, मानवजाति किस तरह के गंतव्य में प्रवेश करेगी, उस गंतव्य में प्रवेश करने के बाद क्या होगा, मानवजाति के लिए तब किस तरह का जीवन होगा, तब मानवीय सहज प्रवृति किस स्तर पर पहुँच सकेगी, किस प्रकार के नेतृत्व और किस प्रकार के प्रावधान की आवश्यकता होगी, इत्यादि, यह सब वचन के युग के कार्य में शामिल है। परमेश्वर की सर्व-समावेशिता वैसी नहीं है जैसी कि तुम केवल “वचन देह में प्रकट होता है” पुस्तक से कल्पना करते हो। क्या परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्ति और परमेश्वर के कार्य उस तरह से सामान्य हो सकते हैं जिस तरह से तुम कल्पना करते हो? परमेश्वर की सर्व-समावेशिता, सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता, और सर्वोच्चता कोरे शब्द नहीं हैं—यदि तुम कहते हो कि “वचन देह में प्रकट होता है” पुस्तक परमेश्वर का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व करती है और ये वचन परमेश्वर के सभी प्रबंधन को समाप्त करते हैं, तो तुमने परमेश्वर को बहुत छोटे ढंग से देखा है; क्या यह फिर से परमेश्वर को सीमित करना नहीं है? तुम्हें जानना चाहिए कि ये वचन सर्व-समावेशी परमेश्वर का एक बहुत ही छोटा हिस्सा हैं। सभी धार्मिक मंडलियों ने परमेश्वर को बाइबल के भीतर सीमित कर दिया है। और आज क्या तुम लोग भी उसे सीमित नहीं कर रहे हो? क्या तुम नहीं जानते कि परमेश्वर को सीमित करना परमेश्वर को छोटा बनाना है? कि यह परमेश्वर को दोषित और निन्दित करना है? वर्तमान में, ज्यादातर लोग सोचते हैं, “अंतिम दिनों में परमेश्वर ने जो कहा है वह सब ‘वचन देह में प्रकट होता है’ में है, तथा परमेश्वर के और कोई वचन नहीं हैं; परमेश्वर ने बस यही कहा है।” है ना? इस तरह सोचना एक बड़ी भूल है! “वचन देह में प्रकट होता है” में मौजूद शब्द केवल अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्यों के शुरुआती शब्द हैं, इस कार्य के शब्दों का एक हिस्सा हैं, ये शब्द मुख्य रूप से दर्शन की सच्चाइयों से संबंधित हैं। बाद में आगे चलकर इसमें अभ्यास के अनेक विवरणों के संबंध में बोले गए शब्द भी होंगे। इसलिए, “वचन देह में प्रकट होता है” को जनता के लिए जारी करने का मतलब यह नहीं है कि परमेश्वर के कार्य का एक चरण समाप्त होने वाला है और इसका यह मतलब तो बिलकुल भी नहीं है कि अंत के दिनों वाला परमेश्वर का न्याय का कार्य निर्णायक रूप से समाप्त हो गया है। परमेश्वर के पास व्यक्त करने के लिए अभी भी बहुत से वचन हैं और उसके द्वारा ये वचन व्यक्त किए जाने के बाद भी, कोई यह नहीं कह सकता कि परमेश्वर का सारा प्रबंधन कार्य समाप्त हो गया है। जब पूरे ब्रह्मांड का कार्य समाप्त हो जाता है, तो कोई केवल इतना ही कह सकता है कि छह हजार साल की प्रबंधन योजना समाप्त हो गई है; लेकिन उस समय, क्या लोग मौजूद न होंगे? जब तक जीवन का अस्तित्व है, जब तक मानवजाति मौजूद है, तब तक परमेश्वर का प्रबंधन जारी रहना चाहिए। जब छह हजार साल की प्रबंधन योजना पूरी हो जाती है, तो जब तक मानवजाति, जीवन और यह ब्रह्मांड मौजूद होंगे, तब तक परमेश्वर इसका प्रबंधन करता रहेगा, लेकिन उसे अब छह हजार साल की प्रबंधन योजना नहीं कहा जाएगा। अब इसे परमेश्वर का प्रबंधन कहा जाता है। शायद इसे भविष्य में एक अलग नाम दिया जाएगा; वह मानवजाति और परमेश्वर के लिए एक अन्य जीवन होगा; यह नहीं कहा जा सकता कि परमेश्वर लोगों का नेतृत्व करने के लिए आज भी मौजूदा वचनों का उपयोग करेगा, क्योंकि ये वचन केवल इस अवधि के लिए उपयुक्त हैं। इसलिए, किसी भी समय परमेश्वर के काम को निरुपित मत करो। कुछ लोग कहते हैं कि “परमेश्वर लोगों को केवल ये वचन प्रदान करता है, और कुछ भी नहीं; कि परमेश्वर केवल इन वचनों को ही कह सकता है।” यह भी परमेश्वर को एक निश्चित दायरे में सीमित करना है। यह वर्तमान में, इस राज्य के युग में, यीशु के युग में बोले गए वचनों को लागू करने जैसा है—क्या यह उचित होगा? कुछ वचन लागू होंगे, और कुछ को मिटाने की आवश्यकता है, इसलिए तुम यह नहीं कह सकते हो कि परमेश्वर के वचनों को कभी मिटाया नहीं जा सकता। क्या लोग आसानी से चीज़ों को निरुपित करते हैं? कुछ क्षेत्रों में, वे परमेश्वर को निरुपित करते हैं। शायद एक दिन, परमेश्वर के कदमों का साथ न निभाते हुए, तुम “वचन देह में प्रकट होता है” पढ़ोगे, जैसे लोग आज बाइबल पढ़ते हैं। अभी “वचन देह में प्रकट होता है” पढ़ने का सही समय है; यह नहीं कहा जा सकता कि कितने वर्षों बाद इसे पढ़ना किसी पुराने कैलेंडर को देखने जैसा होगा, क्योंकि उस समय पुराने का स्थान लेने के लिए कुछ नया आ चुका होगा। लोगों की ज़रूरतें परमेश्वर के कार्य के अनुसार उत्पन्न और विकसित होती हैं। उस समय, मानव प्रकृति, और वे सहज प्रवृत्तियाँ और विशेषताएँ जो लोगों के पास होनी चाहिए, कुछ हद तक बदल चुकी होंगी; इस दुनिया के बदलने के बाद, मानवजाति की ज़रूरतें अलग होंगी। कुछ लोग पूछते हैं : “क्या परमेश्वर बाद में बात करेगा?” कुछ इस निष्कर्ष पर आ जाएँगे कि “परमेश्वर बात नहीं कर पाएगा, क्योंकि जब वचन के युग का कार्य समाप्त हो जाएगा, तो और कुछ नहीं कहा जा सकता है, और अन्य कोई भी वचन झूठे होंगे।” क्या यह भी गलत नहीं है? मानवजाति के लिए परमेश्वर को चित्रित करने की गलती करना काफी आसान है; लोगों का रुझान अतीत से चिपके रहने और ईश्वर को चित्रित करने की ओर होता है। यह स्पष्ट है कि वे उसे नहीं जानते, लेकिन फिर भी बेतुके तौर पर उसके कार्य को चित्रित करते हैं। लोगों की प्रकृति इतनी घमंडी होती है! वे हमेशा अतीत की पुरानी धारणाएँ थामे रहना चाहते हैं और बीते हुए दिनों की बातें अपने दिल में बसाए रखना चाहते हैं। वे उन्हें अपनी पूँजी की तरह उपयोग करते हैं, वे अहंकारी और दंभी होते हैं और यह सोचते हैं कि उन्हें सब कुछ समझ आता है और वे परमेश्वर के कार्य को चित्रित करने का साहस करते हैं। ऐसा करने में, क्या वे परमेश्वर की आलोचना नहीं कर रहे होते? इसके अलावा, लोग परमेश्वर के नए कार्य पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते; इससे पता चलता है कि उनके लिए नई चीजें स्वीकारना मुश्किल होता है और फिर भी वे आँख बंद करके परमेश्वर को चित्रित करते हैं। लोग इतने घमंडी होते हैं कि वे तर्कहीन हो जाते हैं, वे किसी की भी नहीं सुनते हैं और यहाँ तक कि परमेश्वर के वचन भी नहीं स्वीकारते हैं। ऐसी होती है मनुष्य की प्रकृति : पूरी तरह से घमंडी और आत्मतुष्ट, और समर्पण रत्ती भर भी नहीं। फरीसी ऐसे ही तो थे जब उन्होंने यीशु की निंदा की थी। उन्होंने सोचा “भले ही तुम सच्चे हो, मैं फिर भी तुम्हारे पीछे नहीं चलूँगा—केवल यहोवा ही सच्चा परमेश्वर है।” आज, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं : “क्या वह मसीह है? अगर वह वास्तव में मसीह होता तो तब भी मैं उसके पीछे नहीं चलता!” क्या इस तरह के लोग मौजूद हैं? ऐसे बहुत सारे धार्मिक लोग हैं जो ऐसे ही हैं। इससे पता चलता है कि मनुष्य का स्वभाव बहुत भ्रष्ट है और लोगों को उद्धार मिलना कठिन है।

युग-युगों के संतों में से, केवल मूसा और पतरस ही थे जो वास्तव में परमेश्वर को जानते थे, और परमेश्वर ने उनको स्वीकृति दी थी; बहरहाल, क्या वे परमेश्वर की थाह ले सके थे? वे जो समझे थे वह भी सीमित है। उन्होंने खुद ने यह कहने की हिम्मत नहीं की थी कि वे परमेश्वर को जानते थे। जो लोग वास्तव में परमेश्वर को जानते हैं, वे उसे निरुपित नहीं करते हैं, क्योंकि वे इसका एहसास करते हैं कि परमेश्वर अथाह और असीम है। जो लोग परमेश्वर को नहीं जानते हैं, वे ही उसको, जो उसके पास है और जो वह है, उसे निरुपित करने के लिए तत्पर होते हैं, वे परमेश्वर के बारे में कल्पना से भरे होते हैं, परमेश्वर ने जो कुछ भी किया है उसके बारे में आसानी से धारणाएँ बना लेते हैं। इसलिए, जो लोग मानते हैं कि वे परमेश्वर को जानते हैं, वे परमेश्वर के प्रति सबसे अधिक प्रतिरोधी होते हैं, और वे वो लोग हैं जो सबसे अधिक ख़तरे में हैं।

अंश 23

मुझे बताओ, क्या यह सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है और उसमें मनुष्य के लिए दया है? (यह सत्य है।) तो क्या यह सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता, और यहाँ तक कि उन्हें शाप देता है और उनकी निंदा करता है? (यह भी सत्य है।) वास्तव में, यह दोनों ही वाक्य सत्य और पूरी तरह से सही हैं। लेकिन यह कहना सरल बात नहीं है, “यह भी सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता,” और लोगों के लिए ऐसे शब्द कहना कठिन होता है; इन्हें तभी कहा जा सकता है जब किसी के पास परमेश्वर के स्वभाव का ज्ञान हो। जब तुम देखते हो कि परमेश्वर ने कुछ प्रेमपूर्ण काम किया है, तुम कहते हो, “परमेश्वर वास्तव में मनुष्य से प्रेम करता है। यही सत्य है; यह परमेश्वर का कार्य है,” लेकिन जब तुम देखते हो कि परमेश्वर ने कुछ ऐसा किया है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुसार नहीं है—जैसे पाखंडी फरीसियों या मसीह विरोधियों पर क्रोधित होना, और उन्हें शाप देना—तो तुम सोचते हो, “परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता; वह मनुष्य से घृणा करता है।” तब तुम परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बनाते हो, और उसे नकार देते हो। तो इन दोनों परिदृश्यों में से कौन-सा सत्य है? कुछ ऐसे लोग हैं जो इसे स्पष्टता से नहीं समझा सकते। लोगों के हृदय में, यह बेहतर है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है, या यह कि वह मनुष्य से प्रेम नहीं करता? सभी मनुष्य निस्संदेह यह पसंद करते हैं कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है, और वे कहते हैं कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम सत्य है। लेकिन वे इसे पसंद नहीं करते कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता, इसलिए वे कहते हैं कि परमेश्वर का मनुष्य से प्रेम नहीं करना सत्य नहीं है, और वे इस कहावत को नकारते हैं, “यह भी सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता।” तो, मनुष्य के यह निर्धारित करने का आधार क्या है कि परमेश्वर जो करता है वह सत्य है या नहीं? यह पूरी तरह से मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित है। परमेश्वर को वही चीजें करनी चाहिए जैसे मनुष्य चाहता है कि वह करे, और कोई बात तब तक सत्य नहीं हो सकती जब तक परमेश्वर मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप कार्य नहीं करता; अगर मनुष्य को परमेश्वर का कार्य पसंद नहीं आता, तो जो परमेश्वर करता है वह सत्य नहीं है। जो इस तरह से सत्य का निर्धारण करते हैं, क्या उनके पास सत्य का ज्ञान है? (उनके पास नहीं है।) परमेश्वर को हमेशा मनुष्य की धारणाओं के अनुसार परिभाषित करने के क्या परिणाम होते हैं? यह परमेश्वर के प्रति समर्पण की ओर ले जाएगा, या परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध की ओर? परमेश्वर के प्रति समर्पण की ओर तो बिल्कुल नहीं—सिर्फ प्रतिरोध की ओर ले जाएगा। तो क्या जो लोग हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर से व्यवहार करते हैं वे परमेश्वर के प्रति समर्पित हैं? या वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं? (वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं।) इस बात को निर्धारित किया जा सकता है, और इसे इसी तरीके से समझना सही है। लोग सोचते हैं कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम मेमने को सहला रहे चरवाहे की तरह होना चाहिए, इससे गर्माहट और आनंद मिलनी चाहिए, और इसे उनकी भावनात्मक और शारीरिक जरूरतों को पूरा करना चाहिए, तो लोगों को लगता है कि यह परमेश्वर का प्रेम है, क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है, लेकिन वास्तव में, परमेश्वर का न्याय, ताड़ना, और काट-छाँट लोगों के जीवन के लिए अधिक लाभदायक हैं।) यह भी मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम है! सभी बातों के बाद, तुम लोगों को अभी भी लगता है कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम सत्य है, और उसका मनुष्य से प्रेम नहीं करना सत्य नहीं है, क्या ऐसा नहीं है? (यह भी सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता।) तो फिर यह कैसा होता है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता? प्रेम न करने की बात का क्या मतलब है? हम सभी जानते हैं कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है : उसका धार्मिक स्वभाव, उसका न्याय और ताड़ना, और उसका दंड और अनुशासन—सभी प्रेम के दायरे में आते हैं। इसलिए, अगर परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता है, तो ऐसा क्यों होगा? (उसके धार्मिक स्वभाव की वजह से।) क्या न्याय और ताड़ना इस धार्मिक स्वभाव के हैं? (वे हैं।) अगर न्याय और ताड़ना इस धार्मिक स्वभाव के हैं, तो क्या परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव मनुष्य के प्रति प्रेमपूर्ण है, या नहीं है? (प्रेमपूर्ण है।) तुम लोग समझ चुके हो कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम उसका धार्मिक स्वभाव है, लेकिन क्या मनुष्य से प्रेम नहीं करना वह स्वभाव नहीं है? (यह है।) परमेश्वर का मनुष्य से प्रेम नहीं करना भी धार्मिक स्वभाव कैसे हो सकता है? मैं तुम लोगों से एक और प्रश्न पूछता हूँ : क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर के लिए मनुष्य से प्रेम नहीं करना संभव है? ऐसा कोई उदाहरण हो सकता है? (जब कोई व्यक्ति सभी बुरे कार्य करता है और परमेश्वर का हृदय तोड़ता है, तो परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता।) जो तुम कह रहे हो वह सशर्त है और पूर्वापेक्षा पर आधारित है, जबकि जो मैं पूछ रहा हूँ वह पूर्वकल्पनात्मक नहीं है। मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम निश्चित रूप से सत्य है, और यह सभी समझते हैं। लेकिन लोगों के अपने संदेह हैं कि क्या परमेश्वर का मनुष्य से प्रेम नहीं करना सत्य है। अगर तुम इस मामले से बाहर निकल जाओ, तो तुम उन बहुत-सी चीजों से बाहर निकल जाओगे जो परमेश्वर करता है, और तुम धारणाएँ विकसित नहीं करोगे। जहाँ तक परमेश्वर की बात है, उसके मनुष्य से प्रेम नहीं करने की कुछ अभिव्यक्तयाँ क्या हैं? (हम अभी इस पहलू के बारे में जानते नहीं हैं।) तुम लोगों ने इसे महसूस नहीं किया है, और तुमने इस अनुभव नहीं किया है। हम अभी तक किन शब्दों को जानते हैं जिससे हम समझ सकें कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता? जुगुप्सा, विमुखता, नफरत, और घृणा; और साथ ही, परित्याग, और तिरस्कार करना। मूल रूप से यही शब्द हैं। हर कोई इन शब्दों को समझता है, तो क्या इन्हें प्रेम नहीं करने के बराबर माना जा सकता है? (माना जा सकता है।) वे परमेश्वर के मनुष्य से प्रेम नहीं करने की अभिव्यक्ति में अंतर्निहित हैं, तो क्या तुम लोग सोचते हो कि वे सत्य है? (हॉं, वे सत्य हैं।) तुम लोगों के विचार में, परमेश्वर के मनुष्य से प्रेम नहीं करने के लिए एक प्राक्कल्पना चाहिए : मनुष्य से प्रेम करने के संदर्भ में परमेश्वर ऐसी चीज करता है जो मनुष्य के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं होती है—यही सत्य है। मान लो कि इस प्राक्कल्पना में प्रेम करने के लिए ना कोई आधार है और ना ही कोई तत्व, फिर मनुष्य से प्रेम नहीं करने की अभिव्यक्तियों के साथ, परमेश्वर ऐसी चीज करता है जो मनुष्य के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं होतीं। तुम लोग यह पता लगाने में सक्षम नहीं होगे कि क्या परमेश्वर का मनुष्य से प्रेम न करना सत्य है, ना ही तुम उन चीजों को पूरी तरह से समझने में सक्षम होगे। यही इस मामले का मूल-बिंदु है, और चूँकि मूल-बिंदु यह है, हमें इसके बारे में संगति करनी चाहिए।

क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर ने, सभी सृजित प्राणियों के प्रभु के रूप में, इस मानवजाति को बनाया है, और ऐसा करने के कारण, उसे लोगों की देखभाल करनी होगी, वह क्या खाते और पीते हैं इसका प्रबंध करना होगा और उनके पूरे जीवन और भाग्य को चलाना होगा? (उसे ऐसा नहीं करना है।) यानी, क्या यह परमेश्वर की शक्तियों के दायरे में है कि वह इच्छा होने पर तुम्हारी देखभाल कर सके, और अगर वह तुम्हारी देखभाल न करना चाहे तो तुम्हें भीड़ में या किसी एक माहौल में फेंक दे, तुम्हें डूबने या तैरने के लिए छोड़ दे? (हाँ है।) चूँकि यह परमेश्वर की शक्ति के दायरे में है, क्या यह सत्य नहीं है कि परमेश्वर मनुष्य के बारे में परवाह नहीं करता? (यह है।) यह सत्य के अनुरूप है। यह कैसे कहा जा सकता है कि यह सत्य है? (परमेश्वर समस्त सृष्टि का प्रभु है।) परमेश्वर की पहचान और रुतबे के संदर्भ में, और परमेश्वर और मानव जाति के बीच अंतर के संदर्भ में, परमेश्वर तुम्हारी देखभाल करेगा अगर वह ऐसा चाहता है, और अगर वह तुम्हारी देखभाल नहीं करना चाहता, तो वह नहीं करेगा। यानी, परमेश्वर की इच्छा होने पर उसका तुम्हारी देखभाल करना उचित है, और इच्छा न होने पर ऐसा न करना भी तर्कसंगत है। यह किस पर निर्भर करता है? यह इस पर निर्भर करता है कि परमेश्वर इच्छुक है या नहीं, और यह सत्य है। कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं, “नहीं, क्योंकि तुमने मुझे बनाया है, तो तुम्हें ही देखभाल करनी होगी कि मैं क्या खाता और पीता हूँ—तुम्हें मेरी बाकी जिंदगी के लिए मेरी देखभाल करनी होगी।” क्या यह सत्य के अनुरूप है? यह अतर्कसंगत और सत्य के विपरीत है। अगर परमेश्वर ने कहा, “मैं तुम्हारा सृजन करने के बाद, तुम्हें एक तरफ फेंक दूँगा और अब तुम्हारी देखभाल नहीं करूँगा” यह सृष्टिकर्ता की शक्ति है। क्योंकि परमेश्वर तुम्हारा सृजन कर सकता है, इसलिए उसके पास तुम्हें एक तरफ फेंक देने की भी शक्ति है, चाहे अच्छी जगह पर फेंके या बुरी जगह पर। यह परमेश्वर की शक्ति है। परमेश्वर की शक्ति का आधार क्या है? यह है परमेश्वर की पहचान और रुतबा, इसलिए वह तुम्हारी देखभाल कर भी सकता है और नहीं भी कर सकता, दोनों ही स्थितियों में यह सत्य है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह सत्य है? यह है जो लोगों को समझना चाहिए। एक बार तुम यह समझ गए, तो तुम जान जाओगे कि तुम कौन हो, वह परमेश्वर कौन है जिसमें तुम विश्वास करते हो, और तुम्हारे और परमेश्वर के बीच क्या अंतर हैं? आओ, हम परमेश्वर के मनुष्य से प्रेम नहीं करने के पहलू पर लौटते हैं। क्या परमेश्वर को मनुष्य से प्रेम करना ही होगा? (उसे नहीं करना होगा।) चूँकि उसे नहीं करना होगा, तो क्या यह सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता? (यह सत्य है।) क्या इससे चीजें स्पष्ट नहीं हो जातीं? अब, आओ हम इसके बारे में बात करते हैं : चूँकि मानव जाति को शैतान द्वारा भ्रष्ट किया जा चुका है और इसके पास शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव है, तब अगर परमेश्वर मानव जाति को नहीं बचाता है और मानव जाति को अपने पास नहीं लाता है, तो मनुष्य और परमेश्वर के बीच क्या संबंध है? (कोई संबंध नहीं है।) यह असत्य है; वास्तव में एक संबंध है। तो यह किस तरह का संबंध है? यह शत्रुतापूर्ण संबंध है। तुम परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण हो, और तुम्हारा प्रकृति सार परमेश्वर के सार के प्रति शत्रुतापूर्ण है। तो क्या इसलिए परमेश्वर का तुम्हें प्रेम नहीं करना तर्कसंगत है? क्या परमेश्वर का तुमसे घृणा करना, तुमसे नफरत करना और चिढ़ना तर्कसंगत है? (यह तर्कसंगत है।) यह क्यों तर्कसंगत है? (क्योंकि हमारे अंदर ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के प्रेम के लायक हो, और हमारे स्वभाव भी गंभीर रूप से भ्रष्ट हैं।) परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और तुम एक सृजित प्राणी हो, लेकिन एक सृजित प्राणी की तरह, तुमने परमेश्वर का अनुसरण नहीं किया है या उसके वचन नहीं सुने हैं; इसके बजाय, तुमने शैतान का अनुसरण किया है और परमेश्वर के विपरीत और उसके शत्रु बन गए हो। परमेश्वर तुम्हें प्रेम करता है क्योंकि उसमें दया का सार है : वह तुम पर दया करता है, और वह तुम्हें बचाता है। परमेश्वर के पास यह सार है। अपने द्वारा सृजित मानवजाति के लिए परमेश्वर में दया और चिंता है। तुम्हारे लिए उसका प्रेम उसके सार का खुलासा है, जो सत्य का एक पहलू है। दूसरी तरफ, मानवजाति परमेश्वर के प्रेम के लायक नहीं है। मानवजाति अहंकारी है, सकारात्मक चीजों से घृणा करती है, दुष्ट है, क्रूर है, और परमेश्वर से घृणा करने वाली और प्रतिरोधी दोनों है। इसलिए, परमेश्वर के सार—उसकी पवित्रता, धार्मिकता, ईमानदारी और इन सबसे ऊपर उसके अधिकार—को देखें तो वह इस तरह की मानवजाति से कैसे प्रेम कर सकता है? क्या परमेश्वर इस तरह की मानवजाति के अनुकूल हो सकता है? क्या वह इसे प्रेम कर सकता है? (वह नहीं कर सकता।) चूँकि वह नहीं कर सकता, इसलिए जब परमेश्वर लोगों के संपर्क में आता है और उन्हें बचाना चाहता है, तो परमेश्वर क्या प्रकट करेगा? जैसे ही परमेश्वर लोगों के संपर्क में आता है, वह चिढ़, घृणा, और नफरत दिखाता है, और उन्हें ठुकरा देता है जो गंभीर रूप से बुराई करते हैं; यह प्रेम करना नहीं है। तो क्या यह सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता? (यह है।) यह सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता। क्या यह सही है कि परमेश्वर उनसे प्रेम नहीं करता जो उसका प्रतिरोध करते हैं? (सही है।) यह उचित है और तर्कसंगत है और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव द्वारा निर्धारित है, इसलिए यहाँ यह भी सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता। कैसे निर्धारित होता है कि यह सत्य है? यह परमेश्वर के सार से निर्धारित होता है।

तो, सारी बातें होने के बाद : क्या परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है? (वह करता है।) दरअसल, मनुष्य के सार और अभिव्यक्तियों के अनुसार, मनुष्य परमेश्वर के प्रेम के लायक नहीं है, लेकिन परमेश्वर अभी भी मनुष्य से बहुत ज्यादा प्रेम कर सकता है। तुम लोगों के विचार में, क्या परमेश्वर सत्य है? क्या उसका सार पवित्र है? (हाँ है।) दूसरी तरफ, चूँकि मनुष्य इतना घृणित है और उसका भ्रष्टाचार इतना गहरा है, क्या परमेश्वर थोड़ी-सी भी नफरत के बिना मनुष्य से प्रेम कर सकता है? अगर थोड़ी-सी भी नफरत, थोड़ी विरक्ति या घृणा नहीं है, तो यह परमेश्वर के सार के अनुरूप नहीं है। परमेश्वर मानवजाति से नफरत करता है, उससे घृणा करता है, उससे चिढ़ता और उससे तंग हो चुका है, लेकिन वह अभी भी लोगों को बचाने में सक्षम है, और यही परमेश्वर का सच्चा प्रेम है—परमेश्वर का सार है! परमेश्वर का मनुष्य से प्रेम नहीं करना उसके सार की वजह से है, और वह अभी भी मनुष्य से प्रेम कर सकता है, यह भी उसके सार की वजह से ही है। इसलिए, अब जबकि यह स्पष्ट है, कौन-सी बात सत्य है : परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है? या वह मनुष्य से प्रेम नहीं करता? (दोनो सत्य हैं।) अब यह तय हो गया है। तो, क्या मनुष्य यह कर सकता है? कोई मनुष्य यह नहीं कर सकता; एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है तो कर सकता है—यहाँ तक कि लोग अपने बच्चों के साथ भी यह नहीं कर सकते। अगर तुम्हारा बच्चा हमेशा तुम्हें क्रोध दिला रहा है और तुम्हारा हृदय तोड़ रहा है, पहले तुम क्रोधित हो जाओगे, लेकिन समय के साथ तुम्हारा हृदय घृणा से भर जाएगा; एक बार तुम्हें उससे लंबे समय तक घृणा हो जाए, तो तुम पूरी तरह से उसे छोड़ दोगे, और अंत में, तुम उसके साथ रिश्ते तोड़ लोगे। मानव प्रेम क्या है? यह देह के रक्त संबंधों और स्नेह से आता है, इसलिए इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है; यह ऐसा प्रेम है जो मनुष्य की देह की जरूरतों और स्नेह से पैदा होता है। इस प्रेम का आधार क्या है? यह स्नेह, रक्त संबंधों, और दिलचस्पियों पर निर्भर है, और इसमें सत्य का एक अंश भी नहीं है। तो फिर, मनुष्य के प्रेम नहीं करने का कारण क्या है? जिस किसी ने उसका हृदय तोड़ा हो, उससे नफरत करने, घृणा करने, उसे नापसंद करने के बाद वह अब उससे प्यार नहीं करता; वह अब प्रेम नहीं कर सकता। तुम्हें क्या लगता है कि इस मानवजाति ने किस हद तक परमेश्वर का हृदय तोड़ा है? (इसका वर्णन नहीं किया जा सकता।) हाँ, यह अवर्णनीय है। तो क्या परमेश्वर अभी भी मनुष्य से प्रेम करता है? तुम नहीं जानते कि क्या परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है, लेकिन अभी भी परमेश्वर तुम्हें बचा रहा है, तुम्हारा मार्गदर्शन करने और तुम्हें प्रदान करने के लिए बोल रहा है, हमेशा कार्य कर रहा है। वह अंतिम समय तक, जब तक कार्य पूरा ना हो जाए, तुम्हें नहीं छोड़ेगा। क्या यह प्रेम नहीं है? (हाँ है।) क्या मानवजाति में भी इस तरह का प्रेम है? (उसमें यह नहीं है।) जब लोगों की भावनात्मक जरूरत नहीं रह जाती, जब उनके रक्त संबंध टूट जाते हैं, और जब उनके बीच कोई आपसी रुचि नहीं रहती, तो वे प्रेम नहीं करते, उनका प्रेम चला जाता है, और तब वे छोड़ देने का चुनाव करते हैं—अब और “निवेश” नहीं करते। वे पूरी तरह से छोड़ चुके होते हैं। प्रेम की आवश्यक अभिव्यक्ति क्या है? यह व्यावहारिक चीज करना और परिणाम प्राप्त करना है, और अगर यह प्रेम संबंधी चीज नहीं की जाती है, तो कोई प्रेम नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर मनुष्य से नफरत करता है, लेकिन यह पूरी तरह से सही नहीं है। परमेश्वर तुमसे नफरत करता है, लेकिन क्या उसने तुमसे कोई कम बात की है? क्या उसने तुम्हें कोई कम सत्य प्रदान किया है? क्या उसने तुम्हारे अंदर कोई कम कार्य किया है? (उसने ऐसा नहीं किया है।) इसलिए, अगर तुम यह कहते हो कि परमेश्वर तुमसे नफरत करता है, तो तुम्हारी कोई अंतरात्मा नहीं है; तुम्हारे शब्द अत्यंत निर्लज्जतापूर्ण हैं। यह गलत नहीं है कि परमेश्वर तुमसे नफरत करता है, लेकिन वह अभी भी तुमसे प्रेम करता है, उसने तुम्हारे अंदर बहुत कार्य किया है। यह एक तथ्य है कि परमेश्वर तुमसे नफरत करता है, लेकिन क्यों? अगर तुम हर बात में परमेश्वर के आज्ञाकारी होते और अय्यूब जैसे बन जाते, तो क्या परमेश्वर तब भी तुमसे नफरत करता? तब वह तुमसे नफरत नहीं करता; उसके पास तुम्हारे लिए सिर्फ प्रेम होता। परमेश्वर का प्रेम अपने आप को कैसे अभिव्यक्त करता है? यह मनुष्य के प्रेम की तरह नहीं दिखता, जो किसी को रुई में लपेटने जैसा है। परमेश्वर उस तरह से लोगों से प्रेम नहीं करता : वह तुम्हें सृजित मनुष्य की सामान्य जिंदगी जीने देता है; वह तुम्हें इससे अवगत कराता है कि जीना कैसे है, कैसे जीवित बने रहना है, और कैसे उसकी आराधना करनी है; सभी चीजों में कैसे निपुण बनना है और एक सार्थक कैसे जीवन जीना है; और ना तो निरर्थक चीजें करनी है ना ही शैतान का अनुसरण करना है। क्या परमेश्वर के प्रेम का अर्थ स्थायी और दूरगामी नहीं है? यह बहुत दूरगामी है, और परमेश्वर के इन चीजों को करने के परिणाम मानवजाति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और सबसे अधिक मूल्य वाले हैं। यह कुछ ऐसा है जिसे कोई मनुष्य नहीं कर सकता : इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती, और इसे मनुष्य द्वारा धन या किसी भौतिक वस्तु से बदला नहीं जा सकता। तुम देख सकते हो, लोग आजकल कुछ सत्य समझते हैं, और वे जानते हैं कि परमेश्वर की आराधना कैसे करनी है, लेकिन 20 या 30 वर्ष पहले क्या वे इनमें से कुछ भी जानते थे? (वे नहीं जानते थे।) वह नहीं जानते थे कि बाइबल कैसे आई; वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर की प्रबंधन योजना क्या थी; वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर की आराधना कैसे करनी है और एक योग्य सृजित प्राणी के रूप में कैसे रहना है : वे इनमें से कुछ भी नहीं जानते थे। इसलिए अगर तुम आज से 20 साल आगे पहुँच जाओ, तो क्या तब की मानवजाति, आज जो तुम हो, उससे बेहतर नहीं होगी? (वह होगी।) यह कैसे होगा? यह परमेश्वर के उद्धार और मनुष्य के प्रति उसके असीम प्रेम के कारण होगा। चूँकि उसके पास मनुष्य के लिए ऐसा धैर्य, सहनशक्ति और दया है, इससे वजह से मनुष्य को बहुत सारी चीजें प्राप्त हुई हैं। अगर परमेश्वर का महान प्यार नहीं होता, तो मनुष्य कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाता।

क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है? (वह करता है।) तो क्या परमेश्वर मनुष्य से नफरत करता है? (वह करता है।) किस तरीके से? अपने हृदय में, परमेश्वर वास्तव में मनुष्य से घृणा करता है और मनुष्य के प्रकृति सार से घृणा करता है। वह हर व्यक्ति से चिढ़ता है, तो वह अभी भी मनुष्य में कैसे कार्य कर सकता है? क्योंकि उसके पास प्रेम है, और वह उन लोगों को बचाना चाहता है। क्या जब वह उन्हें बचाता है तब वह उनसे नफरत नहीं करता? वह करता है; नफरत और प्रेम का एक साथ सह अस्तित्व है। वह नफरत करता है, घृणा करता है और वह चिढ़ता है—लेकिन उसी समय, वह मनुष्य के उद्धार के लिए कार्य करता है। तुम लोगों को क्या लगता है कि ऐसा कौन कर सकता है? कोई मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता। जब लोग किसी ऐसे को देखते हैं जिससे वे चिढ़ते और घृणा करते हैं, वे उसे देखना तक नहीं चाहते, और उसके साथ एक शब्द भी बोलना बहुत ज्यादा होता है, जैसे कि गैर-विश्वासी कहते हैं, “अगर कोई सामान्य आधार नहीं है तो एक शब्द भी साँस की बर्बादी है।” परमेश्वर ने मनुष्य से कितने वचन कहे हैं? बहुत सारे। क्या तुम बोल सकते हो कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता? या कि वह मनुष्य से नफरत नहीं करता? (हम नहीं बोल सकते।) प्रेम की तरह, नफरत करना एक तथ्य है। मान लो तुम कहते हो, “परमेश्वर हमसे नफरत करता है; हम उसके करीब न जाएँ। आओ हम परमेश्वर को हमें बचाने न दें, ताकि हम उसे हर समय न चिढ़ाएँ।” क्या यह सही है? (नहीं।) तुम परमेश्वर के हृदय के लिए विचारशील नहीं हो, और ना तो तुम उसे समझते हो, ना तो तुम उसे जानते हो। इसके बजाय, ऐसा बोलकर, तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर रहे हो और उसका ह्रदय तोड़ रहे हो। तुम्हें समझना होगा कि परमेश्वर क्यों मनुष्य से नफरत करता है और कैसे वह मनुष्य से प्रेम करता है। परमेश्वर के प्रेम और नफरत करने के कारण हैं; प्रत्येक की अपनी पृष्ठभूमि और सिद्धांत हैं। अगर तुम कहते हो, “चूँकि परमेश्वर मुझे बचाता है, वह अवश्य मुझे प्रेम करता है; वह मुझसे नफरत नहीं कर सकता” क्या यह अतार्किक माँग है? (हाँ है।) अगर परमेश्वर तुमसे नफरत करता भी है तो भी वह तुम्हें बचाने में देर नहीं करता, और अभी भी तुम्हें पश्चाताप करने का अवसर देता है। तुम्हारे परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने या अपना कर्तव्य निभाने पर इसका कोई असर नहीं पड़ता, और तुम परमेश्वर की कृपा का आनंद लेते रहते हो, तो तुम अभी भी क्यों बहस कर रहे हो? परमेश्वर का तुमसे नफरत करना वैसा ही है जैसा इसे होना चाहिए; यह परमेश्वर के सार द्वारा निर्धारित होता है, और उसने तुम्हें बचाने में देरी नहीं की है। क्या लोगों को इस बारे में कुछ ज्ञान नहीं होना चाहिए? (उन्हें होना चाहिए।) उन्हें क्या जानना चाहिए? उन्हें परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और उसकी पवित्रता के बारे में अवश्य जानना चाहिए। कोई उनके बारे में कैसे जान सकता है? जब परमेश्वर इस मानवजाति से बहुत अधिक नफरत करने के बाद भी इसे बचाने में सक्षम होता है, इसे क्या कहा जाता है? प्रचुर दया। यही परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के अंदर है। सिर्फ परमेश्वर ऐसा कर सकता है; शैतान ऐसा नहीं करेगा। जब शैतान तुमसे नफरत नहीं करता, तब वह तुम्हें रौंदता है। अगर वह तुमसे नफरत करता, तो वह तुम्हें पूरा दिन यातना देता, यहाँ तक कि तुम्हें पुनर्जन्म से भी स्थाई रूप से वंचित कर देता और तुम्हें नरक के 18वें चक्र में उतरने के लिए छोड़ देता। क्या शैतान ऐसा नहीं करता है? (जरूर करता।) लेकिन क्या परमेश्वर लोगों से ऐसा व्यवहार करता है? बिल्कुल नहीं। परमेश्वर लोगों को पश्चात्ताप करने के पर्याप्त अवसर देता है। इसलिए, इस बात से मत डरो कि परमेश्वर तुमसे नफरत करता है; उसका तुमसे नफरत करना उसके सार द्वारा निर्धारित होता है। परमेश्वर से इसलिए दूर मत जाओ क्योंकि वह तुमसे नफरत करता है, यह सोचकर, “मैं परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के लायक नहीं हूँ, इसलिए परमेश्वर को मुझे बचाने की जरूरत नहीं है; वह चिंता से मुक्त रहे,” परमेश्वर को त्याग मत दो। इससे परमेश्वर तुमसे और भी ज्यादा नफरत करने लगेगा, क्योंकि तुमने उसे धोखा दिया है और अपमानित किया है और शैतान को तुम पर हॅंसने दिया है। क्या तुम लोग सोचते हो कि यह ऐसा ही है? (जब कभी मैं नकार दिया गया अनुभव करता हूँ या कुछ परेशानी और असफलता झेलता हूँ, मैं महसूस करता हूँ कि मैंने परमेश्वर का दिल तोड़ दिया है, और वह अब मुझे नहीं बचाएगा; मेरा हृदय परमेश्वर से बचने की दशा में होता है।) तुम्हारा परमेश्वर का हृदय तोड़ना कोई अस्थायी चीज नहीं है; तुमने परमेश्वर का हृदय बहुत समय पहले ही तोड़ दिया है—और वह भी एक से अधिक बार तोड़ा है! लेकिन वास्तव में स्वयं को त्याग देना परमेश्वर का तुम्हें त्याग देने और तुम्हें नहीं बचाने के बराबर है, और तब परमेश्वर का हृदय वास्तव में टूट जाएगा। परमेश्वर, क्षणभर या कुछ समय के लिए, लोगों के व्यवहार की वजह से लोगों को मौत की सजा नहीं देगा और उनके बारे में निष्कर्ष नहीं निकालेगा; वह ऐसा नहीं करेगा। फिर तुम्हें परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कैसे जानना चाहिए? मनुष्य की धारणाएँ और गलतफहमियाँ कैसे ठीक की जा सकती हैं? तुम नहीं जानते कि बहुत सारी चीजों के बारे में परमेश्वर क्या सोचता है, उसके धार्मिक स्वभाव और उसके पवित्र सार के साथ मेल कैसे खाएँ। तुम नहीं समझते हो, लेकिन एक चीज है जिसे तुम्हें याद रखना होगा : चाहे परमेश्वर कुछ भी करता है, मनुष्य को समर्पण करना चाहिए; मनुष्य एक सृजित प्राणी है, मिट्टी से बना है, और उसे परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए। यह मनुष्य का कर्तव्य, दायित्व, और जिम्मेदारी है। यही लोगों का रवैया होना चाहिए। लोगों का रवैया ऐसा हो जाने पर, उन्हें परमेश्वर और जो परमेश्वर करता है, उसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? कभी निंदा मत करो, ऐसा ना हो कि तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर बैठो। अगर तुम्हारी धारणाएँ हैं, तो उन्हें ठीक करो, लेकिन परमेश्वर की या जो चीजें वह करता है, उनकी निंदा मत करो। एक बार तुम उनकी निंदा करते हो, तुम खत्म हो जाते हो : यह परमेश्वर के खिलाफ खड़े होने के बराबर है, इससे उद्धार प्राप्त करने का कोई अवसर नहीं बचता। तुम कह सकते हो, “मैं अभी परमेश्वर के खिलाफ नहीं खड़ा हूँ, लेकिन मुझे परमेश्वर के बारे में एक गलतफहमी है,” या “मेरे हृदय में परमेश्वर के बारे में एक छोटा-सा संदेह है; मेरी आस्था तुच्छ है, मेरी कुछ कमजोरियाँ और नकारात्मकताएँ हैं।” इन सभी का प्रबंधन किया जा सकता है; वे सत्य की खोज द्वारा ठीक की जा सकती हैं—लेकिन परमेश्वर की निंदा मत करो। अगर तुम कहते हो, “जो परमेश्वर ने किया है वह ठीक नहीं है। वह सत्य के अनुरूप नहीं है, इसलिए मेरे पास संदेह करने, प्रश्न करने और आरोप लगाने के कारण हैं। मैं हर जगह इसका प्रचार करूँगा और उससे सवाल करने के लिए लोगों को एकजुट करूँगा,” तो यह परेशानी की बात होगी। तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया बदल जाएगा, और अगर तुम परमेश्वर की निंदा करते हो तो, तुम पूरी तरह से खत्म हो जाओगे; ऐसे बहुत से तरीके हैं जिनसे परमेश्वर तुमसे प्रतिशोध ले सकता है। इसलिए, लोगों को जानबूझकर परमेश्वर का विरोध नहीं करना चाहिए। अगर तुम गैर-इरादतन उसका प्रतिरोध करने के लिए कुछ कर बैठते हो तो यह बड़ी समस्या नहीं है, क्योंकि यह जानबूझकर या किसी आशय से नहीं किया गया था, और परमेश्वर तुम्हें पश्चाताप का एक अवसर देता है। अगर तुम जानबूझकर इसकी निंदा करते हो जबकि तुम जानते हो कि यह कुछ ऐसा है जो परमेश्वर कर रहा है, और तुम सबको विद्रोह करने के लिए भड़काते हो, तो यह एक परेशानी की बात है। और परिणाम क्या होगा? तुम्हारा अंत उन ढाई सौ प्रधानों की तरह होगा जिन्होंने मूसा का प्रतिरोध किया था। यह जानते हुए भी कि यह परमेश्वर है, तुम अभी भी उसके सामने चिल्लाने की हिम्मत कर रहे हो। परमेश्वर तुम्हारे साथ बहस नहीं करता : अधिकार उसी का है; वह धरती को फाड़ देता है और उसे तुम्हें सीधे निगलने देता है, और कुछ नहीं। वह कभी तुम्हें नहीं देखेगा या तुम्हारे तर्क नहीं सुनेगा। यह परमेश्वर का स्वभाव है। इस समय परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्ति क्या है? यह क्रोध है! इसलिए, किसी भी तरह से लोगों को परमेश्वर के खिलाफ चिल्लाना नहीं चाहिए और उसके क्रोध को उकसाना नहीं चाहिए; कोई परमेश्वर की निंदा करता है, तो परिणाम तबाही होगा।

अंश 24

परमेश्वर मानवजाति से प्रेम करता है—यह पूरी तरह से सच है और हर कोई इस तथ्य को स्वीकारता है—तो, परमेश्वर मनुष्य से कैसे प्रेम करता है? (परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है, मनुष्य को सत्य प्रदान करता है, उन्हें उजागर करता है, उन्हें न्याय देता है, अनुशासित करता है, उनका परीक्षण और शोधन करता है, जिससे वे सत्य समझ सकें और सत्य प्राप्त कर सकें।) यह एक ऐसी चीज है जिसका तुम सभी लोगों ने अनुभव किया है और इसे देखा है। मानवजाति के प्रति परमेश्वर के प्रेम की अभिव्यक्ति हर युग में भिन्न होती है—कुछ मामलों में परमेश्वर का प्रेम लोगों की धारणाओं के अनुरूप होता है और वे तुरंत इसे समझ सकते हैं और स्वीकार सकते हैं, लेकिन कभी-कभी परमेश्वर का प्रेम लोगों की धारणाओं के विपरीत होता है और वे इसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते। परमेश्वर के प्रेम के कौन से पहलू लोगों की धारणाओं के विपरीत होते हैं? परमेश्वर का न्याय, ताड़ना, निंदा, दण्ड, क्रोध, श्राप इत्यादि। कोई भी इन चीजों का सामना करने के लिए तैयार नहीं होता, न ही वे इन्हें स्वीकार सकते हैं, न ही उन्होंने कभी कल्पना की होती है कि परमेश्वर का प्रेम इस तरह से प्रकट हो सकता है। तो, मनुष्य ने आरंभ में परमेश्वर के प्रेम की सीमाओं को कैसे निर्धारित किया था? उन्होंने मूल रूप से प्रभु यीशु द्वारा बीमारों को चंगा करने, राक्षसों को खदेड़ बाहर निकालने, पाँच हजार लोगों को पाँच रोटियों और दो मछलियों से पेट भर कर खिलाने, ढेर सारा अनुग्रह प्रदान करने और खोए हुए लोगों की तलाश करने तक ही परमेश्वर के प्रेम की सीमाओं को निर्धारित किया था—उनके चित्रण में, परमेश्वर मानवजाति के साथ एक छोटे मेमने की तरह व्यवहार करता है, यानी वह उन्हें बहुत प्यार से सहलाता है। उनके लिए यही परमेश्वर का प्रेम है। इसीलिए जब वे परमेश्वर को कठोरता से बात करते हुए और न्याय, ताड़ना, पिटाई और अनुशासित करते हुए देखते हैं तो यह छवि परमेश्वर के बारे में उनके कल्पित संस्करण के विपरीत होती है और इसलिए वे अपने मन में धारणाएँ बना लेते हैं, विद्रोही हो जाते हैं और यहाँ तक कि परमेश्वर को नकार भी देते हैं। मान लो कि तुम लोगों में मानवता की कमी है, तुम लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और किसी जानवर से बेहतर नहीं हो और वह तुम्हें नहीं बचाएगा, ऐसे हालात में यदि परमेश्वर को तुम लोगों को शाप देने की जरूरत पड़े तो तुम लोग क्या सोचोगे? क्या तुम सोचोगे कि परमेश्वर का प्रेम सच्चा नहीं है, कि परमेश्वर प्रेम नहीं करता? क्या तुम उस पर विश्वास करना बंद कर दोगे? कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर मुझे बचाने के लिए मुझे न्याय और ताड़ना देता है, लेकिन अगर वह मुझे शाप देगा तो मैं उसे अपने परमेश्वर के रूप में कभी नहीं स्वीकारूँगा। यदि परमेश्वर किसी को शाप देता है तो क्या यह उसके लिए अंत का सूचक नहीं है? क्या इसका यह मतलब नहीं है कि उसे दंड दिया जाएगा और नरक में भेज दिया जाएगा? बिना किसी नतीजे की उम्मीद के परमेश्वर पर विश्वास करने का क्या मतलब है?” क्या यह एक विकृत धारणा नहीं है? यदि भविष्य में कभी परमेश्वर तुम्हें शाप देता है, तो क्या तुम तब भी उसके पीछे चलोगे जैसे अभी चलते हो? क्या तुम तब भी अपना कर्तव्य निभाओगे? यह कहना मुश्किल है। कुछ लोग अपने कर्तव्य पर दृढ़ बने रहने में सक्षम होते हैं; वे सत्य का अनुसरण करने पर जोर देते हैं और तैयार रहते हैं। हालाँकि, अन्य लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं और जीवन की प्रगति को महत्व नहीं देते हैं—वे इन चीजों की उपेक्षा करते हैं। वे केवल पुरस्कार और सुविधाएँ प्राप्त करने और परमेश्वर के घर में एक उपयोगी व्यक्ति बनने के बारे में सोचते हैं। उन्हें जब भी समय मिलता है, वे हमेशा इसी बात का उल्लेख करते रहते हैं कि उन्होंने हाल ही में क्या-क्या काम किए हैं, उन्होंने चर्च के लिए कौन से अच्छे कर्म किए हैं, उन्होंने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है और उन्हें क्या पुरस्कार और ताज दिए जाने चाहिए। ये वे चीजें हैं जिनका वे अपने खाली समय में उल्लेख करते रहते हैं। जब परमेश्वर ऐसे लोगों को शाप देता है तो क्या यह उनके लिए चौंकाने वाली और अनपेक्षित बात नहीं होती है? क्या वे तुरंत परमेश्वर पर विश्वास करना बंद करने के लिए उत्तरदायी हैं? क्या इसकी कोई संभावना है? (हाँ।) एक सृजित प्राणी का अपने सृष्टिकर्ता के प्रति जो एकमात्र दृष्टिकोण होना चाहिए, वह है समर्पण का, ऐसा समर्पण जो बिना शर्त हो। यह ऐसी चीज़ है, जिसे आज कुछ लोग स्वीकार करने में असमर्थ हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और उसमें सत्य वास्तविकता नहीं है। जब परमेश्वर ऐसी चीजें करता है जो तुम्हारी धारणाओं से उलट होती है, तो अगर तुम्हारे परमेश्वर को गलत समझने की संभावना है—तुम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो और उसे धोखा दे सकते हो—तो फिर तुम परमेश्वर के समक्ष समर्पण कर पाने से बहुत दूर हो। हालाँकि मनुष्य को परमेश्वर के वचन द्वारा पोषण और सिंचन प्रदान किया जाता है, फिर भी वे वास्तव में एक ही लक्ष्य के लिए प्रयास कर रहे हैं, जो अंततः परमेश्वर के प्रति बिना शर्त पूर्ण समर्पण करने में सक्षम होना है, जिस बिंदु पर तुम, एक सृजित प्राणी, आवश्यक मानक तक पहुँच चुके होगे। कई बार ऐसा भी होता है जब परमेश्वर जानबूझकर तुम्हारी धारणाओं से उलट चीजें करता है, और जानबूझकर ऐसी चीजें करता है जो तुम्हारी इच्छा के विपरीत होती हैं और जो सत्य के भी विपरीत प्रतीत हो सकती हैं; तुम्हारे प्रति असंगत और तुम्हारी प्राथमिकताओं के प्राथमिकताओं के विरुद्ध प्रतीत हो सकती हैं। इन चीजों को स्वीकार करना तुम्हारे लिए मुश्किल हो सकता है, तुम उनका कोई मतलब नहीं समझ पाते, और चाहे तुम उनका कैसे भी विश्लेषण करो, तुम्हें वे गलत प्रतीत हो सकती हैं और शायद तुम उन्हें स्वीकार न कर पाओ, तुम्हें ऐसा लग सकता है कि परमेश्वर का ऐसा करना अनुचित था—पर दरअसल परमेश्वर ने यह जानबूझकर किया होता है। तो फिर ऐसी चीजें करने के पीछे परमेश्वर का क्या लक्ष्य होता है? यह तुम्हारी परीक्षा लेने और तुम्हें प्रकट करने के लिए होता है, यह देखने के लिए कि तुम सत्य की खोज करने में सक्षम हो या नहीं, कि तुममें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण है या नहीं। परमेश्वर जो सब करता और अपेक्षा करता है, उसका कोई आधार न खोजो, उसका कारण न पूछो। परमेश्वर के साथ तर्क करने का कोई लाभ नहीं है। तुम्हें बस यह स्वीकार करना है कि परमेश्वर सत्य है, और तुम्हें पूर्ण समर्पण में सक्षम होना है। तुम्हें यह स्वीकार करना है कि परमेश्वर तुम्हारा सृष्टिकर्ता और तुम्हारा परमेश्वर है। यह हर तर्क-वितर्क से ऊपर है, हर सांसारिक ज्ञान से ऊपर है, हर मानवीय नैतिकता, संहिता, ज्ञान, फलसफे या पारंपरिक संस्कृति से ऊपर है—यह मानवीय भावनाओं, मानवीय धार्मिकता और तथाकथित मानवीय प्रेम से भी ऊपर है। यह हर चीज से ऊपर है। अगर यह तुम्हें स्पष्ट नहीं है तो देर-सवेर तुम्हारे साथ कुछ होगा और तुम गिर पड़ोगे। और कुछ नहीं तो तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर दोगे और भटकाव की राह पर चले जाओगे; अगर तुम आखिर में प्रायश्चित करने में सफल रहते हो, और परमेश्वर की मनोहरता को पहचान लेते हो, अपने अंदर परमेश्वर के कार्य के महत्व को पहचान लेते हो, तब भी तुम्हारे उद्धार की उम्मीद बाकी रहेगी—पर अगर तुम इसकी वजह से गिर पड़ते हो और वापस उठ नहीं पाते, तो तुम्हारे लिए कोई उम्मीद नहीं है। परमेश्वर लोगों का न्याय करे, उन्हें ताड़ना दे, शाप दे, ये सब उन्हें बचाने के लिए हैं, और उन्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें किस चीज से डरना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के ऐसा कहने से डरना चाहिए, “मैं तुम्हें ठुकराता हूँ।” अगर परमेश्वर ऐसा कहता है तो तुम मुसीबत में हो : इसका मतलब है कि परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाएगा, और तुम्हारे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है। और इसलिए, परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने में लोगों को परमेश्वर के इरादे समझने चाहिए। तुम कुछ भी करो, पर परमेश्वर के वचनों में मीन-मेख निकालते हुए यह न कहो, “न्याय और ताड़ना ठीक हैं, पर निंदा, शाप और विनाश—क्या इनका मतलब यह नहीं कि मेरे लिए सब खत्म हो चुका है? सृजित प्राणी होने का क्या मतलब है? इसलिए मैं अब से सृजित प्राणी नहीं बनने वाला हूँ और तुम मेरे परमेश्वर नहीं होगे।” अगर तुम परमेश्वर को नकार दोगे, अपनी गवाही में डटकर नहीं खड़े रहोगे, तो परमेश्वर तुम्हें सचमुच अस्वीकार कर देगा। क्या तुम लोग यह जानते हो? लोग चाहे कितने ही समय से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हों, उन्होंने चाहे कितने ही रास्ते तय किए हों, कितना ही काम किया हो, कितने ही कर्तव्य निभाए हों, इस अवधि में उन्होंने जो कुछ भी किया है वह सब एक चीज की तैयारी के लिए है। वह क्या है? वे अंततः परमेश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण, बिना शर्त समर्पण दिखाने में सक्षम होने की तैयारी करते रहे हैं। “बिना शर्त” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम कोई सफाई नहीं देते, और अपने वस्तुनिष्ठ कारणों की कोई बात नहीं करते, इसका अर्थ है कि तुम बाल की खाल नहीं निकालते; तुम ऐसा करने के योग्य नहीं हो क्योंकि तुम सृजित प्राणी हो। जब तुम परमेश्वर के साथ बाल की खाल निकालते हो तो तुम अपनी जगह नहीं पहचान पाते, और जब तुम परमेश्वर के साथ तर्क करने की कोशिश करते हो—तो एक बार फिर तुम अपनी जगह नहीं पहचान पाते। परमेश्वर के साथ बहस मत करो, हमेशा कारण समझने की कोशिश न करो, समर्पण से पहले समझने पर और समझ न आए तो समर्पण न करने पर अड़े न रहो। जब तुम ऐसा करते हो तो तुम अपना स्थान पहचान नहीं पाते, जिसका मतलब है कि परमेश्वर के प्रति तुम्हारा समर्पण संपूर्ण नहीं है, यह सापेक्षिक और सशर्त समर्पण है। वे लोग जो परमेश्वर के प्रति अपने समर्पण के लिए शर्तें रखते हैं, क्या परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण करने वाले लोग हैं? क्या तुम परमेश्वर से परमेश्वर की तरह व्यवहार कर रहे हो? क्या तुम परमेश्वर की सृष्टिकर्ता के रूप में आराधना करते हो? अगर नहीं, तो परमेश्वर तुम्हें अभिस्वीकृत नहीं करता। परमेश्वर के प्रति संपूर्ण और बिना शर्त समर्पण हासिल करने के लिए तुम्हें क्या अनुभव करना चाहिए? और इसे कैसे अनुभव करना चाहिए? एक बात तो यह कि लोगों को परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए और उन्हें काट-छाँट स्वीकार करनी चाहिए। इसके साथ ही उन्हें परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करना चाहिए, और अपना कर्तव्य निभाते समय सत्य का अनुसरण करना चाहिए। उन्हें जीवन प्रवेश को समझने से जुड़े सत्य के विभिन्न पहलुओं को समझना चाहिए और परमेश्वर के इरादों की समझ हासिल करनी चाहिए। कई बार, यह लोगों की क्षमता से बाहर होता है, और उनमें सत्य की समझ प्राप्त करने के लिए अंतर्दृष्टि की शक्तियों का अभाव होता है, और वे दूसरों के उनके साथ संगति करने या परमेश्वर द्वारा तैयार की गई विभिन्न स्थितियों से मिले सबक के बाद ही थोड़ा-बहुत समझ पाते हैं। पर तुम्हें यह बोध होना चाहिए कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर के प्रति समर्पण की भावना होनी चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के साथ तर्क नहीं करना चाहिए या कोई शर्त नहीं रखनी चाहिए; परमेश्वर जो भी करता है वह वही होता है जो किया जाना चाहिए, क्योंकि वह सृष्टिकर्ता है और तुम एक सृजित प्राणी हो। तुम्हारा रवैया समर्पण का होना चाहिए, तुम्हें हमेशा तर्क या शर्त की बात नहीं करनी चाहिए। अगर तुम्हारे अंदर समर्पण के सबसे बुनियादी रवैये का भी अभाव है, और तुम परमेश्वर पर संदेह करने और उससे आशंकित होने की हद तक जा सकते हो, या अपने मन में यह सोच सकते हो, “मुझे यह देखना होगा कि क्या परमेश्वर मुझे सचमुच बचाएगा और क्या परमेश्वर सचमुच धार्मिक है। हर कोई कहता है कि परमेश्वर प्रेम है—तो ठीक है, मुझे यह देखना ही है कि परमेश्वर मेरे अंदर जो कुछ करता है उसमें क्या सचमुच प्रेम शामिल है, क्या यह सचमुच प्रेम है,” अगर तुम निरंतर यह जाँचते रहते हो कि परमेश्वर जो कुछ करता है वह तुम्हारी धारणाओं और रुचियों के अनुरूप है या नहीं, या जिसे तुम सत्य समझते हो उसके अनुरूप है या नहीं, तो तुम अपनी जगह नहीं पहचान पा रहे और तुम मुसीबत में हो : संभावना है कि तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर बैठोगे। समर्पण से जुड़े सत्य बहुत अहम हैं, और किसी भी सत्य को सिर्फ दो-तीन वाक्यों में पूरी तरह और स्पष्ट रूप से समझाया नहीं जा सकता; वे सब लोगों की विभिन्न अवस्थाओं और भ्रष्टता से जुड़े हुए हैं। सत्य वास्तविकता में प्रवेश एक या दो—या तीन या पाँच—वर्षों में हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिए बहुत-सी चीजों के अनुभव की, परमेश्वर के वचनों के बहुत-से न्याय और ताड़ना के अनुभव की, बहुत-सी काट-छाँट के अनुभव की जरूरत होती है। केवल जब तुम अंततः सत्य का अभ्यास करने की क्षमता प्राप्त कर लोगे तभी तुम्हारा सत्य का अनुसरण असरदार होगा और केवल तभी तुम सत्य-वास्तविकता को प्राप्त करोगे। जिनके पास सत्य वास्तविकता है, केवल वही सच्चे अनुभव वाले लोग होते हैं।

अंश 25

कार्य का यह चरण शुरू होने के कई वर्षों बाद, एक व्यक्ति था जो परमेश्वर में विश्वास करता था लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करता था; वह केवल पैसा कमाना और एक साथी खोजना चाहता था, अमीरों जैसा जीवन जीना चाहता था, इसलिए उसने कलीसिया छोड़ दी। कुछ वर्ष इधर-उधर भटकने के बाद वह अचानक वापस आ गया। उसका दिल पश्चात्ताप से भरा हुआ था, उसने अनगिनत आँसू बहाए। यह साबित करता है कि उसके हृदय ने परमेश्वर को पूरी तरह नहीं छोड़ा, जो एक अच्छी बात है; उसके पास अभी भी बचाए जाने का एक अवसर और आशा है। अगर वह विश्वास करना छोड़ देता, अविश्वासियों जैसा बन जाता, तो वह पूरी तरह से खत्म हो जाता। अगर वह सच में पश्चात्ताप कर सकता है, तो उसके लिए अब भी उम्मीद है; यह एक दुर्लभ और अनमोल बात है। चाहे परमेश्वर कैसे भी कार्य करे, और चाहे वह लोगों के साथ कैसे भी व्यवहार करे—यहाँ तक कि चाहे वह उनसे घृणा करे, उन्हें नापसंद करे या उन्हें शाप दे—अगर कोई ऐसा दिन आता है कि लोग खुद को बदल सकते हैं, तो मुझे बहुत खुशी होगी; क्योंकि इसका मतलब यह होगा कि लोगों के मन में अभी भी परमेश्वर के लिए थोड़ा-सा स्थान तो है, कि उन्होंने अपनी मानवीय समझ या अपनी मानवता पूरी तरह से नहीं खोई है, कि वे अभी भी परमेश्वर में विश्वास करना चाहते हैं, और उसके अस्तित्व को स्वीकार करके उसके सम्मुख लौटने का कम-से-कम थोड़ा-बहुत इरादा रखते हैं। जिन लोगों के दिल में वास्तव में परमेश्वर है, चाहे उन्होंने कभी भी परमेश्वर का घर छोड़ा हो, यदि वे वापस आते हैं, और अभी भी इस परिवार को प्रिय मानते हैं, तो मैं भावुकता से उससे जुड़ जाऊंगा और कुछ सुकून पाऊँगा। लेकिन अगर वे कभी वापस नहीं लौटते, तो मैं इसे दयनीय समझूँगा। यदि वे वापस आकर वास्तव में पश्चात्ताप कर सकते हैं, तो मेरा दिल विशेष रूप से संतुष्टि और सुकून से भर जाएगा। इस व्यक्ति का अभी भी लौटने में सक्षम होना यह दर्शाता है कि वह परमेश्वर को नहीं भूला था; वह इसलिए लौटा क्योंकि उसके दिल में वह अभी भी परमेश्वर के लिए ललक थी। हमारा मिलन बहुत ही मार्मिक था। जब वह गया था, तो वह निश्चित रूप से काफी नकारात्मक था, और वह खराब अवस्था में था; पर अगर वह अब वापस आ सकता है, तो इससे साबित होता है कि उसकी अभी भी परमेश्वर में आस्था है। हालाँकि, वह आगे भी कलीसिया में बना रह सकता है या नहीं, यह अज्ञात है, क्योंकि लोग बहुत जल्दी बदल जाते हैं। अनुग्रह के युग में, यीशु में मनुष्यों के लिए दया और अनुग्रह था। यदि सौ में से एक भेड़ खो जाए, तो वह निन्यानबे को छोड़कर एक को खोजता था। यह पंक्ति कोई यांत्रिक कार्य नहीं दर्शाती, न ही कोई विनियम दर्शाती है, बल्कि यह मानव जाति के उद्धार को लेकर परमेश्वर के गहरे इरादे, और मानव जाति के लिए परमेश्वर के गहरे प्रेम को दर्शाता है। यह कोई काम करने का तरीका नहीं है, बल्कि यह उसका स्वभाव है और उसकी मानसिकता है। इसलिए, कुछ लोग छह महीने या साल भर के लिए कलीसिया से चले जाते हैं, या बहुत-सी कमजोरियों या गलत धारणाओं के शिकार हैं, और फिर भी बाद में वास्तविकता के प्रति जाग्रत होने, ज्ञान प्राप्त करने, अपने-आपको बदलने और सही मार्ग पर लौटने की उनकी क्षमता मुझे खासतौर से सुकून देती है, और मुझे थोड़ा-सा आनंद देती है। आज के इस मौज-मस्ती और वैभवता के संसार में, और बुराई के इस युग में परमेश्वर को स्वीकार करने और सही रास्ते पर लौट आने में सक्षम हो पाना ऐसी चीज है, जो खुशी और रोमांच प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए बच्चों का पालन-पोषण करने को लो : चाहे तुम्हारे प्रति उनका व्यवहार संतानोचित हो या न हो, अगर वे तुम्हारा कोई संज्ञान लिए बिना घर छोड़कर चले जाएँ और कभी न लौटें, तो तुम्हें कैसा महसूस होगा? अपने दिल की गहराई में तुम तब भी उनकी चिंता करते रहोगे, और तुम हमेशा यह सोचोगे, “मेरा बेटा कब लौटेगा? मैं उसे देखना चाहता हूँ। आखिर वह मेरा बेटा है, और मैंने उसे यूं ही नहीं पाला-पोसा और प्यार किया।” तुम हमेशा इसी तरह सोचते रहे हो; तुम हमेशा उस दिन की बाट जोहते रहे हो। इस संबंध में हर कोई ऐसा ही महसूस करता है, परमेश्वर तो और भी ऐसा महसूस करता है—क्या वह और अधिक यह आशा नहीं करता कि भटकने के बाद मनुष्य अपनी वापसी का रास्ता खोज ले, कि उड़ाऊ पुत्र वापस आ जाए? आजकल लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत कम है, पर वह दिन आएगा जब वे परमेश्वर के इरादे को समझ जाएंगे—लेकिन अगर सच्ची आस्था की ओर उनका कोई झुकाव न हो, वे छद्म-विश्वासी हों, तो वे परमेश्वर की चिंता के लायक नहीं हैं।

अंश 26

विभिन्न प्रकार के लोग होते हैं और उनमें भेद इस बात से किया जाता है कि उनके पास किस प्रकार की आत्मा है। कुछ लोगों में मानवीय आत्माएँ होती हैं, और वे वही होते हैं जिन्हें परमेश्वर ने पूर्वनियत किया और चुना है। कुछ लोगों में मानवीय आत्मा नहीं होती; वे दुष्टात्माएँ हैं, जो धोखा देकर घुस आई हैं। जो पूर्वनियत नहीं किए गए थे और जिन्हें परमेश्वर द्वारा चुना नहीं गया था, अगर वे किसी तरह परमेश्वर के घर में आ भी गए, तब भी उन्हें बचाया नहीं जा सकता, और अंततः उन्हें बेनकाब कर निकाल दिया जाएगा। लोग परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर पाते हैं या नहीं, और उसे स्वीकार करने के बाद वे किस तरह के मार्ग पर चलते हैं और वे बदल सकते हैं या नहीं, यह सब उनके भीतर की आत्मा और प्रकृति पर निर्भर करता है। कुछ लोग भटकने से खुद को रोक नहीं पाते; उनकी आत्मा उन्हें ऐसे लोगों के रूप में नियत करती है, और वे बदल नहीं सकते। कुछ लोगों में पवित्र आत्मा काम नहीं करता, क्योंकि वे सही मार्ग पर नहीं चलते; हालाँकि अगर वे खुद को बदल सकें, तो अभी भी पवित्र आत्मा कार्य कर सकता है। अगर वे ऐसा नहीं करते, तो उनके लिए सब खत्म हो जाएगा। हर तरह की स्थिति रहती है, लेकिन परमेश्वर हर व्यक्ति के साथ अपने व्यवहार में धार्मिक होता है। लोग परमेश्वर के धार्मिक स्‍वभाव को कैसे जानते और समझते हैं? धार्मिक व्‍यक्ति उसके आशीष प्राप्‍त करते हैं और दुष्ट उसके द्वारा शापित होते हैं। यही परमेश्वर की धार्मिकता है। परमेश्वर अच्छाई को पुरस्‍कृत और बुराई को दण्डित करता है, और वह प्रत्‍येक मनुष्‍य के कर्मों के अनुसार उसका फल देता है। यह सही है, लेकिन वर्तमान में कुछ घटनाएँ ऐसी हैं जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, जैसे कि कुछ लोग परमेश्वर पर विश्वास और उसकी आराधना करते हैं, वे उसके द्वारा मारे या शापित किए जाते हैं, या जिन्हें परमेश्वर ने न तो कभी आशीष दी और न ही उन पर कोई ध्यान दिया; वे चाहे उसकी जितनी भी आराधना करें, वह उन्हें अनदेखा करता है। कुछ ऐसे कुकर्मी लोग भी हैं जिन्हें परमेश्वर न तो आशीष देता है, न ही दंड देता है, तब भी वे समृद्ध हैं और उनकी कई संततियाँ हैं, और उनके लिए सब अच्छा ही होता है; वे हर चीज में सफल होते हैं। क्‍या यही परमेश्वर की धार्मिकता है? कुछ लोग कहते हैं, “हम परमेश्वर की आराधना करते हैं, फिर भी हमें उससे आशीष प्राप्त नहीं हुए, जबकि परमेश्वर की आराधना न करने वाले, यहाँ तक कि उसका विरोध करने वाले कुकर्मी लोग भी हमसे बेहतर और अधिक समृद्ध जीवन जी रहे हैं। परमेश्वर धार्मिक नहीं है!” यह तुम लोगों को क्‍या दर्शाता है? मैंने अभी तुम्‍हें दो उदाहरण दिए। इनमें से कौन-सा परमेश्वर की धार्मिकता की बात करता है? कुछ लोग कहते हैं, “वे दोनों परमेश्वर की धार्मिकता को सामने लाते हैं!” वे यह क्‍यों कहते हैं? परमेश्वर के कार्यों के सिद्धांत हैं—बस लोग उन्हें स्पष्ट रूप से देख नहीं पाते, और उन्हें स्पष्ट रूप से न देख पाने के कारण वे यह नहीं कह सकते कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है। मनुष्य केवल वही देख सकता है जो सतह पर होता है; वे चीजों को उनके सही रूप में नहीं देख पाते। इसलिए, परमेश्वर जो करता है वह धार्मिक होता है, चाहे वह मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के कितना भी कम अनुरूप क्यों न हो। ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो लगातार शिकायत करते रहते हैं कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे स्थिति की असलियत नहीं समझते। चीजों को हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आलोक में देखने पर उनके लिए गलतियाँ करना आसान होता है। लोगों का ज्ञान उनके विचारों और दृष्टिकोणों में, लेनदेन करने के उनके विचारों के भीतर, या अच्छे और बुरे, सही और गलत या तर्क के संबंध में उनके परिप्रेक्ष्यों के भीतर मौजूद होता है। जब कोई चीजों को ऐसे परिप्रेक्ष्यों से देखता है, तो उसके लिए परमेश्वर को गलत समझना और धारणाओं को जन्म देना आसान होता है, और वह व्यक्ति परमेश्वर का विरोध और उसके बारे में शिकायत करेगा। एक गरीब व्यक्ति था जो केवल परमेश्वर की आराधना करना जानता था, लेकिन परमेश्वर ने उसकी अनदेखी कर दी और उसे आशीष नहीं दिया। शायद तुम लोग सोच रहे होगे, “भले ही परमेश्वर ने उसे इस जीवन में आशीष नहीं दी, लेकिन निश्चित रूप से उसे अनंतकाल में आशीष देगा और दस हजार गुना अधिक पुरस्कृत करेगा। क्या यह परमेश्वर को धार्मिक नहीं बनाता? एक अमीर व्यक्ति इस जीवन में सौ गुना आशीष का आनंद लेता है, और अनंतकाल में अपने विनाश को प्राप्त होता है। क्या यह भी परमेश्वर की धार्मिकता नहीं है?” किसी व्यक्ति को परमेश्वर की धार्मिकता को कैसे समझना चाहिए? परमेश्वर के कार्य को एक उदाहरण के रूप में लेते हुए इसे समझो : अनुग्रह के युग में अपना काम पूरा करने के बाद अगर परमेश्वर ने अपना कार्य समाप्त कर दिया होता और अंत के दिनों का न्याय का कार्य न किया होता, और मानवजाति को पूरी तरह से न बचाया होता, जिसके कारण मानवता का पूरी तरह से विनाश हो जाता, तो क्या उसे प्रेम और धार्मिकता धारण करने वाला माना जा सकता था? अगर परमेश्वर की आराधना करने वाले लोगों को आग और गंधक की झील में डाल दिया जाता है, जबकि जो लोग परमेश्वर की आराधना नहीं करते और यहाँ तक कि परमेश्वर के अस्तित्व से भी परिचित नहीं हैं उन्हें परमेश्वर जीवित रहने दे है, तो इससे क्या अर्थ निकाला जाना चाहिए? धर्म-सिद्धांत के संदर्भ में बोलते समय लोग आम तौर पर हमेशा कहते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है, लेकिन अगर ऐसी स्थिति का सामना करना पड़े, तो हो सकता है कि वे उचित प्रकार से अंतर न कर पाएँ और यहाँ तक कि परमेश्वर के बारे में शिकायत कर उसे अधार्मिक समझ सकते हैं।

परमेश्वर के प्रेम और धार्मिकता को अच्छी तरह से समझा जाना चाहिए और परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर बताया और समझाया जाना चाहिए। इसके भी अधिक, परमेश्वर के प्रेम और धार्मिकता को वास्तव में समझने के लिए व्यक्ति को वास्तविक अनुभव से गुजरना चाहिए और परमेश्वर का प्रबोधन प्राप्त करना चाहिए। उसके प्रेम और धार्मिकता के मूल्यांकन का आधार व्यक्ति की धारणाएँ और कल्पनाएँ नहीं होनी चाहिए। मानव धारणाओं के अनुसार, अच्छाई को पुरस्कार दिया जाता है और बुराई को दंड दिया जाता है, अच्छे लोगों को अच्छा प्रतिफल मिलता है और दुष्ट व्यक्तियों को बुराई का प्रतिफल मिलता है, और जो बुराई नहीं करते उन सभी को अच्छाई का प्रतिफल मिलता है और आशीष प्राप्त होता है। ऐसा लगेगा कि ऐसे सभी मामलों में जहाँ लोग दुष्ट नहीं हैं, उन्हें अच्छाई का प्रतिफल दिया जाना चाहिए; केवल यही परमेश्वर की धार्मिकता है। क्या यह लोगों की धारणा नहीं है? लेकिन अगर वे अच्छा प्रतिफल प्राप्त करने में असफल हो जाते हैं तो क्या? फिर क्या तुम कहोगे कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? उदाहरण के लिए, नूह के समय में, परमेश्वर ने नूह से कहा : “सब प्राणियों के अन्त करने का प्रश्न मेरे सामने आ गया है; क्योंकि उनके कारण पृथ्वी उपद्रव से भर गई है, इसलिये मैं उनको पृथ्वी समेत नष्‍ट कर डालूँगा” (उत्पत्ति 6:13)। तब उसने नूह को नाव बनाने का आदेश दिया। जब नूह ने परमेश्वर का आदेश स्वीकार कर नाव बना ली, तब चालीस दिनों और रातों तक धरती पर भारी मूसलाधार वर्षा हुई, पूरी दुनिया बाढ़ में डूब गई और, नूह और उसके परिवार के सात सदस्यों को छोड़कर, परमेश्वर ने उस युग के सभी मनुष्यों को नष्ट कर दिया। तुम लोग इससे क्या समझते हो? क्या तुम लोग कहोगे कि परमेश्वर स्नेही नहीं है? जहाँ तक मनुष्य का संबंध है, मानवजाति चाहे कितनी ही भ्रष्ट हो, अगर परमेश्वर मानवजाति को नष्ट करता है, तो इसका मतलब है कि वह स्नेही नहीं है—क्या ऐसा मानना सही है? क्या यह मानना बेतुका नहीं है? परमेश्वर ने जिन लोगों का विनाश किया उनसे वह प्रेम नहीं करता था, लेकिन क्या तुम ईमानदारी से कह सकते हो कि वह उन लोगों से प्यार नहीं करता था जो बच गए और जिन्होंने उसका उद्धार प्राप्त किया? पतरस परमेश्वर से अनंत प्रेम करता था और परमेश्वर भी पतरस से प्रेम करता था—क्या तुम सच में कह सकते हो कि परमेश्वर स्नेही नहीं है? परमेश्वर उनसे प्रेम करता है जो उससे वास्तव में प्यार करते हैं और वह उन लोगों से घृणा करता है और उन्हें शाप देता है जो उसका विरोध करते हैं और पश्चात्ताप करने से इनकार करते हैं। परमेश्वर में प्रेम और घृणा दोनों है, यही सत्य है। लोगों को अपनी धारणाओं या कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर के बारे में अपनी राय नहीं बनानी चाहिए या उसे संकीर्ण खानों में नहीं रखना चाहिए, क्योंकि मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ उसका चीजों को देखने का तरीका है, और इसमें बिल्कुल भी सच्चाई नहीं होती है। परमेश्वर को मनुष्य के प्रति उसके रवैये, उसके स्वभाव और सार के आधार पर जाना जाना चाहिए। परमेश्वर जो भी करता है और जिन चीजों का समाधान करता है उन्हें बाहर से देखकर व्यक्ति को परमेश्वर के सार को परिभाषित करने का प्रयास बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। मानवजाति को शैतान ने बहुत ज्यादा भ्रष्ट कर दिया है; वे भ्रष्ट मानवजाति के प्रकृति-सार को नहीं जानते, इस बारे में तो बिल्कुल भी जानते कि भ्रष्ट मानवजाति परमेश्वर के समक्ष क्या है, न ही यह जानते हैं कि उसके धार्मिक स्वभाव के अनुसार उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। अय्यूब को ही देखो, वह एक धार्मिक व्यक्ति था और परमेश्वर ने उसे आशीष दी। यह परमेश्वर की धार्मिकता थी। शैतान ने यहोवा के साथ एक शर्त लगाई : “क्या अय्यूब परमेश्वर का भय बिना लाभ के मानता है? क्या तू ने उसकी, और उसके घर की, और जो कुछ उसका है उसके चारों ओर बाड़ा नहीं बाँधा? तू ने तो उसके काम पर आशीष दी है, और उसकी सम्पत्ति देश भर में फैल गई है। परन्तु अब अपना हाथ बढ़ाकर जो कुछ उसका है, उसे छू; तब वह तेरे मुँह पर तेरी निन्दा करेगा” (अय्यूब 1:9-11)। यहोवा परमेश्वर ने कहा, “जो कुछ उसका है, वह सब तेरे हाथ में है; केवल उसके शरीर पर हाथ न लगाना” (अय्यूब 1:12)। तब शैतान अय्यूब के पास गया और अय्यूब को प्रलोभन दिया, और अय्यूब ने परीक्षणों का सामना किया। उसके पास मौजूद सब कुछ छिन गया—उसने अपने बच्चे और अपनी संपत्ति खो दी, और उसका पूरा शरीर छालों से भर गया। अब, क्या अय्यूब की परीक्षाओं में परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव था? तुम लोग स्पष्ट रूप से नहीं कह सकते, है ना? अगर तुम एक धार्मिक व्यक्ति भी हो, तो भी परमेश्वर को तुम्हें परीक्षण का भागी बनाने और अपनी गवाही देने की अनुमति देने का अधिकार है। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है; वह सबके साथ समान व्यवहार करता है। ऐसा नहीं है कि धार्मिक लोगों को फिर परीक्षणों से गुजरने की जरूरत नहीं है भले ही वे इन्हें बर्दाश्त कर सकते हैं या फिर उनकी रक्षा की ही जानी चाहिए; यह बात नहीं है। परमेश्वर को धार्मिक लोगों को परीक्षणों में डालने का अधिकार है। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का प्रकाशन है। अंत में, अय्यूब के परीक्षणों से गुजरने और यहोवा की गवाही देने के बाद, यहोवा ने उसे पहले से भी अधिक आशीष दी, पहले से बेहतर आशीष दी और उसने दोगुनी आशीष दी। इतना ही नहीं, यहोवा ने उसे दर्शन दिए, और हवा में से उससे बातें कीं, और अय्यूब ने उसे आमने-सामने देखा। यह परमेश्वर द्वारा उसे दी गई आशीष थी। यह परमेश्वर की धार्मिकता थी। जब अय्यूब परीक्षण से गुजर चुका और यहोवा ने देखा कि कैसे अय्यूब ने शैतान की मौजूदगी में उसकी गवाही दी और शैतान को लज्जित किया, तब अगर यहोवा उसे अनदेखा कर मुड़कर चला जाता, और बाद में अय्यूब को आशीष नहीं मिलती—तो क्या इसमें परमेश्वर की धार्मिकता होती? परीक्षणों के बाद अय्यूब को आशीष मिली या नहीं, या यहोवा ने उसे दर्शन दिए या नहीं, इन सब में परमेश्वर की सदिच्छा शामिल है। अय्यूब को दर्शन देना परमेश्वर की धार्मिकता थी, और उसे दर्शन न देना भी परमेश्वर की धार्मिकता होती। तुम—सृजित प्राणी—किस आधार पर परमेश्वर से माँग करते हो? लोग परमेश्वर से माँगें करने के योग्य नहीं हैं। परमेश्वर से माँगें करने से ज्यादा अनुचित कुछ नहीं है। वह वही करेगा जो उसे करना ही चाहिए, और उसका स्‍वभाव धार्मिक है। धार्मिकता किसी भी तरह से निष्पक्षता या तर्कसंगतता नहीं है; यह समतावाद नहीं है, या तुम्‍हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्‍हें तुम्‍हारे हक का हिस्‍सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्‍हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्‍हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है, यह केवल निष्पक्ष और विवेकपूर्ण होना है। बहुत कम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान पाते हैं। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को खत्‍म कर देता : क्या यह धार्मिक होता? वास्तव में, यह धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्‍यों कहा जाता है? लोग धार्मिकता को कैसे देखते हैं? अगर कोई चीज लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्वर धार्मिक है। अगर परमेश्वर ने पहले तभी अय्यूब को नष्‍ट कर दिया होता, तो लोगों ने यह न कहा होता कि वह धार्मिक है। हालाँकि, लोग भ्रष्‍ट कर दिए गए हों या नहीं, वे बुरी तरह से भ्रष्‍ट कर दिए गए हों या नहीं, उन्हें नष्ट करते समय क्या परमेश्वर को इसका औचित्य सिद्ध करना पड़ता है? क्‍या उसे लोगों को बतलाना चाहिए कि वह ऐसा किस आधार पर करता है? क्या परमेश्वर को लोगों को बताना चाहिए कि उसने कौन से नियम बनाए हैं? इसकी आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर की नजरों में, जो व्यक्ति भ्रष्‍ट है, और जो परमेश्वर का विरोध कर सकता है, वह व्यक्ति बेकार है; लेकिन परमेश्वर चाहे जैसे उससे निपटे, वह उचित ही होगा, और यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। अगर तुम लोग परमेश्वर की निगाहों में अप्रिय होते, और अगर वह कहता कि तुम्‍हारी गवाही के बाद तुम उसके किसी काम के नहीं हो और इसलिए उसने तुम लोगों को नष्‍ट कर दिया होता, तब भी क्‍या यह उसकी धार्मिकता होती? हाँ, होती। तुम इसे तथ्यों से इस समय भले न पहचान सको, लेकिन तुम्‍हें धर्म-सिद्धांत में इसे समझना ही चाहिए। तुम लोग क्‍या कहोगे—परमेश्वर द्वारा शैतान का विनाश क्‍या उसकी धार्मिकता की अभिव्‍यक्ति है? (हाँ।) अगर उसने शैतान को बने रहने दिया होता, तब तुम क्‍या कहते? तुम हाँ कहने का दुस्‍साहस तो नहीं करते? परमेश्वर का सार धार्मिकता है। हालाँकि वह जो करता है उसे बूझना आसान नहीं है, तब भी वह जो कुछ भी करता है वह सब धार्मिक है; बात सिर्फ इतनी है कि लोग समझते नहीं हैं। जब परमेश्वर ने पतरस को शैतान के सुपुर्द कर दिया था, तब पतरस की प्रतिक्रिया क्‍या थी? “तुम जो भी करते हो उसकी थाह तो मनुष्‍य नहीं पा सकता, लेकिन तुम जो भी करते हो उस सब में तुम्‍हारी सदिच्छा समाई है; उस सब में धार्मिकता है। यह कैसे सम्‍भव है कि मैं तुम्‍हारी बुद्धि और कर्मों की सराहना न करूँ?” अब तुम्हें यह देखना चाहिए कि मनुष्य के उद्धार के समय परमेश्वर द्वारा शैतान को नष्ट न किए जाने का कारण यह है कि मनुष्य स्पष्ट रूप से देख सकें कि शैतान ने उन्हें कैसे और किस हद तक भ्रष्ट किया है, और परमेश्वर कैसे उन्हें शुद्ध करके बचाता है। अंततः, जब लोग सत्य समझ लेंगे और शैतान का घिनौना चेहरा स्पष्ट रूप से देख लेंगे, और शैतान द्वारा उन्हें भ्रष्ट किए जाने का राक्षसी पाप देख लेंगे, तो परमेश्वर उन्हें अपनी धार्मिकता दिखाते हुए शैतान को नष्ट कर देगा। जब परमेश्वर शैतान को नष्ट करेगा, वह समय परमेश्वर के स्वभाव और बुद्धि से भरा होगा। वह सब जो परमेश्वर करता है धार्मिक है। भले ही लोग परमेश्वर की धार्मिकता को समझ न पाएँ, तब भी उन्हें मनमाने ढंग से आलोचना नहीं करनी चाहिए। अगर मनुष्यों को उसका कोई कृत्‍य अतर्कसंगत प्रतीत होता है, या उसके बारे में उनकी कोई धारणाएँ हैं, और उसकी वजह से वे कहते हैं कि वह धार्मिक नहीं है, तो वे सर्वाधिक अतर्कसंगत हो रहे हैं। तुम देखो कि पतरस ने पाया कि कुछ चीजें अबूझ थीं, लेकिन उसे पक्का विश्‍वास था कि परमेश्वर की बुद्धिमता विद्यमान थी और उन चीजों में उसकी इच्छा थी। मनुष्‍य हर चीज की थाह नहीं पा सकते; इतनी सारी चीजें हैं जिन्‍हें वे समझ नहीं सकते। इस तरह, परमेश्वर के स्‍वभाव को जानना आसान बात नहीं है। धार्मिक संसार में परमेश्वर पर विश्वास करने वाले बहुत सारे लोग होने के बावजूद, कुछ ही लोग उसके स्वभाव को समझ पाते हैं। जब कुछ लोगों ने धार्मिक लोगों के बीच सुसमाचार फैलाने का प्रयास किया और उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़वाए, न सिर्फ उन्होंने खोज और जाँच करने का प्रयास नहीं किया, उन्होंने तो परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को ही जला दिया और दंडित हुए। अन्य लोगों ने अफवाहों पर विश्वास किया, परमेश्वर की निंदा की और दंडित हुए। इस तरह की चीजों के घटित होने के बहुत सारे, वास्तव में, अनगिनत उदाहरण हैं। कुछ नए विश्वासी अभिमानी और घमंडी होते हैं, इसलिए वे जब इस बारे में सुनते हैं तो इसे स्वीकार नहीं करते हैं—वे धारणाएँ विकसित कर लेते हैं। परमेश्वर देखता है कि तुम मूर्ख और अज्ञानी हो और वह तुम्हारी अनदेखी कर देता है, लेकिन एक दिन ऐसा आएगा जब वह तुम्हें समझा देगा। अगर तुमने बहुत सालों तक परमेश्वर का अनुसरण किया है और अभी भी इस तरह से, अपनी धारणाओं से चिपके रहते हुए व्यवहार करते हो, न सिर्फ समस्याओं का समाधान करने के लिए सत्य की खोज नहीं करते, बल्कि अपनी धारणाओं को हर तरफ फैला रहे हो और परमेश्वर के घर का मजाक उड़ा रहे हो और व्यंग कर रहे हो, तो तुमको प्रतिशोध का सामना करना पड़ेगा। कुछ मामलों में, परमेश्वर तुमको क्षमा कर कर सकता है, क्योंकि तुम केवल मूर्ख और अज्ञानी थे, लेकिन अगर तुम बेहतर जानते हो और फिर भी जान-बूझकर इस तरह से व्यवहार करते हो, चाहे तुमको जितनी भी सलाह दी जाए इसके बावजूद सुनने में असफल रहते हैं, तो तुम्हें परमेश्वर द्वारा दंडित किया ही जाएगा। तुम केवल यह जानते हो कि परमेश्वर का एक सहनशील पक्ष है, लेकिन यह मत भूलो कि दूसरा पक्ष यह है कि उसका अपमान नहीं किया जा सकता, जो कि उसका धार्मिक स्वभाव है।

अंश 27

“ईशनिंदा और परमेश्वर का अपमान करना पाप है, जिसे इस युग या आने वाले युग में माफ नहीं किया जाएगा, और जो यह पाप करते हैं उनका दोबारा कभी पुनर्जन्म नहीं होगा।” इसका मतलब है कि परमेश्वर का स्वभाव मनुष्य द्वारा अपमानित होने को बर्दाश्त नहीं करता। यह संदेह से परे निश्चित है कि ईशनिंदा और परमेश्वर का अपमान करना पाप है, जिसे इस युग या आने वाले युग में माफ नहीं किया जाएगा। परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा, चाहे जानबूझकर की गई हो या अनजाने में, यह परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करती है, और चाहे कोई भी वजह हो, परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा वाले शब्द बोलना निश्चित रूप से दंडनीय होगा। हालांकि कुछ लोग ऐसी परिस्थितियों में निंदनीय और ईशनिंदा वाले शब्द बोलते हैं, जहां उन्हें यह समझ नहीं आता या जहां उन्हें दूसरों द्वारा गुमराह किया गया है, नियंत्रित किया गया है और दबाया गया है। इन शब्दों को कहने के बाद, वे असहज महसूस करते हैं, उन्हें लगता है कि वे इसके लिए दोषी हैं, और उन्हें बहुत पछतावा होता है। इसके बाद, वे इसमें बदलाव करते हुए और ज्ञान प्राप्त करते हुए काफी अच्छे कर्म करते हैं, और इसी वजह से परमेश्वर उनके पिछले अपराधों को अब याद नहीं रखता। तुम लोगों को परमेश्वर के वचनों को स्पष्ट रूप से जानना चाहिए और उन्हें अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर मनमाने ढंग से लागू नहीं करना चाहिए। तुम्हें जरूर समझना चाहिए कि उसके वचन किसके लिए लक्षित हैं, और वह किस संदर्भ में बोल रहा है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को मनमाने ढंग से लागू या लापरवाही से परिभाषित नहीं करना चाहिए। जो लोग नहीं जानते कि अनुभव कैसे करना है वे किसी भी चीज के बारे में आत्म-चिंतन नहीं करते, और वे खुद को परमेश्वर के वचनों के खिलाफ जाने से नहीं रोकते, जबकि जिनके पास कुछ अनुभव और अंतदृष्टि होती है, उनके अतिसंवेदनशील होने की संभावना रहती है, जब वे परमेश्वर के शापों, उसकी घृणा और लोगों को निकाले जाने के बारे में पढ़ते हैं तो वे खुद को मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के खिलाफ जाने से रोक लेते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते हैं और हमेशा उसे गलत समझ लेते हैं। कुछ लोगों ने परमेश्वर के मौजूदा वचनों को नहीं पढ़ा और उसके मौजूदा कार्यों की जांच-पड़ताल नहीं की, पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता प्राप्त करना तो दूर की बात है। उन्होंने परमेश्वर की आलोचना में बात की, और फिर किसी ने उन तक सुसमाचार फैलाया, जिसे उन्होंने स्वीकार लिया। इसके बाद, उन्हें अपने किए पर पछतावा हुआ और वे पश्चात्ताप करना चाहते हैं, ऐसी स्थिति में हम देखेंगे कि आगे चलकर उनके व्यवहार और अभिव्यक्तियां कैसी होंगी? अगर विश्वास करना शुरू करने के बाद भी उनका व्यवहार बहुत खराब रहता है, और वे घाव पर नमक छिड़कते हुए सोचते हैं, “मैंने पहले ही परमेश्वर के बारे में ईशनिंदा, अपमानजनक और आलोचना वाले शब्द बोले हैं, और अगर परमेश्वर ऐसे लोगों को दंडित करता है, तो मेरा अनुसरण निरर्थक ही है,” तो वे पूरी तरह से असफल होंगे। उन्होंने खुद को निराशा में धकेल दिया है और खुद ही अपनी कब्र खोद ली है।

ज्यादातर लोगों ने कुछ तरीकों से अपराध कर अपनी प्रतिष्ठा घटाई है। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों ने परमेश्वर का विरोध किया है और ईशनिंदा की बातें कही हैं; कुछ लोगों ने परमेश्वर का आदेश नकारकर अपना कर्तव्य नहीं निभाया है, और परमेश्वर द्वारा ठुकरा दिए गए हैं; कुछ लोगों ने प्रलोभन सामने आने पर परमेश्वर को धोखा दिया है; कुछ लोगों ने गिरफ्तार होने पर “तीन पत्रों” पर हस्ताक्षर करके परमेश्वर को धोखा दिया है; कुछ ने भेंटें चुरा ली हैं; कुछ ने भेंटें बरबाद कर दी हैं; कुछ ने अक्सर कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त कर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाया है; कुछ ने गुट बनाकर दूसरों के साथ अशिष्ट व्यवहार किया है, जिससे कलीसिया अस्त-व्यस्त हो गई है; कुछ ने अक्सर धारणाएँ और मृत्यु फैलाकर भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाया है; और कुछ ने व्यभिचार और भोग-विलास में लिप्त रहे हैं और उनका भयानक प्रभाव पड़ा है। जाहिर है, हर किसी के अपने अपराध और दाग हैं। लेकिन कुछ लोग सत्य स्वीकार कर पश्चात्ताप कर पाते हैं, जबकि दूसरे नहीं कर पाते और पश्चात्ताप करने से पहले ही मर जाते हैं। इसलिए लोगों के साथ उनके प्रकृति-सार और उनके निरंतर व्यवहार के अनुसार बर्ताव किया जाना चाहिए। जो पश्चात्ताप कर सकते हैं, वे वो लोग होते हैं जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; लेकिन जो वास्तव में पश्चात्ताप न करने वाले होते हैं, जिन्हें हटाकर निकाल दिया जाना चाहिए, उन्हें हटाकर निकाल दिया जाएगा। कुछ लोग कुकर्मी हैं, कुछ अज्ञानी हैं, कुछ मूर्ख हैं और कुछ क्रूर हैं। हर कोई अलग है। कुछ कुकर्मी लोगों पर बुरी आत्माओं का साया होता है, जबकि कुछ लोग शैतान और राक्षसों के अनुचर होते हैं। कुछ लोग विशेष रूप से पापी प्रकृति के होते हैं, जबकि कुछ लोग खासकर धोखेबाज होते हैं, कुछ धन के मामले में बहुत लालची होते हैं, और अन्य लोग यौन मामलों में आनंद लेते हैं। हर किसी का व्यवहार अलग है, इसलिए लोगों को उनकी प्रकृति और निरंतर व्यवहार के अनुसार व्यापक रूप से देखा जाना चाहिए। मनुष्य के नश्वर शरीर की सहज बुद्धि के अनुसार, हर व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा होती है, फिर चाहे वह कोई भी हो। वे मनुष्य की धारणाओं के अनुसार चीजों के बारे में सोच सकते हैं, और उनके पास आध्यात्मिक क्षेत्र में सीधे प्रवेश करने की सुविधा नहीं है और ना ही इसका सत्य जानने का कोई तरीका है। उदाहरण के लिए, जब तुम सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हो और उसके नए कार्य के इस चरण को स्वीकारना चाहते हो, फिर भी कोई तुम तक सुसमाचार पहुंचाने नहीं आया है और सिर्फ पवित्र आत्मा का कार्य ही तुम्हें प्रबुद्ध कर रहा है और कहीं ना कहीं तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा है, तो तुम्हारी जानकारी बेहद सीमित है। तुम्हारे लिए यह जानना असंभव है कि परमेश्वर अभी क्या कार्य कर रहा है और वह भविष्य में क्या करने वाला है। लोग परमेश्वर की थाह नहीं ले सकते; उनके पास ऐसा करने की क्षमता नहीं है, ना तो उनके पास आध्यात्मिक क्षेत्र को सीधे समझने की क्षमता है या ना ही परमेश्वर के कार्य को पूरी तरह से समझने की, स्वर्गदूत की तरह अपनी पूरी इच्छा से उसकी सेवा करने की क्षमता तो बिल्कुल नहीं है। जब तक परमेश्वर अपने वचनों के माध्यम से पहले लोगों को जीत नहीं लेता, उन्हें बचा नहीं लेता और सुधारता नहीं है, या अपने व्यक्त किए गए सत्यों से उनका सिंचन और पोषण नहीं करता है, तब तक लोग उसके नए कार्य को स्वीकारने, सत्य और जीवन प्राप्त करने या परमेश्वर को जानने में असमर्थ हैं। अगर परमेश्वर यह कार्य नहीं करता है, तो ये चीजें लोगों के अंदर नहीं आएंगी; यह उनकी सहज बुद्धि से तय होता है। इस तरह, कुछ लोग विरोध या विद्रोह करते हैं, परमेश्वर के क्रोध और घृणा के पात्र बनते हैं, लेकिन परमेश्वर हर मामले को अलग तरीके से देखता है और मनुष्य की सहज बुद्धि के अनुसार हर किसी से अलग तरीके से पेश आता है। परमेश्वर द्वारा किया गया कोई भी कार्य उचित है। वह जानता है कि क्या करना है और कैसे करना है, और वह निश्चित रूप से लोगों से ऐसा कुछ नहीं करवाएगा जो वे सहज रूप से नहीं कर सकते। प्रत्येक व्यक्ति के साथ परमेश्वर का व्यवहार उस व्यक्ति के हालात की वास्तविक परिस्थितियों और उस समय की पृष्ठभूमि के साथ-साथ उस व्यक्ति के क्रियाकलापों और व्यवहार और उसके प्रकृति-सार पर आधारित होता है। परमेश्वर कभी किसी के साथ अन्याय नहीं करेगा। यह परमेश्वर की धार्मिकता का एक पक्ष है। उदाहरण के लिए, हव्वा को साँप ने भले और बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल खाने के लिए बहकाया, लेकिन यहोवा ने उसे यह कहकर धिक्कारा नहीं, “मैंने तुम्हें इसे खाने से मना किया था, फिर भी तुमने ऐसा क्यों किया? तुममें विवेक होना चाहिए था; तुम्हें यह पता होना चाहिए था कि साँप ने केवल तुम्हें बहकाने के लिए वैसा कहा था।” यहोवा ने हव्वा को इस तरह फटकारा नहीं। चूँकि मनुष्य परमेश्वर की रचना हैं, इसलिए वह जानता है कि उनकी सहज प्रवृत्तियाँ क्या हैं, वे सहज प्रवृत्तियाँ क्या करने में सक्षम हैं, किस हद तक लोग स्वयं को नियंत्रित कर सकते हैं, और लोग कहाँ तक जा सकते हैं। यह सब परमेश्वर बहुत स्पष्ट रूप से जानता है। मनुष्य के साथ परमेश्वर का व्यवहार उतना सरल नहीं है, जितना लोग कल्पना करते हैं। जब किसी व्यक्ति के प्रति उसका रवैया घृणा या अरुचि का होता है, या जब यह बात आती है कि वह व्यक्ति किसी दिए गए संदर्भ में क्या कहता है, तो परमेश्वर को उसकी अवस्थाओं की अच्छी समझ होती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के हृदय और सार की जाँच करता है। लोग हमेशा सोचते रहते हैं, “परमेश्वर में सिर्फ उसकी दिव्यता है। वह धार्मिक है और मनुष्य का कोई अपराध सहन नहीं करता। वह मनुष्य की कठिनाइयों पर विचार नहीं करता या खुद को लोगों के स्थान पर रखकर नहीं देखता। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर का विरोध करता है, तो वह उसे दंड देगा।” ऐसा बिलकुल नहीं है। अगर कोई उसकी धार्मिकता, उसके कार्य और लोगों के प्रति उसके व्यवहार को ऐसा समझता है, तो वह गंभीर रूप से गलत है। परमेश्वर द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के परिणाम का निर्धारण मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित नहीं होता, बल्कि परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव पर आधारित होता है। वह प्रत्येक इंसान को उसकी करनी के अनुसार प्रतिफल देगा। परमेश्वर धार्मिक है, और देर-सबेर वह यह सुनिश्चित करेगा कि सभी लोग हर तरह से आश्वस्त हों।

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