अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8)

मद आठ : काम के दौरान आने वाली उलझन और कठिनाइयों की तुरंत सूचना दो और उन्हें हल करने का तरीका खोजो (भाग दो)

पिछली बार, हमने अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों की आठवीं मद पर संगति की थी : “काम के दौरान आने वाली उलझन और कठिनाइयों की तुरंत सूचना दो और उन्हें हल करने का तरीका खोजो”। वैसे तो आठवीं मद में सिर्फ एक ही वाक्य है, और इसमें मूल रूप से अगुआओं और कार्यकर्ताओं से उनकी जिम्मेदारियों के संबंध में सिर्फ एक चीज की अपेक्षा की जाती है जो बहुत ही सरल है, लेकिन हमने इस विषय पर संगति करते हुए एक सभा बिताई। पिछली बार हमने इस विषय के किन पहलुओं पर विशिष्ट रूप से संगति की थी? यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की कौन-सी मुख्य जिम्मेदारियों का जिक्र करता है? (यह कि जब वे उलझन और कठिनाइयों का सामना करते हैं तो उन्हें एक जगह इकट्ठा होना चाहिए और संगति करनी चाहिए, और तुरंत उन्हें हल करने का तरीका खोजना चाहिए और अगर वे संगति के जरिए उन पर स्पष्टता प्राप्त करने में असमर्थ हों, तो उन्हें ऊपरवाले को उनकी सूचना देनी चाहिए।) यह मद अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिन मुख्य जिम्मेदारियों का जिक्र करती है, वे हैं कार्य में भाग लेना, और खुद को वास्तविक कार्य की विभिन्न मदों में तल्लीन करना, ताकि कार्य के दौरान आने वाली विभिन्न समस्याओं का पता लग सके, और उन्हें समय पर सुलझाया जा सके। अगर विभिन्न तरीके आजमाए जा चुके हैं, और फिर भी समस्याएँ पूरी तरह से सुलझाई नहीं जा सकती हैं, और वे फिर भी मौजूद रहती हैं और उलझन और कठिनाइयाँ बन जाती हैं, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उन उलझन और कठिनाइयों को इकट्ठा नहीं होने देना चाहिए या उन्हें ताक पर नहीं रखना चाहिए और नजरअंदाज नहीं करना चाहिए, बल्कि इसके बजाय उन्हें तुरंत सुलझाने का तरीका सोचना चाहिए। यकीनन, उन्हें सुलझाने का सबसे अच्छा तरीका है, भाई-बहनों और विभिन्न स्तरों पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ खोजना और संगति करना ताकि इन समस्याओं के समाधान तक पहुँचा जा सके। अगर समस्याएँ नहीं सुलझ सकती हैं, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को बड़ी समस्याओं को मामूली समस्याओं की तरह, और फिर उन मामूली समस्याओं को कोई समस्या ही नहीं है की तरह दिखाने का प्रयास नहीं करना चाहिए, या उन्हें बस ताक पर नहीं रख देना चाहिए और नजरअंदाज नहीं करना चाहिए, बल्कि तुरंत ऊपरवाले को उनकी सूचना देनी चाहिए और ऊपरवाले से समाधान माँगने चाहिए ताकि उन्हें हल किया जा सके। इस तरह से, कार्य बिना कठिनाइयों और बाधाओं के सुचारू रूप से प्रगति करेगा।

अगुआओं और कार्यकर्ताओं को काम के दौरान आने वाली उलझन और कठिनाइयों की तुरंत सूचना देनी चाहिए और उन्हें हल करना चाहिए

I. “तुरंत” की परिभाषा

अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों की आठवीं मद में काम के दौरान आने वाली उलझन और कठिनाइयों की तुरंत सूचना देने का जिक्र किया गया है—यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। अगर किसी समस्या का पता आज लगता है, लेकिन उस समस्या के समाधान में आठ-दस दिन, या यहाँ तक कि छह महीने या एक वर्ष की देरी हो जाती है, तो क्या उसे “तुरंत” कहा जा सकता है? (नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता है।) तो, “तुरंत” का क्या अर्थ है? (इसका अर्थ है समस्या को फौरन, अभी और हाथों हाथ संभालना।) क्या यह थोड़ा कठोर नहीं है? अगर हम इसे समझाने के लिए समय से संबंधित शब्दावली का उपयोग करें, तो “तुरंत” का अर्थ है समस्या को फौरन, अभी, और इसी समय सुलझाना, लेकिन अगर हम इन शब्दों के शाब्दिक अर्थ देखें, तो लोगों के लिए इसे कर पाना आसान नहीं है, और यह वास्तविक नहीं है। तो, अगर हम “तुरंत” शब्द को सटीकता से परिभाषित करना चाहें, तो हमें यह कैसे करना चाहिए? अगर समस्या बड़ी नहीं है, लेकिन यह फिर भी कार्य में बाधा उत्पन्न करती है, और अगर इसे कुछ घंटों में सुलझाया जा सकता है, तो इसे कुछ घंटों में सुलझा देना चाहिए—क्या इसे “तुरंत” माना जा सकता है? (हाँ।) मान लो कि समस्या थोड़ी पेचीदा और कठिन है, और इसे दो या तीन दिनों में सुलझाया जा सकता है, लेकिन लोग सत्य खोजने, ज्यादा जानकारी ढूँढने और एक ही दिन में इसे हल करने का प्रयास करते हैं—क्या यह कार्य के लिए ज्यादा फायदेमंद नहीं होगा? मान लो कि कोई समस्या है जिसकी असलियत अभी पहचानी नहीं जा सकती है, और इसके लिए जाँच-पड़ताल और शोध की जरूरत है, जिसमें कुछ समय लगेगा। इस विशेष समस्या को सुलझाने में ज्यादा से ज्यादा तीन दिन लगेंगे। अगर इसमें तीन दिन से ज्यादा समय लगता है, तो यह संदेह उत्पन्न होगा कि इसके समाधान में जानबूझकर देरी की जा रही है, और इसका अर्थ है कि समय बर्बाद किया जा रहा है। इसलिए, समस्या की सूचना दी जानी चाहिए, इसका हल ढूँढना चाहिए और तीन दिनों में इसे हल कर देना चाहिए। “तुरंत” का यही अर्थ है। अगर समस्या को हल करने के लिए स्तर-दर-स्तर संप्रेषण और जाँच-पड़ताल, और साथ ही स्तर-दर-स्तर जानकारी इकट्ठा करने, वगैरह की जरूरत पड़ती है—अगर ये विभिन्न प्रक्रियाएँ बहुत ही पेचीदा हैं—तो भी इसे एक महीने तक नहीं खींचा जाना चाहिए। मान लो कि अगर अगुआ और कार्यकर्ता जल्दी करते हैं, तेजी से कार्य करते हैं और कुछ उपयुक्त लोगों का चयन और उपयोग करते हैं, तो समस्या एक हफ्ते में हल हो सकती है, तो इस स्थिति में, “तुरंत” का अर्थ है एक हफ्ते के भीतर समस्या का समाधान करना। समस्या को हल करने में एक हफ्ते से ज्यादा समय लेना अनुचित है—यह तुरंत नहीं है। इस तरह के अपेक्षाकृत पेचीदा मामलों को संभालने के लिए यही समय सीमा है। समय का यह पैमाना किस पर आधारित है? इसे मामले के आकार और इसकी कठिनाई के स्तर के आधार पर निर्धारित किया जाता है। लेकिन, ज्यादातर चीजें, जैसे कि पेशेवर कौशल से संबंधित समस्याएँ या लोगों के लिए सिद्धांत अस्पष्ट होने के मुद्दे, कुछ वाक्यों से हल किए जा सकते हैं—इन समस्याओं के समाधान की अवधि कहाँ तक सीमित होनी चाहिए ताकि इसे “तुरंत” माना जा सके? अगर हम किसी मामले के आकार और उसकी कठिनाई के स्तर के आधार पर “तुरंत” को परिभाषित करते हैं, तो ज्यादातर मामले आधे दिन से भी कम समय में हल किए जा सकते हैं, बहुत ही कम मामले हैं जिन्हें हल करने में शायद ज्यादा से ज्यादा एक हफ्ते की जरूरत हो; अगर कोई नई समस्या उत्पन्न होती है, तो फिर वह एक अलग मामला है। इसलिए, अगर हम “तुरंत” को फौरन, अभी, और इसी समय के रूप में परिभाषित करते हैं तो इन शब्दों के शाब्दिक अर्थ से यह लोगों से की जाने वाली एक कठोर माँग की तरह लगता है, लेकिन अगर हम समय-सीमा को देखें, तो ज्यादातर मामले आधे दिन या ज्यादा से ज्यादा एक दिन में हल किए जा सकते हैं अगर लोग तुरंत सूचना देते हैं और उन्हें हल करने का तरीका खोजते हैं। क्या इसे समय के संबंध में कठिन माना जा सकता है? (नहीं।) और चूँकि यह समय के लिहाज से कठिन नहीं है, इसलिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए यह अपेक्षा पूरी करनी आसान होनी चाहिए कि वे काम के दौरान आने वाली उलझन और कठिनाइयों की तुरंत सूचना दें और उन्हें हल करने का तरीका खोजें, और ये उलझन और कठिनाइयाँ लगातार मौजूद और अनसुलझी नहीं रहनी चाहिए, और उन्हें लंबे समय तक कार्य में इकट्ठा होने के लिए तो बिल्कुल भी नहीं छोड़ना चाहिए। अब तुम सभी को “तुरंत” की समय अवधारणा पता होनी चाहिए—यह इस बात का मुद्दा है कि काम के दौरान आने वाली उलझन और कठिनाइयों को संभालते समय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को समय का पैमाना कैसे नापना चाहिए। संक्षेप में, “तुरंत” की सबसे सटीक परिभाषा है, जितनी जल्दी हो सके कार्य करना—यानी, अगर आधे दिन में किसी समस्या की सूचना दी जा सकती है, उसका हल खोजा जा सकता है, और उसे हल किया जा सकता है, तो यह आधे दिन में ही करना चाहिए, और अगर उसे एक दिन में हल किया जा सकता है, तो फिर यह एक दिन में ही करना चाहिए—और बिल्कुल देरी नहीं करने और कार्य को प्रभावित नहीं होने देने का प्रयास करना चाहिए। यही अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है। जब कार्य के दौरान समस्याएँ आती हैं और उनका पता चलता है, तो अगुआओं तथा कार्यकर्ताओं को तुरंत उन पर संगति करनी चाहिए और उन्हें हल करना चाहिए। अगर वे उन्हें हल नहीं कर सकते हैं, तो उन्हें ताक पर रखने, नजरअंदाज करने, और उन्हें गंभीरता से नहीं लेने के बजाय उन्हें उनकी सूचना देनी चाहिए और ऊपरवाले से उन्हें जल्द से जल्द हल करने का तरीका खोजना चाहिए। समस्याएँ उत्पन्न होने पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उन्हें तुरंत हल करना चाहिए, ना कि उन्हें टालमटोल करनी चाहिए, प्रतीक्षा करनी चाहिए, या दूसरों पर भरोसा करना चाहिए—अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ये अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए।

II. समस्याएँ तुरंत हल नहीं करने के दुष्परिणाम

समस्याएँ हल करने का मुख्य सिद्धांत यह है कि इसे तुरंत करना चाहिए। इसे क्यों तुरंत करना चाहिए? अगर बहुत-सी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं और फिर उन्हें तुरंत हल नहीं किया जा सकता है, तो एक लिहाज से लोग एक भ्रमित स्थिति में फँस जाएँगे और उन्हें पता नहीं होगा कि कैसे कार्य करना है, और दूसरे लिहाज से, अगर लोग एक गलत तरीके के आधार पर आगे बढ़ते रहे, और बाद में उन्हें अपने किए कार्य को फिर से करना और सुधारना पड़े, तो फिर परिणाम क्या होंगे? एक बड़ी मात्रा में श्रमशक्ति, वित्तीय संसाधन और भौतिक संसाधन की बर्बादी और खपत होगी—यह नुकसान है। अगर कार्य में समस्याएँ उत्पन्न होने पर अगुआ और कार्यकर्ता अंधे बने रहे और इन समस्याओं का तुरंत पता लगाने और उन्हें हल करने में असमर्थ हुए, तो बहुत से लोग एक गलत तरीके से कार्य करते रहेंगे। जब लोगों को वाकई इन समस्याओं का पता चलेगा और वे उन्हें हल करना और सुधारना चाहेंगे, तो तब तक ये मुद्दे कलीसियाई कार्य को नुकसान पहुँचा चुके होंगे। क्या तब तक वह सारी श्रमशक्ति और वे सारे वित्तीय संसाधन और भौतिक संसाधन बर्बाद नहीं हो चुके होंगे? क्या ऐसे नुकसान होने और अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा समस्याएँ तुरंत हल नहीं करने के बीच कोई संबंध है? (हाँ, है।) अगर अगुआ और कार्यकर्ता कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई कर सकते हैं, उसकी निगरानी और निरीक्षण कर सकते हैं, और उसके लिए निर्देश दे सकते हैं, तो वे समस्याओं का तुरंत पता लगाने और उन्हें हल करने में बिल्कुल समर्थ होंगे। अगर अगुआ और कार्यकर्ता लापरवाह हैं, और वे कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई नहीं करते हैं, उसकी निगरानी और निरीक्षण नहीं करते हैं और उसके लिए निर्देश नहीं देते हैं, अगर वे इस संबंध में बहुत ही निष्क्रिय हैं, और वे इतनी सारी समस्याएँ होने की प्रतीक्षा करते हैं कि उनके द्वारा उन्हें हल करने, ऊपरवाले को उनकी सूचना देने और उससे समाधान माँगने के बारे में सोचने से पहले ही, ये मुद्दे पूरी तरह हाथ से निकल जाते हैं, तो क्या ऐसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं? (नहीं।) यह कर्तव्य की गंभीर उपेक्षा है; ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता ना सिर्फ समस्याएँ हल करने में विफल रहे हैं, बल्कि उन्होंने परमेश्वर के घर की श्रमशक्ति और भौतिक संसाधनों का नुकसान किया है, और साथ ही कलीसियाई कार्य में भी बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न की है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा कर्त्तव्य की उपेक्षा, उनकी लापरवाही, जड़ता और मंदबुद्धि के कारण, और क्योंकि वे कार्य के दौरान उत्पन्न होने वाली कई समस्याओं का तुरंत पता लगाने और उन्हें हल करने में समर्थ नहीं होते हैं, और यहाँ तक कि तुरंत उनकी सूचना ऊपरवाले को नहीं दे पाते हैं और ऊपरवाले से समाधान नहीं माँग पाते हैं इसलिए, कई कार्यों को फिर से करना पड़ता है, और उन्हें फिर से करने के बाद, सिद्धांतों को ढूँढने में असमर्थता के कारण और भी समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। चीजों के इसी तरह से जारी रहने पर, कार्य पूरा होने की तारीख में भी बहुत देरी हो जाती है, और जिस कार्य को पूरा होने में एक महीने का समय लगना चाहिए था उसे पूरा होने में तीन महीने लग जाते हैं, और जिस कार्य को पूरा होने में तीन महीने लगने चाहिए थे उसे पूरा होने में आठ या नौ महीने लग जाते हैं—इसका सीधा संबंध अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा वास्तविक कार्य नहीं करने से है। क्योंकि अगुआ और कार्यकर्ता अपने कार्य की जिम्मेदारी नहीं लेते हैं—यानी, वे समस्याओं के उत्पन्न होने पर उनका तुरंत पता लगाने और सुधारने में समर्थ नहीं होते हैं—इसलिए कार्य की विभिन्न मदें परिणाम हासिल करने में विफल होती रहती हैं और ठहराव की स्थिति में बनी रहती हैं। और इस समस्या के लिए कौन सीधे जिम्मेदार है? (अगुआ और कार्यकर्ता।) इसलिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए वास्तविक कार्य करना बहुत महत्वपूर्ण है, और वास्तविक कार्य करने के दौरान उनके लिए समस्याओं का पता लगाना भी बहुत महत्वपूर्ण है। कभी-कभी अगुआ और कार्यकर्ता समस्याओं का पता लगा तो लेते हैं, लेकिन वे उन्हें हल करना नहीं जानते हैं, लेकिन फिर भी वे उन्हें हल करने के लिए तुरंत उनकी सूचना ऊपरवाले को देने और ऊपरवाले से समाधान माँगने में समर्थ होते हैं, जो कि और भी महत्वपूर्ण है। कई अगुआ और कार्यकर्ता सोचते हैं, “हमारे कार्य करने के अपने तरीके हैं। ऊपरवाले को हमें बस सिद्धांत बताने की जरूरत है और बाकी वास्तविक कार्य हम खुद कर लेंगे। अगर हम किसी कठिनाई का सामना करते हैं, तो हमारे लिए बस नीचे संगति करना और साथ मिलकर प्रार्थना करना ही काफी होगा।” जहाँ तक समस्या हल करने की ताकत का या इस बात का प्रश्न है कि क्या उनके समाधान विस्तृत या प्रभावी हैं, तो वे समान रूप से कभी भी इन चीजों की बिल्कुल परवाह नहीं करते हैं या इनके बारे में नहीं पूछते हैं। वे कार्य करते समय इसी किस्म का गैर-जिम्मेदार रवैया रखते हैं, और अंत में इसका यही अर्थ होता है कि कलीसिया में कार्य की सभी मदें सुचारू रूप से प्रगति नहीं कर पाती हैं, और उनमें ऐसी गंभीर समस्याएँ होती हैं जिनका हल नहीं हो पाता है। यही परिणाम होता है जब अगुआओं और कार्यकर्ताओं की काबिलियत बहुत ही खराब होती है, या फिर वे जिम्मेदारी नहीं लेते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते हैं।

आठवीं जिम्मेदारी के आधार पर कुछ प्रकार के झूठे अगुआओं का गहन-विश्लेषण

I. झूठे अगुआ जो छद्म-आध्यात्मिक हैं

पिछली बार, हमने इस बात पर संगति की थी कि उलझन और कठिनाइयाँ क्या होती हैं, और ऐसी कुछ समस्याओं को परिभाषित किया था जिनकी तुरंत सूचना देनी चाहिए और जिनके लिए तुरंत समाधान खोजने चाहिए। मूल रूप से, यहाँ दो मुख्य प्रकार की समस्याएँ हैं। एक प्रकार की समस्याएँ कार्य के दौरान आने वाली वे समस्याएँ हैं जिनके बारे में लोग अनिश्चित हैं या जिनकी असलियत नहीं पहचान पाते हैं। जब इन समस्याओं की बात आती है, तो लोगों को सिद्धांत समझना बहुत कठिन लगता है। वैसे तो हो सकता है कि वे सिद्धांतों को धर्म-सैद्धांतिक रूप से समझते हों, लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम होता है कि उनका अभ्यास कैसे करना है या उन्हें कैसे कार्यान्वित करना है। ये समस्याएँ उलझनों से संबंधित हैं। दूसरा प्रकार उन वास्तविक कठिनाइयों और समस्याओं का है जिन्हें लोग नहीं जानते हैं कि कैसे हल करना है। यह प्रकार उलझनों की तुलना में कुछ हद तक ज्यादा गंभीर है, और ये ऐसी समस्याएँ हैं जिनके बारे में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को भी सूचना देनी चाहिए और जिनके लिए समाधान खोजने चाहिए। पिछली बार, हमने मुख्य रूप से यह संगति की थी कि कार्य के दौरान आने वाली समस्याओं की सूचना देना और उन्हें हल करने का तरीका खोजना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है, और हमने ऐसी कुछ चीजों पर सकारात्मक दृष्टिकोण से संगति की थी जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करनी चाहिए और जिन पर ध्यान देना चाहिए। आज, हम इस बात का गहन-विश्लेषण करेंगे कि आठवीं मद के संबंध में झूठे अगुआओं की क्या अभिव्यक्तियाँ होती हैं, और वे वह कार्य करते हैं या नहीं जो अगुआओं को करना चाहिए और वे जिम्मेदारियाँ पूरी करते हैं या नहीं जो अगुआओं को पूरी करनी चाहिए। जब कार्य के दौरान आने वाली समस्याओं को हल करने की बात आती है, तो झूठे अगुआ इस संबंध में निश्चित रूप से योग्य नहीं होते हैं; वे कार्य के इस पहलू को करने में विफल रहते हैं और वे यह जिम्मेदारी पूरी करने में विफल रहते हैं। एक प्रकार का झूठा अगुआ होता है जो कार्य करते समय एक धारणा रखता है, वह सोचता है, “कार्य करने के दौरान मैं वे औपचारिकताएँ नहीं करता, ना ही मैं ज्ञान, सीखने, कौशल या हठधर्मिता जैसी किसी चीज पर ध्यान देता हूँ। मैं बस यह सुनिश्चित करता हूँ कि मैं सभाओं में परमेश्वर के वचनों के सत्य की स्पष्ट रूप से संगति करूँ, और यही काफी है। हर हफ्ते मैं छोटे समूहों के लिए दो सभाएँ करता हूँ, हर दो हफ्तों में मैं अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए एक सभा करता हूँ, और हर महीने मैं सभी भाई-बहनों के लिए एक बड़ी सभा करता हूँ। यह काफी है कि मैं ये सभी प्रकार की सभाएँ अच्छी तरह से करता हूँ।” यह उनके कार्य करने का आधार और तरीका है। इस प्रकार के अगुआ और कार्यकर्ता बस लगातार धर्मोपदेश देने का प्रशिक्षण लेते रहते हैं, और वे खुद को शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से सुसज्जित करने में बहुत मेहनत करते हैं—वे हर सभा में संगति करने के लिए रूपरेखा, सामग्री, मिसालें और सत्य तैयार करते हैं, और वे कुछ लोगों की स्थितियाँ और समस्याएँ हल करने के लिए कुछ योजनाएँ भी तैयार करते हैं। वे सोचते हैं कि एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में, उन्हें बस अच्छी तरह से उपदेश देना है, और फिर उनकी जिम्मेदारियाँ पूरी हो जाती हैं। वे सोचते हैं कि उन्हें दूसरी चीजों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है, जैसे कि जिस तरह से सुसमाचार का प्रचार किया जा रहा है वह उचित है या नहीं, या कलीसिया के कर्मियों को कैसे नियुक्त किया जाता है, या क्या विभिन्न प्रकार के पेशेवर कार्य करने वाले कर्मचारी योग्य और मानक स्तर के हैं—वे मानते हैं कि बस पर्यवेक्षकों को इन चीजों को संभालने देना ही काफी है। इसलिए, इस प्रकार का व्यक्ति चाहे कहीं भी जाए, वह सभाओं पर और धर्मोपदेशों का प्रचार करने पर ध्यान केंद्रित करता है, और चाहे किसी भी किस्म की सभा क्यों ना की जा रही हो, वह हमेशा धर्मोपदेश का प्रचार करता है। बाहरी तौर पर, वह लोगों को परमेश्वर के वचन पढ़ने और भजन गाना सीखने में अगुवाई करता है, और कभी-कभी वह कार्य के बारे में बात करता है। इस प्रकार का व्यक्ति उन समस्याओं के बारे में जानता है जिनके बारे में अक्सर संगति की जाती है, जैसे कि विभिन्न प्रकार के लोग जिन समस्याओं का सामना करते हैं उनकी तुलना करने के लिए परमेश्वर के किन वचनों का उपयोग करना चाहिए, साथ ही, लोग क्यों कमजोर महसूस करते हैं और उनमें क्या स्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं, और इन चीजों को सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों के किन सत्यों पर संगति करनी चाहिए। कुल मिलाकर, उनके धर्मोपदेश और संगतियाँ सत्य और अभ्यास के कई पहलुओं का जिक्र करती हैं; कुछ काट-छाँट करने से संबंधित हैं, कुछ परीक्षणों और शोधनों से संबंधित हैं, कुछ परमेश्वर के वचनों को प्रार्थना के रूप में पढ़ने से संबंधित हैं, कुछ न्याय और ताड़ना का अनुभव करने के तरीकों से संबंधित हैं, वगैरह—वे सत्य के विभिन्न पहलुओं पर थोड़ी संगति कर सकते हैं। जब वे नए विश्वासियों से मिलते हैं, तो वे नए विश्वासियों के लिए धर्मोपदेश देते हैं, और जब वे ऐसे लोगों से मिलते हैं जिन्होंने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, तो वे जीवन प्रवेश पर कुछ धर्मोपदेश दे सकते हैं। लेकिन जब किसी पेशेवर कौशल से जुड़े कार्य की बात आती है, तो वे कभी भी कार्य के बारे में पूछताछ नहीं करते हैं या उससे संबंधित चीजों का अध्ययन नहीं करते हैं, समस्याओं को हल करने के लिए कार्य की किसी भी मद पर अनुवर्ती कार्रवाई, उसमें सहभागिता या उसकी खोजबीन तो कभी नहीं करते हैं। उनकी नजर में, वे धर्मोपदेश देकर, परमेश्वर के वचन पढ़कर और भजन सीखकर कार्य कर रहे हैं, और ये अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ हैं; इसके अलावा, दूसरे सभी कार्य तुच्छ हैं, यह दूसरे लोगों की जिम्मेदारी है, और उनका इससे कोई लेना-देना नहीं है, और जब तक वे अच्छी तरह से धर्मोपदेश दे सकते हैं, तब तक वे निश्चिंत रह सकते हैं। “निश्चिंत रहने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि सभा समाप्त करना उनके लिए अपना कार्य समाप्त करने के समान है, और जब आराम करने का समय होता है, तो वे आराम करते हैं। कलीसियाई कार्य के दौरान चाहे कोई भी समस्या क्यों ना आए, वे उसे नजरअंदाज कर देते हैं, और जब लोग किसी समस्या को हल करने के लिए उन्हें ढूँढते हैं तो उन्हें ढूँढ निकालना बहुत ही कठिन होता है। कार्य में चाहे कितनी भी व्यस्तता क्यों ना हो, दोपहर की झपकी लेना उनके लिए जरूरी है, और वे सुख-सुविधाओं में लिप्त रहते हैं जबकि दूसरे लोग कष्ट सहन कर सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं। वे सोचते हैं, “मैंने उपदेश देना समाप्त कर लिया है, सभा समाप्त हो गई है, और मैंने वह सब कुछ कह दिया है जो मुझे तुम लोगों से कहना चाहिए था। तुम मुझसे और क्या कहलवाना चाहते हो? मेरा कार्य पूरा हो गया है। बाकी कार्य तुम लोगों का है। मैंने तुम्हें परमेश्वर के वचन बता दिए हैं, इसलिए बस सिद्धांतों के अनुसार कार्य करो। जहाँ तक कोई समस्या उत्पन्न होने की बात है, तो वह तुम लोगों का मामला है, और उसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। समस्याएँ हल करने के लिए तुम्हें खुद परमेश्वर के सामने जाना चाहिए और प्रार्थना करनी चाहिए, इकट्ठा होना चाहिए, और संगति करनी चाहिए। मुझे ढूँढते हुए मत आना।” जब सभा समाप्त होती है, तो वे कभी किसी को प्रश्न पूछने के लिए नहीं कहते हैं, वे कभी समस्याएँ हल नहीं करना चाहते हैं, और वे कभी भी किसी समस्या का पता नहीं लगा पाते हैं। सभा के बाद वे समझते हैं कि उनका कार्य पूरा हो गया है, और वे नियमित समय पर सोते हैं, खाना खाते हैं और अपना मनोरंजन करते हैं। क्या वे झूठे अगुआ नहीं हैं जो वास्तविक कार्य बिल्कुल नहीं करते हैं? (हाँ, वे हैं।)

ऐसे कुछ मामले हैं जिनमें कोई अगुआ या कार्यकर्ता छह महीनों से अपने पद पर आसीन है, और उससे अक्सर मिलने वाले उसके करीबी लोगों को छोड़कर, ज्यादातर भाई-बहन उसे देखने में समर्थ नहीं होते हैं। वे अक्सर उसे ऑनलाइन उपदेश देते हुए सुनते हैं, लेकिन जब कोई समस्या होती है, तो वह अगुआ या कार्यकर्ता उसे हल नहीं करता है। कुछ भाई-बहन अपने कर्तव्यों में ऐसी कठिनाइयों का सामना करते हैं, जिन्हें वे नहीं जानते हैं कि कैसे हल करना है, और वे इतने बेचैन हो जाते हैं कि वे शांत नहीं बैठ पाते हैं, और जब वे अपने अगुआ की तलाश करते हैं तो वे उसे ढूँढ नहीं पाते हैं। क्या इस तरह का अगुआ अच्छा कार्य कर सकता है? भाई-बहनों को बिल्कुल मालूम नहीं होता है कि उनका अगुआ हर रोज किस चीज में इतना व्यस्त रहता है, यहाँ बहुत सारी समस्याओं और कठिनाइओं को हल करना बाकी है, और वे नहीं जानते हैं कि उनका अगुआ उन्हें हल करने के लिए कब आएगा। हर कोई अगुआ के आने और उनकी सहायता करने की बेसब्री से प्रतीक्षा करता है, और फिर भी चाहे वे कितनी भी देर तक प्रतीक्षा क्यों ना करें, अगुआ कभी नहीं आता है। ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता बहुत ही मायावी होते हैं, और वे खुद को छिपाए रखने में माहिर होते हैं! वे बहुत अच्छे तरीके से धर्मोपदेश देते हैं और धर्मोपदेश देने के बाद, वे अच्छी पोशाक पहनकर तैयार हो जाते हैं और कोई कार्य नहीं करते हैं, खुद को किसी ऐसी जगह छिपा लेते हैं जहाँ वे सुख-सुविधाओं में लिप्त रह सकें। और इन सबके बावजूद, वे अब भी यही सोचते हैं कि वे बहुत अच्छे और उचित तरीके से कार्य कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे कामचोरी नहीं कर रहे हैं, वे अपने धर्मोपदेश दे चुके हैं, अपनी सभाएँ कर चुके हैं, जो कुछ भी उन्हें कहना चाहिए था, वह सब कुछ कह चुके हैं, और जो कुछ भी उन्हें समझाना चाहिए था, वह सब कुछ समझा चुके हैं। वे कभी भी इस उद्देश्य से भाई-बहनों से गहराई से जुड़ना नहीं चाहते हैं कि कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई कर सकें और उसमें भाग ले सकें, ध्यान से जाँच-परख करके उनकी सहायता कर सकें, और समस्याओं को तुरंत संभालने और हल करने में उनकी मदद कर सकें। अगर उनका किसी ऐसी समस्या से सामना होता है जिसे वे हल नहीं कर सकते हैं, तो उन्हें यह तक नहीं पता होता है कि उसकी सूचना ऊपरवाले को देनी है और ऊपरवाले से समाधान माँगना है। वे अपने मन में यह भी नहीं सोचते हैं, “क्या भाई-बहन संगति में सिद्धांत सुनने के बाद उन पर बने रह सकते हैं? और कार्य के दौरान फिर से कठिनाइयों और उलझनों से सामना होने पर क्या वे सत्य को थामे रह पाएँगे और सिद्धांतों के अनुसार मामलों को संभाल पाएँगे? इसके अलावा, कार्य के दौरान कौन सकारात्मक भूमिका निभा रहा है? और कौन-से लोग नकारात्मक भूमिका निभा रहे हैं? और क्या ऐसे लोग हैं जो विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं, या ऐसे लोग हैं जो चीजें बर्बाद करते हैं, या ऐसे बेतुके लोग हैं जो हमेशा बुरे विचार पेश करते हैं? हाल ही में कार्य कैसी प्रगति कर रहा है?” वे समान रूप से कभी भी ऐसे मुद्दों पर ध्यान नहीं देते हैं या उनके बारे में पूछताछ नहीं करते हैं। इस किस्म के लोगों को ऊपरी तौर पर देखकर लगता है जैसे वे कार्य कर रहे हैं—वे धर्मोपदेश देते हैं, सभाएँ करते हैं, धर्मोपदेशों का मसौदा और रूपरेखाएँ तैयार करते हैं, और यहाँ तक कि कार्य की रिपोर्टें भी लिखते हैं। कुछ अगुआ बार-बार अपने जीवन के अनुभवों पर धर्मोपदेश भी लिखते हैं; वे लगातार तीन या पाँच दिनों तक अपने कमरों में ही रहते हैं और लिखते रहते हैं और यहाँ तक कि उन्हे अपने लिए पानी पिलाने और खाना लाने के लिए भी किसी की जरूरत पड़ती है, और कोई भी दूसरा व्यक्ति उनसे मिल नहीं सकता है। अगर तुम कहते हो कि वे वास्तविक कार्य नहीं कर रहे हैं, तो उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है : “मैं वास्तविक कार्य कैसे नहीं कर रहा हूँ? मैं भाई-बहनों के साथ ही रहता हूँ और मैं हमेशा सभाएँ करता रहता हूँ और धर्मोपदेश देता रहता हूँ। मैं तब तक धर्मोपदेश देता हूँ जब तक मेरा मुँह सूख नहीं जाता है, और कभी-कभी तो मैं देर तक जागता भी हूँ।” बाहर से देखने पर वे बहुत व्यस्त लगते हैं और निठल्ले नहीं लगते हैं—वे बहुत सारे धर्मोपदेश देते हैं, और बोलने और लिखने में बहुत मेहनत करते हैं, वे नियमित रूप से संदेश और पत्र भेजते हैं, और ऊपरवाले द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों को बताते हैं, और वे सभाओं के दौरान ईमानदारी और धैर्य से संगति करते हैं और विषय-वस्तु पर रोशनी डालते हैं—वे सचमुच बहुत बोलते हैं, लेकिन वे कभी भी विशिष्ट कार्य में भाग नहीं लेते हैं, वे कभी भी कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई नहीं करते हैं, और वे कभी भी भाई-बहनों के साथ मिलकर किसी समस्या का सामना नहीं करते हैं। अगर तुम उनसे पूछते हो कि कार्य की अमुक मद पर कैसी प्रगति हो रही है या कार्य के परिणाम कैसे हैं, तो उन्हें नहीं पता होता है और उन्हें पहले किसी से पूछने जाना पड़ता है। अगर तुम उनसे पूछते हो कि क्या पिछली बार की समस्याएँ हल हो चुकी हैं, तो वे कहते हैं कि उन्होंने एक सभा की है और सिद्धांतों पर संगति की है। मान लो कि तुम उनसे पूछते हो, “क्या सत्य सिद्धांतों पर तुम्हारे द्वारा संगति करने के बाद भाई-बहन सही मायने में उन्हें समझ गए थे? क्या अब भी उनके भटक जाने की संभावना है? उनमें से किसे सिद्धांतों की तुलनात्मक रूप से बेहतर समझ है, कौन पेशेवर कौशलों में ज्यादा निपुण है, और बेहतर काबिलियत वाला और विकसित किए जाने योग्य कौन है?” उन्हें इनमें से किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं पता होता है; वे इस बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं। जब भी तुम उनसे कार्य की स्थिति के बारे में पूछते हो, तो वे कहते हैं, “मैं सिद्धांतों पर संगति कर चुका हूँ, मैंने अभी-अभी एक सभा समाप्त की है, और मैंने अभी-अभी उनकी काट-छाँट की है। उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है, और उन्होंने कार्य अच्छी तरह से करने का दृढ़ संकल्प लिया है।” लेकिन जब यह बात आती है कि उसके बाद का कार्य कैसी प्रगति कर रहा है, तो उन्हें बिल्कुल अंदाजा नहीं होता है। क्या उन्हें मानक स्तर का अगुआ और कार्यकर्ता माना जा सकता है? (नहीं।) इस प्रकार के अगुआ और कार्यकर्ता जिस तरीके से कार्य करते हैं, वह सिर्फ परमेश्वर के वचन पढ़ना और लोगों को कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देना है, फिर भी वे वास्तविक समस्याएँ हल करने पर कोई ध्यान नहीं देते हैं और इससे भी ज्यादा यह कि वे ऊपरवाले को उनकी सूचना देने और ऊपरवाले से समाधान माँगने से डरते हैं—उन्हें इस बात का बहुत डर रहता है कि ऊपरवाले को उनकी वास्तविक स्थिति का पता चल जाएगा। ऐसे क्रियाकलापों की क्या प्रकृति है? अपने सार के संबंध में वे किस किस्म के व्यक्ति हैं? सटीक रूप से कहें, तो ऐसे लोग मानक फरीसी हैं। फरीसियों की अभिव्यक्तियाँ इस प्रकार हैं : वे गरिमापूर्ण बाहरी क्रियाकलापों में शामिल होते हैं, वे शिष्ट तरीके से बोलते और व्यवहार करते हैं, वे अपने सभी शब्दों और कार्यों को बाइबल पर आधारित करते हैं, और वे लोगों से मिलते और बात करते समय बाइबल से वचनों का पाठ करते हैं, और वे बाइबल की बहुत सी पंक्तियों को याद से दोहरा सकते हैं। झूठे अगुआ बिल्कुल फरीसियों जैसे ही होते हैं—बाहर से, तुम उनमें कोई दोष नहीं ढूँढ पाओगे, और वे विशेष रूप से आध्यात्मिक दिखते हैं। उनकी बाहरी बातों, क्रियाकलापों और व्यवहार से तुम उनमें किसी भी मुद्दे का पता नहीं लगा सकोगे, फिर भी वे कलीसियाई कार्य में मौजूद कई समस्याओं को हल करने में असमर्थ होते हैं। तो फिर इस “आध्यात्मिक” का क्या अर्थ है? स्पष्ट रूप से कहें, तो यह छद्म-आध्यात्मिकता है। इस किस्म के छद्म-आध्यात्मिक लोग हर रोज खुद को बहुत ही व्यस्त रखते हैं, छोटे-बड़े समूहों के बीच चक्कर लगाते रहते हैं, जहाँ भी जाते हैं, परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते हैं। बाहर से ऐसा लगता है जैसे किसी और की तुलना में वे परमेश्वर के वचनों से ज्यादा प्रेम करते हैं, किसी और की तुलना में वे परमेश्वर के वचनों के साथ ज्यादा प्रयास करते हैं, किसी और की तुलना में वे परमेश्वर के वचनों के बारे में ज्यादा जानते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों के किसी भी जरूरी अंश की पृष्ठ संख्या फौरन बता सकते हैं। अगर किसी को कोई समस्या होती है, तो वे उसे परमेश्वर के वचनों के संबंधित अंश की पृष्ठ संख्या पकड़ा देते हैं और उसे जाकर पढ़ने के लिए कहते हैं। बाहर से, ऐसा लगता है कि वे हर चीज में परमेश्वर के वचनों को अपनी कसौटी मानते हैं, उनके साथ कोई अनहोनी होने पर वे परमेश्वर के वचनों की गवाही देते हैं, और ऐसा लगता है जैसे उनमें कोई समस्या नहीं है। लेकिन जब तुम उनके कार्य को बारीकी से देखते हो, तो क्या वे इन शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते समय समस्याओं का पता लगाने और उन्हें हल करने में समर्थ होते हैं? अगर, सत्य पर संगति के जरिए, वे कार्य की किसी मद में कोई ऐसी समस्या ढूँढ लेते हैं जिसका इससे पहले पता नहीं लगा था, और वे ऐसी समस्याओं को हल कर देते हैं जिन्हें दूसरे हल नहीं कर पाए, तो इससे पता चलता है कि वे परमेश्वर के वचनों को समझते हैं और सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति करते हैं। छद्म-आध्यात्मिक लोग इसके बिल्कुल विपरीत होते हैं। वे परमेश्वर के वचनों को मजबूती से याद कर लेते हैं और हर जगह उनका प्रचार करते हैं, और उनके मन और दिल परमेश्वर के वचनों से भरे होते हैं। लेकिन, कार्य के दौरान चाहे कोई बड़ी समस्या उत्पन्न हो या छोटी, वे उसे देख नहीं पाते हैं या उसका पता नहीं लगा पाते हैं। सभाओं के अंत में, उन्हें इस बात का सबसे ज्यादा डर होता है कि कहीं कोई व्यक्ति कोई वास्तविक मुद्दा ना उठा दे और उन्हें उसे हल करने के लिए ना कहे, और इसीलिए वे सभाएँ समाप्त होते ही तुरंत वहाँ से चले जाते हैं, वे सोचते हैं “अगर कोई मुझसे कोई प्रश्न पूछ ले और मैं उसका उत्तर ना दे पाऊँ, तो यह बहुत ही अजीब और शर्मनाक होगा!” यही उनका वास्तविक आध्यात्मिक कद और सच्ची स्थिति है।

सोचो कि तुम लोगों के आसपास कौन-से अगुआ और कार्यकर्ता समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति करने में अच्छे हैं, और अपने कर्तव्य करते समय भाई-बहनों के साथ जुड़ने और उनके साथ मिलकर कार्य को जारी रखने में समर्थ हैं—ये अगुआ और कार्यकर्ता अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में समर्थ हैं। सोचो कि तुम्हारे आसपास कौन-से अगुआ और कार्यकर्ता समस्याओं का पता लगाने और उन्हें हल करने में अच्छे हैं, और वास्तविक कार्य करने पर सबसे ज्यादा ध्यान केंद्रित करते हैं और अपने कार्य में सबसे ज्यादा परिणाम प्राप्त करते हैं—ये अगुआ और कार्यकर्ता वफादार लोग हैं जो बहुत जिम्मेदार और विवेकशील हैं। इसके विपरीत, अगर कोई अगुआ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करने में बेहतरीन है, और तार्किक और सुव्यवस्थित तरीके से, एक केंद्रीय बिंदु और विषय के साथ, और संरचित तरीके से प्रचार करता है, और लोग उसके धर्मोपदेशों के प्रति उत्साही रहते हैं, फिर भी वह हमेशा भाई-बहनों से कतराता रहता है, हमेशा डरता है कि भाई-बहन प्रश्न पूछ लेंगे, और वह भाई-बहनों के साथ मिलकर समस्याओं को हल करने और संभालने से डरता है, तो वह अगुआ छद्म-आध्यात्मिक है, और वह एक झूठा अगुआ है। तुम लोगों के आसपास के अगुआ और पर्यवेक्षक किस किस्म के लोग हैं? आम तौर पर, सभाओं में भाग लेने और धर्मोपदेश देने के अलावा, क्या वे कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई करते हैं और उसमें भाग लेते हैं, क्या वे कार्य के दौरान बार-बार समस्याओं का पता लगाने और उन्हें हल करने में समर्थ हैं, या क्या वे सभाओं में कुछ देर मौजूद रहने के बाद बस गायब हो जाते हैं? छद्म-आध्यात्मिक झूठे अगुआओं को हमेशा यह डर रहता है कि उनके पास प्रचार करने के लिए कुछ नहीं होगा, और भाई-बहनों से मिलने पर उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होगा, और इसलिए वे अपने कमरों में परमेश्वर के वचनों को और धर्मोपदेश देने का तरीका याद करने का अभ्यास करते रहते हैं। उनका मानना है कि धर्मोपदेश का प्रचार करना कोई ऐसी चीज है जिसे सीखा जा सकता है और कुछ ऐसी चीज है जिसे याद करके हासिल किया जा सकता है, जैसे कि ज्ञान प्राप्त करना या विश्वविद्यालय जाना, और उनका मानना है कि उन्हें दिन-रात एक करके और रातों की नींद उड़ा कर अध्ययन करने की भावना अपनानी चाहिए। क्या इन झूठे अगुआओं द्वारा अपनाई गई यह समझ विकृत नहीं है? (हाँ, है।) इस तरह के लोग अपने ऊँचे पद से धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते हैं, और कुछ अप्रासंगिक मामलों पर ध्यान देते हैं, और फिर उन्हें लगता है कि वे एक अगुआ के रूप में अपना कार्य कर रहे हैं। वे कभी भी कार्य निर्देशित करने या समस्याओं को हल करने के लिए कार्य स्थल पर नहीं जाते हैं, बल्कि अक्सर अपने कमरों में बैठे रहते हैं, “अपने आत्म-विकास पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एकांत वास करने लगते हैं,” खुद को परमेश्वर के वचनों से सुसज्जित करते हैं—क्या यह जरूरी है? किन परिस्थितियों में अगुआ और कार्यकर्ता कलीसियाई कार्य और भाई-बहनों को कुछ समय के लिए एक तरफ रख सकते हैं और खुद को सत्य से सुसज्जित करने के लिए जा सकते हैं? जब कार्य की कोई व्यस्तता ना हो, और जो समस्याएँ हल की जानी चाहिए वे सभी हल हो चुकी हों, और जिन ध्यान देने योग्य मामलों और सिद्धांतों को समझाना चाहिए वे समझा दिए गए हों, और भाई-बहनों के कोई प्रश्न या कठिनाइयाँ ना हों, और कोई भी विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं कर रहा हो, और कार्य सुचारू रूप से प्रगति कर सकता हो, और कोई और बाधा ना हो, तो अगुआ और कार्यकर्ता परमेश्वर के वचन पढ़ सकते हैं और खुद को सत्य से सुसज्जित कर सकते हैं—सिर्फ यही वास्तविक कार्य करना कहलाता है। झूठे अगुआ इस तरह से कार्य नहीं करते हैं; वे हमेशा खुद को सुर्खियों में रखने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और वे दिखावे के लिए बस कुछ बहुत ही दिखाई पड़ने वाले कार्य करते हैं जिन्हें दूसरे लोग देख पाते हैं। अगर परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय या कोई धर्मोपदेश सुनते समय उन्हें कुछ नया प्रकाश मिल जाता है, तो उन्हें लगता है कि उन्होंने कुछ हासिल कर लिया है और उनके पास सत्य वास्तविकता है, और फिर वे दूसरों को धर्मोपदेश देने के लिए जल्दी से एक अवसर तलाशने लगते हैं। वे सुनियोजित, तार्किक और सुव्यवस्थित तरीके से धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते हैं, जिसमें एक केंद्रीय बिंदु और विषयवस्तु होती है, और इसे ऐसे तरीके से करते हैं जो किसी मशहूर हस्ती के भाषण या शैक्षिक व्याख्यान से कहीं ज्यादा जोरदार और गहरा होता है, और वे इससे काफी संतुष्ट महसूस करते हैं। और फिर भी वे मन में सोचते हैं, “मैं यह धर्मोपदेश समाप्त करने के बाद अगली बार क्या प्रचार करूँगा? मेरे पास और कुछ नहीं है।” और इसलिए वे जल्दी से वहाँ से चले जाते हैं और “अपने आत्म-विकास पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एकांत वास करने लगते हैं” और गहन धर्म-सिद्धांतों की तलाश करते हैं। वे कलीसिया के कार्य स्थल पर कभी दिखाई नहीं देते हैं, और जब लोगों को कठिनाइयाँ होती हैं और वे उन्हें हल किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं, तो इन झूठे अगुआओं का कहीं कोई अता-पता नहीं होता है। क्या झूठे अगुआ संकोची और असहज महसूस नहीं करते हैं? वे वास्तविक समस्याएँ हल नहीं कर पाते हैं और फिर भी दिखावे के लिए वे बड़े-बड़े धर्मोपदेशों का प्रचार करना चाहते हैं। ये लोग पूरी तरह से बेशर्म हैं।

सारे नकली अगुआ शब्द और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार कर सकते हैं, वे सभी छद्म आध्यात्मिक होते हैं, वे कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकते, और कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी सत्य को नहीं समझते—कहा जा सकता है कि उनमें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है। वे सोचते हैं कि कलीसियाई अगुआ होने का अर्थ यह है कि उन्हें बस कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देना है, कुछ नारे लगाने हैं, और परमेश्वर के वचनों को थोड़ा सा समझाना है, और फिर लोग सत्य समझ जाएँगे। वे नहीं जानते हैं कि कार्य करने का क्या अर्थ है, वे नहीं जानते हैं कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ वास्तव में क्या हैं, और वे नहीं जानते हैं कि परमेश्वर का घर किसी को अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में वास्तव में क्यों चुनता है, या वास्तव में यह किन समस्याओं को हल करने के लिए है। इसलिए, चाहे परमेश्वर का घर कितनी भी संगति क्यों न करे कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को काम की अनुवर्ती देखभाल करनी चाहिए, काम का निरीक्षण करना चाहिए, और कार्य की निगरानी करनी चाहिए, कि उन्हें काम में आ रही समस्याओं का तुरंत पता लगाकर उनका समाधान करना चाहिए, इत्यादि, वे इनमें से किसी का भी संज्ञान नहीं लेते और वे इसे नहीं समझते हैं। वे परमेश्वर के घर की अगुआओं और कार्यकर्ताओं से की जाने वाली अपेक्षाओं को पूरा करने में सक्षम नहीं होते, और वे कर्तव्यों के निर्वहन में शामिल पेशेवर कौशलों से संबंधित समस्याओं को नहीं समझ पाते हैं, साथ ही पर्यवेक्षकों के चयन के लिए सिद्धांत से जुड़े मसले इत्यादि भी नहीं समझते, और यदि वे इन समस्याओं के बारे में जानते भी हों, फिर भी वे उन्हें सँभालने में सक्षम नहीं होते। इसलिए, ऐसे नकली अगुआओं के नेतृत्व में कलीसिया के काम में आने वाली सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकता। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को अपने कर्तव्यों का पालन करने के दौरान पेशेवर कौशलों से संबंधित जो समस्याएँ आती हैं, सिर्फ वही नहीं, बल्कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश से संबंधित कठिनाइयाँ भी लंबे समय तक अनसुलझी रह जाती हैं, और जब कुछ अगुआ और कार्यकर्ता या कार्य के विभिन्न मदों के पर्यवेक्षक वास्तविक कार्य करने में समर्थ नहीं होते हैं, तो उन्हें तुरंत बर्खास्त नहीं किया जाता है या उनकी दोबारा नियुक्ति नहीं की जाती है, वगैरह। इनमें से कोई भी समस्या तेजी से हल नहीं होती, और परिणामस्वरूप कलीसिया में काम की विभिन्न मदों की दक्षता लगातार घटती जाती है, और काम की प्रभावशीलता कम से कमतर होती जाती है। जहाँ तक कार्मिकों की बात है, तो जो लोग कुछ हद तक प्रतिभाशाली और बोलने में अच्छे होते हैं, वे अगुआ और कार्यकर्ता बन जाते हैं, जबकि जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, जो कड़ी मेहनत कर सकते हैं, और बिना किसी शिकायत के अथक परिश्रम करते हैं, उन्हें पदोन्नति और विकास नहीं मिलता है, और उनके साथ श्रमिकों जैसा व्यवहार किया जाता है, और विभिन्न तकनीकी कर्मी जिनके पास कुछ खूबियाँ हैं, उनका उचित उपयोग नहीं किया जाता है। साथ ही, कुछ लोग जो ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाते हैं, उन्हें जीवन का पोषण नहीं मिलता, और इसलिए वे नकारात्मकता और कमजोरी में डूब जाते हैं। इतना ही नहीं, मसीह-विरोधी और बुरे लोग चाहे जितने बुरे काम क्यों न करें, ऐसा लगता है कि नकली अगुआओं ने उसे नहीं देखा होता। यदि कोई किसी दुष्ट व्यक्ति या मसीह-विरोधी को उजागर करता है, तो झूठे अगुआ उनसे यह भी कहेंगे कि उन्हें उस व्यक्ति के साथ प्रेम से पेश आना चाहिए और उन्हें पश्चात्ताप करने का मौका देना चाहिए। ऐसा करके वे कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को बुरा करने और कलीसिया में बाधाएँ पैदा करने देते हैं, और इससे इन कुकर्मियों, छद्म-विश्वासियों और मसीह-विरोधियों को बहिष्कृत या निष्कासित करने में बहुत देरी होती है, और वे कलीसिया में कुकर्म करना और कलीसिया के कार्य में बाधा डालना जारी रख पाते हैं। नकली अगुआ इनमें से किसी भी समस्या से निपटने और उसका समाधान करने में सक्षम नहीं होते; वे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने या उचित तरीके से काम की व्यवस्था करने में सक्षम नहीं होते, बल्कि वे लापरवाही से कार्य करते हैं और सिर्फ कुछ बेकार कार्य करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और अराजकता उत्पन्न करते हैं। परमेश्वर का घर सत्य पर चाहे जैसी संगति करे या कलीसिया के काम को क्रियान्वित करते समय पालन किए जाने वाले सिद्धांतों पर कैसा भी जोर दे—अलग-अलग प्रकार के कुकर्मियों और अविश्वासियों में से जिन पर प्रतिबंध लगाना चाहिए उन पर प्रतिबंध लगाना और जिन्हें बाहर निकालना चाहिए उन्हें बाहर निकालना, और अच्छी काबिलियत और समझने की क्षमता वाले लोगों को पदोन्नत करना और विकसित करना, और ऐसे लोग जो सत्य का अनुसरण कर सकते हों, जिन्हें पदोन्नत किया जाना चाहिए और तैयार किया जाना चाहिए—यद्यपि इन चीजों पर अनगिनत बार संगति की जाती है, नकली अगुआ उन्हें नहीं जानते या समझते और बस अपने छद्म आध्यात्मिक विचारों और “प्रेमपूर्ण” दृष्टिकोणों पर अड़े रहते हैं। नकली अगुआओं का मानना होता है कि उनके ईमानदार और धैर्ययुक्त निर्देश के अंतर्गत, सभी तरह के लोग अपनी-अपनी भूमिकाएँ, बिना गड़बड़ी के, व्यवस्थित तरीके से निभाते हैं, कि सभी में काफी आस्था है और वह अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए तैयार है, वह जेल जाने और खतरों का सामना करने से नहीं डरता, कि हर व्यक्ति में कष्ट सहने का दृढ़ निश्चय है और वह यहूदा बनने का इच्छुक नहीं है। वे मानते हैं कि कलीसियाई जीवन में बढ़िया माहौल होने का अर्थ है कि उन्होंने अच्छा कार्य किया है। चाहे कलीसिया में कुकर्मियों द्वारा बाधाएँ उत्पन्न करने या अविश्वासियों द्वारा विधर्म और भ्रांतियाँ फैलाने की घटनाएँ हुई हों या नहीं, वे इन चीजों को समस्या नहीं मानते और उन्हें इनका समाधान करने की कोई जरूरत महसूस नहीं होती। जब बात किसी ऐसे व्यक्ति की आती है जिसे उन्होंने कार्य सौंपा है और वह अपनी इच्छा के आधार पर लापरवाही से कार्य करता है और सुसमाचार के काम में बाधा डालता है, तो नकली अगुआ और भी अंधे हो जाते हैं। वे कहते हैं, “मुझे जो समझाना था, मैंने उन कार्य सिद्धांतों को समझा दिया है, और मैंने उन्हें बार-बार बताया है कि क्या करना है। अगर कोई भी समस्या आती है, तो मेरा इससे कोई लेना-देना नहीं है।” लेकिन, उन्हें नहीं पता होता है कि क्या वह व्यक्ति सही व्यक्ति है, वे उस बात पर ध्यान नहीं देते हैं, और उन्हें यह भी पता नहीं होता है कि उस व्यक्ति को यह समझाने और बताने के दौरान कि उसे क्या करना चाहिए उन्होंने जो भी कहा क्या उससे सकारात्मक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं, या इससे क्या परिणाम सामने आएँगे। जब भी नकली अगुआ कोई सभा करते हैं, तो वे शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की एक अंतहीन धारा प्रवाहित करते हैं, लेकिन इसका परिणाम यह होता है कि वे कोई भी समस्या हल नहीं कर पाते हैं। और फिर भी वे यही मानते हैं कि वे बढ़िया कार्य कर रहे हैं, वे इतने पर भी अपने काम से प्रसन्न होते हैं और सोचते हैं कि वे अद्भुत हैं। वास्तव में, वे जो शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, वे सिर्फ उन्हीं भ्रमित लोगों, मंदबुद्धि लोगों और बेवकूफ लोगों को उल्लू बना सकते हैं, जो अज्ञानी और खराब काबिलियत वाले हैं। ये शब्द सुनने के बाद ये लोग उलझन में पड़ जाते हैं और यह मान लेते हैं कि झूठे अगुआओं ने जो कहा वह बहुत ही सही है, कि उन्होंने जो भी कहा वह गलत नहीं है। नकली अगुआ केवल इन भ्रमित लोगों को संतुष्ट कर सकते हैं और वे वास्तविक समस्याओं को हल करने में सिरे से अक्षम होते हैं। बेशक नकली अगुआ पेशेवर कौशलों और ज्ञान से संबंधित समस्याओं से निपटने में और भी कम सक्षम होते हैं—इन चीजों की बात आने पर वे पूरी तरह से बेबस हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के घर के पाठ-आधारित कार्य को ही ले लें। यह वह काम है जिसमें नकली अगुआओं को सबसे ज्यादा सिरदर्द देता है। वे यह पहचान नहीं पाते हैं कि वास्तव में किन लोगों में आध्यात्मिक समझ है, अच्छी काबिलियत है, और कौन लोग पाठ-आधारित कार्य करने के लिए उपयुक्त हैं, और वे उच्च स्तर की शिक्षा पाए, चश्मा लगाने वाले किसी भी व्यक्ति को अच्छी काबिलियत और आध्यात्मिक समझ वाला मान लेते हैं, और इसलिए वे उन लोगों से यह काम करवाते हैं, और उनसे कहते हैं कि “तुम सभी पाठ-आधारित कार्य करने में प्रतिभाशाली हो। मुझे यह काम समझ में नहीं आता, इसलिए यह तुम लोगों की जिम्मेदारी है। परमेश्वर के घर को तुम लोगों से और कुछ नहीं चाहिए, बस यही चाहिए कि तुम लोग अपनी खूबियों का उपयोग करो, कुछ भी न छिपाओ, और तुमने जो कुछ भी ज्ञान प्राप्त किया है, उसका योगदान दो। तुम लोगों को आभारी होना और तुम्हें ऊपर उठाने के लिए परमेश्वर को धन्यवाद देना आना चाहिए।” बहुत सारे निरर्थक और सतही शब्द कह देने के बाद झूठे अगुआ सोचते हैं कि कार्य की व्यवस्था हो गई है, और कि उन्होंने वह सब कुछ कर दिया है जो उन्हें करने की जरूरत है। वे नहीं जानते कि उन्होंने इस काम को करने के लिए जिन लोगों को नियुक्त किया है, वे इसके उपयुक्त हैं या नहीं, न ही वे जानते हैं कि पेशेवर ज्ञान के मामले में इन लोगों की क्या कमियाँ हैं, या उन खामियों को कैसे दूर करना चाहिए। वे नहीं जानते कि लोगों को कैसे देखें और समझें, वे पेशेवर समस्याओं को नहीं समझते, न ही वे लेखन संबंधी ज्ञान की समझ रखते हैं—वे इन चीजों से बिलकुल ही अनभिज्ञ होते हैं। वे कहते हैं कि उन्हें इन चीजों की जानकारी या गहरी समझ नहीं है, लेकिन अपने दिल में वे सोचते हैं, “क्या तुम लोग मुझसे जरा सा ही ज्यादा शिक्षित और जानकार नहीं हो? भले ही मैं इस काम में तुम लोगों का मार्गदर्शन नहीं कर सकता, लेकिन मैं तुम लोगों से ज्यादा आध्यात्मिक हूँ, मैं धर्मोपदेश देने में तुम लोगों से बेहतर हूँ, और मैं परमेश्वर के वचनों को तुम लोगों से बेहतर समझता हूँ। मैं ही तुम लोगों का नेतृत्व कर रहा हूँ, मैं तुम लोगों का वरिष्ठ हूँ। मुझे ही तुम लोगों का प्रभारी होना चाहिए, और तुम्हें वही करना है जो मैं कहूँगा।” झूठे अगुआ खुद को बेहतर मानते हैं, फिर भी वे पेशेवर कौशलों से संबंधित किसी भी तरह के कार्य के बारे में कोई सार्थक सुझाव नहीं दे पाते, और वे कोई मार्गदर्शन देने में भी समर्थ नहीं होते हैं। ज्यादा-से-ज्यादा, वे कर्मचारियों की व्यवस्था अच्छी तरह से कर सकते हैं; वे इसके बाद का कोई भी कार्य नहीं कर सकते हैं। वे पेशेवर ज्ञान हासिल करने का प्रयास नहीं करते हैं, और वे कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई नहीं करते हैं। सभी नकली अगुआ छद्म आध्यात्मिक होते हैं; वे बस कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश कर सकते हैं और फिर उन्हें लगता है कि वे सत्य को समझते हैं और लगातार परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामने दिखावा करते हैं। हर सभा में वे कई-कई घंटों तक उपदेश देते हैं, और फिर भी परिणाम यही होता है कि वे कोई भी समस्या हल नहीं कर पाते हैं। जब लोगों के कर्तव्यों में पेशेवर ज्ञान से संबंधित समस्याओं की बात आती है तो वे पूरी तरह से अनभिज्ञ होते हैं; वे स्पष्ट रूप से आम लोग हैं, फिर भी वे आध्यात्मिक होने का ढोंग करते हैं, पेशेवरों का कार्य निर्देशित करते हैं—वे इस तरह से कार्य को अच्छी तरह से कैसे कर सकते हैं? झूठे अगुआ पेशेवर ज्ञान सीखने का प्रयास नहीं करते हैं और कोई वास्तविक काम करने में सक्षम नहीं होते, इससे लोग पहले से ही घृणा करते हैं, और ऊपर से, वे आध्यात्मिक लोग होने का ढोंग करते हैं और अपने अध्यात्मिक शब्दों का दिखावा करते हैं, जिसमें सूझ-बूझ बिल्कुल नहीं होती है! यह काम फरीसियों से अलग नहीं है। फरीसी जिस बिंदु पर सबसे ज्यादा विवेकहीन थे वह यह था कि परमेश्वर उनसे घृणा करता था, फिर भी वे इससे पूरी तरह अनजान थे और खुद को बहुत अच्छा और बहुत आध्यात्मिक मानते थे। नकली अगुआओं में आत्म-जागृति की इतनी कमी होती है; वे स्पष्ट रूप से कोई वास्तविक काम नहीं कर सकते और फिर भी वे आध्यात्मिक होने का दिखावा करते हैं, वे पाखंडी फरीसी बन जाते हैं। वे वही हैं जिनका परमेश्वर तिरस्कार करता है और उन्हें निकाल देता है।

खुद को आध्यात्मिक लोगों के रूप में पेश करने वाले झूठे अगुआओं की मुख्य विशेषता क्या है? वह यह है कि वे धर्मोपदेश देने में अच्छे होते हैं। ये “धर्मोपदेश” सच्चे धर्मोपदेश नहीं हैं। ये सत्य के बारे में संगति करने वाले धर्मोपदेश नहीं हैं, और ना ही ये वे धर्मोपदेश हैं जिनमें सत्य वास्तविकता होती है। बल्कि, ये शब्दों और धर्म-सिद्धांतों वाले धर्मोपदेश हैं; ये छद्म-आध्यात्मिक धर्मोपदेश हैं, फरीसियों के धर्मोपदेश हैं। झूठे अगुआ परमेश्वर के वचनों के शब्दों और वाक्यांशों पर कड़ी मेहनत करने में बहुत अच्छे होते हैं, वे शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देने पर विशेष ध्यान देते हैं, और फिर भी वे कभी परमेश्वर के वचनों में सत्य नहीं खोजते हैं और कभी इस बात पर विचार नहीं करते हैं कि उन्हें सत्य वास्तविकता में कैसे प्रवेश करना चाहिए। वे सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देने में समर्थ होकर संतुष्ट हो जाते हैं; एक बार जब वे स्पष्ट और तर्कसंगत रूप से धर्म-सिद्धांत का उपदेश दे चुके होते हैं, तो उन्हें लगता है कि यह काफी अच्छा है और उनके पास सत्य वास्तविकता है, वे दूसरों के सामने खड़े हो सकते हैं और रोब जमा सकते हैं, और अपने ऊँचे पद से लोगों को फटकार सकते हैं। ऊपरी तौर पर, वे जो कहते और करते हैं वह सत्य से संबंधित लगता है, वे विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हुए दिखाई नहीं देते हैं, और ना ही वे गलत कहावतों की वकालत करते हुए या गलत अभ्यासों को भड़काते हुए दिखाई देते हैं। और फिर भी यहाँ एक समस्या है, जो यह है कि वे किसी भी वास्तविक कार्य की जिम्मेदारी नहीं ले सकते हैं, या अपनी जिम्मेदारी का थोड़ा-सा भी अंश पूरा नहीं कर सकते हैं, जिसके कारण अंत में वे कार्य में किसी भी समस्या को खोजने में असमर्थ रहते हैं। वे उस अंधे व्यक्ति की तरह कार्य करते हैं जो अपना रास्ता टटोलते हुए आगे बढ़ता है : वे मामलों में आँख मूँदकर विनियम लागू करने के लिए हमेशा अपनी भावनाओं और कल्पनाओं का उपयोग करते हैं, समस्याओं के सार को स्पष्ट रूप से देखने में पूरी तरह से असमर्थ होते हैं, और फिर भी वे उनके बारे में बकवास करते हैं—वे वास्तविक समस्याओं को बिल्कुल भी हल नहीं कर पाते हैं। अगर कोई झूठा अगुआ सही मायने में सत्य समझता है, तो वह स्वाभाविक रूप से समस्याओं का पता लगाने और उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजने में समर्थ होगा। लेकिन स्पष्ट रूप से, झूठे अगुआ सत्य नहीं समझते हैं, फिर भी वे आध्यात्मिक होने का ढोंग करते हैं, खुद को कलीसिया का कार्य करने में सक्षम मानते हैं, बेईमानी से अपने रुतबे के फायदों का आनंद लेने की हिम्मत करते हैं। क्या यह घिनौना नहीं है? उन्हें लगता है कि उनके पास वास्तविक कौशल है—वे उपदेश दे सकते हैं। फिर भी वे वास्तविक कार्य बिल्कुल नहीं कर पाते हैं। झूठे अगुआ जो शब्द और धर्म-सिद्धांत जानते हैं और जिनका उपदेश देते हैं, वे उन्हें उनका कार्य अच्छी तरह से करने में सहायता नहीं कर सकते हैं, और ना ही वे कार्य में समस्याओं का पता लगाने में उनकी सहायता कर सकते हैं, और उनके सामने आने वाली समस्याओं को हल करने में तो बिल्कुल भी सहायता नहीं कर सकते हैं। कुछ समय तक कार्य करने के बाद, वे किसी भी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बोलने में असमर्थ होते हैं। क्या ऐसा अगुआ या कार्यकर्ता मानक स्तर का है? यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि वह नहीं है। और जो झूठे अगुआ मानक स्तर के नहीं हैं, उन्हें कैसे संभालना चाहिए? उन्हें ना सिर्फ बर्खास्त कर देना चाहिए और हटा देना चाहिए, बल्कि अगर वे पश्चात्ताप नहीं करते हैं तो चुनाव होने पर उन्हें अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सेवा करने के लिए फिर से नहीं चुना जा सकता है। अगर कोई व्यक्ति ऐसे किसी झूठे अगुआ या झूठे कार्यकर्ता को चुनता है जिसे हटा दिया गया है, तो वे जानबूझकर कलीसिया के कार्य में बाधा डाल रहे हैं और उसे नुकसान पहुँचा रहे हैं और इससे पता चलता है कि यह मतदाता उस झूठे अगुआ का उपासक और अनुयायी है, और वह कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखता हो। क्या तुम लोगों ने कभी किसी छद्म-आध्यात्मिक झूठे अगुआ को चुना है? (हमने चुना है।) मुझे लगता है कि तुम सबने उनमें से बहुत से लोगों को चुना है। तुम सोचते हो कि जिस किसी ने भी बहुत वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, परमेश्वर के बहुत से वचन पढ़ें हैं और कई धर्मोपदेश सुने हैं, जिसके पास उपदेश देने और कार्य करने का भरपूर अनुभव है, जो एक समय में घंटों उपदेश दे सकता है, वह यकीनन कार्य करने में सक्षम है। फिर, उसे अगुआ के रूप में चुन लेने के बाद तुम्हें एक गंभीर समस्या का पता चलता है : भाई-बहन उसे कभी देख नहीं पाते हैं और कोई मुद्दा होने पर वे उसे कभी ढूँढ नहीं पाते हैं। किसी को मालूम नहीं होता है कि वह कहाँ छिपा हुआ है, और वह कहीं छिप जाता है और कोई उसे परेशान नहीं कर पाता है। यह एक समस्या है। वह कार्य के बेहद महत्वपूर्ण पलों में हमेशा लुका-छिपी खेलता रहता है और जब कोई समस्या हल करने के लिए उसकी जरूरत पड़ती है, तो भाई-बहन उसे कभी ढूँढ नहीं पाते हैं—क्या वह अपने उचित कर्तव्यों के प्रति लापरवाही नहीं कर रहा है? कुछ लोग अगुआ बनने के बाद भाई-बहनों के सामने आने की हिम्मत क्यों नहीं करते हैं? वे कहीं भी क्यों नहीं मिलते हैं? वे वास्तव में किस चीज में व्यस्त हैं? वे वास्तविक समस्याओं को हल क्यों नहीं करते हैं? वे चाहे किसी भी चीज में व्यस्त क्यों ना रहें, इस बारे में तुम निश्चित हो सकते हो : अगर वे कुछ समय तक बिना कोई वास्तविक कार्य किए रहते हैं, तो वे झूठे अगुआ हैं, और उन्हें तुरंत बर्खास्त कर देना चाहिए, और किसी और को चुनना चाहिए। क्या तुम लोग भविष्य में इस किस्म का झूठा अगुआ चुनोगे? (नहीं।) क्यों नहीं? तुम लोगों के विचार से एक अंधे व्यक्ति को अपना मार्गदर्शक चुनने का क्या परिणाम होता है? वह व्यक्ति खुद अंधा है, तो क्या वह दूसरों को सही मार्ग पर ले जा सकता है? यह ठीक वैसा ही है जैसा कि बाइबल में परमेश्वर के वचन कहते हैं, “वे अंधे मार्गदर्शक हैं और अंधा यदि अंधे को मार्ग दिखाए, तो दोनों ही गड्ढे में गिर पड़ेंगे” (मत्ती 15:14)। अंधा व्यक्ति बिना किसी दिशा या लक्ष्य के चलता है; वह दूसरों की अगुवाई कैसे कर सकता है? अगर कोई किसी अंधे व्यक्ति को अपना मार्गदर्शक चुनता है, तो वह और भी अंधा है। अविश्वासियों में एक कहावत है : “अंधे व्यक्ति से रास्ता पूछना।” कलीसिया के अगुआ के रूप में सेवा करने के लिए एक झूठे अगुआ का चुनाव करना एक अंधे व्यक्ति से रास्ता पूछने जैसा है। यह एक बेतुकी बात है, है ना? झूठे अगुआ के लिए अपना मत देने वाले सभी लोग अंधे हैं जो अंधे को चुनते हैं, और उनमें से कोई भी सत्य नहीं समझता है।

जब कुछ लोग एक छद्म-आध्यात्मिक व्यक्ति को अगुआ बनने के लिए चुनते हैं, तो वे बहुत खुश होते हैं, सोचते हैं, “अब हमारे पास एक महान अगुआ है। हमारा अगुआ धर्मोपदेश देने में वाकई अच्छा है। वह बहुत ही तर्कसंगत और संरचित तरीके से उपदेश देता है, और उसके धर्मोपदेश बहुत अर्थपूर्ण होते हैं।” कुछ लोग जिनमें विवेक का अभाव होता है, वे रोने लगते हैं, वे इस अगुआ से बहुत लगाव महसूस करते हैं, और वे अपने कर्तव्य करने भी नहीं जाना चाहते हैं। जब वे संगति सुनते हैं, तो उन्हें चीजें बहुत स्पष्ट रूप से समझ आती हैं, लेकिन अपना कर्तव्य करते समय जब उन्हें समस्याओं का पता चलता है, तो उन्हें नहीं पता होता है कि उन्हें कैसे हल किया जाए और वे हैरान रह जाते हैं, सोचते हैं, “जब मैं अगुआ की संगति सुनता हूँ, तब ऐसा लगता है जैसे मुझे सब कुछ समझ आ रहा है, तो फिर मैं अपने कार्य में आने वाली कठिनाइयों को हल क्यों नहीं कर पा रहा हूँ?” यहाँ क्या समस्या है? इस तरह का झूठा अगुआ जो भी उपदेश देता है, वह सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत, खोखले वाक्यांश, नारे और बकवास होते हैं। वह जो भी उपदेश देता है, उससे इन लोगों के वास्तविक मुद्दे हल नहीं होते हैं; उसने इन लोगों को बेवकूफ बनाया है। वह उनके दिमाग में भ्रांतियाँ भरता है, कुछ नारे लगाता है ताकि वे गलती से यह मान लें कि समस्याएँ हल हो गई हैं, जबकि दरअसल वह उनकी समस्याओं के संबंध में सत्य सिद्धांतों पर संगति नहीं कर रहा है। इस तरीके से संगति करके समस्याएँ कैसे हल हो सकती हैं? वह जिन धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देता है, उनका वास्तविक मुद्दों से कोई लेना-देना नहीं है; वह बस सभी मुद्दों के सार से बच रहा है और धर्म-सिद्धांतों के बारे में खोखले तरीके से बात कर रहा है। वह सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों और आध्यात्मिक सिद्धांतों का उपदेश देता है। उसे बिल्कुल नहीं पता है कि सत्य वास्तविकता क्या है, और समस्याएँ उत्पन्न होने पर वह चकरा जाता है। वह जो धर्मोपदेश देता है, उनसे वास्तविक समस्याएँ हल नहीं हो सकती हैं, वे सिर्फ एक किस्म का सिद्धांत हैं, एक किस्म का ज्ञान और धर्म-सिद्धांत हैं। इस किस्म का झूठा अगुआ परमेश्वर के वचनों और सत्य का उपदेश ऐसे देता है मानो वे शब्द और धर्म-सिद्धांत और नारे हों। वह सभी वास्तविक समस्याओं से कतराता है और सिर्फ उन्हीं शब्दों का उपदेश देता है जो खोखले और अव्यावहारिक हैं। और अंत में क्या होगा? चाहे वह कितनी भी देर तक उपदेश क्यों ना देता रहे, ज्यादा-से-ज्यादा, उसके धर्मोपदेश लोगों को प्रोत्साहित और आग्रह करने, लोगों को थोड़ा और उत्साही बनाने और अचानक कुछ देर के लिए उनकी ऊर्जा में वृद्धि करने का प्रभाव डालेंगे, लेकिन वे कोई भी दूसरा मुद्दा हल नहीं कर पाएँगे। सत्य, वास्तविकता से अलग नहीं है, बल्कि यह वास्तविकता से और उन सभी किस्म के मुद्दों से जुड़ा हुआ है जो वास्तव में मौजूद हैं। तो, अगली बार जब तुम लोगों का सामना छद्म-आध्यात्मिक झूठे अगुआओं से होगा, तो क्या अब तुम उन्हें पहचान पाओगे? अगर नहीं, तो जब तुम लोग किसी को अगुआ बनाने के लिए उसके पक्ष में मत देना चाहो, तो पहले उससे कुछ मुद्दे हल करवाओ। अगर वह सिद्धांतों के अनुसार उन्हें हल कर देता है, और अगर वह बहुत अच्छे परिणाम हासिल करता है और सत्य वास्तविकता का उपयोग करके मुद्दों को हल करता है, तो तुम उसके पक्ष में मत दे सकते हो; अगर वह समस्याओं के सार और वास्तविक स्थिति से कतराता है और उनके बारे में बात नहीं करता है, और सिर्फ खोखले तरीके से धर्म-सिद्धांतों का उपदेश दे सकता है, नारे लगा सकता है और विनियमों का पालन कर सकता है, तो तुम उस व्यक्ति के पक्ष में मत नहीं दे सकते। तुम उस व्यक्ति के पक्ष में मत क्यों नहीं दे सकते? (क्योंकि वह वास्तविक समस्याओं को हल करने में समर्थ नहीं है।) और, किस किस्म का व्यक्ति वास्तविक समस्याओं को हल करने में समर्थ नहीं होता है? ऐसा व्यक्ति जो सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश दे सकता है—वह एक पाखंडी, छद्म-आध्यात्मिक फरीसी होता है। उसमें सत्य समझने के लिए जरूरी काबिलियत नहीं होती है, उसमें मुद्दों को हल करने की क्षमता बिल्कुल नहीं होती है, वह समस्याओं को हल नहीं कर पाता है, और इसलिए अगर तुमने उसे अगुआ बनाने के लिए चुना, तो उसका झूठा अगुआ बनना अवश्यंभावी है। वह अगुआ का कार्य करने या अगुआ की जिम्मेदारियाँ पूरी करने में सक्षम नहीं है। तो, अगर तुम उसके पक्ष में मत देते हो, तो क्या तुम उसे नुकसान नहीं पहुँचा रहे हो? कुछ लोग कहते हैं, “इससे उसका क्या नुकसान हो रहा है? हम तो अच्छे इरादे से उसके पक्ष में मत दे रहे हैं। उसमें कुछ काबिलियत है, और अगर हम उसे चुनते हैं, तो क्या हमें एक ऐसा व्यक्ति नहीं मिल जाएगा जो कार्य की जिम्मेदारी ले सके?” जिम्मेदारी लेने के लिए कोई अपने पास होना यकीनन अच्छी बात है, लेकिन इस किस्म का व्यक्ति जिम्मेदारी लेने में समर्थ नहीं है। वह सिर्फ खोखले तरीके से सिद्धांतों के बारे में बात कर सकता है, वह वास्तविक स्थिति को ध्यान में नहीं रखता है, और जब समस्याएँ हल करने की बात आती है तो वह कोई सहायता नहीं करता है, इसलिए उसके पक्ष में मत देकर, क्या तुम उसे बुरा करने का अवसर नहीं दे रहे हो? क्या तुम उसे झूठे अगुआ के मार्ग पर चलने के लिए मजबूर नहीं कर रहे हो? इसलिए, तुम्हें ऐसे लोगों को अगुआ के रूप में नहीं चुनना चाहिए।

क्या तुम लोग यह पहचानने में समर्थ हो कि तुम्हारे आसपास के लोगों में से—जिनके तुम अक्सर संपर्क में आते हो और जिनसे तुम काफी परिचित हो—कौन सिर्फ सिद्धांतों के बारे में खोखले तरीके से बोलने में समर्थ है और वास्तविक समस्याओं को हल करने में समर्थ नहीं है? कौन हमेशा ऊँचे सिद्धांतों का उपदेश देता है और ऐसी नई और अनोखी योजनाओं का प्रस्ताव देता है, जिनके बारे में पहले कभी किसी ने नहीं सुना होता है, लेकिन जब उससे यह पूछा जाता है कि परिचालन की विशिष्ट योजनाओं और ठोस विवरणों का अभ्यास और कार्यान्वयन कैसे करना है, तो वह भ्रमित और बिल्कुल चुप हो जाता है? वह जो कहता है, वह बहुत ही खोखला और पूरी तरह से अवास्तविक होता है, वह वास्तविक स्थिति, असल परिवेश, लोग वास्तव में क्या हासिल कर सकते हैं, लोगों के आध्यात्मिक कदों और उनके पेशेवर कौशलों के स्तर से संबंधित या सुसंगत नहीं होता है। इससे भी ज्यादा यह कि वह जो कहता है, वह परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं होता है; वह सिर्फ बकवास करता है, वह फंतासी में लिप्त है, और उसके मन में जो भी आता है, उसे वह आवेगपूर्वक बोल जाता है। उसे लगता है कि उसे अपनी कही किसी भी बात की जिम्मेदारी लेने की जरूरत नहीं है, तब भी नहीं जब वह शेखी बघारता है और डींग हाँकता है। इस रवैये के साथ, वह अपने नजरिये व्यक्त करता है और अपने विचार पेश करता है—क्या ऐसे लोग छद्म-आध्यात्मिक नहीं हैं? (हाँ, हैं।) कुछ लोगों का मानना है कि वैसे भी, कोई भी शेखी बघारने, डींग हाँकने या बड़े-बड़े विचारों को गंभीरता से नहीं लेता है, और उन्हें यह दिखाने का अवसर मिल जाता है कि वे कितने सक्षम हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे कुछ गलत कर देते हैं तो उन्हें उसके लिए जिम्मेदार होने की जरूरत नहीं है, और अगर वे कुछ सही करते हैं तो हर कोई उनका बहुत सम्मान करेगा, और इसलिए वे जो चाहे कहते हैं और ऐसा दिखाते हैं मानो सब कुछ बहुत ही आसान हो। उनके पास बहुत सारे विचार होते हैं, लेकिन उनमें से किसी भी विचार के साथ अभ्यास की विशिष्ट योजना नहीं होती है और ना ही उसे ठीक से कार्यान्वित किया जा सकता है। वे जो भी विचार पेश करते हैं, उसे गंभीरता से नहीं लेते हैं, चाहे वह स्पष्ट हो या विकृत। वे आज एक बात और कल दूसरी बात कहते हैं, और वैसे तो वे जिन विचारों, सिद्धांतों और आधारों के बारे में बात करते हैं वे सभी बहुत ऊँचे होते हैं, लेकिन वे सभी खोखले और अव्यावहारिक होते हैं। कभी-कभी वे किसी ऐसी योजना के बारे में बात करते हैं जो खोखली या विकृत तो नहीं होती है, लेकिन जब उनसे पूछा जाता है कि इस योजना को विशिष्ट रूप से कैसे कार्यान्वित करना है तो वे नहीं बता पाते हैं। नारे लगाते समय, बड़े-बड़े शब्द बोलते समय और नजरिये व्यक्त करते समय, वे बहुत ही उत्साही और अग्रसक्रिय होते हैं। लेकिन जब विशिष्ट कार्य करने और विशिष्ट योजनाएँ कार्यान्वित करने की बात आती है तो वे छूमंतर हो जाते हैं, वे खुद को कहीं छिपा लेते हैं और अब उनके पास कोई विचार नहीं होता है। क्या इस तरह के लोग अगुआ हो सकते हैं? (नहीं।) तो, इस तरह के लोगों के अगुआ बनने के क्या परिणाम होंगे? क्या वे खुद को और दूसरों को भी नुकसान नहीं पहुँचाएँगे? वे कलीसिया के कार्य में देरी करेंगे और इसके अलावा, वे खुद को बहुत नुकसान पहुँचाएँगे। वे जिन धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देते हैं, वे बस कुछ सीमित चीजें हैं, और जब वे उनका उपदेश देना समाप्त कर लेते हैं, तो उनके पास कहने के लिए और कुछ नहीं होता है, और इसलिए उन्हें हमेशा छिपना पड़ेगा और “अपने आत्म-विकास पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एकांत-वास में रहना” पड़ेगा। क्या इससे उनके लिए चीजें कठिन नहीं हो जाएँगी? अगुआ बनते ही उन्हें लगेगा जैसे उनके सिर पर तीन बड़े पहाड़ों का बोझ आ गया है, वे हर रोज बेहद थकान महसूस करेंगे और वे बहुत दबाव महसूस करेंगे—उनका इस तरह से कष्ट सहने का क्या फायदा है? उनमें अगुआ बनने की काबिलियत नहीं है, और जब वे समस्याओं का सामना करते हैं, तो वे अपनी कल्पनाओं के अनुसार अविवेकपूर्ण तरीके से विनियम लागू करते हैं और वास्तविक मुद्दों को हल नहीं कर पाते हैं—इस तरह के लोग अगुआ नहीं बन सकते हैं। वे वास्तविक कार्य करने में सक्षम नहीं हैं, इसलिए वे झूठे अगुआ होंगे, और फिर भी वे खुद को बहुत महान समझेंगे, तब भी जब वे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में देरी का कारण बनेंगे। अगर तुम लोग इन छद्म-आध्यात्मिक लोगों की काबिलियत और चरित्र का पता लगा सको और उन्हें समझ सको, तो क्या तुम तब भी उन्हें अगुआ बनाने के लिए वोट दोगे? अगर तुम खुद इस तरह के व्यक्ति हो और कोई तुम्हें वोट देना चाहता हो तो तुम क्या करोगे? (मुझमें कुछ आत्म-जागरूकता होगी, और मैं कहूँगा कि मैं अगुआ बनने के लिए उपयुक्त नहीं हूँ।) और अगर, तुम्हारे इस कथन के बाद भी, हर कोई अब भी यही समझे कि तुम अच्छे हो और वह तुम्हें वोट देने पर अड़ जाए, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? उससे कहो, “मैं अगुआ का कार्य नहीं कर सकता, मैं उस कार्य की जिम्मेदारी नहीं उठा सकता। ऊपरी तौर पर मैं कुछ काबिलियत वाला व्यक्ति दिखता हूँ, और कभी-कभी मेरे पास कुछ अच्छे विचार होते हैं और मैं थोडा प्रकाश प्रदान करता हूँ, लेकिन ज्यादातर समय मैं सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देता हूँ। मैं वाकई अगुआ या कार्यकर्ता नहीं बन सकता। मैं तुम लोगों से बेहतर नहीं हूँ। तुम लोग जो भी करो, कृपया मुझे वोट मत दो। अगर मुझे सबसे ज्यादा वोट मिल भी गए, तो भी मैं अगुआ नहीं बन सकता। मैं किसी को नुकसान नहीं पहुँचा सकता! मैंने पहले भी अगुआ के तौर पर सेवा की है, और मैं हर बार विफल रहा और मुझे बर्खास्त कर दिया गया। हर बार मुझे इसलिए बर्खास्त किया गया क्योंकि मेरी काबिलियत खराब थी, मुझमें कार्य क्षमता का अभाव था और मैं वास्तविक कार्य नहीं कर पाता था। मैं सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश दे पाता था, और इसके अलावा, मैं अच्छा प्रदर्शन नहीं दे पाया या अगुआओं को जो जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए, उनमें से एक भी पूरी नहीं कर पाया। मैं एक झूठा अगुआ था।” यह आत्म-जागरूकता का होना है, सिर्फ अगुआ बनने के लिए उपयुक्त नहीं होने के बारे में कुछ शब्द कहना और बात को वहीं समाप्त कर देना नहीं है। कुछ लोग सोचते हैं, “मैंने इतने वर्षों से इस समूह में अपने कर्तव्य का निर्वहन किया है और जो भी हो, मुझे एक वरिष्ठ कर्मचारी माना जाना चाहिए। भले ही मैंने कभी कोई योगदान ना दिया हो, लेकिन मैंने कड़ी मेहनत की है, तो फिर किसी को मेरी खूबियों का पता कैसे नहीं लगा है? मुझमें भी अगुआ बनने के सारे गुण हैं। मैं अक्सर ऐसे विचार, उपाय और सुझाव पेश करता हूँ जो काफी मूल्यवान होते हैं और जिनका व्यावहारिक उपयोग होता है। चाहे अगुआ उन्हें अपनाएँ या ना अपनाएँ, जो भी हो, मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ जिसके पास रवैये, विचार और नजरिये हैं। कोई मुझे वोट क्यों नहीं देता है?” अगर तुम इस तरीके से सोचते हो, तो तुम अपना मूल्यांकन इस तरह से कर सकते हो : क्या तुम्हारे विचार, उपाय और सुझाव सिर्फ कथन हैं, या उनका वाकई कोई व्यावहारिक उपयोग है? क्या तुम कार्य में आने वाली सभी तरह की कठिनाइयों का पता लगाने और उन्हें हल करने में समर्थ हो? क्या तुम्हारे विचार और उपाय उपयोग करने योग्य हैं? क्या तुम कार्य की जिम्मेदारी लेने में समर्थ हो? अगर तुम्हारे विचार और नजरिये सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के स्तर तक ही रहते हैं, अगर उनका व्यावहारिक उपयोग बिल्कुल नहीं है, और इससे भी महत्वपूर्ण चीज यह है कि वे परमेश्वर के घर के कार्य सिद्धांतों के अनुरूप बिल्कुल नहीं हैं, तो तुम्हारी काबिलियत वास्तव में कैसी है? जब तुम अगुआ बनने के लिए चुने जाते हो, तब क्या तुम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकोगे? क्या तुम महत्वाकांक्षा के कारण अगुआ बनना चाहते हो, या फिर दायित्व की भावना के कारण? अगर तुममें सही मायने में कार्य क्षमता है और मुद्दे हल करने की क्षमता है, और जब तुम देखते हो कि कुछ अगुआ और कार्यकर्ता बहुत खराब तरीके से कार्य पूरा कर रहे हैं और किसी भी समस्या को हल करने में समर्थ नहीं हैं, तो तुम बेचैन हो उठते हो, और तुम उन्हें सुझाव देते हो, लेकिन वे नहीं सुनते हैं, और वे मुद्दों को हल करने में समर्थ नहीं होते हैं और फिर भी वे ऊपरवाले को उनकी सूचना नहीं देते हैं, और तुम परमेश्वर के घर के कार्य के लिए चिंतित और बेचैन हो उठते हो, और जब तुम झूठे अगुआओं को कलीसिया के कार्य में देरी करवाते देखते हो, तो तुम असहनीय रूप से परेशान हो जाते हो, तो इससे पता चलता है कि तुममें दायित्व की भावना है। लेकिन, अगर तुम सभी की स्वीकृति पाना चाहते हो, एक बड़ा दर्शक समूह पाना चाहते हो, और चाहते हो कि तुम्हें उपदेश देते हुए और आडंबरपूर्ण और हठधर्मी तरीके से बोलते हुए ज्यादा लोग सुनें, सिर्फ इसलिए कि तुम्हारे पास कुछ विचार हैं, और अगर तुम भीड़ से अलग दिखना चाहते हो, तो यह दायित्व की भावना नहीं है—यह एक महत्वाकांक्षा है। महत्वाकांक्षी लोग सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश दे सकते हैं, और उनके पास जो भी विचार होते हैं, वे भी सिर्फ खोखले शब्द और धर्म-सिद्धांत होते हैं। जब इस तरह के लोग अगुआ बन जाते हैं, तो उनका झूठा अगुआ होना अवश्यंभावी है, और अगर वे कुकर्मी हैं, तो फिर वे मसीह-विरोधी हैं। अगर तुम्हारे विचार खोखले शब्दों के स्तर तक ही रहते हैं, तो एक बार जब तुम अगुआ बन जाते हो, तो तुम्हारा हर छद्म आध्यात्मिक झूठे अगुआ जैसा बनना अवश्यंभावी हैं। तुम हमेशा “अपने आत्म-विकास पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एकांत-वास में रहने” चले जाओगे, नहीं तो, तुम संकट की भावना महसूस करने लगोगे और उपदेश देने के लिए तुम्हारे पास कुछ नहीं होगा। अगर तुम बिल्कुल उनके जैसे हो, और ऊँचे स्तर से उपदेश देते समय तुम कार्य में मौजूद किसी भी समस्या का पता लगाने में असमर्थ हो, और किसी भी समस्या को हल करने में भी स्वाभाविक रूप से असमर्थ हो, तो तुम्हारा झूठा अगुआ बनना अवश्यंभावी है। और अंत में झूठे अगुआओं के साथ क्या होता है? उन्हें उनके पदों से बर्खास्त कर दिया जाता है क्योंकि वे वास्तविक कार्य नहीं कर पाते हैं—उनका इस मार्ग पर चलना अवश्यंभावी है।

ऐसे कई लोग हैं जिनके दिलों में हमेशा आक्रोश रहता है और वे हमेशा कुछ करने के लिए तैयार रहते हैं, और जब भी किसी अगुआ या पर्यवेक्षक को चुने जाने का समय आता है, तो वे हमेशा चाहते हैं कि उन्हें ही चुना जाए। कुछ लोग सोचते हैं कि उन्होंने सबसे ज्यादा वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, उन्होंने सबसे ज्यादा कष्ट सहे हैं, उन्होंने सबसे लंबे समय तक और सबसे ज्यादा निष्ठा से अपने कर्तव्य का निर्वहन किया है, और वे अगुआ बनने के लिए सबसे ज्यादा योग्य हैं, और इसलिए वे चाहते हैं कि दूसरे लोग उन्हें ही चुनें। अगर दूसरे लोग उन्हें चुनते हैं तो वे क्या करने में समर्थ होंगे? क्या वे झूठे अगुआ की उपाधि दिए जाने से बच पाएँगे? क्या वे अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ पूरी कर पाएँगे? ये सभी वास्तविक समस्याएँ हैं, लेकिन कोई भी इस तरह की चीजों पर गौर नहीं करता है। इनमें से कुछ लोग पर्याप्त काबिलियत वाले होते हैं। अपने कर्तव्य में समस्याएँ आने पर वे सत्य की तलाश कर सकते हैं, और जब वे सत्य समझ लेते हैं और सिद्धांतों के अनुसार मामले संभालने में समर्थ हो जाते हैं, तो वे मानक स्तर के हो सकते हैं। बशर्ते कि ये लोग सत्य समझें, सत्य से प्रेम करें, और सत्य का अनुसरण करें, और इसके अलावा, इनमें अपेक्षाकृत अच्छी मानवता हो, तो उन्हें मानक स्तर के अगुआ और कार्यकर्ता बनने में कोई समस्या नहीं आएगी—उनके लिए यह बहुत कठिन नहीं होगा। कुछ लोग हमेशा यह शिकायत करते हैं कि वे जो कार्य कर रहे हैं वह कठिन है, सत्य की बात आने पर वे प्रयास करने या कीमत चुकाने के इच्छुक नहीं होते हैं, और जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे शिकायतें करते हैं। क्या ऐसे लोग मानक स्तर के अगुआ और कार्यकर्ता बन सकते हैं? उनका इरादा और रवैया बिल्कुल गलत है, वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग नहीं हैं, और चाहे परमेश्वर उनसे कुछ भी अपेक्षा क्यों ना करे, वे नकारात्मक रवैया बनाए रखते हैं। इस तरह के लोग अगुआ और कार्यकर्ता बनने के लायक नहीं हैं। उनके दिलों में दायित्व की कोई भावना नहीं होती है, और चाहे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाएँ कितनी भी स्पष्ट या सुबोध रूप से क्यों ना बताई जाएँ, फिर भी वे कार्य अच्छी तरह से करने के लिए कड़ी मेहनत करने के इच्छुक नहीं होते हैं। दरअसल, कार्य अच्छी तरह से करना कठिन नहीं है। यह कठिन क्यों नहीं है? सबसे पहले, परमेश्वर के घर में कलीसिया के समस्त कार्य के लिए विशिष्ट कार्य-व्यवस्थाएँ मौजूद हैं और ऊपरवाले ने इसके लिए विशिष्ट नियम बनाए हैं, इसलिए तुम लोगों को कार्य की किसी भी मद में नवोन्मेषी होने या इसे स्वतंत्र रूप से पूरा करने की जरूरत नहीं है। ऊपरवाले ने तुम लोगों को एक दायरा और एक दिशा दी है, और तुम लोगों को सिद्धांत दिए हैं, और तुम लोगों को न्यूनतम मानक दिए हैं; अपना कार्य करने में, तुम हवा में तीर नहीं चला रहे हो, और ना ही तुम्हारे पास निर्देशन का अभाव है। दूसरी बात, कार्य की किसी भी मद के साथ, चाहे पर्यवेक्षक कोई भी हो, और चाहे कार्य का केंद्र विदेशी हो या घरेलू, सबसे प्राथमिक बात यह है कि ऊपरवाला भाई कार्य पर विशिष्ट रूप से अनुवर्ती कार्रवाई, मार्गदर्शन, निगरानी, निरीक्षण, और जाँच-पड़ताल कर रहा है, और अक्सर पूछताछ कर रहा है। ये कार्य कितने विशिष्ट हैं? ऊपरवाला भाई व्यक्तिगत रूप से हर पटकथा, हर फिल्म, हर कार्यक्रम, हर भजन आदि में शामिल होता है और उस पर अनुवर्ती कार्रवाई करता है। मैं भी कुछ कार्य में शामिल होता हूँ, जिससे तुम लोगों को एक सामान्य निर्देशन और रूपरेखा मिलती है। तीसरी बात, कार्य का हर पहलू जिसमें सत्य सिद्धांत शामिल हैं, उसके लिए ऊपरवाला अक्सर तुम लोगों के साथ सत्य सिद्धांतों पर संगति करता है और तुम्हारे कार्य का मार्गदर्शन करता है; ऊपरवाला तुम्हारी काट-छाँट भी करता है, तुम लोगों की जाँच-पड़ताल भी करता है, और ऊपरवाला किसी भी समय तुम लोगों की विकृतियाँ ठीक कर देगा। चौथी बात, प्रमुख कार्मिक और प्रशासनिक कार्यों के संबंध में, ऊपरवाला व्यक्तिगत रूप से जाँच-पड़ताल करके और फैसले लेकर तुम लोगों की सहायता करता है। सच्चाई यह है कि तुम लोग चाहे जो भी कार्य करो, तुम उसे स्वतंत्र रूप से पूरा नहीं करते हो; यह सब कुछ ऊपरवाले द्वारा व्यवस्थित, निर्देशित और जाँच-पड़ताल किया हुआ होता है। तो, फिर तुम लोग क्या करते हो? तुम बस पहले से तैयार चीजों का आनंद लेते हो—तुम लोग कितने धन्य हो! तुम्हें किसी चीज की चिंता करने की जरूरत नहीं है; तुम्हें बस अपने हाथ और पैर चलाने की जरूरत है। तुम लोगों को यही कार्य दिया जाता है। क्या तुम लोगों ने कभी अतिरिक्त कीमत चुकाई है? (नहीं।) यह सारा मुख्य, महत्वपूर्ण कार्य ऊपरवाले ने किया है; इसलिए, तुम लोग जो कार्य करते हो, वह सारा बहुत ही आसान है और इसमें कोई बड़ी कठिनाइयाँ नहीं हैं। ऐसी परिस्थितियों में, अगर लोग अब भी अपना कार्य अच्छी तरह से नहीं करते हैं, तो यह माफ करने योग्य नहीं है, और यह साबित करता है कि वे अपने कार्य में अपना दिल और मेहनत बिल्कुल नहीं लगा रहे हैं या अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर रहे हैं। कुछ लोग कहते हैं, “ऐसा कौन है जिससे कार्य करते समय कोई खामी नहीं रहती है? क्या लोगों को यह अनुमति नहीं है कि उनमें कोई समस्या हो?” तुम लोगों को अपने कार्य में पूर्णांक हासिल करने की जरूरत नहीं है; तुम लोगों को बस उत्तीर्णांक हासिल करने की जरूरत है, और फिर तुम्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ पूरी कर लेने वाला व्यक्ति मान लिया जाएगा। क्या यह बहुत चुनौतीपूर्ण है? (नहीं।) ऊपरवाले के निर्देश और जाँच-पड़ताल के आधार पर उत्तीर्णांक हासिल करना आसान है; यह सिर्फ इस बात पर निर्भर करता है कि लोग सच्चाई से सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं। सत्य की बात आने पर अगर लोग कोई प्रयास नहीं करते हैं, और हमेशा लापरवाह बने रहना चाहते हैं, और अगर वे कार्य करते समय सिर्फ खानापूर्ति करने से संतुष्ट हो जाते हैं, कुछ भी बुरा नहीं करते हैं, कोई विघ्न-बाधा उत्पन्न नहीं करते हैं, और उनके पास ऐसा कुछ नहीं होता है जो उनके जमीर को परेशान करे, तो वे उत्तीर्ण श्रेणी हासिल नहीं कर सकते हैं। कार्य करते समय ज्यादातर अगुआओं और कार्यकर्ताओं में इस तरह का रवैया होता है; वे थोड़ा-सा कार्य करते हैं लेकिन वे खुद को थकाना नहीं चाहते हैं, वे बस औसत दर्जे के होकर भी संतुष्ट रहते हैं, और जहाँ तक उनके कार्य के परिणामों की बात है, तो उन्हें लगता है कि वह परमेश्वर का मामला है और इससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। क्या यह रवैया स्वीकार्य है? अगर वे ऐसा रवैया रखते हैं, तो वे जो कार्य कर सकते हैं वह बहुत ही सीमित है और वे उसके लिए अपना भरसक प्रयास नहीं कर रहे हैं, जिससे पता चलता है कि वे या तो वास्तविक कार्य करने में सक्षम नहीं हैं या वास्तविक कार्य नहीं करते हैं, और इसलिए उन्हें झूठे अगुआओं के रूप में वर्णित करना चाहिए—यह पूरी तरह से उचित है और यह अन्यायपूर्ण नहीं है। कुछ लोग हमेशा कहते हैं, “तुम हमसे बहुत ऊँची अपेक्षाएँ रखते हो। अगर हम यह कार्य नहीं करते हैं तो हम झूठे अगुआ हैं और अगर हम वह अपेक्षा पूरी नहीं करते हैं तो भी हम झूठे अगुआ हैं। तुम हमें समझते क्या हो? हम मशीनी-मानव नहीं हैं, हम पूर्ण नहीं हैं। हम बस आम लोग हैं, हम बस नश्वर हैं। तुम हमें आम लोग, सामान्य लोग बनने के लिए कहते हो तो अगुआओं के रूप में तुम हमसे इतनी ज्यादा अपेक्षाएँ क्यों रखते हो?” दरअसल, मैं तुम लोगों से ऊँची अपेक्षाएँ नहीं रखता हूँ। मैं बस तुमसे वे जिम्मेदारियाँ पूरी करने के लिए कहता हूँ जो एक मनुष्य को पूरी करनी चाहिए। यह कुछ ऐसा है जो तुम्हें करना चाहिए और करना ही पड़ेगा, और यह कुछ ऐसा है जिसे तुम अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में सफलतापूर्वक कर सकते हो। लेकिन, अगर तुम सत्य की तरफ बढ़ने के लिए कड़ी मेहनत नहीं करते हो, और कष्ट सहने से हमेशा डरते हो और हमेशा सुख-सुविधाओं की लालसा करते हो, तो चाहे तुम्हारे कारण या बहाने कुछ भी हों, तुम्हारा झूठा अगुआ बनना अवश्यंभावी है। यह उन चीजों की तरह है जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोगों को सफलतापूर्वक करना चाहिए और जिनका वयस्क लोगों को खुद ध्यान रखना चाहिए, जैसे कि एक वयस्क को सुबह कितने बजे उठ जाना चाहिए, उसे कितनी बार भोजन करना चाहिए और उसे एक दिन में कितने घंटे कार्य करना चाहिए, और उसे अपने गंदे कपड़े कब धोने चाहिए—तुम्हें ये चीजें खुद ही संभालनी चाहिए, और तुम्हें इनके बारे में किसी और से पूछने की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुम हर चीज के बारे में दूसरे लोगों से पूछते हो और कुछ भी नहीं समझते हो, तो क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम में अपर्याप्त बुद्धि है, और तुम अनाड़ी हो? क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम अपना ख्याल रखने में समर्थ नहीं हो? क्या इस किस्म के लोग अगुआ बन सकते हैं? क्या वे झूठे अगुआ नहीं हैं? ऐसे लोगों को बर्खास्त कर देना चाहिए। इस किस्म के लोग अब भी अपने पद से चिपके रहना चाहते हैं और इस्तीफा नहीं देना चाहते हैं, और वे अब भी अगुआ बनना चाहते हैं! कुछ झूठे अगुआओं को बर्खास्त कर दिए जाने के बाद, उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है और वे इसके बारे में रोना बंद नहीं करते हैं। वे तब तक रोते रहते हैं जब तक उनकी आँखें सूज नहीं जाती हैं। वे क्यों रोते हैं? उन्हें नहीं पता है कि वे किस किस्म की चीज हैं। जब मैं कहता हूँ कि लोगों से मेरी अपेक्षाएँ ज्यादा नहीं हैं, तो मेरे कहने का अर्थ यह है कि तुमसे जो करने के लिए कहा जा रहा है, वह वही है जिसे तुम सफलतापूर्वक कर सकते हो; तुम्हारे लिए रास्ता पहले से ही तैयार कर दिया गया है और दायरा तय कर दिया गया है, और फैसले ले लिए गए हैं, और तुम्हें बस कार्रवाई करने की जरूरत है। यह भोजन करने जैसा है : अनाज, सब्जियाँ, सभी किस्म के मसाले, बर्तन और चूल्हे तुम्हारे लिए तैयार कर दिए गए हैं, और तुम्हें बस भोजन पकाना सीखना है; यही वह कार्य है जो एक वयस्क को करना चाहिए और जिसमें उसे सफलता हासिल करनी चाहिए। अगर तुम इसमें सफल नहीं हो पाते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम अनाड़ी हो, और तुम्हें सामान्य वयस्कों की बुद्धिमत्ता की परास में नहीं गिना जा सकता है। कुछ अगुआ यह वास्तविक कार्य करने में सक्षम नहीं हैं, और इसलिए उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए। तो फिर, हम यह कैसे परिभाषित और निर्धारित कर सकते हैं कि कोई व्यक्ति इस किस्म का कार्य करने में सक्षम है या नहीं? अगर उसमें एक वयस्क की बुद्धिमत्ता और काबिलियत है, और उसमें वह कर्तव्यनिष्ठा और जिम्मेदारी की भावना है जो एक वयस्क में होनी चाहिए, तो उसे इस किस्म का कार्य करने में समर्थ होना चाहिए। अगर वह ऐसा नहीं कर पाता है, या वह ऐसा नहीं करता है, तो वह एक झूठा अगुआ है। इसे इसी तरीके से निर्धारित किया जाता है, और इस तरीके से इसका निर्धारण करना सटीक है। यह किसी व्यक्ति की निंदा या आलोचना नहीं है, तो क्या यह निष्ठुर होना है? सभी तथ्य स्पष्ट रूप से पेश किए गए हैं, और यह निष्ठुर होना बिल्कुल भी नहीं है।

II. झूठे अगुआ जो खराब काबिलियत वाले हैं

हमने अभी-अभी इस पर संगति की कि एक प्रकार के झूठे अगुआ में कार्य के दौरान आने वाली उलझन और कठिनाइयों की तुरंत सूचना देने और उन्हें हल करने के तरीके खोजने के बारे में क्या अभिव्यक्तियाँ होती हैं, साथ ही उन कारणों पर भी संगति की जिनसे ऐसे लोग अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ पूरी करने में समर्थ नहीं होते हैं। ऐसे लोग छद्म-आध्यात्मिक होते हैं; क्योंकि वे कार्य में आने वाली उलझन और कठिनाइयों को नहीं खोज पाते हैं, इसलिए वे यह जिम्मेदारी पूरी करने में समर्थ नहीं होते हैं। यह एक प्रकार का व्यक्ति है। एक और प्रकार का व्यक्ति होता है : वह उन्हीं छद्म-आध्यात्मिक लोगों जैसा होता है—वह भी कार्य में मौजूद समस्याएँ नहीं खोज पाता है, और इसीलिए वह तुरंत उनकी सूचना ऊपरवाले को देने और ऊपरवाले से समाधान माँगने में भी समर्थ नहीं होता है। ऐसे लोग कार्य में भी व्यस्त रहते हैं, वे निठल्ले रहे बिना खुद को दिन भर व्यस्त रखते हैं। वे धर्मोपदेश देने में व्यस्त रहते हैं, विभिन्न जगहों पर जाकर भाई-बहनों से मिलने में व्यस्त रहते हैं, कार्य के लिए व्यवस्था करने में व्यस्त रहते हैं, और यहाँ तक कि कलीसियाई कार्य के लिए सभी प्रकार का सामान खरीदने में भी व्यस्त रहते हैं। अगर कोई बीमार पड़ जाता है तो वे चिकित्सक ढूँढने में उसकी सहायता करते हैं; अगर किसी को घर पर कठिनाइयाँ हैं, तो वे आर्थिक राहत की व्यवस्था करके उसकी सहायता करते हैं; अगर कोई बुरी स्थिति में है तो वे उसे सहारा देने की पहल करते हैं और उसकी समस्याएँ हल करने में सक्रिय रूप से सहायता करते हैं। संक्षेप में, वे हमेशा कुछ सामान्य मामलों वाले कार्य में व्यस्त रहते हैं। वे कलीसिया के वास्तविक कार्य, सुसमाचार कार्य और कलीसियाई जीवन की समस्याओं के प्रति बेपरवाह होते हैं। हर रोज वे भागदौड़ करने में खुद को थका देते हैं और वे कलीसिया के मामलों और भाई-बहनों के निजी मामलों को संभालने और हल करने में खुद को व्यस्त रखते हैं। वे सोचते हैं कि अगुआ होने के नाते उन्हें ये कार्य करने चाहिए, लेकिन वे यह बात कभी नहीं समझते हैं कि अगुआ का अनिवार्य कार्य क्या है, और चाहे वे कितनी भी कड़ी मेहनत क्यों ना करें, फिर भी वे कलीसिया में मौजूद वास्तविक और अत्यंत गंभीर समस्याएँ नहीं ढूँढ पाते हैं। और इसलिए, जब कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न होती हैं, और जब परमेश्वर के चुने हुए लोग जीवन प्रवेश में कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो ये अगुआ इन चीजों को तुरंत हल नहीं कर पाते हैं। वैसे तो वे हर रोज कार्य में व्यस्त रहते हैं और निठल्ले बिल्कुल नहीं रहते हैं, लेकिन इतना व्यस्त रहकर भी वे क्या हासिल कर पाते हैं? कलीसियाई कार्य में कई समस्याएँ मौजूद होती हैं, लेकिन वे उन्हें खोजने में समर्थ नहीं होते हैं। बाहर से, वे निठल्ले नहीं बल्कि मेहनती और कर्तव्यनिष्ठ दिखते हैं, लेकिन कार्य में एक के बाद एक समस्याएँ आती रहती हैं, और वे पैबंद लगाने में व्यस्त रहते हैं, सभी किस्म की “जटिल और कठिन समस्याओं” को हल करने में और सभी किस्म के कुकर्मियों और उन लोगों से निपटने में व्यस्त रहते हैं जिनके कारण कलीसिया में दिखाई देने वाली विघ्न-बाधाएँ उपन्न होती हैं। वे खुद को इस तरह से कार्य में व्यस्त रखते हैं, फिर भी वे सबसे मूलभूत समस्याओं को भी पहचान नहीं पाते हैं। वे स्पष्ट रूप से यह पहचान नहीं पाते हैं कि अच्छी मानवता क्या है और बुरी मानवता क्या है, अच्छी काबिलियत क्या है और खराब काबिलियत क्या है, वास्तविक प्रतिभा और ज्ञान का होना क्या है और गुण होना क्या है। वे यह भी नहीं समझ पाते हैं कि परमेश्वर का घर किस तरह के लोगों को विकसित करता है और किस तरह के लोगों को निकाल देता है, कौन-से लोग सत्य का अनुसरण करते हैं और कौन-से नहीं, कौन-से लोग खुशी से अपना कर्तव्य करते हैं और कौन-से नहीं, किन लोगों को परमेश्वर के लोगों में पूर्ण किया जा सकता है, और कौन-से लोग श्रमिक हैं, वगैरह। वे विकास के लिए उन लोगों को मुख्य लक्ष्य मानते हैं जो बड़ी-बड़ी बातें कर सकते हैं और खोखले सिद्धांत बड़बड़ा सकते हैं, लेकिन वास्तविक कार्य नहीं कर पाते हैं, और उनके करने के लिए वे महत्वपूर्ण कार्य की व्यवस्था करते हैं सौंपते हैं, जबकि जिन लोगों में स्पष्ट समझ, काबिलियत और सत्य समझने की क्षमता होती है, उनकी पदोन्नति और विकास में वे सिर्फ इसलिए देरी करते हैं क्योंकि उन लोगों ने बहुत लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास नहीं रखा है या घमंडी स्वभाव प्रकट किया है। इस तरह की समस्याएँ कलीसिया में अक्सर उत्पन्न होती हैं और इससे कलीसियाई कार्य की प्रगति प्रभावित होती है। यही वास्तविक समस्याएँ हैं, और फिर भी इस प्रकार का अगुआ उन्हें देख या खोज नहीं पाता है और यहाँ तक कि उनके बारे में पूरी तरह से बेखबर होता है। जब कुकर्मी विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं, तो वह उन्हें जाँच-परख से गुजरने और आत्म-चिंतन करने का मौका देता है, जबकि दूसरे लोग, जो कुकर्मी नहीं हैं, जब वे कभी-कभार कुछ छोटी-मोटी गलतियाँ कर देते हैं क्योंकि वे जवान और अज्ञानी होते हैं और सिद्धांतों के बिना कार्य करते हैं—ये ऐसी गलतियाँ हैं जो सिद्धांत के मुद्दे नहीं हैं—तो इस प्रकार का अगुआ इन गलतियों को अक्षम्य पाप मानता है और इन लोगों को घर भेज देता है। इस प्रकार का झूठा अगुआ हर रोज कार्य में व्यस्त रहता है और बाहर से, वह कड़ी मेहनत करता हुआ और अपना बहुत समय खर्च करता हुआ दिखता है, फिर भी वह चाहे किसी भी तरीके से कार्य क्यों ना करे, कोई भी इससे सच्चा जीवन प्रावधान प्राप्त नहीं करता है। चाहे परमेश्वर के चुने हुए लोगों की कितनी भी समस्याएँ और कठिनाइयाँ क्यों ना हों, इस प्रकार का झूठा अगुआ सत्य पर संगति करके उन्हें हल नहीं कर सकता है, और वह सिर्फ उन्हें प्रेमपूर्ण दिल से प्रेरित कर सकता है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश दे सकता है। इसलिए, ऐसे लोगों के नेतृत्व में, परमेश्वर के चुने हुए लोग कोई जीवन प्रावधान प्राप्त नहीं करते हैं, वे बस परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और उत्साह के आधार पर अपने कर्तव्य करते हैं, और कोई जीवन प्रवेश प्राप्त नहीं करते हैं—वे इस तरह से कब तक चल सकते हैं? परिणामस्वरूप, कुछ लोग अक्सर नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं और हमेशा परमेश्वर के दिन के आगमन के लिए तरसते रहते हैं, और उनके लिए दर्शन ज्यादा से ज्यादा अस्पष्ट होते जाते हैं, और समस्याओं से सामना होने पर उनके मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ उत्पन्न होने लगती हैं, और कुछ तो परमेश्वर पर संदेह करना और उससे सतर्क रहना भी शुरू कर देते हैं। इन समस्याओं से सामना होने पर, झूठे अगुआ उन्हें हल करने में पूरी तरह से असमर्थ होते हैं, और वे बस उनसे बचते फिरते हैं। वे सत्य की तलाश करने और मुद्दे हल करने के लिए कभी भी परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते हैं या परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हैं—वे कभी भी यह कार्य नहीं करते हैं। हर रोज, वे खुद को बस कुछ सामान्य मामलों वाले कार्य और कुछ बाहरी मामलों में व्यस्त रखते हैं, ऐसे मामले जिनका जीवन प्रवेश या सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता है। उन्हें लगता है कि जब तक वे चीजें करने में व्यस्त हैं, तब तक इसका यही अर्थ है कि वे अपना कर्तव्य कर रहे हैं और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर रहे हैं, और वे संभवतः झूठे अगुआ नहीं बन सकते हैं। दरअसल, उनका खुद को इन सामान्य मामलों में व्यस्त रखने से भाई-बहनों को जीवन में प्रगति करने में बिल्कुल भी सहायता नहीं मिलती है, फिर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम बनाने की तो बात ही छोड़ दो। मुझे बताओ, क्या इस प्रकार के झूठे अगुआ की काबिलियत में कोई समस्या नहीं है? वे किसी भी चीज की असलियत पहचान नहीं पाते हैं, और उन्हें लगता है कि जब तक वे कार्य करने में व्यस्त रहेंगे, तब तक सभी समस्याएँ यूँ ही गायब हो जाएँगी, और अप्रत्यक्ष रूप से हल हो जाएँगी। क्या ये लोग बहुत ही भ्रमित नहीं हैं? क्या उनकी काबिलियत बहुत ही कमजोर नहीं है? वे किसी भी चीज की असलियत पहचान नहीं पाते हैं, वे कोई वास्तविक कार्य नहीं कर पाते हैं, और यही बात उन्हें असली झूठे अगुआ और झूठे कार्यकर्ता बनाती है। यह ऐसा मामला है जिसे पहचानना सबसे आसान है।

झूठे अगुआ और झूठे कार्यकर्ता अब हर जगह कलीसियाओं में मौजूद हैं। वे कार्य करने के लिए सिर्फ अपने उत्साह पर भरोसा करते हैं और उन्हें सत्य की बिल्कुल भी समझ नहीं है। उन्हें नहीं पता है कि अगुआ या कार्यकर्ता का कार्य क्या है, और ना ही वे मुद्दे हल करने के लिए सत्य पर संगति करने में सक्षम हैं—वे सारा दिन बस कुछ सामान्य मामलों वाले कार्य में आँख मूँदकर व्यस्त रहते हैं। मिसाल के तौर पर, मान लो कि कलीसिया को कोई सामान खरीदने की जरूरत है। यह कोई बड़ा कार्य नहीं है; बस उसे खरीदकर लाने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति की व्यवस्था करनी है जो संबंधित क्षेत्र का जानकार हो। लेकिन, झूठे अगुआ को बहुत ज्यादा पैसे खर्च हो जाने का डर है, इसलिए वह एक ऐसे व्यक्ति की व्यवस्था करता है जो कई जगहों पर जाकर पूछताछ करेगा और फिर सबसे सस्ता सामान खरीद लाएगा। इसका परिणाम यह होता है कि वह एक घटिया उत्पाद खरीद लाता है जो उपयोग करने के कुछ ही दिनों बाद टूट जाता है और फिर उसे जाकर एक और उत्पाद खरीदना पड़ता है। वह ना सिर्फ पैसे बचाने में विफल हो जाता है, बल्कि, इसके विपरीत, वह ज्यादा पैसे खर्च कर देता है। क्या यह कार्य को संभालने का एक सिद्धांतयुक्त तरीका है? खरीदारी करते समय कोई मशहूर ब्रांड खरीदने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन उचित कार्य यही है कि कम से कम ऐसी चीज खरीदी जाए जो उपयुक्त गुणवत्ता वाली और उपयोग करने योग्य हो। झूठे अगुआ सामान्य मामलों वाले कार्य के बारे में बहुत चिंता करते हैं, और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन, वे परमेश्वर के घर के अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य को गंभीरता से नहीं लेते हैं, और यह एक बड़ी गलती है; यह उनके द्वारा अनिवार्य कार्य नहीं किया जाना है। कार्य की मदें जैसे कि सुसमाचार कार्य, फिल्म निर्माण कार्य, पाठ आधारित कार्य, अनुभवजन्य गवाही पर वीडियो बनाने का कार्य, और अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कर्तव्य समायोजित करने का कार्य, ये सभी महत्वपूर्ण हैं, और फिर भी झूठे अगुआ उन्हें महत्वपूर्ण नहीं मानते हैं, और वे कार्य की इन मदों को ताक पर रख देते हैं और उन्हें नजरअंदाज कर देते हैं। वे अपर्याप्त काबिलियत वाले होते हैं और उन्हें कार्य करना नहीं आता है, लेकिन वे सीखने का प्रयास भी नहीं करते हैं, बल्कि सोचते हैं, “जब तक इस कार्य का कोई प्रभारी मौजूद है, तब तक सब कुछ ठीक है। यकीनन मेरी भी जरूरत नहीं है? मैं महत्वपूर्ण कार्य संभालता हूँ। ये तो बस मामूली चीजें हैं जिनके बारे में मुझे परेशान होने की जरूरत नहीं है। एक बार जब मैं उन्हें सिद्धांत बता देता हूँ, तो मेरा कार्य पूरा हो जाता है।” झूठे अगुआ बाहर से बहुत ही व्यस्त दिखाई देते हैं, लेकिन जब तुम उन चीजों पर नजर डालोगे जिन पर वे कार्य करने में व्यस्त हैं, तो तुम्हें पता चलेगा कि उनमें से एक भी चीज कलीसियाई कार्य का अत्यंत महत्वपूर्ण अंश नहीं है, उनमें से एक भी चीज कार्य का ऐसा अंश नहीं है जो लोगों के जीवन का भरण-पोषण करता हो, और उनमें से एक भी चीज कार्य का ऐसा अंश नहीं है जिसमें मुद्दे हल करने के लिए सत्य का उपयोग करना शामिल हो। वे जिन चीजों में खुद को व्यस्त रखते हैं, उनका बिल्कुल कोई मूल्य नहीं है, और ये झूठे अगुआ बस आँख मूंदकर व्यस्त रह रहे हैं। उन्हें यह नहीं पता है कि परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को क्या कार्य करना चाहिए; उन्हें जो कार्य करने में आनंद आता है, उनमें खुद को व्यस्त रखने के लिए वे बस अपने उत्साह पर भरोसा करते हैं। वे कलीसियाई कार्य से अलग तुच्छ मामलों के बारे में विस्तार से पूछताछ करते हैं, जैसे कि भाई-बहन क्या कपड़े पहनते हैं, उनकी केशसज्जा कैसी है, वे दूसरों से कैसे बातचीत करते हैं, और वे कैसे बात और व्यवहार करते हैं। उन्हें लगता है कि यह उनका मिलनसार और सुलभ होना है, और लोगों के वास्तविक जीवन में मुद्दे हल करना कुछ ऐसा है जो एक अगुआ को जरूर करना चाहिए, कुछ ऐसा है जो सामान्य मानवता में होना चाहिए। और फिर भी वे सुसमाचार कार्य, फिल्म निर्माण कार्य, भजन कार्य, पाठ आधारित कार्य, प्रशासनिक कार्य, नए विश्वासियों को सींचने का कार्य, कलीसियाओं की स्थापना का कार्य, लोगों को पदोन्नत और विकसित करने का कार्य आदि अत्यंत महत्वपूर्ण कार्यों को गंभीरता से नहीं लेते हैं। वे इनमें से किसी भी कार्य में भाग नहीं लेते हैं, और वे इस पर अनुवर्ती कार्रवाई नहीं करते हैं; ऐसा लगता है मानो इस कार्य से उनका कोई लेना-देना ना हो। ये झूठे नेता उन बहुत-सी समस्याओं को हल नहीं करते हैं जो कलीसिया में इकट्ठा हो रही हैं, वे उन झूठे अगुआओं को बर्खास्त नहीं करते हैं जिन्हें उन्हें बर्खास्त करना चाहिए, वे उन कुकर्मियों को प्रतिबंधित नहीं करते हैं या उनसे निपटते नहीं हैं जो बुरा करते हैं और पागलों की तरह बुरी चीजें करते हैं, और वे कुछ लोगों के लापरवाह, असंयमित और अनुशासनहीन होने और अपने कर्तव्य निर्वहन में टालमटोल करने का मुद्दा हल करने के लिए सत्य पर संगति नहीं करते हैं। यह क्या समस्या है? वे इन वास्तविक समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते हैं—क्या वे वास्तविक कार्य करने वाले लोग हैं? वे जो निरर्थक और अप्रासंगिक कार्य करते हैं, उन्हें वे अपने दिलों में प्रमुख और महत्वपूर्ण मानते हैं। वे सारा दिन उन बेकार चीजों में खुद को व्यस्त रखते हैं, यह मानते हैं कि वे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर रहे हैं और वफादार हो रहे हैं, लेकिन वे कार्य की ऐसी एक भी जरूरी मद नहीं करते हैं जो परमेश्वर ने उन्हें सौंपी है—क्या ऐसे लोग झूठे अगुआ नहीं हैं? वे समाज में उप-जिला कार्यालयों के निदेशकों के समतुल्य हैं, वे बस पड़ोस के वे लोग हैं जो दूसरों के फटे में पैर डालते हैं—क्या वे अब भी परमेश्वर के घर के अगुआ और कार्यकर्ता हैं? वे असली झूठे अगुआ और झूठे कार्यकर्ता हैं। किस कारण से इन लोगों को झूठे अगुआ और झूठे कार्यकर्ता के रूप में वर्णित किया जाता है? (क्योंकि उनकी काबिलियत बहुत ही खराब है, वे वास्तविक कार्य नहीं कर सकते हैं, और वे बस कुछ तुच्छ मामले ही संभाल सकते हैं।) यही विशिष्ट कारण है। इन लोगों की काबिलियत बहुत ही खराब है; चाहे वे कितने भी धर्मोपदेश सुनें, कितनी भी कार्य-व्यवस्थाएँ पढ़ें, कितने भी वर्षों तक परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य करें, या कितने भी वर्षों तक अगुआ बने रहें, उन्हें कभी पता नहीं होता है कि वे क्या कर रहे हैं, वे जो कर रहे हैं वह सही है या गलत है, या क्या वे उन जिम्मेदारियों को पूरा कर रहे हैं जो उन्हें करनी चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लेबल और पदवी की उनकी परिभाषा यह है कि जब तक वे व्यस्त रहते हैं, तब तक सब कुछ ठीक है। कोल्हू के बैल की तरह, वे तब तक खींचते रहते हैं जब तक उनके लिए हिलना-डुलना नामुमकिन नहीं हो जाता है, और वे इसे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना मानते हैं। चाहे वे किसी भी दिशा में खींचें, और वे खींचने में जो ऊर्जा लगाते हैं चाहे वह सही हो या ना हो, उनके अनुसार वे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर रहे हैं। ऐसे कई मुद्दे हैं जिन्हें वे समझ नहीं पाते हैं, और वे उन्हें हल करने या उनकी सूचना ऊपरवाले को देने और ऊपरवाले से समाधान माँगने का प्रयास नहीं करते हैं। वे चाहे कितने भी वर्षों तक कार्य क्यों ना करें या कितने भी वर्षों तक लोगों के संपर्क में क्यों ना रहें, उन्हें यह भी नहीं पता होता है कि क्या किसी व्यक्ति की अभिव्यक्तियाँ ऐसे नए विश्वासी की हैं जिसकी आस्था का आधार उथला है और जो सत्य नहीं समझता है या क्या वे किसी अविश्वासी की हैं, और उन्हें यह भी पता नहीं होता है कि उन्हें उनकी पहचान कैसे करनी चाहिए या उनका चरित्र चित्रण कैसे करना चाहिए। जब ऐसे दो लोग होते हैं जो दोनों ही नकारात्मक स्थिति में हैं, तो उन्हें नहीं पता होता है कि उनमें से कौन विकसित किए जाने योग्य है और कौन नहीं; जब दो लोग अपने कर्तव्य करने में कुछ हद तक लापरवाह होते हैं, तो वे यह नहीं बता पाते हैं कि उनमें से कौन सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति है और कौन श्रमिक है, उनमें से कौन सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम है और उनमें से किसके पास सत्य वास्तविकता बिल्कुल नहीं है। वे नहीं जानते हैं कि एक बार अगुआ बन जाने के बाद किन लोगों की मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने की संभावना है, भले ही उनकी कई वर्षों से इन लोगों से जान-पहचान रही हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे कितने सारे निरर्थक अभ्यासों में शामिल रहते हैं या कितने सारे बेकार कार्य करते हैं या उनके आसपास कितनी समस्याएँ हैं, उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं होती है, और उन्हें यह एहसास नहीं होता है कि ये समस्याएँ हैं। क्योंकि ऐसे लोग खराब काबिलियत वाले, उलझे हुए विचारों वाले, और कार्य करने में अक्षम होते हैं, इसलिए उनके लिए अगुआ या कार्यकर्ता की जिम्मेदारियाँ पूरी करना बहुत कठिन होता है। कुछ आसान से सामान्य मामलों वाले कार्य करने में समर्थ होने के अलावा, ये अगुआ और कार्यकर्ता कलीसिया के अनिवार्य कार्य से संबंधित कुछ भी करने में सक्षम नहीं होते हैं, और वे कार्य में किसी भी वास्तविक समस्या को देखने या हल करने में समर्थ नहीं होते हैं। क्या इस किस्म की काबिलियत वाला इस तरह का अगुआ विकसित किए जाने योग्य है? वे यह भी नहीं जानते हैं कि उलझन या कठिनाइयाँ क्या होती हैं, और वे उन्हें सिद्धांतों के अनुसार संभालने में और भी पीछे रह जाते हैं। भले ही कलीसियाई कार्य में आने वाली समस्याएँ बहुत ही आम हों, फिर भी वे उन्हें संक्षेप में प्रस्तुत नहीं कर पाते हैं और उन्हें वर्गीकृत नहीं कर पाते हैं, और ना ही वे यह जानते हैं कि उन्हें हल करने के लिए सत्य पर संगति कैसे करनी है—इस प्रकार का झूठा अगुआ कलीसिया में अक्सर आने वाली इन समस्याओं को संभालने या हल करने में समान रूप से असमर्थ होता है। उनकी सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है कि वे कीमत चुकाने के इच्छुक नहीं हैं, या उन्हें व्यस्त रहने और थकावट महसूस होने का डर है, बल्कि यह है कि उनकी काबिलियत खराब है, उनका मन अस्पष्ट है, और वे कलीसिया का महत्वपूर्ण कार्य और वास्तविक कार्य करने में समर्थ नहीं हैं। इसके बजाय वे बस कुछ सामान्य मामलों वाला कार्य करते हैं या उन्हें कुछ अप्रासंगिक चीजों पर ध्यान देना अच्छा लगता है, और फिर वे अगुआओं और कार्यकर्ताओं की भूमिका निभाना चाहते हैं—क्या वे ऐसे भ्रमित लोग नहीं हैं जिनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ बहुत ही बड़ी हैं? खराब काबिलियत वाले अगुआ कलीसिया का मुख्य कार्य, यह वह कार्य है जिसमें सत्य सिद्धांत शामिल होते हैं, या पेचीदा पेशेवर कार्य करने में समान रूप से असमर्थ होते हैं, जैसे कि सुसमाचार फैलाने का कार्य, कलीसिया में नए विश्वासियों को सींचने का कार्य, फिल्म निर्माण कार्य, पाठ आधारित कार्य और कार्मिक कार्य जिसमें विभिन्न स्तरों पर अगुआ और कार्यकर्ता शामिल हैं। वे यह कार्य करने में अक्षम क्यों हैं? इसका कारण यह है कि उनकी काबिलियत बहुत ही खराब है और वे सिद्धांत समझ नहीं पाते हैं; वे इस सारे कार्य में समान रूप से पीछे रह जाते हैं और इसे करने का तरीका सीखने में असमर्थ होते हैं। मिसाल के तौर पर, मान लो कि इस तरह के एक अगुआ को पाँच लोग दिए जाते हैं और उससे कहा जाता है कि वह इन पाँच लोगों को उनकी शिक्षा के स्तर, उनकी काबिलियत और खूबियों और उनके चरित्र के आधार पर कार्य आवंटित करे। क्या यह कार्य करने में आसान है? क्या इसका अगुआओं और कार्यकर्ताओं की काबिलियत से कोई लेना-देना है? (हाँ, है।) औसत काबिलियत वाले अगुआ और कार्यकर्ता पाँच लोगों की जाँच-परख करने, उनसे जान-पहचान करने और उन्हें जानने में कुछ समय बिताने के बाद अपेक्षाकृत सटीक रूप से कार्य आवंटित करेंगे। खराब काबिलियत वाले अगुआ और कार्यकर्ता सोचेंगे कि पाँच लोग बहुत ज्यादा हैं; जब बहुत ज्यादा लोग होते हैं, तो वे भ्रमित हो जाते हैं और उन्हें यह पता नहीं होता है कि उन्हें कार्य कैसे आवंटित करना है, और अगर वे उन्हें कार्य आवंटित कर भी देते हैं, तो भी वे अपने दिलों में यह नहीं जानते हैं कि वे इसे उचित तरीके से कर रहे हैं या नहीं। यह कार्मिक पहलू के संबंध में है। मिसाल के तौर पर, जब मामले संभालने की बात आती है, तो अगर उन्हें एक साथ दो या तीन मामले संभालने और हल करने की जरूरत हो तो उन्हें यह पता नहीं होगा कि इन मामलों के बीच संबंध के बारे में कैसे राय बनानी है और कैसे उसे पहचानना है, और ना ही वे यह आँक पाएँगे कि उन्हें कौन-सी समस्या पहले हल करनी चाहिए, और बिना कोई देरी करवाए कौन-सी समस्या बाद में हल की जा सकती है। यानी, वे यह नहीं जानते हैं कि फायदे और नुकसान को कैसे आँकना है, वे यह नहीं जानते हैं कि कार्यों को महत्व और जरूरत के क्रम में कैसे प्राथमिकता देनी है, और वे यह नहीं जानते हैं कि समस्याएँ कैसे हल करनी हैं। लेकिन, चूँकि वे अगुआ और कार्यकर्ता हैं, इसलिए भले ही उन्हें कोई चीज समझ ना आए तो भी उन्हें यह ढोंग करना पड़ता है कि वे समझते हैं, भले ही वे किसी चीज का अर्थ नहीं समझते हों तो भी उन्हें यह ढोंग करना पड़ता है कि वे समझते हैं, और वे कुछ नहीं कर सकते हैं सिवाय इसके कि वे वहीं टिके रहें और काम चलाने के लिए कुछ धर्म-सिद्धांतों का उपदेश दें, और कुछ सुनने में सुखद लगने वाले शब्द कहें और जल्दी से चीजों को समाप्त कर दें। वे इस बारे में पूरी तरह से स्पष्ट हैं कि वे जो कहते हैं वह सटीक है या नहीं, यह सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं, यह मुद्दे हल कर सकता है या नहीं, लेकिन वे बस काम चलाना चाहते हैं। उन्हें अच्छी तरह से पता है कि वे जो कर रहे हैं उससे वे मुद्दे हल करने में समर्थ नहीं होंगे, लेकिन वे फिर भी समस्याओं की सूचना ऊपरवाले को नहीं देते हैं, और इसलिए अंत में, उनके कारण कार्य में देरी होती है और उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है। मुझे बताओ, क्या ये लोग बेवकूफ नहीं हैं? जब कुछ अगुआ और कार्यकर्ता समस्याओं की सूचना देते हैं, तो वे उन सभी पुरानी, तुच्छ घटनाओं का ब्योरा देते हैं जो आज तक हुई हैं, और जब वे बहुत कुछ कह चुके होते हैं, उसके बाद भी तुम्हें विश्लेषण करने और यह फैसला लेने में उनकी सहायता करनी पड़ती है कि कौन-सी समस्याएँ मौजूद हैं। वे यह भी नहीं समझते हैं कि कोई मुद्दा कैसे उठाना है, और वे बिना स्पष्ट रूप से यह समझाए घंटों बात कर सकते हैं कि किसी मुद्दे का केंद्र और सार क्या है। वे जो भी कहते हैं वह सिर्फ सतही चीजों से संबंधित होता है और बस बहुत सारा बकवास होता है! क्या यह उनकी काबिलियत का बहुत खराब होना और उनका पागल होना नहीं है? क्या काबिलियत वाले लोग ये चीजें सुनने के इच्छुक हैं? वे जिस व्यक्ति से बात कर रहे होते हैं, वह बस यही जानना चाहता है कि वे जिस व्यक्ति की सूचना दे रहे हैं, उसकी मौजूदा स्थिति और अभिव्यक्तियाँ क्या हैं, और वे किस स्थिति को लेकर भ्रमित हैं और उसे हल करने में असमर्थ हैं। और फिर भी, ये लोग हमेशा इस बारे में बात करते हैं कि उस व्यक्ति ने अतीत में क्या हरकत की, और वे उस व्यक्ति की मौजूदा स्थिति के बारे में बात नहीं करते हैं, या यह नहीं कहते हैं कि उन्हें खुद क्या उलझन और समस्याएँ हैं। वे बहुत सी चीजें कहते हैं, और कोई भी ठीक-ठीक यह नहीं बता सकता है कि वे किस बारे में बात कर रहे हैं। भले ही वे कोई प्रश्न पूछना चाहते हों, लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता है कि कहाँ से शुरू करना है, उन्हें यह नहीं पता होता है कि इसे कैसे व्यक्त किया जाए ताकि यह प्रभावी हो सके और लोग उन्हें समझ सकें—उनके पास अपनी भाषा को व्यवस्थित करने की क्षमता भी नहीं होती है। क्या यह अत्यंत खराब काबिलियत होने की अभिव्यक्ति नहीं है? कुछ झूठे अगुआओं में खराब काबिलियत होती है, और जब वे किसी मुद्दे की सूचना देते हैं, तो वे ढेरों निरर्थक और समझ नहीं आने वाली बातें कहते हैं, और फिर वे सोचते हैं, “मैंने तुम्हें पर्याप्त मात्रा में बहुत सारी जानकारी दे दी है, है ना? मैंने तुम्हें इस मुद्दे के अतीत और वर्तमान की सारी बातें भी बता दी हैं, तो क्या अब तुम यह नहीं बता सकते कि मैं क्या प्रश्न पूछना चाहता हूँ?” तुम उनसे चाहे जो भी पूछो या उन्हें कैसे भी निर्देशित करो, वे नहीं जानते कि क्या कहना है और वे कभी भी मुद्दे का मुख्य बिंदु नहीं बता पाते हैं। ऐसा नहीं है कि उनके पास खुद को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं या उनकी शिक्षा का स्तर निम्न है, बल्कि बात यह है कि उनकी काबिलियत खराब है और उनके पास दिमाग नहीं है, इसलिए उन्हें नहीं पता है कि इन चीजों को कैसे व्यक्त करना है, उनके मन भ्रमित हैं, और वे खुद को स्पष्ट रूप से नहीं समझा पाते हैं ताकि दूसरे उन्हें समझ सकें। उनमें दायित्व की कुछ भावना होती है, और जैसे-जैसे समय बीतता है, उन्हें कुछ खास मुद्दों के बारे में कुछ जानकारी होने लगती है, लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता है कि उन्हें कैसे व्यक्त करना है, वे यह समझने में समर्थ नहीं होते है कि इन मुद्दों का सार क्या है, और इन मुद्दों को संक्षेप में प्रस्तुत कर पाना तो दूर की बात है। क्या इतनी खराब काबिलियत वाले लोग कार्य कर सकते हैं? क्या वे अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हैं? नहीं, वे नहीं कर सकते हैं। अगर तुम उन्हें समय और अवसर दे भी दो और उन्हें समस्याओं की सूचना देने और उनका वर्णन करने की अनुमति दे भी दो, तो भी वे ऐसा नहीं कर पाते हैं, तो क्या अब भी तुम ऐसे लोगों से बातचीत कर सकते हो? क्या अब भी उनका उपयोग किया जा सकता है? (नहीं।) उनका उपयोग क्यों नहीं किया जा सकता है? वे स्पष्ट रूप से बोल भी नहीं पाते हैं, और उनके पास अपने भावों, विचारों और रवैयों को व्यक्त करने के लिए भाषा का उपयोग करने की न्यूनतम सहज मानवीय प्रवृत्ति भी नहीं होती है, तो फिर वे क्या कार्य कर सकते हैं? वैसे तो हो सकता है कि उनमें थोड़ी खूबी, सच्चा उत्साह और थोड़ी जिम्मेदारी की भावना हो और उनके पास एक काफी ईमानदार दिल हो, लेकिन उनकी काबिलियत बहुत ही खराब होती है, तुम उन्हें चाहे कितना भी सिखाओ, वे कुछ भी सीख नहीं पाते हैं, और अगर तुम उन्हें बात करना सिखा भी दो, तो भी वे इसे समझने में समर्थ नहीं होंगे, और इसलिए तुम बहुत परेशान हो जाओगे और तैश में आ जाओगे। बोलते समय वे अपनी बातों को गड़बड़ कर देते हैं, जिससे तुम भ्रमित हो जाते हो; वे कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं कह पाते हैं, और वे जो कुछ भी कहते हैं वह सिर्फ बहुत सारा बकवास होता है। उनके बारे में सबसे दयनीय चीज यह है कि वे मानव भाषा नहीं समझते हैं और फिर भी वे आँख मूंदकर कार्य करते रहते हैं, उन्हें अब भी यही लगता है कि वे सक्षम हैं, और जब तुम उनकी काट-छाँट करते हो, तो वे अवज्ञापूर्ण हो जाते हैं। वे अगुआ का कार्य अच्छी तरह से कैसे कर सकते हैं? जब अगुआ या कार्यकर्ता की काबिलियत इतनी खराब है कि उसमें खुद को भाषा में व्यक्त करने की क्षमता बिल्कुल नहीं है, तो क्या वह अब भी कार्य में निपुण हो सकता है? (नहीं।) और अपने कार्य में निपुण नहीं होना क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि वह कार्य को दौरान आने वाली कठिनाइयों और समस्याओं का तुरंत पता लगाने में अक्षम है, और यकीनन, यह दर्शाता है कि कार्य में चाहे जो भी मुद्दे क्यों ना उत्पन्न हों, वह उन्हें कभी भी तुरंत हल नहीं कर सकता है, और ना ही वह तुरंत उनकी सूचना ऊपरवाले को दे सकता है और ऊपरवाले से समाधान माँग सकता है—यह उसके लिए बहुत ही कठिन है, और वह ऐसा करने में अक्षम है। जब ऐसे लोगों की बात आती है जो खराब काबिलियत वाले होते हैं, तो यह कार्य उनके लिए अत्यंत कठिन होता है; यह बत्तख को पेड़ पर बैठाने या गधे को नचाने का प्रयास करने जैसा है—यह बहुत ही श्रमसाध्य है।

कुछ लोग कहते हैं, “मुझे उन लोगों के लिए बुरा लगता है। वे सभी किस्म के कार्य संभालने के लिए बहुत दौड़-धूप करते हैं, और अंत में, उनकी खराब काबिलियत के कारण उनका झूठे अगुआ के रूप में चरित्र चित्रण किया जाता है। तो, क्या इसका यह अर्थ है कि उन्होंने जो भी कष्ट सहा है, वह सारा बेकार हो गया है? क्या यह लोगों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार करना नहीं है?” झूठे अगुआओं को बर्खास्त करने का अर्थ है परमेश्वर के चुने हुए लोगों और कलीसिया के कार्य के लिए जिम्मेदार होना, तो यह लोगों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार करना कैसे हो सकता है? अगर ये लोग झूठे अगुआओं को अगुआ के रूप में उनकी भूमिका में बने रहने देने पर जोर देते हैं, तो क्या यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान नहीं पहुँचा रहा है? क्या वे यह कहना चाहते हैं कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाना लोगों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार करना नहीं है? किसी झूठे अगुआ को बर्खास्त करके, परमेश्वर का घर उस झूठे अगुआ की निंदा नहीं कर रहा है, और ना ही वह उस झूठे अगुआ को नीचे नरक में भेज रहा है, बल्कि वह उस व्यक्ति को उद्धार प्राप्त करने का एक मौका दे रहा है। अगर वे झूठे अगुआ बने रहे, तो क्या वे उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? उनका अंतिम परिणाम क्या होगा? ये लोग इस मुद्दे पर इस तरह से विचार क्यों नहीं करते हैं? इसके अलावा, परमेश्वर में विश्वास रखने का उद्देश्य क्या है? यकीनन अगुआ बनना ही आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका नहीं है? अगर कोई अगुआ नहीं है, तो क्या उसके पास करने के लिए और कोई कर्तव्य नहीं है? क्या उन लोगों के लिए जीवित रहने का कोई रास्ता नहीं है जो अगुआ नहीं हैं और जिनकी काबिलियत खराब है? (नहीं, यह सच नहीं है।) तो फिर अभ्यास का मार्ग क्या है? अब हम जिसका गहन-विश्लेषण कर रहे हैं, वह उन समस्याओं की अभिव्यक्तियाँ हैं जो इस प्रकार के झूठे अगुआ में मौजूद होती हैं जो खराब काबिलियत का है; हम उसकी निंदा नहीं कर रहे हैं या उसे शाप नहीं दे रहे हैं, हम तो बस उसका गहन-विश्लेषण कर रहे हैं। उनका गहन-विश्लेषण करने का उद्देश्य इस प्रकार के व्यक्ति को इस बात के लिए मनाना है कि वह सटीकता से खुद को जाने और अपनी स्थिति निर्धारित करे, अपना माप जाने, और सटीकता से यह समझे कि अगुआ और कार्यकर्ता क्या हैं, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को क्या कार्य करना चाहिए, और फिर इन चीजों की तुलना खुद से करे ताकि यह देख सके कि क्या वह अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए उपयुक्त है। अगर उसकी काबिलियत वास्तव में बहुत ही खराब है, इतनी खराब है कि उसमें खुद को भाषा में व्यक्त करने की क्षमता नहीं है, या अपने विचारों और नजरियों को व्यक्त करने की क्षमता नहीं है, या समस्याओं का पता लगाने की क्षमता नहीं है, तो वह अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए उपयुक्त नहीं है, वह अगुआ या कार्यकर्ता का कर्तव्य करने में निपुण नहीं है, और वह अगुआ या कार्यकर्ता का कार्य करने में असमर्थ है। और चूँकि वह खराब काबिलियत का है, इसलिए उसमें इस तरह की आत्म-जागरूकता होनी चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “मेरी काबिलियत खराब है—तो क्या हुआ? मुझमें अच्छी मानवता है, इसलिए मुझे अगुआ बनना चाहिए।” क्या यही सिद्धांत है? दूसरे लोग कहते हैं, “अच्छी मानवता होने के अलावा, मैं कष्ट सहने और कीमत चुकाने का भी इच्छुक हूँ, मैं धर्मोपदेश दे सकता हूँ, मेरी आस्था की एक नींव है, और मैं परमेश्वर में अपने विश्वास के कारण जेल भी जा चुका हूँ। क्या अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए ये चीजें मेरे लिए पूँजी के तौर पर नहीं गिनी जाती हैं?” क्या यह सत्य है कि अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए पूँजी होनी चाहिए? (नहीं।) अब हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों पर चर्चा कर रहे हैं और इस विषय में, हम काबिलियत के मुद्दे के बारे में बात कर रहे हैं। अगर उनकी काबिलियत खराब है और वे ये जिम्मेदारियाँ पूरी करने में समर्थ नहीं हैं, तो फिर उनमें यह आत्म-जागरूकता होनी चाहिए : “मेरे पास यह काबिलियत नहीं है और मैं अगुआ या कार्यकर्ता नहीं बन सकता। मेरे पास जो भी पूँजी है, उसका कोई उपयोग नहीं है।” वे कहते हैं कि उनमें अच्छी मानवता है, वे भरोसेमंद हैं, उनमें कष्ट सहने का दृढ़ संकल्प है, और वे कीमत चुकाने के इच्छुक हैं—तो फिर क्या परमेश्वर के घर ने उनके साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया है? परमेश्वर का घर लोगों का इस तरह से उपयोग करता है कि हर किसी का सर्वश्रेष्ठ उपयोग हो सके, वह भूमिकाएँ ऐसे तय करता है कि वे हर व्यक्ति के लिए उपयुक्त हों, और इसे एक ऐसे तरीके से करता है जो बिल्कुल सही है। अगर इन लोगों में अच्छी मानवता है लेकिन उनकी काबिलियत खराब है, तो उन्हें अपना कर्तव्य अपने पूरे दिल और ताकत से अच्छी तरह से करना चाहिए; यह ऐसा नहीं है कि परमेश्वर द्वारा स्वीकृत किए जाने के लिए व्यक्ति को अगुआ या कार्यकर्ता होना ही चाहिए। भले ही वे खुद को कष्ट देने के इच्छुक हों, लेकिन वे खुद को उस तरीके से कष्ट देने में समर्थ नहीं हैं जिस तरीके से एक अगुआ को देना चाहिए, और उनमें वह काबिलियत नहीं है जो अगुआ बनने के लिए होनी चाहिए, और वे इस मामले में पीछे रह जाते हैं, तो फिर वे क्या कर सकते हैं? उन्हें खुद को मजबूर नहीं करना चाहिए या अपने लिए चीजें कठिन नहीं बनानी चाहिए; अगर वे 25 किलो वजन ही उठा सकते हैं, तो उन्हें 25 किलो वजन ही उठाना चाहिए। उन्हें अपनी सीमाओं से आगे जाकर दिखावा करने का प्रयास नहीं करना चाहिए, यह नहीं कहना चाहिए, “25 किलो पर्याप्त नहीं है। मैं इससे ज्यादा उठाना चाहता हूँ। मैं 50 किलो उठाना चाहता हूँ। मैं इसे करने का इच्छुक हूँ, भले ही मैं थकान से मर ही क्यों ना जाऊँ!” वे अगुआ या कार्यकर्ता बनने में सक्षम नहीं हैं, लेकिन फिर भी अगर वे दिखावा करने के लिए अपनी सीमाओं से आगे जाते रहे, तो उन्हें थकान तो नहीं होगी, लेकिन वे कलीसियाई कार्य में देरी का कारण बनेंगे, वे कार्य की प्रगति और कुशलता को प्रभावित करेंगे, और वे कई लोगों की जीवन प्रगति में देरी करेंगे—यह ऐसी जिम्मेदारी नहीं है जिसे उठाने का सामर्थ्य वे रख सकें। क्योंकि वे अपर्याप्त काबिलियत वाले हैं, इसलिए अगर उनमें आत्म-जागरूकता है, तो उन्हें सक्रियता से इस्तीफा देने की पेशकश करनी चाहिए और किसी अच्छी काबिलियत वाले ऐसे व्यक्ति को नामित करना चाहिए, जो सत्य से प्रेम करता है, और जो अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए उनसे ज्यादा जिम्मेदार है। ऐसा करना ही समझदारी की बात होगी, और सिर्फ ऐसा करके ही वे ऐसे व्यक्ति बनेंगे जिनमें वाकई मानवता और सूझ-बूझ है, और जो वाकई सत्य समझते हैं और उसका अभ्यास करते हैं। अगर वे अपने पद से इसलिए इस्तीफा दे देते हैं क्योंकि वे अगुआ का कार्य करने में असमर्थ हैं, और फिर वे अपने लिए उपयुक्त कोई कर्तव्य चुनते हैं और अपनी निष्ठा अर्पित करते हैं ताकि वे परमेश्वर द्वारा स्वीकृत हो सकें, तो फिर वे असाधारण रूप से होशियार व्यक्ति हैं। ये लोग हमेशा सोचते हैं, “वैसे तो मैं खराब काबिलियत वाला हूँ, लेकिन मुझमें अच्छी मानवता है, मैं खुद को कष्ट देने, कष्ट सहने और कीमत चुकाने का इच्छुक हूँ, मेरे पास दृढ़ संकल्प है, मैं जो कुछ भी करता हूँ उसमें तुम सभी से ज्यादा लचीला हूँ, और मैं खुले विचारों वाला हूँ और मुझे काट-छाँट या परीक्षण किए जाने का डर नहीं है। भले ही मेरी काबिलियत थोड़ी खराब है, फिर भी मैं अगुआ बन सकता हूँ।” खराब काबिलियत होना कोई समस्या नहीं है। यह इन लोगों की निंदा करने के लिए नहीं है, यह सिर्फ उन्हें वर्गीकृत करने के लिए है और उन्हें यह स्पष्ट रूप से समझाने के लिए है कि वे वास्तव में क्या कर सकते हैं और वे किस तरह के कर्तव्य के लिए उपयुक्त हैं। लेकिन, वर्तमान मुद्दा यह है कि उनकी काबिलियत खराब है और वे अगुआ या कार्यकर्ता बनने में सक्षम नहीं हैं। भले ही उन्हें अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए चुना गया हो, लेकिन वे यह कार्य अच्छी तरह से करने में समर्थ नहीं हैं, और वे बस कार्य में गड़बड़ करने में ही समर्थ हैं। अगर इन लोगों में अच्छी मानवता है, अगर इनमें जमीर और सूझ-बूझ है, और वे खुद को कष्ट देने और कीमत चुकाने के इच्छुक हैं, तो कोई ऐसा कार्य होगा जिसे करने के लिए वे उपयुक्त हैं और कोई ऐसा कर्तव्य होगा जिसे उन्हें करना चाहिए, और परमेश्वर का घर उनके लिए उचित व्यवस्थाएँ करेगा। उन्हें अगुआ बनने की अनुमति नहीं देना परमेश्वर के घर के विनियमों और सिद्धांतों पर आधारित है। लेकिन, परमेश्वर का घर उन्हें कोई कर्तव्य करने या परमेश्वर में विश्वास रखने और उसका अनुसरण करने के उनके अधिकार से इसलिए बिल्कुल भी मना नहीं करेगा क्योंकि वे खराब काबिलियत वाले हैं। क्या यह उचित नहीं है? (हाँ, है।) क्या इस मामले पर और विस्तार से संगति करना हमारे लिए जरूरी है? खराब काबिलियत वाले कुछ लोग यह सुनते हैं और सोचते हैं, “इस पर अब और संगति मत करो। मुझे किसी का भी सामना करने में बहुत शर्म आती है। मुझे पता है कि मैं खराब काबिलियत वाला हूँ, और अब मैं कलीसियाई अगुआ या कार्यकर्ता नहीं रहूँगा। मैं सिर्फ एक टीम का अगुआ या पर्यवेक्षक होऊँगा, या फिर मैं छोटे-मोटे फुटकर कार्य करूँगा, खाना बनाऊँगा, या सफाई करूँगा। कुछ भी चलेगा। मैं बिना किसी शिकायत के अपने पद का कष्ट सहूँगा, परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करूँगा, और परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण करूँगा। यह जो मैं खराब काबिलियत वाला हूँ, यह परमेश्वर के अनुग्रह से है, और इसमें परमेश्वर के अच्छे इरादे हैं। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह सही होता है।” अगर वे इस तरीके से चीजें देख सकते हैं, तो यह अच्छी बात है, और इसका यह अर्थ है कि उनमें कुछ आत्म-जागरूकता है। मैं इस मुद्दे पर विस्तार से संगति नहीं करूँगा। संक्षेप में, इन खराब काबिलियत वाले लोगों के संबंध में, हम सिर्फ समस्या का गहन-विश्लेषण कर रहे हैं और तथ्यों की सच्चाई को उजागर कर रहे हैं ताकि ज्यादा लोगों के पास इन लोगों के बारे में सही रवैया और परिप्रेक्ष्य हो और इन लोगों के पास अपनी खराब काबिलियत के मुद्दे के बारे में सही रवैया और परिप्रेक्ष्य हो, और फिर वे सटीकता से अपनी स्थिति निर्धारित कर सकें, एक ऐसी स्थिति और कर्तव्य ढूँढ सकें जो उनके लिए उपयुक्त हो, जिससे कीमत चुकाने में उनकी दृढ़ता और कष्ट सहने के उनके दृढ़ संकल्प को उचित रूप से उपयोग में लाया जा सके और लागू किया जा सके। यह उनके सत्य समझने और सत्य का अभ्यास करने को प्रभावित नहीं करता है, और ना ही यह परमेश्वर के घर में उनकी छवि को प्रभावित करता है।

III. झूठे अगुआ जो आलसी होते हैं और सुख-सुविधाओं में लिप्त रहते हैं

हमने अभी-अभी दो प्रकार के झूठे अगुआओं पर संगति की। एक और प्रकार का झूठा अगुआ होता है, जिसके बारे में हमने अक्सर “अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ” विषय पर संगति करते समय बात की है। इस प्रकार के अगुआओं में कुछ काबिलियत होती है, वे बेवकूफ नहीं होते हैं, उनके पास अपने कार्य करने के तौर-तरीके और विधियाँ होती हैं, और समस्याएँ हल करने के लिए योजनाएँ होती हैं, और जब उन्हें कार्य का कोई अंश दिया जाता है, तो वे उसे अपेक्षित मानकों के लगभग अनुरूप कार्यान्वित कर सकते हैं। वे कार्य के दौरान उत्पन्न होने वाली किसी भी समस्या का पता लगाने में समर्थ होते हैं और उनमें से कुछ समस्याएँ हल भी कर सकते हैं; जब वे कुछ लोगों द्वारा सूचित की गई समस्याएँ सुनते हैं, या वे कुछ लोगों के व्यवहार, अभिव्यक्तियों, बातों और कार्य की जाँच-परख करते हैं, तो उनके दिल में प्रतिक्रिया होती है, और उनकी अपनी राय और एक रवैया होता है। यकीनन, अगर ये लोग सत्य का अनुसरण करें और उनमें दायित्व की भावना हो, तो ये सभी समस्याएँ हल हो सकती हैं। लेकिन, आज हम जिस प्रकार के व्यक्ति पर संगति कर रहे हैं, उसकी जिम्मेदारी के अंतर्गत आने वाले कार्य में समस्याएँ अप्रत्याशित रूप से अनसुलझी रह जाती हैं। ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये लोग वास्तविक कार्य नहीं करते हैं। वे आराम से प्रेम और कड़ी मेहनत से नफरत करते हैं, वे बस ऊपरी तौर पर लापरवाही से प्रयास करते हैं, उन्हें निठल्ला रहना और रुतबे के फायदों का आनंद लेना पसंद है, उन्हें लोगों पर हुक्म चलाना अच्छा लगता है, और वे बस थोड़े-से होंठ हिलाते हैं और कुछ सुझाव देते हैं और फिर मान लेते हैं कि उनका कार्य पूरा हो गया है। वे कलीसिया के किसी भी वास्तविक कार्य या परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गए अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य को गंभीरता से नहीं लेते हैं—उनमें दायित्व की यह भावना नहीं होती है, और भले ही परमेश्वर का घर बार-बार इन बातों पर जोर देता रहे, फिर भी वे उन्हें गंभीरता से नहीं लेते हैं। मिसाल के तौर पर, वे परमेश्वर के घर के फिल्म निर्माण कार्य या पाठ आधारित कार्य में दखल देना या उसके बारे में पूछताछ करना नहीं चाहते हैं, और ना ही वे इस बात की छान-बीन करना चाहते हैं कि इस प्रकार के कार्य किस तरह से प्रगति कर रहे हैं और वे क्या परिणाम हासिल कर रहे हैं। वे बस अप्रत्यक्ष रूप से कुछ पूछताछ कर लेते हैं, और एक बार जब वे जान जाते हैं कि लोग इस कार्य में व्यस्त हैं और यह कार्य कर रहे हैं, तो वे आगे इस पर और ध्यान नहीं देते हैं। यहाँ तक कि जब उन्हें अच्छी तरह से यह मालूम भी होता है कि कार्य में समस्याएँ हैं, तो भी वे उन पर संगति करना और उन्हें हल करना नहीं चाहते हैं, और ना ही वे इस बारे में पूछताछ या छान-बीन करते हैं कि लोग अपने कर्तव्य कैसे कर रहे हैं। वे इन चीजों के बारे में पूछताछ क्यों नहीं करते हैं या इनकी छान-बीन क्यों नहीं करते हैं? उन्हें लगता है कि अगर वे उनकी छान-बीन करेंगे, तो ऐसी बहुत सी समस्याएँ सामने आ जाएँगी जो उनके द्वारा हल की जाने की प्रतीक्षा में होंगी, और वह बहुत ही चिंताजनक होगा। अगर उन्हें हमेशा समस्याएँ सुलझानी पड़ जाए, तो जीवन अत्यंत थकाऊ हो जाएगा! अगर वे बहुत ज्यादा चिंता करेंगे, तो भोजन उनके लिए बेस्वाद हो जाएगा, और वे ठीक से सो नहीं पाएँगे, उन्हें देह में थकावट महसूस होगी, और फिर जीवन तकलीफदेह हो जाएगा। इसीलिए, जब उन्हें कोई समस्या दिखाई पड़ती है, तो वे उससे बचते फिरते हैं और अगर हो सके, तो उसे नजरअंदाज कर देते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति में क्या समस्या है? (वह बहुत ही आलसी है।) मुझे बताओ, गंभीर समस्या किन्हें होती है : आलसी लोगों को या खराब क्षमता वाले लोगों को? (आलसी लोगों को।) आलसी लोगों को गंभीर समस्या क्यों होती है? (खराब क्षमता वाले लोग अगुआ या कर्मी नहीं बन सकते, लेकिन जब वे अपनी क्षमताओं के दायरे में आने वाला कोई कर्तव्य करते हैं, तो वे कुछ हद तक प्रभावी हो सकते हैं। लेकिन, आलसी लोग कुछ भी नहीं कर सकते हैं; अगर उनमें काबिलियत हो, तो भी उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।) आलसी लोग कुछ भी नहीं कर सकते हैं। इसे संक्षेप में प्रस्तुत करें, तो वे बेकार लोग हैं; उनमें एक द्वितीय-श्रेणी की अक्षमता है। आलसी लोगों की क्षमता कितनी भी अच्छी क्यों न हो, वह नुमाइश से ज्यादा कुछ नहीं होती; भले ही उनमें अच्छी काबिलियत हो, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं है। वे बहुत ही आलसी होते हैं—उन्हें पता होता है कि उन्हें क्या करना चाहिए, लेकिन वे वैसा नहीं करते हैं, और भले ही उन्हें पता हो कि कोई चीज एक समस्या है, फिर भी वे इसे हल करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते हैं, और वैसे तो वे जानते हैं कि कार्य को प्रभावी बनाने के लिए उन्हें क्या कष्ट सहने चाहिए, लेकिन वे इन उपयोगी कष्टों को सहने के इच्छुक नहीं होते हैं—इसलिए वे कोई सत्य प्राप्त नहीं कर पाते हैं, और वे कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकते हैं। वे उन कष्टों को सहना नहीं चाहते हैं जो लोगों को सहने चाहिए; उन्हें सिर्फ सुख-सुविधाओं में लिप्त रहना, खुशी और फुर्सत के समय का आनंद लेना और एक मुक्त और शांतिपूर्ण जीवन का आनंद लेना आता है। क्या वे निकम्मे नहीं हैं? जो लोग कष्ट सहन नहीं कर सकते हैं, वे जीने के लायक नहीं हैं। जो लोग हमेशा परजीवी की तरह जीवन जीना चाहते हैं, उनमें जमीर या विवेक नहीं होता है; वे पशु हैं, और ऐसे लोग श्रम करने के लिए भी अयोग्य हैं। क्योंकि वे कष्ट सहन नहीं कर पाते हैं, इसलिए श्रम करते समय भी वे इसे अच्छी तरह से करने में समर्थ नहीं होते हैं, और अगर वे सत्य प्राप्त करना चाहें, तो इसकी उम्मीद तो और भी कम है। जो व्यक्ति कष्ट नहीं सह सकता है और सत्य से प्रेम नहीं करता है, वह निकम्मा व्यक्ति है; वह श्रम करने के लिए भी अयोग्य है। वह एक पशु है, जिसमें रत्ती भर भी मानवता नहीं है। ऐसे लोगों को हटा देना चाहिए; सिर्फ यही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है।

कुछ लोग खेती के कार्य के लिए जिम्मेदार होते हैं, और वे विशेष रूप से मेहनती होते हैं; उनके मन में एक योजना होती है, और उन्हें पता होता है कि किस मौसम में क्या कार्य करना है। जब खेतों की जुताई का समय आता है तो वे हर भूखंड पर जाते हैं और उनका निरीक्षण करते हैं। प्रत्येक भूखंड पर उन्होंने जो फसल लगाने की योजना बनाई है उसके हिसाब वे उस भूखंड की असल स्थिति की तुलना करते हैं, और देखते हैं कि क्या उनकी योजना उपयुक्त है और क्या यह असल स्थिति के अनुरूप है। इसके अलावा, वे जाँचते हैं कि इस वर्ष मिट्टी कितनी गीली या सूखी है, किस खाद की जरूरत है, और बोने के लिए क्या उपयुक्त है। एक बार जब वे देख लेते हैं और उन्हें इन चीजों की समझ हो जाती है, तो वे तुरंत पूछते हैं कि क्या पौध उगाई जा चुकी है और कितनी उगाई गई है, फिर वे पौध-घर में जाकर देखते हैं और पता लगाते हैं कि क्या पौध उगाने वाला व्यक्ति भरोसेमंद है या क्या वह पौध को बर्बाद कर देगा। अगर यह कार्य करने के लिए एक व्यक्ति पर्याप्त नहीं है, तो वे दूसरे व्यक्ति को उसके साथ कार्य करने के लिए नियुक्त करते हैं, और दोनों एक-दूसरे का पर्यवेक्षण करते हैं। क्या आलसी लोग ऐसा करेंगे? नहीं, वे नहीं करेंगे। अगर किसी ने उनका पर्यवेक्षण नहीं किया और उनसे आगे बढ़ने का आग्रह नहीं किया, तो वे उस जगह पर बिल्कुल नहीं जाएँगे; अगर परमेश्वर के घर ने किसी कार्य की प्रगति के बारे में नहीं पूछा, तो वे उस कार्य की वास्तविक स्थिति का निरीक्षण करने की पहल बिल्कुल नहीं करेंगे। जो लोग खराब काबिलियत वाले होते हैं, वे चाहे जो भी कर रहे हों उसे हमेशा खुद ही करते हैं, लेकिन वे यह अंतर करने में असमर्थ होते हैं कि क्या अत्यंत जरूरी और महत्वपूर्ण है और क्या नहीं है, और वे बस आँख मूंदकर कार्य करते हैं। जबकि ये आलसी लोग काफी चतुर होते हैं, और वे चाहे कुछ भी कर रहे हों, वे बस अपने होंठ हिलाना और दूसरों को कार्य करने का हुक्म देना पसंद करते हैं; वे कोई भी चीज खुद कुछ नहीं करते हैं, और ना ही वे वास्तविक कार्य कर सकते हैं। वे सोचते हैं, “मुझे कुछ प्रश्न पूछने के लिए बस एक फोन कॉल करने या संदेश भेजने की जरूरत है, और फिर मेरी जिम्मेदारी पूरी हो जाती है, मुद्दा हल हो जाता है। इससे मैं बहुत सारी परेशानी से बच जाता हूँ! जरा देखो अगुआ के रूप में मेरी काबिलियत कैसी है। मैं बस कुछ ही शब्दों से नियत कार्य समाप्त कर सकता हूँ—क्या यह भी मेरे द्वारा अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना नहीं है? मैं अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाह नहीं हो रहा हूँ। अगर ऊपरवाला मुझसे इन चीजों के बारे में पूछता है, तो मैं उसे बहुत धाराप्रवाह रूप से उत्तर दे सकता हूँ और एक स्पष्ट स्पष्टीकरण प्रदान कर सकता हूँ। कार्यस्थल पर जाने और देखने का क्या फायदा है? मुझे विपत्ति और दुःख सहना पड़ेगा, और धूप में रहने से मेरी त्वचा काली पड़ जाएगी। वह औपचारिकता करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर मैं खुद को कुछ परेशानी से बचा सकता हूँ, तो मैं वही करूँगा। मुझे अपने लिए चीजें इतनी कठिन बनाने की कोई जरूरत नहीं है।” क्या वे पर्याप्त रूप से “होशियार” नहीं हैं? जब इस प्रकार का व्यक्ति कार्य करता है, तो वह अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए गलत तरीके अपनाने और जुगाड़ ढूँढने में विशेष रूप से कुशल होता है, और उसके अपने तौर-तरीके और विधियाँ होती हैं। वह खुद कुछ नहीं करता है, और ना ही वह किसी चीज में भाग लेता है। वे प्रश्न पूछने के लिए बस फोन कॉल करते हैं, खानापूर्ति करते हैं, और फोन नीचे रखते ही बिस्तर पर चले जाते हैं या मालिश करवाते हैं और अपनी दैहिक सुख-सुविधाओं का आनंद लेना शुरू कर देते हैं। इस प्रकार का व्यक्ति वाकई जानता है कि कैसे “कार्य करना है”, वह वाकई जानता है कि निठल्ले रहने के अवसर कैसे ढूँढने हैं, और वह वाकई जानता है कि खानापूर्ति कैसे करनी है और लोगों को कैसे ठगना है! उनमें वह थोड़ी-सी काबिलियत होने का क्या फायदा है? वे कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्र के उन अधिकारियों जैसे ही हैं, जो कार्यस्थल पर जाने के बाद वहाँ बस चाय पीते हैं और अखबार पढ़ते हैं, और दिन का कार्य समाप्त होने से पहले ही यह सोचना शुरू कर देते हैं कि वे क्या खाएँगे और अपना मनोरंजन करने के लिए कहाँ जाएँगे—उनके लिए जीवन वाकई अच्छा है। इस प्रकार के झूठे अगुआ अपने कार्य में भी इसी सिद्धांत का पालन करते हैं; वे कोई कष्ट नहीं सहते हैं, वे कोई थकावट नहीं सहते हैं, और फिर भी वे एक अधिकारी के रूप में कार्य करते हैं और रुतबे के फायदों का आनंद लेते हैं, और ज्यादातर भाई-बहन यह नहीं देख पाते हैं कि यह एक समस्या है। इस किस्म का झूठा अगुआ इसी तरह से कार्य करता है, वह कोई वास्तविक कार्य नहीं करता है, और कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई और निरीक्षण करने के लिए कार्यस्थल पर नहीं जाता है, तो क्या वह कार्य में समस्याओं का पता लगा सकता है? (नहीं।) छद्म-आध्यात्मिक झूठे अगुआ और खराब काबिलियत वाले झूठे अगुआ अपनी आँखें पूरी तरह से खुली होने के बावजूद अंधे होते हैं, और वे समस्याएँ देख नहीं पाते हैं, तो इस किस्म के बेकार लोगों के बारे में तुम्हारा क्या कहना है? वे कहते हैं, “मैं वास्तविक कार्य में भाग नहीं लेता और मैं खुद को कार्यस्थल पर कार्य करने वाले लोगों से जोड़ने के लिए वहाँ नहीं जाता, इसलिए अगर समस्याएँ उत्पन्न होती हैं तो तुम यह नहीं कह सकते हो कि मेरी आँखें खुली होने के बावजूद मैं अंधा हूँ। मैं कार्यस्थल पर गया ही नहीं हूँ और मैंने समस्याएँ देखी ही नहीं हैं, इसलिए अगर समस्याएँ उत्पन्न होती हैं तो इससे मेरा क्या लेना-देना है? तुम्हें उन लोगों को ढूँढना चाहिए जो इसमें शामिल हैं।” क्या ये लोग वाकई शातिर नहीं हैं? उन्हें लगता है कि उनका कार्य बस हुक्म देना और लोगों को उचित रूप से व्यवस्थित करना है, बस, और फिर उनकी जिम्मेदारियाँ पूरी हो जाती हैं और फिर वे बेशर्मी से अपनी फुर्सत और मनोरंजन के समय का आनंद ले सकते हैं। नीचे चाहे कोई भी समस्या क्यों ना हो, वे कोई पूछताछ नहीं करते हैं, और वे सिर्फ तभी कोई समस्या संभालने की जल्दी करते हैं जब कोई ऊपरवाले को इसकी सूचना दे देता है। हर रोज वे सिर्फ रुतबे के फायदों का आनंद लेने, हर जगह इत्मीनान से सैर करने, कार्य का निरीक्षण करने का दिखावा करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, लेकिन वे वास्तव में कभी भी ऐसी जगह नहीं जाते हैं जहाँ वाकई कोई समस्या हो, और वे कभी भी अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य का निरीक्षण नहीं करते हैं—क्या यह ठीक वैसा ही नहीं है जैसे कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकारी हमेशा सतही प्रयास करते हैं और सिर्फ वही कार्य करते हैं जिसे करके वे अच्छे दिखें? वे उन्हें दिया गया कार्य करने के लिए अच्छे वादे करते हैं, लेकिन वे उस पर अनुवर्ती कार्रवाई या पर्यवेक्षण नहीं करते हैं, और अगर वे कार्यस्थल पर जाते भी हैं, तो बस औपचारिकताएँ पूरी करते हैं। वे खुद कार्य बिल्कुल नहीं करते हैं या खुद समस्याएँ बिल्कुल हल नहीं करते हैं। वे सोचते हैं, “मुझे ये चीजें करने के लिए कष्ट सहने और कीमत चुकाने की कोई जरूरत नहीं है। यह काफी है कि कोई वहाँ उन्हें कर रहा है। वैसे भी मैं कोई पैसा नहीं कमा रहा हूँ, इसलिए मेरे लिए बस किसी तरह गुजारा करना ठीक है।” क्या अपनी इस मानसिकता के साथ वे अपना कार्य अच्छी तरह से कर सकते हैं? उनके दिमागों में एक छोटी-सी योजना होती है, वे सोचते हैं, “मैं सिर्फ उतना ही कार्य करूँगा जितना मुझे खाने के लिए भोजन मिलता है, और मेरा काम सिर्फ आज का काम देखना है कल की वो जाने जो कल मेरी जगह होगा।” फिर भी वे कभी भी कोई विशिष्ट कार्य नहीं करते हैं, और वे कार्यस्थल पर कभी भी नजर नहीं आते हैं। तो, वे कहाँ होते हैं? वे एक सुंदर और सुरक्षित जगह पर आनंद ले रहे होते हैं जहाँ वे खा-पी सकते हैं और अच्छी नींद ले सकते हैं, वे एक राजकुमार की तरह जी रहे होते हैं—नियमित रूप से नहाते हैं, नियमित रूप से मालिश करवाते हैं, और नियमित रूप से अपने कपड़े बदलते हैं—और वे बिल्कुल भी कष्ट नहीं सह रहे होते हैं। वे कभी इस बात पर विचार नहीं करते हैं कि वे कौन-सा वास्तविक कार्य कर सकते हैं, वे कौन-सी वास्तविक समस्याएँ हल कर सकते हैं, उन्होंने परमेश्वर के घर के कार्य में क्या योगदान दिया है, और वे इन सभी अच्छी चीजों का आनंद लेने के लिए कैसे योग्य हैं—वे कभी भी इनमें से किसी पर भी विचार नहीं करते हैं। ये लोग किस किस्म की चीजें हैं? इन दुष्टों में कोई आत्म-जागरूकता नहीं होती है, वे बेशर्म चीजें हैं, और वे कलीसियाई अगुआ और कार्यकर्ता होने के लायक नहीं हैं।

सभी नकली अगुआ कभी भी वास्तविक कार्य नहीं करते हैं। वे ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे उनकी अगुवाई की भूमिका कोई आधिकारिक पद हो, वे पद के फायदों का आनंद लेते हैं, और अगुआ के रूप में उन्हें जो कर्तव्य करना चाहिए और जो कार्य करना चाहिए, वे उन्हें बोझ जैसा, उपद्रव जैसा मानते हैं। अपने दिलों में, वे कलीसिया के कार्य के प्रति प्रतिरोध से लबालब भरे होते हैं : जब उनसे कार्य का पर्यवेक्षण करने और यह जानने के लिए कहा जाता है कि इसमें ऐसे कौन से मुद्दे मौजूद हैं जिन पर अनुवर्ती कार्रवाई करने और जिन्हें हल करने की जरूरत है, तो ऐसा करने की उनकी जरा भी इच्छा नहीं होती। अगुआओं और कर्मियों का यही तो काम होता है, यही उनका कार्य है। यदि तुम इसे नहीं करते और इसे करने के अनिच्छुक हो, तो फिर भी तुम अगुआ और कार्यकर्ता क्यों बनना चाहते हो? क्या तुम अपने कर्तव्य का पालन परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहने के लिए करते हो या एक पदाधिकारी बनने और हैसियत के फायदे लेने के लिए करते हो? अगर तुम सिर्फ इसलिए अगुआ बने ताकि तुम कोई आधिकारिक पद संभाल सको, तो क्या यह थोड़ी-सी बेशर्मी नहीं है? इस तरह के लोग सबसे नीच चरित्र के होते हैं, उनमें कोई गरिमा, कोई शर्म नहीं होती है। अगर तुम दैहिक सुख-सुविधा का आनंद लेना चाहते हो, तो तुम्हें जल्द से जल्द संसार में वापस लौट जाना चाहिए, और अपनी क्षमता के अनुसार दावा करना चाहिए, जबरन ले लेना चाहिए, और हड़प लेना चाहिए, और कोई भी इसमें दखल नहीं देगा। परमेश्वर का घर परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए अपने कर्तव्य करने और उसकी आराधना करने का स्थान है; यह लोगों के लिए सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने की जगह है। यह किसी के लिए भी दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त होने की जगह नहीं है, और ऐसी जगह तो बिल्कुल नहीं है जो लोगों को राजकुमारों की तरह रहने की अनुमति दे। झूठे अगुआओं में कोई शर्म नहीं होती है, वे पूरी तरह से बेशर्म होते हैं, और उनमें बिल्कुल सूझ-बूझ नहीं होती है। चाहे उन्हें कोई भी विशिष्ट कार्य क्यों ना सौंपा जाए, वे उसे गंभीरता से नहीं लेते हैं, और वे इसके बारे में नहीं सोचने का प्रयास करते हैं; वैसे तो वे शब्दों में बहुत अच्छी तरह से जवाब देते हैं, लेकिन वे कोई भी वास्तविक चीज नहीं करते हैं। क्या यह अनैतिक नहीं है? सिर्फ यही नहीं है कि वे वास्तविक कार्य नहीं करते हैं, बल्कि वे एकमात्र शक्ति भी चाहते हैं—वित्त, कर्मचारी-संबंधी और दूसरे सभी मामलों पर अपना पूर्ण नियंत्रण रखना, और लोगों को हर दिन उन्हें रिपोर्ट प्रदान करने के लिए कहना। जब इन चीजों की बात आती है, तो वे वास्तव में बहुत मेहनती होते हैं। जब उन्हें ऊपरवाले को काम की रिपोर्ट देने का समय आता है, तो वे भाई-बहनों द्वारा किए गए सभी कार्यों के परिणामों का श्रेय ले लेते हैं, ताकि ऊपरवाला गलती से यह मान ले कि उन्होंने बहुत बढ़िया काम किया है, जबकि वास्तव में वह सब दूसरों द्वारा किया गया होता है। सुसमाचार फैलाने से कितने लोग प्राप्त हुए हैं, किन लोगों को पदोन्नत किया गया है और विकसित किया जा रहा है, किन लोगों को उनके पदों से बरखास्त किया गया है, किन लोगों को बाहर निकाला गया है, इत्यादि—इनमें से कोई भी विशिष्ट कार्य उनके द्वारा नहीं किया गया होता, फिर भी वे उन्हें रिपोर्ट करने की धृष्टता करते हैं। क्या ये लोग पूरी तरह से बेशर्म नहीं हैं? क्या वे धोखेबाजी नहीं कर रहे हैं? ऐसे लोग बहुत धोखेबाज और शातिर होते हैं! वे खुद को होशियार समझते हैं—यह वाकई उनकी अपनी होशियार चालों का शिकार होने का मामला है, जिससे अंत में वे स्वयं ही बेनकाब हो जाते हैं और निकाल दिए जाते हैं। कुछ लोग चाहे जो भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे उसमें अयोग्य होते हैं, वे उसका भार नहीं उठा सकते, और वे किसी भी उस दायित्व या जिम्मेदारी को निभाने में असमर्थ होते हैं, जो एक व्यक्ति को निभानी चाहिए। क्या वे कचरा नहीं हैं? क्या वे अभी भी इंसान कहलाने लायक हैं? कमअक्ल लोगों, मानसिक रूप से अयोग्य, और जो शारीरिक अक्षमताओं से ग्रस्त हैं, उन्हें छोड़कर, क्या कोई ऐसा जीवित व्यक्ति है जिसे अपने कर्तव्यों को नहीं करना चाहिए और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करना चाहिए? लेकिन इस तरह के लोग अविश्वसनीय और सुस्त होते हैं, और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करना चाहते; निहितार्थ यह है कि वे एक उचित मनुष्य नहीं बनना चाहते हैं। परमेश्वर ने उन्हें इंसान बनने का अवसर दिया, और उसने उन्हें काबिलियत और विशेष गुण दिए, फिर भी वे अपने कर्तव्य-पालन में इनका इस्तेमाल नहीं कर पाते। वे कुछ नहीं करते, लेकिन हर मोड़ पर चीजों का आनंद लेना चाहते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने लायक भी है? उन्हें कोई भी काम दे दिया जाए—चाहे वह महत्वपूर्ण हो या सामान्य, कठिन हो या सरल—वे हमेशा लापरवाह और शातिर होते हैं और कामचोरी करते हैं। समस्याएँ आने पर अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं; कोई जिम्मेदारी नहीं लेते हैं, और वे अपना परजीवी जीवन जीते रहना चाहते हैं। क्या वे बेकार कचरा नहीं हैं? समाज में, किसे रोजी-रोटी कमाने के लिए खुद पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है? एक बार जब व्यक्ति व्यस्क हो जाता है, तो उसे अपना भरण-पोषण खुद करना चाहिए। उसके माता-पिता ने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है। भले ही उसके माता-पिता उसकी मदद करने के लिए तैयार हों, वह इससे असहज होगा। उन्हें यह समझने में समर्थ होना चाहिए कि उनके माता-पिता ने उनकी परवरिश करने का अपना लक्ष्य पूरा कर दिया है, और कि वे हृष्ट-पुष्ट वयस्क हैं, और उन्हें स्वतंत्र रूप से जीवन जीने में समर्थ होना चाहिए। क्या एक वयस्क में यह न्यूनतम सूझ-बूझ नहीं होनी चाहिए? अगर किसी व्यक्ति में सही मायने में सूझ-बूझ है, तो वह संभवतः अपने माता-पिता के पैसों पर जीवन निर्वाह नहीं कर सकेगा; वह दूसरों की हँसी का पात्र बनने से, अपनी नाक कटने से डरेगा। तो क्या किसी सुविधाभोगी और काम से घृणा करने वाले व्यक्ति में कोई विवेक होता है? (नहीं।) वे बिना काम किए कुछ हासिल करना चाहते हैं; वे कभी जिम्मेदारी पूरी नहीं करना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि मिठाइयाँ आसमान से सीधे उनके मुँह में टपकें; उन्हें हमेशा दिन में तीन बार अच्छा भोजन चाहिए होता है, वे चाहते हैं कि कोई उनके लिए पलकें बिछाए रहे और वे थोड़ा सा भी कार्य किए बिना बढ़िया खाने-पीने की चीजों का आनंद लेते रहें। क्या यह एक परजीवी की मानसिकता नहीं है? क्या परजीवियों में अंतश्चेतना और विवेक होता हैं? क्या उनमें ईमानदारी और गरिमा होती है? बिल्कुल नहीं। वे सभी मुफ्तखोर निकम्मे होते हैं, जमीर या विवेक से रहित जानवर। उनमें से कोई भी परमेश्वर के घर में बने रहने के योग्य नहीं है।

मान लो कि कलीसिया तुम्हारे लिए किसी नियत कार्य की व्यवस्था करती है, और तुम कहते हो, “चाहे इस नियत कार्य से मुझे ध्यान आकर्षित करने का मौका मिले या ना मिले—चूँकि यह मुझे दिया गया है, इसलिए मैं इसे अच्छी तरह से करूँगा और यह जिम्मेदारी स्वीकार करूँगा। अगर मुझे मेजबानी करने के लिए व्यवस्थित किया जाता है, तो मैं इसे अच्छी तरह से करने के लिए जी-जान लगा दूँगा; मैं भाई-बहनों की अच्छी तरह से देखभाल करूँगा, और सभी की सुरक्षा सुनिश्चित करने का पूरा प्रयास करूँगा। अगर मुझे सुसमाचार का प्रचार करने के लिए व्यवस्थित किया जाता है, तो मैं खुद को सत्य से सुसज्जित करूँगा और प्रेम भाव से सुसमाचार का प्रचार अच्छी तरह से करूँगा और अपना कर्तव्य पूरा करूँगा। अगर मुझे कोई विदेशी भाषा सीखने के लिए व्यवस्थित किया जाता है, तो मैं पूरे दिल से उसका अध्ययन करूँगा और उस पर कड़ी मेहनत करूँगा, और जितनी जल्दी हो सके, एक या दो वर्ष में उसमें माहिर होने का प्रयास करूँगा, ताकि मैं विदेशियों को परमेश्वर की गवाही दे सकूँ। अगर मुझे गवाही लेख लिखने के लिए कहा जाता है, तो मैं इसे करने के लिए खुद को कर्तव्यनिष्ठ ढंग से प्रशिक्षित करूँगा और सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजें देखूँगा; और भाषा के बारे में सीखूँगा। भले ही मैं सुंदर गद्य वाले लेख लिखने में सक्षम न हो सकूँ, मैं कम से कम अपनी अनुभवात्मक गवाही स्पष्ट रूप से संप्रेषित कर पाऊँगा, सत्य के बारे में सुगम तरीके से संगति कर सकूँगा और परमेश्वर के लिए सच्ची गवाही दे सकूँगा, ताकि मेरे लेख पढ़कर लोग शिक्षित और लाभान्वित हों। कलीसिया मुझे जो भी काम सौंपेगी, मैं उसे पूरे दिल और ताकत से करूँगा। अगर कुछ ऐसा हुआ जो मुझे समझ न आए, या अगर कोई समस्या सामने आई, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करूँगा, सत्य की तलाश करूँगा, सत्य सिद्धांतों के अनुसार समस्याओं का समाधान करूँगा, और नियत कार्य अच्छी तरह से करूँगा। मेरा जो भी कर्तव्य हो, मैं उसे अच्छी तरह से करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना सब-कुछ इस्तेमाल करूँगा। मैं जो कुछ भी हासिल कर सकता हूँ, उसके लिए मैं वह जिम्मेदारी उठाने का भरसक प्रयास करूँगा जो मुझे उठानी चाहिए, और कम से कम, मैं अपने जमीर और विवेक के खिलाफ नहीं जाऊँगा, लापरवाह नहीं होऊँगा, शातिर नहीं बनूँगा और कामचोरी नहीं करूँगा, और ना ही दूसरों की मेहनत के फलों में लिप्त होऊँगा। मैं जो कुछ भी करूँगा, वह जमीर के मानक से नीचे नहीं होगा।” यह स्व-आचरण का न्यूनतम मानक है, और जो व्यक्ति इस तरह से अपना कर्तव्य करता है, वह जमीर और सूझ-बूझ वाला व्यक्ति माना जा सकता है। अपना कर्तव्य करते समय तुम्हें कम से कम साफ जमीर वाला व्यक्ति होना चाहिए, और तुम्हें कम से कम दिन में तीन बार भोजन करने के लायक होना चाहिए और मुफ्तखोर नहीं होना चाहिए। इसे जिम्मेदारी की भावना होना कहते हैं। चाहे तुम्हारी क्षमता ज्यादा हो या कम, और चाहे तुम सत्य समझते हो या नहीं, जो भी हो, तुम्हारा यह रवैया होना चाहिए : “चूँकि यह कार्य मुझे करने के लिए दिया गया था, इसलिए मुझे इसे गंभीरता से लेना चाहिए; मुझे इसे अपनी जिम्मेदारी बनानी चाहिए, और मुझे इसे अच्छी तरह से करने के लिए अपना पूरा दिल और ताकत लगा देनी चाहिए। रही यह बात कि मैं इसे पूर्णतया अच्छी तरह से कर सकता हूँ या नहीं, तो मैं कोई गारंटी देने की कल्पना तो नहीं कर सकता, लेकिन मेरा रवैया यह है कि मैं इसे अच्छी तरह से करने के लिए अपना भरसक प्रयास करूँगा, और मैं यकीनन इसके बारे में लापरवाह नहीं होऊँगा। अगर काम में कोई समस्या आती है, तो मुझे जिम्मेदारी लेनी चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि मैं इससे सबक सीखूँ और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करूँ।” यह सही रवैया है। क्या तुम लोगों का रवैया ऐसा है? कुछ लोग कहते हैं, “जरूरी नहीं कि जो काम मुझे सौंपा गया है, उसे मैं अच्छी तरह से करूँ। मैं वही करूँगा, जो मैं कर सकता हूँ और अंतिम उत्पाद वही होगा, जो होना होगा। मुझे खुद को इतना थकाने या कोई गलती करने पर चिंतामग्न होने और इतना तनाव लेने की जरूरत नहीं है। खुद को इतना थका देने में क्या रखा है? आखिरकार, मैं निरंतर काम कर रहा हूँ और मुफ्तखोरी नहीं कर रहा।” अपने कर्तव्य के प्रति इस तरह का रवैया गैर-जिम्मेदाराना है। “अगर मेरा काम करने का मन होगा, तो मैं कुछ काम कर दूँगा। मैं सिर्फ वही करूँगा, जो मैं कर सकता हूँ और अंतिम उत्पाद वही होगा, जो होना होगा। इसे इतनी गंभीरता से लेने की कोई जरूरत नहीं है।” ऐसे लोगों का अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदाराना रवैया नहीं होता और उनमें जिम्मेदारी की भावना का अभाव होता है। तुम लोग किस तरह के व्यक्ति हो? अगर तुम पहली तरह के व्यक्ति हो, तो तुम विवेक और मानवता वाले व्यक्ति हो। अगर तुम दूसरी तरह के व्यक्ति हो, तो तुम लोग उस तरह के नकली अगुआओं से अलग नहीं हो, जिनका मैंने अभी-अभी विश्लेषण किया है। तुम आराम और मौजमस्ती करके अपने दिन बिताए जा रहे हो। “मैं थकान और कठिनाई से बचूँगा और बस ज्यादा आनंद लूँगा। भले ही एक दिन मुझे बर्खास्त कर दिया जाए, तो भी मेरा कोई नुकसान न होगा। मैंने कम से कम कुछ दिनों के लिए हैसियत के लाभ तो उठा लिए होंगे, यह मेरे लिए घाटे का सौदा नहीं होगा। अगर मुझे अगुआ के रूप में चुना गया, तो मैं इसी तरह कार्य करूँगा।” इस किस्म के व्यक्ति की मानसिकता के बारे में तुम क्या सोचते हो? ऐसे लोग अविश्वासी होते हैं जो सत्य का जरा सा भी अनुसरण नहीं करते हैं। अगर तुममें सही मायने में जिम्मेदारी की भावना है, तो इससे पता चलता है कि तुम्हारे पास जमीर और सूझ-बूझ है। काम चाहे कितना भी बड़ा या छोटा हो, चाहे तुम्हें वह कार्य कोई भी सौंपे, चाहे परमेश्वर का घर तुम्हें वह कार्य सौंपे या कलीसिया का अगुआ या कार्यकर्ता उसे तुम्हें सौंपे, तुम्हारा यह रवैया होना चाहिए : “चूंकि यह कर्तव्य मुझे सौंपा गया है, इसलिए यह परमेश्वर की महिमा और अनुग्रह है। मुझे इसे सत्य सिद्धांतों के अनुसार अच्छी तरह से करना चाहिए। औसत काबिलियत होने के बावजूद, मैं यह जिम्मेदारी लेने और इसे अच्छी तरह से निभाने के लिए अपना सब-कुछ झोंकने को तैयार हूँ। अगर मैंने खराब काम किया, तो मुझे उसके लिए जिम्मेदार होना चाहिए और अगर मैंने अच्छा काम किया, तो वह मेरे लिए श्रेय की बात नहीं होगी। मुझे यही करना चाहिए।” मैं यह क्यों कहता हूँ कि व्यक्ति अपने कर्तव्य को कैसे लेता है, यह सिद्धांत का मामला है? अगर तुम में वास्तव में जिम्मेदारी की भावना है और तुम एक जिम्मेदार व्यक्ति हो, तो तुम कलीसिया के कार्य की जिम्मेदारी उठा सकोगे और वह कर्तव्य पूरा कर सकोगे, जो तुम्हें करना चाहिए। अगर तुमने अपना कर्तव्य हल्के में लेते हो, तो परमेश्वर में विश्वास के बारे में तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है, और परमेश्वर और अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया समस्यात्मक है। अपना कर्तव्य करने के बारे में तुम्हारा दृष्टिकोण यह है कि इसे लापरवाही से करके बस जैसे-तैसे पूरा कर दिया जाए, और चाहे यह ऐसा कुछ हो जिसे तुम करने के इच्छुक हो या नहीं हो, या कुछ ऐसा हो जिसमें तुम अच्छे हो या नहीं हो, तुम हमेशा इसे बस कामचलाऊ रवैये से संभालते हो, इसलिए तुम अगुआ या कार्यकर्ता होने के लिए उपयुक्त नहीं हो और तुम कलीसियाई कार्य करने के लायक नहीं हो। इतना ही नहीं, इसे बहुत स्पष्ट रूप से कहा जाए, तो तुम जैसे लोग निकम्मे होते हैं, उनकी किस्मत में कुछ भी हासिल नहीं करना लिखा होता है, और वे बस बेकार लोग होते हैं। किस तरह के लोग बेकार होते हैं? भ्रमित लोग, जो आराम और मौजमस्ती करके अपने दिन बिताते हैं। इस तरह के लोग अपने किसी भी कार्य में जिम्मेदार नहीं होते, और ना ही वे इसे गंभीरता से लेते हैं; वे सब-कुछ गड़बड़ कर देते हैं। वे तुम्हारी बातों पर ध्यान नहीं देते, चाहे तुम सत्य पर कैसे भी संगति क्यों ना करो। वे सोचते हैं, “अगर मैं चाहूँ, तो मैं इसी तरह कामचलाऊ तरीके से कार्य करूँगा। तुम जो चाहे कह लो! वैसे भी, इस समय मैं अपना कर्तव्य कर रहा हूँ और मेरे पास खाने के लिए भोजन है, इतना काफी है। कम से कम मुझे भिखारी तो बनना नहीं पड़ रहा है। अगर किसी दिन मेरे पास खाने के लिए कुछ न हुआ, तो मैं इसके बारे में सोचूँगा। स्वर्ग हमेशा मनुष्य के लिए एक रास्ता छोड़ेगा। तुम कहते हो कि मुझमें कोई जमीर या सूझ-बूझ नहीं है, और कि मैं भ्रमित हूँ—अच्छा, तो क्या हुआ? मैंने कानून नहीं तोड़ा है। ज्यादा से ज्यादा, मेरे बस चरित्र थोड़ा कमजोर है, लेकिन इससे मेरा कोई नुकसान नहीं है। जब तक मेरे पास खाने के लिए भोजन है, सब ठीक है।” तुम इस दृष्टिकोण के बारे में क्या सोचते हो? मैं तुमसे कहता हूँ, इस तरह के भ्रमित लोग जो आराम और मौजमस्ती करके अपने दिन बिताते हैं, उनकी किस्मत में निकाल दिया जाना लिखा है, और ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे वे उद्धार प्राप्त कर सकें। वे सभी लोग जिन्होंने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, लेकिन कभी किसी सत्य को स्वीकार नहीं किया है और जिनके पास अनुभवजन्य गवाहियाँ नहीं हैं, उन्हें निकाल दिया जाएगा। कोई नहीं बचेगा। सभी कचरे जैसे और निकम्मे लोग मुफ्तखोर हैं और उनकी किस्मत में निकाल दिया जाना लिखा है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता सिर्फ मुफ्तखोर हैं, तो उन्हें तो और भी बर्खास्त कर देना चाहिए और निकाल देना चाहिए। इस तरह के भ्रमित लोग अब भी अगुआ और कार्यकर्ता बनना चाहते हैं; वे अयोग्य हैं! वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते हैं, फिर भी वे अगुआ बनना चाहते हैं। उनमें सच में कोई शर्म नहीं है!

कुछ अगुआ और कार्यकर्ता अपने पदों से बर्खास्त कर दिए जाने के बाद कहते हैं, “अगुआ या कार्यकर्ता नहीं होना बहुत ही बढ़िया है। मुझे इतना बेचैन होने या खुद को इतना परेशान करने की जरूरत नहीं है। एक आम भाई या बहन होना बहुत ही शानदार है। मुझे इसके लिए खुद को क्यों परेशान करना चाहिए? मुझमें काबिलियत सिर्फ इसलिए थोड़े ही है कि मैं खुद को थका सकूँ।” कोई और उनसे कहता है, “अब जब तुम अगुआ या कार्यकर्ता नहीं हो, तो तुम क्या करोगे?” वे उत्तर देते हैं, “मुझे कोई भी चीज करने में कोई परेशानी नहीं है, जब तक कि वह बहुत थकाऊ ना हो और उसके लिए बहुत ज्यादा प्रयास ना करना पड़े—कोई ऐसी चीज ठीक रहेगी जिसमें चलना-फिरना और इधर-उधर नजर दौड़ाना, या बैठना और बात करना या कंप्यूटर देखना शामिल हो, और जिसके लिए कई-कई घंटे लगाने या शारीरिक कष्ट सहने की जरूरत ना हो।” यह किस तरह की बात है? अगर तुम लोगों को यह पता लगे कि तुमने जिस अगुआ या कार्यकर्ता को चुना, वह इस किस्म की चीज है, तो तुम अपने दिल में कैसा महसूस करोगे? क्या तुम्हें बहुत पछतावा नहीं होगा? (हाँ, होगा।) तो, क्या तुम्हारे पास इस पर कोई विचार होंगे? तुम कहोगे, “शुरू में, मैंने देखा था कि तुममें थोड़ी काबिलियत है और मैं तुम्हें पदोन्नत और विकसित करना चाहता था, और तुम्हें एक मौका देना चाहता था, ताकि तुम कुछ और सत्य समझ सको। मैंने कभी यह नहीं सोचा था कि तुम बेकार से भी गए गुजरे हो। मुझे अफसोस है कि मैंने उस समय तुम्हें एक मनुष्य के रूप में देखा। मैंने कभी नहीं सोचा था कि दरअसल तुम वह हो ही नहीं। तुम तो किसी सुअर या कुत्ते से भी कमतर हो, तुम कचरा हो। तुम यह मानव त्वचा पहनने के लायक नहीं हो, और तुम मनुष्य होने के लायक नहीं हो!” क्या ये शब्द बुरे लगते हैं? (नहीं।) ये तुम लोगों को बुरे नहीं लगते हैं, लेकिन क्या ये इस किस्म के कचरे को बहुत बुरे नहीं लगते हैं? (हाँ, लगते हैं।) क्या इस तरह के कचरे के पास दिल होता है? (नहीं।) तो क्या वह बता सकता है कि कोई उसके बारे में अच्छी चीजें कह रहा है या बुरी चीजें? जब बिना दिल वाले लोग किसी मामले का सामना करते हैं, तो वे आराम और मौजमस्ती करके दिन बिताने का अपना रवैया नहीं बदलते हैं। उन्हें लगता है कि जब तक उन्हें फायदा पहुँच रहा है, सुविधा हो रही है और वे आराम महसूस कर रहे हैं, तब तक सब ठीक है। इसलिए कोई और चाहे कुछ भी कहे, वे परवाह नहीं करते है। उनकी प्रसिद्ध कहावत है : “तुम चाहे कुछ भी कहो, तुम मुझे चाहे किसी भी नजर से देखो या मेरा मूल्यांकन करो, या मुझे कैसे भी वर्गीकृत करो या संभालो, मैं परवाह नहीं करता!” क्या ये लोग सिर्फ कचरा नहीं हैं? तुम चाहे कुछ भी कहो, उनमें अनुभूति का कोई बोध नहीं है और वे इसे दिल पर नहीं लेते हैं। वे इसे दिल पर क्यों नहीं लेते हैं? वे सिर्फ निठल्ले हैं, और उनके पास दिल नहीं होता है। जिन लोगों के पास दिल नहीं होता है, उनमें कोई गरिमा या ईमानदारी नहीं होती है, वे तुम्हारी कही किसी भी बात की परवाह नहीं करते हैं, और तुम चाहे उनसे कितनी भी कठोरता से बात क्यों ना करो, वे अपने दिलों में कोई चुभन महसूस नहीं करते हैं। सिर्फ उन्हीं लोगों को दुख होगा जिनके पास गरिमा, ईमानदारी और सूझ-बूझ है और वही लोग महसूस करेंगे कि ऐसे शब्द सुनकर उनके दिल छलनी हो रहे हैं। वे कहेंगे, “मैंने घटिया तरीके से व्यवहार किया, इस कारण लोगों ने मुझे नीची नजर से देखा, और मैंने अपनी गरिमा खो दी, इसलिए मैं अब और इस तरह से व्यवहार नहीं करूँगा। मैं अपनी गरिमा वापस पाना चाहता हूँ और लोगों द्वारा मुझे नीची नजर से देखे जाने का कारण नहीं बनना चाहता। मैं अपना सम्मान वापस पाने का प्रयास करूँगा, और मैं गरिमा से जीने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए जो भी जरूरी होगा, वह करूँगा।” जब उनकी गरिमा को ठेस पहुँचाने वाले और उनके दुःख, उनकी कमजोरी को कुरेदने वाले शब्दों की बात आती है, तो उनमें अनुभूति का बोध होता है—ये दिल वाले लोग होते हैं। जब वे लोग जिनमें अनुभूति का बोध और गरिमा होती है, सही कथन सुनते हैं और सकारात्मक चीजें देखते हैं और क्या सही है और क्या गलत हैं इसके बीच अंतर करते हैं, तो वे बदलने का संकल्प लेते हैं क्योंकि उनमें गरिमा होती है, और वे नहीं चाहते हैं कि दूसरे लोग उन्हें नीची नजर से देखें। उन निठल्ले और बेकार लोगों में कोई गरिमा नहीं होती है और इसलिए तुम चाहे उनसे कुछ भी कहो, तुम्हारे कथन चाहे कितने भी सही या सटीक हों या सत्य के अनुरूप हों, या तुम्हारे कथन कितनी भी सकारात्मक चीजें हों, उनका इन लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है और वे उन्हें प्रभावित नहीं करते हैं। जिस व्यक्ति में कोई गरिमा नहीं होती है, उसमें किसी भी सकारात्मक चीज, किसी भी फैसले या किसी भी प्रकाशन के संबंध में अनुभूति का कोई बोध नहीं होता है, और ना ही उसका इस बारे में सही रवैया होता है कि किस तरह का जीवन मार्ग चुनना है। इसलिए, तुम चाहे उससे कुछ भी कहो, तुम चाहे उसे कैसे भी उजागर करो या उसका चरित्र चित्रण करो, वह इसे स्वीकार करने से बिल्कुल इनकार कर देता है, और वह इसकी परवाह नहीं करता है। तो, क्या ऐसे लोगों को सत्य का उपदेश देने और धर्मोपदेश देने का कोई फायदा है? क्या उनकी काट-छाँट करने का कोई फायदा है? क्या उनकी आलोचना करने और उन्हें ताड़ना देने का कोई फायदा है? नहीं! ऐसे लोग बस बेकार होते हैं। वे जैसे-तैसे अपने दिन गुजारते हैं, और वे पशुओं की श्रेणी में आते हैं—सटीक रूप से कहें, तो वे मनुष्य नहीं हैं। वे परमेश्वर के वचन सुनने के लायक नहीं हैं। अगर ये निकम्मे, परजीवी, कलीसियाई अगुआ बन जाते हैं, तो क्या वे कलीसिया में मौजूद समस्याओं का पता लगा सकते हैं? क्या वे मुद्दे हल कर सकते हैं? यकीनन नहीं। अगर परमेश्वर के चुने हुए लोग कोई मुद्दा उठाते हैं, तो क्या वे उसे हल कर सकते हैं? वे यकीनन उसे भी हल नहीं कर सकते हैं। वे कोई भी मुद्दा हल करने में अक्षम हैं, तो फिर वे अगुआ का कार्य कैसे कर सकते हैं? इसकी तो कल्पना तक नहीं की जा सकती! अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में, लोगों को कम-से-कम कलीसियाई कार्य में मौजूद समस्याएँ और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में मौजूद समस्याएँ हल करने में समर्थ होना चाहिए। अगर वे कुछ समय के लिए प्रशिक्षण लेते हैं और कुछ अनुभव प्राप्त कर लेते हैं, और वे कुछ सत्यों पर संगति भी कर सकते हैं और कुछ अनुभवजन्य गवाही के बारे में बात भी कर सकते हैं, तो वे धीरे-धीरे अगुआ के कार्य में निपुण हो सकते हैं। अगर वे किसी भी समस्या का पता लगाने या उसे हल करने में सक्षम नहीं हैं, तो फिर वे किसी भी तरीके से अगुआ का कार्य नहीं कर सकते हैं; फिर वे झूठे अगुआ हैं, और उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए, और नए अगुआ चुने जाने चाहिए।

अगुआ के रूप में सेवा करने वाले लोगों को कम-से-कम थोड़ा सत्य समझ आना चाहिए और उनके पास कुछ व्यावहारिक अनुभव होने चाहिए। अगर उनके पास कोई अनुभव नहीं है, तो वे यकीनन कोई सत्य नहीं समझते हैं। कुछ लोग जो अगुआ के रूप में सेवा करते हैं, शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देने में अच्छे होते हैं, और वे ज्यादातर लोगों से स्वीकृति और प्रशंसा प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। वैसे तो, ऊपरी तौर पर, झूठे अगुआ प्रश्नों के उत्तर देने में समर्थ होते हैं, लेकिन वे सत्य सिद्धांतों पर संगति करने में असमर्थ होते हैं। उनके द्वारा दिया गया सारा उपदेश खोखला सिद्धांत होता है, और उसमें कुछ भी व्यावहारिक नहीं होता है। जब लोग उनके उपदेश सुनते हैं, तो उन्हें लगता है कि यह उनकी रुचियों के अनुरूप है, और बिना सूझ-बूझ वाले लोग इसे बहुत पसंद करते हैं। लेकिन, बाद में उनके पास अभी भी अभ्यास का कोई मार्ग नहीं होता है और वे अभ्यास के सिद्धांत नहीं ढूँढ पाते हैं। तो फिर क्या यह माना जा सकता है कि इससे कोई मुद्दा हल हो गया है? क्या यह उनका लापरवाह होना नहीं है? क्या इस तरह से मुद्दे हल करने का प्रयास करना वास्तविक कार्य करना माना जा सकता है? झूठे अगुआ असली काम नहीं करते, लेकिन वे जानते हैं कि एक अधिकारी की तरह कैसे कार्य करना है। अगुआ बनकर वे सबसे पहला काम क्या करते हैं? वे लोगों का दिल जीतने की कोशिश करते हैं। यह लोगों का अनुग्रह खरीदने के लिए है। वे “नए अधिकारी दूसरों को प्रभावित करने के लिए तत्पर रहते हैं” का दृष्टिकोण अपनाते हैं : पहले वे लोगों को खुश करने के लिए कुछ चीजें करते हैं और कुछ चीजें संभालते हैं जो हर किसी के रोजमर्रा के कल्याण में सुधार करती हैं। पहले वे लोगों में एक अच्छी छवि बनाने, सबको यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वे जनता के साथ जुड़े हैं, ताकि हर कोई उनकी प्रशंसा करे और कहे, “यह अगुआ हमारे साथ माता-पिता जैसा व्यवहार करता है!” फिर वे आधिकारिक तौर पर पदभार सँभाल लेते हैं। उन्हें लगता है कि उनके पास जनता का समर्थन है और कि उनकी स्थिति सुरक्षित हो गई है; फिर वे रुतबे के फायदों का आनंद लेना शुरू कर देते हैं, मानो उन पर उनका उचित अधिकार हो। उनका आदर्श वाक्य होता है, “जीवन सिर्फ खाने और कपड़े पहनने के बारे में है,” “चार दिन की ज़िंदगी है, मौज कर लो,” और “आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना।” वे आने वाले हर दिन का आनंद लेते हैं, जब तक हो सके मौजमस्ती करते हैं और भविष्य के बारे में कोई विचार नहीं करते, वे इस बात पर तो बिल्कुल विचार नहीं करते कि एक अगुआ को कौन-सी जिम्मेदारियां निभानी चाहिए और कौन-से कर्तव्य करने चाहिए। वे सामान्य प्रक्रिया के तौर पर कुछ शब्दों और सिद्धांतों का प्रचार करते हैं और दिखावे के लिए कुछ तुच्छ कार्य करते हैं—वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते हैं। वे कलीसिया में वास्तविक समस्याओं का पता नहीं लगा रहे हैं और उन्हें पूरी तरह से हल नहीं कर रहे हैं, तो फिर उनके द्वारा ऐसे सतही कार्य करने का क्या अर्थ है? क्या यह भ्रामक नहीं है? क्या इस किस्म के झूठे अगुआ को महत्वपूर्ण कार्य सौंपे जा सकते हैं? क्या वे अगुआओं और कर्मियों के चयन के लिए परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और शर्तों के अनुरूप हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों में न तो अंतरात्मा होती है और न ही विवेक, उनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती, और फिर भी वे कलीसिया में कोई आधिकारिक पद संभालना, अगुआ बनना चाहते हैं—वे इतने बेशर्म क्यों हैं? कुछ लोग, जिनमें जिम्मेदारी की भावना होती है, अगर खराब क्षमता के हों, तो वे अगुआ नहीं हो सकते—और उन बेकार लोगों की तो बात ही छोड़ दो जिनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती है; वे अगुआ बनने के लिए और भी कम योग्य हैं। ऐसे लालची और निकम्मे झूठे अगुआ आखिर कितने आलसी होते हैं? जब उन्हें किसी समस्या का पता लगता है और वे जानते हैं कि यह एक मुद्दा है, तो भी वे इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं और इस पर कोई ध्यान नहीं देते हैं। वे कितने गैर-जिम्मेदार होते हैं! वैसे तो वे बातचीत करने में अच्छे होते हैं और उनमें थोड़ी क्षमता भी प्रतीत होती है, लेकिन वे कलीसिया के काम में आने वाली विभिन्न समस्याएँ हल नहीं कर सकते, जिससे कार्य ठप्प हो जाता है; समस्याएँ बढ़ती चली जाती हैं, लेकिन ये अगुआ उन पर ध्यान नहीं देते हैं, और सामान्य प्रक्रिया के तौर पर कुछ सतही कार्य पूरे करने पर अड़े रहते हैं। और इसका क्या परिणाम होता है? क्या वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी नहीं करते, क्या वे उसे खराब नहीं कर देते? क्या उनके कारण कलीसिया में अराजकता नहीं फैलती है और एकता में कमी नहीं होती है? यह अपरिहार्य परिणाम है। इस स्थिति में, क्या झूठे अगुआ ऊपरवाले को सूचना देंगे? यकीनन नहीं देंगे। अगर कलीसिया का कोई व्यक्ति झूठे अगुआओं की समस्याओं की सूचना ऊपरवाले को देना चाहे, तो क्या वे इसके लिए सहमत होंगे? वे यकीनन उस व्यक्ति को दबा देंगे और उसे किसी से संपर्क नहीं करने देंगे, वे किसी को भी समस्या की सूचना ऊपरवाले को देने की अनुमति नहीं देंगे, और जो कोई भी ऐसा करेगा, वे उसे प्रतिबंधित कर देंगे, दबा देंगे और सबसे अलग-थलग कर देंगे। मुझे बताओ, क्या ये झूठे अगुआ बहुत घिनौने नहीं हैं? चाहे उन्होंने कलीसिया के कार्य को कितना भी नुकसान क्यों ना पहुँचाया हो, फिर भी वे ऊपरवाले को इसके बारे में पता नहीं लगने देंगे, फिर इसे हल करना तो दूर की बात है। उन्हें बस अपने रुतबे के फायदों का आनंद लेने और अपने अहंकार और गर्व की रक्षा करने की परवाह होती है—ऐसे लोग बेहद घिनौने और बेशर्म होते हैं! क्या वे पूरी तरह से विवेकहीन और मानवताविहीन नहीं हैं? जब ऊपरवाला कार्य के बारे में पूछताछ करता है तो वे दृढ़ता से कहते हैं कि यहाँ कोई समस्या नहीं है, ऊपरवाले को बहकाते हैं और टाल देते हैं—ऐसा करके, क्या वे ऊपरवाले को धोखा नहीं दे रहे हैं और अपने से नीचे के लोगों से चीजें नहीं छिपा रहे हैं? कलीसिया के कार्य में समस्याएँ बढ़ती चली जाती हैं, और झूठे अगुआ उन्हें खुद हल नहीं कर पाते हैं, लेकिन फिर भी वे इन मुद्दों की सूचना ऊपरवाले को नहीं देते हैं। इन परिस्थितियों में वे ऐसे कार्य करते हैं जैसे कुछ भी गलत नहीं है; वे वैसे ही सुख-सुविधाओं में लिप्त रहते हैं, दिन भर कुछ भी नहीं करते हैं, बस बैठे रहते हैं और मौजमस्ती करके दिन बिताते हैं, और वे बिल्कुल भी बेचैन नहीं होते हैं। और समस्याएँ उजागर होने पर जब ऊपरवाला इसकी छानबीन करता है, तब भी वे कहते हैं, “मैंने यह कार्य करने के लिए लोगों की व्यवस्था की। मैंने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर दी हैं। अगर कार्य अच्छी तरह से नहीं हुआ है, तो यह दूसरे लोगों का कसूर है। इससे मेरा क्या लेना-देना है?” इन थोड़े-से शब्दों से, वे जिम्मेदारी से पूरी तरह से अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। ऐसा लगता है जैसे इस मामले के संबंध में उनकी कोई जिम्मेदारी ही नहीं है। सिर्फ यही नहीं कि वे आत्म-चिंतन नहीं करते है, बल्कि वे उचित और सहज भी महसूस करते हैं, वे कहते हैं, “जो भी हो, मैं अपने कर्तव्य में निठल्ला नहीं रहा हूँ; मैं मुफ्तखोर नहीं हूँ। अगर ऊपरवाला मुझे बर्खास्त नहीं करता है, तो मैं अगुआ के रूप में सेवा करना जारी रखूँगा। अगर मैंने अपना इस्तीफा दे दिया, तो क्या यह मेरे द्वारा परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना नहीं होगा? क्या इससे अपने कर्तव्य के प्रति मेरी निष्ठाहीनता प्रदर्शित नहीं होगी?” अगर तुम उनकी काट-छाँट करते हो, तो वे तुम्हें गलत ठहराने के लिए कई कारण बताने में समर्थ होंगे। वे यह नहीं कहेंगे कि वे इस मामले के लिए जिम्मेदार हैं, वे यह नहीं कहेंगे कि उनकी जिम्मेदारियाँ क्या हैं, और वे इस बात पर विचार नहीं करेंगे कि मुद्दों को हल नहीं करने और वास्तविक कार्य नहीं करने की उनकी प्रकृति क्या है। क्या ऐसे लोग बहुत घिनौने नहीं हैं? वे कलीसिया का कार्य ठप्प कर देते हैं और अपने दिलों में लेशमात्र भी पश्चात्ताप के बिना बहुत लंबे समय तक परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाते रहते हैं—क्या वे अब भी मनुष्य हैं? क्या अब भी उनमें लेशमात्र भी जमीर या सूझ-बूझ है? कुछ लोग कहते हैं, “ऐसे लोग अगुआ बनने के लिए नहीं चुने जाने चाहिए।” सैद्धांतिक रूप से यह सही है; लेकिन, ऐसे लोग चुने गए अगुआओं और कार्यकर्ताओं के बीच वाकई मौजूद हैं; यह एक सच्चाई है। यह सब इसलिए होता है क्योंकि परमेश्वर के चुने हुए लोगों में सूझ-बूझ नहीं होती है, और यह इसलिए भी होता है क्योंकि ज्यादातर लोग खुशामदी लोगों को पसंद करते हैं, और परिणामस्वरूप कुछ झूठे अगुआओं और झूठे कार्यकर्ताओं को चुन लेते हैं। इसलिए, कलीसियाई चुनावों से पहले, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को चुनने के सिद्धांतों पर और साथ ही झूठे अगुआओं और झूठे कार्यकर्ताओं को पहचान लेने के सिद्धांतों पर भी ज्यादा संगति करनी चाहिए; इससे यह सुनिश्चित होगा कि ज्यादा लोग सिद्धांतों के अनुसार अपने वोट दें। सिर्फ ऐसा करके ही कलीसियाई चुनावों से अच्छे परिणाम मिल सकते हैं।

मुझे बताओ, क्या ऐसे घिनौने और बेशर्म निठल्ले लोग अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में कलीसियाई कार्य को अच्छी तरह से पूरा कर सकते हैं? क्या वे कलीसिया में मौजूद समस्याएँ या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामने आने वाली कठिनाइयाँ हल कर सकते हैं? (नहीं।) तो, ऐसे झूठे अगुआओं से सामना होने पर तुम लोगों को क्या करना चाहिए? मान लो कि कोई कहता है, “हमारी काबिलियत खराब है और हममें सूझ-बूझ की कमी है, इसलिए किसी झूठे अगुआ से सामना होने पर हम कुछ नहीं कर सकते हैं।” क्या यह सही है? यकीनन कलीसिया में हर कोई खराब काबिलियत और बिना सूझ-बूझ वाला नहीं है? कम-से-कम ऐसे कई लोग अवश्य होंगे जो अपेक्षाकृत सत्य समझते हैं। इसलिए, अगर किसी को कोई ऐसा झूठा अगुआ मिलता है जो वास्तविक कार्य करने या किसी भी समस्या को हल करने में असमर्थ है, तो उसे उन लोगों के साथ संगति करनी चाहिए जो सत्य समझते हैं और उससे अपनी सूझ-बूझ का उपयोग करने और फैसला लेने के लिए कहना चाहिए। क्या यह उचित है? (हाँ, यह उचित है।) यह क्यों उचित है? अगर कलीसिया का कोई अगुआ वास्तविक कार्य करने में समर्थ नहीं है तो इसके क्या परिणाम होंगे? पीड़ित कौन होंगे? क्या वे कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं होंगे? अगर कोई झूठा अगुआ तीन या पाँच साल तक कलीसिया को नियंत्रित करता है, तो कितने लोगों की सत्य की समझ और वास्तविकता में प्रवेश प्रभावित होगा? कितने लोगों की परमेश्वर के उद्धार की प्राप्ति देरी से होगी? इन परिणामों के बारे में सोचना भी भयावह है। इसलिए, जब कोई झूठा अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करता हुआ और किसी भी मुद्दे को हल करने में असमर्थ पाया जाता है, तो यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हरेक के लिए एक बड़ी बात है, और उन्हें कार्य में देरी होने से बचने के लिए तुरंत उस झूठे अगुआ को उजागर कर देना चाहिए और उसकी रिपोर्ट कर देनी चाहिए। कलीसियाई अगुआओं द्वारा वास्तविक कार्य नहीं करने से जिन लोगों को नुकसान पहुँचता है, वे परमेश्वर के चुने हुए लोग हैं। अगर परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से कोई भी उन्हें उजागर या उनकी रिपोर्ट नहीं करता है, और वे सभी ऐसा करने के प्रति उदासीन हैं, तो उस कलीसिया के लिए कोई उम्मीद नहीं है। मान लो कि तुम लोगों के दिलों में हमेशा जिम्मेदारी नहीं लेने के विचार आते हैं, जैसे कि, “वैसे भी, अगुआ तुम हो। तुम वास्तविक कार्य नहीं कर पाते हो और फिर भी तुम समस्याओं की सूचना ऊपरवाले को नहीं देते हो—अगर इससे कलीसिया के कार्य में देरी होती है, तो ऊपरवाला तुम्हें जिम्मेदार ठहराएगा। उससे हमारा क्या लेना-देना है? हमारा इस बारे में चिंता करने का क्या अर्थ है? हम प्रभारी नहीं हैं। यह जिम्मेदारी तुम पर है।” अगर तुम अपने दिलों में हमेशा यह धारणा रखते हो, तो क्या इससे चीजों में देरी नहीं होगी? क्या इससे तुम लोगों का सत्य का अनुसरण करना, वास्तविकता में प्रवेश करना और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करना प्रभावित नहीं होगा? अगर कलीसिया में कोई भी व्यक्ति जिम्मेदारी नहीं लेता है, तो यह कहना कठिन है कि क्या यह कलीसिया परमेश्वर की गवाही दे पाएगी और परमेश्वर के आशीष प्राप्त कर पाएगी, और यह कहना तो और भी कठिन है कि इस कलीसिया में कितने लोग उद्धार प्राप्त करेंगे। अगर इस कलीसिया में हर व्यक्ति इस तरह से सोचता है और यह नजरिया रखता है, तो फिर इस कलीसिया के लिए बिल्कुल कोई उम्मीद नहीं है। क्या फिल्म निर्माण टीम को अभी यह समस्या नहीं है? तुम्हारे कुछ अगुआ मुद्दे नहीं संभालते हैं या समस्याओं की सूचना नहीं देते हैं—वे झूठे अगुआ हैं। क्या तुम लोग इसे देखने में समर्थ हो? ये अगुआ तुम लोगों के लिए समस्याएँ हल नहीं करते हैं—क्या तुम लोगों को यह पता नहीं लगा है कि यह एक समस्या है? क्या तुम लोग वास्तव में इससे खुश हो? “हमारा अगुआ इस समस्या की सूचना नहीं दे रहा है और यह समस्या हल नहीं हो सकती है, इसलिए यह हमारे लिए आराम करने का अच्छा समय है। यह बहुत ही अच्छा है! इसके अलावा, ऊपरवाले ने हाल ही में इस मामले के बारे में व्यक्तिगत रूप से नहीं पूछा है, इसलिए हमें इस समस्या की सूचना देने की कोई जरूरत नहीं है। हमें अपने लिए थोड़ा फुर्सत का समय निकालने का प्रयास क्यों नहीं करना चाहिए? क्या हमें इस फिल्म को इतनी जल्दी और समय पर फिल्माने की जरूरत है? हम जो प्रगति कर रहे हैं, वह ठीक है! तो क्या हुआ अगर हमने फिल्मांकन पूरा नहीं किया है? क्या इसके लिए हमारी निंदा की जाएगी?” क्या तुम लोगों का ऐसा रवैया है? क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर के घर के कार्य के लिए ऐसी कोई सख्त समय सारणी नहीं है, इसलिए तुम इसे अनिश्चित काल तक खींच सकते हो, और जब तक ऊपरवाला इस मामले के बारे में नहीं पूछता है या इसकी छानबीन नहीं करता है, तब तक तुम लोगों को चिंता करने या कोई दबाव महसूस करने की कोई जरूरत नहीं है, और तुम बस वे मुद्दे हल कर सकते हो जिन्हें तुम हल कर पाते हो, और उन्हें अनदेखा कर सकते हो जिन्हें तुम हल नहीं कर पाते हो? क्या यही तुम लोगों का परिप्रेक्ष्य है? (नहीं।) तो समस्याएँ होने पर तुम लोग उनकी सूचना क्यों नहीं देते हो? क्या ऐसा है कि इन झूठे अगुआओं ने तुम लोगों को अपने नियंत्रण में कर लिया है या उन्होंने तुम लोगों को कोई जादुई, नशीली दवा पिला दी है जिससे तुम लोग बेसुध और बोलने में असमर्थ हो गए हो? यहाँ क्या समस्या है? जब समस्याएँ मौजूद होती हैं, तो क्या तुम लोगों को उनकी जानकारी होती है? अगर तुम कहते हो कि तुम्हें उनकी जानकारी नहीं होती है तो तुम झूठ बोल रहे हो; अगर तुम्हें उनकी जानकारी होती है लेकिन फिर भी तुम उनकी सूचना नहीं देते हो, तो फिर तुम अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाह हो रहे हो और गंभीर रूप से उनकी उपेक्षा कर रहे हो, और अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारी बिल्कुल भी निष्ठा नहीं है। भले ही दुनिया में तुम पैसे कमाने के लिए कार्य करते हो, फिर भी तुम्हें अपनी मामूली मजदूरी के योग्य होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, आज तुम परमेश्वर के घर का खाना खा रहे हो; तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए उद्धार का अनुसरण कर रहे हो, और ऐसा करके तुम अपने गंतव्य के लिए मार्ग बना रहे हो और उसके लिए तैयार हो रहे हो। तुम यह परमेश्वर के घर के लिए नहीं कर रहे हो, और ना ही किसी व्यक्ति के लिए कर रहे हो, और मेरे लिए तो बिल्कुल नहीं कर रहे हो—तुम यह अपने लिए कर रहे हो। इसे मधुर शब्दों में कहें तो, लोग उद्धार प्राप्त करने के लिए अपना कर्तव्य कर रहे हैं, लेकिन सटीक रूप से कहें तो, वे इसे अपने लिए आशीष प्राप्त करने और एक अच्छा गंतव्य पाने के लिए कर रहे हैं। तुम्हें यह मामला स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए; बेवकूफ मत बनो। तुम अपना कर्तव्य दूसरे लोगों या अपने माता-पिता के लिए नहीं कर रहे हो, और तुम इसे अपने पूर्वजों को महिमा दिलाने या अपने कुल को सम्मान दिलाने के लिए नहीं कर रहे हो—इसे तुम अपने लिए कर रहे हो। परमेश्वर ने तुम्हें बनाया, और जब से उसने यह दुनिया बनाई, उसने पूर्वनिर्धारित किया कि तुम अंत के दिनों में जन्म लोगे। वह तुम्हें अपने घर लेकर आया, उसने तुम्हें अपनी आवाज सुनने दी, उसने तुम्हें हर रोज अपने वचन खाने-पीने दिए और जीवन प्रावधान प्राप्त करने दिया, और उसने तुम्हें एक मौका दिया ताकि तुम परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य कर सको। एक सृजित प्राणी के रूप में उद्धार पाने का यह तुम्हारे लिए सबसे अच्छा मौका है, और यह तुम्हारे लिए एकमात्र मौका भी है। अगर अपना कर्तव्य करते समय, तुम यह मौका नष्ट कर देते हो, तो फिर अंत में आपदाओं में पड़ने पर चाहे तुम्हें सजा मिले या तुम रोओ और अपने दाँत पीसो, यह सब तुम्हारा ही किया-धरा होगा, और तुम इसी के लायक होगे! यह तुम्हारी अपनी गलती होगी। दूसरे लोगों को तुम्हारी जिम्मेदारियाँ उठाने की जरूरत नहीं है, और तुम्हें दूसरे लोगों की जिम्मेदारियाँ उठाने की जरूरत नहीं है। आज तुम जिस मार्ग पर चलते हो और जो कुछ भी करते हो, उसकी जिम्मेदारी सिर्फ तुम्हीं ले सकते हो, और सिर्फ तुम्हीं अंतिम परिणाम भुगत सकते हो। मैं बस यह कर सकता हूँ कि तुम लोगों को वह सब समझा दूँ जो मुझे तुम लोगों से कहना चाहिए और तुम्हें बताना चाहिए, और तुम लोगों के लिए मार्ग तैयार कर दूँ ताकि तुम लोग उद्धार के मार्ग पर चलना शुरू कर सको। मैंने सब कुछ स्पष्ट रूप से समझा दिया है, इसलिए तुम लोग विशिष्ट रूप से कैसे कार्य करते हो, यह तुम पर निर्भर करता है। मैं तुम लोगों के मामले पर ध्यान नहीं देता हूँ; मैं सिर्फ वही कार्य करता हूँ जो मेरी जिम्मेदारी होती है, और मैं इससे ज्यादा कोई कार्य नहीं करता हूँ। क्या यह एक सच्चाई नहीं है कि तुम अपने गंतव्य की खातिर अपना कर्तव्य कर रहे हो? अगर तुम कहते हो, “यहाँ बहुत सारी समस्याएँ हैं, लेकिन मेरा अगुआ उनकी सूचना नहीं दे रहा है, इसलिए मैं भी उनकी सूचना नहीं दूँगा,” तो क्या यह बेवकूफी नहीं है? क्या यह स्वार्थीपन नहीं है? कोई समस्या दिखाई पड़ने पर तुम्हारी क्या जिम्मेदारी बनती है? तुम्हारी जिम्मेदारी यह है कि खोजने और समस्या पर संगति करने के लिए तुम सभी को इकट्ठे बुलाओ और खुद को शांत करो, यह देखो कि समस्या किस क्षेत्र में उत्पन्न हुई है, और समस्या का मूल कारण ढूँढो। अगर, कुछ चर्चा के बाद मूल कारण मिल जाता है, लेकिन तुम लोग खुद समस्या हल करने में समर्थ नहीं होते हो, तो तुम्हें तुरंत इसकी सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए। कौन इसकी सूचना देगा? तुम्हें खुद को आगे रखना चाहिए और कहना चाहिए, “मैं इसकी सूचना दूँगा। अगर इससे काम नहीं बनता है, तो हम कुछ प्रतिनिधि चुन सकते हैं और साथ मिलकर इसकी सूचना दे सकते हैं।” कुछ लोग कहते हैं, “क्या हमारा कोई अगुआ नहीं है?” तुम उत्तर देते हो, “वह कोई अगुआ नहीं है! वह एक मनुष्य की जिम्मेदारियाँ बिल्कुल पूरी नहीं करता है। वह मनुष्य की खाल में बस एक पशु है, और उससे छुटकारा पा लेना चाहिए और उसे बर्खास्त कर देना चाहिए! वह समस्या की सूचना नहीं दे रहा है, इसलिए हमें खुद इसकी सूचना देनी चाहिए—यह हमारी जिम्मेदारी है। जब हम अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर लेंगे, सिर्फ तभी परमेश्वर हमारे साथ मनुष्यों जैसा व्यवहार करेगा। अगर हमें स्पष्ट रूप से यह पता हो कि हमारी जिम्मेदारियाँ क्या हैं, लेकिन हम उन्हें पूरी नहीं करते हैं तो हम मनुष्य होने के लायक नहीं हैं, और ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे परमेश्वर हमें वैसा मानेगा।” अगर परमेश्वर तुम्हें मनुष्य नहीं मानता है, तो इसका मतलब वह तुम्हें क्या मानता है? इसका अर्थ है कि वह तुम्हें सुअर या कुत्ता मानता है। और क्या तब भी परमेश्वर तुम्हें बचाएगा? बिल्कुल नहीं। तो, अगर अंत में तुम एक अच्छे गंतव्य पर नहीं पहुँचते हो तो क्या इसके लिए तुम खुद जिम्मेदार नहीं होओगे? और क्या तुमने अपना कर्तव्य बेकार में नहीं किया होगा? अपना मार्ग चुनना और उस पर चलना भी तुम पर निर्भर करता है। तुम चाहे कोई भी मार्ग चुनो, या अंतिम परिणाम कुछ भी हों, इसकी जिम्मेदारी तुम्हें ही उठानी होगी; तुम जिस मार्ग पर चलते हो उसकी और उसके कारण होने वाले परिणामों की जिम्मेदारी कोई नहीं लेगा।

अगर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में, तुम लोग अपना कर्तव्य निभाते समय सामने आने वाली समस्याओं को नजरअंदाज करते हो और यहाँ तक कि तुम जिम्मेदारी से बचने के लिए विभिन्न कारण और बहाने भी खोज लेते हो, और तुम ऐसी कुछ समस्याएँ हल नहीं करते हो जिन्हें तुम हल करने में सक्षम हो, और तुम जो समस्याएँ हल करने में अक्षम हो, उनकी सूचना ऊपरवाले को नहीं देते हो, मानो उनका तुमसे कोई लेना-देना ना हो, तो क्या यह जिम्मेदारी के प्रति लापरवाही नहीं है? क्या कलीसिया के कार्य के साथ ऐसे पेश आना होशियारी भरा काम है, या बेवकूफी भरा? (यह बेवकूफी भरा काम है।) क्या ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता अविश्वसनीय नहीं होते? क्या वे जिम्मेदारी की भावना से रहित नहीं होते? जब वे समस्याओं का सामना करते हैं, तो उन्हें नजरअंदाज कर देते हैं—क्या वे विचारहीन लोग नहीं हैं? क्या वे शातिर लोग नहीं हैं? शातिर लोग सबसे मूर्ख लोग होते हैं। तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, समस्याओं से सामना होने पर तुममें जिम्मेदारी की भावना होनी चाहिए, और उन्हें हल करने के लिए तुम्हें हर संभव तरीका आजमाना चाहिए और सत्य की तलाश करनी चाहिए। तुम्हें शातिर व्यक्ति बिल्कुल नहीं होना चाहिए। अगर तुम जिम्मेदारी से बचने और समस्याएँ आने पर उनसे पल्ला झाड़ने में लगे रहते हो, तो गैरविश्वासी तक तुम्हारे इस व्यवहार की निंदा करेंगे, परमेश्वर के घर में होगी ही! परमेश्वर द्वारा इस व्यवहार की निंदा किया जाना और उसे शापित किया जाना निश्चित है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा इससे नफरत की जाती है और इसे अस्वीकार किया जाता है। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है, और वह धोखेबाज और ढुलमुल लोगों से नफरत करता है। अगर तुम एक शातिर व्यक्ति हो और ढुलमुल तरीके से कार्य करते हो, तो क्या परमेश्वर तुमसे नफरत नहीं करेगा? क्या परमेश्वर का घर तुम्हें सजा दिए बिना ही छोड़ देगा? देर-सवेर तुम्हें जवाबदेह ठहराया जाएगा। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है और शातिर लोगों को नापसंद करता है। सभी को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए, और भ्रमित होना और मूर्खतापूर्ण कार्य करना बंद कर देना चाहिए। अस्थायी अज्ञान को माफ किया जा सकता है, लेकिन अगर कोई व्यक्ति सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता हैं, तो फिर इसका अर्थ है कि वह अत्यंत जिद्दी है। ईमानदार लोग जिम्मेदारी ले सकते हैं। वे अपनी फायदों और नुकसानों पर विचार नहीं करते, वे बस परमेश्वर के घर के काम और हितों की रक्षा करते हैं। उनके दिल दयालु और ईमानदार होते हैं, साफ पानी के उस कटोरे की तरह, जिसका तल एक नजर में देखा जा सकता है। उनके क्रियाकलापों में पारदर्शिता भी होती है। धोखेबाज व्यक्ति हमेशा ढुलमुल तरीके से कार्य करता है, हमेशा ढोंग करता है, चीजें ढकता है और छुपाता है और खुद को बहुत ही कसकर समेटकर रखता है। इस तरह के व्यक्ति की असलियत कोई पहचान नहीं पाता है। लोग तुम्हारे आंतरिक विचारों की असलियत समझ नहीं पाते हैं, लेकिन परमेश्वर तुम्हारे अंतरतम हृदय में मौजूद चीजों की जाँच-पड़ताल कर सकता है। जब परमेश्वर देखता है कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, कि तुम एक धूर्त हो, कि तुम कभी भी सत्य स्वीकार नहीं करते, हमेशा उसके खिलाफ धूर्तता करते हो, और कभी भी अपना दिल उसे नहीं सौंपते, तो वह तुम्हें पसंद नहीं करता है, और वह तुमसे नफरत करता है और तुम्हारा त्याग कर देता है। अविश्वासियों के बीच फलने-फूलने वाले, और जो लोग चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं और हाजिरजवाब होते हैं, वे सभी किस किस्म के लोग होते हैं? क्या यह तुम लोगों को स्पष्ट है? उनका सार कैसा होता है? यह कहा जा सकता है कि वे सभी असाधारण रूप से रहस्यपूर्ण होते हैं, वे सभी अत्यंत धोखेबाज और शातिर होते हैं, वे असली राक्षस और शैतान होते हैं। क्या परमेश्वर इस किस्म के लोगों को बचा सकता है? परमेश्वर शैतानों से ज्यादा किसी से नफरत नहीं करता—ऐसे लोग जो धोखेबाज और शातिर होते हैं—और यकीनन वह ऐसे लोगों को नहीं बचाएगा। तुम लोगों को इस किस्म का व्यक्ति बिल्कुल नहीं होना चाहिए। जो लोग बोलते समय हमेशा चौकस और सतर्क रहते हैं, जो शांत और चालाक होते हैं और मामलों से निपटते समय मौके के उपयुक्त भूमिका निभाते हैं—मैं तुम्हें बताता हूँ, परमेश्वर ऐसे लोगों से सबसे ज्यादा नफरत करता है, ऐसे लोगों को बचाया नहीं जा सकता है। धोखेबाज और शातिर लोगों की श्रेणी के सभी लोगों के संबंध में, सुनने में उनके शब्द चाहे कितने भी अच्छे क्यों ना लगें, वे सभी धोखेबाज, शैतानी शब्द होते हैं। इन लोगों के शब्द सुनने में जितने अच्छे लगते हैं, वे उतने ही ज्यादा राक्षस और शैतान होते हैं। ये बिल्कुल उसी किस्म के लोग हैं जिनसे परमेश्वर सबसे ज्यादा नफरत करता है। यह बिल्कुल सही है। तुम लोग क्या कहते हो : क्या धोखेबाज लोग, अक्सर झूठ बोलने वाले लोग और चिकनी-चुपड़ी बातें करने वाले लोग पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हैं? क्या वे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। धोखेबाज और शातिर लोगों के प्रति परमेश्वर का क्या रवैया होता है? वह उनका तिरस्कार करता है, उन्हें दरकिनार कर देता है और उनकी तरफ ध्यान नहीं देता, वह उन्हें पशुओं की श्रेणी का ही मानता है। परमेश्वर की नजरों में, ऐसे लोग सिर्फ मनुष्य की खाल पहने होते हैं, सार में वे राक्षस और शैतान ही होते हैं, वे चलती-फिरती लाशें हैं, और परमेश्वर उन्हें बिल्कुल नहीं बचाएगा। तो, अब ये लोग किस स्थिति में हैं? उनके दिलों में अँधेरा है, उनमें सच्ची आस्था का अभाव है, और उनका चाहे जो हो, वे कभी प्रबुद्ध या रोशन नहीं किए जाते। जब वे आपदाओं और कष्टों का सामना करते हैं, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, लेकिन परमेश्वर उनके साथ नहीं होता है, और उनके दिलों में ऐसा कुछ भी नहीं होता है जिस पर वे सही मायने में भरोसा कर सकें। आशीषें प्राप्त करने के लिए, वे अच्छा प्रदर्शन करने की कोशिश करते हैं, लेकिन कर नहीं पाते, क्योंकि उनमें जमीर और सूझ-बूझ नहीं होती है। वे चाहकर भी अच्छे लोग नहीं बन सकते हैं; अगर वे बुरी चीजें करना बंद करना भी चाहें, तो भी वे खुद पर काबू नहीं रख पाएँगे, यह कारगर नहीं होगा। क्या वे दूर भेजे जाने और निकाले जाने के बाद खुद को जानने में समर्थ होंगे? हालाँकि वे जानेंगे कि वे इस सजा के हकदार थे, फिर भी वे इसे किसी के सामने स्वीकार नहीं करेंगे, और भले ही वे थोड़ा कर्तव्य करने में समर्थ दिखें, तो भी वे ढुलमुल ढंग से कार्य करेंगे, और उनके कार्य से कोई स्पष्ट परिणाम नहीं निकलेगा। तो तुम लोग क्या कहते हो : क्या ये लोग वास्तव में पश्चात्ताप करने में सक्षम होते हैं? बिल्कुल नहीं। ऐसा इसलिए कि उनमें अंतश्चेतना या विवेक नहीं होता, वे सत्य से प्रेम नहीं करते। परमेश्वर इस किस्म के शातिर और बुरे व्यक्ति को नहीं बचाता है। ऐसे लोगों के लिए परमेश्वर में विश्वास करने से क्या आशा है? उनका विश्वास पहले से ही महत्वहीन है, और यह निश्चित है कि वे इससे कुछ भी प्राप्त नहीं करेंगे। अगर परमेश्वर में अपनी आस्था के दौरान लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो चाहे वे कितने भी वर्षों तक विश्वास क्यों ना रखें, इसका कोई प्रभाव नहीं होगा; अगर वे अंत तक भी विश्वास रखें, तो भी उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होगा। परमेश्वर प्राप्त करने के लिए, लोगों को सत्य प्राप्त करना चाहिए। अगर वे सत्य समझते हैं, सत्य का अभ्यास करते हैं और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हैं, तो ही वे सत्य प्राप्त करेंगे और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करेंगे; और सिर्फ तभी वे परमेश्वर की मान्यता और आशीषें प्राप्त करेंगे; सिर्फ इसे ही परमेश्वर प्राप्त करना कहते हैं। अगर लोग सत्य प्राप्त करना चाहते हैं, तो उन्हें पहले कदम के तौर पर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना सीखना चाहिए, यानी, उन्हें अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहिए—यह सबसे मूलभूत चीज है। लोगों को झूठे अगुआओं से बिल्कुल नहीं सीखना चाहिए, जो सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते हैं, जो अपने किसी भी कार्य की जिम्मेदारी नहीं लेते हैं, सब कुछ लापरवाह ढंग से करते हैं और अंत में हटा दिए जाते हैं। अपना कर्तव्य करना कोई छोटी बात नहीं है; लोग अपने कर्तव्य के निर्वहन में सबसे ज्यादा बेनकाब होते हैं, और लोगों द्वारा कर्तव्य करते समय उनके निरंतर निर्वहन के आधार पर परमेश्वर उनके परिणाम निर्धारित करता है। जब कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं करता है तो इससे क्या पता चलता है? इससे पता चलता है कि वह सत्य स्वीकार नहीं करता है या वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करता है, और परमेश्वर द्वारा हटा दिया जाता है। जब झूठे अगुआ और झूठे कार्यकर्ता बर्खास्त किए जाते हैं, तो यह क्या दर्शाता है? यह ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर के घर का रवैया दर्शाता है और, यकीनन, यह ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर का रवैया भी दर्शाता है। तो, ऐसे बेकार लोगों के प्रति परमेश्वर का क्या रवैया है? वह उनका तिरस्कार करता है, उनकी निंदा करता है और उन्हें हटा देता है। तो क्या तुम लोग अब भी रुतबे के फायदों में लिप्त रहना चाहते हो और झूठे अगुआ बनना चाहते हो?

जब लोग परमेश्वर में विश्वास करने लगते हैं, तो उनके साथ सबसे दर्दनाक और सबसे परेशान करने वाली बात क्या हो सकती है? यह जानने से ज्यादा बड़ी बात कुछ नहीं होती कि उन्हें बाहर निकाल दिया गया है या निष्कासित कर दिया गया है, और उन्हें परमेश्वर द्वारा बेनकाब कर हटाया गया है—यह सबसे दर्दनाक और सबसे दुखद बात होती है, और कोई भी नहीं चाहता कि परमेश्वर में विश्वास करने के बाद उसके साथ ऐसा हो। तो, लोग अपने साथ ऐसा होने को कैसे टाल सकते हैं? कम से कम, उन्हें अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना चाहिए, अर्थात, उन्हें पहले यह सीखना चाहिए कि अपनी जिम्मेदारियों को कैसे पूरा किया जाए; उन्हें लापरवाह बिल्कुल नहीं होना चाहिए, और उन्हें उस काम में देरी नहीं करनी चाहिए जिसे परमेश्वर ने उन्हें सौंपा है। चूँकि तुम एक व्यक्ति हो, इसलिए तुम्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि व्यक्ति की क्या जिम्मेदारियाँ होती हैं। अविश्वासी जिन जिम्मेदारियों की सबसे ज्यादा कद्र करते हैं, जैसे कि संतानोचित व्यवहार करना, अपने माता-पिता का भरण-पोषण करना और अपने परिवार का नाम करना, उनका उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है। ये सभी खोखली हैं और इनका वास्तविक अर्थ नहीं है। वह न्यूनतम जिम्मेदारी क्या है जो एक व्यक्ति को निभानी चाहिए? सबसे वास्तविक चीज यह है कि अभी तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे करते हो। हमेशा केवल बेमन से काम करके संतुष्ट हो जाना अपनी जिम्मेदारी पूरी करना नहीं है, और सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोल पाना अपनी जिम्मेदारी पूरी करना नहीं है। केवल सत्य का अभ्यास करना और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना ही अपनी जिम्मेदारी पूरी करना है। केवल जब तुम्हारा सत्य का अभ्यास प्रभावी और लोगों के लिए लाभकारी रहता है, तभी तुमने वास्तव में अपनी जिम्मेदारी पूरी की होती है। तुम चाहे जो भी कर्तव्य कर रहे हो, अगर तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार सभी चीजें करते रहते हो, केवल तभी माना जाएगा कि तुमने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली है। मानवीय तरीके के अनुसार बेमन से कार्य करना लापरवाह होना है; सिर्फ सत्य सिद्धांतों पर बने रहना ही उचित रूप से अपने कर्तव्य का निर्वहन करना और अपनी जिम्मेदारी पूरी करना है। और जब तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हो, तो क्या यह निष्ठा की अभिव्यक्ति नहीं है? यही निष्ठा से अपने कर्तव्य का निर्वहन करने की अभिव्यक्ति है। जब तुममें जिम्मेदारी का यह भाव होगा, यह आकांक्षा और इच्छा होगी, और अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा की अभिव्यक्ति होगी, तो ही परमेश्वर तुम पर कृपादृष्टि रखेगा और तुम्हें स्वीकार करेगा। अगर तुममें जिम्मेदारी का यह भाव भी नहीं है, तो परमेश्वर तुम्हें आलसी और मूढ़मति समझेगा और तुमसे घृणा करेगा। मानवीय दृष्टिकोण से इसका अर्थ है तुम्हारा अनादर करना, तुम्हें गंभीरता से न लेना और तुम्हें हिकारत से देखना। यह ऐसा है जैसे, अगर तुम कुछ समय से किसी के संपर्क में रहे हो, और तुम उसे काल्पनिक, अव्यावहारिक मामलों के बारे में बोलते हुए, और अवास्तविक चीजें बकते हुए देखते हो, और देखते हो कि उन्हें डींगें मारना और बड़ी-बड़ी बातें करना पसंद है और वे भरोसेमंद नहीं हैं—तो क्या तुम उनका सम्मान करोगे? क्या तुम उन्हें कोई काम सौंपने की हिम्मत करोगे? शायद वे किसी न किसी कारण से तुम्हारे सौंपे काम में देरी कर दें, और इसलिए तुम ऐसे लोगों को कुछ भी सौंपने की हिम्मत नहीं करोगे। तुम अपने दिल की गहराई में उनसे घृणा करोगे, और तुम्हें उनके संपर्क में आने का पछतावा होगा। तुम खुद को भाग्यशाली महसूस करोगे कि तुमने उन्हें कुछ भी नहीं सौंपा, और तुम सोचोगे कि अगर तुमने ऐसा किया होता, तो तुम्हें इस बात का जीवन भर पछतावा रहता। मान लो कि तुम किसी के साथ बातचीत करते हो और उनके साथ बातचीत और संपर्क के माध्यम से देखते हो कि न केवल उनमें अच्छी मानवता है, बल्कि उनमें जिम्मेदारी की भावना भी है, और जब तुम उन्हें कोई कार्य सौंपते हो, तो भले ही तुम उनसे कोई चीज यूँ ही कहते हो, लेकिन वे इसे अपने मन में अंकित कर लेते हैं, और वे तुम्हें संतुष्ट करने के लिए कार्य को अच्छी तरह से संभालने के तरीकों के बारे में सोचते हैं, और यदि वे तुम्हारे सौंपे कार्य को अच्छी तरह से नहीं सँभालते, तो वे बाद में आपको देखकर शर्मिंदा महसूस करते हैं—ऐसा व्यक्ति जिम्मेदारी की भावना वाला व्यक्ति होता है। जब तक उन्हें कुछ बताया जाता है या उन्हें कुछ सौंपा जाता है—चाहे ऐसा किसी अगुआ, कार्यकर्ता या ऊपरवाले द्वारा किया गया हो—जिन लोगों में जिम्मेदारी की भावना है, वे हमेशा सोचेंगे, “ठीक है, चूँकि वे मुझे इतना ज्यादा मानते हैं, इसलिए मुझे इस मामले को अच्छी तरह सँभालना चाहिए और उन्हें निराश नहीं करना चाहिए।” क्या तुम ऐसे लोगों को कार्य सौंपने में सहज महसूस नहीं करोगे जिनके पास जमीर और सूझ-बूझ है? तुम जिन लोगों को कार्य सौंप सकते हो, वे यकीनन ऐसे हैं जिन्हें तुम प्रशंसा की दृष्टि से देखते हो और जिन पर तुम्हें भरोसा है। विशेष रूप से, अगर उन्होंने तुम्हारे लिए कई कार्य संभाले हैं और उन सभी को बहुत कर्त्तव्यनिष्ठ रूप से पूरा किया है, और तुम्हारी अपेक्षाएँ पूरी की हैं, तो तुम सोचोगे कि वे भरोसेमंद हैं। अपने दिल में, तुम वाकई उसकी प्रशंसा करोगे और उसका बहुत सम्मान करोगे। लोग इस प्रकार के व्यक्ति के साथ जुड़ने को तैयार होते हैं, परमेश्वर का तो कहना ही क्या। क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर कलीसियाई कार्य और वह कर्तव्य, जिसे करने के लिए मनुष्य बाध्य है, किसी ऐसे व्यक्ति को सौंपेंगा जो भरोसेमंद नहीं है? (नहीं, वह नहीं सौंपेगा।) जब परमेश्वर किसी को कलीसियाई कार्य सौंपता है, तो परमेश्वर की उससे क्या अपेक्षा होती है? सबसे पहले, परमेश्वर उम्मीद करता है कि वह मेहनती और जिम्मेदार होगा, कि वह कार्य के इस अंश को एक बड़ा मामला मानेगा और इसे उसी के अनुसार संभालेंगा, और इसे अच्छी तरह से करेगा। दूसरा, परमेश्वर उम्मीद करता है कि वह एक ऐसा व्यक्ति होगा जो भरोसे के काबिल है, कि चाहे उसे कितना भी समय लगे, और चाहे परिवेश कैसे भी बदले, उसकी जिम्मेदारी की भावना डगमगाएगी नहीं, और उसकी सत्यनिष्ठा प्रलोभन की कसौटी पर खरी उतरेगी। अगर वह एक भरोसेमंद व्यक्ति है, तो परमेश्वर आश्वस्त हो जाएगा, और वह अब इस मामले का पर्यवेक्षण या उस पर अनुवर्ती कार्रवाई नहीं करेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि, अपने दिल में, वह उस पर भरोसा करता है, और वह बिना किसी गड़बड़ी के यकीनन वह कार्य पूरा करेगा जो उसे दिया गया है। जब परमेश्वर किसी को कोई कार्य सौंपता है, तो क्या वह इसी चीज की उम्मीद नहीं करता है? (हाँ, ऐसा ही है।) तो जब तुम परमेश्वर का इरादा समझ जाते हो, तो फिर तुम्हें अपने दिल में यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए कैसे कार्य करना है, परमेश्वर की नजरों में अनुग्रह कैसे प्राप्त करना है और परमेश्वर का भरोसा कैसे अर्जित करना है। अगर तुम अपनी अभिव्यक्तियाँ और व्यवहार स्पष्ट रूप से देख सकते हो, और वह रवैया देख सकते हो जिसके साथ तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, अगर तुममें आत्म-जागरूकता है, और तुम जानते हो कि तुम क्या हो तब तुम्हारा यह माँग करना अनुचित नहीं होगा कि परमेश्वर तुम पर कृपादृष्टि रखे, तुम्हें अनुग्रह दिखाए, या तुम्हारा विशेष ध्यान रखे? (हाँ, अनुचित होगा।) यहाँ तक कि तुम भी अपने आप को तुच्छ समझते हो, तुम भी खुद को नीची नजर से देखते हो, और फिर भी तुम चाहते हो कि परमेश्वर तुम पर कृपादृष्टि रखे—इसका कोई अर्थ नहीं निकलता है। इस हिसाब से, अगर तुम चाहते हो कि परमेश्वर तुम पर कृपादृष्टि रखे, तो तुम्हें कम से कम दूसरों की नजरों में खुद को भरोसेमंद बनाना चाहिए। अगर तुम चाहते हो कि दूसरे लोग तुम पर भरोसा करें, तुम पर कृपादृष्टि रखें, तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखें, तो कम-से-कम तुम्हें गरिमापूर्ण होना चाहिए, जिम्मेदारी की भावना रखनी चाहिए, अपने वचन का पक्का होना चाहिए, और भरोसेमंद होना चाहिए। इसके अलावा, तुम्हें परमेश्वर के सामने मेहनती, जिम्मेदार और वफादार बनकर आना चाहिए—तब तुम वास्तव में परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर चुके होगे। तब तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त होने की उम्मीद होगी, है ना? (हाँ, होगी।) क्या इसे हासिल करना मुश्किल है? (नहीं।) यहाँ तक कि लोग भी काम सँभालने और साथ जुड़ने के लिए एक भरोसेमंद व्यक्ति पाना चाहते हैं, तो क्या परमेश्वर का लोगों से यह माँग करना कि वे अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करें और उसका उनसे यह छोटी सी अपेक्षा रखना ज्यादती है? (नहीं, यह अति नहीं है।) यह बिलकुल भी अति नहीं है। यह लोगों का काम मुश्किल बनाने के लिए नहीं है, बल्कि यह बहुत उचित है। बस इतनी-सी बात है कि लोगों में ऐसा करने की हिम्मत नहीं है, वे परमेश्वर के विचारों पर चिंतन नहीं करते, या परमेश्वर के इरादों की सराहना नहीं करते। वे बस इतना ही कर सकते हैं कि लगातार परमेश्वर से माँग करते रहें कि “तुम्हें मुझे आशीष देना होगा! मुझ पर अनुग्रह करना होगा! मेरा मार्गदर्शन करना होगा!” तो, वह क्या है जो तुम कर रहे हो? क्या तुम अपनी अंतरात्मा और विवेक के अनुसार अपने कर्तव्य को सच में पूरा कर सकते हो? क्या तुम सही मायने में मेहनती, जिम्मेदार और भरोसेमंद हो सकते हो? यह वह न्यूनतम शर्त है जो तुम्हें परमेश्वर की कृपादृष्टि प्राप्त करने के लिए पूरी करनी होगी। क्या यह वही दिशा नहीं है जिस ओर लोगों को कड़ी मेहनत करनी चाहिए? चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, इसलिए तुम्हें सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं की दिशा में प्रयास करना चाहिए—यही वह दिशा है जिसके लिए लोगों को कड़ी मेहनत करनी चाहिए। लोगों को सही दिशा में कड़ी मेहनत करनी चाहिए। इस तरह, परमेश्वर को संतुष्ट करने के उनके प्रयत्न खोखले नहीं होंगे।

क्या झूठे अगुआओं के दिलों में परमेश्वर में उनके विश्वास में उसे संतुष्ट करने की कोई अवधारणा होती है? क्या उनका कोई रवैया होता है? स्पष्ट रूप से, कोई अवधारणा या रवैया नहीं होता है। उनका रवैया दुनिया में जैसे-तैसे काम चलाना होता है, और वे परमेश्वर के साथ भी वैसा ही व्यवहार करते हैं, जो कि बहुत ही ज्यादा अपमानजनक और अवज्ञापूर्ण व्यवहार होता है। इस किस्म का रवैया परमेश्वर को गंभीर रूप से अपमानित करता है और उसकी निंदा करता है, और परमेश्वर इससे बहुत नफरत करता है। परमेश्वर ने उन्हें जीवन और वह सब कुछ दिया जो एक व्यक्ति के पास होता है, और फिर भी परमेश्वर द्वारा उन्हें दी गई हर चीज के प्रति, उनके जीवन के लिए परमेश्वर द्वारा की जाने वाली व्यवस्थाओं के प्रति, परमेश्वर के आदेश और कार्य के प्रति, और अपने कर्तव्यों के प्रति उनका रवैया अवमानना और तिरस्कार का होता है। “तिरस्कार” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है जैसे-तैसे काम चलाकर दिन गुजारना और किसी भी चीज को गंभीरता से नहीं लेना। परमेश्वर उनके इस रवैये से बेहद नफरत करता है, और यही कारण है कि वह ऐसे लोगों को बिल्कुल नहीं बचाएगा। यहाँ तुम लोगों को क्या बात समझनी चाहिए? वह यह है कि तुम्हें इस तरह का व्यक्ति नहीं बनना चाहिए। चाहे तुम अगुआ हो या नहीं हो, या तुममें अगुआ बनने की महत्वाकांक्षा और इच्छा हो या नहीं हो, सबसे पहले तुम्हें व्यवहार करने का तरीका सीखना चाहिए, और निठल्ला, आवारा या घटिया व्यक्ति बिल्कुल नहीं बनना चाहिए। अपने व्यवहार में, तुम्हें एक ईमानदार रवैया रखना चाहिए, तुममें गरिमा और जिम्मेदारी की भावना होनी चाहिए—यह न्यूनतम अपेक्षा है। सिर्फ इसी आधार पर ही लोग परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हैं और उसका आदेश पूरा कर सकते हैं। अगर तुम्हारे पास यह नींव भी नहीं है, तो फिर बात करने के लिए कुछ भी नहीं है।

3 अप्रैल 2021

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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