अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4)
मद पाँच : कार्य की प्रत्येक मद की स्थिति और प्रगति की अद्यतन जानकारी और समझ बनाए रखो, और कार्य में आने वाली समस्याएँ ठीक करने, विचलन सही करने और चूक सुधारने में तुरंत सक्षम रहो, ताकि वह सुचारु रूप से आगे बढ़े
आज की संगति अगुआओं और कार्यकर्ताओं की पाँचवीं जिम्मेदारी पर है : “कार्य की प्रत्येक मद की स्थिति और प्रगति की अद्यतन जानकारी और समझ बनाए रखो, और कार्य में आने वाली समस्याएँ ठीक करने, विचलन सही करने और चूक सुधारने में तुरंत सक्षम रहो, ताकि वह सुचारु रूप से आगे बढ़े।” हम इस जिम्मेदारी पर ध्यान केंद्रित करेंगे ताकि नकली अगुआओं की विभिन्न अभिव्यक्तियों का गहन-विश्लेषण करें, यह देखें कि क्या नकली अगुआ इस कार्य में अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हैं और क्या वे अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान रहते हैं और अपना कार्य अच्छे ढंग से क्रियान्वित करते हैं।
नकली अगुआ ऐशो-आराम में लिप्त रहते हैं और कार्य को समझने के लिए जनसाधारण के साथ गहराई से नहीं जुड़ते
अगुआओं और कार्यकर्ताओं की पाँचवीं जिम्मेदारी में सबसे पहले उल्लेख है “कार्य की प्रत्येक मद की स्थिति और प्रगति की अद्यतन जानकारी और समझ बनाए रखना।” “कार्य की प्रत्येक मद की स्थिति” से क्या आशय है? इसका आशय है कि कार्य की किसी खास मद की मौजूदा स्थिति कैसी है? अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यहाँ क्या समझना चाहिए? उदाहरण के लिए : कार्मिक कौन-से विशेष काम कर रहे हैं, वे किन गतिविधियों में व्यस्त हैं, क्या ये गतिविधियाँ जरूरी हैं, क्या ये काम अहम और महत्वपूर्ण हैं, ये कार्मिक कितने दक्ष हैं, क्या कार्य सुचारु रूप से आगे बढ़ रहा है, क्या कार्मिकों की संख्या कार्यभार के बराबर है, क्या हरेक व्यक्ति को पर्याप्त काम दिए गए हैं, क्या कोई ऐसा मामला है जिसमें किसी विशेष काम के लिए बहुत ज्यादा कार्मिक हों—जहाँ बहुत थोड़े-से कार्य के लिए बहुत ज्यादा कार्मिक हों और ज्यादातर लोग निठल्ले हों—या ऐसे मामले हैं जहाँ कार्यभार बहुत ज्यादा है मगर कार्मिक बहुत कम हैं और निरीक्षक प्रभावी ढंग से निर्देश देने में असफल है, जिससे कार्य दक्षता कम हो गई है और प्रगति धीमी हो गई है। ये सभी वे स्थितियाँ हैं जिन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं को समझना चाहिए। इसके अतिरिक्त कार्य की प्रत्येक मद को क्रियान्वित करते समय क्या कोई बाधाएँ पैदा कर रहा है या तोड़-फोड़ कर रहा है, क्या कोई प्रगति को रोक रहा है या उसे क्षीण कर रहा है, क्या किसी प्रकार का हस्तक्षेप या लापरवाही हो रही है—ये भी वे चीजें हैं जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को समझनी चाहिए। तो वे इन समस्याओं की समझ कैसे हासिल करते हैं? हो सकता है कि कुछ अगुआ कभी-कभार फोन करके पूछें, “क्या तुम लोग अभी व्यस्त हो?” उन लोगों से यह सुनकर कि वे बहुत व्यस्त हैं, हो सकता है वे कहें, “अच्छा, अगर तुम लोग व्यस्त हो तो मुझे तसल्ली है।” इस प्रकार कार्य करने के बारे में तुम क्या सोचते हो? इस प्रश्न के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? क्या यह प्रश्न पूछना अहम और आवश्यक है? यह नकली अगुआओं के कार्य की विशेषता है—वे बस खानापूर्ति कर रहे हैं। वे बस थोड़ा-सा सतही कार्य करके संतुष्ट रहते हैं जिससे उनकी अंतरात्मा को थोड़ा-सा चैन मिले, मगर वे वास्तविक कार्य करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, कार्य की मौजूदा स्थिति को समझने के लिए जनसाधारण तक जाना, प्रत्येक टीम तक जाना तो बहुत दूर की बात है। उदाहरण के लिए, क्या कार्मिक व्यवस्थाएँ उपयुक्त हैं, कार्य कैसे किया जा रहा है, क्या कोई समस्या खड़ी हुई है—नकली अगुआ इन असली समस्याओं के बारे में पूछताछ नहीं करते, बल्कि ऐसी अनजानी जगह ढूँढ़ लेते हैं जहाँ हवा या धूप की तेजी सहे बिना खा-पी और मजे ले सकें। वे महज पत्र भेज देते हैं या कभी-कभार अपनी ओर से किसी से पूछताछ करवा लेते हैं, यह सोचकर कि यही उनका काम है। यही नहीं, हो सकता है भाई-बहन उन्हें दस-पंद्रह दिनों तक देख न पाएँ। जब भाई-बहनों से पूछा जाता है, “तुम लोगों का अगुआ किस कार्य में व्यस्त है? क्या वह कोई ठोस कार्य कर रहा है? क्या वह तुम लोगों को मार्गदर्शन देता है और समस्याएँ हल करता है?” तो वे जवाब देते हैं, “इसका तो जिक्र भी मत करो, हमने महीने भर से अपने अगुआ को देखा नहीं है। उसने हमारे लिए जो पिछली सभा की उसके बाद वह फिर कभी नहीं आया और अभी हमारी बहुत-सी समस्याएँ हैं और इन्हें सुलझाने के लिए हमारी मदद करने वाला कोई नहीं है। दूसरा कोई रास्ता नहीं है; कार्य पर चर्चा करने और मिलकर सहयोग करने के लिए हमारे समूह के निरीक्षक और भाई-बहनों को साथ आना पड़ता है। यहाँ अगुआ प्रभावी नहीं है; हम अभी अगुआविहीन हैं।” यह अगुआ अपना कार्य कितने अच्छे ढंग से कर रहा है? ऊपरवाला इस अगुआ से पूछता है, “पिछली फिल्म पूरी हो जाने के बाद क्या तुम्हें कोई नई पटकथा मिली? तुम अभी किस चीज का फिल्मांकन कर रहे हो? काम की प्रगति कैसी है?” अगुआ जवाब देता है, “मैं नहीं जानता। पिछली फिल्म के बाद मैंने उनके साथ एक सभा की थी, जिसके बाद वे सब जोश में आ गए थे, निराश नहीं थे और उन्हें कोई कठिनाई नहीं थी। उसके बाद से हम नहीं मिले हैं। अगर आप उनकी मौजूदा स्थिति के बारे में जानना चाहते हैं तो आपकी खातिर मैं उनसे बात कर पूछ सकता हूँ।” “तुमने स्थिति के बारे में समझने के लिए उनसे पहले क्यों नहीं बात की?” “क्योंकि मैं बहुत अधिक व्यस्त हूँ, हर जगह सभाओं में जा रहा हूँ। अभी उनकी बारी नहीं आई है। मैं केवल तभी स्थिति समझ पाऊँगा जब अगली बार उनके साथ सभा करूँगा।” कलीसिया के कार्य के प्रति उनका यह रवैया होता है। फिर ऊपरवाला कहता है, “तुम मौजूदा स्थिति या फिल्म निर्माण कार्य में आने वाली समस्याओं से अवगत नहीं हो तो सुसमाचार कार्य की प्रगति कैसी चल रही है? किस देश में सुसमाचार कार्य आदर्श रूप में सर्वोत्तम ढंग से फैल चुका है? किस देश के लोगों में अपेक्षाकृत अच्छी काबिलियत है और वे तेजी से समझते हैं? किस देश में कलीसियाई जीवन बेहतर है?” “ओह, मेरा ध्यान केवल सभाओं पर केंद्रित था, मैं इन चीजों के बारे में पूछना भूल गया।” “तो फिर सुसमाचार टीम में कितने लोग गवाही देने में सक्षम हैं? कितने लोगों को गवाही देने के लिए विकसित किया जा रहा है? किस देश में कलीसिया के कार्य और कलीसियाई जीवन के लिए कौन जिम्मेदार है और इसकी खोज-खबर लेता है? कौन सिंचन और चरवाही करता है? क्या विभिन्न देशों के नए कलीसियाई सदस्यों ने कलीसियाई जीवन जीना शुरू कर दिया है? क्या उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ पूरी तरह सुलझ चुकी हैं? कितने लोगों ने सच्चे मार्ग में अपनी जड़ें जमा ली हैं और वे अब धर्मावलंबियों से गुमराह नहीं हो रहे हैं? एक-दो वर्ष परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद कितने लोग अपना कर्तव्य निभा सकते हैं? क्या तुम इन मामलों को समझते और पकड़ते हो? कार्य में जब समस्याएँ पैदा होती हैं तो उन्हें कौन हल कर सकता है? क्या तुम जानते हो कि सुसमाचार टीम में कौन-सा समूह या कौन-से व्यक्ति अपने कार्य के लिए जिम्मेदार हैं और वास्तविक परिणाम लाते हैं?” “मैं नहीं जानता। यदि आप जानना चाहते हैं तो आपके लिए मैं पूछ सकता हूँ। अगर आप जल्दी में नहीं हैं तो जब समय होगा मैं पूछ लूँगा; अभी मैं व्यस्त हूँ!” क्या इस अगुआ ने कोई ठोस कार्य किया है? (नहीं।) वह हर चीज के लिए कहता है “मैं नहीं जानता”; जिस घड़ी उससे सवाल किया जाता है वह तभी उसके बारे में पूछता है, तो वह किस काम में व्यस्त है? वह सभाओं के लिए या कार्य की जाँच के लिए चाहे किसी भी टीम के पास जाए, वह कार्य में समस्याएँ पहचानने में असफल होता है और वह नहीं जानता कि उन्हें कैसे सुलझाना है। अगर वह विभिन्न लोगों की स्थितियों और चरित्र की असलियत को एक बार में नहीं समझ सकता, तो क्या उसे कम-से-कम कार्य में मौजूद मुद्दों, फिलहाल कौन-सा कार्य किया जा रहा है और वह किस चरण तक प्रगति कर चुका है, इसकी खोज-खबर लेकर उन्हें समझना और पकड़ना नहीं चाहिए? लेकिन नकली अगुआ इतना भी नहीं कर सकते; क्या वे अंधे नहीं हैं? भले ही वे कार्य की खोज-खबर लेने और जाँच करने के लिए कलीसिया की विभिन्न टीमों के पास जाएँ, तो भी वे वास्तविक स्थिति बिल्कुल नहीं समझते, अहम समस्याओं को पहचान नहीं सकते और भले ही वे कुछ समस्याएँ पता लगा लें, तो भी वे उन्हें सुलझा नहीं सकते।
एक बार एक फिल्म निर्माण टीम एक ऐसी चुनौतीपूर्ण फिल्म की शूटिंग की तैयारी कर रही थी, जिसका उन्होंने पहले कभी प्रयास नहीं किया था। क्या वे इस फिल्म की पटकथा को हाथ में लेने के लिए उपयुक्त थे, क्या निर्देशक और पूरे कर्मीदल में इस कार्य को पूरा करने की क्षमता थी—उनका अगुआ इन स्थितियों से अवगत नहीं था। उसने सिर्फ इतना कहा, “तुम लोगों ने एक नई पटकथा हाथ में ली है। तो आगे बढ़ो और इसकी शूटिंग करो। मैं तुम्हारा साथ दूँगा और तुमसे खोज-खबर लेता रहूँगा। तुम लोग भरसक बढ़िया काम करो और कठिनाइयाँ आने पर परमेश्वर से प्रार्थना करो और परमेश्वर के वचनों के अनुसार उन्हें सुलझाओ।” और फिर वह चला गया। यह अगुआ किसी भी मौजूदा कठिनाई को देख या पहचान नहीं पा रहा था; क्या इस तरह काम अच्छे ढंग से किया जा सकता है? फिल्म निर्माण टीम को पटकथा मिलने के बाद निर्देशक और टीम के सदस्य अक्सर पटकथा का विश्लेषण करते और वेशभूषा और चित्रांकन पर विचार-विमर्श करते, लेकिन उन्हें कोई अंदाजा नहीं था कि फिल्म की शूटिंग कैसे की जाए; वे आधिकारिक रूप से निर्माण शुरू करने में असमर्थ थे। क्या मौजूदा स्थिति यही नहीं है? क्या मौजूदा समस्याएँ यही नहीं हैं? क्या ये वे मसले नहीं है जिन्हें अगुआ को सुलझाना चाहिए? अगुआ ने हर दिन सभाओं में बिताया, कई दिनों की सभाओं के बाद भी किसी वास्तविक समस्या का समाधान नहीं किया गया और अभी भी फिल्मांकन सामान्य ढंग से आगे नहीं बढ़ पाया। क्या अगुआ कोई बदलाव ला पाया था? (नहीं।) वह मनोबल बढ़ाने के लिए सिर्फ नारे लगाता रहा : “हम निठल्ले नहीं बैठ सकते, हम परमेश्वर के घर से खैरात नहीं ले सकते!” वह लोगों को भाषण भी देता : “तुम लोगों में कोई अंतरात्मा नहीं है, बिना किसी भावना के परमेश्वर के घर से खैरात ले रहे हो—क्या तुम्हें कोई शर्म नहीं है?” उसके यह कहने के बाद सबकी अंतरात्मा ने थोड़ी फटकार महसूस की : “हाँ, काम इतनी धीमी गति से चल रहा है और हम यों ही हर दिन तीन बार खाना खा रहे हैं—क्या यह खैरात लेना नहीं है? हमने वास्तव में कोई कार्य नहीं किया है। तो फिर कार्य में पैदा हो रही इन समस्याओं को कौन सुलझाएगा? हम नहीं सुलझा सकते, इसलिए हम अगुआ से पूछते हैं, लेकिन अगुआ इन समस्याओं को सुलझाने के तरीके के बारे में संगति किए बिना बस हमसे मनोयोग से प्रार्थना करने, परमेश्वर के वचन पढ़ने और सामंजस्यपूर्ण सहयोग करने को कहता है।” अगुआ ने हर दिन शूटिंग स्थल पर सभाएँ कीं लेकिन ये समस्याएँ बिल्कुल नहीं सुलझ पाईं। समय के साथ कुछ लोगों की आस्था ठंडी पड़ गई और वे हताशा की स्थिति में चले गए क्योंकि उन्हें आगे का रास्ता नजर नहीं आया और वे नहीं जानते थे कि फिल्मांकन कैसे किया जाए। उन्होंने अपनी आखिरी उम्मीद अगुआ पर लगा रखी थी, इस आशा से कि वह कुछ वास्तविक समस्याएँ हल कर पाएगा, लेकिन यह अगुआ तो लगभग अंधा था, न वह इस पेशे को सीख रहा था न ही वह इस पेशे को समझने वाले लोगों के साथ संगति, विचार-विमर्श और खोज कर रहा था। वह अक्सर परमेश्वर के वचनों की पुस्तक हाथ में लेकर कहता था, “मैं आध्यात्मिक भक्ति के लिए परमेश्वर के वचनों का पाठ कर रहा हूँ। मैं खुद को सत्य से लैस कर रहा हूँ। कोई मुझे परेशान न करे, मैं व्यस्त हूँ!” आखिर में अधिकाधिक समस्याओं का ढेर लगता गया, जिससे कार्य लगभग ठप पड़ गया, फिर भी नकली अगुआ सोच रहा था कि वह बहुत बड़ा कार्य कर रहा है। ऐसा क्यों था? वह मानता था कि चूँकि उसने सभाएँ की थीं, कार्य स्थिति के बारे में पूछताछ की थी, समस्याओं की पहचान की थी, परमेश्वर के वचन साझा किए थे, लोगों की स्थितियाँ बताई थीं और सभी लोगों ने इन स्थितियों से अपनी तुलना की थी और अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने का संकल्प लिया था, इसलिए एक अगुआ के रूप में उसकी जिम्मेदारी पूरी हो चुकी थी और उसने वह सब कर दिया था जिसकी उससे उम्मीद की जा सकती थी—अगर पेशेवर पहलुओं से संबंधित विशेष कामों का अच्छे से प्रबंधन न किया जा सके, तो यह अगुआ की चिंता का विषय नहीं था। यह किस प्रकार का अगुआ है? कलीसिया का कार्य आधा पंगु होने की स्थिति में पहुँच चुका था, फिर भी वह जरा भी चिंतित या परेशान नहीं था। अगर ऊपरवाला पूछताछ या आग्रह न करे तो अगुआ इस बात का जिक्र किए बिना कि उसके नीचे क्या चल रहा है और कोई भी समस्या सुलझाए बिना बस खींचता रहेगा। क्या इस प्रकार के अगुआ ने अपनी अगुआई की जिम्मेदारियाँ निभाईं? (नहीं।) तो वह सभाओं में पूरा दिन किस बारे में बोल रहा था? वह लक्ष्यहीन ढंग से बड़बड़ाता था, महज धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देता था और नारे लगाता था। अगुआ कार्य की वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं करता था, लोगों की लापरवाह और नकारात्मक स्थितियों को दूर नहीं करता था और नहीं जानता था कि सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों के कार्य के मसलों का कैसे समाधान किया जाए। नतीजतन, संपूर्ण परियोजना ठप पड़ गई और लंबी अवधि तक उसमें कोई प्रगति नहीं देखी जा सकी। फिर भी अगुआ बिल्कुल भी चिंतित नहीं था। क्या यह नकली अगुआओं के वास्तविक कार्य न करने की अभिव्यक्ति नहीं है? नकली अगुआओं की इस अभिव्यक्ति का सार क्या है? क्या यह कर्तव्य की गंभीर उपेक्षा नहीं है? अपने कार्य की गंभीर उपेक्षा करना, अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में विफल होना—नकली अगुआ ठीक यही करते हैं। वे मौके पर सिर्फ इसलिए बने रहते हैं ताकि वास्तविक समस्याओं को सुलझाए बिना बस खानापूर्ति करें। वे मौके पर सिर्फ लोगों को धोखा देने के लिए बने रहते हैं; बिना कोई वास्तविक कार्य किए वे भले ही सारा समय वहीं रहें, तो भी इससे कुछ भी हाथ नहीं आएगा। कार्य और पेशेवर पहलुओं में विभिन्न समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, जिनमें से कुछ को वे हल कर सकते हैं, पर हल करते नहीं हैं—यह पहले ही कर्तव्य की गंभीर उपेक्षा है। यही नहीं, वे अपनी दृष्टि और दिमाग दोनों से विहीन होते हैं : कभी-कभी जब वे समस्याओं का पता लगाते भी हैं तो भी वे उनके सार की असलियत नहीं समझ सकते। वे उन्हें नहीं सुलझा सकते, लेकिन वे उन्हें सँभालने में सक्षम होने का ढोंग करते हैं, बड़ी मुश्किल से संभालते हैं जबकि वे सत्य को समझने वालों के साथ संगति करने या परामर्श करने से सरासर इनकार करते हैं, और ऊपरवाले को न तो सूचना देते हैं, न ही उससे खोजते हैं। ऐसा क्यों है? क्या वे काट-छाँट किए जाने से डरते हैं? डरते हैं कि ऊपरवाला उनके बारे में सच जान जाएगा और उन्हें बरखास्त कर देगा? क्या यह परमेश्वर के घर के कार्य को जरा-सा भी कायम रखे बिना रुतबे पर ध्यान केंद्रित करना नहीं है? इस प्रकार की मानासिकता के साथ वे अपना कर्तव्य अच्छे से कैसे निभा सकते हैं?
कोई अगुआ या कर्मी चाहे जो भी महत्वपूर्ण कार्य करे, और उस कार्य की प्रकृति चाहे जो हो, उसकी पहली प्राथमिकता यह समझना और पकड़ना है कि कार्य कैसे चल रहा है। चीजों की खोज-खबर लेने और प्रश्न पूछने के लिए उन्हें व्यक्तिगत रूप से वहाँ होना चाहिए और उनकी सीधी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। उन्हें केवल सुनी-सुनाई बातों के भरोसे नहीं रहना चाहिए या दूसरे लोगों की रिपोर्टों पर ध्यान नहीं देना चाहिए। बल्कि उन्हें अपनी आँखों से देखना चाहिए कि कार्मिकों की स्थिति क्या है और काम कैसे आगे बढ़ रहा है, और समझना चाहिए कि कठिनाइयाँ क्या हैं, कोई क्षेत्र ऊपरवाले की अपेक्षाओं के विपरीत तो नहीं है, कहीं सिद्धांतों का उल्लंघन तो नहीं हुआ, कहीं कोई बाधा या गड़बड़ी तो नहीं है, आवश्यक उपकरण की या पेशेवर कामों से जुड़े कार्य में निर्देशात्मक सामग्री की कमी तो नहीं है—उन्हें इन सब पर नजर रखनी चाहिए। चाहे वे कितनी भी रिपोर्टें सुनें या सुनी-सुनाई बातों से वे कितना भी कुछ छान लें, इनमें से कुछ भी व्यक्तिगत दौरे पर जाने और अपनी आँखों से देखने की बराबरी नहीं करता; चीजों को अपनी आँखों से देखना अधिक सटीक और विश्वसनीय होता है। एक बार वे स्थिति के सभी पक्षों से परिचित हो जाएँ, तो उन्हें इस बात का अच्छा अंदाजा हो जाएगा कि क्या चल रहा है। उन्हें खासतौर पर इस बात की स्पष्ट और सटीक समझ होनी चाहिए कि कौन अच्छी क्षमता का है और विकसित किए जाने योग्य है, क्योंकि इसी से वे लोगों को सटीक ढंग से विकसित कर उनका उपयोग कर पाते हैं, जो इस बात के लिए अहम है कि अगुआ और कार्मिक अपना काम ठीक से करें। अगुआओं और कर्मियों के पास अच्छी काबिलियत वाले लोगों को विकसित और प्रशिक्षित करने का मार्ग और सिद्धांत होने चाहिए। इतना ही नहीं, उन्हें कलीसिया के कार्य में मौजूद विभिन्न प्रकार की समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने की अच्छी पकड़ और गहरी समझ होनी चाहिए, और उन्हें पता होना चाहिए कि मुश्किलों को कैसे दूर किया जाए, उनके पास अपने विचार और सुझाव भी होने चाहिए कि काम को कैसे आगे बढ़ाना है और इसकी भविष्य की क्या संभावनाएँ हैं। अगर वे बहुत आसानी से, बिना किसी संदेह या आशंका के ऐसी चीजों के बारे में स्पष्टता से बोलने में सक्षम हों, तो यह काम करना बहुत आसान हो जाएगा। और इस प्रकार कार्य करके अगुआ अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रहा होगा, है ना? उन्हें कार्य की उपरोक्त समस्याओं का समाधान करने के तरीकों से भली-भाँति परिचित होना चाहिए और उन्हें अक्सर इन बातों के बारे में सोचते रहना चाहिए। कठिनाइयाँ आने पर उन्हें सबके साथ इन बातों पर संगति और चर्चा करनी चाहिए और समस्याओं का समाधान करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। इस प्रकार दोनों पाँव दृढ़ता से जमीन पर रखे हुए वास्तविक कार्य करने से ऐसी कोई कठिनाई नहीं होगी जिसका समाधान न किया जा सके। क्या नकली अगुआ जानते हैं कि इसे कैसे करना चाहिए? (नहीं।) नकली अगुआ सिर्फ दिखावा करना और लोगों को धोखा देना जानते हैं, यों काम करते हैं मानो वे उन चीजों को समझते हैं जिन्हें वे नहीं समझते, किसी भी वास्तविक समस्या को सुलझाने में असमर्थ होते हैं और खुद को सिर्फ फालतू मामलों में व्यस्त रखते हैं। जब उनसे पूछा जाता है कि वे किस काम में व्यस्त थे तो वे कहते हैं, “हमारे रहने की जगह में कुछ मसनदों की कमी थी और फिल्म निर्माण टीम के पास वेशभूषा के लिए कपड़े की कमी थी, इसलिए मैं कुछ खरीदने चला गया। एक बार रसोईघर में चीजों की कमी हो गई और रसोइया बाहर नहीं जा सका, तो मुझे ही बाहर जाकर कुछ खरीदारी करनी पड़ी और मैंने रास्ते में आटे की कुछ थैलियाँ उठा लीं। ये तमाम काम मुझे ही करने पड़े।” वे वास्तव में बहुत व्यस्त थे। क्या वे अपने उचित कामों को नजरअंदाज नहीं कर रहे हैं? अगुआ के रूप में अपनी जिम्मेदारियों के दायरे में आनेवाले कार्य की बात आने पर वे जरा भी परवाह नहीं करते या जरा भी बोझ नहीं उठाते और सिर्फ खानापूर्ति करने की कोशिश करते हैं। उनकी काबिलियत का बहुत कमजोर होना और उनका दृष्टि और दिमाग दोनों से विहीन होना वैसे ही काफी गंभीर समस्या है, फिर भी वे कोई बोझ नहीं उठाते और आरामतलब होते हैं, अक्सर कई-कई दिन किसी बढ़िया जगह में ऐश करते हैं। जब किसी को कोई समस्या होती है और समाधान के लिए उनकी ओर देखता है, तो वे कहीं नजर नहीं आते और कोई भी नहीं जनता कि वे असल में कहाँ व्यस्त हैं। वे अपने समय का खुद प्रबंधन करते हैं। इस हफ्ते एक सुबह वे एक टीम के लिए सभा करते हैं, दोपहर में आराम फरमाते हैं और फिर शाम को वे विचार-विमर्श करने के लिए सामान्य मामलों के प्रभारी लोगों की सभा करते हैं। अगले हफ्ते वे बाहरी मामलों के प्रभारी लोगों की सभा करते हैं और लापरवाही से पूछते हैं, “क्या कोई कठिनाई है? क्या इस दौरान तुमने परमेश्वर के वचनों का पाठ किया है? क्या गैर-विश्वासियों से अपने संपर्क में तुम बेबस या बाधित हुए हो?” ये कुछ सवाल पूछने के बाद वे सभा समाप्त कर देते हैं। पलक झपकते ही एक महीना गुजर आता है। उन्होंने क्या कार्य किया है? हालाँकि उन्होंने प्रत्येक टीम के लिए बारी-बारी से सभाएँ कीं, फिर भी उन्होंने किसी भी टीम की कार्यस्थिति के बारे में कुछ भी नहीं जाना, न ही उन्होंने इस बारे में पता लगाया या पूछताछ की, या प्रत्येक टीम के कार्य में न तो वे शामिल हुए और न ही उसे निर्देशित किया। उन्होंने कार्य में भाग नहीं लिया, उसकी खोज-खबर नहीं ली या कोई दिशा-निर्देश नहीं दिया, लेकिन उन्होंने कुछ चीजें समय के पाबंद होकर कीं : समय पर खाना, समय पर सोना और समय पर सभाएँ करना। उनका जीवन काफी नियमित है, वे अपना खूब ख्याल रखते हैं लेकिन उनका कार्य निष्पादन सही स्तर का नहीं होता है।
कुछ अगुआ अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ बिल्कुल भी नहीं निभाते, कलीसिया का अनिवार्य कार्य नहीं करते, बल्कि सिर्फ कुछ तुच्छ सामान्य मामलों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वे रसोई के प्रबंधन में माहिर होते हैं, हमेशा पूछते हैं, “आज हम क्या खाने वाले हैं? क्या हमारे पास अंडे हैं? कितना मांस बचा है? अगर खत्म हो गया है तो मैं जाकर कुछ खरीद लाता हूँ।” वे रसोईघर के कार्य को अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हैं, बिना वजह रसोईघर में टहलते रहते हैं, हमेशा ज्यादा मछली, ज्यादा मांस खाने के बारे में सोचते हैं, ज्यादा मजे लेते हैं और बिना किसी हिचक के खाना खाते हैं। जब प्रत्येक टीम के लोग काम करने में व्यस्त होते हैं, अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तब ये अगुआ सिर्फ बढ़िया खाने और बढ़िया आरामदेह जीवन जीने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। अगुआ बनने के बाद से वे न सिर्फ कलीसिया के कार्य के बारे में चिंतित नहीं रहे और कड़ी मेहनत करने से बचते रहे, बल्कि उन्होंने खुद को हट्टा-कट्टा और गुलाबी गालों वाला बनाए रखने का भी ख्याल रखा है। वह क्या काम है जो वे हर दिन करते हैं? वे कोई भी वास्तविक कार्य ठीक से किए बिना या किसी भी वास्तविक समस्या को हल किए बिना कुछ सामान्य मामलों के कार्यों, कुछ तुच्छ मामलों में व्यस्त रहते हैं। फिर भी वे अपने दिलों में कोई पछतावा महसूस नहीं करते हैं। सभी नकली अगुआ कलीसिया का अहम कार्य नहीं करते, न ही वे कोई वास्तविक समस्या सुलझाते हैं। अगुआ बनने के बाद से ही वे सोचते हैं, “मुझे विशेष कार्य करने के लिए कुछ लोगों को तलाशने की जरूरत है और फिर मुझे वह काम खुद करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।” वे मानते हैं कि एक बार जब वे कार्य की प्रत्येक मद के लिए निरीक्षकों की व्यवस्था कर लेंगे, तो फिर उनके लिए कुछ भी करने को नहीं बचेगा। वे मानते हैं कि अगुआ होने का कार्य करना यही है और फिर वे अपने रुतबे के लाभों का आनंद लेने के हकदार हैं। वे किसी भी वास्तविक कार्य में भाग नहीं लेते, कोई खोज-खबर नहीं लेते या दिशा-निर्देश नहीं देते हैं और वे समस्याएँ सुलझाने के लिए खोज-बीन या शोध नहीं करते। क्या वे एक अगुआ की जिम्मेदारियाँ निभाते हैं? क्या कलीसिया का कार्य इस तरह से अच्छे से किया जा सकता है? जब ऊपरवाला उनसे पूछता है कि कार्य कैसा चल रहा है तो वे कहते हैं, “कलीसिया का सारा कार्य सामान्य है। कार्य की प्रत्येक मद को एक निरीक्षक सँभाल रहा है।” इस बारे में और अधिक प्रश्न करने पर कि क्या कार्य में कोई समस्या तो नहीं है, वे जवाब देते हैं, “मुझे नहीं पता। शायद कोई समस्या नहीं है!” नकली अगुआ का अपने कार्य के प्रति यही रवैया होता है। एक अगुआ के रूप में वे उन्हें सौंपे गए कार्य के प्रति पूरी गैर-जिम्मेदारी दिखाते हैं; ये सब दूसरों को सौंप दिए जाते हैं और खुद उनकी ओर से कोई खोज-खबर नहीं ली जाती, कोई पूछताछ नहीं होती और समस्याएँ सुलझाने में कोई सहायता नहीं दी जाती—वे बस वहाँ हाथ झाड़कर काम कराने वाले मुखिया की तरह बैठे रहते हैं। क्या वे अपने कर्तव्य की उपेक्षा नहीं करते हैं? क्या वे एक अधिकारी की तरह काम नहीं कर रहे हैं? कोई विशेष कार्य न करना, कार्य की खोज-खबर न लेना, किसी भी वास्तविक समस्या को न सुलझाना—क्या यह अगुआ महज सजावट की वस्तु नहीं है? क्या यह एक नकली अगुआ नहीं है? यह नकली अगुआ की बानगी है। नकली अगुआ का कार्य वास्तव में कार्य में भाग लिए बिना या उसकी खोज-खबर लिए बिना, काम में आनेवाली समस्याओं को खोजना या पहचानना नहीं, बस सिर्फ मुँह चलाना और आदेश जारी करना है। समस्याओं को पहचान लिए जाने पर भी वे उनका समाधान नहीं करते हैं। वे सिर्फ हाथ झाड़कर काम कराने वाले मुखिया की तरह कार्य करते हैं, यह सोचते हैं कि इसे ही कार्य करना कहते हैं। और फिर इस तरह अगुआई करके भी उनके मन की शांति भंग नहीं होती; वे हर दिन आराम से जीते हैं और हर पल खुश रहते हैं। ऐसा कैसे है कि वे अभी भी मुस्कराते रहते हैं? मैंने एक तथ्य का पता लगाया है : ऐसे लोग बेहद बेशर्म होते हैं। वे वास्तव में एक अगुआ की तरह कार्य नहीं करते, वे काम करने के लिए बस कुछ लोगों की व्यवस्था कर देते हैं और मान लेते हैं कि काम हो गया। तुम उन्हें कभी भी कार्यस्थल पर नहीं देखते; कलीसिया के कार्य की प्रगति या नतीजों के बारे में उन्हें कुछ भी पता नहीं होता, फिर भी वे सोचते हैं कि वे अगुआ के रूप में योग्य हैं और मानकों पर खरे उतरते हैं। यह बिल्कुल भी वास्तविक कार्य न करने वाले एक नकली अगुआ की बानगी है। नकली अगुआओं के पास कलीसिया के कार्य का बोझ नहीं होता, चाहे जितनी भी समस्याएँ आएँ, वे न तो चिंतित होते हैं और न ही व्याकुल; वे सिर्फ कुछ सामान्य कार्य करके संतुष्ट हो जाते हैं और फिर सोचते हैं कि उन्होंने वास्तविक कार्य कर लिया है। ऊपरवाला चाहे किसी भी तरह से नकली अगुआओं को उजागर करे, वे भीतर से बुरा महसूस नहीं करते, न ही वे इस प्रकाशन में खुद को देखते हैं; वे जरा भी आत्म-चिंतन या पछतावा नहीं करते। क्या ऐसे लोग अंतरात्मा और विवेक से रिक्त नहीं हैं? कोई व्यक्ति जिसमें वास्तव में अंतरात्मा और विवेक है, वह कलीसिया के कार्य को इस तरह ले सकता है? निश्चित रूप से नहीं।
आम तौर पर थोड़ी-सी भी अंतरात्मा और विवेक युक्त लोग नकली अगुआओं की विभिन्न अभिव्यक्तियों के प्रकाशन के बारे में सुनने और इन वर्णनों से अपनी तुलना करने के बाद किसी-न-किसी हद तक यह देखने में सक्षम होंगे कि इन वर्णनों में किसी न किसी हद तक उनकी बात हो रही है। ऐसे में उनके चेहरे लाल हो जाएँगे, वे बेचैन हो जाएँगे, उनके दिल असहज हो जाएँगे, वे परमेश्वर का ऋणी महसूस करेंगे और वे चुपचाप संकल्प लेंगे : “पहले मैं देह के आराम में लिप्त रहता था, अपना कार्य अच्छे से नहीं करता था, अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाता था, वास्तविक कार्य नहीं करता था, सवाल पूछे जाने पर अनजान रहता था, हमेशा काम से बचना चाहता था, हमेशा दिखावा करता था, मैं इस बात से डरता था कि जब दूसरे देख लेंगे कि मेरे साथ वास्तव में क्या चल रहा है तो मेरी प्रतिष्ठा और रुतबा खत्म हो जाएगा और मेरे पास अगुआ का जो पद है वह कायम नहीं रह पाएगा। सिर्फ अब जाकर मैं यह देख रहा हूँ कि ऐसा व्यवहार शर्मनाक है और यह जारी नहीं रह सकता। मुझे कार्रवाई करने में थोड़ा अधिक ईमानदार होना चाहिए और मेहनत करनी चाहिए। अगर मैं अच्छे से कार्य करने में विफल होता रहा तो यह क्षमायोग्य नहीं होगा—मेरी अंतरात्मा मुझ पर आरोप लगाएगी!” इस प्रकार के नकली अगुआओं में अब भी थोड़ी मानवता और अंतरात्मा होती है; कम-से-कम उनकी अंतरात्मा तो जागरूक है। मैं जब उन्हें उजागर करता हूँ तो इसे सुनकर वे खुद को इन वचनों में देखते हैं और परेशान हो जाते हैं; वे चिंतन करते हैं : “मैंने कोई वास्तविक कार्य नहीं किया है, न ही कोई वास्तविक समस्या सुलझाई है। मैं परमेश्वर के आदेश या अगुआ की पदवी के लायक नहीं हूँ। तो फिर मुझे क्या करना चाहिए? मुझे सुधार करना चाहिए; अब से मुझे कड़ी मेहनत शुरू कर देनी चाहिए और वास्तविक समस्याएँ हल करनी चाहिए, हरेक विशेष कार्य में भाग लेना चाहिए, कामचोरी से बचना चाहिए, दिखावा करने से बचना चाहिए और अपनी पूरी क्षमता से कार्य करना चाहिए। परमेश्वर लोगों के दिलों और अंतरतम के विचारों की जाँच-पड़ताल करता है, परमेश्वर हरेक की असलियत जानता है; चाहे मैं चीजें अच्छे ढंग से करूँ या खराब ढंग से, इन्हें पूरे दिल से करना सबसे महत्वपूर्ण है। अगर मैं यह भी नहीं कर सकता, तो भी क्या मुझे मनुष्य कहा जा सकता है?” स्वयं के बारे में इस प्रकार आत्मचिंतन करने को अंतरात्मा होना कहा जाता है। तुम अंतरात्मा-विहीन लोगों को चाहे जैसे भी उजागर कर लो, उनका चेहरा लाल नहीं होता, न ही उनके दिल की धड़कन तेज होती है; वे बस वही करते रहते हैं जो वे चाहते हैं। भले ही वे खुद को परमेश्वर के प्रकाशन में देख लें, वे इसके बारे में उदासीन रहते हैं : वे सोचते हैं, “ऐसा नहीं है कि मेरा नाम लिया गया था।” “मुझे क्यों डरना चाहिए? मेरी काबिलियत अच्छी है, मैं प्रतिभाशाली हूँ; मेरे बगैर परमेश्वर के घर का काम नहीं चल सकता! मैं कोई वास्तविक कार्य नहीं करता हूँ तो क्या हुआ? मैं इसे खुद नहीं करता, लेकिन किसी और से करवा देता हूँ, तो यह काम हो तो रहा है, है ना? किसी भी स्थिति में तुम मुझे जो भी काम करने को कहते हो, मैं तुम्हारे लिए वह करवा देता हूँ, भले ही मैं इसे करने के लिए किसी की भी व्यवस्था करूँ। मेरी काबिलियत अच्छी है, इसलिए मैं होशियारी से कार्य करता हूँ। भविष्य में मैं खानापूरी करता रहूँगा और जैसे चाहूँ वैसे जीवन के मजे लेता रहूँगा।” मैं वास्तविक कार्य न करने को लेकर नकली अगुआओं का चाहे जैसे गहन-विश्लेषण करूँ या उन्हें उजागर करूँ, ये लोग जस के तस बने रहते हैं, पूरी तरह से बेखबर : “दूसरे जो सोचना चाहते हैं, उन्हें सोचने दो और वे मुझे जैसे देखना चाहें वैसा देखने दो—मैं तो यह काम नहीं करूँगा!” क्या ऐसे नकली अगुआओं में अंतरात्मा होती है? (नहीं।) यह चौथी बार है कि हमने नकली अगुआओं की विभिन्न अभिव्यक्तियों को उजागर करने के बारे में संगति की है और हर बार जब मैं ऐसे व्यक्तियों को उजागर करता हूँ, तो जरा-सी भी अंतरात्मा वाले लोग व्यग्र हो जाते हैं, अपना कार्य अच्छे ढंग से न करने के कारण असुरक्षित महसूस करते हैं और चुपचाप संकल्प लेते हैं कि जल्दी से प्रायश्चित्त करेंगे और बदल जाएँगे। जबकि अंतरात्मा-विहीन लोग बेहद बेशर्म होते हैं; उन्हें कुछ भी महसूस नहीं होता। चाहे मैं जैसे भी संगति करूँ, वे अपने दिन पहले की तरह ही गुजारते हैं और जैसा चाहते हैं वैसे ही जीवन का मजा लेते हैं। जब तुम उनसे पूछते हो, “कुछ लोग सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार हैं, कुछ अनुवाद कार्य के लिए और कुछ दूसरे लोग फिल्म निर्माण कार्य के लिए—तुम किस विशेष कार्य के लिए जिम्मेदार हो?” तो वे कहते हैं : “हालाँकि मैंने कोई विशेष कार्य नहीं किया है, मैं हर चीज की निगरानी करता हूँ। मैं उनके लिए सभाएँ करता हूँ।” अगर तब तुम उनसे पूछते हो, “तुम एक महीने में कितनी सभाएँ करते हो?” तो वे जवाब देंगे : “कम-से-कम हर महीने एक बड़ी सभा और हर पखवाड़े एक छोटी सभा।” और जब तुम उनसे पूछते हो, “सभाएँ करने के अलावा तुमने और कौन-सा विशेष कार्य किया है?” तो वे कहेंगे : “सभाओं में इतना व्यस्त रहते हुए मैं कौन-सा विशेष कार्य कर सकता हूँ? इसके अलावा मेरे प्रबंधन का दायरा इतना व्यापक है कि मेरे पास विशेष कार्य के लिए समय ही नहीं है।” ये नकली अगुआ महसूस करते हैं कि वे पूरी तरह से सही हैं—वे बिल्कुल स्थिर और टिकाऊ अगुआ हैं! उन्हें चाहे जैसे भी उजागर किया जाए या चाहे उनकी कैसी भी काट-छाँट की जाए, वे इसको लेकर लेशमात्र भी परेशान नहीं होते। अगर मुझसे कोई विशेष कार्य करवाया जाता, जैसे कि पाँच लोगों के लिए खाना पकाना, लेकिन मैंने चार लोगों के लिए ही पर्याप्त खाना बनाया हो, तो पर्याप्त खाना न बनाने को लेकर मैं असहज महसूस करता और सबको अच्छे ढंग से खाना न खिलाने के लिए मैं खुद को दोषी महसूस करता। फिर मैं सोचता कि इसकी भरपाई कैसे की जाए, यह सुनिश्चित करता कि अगली बार सही हिसाब करूँ ताकि हरेक को पर्याप्त खाना मिले। और अगर किसी ने कहा कि खाने में बहुत ज्यादा नमक है, तो दूसरों से पूछता कि क्या मिर्च-मसाले ठीक पड़े हैं। हालाँकि सबको खुश करना बहुत कठिन है, फिर भी मुझे अपनी भूमिका अच्छे से निभाने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। इसे ही अपनी जिम्मेदारी निभाना कहा जाता है; लोगों के पास यही विवेक होना चाहिए। तुम्हें हमेशा अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए; तुम्हारा काम चाहे जो भी हो, तुम्हें उसमें खुद भाग लेना चाहिए। अगर कोई दूसरी राय दे—भले ही वह चाहे कोई भी हो—और तुम्हें एहसास होता है कि तुम गलत हो और उसे सुनने के बाद तुम बुरा अहसूस करते हो, तो तुम्हें सुधार करना चाहिए और तुम्हें भविष्य में दिल लगाकर काम करना चाहिए, उसे अच्छी तरह से करना चाहिए, भले ही इसमें थोड़ा कष्ट सहना पड़े। नकली अगुआओं में यह भावना नहीं होती, इसलिए वे जरा भी कष्ट नहीं सहते। नकली अगुआ अपने प्रकाशन के बारे में ये तथ्य सुनने के बाद कुछ भी महसूस नहीं करते, अभी भी अपने भोजन का मजा लेते हैं, चैन की नींद लेते हैं और वैसी ही खुशनुमा मनःस्थिति में जीते हैं, और अपने कंधों पर भारी बोझ उठाने की भावना महसूस नहीं करते या अपने दिलों में अपराध बोध का दर्द महसूस नहीं करते। ये किस प्रकार के लोग होते हैं? ऐसे लोगों के चरित्र में एक समस्या होती है : उनमें अंतरात्मा नहीं होती, वे विवेक से रिक्त होते हैं और उनका चरित्र अधम होता है। बड़े लंबे समय तक नकली अगुआओं की विभिन्न अभिव्यक्तियों को उजागर करने के बावजूद—पोषण और संगति करने का सकारात्मक परिप्रेक्ष्य हो या उन्हें उजागर करने और उनका गहन-विश्लेषण करने का नकारात्मक परिप्रेक्ष्य हो, दोनों ही परिप्रेक्ष्यों से—नकली अगुआओं का एक हिस्सा अभी भी अपनी ही समस्याओं को पहचान नहीं पाता, न ही वह कभी आत्म-चिंतन और प्रायश्चित्त करने का इरादा रखता है। अगर ऊपरवाले की ओर से कोई निरीक्षण और आग्रह नहीं किया जाए, तो वे अभी भी काम में भरसक खानापूर्ति करेंगे और जरा भी रास्ता बदले बिना चलते रहते हैं। चाहे मैं उन्हें जितना भी उजागर करूँ, वे बिना परेशान हुए और बिल्कुल बेखबर वहाँ बैठे रहते हैं। क्या वे बहुत ज्यादा बेशर्म नहीं हैं? इस प्रकार के लोग अगुआ या कार्यकर्ता बनने के योग्य नहीं हैं; वे ऐसे अधम चरित्र वाले हैं कि वे शर्मो-हया नहीं जानते! जहाँ तक सामान्य लोगों की बात है, अगर कोई उनकी कमियों, खामियों या उनके किसी भी अनुपयुक्त या सिद्धांतों के विरुद्ध किए हुए काम का जिक्र कर दे—विशेष रूप से ऊपरी तौर पर उजागर किया जाने को छोड़ भी दें—उनके लिए सहन करना कठिन होता है और वे परेशान और अपमानित महसूस करेंगे और सोचेंगे कि खुद को कैसे बदलें और सुधारें। जबकि ये नकली अगुआ अपने कार्य को पूरी तरह से बिगाड़ लेते हैं और फिर भी साफ अंतरात्मा के साथ जीवन जीते हैं, चिंतित या व्याकुल नहीं होते और उन्हें किसी भी तरह उजागर किया जाए वे उससे पूरी तरह बेखबर होते हैं—यहाँ तक कि वे छिपने और ऐश करने के स्थान भी ढूँढ़ लेते हैं और कभी कहीं नजर नहीं आते। वे वास्तव में कोई शर्मो-हया नहीं जानते!
किसी कलीसिया के अगुआ के पास कम-से-कम अंतरात्मा और विवेक तो होना ही चाहिए और उसे कुछ सत्य भी समझने चाहिए—तभी वह कोई दायित्व महसूस कर सकेगा। किसी दायित्व को महसूस करने की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? अगर वे यह देखते हैं कि कुछ लोग निराश हो रहे हैं, कुछ लोग विकृत समझ वाले हैं, कुछ परमेश्वर के घर की परिसंपत्तियों को बर्बाद कर रहे हैं, कुछ अपना कार्य लापरवाही से कर रहे हैं, कुछ अपने कर्तव्य निभाते समय उचित कामों को नहीं कर रहे हैं, कुछ हमेशा आडंबरयुक्त बातें करते हुए वास्तविक कार्य नहीं करते हैं..., और उन्हें यह पता चलता है कि कलीसिया में ढेर सारी समस्याएँ मौजूद हैं और उनका समाधान जरूरी है, और वे यह देखते हैं कि इतना अधिक कार्य नहीं किया गया है, तो इससे उनके मन में दायित्व की भावना जागती है। अगुआ बनने के बाद से ऐसा लगता है मानो उनके अंदर निरंतर एक आग जल रही हो; अगर उन्हें किसी समस्या का पता चलता है और वे उसे नहीं सुलझा सकते, तो वे चिंतित और व्याकुल हो जाते हैं, खा-पी नहीं पाते या सो नहीं पाते। सभाओं के दौरान जब कुछ लोग अपने कार्य में उन समस्याओं की सूचना देते हैं जिन्हें अगुआ समझ नहीं पाता और तुरंत हल नहीं कर पाता तो अगुआ हार नहीं मानता; उसे लगता है कि उसे इस समस्या को सुलझाना चाहिए। प्रार्थना करने, खोजने और दो दिन तक सोचने के बाद जब वह जान जाता है कि इसे कैसे सुलझाना है तो वह समस्या को तेजी से सुलझा देता है। समस्या सुलझाने के बाद वह मुस्तैदी से कुछ दूसरे कार्यों की जाँच करता है और एक दूसरी समस्या का पता लगाता है जिसमें एक ही काम में बहुत सारे लोग लगे हुए हैं और इसमें कार्मिकों को घटाने की जरूरत है। फिर वह फौरन सभा बुलाता है, स्थिति की एक स्पष्ट तस्वीर पता करता है, कार्मिकों की संख्या घटाता है और उचित व्यवस्थाएँ करता है और इस तरह से समस्या हल हो जाती है। अगुआ चाहे किसी भी कार्य का निरीक्षण कर रहे हों, भार वहन करने वाले अगुआ हमेशा समस्याएँ पहचान लेते हैं। पेशेवर कौशल या सिद्धांत विरोधी किसी भी समस्या के लिए वे उसे पहचानने, उसके बारे में पूछताछ करने और उसकी समझ हासिल करने में सक्षम होंगे, और जब उन्हें किसी समस्या का पता चल जाता है तो वे उसे तुरंत दूर कर देते हैं। बुद्धिमान अगुआ और कार्यकर्ता केवल कलीसिया के कार्य, पेशेवर ज्ञान और सत्य सिद्धांतों से संबंधित समस्याओं का समाधान करते हैं। दैनिक जीवन की छोटी-छोटी बातों पर वे कोई ध्यान नहीं देते। वे परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सुसमाचार फैलाने के काम के हर पहलू का ध्यान रखते हैं। वे हर उस समस्या के बारे में पूछते और उसका निरीक्षण करते हैं जिसे वे देख या जान पाते हैं। यदि वे उस समय समस्या का समाधान स्वयं नहीं कर पाते तो वे अन्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर संगति करते हैं, सत्य सिद्धांत खोजते हैं और उसे हल करने के तरीकों के बारे में सोचते हैं। यदि उनके सामने ऐसी कोई बड़ी समस्या आती है जिसका वे वास्तव में समाधान नहीं कर पाते, तो वे तुरंत ऊपरवाले से सहायता माँगते हैं और ऊपरवाले को इसे संभालने और हल करने देते हैं। ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता अपने कामकाज में सिद्धांतों पर चलने वाले होते हैं। चाहे जो समस्याएं हो, अगर उन्होंने उन समस्याओं को देख लिया है, तो वे उन्हें छोड़ते नहीं हैं; वे हर को समस्या को पूरी तरह से समझने और एक-एक कर उनका समाधान करने पर जोर देते हैं। अगर उनका अच्छी तरह से समाधान नहीं होता है, तो भी यह आश्वासन दिया जा सकता है कि ये समस्याएं फिर से पैदा नहीं होंगी। इसे ही अपना कर्तव्य पूरे दिल, शक्ति और दिमाग से निभाना कहते हैं, पूरी तरह से अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना कहते हैं। जो नकली अगुआ और कार्यकर्ता वास्तविक कार्य नहीं करते या वास्तविक समस्याओं को हल करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, वे अपने सामने की समस्याओं का पता नहीं लगा सकते और नहीं जानते कि कौन-सा कार्य किया जाना चाहिए। अगर वे देखते हैं कि भाई-बहन अपने कर्तव्य निभाने में व्यस्त हैं तो वे पूरी तरह संतुष्ट होते हैं, महसूस करते हैं कि यह उनके वास्तविक कार्य का नतीजा है; वे सोचते हैं कि कार्य के तमाम पहलू काफी अच्छे हैं और उनके लिए व्यक्तिगत रूप से करने के लिए कुछ ज्यादा नहीं है या सुलझाने के लिए कोई समस्या नहीं है, इसलिए वे फिर अपने रुतबे के फायदों का मजा लेने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वे भाई-बहनों के बीच हमेशा दिखावा करना चाहते हैं और अपनी शेखी बघारना चाहते हैं। वे जब भी भाई-बहनों को देखते हैं तो वे कहते हैं, “एक अच्छे विश्वासी बनो। अपना कर्तव्य अच्छे से निभाओ। आधे-अधूरे मन से काम मत करो। अगर तुम शरारत करते हो या मुसीबत खड़ी करते हो तो मैं तुम्हें बरखास्त कर दूँगा!” वे सिर्फ अपना रुतबा जताना और लोगों को भाषण देना जानते हैं। सभाओं के दौरान वे हमेशा यह पूछते हैं कि कार्य में कौन-सी समस्याएँ मौजूद हैं और क्या उनके अधीनस्थ लोगों को कोई कठिनाई है, लेकिन जब दूसरे अपनी समस्याएँ और कठिनाइयाँ बताते हैं, तो वे उन्हें सुलझा नहीं सकते। इसके बावजूद वे अभी भी खुश रहते हैं और अभी भी एक साफ अंतरात्मा के साथ जीवन जीते हैं। अगर भाई-बहन कोई कठिनाई या समस्या नहीं बताते तो उन्हें लगता है कि वे अपना काम बहुत अच्छे ढंग से कर रहे हैं और वे आत्मसंतुष्ट हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि कार्य के बारे में पूछने का काम ही उन्हें सौंपा गया था और ऐसे में जब समस्याएँ उत्पन्न होती हैं और ऊपरवाला इसकी जिम्मेदारी का मूल कारण उन्हें बताता है तो वे स्तब्ध रह जाते हैं। दूसरे लोग उनके सामने कार्य की कठिनाइयाँ और समस्याएँ प्रस्तुत करते हैं, फिर भी वे यह शिकायत करते हैं कि वे उन्हें सुलझाने के लिए सत्य क्यों नहीं खोजते। वास्तविक समस्याओं को खुद सुलझाए बिना वे यह जिम्मेदारी अपने नीचे वाले निरीक्षकों पर डाल देते हैं और विशिष्ट काम करने वाले लोगों को सख्ती से फटकारते हैं। यह फटकार उन्हें अपने गुस्से से राहत दिलाने में मदद करती है और वे साफ अंतरात्मा से यहाँ तक मानते हैं कि वे वास्तविक कार्य कर रहे हैं। उन्होंने कभी भी समस्याओं का पता लगाने या उन्हें सुलझाने को लेकर चिंतित या व्याकुल महसूस नहीं किया है, न ही वे इस कारण अच्छे से खाने या सोने में असमर्थ रहे हैं—उन्होंने कभी भी इस प्रकार की कठिनाई नहीं सही है।
हर बार जब मैं किसी खेत कलीसिया में जाता हूँ, तो कुछ समस्याएँ सुलझाता हूँ। हर बार मेरे वहाँ जाने का यह कारण नहीं होता कि मुझे समाधान करने के लिए कोई विशेष मसला मिल गया है; यह बस फुरसत निकालकर घूमने-फिरने और यह देखने के लिए है कि कलीसिया की विभिन्न टीमों का कार्य कैसा चल रहा है और प्रत्येक टीम के लोगों की स्थितियाँ कैसी हैं। मैं निरीक्षकों को बातचीत के लिए इकट्ठा करता हूँ, उनसे पूछता हूँ कि इस दौरान वे क्या कार्य करते रहे हैं, किस प्रकार की समस्याएँ हैं और उन्हें कुछ समस्याएँ उठाने देता हूँ, और फिर मैं इस बारे में संगति करता हूँ कि इन्हें कैसे सुलझाया जाए। उनके साथ संगति करते समय मैं कुछ नई समस्याएँ भी पता लगा सकता हूँ। एक प्रकार की समस्या इस बात से संबंधित है कि अगुआ और कार्यकर्ता अपना कार्य कैसे करते हैं; दूसरी है उनकी जिम्मेदारियों के दायरे में कार्य की समस्याएँ। इसके अतिरिक्त, मैं इस बारे में भी उनकी मदद और मार्गदर्शन करता हूँ कि कोई विशिष्ट कार्य कैसे करें, कार्य को कैसे क्रियान्वित करें, क्या कार्य करें और फिर अगली बार उसकी खोज-खबर लें, उनसे यह पूछें कि पिछली बार उन्हें जो कार्य सौंपा गया था वह कैसे आगे बढ़ा है। ऐसी निगरानी, आग्रह और खोज-खबर जरूरी है। हालाँकि यह बड़े तामझाम और होहल्ले से नहीं किया जाता, एलान करने के लिए लाउडस्पीकारों का इस्तेमाल नहीं किया जाता, यह विशेष काम उन कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं के जरिए संचारित और क्रियान्वित किया जाता है जो वास्तविक कार्य कर सकते हैं। इस तरह प्रत्येक टीम का कार्य व्यवस्थित होकर प्रगति करता है, कार्य-दक्षता में सुधार आता है और नतीजे बेहतर होते हैं। अंत में प्रत्येक टीम का हर सदस्य यह जानकर कि उसे क्या और कैसे करना चाहिए, अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है। कम-से-कम प्रत्येक सदस्य अपना कर्तव्य निभा रहा होता है, उन सभी के हाथ में काम होते हैं और वे जो करते हैं वह परमेश्वर के घर की आवश्यकताओं के अनुसार किया जाता है और यह सिद्धांतों के अनुसार भी हो पाता है। क्या यह कुछ नतीजे हासिल करना नहीं है? क्या नकली अगुआ इस तरह काम करना जानते हैं? नकली अगुआ सोच-विचार करेंगे : “तो ऊपरवाला इस तरह से कार्य को क्रियान्वित करता है : बातचीत के लिए कुछ लोगों को साथ बुलाना, सभी लोग एक छोटी-सी किताब में नोट्स लिखते हुए और नोट्स लेने के बाद ऊपरवाले का कार्य समाप्त हो जाता है। अगर ऊपरवाला अपना कार्य इस तरह करता है तो हम भी उसी तरह करेंगे।” इस प्रकार नकली अगुआ इस ढंग से नकल करते हैं। वे प्रत्यक्ष बातों की नकल करते हैं, लेकिन अंत में वे जरा भी वास्तविक कार्य नहीं करते, कोई भी वह कार्य क्रियान्वित नहीं करते जो उन्हें करने के लिए कहा गया था, बस बेकार की बातें करते हुए वक्त बरबाद करते हैं। कभी-कभी मैं साग-सब्जियों के खेतों और ग्रीनहाउसों में भी यह देखने जाता हूँ कि कोंपलें कैसे बड़ी हो रही हैं या सर्दियों में ग्रीनहाउस में कितनी फसलें उगाई जा सकती हैं और उनकी कितनी बार सिंचाई करनी चाहिए। ये काम चाहे छोटे हों या बड़े, सभी में साग-सब्जी उगाने से जुड़े तकनीकी मुद्दे जुड़े होते हैं और अगर कोई उन्हें मेहनत से करे, तो उन्हें पूरा कर सकता है। नकली अगुआ अपना झूठ मुख्य रूप से कहाँ दिखाते हैं? सबसे प्रमुख है वास्तविक कार्य न करना; वे बस कुछ ऐसे काम करते हैं जो उन्हें अच्छा दिखाते हैं और वे मान लेते हैं कि काम पूरा हो गया, और फिर वे अपने रुतबे के फायदों के मजे लेने लगते हैं। वे इस प्रकार का कार्य चाहे जितना भी करें, क्या इसका यह अर्थ है कि वे वास्तविक कार्य कर रहे हैं? ज्यादातर नकली अगुआ सत्य को अशुद्ध रूप से समझते हैं, सिर्फ कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझते हैं, जिससे वास्तविक कार्य ठीक से करना बहुत मुश्किल हो जाता है। नकली अगुआओं का एक तबका तो सामान्य मामलों से संबंधित समस्याएँ भी नहीं सुलझा सकता; उनमें स्पष्ट रूप से कम काबिलियत होती है और आध्यात्मिक समझ नहीं होती है। ऐसे लोगों को विकसित करने की कोई अहमियत नहीं है। कुछ नकली अगुआओं में थोड़ी काबिलियत तो होती है, लेकिन वे वास्तविक कार्य नहीं करते और वे दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त रहते हैं। जो लोग दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त होते हैं, वे सूअरों से ज्यादा अलग नहीं हैं। सूअर अपने दिन सोने और खाने में बिताते हैं। वे कुछ नहीं करते। फिर भी, एक साल तक उन्हें खाना खिलाने की कड़ी मेहनत के बाद जब पूरा परिवार साल के अंत में उनका मांस खाता है, तो यह कहा जा सकता है कि वे किसी काम आए हैं। अगर कोई नकली अगुआ सुअर की तरह रखा जाता है, जो रोज तीन बार मुफ्त में खाता-पीता है, मोटा-तगड़ा हो जाता है, लेकिन कोई वास्तविक कार्य नहीं करता और निखट्टू रहता है, तो क्या उसे रखना व्यर्थ नहीं रहा? क्या वह किसी काम आया? वह सिर्फ परमेश्वर के कार्य में विषमता ही हो सकता है और उसे हटा देना चाहिए। सचमुच, नकली अगुआ की अपेक्षा सुअर पालना बेहतर है। नकली अगुआओं के पास “अगुआ” की उपाधि हो सकती है, वे इस पद पर आसीन हो सकते हैं और दिन में तीन बार अच्छी तरह खा सकते हैं और परमेश्वर के कई अनुग्रहों का आनंद ले सकते हैं, और वर्ष के अंत तक खा-खाकर मोटे और गुलाबी हो गए होते हैं—लेकिन काम के बारे में क्या? उसे देखना चाहिए कि इस वर्ष उसके कार्य में क्या कुछ हासिल हुआ है : क्या इस वर्ष कार्य के किसी भी क्षेत्र में उसे परिणाम प्राप्त हुए हैं? उसने कौन-सा वास्तविक कार्य किया? परमेश्वर का घर यह नहीं कहता कि वह हर काम पूर्णता से करे, लेकिन उसे मुख्य काम अच्छी तरह से करना ही चाहिए—उदाहरण के लिए, सुसमाचार का काम या फिल्म निर्माण का काम, पाठ-आधारित काम, इत्यादि। ये सभी फलदायी होने चाहिए। सामान्य परिस्थितियों में तीन से पाँच महीने के बाद हर काम में कोई परिणाम और उपलब्धि हासिल होनी चाहिए; अगर एक वर्ष के बाद भी कोई उपलब्धि नहीं मिलती तो यह एक गंभीर समस्या है। उनकी जिम्मेदारी के दायरे में कौन-सा काम सबसे फलदायी रहा है? किसके लिए उसने सबसे बड़ी कीमत चुकाई है और वर्ष भर सबसे ज्यादा कष्ट उठाया है। उसे इस उपलब्धि को पेश कर सोच-विचार करना चाहिए कि क्या उसने वर्ष भर परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेकर कोई मूल्यवान उपलब्धि हासिल की है; उसके दिल में इसका स्पष्ट भान होना चाहिए। इस पूरे समय जब वह परमेश्वर के घर का खाना खा रहा था और परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठा रहा था, तब वह क्या कर रहा था? क्या उसने कुछ हासिल किया है? अगर उसने कुछ भी हासिल नहीं किया है, तो वह बस खानापूर्ति कर रहा है, वह एक पक्का नकली अगुआ है। क्या ऐसे नकली अगुआओं को बरखास्त कर हटा देना चाहिए? (हाँ।) ऐसे नकली अगुआओं से आमना-सामना होने पर क्या तुम लोग उनका भेद पहचान सकते हो? क्या तुम देख सकते हो कि वे नकली अगुआ हैं, बस मुफ्त में खाना पाने के लिए खानापूर्ति कर रहे हैं? वे तब तक खाते रहते हैं जब तक कि उनके मुँह चुपड़ नहीं जाते, लेकिन वे कभी भी कार्य को लेकर चिंतित या व्याकुल प्रतीत नहीं होते, किसी भी विशिष्ट काम में न तो भाग लेते हैं और न ही उसके बारे में पूछताछ करते हैं। अगर वे पूछताछ करते भी हैं तो किसी वजह से ही करते हैं; वे तभी ऐसा करते हैं जब ऊपरवाला उन पर नतीजों के लिए दबाव डालता है, वरना उन्हें परवाह नहीं होती। वे हमेशा मौज-मस्ती में लिप्त रहते हैं, अक्सर फिल्में या टीवी कार्यक्रम देखते रहते हैं। वे कार्य दूसरों को सौंप देते हैं और जब दूसरे सभी लोग अपने कर्तव्य निभाने में व्यस्त रहते हैं तो वे आराम फरमाते हैं और मौज-मस्ती करते हैं। अगर कोई समस्या हो और उससे निपटने के लिए तुम उन्हें ढूँढ़ने की कोशिश करो तो वे कहीं नहीं दिखेंगे, मगर खाने के वक्त वे कभी देर नहीं करते। खाने-पीने के बाद जब सभी लोग काम पर लौट जाते हैं तो वे थोड़ा और वक्त कहीं और बिताते हैं। अगर तुम उनसे पूछो, “तुम जाकर काम की जाँच क्यों नहीं करते? सभी लोग तुम्हारे मार्गदर्शन और तुम्हारी व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा कर रहे हैं!” तो वे कहते हैं : “मेरी प्रतीक्षा क्यों? तुम सब लोग खुद इसे कर सकते हो, तुम सब लोग जानते हो कि यह कैसे करना है—ऐसा ही क्यों नहीं समझ लेते कि मैं आसपास नहीं हूँ? क्या मैं थोड़ा आराम नहीं कर सकता?” “क्या यह आराम करना है? तुम बस फिल्में देख रहे हो!” “मैं पेशेवर कौशल सीख रहा हूँ, मैं यह अध्ययन कर रहा हूँ कि फिल्मों की शूटिंग कैसे की जाती है।” यहाँ तक कि वे बहाने भी पेश कर देते हैं। वे एक के बाद एक फिल्म देखते हैं और जब रात में सभी लोग आराम करते हैं तो वे भी करते हैं। हर दिन वे बस इसी तरह खानापूर्ति करते हैं, लेकिन किस हद तक? सभी लोगों को वे अप्रिय लगते हैं, सबको वे अजीब महसूस करवाते हैं और आखिरकार कोई भी उन पर ध्यान नहीं देता। मुझे बताओ, अगर यह अगुआ प्रभारी न हो तो क्या तब भी कार्य प्रगति कर सकेगा? उसके बिना क्या पृथ्वी घूमना बंद कर देती है? (यह घूमती रहती है।) तो फिर उसे उजागर किया जाना चाहिए ताकि हर कोई यह देख सके कि यह व्यक्ति उचित काम नहीं कर रहा है और किसी को उससे बेबस नहीं होना चाहिए। यह नकली अगुआ जो उचित काम नहीं करता उसे उजागर और उसका गहन-विश्लेषण किया जाना चाहिए ताकि हर कोई उसका भेद पहचान ले, और फिर उसे पद छुड़वाने के लिए कार्यमुक्त कर देना चाहिए! ऐसे नकली अगुआओं से सामना होने पर क्या तुम उनका भेद पहचान सकते हो? नकली अगुआओं के बिना क्या तुम सब लोग यों महसूस करोगे कि मानो तुम लोग बिना कप्तान के नाविक हो? क्या तुम लोग स्वतंत्र रूप से कार्य पूरा कर कामों को अंजाम दे सकते हो? अगर नहीं, तो फिर तुम लोग खतरे में हो। इस प्रकार के नकली अगुआ के आमने-सामने होकर जो अपना कर्तव्य उचित ढंग से नहीं निभाता, उदाहरण बनकर अगुआई नहीं करता और ऑनलाइन चैटिंग करने में समय गँवाता है—क्या तुम लोग इस प्रकार की स्थिति में पारखी समझ हासिल कर सकते हो? क्या तुम लोग भी उनसे प्रभावित होकर फालतू की बातों में लग जाओगे और अपने कर्तव्यों में विलंब करोगे? क्या तुम अभी भी ऐसे नकली अगुआओं का अनुसरण कर सकते हो? (नहीं।)
कुछ नकली अगुआ पेटू और आलसी होते हैं, जो कड़ी मेहनत के बजाय आराम पसंद करते हैं। वे न तो काम करना चाहते हैं और न ही चिंता करना चाहते हैं, कोशिश करने और जिम्मेदारी लेने से बचते हैं, केवल आराम में लिप्त रहना चाहते हैं। उन्हें खाना और खेलना पसंद है और वे निहायत आलसी होते हैं। एक नकली अगुआ था जो सुबह तभी उठता जब और सारे लोग खाना खा चुके होते और रात में वह तब भी टीवी देखता रहता जब बाकी लोग आराम कर रहे होते। खाना पकाने की जिम्मेदारी वाला एक भाई इसे और बर्दाश्त नहीं कर सका और उसने अगुए की आलोचना की। क्या तुम लोगों को लगता है कि वे एक रसोइए की बात सुनेंगे? (नहीं।) मान लो किसी अगुआ या कार्यकर्ता ने उन्हें यह कहकर डाँटा होता, “तुम्हें और अधिक परिश्रमी होने की जरूरत है; जो काम करने की जरूरत हो, उसे जरूर किया जाना चाहिए। एक अगुआ के रूप में तुम्हें अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए, फिर चाहे कोई भी कार्य हो; तुम्हें सुनिश्चित करना चाहिए कि उसमें कोई समस्या न हो। अब जब यह समस्या पता चल चुकी है और तुम इसे हल करने के लिए मौजूद नहीं हो, तो इससे काम प्रभावित होता है। यदि तुम लगातार इस तरह से काम करोगे तो क्या इससे कलीसिया के कार्य में देरी नहीं होगी? क्या तुम यह जिम्मेदारी उठा सकते हो?” क्या वे इसे सुनेंगे? जरूरी नहीं है कि वे सुनें। ऐसे नकली अगुआओं के मामले में निर्णय लेने वाले समूह को उन्हें तुरंत बरखास्त कर देना चाहिए और उनके लिए अन्य कार्य व्यवस्थाएँ करनी चाहिए, उन्हें वही करने देना चाहिए जो वे करने में सक्षम हों। यदि वे किसी काम के लायक नहीं हैं, जहाँ भी जाते हैं मुफ्तखोरी करना चाहते हैं, कुछ भी करने में असमर्थ हैं, तो उन्हें कोई भी कर्तव्य निभाने की अनुमति दिए बिना दफा कर दो। वे कर्तव्य निभाने के सुपात्र नहीं हैं; वे मनुष्य नहीं हैं, उनमें सामान्य मानवता की अंतरात्मा और विवेक नहीं हैं, वे बेशर्म हैं। कामचोरों जैसे इन नकली अगुआओं की असलियत पहचान लिए जाने के बाद इन्हें सीधे बरखास्त कर दिया जाना चाहिए; इन्हें प्रेरित करने की कोशिश करने की कोई आवश्यकता नहीं होती और उन्हें निगरानी में रहने का कोई अवसर नहीं दिया जाना चाहिए, न ही उनके साथ सत्य पर संगति करना आवश्यक है। क्या उन्होंने पर्याप्त सत्य नहीं सुने हैं? यदि उनकी काट-छाँट की जाए तो क्या वे बदल सकते हैं? वे नहीं बदल सकते। अगर किसी की काबिलियत कम है, कभी-कभी वह बेतुके विचार रखता है या अज्ञानता के कारण पूरी तस्वीर देखने में विफल रहता है, लेकिन वह मेहनती है, बोझ उठाता है और आलसी नहीं है तो ऐसा व्यक्ति अपने कर्तव्य निभाने में विचलन के बावजूद अपनी काट-छाँट होने पर पश्चात्ताप कर सकता है। कम-से-कम वह एक अगुआ की जिम्मेदारियों को जानता है और यह जानता है कि उसे क्या करना चाहिए, उसके पास अंतरात्मा और जिम्मेदारी का बोध है और उसके पास दिल है। परंतु जो लोग आलसी हैं, कड़ी मेहनत के बजाय आराम पसंद करते हैं और बोझ से मुक्त हैं, वे बदल नहीं सकते। उनके दिल में कोई बोझ नहीं है; चाहे कोई भी उनकी काट-छाँट कर ले, सब बेकार है। कुछ लोग कहते हैं, “फिर अगर परमेश्वर का न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन उनके साथ हुआ तो क्या यह उनके बोझ-मुक्त होने की समस्या को बदल देगा?” इसे बदला नहीं जा सकता; यह किसी की प्रकृति से निर्धारित होता है, जैसे कि कोई कुत्ता गंदगी खाने की अपनी आदत नहीं बदल सकता। जब भी तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो आलसी है, बोझ-मुक्त है और एक अगुआ के रूप में भी कार्य करता है, तो तुम सुनिश्चित हो सकते हो कि वह एक नकली अगुआ है। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम उसे नकली अगुआ कैसे कह सकते हो? उसकी काबिलियत अच्छी है, वह चालाक है, वह चीजों की असलियत समझ सकता है और योजनाएँ बना सकता है। दुनिया में उसने व्यापारों का प्रबंधन किया है, सीईओ के रूप में कार्य किया है; वह जानकार, अनुभवी और दुनियादार है!” क्या ये गुण उसके आलसी होने और बोझ न उठाने की समस्या को सुलझा सकते हैं? (नहीं।)
जो लोग अत्यधिक आलसी होते हैं, वे किस प्रकार की अभिव्यक्तियाँ और विशेषताएँ प्रदर्शित करते हैं? पहले, वे जो कुछ भी करते हैं, बेमन से करते हैं, उसे जैसे-तैसे निपटाते हैं, धीमी गति से चलते हैं, आराम फरमाते हैं और जब भी संभव होता है उसे टाल देते हैं। दूसरे, वे कलीसिया के कार्य पर ध्यान नहीं देते। उनके विचार से, जो कोई इस काम के बारे में चिंता करना पसंद करता है, कर सकता है। वे नहीं करेंगे। अगर वे खुद किसी काम के बारे में चिंता करते भी हैं, तो यह उनकी अपनी शोहरत, लाभ और रुतबे के लिए होता है—उनके लिए जो कुछ भी मायने रखता है, वह यह है कि वे रुतबे के लाभ उठा पाएँ। तीसरे, वे अपने काम में कठिनाई से दूर भागते हैं; यह स्वीकार नहीं कर सकते कि उनका कार्य थोड़ा भी थकाने वाला हो; ऐसा होने पर वे बहुत नाराज हो जाते हैं और कठिनाई सहने या कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते। चौथे, वे जो भी कार्य करते हैं उसमें जुटे रहने में असमर्थ होते हैं, उसे हमेशा आधे में ही छोड़ देते हैं और पूरा नहीं कर पाते। अगर वे क्षणिक रूप से अच्छी मनःस्थिति में हैं, तो मौज-मजे के लिए कुछ काम कर सकते हैं, लेकिन अगर किसी चीज के लिए दीर्घकालिक प्रतिबद्धता की आवश्यकता हो और वह उन्हें व्यस्त रखती हो, उसमें बहुत ज्यादा सोचने-विचारने की जरूरत हो और वह उनकी देह थका देती हो, तो समय बीतने के साथ वे बड़बड़ाना शुरू कर देते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ अगुआ कलीसियाई कार्य के प्रभारी होते हैं, और उन्हें पहले-पहल यह नया और ताजा लगता है। वे सत्य की अपनी संगति में बहुत अभिप्रेरित होते हैं और जब वे देखते हैं कि भाई-बहनों को समस्याएँ हैं, तो वे उनकी मदद कर उनका समाधान करने में सक्षम रहते हैं। लेकिन कुछ समय तक लगे रहने के बाद उन्हें अगुआई का काम बहुत थकाऊ लगता है और वे निराश हो जाते हैं—वे इसके बदले कोई आसान काम पकड़ लेना चाहते हैं और कठिनाई सहने को तैयार नहीं होते। ऐसे लोगों में लगन की कमी होती है। पाँचवें, एक और विशेषता जो आलसी लोगों को अलग करती है, वह है वास्तविक कार्य करने की उनकी अनिच्छा। जैसे ही उनकी देह को कष्ट होता है, वे अपने काम से बचने और भागने के बहाने बनाते हैं और वह काम किसी और को सौंप देते हैं। लेकिन जब वह व्यक्ति काम पूरा कर देता है, तो वे बेशर्मी से पुरस्कार खुद बटोर लेते हैं। आलसी लोगों की ये पाँच प्रमुख विशेषताएँ हैं। तुम लोगों को यह जाँच करनी चाहिए कि क्या कलीसियाओं में अगुआओं और कार्यकर्ताओं के बीच ऐसे आलसी लोग हैं। अगर तुम्हें कोई मिले, तो उसे तुरंत बरखास्त कर दिया जाना चाहिए। क्या आलसी लोग अगुआओं के रूप में अच्छा काम कर सकते हैं? चाहे उनमें किसी भी प्रकार की काबिलियत हो या उनकी मानवता की गुणवत्ता कैसी भी हो, अगर वे आलसी हैं, तो वे अपना काम ठीक से नहीं कर पाएँगे, और वे काम और महत्वपूर्ण मामलों में देरी करेंगे। कलीसिया का कार्य बहुआयामी होता है; इसके हर पहलू में कई विस्तृत काम शामिल होते हैं और समस्याएँ हल करने के लिए सत्य के बारे में संगति करने की आवश्यकता होती है, ताकि उसे अच्छी तरह से किया जा सके। इसलिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कर्मठ होना चाहिए—काम की प्रभावशीलता सुनिश्चित करने के लिए उन्हें हर दिन ढेर सारी बातें करनी पड़ती हैं और ढेर सारा काम करना पड़ता है। अगर वे बहुत कम बोलें या बहुत कम काम करें, तो कोई परिणाम नहीं निकलेगा। इसलिए अगर कोई अगुआ या कार्यकर्ता आलसी व्यक्ति है, तो वह निश्चित रूप से नकली अगुआ है और वास्तविक कार्य करने में अक्षम है। आलसी लोग वास्तविक कार्य नहीं करते, खुद कार्य-स्थलों पर जाना तो दूर की बात है और वे समस्याएँ हल करने या किसी विशिष्ट कार्य में स्वयं को संलग्न करने के इच्छुक नहीं होते। उन्हें किसी भी कार्य में आने वाली समस्याओं की जरा भी समझ या पकड़ नहीं होती। उन्हें दूसरों की बातें सुनकर, जो चल रहा है उसका केवल सतही और अस्पष्ट अंदाजा होता है, और वे थोड़े-से धर्म-सिद्धांत का उपदेश देकर जैसे-तैसे काम निपटाते हैं। क्या तुम लोग इस तरह के अगुआ का भेद पहचानने में सक्षम हो? क्या तुम यह बताने में सक्षम हो कि वह नकली अगुआ है? (एक हद तक।) आलसी लोग जो भी कर्तव्य निभाते हैं, उसमें लापरवाह होते हैं। कर्तव्य चाहे कोई भी हो, उनमें लगन नहीं होती, वे रुक-रुककर काम करते हैं और जब भी उन्हें कोई कष्ट होती है तो वे अंतहीन शिकायतें करते जाते हैं। जो भी उनकी आलोचना या काट-छाँट करता है, वे उसे अपशब्द कहते हैं, जैसे कोई कर्कशा सड़कों पर लोगों का अपमान कर रही हो, हमेशा दूसरों पर अपना गुस्सा निकालना चाहते हैं और अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते। उनके अपना कर्तव्य न निभाना चाहने से क्या पता चलता है? इससे पता चलता है कि वे भार नहीं उठाते, जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं होते और वे आलसी लोग हैं। वे कष्ट सहना या कीमत चुकाना नहीं चाहते। यह बात खासकर अगुआओं और कार्यकर्ताओं पर लागू होती है : अगर अगुआ और कार्यकर्ता भार नहीं उठाते तो क्या वे अगुआओं या कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हैं? बिल्कुल भी नहीं।
नकली अगुआ कार्य की खोज-खबर नहीं लेते, न ही दिशा दिखाते हैं
हमने अभी-अभी अगुआओं और कार्यकर्ताओं की पाँचवीं जिम्मेदारी के इस पहलू पर चर्चा की है : “कार्य की प्रत्येक मद की स्थिति की पकड़ और समझ बनाए रखना।” इस पहलू पर चर्चा करके हमने नकली अगुआओं की कुछ विशिष्ट अभिव्यक्तियों और साथ ही उनकी मानवता और चरित्र को भी उजागर किया है। आओ, अब “कार्य की प्रत्येक मद की स्थिति की पकड़ और समझ बनाए रखने” पर गौर करें। निस्संदेह, कार्य की प्रगति कुछ हद तक कार्य की स्थिति से संबंधित होती है और यह रिश्ता अपेक्षाकृत करीबी होता है। अगर कोई कार्य की किसी मद की स्थिति की समझ और पकड़ को बनाए न रख सके, तो इसी तरह वह कार्य की प्रगति की समझ और पकड़ को भी बनाए नहीं रख सकता। उदाहरण के लिए, कार्य की प्रगति कैसी है, यह किस चरण तक आगे बढ़ चुका है, इससे जुड़े हुए लोगों की स्थितियाँ कैसी हैं, क्या पेशेवर पहलुओं को लेकर कोई कठिनाई है, क्या कार्य के कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जो परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते, हासिल किए हुए नतीजे कैसे हैं, क्या कुछ लोग जो कार्य के पेशेवर पहलुओं में अधिक कुशल नहीं हैं वे सीख रहे हैं, सिखाने की व्यवस्था कौन करता है, वे क्या सीख रहे हैं, वे कैसे सीख रहे हैं, इत्यादि-इत्यादि—ये सभी विशिष्ट मुद्दे प्रगति से संबंधित हैं। उदाहरण के लिए, क्या भजनों की संगीतरचना करने का कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण नहीं है? एक भजन के लिए, परमेश्वर के वचनों के शास्त्रीय अंशों के प्रारंभिक चयन से लेकर संगीतरचना के पूरे होने तक, इस प्रक्रिया में कौन-से विशिष्ट काम हाथ में लेने की जरूरत होती है? सबसे पहले, भजन बनाने के लिए परमेश्वर के वचनों के उपयुक्त शास्त्रीय अंशों को चुनना जरूरी है, और ये उपयुक्त लंबाई के भी होने चाहिए। दूसरे कदम में इस बारे में सोच-विचार करना शामिल है कि अंश को कर्णप्रिय और गायन को आनंददायी बनाने के लिए किस शैली का राग उपयुक्त रहेगा। फिर, भजन गाने के लिए सही लोगों को ढूँढ़ना जरूरी है। क्या ये विशिष्ट काम नहीं हैं? (हैं।) किसी भजन की संगीतरचना हो जाने के बाद नकली अगुआ बिल्कुल पूछताछ नहीं करता कि क्या संगीतरचना यथायोग्य है या शैली उपयुक्त है। निगरानी की कमी देखकर संगीतकार को व्यक्तिगत रूप से लगता है कि यह ठीकठाक है और वह उसे रिकॉर्ड करने लगता है। परमेश्वर के वचनों का वह अंश, जिसे सभी लोग एक भजन के रूप में देखना चाह रहे थे, वह अंततः संगीतबद्ध करके एक भजन बना दिया जाता है, लेकिन इसे गाते समय ज्यादातर लोगों को इसमें अभी भी खामियाँ नजर आती हैं। कौन-सी समस्या उत्पन्न होती है? संगीतबद्ध भजन सही स्तर का नहीं है : राग और आकर्षण का अभाव होने के बावजूद उसे संगीतबद्ध कर लिया गया। इसे सुनने के बाद नकली अगुआ पूछता है, “इस भजन की संगीतरचना किसने की? इसकी रिकॉर्डिंग क्यों की गई?” उसके यह सवाल पूछने तक कम-से-कम एक महीना गुजर चुका होता है। इस महीने के दौरान क्या अगुआ को इसकी खोज-खबर नहीं लेनी चाहिए थी और इस कार्य की प्रगति को तुरंत नहीं पकड़ना चाहिए था? उदाहरण के लिए, संगीतरचना कैसी चल रही थी? क्या बुनियादी धुन तय हो चुकी थी? क्या इसमें राग था? क्या इस भजन का राग और शैली परमेश्वर के वचनों से मेल खाती है? क्या उपयुक्त अनुभव वाले व्यक्तियों ने मार्गदर्शन देकर मदद की? इसकी संगीतरचना के बाद क्या इस भजन को व्यापक रूप से गाया जा सकेगा? इसका क्या प्रभाव होगा? क्या धुन अच्छी मानी गई है? नकली अगुआ ऐसे मामलों की खोज-खबर लेने में सिरे से विफल रहा। और खोज-खबर न लेने के लिए उसके पास एक कारण है : “मुझे भजन की संगीतरचना की समझ नहीं है। मैं जिस चीज को नहीं समझता उसकी खोज-खबर कैसे ले सकता हूँ? यह असंभव है।” क्या यह एक वाजिब कारण है? (नहीं।) यह कोई वाजिब कारण नहीं है; तो जो व्यक्ति भजनों को संगीतबद्ध करने से परिचित नहीं है, क्या तब भी वह खोज-खबर ले सकता है? (हाँ।) उसे कैसे खोज-खबर लेनी चाहिए? (वह भाई-बहनों के साथ मिलकर कार्य कर सकता है और सिद्धांतों के आधार पर यह देखने के लिए राग को परख सकता है कि क्या यह उपयुक्त है; अपना पल्ला झाड़कर अलग खड़े रहने के बजाय वह व्यावहारिक रूप से कार्य की खोज-खबर ले सकता है।) नकली अगुआओं के काम की मुख्य विशेषता है धर्म-सिद्धांतों के बारे में बकवास करना और नारे लगाना। अपने आदेश जारी करने के बाद वे बस मामले से पल्ला झाड़ लेते हैं। वे कार्य के आगे की प्रगति के बारे में कोई सवाल नहीं पूछते; वे यह नहीं पूछते कि कोई समस्या, विचलन या कठिनाई तो उत्पन्न नहीं हुई। वे दूसरों को कोई काम सौंपते ही अपना काम समाप्त हुआ मान लेते हैं। वास्तव में अगुआ होने के नाते कार्य को व्यवस्थित कर लेने के बाद तुम्हें कार्य की प्रगति की खोज-खबर लेनी चाहिए। अगर तुम उस कार्यक्षेत्र से परिचित नहीं हो—यदि तुम्हें इसके बारे में कोई भी जानकारी न हो—तब भी तुम अपना काम करने का तरीका खोज सकते हो। तुम जाँच करने और सुझाव देने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को खोज सकते हो, जो इसकी सच्ची पकड़ रखता हो, जो सबंधित पेशे को समझता हो। उसके सुझावों से तुम उपयुक्त सिद्धांत पता लगा सकते हो, और इस तरह तुम काम की खोज-खबर लेने में सक्षम हो सकते हो। चाहे तुम संबंधित पेशे से परिचित हो या नहीं हो या उस काम को समझते हो या नहीं, उसकी प्रगति से अवगत रहने के लिए तुम्हें कम-से-कम उसकी निगरानी तो करनी ही चाहिए, खोज-खबर लेनी चाहिए, उसकी प्रगति के बारे में लगातार पूछताछ करते हुए उसके बारे में सवाल करने चाहिए। तुम्हें ऐसे मामलों पर पकड़ बनाए रखनी चाहिए; यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, यह तुम्हारे काम का हिस्सा है। काम की खोज-खबर न लेना, काम दूसरे को सौंपने के बाद और कुछ न करना—उससे पल्ला झाड़ लेना—यह नकली अगुआओं के कार्य करने का तरीका है। कार्य की खोज-खबर न लेना या कार्य के बारे में मार्गदर्शन न देना, आने वाली समस्याओं के बारे में पूछताछ न करना या उनका समाधान न करना और काम की प्रगति या उसकी दक्षता पर पकड़ न रखना—ये भी नकली अगुआओं की अभिव्यक्तियाँ हैं।
नकली अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करते, जिससे कार्य की प्रगति लंबित होती है
चूँकि नकली अगुआ कार्य की प्रगति के बारे में जानकारी नहीं हासिल करते, और क्योंकि वे उसमें उत्पन्न होने वाली समस्याएँ तुरंत पहचानने में असमर्थ होते हैं—उन्हें हल करना तो दूर की बात है—इससे अक्सर बार-बार देरी होती है। किसी-किसी कार्य में, चूँकि लोगों को सिद्धांतों की समझ नहीं होती और उसकी जिम्मेदारी लेने या उसका संचालन करने के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं होता, इसलिए कार्य करने वाले लोग अक्सर नकारात्मकता, निष्क्रियता और प्रतीक्षा की स्थिति में रहते हैं, जो कार्य की प्रगति को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। अगर अगुआओं ने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की होतीं—अगर उन्होंने कार्य का संचालन किया होता, उसे आगे बढ़ाया होता, उसका निरीक्षण किया होता, और कार्य का मार्गदर्शन करने के लिए उस क्षेत्र को समझने वाले किसी व्यक्ति को ढूँढ़ा होता, तो बार-बार देरी होने के बजाय काम तेजी से आगे बढ़ता। तभी, अगुआओं के लिए कार्य की स्थिति को समझना और पकड़ हासिल करना महत्वपूर्ण है। निस्संदेह, अगुआओं के लिए यह समझना और पकड़ना भी बहुत आवश्यक है कि कार्य कैसे प्रगति कर रहा है, क्योंकि प्रगति कार्य की दक्षता और उन परिणामों से संबंधित है जो उस कार्य से मिलने चाहिए। अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह समझ न हो कि कलीसिया का कार्य कैसा चल रहा है, और वे चीजों की खोज-खबर नहीं लेते या उनका निरीक्षण नहीं करते, तो कलीसिया के कार्य की प्रगति धीमी होनी तय है। यह इस तथ्य के कारण है कि कर्तव्य निभाने वाले ज्यादातर लोग बहुत गंदे होते हैं, उनमें दायित्व की भावना नहीं होती, वे अक्सर नकारात्मक, निष्क्रिय और अनमने होते हैं। अगर दायित्व की भावना और कार्य-क्षमताओं से युक्त ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो ठोस ढंग से काम की जिम्मेदारी ले सके, समयबद्ध तरीके से कार्य की प्रगति जान सके, और कर्तव्य निभाने वाले लोगों का मार्गदर्शन, निरीक्षण कर सके, और उन्हें अनुशासित कर उनकी काट-छाँट कर सके, तो स्वाभाविक रूप से कार्य-कुशलता का स्तर बहुत नीचा होगा और कार्य के परिणाम बहुत खराब होंगे। अगर अगुआ और कार्यकर्ता इसे स्पष्ट रूप से देख तक नहीं सकते, तो वे मूर्ख और अंधे हैं। इसलिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को काम पर तुरंत गौर करके उसकी खोज-खबर लेकर उसकी प्रगति को समझना होगा और इस बात पर नजर रखकर अवगत रहना चाहिए, यह देखना चाहिए कि कर्तव्य करनेवालों की ऐसी कौन-सी समस्याएँ हैं जिन्हें हल करने की आवश्यकता है, और यह समझना चाहिए कि बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिए किन समस्याओं का समाधान किया जाना चाहिए। ये सारी चीजें बहुत महत्वपूर्ण हैं और अगुआ के रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति को इनके बारे में स्पष्ट होना चाहिए। अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए, तुम्हें नकली अगुआ की तरह नहीं होना चाहिए, जो कुछ सतही काम करता है और फिर सोचता है कि उसने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाया है। नकली अगुआ अपने काम में लापरवाह और असावधान होते हैं, उनमें जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, समस्याएँ आने पर वे उनका समाधान नहीं करते, और चाहे वे जो भी काम कर रहे हों, वे उसे सिर्फ सतही तौर पर करते हैं, और उसे अनमने दृष्टिकोण से देखते हैं। वे सिर्फ भारी-भरकम आडंबरी शब्द बोलते हैं, धर्म-सिद्धांत झाड़ते हैं, खोखली बातें करते हैं और अपना काम बेमन से करते हैं। सामान्य तौर पर, नकली अगुआओं के काम करने की यही स्थिति होती है। हालाँकि, मसीह-विरोधियों की तुलना में, नकली अगुआ खुल्लमखुल्ला बुरे काम और जान-बूझकर कुकर्म नहीं करते, लेकिन उनके काम की प्रभावशीलता को देखा जाए, तो उन्हें बेपरवाह, दायित्व वहन न करने वाले, गैर-जिम्मेदार और काम के प्रति वफादारी न रखने वाले व्यक्ति के रूप में निरूपित करना उचित है।
अभी-अभी हमने नकली अगुआओं के वास्तविक कार्य न करने, कार्य की प्रत्येक मद की प्रगति को न समझने और पकड़ने के बारे में संगति की। कलीसियाई कार्य में आने वाली समस्याओं और कठिनाइयों को लेकर भी यही स्थिति है कि नकली अगुआ इन पर भी बिल्कुल ध्यान नहीं देते या इन्हें दरकिनार करने के लिए बस थोड़े-से धर्म-सिद्धांत बघार देते हैं और कुछ नारे दोहरा देते हैं। कार्य की सभी मदों के काम को समझने और उसकी खोज-खबर लेने की कोशिश करने के लिए उन्हें कभी भी कार्यस्थल पर खुद आते हुए कोई नहीं देखेगा। कोई उन्हें वहाँ समस्याओं के समाधान के लिए सत्य पर संगति करते हुए नहीं देखेगा, और उससे भी कम कोई उन्हें वहाँ खुद व्यक्तिगत रूप से कार्य का निर्देशन और निरीक्षण करते हुए, उसमें खामियों और विचलनों को होने से रोकते हुए देखेगा। नकली अगुआ जितने अनमने ढंग से कार्य करते हैं यह उसकी सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति है। मसीह-विरोधियों के विपरीत नकली अगुआ भले ही कलीसियाई कार्य में गड़बड़ी पैदा करने और बाधा डालने को कदम आगे नहीं बढ़ाते, न ही वे विभिन्न प्रकार के बुरे कर्म करके अपने खुद के स्वतंत्र राज्य स्थापित करते हैं, फिर भी उनके विभिन्न अनमने व्यवहार कलीसियाई कार्य में जबरदस्त व्यवधान खड़े करते हैं, जिससे अंतहीन रूप से विभिन्न समस्याएँ पैदा होती हैं और अनसुलझी रह जाती हैं। इससे कलीसियाई कार्य की प्रत्येक मद की प्रगति गंभीर रूप से प्रभावित होती है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन प्रवेश प्रभावित हो जाता है। क्या ऐसे नकली अगुआओं को हटा नहीं दिया जाना चाहिए? नकली अगुआ वास्तविक कार्य करने में असमर्थ होते हैं—वे जो कुछ भी करते हैं उसकी शुरुआत मजबूत होती है, लेकिन अंत में यह टांय टांय फिस्स हो जाता है। वे जो भूमिका निभाते हैं वह समारोह के प्रारंभकर्ता की होती है : वे नारे लगाते हैं, धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देते हैं और दूसरों को कार्य सौंप देने और यह व्यवस्थित कर देने के बाद कि इसके लिए कौन जिम्मेदार होगा, वे इतिश्री कर लेते हैं। वे चीन के ग्रामीण इलाकों में लोगों को दिखने वाले शोर मचाते लाउडस्पीकरों के समान होते हैं—वे इसी सीमा तक भूमिका निभाते हैं। वे बस थोड़ा-सा प्रारंभिक कार्य करते हैं; बाकी काम के लिए वे कहीं नजर नहीं आते। जहाँ तक विशिष्ट प्रश्नों की बात है कि कार्य की प्रत्येक मद कैसी चल रही है, क्या यह सिद्धांतों के अनुरूप है और क्या यह प्रभावी है—उनके पास उत्तर नहीं होते। वे कार्य की प्रत्येक मद की प्रगति और उसकी विशेषताओं को समझने और उनकी पकड़ हासिल करने के लिए कभी भी जनसाधारण के साथ गहराई से नहीं जुड़ते और कार्यस्थल का दौरा नहीं करते। इसलिए संभव है नकली अगुआ अपने अगुआ के कार्यकाल में गड़बड़ी और बाधाएँ पैदा करने के कदम न उठाएँ या विभिन्न बुरे कर्म न करें, मगर सच्चाई यह है कि वे कार्य को पंगु बना देते हैं, कलीसियाई कार्य की प्रत्येक मद की प्रगति को लंबित कर देते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना और जीवन प्रवेश प्राप्त करना नामुमकिन कर देते हैं। इस तरह कार्य करके वे परमेश्वर में आस्था के सही मार्ग पर परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई भला कैसे कर सकेंगे? यह दर्शाता है कि नकली अगुआ कोई वास्तविक कार्य नहीं करते। यह सुनिश्चित करने के लिए कि कलीसियाई कार्य सामान्य रूप से प्रगति करे, वे जिस कार्य के लिए जिम्मेदार हैं उसकी खोज-खबर लेने या उसके लिए मार्गदर्शन देने और निरीक्षण करने में वे विफल रहते हैं; वे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के वांछित कर्म करने में विफल रहते हैं, और वे अपनी वफादारी और जिम्मेदारियों को निभाने में विफल रहते हैं। इससे यह पुष्टि होती है कि नकली अगुआ जिस प्रकार अपने कर्तव्य निभाते हैं उसमें वे वफादार नहीं होते, कि वे निरे लापरवाह होते हैं; परमेश्वर के चुने हुए लोगों और स्वयं परमेश्वर दोनों को ही धोखा देते हैं और वे उसकी इच्छा का पालन करने पर असर और अड़चन डालते हैं। यह सच्चाई सबके सामने है। हो सकता है कि कोई नकली अगुआ सचमुच कार्य के योग्य नहीं है; यह भी हो सकता है कि वह काम से जी चुरा रहा हो और जान-बूझकर लापरवाही बरत रहा हो। चाहे जो भी बात हो, तथ्य यही है कि वह कलीसियाई कार्य को अस्त-व्यस्त कर देता है। कलीसियाई कार्य की प्रत्येक मद में जरा-सी भी प्रगति नहीं होती और संचित समस्याओं का पुलिंदा लंबे समय तक अनसुलझा पड़ा रहता है। इससे न सिर्फ सुसमाचार फैलाने के कार्य पर असर पड़ता है, बल्कि यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में भी भीषण रुकावट पैदा करता है। ये तथ्य यह दिखाने के लिए काफी हैं कि नकली अगुआ न सिर्फ वास्तविक कार्य करने में असमर्थ होते हैं, बल्कि वे सुसमाचार फैलाने के कार्य में भी रोड़े बन जाते हैं और कलीसिया में परमेश्वर की इच्छा का पालन करने में अवरोध बन जाते हैं।
नकली अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करते और वास्तविक समस्याओं को हल करने में असमर्थ रहते हैं। इससे न सिर्फ कार्य की प्रगति में देरी होती है और उसके नतीजों पर असर पड़ता है, बल्कि इससे कलीसियाई कार्य को भी गंभीर हानि होती है और बहुत-सी कार्मिक शक्ति, भौतिक संसाधन और वित्तीय संसाधन व्यर्थ हो जाते हैं। इसलिए नकली अगुआओं को आर्थिक हानियों की भरपाई करनी चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अपना कार्य अच्छे से न करने से हुई हानियों की भरपाई करनी पड़े, तो कोई भी अगुआ या कार्यकर्ता बनने को तैयार नहीं होगा।” ऐसे गैर-जिम्मेदार लोग अगुआ या कार्यकर्ता बनने योग्य नहीं हैं। जिन लोगों में अंतरात्मा या विवेक नहीं होता, वे बुरे लोग होते हैं—अगर बुरे लोग अगुआ और कार्यकर्ता बनना चाहें तो क्या यह मुसीबत की बात नहीं है? चूँकि परमेश्वर के घर के ज्यादातर कार्यों से आर्थिक खर्चे जुड़े होते हैं तो क्या उनका हिसाब देना जरूरी नहीं है? क्या परमेश्वर की भेंटें कोई ऐसी चीज हैं जिन्हें लोग अपनी मर्जी से बरबाद कर और लुटा सकते हैं? अगुआओं और कार्यकर्ताओं को क्या हक है कि वे परमेश्वर की भेंटों को लुटा दें? आर्थिक हानि होने पर उसकी भरपाई अवश्य होनी चाहिए; यह पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है और कोई भी इसे नकार नहीं सकता। उदाहरण के लिए, मान लो कि किसी काम को एक व्यक्ति एक महीने में पूरा कर सकता है। अगर इस काम को करने में छह महीने लग जाते हैं, तो क्या बाकी पाँच महीने के खर्चे नुकसान साबित नहीं होंगे? मैं सुसमाचार प्रचार का एक उदाहरण देता हूँ। मान लो कि कोई व्यक्ति सच्चे मार्ग की छानबीन करना चाहता है और संभवतः सिर्फ एक महीने में उसे राजी किया जा सकता है, जिसके बाद वह कलीसिया में प्रवेश करेगा और सिंचन और पोषण प्राप्त करता रहेगा, और छह महीने के भीतर ही वह अपनी नींव जमा सकता है। लेकिन अगर सुसमाचार प्रचार करने वाले व्यक्ति का रवैया इस मामले को अवमानना और अनमनेपन की ओर ले जाता है, और अगुआ और कार्यकर्ता भी अपनी जिम्मेदारियों को अनदेखा करते हैं, और अंत में उस व्यक्ति को राजी करने में छह महीने लग जाते हैं, तो यह छह महीने का समय उसके जीवन के लिए एक नुकसान नहीं बन जाएगा? अगर वह भीषण आपदाओं का सामना करता है और उसने अब तक सच्चे मार्ग पर अपनी नींव नहीं तैयार की है, तो वह खतरे में होगा, और तब क्या वे लोग उन्हें निराश नहीं कर चुके होंगे? ऐसे नुकसान को पैसे या भौतिक चीजों से नहीं मापा जा सकता है। यदि उस व्यक्ति को सत्य समझने से छह महीने तक रोक दिया जाए; और उसके द्वारा एक नींव तैयार करने और अपना कर्तव्य निभाना शुरू करने में छह महीने की देरी हो जाए, तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या अगुआ और कार्यकर्ता इसकी जिम्मेदारी का भार उठा सकते हैं? किसी व्यक्ति के जीवन को रोककर रखने की जिम्मेदारी का भार कोई भी नहीं उठा सकता। चूँकि कोई भी इस जिम्मेदारी का भार नहीं उठा सकता, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए क्या करना उचित है? चार शब्द : तुम अपना सर्वस्व दो। क्या करने के लिए अपना सर्वस्व दो? अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए, वह सब कुछ करने के लिए जो तुम अपनी आँखों से देख सकते हो, अपने मन में सोच सकते हो और अपनी काबिलियत से हासिल कर सकते हो। यही अपना सर्वस्व देना है, यही निष्ठावान और जिम्मेदार होना है और यही वह जिम्मेदारी है जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को निभानी चाहिए। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता सुसमाचार प्रचार को गंभीर मामले के रूप में नहीं लेते। वे सोचते हैं, “परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की वाणी सुनेंगी। जो भी खोजबीन कर स्वीकार करेगा उसे आशीष प्राप्त होंगे; जो भी खोजबीन नहीं करेगा और स्वीकार नहीं करेगा, उसे आशीष प्राप्त नहीं होंगे और वह विपत्ति में मर जाने लायक है!” नकली अगुआ परमेश्वर के इरादों के प्रति कोई विचारशीलता नहीं दिखाते और सुसमाचार कार्य का उत्तरदायित्व नहीं संभालते; वे उन नवागंतुकों की भी कोई जिम्मेदारी नहीं लेते जिन्होंने अभी-अभी कलीसिया में प्रवेश किया है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को गंभीरता से नहीं लेते—वे हमेशा अपने रुतबे के फायदों में लिप्त रहने पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं। चाहे जितने भी लोग सच्चे मार्ग की खोजबीन करें, वे जरा भी व्याकुल महसूस नहीं करते, हमेशा खानापूर्ति करने की मानसिकता रखते हैं, वैसे ही काम करते हैं जैसे कि वे कोई अवकाशप्राप्त सम्राट या कोई अधिकारी हों। कार्य चाहे जितना भी अहम या तात्कालिक महत्व का क्यों न हो, वे कभी भी मौके पर दिखाई नहीं देते, वे कार्यस्थिति के बारे में न तो पूछताछ करते हैं न ही उसे समझते हैं या न कार्य की खोज-खबर लेते हैं और न समस्याएँ सुलझाते हैं। वे बस कामों की व्यवस्था करते हैं और सोचते हैं कि उनका काम पूरा हो गया है और वे मानते हैं कि यही कार्य करना है। क्या यह लापरवाह होना नहीं है? क्या यह अपने ऊपरवालों और नीचेवालों दोनों को ही धोखा देना नहीं है? क्या ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल किए जाने योग्य हैं? क्या वे महज बड़े लाल अजगर के अधिकारियों जैसे नहीं हैं? वे सोचते हैं, “एक अगुआ या कार्यकर्ता होना ठीक कोई पद सँभालने जैसा है और व्यक्ति को इस रुतबे के फायदों का आनंद लेना चाहिए। पद सँभालने से मुझे यह विशेषाधिकार मिलता है, मुझे सभी मामलों में मौजूद न रहने की छूट मिलती है। अगर मैं हमेशा मौके पर मौजूद रहूँ, कार्य की खोज-खबर लूँ और स्थिति को समझूँ, तो यह कितना थकाऊ होगा, कितना अपमानजनक होगा! मैं ऐसी थकान स्वीकार नहीं कर सकता!” नकली अगुआ और नकली कार्यकर्ता ठीक इसी तरह कार्य करते हैं, कोई भी वास्तविक कार्य किए बिना सिर्फ आरामतलबी और रुतबे के फायदों का आनंद लेने की फिक्र करते हैं और पूरी तरह से अंतरात्मा या विवेक से रिक्त होते हैं। ऐसे परजीवियों को सचमुच हटा देना चाहिए और अगर उन्हें दंडित भी किया जाए तो वे इसी लायक हैं! कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कई वर्षों तक कलीसियाई कार्य करने के बावजूद सुसमाचार का प्रचार करना नहीं जानते, गवाही देना तो दूर की बात है। अगर तुम उनसे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं को परमेश्वर के कार्य के दर्शनों के बारे में सभी सत्यों पर संगति करने को कहते हो, तो वे इसमें अक्षम होते हैं। उनसे यह पूछने पर कि “क्या तुमने दर्शनों के सत्य से खुद को लैस करने का प्रयास किया है?” नकली अगुआ सोच-विचार करने लगते हैं, “मैं ऐसी कड़ी मेहनत क्यों करूँ? अपना ऊँचा रुतबा देखते हुए वह काम मेरा नहीं है; यह करने के लिए दूसरे बहुत-से लोग हैं।” मुझे बताओ, ये किस प्रकार के प्राणी हैं? वे कई वर्षों से कलीसियाई कार्य करते रहे हैं, फिर भी नहीं जानते कि सुसमाचार का प्रचार कैसे करें। और जब गवाही देने की बात आती है, तो उनका यह काम करने के लिए उन्हें सुसमाचार प्रचारक ढूँढ़ना पड़ता है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता सुसमाचार का प्रचार न कर सकें, गवाही न दे सकें या दर्शनों के बारे में सत्य पर लोगों के साथ संगति न कर सकें, तो वे क्या कर सकते हैं? उनकी जिम्मेदारियाँ क्या हैं? क्या उन्होंने उन्हें निभाया है? क्या वे अपने पास पहले से जो कुछ है उसी पर गुजारा कर रहे हैं? उनके पास आखिर क्या है? उनके पास पहले से जो है उसी पर गुजारा करने का अधिकार उन्हें किसने दिया? कुछ सुसमाचार टीम निरीक्षकों ने कभी भी दूसरों को सुसमाचार का प्रचार करते हुए न तो देखा है और न ही सुना है। वे सुनने की परवाह नहीं करते; उन्हें फर्क नहीं पड़ता, इससे उन्हें काफी तकलीफ होती है और उनमें सब्र नहीं होता। क्या तुम्हें नहीं पता कि वे अगुआ हैं—अधिकारी हैं, कुछ कम नहीं—तो वे ये विशिष्ट कार्य नहीं करते; वे भाई-बहनों से ये काम करवाते हैं। मान लो कि कुछ सुसमाचार कार्यकर्ता संयोग से किसी ऊँची काबिलियत वाले व्यक्ति से मिलते हैं जो तमाम चीजों को ईमानदार नजरिये से देखता है और जो दर्शनों के बारे में कुछ विशिष्ट सत्यों को समझना चाहता है। सुसमाचार कार्यकर्ता पूरी स्पष्टता से संगति नहीं कर सकते, इसलिए वे अपने अगुआ से यह करने को कहते हैं। अगुआ को शब्द नहीं सूझते, वह यह कहकर बहानेबाजी करने लगता है, “मैंने यह कार्य कभी खुद नहीं किया। तुम लोग जाकर करो; मैं तुम लोगों का साथ दूँगा। अगर कोई समस्या खड़ी होगी, तो उन्हें दूर करने में मैं तुम्हारी मदद करूँगा; मैं तुम लोगों का साथ दूँगा। फिक्र मत करो। जब हमारे पास परमेश्वर है तो डरने की क्या जरूरत? जब कोई सच्चे मार्ग को खोजता है तो तुम लोग गवाही दे सकते हो या दर्शनों के सत्यों के बारे में संगति कर सकते हो। मैं सिर्फ जीवन प्रवेश के सत्यों पर संगति करने के लिए जिम्मेदार हूँ। गवाही देने का कार्य तुम लोगों की भारी जिम्मेदारी है, मेरे भरोसे मत रहो।” सुसमाचार का प्रचार करते समय हर बार जब गवाही देने का अहम वक्त आता है, तो वे छिप जाते हैं। वे पूरी तरह से अवगत हैं कि उनमें सत्य की कमी है, तो वे खुद को इससे लैस करने के लिए प्रयास क्यों नहीं करते? यह पूरी तरह जानते हुए कि उनमें सत्य की कमी है, वे हमेशा बेसब्र होकर अगुआ बनने का प्रयास क्यों करते हैं? उनमें कोई प्रतिभा नहीं है, फिर भी वे कोई भी आधिकारिक पद लेने की हिम्मत करते हैं—अगर तुम उन्हें लेने दो तो वे सम्राट की भूमिका भी हाथ में ले सकते हैं—वे बेहद बेशर्म हैं! वे अगुआई के किसी भी स्तर पर हों, वे कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकते, फिर भी वे अंतरात्मा की पीड़ा महसूस किए बिना रुतबे के फायदों का आनंद लेने की हिम्मत करते हैं। क्या वे बेहद बेशर्म लोग नहीं हैं? अगर उन्हें किसी विदेशी भाषा में बोलने को कहा जाता और वे न बोल पाते, तो बात समझी जा सकती थी; लेकिन दर्शनों के सत्यों और परमेश्वर के इरादों पर अपनी देसी भाषा में संगति करना तो उनके लिए संभव होना चाहिए, है ना? जिन लोगों को विश्वास रखते हुए सिर्फ तीन से पाँच वर्ष हुए हैं, अगर वे सत्य पर संगति न कर पाएँ तो उन्हें माफी दी जा सकती है। लेकिन कुछ लोगों को परमेश्वर पर विश्वास रखते हुए लगभग 20 वर्ष हो चुके हैं, फिर भी वे न जाने कैसे दर्शनों के सत्यों के बारे में संगति करने में सक्षम नहीं हैं—क्या ऐसे लोग बेकार व्यक्ति नहीं हैं? क्या वे निकम्मे नहीं हैं? मुझे यह सुनकर आश्चर्य होता है कि किसी ने कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखा है, फिर भी वह नहीं जानता कि दर्शनों के सत्यों के बारे में संगति कैसे करे। यह सुनने के बाद तुम लोगों को क्या महसूस होता है? क्या यह कल्पना से परे नहीं है? ये लोग इतने वर्षों से अपना कार्य कैसे करते रहे हैं? जब उनसे संगीतरचना के लिए मार्गदर्शन देने को कहा जाता है तो वे नहीं जानते कि कैसे मार्गदर्शन दें और वे कहते हैं कि यह विशेषज्ञता वाला क्षेत्र बहुत कठिन है और यह ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसे कोई औसत व्यक्ति समझ सकता है। जब उनसे कलाकृतियों या फिल्म निर्माण के कार्य में मार्गदर्शन देने को कहा जाता है तो वे दावा करते हैं कि इन कामों को संभालने के लिए उच्च स्तर के तकनीकी कौशल की जरूरत होती है। जब उनसे अनुभवजन्य गवाही के आलेख लिखने को कहा जाता है, तो वे कहते हैं कि उनका शिक्षा का स्तर बहुत निचला है और वे नहीं जानते कि इन्हें कैसे लिखना चाहिए और उन्होंने उसमें कभी भी प्रशिक्षण नहीं लिया है। अगर वे इस प्रकार के काम नहीं कर सकते तो यह क्षमायोग्य है, लेकिन सुसमाचार कार्य मूल रूप से उनके कर्तव्य का अंश है। वे इस कार्य से और अधिक अवगत नहीं हो सकते—क्या उनके लिए यह आसान नहीं होना चाहिए? दर्शनों के सत्यों के बारे में संगति करने का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है कार्य के तीन चरणों के सत्यों पर स्पष्ट रूप से संगति करना। शुरू में लोगों के पास यह करने का ज्यादा अनुभव नहीं होता और हो सकता है कि वे अच्छे ढंग से संगति न करें, लेकिन समय के साथ इसमें प्रशिक्षण लेकर वे जितनी ज्यादा संगति करते हैं उतने ही मंज जाते हैं, इतने कि वे एक सधे हुए ढंग से, सटीक और स्पष्ट भाषा में और आकर्षक बोलों के साथ बोलने में सक्षम हो जाते हैं। क्या यह विशेष कार्य का विशिष्ट क्षेत्र नहीं है जिसमें अगुआओं को महारत हासिल करनी चाहिए? यह किसी हाथी को उड़ने के लिए मजबूर करने जैसा नहीं है, है ना? (नहीं, ऐसा नहीं है।) लेकिन ऐसे नकली अगुआ यह थोड़ा-सा कार्य करने में भी सक्षम नहीं होते हैं। और फिर भी वे अगुआओं के तौर पर सेवा करते हैं? अभी भी उस पद पर पर काबिज होकर वे क्या कर रहे हैं? कुछ लोग कहते हैं, “मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जिसकी सोच भ्रमित और अस्पष्ट है, मुझमें तर्क का अभाव है और मैं दर्शनों से संबंधित सत्यों के बारे में बोलने में उतना अच्छा नहीं हूँ।” अगर यह स्थिति है तो क्या तुम सुसमाचार कार्य में होनेवाली विभिन्न खामियों और विचलनों को पहचान कर उनका समाधान कर सकते हो? अगर तुम उन्हें पहचान नहीं सकते तो तुम उनका समाधान भी नहीं कर सकते। जब नकली अगुआ सुसमाचार कार्य के प्रभारी होते हैं तो वे जाँच या निरीक्षण में कोई भूमिका नहीं निभाते; वे अपने अधीनस्थ लोगों को जैसा चाहे वैसा करने देते हैं, ताकि कोई भी अपनी मर्जी का काम कर सके और वे जिसे भी चाहे उसे उपदेश दे सकें—इसमें कोई भी सिद्धांत या मानक लागू नहीं होता। कुछ लोग अपनी मर्जी के मुताबिक काम करते हैं, काम करते समय विवेक और सिद्धांतों का उपयोग नहीं करते और लापरवाही से गलत कर्म करते जाते हैं। नकली अगुआ इन मसलों को पकड़ने या पहचानने में बिल्कुल विफल होते हैं।
कहा जाता है कि दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका में सुसमाचार कार्य के जरिए कुछ गरीब लोगों को अपने मत में शामिल कर लिया गया है। इन लोगों की कोई स्थिर आमदनी नहीं है और उनके सामने पर्याप्त भोजन पाने और जीवित रहने में भी समस्या खड़ी होती है। तो क्या किया जाना चाहिए? एक अगुआ था जिसने कहा, “परमेश्वर का इरादा मानवजाति को बचाने का है और बचाए जाने के लिए व्यक्ति के पास पहले खाने के लिए पर्याप्त होना चाहिए, है ना? तो क्या तब परमेश्वर के घर को राहत मुहैया नहीं करानी चाहिए? अगर वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं तो हम उन्हें परमेश्वर के वचनों की कुछ पुस्तकें बाँट सकते हैं। उनके पास कंप्यूटर या फोन नहीं हैं तो अगर वे कर्तव्य निभाने के बारे में पूछें तो हमें क्या करना चाहिए? थोड़ी पूछताछ करो, समझने की कोशिश करो कि क्या वे ईमानदारी से कर्तव्य निभाने को तैयार हैं।” पूछताछ से पता चला कि ये लोग फिलहाल धनहीन हैं, लेकिन अगर उनके पास पैसा हो और वे भरपेट खाना खा सकें तो वे बाहर जाकर सुसमाचार प्रचार करने और अपना कर्तव्य निभाने को तैयार होंगे। इन परिस्थितियों को समझने के बाद अगुआ राहत निधियाँ बाँटने लगे और हर महीने उन्हें पैसा जारी करने लगे। इन लोगों के लिए खाना और रहना और यहाँ तक कि इंटरनेट फीस, फोन, कंप्यूटरों और दूसरे उपकरणों की खरीदारी की कीमत भी परमेश्वर के घर के पैसे से दी जाने लगी। इन लोगों के बीच पैसे का बँटवारा सुसमाचार कार्य को फैलाने के लक्ष्य से नहीं था, बल्कि उनके जीवित रहने हेतु राहत देने के लिए था। क्या यह सिद्धांतों के अनुरूप था? (नहीं, यह नहीं था।) क्या परमेश्वर के घर में ऐसा कोई नियम है कि सुसमाचार प्रचार करने और आजीविका के साधन रहित गरीब लोगों से मिलने पर अगर वे कार्य के इस चरण को स्वीकार कर सकें तो उन्हें सहायता दी जानी चाहिए? क्या ऐसा कोई सिद्धांत है? (नहीं।) तो फिर इस अगुआ ने किस सिद्धांत के आधार पर उन्हें राहत निधियाँ बाँटीं? क्या इसका कारण यह था कि उन्होंने सोचा कि परमेश्वर के घर के पास पैसा तो है पर खर्च करने का कोई स्थान नहीं है या क्योंकि उन्होंने इन लोगों को अत्यंत दयनीय माना या यह उम्मीद थी कि ये लोग सुसमाचार फैलाने में मदद करेंगे? वास्तव में उनका इरादा क्या था? वे क्या हासिल करना चाह रहे थे? फोन, कंप्यूटर और आजीविका का खर्च बाँटने की बात आने पर वे बहुत अधिक उत्साह दिखा रहे थे; उन्हें ऐसे कार्य में जुटने में आनंद आता था जिससे दूसरों को लाभ पहुँचे, क्योंकि इससे उन्हें इन लोगों को अपनी ओर करने और उनके दिल जीतने का मौका मिलता था, और वे ऐसे कामों में खास तौर पर शामिल होते थे, आगे और आगे बढ़ते जाते थे और उन्हें जरा भी शर्म नहीं आती थी। यह लोगों को अपनी ओर करने और उनका स्नेह खरीदने के लिए परमेश्वर के पैसे का उपयोग करना था। दरअसल ये गरीब व्यक्ति परमेश्वर में सच में विश्वास नहीं रखते थे; वे बस अपने पेट भरने और आजीविका कमाने का तरीका ढूँढ़ने की कोशिश कर रहे थे। ऐसे लोग सत्य या उद्धार प्राप्त करने की बाट नहीं जोह रहे थे। क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को बचाएगा? कुछ लोग भले ही कोई कर्तव्य निभाने को तैयार थे, वे ईमानदार नहीं थे, बल्कि फोन और कंप्यूटरों और जीवन की सुख-सुविधाओं की कामना से प्रेरित थे। लेकिन नकली अगुआ को इसकी परवाह नहीं थी; अगर कोई व्यक्ति कोई कर्तव्य निभाने को तैयार था, तो वह उसकी देखभाल करता था, न सिर्फ उसके घर-बार और खाने के लिए, बल्कि कंप्यूटर, फोन और विभिन्न उपकरण खरीदने के लिए भी पैसे देता था। लेकिन नतीजा यह निकला कि इन लोगों ने अपने कर्तव्य जरूर निभाए, मगर इनमें जरा भी बदलाव नहीं हुआ। क्या नकली अगुआ बस यों ही पैसे नहीं उड़ा रहा था? क्या वह परमेश्वर के घर के पैसे का इस्तेमाल अपनी दरियादिली दिखाने के लिए नहीं कर रहा था? (हाँ।) तो क्या अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यही कार्य करना चाहिए? (नहीं।) क्या यह नकली अगुआ नहीं था? नकली अगुआ अच्छाई, परोपकार और दयालुता का दिखावा पसंद करते हैं। अगर तुम दयालुता दिखाना चाहते हो, तो अच्छी बात है, बस अपने पैसे का उपयोग करो! अगर उनके पास कपड़े नहीं हैं तो अपने कपड़े उतारकर उन्हें दे दो; परमेश्वर की भेंटें मत उड़ाओ! परमेश्वर की भेंटें सुसमाचार फैलाने के लिए हैं, कल्याणकारी लाभ बाँटने के लिए नहीं और गरीबों को मदद देने के लिए तो बिल्कुल भी नहीं है। परमेश्वर का घर कोई कल्याणकारी संस्था नहीं है। नकली अगुआ वास्तविक कार्य करने में अक्षम होते हैं और वे सत्य या जीवन की आपूर्ति करने में तो और भी कम सक्षम हैं। वे सिर्फ कल्याणकारी लाभ बाँटने के लिए परमेश्वर की भेंटों का उपयोग करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, ताकि लोगों को अपनी ओर कर सकें और अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा कायम रख सकें। वे बेशर्म फिजूलखर्च होते हैं, है ना? अगर ऐसे नकली अगुआ मिल जाएँ तो क्या कोई उन्हें समय रहते उजागर कर और रोक सकता है? उन्हें रोकने के लिए कोई भी खड़ा नहीं हुआ। अगर ऊपरवाले ने इस बात का पता लगाकर इसे रोका न होता तो लोगों को लाभ देने के लिए परमेश्वर के पैसे का उपयोग करने की परिपाटी कभी खत्म नहीं होती। वे गरीब लोग अपने हाथ और भी लंबे फैलाते रहते हैं, हमेशा और अधिक चाहते हैं। वे अतृप्त हैं; तुम चाहे कितना भी दे दो, यह कभी काफी नहीं होता। जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, वे बचाए जाने की खातिर अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपने परिवार और करियर पीछे छोड़ने में सक्षम होते हैं, और वे भले ही जीवन में कठिनाइयाँ झेलते हों तो भी परमेश्वर के घर से निरंतर चीजें माँगे बिना खुद इनका समाधान करने के तरीके ढूँढ़ सकते हैं। वे जिन चीजों का समाधान कर सकते हैं उनका समाधान खुद करते हैं और जिनके समाधान में वे असमर्थ होते हैं उनके लिए परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और अनुभव करने के लिए अपनी आस्था पर भरोसा करते हैं। जो लोग हमेशा परमेश्वर से भीख माँगते हैं, यह उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर का घर उनकी आजीविका का खर्च देकर उनका भरण-पोषण करेगा, उनमें विवेक का नितांत अभाव होता है! वे कोई भी कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हैं, फिर भी जीवन का आनंद लेना चाहते हैं, वे सिर्फ परमेश्वर के घर से चीजें माँगने के लिए हाथ फैलाना जानते हैं और फिर भी यह कभी काफी नहीं होता। क्या वे भिखमंगे नहीं हैं? और नकली अगुआ—यह मूर्ख—बस लाभ देता रहा, रुका नहीं, लोगों का आभार पाने के लिए निरंतर उन्हें खुश करता रहा और यह भी सोचता रहा कि ऐसे क्रियाकलापों से परमेश्वर का महिमामंडन होता है। ये वे चीजें हैं जिन्हें करने में नकली अगुआओं को सबसे अधिक मजा आता है। तो क्या ऐसा कोई है जो इन मुद्दों को पहचान सके, जो इन समस्याओं के सार की असलियत जान सके? ज्यादातर अगुआ नजर फेर लेते हैं और सोचते हैं, “कुछ भी हो, मैं सुसमाचार कार्य का प्रभारी नहीं हूँ, मैं इन चीजों की परवाह क्यों करूँ? मेरा पैसा तो खर्च नहीं हो रहा है। अगर मेरी जेब सुरक्षित है, तो सब ठीक है। तुम लोग चाहे जिसे देना चाहो दे सकते हो, इसका मुझसे क्या लेना-देना? ऐसा तो है नहीं कि पैसा मेरी जेब में आ रहा हो।” ऐसे बहुत-से गैर-जिम्मेदार लोग आसपास होते हैं लेकिन कितने लोग परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा कर सकते हैं?
अब विदेशों में सब जगह सुसमाचार कार्य चल रहा है। कुछ देशों में सत्य को स्वीकार सकने वाले लोग अधिक हैं जबकि दूसरे देशों में कम काबिलियत वाली आबादियाँ हैं, जिसके फलस्वरूप सत्य स्वीकार कर सकने वाले लोग कम हैं। कुछ देशों में विश्वास की स्वतंत्रता का अभाव होता है, जो सच्चे मार्ग और परमेश्वर के कार्य के प्रति तीव्र प्रतिरोध दर्शाता है, और वहाँ ज्यादा लोग सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते। इसके अलावा, कुछ देशों की आबादियाँ बेहद पिछड़ी हुई होती है और उनकी काबिलियत इतनी कम होती है कि सत्य पर चाहे जैसे संगति की जाए वे उसे नहीं समझ सकते और ऐसा लगता है कि वहाँ लोगों में सत्य की कमी है। ऐसी जगहों में सुसमाचार प्रचार नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन सुसमाचार प्रचार करने वाले लोग समस्या का सार समझने में विफल होते हैं; वे उन लोगों को उपदेश नहीं देते जो सत्य को स्वीकार सकते हैं, इसके बजाय वे आसान लोगों को नजरअंदाज कर कठिन लोगों को खोजने पर जोर देते हैं। वे उन स्थानों पर प्रचार नहीं करते जहाँ सुसमाचार कार्य पहले से फैलाया जा रहा है और जहाँ प्रचार करना आसान है। इसके बजाय, वे सुसमाचार का प्रचार उन गरीब और पिछड़े स्थानों में करने पर जोर देते हैं, सत्य को न समझ सकने वाले बेहद खराब काबिलियत वाले लोगों के समूहों और सबसे भारी-भरकम धार्मिक धारणाओं वाले और परमेश्वर का तीव्रतम प्रतिरोध करने वाले जातीय समूहों के बीच प्रचार करते हैं। क्या यह एक भटकाव नहीं है? उदाहरण के लिए, यहूदी धर्म और गहरे पैठे कुछ नस्ली धर्मों को ले लो जो ईसाई धर्म को दुश्मन मानते हैं और इसका उत्पीड़न तक करते हैं। इस प्रकार के देशों और जातीय समूहों में सुसमाचार का बिल्कुल प्रचार नहीं किया जाना चाहिए। क्यों नहीं? क्योंकि प्रचार करना बेकार है। भले ही तुम पूरी कार्मिक शक्ति, वित्तीय संसाधन और भौतिक संसाधन इसमें लगा दो, फिर भी हो सकता है कि तीन, पाँच या फिर दस साल गुजर जाएँ और कोई अहम नतीजे देखने को न मिलें। इस स्थिति के मद्देनजर क्या किया जा सकता है? शुरुआत में बेहतर जानकारी न होने के कारण कोई व्यक्ति कोशिश कर सकता है; लेकिन परिस्थितियों को स्पष्ट रूप से देखने के बाद—कि भारी कीमत पर उनके बीच सुसमाचार का प्रचार करने से जरूरी नहीं कि अंत में अच्छे नतीजे निकलें—किसी को फिर कोई दूसरा मार्ग चुनना चाहिए, एक ऐसा मार्ग जो नतीजे हासिल कर सके। क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए? (हाँ।) लेकिन नकली अगुआ इस बात को नहीं समझते। विदेशों में सुसमाचार को कहाँ फैलाना है इस विषय पर, कुछ लोग कहते हैं, “इस्राएल से शुरू करो। चूँकि इस्राएल परमेश्वर के कार्य के प्रथम दो चरणों का अधारस्थल था, इसलिए उसका प्रचार वहाँ जरूर करना चाहिए। चाहे यह कितना भी कठिन हो, हमें उनके बीच प्रचार करने में लगे रहना चाहिए।” लेकिन लंबे समय तक प्रचार करने के बाद भी कोई अहम नतीजे नहीं निकलते, जिससे निराशा होती है। ऐसे समय में अगुआओं को क्या करना चाहिए? अगर यह काबिलियत और दायित्व वाला कोई अगुआ हो तो वह कहेगा, “हमारे सुसमाचार प्रचार में कोई सिद्धांत नहीं है; हम नहीं जानते कि बहाव के साथ कैसे बहना है, बल्कि हम अपनी कल्पनाओं के आधार पर चीजों को देखते हैं—हम इस मामले में बहुत भोले हैं! हमने उम्मीद नहीं की थी कि इन लोगों में ऐसी मूर्खता, अड़ियलपन और बेतुकापन होगा। हमें लगता था कि ये लोग हजारों वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते रहे हैं, इसलिए परमेश्वर का सुसमाचार सुनने वाले सर्वप्रथम लोग ये ही होने चाहिए, मगर हमने गलत सोचा था; वे बेहद बेतुके हैं! दरअसल, जब परमेश्वर छुटकारे का कार्य कर रहा था तो वह उन लोगों को पहले ही छोड़ चुका था। हम लोगों के लिए अब वापस जाकर उनके बीच प्रचार करना व्यर्थ का प्रयास करना होगा; यह व्यर्थ ही श्रम करना और मूर्खतापूर्ण ढंग से कार्य करना होगा। हमने परमेश्वर के इरादों को गलत समझ लिया है। परमेश्वर इस मामले पर कार्य नहीं करता तो हम इंसान कौन-से उपायों से यह कर सकते हैं? हमने एक कोशिश कर ली है, लेकिन हम चाहे जैसे प्रचार करें, वे सच्चे मार्ग को स्वीकार नहीं करते। हमें अभी के लिए हार मान लेनी चाहिए, उन्हें एक तरफ छोड़ देना चाहिए और फिलहाल उन पर कोई ध्यान नहीं देना चाहिए। अगर ऐसे लोग हैं जो खोजने को तैयार हैं तो हम उनका स्वागत करेंगे और उनके लिए परमेश्वर के कार्य की गवाही देंगे। अगर खोजने वाला कोई भी नहीं है तो हमारे लिए ऐसे लोगों को सक्रिय होकर खोजना जरूरी नहीं है।” क्या यह सुसमाचार का प्रचार करने का सिद्धांत नहीं है? (हाँ।) तो क्या कोई नकली अगुआ सिद्धांतों का पालन कर सकता है? (नहीं।) नकली अगुआओं में काबिलियत कम होती है और वे समस्या के सार को अच्छी तरह नहीं समझ सकते; वे कहेंगे, “परमेश्वर ने कहा है कि इस्राएली उसके चुने हुए लोग हैं। हम उन पर कभी प्रयास करना नहीं छोड़ सकते। उन्हें सबसे पहले रखना चाहिए; इससे पहले कि हम अन्य देशों के लोगों के बीच प्रचार करें, सबसे पहले हमें उनके बीच प्रचार करना चाहिए। अगर परमेश्वर के कार्य को इस्राएल में फैलाया जाए तो यह कितनी महिमा की बात होगी! परमेश्वर इस्राएल से महिमा लेकर पूर्व में आया और हमें पूर्व से वापस इस्राएल में उस महिमा को लाना चाहिए और उन्हें देखने देना चाहिए कि परमेश्वर लौट आया है!” क्या यह महज एक नारा नहीं है? क्या यह तथ्यों से मेल खाता है? जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं है वे यही कहेंगे। जरा-सा भी वास्तविक कार्य न करने वाले उन नकली अगुआओं का क्या? वे इन चीजों पर ध्यान नहीं देते। सुसमाचार प्रचार करने वाले लोग लंबे समय से इस समस्या से परेशान रहे हैं, छोड़ देने और प्रचार करते रहने की दुविधा में फँसे हुए, इस बारे में अनिश्चित कि अभ्यास कैसे करना है। नकली अगुआ पूरी तरह अनजान होते हैं कि यह एक समस्या है। इन लोगों के पास मार्ग न होने पर परेशान होते हुए देखकर वे कहते हैं, “चिंता करने की क्या बात है? हमारे पास सत्य और अनुभवजन्य गवाही है; बस उन्हें उपदेश दे दो!” कोई कहता है, “तुम नहीं समझते, इन लोगों को उपदेश देना वास्तव में कठिन है।” कार्य में जब महत्वपूर्ण मसले उत्पन्न होते हैं, जिनके समाधान की अगुआओं से अपेक्षा की जाती है, तब भी अगुआ नारे लगाते रहते हैं और खोखले शब्द बोलते रहते हैं। क्या अगुआओं से इसी व्यवहार की उम्मीद की जाती है? यह पूछने पर कि क्या ऐसे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के बीच प्रचार किया जाना चाहिए, वे कहते हैं, “सबके बीच प्रचार किया जाना चाहिए, खास तौर पर इस्राएलियों के बीच निश्चित रूप से प्रचार किया जाना चाहिए।” क्या तुम लोगों को इन शब्दों में कोई समस्या सुनाई देती है? क्या वे जानते हैं कि यह एक भटकाव है, सुसमाचार कार्य की एक खामी है जिससे उन्हें निपटना चाहिए? ये निकम्मे लोग नहीं जानते और अभी भी ऊँची-ऊँची आडंबरी भाषा में चीखते-चिल्लाते और नारे लगाते हैं, वे सच में फालतू कचरा हैं! और फिर भी वे सोचते हैं कि वे दक्ष हैं, उनमें काबिलियत है और वे चालाक हैं। वे यह भी नहीं जानते कि कार्य में ऐसी बड़ी खामी और भटकाव आ चुका है; क्या वे इसका समाधान करना शुरू कर भी सकते हैं? इसकी संभावना और भी कम है। जो लोग सुसमाचार का प्रचार करते हैं, वे सभी बहुत चिंतित हैं; सुसमाचार कार्य प्रभावित हुआ है, उसमें रुकावट आई है और वह सुचारु रूप से आगे नहीं बढ़ सकता, और नकली अगुआओं को कार्य में होने वाले भटकाव के बारे में जरा भी भनक नहीं है। कार्य में समस्याओं या भटकावों का सामना होने पर ज्यादातर लोग अक्सर परवाह नहीं करते, उन पर उनका ध्यान नहीं जाता और वे अभी भी जबरदस्त लापरवाही से अड़ियलपन के साथ गलत दृष्टिकोण अपनाए रहते हैं। अगर अगुआ और कार्यकर्ता भी तुरंत स्थिति को समझकर उसे नहीं पकड़ पाते, तो जब तक समस्या गंभीर होकर कार्य को प्रभावित कर दे और ज्यादातर लोग उस समस्या का पता लगा सकें, तब तक अगुआ और कार्यकर्ता हक्का-बक्का हो जाते हैं। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा कर्तव्य की उपेक्षा के कारण होता है। तो वे ऐसे गंभीर परिणामों से कैसे बच सकते हैं? अगुआओं और कार्यकर्ताओं को नियमित रूप से कार्य की जाँच करनी चाहिए और कार्य की मौजूदा स्थिति और प्रगति को तुरंत समझना चाहिए। अगर यह पता चले कि कार्य दक्षता ऊँची नहीं है, तो उन्हें देखना चाहिए कि किस भाग में खामियाँ और समस्याएँ हैं और सोच-विचार करना चाहिए : “अभी ये लोग व्यस्त दिखाई देते हैं, लेकिन कोई स्पष्ट दक्षता क्यों नहीं है? जैसे कि सुसमाचार टीम का कार्य; इतने सारे लोग हर दिन इस कार्य में सहयोग करने वालों के साथ मिलकर सुसमाचार प्रचार करते हैं और गवाही देते हैं, तो हर महीने बहुत-से लोग प्राप्त क्यों नहीं किये जाते हैं? किस भाग में समस्या है? समस्या कौन खड़ी कर रहा है? यह भटकाव कैसे आया? यह कब शुरू हुआ? यह पता लगाने के लिए कि अभी सब लोग क्या कर रहे हैं, मौजूदा संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता कैसे हैं और क्या सुसमाचार का प्रचार करने की दिशा सटीक है, मुझे प्रत्येक समूह के पास जाना होगा; मुझे इन सबका पता लगाना होगा।” परामर्श, संगति और विचार-विमर्श के जरिए कार्य के भटकाव और खामियाँ धीरे-धीरे स्पष्ट हो जाती हैं। समस्या का पता चल जाने पर उसे वैसे ही नहीं छोड़ा जा सकता; इसका समाधान होना चाहिए। तो किस प्रकार के अगुआ कार्य में दिखाई पड़ने वाली समस्याओं, भटकावों और खामियों का पता लगा सकते हैं? इन अगुआओं को उत्तरदायित्व वहन करना चाहिए, मेहनती होना चाहिए और विशिष्ट कार्य की हर बारीकी से जुड़ा होना चाहिए; हर अंश की खोज-खबर लेनी चाहिए, उसे समझना और उसकी पकड़ हासिल करनी चाहिए; पता लगाना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति क्या कर रहा है, किस काम के लिए कितनी संख्या में लोग उपयुक्त हैं, निरीक्षक कौन हैं, इन लोगों की काबिलियत क्या है, वे अपना कार्य अच्छे ढंग से कर रहे हैं या नहीं, उनकी दक्षता कैसी है, कार्य की प्रगति कैसी है, इत्यादि-इत्यादि—इन सभी चीजों का पता लगाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, सुसमाचार कार्य का सबसे अहम हिस्सा यह है कि क्या सुसमाचार प्रचारकों के पास सत्य है, क्या वे लोगों की धारणाओं और समस्याओं का समाधान करने के लिए दर्शनों के सत्यों पर स्पष्ट रूप से संगति कर सकते हैं, क्या वे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं में जिस चीज का अभाव है उसकी आपूर्ति कर सकते हैं जिससे कि वे उन्हें अच्छी तरह से आश्वस्त कर सकें, और क्या वे सत्य पर अपनी संगति में एक बोलचाल का तरीका अपना सकते हैं, जिससे कि संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता परमेश्वर की वाणी और अधिक सुन सकें। उदाहरण के लिए, अगर कोई संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता परमेश्वर के देहधारण की महत्ता से संबंधित सत्यों को जानना चाहता है, लेकिन अगर कोई सुसमाचार प्रचारक हमेशा परमेश्वर के कार्य की महत्ता और धर्मसंबंधी धारणाओं के बारे में बात करता है, तो क्या यह एक समस्या नहीं है? अगर कोई व्यक्ति सिर्फ यह जानना चाहता है कि वह कैसे बचाया जा सकता है और मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन योजना की विषयवस्तु क्या है, तो क्या यह परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों से संबंधित दर्शन सत्यों के बारे में संगति करने का समय नहीं है? (हाँ।) लेकिन यह सुसमाचार प्रचारक परमेश्वर की ताड़ना और न्याय और उसके प्रकाशन के बारे में ही यह बात करता रहता है कि लोगों के भ्रष्ट स्वभावों में अहंकार, कपट और दुष्टता और ऐसे ही दूसरे विषय शामिल होते हैं। दूसरा पक्ष परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करे उससे पहले ही सुसमाचार प्रचारक उसके साथ ताड़ना और न्याय और उसके भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करने के बारे में बातें करने लगता है। नतीजतन, वह व्यक्ति विकर्षित हो जाता है, उसे चाही हुई चीज नहीं मिलती और उसकी जिन समस्याओं का समाधान होना चाहिए वे अनसुलझी ही रहती हैं; वह दिलचस्पी खो देता है और खोजबीन करते रहने को तैयार नहीं होता। क्या यह सुसमाचार प्रचारक के साथ एक समस्या नहीं है? सुसमाचार प्रचारक सत्य को नहीं समझता या उसमें आध्यात्मिक समझ की कमी होती है और इसलिए वह इस बात से पूरी तरह से अनभिज्ञ होता है कि दूसरे व्यक्ति की जरूरत क्या है, जिससे वह बोलते समय मुद्दे की बात नहीं कर पाता, लंबी-लंबी बातें बड़बड़ाता रहता है और संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता की समस्याओं का बिल्कुल भी समाधान नहीं करता—इस प्रकार से सुसमाचार का प्रचार करके वे संभवतः लोगों को कैसे प्राप्त कर सकते हैं?
नकली अगुआ अपने कार्य में जिन भी मसलों का सामना करते हैं उनकी अनदेखी करते हैं। सुसमाचार कार्य में चाहे जो भी समस्याएँ खड़ी होती हों, बुरे लोग चाहे जैसे भी इस कार्य को बाधित कर उसे प्रभावित करते हों, वे किसी भी बात पर ध्यान नहीं देते, मानो इसका उनके साथ कोई लेना-देना न हो। नकली अगुआ अपने कार्य में भ्रमित रहते हैं; चाहे किसी व्यक्ति के कर्तव्य में कोई नतीजे निकलें या न निकलें या वह सिद्धांतों का पालन करे या न करे, वे निरीक्षण या जाँच नहीं करते और नतीजे चाहे जो भी हों, लोगों को खुला छोड़कर कार्य करने देते हैं। इससे सुसमाचार कार्य में दिखाई देने वाले भटकावों और खामियों का कभी समाधान नहीं हो पाता, और सच्चे मार्ग को खोजने वाले अनगिनत लोग आखिरकार हाथ से फिसलकर निकल जाते हैं और उन्हें यथाशीघ्र परमेश्वर के सामने नहीं लाया जा सकता है। परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के बाद कुछ लोग कहते हैं, “वास्तव में, किसी ने तीन वर्ष पहले मुझे सुसमाचार का उपदेश दिया था। ऐसा नहीं है कि मैं उसे स्वीकार नहीं करना चाहता था या मैं नकारात्मक प्रचार में यकीन करता था; जिस व्यक्ति ने मुझे उपदेश दिया वही वास्तव में बेहद गैर-जिम्मेदार था। वह मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पा रहा था और जब मैंने सत्य जानना चाहा तो वह उस बारे में संगति करने में अस्पष्ट था, सिर्फ कुछ बेकार के शब्द बोल रहा था। परिणामस्वरूप, मुझे निराश होकर वहाँ से जाना पड़ गया।” तीन वर्ष बाद ऑनलाइन खोजबीन करने के बाद और फिर भाई-बहनों के साथ खोजने और संगति करने से इन लोगों ने बारी-बारी से अपने दिलों की सभी धारणाओं और भ्रांतियों को दूर किया, और इस बात की पूरी तरह से पुष्टि की कि यह परमेश्वर का प्रकट होना और कार्य करना है और फिर उसे स्वीकार किया। यह उनका अपनी खुद की खोज और खोजबीन के जरिए परमेश्वर के कार्य को स्वीकारना है। अगर सुसमाचार प्रचार करने वाले व्यक्ति ने तीन वर्ष पहले स्पष्ट रूप से सत्य पर संगति करके उनकी धारणाओं और प्रश्नों का समाधान किया होता, तो उन्होंने तीन साल पहले ही इसे स्वीकार लिया होता। इन तीन वर्षों में जीवन का विकास कितना पिछड़ गया है! इसे सुसमाचार प्रचार करने वालों की अपने कर्तव्य की उपेक्षा माना जाना चाहिए और यह सीधे तौर पर उनके सत्य को न समझने से जुड़ा हुआ है। कुछ सुसमाचार कार्यकर्ता स्वयं को सत्य से लैस करने पर ध्यान केंद्रित ही नहीं करते, वे लोगों की धारणाओं या वास्तविक मसलों का समाधान करने में सक्षम हुए बिना सिर्फ कुछ धर्म-सिद्धांत बघार पाते हैं। नतीजतन, बहुत-से लोग सुसमाचार सुनते समय ही इसे समय रहते स्वीकार नहीं करते और अपने जीवन विकास को कई वर्ष पीछे धकेल देते हैं। यह जरूर कहा जाना चाहिए कि सुसमाचार कार्य के प्रभारी अगुआ अपने अपर्याप्त मार्गदर्शन और अपर्याप्त निगरानी के चलते इसके लिए उत्तरदायी होते हैं। अगर अगुआ और कार्यकर्ता सच में दायित्व उठाएँ, और थोड़ा और अधिक कष्ट सह पाएँ, सत्य की संगति करने का थोड़ा अधिक अभ्यास करें और थोड़ी ज्यादा वफादारी दिखाएँ, सत्य के सभी पहलुओं पर स्पष्ट रूप से संगति करें जिससे वे सुसमाचार कार्यकर्ता लोगों की धारणाओं और शंकाओं के समाधान के लिए सत्य पर संगति करने में सक्षम हो सकें, तो सुसमाचार प्रचार करने के परिणाम अधिकाधिक बेहतर होते जाएँगे। इससे सच्चे मार्ग की खोजबीन करने वाले और भी ज्यादा लोगों को परमेश्वर के कार्य को पहले ही स्वीकार करने और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के सामने जल्दी लौट आने का अवसर मिलेगा। कलीसिया का कार्य सिर्फ इसलिए रुक जाता है क्योंकि नकली अगुआ गंभीर रूप से अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा करते हैं, वास्तविक कार्य नहीं करते या कार्य की खोज-खबर नहीं लेते और उसकी निगरानी नहीं करते और समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति करने में असमर्थ होते हैं। बेशक, इसका यह कारण भी है कि नकली अगुआ रुतबे के लाभों में लिप्त होते हैं, सत्य का लेशमात्र भी अनुसरण नहीं करते और सुसमाचार फैलाने के कार्य की खोज-खबर लेने, निरीक्षण या निर्देशन करने को तैयार नहीं होते—लिहाजा कार्य धीमी गति से आगे बढ़ता है और बहुत-से मानव-जनित भटकाव, बेतुकेपन और लापरवाह गलत काम मुस्तैदी से सुधारे या सुलझाए नहीं जाते, जिससे सुसमाचार फैलाने की प्रभावशीलता पर गंभीर असर पड़ता है। जब ऊपरवाले को इन समस्याओं का पता चलता है और अगुआओं और कार्यकर्ताओं को बताया जाता है कि उन्हें इनको ठीक करना चाहिए, तभी ये समस्याएँ सुधारी जाती हैं। अंधे लोगों की तरह ये नकली अगुआ किसी भी समस्या का पता नहीं लगा पाते, उनके काम करने के तरीके में कोई भी सिद्धांत नहीं होता, तो भी वे अपनी ही गलतियों का एहसास करने में अक्षम होते हैं और ऊपरवाले द्वारा काट-छाँट किए जाने के बाद ही वे अपनी त्रुटियाँ स्वीकार करते हैं। तो इन नकली अगुआओं द्वारा पहुँचाई गई हानि की जिम्मेदारी भला कौन उठा सकता है? उन्हें उनके पदों से हटाने के बावजूद वे जो हानि पहुँचा चुके हैं उसकी भरपाई कैसे की जा सकती है? इस प्रकार जब यह पता चले कि कोई भी वास्तविक कार्य करने में अक्षम नकली अगुआ मौजूद हैं, तो उन्हें तुरंत बरखास्त कर देना चाहिए। कुछ कलीसियाओं में सुसमाचार कार्य खासी धीमी गति से आगे बढ़ता है और यह केवल नकली अगुआओं के वास्तविक कार्य न करने और साथ ही उनकी ओर से उपेक्षा और गलतियाँ करने के अनेक उदाहरणों के कारण होता है।
नकली अगुआओं द्वारा किए जानेवाले कार्य की विभिन्न मदों में दरअसल ऐसे अनगिनत मसले, भटकाव और खामियाँ होती हैं जिनका उन्हें समाधान करने, दुरुस्त करने और उपचार करने की जरूरत है। लेकिन ये नकली अगुआ दायित्व की भावना न होने, बिना कोई वास्तविक कार्य किए सिर्फ रुतबे के लाभों में लिप्त रहने के कारण कार्य को अस्त-व्यस्त कर देते हैं। कुछ कलीसियाओं में लोग एक-मन नहीं होते, सभी लोग दूसरों पर शक करते हैं, एक-दूसरे से सतर्क रहते हैं, एक-दूसरे को नीचे गिराते हैं और पूरा समय परमेश्वर के घर द्वारा हटा दिए जाने से डरते रहते हैं। इन स्थितियों का सामना होने पर नकली अगुआ उनका समाधान करने के लिए कदम नहीं उठाते और कोई भी वास्तविक, विशिष्ट कार्य करने में विफल होते हैं। कलीसियाई कार्य ठप हो जाता है, फिर भी नकली अगुआ इससे जरा भी परेशान नहीं होते, अभी भी मानते हैं कि उन्होंने स्वयं काफी कार्य किया है और उन्होंने कलीसियाई कार्य में देर नहीं की है। ऐसे नकली अगुआ बुनियादी रूप से जीवन आपूर्ति का कार्य करने में अक्षम होते हैं, न वे सत्य के अनुसार वास्तविक समस्याओं को सुलझा सकते हैं। वे बस थोड़ा-सा सामान्य मामलों का कार्य करते हैं जो ऊपरवाला उन्हें विशेष रूप से सौंपता और बताता है, मानो कि उनका कार्य सिर्फ ऊपरवाले के लिए होता हो। कलीसिया के बुनियादी कार्य की बात आने पर जिसकी ऊपरवाले ने हमेशा अपेक्षा की है—जैसे कि जीवन आपूर्ति करने और लोगों को विकसित करने का कार्य—या ऊपरवाले द्वारा निर्देशित कुछ विशिष्ट काम, वे नहीं जानते कि इसे कैसे करें और वे इसे नहीं कर सकते। वे ये काम सिर्फ दूसरों को सौंप देते हैं और फिर मान लेते हैं कि उनका काम पूरा हो चुका है। वे ठीक उतना ही करते हैं जितना निर्देश ऊपरवाला उन्हें देता है और तभी थोड़े क्रियाकलाप करते हैं जब उन्हें कोंचा जाता है; वरना वे निष्क्रिय और अनमने होते हैं—यह नकली अगुआ है। नकली अगुआ क्या होता है? संक्षेप में कहें, तो यह वह व्यक्ति है जो कोई वास्तविक कार्य नहीं करता, जो एक अगुआ के रूप में अपना काम नहीं करता, अहम और बुनियादी कार्य में कर्तव्य की घोर उपेक्षा दिखाता है और कोई कार्रवाई नहीं करता—यही एक नकली अगुआ होता है। नकली अगुआ खुद को सिर्फ सतही सामान्य मामलों में व्यस्त रखते हैं, इसी को वास्तविक कार्य मानने की गलती करते हैं और वास्तव में, जब एक अगुआ के तौर पर उनके काम और परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें सौंपे गए अहम कार्य की बात आती है तो वे इनमें से कुछ भी अच्छे ढंग से नहीं करते। इसके अतिरिक्त कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदों में अक्सर ऐसे मसले उत्पन्न होते हैं, जिनके लिए अगुआ द्वारा समाधान की जरूरत होती है, फिर भी वे उन्हें सुलझा नहीं सकते, अक्सर टालमटोल वाला रवैया अपनाते हैं और भाई-बहन जब कोई मसला हल करना चाहते हैं तो वे उन्हें नहीं मिलते। अगर उन्हें अगुआ किसी तरह मिल भी जाता है, तो भी वह बहुत व्यस्त होने का बहाना करके उनसे किनारा कर लेता है और पल्ला झाड़ लेने का दृष्टिकोण अपनाकर भाई-बहनों से स्वयं ही परमेश्वर के वचन पढ़ने और स्वतंत्र रूप से अपनी समस्याएँ हल करने को कहता है। इससे अंततः बहुत सारे अनसुलझे मसलों की बकाया सूची बन जाती है, कार्य की सभी मदों की प्रगति थम जाती है और कलीसियाई कार्य ठप पड़ जाता है। यह नकली अगुआओं के वास्तविक कार्य न करने का परिणाम है। नकली अगुआ अपनी मुख्य जिम्मेदारियों को लेकर कभी भी ईमानदार या मेहनती नहीं होते, न ही वे विभिन्न मसले सुलझाने के लिए सत्य खोजते हैं। इसका अर्थ है कि नकली अगुआओं का वास्तविक कार्य करने और कोई भी मसला सुलझाने में अक्षम होना लाजिमी है। नकली अगुआ जिस चीज में अग्रणी होते हैं वह है शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करना, नारे लगाना, दूसरों को प्रोत्साहित करना और स्वयं को केवल सामान्य मामलों के कार्य में व्यस्त रखना। जहाँ तक परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें सौंपे गए बुनियादी कार्यों का संबंध है, जैसे कि जीवन आपूर्ति करना और समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति करना, तो वे नहीं जानते कि इन्हें कैसे करना है, इसका तरीका सीखने के लिए प्रशिक्षण नहीं लेते और किसी भी वास्तविक समस्या को सुलझा नहीं सकते—यह एक नकली अगुआ है।
कुछ नकली अगुआओं से जब यह कहा जाता है कि वे पटकथा लिखने, अनुभवजन्य गवाहियों के लेख लिखने जैसे पाठ-आधारित कार्य और दूसरे विशिष्ट कामों के लिए मार्गदर्शन दें तो वे सोचते हैं कि चूँकि यह महज मार्गदर्शन है, इसलिए उन्हें कोई ठोस काम नहीं करना पड़ेगा, इसलिए वे बस घूमते-फिरते रहते हैं। वे कहते हैं, “झांग, तुम्हारा लेख कैसा तैयार हो रहा है?” “लगभग पूरा हो चुका है।” “ली, क्या वह आलेख लिखने में तुम्हें कोई कठिनाई हो रही है?” “हाँ, क्या तुम उनका समाधान करने में मेरी मदद कर सकते हो?” “तुम सभी लोग आपस में चर्चा कर लो। थोड़ी और प्रार्थना करो।” ये नकली अगुआ भाई-बहनों को मार्गदर्शन देने और उनकी सहायता करने में न सिर्फ विफल होते हैं, बल्कि वे अपना काम भी अच्छे से करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, हमेशा घूमते-फिरते रहते हैं और एक फुरसत वाला आरामदेह जीवन जीते हैं। सतह पर ऐसा दिखाई देता है कि वे कार्य का निरीक्षण कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में वे कोई भी समस्या नहीं सुलझाते—वे वास्तव में कलम घसीट होते हैं! गैर-विश्वासियों की दुनिया के कुछ देशों के सक्षम अधिकारी भी समान रूप से भ्रष्ट इंसान होते हैं, लेकिन वे भी इन नकली अगुआओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ होते हैं, इनमें तो इन अधिकारियों वाली जिम्मेदारी की भावना का भी अभाव होता है। उदाहरण के लिए, महामारी फैलने के बाद दुनिया भर के देशों ने रोकथाम के उपाय लागू करना शुरू कर दिया। अंततः इनमें से अधिकतर देश सहमत हो गए कि ताइवान के रोकथाम के प्रयास प्रभावी थे, जो यह संकेत देता है कि ताईवानी सरकारी अधिकारियों ने उच्चतम मानकों के स्तर और अत्यधिक विस्तृत ढंग से महामारी के विरुद्ध प्रतिक्रिया की। लौकिक दुनिया के किसी देश के लिए, भ्रष्ट मानवजाति में अधिकारियों और राजनीतिज्ञों के लिए, उच्चतम मानक के स्तर पर और ऐसे विस्तृत ढंग से किसी काम को अंजाम देना सचमुच सराहनीय है। अनेक यूरोपीय अधिकारी ताइवान जाकर सीखने को तैयार थे; इस परिप्रेक्ष्य से ताइवान के सरकारी अधिकारी दूसरे राष्ट्रों के अधिकारियों के मुकाबले कहीं अधिक श्रेष्ठ थे। सिर्फ इस कारण से कि उनके ज्यादातर अधिकारी ठोस कार्य करने में सक्षम थे और लगन से अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते थे, यह साबित होता है कि ये अधिकारी मानक स्तर के थे। कलीसिया के कुछ अगुआ और कार्यकर्ता अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा लापरवाह रहते हैं और उनकी काट-छाँट चाहे जैसे भी की जाए, इसका असर नहीं पड़ता। मैं पाता हूँ कि इन अगुआओं और कार्यकर्ताओं का चरित्र वास्तविक कार्य कर सकने वाले गैर-विश्वासियों की दुनिया के अधिकारियों की बराबरी भी नहीं कर सकता है। इनमें से ज्यादातर परमेश्वर में विश्वास रखने और सत्य का अनुसरण करने का दावा करते हैं, लेकिन असलियत में वे कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते। उन्हें इतने अधिक सत्य की आपूर्ति की जाती है, फिर भी अपना कर्तव्य निभाने को लेकर उनका रवैया ऐसा है। नतीजा यह होता है कि वे सबके-सब नकली अगुआ और कार्यकर्ता बन जाते हैं जो सरकारी अधिकारियों की तुलना में बहुत पीछे रह जाते हैं! लोगों से मेरी माँगें वास्तव में ज्यादा ऊँची नहीं हैं; मैं यह माँग नहीं करता कि लोग बहुत सारे सत्यों को समझें या उनकी काबिलियत बहुत ऊँची हो। न्यूनतम मानक है अंतरात्मा के साथ कार्य करना और अपनी जिम्मेदारी निभाना। अगर और कुछ न कर पाओ तो कम-से-कम तुम्हें अपनी रोजाना रोटी के लायक और परमेश्वर के सौंपे हुए आदेश पर खरा उतरना चाहिए; यही पर्याप्त है। लेकिन परमेश्वर का कार्य अब तक चल रहा है तो क्या बहुत-से लोग अंतरात्मा के साथ कार्य कर सकते हैं? मैं देखता हूँ कि लोकतांत्रिक देशों के कुछ अधिकारी ईमानदारी से बोलते और कार्य करते हैं। वे अतिशयोक्तियाँ नहीं करते या ऊँचे सिद्धांत नहीं बघारते, उनकी बातों में खास तौर पर मेहनत और सच्चाई दिखाई देती है और वे अनेक वास्तविक मामले सँभालने की योग्यता रखते हैं। उनका कार्य सच में बहुत अच्छा है, यह वास्तव में उनकी सत्यनिष्ठा और मानवता को परिलक्षित करता है। अब कलीसिया के अधिकतर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को देखें, तो अपने कार्य में वे खानापूर्ति करते हैं और अनमने होते हैं, उन्होंने कोई बहुत अच्छे नतीजे हासिल नहीं किए हैं और उन्होंने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी तरह से नहीं निभायी हैं। अगुआ बनने के बाद वे धर्माधिकारियों में तब्दील हो जाते हैं, वे अपने अहंकार के ऊँचे आसनों पर बैठ कर आदेश देते हैं और कलम घसीट बन जाते हैं। वे सिर्फ अपने रुतबे के फायदों में लिप्त रहने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और यह पसंद करते हैं कि सभी लोग उनका अनुसरण करें और उनके चक्कर लगाते रहें। वे वास्तविक समस्याओं को सुलझाने के लिए शायद ही कभी कलीसिया के जनसाधारण के साथ गहराई से जुड़ते हैं। अपने दिलों में वे परमेश्वर से दूर और दूर होते जा रहे हैं। इस प्रकार के नकली अगुआ और नकली कार्यकर्ता सुधार के बिल्कुल भी योग्य नहीं होते हैं! मैंने अत्यंत कष्ट के साथ सत्य पर संगति की है, फिर भी ये अगुआ और कार्यकर्ता इसे आत्मसात नहीं करते, वे अड़ियलपन के साथ अपने गलत विचारों से चिपके रहते हैं और टस से मस नहीं होते। अपने कर्तव्यों के प्रति उनका रवैया हमेशा लापरवाही का होता है और उनके मन में प्रायश्चित्त करने का लेशमात्र भी इरादा नहीं होता। मैं देखता हूँ कि इन लोगों में अंतरात्मा नहीं है, विवेक नहीं है, वे बिल्कुल भी इंसान नहीं हैं! फिर मैं सोच-विचार करता हूँ : क्या ऐसे लोगों के लिए इन सत्यों पर बारम्बार संगति करना अभी भी जरूरी है? क्या मुझे संगति को इतना अधिक विशिष्ट बनाने की जरूरत है? क्या मुझे यह कष्ट सहने की जरूरत है? क्या ये वचन फालतू हैं? थोड़े सोच-विचार के बाद मैं फैसला लेता हूँ कि मुझे अब भी अवश्य बोलना चाहिए, क्योंकि लेशमात्र भी अंतरात्मा या विवेक से रिक्त लोगों पर भले ही इन वचनों का कोई प्रभाव नहीं होता, ये उन लोगों के लिए उपयोगी हैं जो थोड़ी कम काबिलियत वाले होने के बावजूद सत्य को स्वीकार कर सकते हैं और अपने कर्तव्य ईमानदारी से निभा सकते हैं। नकली अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करते और अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाते, लेकिन जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे सबक सीखेंगे, प्रेरित होंगे और इस वचनों और कार्यों से अभ्यास करने का मार्ग तलाश लेंगे। जीवन प्रवेश इतना आसान नहीं है; सहारा और आपूर्ति देनेवाला कोई न हो, सत्य के प्रत्येक पहलू का बारीकी से विश्लेषण और स्पष्टीकरण न किया जाए, तो लोग बहुत कमजोर होते हैं, अक्सर खुद को असहायता और हैरानी, नकारात्मकता और निष्क्रियता की स्थिति में पाते हैं। इसलिए कई बार जब मैं इन नकली अगुआओं को देखता हूँ, मैं उनके साथ संगति करने का उत्साह नहीं जुटा पाता। लेकिन जब मैं परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास रखने वाले और वफादारी से अपने कर्तव्य निभाने वाले लोगों द्वारा सहे हुए कष्टों और चुकाई गई कीमत के बारे में सोचता हूँ तो मैं अपना मन बदल लेता हूँ। इसके अलावा और कोई दूसरा कारण नहीं है : भले ही 30-50 लोग—या कम-से-कम 8-10 लोग—ईमानदारी से खुद को खपा सकें और अपने कर्तव्य निभाने में वफादार रह सकें और सुनने और समर्पण करने को तैयार हो सकें, तो ये वचन सुनाना सार्थक है। जिन लोगों में अंतरात्मा और विवेक नहीं है, उनके साथ बात करने और संगति करने की मुझमें कोई अभिप्रेरणा नहीं होगी; इन लोगों के साथ बातचीत करना थकाऊ और निष्फल होता है। तुममें से ज्यादातर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हो और अपने कर्तव्यों में कीमत नहीं चुकाते हो—तुममें कोई दायित्व या वफादारी नहीं है, अपने क्रियाकलापों में तुम सिर्फ खानापूर्ति करते हो और आशीष प्राप्त करने की आशा में अनिच्छा से कार्य करते हो। ये वचन सुनना तुम लोगों के लिए वास्तव में एक नाहक कृपा है। तुम सब उन लोगों की पीठ पर सवार होकर आगे बढ़ रहे हो जो ईमानदारी से अपने कर्तव्य निभाते हैं, जो सच में कीमत चुकाते हैं, जिनमें वफादारी और दायित्व है और जो सत्य का अभ्यास करने को तैयार हैं। ये वचन उन लोगों के लिए हैं और तुम लोग इन्हें सुनकर नाहक ही कृपा प्राप्त कर रहे हो। इस परिप्रेक्ष्य से देखने पर—कि तुम लोगों में से ज्यादातर के पास अपने कर्तव्यों में जरा-सी भी ईमानदारी के बिना खानापूर्ति करने का रवैया है—तो तुम लोग ये वचन सुनने के लायक नहीं हो। तुम लायक क्यों नहीं हो? क्योंकि भले ही तुम लोग सुन लो, यह सब निरर्थक होगा; चाहे जितना भी ज्यादा या विस्तार से कहा जाए, तुम लोग सिर्फ आधे-अधूरे मन से सुनते हो, इन वचनों को सुनने के बाद तुम चाहे जितना भी समझ लो इनका अभ्यास नहीं करते हो। ये वचन किन लोगों से बोलने चाहिए? कौन इनको सुनने योग्य है? सिर्फ वे जो कीमत चुकाने को तैयार हों, जो ईमानदारी से खुद को खपा सकें और जो अपने कर्तव्यों और दिए हुए आदेश के प्रति वफादार हों, वे ही इन्हें सुनने लायक हैं। मैं क्यों कहता हूँ कि वे सुनने के लायक हैं? क्योंकि जब वे सुनने के बाद थोड़ा-सा सत्य समझ लेते हैं, तो वे उसे अभ्यास में ला सकते हैं और वे जो समझते हैं उसका अभ्यास करते हैं; वे धूर्त और आलसी नहीं होते हैं; और सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं को ईमानदारी और ललक के रवैए के साथ लेते हैं और सत्य से प्रेम करने और उसे स्वीकारने में सक्षम हैं। इस तरह उनके सुनने के बाद ये वचन उन पर प्रभाव डालते हैं और उन्हें परिणाम प्राप्त होते हैं।
13 फरवरी 2021