अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (27)

आज हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों के विषय पर संगति करना जारी रखेंगे। इससे पहले हमने चौदहवीं जिम्मेदारी तक संगति की थी और इस जिम्मेदारी के अंतर्गत अभी भी कुछ ऐसे उप-विषय हैं जिन पर संगति नहीं की गई है। चलो संगति करने से पहले यह समीक्षा करें कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं की कितनी जिम्मेदारियाँ हैं। (ये पंद्रह हैं।) तो चलो उन्हें पढ़ो।

(अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ :

1. परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और समझने, और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने में लोगों की अगुआई करो।

2. हर तरह के व्यक्ति की स्थितियों से परिचित हो, और जीवन-प्रवेश से संबंधित जिन विभिन्न कठिनाइयों का वे अपने वास्तविक जीवन में सामना करते हैं, उनका समाधान करो।

3. उन सत्य सिद्धांतों के बारे में संगति करो, जिन्हें प्रत्येक कर्तव्य को ठीक से निभाने के लिए समझा जाना चाहिए।

4. विभिन्न कार्यों के निरीक्षकों और विभिन्न महत्वपूर्ण कार्यों के लिए जिम्मेदार कर्मियों की परिस्थितियों से अवगत रहो, और आवश्यकतानुसार तुरंत उनके कर्तव्यों में बदलाव करो या उन्हें बरखास्त करो, ताकि अनुपयुक्त लोगों को काम पर रखने से होने वाला नुकसान रोका या कम किया जा सके, और कार्य की दक्षता और सुचारु प्रगति की गारंटी दी जा सके।

5. कार्य के प्रत्येक मद की स्थिति और प्रगति की अद्यतन जानकारी और समझ बनाए रखो, और कार्य में आने वाली समस्याएँ ठीक करने, विचलन सही करने और त्रुटियों को तुरंत सुधारने में सक्षम रहो, ताकि वह सुचारु रूप से आगे बढ़े।

6. सभी प्रकार की योग्य प्रतिभाओं को बढ़ावा दो और उन्हें विकसित करो, ताकि सत्य का अनुसरण करने वाले सभी लोगों को प्रशिक्षण प्राप्त करने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का अवसर यथाशीघ्र मिल सके।

7. विभिन्न प्रकार के लोगों को उनकी मानवता और खूबियों के आधार पर समझदारी से कार्य आवंटित कर उनका उपयोग करो, ताकि उनमें से प्रत्येक का सर्वोत्तम उपयोग किया जा सके।

8. काम के दौरान आने वाली उलझनों और कठिनाइयों की तुरंत सूचना दो और उन्हें हल करने का तरीका खोजो।

9. मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण, आग्रह और निरीक्षण करते हुए, परमेश्वर के घर की विभिन्न कार्य-व्यवस्थाओं को उसकी अपेक्षाओं के अनुसार सटीक रूप से संप्रेषित, जारी और कार्यान्वित करो, और उनके कार्यान्वयन की स्थिति का निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करो।

10. परमेश्वर के घर की विभिन्न भौतिक चीजों (किताबें, विभिन्न उपकरण, अनाज, आदि) को ठीक से सुरक्षित रखो और समझदारी से बाँटो, और क्षति और बरबादी कम करने के लिए नियमित निरीक्षण, रखरखाव और मरम्मत करो; साथ ही, बुरे लोगों को इन्हें कब्जाने से रोको।

11. विशेषकर भेंटों के व्यवस्थित रूप से पंजीकरण, मिलान और सुरक्षा के कार्य के लिए मानक स्तर की मानवता वाले भरोसेमंद लोगों को चुनो; आवक और जावक चीजों की नियमित रूप से समीक्षा और जाँच करो, ताकि फिजूलखर्ची या बरबादी के मामलों के साथ-साथ अनुचित व्यय के मामलों की भी तुरंत पहचान की जा सके—ऐसी चीजों पर रोक लगाओ और उचित मुआवजे की माँग करो; इसके अतिरिक्त, किसी भी तरह से, भेंटों को दुष्ट लोगों के हाथों में पड़ने और उनके कब्जे में जाने से रोको।

12. उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को सकारात्मक दिशा दो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें।

13. परमेश्वर के चुने हुए लोगों को मसीह-विरोधियों द्वारा बाधित किए जाने, गुमराह किए जाने, नियंत्रित किए जाने और गंभीर रूप से नुकसान पहूँचाए जाने से बचाओ, और उन्हें मसीह-विरोधियों को पहचानने और अपने दिलों से त्यागने में सक्षम बनाओ।

14. सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो।

15. सभी प्रकार के महत्वपूर्ण कार्य-कर्मियों की रक्षा करो, उन्हें बाहरी दुनिया के हस्तक्षेप से बचाकर रखो, और कार्य की विभिन्न महत्वपूर्ण मदों को व्यवस्थित तरीके से आगे बढ़ाना सुनिश्चित करने के लिए उन्हें सुरक्षित रखो।)

क्या सबने ये सारी पंद्रह जिम्मेदारियाँ स्पष्ट रूप से सुनीं? (हाँ।) अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी है “सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो।” तो तुम विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों को कैसे पहचान सकते हो? पहली कसौटी परमेश्वर में विश्वास रखने के उनके उद्देश्य पर आधारित है। हमने लोगों द्वारा परमेश्वर में विश्वास रखने के उद्देश्यों को कितने बिंदुओं में विभाजित किया था? हमने उन्हें नौ बिंदुओं में विभाजित किया था : पहला बिंदु है अधिकारी बनने की अपनी इच्छा को संतुष्ट करना; दूसरा है विपरीत लिंग की तलाश करना; तीसरा है आपदाओं से बचना; चौथा है अवसरवाद में शामिल होना; पाँचवाँ है कलीसिया के टुकड़ों पर पलना; छठा है आश्रय खोजना; सातवाँ है समर्थक ढूँढ़ना; आठवाँ है राजनीतिक लक्ष्यों का पीछा करना; और नौवाँ है कलीसिया की निगरानी करना। यह विभिन्न प्रकार के लोगों के परमेश्वर में विश्वास रखने के इरादों और उद्देश्यों के आधार पर उनका सार पहचानना है। जिन विभिन्न प्रकार के लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित करने की जरूरत है, उन्हें पहचानने के लिए दूसरी कसौटी विभिन्न पहलुओं में उनके मानवता सार की अभिव्यक्तियों पर आधारित है। इस कसौटी में कितनी अभिव्यक्तियाँ शामिल हैं? 1. तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करना; 2. फायदा उठाना पसंद करना; 3. लम्पट और असंयमित होना; 4. प्रतिशोध की तरफ झुकाव होना; 5. अपनी जुबान पर काबू रखने में असमर्थ होना; 6. अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला होना, जिन्हें कोई भी भड़काने की हिम्मत नहीं करता है; 7. व्यभिचारी गतिविधियों में लगातार शामिल रहना; 8. किसी भी समय विश्वासघात करने में सक्षम होना; 9. किसी भी समय छोड़ने में सक्षम होना; 10. ढुलमुल होना; 11. बुजदिल और शक्की होना; 12. परेशानी मोल लेने की प्रवृत्ति; 13. जटिल पृष्ठभूमि होना। कुल मिलाकर इसमें तेरह अभिव्यक्तियाँ हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी है “सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो।” पहली कसौटी—व्यक्ति का परमेश्वर में विश्वास रखने का उद्देश्य—से संबंधित मुद्दों पर पहले ही संगति की जा चुकी है। हम उनकी मानवता के पहले सात मुद्दों पर पहले ही संगति कर चुके हैं, जो कि दूसरी कसौटी है। आज हम उनकी मानवता की आठवीं अभिव्यक्ति से संगति करना शुरू करेंगे : किसी भी समय विश्वासघात करने में सक्षम होना।

मद चौदह : सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो (भाग छह)

विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने के मानक और आधार

II. व्यक्ति की मानवता के आधार पर

ज. किसी भी समय विश्वासघात करने में सक्षम होना

जो लोग किसी भी समय कलीसिया से विश्वासघात करने की क्षमता स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करते हैं—तुम लोग इस प्रकार के लोगों को पहचान सकते हो, है ना? क्या इन लोगों के साथ समस्या बहुत गंभीर है? (हाँ।) कुछ लोग कलीसिया के साथ इसलिए विश्वासघात करते हैं क्योंकि वे बुजदिल होते हैं, जबकि दूसरे लोग अपनी बुरी मानवता या दूसरे मुद्दों के कारण ऐसा करते हैं। कारण चाहे कोई भी हो, इस प्रकार के लोगों का किसी भी समय भाई-बहनों के साथ विश्वासघात करने और परमेश्वर को धोखा देने में सक्षम होना यह दर्शाता है कि वे भरोसेमंद नहीं हैं। अगर कलीसिया के बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी या भाई-बहनों के बारे में व्यक्तिगत जानकारी उनके हाथ लग जाती है, जैसे कि भाई-बहन कहाँ रहते हैं, कलीसिया के अगुआ कौन हैं, कलीसिया किस कार्य में शामिल है या कौन-सा व्यक्ति कौन-से महत्वपूर्ण कार्य और कर्तव्य करता है, तो वे खतरा पैदा होने पर या कुछ विशेष परिस्थितियों में यह जानकारी उगलकर कलीसिया और भाई-बहनों के साथ विश्वासघात कर सकते हैं। उनका ऐसा करने का एक कारण खुद को बचाना और अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करना है। दूसरी तरफ, हो सकता है वे जानबूझकर इस तरीके से कार्य करें, इस जानकारी को गंभीरता से न लें और व्यक्तिगत फायदे के एवज में किसी भी समय इसे प्रकट करने और धोखा देने में सक्षम हो जाएँ। मिसाल के तौर पर, बड़ा लाल अजगर कुछ लोगों को गिरफ्तार कर लेता है और पूछताछ के दौरान कबूलनामा थोपने के लिए उन्हें धमकी देता है, लुभाता है या यातनाएँ देता है और कहता है कि अगर उन्होंने सब कुछ उगल दिया, तो उन्हें रिहा कर दिया जाएगा, इसलिए वे अपनी आजादी के बदले भाई-बहनों और कलीसिया के बारे में अपने पास मौजूद सारी जानकारी प्रकट कर देते हैं। इस तरह के लोग ठेठ यहूदा हैं। मुझे बताओ, ठेठ यहूदा जैसे लोगों से कैसे पेश आना और निपटना चाहिए? (इस प्रकार के लोगों को तुरंत निष्कासित कर देना चाहिए और धिक्कारना भी चाहिए।) आम तौर पर ये ठेठ यहूदा—चाहे जानबूझकर या अनजाने में—कलीसिया से जुड़ी कुछ खास परिस्थितियों के बारे में पूछताछ करते हैं या जानकारी हासिल करते हैं और इसे ध्यान में रखते हैं। बाद में जब वे किन्हीं हालात का सामना करते हैं और गिरफ्तार कर लिए जाते हैं तो वे इस जानकारी को कबूल कर लेते हैं। ऊपरी तौर पर हो सकता है यह न लगे कि इन विवरणों के बारे में उनके पूछताछ करने और जानने का उद्देश्य बड़े लाल अजगर के सामने जानबूझकर जानकारी कबूल करना है, लेकिन जब वे गिरफ्तार हो जाते हैं तो खुद को रोक नहीं पाते हैं। फलस्वरूप उनके कबूलनामे के कारण कलीसिया के सामने कुछ प्रतिकूल परिणाम आते हैं। इस प्रकार इन विवरणों के बारे में उनका बातों-बातों में पूछताछ करना और जानना साधारण बातचीत या बेकार गपशप की प्रकृति का नहीं है; बल्कि वे ऐसा जानबूझकर और उद्देश्यपूर्ण तरीके से कर रहे हैं। इससे उनके लिए बाद में यहूदा बनने की परिस्थितियाँ तैयार हो जाती हैं। क्या दूसरों के बारे में जानकारी यूँ ही प्रकट कर देने वाले लोगों की समस्या सत्य की संगति करने या उन्हें चेतावनियाँ देने जैसे तरीकों से हल की जा सकती है? (नहीं।) क्यों नहीं? (क्योंकि इस प्रकार के लोगों में जमीर और विवेक की कमी होती है, और वे सत्य स्वीकार नहीं करेंगे, और उनके साथ सत्य की संगति करना बेकार है।) इस तरह के बुरे व्यक्ति से कैसे निपटना चाहिए जो दूसरों को यूँ ही नुकसान पहुँचा सकता है? इसका सिर्फ एक ही समाधान है, जो यह है कि ऐसे लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाए, क्योंकि उन्होंने जो किया है वह न सिर्फ भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाता है, बल्कि कलीसिया के कार्य में भी बाधा डालता है। इस तरह के व्यवहार को भाई-बहनों के साथ विश्वासघात करने और कलीसिया के साथ विश्वासघात करने के रूप में निरूपित किया जा सकता है, इसलिए इस प्रकार के लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए। वैसे तो इस प्रकार के लोगों को मसीह-विरोधियों के रूप में निरूपित नहीं किया जा सकता है, लेकिन उन्हें ऐसे बुरे लोगों के रूप में निरूपित करने के लिए पर्याप्त आधार हैं जो कलीसिया के कार्य में बाधाएँ और गड़बड़ियाँ उत्पन्न करते हैं। इसलिए इस प्रकार के लोगों को बाहर निकाल देना पूरी तरह से सिद्धांतों के अनुसार है। इन लोगों की दिलचस्पी सत्य में नहीं है; उन्हें तो बस हर जगह अगुआओं और कार्यकर्ताओं के विवरणों के साथ-साथ कुछ भाई-बहनों के विवरणों के बारे में पूछताछ करना पसंद है। उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखते हुए कई वर्ष हो चुके हैं और उन्होंने बहुत से सत्य नहीं समझे हैं—फिर भी उन्होंने अगुआओं और कार्यकर्ताओं और भाई-बहनों के परिवारों के बारे में काफी सारी जानकारी इकट्ठी कर ली है। चाहे किसी भी भाई या बहन का जिक्र क्यों न किया जाए, वे उसके कुछ विवरण साझा कर सकते हैं, जो दूसरों को काफी चौंकाने वाले लगते हैं। वैसे तो वे अगुआ या कार्यकर्ता नहीं हैं, फिर भी वे कलीसिया के कुछ खास आंतरिक मामलों, जैसे कि प्रशासनिक कार्य, विभिन्न संरचनाओं के प्रमुखों और बाहरी मामलों से संबंधित कुछ कार्यों के बारे में पूछताछ करने के लिए हमेशा उत्सुक रहते हैं। वे अक्सर पूछते रहते हैं कि कौन, कब, कहाँ अपने कर्तव्य निभाने के लिए निकला, किसे पदोन्नत किया गया है, किसे बर्खास्त किया गया है और कलीसिया के कार्य के कुछ खास पहलू कैसे चल रहे हैं। इन चीजों के बारे में पूछताछ करने के बाद वे यह जानकारी हर जगह फैला देते हैं। इससे भी ज्यादा घिनौनी बात यह है कि कुछ लोग पूछताछ करने के बाद जुटाई गई जानकारी को लिख भी लेते हैं। क्या इससे यह नहीं पता चलता कि उनके गुप्त इरादे हैं? (हाँ।) बड़े लाल अजगर के देश में अपने खुद के मामले दर्ज करते समय उन्हें कूट या गुप्त भाषा का उपयोग करना आता है, लेकिन दूसरों की जानकारी दर्ज करते समय वे ऐसी विधि का उपयोग नहीं करते है जो जरा-सी भी समझदारी प्रदर्शित करती हो, बल्कि वे तो भाई-बहनों के असली नाम, रंग-रूप, उम्र, फोन नंबर और दूसरे विवरण लिख देते हैं। कहीं वे विश्वासघात करने का इरादा तो नहीं रखते हैं? उनके इरादे बुरे हैं और वे सचमुच विश्वासघात करने का इरादा रखते हैं। जब कुछ खतरनाक चीज होती है और पुलिस उनके द्वारा दर्ज की गई जानकारी जब्त कर लेती है, तो पुलिस को उन्हें यातना देने की भी जरूरत नहीं पड़ती है, सिर्फ डराने-धमकाने से ही वे कुछ भी छिपाए बिना तुरंत सब कुछ विस्तार से कबूल कर लेते हैं। वे जो चीजें भूल गए हैं, उन्हें याद करने के लिए वे अपने दिमाग भी दौड़ाते हैं और जैसे ही उन्हें कुछ याद आ जाता है, वे तुरंत पुलिस को बता देते हैं। वे तो पुलिस को भाई-बहनों के घरों, अगुआओं और कार्यकर्ताओं के घरों और महत्वपूर्ण कर्तव्य करने वाले लोगों के आवासों तक ले जाते हैं, ताकि उन्हें गिरफ्तार किया जा सके। क्या तुम्हें नहीं लगता है कि इस प्रकार के लोग अत्यधिक नीच होते हैं? (हाँ।) दूसरों के साथ विश्वासघात करने से पहले, उनका व्यवहार किसी बुरे व्यक्ति के जैसा नहीं लगता था, मसीह-विरोधी के जैसा तो बिल्कुल भी नहीं—शायद वे बस किसी साधारण भ्रष्ट मनुष्य की अभिव्यक्तियाँ रही होंगी—लेकिन गिरफ्तार होते ही वे बड़ी आसानी से किसी भी भाई-बहन के साथ विश्वासघात करने में समर्थ हो गए। बस यही एक अभिव्यक्ति उन्हें बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों से भी ज्यादा नीच बनाती है। ऐसा नहीं है कि वे कड़े बल प्रयोग, यातना और उत्पीड़न के चलते मामूली-सी जानकारी प्रकट करने से खुद को नहीं रोक सके क्योंकि उनकी देह बहुत कमजोर थी और वे इसे और सहन नहीं कर पाए। बल्कि उन्होंने भाई-बहनों की सुरक्षा की कोई परवाह किए बिना, कलीसिया के कार्य के बारे में तो बिल्कुल भी परवाह किए बिना खुद आगे बढ़कर और लापरवाही से वह सारी जानकारी प्रकट कर दी जो उनके पास थी। यह अत्यधिक नीचता है! यह यहूदा प्रकार के लोगों की एक अभिव्यक्ति है।

एक और प्रकार के लोग हैं, जो जरा सा उकसाए जाते ही कलीसिया और भाई-बहनों की रिपोर्ट कर देना चाहते हैं। मिसाल के तौर पर जब वे प्राकृतिक आपदाओं, बीमारी या चोरी का सामना करते हैं, तो वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं और वे यह भी शिकायत करते हैं कि भाई-बहनों में प्रेम की कमी है और वे उनकी समस्याएँ हल करने में उनकी मदद नहीं करते हैं। इस कारण उनके मन में कलीसिया और भाई-बहनों के साथ विश्वासघात करने की इच्छा उत्पन्न होती है। कुछ लोग अंधाधुँध कुकृत्य करते हैं और उनकी काट-छाँट कर दी जाती है, और भाई-बहन भी उनसे दूरी बना लेते हैं; इससे उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर में प्रेम की कमी है, इसलिए वे जोर से बोल पड़ते हैं : “तुम लोग मुझे नापसंद करने लगे हो, है ना? तुम सब मुझे नीची नजर से देखते हो, है ना? क्या मैं वाकई अब भी परमेश्वर में विश्वास रखकर आशीषें प्राप्त कर सकता हूँ? अगर मैंने आशीषें प्राप्त नहीं कीं, तो मैं तुम सबकी रिपोर्ट करूँगा!” यह ऐसे लोगों का सबसे “चिर-परिचित” कथन है। मैं क्यों कहता हूँ कि—“अगर मैंने आशीषें प्राप्त नहीं कीं, तो मैं तुम सबकी रिपोर्ट करूँगा”—उनका “चिर-परिचित” कथन है? वह इसलिए क्योंकि यह कथन उनकी मानवता को दर्शाता है। यह ऐसा कोई वाक्यांश नहीं है जिसे वे कई असंतोषजनक परिस्थितियों का सामना करने के बाद अपनी भड़ास निकालने भर के लिए या मन में गहरे दबे द्वेष के कारण कहते हैं, न ही यह कोई तात्कालिक आवेग है। बल्कि यह कुछ ऐसा है जिससे उनके दिल भरे हुए हैं और यह कभी भी प्रकट हो सकता है। यह कुछ ऐसा है जो लंबे समय से उनके दिलों में मौजूद है और किसी भी क्षण फूटकर बाहर आ सकता है। यह उनकी मानवता को दर्शाता है। उनकी मानवता इतनी खराब है—अगर कोई उन्हें उकसाता है या चोट पहुँचाता है, तो वे किसी भी समय उस व्यक्ति के साथ विश्वासघात करने में सक्षम हैं। अगर अपना कर्तव्य करते समय वे कार्य-व्यवस्थाओं या सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, और अगुआ और कार्यकर्ता या भाई-बहन उनकी थोड़ी-सी काट-छाँट कर देते हैं, तो वे द्वेषपूर्ण, नाराज और असंतुष्ट हो जाते हैं और फिर ऐसी चीजें कहते हैं, “मैं तुम लोगों की रिपोर्ट करूँगा! मुझे पता है कि तुम कहाँ रहते हो, मुझे तुम्हारा नाम-उपनाम पता है!” अगर तुम इस प्रकार के लोगों को तुष्ट नहीं करते हो तो वे वाकई तुम्हारे साथ विश्वासघात कर सकते हैं। वे सिर्फ किसी को डराने का प्रयास नहीं कर रहे हैं और न ही वे इसे उत्तेजना में आकर कह रहे हैं; अगर कोई उन्हें वाकई नाराज करता है या गुस्सा दिलाता है, तो वे उस व्यक्ति के साथ विश्वासघात करने में पूरी तरह से सक्षम हैं। कुछ लोग कहते हैं, “उनसे क्यों डरना?” ऐसा नहीं है कि हम उनसे डरते हैं। अगर यह किसी लोकतांत्रिक और स्वतंत्र देश में होता तो हम उनके विश्वासघात से नहीं डरते। लेकिन बड़े लाल अजगर के देश में अगर वे वाकई विश्वासघात करते हैं तो यह भाई-बहनों के लिए परेशानी का कारण बन सकता है और कलीसिया के कार्य को प्रभावित कर सकता है। अगर भाई-बहनों को वाकई गिरफ्तार कर लिया जाता है तो बड़ा लाल अजगर इस बात का बतंगड़ बना देगा। जैसे ही वे कोई उल्लंघन ढूँढ़ लेंगे, वे लोगों को लगातार गिरफ्तार करते रहेंगे। ऐसे में अनगिनत लोगों का कलीसियाई जीवन प्रभावित होगा और अनगिनत लोगों के कर्तव्य के सामान्य निर्वहन पर प्रभाव पड़ेगा। क्या ये काफी गंभीर परिणाम नहीं हैं? तुम्हें इन चीजों पर विचार करना चाहिए! इस प्रकार के लोग दूसरों से बातचीत करते समय हमेशा बचकानी हरकतें करते हैं। अगर कोई कुछ ऐसा कहता है जिससे वे दुखी होते हैं या कोई उनकी समस्याएँ उजागर करता है और उन्हें गुस्सा दिलाता है, तो वे उस व्यक्ति से नाराज हो जाते हैं और कई दिनों तक उससे बात करने से भी मना कर सकते हैं, और जब तुम उन्हें ढूँढ़ने जाते हो और उनसे अपना कर्तव्य निभाने के लिए कहते हो, तो वे यह अनुरोध नजरअंदाज कर देते हैं। इस प्रकार के लोगों से निभाना असंभव है। क्या वे बुरे लोग नहीं हैं? लोगों के किसी समूह में तुम बुरे लोगों को अक्सर ऐसी बातें कहते हुए सुनते हो : “अगर किसी ने मेरा विरोध किया, तो मैं इसे चुपचाप बर्दाश्त नहीं करूँगा! मुझे पता है वास्तव में तुम कहाँ रहते हो, मुझे तुम्हारी खिड़कियों के पर्दों का रंग तक मालूम है। मुझे इस बात की पूरी जानकारी है कि कहाँ तुम लोग सभा करते हो और कहाँ अगुआ और कार्यकर्ता रहते हैं!” क्या तुम लोग यह कहोगे कि इस प्रकार के लोग खतरनाक व्यक्ति होते हैं? (हाँ।) वे ठेठ यहूदा हैं। जब सब कुछ सामान्य होता है, तब भी वे विश्वासघात करने के लिए विशेष प्रयास कर सकते हैं। और अगर कोई अनहोनी हुई, तो वही सबसे पहले भाग निकलेंगे और यहूदा बन जाएँगे। इसलिए अगर कलीसिया में इस प्रकार के लोगों का पता चलता है, तो उन्हें जल्द से जल्द बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए। इस प्रकार के लोगों में और क्या अभिव्यक्तियाँ होती हैं? मिसाल के तौर पर, भाई-बहन नियमित रूप से एक-दूसरे से मिलते रहते हैं, इसलिए सभाओं के दौरान एक दूसरे की खैर-खबर पूछने की जरूरत नहीं होती है। समय होने पर वे सभा शुरू कर देते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और सत्य पर संगति करते हैं। बचकानी हरकतें करने वाले लोग जब यह देखते हैं कि कोई भी उन पर ध्यान नहीं दे रहा है या उनका अभिवादन नहीं कर रहा है, तो वे तैश में आ जाते हैं। वे जोर से बोल पड़ते हैं, “क्या तुम सब मुझे नीची नजर से देखते हो? तुम लोगों में से कोई भी मेरा स्वागत नहीं करता है—ठीक है, कोई बात नहीं; मेरे पास तुम लोगों से निपटने का तरीका है। मुझे पता है कि कलीसियाई अगुआ कहाँ रहते हैं, मुझे पता है कि तुम लोगों में से कौन अपने कर्तव्य कहाँ निभा रहा है और तुम क्या कार्य कर रहे हो, मुझे पता है कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं की मेजबानी कौन कर रहा है, कौन चढ़ावों की सुरक्षा कर रहा है, किताबों की छपाई कौन संभालता है और उन्हें ले जाने की जिम्मेदारी किसके पास है। मैं तुम सबकी रिपोर्ट करूँगा! मैं पुलिस को कलीसिया के बारे में सभी चीजों की रिपोर्ट करूँगा!” अगर लोग उनके साथ अत्यंत सम्मानपूर्ण व्यवहार करते हैं, तो सब कुछ ठीक रहता है। लेकिन जैसे ही कोई उन्हें छेड़ देता है या भड़का देता है, तो यह एक समस्या बन जाती है—वे बदला लेने और विश्वासघात करने का प्रयास करेंगे। जब भी उनके साथ ऐसा कुछ होता है जिससे वे दुखी या असंतुष्ट हो जाते हैं, तो वे भाई-बहनों और कलीसियाई अगुओं के खिलाफ जोरदार धमकियाँ देते हैं। क्या तुम लोग यह कहोगे कि इस प्रकार के लोग डरावने और खतरनाक होते हैं? (वे खतरनाक होते हैं।) इस प्रकार के लोग यहूदा हैं जो किसी भी समय विश्वासघात करने में सक्षम होते हैं; वे खतरनाक व्यक्ति हैं।

किसी भी समय विश्वासघात करने में सक्षम लोगों की एक और अभिव्यक्ति है। मिसाल के तौर पर, बड़े लाल अजगर के देश में ऐसी बातों को सख्ती से गोपनीय रखा जाना चाहिए—विभिन्न प्रांतों और शहरों में स्थापित कलीसियाओं की संख्या, हर कलीसिया में कितने लोग हैं, अगुआ कौन हैं और कलीसिया किस कार्य में जुटी है। यहाँ तक कि परिवार में अविश्वासी सदस्यों और रिश्तेदारों से भी सावधान रहना चाहिए और भविष्य में कलीसिया के लिए समस्याएँ रोकने के लिए इस जानकारी का खुलासा कभी नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन गुप्त इरादे रखने वाले ये व्यक्ति हमेशा ऐसी चीजों के बारे में पूछताछ करने का प्रयास करते हैं। अगर भाई-बहन उन्हें बताने से इनकार कर देते हैं तो उन्हें लगता है : “तुम लोगों को ये बातें क्यों पता हैं, जबकि सिर्फ मुझ अकेले को ही अँधेरे में रखा गया है? मुझे क्यों नहीं बताया जाता है? क्या तुम लोग मुझे भाई-बहनों में से एक नहीं, बल्कि एक अजनबी मान रहे हो? ठीक है, तो मैं तुम लोगों की रिपोर्ट करूँगा!” तो देखा तुमने, वे किसी भी परिस्थिति में कलीसिया और भाई-बहनों की रिपोर्ट करने में सक्षम होते हैं। किसी ने उन्हें नाराज नहीं किया है, लेकिन जरा सी भी असंतुष्टि से उनमें कलीसिया की रिपोर्ट करने की तेज इच्छा जाग उठती है। मिसाल के तौर पर, जब भाई-बहनों को परमेश्वर के वचनों की किताबें वितरित की जाती हैं, तो हर कोई उत्सुकता से यह देखना शुरू कर देता है कि किताब में परमेश्वर के वचनों के कितने पाठ हैं, उसमें कितने पृष्ठ हैं और छपाई की गुणवत्ता कैसी है। वे सभी अपने हाथ में किताब लेकर खुश और रोमांचित होते हैं। लेकिन दूसरी तरफ यहूदा प्रकार के लोग सोच रहे होते हैं : “इस किताब की छपाई कहाँ हुई? एक प्रति छापने में कितनी लागत आती है? छपाई का प्रभारी कौन है? छपाई के बाद परिवहन कौन संभालता है? ये किताबें हमारी कलीसिया तक कैसे पहुँचाई गईं? ये किताबें कहाँ रखी जाती हैं? उनकी सुरक्षा का प्रभारी कौन है?” ये विषय स्वाभाविक रूप से संवेदनशील हैं। आम तौर पर तार्किकता और मानवता वाले लोग ऐसे मामलों के बारे में पूछताछ नहीं करेंगे, लेकिन विश्वासघात करने में सक्षम खतरनाक व्यक्ति उनके बारे में पूछताछ करने के लिए उत्सुक रहते हैं। तो तुम क्या सोचते हो—जब वे इन चीजों के बारे में पूछते रहते हैं तो क्या तुम्हें उन्हें यह बता देना चाहिए या नहीं? (हमें उन्हें नहीं बताना चाहिए।) अगर तुम उन्हें बता देते हो तो वे इस जानकारी का खुलासा करने और विश्वासघात करने में सक्षम हो जाएँगे। और अगर तुम उन्हें नहीं बताते हो तो वे ऐसा कुछ कहेंगे : “मुझे इसके बारे में पता कैसे नहीं चल पाता है? परमेश्वर का घर निष्पक्ष नहीं है! मैं परमेश्वर के घर का हिस्सा हूँ, मुझे सभी मामलों के बारे में सूचना प्राप्त करने का अधिकार है! तुम लोग मेरे साथ एक अजनबी जैसा व्यवहार कर रहे हो। तो ठीक है, मैं तुम लोगों की रिपोर्ट करूँगा!” एक बार फिर वे कलीसिया की रिपोर्ट करना चाहते हैं। क्या वे बुरे लोग नहीं हैं? अगर उन्होंने वाकई कलीसिया की रिपोर्ट पुलिस को कर दी, तो इसके क्या परिणाम होंगे? अगर भाई-बहनों को गिरफ्तार किया गया, तो क्या उन्हें जानलेवा खतरा नहीं होगा? इसके अलावा, पुलिस द्वारा गिरफ्तारियाँ हो जाने के बाद भाई-बहनों के लिए और कलीसिया के कार्य में बहुत-सी कठिनाइयाँ आएँगी। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को भी अलग-अलग हद तक प्रभावित करेगा—जिन लोगों को सत्य खोजना नहीं आता है, वे नकारात्मक हो सकते हैं और वे शायद सभाओं में शामिल होना भी बंद कर दें। वे बुरे लोग इनमें से किसी भी बात पर विचार नहीं करते हैं। तो क्या उनमें जमीर और विवेक है? कलीसिया जो भी कार्य कर रही है, वे उसके बारे में हमेशा सबसे पहले जानना चाहते हैं। वे तभी खुश होते हैं जब उन्हें कलीसिया में चल रही सभी चीजों के बारे में पता रहता है। अगर एक भी चीज ऐसी हो जिसके बारे में उन्हें बताया नहीं जाता है, तो वे उसे बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं और जाकर कलीसिया की रिपोर्ट कर देना चाहते हैं, जिससे एक बहुत बड़ी परेशानी पैदा हो सकती है। ऐसा व्यक्ति कैसा नीच है? वह एक दुष्ट व्यक्ति है! अगर कोई दुष्ट व्यक्ति हमेशा कलीसिया की किसी बात को लेकर चिंतित रहता है, तो इससे परेशानी जरूर पैदा होगी। मिसाल के तौर पर, अगर कुछ भाई-बहन अमीर हैं और बड़ी मात्रा में चढ़ावा चढ़ाते हैं, तो वह इस बारे में सोचना बंद नहीं करता और उनसे पूछता है, “तुमने कितना चढ़ावा चढ़ाया?” दूसरा पक्ष उत्तर देता है, “मैं तुम्हें यह कैसे बता सकता हूँ? बायाँ हाथ जो करता है, उसकी खबर दाएँ हाथ को नहीं होनी चाहिए। मैं तुम्हें नहीं बता सकता—यह गोपनीय है!” वह उत्तर देता है, “यह भी गोपनीय है? तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है। तुम मुझे भाई-बहनों में से एक नहीं मान रहे हो!” अपने दिल में वह दूसरे पक्ष की बातों का बुरा मान जाता है और सोचता है, “तुम्हें लगता है कि तुम अपने बड़े-बड़े चढ़ावों के कारण बहुत महान हो! तुम मुझे नहीं बताओगे कि तुमने कितना चढ़ावा चढ़ाया। मुझे पता है कि तुम्हारा परिवार एक कारोबार चलाता है। अगर तुमने मुझे भड़काया तो मैं परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए तुम्हारी रिपोर्ट कर दूँगा और तुम्हारा कारोबार ठप हो जाएगा! फिर तुम एक पैसा तक नहीं चढ़ा पाओगे!” देखा तुमने, वह फिर से लोगों की रिपोर्ट करना चाहता है। जब भी उसे कोई छोटी-सी बात नहीं बताई जाती है, तो वह कलीसिया और भाई-बहनों की रिपोर्ट कर देना चाहता है। महत्वपूर्ण कर्तव्य करने वाले कुछ व्यक्तियों के घरों के बारे में सिर्फ कुछ लोगों को ही पता होता है। यह जानबूझकर किसी से कुछ छिपाने या दूसरों की पीठ पीछे कुछ गलत करने के बारे में नहीं है; यह इसलिए है क्योंकि परिवेश अत्यधिक खतरनाक है और सुरक्षा कारणों से ऐसी व्यवस्थाएँ जरूरी हैं। जब यह गद्दार, यह यहूदा, सुनता है कि फलां परिवार यात्रा करने वाले कुछ भाई-बहनों की मेजबानी कर रहा है, तो उसे लगता है कि यह रिपोर्ट करने योग्य बात है—शायद पुलिस उसे इनाम भी दे दे! वह दरवाजे के पीछे छिपकर दूसरों की बातें सुनता है और कोई चीज सुनने के बाद उसे गुस्सा आ जाता है : “तुम लोग मुझे बताए बगैर मेरी पीठ पीछे कलीसियाई मामलों पर चर्चा कर रहे हो। तुम्हें डर है कि मैं तुम्हारे साथ विश्वासघात करूँगा, इसलिए तुम मुझसे सावधान रह रहे हो और मुझसे बातें छिपा रहे हो, मुझे परमेश्वर के घर का हिस्सा नहीं मान रहे हो। ठीक है, मैं तुम लोगों की रिपोर्ट करूँगा!” देखा तुमने, वह एक बार फिर दूसरों की रिपोर्ट करना चाहता है। क्या तुम यह कहोगे कि यह व्यक्ति एक बड़ी समस्या है? (हाँ।) उसका मानना है कि भाई-बहनों या कलीसिया से जुड़ी सभी परिस्थितियों के बारे में सभी को बताया जाना चाहिए, और कि सभी को सूचना प्राप्त करने का अधिकार है—खासकर उसे। अगर एक चीज भी ऐसी हो जिसके बारे में उसे नहीं बताया जाता है, तो वह लोगों की रिपोर्ट कर देने की धमकी देता है। वह रिपोर्ट करने के कार्य का उपयोग भाई-बहनों और कलीसियाई अगुआओं को लगातार धमकी देने के लिए करता है, हमेशा इसका उपयोग अपने खुद के लक्ष्य हासिल करने के लिए करता है। इस तरह के लोग कलीसिया में एक बड़ा गुप्त खतरा हैं, किसी भी समय फट सकने वाला विस्फोटक हैं। वे किसी भी समय भाई-बहनों को और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचा सकते हैं और उन पर आपदा ला सकते हैं। जब ऐसे व्यक्तियों का पता चलता है, तो उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए—उन्हें तुष्ट नहीं करना चाहिए।

कलीसिया में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो यहूदा हैं और वे हमेशा इस बारे में पूछताछ करने का प्रयास करते रहते हैं कि परमेश्वर के घर में कितना पैसा है और कलीसिया में सबसे ज्यादा चढ़ावे कौन चढ़ाता है। दूसरे लोग उनसे कहते हैं, “यह मामला तुम्हें नहीं बताया जा सकता। इसे जानकर तुम्हें कोई फायदा नहीं होगा और इसके अलावा यह ऐसा कोई मामला नहीं है जिसके बारे में तुम्हें पूछताछ करनी चाहिए।” यह सुनने के बाद वे शत्रुतापूर्ण हो जाते हैं और कहते हैं, “तुम सब मुझसे सावधान रह रहे हो, मुझे नीची नजर से देख रहे हो, मुझे भाई-बहनों में से एक नहीं मानते हो; तुम मेरे साथ एक अजनबी जैसा व्यवहार कर रहे हो। मुझे पता है कि किसके घर में कलीसिया के पैसे की हिफाजत की जा रही है। मैं तुम लोगों की रिपोर्ट करूँगा और पुलिस को यह सब जब्त करने दूँगा—फिर मुझे पता चल जाएगा कि वहाँ कितना पैसा है!” जब भी कुछ होता है, तो वे दूसरों के साथ विश्वासघात करना चाहते हैं या उनकी रिपोर्ट करना चाहते हैं; जब कलीसिया में झूठे अगुआओं, मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों द्वारा उत्पन्न की गई बाधाओं की बात आती है, सिर्फ तभी वे कभी भी किसी भी चीज की रिपोर्ट नहीं करते हैं। या, यहाँ तक कि जब वे झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को चढ़ावे की चोरी करते या उसे जब्त करते देखते हैं, तब भी वे इन कार्यों को उजागर नहीं करते हैं या उनकी रिपोर्ट नहीं करते हैं, और न ही वे परमेश्वर के घर को सूचना देते हैं। वे इन मामलों को लेकर चिंतित नहीं होते हैं। लेकिन अगर किसी भाई या बहन ने उन्हें भड़काया, उन्हें नाराज या नजरअंदाज किया, तो वे जाकर उसकी रिपोर्ट कर देते हैं। या अगर परमेश्वर के घर की कोई कार्य-व्यवस्था उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होती है, जिससे उन्हें शर्मिंदगी महसूस होती है या वे कठिन परिस्थिति में पड़ जाते हैं, तो वे सोचने लगते हैं : “मैं तुम्हारी रिपोर्ट करूँगा! मैं सुनिश्चित करूँगा कि तुम कलीसियाई अगुआ के रूप में अपना पद खो दो, मैं सुनिश्चित करूँगा कि कलीसिया का कार्य विफल हो जाए, मैं सुनिश्चित करूँगा कि कलीसिया टूटकर बिखर जाए!” देखा? वे इस कारण से भी कलीसियाई अगुआ की रिपोर्ट करना चाहते हैं। कुछ कलीसियाओं में ऐसे कई लोग चुने जाते हैं जो विदेशों में कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त होते हैं—उनके परिवार और व्यक्तिगत परिस्थितियाँ इसकी अनुमति देती हैं, वे परमेश्वर के घर की अपेक्षाएँ पूरी करते हैं और सभी भाई-बहन इससे सहमत होते हैं। जब वे यहूदा-जैसे लोग यह देखते हैं तो वे सोचते हैं, “ऐसी अच्छी चीजें मेरे साथ कभी नहीं होती हैं। मुझे तुम्हारी रिपोर्ट करनी चाहिए! मैं पुलिस को बता दूँगा कि हमारी कलीसिया के कुछ लोग अपना कर्तव्य करने के लिए विदेश जाने वाले हैं। मैं सुनिश्चित करूँगा कि तुम देश छोड़कर न जा पाओ। मैं बड़े लाल अजगर से तुम्हें गिरफ्तार करवाऊँगा या सरकार से तुम पर निगरानी रखवाऊँगा, ताकि तुम अपने घर भी न लौट पाओ!” अगर भाई-बहन विदेश नहीं जा पाते हैं, वे संतुष्ट महसूस करते हैं। तुम लोगों को क्या लगता है—क्या ऐसे लोगों के क्रियाकलापों की प्रकृति उन लोगों की तुलना में ज्यादा गंभीर नहीं है जो कभी-कभार विघ्न-बाधा डालते हैं? (हाँ।) इस तरह का व्यक्ति एक बड़ी समस्या है। उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है और वह परमेश्वर से बिल्कुल भी नहीं डरता है। परिस्थिति या कारण चाहे कोई भी हो, अगर चीजें उसके अनुकूल नहीं होती हैं, वह कलीसिया की रिपोर्ट करना और भाई-बहनों के साथ विश्वासघात करना चाहता है—वे दुष्ट लोग हैं! जब कलीसिया को ऐसे लोगों का पता चलता है, तो भविष्य की परेशानी रोकने के लिए उन्हें जल्द से जल्द बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए। अगर मौजूदा परिवेश इसकी अनुमति नहीं देता है या परिस्थितियाँ अभी तक परिपक्व नहीं हुई हैं, तो उन पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए, उनका पर्यवेक्षण करना चाहिए और उनसे सावधान रहना चाहिए। जब परिस्थितियाँ अनुमति देती हों, तो इस तरह के खतरनाक व्यक्तियों को बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए—उन्हें जितनी जल्दी और जितनी तेजी से हो सके बहिष्कृत या निष्कासित कर दो। कार्रवाई करने से पहले उनके द्वारा कलीसिया के साथ विश्वासघात करने और दुष्परिणाम उत्पन्न करने की प्रतीक्षा मत करो। एक बार जब वे ऐसा करेंगे और इससे वास्तविक दुष्परिणाम होंगे, तो बहुत ही भारी नुकसान होंगे। कौन जाने कितने भाई-बहनों के पास वापस जाने के लिए घर नहीं रहेगा या यहाँ तक कि उन्हें गिरफ्तार करके जेल में भी डाल दिया जाएगा। हो सकता है कि बहुत से भाई-बहन फिर अपना कर्तव्य करने या कलीसियाई जीवन जीने में समर्थ नहीं रहें। दुष्परिणामों की कल्पना करना भी असंभव है। इसलिए अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में तुम्हें कलीसिया में ऐसे लोगों का पता चलता है जो यहूदा हैं, तो तुम्हें समय रहते ही उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए। अगर भाई-बहन के रूप में तुम्हें ऐसे लोगों का पता चलता है, तो तुम्हें जल्द से जल्द कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उनकी रिपोर्ट कर देनी चाहिए। यह मामला कलीसिया के भाई-बहनों की सुरक्षा के साथ-साथ तुम्हारी अपनी सुरक्षा से भी संबंधित है। ऐसा मत सोचना, “उन्होंने अभी तक वास्तव में कोई विश्वासघात नहीं किया है, इसलिए यह कोई बड़ी बात नहीं है; वे बस क्षणिक गुस्से में बोले जा रहे हैं।” हर किसी को गुस्सा आता है—कुछ लोग गुस्सा आने पर ज्यादा से ज्यादा बस कुछ कठोर शब्द कह सकते हैं, थोड़ा तमाशा कर सकते हैं या कुछ दिन नकारात्मक बने रह सकते हैं, लेकिन जब तक उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, वे अपने दिल में परमेश्वर से डरते हैं, उनमें कुछ जमीर और विवेक है और साथ ही एक व्यक्ति होने के नाते उनमें मूलभूत सीमाएँ होती हैं, तो चाहे कुछ भी हो, वे कभी भी ऐसी कोई चीज नहीं करेंगे जो दूसरों को नुकसान पहुँचाती हो। लेकिन उन लोगों की बात अलग होती है जो स्वाभाविक यहूदा हैं। वे बात-बात पर तुरंत कलीसिया और भाई-बहनों की रिपोर्ट कर सकते हैं, हमेशा शैतान की शक्तियों का उपयोग भाई-बहनों और कलीसिया को धमकी देने के लिए करना चाहते हैं ताकि अपने लक्ष्य हासिल कर सकें। ये लोग राक्षसों से मिले हुए हैं—एक व्यक्ति होने के नाते उनके पास कोई मूलभूत सीमा नहीं होती है। इसलिए कलीसियाई अगुआओं और भाई-बहनों दोनों को ऐसे लोगों के बारे में विशेष रूप से चौकस रहना चाहिए जो बात-बात पर कलीसिया की रिपोर्ट कर सकते हैं। अगर किसी को ऐसे लोगों का पता चलता है जो अविवेकी, जानबूझकर परेशान करने वाले और सूझ-बूझ से अप्रभावित लोग हैं, तो उन्हें तुरंत अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उनकी रिपोर्ट करनी चाहिए, और फिर उनकी जाँच-परख और पर्यवेक्षण करना चाहिए। अगर कलीसियाई अगुआओं को ऐसे लोगों का पता चलता है, तो उन्हें जल्द से जल्द इस परिस्थिति को संभालने और हल करने की योजना बनानी चाहिए। उन्हें भाई-बहनों की रक्षा करनी चाहिए और कलीसियाई जीवन और कलीसिया के कार्य को ऐसे व्यक्तियों द्वारा क्षतिग्रस्त और बाधित होने से बचाना चाहिए। जब ऐसे लोग कहते हैं कि वे कलीसिया या भाई-बहनों की रिपोर्ट करेंगे, तो यह मत मान लेना कि यह सिर्फ क्षणिक गुस्से में कही गई बात है और इसलिए तुम सतर्क रहना बंद कर दो। दरअसल वे अक्सर ऐसी बातें कहते हैं, यह तथ्य साबित करता है कि यह विचार पहले से ही उनके दिमाग में है। अगर वे इस तरीके से सोचते हैं, तो वे इस पर अमल करने में सक्षम हैं। हो सकता है कि कभी-कभी “मैं तुम्हारी रिपोर्ट करूँगा” कहने के बाद वे ऐसा नहीं करें, लेकिन न जाने वे कब वास्तव में आगे बढ़ें और ऐसा कर डालें। एक बार जब वे ऐसा करेंगे, तो दुष्परिणामों की कल्पना करना भी असंभव है। इसलिए अगर तुम उनके इन शब्दों “मैं तुम्हारी रिपोर्ट करूँगा” को हमेशा सिर्फ गुस्से में कही गई बात के रूप में लेते हो, तो तुम नासमझ और बेवकूफ हो। तुम इन शब्दों के जरिए उनकी मानवता के सार की असलियत पहचानने में विफल हो गए हो, और यह एक गलती है। वे दूसरों को धमकाने के लिए बात-बात पर “मैं तुम्हारी रिपोर्ट करूँगा” कह सकते हैं—यह बिल्कुल भी एक यूँ ही गुस्से में की गई टिप्पणी नहीं है; यह उनके यहूदा-जैसी प्रकृति को और एक व्यक्ति होने के नाते उनकी मूलभूत सीमाओं की कमी को दर्शाता है। आखिर ऐसा व्यक्ति किस प्रकार का अधम है जिसके पास एक व्यक्ति होने के नाते कोई मूलभूत सीमा नहीं होती है? वह उस प्रकार का व्यक्ति है जिसके पास न जमीर होता है और न ही तार्किकता होती है। जमीर के बिना वह कोई भी बुरा कर्म करने में सक्षम होता है और तार्किकता के बिना वह तार्किकता की सीमाओं से परे कार्य करने में सक्षम होता है, सभी प्रकार की बेवकूफी भरी चीजें करता रहता है। यह संभव है कि कलीसिया की रिपोर्ट करने और भाई-बहनों को गिरफ्तार हुआ और कलीसिया का कार्य क्षतिग्रस्त हुआ देखने के बाद वह आँसू बहाए और अफसोस व्यक्त करे। लेकिन ये अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाले लोग तार्किकता के बिना कार्य करते हैं; भविष्य में ऐसी ही स्थितियों का सामना होने पर भी वे कलीसिया की रिपोर्ट करेंगे। क्या यह उनकी प्रकृति में कोई समस्या नहीं दर्शाता है? यह वास्तव में उनका प्रकृति सार है। उनके बारे में कुछ कलीसियाई अगुआ अब भी यही मानते हैं कि वे जो कहते हैं वह सिर्फ क्षणिक गुस्से में कही गई बात है और उनकी प्रकृति खराब नहीं है। उन्हें लगता है कि यह उनकी मानवता का स्वाभाविक प्रकाशन नहीं है और यह उनकी मनुष्यता को नहीं दर्शाता है। क्या यह नजरिया गलत है? (हाँ।) भले ही वे आम तौर पर ऐसा व्यवहार प्रदर्शित नहीं करें जो उनका पाजी चरित्र दर्शाता है, लेकिन उनका अक्सर यह कहना कि वे भाई-बहनों की रिपोर्ट करेंगे और छोटी से छोटी रूठने वाली बात से भी उनका रिपोर्ट करने के बारे में सोच सकना यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि उनका चरित्र नीच और पाजी है और वे भरोसेमंद नहीं हैं। ऐसे लोगों में कोई जमीर या विवेक नहीं होता है। जब एक व्यक्ति होने की बात आती है, तो वे जैसे चाहे वैसे कार्य करते हैं, जमीर की किसी सीमा के बिना, अपने हितों और प्राथमिकताओं के आधार पर जो चाहते हैं वही करते हैं। ऐसे लोगों को निष्कासित करके उनसे निपटना चाहिए और उनके साथ नरमी बरतने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वे बच्चे नहीं हैं; वे वयस्क हैं और उन्हें भाई-बहनों और कलीसिया की रिपोर्ट करने के दुष्परिणाम मालूम होने चाहिए। वे पूरी तरह से जानते हैं कि यह सबसे क्रूर, सबसे प्रभावी चाल है। वे इसे भाई-बहनों और कलीसिया से बदला लेने का अपना तुरुप का पत्ता, परम तरीका मानते हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोग दुष्ट नहीं हैं? (हैं।) तो दुष्ट लोगों से नरमी क्यों बरती जाए? उन्हें यहूदा मानने के लिए क्या तुम्हें तब तक प्रतीक्षा करनी होगी जब तक तुम यह नहीं देखते हो कि वे खुलेआम बड़े लाल अजगर का ध्यान भाई-बहनों और मेजबान परिवारों की तरफ दिला रहे हैं? जब तक तुम्हें ये सच्चाइयाँ दिखाई देंगी और तुम उनका चरित्र निर्धारित करोगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। दरअसल उनका प्रकृति सार उसी क्षण उजागर हो जाता है जब वे किसी मसले का सामना होने पर कलीसिया की रिपोर्ट करने के बारे में चिल्लाना शुरू कर देते हैं। उन्हें पहचानने और बहिष्कृत या निष्कासित करने के लिए उनके कार्रवाई करने की प्रतीक्षा मत करो—तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। अगर किसी ने—चाहे कलीसियाई अगुआ हो या भाई या बहन—उन्हें भाई-बहनों की रिपोर्ट करने के बारे में बात करते नहीं सुना है और कोई भी उन्हें अच्छी तरह से नहीं जानता है, और जब वे किसी के द्वारा भड़काए जाने या किसी से नाराज हो जाने पर उसकी रिपोर्ट कर देते हैं, जिससे भाई-बहनों के पास छिपने और खतरे से बचते फिरने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता है, और कुछ लोग जो अपना कर्तव्य कर रहे हैं उन्हें जल्दी से कहीं और जाकर रहना पड़ता है, तो ऐसे में तुम भाई-बहनों को बेवकूफ होने और उनकी असलियत पहचानने में असमर्थ होने के लिए दोष नहीं दे सकते। लेकिन अगर वे बार-बार कहते हैं कि वे भाई-बहनों की रिपोर्ट करेंगे और फिर भी लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं, तो यह सच में बेवकूफी होगी। इतना सारा सत्य सुनने के बाद भी, वे लोगों को पहचान नहीं पाते हैं—क्या वे भ्रमित नहीं हैं? (हाँ।) जो लोग कभी भी यहूदा बन सकते हैं, उनके बारे में यह मत सोचो कि उनका विश्वासघात सत्य कम समझने के कारण है, या इसलिए है क्योंकि उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखते हुए कुछ ही समय हुआ है, या यह किसी दूसरे कारण से है। इनमें से कोई भी इसका कारण नहीं है। मूल रूप से यह उनके पाजी चरित्र के कारण है; उनके मूल में, उनका सार बुरे लोगों का सार है। उन्हें इस तरीके से पहचानना और निरूपित करना और फिर उन्हें बुरे लोगों के रूप में बहिष्कृत या निष्कासित करना पूरी तरह से सही है। ऐसा करने से भाई-बहनों की रक्षा होती है और साथ ही यह कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचने से भी बचाता है। यह कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है। इसलिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऐसे लोगों से तुरंत सावधान हो जाना चाहिए और उनका पर्यवेक्षण करना चाहिए, और फिर उन्हें भाई-बहनों के साथ संगति करनी चाहिए ताकि हर कोई उन्हें पहचान सके। उन्हें ऐसे लोगों के षड्यंत्र सफल होने से पहले ही उन्हें दूर करने का जोरदार प्रयास करना चाहिए, ताकि भाई-बहनों या कलीसिया के लिए परेशानी रोकी जा सके। यह वही सूझ-बूझ और मामले संभालने के सिद्धांत हैं जो ऐसे लोगों से मिलने पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं के पास होने चाहिए, और यही वह तरीका है जिसका उन्हें ऐसी परिस्थितियों में अभ्यास करना चाहिए। क्या यह स्पष्ट है? (हाँ।) यकीनन, ऐसे लोगों से समझदारी से निपटना सबसे बढ़िया है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि उन्हें बाहर निकाल देने से भविष्य में कलीसिया में परेशानी नहीं आएगी। अगर एक गुप्त खतरा संभालने से बाद में और ज्यादा खतरे उत्पन्न हो जाते हैं, तो ऐसा करने वाला कलीसियाई अगुआ निहायत ही अयोग्य है और मानक के अनुरूप होने से बहुत दूर है; वह नहीं जानता है कि कार्य कैसे करना है और उसमें अक्लमंदी की कमी है। दूसरी तरफ, अगर कोई कलीसियाई अगुआ कोई गुप्त खतरा एक ऐसे तरीके से संभाल सकता है जो प्रतिकूल परिणामों से बचता हो, कलीसिया के कार्य को फायदा पहुँचाए और भाई-बहनों को भी सूझ-बूझ बढ़ाने में मदद करे, तो यह सही मायने में कार्य करने का तरीका जानना है। सिर्फ इस प्रकार का अगुआ या कार्यकर्ता ही मानक स्तर का है।

अगर कोई अगुआ या कार्यकर्ता ऐसे लोगों से मिलता है जो कलीसिया के साथ विश्वासघात करने में सक्षम हैं, लेकिन वह उन्हें पहचान नहीं पाता है या यह आभास नहीं कर पाता है कि उनमें किस तरह की मानवता है या वे कलीसिया और भाई-बहनों के लिए किस तरह की परेशानी ला सकते हैं, उनके दिल में मौजूद इन सभी चीजों के बारे में अस्पष्ट होता है और वह नहीं जानता है कि उसे ऐसे लोगों के साथ कैसे पेश आना चाहिए या उन्हें कैसे संभालना चाहिए, यह कार्य कैसे करना चाहिए या यहाँ तक कि यह वह कार्य है जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए—या, अगर वह यह जानता भी हो, लेकिन ऐसे लोगों को नाराज करने का इच्छुक नहीं हो और उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित किए बिना मामले को जानबूझकर अनदेखा कर देता हो—तो वह किस तरह का अगुआ या कार्यकर्ता है? (नकली।) वह अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में मानक स्तर का नहीं है। एक बात यह है कि वह बेवकूफी भरे तरीके से सभी की मदद करने का प्रयास करता है, सभी के प्रति प्रेम और धीरज दिखाता है और उन सभी को भाई-बहन मानता है। यह कोई ऐसा व्यक्ति है जो भ्रमित है, नकली अगुआ या नकली कार्यकर्ता है। इसके अलावा, जब उसे कलीसिया में यहूदा जैसे लोगों का पता चलता है, तो वह मसले को तुरंत संभालने या हल करने के लिए कुछ नहीं करता है। बल्कि, वह जानबूझकर अनदेखा कर देता है, कुछ भी दिखाई न देने का दिखावा करता है। वह अपने दिल में सोचता है, “जब तक मेरे अपने रुतबे को कोई खतरा न हो, तब तक सब कुछ ठीक है। मैं कलीसिया के कार्य, भाई-बहनों की सुरक्षा या परमेश्वर के घर के हितों की परवाह नहीं करता। जब तक मैं इस पद पर बैठा हूँ और हर दिन आनंद का अनुभव करता हूँ, मुझे और कुछ नहीं चाहिए।” वह कोई वास्तविक कार्य नहीं करता है और जब उसे समस्याएँ दिखाई देती हैं, तो वह उन्हें हल नहीं करता है; वह बस अपने रुतबे के फायदों का आनंद लेता रहता है। क्या यह एक नकली अगुआ है? (हाँ।) मिसाल के तौर पर, मान लो कि किसी भी समय विश्वासघात करने में सक्षम प्रकार का कोई व्यक्ति कलीसिया में लंबे समय से तानाशाह तरीके से कार्य कर रहा है, लगातार कलीसिया और भाई-बहनों की रिपोर्ट करने की धमकी दे रहा है। कुछ नकली अगुआ इसे देखते तो हैं, लेकिन करते कुछ नहीं हैं। यहाँ तक कि जब कोई इस व्यक्ति की रिपोर्ट करता है और उच्च-स्तरीय अगुआ उसे बाहर निकालकर उससे निपटते हैं, तब भी नकली अगुआ इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं या इसके बारे में कुछ नहीं सोचते हैं। वे सोचते हैं, “उन्हें जिसकी भी रिपोर्ट करनी है, करने दो। जब तक वे मेरी रिपोर्ट नहीं करते या कलीसियाई अगुआ के रूप में मेरी भूमिका को प्रभावित नहीं करते हैं, तब तक सब कुछ ठीक है।” क्या इस तरह का अगुआ एक नकली अगुआ होता है? (हाँ।) वह बिना कोई वास्तविक कार्य किए अपने पद पर सिर्फ इसके फायदों का आनंद लेने के लिए बैठा रहता है, उसका ध्यान एक ऐसे व्यक्ति पर जाता है जो किसी भी समय भाई-बहनों के साथ विश्वासघात करने में सक्षम है, लेकिन वह उसे बहिष्कृत या निष्कासित करने में विफल रहता है—वह एक नकली अगुआ है और उसे तुरंत उसके पद से बर्खास्त कर देना चाहिए। कुछ नकली अगुआ बर्खास्त हो जाने के बाद भी अवज्ञाकारी बने रहते हैं। वे कहते हैं, “मुझे बर्खास्त करने का तुम्हें क्या अधिकार है? क्या यह सिर्फ इसलिए था क्योंकि मैंने उस व्यक्ति को बाहर नहीं निकाला? अगर तुम लोग खुद ही उसे बाहर निकाल देते, तो क्या यह मामला निपट नहीं जाता? इसके अलावा, उसने सिर्फ इतना ही कहा था कि वह भाई-बहनों की रिपोर्ट करेगा, उसने वास्तव में तो ऐसा नहीं किया। और उसने कलीसिया के लिए कोई परेशानी भी खड़ी नहीं की। उससे क्यों निपटना?” उन्हें लगता है कि उनके साथ काफी अन्याय हुआ है। वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते; वे सिर्फ अपने रुतबे के फायदों का आनंद लेते हैं और जब कोई ऐसा स्पष्ट यहूदा कलीसिया में दिखाई देता है, तो वे न तो उससे निपटते हैं और न ही उसे बाहर निकालते हैं। कुछ भाई-बहन लगातार भयभीत रहते हैं, वे कहते हैं, “हमारे बीच एक यहूदा है, जो हमेशा भाई-बहनों की रिपोर्ट करने की धमकी देता है—यह बहुत ही खतरनाक है! इस व्यक्ति को कब बाहर निकाला जाएगा?” वे कलीसियाई अगुआ को इस मुद्दे के बारे में कई बार बताते हैं, लेकिन अगुआ इसका समाधान नहीं करता है, बल्कि कहता है, “यह कुछ नहीं है। यह सिर्फ एक व्यक्तिगत विवाद है, यह कलीसिया के कार्य या भाई-बहनों की सुरक्षा से संबंधित नहीं है।” वह मामले को नहीं संभालता है। वह एकमात्र क्या कार्य करता है? एक प्रकार का कार्य वह है जो उसे उच्च-स्तरीय अगुआओं द्वारा सौंपा गया है, जिसे करने के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं है। दूसरे प्रकार का कार्य वह है जिसमें कार्य नहीं करने पर उसका रुतबा प्रभावित होगा या खतरे में पड़ जाएगा, ऐसे में वह बेमन से कुछ ऐसे काम करता है जो उसे अच्छा दिखाते हैं। लेकिन अगर उसका रुतबा प्रभावित नहीं होता है, तो जब भी संभव हो वह कार्य से बचता है। क्या यह एक नकली अगुआ है? (हाँ।) जब उसे किसी विशेष परिवेश का या गिरफ्तार किए जाने का सामना करना पड़ता है, तो छिपने के लिए वही सबसे पहले भाग निकलता है, उसे सिर्फ अपनी सुरक्षा की परवाह रहती है, उसे इस बात की कोई चिंता नहीं रहती कि क्या भाई-बहन सुरक्षित हैं और वह कलीसिया के कार्य या परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करता है। वह चाहे जो भी करे, सब कुछ उसका अपना रुतबा बनाए रखने के लिए होता है। जब तक ऊपरवाला उसे बर्खास्त नहीं करता है, और जब तक अगले चुनाव में भाई-बहन अब भी उसे वोट देते हैं और उसे अगुआ बने रहने का मौका मिलता है, तब तक वह बेमन से कुछ कार्य करता है। अगर वह कुछ ऐसा करता है जिससे ऊपरवाले का उसके प्रति नजरिया प्रभावित हो सकता है, जो ऊपरवाले द्वारा उसे बर्खास्त किए जाने का कारण बन सकता है, या अगर उसके क्रियाकलापों और अभिव्यक्तियों के कारण भाई-बहन उसके बारे में एक गलत छवि बना सकते हैं और उसे फिर से नहीं चुन सकते हैं, तो वह कम-से-कम ऐसा कुछ कार्य करके अपनी छवि को नुकसान होने से बचाने का प्रयास करेगा जो ठीक उनके सामने है। इस तरीके से, वह अपने से ऊपर और नीचे वालों को उत्तर दे सकता है—एक सिर्फ परमेश्वर ही है जिसे वह उत्तर नहीं दे सकता है। वह जो कुछ भी करता है, वह सब कुछ सिर्फ दिखावे के लिए होता है। जब तक उच्च-स्तरीय अगुआ उसे बर्खास्त नहीं करते और भाई-बहन उसका समर्थन करना जारी रखते हैं, तब तक वह संतुष्ट महसूस करता है। कलीसिया के अगुआ के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान वह कोई बड़ी बुराई नहीं करता है और बाहर से वह हमेशा कार्य में व्यस्त लगता है, लेकिन वह कोई वास्तविक कार्य नहीं करता है। विशेष रूप से जब वह बुरे लोगों को कलीसिया में बाधा डालते देखता है, तो वह कुछ नहीं करता है। वह इन बुरे लोगों को नाराज करने से डरता है, इसलिए जब भी संभव हो, वह उन्हें तुष्ट करने और उनसे समझौता करने का प्रयास करता है, सिर्फ सद्भाव बनाए रखने की इच्छा करता है। वह किसी को भी नाराज करने का इच्छुक नहीं होता है; भले ही ये लोग कलीसिया के कार्य में बाधा डालें या भाई-बहनों की सुरक्षा जोखिम में डालें, वह कुछ नहीं करता है। यह सच्चे अर्थों में एक नकली अगुआ है।

जो नकली अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करते हैं, उन्हें अगर भाई-बहन बार-बार चेताते हैं, उनसे समस्याएँ हल करने के लिए कहते हैं और फिर भी वे वास्तविक कार्य नहीं करते हैं, वास्तविक समस्याएँ हल नहीं करते हैं और गलतियाँ ठीक नहीं करते हैं, तो तुम लोगों को इसकी रिपोर्ट ऊपर करनी चाहिए। अगर उच्च-स्तरीय अगुआ और कार्यकर्ता इस मुद्दे का समाधान नहीं करते हैं, तो तुम लोगों को इन नकली अगुआओं को हटाने के लिए किसी भी संभव तरीके के बारे में सोचना चाहिए। मैंने कई वर्षों से वास्तव में ये शब्द कहे हैं, लेकिन नीचे के ज्यादातर लोग गुलाम हैं जो दूसरों को नाराज करने के बजाय कुछ व्यक्तिगत नुकसान उठाना और कुछ कष्ट सहना पसंद करेंगे। परिस्थितियाँ चाहे जो भी हों, वे हमेशा बीच का रास्ता अपनाते हैं और चापलूसों के रूप में कार्य करते हैं, कभी किसी को नाराज नहीं करते हैं। लोगों को नाराज न करने की कीमत क्या है? यह परमेश्वर के घर के कार्य और हितों का बलिदान देना है, जिससे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचता है और भाई-बहन बाधित होते हैं। अगर बुरे लोगों से निपटा नहीं जाता है, तो इससे अपना कर्तव्य करने वाले कई लोग प्रभावित होंगे। क्या यह परमेश्वर के घर का कार्य प्रभावित होने के समान नहीं है? (हाँ।) जब परमेश्वर के घर का कार्य प्रभावित होता है, तो कोई भी चिंतित या परेशान महसूस नहीं करता है, इसी कारण मैं कहता हूँ कि ज्यादातर लोग दूसरों के साथ सद्भाव और मित्रता बनाए रखने के लिए परमेश्वर के घर के कार्य और हितों का बलिदान दिए जा रहे हैं। वे अगुआओं और भाई-बहनों को नाराज करने से बचते हैं; वे किसी को नाराज नहीं करते हैं। हर कोई एक चापलूस के रूप में कार्य करता है। उनकी मानसिकता यह है : “तुम अच्छे हो, मैं अच्छा हूँ, सभी अच्छे हैं—आखिर हम हर समय एक-दूसरे से मिलते रहते हैं।” और इसका क्या नतीजा होता है? इससे बुरे लोगों को परिस्थिति का फायदा उठाने का मौका मिल जाता है; वे बार-बार तानाशाह तरीके से कार्य करते हैं, जो चाहे करते हैं। इसलिए अगर कलीसिया के अगुआ गैर-भरोसेमंद हैं और बुरे लोगों को दूर नहीं करते हैं, तो भाई-बहनों को अपनी रक्षा करने के लिए हर संभव तरीके के बारे में सोचना चाहिए; उन्हें बुरे लोग दिखाई देने पर उनसे बचना चाहिए, उनसे दूर रहना चाहिए और उन्हें अलग-थलग कर देना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “अगर हम उन्हें अलग-थलग कर देते हैं और वे नाराज हो जाते हैं, तो क्या वे फिर से हमारी रिपोर्ट नहीं कर देंगे?” अगर उन्होंने वाकई तुम्हारी रिपोर्ट की, तो क्या तुम डर जाओगे? (नहीं। इससे वे बुरे लोगों के रूप में प्रकट हो जाएँगे।) अगर वे फिर से तुम्हारी रिपोर्ट करते हैं, तो इससे यह और साबित हो जाएगा कि वे स्वाभाविक यहूदा हैं, दुष्ट लोग हैं। तुम्हें उनसे नहीं डरना चाहिए। अगर अगुआ और कार्यकर्ता अंधे हैं और चीजों की असलियत पहचानने में असमर्थ हैं, भ्रमित और निकम्मे हैं, या अगर वे ढुलमुल हैं, कभी किसी को नाराज नहीं करते हैं, बिना कोई वास्तविक कार्य किए सिर्फ अपने रुतबे के फायदों में लिप्त रहते हैं, तो भाई-बहनों को अब उनसे कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। उन्हें सिद्धांतों के अनुसार बुरे लोगों से निपटने और यहूदाओं से छुटकारा पाने के लिए एकजुट हो जाना चाहिए। उन्हें इन लोगों द्वारा तंग किए जाने से बचने के लिए सभा करने की जगह बदलने की या इन लोगों को दूर करने के लिए किसी होशियार विधि का उपयोग करने की जरूरत पड़ सकती है। कलीसियाई जीवन की सामान्य कार्यपद्धति और सभी कलीसियाई कार्य की सामान्य प्रगति सुनिश्चित करना सबसे महत्वपूर्ण चीज है। अगर कोई कलीसियाई अगुआ वास्तविक कार्य करता है, उसमें पर्याप्त काबिलियत है और उसकी मानवता भी काफी अच्छी है, तो जब तक वह कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार अपना कार्य पूरा करता है, तब तक सभी को उसकी आज्ञा माननी चाहिए। अगर वह वास्तविक कार्य नहीं करता है तो उसके साथ मेल-मिलाप नहीं रखना चाहिए या उस पर भरोसा नहीं करना चाहिए। उस समय, समस्याओं का समाधान परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार किया जाना चाहिए। अगर अगुआ को बर्खास्त करने की जरूरत है, तो उसे बर्खास्त कर देना चाहिए; अगर फिर से चुनाव जरूरी है, तो फिर से चुनाव करवाओ। अगर यह नकली अगुआ परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करता है, उस परिवेश को सुरक्षित नहीं करता है जिसमें भाई-बहन अपना कर्तव्य करते हैं और भाई-बहनों की सुरक्षा की परवाह नहीं करता है, तो वह मानक स्तर का अगुआ नहीं हैं; वह अयोग्य है, बस एक बहुत बड़ा निकम्मा है जिससे कोई वास्तविक उद्देश्य पूरा नहीं होता है—भाई-बहनों को उसकी बात नहीं सुननी चाहिए या उससे बेबस नहीं होना चाहिए। कोई भी ऐसा अगुआ और कार्यकर्ता, जो जब भी जरूरत हो यहूदाओं को दूर नहीं कर सकता है, वह नकली अगुआ और नकली कार्यकर्ता हैं; ऐसे नकली अगुआओं और नकली कार्यकर्ताओं से ऊपर बताए गए तरीके से निपटना चाहिए। अगर उनसे तुरंत न निपटा गया तो यहूदा सभी भाई-बहनों के साथ विश्वासघात करेंगे और कलीसिया का अस्तित्व मिट जाएगा। इसके साथ ही इस आठवीं अभिव्यक्ति पर हमारी संगति समाप्त होती है : किसी भी समय विश्वासघात करने में सक्षम होना।

I. किसी भी समय छोड़ने में सक्षम होना

नौवीं अभिव्यक्ति है : “किसी भी समय छोड़ने में सक्षम होना।” इस प्रकार का व्यक्ति जो किसी भी समय परमेश्वर का घर छोड़ने में सक्षम होता है, कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो सिर्फ तभी छोड़ता है जब वह किसी विशेष परिस्थिति का सामना करता है या जब वह किसी ऐसी बड़ी आपदा का सामना करता है जो किसी औसत व्यक्ति के सहने की क्षमता से परे होती है, उसकी सीमा से बाहर होती है। बल्कि वह किसी भी समय छोड़ने में सक्षम होता है—यहाँ तक कि वह एक छोटी सी बात के कारण भी छोड़ सकता है; एक छोटी सी बात के कारण भी उसमें अब अपना कर्तव्य न करने, अब परमेश्वर में विश्वास न रखने और परमेश्वर का घर छोड़ने की इच्छा जाग सकती है। इस प्रकार का व्यक्ति बहुत तकलीफदेह भी होता है। ऊपरी तौर पर वह यहूदा प्रकार के लोगों से थोड़ा बेहतर लग सकता है, लेकिन वह किसी भी समय और किसी भी जगह परमेश्वर का घर छोड़ने में सक्षम होता है। वह भाई-बहनों के साथ विश्वासघात करने में सक्षम होता है या नहीं, यह अनिश्चित है। क्या तुम लोगों को लगता है कि इस तरह का व्यक्ति भरोसेमंद होता है? (नहीं।) तो जब एक व्यक्ति होने की बात आती है, तो क्या उसके पास सिद्धांत होते हैं? क्या उसके पास परमेश्वर में विश्वास रखने की नींव होती है? (नहीं।) क्या वह सही मायने में विश्वास रखने का कोई संकेत दिखाता है? (नहीं।) तो फिर वह किस तरह का व्यक्ति होता है? (एक छद्म-विश्वासी है।) वह परमेश्वर में विश्वास रखता है और अपना कर्तव्य ऐसे करता है मानो यह सब कुछ एक मजाक हो। वह उस व्यक्ति की तरह है जो उचित कार्यों पर ध्यान नहीं देता है, सोया सॉस खरीदने के लिए बाहर जाते हुए जो सड़क पर कलाबाजों या कलाकारों को रोचक दृश्य पेश करते हुए देखता है तो उस जोशभरे परिवेश में खो जाता है और सोया सॉस खरीदना भूल जाता है, जिससे उचित कार्यों में देरी हो जाती है। इस तरह के लोग किसी भी चीज में ज्यादा समय तक नहीं लगे रहते हैं; वे अनमने और अस्थिर होते हैं। परमेश्वर में उनका विश्वास भी उनकी दिलचस्पी पर आधारित होता है—उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास रखना काफी मजेदार है, लेकिन किसी मोड़ पर जब इसमें उनकी दिलचस्पी समाप्त हो जाती है, तो वे बिना किसी हिचकिचाहट के तुरंत छोड़ देते हैं। छोड़ने वाले कुछ लोग तुरंत व्यवसाय में लग जाते हैं, कुछ आधिकारिक करियर वाले मार्ग का अनुसरण करने लगते हैं, कुछ रूमानी रिश्ते बनाते हैं और शादी की तैयारी करने लगते हैं, और कुछ जो जल्द अमीर बनना चाहते हैं वे सीधे कसीनो चले जाते हैं। लोग कहते हैं कि अगर किसी को तीन दिनों तक न देखा हो तो उसके बाद उसे नई नजर से देखना चाहिए। जो व्यक्ति किसी भी समय परमेश्वर का घर छोड़ने में सक्षम हो, अगर तुम उसे सिर्फ एक दिन भी न देखो, तो उससे दोबारा मिलने पर वह बिल्कुल एक अलग व्यक्ति की तरह होता है। कल वह शालीन और उचित तरीके से कपड़े पहने हुए था, अच्छा व्यवहार करने वाला और आकर्षक दिख रहा था। यहाँ तक कि उसने परमेश्वर से प्रार्थना भी की थी और उसका चेहरा आँसुओं से लगातार भीग रहा था, वह कह रहा था कि वह परमेश्वर के लिए अपनी जवानी समर्पित करना और अपना खून बहाना चाहता है, परमेश्वर के लिए जान देना चाहता है, अपनी अंतिम साँस तक वफादार रहना चाहता है और राज्य में प्रवेश करना चाहता है। उसने ऐसे बुलंद नारे लगाए, लेकिन कुछ ही देर बाद वह कसीनो चला गया। कल वह अपना कर्तव्य निभाकर खुश था और सभा के दौरान उसने चमकते चेहरे के साथ और जोश से उबलते हुए परमेश्वर के वचन पढ़े, और डबडबाई आँखों से विलाप करने की हद तक भावुक हो गया। तो फिर आज वह सीधे कसीनो कैसे भाग गया? वह घर जाने की इच्छा किए बिना देर रात तक जुआ खेलता रहा, भरपूर मौजमस्ती करता रहा और जोश में उबलता रहा। कल भी वह सभाओं में शामिल हो रहा था, लेकिन आज वह कसीनो भाग गया है—तो इनमें से वास्तव में कौन-सी अभिव्यक्ति उसका असली रूप है? (बाद वाला ही उसका असली रूप है।) अगर कोई सत्य नहीं समझता है, तो वह वाकई यह असलियत नहीं पहचान सकता है कि आखिर यह व्यक्ति है क्या। ये दो अभिव्यक्तियाँ, पहले की और बाद की, दोनों ही वास्तव में एक ही व्यक्ति द्वारा प्रदर्शित की जाती हैं—तो ऐसा कैसे लगता है कि जैसे इन्हें दो अलग-अलग लोग प्रदर्शित करते हैं? ज्यादातर लोग इस तरह के व्यक्ति की असलियत नहीं पहचान पाते हैं। तुम देखते हो कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले के रूप में वह अक्सर सभाओं में शामिल होता है, बुराई नहीं करता है और अपना कर्तव्य निभाने में कष्ट सहने और कीमत चुकाने में काफी समर्थ होता है। जब वह कंप्यूटर के सामने बैठता है, तो वह ध्यान केंद्रित करने वाला और उद्यमी होता है, कड़ी मेहनत करता है और इसमें अपना दिल लगा देता है। तुम सोचोगे कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाला व्यक्ति होने के नाते वह माहजोंग नहीं खेलेगा, है ना? लेकिन सिर्फ एक दिन उसे न देखने के बाद, तुम देखते हो कि वह जुआ खेलने के लिए माहजोंग हॉल या कसीनो भाग गया है। और वह एक अव्वल दर्जे का माहजोंग खिलाड़ी है—वह बिल्कुल भी किसी ऐसे व्यक्ति की तरह नहीं दिखता है जो परमेश्वर में विश्वास रखता हो! उसने तुम्हें पूरी तरह से चकरा दिया है—क्या वह परमेश्वर में विश्वास रखने वाला व्यक्ति है या माहजोंग खेलने वाला अविश्वासी? वह इतनी जल्दी भूमिकाएँ कैसे बदल सकता है? जब वह परमेश्वर में विश्वास रखता है, तो क्या उसके दिल में परमेश्वर होता है? (नहीं।) वह परमेश्वर में सिर्फ इसलिए विश्वास रखता है ताकि मौज-मस्ती कर सके और समय बिता सके, यह देख सके कि परमेश्वर में विश्वास रखने का क्या अर्थ है और क्या यह उसके जीवन में खुशी ला सकता है। अगर वह खुश नहीं है, तो वह किसी भी समय छोड़ने में सक्षम है। उसने जीवन भर विश्वास रखने की योजना कभी नहीं बनाई, और निश्चित रूप से उसने जीवन भर अपना कर्तव्य करने और परमेश्वर का अनुसरण करने की योजना तो कभी भी नहीं बनाई। तो उसने क्या योजना बनाई है? अपने मन में, अगर उसने सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखना है, तो कम-से-कम इससे उसकी मौज-मस्ती करने की क्षमता में बाधा नहीं आनी चाहिए, इसमें कोई कार्य करना शामिल नहीं होना चाहिए, और फिर भी इससे यह आश्वासन मिलना चाहिए कि वह एक सुखी जीवन जी सकता है। अगर उसे रोज परमेश्वर के वचन पढ़ने पड़ें और सत्य के बारे में संगति करनी पड़े, तो उसे दिलचस्पी नहीं होगी या वह खुश नहीं होगा। एक बार जब वह इससे ऊब जाएगा, तो वह कलीसिया छोड़ देगा और दुनिया में वापस भाग जाएगा। वह सोचता है, “जीवन आसान नहीं है, इसलिए लोगों को अपने साथ बुरा व्यवहार नहीं करना चाहिए। हमें खुद अपनी किस्मत का मालिक होना चाहिए और अपने देह के साथ बुरा व्यवहार नहीं करना चाहिए। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हम हर रोज खुश रहें—आजादी से जीने का यही एकमात्र तरीका है। परमेश्वर में विश्वास रखने में कोई दुराग्रह नहीं होना चाहिए। देखो मैं कितना बेफिक्र रहता हूँ—जहाँ भी खुशी है, मैं वहीं चला जाता हूँ। अगर मैं खुश नहीं हूँ, तो मैं छोड़ दूँगा। मैं अपने लिए चीजें असुविधाजनक क्यों बनाऊँ? एक व्यक्ति कैसा हो, इसके लिए मेरा सर्वोच्च सिद्धांत है किसी भी समय छोड़ने में सक्षम होना, ‘स्वछंद विचारों वाला विश्वासी’ होना—इस तरह से जीना कितना आरामदायक और निश्चिंत है!” इस तरह के लोग अक्सर किस तरह के गाने गाते हैं? “मत पूछो मुझसे कि मैं कहाँ से आया हूँ, मेरा अपना शहर बहुत दूर है।” अगर यह नहीं, तो वे और क्या गाते हैं? “बस एक बार क्यों ना जीया जाए आजादी से?” जब उन्हें लगता है कि अब यह उबाऊ होता गया है या मजेदार नहीं रहा, तो वे जल्दी से छोड़ देते हैं, सोचते हैं, “जब दुनिया में देखने के लिए बहुत कुछ है, तो एक ही जगह पर टिके क्यों रहें?” वे दूसरी किस मशहूर कहावत का उपयोग करते हैं? “एक पेड़ की खातिर पूरा जंगल क्यों छोड़ दें?” तुम लोग क्या सोचते हो—क्या इस तरह के लोगों में सच्चा विश्वास होता है? (नहीं, वे छद्म-विश्वासी हैं।) जब छद्म-विश्वासियों की बात आती है, तो चूँकि हम इस बारे में बात कर रहे हैं कि उनकी सभी समस्याएँ मानवता की समस्याएँ हैं, ऐसे लोगों की मानवता में वास्तव में क्या गलत है? क्या तुम लोगों को लगता है कि इस तरह के लोगों ने कभी ऐसे प्रश्नों पर विचार किया है जैसे कि एक व्यक्ति कैसे बनना है, लोगों को किस मार्ग पर चलना चाहिए या लोगों को जीवन जीते समय जीवन के बारे में किस तरह का दृष्टिकोण और मूल्य अपनाने चाहिए? (नहीं।) तो इस तरह के व्यक्ति की मानवता में क्या समस्या है? (इस तरह के व्यक्ति में सामान्य मानवता वाले जमीर और विवेक की कमी होती है; वह ऐसे प्रश्नों पर विचार नहीं करता है।) यह तो निश्चित है। इसके अलावा, सटीक रूप से कहा जाए, तो इस तरह के व्यक्ति में आत्मा नहीं होती है; वह बस एक चलती-फिरती लाश होता है। उसके पास इस संबंध में अपनी कोई अपेक्षा नहीं होती है कि एक व्यक्ति कैसे बनना है या किस मार्ग पर चलना चाहिए, और न ही वह इन चीजों पर विचार करता है। उसका इन चीजों पर विचार न करने का कारण यह है कि वैसे तो बाहर से उसका रंग-रूप एक मनुष्य का है, लेकिन उसका सार वास्तव में एक चलती-फिरती लाश का है, एक खोखला खोल है। जब मानव जीवन और उत्तरजीविता के मामलों की बात आती है, तो इस तरह के व्यक्ति का रवैया जीवन में बस लक्ष्यहीन होकर चलते रहने का होता है। विशिष्ट रूप से कहा जाए तो “जीवन में लक्ष्यहीन होकर चलते रहना” का अर्थ है बस जैसे-तैसे काम चलाते रहना और मृत्यु की प्रतीक्षा करना, सीखना नहीं और जाहिल बने रहना, अपने दिन खाने-पीने और मौज-मस्ती करने में बिताना। वे वहीं जाते हैं, जहाँ खुशी होती है और वही करते हैं, जो उन्हें खुश और आनंदित महसूस करवाता है और देह में आरामदायक महसूस करवाता है। लेकिन वे ऐसी हर चीज से बचते और दूर रहते हैं जिसके कारण उनकी देह को कष्ट होता है या आंतरिक पीड़ा होती है; वे बस यह चाहते ही नहीं कि उनकी देह कष्ट सहे। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कष्ट सहकर जीवन का अनुभव करते हैं। या विभिन्न चीजों से गुजरकर और उनका अनुभव कर वे ऐसी व्यवस्था करते हैं कि उनका जीवन खाली न रहे और वे इससे कुछ प्राप्त कर सकें। अंत में वे इस बारे में निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि किस मार्ग पर चलना चाहिए और किस तरह का व्यक्ति होना चाहिए। जीवन के अनुभवों के जरिए वे बहुत कुछ प्राप्त करते हैं। एक बात यह है कि वे कुछ खास लोगों की असलियत पहचानने में समर्थ होते हैं; इसके अलावा, वे यह निष्कर्ष निकालने में समर्थ होते हैं कि एक व्यक्ति को विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को संभालने के लिए किन सिद्धांतों और विधियों का उपयोग करना चाहिए और व्यक्ति को अपना पूरा जीवन कैसे जीना चाहिए। अंत में वे जो निष्कर्ष निकालते हैं वह चाहे सत्य के अनुरूप हो या उसके खिलाफ जाए, वे कम-से-कम इस पर तो विचार करते ही हैं। दूसरी तरफ जो लोग किसी भी समय परमेश्वर का घर छोड़ने में सक्षम होते हैं, उन्हें सत्य का अनुसरण करने या परमेश्वर में विश्वास रखने में अपना कर्तव्य करने में कोई दिलचस्पी नहीं होती है। वे हमेशा अपनी कामुक इच्छाएँ और अपनी प्राथमिकताएँ संतुष्ट करने के अवसरों की तलाश में रहते हैं और कभी भी अपना कर्तव्य करने में लगन से कोई पेशेवर कौशल सीखना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना या एक सार्थक जीवन जीना नहीं चाहते हैं। वे बस अविश्वासियों की तरह बनना चाहते हैं, हर रोज खुश और आनंदित होना चाहते हैं। इस प्रकार वे जहाँ भी जाते हैं, वहाँ मौज-मस्ती और मनोरंजन की तलाश में रहते हैं, ताकि बस अपने हितों और जिज्ञासा को संतुष्ट कर सकें। अगर उन्हें एक कर्तव्य करते रहना पड़ता है, तो वे दिलचस्पी खो देते हैं और अब उनमें इसे करते रहने की प्रेरणा नहीं रहती है। इस तरह के लोगों में जीवन के प्रति रवैया बस जैसे-तैसे आगे बढ़ने का होता है। ऊपरी तौर पर लगता है जैसे वे बहुत ही आजाद और बेफिक्र होकर जीते हैं, दूसरों के साथ चीजों को लेकर हंगामा नहीं करते हैं। वे रोज हँसमुख और निश्चिंत दिखाई देते हैं, वे जहाँ भी जाते हैं वहाँ परिस्थितियों के अनुकूल ढलने में समर्थ होते हैं। कुछ तो मानवीय संबंधों के सांसारिक रीति-रिवाजों या परंपराओं से अप्रभावित और अनियंत्रित भी लगते हैं, जिससे बाहर से यह छवि मिलती है कि वे असाधारण हैं और आम भीड़ से ऊपर हैं। लेकिन वास्तव में, उनका सार एक चलती-फिरती लाश का, किसी आत्मा रहित चीज का होता है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, लेकिन किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम होते हैं, वे कभी भी अपने किसी भी कार्य में लंबे समय तक नहीं लगे रहते हैं—वे सिर्फ एक अस्थायी उत्साह बनाए रख पाते हैं। लेकिन जमीर और विवेक वाले लोग अलग होते हैं। वे चाहे कोई भी कर्तव्य कर रहे हों, उसे गंभीरता से सीखते हैं और अच्छी तरह से करने का प्रयास करते हैं। वे कुछ हासिल करने और कुछ उपयोगिता रचने में समर्थ होते हैं। यह देखते हुए कि वे कुछ कर सकते हैं, बेकार नहीं बल्कि उपयोगी लोग हैं, एक बात तो यही है कि वे अपने आसपास के लोगों की मान्यता प्राप्त करने में समर्थ होते हैं और साथ ही अंदर से आत्मविश्वास महसूस कर सकते हैं। यही वह न्यूनतम चीज है जो सामान्य मानवता वाले जमीर और विवेक युक्त व्यक्ति हासिल कर सकता है। लेकिन जो लोग जीवन में लक्ष्यहीन होकर चलते रहते हैं, वे इन चीजों के बारे में कभी नहीं सोचते हैं। वे जहाँ भी जाते हैं, वहाँ बस खाते-पीते और मौज-मस्ती करते रहते हैं। बाहर से ऐसा लग सकता है कि वे बहुत आजादी से और आराम से रहते हैं, लेकिन वास्तव में ऐसे लोगों के दिमाग में कोई विचार नहीं होता है। वे जो कुछ भी करते हैं उसमें कभी गंभीर नहीं होते हैं; वे हमेशा सतही और कुछ समय के उत्साह से प्रेरित होते हैं, कभी भी कुछ भी हासिल नहीं करते हैं। वे जीवन भर जैसे-तैसे चलते रहना चाहते हैं और वे जहाँ भी जाते हैं, वहाँ यही रवैया अपनाए रहते हैं—यहाँ तक कि परमेश्वर में उनका विश्वास भी इसका अपवाद नहीं है। तुम देख सकते हो कि एक निश्चित अवधि के दौरान ऐसा लगता है जैसे वे अपना कर्तव्य करने के बारे में काफी गंभीर हैं और कष्ट सहने और कीमत चुकाने में समर्थ हैं, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कौन उन्हें उनकी समस्याओं की तरफ ध्यान दिलाता है या उन्हें बताता है कि चीजें कैसे करनी हैं, वे इसे कभी भी गंभीरता से नहीं लेते हैं और सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं। वे बस जैसे चाहे वैसे कार्य करते हैं—जब तक वे खुश हैं, उनके लिए सब कुछ ठीक है। और अगर वे खुश नहीं हैं, तो वे मौज-मस्ती करने चले जाते हैं, किसी की सलाह पर ध्यान नहीं देते हैं। वे अपने दिलों में सोचते हैं, “मैंने तो वैसे भी लंबे समय तक परमेश्वर में विश्वास रखने की योजना कभी नहीं बनाई।” अगर कोई उनकी काट-छाँट करता है, तो वे तुरंत छोड़ने में सक्षम होते हैं। यह उन लोगों की एक अभिव्यक्ति है जो किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम हैं।

जो लोग किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम हैं, उनमें एक और प्रकार की अभिव्यक्ति होती है। कुछ लोग—चाहे उन्होंने कितने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, चाहे वे नींव वाले लोग दिखते हों या न दिखते हों और चाहे उन्होंने पहले कोई भी कर्तव्य निभाया हुआ हो—एक बार जब वे किसी ऐसी विशेष परिस्थिति का सामना करते हैं जिसमें उनके अपने व्यक्तिगत हित शामिल होते हैं, तो वे अचानक सिरे से गायब हो सकते हैं। किसी भी समय ऐसा हो सकता है कि दूसरे लोग उनसे संपर्क खो बैठें और अब उन्हें कलीसिया में और नहीं देखें, साथ ही उन्हें पता भी न हो कि उनके साथ क्या चल रहा है। कुछ लोगों का सामना जब विपरीत लिंग के किसी ऐसे व्यक्ति से होता है जो उन्हें पटाने का प्रयास करता है, तो वे अपना कर्तव्य निभाना बंद कर देते हैं और उनसे रूमानी मुलाकात करने चले जाते हैं, इस कारण उनसे संपर्क करना पूरी तरह से असंभव हो जाता है। ऐसे भी दूसरे लोग हैं जिनके बच्चे शादी की आयु तक पहुँच चुके हैं और वे अपने बच्चों की शादी की व्यवस्था करने में व्यस्त हो जाते हैं, तो वे अब अपना कर्तव्य नहीं करते हैं और अब सभाओं में भाग नहीं लेते हैं। चाहे कोई भी उन्हें ढूँढ़े, उन्हें दरवाजे से लौटा दिया जाता है। कुछ लोग अपने माता-पिता या जीवनसाथी के बीमार पड़ने और अस्पताल में भर्ती होने पर या अपने घर में कोई बड़ी घटना या कोई अप्रत्याशित आपदा आने पर—अगर वे परमेश्वर में सच्चे विश्वासी हैं—यह कहकर स्पष्टीकरण देते हैं, “हाल ही में घर में कुछ ऐसे मामले हुए हैं जिन्हें संभालना मेरे लिए जरूरी है, इसलिए मैं सभाओं में शामिल नहीं हो सकता। मुझे छुट्टी का अनुरोध करने की जरूरत है और अगर तुम लोग कोई उपयुक्त व्यक्ति ढूँढ़ लेते हो तो कृपया बिना देरी किए उसे कुछ समय के लिए मेरा कर्तव्य संभालने के लिए कह दो।” कम-से-कम वे कोई सूचना और स्पष्टीकरण तो देंगे ही। लेकिन जो लोग किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम होते हैं, वे बिना एक भी शब्द कहे कलीसिया से संपर्क तोड़ देते हैं और भाई-बहन चाहे कितना भी प्रयास कर लें, वे उनसे संपर्क नहीं कर पाते हैं। ऐसा नहीं है कि उनके पास संपर्क का कोई साधन न हो—उन तक किसी भी तरीके से पहुँचा जा सकता है—लेकिन वे वास्तव में भाई-बहनों से संपर्क करना ही नहीं चाहते हैं या उन्हें उत्तर नहीं देना चाहते हैं। वे कहते हैं, “मुझे तुमसे संपर्क क्यों करना चाहिए? मैं अपना कर्तव्य स्वेच्छा से करता हूँ; मुझे इसके लिए भुगतान नहीं किया जाता है। अगर मैं छोड़ना चाहता हूँ, तो मैं छोड़ दूँगा! अगर मेरे घर पर कुछ चल रहा है तो वह मेरा निजी मामला है। मैं तुम्हें सूचित करने के लिए बाध्य नहीं हूँ और तुम्हें जानने का कोई अधिकार नहीं है!” कुछ लोग एक-दो महीनों के लिए छोड़ देते हैं और फिर बेशर्म होकर अपनी हाजिरी दर्ज कराने लौट आते हैं, वे ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो। दूसरे लोग दो-तीन वर्षों के लिए छोड़ देते हैं और उनसे बिल्कुल संपर्क नहीं हो पाता है। कलीसिया के लोग परिस्थिति से अनजान होने के कारण सोचते हैं कि चूँकि इस प्रकार के व्यक्ति ने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, इसलिए यह असंभव है कि वह कलीसिया छोड़ देगा। वे मान लेते हैं कि कुछ अप्रत्याशित हुआ होगा और चिंता करते हैं कि कहीं उसे सीसीपी ने गिरफ्तार तो नहीं कर लिया। दरअसल बात सिर्फ यह है कि वह व्यक्ति अब परमेश्वर में विश्वास नहीं रखना चाहता और भाई-बहनों को सूचित किए बिना ही छोड़कर चला गया है। कुछ लोग लगभग दस दिनों के लिए छोड़ देते हैं और फिर लौट आते हैं; इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने विश्वास रखना बंद कर दिया है। कुछ लोग छोड़ देते हैं और फिर दो-तीन वर्षों के लिए चले जाते हैं—क्या तुम लोग कहोगे कि उन्होंने विश्वास रखना बंद कर दिया है? (हाँ।) उन्होंने सचमुच विश्वास रखना बंद कर दिया है और उनके नाम काट दिए जाने चाहिए। यह कोई साधारण प्रस्थान नहीं है; उन्होंने विश्वास रखना बंद कर दिया है। मानवीय परिप्रेक्ष्य से इसे अब विश्वास न रखना कहा जाता है। परमेश्वर इसे कैसे देखता है? परमेश्वर की नजर में इसे परमेश्वर को नकारना, परमेश्वर का अनुसरण न करना कहते हैं और यह परमेश्वर को अस्वीकार करना है। लेकिन वे अपने परिप्रेक्ष्य से सोचते हैं, “मैंने परमेश्वर को अस्वीकार नहीं किया है; मैं अब भी अपने दिल में परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ!” देखा? वे बस इसे हल्के में टाल देते हैं। ऐसे भी दूसरे लोग हैं जो सभाओं में शामिल होना और अपना कर्तव्य निभाना सिर्फ इसलिए बंद कर देते हैं कि उनका मिजाज खराब है या वे अंदर से परेशान हैं, कि उन्हें लगता है कि अपना कर्तव्य करना बहुत कठिन और थकाऊ है या उनकी थोड़ी काट-छाँट की गई है। वे अपने हाथ में लिए हुए कार्य के बारे में कुछ भी समझाए बिना ही चले जाते हैं और कहते हैं, “कोई भी मुझसे संपर्क न करे। मैं खुश नहीं हूँ और अब विश्वास नहीं रखना चाहता!” जब वे उखड़े हुए होते हैं तो ऐसा एक-दो वर्ष तक चल सकता है। उनका गुस्सा वाकई बहुत खराब होता है—वे एक-दो वर्षों तक इससे बाहर नहीं निकल पाते हैं! कुछ लोग कलीसिया में अगुआओं और कार्यकर्ताओं का कार्य स्वीकार करते हैं, लेकिन वे न सिर्फ इस कार्य को अच्छी तरह से करने में विफल होते हैं, बल्कि वे बेतहाशा गलत कर्म भी करते हैं, जिससे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ियाँ और बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। बाद में भाई-बहन उन्हें नहीं चुनते हैं और संगति में उन्हें पहचान भी लेते हैं और उजागर भी कर देते हैं। इसलिए वे सोचने लगते हैं, “क्या यह मेरे खिलाफ आलोचना सत्र है? मैंने बस कार्य ठीक से नहीं किया, क्या यह वाकई इतनी बड़ी बात है? वे क्यों इस तरह से संगति कर रहे हैं और मुझे उजागर कर रहे हैं? मैंने इन सारे वर्षों में कभी ऐसी शिकायत नहीं सही! परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले मैं ही हमेशा दूसरों को फटकारता रहता था; कभी किसी ने मुझे नहीं फटकारा। मैंने पहले कभी ऐसा कष्ट कब सहा है? तुम सब मुझे तंग किए जा रहे हो, मुझे अपमानित महसूस करवा रहे हो। मैं अब विश्वास नहीं रखूँगा!” वे अचानक विश्वास रखना बंद कर देते हैं। ऐसा सिर्फ नौजवान लोग ही नहीं कहते हैं—कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें परमेश्वर में विश्वास रखते हुए आठ-दस वर्ष हो चुके होते हैं और उनकी आयु चालीस से पचास के बीच होती है, लेकिन वे भी दुखी होने पर ऐसी चीजें कह सकते हैं। क्या ऐसे लोगों के दिलों में परमेश्वर के लिए कोई जगह होती है? क्या वे परमेश्वर में विश्वास रखने को जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीज मानते हैं? जब व्यक्ति की काट-छाँट की जाए या वह आपदाओं या असफलताओं का सामना करे तो थोड़ा-सा नकारात्मक और कमजोर महसूस करना सामान्य है, लेकिन इन चीजों के कारण उसे परमेश्वर में विश्वास रखना बंद नहीं करना चाहिए। ऐसे लोग परमेश्वर में सच्चे विश्वासी नहीं होते हैं। परमेश्वर में सच्चे विश्वासी तब भी अपने विश्वास में दृढ़ रह सकते हैं जब उन्हें गिरफ्तार किया और सताया जाता है—सिर्फ इन्हीं लोगों के पास गवाही होती है। कुछ लोग जब किसी प्राकृतिक आपदा का सामना करते हैं, तब अगर भाई-बहनों को इस बारे में पता नहीं होता या उन्हें थोड़ी देर से पता चलता है और वे समय पर उनकी मदद नहीं करते हैं, तो वे सोचने लगते हैं, “यहाँ मैं कठिनाइयों का सामना कर रहा हूँ और कोई भी मेरी तरफ ध्यान नहीं दे रहा है। तो वे मुझे नीची नजर से देखते हैं! परमेश्वर में विश्वास रखना निरर्थक है। मैं अब विश्वास नहीं रखूँगा!” सिर्फ इतनी छोटी-सी बात के कारण वे परमेश्वर में विश्वास रखना बंद कर सकते हैं। यह उन लोगों की एक अभिव्यक्ति है जो किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम होते हैं।

जो लोग किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम होते हैं, उनके लिए एक और परिस्थिति है। सीसीपी उन्हें अपने पक्ष में करने के लिए एक अच्छी नौकरी की पेशकश करती है और उनसे कहती है, “तुम परमेश्वर में विश्वास रखकर कुछ नहीं कमाते हो। भला तुम्हारे पास क्या संभावनाएँ हो सकती हैं? हमने एक विदेशी कंपनी में तुम्हारे लिए एक ऊँचे मासिक वेतन, अच्छे फायदों और श्रम बीमा वाला पद ढूँढ़ निकाला है। परमेश्वर में विश्वास रखने में तुम्हारे लिए कोई भविष्य नहीं है; नौकरी करना, पैसे कमाना और एक अच्छा जीवन जीना इससे बेहतर है।” अंत में वे कलीसिया छोड़ देते हैं और नौकरी करने चले जाते हैं। कोई कहता है, “यह व्यक्ति कल तक कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा रहा था। फिर आज उसने क्यों अपना सामान समेट लिया और चला गया है?” वह नौकरी करने और पैसे कमाने जा रहा है; वह अब परमेश्वर में विश्वास नहीं रखता है। वह एक भी शब्द कहे बिना छोड़ देता है और इसके बाद वह भाई-बहनों से अलग रास्ते पर निकल जाता है, एक अलग मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति बन जाता है। वह शोहरत और फायदे के पीछे भागना चाहता है, बड़ा आदमी बनना और दूसरों से अलग दिखना चाहता है और अब परमेश्वर में विश्वास नहीं रखता है। ऐसे लोग भी हैं जो सुसमाचार का उपदेश देते समय किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है, वे उसके साथ मेलजोल बढ़ाते हैं और उसके साथ जीवन बिताने चले जाते हैं। वे न सिर्फ अपना कर्तव्य करना बंद कर देते हैं, बल्कि वे परमेश्वर में विश्वास रखना भी बंद कर देते हैं। घर पर उनके माता-पिता अब भी अनजान हैं, उन्हें लगता है कि वे परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य कर रहे हैं। दरअसल, यह व्यक्ति बहुत पहले ही छूमंतर हो गया—कौन जाने, शायद अब तक उसका कोई बच्चा भी हो गया हो। अपना कर्तव्य करना इतना महत्वपूर्ण है, फिर भी वह सुसमाचार प्रचार करने जैसा महत्वपूर्ण कार्य भी छोड़ सकता है। जब वे किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है या जिसे वे अच्छे लगते हैं, तो उस व्यक्ति के कुछ सरल से पटाने और लुभाने वाले शब्द उन्हें ले जाने के लिए पर्याप्त होते हैं। वे इतने ओछे और बेपरवाह होते हैं कि वे किसी भी समय और जगह परमेश्वर को छोड़ सकते हैं और परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हैं। ऐसे लोगों ने चाहे कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो या उन्होंने कितने भी धर्मोपदेश क्यों न सुने हों, फिर भी वे थोड़ा-सा भी सत्य नहीं समझते हैं। उनके लिए परमेश्वर में विश्वास रखना बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं है और अपना कर्तव्य करना भी कोई मायने नहीं रखता है—आशीषें प्राप्त करने की खातिर उन्हें लगता है कि उनके पास ये चीजें करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। जैसे ही कोई व्यक्तिगत मामला या पारिवारिक मुद्दा सामने आता है, वे अचानक छोड़ने में सक्षम होते हैं। जब वे थोड़े-से प्राकृतिक आपदा का सामना करते हैं, तो वे अचानक विश्वास रखना बंद कर सकते हैं। कोई भी चीज परमेश्वर में उनके विश्वास में दखल दे सकती है; किसी भी मामले के कारण वे नकारात्मक बन सकते हैं और अपना कर्तव्य छोड़ सकते हैं। वे किस तरह के लोग हैं? यह प्रश्न सही मायने में गहन चिंतन के योग्य है!

जो लोग किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम होते हैं, वे किस तरह के लोग हैं? एक प्रकार के लोग नासमझ, विचारहीन, भ्रमित लोग होते हैं जिन्हें बिल्कुल पता नहीं होता है कि वे परमेश्वर में क्यों विश्वास रखते हैं, चाहे उन्होंने कितने भी वर्षों से विश्वास क्यों न रखा हो। उन्हें बिल्कुल पता नहीं होता है कि परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ आखिर क्या है। दूसरे प्रकार के लोग छद्म-विश्वासी होते हैं जो परमेश्वर के अस्तित्व पर बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते हैं और परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ या मूल्य नहीं समझते हैं। धर्मोपदेश सुनना और परमेश्वर के वचन पढ़ना उनके लिए धर्मशास्त्र का अध्ययन करने या कुछ पेशेवर ज्ञान हासिल करने जैसा है—एक बार जब वे इसे समझ जाते हैं और इसके बारे में बात कर पाते हैं, तो वे इसे पूरा हो गया मान लेते हैं। वे इसे कभी भी अभ्यास में नहीं लाते हैं। उनके लिए परमेश्वर के वचन सिर्फ एक तरह का सिद्धांत हैं, एक नारा हैं और कभी उनका जीवन नहीं बन सकते हैं। इसलिए इन लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने से जुड़ी कोई भी चीज दिलचस्प नहीं लगती है। अपना कर्तव्य करना, सत्य का अनुसरण करना, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना, भाई-बहनों के साथ संगति करना और साथ मिलकर कलीसियाई जीवन जीना, वगैरह जैसी चीजें उन्हें आकर्षक नहीं लगती हैं, और इनमें से कोई भी चीज उन्हें खाने-पीने और मौज-मस्ती करने जैसी खुशी और रोमांच नहीं देती है। दूसरी ओर, परमेश्वर में सच्चे विश्वासियों को लगता है कि सत्य की संगति करने या कलीसियाई जीवन जीने के लिए भाई-बहनों के साथ रहना हमेशा उनके लिए फायदे और प्राप्तियाँ ला सकता है। वैसे तो कभी-कभी वे खतरे और उत्पीड़न का सामना करते हैं या सुसमाचार का उपदेश देने के लिए जोखिम उठाते हैं और अपना कर्तव्य करते हुए कुछ कष्ट सहते हैं, लेकिन चाहे जो भी हो, वे सत्य की समझ प्राप्त करते हैं और कष्ट सहकर और कीमत चुकाकर परमेश्वर को जानने का परिणाम हासिल करते हैं, और इस कष्ट और कीमत से उनके जीवन स्वभाव में एक परिवर्तन आता है। इन सब बातों को तोलने और उनका मूल्यांकन करने के बाद उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास रखना अच्छा है और सत्य को समझ पाना अत्यधिक मूल्यवान है। उनके दिल कलीसिया से विशेष रूप से जुड़ जाते हैं और वे कलीसियाई जीवन छोड़ने के बारे में कभी नहीं सोचते हैं। अगर वे देखते हैं कि कलीसियाई कार्य में बाधा डालने के कारण कलीसिया कुछ व्यक्तियों को समूह बी में भेज रही है या अलग-थलग या बहिष्कृत कर रही है तो परमेश्वर में सच्चाई से विश्वास रखने वाले लोगों के दिलों में थोड़ा-सा दुःख होता है। वे सोचते हैं, “मुझे अपना कर्तव्य लगन से करने की जरूरत है। मुझे बिल्कुल भी बहिष्कृत नहीं किया जा सकता। बहिष्कृत किया जाना सजा दिए जाने के समान है, जिसका अर्थ है नरक में जाने का परिणाम! फिर जीने का क्या अर्थ रह जाएगा?” ज्यादातर लोग कलीसिया छोड़ने से डरते हैं; उन्हें लगता है कि एक बार जब वे कलीसिया और परमेश्वर को छोड़ देंगे, तो वे सामान्य रूप से जी नहीं पाएँगे और सब कुछ समाप्त हो जाएगा। लेकिन किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम लोग कलीसिया को छोड़ना काफी सामान्य बात मानते हैं, ठीक एक नौकरी पाने पर दूसरी नौकरी छोड़ने जैसा। वे अंदर से कभी व्यथा महसूस नहीं करते या कोई पीड़ा नहीं भोगते हैं। तुम लोग क्या सोचते हो—क्या किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम लोगों में कोई जमीर या विवेक होता है? ऐसे लोग सही मायने में गैर भरोसेमंद होते हैं! कुछ लोगों के कर्तव्य का निर्वहन मानक-स्तर का नहीं होता है और वे हमेशा अंधाधुँध गलत कर्म करते हैं, जिससे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ियाँ और बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। फिर कलीसिया उन्हें उनका कर्तव्य करने से रोक देती है और उन्हें एक साधारण कलीसिया में भेज देती है। तो परिणामस्वरूप क्या होता है? अगले ही दिन वे पूरी तरह से एक अलग व्यक्ति की तरह व्यवहार करते हैं, पूरी तरह से एक नया जीवन शुरू करते हैं। कुछ लोग रूमानी मुलाकातें करना शुरू कर देते हैं और शादी कर लेते हैं, कुछ नौकरी तलाशने लगते हैं, दूसरे लोग कॉलेज चले जाते हैं और दूसरे लोग पुराने दोस्तों से फिर से संपर्क करते हैं, रिश्ते बनाते हैं और अमीर बनने के अवसरों की तलाश करते हैं। ये लोग तेजी से विशाल दुनिया में घुलमिल जाते हैं, मानवजाति के सागर में गायब हो जाते हैं—यह इतनी ही जल्दी होता है। कुछ भाई-बहन अपना कर्तव्य निभाने में खराब नतीजों के कारण किसी साधारण कलीसिया में भेजे जाने के बाद दुःख के एक दौर से गुजरते हैं, लेकिन वे आत्म-चिंतन करने और अपनी समस्याएँ पहचानने में समर्थ होते हैं और खुद में परिवर्तन लाने का कुछ रवैया दिखाते हैं। लेकिन किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम लोग जैसे ही कुछ कठिनाइयों का सामना करते हैं, वे अब अपना कर्तव्य नहीं करना चाहते हैं, अगले ही दिन कलीसिया छोड़ देते हैं और एक अविश्वासी के जीवन में लौट जाते हैं। उन्हें बिल्कुल भी दुःख महसूस नहीं होता है और वे यहाँ तक सोचते हैं, “परमेश्वर में विश्वास रखने में अच्छा है ही क्या? दूसरे लोग तुम्हारा लगातार मजाक उड़ाते रहते हैं और तुम्हारी बदनामी करते रहते हैं, और तुम्हारे गिरफ्तार होने और जेल जाने तक की आशंका रहती है। अगर बड़ा लाल अजगर मुझे पीट-पीटकर मार डाले, तो क्या मेरा जीवन बेकार नहीं जाएगा? मैंने इन सभी वर्षों में परमेश्वर में विश्वास रखने में बहुत सी कठिनाइयाँ सही हैं, लेकिन मुझे मिला ही क्या? अगर मैंने परमेश्वर में विश्वास नहीं किया होता तो अब तक मैं एक अधिकारी बन चुका होता, मैंने खूब पैसे कमा लिए होते और मैं प्रतिष्ठा का जीवन जी रहा होता! अब तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद मुझे पछतावा भी होता है—अगर मुझे पता होता कि यह ऐसा होगा तो मैं बहुत पहले ही छोड़ चुका होता! सत्य समझने का क्या फायदा है? क्या यह समझ तुम्हारा पेट भर सकती है या बिलों का भुगतान कर सकती है?” देखा? बात बस इतनी नहीं है कि उन्हें कोई पछतावा नहीं है, वे तो कलीसिया छोड़ने में समर्थ होने के कारण खुद को भाग्यशाली भी मानते हैं। क्या इससे छद्म-विश्वासियों के रूप में उनका असली चेहरा उजागर नहीं हो रहा है? (हाँ।)

कुछ लोग आदतन लापरवाह होते हैं और अपने कर्तव्य के निर्वहन में अंधाधुँध कुकृत्य करते हैं। कलीसिया से बाहर निकाल दिए जाने के बाद जब वे भाई-बहनों को मिलते हैं तो उन्हें ऐसे देखते हैं जैसे वे दुश्मन हों। यहाँ तक कि जब भाई-बहन उनसे समवेदनापूर्ण रूप से बात करने का प्रयास करते हैं, तो वे उन्हें नजरअंदाज कर देते हैं और उन्हें नफरत भरी नजरों से देखते हैं और कहते हैं, “तुम्हीं लोगों ने मुझे कलीसिया से बाहर निकाला है। अब मुझे देखो! मैं तुम लोगों से बेहतर हाल में हूँ! अब मैं सोने-चाँदी से सज गया हूँ, मैं एक प्रभावशाली व्यक्ति हूँ! मैं दुनिया में बड़े आराम से घूम-फिर रहा हूँ और देखो तुम लोग परमेश्वर में विश्वास रखने में कितने मैले-कुचले और थककर चूर हो गए हो! तुम सब सत्य प्राप्त करने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हो, लेकिन मुझे नहीं लगता है कि तुम लोग मुझसे कुछ ज्यादा होशियार हो! सत्य प्राप्त करने में इतना अच्छा है ही क्या? क्या इसे भोजन की तरह खाया या पैसे की तरह खर्च किया जा सकता है? सत्य का अनुसरण किए बिना भी मैं बहुत ही अच्छी तरह से जी रहा हूँ, है ना? यह मेरी खुशकिस्मती थी कि तुम लोगों ने मुझे बाहर निकाल दिया—मुझे इसके लिए तुम सभी का धन्यवाद करना चाहिए!” उनके शब्दों से यह स्पष्ट है कि वे छद्म-विश्वासी हैं और उनके कर्तव्य निर्वहन ने उन्हें बेनकाब कर दिया। क्या सिर्फ मौखिक रूप से परमेश्वर में विश्वास रखने वाला अविश्वासी स्वेच्छा से अपना कर्तव्य कर सकता है? अपना कर्तव्य करने का अर्थ है बिना मजदूरी कमाए या धनोपार्जन किए जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करना। वे इसे नुकसान के रूप में देखते हैं, इसलिए वे अपना कर्तव्य करने के अनिच्छुक होते हैं। छद्म-विश्वासियों के रूप में उनके असली रंग इस प्रकार उजागर हो जाते हैं; यही वह तरीका है जिससे परमेश्वर का कार्य छद्म-विश्वासियों को बेनकाब करता है और हटाता है। कुछ लोग अपना कर्तव्य करते समय हमेशा एक लापरवाह रवैया अपनाए रहते हैं, दिन-ब-दिन बस लक्ष्यहीन होकर चलते रहते हैं। जैसे ही उन्हें दुनिया में धनोपार्जन करने या पदोन्नति हासिल करने का अवसर मिलता है, वे किसी भी समय कलीसिया छोड़ देते हैं—उनके मन में हमेशा से यही इरादा रहा है। अगर आदतन लापरवाह होने और अपना कर्तव्य निभाते हुए अंधाधुँध कुकृत्य करने के कारण उन्हें एक साधारण कलीसिया में भेज दिया जाता है तो वे न सिर्फ आत्म-चिंतन नहीं करते, बल्कि यह भी सोचेंगे, “तुम्हारा मुझे पूर्णकालिक कर्तव्य वाली कलीसिया से दूर कर देना तुम्हारे लिए नुकसान है और मेरे लिए फायदा।” यहाँ तक कि वे खुद से काफी खुश भी होते हैं। क्या ऐसे लोग छद्म-विश्वासी नहीं हैं? मुझे बताओ, छद्म-विश्वासियों को इसलिए दूर कर देना क्योंकि उन्होंने अपने बेतहाशा गलत कर्मों के जरिए कलीसिया के कार्य में बुरी तरह से विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न की हैं, क्या यह परमेश्वर के घर के लिए सिद्धांतों के अनुरूप है? (हाँ।) यह पूरी तरह से सिद्धांतों के अनुरूप है; यह रत्ती भर भी उनके साथ अन्याय करना नहीं है। परमेश्वर के प्रति और अपना कर्तव्य करने के प्रति उनका रवैया ऐसा है कि वे किसी भी समय उन्हें छोड़ने और उनके साथ विश्वासघात करने में सक्षम हैं। यह चीज यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि अपने दिलों में उन्हें सकारात्मक चीजों में बिल्कुल कोई दिलचस्पी नहीं है। उन्होंने इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है और इतने सारे धर्मोपदेश सुने हैं, फिर भी परमेश्वर में विश्वास रखने का कोई भी सत्य या परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अनुभवजन्य गवाहियाँ उनके दिलों को रोककर नहीं रख पाती हैं। इनमें से एक भी चीज उन्हें दिलचस्प नहीं लगती है, उन्हें छूती नहीं है या उनमें लगाव पैदा नहीं करती है। यही उनकी मानवता का सार है, जो यह है कि उन्हें सकारात्मक चीजों में बिल्कुल कोई दिलचस्पी नहीं है। तो उनकी किसमें दिलचस्पी है? वे खाने-पीने और मौज-मस्ती करने में, देह के सुखों में, बुरे रुझानों में और शैतान के फलसफे में दिलचस्पी रखते हैं। उन्हें समाज की सभी नकारात्मक चीजों में विशेष रूप से दिलचस्पी होती है; सिर्फ सत्य और परमेश्वर के वचनों में ही उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं होती। यही कारण है कि वे किसी भी समय परमेश्वर का घर छोड़ने में सक्षम होते हैं। उन्हें परमेश्वर के घर की सभाओं के दौरान बार-बार परमेश्वर के वचन पढ़ने या बार-बार सत्य की संगति करने में कोई दिलचस्पी नहीं होती है। उन्हें कर्तव्य करने से विशेष रूप से घिन आती है और वे यहाँ तक सोचते हैं कि अपना कर्तव्य करने वाले सभी लोग बेवकूफ होते हैं। यह किस तरह की मानसिकता और किस तरह की मानवता है? उन्हें सत्य में या परमेश्वर द्वारा लोगों के उद्धार में कोई दिलचस्पी नहीं होती है और वे कलीसियाई जीवन से बिल्कुल भी लगाव महसूस नहीं करते हैं। वैसे तो उन्होंने परमेश्वर के वचनों के बारे में खुलेआम कोई राय नहीं बनाई है या उनकी निंदा नहीं की है, लेकिन उन्होंने कई वर्षों से थोड़ा-सा भी सत्य समझे बिना ही धर्मोपदेश सुने हैं—इससे स्पष्ट रूप से एक समस्या का पता चलता है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो एक ही समय में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों चीजों को नापसंद करता हो। अगर तुम सकारात्मक चीजें पसंद नहीं करते हो, तो तुम्हें नकारात्मक चीजों में विशेष रूप से दिलचस्पी होगी। अगर नकारात्मक चीजों में तुम्हें विशेष रूप से दिलचस्पी है, तो यकीनन सकारात्मक चीजों में तुम्हें दिलचस्पी नहीं होगी। इस प्रकार के व्यक्ति को सकारात्मक चीजों में बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं होती है, इसलिए परमेश्वर के घर में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे वे लगाव महसूस करते हों, ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे वे पसंद करते हों या जिसके लिए वे लालायित रहते हों। वे सबसे ज्यादा दिलचस्पी दुनिया के बुरे रुझानों, धन-दौलत, शोहरत और फायदा, अफसरशाही, अमीर बनने और विभिन्न लोकप्रिय पाखंडों और भ्रांतियों में रखते हैं। उनका दिल परमेश्वर के घर की नहीं, बल्कि दुनिया की अत्यधिक चाह रखता है, यही कारण है कि वे किसी भी समय परमेश्वर का घर छोड़ने में सक्षम होते हैं। परमेश्वर का घर छोड़ने और कलीसियाई जीवन छोड़ने से उन्हें कोई पछतावा, कोई दुःख या दर्द नहीं होता है, बल्कि उन्हें पूरी राहत मिलती है। वे मन में सोचते हैं : “आखिरकार मुझे अब हर रोज सत्य के बारे में धर्मोपदेश या संगति नहीं सुननी पड़ेगी, मुझ पर अब इन चीजों का अंकुश नहीं रहेगा। अब मैं बेधड़क शोहरत और फायदे के पीछे भाग सकता हूँ, धन-दौलत के पीछे भाग सकता हूँ, सुंदर महिलाओं के पीछे भाग सकता हूँ और अपनी व्यक्तिगत संभावनाओं को पाने की कोशिश कर सकता हूँ। आखिरकार, मैं बेधड़क झूठ बोल सकता हूँ और दूसरों को धोखा दे सकता हूँ, साजिशों और योजनाओं को अंजाम दे सकता हूँ और बेफिक्र होकर सभी प्रकार की दुष्ट युक्तियों का अभ्यास कर सकता हूँ। मैं लोगों से बातचीत करने के लिए किसी भी साधन का उपयोग कर सकता हूँ!” उनके लिए परमेश्वर के घर में धर्मोपदेश सुनना और सत्य की संगति करना दर्दनाक होता है और परमेश्वर का घर छोड़ना राहत जैसा लगता है। इसका अर्थ यह है कि उनके दिलों को इन सकारात्मक चीजों की जरूरत नहीं है। उन्हें जो चाहिए वे सभी दुनिया और समाज की चीजें हैं। इससे यह स्पष्ट है कि उन्होंने जिस कारण से कलीसिया छोड़ा, वह सीधे उनके अनुसरणों और प्राथमिकताओं से संबंधित है।

जो लोग किसी भी समय परमेश्वर का घर छोड़ने में सक्षम होते हैं उनका प्रकृति सार क्या है? क्या अब तुम लोग देख रहे हो कि यह क्या है? (हाँ। वे छद्म-विश्वासी प्रकार के लोग हैं। इनमें से ज्यादातर लोग जानवरों का पुनर्जन्म हैं, वे सभी बिना दिमागों या विचारों वाले भ्रमित व्यक्ति हैं।) सही कहा। उन्हें आस्था के मामले समझ में नहीं आते हैं। वे यह नहीं समझते हैं कि मानव जीवन का वाकई क्या अर्थ है, लोगों को कौन सा मार्ग अपनाना चाहिए, कौन-सी चीजें करना सबसे सार्थक है, एक व्यक्ति होने के नाते अभ्यास के किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, वगैरह, और वे इन्हें समझने के लिए सत्य की खोज भी नहीं करना चाहते हैं। वे क्या अनुसरण करना पसंद करते हैं? दिन भर उनके दिमाग इस बात पर केंद्रित रहते हैं कि वे फायदे हासिल करने और दूसरों से बेहतर जीवन का आनंद लेने के लिए क्या कर सकते हैं। कुछ लोग बाहरी दुनिया में नौकरी करते समय परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते हैं। लेकिन जैसे ही उन्हें पर्यवेक्षक या प्रबंधक के पद पर पदोन्नत किया जाता है या वे प्रमुख बन जाते हैं, वे विश्वास रखना बंद कर देते हैं। जब भाई-बहन उनसे संपर्क करते हैं तो वे कहते हैं, “अब मैं एक रुतबे और प्रतिष्ठा वाला, सामाजिक हैसियत वाला व्यक्ति हूँ। तुम लोगों के साथ परमेश्वर में विश्वास रखना बहुत ही अपमानजनक है। तुम सभी को मुझसे दूर रहना चाहिए और फिर से मुझे ढूँढ़ते हुए यहाँ मत आना! तुम लोग अगर चाहो, तो मेरा नाम काट सकते हो या मुझे निष्कासित कर सकते हो। वैसे भी, परमेश्वर में विश्वास रखने का मेरा अध्याय समाप्त हो चुका है और अब मेरा तुम लोगों से कोई लेना-देना नहीं है!” देखा, वे क्या कहते हैं? वे किस तरह के व्यक्ति हैं? क्या तुम लोग अब भी उनसे संपर्क करोगे? (नहीं।) उन्होंने यह बात साफ-साफ कह दी है, लेकिन कुछ कलीसियाई अगुआ जब उन्हें छोड़ते हुए देखते हैं, तो उन्हें अब भी यह खेदजनक लगता है और वे उन्हें राजी करने के लिए उनसे कई बार संपर्क करते हैं : “तुममें इतनी अच्छी काबिलियत है, और तुम तो पहले एक अगुआ और कार्यकर्ता भी हुआ करते थे। तुम्हें सिर्फ इसलिए बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया था। अगर तुम लगन से सत्य का अनुसरण करते हो, तो तुम यकीनन बचाए जाओगे और भविष्य में तुम निश्चित रूप से परमेश्वर के घर में एक स्तंभ, एक मुख्य आधार बनोगे!” अगुआ ये बातें जितनी ज्यादा कहते हैं, उतना ही यह दूसरे पक्ष के मन में नफरत उत्पन्न करता है। कुछ कलीसियाई अगुआ भ्रमित होते हैं और उनमें सूझ-बूझ की कमी होती है; इस व्यक्ति को दुनिया में पदोन्नत किया गया है, फिर भी ये अगुआ अब भी उससे ईर्ष्या करते हैं और उससे संबंध स्थापित करना चाहते हैं—क्या यह आत्म-सम्मान की कमी नहीं दर्शाता है? सत्य समझने वाले लोग इस मामले को स्पष्ट रूप से देख पाते हैं : समाज में पदोन्नत होना एक अच्छा संकेत नहीं है; यह व्यक्ति के लिए चलने का सही मार्ग नहीं है! कुछ लोग समाज में थोड़ा सा रुतबा हासिल करते ही परमेश्वर में विश्वास रखना बंद कर देते हैं—यह उन्हें बिल्कुल बेनकाब कर देता है और साबित करता है कि वे सच्चाई से परमेश्वर में विश्वास रखने वाले या सत्य से प्रेम करने वाले लोग नहीं हैं। अगर वे सच्चे विश्वासी होते, तो भले ही उन्हें पदोन्नत कर दिया जाता और समाज में उनका भविष्य उज्ज्वल होता, फिर भी वे परमेश्वर को नहीं छोड़ते। अब जब वे परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर चुके हैं, तो क्या कलीसिया को उनसे संपर्क करने और उन पर कार्य करने की कोई जरूरत है? इसकी कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वे पहले ही छद्म-विश्वासियों के रूप में बेनकाब किए जा चुके हैं। परमेश्वर में विश्वास न रखने से उन्हीं का नुकसान है—उनके पास आशीष ही नहीं है। वे बस मनहूस जीव हैं; अगर अब भी तुम उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए राजी करने पर अड़े रहते हो, तो क्या यह बेवकूफी नहीं है? जितना तुम उन्हें इस तरह से राजी करने का प्रयास करते हो, उतना ही वे तुम्हें नीची नजरों से देखते हैं। उनका मानना है कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों का सामाजिक रुतबा निम्न होता है और उनमें काबिलियत की कमी होती है। यही कारण है कि वे विशेष रूप से घमंडी और आत्मतुष्ट होते हैं, हर किसी को नफरत भरी नजरों से देखते हैं। अगर कोई उनके बारे में चिंता दर्शाता है या उनकी परवाह करता है, तो उन्हें लगता है कि वह उन्हें खुश करने का प्रयास कर रहा है। यह किस तरह की मानसिकता है? यह भाई-बहनों को सही ढंग से देखने की अक्षमता है। क्या वे कोई सच्चाई से परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग हैं? इस तरह के व्यक्ति से मिलने पर तुम्हें उसे अस्वीकार कर देना चाहिए। जैसे ही वह कहे, “अब मैं वरिष्ठ पर्यवेक्षक हूँ। फिर से मुझे ढूँढ़ते हुए यहाँ मत आना। अगर तुम मुझसे संपर्क करते रहोगे, तो मैं तुम लोगों के खिलाफ हो जाऊँगा! खासकर मेरी कंपनी में आकर मुझे शर्मिंदा मत करना—ऐसे लोगों से मेरा कोई लेना-देना नहीं है जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं!”—जैसे ही वह ये शब्द कहे, तुम लोगों को तुरंत वहाँ से चले जाना चाहिए, उसका नाम काट देना चाहिए और भविष्य में कभी भी ऐसे व्यक्ति से मेल-मिलाप नहीं रखना चाहिए। वह डरता है कि हम उसकी सफलता का फायदा उठाएँगे; इसलिए हममें कुछ आत्म-जागरूकता जरूर होनी चाहिए। वह फल-फूल रहा है और ऊँचे पदों पर चढ़ता जा रहा है; वह हमारी पहुँच से बाहर है। हम तो बस आम लोग हैं, समाज के निचले तबके के लोग हैं। हमें उससे संपर्क स्थापित करने का प्रयास नहीं करना चाहिए—खुद को इतना नीचे मत गिराओ! कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनकी उम्र ज्यादा है और जिनके बच्चे शहर में एक आलीशान घर खरीदते हैं। घर में जाने के बाद वे भाई-बहनों की नजरों से गायब हो जाते हैं और कहते हैं : “फिर से मुझे ढूँढ़ते हुए यहाँ मत आना। तुम सब लोग देहाती हो। अगर तुम लोग मुझे ढूँढ़ते हुए यहाँ आओगे तो लोग सोचेंगे कि मैं भी देहाती हूँ, कि मेरे देहाती रिश्तेदार हैं। वह कितना शर्मनाक होगा! क्या तुम्हें पता है कि मेरा बेटा किस तरह का व्यक्ति है? उसके पास बेशुमार दौलत है, वह एक रईस है, ऐसा आदमी है जिसे सारी दुनिया जानती है! अगर तुम लोगों ने मुझसे संपर्क रखा, तो क्या यह मेरे बेटे के लिए अपमानजनक नहीं होगा? इसलिए भविष्य में फिर से मुझे ढूँढ़ते हुए यहाँ मत आना।” जैसे ही वे ये शब्द कहें, उन्हें बस यह उत्तर देना : “चूँकि तुम्हारा यह रवैया है, हमें समझ आ गया है। फिर हम तुम्हारी खुशी और आनंद की कामना करते हैं!” उस समय, अगर तुमने एक भी शब्द और कहा तो तुम्हें बेवकूफ और नीच समझा जाएगा। वहाँ से तुरंत चले जाना ही सही है। छद्म-विश्वासियों को कभी भी जबरन समझाने का प्रयास मत करो—वह सिर्फ बेवकूफी भरा व्यवहार है। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) कुछ लोग कितने बेवकूफ हो सकते हैं? वे कहते हैं, “उस व्यक्ति का बेटा एक रईस है, समाज में रुतबे वाला दौलतमंद आदमी है। उसके सरकारी अफसरों से भी अच्छे संबंध है। अगर हम उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखना जारी रखने के लिए राजी कर लें, तो उनका परिवार भाई-बहनों की मेजबानी भी कर सकता है!” यह विचार कैसा लगता है? अगर तुम कलीसिया के कार्य के प्रति विचारशील होने, भाई-बहनों के प्रति विचारशील होने और सुरक्षा पर विचार करने के परिप्रेक्ष्य से इस बारे में सोचते हो, तो यह बिल्कुल उपयुक्त है। लेकिन तुम्हें यह देखना होगा कि क्या वे सच्चाई से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। अगर वे परमेश्वर में विश्वास रखने को तैयार नहीं हैं और भाई-बहनों के संपर्क में रहना पसंद नहीं करते हैं, फिर भी तुम उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए राजी करना चाहते हो तो क्या यह बेवकूफी नहीं है? ऐसी चीजें मत करो जो आत्म-सम्मान की कमी दर्शाता हो। परमेश्वर में विश्वास रखने में हमारे पास परमेश्वर की सुरक्षा और परमेश्वर का मार्गदर्शन है। हम चाहे किसी भी परिवेश में रहते हों, यह सब कुछ परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन है। हम चाहे कोई भी कष्ट सहते हों, हमें सम्मान के साथ जीना चाहिए। कुछ लोग तो परमेश्वर का घर छोड़ने वाले इस व्यक्ति से ईर्ष्या भी करते हैं और कहते हैं कि वह सक्षम है—क्या यह नजरिया सही है? हमें यह मामला कैसे देखना चाहिए? एक बार जब वह एक बड़े घर में रहने चला गया, तो उसने परमेश्वर में विश्वास रखना बंद कर दिया। समाज में उसका रुतबा और हैसियत है और अपने दिल में वह भाई-बहनों को नीची नजर से देखता है, उन्हें समाज के सबसे निचले तबके के ऐसे लोगों के रूप में देखता है जो उससे बातचीत करने के अयोग्य हैं। इसलिए हममें आत्म-जागरूकता होनी चाहिए और हमें ऐसे लोगों से संबंध स्थापित करने या उनके साथ घुलने-मिलने का प्रयास नहीं करना चाहिए, है ना? (हाँ।)

जो लोग किसी भी समय परमेश्वर का घर छोड़ने में सक्षम हैं, चाहे वे छद्म-विश्वासी हों या बस निकम्मे हों, वे परमेश्वर में विश्वास चाहे आशीषें प्राप्त करने के लिए रखते हों या आपदाओं से बचने के लिए—परिस्थिति चाहे जो हो—जब तक वे किसी भी समय परमेश्वर का घर छोड़ने में सक्षम हैं और छोड़ने के बाद उन्हें उनसे संपर्क करने वाले भाई-बहनों से घिन आती है, और उससे भी ज्यादा घिन भाई-बहनों की मदद और सहारे से आती है, और वे ऐसे सभी लोगों के प्रति शत्रुता दिखाते हैं जो उनके साथ सत्य की संगति करते हैं, तो ऐसे लोगों पर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं है। अगर इस प्रकार के छद्म-विश्वासियों का पता चलता है, तो उन्हें समय रहते उजागर कर देना चाहिए और बाहर निकाल देना चाहिए। कुछ लोग हो सकता है कि सत्य से प्रेम न करते हों, लेकिन वे अच्छे लोग बनना पसंद करते हैं और भाई-बहनों के साथ रहने का आनंद लेते हैं; इससे उनका मिजाज अच्छा रहता है और इससे भी बड़ी बात यह है कि वे दुर्व्यवहार किए जाने से बचते हैं। अपने दिलों में वे जानते हैं कि वे सच्चे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और लगन से श्रम करने को तैयार रहते हैं। अगर उनका वाकई इस तरह का रवैया है, तो क्या तुम लोगों को लगता है कि उन्हें अपना कर्तव्य करते रहने की अनुमति देनी चाहिए? (हाँ।) अगर वे श्रम करने को तैयार हैं और परेशानी या बाधा खड़ी नहीं करते हैं, तो वे श्रम करना जारी रख सकते हैं। लेकिन अगर एक दिन वे अब और श्रम करने को तैयार नहीं होते हैं और यह कहकर परमेश्वर का घर छोड़ना चाहते हैं : “मैं दुनिया में सफलता हासिल करने का प्रयास करने जा रहा हूँ। मैं अब तुम लोगों के साथ परमेश्वर में विश्वास नहीं रखने वाला हूँ। यहाँ बिल्कुल मजा नहीं आता है और कभी-कभी जब मैं अपना कर्तव्य करने में लापरवाह होता हूँ, तो मेरी काट-छाँट की जाती है। यहाँ रहना वाकई कठिन है; मैं छोड़ना चाहता हूँ”—तो क्या ऐसे व्यक्ति को रुकने के लिए राजी करना चाहिए? (नहीं।) हम उससे बस एक प्रश्न पूछ सकते हैं : “क्या तुमने इस बारे में अच्छी तरह से सोचा है?” अगर वे कहते हैं, “मैंने इस बारे में लंबे समय तक सोचा है,” तो तुम कह सकते हो, “तो हम तुम्हें शुभकामनाएँ देते हैं। अपना ख्याल रखना और अलविदा!” क्या यह तरीका ठीक है? (हाँ।) तुम लोगों को क्या लगता है कि ये किस तरह के लोग हैं? वे उस प्रकार के लोग हैं जो सोचते हैं कि वे सामान्य से बेहतर हैं, और जो दुनिया और उसके तौर-तरीकों से नफरत करते हैं, अक्सर मशहूर लोगों की कविताएँ सुनाते हैं, जैसे, “मैं अपनी आस्तीन लहराता हूँ, लेकिन बादल का एक टुकड़ा तक नहीं हटाता।” उन्हें लगता है कि वे खुद को शुद्ध रखते हैं और वे इस दुनिया के अनुरूप नहीं हैं और वे परमेश्वर में विश्वास रखकर कुछ दिलासा खोजना चाहते हैं। वे हमेशा खुद को किसी असाधारण व्यक्ति के रूप में देखते हैं, लेकिन वास्तव में वे सबसे संसारी लोग हैं, जो सिर्फ खाने-पीने और मौज-मस्ती करने के लिए जीते हैं। उनके पास कोई वास्तविक विचार और कोई वास्तविक अनुसरण नहीं हैं। वे खुद को किसी उत्कृष्ट व्यक्ति के रूप में देखते हैं, मानो कोई भी उनके विचारों को समझ नहीं पाता हो या उनके सोचने के तरीके के टक्कर का ना हो। वे अपने मानसिक क्षितिज को औसत व्यक्ति से ऊँचा मानते हैं और इस तरह की चीजें कहते हैं : “तुम सभी साधारण लोग हो, लेकिन मुझे देखो—मैं अलग हूँ। अगर तुम मुझसे पूछो कि मैं कहाँ से हूँ, तो मैं तुम्हें बता दूँगा कि मेरा अपना शहर बहुत दूर है।” क्या उन्होंने तुम्हें बताया कि वे कहाँ से हैं? क्या तुम्हें पता है कि यह तथाकथित “बहुत दूर” जगह कहाँ है? जो लोग किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम हैं, वे बिल्कुल इसी प्रकार के होते हैं। उन्हें लगता है कि कहीं भी उन्हें संतुष्टि नहीं मिल सकती है और वे हमेशा कुछ अवास्तविक, अस्पष्ट, भ्रामक चीजों के बारे में सोचते रहते हैं। वे वास्तविकता पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं और यह नहीं समझते हैं कि मानव जीवन क्या है या लोगों को कौन-सा मार्ग चुनना चाहिए। वे इन चीजों को नहीं समझते हैं—वे बस अजीबोगरीब होते हैं। अगर इस प्रकार के किसी व्यक्ति ने कलीसिया छोड़ने का मन बना लिया हो और वह कहे कि उसने लंबे समय तक इस बारे में अच्छी तरह से सोचा है, तो उसे रुकने के लिए राजी करने की कोई जरूरत नहीं है। एक भी शब्द और मत कहो—सिर्फ उसका नाम काट दो, बस। ऐसे लोगों को इसी तरीके से संभालना चाहिए; यह लोगों के साथ व्यवहार करने के सिद्धांतों के अनुरूप है। इसी के साथ उन लोगों के बारे में संगति समाप्त होती है जो किसी भी समय कलीसिया छोड़ने में सक्षम हैं।

ञ. ढुलमुल होना

दसवीं अभिव्यक्ति है : “ढुलमुल होना।” ढुलमुल लोगों द्वारा कौन-सी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित की जाती हैं? सबसे पहले, इन लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में ये सबसे बड़ी शंकाएँ होती हैं : “क्या परमेश्वर का वास्तव में अस्तित्व है? क्या कोई आध्यात्मिक क्षेत्र होता है? क्या नरक है? क्या परमेश्वर द्वारा बोले गए ये वचन ही सत्य हैं? लोग कहते हैं कि यह व्यक्ति परमेश्वर का देहधारण है, लेकिन मैंने ऐसा कोई पहलू नहीं देखा है जो उसे परमेश्वर के देहधारण जैसा दिखाता हो! तो परमेश्वर की आत्मा वास्तव में है कहाँ? क्या परमेश्वर का वाकई अस्तित्व है या नहीं है?” वे इन प्रश्नों को कभी भी स्पष्ट रूप से समझ नहीं पाते हैं। वे देखते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले बहुत से लोग हैं और सोचते हैं, “परमेश्वर का अस्तित्व होना ही चाहिए। शायद उसका अस्तित्व है। उम्मीद करता हूँ कि उसका अस्तित्व हो। परमेश्वर में विश्वास रखने से वैसे भी मुझे कोई नुकसान तो नहीं हुआ है; किसी ने भी मेरे साथ बुरा व्यवहार नहीं किया है। मैंने सुना है कि कर्तव्य करने से आशीषें और एक अच्छा गंतव्य मिल सकता है, और इससे ऐसा होगा कि मैं भविष्य में नहीं मरूँगा। इसलिए मेरे ख्याल से मैं बस साथ-साथ अनुसरण करूँगा और विश्वास रखूँगा।” कुछ समय तक विश्वास रखने के बाद वे देखते हैं कि कुछ लोग परीक्षणों और विपत्तियों का सामना करते हैं, और वे विचार करना शुरू कर देते हैं : “क्या परमेश्वर में विश्वास रखने से आशीषें नहीं मिलनी चाहिए? कुछ लोग गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और मर गए, कुछ लोगों को बड़े लाल अजगर ने गिरफ्तार कर लिया और सता-सताकर मार डाला, और दूसरे लोग कर्तव्य करते समय बीमार पड़ गए या उनके परिवारों पर आपदाएँ आ गईं। परमेश्वर ने उनकी रक्षा क्यों नहीं की? तो, क्या परमेश्वर का वाकई अस्तित्व है या नहीं है? अगर उसका अस्तित्व है, तो ये चीजें नहीं होनी चाहिए थीं!” कुछ नेकदिल लोग उनके साथ सत्य की संगति करते हैं और कहते हैं : “परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है और परमेश्वर का हाथ लोगों की किस्मतों की योजना बनाता है। लोगों को परमेश्वर से ये मामले स्वीकार करने चाहिए और खुद को परमेश्वर के आयोजन के हवाले कर देना चाहिए। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह अच्छा होता है।” इस पर ये ढुलमुल व्यक्ति कहते हैं : “मुझे नहीं दिखता कि इसमें क्या अच्छा है! आपदाएँ सहना—क्या यह अच्छा है? गंभीर रूप से बीमार पड़ना या लाइलाज बीमारी होना—क्या यह अच्छा है? मर जाना तो और भी बदतर है। परमेश्वर का अस्तित्व है या नहीं है? मुझे नहीं पता।” वे परमेश्वर के बारे में हमेशा शंकाओं से भरे रहते हैं। जब वे बहुत से लोगों को कर्तव्य करते, परमेश्वर के घर का कार्य ज्यादा से ज्यादा फैलते और कलीसिया को दिन-ब-दिन फलता-फूलता देखते हैं, तो उन्हें महसूस होता है कि परमेश्वर का अस्तित्व होना ही चाहिए। विशेष रूप से जब वे भाई-बहनों को परमेश्वर द्वारा दिखाए गए चिह्नों और चमत्कारों की और परमेश्वर से प्राप्त अनुग्रह की गवाही देते सुनते हैं, तो ये ढुलमुल व्यक्ति और जोर से यह महसूस करते हैं कि : “यकीनन परमेश्वर का अस्तित्व है! वैसे तो लोग परमेश्वर की आत्मा देख नहीं पाते हैं, लेकिन लोगों ने देहधारी परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन सुने हैं, और मैंने भी कई लोगों को परमेश्वर के वचनों की संगति करते और परमेश्वर के वचनों का अनुभव करते सुना है। इसलिए परमेश्वर का अस्तित्व यकीनन होना चाहिए!” जब कलीसिया फल-फूल रही होती है, उसके लिए सब कुछ सुचारु रूप से चल रहा होता है, वह विकास कर रही होती है, और कलीसिया का कार्य ज्यादा से ज्यादा फैल रहा होता है, और विशेष रूप से जब भाई-बहन कुछ विशेष हालातों और विशेष मामलों का अनुभव करते हैं और इन चीजों के जरिए परमेश्वर की सुरक्षा, संप्रभुता और अगुवाई देखते हैं, तो उन्हें महसूस होता है कि परमेश्वर का अस्तित्व है और परमेश्वर सही मायने में अच्छा है। लेकिन कुछ समय बाद वे निराशाओं और बुरे दौर का सामना कर सकते हैं, कुछ को असफलताओं और बाधाओं का अनुभव हो सकता है या परमेश्वर का घर कुछ लोगों को हटा सकता है; ये चीजें विशेष रूप से आखिरी चीज, उनकी धारणाओं का बहुत ज्यादा खंडन करती हैं और उनकी उम्मीदों से परे होती हैं। उन्हें लगता है, “अगर परमेश्वर का अस्तित्व है, तो ये चीजें कैसे हो सकती हैं? ये नहीं होनी चाहिए! अविश्वासियों के बीच ऐसी चीजें होना सामान्य बात है, लेकिन ये परमेश्वर के घर में भी कैसे हो सकती हैं? अगर परमेश्वर का अस्तित्व है, तो उसे इन मामलों का निपटारा करना चाहिए और इन चीजों को होने से रोकना चाहिए, क्योंकि वह सर्वशक्तिमान है, उसके पास अधिकार है, और उसके पास शक्ति है! क्या वाकई परमेश्वर का अस्तित्व है या नहीं है? लोग परमेश्वर की आत्मा नहीं देख पाते हैं। जहाँ तक देहधारी परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों की बात है, तो सभी लोग कहते हैं कि वे ही सत्य हैं, मार्ग हैं, और कि वे लोगों का जीवन हो सकते हैं। लेकिन मुझे क्यों ऐसा महसूस नहीं होता है कि वे ही सत्य हैं? मैंने बहुत लंबे समय से धर्मोपदेश सुने हैं, लेकिन मेरा जीवन बिल्कुल भी परिवर्तित नहीं हुआ है! मैंने बहुत कष्ट सहा है—मुझे क्या प्राप्त हुआ है?” उन्हें परमेश्वर के बारे में शंकाएँ होने लगती हैं और अपना कर्तव्य करने के लिए उनका उत्साह कम हो जाता है और ठंडा पड़ जाता है। फिर वे एक प्रतिष्ठित जीवन जीने के लिए नौकरी करने जाने और पैसे कमाने के लिए परमेश्वर का घर छोड़ने के बारे में सोचते हैं—ये सक्रिय विचार प्रकट होने लगते हैं। वे मन में सोचते हैं : “अगर मैं जिस परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ वह सच्चा परमेश्वर नहीं है, तो इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते हुए मेरे नौकरी नहीं करने या पैसे नहीं कमाने से बहुत ही बड़ा नुकसान हुआ है! नहीं, इस तरीके से सोचना गलत है। मुझे अब भी उचित रूप से विश्वास रखने की जरूरत है। मैंने लोगों को यह कहते सुना है कि परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़ने से व्यक्ति सत्य समझने, सभी समस्याएँ सुलझाने में सक्षम हो जाएगा और फिर कमजोर नहीं रहेगा। लेकिन मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े हैं और अब भी मुझे सत्य समझ नहीं आया है। मैं अब भी नकारात्मक क्यों महसूस करता हूँ? मुझे हमेशा ऐसा क्यों लगता है कि मेरे पास अपना कर्तव्य करने की ऊर्जा नहीं है? परमेश्वर मुझमें कार्य नहीं कर रहा है! मेरी बहुत सी कठिनाइयाँ हैं, लेकिन परमेश्वर ने मेरे लिए कोई रास्ता नहीं खोला है। तो क्या वाकई परमेश्वर का अस्तित्व है या नहीं है? अगर यही सच्चा मार्ग है, तो परमेश्वर को उन लोगों को धन्य करना चाहिए जो शांति, सहजता और सामान्यता से अपना कर्तव्य करते हैं। तो सुसमाचार का उपदेश देने और कर्तव्य करने में अब भी इतनी बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ क्यों आती हैं? वैसे तो मुझे पता है कि धार्मिक समुदाय पिछड़ गया है और सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखना राज्य के युग में प्रवेश कर रहा है, लेकिन मैंने यह क्यों नहीं देखा है कि पवित्र आत्मा कैसे कार्य करता है?” ये किस तरह के लोग हैं? ये वे लोग हैं जिनमें आध्यात्मिक समझ बिल्कुल नहीं होती है। वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, लेकिन सत्य नहीं समझते हैं। सत्य पर चाहे कितनी भी संगति क्यों न की जाए, वे इसका अर्थ नहीं समझ पाते हैं। वे चीजों को हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर देखते हैं और परमेश्वर के बारे में लगातार शंकाओं से भरे रहते हैं। आखिर ऐसा व्यक्ति सत्य कैसे समझ सकता है? कुछ लोग देखते हैं कि सुसमाचार का उपदेश देना काफी कठिन है, इसलिए वे सोचते हैं : “अगर यही सच्चा मार्ग होता, तो पवित्र आत्मा बढ़िया कार्य कर रहा होता। भाई-बहन जहाँ भी सुसमाचार का उपदेश देने जाते, वहाँ यह सहज और अबाधित होता। इससे भी बढ़कर यह होता कि सरकारी अफसर भी विश्वास करना शुरू कर देते और हर चीज को अनुमति दे देते। यह वाकई सच्चे परमेश्वर का कार्य होता। लेकिन अब, तथ्यों को देखा जाए, तो मामला ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। दुनिया भर के विभिन्न देशों के राष्ट्रपति और अफसर न सिर्फ परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं, बल्कि वे परमेश्वर में विश्वास का समर्थन भी नहीं करते हैं। कुछ देशों में तो सरकारें विश्वासियों को सताती भी हैं और लोगों द्वारा परमेश्वर में विश्वास रखने में बाधा भी डालती हैं। तो, क्या हम जिस परमेश्वर में विश्वास रखते हैं वह वाकई सच्चा परमेश्वर है? मुझे नहीं पता; यह कहना कठिन है।” उनके दिलों में हमेशा एक बड़ा प्रश्नचिह्न रहता है। हर बार जब वे किसी तरह की खबर सुनते हैं, तो यह उन्हें एक ऐसे “भूकंप” जैसा महसूस होता है जिसका प्रभाव न तो बहुत बड़ा होता है और न ही ध्यान देने लायक होता है, जिससे वे ढुलमुल हो जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं : “क्या वे हमेशा इसलिए ढुलमुल होते हैं क्योंकि उन्होंने सिर्फ थोड़े समय से ही परमेश्वर में विश्वास रखा है?” ऐसी बात नहीं है—कुछ लोगों ने तीन वर्ष, पाँच वर्ष या यहाँ तक कि दस वर्षों से भी ज्यादा समय से विश्वास रखा है। क्या इसे थोड़ा समय माना जाता है? अगर किसी ने अनुग्रह के युग के कार्य के दौरान तीन या पाँच वर्षों तक विश्वास रखा था, तो इसे लंबा समय नहीं माना जाएगा, क्योंकि उन्होंने अंत के दिनों में परमेश्वर के कथन और वचन नहीं सुने थे; उन्होंने बाइबल और लोगों के धर्मोपदेशों से सिर्फ थोड़ा सा बाइबल-संबंधी ज्ञान और आध्यात्मिक सिद्धांत ही समझा था। यह बहुत ही कम प्राप्ति है। जब कोई इस मौजूदा चरण का कार्य स्वीकार करता है, तो बात अलग होती है—जब तक वह अपना कर्तव्य करता है और तीन वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण करता है, तब तक वह जो अनुभव करता है, समझता है और प्राप्त करता है वह उससे कहीं बढ़कर होता है जो कोई व्यक्ति अनुग्रह के युग में बीस या तीस वर्षों तक या यहाँ तक कि पूरे जीवनकाल तक प्रभु में विश्वास रखने से प्राप्त कर पाता। लेकिन ये लोग जो तीन, पाँच या दस वर्षों से भी ज्यादा समय से विश्वास रखने के बाद भी ढुलमुल होते हैं, वे अब भी यह तय नहीं कर पाते हैं कि कार्य का यह चरण परमेश्वर द्वारा किया गया है या नहीं, और उन्हें परमेश्वर के अस्तित्व के बारे में भी शंकाएँ होती हैं। क्या तुम कहोगे कि ऐसे लोग बहुत परेशान करने वाले होते हैं? क्या उनमें सत्य समझने की क्षमता होती है? (नहीं।) क्या उनके पास सामान्य मानवता के सोचने का तरीका होता है? (नहीं।) वे सत्य समझने में असमर्थ होते हैं। कलीसिया में चाहे कोई भी परिस्थिति क्यों ना उत्पन्न हो, वह हमेशा उनके ढुलमुल होने का कारण बन सकती है—उनके दिलों के प्रश्नचिह्न उनके लिए लगातार “भूकंप” शुरू करते रहते हैं। अगर मसीह-विरोधी कलीसिया में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं और कुछ लोग गुमराह हो जाते हैं, या अगर कोई व्यक्ति जिसे वे पूजते हैं, कुछ ऐसा करता है जिसकी उन्होंने उम्मीद नहीं की थी—जैसे कि चढ़ावा चुराना या व्यभिचारी गतिविधियों में शामिल होना—और उसे निष्कासित कर दिया जाता है, तो इससे उनके दिल ढुलमुल होने लगते हैं और वे परमेश्वर पर शंका करना शुरू कर देते हैं : “क्या यह परमेश्वर के कार्य की धारा नहीं है? फिर कलीसिया में ऐसी अराजक चीजें कैसे हो सकती हैं? परमेश्वर मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों के प्रकट होने की अनुमति कैसे दे सकता है? क्या यह वाकई सच्चा मार्ग है?” कलीसिया में उनकी धारणाओं के खिलाफ जो भी होता है, उसके कारण उनके मन में शंकाएँ उत्पन्न होती हैं और वे प्रश्न करने लगते हैं कि क्या यही सच्चा मार्ग है, क्या यह परमेश्वर का कार्य है, और क्या वाकई परमेश्वर का अस्तित्व है। वे मामले को सही ढंग से देखने के लिए सत्य की तलाश ही नहीं करते हैं। यह अकेले ही यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि शुरू से आखिर तक उन्होंने मूल रूप से कभी यह विश्वास ही नहीं किया कि कार्य का यह चरण परमेश्वर द्वारा किया गया है। शुरू से आखिर तक उन्होंने कभी यह नहीं जाना कि सत्य क्या है, और न ही यह जाना कि परमेश्वर सत्य क्यों व्यक्त करता है। परमेश्वर ने बहुत से वचन कहे हैं और बहुत से कार्य किए हैं—यह सब कुछ परमेश्वर का ही किया हुआ है। इतने सारे लोगों ने इसे परखा है और इसके बारे में निश्चित हो गए हैं, लेकिन वे इन चीजों के आधार पर मामलों को देखने से इनकार करते हैं। वे राय बनाने के लिए हमेशा मानवीय परिप्रेक्ष्यों और मानवीय सोच का उपयोग करते हैं—वे खुद पर बहुत ही ज्यादा भरोसा करते हैं। जब कलीसिया के कार्य या कलीसियाई जीवन में कुछ कमियाँ या विचलन होते हैं, या जब कलीसिया को सरकार द्वारा दबाया और सताया जाता है, तो वे फिर से प्रश्न करना शुरू कर देते हैं : “क्या यह वाकई सच्चा मार्ग है?” जब कलीसिया में मसीह-विरोधी और नकली अगुआ प्रकट होते हैं, तो वे भी प्रश्न करना शुरू कर देते हैं। वे कहते हैं : “धार्मिक कलीसियाओं में उन पादरियों और एल्डर्स को देखो—वे सही मायने में प्रभु से प्रेम करते हैं, और उनकी कलीसियाओं में मसीह-विरोधी वाली कोई घटना नहीं होती है। सच्चा मार्ग तो बस वही है। अगर तुम लोगों के पास यहाँ जो है वही सच्चा मार्ग है, तो ये चीजें अब भी क्यों हो रही हैं?” वे इस तरह से तुलनाएँ करते हैं। और कुछ दूसरे बेवकूफ लोग कैसे तुलनाएँ करते हैं? वे कहते हैं : “जरा थ्री-सेल्फ कलीसिया में परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों को देखो—उनके पास राज्य की स्वीकृति है, और राज्य उन्हें प्रमाण पत्र भी जारी करता है और कलीसिया बनाने के लिए उन्हें जमीन भी देता है। यह सब कुछ जायज और कानूनी है। क्या तुम लोगों के पास कोई सार्वजनिक कलीसिया है? क्या तुम्हारी कलीसियाएँ पंजीकृत हैं? राज्य थ्री-सेल्फ कलीसियाओं के लिए पादरियों की नियुक्ति भी करता है और उन पादरियों के पास लाइसेंस हैं। क्या तुम लोगों के अगुआओं और कार्यकर्ताओं के पास लाइसेंस हैं? राज्य तुम लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने की अनुमति नहीं देता है; वह तुम लोगों को गिरफ्तार कर लेता है और सताता है। तुम लोगों के पास सभाओं तक के लिए कोई निश्चित जगह नहीं है; तुम हमेशा सबसे छिपकर इकट्ठा होते हो। क्या यह वाकई सच्चा मार्ग है? अगर यह सच्चा मार्ग होता, तो तुम हमेशा ऐसे सबसे छिपकर क्यों इकट्ठा होते और अपना कर्तव्य करते?” वे इस मामले को भी भली-भाँति नहीं समझ पाते हैं। कोई भी परिस्थिति उन्हें ढुलमुल होने और परमेश्वर के बारे में शंकाएँ उत्पन्न करने का कारण बन सकती है। मुझे बताओ, क्या ऐसा व्यक्ति दृढ़ रह सकता है? (नहीं।) वैसे तो बाहर से उसने कलीसिया नहीं छोड़ी है, लेकिन अपने दिल में वह खतरे की कगार पर है। वह परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों के बारे में कभी भी निश्चित नहीं हो सकता और वह हमेशा आधा विश्वास करता है और आधी शंका करता है; इससे उसके लिए सच्ची आस्था रखना असंभव हो जाता है। ऐसे लोग यह नहीं देख पाते हैं कि परमेश्वर के कार्य के इन वर्षों में जो भी उत्पीड़न, दमन और गिरफ्तारियाँ हुई हैं, वे सब कुछ परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हुई हैं, और ये सभी परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के अंतर्गत आती हैं। इसलिए उनके मन में धारणाएँ होती हैं और वे यह प्रश्न कर लेते हैं कि क्या परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु हो सकता है। वे हमेशा यही मानते हैं कि परमेश्वर के घर का सारा कार्य मनुष्यों द्वारा किया जाता है, वे परमेश्वर के कर्मों का रत्ती भर चिन्ह देखने में असमर्थ हैं। क्या वे छद्म-विश्वासी नहीं हैं? अगर ऐसा व्यक्ति सिर्फ छह महीने या एक वर्ष से ही नया-नया विश्वास रख रहा है और उसने विभिन्न सत्यों को स्पष्ट रूप से नहीं समझा है, तो जब वह ऐसी चीजें देखता है जो उसकी धारणाओं के खिलाफ जाता है, तो उसे शंकाएँ होने और उसके ढुलमुल होने की बात तो समझ में आती है। लेकिन कुछ लोगों ने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, उन्होंने ढेरों धर्मोपदेश सुने हैं और कठिनाइयों का सामना करने पर उन्होंने अपने साथ सत्य की संगति करवाई है। उस समय, उन्होंने जो सुना, वे उसे सैद्धांतिक रूप से समझ गए। लेकिन बाद में फिर से मामलों का सामना करने पर वे अब भी परमेश्वर और परमेश्वर के कार्य पर प्रश्न उठाते हैं। इससे पता चलता है कि ऐसे लोगों में सत्य समझने की कोई क्षमता नहीं है, उनमें सामान्य मानवता की सोच की कमी है और वे मनुष्य होने का मानक पूरा नहीं करते हैं।

ढुलमुल लोगों को कैसे संभालना चाहिए? मानवता के मामले में ये लोग बुरे लोगों के समान तो नहीं हैं, लेकिन वे सचमुच परेशान करने वाले प्रकार के लोग हैं, क्योंकि उनमें सत्य समझने की क्षमता नहीं होती है और उनमें सामान्य मानवता की सोच नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त कई सत्यों की पुष्टि भी नहीं कर पाते हैं, और न ही वे जानते हैं कि क्या ये वचन सत्य हैं या क्या वे परमेश्वर की अभिव्यक्ति और परमेश्वर का कार्य हैं। उनकी समझने की क्षमता देखी जाए तो वे किस तरह के लोग हैं? यह कहना सही है कि वे छद्म-विश्वासी हैं और यह कहना भी सही है कि वे भ्रमित लोग हैं। वैसे तो इस तरह के लोगों ने कोई स्पष्ट बुराई नहीं की है और वे बुरे लोगों की श्रेणी में नहीं आते हैं, लेकिन चूँकि वे इस हद तक भ्रमित हैं और ऐसी कई चीजें कर सकते हैं जो विघ्न-बाधाएँ डालती हैं, तो क्या वे निकम्मे नहीं हैं? (हाँ।) ऐसे लोगों ने चाहे कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो या उन्होंने कितने भी धर्मोपदेश सुने हों, वे कभी भी सत्य नहीं समझ सकते हैं। वे परमेश्वर के अस्तित्व या परमेश्वर की संप्रभुता की पुष्टि तक नहीं कर सकते हैं। यह किस तरह की काबिलियत है? इन लोगों में सत्य समझने की बिल्कुल भी क्षमता नहीं होती है। वे बहुत खराब काबिलियत वाले लोग हैं; या तुम कह सकते हो कि उनमें बिल्कुल भी काबिलियत नहीं होती है—वे बेअक्ल निकम्मे होते हैं। मुझे बताओ, निकम्मे लोग कौन-सा कर्तव्य कर सकते हैं? (वे कोई कर्तव्य नहीं कर सकते हैं।) वे कोई कर्तव्य नहीं कर सकते हैं और हमेशा शंकालु और ढुलमुल होते हैं। तो इस तरह के लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए और उन्हें कैसे संभालना चाहिए? ऐसे लोगों को संभालने का सबसे उचित तरीका यह है कि उन्हें कोई कर्तव्य न करने दिया जाए। भले ही वे कर्तव्य करने का अनुरोध करें, उन्हें अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। क्यों नहीं? क्योंकि एक बार जब इस तरह के लोग कर्तव्य करना शुरू करते हैं, विशेष रूप से जब उन्होंने कष्ट सहन किया हो और कुछ कीमत चुकाई हो, तो देर-सवेर वे परमेश्वर के घर से हिसाब चुकता करना चाहेंगे। अगर उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है या वे प्राकृतिक आपदाओं या मानव निर्मित आपदाओं का सामना करते हैं, तो वे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने पर पछताएँगे; वे कड़वाहट भरी शिकायत करेंगे और इस तरह की टिप्पणियाँ फैलाएँगे : “मैंने कलीसिया के कार्य के लिए और अपना कर्तव्य करने के लिए बहुत कुछ सहा है। मैंने बहुत ही कम खाना खाया है, मैं बहुत ही कम सोया हूँ, और मैंने बहुत ही कम पैसे कमाए हैं। अगर मैंने कर्तव्य नहीं किया होता, तो मैं अपने कमाए पैसे बैंक में जमा कर सकता था और मुझे उस पर ब्याज मिलता! मैंने बहुत सारे जोखिम उठाए हैं—जोखिम के हर घंटे की कीमत कितनी है? श्रम शुल्क कितना है?” वे परमेश्वर के घर से पैसों का हिसाब चुकता करने का प्रयास करेंगे और यह धमकी तक दे डालेंगे कि अगर परमेश्वर के घर ने उन्हें मुआवजा न दिया, तो वे परमेश्वर के घर की रिपोर्ट कर देंगे। क्या ऐसे लोगों को कर्तव्य करने देने से लगातार परेशानी नहीं आती रहेगी? ऐसे नीच व्यक्तियों से निपटना एक ऐसी उलझन उत्पन्न करेगा जिसे हल करना असंभव है। वे कलीसिया के लिए चाहे कितनी भी चीजें क्यों न संभालें, वे अपने दिल में एक छोटा सा बहीखाता रखते हैं, जिसमें वे हर हिसाब-किताब साफ-साफ दर्ज करते हैं। वे कलीसिया के लिए जो भी करते हैं, वे उसे कभी भी खुशी से नहीं करते हैं। क्योंकि वे अनिच्छुक हैं, इसलिए वे हिसाब चुकता करना चाहते हैं। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि वे अपने दिलों में परमेश्वर का अस्तित्व नहीं मानते हैं या परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते हैं। वे यह नहीं मानते हैं कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं या परमेश्वर का कार्य लोगों को बचा सकता है। तो उन्हें किस तरह का इनाम दिया जाए ताकि वे अपने मन में जिस तथाकथित परमेश्वर की कल्पना करते हैं उसके लिए थोड़ी कीमत चुकाकर, थोड़ा कष्ट सहकर, कुछ कर्तव्य करके और कुछ मानवीय और भौतिक संसाधन खर्च करके संतुष्ट महसूस करें? अगर उन्हें बदले में कुछ नहीं मिला, तो क्या वे संतुष्ट होंगे? अगर किसी दिन उन्हें यह एहसास हो जाता है कि सत्य का अनुसरण न करने के कारण उन्हें हटा दिया गया है, तो क्या परिणाम होंगे? वे सोचेंगे कि परमेश्वर के घर ने उन्हें चकमा दिया है, कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने उन्हें चकमा दिया है और कि उन्हें अँधेरे में रखा गया और वे एक घोटाले का शिकार हो गए। फिर वे परमेश्वर के घर को अपनी नाराजगी जताएँगे और मुआवजा माँगेंगे, और मामले को लगातार खींचते रहेंगे। क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर का घर ऐसे व्यक्ति से उलझना चाहेगा? परमेश्वर का घर ऐसी बेवकूफी भरी चीज बिल्कुल नहीं करेगा! परमेश्वर के चुने हुए लोग सृजित प्राणियों की जिम्मेदारी पूरी करने के लिए अपना कर्तव्य करते हैं—यह पूरी तरह से उनकी अपनी पसंद है, कुछ ऐसा है जिसे वे करने के इच्छुक रहते हैं। परमेश्वर का घर कभी किसी के साथ जबरदस्ती नहीं करता है या किसी को मजबूर नहीं करता है। लेकिन एक बार जब छद्म-विश्वासी कर्तव्य करना शुरू कर देते हैं, तो परेशानी उत्पन्न होने में ज्यादा समय नहीं लगता है। जब उनका मिजाज खराब होता है, तो वे यकीनन बड़बड़ाना और शिकायत करना शुरू कर देते हैं और दूसरों से कहते हैं : “तुम लोगों ने मुझसे बहुत अच्छी तरह से बात की और मुझे चकमा दिया, कहा कि परमेश्वर में विश्वास रखने से मुझे सत्य और अनंत जीवन प्राप्त करने की अनुमति मिलेगी। लेकिन तुम लोगों में से किसी ने भी यह नहीं बताया कि कलीसिया में लोगों को गुमराह करने वाले मसीह-विरोधी होंगे, कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा उत्पन्न करने वाले बुरे लोग होंगे या कि कलीसिया लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित करेगी। तुम लोगों ने मुझे कभी नहीं बताया कि कलीसिया में इनमें से कुछ भी होगा!” यहाँ तक कि वे वापस मुड़ सकते हैं और तुम्हीं पर आरोप लगा सकते हैं और कह सकते हैं : “तुमने मुझे कभी भी ये बातें स्पष्ट रूप से नहीं बताईं। मैंने परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य करने में तुम लोगों का अनुसरण किया। फलस्वरूप, अब दुनिया में मेरे लिए कोई संभावना नहीं है; तुम लोगों ने मुझे ढेरों पैसे कमाने से रोक दिया है। तुम लोगों को मेरे नुकसानों के लिए मुझे मुआवजा देना होगा!” जब वे तुमसे हिसाब चुकता करना शुरू कर देते हैं, तो क्या तुम्हें यह घिनौना नहीं लगता है? क्या तुम लोग उनसे उलझने को तैयार हो? (नहीं।) कौन संभवतः इस तरह के लोगों को चीजें स्पष्ट कर सकता है? वे सत्य स्वीकार नहीं करते हैं, वे परमेश्वर का अस्तित्व नहीं देख पाते हैं और वे अपने अनुभवों के जरिए परमेश्वर का अस्तित्व महसूस नहीं कर पाते हैं। मुझे बताओ, कौन यह सच्चाई उनके मन में ठसाठस भर सकता है? कोई नहीं कर सकता है। उनके पास सत्य स्वीकार करने की क्षमताएँ नहीं हैं, इसलिए उनसे सत्य का अनुसरण करने के लिए कहने से चीजें उनके लिए बहुत कठिन हो जाएँगी, यह उन्हें एक कठिन परिस्थिति में डाल देगा—ऐसा करना बिल्कुल ही अवास्तविक है। वे सिर्फ आशीषें प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। जब तक वे थोड़ा-सा कर्तव्य करते हैं, तब तक वे इनाम माँगते रहते हैं। अगर उनकी इच्छा पूरी नहीं की जाती है, तो वे गालियाँ देना शुरू कर देते हैं : “मुझे चकमा दिया गया है और मेरे धोखाधड़ी हुई है! तुम लोग धोखेबाज हो!” मुझे बताओ, क्या तुम लोग वह गाली-गलौज सहना चाहोगे? (नहीं।) किसने उन्हें चकमा दिया? क्या ऐसा नहीं है कि उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ हैं और वे आशीषें प्राप्त करना चाहते हैं? क्या उन्होंने वास्तव में आशीषें प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास नहीं रखा? उन्हें अब आशीषें नहीं मिली हैं, लेकिन क्या ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं? क्या यह उनकी अपनी समस्या नहीं है? वे परमेश्वर में विश्वास तक नहीं रखते हैं, फिर भी वे परमेश्वर से आशीषें प्राप्त करना चाहते हैं—आशीषें प्राप्त करना इतना आसान कैसे हो सकता है? क्या ये मामले उन्हें कर्तव्य करना शुरू करने से बहुत पहले ही स्पष्ट रूप से नहीं समझा दिए गए थे? (हाँ।) लेकिन क्या तुम लोग तर्क देकर उन्हें समझा सकते हो? तुम यह नहीं कर सकते—वे बस यही कहेंगे कि तुमने उन्हें चकमा दिया है। मुझे बताओ, परमेश्वर के घर में, भाई-बहनों ने चाहे कितने भी लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास क्यों ना रखा हो, उनमें से कौन स्वेच्छा से कर्तव्य नहीं कर रहा है? भले ही ऐसे दुर्लभ मामले भी होते हैं जिनमें बच्चे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते और उन्हें उनके माता-पिता या रिश्तेदारों द्वारा विश्वास रखने और कर्तव्य करने के लिए घसीटा जाता है, फिर भी इनकी संख्या बहुत ही कम है। भले ही तुम्हारे माता-पिता तुम्हें इसमें घसीटें, यह तुम्हारे अपने भले के लिए ही है—तुम्हें यह बात समझनी चाहिए। लेकिन तुम्हें इसमें घसीटने वाला तुम्हारा अपना परिवार ही है—परमेश्वर के घर के भाई-बहन तुम्हें नहीं घसीटते हैं या तुम्हें मजबूर नहीं करते हैं। परमेश्वर में विश्वास रखना और कर्तव्य करना पूरी तरह से स्वैच्छिक है। अभी जो कोई छोड़ना चाहता है, वह छोड़ सकता है; परमेश्वर के घर के दरवाजे हमेशा खुले हैं। लेकिन एक बार जब तुम छोड़ दोगे, तो वापस आना इतना आसान नहीं होगा। परमेश्वर के घर में पूर्णकालिक कर्तव्य करने वाले लोगों को सावधानी से चुना जाता है—बस यूँ ही किसी को स्वीकार नहीं कर लिया जाता है। इसके लिए जरूरी मानक और सिद्धांत हैं, और सिर्फ वही लोग पूर्णकालिक कर्तव्य वाली कलीसिया में रह सकते हैं जो योग्यताएँ पूरी करते हैं। ढुलमुल लोग सोचते हैं, “तुम लोगों ने मुझे इतना महत्वपूर्ण मामला स्पष्ट रूप से नहीं समझाया। उस समय, मैंने सिर्फ इसलिए कर्तव्य किया क्योंकि मैं उलझन में था।” स्पष्ट रूप से क्या नहीं समझाया गया था? भाई-बहन अपना कर्तव्य करते हुए रोज एक साथ सत्य की संगति करते हैं—अगर इन लोगों को समझ नहीं आया, तो इसका कारण यह है कि वे भ्रमित और अंधे हैं। वे इसके लिए किसी और को दोष नहीं दे सकते हैं। लेकिन वे इस बारे में तर्क देकर तुम्हें नहीं समझाएँगे; उन्हें बस यह लगता है कि उन्होंने बहुत बड़ा नुकसान उठाया है और वे हिसाब चुकता करना चाहते हैं और परमेश्वर के घर से बहस करना चाहते हैं। क्या ऐसे लोग अविवेकी और बेहद घिनौने नहीं हैं? तो एक बार जब तुम सब ऐसे लोगों के असली रंग जान जाते हो और तुम्हें स्पष्ट रूप से यह दिखाई देता है कि वे भ्रमित हैं, पूरी तरह से बेकार हैं, कोई कर्तव्य नहीं कर पाते हैं और लगातार आशीषें प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, उनके दिल आशीषें प्राप्त करने के विचारों के वश में रहते हैं, और कि वे सिर्फ इतना जानते हैं कि कर्तव्य करने से आशीषें, उद्धार, राज्य में प्रवेश और अमरता मिल सकती है, और वे कुछ भी और समझे बिना सिर्फ ये थोड़े से वाक्यांश ही जानते हैं—यह नहीं जानते हैं कि सत्य क्या है, सत्य का अभ्यास कैसे करना है या परमेश्वर के प्रति कैसे समर्पण करना है—तो भले ही वे कर्तव्य करना चाहें या कर्तव्य करने का अनुरोध करें, क्या ऐसा करने के लिए उन्हें लगाया जा सकता है? (नहीं।)

जो लोग ढुलमुल होते हैं, दरअसल वे भले-चंगे होने पर भी शंकाएँ पाले रहते हैं और हमेशा जाँच-परख करते रहते हैं। उत्पीड़न और गिरफ्तारियों का सामना करते ही वे ढुलमुल होने लगते हैं। यह दर्शाता है कि परमेश्वर में अपने सामान्य विश्वास में उनमें सच्ची आस्था नहीं होती है। हालात उत्पन्न होने पर वे बेनकाब हो जाते हैं। यह दर्शाता है कि वे परमेश्वर के कार्य के बारे में कभी भी आश्वस्त नहीं रहे हैं और हमेशा प्रश्न और जाँच-परख करते रहे हैं। उन्होंने कलीसिया क्यों नहीं छोड़ी है? वे सोचते हैं, “मैंने इतने सारे वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है और बहुत कष्ट सहा है। अगर अब मैंने बिना कोई फायदा उठाए कलीसिया छोड़ दी तो क्या यह नुकसान नहीं होगा? क्या वह सारा कष्ट सहना बेकार नहीं जाएगा?” वे यही सोचते हैं। तुम शायद यह सोचो कि वे आश्वस्त हैं, उनमें आस्था है, वे सत्य समझते हैं, लेकिन दरअसल ऐसा नहीं है। वे अभी भी संदेह में हैं, अभी भी जाँच-परख कर रहे हैं। अपने दिलों में वे बस यह देखना चाहते हैं कि क्या परमेश्वर के घर का कार्य सही मायने में फलता-फूलता है, क्या कार्य की हर मद फल देती है और क्या इसने दुनिया पर बड़ा प्रभाव डाला है। वे विशेष रूप से ऐसी बातें जानना चाहते हैं : विभिन्न देशों में कलीसियाओं द्वारा सुसमाचार प्रचार कैसा चल रहा है? क्या यह बड़े पैमाने पर फैल रहा है और प्रभाव छोड़ रहा है? क्या इस धारा की अंतर्राष्ट्रीय मान्यता है? क्या कुछ मशहूर लोगों या प्रभावशाली हस्तियों ने कार्य के इस चरण को स्वीकार किया है? क्या संयुक्त राष्ट्र द्वारा सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया को मान्यता या स्वीकृति दी गई है? क्या इसे विभिन्न देशों की सरकारों का समर्थन प्राप्त है? क्या विभिन्न देशों में भाई-बहनों के राजनीतिक शरण के लिए उनके आवेदनों को स्वीकृति मिल चुकी है? ऐसे लोग इस प्रकार की चीजों के बारे में हमेशा चिंतित रहते हैं और यह उनके ढुलमुल होने की एक स्पष्ट अभिव्यक्ति है। जब वे देख लेते हैं कि परमेश्वर के घर ने शक्ति प्राप्त कर ली है और सुसमाचार कार्य फैल चुका है, तो वे खुद को खुशकिस्मत मानते हैं कि उन्होंने परमेश्वर का घर नहीं छोड़ा और वे अब परमेश्वर पर संदेह नहीं करते हैं। लेकिन जैसे ही वे देखते हैं कि परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा उत्पन्न की जा रही है, उसे रोका जा रहा है या उसका नुकसान किया जा रहा है, भाई-बहनों का कर्तव्य निर्वहन भी प्रभावित हो रहा है और दुनिया कलीसिया को बहिष्कृत और अस्वीकृत कर रही है तो वे परमेश्वर का घर छोड़ने के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं। वे हमेशा ऐसे प्रश्न करते रहते हैं : “क्या परमेश्वर वाकई इन सबका संप्रभु है? मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता क्यों दिखाई नहीं दे रही है? क्या परमेश्वर के वचन वाकई सत्य हैं? क्या वे सही मायने में लोगों को स्वच्छ कर सकते हैं और बचा सकते हैं?” वे इन मामलों को कभी भली-भाँति नहीं समझ पाते हैं और इन पर प्रश्न करते रहते हैं क्योंकि उनमें आध्यात्मिक समझ नहीं है और वे परमेश्वर के वचन नहीं समझ पाते हैं। वे चाहे कितने भी धर्मोपदेश क्यों न सुन लें, वे इनमें से किसी के भी बारे में किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते हैं। फलस्वरूप, वे हमेशा इधर-उधर पूछते रहते हैं, यह चाहते हैं कि काश वे ऐसे कान विकसित कर पाते जो बहुत दूर की चीजें सुन पाते और ऐसी आँखें विकसित कर पाते जो हजारों मील दूर तक देख पातीं, ताकि वे उन चीजों के बारे में जान पाएँ और खबरें हासिल कर पाएँ जो बहुत दूर घट रही हैं। तब वे पहले ही यह तय कर पाते कि उन्हें कलीसिया में बने रहना चाहिए या इसे छोड़ देना चाहिए। क्या ऐसे लोग बेवकूफ नहीं हैं? (हाँ, हैं।) क्या इस तरह के लोग थकाऊ जीवन नहीं जी रहे हैं? (जी रहे हैं।) उनके पास सामान्य मानवता की सोच नहीं है, और न ही वे सत्य समझते हैं। जितनी ज्यादा चीजें घटित होती हैं, उतना ही ज्यादा वे घबरा जाते हैं और उलझन में पड़ जाते हैं। उन्हें यह नहीं पता होता है कि इन मामलों का भेद कैसे पहचानना है या इन्हें कैसे वर्णित करना है; और वे यकीनन यह नहीं जानते हैं कि इन मामलों में सही और गलत का भेद कैसे पहचानना है या उनसे सबक कैसे सीखना है और फिर परमेश्वर के वचनों में अभ्यास के सिद्धांत कैसे ढूँढ़ने हैं। उन्हें नहीं पता होता है कि ये चीजें कैसे करनी हैं। तो वे क्या करते हैं? मिसाल के तौर पर, जब मसीह-विरोधी और बुरे लोग कलीसिया में दिखते हैं और लोगों को गुमराह करते हैं तो वे सोचने लगते हैं : “आखिर कौन सही है और कौन गलत? क्या यह मार्ग वाकई सच्चा है? अगर मैं अंत तक विश्वास करता रहा, तो क्या मुझे आशीष मिलेगा? अब मुझे कर्तव्य करते हुए कई वर्ष हो गए हैं—क्या यह कष्ट सहना उपयोगी रहा है? क्या मुझे अपना कर्तव्य करना जारी रखना चाहिए?” वे हर चीज अपने हितों के परिप्रेक्ष्य से देखते हैं और अपने सामने मौजूद किसी भी व्यक्ति, घटना और चीज को नहीं समझ पाते हैं, बहुत ही अनाड़ी दिखाई देते हैं। उनके पास सही विचारों और दृष्टिकोणों की कमी होती है और वे किनारे खड़े रहकर जाँच-परख करना चाहते हैं, देखते हैं कि चीजें किस तरह से होती हैं। उन्हें देखने पर तुम्हें लगता है कि वे दयनीय भी हैं और हास्यास्पद भी। जब कुछ नहीं हो रहा होता है तो वे काफी सामान्य व्यवहार करते हैं, लेकिन जैसे ही कोई बड़ी घटना घटती है तो उन्हें नहीं पता होता है कि उन्हें इस मामले को किस रुख से देखना चाहिए; और वे जो बातें कहते हैं वे अविश्वासियों के विचार और दृष्टिकोण दर्शाती हैं। सब कुछ समाप्त हो जाने के बाद व्यक्ति यह नहीं देख पाता है कि इससे उसने क्या हासिल किया है। क्या ऐसे लोग बहुत ही बेवकूफ नहीं होते हैं? (हाँ।) बेवकूफ लोग बिल्कुल इसी तरह से व्यवहार करते हैं। तो इस तरह के लोगों से निपटने के सिद्धांत क्या हैं? उनकी अभिव्यक्तियों के आधार पर उन्हें अत्यंत विश्वासघाती और दुष्ट लोग नहीं माना जा सकता है। लेकिन उनमें एक घातक दोष होता है, जो यह है कि इन लोगों के पास विचार नहीं होते हैं, उनमें आत्मा नहीं होती है और वे किसी भी चीज की असलियत नहीं पहचान पाते हैं। उनके आस-पास जो कुछ भी घटता है, उससे वे घबरा जाते हैं, उन्हें समझ नहीं आता है कि किस पर भरोसा करना है, किस पर निर्भर रहना है या इस समस्या को कैसे देखना है या इसे हल करने के लिए कहाँ से शुरुआत करनी है—वे बस घबराहट की स्थिति में होते हैं। घबराहट होने के बाद उनके मन में संदेह उत्पन्न हो सकते हैं या वे कुछ समय के लिए शांत रह सकते हैं, लेकिन उनका आदतन ढुलमुल होना बिल्कुल नहीं बदलता है। उनकी अभिव्यक्तियों के आधार पर चूँकि उन्हें बुरे लोगों के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है, इसलिए अगर वे फिलहाल थोड़ा-सा कर्तव्य करने और खुशी से श्रम करने में समर्थ होते हैं, तो उन्हें अपना कर्तव्य निभाने दिया जा सकता है। बशर्ते उनका कर्तव्य कम-से-कम कुछ नतीजे देता हो। अगर वे सत्य बिल्कुल भी स्वीकार किए बिना अपना कर्तव्य करते हैं और हमेशा लापरवाह बने रहते हैं, तो उन्हें घर भेज देना चाहिए। लेकिन अगर वे अपनी गलतियाँ सुधारने के इच्छुक हैं, तो उन्हें परमेश्वर के घर में रुकने और अपना कर्तव्य निभाने दिया जाना चाहिए। उन्हें वह कर्तव्य सौंपा जाना चाहिए जिसके लिए वे उपयुक्त हों। अगर वे कोई भी कर्तव्य करने में असमर्थ हैं और वे किसी काम के नहीं हैं, तो उन्हें ऐसी जगह भेज देना चाहिए जो उनके लिए उपयुक्त हो। इस मामले में यह अब इस बात पर निर्भर नहीं रह सकता है कि क्या वे श्रम करने को तैयार और इच्छुक हैं। क्या चीजों को संभालने का यह तरीका आसान नहीं है? (हाँ, है।)

क्या तुम उन लोगों को पहचान सकते हो जो ढुलमुल होते हैं? क्या तुम लोगों के आस-पास ऐसे लोग हैं? अतीत में कुछ लोगों को कलीसिया से दूर कर दिया गया था। मान लो कि उनमें से एक यह कहता है : “मैं बेहतर व्यक्ति बन गया हूँ। मैं अब ढुलमुल नहीं होता हूँ। जब सच्चे मार्ग की बात आती थी तो मैं हमेशा ढुलमुल होता था, क्योंकि जब परमेश्वर का घर विदेशों में अपने कार्य की नई-नई शुरुआत कर रहा था, तो चीजें वाकई कठिन थीं। उस समय सुसमाचार प्रचार करना कलीसिया के भाई-बहनों के लिए बहुत कठिन था और विदेशों में ऐसे लोग कम थे जिन्होंने सच्चा मार्ग स्वीकार किया था। इसके अलावा, ऐसा नहीं लगता था कि सुसमाचार कार्य के फैलने की कोई संभावना है। इसलिए तब मैं हमेशा परमेश्वर के कार्य के बारे में संदेहग्रस्त रहता था। अब जब मैं देखता हूँ कि परमेश्वर के घर का सुसमाचार कार्य फैल रहा है, कार्य की विभिन्न मदों में सुधार हो रहा है और परिणाम मिल रहे हैं, और विभिन्न देशों में कलीसियाएँ लगातार फल-फूल रही हैं, तो मैं अब संदेहग्रस्त या ढुलमुल नहीं रहा। कृपया मुझे अपना कर्तव्य करने दो। मुझे उन लोगों की श्रेणियों में शामिल मत करो जिन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया गया है!” क्या ऐसे व्यक्ति को मौका देना ठीक होगा? (नहीं।) क्यों नहीं? (उसके शब्द झूठे हैं। वह खुद को सिर्फ इसलिए फिर से कलीसिया से जोड़ना चाहता है क्योंकि वह देखता है कि परमेश्वर के घर का कार्य फैलाव की दिशा में है और इसने शक्ति प्राप्त कर ली है। लेकिन जब भी कुछ उसकी धारणाओं के खिलाफ हुआ तो वह फिर से ढुलमुल हो जाएगा।) क्या तुमने इस मामले की असलियत पहचान ली है? (हाँ।) कुछ लोग पैदाइशी ढुलमुल होते हैं। आज हवा का रुख एक तरफ है, तो वे इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं; कल उसका रुख दूसरी तरफ होगा, तो वे उस दिशा में आगे बढ़गे—यहाँ तक कि जब हवा नहीं चल रही होती है, तो भी वे अपने आप ही ढुलमुल होते रहते हैं। ऐसे लोगों में सोचने की वह क्षमता नहीं होती है जो एक सामान्य मनुष्य में होनी चाहिए, इसलिए वे मनुष्य होने का मानक पूरा नहीं करते हैं। क्या यह सही है? (हाँ।) अगर किसी में सामान्य मनुष्य की सोचने की क्षमता है और उसमें समझने की वह क्षमता है जो मनुष्यों में होनी चाहिए, तो वह देखेगा कि परमेश्वर ने बहुत सारे सत्य व्यक्त किए हैं और वह यह पुष्टि करने में सक्षम होगा कि यह परमेश्वर का कार्य है। इतना ही नहीं, परमेश्वर में विश्वास रखने वाले बहुत से लोग हैं—वे हर रोज परमेश्वर का कार्य और पवित्र आत्मा का कार्य देखते हैं और साथ ही परमेश्वर के अद्भुत कर्म भी देखते हैं; उनकी आस्था और मजबूत हो जाती है और अपना कर्तव्य करने में उनकी ऊर्जा बढ़ जाती है। क्या ये ऐसी चीजें हैं जो मनुष्य के कार्य द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं? जिन लोगों के पास एक मनुष्य की सोचने की क्षमता नहीं है, चाहे तुम उन्हें ये मामले कितनी भी स्पष्टता से क्यों ना समझा दो, वे इस बात की पुष्टि नहीं कर सकते हैं कि यह परमेश्वर का कार्य है। उनमें वह राय बनाने की क्षमता नहीं है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर अभी कितना महान कार्य कर रहा है, वह कितना बोलता है, कितने लोग उसका अनुसरण करते हैं, कितने लोगों को यकीन है कि यह परमेश्वर का कार्य है या कितने लोगों को यकीन है कि मानवजाति की किस्मत परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन आती है और परमेश्वर ही सृष्टिकर्ता है, इनमें से कुछ भी उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं है। तो उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है? उन्हें तो व्यक्तिगत रूप से यह देखना है कि स्वर्ग से परमेश्वर उनके सामने प्रकट हो, उन्हें यह भी देखना है कि परमेश्वर अपना मुँह खोले और बोले, यह देखना है कि वह व्यक्तिगत रूप से स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीजें बनाए, व्यक्तिगत रूप से संकेत और चमत्कार दिखाए और जब वह बोले तो उसके शब्द बादलों की तरह गरजते सुनाई दें। सिर्फ तभी वे परमेश्वर में विश्वास रखेंगे। वे बिल्कुल थोमा की तरह हैं—प्रभु यीशु ने धरती पर अपने समय के दौरान चाहे कितने भी शब्द बोले हों, चाहे कितना भी सत्य व्यक्त किया हो, या उसने कितने भी संकेतऔर चमत्कार दिखाए हों, थोमा के लिए इनमें से कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं था। उसके लिए बस यही महत्वपूर्ण था कि मृत्यु के बाद प्रभु यीशु का पुनरुत्थान वास्तविक है या नहीं। उसने इसकी पुष्टि कैसे की? उसने प्रभु यीशु से माँग की : “अपने हाथ आगे बढ़ाओ और मुझे कीलों के निशान दिखाओ। अगर तुम वाकई पुनर्जीवित प्रभु यीशु हो, तो तुम्हारे हाथों पर कीलों के निशान होंगे और तब मैं तुम्हें प्रभु यीशु मानूँगा। अगर मैं तुम्हारे हाथों पर कीलों के निशान महसूस नहीं कर पाया, तो मैं तुम्हें प्रभु यीशु नहीं मानूँगा, और न ही मैं तुम्हें परमेश्वर मानूँगा।” क्या वह बेवकूफ नहीं था? (था।) इस तरह के लोग सिर्फ उन्हीं सच्चाइयों पर विश्वास करते हैं जिन्हें वे अपनी आँखों से और अपनी कल्पनाओं और तार्किकता से देख पाते हैं। भले ही वे परमेश्वर के वचन सुनते हों, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हों और परमेश्वर के कार्य का उदय, विकास और फलना-फूलना देखते हों, फिर भी वे यह विश्वास नहीं करते कि यह परमेश्वर का कार्य है। वे परमेश्वर की महान शक्ति नहीं देख पाते हैं, वे परमेश्वर का अधिकार नहीं देख पाते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों की शक्ति या उन परिणामों को पहचान नहीं पाते हैं जो वे लोगों में प्राप्त कर सकते हैं। वे इनमें से किसी भी चीज को देख या पहचान नहीं पाते हैं। वे सिर्फ एक ही चीज की उम्मीद करते हैं : “तुम्हें स्वर्ग से कड़कदार आवाज में बोलना चाहिए, यह घोषणा करनी चाहिए कि तुम्हीं सृष्टिकर्ता हो। अपनी महान शक्ति दिखाने के लिए तुम्हें संकेत और चमत्कार भी दिखाने होंगे और व्यक्तिगत रूप से स्वर्ग, धरती और सभी चीजों का निर्माण भी करना होगा। तब जाकर मैं विश्वास करूँगा कि तुम परमेश्वर हो, मैं तुम्हें परमेश्वर मान लूँगा।” क्या परमेश्वर ऐसी मान्यता की कद्र करता है? क्या वह ऐसे विश्वास की कद्र करता है? (नहीं।) क्या परमेश्वर को परमेश्वर होने के लिए तुम्हारी मान्यता की जरूरत है? क्या उसे तुम्हारी स्वीकृति की जरूरत है? परमेश्वर ने बहुत से सत्य व्यक्त किए हैं, बहुत से लोगों ने परमेश्वर का कार्य स्वीकार किया है, और यहाँ बहुत सारी अनुभवजन्य गवाहियाँ हैं—ऐसी गवाहियाँ जो किसी भी पिछली पीढ़ी की गवाहियों से बढ़कर हैं—इसके बावजूद तुम अब भी यह पुष्टि नहीं कर पाते हो कि क्या यह परमेश्वर का प्रकटन और कार्य है। तुम उन सच्चाइयों पर विश्वास नहीं करते हो या उन्हें नहीं मानते हो जिन्हें परमेश्वर पहले ही पूरी कर चुका है और न ही परमेश्वर के वादे पूरे करने की बात पर तुम विश्वास करते हो या उसे मानते हो। तो, तुम किस तरह की चीज हो? तुम तो मनुष्य भी नहीं हो—तुम एक बेवकूफ हो! और फिर भी तुम परमेश्वर से आशीषें प्राप्त करना चाहते हो—इसकी बहुत ही कम संभावना है! तुम बस सपना देख रहे हो! तुम हर मोड़ पर परमेश्वर पर संदेह करते हो और उसे नकारते हो, हमेशा परमेश्वर के घर की बदकिस्मती पर हँसना चाहते हो। तुमने कभी परमेश्वर का अस्तित्व नहीं माना है या उस पर विश्वास नहीं किया है, और न ही तुमने कभी भी परमेश्वर के वचनों और कार्यों को माना है, उन पर विश्वास किया है या उन्हें स्वीकार किया है। इसलिए परमेश्वर के वादों का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है और तुम कुछ भी प्राप्त नहीं करोगे। कुछ लोग कहते हैं, “लेकिन वे अब भी अपना कर्तव्य कर रहे हैं। वे कैसे कुछ भी हासिल नहीं कर सकते हैं?” तो हमें इस बारे में स्पष्ट होना होगा कि उनके द्वारा अपना कर्तव्य करने का उद्देश्य क्या है, वे इसे किसके लिए कर रहे हैं और अपना कर्तव्य करते समय वे किन सिद्धांतों का पालन करते हैं। अगर तुम परमेश्वर के वचन स्वीकार नहीं करते हो, तो भले ही तुम अपना कर्तव्य करो, तुम बस श्रम कर रहे हो—यह सच्चा समर्पण नहीं है। तुम अपने कर्तव्य के रूप में जो करते हो उसे परमेश्वर मान्यता नहीं देता है। परमेश्वर की नजर में तुम बस एक आत्मा-विहीन मृत व्यक्ति से ज्यादा कुछ भी नहीं हो। एक मृत व्यक्ति अब भी आशीषों की उम्मीद कर रहा है—क्या यह बस ख्याली पुलाव पकाना नहीं है? तुम जो यह थोड़ा सा कर्तव्य भी जैसे-तैसे कर पाते हो, उसका कारण यह है कि तुम आशीषें पाने की मंशा से प्रेरित रहते हो। और तुम लगातार परमेश्वर पर संदेह करते हो, हमेशा उसकी मन ही मन आलोचना करते हो, निंदा करते हो, उसे नकारते हो, और परमेश्वर के वचनों और कार्यों की भी आलोचना करते हो और उन्हें नकारते हो। यह तुम्हें परमेश्वर का दुश्मन बना देता है। क्या ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर का दुश्मन है एक सृजित प्राणी के रूप में मानक-स्तर का हो सकता है? (नहीं।) तुम हर मोड़ पर खुद को परमेश्वर के दुश्मन के रूप में खड़ा कर लेते हो, अँधेरों में रहकर चुपके से उसे और उसके कार्य की जाँच-परख करते हो, चुपके से अपने दिल में परमेश्वर के खिलाफ शोर मचाते हो, उसकी आलोचना और निंदा करते हो, और उसके वचनों और कार्य की आलोचना और निंदा करते हो। अगर यह परमेश्वर का दुश्मन होना नहीं है तो फिर यह क्या है? यह खुलेआम परमेश्वर का दुश्मन होना है। और तुम अविश्वासियों की दुनिया में परमेश्वर के दुश्मन नहीं बन रहे हो—तुम ऐसा परमेश्वर के घर में कर रहे हो। यह और भी अक्षम्य है!

ये लोग जो ढुलमुल होते हैं, चाहे हम उनका मानवीय तत्व देखें या उनकी अभिव्यक्तियाँ देखें, वे सत्य स्वीकार नहीं करते हैं और परमेश्वर के वचनों और कार्य को स्वीकार नहीं करते हैं। वे सिर्फ इस बात की परवाह करते हैं कि क्या उन्हें आशीष प्राप्त हो सकता है। वे परमेश्वर या उसके कार्य के बारे में कभी आश्वस्त नहीं होते हैं, हमेशा पर्दे के पीछे से जाँच-परख करते रहते हैं, लगातार ढुलमुल होते हैं और संदेह करते हैं। जाँच-परख करते हुए वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, वे चलते हैं और फिर रुक जाते हैं, रुकते हैं और फिर से चलने लगते हैं। ये काफी परेशान करने वाले लोग होते हैं! विशेष रूप से अब, जब कलीसिया अक्सर लोगों को दूर कर रहा है, तो वे हमेशा घबराए रहते हैं और सोचते हैं, “मैं हमेशा ढुलमुल रहता हूँ। शायद एक दिन कोई यह देख लेगा, और मुझे कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाएगा। मैं परमेश्वर के बारे में अपने अंदरूनी संदेहों को बाहर नहीं आने दे सकता। मैं इसका जिक्र किसी से नहीं कर सकता।” इसलिए वे पर्दे के पीछे से चुपके से जाँच-परख करते हैं; और वे परमेश्वर द्वारा बेनकाब किए जाने से डरते नहीं हैं, क्योंकि वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते हैं, परमेश्वर की जाँच-पड़ताल की तो बात ही छोड़ दो। ये लोग अक्सर भाई-बहनों को यह संगति करते हुए सुनते हैं कि परमेश्वर ने कैसे उनका मार्गदर्शन किया है, उसने कैसे उन्हें अनुशासित किया है, उसने कैसे लोगों को बेनकाब किया है, उसने कैसे लोगों को बचाया है, परमेश्वर ने कैसे उन्हें अनुग्रह और आशीषें प्रदान की हैं, और परमेश्वर का अनुसरण करने की प्रक्रिया में कैसे उन्होंने उसके कार्य का अनुभव किया है, और उन्होंने क्या महसूस किया है, देखा है या सराहा है, वगैरह-वगैरह। जब वे भाई-बहनों को इन अनुभवों और समझ के बारे में संगति करते हुए सुनते हैं, तो वे सोचते हैं : “क्या जिन अनुभवों के बारे में तुम लोग बात कर रहे हो वे सिर्फ तुम लोगों की कल्पना है? क्या ये सिर्फ मानवीय भावनाएँ हैं? मैंने उन चीजों को क्यों महसूस नहीं किया? विशेष रूप से वे जो अनुभवजन्य गवाही लेख लिखते हैं—मैं उन्हें नहीं जानता और मैंने नहीं देखा है कि उन्होंने इन अनुभवों के जरिए ये चीजें कैसे प्राप्त कीं। क्या उनके पास सही मायने में सत्य वास्तविकता है, यह अभी भी अनिश्चित है!” कुछ बेवकूफ लोग अब भी परमेश्वर के घर के कार्य की जाँच-परख करते हैं और उस पर प्रश्न उठाते हैं, वे यह देखने में असमर्थ हैं कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा लिखे गए अनुभवजन्य गवाही लेखों में कौन सी सत्य वास्तविकताएँ निहित हैं, वे अपने ढुलमुल होने और आस्था की कमी के लिए बहाने और आधार खोजने का प्रयास करते हैं। वे सोचते हैं कि चूँकि वे ढुलमुल हो रहे हैं, इसलिए दूसरे भी ढुलमुल हो रहे होंगे। अगर कोई व्यक्ति कभी ढुलमुल नहीं होता है, उसके मन में कोई संदेह नहीं होता है और सत्य पर उसकी सामान्य संगति हमेशा काफी व्यावहारिक होती है, और चाहे वह किसी भी समस्या का सामना क्यों न करे, वह उसे हल करने के लिए सत्य खोज सकता है, तो ये बेवकूफ लोग अपने दिलों में असमानता और बेचैनी महसूस करते हैं। जब वे बेचैनी महसूस करते हैं, तो वे राहत कैसे पाते हैं? वे किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करते हैं जो बिल्कुल उनके जैसा ही है, एक समान सोचवाला व्यक्ति ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं। जब वे किसी को नकारात्मक और कमजोर महसूस करते देखते हैं, तो वे परिस्थिति को भाँपने के लिए अपने विचारों की तरफ संकेत करते हैं, कहते हैं : “कभी-कभी मैं भी नकारात्मक महसूस करता हूँ। जब मैं नकारात्मक महसूस करता हूँ, तो मुझे पता होता है कि मुझे ऐसा नहीं होना चाहिए, लेकिन कभी-कभी मुझे संदेह होता है कि क्या वाकई परमेश्वर का अस्तित्व है।” अगर दूसरा व्यक्ति उनकी बात का उत्तर नहीं देता है और वे देखते हैं कि वह व्यक्ति बस नकारात्मक और कमजोर है, लेकिन उसे परमेश्वर के बारे में कोई संदेह नहीं है, तो वे जाकर किसी और की परीक्षा लेने के लिए कुछ और कपटपूर्ण बात कहते हैं : “तुम्हें क्या लगता है मेरे साथ क्या हो रहा है? मैं परमेश्वर में बिल्कुल ठीक विश्वास रखता हूँ, लेकिन मेरे मन में हमेशा उसके बारे में संदेह क्यों होते हैं? क्या यह विद्रोहपूर्ण नहीं है? ऐसा नहीं होना चाहिए!” वे यह बात पूरी तरह से दूसरे व्यक्ति को खुश करने और उसकी परीक्षा लेने के लिए कहते हैं। वे बेसब्री से उम्मीद करते हैं कि दूसरे लोग भी उन्हीं की तरह परमेश्वर पर प्रश्न उठाएँगे—इससे उन्हें खुशी होगी! अगर उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति का पता चलता है जो हमेशा परमेश्वर के बारे में संदेह करता है और उसके बारे में लगातार धारणाएँ रखता है, तो वे खुद को खुशकिस्मत समझते हैं कि उन्हें एक समान सोचवाला व्यक्ति मिल गया है। एक जैसी गंदी मानसिकता वाले ये दोनों लोग अक्सर एक-दूसरे को अपनी गुप्त बातें बताते हैं। वे जितनी ज्यादा बात करते हैं, उतना ही वे परमेश्वर से दूर होते जाते हैं। वे जितनी ज्यादा बात करते हैं, उतना ही कम वे अपना कर्तव्य करना चाहते हैं, उतना ही कम वे परमेश्वर के वचन पढ़ना चाहते हैं और यहाँ तक कि वे कलीसियाई जीवन में भाग लेना भी बंद करना चाहते हैं। धीरे-धीरे, आखिर वे दोनों कार्य करने के लिए दुनिया में निकल पड़ते हैं, जब वे इकट्ठे बाहर जाते हैं, तो दोनों अभिन्न साथियों की तरह एक-दूसरे से चिपके होते हैं, एक-दूसरे से लिपटे होते हैं। छोड़कर जाते समय वे अपने साथ परमेश्वर के वचनों की एक भी किताब नहीं लेते हैं। कोई उनसे पूछता है, “क्या तुमने परमेश्वर में विश्वास रखना बंद कर दिया है?” तो वे उत्तर देते हैं, “नहीं, मैं विश्वास रखता हूँ।” वे अब भी इसका हठपूर्वक खंडन करते हैं। दूसरा व्यक्ति पूछता है, “तो फिर तुम अपने साथ परमेश्वर के वचनों की कोई किताब क्यों नहीं लेकर आए?” और वे उत्तर देते हैं, “वे बहुत ही भारी हैं और मेरे पास उन्हें रखने की कोई जगह नहीं है।” वे जो कुछ भी कहते हैं, वह सिर्फ दूसरे व्यक्ति को टालने के लिए होता है। दरअसल, वे बस दुनिया में लौटने, नौकरी ढूँढ़ने और अपने जीवन जीने के लिए तैयार हो रहे हैं। मैं तुम लोगों को सत्य बताता हूँ : इस तरह के लोग छद्म-विश्वासी होते हैं और यही उनका अंतिम परिणाम होगा—वे वाकई ऐसे ही होते हैं। परमेश्वर में उनका विश्वास लंबे समय तक नहीं रहेगा। जैसे ही उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति मिलता है जिसे वे पसंद करते हैं, कोई ऐसा व्यक्ति जिसे वे अपने सबसे आंतरिक विचार बता सकते हैं तो वे सोचते हैं, “आखिरकार, मुझे कोई ऐसा व्यक्ति मिल गया है जो मेरे बचाव में खड़ा होता है, कोई ऐसा व्यक्ति जिस पर मैं निर्भर कर सकता हूँ। आओ चलें! परमेश्वर में विश्वास रखना बहुत उबाऊ है। वैसे भी इस दुनिया में कोई परमेश्वर नहीं है। जिस चीज का अस्तित्व नहीं है उसे वास्तविक मानना असहनीय बोझ है। ये पिछले कुछ वर्ष बहुत ही कठिन रहे हैं!” वे चले जाते हैं और खुद ही विश्वास रखना बंद कर देते हैं, और यहाँ तक कि भाई-बहनों से भी कह देते हैं कि वे उनकी तलाश न करें, वे कहते हैं, “हम कार्य करने गए हैं। हमें अब मत बुलाना, नहीं तो हम पुलिस को सतर्क कर देंगे!” ये दो बेवकूफ, बेअक्ल गधों की जोड़ी, ऐसे ही चली जाती है। मैं कहता हूँ, जान छूटी—इससे परमेश्वर के घर को उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित करने या बाहर निकाल देने की परेशानी नहीं उठानी पड़ी। मुझे बताओ, क्या इस तरह के लोगों को सहारा और सहायता देने के लिए उनके साथ सत्य की संगति करने की कोई जरूरत है? क्या उन्हें तर्क देकर समझाने और राजी करने का प्रयास करने की कोई जरूरत है? (नहीं।) अगर तुम लोग उन्हें राजी करने का प्रयास करते हो, तो तुम बेहद बेवकूफ हो। इस तरह के लोग अपने दिल की गहराइयों तक छद्म-विश्वासी होते हैं—वे चलती-फिरती लाशें और बेअक्ल अहमक होते हैं। अगर तुम उन्हें राजी करने का प्रयास करते हो, तो तुम भी बेवकूफ हो। तुम्हें इस तरह के लोगों को जल्दी से खुशी-खुशी अलविदा कह देना चाहिए—और बाद में उनकी तलाश करने की कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने अपनी बात स्पष्ट रूप से कह दी है कि वे अब परमेश्वर में विश्वास नहीं रखेंगे, और कि अगर तुमने उन्हें फिर से बुलाया, तो वे पुलिस को तुम्हारी रिपोर्ट कर देंगे। अगर तुम अब भी उनसे संपर्क करने का प्रयास करते हो, तो क्या तुम बस परेशानी को दावत नहीं दे रहे हो? अगर उन्होंने वाकई पुलिस बुला ली और तुम पर उत्पीड़न का आरोप लगा दिया, तो क्या यह बात फैलने पर अच्छी प्रतिष्ठा बनेगी? (नहीं।) तुम्हें ऐसी बेवकूफी भरी चीज बिल्कुल नहीं करनी चाहिए! उन्हें खुद अपना ख्याल रखने दो और चुपचाप चले जाने दो—यह ज्यादा बेहतर तरीका है! हर व्यक्ति अपने खुद के मार्ग का अनुसरण करता है; हर व्यक्ति का मार्ग इस बात से तय होता है कि वह कौन है। वे धन्य नहीं हैं, उनके जीवन बस सड़े-गले, बेकार जीवन हैं। ऐसा महान आशीष विरासत में प्राप्त करना या उसका आनंद लेना उनकी क्षमता से परे है—उनके पास इसे प्राप्त करने की खुशकिस्मती ही नहीं है। परमेश्वर के वचनों के प्रावधान को स्वीकार करना और सत्य को जीवन के रूप में स्वीकार करना पूरे ब्रह्मांड में और सारी मानवजाति के बीच सबसे बड़ा आशीष है। जो कोई भी सत्य स्वीकार कर सकता है वह धन्य व्यक्ति है, और जो कोई भी सत्य स्वीकार नहीं कर सकता है उसके पास यह आशीष ही नहीं है। जिन्होंने सत्य स्वीकार कर लिया है वे एक दिन बड़ी आपदा में से बच निकलेंगे और बहुत धन्य किए जाएँगे, जबकि जिन्होंने सत्य स्वीकार नहीं किया है वे आपदा में नष्ट हो जाएँगे और विपत्ति सहेंगे, और तब तक पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होगी। भले ही अभी तुम लोग यह मान लो कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं और कि परमेश्वर का कार्य खुद परमेश्वर द्वारा ही किया जाता है, लेकिन अगर तुम लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हो, सत्य स्वीकार नहीं करते हो और सत्य में प्रवेश नहीं करते हो, तो भी तुम लोग ऐसा आशीष प्राप्त नहीं करोगे! क्या तुम्हें लगता है कि यह आशीष इतनी आसानी से प्राप्त किया जा सकता है? यह एक ऐसा आशीष है जो समय की शुरुआत से कभी अस्तित्व में नहीं रहा है और फिर कभी अस्तित्व में नहीं रहेगा—यह तुम्हें इतनी आसानी से कैसे प्राप्त करने दिया जा सकता है? परमेश्वर ने मानवजाति को इस तरह के आशीष का वादा किया है, लेकिन यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे आम लोग प्राप्त कर सकें। यह आशीष परमेश्वर द्वारा चुने गए लोगों के लिए है, और किसी बेवकूफ गधे, चलती-फिरती लाश, नीच या बदमाश का चुना जाना असंभव है। परमेश्वर मानवजाति को बचाने के लिए तीन चरणों वाला कार्य करता है, और अंत में, वह विजेताओं का एक समूह बनाएगा, और इन लोगों को सभी चीजों का मालिक बनने और एक नई मानवजाति बनने में सक्षम करेगा। मानवजाति के लिए यह आशीष कितना महान है! अंत के दिनों में न्याय के कार्य का यह चरण कितने वर्षों से चल रहा है? (तीस वर्षों से भी ज्यादा समय से।) इन तीस से ज्यादा वर्षों पर नजर डालें, तो यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर ने कितनी कीमत चुकाई है और उसने कितना कार्य किया है, इसलिए यह स्पष्ट है कि परमेश्वर अंत में जो मानवजाति प्राप्त करेगा वह कितनी अद्भुत रूप से मूल्यवान और कितनी अद्भुत रूप से शानदार होगी, और कि यह परमेश्वर की नजर में बहुमूल्य और अत्यंत महत्वपूर्ण है! तो फिर तुम लोग कितने खुशकिस्मत हो; यह तुम्हारे लिए इतना महान आशीष है! इसलिए कुछ लोग जो इस बिंदु पर अब भी ढुलमुल हो रहे हैं, वे सही मायने में धन्य नहीं हैं! भले ही वे ढुलमुल न हों और अनुसरण करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध हों, तब अगर उन्होंने सत्य का अनुसरण न किया, तो भी वे यह आशीष प्राप्त नहीं कर पाएँगे। इसलिए जो लोग अंत में यह आशीष प्राप्त करते हैं, वे साधारण लोग नहीं हैं—वे ऐसे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर ने कड़ाई से और बार-बार छाँटा है और बड़ी सावधानी से चुना है; वे ऐसे लोग हैं जिन्हें अंततः परमेश्वर द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

जो लोग ढुलमुल होते हैं उनकी मुख्य अभिव्यक्तियाँ ठीक यही मुद्दे हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उनका अंतिम परिणाम क्या हो सकता है, जो भी हो, एक बार जब कलीसिया में ऐसे लोगों की पहचान हो जाती है, तो उन्हें सिद्धांतों के अनुसार संभाला जाना चाहिए। उनके साथ भाई-बहनों जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। अगर उनमें परमेश्वर में विश्वास रखने के प्रति सकारात्मक भावनाएँ हैं या वे कुछ प्रयास कर सकते हैं और कुछ श्रम प्रदान करने के इच्छुक हैं, तो वे ज्यादा-से-ज्यादा कलीसियाई मित्र हैं, और भाई या बहन नहीं माने जा सकते हैं। इसलिए भले ही वे अपना कोई नया नाम रख लें, जैसे कि “समर्पण” या “सच्चाई”, तुम्हें फिर भी उन्हें भाई या बहन नहीं बुलाना चाहिए—उन्हें उनके नए नाम से पुकारना ही पर्याप्त है। ऐसा क्यों है? क्योंकि ऐसे लोग भाई या बहन होने की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं। अब तुम समझ रहे हो? (हाँ।) तो अब तुम्हारे पास इस तरह के लोगों को संभालने के सिद्धांत हैं, है ना? (हाँ।) आज की संगति के लिए बस इतना ही। अलविदा!

29 जून 2024

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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