अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (26)

मद चौदह : सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो (भाग पाँच)

कलीसिया की सफाई के कार्य के प्रति अगुआओं और कार्यकर्ताओं का क्या रवैया होना चाहिए

इस वर्ष हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों और इसमें शामिल सभी प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियों पर लगातार संगति करते आ रहे हैं। संगति के विषय और ज्यादा विस्तृत और विशिष्ट हो गए हैं जिसमें सभी प्रकार के लोगों की विभिन्न समस्याएँ शामिल हैं और इन लोगों की विशिष्ट अभिव्यक्तियों और उन्हें जिन श्रेणियों में विभाजित किया जाना चाहिए, इस पर संगति भी बहुत विशिष्ट और स्पष्ट रही है। इन विस्तृत समस्याओं पर जितनी ज्यादा विशिष्ट और स्पष्ट रूप से संगति की जाती है, इसे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए उतनी ही ज्यादा सकारात्मक मदद और मार्गदर्शन प्रदान करना चाहिए, और उतना ही ज्यादा मार्गदर्शन और सहायता इसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य करने और अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए प्रदान करनी चाहिए। लेकिन संगति चाहे कैसे भी की जाए, संगति चाहे कितनी भी विशिष्ट क्यों ना हो, कुछ अगुआ और कार्यकर्ता अब भी इस बारे में अस्पष्ट हैं कि कलीसिया में विभिन्न प्रकार के लोगों और मुद्दों को कैसे संभालना और निपटाना है। सभी प्रकार के लोगों के मुद्दों पर बहुत स्पष्टता से संगति की जाती है फिर भी कुछ अगुआ और कार्यकर्ता अब भी यह नहीं समझ पाते हैं कि विभिन्न प्रकार के लोगों को कैसे पहचानना है और उनसे कैसे व्यवहार करना है। वे अब भी सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं कर पाते हैं और ना ही वे कलीसिया में विभिन्न प्रकार के लोगों और मुद्दों को संभालने के लिए सत्य का उपयोग कर पाते हैं। इसका क्या कारण है? ऐसे लोगों में सत्य वास्तविकता की कमी है। सभी प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियों पर संगति के जरिए व्यक्ति को कलीसिया में उन लोगों की मूलभूत पहचान हो जानी चाहिए और उनके लिए उचित व्यवस्थाएँ करनी चाहिए जो अपने कर्तव्य करते हैं और जो नहीं करते हैं, जो सत्य का अनुसरण करते हैं और जो नहीं करते हैं, जो आज्ञाकारी और विनम्र हैं और जो विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। लेकिन कलीसिया में सभी प्रकार के लोगों की परिस्थिति देखी जाए तो सिर्फ स्पष्ट कुकर्मियों को ही बहिष्कृत या निष्कासित किया गया है; कई छद्म-विश्वासियों को पूरी तरह से बहिष्कृत या निष्कासित नहीं किया गया है। कलीसिया की सफाई के कार्य में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इसे निष्क्रिय रूप से संभालने, खुशामदी लोगों के रूप में कार्य करने या यह सोचने के बजाय कि सिर्फ स्पष्ट कुकर्मियों को दूर कर देने का यह अर्थ है कि सब कुछ निपट गया है और ठीक है, उन्हें कुकर्मियों और छद्म-विश्वासियों को जल्द से जल्द दूर करने के लिए परमेश्वर के कार्य में सहयोग करना चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को हर टीम के कार्य का सक्रिय रूप से निरीक्षण करना चाहिए, हर टीम के सदस्यों की परिस्थितियों को इस संबंध में सत्यापित करना चाहिए कि क्या वहाँ कोई छद्म-विश्वासी सिर्फ जरूरी संख्या पूरी करनी के लिए मौजूद है या वहाँ कोई ऐसा छद्म-विश्वासी है जो कलीसिया के कार्य में बाधा डालने के लिए नकारात्मकता और धारणाएँ फैला रहा है, और पता चलने पर इन लोगों को पूरी तरह से उजागर किया जाना चाहिए और उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित किया जाना चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यही कार्य करना चाहिए; उन्हें निष्क्रिय नहीं होना चाहिए, कार्य करने के लिए ऊपरवाले से आदेश और आग्रह प्राप्त करने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए और ना ही उन्हें सिर्फ तभी थोड़ा-सा कार्य कर देना चाहिए जब सभी भाई-बहन इसकी माँग करें। अपने कार्य में, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होना चाहिए और उसके प्रति वफादार रहना चाहिए। उनके लिए व्यवहार करने का सबसे अच्छा तरीका सक्रिय रूप से समस्याओं को पहचानना और हल करना है। उन्हें निष्क्रिय नहीं रहना चाहिए, खासकर तब जब उनके पास कार्य करने के लिए आधार के रूप में ये मौजूदा शब्द और संगति है। उन्हें सत्य पर संगति करके वास्तविक समस्याओं और मुश्किलों को पूरी तरह से सुलझाने की पहल करनी चाहिए, और अपना कार्य ठीक उसी तरह से करना चाहिए जैसा उनसे अपेक्षित है। उन्हें कार्य की प्रगति पर फौरन और सक्रियता से खुद आगे बढ़कर अनुवर्ती कार्यवाही करनी चाहिए; वे अनिच्छा से क्रियाकलाप करने से पहले हमेशा ऊपरवाले से आदेशों और आग्रह की प्रतीक्षा में बैठे नहीं रह सकते हैं। अगर अगुआ और कार्यकर्ता हमेशा नकारात्मक और निष्क्रिय रहते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते हैं, तो वे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में सेवा करने के लायक नहीं हैं, और उन्हें बर्खास्त करके कोई दूसरा काम दे दिया जाना चाहिए। फिलहाल ऐसे बहुत-से अगुआ और कार्यकर्ता हैं जो अपने काम में बहुत निष्क्रिय हैं। वे थोड़ा सा भी कार्य सिर्फ तभी करते हैं जब ऊपरवाला आदेश भेजता है और उन्हें प्रेरित करता है; अन्यथा, वे सुस्त पड़ जाते हैं और टालमटोल करते हैं। कुछ कलीसियाओं में काम में काफी अस्तव्यस्तता होती है, वहाँ कार्य करने वालों में से कुछ लोग बहुत ही सुस्त और लापरवाह हैं, और उन्हें कोई वास्तविक परिणाम नहीं मिलते हैं। ये समस्याएँ पहले से ही बहुत गंभीर और भयानक प्रकृति की हैं, लेकिन अब भी उन कलीसियाओं के अगुआ और कार्यकर्ता अधिकारियों और अधिपतियों की तरह कार्य करते हैं। वे न तो कोई वास्तविक कार्य कर पाते हैं, न ही समस्याओं को पहचानकर उन्हें हल कर पाते हैं। इससे कलीसिया का काम रुक जाता है और फिर काम ठप्प ही पड़ जाता है। जहाँ भी किसी कलीसिया का कार्य बुरी तरह से अस्त-व्यस्त हो जाता है और वहाँ व्यवस्था का कोई नामोनिशान नहीं होता है, तो निश्चित रूप से वहाँ कोई झूठा अगुआ या मसीह-विरोधी सत्ता संभाले होता है। हर कलीसिया में जहाँ कोई झूठा अगुआ सत्ता संभाले होता है, वहाँ कलीसिया का कार्य खस्ताहाल और पूरी तरह से अस्त-व्यस्त होता है—इसमें कोई संदेह नहीं है। मिसाल के तौर पर, अमेरिकी कलीसियाओं की बहुत-सी समस्याओं के बारे में मुझे खुद सुनकर या देखकर ही पता चला। मैंने जितने भी मसले देखे, उनमें से ज्यादातर को मौके पर ही सुलझा दिया गया; कुछ अन्य समस्याओं के लिए, मैंने अमेरिकी कलीसियाओं के अगुआओं से उन्हें सुलझाने के लिए कहा। लेकिन, अगुआओं और कार्यकर्ताओं का ज्यादातर कार्य बहुत ही निष्क्रिय तरीके से किया जाता है, जिसमें अनुवर्ती कार्रवाइयाँ बहुत ही धीमी होती हैं और कुशलता बहुत ही कम होती है, उनके ज्यादातर दैनिक कार्य सिर्फ ऊपरवाले के आदेशों और उसके आग्रह के बाद ही किए जाते हैं। ऊपरवाले द्वारा कार्य की व्यवस्था किए जाने के बाद, वे कुछ समय के लिए व्यस्त रहते हैं, लेकिन जैसे ही वह जरा-सा कार्य पूरा हो जाता है, तो वे नहीं जानते हैं कि आगे क्या करना है, क्योंकि उन्हें समझ नहीं आता है कि उन्हें कौन से कर्तव्य करने चाहिए। जहाँ तक अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों के दायरे में आने वाले कार्य की बात है, उन्हें कभी पता नहीं होता है कि कौन-से कार्य करने हैं; उनकी नजर में, ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसे करने की जरूरत है। जब लोगों को लगता है कि ऐसा कोई काम ही नहीं है जिसे करना जरूरी है तो इसका मतलब क्या है? (वे कोई भार वहन नहीं करते।) सटीक रूप से कहें तो वे कोई भार वहन नहीं करते; वे बेहद आलसी भी होते हैं, और सुख-सुविधाओं के लालची होते हैं, यथासंभव अवकाश ले लेते हैं और किसी भी अतिरिक्त कार्य से बचने का प्रयास करते हैं। ये आलसी लोग अक्सर सोचते हैं, “मैं इतनी चिंता क्यों करूँ? बहुत ज्यादा चिंता करने से मेरी उम्र तेजी से बढ़ने लगेगी। ऐसा करके, और इतनी भागदौड़ से और अपने आपको इतना थकाकर मुझे क्या लाभ होगा? अगर मैं जी-तोड़ मेहनत करके बीमार पड़ गया तो? मेरे पास तो इलाज के लिए पैसे भी नहीं हैं। और जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा तो मेरी देखभाल कौन करेगा?” ये आलसी लोग इतने निष्क्रिय और पिछड़े होते हैं। उनमें रत्ती भर भी सत्य नहीं होता और वे कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते। जाहिर है कि वे भ्रमित लोगों का एक समूह हैं, है न? वे सब भ्रमित होते हैं; वे सत्य से बेखबर होते हैं और उन्हें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं होती है, तो उन्हें कैसे बचाया जा सकता है? लोग हमेशा अनुशासनहीन और आलसी क्यों होते हैं, मानो वे जिंदा लाशें हों? यह उनकी प्रकृति के मुद्दे से जुड़ा है। मानव-प्रकृति में एक प्रकार का आलस्य होता है। लोग चाहे कोई भी कार्य कर रहे हों, उन्हें हमेशा किसी-न-किसी निगरानी करनेवाले और आग्रह करनेवाले की जरूरत पड़ती है। कभी-कभी लोग देह के लिए विचारशील होते हैं, देह-सुख के लिए ललचाते हैं, और हमेशा अपने लिए कुछ न कुछ छिपाकर रख लेते हैं—ये लोग शैतानी इरादों और धूर्त योजनाओं से भरे होते हैं; ये लोग सचमुच बिल्कुल अच्छे लोग नहीं होते। वे कभी भरसक प्रयास नहीं करते, चाहे वे कोई भी महत्वपूर्ण कर्तव्य क्यों न कर रहे हों। यह गैर-जिम्मेदार और बेवफा होना है। मैंने ये बातें आज तुम्हें यह याद दिलाने के लिए कही हैं कि तुम काम में निष्क्रिय मत होना। तुम लोगों को मेरी कही हर बात का अनुसरण करने में समर्थ होना चाहिए। अगर मैं विभिन्न कलीसियाओं में जाऊँ और मुझे पता चले कि तुम लोगों ने बहुत सारा कार्य किया है, तुमने बहुत कुशलता से कार्य किया है और यह कार्य बहुत जल्दी प्रगति कर रहा है, यह संतोषजनक स्तर पर पहुँच गया है और सभी ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया है तो मुझे बहुत खुशी होगी। अगर मैं विभिन्न कलीसियाओं में जाऊँ और देखूँ कि कार्य की प्रगति सभी पहलुओं में धीमी है, जो यह साबित करता है कि तुम लोगों ने अपने कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं किए हैं और तुम लोग सुसमाचार फैलाने की सामान्य गति के साथ कदम मिलाकर नहीं चले हो तो तुम लोगों को क्या लगता है, तब मेरा मिजाज कैसा होगा? क्या तब भी मुझे तुम लोगों को देखकर खुशी होगी? (नहीं।) मुझे खुशी नहीं होगी। यह कार्य तुम लोगों को सौंपा गया है और मैं वह सब कुछ कह चुका हूँ जो कहने की जरूरत है; अभ्यास के विशिष्ट सिद्धांत और मार्ग भी तुम लोगों को बता दिए गए हैं। फिर भी तुम लोग कार्यवाही नहीं करते हो, कार्य नहीं करते हो, बस इसी प्रतीक्षा में रहते हो कि मैं व्यक्तिगत रूप से तुम लोगों का पर्यवेक्षण करूँ और तुम लोगों से आग्रह करूँ, तुम लोगों की काट-छाँट करूँ या यहाँ तक कि कार्य करने के लिए तुम्हें आदेश भी दूँ। यहाँ क्या समस्या है? क्या इसका गहन-विश्लेषण नहीं किया जाना चाहिए? जब तुम वह कार्य नहीं कर रहे हो जो स्पष्ट रूप से किया जाना चाहिए और तुम उसकी जिम्मेदारी उठाने में असमर्थ हो—क्या मैं तुम लोगों के प्रति अच्छा रवैया रख सकता हूँ? (नहीं।) मैं तुम लोगों के प्रति अच्छा रवैया क्यों नहीं रख सकता? (हम अपने कर्तव्य करने में बहुत ही गैर-जिम्मेदार हैं।) क्योंकि तुम लोग अपने पूरे दिल और ताकत से अपने कर्तव्य नहीं कर रहे हो, बल्कि उन्हें सिर्फ लापरवाही से कर रहे हो। अपने कर्तव्यों के प्रति वफादार व्यक्ति को कम-से-कम अपनी पूरी ताकत लगा देनी चाहिए लेकिन तुम लोग यह भी हासिल नहीं कर पाते हो; तुम लोग बहुत ही अपर्याप्त हो! ऐसा नहीं है कि तुम लोगों की काबिलियत अपर्याप्त है; बात यह है कि तम लोगों की मानसिकता गलत है और तुम लोग गैर-जिम्मेदार हो। तुम लोगों के दिलों में ऐसी कुछ बेतुकी बातें हैं जो तुम लोगों को अपने कर्तव्य पूरे करने से रोकती हैं। इसके अलावा खुशामदी होने की मानसिकता तुम लोगों को कलीसिया की सफाई का कार्य पूरा करने से रोकती है। क्या तुम लोगों को कलीसिया की सफाई का महत्व मालूम है? परमेश्वर क्यों कलीसिया की सफाई करना चाहता है? कलीसिया की सफाई नहीं करने के क्या परिणाम होते हैं? तुम सभी इन मामलों के बारे में अस्पष्ट हो और सत्य की तलाश नहीं करते हो, जो साबित करता है कि तुम लोग परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील नहीं हो। तुम लोग अपने पद के सामान्य, नियमित कार्य का सिर्फ थोड़ा-सा भाग करने के इच्छुक हो और विशेष कार्यों से कतराते हो, विशेष रूप से ऐसे कार्यों से जो दूसरों को नाराज कर सकते हैं। तुम सभी ये कार्य किसी और को सौंप देना पसंद करते हो। क्या तुम लोग इसी तरीके से नहीं सोचते हो? क्या यह ऐसा मुद्दा नहीं है जिसका समाधान किया जाना चाहिए? तुम लोग हमेशा कहते हो, “मेरी काबिलियत खराब है, सत्य के बारे में मेरी समझ सीमित है और मेरे पास पर्याप्त कार्य अनुभव नहीं है। मैं कभी भी कलीसियाई अगुआ नहीं रहा हूँ और ना ही मैंने कलीसिया की सफाई का कार्य किया है।” क्या यह बहानेबाजी नहीं है? कलीसिया की सफाई के कार्य पर बहुत स्पष्टता से संगति की गई है। मसीह-विरोधियों, कुकर्मियों और छद्म-विश्वासियों को दूर करना बहुत ही सरल मामला है। क्या उन कुछ सिद्धांतों को समझना वाकई इतना कठिन है? अगर ऐसे सरल मुद्दे बहुत स्पष्टता से समझाए जाते हैं और फिर भी लोगों को समझ नहीं आता है तो इसका क्या अर्थ है? इससे पता चलता है कि या तो उनकी काबिलियत इतनी कम है कि वे मानव भाषा समझ ही नहीं सकते या वे बस बदमाश हैं जो उचित कार्यों पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं में यकीनन कुछ ऐसे लोग हैं जिनकी काबिलियत खराब है और यकीनन कुछ ऐसे खुशामदी लोग हैं जो वास्तविक कार्य में शामिल नहीं होते हैं; यकीनन ऐसे कुछ बदमाश भी हैं जो उचित कार्यों को नजरअंदाज करते हैं और लापरवाही से गलत कर्म करते हैं—ये सभी परिस्थितियाँ मौजूद हैं। सबसे पहले उचित कार्यों को नजरअंदाज करने वाले इन बदमाशों को दूर किया जाना चाहिए। जो भी व्यक्ति वास्तविक कार्य कर सकता है उसका उपयोग किया जाना चाहिए, अगुआओं के रूप में कार्य करने वाले खुशामदी लोगों को यकीनन बर्खास्त किया जाना चाहिए और खराब काबिलियत वाले लोग जो मानव भाषा समझ सकते हैं और कुछ वास्तविक कार्य कर सकते हैं उन्हें रखा जाना चाहिए। इन मुद्दों को ऐसे ही हल किया जाना चाहिए। अगर परमेश्वर द्वारा संगति किए जाने जाने के बाद तुम कलीसिया के कार्य में उन समस्याओं को स्पष्ट रूप से देख पाते हो जिन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सुलझाना चाहिए, तो तुम्हें और देरी किए बिना उनका तुरंत समाधान करना चाहिए। तुम्हें कार्य करने की पहल करने में समर्थ होना चाहिए, ऊपरवाले द्वारा कार्य सौंपने या आदेश जारी किए जाने की प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। चाहे कोई भी समस्या क्यों ना उत्पन्न हो, इससे पहले कि वह कार्य को प्रभावित करे उसे हल किया जाना चाहिए। इससे पहले कि ऊपरवाला इन मुद्दों की जाँच करना शुरू करे, तुम्हें इन मुद्दों के बारे में अपनी समझ और उनके समाधानों, उन्हें संभालने के सिद्धांतों और उन्हें संभालने के परिणामों की सूचना दे देनी चाहिए। यह कितना शानदार होगा! क्या तब भी ऊपरवाला तुमसे असंतुष्ट रह पाएगा? एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में अगर तुम अपनी खुद की जिम्मेदारियों के दायरे में कार्य को देखने में लगातार विफल होते हो या भले ही तुम्हारे पास कुछ जागरूकता या विचार हो लेकिन तुम उन्हें टालमटोल करते रहते हो और कार्य नहीं करते हो, हमेशा ऊपरवाले द्वारा तुम्हारे लिए कार्यों की व्यवस्था किए जाने जाने की प्रतीक्षा करते हो तो क्या यह कर्तव्य के प्रति लापरवाही नहीं है? (हाँ, है।) यह जिम्मेदारी की गंभीर उपेक्षा है! तुमने कर्तव्य के साथ कैसे पेश आया जाए, इस बारे में किसी अगुआ या कार्यकर्ता की भूमिका के साथ आनेवाले रवैए या जिम्मेदारी को खो दिया है। अपने कार्य में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऊपरवाले की अपेक्षाओं का ध्यान से पालन करना चाहिए; ऊपरवाले ने जो भी संगति की है तुम्हें उसे ही कार्यान्वित करना चाहिए, एक बार उसे समझ लेने पर तुम्हें जल्द से जल्द कार्य करना चाहिए और उसे कार्यान्वित करना चाहिए। सत्य से समस्याओं का समाधान करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है और तुम्हें कुछ भी करने से पहले ऊपरवाले द्वारा कार्य की व्यवस्था करने की निष्क्रिय रूप से प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। अगर तुम हमेशा निष्क्रिय रूप से प्रतीक्षा करते रहते हो तो तुम अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए उपयुक्त नहीं हो, तुम इस कार्य की जिम्मेदारी नहीं उठा सकते हो और अपनी जवाबदेही मानकर इस्तीफा देना ही एकमात्र उचित बात होगी।

परमेश्वर में विश्वास रखने वाले तीन प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियाँ और परिणाम

I. श्रमिक

अगुआओं और कार्यकर्ताओं की कुल पंद्रह जिम्मेदारियाँ हैं और हम पहले ही चौदहवीं जिम्मेदारी तक संगति कर चुके हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसिया में जो समस्याएँ हल करने की जरूरत होती है उनकी और साथ ही इन समस्याओं में शामिल सभी प्रकार के लोगों के मुद्दों की लगभग अस्सी से नब्बे प्रतिशत तक संगति की जा चुकी है। ये सब वही कार्य हैं जिनकी अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारी स्वीकार करने की जरूरत है और वही समस्याएँ हैं जिन्हें उन्हें हल करने की जरूरत है। इसमें कई मुद्दे शामिल हैं। एक तरफ, यह उन जिम्मेदारियों का जिक्र करता है जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पूरी करनी चाहिए; दूसरी तरफ, यह कलीसिया में सभी प्रकार के लोगों के विभिन्न मुद्दों से भी संबंधित है। वैसे तो इस अवधि के दौरान हमारी संगति का विषय अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ और झूठे अगुआओं को उजागर करना है लेकिन हमने उन विभिन्न प्रकार के लोगों के मुद्दों के बारे में—और विभिन्न प्रकार के लोगों की स्थितियों और सारों के बारे में भी—बहुत संगति की है जिनका इस विषय में जिक्र किया गया है। यकीनन इस विशिष्ट विषय-वस्तु का कलीसिया में परमेश्वर का अनुसरण करने वाले सभी प्रकार के लोगों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। उनमें से एक प्रकार का व्यक्ति ऐसा है जो यह सारी संगति सुनने के बाद भी यह रवैया बनाए रखता है कि “मेरे पास अच्छी मानवता है, मैं सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, मैं परमेश्वर में अपनी आस्था में चीजों का त्याग करने का इच्छुक हूँ, और मैं अपना कर्तव्य करने के लिए कीमत चुकाने और कष्ट सहने का इच्छुक हूँ।” वह सभी प्रकार के लोगों की विभिन्न स्थितियों, विभिन्न स्थितियों से संबंधित सत्य या लोगों को जो सत्य सिद्धांत समझने चाहिए उनकी परवाह नहीं करता है, जिनके बारे में इस अवधि के दौरान संगति की गई। क्या यह एक प्रकार का व्यक्ति नहीं है? क्या इस प्रकार का व्यक्ति बहुत प्रतिनिधिक नहीं है? (हाँ, है।) इस प्रकार का व्यक्ति हमेशा एक निश्चित नजरिया रखता है। यह नजरिया मुख्य रूप से किन चीजों से बना है? मैंने अभी-अभी जिन तीन बिंदुओं का जिक्र किया वे हैं : पहला, वह मानता है कि उसकी मानवता बुरी नहीं है और यह भी मानता है कि वह अच्छी है। दूसरा, उसे लगता है कि वह सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखता है जिसका अर्थ यह है कि वह सचमुच में परमेश्वर के अस्तित्व और हर चीज पर परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास रखता है, वह मानता है कि मानव नियति परमेश्वर द्वारा नियंत्रित है, यह परमेश्वर की संप्रभुता के अंतर्गत आती है जो कि “सही मायने में विश्वास रखने” की एक व्यापक व्याख्या है। तीसरा, वह मानता है कि वह परमेश्वर में अपनी आस्था में चीजों का त्याग कर सकता है और अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए कष्ट सह सकता है और कीमत चुका सकता है। ये तीन बिंदु सबसे मूलभूत, प्राथमिक और प्रमुख तत्व कहे जा सकते हैं जिन्हें इस प्रकार के लोग परमेश्वर में अपनी आस्था में पकड़े रहते हैं। यकीनन ये चीजें परमेश्वर में विश्वास रखने में उनकी पूँजी मानी जा सकती हैं और साथ ही उनके द्वारा अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्य और कार्य करने की उनकी प्रेरणा और दिशा भी मानी जा सकती हैं। वे मानते हैं कि इन तीन बिंदुओं का अपने पास होना उन्हें बचाए जाने की तीन मूलभूत शर्तों के लिए उन्हें योग्य बनाता है जिससे वे ऐसे लोग बन जाते हैं जिनसे परमेश्वर प्रेम करता है और जिन्हें स्वीकार करता है। यह एक गंभीर गलती है; इन तीन बिंदुओं का होना सिर्फ थोड़ी-सी मानवता का होना दर्शाता है। क्या सिर्फ थोड़ी-सी मानवता का होना परमेश्वर की स्वीकृति अर्जित कर सकता है? बिल्कुल नहीं; परमेश्वर उन लोगों को स्वीकृति देता है जो उसका भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं। ये तीन बिंदु सत्य वास्तविकता का मानक पूरा नहीं करते हैं; ये सिर्फ श्रमिक होने के तीन मानक हैं। इसके बाद मैं इन तीनों बिंदुओं के विवरणों पर संगति करूँगा ताकि तुम लोग स्पष्ट रूप से समझ सको। पहला बिंदु अच्छी मानवता का होना है। उनका मानना है कि कोई कुकर्म नहीं करना, विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं करना और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान नहीं पहुँचाना पर्याप्त है और इसका अर्थ यह है कि वे परमेश्वर के इरादे पूरे कर सकते हैं और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं। दूसरा बिंदु “सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखना” है। वे जिसे “सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखना” कहते हैं उनके लिए उसका अर्थ है परमेश्वर के अस्तित्व पर या हर चीज पर उसकी संप्रभुता की सच्चाई पर कभी संदेह नहीं करना और यह विश्वास रखना कि मानव नियति परमेश्वर के हाथों में है, और उन्हें लगता है कि यह विश्वास उन्हें अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करने में समर्थ बनाएगा। उनका मानना है कि जब तक वे सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखेंगे तब तक वे उसकी स्वीकृति अर्जित करते रहेंगे। इसलिए चाहे परमेश्वर कैसे भी अगुवाई करे या कार्य करे या वे किसी भी समस्या का सामना करें, वे कहते हैं, “बस परमेश्वर से प्रेम करो, परमेश्वर का अनुसरण करो, परमेश्वर के प्रति समर्पण करो।” समस्याएँ सुलझाने का उनका तरीका बहुत ही सरल है; क्या ऐसे सामान्यीकृत शब्द कोई समस्या सुलझा सकते हैं? तीसरा बिंदु है परमेश्वर में अपनी आस्था में चीजों को त्याग करने में समर्थ होना और अपने कर्तव्य करने के लिए कष्ट सहने और कीमत चुकाने में समर्थ होना। वे इसे अभ्यास में कैसे लाते हैं? क्योंकि वे सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं इसलिए जब कलीसिया के कार्य में कोई जरूरत होती है या जब उन्हें परमेश्वर के तत्काल इरादे महसूस होते हैं तो वे सक्रियता से अपने परिवार, शादियाँ और करियर त्याग सकते हैं, अपनी सांसारिक संभावनाओं को एक तरफ रख सकते हैं और परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हैं और अटल दृढ़ निश्चय के साथ अपने कर्तव्य कर सकते हैं, उन्हें कभी कोई पछतावा नहीं होता है। वे कष्ट सहने और परमेश्वर के घर द्वारा उनके लिए जिस किसी कर्तव्य की व्यवस्था की जाती है उसके लिए कीमत चुकाने में समर्थ होते हैं, भले ही इसका अर्थ कम खाना और कम सोना हो। जीवनयापन की परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी कठिन क्यों ना हों या कुछ प्रतिकूल परिवेशों में भी वे अपने कर्तव्य करने में दृढ़ रह सकते हैं। इन तीन बिंदुओं के अलावा सत्य से संबंधित दूसरे सभी पहलुओं का अभ्यास उन्हें असंबद्ध लगता है। वे वही करते हैं जो उन्हें अच्छा या सही लगता है। जहाँ तक अभ्यास के उन विभिन्न सिद्धांतों का प्रश्न है जो परमेश्वर ने मनुष्य को बताए हैं और साथ ही लोगों के परमेश्वर द्वारा उजागर किए गए विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों की स्थितियों, अभिव्यक्तियों और सार का प्रश्न है, वे सोचते हैं कि उनके लिए थोड़ा जानना या बिल्कुल भी नहीं जानना ठीक है; उन्हें अपनी खुद की भ्रष्टता की जाँच करने और अपनी कमियों की भरपाई करने के लिए विभिन्न सिद्धांत विशिष्ट रूप से और सावधानी से खोजने की कोई जरूरत महसूस नहीं होती है या उन्हें दूसरों को अपनी विभिन्न अनुभवजन्य गवाहियों की संगति करते हुए सुनने के लिए अक्सर सभाओं में शामिल होने और फिर आत्म-परिवर्तन प्राप्त करने वगैरह की कोई जरूरत महसूस नहीं होती है। उन्हें लगता है कि इस तरह से परमेश्वर में विश्वास रखना बहुत परेशानी की बात है, यह अनावश्यक है। वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं और परमेश्वर में आस्था और स्वभावगत बदलाव की सतही समझ और परमेश्वर के कार्य के बारे में विभिन्न धारणाओं और कल्पनाओं के साथ अपने कर्तव्य करते हैं। क्या इस प्रकार के लोग काफी प्रतिनिधिक नहीं हैं? (हाँ, हैं।) वे अपने लिए सबसे मूलभूत जरूरतें निर्धारित करते हैं और परमेश्वर में विश्वास रखने के प्रति सबसे मूलभूत रवैया रखते हैं। इसके परे वे सत्य, परमेश्वर के न्याय और उसके द्वारा उजागर किए जाने, काट-छाँट किए जाने और साथ ही लोगों के विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों और विभिन्न स्थितियों, अभिव्यक्तियों वगैरह की अवहेलना करते हैं। वे इन मुद्दों पर कभी चिंतन या विचार नहीं करते हैं। यानी ये लोग खुद को अच्छी मानवता वाले, अच्छे लोग और परमेश्वर में सही मायने में विश्वास रखने वाले लोग मानते हैं; और हालाँकि वे यह स्वीकार करते हैं कि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट होते हैं, फिर भी वे परमेश्वर द्वारा लोगों के उजागर किए गए विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों की विशिष्ट स्थितियों और अभिव्यक्तियों को नजरअंदाज करते हैं, इन चीजों की जाँच करने का कोई प्रयास नहीं करते हैं। क्या यह एक प्रकार का व्यक्ति नहीं है? क्या परमेश्वर में अपनी आस्था में इस प्रकार के व्यक्ति के विचार और उसकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ प्रतिनिधिक नहीं हैं? (हाँ।) परमेश्वर में विश्वास रखने के संबंध में इन लोगों के नजरियों, बचाए जाने के बारे में उनकी समझ और लोगों के विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके रवैये को ध्यान में रखा जाए तो इन लोगों को किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए? (जो भ्रमित आस्था वाले हैं, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं।) यह सिर्फ सतही रूप है; इन लोगों को वाकई किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए? क्या कलीसिया में ऐसे बहुत-से लोग हैं? (हाँ।) जब भी विशिष्ट मुद्दों पर चर्चा की जाती है और संगत सत्यों पर संगति की जाती है तो उन्हें नींद आने लगती है, वे सो जाते हैं, या भ्रमित हो जाते हैं, कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं। अगर उन्हें कोई कार्य या जिम्मेदारी सौंपी जाती है तो वे अपनी आस्तीनें चढ़ा लेते हैं और उसे करना शुरू कर देते हैं, कष्ट या थकान से कतराते नहीं हैं। उन्हें लगता है कि बहुत ही अच्छा होता अगर परमेश्वर में विश्वास रखना इस तरह का कार्य करने जैसा होता—तब वे प्रेरित होते। जब कष्ट सहने, कीमत चुकाने और कार्य में प्रयास करने का समय आता है तो वे सच्ची तत्परता दिखाते हैं। लेकिन क्या यह सच्ची तत्परता और उत्साह वफादार होने के समान है? क्या सत्य वास्तविकताएँ समझने के बाद यह अभिव्यक्ति होनी चाहिए? (नहीं।) मेरी संगति के जरिए क्या तुम लोग देख सकते हो कि इन लोगों को किस श्रेणी में वर्गीकृत किया जाना चाहिए? (श्रमिक।) सही कहा। ये लोग श्रमिक हैं और श्रमिक लोग परमेश्वर में इसी तरह से विश्वास रखते हैं।

हमने शुरुआत मसीह-विरोधियों की प्रकृति, सार और विभिन्न अभिव्यक्तियों के बारे में और साथ ही उन लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों के बारे में भी संगति करके की जिनका स्वभाव मसीह-विरोधियों वाला है लेकिन वे वास्तव में मसीह-विरोधी नहीं हैं। अब हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों में जिक्र किए गए विभिन्न प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियों के बारे में संगति कर रहे हैं। वैसे तो संगति किए गए विषय मसीह-विरोधियों और झूठे अगुआओं के बारे में रहे हैं लेकिन हर मद में जिक्र किए गए विशिष्ट मुद्दे और अभिव्यक्तियाँ भ्रष्ट मानवजाति के भ्रष्ट स्वभावों, और साथ ही भ्रष्ट स्वभावों के शिकंजे में उत्पन्न विभिन्न स्थितियों और अभिव्यक्तियों से भी संबंधित हैं। वैसे तो झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी सिर्फ अल्पसंख्यक हैं लेकिन झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के स्वभाव और साथ ही उनकी विभिन्न स्थितियाँ और अभिव्यक्तियाँ अलग-अलग हदों तक हर व्यक्ति में मौजूद हैं। अब जब इन मुद्दों पर बहुत विस्तार से संगति की जा चुकी है तो सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों के पास सत्य का अनुसरण करने, सत्य का अभ्यास करने, सत्य सिद्धांत समझने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए इसके बाद ज्यादा मार्ग और दिशा और ज्यादा स्पष्ट लक्ष्य होंगे। यह उनके लिए एक अच्छी चीज है और खुशी का कारण है। दूसरे शब्दों में, वे परमेश्वर में अपनी आस्था में एक महत्वपूर्ण घटना की शुरुआत करने जा रहे हैं। अब वे नियमों, धार्मिक अनुष्ठानो, या शब्दों और सिद्धांतों, और नारों के अधीन नहीं जीते हैं। बल्कि उनके पास अभ्यास के लिए ज्यादा ठोस दिशाएँ और लक्ष्य हैं और अनुसरण करने के लिए यकीनन ज्यादा विशिष्ट सिद्धांत हैं। कुछ विशेष परिस्थितियों में कैसे अभ्यास करना है और संबंधित सत्य सिद्धांत क्या हैं या लोगों की क्या स्थितियाँ और भ्रष्टताएँ हैं और उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए और साथ ही उन्हें हल करने के लिए सत्य की तलाश कैसे करनी है—मसीह-विरोधियों और झूठे अगुआओं पर संगति किए गए दो मुख्य विषय ज्यादातर इन्हीं सामग्रियों का जिक्र करते हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों के लिए सत्य की संगति जितनी ज्यादा विशिष्ट रूप से की जाती है, उतना ही ज्यादा उनके पास अभ्यास के लिए एक मार्ग होता है। सत्य की संगति जितनी ज्यादा विशिष्ट रूप से की जाती है, लोगों के दिल उतने ही ज्यादा उज्ज्वल और स्पष्ट हो जाते हैं, वे खुद को उतना ही ज्यादा जान और समझ पाते हैं, और उतनी ही ज्यादा वे यह बात जान जाते हैं कि उन्हें आगे किस चीज में प्रवेश करना चाहिए और उन्हें आगे कौन-सी समस्याएँ सुलझाने की जरूरत है। जहाँ तक अभी-अभी श्रमिकों के रूप में जिक्र किए गए लोगों के प्रकार का प्रश्न है, हमने मानवजाति के भ्रष्ट स्वभावों द्वारा उत्पन्न विभिन्न स्थितियों और भ्रष्टता की उन विभिन्न समस्याओं के बारे में विस्तार से संगति की जिन्हें हल करने की जरूरत है, उसके बाद भी वे अप्रभावित रहे। अप्रभावित रहने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि वे अब भी परमेश्वर द्वारा बोले गए सत्य और उद्धार के मार्ग का अनुसरण करने के बारे में अस्पष्ट हैं और उसे समझने में असमर्थ हैं। और अधिक गंभीर रूप से, इतनी सारी मूलभूत अभिव्यक्तियों और समस्याओं पर संगति किए जाने के बाद भी वे यही सोचते हैं, “मेरे पास अच्छी मानवता है, मैं सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, मैं परमेश्वर में अपनी आस्था में चीजों का त्याग करने का इच्छुक हूँ, और मैं अपना कर्तव्य करने के लिए कीमत चुकाने और कष्ट सहने का इच्छुक हूँ; यह पर्याप्त है।” परिस्थितियों से सामना होने पर वे ना तो अपनी जाँच करते हैं और ना ही अपनी तुलना परमेश्वर के वचनों से करते हैं बल्कि वे सिर्फ अपनी मानवीय अच्छाई या उनके पास जो थोड़ा-सा जमीर और विवेक है उसके आधार पर समस्याएँ सुलझाने का प्रयास करते हैं। यकीनन, कुछ लोग संयम और धीरज पर भरोसा करते हैं, बार-बार कष्ट सहते हैं जबकि दूसरे लोग सांसारिक आचरण के फलसफों पर भरोसा करते हैं, बड़े मुद्दो को मामूली समस्याओं की तरह और फिर उन मामूली समस्याओं को कोई समस्या ही नहीं है की तरह दिखाते हैं। वे इस लक्ष्य का अनुसरण करते हैं : “परमेश्वर का कार्य समाप्त होने के दिन तक भी अगर मैं कलीसिया में अपना कर्तव्य करता रहा, मुझे बहिष्कृत या निष्कासित नहीं किया गया, तो यह पर्याप्त है। मुझे अपने बारे में सच्ची समझ है या नहीं, मेरे भ्रष्ट स्वभाव हल हो चुके हैं या नहीं, मुझमें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण है या नहीं, मैं परमेश्वर का भय मानने वाला और बुराई से दूर रहने वाला व्यक्ति हूँ या नहीं—ये मामूली मुद्दे हैं जो जिक्र करने योग्य नहीं हैं। तुम लोग हर बात को एक मुद्दा बना देते हो, बहुत विस्तार से सत्य की संगति करते हो, छोटे से छोटे मुद्दों को भी लगातार संगति के लिए उठाते हो, हमेशा हमसे पहचान करवाते हो; मैं सत्य पर इन संगतियों को सुनने का बिल्कुल भी इच्छुक नहीं हूँ, मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है। परमेश्वर का दिन आने पर अगर हम बस सीधे राज्य में प्रवेश कर पाएँ तो यह कितना अच्छा होगा!” हालाँकि यह सच है कि हर किसी के धीरज की अपनी सीमाएँ होती हैं लेकिन ऐसे लोगों में असीमित धीरज होता है। क्यों? वह इसलिए क्योंकि वे मानते हैं कि उनमें अच्छी मानवता है, वे सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, परमेश्वर में विश्वासियों के रूप में चीजों का त्याग करने की क्षमता रखते हैं और अपना कर्तव्य करने के लिए कीमत चुकाने और कष्ट सहने के इच्छुक रहते हैं; जब उन्हें किसी चीज का सामना करना पड़ता है तो उनके पास अपने समाधान होते हैं और अंत में भी वे दृढ़ता से अपने कर्तव्य करने और अटल रहने में समर्थ होते हैं। लेकिन वे अपने कर्तव्य करने में चाहे कैसे भी दृढ़ रहें या वे किसी भी तरीके से अंत तक कष्ट सहते रहें, उनकी प्रेरणा चाहे जो भी हो, एक बात तो निश्चित है : उनमें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण नहीं होता है और वे कभी भी अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं समझते हैं। और ज्यादा सटीक रूप से कहूँ तो, ये लोग खुद में भ्रष्टता होने की बात स्वीकार नहीं करते हैं और ना ही वे परमेश्वर द्वारा लोगों के उजागर किए गए भ्रष्ट स्वभावों से उत्पन्न होने वाली विभिन्न स्थितियों और समस्याओं को स्वीकार करते हैं। अगर वे कभी-कभार खुद को इन स्थितियों और समस्याओं के अनुरूप कर भी लेते हैं तो भी वे इसे एक उदासीन दृष्टिकोण से संभालते हैं, वे कहते हैं, “हर कोई समान रूप से भ्रष्ट है। सभी का प्रकृति सार वही है जो राक्षसों और शैतान का है; हम सभी परमेश्वर के दुश्मन हैं। यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे कोई नहीं बदल सकता है। लेकिन जब तक व्यक्ति अपना कर्तव्य करने में दृढ़ रहता है तब तक परमेश्वर यकीनन स्वीकार करेगा और जो अंत तक दृढ़ रहते हैं वे विजेता होंगे।” उनके नजरियों से देखा जाए तो वे परमेश्वर में अपने विश्वास में काफी जोरदार हैं लेकिन जब अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा करने की बात आती है तो वे चुप्पी साध लेते हैं, एक भी शब्द बोलने में असमर्थ होते हैं। जब सभाओं में सत्य की संगति करने का समय आता है तो उन्हें नींद आने लगती है और वे इसे ग्रहण नहीं कर पाते हैं। अगर तुम उनसे पूछते हो, “तुम हर रोज अपने कर्तव्य में परमेश्वर के वचनों का अनुभव कैसे करते हो?” तो वे कहते हैं, “कलीसिया मुझसे जो कुछ भी करने के लिए कहती है मैं करता हूँ। क्या इसके लिए अनुभव करने की जरूरत है?” ऐसा लगता है कि उन्हें समझ नहीं आ रहा है। अगर तुम उनसे पूछते हो, “क्या तुममें कोई भ्रष्टता उजागर हो रही है? तुम खुद को कैसे समझते हो?” तो वे कहते हैं, “मैं बस परमेश्वर के प्रति समर्पण करता हूँ और परमेश्वर से प्रेम करता हूँ; इसमें क्या समस्याएँ हो सकती हैं?” उनकी सोच इतनी सरल होती है। उनकी यह राय है : “परमेश्वर में विश्वास रखना ऐसा ही होना चाहिए। इतने सारे तुच्छ मुद्दों से परेशान क्यों होना? तुम लोग चीजों को बहुत जटिल बना रहे हो!” इसलिए वे अपना कर्तव्य करते हैं और कार्य पूरे करते हैं, सत्य सिद्धांतों की कभी तलाश नहीं करते हैं बल्कि अच्छे इरादों और उत्साह से कार्य करते हैं। और अधिक सटीक रूप से कहूँ तो, वे जमीर और विवेक के प्रभुत्व के अंतर्गत कार्य करते हैं और सोचते हैं : “मैं पहले ही बहुत हद तक कष्ट सह चुका हूँ और कीमत चुका हूँ; मैंने पहले ही काफी हद तक सत्य का अभ्यास कर लिया है और परमेश्वर को संतुष्ट कर दिया है; मुझसे और मत माँगो। मैं जैसा हूँ ठीक हूँ, मैं एक अच्छा व्यक्ति हूँ और मैं सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ।” यकीनन ऐसे समय होते हैं जब ये लोग अपनी भड़ास निकालने से खुद को रोक नहीं पाते हैं और तब उनके असली चेहरे उजागर हो जाते हैं। वे कई शब्द और सिद्धांत बड़बड़ा सकते हैं लेकिन उनका कोई वास्तविक आध्यात्मिक कद नहीं होता है; दूसरे शब्दों में, उनके पास कोई जीवन नहीं होता है। जीवन नहीं होने का विशिष्ट रूप से क्या अर्थ है? (उनके पास कोई सत्य नहीं होता है।) सत्य नहीं होना कैसे होता है? (वे सत्य से प्रेम नहीं करते हैं और ना ही वे उसका अनुसरण करते हैं।) यह इस बारे में भी नहीं है कि वे सत्य से प्रेम करते हैं या नहीं; सटीक रूप से कहूँ तो वे सत्य स्वीकार नहीं करते हैं। हो सकता है कि कुछ लोग कहें, “तुम ऐसा कैसे कह सकते हो कि वे सत्य स्वीकार नहीं करते हैं? वे अपना कर्तव्य करने के लिए बहुत कष्ट सहते हैं और एक बहुत बड़ी कीमत चुकाते हैं, हर रोज भोर से सांझ तक कड़ी मेहनत करते हैं; तुम कैसे कह सकते हो कि उनके पास कोई सत्य नहीं है?” क्या यह कहना उनके साथ अन्याय करना है? लेकिन अगर तुम इन लोगों को देखो तो उनके कष्ट और कीमत चुकाने के पीछे वे जो कुछ भी करते हैं क्या वह सब कुछ सत्य सिद्धांतों के दायरे में है? क्या वे जो कुछ भी करते हैं उसमें सिद्धांतों की तलाश करते हैं? क्या वे परमेश्वर के सामने परमेश्वर का भय मानने वाले दिल के साथ आते हैं और परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों के अनुसार चीजें करते हैं? नहीं; यह सब कुछ मानवीय क्रियाकलाप हैं, मानवीय संयम है। सत्य स्वीकार नहीं करने की उनकी मुख्य अभिव्यक्ति क्या है? वह यह है कि कुछ करने से पहले वे कभी भी सक्रिय रूप से सत्य की तलाश नहीं करते हैं और ना ही वे कभी गंभीरता से यह विचार करते हैं कि सत्य के सिद्धांत क्या हैं और ना ही फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार सख्ती से अभ्यास करते हैं। क्या वे ऐसे विचार और रवैये रखते हैं? परमेश्वर द्वारा मानवजाति के उजागर किए गए भ्रष्ट स्वभाव की विभिन्न अभिव्यक्तियों के प्रति उनका रवैया क्या है? क्या वे ये वचन स्वीकार करते हैं? क्या वे स्वीकार करते हैं कि ये वचन तथ्यात्मक हैं? क्या वे स्वीकार करते हैं कि ये विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ भ्रष्टता के खुलासे हैं? हो सकता है कि वे सहमति में सिर हिला दें या बाहरी तौर पर इसे स्वीकार कर लें लेकिन अपने दिलों में वे इसे स्वीकार नहीं करते हैं; वे इसे नजरअंदाज कर देते हैं। इसे नजरअंदाज करने का क्या अर्थ है? विशिष्ट रूप से इसका अर्थ है स्वीकार नहीं करना, कोई स्पष्ट रवैया नहीं रखना और कोई स्पष्ट प्रतिरोध या विरोध नहीं होना बल्कि परमेश्वर द्वारा बोले गए इन वचनों के प्रति उदासीन व्यवहार का रवैया अपनाना। “उदासीन व्यवहार” कहना थोड़ा-सा अमूर्त है; विशिष्ट रूप से यह ऐसा है कि वे सोचते हैं, “तुम कहते हो कि लोग घमंडी और धोखेबाज हैं लेकिन धोखेबाज कौन नहीं है? किसमें थोड़ी-सी चालाकी नहीं होती है? कौन थोड़ा-सा घमंड या अकड़ नहीं दिखाता है? इसमें क्या बड़ी बात है? जब तक व्यक्ति कष्ट सहन कर सकता है और कीमत चुका सकता है तब तक यह काफी है।” क्या यह स्वीकार करने से इनकार करने का रवैया और एक विशिष्ट अभिव्यक्ति नहीं है? (हाँ।) यह सत्य स्वीकार नहीं करना है। परमेश्वर के न्याय और उजागर करने के वचनों के प्रति उनका रवैया अवहेलना और स्वीकार करने से इनकार करने का है। इसलिए जब बात उन मूल्यांकनों और चेतावनियों की आती है जो भाई-बहन उन्हें देते हैं और उन संकेतों और सहायता की भी आती है जो भाई-बहन उनके भ्रष्ट स्वभावों को लेकर उन्हें प्रदान करते हैं तो क्या वे ये चीजें स्वीकार कर पाते हैं? (नहीं।) तो फिर मुझे बताओ कि उनकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? वे ये चीजें स्वीकार क्यों नहीं कर पाते हैं? ऐसा कहने के लिए तुम्हारे पास सबूत कहाँ है? मिसाल के तौर पर जब तुम उनसे कहते हो, “तुम इतने असावधान तरीके से अपना कर्तव्य नहीं कर सकते; यह लापरवाह तरीका है,” तो उनकी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ साबित करती हैं कि वे सत्य स्वीकार नहीं करते हैं? (वे कहेंगे, “मैंने पहले ही इसमें अपना दिल लगा दिया है। मैं पहले ही कष्ट सह चुका हूँ और मैंने पहले ही कीमत चुका दी है। तुम कैसे कह सकते हो कि मैं लापरवाह हो रहा हूँ?”) यह उनका खुद को सही ठहराना है। क्या वे कभी-कभी बहाने ढूँढते हैं? अगर वे अपने दिल में मान भी लें तो भी वे यही सोचते हैं, “मैं लापरवाह था, तो क्या हुआ? ऐसा कौन है जिसके दिन बुरे नहीं जाते हैं? कौन सामान्य भावनाओं का अनुभव नहीं करता है? लेकिन मैं लापरवाह होने की बात मान नहीं सकता; मुझे इसे छिपाने के लिए कोई बहाना ढूँढना होगा। मैं शर्मिंदा नहीं हो सकता।” इस तरह, वे कुतर्क देकर अपना बचाव करने के लिए कई कारण और बहाने ढूँढ लेते हैं, इस सच्चाई को नहीं मानते हैं कि वे लापरवाह हो रहे थे, इस संबंध में अपने खुद के मुद्दे स्वीकार नहीं करते हैं और ना ही दूसरे लोगों की सलाह स्वीकार करते हैं। यह सत्य स्वीकार नहीं करने की एक विशिष्ट अभिव्यक्ति है। जब उन्हें वास्तविक परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ता है तो वे अपने बारे में यह मानते हैं कि वे “एक अच्छे व्यक्ति हैं जो सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखता है।” जब उन्हें परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है तो वैसे तो अब वे इसका उपयोग ढाल के रूप में नहीं कर पाते हैं, लेकिन फिर भी वे खुद को सही ठहराने और अपना बचाव करने, मुद्दा छिपाने, इसे समाप्त करने और फिर खुद को “अच्छी मानवता वाला अच्छा व्यक्ति जो सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखता है और जिसमें त्याग करने की क्षमता है और अपना कर्तव्य करने के लिए कष्ट सहने और कीमत चुकाने की क्षमता है” के रूप में देखना जारी रखते हैं। निश्चित रूप से कहा जाए तो ऐसे लोगों की अभिव्यक्तियाँ, उनका सार श्रमिकों वाला है। यह समूह कलीसिया में एक महत्वपूर्ण अनुपात रखता है। अनुपात चाहे जो भी हो, अंत में अगर ये व्यक्ति सही मायने में कष्ट सह सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं और कोई बड़ा अपराध किए बिना परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन किए बिना या उसके स्वभाव को नाराज किए बिना अंत तक सह सकते हैं और डटे रह सकते हैं तो वे वफादार श्रमिक हैं, ऐसे श्रमिक हैं जो बने रह सकते हैं। यह एक बड़ा आशीष है! वे सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं और ना ही वे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चल पाते हैं, ना ही परमेश्वर की गवाही दे पाते हैं या ना ही परमेश्वर के वचनों और कार्य के गवाह के रूप में कार्य कर पाते हैं—यह आशीष प्राप्त करना पहले से ही काफी अच्छा है। सत्य का अनुसरण किए बिना कोई क्या प्राप्त करने की उम्मीद कर सकता है? एक वफादार श्रमिक होना पहले से ही बुरा नहीं है। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या इन व्यक्तियों के लिए परमेश्वर के लोग बनना संभव है?” हाँ, है। एकमात्र संभावना यह है कि अगर ये व्यक्ति त्याग करने और कष्ट सहने में समर्थ होने के आधार पर सत्य स्वीकार कर पाते हैं, अपनी भ्रष्टता स्वीकार कर पाते हैं और उसका सही तरह से सामना कर पाते हैं और फिर उसे हल करने के लिए सत्य की तलाश कर पाते हैं, मानवीय अच्छाई या मानवीय संयम, सहनशीलता और दृढ़ता के आधार पर कार्य नहीं करते हैं बल्कि सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करते हैं ताकि अंत में उनके स्वभाव में कुछ बदलाव आ सकें, तो फिर उनके पास परमेश्वर के लोग बनने का कुछ मौका है। लेकिन अगर उनके क्रियाकलाप और व्यवहार स्वभावगत बदलाव से संबंधित नहीं हैं, सत्य स्वीकार करने और बचाए जाने से संबंधित नहीं हैं तो उनकी परमेश्वर के लोग बनने की संभावना शून्य है; यह एक सच्चाई है। वफादार श्रमिकों के साथ व्यवहार करने का सिद्धांत क्या है? यह इन लोगों को स्पष्ट सोच वाले लोग बनने में मदद करने के लिए सबसे बड़ा प्रयास करना है। उन्हें स्पष्ट सोच वाला बनाने का उद्देश्य क्या है? उन्हें ख्याली पुलाव पकाने से रोकना। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “‘ख्याली पुलाव पकाना’ का क्या अर्थ है?” यह तब होता है जब लोग खुद को “अच्छी मानवता वाला, परमेश्वर में सही मायने में विश्वास रखने वाला और त्याग करने की क्षमता और कीमत चुकाने की इच्छा रखने वाला” मानते हैं और फिर परमेश्वर द्वारा बचाए जाने की उम्मीद करते हैं जो कि असंभव है। उन्हें यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि यह नजरिया रखना कि “अच्छी मानवता होने से, परमेश्वर में सही मायने में विश्वास रखने से और त्याग करने की क्षमता और कीमत चुकाने की इच्छा रखने से परमेश्वर का उद्धार प्राप्त किया जा सकता है” गलत और बेवकूफी भरा नजरिया है। उन्हें यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि इन गुणों के होने का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति ने अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़ दिया है और ना ही थोड़े से अच्छे व्यवहार का अर्थ यह है कि व्यक्ति को बचाया जा सकता है और यह अर्थ तो बिल्कुल भी नहीं है कि उसने सत्य प्राप्त कर लिया है और उन्हें यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि उसके नजरिये बेतुके, बेहुदे और असंगत हैं और परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य के साथ पूरी तरह से बेमेल हैं। ये लोग जो हठपूर्वक धार्मिक धारणाओं को पकड़े रहते हैं इनकी मदद की जानी चाहिए; उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाओ और उनके साथ सत्य की संगति करो। अगर अब भी वे सत्य स्वीकार नहीं कर पाते हैं और तुम सत्य की संगति चाहे कैसे भी करो, वे अशिक्षित ही बने रहते हैं और तलाश करने का कोई इरादा नहीं दिखाते हैं तो उन्हें मजबूर करने की कोई जरूरत नहीं है। वे अंत तक सिर्फ श्रमिकों के रूप में सेवा कर सकते हैं।

II. परमेश्वर के लोग

वफादार श्रमिकों की अभिव्यक्तियों के बारे में संगति करने के बाद आओ, हम दूसरे प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियों के बारे में बात करें। सभी प्रकार के लोगों के भ्रष्ट स्वभावों पर परमेश्वर के विभिन्न प्रकाशन और न्याय सुनने के बाद, तुलनात्मक रूप से ये व्यक्ति अपने खुद के भ्रष्ट स्वभाव के पिछले विभिन्न खुलासों के बारे में और परमेश्वर और सत्य के प्रति उन विभिन्न रवैयों के बारे में ज्यादा सोचते हैं जो उनके भ्रष्ट स्वभाव के प्रभुत्व के अधीन उत्पन्न होते हैं—वे अपनी विभिन्न अभिव्यक्तियों पर चिंतन करना और उन्हें जानना शुरू कर देते हैं, अपनी तुलना परमेश्वर के वचनों से करते हैं, अपने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये की जाँच करते हैं, और अपना कर्तव्य करते समय और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के बीच अपने द्वारा प्रकट की गई विभिन्न भ्रष्टताओं की जाँच करते हैं। वे परमेश्वर के न्याय, प्रकाशन और अनुशासन को स्वीकारने का प्रयास करते समय एक-एक विवरण की कसौटी पर अपनी जाँच करते हैं और खुद को जानते हैं। ये व्यक्ति श्रमिकों से किन तरीकों से बेहतर हैं? वे सत्य, परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर द्वारा उजागर किए गए हर भ्रष्ट स्वभाव को सक्रियता से और सकारात्मक रूप से स्वीकार पाते हैं। हालाँकि वे कभी-कभी नकारात्मक, उदासीन हो सकते हैं या यहाँ तक कि हार मान लेने के बारे में भी सोच सकते हैं लेकिन चाहे कुछ भी हो, उनके पास खुद से सत्य स्वीकार करवाने की प्रेरणा होती है। यह प्रेरणा क्या है? यह प्रेरणा है : “परमेश्वर के वचन लोगों को बदल सकते हैं। जब तक कोई व्यक्ति सत्य स्वीकारता है तब तक ये सभी समस्याएँ और भ्रष्ट स्वभाव हल किए जा सकते हैं और फिर उसे बचाया जा सकता है। अगर मैं बचाया जाना चाहता हूँ तो मुझे परमेश्वर के कार्य में सहयोग करना चाहिए और सत्य स्वीकारना चाहिए।” मिसाल के तौर पर, ईमानदार व्यक्ति होने के बारे में सत्य सुनकर कुछ लोग आत्म-चिंतन करना शुरू कर देते हैं और अपने द्वारा किए जाने वाली धोखेबाजी और चालबाजी के साथ-साथ अपने कपटी और दुष्ट पहलुओं को ज्यादा स्पष्ट रूप से देखने लगते हैं। वे अपने पिछले झूठ और धोखेबाजी करने के तरीके याद करते हैं जो उनके दिलों में या धारणाओं में रहते हैं, जो उनके दिमागों में किसी फिल्म के दृश्यों की तरह बार-बार चलते रहते हैं, जिससे वे लगातार शर्मिंदा, दुःखी और उदास महसूस करते है। लगातार आत्म-परीक्षण और आत्म-चिंतन के बाद वे अपराधियों जैसा महसूस करते हैं, वे तुरंत पूरी तरह से लंगड़े हो जाते हैं और उठकर खड़े नहीं हो पाते हैं। उन्हें लगता है कि वे अच्छे लोग नहीं बल्कि बुरे लोग हैं और उन्हें लगता है कि यह खुशकिस्मती है कि उन्होंने परमेश्वर का सीधे प्रतिरोध नहीं किया है जो कि सचमुच बाल-बाल बच निकलना है! फिर वे जागना शुरू करते हैं, एक व्यक्ति के रूप में इस तरह से विफल होने के अनिच्छुक होते हैं और एक संकल्प लेते हैं : “मुझे नए सिरे से शुरुआत करनी चाहिए और एक ईमानदार व्यक्ति बनना चाहिए, नहीं तो मैं परमेश्वर द्वारा बचाया नहीं जा सकता। बचाए जाने के लिए मुझे एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए। मैं अभी बिल्कुल हार नहीं मान सकता!” ये लोग सत्य को चाहे पहले स्वीकारते हों या बाद में, और परमेश्वर के वचनों की इनकी समझ चाहे गहरी हो या सतही, परमेश्वर के वचनों के प्रति इनका रवैया तिरस्कार का नहीं है और यह द्वेष या प्रतिरोध का तो बिल्कुल नहीं है। इसके बजाय वे सक्रिय रूप से परमेश्वर के वचनों को स्वीकारते हैं और फिर उन्हें अभ्यास में लाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। जब वे कार्य करते हैं या अपना कर्तव्य करते हैं तो वे परमेश्वर के वचनों में सिद्धांतों की तलाश करने का भरसक प्रयास करते हैं और फिर सचेत रूप से इन सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हैं। भले ही कभी-कभी वे विशिष्ट सिद्धांत ढूँढ नहीं पाते हों या दिशा समझ नहीं पाते हों, उनका इरादा अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना होता है, इसे परमेश्वर के इरादों के अनुसार और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप करना होता है। इन लोगों की और श्रमिकों की मानवता ज्यादार एक जैसी ही होती है; उच्च और निम्न या कुलीन और नीच के बीच कोई अंतर नहीं होता है। यकीनन इस प्रकार के लोगों में से कई लोग खुद को “अच्छी मानवता वाले, परमेश्वर में सही मायने में विश्वास रखने वाले और परमेश्वर में विश्वासी के रूप में त्याग करने की क्षमता और अपना कर्तव्य करने के लिए कीमत चुकाने और कष्ट सहने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति” के रूप में देखते हैं। लेकिन इन लोगों और श्रमिकों के बीच क्या अंतर है? लोगों का न्याय और उजागर किए जाने के परमेश्वर के वचन सुनने के बाद उनका रवैया अनदेखा करने का नहीं होता है, टाल-मटोल करने का नहीं होता है बल्कि सक्रिय रूप से और ईमानदारी से स्वीकारने का होता है। भले ही ये वचन सुनने के बाद वे चिंतित और हताश महसूस करते हों, यहाँ तक कि अपनी खुद की प्रकट हो चुकी भ्रष्टता के प्रति गुस्सा भी व्यक्त करते हों, अंत में वे अब भी उनका सही तरह से सामना करने, सक्रिय रूप से स्वीकारने और सक्रियता से अभ्यास करने और उनमें प्रवेश करने में समर्थ होते हैं। क्या यह भी एक प्रकार का व्यक्ति नहीं है? (हाँ, है।) क्या ये लोग एक निश्चित हद तक प्रतिनिधिक नहीं हैं? (हाँ, हैं।) क्या ऐसे लोग बहुत हैं? (बहुत नहीं हैं।) वैसे तो अभी बहुत नहीं हैं लेकिन उम्मीद है कि इनकी संख्या बढ़ेगी। तो इन लोगों को किस श्रेणी में वर्गीकृत किया जाना चाहिए? क्या ये विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ दर्शा सकती हैं कि ये लोग सत्य से प्रेम करते हैं और सत्य स्वीकारने में समर्थ हैं? (हाँ।) वे दर्शा सकती हैं। वैसे तो समझने की खराब क्षमता वाले कुछ लोग अपेक्षाकृत धीरे सत्य स्वीकारते हैं, लेकिन अपने दिलों की गहराई में वे सत्य स्वीकारते हैं और उनमें इसमें सक्रिय रूप से प्रवेश करने की मानसिकता होती है। जब भी कोई व्यक्ति अभ्यास के लिए ऐसे नए प्रकाश या मार्गों की संगति करता है जो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं तो उनकी आँखें चमक उठती हैं, उनके दिल स्पष्ट हो जाते हैं और वे आनंदित हो उठते हैं, सोचते हैं “आखिरकार किसी ने इस प्रकाश पर संगति कर ही दी। मुझमें इसी चीज की कमी है।” वे हमेशा यह समझने में समर्थ होते हैं कि उनमें क्या कमी है, वह प्रकाश और प्रबुद्धता प्राप्त करने में समर्थ होते हैं जिसकी उन्हें तत्काल जरूरत है और जिसकी उनमें कमी है, और अपने भाई-बहनों द्वारा संगति की गई सच्ची अनुभवजन्य समझ से वे सत्य सिद्धांत पाने में समर्थ होते हैं जिनकी उन्हें जरूरत है। इन विशिष्ट अभिव्यक्तियों के आधार पर क्या उनके दिल सत्य की लालसा नहीं रखते हैं? (हाँ।) अगर हम यह कहें कि ये लोग सत्य से प्रेम करते हैं तो यह कथन बहुत वस्तुनिष्ठ या सटीक नहीं है। लेकिन उनकी विशिष्ट अभिव्यक्तियों के आधार पर ये लोग सत्य की लालसा बिल्कुल रखते हैं। यह लालसा कहाँ से आती है? यह अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने की उनकी उम्मीद से आती है, अपने जीवन प्रवेश में आने वाली विभिन्न समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने की उनकी उम्मीद से आती ह, और सत्य में प्रगति करने और गहरी खोजबीन करने की उनकी उम्मीद से आती है, साथ ही सिद्धांतों के साथ सही मायने में कार्य करने, एक मार्ग के साथ अभ्यास करने, अपने भ्रष्ट स्वभावों के खुलासों से यह ज्यादा सटीक रूप से पहचानने में समर्थ होने की उनकी उम्मीद से आती है कि उनके भ्रष्ट स्वभावों का सार क्या है और उन्हें कैसे हल करना है और उन्हें कैसे छोड़ देना है। भले ही ये लोग अक्सर भ्रष्ट स्वभावों में रहते हों, जैसे कि रुतबे के लिए होड़ करना, हठपूर्वक अपने तरीके पर अड़े रहना और आत्मतुष्ट, घमंडी, धोखेबाज या यहाँ तक कि अड़ियल भी होना लेकिन लगातार परमेश्वर के वचन खाने-पीने और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के जरिए इन स्पष्ट समस्याओं की धीरे-धीरे जाँच की जाएगी और उन्हें पहचान लिया जाएगा। फिर वे इन्हें समस्याओं, भ्रष्ट स्वभावों के खुलासों, सत्य के अनुरूप नहीं होने वाली और परमेश्वर द्वारा नफरत की जाने वाली चीजों के रूप में पहचान सकते हैं। अपने भ्रष्ट स्वभावों के बारे में जागरूक होने के बाद वे उन्हें हल करने और उन्हें छोड़ देने की और ज्यादा लालसा रखने लगते हैं। यह सत्य के लिए उनकी लालसा का एक स्रोत है। दूसरे शब्दों में, उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने की जरूरत है, उनमें अपने भ्रष्ट स्वभाव तत्काल छोड़ देने की मानसिकता है। साथ ही अपने भ्रष्ट स्वभावों द्वारा प्रकट की गई विभिन्न स्थितियों, समस्याओं और कठिनाइयों का पता चलने के बाद वे यह समझने के लिए ज्यादा उतावले होते हैं कि इन मुद्दों के लिए परमेश्वर के सटीक वचन और अपेक्षाएँ क्या हैं और कौन-से सत्य या परमेश्वर के कौन-से वचन उन्हें हल कर सकते हैं। सत्य के लिए उनकी लालसा की विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ और स्रोत यही हैं। क्या यह एक वस्तुनिष्ठ कथन है? (हाँ।) इन लोगों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि वे सत्य से प्रेम करते हैं। अगर वे सत्य से प्रेम करते तो वे बहुत सक्रिय होते और उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियाँ ज्यादा सकारात्मक होतीं। लेकिन इन लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों और उनके वास्तविक आध्यात्मिक कद के आधार पर वे सत्य से प्रेम करने के बिंदु तक नहीं पहुँचे हैं बल्कि सिर्फ इसके लिए लालसा रखते हैं। यह कथन पहले से ही काफी वस्तुनिष्ठ है। तो, इन लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों को देखा जाए तो उन्हें किस श्रेणी में वर्गीकृत किया जाना चाहिए? सटीक रूप से कहा जाए तो ये लोग परमेश्वर के लोगों की श्रेणी के हैं। इस दावे का एक आधार है। क्या आधार है? इन लोगों के भ्रष्ट स्वभाव वही हैं जो दूसरों के हैं। मानवता के संबंध में बात करें तो यह नहीं कहा जा सकता है कि उनकी मानवता अच्छी है और ना ही यह कहा जा सकता है कि वे परमेश्वर की नजर में परिपूर्ण हैं; इनमें से ज्यादातर लोगों की मानवता औसत है। यहाँ “औसत” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है एक निश्चित स्तर का जमीर और विवेक होना। लेकिन यह सबसे महत्वपूर्ण पहलू नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण पहलू क्या है? वह यह है कि परमेश्वर के वचन और परमेश्वर की अपेक्षाएँ सुनने के बाद, परमेश्वर के वचनों द्वारा उजागर किए गए सभी प्रकार के लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के बारे में सुनने के बाद, वे बेपरवाह नहीं रहते हैं बल्कि बेचैन हो जाते हैं और क्रियाकलाप करते हैं। क्रियाकलाप करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि परमेश्वर के ये वचन और ये सत्य सुनने के बाद अब वे भ्रष्ट स्वभावों में जीने और जीवन जीने के अपने पिछले तरीकों को जारी रखने के अनिच्छुक हैं। इसके बजाय वे उन विभिन्न विचारों, नजरियों और अस्तित्व और जीवन शैली के तरीकों को बदलने का प्रयास करते हैं जिन पर वे इससे पहले भरोसा करते थे। साथ ही वे अपने कर्तव्य पूरा करने में और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित विभिन्न हालातों में सक्रियता से सत्य की तलाश करते हैं, लापरवाह और उद्दंड बनने के बजाय अभ्यास के लिए आधार और सिद्धांतों के रूप में परमेश्वर के वचनों का उपयोग करते हैं। उनकी मानवता, काबिलियत, परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं आदि के प्रति उनके रवैयों और विचारों से ये लोग बिल्कुल वही लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाने का इरादा रखता है। श्रमिकों की तुलना में उनके द्वारा अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ देने और बचाए जाने की ज्यादा उम्मीद है। जो लोग सत्य स्वीकारते हैं और बचाए जाने के लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकते हैं, सिर्फ उन्हें ही परमेश्वर के लोग माना जाता है। क्या यह परिभाषा पूरी तरह से उपयुक्त नहीं है? (हाँ, है।) यह सबसे उपयुक्त है। बचाए जाने का अर्थ यह नहीं है कि सिर्फ थोड़ा प्रयास करो और बने रहने के लिए थोड़ी-सी कीमत चुकाओ और फिर सब कुछ निपट जाता है। उन लोगों की क्या स्थिति है जिन्हें बचाया जा सकता है? यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें परमेश्वर के वचन और कार्य स्वीकारने और अनुभव करने के जरिए उनके भ्रष्ट स्वभाव हल होते हैं। इस प्रक्रिया में वे परमेश्वर को जानने लगते हैं, अपने खुद के भ्रष्ट स्वभाव समझने लगते हैं और परमेश्वर के वचनों के साथ वास्तविक और ठोस भागीदारियाँ करते हैं और अनुभव प्राप्त करते हैं, और इस प्रकार परमेश्वर के लिए गवाही देने में समर्थ होते हैं—वे परमेश्वर की गवाही देने में समर्थ होते हैं। वे परमेश्वर के किन पहलुओं के बारे में गवाही देते हैं? वे परमेश्वर के इरादों, परमेश्वर के स्वभाव, जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है, परमेश्वर की पहचान और इस बात की कि परमेश्वर ही सृष्टिकर्ता है, गवाही देते हैं। उद्धार प्राप्त करने के बाद एक व्यक्ति में यही अभिव्यक्त हो सकता है। बचाए जाने के बाद लोग ये परिणाम क्यों प्राप्त कर सकते हैं? वे इसे इसलिए प्राप्त नहीं करते हैं कि वे खुद को “अच्छी मानवता वाला, परमेश्वर में सही मायने में विश्वास रखने वाला और परमेश्वर में विश्वासी के रूप में त्याग करने की क्षमता और अपना कर्तव्य करने के लिए कीमत चुकाने की इच्छा रखने वाला” मानते हैं। इसका एकमात्र कारण—और सबसे महत्वपूर्ण बात—यह है कि वे परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार सकते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ देने के लिए सत्य का अभ्यास करने में समर्थ होते हैं, अपने मूल, पुराने जीवनयापन के तरीकों और नजरियों को एक तरफ रख पाते हैं और परमेश्वर के वचनों को अपने नए जीवन के रूप में अपना पाते हैं। वे परमेश्वर के वचनों का उपयोग व्यवहार करने, चीजें करने, परमेश्वर का अनुसरण करने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के आधार के रूप में करते हैं। यही वह परिणाम है जो ऐसे लोगों में प्राप्त किया जा सकता है। उद्धार प्राप्त करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण पहलू क्या है? (सत्य स्वीकारने में समर्थ होना।) सही कहा। सत्य स्वीकारने में समर्थ होना ही सबसे महत्वपूर्ण चीज है।

कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं अंत तक परमेश्वर के लिए खुद को खपाता रहूँ तो क्या परमेश्वर मुझे बहुत धन्य करेगा?” अगर तुम सत्य स्वीकार नहीं करते हो लेकिन फिर भी अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करने में, अंत तक मेहनत करने में दृढ़ रह पाते हो, जिस दौरान कोई बड़ा अपराध नहीं होता है और तुम परमेश्वर के स्वभाव को नाराज नहीं करते हो तो ऐसे हालातों में परमेश्वर तुम्हें एक वफादार श्रमिक मानेगा जिसे बने रहने की अनुमति है। कुछ लोग पूछते हैं, “बने रहना किस तरह का आशीष है?” यह कोई मामूली आशीष नहीं है! अगर मौका और संभावना हो तो तुम परमेश्वर का असली व्यक्तित्व देख सकते हो और यह इस बात पर निर्भर करता है कि परमेश्वर अगले युग में क्या करता है। अगर कई और दशकों तक बने रहने और जीने का अवसर है तो वह आशीष काफी महत्वपूर्ण है। यह आशीष कैसे प्राप्त होता है? यह वफादारी से मेहनत करके और इस नजरिये को पकड़कर रखने से प्राप्त होता है कि “मेरे पास अच्छी मानवता है, मैं परमेश्वर में सही मायने में विश्वास रखता हूँ, मैं अपना कर्तव्य करने के लिए त्याग कर सकता हूँ और कीमत चुकाने का इच्छुक हूँ और कष्ट सहने में समर्थ हूँ।” क्या श्रमिकों को संतुष्ट होना नहीं आना चाहिए? (हाँ।) उन्हें यह आशीष प्राप्त करने के लिए संतुष्ट होना चाहिए। वे तो परमेश्वर के वचन भी स्वीकार नहीं करते हैं लेकिन चूँकि परमेश्वर उनकी वफादारी और अंत तक मेहनत करने की क्षमता देखता है जो वे इस अवधि के दौरान परमेश्वर को छोड़े बिना, परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किए बिना या उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन किए बिना, बड़े अपराध किए बिना करते हैं, इसलिए वह उन्हें यह आशीष और अनुग्रह प्रदान करता है—मानवजाति के सृजन के बाद से यह वह सबसे बड़ा उपहार है जो परमेश्वर उन भ्रष्ट मनुष्यों को देता है जिन्होंने सिर्फ वफादारी से मेहनत की है लेकिन उद्धार प्राप्त नहीं किया है। उन्होंने सिर्फ थोड़ा-सा प्रयास किया ह, और वे परमेश्वर के वचन भी स्वीकार नहीं करते हैं—इतना बड़ा आशीष प्राप्त कर पाना पहले से ही काफी अच्छा है; यह परमेश्वर का विशाल अनुग्रह है। एक दूसरी श्रेणी परमेश्वर के लोगों की हैं, जिनके बारे में हमने अभी-अभी बात की। परमेश्वर के लोगों को प्राप्त आशीष श्रमिकों को मिलने वाले आशीषों से निश्चित रूप से बड़े हैं। तो परमेश्वर के लोगों का आशीष क्या है? यकीनन यह सिर्फ बने रहने की क्षमता या परमेश्वर का वास्तविक व्यक्तित्व देखने का अवसर पाने जितना सरल नहीं है। आशीष इससे भी कहीं ज्यादा हैं लेकिन यहाँ हम उनकी चर्चा नहीं करेंगे। उस बारे में बात करना यथार्थवादी होना नहीं है और इसके अलावा अगर मैं तुम लोगों को बता भी दूँ तो भी तुम लोग अभी उन्हें समझ नहीं पाओगे या प्राप्त नहीं कर पाओगे। परमेश्वर के लोग ही वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाने का इरादा रखता है और सारी मानवजाति में उन्हें ही सबसे बड़े आशीष मिलते हैं; यह किसी भी तरह से बढ़ा-चढ़ाकर कहना नहीं है। ऐसा क्यों है? क्योंकि परमेश्वर के कार्य में, मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर की छह हजार साल की प्रबंधन योजना के कार्य में, परमेश्वर के लोगों ने परमेश्वर के वचन स्वीकारने में समर्थ होकर, परमेश्वर के वचनों को सत्य और अपने अस्तित्व के सिद्धांत मानने में समर्थ होकर और परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन बनाकर शैतान का भ्रष्ट स्वभाव छोड़ दिया है और उन्होंने परमेश्वर के वचन जीये हैं जिससे उन्होंने परमेश्वर के लिए मजबूत और शानदार गवाही दी है। शैतान पर वापस वार करने और उसे शर्मिंदा करने के लिए वे जो जीते हैं उसका, अपने जीवन का, उपयोग करने में समर्थ हैं, मानवजाति के बीच परमेश्वर की गवाही देने में समर्थ हैं, जिससे वे परमेश्वर को महिमा प्रदान करते हैं। इसलिए परमेश्वर के लोग ही वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है और यही वे लोग हैं जो उद्धार प्राप्त करते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “चूँकि ये लोग परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन बना सकते हैं, परमेश्वर के वचनों को जी सकते हैं और परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं तो क्या यह उन्हें परमेश्वर के प्रिय पुत्र बनाता है जिनसे परमेश्वर खुश होता है?” तुम बहुत ज्यादा सोच रहे हो; परमेश्वर के लोगों में से एक होना ही काफी अच्छा है। अगर परमेश्वर तुम्हें अपना पुत्र, अपनी संतान या अपना प्रिय पुत्र बुलाता है तो यह परमेश्वर का मामला है लेकिन चाहे कोई भी समय हो, तुम्हें कभी भी खुद को परमेश्वर का प्रिय पुत्र, परमेश्वर का पुत्र या परमेश्वर का लाडला होने का दावा नहीं करना चाहिए। अपने बारे में ऐसे दावे मत करो और ना ही खुद को ऐसा समझो; तुम एक सृजित प्राणी हो—यह सही है। भले ही एक दिन तुम्हें परमेश्वर के लोगों में से एक कहकर बुलाया जाए या तुम पहले से ही बचाए जाने के मार्ग पर चल पड़े हो फिर भी तुम बस एक सृजित प्राणी ही हो। अगर तुम इस तरह से सोचते हो तो इससे यह साबित होता है कि तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है। अगर तुम हमेशा परमेश्वर का प्रिय पुत्र बनने का, परमेश्वर द्वारा प्रेम किए जाने का, परमेश्वर को खुश करने का प्रयास करते हो तो तुम जो मार्ग अपना रहे हो वह गलत है; यह मार्ग कहीं नहीं ले जाता है और तुम्हें ऐसा ख्याली पुलाव नहीं पकाना चाहिए। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर ने कभी ऐसे वचन बोले हैं या नहीं या लोगों से कोई ऐसा वादा किया है या नहीं, तुम्हें खुद को इस तरह से नहीं समझना चाहिए; तुम्हें इसे हासिल करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। परमेश्वर के लोगों में से एक होना पहले से ही काफी अच्छा है; परमेश्वर के लोग पहले से ही सृजित प्राणियों के रूप में मानक स्तर के हैं—बड़े अफसोस की बात है कि तुम अभी तक उनमें से एक नहीं हो। इसलिए उन अस्पष्ट, भ्रामक, खोखली चीजों का अनुसरण मत करो। बचाए जाने का अनुसरण करने में समर्थ होना एक निश्चित हद तक पहले से ही बचाए जाने के मार्ग पर चल पड़ना है। परमेश्वर के लोगों की प्राथमिक विशेषताएँ ये हैं कि वे सत्य स्वीकारने में समर्थ होते हैं और वे सत्य के प्रति प्रेम प्रदर्शित करते हैं। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और उद्धार का अनुसरण करने की प्रक्रिया में उनके भ्रष्ट स्वभाव, पुराने विचार और उनके भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित विभिन्न नकारात्मक स्थितियाँ और अभिव्यक्तियाँ हल की जा सकती हैं, छोड़ी जा सकती हैं और विभिन्न हदों तक बदली जा सकती हैं। फिर वे एक ईमानदार व्यक्ति होने की परमेश्वर की अपेक्षाएँ वास्तव में पूरी कर सकते हैं, एक ऐसा व्यक्ति हो सकते हैं जो सत्य सिद्धांत समझता है, एक ऐसा व्यक्ति हो सकते हैं जिसके पास वफादारी और समर्पण है, और एक ऐसा व्यक्ति हो सकते हैं जो परमेश्वर का भय मान सकता है और बुराई से दूर रह सकता है। जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि परमेश्वर का एक मानक स्तर का, एक मानक व्यक्ति कैसे बनें, हम उसके बारे में यहाँ विस्तार से नहीं बताएँगे; वह आज हमारी संगति का विषय नहीं है।

III. भाड़े के कार्यकर्ता

श्रमिकों और परमेश्वर के लोगों के अलावा एक और श्रेणी के व्यक्ति हैं, जो परमेश्वर द्वारा चुने गए लोगों में सबसे दयनीय हैं। परमेश्वर द्वारा मानवजाति को व्यक्त किए गए विभिन्न सत्यों और परमेश्वर द्वारा उजागर किए जाने के विभिन्न वचनों को सुनने के बाद उनके व्यवहार, वे जो चीजें जीते हैं और उनके अनुसरणों में कोई बदलाव दिखाई नहीं देता है। तुम उनके साथ सत्य के बारे में चाहे कितनी भी संगति क्यों ना करो वे बेपरवाह ही रहते हैं : “मैं बदलना नहीं चाहता। मैं जैसे चाहता हूँ वैसे ही जीऊँगा और कोई भी मुझे नियंत्रित नहीं कर सकता है। तुम जो चाहे करो मैं परवाह नहीं करता! अभी मेरा मिजाज अच्छा नहीं है इसलिए तुम लोगों में से किसी को भी मुझे उकसाना नहीं चाहिए। अगर तुमने ऐसा किया तो मैं विनम्र नहीं रहूँगा!” वे खुद को इस निश्चित रवैये या नजरिये से नहीं देखते हैं कि “मेरे पास अच्छी मानवता है, मैं सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, मैं त्याग कर सकता हूँ और कष्ट सहने और कीमत चुकाने का इच्छुक हूँ,” लेकिन वे भाई-बहनों के बीच एक ज्यादा निश्चित रवैया प्रदर्शित करते हैं। यह रवैया क्या है? यह है, “मैं जैसे चाहूँगा वैसे कार्य करूँगा, जो चाहूँगा वही करूँगा। किसी को भी मुझसे सत्य स्वीकारने का आग्रह नहीं करना चाहिए, किसी को भी मुझे बदलने का प्रयास नहीं करना चाहिए। जो कोई भी मुझसे सत्य स्वीकारने का आग्रह करने का प्रयास करता है वह बस मुसीबत को दावत दे रहा है और अगर किसी ने मेरी काट-छाँट करने का प्रयास किया तो मैं जी-जान से लड़ूँगा!” उन्हें परमेश्वर द्वारा बोले गए किसी भी वाक्य में या परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य में रत्ती भर दिलचस्पी नहीं होती है। यकीनन लोगों के भ्रष्ट स्वभावों और चीजें करने के सिद्धांतों और साथ ही लोगों को परमेश्वर के प्रति जो रवैया रखना चाहिए और पारस्परिक बातचीतों में जिन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए—जिनका जिक्र भाई-बहन सभाओं के दौरान या अपना कर्तव्य करते समय करते हैं—उनके संबंध में बात करें तो वे उन्हें तिरस्कार के रवैये से देखते हैं। कुछ लोग कोई कर्तव्य तो करते हैं लेकिन वे परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर देते हैं और चीजें अपनी बनाई योजना के अनुसार ही करते हैं। जब तुम उनके साथ सिद्धांतों की संगति करना समाप्त करते हो, उसके तुरंत बाद वे तुम्हारे सामने तो सहमत होते हैं लेकिन फिर पलट जाते हैं और लापरवाही और मनमाने तरीके से कार्य करना शुरू कर देते हैं और अपना राक्षसी रूप दिखाते हैं। ऐसे भी व्यक्ति हैं जो बाहर से सभ्य मनुष्य लगते हैं लेकिन जब तुम उनसे बात करते हो या गपशप करते हो तो उनके विचार गलत होते हैं, उनका लहजा गलत होता है और इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि उनका स्वभाव गलत होता है जिससे उनसे बातचीत करना असंभव होता है। जब तुम उनसे पूछते हो, “क्या परमेश्वर दुनिया में मौजूद है?” तो वे कहते हैं, “मुझे नहीं पता।” तुम कहते हो, “इसे इस तरह से किया जाना चाहिए, यह परमेश्वर का इरादा है।” वे जवाब देते हैं, “क्या मैं तुम्हें घिनौना लगता हूँ? क्या तुम मुझे परेशान करना चाहते हो? क्या तुम मुझे निष्कासित करने का प्रयास कर रहे हो?” तुम कहते हो, “इस तरह से कार्य करना धारणाएँ और नकारात्मकता फैलाना है जिससे कुछ नए विश्वासी लड़खड़ा सकते हैं। हमें परमेश्वर के घर के नियमों का पालन करना चाहिए और हमें उन सिद्धांतों के बारे में स्पष्ट होना चाहिए जिनका लोगों के बीच बातचीतों और मेलजोल रखने में पालन किया जाना चाहिए। अगर जो कहा और किया गया है वह दूसरों को शिक्षित नहीं कर सकता है या उनकी मदद नहीं कर सकता है तो कम-से-कम दूसरों पर इसका नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। यही वह सूझ-बूझ है जो सामान्य मानवता वाले किसी व्यक्ति में होनी चाहिए।” वे कहते हैं, “मुझसे सामान्य मानवता के बारे में बात करना, मुझे नियमों पर उपदेश देना, तुम खुद को समझते क्या हो? मेरे द्वारा नकारात्मकता फैलाने में क्या गलत है? हर नए विश्वासी के लड़खड़ाने का अर्थ है एक नया विश्वासी कम हो जाना—इससे मैं उन्हें देखने की परेशानी से बच जाता हूँ!” उनके साथ नियमों पर बात करना बेकार है और मानवता पर चर्चा करना भी। सत्य की संगति करने, परमेश्वर के वचनों की संगति करने के बारे में क्या कहें? वे परमेश्वर के वचनों की संगति भी नहीं सुनते हैं। कोई भी उनकी आलोचना करने की हिम्मत नहीं करता है, कोई भी उन्हें परेशान करने या उकसाने की हिम्मत नहीं करता है। क्या कलीसिया में ऐसे लोग हैं? (हाँ।) जिन लोगों को निष्कासित कर दिया गया है उनमें सचमुच ऐसे व्यक्ति हैं। क्या ये लोग श्रमिक हैं, परमेश्वर के लोग हैं या क्या हैं? (ये वही लोग हैं जिन्हें निकाल दिया गया।) उन्हें क्यों निकाल दिया गया? (सत्य स्वीकार नहीं करने के लिए; सत्य से विमुख होने के लिए।) यही समस्या का सार है। फिर वे सत्य स्वीकार क्यों नहीं करते हैं? वे सत्य से विमुख क्यों हैं? इसका मूल कारण क्या है? (इन लोगों का सार छद्म-विश्वासियों वाला सार है।) सही कहा, उनका सार छद्म-विश्वासियों वाला सार है। कलीसिया में बहुत सारे छद्म-विश्वासी हैं, लेकिन क्या सभी छद्म-विश्वासी ऐसे ही होते हैं? (नहीं।) ये व्यक्ति जिनमें सबसे मूलभूत मानवीय नैतिकताएँ और परवरिश तक नहीं है—क्या उन्हें सिर्फ इसलिए निकाल दिया जाता है क्योंकि वे छद्म-विश्वासी हैं? उन्हें क्यों निकाल दिया जाता है? इसके मूल में मानवता की समस्या है; इन लोगों में बुरी, दुर्भावनापूर्ण मानवता है। इसे सटीक रूप से कहा जाए तो उनमें मानवता की कमी है। चूँकि उनमें मानवता की कमी है, वे क्या हैं? वे शैतानी प्रकृति के लोग हैं। शैतानी प्रकृति के लोग पशुओं की तुलना में कैसे है? मुझे लगता है कि वे पशुओं से भी बदतर हैं; कुछ पशु आज्ञाकारी हो सकते हैं और गलत कार्य करने से बच सकते हैं। मिसाल के तौर पर, कुत्ते काफी अच्छे हो सकते हैं; कुछ कुत्ते सही मायने में बहुत अच्छे पालतू पशु होते हैं, मनुष्यों के साथ बेहतरीन तरीके से घुलमिल जाते हैं! वे विशेष रूप से आज्ञाकारी और समझदार होते हैं, लोगों की कही हर बात समझते हैं और वे घर में रखने के लिए उपयुक्त होते हैं। ऐसे कुत्ते अवज्ञाकारी मनुष्यों से कहीं बेहतर हैं। ऐसे कई लोग हैं जो अच्छे कुत्तों से भी बदतर हैं। तो क्या फिर भी वे मनुष्य हैं? नहीं, वे मनुष्य नहीं हैं; वे अमानुष हैं। बहुत से लोग मानवीय भाषा नहीं समझते हैं; उनसे बातचीत करना असंभव है। वे सत्य स्वीकार नहीं करते हैं चाहे इसके बारे में कैसे भी संगति क्यों ना की जाए, वे काट-छाँट किए जाने पर शिकायत करते हैं और जब उन्हें निकाल दिया जाता है तो वे आगबबूला होकर गाली-गलौज करने लगते हैं, चाहे उन्होंने कितने भी वर्षों से विश्वास क्यों ना रखा हो उनमें कोई बदलाव नहीं आता है। क्या अब भी ऐसे लोगों को परमेश्वर के घर में ठहरने की अनुमति दी जा सकती है? (नहीं।) उन्हें ठहरने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। इन व्यक्तियों को किस श्रेणी में वर्गीकृत किया जाना चाहिए? सबसे पहले, क्या इन व्यक्तियों को परमेश्वर के चुने हुए लोगों में श्रेणीबद्ध किया जाना चाहिए? (नहीं।) अगर वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों में नहीं हैं तो उन्हें किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए? परमेश्वर के चुने हुए लोगों में नहीं होना—इसकी व्याख्या कैसे की जानी चाहिए? इसका अर्थ यह है कि वे जो मानवता प्रदर्शित करते हैं और जीते हैं उसके परिप्रेक्ष्य से, यह सिर्फ छद्म-विश्वासी होने का सरल मामला नहीं है; उनका सार मानवीय नहीं है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो छद्म-विश्वासी हैं—क्या वे सभी इन व्यक्तियों की तरह बुरे और दुर्भावनापूर्ण हैं? नहीं। अविश्वासियों में भी हर कोई उतना बुरा नहीं है; कुछ लोगों में सबसे मूलभूत नैतिक मानक होते हैं। तो फिर इन व्यक्तियों के बारे में क्या कह सकते हैं? उनमें वे सबसे मूलभूत नैतिकताएँ और परवरिश तक नहीं होती है जो अविश्वासियों में होती है; सटीक रूप से कहा जाए, तो उनके खुलासे और वे जो जीते हैं वे मानवीय नैतिकता के मानक पूरे नहीं करते हैं। इन लोगों का सार शैतानियत है। तो फिर उनके सार के परिप्रेक्ष्य से क्या परमेश्वर उन्हें बचाता है? (नहीं।) परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता है। और ऐसा क्यों होता है? क्योंकि उनकी मानवता बुरी और दुर्भावनापूर्ण है, राक्षसी प्रकृति की है और इस तरह से वे सत्य से विमुख हैं और उसका प्रतिरोध करते हैं। दरअसल, इसे इस तरह से कहना उन्हें ऊपर उठाना है; सटीक रूप से कहा जाए तो ये व्यक्ति सकारात्मक चीजों से विमुख होते हैं और उनसे नफरत करते हैं, वे सत्य से विमुख होने और उसे स्वीकार नहीं करने के स्तर तक नहीं उठते हैं। वे सबसे मूलभूत सकारात्मक चीजों से भी विमुख होते हैं, उनसे नफरत करते हैं और उनका प्रतिरोध करते हैं; सामान्य मानवता वाले व्यक्ति को जिन नियमों का पालन करना चाहिए और उसकी जिस तरह की परवरिश होनी चाहिए वे सभी चीजें उन्हें घिनौनी लगती हैं। क्या वे सत्य स्वीकार सकते हैं? (वे वहाँ तक नहीं पहुँचते हैं।) सही कहा, वे वहाँ तक नहीं पहुँचते हैं; वे तो श्रमिक भी नहीं हैं। कुछ लोग कहते हैं, “चूँकि वे श्रमिक भी नहीं हैं तो उन्हें परमेश्वर के घर में क्या माना जाता है? वे परमेश्वर के घर में आए कैसे?” अगर हमें उनकी व्याख्या करनी हो, उन्हें एक श्रेणी में रखना हो तो, सटीक रूप से कहा जाए तो ये व्यक्ति अविश्वासियों के बीच से लाए गए भाड़े के कार्यकर्ता या अस्थायी कार्यकर्ताओं जैसे हैं। क्या इसका अर्थ स्पष्ट है? यही उनकी श्रेणी है और साथ ही यही उनकी भूमिका भी है जो वे परमेश्वर के घर में निभाते हैं। वे तो श्रमिक भी नहीं हैं; मैं उन्हें श्रमिक नहीं मानता, वे योग्य नहीं हैं! श्रमिकों में अच्छी मानवता होना, परमेश्वर में सही मायने में विश्वास रखना, कीमत चुकाने की इच्छा और कष्ट सहने की क्षमता होना जैसी विशेषताएँ होती हैं और वे इन चीजों को जीते हैं। इन व्यक्तियों में ये गुण भी नहीं होते हैं इसलिए उन्हें भाड़े के कार्यकर्ताओं के रूप में वर्गीकृत करना पहले से ही उनके प्रति अत्यंत दयालुता दिखाना है और यह बहुत विनम्र होना है। भाड़े का कार्यकर्ता या अस्थायी कार्यकर्ता होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि विशेष अवधियों के दौरान विशेष जरूरतों के कारण परमेश्वर का घर खास कार्य पूरे करने के लिए कुछ ऐसे व्यक्तियों की भर्ती करता है जो बचाए जाने के लिए अप्रासंगिक हैं। ये कार्य पूरे कर लेने के बाद इन व्यक्तियों के असली रंग प्रकट होते हैं। परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने उनके साथ बातचीत करके काफी कष्ट सहे हैं, वे असहनीय हद तक उनसे तंग आ चुके हैं और उनकी पर्याप्त पहचान भी प्राप्त कर चुके हैं। ऐसी परिस्थितियों में इन व्यक्तियों को बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए; इस तरह के क्रियाकलापों के लिए यह सबसे उपयुक्त समय है। क्या इसे अभी-अभी स्पष्ट रूप से समझाया गया कि ये व्यक्ति कैसे आते हैं? (हाँ।) वे भाड़े के कार्यकर्ता हैं जो बचाए जाने से असंबंधित हैं, जिन्हें कलीसियाई कार्य की विशेष अवधियों के दौरान लाया जाता है। कुछ समय तक छोटे-मोटे कार्य करने और सेवा प्रदान करने के बाद ये व्यक्ति परमेश्वर के घर में बेपरवाही से कुकर्म करते हैं जिससे कई विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। वे नकारात्मक चरित्रों की भूमिका निभाते हैं। वे पूरी तरह से शैतान और राक्षसों का असली चेहरा दिखाते हैं, कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं और कलीसियाई जीवन की व्यवस्था को नष्ट करते हैं। ज्यादा ठोस रूप से यह कहा जा सकता है कि ये व्यक्ति परमेश्वर के घर के हितों को बहुत ही ज्यादा नुकसान पहुँचाते हैं जैसे परमेश्वर के घर के ज्यादातर उपकरणों, मशीनों, कीमती सामान आदि को नुकसान पहुँचाना। यह कहा जा सकता है कि इन व्यक्तियों के क्रियाकलापों और व्यवहारों से दूर-दूर तक गुस्सा भड़क उठा है। यकीनन उन्होंने अन्य लोगों को भी सबक सीखने और पहचान प्राप्त करने में, यह जानने में कि दुष्ट लोग क्या होते हैं और मानवता की कमी का क्या अर्थ है, और अविश्वासियों के असली चेहरे स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम बनाया है; उन्होंने लोगों को यह स्पष्ट और ज्यादा ठोस तरीके से देखने में सक्षम बनाया है कि अविश्वासियों के विचार और नजरिये क्या हैं, वे क्या अनुसरण करते हैं, वे अपने दिलों की गहराई में क्या आकांक्षा करते हैं, वे परमेश्वर और सत्य के प्रति क्या रवैया रखते हैं और अपने कर्तव्यों और सकारात्मक चीजों के प्रति क्या रवैया रखते हैं और यहाँ तक कि ये व्यक्ति परमेश्वर के घर द्वारा बनाए गए खास नियमों के प्रति क्या रवैया रखते हैं आदि। जब यह इतना विशिष्ट हो जाता है तो यह पूरी तरह से उजागर हो जाता है कि ये व्यक्ति अपनी मानवता को, अपने मानवता सार को कैसे जीते हैं और वे क्या अनुसरण करते हैं। तब इन व्यक्तियों को कलीसिया में रखना निरर्थक लगता है; इससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को बहुत नुकसान पहुँचेगा और उन्हें बिल्कुल भी लाभ नहीं होगा। यही उनके जाने का समय है। फिर अगर हम यह कहें कि परमेश्वर के घर ने उन्हें सत्य स्वीकारने और परमेश्वर की आराधना करने के लिए पर्याप्त समय और अवसर दिए हैं तो क्या यह कथन सही है? (नहीं।) तो फिर इसे कैसे कहना चाहिए? परमेश्वर के घर ने उन्हें सकारात्मकता की ओर वापस मुड़ने के ढेरों अवसर और पर्याप्त समय दिया है लेकिन अंतिम परिणाम से एक सच्चाई प्रकट होती है : किसी भी समय पर दानव हमेशा दानव ही रहता है और कभी नहीं बदल सकता है। यही सच्चाई है। क्या बड़े लाल अजगर से परमेश्वर का दर्जा और पहचान स्वीकार करवाना संभव है? इन दानवीय प्रकृति वाले लोगों को बदलना और कुछ नियमों का पालन करवाना—क्या यह हासिल किया जा सकता है? (नहीं।) वे इसे हासिल नहीं कर सकते हैं। उन्हें अवसर देने का उद्देश्य उनके द्वारा सत्य स्वीकारना, परमेश्वर द्वारा किया गया कार्य पहचानना या सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना नहीं है, बल्कि उन्हें सकारात्मकता की ओर वापस मुड़ने का मौका देना है। अगर इस चीज का जरा-सा भी संकेत मिल जाए कि वे सकारात्मकता की ओर वापस मुड़ गए हैं तो उनका अंतिम परिणाम बदल सकता है। लेकिन इन लोगों को यह नहीं पता है कि उनके लिए क्या अच्छा है; उनकी दानवीय प्रकृति हमेशा बिल्कुल वही रहेगी। चाहे उन्हें कितना भी समय या कितने भी अवसर क्यों ना दिए जाएँ, वे जो चीजें जीते हैं और उनका जो सार है वह नहीं बदलेगा; यह एक सच्चाई है। इसलिए इन लोगों को संभालने का अंतिम तरीका यही है कि उन्हें उनके कर्तव्यों से मुक्त कर दिया जाए, उन्हें कलीसिया से बाहर कर दिया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि परमेश्वर के घर से अब उनका कोई संबंध या रिश्ता ना रहे। क्या ऐसे लोग हैं जो उन्हें जाते हुए देखने के अनिच्छुक होंगे और उन पर तरस खाएँगे और कहेंगे, “ये लोग अब भी बच्चे हैं; अगर उन्हें समय दिया जाए तो वे उत्कृष्ट बन जाएँगे। उनमें इतनी अच्छी काबिलियत है, वे इतने गुणी और प्रतिभाशाली हैं—कितना अच्छा होगा अगर वे सत्य स्वीकार पाएँ! अगर परमेश्वर का घर ज्यादा प्रेमपूर्ण और सहनशील हो सकता है और उन्हें पश्चात्ताप करने के ज्यादा अवसर दे सकता है तो उनके बड़े होने पर शायद चीजों का परिणाम अलग होगा”? किस तरह के लोग इस तरह से सोचते हैं? (भ्रमित लोग, उलझन मे पड़े लोग।) सही कहा। वे सभी भ्रमित, उलझन में पड़े लोग हैं—पूरी तरह से बदमाश हैं! परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता है और परमेश्वर का घर उन्हें ठहरने की अनुमति नहीं देता है—उन पर तरस खाने वाली क्या बात है? परमेश्वर कहता है कि वह ऐसे लोगों को नहीं बचाएगा फिर भी तुम उन्हें पश्चात्ताप करने का एक मौका देने का सुझाव देते हो। क्या तुम लोगों को बचा सकते हो? क्या यह परमेश्वर के खिलाफ जाना नहीं है? क्या तुम दूसरों को यह सोचने के लिए उकसाने का प्रयास कर रहे हो कि तुम परमेश्वर से ज्यादा प्रेममय हो? क्या तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है? क्या तुम किसी व्यक्ति के सार की असलियत पहचान सकते हो? लोगों को कौन बचा सकता है, परमेश्वर या तुम? परमेश्वर के खिलाफ जाने की हिम्मत करना—यह बहुत ही घमंडी, आत्मतुष्ट और सूझ-बूझ से रहित है, है ना? क्या यह एक बड़ा विद्रोह नहीं है? क्या यह शैतान और दुष्ट आत्माओं को पुनर्जीवित किया जाना नहीं है जो हमेशा परमेश्वर के खिलाफ जाकर खुश होते हैं? अभी जिन छद्म-विश्वासियों का जिक्र किया गया वे पशुओं से भी कम हैं। उनसे सत्य पर संगति चाहे कैसे भी की जाए, उसका कोई फायदा नहीं है; यहाँ तक कि उनकी काट-छाँट करना भी बेकार है। यह कहा जा सकता है कि उनमें शैतान की प्रकृति है और वे कभी नहीं बदलेंगे। अगर कोई इन शैतानी प्रकार के लोगों को पश्चात्ताप करने का एक मौका देना चाहता है तो उसे ऐसे लोगों का भरण-पोषण करने दो; हम देखेंगे कि क्या उनमें सही मायने में प्रेम है। जो छद्म-विश्वासी सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं वे कलीसिया में सबसे बदतर हैं; वे सब पशुओं जैसे हैं, सूझ-बूझ से परे हैं और उन्हें बचाया नहीं जा सकता है। चाहे अतीत में हो या वर्तमान में कलीसिया का उनके साथ व्यवहार सबसे उचित रहा है; कलीसिया ने उनके प्रति अपार धीरज और सहिष्णुता दिखाई है और उन्हें पर्याप्त अवसर दिए हैं। लेकिन अब तक वे बिल्कुल भी नहीं बदले हैं बल्कि उनके तरीकों ने और जोर पकड़ लिया है। शुरू में जब ये लोग अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और आशीषों की इच्छा के साथ परमेश्वर में विश्वास रखने लगते हैं तो वे कुछ हद तक संयमित हो पाते हैं, कुछ उत्साह और जोश के साथ अपने कर्तव्य करते हैं। लेकिन अंत में जब वे देखते हैं कि “परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ है सत्य का अनुसरण करना, परमेश्वर का कार्य जानना और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना, और बस यही सब कुछ है,” तो परमेश्वर और सत्य के प्रति उनका रवैया और साथ ही उनके असली रंग पूरी तरह से उजागर हो जाते हैं। ऐसा क्या है जो उजागर हो जाता है? उनमें ना सिर्फ मानवता, जमीर और विवेक की कमी है बल्कि वे अत्यंत शातिर, दुष्ट और क्रूर भी हैं। वे परमेश्वर और सत्य का तिरस्कार करते हैं और यहाँ तक कि परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं और नियमों को—और परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों को भी—शत्रुता और अवज्ञा से देखते हैं। उनकी इन अभिव्यक्तियों ने परमेश्वर के चुने हुए लोगो में उनके प्रति नाराजगी और नफरत की भावना और बढ़ा दी है और जिस गति से परमेश्वर का घर उन्हें दूर करता है उसमें भी तेजी आ गई है, जिससे अंत में यह तेजी से निर्धारित हो जाता है कि वे ठहरें या चले जाएँ जिससे उनके परिणाम और नियतियाँ तय हो जाती हैं। उनके परिणाम और नियतियाँ उनके द्वारा अर्जित की गईं, वे किसी के उकसाने या भड़काने के कारण नहीं आईं या इसलिए नहीं आईं कि किसी ने इन लोगों को मजबूर किया या प्रलोभन दिया और वे यकीनन वस्तुनिष्ठ परिस्थितियों के कारण नहीं आईं; उनके परिणाम और उनकी नियतियाँ स्वयं-प्रदत्त थीं, वे उनके खुद के चयनों के कारण आईं और उनके प्रकृति सार और उनके द्वारा चुने गए मार्गों द्वारा निर्धारित की गई थीं। इन लोगों के परिणाम और नियतियाँ निर्धारित कर दी गई है; एक बार जब उन्हें अपने कर्तव्य करने वाले लोगों की श्रेणियों से दूर कर दिया जाएगा तब वे श्रमिक भी नहीं रहेंगे। तुम यह अच्छी तरह से कल्पना कर सकते हो कि उनकी नियति कैसी होगी—वह यहाँ जिक्र करने योग्य नहीं है क्योंकि वे अयोग्य हैं।

जब खुलासा किए गए और निकाल दिए गए लोगों के प्रकार की बात आती है, तो उनके विभिन्न कुकर्मों की अभिव्यक्तियाँ, और साथ ही दैनिक जीवन में वे जो दुर्भावनापूर्ण शब्द और कथन प्रकट करते हैं, वे स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। और फिर भी, कुछ अगुआ और कार्यकर्ता इन कुकर्मियों को पहचानने में अक्षम होते हैं कि वास्तव में वे क्या हैं, या उनके प्रकृति सार की असलियत नहीं पहचान पाते हैं। ये अगुआ और कार्यकर्ता इस बात से अनजान लगते हैं कि वे कुकर्मी और छद्म विश्वासी हैं, और इसलिए उनके पास उन्हें कलीसिया से दूर करने, या उनके साथ उचित तरीके से निपटने की कोई योजना नहीं होती है। यह किसी अगुआ या कार्यकर्ता के द्वारा कर्तव्य की घोर अवहेलना है। वे आँखें फाड़कर ताकते रहते हैं जब ये राक्षसी प्रकृति के लोग परमेश्वर के घर के किसी भी नियम का पालन नहीं करते हैं, जब उनके सिर पर खून सवार हो जाता है और वे बेहूदगी से कलीसिया के कार्य और कलीसियाई जीवन की व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर देते हैं और बिगाड़ देते हैं; यहाँ तक कि जब ये लोग अपना कर्तव्य करने के नाम पर बेधड़क और लापरवाही से कार्य करते हैं, अवैध रूप से व्यवहार करते हैं और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हैं, तो वे इन लोगों को तुष्ट भी करते हैं। परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने में कई चीजें शामिल हैं : परमेश्वर के घर की मशीनरी और विभिन्न उपकरणों को नुकसान पहुँचाना, इसके विभिन्न कार्यालय के उपकरणों और सामान को नुकसान पहुँचाना, यहाँ तक कि परमेश्वर के चढ़ावों को अपनी मर्जी से लुटा देना, वगैरह। इससे भी गंभीर चीज यह है कि वे बेहूदगी से विभिन्न अपधर्म और भ्रांतियाँ फैलाते हैं, जिससे ऐसा विघ्न उत्पन्न होता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग शांति से अपने कर्तव्य नहीं कर पाते हैं, ऐसा विघ्न कि कमजोर और नकारात्मक लोग अपने कर्तव्यों का त्याग कर देते हैं और परमेश्वर का अनुसरण करने में आस्था खो देते हैं। ये कुकर्मी ये सब बुरी चीजें करते हैं, वे ये सब कुकर्म करते हैं जो कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं और गड़बड़ करते हैं और भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाते हैं, और फिर भी अगुआ और कार्यकर्ता आँखें मूँद लेते हैं, उनके कानों पर जूँ नहीं रेंगती; उनमें से कुछ तो यह तक कहते हैं, “मुझे पता नहीं चला, किसी ने मुझे बताया ही नहीं।” जानवरों और शैतानों के उस गिरोह ने कलीसिया में कहर बरपा दिया है, उथल-पुथल मचा दी है फिर भी अगुआ और कार्यकर्ता इसके बारे में पूरी तरह से बेखबर और अनजान हैं! क्या वे कचरा नहीं हैं? उनके दिल कहाँ हैं? वे क्या कर रहे हैं? क्या वे सिर्फ बेकार की बकवास में नहीं लगे हुए हैं? क्या वे अपने उचित कार्यों के प्रति लापरवाह नहीं हो रहे हैं? हर रोज जब ऐसे झूठे अगुआ कार्य कर रहे होते हैं तो सभी प्रकार के कुकर्मियों को कलीसिया में बेतहाशा बाधा डालने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाने के लिए एक दिन और मिल जाता है। क्योंकि झूठे अगुआ अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करते हैं इसलिए जानवरों का वह गिरोह दिन भर बेकार में आवारागर्दी करता रहता है, कोई कर्तव्य नहीं करता है या किसी भी नियम का पालन नहीं करता है, परमेश्वर के घर से जीवनयापन का सामान जुटाता है, परमेश्वर के घर के विभिन्न भौतिक लाभों और कल्याण का बेझिझक आनंद उठाता है—वे जानबूझकर कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं, परमेश्वर के घर की मशीनों और उपकरणों को नुकसान पहुँचाते हैं। वे इसी तरह से कार्य करते हैं और फिर भी वे आरामदायक जीवन जीने और परमेश्वर के घर में जो चाहे वही कर पाने की उम्मीद करते हैं, किसी को भी उन्हें परेशान करने या उकसाने की अनुमति नहीं है। यह बहुत ही गंभीर मुद्दा है फिर भी अगुआ और कार्यकर्ता इसे टाल देते हैं, दूसरों द्वारा रिपोर्ट किए जाने पर भी इसे हल नहीं करते हैं—क्या वे ऐसा कचरा नहीं हैं जो कोई वास्तविक कार्य नहीं करता है? क्या यह कर्तव्य के प्रति गंभीर लापरवाही नहीं है? (हाँ, है।) कुछ कहते हैं, “मैंने उस समस्या का समाधान इसलिए नहीं किया, क्योंकि मैं दूसरे कार्य में व्यस्त था। मैं इसके लिए बस समय निकाल ही नहीं पाया!” क्या इस बात में दम है? अगर तुम इतनी गंभीर समस्या हल नहीं करते हो, तो तुम किस चीज में इतने व्यस्त हो? क्या उन मामलों का कोई महत्त्व है, जिनमें तुम व्यस्त हो? क्या तुम अपने काम की प्राथमिकताएँ तय करने में सक्षम हो? तुम कार्य में चाहे कितने भी व्यस्त क्यों ना हो, क्या समस्याओं का समाधान करना सबसे महत्वपूर्ण नहीं होना चाहिए? कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा डालने वाले विभिन्न प्रकार के लोगों को तुरंत समझना और उनसे निपटना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है। अगर तुम वास्तविक समस्याएँ दरकिनार कर अन्य मामलों में व्यस्त रहते हो, तो क्या तुम वास्तविक कार्य कर रहे हो? अगर तुम्हें किसी समस्या का पता चलता है या कोई अन्य तुम्हें किसी समस्या की सूचना देता है, तो तुम्हें फिलहाल चल रहे कार्य को एक तरफ रख देना चाहिए और तुरंत स्थल पर जाना चाहिए और देखना चाहिए कि समस्या का स्रोत क्या है। अगर यह कोई कुकर्मी है जो कलीसिया के कार्य में बाधा डाल रहा है और गड़बड़ी कर रहा है, तो तुम्हें सबसे पहले इस कुकर्मी को दूर कर देना चाहिए। उसके बाद, दूसरी समस्याओं का समाधान करना आसान हो जाएगा। अगर तुम्हें किसी समस्या का पता चलता है और तुम उसे हल नहीं करते, यह दावा करते हो कि तुम बहुत व्यस्त हो, तो क्या तुम वास्तव में पिंजरे में बंद गिलहरी की तरह यहाँ-वहाँ दौड़ नहीं कर रहे? आखिर तुम किस चीज में इतने व्यस्त हो? क्या यह वास्तविक कार्य है? क्या तुम इसे स्पष्ट रूप से समझा सकते हो? क्या तुम्हारे कारणों और बहानों में दम है? तुम समस्याएँ हल करने को महत्वहीन क्यों समझते हो? तुम समय पर समस्याओं का समाधान क्यों नहीं करते हो? तुम बहाने क्यों ढूँढते हो और जैसे-तैसे चीजों से अपनी जान छुड़ा लेते हो, कहते हो कि तुम इतने व्यस्त हो कि उनका ध्यान नहीं रख पाओगे? क्या यह गैर-जिम्मेदार होना नहीं है? कलीसिया में एक अगुआ के रूप में, समस्याओं के समाधान को प्राथमिकता नहीं देना, खुद को विभिन्न तुच्छ मामलों में व्यस्त रखना, अत्यंत गंभीर समस्याओं का अस्तित्व पहचानने में विफल होना, कार्य में महत्व और तात्कालिकता को पहचानने में असमर्थ होना और अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदुओं को समझने में असमर्थ होना—ये बहुत ही ज्यादा खराब काबिलियत की अभिव्यक्तियाँ हैं और ऐसा व्यक्ति गड़बड़ी फैलाने वाला व्यक्ति है। वह चाहे कितने भी वर्षों से अगुआ रहा हो, वह कलीसिया के कार्य का अच्छी तरह से निर्वहन करने में समर्थ नहीं है। उसे जवाबदेही लेकर इस्तीफा दे देना चाहिए। अगर किसी अगुआ की काबिलियत बहुत ही ज्यादा खराब है तो कोई भी प्रशिक्षण बेकार है; वह निश्चित रूप से कोई भी कार्य पूरा करने में असमर्थ होगा—वह एक झूठा अगुआ है जिसे बर्खास्त किया जाना चाहिए और दूसरा कर्तव्य दिया जाना चाहिए। जब झूठे अगुआ कार्य कर रहे हों तो क्या परिणाम होते हैं? वस्तुगत रूप से कहा जाए तो झूठे अगुआ जो कुछ भी करते हैं उससे कलीसिया को कई पहलुओं में नुकसान होते हैं। एक चीज तो यह है कि कलीसिया का अनिवार्य कार्य ठीक से नहीं किया जाता है जिससे कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदों की प्रभावशीलता में सीधे बाधा आती है। साथ ही यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को भी नुकसान पहुँचाता है और प्रभावित करता है। सबसे महत्वपूर्ण रूप से यह स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाने को प्रभावित करता है। ये सभी परिणाम झूठे अगुआओं द्वारा वास्तविक कार्य नहीं करने से सीधे संबंधित हैं। इसे और स्पष्ट रूप से कहा जाए तो ये सभी झूठे अगुआओं द्वारा वास्तविक कार्य में शामिल नहीं होने के कारण होते हैं। अगर दूसरे अगुआ और कार्यकर्ता सक्रिय रूप से कुछ वास्तविक कार्य में शामिल हो पाएँ, रफ्तार में तेजी ला पाएँ और समस्याओं के समाधान में लगने वाले समय को कम कर पाएँ तो क्या झूठे अगुआओं द्वारा परमेश्वर के घर को पहुँचाए गए विभिन्न नुकसान कुछ हद तक कम नहीं हो जाएँगे? कम-से-कम उनमें कमी तो लाई जा सकती है। भले ही परमेश्वर के घर की यह अपेक्षा ना हो कि तुम समस्याएँ उत्पन्न होते ही उन्हें तुरंत संभालो लेकिन कम-से-कम एक बार जब समस्याओं की सूचना दे दी जाती है तो तुम्हें तुरंत उन्हें सुलझाना शुरू कर देना चाहिए : भाई-बहनों से स्थिति के बारे में पूछताछ करो और समस्याएँ सुलझाने के तरीके पर दूसरे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ चर्चा और संगति करो। अगर मुद्दा गंभीर है और तुम्हें नहीं पता है कि इसे कैसे हल करना है तो तुम्हें तुरंत इसकी रिपोर्ट ऊपर कर देनी चाहिए और समाधान खोजने चाहिए। सभी अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यही हासिल करना चाहिए। लेकिन मौजूदा समस्या यह है कि भले ही ये अगुआ और कार्यकर्ता समस्याएँ सुलझा नहीं पाएँ, वे इनकी सूचना ऊपर नहीं देते हैं। वे अपनी खुद की अयोग्यता, बहुत ही ज्यादा खराब काबिलियत और वास्तविक कार्य करने में अपनी असमर्थता प्रकट हो जाने के डर से ऊपर सूचना देने से बहुत डरते हैं; वे बर्खास्त किए जाने के बारे में चिंतित रहते हैं। फिर भी वे कार्य करने की पहल नहीं करते हैं; वे मंदबुद्धि और जड़ हैं और कार्य करने में धीमे हैं। समस्याएँ सुलझाने के किसी मार्ग के बिना वे बस जैसे-तैसे आगे बढ़ते रहते हैं जिससे बहुत सारे अनसुलझे मुद्दों का एक ढेर लग जाता है और इससे कुकर्मियों को अवसर मिल जाते हैं। इस समय यह देखकर कि झूठे अगुआ नाकारा हैं, वे कुकर्मी और वे महत्वाकांक्षी लोग बेहूदगी से कुकर्म करने के मौके का फायदा उठाते हैं, जिससे कलीसिया अराजकता और गड़बड़ी में डूब जाती है, कार्य के सभी पहलू ठप्प पड़ जाते हैं। वैसे तो झूठे अगुआओं को प्राथमिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए लेकिन दूसरे अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने भी अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की होती हैं। क्या यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा कर्तव्य के प्रति गंभीर लापरवाही नहीं है? दरअसल कलीसिया में उत्पन्न होने वाली ज्यादातर समस्याएँ कुकर्मियों और छद्म-विश्वासियों द्वारा उत्पन्न की गई बाधाओं से सीधे संबंधित हैं। अगर अगुआ और कार्यकर्ता तुरंत समस्याओं की जड़ पहचान नहीं पाते हैं, समस्याएँ उत्पन्न करने वाले मुख्य अपराधियों को ढूँढ नहीं पाते हैं और हमेशा कारणों की तलाश कहीं और करते रहते हैं तो फिर वे समस्याओं को मूल रूप से सुलझाने में समर्थ नहीं होंगे और भविष्य में समस्याएँ लगातार उभरती रहेंगी। अगर परेशानी उत्पन्न करने वालों या पर्दे के पीछे समस्याएँ उत्पन्न करने वालों को पकड़ लिया जाता है और सीधे जवाबदेह ठहराया जाता है तो समस्याओं से निपटने का यह तरीका सबसे प्रभावी है। कम-से-कम, इससे यह सुनिश्चित होता है कि वे छद्म-विश्वासी और कुकर्मी वहशियों जैसा व्यवहार करना और विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करना जारी रखने की हिम्मत नहीं करेंगे। क्या अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यही हासिल नहीं करना चाहिए? (हाँ।) यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कलीसिया की समस्याओं की संख्या में जो वृद्धि हो रही है और समय पर उन्हें हल नहीं किया जा रहा है, जिसका मुख्य कारण अगुआओं और कार्यकर्ताओं की गैर-जिम्मेदारी है या ऐसा इसलिए है क्योंकि झूठे अगुआओं में सत्य वास्तविकता की कमी है और वे वास्तविक कार्य नहीं कर सकते हैं। अगर अगुआ और कार्यकर्ता कलीसिया में उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याएँ नहीं सुलझा सकते हैं तो निश्चित रूप से वे अपने पदों में निहित कार्य नहीं कर सकते हैं। ऐसी कई परिस्थितियाँ और कारण हैं जिन्हें यहाँ स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए : अगर अगुआ और कार्यकर्ता अनुभवहीन नौसिखिए हैं तो उनकी धैर्यपूर्वक मदद की जानी चाहिए, उन्हें समस्याएँ सुलझाने के लिए और समस्याएँ सुलझाने की प्रक्रिया में कुछ चीजें सीखने और सत्य सिद्धांतों को समझने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इस तरह से वे धीरे-धीरे समस्याएँ सुलझाना सीख जाएँगे। अगर अगुआ और कार्यकर्ता सही लोग नहीं हैं, वे सत्य स्वीकार करने से पूरी तरह से इनकार करते हैं और इसके बजाए समस्याएँ सुलझाने के लिए अविश्वासियों के नजरिये और तरीकों का उपयोग करते हैं तो यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। ऐसे लोग अगुआ और कार्यकर्ता बनने के लिए उपयुक्त नहीं हैं और उन्हें समय पर बर्खास्त कर देना चाहिए और निकाल देना चाहिए; फिर उपयुक्त अगुआ और कार्यकर्ता चुनने के लिए दोबारा चुनाव करवाना चाहिए। सिर्फ इसी तरीके से समस्या पूरी तरह से सुलझ सकती है। कलीसियाई अगुआ बनना कोई आसान कार्य नहीं है और यह अवश्यंभावी है कि कुछ समस्याएँ संभाली नहीं जा सकती हैं। लेकिन अगर किसी में सूझ-बूझ है तो जब उसे ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है जिन्हें वह सुलझा नहीं सकता है तो उसे ये समस्याएँ छिपानी या दबानी नहीं चाहिए और उन्हें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। इसके बजाए उसे ऐसे कई लोगों से सलाह लेनी चाहिए जो सत्य समझते हैं ताकि सामूहिक रूप से समाधान ढूँढा जा सके, जिससे सत्तर से अस्सी प्रतिशत समस्याएँ हल हो सकती हैं और कम-से-कम कुछ समय के लिए प्रमुख मुद्दों को उत्पन्न होने से रोका जा सकता है। यह एक व्यवहार्य मार्ग है। अगर समस्याएँ सही मायने में सुलझाई नहीं जा सकती हैं तो व्यक्ति को ऊपरवाले से समाधान माँगने चाहिए जो कि एक समझदारी भरा विकल्प है। अगर तुम इसलिए समस्याएँ छिपाते हो और उनकी सूचना नहीं देते हो क्योंकि तुम्हें शर्मिंदा होने का डर है या यह डर है कि ऊपरवाला अयोग्यता के लिए तुम्हारी काट-छाँट करेगा तो यह पूरी तरह से निष्क्रिय होना है। अगर तुम एक जड़, मंदबुद्धि बेवकूफ व्यक्ति की तरह कार्य करते हो और इस बारे में भ्रमित हो कि क्या करना है तो इससे मामलों में देरी होगी। ऐसी परिस्थितियाँ कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को आसानी से अवसर प्रदान करती हैं, उन्हें कार्य करने के लिए अराजकता का फायदा उठाने देती हैं। ऐसा क्यों कहते हैं कि वे कार्य करने के लिए अराजकता का फायदा उठाते हैं? क्योंकि वे बिल्कुल इसी अवसर की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। जब अगुआ और कार्यकर्ता कोई भी समस्या संभालने में असमर्थ होते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोग चिंतित और बेचैन महसूस कर रहे होते हैं और पहले से ही उन पर भरोसा खो चुके होते हैं तो कुकर्मी और मसीह-विरोधी इस फासले का फायदा उठाने का प्रयास करते हैं। उन्हें लगता है कि कलीसिया में अगुवाई या प्रबंधन के अभाव की स्थिति है। वे अपनी क्षमताओं का दिखावा करने के लिए इस मौके का उपयोग करना चाहते हैं ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग उनका सम्मान करें, उनका समर्थन करें और यह विश्वास करें कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं की तुलना में उनकी काबिलियत बेहतर है, वे समस्याएँ सुलझाने और बाहर निकलने का रास्ता दिखाने में ज्यादा सक्षम हैं और अराजकता के बीच बेहतर तरीके से हवा का रुख मोड़ सकते हैं। क्या यह वही चीज नहीं है जो कुकर्मी और मसीह-विरोधी सबसे ज्यादा करना चाहते हैं? इस समय जब अगुआ और कार्यकर्ता शक्तिहीन होते हैं और कुकर्मी और मसीह-विरोधी उठ खड़े होते हैं और समस्याएँ सुलझाते हैं, यहाँ तक कि वे बाहर निकलने का रास्ता भी दिखाते हैं तो परमेश्वर के चुने हुए लोग किस पर विश्वास करेंगे? स्वाभाविक रूप से वे कुकर्मियों और मसीह-विरोधी की शक्तियों पर विश्वास करेंगे। इससे क्या पता चलता है? इससे पता चलता है कि अगुआ और कार्यकर्ता नाकारा हैं और कुछ भी हासिल नहीं करते हैं, महत्वपूर्ण क्षणों में विफल हो जाते हैं। क्या ऐसे लोग अब भी अगुआ और कार्यकर्ता होने के योग्य हैं? वैसे तो मसीह-विरोधियों में सत्य-वास्तविकता की कमी होती है और वे वास्तविक कार्य नहीं कर सकते हैं लेकिन उन सभी के पास अलग-अलग मात्रा में कुछ खूबियाँ होती हैं और वे बाहरी मामलों में अपेक्षाकृत अधिक चतुर होते हैं जो वास्तव में उनके लिए लाभ की स्थिति है और इसी से वे लोगों को गुमराह कर सकते हैं। लेकिन अगर वे अगुआ और कार्यकर्ता बन जाते तो क्या वे वाकई परमेश्वर के चुने हुए लोगों की समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का उपयोग कर पाते? क्या वे सही मायने में परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परमेश्वर के वचन खाने-पीने, सत्य समझने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए प्रेरित कर पाते? बिल्कुल नहीं। वैसे तो उनके पास कुछ खूबियाँ हैं और वे वाक्पटु हैं लेकिन उनमें किसी भी तरह की सत्य वास्तविकता नहीं है। क्या वे कलीसिया के अगुआ और कार्यकर्ता बनने के लिए उपयुक्त हैं? बिल्कुल नहीं! यह कुछ ऐसा है जिसकी असलियत परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पहचाननी चाहिए; उन्हें कभी भी कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह नहीं होना चाहिए या उनके फुसलाव में नहीं आना चाहिए। छद्म-विश्वासी, कुकर्मी और मसीह-विरोधी बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं और उनके पास रत्ती भर सत्य वास्तविकता नहीं है। तो मुझे बताओ, क्या वे जमीर और विवेक से कुछ कह सकते हैं, जैसे कि “भले ही अभी कलीसिया में कोई प्रभारी ना हो लेकिन हमें अपनी सूझ-बूझ का उपयोग करके कार्य करना चाहिए। परमेश्वर के घर के विनियम तोड़े नहीं जा सकते हैं, परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांत बदले नहीं जा सकते हैं। हमें वही करना चाहिए जो हमें करना चाहिए; हर किसी को अपने कर्तव्य अपेक्षित रूप से करते रहना चाहिए, अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते रहना चाहिए और व्यवस्था में बाधा नहीं डालनी चाहिए”? क्या वे ऐसा कुछ कह सकते हैं? (नहीं।) बिल्कुल नहीं! ये छद्म-विश्वासी और कुकर्मी क्या क्रियाकलाप करेंगे? निरीक्षण और पर्यवेक्षण के बिना वे अपने कर्तव्य भी नहीं करते हैं, खाने-पीने, खेलने और मौज-मस्ती करने में लिप्त रहते हैं, बेकार की बकवास करने में, हँसी-ठिठोली करने में और यहाँ तक कि इश्कबाजी करने में लगे रहते हैं। कुछ लोग पूरी रात अविश्वासियों की दुनिया के वीडियो देखते हुए बिताते हैं, फिर कामचोरी करने और बहुत ज्यादा सोने के लिए देर रात तक अपना कर्तव्य करने के बहाने का उपयोग करते हैं। ये कुकर्मियों के क्रियाकलाप हैं जो दानवों की श्रेणी के हैं। क्या ये बुरे कर्म करते हुए उन्हें कोई अपराधबोध होता है? क्या उनका जमीर अचानक जाग उठेगा और वे कुछ मानवीय जिम्मेदारियाँ पूरी करने और परमेश्वर के घर, कलीसिया और भाई-बहनों के लिए कुछ फायदेमंद करने की पहल करेंगे? बिल्कुल नहीं। जब कोई देख रहा होता है तो वे एक वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए अनिच्छा से कुछ ऐसा कार्य करते हैं जिससे वे अच्छे दिखते हैं। यही एकमात्र चीज है जो वे कर सकते हैं; इसके अलावा इन लोगों में एक भी ऐसी विशेषता नहीं होती है जो इन्हें मुक्ति दिला सके। तो, क्या इन लोगों का परमेश्वर के घर में ठहरने का कोई अर्थ है? इसका कोई अर्थ नहीं है। ऐसे लोग अनावश्यक हैं और उन्हें दूर कर दिया जाना चाहिए।

तुम यह कैसे मापते हो कि कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं? मैं तुम लोगों को समझाने के लिए एक मिसाल देता हूँ। कुछ लोग किसी पेशे से जुड़े होते हैं और वे जितना ज्यादा सीखते हैं, जितना ज्यादा अपना अध्ययन आगे बढ़ाते हैं, जितना ज्यादा समझते हैं, उतना ही ज्यादा वे इसमें शामिल होने के इच्छुक होते हैं और उतना ही कम वे यह पेशा छोड़ने के इच्छुक होते हैं। यह किस तरह की अभिव्यक्ति है? क्या इसका अर्थ यह है कि उन्हें यह पेशा सही मायने में पसंद है? (हाँ।) वे चाहे कितने भी कष्ट क्यों ना सहें, चाहे कीमत कुछ भी हो, वे चाहे कितनी भी मेहनत क्यों ना करें, वे बिना किसी पछतावे के, बिना डगमगाए, इस पेशे में बने रहते हैं। यही सच्चा स्नेह है, एक गहरी, दिली पसंद है। मान लो कि कोई व्यक्ति कोई खास कार्य पसंद करने का दावा करता है लेकिन पेशेवर कौशल सीखने की प्रक्रिया के दौरान कष्ट सहने या कीमत चुकाने का इच्छुक नहीं है और जब कार्यस्थल पर कई समस्याएँ उत्पन्न होती हैं तो वह समाधान नहीं ढूँढता है, मुसीबत खड़ी होने से डरता है और यहाँ तक कि वह अक्सर यह महसूस करता है कि इस पेशे में बने रहना एक झंझट या बोझ है। लेकिन पेशा बदलना आसान नहीं है और वह इस पेशे से मिल सकने वाले भौतिक फायदों को ध्यान में रखकर अनिच्छा से इसमें बना रहता है लेकिन वह इस पेशे में कभी भी अपनी अलग पहचान नहीं बना पाता है। तो क्या उसे यह पेशा सही मायने में पसंद है? (नहीं।) जाहिर है कि उसे यह पेशा पसंद नहीं है। एक दूसरे प्रकार का व्यक्ति होता है जो किसी विशेष पेशे के लिए मौखिक रूप से लगाव व्यक्त करता है और उसमें शामिल रहता है लेकिन अच्छी तरह से पेशेवर कौशल सीखने के लिए कभी भी कष्ट नहीं सहता है या कीमत नहीं चुकाता है। सीखने की प्रक्रिया के दौरान उसके मन में पेशे के प्रति अरुचि या नफरत भी विकसित हो सकती है जिससे वह सीखने के प्रति लगातार अनिच्छुक होता जाएगा। जब उसकी अरुचि एक खास स्तर पर पहुँच जाती है तो वह अपना पेशा बदल लेता है और उसके बाद वह उस पेशे से जुड़े रहने के समय की किसी भी प्रक्रिया, कहानी या किसी दूसरी चीज का जिक्र करने का अनिच्छुक होता है। क्या ऐसे लोग सही मायने में इस पेशे को पसंद करते हैं? (नहीं।) वे उसे पसंद नहीं करते है। वे आसानी से इस पेशे में विश्वास खो सकते हैं और उसके प्रति नफरत महसूस कर सकते हैं और यहाँ तक कि अपना पेशा भी बदल सकते हैं जिससे साबित होता है कि उन्हें यह पेशा सही मायने में पसंद नहीं है। वे यह पेशा इसलिए छोड़ सकते हैं क्योंकि बहुत सारा समय, ऊर्जा और लागत लगाने के बाद भी इस पेशे ने उन्हें वह संपन्न जीवन नहीं जीने दिया जिसकी उन्हें चाहत थी या अच्छी भौतिक चीजों का आनंद नहीं लेने दिया। वे अपने दिल में इस पेशे से विमुख हो जाते हैं और उसे कोसते हैं यहाँ तक कि दूसरों को भी इसका जिक्र करने से मना करते हैं, खुद भी अब इसका जिक्र नहीं करते हैं और यहाँ तक कि इससे पहले इस पेशे से जुड़े होने और इसे अपना आदर्श और जीवन में अनुसरण करने के लिए सर्वोच्च लक्ष्य मानने के लिए शर्मिंदगी भी महसूस करते हैं। वे जिस हद तक इस पेशे से विमुख हो सकते हैं उसे देखते हुए, क्या इस पेशे के प्रति उनके शुरुआती लगाव का प्रदर्शन सच्चा था? (नहीं।) सिर्फ एक ही प्रकार का व्यक्ति है जो सही मायने में इस पेशे को पसंद करता है—वह पेशा चाहे उसे एक अच्छा भौतिक जीवन या पर्याप्त फायदे प्रदान करे या ना करे और वह इस पेशे में चाहे कितनी भी कठिनाइयों का सामना करे या कितना भी कष्ट सहे वह इसमें अंत तक बिना डगमगाए डटा रह सकता है। यही सच्चा लगाव है। यही बात इस पर भी लागू होती है कि क्या कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है। अगर तुम सही मायने में सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हो, सकारात्मक चीजों से प्रेम करने से आगे बढ़कर सत्य से प्रेम करते हो तो चाहे तुम्हें किसी भी परिस्थिति का सामना क्यों ना करना पड़े, तुम बिना अपने जीवन का लक्ष्य बदले सत्य की तलाश करने और उसका अनुसरण करने में डटे रहोगे। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखना यूँ ही छोड़ सकते हो और उद्धार के मार्ग का त्याग कर सकते हो तो यह सही मायने में सत्य से प्रेम करना नहीं है। जहाँ तक उन लोगों का प्रश्न है जो सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं लेकिन हार भी नहीं मानते हैं, उनकी दृढ़ता का सिर्फ एक ही कारण है : वे सोचते हैं कि जब तक एक अच्छे परिणाम और गंतव्य की, एक अच्छे भविष्य की आशा की किरण मौजूद है तब तक यह दाँव लगाने योग्य है और उन्हें अंत तक दृढ़ रहना चाहिए। वे मानते हैं कि यह दृढ़ता जरूरी है; संयोग से ऐसा है कि आपदाएँ बढ़ रही हैं और जाने के लिए कोई और जगह नहीं है इसलिए क्यों ना वे यहीं प्रयास करना जारी रखें और अपनी किस्मत आजमाएँ। क्या ऐसे लोगों के दिलों में सत्य के लिए रत्ती भर भी प्रेम है? (नहीं।) उनमें नहीं है। जब वे पहली बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते हैं तो ये लोग दुनिया से नफरत करने, शैतान से नफरत करने, नकारात्मक चीजों से नफरत करने, सकारात्मक चीजों से प्रेम करने और प्रकाश के लिए तरसने की बात भी करते हैं। लेकिन परमेश्वर के घर में, कलीसिया में कदम रखने पर उनका व्यवहार कैसा होता है? जब उन्हें पता चलता है कि वे श्रमिक हैं, जब उन्हें एहसास होता है कि उनके क्रियाकलाप, व्यवहार और प्रकृति परमेश्वर को नाखुश करते हैं तो उनका रवैया क्या होता है? वे किस तरह के व्यवहार प्रदर्शित करते हैं? यह कहा जा सकता है कि जब उन्हें आभास होता है, वे महसूस करते हैं या सोचते हैं कि परमेश्वर के घर में अब वे कृपापात्र नहीं हैं, वे निकाल दिए जाने वाले हैं तो कुछ लोग चले जाने का फैसला लेते हैं। वैसे तो दूसरे लोग अनिच्छा से कलीसिया में रहते ह लेकिन वे मायूसी में डूब जाते हैं और अंत में वहाँ से चले जाने पर मजबूर हो जाते हैं। ऐसे लोग सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करते हैं; जब आशीषों की उनकी इच्छा चूर-चूर हो जाती है तो वे परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हैं और उससे मुँह फेर सकते हैं। ये विभिन्न अभिव्यक्तियाँ सत्य के प्रति विभिन्न लोगों के रवैये दर्शाती हैं।

IV. इन तीन प्रकार के लोगों के अलग-अलग परिणाम

अभी-अभी हमने तीन प्रकार के लोगों की विशेषताओं के बारे में संगति की : श्रमिक, भाड़े के कार्यकर्ता और परमेश्वर के लोग। उनकी विशेषताओं से यह स्पष्ट है कि उनके अंतिम परिणाम वस्तुनिष्ठ परिवेशों या परिस्थितियों से नहीं बल्कि उनके अपने अनुसरणों और उनके प्रकृति सार से निर्धारित होते हैं। यकीनन वस्तुनिष्ठ रूप से कहा जाए तो परमेश्वर ही लोगों की किस्मतें निर्धारित करता है लेकिन परमेश्वर ये निर्धारण इस आधार पर करता है कि क्या लोग सत्य से प्रेम करते हैं और क्या वे सत्य स्वीकारने में समर्थ हैं। श्रमिक भी सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करने का दावा करते हैं लेकिन अंत में जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा तो परमेश्वर के बारे में उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ, परमेश्वर से उनकी अनुचित माँगें और परमेश्वर के साथ उनका विश्वासघात पहले जैसा ही बना रहेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के कार्य की अवधि के दौरान, परमेश्वर का अनुसरण करने और अपने कर्तव्य करने की प्रक्रिया में उन्होंने कभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव हल नहीं किए होंगे। उनके द्वारा अपने भ्रष्ट स्वभाव नहीं सुलझाने का मूल कारण यह है कि वे मूल रूप से सत्य स्वीकार नहीं करते हैं। वैसे तो उनमें परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की इच्छा है लेकिन वे सही मायने में जो अभिव्यक्त करते हैं वह सिर्फ त्याग करने की क्षमता और कीमत चुकाने की इच्छा भर है, वे कभी भी सत्य सिद्धांतों या परमेश्वर के प्रति समर्पण के तरीके की तलाश नहीं करते हैं। अंतिम परिणाम यह है कि अत्यधिक प्रयास करने के बावजूद उन्हें परमेश्वर का रत्ती भर भी ज्ञान नहीं है। वे अब भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने और दूसरे लोगों और शैतान के सामने उसके बारे में अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ और उससे अपनी अनुचित माँगें व्यक्त करने में सक्षम हैं। जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाता है तब भी वे खुद को “अच्छी मानवता वाले, परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखने वाले, त्याग करने और कष्ट सहने में समर्थ और यकीनन बचाए जाने में समर्थ” ही मानते हैं और वे इससे शांति महसूस करते हैं। वास्तव में वे हमेशा एक श्रमिक के मार्ग पर चले हैं, उन्होंने सत्य का अनुसरण कभी नहीं किया है; इस प्रकार वे हमेशा एक श्रमिक की पहचान बनाए रखते हैं। जहाँ तक लोगों की दूसरी श्रेणी, भाड़े के कार्यकर्ताओं का प्रश्न है, हम उन पर चर्चा नहीं करेंगे। एक और श्रेणी परमेश्वर के लोग हैं जिनका हमने अभी-अभी जिक्र किया। परमेश्वर का अनुसरण करने के दौरान वे श्रमिकों की तरह ही उसके लिए खुद को खपाते हैं, अपना समय और ऊर्जा और यहाँ तक कि अपनी जवानी भी समर्पित कर देते हैं और अत्यधिक कष्ट सहते हैं और अत्यधिक कीमत चुकाते हैं। यह श्रमिकों के समान ही है। तो फिर अलग क्या है? अलग यह है कि जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा तो उनकी बहुत सारी धारणाएँ, कल्पनाएँ और परमेश्वर से अनुचित माँगें सुलझ चुकी होंगी। उनके भ्रष्ट स्वभावों में परमेश्वर का स्पष्ट रूप से प्रतिरोध करने वाली भ्रष्टता की अभिव्यक्तियाँ, स्थितियाँ और खुलासे छोड़े जा चुके होंगे। जो अभी तक हल नहीं हुए हैं वे तब विलीन हो जाएँगे जब वे अनुभव के माध्यम से धीरे-धीरे सत्य समझने लगेंगे। वैसे तो उनके भ्रष्ट स्वभाव पूरी तरह से छोड़े नहीं गए होंगे लेकिन उनके जीवन स्वभावों में कुछ बदलाव आ चुके होंगे। ज्यादातर समय वे उन सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने में समर्थ होंगे जिन्हें वे समझते हैं और उनके भ्रष्ट स्वभावों के खुलासे काफी कम हो चुके होंगे। वैसे तो ऐसा नहीं है कि वे किसी भी परिवेश में उन्हें प्रकट नहीं करेंगे लेकिन ये लोग एक मूलभूत अपेक्षा पूरी कर चुके होंगे : वे परमेश्वर की यह अपेक्षा पूरी कर चुके होंगे कि वे ईमानदार रहेंगे; वे मूल रूप से ईमानदार लोग होंगे। इसके अलावा जब ये लोग भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करेंगे या अपराध करेंगे या मन में परमेश्वर के खिलाफ धारणाएँ और विद्रोह रखेंगे तो चाहे वे किसी भी परिवेश में ऐसा क्यों ना करें, उनमें पश्चात्ताप करने वाला रवैया होगा। और एक और बिंदु है जो सबसे महत्वपूर्ण है : परमेश्वर जो भी विशिष्ट क्रियाकलाप करता है और अंत के दिनों के न्याय के कार्य में जैसे भी कार्य करता है, भविष्य में जो भी करने का इरादा रखता है, मानवजाति की किस्मत की व्यवस्था जैसे भी करेगा, और वे खुद उसके द्वारा व्यवस्थित परिवेश में जैसे भी रहेंगे, उन सभी के पास एक विनम्र दिल और समर्पण का रवैया होगा जो व्यक्तिगत पसंदों और व्यक्तिगत योजनाओं और मंसूबों से मुक्त होगा। इन विभिन्न सक्रिय और सकारात्मक अभिव्यक्तियों के कारण वे पहले से ही उस प्रकार का व्यक्ति बन चुके होंगे जिसकी परमेश्वर को अपेक्षा है, ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर के मार्ग पर चलता है जो कि उसका भय मानना और बुराई से दूर रहना है। वैसे तो वे अब भी परमेश्वर के बताए गए सच्चे मानक—“परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना, और एक पूर्ण मनुष्य होना”—से दूर होंगे, जब उनका परमेश्वर के परीक्षणों से सामना होगा तो वे तलाश और समर्पण करने में समर्थ होंगे जो पर्याप्त है। उन्हें कोई शिकायत नहीं होगी; वे सिर्फ प्रतीक्षा और समर्पण करेंगे। वैसे तो तुम लोगों की वर्तमान परिस्थितियाँ अब भी ऐसे परिणाम से कोसों दूर हो सकती हैं और कुछ लोगों के लिए यह बहुत ही दूर और अप्राप्य लग सकती हैं लेकिन अगर तुम सत्य स्वीकार सकते हो और परमेश्वर के वचनों को अपने सिद्धांत और अस्तित्व के लिए आधार मान सकते हो तो विश्वास करो कि एक दिन तुम या तुम सभी लोग परमेश्वर के ऐसे सच्चे लोग बनने से दूर नहीं होगे जिनसे वह प्रेम करता है—विश्वास करो कि वह दिन दिखाई दे रहा है। चाहे वर्तमान में इसकी भविष्यवाणी की गई हो या यह दिखाई दे रहा हो, जो भी हो, अंतिम परिणाम एक फंतासी नहीं है बल्कि एक सच्चाई है जो साकार और पूरा होने ही वाला है। वास्तव में यह सच्चाई किसमें पूरी होगी, यह किन लोगों में पूरी होगी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण कैसे करते हो। दूसरे शब्दों में, क्या तुम सही मायने में सत्य से इस हद तक प्रेम करते हो कि तुम उसका अनुसरण और अभ्यास कर सकते हो या तुममें सत्य के लिए सिर्फ थोड़ा-सा ही प्रेम है और तुम इसे पूरी तरह से स्वीकार और इसका पूरी तरह से अभ्यास नहीं कर सकते हो, अंतिम परिणाम तुम्हें उत्तर प्रदान करेगा। ठीक है, हम इस विषय पर अपनी संगति यहीं समाप्त करेंगे।

विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने के लिए मानक और आधार

II. व्यक्ति की मानवता के आधार पर

इसके बाद, हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी के बारे में संगति करना जारी रखते हैं : “सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो।” सभी प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने के मानकों को तीन मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया गया है। इससे पहले हम व्यक्ति के परमेश्वर में विश्वास रखने के उद्देश्य के बारे में संगति कर चुके हैं, और फिर आगे उसकी मानवता पर संगति की। व्यक्ति की मानवता के संबंध में हमने कई अलग-अलग अभिव्यक्तियों को भी श्रेणीबद्ध किया है। वे विभिन्न अभिव्यक्तियाँ कौन-सी हैं जिनके बारे में हम पहले ही संगति कर चुके हैं? उन्हें पढ़ो। (सभी प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने की दूसरी मद व्यक्ति की मानवता से संबंधित है। 1. तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करना; 2. लाभ उठाना पसंद करना; 3. स्वच्छंद और असंयमित होना; 4. प्रतिशोध की तरफ झुकाव होना; 5. अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा पाना।) हमने पाँचवें बिंदु—अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा पाने—तक संगति की है। हम चाहे मानवता की विशिष्ट अभिव्यक्तियों के बारे में संगति कर रहे हों या दूसरी चीजों की विशिष्ट अभिव्यक्तियों के बारे में, जैसा कि मैंने कहा है, इसका अलग-अलग प्रकार के लोगों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ेगा। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे इसे सुनने के बाद अपनी जाँच करने पर ध्यान केंद्रित करेंगे; वे मेरी संगति की कसौटी पर खुद को मापेंगे और उनका प्रवेश सक्रिय और सकारात्मक होगा। लेकिन, जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, जैसे कि श्रमिक, वे सिर्फ सुनेंगे और कुछ नहीं करेंगे। वे इसे दिल पर नहीं लेते हैं या सुनने में अपना दिल नहीं लगाते हैं। कभी-कभी धर्मोपदेश सुनते-सुनते उनकी आँख भी लग सकती है। वे इसे आत्मसात नहीं कर पाते हैं और यहाँ तक सोचते हैं, “इन तुच्छ मामलों को सुनने का क्या फायदा है? यह समय की बर्बादी है—मैंने अभी तक अपना कार्य भी पूरा नहीं किया है!” वे हमेशा उन कार्यों के बारे में चिंतित रहते हैं जिनमें मेहनत लगती है। वे मेहनत करने के लिए विशेष रूप से उत्साही और समर्पित होते हैं, निष्ठा दिखाते हैं, लेकिन वे सत्य से जुड़े मामलों के लिए ऊर्जा जुटा ही नहीं पाते हैं। इससे यह स्पष्ट रूप से प्रकट होता है कि ऐसे लोगों को सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं होती है; वे सिर्फ कड़ी मेहनत करके संतुष्ट रहते हैं। एक समूह उन लोगों का और है जो यही रवैया रखते हैं, चाहे परमेश्वर का घर सत्य की संगति कैसे भी करे : “मैं बस प्रतिरोधी और विरोधी हूँ। अगर तुम मेरी समस्याओं की तरफ इशारा भी करो और मेरी अभिव्यक्तियों, खुलासों और स्वभावों को उजागर भी करो, तो भी मैं ध्यान नहीं दूँगा या इसे गंभीरता से नहीं लूँगा। तो क्या हुआ अगर दूसरों को पता चल गया कि मुझे उजागर किया जा रहा है?” वे बस बेशर्मी से अवज्ञा और विरोध करना जारी रखते हैं, जो कि सुधार योग्य नहीं है। चाहे जो भी हो, विभिन्न प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियाँ अलग से पहचानी जा सकती हैं। सत्य—चाहे उनके लिए जो इसका अनुसरण करते हैं, या जो कड़ी मेहनत करने के इच्छुक हैं लेकिन सत्य पसंद नहीं करते हैं, या फिर उनके लिए जिन्हें सत्य से घिन आती है और जो इससे विमुख होते हैं—एक दोधारी तलवार, एक कसौटी की तरह कार्य करता है। यह सत्य के प्रति लोगों के रवैयों को और उस मार्ग को भी माप सकता है जिस पर वे चल रहे हैं।

च. अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला होना, जिन्हें कोई भी भड़काने की हिम्मत नहीं करता है

इससे पहले हमने विभिन्न बुरे लोगों की पाँच अभिव्यक्तियाँ पहचानने पर संगति की थी। आज हम छठी अभिव्यक्ति पर संगति करना जारी रखते हैं। छठी अभिव्यक्ति भी एक प्रकार के बुरे व्यक्ति की अभिव्यक्ति है, या यूँ कहें कि भले ही लोग इस प्रकार को बुरा नहीं मानते हों, फिर भी हर कोई उन्हें नापसंद ही करता है। ऐसा क्यों है? वह इसलिए है क्योंकि इन लोगों में जमीर और विवेक की कमी होती है, सामान्य मानवता की कमी होती है और उनके साथ बातचीत विशेष रूप से परेशान करने वाली और कठिन होती है, जो घिन उत्पन्न करती है। इन लोगों की विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? यह अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला होना है, जिन्हें कोई भी भड़काने की हिम्मत नहीं करता है। क्या कलीसिया में ऐसे लोग हैं? बहुत सारे तो नहीं, लेकिन यकीनन हैं। और उनकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? सामान्य हालातों में, ये लोग अपने कर्तव्य सामान्य रूप से कर सकते हैं और दूसरों के साथ काफी सामान्य रूप से बातचीत कर सकते हैं; तुम्हें उनमें कोई शातिर स्वभाव दिखाई नहीं देगा। लेकिन जब उनके कार्य सत्य सिद्धांतों के खिलाफ जाते हैं और उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे आग बबूला हो जाते हैं, सत्य पूरी तरह से अस्वीकार कर देते हैं और अपने लिए बेतुके बहाने बनाते हैं। अचानक तुम्हें एहसास होता है कि वे काँटेदार सेई की तरह, एक बाघ की तरह हैं जिसे छुआ नहीं जा सकता है। तुम सोचते हो, “मैं इस व्यक्ति से बहुत समय से बातचीत करता आया हूँ, मैं यही सोचता रहा कि वह अच्छी मानवता वाला है, समझदार है, और उससे बात करना आसान है, मैं यही मानता रहा कि वह सत्य स्वीकार कर सकता है। मैंने यह उम्मीद नहीं की कि वह कोई अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला व्यक्ति होगा। भविष्य में उससे बातचीत करते समय मुझे ज्यादा सावधान रहना चाहिए, जब तक जरूरी ना हो तब तक कम-से-कम संपर्क रखना चाहिए और उसे भड़काने से बचने के लिए मुझे दूरी बनाए रखनी चाहिए।” क्या तुम लोगों ने ऐसे लोग देखे हैं जो अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाले होते हैं? आम तौर पर जो लोग उन्हें समझते हैं उन्हें पता होता है कि वे कितने डरावने हैं और उनसे विशेष विनम्रता और सावधानी से बात करते हैं। विशेष रूप से, जब तुम उनसे बात करते हो तो तुम उन्हें बिल्कुल भी ठेस नहीं पहुँचा सकते, नहीं तो इससे तुम्हें उनके साथ अंतहीन परेशानी होगी। कुछ लोग कहते हैं, “ये असभ्य लोग आखिर हैं कौन? हम अभी तक उनसे नहीं मिले हैं।” ऐसे में, हमें वाकई इस बारे में बात करने की जरूरत है। मिसाल के तौर पर, भाई-बहनों के अपने अनुभवों के बारे में संगति करते समय जब कुछ लोग अपनी भ्रष्ट स्थितियों या व्यक्तिगत कठिनाइयों का जिक्र करते हैं, तो यह अवश्यंभावी है कि दूसरे लोग सहानुभूति व्यक्त करेंगे, क्योंकि उन्हें भी मिलते-जुलते अनुभव या एहसास हो चुके होते हैं। यह बिलकुल सामान्य है। सुनने के बाद कोई ऐसा सोच सकता है, “मुझे भी ऐसे अनुभव हो चुके हैं इसलिए आओ, हम सब मिलकर इस विषय पर संगति करें। मैं सुनना चाहता हूँ कि तुम इस अनुभव से कैसे गुजरे हो। अगर तुम्हारी संगति में प्रकाश है, और यह मेरे किसी मुद्दे से संबंधित है, तो मैं इसे स्वीकार करूँगा और तुम्हारे अनुभवों और मार्ग के अनुसार अभ्यास करूँगा, और देखूँगा कि क्या परिणाम होता है।” ऐसा सिर्फ एक ही प्रकार का व्यक्ति है जो खुद को जानने और अपनी भ्रष्टता और बदसूरती को बेनकाब करने के बारे में दूसरों को संगति करते हुए सुनकर यह मानता है कि यह अप्रत्यक्ष रूप से उसे उजागर करना और उसके बारे में राय बनाना है, और वह जोर से अपने हाथ मेज पर पटकने और आग बबूला होने से खुद को रोक नहीं पाता है : “भ्रष्टता किसमें नहीं होती है? कौन शून्य में जीता है? मेरी नजर में, तुम लोगों की भ्रष्टता मुझसे भी बदतर है! मुझे निशाना बनाने, मुझे उजागर करने के लिए तुम लोगों में क्या योग्यता है? मेरी नजर में तुम लोग बस मेरे लिए चीजें कठिन बनाना चाहते हो, मुझे बाहर करना चाहते हो! क्या सिर्फ इसलिए नहीं कि मैं देहात से हूँ और तुम सभी की चापलूसी करने के लिए सुखद शब्द नहीं बोल पाता? क्या इसका कारण यह नहीं है कि मैं तुम लोगों जैसा उच्च शिक्षित नहीं हूँ? परमेश्वर भी मुझे नीची नजर से नहीं देखता है तो तुम्हें मुझे नीची नजर से देखने का अधिकार किससे मिला!” दूसरे लोग कहते हैं, “यह सामान्य संगति है, तुम्हें निशाना नहीं बनाया जा रहा है। क्या सभी के भ्रष्ट स्वभाव एक जैसे नहीं हैं? जब कोई किसी विषय पर संगति कर रहा होता है और अपनी भ्रष्ट स्थिति का जिक्र करता है, तो यह अवश्यंभावी है कि दूसरे लोग भी खुद को ऐसी ही स्थिति में पाएँगे। अगर तुम्हें लगता है कि तुम भी ऐसी ही स्थिति में हो, तो तुम भी अपने अनुभवों के बारे में संगति कर सकते हो।” जवाब में वह कहता है, “अच्छा, ऐसी बात है? मैं एक व्यक्ति से ऐसी संगति बर्दाश्त कर सकता हूँ, लेकिन तुम दो-तीन लोग मुझे डराने-धमकाने के लिए गुट क्यों बना रहे हो? क्या तुम्हें लगता है कि मुझ पर धौंस जमाना आसान है?” क्या वह जितना ज्यादा बोल रहा है, उसके शब्द उतने ही अपमानजनक नहीं होते जा रहे हैं? (हाँ।) क्या ऐसे लोगों के पास ये शब्द कहने का कोई कारण है? (नहीं।) अगर तुम सही मायने में सोचते हो कि दूसरों की संगति के विषय का निशाना तुम हो तो तुम इस विषय पर चर्चा या संगति कर सकते हो; इसमें एक किसान के रूप में अपनी पृष्ठभूमि, अपनी कम शिक्षा या लोगों का तुम्हें नीची नजर से देखने की बात को घसीटने के बजाय सीधे पूछ लो कि क्या इसका निशाना तुम हो। ऐसी बातें कहने का क्या फायदा है? क्या यह सही और गलत के बारे में बकवास करना नहीं है? क्या यह अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला होना नहीं है? (हाँ, है।) क्या तुम्हें नहीं लगता है कि ऐसे लोग भयावह होते हैं? (हाँ।) जब वह ऐसा तमाशा करता है तो उसके बाद सबको यह पता चल जाता है कि वह किस तरह का व्यक्ति है और भविष्य में होने वाली सभाओं में संगति करते समय उन्हें हमेशा ध्यान से बोलना पड़ता है और उसके भावों को पढ़ना पड़ता है। अगर उसका चेहरा उदास हो जाता है तो दूसरे लोग बोलने में हिचकिचाने लगते हैं और सभाओं में संगति के दौरान हर व्यक्ति घुटन महसूस करता है। क्या यह बेबसी और बाधा उसके अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला व्यक्ति होने के कारण नहीं आई है? (हाँ।) अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाले सभी लोग तर्क से परे होते हैं; ऐसे व्यक्ति सत्य स्वीकार नहीं करेंगे और संभवतः बचाए नहीं जा सकते हैं।

इस प्रकार का व्यक्ति जो अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला होता है, उसकी एक और अभिव्यक्ति होती है। सभाओं के दौरान कुछ लोग हमेशा कहते हैं, “मैं अब लापरवाही से कार्य नहीं कर सकता। मुझे सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है; मुझे पूर्णता का अनुसरण करने की जरूरत है। मैं श्रेष्ठ होने के लिए स्वाभाविक रूप से प्रयास करता हूँ। मैं जो भी करूँ, मुझे उसे अच्छी तरह से करना चाहिए।” वे बेहद आत्मविश्वास के साथ बात करते हैं लेकिन वास्तव में, अपना कर्तव्य करते समय वे लापरवाही से ही कार्य करते हैं और वे जो कर्तव्य करते हैं उसमें कई समस्याएँ होती हैं, और उससे परमेश्वर की गवाही देने का प्रभाव प्राप्त नहीं होता है। जब अगुआ उनके कर्तव्य निर्वहन में समस्याओं पर ध्यान दिलाते हैं और उनकी काट-छाँट करते हैं, तो उन्हें तुरंत गुस्सा आ जाता है, वे कहते हैं, “मुझे पता था। तुम सब लोग मेरी पीठ पीछे मेरे बारे में राय बनाते हो, कहते हो कि मेरे पेशेवर कौशल खराब हैं। क्या बात बस यही नहीं है कि तुम सभी मुझे हेय दृष्टि से देखते हो? यह सिर्फ एक छोटी-सी गलती थी, बस। क्या इस तरह से मेरी काट-छाँट करनी जरूरी है? इसके अलावा, गलतियाँ कौन नहीं करता है? यह कहना कि मैं लापरवाही से कार्य करता हूँ—क्या तुम भी पहले अपने कार्य में लापरवाह नहीं हुआ करते थे? क्या तुम मेरी आलोचना करने के योग्य हो? मेरे सहयोग के बिना, तुम लोगों में से कौन इस कार्य की जिम्मेदारी ले सकता है?” तुम ऐसे लोगों के बारे में क्या सोचते हो? वे जो कुछ भी करते हैं उसमें वे दूसरों को उनकी खामियों पर ध्यान दिलाने या सुझाव देने की अनुमति नहीं देते हैं; यहाँ तक कि वे जायज काट-छाँट करना भी स्वीकार नहीं करते हैं। जो भी आवाज उठाता है, वे उसका सामना करते हैं और उसका विरोध करते हैं, अनुचित शब्द बोलते हैं, यहाँ तक कि यह भी कहते हैं कि उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है, या अकेले और बेबस होने के कारण उन्हें डराया-धमकाया जाता है, या ऐसी ही दूसरी बातें कहते हैं। क्या यह बेलगाम, अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला होना नहीं है? यहाँ तक कि ऐसे भी कुछ लोग हैं जो काट-छाँट किए जाने के बाद अपना कर्तव्य छोड़ देते हैं : “मैं अब यह कार्य नहीं करूँगा। अगर तुम लोग इसे कर सकते हो तो जरूर करो। फिर मैं देखूँगा कि क्या तब भी तुम लोग मेरे बिना कार्य जारी रख पाते हो!” भाई-बहन उन्हें मनाने का प्रयास करते हैं लेकिन वे नहीं सुनते हैं। यहाँ तक कि जब अगुआ और कार्यकर्ता उनके साथ सत्य पर संगति करते हैं, तो वे स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं; वे रोब जमाने लगते हैं और अपना कर्तव्य छोड़ देते हैं। सभाओं के दौरान वे रूठे रहते हैं, ना तो परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और ना ही संगति करते हैं, हमेशा सबसे बाद में आते हैं और सबसे पहले चले जाते हैं। जाते समय वे अपने पैर पटकते हैं और जोर से दरवाजा बंद करते हैं, और ज्यादातर लोगों की समझ में नहीं आता है कि उनसे कैसे निपटा जाए। जब ऐसे लोगों के साथ कुछ होता है तो वे बेतुकी दलीलें देते हैं और बकवास करते हैं; वे बेकाबू हो जाते हैं और यहाँ तक कि चीजें फेंकने लग जाते हैं, तर्क का उन पर कोई असर नहीं होता। कुछ लोगों में तो और गंभीर अभिव्यक्तियाँ होती हैं : अगर भाई-बहन उनका अभिवादन नहीं करते तो वे नाराज हो जाते हैं और सभाओं के दौरान विलाप करने का मौका ढूँढते रहते हैं : “मुझे पता है कि तुम सभी मुझे हेय दृष्टि से देखते हो। सभाओं के दौरान तुम सब लोग सिर्फ परमेश्वर के वचनों की संगति करने और अपनी ही अनुभवजन्य समझों पर चर्चा करने पर ध्यान केंद्रित करते हो। कोई मेरी परवाह नहीं करता है, कोई मुझे देखकर मुस्कुराता नहीं है और जब मैं जाने लगता हूँ तो कोई मुझे विदा नहीं करता है। तुम किस तरह के विश्वासी हो? तुम लोगों में सही मायने में मानवता की कमी है!” वे कलीसिया में इस तरह के नखरे दिखाते हैं। वे मामूली बातों पर भी भड़क जाते हैं, अपनी सारी भड़ास निकाल लेते हैं। स्पष्ट रूप से, वे अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हैं, लेकिन वे ना तो आत्म-चिंतन करते हैं और ना ही खुद को जानते हैं और उनमें बदलाव या सत्य का अनुसरण करने की कोई इच्छा नहीं होती है। इसके बजाय, वे दूसरों में परेशानी तलाशते हैं, अपनी मानसिकता को संतुलित करने के लिए विभिन्न बहाने ढूँढते हैं—और ऐसा करते समय वे अपनी भड़ास निकालने के अवसर तलाशते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि उनका लक्ष्य ज्यादा लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचने और उन्हें डराने का होता है, ताकि लोगों के बीच वे कुछ हद तक प्रतिष्ठा और ध्यान हासिल कर सकें। इस तरह के लोग बहुत ही परेशान करने वाले होते हैं! वे जो भी कहते हैं, उस पर कोई भी “नहीं” कहने की हिम्मत नहीं करता है; कोई भी उनका हल्के में मूल्यांकन करने की हिम्मत नहीं करता है; और कोई भी उनसे खुलकर बात करने और उनके साथ संगति करने की हिम्मत नहीं करता है। अगर उनमें कुछ खामियाँ और भ्रष्ट स्वभाव दिखाई दे भी जाएँ तो भी कोई भी उन पर ध्यान दिलाने की हिम्मत नहीं करता है। सभाओं के दौरान जब सभी अपने व्यक्तिगत अनुभवों और परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ के बारे में संगति करते हैं तो वे चतुराई से “बर्र के छत्ते” यानी इस व्यक्ति से बचते फिरते हैं, उसे भड़काने और परेशानी पैदा करने से डरते हैं। कुछ लोग यह महसूस करने के बाद कि उनके साथ बुरा व्यवहार किया गया है या घर में या कार्यस्थल पर नाराजगियों का सामना करने के बाद सभाओ के दौरान अपनी भड़ास निकालते हैं। स्पष्ट रूप से, वे भाई-बहनों को अपनी भड़ास निकालने का निकास द्वार और पंचिंग बैग बना रहे हैं। जब वे परेशान होते हैं तो बेतुकी दलीलें देते हैं, रोने लगते हैं और नखरे दिखाते हैं। फिर उनके साथ सत्य पर संगति करने की हिम्मत कौन करेगा? अगर उनके साथ संगति की जाए और कोई शब्द उनकी किसी दुखती रग को छेड़ दे तो वे आत्महत्या करने की धमकी देंगे। यह तो और भी ज्यादा परेशानी वाली बात होगी। ऐसे लोगों के साथ सामान्य संगति नहीं चलेगी; सामान्य बातचीत नहीं चलेगी; बहुत ज्यादा गर्मजोशी वाला या बहुत ज्यादा ठंडा व्यवहार दोनों ही नहीं चलेंगे; उनसे बचना नहीं चलेगा; बहुत ज्यादा पास जाना नहीं चलेगा; और अगर भाई-बहन उनकी खुशी से मेल खाने वाली खुशी व्यक्त नहीं करते हैं तो यह नहीं चलेगा; और जब इन लोगों का किसी कठिनाई से सामना होता है तो अगर भाई-बहन उनकी पीड़ा से मेल खाने वाली पीड़ा व्यक्ति नहीं कर पाते है तो वह भी नहीं चलेगा। उनके साथ कुछ भी काम नहीं करता है। जो कुछ भी किया जाता है वह उन्हें चिढ़ा सकता है और उन्हें भड़का सकता है। उनके साथ चाहे कैसा भी व्यवहार किया जाए, वे कभी संतुष्ट नहीं होते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोगों की स्थितियों के बारे में मेरे धर्मोपदेश और संगति भी उन्हें भड़का सकती है। यह उन्हें कैसे भड़काती है? वे सोचते हैं, “क्या यह मुझे उजागर नहीं कर रहा है? तुमने मुझसे बातचीत भी नहीं की है और मैंने इस बारे में तुम्हें कुछ नहीं बताया है कि मैंने गुप्त रूप से क्या किया है। तुम्हें कैसे पता चल सकता है? जरूर किसी ने चुगली की होगी। मुझे यह पता लगाना होगा कि कौन तुम्हारे संपर्क में रहा है, किसने चुगली की है, किसने मेरी रिपोर्ट की है; मैं इसे यूँ ही जाने नहीं दूँगा!” इस प्रकार का व्यक्ति जो अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला होता है, उसके मन में किसी भी चीज के बारे में विकृत विचार हो सकते हैं और वह किसी भी चीज को सही तरीके से संभाल नहीं पाता है। वह सूझ-बूझ से परे होता है! तार्किकता उससे बिल्कुल परे होती है और सत्य तो वह बिल्कुल भी स्वीकार नहीं कर पाता है। कलीसिया में बने रहना उसके लिए फायदेमंद नहीं, बल्कि नुकसानदायक होता है। वह बस एक रुकावट है, एक ऐसा बोझ है जिससे तेजी से छुटकारा पा लेना चाहिए; उसे तुरंत दूर कर दिया जाना चाहिए!

चीन में, परमेश्वर में विश्वास रखने का परिणाम होता है बड़े लाल अजगर द्वारा उत्पीड़ित किया जाना और सताया जाना, और ऐसे बहुत से लोग हैं जिनका पीछा किया जाता है और वे घर नहीं जा पाते हैं। लेकिन कुछ लोग सताए जाने और घर लौटने में असमर्थ होने पर यह मानते हैं कि उन्होंने श्रेष्ठता या योग्यता अर्जित कर ली है। वे मेजबान परिवारों के साथ रहते हैं और लोगों से सिर्फ सेवा ही नहीं करवाते हैं—अगर कुछ भी जरा-सा भी उनकी इच्छा के खिलाफ होता है या उन्हें घर की याद आने लगती है तो वे हंगामा करना शुरू कर देते हैं, और दूसरों को उन्हें मनाना और बर्दाश्त करना पड़ता है। क्या ऐसे लोग अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाले नहीं हैं? बहुत सारे लोग सताए जाते हैं और मेजबान परिवार बहुत सारे नहीं हैं। भाई-बहन प्रेम के कारण उन लोगों की मेजबानी करते हैं जो घर वापस नहीं लौट पाते हैं। वे उन्हें सड़कों पर भटकने नहीं देते हैं और उन्हें अपने घरों में रहने देते हैं। क्या यह परमेश्वर का अनुग्रह नहीं है? फिर भी, कुछ लोग ना सिर्फ परमेश्वर के अनुग्रह की सराहना करने में विफल रहते हैं बल्कि भाई-बहनों का प्रेम देख पाने में भी विफल रहते हैं। वे दुखी हो जाते हैं और यहाँ तक कि शिकायत भी करते हैं और बेकाबू हो जाते हैं। भाई-बहनों के घरों में जीवनयापन की स्थितियाँ वास्तव में उसके अपने घर की तुलना में कुछ हद तक बेहतर होती है। विशेष रूप से परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य करने के लिहाज से, भाई-बहनों के घरों में रहना अपने खुद के घर में रहने से भी बेहतर होता है, और भाई-बहनों के साथ मिलजुलकर सहयोग करना हमेशा अकेले रहने से कहीं बेहतर होता है। भले ही कुछ क्षेत्रों में जीवनयापन की स्थितियों में थोड़ी कमी हो, फिर भी वे औसत जीवन स्तर के बराबर होती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे भाई-बहनों के साथ रहने में, अक्सर इकट्ठा होने और परमेश्वर के वचन खाने-पीने में, ज्यादा सत्य समझने में और यह जानने में समर्थ होते हैं कि उनके अनुसरण के लक्ष्य क्या हैं। इसलिए जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे उस कीमत को चुकाने और उस कष्ट को सहने में समर्थ होते हैं। ज्यादातर लोग इसके प्रति सही रवैया रखते हैं; वे इसे परमेश्वर से स्वीकार करने में समर्थ होते हैं, यह जानते हैं कि वह कष्ट सार्थक है और इसे उन्हें सहना है। वे इसे सही तरीके से देख पाते हैं। लेकिन कुछ अविवेकी, जानबूझकर परेशान करने वाले लोग जो बेकाबू हैं, वे बस चीजों को इस तरह से समझ ही नहीं पाते हैं। वे एक सप्ताह तक घर नहीं लौट पाना बड़ी मुश्किल से बर्दाश्त कर पाते हैं, लेकिन दो सप्ताह बाद वे तुनकमिजाज हो जाते हैं और एक या दो महीने पूरे होते-होते वे बेकाबू हो जाते हैं, कहते हैं, “ऐसा क्यों है कि तुम लोगों का परिवार खुशी से इकट्ठे रह सकता है और मैं अपने घर नहीं लौट सकता? मेरे पास आजादी क्यों नहीं है, जबकि तुम सभी अपनी मर्जी से आ-जा सकते हो?” दूसरे लोग जवाब देते हैं : “क्या यह बड़े लाल अजगर द्वारा सताए जाने के कारण नहीं है? क्या यही सही नहीं है कि हम परमेश्वर के अनुयायियों के रूप में इस तरह के कष्ट सहें? इस जरा-से कष्ट में क्या बड़ी बात है? इन परिस्थितियों को देखते हुए, इसमें नखरेबाज होने का क्या है? अगर दूसरे लोग यह कष्ट सहन कर सकते हैं तो तुम क्यों नहीं कर सकते?” अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाले लोग बिल्कुल भी कष्ट नहीं सहना चाहते हैं। अगर उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया जाए तो वे निश्चित रूप से यहूदा बन जाएँगे। एक मेजबान परिवार के साथ रहने में आखिर कितना कष्ट होता है? पहली बात, वह भोजन भी मानव का ही भोजन है; दूसरी बात, कोई भी जानबूझकर तुम्हारे लिए मुश्किलें खड़ी नहीं करता है; और तीसरी बात, कोई भी तुम्हें डराता-धमकाता नहीं है। बात बस इतनी है कि तुम अपने घर नहीं जा सकते और अपने परिवार के साथ नहीं रह सकते—और यह थोड़ा-सा कष्ट अविवेकी, जानबूझकर परेशान करने वाले लोगों को बिल्कुल अस्वीकार्य है। जब दूसरे लोग उनके साथ सत्य पर संगति करते हैं तो वे इसे स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं, लेकिन ऐसी बातें कहते हैं, “मुझे उन महान धर्म-सिद्धांतों के बारे में उपदेश मत दो। मैं तुमसे कम नहीं समझता; मुझे यह सब कुछ मालूम है! बस मुझे बताओ कि मैं घर कब जा सकता हूँ? बड़ा लाल अजगर मेरे घर की निगरानी करना कब बंद करेगा? मैं बड़े लाल अजगर द्वारा गिरफ्तार किए बगैर कब घर जा पाऊँगा? अगर मुझे यह नहीं पता है कि मैं कब घर जा सकता हूँ, तो क्यों ना मैं मर ही जाऊँ!” वे फिर से तमाशा करते हैं और ऐसा करते-करते वे जमीन पर बैठ जाते हैं, अपने पैरों को पटकते हैं हैं—और जितना ज्यादा वे अपने पैरों को पटकते हैं, उतना ही अधिक क्रोधित होते जाते हैं, और उनका अनियंत्रित गुस्सा भी फूट पड़ता है, जिसके साथ ही उनका रोना-पीटना भी शुरू हो जाता है। दूसरे लोग कहते हैं, “अपनी आवाज नीची रखो। अगर तुम ऐसा ही करते रहे और पड़ोसियों ने सुन लिया, उन्हें यह पता चल गया कि यहाँ बाहर के लोग रह रहे हैं, तो इससे हम उजागर हो जाएँगे, नहीं?” वे जवाब देते हैं, “मैं परवाह नहीं करता, मैं बस तमाशा करना चाहता हूँ! तुम सब घर जा सकते हो, लेकिन मैं नहीं जा सकता। यह उचित नहीं है! मैं ऐसा तमाशा करूँगा कि तुम लोग भी घर नहीं जा पाओगे, बिल्कुल मेरी तरह!” उनका बेकाबू गुस्सा कम नहीं होता है और उनका द्वेष बाहर आ जाता है; कोई भी उन्हें समझा नहीं सकता है, कोई भी उन्हें मना नहीं पाता है। जब उनका मिजाज थोड़ा ठीक हो जाता है तो वे शांत हो जाते हैं और तमाशा करना बंद कर देते हैं। लेकिन कौन जाने—किसी भी दिन, वे फिर से बेकाबू हो सकते हैं और तमाशा कर सकते हैं : उन्हें बस टहलने के लिए बाहर जाना होगा और आजाद रहना होगा, और घर के अंदर जोर-जोर से बोलना होगा; वे लगातार घर जाने की साजिशें रचते रहेंगे। भाई-बहन उन्हें खबरदार करते हैं : “घर जाना बहुत ही जोखिम भरा है; पुलिस ने उस जगह को घेर रखा है और उस पर लगातार नजर रखे हुए है।” वे जवाब देते हैं, “मैं परवाह नहीं करता, मैं वापस जाना चाहता हूँ! अगर वे मुझे पकड़ लेते हैं, तो पकड़ लें! इसमें क्या बड़ी बात है? सबसे बुरा यही होगा कि मैं बस एक यहूदा बन जाऊँगा!” क्या यह पागलपन नहीं है? (हाँ, है।) वे खुलेआम कहते हैं कि वे यहूदा बनने के इच्छुक हैं। कौन उनकी मेजबानी करने की हिम्मत करेगा? क्या कोई यहूदा की मेजबानी करना चाहता है? (नहीं।) क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर में विश्वासी है? भाई-बहन परमेश्वर में विश्वासी के रूप में उनकी मेजबानी करते हैं। अगर उनकी मानवता में कुछ हद तक कमी है तो उसे बर्दाश्त किया जा सकता है; सत्य का अनुसरण नहीं करना भी बर्दाश्त किया जा सकता है। लेकिन वे कलीसिया से विश्वासघात कर और यहूदा बनकर भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाने, और इस तरह बहुत से लोगों को अपने घर लौटने या सामान्य रूप से अपने कर्तव्य करने में असमर्थ बना देने में सक्षम हैं—कौन इन परिणामों का दोष अपने सिर ले सकता है? क्या तुम इस तरह के दुश्मन की मेजबानी करने की हिम्मत करोगे? क्या उसकी मेजबानी करना अपने लिए मुसीबत को न्योता देना नहीं है?

जो लोग अविवेकी और जानबूझकर तकलीफदेह होते हैं, वे जब कार्य करते हैं, तो सिर्फ अपने हितों के बारे में सोचते हैं, और वही करते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है। उनके शब्द ऊटपटांग विधर्म के अलावा और कुछ नहीं होते हैं, और वे विवेक से अप्रभावित रहते हैं। उनके शातिर स्वभाव सारी हदें पार कर चुके हैं। खुद पर आपदा आमंत्रित करने के डर से कोई उनके साथ जुड़ने की हिम्मत नहीं करता और कोई उनके साथ सत्य के बारे में संगति करने को तैयार नहीं होता। दूसरे लोग जब भी अपने मन की बात उनसे कहते हैं, तो बेचैन रहते हैं, वे डरते हैं कि अगर उन्होंने एक भी शब्द ऐसा कह दिया, जो उन्हें पसंद या उनकी इच्छा के अनुरूप न हो, तो वे उसे लपक लेंगे और उसके आधार पर घोर आरोप लगा देंगे। क्या ऐसे लोग दुष्ट नहीं हैं? क्या वे जीवित राक्षस नहीं हैं? दुष्ट स्वभाव और खराब विवेक वाले सभी लोग जीवित राक्षस हैं। और जब कोई जीवित राक्षस के साथ बातचीत करता है, तो वह पल भर की लापरवाही से अपने ऊपर आपदा ला सकता है। अगर ऐसे जीवित राक्षस कलीसिया में मौजूद हों, तो क्या इससे एक बड़ी मुसीबत नहीं खड़ी हो जाएगी? (हो जाएगी।) अपनी भड़ास निकालने और गुस्सा उतारने के बाद ये जीवित राक्षस कुछ देर के लिए एक इंसान की तरह बोल सकते हैं और माफी माँग सकते हैं, लेकिन बाद में वे नहीं बदलते। कौन जानता है कि कब उनका मूड खराब हो जाएगा और वे फिर से नखरे दिखाने लगेंगे, अपने ऊटपटांग तर्क बकने लगेंगे। हर बार उनके नखरे दिखाने और भड़ास निकालने का लक्ष्य अलग होता है; और ठीक ऐसा ही उनकी भड़ास का स्रोत और पृष्ठभूमि होती है। यानी, कोई भी चीज उन्हें उकसा सकती है, कोई भी चीज उन्हें असंतुष्ट महसूस करवा सकती है, और कोई भी चीज उन्हें उन्मादी और अविवेकी तरीके से प्रतिक्रिया करने पर मजबूर कर सकती है। यह कितनी भयानक, कितनी तकलीफदेह बात है! ये विक्षिप्त कुकर्मी किसी भी समय पगला सकते हैं; कोई नहीं जानता कि वे क्या करने में सक्षम हैं। मुझे ऐसे लोगों से सबसे ज्यादा नफरत है। उनमें से हर एक का सफाया कर देना चाहिए—उन सभी को बाहर कर देना चाहिए। मैं उनके साथ जुड़ना नहीं चाहता। वे भ्रमित विचारों वाले और पाशविक स्वभाव के होते हैं, वे ऊटपटांग तर्कों और शैतानी शब्दों से भरे होते हैं, और जब उनके साथ कोई अनहोनी होती है, तो वे प्रचंड रूप से इसके बारे में अपनी भड़ास निकालते हैं। भड़ास निकालते समय, इनमें से कुछ लोग रोते हैं, दूसरे लोग चीखते-चिल्लाते हैं, और अन्य लोग अपने पैर पटकते हैं, और यहाँ तक कि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने सिर हिलाते हैं और अपने हाथ-पैरों को हवा में लहराते रहते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो वे जंगली जानवर हैं, इंसान नहीं। कुछ रसोइये अपना आपा खोते ही बर्तन और थालियाँ इधर-उधर फेंकने लगते हैं; दूसरे लोग, जो सूअर या कुत्ते पालते हैं, अपना आपा खोते ही इन जानवरों पर लात-घूँसे बरसाने लगते हैं और अपने गुस्से की सारी भड़ास उन पर निकालते हैं। ये लोग, चाहे कुछ भी हो जाए, हमेशा गुस्से से प्रतिक्रिया देते हैं; वे ना तो चिंतन करने के लिए खुद को शांत करते हैं और ना ही इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारते हैं। वे प्रार्थना नहीं करते हैं या सत्य की तलाश नहीं करते हैं, और ना ही वे दूसरों के साथ संगति की तलाश करते हैं। जब उनके पास कोई विकल्प नहीं होता है, तो वे सहते हैं; जब वे सहने के इच्छुक नहीं होते हैं, तो वे पागल हो जाते हैं, ऊटपटांग तर्क बकते हैं, दूसरों पर आरोप लगाते हैं और उनकी निंदा करते हैं। वे अक्सर ऐसी बातें कहते हैं, “मुझे पता है कि तुम सभी पढ़े-लिखे हो और मुझे नीची नजर से देखते हो”; “मुझे पता है कि तुम लोगों के परिवार रईस हैं, और तुम मुझे गरीब होने के कारण तुच्छ समझते हो”; या, “मुझे पता है कि तुम लोग मुझे इसलिए तुच्छ समझते हो क्योंकि मेरी आस्था में ठोस आधार नहीं है, और तुम लोग इसलिए मुझे तुच्छ समझते हो क्योंकि मैं सत्य का अनुसरण नहीं करता हूँ।” अपनी खुद की कई समस्याओं के बारे में स्पष्ट रूप से जानने के बावजूद, वे कभी भी उन्हें सुलझाने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते हैं, और ना ही वे दूसरों के साथ अपनी संगति में आत्म-ज्ञान पर चर्चा करते हैं। जब उनकी अपनी समस्याओं का जिक्र किया जाता है, तो वे पलट जाते हैं और दोष किसी और के मत्थे मढ़ देते हैं, सभी समस्याएँ और जिम्मेदारियाँ दूसरों पर डाल देते हैं, और यहाँ तक कि यह शिकायत भी करते हैं कि उनके व्यवहार का कारण यह है कि दूसरे उनके साथ बुरा व्यवहार करते हैं। ऐसा लगता है जैसे उनके नखरे और बेतुके भड़कावे दूसरे लोगों के कारण हुए हैं, जैसे कि बाकी सभी दोषी हैं, और उनके पास इस तरह से कार्य करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है—वे मानते हैं कि वे जायज तरीके से खुद का बचाव कर रहे हैं। वे जब भी असंतुष्ट होते हैं, तो अपनी नाराजगी की भड़ास निकालना और बकवास करना शुरू कर देते हैं, अपने ऊटपटांग तर्कों पर ऐसे अड़े रहते हैं मानो बाकी सभी गलत हैं, वे दूसरों को खलनायक के रूप में चित्रित करते हैं और खुद को अकेला अच्छा व्यक्ति बताते हैं। चाहे वे कितने भी नखरे दिखाएँ या ऊटपटांग तर्क क्यों ना बकें, वे अपेक्षा करते हैं कि उनके बारे में अच्छी-अच्छी बातें कही जाएँ। जब वे गलत करते हैं, तब भी वे दूसरों को उन्हें उजागर करने या उनकी आलोचना करने से रोक देते हैं। अगर तुम उनके किसी मामूली मुद्दे की तरफ भी ध्यान दिलाते हो, तो वे तुम्हें अंतहीन विवादों में फँसा देंगे, और फिर तुम शांति से जीना तो भूल ही जाओ। यह किस किस्म का व्यक्ति है? यह अविवेकी और जानबूझकर तंग करने वाला व्यक्ति है, और जो लोग ऐसा करते हैं, वे कुकर्मी हैं।

जो लोग अविवेकी और जानबूझकर परेशानी पैदा करने वाले होते हैं, हो सकता है वे आमतौर पर कोई अहम विश्वासघाती या बुरे कर्म न करें, लेकिन जैसे ही उनकी रुचियाँ, प्रतिष्ठा या गरिमा शामिल होती हैं, तो तुरंत उनका गुस्सा उबाल पर आ जाता है, वे झल्ला जाते हैं, बेकाबू होकर कार्य करते हैं, और यहाँ तक कि आत्महत्या तक की धमकी देते हैं। मुझे बताओ, अगर ऐसा बेतुका और अनुचित रूप से अपरिष्कृत इंसान किसी परिवार में सामने आ जाए, तो क्या पूरा परिवार कष्ट नहीं सहेगा? फिर घर-परिवार में खलबली मच जाएगी, चीखने-चिल्लाने का शोर भर जाएगा, और जीना दूभर हो जाएगा। कुछ कलीसियाओं में ऐसे लोग होते हैं; हालाँकि सब-कुछ सामान्य होने पर हो सकता है यह स्पष्ट दिखाई न दे, फिर भी तुम्हें पता नहीं चलेगा कि ज्वालामुखी कब फटेगा और वे कब खुद को प्रकट कर देंगे। ऐसे लोगों की मुख्य अभिव्यक्तियों में शामिल होते हैं झल्लाहट दिखाना, बेमतलब की बहसबाजी करना, सार्वजनिक रूप से कसमें खाना, वगैरह-वगैरह। भले ही ये व्यवहार सिर्फ महीने में एक बार या हर छह महीने में एक बार दिखाई दें, फिर भी इनसे जबरदस्त संताप और कठिनाई पैदा होती है, जिससे ज्यादातर लोगों के कलीसियाई जीवन में किसी-न-किसी हद तक बाधा उत्पन्न होती है। अगर यह सचमुच पक्का हो जाता है कि कोई व्यक्ति इस श्रेणी में है, तो उससे मुस्तैदी से निपटना चाहिए और उसे कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं, “ये लोग कोई बुरे काम नहीं करते। इन्हें बुरे लोग नहीं माना जा सकता; हमें उनके साथ सहनशील और धैर्यवान होना चाहिए।” मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों से न निपटना ठीक रहेगा? (नहीं, यह ठीक नहीं रहेगा।) क्यों नहीं? (क्योंकि उनके क्रियाकलापों से ज्यादातर लोगों को बहुत अधिक तकलीफ और खीझ होती है, और साथ ही कलीसियाई जीवन भी बाधित होता है।) इस परिणाम के आधार पर, यह स्पष्ट है कि जो लोग कलीसियाई जीवन को बाधित करते हैं, भले ही वे बुरे लोग या मसीह-विरोधी न हों, उन्हें कलीसिया में नहीं रहना चाहिए। क्योंकि ऐसे लोग सत्य से प्रेम नहीं करते बल्कि उससे विमुख होते हैं, और वे चाहे जितने भी वर्ष परमेश्वर में विश्वास रखें, या वे चाहे जितने भी धर्मोपदेश सुन लें, वे सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे। एक बार जब वे कुछ बुरा करते हैं, और उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे झल्लाहट दिखाते हैं, और बेकार की बातें उगलने लगते हैं। भले ही कोई उनके साथ सत्य पर संगति करे, वे उसे स्वीकार नहीं करते। कोई भी उनके साथ तर्क नहीं कर सकता। यहाँ तक कि जब मैं भी उनके साथ सत्य पर संगति करता हूँ, हो सकता है वे बाहर से मौन रहें, लेकिन वे इसे अंदर से स्वीकार नहीं करते। वास्तविक स्थितियों का सामना होने पर भी वे हमेशा की ही तरह कार्य करते हैं। वे मेरे वचन नहीं सुनते, इसलिए तुम लोगों का परामर्श तो उनके लिए और भी कम स्वीकार्य होगा। हालाँकि ये लोग हो सकता है कोई बड़े बुरे कर्म न करें, फिर भी वे सत्य को लेशमात्र भी स्वीकार नहीं करते हैं। उनके प्रकृति सार को देखें, तो न केवल उनमें अंतरात्मा और विवेक का अभाव है, बल्कि वे अविवेकी, जानबूझकर परेशानी पैदा करने वाले और तर्क के लिए अभेद्य होते हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं! जो लोग सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं कर सकते वे छद्म-विश्वासी होते हैं, वे शैतान के नौकर-चाकर हैं। जब चीजें उनके ढंग से नहीं होतीं, तो वे झल्लाते हैं, लगातार बेमतलब की बहसबाजी करते हैं, और सत्य के बारे में चाहे जैसे संगति की जाए वे उसे नहीं सुनते। ऐसे लोग अविवेकी और जानबूझकर परेशानी पैदा करने वाले होते हैं, विशुद्ध रूप से दानव और दुष्टात्मा होते हैं; वे जानवरों से भी बदतर होते हैं! वे असंतुलित विवेकवाले मानसिक रोगी होते हैं, और कभी भी सच्चा प्रायश्चित्त करने में सक्षम नहीं होते हैं। वे कलीसिया में जितने लंबे समय तक रहते हैं, परमेश्वर के बारे में उतनी ही अधिक धारणाएँ पालते हैं, वे परमेश्वर के घर से उतनी ही ज्यादा अनुचित माँगें करते हैं, और कलीसियाई जीवन को वे उतनी ही बड़ी बाधा और हानि पहुँचाते हैं। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश और कलीसियाई कार्य की सामान्य प्रगति पर उतना ही ज्यादा असर डालता है। कलीसियाई कार्य को उनके द्वारा पहुँचाई जानेवाली हानि बुरे लोगों के मुकाबले कम नहीं होती; उन्हें कलीसिया से जल्दी ही बाहर निकाल देना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “क्या वे सिर्फ थोड़े-से बेकाबू नहीं हैं? वे बुरे होने की कगार पर नहीं पहुँचे हैं, तो क्या यह बेहतर नहीं होगा कि उनसे प्रेम से पेश आया जाए? अगर हम उन्हें रखे रहें, तो हो सकता है वे बदल जाएँ और उन्हें बचाया जा सके।” मैं तुमसे कहता हूँ, यह असंभव है! इस बारे में “हो सकता है” की कोई गुंजाइश नहीं है—इन लोगों को बिल्कुल भी बचाया नहीं जा सकता। क्योंकि वे सत्य को नहीं समझ सकते, उसे स्वीकार करना तो दूर की बात है; उनमें अंतरात्मा और विवेक का अभाव है, उनकी विचार प्रक्रियाएँ असामान्य हैं और उनमें इंसान होने के लिए आवश्यक सबसे बुनियादी आम समझ का भी अभाव है। वे असंतुलित तर्कशक्ति वाले इंसान हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता है। यहाँ तक कि थोड़ी-सी ज्यादा सामान्य सोच और बेहतर काबिलियत वाले लोग भी अगर सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं, तो उन्हें भी बचाया नहीं जा सकता है, फिर उन लोगों की तो बात ही छोड़ दो जिनकी सूझ-बूझ खराब है। ऐसे लोगों के साथ अब भी प्रेम से पेश आना और उनके लिए उम्मीद बनाए रखना, क्या यह बहुत ही बेवकूफी और नासमझी भरा काम नहीं है? अब मैं तुम लोगों को यह बता रहा हूँ : अविवेकी, जानबूझकर परेशान करने वाले और उन लोगों को जिन पर तर्क का कोई असर नहीं होता, कलीसिया से दूर कर देना बिल्कुल सही है। यह कलीसिया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के प्रति उनका उत्पीड़न मूल रूप से रोक देता है। यही अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है। अगर किसी कलीसिया में ऐसे अविवेकी लोग हैं तो परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनकी रिपोर्ट करनी चाहिए और एक बार जब अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऐसी रिपोर्ट मिल जाती है तो उन्हें तुरंत ऐसे लोगों को संभालना चाहिए। यह छठे प्रकार के लोगों को संभालने का सिद्धांत है—जो अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाले लोग हैं।

छ. लगातार व्यभिचारी गतिविधियों में लिप्त रहना

सातवें प्रकार में वे लोग आते हैं जो व्यभिचारी गतिविधियों में लिप्त रहते हैं, यह एक आम तौर पर उल्लेखित समूह है। वैसे तो उनकी मानवता की अभिव्यक्तियाँ बहुत बुरी नहीं होती हैं—जैसे कि कलह के बीज बोने, या बुरे कर्म करने और बाधाएँ उत्पन्न करने जैसा कुछ नहीं होता—इन सभी में एक विशेषता समान होती है, जो यह है कि विपरीत लिंग के साथ इनके रिश्तों में हमेशा समस्याएँ और घटनाएँ होती रहती हैं। अवसरों की उपलब्धता चाहे कैसी भी हो, उनके साथ ऐसी समस्याएँ हमेशा प्रकट होती रहती हैं, और अगर कोई अवसर नहीं होता है तो वे अवसर बना लेते हैं, ताकि ऐसी “कहानियाँ” वैसे भी बनती रहें। चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, दूसरा व्यक्ति कोई भी हो या वह व्यक्ति उनसे कितना भी दूर क्यों ना हो, उनके साथ समय-समय पर ऐसी घटनाएँ होती ही रहती हैं। किस तरह की घटनाएँ? अन्य बातों के अलावा वे किसी के साथ डेट पर जाते हैं या हमेशा किसी के करीब जाना चाहते हैं या उनके मन में किसी के लिए भावनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं या वे किसी पर अपनी नजरें गड़ाए रहते हैं, वगैरह-वगैरह। वे सामान्य रूप से जीने और सामान्य रूप से अपने कर्तव्य करने में विफल रहते हैं, लगातार कामुक इच्छाओं के प्रभाव में रहते हैं। यानी, आम परिस्थितियों में जहाँ सामान्य लोग ऐसे मुद्दों में शामिल नहीं होंगे, वे बार-बार शामिल होते हैं। उन्हें अपने लिए अवसर बनाने के लिए किसी विशेष हालात या किसी व्यक्ति की जरूरत नहीं पड़ती; ये घटनाएँ बस स्वाभाविक रूप से हो जाती हैं। ऐसी घटनाएँ होने के बाद, परिणाम चाहे कुछ भी हों, लोगों के एक समूह या किसी विशेष व्यक्ति को हमेशा इसकी कीमत चुकाने के लिए मजबूर किया जाता है। वे क्या कीमतें चुकाते हैं? उनके कर्तव्य का निर्वहन प्रभावित होता है; कलीसियाई कार्य में देरी होती है और बाधा आती है; कुछ युवा परेशान हो जाते हैं और प्रलोभन में पड़ जाते हैं, और परमेश्वर में विश्वास रखने और अपने कर्तव्य करने में दिलचस्पी खो देते हैं; और यहाँ तक कि कुछ लोगों से उनके कर्तव्य छूट जाते हैं या वे उन्हें छोड़ देते हैं। व्यभिचारी गतिविधियों में लिप्त होने वाले लोग बहुत ही ज्यादा परेशान करने वाले होते हैं। हर मोड़ पर, विपरीत लिंग के सदस्य उनके इर्द-गिर्द झुंड बनाए रहते हैं, उनके करीब आ जाते हैं, उनके साथ इश्कबाजी करते हैं और यहाँ तक कि मजाकिया छेड़छाड़ में भी लगे रहते हैं। वैसे तो सारभूत प्रकृति की कोई गंभीर समस्या उत्पन्न नहीं हो सकती है, लेकिन जब परमेश्वर के चुने हुए लोग अपने कर्तव्य करते हैं तो इस प्रकार के लोग उनकी सामान्य स्थितियाँ गंभीर रूप से अस्तव्यस्त कर देते हैं। वे जहाँ भी जाते हैं, वहाँ दूसरों के लिए, कार्य के लिए और कलीसिया के लिए मुसीबत और बाधाएँ लेकर आते हैं, यहाँ तक कि कोई भी अवसर मिलने पर वे विपरीत लिंग के उन सदस्यों को जो उन्हें आकर्षक लगते हैं, मोहित करते हैं और उनसे प्रेम संबंध बनाते हैं। यह अत्यधिक परेशानी की बात है। एक बार जब वे किसी के प्रेम में पड़ जाते हैं, तो वह व्यक्ति दुर्भाग्य के लिए अभिशप्त हो जाता है, वह अब सामान्य रूप से परमेश्वर में विश्वास रखने या अपने कर्तव्य करने में असमर्थ हो जाता है। इसके परिणामों की कल्पना करना भी असंभव है। वह व्यक्ति मोहित करने वाले से संपर्क किए बिना या उससे मिले बिना रह ही नहीं पाता है, और जिस दौरान वह अपने कर्तव्य करने में व्यस्त रहता है वह शादी करने या घर बसाने में असमर्थ होता है, और यह रिश्ता अटूट बना रहता है। अंत में क्या होता है? वह बेहद दर्दनाक कष्ट सहना शुरू कर देता है! अगर वह तब तक कष्ट सहता रहा जब तक कि उसे आपदाओं में दंडित नहीं किया जाता, तो उसके लिए यह पूरी तरह से समाप्त हो जाता है और उसके बचाए जाने की उम्मीद चकनाचूर हो जाती है। कुछ लोग एक बार अपराध करते हैं और काट-छाँट किए जाने पर पश्चात्ताप नहीं करते हैं, लेकिन वे दूसरी या यहाँ तक कि तीसरी बार भी अपराध करते हैं, दो-तीन वर्षों में तीन-चार रिश्ते बना लेते हैं, जो परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए और कलीसियाई जीवन के लिए बाधा बनता है, और इससे परमेश्वर के चुने हुए लोग उनसे नफरत करने लगते हैं। यह उन पर एक ऐसा दाग छोड़ जाता है जिसका पछतावा उन्हें जीवन भर रहता है।

कुछ लोग, क्योंकि वे थोड़ा-बहुत अच्छे दिखते हैं, और उनमें कुछ हद तक लालित्य और कुछ गुण और प्रतिभाएँ हैं, या उन्होंने किसी महत्वपूर्ण कार्य की जिम्मेदारी ली है, विपरीत लिंग के सदस्य हमेशा मक्खियों की तरह उनसे चिपके रहते हैं, उन्हें घेरे रहते हैं। कुछ लोग उन्हें खाना परोसते हैं, कुछ उनके लिए बिस्तर लगाते हैं, कुछ उनके कपड़े धोते हैं, कुछ उनके लिए स्वास्थ्यवर्धक दवाएँ और सौंदर्य-प्रसाधन खरीदते हैं और उन्हें छोटे-छोटे तोहफे देते हैं, वगैरह-वगैरह। वे सभी आगंतुकों का स्वागत करते हैं, अपने दिल में जानते हैं कि दूसरों का उनके साथ ऐसा व्यवहार करना अनुचित है, लेकिन इसे कभी नहीं ठुकराते हैं, एक ही समय में विपरीत लिंग के कई सदस्यों को मोहित करते हैं। वे लोग उस व्यभिचारी व्यक्ति की सेवा करने के लिए एक दूसरे से होड़ करते हैं, एक दूसरे से मुकाबला करते हैं और जलते हैं, जबकि वह इस भावना का आनंद लेता रहता है, खुद को बहुत ही आकर्षक मानता है। दरअसल, वयस्क लोग पुरुषों और महिलाओं के मामलों को अच्छी तरह से समझते हैं, और यहाँ तक कि कुछ नाबालिग भी इन्हें समझते हैं; सिर्फ बेवकूफ, मंदबुद्धि, या मानसिक रूप से बीमार लोग ही इन्हें समझ नहीं पाते हैं। ये लोग विपरीत लिंग के सदस्य की सेवा करने और उसे खुश करने के लिए इतने जबर्दस्त तरीके से मुकाबला क्यों करते हैं? यह सब कुछ मोहित करने की इच्छा से जुड़ा हुआ है, है ना? इसे शब्दों में बयान करने की कोई जरूरत नहीं है; हर किसी को पता है कि क्या चल रहा है। यह एक ऐसी चीज है जिसके बारे में लोग अच्छी तरह से जानते हैं, एक ऐसी चीज है जो स्पष्ट रूप से अनुचित है, फिर भी वह व्यक्ति इससे मना नहीं करता है, बल्कि चुपचाप स्वीकार कर लेता है—इसे क्या कहते हैं? इसे इश्कबाजी कहते हैं। उसे पता है कि यह पुरुषों और महिलाओं के बीच मोहित करने के बारे में है, लेकिन देह की कामुक इच्छाएँ संतुष्ट करने से मिलने वाले रोमांच की खातिर वह मना नहीं करना चाहता है। उसे लगता है कि यह उत्तेजना एक तरह का आनंद है, जो दुनिया के किसी भी स्वादिष्ट भोजन से बेहतर है, इसलिए वह मना नहीं करता है। जब उक्त व्यक्ति मना नहीं करता है तो उसे मोहित करने वाले लोग और भी खुश हो जाते हैं, वे मान लेते हैं वह व्यक्ति उन्हें पसंद करता है और वे मन ही मन स्थिति का आनंद लेते हैं। और वह व्यक्ति सोचता है कि जब तक कोई ठोस संबंध नहीं बना है तब तक इसे कोई गंभीर चीज नहीं मानी जाती है, अविश्वासियों के बीच और भी बदतर व्यभिचार होता है और ज्यादा-से-ज्यादा इसे मोहित करना ही माना जाता है जो कि सामान्य प्रेम संबंध जैसा है। लेकिन क्या प्रेम संबंध ऐसा होना चाहिए? आज एक व्यक्ति के साथ, कल किसी और के साथ, बेतहाशा बार-बार किसी के भी साथ प्रेम संबंध बनाने और मोहित करने में लिप्त होना। ऐसे व्यभिचारी लोग जहाँ भी जाते हैं, अपनी कामुक इच्छाएँ बाहर निकालने, दिखावा करने और मोहित करने में लिप्त होने को प्राथमिकता देते हैं। वे जितने ज्यादा लोगों को मोहित करते हैं, उतनी ही ज्यादा उन्हें खुशी महसूस होती है। अंत में क्या होता है? बार-बार दिखावा करने के बाद, कुछ भाई-बहन उनके व्यवहार को पहचान जाते हैं और सामूहिक रूप से ऊँचे स्तर के अगुआओं को एक पत्र लिखते हैं। जाँच-पड़ताल से उनके दावे सच साबित हो जाते हैं और व्यभिचारी व्यक्ति को कलीसिया से दूर कर दिया जाता है। तो देखा क्या होता है? क्या परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका मार्ग यहीं समाप्त नहीं हो जाता है? उनका परिणाम प्रकट हो जाता है। उनके क्रियाकलाप और व्यवहार, जो लोगों को बर्दाश्त के बाहर लगते हैं, वे परमेश्वर के लिए और भी घिनौने हैं। इन लोगों द्वारा प्रदर्शित व्यवहार न तो लोगों के बीच उचित संबंधों को दर्शाता है, और न ही यह सामान्य मनुष्य की जरूरतों को दर्शाता है। उनके क्रियाकलाप सिर्फ एक शब्द से वर्णित किए जा सकते हैं : “व्यभिचार।” व्यभिचार का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है विपरीत लिंग के लोगों के साथ लापरवाही से संबंध बनाना, अपनी इच्छानुसार दूसरों को गैर जिम्मेदार तरीके से मोहित करना और विपरीत लिंग के सदस्यों को ललचाना और परेशान करना। यह हवस के साथ खेलना है और ऐसा कीमत या परिणामों पर विचार किए बिना करना है। अगर अंत में कोई व्यक्ति लालच में आ जाता है और उनके साथ इश्कबाजी करने लगता है, तो वे इसे मानने से इनकार कर देते हैं, कहते हैं, “मैं तो यूँ ही मजाक कर रहा था। क्या तुमने इसे गंभीरता से ले लिया? दरअसल मेरा यह मतलब नहीं था; तुम इसका ज्यादा ही मतलब निकाल रहे हो।” क्या यह किसी दुष्ट का लोगों को ललचाना नहीं है? एक व्यक्ति को ललचाने के बाद, वे अपने अगले निशाने की तलाश करते हैं, दूसरों को मोहित करते हैं। वे कितने भयानक और दुष्ट हैं! किसी को मोहित करने के बाद, वे इसे मानने से इनकार कर देते हैं। अगर कोई ऐसे व्यक्ति द्वारा गुमराह हो जाता है और फँस जाता है, तो क्या यह घिनौना नहीं है? (हाँ, है।) क्या दूसरों को लापरवाही से मोहित करने वाले लोग द्वेषपूर्ण नहीं हैं? (हाँ, हैं।) परमेश्वर के घर ने शुरू से ही कहा है कि अगर किसी व्यक्ति की शादी की उम्र हो गई है और वह वयस्क है, तो परमेश्वर का घर उसके सामान्य प्रेम संबंधों या उसकी शादी करने और सामान्य तरीके से साथ रहकर दिन बिताने का विरोध नहीं करता है, और वह उन्हें ऐसा करने की अनुमति देता है और उन्हें इसमें शामिल होने की आजादी देता है। लेकिन, इसमें कई शर्तें हैं : व्यभिचारी गतिविधियों में लिप्त होने की अनुमति नहीं है; लापरवाही से मोहित करने और इश्कबाजी करने, और विपरीत लिंग के लोगों को को यूँ ही परेशान करने की अनुमति नहीं है। परमेश्वर का घर प्रेम संबंध बनाने को प्रतिबंधित नहीं करता है, लेकिन यह लापरवाही से मोहित करने की अनुमति नहीं देता है। लापरवाही से मोहित करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है विपरीत लिंग के किसी सदस्य को परेशान करना और ऐसा करने के बाद यह नहीं मानना कि उन्होंने ऐसा किया है। वे जिन लोगों को परेशान करते हैं वे उनके सच्चे प्रेम नहीं हैं; वे लंबे समय के रिश्ते बनाने या शादी करने का इरादा नहीं रखते हैं, बल्कि दूसरे व्यक्ति को सिर्फ मोहित करना, उसके साथ खिलवाड़ करना, उससे मजे लेना, रोमांच की तलाश करना, कई साथियों से रिश्ते बनाना, एक ऐय्याश की तरह व्यवहार करना चाहते हैं—इसे व्यभिचार कहा जाता है। कलीसिया में व्यभिचार की अनुमति नहीं है और अगर ऐसा होता है तो इसमें लिप्त लोगों को, कलीसिया से लोगों को बाहर निकालने के सिद्धांतों के अनुसार संभाला जाना चाहिए। यकीनन, सुसमाचार टीमों में, सुसमाचार का उपदेश देने वाले लोगों को ऐसे हालात उत्पन्न करने की अनुमति नहीं है, चाहे वे पूर्णकालिक कर्तव्य वाली कलीसियाओं से हों या साधारण कलीसियाओं से। अगर कोई व्यक्ति दूसरों को लापरवाही से मोहित करने के लिए सुसमाचार का उपदेश देने की आड़ का उपयोग करता है, सहयोग करने के लिए सिर्फ विपरीत लिंग के सदस्यों को चुनता है या सिर्फ विपरीत लिंग के सदस्यों को ही सुसमाचार का उपदेश देता है, और इस तरह अनुचित रिश्ते बनाने के लिए इस मौके का फायदा उठाता है तो इससे परमेश्वर के सुसमाचार कार्य में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऐसे लोगों को तुरंत दूर कर देना चाहिए।

विपरीत लिंग के सदस्य ढूँढने और व्यभिचारी गतिविधियों में लिप्त होने के लिए कुछ लोग उम्र की बिल्कुल परवाह नहीं करते हैं और उनकी कोई आयु सीमा नहीं होती है। वे रत्ती भर शर्म के बिना जितने हो सके उतने ज्यादा लोगों को मोहित करने का प्रयास करते हैं। कुछ लोग विपरीत लिंग के सदस्यों को मोहित करके सिर्फ अपनी कामुक इच्छाएँ ही संतुष्ट नहीं करते हैं—वे ये भी माँग करते हैं कि दूसरा पक्ष उनके जीवन-निर्वाह के खर्च का भुगतान करे, उन्हें चीजें खरीदकर दे, वगैरह-वगैरह। अगर तुम्हें ऐसे लोगों का पता चलता है या कोई ऐसी घटनाओं की रिपोर्ट करता है, तो उन्हें तुरंत संभाला जाना चाहिए। एकमात्र समाधान यही है कि इन लोगों को दूर कर दिया जाए, उन्हें हमेशा के लिए दूर कर दिया जाए। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिन लोगों को ऐसी समस्याएँ हैं, उनके लिए यह एक क्षणिक समस्या नहीं है। यह विशेष रूप से उन लोगों के लिए है जो शादीशुदा हैं—घर में जीवनसाथी होने के बावजूद वे सुसमाचार का उपदेश देने के बहाने विशिष्ट रूप से विपरीत लिंग के लोगों को अपना निशाना बनाते हैं। वे किसी भी तरह का व्यक्ति ढूँढते हैं, अमीर हो या गरीब, और अगर उन्हें अपनी पसंद का कोई मिल जाता है तो वे उसके साथ भाग भी सकते हैं, यहाँ तक कि अब सुसमाचार का उपदेश भी नहीं देते हैं—साफ साफ कहूँ तो वे अब परमेश्वर में विश्वास ही नहीं रखते हैं। अगर ऐसे लोगों का जल्दी ही पता लगाया जा सके तो उन्हें दूसरा मौका दिए बिना और आगे की निगरानी की जरूरत के बिना, सुसमाचार का उपदेश देने वालों की श्रेणी से तुरंत और हमेशा के लिए निष्कासित कर देना चाहिए। तुम समझ रहे हो? कुछ लोग कहते हैं, “कुछ लोगों के लिए जीवन कठिन है। अगर वे परिवार बनाने के लिए विपरीत लिंग के किसी व्यक्ति को मोहित करते हैं और दूसरा व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास रख सकता है और उसका साथ दे सकता है तो क्या यह दोनों पक्षों के लिए ही एक फायदेमंद स्थिति नहीं होगी?” मैं तुमसे कहता हूँ, ऐसे लोगों को जितनी जल्दी हो सके निष्कासित कर देना चाहिए; वे इसमें पारिवारिक जीवन के लिए बिल्कुल भी नहीं हैं, बल्कि व्यभिचारी गतिविधियों में लिप्त होने के लिए हैं। मैं इतना निश्चित क्यों हूँ? अगर वे व्यभिचारी गतिविधियों में लिप्त होने वाले प्रकार के नहीं होते तो परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद, वे इस तरह का व्यवहार बिल्कुल भी जारी नहीं रखते और उन्हें यह घिनौना लगता, विशेष रूप से अगर वे शादीशुदा होते। अभी पूरी दुनिया में व्यभिचारी और दुष्ट प्रवृत्तियाँ चलन में हैं; लोग अपनी हवस में लिप्त रहते हैं और इस बात पर मुकाबला करते हैं कि कौन बिना किसी रोक-टोक के विपरीत लिंग के ज्यादा सदस्यों को मोहित कर सकता है, क्योंकि यह समाज और यह मानवजाति इन कार्यों की निंदा या उपहास नहीं करती है। इसलिए लोग सोचते हैं कि अगर वे व्यभिचारी गतिविधियों में लिप्त होकर और अपना देह बेचकर पैसे कमा सकते हैं तो यह कौशल या क्षमता की निशानी है। वे इसे गर्व करने की चीज के रूप में देखते हैं। लेकिन परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, इन मामलों पर लोगों के विचार पूरी तरह से बदल जाते हैं। उन्हें देह की कामुक इच्छाओं को संभालने का सही तरीका मिल जाता है, जिसमें सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण जो चीज शामिल है वह है संयम। संयम कैसे रखा जा सकता है? लोगों को शर्म से परिचित होना चाहिए और उनमें शर्म की भावना होनी चाहिए। इसे ही सामान्य मानवता कहते हैं। हर किसी में कामुक इच्छाएँ होती हैं, लेकिन लोगों को खुद को संयमित करने का तरीका पता होने की जरूरत है, उनमें शर्म की भावना होने की जरूरत है। भले ही उनके मन में इस तरह के कुछ विचार हों, फिर भी उन्हें खुद को संयमित करना चाहिए क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और उनमें जमीर और विवेक है। उन्हें अपने मन के अनुचित विचारों के साथ बिल्कुल नहीं चलना चाहिए, उन्हें खुली छूटतो बिलकुल भी नहीं देनी चाहिए। उन्हें इन मुद्दों को हल करने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए। भले ही वे नए विश्वासी हों जो सत्य नहीं समझते हैं, फिर भी उन्हें अपनी तुलना मानवीय नैतिकता के सबसे मूलभूत मानकों से करनी चाहिए। अगर तुममें इस स्तर के संयम की भी कमी है तो तुममें सामान्य मानवता की और सामान्य मानवता के जमीर और विवेक की कमी है। सभी प्रकार के जानवर एक निश्चित व्यवस्था को मानते हैं और इस संबंध में नियमों का पालन करते हैं, लापरवाही से कार्य नहीं करते हैं; मनुष्यों के रूप में, लोगों के लापरवाही से कार्य करने की संभावना और भी कम होनी चाहिए, और उनमें और ज्यादा संयम होना चाहिए। अगर तुममें इस स्तर के संयम और आत्म-नियंत्रण की भी कमी है, तो तुम सत्य की तलाश और उसका अभ्यास करने की उम्मीद कैसे कर सकते हो? अगर तुम अपनी दुष्ट हवस को भी हल नहीं कर सकते, तो तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव कैसे हल कर पाओगे? परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसके साथ विश्वासघात करने की तुम्हारी प्रकृति को हल करना और भी असंभव होगा, है ना? (हाँ।) अगर तुम देह की कामुक इच्छाओं को ही संभाल नहीं पाते हो तो तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने की उम्मीद कैसे कर सकते हो? इसके बारे में सोचो भी मत। तुम इसे हासिल नहीं कर पाओगे।

कुछ लोग सुसमाचार का उपदेश देते समय हमेशा प्रेम संबंध बनाने के अवसर ढूँढते हैं, और ऐसी घटनाएँ अक्सर होती रहती हैं। जो लोग अपने उचित कार्यों को नजरअंदाज करते हैं और आदतन प्रेम संबंध बनाते हैं, उन्हें निष्कासित कर दिया जाता है और संभाला जाता है, जबकि कभी-कभार अपराध करने वालों को चेतावनी दी जाती है। एक बार जब दुष्ट स्वभावों वाले इन व्यक्तियों को सही परिस्थितियाँ मिल जाती हैं और वे किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं जिसे वे प्रेमी मानते हैं, तो वे प्रलोभन में पड़ जाते हैं। इस तरह से, परमेश्वर में विश्वास रखकर आशीष प्राप्त करने का उनका इरादा उनकी दुष्ट हवस के बीच छूमंतर हो जाता है। जैसे ही वे किसी रूमानी रिश्ते में प्रवेश करते हैं, वे बाकी सभी चीजों को नजरअंदाज कर देते हैं, यहाँ तक कि धन्य होने का अपना इरादा भी छोड़ देते हैं, और सिर्फ देह की खुशी का अनुसरण करते हैं। एक या दो अपराधों के बाद, वे खुद को थोड़ा दोषी और व्यथित महसूस कर सकते हैं, लेकिन तीन-चार बार अपराध करने के बाद, यह व्यभिचार बन जाता है। एक बार जब व्यभिचार शुरू हो जाता है तो उसके बाद वे खुद को और दोषी या व्यथित महसूस नहीं करते हैं क्योंकि शर्म की वह परत जो व्यक्ति की मानवता की निचली रेखा है, उसमें पहले से ही दरार पड़ चुकी होती है। अब वे व्यभिचार को शर्मनाक नहीं मानते हैं और इसलिए इसमें लिप्त रहना जारी रखते हैं। जो लोग व्यभिचार में लिप्त रहना जारी रख सकते हैं, वे विशेष रूप से अपनी कामुक इच्छाओं के वश में रहते हैं, कोई संयम नहीं दिखाते हैं। ऐसे लोगों को कलीसिया में रहने की अनुमति नहीं है और उन्हें दूर कर देना चाहिए; उन्हें खुली छूट मत दो या उन्हें रखने के लिए कोई बहाना मत बनाओ। सुसमाचार का उपदेश देने के लिए परमेश्वर के घर में लोगों की कमी नहीं है; वहाँ सीटें भरने के लिए ऐसे ऐय्याश लोगों की जरूरत नहीं है, क्योंकि इससे परमेश्वर के नाम का घोर अपमान होता है। इसलिए सुसमाचार का उपदेश देने वाली टीम में, ऐसे व्यक्तियों के बारे में अगर कोई व्यक्ति तुम्हें रिपोर्ट करता है या तुम्हें व्यक्तिगत रूप से उनका पता चलता है, तो तुम्हें पता होना चाहिए कि क्या करना है। अगर कुछ नए विश्वासियों के साथ यह मुद्दा है तो तुम लोगों को सबसे पहले इस मुद्दे के संबंध में सत्य की संगति करनी चाहिए, सभी को यह बता देना चाहिए कि व्यभिचार के कृत्य करने वालों के प्रति कलीसिया के सिद्धांत और रवैये क्या हैं। कम-से-कम, उन्हें एक शुरुआती चेतावनी दी जानी चाहिए ताकि उन्हें इसमें पड़ने से और सुसमाचार का उपदेश देने को ऐसे व्यवहारों में लिप्त होने के अवसर के रूप में उपयोग करने से रोका जा सके, अंत में प्रभारियों या अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इससे संबंधित सत्य सिद्धांतों पर पहले संगति नहीं करने के लिए दोषी ठहराना चाहिए। इसलिए इससे पहले कि ऐसी घटनाएँ हों, इससे पहले कि कुछ लोग ऐसे व्यक्तियों और मामलों के प्रति परमेश्वर के घर के रवैये के बारे में जानें, जब लोग इन मुद्दों के बारे में अस्पष्ट हों तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उनके साथ सुनिश्चित और स्पष्ट रूप से इन सिद्धांतों के बारे में संगति करनी चाहिए ताकि वे जान जाएँ कि ये मामले किस तरह के व्यवहार और प्रकृति के अंतर्गत आते हैं, और ऐसे मामलों और व्यक्तियों के प्रति परमेश्वर के घर का रवैया क्या है। जब इन सिद्धांतों के बारे में पूरी तरह से संगति कर ली जाए, उसके बाद अगर वे अब भी अपने खुद के रास्ते से चिपके रहते हैं और इन सिद्धांतों को जानने के बावजूद अपने तरीकों पर अड़े रहते हैं, तो उन्हें संभाला जाना चाहिए और उनका निपटान किया जाना चाहिए, उन्हें निष्कासित कर देना चाहिए। अगर कलीसिया में ऐसे व्यक्ति दिखाई देते हैं, जो दूसरों को मोहित करके अक्सर घटनाओं का कारण बनते हैं या विपरीत लिंग के सदस्यों को बार-बार परेशान करते हैं, तो निश्चित रूप से उनमें समस्याएँ हैं। भले ही कोई गंभीर मुद्दा नहीं हुआ हो, फिर भी अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इन व्यक्तियों को चेतावनी देनी चाहिए और उन्हें संभालना चाहिए या उन्हें उन जगहों से हटा देना चाहिए जहाँ लोग अपने कर्तव्य करते हैं; गंभीर मामलों में, उन्हें सीधे निष्कासित कर देना चाहिए। इसी के साथ लोगों की मानवता की अभिव्यक्तियों के सातवें पहलू के संबंध में हमारी संगति यहीं समाप्त होती है।

18 दिसंबर 2021

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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