अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (25)

मद चौदह : सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो (भाग चार)

सभी प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने के लिए मानक और आधार

आज हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी : “सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्काषित कर दो” पर संगति जारी रखेंगे। पिछले कुछ समय में हमने ऐसे कई पहलुओं के बारे में संगति की जिन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहचानना चाहिए; साथ ही हमने उन प्रमुख सत्यों के बारे में भी संगति की जिन्हें उन्हें यह काम करते समय समझना चाहिए; यानी हमने इस बारे में संगति की कि सभी प्रकार के बुरे लोगों को कैसे पहचानें। सभी प्रकार के बुरे लोगों को कैसे परिभाषित किया जाता है? वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखने की आड़ में परमेश्वर के घर में घुसपैठ करते हैं, मगर सत्य स्वीकार नहीं करते और कलीसिया के कार्य में भी बाधा डालते हैं; ऐसे सभी लोग बुरे लोगों की श्रेणी में आते हैं। वे उनमें से हैं जिन्हें कलीसिया को बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए; यानी वे लोग जिन्हें कलीसिया के भीतर रहने की अनुमति नहीं है। हम तीन मुख्य मानदंडों के जरिए सभी प्रकार के बुरे लोगों को पहचानते हैं और उनका गहन-विश्लेषण करते हैं। ये तीन मानदंड क्या हैं? पहला है व्यक्ति का परमेश्वर में विश्वास रखने का उद्देश्य। दूसरा है व्यक्ति की मानवता—व्यक्ति की मानवता का गहन-विश्लेषण करना ताकि स्पष्ट रूप से यह देखा जा सके कि क्या वह उनमें से है जिन्हें कलीसिया को बाहर निकाल देना चाहिए। तीसरा मानदंड क्या है? (अपने कर्तव्यों के प्रति व्यक्ति का रवैया।) अपने कर्तव्यों के प्रति व्यक्ति का रवैया तीसरा मानदंड है। पहले मानदंड पर पहले संगति की गई थी। जहाँ तक दूसरे मानदंड—व्यक्ति की मानवता—की बात है, दो बातों पर संगति की गई थी। पहली बात क्या थी? (तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करना।) और दूसरा? (लाभ उठाना पसंद करना।) इन दो बातों में जो कहा गया है उसके हिसाब से इन्हें बुरे लोगों की अभिव्यक्ति मानना अपर्याप्त लग सकता है मगर मैंने पहले जिन विस्तृत अभिव्यक्तियों के बारे में संगति की है उनके आधार पर इन दो प्रकार के लोगों ने बिना किसी सच्चे पश्चात्ताप के वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखा है; उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियाँ पहले ही कलीसियाई जीवन, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच के संबंधों में बाधाएँ और विनाश लेकर आई हैं। उनकी अभिव्यक्तियों के अनुसार और उनके प्रकृति सार के आधार पर इन दो प्रकार के लोगों को बुरे लोगों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। कलीसिया के अगुआओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनकी पहचान और चरित्र-चित्रण करना चाहिए और समय रहते उन्हें बहिष्कृत कर देना चाहिए। क्या यह उचित है? (हाँ।) यह पूरी तरह से उचित है। कलीसिया में इन दो प्रकार के लोगों के व्यवहार का बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है; उन्हें सत्य में कोई रुचि नहीं होती, ना ही वे परमेश्वर के कार्य के प्रति जरा भी समर्पण करते हैं। भाई-बहनों के बीच वे जैसा जीवन जीते हैं वह अविश्वासियों से अलग नहीं लगता; वे अक्सर झूठ बोलते हैं और दूसरों को धोखा देते हैं, अपने कर्तव्यों को लापरवाही से और बिना किसी जिम्मेदारी की भावना के निभाते हैं और बार-बार चेतावनी दिए जाने के बाद भी नहीं बदलते। वे न केवल कलीसियाई जीवन को प्रभावित करते हैं बल्कि कलीसिया के कार्य में भी बुरी तरह से बाधा डालते हैं। बेशक वे उन लोगों में से हैं जिन्हें कलीसिया को बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए और उन्हें बुरे लोगों के रूप में पहचानना और ऐसे लोगों की श्रेणी में रखना पूरी तरह से उचित है—ऐसा करना हद पार करना बिल्कुल नहीं है। पहले प्रकार के लोग जो तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करते हैं, उनमें केवल साधारण समस्याएँ ही नहीं होतीं जैसे कि ऐसी बातें कहना जो बहुत उचित नहीं हैं या दूसरों के साथ बातचीत करने में दिक्कत होना; बल्कि उनके स्वभाव में समस्या होती है। गहरे स्तर पर उनके स्वभाव की समस्या उनके प्रकृति सार की समस्या है। उथले स्तर पर यह उनकी मानवता की समस्या है; कहने का मतलब यह है कि उनकी मानवता बेहद घृणित और घिनौनी है जिससे उनके लिए दूसरों के साथ सामान्य रूप से बातचीत करना नामुमकिन हो जाता है। उनमें न केवल पोषण देने, मदद करने या दूसरों से प्रेम करने जैसी सकारात्मक अभिव्यक्तियों की कमी होती है बल्कि उनके क्रियाकलाप और व्यवहार केवल बाधाएँ डालने, नष्ट करने और ध्वस्त करने का काम करते हैं। अगर कुछ लोग आदतन तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने में लगे रहते हैं और चाहे खुले तौर पर हो या गुप्त रूप से हमेशा ऐसा ही करते रहते हैं जिससे कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है तो वे उन लोगों में से हैं जिन्हें कलीसिया को बहिष्कृत कर देना चाहिए। दूसरे प्रकार के लोग वे हैं जो लाभ उठाना पसंद करते हैं। स्थिति चाहे कोई भी हो वे हमेशा लाभ उठाने की कोशिश करते हैं, उनकी नजर हमेशा अपने हितों पर टिकी रहती है। वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने पर ध्यान नहीं देते और न ही वे अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने या अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने पर ध्यान देते हैं। इससे भी बढ़कर वे भाई-बहनों के साथ सामान्य रूप से बातचीत करने, अपनी कमियों की भरपाई करने के लिए दूसरों की ताकतों का उपयोग करने और सामान्य रिश्ते बनाने या सामान्य कलीसियाई जीवन जीने पर ध्यान नहीं देते हैं। वे इनमें से किसी भी चीज पर ध्यान नहीं देते हैं—वे केवल फायदा उठाने के लिए कलीसिया और भाई-बहनों के बीच आते हैं। जब तक वे कलीसिया में मौजूद हैं और जब तक भाई-बहन उनके संपर्क में हैं तब तक भाई-बहन अंदर से असहज महसूस करेंगे। भाई-बहन न केवल उनके क्रियाकलापों और व्यवहारों के प्रति घृणा महसूस करते हैं बल्कि मुख्य रूप से वे अक्सर अपने दिलों में काफी हद तक हस्तक्षेप और बेबसी महसूस करते हैं। “काफी हद तक” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में कुछ व्यक्तियों को जब गैर-विश्वासियों या बुरे लोगों के उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है तो वे अपनी भावनाओं से बेबस हो जाते हैं और इनसे मुक्त नहीं हो पाते जबकि अन्य लोग इसे नापसंद करने के बाद भी आवाज उठाने की हिम्मत नहीं करते और हमेशा अंदर से बेबस और अशांत महसूस करते हैं। क्या यह भाई-बहनों के लिए गंभीर परेशानी नहीं है? (हाँ, है।) इसलिए परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इन दो प्रकार के व्यक्तियों को पहचानना चाहिए; वे सभी जिन्हें बुरे लोगों के रूप में वर्गीकृत किया गया है उनमें से हैं जिन्हें कलीसिया को बहिष्कृत कर देना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों से निपटने के विशिष्ट सिद्धांतों पर पिछली सभा में पहले ही चर्चा की जा चुकी है, इसलिए अब उन पर विस्तार से चर्चा नहीं की जाएगी। संक्षेप में, ऊपर जिन दो प्रकार के लोगों के बारे में संगति की गई है उन्होंने न केवल भाई-बहनों के कलीसियाई जीवन में बल्कि उनके कर्तव्यों के व्यवस्थित निर्वहन में भी बाधाएँ उत्पन्न की हैं; उनमें से कुछ के व्यवहार से कुछ ऐसे नए विश्वासियों को भी परेशानी हो सकती है जिनके पास अभी कोई नींव नहीं है। इसलिए उनके काम करने के तरीकों और साधनों के आधार पर, साथ ही उनकी मानवता की विभिन्न अभिव्यक्तियों और इन अभिव्यक्तियों के कारण होने वाले प्रतिकूल परिणामों के आधार पर, ये दो प्रकार के लोग उन लोगों में से हैं जिन्हें बहिष्कृत कर दिया जाना चाहिए, और उन्हें बुरे लोगों की श्रेणी में रखना बिल्कुल भी गलत नहीं है। भले ही तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करने वाले और लाभ उठाना पसंद करने वाले लोगों के व्यवहार मानवीय धारणाओं में परिभाषित बुरे लोगों की तरह बेहद अशिष्ट या दुष्ट न लगें—भले ही उनमें ऐसी स्पष्ट अभिव्यक्तियों का अभाव हो—मगर उनके व्यवहारों और उनकी मानवता के प्रतिकूल परिणामों के कारण उन्हें कलीसिया से बहिष्कृत करना जरूरी है। ये उन दो प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियाँ और उनसे निपटने के सिद्धांत थे, जिनके बारे में पिछली बार चर्चा की गई थी।

II. व्यक्ति की मानवता के आधार पर

ग. स्वच्छंद और असंयमित होना

आज हम तीसरे प्रकार के लोगों से शुरू करते हुए, कई अन्य प्रकार के लोगों की मानवता के संबंध में उन की अभिव्यक्तियों पर संगति करना जारी रखेंगे। इन लोगों की मानवता की प्राथमिक विशेषता क्या है? यह स्वच्छंदता और संयम की कमी है। शाब्दिक परिप्रेक्ष्य से स्वच्छंदता और संयम की कमी को समझना काफी आसान है; इसका मतलब है कि इन व्यक्तियों का व्यवहार, आचरण और बोली अनुचित प्रतीत होती है—वे सम्मानित और सभ्य व्यक्ति नहीं हैं। यह इस प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियों की एक बुनियादी समझ है। यह अपरिहार्य है कि कलीसिया में परमेश्वर में विश्वास रखने वाले कुछ लोगों के विचारों और उनके अनुसरण के तरीकों में भटकाव या त्रुटियाँ होंगी। उनकीके बोलीभाषण और आचरण में किसी भी प्रकार की भक्ति का अभाव होता है, जीवन में उनकी अभिव्यक्तियाँ और उनकी मानवता की गुणवत्ता संतों की मर्यादा पर बिल्कुल भी खरी नहीं उतरती हैं और उनमें परमेश्वर का भय मानने वाले दिल बिल्कुल नहीं होता है। कुल मिलाकर, उनकेभाषण, व्यवहार और आचरण को केवल स्वच्छंद और असंयमित के रूप में वर्णित किया जा सकता है। बेशक विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ अनेक हैं जो सभी को दिखाई देती हैं और जिन्हें पहचानना आसान है। ये लोग छद्म-विश्वासियों और अविश्वासियों के समान हैं; खास तौर पर वे बहुत स्वच्छंद व्यवहार करते हैं। जब सभाओं की बात आती है तो उनका पहनावा और सजना-संवरना काफी बेपरवाह होता है। कुछ लोग अपने घरों से निकलने से पहले खुद को साफ-सुथरा करने की जहमत नहीं उठाते, अस्त-व्यस्त अवस्था में, बालों को कंघी किए बिना और चेहरा धोए बिना सभाओं में आ जाते हैं। कुछ लोग गंदे कपड़े पहनते हैं, सभाओं में पुरानी चप्पल या पुराना पजामा पहनकर जाते हैं। अन्य लोग लापरवाही से रहते हैं, व्यक्तिगत स्वच्छता पर कोई ध्यान नहीं देते और सभाओं में गंदे कपड़े पहनने से गुरेज नहीं करते। ये सभी लोग सभाओं को बहुत लापरवाही से लेते हैं, मानो कि किसी पड़ोसी के घर जा रहे हों, इसे गंभीरता से नहीं लेते। सभाओं के दौरान उनका भाषण और व्यवहार भी असंयमित होता है और वे बिना किसी संकोच के जोर-जोर से बोलते हैं, यहाँ तक कि खुश होने पर काफी उत्तेजित हो जाते हैं और अजीबोगरीब मुद्राएँ बनाते हैं और अत्यधिक भोगविलासिता दिखाते हैं। चाहे कितने भी लोग मौजूद हों, वे हँसते हैं, मजाक करते हैं, बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, पैर पर पैर चढ़ाकर बैठते हैं, और ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे कि वे बाकी सभी से ऊपर हैं; वे विशेष रूप से तड़कृ-भड़क वाले और यहाँ तक कि घमंडी होते हैं, किसी से बात करते समय कभी भी सीधे आँखों में नहीं देखते, बल्कि उनकी निगाहें इधर-उधर घूमती रहती हैं। क्या यह स्वच्छंदता नहीं है? (बिल्कुल है।) यह विशेष रूप से भोगविलासी और असंयमित होना है। बेशक, अविश्वासी ऐसे व्यक्तियों के इस भाषण और व्यवहार का कारण अच्छी परवरिश न होना मान सकते हैं मगर हम इसे अलग तरह से समझते हैं; यह केवल अच्छी परवरिश न होने का मामला नहीं है। वयस्कों के रूप में लोगों को दूसरों से बात करने, व्यवहार करने और मेलजोल करने के सही और उचित तरीके साफ तौर पर पता होने चाहिए—खासकर उन्हें यह जानना चाहिए कि ऐसा कैसे किया जाए जो संतों की मर्यादा के अनुकूल हो, जो भाई-बहनों को शिक्षित करे और जो सामान्य मानवता के अंतर्गत हो—उसे यह बताए जाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। खासकर कलीसियाई जीवन जीते हुए भाई-बहनों की मौजूदगी में भले ही दिखावा करने की कोई जरूरत नहीं है लेकिन संयमित होना जरूरी है। तो फिर इस संयम का मापदंड और अपेक्षित मानक क्या है? यह संतों की मर्यादा के अनुरूप होना है। व्यक्ति की वेशभूषा सम्मानित और सभ्य होनी चाहिए, उसे अजीबोगरीब कपड़ों से परहेज करना चाहिए। परमेश्वर की उपस्थिति में व्यक्ति को समर्पित होना चाहिए, और बड़ी-बड़ी बातें नहीं करनी चाहिए; बेशक अन्य लोगों के सामने भी उन्हें समर्पित और मानव के समान बने रहना चाहिए, ताकि वे खुद को ऐसे तरीके से पेश करें जो दूसरों के लिए उपयुक्त, लाभकारी और शिक्षाप्रद हो। यही परमेश्वर को संतुष्ट करता है। जो लोग स्वच्छंद और असंयमित होते हैं वे मानवता के सबसे बुनियादी पहलुओं को जीने पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते और उनकी उदासीनता का एक निश्चित कारण यह है कि उन्हें इस बात का कोई अता-पता नहीं है कि एक समर्पित या ईमानदार और सम्मानित व्यक्ति कैसे बनें जो सम्मान का पात्र हो; वे इन चीजों को समझते ही नहीं हैं। इसलिए कलीसिया द्वारा सभाओं में साफ-सुथरे, सम्मानित और सभ्य कपड़े पहनने की बार-बार रखी गई शर्तों और माँगों के बावजूद वे इन नियमों को गंभीरता से नहीं लेते, वे अक्सर चप्पल पहनकर, अस्त-व्यस्त हालत में या यहाँ तक कि पजामा पहनकर आ जाते हैं। यह स्वच्छंद और असंयमित लोगों की कई अभिव्यक्तियों में से एक अभिव्यक्ति है।

जो लोग स्वच्छंद और असंयमित होते हैं वे एक और तरह का व्यवहार प्रकट करते हैं, वह है फैशन के हिसाब से कपड़े पहनना और सभाओं में मोटा, आकर्षक मेकअप लगाकर आना। वे हर सभा से दो दिन पहले सजना-संवरना शुरू कर देते हैं, इस बात पर विचार करते हैं कि क्या मेकअप करें, कौन-से गहने पहनें, कौन-सा हेयरस्टाइल चुनें, कौन-से कपड़े पहनें, कौन-सा बैग ले जाएँ और कौन-से जूते पहनें। कुछ महिलाएँ तो विमोहक लिपस्टिक, आईशैडो और नोज कंटूर भी लगाती हैं और कुछ चरम मामलों में तो वे अत्यधिक विमोहक तरीके से खुद को सजाती हैं, अपने कंधे और पीठ दिखाने वाले अजीबोगरीब कपड़े पहनती हैं। सभाओं में ये लोग भाई-बहनों की संगति को ध्यान से नहीं सुनते, न ही वे प्रार्थना करते हैं; वे संगति में भाग तो लेते ही नहीं या अपनी व्यक्तिगत समझ और अनुभवजन्य गवाहियाँ भी दूसरों के साथ साझा नहीं करते। इसके बजाय वे हर किसी से खुद की तुलना करते हैं, इस बात पर ध्यान देते हैं कि कौन उनसे बेहतर या खराब कपड़े पहने हुए है, किसने विशेष रूप से लोकप्रिय ब्रांड के कपड़े पहने हैं, किसने सस्ते बाजारू कपड़े पहने हैं, किसके कंगन की कीमत कितनी है, वगैरह-वगैरह; वे केवल इन मामलों पर ध्यान देते हैं, यहाँ तक कि अक्सर खुलेआम ऐसी तुलनाएँ करते हैं। इन व्यक्तियों के पहनावे, साथ ही इनके भाषण, व्यवहार और आचरण से यह स्पष्ट है कि कलीसियाई जीवन में उनकी भागीदारी और भाई-बहनों के साथ उनकी बातचीत का उद्देश्य सत्य समझना नहीं है और स्वभाव में बदलाव लाने के लिए जीवन प्रवेश का अनुसरण करना तो और भी नहीं है; इसके बजाय वे सभाओं के दौरान समय का उपयोग अपने धन और भौतिक जीवन का आनंद दिखाने के लिए करते हैं। कुछ लोग दिखावा करने के लिए नामी ब्रांड के कपड़े पहनकर सभा स्थलों पर आते हैं, भाई-बहनों के बीच फैशन और सामाजिक रुझानों की अपनी इच्छाएँ पूरा करते हैं और दूसरों को इन रुझानों का अनुसरण करने के लिए लुभाते हैं ताकि वे उनसे ईर्ष्या करें और उनके जैसा बनना चाहें। कुछ भाई-बहनों की नजरें और उनके प्रति घृणा के रवैये को देखने के बाद भी वे उपेक्षा करते रहते हैं, अपने तरीके से काम करना जारी रखते हैं, और ऊँची एड़ी के जूते पहनते हैं और डिजाइनर बैग साथ रखते हैं। कुछ लोग तो सभाओं में खुद को संपन्न, धनी व्यक्ति के रूप में पेश करने की कोशिश में घटिया किस्म का परफ्यूम लगाकर आते हैं जिससे कमरे में प्रवेश करने के बाद परफ्यूम, ब्लशर और हेयर ऑयल की मिली-जुली खुशबू तीखी और खराब दुर्गंध बन जाती है। सभा में भाग लेने वाले कई अन्य लोग गुस्सा होते हैं मगर आवाज उठाने की हिम्मत नहीं करते, इन लोगों को देखकर ही घृणा महसूस करते हैं और जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं वे उनसे दूरी बनाए रखते हैं। चाहे उनका पहनावा और सजना-संवरना काफी आलीशान हो या काफी साधारण, ऐसे व्यक्तियों की पहचान उनका असाधारण रूप से स्वतंत्र और अनुशासनहीन भाषण, व्यवहार, आचरण और जीवनशैली है, वो भी न केवल सभाओं के दौरान बल्कि भाई-बहनों के साथ उनकी रोजमर्रा की बातचीत में या उनके दैनिक जीवन में भी। सटीक रूप से कहें तो वे विशेष रूप से भोगविलासी होते हैं, उन में जरा-सा भी संयम नहीं होता। उनके दैनिक जीवन में नियमित पैटर्न नहीं होते; वे जो मन चाहे बोल देते हैं, बेपरवाह होकर और मनमर्जी से काम करते हैं, कभी व्यक्तिगत अनुभवों पर चर्चा नहीं करते, परमेश्वर के वचनों के बारे में अपनी समझ शायद ही कभी साझा करते हैं और अपने कर्तव्यों को करने में आने वाली कठिनाइयों के बारे में बिल्कुल भी बात नहीं करते हैं। वे किन गिने-चुने विषयों पर चर्चा करते हैं? सामाजिक रुझान, फैशन, लजीज भोजन, समाज के मशहूर व्यक्तियों और यहाँ तक कि सितारों के निजी जीवन, और समाज की असामान्य कहानियों और किस्सों के बारे में चर्चा करते हैं। उनके इन स्वाभाविक खुलासों से यह देख पाना मुश्किल नहीं है कि ऐसे लोगों का परमेश्वर में विश्वास केवल जीवन में जैसे-तैसे काम करने के लिए है। उनका जीवन कलीसियाई जीवन जीने, अपना कर्तव्य निभाने या सत्य का अनुसरण करने जैसे मामलों के बजाय पूरी तरह से खाने, पीने और मौज-मस्ती करने पर केंद्रित होता है। “स्वच्छंद और असंयमित” का अर्थ यह है कि इन व्यक्तियों की जीवनशैली, वे मानवता में क्या जीते हैं, और चीजों को संभालने, दूसरों के साथ व्यवहार करने और दूसरों के साथ बातचीत करने के उनके तरीके, सभी स्वच्छंद और असंयमित होते हैं। वे अक्सर समाज की लोकप्रिय अभिव्यक्तियों की नकल करते हैं; चाहे भाई-बहन उन्हें सुनना पसंद करें या न करें, चाहे वे उन्हें समझ पाएँ या नहीं, ये लोग बस बोलते ही रहते हैं। वे अक्सर समाज की कुछ मशहूर हस्तियों और संगीत और फिल्मी सितारों की बातों की नकल भी करते हैं। जहाँ तक परमेश्वर के घर में और भाई-बहनों के बीच अक्सर इस्तेमाल की जाने वाली सकारात्मक शब्दावली की बात है, वे इसमें कभी भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते; वे अपने दैनिक जीवन में कभी भी सत्य के बारे में संगति नहीं करते हैं। वे सांसारिक प्रवृत्तियों को आदर्श मानते हैं; वे विभिन्न मशहूर हस्तियों और सितारों को आदर्श मानकर उनकी पूजा और नकल करते हैं। उदाहरण के लिए, वे इंटरनेट पर प्रचलित शब्दों और वाक्यांशों को तुरंत पकड़ लेते हैं और उनका अपने जीवन में और भाई-बहनों के साथ बातचीत में इस्तेमाल करते हैं। बेशक ये शब्द यकीनन कहीं से भी सकारात्मक या शिक्षाप्रद नहीं होते हैं; ये सभी नकारात्मक हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखने वालों के लिए कोई मूल्य और मायने नहीं रखते। ये भ्रष्ट और बुरी मानवजाति द्वारा निर्मित लोकप्रिय अभिव्यक्तियाँ हैं जो पूरी तरह से बुरी शक्तियों के विचारों और दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। ऐसे शब्दों पर अक्सर कलीसिया में मौजूद वे छद्म-विश्वासी जो बुरी प्रवृत्तियों के शौकीन हैं, ध्यान देते हैं, उन्हें स्वीकारते और उनका इस्तेमाल करते हैं। वे परमेश्वर के घर की आध्यात्मिक शब्दावली और शब्दकोष से बहुत दूर रहते हैं, उन्हें गंभीरता से नहीं सुनते या उनके बारे में नहीं सीखते। इसके विपरीत वे अविश्वासियों के संसार की नकारात्मक चीजें जल्दी से समझ लेते हैं और उनका इस्तेमाल करते हैं और उन चीजों पर ध्यान देते हैं जिन पर घटिया लोग ध्यान देते हैं। इस प्रकार ये व्यक्ति, चाहे उनके बाहरी पहनावे, भाषण और आचरण से देखा जाए या उनके द्वारा प्रकट की गई चीजों के प्रति विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों और रवैये से देखा जाए, वे भाई-बहनों के बीच असाधारण रूप से अलग दिखते हैं। अलग होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि उनके भाषण, व्यवहार और आचरण अविश्वासियों जैसे हैं, जिनमें कोई भी बदलाव नहीं दिखता; वे बस छद्म-विश्वासी हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग परमेश्वर के घर के मंच पर दो भजन गाकर सबसे वाह-वाही पाते हैं और खुद को सितारा या कोई बड़ी हस्ती समझने लगते हैं, हमेशा अपनी परफॉरमेंस के लिए भारी मेकअप लगाने की मांग करते हैं, किसी सेलिब्रिटी का हेयरस्टाइल अपनाने पर जोर देते हैं, और बालों को अजीब रंगों में रंगते हैं। जब दूसरे कहते हैं : “विश्वासियों को गरिमा और शालीनता के साथ कपड़े पहनने चाहिए; तुम्हारा पहनावा परमेश्वर के घर की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं है” तो वे शिकायत करते हुए कहते हैं, “परमेश्वर के घर के नियम बहुत सख्त हैं; क्या मुसीबत है! यहाँ सितारा बनना इतना मुश्किल क्यों है?” सिर्फ दो भजन गाकर वे खुद को सितारा मान लेते हैं और सोचते हैं कि वे बहुत बढ़िया हैं, और अपने खाली समय में विचार करते हैं : “अविश्वासियों के संसार के सितारे माइक्रोफोन को पकड़ने के लिए कितनी उंगलियों का उपयोग करते हैं? मंच पर आने के लिए वे कितने कदम उठाते हैं? जब मैं इतना अच्छा गाता हूँ तो मुझे फूल क्यों नहीं मिलते? दुनिया भर के सितारों के पास एजेंट और सहायक होते हैं; उन्हें ज्यादातर मामलों को खुद से संभालना या हल करना नहीं पड़ता, उनके सहायक सब कुछ कर देते हैं। मगर परमेश्वर के घर में एक गायक के रूप में मुझे भोजन लेना, कपड़े पहनना और खरीदारी जैसी साधारण कामों का ध्यान खुद ही रखना पड़ता है। परमेश्वर का घर बहुत रूढ़िवादी है!” अपने दिलों में वे हमेशा परमेश्वर के घर में रहते हुए दुखी महसूस करते हैं; वे विशेष रूप से दुखी, हमेशा असंतुष्ट और शिकायतों से भरे हुए महसूस करते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति सत्य से प्रेम कर सकता है? क्या वे सत्य का अभ्यास करेंगे? वे आत्म-चिंतन क्यों नहीं करते? चीजों को लेकर उनका परिप्रेक्ष्य बहुत विकृत है, अविश्वासियों के समान है; उन्हें यह एहसास कैसे नहीं होता? परमेश्वर का घर उन्हें सितारा बनने से नहीं रोकता मगर क्या उनके ये विचार और दृष्टिकोण—जो छद्म-विश्वासियों के हैं—परमेश्वर के घर में व्यावहारिक हैं? वे मूल रूप से असमर्थनीय हैं। उनके सामान्य भाषण और आचरण ज्यादातर लोगों के लिए घृणित हैं। अपने “खुले विचारों” और अत्यधिक भोगविलास के कारण ऐसे लोग जो कुछ भी कहते या करते हैं वह स्वच्छंद और असंयमित होता है जिससे शैतान के स्वभाव के अलावा और कुछ भी प्रकट नहीं होता।

परमेश्वर का घर बार-बार इस बात पर जोर देता है कि भाई-बहनों को पुरुषों और महिलाओं के बीच की सीमाओं को बनाए रखना चाहिए और विपरीत लिंग के साथ गहरा जुड़ाव नहीं रखना चाहिए। लेकिन कुछ लोग स्वच्छंद और असंयमित होते हैं जो इस सलाह पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते हैं और यहाँ तक कि दूसरों को चोरी-छिपे लुभाने या उनसे प्रेम संबंध बनाने की कोशिश करते हैं जिससे कलीसियाई जीवन में बाधा पड़ती है। वे विपरीत लिंग के लोगों से मेलजोल करना पसंद करते हैं, यहाँ तक कि उनसे संपर्क करने और उनके साथ मजाकिया ढंग से बातचीत करने के लिए कारण और बहाने भी खोजते रहते हैं। विपरीत लिंग के किसी आकर्षक व्यक्ति या जिसके साथ उनका मेलजोल है उसे देखकर अपनी ओर खींचने लगते हैं, छेड़खानी और मजाक करते हैं, उनके कपड़ों के साथ छेड़छाड़ करते हैं और उनके बालों को बिखेरते हैं और यहाँ तक कि सर्दियों में उनके कपड़ों में बर्फ के गोले भी फेंकते हैं; वे बिना किसी सीमा या सम्मान की भावना के, बेशर्म होकर जानवरों की तरह एक-दूसरे के साथ खेलते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “इसे मजाक कैसे माना जा सकता है? वे स्नेह दिखा रहे हैं; इसे प्रेमपूर्ण होना, रूमानी होना कहते हैं।” अगर तुम रूमानियत की तलाश में हो तो तुमने गलत जगह चुनी है। कलीसिया में भाई-बहन अपने कर्तव्य निभाते हैं; यह परमेश्वर की आराधना करने की जगह है न कि इश्कबाजी करने की। सबके सामने इस तरह के व्यवहार का सार्वजनिक प्रदर्शन करने से ज्यादातर लोगों को घृणा होती है। मुख्य मुद्दा यह है कि इससे दूसरों को कोई शिक्षा नहीं मिलती और तुम अपनी ईमानदारी और गरिमा भी खो देते हो। तुम्हारी उम्र कितनी है? क्या तुम अपने दाएँ और बाएँ हाथ में अंतर नहीं बता सकते? क्या तुम पुरुषों और महिलाओं के बीच का अंतर नहीं समझते? और फिर भी तुम इश्कबाजी में लगे रहते हो! सात-आठ साल के बच्चों का इधर-उधर खेलना सामान्य बात है; इस तरह का व्यवहार और रुचियाँ उनकी उम्र के हिसाब से सामान्य हैं। लेकिन अगर वयस्क इस तरह का व्यवहार करें तो क्या यह बचकाना नहीं है? सीधे शब्दों में कहें तो यह बिल्कुल ऐसा ही है। सार के संदर्भ में, यह क्या है? (भोगविलास, स्वच्छंदता।) यह पूरी तरह से स्वच्छंदता है! परमेश्वर में विश्वास रखते हुए, व्यक्ति को सम्मान की भावना रखना आना चाहिए। अविश्वासियों में भी बहुत कम लोग इस तरह का स्वच्छंद व्यवहार करते हैं। ऐसे स्वच्छंद व्यक्ति कितने तुच्छ और घृणित होते हैं! उत्तेजना के लिए अन्य पुरुषों और महिलाओं के कपड़ों में बर्फ के गोले फेंकते हैं, न केवल उनके पीछे भागते हैं बल्कि मजाक में उनके पीछे लात भी मारते हैं—जब कोई इस तथ्य को उजागर करता है कि ऐसा व्यवहार बहुत ही स्वच्छंद है और पुरुषों और महिलाओं के बीच की सीमाओं को धुंधला करता है तो वे जवाब देते हैं, “हम सिर्फ इसलिए इस तरह से खिलवाड़ करते हैं क्योंकि हम बहुत करीब है; लोगों को समझना चाहिए।” वे इस हद तक भोगविलासी हो जाते हैं, न केवल खुद भोगविलास में लिप्त होते हैं बल्कि दूसरों को भी अपने साथ भोगविलास में लिप्त होने के लिए लुभाते हैं। यह कैसी दुष्टता है? मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों को कलीसिया में रहना चाहिए? (नहीं।) इस तरह के व्यक्ति के आस-पास रहना हमेशा असहज और अजीब लगता है। जब वे किसी को देखते हैं तो सामान्य रूप से उनका अभिवादन नहीं करते; बल्कि वे उन्हें एक मुक्का मारते हुए कहते हैं, “तू इतने सालों से कहाँ था? मुझे तो लगा कि तू मंगल पर चला गया! कैसा रहा?” यहाँ तक कि उनके अभिवादन का तरीका भी बहुत अक्खड़ और घमंडी है; वे न केवल अक्खड़ तरीके से बोलते हैं बल्कि वे दूसरों के साथ मारपीट भी करते हैं। क्या यह गुंडों और डाकुओं जैसा व्यवहार नहीं है? क्या तुम लोग ऐसे लोगों को पसंद करते हो? (नहीं।) क्या मजाक उड़ाए जाने और खिलवाड़ किए जाने का एहसास आरामदायक है? (नहीं।) यह असहज है और तुम इसे व्यक्त भी नहीं कर सकते; तुम्हें बस इसे सहना पड़ेगा और अगली बार जब तुम उनसे मिलते हो तो उनसे दूर से ही बच निकलते हो। संक्षेप में, यह ऐसे लोगों की मानवता की गुणवत्ता के बारे में क्या कहता है? (उनकी मानवता की गुणवत्ता खराब है।) चाहे जिस भी पहलू से उन्हें देखा जाए—भले ही वह उनकीका बोलीभाषण और चाल-चलन हो, उनका व्यक्तिगत आचरण हो, जिस तरह से वे संसार से निपटते हैं और दूसरों के साथ उनकी बातचीत का तरीका, अविश्वासियों के संसार की प्रवृत्तियों के प्रति उनका दृष्टिकोण हो या भले ही परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका तरीका, परमेश्वर और उसके वचनों के प्रति उनका रवैया हो—यह देखना मुश्किल नहीं है कि इन व्यक्तियों में किसी भी प्रकार की भक्ति या परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है। न ही कोई उनमें सत्य खोजने या सत्य स्वीकारने की कोई गंभीरता देख सकता है। उनमें केवल स्वच्छंदता और संयम की कमी, उनके द्वारा सितारों और आदर्श व्यक्तियों का निरंतर अनुकरण देखा जा सकता है और चाहे सत्य पर कितनी भी संगति की जाए, उनका मार्ग बदलने का कोई इरादा नहीं है। उनकी मानवता की विशेषताओं को किस प्रकार संक्षेपित किया जा सकता है? स्वच्छंदता और संयम की कमी। इस प्रकार यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वे अविश्वासी हैं, जिन्होंने परमेश्वर के घर में घुसपैठ की है; वे छद्म-विश्वासी हैं।

स्वच्छंद और असंयमित लोग उन्हीं शब्दों का उपयोग करते हैं जो अविश्वासी दुनिया के डाकुओं और गुंडों द्वारा उपयोग किए जाते हैं; वे खास तौर से समाज के सितारों और नकारात्मक शख्सियतों की बोली और शैली की नकल करने का आनंद लेते हैं, उनकी ज्यादातर भाषा में एक घिनौना लहजा होता है जिसे सुनकर लगता है मानो कोई गुंडा या बदमाश बोल रहा हो। मिसाल के तौर पर, जब कोई अविश्वासी आता है, तो दरवाजा खटखटाने के बाद वह कुछ अजीब वाक्यांश बड़बड़ाता है, इस पर भाई-बहन कहते हैं, “कुछ तो गड़बड़ है; यह व्यक्ति भेदिया या जासूस जैसा क्यों लगता है?” वैसे तो फिलहाल उन्हें यकीन नहीं हो सकता है, लेकिन ज्यादातर लोग इससे असहज महसूस करते हैं। फिर भी, जो व्यक्ति स्वच्छंद है और असंयमित है, वह प्रभावशाली ढंग से बोलता है, और एक खास अंदाज में कहता है, “भेदिया? मैं नहीं डरता! उससे क्यों डरना? अगर तुम लोग डर गए हो, तो तुम्हें बाहर जाने की जरूरत नहीं है। मैं जाकर देखता हूँ कि उसका क्या मामला है।” देखो वे कितने दिलेर और दबंग हैं। क्या तुम लोग इस तरह से बोलोगे? (नहीं, यह सामान्य लोगों के बात करने का तरीका नहीं है; इस तरीके से डाकू बोलता है।) डाकू सामान्य लोगों से अलग तरीके से बोलते हैं; वे खास तौर से दबंग होते हैं। लोग अपने जैसे लोगों की भाषा सीखते हैं; अपना बचाव करने में सक्षम लोग विशेष रूप से समाज की लोकप्रिय भाषा अपनाते हैं, डाकू और गुंडे अपनी शब्दावली बोलना पसंद करते हैं, और छद्म-विश्वासी बिल्कुल अविश्वासियों जैसे होते हैं, वे वह सब कुछ कहते हैं जो अविश्वासी कहते हैं। अविश्वासियों की बोली सुनकर अच्छे, गरिमापूर्ण, सुसभ्य लोग नाराजगी और नफरत महसूस करते हैं; उनमें से कोई भी उनकी बोली की नकल करने का प्रयास नहीं करता है। कुछ छद्म-विश्वासी दस या बीस वर्षों तक विश्वास करने के बाद भी अविश्वासियों की भाषा का उपयोग करते हैं, जानबूझकर ऐसी बोली चुनते हैं, और यहाँ तक कि बोलते समय वे अविश्वासियों की चाल-ढाल, उनकी अभिव्यक्तियों और उनके हाव-भाव की ही नकल करते हैं; साथ ही, अपनी आँखों से भी ऐसे हाव-भाव दिखाते हैं। क्या ऐसे व्यक्ति कलीसिया में भाई-बहनों की नजरों में सुखद हो सकते हैं? (नहीं।) ज्यादातर भाई-बहनों को उन्हें देखना घिनौना और असहज लगता है। तुम लोगों के विचार से परमेश्वर उनके बारे में क्या महसूस करता है? (नफरत।) इसका उत्तर स्पष्ट है : नफरत। वे जो कुछ जीते हैं, उनके अनुसरणों, और वे अपने दिलों में जिन लोगों, घटनाओं और चीजों का आदर करते हैं, उससे यह स्पष्ट है कि उनकी मानवता में गरिमा या भद्रता शामिल नहीं है और इसमें निष्ठा का अभाव है और यह संतों की मर्यादा के उपयुक्त नहीं है। उनके मुँह से शायद ही कभी वे शब्द सुनाई देते हैं जो विश्वासियों या संतों को बोलने चाहिए, और जो शब्द दूसरों को शिक्षित करते हैं और ईमानदारी और गरिमा व्यक्त करते हैं, उनके द्वारा इन्हें कहने की संभावना नहीं है। वे अपने दिलों में जिसका आदर करते हैं, जिसकी आकांक्षा करते हैं और जिसका अनुसरण करते हैं, वह मूल रूप से उसके साथ असंगत है जिसका संतों को अनुसरण और आकांक्षा करनी चाहिए, जिससे वे बाहरी रूप से जिस चीज को जीते हैं उसे, उनकी बोली और उनकी चाल-ढाल को सीमित करना मुश्किल हो जाता है। उन्हें सीमित रहने, स्वच्छंद या आसक्त नहीं होने, और गरिमा और भद्रता बनाए रखने के लिए कहना एक मुश्किल कार्य है। मानवता और सूझ-बूझ वाले किसी ऐसे व्यक्ति की तरह जीने की तो बात ही छोड़ दो जो सत्य को समझता है और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करता है, वे तो ईमानदारी और गरिमा के साथ एक सामान्य व्यक्ति बनने का लक्ष्य भी हासिल नहीं कर सकते हैं जो संतों की मर्यादा के उपयुक्त हो, नियमों का पालन करता हो और बाहर से तार्किक दिखाई देता हो। इससे पहले, एक व्यक्ति था जो सुसमाचार के प्रचार के लिए ग्रामीण इलाकों में गया और उसने देखा कि कुछ भाई-बहनों के परिवार बहुत गरीब थे और टूटे-फूटे घरों में रहते थे। उसने ताना देते हुए और मजाक उड़ाते हुए कहा, “यह घर बहुत ही टूटा-फूटा है, यह लोगों के रहने लायक नहीं है; यह सिर्फ सूअरों के रहने लायक है। तुम लोगों को जल्दी से यह घर छोड़ देना चाहिए!” भाई-बहनों ने उत्तर दिया, “यह घर छोड़ देना तो आसान है, लेकिन हमें रहने के लिए दूसरा घर कौन देगा?” उसने बिना विचारे और मनमाने ढंग से बात की, उसके मन में जो भी आया, उसने वही कह दिया और यह तक नहीं सोचा कि दूसरों पर उसका क्या प्रभाव पड़ सकता है। यह एक घिनौनी प्रकृति है। भाई-बहनों ने पूछा, “अगर हमने यह घर छोड़ दिया, तो हमें रहने के लिए घर कौन देगा? क्या तुम्हारे पास घर है?” उसके पास कोई उत्तर नहीं था। लोगों को मुश्किल का सामना करते हुए देखकर उसे बोलने से पहले उनकी मुश्किल दूर करने में समर्थ होना चाहिए। उनकी मुश्किल दूर करने में सक्षम हुए बिना ही उसके अंधाधुंध बोलने के क्या परिणाम हुए थे? क्या यह बहुत ज्यादा बेबाक और स्पष्टवादी होने की समस्या थी? बिल्कुल नहीं। यहाँ समस्या यह थी कि उसका घिनौनापन बहुत ज्यादा गंभीर था; वह स्वच्छंद और असंयमित था। ऐसे लोगों में ईमानदारी, गरिमा, विचार, सहनशीलता, देखभाल, सम्मान, समझ, सहानुभूति, करुणा, विचारशीलता, सहायता वगैरह की कोई अवधारणा नहीं होती है। सामान्य मानवता के लिए जरूरी ये गुण लोगों में होने चाहिए। उनमें ना सिर्फ इन गुणों का अभाव होता है, बल्कि दूसरों के साथ अपने व्यवहार में किसी को मुश्किलों का सामना करते हुए देखकर वे उसका उपहास भी कर सकते हैं, उसका मजाक उड़ा सकते हैं और उसे ताना दे सकते हैं; वे ना सिर्फ उन्हें समझने या उनकी सहायता करने में असमर्थ होते हैं, बल्कि वे उनके लिए दुःख, लाचारी, दर्द और यहाँ तक कि परेशानी भी ले आते हैं। ज्यादातर लोग ऐसे गंभीर घिनौनेपन वाले लोगों को स्पष्ट रूप से पहचान लेते हैं और उन्हें बार-बार सहते हैं। क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे लोगों को सच्चा पश्चात्ताप हो सकता है? मुझे नहीं लगता है कि यह संभव है। उनके प्रकृति सार को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि वे सत्य के प्रेमी नहीं हैं, इसलिए वे काट-छाँट और अनुशासित किए जाने को कैसे स्वीकार सकते हैं? ऐसे लोगों का वर्णन करने के लिए अविश्वासियों के पास इस तरह के शब्द होते हैं, “अपने तरीके पर अड़े रहना” या “दूसरों की बातों की परवाह किए बिना अपने मार्ग पर चलना”—यह क्या हास्यास्पद तर्क है? इन तथाकथित मशहूर कहावतों और मुहावरों को अक्सर इस समाज में सकारात्मक चीजों के रूप में देखा जाता है, जो तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करता है और सही और गलत को उलझा देता है। जहाँ तक स्वच्छंद और असंयमित लोगों की मानवता की अभिव्यक्तियों की बात है, तो अब इस पर चर्चा पूरी हो गई है।

स्वच्छंद और असंयमित व्यक्ति चाहे कलीसियाई जीवन, भाई-बहनों के बीच सामान्य संबंधों या परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा कर्तव्य के सामान्य निर्वहन को प्रभावित करते हों या नहीं, अगर उनकी मानवता की अभिव्यक्तियों और खुलासों से प्रतिकूल प्रभाव और परिणाम होते हैं, भाई-बहन परेशान होते हैं तो इन समस्याओं को हल किया जाना चाहिए और ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ उचित कार्रवाई की जानी चाहिए, न कि उन्हें बिना रोक-टोक काम करने दिया जाना चाहिए। छोटे-मोटे मामलों में मदद और सहायता दी जा सकती है या उनकी काट-छाँट की जा सकती है या उन्हें चेतावनी दी जा सकती है। गंभीर मामलों में जहाँ उनका व्यवहार और आचरण विशेष रूप से स्वच्छंद है, अविश्वासियों या छद्म-विश्वासियों जैसा है, जिसमें संतों जैसी मर्यादा का रत्ती भर भी अंश नहीं है, वहाँ कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इन व्यक्तियों से निपटने के लिए उचित समाधान निकालना चाहिए। अगर ज्यादातर भाई-बहन सहमत हैं और परिस्थितियाँ अनुमति देती हैं तो इन व्यक्तियों को बहिष्कृत किया जाना चाहिए; कम से कम उन्हें पूर्णकालिक कर्तव्य वाली कलीसिया में अपने कर्तव्य निभाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। “छोटे-मोटे मामलों” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि कुछ लोग नए विश्वासी हैं, जो पहले अविश्वासी थे, जिन्होंने कभी ईसाई धर्म में विश्वास नहीं किया और वे नहीं समझते कि परमेश्वर में विश्वास रखने का क्या अर्थ है। उनके भाषण और चाल-ढाल से अविश्वासियों की आदतें प्रकट होती हैं। लेकिन परमेश्वर के वचन पढ़ने, सत्य पर संगति करने और कलीसियाई जीवन जीने से वे धीरे-धीरे बदल जाते हैं और विश्वासियों जैसे बन जाते हैं, थोड़ा मनुष्य जैसा व्यवहार दिखाते हैं। इन व्यक्तियों को बुरे लोगों की श्रेणियों में नहीं रखा जाना चाहिए बल्कि उन लोगों के साथ रखा जाना चाहिए जिनकी मदद की जा सकती है। एक और श्रेणी बीस वर्ष की आयु के आसपास के युवा लोगों की है जो तीन से पाँच वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखने के बावजूद अभी भी चंचलता दिखाते हैं, जीवन में पूरी तरह से व्यवस्थित नहीं हुए हैं, अपनी छोटी उम्र के कारण अपने बाहरी भाषण और चाल-ढाल में थोड़ा बचकाना भाव प्रदर्शित करते हैं—वे बच्चों की तरह बोलते, व्यवहार करते और काम करते हैं। इन लोगों के लिए, प्यार से मदद और सहयोग दिया जाना चाहिए; उन्हें बेहद सख्त माँगें थोपे बिना धीरे-धीरे बदलने के लिए पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए। बेशक जो वयस्क कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते आए हैं मगर फिर भी अविश्वासियों की तरह स्वच्छंद और असंयमित भाषण, चाल-ढाल, व्यवहार और क्रियाकलापों का प्रदर्शन करते हैं और जो बार-बार चेतावनी दिए जाने के बाद भी बदलने से इनकार करते हैं उनके लिए एक अलग नजरिया अपनाने की आवश्यकता है; उनसे परमेश्वर के घर के नियमों के अनुसार निपटा जाना चाहिए। अगर ऐसे व्यक्तियों का भाषण, चाल-ढाल और उनकी मानवता के खुलासों से ज्यादातर लोग परेशान होते हैं और कलीसिया में प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न होता है, जिससे कई लोग उन्हें देखकर घृणा महसूस करते हैं, उन्हें बोलते हुए नहीं सुनना चाहते, जब वे बोलते हैं तो उनके हाव-भाव नहीं देखना चाहते, न ही उनके पहनावे को देखने के लिए तैयार होते हैं और जब ऐसे व्यक्ति सभाओं में शामिल नहीं होते तो ज्यादातर लोग ज्यादा खुश और बेहतर स्थिति में होते हैं—कलीसियाई जीवन में उनकी भागीदारी मात्र से और भाई-बहनों के बीच उनकी उपस्थिति मात्र से असहज और घृणा महसूस करते हैं, मानो कोई कीड़ा परेशान कर रहा हो—तो ऐसे व्यक्ति बेशक बुरे लोग हैं। यानी जब भी वे कलीसियाई जीवन जीते हैं और भाई-बहनों के साथ अपना कर्तव्य निभाते हैं तो ज्यादातर लोग परेशान और विशेष रूप से घृणा महसूस करते हैं। ऐसे मामलों में इन व्यक्तियों को जितनी जल्दी हो सके निपटाया जाना चाहिए, उन्हें अपनी मनमानी करने के लिए अकेला नहीं छोड़ा जाना चाहिए या उन पर और अधिक निगरानी नहीं रखनी चाहिए। कम से कम उन्हें पूर्णकालिक कर्तव्य वाली कलीसिया से बहिष्कृत करके पश्चात्ताप करने के लिए एक साधारण कलीसिया में भेज दिया जाना चाहिए। इनसे इस तरह क्यों निपटा जाना चाहिए? (क्योंकि उन्होंने ज्यादातर लोगों के लिए बाधाएँ और प्रतिकूल परिणाम उत्पन्न किए हैं, कलीसियाई जीवन में बाधाएँ डाली हैं।) क्योंकि उनकी अभिव्यक्तियों के परिणाम और प्रभाव बहुत ही घृणित हैं! इसके अनुसार, अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ-साथ परमेश्वर के चुने हुए लोगों को भी उन्हें नजरंदाज नहीं करना चाहिए और आँखें मूंदकर उनके व्यवहार को खुली छूट नहीं देनी चाहिए। जब ऐसे व्यक्ति ज्यादातर लोगों के लिए बाधाएँ पैदा करें तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं का कुछ भी नहीं करना अनुचित है; ऐसे व्यक्तियों को परमेश्वर के घर के विनियमों के अनुसार कलीसिया से बहिष्कृत कर देना चाहिए—यह सबसे बुद्धिमानी भरा विकल्प है।

क्या कलीसिया पहले भी स्वच्छंद और असंयमित लोगों से निपटी है? (हाँ।) जब ऐसे लोगों से निपटा गया तो कुछ ने रोते हुए कहा, “मैंने यह जानबूझकर नहीं किया था। मैं कभी-कभार ऐसा ही व्यवहार करता हूँ; मैं उस तरह का व्यक्ति नहीं हूँ। मुझे एक और मौका दो! अगर मुझे अपना कर्तव्य निभाने की अनुमति नहीं दी गई तो मैं घर लौटने के बाद परमेश्वर में विश्वास नहीं रख पाऊँगा, जहाँ हर कोई अविश्वासी है।” वे बहुत याचना के साथ बोलते हैं और वास्तव में व्यथित लगते हैं, परमेश्वर को छोड़ने की अनिच्छा व्यक्त करते हैं और परमेश्वर के घर से पश्चात्ताप करने के लिए एक और मौका माँगते हैं। उन्हें एक और मौका देना संभव है मगर मूल बात यह है कि वे बदल सकते हैं या नहीं। अगर यह पूरी तरह से माना जाता है कि इस व्यक्ति में मानवता का रत्ती भर भी अंश नहीं है, उसके पास कोई अंतरात्मा या विवेक नहीं है, मूल रूप से उसके पास दिल और आत्मा नहीं है तो उसे एक और मौका नहीं दिया जाना चाहिए; यह व्यर्थ होगा। लेकिन, अगर व्यक्ति का सार अच्छा है और बात बस इतनी है कि उसकी मानवता उसकी कम उम्र के कारण अपरिपक्व है और वह कुछ वर्षों में जरूर बदल जाएगा तो ऐसे लोगों को पश्चात्ताप करने का मौका जरूर दिया जाना चाहिए। उन्हें कलीसिया से बाहर बिल्कुल भी नहीं निकालना चाहिए; कोई भी अच्छा व्यक्ति कभी बर्बाद नहीं हो सकता। कुछ लोग स्वभाविक रूप से अविश्वासी होते हैं; वे स्वाभाविक रूप से भ्रष्ट, अज्ञानी और मूर्ख होते हैं और अपनी मानवता में उनमें स्वाभाविक रूप से सम्मान की अवधारणा का अभाव होता है, वे नहीं जानते कि शर्म की भावना क्या होती है। सबके सामने असभ्य तरीके से काम करने के बाद ज्यादातर लोग दूसरों का सामना करने में पछतावा और शर्मिंदगी महसूस करेंगे। इसके अलावा, जब वे ऐसा करना चाहेंगे तो वे भाई-बहनों की भावनाओं और राय के प्रति विचारशील होंगे और अपनी खुद की ईमानदारी और गरिमा के प्रति सचेत होंगे और वे इस तरह से व्यवहार नहीं करेंगे; वे शायद घर पर अपने बच्चों या भाई-बहनों के साथ बस झगड़ा कर सकते हैं। बाहर घूमते समय, अजनबियों से मिलते-जुलते समय, लोगों को सम्मान, शालीनता, नियम और गरिमा का अर्थ समझना चाहिए। क्या कोई व्यक्ति जो इन अवधारणाओं को नहीं समझता, तुम्हारी मदद के बाद भी बदल सकता है? भले ही वह अभी संयमित हो, वह कब तक रुका रहेगा? बहुत जल्द ही वह अपने पुराने तौर-तरीकों पर लौट आएगा। क्योंकि ऐसे लोगों की मानवता में गरिमा और शर्म की भावना की कमी होती है, वे नहीं जानते कि नियम, शालीनता या संतों जैसी मर्यादा का क्या मतलब है और उनकी मानवता में स्वाभाविक रूप से ये गुण नहीं होते इसलिए तुम उनकी मदद नहीं कर सकते। जिन लोगों की मदद नहीं की जा सकती वे ऐसे लोग हैं जो बदल नहीं सकते, जिन्हें निर्देशित या प्रभावित नहीं किया जा सकता। ऐसे व्यक्तियों को तुरंत और जितनी जल्दी हो सके बहिष्कृत कर देना चाहिए ताकि उन्हें भाई-बहनों के बीच विघ्न-बाधाएँ पैदा करने और सबको शर्मिंदा करने से रोका जा सके। परमेश्वर के घर को सिर्फ संख्याएँ बढ़ाने वाले किसी व्यक्ति की कोई जरूरत नहीं है। अगर परमेश्वर किसी व्यक्ति को नहीं बचाएगा तो सिर्फ संख्याएँ बढ़ाने से उस व्यक्ति को कोई फायदा नहीं होगा। जिन्हें परमेश्वर स्वीकार नहीं करता है उन्हें बहिष्कृत कर देना चाहिए—उन लोगों को बाहर कर दो जिन्हें परमेश्वर के घर में नहीं रहना चाहिए, ऐसा न हो कि इस एक व्यक्ति की उपस्थिति कई अन्य लोगों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करे, जो ज्यादातर लोगों के लिए अनुचित है। अगर तुम लोग स्वच्छंद और असंयमित लोगों के सार की असलियत समझते हो तो तुम्हें उन्हें निपटाते हुए जल्द से जल्द बहिष्कृत कर देना चाहिए न कि उन्हें अनिश्चित काल तक बर्दाश्त करते रहना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “वे अपना कर्तव्य निभाते समय कभी-कभी कुछ नतीजे देते हैं। काम के उस पहलू के लिए अभी भी उनकी आवश्यकता है। उनके दिल में प्रेम है और वे थोड़ी कीमत चुका सकते हैं।” मगर परमेश्वर के घर में बचे हुए लोगों में से कौन थोड़ी कीमत नहीं चुका सकता? कौन अपना कर्तव्य करते समय कुछ नतीजे प्राप्त नहीं कर सकता? अगर हर कोई कुछ नतीजे प्राप्त कर सकता है तो कर्तव्यों को करने के लिए ऐसे अच्छे लोगों को क्यों नहीं चुना जाता जो सम्मानित और सभ्य हैं? घिनौने, बदमाश और मूर्ख लोगों को बाधाएँ पैदा करने के लिए पूर्णकालिक कर्तव्य वाली कलीसिया में रखने पर जोर क्यों दिया जाता है? परमेश्वर के घर में श्रम करने के लिए उन छद्म-विश्वासियों को रखने पर जोर क्यों दिया जाता है जो अविश्वासियों की तरह जीते हैं? परमेश्वर के घर में श्रम करने वालों की कमी नहीं है; परमेश्वर के घर को केवल ईमानदार लोग चाहिए जो सत्य से प्रेम करते हैं, जो सच्चे हैं और जो खुद को परमेश्वर के लिए खपाने के लिए सत्य का अनुसरण कर सकते हैं।

वर्तमान में कर्तव्य निभा रहे ज्यादातर लोग ऐसे हैं जिन्होंने पाँच या छह वर्षों से अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हैं और अपने कर्तव्यों को निभाने की प्रक्रिया में सभी प्रकार के लोगों को पूरी तरह से बेनकाब किया जा चुका है—जो छद्म-विश्वासी, भ्रमित लोग, झूठे अगुआ, बुरे लोग और मसीह-विरोधी हैं, वे सभी बेनकाब हो चुके हैं। परमेश्वर के चुने हुए बहुत से लोगों ने स्पष्ट रूप से देखा है कि इनमें से ज्यादातर लोग बार-बार चेतावनी दिए जाने के बाद भी बदलने से इनकार करते हैं और परमेश्वर के घर के काम में पहले ही गंभीर विघ्न-बाधाएँ पैदा कर चुके हैं। अब समय आ गया है जब इन छद्म-विश्वासियों, बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को बहिष्कृत कर दिया जाना चाहिए। उन्हें बहिष्कृत नहीं करने से कलीसिया के कार्य के संचालन और परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैलाने पर असर पड़ेगा। उन्हें बहिष्कृत नहीं करने से परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश पर असर पड़ेगा; कलीसियाई जीवन में बाधाएँ पड़ती रहेंगी और कभी शांति नहीं मिलेगी। इसलिए सभी स्तरों पर कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को परमेश्वर के इरादों के अनुसार और परमेश्वर के वचनों के आधार पर कलीसिया को स्वच्छ करना शुरू कर देना चाहिए। मैं देखता हूँ कि बहुत से लोगों में मानवता की कमी है। सभाओं के दौरान कुछ लोग सभी प्रकार के अनुचित व्यवहार प्रदर्शित करते हैं और चाहे बैठे हों या खड़े हों, उचित चाल-ढाल नहीं दिखाते; चाय, मोबाइल फोन, फेशियल क्रीम और परफ्यूम, सब उनके आस-पास तैयार रहते हैं। कुछ लोग जो सुंदर दिखना पसंद करते हैं वे लगातार आईने में अपना चेहरा देखते हैं और अपना मेकअप ठीक करते रहते हैं और अन्य लोग हमेशा पानी पीते रहते हैं, समाचार पढ़ने या अविश्वासियों की दुनिया के वीडियो देखने के लिए अपने फोन पर स्क्रॉल करते रहते हैं, बोलते और बातचीत करते समय अपने पैर एक दूसरे पर चढ़ाकर रखते हैं, अपने शरीर को दो जगहों से मरोड़कर साँप की तरह दिखते हैं और सही ढंग से खड़े भी नहीं रहते हैं। मैंने यह भी सुना है कि कुछ लोग रात को अपने बेडरूम में लौटते हैं और बिना जूते उतारे बिस्तर पर लेट जाते हैं, सुबह होने तक सोते रहते हैं। सुबह वे प्रार्थना करने या आध्यात्मिक भक्ति में शामिल होने के लिए नहीं बल्कि पहले अपने मोबाइल फोन पर समाचार देखने के लिए अपनी आँखें खोलते हैं। भोजन के समय जब वे स्वादिष्ट भोजन या मांस देखते हैं तो वे उसे बड़े चाव से खाते हैं—जब तक उनका पेट भरा हुआ है, इस बात की कोई परवाह नहीं करते कि दूसरों को खाने को मिलेगा या नहीं—और फिर सीधे सोने चले जाते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं उसमें मनुष्य जैसे व्यवहार का अभाव होता है, वे बिना किसी नियम का पालन किए अविश्वासियों की तरह स्वच्छंद और असंयमित व्यवहार करते हैं, उनमें जानवरों की तरह रत्ती भर भी आज्ञाकारिता या समर्पण नहीं होता। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोग जिनकी प्रकृति इतनी ज्यादा घृणित है, उन्हें बचाया जा सकता है? (नहीं।) तो क्या उनका परमेश्वर में विश्वास रखने का कोई मतलब है? सत्य के बिल्कुल भी अनुरूप नहीं होने की इतनी खराब काबिलियत के साथ, क्या वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय उन्हें समझ सकते हैं? बिना उन नियमों के जो एक व्यक्ति में होने चाहिए, क्या उनका श्रम मानक के अनुरूप हो सकता है? अंतरात्मा या विवेक के बिना, क्या वे धर्मोपदेशों को सुनते समय और सत्य पर संगति सुनते समय उन्हें स्वीकार सकते हैं? (नहीं।) जो लोग इस तरह के व्यवहार प्रदर्शित करते हैं उनमें मूल रूप से किसी भी मानवता का अभाव होता है, तो वे सत्य कैसे प्राप्त कर सकेंगे? मानवता के बिना वे जानवर, शैतान, आत्मा से रहित मृत लोग हैं, जो सत्य सुनते समय उसे समझ नहीं सकते और सत्य सुनने के लायक नहीं हैं। उन्हें सत्य समझने और प्राप्त करने देना बिल्लियों को इकट्ठा करने या सूअरों को उड़ना सिखाने जैसा है—यानी यह असंभव है! पहले जब इस बारे में बात की जाती थी कि किस तरह के लोग जानवर हैं तो अक्सर “जानवर” शब्द के पहले “कुत्ते” शब्द जोड़ दिया जाता था इसलिए उन्हें “कुत्ते जानवर” कहा जाता था। लेकिन कुत्तों को पालने और उनके साथ नजदीकी से समय बिताने के बाद मैंने पाया है कि कुत्तों में वे सबसे अच्छी चीजें होती हैं जो इंसानों में भी नहीं होतीं : वे नियमों के अनुसार व्यवहार करते हैं, आज्ञाकारी होते हैं और उनमें आत्म-सम्मान की भावना होती है। तुम उनके लिए व्यायाम करने की एक सीमा तय करते हो और वे केवल उसी सीमा के भीतर व्यायाम करेंगे, और बिना किसी अपवाद के वे उन जगहों पर बिल्कुल नहीं जाएँगे जहाँ तुम उन्हें जाने से मना करते हो। अगर वे गलती से सीमा पार कर भी दें तो वे जल्दी से पीछे हट जाते हैं, अपनी दुम हिलाते हुए लगातार माफी माँगते हैं और अपनी गलती मानते हैं। क्या इंसान ऐसा कर सकते हैं? (नहीं।) इंसान उनसे कमतर हैं। भले ही कुत्ते इंसानों जितना नहीं समझते, मगर वे एक बात समझते हैं : “यह मालिक का इलाका है, मालिक का घर है। जहाँ मालिक जाने देता है मैं वहीं जाता हूँ और उन जगहों पर नहीं जाता जहाँ जाने की मुझे मनाही है।” बिना मारे-पीटे ही, वे वहाँ जाने से परहेज करते हैं; उनमें आत्म-सम्मान की भावना होती है। कुत्ते भी जानते हैं कि शर्म क्या होती है तो इंसान क्यों नहीं जानता? क्या उन लोगों को जानवर कहना अतिशयोक्ति है जो शर्म करना नहीं जानते? (नहीं।) यह बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं है; ज्यादातर लोगों में तो कुत्ते के गुण भी नहीं होते। भविष्य में जब हम कहेंगे कि कुछ लोग जानवर हैं, तो हम उन्हें अब “कुत्ते” नहीं कह सकते; यह कुत्तों का अपमान होगा, क्योंकि ये लोग, ये जानवर, कुत्तों से भी बदतर हैं। इसलिए जब ऐसे लोग कलीसियाई जीवन में या भाई-बहनों के कर्तव्य निर्वहन में बाधाएँ पैदा करते हैं तो उन्हें तुरंत बाहर निकाल देना चाहिए—यही उचित है, सही है और बिल्कुल भी अति नहीं है। यह प्रेमहीन होना नहीं है; यह सिद्धांत के अनुसार काम करना है। जो लोग स्वच्छंद और असंयमित हैं वे अगर अपने कर्तव्यों में कुछ नतीजे भी दिखाते हैं तो क्या उन्हें बचाया जा सकता है? क्या वे सत्य स्वीकारने वाले लोग हैं? वे अपने खुद के क्रियाकलापों को भी नियंत्रित नहीं कर सकते तो क्या वे सत्य स्वीकार सकेंगे? वे अपनी ईमानदारी और गरिमा बनाए नहीं रख सकते, तो क्या वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? यह नामुमकिन है। इसलिए इन व्यक्तियों से इस तरह से निपटना बिल्कुल भी अति नहीं है; यह पूरी तरह से सिद्धांत पर आधारित है और इसका मकसद पूरी तरह से परमेश्वर के चुने हुए लोगों को शैतान की बाधाओं से बचाना है। संक्षेप में, ऐसे व्यक्तियों का पता चलने पर उनसे मेरे द्वारा अभी बताए गए कई सिद्धांतों के आधार पर निपटा जाना चाहिए। क्या उन लोगों को जो वास्तव में स्वच्छंद और असंयमित हैं और जो वास्तव में संतों जैसी किसी मर्यादा के बिना देह-सुख में लिप्त होते हैं, अविश्वासियों और छद्म-विश्वासियों की श्रेणी में रखना अतिशयोक्ति है? (नहीं।) चूँकि उन्हें अविश्वासियों और छद्म-विश्वासियों की श्रेणी में रखा गया है, उन्हें उन विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों की श्रेणी में शामिल करना जिन्हें कलीसिया को निष्कासित कर देना चाहिए, अतिशयोक्ति नहीं है। जो लोग अपने व्यवहार और आचरण को भी संयमित नहीं कर सकते वे निश्चित रूप से सत्य स्वीकार नहीं कर सकेंगे। क्या वे लोग जो सत्य स्वीकार नहीं सकते, सत्य के दुश्मन नहीं हैं? (हाँ, वे हैं।) क्या उन लोगों को जो सत्य के दुश्मन हैं, बुरे लोगों के रूप में चित्रित करना अतिशयोक्ति है? (नहीं।) यह बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं है। इसलिए उनसे निपटने के सिद्धांत पूरी तरह से उचित हैं।

घ. प्रतिशोध की तरफ झुकाव होना

तीसरी किस्म के लोग—जो स्वच्छंद और असंयमित होते हैं—उनकी अभिव्यक्तियों पर हमारी संगति पूरी हो गई है। इस किस्म के लोगों के अलावा, कई अन्य लोग भी हैं जो कुकर्मियों की श्रेणी में आते हैं, और कलीसिया को इन सभी किस्म के कुकर्मियों को पहचानना चाहिए और उन्हें निष्कासित कर देना चाहिए। इसके बाद, हम चौथी किस्म के लोगों पर चर्चा करेंगे। कलीसिया को जिन अलग-अलग तरह के कुकर्मियों को पहचानना चाहिए और उन्हें निष्कासित कर देना चाहिए, उनमें से चौथी किस्म के लोग बहुत बड़ी चुनौती और परेशानी खड़ी करते हैं। ये कौन हो सकते हैं? ये वे लोग हैं जिनका झुकाव प्रतिशोध की तरफ होता है। “प्रतिशोध की तरफ झुकाव” वाक्यांश से यह जाहिर है कि ये लोग बिल्कुल भी अच्छे नहीं हैं; बोलचाल की भाषा में कहें, तो ये बुरे लोग हैं। उनकी मानवता की लगातार अभिव्यक्तियों और खुलासों और साथ ही, उनके क्रियाकलाप के सिद्धांतों को देखते हुए, यह कह सकते हैं कि उनके दिल उदार नहीं हैं। जैसी कि आम कहावत है, वे “घटिया कारीगरी” हैं। हम कहते हैं कि वे उदार किस्म के लोग नहीं हैं; ज्यादा खास तौर से, ये व्यक्ति रहमदिल नहीं हैं, बल्कि अपने भीतर प्रतिशोध, दुर्भावना और क्रूरता की भावनाएँ रखते हैं। जब कोई व्यक्ति कुछ ऐसा कहता या करता है जिससे इन व्यक्तियों के हितों, मान-सम्मान या रुतबे पर असर पड़ता है, या जो उन्हें नाराज करता है, तो एक बात यह है कि वे अपने दिलों में शत्रुता रखते हैं। दूसरी बात यह है कि इस शत्रुता के आधार पर वे कार्य करते हैं; वे अपनी नफरत की भड़ास निकालने और अपने गुस्से को शांत करने के उद्देश्य और निर्देश से कार्य करते हैं, जिसे प्रतिशोध लेना कहते हैं। लोगों के बीच हमेशा इस तरह के कुछ लोग होते हैं। चाहे यह कुछ ऐसा हो जिसे लोग नीच या दबंग होना होना या अति संवेदनशील होना कहते हैं, चाहे उनकी मानवता का वर्णन करने या उसे संक्षेप में प्रस्तुत करने के लिए किसी भी शब्द का उपयोग क्यों ना किया जाए, दूसरों के साथ उनके व्यवहार की सामान्य अभिव्यक्ति यह है कि जो कोई भी गलती से या जानबूझकर उन्हें चोट पहुँचाता है या नाराज करता है, उसे कष्ट सहना पड़ता है और उसके अनुरूप परिणाम भुगतने पड़ते हैं। यह वैसी बात है जैसा कुछ लोग कहते हैं : “उन्हें नाराज कर दो, और फिर तुम अपने अनुमान से ज्यादा ही भुगतोगे। अगर तुम उन्हें भड़काते हो या चोट पहुँचाते हो, तो हल्की सजा भुगतकर छुटकारा पाने की मत सोचो।” क्या ऐसे व्यक्ति लोगों के बीच मौजूद हैं? (हाँ, मौजूद हैं।) यकीनन वे मौजूद हैं। चाहे कुछ भी हो जाए, चाहे यह गुस्सा करने या नीचता दिखाने के लायक हो या ना हो, प्रतिशोध की ओर झुकाव रखने वाले लोग इसे अपनी दैनिक कार्यसूची में शामिल करते हैं, इसे सबसे महत्वपूर्ण मामला मानते हैं। चाहे कोई भी उन्हें नाराज करे, यह अस्वीकार्य है, और वे उतनी ही कीमत चुकाए जाने की माँग करते हैं, जो लोगों के साथ व्यवहार करने, किसी भी ऐसे व्यक्ति के साथ व्यवहार करने के लिए उनका सिद्धांत है जिसे वे शत्रु मानते हैं। मिसाल के तौर पर, कलीसियाई जीवन में, कुछ लोग अपनी स्थिति के बारे में संगति करते हैं या सामान्य रूप से अपने अनुभव बताते और साझा करते हैं, अपनी स्थितियों और भ्रष्टता पर चर्चा करते हैं। ऐसा करने के दौरान, वे अनजाने में दूसरों की स्थितियों और भ्रष्टताओं को शामिल कर लेते हैं। हो सकता है कि वक्ता अनजाने में ऐसा कर दे, लेकिन श्रोता इसे दिल पर ले लेता है। सुनने के बाद, यह व्यक्ति इसे सही तरीके से समझ नहीं पाता है या उससे निपट नहीं पाता है, और उसमें प्रतिशोधी मानसिकता विकसित होने की संभावना बन जाती है। अगर वह इस बात को अनदेखा नहीं करता है और आक्रमण करने और प्रतिशोध लेने पर अड़ा रहता है, तो यह कलीसिया के कार्य के लिए परेशानी उत्पन्न करेगा, इसलिए इस मामले को तुरंत निपटाया जाना चाहिए। जब तक कलीसिया में कुकर्मी मौजूद हैं, तब तक गड़बड़ियाँ अवश्यंभावी रूप से उत्पन्न होंगी, इसलिए बुरे लोगों द्वारा कलीसिया में बाधा डालने की घटनाओं को हल्के में नहीं लेना चाहिए। चाहे जानबूझकर किया गया हो या नहीं, अगर तुम उन्हें भड़काते हो या चोट पहुँचाते हो, वे इसे आसानी से जाने नहीं देंगे। वे अपने मन में सोचते हैं : “तुम अपनी खुद की भ्रष्टता के बारे में बात करो, मेरा जिक्र क्यों करते हो? तुम अपने आत्म-ज्ञान के बारे में बात करो, मुझे क्यों उजागर करते हो? मेरी भ्रष्टता को उजागर करने से मेरे मान-सम्मान और गरिमा को ठेस पहुँचती है, भाई-बहनों के बीच मेरी स्थिति अपराधियों जैसी बन जाती है, मेरी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाती है और मेरी साख पर बट्टा लग जाता है। इसलिए, मैं तुम्हारे खिलाफ प्रतिशोध लूँगा; तुम्हें अपने अनुमान से कहीं अधिक भुगतना होगा! यह मत सोचो कि मुझे डराना-धमकाना आसान है, यह मत सोचो कि तुम मुझ पर सिर्फ इसलिए रोब जमा सकते हो क्योंकि मेरी पारिवारिक स्थिति खराब है और मेरा सामाजिक रुतबा ऊँचा नहीं है। मुझे कोई कमजोर व्यक्ति मत समझो; मुझसे कोई खिलवाड़ नहीं कर सकता!” यह मत सोचो कि वे अपना प्रतिशोध कैसे लेते हैं; आओ हम इन लोगों पर ही गौर करें : जब वे इन छोटे-छोटे मामलों का सामना करते हैं—ऐसे मामले जो कलीसियाई जीवन में आम हैं—तो वे ना सिर्फ इन मामलों को सही तरीके से संभालने या समझने में असमर्थ होते हैं, बल्कि उनमें नफरत भी उत्पन्न हो जाती है और वे प्रतिशोध लेने के लिए अवसरों की प्रतीक्षा करते हैं, और यहाँ तक कि अपना प्रतिशोध लेने के लिए अनैतिक साधनों का भी सहारा लेते हैं। यह उनकी मानवता के बारे में क्या कहता है? (यह दुर्भावनापूर्ण है।) क्या वे उदार लोग हैं? (नहीं।) सबसे अच्छी किस्म के लोग वे होते हैं जो सत्य को स्वीकार सकते हैं। जब वे दूसरों को संगति करते हुए और अपने अनुभव साझा करते हुए सुनते हैं, तो वे सोचते हैं : “मुझमें भी यह भ्रष्टता है। वे जिस चीज का वर्णन कर रहे हैं, वह मेरी स्थिति जैसा ही लगता है। चाहे वे जानबूझकर मुझे उजागर कर रहे हों या अनजाने में किसी ऐसी चीज के बारे में बोल रहे हों जो मेरी स्थिति से मिलती-जुलती है, मैं इसे सही ढंग से समझूँगा—मैं यह सुनूँगा कि उन्होंने इसका अनुभव कैसे किया है, वे इस स्थिति को सुलझाने के लिए सत्य की तलाश कैसे करते हैं, और वे कैसे अभ्यास करते हैं और प्रवेश करते हैं।” यह ऐसा व्यक्ति है जो सही मायने में सत्य को स्वीकारता है। कोई कमजोर व्यक्ति यह सुनकर सोच सकता है कि “वे जिस भ्रष्ट स्वभाव को पहचानते हैं, वह बिल्कुल मेरी स्थिति जैसा कैसे है? क्या वे मेरे बारे में बात कर रहे हैं? खैर, उन्हें बोलने दो। आखिर मुझे कोई नुकसान तो नहीं हुआ है, और शायद ज्यादातर लोगों को यह बात मालूम भी नहीं है। हो सकता है कि वे बस अपने बारे में बात कर रहे हों, और यह सिर्फ संयोग से मेरी स्थिति से मेल खाता हो; हम सभी की स्थिति एक जैसी है।” वे इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं, अपने दिल में कोई नफरत नहीं रखते हैं, और प्रतिशोध लेने की मानसिकता को बढ़ावा नहीं देते हैं। लेकिन, अनुदार लोगों, कुकर्मियों के लिए यह बात अलग है। दूसरे लोग इसी मामले को मामूली घटना के रूप में देखेंगे, और उसी के अनुसार उसे संभालेंगे और उससे निपटेंगे। बेशक, सत्य को स्वीकारने वाले अच्छे लोग इसे सक्रियता से सुलझाएँगे। साधारण लोग, वैसे तो इसे सकारात्मक रूप से नहीं सुलझाते हैं, लेकिन वे दिल में नफरत भी नहीं रखते हैं, प्रतिशोध तो बिल्कुल नहीं लेते हैं। लेकिन उन अनुदार लोगों के लिए, ऐसा आम और बिल्कुल साधारण मामला उनके भीतर उथल-पुथल मचा सकता है, जिससे वे शांत नहीं हो पाते हैं। वे जो चीजें उत्पन्न करते हैं, वे सकारात्मक या साधारण नहीं होती हैं, बल्कि शातिर और दुष्ट होती हैं; वे प्रतिशोध लेना चाहते हैं। उनके प्रतिशोध का कारण क्या है? वे मानते हैं कि लोग जानबूझकर दुर्भावनापूर्ण टिप्पणियों से उन्हें बदनाम करते हैं, उनकी वास्तविक परिस्थितियों के साथ-साथ उनके बदसूरत पक्ष और उनकी भ्रष्टता को उजागर करते हैं। वे लोगों की कही बातों को जानबूझकर कहा गया मान लेते हैं, और इस तरह से उन्हें अपने शत्रु समझने लगते हैं। फिर, वे मामले को निपटाने के लिए प्रतिशोध लेना जायज महसूस करते हैं, और अपने प्रतिशोधी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अलग-अलग साधनों का उपयोग करते हैं। क्या यह शातिर स्वभाव नहीं है? (हाँ, है।) कलीसियाई जीवन में, जब भाई-बहन अपनी स्थितियों के बारे में बात करते हैं, तो ज्यादातर श्रोता इसे परमेश्वर से जोड़ पाते हैं और उससे आया मानकर स्वीकार कर पाते हैं। सिर्फ वे लोग जो सत्य से विमुख हैं और जिनका स्वभाव दुष्ट है, वे इसे सुनकर द्वेष और यहाँ तक कि प्रतिशोध लेने वाली मानसिकता भी उत्पन्न कर लेते हैं, जो उनके प्रकृति सार को पूरी तरह से प्रकट कर देता है। एक बार जब प्रतिशोध लेने वाली मानसिकता उत्पन्न हो जाती है, तो उसके बाद प्रतिशोध वाले व्यवहारों और कार्रवाइयों का सिलसिला शुरू हो जाता है। जब प्रतिशोध लेने के क्रियाकलाप सामने आते हैं, तो लोगों के बीच रिश्तों का क्या होता है? वे अब आत्मीय नहीं रहते हैं। और इसमें वास्तविक पीड़ित कौन है? (वह व्यक्ति जिसके खिलाफ वे प्रतिशोध लेना चाहते हैं।) सही कहा। वास्तविक पीड़ित वे हैं जो अपने अनुभवजन्य गवाही की संगति करते हैं। प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों का अगला लक्ष्य होता है अलग-अलग परिस्थितियों में शब्दों या क्रियाकलापों का उपयोग करके उन लोगों की आलोचना करना, उन पर आक्रमण करना और यहाँ तक कि उन्हें फँसाना या बदनाम करना जिन्हें वे उन्हें उजागर करने वाले या उनके प्रति शत्रुता रखने वाले मानते हैं। प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोग अपने दिलों में सिर्फ क्षण भर के लिए नफरत नहीं रखते हैं; वे उन लोगों के खिलाफ प्रतिशोध लेने के सभी तरह के अवसरों की तलाश करते हैं और उन्हें बनाते भी हैं जो उनके प्रतिशोध का लक्ष्य होते हैं, जिनके प्रति वे शत्रुतापूर्ण होते हैं, और जिन्हें वे अपने लिए प्रतिकूल मानते हैं। मिसाल के तौर पर, अगुआओं के चुनाव के दौरान, वे जिस व्यक्ति के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं, अगर वह परमेश्वर के घर में लोगों का उपयोग करने के सिद्धांतों को पूरा करता है और अगुआ चुने जाने के योग्य है, तो अपनी शत्रुता के कारण वे उस व्यक्ति की आलोचना करेंगे, उसकी निंदा करेंगे और उस पर आक्रमण करेंगे। यहाँ तक कि अपना प्रतिशोध लेने के लिए वे परदे के पीछे रहकर काम कर सकते हैं या ऐसी चीजें कर सकते हैं जो उस व्यक्ति के लिए नुकसानदायक हो। संक्षेप में, अपना प्रतिशोध लेने के उनके साधन तरह-तरह के होते हैं। मिसाल के तौर पर, वे किसी के खिलाफ लाभ उठाने वाली चीजें खोज सकते हैं और उसे लेकर बुरा-भला कह सकते हैं, बढ़ा-चढ़ाकर बातें करके और निराधार चर्चा करके उस व्यक्ति के बारे में अफवाहें फैला सकते हैं, या उस व्यक्ति और दूसरों के बीच अनबन फैला सकते हैं। यहाँ तक कि वे अगुआओं के सामने उन पर झूठे आरोप भी लगा सकते हैं, यह दावा कर सकते हैं कि वह व्यक्ति वफादार नहीं है, अपने कर्तव्यों को करने में नकारात्मक और प्रतिरोधी है। ये सभी वास्तव में जानबूझकर बनाई गई मनगढ़ंत बातें हैं, तिल का ताड़ बनाना है। देखो कि कैसे उस व्यक्ति के प्रति उनके संदेहों और गलतफहमियों से कितने सारे अनुचित व्यवहार और क्रियाकलाप उत्पन्न होते हैं; ये सभी नजरिये उनकी प्रतिशोधी प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। दरअसल, जब उस व्यक्ति ने अपनी अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा कीं, तो यह उन पर लक्षित नहीं था; उनके प्रति किसी भी किस्म की कोई दुर्भावना नहीं थी। इसका कारण बस यह है कि वे सत्य से विमुख हैं और उनमें प्रतिशोध की तरफ झुकाव वाला शातिर स्वभाव है, इसलिए वे दूसरों को उन्हें उजागर करने की अनुमति नहीं देते हैं, ना ही वे आत्म-ज्ञान पर चर्चा करने, भ्रष्ट स्वभावों पर चर्चा करने या किसी की शैतानी प्रकृति के बारे में बात करने की अनुमति देते हैं। जब ऐसे विषयों पर चर्चा की जाती है, तो वे गुस्सा हो जाते हैं, यह मान लेते हैं कि उन्हें लक्षित और उजागर किया जा रहा है, और इसलिए वे प्रतिशोधी मानसिकता विकसित और निर्मित कर लेते हैं। इस तरह के व्यक्ति द्वारा अपना प्रतिशोध लेने की अभिव्यक्तियाँ सिर्फ एक परिस्थिति तक ही सीमित नहीं है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? इसका कारण यह है कि ऐसे व्यक्ति शातिर प्रकृति के होते हैं; कोई भी उन्हें उत्प्रेरित नहीं कर सकता है या उकसा नहीं सकता है। उनमें बिच्छू या कनखजूरे की तरह, स्वाभाविक रूप से किसी भी व्यक्ति और किसी भी चीज के प्रति आक्रामकता रहती है। इसलिए, चाहे कोई जानबूझकर या अनजाने में बोलकर उन्हें उत्प्रेरित करे या चोट पहुँचाए, जब तक उन्हें लगेगा कि उनके गौरव या प्रतिष्ठा को ठेस पहुँची है, वे अपने गौरव और प्रतिष्ठा को बचाने के तरीके ढूँढ़ निकालते रहेंगे, जिससे प्रतिशोधी क्रियाकलापों का एक सिलसिला शुरू हो जाएगा।

इसके बाद मैं प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों की अन्य अभिव्यक्तियों के बारे में संगति करूँगा। अगुआ कुछ लोगों की काट-छाँट इसलिए करते हैं क्योंकि उन्होंने अपने कर्तव्यों को लापरवाही से किया जिसके कारण उनमें असंतोष पनपा। मुझे बताओ, क्या उनकी काट-छाँट करना उचित है? (हाँ।) यह पूरी तरह से उचित और सामान्य है। अगर तुम अपना कर्तव्य लापरवाही से निभाते हो, कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाते हो और सिद्धांतों के अनुरूप काम नहीं करते हो, और कोई व्यक्ति तुम्हें उजागर करने और तुम्हारी काट-छाँट करने के लिए आगे आता है तो यह उचित है और तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए। लेकिन प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोग न केवल इसे स्वीकारने से इनकार करते हैं बल्कि असंतोष भी पालते हैं। अगुआ के जाते ही वे गाली-गलौज करना शुरू कर देते हैं : “तुम किस बात का दिखावा कर रहे हो? क्या बात बस इतनी सी नहीं है कि तुम्हारे पास एक आधिकारिक पद है? अगर मेरे पास ऐसा कोई पद होता तो मैं तुमसे बेहतर करता! मेरी काट-छाँट करने वाले तुम होते कौन हो? मेरी काट-छाँट करने के लिए मैं तुमसे नफरत करता हूँ। मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि तुम गाड़ी से कुचले जाओ, पानी पीते समय दम घुटकर मर जाओ, भोजन करते समय दम घुटकर मर जाओ। मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि तुम बेमौत मरो! तुमने मेरी काट-छाँट करने की जुर्रत की? वह माई का लाल पैदा ही नहीं हुआ जो मेरी काट-छाँट करने की जुर्रत करे!” जब उच्च स्तर के अगुआ किन्हीं मामलों की वजह से उस अगुआ की काट-छाँट करते हैं तो ये लोग उस अगुआ के दुर्भाग्य पर आनंदित और बेहद खुश होते हैं, गुनगुनाते हुए मन-ही-मन सोचते हैं : “कैसा लगा? तुमने दिखावा किया और अब तुम्हें प्रतिशोध मिल रहा है! जो कोई भी मेरी काट-छाँट करेगा, मैं उसका जीना दूभर कर दूँगा!” ऐसे लोगों के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? (वे दुर्भावनापूर्ण हैं।) चाहे उनकी काट-छाँट कितनी भी उचित क्यों न हो वे इसे स्वीकार नहीं सकते। वे लगातार बहस करते हैं और अपना बचाव करते हैं और इसके बाद भी वे अपने कर्तव्यों को लापरवाही से करना जारी रखते हैं, बार-बार दी गई चेतावनियों के बावजूद नहीं बदलते हैं। अगर तुम परमेश्वर के घर में हमेशा लापरवाह ढंग से काम करते हो तो तुम्हारे साथ केवल काट-छाँट ही की जाएगी; अगर तुम लौकिक संसार में नौकरी कर रहे हो और वहाँ लापरवाही से काम करते हो तो तुम्हें नौकरी से निकाला जा सकता है और तुम अपनी आजीविका खो सकते हो। परमेश्वर के घर में ज्यादातर समय सत्य पर संगति करने और प्रेम के साथ सहयोग करने का सिद्धांत काम करता है ताकि ज्यादातर लोग सत्य का अनुसरण कर सकें और अपने कर्तव्यों को सामान्य रूप से निभा सकें। वास्तव में अगुआओं और कार्यकर्ताओं के बीच केवल गिने-चुने लोगों को ही कठोर काट-छाँट का सामना करना पड़ सकता है। ज्यादातर लोग आस्था, जागरूकता, अंतरात्मा और विवेक के आधार पर काम करते हैं, परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकारते हैं और गंभीर गलतियाँ नहीं करते इसलिए उन्हें कठोर काट-छाँट का सामना नहीं करना पड़ता है। लेकिन काट-छाँट होना एक अच्छी बात है; कितने लोगों को काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, खासकर ऊपरवाले से? यह आत्म-ज्ञान और जीवन के विकास के लिए एक महान अवसर प्रस्तुत करता है। विश्वासियों को कम से कम काट-छाँट का महत्व जरूर समझना चाहिए, इसे कोई अच्छी चीज मानना चाहिए। भले ही कुछ व्यक्तियों द्वारा की गई काट-छाँट पूरी तरह से सिद्धांतों के अनुरूप न हो, उसमें निजी स्वार्थ और उग्रता की मिलावट हो, फिर भी तुम्हें यह देखने के लिए खुद की जाँच करनी चाहिए कि तुम्हारे क्रियाकलापों के कौन-से पहलू सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं और फिर सकारात्मक रूप से इसे स्वीकारना चाहिए; ऐसा करना तुम्हारे लिए मददगार है। मगर ये बुरे लोग उचित काट-छाँट को भी स्वीकार नहीं सकते। भले ही वे प्रतिशोध लेने के लिए कार्रवाई न करें पर उनके दिलों में बहुत असंतोष भरा होता है और वे कोसते हैं और अपशब्द कहते हैं। जब उनकी काट-छाँट करने वाले लोग खुद अपनी काट-छाँट का सामना करते हैं या उनके सामने कोई विपत्ति आती है तो ये लोग नए साल का जश्न मना रहे बच्चे से भी ज्यादा खुश होते हैं। यह बुरे लोगों की अभिव्यक्ति है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपना कर्तव्य निभाने में प्रतिस्पर्धा करते हैं; वे अक्सर सिद्धांतों का पालन नहीं करते और लापरवाही से काम करते हैं जिससे उनके कर्तव्यों का निर्वहन बेकार हो जाता है। जब अगुआ उनकी समस्याओं के बारे में संगति करते हुए उनकी काट-छाँट करता है तो प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोग इस मामले को सही ढंग से नहीं ले पाते हैं। भले ही वे मन-ही-मन अपने कर्तव्य निभाने में अपनी लापरवाही और सिद्धांत की कमी को स्वीकारते हों, फिर भी वे अपनी काट-छाँट के जवाब में प्रतिशोध लेने पर विचार और कार्य करते हैं। इसके बाद, वे अगुआ पर झूठा आरोप लगाते हुए पत्र लिखते हैं, उनके कुछ अभ्यासों और उनकी भ्रष्टता के खुलासों का फायदा उठाते हुए अगुआ को बदलने की कोशिश में उच्च अधिकारियों से बढ़ा-चढ़ाकर शिकायत करते हैं। अगर उनका उद्देश्य पूरा नहीं होता तो वे परदे के पीछे रहकर अगुआ की व्यवस्थाओं का हठपूर्वक विरोध करते हुए, उसे कमजोर करते और बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। वे कलीसिया के कार्य, परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों या अपने कर्तव्य निर्वहन की प्रभावशीलता पर विचार नहीं करते; वे केवल अपनी भड़ास निकालने में लगे रहते हैं। वे किसी की भी बात सुनने से इनकार करते हैं, यहाँ तक कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चेतावनियों को भी ठुकरा देते हैं। हालाँकि वे उनके सामने पलटकर जवाब नहीं देते या विरोध नहीं करते मगर परदे के पीछे वे नकारात्मकता फैला सकते हैं, विरोध में अपनी जिम्मेदारियाँ छोड़ सकते हैं, और परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं या अगुआओं और कार्यकर्ताओं के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए किसी भी अवसर का लाभ उठा सकते हैं। वे धारणाएँ भी फैलाते हैं; वे खुद तो नकारात्मक होते हैं और अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते, मगर साथ ही वे और भी लोगों को नकारात्मक होने और ढिलाई बरतने और अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करने के लिए उकसाने की कोशिश करते हैं। उनका सिद्धांत क्या है? “मैं मरने से नहीं डरता; मुझे बस कोई ऐसा व्यक्ति खोजना है जो मेरे साथ नीचे घसीटा जाए। अगुआ मेरी काट-छाँट करता है, कहता है कि मेरा कर्तव्य निर्वहन मानक के अनुरूप नहीं है—तो फिर मैं यह सुनिश्चित करूँगा कि हर कोई अपना कर्तव्य ठीक से निभाने में विफल रहे। अगर मैं ठीक से काम नहीं कर रहा हूँ, तो तुम लोगों में से कोई भी नहीं करेगा! अगुआ मेरी काट-छाँट करता है और तुम लोग मुझ पर हँसते हो; मैं तुम लोगों का जीना मुश्किल बना दूँगा!” जब वे अपने कर्तव्य को लापरवाही से या सिद्धांतों के विरुद्ध करते हैं, और कोई व्यक्ति अगुआओं से इसकी शिकायत करता है, तो वे इस मामले की छानबीन करते हैं : “किसने मेरी शिकायत की? किसने मेरे बारे में अगुआओं को बताया? अगुआओं के साथ किसका उठना-बैठना है? अगर मुझे पता चल गया कि किसने उच्च स्तर के अगुआओं से मेरी शिकायत की है, तो मैं उस व्यक्ति के प्रति कोई शिष्टता नहीं दिखाऊँगा! मैं इस बात को कभी नहीं भूलूँगा!” वे न केवल कठोर बयान देने में सक्षम हैं बल्कि निश्चित रूप से वे ऐसी धमकियों को अंजाम भी दे सकते हैं। इन व्यक्तियों के पास प्रतिशोध लेने के लिए कई घिनौने और कपटपूर्ण हथकंडे होते हैं, वे केवल दूसरों की आलोचना और निंदा करने के अवसर का लाभ ही नहीं उठाते बल्कि कुछ लोग जानबूझकर उस व्यक्ति के लैपटॉप का चार्जर चुरा लेते हैं जिसके खिलाफ वे प्रतिशोध लेना चाहते हैं, जिससे वह अपना लैपटॉप चार्ज नहीं कर पाता और उसके कर्तव्य निर्वहन में बाधा आती है। दूसरे लोग जानबूझकर किसी के खाने में बहुत ज्यादा नमक मिला देते हैं जिससे वह खाने लायक नहीं रह जाता। प्रतिशोध लेने के इन भद्दे तरीकों को, जो अविश्वासियों के बीच आम हैं, कलीसिया के भीतर बुरे लोग भी अपनाते हैं। उनके प्रतिशोध लेने के तरीके इनसे कहीं बढ़कर होते हैं, जिनमें कुछ ऐसे अनैतिक हथकंडे शामिल हैं जो हमने पहले कभी नहीं देखे; हम बस कुछ सरल उदाहरण दे रहे हैं। उनमें से कुछ व्यक्ति जानबूझकर दूसरों के लिए परेशानियाँ, बाधाएँ और कठिनाइयाँ उत्पन्न करते हैं; यह एक सामान्य घटना है। हर समूह में, विभिन्न परिस्थितियों और परिवेशों में, प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों का क्रूर स्वभाव लगातार उजागर होता रहता है। बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों की प्रतिशोधी अभिव्यक्तियाँ और भी अधिक स्पष्ट हैं। जब तक कलीसिया के भीतर बुरे लोग और मसीह-विरोधी हैं, तब तक परमेश्वर के चुने हुए लोग, जो वास्तव में उसमें विश्वास रखते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, बाधित किए जाएँगे। हर उस दिन जब कलीसिया में बुरे लोग और मसीह-विरोधी मौजूद होते हैं, कलीसिया में अशांति रहती है—अच्छे लोगों पर हमला किया जाएगा और उन्हें बहिष्कृत किया जाएगा; विशेष रूप से, सत्य का अनुसरण करने वालों को बुरे लोगों और मसीह-विरोधी लोगों की शत्रुता और प्रतिशोध का सामना करना पड़ेगा। बुरे लोग और मसीह-विरोधी दूसरों को कैसे सताते हैं और कैसे उनके खिलाफ अपना प्रतिशोध लेते हैं? सबसे पहले, वे सत्य का अनुसरण और सिद्धांतों का पालन करने वाले लोगों को निशाना बनाते हैं। ये बुरे व्यक्ति साफ-साफ यह जानते हैं कि केवल सत्य का अनुसरण करने वाले लोग ही उनके लिए सबसे ज्यादा हानिकारक हैं। पहली बात, जो लोग सत्य समझते हैं वे उन्हें पहचान सकते हैं; अगर वे कुछ बुरा करते हैं, तो सत्य समझने वाले लोग उनकी असलियत पहचान लेंगे। दूसरी बात, जब सत्य समझने वाले लोग मौजूद रहेंगे, तो उनके कुकर्म कुछ हद तक प्रतिबंधित होंगे, जिससे उनके लिए अपने लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा। इस परिप्रेक्ष्य से, केवल वे लोग जो सत्य का अनुसरण करते हैं कलीसिया के काम के रक्षक हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं उनकी उपस्थिति में मसीह-विरोधी और बुरे लोग अत्याचारी ढंग से काम करने की हिम्मत नहीं कर सकते और उन्हें कुछ संयम बरतना पड़ेगा। इस प्रकार जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों के लिए एक काँटा और सिरदर्द बन जाते हैं और इसीलिए वे अपना प्रतिशोध लेने के तरीके खोजते हैं।

जब बुरे लोग अपना प्रतिशोध लेते हैं तो वे एक क्रूर स्वभाव प्रदर्शित करते हैं, वे अविवेकी होते हैं और उनमें तर्कसंगतता की कमी होती है। जो लोग उनके साथ कुछ समय बिता चुके हैं और उन्हें समझते हैं वे कुछ हद तक उनसे डरते हैं। उनसे बातचीत करने के लिए बहुत सावधानी और विनम्रता की जरूरत होती है, और उन्हें अत्यधिक सम्मान देने की भी आवश्यकता होती है। उन लोगों को लगातार उन्हें खुश रखना और उसमायोजित करना पड़ता है और उनमें जो भी समस्याएँ या दोष हैं उन पर सीधे तौर पर उँगली नहीं उठाई जा सकती। इसके बजाय उन्हें इन समस्याओं पर घुमा-फिराकर, अनुनय-विनय करके चर्चा करनी होती है और बोलने के बाद उन्हें यह कहते हुए उनकी प्रशंसा भी करनी होती है, “भले ही तुममें यह दोष या कमी है मगर तुम हमसे ज्यादा तेजी से कौशल सीख लेते हो, तुम्हारी पेशेवर क्षमताएँ दूसरों से ज्यादा मजबूत हैं और तुम्हारी कार्यकुशलता हमसे ज्यादा है। मैं तुम्हारी कमियों को ताकत के रूप में देखता हूँ।” उन्हें उनकी चापलूसी भी करनी पड़ती है। वे ऐसा क्यों करते हैं? यह उनके प्रतिशोध के डर के कारण है। इस तरह ये बुरे व्यक्ति खुश होते हैं और अपने दिल में शांति महसूस करते हैं। उनके प्रतिशोध से बचने के लिए ज्यादातर लोग उनके सामने कोई भी समस्या उठाने से डरते हैं, न ही वे इन समस्याओं की शिकायत करने की हिम्मत करते हैं। यहाँ तक कि जब यह स्पष्ट हो जाता है कि वे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचा रहे हैं और उनकी जिद और बेपरवाह मनमानी के कारण कलीसिया के काम में देरी हो रही है या यहाँ तक कि जब उनके दिशा-निर्देश और सिद्धांतों में कुछ विकृतियाँ देखी जाती हैं तो कोई भी आपत्ति जताने या उच्च अधिकारियों से उनकी शिकायत करने की हिम्मत नहीं करता। उनके क्रूर स्वभाव और प्रतिशोध की तरफ झुकाव वाली उनकी मानवता के कारण दूसरे लोग उनसे कुछ हद तक डरते हैं, वे गुस्सा होते हैं मगर इसके बारे आवाज उठाने से काफी डरते हैं। उनके प्रति बहुत ज्यादा उदार, सौम्य और परिष्कृत रवैया दिखाते हुए उनके साथ बड़ी विनम्रता और चालाकी से बातचीत करनी चाहिए। जब लोग उनसे सम्मान और विनम्रता से बात करते हैं, उनके आगे झुकते हैं तो वे अंदर से सहज महसूस करते हैं। लेकिन अगर कोई सीधा-सादा है, उनकी समस्याओं को उजागर करते हुए उन्हें सुझाव देता है तो वे घृणा करते हैं, इसे अपना अपमान मानते हैं मानो कि दूसरों को उनसे आपत्ति या दुश्मनी है। यह उन्हें उस व्यक्ति से प्रतिशोध लेने और उसे सताने के लिए उकसाता है; उन्हें उसे नीचे लाना और उसका नाम बदनाम करना होता है। अगर वह व्यक्ति उनके कब्जे में आ जाए तो उसका अंत अच्छा नहीं होगा। क्या ऐसे लोग डरावने होते हैं? (हाँ।) अगर तुम उन्हें नहीं समझते और उन्हें नाराज करते हो तो वे तुम्हारे खिलाफ द्वेष रखेंगे, खाते-पीते और सोते समय भी तुमसे बदला लेने के बारे में सोचेंगे। अगर तुम उनकी नजर में आ जाते हो तो मुसीबत आना तय है क्योंकि प्रतिशोध लेने का उनका संकल्प बहुत दृढ़ होता है। ऐसा हो सकता है कि वे बाहरी तौर पर तुमसे पहले की तरह बात करें मगर जैसे ही वे प्रतिशोध लेने के बारे में सोचते हैं तो तुमने उनके साथ पहले जो कुछ भी किया या कहा, वह उनके लिए हथियार बन जाता है। वे तुम्हारे साथ दुश्मन की तरह व्यवहार करेंगे, थोड़ा-थोड़ा करके अपना प्रतिशोध लेते रहेंगे जब तक कि उनका बदला पूरा न हो जाए और उन्हें पूरी तरह से संतुष्टि न मिल जाए। बुरे लोगों से जुड़ने का यही परिणाम होता है।

जिन लोगों का प्रतिशोध की तरफ झुकाव होता है, उनके विभिन्न व्यवहारों और क्रियाकलापों के सिद्धांतों और तरीकों के आधार पर और एक व्यक्ति होने के नाते देखा जाए तो वे लगभग सभी के लिए खतरा पैदा करते हैं, सिवाय उन लोगों के जो सभी के प्रति दयालु और मिलनसार होते हैं और जिनमें किसी व्यक्ति से निपटते समय सिद्धांतों की कमी होती है—ऐसे व्यक्ति क्रूर लोगों के आसपास सुरक्षित रहते हैं। लेकिन जिनके पास थोड़ी-सी भी अंतरात्मा या न्याय की भावना होती है वे प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों की मौजूदगी में अलग-अलग सीमा तक और ज्यादा या कम खतरा महसूस करेंगे। गंभीर मामलों में उन्हें शारीरिक नुकसान या यहाँ तक कि जान का खतरा भी हो सकता है जबकि सामान्य मामलों में उन्हें गाली-गलौज, बदनामी या साजिशों का सामना करना पड़ सकता है। ये प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों के क्रूर स्वभाव के समग्र खुलासों और अभिव्यक्तियों में से हैं। उनकी समग्र अभिव्यक्तियों के आधार पर, ऐसे लोग भाई-बहनों के बीच और कलीसिया के भीतर भी बाधाएँ पैदा करते हैं। इन प्रतिशोधी लोगों के साथ बातचीत करने वाला लगभग हर एक व्यक्ति उनके प्रतिशोध का निशाना बन जाता है और लगभग हमेशा ही पीड़ित होता है। प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों का स्वभाव क्रूर होता है, वे टिक-टिक करते टाइम बम की तरह होते हैं जो किसी भी पल फट सकते हैं। भले ही वे अपने कर्तव्य करने के लिए भीड़ का अनुसरण कर सकते हैं और एक सामान्य कलीसियाई जीवन जी सकते हैं मगर उनकी मानवता को देखा जाए तो वे किसी भी समय प्रतिशोध लेने और दूसरों के लिए खतरा पैदा करने की कोशिश कर सकते हैं जिससे लोग उनसे डरने और सतर्क रहने के लिए मजबूर होते हैं। क्या यह पहले ही ज्यादातर लोगों के लिए बाधाओं का कारण नहीं है? (हाँ, है।) उन्हें नाराज करने से बचने के लिए, उन्हें खुश करने के लिए और उनके द्वेष और प्रतिशोध से बचने के लिए लोगों को हमेशा उनके हाव-भाव का ध्यान रखना पड़ता है और उनके भाषण के निहित अर्थों को सुनना पड़ता है, जब वे बोलते हैं तो उनके इरादों, लक्ष्यों और निर्देशों को समझने की कोशिश करनी पड़ती है। इस परिप्रेक्ष्य से, क्या ज्यादातर लोग न केवल उनसे परेशान होते हैं बल्कि उनके द्वारा नियंत्रित भी होते हैं? (हाँ।) इसलिए इस मामले की प्रकृति को देखते हुए क्या ऐसे प्रतिशोधी व्यक्ति बुरे लोग नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) यह बहुत स्पष्ट है कि उन्हें बुरे लोगों के रूप में देखा जाना चाहिए। अगर कोई ऐसे व्यक्तियों की स्थिति को समझने की कोशिश करता है, तो ज्यादातर लोग उनके बारे में सच बोलने से डरते हैं, और उनके बारे में हर सवाल को “कोई बात नहीं” जैसे गैर-जिम्मेदाराना जवाबों के साथ टाल देते हैं; वे न तो उनकी समस्याओं की शिकायत करने की हिम्मत करते हैं, न ही उनके बारे में बात करने या उनका मूल्यांकन करने की। क्या यह एक परेशानी वाली स्थिति नहीं है? कुछ लोग कहते हैं, “ऐसे बुरे लोग कभी भी और कहीं भी प्रतिशोध ले सकते हैं; उन्हें भड़काने की हिम्मत कौन करेगा? यही नहीं, वे हमेशा अंडरवर्ल्ड और वैध हलकों दोनों में संबंध होने का दावा करते हैं, धमकी देते हैं कि अगर कोई उन्हें नाराज करता है तो उस व्यक्ति के साथ अच्छा नहीं होगा, वे उसे सबक सिखाएँगे और उसके परिवार को एक दुखद मौत देंगे। इसलिए कोई भी उन्हें भड़काने की हिम्मत नहीं करता। उन्हें ऐसे ही रहने दो और सिर्फ अपने बारे में सोचो।” तुमने देखा, जब कलीसिया में ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है तो इसका मतलब है कि उन्होंने पहले ही इन लोगों को काबू में कर लिया है। प्रतिशोध लेने के उनके क्रूर स्वभाव को देखकर लोग उन पर आरोप लगाने या उनकी काट-छाँट करने की हिम्मत नहीं करते और न ही उनके बारे में अपना सही मूल्यांकन देने की हिम्मत करते हैं। उन्हें नाराज करने के डर से बातचीत उनके इर्द-गिर्द ही घुमानी पड़ती है और यहाँ तक कि उनकी पीठ पीछे उनकी वास्तविक अभिव्यक्तियों के बारे में विशेष रूप से बात करना भी भयावह रूप से डरावना लगता है। लोग किस बात से डरते हैं? उन्हें डर है कि उनके शब्द प्रतिशोधी व्यक्ति के कानों तक पहुँच जाएँगे, जो उनसे बदला लेना चाहेगा। बोलने के बाद वे अपना माथा पीटते हुए कहते हैं, “अरे नहीं, मैंने आज कुछ ज्यादा ही बोल दिया। देखते रहो, मुझे इसके लिए भुगतना पड़ेगा। मैं अपना मुँह बंद क्यों नहीं रख सकता?” तब से वे निरंतर भय और चिंता में रहते हैं, सावधानी बरतते हुए जीवन जीते हैं, हमेशा उस व्यक्ति के आस-पास होने पर नजर रखते हैं, सोचते हैं, “क्या उसे पता है कि मैंने क्या कहा था? क्या यह बात उसके कानों तक पहुँच गई है? क्या मेरे प्रति उसका रवैया पहले जैसा ही है?” जितना ज्यादा वे सोचते हैं उतना ही ज्यादा अशांत होते जाते हैं और जितने लंबे समय तक यह चलता है उनका डर उतना ही बढ़ता जाता है इसलिए वे तय करते हैं कि उससे पूरी तरह दूर रहना ही बेहतर है; वे सोचते हैं, “मैं उसे भड़काने का जोखिम नहीं उठा सकता मगर मैं कम से कम उससे बच तो सकता ही हूँ। चाहे वह जानता हो या नहीं कि मैंने क्या कहा है, क्या मैं उससे दूर नहीं रह सकता?” यह डर इतना प्रबल हो जाता है कि वे सभाओं में जाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाते, ऐसी किसी भी जगह से दूर रहते हैं जहाँ यह दुष्ट व्यक्ति हो सकता है, फिर चाहे यह वही जगह क्यों न हो जहाँ उन्हें अपना कर्तव्य निभाना पड़ता है, वे बुरी तरह डरे हुए होते हैं।

प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले बुरे लोगों से कैसे निपटा जाना चाहिए? (उन्हें बाहर निकाल दो।) यह काफी सरल है : बस चार शब्द—उन्हें बाहर निकाल दो—और काम हो गया। अगर उन्हें बाहर निकाल देने पर ज्यादातर लोग खुशी मनाते हैं, अंदर से गहरी संतुष्टि महसूस करते हैं तो उन्हें बाहर निकालने का फैसला उचित था। पहले, सभाओं के दौरान बुरे लोगों की मौजूदगी का मतलब यह था कि ज्यादातर लोग संगति करते समय बेबस होते थे; उन्हें डर होता था कि कोई गलत शब्द उन बुरे लोगों को नाराज कर सकता है इसलिए वे बोलते समय सतर्क रहते थे और उनसे बचते थे। सभाओं के दौरान एक अनकहा नियम बन गया था : अगर कोई अपनी आँखों से संकेत देता तो विषय तुरंत बदल जाता। यह वह स्थिति थी जो सामने आई थी। प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों को बाहर निकाल दिए जाने के बाद कलीसिया में शांति आ गई, कलीसियाई जीवन सामान्य हो गया और लोगों के बीच संबंध भी सामान्य हो गए। भाई-बहन अब खुलकर परमेश्वर के वचन साझा कर सकते थे और प्रार्थना-पाठ कर सकते थे और बिना किसी के नियंत्रण के, बिना किसी से डरे और बिना किसी की अभिव्यक्तियों के प्रति सावधानी बरते स्वतंत्र रूप से अपनी अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा कर सकते थे। इस नतीजे के आधार पर, क्या ऐसे बुरे लोगों को बाहर निकाल देना सही था? (हाँ।) बिल्कुल। उन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। उन्हें बाहर निकाले बिना सभी के लिए जीवन असहनीय हो जाएगा और बहुत-से लोग सभाओं में जाने से भी डरेंगे। कुछ डरपोक व्यक्ति डरावने सपने भी देख सकते हैं, हमेशा बुरे राक्षसों द्वारा गला घोंटने के सपने देख सकते हैं। वे सभाओं के दौरान हमेशा अत्यधिक सतर्क रहेंगे, कभी बोलने की हिम्मत नहीं करेंगे, मुक्त और स्वतंत्र महसूस करने में असमर्थ होंगे। जब से बुरे लोगों को बाहर निकाला गया है वे पूरी तरह से बदल गए हैं : वे अब सभाओं के दौरान बोलने की हिम्मत करते हैं, संगति में पहले से ज्यादा सक्रिय हो गए हैं और वे मुक्त और स्वतंत्र महसूस करते हैं। क्या यह अच्छी बात नहीं है? (हाँ, है।) क्रूर स्वभाव वाले ऐसे प्रतिशोधी व्यक्तियों को पहचानना आसान है। आम तौर पर, किसी व्यक्ति के साथ छह महीने से ज्यादा समय तक बातचीत करने के बाद हर किसी को यह समझने और स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम होना चाहिए कि क्या वह उस तरह का व्यक्ति है; उसके साथ कुछ समय बिताने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है। कलीसिया में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऐसे बुरे लोगों से निपटने में निष्क्रिय नहीं होना चाहिए। निष्क्रिय न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि उनसे निपटने से पहले तब तक इंतजार नहीं करना जब तक कि वे कुछ लोगों को गुमराह करके और बुरे कर्म करके सभी को आक्रोशित न कर दें—यह बहुत निष्क्रिय होना कहलाएगा। तो फिर बुरे लोगों से निपटने का सबसे अच्छा समय कब है? जब कुछ लोगों को पहले ही नुकसान पहुँचाया जा चुका होता है और वे उनके प्रति काफी बेरुखी और सतर्कता महसूस करते हैं और जब उनका पूरी तरह से बुरे लोगों के रूप में चरित्र-चित्रण किया जा चुका हो। इस स्थिति में उनसे तुरंत निपटा जाना चाहिए और उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए ताकि ज्यादा लोगों को नुकसान पहुँचने से बचाया जा सके और डरपोक लोग उनसे न डरें और ठोकर न खाएँ। यहाँ सबसे अहम बात क्या है? अगर बुरे लोगों को कलीसिया के भीतर बहुत लंबे समय तक गड़बड़ी पैदा करने से रोका नहीं जाता है तो इसका अंतिम नतीजा यह होता है कि वे कलीसिया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को काबू में कर लेते हैं। अगर बात यहाँ तक पहुँच जाती है तो हर कोई पीड़ित होता है। सभी को नुकसान से बचाने के लिए यह जरूरी है कि जब कुछ लोगों को नुकसान पहुँचाया गया हो या जब कुछ लोगों ने ऐसे व्यक्तियों के प्रति गहरी नाराजगी विकसित कर ली हो और उनकी असलियत को पहचान लिया हो, तभी प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले बुरे लोगों के रूप में उनकी पहचान करके कलीसिया के अगुआओं को तुरंत उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए। उन्हें बुरे लोगों द्वारा अनेक बुराइयाँ करने और सार्वजनिक आक्रोश भड़काने का इंतजार नहीं करना चाहिए—यह बहुत निष्क्रिय होना होगा; और क्या ऐसे कलीसिया अगुआ बेकार नहीं होंगे? (हाँ।) इस तरह का काम करने में कलीसिया अगुआओं को ऐसे व्यक्तियों की स्थितियों, अभिव्यक्तियों और खुलासों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होना चाहिए, जल्दी से उनके स्वभावों की असलियत समझकर यह निर्धारित करना चाहिए कि वे ऐसे बुरे लोग हैं जिन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए और जल्द से जल्द उनसे निपटना चाहिए। अगर शुरुआत में यह निर्धारित करना मुमकिन नहीं है तो उनके भाषण, व्यवहार और चाल-ढाल पर बारीकी से ध्यान देते हुए, उनके विचारों और उनके क्रियाकलापों की प्रवृत्तियों को समझते हुए जाँच-परख पर ध्यान देना जरूरी होता है। एक बार जब यह पता चल जाए कि वे अपना प्रतिशोध लेने का इरादा रखते हैं तो उन्हें बाहर निकालने के लिए तुरंत कदम उठाए जाने चाहिए ताकि ज्यादा लोगों को नुकसान पहुँचने और उनके प्रतिशोध का शिकार होने से बचाया जा सके।

कुछ कलीसिया अगुआ कहते हैं, “हम बुरे लोगों से नहीं डरते; परमेश्वर से डरने के अलावा हम किसी से नहीं डरते। हमारे लिए बुरे लोग क्या हैं? हम शैतान से भी नहीं डरते, न ही हम बड़े लाल अजगर द्वारा की जाने वाली गिरफ्तारियों और उत्पीड़न से डरते हैं तो हमें बुरे लोगों से क्यों डरना चाहिए? एक बुरा व्यक्ति बस एक छोटा शैतान है, उससे कैसा डरना? हम उन्हें कलीसिया में बनाए रखेंगे और ज्यादातर भाई-बहनों को नुकसान पहुँचने देंगे। पीड़ित होने के बाद लोगों को पहचानने की उनकी क्षमता बढ़ेगी और इससे वे अब ऐसे बुरे लोगों से बंधे और बेबस नहीं रहेंगे। यह बहुत बढ़िया होगा!” क्या ज्यादातर लोग इस आध्यात्मिक कद को प्राप्त कर सकते हैं? (नहीं।) वे नहीं कर सकते। उनकी आस्था बहुत कमजोर है, वे गिने-चुने सत्य समझते हैं और उनका आध्यात्मिक कद भी बहुत छोटा है। जब भी वे बुरे लोगों को देखते हैं तो उनसे दूर रहते हैं, उन्हें नाराज करने की हिम्मत नहीं करते। मृत्यु से डरने और अपने जीवन को महत्व देने के अलावा, ज्यादातर लोग अपने विभिन्न दैहिक हितों की भी रक्षा करते हैं; वे बुरे लोगों द्वारा की जाने वाली विभिन्न चीजों से लोगों को पहचानने या सबक सीखने में असमर्थ होते हैं। इसलिए यह विचार मौलिक रूप से अव्यावहारिक है और इससे कोई नतीजा नहीं मिल सकता। अगर कोई बुरा व्यक्ति कलीसिया में दिखता है और जब ज्यादातर लोग उस व्यक्ति को पहचान लेते हैं और निर्धारित कर चुके होते हैं कि वह एक बुरा व्यक्ति है तो उनमें से कितने लोगों में न्याय की भावना होती है कि वे उठ खड़े हों, उस बुरे व्यक्ति से नाता तोड़ें और उसके खिलाफ लड़ते हुए परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करें? ऐसे लोगों का प्रतिशत कितना है? क्या यह 10% है? अगर 10% नहीं तो क्या यह 5% है? (लगभग इतना ही है।) इसका मतलब है कि बीस लोगों के समूह में एक व्यक्ति ऐसा हो सकता है जो बुरे व्यक्ति के खिलाफ लड़ने, परमेश्वर के वचनों की मदद से उसे उजागर करने और चुनौती देने, बहस में शामिल होने और उसे कलीसिया से बाहर निकालने के लिए खड़ा होगा। ऐसे व्यक्ति परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच हीरो हैं, कलीसिया के प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता बुरे लोगों से निपटने से डरते हैं। क्या ऐसे लोग अपनी भूमिकाओं के लिए उपयुक्त हैं? क्या वे परमेश्वर के लिए गवाही देने के योग्य हैं? जब वे ऐसे किसी बुरे व्यक्ति के बारे में सुनते हैं जिसे कलीसिया से बाहर निकालने की आवश्यकता है तो वे कहते हैं, “उसे बाहर निकालना थोड़ा परेशानी भरा है। मैं उसे अच्छी तरह जानता हूँ। उसे पता है कि मैं कहाँ रहता हूँ और मेरे परिवार में कौन-कौन परमेश्वर में विश्वास रखता है। अगर मैंने उसे निष्कासित किया तो वह जरूर मुझसे प्रतिशोध लेगा।” तुम लोगों का क्या ख्याल है, क्या ऐसे लोग अगुआ और कार्यकर्ता बनने के लायक हैं? (नहीं।) ऐसे किसी बुरे व्यक्ति का पता चलने पर, जिसे बाहर निकालना जरूरी है, उनका पहला विचार अपने हितों के बारे में होता है, उन्हें उस बुरे व्यक्ति के प्रतिशोध का डर होता है। वे इस बात पर विचार नहीं कर पाते कि क्या यह बुरा व्यक्ति, जिसे भाई-बहनों के कुछ सभा स्थलों और संपर्क-सूत्रों की जानकारी है, बाहर निकाले जाने के बाद कलीसिया या भाई-बहनों को धोखा दे सकता है, और उसे कैसे रोका जाना चाहिए। उनकी पहली चिंता परमेश्वर के घर के हितों की नहीं बल्कि इस डर की होती है कि यह बुरा व्यक्ति, उनके परिवार की स्थिति को जानकर, धोखा दे सकता है और उनके परिवार पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। क्या ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता गवाही देते हैं? (नहीं।) कुछ अगुआ और कार्यकर्ता बुरे लोगों को अत्याचारी तरीके से व्यवहार करते हुए और कलीसिया को नियंत्रित करने की कोशिश करते हुए देखकर भी आवाज उठाने की हिम्मत नहीं करते। इसके बजाय वे समझौता करके बच निकलते हैं, बुरे लोगों से निपटने की हिम्मत नहीं करते। जब वे बुरे लोगों को देखते हैं तो वे ऐसे भयभीत हो जाते हैं जैसे कि उन्होंने तीन सिर और छह हाथों वाले किसी बुरे राक्षस को देख लिया हो, वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने में विफल होते हैं। इस बीच कुछ साधारण भाई-बहनों में थोड़ी न्याय की भावना होती है, उनमें बुरे लोगों को पहचान कर उनके खिलाफ खड़े होने और उन्हें उजागर करने की हिम्मत और आस्था होती है, उन्हें इस बात का डर नहीं होता कि बुरे लोग उनके खिलाफ प्रतिशोध लेंगे। लेकिन ऐसे व्यक्ति कलीसिया में बहुत कम हैं। तुम लोगों ने पहले जिस 5% का जिक्र किया, वह अतिशयोक्ति हो सकती है, पक्का अनुमान नहीं। इस परिप्रेक्ष्य से, प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले क्रूर स्वभाव के व्यक्तियों के प्रति ज्यादातर लोगों का रवैया क्या है? (ज्यादातर लोग पहले अपनी सुरक्षा देखते हैं।) उनका पहला विचार खुद की रक्षा करना होता है, वे यह नहीं सोचते कि परमेश्वर के घर और भाई-बहनों के हितों की रक्षा के लिए कैसे बुरे लोगों के खिलाफ खड़े होकर लड़ना है, वे बस अपनी सुरक्षा पर ध्यान देते हैं। यह आत्म-रक्षा किस समस्या का संकेत देती है? (ऐसे लोग बहुत स्वार्थी होते हैं।) पहली बात, यह एक गहरी स्वार्थी मानवता को दर्शाता है और दूसरी बात, यह दर्शाता है कि ज्यादातर लोगों की परमेश्वर में आस्था बहुत कमजोर है। वे मौखिक रूप से दावा करते हैं, “परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है; परमेश्वर हमारा सहारा है,” मगर वास्तविकता का सामना होने पर उन्हें लगता है कि वे परमेश्वर पर भरोसा नहीं कर सकते और उन्हें खुद पर निर्भर रहना चाहिए, अपनी आत्म-रक्षा को प्राथमिकता देनी चाहिए, जिसे वे सर्वोच्च बुद्धिमत्ता के रूप में देखते हैं। इसका मतलब है : “कोई भी मेरी रक्षा नहीं कर सकता, परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। परमेश्वर कहाँ है? हम उसे देख नहीं सकते! और फिर, मुझे नहीं पता कि परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा या नहीं। अगर वह मेरी रक्षा नहीं करता है तो क्या होगा?” लोगों की आस्था बहुत दयनीय है। वे लगातार दावा करते हैं, “परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है; परमेश्वर हमारा सहारा है,” मगर जब परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं तो वे सिर्फ अपनी सुरक्षा चाहते हैं, शैतान के खिलाफ लड़ने और अपनी गवाही में दृढ़ रहने में असमर्थ होते हैं, उनमें इतनी-सी भी आस्था नहीं होती। लोगों की आस्था बहुत दयनीय है; यह भी इस मामले से पूरी तरह उजागर हो जाता है। उनका आध्यात्मिक कद इतना छोटा है। प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले उन बुरे लोगों के संबंध में, अगर कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जो उन्हें उजागर करना चाहते हैं मगर वे अलग-थलग और शक्तिहीन महसूस करते हैं और बुरे लोगों द्वारा दबाए जाने से डरते हैं तो उन्हें कई अगुआओं और कार्यकर्ताओं या समझदार भाई-बहनों के साथ एकजुट होना चाहिए। एकजुट होने के बाद उन्हें जीत का पूरा भरोसा होगा। फिर वे ऐसे बुरे लोगों के क्रियाकलापों और व्यवहारों को उजागर कर उनका गहन-विश्लेषण कर सकते हैं जिससे ज्यादातर लोग बुरे लोगों के असली चेहरों को पहचान सकेंगे और स्पष्ट रूप से देख सकेंगे ताकि हर कोई दिल और दिमाग से एकजुट हो सके और मिलकर बुरे लोगों को बाहर निकाल सके। पहले, तुम लोगों ने जिक्र किया था कि जब बुरे व्यक्ति दिखते हैं तो परमेश्वर के चुने हुए करीब बीस लोगों में से एक के पास न्याय की भावना हो सकती है, उसमें न्यायपूर्ण ढंग से बोलने और ऐसे बुरे लोगों के खिलाफ खड़े होकर उन्हें बाहर निकालने की हिम्मत होगी। बीस में से एक बहुत ही कम है; अगर किसी कलीसिया में केवल दस लोग ही हैं तो वे बुरे व्यक्तियों को कैसे बाहर निकालेंगे? वे ऐसा नहीं कर सकेंगे; वे दस लोग बुरे लोगों के काबू में होंगे और उनके दुर्व्यवहार सहेंगे, जो स्वीकार्य नहीं है। दस में से एक या पाँच में से एक व्यक्ति में बुरे लोगों के खिलाफ खड़े होने और लड़ने का साहस होना बहुत अच्छा होगा! लगातार खुद को बचाने की कोशिश करने से न केवल शैतान के सामने गवाही खोनी पड़ सकती है, बल्कि इससे भी बदतर, परमेश्वर के सामने सत्य प्राप्त करने का अवसर खोना पड़ सकता है। कलीसिया में एक बुरा व्यक्ति होने पर कम से कम कुछ लोगों को नुकसान पहुँचेगा; अगर दो बुरे व्यक्ति हैं तो ज्यादातर लोगों को नुकसान होगा; और अगर कोई मसीह-विरोधी सत्ता में है जिसके नीचे कई साथी और अनुचर काम करते हैं तो कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए सभी लोगों को नुकसान होगा। क्या यही बात है? (हाँ।) बुरे लोगों के खिलाफ खड़ा होने वाला एक व्यक्ति ताकत की एक इकाई का प्रतिनिधित्व करता है जबकि बुरे लोगों के खिलाफ खड़े होने वाले दस लोग ताकत की दस इकाइयों का प्रतिनिधित्व करते हैं। तो तुम लोगों को क्या लगता है, बुरे लोग एक व्यक्ति से ज्यादा डरते हैं या दस लोगों से? (दस लोगों से।) फिर अगर बीस, तीस या पचास लोग बुरे व्यक्तियों के खिलाफ खड़े हो जाते हैं तो आखिरकार कौन जीतेगा? (भाई-बहन ही जीतेंगे।) अंत में भाई-बहन ही जीतेंगे। क्या इससे बुरे लोगों को बाहर निकालना ज्यादा आसान नहीं हो जाता है? संख्या में ताकत होती है—यह सरल अवधारणा तुम लोगों को स्पष्ट होनी चाहिए। इसलिए बुरे लोगों को पहचानना और उन्हें बाहर निकालना सिर्फ किसी अगुआ या कार्यकर्ता की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि यह कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए सभी लोगों की सामूहिक जिम्मेदारी है। बुरे लोगों को बाहर निकालने के लिए परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सहयोग के साथ-साथ अगुआओं और कार्यकर्ताओं की कोशिशों से हर कोई अच्छे दिनों का आनंद ले सकता है। अगर बुरे लोगों को बाहर नहीं निकाला जाता और उन्हें उनके पश्चात्ताप की उम्मीद में कलीसिया में रहने दिया जाता है मगर छह महीने या एक साल के बाद भी कोई सुधार नहीं दिखता और वे लगातार परमेश्वर के चुने हुए लोगों को असहनीय परेशानी देते रहते हैं तो यह बुरे लोगों पर दया दिखाने का नतीजा है। बुरे लोगों को अत्याचारी ढंग से व्यवहार करने देना और कलीसिया को काबू में करने देना खुद को और भाई-बहनों को बुरे व्यक्तियों के हाथों में सौंपने के बराबर है; यह उन्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों को स्वतंत्र रूप से नियंत्रित करने और गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाने की अनुमति देना है। क्या ऐसे परिवेश में सत्य समझना और प्राप्त करना आसान होगा जिसमें बुरे लोग और मसीह-विरोधी सत्ता में हैं? (नहीं।) समय अनमोल है। बुरे लोगों को जल्द से जल्द बाहर निकालकर, तुम शांति बहाल कर सकते हो और जल्द से जल्द उचित कलीसियाई जीवन का आनंद ले सकते हो और ज्यादा सत्य समझ सकते हो। अगर तुम बुरे लोगों को बाहर नहीं निकालते तो वे पागल कुत्तों की तरह लोगों के बीच बाधा और विनाश का कारण बनेंगे, वे जो चाहते हैं वही कहेंगे और करेंगे। इससे तुम्हारे पास सत्य प्राप्त करने के लिए समय नहीं बचेगा, यानी तुम्हारे समय और तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन पर बुरे लोगों का नियंत्रण होगा। यह अच्छी बात है या बुरी? (बुरी बात।) सैद्धांतिक तौर पर, हर कोई जानता है कि यह बुरी बात है मगर जब बुरे लोग कलीसिया में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं तो वे अब इस तरह से नहीं सोचते, केवल इस बात पर ध्यान देते हैं कि बुरे लोगों द्वारा उनके खिलाफ कोई साजिश न रची जाए या उन्हें गंभीर रूप से नुकसान न पहुँचाया जाए। अगर कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग इसी तरह बुरे लोगों से डरने लगें तो कलीसिया आसानी से इन बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों के नियंत्रण में आ जाएगी और परमेश्वर के चुने हुए लोग भी उनके द्वारा नियंत्रित होंगे। क्या तब परमेश्वर उन्हें बचा सकता है? यह कहना मुश्किल है। अगर कलीसिया में दो या तीन ऐसे लोग नहीं हैं जो सत्य समझते हों और परमेश्वर की गवाही देने और उसकी सेवा करने में एकदिल और एकमन हों तो यह निराशाजनक कलीसिया है और यह एक दुखद स्थिति है।

प्रतिशोध की तरफ झुकाव होना बुरे आचरण की अभिव्यक्ति है और यह क्रूर स्वभाव से उत्पन्न व्यवहारों और अभिव्यक्तियों में से एक है। ऐसे व्यक्ति जब इस तरह का विशिष्ट व्यवहार प्रदर्शित करते हैं तो उनका बुरे लोगों के रूप में चरित्र-चित्रण किया जाना चाहिए। बेशक कुछ लोग, क्योंकि वे दयनीय स्थिति में थे, उनमें अंतर्दृष्टि की कमी थी या वे नए विश्वासी थे जो सत्य नहीं समझते थे, हमेशा दूसरों के साथ झगड़ा करते और उन लोगों के प्रति घृणा का भाव रखते थे जो उनके प्रतिकूल थे या जिन्होंने उन्हें नुकसान पहुँचाया था या कभी कुछ लोगों के खिलाफ अपना प्रतिशोध लेने के लिए कुछ साधनों का इस्तेमाल किया था—मगर यह सुनकर कि प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले बुरे लोग हैं और उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए, वे अपने विचार बदल देते हैं, भीतर से खुद को बदल लेते हैं और अपने व्यवहार में कुछ संतुलन और संयम प्रदर्शित करते हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों को बुरे लोगों की श्रेणी में माना जाता है? (नहीं।) यह किससे पता चलता है? (खुद को बदलने की उनकी क्षमता से।) खुद को बदलने की उनकी क्षमता क्या प्रदर्शित करती है? यही कि वे सत्य स्वीकार सकते हैं; यह एक अच्छी घटना है। हम ऐसा क्यों कहते हैं कि वे सत्य स्वीकार सकते हैं? क्योंकि इस संबंध में सत्य सुनने और यह महसूस करने के बाद कि प्रतिशोध लेना बुरे लोगों की अभिव्यक्ति है, वे अपनी खुद की भ्रष्ट स्थिति पर चिंतन करते हैं, अपने भ्रष्ट सार को स्वीकार कर परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करते हैं, परमेश्वर के वचनों के अनुसार काम करते हैं और अपने व्यवहार को संयमित रखते हैं। यह सत्य स्वीकारने की अभिव्यक्ति है। हम यहाँ जिन बुरे लोगों की बात कर रहे हैं वे सत्य नहीं स्वीकारते। चाहे तुम उनके साथ सत्य के बारे में कितनी भी स्पष्टता से संगति करो, वे इसे स्वीकार नहीं करते; वे जिद्दी बने रहते हैं, किसी की भी बात सुनने से इनकार करते हैं। भले ही तुम उन्हें चेतावनी दो, “तुम्हारे क्रियाकलाप तुम्हें कलीसिया से बाहर निकाले जाने का कारण बनेंगे,” वे इसकी परवाह नहीं करते और अपने तरीके से चलते रहते हैं, जिसे कोई भी नहीं बदल सकता। जब तुम्हें उन्हें उजागर करते हो तो वे अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करते। जब तुम उन्हें बताते हो कि वे प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले व्यक्ति हैं, वे बुरे हैं और उन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए तब भी वे अपने बुरे कामों को नहीं छोड़ेंगे और कतई पीछे नहीं हटेंगे। ये किस तरह के लोग हैं? वे ऐसे लोग हैं जो सत्य से विमुख हैं। वे सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते—चाहे उनके स्वभाव सार का कैसे भी चरित्र-चित्रण किया जाए, उनके बुरे कर्मों को कैसे भी उजागर किया जाए या उनसे कैसे भी निपटा जाए उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता, वे सिर झुकाकर अपनी गलतियाँ बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे और निश्चित रूप से तुम्हें नहीं छोड़ेंगे। यह खुद को बदलने में असमर्थ होना है। खुद को नहीं बदल पाने का सार क्या है? यह सत्य स्वीकारने से इनकार करना है। अगर वे एक भी सही कथन या सत्य का एक भी पहलू स्वीकार सकते तो वे बिना मुड़े गलत मार्ग पर नहीं चलते रहते। वे अपना मार्ग बदलकर अपनी गलतियाँ स्वीकार लेते और कुछ हद तक उस चीज को छोड़ देते जिस पर वे पहले कायम थे। मगर क्योंकि वे बुरे लोग हैं, क्योंकि वे क्रूर स्वभाव वाले बुरे व्यक्ति हैं इसलिए जब ऐसे स्वभाव से उनका प्रतिशोध लेने का व्यवहार उत्पन्न होता है तो वे न केवल परमेश्वर के वचनों द्वारा उजागर की गई चीजें, अपनी काट-छाँट या इस तरह का चरित्र-चित्रण स्वीकारने से इनकार करते हैं बल्कि इसके विपरीत वे अंत तक अपने तरीकों पर अड़े रहते हैं। वे अपना चरित्र-चित्रण या उजागर किया जाना स्वीकारने की नहीं सोचते, न ही वे अपनी भ्रष्टता स्वीकारने का इरादा रखते हैं। बेशक, अपनी भ्रष्टता स्वीकार किए बिना वे प्रतिशोध लेने के अपने व्यवहार और क्रियाकलापों को छोड़ने की भी नहीं सोचते, न ही एक व्यक्ति होने के अपने सिद्धांतों को छोड़ने के बारे में सोचते हैं। वे एकदम और पूरी तरह से बुरे लोग हैं। क्या ऐसे बुरे लोग राक्षस नहीं हैं? (हाँ, हैं।) वे राक्षस हैं जिनमें पूरी तरह से शैतान का सार है। तुम उन्हें बदल नहीं सकते। उन्हें क्यों नहीं बदला जा सकता? मूल कारण सत्य स्वीकारने से उनका पूर्ण इनकार है। वे जरा-से सत्य, किसी भी सही कथन, सकारात्मक शब्द या सकारात्मक चीज को भी अस्वीकार कर देते हैं। भले ही वे मौखिक रूप से परमेश्वर के वचनों को सत्य और सकारात्मक चीजों के रूप में स्वीकारते हों मगर उनका दिल बिल्कुल भी सत्य स्वीकार नहीं करता, और न ही वे एक व्यक्ति होने और चीजों को करने के अपने तरीकों को बदलने के लिए परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और उन्हें अनुभव करने की सोचते हैं। कभी-कभी वे मौखिक रूप से स्वीकार सकते हैं कि उनके क्रियाकलाप पूरी तरह से शैतान के फलसफों पर आधारित हैं मगर वे अभी भी सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे। जो कोई भी उनके साथ सत्य पर संगति करता है उसे उनकी अत्यधिक घृणा और यहाँ तक कि उनकी नफरत और आलोचना का सामना करना पड़ता है और जो कोई भी उन्हें उजागर करता है और पहचानता है वह उनकी घृणा और प्रतिशोध का निशाना बन जाता है, फिर चाहे वह कोई भी हो—यहाँ तक कि उनके माता-पिता भी नहीं बख्शे जाते। क्या वे उद्धार से परे नहीं हैं? (बिल्कुल।) वे उद्धार से परे हैं। क्या उन्हें बाहर निकालना दयनीय है? (नहीं।) ऐसे व्यक्तियों को बहिष्कृत या निष्कासित करना ही चाहिए। ये मूल रूप से प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं; ये उनकी विशेषताएँ, उनके स्वभाव, उनके रास्ते और काम करने के तरीके, उनका सोचने का तरीका और साथ ही सत्य के प्रति उनका रवैया है—बस इतना ही। कलीसिया और भाई-बहनों पर उनके प्रभाव पर पहले ही चर्चा की जा चुकी है इसलिए इस पर फिर से संगति करने की कोई जरूरत नहीं है। इसके साथ ही चौथे प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियों पर संगति समाप्त होती है—जो प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखते हैं।

ङ. अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा पाना

इसके बाद हम पाँचवें प्रकार के लोगों के बारे में संगति करेंगे, वे लोग जो अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा सकते। क्या यह गंभीर समस्या है? शाब्दिक दृष्टिकोण से देखें तो अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा पाना कोई बड़ी समस्या नहीं लगती। कुछ लोगों के मन में इन व्यक्तियों का बुरे लोगों के रूप में चरित्र-चित्रण करने के बारे में कुछ विचार हो सकते हैं : “लोगों के पास मुँह हैं तो वे कभी भी और कहीं भी अपना मुँह खोल सकते हैं; वे कभी भी और कहीं भी मामलों पर चर्चा कर सकते हैं। क्या अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा पाने वाले लोगों को उन बुरे लोगों की श्रेणी में रखना थोड़ा ज्यादा नहीं हो जाएगा जिन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए?” तुम लोगों का इस बारे में क्या ख्याल है? (अगर वे कलीसियाई जीवन या कलीसिया के कार्य में बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा करते हैं जिससे प्रतिकूल परिणाम सामने आते हैं तो उन्हें भी बाहर निकाल दिया जाना चाहिए।) ऐसे लोगों के साथ समस्या अपनी जबान पर लगाम नहीं लगाने की नहीं है; यह उनकी मानवता की समस्या है। अगर वे भाई-बहनों, कलीसियाई जीवन और कलीसिया के कार्य में बाधाएँ पैदा करते हैं या उनके शब्द विश्वासघात करने और कलीसिया को धोखा देने के बराबर हैं और यहाँ तक कि परमेश्वर के घर और परमेश्वर के नाम को भी शर्मिंदा करते हैं तो ऐसे व्यक्तियों से जरूर निपटा जाना चाहिए। आओ सबसे पहले उन लोगों की अभिव्यक्तियों पर चर्चा करें जो अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा सकते और फिर जानेंगे कि उनसे कैसे निपटना है। क्या जो लोग अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा सकते, उन्हें “बड़बोला” कहा जा सकता है? (हाँ।) ऐसी बात है? क्या यह ऐसे लोगों की विशेषता है? क्या बड़बोला होने का मतलब मूर्ख होना और इस बात से अनजान होना है कि क्या कहना चाहिए या क्या नहीं; यानी परिणामों पर विचार किए बिना जो मन में आए वह बोल देना है? क्या अपनी जबान पर लगाम नहीं लगाने का यही मतलब है? (नहीं।) कुछ लोग बोलने और संवाद करने में अच्छे होते हैं; वे सीधे-सादे, अपेक्षाकृत सरल और ईमानदार होते हैं। वे अक्सर अपने अंदरूनी सोच-विचार, भ्रष्टता के अपने खुलासों, अपने अनुभवों और यहाँ तक कि अपनी गलतियों को भी दूसरों के साथ साझा करते हैं। लेकिन ये व्यक्ति जरूरी नहीं कि मूर्ख हों या अपनी जबान पर लगाम लगाने में असमर्थ हों। ऐसा लगता है कि वे हर चीज के बारे में बात करते हैं और काफी सरल और ईमानदार हैं; मगर जब गंभीर मुद्दों की बात आती है, ऐसे मुद्दे जो परमेश्वर या परमेश्वर के घर को शर्मिंदा कर सकते हैं, या ऐसे मुद्दे जो भाई-बहनों या कलीसिया के साथ उनके विश्वासघात से जुड़े हो सकते हैं, जिससे वे यहूदा बन सकते हैं तो वे एक शब्द भी नहीं बोलते। इसे अपनी जबान पर लगाम लगाना कहते हैं। इसलिए ऐसा नहीं है कि सीधे-सादे लोग, बड़बोले लोग या जो बोलने में अच्छे होते हैं, वे अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा सकते। यहाँ अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा पाने का क्या मतलब है? अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा पाने का मतलब है बिना सिद्धांतों के बोलना और श्रोताओं, अवसर या संदर्भ को ध्यान में रखे बिना, बेपरवाही से बात करना। इसके अलावा इसमें कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने के बारे में पता नहीं होना या इस बात की बिल्कुल भी परवाह नहीं करना कि इससे भाई-बहनों या कलीसियाई जीवन को कोई फायदा होता है या नहीं, और बस कुछ भी बोल देना भी शामिल है। “बस कुछ भी बोल देने” का क्या परिणाम होता है? यह परमेश्वर के घर और भाई-बहनों के हितों के साथ अनजाने में किया गया विश्वासघात है। अपने बेपरवाह भाषण और अपनी जबान पर लगाम लगा पाने में असमर्थता के कारण वे अनजाने में अविश्वासियों को परमेश्वर के घर के खिलाफ फायदा उठाने का मौका देते हैं, अविश्वासियों को कुछ भाई-बहनों का मजाक उड़ाने की अनुमति देते हैं, और अविश्वासियों और परमेश्वर में विश्वास नहीं रखने वाले लोगों को कई ऐसी बातें बता देते हैं जो उन्हें नहीं जाननी चाहिए। इसका नतीजा यह होता है कि ये लोग परमेश्वर के घर के मामलों और कलीसिया के आंतरिक मामलों पर खुलकर टिप्पणी करते हैं और अपमानजनक टिप्पणियाँ करते हैं, और परमेश्वर की निंदा और तिरस्कार करने वाली बातें कहते हैं। वे भाई-बहनों, कलीसिया और परमेश्वर के घर के कार्य के बारे में अफवाहें भी गढ़ सकते हैं जिससे प्रतिकूल परिणाम सामने आते हैं। यह परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डालना है और इसे कुकर्म माना जाता है। कुछ व्यक्ति यह जानने और छानबीन करने पर विशेष ध्यान देते हैं कि कलीसिया में अगुआ और कार्यकर्ता कौन हैं; वे उनके परिवार के लोगों के पते, भाई-बहनों की व्यक्तिगत जानकारी, कलीसिया के वित्तीय और लेखांकन कार्य, लेखा कर्मियों और कलीसिया से बहिष्कृत या निष्कासित लोगों की सूची के बारे में जानना चाहते हैं। वे कलीसिया की कार्य व्यवस्थाओं के बारे में जानने पर भी विशेष ध्यान देते हैं। ऐसा व्यवहार अत्यधिक संदिग्ध है और यह संकेत दे सकता है कि वे बड़े लाल अजगर के मुखबिर या जासूस हैं। अगर यह जानकारी अविश्वासी राक्षसों तक पहुँच जाती है, जिससे बड़े लाल अजगर को उनके बारे में पता चल सकता है तो इसके परिणाम अकल्पनीय होंगे। कुछ लोग मूर्खता और अज्ञानता के कारण इस जानकारी को या इसके कुछ हिस्से को अपने अविश्वासी परिवार के सदस्यों के साथ साझा कर सकते हैं, जो फिर इसे फैलाते हैं या बड़े लाल अजगर के एजेंटों को दे देते हैं। इससे जोखिम पैदा हो सकता है और कलीसिया के कार्य में कई परेशानियाँ आ सकती हैं, जिसके अकल्पनीय परिणाम हो सकते हैं। कलीसिया के ये आंतरिक मामले अक्सर कुछ लोगों द्वारा जो बिना किसी झिझक के सब कुछ बता देते हैं, अनजाने में परिवार के अविश्वासी सदस्यों के साथ साझा किए जाते हैं। और यहाँ तक कि वे अपने अविश्वासी रिश्तेदारों और दोस्तों को भी सब कुछ बता देते हैं। इससे कलीसिया के आंतरिक मामले उनके शब्दों के जरिये बाहरी दुनिया में निरंतर फैलते जाते हैं। इस तरह से जानकारी लीक होने के क्या परिणाम होते हैं? उनके परिवार के कई अविश्वासी सदस्यों, रिश्तेदारों और दोस्तों को कलीसिया के कई आंतरिक मामलों या भाई-बहनों के घर के पते, उनके असली नाम और निजी वैवाहिक मामलों के बारे में पता चल जाता है, जिनके बारे में शायद भाई-बहनों को खुद भी नहीं पता होगा। कलीसिया के ये मामले लीक कैसे हो जाते हैं? अविश्वासियों को उनके बारे में कैसे पता चलता है? कलीसिया के भीतर “संवाददाता” होते हैं! ऐसे लोगों को क्या कहा जाता है? (वे जो अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा सकते।) बिल्कुल सही। वे कलीसिया के दैनिक जीवन में होने वाली हर बात या भाई-बहनों से जुड़ी बातों को अपने परिवार के अविश्वासी सदस्यों के साथ साझा करते हैं, जैसे कि किसी बहन का तलाक हो जाना, किसी दूसरी बहन के पति का कारोबार में पैसा गँवा देना या उसका कोई अवज्ञाकारी बेटा होना, या किसी भाई या बहन का कोई घर खरीदना वगैरह। वे उन भाई-बहनों के बारे में भी बात करते हैं जिन्हें बड़े लाल अजगर ने गिरफ्तार कर लिया था और वे यहूदा बन गए थे या फिर जो अपनी गवाही में दृढ़ रहे, और वे यह भी जिक्र करते हैं कि कलीसिया के अगुआओं ने उनके साथ काट-छाँट की। घर पर उनकी बातचीत पूरी तरह से इन विषयों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। यहाँ तक कि उनके परिवार के सदस्य उन्हें अगुआओं, भाई-बहनों या कलीसिया में किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई करने में मदद करने की सलाह देते हैं और रणनीतियाँ सुझाते हैं जो उनके साथ अच्छे से नहीं रहता है, उनके लिए चुनौती खड़ी करता है या उन्हें उजागर करता है। भाई-बहनों के बीच सभाओं में, ऐसे व्यक्ति विशेष रूप से आज्ञाकारी और अच्छे व्यवहार वाले दिखाई देते हैं, कम बोलते हैं, बातचीत करने में अच्छे नहीं होते, अपने भ्रष्ट स्वभावों के बारे में कभी बात नहीं करते, अपनी अनुभवजन्य समझ के बारे में कभी संगति नहीं करते और शायद ही कभी प्रार्थना करते हों। वे भाई-बहनों के साथ सतर्कता से पेश आते हैं जबकि अपने परिवार के अविश्वासी सदस्यों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं मानो वे परमेश्वर के घर के सदस्य हों। वे अपने परिवार के सदस्यों को कलीसिया के बारे में बिना किसी चूक के सारी जानकारी देते हैं, उनके साथ सब कुछ साझा करते हैं, यहाँ तक कि कलीसिया द्वारा परमेश्वर के वचन की पुस्तकों की छपाई, कलीसिया में किसके पास क्या प्रतिभाएँ हैं, और भी बहुत कुछ—इन सभी चीजों पर उनके परिवार के सदस्यों और उन लोगों के साथ मिलकर चर्चा की जाती है जो परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं। ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य चाहे कुछ भी हो, अंतिम परिणाम यह होता है कि वे कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों को धोखा देते हैं। उन्हें कलीसिया के हर एक प्रमुख सदस्य की स्थिति के बारे में पता होता है। बेशक, ये लोग उनकी पीठ पीछे की चर्चाओं और आलोचनाओं के विषय भी होते हैं और यहाँ तक कि वे गुप्त रूप से धोखा देने वाले भी बन सकते हैं। अगर किसी के साथ उनका अच्छा संबंध है तो वे अपने परिवार के सामने उस व्यक्ति की लगातार तारीफ करते हैं। इसके विपरीत, अगर किसी के साथ उनका खराब संबंध है तो वे अपने परिवार के सामने उस व्यक्ति को लगातार गाली देते हैं, यहाँ तक कि अपने परिवार को भी गाली देने में शामिल कर लेते हैं, भाई-बहनों को बेवकूफ कहते हैं या फिर कहते हैं कि वे अच्छे नहीं हैं। ये व्यक्ति भाई-बहनों को उन अपमानजनक शब्दों से अपमानित करते हैं जिनका इस्तेमाल अविश्वासी करते हैं। वे अविश्वासियों के समान हैं; वे पूरी तरह से छद्म-विश्वासी हैं; वे जरा भी अच्छे लोग नहीं हैं और ऐसे व्यक्तियों को तुरंत बाहर निकाल दिया जाना चाहिए।

बड़े लाल अजगर के देश में परमेश्वर में विश्वास रखने वाले हर एक व्यक्ति की जानकारी गोपनीय रखी जानी चाहिए; यहाँ तक कि जब परमेश्वर के चुने हुए लोग विदेश चले जाते हैं तब भी उनकी जानकारी निजी रहनी चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि बड़े लाल अजगर के जासूस दुनिया के हर देश में फैले हुए हैं, जो परमेश्वर में विश्वास रखने वालों की जानकारी इकठ्ठा करने के विशेष लक्ष्य से हर जगह घुसपैठ करते रहते हैं। चीन की मुख्य भूमि में परमेश्वर का अनुसरण करने वाले भाई-बहनों के लिए स्थिति बहुत कठिन और खतरनाक है। यहाँ तक कि जब वे विदेश चले जाते हैं तब भी कुछ हद तक खतरा बना रहता है। अगर बड़े लाल अजगर के जासूस उनकी जानकारी इकठ्ठा करते हैं तो जहाँ एक ओर उनके प्रत्यर्पण का जोखिम होगा, वहीं दूसरी ओर कम से कम चीन की मुख्य भूमि में उनके परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों को फँसाया जा सकता है। सुरक्षा कारणों से और व्यक्तियों के सम्मान के लिए सभी को भाई-बहनों की व्यक्तिगत जानकारी गोपनीय रखनी चाहिए और इसे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखने वालों के साथ साझा नहीं करनी चाहिए। जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं उनके बीच भी, व्यक्ति की सहमति के बिना दूसरों के सामने उसकी व्यक्तिगत जानकारी का यूँ ही खुलासा नहीं करना चाहिए। भाई-बहनों, कलीसिया के कार्य, किसी व्यक्ति द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों, संगति में साझा किए गए अनुभवों या इस तरह की अन्य जानकारी को अपने खाली समय में अविश्वासियों के साथ बातचीत का विषय बनाना बिल्कुल भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। उनके साथ इन मामलों पर चर्चा करने के क्या परिणाम होते हैं? क्या कोई सकारात्मक या रचनात्मक नतीजा होता है? (नहीं।) इस तरह की चर्चाओं का परिणाम यह होता है कि ये अविश्वासी राक्षस उनका लाभ उठाते हैं, मजाक उड़ाते हैं, उनकी आलोचना करते हैं और यहाँ तक कि उन्हें गाली देते हैं और बदनाम भी करते हैं। क्या यह अच्छा है? (नहीं।) तुम लोगों को जाँच करनी चाहिए कि क्या कलीसिया के भीतर ऐसी गुप्त मंशा रखने वाले व्यक्ति हैं जो कलीसिया के कार्य और कलीसियाई जीवन की वास्तविक स्थितियों जैसी जानकारी के बारे में अविश्वासियों और अपने परिवार के अविश्वासी सदस्यों के साथ बेझिझक चर्चा करते हैं—साथ ही इन बातों की चर्चा भी करते हैं कि कौन वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखता है, कौन सत्य का अनुसरण करता है, कौन अपने कर्तव्य निभाता है, कौन अपने कर्तव्य नहीं निभाता, कौन अक्सर नकारात्मक रहता है, किसकी आस्था भ्रमित है और यहाँ तक कि भाई-बहनों की व्यक्तिगत जानकारी और उनकी परिस्थितियों के बारे में भी चर्चा करते हैं। ऐसे व्यक्तियों की जाँच करो। कुछ ऐसे मामले हैं जिनके बारे में कलीसिया के भीतर के लोगों को भी नहीं जानना चाहिए, फिर भी ऐसे व्यक्तियों के परिवार के अविश्वासी सदस्य कलीसिया के लोगों से ज्यादा इन मामलों के बारे में जानते हैं—और उनके बारे में ज्यादा स्पष्टता से जानते हैं। ऐसा कैसे होता है? यह कलीसिया के अंदर के मौजूद किसी मुखबिर का “योगदान” है। यह मुखबिर अपने परिवार के सदस्यों के साथ इस तरह पेश आते हैं मानो वे कलीसिया के अगुआ हों; कलीसिया में वे जो कुछ भी देखते हैं उनके बारे में अपने “अगुआओं” को रिपोर्ट करते हैं ताकि वे अपने परिवार की चापलूसी करते हुए उनके साथ अपने भावनात्मक संबंध को मजबूत बना सकें। यह स्पष्ट है कि कलीसिया के इन सभी मामलों में उन मुखबिरों ने विश्वासघात किया है जो अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा सकते। वे भाई-बहनों का सम्मान नहीं करते, न ही वे परमेश्वर के घर के कार्य और उसके हितों की रक्षा करते हैं। वे परमेश्वर के घर और कलीसिया को समाज या सार्वजनिक स्थान की तरह मानते हैं, भाई-बहनों पर लापरवाही से टिप्पणी और उनकी आलोचना करते हैं मानो वे अविश्वासी हों, यहाँ तक कि वे छद्म-विश्वासियों और अविश्वासियों के साथ मिलकर भाई-बहनों की खुलेआम आलोचना करते हैं। यही नहीं, कुछ लोग अगुआओं द्वारा काट-छाँट किए जाने के बाद या भाई-बहनों के साथ मतभेद, विवाद और असहमति के बाद घर जाकर तमाशा खड़ा करते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि उनके परिवार को इसके बारे में सब पता चल जाए। इसका परिणाम यह होता है कि उनका परिवार कलीसिया को गिराने और धोखा देने के मकसद से अगुआओं या भाई-बहनों से प्रतिशोध लेना चाहता है। क्या यह अच्छी घटना है? (नहीं।) उनका कलीसिया के आंतरिक मामलों को परिवार के सदस्यों, रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ बेझिझक साझा करना और इस तरह की बातें करना कि कितने भाई-बहन कलीसियाई जीवन जीते हैं, और हर कोई कौन-सा कर्तव्य निभाता है—वे किस तरह के दुष्ट हैं? क्या वे सच्चे विश्वासी हैं? (नहीं।) क्या वे परमेश्वर के घर के सदस्य हैं? क्या उन्हें भाई या बहन कहा जा सकता है? (नहीं।) ऐसे मुखबिरों और छिपे हुए गद्दारों को कलीसिया के भीतर रखना, चाहे अतीत में, वर्तमान में या भविष्य में, परमेश्वर के घर और भाई-बहनों के लिए बहुत बड़ी परेशानी खड़ी करेगा। भले ही वे कलीसियाई जीवन में कई बुरे कर्म करते नहीं दिखते हों फिर भी परमेश्वर के घर के बारे में अविश्वासियों, शैतानों और राक्षसों को गुप्त रूप से विभिन्न जानकारी देने के परिणाम और प्रभाव बेहद हानिकारक हैं! क्या ऐसे घिनौने लोगों को कलीसिया में रहने दिया जाना चाहिए? (नहीं।) क्या वे परमेश्वर के घर के सदस्य कहलाने लायक हैं? क्या वे भाई-बहनों के समान व्यवहार किए जाने लायक हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों से कैसे निपटा जाना चाहिए? (उन्हें जितनी जल्दी हो सके बाहर निकाल देना चाहिए।) उन्हें जितनी जल्दी हो सके बाहर निकाल देना चाहिए! उन्हें बाहर निकालो! उन्हें बाहर निकालने का यही कारण है : “तुम अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा सकते, तुम यह पहचानने में विफल हो जाते हो कि तुम्हारे लिए क्या अच्छा है, जो हाथ तुम्हें खाना खिलाता है तुम उसी को काटते हो। तुम परमेश्वर में विश्वास रखकर उसके अनुग्रह का आनंद लेते हो और साथ ही भाई-बहनों की मदद, प्रेम, धैर्य और देखरेख का भी आनंद लेते हो फिर ही तुम इस तरह से भाई-बहनों और कलीसिया को धोखा देते हो। तुम बिल्कुल भी अच्छे नहीं हो; दफा हो जाओ!” भाई-बहनों के मामले, कलीसिया के मामले और परमेश्वर के घर के किसी भी कार्य के बारे में अविश्वासियों को नहीं बताना चाहिए, न ही बेकार की बातचीत के विषय के रूप में उनका इस्तेमाल करना चाहिए। वे इसके लायक नहीं हैं! जो कोई भी ऐसी जानकारी फैलाता है, वह घृणा का पात्र बन जाता है, जिसे कलीसिया को बाहर निकाल देना चाहिए और भाई-बहनों को उन्हें ठुकरा देना चाहिए। भाई-बहनों और कलीसिया को धोखा देने और अनौपचारिक बातचीत में कलीसिया के अंदरूनी मामलों को अविश्वासियों के साथ साझा करने के उनके क्रियाकलापों के आधार पर, वे निस्संदेह गद्दार, मुखबिर और बुरे लोग हैं जिन्हें कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। भाई-बहन कलीसिया के भीतर किए जाने वाले किसी भी कार्य के बारे में जरूरत के मुताबिक संगति और चर्चा करने के लिए स्वतंत्र हैं—जैसे कि किसे बाहर निकाला जाना चाहिए या कुछ घटनाओं का घटित होना—मगर इसे अविश्वासियों के साथ बिल्कुल भी साझा नहीं किया जाना चाहिए, न ही इसके बारे में अविश्वासियों के परिवार के सदस्यों से बात करनी चाहिए। खास तौर पर, छोटे आध्यात्मिक कद के नए भाई-बहनों की व्यक्तिगत और पारिवारिक परिस्थितियों के बारे में बाहरी लोगों को नहीं बताना चाहिए। अगर तुम्हें इसे अपने तक सीमित रखना मुश्किल लगता है तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, आत्म-संयम सीखने के लिए उस पर भरोसा करना चाहिए और कुछ सार्थक गतिविधियों में शामिल होना चाहिए। अगर तुम वास्तव में खुद पर काबू नहीं रख सकते तो तुम्हें इसका समाधान खोजने के लिए सबसे पहले कलीसिया में रिपोर्ट करनी चाहिए ताकि प्रतिकूल परिणामों को रोका जा सके क्योंकि ऐसी जानकारी फैलाने से समस्याएँ पैदा होने की सबसे अधिक संभावना होती है। उदाहरण के लिए, किसी का निजी फोन नंबर, घर का पता, कोई व्यक्ति कितने सालों से परमेश्वर में विश्वास रख रहा है, उसका व्यक्तिगत परिवार और वैवाहिक स्थिति जैसी चीजें संवेदनशील विषय हैं। इनका सत्य या जीवन प्रवेश से कोई लेना-देना नहीं है; वे व्यक्तिगत गोपनीयता से संबंधित हैं। केवल एजेंट और मुखबिर ही इन मामलों की विशेष रूप से जाँच-पड़ताल करते हैं। अगर तुम्हें ऐसे मामलों के बारे में जानने और इन्हें फैलाने में मजा आता है तो यह किस तरह के स्वभाव का संकेत देता है? यह कुछ हद तक घिनौना है! सत्य का अनुसरण करने के बजाय गप्पे लड़ाने पर ध्यान देना, मुखबिर या जासूस के रूप में काम करना और बड़े लाल अजगर की सेवा करना—क्या यह घिनौना और बहुत ही दुष्ट नहीं है? जो कोई भी विशेष रूप से संवेदनशील विषयों और दूसरों के निजी मामलों के बारे में पूछताछ और छानबीन करता है, और बेपरवाही से ऐसी जानकारी फैलाता है, वह गुप्त मंशाएँ रखने वाला और छद्म-अविश्वासी है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को ऐसे व्यक्तियों से विशेष रूप से सावधान रहना चाहिए। अगर ऐसे लोग पश्चात्ताप नहीं करते हैं तो उनका कलीसियाई जीवन रोक दिया जाना चाहिए क्योंकि भाई-बहनों को धोखा देना सबसे अनैतिक, घृणित और शर्मनाक काम है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को ऐसे व्यक्तियों से दूर रहना चाहिए। कलीसियाई जीवन में लोगों को इन मामलों के बारे में पूछताछ करने और इनकी चर्चा करने से रोका जाना चाहिए क्योंकि उनका सत्य की संगति से कोई लेना-देना नहीं है और उनके बारे में बात करने से दूसरों को कोई लाभ नहीं होता।

परमेश्वर के घर में कई प्रशासनिक आदेश और विनियम हैं जिनका परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पालन करना चाहिए। अन्य बातों के साथ ही कलीसिया के आंतरिक मामले, अगुआओं और कार्यकर्ताओं का कार्मिक समायोजन, कलीसिया का स्वच्छता का कार्य और ऊपरवाले की व्यवस्थाएँ जैसे मामलों की जानकारी कलीसिया के भीतर लापरवाही से नहीं फैलाई जानी चाहिए ताकि छद्म-विश्वासियों और बुरे लोगों को शैतान के सामने विश्वासघात करने से रोका जा सके। इसका कारण यह है कि परमेश्वर का घर समाज से अलग है; परमेश्वर चाहता है कि लोग सत्य का अनुसरण करें, परमेश्वर का वचन ज्यादा पढ़ें, ज्यादा चिंतन और संगति करें। केवल परमेश्वर के वचनों का प्रचार करने और परमेश्वर के लिए गवाही देने से ही उचित माहौल बन सकता है; केवल ज्यादा से ज्यादा अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा करने से ही ऐसा माहौल बन सकता है। इसके अलावा, परमेश्वर के घर में बहुत-से ऐसे नए विश्वासी हैं जो केवल थोड़े समय पहले से ही परमेश्वर में विश्वास रख रहे हैं। जाहिर है कि कुछ छद्म-विश्वासियों का अभी तक खुलासा नहीं हुआ है। विशेष रूप से, विश्वास के पहले पाँच या दस साल लोगों की वास्तविकता प्रकट करने का समय होता है; इस दौरान यह निश्चित नहीं होता कि कौन दृढ़ रह सकता है और कौन नहीं, और न ही यह पता होता है कि कलीसिया में बाधा डालने में सक्षम कितने बुरे लोग अभी भी मौजूद हैं। हमेशा व्यक्तिगत जानकारी और इस तरह के बाहरी मामलों को, साथ ही सत्य की संगति से असंबंधित मामलों को बेतहाशा फैलाने से कई प्रतिकूल परिणाम हो सकते हैं। उदाहरण के लिए कोई पूछ सकता है, “यह अगुआ कहाँ से आया है? वह कहाँ रहता है?” परमेश्वर के चुने हुए लोगों को यह संवेदनशील जानकारी जानने की कोई जरूरत नहीं है। कोई और पूछ सकता है, “परमेश्वर के घर को परमेश्वर के वचनों की एक पुस्तक छापने में कितना खर्च आता है?” क्या यह जानना उपयोगी है? (नहीं।) क्या छपाई के खर्चे का तुमसे कोई लेना-देना है? क्या तुमसे इसके लिए पैसे लिए गए हैं? इसका तुमसे कोई नाता नहीं लगता, है ना? कुछ लोग पूछ सकते हैं, “अभी परमेश्वर के घर में उच्च-स्तर के अगुआ कौन लोग हैं?” अगर वे सीधे तौर पर तुम्हारी अगुआई नहीं कर रहे हैं तो क्या इस बारे में नहीं जानना तुम्हें प्रभावित करता है? (नहीं।) चीन की मुख्य भूमि में इन चीजों को जानना एक समस्या हो सकती है। अगर तुम बड़े लाल अजगर द्वारा पकड़े जाते हो और वह तुम्हें गंभीर यातना देता है तब अगर तुम इन बातों को नहीं जानते हो तो चाहे वह तुम्हें कैसे भी मारे-पीटे, तुम कुछ भी नहीं बता पाओगे और इसलिए तुम यहूदा नहीं बनोगे। लेकिन अगर तुम्हें जानकारी होगी और तुम उनकी भयंकर मार-पीट को नहीं सह पाते हो तो तुम अपना मुँह खोलकर यहूदा बन सकते हो। उस समय तुम सोच सकते हो, “फिर मैंने बिना सोचे-समझे वो सवाल क्यों पूछे? इनके बारे में नहीं जानना बेहतर होता। अगर मुझे पीट-पीटकर मार भी दिया जाए तो भी मैं उन बातों से अनजान रहता; अगर मैं जवाब देना भी चाहता तो भी कोई जवाब नहीं दे पाता। उस स्थिति में मैं यहूदा नहीं बनता। मैंने अब अपना सबक सीख लिया है; सत्य से असंबंधित इन मामलों के बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानना ही सबसे अच्छा है। ऐसी चीजों के बारे में पूछताछ करने से कोई फायदा नहीं है; इनके बारे में नहीं जानना ही बेहतर है।” और कुछ अन्य लोग पूछ सकते हैं, “परमेश्वर के घर में ऐसी कितनी टीमें हैं जो विशेषज्ञता वाले काम कर रही हैं?” इससे तुम्हारा क्या लेना-देना है? बस वही काम करो जो तुम्हारी टीम को सौंपा गया है। इस बारे में नहीं जानने से तुम्हारे अपने कर्तव्य को सामान्य रूप से करने, अपनी आस्था में सत्य का अनुसरण करने या कलीसियाई जीवन जीने की तुम्हारी क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ता; इससे कुछ भी प्रभावित नहीं होता है। इसके बारे में नहीं जानने से सत्य का अनुसरण करने या विश्वासी के रूप में उद्धार प्राप्त करने में तुम्हें कोई बाधा नहीं आती तो फिर पूछने की क्या जरूरत है? “क्या ज्यादातर भाई-बहन शहरी इलाकों से हैं या ग्रामीण इलाकों से? क्या वे शिक्षित हैं या अशिक्षित?” क्या ये सब जानना उपयोगी है? (नहीं।) क्या हुआ अगर वे सभी ग्रामीण इलाकों से हैं? और क्या हुआ अगर वे सभी शहरों से हैं? इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “सुसमाचार कार्य अब कैसे फैल रहा है?” इसके बारे में थोड़ी पूछताछ करना ठीक है मगर कुछ लोग अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए विस्तार से पूछते हैं कि सुसमाचार कार्य कितने देशों में फैल चुका है, जो अनावश्यक है। अगर उन्हें यह पता भी हो तो इसका उन पर क्या प्रभाव होगा? ऐसी जानकारी होने से क्या लाभ होगा? अगर तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं है तो इस बारे में जानने के बाद भी नहीं रहेगी; यह ज्ञान तुम्हें अपने कर्तव्यों को ठीक से निभाने में या तुम्हारे जीवन प्रवेश में कोई सहायता नहीं करेगा। कुछ सामान्य मामलों के बारे में पूछताछ नहीं करना ही ठीक है; वास्तव में इनके बारे में नहीं जानना ही बेहतर है। बहुत ज्यादा जानना एक बोझ है। अगर ऐसी जानकारी बाहर फैल जाती है तो यह एक समस्या और अपराध बन जाती है। इन बातों को जानना अच्छा नहीं है : जितना ज्यादा तुम जानोगे, उतनी ही ज्यादा तुम्हारे लिए मुसीबत हो सकती है। जो लोग सत्य समझते हैं वे जानते हैं कि क्या कहा जाना चाहिए और क्या नहीं कहा जाना चाहिए। भ्रमित लोग जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी होती है, बात करते समय अंदरूनी और बाहरी लोगों के बीच भेद करने में विफल होते हैं, वे केवल बकवास करते हैं। इसलिए इन मामलों के बारे में कलीसिया के उन लोगों को नहीं बताया जाना चाहिए जो सत्य नहीं समझते। इन बातों को जानने से किसी भी तरह का लाभ नहीं होता है। एक तो ये लोग समस्याएँ सुलझाने में मदद नहीं कर सकते। दूसरा, ये कलीसिया के कार्य की रक्षा नहीं कर सकते। और तीसरा, उन्हें परमेश्वर के घर के बारे में अच्छी बातें कहने की कोई जरूरत नहीं है। परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं और परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक हैं—क्या उन छद्म-विश्वासियों और अविश्वासियों से चापलूसी और खुशामद करवाने की कोई जरूरत है जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है? बिल्कुल नहीं। भले ही पूरे संसार में एक भी प्राणी परमेश्वर का अनुसरण न करे या उसकी आराधना न करे, परमेश्वर का दर्जा और सार कभी नहीं बदलेगा। परमेश्वर परमेश्वर है, सदा-सर्वदा अडिग, परिस्थितियों में किसी भी बदलाव से अपरिवर्तित। परमेश्वर की पहचान और दर्जा सदा के लिए अपरिवर्तनीय है। परमेश्वर में विश्वास रखने वालों को ये सत्य समझने चाहिए। वे छद्म-विश्वासी और अविश्वासी लोग अंदरूनी और बाहरी लोगों के बीच भेद किए बिना बोलते और काम करते हैं—क्या उनका बहुत ज्यादा जानना परमेश्वर के घर के कार्य के लिए फायदेमंद है? क्या उनका परमेश्वर के घर के कार्य के बारे में जानना जरूरी है? वे यह जानकारी पाने के लायक नहीं हैं! कुछ लोग पूछ सकते हैं, “क्या ये सभी मामले रहस्य हैं और इसलिए इन्हें जाना नहीं जा सकता?” इस मुकाम तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, क्या तुम लोगों को लगता है कि इन मामलों में कोई रहस्य है? (नहीं।) मगर परमेश्वर के चुने हुए लोगों में ईमानदारी और गरिमा होती है; उन्हें अविश्वासियों द्वारा चर्चा या उपहास का विषय बिल्कुल नहीं बनाया जाना चाहिए। परमेश्वर का घर, कलीसिया और भाई-बहन, चाहे समूह में हों या व्यक्तिगत रूप से, सभी में गरिमा होती है; वे सभी सकारात्मक हैं और किसी को भी उन्हें दूषित करने की कोशश नहीं करनी चाहिए। जो कोई भी इस तरह से काम करता है जिससे शैतानों और राक्षसों को मनमाने ढंग से परमेश्वर के घर की प्रतिष्ठा को दूषित करने और लापरवाही से उसे बदनाम करने या नुकसान पहुँचाने या भाई-बहनों की प्रतिष्ठा को चोट पहुँचाने का मौका मिलता है, तो वह शापित है! इसलिए कलीसिया उन लोगों की मौजूदगी की बिल्कुल भी अनुमति नहीं देती है जो अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा सकते। उनकी पहचान होते ही उन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए! क्या यह नजरिया सिद्धांतों के अनुरूप है? (बिल्कुल है।)

कुछ लोग भाई-बहनों से बात करते समय, संवाद करते समय, उनसे मिलते-जुलते या संपर्क करते समय खास तौर पर सावधानी और सतर्कता बरतते हैं मगर घर पहुँचते ही वे बड़बोले हो जाते हैं, सब कुछ उगल देते हैं, यहाँ तक कि भाई-बहनों की व्यक्तिगत जानकारी भी जिससे उनके परिवार के अविश्वासी सदस्य जो आस्था नहीं रखते हैं और जो केवल नाममात्र का विश्वास करते हैं, उन्हें कलीसिया के मामलों के बारे में बहुत कुछ पता चल जाता है। ऐसा व्यक्ति एक मुखबिर, एक गद्दार—एक यहूदा—है और ठीक उसी तरह का व्यक्ति है जिसे कलीसिया को बाहर निकाल देना चाहिए। वह जितने समय तक कलीसिया में रहेगा, भाई-बहनों के बारे में उसे उतनी ही ज्यादा जानकारी मिलेगी, वह उतना ही ज्यादा विश्वासघात करेगा और अविश्वासियों के पास मौके का फायदा उठाने और अपमान करने के लिए उतने ही ज्यादा मामले होंगे। अगर तुम्हें इस बात का डर नहीं है कि ऐसा व्यक्ति यह जानकारी अविश्वासियों को दे देगा तो उसे कलीसिया में रहने दो; अगर तुम नहीं चाहते कि तुम्हारी व्यक्तिगत जानकारी और कलीसिया के आंतरिक मामले उसके मुँह से फैलें तो तुम्हें इस मुखबिर को जल्द से जल्द बाहर निकाल देना चाहिए। क्या यह उचित है? (हाँ।) ऐसे व्यक्तियों के प्रति कोई नरमी नहीं दिखाई जानी चाहिए; उनके मन में कोई अच्छे इरादे नहीं होते और वे खुद भी कुछ अच्छे नहीं होते। ऐसे लोग उन दो प्रकार के लोगों की तुलना में कैसे हैं जिनका पहले जिक्र किया गया है, जो प्रतिशोध की तरफ झुके होते हैं और जो स्वच्छंद और असंयमित होते हैं? ये बेहतर हैं या बदतर? (बदतर।) ये व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं, थोड़ी-बहुत मेहनत कर सकते हैं और थोड़ी कठिनाई भी झेल सकते हैं; परमेश्वर का घर उनसे जो कुछ भी करने को कहता है वे उसमें सहयोग कर सकते हैं और इनकार नहीं करते, मगर एक समस्या है : वे अविश्वासियों को परमेश्वर के घर के बारे में सब कुछ बता देते हैं। वे हर दिन एक गद्दार, एक मुखबिर की भूमिका निभाते हैं। सिर्फ इसी कारण से कलीसिया उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकती और कलीसिया को उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए। समझ रहे हो? (हाँ।) चाहे वे कलीसिया के भीतर खुश हों या नाखुश, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन उन्हें भड़काता है, कौन उनके साथ मिल-जुलकर रहता है, उन्हें कलीसिया अगुआ बनाया जाता है या बर्खास्त किया जाता है—चाहे कुछ भी हो, उन्हें हमेशा अपने परिवार के अविश्वासी सदस्यों के साथ हर जानकारी साझा करनी ही है। वे सुनिश्चित करते हैं कि उनके परिवार के अविश्वासी सदस्यों और अविश्वासियों को तुरंत सूचित किया जाए और वे कलीसिया की आंतरिक स्थिति को तुरंत समझें। ऐसे व्यक्तियों के लिए तुम्हें बिल्कुल भी कोई नरमी या दया नहीं दिखानी चाहिए; जैसे ही ऐसे किसी व्यक्ति का पता चले उसे बाहर निकाल दो। यह तरीका कैसा है? (उचित है।) क्या इस तरह से काम करना निर्दयता है? (नहीं।) यह निर्दयता नहीं है। तुम उनके साथ भाई-बहनों जैसा व्यवहार करते हो मगर वे परमेश्वर के घर के हितों या भाई-बहनों के हितों की बिल्कुल भी रक्षा नहीं करते हैं। इसके बजाय वे हर मोड़ पर परमेश्वर के घर और भाई-बहनों के हितों के साथ धोखा करते हैं। तुम उन्हें अपना परिवार मानते हो मगर क्या वे तुम्हें अपना परिवार मानते हैं? (नहीं।) तो फिर उनके प्रति नरमी मत दिखाओ; अगर उन्हें बाहर निकालने की जरूरत है तो बाहर निकाल दो। अब तक क्या तुम लोगों का सामना ऐसे व्यक्तियों से हुआ है? (हाँ। उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों को भाई-बहनों के बारे में सब कुछ बता दिया और कभी-कभी वे कलीसिया के भीतर के कुछ विशेष मामलों और विशिष्ट व्यवस्थाओं के बारे में मौका मिलते ही अपने परिवार के सदस्यों को सूचित कर देते थे। फिर उनके परिवार के सदस्य कलीसिया की पीठ पीछे कलीसिया के बारे में गपशप करने के लिए मसाला जुटा लेते थे।) क्या ऐसे व्यक्तियों को बाहर निकाल दिया गया? (हाँ।) बाहर निकाले जाने के बाद क्या उन्होंने शिकायत की? उन्हें यह अनुचित लग सकता है क्योंकि वे सोचते हैं, “मैंने तो कुछ भी नहीं किया; यह प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन नहीं है, न ही मैंने गड़बड़ियाँ या बाधाएँ पैदा की, तो मुझे क्यों बाहर निकाला गया?” क्या तुम लोगों को लगता है कि उनके क्रियाकलापों की प्रकृति गड़बड़ियाँ या और बाधाएँ पैदा करने से ज्यादा गंभीर है? (हाँ।) क्या ऐसे लोगों को छुटकारा दिलाया जा सकता है? क्या उनके लिए बदलना आसान है? (नहीं।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि यह आसान नहीं होगा? कौन-से पहलू से यह पता चलता है कि उनके लिए बदलना मुश्किल है? (वे परमेश्वर के घर का हिस्सा नहीं हैं, वे भाई या बहन नहीं हैं; उनमें छद्म-विश्वासियों और अविश्वासियों का सार है।) यही उनका सार है। तो तुम यह कैसे बता सकते हो कि वे अविश्वासी और छद्म-विश्वासी हैं? (कलीसिया में उनकी जो भी भावनाएँ होती हैं, वे अपने परिवार के सामने उन्हें प्रकट करते हैं जो यह दर्शाता है कि चाहे कुछ भी हो जाए वे इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं करते और कोई सबक तो बिल्कुल नहीं सीखते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं करते और सत्य स्वीकार नहीं करते इसलिए उनमें छद्म-विश्वासियों का सार है।) उनका यह सार स्पष्ट कर दिया गया है। वे अपने परिवार के सामने अपनी भावनाएँ प्रकट करते हैं और हर चीज को अपनी भावनाओं के आधार पर देखते हैं। तुम यह कैसे बता सकते हो कि वे परमेश्वर के घर का हिस्सा नहीं, बल्कि अविश्वासी हैं जिन्होंने परमेश्वर के घर में घुसपैठ की है? (क्योंकि वे परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात कर सकते हैं, गद्दारों और मुखबिरों के रूप में काम कर सकते हैं और क्योंकि वे मूल रूप से ऐसे लोग नहीं हैं जो परमेश्वर के घर के कार्य और हितों की रक्षा करते हैं। इस तरह इन व्यक्तियों का दिल परमेश्वर के घर से एकमत नहीं है।) यह स्पष्टीकरण सटीक नहीं है। मैं समझाता हूँ। भले ही ये लोग कलीसियाई जीवन में भाग लेते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं मगर क्या उन्होंने कभी भाई-बहनों को अपना परिवार माना है? सीधे शब्दों में कहें तो क्या उन्होंने भाई-बहनों को अपना माना है? (नहीं।) तो फिर वे भाई-बहनों को क्या मानते हैं? (बाहरी लोग।) सही कहा, वे उन्हें बाहरी लोगों, विरोधियों के रूप में देखते हैं। तो फिर वे परमेश्वर के घर और कलीसिया को क्या मानते हैं? क्या यह उनके लिए सिर्फ एक कार्यस्थल नहीं है? (हाँ।) वे परमेश्वर के घर और कलीसिया को ऐसा मानते हैं मानो वे अविश्वासियों की दुनिया की कंपनियाँ या संगठन हों; वे भाई-बहनों को बाहरी लोगों, विरोधियों के रूप में देखते हैं जिनसे सावधान रहना चाहिए। इस प्रकार वे भाई-बहनों के बारे में विभिन्न प्रकार की जानकारी और विभिन्न वास्तविक स्थितियों को आसानी से उन लोगों को बता सकते हैं जो मूल रूप से परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं। वे जानते हैं कि इन अविश्वासी लोगों के पास कहने के लिए कुछ भी अच्छा नहीं होगा और वे भाई-बहनों की बदनामी और परमेश्वर के घर का अपमान भी कर सकते हैं—वे यह सब जानते हैं फिर भी बेझिझक इन अविश्वासियों के सामने भाई-बहनों और कलीसिया की स्थितियों का बेपरवाही से खुलासा करते हैं। जाहिर है कि वे भाई-बहनों को बाहरी लोगों, विरोधियों के रूप में देखते हैं और जब भी कोई अप्रिय स्थिति उत्पन्न होती है वे तुरंत भाई-बहनों का मजाक उड़ाने, उनका अपमान करने और उनकी पीठ-पीछे उनके खिलाफ काम करने के लिए अविश्वासियों से हाथ मिला लेते हैं, इस प्रकार वे अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करते हैं। उन्हें लगता है कि कलीसिया में किसी भाई या बहन की आलोचना करना संभव नहीं होगा क्योंकि अगर वे कलीसिया के मामलों या भाई-बहनों के बारे में भाई-बहनों के सामने चर्चा करते हैं तो उन्हें इसके परिणाम भुगतने होंगे जो उनके लिए प्रतिकूल होंगे। मगर अपने परिवार के साथ इन मामलों पर चर्चा करने से बिना कोई परिणाम झेले उनका व्यक्तिगत उतावलापन, इच्छाएँ और भावनाएँ पूरी तरह से संतुष्ट हो जाती हैं क्योंकि परिवार आखिर परिवार ही है जो उन्हें धोखा नहीं देगा। लेकिन भाई-बहनों के साथ ऐसा नहीं है, वे कहीं भी और कभी भी उनकी रिपोर्ट कर सकते हैं, उन्हें उजागर कर सकते हैं, उनकी काट-छाँट कर सकते हैं और यहाँ तक कि उन्हें उनके कर्तव्यों और पदों से भी वंचित कर सकते हैं। इसलिए यह कहना बिलकुल भी गलत नहीं है कि वे भाई-बहनों को अपने विरोधी मानते हैं। विरोधी वह व्यक्ति होता है जिससे सावधान रहना चाहिए। इसलिए वे भाई-बहनों से बात नहीं करते, न उनके साथ संगति करते है और न ही उनके सामने कुछ उजागर करते हैं। इसके बजाय वे घर पर अपने परिवार के अविश्वासी सदस्यों के साथ “कलीसियाई जीवन” जीते हैं, जहाँ वे सब कुछ साझा करते हुए अपने दिल की बात कह देते हैं। वे बिना किसी झिझक के अपने विचारों, मतों, कुंठाओं, असंतोष और अपने सभी विकृत विचारों को व्यक्त करते हैं, ऐसा करने में उन्हें राहत और खुशी मिलती है। उनके परिवार के सदस्य उनसे घृणा नहीं करते बल्कि उनकी मदद और सहयोग करते हैं। अगर वे कलीसिया में इस तरह से बात करें तो छद्म-विश्वासियों के रूप में उनकी असली प्रकृति पूरी तरह से उजागर हो जाएगी, और कलीसिया को उन्हें बाहर निकालना ही होगा। इसलिए वे भाई-बहनों को परिवार के रूप में नहीं बल्कि विरोधियों के रूप में देखते हैं। यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि वे खुद को कभी भी कलीसिया का हिस्सा नहीं मानते इसलिए कलीसिया के साथ जो कुछ भी होता है, चाहे वह धार्मिक समुदाय से मानहानि और तिरस्कार हो, अविश्वासियों से निराधार अफवाहें और उपहास हो, या राष्ट्रीय सरकार द्वारा फँसाया जाना और उत्पीड़न हो, यह सब उनके लिए व्यक्तिगत रूप से बेकार और महत्वहीन है। मान लो कि वे वास्तव में ऐसा महसूस करते : “अगर कलीसिया की छवि को नुकसान पहुँचता है और परमेश्वर के नाम का अपमान होता है तो विश्वासियों के रूप में हमारी गरिमा को गंभीर चोट लगती है। इसी वजह से मैं कभी भी कलीसिया के मामलों या परमेश्वर के घर के मामलों पर अविश्वासियों के साथ चर्चा नहीं करूँगा, उन्हें इसके बारे में गपशप करने और हँसने का मौका नहीं दूँगा। यहाँ तक कि खुद को बचाने के लिए भी मैं अपने परिवार के अविश्वासी सदस्यों के साथ परमेश्वर के घर के मामलों के बारे में बात नहीं करूँगा”—अगर उनमें ऐसी जागरूकता होती तो क्या वे अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा पाते? तो वे ऐसा क्यों नहीं कर सकते? यह स्पष्ट है कि वे मूल रूप से खुद को परमेश्वर के घर का हिस्सा नहीं मानते हैं, न ही वे खुद को विश्वासी मानते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “तुम्हारे शब्द गलत हैं। अगर वे खुद को परमेश्वर के घर का हिस्सा नहीं मानते तो फिर सभाओं में क्यों आते?” परमेश्वर में विश्वास रखने वालों में सभी प्रकार के लोग हैं। क्या हमने पहले इस बारे में संगति नहीं की है? ऐसे कई लोग हैं जो विभिन्न अनुचित मंशाओं और इरादों से परमेश्वर में विश्वास रखने लगते हैं और यह उनमें से एक प्रकार है। मनोरंजन के लिए, बोरियत दूर करने के लिए या आध्यात्मिक पोषण पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखने वाले—क्या ऐसे छद्म-विश्वासी आम नहीं हैं? क्या ऐसे लोग बड़ी संख्या में नहीं मिल सकते? (बिल्कुल।) वे खुद को परमेश्वर के विश्वासी भी नहीं मानते हैं। बेशक, कलीसिया का सारा कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों का अपने कर्तव्यों को निभाना उनके लिए कोई चिंता का विषय नहीं है, वे उन पर कोई ध्यान नहीं देते। इस प्रकार वे कलीसिया की कार्य स्थिति, कलीसिया के आंतरिक मामलों और यहाँ तक कि भाई-बहनों के बीच होने वाले किसी भी मुद्दे पर बिना सोचे-विचारे और हल्के ढंग से अविश्वासियों के साथ चर्चा कर सकते हैं। अपनी बात पूरी करने के बाद अविश्वासी गपशप, बदनामी और व्यंग्य करना शुरू कर देते हैं मगर इससे उन्हें रत्ती भर भी परेशानी नहीं होती है। वे अविश्वासियों के साथ मिलकर भाई-बहनों के साथ गाली-गलौज भी कर सकते हैं, परमेश्वर के घर की आलोचना कर सकते हैं और परमेश्वर के घर के कार्य और कार्य व्यवस्थाओं पर टिप्पणी कर सकते हैं। क्या वे परमेश्वर के विश्वासी हैं? (नहीं।) सच्चे विश्वासी कभी भी इस तरह से काम नहीं करेंगे। भले ही यह उनकी अपनी गरिमा और हितों की रक्षा करने की खातिर हो, वे कभी भी उस हाथ को नहीं काटेंगे जो उन्हें खाना खिलाता है और कलीसिया से बाहर के लोगों का पक्ष नहीं लेंगे। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) इसलिए ऐसे व्यक्ति बुरे लोग और छद्म-विश्वासी हैं जिन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। जितनी जल्दी उन्हें बाहर निकाल दिया जाएगा उतनी ही जल्दी कलीसिया में शांति आएगी।

चलो अब तुम लोगों के बारे में बात करते हैं। उदाहरण के लिए, अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते या अगर तुम्हारे भाई-बहन या सबसे अच्छे दोस्त परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते मगर वे तुम्हारे विश्वास का विरोध नहीं करते हैं और वास्तव में इसका समर्थन करते हैं तो क्या तुम उनसे कलीसिया में होने वाली हर चीज के बारे में बात करोगे? मान लो कि तुम्हारी कोई दोस्त पूछती है, “क्या तुम लोगों की कलीसिया में कोई ऐसा आदमी है जिसे एक साथी की तलाश हो? क्या कोई ऐसा है जो खासकर निष्कपट, लंबा, अमीर और सुंदर है?” अविश्वासियों के बीच कुछ सुसभ्य लोग भी अपने दिन बिताने के लिए एक सुसभ्य साथी खोजना चाहते हैं। तुम्हारी दोस्त किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढना चाहती है जो परमेश्वर में विश्वास रखता हो तो क्या तुम उसे बताने के लिए तैयार होगे? (नहीं।) तुम्हें उसे कहना चाहिए, “विश्वासियों के लिए तुम्हारा स्नेह बेकार है। तुम एक अविश्वासी हो और मूलतः विश्वासियों के साथ तुम्हारा मेल नहीं जमेगा। तुम्हारी भाषा एक नहीं है; तुम अलग-अलग मार्ग पर चलते हो! खुद को देखो, तुम इतने भड़कीले कपड़े पहनती हो—हमारी कलीसिया में कौन-सा भाई तुम्हें पसंद करेगा?” तुम उसके बारे में बहुत ऊँचा नहीं सोचते तो क्या तुम उससे कलीसिया के मामलों के बारे में बात कर सकते हो? (नहीं।) बस कुछ शब्द बोलोगे और पूरी तरह से अलग-अलग दृष्टिकोणों के कारण बातचीत खत्म हो जाएगी। भले ही कुछ अविश्वासियों की विश्वासियों के बारे में अच्छी धारणा हो और भले ही वे तुम्हारे विश्वासी बनने के बाद भी तुमसे दोस्ती बनाए रखें, क्या तुम उनके साथ कलीसिया के अंदरूनी मामलों या अपने कर्तव्यों को निभाने में आने वाली कठिनाइयों को साझा करने के लिए तैयार होगे? (नहीं।) भले ही वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का समर्थन करते हों, उनके साथ कलीसिया के मामलों पर चर्चा करने का क्या फायदा है? उदाहरण के लिए, कुछ भाई-बहनों ने यहूदा बने बिना, बड़े लाल अजगर की यातना और पूछताछ के सामने दृढ़ता दिखाई है। यह एक ऐसी गवाही है जिसकी प्रशंसा अविश्वासी भी करते हैं—क्या तुम इसे उनके साथ साझा करने के लिए तैयार होगे? (नहीं।) तुम इस पर चर्चा करने के लिए तैयार क्यों नहीं होगे? (ऐसे मामले उनके लिए अप्रासंगिक हैं और वे इन अनुभवजन्य गवाहियों को नहीं समझ सकते।) वे समझ ही नहीं पाएँगे। इन मामलों पर चर्चा करने से क्या नकारात्मक प्रभाव हो सकते हैं? (वे इसके बजाय कलीसिया की आलोचना कर सकते हैं।) वे आलोचना करेंगे : “खुद को इतने कष्ट में क्यों डालते हो? राष्ट्रीय सरकार के खिलाफ क्यों जाते हो?” देखा, एकमात्र टिप्पणी उनकी प्रकृति को उजागर कर सकती है। इसे राष्ट्रीय सरकार के खिलाफ जाना कैसे माना जा सकता है? यह स्पष्ट है कि देश पर शासन करने वाला शैतान राजा परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गंभीर रूप से नुकसान पहुँचा रहा है, उन्हें जीने का कोई रास्ता नहीं छोड़ रहा है। यहाँ तक कि जब वे इसे देखते हैं तब भी नहीं जानने का नाटक करते हैं। यह स्पष्ट है कि वे इस तरह से बोलते हैं जो सत्य को पलट देता है और तथ्यों को तोड़-मरोड़ देता है। तुम उनके साथ और क्या चर्चा कर सकते हो? तुम उनसे परमेश्वर में आस्था से संबंधित किसी भी चीज के बारे में बात नहीं कर सकते; तुम उन्हें इसके बारे में कुछ भी नहीं बता सकते। जो लोग अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा सकते वे अविश्वासियों को कलीसिया के बारे में सब कुछ बता सकते हैं। जाहिर तौर पर वे छद्म-विश्वासी हैं; वे शैतान हैं जो किसी भ्रम में परमेश्वर के घर में आ जाते हैं, वे जानवर हैं जो उसी हाथ को काटते हैं जो उन्हें खिलाता है, उनमें अंतरात्मा या विवेक का लेशमात्र भी अंश नहीं होता है। परमेश्वर के घर या कलीसिया के हितों या प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, उनका अपना कोई भी हित प्रभावित नहीं होता और उन्हें जरा भी दुख महसूस नहीं होता; इस प्रकार वे बिना किसी संकोच के अविश्वासियों और परमेश्वर में विश्वास न रखने वाले लोगों से कलीसिया के अंदरूनी मामलों के बारे में बेपरवाही से बात कर सकते हैं। क्या ऐसे लोग घृणित हैं? (हाँ!) क्या एक छद्म-विश्वासी जो भाई-बहनों को परिवार के रूप में नहीं देखता मगर अविश्वासियों को अपना परिवार मानता है, सत्य स्वीकार सकता है? (नहीं।) क्या वह यह मान सकता है कि परमेश्वर सत्य है? (नहीं।) क्या एक ऐसा व्यक्ति जो खुद को कलीसिया का सदस्य नहीं मानता, परमेश्वर द्वारा मनुष्य के उद्धार के वचनों को सुनने के बाद सत्य का अनुसरण करने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए अपने हितों को किनारे कर सकता है? (नहीं।) उनके दैनिक जीवन की गतिविधियों में केवल कलीसिया के हितों को धोखा देना, बाहरी लोगों का पक्ष लेना और मुखबिरों, यहूदाओं, गद्दारों के रूप में काम करना शामिल है, मानो यही उनका मकसद है। वे उचित मार्ग पर नहीं चलते बल्कि बुराई करने के लिए जीते हैं; वे मरने और शापित होने के लायक हैं! ये यहूदा, गद्दार और शैतान के सेवक जो उसी हाथ को काटते हैं जो उन्हें खिलाता है, वे नकारात्मक दुष्ट हैं, वे मानवजाति के लिए हानिकारक हैं और सभी उनसे घृणा करते हैं। तो क्या कलीसिया का उनसे निपटना और उन्हें बाहर निकालना बिल्कुल उचित नहीं है? (हाँ।) यह बिल्कुल उचित है! अगर तुम लोगों को धोखा दिया जाता है तो क्या तुम इसे नापसंद नहीं करोगे? अगर कलीसिया या परमेश्वर के घर का सौदा किया जाए तो हो सकता है ज्यादातर लोग गहरी सहानुभूति न रखें या बहुत व्यथित महसूस न करें; वे बस अंदर से थोड़ा असहज होंगे क्योंकि आखिर वे इसके सदस्य हैं। मगर क्या होगा अगर कलीसिया में कोई अविश्वासियों के साथ तुम्हारा सौदा कर दे और इस सौदे के कारण अविश्वासी लोग तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करें, तुम्हारा अपमान करें, मजाक उड़ाएँ, तुम्हारी आलोचना और निंदा करें? तब तुम्हें कैसा लगेगा? क्या तब तुम कलीसिया और परमेश्वर के घर द्वारा झेले गए अपमान और शर्म का अनुभव नहीं करोगे? (हाँ।) इस दृष्टिकोण से देखें तो क्या ऐसे व्यक्तियों को बाहर निकालना उचित है? (बिल्कुल।) उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए; उनके प्रति नरमी दिखाने की कोई जरूरत नहीं है। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा सकते, एक व्यक्ति के रूप में उनके जीने के तरीके और वे जो कुछ जीते हैं उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियों के आधार पर, वे कलीसिया के भीतर छद्म-विश्वासी हैं, एक प्रकार के बुरे व्यक्ति हैं जिन्हें बाहर निकाल देना चाहिए। चाहे उनके क्रियाकलाप गुप्त रूप से किए गए हों या खुलेआम, जैसे ही यह पता चलता है कि वह व्यक्ति अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा सकता और उसका मानवता सार एक संपूर्ण छद्म-विश्वासी का है तो तुरंत अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उसकी रिपोर्ट करो और भाई-बहनों को इसकी सूचना दो। ऐसे व्यक्तियों की समय रहते और सटीकता से पहचान की जानी चाहिए और फिर उन्हें जितनी जल्दी हो सके कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। उन्हें कलीसिया, कलीसिया के कार्य या भाई-बहनों के साथ कोई मेलजोल मत करने दो; उन्हें पूरी तरह से बाहर निकालना ही सही कार्रवाई है। इसके साथ ही मानवता की इस अभिव्यक्ति—अपनी जबान पर लगाम न लगा पाना—पर संगति पूरी होती है।

आज जिन तीन प्रकार के लोगों के बारे में संगति की गई है, क्या वे उन दो प्रकार के लोगों की तुलना में ज्यादा गंभीर हैं जिनके बारे में पहले संगति की गई थी? (हाँ।) उनकी परिस्थितियाँ बदतर हैं, उनकी मानवता ज्यादा नीच और घिनौनी है और वे कलीसिया के हितों और सभी भाई-बहनों को ज्यादा नुकसान पहुँचाते और प्रभावित करते हैं। इसलिए इन तीन प्रकार के लोगों को हल्के में मत लेना; उनसे सतर्कता बरतते हुए सावधान रहना चाहिए और मेलजोल नहीं करना चाहिए। अगर किसी की पहचान इन तीन प्रकार के लोगों में से किसी एक के रूप में की जाती है तो उसे तुरंत उजागर करके पहचाना जाना चाहिए और फिर जितनी जल्दी हो सके उससे निपटा जाना चाहिए। अगर वह कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य निभा रहा है तो तुरंत उसका कर्तव्य संभालने के लिए किसी और को खोजो और फिर उसे उस कर्तव्य से हटाकर बाहर निकाल दो। समझे? (समझ गए।) कलीसिया के भाई-बहनों की विभिन्न अवस्थाएँ, अलग-अलग समय पर उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियाँ, कलीसिया का कार्य और यहाँ तक कि इसके कुछ आंतरिक मामलों पर केवल भाई-बहनों के बीच ही चर्चा और संगति करने की अनुमति दी जा सकती है। ऐसा इसलिए है ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों की स्पष्ट समझ और अंतर्दृष्टि प्राप्त हो सके, जिससे वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार काम करने की योग्यता हासिल कर सकें। लेकिन एक सिद्धांत स्पष्ट होना चाहिए : चाहे वे सत्य हों या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश से संबंधित सिद्धांत हों, या फिर सामान्य मामलों के लिए विनियम हों, उनके बारे में अविश्वासियों के साथ चर्चा करने की अनुमति बिल्कुल भी नहीं है, नहीं तो फिर अविश्वासी टिप्पणी करेंगे और उँगली उठाएँगे। इसकी पूरी तरह से मनाही है। कुछ लोग कह सकते हैं, “अगर इसकी पूरी तरह से मनाही है तो क्या इसका मतलब यह है कि यह एक प्रशासनिक आदेश है?” इसे इस तरह देखा जा सकता है; जो कोई भी जानकारी बाहर फैलाएगा उसे उसके अनुरूप परिणाम भुगतने होंगे। उसे परिणाम क्यों भुगतने होंगे? क्योंकि जो लोग कलीसिया के आंतरिक मामलों को बाहर फैलाते हैं वे कलीसिया या भाई-बहनों की रक्षा नहीं करते और आसानी से कलीसिया और भाई-बहनों को धोखा दे सकते हैं। क्योंकि वे गद्दारों और यहूदाओं की तरह काम करते हैं इसलिए उनके प्रति अब और नरमी नहीं दिखानी चाहिए या उन्हें भाई-बहन या परिवार नहीं मानना चाहिए। उनसे गद्दारों और यहूदाओं के रूप में निपटा जाना चाहिए और उन्हें सीधे कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे बड़बोलेपन की बुरी आदत थी, मैं बेपरवाही से बात करता था। अब जब मैं ऐसी हरकतों के परिणाम देख रहा हूँ तो बेपरवाही से बात करने की हिम्मत नहीं करता।” अच्छा है। अब जब तुमने यह कहा है तो तुम्हारे व्यवहार पर नजर रखी जाएगी। अगर तुम सच में पश्चात्ताप करते हो और बदल जाते हो, अब बेपरवाही से जानकारी नहीं फैलाते हो या भाई-बहनों के हितों के साथ विश्वासघात नहीं करते हो, और अपनी जबान पर लगाम लगा सकते हो तो परमेश्वर का घर तुम्हें एक और अवसर देगा। अगर फिर से यह पता चलता है कि तुमने ऐसा किया है, तुमने कोई जानकारी फैलाई है तो तुम्हारे प्रति कोई नरमी नहीं दिखाई जाएगी—कलीसिया के भाई-बहन तुम्हें बाहर निकालने के लिए एकजुट होंगे। जब ऐसा होगा तब तुम रोना मत या यह शिकायत मत करना कि तुम्हें पहले से चेतावनी नहीं दी गई थी। अब जब सब कुछ स्पष्टता से समझाया गया है, अगर फिर से ऐसा होता है तो परमेश्वर का घर बिल्कुल भी नरमी नहीं बरतेगा। समझे? (समझ गए।) अगर तुम लोग किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो यह समझ नहीं पाया है तो उसे समझाओ; आज हमने जो संगति की है उसके आधार पर उसे सुझाव दो। अगर तुम लोग किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जिसमें इस व्यवहार के लक्षण दिखाई देते हैं या जिसने पहले कभी इस तरह से काम किया है तो उससे बात करो, उसे चेतावनी दो और उसे ऐसे क्रियाकलापों की प्रकृति और परिणामों के बारे में सूचित करने के साथ ही इन मामलों और लोगों के प्रति परमेश्वर के घर के रवैये के बारे में भी बताओ। चीजों को स्पष्ट करने के बाद यह देखने के लिए उस पर नजर रखो कि क्या वह पश्चात्ताप कर सकता है और भविष्य में वह क्या करेगा। अगर वह बदल जाता है और अब इस तरह से काम नहीं करता है तो उसे वापस स्वीकार कर उसके साथ भाई-बहनों जैसा व्यवहार किया जा सकता है। लेकिन अगर वह जिद्दी बनकर पश्चात्ताप नहीं करता है और गुप्त रूप से इस तरह से काम करना जारी रखता है तो जब भी तुम्हें ऐसा कोई व्यक्ति मिले, उसे बाहर निकाल दो। अगर तुम्हें ऐसा कोई जोड़ा मिलता है तो उन दोनों को बाहर निकाल दो; अगर तुम्हें कोई समूह मिलता है तो पूरे समूह को बाहर निकाल दो। कोई नरमी मत बरतो। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या मैं अपने परिवार के उन लोगों से बात कर सकता हूँ जो कभी विश्वास रखते थे मगर बाद में बाहर निकाल दिए गए?” ऐसा प्रतीत होता है कि जो लोग अपनी जबान चलाना और गप्पे लड़ाना पसंद करते हैं, उन्हें खुद पर काबू पाना आसान नहीं लगता, वे हमेशा अड़ियल बनकर पूछते हैं कि क्या ऐसा करने की अनुमति है। तुम लोगों का क्या ख्याल है, क्या ऐसा करने की अनुमति है? (नहीं।) किसी से भी बात करने की अनुमति नहीं है क्योंकि इससे आसानी से परिणाम भुगतने पड़ते हैं। ऐसे सभी लोगों से यहूदाओं की तरह निपटा जाना चाहिए। जो लोग अविश्वासी हैं, जिन्हें बाहर निकाल दिया गया है, जो तुम्हारे करीबी हैं, जो भरोसेमंद हैं, जो परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का समर्थन करते हैं, जो परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में अनुकूल धारणा रखते हैं और जो नाममात्र के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, केवल कलीसियाई जीवन जीते हैं और परमेश्वर के वचनों को थोड़ा-बहुत पढ़ते हैं मगर अपना कर्तव्य बिल्कुल नहीं निभाते, उनसे बात नहीं करनी चाहिए—अगर कोई ऐसा करता है तो उससे यहूदा की तरह निपटा जाएगा। समझे? (समझ गए।) अपने कर्तव्य नहीं निभाने वाले लोगों में और कौन-कौन शामिल हैं? क्या इसमें कलीसिया के सामान्य सदस्य शामिल हैं? (हाँ।) इस बात को मत भूलना; मूर्ख मत बनना। तुम लोगों को सिद्धांतों की भी अच्छी समझ होनी चाहिए। अंत में केवल यहूदा बनने और परमेश्वर के घर को धोखा देने, अनजाने में भाई-बहनों के साथ विश्वासघात करने और फिर उस पर गर्व महसूस करने के लिए विश्वास रखना जारी मत रखो। अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा पाना और यहाँ तक कि कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के साथ विश्वासघात करना एक गंभीर अपराध है। परमेश्वर ऐसी बुराई करने वाले हर एक व्यक्ति का लेखा-जोखा रखता है। अब जब यह सब तुम्हें स्पष्टता से समझा दिया गया है और तुम समझ गए हो, अगर तुम इसे दोहराते हो तो यह कोई साधारण अपराध नहीं रह जाएगा; यह प्रशासनिक आदेश का उल्लंघन होगा जो तुम्हें बाहर निकाले जाने का रास्ता बनाता है और तुम उद्धार पाने के अधिकार से भी वंचित हो जाओगे। समझे? (समझ गए।)

11 दिसंबर 2021

पिछला: अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (24)

अगला: अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (26)

परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2024 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

सेटिंग

  • इबारत
  • कथ्य

ठोस रंग

कथ्य

फ़ॉन्ट

फ़ॉन्ट आकार

लाइन स्पेस

लाइन स्पेस

पृष्ठ की चौड़ाई

विषय-वस्तु

खोज

  • यह पाठ चुनें
  • यह किताब चुनें

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें