अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (24)
मद चौदह : सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो (भाग तीन)
विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने के मानक और आधार
I. परमेश्वर में विश्वास रखने के उद्देश्य के आधार पर
पिछली सभा में हमने अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी पर संगति की : “सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो।” इस जिम्मेदारी की विषयवस्तु के आधार पर हमने विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों को संक्षेप में प्रस्तुत किया और फिर इन विभिन्न व्यक्तियों को उनकी अभिव्यक्तियों के आधार पर पहचाना। इन व्यक्तियों को पहचानने के जरिए हमने उन बुरे लोगों को स्पष्ट रूप से पहचानने का लक्ष्य बनाया जिन्हें पहचानने और बहिष्कृत करने की परमेश्वर के घर को जरूरत है—यानी, जिन्हें परमेश्वर के घर में रहने की अनुमति नहीं है और जो बहिष्कृत किए जाने के निशाने पर हैं। पिछली दो बार, हमने विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों को तीन पहलुओं के जरिए पहचानने और श्रेणीबद्ध करने के बारे में संगति की। आज, हम इन विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों को तीन पहलुओं के जरिए श्रेणीबद्ध करने के बारे में विभिन्न बारीकियों पर संगति जारी रखेंगे। सबसे पहले, चौदहवीं जिम्मेदारी और उसमें सूचीबद्ध तीन विशिष्ट श्रेणियों को पढ़ो। (अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी : “सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो।” पहला : परमेश्वर में विश्वास रखने का व्यक्ति का उद्देश्य; दूसरा : व्यक्ति की मानवता; तीसरा : अपने कर्तव्य के प्रति व्यक्ति का रवैया।) पढ़ने के बाद, क्या तुम लोग पिछली दो संगतियों की बुनियादी विषयवस्तु को कुछ हद तक याद कर पाते हो? (हाँ।) आओ पहले अपनी पिछली संगति की विषयवस्तु की समीक्षा करें। (पिछली बार, परमेश्वर ने परमेश्वर में विश्वास रखने के व्यक्ति के उद्देश्य के बारे में संगति की थी, और इस विषय के बिंदु चार से आठ तक को शामिल किया था : चौथा, अवसरवाद में लिप्त रहना; पाँचवाँ, कलीसिया की खैरात पर जीना; छठवाँ, शरण लेना; सातवाँ, समर्थक ढूँढ़ना, आठवाँ, राजनीतिक लक्ष्यों का अनुसरण करना।) पिछली संगति में इन पाँच बिंदुओं पर चर्चा की गई थी। इन पाँच प्रकार के लोगों की बुनियादी अभिव्यक्तियों और उनमें प्रकट भ्रष्ट सार के बारे में संगति के जरिए, उनके व्यवहारों, परमेश्वर में विश्वास रखने के उनके इरादों और उद्देश्यों, और परमेश्वर से उनकी निरंतर माँगों को देखते हुए, क्या इन लोगों को भाई-बहन माना जाना चाहिए और कलीसिया में रहना चाहिए? (नहीं, ऐसे लोगों को दूर कर देना चाहिए क्योंकि परमेश्वर में उनका विश्वास सत्य के अनुसरण या उद्धार के अनुसरण के लिए नहीं है। उनके सबके अपने व्यक्तिगत इरादे और मंसूबे होते हैं, इस आशा में कि वे अपने लिए चालाकी से फायदे बटोरेंगे और परमेश्वर के घर में लाभ प्राप्त करेंगे। वे ऐसे लोग नहीं हैं जो परमेश्वर में वास्तव में विश्वास रखते हैं; वे सभी छद्म-विश्वासी हैं।) अगर छद्म-विश्वासियों को कलीसिया से बाहर नहीं निकाला गया, तो वे कलीसियाई कार्य और भाई-बहनों को क्या हानि पहुँचा सकते हैं? (वे न तो परमेश्वर के वचन को खाते-पीते हैं, न ही परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं; वे सत्य को स्वीकारे बिना कलीसिया में बने रहते हैं। यही नहीं, वे नकारात्मकता और धारणाएँ फैला सकते हैं और इस तरह विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न कर सकते हैं, और एक नकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं।) ये अभिव्यक्तियाँ मूल रूप से लोगों को नजर आती हैं।
पिछली संगति में जिन पाँच किस्म के लोगों की अभिव्यक्तियों पर चर्चा की गई थी, उन्हें देखते हुए, क्या कोई ऐसी विशेषता है जो इन लोगों में समान है? (हाँ।) उनकी समान विशेषता क्या है? (ये सभी लोग छद्म-विश्वासी हैं।) (वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते हैं, सत्य में विश्वास नहीं रखते हैं, और सत्य में दिलचस्पी नहीं रखते हैं।) यह उनके सार से संबंधित है। चूँकि वे सत्य में विश्वास नहीं रखते हैं, इसलिए वे सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे। सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करने वालों का सार छद्म-विश्वासी का सार होता है। छद्म-विश्वासियों की पहचान क्या है? वे अवसरवाद में संलग्न होने, कलीसिया पर आश्रित रहने, आपदा से बचने, सहारा पाने और स्थिर भोजन स्रोत हासिल करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। इनमें से कुछ लोग कृपादृष्टि प्राप्त करने और आधिकारिक नियुक्ति हासिल करने के लिए कुछ मामलों के जरिये सरकार से संबंध बनाने की चाह में राजनीतिक लक्ष्यों के पीछे भी भागते हैं। ऐसे लोगों में से हर आखिरी व्यक्ति छद्म-विश्वासी है। वे परमेश्वर में अपने विश्वास में ये मंशाएँ और इरादे लेकर चलते हैं, और वे अपने दिलों में पूरे यकीन से यह विश्वास नहीं करते हैं कि कोई परमेश्वर भी है। अगर वे उसे स्वीकार कर भी लें, तो वे ऐसा संदेहपूर्वक करते हैं, क्योंकि वे जिन विचारों से चिपके रहते हैं, वे नास्तिक वृत्ति के हैं। वे सिर्फ उन्हीं चीजों पर विश्वास करते हैं जिन्हें वे इस भौतिक दुनिया में देख पाते हैं। हम क्यों कहते हैं कि वे यह विश्वास नहीं करते हैं कि कोई परमेश्वर भी है? क्योंकि वे एकसमान ढंग से इन तथ्यों पर विश्वास नहीं करते हैं या इन्हें स्वीकार नहीं करते हैं कि परमेश्वर ने स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीजें बनाई हैं, और यह कि मानवजाति को बनाने के बाद से परमेश्वर उनकी अगुवाई कर रहा है और उन पर संप्रभुता रखता है। इस तरह, वे संभवतः इस तथ्य पर विश्वास नहीं कर सकते हैं कि परमेश्वर देहधारी हो सकता है। अगर वे यह विश्वास नहीं करते हैं कि परमेश्वर देहधारी हो सकता है, तो क्या वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी सत्यों पर विश्वास करने और उन्हें स्वीकार करने के काबिल हैं? (वे नहीं हैं।) अगर वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों पर विश्वास नहीं करते हैं, तो क्या वे यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर मानवजाति को बचा सकता है और क्या वे मानवजाति को बचाने की उसकी प्रबंधन योजना में विश्वास करते हैं? (वे नहीं करते हैं।) वे इनमें से किसी पर भी विश्वास नहीं करते हैं। उनके अविश्वास की जड़ क्या है? वह यह है कि वे विश्वास नहीं करते हैं कि परमेश्वर का अस्तित्व है। वे नास्तिक और भौतिकवादी हैं। वे मानते हैं कि भौतिक दुनिया में वे जिन चीजों को देख पाते हैं सिर्फ वही चीजें वास्तविक हैं। वे मानते हैं कि शोहरत, लाभ और रुतबा सिर्फ साजिशों और अनुचित साधनों के जरिये हासिल किए जा सकते हैं। वे मानते हैं कि समृद्ध होने और सुखी जीवन जीने का एकमात्र तरीका शैतानी फलसफों के अनुसार जीना है। वे मानते हैं कि उनकी किस्मत सिर्फ उनके अपने हाथ में है, और यह कि उन्हें सुखी जीवन को बनाने और हासिल करने के लिए खुद पर भरोसा करना चाहिए। वे परमेश्वर की संप्रभुता या उसकी सर्वशक्तिमत्ता में विश्वास नहीं रखते हैं। वे सोचते हैं कि अगर वे परमेश्वर पर भरोसा करेंगे, तो उनके पास कुछ नहीं होगा। अंततः, वे यह नहीं मानते हैं कि परमेश्वर के वचन सब कुछ पूरा कर सकते हैं, और वे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता में विश्वास नहीं रखते हैं। यही कारण है कि परमेश्वर में उनके विश्वास में इरादे और उद्देश्य उत्पन्न होते हैं, जैसे कि अवसरवाद में संलग्न होना, कलीसिया पर आश्रित रहना, शरण खोजना, समर्थक ढूँढ़ना, विपरीत लिंग से दोस्ती करना, और राजनीतिक लक्ष्यों के पीछे भागना—अपने लिए आधिकारिक पद और एक स्थिर भोजन स्रोत सुरक्षित करना है। ठीक इसलिए कि वे लोग यह नहीं मानते हैं कि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है, वे अपने इरादों और लक्ष्यों के साथ दुस्साहसपूर्वक और बेईमानी से कलीसिया में घुसपैठ करने में सक्षम होते हैं और कलीसिया में अपनी प्रतिभाओं का उपयोग करना चाहते हैं या अपनी कामनाओं को साकार करना चाहते हैं। इसका यह अर्थ है कि वे आशीष प्राप्त करने के अपने इरादे और इच्छा को पूरा करने के लिए कलीसिया में घुसपैठ कर रहे हैं; वे कलीसिया में शोहरत, लाभ और रुतबा हासिल करना चाहते हैं, और ऐसा करके वे अपने लिए एक स्थिर भोजन स्रोत हासिल करेंगे। उनके व्यवहार और उनके प्रकृति सार से कोई भी यह देख सकता है कि परमेश्वर में विश्वास रखने के उनके उद्देश्य, मंशाएँ और इरादे जायज नहीं हैं, और उनमें से कोई भी सत्य को स्वीकार नहीं करता है, उनमें से कोई भी ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास नहीं रखता है—वे कलीसिया में घुसपैठ करें भी, तो भी वे सिर्फ खाली जगह ही भर रहे हैं, कोई भी सकारात्मक भूमिका नहीं निभा रहे हैं। इसलिए, कलीसिया को ऐसे लोगों को स्वीकार नहीं करना चाहिए। वैसे तो ये लोग कलीसिया में घुसपैठ कर चुके हैं, लेकिन वे परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं हैं, बल्कि वे दूसरे लोगों के अच्छे इरादों के कारण लाए गए हैं। “वे परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं हैं”—इसे कैसे समझना चाहिए? इसका यह अर्थ है कि परमेश्वर ने उन्हें पूर्वनियत नहीं किया या चुना नहीं है; वह उन्हें अपने कार्य के लक्ष्यों के रूप में नहीं देखता है; न ही उसने उन्हें ऐसे इंसानों के रूप में पूर्वनियत किया है जिन्हें वह बचाएगा। एक बार जब ये लोग कलीसिया में घुसपैठ कर लेते हैं, तो हम जाहिर तौर पर उन्हें भाई-बहन नहीं मान सकते हैं, क्योंकि वे ऐसे लोग नहीं हैं जो सही मायने में सत्य को स्वीकार करते हैं या परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करते हैं। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “चूँकि वे ऐसे भाई-बहन नहीं हैं जो सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो कलीसिया उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित क्यों नहीं कर देती है?” परमेश्वर का इरादा यह है कि उसके चुने हुए लोग इन लोगों से पहचान करना सीख सकें और इस तरह शैतान की साजिशों को पहचान सकें और शैतान को अस्वीकार कर सकें। एक बार जब परमेश्वर के चुने हुए लोगों में अच्छे-बुरे की पहचान आ जाती है, तब इन छद्म-विश्वासियों को बाहर निकाल देना चाहिए। पहचान करने का लक्ष्य इन छद्म-विश्वासियों को उजागर करना है जिन्होंने अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के साथ परमेश्वर के घर में घुसपैठ की है और उन्हें कलीसिया से बाहर निकालना है, क्योंकि ये लोग परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं हैं, और वे ऐसे लोग तो बिल्कुल नहीं हैं जो सत्य को स्वीकारते हैं और उसका अनुसरण करते हैं। उनके कलीसिया में बने रहने से कुछ भी भला नहीं होगा—बल्कि बहुत नुकसान ही होगा। पहली बात, कलीसिया में घुसपैठ करने के बाद, ये छद्म-विश्वासी कभी भी परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते नहीं हैं और सत्य का थोड़ा-सा भी अंश स्वीकार नहीं करते हैं। वे हमेशा परमेश्वर के वचनों और सत्य को छोड़कर अन्य चीजों पर चर्चा करते रहते हैं, जिससे दूसरों के दिल परेशान हो जाते हैं। वे सिर्फ कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी करेंगे और बाधा डालेंगे, जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को नुकसान पहुँचेगा। दूसरी बात, अगर वे कलीसिया में रह जाते हैं, तो वे ठीक अविश्वासियों की तरह ही कुकर्म करते हुए उधम मचाएँगे, कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी करेंगे और बाधा डालेंगे, और कलीसिया को कई छिपे हुए खतरों में डाल देंगे। तीसरी बात, अगर वे कलीसिया में रह भी गए, तो वे खुशी से सेवाकर्मियों के रूप में कार्य नहीं करेंगे, और वे थोड़ी सेवा कर भी दें, तो भी यह सिर्फ आशीष प्राप्त करने के लिए होगा। अगर वह दिन आए जब उन्हें पता चले कि वे आशीष प्राप्त नहीं कर सकते हैं, तो वे गुस्से से पागल हो जाएँगे, और कलीसिया के कार्य में बाधा डालेंगे और उसे खराब कर देंगे। इसका समर्थन करने के बजाय, उन्हें यथाशीघ्र कलीसिया से बाहर निकाल देना ही बेहतर है। चौथी बात, ये छद्म-विश्वासी गुट बना सकते हैं और मसीह-विरोधियों का समर्थन और उनका अनुसरण कर सकते हैं, जिससे कलीसिया के भीतर एक बुरी शक्ति तैयार हो सकती है जो इसके कार्य के लिए एक बड़ा खतरा बन सकती है। इन चार विचारों की रोशनी में, यह जरूरी है कि परमेश्वर के घर में घुसपैठ करने वाले इन छद्म-विश्वासियों को पहचान कर उजागर किया जाए और फिर उन्हें बाहर निकाल दिया जाए। कलीसिया के कार्य में सामान्य प्रगति बनाए रखने, और कारगर तरीके से यह बचाव करने का यही एकमात्र तरीका है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर के वचनों को खा-पी सकें और सामान्य रूप से कलीसियाई जीवन जी सकें, और इस प्रकार परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश कर सकें। ऐसा इसलिए है क्योंकि कलीसिया में इन छद्म-विश्वासियों की घुसपैठ से परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को बहुत ज्यादा नुकसान पहुँचता है। ऐसे कई लोग हैं जो उन्हें पहचान नहीं पाते हैं, बल्कि उन्हें भाई-बहन मानते हैं। कुछ लोग, यह देखकर कि उनमें कुछ खूबियाँ या शक्तियाँ है, उन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में सेवा करने के लिए चुनते हैं। इसी तरह से कलीसिया में झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी प्रकट होते हैं। उनके सार को देखते हुए, यह समझा जा सकता है कि उनमें से कोई भी यह विश्वास नहीं करता है कि परमेश्वर का अस्तित्व है, या यह कि उसके वचन ही सत्य हैं, या कि वह सभी पर संप्रभु है। परमेश्वर की नजर में वे गैर-विश्वासी हैं। वह उन पर कोई ध्यान नहीं देता है, और पवित्र आत्मा उन पर कार्य नहीं करेगा। इसलिए, उनके सार के आधार पर, वे परमेश्वर के उद्धार के लक्ष्य नहीं हैं, और यकीनन वे उसके द्वारा पूर्वनियत या चुने हुए लोग नहीं हैं। परमेश्वर संभवतः उन्हें बचा नहीं सका। चाहे इसे किसी भी नजरिये से देखा जाए, इनमें से कोई भी छद्म-विश्वासी परमेश्वर के चुने हुए लोगों में नहीं है। उन्हें फौरन और सटीक रूप से पहचान लेना चाहिए, और फिर बाहर निकाल देना चाहिए। उन्हें दूसरों को परेशान करने के लिए कलीसिया में घूमने-फिरने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। ये छद्म-विश्वासी अलग-अलग उद्देश्यों और मंशाओं से कलीसिया में घुसपैठ करते हैं, और हो सकता है कि तुम शुरू-शुरू में इनकी असलियत देख या पहचान ना पाओ। लेकिन, समय बीतने के साथ, जब तुम उनसे अक्सर बातचीत करोगे और उनके साथ ज्यादा व्यवहार करोगे, तो तुम उन्हें ज्यादा से ज्यादा समझने लगोगे, और तुम्हें वे अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ और भी स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगेंगी जो बताती हैं कि वे छद्म-विश्वासी हैं। तो, क्या परमेश्वर के वचनों के आधार पर उन्हें पहचानना आसान नहीं है? (बिल्कुल आसान है।) अगर परमेश्वर के चुने हुए लोग सभी छद्म-विश्वासियों को पहचान पाते हैं, तो उन्हें बेनकाब करने और बाहर निकालने का समय आ गया है। चाहे उनका चरित्र जैसा भी हो, उनका सामाजिक रुतबा कुछ भी हो, या कलीसिया में उनकी वरिष्ठता कितनी भी ज्यादा क्यों न हो, अगर कई वर्षों तक धर्मोपदेश सुनने के बाद भी वे सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते हैं और उनके दिल परमेश्वर के बारे में धारणाओं से भरे रहते हैं, तो वे पहले से ही छद्म-विश्वासियों के रूप में बेनकाब हो चुके हैं। परमेश्वर में विश्वास रखने में उनके उद्देश्य और अभिव्यक्तियों को ध्यान में रखते हुए, बेशक वे ऐसे लोग हैं जिन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए। कलीसिया को यह स्वच्छता कार्य हरेक अवधि में करना चाहिए।
परमेश्वर में विश्वास रखने के उद्देश्य के विषय में आठ बिंदु शामिल थे, यानी ऐसे आठ प्रकार के लोग हैं जिनकी अभिव्यक्तियाँ हमारे लिए विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों की पहचान करने और फिर उनका सटीक चरित्र चित्रण करने और उसी अनुसार उनसे निपटने के लिए पर्याप्त हैं। संक्षेप में कहूँ तो, ये आठ प्रकार के लोग कलीसिया में नहीं रह सकते। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “क्या इन आठ प्रकार के लोगों में से प्रत्येक एक ही प्रकार का व्यवहार प्रदर्शित करता है?” जरूरी नहीं कि ऐसा ही हो; परमेश्वर में विश्वास रखने के कुछ लोगों के उद्देश्य में चार या पाँच बिंदु शामिल होते हैं—वे शरण खोजते हैं, कलीसिया पर आश्रित रहते हैं, अवसरवाद में लिप्त रहते हैं, राजनीतिक लक्ष्यों के पीछे भागते हैं, और यादृच्छिकता से विपरीत लिंग के साथी तलाशते हैं, अविवेकपूर्ण तरीके से दूसरों को लुभाने के लिए कलीसिया में घुसपैठ करते हैं। परमेश्वर में विश्वास रखने के कुछ लोगों के उद्देश्य में दो बिंदु शामिल हो सकते हैं—एक है कलीसिया में एक अधिकारी बनने का प्रयास करना, और दूसरा है अवसरवाद के जरिए आशीष खोजना, या हो सकता है कि कुछ लोग विपरीत लिंग का कोई साथी खोजें और साथ ही कलीसिया पर आश्रित रहें। स्पष्ट रूप से, ये लोग परमेश्वर के घर में फायदा उठाने की दृष्टि से आते हैं, काम करवाने में अपनी मदद के लिए, अपने लिए मेहनत करवाने के लिए परमेश्वर के घर या भाई-बहनों के इस्तेमाल का इरादा रखते हैं; अपने उद्देश्यों को हासिल करने और अपनी इच्छाएँ पूरी करने के लिए वे भाई-बहनों से सेवा करवाने के लिए हर संभव साधन आजमाते हैं। संक्षेप में कहूँ तो, इन छद्म-विश्वासियों और अवसरवादियों का, जिन्होंने कलीसिया में घुसपैठ की है और जिन्हें बहिष्कृत या निष्कासित किया जाना चाहिए, परमेश्वर के घर में आने का जाहिर उद्देश्य मुफ्त की रोटी तोड़ना है, और अपने निजी फायदे के लिए स्थिति का लाभ उठाना है। चाहे उनकी कथनी हो या करनी, उनके उद्देश्य को हमेशा अस्पष्ट रूप से पहचाना जा सकता है। ये लोग सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते और उन्हें सत्य में जरा भी रुचि नहीं है; कभी-कभी वे विकर्षण या प्रतिरोध की मनःस्थितियाँ और रवैए भी दिखाते हैं। कलीसिया उनके लिए चाहे जिस भी कर्तव्य की व्यवस्था करे, वे केवल उन्हें फायदा होने पर ही अनिच्छा से सहयोग करते हैं। अगर उनका कोई फायदा न हो तो वे आतंरिक रूप से प्रतिरोध करते हैं, और नकारात्मकता और निष्क्रियता प्रकट करते हैं, और यहाँ तक कि विकर्षण या इनकार भी प्रकट करते हैं। वे थोड़ा बहुत काम तभी करते हैं जब उन्हें फायदा हो; उसके बिना वे या तो काम से जी चुराते हैं या निष्क्रियता से खानापूर्ति करते हैं। काम के अहम क्षणों में, वे लुका-छिपी खेलते हैं, गायब होकर कलीसियाई कार्य की उपेक्षा करते हैं। इन अभिव्यक्तियों से यह स्पष्ट है कि परमेश्वर में उनका विश्वास महज मुफ्त की रोटी तोड़ना है; सेवा करने के लिए उनका इस्तेमाल करना भी फायदे से ज्यादा नुकसान करता है।
I. कलीसिया की निगरानी करना
आज हम परमेश्वर में विश्वास रखने के व्यक्ति के उद्देश्य के विषय के अंतिम बिंदु पर संगति करेंगे। पहले बताए गए आठ बिंदुओं के अलावा, एक और प्रकार का व्यक्ति है जिसका परमेश्वर में विश्वास रखने का उद्देश्य और इरादा जायज नहीं है। उन्हें कौन-सी बात ऊपर बताये गए उन लोगों से अलग करती है जो पूरी तरह से लाभों से अभिप्रेरित होते हैं, और शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने के लिए हरसंभव प्रयास करते हैं? इस प्रकार का व्यक्ति अधिकारी बनने, रुतबे या भोजन के स्थायी स्रोत के लिए, या अपने जीवन को अधिक सुविधाजनक बनाने आदि के लिए कलीसिया में प्रवेश नहीं करता; उसका एक उद्देश्य होता है जिसका पता लगाना साधारण लोगों के लिए मुश्किल होता है। यह उद्देश्य क्या है? यह कलीसिया की निगरानी और नियंत्रण करना है। कलीसिया की निगरानी करना परमेश्वर में विश्वास रखने के किसी के उद्देश्य के विषय का नौवाँ बिंदु है। ये लोग कलीसिया की निगरानी करने का काम हाथ में लेकर, कलीसिया के विकास की गति पर नियंत्रण करने के लक्ष्य के साथ कलीसिया में प्रवेश करते हैं। उन्हें भेजने वाले लोग, उनके वरिष्ठ या अधिकारी, हो सकता है कि सरकार, किसी धार्मिक समूह या किसी सामाजिक संगठन का प्रतिनिधित्व करते हों। चूँकि वे कलीसिया से अपरिचित होते हैं, जिज्ञासा से भरे होते हैं और यहाँ तक कि कलीसिया की उत्पत्ति, स्थापना और अस्तित्व को लेकर भी असहज रहते हैं, वे कलीसिया को गहराई से समझने, कलीसिया की संरचना और उसके कार्य और विभिन्न परिस्थितियों के बारे में जानने के इरादे रखते हैं। इसलिए, कुछ लोगों को निगरानी करने के लिए कलीसिया भेज दिया जाता है। जो लोग कलीसिया की निगरानी करने का काम हाथ में लेते हैं, चाहे वे सरकार से आएँ, धार्मिक समूहों से आएँ, या सामाजिक संगठनों से, परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका एक उद्देश्य होता है, जोकि सच्चे भाई-बहनों के उद्देश्य से बिल्कुल अलग होता है। वे यहाँ परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने नहीं आए हैं; वे परमेश्वर में विश्वास रखने और उसे स्वीकारने के आधार पर परमेश्वर के वचनों, सत्य और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकारने नहीं आए हैं। परमेश्वर में उनका विश्वास किसी संगठन द्वारा उन्हें दिए गए राजनीतिक लक्ष्य या काम से जुड़ा होता है। इस प्रकार, कलीसिया की निगरानी करना, कलीसिया में उनके घुसपैठ करने और परमेश्वर में उनके विश्वास रखने का उद्देश्य और साथ ही उनके वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा उन्हें सौंपा गया काम भी है; यह वह काम है जो वे अपना वेतन पाने के लिए करते हैं।
जो लोग कलीसिया की निगरानी करने के लिए उसमें घुसपैठ करते हैं, वे किस चीज की निगरानी करते हैं? वे अनेक पहलुओं की निगरानी करते हैं, जैसे कि कलीसिया की शिक्षाएँ, उसके लक्ष्य, उसके द्वारा वकालत की गई बातें, उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य, और उसके सदस्यों के विचार और नजरिए, जिससे वे यह आकलन करते हैं कि क्या इससे सरकार, धर्मों या समाज को कोई हानि हो सकती है। वे उसके भाषणों में असामाजिक, सरकार-विरोधी या राज्य-विरोधी बयानों की जाँच करते हैं। शिक्षाओं के संदर्भ में, वे इस बात की निगरानी करते हैं कि कलीसिया द्वारा समर्थित विचार वास्तव में क्या हैं। हो सकता है कि जब ये लोग कलीसिया में घुसपैठ करें तो तुम्हारे लिए इन व्यक्तियों को खोज पाना आसान न हो, क्योंकि हो सकता है कि वे सभाओं के दौरान बिना झपकियाँ लिए बातों को ध्यान से सुनें और गंभीरता से नोट्स लिखें। हो सकता है कि वे ईमानदारी से प्रत्येक सभा में दिए गए विभिन्न व्यक्तियों के भाषणों को संक्षेप में प्रस्तुत भी करें, अंततः विभिन्न लोगों के विचारों और नजरियों को यह देखने के लिए संक्षेप में प्रस्तुत कर श्रेणीबद्ध करें कि कौन-से विचार और नजरिये राष्ट्रीय सरकार के हितों और अपेक्षाओं से मेल खाते हैं और कौन-से राज्य के शासन के लिए हानिकारक हैं, सरकार के प्रतिकूल हैं इत्यादि। वे कलीसिया के सदस्यों के इन गहरे पैठे दृष्टिकोणों को सावधानी से संक्षेप में श्रेणीबद्ध कर सकते हैं, और उनके रिकॉर्ड रख सकते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं? क्योंकि यह उनका काम है, उनका कार्य है; उन्हें अपने वरिष्ठ अधिकारियों को सूचित करना होगा। उनके काम-काज का पहला हिस्सा है : कलीसिया की शिक्षाओं और इसके सभी सदस्यों की वैचारिक प्रवृत्तियों को समझना। एक बार जब उन्हें यकीन हो जाता है कि इन प्रवृत्तियों में समाज या राज्य के प्रति हानिकारक तत्व हैं, या अगर वे मानते हैं कि इनसे कुछ उग्र विचार और दृष्टिकोण उभरते हैं, तो वे तुरंत अपने वरिष्ठ अधिकारियों को इसकी सूचना देते हैं और बताते हैं, ताकि उपयुक्त उपाय किए जा सकें। उनका उद्देश्य सबसे पहले कलीसिया की शिक्षाओं को समझना होता है—कलीसिया की निगरानी करने में यह उनके मुख्य कामों में से एक है—इसके बाद कलीसिया के कार्मिकों के बारे में जानकारी आती है। उदाहरण के लिए, वे जानकारी जुटाते हैं कि कलीसिया के वरिष्ठ अगुआ कौन हैं, उनके रिहायशी पते, आयु, रंग-रूप, शैक्षणिक स्तर, रुचियाँ और अभिरुचियाँ, स्वास्थ्य की स्थितियाँ, दैनिक जीवन में उनके बोलने के विषय, उनके जाने की जगहें, उनके द्वारा किए जाने वाले काम, और साथ ही उनका दैनिक कार्य का समय और कार्य की विषयवस्तु आदि की जानकारी जुटाते हैं। वे इस बात पर गौर करते हैं कि क्या इन अगुआओं ने सरकार के विरुद्ध, धर्मों के विरुद्ध या सामाजिक प्रवृत्तियों के विरुद्ध कोई बयान दिए हैं, या कोई क्रियाकलाप किए हैं, और बाकी चीजों के साथ-साथ राष्ट्र की शासन प्रणाली और मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम के प्रति इन अगुआओं की प्रतिक्रियाएँ क्या हैं। ये सभी वे पहलू हैं जिन्हें कलीसिया की निगरानी करने वाले लोग समझना चाहते हैं। इसके अतिरिक्त, वे कलीसिया की संरचना और प्रशासनिक संरचनाओं पर भी निरंतर ध्यान देते हैं। उदाहरण के लिए, वे जानकारी रखते हैं कि कलीसिया के अगुआ और कार्यकर्ता कौन हैं, किस स्तर के अगुआओं को बरखास्त किया गया है, बरखास्त किए जाने के बाद उन्हें कैसे फिर से काम सौंपे गए हैं, किन अगुआओं को गिरफ्तार किया गया है, और किन लोगों ने बाद में उनका कार्यभार संभाला है। वे दूसरी विशिष्ट जानकारियों के अलावा यह जानकारियों जुटाते हैं कि उत्तराधिकारी की आयु, लिंग क्या है, उन्होंने परमेश्वर में कितने वर्ष से विश्वास रखा है, उनका शैक्षणिक स्तर क्या है और—क्या वे प्रतिभाशाली यूनिवर्सिटी स्नातक हैं—क्या देश या समाज पर वे वे कोई नकारात्मक प्रभाव डालते हैं, और क्या सरकारी विभागों में कार्य करने के लिए संभावित रूप से उनकी भरती की जा सकती है। वे उन विशिष्ट कलीसियाई अगुआओं का भी पता लगाना चाहते हैं जो उनका स्थान ले रहे हैं या बरखास्त किए जा रहे हैं। यानी, कार्मिकों की स्थिति, विशिष्ट प्रशासनिक कार्य और कलीसिया की संरचना, ये सभी वे पहलू हैं जिनसे वे परिचित होने का लक्ष्य रखते हैं। इसके अतिरिक्त, वे इस पूरी जानकारी को समझना चाहते हैं कि कलीसिया में कार्यों की कितनी मदें हैं, कितने समूह हैं और बाकी चीजों के अलावा प्रत्येक समूह के पर्यवेक्षकों का ब्योरा क्या है। वे यहाँ-वहाँ जाकर पूछताछ और जाँच-परख करते हैं और सीखते हैं, और बड़ी बारीकी से अपना कार्य करते हैं। कलीसिया में घुसपैठ करने वाले इस प्रकार के लोगों का काम और पूरा किया जाने वाला कार्य, कलीसिया की स्थिति के तमाम पहलुओं और वहाँ के घटनाक्रम को तुरंत समझना है जिससे कि वे कलीसिया की निगरानी का उद्देश्य हासिल कर सकें। उदाहरण के लिए, इसमें यह शामिल है कि विदेशों में कलीसिया कैसे विकसित हो रही है, सुसमाचार कितने देशों में फैल चुका है और किन देशों में कलीसियाएँ स्थापित हो चुकी हैं—उन्हें इन तमाम चीजों को समझना होता है। कलीसिया की निगरानी में वे मुख्य रूप से ये कार्य करते हैं : पहला है, कलीसिया की शिक्षाओं को समझना; दूसरा, कलीसिया के कार्मिकों की स्थिति को समझना; और तीसरा, कलीसियाई कार्य की स्थिति और उसकी हाल की प्रमुख गतिविधियों को समझना। वे पूर्ण रूप से, शैतान, बड़े लाल अजगर के सहयोगी और अनुचर की तरह कार्य करते हैं; वे शैतान के सच्चे नौकर हैं।
इस प्रकार के लोग जो कलीसिया की निगरानी करते हैं, वे कलीसिया की शिक्षाओं, कार्मिकों, कार्य प्रवृत्तियों, कलीसिया के पैमाने और दूसरे पहलुओं से संबंधित जानकारी को समझने के उद्देश्य से कलीसिया में घुसपैठ करते हैं। वे इनमें से प्रत्येक पहलू को समझने और फिर अपने वरिष्ठ अधिकारियों को इसकी सूचना देने का उद्देश्य रखते हैं, जो कभी भी स्थिति के आधार पर कलीसिया से निपटने के लिए तदनुरूप नीतिगत योजनाएँ या उपाय तैयार कर सकते हैं। संक्षेप में कहूँ तो, वे कलीसिया की निगरानी नेक इरादे से बिल्कुल भी नहीं करते हैं। वरना, यह देखते हुए कि यह न तो उनके लिए धन-दौलत लाता है न ही कोई लाभ, वे अभी भी कलीसिया की निगरानी क्यों करेंगे? क्या यह इसलिए नहीं है कि वे कलीसिया के अस्तित्व को लेकर असहज हैं? वे नहीं मानते कि परमेश्वर द्वारा स्थापित और अगुआई की गई कलीसिया ऐसे लोगों से बनी है जो विशुद्ध रूप से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, राज्य, समाज या राजनीतिक समूहों और संगठनों से कोई संबंध नहीं रखते। लेकिन वे कलीसिया पर चाहे जिस भी तरह से गौर करें, वे असहज रहते हैं। क्यों? क्योंकि वे नास्तिक हैं, परमेश्वर को नहीं स्वीकारते और सत्य से भी नफरत करते हैं। इसलिए, वे विश्वासियों का दमन करने और उन्हें गिरफ्तार करने और साथ ही कलीसिया की निगरानी करने जैसे मूर्खतापूर्ण और बेतुके कार्य करने में सक्षम होते हैं। वे कलीसिया के विरुद्ध निगरानी और प्रतिरोध के उपाय क्यों अपनाते हैं? क्योंकि उनकी सबसे बड़ी चिंता यह है कि बहुत अधिक सदस्यों वाली, बहुत ज्यादा बड़ी हो रही कलीसिया देश, सरकार और समाज पर अहम प्रभाव डालेगी, यह पारंपरिक संस्कृतियों और पारंपरिक धार्मिक समूहों को प्रभावित करेगी और उनके लिए खतरा बनेगी। कलीसिया के विरुद्ध उनकी निगरानी और प्रतिरोध के पीछे यही वास्तविक कारण है। इसलिए, वे कलीसिया की निगरानी और प्रतिरोध करने को एक ऐसे राजनीतिक काम के रूप में लेते हैं जिसका क्रियान्वयन होना है।
कलीसिया के भीतर उसकी निगरानी करने वाले इस प्रकार के लोगों को पहचानना शायद आसान न हो, क्योंकि उनके छिपे हुए मंसूबे होते हैं और वे खुद को कहीं गहरे छिपाए होते हैं ताकि दूसरे उनका पता न लगा सकें। इस प्रकार, हो सकता है कि वे कलीसिया में बहुसंख्यकों के साथ जाएँ, कुछ असामान्य किए बिना, विशेष रूप से अच्छा व्यवहार करें, और कलीसिया द्वारा किए गए कार्य को लेकर कभी कोई मतभेद व्यक्त न करें। लेकिन इन व्यक्तियों में एक विशेषता होती है : वे परमेश्वर में विश्वास रखने को लेकर उदासीन होते हैं, इस बारे में न तो बहुत सक्रिय और न ही बहुत निष्क्रिय। वे उन्हें सौंपे गए कुछ कर्तव्य कर सकते हैं, लेकिन कभी भी अपनी व्यक्तिगत विवरण का खुलासा नहीं करते, जैसे कि वे कहाँ काम करते हैं, उनकी पारिवारिक स्थिति कैसी है या क्या उन्होंने पहले परमेश्वर में विश्वास रखा था। अगर कोई किसी सरकारी विभाग में कार्य करने का जिक्र करता है तो वे बहुत टालमटोल करते हैं, सरकार, राजनीति, नीतियों या धर्म पर कोई राय देने से बचते हैं। उनके व्यवहार की विशेषता यह है कि वे किसी भी संवेदनशील विषय से बच कर रहते हैं; वे न तो सरकार की आलोचना करते हैं न ही उसकी प्रशंसा, न वे उसकी नीतियों या शासन प्रणाली पर चर्चा करते हैं। जब कोई यह बताता है कि अमुक व्यक्ति एक जासूस है तो वे बहुत घबरा जाते हैं और हो सकता है कि वे तुरंत खुद को बचाने की कोशिश में लग जाएँ। घबराने के अलावा, हो सकता है तुम उनकी निगाहों में ऐसे संवेदनशील विषयों से बचने की प्रवृत्ति भी देखो; उनकी असलियत समझ सकने वाले किसी भी व्यक्ति से वे बचकर रहते हैं। इसके अतिरिक्त, उन्हें अज्ञात स्थानों से अक्सर फोन आते हैं, या कलीसिया से असंबद्ध रहस्यमय व्यक्ति उनसे संपर्क कर बातचीत करते हैं और जैसे ही वे इनमें से किसी का फोन उठाते हैं, वे दूसरों से परे हट जाते हैं। अगर इन क्षणों में संयोग से कोई उन्हें देख ले तो वे स्पष्ट रूप से परेशान हो जाते हैं, शरमाते हैं और बेहद असहज दिखाई देते हैं, इस डर से कि हो सकता है कि उनकी पहचान का पता चल जाए। कलीसिया के बारे में चोरी-छिपे जानकारी इकट्ठा करने के अलावा, वे समय-समय पर भाई-बहनों से स्थिति के बारे में पूछताछ करते हैं और ऐसे सवाल पूछते हैं, “तुम परमेश्वर में कितने वर्षों से विश्वास कर रहे हो? क्या तुम्हारे माता-पिता विश्वास रखते हैं? क्या तुम्हारे परिवार के सदस्य मुख्यभूमि में रहते हैं? मुख्यभूमि में रहने वाले तुम्हारे परिवार के सदस्यों में से कौन-कौन परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, और वे कितने वर्षों से विश्वास रख रहे हैं? उनकी आयु क्या है? तुम लोगों की स्थानीय कलीसिया में कितने लोग हैं? उन सबका काम अभी कैसा चल रहा है?” समय-समय पर, वे संवेदनशील और निजी जानकारी खोजने का प्रयास करते हैं जिसका खुलासा करने को लोग अनिच्छुक होते हैं। अगर कोई संवेदनशील निजी जानकारी साझा करने को अनिच्छुक है तो भाई-बहनों के बीच सामान्य बातचीत में कोई भी जान-बूझकर या सक्रियता से उससे उस जानकारी के बारे में नहीं पूछता। लेकिन यह व्यक्ति ऐसे मामलों पर विशेष ध्यान देता है, यहाँ तक कि कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं या महत्वपूर्ण कार्य के प्रभारी लोगों की गतिविधियों की टोह भी लेता रहता है, इन लोगों के कंप्यूटरों और मोबाइल फोनों में मौजूद जानकारी को हासिल करने या उनका पता जानने की कोशिश करता है, इन विवरणों की अच्छी तरह से खोजबीन करने पर जोर देता है। अगर उसका ध्यान इस बात पर जाता है कि किसी खास अगुआ ने सभा में भाग नहीं लिया है तो वह पूछेगा, “अमुक व्यक्ति आज सभा में मौजूद नहीं है। वह क्या कर रहा है?” अगर कोई बताता है कि वह व्यस्त है तो वह आगे खोजबीन करेगा : “किस चीज में व्यस्त है? क्या वह उन नए विश्वासियों का फिर से सिंचन कर रहा है? ये नए विश्वासी कौन हैं? उन्होंने कब विश्वास रखना शुरू किया? ऐसा कैसे है कि मैं इस बारे में नहीं जानता?” वे और गहराई तक घुसते जाते हैं। भाई-बहन कहते हैं, “अगर हमें नहीं जानना चाहिए, तो चलो, नहीं पूछते। क्यों पूछते रहें? यह जीवन प्रवेश के बारे में नहीं है, इसमें सत्य शामिल नहीं है; जानने की कोई जरूरत नहीं है।” इसके जवाब में घुसपैठिया कहता है, “लेकिन ये परमेश्वर के घर के मामले हैं, कलीसियाई कार्य के; हम इस बारे में क्यों नहीं जान सकते? हम सभी परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, थोड़ा-सा जान लेने से कोई नुक्सान नहीं होता। अगर तुम लोग नहीं जानना चाहते तो इसका अर्थ है कि तुम कलीसियाई कार्य या कलीसिया के अगुआओं की परवाह नहीं करते। अगुआ वास्तव में किससे मिलने गया था? कितने नए विश्वासी मौजूद हैं? वे कहाँ हैं? मैं भी उनसे मिलना चाहता हूँ।” वे हमेशा इन मामलों के बारे में पूछते रहते हैं।
एक और काम है जिस पर कलीसिया की निगरानी करने वाले सबसे ज्यादा ध्यान देते हैं, और वह है कलीसिया की वित्तीय स्थिति को समझना। एक लिहाज से, वे कलीसिया के वित्त के स्रोतों को समझने का प्रयास करते हैं। वे जानना चाहते हैं कि क्या कलीसिया ने कारखाने या उद्यम स्थापित किए हैं, क्या उसके अपने स्वेटशॉप यानी श्रमिकों का शोषण करने वाले कारखाने हैं, क्या वह बाल मजदूरों को काम पर लगाती है, और क्या कलीसिया के कार्यों की विभिन्न मदों में लाभदायक उपक्रम शामिल हैं। उदाहरण के लिए, क्या कलीसिया द्वारा वीडियो, फिल्मों, भजनों के निर्माण और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों के मुद्रण से लाभ होता है या क्या कलीसिया इनसे बहुत ज्यादा लाभ कमाती है; कलीसिया के वित्त के स्रोत क्या हैं; क्या कोई ऐसे संपन्न व्यक्ति हैं जो कलीसिया को सहारा देने के लिए दान देते हैं; क्या इन व्यक्तियों में राजनीतिक अभिजात्य वर्ग या अरबपति और खरबपति लोग शामिल हैं—वे इन विवरणों को समझना चाहते हैं। कलीसिया की प्रशासनिक संरचनाओं और वित्तीय स्रोतों को समझने के अलावा, उनका लक्ष्य कलीसिया के वित्त की देखरेख को भी समझना है, और इसके पीछे उनका उद्देश्य इन निधियों के प्रवाह पर नजर रखना है। कलीसिया अपना पैसा कैसे खर्च करती है, क्या वह किसी गैरकानूनी गतिविधि में शामिल है, क्या वह सामाजिक अभिजात्य वर्ग को संगठित करती है, या संयुक्त रूप से तानाशाह सरकारों का विरोध करने और मानवाधिकारों को कायम रखने आदि के लिए विभिन्न सामाजिक संगठनों और समूहों के साथ गठजोड़ करती है—ये भी कुछ महत्वपूर्ण स्थितियाँ हैं जिन्हें समझने का वे लक्ष्य रखते हैं। कुछ लोग प्रश्न करते हैं : “क्या कलीसिया की निगरानी का कार्य सिर्फ बड़े लाल अजगर के राष्ट्र द्वारा ही हाथ में लिया जाता है?” क्या यह कथन सटीक है? दरअसल, पूरी दुनिया और पूरा मानव समाज परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। सिर्फ तानाशाह शासन के अधीनस्थ देश ही परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करते; तथाकथित ईसाई देशों में भी सत्ता में बैठे अधिकांश लोग नास्तिक और गैर-विश्वासी होते हैं और आस्था रखने वाले या ईसाई धर्म का ढोल पीटने वाले सत्ताधारी लोगों के बीच भी, सत्य स्वीकार सकने वाले लोगों की संख्या बहुत कम ही होती है। ज्यादातर लोग सत्य स्वीकार करना तो दूर रहा, उसे मानते भी नहीं। तो, क्या ये लोग जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं अभी भी उसका प्रतिरोध करते हैं? उदाहरण के लिए, क्या इस्राएल में ईसाई धर्म, कैथोलिक मत और यहूदी धर्म में ऊपरी वर्ग ऐसे लोगों से बना है जो सत्य स्वीकारते हैं? बिल्कुल नहीं। उनमें से कोई भी परमेश्वर के कार्य की खोजबीन करने नहीं आता; उनमें से एक भी सत्य स्वीकार नहीं कर सकता। सटीक रूप से कहूँ तो, वे सबके-सब छद्म-विश्वासी हैं; वे सब परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं और मसीह-विरोधियों जैसे हैं। वे परमेश्वर के कार्य में बाधा डालते हैं और उसे बिगाड़ देते हैं, और परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोगों को क्रूरता से दबाते और उत्पीड़ित करते हैं, जो अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य के साथ उनके व्यवहार से सिद्ध होता है। कौन-सा संप्रदाय अपने विश्वासियों को आजादी से सच्चे मार्ग की खोजबीन करने देता है, बाहर के प्रचारकों को सुनने देता है या अजनबियों का स्वागत करने देता है? एक भी संप्रदाय यह नहीं कर सकता। कौन-सी जाति या राष्ट्र कलीसिया के प्रति मित्रतापूर्ण है? (कोई भी नहीं।) यदि वे तुम्हें थोड़ी धार्मिक स्वतंत्रता और साँस लेने की खुली जगह दे दें, इतना ही बहुत प्रशंसनीय है। क्या तुम अब भी उनसे इसके अलावा और समर्थन पाने की उम्मीद करते हो? जब परमेश्वर की कलीसिया प्रकट होती है या जब कलीसिया सुसमाचार का प्रचार करना शुरू करती है तो ये लोग जो परमेश्वर के अस्तित्व में बिल्कुल भी विश्वास नहीं रखते और जो परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों के प्रति एक खास विकर्षण और घृणा महसूस करते हैं, फिर एक विशेष काम हाथ में लेते हैं, और वह है कलीसिया की करीब से निगरानी करने के लिए व्यक्तियों को नियुक्त करना। “निगरानी” का अर्थ यहाँ निरीक्षण करना है, समझना और नियंत्रण करना है; यानी हर दौर में कलीसिया के सभी पहलुओं का सख्ती से निरीक्षण करना, उन्हें समझना और उन पर नियंत्रण करना। कुछ लोग कहते हैं : “उन्होंने सार्वजनिक रूप से परमेश्वर के कार्य की निंदा या विरोध नहीं किया है, न ही हमने अपने स्थानीय जीवन में उत्पीड़न या अत्याचार सहा है। हमें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास रखना, सभा करना, अपना कर्तव्य निभाना और सुसमाचार फैलाना बड़े लाल अजगर के राष्ट्र के बजाय विदेशों में बहुत बेहतर और ज्यादा सुरक्षित है। हमने किसी हस्तक्षेप का अनुभव नहीं किया है।” सिर्फ इस कारण से कि कोई हस्तक्षेप नहीं रहा और तुम्हें थोड़ी आजादी दे दी गई, तुम्हें कलीसिया की निगरानी करने के उनके कार्य को नकारना नहीं चाहिए। जो थोड़ी-सी धार्मिक आजादी तुम्हें दी गई है, वह एक बुनियादी सामाजिक संस्था है; तुम जिनका आनंद ले रहे हो, वे तुम जिस देश में रहते हो उसके नागरिकों के महज बुनियादी अधिकार हैं। इन बुनियादी अधिकारों का आनंद लेने का अर्थ यह नहीं है कि राष्ट्रीय सरकार, सामाजिक समूह या धार्मिक समुदाय ने परमेश्वर के कार्य और कलीसिया के कार्य को स्वीकार लिया है, वे मित्रवत हो गए हैं या अब कोई शत्रुता और निगरानी नहीं है। क्या बात ऐसी नहीं है? (हाँ, है।) यह मामला अमूर्त नहीं है, है ना? (नहीं, यह नहीं है।)
शैतानी राज्यों द्वारा शत्रुता और निगरानी के प्रति हमारा रवैया कैसा होना चाहिए? क्या हमें उसे ठुकराना चाहिए और उससे बचना चाहिए या बस उसे नजरअंदाज कर देना चाहिए? पहले, इस बारे में सोचो : क्या कलीसिया को उसके द्वारा किए जा रहे किसी भी कार्य की उनकी निगरानी से डर लगता है? (नहीं।) क्या हमारी कोई गुप्त गतिविधियाँ हैं? क्या हम कोई राज्य-विरोधी या सरकार-विरोधी राजनीतिक बयान देते हैं? (नहीं।) यह दृढ़ता के साथ कहा जा सकता है। परमेश्वर में विश्वास रखने में राजनीति में भाग लेना कभी भी शामिल नहीं होता। तुम लोगों में से ज्यादातर लोग तीन वर्ष से अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास रखे हुए हो, कुछ बीस-तीस वर्ष से भी रखे हुए हैं। धर्मोपदेश सुनने के इन तमाम वर्षों में क्या कभी किसी को कोई राज्य-विरोधी या समाज-विरोधी बयान मिला है? (नहीं।) जरा-सा भी नहीं; परमेश्वर का घर कभी भी राजनीति पर चर्चा नहीं करता। यही नहीं, सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया परमेश्वर द्वारा स्थापित है, यह पृथ्वी पर परमेश्वर के राज्य का पूर्वानुभव है, यह किसी व्यक्ति द्वारा बनाया गया या स्थापित किया गया कोई संगठन नहीं है। तो परमेश्वर ने कौन-सा कार्य करने के लिए कलीसिया को स्थापित किया? यह समाज-विरोधी, धर्म-विरोधी या राजनीति-विरोधी कार्य में संलग्न होने का कार्य नहीं है। तो फिर कलीसिया का कार्य क्या है? पहला, इसका मुख्य कार्य यह शुभ समाचार फैलाना है कि मानवजाति को बचाने के लिए अंत के दिनों में परमेश्वर देहधारी हुआ है, जिससे मानवजाति को परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी सत्य स्वीकार करने की अनुमति मिलती है ताकि वे परमेश्वर की ओर मुड़ सकें और उसकी आराधना कर सकें। दूसरा, इसमें सत्य के लिए लालायित लोगों को परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकार करने, शुद्ध होने और अंततः उद्धार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के सामने लाना शामिल है। यह परमेश्वर द्वारा स्थापित कलीसिया द्वारा हाथ में लिया गया कार्य है और यह कलीसिया के अस्तित्व की महत्ता और मूल्य है। यह राजनीति, व्यापार, उद्योग, टेक्नॉलॉजी या समाज के किसी भी दूसरे क्षेत्र से अप्रासंगिक और असंबद्ध है; यह इन चीजों से पूरी तरह असंबंधित है। तो फिर कलीसिया के भीतर परमेश्वर के उद्धार कार्य का सार क्या है? सबसे सरल और सटीक शब्दों में कहूँ तो, यह मानवजाति का प्रबंधन करना है। मानवजाति का प्रबंधन करने की विशिष्ट विषयवस्तु में लोगों को परमेश्वर के सामने, परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में लाना शामिल है, जिससे वे शुद्ध होकर उद्धार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार कर सकें। मानवजाति का प्रबंधन करने का यह विशिष्ट कार्य है। कलीसिया जिस भी कार्य में संलग्न होती है, वह परमेश्वर के प्रबंधन, परमेश्वर की योजना से संबद्ध होता है और निस्संदेह इसमें परमेश्वर द्वारा व्यक्त वचन शामिल होते हैं; इसका सांसारिक लोगों द्वारा हाथ में लिए गए विभिन्न कामों से कोई संबंध नहीं होता। इसलिए, कलीसिया के बारे में कोई भी जानकारी का, चाहे वह उसकी शिक्षाओं, कार्मिकों, प्रशासनिक संरचनाओं, उसके कार्य की स्थिति या कलीसिया की वित्तीय स्थिति से संबंधित हो, किसी देश, किसी समाज, किसी जाति, किसी धर्म या किसी मानव समूह से कोई संबंध नहीं होता—लेशमात्र भी संबंध नहीं होता है। इसलिए, इन बोतें को ध्यान में रखते हुए, चाहे वह सत्ताधारी दल हो या धार्मिक समूह हों या सामाजिक समूह हों, उनका कलीसिया की निगरानी करने के लिए लोगों को भेजना विशुद्ध रूप से क्या है? (एक अनावश्यक कार्यवाही।) “एक अनावश्यक कार्यवाही” एक औपचारिक अभिव्यक्ति है। सामान्य कहावत क्या है? करने के लिए कुछ बेहतर नहीं होना है, है ना? मेरे नजरिये से, यह ठीक वही है; उनके दिन बहुत ज्यादा सुख-सुविधा और आराम से भरे हुए हैं, इसलिए वे कलीसिया की निगरानी करने के लिए इन कुछ निठल्ले व्यक्तियों को भेज देते हैं, यहाँ तक कि इसे एक राजनीतिक काम, एक गंभीर काम के रूप में लेते हैं—यह पूरी तरह से बेतुका है! उस प्रयास से शैक्षणिक या धर्मार्थ संस्थाएँ खोलना काफी बेहतर होगा। यह बहुत अधिक दैहिक सुख के कारण निठल्ले बन जाने का, उचित कामों पर ध्यान केंद्रित नहीं करने का मामला है! अगर पूरी मानवजाति परमेश्वर की कलीसिया जैसी होती और परमेश्वर स्वयं चरवाही और अगुआई करता तो यह दुनिया, यह मानवजाति अनावश्यक संस्थाओं, खर्चों और मुसीबतों से बहुत बच पाती। कम-से-कम जासूसी संगठनों और पुलिस विभागों जैसी एजेंसियों का, इन सुरक्षा क्षेत्रों का कोई काम नहीं होता और उन्हें खत्म करके दूसरे कार्यों में लगा दिया गया होता।
जिन व्यक्तियों को कलीसिया की निगरानी का काम सौंपा जाता है वे एक मिशन पर होते हैं। कलीसिया में घुसपैठ करने पर उनका प्रमुख काम ये कुछ पहलू हैं जिन पर हमने संगति की है; कलीसिया में कुछ बुनियादी और अहम स्थितियों को समझ लेने के बाद, वे अपने वरिष्ठ अधिकारियों को इसकी सूचना देते हैं। उनके विचार, राय या कार्य के पीछे के उनके उद्देश्य चाहे जो हों, कलीसिया में इन निगरानी करने वालों की मौजूदगी से भाई-बहनों को इशारा मिलना चाहिए कि वे सतर्क रहें और उनसे बुद्धिमत्ता से निपटें। क्या यह दृष्टिकोण सही है? (हाँ, है।) तो फिर क्या बहुत अधिक चिंता की जरूरत है? (नहीं।) हमें ऐसे व्यक्तियों के प्रकटन को कैसे लेना चाहिए? इसके लिए दो सिद्धांत हैं, यह बहुत सरल है। अगर वे पूछताछ करते हुए और जानकारी खोजते हुए इधर-उधर घूमते हैं तो इससे वे साफ तौर पर एक जासूस या स्काउट के रूप में चिह्नित हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति बेहद नीच और ढीठ मानवता वाले होते हैं; वे कलीसिया में गंभीर बाधाएँ डालते हैं। सिर्फ उनकी मौजूदगी ही लोगों के बीच अशांति पैदा कर देती है, उन्हें परमेश्वर के सामने आने से रोक देती है। सभाएँ और कर्तव्य निर्वहन भी बाधित और प्रभावित हो जाते हैं और सुरक्षा संकट में पड़ जाती है। ऐसे व्यक्ति से कैसे निपटना चाहिए? (उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल दो।) सही है; अगर वे कलीसियाई जीवन या कलीसियाई कार्य में बाधाएँ डालते हैं तो उन्हें सीधे दूर कर देना चाहिए। तो फिर क्या उनसे छिपने या डरने की कोई जरूरत है? (नहीं।) कुछ लोग विदेशों में जासूसों से सामना होने पर घबरा जाते हैं और इधर-उधर छिप जाते हैं, मानो मुख्यभूमि में उन्होंने पुलिस को देख लिया हो। जब कुछ भाई-बहन फुटकर कामों के लिए बाहर जाते हैं और उनका सामना जासूसों से हो जाता है जो उनसे सवाल पूछते हैं और जब वे देखते हैं कि उनके सवाल पूछने का लहजा पुलिस की पूछताछ की तरह कितना डराने-धमकाने वाला है तो वे इतना डर जाते हैं कि वे अपने काम पूरे किए बिना ही भाग जाते हैं। मैं कहता हूँ, “तुम इतने भोले कैसे हो सकते हो? भागने की क्या जरूरत है? डरने की क्या बात है? बड़े लाल अजगर के राष्ट्र में बहुत सारे भाई-बहनों को पकड़ लिया गया था मगर वे निडर रहे; वे यहूदा नहीं बने, वे अपनी गवाही में दृढ़ बने रहे। तो फिर, तुम तो पहले ही विदेश आ चुके हो, क्या तुम अब भी इतने ज्यादा भयभीत हो सकते हो? तुमने कोई कानून नहीं तोड़ा है; डरने की क्या बात है?” कुछ लोग कहते हैं : “वे हमेशा मेरे करीब आने की कोशिश करते हैं और वे हमेशा मुझसे पूछताछ करते रहते हैं।” क्या तुम उनसे वापस सवाल नहीं पूछ सकते? तुम कह सकते हो, “मुझसे पूछताछ करने का तुम्हें क्या हक है? क्या मैं तुम्हें जानता हूँ? क्या तुम बड़े लाल अजगर के कोई अधिकारी हो जो पहचान पत्रों की जाँच करता है? तुम किसका प्रतिनिधित्व करते हो? मुझसे और सवाल पूछे तो मैं तुम पर मुकदमा कर दूँगा!” क्या उनसे डरने की कोई जरूरत है? (नहीं।) कुछ लोग ऐसे जासूसों से सामना होने पर बोलने की हिम्मत नहीं करते और डर के मारे जल्दी से भाग जाते हैं। कुछ भ्रमित लोग बिल्कुल पहचान नहीं पाते और इन शैतानी जासूसों और चाटुकारों को सुसमाचार का उपदेश देने का भी प्रयास करते हैं। कुछ प्रयासों के बाद उन्हें एहसास होता है, “यह ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास है। वह बड़े लाल अजगर के किसी अधिकारी जैसा क्यों लगता है?” यह महसूस करके कि कुछ गड़बड़ है, वे हार मान लेते हैं। वे बाद में इस बारे में सोचते हैं : “परमेश्वर मेरी रक्षा कर रहा है; शुक्र है कि मैंने उन्हें कोई व्यक्तिगत जानकारी नहीं दी। कैसी झूठी चेतावनी है!” वे इतने भयभीत हैं कि अब किसी से भी मिलने पर यूँ ही सुसमाचार का प्रचार करने की हिम्मत नहीं करते। दरअसल, ऐसे जासूस भी सचमुच हुए हैं जिन्हें प्रचार के जरिए कलीसिया में लाया गया था। वे स्काउट हैं जिन्हें बड़े लाल अजगर ने कलीसिया में प्रत्यारोपित किया है, वे शैतान द्वारा जान-बूझकर व्यवस्थित किए गए हैं। वे भेड़ों की पोशाक में भेड़ियों के समान हैं जो परमेश्वर के वचनों को खाए-पिए बिना या सत्य पर संगति किए बिना कलीसिया में घुसपैठ करते हैं, हमेशा कलीसिया के बारे में जानकारी के लिए जासूसी करते रहते हैं और व्यक्तिगत विवरणों में ताक-झाँक करते रहते हैं। एक बार यह पता चल जाए कि उनका व्यवहार संदेहास्पद है या वे कलीसिया में पहले ही बाधाएँ खड़ी कर चुके हैं तो उन्हें तुरंत दूर कर देना चाहिए—बड़े लाल अजगर के स्काउटों को, शैतान के नौकरों को कलीसिया में बिल्कुल भी बाधा नहीं डालने देना चाहिए। जो भी तुम्हें मिले उसे बाहर निकाल दो; उन पर जरा भी दया मत दिखाओ! अगर कोई किसी जासूस के साथ मिल-जुलकर रहता हो, प्रेम की भावना से वह हमेशा जासूस से दयालुता से पेश आने को तैयार रहता हो, पूछे गए सभी सवालों के जवाब देता हो, जासूस के चाटुकार की भूमिका निभाता हो, तो ऐसी तलछट को सीधे निष्कासित कर देना चाहिए! संदेहास्पद व्यक्तियों पर करीब से नजर रखनी चाहिए और उनकी जाँच-परख करनी चाहिए; कलीसिया के बारे में एक भी विवरण उन्हें नहीं बताना चाहिए, खास तौर से यह कि अगुआ और कार्यकर्ता कौन हैं। अगर किसी जासूस को किसी जानकारी का पता लगने दिया जाता है तो इससे कलीसिया और भाई-बहनों के लिए कभी भी एक छिपा हुआ खतरा या विपत्ति खड़ी हो सकती है। इसलिए, जब कोई व्यक्ति संदेहास्पद लगे, अगर वह कभी भी परमेश्वर के वचनों को खाता-पीता न हो या सत्य पर संगति न करता हो तो यकीनन वह एक छद्म-विश्वासी है और उसे तुरंत बाहर निकाल देना सही है। ऐसा व्यक्ति अगर जासूस न भी हो तो भी वह अच्छा व्यक्ति नहीं है और उसे बाहर निकाल देना किसी भी तरह से अन्यायपूर्ण नहीं है। अगर कोई व्यक्ति जासूस के बहुत करीब दिखाई दे और वह कलीसिया के साथ विश्वासघात करने में सक्षम हो तो उसे हर परिस्थिति में तुरंत बाहर निकाल देना चाहिए। ऐसी तलछट और बदमाश लोग कलीसिया और भाई-बहनों के लिए सिर्फ विपत्ति ही ला सकते हैं। वे रक्षक कुत्तों से भी बदतर हैं; वे बुरे कर्म न भी करें तो भी उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए। अब बड़ा लाल अजगर पतन की कगार पर है लेकिन वह अपनी पराजय और विनाश स्वीकारने को तैयार नहीं है। उसका परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गिरफ्तार कर उत्पीड़ित करना जारी है, और वह परमेश्वर के घर में घुसपैठ करने के लिए जासूसी अभियान चलाता रहता है। उसका कलीसियाई कार्य में बाधा डालना और इसे बिगाड़ना कभी थमा नहीं है। अब, कुछ जाहिर तौर से संदेहास्पद व्यक्ति उजागर हो गए हैं। जानकारी इकट्ठा करने के उनके प्रयासों से हलचल मच गई है जिससे दूसरों के लिए उनकी असलियत जानना आसान हो गया है। एक बार जब वे खुद को उजागर कर देते हैं तो कलीसिया उन्हें बाहर निकाल देती है। लेकिन क्या सभी धूर्त जासूस उजागर हो चुके हैं? हो ही नहीं सकता। हर जगह की कलीसियाओं में बड़े लाल अजगर के एजेंटों द्वारा द्वारा घुसपैठ होना मुमकिन है। बड़े लाल अजगर द्वारा पकड़े जाने के बाद कुछ व्यक्ति शैतान द्वारा धमकियों, प्रलोभनों और विभिन्न दूसरे उपायों से विवश किए जाते हैं कि वे उसकी ओर से कार्य करें और फिर कलीसिया में घुसपैठ करें। ये छिपे हुए जासूस हैं। ऐसे स्काउट विश्वासघाती और धूर्त होते हैं, जिनमें थोड़ी चतुरता और अक्ल होती है। गैर-विश्वासियों के शब्दों में उनमें थोड़ी क्षमता होती है। कलीसिया की निगरानी करते समय वे अप्रकट रूप से ऐसा करते हैं, चुपचाप और छिपकर कार्य करते हैं, अपनी बातचीत में कभी भी अपने सच्चे इरादों का खुलासा नहीं करते। ज्यादातर लोगों को उनसे बातचीत के समय कोई आभास नहीं होता; वे यह नहीं जानते कि जासूस जानकारी इकट्ठा कर रहा है, न ही वे परमेश्वर में विश्वास रखने के प्रति जासूस के विकर्षण को महसूस करते हैं। इससे पहले कि ज्यादातर लोगों को यह एहसास हो कि जासूस वहाँ कलीसिया की निगरानी करने के लिए है, जासूस कलीसिया की बुनियादी स्थिति को शायद पहले ही समझ चुका होता है। ऊपर से ऐसे व्यक्ति कलीसिया या ज्यादातर लोगों को बाधित नहीं करते, तो फिर उनसे कैसे निपटना चाहिए? उनके द्वारा कलीसिया की निगरानी रोकने के लिए क्या हमें कोई उपाय या समाधान करने चाहिए? जैसा पहले कहा गया है, क्या कलीसिया उनके द्वारा किसी भी पहलू की निगरानी से डरती है? (नहीं।) हमारी कलीसिया का अस्तित्व और कार्य की विभिन्न मदें जिन में वह संलग्न होती है, खुले और पारदर्शी होते हैं; कार्य की ये मदें मानवजाति के बीच सबसे ज्यादा न्यायपूर्ण हैं। अगर कोई संगठन कलीसिया के किसी पहलू को समझना चाहता है तो कलीसिया की अनुभवजन्य गवाहियाँ सार्वजनिक रूप से ऑनलाइन प्रसारित की जाती हैं—हर कोई उन्हें अपनी पसंद से देख सकता है। कोई रहस्य नहीं हैं, कोई गैर-कानूनी गतिविधियाँ नहीं हैं और निश्चित रूप से सामाजिक व्यवस्था के लिए कोई विघ्न या कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं हैं। इस तरह अगर वे कलीसिया की चोरे-छिपे खोजबीन और निगरानी करते हैं तो उन्हें रहने दो। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? एजेंटों के रूप में कार्य करने वाले इन व्यक्तियों के पास एक खास पेशेवर मानक होता है और साधारण लोग यह पता नहीं लगा सकते कि परदे के पीछे वे वास्तव में कौन-से कार्य करते हैं। तो, अगर वे बाधाएँ पैदा नहीं करते तो उन को लेकर परेशान होने की जरूरत नहीं है; बस उन्हें रहने दो। इसके अलावा, ये छद्म-विश्वासी, नास्तिक और राजनीतिक गतिविधियों में संलग्न व्यक्ति कलीसियाई जीवन के आदी नहीं होते, न ही उसमें रुचि रखते हैं। कलीसिया में, जहाँ हर दिन लोग परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, न्याय और ताड़ना स्वीकारते हैं और स्वयं को जानने, परमेश्वर को जानने और स्वभाव में परिवर्तन के बारे में चर्चा करते हैं, ऐसा कैसे हो सकता है कि वे काँटों या सुइयों पर चलने या यातना से गुजरने जैसा महसूस न करें? प्रत्येक सभा में वे बेहद बेचैन होते हैं; वे कलीसिया में रहने के लिए खुद को मजबूर करने में अनिच्छुक महसूस करते हैं। वे अपने दिलों में समझते हैं कि कलीसिया सिर्फ एक कलीसिया है और कोई राजनीतिक कार्य में संलग्न संगठन नहीं है। कलीसिया की निगरानी करने और उसके बारे में जानने से, और उसके वास्तविक कार्यों से अवगत होने से वे इस तथ्य के बारे में शिक्षित हो जाते हैं कि परमेश्वर सभी चीजों और मानवजाति के भाग्य पर संप्रभु है, जिससे उनके क्षितिज का विस्तार होता है ताकि वे इतनी अज्ञानता में न रहें। वे भी सृजित प्राणी हैं, फिर भी वे यह तक नहीं जानते कि मनुष्य परमेश्वर द्वारा सृजित है, जो यह दर्शाता है कि वे कितने मूर्ख और तुच्छ हैं! क्या उन्हें कलीसिया में रहने देने से कोई जोखिम है? अगर वे कलीसिया या भाई-बहनों के लिए कोई खतरा या बाधा पैदा नहीं करते, तो उन्हें रहने दो। जब कभी वे ऐसा कुछ करें जिससे बाधा पैदा हो तो वह उनके उजागर होने की घड़ी होती है और वही उनसे निपटने का सही समय होता है। तथ्यों और साक्ष्य के आधार पर, उन्हें तुरंत पहचान लो और उनका चरित्र चित्रण करो—उनका मिशन खत्म हो जाता है और कलीसिया स्वाभाविक रूप से उन्हें निष्कासित कर देती है। क्या उनसे निपटने का यह तरीका सही है? (हाँ।) कुछ लोग पूछते हैं, “क्या कलीसिया का कार्य खुला और पारदर्शी नहीं है? लोगों द्वारा निगरानी को प्रतिबंधित क्यों करें?” इसका लक्ष्य मुख्य रूप से बड़े लाल अजगर, शैतान का शासन है। उसके द्वारा कलीसिया की निगरानी करने का उद्देश्य दमन, गिरफ्तारी और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को हानि पहुँचाना है; इसलिए परमेश्वर का घर अपनी निगरानी की इजाजत नहीं देता ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उत्पीड़न और नर-संहार से रोका जा सके। अगर लोकतांत्रिक देशों या धार्मिक समूहों के व्यक्ति सच्चे मार्ग की खोजबीन करने आते हैं तो वे ऑनलाइन देख सकते हैं या कलीसिया से संपर्क कर सकते हैं। कलीसिया ऐसे किसी भी व्यक्ति का स्वागत करती है जो ईमानदारी से सत्य खोजता है। लेकिन अगर दूसरा पक्ष बुरी मंशाएँ पाले हुए है और गलत और सही को विकृत करने और कलीसिया को बदनाम करने का प्रयास करता है तो परमेश्वर का घर अपनी निगरानी की इजाजत कैसे दे सकता है? क्या उन्हें निगरानी की इजाजत देना अत्यंत मूर्खतापूर्ण नहीं होगा? (हाँ।) परमेश्वर के घर ने सत्य खोजने वालों का हमेशा स्वागत किया है और वह उनका गर्मजोशी से स्वागत करता है, जो पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुसार है। अगर लोग यह नहीं समझते तो यह उनकी मूर्खता और अज्ञानता के कारण है। कलीसिया की बाहरी मामलों की नीति खुली और पारदर्शी है, पूरी तरह से सत्य सिद्धांतों से मेल खाती है, और अक्ल और बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण है। अगर कोई इन सकारात्मक चीजों को नहीं समझ सकता तो वह एक बेतुका और भ्रमित व्यक्ति है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर स्काउट या शैतान के नौकर कलीसिया के बारे में जान लेते हैं तो क्या हमें ईमानदार होकर उनके सवालों का सच्चाई से जवाब देना चाहिए?” दानवों और शैतानों को सत्य बताना बेवकूफी है; इससे कोई व्यक्ति ईमानदार नहीं बन जाता, बल्कि शैतान का चाटुकार बन जाता है। जब शैतान जैसे लोग कलीसिया की स्थितियों के बारे में जानना और समझना चाहते हैं तो परमेश्वर के चुने हुए लोगों की कोई जिम्मेदारी नहीं है कि उन्हें बताएँ। वे सत्य स्वीकार नहीं कर सकते और कोई सद्भावना नहीं रखते, इसलिए हमारे पास उनसे कहने को कुछ भी नहीं है! यह करना उतावला होना नहीं, बल्कि बुद्धिमान होना है। कुछ लोग पूछते हैं, “अगर वे मुझसे पूछें, ‘तुम लोगों की कलीसिया की अगुआई कौन करता है? उसने कितने वर्ष विश्वास रखा है?’ तो क्या मैं उन्हें बता सकता हूँ?” तुम्हें उनसे पूछना चाहिए, “हमारे अगुआ के बारे में जानने का तुम्हारा उद्देश्य क्या है? पहले मुझे बताओ, मैं उस पर विचार करूँगा और फैसला लूँगा कि तुम्हें बताऊँ या नहीं।” क्या यह जवाब बुद्धिमत्तापूर्ण है? (हाँ, है।) इसे सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना कहा जाता है। समझ रहे हो? जैसे-जैसे सुसमाचार कार्य फैलता है, और धीरे-धीरे कलीसिया में लोगों की संख्या बढ़ती है, समय-समय पर विभिन्न देशों और क्षेत्रों में हर कहीं कलीसियाओं में स्काउट और एजेंट प्रकट हो सकते हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिए, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को बस यह बता देना काफी होगा कि वे उनके साथ बुद्धिमानी से पेश आएँ। अगर यह पता चले कि वे विघ्न-बाधाएँ पैदा करते हैं, तो फिर उन्हें तुरंत बाहर निकाल देना चाहिए। ज्यादातर लोगों को इन एजेंटों के बात करने और कार्य करने के तरीके या उनके आचरण की थोड़ी समझ और पहचान होनी चाहिए और उन्हें उनसे बातचीत करते समय यकीनन थोड़ी जागरूकता या बोध होगा। अगर कलीसिया में केवल थोड़े-से भाई-बहनों का ध्यान ऐसे व्यक्तियों पर जाए मगर वे सुनिश्चित न हों कि वे जासूस या स्काउट हैं या नहीं, तो उनसे सावधानी और बुद्धिमत्तापूर्ण तरीके से पेश आना चाहिए। अगर ज्यादातर लोगों ने ध्यान दिया हो तो वे एक-दूसरे को सूचित कर सकते हैं, और निवारक कदम उठा सकते हैं। अगर संदेहास्पद जासूस कलीसिया या भाई-बहनों के प्रति मित्रता न दिखाएँ, निरंतर भाई-बहनों को फँसाने और कलीसिया में बाधा डालने का प्रयास करें, और हमेशा कलीसिया को बदनाम करने के साक्ष्य ढूँढ़ते रहें, यहाँ तक कि भाई-बहनों की तस्वीरें लेते रहें या रिकॉर्डिंग करते रहें, या जो वे जानना चाहते हैं वह जानकारी निकालने के लिए बहकावे और प्रलोभन का उपयोग करें, तो एक बार पता चल जाने पर ऐसे व्यक्तियों को बेरोकटोक जाने नहीं दिया जा सकता—उन्हें कलीसिया से तुरंत बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। हो सकता है कि तुम लोगों का पहले ऐसी स्थितियों से सामना न हुआ हो, इसलिए मैं तुम लोगों को पहले से ही सचेत कर रहा हूँ। यह तुम्हारी समझ को व्यापक बनाने, मानवजाति, समाज, राजनीति और दुनिया को जानने के बारे में है—यह इतनी ही अधिक अंधकारमय और इतनी ही अधिक बुरा है।
परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए व्यक्ति के नौवें उद्देश्य—कलीसिया की निगरानी करना—के बारे मेंबुनियादी विषयवस्तु पर संगति यहीं समाप्त होती है। क्या हर चीज पर स्पष्ट संगति की गई है? (हाँ।) जो लोग कलीसिया की निगरानी करते हैं, उनका लक्ष्य किन विषयवस्तुओं की निगरानी करना होता है? (कलीसिया की शिक्षाएँ, कार्मिक स्थितियाँ, कार्य स्थितियाँ, और वित्तीय स्थिति।) मूल रूप से ये चार क्षेत्र हैं जिनके बारे में वे सबसे अधिक चिंतित रहते हैं। इन चार पहलुओं में क्या शामिल होते हैं? इनमें वे चीजें शामिल होती हैं जिनके बारे में वे सबसे अधिक चिंतित रहते हैं : समाज, राष्ट्र और धार्मिक समुदाय पर कलीसिया की मौजूदगी का प्रभाव। वे इस बात को लेकर भी चिंतित रहते हैं कि कलीसिया राजनीति में शामिल होने और सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए धर्म का इस्तेमाल कर सकती है, और वे इसे एक सबसे बड़े छिपे हुए खतरे के रूप में देखते हैं। इस तरह वे कलीसिया का दमन और उत्पीड़न करते हैं और उस पर प्रतिबंध लगाते हैं, और इसके सदस्यों को गिरफ्तार करते हैं। बड़े लाल अजगर का राष्ट्र सभी धार्मिक विश्वासों पर प्रतिबंध लगाता है, कुछ देश कुछ विश्वासों पर प्रतिबंध लगाते हैं और ज्यादातर देश डरते हैं कि कहीं सत्य सत्ताधारी न हो जाए और लोग सत्य स्वीकार न कर लें, जो उनके राज के लिए खतरा है। संक्षेप में कहूँ तो, किसी जगह पर परमेश्वर जितना अधिक कार्य करता है और जितना अधिक सत्य व्यक्त करता है और किसी कलीसिया में पवित्र आत्मा का कार्य जितना अधिक होता है, विभिन्न सरकारों द्वारा उनकी निगरानी करने और उन्हें शत्रुता से देखने की संभावना उतनी ही ज्यादा हो जाती है। इसलिए, सरकारें कलीसिया की स्थिति को समझने के लिए अक्सर एजेंटों को सच्चे मार्ग की खोजबीन करने वाले लोगों के भेस में भेजती हैं, ताकि कलीसिया की गतिविधियों की निगरानी कर सकें। इसके अतिरिक्त, अन्य चिंताओं के अलावा वे कलीसियाई कार्य की प्रवृत्तियों को समझने का प्रयास करती हैं, यह देखने के लिए कि क्या कलीसिया राजनीति में शामिल है, क्या यह कलीसियाई कार्य करने की आड़ में कुछ राजनीतिक गतिविधियों में भाग तो नहीं लेती है, या क्या विदेशी धार्मिक शक्तियों से इसके कोई संबंध हैं। ये वे चीजें हैं जिनको वे समझना चाहती हैं और जिनके बारे में वे चिंतित रहती हैं। यही नहीं, कलीसिया की वित्तीय स्थिति भी एक ऐसी चीज है जिसे वे समझना चाहती हैं। वे विचार करती हैं : “इस कलीसिया में लोगों की संख्या बढ़ गई है और यह तेजी से विकसित हुई है—इसका पैसा कहाँ से आता है? कौन-से संगठन या धनी व्यक्ति उन्हें दान देते हैं?” संक्षेप में कहूँ तो, ऐसी कोई भी चीज नहीं है जिस बारे में हम नहीं सोचें कि इस पर उन्होंने विचार नहीं किया है। क्यों? क्योंकि वे बुरे हैं; वे बुरे इंसान हैं। कलीसिया की स्थिति को समझने के उनके प्रयास कलीसिया के अस्तित्व को लेकर उनकी अत्यधिक चिंता से निकलते हैं, उन्हें डर है कि कलीसिया ज्यादा लोगों को प्रभावित कर सकती है, जो उनके राज्य के लिए खतरा पैदा करेगा; कलीसियाके संबंध में वे ठीक इसी बात को लेकर चिंतित रहते हैं। कलीसिया द्वारा हाथ में लिया गया कार्य चाहे जितना भी उचित और जायज क्यों न हो, वे फिर भी यकीन नहीं करते। क्यों? क्योंकि वे छद्म-विश्वासी, नास्तिक और भौतिकवादी हैं—भौतिकवादी लोग बस यही कर सकते हैं। ये चार स्थितियाँ हैं जिनके बारे में वे चिंता करते हैं। हमने अभी ऐसे व्यक्तियों की चिंताओं के पीछे के कारणों और उद्देश्यों को समझने के बाद उनसे निपटने के उचित तरीके से संबंधित दो सिद्धांतों पर संगति की। इन सिद्धांतों का सरल सारांश प्रस्तुत करो और उनके बारे में बताओ। (अगर वे कलीसिया में बाधाएँ उत्पन्न करें, तो उन्हें दूर कर दो; अगर वे बाधाएँ उत्पन्न न करें, तो उनके बारे में परेशान होने की जरूरत नहीं है।) अगर वे बाधाएँ उत्पन्न करें, हर जगह जासूसी करें और दहशत फैलाएँ, तो बिना किसी दया के उन्हें दूर कर दो; अगर वे बाधाएँ खड़ी न करें, और ज्यादातर लोगों का ध्यान उन पर न जाए या वे उन्हें पहचान न सकें, तो उनकी अनदेखी करो। एक बार जब वे स्पष्ट रूप से देखेंगे कि यह सचमुच कलीसियाई कार्य है, ये पूरी तरह से धार्मिक गतिविधियाँ हैं और राजनीति में बिल्कुल शामिल नहीं हैं, तो इस बात की पुष्टि होते ही वे अपने आप चले जाएँगे। धार्मिक स्थितियों को समझने के लिए लोकतांत्रिक देश यह तरीका अपनाते हैं। इस बात का पहले भी जिक्र किया जा चुका है कि मानवजाति अत्यंत जटिल है। मानवजाति की जटिलता का कारण क्या है? क्या यह मानवजाति की बुराई से उत्पन्न नहीं हुई है? (हाँ।) मानवजाति की बुराई का उद्गम कैसे हुआ? ऐसा क्यों है कि मानवजाति बुरी है? इस कारण से कि शैतान ने मानवजाति को बहुत गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है। इसे सरल भाषा में कैसे कहा जाता है? ऐसे कि शैतान ने लोगों को राक्षसों में बदल दिया है; पूरी मानवजाति दानवों के राज्य के अधीन है, जहाँ बहुत सारे बड़े और छोड़े दानव हैं, इसलिए लोग जहाँ सभाएँ करते हैं वे राक्षसों के शहर बन गए हैं। जब बहुत-से राक्षस एक साथ सभा करते हैं, तो स्थिति जटिल हो जाती है; वे हर प्रकार के बुरे कर्म करने और हर तरह की नापाक गतिविधियों में संलग्न होने में सक्षम होते हैं। क्योंकि सभी दानव बुरे होते हैं, और उनके बीच हमेशा संघर्ष होता है और वे एक-दूसरे के साथ कभी संगत नहीं हो सकते, इससे मामले पेचीदा हो जाते हैं। जब परमेश्वर में सच्चे दिल से विश्वास रखने वाले लोग एक साथ आते हैं, तो यह बहुत आसान होता है; वे सब परमेश्वर के वचन पढ़ने और कलीसियाई जीवन जीने को तैयार होते हैं, और उन सभी को अपने कर्तव्य निभाने और उचित कामों में संलग्न होने में आनंद आता है। वे कुटिल और नापाक गतिविधियों में भाग नहीं लेते—ज्यादा से ज्यादा हो सकता है कि वे थोड़ी भ्रष्टता प्रकट करें। केवल ऐसे ही लोग परमेश्वर में आस्था के जरिए उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। दानव कभी भी परमेश्वर में आस्था के जरिए बचाए नहीं जा सकते क्योंकि कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती। दानव दशकों या शताब्दियों तक भी परमेश्वर में विश्वास रख लें, तो भी वे नहीं बदलेंगे, जो ऐसा तथ्य है जो सभी को दिखाई देता है। अब, बहुत-सी कलीसियाओं ने उन लोगों को दूर कर दिया है जो दानव हैं, जो एक अच्छी बात है और पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों से मेल खाती है। कुछ कलीसियाओं में आधे लोग दानव होते हैं, जबकि दूसरी कलीसियाओं में दानव कम संख्या में होते हैं। क्या ऐसी कलीसियाओं में कलीसियाई कार्य को क्रियान्वित करना आसान है? निश्चित रूप से नहीं। अगर दानवों को दूर कर दिया जाए और सिर्फ भ्रष्ट मानवजाति ही रह जाए, तो कलीसियाई कार्य करना बहुत आसान हो जाता है। सबसे दयनीय स्थिति तब होती है जब कुछ कलीसियाओं में झूठे अगुआ या मसीह-विरोधी सत्ता में होते हैं और दानव अगुआई की भूमिका में होते हैं; फिर उन कलीसियाओं में परमेश्वर के चुने हुए लोग वास्तव में पीड़ित होते हैं। तुम्हीं बताओ, क्या सत्ता में बैठे झूठे अगुआ या मसीह-विरोधी परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए शांति और आनंद ला सकते हैं? झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के ख्याल और विचार पूरी तरह से बुरे और सत्य के विपरीत होते हैं। अगर दस-बीस जीवित राक्षस उनका समर्थन करते हों, तो ऐसी कलीसिया में रहना ऐसी जगह रहने जैसा है जहाँ राक्षस इकठ्ठा होते हैं, किसी दानवराज द्वारा नियंत्रित राक्षसों की मांद में रहने जैसा है; यह किसी कीमा बनाने की मशीन के भीतर रहने जैसा है, जो तुम्हारे मन और आत्मा दोनों को बेचैन कर देगा। हर दिन तुम्हारे विचारों पर ऐसी चीजें हावी होंगी जैसे किससे लड़ना-झगड़ना है, किससे मित्रता करनी है और किसके करीब होना है, किससे बचना और सतर्क रहना है, वगैरह-वगैरह; तुम्हारे पास शांति का माहौल भी नहीं होगा, निरंतर लेशमात्र भी सुकून के बिना, भय और घबराहट में जियोगे। क्या यह कीमा बनाने की मशीन में रहने जैसा नहीं है? (हाँ, है।) यह बुरा समाज, यह बुरी मानवजाति प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक समूह या संगठन से एक ही तरह से पेश आती है, सभी पर एक ही राय और दृष्टिकोण लागू करती है। इसी तरह से वे कलीसिया के प्रति भी बेचैन होते हैं, जोकि एक अपेक्षाकृत सकारात्मक संस्था है, और वे उसे भी नहीं छोड़ते। चाहे जो हो, हम उनसे जिस ढंग से पेश आते हैं, वह सिद्धांतयुक्त होता है, है ना?
परमेश्वर में विश्वास रखने के नौवें उद्देश्य—कलीसिया की निगरानी करना—पर अब पूरी तरह से संगति की जा चुकी है, और अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी की पहली श्रेणी की पूरी विषयवस्तु पर भी मूल रूप से संगति की जा चुकी है। परमेश्वर में विश्वास रखने के छद्म-विश्वासियों और नास्तिकों के उद्देश्यों के सारांश में मूल रूप से ये मुद्दे शामिल होते हैं। अंतिम उद्देश्य जिस पर संगति की गई थी वह विषयवस्तु के मामले में पिछले उद्देश्यों से थोड़ा भिन्न है। जब कलीसिया की निगरानी करने वाले लोग कलीसिया में घुसपैठ करते हैं तो वे मुफ्त भोजन, रुतबे या जीवन और काम की सुख-सुविधाओं के पीछे नहीं भागते हैं, बल्कि वे राजनीतिक उद्देश्य लेकर आते हैं। उनके उद्देश्य चाहे जो भी हों, एक बार जब हम उनकी असलियत समझ कर उन्हें पहचान लेते हैं, तो हमें तुरंत उचित कार्यवाही करनी चाहिए, इन व्यक्तियों को बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए, उन्हें कलीसिया में ज्यादा समय तक घात लगाकर बैठे रहने की बिल्कुल भी अनुमति नहीं देनी चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए यह एक महत्वपूर्ण काम है। परमेश्वर में विश्वास रखने के उनके उद्देश्य के आधार पर, पहचानो और तय करो कि कौन सच्चे भाई-बहन—परमेश्वर के चुने हुए लोग—हैं और कौन विभिन्न प्रकार के बुरे लोग हैं जिन्हें कलीसिया को बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए; इन बुरे लोगों की तुरंत पहचान करो, और फिर उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित करने के लिए तुरंत अनुकूल तरीका अपनाओ। बुरे लोगों के विभिन्न प्रकारों को पहचानने और श्रेणीबद्ध करने की पहली श्रेणी है : परमेश्वर में विश्वास रखने का किसी का उद्देश्य। हमने इस पर अपनी संगति समाप्त कर ली है।
II. किसी की मानवता के आधार पर
अब हम दूसरी श्रेणी की ओर बढ़ते हैं, जो उनकी मानवता है। किसी व्यक्ति की मानवता की अभिव्यक्तियों के जरिए हम यह पहचानते और निर्धारित करते हैं कि क्या वह व्यक्ति सचमुच परमेश्वर में विश्वास रखता है और क्या वह कलीसिया में बने रहने लायक है। अगर मानवता की अपनी अभिव्यक्तियों और खुलासों और अपनी मानवता के सार के आधार पर वे सच्चे भाई-बहन न हों, कलीसिया में रहने के लिए उपयुक्त न हों, उनकी मौजूदगी भाई-बहनों को बाधित करती हो, और—अपने व्यवहार के आधार पर—वे उन लोगों से संबंधित हों जिन्हें कलीसिया से बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए, तो कलीसिया को इन व्यक्तियों को बहिष्कृत या निष्कासित करने के लिए तदनुरूप योजनाएँ तेजी से तैयार करनी चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी पर संगति हर तरह के बुरे लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित करने को लेकर है। मानवता के चश्मे से देखा जाए तो इन व्यक्तियों की मानवता निश्चित रूप से खराब और बुरी है; सरल भाषा में कहूँ तो, वे बिल्कुल अच्छे नहीं हैं। उनकी मानवता की अभिव्यक्तियों के आधार पर उन्हें कलीसिया से बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए, ताकि उन्हें कलीसिया में गड़बड़ी पैदा करना और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के कलीसियाई जीवन और उनके कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित करना जारी रखने से रोका जा सके। तो किन अभिव्यक्तियों के जरिए हम किसी व्यक्ति की मानवता अच्छी या बुरी होने का फैसला लेते हैं और इस तरह निर्णय करते हैं कि क्या कलीसिया को उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए? दूसरी श्रेणी—मानवता—को सारांशित करने पर, उसमें भी अनेक बिंदु हैं, लेकिन चलो पहले हम प्रथम बिंदु पर संगति करें।
क. तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करना
पहला बिंदु उन लोगों के बारे में है जो तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करते हैं। तुम सबने यकीनन इस प्रकार के व्यक्ति को अक्सर देखा होगा। तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करने की मुख्य अभिव्यक्ति क्या होती है? यह बिना सिद्धांतों के बोलना है, हमेशा मंसूबों और उद्देश्यों के साथ विवाद भड़काना है, जिससे प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। स्पष्ट रूप से, इन लोगों की कथनी में गंभीर समस्याएँ होती हैं जिनकी जड़ें उनके खराब स्वभाव और मानवता की कमी में होती हैं, जिसके कारण वे तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करते हैं। इस शब्द के परिप्रेक्ष्य से देखें तो “तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने” का मतलब अक्सर यह दावा करना है कि जो तथ्य है वह झूठ है, और जो झूठ है वह तथ्य है; यह काले को सफेद और सफेद को काला कर देना है, और यहाँ तक कि तथ्यों को असत्य विवरणों से अलंकृत करना, बेबुनियाद आरोप उछालना, निराधार फैसले करना, और मनमाने ढंग से बोलना भी है। ऐसे लोग चीजों को कभी भी सकारात्मक सकारात्मक रूप से नहीं देखते; उनकी बातों से लोग शिक्षित नहीं होते और लोगों को कोई लाभ या मदद नहीं मिलती। उनके साथ बातचीत करने, जुड़ने और संवाद करने के दौरान, उनको बोलते हुए सुनने की क्रिया से लोगों के दिल अक्सर अंधकार और गंदगी में डूब जाते हैं, यहाँ तक कि वे अपने विश्वास में आस्था तक खो देते हैं, जिससे उनमें परमेश्वर में विश्वास रखने का रुझान नहीं रह जाता और वे आध्यात्मिक भक्ति कार्यों और सभाओं के दौरान अपने मन को शांत नहीं कर सकते। वे अक्सर सही और गलत के दावों और ऐसे व्यक्तियों द्वारा फैलाई गई अफवाहों से मन और आत्मा में अशांत हो जाते हैं, और वे हर किसी को प्रतिकूल दृष्टि से से देखने लग जाते हैं और दूसरों में खामियों के अलावा कुछ भी नहीं देखते। अक्सर, तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करते हुए सुनने के बाद लोगों की सामान्य सोच बाधित हो जाती है और मामलों पर उनके सही दृष्टिकोण भी बाधित हो जाते हैं जिससे उनके लिए यह पहचान कर पाना कठिन हो जाता है कि क्या सही है और क्या गलत। जो लोग पहचान नहीं कर पाते, वे अनजाने ही तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने वाले लोगों की कही हुई कुछ बातों के कारण अक्सर बहक जाते हैं और प्रलोभन में पड़ जाते हैं। वे सोचते हैं, “उन लोगों ने किसी को हानि नहीं पहुँचाई है, वे सभाओं में सामान्य ढंग से भाग लेते हैं, कभी-कभी वे दान-धर्म और दूसरों की मदद भी करते हैं और उन्होंने कोई खराब काम नहीं किया है।” लेकिन ऐसे व्यक्तियों के साथ उनकी बातचीत के परिणाम अक्सर ये होते हैं कि वे सही और गलत के मुद्दों में और प्रलोभन में फँस जाते हैं, और वे लोगों के बीच भावनात्मक उलझनों की मझधार में और अनुचित अंतर्वैयक्तिक संबंधों की मझधार में फँस जाते हैं। ये लोग जो तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करते हैं, लोगों के बीच के उपयुक्त संबंधों को बाधित करने और लोगों के मन के भीतर की विशुद्ध समझ को नष्ट करने की विशेषज्ञता रखते हैं। उनकी दृष्टि में जो भी व्यक्ति आपस में अच्छा रिश्ता रखते हैं और जो एक-दूसरे का सहारा और मददगार हो सकते हैं, वे उनके गुप्त हमलों और आलोचनाओं का निशाना बन जाते हैं। उसी तरह, जो भी व्यक्ति अपना कर्तव्य थोड़ी वफादारी से निभाता है और खुद को थोड़ा-बहुत खपाता है, वह भी उनके हमलों का निशाना बन जाता है। कोई चीज चाहे कितनी भी अच्छी या सकारात्मक क्यों न हो, वे उसे बदनाम करने के तरीके ढूँढ़ लेते हैं। वे हर चीज के बारे में अप्रत्यक्ष आलोचनाएँ करते हैं, हर मामले पर टिप्पणी करते हैं और सभी मुद्दों पर अपने दृष्टिकोण रखते हैं। ये दृष्टिकोण बिल्कुल भी सच्चे दृष्टिकोण नहीं होते; बल्कि वे बकवास करते हैं, सच्चे तथ्यों और झूँठों के बीच भ्रम पैदा करते हैं और काले को सफेद और सफेद को काला करते हैं; यहाँ तक कि, किसी लक्ष्य को प्राप्त करने की खातिर या लोगों के बीच कलह के बीज बोने के लिए या कुछ लोगों को बदनाम करने के लिए वे तथ्यों को झूठे विवरणों से अलंकृत करके और निराधार आरोप लगाकर जान-बूझकर और लापरवाही से बातें गढ़ने की हद तक चले जाते हैं और बिना बात का बतंगड़ बनाते हैं। जो लोग तथ्यों से अनजान होते हैं, वे उन्हें बोलते हुए सुनकर सोचते हैं कि उनके दावे उचित लगते हैं और संभवतः झूठे नहीं हो सकते और इस तरह गुमराह हो जाते हैं। इस प्रकार का व्यक्ति जो तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करता है, वह हर सकारात्मक मामले की अप्रत्यक्ष आलोचना करता है। क्या यह इस कारण से है कि उसमें न्याय की भावना है? (नहीं।) वह उन लोगों के प्रति अवज्ञापूर्ण होता है और उनका आदर नहीं करता, जो सक्रियता से अपना काम करते हैं, जो वफादार होते हैं और उत्साह के साथ खुद को खपाते हैं और जिनमें अंतरात्मा और विवेक होता है। तो इन व्यक्तियों की लापरवाह बातों का कारण क्या है? इसकी जड़ कहाँ है? वे हमेशा तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना क्यों पसंद करते हैं? (क्योंकि उनकी मानवता खराब है।) सही है; यह खराब मानवता के कारण है। अगर उनकी मानवता अच्छी होती तो वे तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत नहीं करते। बोलना अंतरात्मा और तार्किकता पर आधारित होना चाहिए; कोई व्यक्ति हर मोड़ पर विकृत सिद्धांत और पाखंड नहीं उगल सकता। तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने की जड़ खराब मानवता है। ऐसे लोग जो भी बोलते हैं उसमें कड़वाहट होती है; हल्के-फुल्के ढंग से कहूँ तो वे दूसरों के बारे में राय बना रहे होते हैं, लेकिन वास्तव में उनके शब्दों में निंदा करने और शाप देने की द्वेषपूर्ण मंशा के कुछ तत्व होते हैं और भड़कावे, ईर्ष्या, अवज्ञा, नफरत के कुछ संकेत होते हैं, और उनके शब्दों से गिरे हुए लोगों को लात मारने का आभास भी होता है। संक्षेप में कहूँ तो उनकी तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने की यही मुख्य विशेषताएँ हैं। इन विशेषताओं के अलावा, ऐसे लोगों में एक और सामान्य लक्षण होता है : वे उन लोगों से नाराज होते हैं जिनके पास वह होता है जो उनके पास नहीं होता, और वे उन लोगों पर हँसते हैं जिनके पास वह नहीं होता जो उनके पास होता है। क्या उनकी मानवता अच्छी है? (नहीं।) इस प्रकार के व्यक्ति जो उन लोगों से नाराज होते हैं जिनके पास वह होता है जो उनके पास नहीं होता, और जो उन लोगों पर हँसते हैं जिनके पास वह नहीं होता जो उनके पास होता है, वे हर ऐसे व्यक्ति के प्रति इर्ष्यालु होते हैं जो उनसे बेहतर होता है और उसकी पीठ पीछे वे उसकी बुराई करते हैं, उसकी आलोचना और निंदा करते हैं; जबकि अगर कोई उनसे हीन हो, वे उसकी खिल्ली उड़ाते हुए हँसते हैं, उस व्यक्ति का मजाक उड़ाने, उसे ताने मारने और नीचा दिखाने को तैयार रहते हैं। वे किसी भी मामले को सही ढंग से समझ नहीं सकते या सबसे बुनियादी मानवीय नैतिकता के आधार पर उसे देख नहीं सकते। उन्हें किसी के लिए आशीषों की कामना करने की जरूरत नहीं है, न ही उन्हें किसी के लिए यह कामना करने की जरूरत है कि उसका भला हो या उसका मनचाहा काम हो जाए, न यह कामना करने की जरूरत है कि वे सही मार्ग पर चलें; लेकिन, कम-से-कम उन्हें बिना कोई द्वेष पाले दूसरों का सही ढंग से आकलन करना चाहिए—वे इसमें भी विफल होते हैं। उनके तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने के पीछे कारण क्या है? स्पष्ट रूप से, उनकी कथनी के जरिए और दूसरों के प्रति उनके रवैए के जरिए और वे क्या सोचते हैं और अपने दिलों की गहराई में वे दूसरों से किस तरह से पेश आते हैं, इसके जरिए यह स्पष्ट हो जाता है कि इस प्रकार के लोगों की मानवता द्वेषपूर्ण है। हालाँकि इस प्रकार के लोग तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने के लिए सिर्फ अपने मुँह का उपयोग करते हैं, फिर भी इन क्रियाकलापों के पीछे वे उपलब्धियाँ और लक्ष्य होते हैं जो वे हासिल करना चाहते हैं, और साथ ही उनके दिल की गहराई में लोगों और मामलों के प्रति उनके सच्चे नजरिये और रवैए होते हैं। अभी के लिए इस बात को छोड़ दें कि जो लोग तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करते हैं, क्या वे सत्य को अच्छे ढंग से समझते हैं, और क्या वे ऐसे लोग हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं, अपनी मानवता के इस लक्षण—तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करना—के आधार पर, क्या वे कलीसिया के भाई-बहनों पर कोई अच्छा, प्रेरणाप्रद या सकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं? (नहीं।) बिल्कुल नहीं!
आओ कुछ विशिष्ट उदाहरणों पर गौर करें कि तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने वाले लोगों में किस प्रकार की अभिव्यक्तियाँ होती हैं। उदाहरण के लिए मान लो कि एक बहन है जिसका परिवार बहुत धनाढ्य है लेकिन सुसमाचार का प्रचार करने और परमेश्वर के बारे में गवाही देने की खातिर, उस महिला ने दैहिक सुख को त्याग दिया है और अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ दिया है। मुझे बताओ, सामान्य लोग इस स्थिति को किस तरह से देखेंगे? क्या वे उसकी सराहना और उससे ईर्ष्या नहीं करेंगे? कम से कम, वे सोचेंगे कि अपना कर्तव्य करने के लिए दैहिक सुख को त्याग देने में सक्षम होने के लिए वह बहन प्रशंसनीय है और अनुकरणीय है। लेकिन जो लोग तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करते हैं, वे उस पर कैसी टिप्पणी करते हैं? वे कहते हैं, “वह सारा दिन बाहर जाकर सुसमाचार का प्रचार करने के लिए एक अमीर इंसान का जीवन छोड़ रही है; अगर वह यों ही करती रही तो देर-सवेर उसका पति उसे लात मार कर निकाल देगा! क्या परमेश्वर में विश्वास रखना केवल आशीष प्राप्त करने और मजे लेने के बारे में नहीं है? उसे देखो, आशीष पाकर भी वह नहीं जानती कि उनके मजे कैसे लें, मन लगाकर अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपने परिवार और करियर को त्याग रही है; क्या यह बेवकूफी नहीं है? अगर मेरा परिवार इतना धनी होता तो मैं बस घर बैठ कर मजे लेता।” मुझे बताओ, क्या उन शब्दों में एक भी वाक्य ऐसा है जो मानवता के अनुरूप है, जो दूसरों को शिक्षित करता है? (नहीं।) जो लोग पहचान कर सकते हैं, वे यह सुनकर सोचेंगे, “क्या यह तथ्यों को विकृत करना नहीं है? किसी विश्वासी के लिए खुद को परमेश्वर के लिए खपाने के लिए हर चीज का त्याग करना और भौतिक सुखों के पीछे न भागना सहज रूप से सकारात्मक चीज है, लेकिन ये इस बात की निंदा कर रहे हैं।” अगर कोई व्यक्ति जो पहचान नहीं कर सकता, वह यह सुने तो गुमराह और बाधित हो जाएगा; परमेश्वर में विश्वास रखने का उसका जोश और चीजों को त्याग देने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए खुद को खपाने का उसका उत्साह तुरंत कम हो जाएगा। हालाँकि जो लोग तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करते हैं, वे कम ही शब्द बोलते हैं, मगर दूसरों पर उनसे पड़ने वाला नकारात्मक प्रभाव जबरदस्त होता है, जो किसी को कुछ समय के लिए निराश महसूस करवाने और उसे वापस ठीक नहीं होने देने के लिए काफी होता है। क्या बात ऐसी नहीं है? (हाँ, है।) प्रशंसनीय प्रतीत होने वाले सिर्फ थोड़े-से शब्द सुनने पर कुछ लोगों में जहर भर सकता है। इससे ऐसे जहरीले शब्द बोल सकने वाले लोगों की मानवता के बारे में क्या पता चलता है? (यह खराब है।) क्या उनके शब्दों में ऐसा कोई वाक्य है जिसे सुनने पर किसी की आस्था बढ़ सकती है? (नहीं।) ये तमाम शब्द क्या हैं? मोटे तौर पर कहूँ तो ये तमाम शब्द छद्म-विश्वासियों के हैं; एक भी वाक्य उन लोगों द्वारा नहीं बोला जाना चाहिए जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। अधिक विशिष्ट रूप से कहूँ तो इन लोगों द्वारा बोला गया एक भी वाक्य लेश मात्र भी मानवता को नहीं दर्शाता है। मानवता के अभाव का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है नैतिक मूल्यों का नहीं होना। नैतिक मूल्यों के अभाव का क्या अर्थ है? बहन के पास अच्छी जीवन स्थितियाँ और एक धनाढ्य परिवार है, और इन लोगों का रवैया क्या होता है? क्या यह महज ईर्ष्या होती है जिसके बाद शुभकामनाएँ होती हैं और फिर आगे बढ़ जाया जाता है? (नहीं।) तो फिर उनका रवैया क्या होता है? ईर्ष्या, आक्रोश, गुस्सा और अपने दिलों में शिकायतें पालना : “क्या वह महिला इतना पैसा पाने के योग्य है? मेरे पास इतना पैसा क्यों नहीं है? परमेश्वर उसे क्यों आशीष देता है, मुझे क्यों नहीं?” वह बहन धनी और समृद्ध है, इसलिए वे सच्ची सराहना या शुभकामना के एक भी शब्द के बिना उससे ईर्ष्या और नफरत महसूस करते हैं। यह सबसे बुनियादी नैतिक मूल्यों का भी पूर्ण अभाव दर्शाता है। बहन अमीर है इसलिए वे उसके प्रति नफरत पालते हैं, इस बिंदु तक कि वे उसकी संपत्ति लूटने या उसे धोखा देकर सब-कुछ ले लेने की कोशिश करते हैं। इसके अलावा, यह बहन एक धनी परिवार में रहती है, फिर भी वह अच्छी जीवन स्थितियों और भौतिक सुख-सुविधाओं को छोड़ कर अपना कर्तव्य निभाने के लिए जाने में सक्षम है; परमेश्वर के किसी विश्वासी के लिए यह बधाई योग्य चीज है, यह सराहना और ईर्ष्या योग्य है। लोगों को उसे शुभकामनाएँ देनी चाहिए और उसके करीब आने और उसका अनुकरण करने का प्रयास करना चाहिए। लेकिन क्या इन लोगों के पास जो तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करते हैं, ऐसा कुछ कहने के लिए होता है? (नहीं।) वे किस तरह बोलते हैं? प्रत्येक वाक्य में कर्कश शब्द और नफरत का संकेत होता है। वे ऐसा क्यों बोल सकते हैं? इस कारण से कि वे अपनी ही स्थिति से नाखुश और असंतुष्ट होते हैं, गुस्सा पालते हैं और इस तरह वे अपना गुस्सा इस अमीर बहन पर निकालते हैं। परमेश्वर के विश्वासी के रूप में, किसी को खास तौर पर ऐसे लोगों की प्रशंसा और सराहना करनी चाहिए और उनसे सीखना और उनका अनुकरण करना चाहिए जो सक्रियता से अपना कर्तव्य निभाने और सत्य का अनुसरण करने में सक्षम होते हैं। बहन की खूबियों से सीखकर अपनी कमजोरियों की भरपाई करने के बजाय ये लोग बेवकूफ कहकर उसका मजाक उड़ाते हैं, और यह भी उम्मीद करते हैं कि उसका पति उसे तलाक दे देगा; वे उसका पतन देखने को आतुर हैं। अगर उस बहन को उसका पति सचमुच तलाक दे दे तो फिर क्या वे खुशी महसूस नहीं करेंगे? क्या उनकी इच्छा पूरी नहीं हो जाएगी? यह उनकी सच्ची भावनाओं और साथ ही उनकी मंशा और प्रयोजन को भी दर्शाता है। वे दूसरों का शुभ नहीं चाहते; अच्छा काम करने वाले या उनसे बेहतर किसी भी व्यक्ति को देखकर वे ईर्ष्या और गुस्से से भर जाते हैं। परमेश्वर में किसी की आस्था चाहे कितनी भी सशक्त क्यों न हो, अगर वह व्यक्ति उनसे बेहतर हो, तो बात बिल्कुल नहीं बनेगी। उनमें बिल्कुल भी मानवता नहीं होती और वे आशीष का या शिक्षित करने वाला एक भी शब्द बोलने में अक्षम होते हैं। वे ऐसे शब्द क्यों नहीं बोल सकते? क्योंकि उनकी मानवता बहुत बुरी है! ऐसा नहीं है कि वे बोलना नहीं चाहते या उनके पास सही शब्द नहीं हैं; बल्कि बात यह है कि उनके दिल ईर्ष्या, गुस्से और आक्रोश से भरे हुए हैं जिससे उनके लिए आशीष के शब्द बोलना नामुमकिन हो जाता है। तो फिर क्या यह तथ्य कि उनके दिल ऐसी भ्रष्ट चीजों से भरे हुए हैं, यह संकेत दे सकता है कि उनकी मानवता द्वेषपूर्ण है? (हाँ।) यह संकेत दे सकता है। उनके ऐसे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने के कारण दूसरों के लिए पहचान पाना आसान हो जाता है, और दूसरे उनके भ्रष्ट सार की असलियत समझ सकते हैं।
एक और उदाहरण प्रस्तुत है। एक बहन थी जिसका परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले, हमेशा अपनी जेठानी से झगड़ा होता रहता था। बाद में, उन दोनों ने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया और परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने के जरिए उन दोनों ने कुछ सत्यों को समझ लिया। उन्हें एहसास हुआ कि व्यक्ति को कैसा आचरण करना चाहिए और दूसरों के साथ कैसे मिल-जुलकर रहना चाहिए, और जैसे-जैसे उनकी भ्रष्टता का खुलासा हुआ, वे एक-दूसरे के सामने खुलने और खुद को जानने की कोशिश करने में सक्षम हो सकीं जिससे उनका रिश्ता अधिक सामंजस्यपूर्ण हो गया। कुछ लोग उनसे ईर्ष्या कर कहने लगे, “उन्हें देखो, परिवार के तमाम लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और जेठानी-देवरानी बिल्कुल सगी बहनों जैसी हैं। क्या यह सब परमेश्वर में उनकी आस्था के कारण नहीं है? गैर-विश्वासियों के परिवार मिल-जुलकर बिल्कुल नहीं रह सकते, हमेशा वे, यहाँ तक कि एक ही माँ से जन्मे भाई-बहन भी, एक-दूसरे से लड़ते और होड़ करते रहते हैं। विश्वासी काफी बेहतर होते हैं; जेठानी-देवरानी भले ही सगी बहनें नहीं होतीं, लेकिन जब तक वे परमेश्वर में विश्वास रखती हैं, समान लक्ष्यों का अनुसरण करती हैं, एक ही मार्ग पर चलती हैं और एक ही भाषा बोलती हैं, तब तक उनकी भावनाएँ एक-दूसरे के अनुकूल होती हैं, जो अद्भुत है!” यह दर्शाता है कि जो लोग परमेश्वर में सच्चे दिल से विश्वास रखते हैं, वे गैर-विश्वासियों से भिन्न होते हैं। विभिन्न परिवारों के लोग सामान्य लक्ष्यों और अनुसरणों के साथ एक साथ आते हैं, परमेश्वर के घर में और परमेश्वर के सामने सुसंगत होते हैं। यह कहने का उद्देश्य लोगों को यह जानने देना है कि यह परमेश्वर के वचनों और कार्य का प्रभाव है, परमेश्वर द्वारा लोगों को दिया हुआ अनुग्रह है। यह ऐसी चीज है जो गैर-विश्वासियों के पास नहीं होती और वे इसका आनंद नहीं ले सकते। कम से कम, यह सुनने के बाद किसी को लगेगा कि परमेश्वर में विश्वास रखना और परमेश्वर में आस्था के प्रति अनुकूल धारणा रखना अच्छी बात है। लेकिन जो व्यक्ति तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करता है, उसे इस बारे में क्या कहना है उसे सुनें : “हम्म! तुम देख सकते हो कि वे जेठानी-देवरानी बाहर से मिल-जुलकर रहती हुई-सी लगती हैं, सभाओं के दौरान सब कुछ सामंजस्यपूर्ण लगता है—लेकिन क्या वे कभी-कभी एक-दूसरे से झगड़ती नहीं हैं? तुम नहीं जानते कि वे बुरी तरह से बहस करती थीं!” दूसरे कहते हैं, “उनके पहले विवाद और बहस करने का कारण यह था कि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखती थीं, और सत्य नहीं समझती थीं। अब उनके बीच बहुत अच्छी बनती है! यह इसलिए कि वे दोनों अब परमेश्वर में विश्वास रखती हैं, कुछ सत्य समझती हैं, और संगति में एक-दूसरे से खुल कर बात कर सकती हैं, और अपनी भ्रष्टताओं को जान सकती हैं, और अक्सर अपने कर्तव्य साथ मिलकर निभाती हैं। हालाँकि उनके बीच अभी भी थोड़ा मनमुटाव है, वे आम तौर पर एक-दूसरे से अपनी गलतियाँ स्वीकार सकती हैं, और अपने हर काम में एक-दूसरे से सलाह-मशविरा कर सकती हैं। यह ऐसी चीज है जो कोई भी गैर-विश्वासी हासिल नहीं कर सकता, अपने खून के रिश्ते वालों के साथ भी नहीं।” तब भी, तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति कहता है, “किस परिवार में झगड़े नहीं होते? जेठानी-देवरानी को छोड़ दो, सगी बहनें भी झगड़ती हैं, है ना? अभी जो सामंजस्य उनके बीच दिखाई देता है वह बस दूसरों को दिखाने के लिए है। उनके ससुर की मृत्यु होने दो, मैं यह नहीं मान सकता कि वे विरासत को लेकर नहीं लड़ेंगी! क्या परमेश्वर में विश्वास रखना सिर्फ एक कामना, एक प्रकार की आध्यात्मिक सांत्वना नहीं है? क्या वे इसके कारण इतनी सारी दौलत छोड़ सकते हैं? हो ही नहीं सकता!” क्या इन शब्दों में एक भी ऐसा बयान है जो तथ्यों से मेल खाता है? क्या इनमें लोगों के कल्याण के लिए कोई कामना है, कोई आशीष है? (नहीं।) क्या इनमें दूसरों को परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते देखकर, यह व्यक्तिगत भावना व्यक्त करने वाली कोई चीज है कि परमेश्वर में विश्वास रखना सचमुच अच्छा है? (नहीं।) तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने वालों की नजर में, भाई-बहनों के बीच होने वाले ये व्यक्तिगत परिवर्तन सभी धोखाधड़ी हैं; परमेश्वर में विश्वास रखने से होने वाली सत्य की प्राप्ति और स्वभाव में परिवर्तन सब झूठे हैं; वे यकीन नहीं करते कि परमेश्वर लोगों का शुद्धिकरण कर सकता है, परमेश्वर लोगों को बदल सकता है। उनके शब्दों से कोई न सिर्फ उनके द्वारा लोगों का मनमाना न्याय, नफरत और शाप देख सकता है, बल्कि लोगों पर परमेश्वर के कार्य और वचनों द्वारा प्राप्त प्रभाव के प्रति अविश्वास और इनकार देखा जा सकता है। जेठानी-देवरानी के बीच अच्छा रिश्ता होता है और परमेश्वर में अपने विश्वास के कारण वे साथ होने पर एक दूसरे को सहिष्णुता और धैर्य दिखाती हैं। यह व्यक्ति जो तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करता है, अपने दिल में असहज और असंतुष्ट महसूस करता है और इसलिए वह बहनों के बीच कलह पैदा करने का हर संभव उपाय करने की कोशिश करता है, अगर वह जेठानी-देवरानी के मिलने पर उनमें बहस करवा कर उन्हें लड़वा सके तो खुश हो जाता है। यह किस प्रकार का आचरण है? यह किस प्रकार की मानसिकता है? उसकी मानसिकता को देखते हुए, क्या यह थोड़ा विकृत नहीं है? (हाँ, है।) उसके आचरण के लिहाज से, क्या यह घिनौना नहीं है? (हाँ, है।) फिर भी इस प्रकार के लोग कलीसियाई जीवन में भाग लेते हैं और उन लोगों के बीच जो अपने कर्तव्य निभाते हैं, ऐसे लोगों की कमी नहीं है। ये लोग आम तौर पर “जहरीली जबान” वाले कहे जाते हैं। दरअसल, ऐसा नहीं है कि सिर्फ उनकी जबान जहरीली होती है; उनका आतंरिक संसार बेहद अंधकारमय और जहरीला होता है! भाई-बहन चाहे जितनी भी अच्छी अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा करें, उनकी नजरों में ये सभी कृत्रिम और कल्पनात्मक होती हैं और उनमें कुछ भी विशेष नहीं होता है। परमेश्वर चाहे किसी पर भी न्याय और ताड़ना का कार्य करे जिससे महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त होते हों, जैसे कि वे खड़े होकर अपने अनुभव साझा करने और परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम हो जोते हैं—ये व्यक्ति गहरे में इसका तिरस्कार करते हैं और सोचते हैं, “उसमें इतनी बड़ी बात क्या है? इतने सारे धर्मोपदेश सुनने के बाद, क्या किसी को थोड़ी समझ हासिल नहीं होगी? तुम बस एक अनुभवजन्य गवाही लेख लिखकर संतुष्ट हो जाते हो, स्वयं को एक विजेता समझते हो? मैं देखना चाहूँगा कि जब भविष्य में चीजें बिगड़ जाएँगी, तो क्या तुम तब भी परमेश्वर के बारे में शिकायत करोगे। अगर परमेश्वर तुम्हारे बच्चे को छीन ले, तो मैं देखना चाहूँगा कि तुम रोते हो कि नहीं और क्या तुम तब भी परमेश्वर में विश्वास रख पाते हो!” तुम लोगों को क्या लगता है, उनके दिलों में क्या भरा होता है? क्या यह कामना नहीं होती कि पूरी दुनिया में अराजकता हो, क्या यह डर नहीं होता कि लोग सही रास्ते पर चल रहे हैं? संक्षेप में कहूँ तो किसी के परिवार में चाहे कुछ भी हो जाए, उन्हें उस पर कुछ टिप्पणियाँ करनी ही है, लेकिन वे चाहे कुछ भी कहें, इन सभी लोगों में एक विशेषता होती है, जो यह है कि वे आशा करते हैं कि किसी का भी भला न हो—वे हर किसी के बारे में ऐसी बात करते हैं जैसे कि उनमें कोई गुण है ही नहीं; उन्हें दूसरों के बारे में इस तरह बात करने में खुशी मिलती है जैसे वे कचरा हों और वे दूसरों के दुर्भाग्य पर हमेशा खुश होते हैं। अगर किसी का परिवार धनी हो, तो वे ईर्ष्या, क्रोध और नफरत करने लगते हैं, और अपने दिलों में निरंतर शिकायत करते हैं और कामना करते हैं कि परमेश्वर उस व्यक्ति का धन और उसे प्राप्त अनुग्रह छीनकर उन्हें दे दे। इन लोगों द्वारा लोगों की पीठ पीछे की शिकायतों को सुन पाना असहनीय होता है। क्या वे किसी भी तरह से परमेश्वर के विश्वासियों जैसे हैं? बेशक, इस प्रकार के लोग भेस बदलने में भी माहिर होते हैं। उनके दिल चाहे कितने भी जहरीले और अंधकारमय क्यों न हों, सभाओं में भाई-बहनों की मौजूदगी में वे भी अपनी समझ और अंतर्दिष्टियों पर संगति करेंगे, खुद को छिपाने के लिए शानदार धर्म-सिद्धांत उगलेंगे, अपनी “गौरवशाली,” अच्छी छवि गढ़ेंगे। लेकिन परदे के पीछे, वे इंसानों की तरह बात या कार्य नहीं करते हैं। ज्यादातर लोगों ने यदि इनके साथ बातचीत नहीं की है और वे नहीं जानते कि उनकी सच्ची अभिव्यक्तियाँ क्या हैं या उनके दिलों की गहराई में क्या दबा हुआ है, तो सिर्फ सभाओं में उनको सही ढंग से बोलते सुनकर वे यह पता नहीं लगा पाएँगे कि उनकी मानवता कितनी नीच या दुष्ट है या उनका चरित्र कितना गिरा हुआ है, बल्कि वे उनके बारे में अच्छा भी सोचेंगे। केवल उनके साथ ज्यादा वक्त बिताने और परदे के पीछे के जीवन में उनके क्रियाकलापों और व्यवहारों को समझने के बाद ही लोग धीरे-धीरे उन्हें पहचान पाते हैं और उनसे घृणा महसूस करने लगते हैं। इसलिए, किसी को सिर्फ सभाओं में उसके द्वारा बोले गए मीठे शब्दों के आधार पर नहीं पहचानना चाहिए; परदे के पीछे के जीवन में उसके क्रियाकलापों और शब्दों की भी जाँच-परख करनी चाहिए ताकि उसके सार और वास्तविक चेहरे की असलियत देख सके।
जो लोग तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करते हैं, उनकी इंसानों की तरह नहीं बोलने के अलावा एक और विशेषता भी होती है : वे हर व्यक्ति और हर चीज पर टिप्पणी करना चाहते हैं, उन पर भी जिनसे वे अपिरचित होते हैं या जिनके साथ उन्होंने पहले कभी बातचीत नहीं की है, और दूसरे लोगों के जीवन की छोटी-से-छोटी बात को भी नहीं छोड़ते। उनके टिप्पणी करने का परिणाम यह होता है कि कोई चीज चाहे कितनी भी सकारात्मक क्यों न हो, उनकी बातों से वह नकारात्मक चीज में बदल जाती है; कोई चीज चाहे कितनी भी सही क्यों न हो, उनके घिनौने होंठों से गुजरने पर वह नकारात्मक चीज में विकृत हो जाती है। इससे उन्हें खुशी मिलती है, जिससे वे अच्छी तरह खा-पी सकते हैं और गहरी नींद सो पाते हैं। मुझे बताओ, यह किस प्रकार का प्राणी है? उदाहरण के लिए, अगर कुछ भाई-बहनों को इस वर्ष अच्छी आमदनी हुई है और वे आर्थिक रूप से बेहतर हैं—वे थोड़ी ज्यादा भेंट चढ़ा रहे हैं, दसवें हिस्से से ज्यादा—तो वे ईर्ष्यालु हो जाते हैं और कहते हैं, “तुम इस वर्ष इतनी ज्यादा भेंट क्यों चढ़ा रहे हो? परमेश्वर किसी व्यक्ति के अच्छे या बुरे होने का निर्धारण इस बात से नहीं करता कि तुम कितनी भेंट चढ़ाते हो। तुम्हारी आतुरता का क्या तुक है? परमेश्वर के घर में पैसे की कमी नहीं है।” अप्रिय शब्द फिर बाहर आ जाते हैं, है ना? उचित या सत्य के अनुरूप कोई चीज चाहे कोई भी करे, उन्हें यह आपत्तिजनक लगता है और वे अपने दिलों में घोर नाराजगी महसूस करते हैं। वे तुम पर पकड़ हासिल करने के लिए हर संभव उपाय करते हैं, तुम पर हमला करने, तुम्हें दोष देने और तुम्हारी निंदा करने के बहाने ढूँढ़ते रहते हैं, जब तक कि वे तुम्हें परास्त न कर दें और तुम्हारी सकारात्मकता को ठोक-पीट कर बाहर न निकाल दें जिससे तुम पूरी तरह भ्रमित हो जाओ और क्या सही है और क्या नहीं, यह भेद करने में असमर्थ हो जाओ। फिर वे खूब हँसते हैं, भीतर से तुम्हारा मजाक उड़ाते हैं और अपने आप से कहते हैं, “तुम्हारी बस इतनी ही औकात है और तुम अनुभवजन्य गवाही की बात करते हो!” यह दानव है, जो अपना सच्चा रूप दिखा रहा है, है ना? क्या ये शैतान के किसी नौकर, किसी मसीह-विरोधी के शब्द नहीं हैं? (हाँ, हैं।) मैं इस प्रकार के व्यक्ति के बारे में जितना ज्यादा बोलता हूँ, उतना ही क्रोधित और विकर्षित हो जाता हूँ। क्या तुम लोग कभी ऐसे व्यक्तियों से मिले हो? उनका रंग-रूप और चेहरे के लक्षण चाहे जैसे भी हों, वे जब भी तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने वाले होते हैं तो उनके हाव-भाव अजीबोगरीब हो जाते हैं : उनके होंठ मुड़ जाते हैं, आँखें तिरछी हो जाती हैं, वे अब दूसरों से नजरें नहीं मिलाते और कुछ लोगों के नैन-नक्श अपनी जगह से खिसके हुए-से लगते हैं। यह एक संकेत है जो तुम तक पहुँचाया जा रहा है, जो तुम्हें बताता है कि वे अब इंसानों के बजाय किसी और तरह से बोलेंगे। तब तुम क्या करोगे? तुम इस संकेत को प्राप्त करोगे या उसे रोक दोगे? (रोक देंगे।) तुम्हें खुद को उनसे यह कहकर दूर कर लेना चाहिए : “मत बोलो; मैं इसे नहीं सुनना चाहता। तुम बहुत ज्यादा गपशप करते हो। अगर तुम इंसान की तरह नहीं बोलने जा रहे हो तो फिर मुझसे दूर रहो। मैं तुम्हारे द्वारा उत्पन्न किए जा रहे व्यवधानों का शिकार नहीं होना चाहता; मैं इन अनुचित अंतर्वैयक्तिक संबंधों में नहीं फंसना चाहता, मैं तुम जैसे किसी व्यक्ति पर ध्यान नहीं दूँगा।” जाँच-परख करो और देखो कि तुम लोगों में से कौन तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करता है, किसका आचरण ऐसा है और फिर तुरंत उनसे दूर हो जाओ। इन लोगों की मानवता की विशेषता क्या है? यह जहरीले ढंग से बोलना है, या बोलचाल की भाषा में कहें, तो उनके पास “जहरीली जबान” है। उनके जहरीले शब्दों को उजागर करके तुम उनके द्वारा दिए गए विभिन्न बयानों को समझ सकते हो; उनके बयानों के जरिए तुम उनके आतंरिक संसार को देख सकते हो और निर्धारित कर सकते हो कि वास्तव में उनका मानवता सार क्या है और क्या वे बुरे लोग हैं। इस प्रकार के लोग जो तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करते हैं, अपने द्वारा दिए गए विभिन्न संकेतों और बयानों के जरिए दूसरों को उन्हें बुरे लोगों के रूप में स्पष्ट रूप से चिन्हित करने देते हैं। इस प्रकार के लोग बहिष्कृत या निष्कासित किए जाने के मानक पर पूरी तरह से खरे उतरते हैं; उनके प्रति जरा भी दया नहीं दिखाई जा सकती। उन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए और उन्हें कलीसिया के भीतर बाधाएँ डालने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।
हमने अभी-अभी उस प्रकार के लोगों की विशेषताओं पर संगति की है जो तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करते हैं, और परमेश्वर में उनके विश्वास की स्थिति और उनकी मानवता की अभिव्यक्तियों से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि वे उस प्रकार के व्यक्ति हैं जो सत्य से विमुख हैं और जो सत्य से प्रेम नहीं करते हैं। उनकी मानवता इस हद तक बुरी है कि तर्क उनके भीतर प्रवेश नहीं कर सकता और उनमें सबसे बुनियादी मानवीय नैतिकताओं तक की कमी होती है; बात बस इतनी है कि उनके विशेष मामले में उनकी खराब मानवता की विशेषता यह है कि वे खास तौर पर तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करते हैं। वे जो शब्द बोलते हैं उनसे उनकी मानवता की विशेषता और उनके मानवता सार की देखा जा सकता है; स्पष्ट रूप से इस प्रकार के लोग खराब मानवता वाले व्यक्ति होते हैं। उनकी मानवता किस हद तक खराब है? यह बुरी होने की सीमा तक खराब होती है, और इस तरह उन्हें बुरे लोगों के श्रेणी में रख देती है। यह इस कारण से है कि जो शब्द वे आम तौर पर बोलते हैं वे कभी-कभार शिकायती और थोड़ी ईर्ष्या व्यक्त करने वाले या कभी-कभार थोड़ी इंसानी कमजोरी दिखाने वाले नहीं होते; उनकी अभिव्यक्तियाँ एक सामान्य साधारण भ्रष्ट स्वभाव की नहीं होतीं, बल्कि यह साबित करने के लिए पर्याप्त होती हैं कि उन्हें बुरे लोगों के रूप में श्रेणीबद्ध किया जा सकता है। यह प्रथम प्रकार का व्यक्ति है : वे लोग जो तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करते हैं।
ख. फायदा उठाना पसंद करना
दूसरे प्रकार के लोग वे होते हैं जो फायदा उठाना पसंद करते हैं। फायदा उठाना पसंद करने के बारे में संगति करने की बात पर कुछ लोग यकीनन यह सोचकर धारणाएँ रखते हैं, “कौन-सा भ्रष्ट इंसान फायदा उठाना पसंद नहीं करता? यह मानव स्वभाव है; अगर यह बुरे कर्म करना नहीं है, तो थोड़ा फायदा उठाने में इतनी गंभीर बात क्या है?” फायदा उठाना पसंद करना जिस पर हम संगति कर रहे हैं, सामान्य लोगों के फायदा उठाना पसंद करने के दायरे से बाहर तक जाता है—यह बुराई की सीमा तक पहुँच जाता है। कलीसिया में इस प्रकार के काफी सारे लोग होने चाहिए, या कम-से-कम लोगों का एक हिस्सा होना चाहिए। इस बहाने से कि “हम सब भाई-बहन हैं,” वे हर जगह फायदा उठाते हैं, भाई-बहनों के बीच, परमेश्वर के घर में और कलीसिया में फायदा उठाते रहते हैं। वे कौन-से फायदे उठाते हैं? उदाहरण के लिए, अगर उनके परिवार को घर खरीदने की जरूरत हो मगर उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं हैं तो वे उधार लेने के लिए रिश्तेदारों या मित्रों के पास नहीं जाते, न ही वे ऋण लेने के लिए बैंक जाते हैं; वे भाई-बहनों से उधार लेते हैं, यह बताए बिना कि ब्याज कितना देंगे या ऋण कब चुकता करेंगे—वे बस उधार ले लेते हैं। यह कहना कि वे “उधार” ले रहे हैं, बात को अच्छे ढंग से कहना है; सच्चाई यह है कि वे बस ले रहे हैं, क्योंकि वे पैसा चुकता करने या ब्याज देने का कोई इरादा नहीं रखते। वे भाई-बहनों को क्यों निशाना बनाते हैं? वे सोचते हैं कि चूँकि वे सब भाई-बहन हैं इसलिए उन्हें कठिनाई के दौर में मदद करनी चाहिए और अगर कोई मदद न करे, तो वह भाई या बहन नहीं है। इस तरह, वे भाई-बहनों के पास पैसे उधार लेने जाते हैं और ऐसे कारण बताते हैं जिससे भाई-बहनों को लगे कि उन्हें पैसे उधार देना ही सही और उचित है। कुछ दूसरे लोग देखते हैं कि किसी भाई या बहन के परिवार के पास अपनी कार है और वे उस बारे में सोचते रहते हैं, लगातार हर कुछ दिन में उसे उधार माँगते रहते हैं। वे उसे उधार ले लेते हैं मगर लौटाते नहीं हैं, उसमें गैस नहीं भरवाते और कभी-कभार उसमें गड्ढे और खरोंच डाल देते हैं या उससे टक्कर मार देते हैं। वे दूसरों के घर में जो भी बढ़िया भोजन, उपयोगी चीजें या कोई भी मूल्यवान वस्तु देखते हैं तो उसे पाने के लिए लालायित रहते हैं और साजिश रचते हैं, और उसे अपने लिए पाने का लालच करते हैं। वे जिस किसी के भी घर जाते हैं, वहाँ हर जगह खोजते और देखते हुए उनकी आँखें एक चोर की तरह लालच से चमक उठती हैं, वे नजर दौड़ाते हैं कि क्या वे कोई फायदा उठा सकते हैं या क्या कोई चीजें ले जा सकते हैं—गमले में लगा छोटा-सा पौधा भी उनकी पकड़ से नहीं बचेगा। दूसरों के साथ बाहर जाने या बाहर खाना खाने पर, वे कभी भी आने-जाने या खाने का भुगतान करने की पेशकश नहीं करते हैं। जब भी वे कोई बढ़िया चीज देखते हैं, उसे खरीद लेना चाहते हैं, लेकिन जब पैसे चुकाने की बात आती है तो वे अपना बिल का भुगतान करने के लिए किसी दूसरे से कहते हैं और बाद में वे उसे पैसे लौटाने की बात भी नहीं करते; वे सिर्फ फायदा उठाना चाहते हैं, भले ही यह एक पैसा या एक रुपया पाना ही क्यों न हो। अगर तुम बढ़िया चीजें चाहते हो तो उनकी कीमत तुम खुद चुका सकते हो; अगर तुम खुद अपने पैसे नहीं खर्च करना चाहते तो दूसरों का फायदा उठाने की कोशिश भी मत करो और इतने लालची मत बनो; दूसरे लोगों से सम्मान अर्जित करने के लिए तुममें थोड़ी सत्यनिष्ठा होनी चाहिए। लेकिन इस प्रकार के व्यक्ति में सत्यनिष्ठा नहीं होती, वह सिर्फ फायदा उठाना चाहता है और वह जितना ज्यादा फायदा उठाता है उतना ही प्रफुल्लित महसूस करता है। कलीसिया में ऐसे लोगों का उभरना अपमान की बात है या महिमा की? (अपमान की।) यह अपमान की बात है। क्या तुम लोग कहोगे कि उनका इस तरह से फायदा उठाना जरूरी है? क्या यह इस कारण से है कि वे भोजन खरीदने या अपने परिवार के लिए भोजन जुटाने में समर्थ नहीं हैं? बिल्कुल नहीं। दरअसल, उनके पास खर्च करने के लिए पर्याप्त पैसा है और खाने के लिए पर्याप्त भोजन है; बात बस इतनी है कि उनका लालच बहुत ज्यादा है, इस हद तक कि यह उनकी सत्यनिष्ठा छीन लेता है, और इस हद तक कि यह दूसरों में उनके प्रति घृणा और विकर्षण पैदा करता है। क्या ऐसा व्यक्ति अच्छा होता है? (नहीं।) कुछ लोग अपने कर्तव्य करते समय हमेशा फायदा उठाने पर ध्यान देते हैं, थोड़ा-सा भी मौका चूकने पर व्यथित हो जाते हैं और उसके बारे में बात करना जरूरी समझते हैं। कोई काम सौंपे जाने पर वे हमेशा पैसे का विषय उठाते हैं : “एक दौरे पर आने-जाने खर्च इतना होगा, रहने का खर्च इतना होगा और खाने का खर्च इतना होगा, इत्यादि।” उन्हें बताया जाता है, “पैसे की फिक्र मत करो, यह खर्च कलीसिया उठाएगी।” लेकिन पैसे मिल जाने के बाद, वे अपना मुँह फुला लेते हैं और कहते हैं : “यह काफी नहीं है। सिर्फ 200 युआन से मैं वहाँ क्या करूँगा? एक कहावत है, ‘घर में किफायती रहो लेकिन यात्रा करते समय बहुत-से पैसे ले जाओ।’ मुझे थोड़े ज्यादा पैसे ले जाने होंगे; अगर मैंने सारे खर्च नहीं किए तो बचे हुए पैसे कलीसिया को लौटा दूँगा।” जब वे वापस लौट आते हैं तो वे पैसों के बच जाने का जिक्र भी नहीं करते, न ही अपने खर्चों की सूचना देते हैं। वे कलीसिया तक का फायदा उठाने की हिम्मत करते हैं; क्या वे परमेश्वर की भेंटों का गबन करने की हिम्मत करेंगे? (हाँ।) वे किस प्रकार के प्राणी हैं? उनमें सत्यनिष्ठा नहीं है और साथ ही अंतरात्मा और विवेक भी नहीं है। क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को स्वीकृति देगा? कुछ दूसरे लोग नहाने, बाल धोने और कपड़े धोने के लिए सभा स्थलों या मेजबान स्थानों में जाते हैं और कलीसिया की वाशिंग मशीन, वाटर हीटर, शैंपू, कपड़े धोने के डिटरजेंट आदि का उपयोग करते हैं; वे इन सुविधाओं का भी फायदा उठाते हैं, अपनी बचत करने के लिए कलीसिया की चीजों का इस्तेमाल करते हैं। वे सोचते हैं कि क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं इसलिए वे परमेश्वर के घर का हिस्सा हैं और इस तरह परमेश्वर के घर की किसी भी चीज के इस्तेमाल की उन्हें खुली छूट है, वे यह सोचते हैं कि इसका उपयोग नहीं करना, या उसे नहीं लेना या उससे थोड़ा फायदा नहीं उठाना उसे व्यर्थ करना है; और अगर वे इसे तोड़ भी दें तो उसकी भरपाई करने का उनका कोई इरादा नहीं होता। अपनी खुद की चीजों की बात आने पर, वे जानते हैं कि उनका किफायत से उपयोग कैसे करें और सावधानी से उनकी देखभाल कैसे करें, लेकिन वे परमेश्वर के घर के उपकरणों और चीजों का अपनी इच्छानुसार इस्तेमाल करते हैं और यदि वे उन्हें तोड़ देते हैं तो कोई मुआवजा नहीं देते। क्या ये अच्छे लोग हैं? वे यकीनन जरा भी अच्छे नहीं हैं। खास तौर पर ऐसे मामलों में जहाँ कलीसिया को कुछ चीजें खरीदने की जरूरत पड़ती है, वे सक्रियता से स्वयंसेवा करते हैं, और ऐसे काम सँभालने के लिए खास तौर पर इच्छुक रहते हैं। वे इतने आतुर क्यों होते हैं? वे मानते हैं कि इसमें लाभ हासिल किया जा सकता है, फायदे उठाए जा सकते हैं; चीजें खरीदने के बाद बचा हुआ पैसा वे अपनी जेब के हवाले कर देते हैं। वे जिसका भी हो सके फायदा उठाना चाहते हैं, यह सोचते हुए कि ऐसा नहीं करना बर्बादी होगी; वे इस तर्क का पालन करते हैं। अगर वे फायदा नहीं उठा सकते तो भाई-बहनों को कोसते हैं, परमेश्वर के घर को कोसते हैं—वे सभी को कोसते हैं; वे बस एक बुरे राक्षस हैं, बदबूदार भिखारी हैं, हाथों में कार्ड लिए माँगनेवाले हैं जो चालबाजी से लाभ कमाने और फायदा उठाने के लिए हर जगह अपना कटोरा फैलाते रहते हैं। लोग कहते हैं, “तुम हमेशा कुछ-न-कुछ माँगते रहते हो; क्या तुम बस एक बदबूदार भिखारी नहीं हो?” वे जवाब देते हैं, “ठीक है, मुझे कुछ भी पुकारो—कंजूस, कृपण, बदबूदार भिखारी, माँगनेवाला, कंगाल—अगर मैं फायदा उठा सकूँ तो ठीक है।” क्या इस प्रकार के लोगों में कोई सत्यनिष्ठा होती है? (नहीं।) क्या ऐसे लोग भाई-बहनों के लिए एक खास स्तर की बाधा नहीं डालते? खास तौर पर कठिन परिस्थितियों में रहने वाले, कमजोर आर्थिक स्थिति वाले उन परिवारों के लिए क्या ये एक खास स्तर की बाधा और हानि का कारण नहीं बनते? (हाँ।) क्या वे उन लोगों को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकते हैं जो आध्यात्मिक कद में छोटे और विशेष तौर पर कमजोर होते हैं? (हाँ।) उन्हें देखते ही लोग घृणा महसूस करते हैं; उन्हें देखने वाला हर व्यक्ति परेशान हो जाता है, फिर भी वे सब इनकार करने में बेहद शर्मिंदा महसूस करते हैं, इस तरह वे खुद को उनके द्वारा बेहद खुले आम शोषित होने देते हैं। हर कोई जानता है कि वे खराब मानवता और नीच चरित्र के हैं, लेकिन यह विचार करके कि वे सब भाई-बहन हैं और यह देखकर कि कभी-कभी वे कुछ कर्तव्य निभाने में सक्षम हैं और किंचित विश्वास रखते हैं और कभी-कभार अपने घर में मेजबानी करके थोड़ा प्रयास कर सकते हैं—इन चीजों की खातिर, वे जहाँ भी जाते हैं उनके फायदे उठाने के व्यवहार से ज्यादातर लोग आँख फेर लेते हैं और उसे गंभीरता से नहीं लेते। लेकिन कलीसिया में वे जो बाधाएँ पैदा करते हैं वे लगातार तेजी से बढ़ती जाती हैं और ज्यादातर लोगों को बेचैन करने के लिए काफी होती हैं; क्या यह एक समस्या नहीं है? (हाँ, है।) ये लोग भले ही पागल कुत्ते न हों जो हर जगह लोगों को काटते हैं और काट-काट कर मार सकते हैं, वे ऐसे बदबूदार मक्खियों जैसे होते हैं जिनके तंग करने से लोगों को राहत नहीं मिलती। अगर उन्हें बाहर नहीं निकाला गया तो वे अंतहीन बाधाएँ खड़ी करेंगे। कलीसिया में उनका बने रहना लगातार विपत्ति की ओर ले जाएगा, जिससे लोगों की शांति छिन जाएगी। बाधित होने के बाद, लोग काफी चिढ़ जाते हैं, अक्सर ऐसे व्यक्तियों के प्रति विमुखता पाल लेते हैं; फिर भी कोई हल नहीं होने के कारण वे बार-बार बस इसे सहते रहते हैं। वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं? लोगों के बीच ऐसे घिनौने बदमाश भी रहते हैं; ऐसे व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास रखते ही क्यों हैं? वे तो जीवित रहने लायक भी नहीं हैं! हर संभव चीज का फायदा उठाना—कितनी शर्मनाक बात है! केवल उतनी ही भौतिक चीजों का आनंद लो जितनी तुम्हारी क्षमता में है; अगर तुममें क्षमता नहीं है, तो उन चीजों का आनंद मत लो या उन चीजों का गबन मत करो जो दूसरों की हैं। क्योंकि दूसरे लोग कभी-कभी दान के रूप में कुछ चीजें मुफ्त में दे देते हैं इसलिए अगर तुम किसी छोटे मामूली तरीके से फायदा उठाते हो या क्योंकि तुम्हें कोई खास चीज पसंद है या तुम किसी चीज से प्रेम करने लगते हो, तो हर कोई उसे माफ कर सकता है। जैसे कि कहावत है, “गरीबी महत्वाकांक्षा को सीमित कर देती है;” यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। लेकिन अगर तुम हमेशा ऐसे फायदे खोजते रहते हो, बेशर्म और निर्लज्ज होने की सीमा तक, और एक बदबूदार भिखारी बन जाते हो, या सबकी नजरों में किसी पागल कुत्ते या मक्खी में तब्दील हो जाते हो, तो तुम्हें तुरंत बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। इन तमाम मसलों को खत्म करने के लिए इस प्रकार के लोगों से हमेशा के लिए पूरी तरह से निपटा जाना चाहिए।
जो लोग फायदा उठाना पसंद करते हैं उन्हें तुम लोग कितना बरदाश्त कर सकते हो? अगर तुम लोग उन्हें सहन नहीं कर पाते और उनके द्वारा फायदा उठा लिए जाने के बाद तुम्हें लगता है कि तुमने कोई मरी हुई मक्खी निगल ली है—और तुममें से ज्यादातर लोग अनियंत्रित रूप से क्रोधित हो जाते हैं और एक साथ होने पर निरंतर उनके बारे में शिकायत करते रहते हैं—तो इस मुकाम पर, क्या उन्हें पहले ही बाहर नहीं निकाल दिया जाना चाहिए था? (हाँ।) जब यह बरदाश्त के बाहर हो जाता है, जब हद हो जाती है, तो उन्हें बाहर निकालने के लिए हर किसी को एक साथ हो जाना चाहिए। यह परमेश्वर के घर से किसी बला को निकाल देना है, यह ऐसा मामला है जो लोगों को बहुत ज्यादा खुशी देता है। ऐसा व्यक्ति बस एक नीच होता है जो ज्यादातर लोगों के बीच अशांति पैदा करता है। यह एक घातक घटना है जो कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त कर देती है, जिससे लोग इस व्यक्ति से संबंधित समस्या पर संगति कर उसे सुलझाने के लिए एक साथ आने को मजबूर हो जाते हैं। अभ्यास का यह तरीका न्यायोचित है, क्योंकि बुरे व्यक्ति द्वारा पैदा की गई बाधा ने पहले ही कुछ लोगों को नुकसान पहुँचा दिया है। बुरे व्यक्ति को बुरे काम करते रहने से रोकने के लिए, कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था को बनाए रखने के लिए और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को और अधिक नुकसान होने से बचाने के लिए बुरे व्यक्ति का शीघ्र निपटान कर उसे दूर कर देना चाहिए। अगर बाहर निकाल दिए जाने के बाद वे कलीसिया में रिपोर्ट कर सकते हैं तो उन्हें बुद्धिमानी से बताया जाना चाहिए : “तुम्हें बहिष्कृत या निष्कासित नहीं किया जा रहा है। अलग-थलग रहने के लिए घर जाओ और आत्म-चिंतन करो। एक बार तुम उचित ढंग से आत्म-चिंतन कर लो, तो प्रायश्चित्त का एक पत्र लिखो और फिर हम तुम्हारा वापस कलीसिया में स्वागत कर सकेंगे। अभी के लिए, तुम्हें ज्यादा पैसे कमाने और जीवन के मजे लेने की कोशिश करनी चाहिए; इसके अलावा, परमेश्वर में विश्वास रखने के मामले पर विचार करो। इस प्रकार, तुम किसी भी पहलू की अनदेखी नहीं करोगे।” यह कैसा लगता है? (अच्छा।) हम नहीं कहेंगे कि उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित किया जा रहा है; बात बस इतनी है कि आज से यह व्यक्ति कलीसिया में नहीं रहेगा। इससे इस तरह निपटना कैसा रहेगा? (अच्छा है।) बढ़िया है! कोई बहस करने या हिसाब चुकता करने की जरूरत नहीं है, बस एक सरल और साफ हल है, उन्हें दुनिया में काम करने, पैसे कमाने और अपनी जिंदगी जीने के लिए वापस जाने देना है। संक्षेप में कहूँ तो जो लोग फायदा उठाना चाहते हैं उनकी मानवता उतनी महान नहीं है। हालाँकि उसे बुरी नहीं कहा जा सकता, फायदा उठाना पसंद करने का उनका चरित्र उन्हें बहुत गुस्सा दिलाने वाला और घिनौना बना देता है। वे हर संभव अवसर का फायदा उठाते हैं! भले ही ऐसे लोग गैर-कानूनी या अपराधिक गतिविधियों में शामिल न हों, फिर भी उनके क्रियाकलापों और व्यवहारों से कलीसियाई जीवन को आने वाली दीर्घकालिक विघ्न-बाधाएँ—ये दुष्परिणाम—किसी भी बुरे कर्म से अधिक गंभीर होते हैं; वे उन्हें कलीसिया से बाहर निकालने के लिए छद्म-विश्वासियों या बुरे लोगों के रूप में चित्रित करने के लिए पर्याप्त हैं। यह करने से छद्म-विश्वासियों द्वारा कलीसिया में बाधाएँ पैदा करना और भाई-बहनों का उत्पीड़न करना पूरी तरह से बंद हो जाता है।
हमने फायदा उठाना पसंद करने वालों से निपटने के एक विशेष तरीके पर पहले संगति की थी, एक तरीका जो मुख्यभूमि में उत्पीड़न की विशेष परिस्थितियों के आधार पर तैयार किया गया था। विदेशों की कलीसियाओं में उन्हें सीधे बाहर निकाल देना ठीक रहता है। लेकिन, निपटान के तरीके के निशाने पर चाहे जिस भी प्रकार के लोग हों, यह सुनिश्चित करना अनिवार्य है कि यह तरीका सिद्धांतपूर्ण और बुद्धिमत्तापूर्ण दोनों हो। कलीसिया में प्रशासनिक आदेश और नियम होते हैं जिनका लक्ष्य भाई-बहनों के लिए सामान्य कलीसियाई जीवन और कर्तव्य निभाने की सामान्य व्यवस्था की रक्षा करना होता है। अगर कोई भाई-बहनों के कलीसियाई जीवन या उनके कर्तव्य निर्वहन को बाधित करता है तो इसकी अनुमति नहीं होती; ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर ठुकरा देगा। निश्चित रूप से, भाई-बहनों के दैनिक जीवन में किसी भी उत्पीड़न या हस्तक्षेप की अनुमति नहीं होती। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे सुलझाने की जिम्मेदारी अगुआओं और कार्यकर्ताओं की होनी चाहिए। हो सकता है कि भाई-बहनों के रिश्तेदार, मित्र या परिचित व्यक्ति “भाई-बहनों” के बहाने उन्हें फुसलाने और गुमराह करने का प्रयास करते हों और उन्हें अपने कर्तव्य करने से रोकते हों। ऐसे व्यक्तियों से निपटने का उत्तरदायित्व और जिम्मेदारी अगुआओं और कार्यकर्ताओं या भाई-बहनों की होती है। उनके व्यवहार और क्रियाकलाप दूसरों के अपने कर्तव्य करने और परमेश्वर का अनुसरण करने में अवरोध बनते हैं और कलीसियाई कार्य में भी बाधा डालते हैं, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इस स्थिति को सुलझाने और प्रतिबंध लगाने के लिए आगे आना चाहिए। निश्चित रूप से हमारे पास ऐसे व्यक्तियों से निपटने और उन्हें संभालने के उपयुक्त तरीके हैं। पीटने या डाँटने की कोई जरूरत नहीं है; हम बस उन्हें यह स्पष्ट कर देते हैं कि उनकी समस्या का सार क्या है और उनके विरुद्ध परमेश्वर के चुने हुए अधिकतर लोगों के अभियोग और आरोप क्या हैं और अंततः उन्हें बता देते हैं : “तुम्हें बाहर निकालने का निर्णय बहुमत से लिया गया और बहुमत से स्वीकृत निर्णय है। भले ही तुम सहमत हो या नहीं हो, कलीसिया के पास यह निर्णय लेने और उसके अनुसार तुमसे निपटने का अधिकार है। तुम्हें आज्ञा माननी चाहिए।” यह मसला इस तरह हल हो जाता है और ऐसा निपटान पूरी तरह से सिद्धांत पर आधारित है। जो लोग फायदा उठाना पसंद करते हैं उनसे सिद्धांतों के अनुसार पेश आना और निपटना चाहिए। अगर वे तुम्हारा फायदा उठाने के लिए कुछ उधार लेना चाहते हैं तो तुम चाहो तो उन्हें उधार दे सकते हो, या नहीं चाहो तो मना कर सकते हो; फैसला तुम्हारा है। उन्हें उधार देना दयालुता का कार्य है; मना करना तुम्हारा अधिकार है। अगर वे कहें, “क्या हम सब भाई-बहन नहीं हैं? कितने कंजूस हो, कोई चीज उधार देने को भी तैयार नहीं हो!” तो तुम जवाब दे सकते हो : “यह मेरी संपत्ति है और इसे उधार नहीं देना मेरा अधिकार है। यह सिद्धांतों के अनुरूप है। मुझ पर यह कहकर दबाव मत डालो कि ‘हम सब भाई-बहन हैं’; तुम जो कह रहे हो वह सत्य नहीं है। जब परमेश्वर कहेगा, ‘तुम्हें उसे उधार देना ही चाहिए,’ तभी मैं तुम्हें ये उधार दूँगा।” कलीसिया के बहाने से या इस विचार से कि “हम सब विश्वासी हैं और सब भाई-बहन हैं”, निजी संपत्ति को ऐंठने या उधार लेने का किसी को अधिकार नहीं है। क्या यह सत्य है? (हाँ, है।) यह सत्य है। सिर्फ इस सत्य का पालन करके सभी के लिए निष्पक्षता सुनिश्चित की जा सकती है और सभी लोग अपने सच्चे अधिकारों का आनंद ले सकते हैं। लेकिन अगर कोई निजी चीजें ऐंठने या उधार लेने के लिए “परमेश्वर के घर के कार्य की जरूरतों,” “कलीसियाई कार्य की जरूरतों” या “भाई-बहनों की जरूरतों” के बहाने का उपयोग करे तो क्या यह सत्य के अनुरूप है? (नहीं है।) क्या तुम्हें उन अनुरोधों को अस्वीकार करने का अधिकार है जो सत्य से मेल नहीं खाते? (हाँ, है।) और अगर इनकार करने पर कोई तुम पर कंजूस, मक्खीचूस का लेबल लगा दे तो क्या तुम डर जाओगे? (नहीं।) अगर कोई इस बात का बतंगड़ बना दे, दावा करे कि तुम कलीसियाई कार्य का समर्थन नहीं करते या तुम भाई-बहनों से प्यार नहीं करते, जिस कारण से भाई-बहन तुम्हें ठुकरा कर अलग-थलग कर देते हैं तो क्या तुम डर जाओगे? तुम पीछे हट जाओगे। उस पल तुम सोचोगे, “कार उधार देने में क्या बड़ी बात है? कलीसिया, परमेश्वर का घर या भाई-बहन कोई भी इसे उधार ले, ठीक है। भाई-बहनों को नाराज नहीं करना बेहतर है। एक व्यक्ति नाराज हो जाए तो उतना डरावना नहीं है, लेकिन अगर सभी भाई-बहन नाराज हो गए, उनके दिलों में मेरे लिए बेरुखी आ जाए, मुझे वे अलग-थलग छोड़ दें, तो मुझे क्या करना चाहिए?” चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, इसलिए डरने की क्या बात है? उनका तुम्हें अलग-थलग कर देने का यह मतलब नहीं है कि उनके पास सत्य है या उनके क्रियाकलाप सत्य से मेल खाते हैं। सत्य हमेशा सत्य होता है। चाहे बड़ी संख्या में लोग इससे सहमत हों या कम संख्या में, यह सत्य है। सत्य के बिना वह सत्य नहीं है, भले ही कम संख्या वाले लोग बड़ी संख्या वाले लोगों के आगे समर्पण कर दें। यह एक तथ्य है जिसे कोई नकार नहीं सकता। किसी के पास सत्य वास्तविकता है या नहीं यह इस पर निर्भर नहीं करता कि वह कितनी मधुरता से बोलता है, बल्कि इस पर निर्भर करता है कि क्या वह सत्य को अभ्यास में ला सकता है और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकता है। उदाहरण के लिए, तुमने अपना कर्तव्य निभाने के उद्देश्य से एक नया कंप्यूटर खरीदा और कोई यह कहते हुए कि कलीसियाई कार्य के लिए इसकी आवश्यकता है, उसे उधार लेना चाहता है। तुम उसे उधार देने से इनकार करते हो, और वह कहता है : “तुममें प्रेम नहीं है, तुम परमेश्वर से प्रेम नहीं करते, तुम आत्म-बलिदानी नहीं हो। यह छोटा-सा बलिदान भी तुम नहीं कर सकते।” क्या ये शब्द सही हैं? क्या ये सत्य से मेल खाते हैं? (नहीं।) तुम्हें जवाब देना चाहिए : “कंप्यूटर मेरे कर्तव्य निर्वहन के लिए है। मैं फिलहाल अपना कर्तव्य कर रहा हूँ, इसलिए मैं अपने कंप्यूटर के बिना नहीं रह सकता। अगर तुमने मेरा कंप्यूटर उधार ले लिया, तो क्या यह मेरे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित नहीं करेगा? क्या यह सत्य के अनुरूप होगा? तुम्हें वास्तव में कंप्यूटर की जरूरत किसलिए है? तुम कहते हो कि यह कलीसियाई कार्य के लिए है; अगर यह मामला है तो तुम्हें यह साबित करने के लिए किसी को ढूँढ़ने की जरूरत पड़ेगी। इसके अलावा, अगर इसकी जरूरत कलीसियाई कार्य के लिए हो भी, तो भी तुम्हें यह मुझसे उधार नहीं लेना चाहिए। अगर तुम मेरा कंप्यूटर ले लोगे तो मैं अपना कर्तव्य करने के लिए किसका उपयोग करूँगा? तुम बेहद स्वार्थी हो! फायदा उठाने के लिए कलीसियाई कार्य की जरूरतों का बहाना मत बनाओ, मैं उस झाँसे में नहीं पडूँगा। यह मत सोचो कि मैं कोई भ्रमित व्यक्ति हूँ जो पहचान नहीं सकता; तुम फायदा उठाने की ताक में हो, लेकिन यह नहीं होने वाला!” शैतान के जाल में फँसने से बचने के लिए ऐसे लोगों से इस तरह बात करना जरूरी है। क्या इस मसले को हल करना आसान है? एक बार जब तुम सत्य समझ लेते हो, और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो, तो तुम्हें किसी की भी बात से डरने की कोई जरूरत नहीं है। उनके द्वारा तुम पर लगाए गए झूठे लेबल पर ध्यान मत दो; थोड़ा-सा धर्म-सिद्धांत जो वे बोलते हैं उससे कोई भी आश्वस्त नहीं होगा। फायदा उठाना पसंद करने वाले लोगों की मानवता की अभिव्यक्तियों और उनसे निपटने के सिद्धांतों पर इस तरह सरलता से संगति की गई है।
जहाँ तक कलीसिया में फायदा उठाना पसंद करने वाले लोगों की बात है तो एक लिहाज से, लोगों को उनका भेद और अधिक सटीक और व्यावहारिक ढंग से पहचानना चाहिए, और दूसरे लिहाज से, लोगों को सत्य समझना चाहिए; उन्हें अपने दिलों में इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने के प्रति कैसा रुख रखना चाहिए, क्या कार्य करना चाहिए, किन सिद्धांतों पर कायम रहना चाहिए, और लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उन्हें कैसा रवैया अपनाना चाहिए। भीड़ के पीछे मत चलो, न ही लोगों को नाराज करने से डरो, और खास तौर पर कुछ लोगों को खुश करने के लिए उन सिद्धांतों और रुख को मत खोओ जो तुम्हारे पास होने चाहिए, ऐसा मत करो कि अंत में लोग तो प्रसन्न हों मगर परमेश्वर के हृदय को ठेस पहुँचे और परमेश्वर तुमसे घृणा करने लगे। अगर यह ऐसा क्रियाकलाप है जो सिद्धांतों से मेल खाता है, तो तुम्हारे इसे करने से भले ही लोग नाराज हों या पीठ पीछे तुम्हारी आलोचना हो, यह मायने नहीं रखता है; लेकिन अगर यह ऐसा क्रियाकलाप है जो सिद्धांतों से मेल नहीं खाता, तो उसे करने से भले ही तुम्हें सबकी स्वीकृति और समर्थन मिल जाए और तुम सबके साथ मिल-जुलकर रह लो—परंतु एक बात तय है कि तुम परमेश्वर के सामने इसका हिसाब नहीं दे सकते—तुम्हें नुकसान हो चुका है। अगर तुम अधिसंख्य लोगों के साथ रिश्ते बनाकर रखते हो, उन्हें खुश और संतुष्ट रखते हो और उनकी प्रशंसा पाते हो, मगर तुम परमेश्वर, सृष्टिकर्ता का अपमान करते हो तो तुम महामूर्ख हो। इसलिए तुम जो भी करो, तुम्हें स्पष्ट समझना चाहिए कि क्या यह सिद्धांतों से मेल खाता है, क्या इससे परमेश्वर खुश होता है, इसके प्रति परमेश्वर का रवैया क्या है, लोगों को क्या रुख अपनाना चाहिए, लोगों को किन सिद्धांतों पर कायम रहना चाहिए, परमेश्वर ने किस प्रकार निर्देश दिए हैं और तुम्हें यह कैसे करना चाहिए—तुम्हें पहले इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए। दूसरों के साथ तुम्हारे संबंध और दूसरों के साथ तुम्हारे भौतिक आदान-प्रदान और आचरण—क्या ये सिद्धांतों के अनुरूप होने की नींव पर बने हैं? क्या ये परमेश्वर को खुश करने की नींव पर बने हैं? अगर नहीं, तो तुम जो भी काम करते हो, चाहे तुम उसे जितने भी अच्छे ढंग से कायम रखो, कितनी भी पूर्णता से उसे करो या दूसरों से चाहे जितनी भी प्रशंसा तुम्हें मिले, इन बातों को परमेश्वर याद नहीं रखेगा। इस तरह किसी के भी साथ तुम्हारे संबंधों और व्यवहार के सिद्धांतों का इस बात से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए कि वह तुम्हारा फायदा उठाता है या तुम उसका फायदा उठाते हो—उन्हें इस आधार पर नहीं बनाना चाहिए। इसके बजाय इन सिद्धांतों का संबंध इस बात से होना चाहिए कि तुम लोग जो करते हो क्या वह सत्य सिद्धांतों से मेल खाता है। तभी इसे सही मायनों में “परमेश्वर में हमारे विश्वास की रोशनी में” माना जा सकता है; तभी तुम कह सकते हो, “हम सब विश्वासी हैं, सब भाई-बहन हैं”; तभी तुम इसे एक आधारवाक्य के रूप में ले सकते हो। जीवन प्रवेश, कर्तव्य और कलीसियाई कार्य से जुड़े मामलों के अतिरिक्त अन्य कोई भी व्यवहार “भाई-बहन” के आधारवाक्य पर आधारित नहीं होना चाहिए। अगर इसका वास्ता कर्तव्य, जीवन प्रवेश या लोगों के बीच सामान्य व्यवहार से नहीं है, लेकिन कोई व्यक्ति किसी खास लक्ष्य को पाने के बहाने के रूप में हमेशा “भाई-बहन” आधारवाक्य की आड़ का इस्तेमाल करता है, तो वह बेशक फायदा उठाने और अपने व्यक्तिगत लाभ के वास्ते षड्यंत्र करने के लिए आड़ के रूप में ऐसे कथनों, तरीकों और फायदेमंद स्थितियों का उपयोग करना चाहता है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इस बारे में सतर्क रहना चाहिए, झाँसे में आने से बचने के लिए बुद्धिमत्ता से ऐसे मसलों का समाधान करना चाहिए। यह इसलिए कि कलीसिया में ज्यादातर लोग सत्य नहीं समझते, और कुछ तो छद्म-विश्वासी भी हैं, वे सिद्धांतों के बिना कार्य करते हैं और अंधाधुँध कुकृत्य करते हैं। उनका “भाई-बहन” की आड़ लेकर काम करना बड़ी आसानी से कलीसियाई कार्य को प्रभावित और बाधित करता है। आज ये सब कहने का क्या उद्देश्य है? यह इस बात को स्पष्ट करने के लिए है कि चाहे दूसरों के साथ बातचीत हो या व्यवहार, इसकी नींव सत्य सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए। यह लोगों के बीच अनुचित आचरण रोकता है; यकीनन यह उन लोगों को भी रोकता है जो शोषण करने के लिए कमियाँ खोजकर फायदा उठाना पसंद करते हैं और साथ ही साथ यह अपनी छवि को लेकर बहुत ही ज्यादा चिंतित रहने वाले या कमजोर मानवता वाले लोगों को हमेशा अपना फायदा उठा लिए जाने, हमेशा धोखा खाने और हमेशा नुकसान झेलने से भी बचाता है। कुछ लोग—अपने परिवारों की परिस्थितियों की जाहिर कठिनाइयों के बावजूद—अपने नुकसान की कीमत पर “बहादुरी दिखाते हुए” अपने खून-पसीने की कमाई उधार दे देते हैं क्योंकि कोई फायदा उठाना पसंद करने वाला व्यक्ति उनसे यह दावा करके उधार माँगता है कि उसने उन्हें इसलिए चुना है क्योंकि वह उनका बहुत सम्मान करता है। पैसा उधार देने के बाद क्या होता है? उधार लेने वाला गायब हो जाता है। तब उधार देने वाला परमेश्वर के बारे में शिकायत करता है कि उसने उसकी रक्षा नहीं की। क्या यह विवेक का होना है? क्या तुमने यह सोचा था कि परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ यह है कि कुछ करते वक्त तुम्हें सोचने की जरूरत नहीं है, परमेश्वर हर चीज का ख्याल रखेगा? क्या इससे तुम एक बेकार इंसान नहीं बन जाते हो? परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग ईमानदार हों, बुद्धिमान हों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करें। क्या तुम यह नहीं समझ सकते? अगर तुम इन सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं कर सकते, तो हमेशा नुकसान उठाने और झाँसे में फँसने के लायक हो। अंत में जब तुम्हारे जीवन में कोई रास्ता न हो तो तुम किसे दोष दे सकते हो? तुमने खुद इसे न्योता दिया। तुम्हारे क्रियाकलाप प्रेम से प्रेरित नहीं थे; वे मूर्खतापूर्ण थे! तुमने एक ठग को खुश करने के लिए पैसे दे दिए, लेकिन जब तुम्हें पैसों की जरूरत पड़ेगी तो क्या तुम परमेश्वर के घर से माँग सकते हो? क्या परमेश्वर के घर को तुम्हारे लिए यह जिम्मेदारी उठानी चाहिए? यह अपेक्षा करके कि परमेश्वर का घर यह खर्च उठाएगा, क्या तुम परमेश्वर के ऋणी नहीं हो रहे हो? जीवन में कोई रास्ता न होने पर तुम अपना कर्तव्य कैसे कर सकते हो? अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना करो, तो शायद परमेश्वर तुम्हें संतुष्ट न करे; यह जैसी करनी वैसी भरनी का मामला होगा और यह बिल्कुल ठीक है। ऐसा मूर्ख होने को तुमसे किसने कहा! क्या परमेश्वर ने तुमसे उस व्यक्ति पर भरोसा करने को कहा? क्या उसने कहा कि तुम उसे पैसे उधार दो? उसने नहीं कहा; यह तुम्हारा व्यक्तिगत कार्य था, यह परमेश्वर का इरादा नहीं दर्शाता। अगर तुम्हारे व्यक्तिगत क्रियाकलाप त्रुटिपूर्ण हों और उनके परिणाम प्रतिकूल हों, तो इसकी जिम्मेदारी केवल तुम्हीं उठा सकते हो। तुम्हें अपने लिए परमेश्वर के घर को जिम्मेदार या परमेश्वर को उत्तरदायी क्यों ठहराना चाहिए? तुम अपनी रक्षा न करने के लिए परमेश्वर की शिकायत क्यों करोगे? तुम एक वयस्क हो; एक वयस्क व्यक्ति में अपेक्षित निर्णय-क्षमता का अभाव क्यों हो? क्या तुम समाज में किसी भी व्यक्ति के माँगने पर उसे पैसे उधार दे दोगे? तुम्हें इस बारे में सोचना होगा, है ना? तुम किसी को सिर्फ इस कारण पैसे उधार क्यों दे दोगे कि उसने अपने अनुरोध में “भाई-बहन” की उपाधि जोड़ दी है? क्या यह नहीं दर्शाता कि तुम नासमझ हो? तुम सिर्फ नासमझ नहीं हो, तुम मूर्ख हो; हद दर्जे के मूर्ख! क्या तुम्हें लगता है कि सारे भाई-बहन सच्चे दिल से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, सब के सब सत्य समझते हैं? उनमें से कम से कम एक तिहाई लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और छद्म-विश्वासी हैं। क्या तुम यह भेद नहीं पहचान सकते? क्या तुम सोचते हो कि सभी भाई-बहन परमेश्वर के उद्धार के पात्र हैं और वे सही मायनों में परमेश्वर के हैं? क्या तुम नहीं जानते कि “बुलाए बहुत जाते हैं, पर चुने कुछ ही जाते हैं”? भाई-बहन किस चीज की निशानी हैं? वे भ्रष्ट मानवजाति की निशानी हैं! अगर तुम उन पर विश्वास करते हो, तो क्या तुम मूर्ख नहीं बन रहे हो? तुम्हारे व्यक्तिगत क्रियाकलापों के चाहे जो भी प्रतिकूल परिणाम हों, परमेश्वर के घर या भाई-बहनों की ओर मत देखो; कोई भी तुम्हारा बचाव नहीं कर सकता, न ही कोई तुम्हारी जिम्मेदारी उठाने को बाध्य है। तुमने रायता फैलाया है, तो तुम्हीं भुगतो; जवाबदेही तुम्हारी ही है। साथ ही, इन मामलों को संगति और चर्चा के लिए कलीसियाई जीवन में मत लाओ; कोई इसे सुनना नहीं चाहता, और तुम्हारे फैलाए हुए रायते को समेटने के लिए दूसरे लोग बाध्य नहीं हैं। अगर कोई वास्तव में तुम्हारी मदद करना चाहता है तो तुम दोनों इसे निजी तौर पर सुलझा सकते हो। समझे?
इन मामलों पर संगति करना लोगों को याद दिलाने का काम करता है, उनके ज्ञान का विस्तार करता है और उनके लिए चेतावनी की घंटी बजाता है, यह स्पष्ट कर देता है कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों के बीच हर तरह के लोग होते हैं। तुम लोगों को एक अहम बात याद रखनी चाहिए, जिसका मैंने पहले कई बार जिक्र किया है : जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं वे भ्रष्ट मानवजाति में से चुने जाते हैं। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि शैतान ने प्रत्येक व्यक्ति को भ्रष्ट कर दिया है, प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव भ्रष्ट है और वह विभिन्न सीमाओं तक बुरे कर्म करने में सक्षम होता है, और सही संदर्भ में, परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले काम करने में सक्षम होता है। तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने और फायदा उठाना पसंद करने के काम, जिनके बारे में हमने अभी-अभी संगति की, विश्वासियों द्वारा किए जाते हैं; गैर-विश्वासी हमारे लिए अप्रासंगिक हैं, इसलिए हम यहाँ उनका जिक्र नहीं करेंगे। मानवता की जिन अभिव्यक्तियों पर हमने संगति की, वे निश्चित रूप से उन लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। इसलिए “भाई-बहनों” की उपाधि को शानदार, श्रेष्ठ, पवित्र और निष्कलंक मत समझो। अगर तुम ऐसा समझते हो तो यह तुम्हारी मूर्खता है। परमेश्वर ने कभी नहीं कहा, “भाई-बहन अनमोल हैं। एक बार भाई-बहन बन जाने पर वे पवित्र हो जाते हैं, परमेश्वर के विश्वासपात्र, पूरी तरह से विश्वसनीय बन जाते हैं; तुम उन पर पूरी तरह से विश्वास कर सकते हो और वे जो भी कहते या करते हैं वह सत्य है।” यह कभी नहीं हुआ है; ये तुम्हारी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। अगर अब तक भी तुम “भाई-बहनों” की उपाधि के पीछे के वास्तविक निहितार्थ को नहीं समझ सकते हो, तो तुम सचमुच मूर्ख हो; इतने वर्षों तक तुम्हारा धर्मोपदेश सुनना बेकार हुआ। तुम यह भी नहीं समझ पाए हो कि तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो, फिर भी तुम दूसरों पर इतना विश्वास करते हो, उन्हें—भाई-बहनों को—बहुत पवित्र और भव्य मानते हो, रिरियाते हो कि कैसे “भाई-बहन इसे नापसंद करते हैं,” “भाई-बहन नाराज हैं,” “भाई-बहन कष्ट सह रहे हैं,” “भाई-बहन ये और वो,” भाई-बहनों के बारे में इतने स्नेह से बोलते हो। क्या परमेश्वर के वचनों में कहीं भी तुमने कुछ देखा है जो कहता हो कि भाई-बहन बहुत श्रेष्ठ और पवित्र हैं, बहुत विश्वसनीय हैं? एक भी वाक्य नहीं देखा है, है ना? तो फिर तुम उन्हें उस तरह से क्यों देखते हो? यह तुम्हें सरासर मूर्ख बनाता है। इसलिए, भाई-बहनों से तुम चाहे जितना भी नुकसान या हानि उठाओ, यह पूरी तरह से तुम्हारा दोष है। अंत में, अपने द्वारा उठाई गई हानियों या नुकसानों को ट्यूशन शुल्क के रूप में मानो। यह तुम्हारे सीखने लिए एक सबक है। तुम लोगों को हमेशा याद रखना चाहिए : भाई-बहन सत्य का प्रतिनिधित्व नहीं करते, परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करना तो दूर की बात है; वे परमेश्वर के करीबी लोगों, परमेश्वर के गवाहों या परमेश्वर के प्यारे बच्चों के समतुल्य नहीं हैं। भाई-बहन कौन हैं? वे भ्रष्ट इंसान हैं, ठीक तुम जैसे; उनके मन में परमेश्वर को लेकर धारणाएँ हैं, वे सत्य से प्रेम नहीं करते, सत्य से विमुख होते हैं, उनमें अहंकारी स्वभाव होता है, उनका स्वभाव क्रूर और दुष्ट होता है, वे हर लिहाज से खुद को परमेश्वर के शत्रु के रूप में स्थापित करने में सक्षम होते हैं, लापरवाही से अपने कर्तव्य निभाते हैं और परमेश्वर में विश्वास रखने के बहाने से दूसरे भाई-बहनों का फायदा भी उठाते हैं। ये सब कहने का उद्देश्य क्या है? यह तुम्हारे और भाई-बहनों के बीच कलह के बीज बोने के लिए नहीं बल्कि तुम्हें सबके असली चेहरे स्पष्ट रूप से दिखाने, “भाई-बहनों” की उपाधि को सही ढंग से लेने, अपने आसपास के लोगों से सही ढंग से पेश आने और सभी के साथ उचित अंतर्वैयक्तिक संबंध स्थापित करने के लिए है। व्यक्तिगत उपकारों, भौतिक आदान-प्रदान, चापलूसी, कृतज्ञता, छूट देने या दूसरे ऐसे उपायों से भाई-बहनों के साथ घुलने-मिलने का लक्ष्य लेकर दूसरों से अच्छे रिश्ते स्थापित करने या बनाए रखने की कोशिश मत करो। यह अनावश्यक है और इस बारे में तुम जो भी करते हो वह परमेश्वर के लिए अरुचिकर और घिनौना होता है। तो फिर लोगों के बीच जीने का सर्वोत्तम तरीका क्या है, जीवन यापन के लिए सर्वोत्तम रवैया और सिद्धांत क्या है? यह परमेश्वर का वचन है। परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं? वे उचित और सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध स्थापित करने के लिए कहते हैं। ये संबंध कैसे स्थापित किए जा सकते हैं? परमेश्वर के वचनों के आधार पर दूसरों से बातचीत करो, बोलो और उनके साथ जुड़ो। उदाहरण के लिए, अगर कोई किसी दूसरी जगह रहने जा रहा है, तुमसे पूछता है कि क्या तुम्हारे पास मदद के लिए समय है और अगर तुम तैयार हो, तो तुम जा सकते हो; अगर तुम इस डर से अनिच्छुक हो कि हो सकता है यह तुम्हारे कर्तव्य को प्रभावित करे, तो तुम मना कर सकते हो। यह तुम्हारा अधिकार है और निस्संदेह वह सिद्धांत भी है जिसका तुम्हें पालन करना चाहिए। तुम्हें छूट देने की जरूरत नहीं है, उन्हें नाराज करने और भाई-बहनों के बीच सामंजस्य को गड़बड़ करने के डर से अनिच्छा से और दुविधा में पड़कर सहमत हो जाओ, और फिर बाद में अपने दिल में अनिच्छा महसूस करो, जिससे तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन पर इसका प्रभाव पड़े, इसकी जरूरत नहीं है। तुम अच्छी तरह जानते हो कि ऐसा करना सिद्धांतों के विरुद्ध है, फिर भी तुम दूसरों को संतुष्ट करने और अच्छे संबंध बनाए रखने की खातिर उन्हें इजाजत देते हो कि वे तुम्हारा शोषण करें और एक गुलाम की तरह तुम पर हुक्म चलाएँ। तुम्हारा दूसरों को संतुष्ट करना एक अच्छा कर्म नहीं है और इसे परमेश्वर याद नहीं रखेगा। तुम जो कर रहे हो वह महज अंतर्वैयक्तिक संबंध बनाए रखने के लिए है; तुम कलीसियाई कार्य की खातिर या अपना कर्तव्य निभाने के लिए कार्य नहीं कर रहे हो, वह तुम्हारी जिम्मेदारी या दायित्व तो बिल्कुल भी नहीं है। परमेश्वर ऐसे क्रियाकलापों को कभी याद नहीं रखेगा और अगर तुम उन्हें करते भी हो तो व्यर्थ ही करते हो। इसलिए, ऐसे मामलों से सामना होने पर, क्या तुम्हें गंभीरता और सावधानी से विचार नहीं करना चाहिए कि कैसे चुनें? कुछ लोगों को मदद के लिए पूछा जाता है लेकिन उनके कर्तव्य वास्तव में उन्हें बहुत व्यस्त रखते हैं, और उन्होंने किसी सभा में भाग लेने या कुछ आध्यात्मिक भक्ति का कार्यक्रम करने के लिए बस थोड़ा समय निकाल लिया है। वे स्पष्ट रूप से जाना नहीं चाहते और सिद्धांतों के अनुसार उन्हें जाना भी नहीं चाहिए। लेकिन क्योंकि वे छवि की बड़ी परवाह करते हैं इसलिए मना नहीं कर सकते। अंत में क्या होता है? वे उन अधम, फायदा उठाने वाले व्यक्तियों के हाथो अपना शोषण होने देते हैं, वह समय बरबाद करते हैं जिसे जीवन प्रवेश के लिए समर्पित किया जाना चाहिए था। क्या यह हानि नहीं है? यह हानि है जिसके वे बिल्कुल लायक हैं! ऐसी हानि सहने पर दूसरों की सहानुभूति या दया बिल्कुल नहीं मिलनी चाहिए। क्यों कहा जाए कि वे इस हानि के लायक हैं? तुमसे परमेश्वर के वचनों का अपमान किसने करवाया? तुम्हारे भीतर लोगों को नाराज करने का डर किसने पैदा किया? अगर तुम परमेश्वर के वचनों को सुनने के बजाय लोगों को नाराज नहीं करना पसंद करते हो, तो तुम उचित रूप से यह हानि सहने के योग्य हो! कुछ लोग कहते हैं, “लोग शून्य में नहीं रहते; लोगों के बीच बातचीत होनी ही चाहिए।” मायने यह रखता है कि तुम बातचीत कैसे करते हो। कौन-सी बातचीत सत्य सिद्धांतों से मेल खाती है, परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, और तुम्हारे जीवन प्रवेश को ज्यादा लाभ पहुँचाती है : सिद्धांतों पर आधारित बातचीत या सिद्धांतरहित बातचीत, लोगों की खुशामद करने वाला होना जो हर चीज को सुगम बनाने की कोशिश करता है? तुम जानते हो कि किसे चुनना है, है कि नहीं? अगर तुम जानते हो कि कैसे चुनना है, फिर भी तुम दलदल में फँस जाते हो तो अंतिम परिणाम तुम्हें ही भुगतना होगा। क्या यह स्पष्ट नहीं है? (हाँ, है।)
बुरे लोगों की मानवता की और भी अभिव्यक्तियाँ हैं, और आज की संगति सीमित थी, केवल तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करने और फायदा उठाना पसंद करने के पहलुओं पर ही ध्यान केंद्रित किया गया था। इन दो पहलुओं के बारे में सुनने के बाद ही ज्यादातर लोगों में कुछ भावनाएँ और पहचानने की क्षमता आ जाती है, और वे कहते हैं, “तो खराब मानवता ऐसी होती है!” लेकिन ऐसे लोग कलीसिया में सचमुच मौजूद होते हैं, तो क्या किया जाना चाहिए? उनकी मौजूदगी कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, क्योंकि कलीसिया में सिद्धांत और विनियम होते हैं; वह ऐसे व्यक्तियों से निपटने के लिए उपयुक्त उपाय अपना सकती है। इन मामलों पर आज की संगति का उद्देश्य ज्यादातर लोगों को इन दो प्रकार के बुरे लोगों के बारे में स्पष्ट समझ और पहचान प्राप्त करने, और फिर उन्हें बाहर निकालने के लिए एक साथ कार्य करने योग्य बनाना है।
20 नवंबर 2021