अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (23)
मद चौदह : सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो (भाग दो)
पिछली सभा में, हमने अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी पर संगति की थी : “सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो।” संगति में इसके एक पहलू पर प्रकाश डाला गया था : कलीसिया क्या होती है। कलीसिया की परिभाषा पर संगति करने के बाद, क्या तुम लोग इसके और अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी के बीच संबंध के बारे में स्पष्ट हो? (परमेश्वर के कलीसिया की परिभाषा पर संगति करने के बाद, हम समझ पाए कि कलीसियाएँ क्यों अस्तित्व में हैं, कलीसिया कौन-सी भूमिका निभाती है और कलीसिया क्या कार्य करती है। इसके आधार पर, हम यह पहचान सकते हैं कि कलीसिया के कौन-से लोग गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करते हैं, और सकारात्मक भूमिका नहीं निभाते और फिर हम इन लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित कर सकते हैं।) यह समझ लेने के बाद कि कलीसिया क्या है, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जानना चाहिए कि परमेश्वर कलीसियाएँ क्यों स्थापित करता है, कलीसियाओं के निर्माण का लोगों पर क्या असर होता है, कलीसियाओं को क्या कार्य करना चाहिए, कलीसियाएँ किस प्रकार के लोगों से बनती हैं, और कौन-से लोग सच्चे भाई-बहन हैं। इन चीजों को समझने और जानने के बाद, तुम्हारे पास एक बुनियादी अवधारणा और परिभाषा होती है, और साथ ही चौदहवीं जिम्मेदारी में प्रस्तुत रूपरेखा वाले कार्य के लिए सिद्धांतों की नींव होती है : “सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो।” यह ऐसी चीज है जिसके सिद्धांत और दर्शन को लेकर तुम्हें स्पष्ट होना चाहिए और जिसे तुम्हें समझना चाहिए। इसे समझने के बाद, पहला कार्य जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को हाथ में लेना चाहिए वह हर प्रकार के बुरे लोगों को पहचानना है। ऐसा करने के मानक और सिद्धांत क्या हैं? हर प्रकार के बुरे लोगों को पहचानना कलीसिया की परिभाषा, किसी कलीसिया के अस्तित्व की महत्ता एवं मूल्य और परमेश्वर कलीसियाओं को जिस कार्य के लिए स्थापित करता है उस पर आधारित होना चाहिए। पिछली बार, हर प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने के मानकों और आधारों को तीन मुख्य श्रेणियों में बाँटा गया था। ये तीन श्रेणियाँ क्या हैं? (परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए किसी का प्रयोजन, किसी की मानवता, और कर्तव्य के प्रति किसी का रवैया।) क्या ये तीन मुख्य श्रेणियाँ पर्याप्त रूप से विशिष्ट और व्यापक हैं? कुछ लोग कहते हैं, “हर प्रकार के लोगों को पहचानना उनके सत्य से प्रेम करने की सीमा और उनके परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसका भय मानने की सीमा पर आधारित न होकर, उनके परमेश्वर में विश्वास रखने के प्रयोजन, उनकी मानवता और अपने कर्तव्य के प्रति उनके रवैए पर आधारित क्यों होता है? क्या ये मानक बेहद निचले नहीं हैं? दूसरे शब्दों में, इन तीनों श्रेणियों की विशिष्ट विषयवस्तु पर गौर किया जाए, तो परमेश्वर और सत्य के प्रति लोगों के रवैए पर गहरा विचार-विमर्श क्यों नहीं होता है? इस बात का जिक्र क्यों नहीं है कि लोग काट-छाँट, न्याय और ताड़ना स्वीकार करने को तैयार हैं या नहीं, उनके पास परमेश्वर की आज्ञा मानने वाला और भय मानने वाला दिल है या नहीं, और सत्य से संबंधित और अधिक गहरी विषयवस्तु के बारे में जिक्र क्यों नहीं है।” क्या तुम लोगों ने कभी इस प्रश्न के बारे में सोचा है? चलो अभी के लिए इस मुद्दे में न पड़ें। आओ, पहले तीन कसौटियों पर गौर करें : लोगों का परमेश्वर में विश्वास रखने का प्रयोजन, उनकी मानवता और अपने कर्तव्य के प्रति उनका रवैया। उनके शीर्षकों को देखा जाए तो, ये तीन कसौटियाँ उथली हैं या नहीं? अगर कोई व्यक्ति इन तीन सबसे बुनियादी कसौटियों के संदर्भ में मानक स्तर का नहीं है, तो क्या उसे भाई या बहन कहा जा सकता है? (नहीं।) क्या उसे कलीसिया का सदस्य माना जा सकता है? क्या परमेश्वर द्वारा उसे कलीसिया के अंश के रूप में मान्यता दी जा सकती है? (नहीं।) इनमें से कोई भी चीज उसके लिए संभव नहीं है। इसलिए अगर कोई व्यक्ति इन सभी तीनों कसौटियों के संदर्भ में नाकाफी या घटिया है, तो ऐसे व्यक्तियों को पहचाना जाना चाहिए; वे विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों की श्रेणियों के हैं, और उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। कोई व्यक्ति भाई या बहन है या नहीं, परमेश्वर द्वारा मान्यता-प्राप्त है या नहीं, या कलीसिया द्वारा स्वीकृत होने लायक सदस्य है या नहीं, ये सब कम-से-कम इस बात पर निर्भर करते हैं कि क्या वे मानक स्तर के हैं, और इन तीनों कसौटियों पर खरे उतरते हैं। अगर वे इन तीन कसौटियों पर भी खरे नहीं उतरते, तो वे यकीनन भाई या बहन नहीं हैं। स्वाभाविक रूप से परमेश्वर उन्हें मान्यता नहीं देता, और कलीसिया को उन्हें स्वीकार भी नहीं करना चाहिए। तो कलीसिया को उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए और उनसे कैसे निपटना चाहिए? (उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए।) एक बार उन्हें पहचान लिया जाए, तो तो उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए। बात वास्तव में ऐसी ही है।
हर प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने के मानक और आधार
I. परमेश्वर में विश्वास रखने के किसी के प्रयोजन के अनुसार
घ. अवसरवादिता
पिछली सभा में, हमने परमेश्वर में विश्वास रखने के तीन प्रयोजनों पर संगति कर उनकी सूची पेश की थी। अगर हम उस सूची को शीर्षकों के रूप में पेश करें, तो पहला है अधिकारी बनने की अपनी इच्छा को पूरा करना; दूसरा है विपरीत लिंग का कोई साथी ढूँढ़ना; और तीसरा है विपत्तियों से बचना। हमने इन तीनों प्रयोजनों पर संगति पूरी कर ली। अब हम चौथे प्रयोजन पर संगति करेंगे : कुछ लोग परमेश्वर में केवल अवसरवादी कारणों से विश्वास रखते हैं, इसलिए इस प्रयोजन का शीर्षक है “अवसरवादिता।” कुछ लोग देखते हैं कि धार्मिक दुनिया के सभी धर्म और संप्रदाय वीरान हैं, और उनमें पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है—लोगों की आस्था और प्रेम ठंडे पड़ गए हैं, लोग स्वयं बहुत अधिक पथभ्रष्ट हो गए हैं, उन्हें उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है, और लोग प्रभु में अनेक वर्षों से विश्वास रखने के बाद भी कुछ हासिल नहीं कर पाए हैं। यह देखकर कि धार्मिक दुनिया पूरी तरह से बंजर भूमि बन गई है, वे अपने लिए आगे का रास्ता खोजते हैं। वे सोच-विचार करते हैं, “अब किस कलीसिया में ज्यादा लोग हैं, कौन-सी कलीसिया पनप रही है और किसमें विकास की संभावनाएँ हैं?” वे पाते हैं कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया जिसका धार्मिक दुनिया प्रतिरोध और निंदा करती है, वह पनप रही है, उसमें पवित्र आत्मा का कार्य है, और यह देश-विदेश दोनों ही जगह अच्छे ढंग से विकसित हो रही है। वे सोचते हैं, “मैंने सुना कि इस कलीसिया की सदस्यता बढ़ रही है, यह अच्छी तरह से विकसित हो रही है, और इसमें प्रचुर मात्रा में श्रमशक्ति, भौतिक संसाधन और वित्तीय संसाधन हैं, और इसमें विकास की संभावनाएँ हैं। अगर मैं उनकी कलीसिया में शामिल होने के इस अच्छे अवसर का लाभ उठा लूँ, तो क्या मैं कुछ लाभ प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो जाऊँगा? क्या मैं अपने लिए बढ़िया संभावनाएँ सुरक्षित नहीं कर लूँगा?” ऐसे इरादे और प्रयोजन और थोड़ी जिज्ञासा से वे कलीसिया में घुसपैठ करते हैं। कलीसिया में घुसपैठ करने के बाद, ये लोग सत्य में, परमेश्वर में विश्वास रखने या अपने जीवन स्वभाव में परिवर्तन करने में रुचि नहीं लेते। कलीसिया में शामिल होने का उनका प्रयोजन सिर्फ कोई समर्थक या रहने की जगह ढूँढ़ना और वे जो संभावनाएँ चाहते हैं, उन्हें हासिल करना होता है। दरअसल, उनके दिलों में परमेश्वर में विश्वास रखने में, परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्यों या परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले उद्धार कार्य में कोई रुचि नहीं होती और वे इन चीजों के बारे में सुनना या उन्हें खोजना नहीं चाहते। खासतौर से, उन्हें परमेश्वर के कार्य और पवित्र आत्मा के कार्य में बिल्कुल रुचि नहीं होती। ये लोग समाज में अवसरवादियों जैसे हैं, जो किसी भी उद्योग में शामिल हों, वे ऐसा सिर्फ शोहरत, लाभ और रुतबा हासिल करने के अवसर पाने के लिए करते हैं, और सिर्फ अपनी ही संभावनाओं और नियति की खातिर निवेश करते हैं और कीमत चुकाते हैं। एक बार यह ढूँढ़ लेने के बाद कि जिस क्षेत्र या उद्योग में वे कूद पड़े हैं, उसमें फिलहाल कोई प्रत्यक्ष संभावनाएँ नहीं हैं, या यह उद्योग उन्हें अपनी खूबियाँ दिखाने और दुनिया में ऊँचे उठने का मौका नहीं देता, तो वे अक्सर अपने मन में हिसाब लगाते हैं कि क्या उन्हें नौकरी बदल लेनी चाहिए या उद्योग बदल लेने चाहिए। ऐसे लोग जो भी काम करते हैं उसमें हमेशा अपनी चाल चलने के अवसर की प्रतीक्षा करते हैं; कलीसिया में शामिल होने की उनकी एक मंशा और प्रयोजन होता है। जब कलीसिया पनप रही होती है, जब वह दृढ़ रह सकती है और समाज या किसी देश में उसके विकास की संभावनाएँ होती हैं, तो वे सक्रिय होकर उत्साह के साथ खुद को कलीसिया के कार्य में झोंक देते हैं। लेकिन जब कलीसिया का दमन होता है और वह प्रतिबंधित हो जाती है, या उनकी व्यक्तिगत इच्छाओं और माँगों को पूरा नहीं कर सकती, तो वे विचार करते हैं कि क्या उन्हें कलीसिया छोड़ देनी चाहिए और अपने आगे बढ़ने के लिए कोई दूसरा रास्ता ढूँढ़ लेना चाहिए। स्पष्ट रूप से, कलीसिया में शामिल होने का इन लोगों का वास्तविक प्रयोजन यह नहीं है कि उन्हें सत्य में रुचि है; वे परमेश्वर के अस्तित्व और लोगों को बचाने के परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकारने के आधार पर कलीसिया में शामिल नहीं हुए। यहाँ तक कि जब वे किसी कलीसिया को चुनते हैं, तो वे बहुत-से सदस्यों वाली जानी-मानी विशाल कलीसिया को चुनते हैं, खासतौर से ऐसी जिसकी देश-विदेश में एक खास स्तर की ख्याति हो। सिर्फ ऐसी कलीसिया ही उनके मानकों को पूरा करती है और उनकेउन लक्ष्यों के साथ पूरी तरह से मेल खाती है जिनकी वे आकांक्षा करते हैं या जिनका वे अनुसरण करते हैं। लेकिन चाहे जो हो, उन्होंने कभी भी सत्य में सचमुच विश्वास नहीं रखा है, न ही उन्होंने परमेश्वर के अस्तित्व या परमेश्वर के कार्य को ईमानदारी से स्वीकार किया है। भले ही ऐसा प्रतीत हो कि वे कभी-कभी कलीसिया के लिए कुछ करते हैं या कलीसिया के कार्य के किसी भाग में खुद को झोंकते हैं, मगर उनके हृदय की गहराइयों में, सत्य और परमेश्वर के प्रति उनका रवैया अपरिवर्तित रहता है। उनका रवैया क्या है? उनका सतत रवैया बस फिलहाल साथ चलने का होता है, यह देखने के लिए कि वे कलीसिया से वास्तव में क्या हासिल कर सकते हैं, यह देखने के लिए कि परमेश्वर के बोले हुए कितने वचन वास्तव में और किस हद तक साकार होते हैं, और यह देखने के लिए कि परमेश्वर द्वारा मनुष्य को जिन आशीषों का वचन दिया गया वे कब मिल सकेंगे, और क्या ये आशीष अल्पकाल में ही देखे और पूरे किए जा सकेंगे। उनका रवैया हमेशा ऐसा ही होता है। वे परमेश्वर के घर में जिज्ञासा, उसे आजमाने की इच्छा और इस रवैए के साथ आते हैं कि अगर परमेश्वर के वचन पूरे और साकार हो जाएँ तो उन्हें आशीष मिलेंगे और वे छूट नहीं जाएँगे। ऐसे लोग परमेश्वर के घर में आते हैं, और भले ही वे दूसरों के साथ मित्रवत व्यवहार करते हुए, नियमों का पालन करते हुए, गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा नहीं करते हुए, शरारतों में नहीं जुटते हुए प्रतीत होते हों, तोपरमेश्वर और सत्य के प्रति उनके रवैए के आधार पर उन्हें स्पष्टतः छद्म-विश्वासियों के रूप में पहचाना जा सकेगा।
हमें ऐसे छद्म-विश्वासियों को कैसे पहचान सकते हैं, जो अवसरवादिता से आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और सत्य पाने की इच्छा नहीं रखते? वे चाहे जितने भी उपदेश सुनें, उनके साथ सत्य पर चाहे जैसे भी संगति की जाए, लोगों और चीजों के बारे में उनके विचार और दृष्टिकोण, जीवन और मूल्यों के बारे में उनका दृष्टिकोण कभी नहीं बदलता। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे परमेश्वर के वचनों पर कभी गंभीरता से विचार नहीं करते और परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों या विभिन्न मुद्दों के बारे में परमेश्वर द्वारा कही गई बातों को पूरी तरह से अस्वीकार करते हैं। वे बस अपने ही विचारों और शैतान के फलसफों से चिपके रहते हैं। मन ही मन वे अभी भी यही मानते हैं कि शैतान के फलसफे और तर्क सही और ठीक हैं। उदाहरण के लिए, “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “अधिकारी उपहार देने वालों के लिए मुश्किलें खड़ी नहीं करते” या “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो कहते हैं, “जब लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो उन्हें अच्छा होना चाहिए, जिसका अर्थ है कभी किसी की जान न लेना; किसी की जान लेना पाप है, और परमेश्वर की नजर में यह अक्षम्य है।” यह किस तरह का दृष्टिकोण है? यह बौद्ध दृष्टिकोण है। भले ही बौद्ध दृष्टिकोण लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो, लेकिन उसमें कोई सत्य नहीं है। परमेश्वर में आस्था परमेश्वर के वचनों पर आधारित होनी चाहिए; केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। परमेश्वर में अपनी आस्था में कुछ लोग गैर-विश्वासियों के बेतुके विचारों और धार्मिक दुनिया के गलत सिद्धांतों को भी सत्य के रूप में स्वीकारते हैं, उन्हें प्रिय मानते हैं और उनसे चिपके रहते हैं। क्या ये वे लोग हैं, जो सत्य स्वीकारते हैं? वे मनुष्य के शब्दों और परमेश्वर के वचनों के बीच या दानवों और शैतान तथा एकमात्र सच्चे परमेश्वर, सृष्टिकर्ता के बीच अंतर नहीं कर सकते। वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते या सत्य नहीं खोजते, न ही वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया कोई सत्य स्वीकारते हैं। लोगों, बाहरी दुनिया और अन्य सभी मामलों पर उनके विचार और दृष्टिकोण कभी नहीं बदलते। वे केवल उन्हीं विचारों से चिपके रहते हैं जिन्हें वे हमेशा से रखते आए हैं, जो परंपरागत संस्कृति से आते हैं। वे विचार चाहे कितने ही हास्यास्पद क्यों न हों, वे इसे नहीं समझ पाते, और फिर भी उन गलत विचारों से चिपके रहते हैं और उन्हें नहीं छोड़ते। यह छद्म-विश्वासी की एक अभिव्यक्ति है। दूसरी अभिव्यक्ति क्या है? वह यह है कि जैसे-जैसे कलीसिया का आकार बढ़ता है और समाज में उसकी स्थिति लगातार बढ़ती है, उनका उत्साह, उनके मनोभाव और उनकी आस्था बदलती रहती है। उदाहरण के लिए, जब कलीसिया का कार्य विदेशों में फैलता और उसका आकार बढ़ा, जब सुसमाचार का कार्य पूरी तरह से फैलता है, तो यह देखकर वे तुरंत ताकतवर महसूस करने लगे। उन्हें लगा कि कलीसिया अधिकाधिक प्रभावशाली होती जा रही है और अब उसे सरकार के दमन और उत्पीड़न का सामना नहीं करना पड़ेगा, उन्हें विश्वास था कि परमेश्वर में उनकी आस्था के लिए आशा है, वे अपना सिर ऊँचा रख सकते थे; और इसलिए उन्हें लगा कि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास करके सही दाँव लगाया है, उनका जुआ आखिरकार सफल होने वाला है। उन्हें लगा कि आशीष पाने की उनकी संभावनाएँ अधिक से अधिक बढ़ रही हैं और वे अंततः खुश होने लगे। पिछले वर्षों के दौरान वे दमित, पीड़ित और व्यथित महसूस किया करते थे, क्योंकि उन्होंने अक्सर बड़े लाल अजगर को ईसाइयों की गिरफ्तारी और दमन करते देखा था। वे व्यथित महसूस क्यों करते थे? क्योंकि कलीसिया की हालत बहुत खराब थी और वे इस बात को लेकर चिंतित थे कि क्या उन्होंने परमेश्वर में विश्वास रखकर सही विकल्प चुना है, और इससे भी बढ़कर, वे इस बात से परेशान और चिंतित थे कि उन्हें कलीसिया में रहना चाहिए या उसे छोड़कर चले जाना चाहिए। उन वर्षों के दौरान कलीसिया चाहे जिन भी प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना कर रही हो, इसका उनकी भावनाओं पर बुरा प्रभाव पड़ता था; कलीसिया जो भी कार्य कर रही हो और समाज में कलीसिया की प्रतिष्ठा और हैसियत में जो भी उतार-चढ़ाव हो रहे हों, इसका उनकी भावनाओं और मनोदशा पर बुरा प्रभाव पड़ता था। उनके मन में हमेशा यह सवाल घूमता रहता था कि उन्हें रहना चाहिए या चले जाना चाहिए। ऐसे लोग छद्म-विश्वासी हैं, है न? जब राष्ट्रीय सरकार कलीसिया की निंदा करती है और उसे दबाती है, या जब विश्वासियों को गिरफ्तार किया जाता है या उनकी आलोचना की जाती है, निंदा की जाती है, उन्हें बदनाम किया जाता है और धार्मिक दुनिया द्वारा उन्हें अस्वीकार किया जाता है, तो वे कलीसिया में शामिल होने को लेकर बहुत बेइज्जती, यहां तक कि बहुत शर्मिंदगी और अपमान महसूस करते हैं; उनके दिल डगमगा जाते हैं और उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने और कलीसिया में शामिल होने का पछतावा होता है। कलीसिया की खुशियाँ और कठिनाइयाँ साझा करने या मसीह के साथ कष्ट उठाने का उनका कभी कोई इरादा नहीं होता। इसके बजाय, जब कलीसिया फल-फूल रही होती है, तो वे आस्था से लबालब भरे दिखाई देते हैं, लेकिन जब कलीसिया को सताया जाता है, अस्वीकार किया जाता है, दबाया जाता है और उसकी निंदा की जाती है, तो वे भाग जाना चाहते हैं, कलीसिया छोड़कर चले जाना चाहते हैं। जब उन्हें आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं दिखती, या राज्य के सुसमाचार को फैलाने की कोई उम्मीद नहीं दिखती, तो कलीसिया छोड़ने की उनकी इच्छा और बढ़ जाती है। जब वे परमेश्वर के वचन पूरे होते नहीं देखते, और नहीं जानते कि बड़ी आपदाएँ कब आएँगी और कब खत्म होंगी, या मसीह का राज्य कब आकार लेगा, तो वे अनिश्चितता से डगमगा जाते हैं और शांतचित्त होकर अपना कर्तव्य करने में असमर्थ होते हैं। जब भी ऐसा होता है, वे परमेश्वर को छोड़ देना चाहते हैं, कलीसिया को छोड़ देना चाहते हैं और निकलने का कोई रास्ता ढूँढ़ना चाहते हैं। ऐसे लोग छद्म-विश्वासी हैं, है न? उनकी हर चेष्टा उनके अपने दैहिक हितों के लिए होती है। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के माध्यम से या उसके वचन पढ़ने, सत्य पर संगति करने और कलीसियाई जीवन जीने से उनके विचार और दृष्टिकोण उत्तरोत्तर कभी नहीं बदलेंगे। जब उनके साथ कुछ होता है, तो वे कभी सत्य की तलाश नहीं करते, या यह नहीं खोजते कि परमेश्वर के वचन इसके बारे में क्या कहते हैं, परमेश्वर के इरादे क्या हैं, परमेश्वर लोगों का मार्गदर्शन कैसे करता है या वह लोगों से क्या कहता है। कलीसिया में शामिल होने का उनका एकमात्र उद्देश्य उस दिन की प्रतीक्षा करना है, जब कलीसिया “अपना सिर ऊँचा रख सकेगी,” ताकि वे वो लाभ प्राप्त कर सकें जिन्हें वे हमेशा से पाना चाहते थे। निस्संदेह, वे कलीसिया में इसलिए भी शामिल हुए थे, क्योंकि उन्होंने देखा था कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं—लेकिन वे सत्य को पूरी तरह से अस्वीकार करते हैं और यह नहीं मानते कि परमेश्वर के सभी वचन पूरे होंगे। तो तुम लोग क्या कहते हो, क्या ऐसे लोग छद्म-विश्वासी हैं? (हाँ।) कलीसिया में या बाहरी दुनिया में चाहे कुछ भी घटित हो, वे आकलन करते हैं कि उनके हितों पर कितना असर पड़ेगा और जिन लक्ष्यों का वे अनुसरण करते हैं, उन पर इसका कितना बड़ा प्रभाव पड़ेगा। परेशानी के जरा-से संकेत पर भी वे तुरंत अपनी संभावनाओं, हितों और इस बारे में तीक्ष्णता से सोचेंगे कि उन्हें कलीसिया में रहना चाहिए या उसे छोड़कर चले जाना देना चाहिए। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो पूछते रहते हैं, “पिछले साल कहा गया था कि परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा—तो यह अभी भी क्यों चल रहा है? परमेश्वर का कार्य ठीक-ठीक किस साल खत्म होगा? क्या मुझे जानने का अधिकार नहीं है? मैंने लंबे समय तक सहा है, मेरा समय कीमती है, मेरी युवावस्था कीमती है—निश्चित रूप से तुम मुझे इस तरह से लटकाकर नहीं रख सकते?” वे इस बात के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं कि परमेश्वर के वचन पूरे हो चुके हैं या नहीं और कलीसिया की स्थिति, रुतबा और प्रतिष्ठा क्या है। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि वे सत्य प्राप्त करने में सक्षम हैं या नहीं या उन्हें बचाया जा सकता है या नहीं, लेकिन वे इस बात के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं कि वे जीवित रह पाएँगे या नहीं और क्या परमेश्वर के घर में रहकर वे लाभ और आशीष पा सकते हैं। आशीष पाने की अपनी इच्छा में ऐसे लोग अवसरवादी होते हैं। भले ही वे अंत तक विश्वास करें, फिर भी वे सत्य को नहीं समझ पाएँगे और उनके पास कोई ऐसी अनुभवजन्य गवाही नहीं होगी जिसकी वे बात कर सकें। क्या तुम लोग ऐसे लोगों से मिले हो? वास्तव में, ऐसे लोग हर कलीसिया में मौजूद होते हैं। तुम लोगों को उन्हें पहचानने का ध्यान रखना चाहिए। ऐसे सभी व्यक्ति छद्म-विश्वासी हैं, वे परमेश्वर के घर में एक आफत हैं, वे कलीसिया को बहुत नुकसान पहुँचाएँगे और कोई लाभ नहीं पहुँचाएँगे, और उन्हें इससे बाहर निकाल दिया जाना चाहिए।
आओ, अवसरवादियों की विशेषताओं को संक्षेप में प्रस्तुत करें। पहली विशेषता यह है कि वे इस मामले को गंभीरता से नहीं लेते कि परमेश्वर का अस्तित्व है या नहीं। अगर तुम उनसे पूछते हो कि क्या परमेश्वर का अस्तित्व है, तो वे कहेंगे, “शायद है। वैसे उसका अस्तित्व न भी हो तो भी ठीक है। मैं यहाँ सिर्फ वास्तव में यह देखने के लिए हूँ कि परमेश्वर द्वारा की गई भविष्यवाणियाँ सच होंगी या नहीं, और महाविपत्तियाँ आएँगी या नहीं।” उनके विचारों और दृष्टिकोणों में उनका रवैया यह है कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर का अस्तित्व है या नहीं। तो फिर क्या परमेश्वर में विश्वास रखना और कलीसिया में शामिल होना उनके लिए मजाक नहीं है? (हाँ।) परमेश्वर में उनकी आस्था एक साधारण विश्वास है, यह एक खेल की तरह है और यह सत्य या उनके जीवन मार्ग से असंबद्ध है। परमेश्वर का अस्तित्व हो या न हो, उन्हें वास्तव में कोई परवाह नहीं है; अस्तित्व है तो ठीक, और नहीं है तो भी ठीक। कुछ लोग यह कहते हुए उनका खंडन करते हैं कि परमेश्वर का अस्तित्व नहीं है, और वे इससे बेचैन नहीं होते या ऐसे लोगों से नफरत नहीं करते। अगर लोग कहते हैं कि परमेश्वर का अस्तित्व है तो वे कहते हैं, “अगर उसका अस्तित्व है तो है। बहरहाल, अगर तुम मानते हो तो उसका अस्तित्व है; अगर नहीं मानते हो तो नहीं है।” यह उनका दृष्टिकोण है। क्या ऐसे लोग सच्चे विश्वासी होते हैं? वे छद्म-विश्वासी हैं, है ना? (हाँ।) परमेश्वर का अस्तित्व है या नहीं यह उनके लिए महत्वहीन है, तो क्या परमेश्वर में उनके विश्वास में ईमानदारी है? वे संभवतः ईमानदार नहीं हो सकते। अवसरवादी लोगों की पहली विशेषता क्या है? (वे इस मामले को बहुत गंभीरता से नहीं लेते कि परमेश्वर का अस्तित्व है या नहीं।) यह पहली विशेषता है।
अवसरवादी लोगों की दूसरी विशेषता क्या है? वह यह है कि वे सकारात्मक और नकारात्मक चीजों में भेद करने को लेकर बहुत गंभीर नहीं होते हैं। वे नहीं पहचान पाते कि कौन-सी कहावतें, लोग, घटनाएँ और चीजें सकारात्मक हैं, और कौन-सी नकारात्मक, और वे इस बात को गंभीरता से नहीं लेते। उनके लिए अच्छी चीजें बुरी बनाई जा सकती हैं और बुरी चीजें अच्छी, ठीक गैर-विश्वासियों की कहावत की तरह, “हजार बार बोला गया झूठ सच हो जाता है;” यह कहावत उनके लिए वैध है। अगर तुम उनसे पूछो कि सत्य क्या है, तो वे यकीनन नहीं कहेंगे कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, क्योंकि वे इसे नहीं स्वीकारते। तो वे क्या कहेंगे? उनका सच्चा दृष्टिकोण यह है कि हजार या दस हजार बार बोला गया झूठ सच हो जाएगा, यानी अगर बहुत-से लोग कोई बात कहते हैं, तो वे मान लेंगे कि यह सच है। यह वैसा ही है जैसा गैर-विश्वासी कहते हैं : “दुनिया में पहले-पहल कोई राह नहीं थी, लेकिन ज्यादा लोग चलते गए और राह बनती गई।” उन्हें परवाह नहीं होती कि सही क्या है और गलत क्या है, न्यायसंगत क्या है और दुष्ट क्या; वे मानते हैं कि जिस किसी में बहुत बड़ी योग्यता है वह सही है, और जो भी बेकार और अक्षम है वह नकारात्मक। वे बिल्कुल नहीं मानेंगे कि परमेश्वर जो भी कहता और करता है सब सकारात्मक होते हैं, न ही वे यह मानेंगे कि परमेश्वर लोगों से सकारात्मक चीजों की वास्तविकताएँ जीने की अपेक्षा करता है। ये लोग ऐसी भ्रांतियाँ भी बोलेंगे, “तुम कहते हो कि परमेश्वर ही सत्य है, और परमेश्वर के वचन सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता हैं। क्या इसका यह अर्थ है कि संसार में कोई सकारात्मक चीजें हैं ही नहीं? क्या संसार में भी सकारात्मक चीजें और सत्य नहीं हैं?” क्या यह बकवास नहीं है? क्या यह एक भ्रांति नहीं है? (हाँ।) ये लोग अपने कथनों और क्रियाकलापों के लिए परमेश्वर के वचनों को कसौटी के रूप में नहीं लेते। उदाहरण के लिए, जब वे कोई भ्रांति व्यक्त करते हैं, और तुम उनकी बात काटते हो, तो वे कहेंगे, “तुम सोचते हो कि तुम सही हो, और मैं सोचता हूँ कि मैं सही हूँ, तो चलो, असहमत होने पर सहमत हो जाते हैं। किसी को जो अच्छा लगता है, वही सही है।” यह कैसा दृष्टिकोण है? क्या यह चीजों को छिपाने की कोशिश नहीं है? (हाँ।) यह एक मूर्खतापूर्ण और भ्रमित दृष्टिकोण है; ये लोग सकरात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच भेद करने को लेकर ईमानदार नहीं हैं। इस बारे में ईमानदार न होने का क्या अर्थ है? इसका मतलब यह है कि वे अपने दिल से नहीं मान सकते कि परमेश्वर जिन सभी सकारात्मक चीजों की बात करता है, वे सत्य से संबंधित हैं, वे सत्य के अनुरूप हैं, और परमेश्वर से आती हैं, और परमेश्वर जिन नकारात्मक चीजों के बारे में बोलता है वे सत्य के विपरीत होती हैं, और शैतान से आती हैं। वे इस तथ्य को नहीं स्वीकारते और हमेशा अवधारणाओं को धुंधला कर देना चाहते हैं। दूसरों के द्वारा पहचाने जाने और निंदित होने से बचने के लिए वे कभी भी सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच भेद करने को लेकर ईमानदार नहीं होते, वे कभी भी अपने सच्चे विचार उजागर नहीं करते, हमेशा गोलमोल ढंग से बोलते हैं, और लोगों को कभी नहीं बताते कि वे वास्तव में क्या सोच रहे हैं। वे किससे बात कर रहे होते हैं उस हिसाब से अलग-अलग बातें कहते हैं, जरूरत के अनुसार स्थिति के साथ पूरी तरह से समायोजित हो जाते हैं। हर लिहाज से, ये लोग सत्य या परमेश्वर के अस्तित्व में रुचि नहीं रखते। यह अवसरवादी लोगों की दूसरी अभिव्यक्ति है। वे सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच भेद करने को लेकर ज्यादा ईमानदार नहीं होते।
इन अवसरवादी लोगों में और कौन-सी विशेषताएँ होती हैं? ये लोग परिस्थितियों के अनुरूप ढलने में खास माहिर होते हैं और रुकना या छोड़कर जाना हमेशा चीजों के विकसित होने के आधार पर चुनेंगे। कलीसिया में शामिल होते समय ही वे हर कदम की योजना बना लेते हैं और अपने बाहर निकलने की रणनीति और अपनी संभावनाओं की काफी तैयारी कर चुके होते हैं। अपने दिलों में हिसाब-किताब करके वे इस बारे में योजनाएँ बनाते हैं कि परमेश्वर के वचनों के साकार होने पर क्या करना है और कुछ वर्षों के बाद भी इनके साकार नहीं होने पर क्या करना है। ऐसा व्यक्ति कलीसिया में प्रवेश करने के बाद कलीसिया के कार्य के प्रति कभी भी पूरी तरह से प्रतिबद्ध नहीं होता है। इसके बजाय, वह अपने अगले कदम तय करने के लिए कलीसिया के विकास, कलीसिया का उसके प्रति रवैया और उसके साथव्यवहार और दूसरे कारकों की निरंतर जाँच-परख करता है। क्या इन लोगों के विचार बहुत पेचीदा नहीं हैं? (हाँ।) हालाँकि वे कलीसिया में शामिल हो गए हैं, फिर भी उनका परिप्रेक्ष्य हमेशा अस्थायी ही होता है, एक संविदा कर्मी की तरह, वह हमेशा “तन यहाँ और मन कहीं और,” वाली दशा में रहता है, उनके दिमाग में षड्यंत्र और साजिशें चलती रहती हैं। परमेश्वर में विश्वास रखने और कलीसिया में शामिल होने का उनका चुनाव बस अनिच्छा से किया हुआ समझौता होता है, न कि कोई आध्यात्मिक जरूरत या परमेश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करने के आधार पर परमेश्वर का अनुसरण करने और मानव जीवन के सही मार्ग पर चलने की इच्छा। उनमें इसके लिए आस्था का अभाव होता है। ये लोग प्रतीक्षा करो और देखो वाले रवैए के साथ परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, वे अपने दिलों में हिसाब करते हैं : “अगर परमेश्वर में विश्वास रखने से मुझे इस जीवन में सौ गुना मिले और आनेवाली दुनिया में अनंत जीवन मिले, बचाए जाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का मौका मिले, तो मैं अनुसरण करूँगा और विश्वास रखूँगा। अगर मुझे ये चीजें नहीं मिल सकतीं, तो मैं कभी भी किसी भी स्थिति में कलीसिया छोड़ दूँगा और विश्वास रखना बंद कर दूँगा।” वे परमेश्वर में विश्वास, पूरी तरह से आशीष प्राप्त करने की अवसरवादी आशा से ही रखते हैं। अगर उन्हें आशीष नहीं मिल सकते, तो वे किसी भी वक्त और किसी भी स्थिति में अपने कर्तव्यों का परित्याग कर सकते हैं, और अपने लिए एक दूसरा रास्ता बना सकते हैं, क्योंकि उनके दिलों ने कभी भी कलीसिया में जड़ें नहीं जमाई हैं, न ही उन्होंने वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखने और परमेश्वर का अनुसरण करने का मार्ग चुना है।
इन अवसरवादी लोगों की ये तीन मुख्य विशेषताएँ हैं : वे इस बात को गंभीरता से नहीं लेते कि परमेश्वर का अस्तित्व है या नहीं, वे सकारात्मक और नकारात्मक चीजों में गंभीरता से भेद नहीं करते और वे कभी भी किसी भी स्थिति में कलीसिया छोड़कर जा सकते हैं। भाई-बहन उनसे चाहे जितना भी अच्छा व्यवहार करें, अगर चीजें उनके हितों से मेल नहीं खातीं या उनकी मौजूदा जरूरतों को पूरा नहीं करतीं, तो वे कलीसिया छोड़कर जा सकते हैं। लेकिन जब उनके पास जाने के लिए कहीं जगह नहीं होती है, तो वे वापस लौट आना चुन लेते हैं। वापस लौट आने के बाद भी वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, और किसी भी समय दोबारा कलीसिया छोड़कर जा सकते हैं। वे किस प्रकार के नीच लोग हैं? उनका आना-जाना बहुत बेपरवाह लगता है; वे परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास नहीं रखते। ये अवसरवादी लोगों की विशेषताएँ हैं; अपने सार के लिहाज से, वे छद्म-विश्वासी हैं। कुछ लोग तीन से पाँच वर्ष तक विश्वास कायम रख सकते हैं, कुछ लोग आठ से दस वर्ष तक कायम रख सकते हैं, लेकिन उनका प्रयोजन महज अवसरवादिता से आशीष प्राप्त करने का प्रयास करना होता है। ऐसे लोग सरल नहीं होते। यहाँ तक कि वे अब तक मुख्यभूमि चीन के सख्त, उत्पीड़न वाले परिवेश को सहते रहे हैं—क्या यह कुछ हद तक ऐसा नहीं है जैसे “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना?” कुछ लोग दस वर्ष तक विश्वास रखने के बाद अब टिक नहीं पाते, इसलिए वे शिकायत करते हैं : “दस साल हो गए हैं। मेरी जवानी कलीसिया में व्यर्थ हो गई। अगर ये दस साल मैंने दुनिया में कड़ी मेहनत कर बिताए होते, तो मैं कितना पैसा कमा सकता था? हो सकता है कि मैं मैनेजर बन जाता, और शायद मेरे पास बहुत सारी संपत्ति होती।” फिर वे बेचैन हो जाते हैं। उन्होंने सिर्फ अपनी अल्प जिज्ञासा और आशीषों की इच्छा पूरी करने के लिए दस वर्ष तक परमेश्वर में विश्वास रखा, लेकिन उन्होंने कभी भी सत्य का अनुसरण नहीं किया। नतीजतन, उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया। उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने का पछतावा होता है, यहाँ तक कि वे यह कहकर खुद को कोसते भी हैं, “बेवकूफ, निकम्मे! तूने चौड़ी आसान सड़क पर चलने के बजाय इस तकलीफदेह रास्ते पर चलने के लिए जोर दिया। किसी ने तुझे मजबूर नहीं किया; यह तेरा अपना चयन था!” कुछ लोग दस वर्ष तक विश्वास रखने के बाद भी छोड़ सकते हैं, अचानक बिना कुछ सोचे-समझे छोड़ सकते हैं। समाज में दो-तीन साल बिताने के बाद वे पाते हैं कि समाज में काम करना उतना सहज या आसान नहीं है जितना उन्होंने कल्पना की थी, और गैर-विश्वासियों की दुनिया उतनी रंगीन या आदर्श नहीं है जैसे लगती थी; उनके लिए बाहरी दुनिया में कहीं भी निर्वाह करना उतना आसान नहीं है। इस बारे में सोचने के बाद, वे पाते हैं कि कलीसिया अब भी बेहतर है, इसलिए वे बेशर्मी से वापस आ जाते हैं। लौट आने पर वे कहते हैं, “परमेश्वर में विश्वास रखना अच्छी बात है; गैर-विश्वासी बुरे हैं, हमेशा लोगों को धौंस देते रहते हैं। दुनिया में बहुत दुख है। इतने वर्ष परमेश्वर के वचन पढ़े बिना, कलीसिया का जीवन जिए बिना, मैं अंधकार में डूब गया, हर दिन रोता रहा, अपने दांत पीसता रहा; मुझे इतना ज्यादा सताया गया है कि अब मैं इंसान जैसा नहीं लगता। परमेश्वर में विश्वास रखना ही बेहतर है!” वे घोषणा करते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखना बेहतर है, लेकिन वास्तव में ऐसा इसलिए है कि उन्होंने सुना कि दुनिया में बहुत सारी विपत्तियाँ हैं, और मानवजाति को जल्द ही एक महाविपत्ति का अनुभव होने वाला है। जमीन-जायदाद, गाड़ियाँ और मकान होना बेकार है; केवल आस्था वाले लोग ही बचाए जा सकते हैं। इसलिए वे फिर से परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए वापस लौट आते हैं। क्या यह व्यक्ति अवसरवादी नहीं है? (हाँ।) अवसरवादी लोग कलीसिया को कभी भी छोड़कर जा सकते हैं। यदि वे देखते हैं कि कलीसिया में वापस लौटने से आशीष पाने की उम्मीद है, तो वे किसी भी समय वापस भी आ सकते हैं। वापस लौटने के बाद, वे पछतावे के कुछ शब्द बोल सकते हैं और बता सकते हैं कि वे फिर कभी परमेश्वर को नहीं छोड़ेंगे, लेकिन यह देखने के बाद कि दुनिया में शांति और सुकून है, और वे अभी भी कुछ अच्छे दिनों का आनंद ले सकते हैं, तो वे किसी भी समय दोबारा कलीसिया छोड़कर जा सकते हैं। वे परमेश्वर के घर और कलीसिया को क्या समझते हैं? वे उसे एक मुक्त बाजार समझते हैं, जब चाहें आते-जाते रहते हैं। मुझे बताओ, अगर ऐसे लोगों को बाहर निकाल दिया जाता है या वे अपने-आप छोड़कर चले जाते हैं, फिर अगर वे वापस आना चाहें तो क्या कलीसिया को उन्हें वापस लेना चाहिए? (नहीं।) उन्हें वापस नहीं लेना चाहिए। उन्हें वापस लेना एक गलती है और इससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है। ये लोग कलीसिया के सदस्यों के मानकों पर खरे नहीं उतरते। वे कभी भी कलीसिया छोड़कर जा सकते हैं, और आशीष प्राप्त करने के लिए वे कभी भी कलीसिया में वापस घुस सकते हैं, लेकिन इस पूरे समय में वे सत्य कभी नहीं स्वीकारते। इससे साबित होता है कि वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। ऐसे लोग हमेशा बहिष्कृत और निष्कासित किए जाने के लक्ष्य होंगे। कलीसिया को उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए और उनसे कहना चाहिए : “पछताओ मत। एक बार तुम चले गए तो तुम लौट कर नहीं आ सकते। कलीसिया तुम्हारे लिए दूसरी बार दरवाजा नहीं खोलेगा। सिद्धांत यही है।” कुछ लोग कहते हैं : “उस वक्त वे मूर्ख थे, लेकिन अब उनका बर्ताव बहुत अच्छा है। वे छोटे-से मेमने जितने ही आज्ञाकारी हैं, दर-दर भटकने वाले बेघर इंसान जितने ही दयनीय हैं। जब भी वे भाई-बहनों को देखते हैं, वे अपने पछतावे और कृतज्ञता के बारे में बात करते हैं, पछतावे में रो-रो कर उनकी आँखें लाल हो जाती हैं। वे बेहद दयनीय दिखाई देते हैं, और स्वीकारोक्ति का उनका रवैया बहुत अच्छा होता है। हमें उन्हें वापस आने देना चाहिए।” क्या यहाँ ऐसा कोई वाक्य है जो सिद्धांतों से मेल खाता है? (नहीं।) तीन वर्ष या यहाँ तक कि दस वर्ष से विश्वास रखने के बाद भी वे दृढ़ता से और बेझिझक कलीसिया छोड़कर जा सकते हैं। वे किस प्रकार के नीच हैं? क्या वे सच्चे विश्वासी हैं? (नहीं।) जब शुरुआत में उन्होंने परमेश्वर का अनुसरण करना चुना, तो क्या उनमें ईमानदारी थी? नहीं। अगर उनमें जरा भी ईमानदारी होती, तो वे कलीसिया को छोड़कर जाने को उतने दृढ़संकल्प नहीं होते। सामान्यतः किसी के मन में अधिक-से-अधिक ऐसे विचार तब आते हैं, जब वह कमजोर होता है, उदास होता है, या जब चीजें उसके लिए अच्छे ढंग से नहीं हो रही होतीं हैं, लेकिन वह परमेश्वर में तीन, पाँच या यहाँ तक कि दस वर्ष से विश्वास रखने के बाद कोई दूसरा तरीका ढूँढ़ने के लिए कभी भी कलीसिया छोड़ने का दृढ़ता से निर्णय नहीं लेगा। अगर वह अपनी मर्जी से कलीसिया छोड़ सकता है, तो यह दर्शाता है कि सच्चे मार्ग को स्वीकारते समय और शुरु में कलीसिया में शामिल होते समय वह ईमानदार नहीं था; उसकी मंशाएँ और लक्ष्य गलत थे—इसे कहने का कोई दूसरा तरीका नहीं है। ऐसे लोगों को स्पष्ट रूप से पहचाना जाना चाहिए। वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। परमेश्वर में उनका विश्वास और परमेश्वर का उनका अनुसरण आशीष प्राप्त करने की अवसरवादी आशा के लिए है। ऐसे लोगों को अवसरवादियों के रूप में परिभाषित किया जाता है, और एक बार पहचाने जाने के बाद, उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। अगर वे कलीसिया नहीं छोड़ते, और कलीसिया के भीतर अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए स्थिति का फायदा उठाते रहते हैं, तो यह इसलिए है कि कोई भी उनकी असलियत पहचानने में सक्षम नहीं है। लेकिन इन अवसरवादियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर आज की संगति के जरिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को ऐसे लोगों की स्पष्ट समझ और पहचान हो जानी चाहिए। एक बार यह पता चल जाए कि वे परमेश्वर के वचन कभी नहीं पढ़ते या परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, परमेश्वर के कार्य या परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों में रुचि नहीं रखते, सकारात्मक चीजों में रुचि नहीं रखते, और उन्हें गंभीरता से नहीं लेते, तो उनसे काफी सतर्क रहना चाहिए। परमेश्वर में विश्वास रखने में उनकी मंशाओं और प्रयोजनों को देखना जरूरी है, और कलीसिया के प्रति उनके रवैए का, सत्य के प्रति उनके रवैए का और परमेश्वर के प्रति उनके रवैए का पता लगाना जरूरी है। अगर यह स्पष्ट दिखाता है कि उनमें सही रवैया नहीं है, वे सत्य का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति खास तौर पर उदासीन हैं, किसी तरह की कोई रुचि नहीं दिखाते हैं, और परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया हमेशा संशयात्मक रहता है, तो इस बात की पुष्टि की जा सकती है कि ये लोग अवसरवादी और छद्म-विश्वासी हैं। उस स्थिति में, उन्हें भाई-बहन नहीं माना जाना चाहिए; वे कलीसिया का हिस्सा नहीं हैं। बल्कि उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। उन्होंने वर्षों से विश्वास रखा है और फिर भी वे सत्य स्वीकार नहीं करते; क्या उन लोगों के साथ सत्य पर संगति करते रहना लाभकारी होगा? क्या उनके प्रायश्चित्त करने की प्रतीक्षा करते रहना उचित होगा? अब ऐसे लोगों पर कार्य मत करो, और उनके प्रायश्चित्त करने की प्रतीक्षा मत करो। अगर वे अपना कर्तव्य निभाने को तैयार नहीं हैं, और फिर भी कलीसिया छोड़े बिना यहीं रुके रहना चाहते हैं, तो कलीसिया के अगुआओं को उन्हें अक्लमंदी से अलग-थलग करने का तरीका ढूँढ़ना चाहिए। क्या यह उपयुक्त है? (हाँ।) एक बार इन लोगों की अवसरवादियों के रूप में पहचान हो जाने पर वे विभिन्न बुरे लोगों और छद्म-विश्वासियों की श्रेणियों में वर्गीकृत हो चुके होते हैं। बुरे लोग और छद्म-विश्वासी होने के कारण वे कलीसिया से बहिष्कृत और निष्कासित कर दिए जाने के सिद्धांत और शर्तें पूरी करते हैं। उन्हें जल्द बाहर निकाल देना निश्चित रूप से देर से बाहर निकालने से बेहतर है। उन्हें जल्द बाहर निकाल देने से कई मुसीबतों से बचा जा सकता है, और फिर उन्हें व्यथित महसूस करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। ऐसे लोगों को तुम्हें स्पष्ट रूप से बता देना चाहिए : “तुम्हें अपने दिल में यह हिसाब लगाने की जरूरत नहीं है कि कब छोड़ कर जाना है या कैसे छोड़ना है, और तुम्हें यह भी हिसाब लगाने की जरूरत नहीं है कि तुम्हें रुकना है या छोड़कर जाना है। परमेश्वर का घर और परमेश्वर लोगों को मजबूर नहीं करते हैं; अगर तुम छोड़ना चाहते हो, तो कलीसिया तुमसे रुकने का आग्रह करने की कोशिश नहीं करेगी। लेकिन एक बात तुम्हारे मन में स्पष्ट हो जानी चाहिए : अगर तुम सुनिश्चित हो चुके हो कि तुम परमेश्वर के घर के व्यक्ति नहीं हो, और तुम कलीसिया का सदस्य बनने को तैयार नहीं हो, तो यथाशीघ्र छोड़कर चले जाओ। इसमें सबका भला है। अगर तुम परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हो, परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में स्वीकार कर सकते हो, और सच्चाई से कलीसिया में शामिल होने को तैयार हो, तो तुम न्यायपूर्वक कलीसिया के सदस्य हो। लेकिन अभी तुम नहीं हो। तुम अवसरवादिता के लिए आए हो, और हो सकता है कि यह बात तुम खुद नहीं जानते, लेकिन हमने पहचान लिया है—परमेश्वर के वचनों, सत्य और सभी प्रकार के लोगों से निपटने के कलीसिया के सिद्धांतों के अनुसार—तुम एक अवसरवादी हो। तुम कलीसिया छोड़कर जाने के लिेए उपयुक्त समय का हिसाब लगाते रहते हो; यह बड़ी तकलीफ की बात है। तुम्हें उपयुक्त समय का पता लगाने की जरूरत नहीं है; तुम अभी जा सकते हो। परमेश्वर के प्रकटन और कार्य को लेकर तुम हमेशा अनिश्चित रहते हो, तो मैं तुम्हें अभी साफ तौर पर बता देता हूँ : तुम्हें अब चीजों पर विचार करने या उनकी जाँच-पड़ताल करने की जरूरत नहीं है, तुम्हें चीजों को अपने लिए कठिन बनाने की जरूरत नहीं है—तुम अभी कलीसिया छोड़कर जा सकते हो, परमेश्वर के घर के दरवाजे खुले हैं, परमेश्वर का घर तुम्हें नहीं रोकेगा, वह लोगों को मजबूर नहीं करता है।” क्या ऐसा करना उपयुक्त है? (हाँ।) उन्हें “बाहर जाने का रास्ता” दे दो; उन्हें हर दिन अपनी भावनाओं, अपनी देह, अपनी संभावनाओं और रुकने या छोड़कर जाने के मसले से निरंतर परेशान होते हुए, बेहद घबराते हुए यातना मत सहने दो। इन चीजों से उन्हें जितना भी सताया जाए, इनका कभी कोई अंजाम नहीं निकलता। वे अभी भी अपने दिलों में विचार करते रहते हैं कि कब छोड़कर जाना है, कैसे छोड़ना है, अगर वे जल्दी छोड़कर चले गए तो क्या उन्हें नुकसान और दुर्भाग्य भुगतना पड़ेगा, और अगर वे ज्यादा समय तक रुक गए तो क्या उन्हें आशीष मिलेंगे। क्या होगा अगर उनके छोड़कर जाने के बाद परमेश्वर के वचन साकार हो जाएँ? क्या होगा अगर वे छोड़कर न जाएँ और परमेश्वर के वचन पूरे न हों? इन चीजों के बारे में उन्हें निरंतर चिंता करने और व्याकुल होने की जरूरत नहीं है। चूँकि वे सच्ची इच्छा से परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं, इसलिए उन्हें यथाशीघ्र छोड़कर चले जाना चाहिए। उन्हें अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए स्थिति का फायदा उठाने की कोशश करते हुए और ऐसा होने का दिखावा करते हुए जोकि वे नहीं हैं, यहाँ नहीं रहना चाहिए। मुझे बताओ, क्या उन्हें ऐसा परामर्श देना और इस बात को इस तरह सँभालना अच्छा है? (हाँ।) क्या अवसरवादियों को बहिष्कृत या निष्कासित करने के लिए विभिन्न बुरे लोगों की श्रेणी में रखना ज्यादती है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं : “ऐसे लोगों को बुरे लोग कैसे माना जा सकता है?” छद्म-विश्वासियों में कितने लोग अच्छे होते हैं? परमेश्वर की दृष्टि में, परमेश्वर में विश्वास रखने वालों और परमेश्वर के अस्तित्व को स्वीकारने वालों का स्वभाव सार भी बुरा माना जाता है, उनकी बात तो छोड़ ही दो जो पूरी तरह से परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते और परमेश्वर का अस्तित्व नहीं स्वीकारते। तो क्या उन्हें बुरे लोगों की श्रेणी में रखना ज्यादती है? (नहीं।) कुछ भी हो, उन्हें अभी भी इंसान कहा जा रहा है—बुरे इंसान। यह पहले ही काफी अच्छी बात है कि उन्हें बुरे राक्षस की श्रेणी में नहीं रखा जा रहा है। उन्हें बुरे लोगों की श्रेणी में रखना पूरी तरह से उपयुक्त और सटीक है; इसमें कोई ज्यादती नहीं है। ऐसे बुरे लोग भी उन विभिन्न प्रकार के लोगों में हैं जिन्हें परमेश्वर के घर द्वारा बहिष्कृत या निष्कासित किया जाना है। यह चौथे प्रकार का छद्म-विश्वासी है, जिसका परमेश्वर में विश्वास रखने का प्रयोजन अवसरवादी है।
अवसरवादियों की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं? इन लोगों के साथ अपनी बातचीत से, और उनके स्वभावों, दृष्टिकोणों, रवैयों या उनके द्वारा प्रकट मानवता को देखकर तुम लोगों ने कौन-सी मुख्य विशेषताएँ पाई हैं? उन्हें संक्षेप में प्रस्तुत करो। (अवसरवादी शुरू में सत्य का अनुसरण करने के लिए परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं। वे सुनते हैं कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया पनप रही है, तो वे लाभ खोजते हुए सिर्फ इस आशा से परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए आते हैं कि उन्हें परमेश्वर के घर से कुछ लाभ और आशीष मिलेंगे। और अगर थोड़े समय बाद उन्हें ये चीजें प्राप्त नहीं होतीं, तो वे छोड़कर जाना चाहते हैं। ये लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, और परमेश्वर में विश्वास रखने में उन्हें लेशमात्र भी रुचि नहीं होती।) अवसरवादियों के साथ सबसे बड़ी समस्या क्या है? प्रमुख मुद्दा यह है कि उन्हें सत्य में रुचि नहीं होती है, लेकिन उन्हें आशीष प्राप्त करने में सबसे अधिक रुचि होती है, इसलिए उनके लिए सत्य स्वीकारना सबसे कठिन है। कुछ लोग कहते हैं : “तुम उन्हें सिर्फ इस कारण से बहिष्कृत या निष्कासित नहीं कर सकते कि वे सत्य में रुचि नहीं रखते, सही है ना?” इन लोगों का सत्य में रुचि का अभाव मुख्य रूप से इस बात में प्रदर्शित होता है कि वे कभी भी परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते या सत्य पर संगति नहीं करते। अगर वे किसी को सत्य पर संगति करते हुए और स्वयं को जानने या समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य खोजने के बारे में बताते हुए सुनते हैं, तो वे अपने दिलों में एक विशेष विमुखता महसूस करते हैं, वे बिल्कुल रुचि नहीं लेते, और ऊंघने लगते हैं। वे इन चीजों से बेहद विमुख होते हैं, यहाँ तक कि वे दूसरों को सत्य पर संगति से बाधित करने के लिए बेकार की गपशप में लगा देते हैं, विपत्तियों के बारे में बोलते हैं, और परमेश्वर द्वारा संकेत और चमत्कार प्रदर्शित करने के बारे में चर्चा करते हैं। नतीजतन, जो कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे इन विषयों के बारे में सुनने पर जोश में आ जाते हैं और चर्चा में शामिल हो जाते हैं। क्या यह कलीसियाई जीवन को खुलेआम बाधित करना नहीं है? वे अपने दैनिक जीवन में विरले ही परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, और कभी-कभार पढ़ते भी हैं, तो शायद इस कारण से कि कोई बात उन्हें अंदर से परेशान कर रही होती है। वे सभाओं में परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने या परमेश्वर के वचनों पर संगति करने में रुचि नहीं लेते। वे सिर्फ इन बातों से संबंध रखते हैं : “परमेश्वर का दिन कब आएगा? महाविपत्ति कब समाप्त होगी? हम स्वर्ग के राज्य के आशीषों का आनंद कब ले पाएँगे?” वे हमेशा इन चीजों के बारे में सोचते रहते हैं। अगर कोई भी इन विषयों पर चर्चा नहीं करता तो वे ऑनलाइन खोजने लगते हैं, और खोजने के बाद, वे सभाओं के दौरान इन बातों को फैलाना शुरू कर देते हैं। उनके दिल इन चीजों में डूब जाते हैं। जब तक वे दूसरों को उन विषयों पर संगति करते हुए सुनते हैं जिनमें वे रुचि रखते हैं, तो कुछ बोलकर वे संगति में शामिल हो सकते हैं। लेकिन जैसे ही उन्हें सत्य या परमेश्वर के वचनों से संबंधित विषय-वस्तु सुनाई पड़ती है, वे सुनना नहीं चाहते। वे झपकियाँ लेने लगते हैं, कुछ लोग तो चले भी जाते हैं और कुछ दूसरे सीधे न बैठकर कुलबुलाने लगते हैं—वे तमाम किस्म की भद्दी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं। तुम कहते हो, “चलो, परमेश्वर के वचनों पर संगति करते हैं।” वे कहते हैं, “मैं प्यासा हूँ, मुझे थोड़ा पानी चाहिए।” तुम कहते हो, “चलो, स्वयं को जानने के बारे में संगति करते हैं,” या “चलो, हम कर्तव्य निभाने की विस्तृत बातों पर संगति करते हैं; देखें कि इस बारे में परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, और सत्य सिद्धांत क्या हैं।” वे कहते हैं, “मुझे कुछ काम है। मैं जा रहा हूँ। तुम लोग अपनी बातों का आनंद लो।” वे परमेश्वर के वचनों और सत्य पर संगति करने से मना करने और नकारने के लिए हर तरह के बहाने ढूँढ़ते हैं। यह स्पष्ट रूप से इस तथ्य को उजागर करता है कि वे न सिर्फ सत्य से प्रेम नहीं करते बल्कि सत्य से विमुख भी हैं और अपने दिलों की गहराई से सत्य का प्रतिरोध करते हैं। जब भी परमेश्वर के वचनों और सत्य का जिक्र होता है, वे खुलेआम उसका विरोध नहीं करते या बहस नहीं करते, बल्कि उन्हें नकारने और उनसे बचने के तमाम बहाने ढूँढ़ लेते हैं। क्या ये व्यवहार स्पष्ट रूप से नहीं दिखा सकते कि वे अवसरवादी हैं? क्या यह स्पष्ट रूप से नहीं दर्शाता कि वे छद्म-विश्वासी हैं, किसी विशेष प्रयोजन से, अवसरवादिता के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं : “तुम कहते हो कि वे छद्म-विश्वासी हैं और ईमानदारी से परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते, तो वे अब तक विश्वास रखने में कैसे सक्षम रहे हैं, और अभी भी कलीसिया के कार्य के लिए कड़ी मेहनत कर रहे और कष्ट सह रहे हैं?” अभी हमने जिन व्यवहारों का जिक्र किया, क्या वे इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए काफी नहीं हैं? ये व्यवहार यह साबित करने के लिए काफी हैं कि हमने उन्हें सटीक ढंग से पहचाना और श्रेणीबद्ध किया है। इसलिए यह मापने के लिए कि परमेश्वर में विश्वास रखने का किसी का प्रयोजन अवसरवादी है या नहीं, तुम्हें उस व्यक्ति को परमेश्वर, परमेश्वर के कार्य और सत्य के प्रति उसके रवैए, और सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के प्रति उसके रवैए के आधार पर मापना और पहचानना चाहिए। यह सबसे सटीक है। उसके बाहरी व्यवहार और क्रियाकलापों के आधार पर मापना सटीक और वस्तुनिष्ठ नहीं है। सिर्फ उसके सच्चे आतंरिक विचारों और परमेश्वर और सत्य के प्रति उसके रवैयों से मसलों का खुलासा होता है; वह किस प्रकार का व्यक्ति है, इसे निर्धारित करने के लिए यही सबसे सटीक मानक हैं। अब, क्या तुम लोग बुनियादी रूप से उन लोगों के बारे में स्पष्ट हो जिनका परमेश्वर में विश्वास रखने का प्रयोजन अवसरवादी है? क्या तुम सभी लोग इस प्रकार के लोगों से मिल चुके हो? (हाँ।) ऐसे लोगों के लिए यथाशीघ्र छोड़कर जाना बेहतर है। अगर वे ईमानदारी से सेवा करने को तैयार हों, तो उन्हें अनिच्छा से रखा जा सकता है। लेकिन अगर वे अपने कर्तव्य नहीं निभाते, और कोई सेवा नहीं कर सकते, बल्कि कलीसिया के कार्य और कलीसियाई जीवन को बाधित करते हैं और उस पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं, तो उन्हें यथाशीघ्र बाहर कर देना चाहिए। छद्म-विश्वासियों को बाहर निकालने का यही सिद्धांत है। परमेश्वर के घर को ऐसे लोग चाहिए जो ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखते हों, और सत्य से प्रेम करते हों; उसे वफादार सेवाकर्मियों की जरूरत है। उसे संख्या बढ़ाने के लिए छद्म-विश्वासियों या हिचकिचाते हुए विश्वास रखनेवालों की बिल्कुल जरूरत नहीं है। कलीसिया को भी संख्या बढ़ाने के लिए किसी की जरूरत नहीं है। इस विषय पर आज हम अपनी संगति यहीं समाप्त करेंगे।
ङ. कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करना
अब हम पांचवें प्रयोजन पर संगति करेंगे : कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखना। तुम लोग कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने के इस विषय से परिचित हो, है ना? (हाँ।) कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने वालों की क्या अभिव्यक्तियाँ होती हैं? किन अभिव्यक्तियों के जरिए हम यह निर्धारित कर सकते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका प्रयोजन अशुद्ध है, वे ईमानदारी से परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर रहे हैं या उद्धार प्राप्त करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं, और वे सत्य का अनुसरण करने, उसे स्वीकारने और परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकारने की इच्छा के आधार पर परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने के लिए कलीसिया में नहीं आए हैं, बल्कि कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने आए हैं? कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने का क्या अर्थ है? इसका सतही अर्थ बहुत स्पष्ट है। इसका अर्थ है धार्मिक विश्वास के जरिए किसी संप्रदाय में शामिल होना ताकि अपने दैनिक जीवन से जुड़े मसलों और भोजन को सुरक्षित करने की समस्या को हल कर सकें। कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने की यही सबसे संक्षिप्त और सटीक परिभाषा है और यही सबसे स्पष्ट परिभाषा भी है। तो ये लोग कौन-सी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं जिनसे यह पुष्ट होता है कि वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं, बल्कि कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने आए हैं। कुछ लोगों में किसी खास कौशल में प्रवीणता और एक सामान्य व्यक्ति के रूप में कार्य करने की क्षमता होती है, लेकिन वे देखते हैं कि यह समाज अन्यायपूर्ण है और इसमें काम करते हुए जीवन-यापन करना आसान नहीं है। अपने परिवार के सभी सदस्यों को सहारा देने हेतु काम करके पैसे कमाने के लिए जल्दी उठने और देर से सोने की जरूरत होती है, ढेरों मुश्किलें सहनी पड़ती हैं, और बहुत-सी शिकायतों को सहते हुए जीना पड़ता है—इंसान को व्यवहार-कुशल और लचीला होने के साथ-साथ बहुत निर्मम और बुरा भी होना पड़ता है, उसमें छलबल और क्षमताएँ भी होनी चाहिए—तभी जाकर कोई एक स्थायी आजीविका प्राप्त कर सकता है और खुद को समाज में स्थापित कर सकता है। काम करनेवालों को देखें तो वे चाहे जिस भी उद्योग में हों, या चाहे उच्च, मध्यम या निचले किसी भी सामाजिक वर्ग में हों, जीवन-यापन करना आसान नहीं है। वे सफेदपोश कर्मचारी अपने मनभावन रंग-रूप, ऊँची पदवियों, उच्च शैक्षणिक योग्यताओं, बड़े वेतनों और सुविधाओं के साथ मनुष्य जैसा मुखौटा लगाते हैं, और हर कोई उनसे ईर्ष्या करता है, लेकिन कार्यस्थल में सामने आने वाली हर बाधा उनके लिए एक कठिन परीक्षा होती है। किसी भी क्षेत्र में काम करना आसान नहीं होता है। किसान होना और खेत में काम करना और भी कठिन होता है। किसान कड़ी मेहनत करते हैं, पसीना बहाते हैं, फिर भी वे अपने परिवार को खिलाने जितना अनाज ही ले पाते हैं, उनके पास कपड़े और दूसरी जरूरी चीजें खरीदने या अपने घर की मरम्मत करवाने के पैसे नहीं होते, और जब भी वे थोड़ा पैसा खर्च करना चाहते हैं, तो उन्हें सब्जियाँ बेचने या मवेशियों को पालने के भरोसे रहना पड़ता है—किसान होना और भी ज्यादा दुखदायी है! जैसा कि गैर-विश्वासी कहते हैं, “पैसा कमाना कठिन है—जन्म लेना तो आसान है, मगर जीना कठिन है”—जीवन-यापन करना बहुत मुश्किल है। कुछ लोगों के पास आजीविका कमाने का कोई साधन नहीं होता, और वे देखते हैं कि गैर-विश्वासी बहुत बुरे हैं, और वे सोचते हैं कि धार्मिक आस्था वाले लोग निष्कपट होते हैं, और कलीसिया में जीवन-यापन करना थोड़ा आसान हो सकता है, इसलिए वे कलीसिया में घुसपैठ करने के लिए परमेश्वर के घर के सुसमाचार को प्रचारित करने के अवसर का फायदा उठाते हैं। और यह सुनने के बाद कि वहाँ अपने कर्तव्य निभाने वाले लोगों को भोजन दिया जाता है, वे कर्तव्य करने के लिए आ जाते हैं। जो कुछ लोग कर्तव्य करना चाहते हैं, वे सोचते हैं, “मैं अपने परिवार का कमाऊ व्यक्ति हूँ। अगर घर में खेती करने वाले लोग हैं, और मेरे परिवार के जीवन-यापन का खर्च निकल आता है, तो मैं अपना कर्तव्य निभाऊँगा।” परमेश्वर में विश्वास रखने और कर्तव्य निभाने का उनका मुख्य प्रयोजन अपना जीवित रहना सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त भोजन और गर्म कपड़े जुटाना है—दिन में तीन वक्त का खाना मिल जाए, और अपने भरण-पोषण के लिए अब काम करने और पैसा कमाने के भरोसे न रहना पड़े; अगर उन्हें कलीसिया और भाई-बहनों की सहायता मिल जाए तो उनके लिए सब कुछ ठीक है। इस लक्ष्य को पाने के लिए वे कोई भी वह काम कर लेते हैं जो कलीसिया उनके लिए व्यवस्थित करती है। कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो कलीसिया में प्रवेश करने के बाद यह सीखना शुरू कर देते हैं कि अगुआ कैसे बनें और उपदेशों का प्रचार कैसे करें। वे परमेश्वर के वचनों का बहुत पाठ करते हैं, परमेश्वर के बहुत सारे वचनों को हाथ से लिखकर याद करते हैं, और याद करने के बाद वे उन्हें दूसरों को प्रचारित करना सीखते हैं और समस्याएँ सुलझाने में लोगों की मदद करते हैं। वे हरेक की मदद करने की हर संभव कोशिश करते हैं, आशा करते हैं कि उनसे मदद पाकर लोग उनकी ओर मदद का हाथ बढ़ाएँगे, और आशा करते हैं कि उनके उपदेशों और उनके द्वारा प्रचारित परमेश्वर के वचन सुनने के बाद उनके प्रति कृतज्ञता महसूस करेंगे, और इस तरह उन्हें दान और सहायता प्रदान करेंगे। उदाहरण के लिए, अगर उनके पास घर के पानी और बिजली के बिल चुकाने के पैसे न हों, तो भाई-बहन ये बिल चुकाने में उनकी मदद कर सकते हैं, और अगर उनके पास बच्चों की ट्यूशन फीस देने या अपने बीमार माता-पिता के इलाज का खर्च उठाने के लिए पैसे न हों, तो कलीसिया या भाई-बहन उन्हें ये राशियाँ दे सकते हैं, क्योंकि वे कर्तव्य निभा रहे हैं। इस तरह वे परमेश्वर में विश्वास रखकर आराम महसूस करते हैं और उन्हें लगता है कि परमेश्वर में उनका विश्वास लाभप्रद है, इससे उन्हें कोई हानि नहीं हुई है, और उन्होंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है। वे यह कहते हुए अपने दिल से परमेश्वर को निरंतर धन्यवाद देते हैं, “यह सब परमेश्वर का अनुग्रह है, परमेश्वर की कृपा है। परमेश्वर का धन्यवाद!” परमेश्वर के प्रेम का “प्रतिदान” करने के लिए वे कलीसिया की व्यवस्थाओं का “पालन” करते हैं, और अगर उन्हें भोजन और आजीविका के खर्चे दे दिए जाएँ, तो वे कैसा भी काम कर लेंगे—उनका लक्ष्य इसके एवज में बस एक स्थिर आजीविका प्राप्त करना है। जब कभी कलीसिया उनके जीवन-यापन की जरूरतों की अनदेखी करती है, और समय रहते उनकी कठिनाइयों को हल नहीं करती, तो वे दुखी हो जाते हैं। कलीसिया और परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें सौंपे गए कर्तव्यों के प्रति उनका रवैया तुरंत बदल जाता है। वे कहते हैं, “इससे काम नहीं चलेगा, मुझे बाहर जाकर पैसे कमाने होंगे। पहले, मेरे पास पैसे कमाने का अवसर नहीं था, क्योंकि मैं कलीसिया का कार्य कर रहा था। यहाँ तक कि मैं वह कार्य करने के लिए खुद उपस्थित होकर अक्सर बड़े लाल अजगर द्वारा गिरफ्तार किए जाने का जोखिम भी मोल लेता था, और हर जगह लोग मुझे जानते हैं। अब मेरे लिए पैसे कमाना सुविधाजनक नहीं है। मुझे क्या करना चाहिए?” ऐसी स्थिति में, वे सक्रिय होकर भाई-बहनों के सामने अपनी कठिनाइयाँ और माँगें प्रस्तुत करेंगे, यहाँ तक कि परमेश्वर के घर के पास भी जाकर अपनी माँगें रखेंगे। कुछ लोगों के पास अपने जीवन-यापन के लिए या अपने बुढ़ापे के लिए पैसे नहीं होते, लेकिन वे ये समस्याएँ खुद नहीं सुलझाते। इसके बजाय, वे अपनी आजीविका के खर्च हेतु पैसे कमाने के लिए परमेश्वर के घर में मेहनत करने पर भरोसा करते हैं। कुछ लोग इस मामले को और आगे बढ़ाते हैं—वे न केवल परमेश्वर के घर से अपनी आजीविका का खर्च और अपने बच्चों के पालन-पोषण और अपने माता-पिता को सहारा देने की लागत देने का आग्रह करते हैं, बल्कि वे उनके इलाज का खर्च भी माँगते हैं। कुछ लोग परमेश्वर के घर से अपने कर्जे चुकाने के लिए भी पैसे माँगते हैं—उनकी माँगें धीरे-धीरे बहुत ज्यादा बढ़ जाती हैं, और ऐसी चीजें माँगते हुए वे वाकई बेशर्मी दिखाते हैं। कुछ लोगों के परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए आकर कलीसिया में शामिल हो जाने के बाद उनके खर्च उठाने के लिए परमेश्वर के घर द्वारा दिया गया पैसा और उनके द्वारा सक्रिय होकर माँगी हुई अतिरिक्त राशि, उनके कामकाज से कमाए हुए पैसे से ज्यादा हो जाती है। ये शर्तें पूरी होने के आधार पर, वे बाहर से, परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें सौंपे गए कार्य को समर्पण और बड़ी वफादारी से निभाते हुए-से लगते हैं। लेकिन एक बार जब ये लाभ घटा दिए जाते हैं, या ये गायब हो जाते हैं, तो उनका रवैया बदल जाता है। कलीसिया द्वारा उन्हें सौंपे गए कार्य के प्रति उनका रवैया, भाई-बहनों के उनके प्रति रवैए और परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें प्रदत्त वित्तीय सहायता की राशि के आधार पर बदलता रहता है। एक बार जब उन्हें दिया गया अनुग्रह वापस ले लिया जाता है या वह गायब हो जाता है, तो वे उसके बाद अपने कर्तव्य करते हुए दिखाई नहीं देते। जिस क्षण ये लोग परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते हैं, तभी से हिसाब लगाने लग जाते हैं कि वे परमेश्वर के घर में कैसे धोखे से अपनी जगह बना सकेंगे, और वहाँ पाँव जमाने के बाद कैसे भाई-बहनों के दान और मदद, और साथ ही परमेश्वर के घर से मदद और अपने दैनिक जीवन के लिए आपूर्तियों का “न्यायपूर्वक” आनंद ले सकेंगे। वे खुद को परमेश्वर के लिए जरा भी ईमानदारी से नहीं खपाते हैं, वे बिना शर्त खुद को खपाने के लिए बिल्कुल नहीं आते हैं—इसके बजाय, वे सिर्फ एक लक्ष्य से कलीसिया में शामिल होते हैं, जो उसके सहारे अपना जीवन-यापन करना और आजीविका चलाना है। जब उनकी इच्छा के अनुसार यह प्रयोजन पूरा नहीं हो पाता, तो वे शीघ्र शत्रुतापूर्ण हो जाते हैं, और तेजी से अपने असली चेहरे का खुलासा कर देते हैं, जोकि एक छद्म-विश्वासी का चेहरा होता है। जब से वे परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते हैं, तभी से वे इसे ईमानदारी से नहीं करते; वे ईमानदारी से परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते, या पुरस्कार माँगे बिना और बदले में कुछ भी माँगे बिना स्वेच्छा से परमेश्वर के लिए चीजों को नहीं त्यागते या खुद को नहीं खपाते। इसके बजाय, वे अपनी ही माँगें, मंशाएँ, और प्रयोजन लेकर परमेश्वर में विश्वास रखने आते हैं—परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण, वे कृतसंकल्प होकर कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने और अपनी आजीविका चलाने के लिए कलीसिया और भाई-बहनों के भरोसे रहने के अपने प्रयोजन से आते हैं। जब यह प्रयोजन उनकी इच्छा के अनुसार पूरा नहीं हो पाता है, तो वे काम पर जाकर या व्यापार-व्यवसाय करके आगे बढ़ने का दूसरा रास्ता खोजते हैं। क्या इस प्रकार के लोग नहीं होते हैं? (हाँ।) कलीसिया में इस प्रकार के कुछ लोग होते हैं। शुरुआत में, जब परमेश्वर का घर या भाई-बहन उन्हें दान में कुछ देते हैं, जैसे कि कपड़े-लत्ते, दैनिक जरूरतों का सामान या पैसा, तो वे बाहर से शर्मिंदा होते हुए-से लगते हैं, लेकिन भीतर से वास्तव में वे खुशी से झूम रहे होते हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि वे एक या दो भाई-बहनों की मेजबानी करते हैं या अपना पूर्णकालिक कर्तव्य करते हैं, और इसलिए परमेश्वर का घर या भाई-बहन उनके परिवारों को थोड़ा दान और वित्तीय सहायता देते हैं। वे इसको लेकर बहुत खुश और संतुष्ट होते हैं, सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखना लाभप्रद और फायदेमंद है, और उन्होंने कुछ खोया नहीं है। समय के साथ, उनके दिल ज्यादा-से-ज्यादा लालची होते जाते हैं, वे अपने हाथ और ज्यादा फैलाने लगते हैं, वे और ज्यादा बेशर्म होते जाते हैं—उन्हें चाहे जितना भी दिया जाए, वे कभी संतुष्ट नहीं होते। शुरुआत में, चीजें स्वीकार करते हुए वे शर्मिंदा महसूस करते है, लेकिन समय के साथ, उन्हें लगता है कि यह कुछ हद तक न्यायसंगत है, और फिर वे इस बात पर नाराज होने लगते हैं कि यह काफी नहीं है। बाद में, वे सीधे तौर पर माँग करते हैं कि परमेश्वर के घर को उन्हें एक विशेष राशि देनी ही चाहिए; वरना, वे जीवित रहने में सक्षम नहीं हो सकेंगे और इस तरह अपने कर्तव्य नहीं निभा सकेंगे। क्या उनका लालच और ज्यादा नहीं बढ़ता जा रहा है? (हाँ।) इतने अधिक अनुग्रह का आनंद लेने के बावजूद वे न सिर्फ उसका प्रतिदान करने के बारे में नहीं सोचते, बल्कि परमेश्वर के घर से और ज्यादा माँगने लगते हैं। वे मानते हैं कि परमेश्वर का घर ही उनका ऋणी है, भाई-बहन ही उनके ऋणी हैं, और उन्हें दान और वित्तीय सहायता दिया जाना बिल्कुल सही है। अगर उन्हें कम दिया जाता है या उन्हें बाद में मिलता है, तो वे खुश नहीं होते। उन्हें जितना भी पैसा और जितनी भी चीजें दी जाती हैं वे उन्हें स्वीकार कर लेते हैं, यह महसूस करते हैं कि यह सही है। जैसे-जैसे वे लंबी अवधि के लिए अपना कर्तव्य निर्वहन जारी रखते हैं, वे और अधिक हकदार महसूस करते हैं और माँग करना शुरू कर देते हैं कि परमेश्वर का घर उन्हें कीमती फोन और कंप्यूटर प्रदान करे। वे यह भी माँग करते हैं कि परमेश्वर का घर उनके घरों में एयरकंडीशनर लगवाए और माइक्रोवेव और डिशवाशर जैसे उपकरण लगवाए। वे यह भी माँग करते हैं कि परमेश्वर का घर उनके लिए घर खरीदे, और उन्हें एक गाड़ी दे, कुछ लोग तो कामवाली बाई की भी माँग करते हैं। उनकी माँगें बढ़ जाती हैं, उनका लालच बढ़ जाता है, और आखिरकार उनकी माँगें सुरसा के मुँह का आकार लेने लगती हैं, और वे कुछ भी माँगने की हिमाकत कर बैठते हैं। वे मानते हैं, “मैंने परमेश्वर में अपने विश्वास में परमेश्वर के घर के लिए खुद को खपाया है और काफी कड़ी मेहनत की है। मैं परमेश्वर के घर का हिस्सा हूँ। तुम लोग परमेश्वर को इतनी भेंटें चढ़ाते हो—मुझे एक हिस्सा देने में क्या नुकसान है? यही नहीं, अगर तुम मुझे एक हिस्सा दोगे, तो यह मुफ्त में दिया हुआ नहीं होगा; मैं भी परमेश्वर के घर में मेहनत करता हूँ और जोखिम उठाता हूँ, मैं भी तकलीफें सहता हूँ और कीमत चुकाता हूँ। क्या यह सही नहीं है कि मुझे भी इन चीजों का आनंद लेने का मौका मिले? इसलिए, परमेश्वर के घर को मेरी माँगें बिना किसी शर्त के मान लेनी चाहिए, मुझे जो भी चाहिए दे देना चाहिए, और उसे कंजूसी नहीं करनी चाहिए।” मुझे बताओ, क्या ये कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं? क्या ऐसे लोग छद्म-विश्वासी नहीं हैं? (हाँ।) इन व्यवहारों की सटीक परिभाषा कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करना है। कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है परमेश्वर में विश्वास रखने की आड़ में परमेश्वर के घर से पैसा और वस्तुएँ उगाहना, और परमेश्वर के घर के लिए मेहनत करने और कर्तव्य निभाने की आड़ में परमेश्वर के घर से मुआवजे की माँग करना। कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने का यही अर्थ है। क्या ऐसे लोग सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? (नहीं।) वे किस लिए चीजों को त्यागते हैं, मेहनत करते हैं, और कठिनाई सहते हैं? क्या यह कर्तव्य निभाने के लिए है? क्या वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं? (नहीं।) वे अपना कर्तव्य निभाने के उद्देश्य से बिल्कुल यह मेहनत नहीं करते, कठिनाइयाँ नहीं सहते, बल्कि पूरी तरह से आजीविका चलाने के लिए करते हैं, और वे किसी को भी उनकी जरा-सी भी आलोचना नहीं करने देते—वे बस न्यायसंगत ढंग से कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करना चाहते हैं। ये वे लोग हैं जो कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करते हैं।
जो लोग कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करते हैं, वे किसी और कारण से नहीं बल्कि अपनी आजीविका चलाने के लिए, जीवन-यापन करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। क्या तुम लोगों के आसपास ऐसे लोग हैं जो कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करते हैं? उनकी अभिव्यक्तियों के बारे में बताओ। (मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिल चुका हूँ। शुरुआत में वह थोड़ा अक्लमंद और जोशीला लगा, इसलिए कलीसिया ने उसके लिए सुसमाचार का प्रचार करने की व्यवस्था की। उस समय, उसका परिवार तकलीफ में था, इसलिए कलीसिया ने उसे थोड़ी मदद प्रदान की। लेकिन बाद में पता चला कि उसने बिना किसी सिद्धांत के पैसे खर्च कर दिए थे, उन चीजों पर खर्च किए थे जिन पर नहीं करने चाहिए, और जिसमें बचत करनी चाहिए थी उसमें नहीं की थी। जब भाई-बहनों ने उसके साथ सत्य सिद्धांतों पर संगति की, तो वह भीतर से बेहद नाखुश और बहुत प्रतिरोधी था। क्योंकि उसने परमेश्वर के घर के पैसे का दुरुपयोग किया था, इसलिए कलीसिया ने परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं और शर्तों के अनुसार उचित समायोजन कर दिए, जिससे उसे दी जाने वाली वित्तीय सहायता घट गई। परिणामस्वरूप उसने कर्तव्य निभाने का अपना पुराना जोश खो दिया और वह ज्यादा-से-ज्यादा लापरवाह होता गया। बाद में, कलीसिया ने उसकी मदद करना बंद कर दिया, और फिर उसका दिल कर्तव्य निभाने में नहीं लगा। वह अपना सारा समय इस सोच में गुजारने लगा कि कैसे काम करे और पैसे कमाए। उसने यह दावा करके कि उसे गाड़ी लेनी है और कोई कंपनी शुरू करने में निवेश करना है, उसने भाई-बहनों से पैसे उधार भी लिए, और यह कहा कि इससे सुसमाचार का प्रचार करने में ज्यादा सुविधा होगी, और इससे ज्यादा लोग प्राप्त हो सकेंगे। स्पष्ट रूप से वह इन शब्दों से लोगों को धोखा दे रहा था, उन्हें गुमराह कर रहा था; वह भाई-बहनों को ठगकर पैसे लेने के लिए सुसमाचार का प्रचार करने के बहाने का इस्तेमाल कर रहा था।) इस व्यक्ति से कैसे निपटा गया? (उसे सीधे निष्कासित कर दिया गया।) ऐसा करना सही था। यह कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करना है। जब कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने वाले लोग पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो वे कुछ हद तक जोशीले लगते हैं, और खुद को थोड़ा खपाते हैं, उस वक्त उनकी माँगें ऊँची नहीं होतीं—सिर्फ भोजन मिल जाए तो उनके लिए काफी होता है। लेकिन समय के साथ, वे अब उन चीजों से संतुष्ट नहीं होते जो उन्हें दी जाती हैं, और वे ऊँची-से-ऊँची माँगें करने लगते हैं, और उनकी माँगें पूरी न की जाएँ, तो वे अनिश्चित ढंग से कार्य करते हैं, और सेवा करने की इच्छा नहीं रखते। जब वे अपने कर्तव्य थोड़ा-बहुत निभाते हैं, तो भी उन पर नजर रखनी होती है, वरना वे उसे लापरवाही से करते हैं। आखिरकार, जब यह पता चलता है कि वे जो सेवा करते हैं उससे फायदे के बजाय नुकसान ज्यादा होता है, तो वे हटा दिए जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर का घर उन्हें प्यार क्यों नहीं देता?” प्यार देने के भी कुछ सिद्धांत हैं। वे लोग छद्म-विश्वासी हैं, वे परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते, या सत्य स्वीकार नहीं करते, वे अपने कर्तव्य निभाते समय लगातार चिकने घड़े की तरह और लापरवाही से कार्य करते हैं, सत्य पर संगति किए जाने पर वे नहीं सुनते, या किसी प्रकार की काट-छाँट नहीं स्वीकारते, और यह कहा जा सकता है कि वे सुधरने लायक नहीं होते हैं। परिणामस्वरूप उन्हें सिर्फ बहिष्कृत और निष्कासित करके ही निपटा जा सकता है। अगर अगुआओँ और कार्यकर्ताओं को इस किस्म के व्यक्ति का पता चल जाए तो उन्हें उससे तुरंत निपटना चाहिए, और अगर भाई-बहनों को ऐसे व्यक्ति का पता चल जाए तो उन्हें तुरंत इसकी सूचना अगुआओं और कार्यकर्ताओं को देनी चाहिए। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हरेक की जिम्मेदारी है। एक बार जब इस बात की पुष्टि हो जाए कि यह व्यक्ति कलीसिया के सहारे जीवन-यापन कर रहा है, वह सिर्फ आजीविका चलाने पर ध्यान दे रहा है, वह एक छद्म-विश्वासी है, और इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि पैसे नहीं दिए जाने पर वह काम करने से इनकार करता है, जब उसे लगता है कि उसे पर्याप्त पैसा नहीं दिया गया है तो वह अनिच्छुक और शत्रुतापूर्ण हो जाता है, और सिर्फ पर्याप्त पैसे दिए जाने पर ही वह थोड़ा कार्य करता है, तो उसके प्रति थोड़ी भी उदारता नहीं दिखानी चाहिए—उसे बाहर निकाल देना चाहिए! संक्षेप में कहें, तो इस प्रकार के लोग परमेश्वर के घर में सेवा करने लायक हैं भी नहीं। अगर तुम उन्हें पैसे न दो, तो वे सेवा करने को तैयार नहीं होंगे; लेकिन अगर तुम उन्हें पैसे देते रहोगे, तो यह जानकर भी कि वे बस सेवा कर रहे हैं, वे करने को तैयार हो जाएँगे। लेकिन ये छद्म-विश्वासी किस प्रकार की सेवा कर सकते हैं? वे अच्छी तरह सेवा भी नहीं कर सकते, और उनकी सेवा मानक स्तर की न हो, तो उन्हें हटा देना चाहिए। इसलिए एक बार यह पहचान लेने के बाद कि वे कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने वाले लोग हैं, उनसे निपट कर उन्हें बुरे लोगों के रूप में कलीसिया से निष्कासित कर देना चाहिए। इसमें जरा भी ज्यादती नहीं है; यह पूरी तरह से लोगों को बहिष्कृत और निष्कासित करने के परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुरूप है। क्या इस प्रकार के लोगों को प्रायश्चित्त करने का मौका दिया जाना चाहिए? क्या उन्हें जाँच-परख के लिए रखा जाना चाहिए? (नहीं।) क्या वे प्रायश्चित्त करने में सक्षम हैं? (नहीं।) वास्तव में यही उनकी प्रकृति है; वे कभी भी प्रायश्चित्त नहीं करेंगे। वे शैतान की किस्म के हैं। शैतान की किस्म में, दानवी लुच्ची प्रकृति वाला एक प्रकार का व्यक्ति होता है जो जहाँ भी रहे दूसरों की मुफ्त की रोटियाँ तोड़ना चाहता है, कहीं भी जाए कोई उचित कार्य नहीं करता, और सिर्फ लोगों को ठगने और धोखा देने की कोशिश करता रहता है। वह देखता है कि परमेश्वर के विश्वासियों में मानवता है और अनुमान लगा लेता है कि ये लोग आसान शिकार हैं, इसलिए वह कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने के लिए परमेश्वर के घर में आ जाता है। उसे यह कम ही मालूम होता है कि परमेश्वर का घर बहुत पहले ही ऐसे लोगों को पहचान कर उनसे सतर्क हो चुका है, और उसके पास ऐसे लोगों से निपटने के सिद्धांत हैं। जब कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने के उसके प्रयास विफल हो जाते हैं, तो वह शर्मिंदगी से गुस्से में चूर होकर अपना असली रंग दिखा देता है। उस मुकाम पर, तुम जान लोगे कि परमेश्वर का घर ऐसे लोगों को प्रायश्चित्त करने का मौका क्यों नहीं देता—इसका कारण यह है कि उनमें जरा भी मानवता नहीं होती और वे बदल पाने में अक्षम होते हैं। ये वे दानवी लुच्चे हैं जिनकी चर्चा गैर-विश्वासी करते हैं। इसलिए, परमेश्वर का घर ऐसे लोगों से, उन्हें सीधे बहिष्कृत या निष्कासित कर और कभी भी कलीसिया में वापस स्वीकार न करके निपटता है। क्या उन लोगों से बुरे लोगों के रूप में निपटना उचित है? (हाँ।) इसी के साथ इस विषय पर हमारी संगति समाप्त होती है।
च. शरण लेने के लिए
अब हम छठे प्रयोजन पर संगति करेंगे, छठे प्रकार के छद्म-विश्वासी पर, जिसे कलीसिया से बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए : ऐसे लोग जिनका परमेश्वर में विश्वास रखने का प्रयोजन शरण लेना है। कुछ लोग कहते हैं, “शरण लेने की कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं? क्या परमेश्वर में विश्वास रखने वालों में ऐसे लोग हैं जो शरण लेते हैं? क्या ऐसे लोग वास्तव में होते हैं?” क्या तुम लोगों ने कभी किसी को कहते सुना है, “कलीसिया एक शरण स्थली है; क्या लोग परमेश्वर में इसलिए विश्वास रखते हैं ताकि वे शरण ले सकें”? धर्म में संलग्न बहुत-से लोग यह कहते हैं। इस कहावत के सार के लिहाज से क्या इस कहावत और उस प्रयोजन के बीच कोई अंतर है जिसका हम गहन विश्लेषण करने वाले हैं—“शरण लेने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखना?” (हाँ।) क्या अंतर है? वे किस आपदा से बचने के लिए शरण लेते हैं? (जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, उनमें सत्य का अनुसरण करते समय कुछ अशुद्धियाँ भी होती हैं; वे आपदाओं या कठिनाइयों से बचने और थोड़ी शांति प्राप्त करने की भी उम्मीद करते हैं। लेकिन छठे प्रयोजन का व्यक्ति उस प्रकार का है जो विशुद्ध रूप से शरण लेने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखता है, और उसमें परमेश्वर में लेशमात्र भी सच्ची आस्था नहीं होती। यही अंतर है।) यहाँ अंतर परमेश्वर में विश्वास रखने के प्रयोजन में अशुद्धियाँ होने बनाम शरण लेने के एकल प्रयोजन से परमेश्वर में विश्वास रखने का है। इस अंतर के अलावा, एक और भी अंतर इस लिहाज से है कि वे किस आपदा से बचने के लिए शरण ले रहे हैं। कुछ लोगों में परमेश्वर में विश्वास रखने के उनके प्रयोजन के साथ अशुद्धियाँ भी मिली होती हैं; वे परमेश्वर में इस कारण से विश्वास रखते हैं कि विपत्तियों से बच सकें, विपत्तियों से बच कर निकल सकें, या इसलिए कि परमेश्वर उनकी रक्षा करेगा और उन पर नजर रखेगा, और फिर वे कुछ खतरों और आपदाओं से वस्तुनिष्ठ रूप से बच सकेंगे। उनका लक्ष्य इन आपदाओं से बचने का होता है। इस छठे प्रयोजन में हम एक प्रकार के व्यक्ति पर संगति कर रहे हैं—वह व्यक्ति जिसका परमेश्वर में विश्वास रखने का प्रयोजन शरण लेना है—व्यापक दायरे की आपदाओं से बचने के लिए शरण लेना। ऐसे लोगों के लिए जो चीज सबसे अधिक वास्तविक है वह भविष्य में आने वाली उन बड़ी आपदाओं और विपत्तियों को टालने से काफी परे है। तो उनके लिए सबसे अधिक वास्तविक मुद्दे क्या हैं? समाज में भयानक दुश्मनों का सामना करना, कानूनी मुकदमों से निपटना, सरकारी अधिकारियों या प्रभावशाली लोगों को आहत करना, कानून तोड़ना, उनके देश में युद्ध या विभिन्न आपदाओं का होना, या उनके जीवन या उनके परिवार की सुरक्षा के लिए खतरा बनने वाले कुछ लोगों या घटनाओं का सामना करना, वगैरह-वगैरह। इन स्थितियों का सामना करने के बाद, उन्हें एक ऐसी कलीसिया मिल जाती है जिसे वे शरण लेने के लिए भरोसेमंद और विश्वसनीय मानते हैं; छठे प्रयोजन में जो शरण लेने की बात की गई है, वह यही है। यानी जब वे अपने दैनिक जीवन में अपने जीवन, परिवार, कार्य, करियर आदि के लिए खतरा बनने वाली कुछ कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो वे बड़ी संख्या में लोगों से गठित एक शक्ति की मदद पाने के प्रयास में, शरण लेने के लिए कलीसिया में आते हैं। यही है शरण लेने के प्रयोजन से परमेश्वर में विश्वास रखना, जैसा कि छठे प्रयोजन में जिक्र किया गया है। क्या यह सच्चे विश्वासियों की अशुद्धियों से अलग नहीं है? (हाँ।) इस प्रकार के व्यक्ति का परमेश्वर में विश्वास रखने का प्रयोजन शरण लेना है, कलीसिया से मदद माँगना है। यानी, वह आशा करता है कि कलीसिया उसकी मदद करेगी, और वित्तीय सहायता के अलावा, वह कलीसिया से यह भी माँग करता है कि कलीसिया उसे रक्षा, समर्थन और सहायता प्रदान करे। ऐसे कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों का दमन करने वाली और नुकसान पहुँचाने वाली दुष्ट सत्ताओं या दुष्ट शक्तियों से लड़ने के लिए समाज में कलीसिया के प्रभाव, रुतबे और प्रतिष्ठा का भी लाभ उठाना चाहते हैं, ताकि उनके जीवन या आजीविकाओं की रक्षा हो सके। यह परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका प्रयोजन है। क्या ऐसे लोग होते हैं? वे मानते हैं कि कलीसिया एक अच्छी शरण स्थली है जिसे राजनीति और समाज से अलग किया जा सकता है, और उन्हें लगता है कि जरूरत पड़ने पर कलीसिया ईमानदारी और दया से मदद का हाथ बढ़ाकर उन्हें किसी भी प्रकार की वित्तीय सहायता दे सकती है, उनके साथ खड़ी हो सकती है, उनकी रक्षा कर सकती है, कानूनी मुकदमों में उनका प्रतिनिधित्व कर सकती है और उनके अधिकारों और हितों के लिए लड़ सकती है। परमेश्वर में विश्वास रखने का इन लोगों का यही उद्देश्य है। क्या ऐसे लोग आज भी कलीसिया में हैं? क्या तुम लोगों ने ऐसे लोगों के होने की बात सुनी है? विदेशी कलीसियाओं में निश्चित रूप से इस प्रकार के लोग हैं। ये लोग केवल शरण लेने के प्रयोजन से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और कलीसिया में शामिल होते हैं। वे नहीं समझते कि आस्था क्या होती है, सत्य में रुचि रखना तो बहुत दूर की बात है। लेकिन जब कठिनाइयों से उनका सामना होता है और उन्हें समाज में कोई मदद नहीं मिलती, तो वे कलीसिया के बारे में सोचते हैं, और मानते हैं कि कलीसिया ही वह जगह है जहाँ वे सुरक्षा के साथ शरण ले सकते हैं, जो बचने का सर्वोत्तम रास्ता है, सबसे सुरक्षित स्थान है, इसलिए वे परमेश्वर में विश्वास रखने को चुनते हैं और आपदाओं को टालने के अपने प्रयोजन को पूरा करने के लिए कलीसिया में प्रवेश करते हैं।
आपदाएँ अब और भी ज्यादा बढ़ रही हैं और मनुष्य के पास जीने का कोई रास्ता नहीं है। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो पूरी तरह से आपदाओं को टालने के लिए ही परमेश्वर में विश्वास रखने को चुनते हैं। वे मानते हैं कि परमेश्वर का अस्तित्व है, लेकिन उन्हें सत्य से जरा भी प्रेम नहीं है। अगर ऐसे लोग परमेश्वर में विश्वास रखने लगते हैं, तो क्या कलीसिया को उन्हें प्रवेश देना चाहिए? बहुत-से लोग इस मुद्दे को स्पष्ट रूप से नहीं समझते और सोचते हैं कि जो कोई भी यह मानता है कि परमेश्वर का अस्तित्व है, उसे कलीसिया द्वारा प्रवेश दिया जाना चाहिए। यह एक भयानक गलती है। किसी को प्रवेश देने का कलीसिया का निर्णय इस बात पर आधारित होना चाहिए कि क्या वह इंसान सत्य को स्वीकार कर सकता है और क्या वह परमेश्वर के उद्धार का पात्र है, इस पर नहीं कि वह परमेश्वर में विश्वास रखने को तैयार है या नहीं। ऐसे कई दानव हैं, जो परमेश्वर में विश्वास रख कर आशीष पाना चाहते हैं, और आगे का रास्ता खोजना चाहते हैं—क्या कलीसिया को ऐसे लोगों को भी प्रवेश देना चाहिए? यह अनुग्रह के युग में सुसमाचार का प्रचार करने जैसा नहीं है, जब किसी भी विश्वास रखने वाले को प्रवेश दे दिया जाता था; राज्य के युग में, कलीसिया द्वारा किसी को प्रवेश देने को लेकर सिद्धांत हैं और परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों के प्रतिबंध हैं। इंसान चाहे कोई भी हो, अगर वह सत्य से प्रेम नहीं करता या उसे स्वीकार नहीं करता, तो उसे प्रवेश नहीं दिया जा सकता। ऐसे लोगों को प्रवेश क्यों नहीं दिया जाता? ऐसे लोगों को प्रवेश मुख्य रूप से इसलिए नहीं दिया जा सकता, क्योंकि हम स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकते कि उनकी पृष्ठभूमि क्या है, या वे वास्तव में किस तरह के लोग हैं। अगर कलीसिया किसी दानव, या जघन्य दुष्टता करने वाले किसी बुरे इंसान को प्रवेश देती है, तो हर कोई जानता है कि कलीसिया पर इसके क्या दुष्परिणाम होंगे। इसके अलावा, परमेश्वर में विश्वास रखने में हमें समझना चाहिए कि उसके इरादे क्या हैं, वह किसे बचाता है और किसे हटा देता है। कलीसिया किन लोगों से बनती है? यह उन लोगों से बनती है, जो परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करते हैं, जो सत्य से प्रेम करते हैं, जो परमेश्वर द्वारा स्वीकार किए जाते हैं। परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता, जो वास्तव में उसमें विश्वास नहीं रखते और सत्य को स्वीकार नहीं करते, क्योंकि सत्य को स्वीकार न करना इंसान की प्रकृति की एक समस्या है, और इस तरह का इंसान शैतान का होता है और कभी नहीं बदलेगा। इसलिए, ऐसे लोगों को कभी भी कलीसिया में प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिए। अगर कोई किसी बुरे इंसान या दानव को कलीसिया में प्रवेश देता है, तो उस शैतान का अनुचर माना जाता है। वह जान-बूझकर कलीसिया का कार्य बिगाड़ने और नष्ट करने आया है और वह परमेश्वर का शत्रु है। ऐसे किसी दानव, परमेश्वर के शत्रु को कलीसिया में प्रवेश देना परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करना और उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करना है, और परमेश्वर का घर इसे बिल्कुल बरदाश्त नहीं करेगा। बुरे लोगों, दानवों को कलीसिया में प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिए—यह सुसमाचार के प्रचार कार्य को लेकर कलीसिया के स्पष्ट दृष्टिकोणों और अपेक्षाओं में से एक है। कलीसिया के पास उन लोगों को प्रवेश देने की कोई जिम्मेदारी नहीं है, जोआपदा से बच निकलने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखने को चुनते हैं, और न ही उसे कभी उन लोगों को प्रवेश देना चाहिए, जो सत्य को जरा-सा भी स्वीकार नहीं करते, क्योंकि परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। जो कोई सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में नहीं स्वीकारता, जो कोई सत्य का प्रतिरोध करता है और उससे विमुख होता है, वह बुरे लोगों में गिना जाता है, और परमेश्वर उसे नहीं बचाता। जहाँ तक उन लोगों की बात है, जो अपने दिलों में परमेश्वर को स्वीकार करते हैं, फिर भी सत्य से प्रेम नहीं करते, और जो छद्म-विश्वासियों की श्रेणी में रखे जाते हैं, जो भरपेट रोटियाँ खाते हैं, कलीसिया को उनमें से किसी को भी प्रवेश नहीं देना चाहिए। समाज के उन निर्लज्ज लोगों का तो कहना ही क्या, जो कलीसिया में शरण लेने के लिए आना चाहते हैं—उन्हें तो बिलकुल भी प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिए। कारण यह है कि कलीसिया कोई खैराती संगठन नहीं, बल्कि वह स्थान है जहाँ परमेश्वर मनुष्य को बचाने का कार्य करता है। कलीसिया के कार्य का राष्ट्र की सरकार से कोई लेना-देना नहीं है। सामाजिक संगठन लोगों को अच्छे काम करने और अपने हथियार डाल देने के लिए मनाते हैं—यह राष्ट्र की खातिर है, और इसका कलीसिया से बिल्कुल कोई लेना-देना नहीं है। अगर कोई किसी गैर-विश्वासी बुरे व्यक्ति, किसी दानव, किसी छद्म-विश्वासी को कलीसिया में लाने का साहस करता है, तो वह इंसान परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करेगा और उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करेगा। जो कोई किसी बुरे इंसान, किसी दानव को कलीसिया में लाता है, उस इंसान को बाहर निकाल दिया जाना या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। यह सुसमाचार का प्रचार करने के कार्य के प्रति कलीसिया का स्पष्ट रुख है। जब ये बुरे लोग, दानव, परमेश्वर के घर में शरण लेने के लिए आना चाहें, तो उन्हें बताया जाना चाहिए कि वे गलत दरवाजे पर आ गए हैं, उन्होंने गलत जगह चुन ली है। कलीसिया निश्चित रूप से उन्हें प्रवेश नहीं देगी। यह उन गैर-विश्वासी लोगों के प्रति कलीसिया का स्पष्ट रुख है, जो शरण लेना चाहते हैं। क्या यह बात स्पष्ट हो गई है? (हाँ।) तो हमें ऐसे लोगों से कैसे निपटना चाहिए? उन्हें बताने का उपयुक्त तरीका क्या है? तुम कहते हो : “कोई भी देश हो, वहाँ रेड क्रॉस सोसाइटी, कल्याणकारी संस्थान, आश्रय स्थल, बौद्ध मंदिर, और साथ ही समाज में कुछ स्वयंसेवक समूह होते हैं। अगर मुश्किलों से तुम्हारा सामना हो और तुम्हें लगे कि तुम्हारे पास ऐसी शिकायतें हैं जिनका समाधान होना चाहिए, तो तुम इन संगठनों से मदद माँग सकते हो। इसके अलावा, तुम सरकार से राजनीतिक शरण या शरणार्थी के रूुप में शरण माँग सकते हो, और अगर तुम्हारी वित्तीय स्थिति इजाजत दे, तो तुम अपने मामले में सहायता के लिए कोई वकील कर सकते हो। लेकिन यह कलीसिया है; यह वह स्थान है जहाँ परमेश्वर कार्य करता है, जहाँ परमेश्वर लोगों को बचाता है, यह तुम्हारे शरण लेने की जगह नहीं है। इस प्रकार, तुम्हारा कलीसिया में प्रवेश करना अनुपयुक्त है, और तुम्हारा यहाँ रहना बेकार है। परमेश्वर ऐसे लोगों को स्वीकार नहीं करता, और कलीसिया भी ऐसे लोगों को नहीं लेती। गैर-विश्वासियों को चाहे जो भी कठिनाइयाँ हों, उन्हें परोपकारी संगठनों, राहत संगठनों या समाज में नागरिक मामलों के ब्यूरो से मदद माँगनी चाहिए—ये संगठन लोगों की सेवा करने, दान देने और दूसरों की मदद करने से संबंधित हैं। तुम्हारी चाहे जो भी शिकायत या माँग हो, तुम उन्हें बता सकते हो, या सरकार के सामने याचिका प्रस्तुत कर सकते हो। ये स्थान तुम्हारे लिए सबसे उपयुक्त हैं।” कलीसिया किसी भी छद्म-विश्वासी या गैर-विश्वासी को प्रवेश नहीं देती। अगर कोई खासतौर पर “स्नेही” है, तो वह ऐसे लोगों को व्यक्तिगत तौर पर प्रवेश दे सकता है और बस बात खत्म; वह खुद उन लोगों की चरवाही कर सकता है, और परमेश्वर का घर इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “तो फिर कलीसिया सुसमाचार का प्रचार क्यों करती है? सुसमाचार को प्रचारित करने का उद्देश्य क्या है?” सुसमाचार का प्रचार परमेश्वर का आदेश है। सुसमाचार के संभावित प्राप्तकर्ता वे लोग होते हैं जो परमेश्वर को खोजते हैं, सच्चे मार्ग को खोजते हैं और परमेश्वर के प्रकटन के लिए तरसते हैं, जो सत्य से प्रेम करते हैं, और सत्य स्वीकार सकते हैं, और जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं—सुसमाचार का उपदेश केवल इन्हीं लोगों को दिया जा सकता है। जहाँ तक उन लोगों का प्रश्न है जो परमेश्वर को नहीं खोजते, जो सत्य स्वीकार नहीं करते, बल्कि शरण लेने आते हैं, उन्हें सुसमाचार का उपदेश नहीं दिया जाता। कुछ भ्रमित लोग इस मामले की असलियत नहीं समझ सकते और अपने साथ कुछ घटने पर वे भ्रमित हो जाते हैं—ये वे भ्रमित लोग हैं जो कभी भी परमेश्वर के इरादों को नहीं समझेंगे।
छ. किसी समर्थक को ढूँढ़ना
लोगों का परमेश्वर में विश्वास रखने का सातवाँ प्रयोजन किसी समर्थक को ढूँढ़ना होता है। क्या तुम लोगों ने कभी ऐसे लोगों को देखा है? वैसे यह थोड़ी विशेष स्थिति है; हालाँकि ऐसे लोग ज्यादा नहीं होते, मगर वे होते जरूर हैं। ऐसा इस कारण से है कि परमेश्वर की कलीसियाएँ न सिर्फ चीन में, बल्कि एशिया, यूरोप, अमेरिका, और अफ्रीका के विभिन्न देशों में भी प्रकट हुई हैं, और इसलिए ये अवसरवादी और छद्म-विश्वासी उन कलीसियाओं के साथ ही सामने आएँगे। चाहे इन लोगों के सामने आने की संभावना जितनी भी हो, किसी भी स्थिति में, उनके एक बार सामने आ जाने पर, तुम लोगों को उनके आमने-सामने होकर उन्हें पहचानना पड़ेगा, और इन छद्म-विश्वासियों को कोई रुतबा हासिल करके कलीसिया में बाधाएँ डालने से रोकना पड़ेगा। अगर तुम लोग सोचते हो कि ये समस्याएँ मौजूद नहीं हैं, क्योंकि वे सामने नहीं आई हैं, या तुमने उनका सामना नहीं किया है, तो यह एक बेवकूफी भरा ख्याल है। एक बार इन समस्याओं के पैदा हो जाने पर अगर तुम उन्हें पहचान न पाओ और उन्हें हल करने का तरीका न जानो, तो वे कलीसिया, परमेश्वर के घर, भाई-बहनों, और कलीसिया के कार्य के लिए भयानक छिपे हुए खतरे लेकर आएँगी। इसलिए, इससे पहले कि कुछ हो, तुम्हें जान लेना चाहिए कि किन मसलों का सामना करना चाहिए और उन्हें कैसे सुलझाना चाहिए। यही सर्वोत्तम तरीका है; यह तुम्हारे लिए एक अदृश्य रक्षा कवच के रूप में कार्य करता है। परमेश्वर में विश्वास रखने के सातवें प्रयोजन में जिन लोगों का जिक्र किया गया है, अर्थात् जो किसी समर्थक को ढूँढ़ने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, उनकी संख्या कम नहीं हैं। इस समाज में हर जगह अन्याय, भेदभाव और दमन भरा हुआ है। समाज के सभी स्तरों में रह रहे लोग समाज के विभिन्न अन्यायों के प्रति घृणा और नफरत से भरे हुए हैं और वे गुस्से से भी भरे हुए हैं। लेकिन इंसानी दुनिया के अन्यायों से तब तक बच निकलना आसान नहीं है, जब तक तुम इससे गायब न हो जाओ। अगर कोई इस दुनिया में जीता है, अगर वह इन लोगों के बीच जीता है, तो कमोबेश, किसी-न-किसी हद तक धौंस खाएगा और अपमानित होगा, और यहाँ तक कि कुछ ताकतवर शक्तियों द्वारा उसका पीछा और उत्पीड़न भी किया जाएगा। इन विभिन्न अन्यायों और असमानताओं ने लोगों के मानस में बहुत तनाव पैदा किया है, जिससे उन पर खासा मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ा है, और बेशक लोगों के सामान्य जीवन में अनेक असुविधाएँ आई हैं। नतीजतन, कुछ लोग एक खास विचार बनाए बिना नहीं रह सकते : “किसी व्यक्ति के समाज में स्थापित होने के लिए उसके पीछे एक शक्ति होनी चाहिए जिस पर भरोसा किया जा सके। जब वे कठिनाइयों का सामना करते हैं, और उन्हें मदद चाहिए होती है, या जब वे अकेले और असहाय होते हैं, तो फिर उनका साथ देने और फैसले लेने, उनके सामने आई तकलीफों और समस्याओं को सुलझाने या उनके जीवन यापन हेतु अनिवार्य चीजें सुनिश्चित करने के लिए लोगों का कोई समूह होगा।” इसलिए, वे ऐसा समर्थन खोजने का प्रयास करते हैं। बेशक, इनमें से कुछ लोग आखिरकार कलीसिया को ढूँढ़ लेते हैं। वे मानते हैं कि कलीसिया के लोग दिल से एकजुट होते हैं, एक ही लक्ष्य की ओर कार्य करते हैं, प्रत्येक की अपनी आस्था होती है, उनके इरादे नेक होते हैं और वे दूसरों के प्रति दयालुता से कार्य करते हैं, सामाजिक द्वंद्वों से दूर रहते हैं, और समाज की बुरी प्रवृत्तियों से खुद को दूर रखते हैं। जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, उनके लिए कलीसिया निस्संदेह समाज और दुनिया में महान न्याय का प्रतीक है; लोगों के मन में कलीसिया में रहने वाले लोगों की एक सकारात्मक, अच्छी और दयालु छवि भी होती है। कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास रखना इसलिए चुनते हैं क्योंकि वे समाज के सबसे निचले तबके में होते हैं, जिनके पास समाज में किसी भी प्रकार की शक्ति नहीं होती है, और उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी अच्छी नहीं होती है। वे शिक्षा प्राप्त करने, दोस्त बनाने, नौकरी ढूँढ़ने या तरह-तरह के काम करने में विभिन्न कठिनाइयों का सामना करते हैं, इसलिए वे मानते हैं कि जीवित रहने और समाज में खुद को स्थापित करने में उनकी मदद करने के लिए कुछ लोग होने चाहिए। उदाहरण के लिए, नौकरी ढूँढ़ते समय अगर वे खुद के भरोसे रहते हैं, निरुद्देश्य ही नौकरी के अवसरों को एक के बाद एक ढूँढ़ते रहते हैं, तो हो सकता है कि कोई उपयुक्त नौकरी हाथ लगे बिना ही उनकी सारी जमा पूँजी खत्म हो जाए। लेकिन अगर उनकी तलाश में ईमानदारी से उनकी सहायता करने वाले भरोसेमंद लोगों की मदद मिल जाए, तो उन्हें बहुत कम मुश्किलें झेलनी पड़ेंगी और नौकरी ढूँढ़ने में लगाया गया वक्त भी बहुत कम हो जाएगा। इसलिए, वे मानते हैं कि अगर वे किसी ऐसे समर्थक को ढूँढ़ सकें, तो समाज की हर चीज—शिक्षा प्राप्त करने, नौकरी ढूँढ़ने, यहाँ तक कि उनके दैनिक जीवन और जीवित रहने—से निपटने के लिए उनके पास अपने व्यक्तिगत प्रभाव का प्रयोग करके उनका साथ देने के लिए कुछ लोग होंगे, जोशीले लोगों का एक समूह होगा जो परदे के पीछे से उनकी मदद करेंगे। इस तरह, जब उन्हें कलीसिया मिल जाती है, तो उन्हें लगता है कि उन्हें सही जगह मिल गई है। समाज में खुद को स्थापित करने और शांतिपूर्ण जीवन पाने के लिए कलीसिया उनकी एक बहुत अच्छी पसंद बन जाती है। उदाहरण के लिए, चाहे किसी डॉक्टर के पास जाना हो, खरीददारी करनी हो, बीमा करवाना हो, घर खरीदना हो, स्कूल चुनने में अपने बच्चों की मदद करनी हो, या कोई भी मामला सँभालना हो, उन्हें कलीसिया में हमेशा इन मसलों को सुलझाने के लिए हाथ बढ़ाकर मदद करने वाले प्यारे लोग मिल सकते हैं। इस तरह उनका जीवन बहुत ज्यादा सुविधाजनक हो जाता है, वे समाज में अब उतने अकेले नहीं रह जाते, और मामले सँभालने में आने वाली कठिनाइयाँ बहुत कम हो जाती हैं। इसलिए, उनके लिए परमेश्वर में विश्वास रखने हेतु कलीसिया में आना वास्तव में ठोस लाभ प्रदान करता है। यहाँ तक कि यदि वे डॉक्टर के पास जा रहे हों तो भाई-बहन उनकी मदद करने के लिए अस्पताल में अपने परिचितों का पता लगा लेंगे; खरीददारी में बढ़िया सौदों के लिए वे उनका उपयोग कर सकते हैं, और यहाँ तक कि अंदरूनी जानकारी वाली कीमतों पर घर खरीद सकते हैं। कलीसिया में भाई-बहनों की मदद से, ये सभी समस्याएँ हल हो जाती हैं। उन्हें लगता है, “परमेश्वर में विश्वास रखना बहुत बढ़िया है! नौकरी ढूँढ़ना, मामले संभालना, और खरीददारी जैसे सारे काम अब सुविधाजनक हैं! मुझे जब भी किसी चीज की जरूरत होती है, मुझे बस एक फोन करना होता है, या समूह में एक संदेश डालना होता है, और फिर सभी लोग एकजुट होकर मदद का हाथ बढ़ाते हैं। कलीसिया में बहुत सारे दयालु लोग हैं; मामले सँभालना अब बहुत सुविधाजनक है! कोई समर्थक ढूँढ़ना आसान नहीं था, इसलिए कुछ भी हो जाए, मैं कलीसिया नहीं छोडूँगा। लेकिन परमेश्वर के घर की सभाओं में हमेशा परमेश्वर के वचनों का पाठ करना और सत्य पर संगति करना शामिल होता है, जो मुझे अजीब लगता है और दुविधा में डाल देता है। मैं परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने को तैयार नहीं हूँ, और जब भी मैं सत्य पर संगति सुनता हूँ तो विमुख हो जाता हूँ। लेकिन अगर मैं न सुनूँ, तो काम नहीं चलेगा—मैं उन्हें नहीं छोड़ सकता। वे मेरी इतनी अधिक मदद करते हैं। अगर मैं सुनने से इनकार कर दूँ तो मुझे शर्मिंदगी महसूस होगी, और यह कहना भी अजीब होगा कि अब मैं विश्वास नहीं रखता, इसलिए मुझे साथ देना पड़ता है और अच्छी बातें बोलनी पड़ती हैं।” अपने दिलों में वे वास्तव में विश्वास नहीं रखना चाहते, लेकिन वे इस भावना को सिर्फ दबाकर रख सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “तुम उन लोगों को हमेशा केवल भाई-बहनों से मामले संभालने को कहते हुए और जब भाई-बहन मदद करते हैं तो उन्हें बहुत खुश होते हुए देखते हो—क्या तुम सिर्फ इस बात से ही पहचान सकते हो कि परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका प्रयोजन किसी समर्थक को ढूँढ़ना है?” इन अभिव्यक्तियों के अलावा, इस बात पर गौर करो कि क्या वे आमतौर पर परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और सत्य पर संगति करते हैं, क्या वे अपना कर्तव्य निभा सकते हैं और खुद में कोई वास्तविक बदलाव ला सकते हैं; इससे तुम जान सकोगे कि क्या वे परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास रखते हैं। जो लोग किसी समर्थक को ढूँढ़ते हैं, वे परमेश्वर में सिर्फ इसलिए विश्वास रखते हैं ताकि अपने मामले संभालने के लिए और अपने जीवन की कठिनाइयाँ दूर करने के लिए कलीसिया और भाई-बहनों का इस्तेमाल कर सकें। लेकिन वे कभी भी अपने कर्तव्य निर्वहन का जिक्र नहीं करते, न ही वे परमेश्वर के वचन खाते-पीते हैं या उन पर संगति करते हैं। जैसे ही वे काम करवाने के किसी बढ़िया तरीके के बारे में सुनते हैं, वे बड़े जोश में आ जाते हैं; वे बिना रुके बड़बड़ाने लगते हैं, यहाँ तक कि उन्हें बीच में टोका भी नहीं जा सकता। लेकिन जब उनके कर्तव्य निर्वहन या ईमानदार होने और झूठ नहीं बोलने या दूसरों को धोखा नहीं देने की बात आती है, तो वे गूंगे बन जाते हैं। उन्हें दिल से इन चीजों में रुचि नहीं होती—तुम चाहे जितने भी जूनून से बोलो, वे कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाते और बातचीत में शामिल नहीं होते; यहाँ तक कि वे लगातार तुम्हें रोकने और विषय को अपनी रुचि की किसी चीज की ओर घुमाने की कोशिश करते हैं। भाई-बहनों से अपने लिए काम करवाने और अपने लिए मेहनत करवाने के तरीकों के बारे में सोचने में अपना दिमाग लगाते हैं, और भाई-बहनों को कर्तव्य निभाने या इंसान के परमेश्वर के लिए खपने का जिक्र करने का कोई अवसर देना नहीं चाहते। अगर कोई यह सलाह देता है कि वे अपना कर्तव्य निभाएँ और परमेश्वर के लिए खुद को खपाएँ, तो वे जल्दी से उसके बदले पेश करने के लिए अपना खुद का कोई अत्यावश्यक मामला ढूँढ़ लेते हैं; जब भाई-बहन उनके लिए यह मामला संभाल रहे होते हैं, तो वे अनिच्छा से परमेश्वर के घर के लिए थोड़ा प्रयास करते हैं, भाई-बहनों के निवेदन को थोड़ा-सा पूरा कर देते हैं, और उनका व्यक्तिगत मामला व्यवस्थित हो जाने पर वे भाई-बहनों के प्रति ठंडे पड़ जाते हैं। कलीसिया से संपर्क बनाए रखने, इस समर्थक यानी कलीसिया और इन सहायकों यानी भाई-बहनों को न खोने के लिए वे अपने लिए उपयोगी हर किसी के साथ करीबी संपर्क बनाए रखते हैं, अक्सर उनके बारे में चिंता करते हुए पूछताछ करते रहते हैं, और रिश्ते बनाए रखने के लिए चिंता भरे लेकिन निष्ठाहीन शब्द बोलते हैं। वे इस बारे में बातें करते हैं कि परमेश्वर के अस्तित्व में उन्हें कितना अधिक विश्वास है, परमेश्वर उन्हें कितने आशीष देता है, परमेश्वर उन पर कितना अनुग्रह करता है, और कैसे वे अक्सर आँसू बहाते हैं, परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस करते हैं, और परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान करने के लिए तैयार रहते हैं—यह भाई-बहनों को धोखा देने और उनकी मदद हासिल करने के लिए होता है। एक बार जब कोई शोषण के लायक नहीं रह जाता, तो वे तुरंत उसे ब्लॉक कर देते हैं और उससे संपर्क की जानकारी हटा देते हैं। जो लोग उनके लिए सबसे अधिक लाभकारी होते हैं, जो सर्वाधिक शोषण के लायक होते हैं, उनकी वे बड़े जोश से चापलूसी और सेवा करते हैं और उनके करीब आ जाते हैं। जो लोग शोषण के लायक नहीं होते, उन्हीं की तरह जिनका समाज में कोई प्रभाव या रुतबा नहीं होता, और जो समाज के सबसे निचले दर्जे पर होते हैं जिनका कोई सहारा नहीं होता, वे उन पर एक नजर भी नहीं डालते। वे केवल उन्हीं के साथ संबंध रखते हैं जो शोषण के लायक होते हैं, और समाज में जिनके संपर्क हैं, और जिन्हें वे सक्षम लोगों के रूप में देखते हैं। वे कलीसिया के लिए सिर्फ तभी मेहनत कर सकते हैं और तकलीफें सह सकते हैं जब उन्हें कलीसिया या भाई-बहनों से कुछ चाहिए हो। वास्तव में, इस तरह के छद्म-विश्वासियों की अभिव्यक्तियाँ अत्यंत स्पष्ट होती हैं। घर में, वे कभी भी परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते, कठिनाइयाँ न होने पर वे कभी भी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, और बड़ी अनिच्छा के साथ कलीसियाई जीवन में भाग लेते हैं। वे कर्तव्य निभाने के बारे में नहीं पूछते, और कलीसिया के कार्य में खुद को शामिल करने के लिए पहल नहीं करते; खास तौर पर, वे कभी भी खतरनाक कार्य में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेते। यदि वे ऐसा करने को राजी हो जाएँ, तो भी वे बड़ी बेसब्री दिखाते हैं, और जब उन्हें करने के लिए बुलाया या आमंत्रित किया जाता है सिर्फ तभी वे अनिच्छा से थोड़ी मेहनत कर देते हैं। ये छद्म-विश्वासियों की अभिव्यक्तियाँ हैं। परमेश्वर के वचनों का पाठ नहीं करना, कर्तव्य नहीं निभाना—हालाँकि वे अनिच्छा से कलीसिया के जीवन में भाग लेते हैं, लेकिन यह उनके बहुत बड़े समर्थक यानि कलीसिया के भाई-बहनों के समुदाय को खो देने से बचने के लिए होता है। सिर्फ भविष्य में खुद के लिए मामले संभालना आसान करने के लिए ही वे इन लोगों से रिश्ते बनाए रखते हैं। एक बार जब ऐसे लोग समाज में पाँव जमा लेते हैं, उन्हें बस जाने और अपना जीवन शुरू करने की जगह मिल जाती है, एक बार जब वे दुनिया में कुछ हासिल कर लेते हैं, और एक शानदार भविष्य के लिए प्रभाव और संभावनाएँ हासिल कर चुके होते हैं, तो वे तुरंत और बेझिझक कलीसिया छोड़ देंगे, भाई-बहनों से संबंध तोड़ लेंगे, और संपर्क खो देंगे। अगर सुसमाचार का कोई ऐसा संभावित प्राप्तकर्ता है जिसके साथ उनका अच्छा रिश्ता है, और उस व्यक्ति को सुसमाचार का उपदेश देने के लिए तुम उनसे संपर्क करना चाहते हो, तो तुम उन तक पहुँचने में सक्षम नहीं हो पाओगे। वे न सिर्फ कलीसिया से संबंध तोड़ लेते हैं, बल्कि कुछ विशेष लोगों से दोस्ती भी खत्म कर देते हैं। क्या वे पहले ही छद्म-विश्वासियों के रूप में खुद से विश्वासघात नहीं कर चुके हैं? (हाँ।) तो कलीसिया को ऐसे लोगों से कैसे निपटना चाहिए? (उन्हें बाहर निकाल दो।) क्या हमें उन्हें एक मौका देना चाहिए, उनकी कमजोरी और उनके जीवन की कठिनाइयों के प्रति समझ दिखानी चाहिए, और उन्हें और ज्यादा सहारा और मदद देनी चाहिए ताकि वे यह विश्वास कर सकें कि परमेश्वर का अस्तित्व है, सत्य में रुचि ले सकें, और परमेश्वर के लिए खुद को ईमानदारी से खपा सकें? क्या यह कार्य करना जरूरी है? (नहीं।) क्यों नहीं? (क्योंकि ये लोग यहाँ परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए बिल्कुल नहीं आए हैं।) सही है, वे परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए नहीं आए हैं; उनका लक्ष्य बहुत स्पष्ट है—वे यहाँ किसी समर्थक को ढूँढ़ने आए हैं। तो क्या ऐसे लोगों से सत्य पर संगति करने के कोई परिणाम निकल सकते हैं? (नहीं।) वे इसे आत्मसात नहीं करेंगे; वे इसकी कद्र नहीं करते, उन्हें इसकी जरूरत नहीं है, और उन्हें इसमें रुचि नहीं है।
हमें उन लोगों का वर्णन कैसे करना चाहिए जो बस किसी समर्थक को ढूँढ़ने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं? उन्हें ऐसे लोगों के रूप में वर्णित करना बहुत सटीक है जो अपने हितों को किसी भी दूसरी चीज से आगे रखते हैं। अगर वे देखते हैं कि कोई व्यक्ति उनके लिए उपयोगी और लाभकारी है, तो वे उस व्यक्ति द्वारा कहा गया कोई भी काम करेंगे; यहाँ तक कि वे उसके दिए हुए किसी भी आदेश या सभी आदेशों को मानेंगे। वे अपने हितों को किसी भी दूसरी चीज से आगे रखते हैं; अगर कोई चीज उनके हितों को पूरा करती है, तो यह ठीक है। अगर तुम उनसे कहते हो कि परमेश्वर में विश्वास रखने से आशीष और लाभ मिलेंगे, तो वे उसमें यकीनन विश्वास रखेंगे और तुम जो भी करने के लिए कहोगे, वे वह काम करेंगे। अगर समाज में मामले संभालने की तुम्हारी क्षमता उनकी जरूरतें पूरी करती है और उन्हें लाभ पहुँचाती है, तो वे निश्चित रूप से तुम्हारे साथ जुड़े रहेंगे। लेकिन, तुम्हारे साथ उनके जुड़ने का यह अर्थ नहीं है कि वे परमेश्वर में वास्तव में विश्वास रख सकेंगे, न ही इसका यह अर्थ है कि वे तुम्हारी तरह ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाएँगे। भले ही वे तुम्हारे साथ मिल-जुलकर रहते हों, और तुम लोगों के विशेष रूप से अच्छे संबंध हों, इसका अनिवार्य रूप से यह अर्थ नहीं है कि तुम एक ही भाषा बोलते हो, एक ही मार्ग पर चलते हो, और एक ही चीज का अनुसरण करते हो। इसलिए, तुम्हें ऐसे लोगों से गुमराह नहीं होना चाहिए। ये लोग चालाक हैं, और इनके पास दूसरे लोगों के साथ बातचीत करने की युक्तियाँ हैं। परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका प्रयोजन किसी समर्थक को ढूँढ़ना है, सत्य का अनुसरण करना और उद्धार प्राप्त करना नहीं। यह दिखाता है कि उनका चरित्र कितना नीच और अंधकारमय है! वे कलीसिया में ऐसे लोगों को ढूँढ़ने आते हैं जिनका वे शोषण कर सकें, और वे अपने लिए विभिन्न लाभ पाने की साजिश करते हैं। क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि ऐसे लोग बिना किसी नैतिक संकोच के कार्य करने और हर तरह की शर्मनाक चीजें करने में सक्षम होते हैं? (हाँ।) सिर्फ इस तथ्य से कि परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका प्रयोजन किसी समर्थक को ढूँढ़ना और आजीविका चलाना है, यह स्पष्ट है कि ये लोग जरा भी अच्छे नहीं हैं, और वे नीच चरित्र के, स्वार्थी, घिनौने, कमीने और घने अंधकार में जीने वाले लोग हैं। इसलिए, इन लोगों से निपटने का कलीसिया का सिद्धांत भी उसी तरह उन्हें पहचान कर बहिष्कृत या निष्कासित कर देना है। एक बार जब तुम पहचान लो कि कि वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं, वे कोई रास्ता तलाशने और फायदा उठाने के लिए कलीसिया में आए हैं, अपने मामले सँभलवाने और अपनी सेवा करवाने के लिए भाई-बहनों का शोषण करना चाहते हैं, तो ऐसे मामलों में अगुआओं और कार्यकर्ताओं और भाई-बहनों को मुस्तैदी से और सटीक ढंग से स्थिति को संभालना चाहिए। कलीसिया या भाई-बहनों की सुरक्षा को खतरा पहुँचाए बिना उन्हें यथाशीघ्र बहिष्कृत या निष्कासित कर दो। उन्हें भाई-बहनों के बीच घात लगाए छिपे नहीं रहने देना चाहिए। वे परमेश्वर के उद्धार के लक्ष्य नहीं हैं। जब ऐसे लोग तुम लोगों के बीच घात लगाए छिपे रहते हैं, तो यह देखने के लिए कि कौन शोषण करने के लायक है वे सभी लोगों पर निरंतर लालची और चौकस नजर बनाए रखते हैं। वे हमेशा हिसाब लगाते रहते हैं कि क्या कलीसिया में ऐसे लोग हैं जिनका वे इस्तेमाल कर सकते हैं—किसके रिश्तेदार अस्पतालों में काम करते हैं, कौन बीमारियों का इलाज करना जानता है या किसके पास खुफिया इलाज हैं, कौन दुकानों में थोक मूल्यों पर चीजें दिलवा सकता है, किस भाई का परिवार कार डीलर का व्यापार करता है, कौन अंदरूनी जानकारी वाली कीमतों पर घर दिलवा सकता है—वे इन मामलों की खास तौर पर खोजबीन करते हैं। ये लोग अपने हिसाब-किताब में बहुत सतर्क रहते हैं! वे छोटी-छोटी बातों का भी हिसाब रखते हैं, वे भाई-बहनों के खिलाफ षड्यंत्र भी करना चाहते हैं और उनका फायदा उठाने की साजिश करना चाहते हैं। वे हर किसी की पारिवारिक पृष्ठभूमि की खोज-बीन करते हैं, और सभी को अपने षड्यंत्रों और साजिशों के दायरे में रखते हैं। क्या ऐसे लोगों से बातचीत करते समय तुम्हारे दिल को शांति महसूस हो सकती है? (नहीं।) अगर शांति न हो तो क्या किया जाना चाहिए? तुम्हें ऐसे लोगों से सतर्क रहना चाहिए। ये लोग गलत मंशाओं से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं; वे यहाँ सत्य या उद्धार का अनुसरण करने के लिए नहीं हैं, बल्कि किसी समर्थक को ढूँढ़ने, आजीविका चलाने और अपने लिए कोई रास्ता ढूँढ़ने के लिए हैं। ऐसे लोग खास तौर पर स्वार्थी, घिनौने और धूर्त होते हैं। वे कोई कर्तव्य नहीं करते और परमेश्वर के लिए खुद को नहीं खपाते हैं। जब कलीसिया को किसी काम के लिए उनकी जरूरत होती है, तो वे कहीं नहीं मिलते, और मामला खत्म हो जाने के बाद वे दोबारा प्रकट हो जाते हैं। ये लोग सिर्फ फायदा उठाना जानते हैं, और उन्हें कलीसिया में रहने देने का कोई लाभ नहीं है; उन लोगों को यथाशीघ्र बाहर निकालने के लिए विभिन्न तरीके आजमाने चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “क्या वास्तव में एक व्यक्ति से निपटने के लिए विभिन्न तरीकों की जरूरत होगी?” कलीसिया में हर प्रकार के लोग हैं; उनमें से कई सिर्फ किसी समर्थक को ढूँढ़ने और कोई रास्ता तलाशने, आशीष प्राप्त करने, या आपदाओं से बचने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। अंतर केवल इन मंशाओं की गंभीरता में ही होता है; कुछ लोग एक प्रकार का व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, जबकि दूसरे किसी और प्रकार का। इसलिए, अलग-अलग लोगों से अलग-अलग ढंग से पेश आना चाहिए; सिर्फ यही सिद्धांतों से मेल खाता है। किसी समर्थक को ढूँढ़ने वाले इन छद्म-विश्वासियों की बात करें, तो उन्हें मुस्तैदी से बाहर निकाल देना चाहिए। उन्हें कलीसिया में मुफ्त की रोटी मत तोड़ने दो। वे भाई-बहनों से अपने लिए मामले संभालने को कहते हैं—चूँकि वास्तव में मामले संभालने में उनकी मदद करने के लिए थोड़ी-सी सहायता देने की ही जरूरत होती है, तो उन्हें यह थोड़ी-सी सहायता भी क्यों नहीं दी जानी चाहिए? पहली बात यह है, जो कि बहुत ही महत्वपूर्ण बात है, कि ये लोग सच्चे विश्वासी नहीं हैं; वे पक्के छद्म-विश्वासी हैं। दूसरी बात यह है कि ये लोग विश्वास नहीं रखने वालों से सच्चे विश्वासियों में नहीं बदल सकते। ये वे लोग नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर ने पूर्वनियत किया है और चुना है; वे उसके उद्धार के लक्ष्य नहीं हैं—बल्कि वे बुरे कर्म करने वाले लोग हैं जिन्होंने कलीसिया में घुसपैठ की है। तीसरी बात यह है कि ये लोग पूरी कलीसिया में दौड़ते-भागते रहते हैं, उनके सामने आया हुआ मामला चाहे जितना भी बड़ा क्यों न हो, हमेशा भाई-बहनों से मदद माँगते फिरते हैं, जिससे भाई-बहनों को अनजाने में ही परेशानी होती है, और इस दौरान कलीसिया में ऐसा गंभीर नकारात्मक माहौल बन जाता है जो हरेक के लिए हानिकारक होता है। इसलिए, सिर्फ किसी समर्थक को ढूँढ़ने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखने वाले इन दानवों को यथाशीघ्र बाहर निकाल देना सर्वश्रेष्ठ है। अगर तुमने उनकी पहचान नहीं की है, या तुम्हें अभी यह बोध नहीं हुआ है कि वे इस प्रकार के व्यक्ति हैं, तो तुम उन्हें जाँच-परख के लिए रोके रख सकते हो। जब एक बार तुम यह पहचान लो और असलियत समझ लो कि वे उन बुरे लोगों में से हैं जिन्हें परमेश्वर के घर को बाहर निकाल देना चाहिए, तो झिझको मत और न ही उनके प्रति कोई शिष्टाचार दिखाओ। सभी लोगों से विचार-विमर्श करके सहमति बना लेने के बाद तुम उन्हें बाहर निकाल सकते हो। यदि कलीसिया के अगुआ और कार्यकर्ता इस मामले को नजरअंदाज करते हैं, और अगर ज्यादातर भाई-बहन पुष्टि करें कि वे उस प्रकार के व्यक्ति हैं जो सिर्फ किसी समर्थक को ढूँढ़ने और कोई रास्ता खोजने के लिए ही परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो झूठे अगुआओं से चर्चा किए बिना उन्हें बाहर निकाल देने का आपको पूरा अधिकार है। ऐसा करना सही और पूरी तरह से सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। यह तुम लोगों का अधिकार है, तुम लोगों का दायित्व है, तुम्हारी जिम्मेदारी है; यह तुम लोगों की स्वयं की रक्षा के लिए है। बेशक, जब उन भाई-बहनों का कठिनाइयों से सामना होता है जो सच्चे विश्वासी हैं, तो अपनी सर्वोत्तम क्षमता के अनुसार स्नेहमय सहायता और समर्थन से या फिर भौतिक सहायता के जरिए उनकी मदद करने की भरसक कोशिश करना हमारी जिम्मेदारी और दायित्व है। यही है भाई-बहनों के बीच का प्रेम, उन लोगों का प्रेम जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। लेकिन हमारी इस बात की कोई जिम्मेदारी या दायित्व नहीं है कि हम छद्म-विश्वासियों की मदद करें, क्योंकि वे भाई-बहन नहीं हैं, और इस अनुग्रह या ऐसी मदद के योग्य नहीं हैं। यही सिद्धांतों के अनुसार लोगों से पेश आना है। परमेश्वर में विश्वास रखने के सातवें प्रयोजन पर हमारी संगति यहाँ समाप्त होती है। इस प्रकार के लोगों के बारे में और अधिक विशेष उदाहरण देने की कोई जरूरत नहीं है। संक्षेप में कहें तो, जिस भी व्यक्ति का परमेश्वर में विश्वास रखने का प्रयोजन किसी समर्थक को ढूँढ़ना है, उस व्यक्ति को कलीसिया से बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए। एक बार जब अगुआ और कार्यकर्ता पहचान लें कि कलीसिया में ऐसे लोग हैं, तो उन्हें उन लोगों को मुस्तैदी से बाहर निकाल देना चाहिए। ऐसे हरेक व्यक्ति को बाहर निकाल दो, किसी को मत छोड़ो। अगर ज्यादातर भाई-बहन बेसहारा महसूस करने और अब और ज्यादा बरदाश्त न कर पाने के बिंदु तक पहले ही शोषित किए जा चुके हों, और फिर भी अगुआ और कार्यकर्ता यह कहकर उनका बचाव करते हैं कि, “उनकी अपनी मुश्किलें हैं; हमें उनकी मदद करनी चाहिए,” तो ऐसे अगुआओं से कह देना चाहिए : “वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं हैं। वे किसी भी उस व्यक्ति को अनदेखा करते हैं जो परमेश्वर के वचनों पर उनके साथ संगति करता है, और बताए जाने पर अपना कर्तव्य नहीं निभाते। उनका परमेश्वर के लिए खुद को खपाने का कभी कोई इरादा नहीं था, और वे बस भाई-बहनों को अपने मामले संभालने के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। ऐसे छद्म-विश्वासियों की मदद करने की हमारी कोई जिम्मेदारी या दायित्व नहीं है!” भले ही कलीसिया का अगुआ अनुमति न दे, तो भी तुम लोगों के पास बहुमत के साथ एकजुट होकर उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल देने का अधिकार है। इस बिंदु पर अगर कलीसिया का अगुआ फिर भी राजी न हो, तो ऊपर के लोगों को मामले की सूचना दो; अगुआ को अलग-थलग कर दो, और उसे आत्म-चिंतन करने दो। एक बार वह राजी हो जाए, तो तुम लोग उसकी अगुआई को दोबारा स्वीकार सकते हो। अगर वह असहमति जारी रखता हो, तो तुम लोग उसे निकाल सकते हो और एक नए अगुआ का पुनः चुनाव कर सकते हो। यह परमेश्वर में विश्वास रखने का सातवाँ प्रयोजन है : किसी समर्थक को ढूँढ़ना।
ज. राजनीतिक लक्ष्यों का अनुसरण करना
आगे, हम आठवें प्रयोजन के बारे में संगति करेंगे : राजनीतिक प्रयोजनों और राजनीतिक लक्ष्यों के साथ परमेश्वर में विश्वास रखना। ऐसे लोगों के सामने आने की संभावना बहुत अधिक नहीं है, लेकिन संभावना चाहे जितनी भी हो, अगर इन लोगों के सामने आने का कोई मौका है, तो हमें उनकी कुछ मिसालों की सूची बनाकर उन्हें उजागर करना चाहिए, उनके बारे में संगति करनी चाहिए, और उन्हें परिभाषित करना चाहिए। हमें यह इसलिए करना चाहिए ताकि सभी लोग उन्हें पहचान जाएँ, और फिर उन्हें यथाशीघ्र बाहर निकाला जा सकेगा, जिससे कलीसिया और भाई-बहनों पर आने वाली परेशानी और खतरे को रोका जा सकेगा। यह कलीसिया और भाई-बहनों की रक्षा के लिए है। इसलिए, जो लोग राजनीतिक लक्ष्य लेकर परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, वे ऐसे लोग होते हैं जिन्हें हमें पहचान लेना चाहिए और जिनसे हमें सतर्क रहना चाहिए, और ये बुरे लोग भी हैं जिन्हें कलीसिया को यथाशीघ्र बाहर निकाल देना चाहिए। जिन लोगों के राजनीतिक लक्ष्य होते हैं, उनकी अभिव्यक्तियाँ कौन-सी होती हैं? वे तुमसे अपने सच्चे विचार नहीं बताएँगे। वे साफ तौर पर यह नहीं कहेंगे, “मैं बस राजनीति में रुचि रखता हूँ, मुझे राजनीति में भाग लेना पसंद है, इसलिए मैं राजनीतिक लक्ष्यों और राजनीतिक प्रयोजनों से परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, और किसी दूसरे कारण से नहीं। तुम लोग मुझसे अपने हिसाब से निपट सकते हो।” क्या वे ऐसा कहेंगे? (नहीं।) तो उनकी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं जिनसे तुम यह पहचान पाते हो कि वे राजनीतिक लक्ष्य रखते हैं? यानी कि वे ऐसे कौन-से शब्द बोलते हैं, ऐसे कौन-से काम करते हैं, उनके कौन-से हाव-भाव, नजर और बोलने के लहजे तुम्हारी इस बात की पुष्टि करने के लिए काफी है कि परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका प्रयोजन शुद्ध नहीं है? वे चाहे जो भी कहें या करें, वे चीजों को अपने दिलों में छिपाकर रखते हैं, और कोई उनकी थाह नहीं पा सकता। उनकी एक विशेष पहचान और पृष्ठभूमि होती है; उनकी बातों और व्यवहार से यह देखा जा सकता है कि उनके पास षड्यंत्र और साजिशें हैं, और उनके बोलने और काम करने का तरीका रणनीतिक है। जब वे बोलते हैं, तो एक औसत व्यक्ति उनकी असली मंशाओं या विचारों को नहीं समझ सकता और उसे यह नहीं पता होता कि वे ऐसी बातें क्यों कहते हैं। हालाँकि बाहर से ये लोग परमेश्वर में विश्वास रखने या सत्य पर संगति करने के प्रति कोई शत्रुता या कोई आलोचना नहीं दिखाते, और यहाँ तक कि इन चीजों के प्रति थोड़ा अनुराग भी दिखा सकते हैं, फिर भी तुम्हें बस लगता है कि वे थोड़े अजीब हैं—वे दूसरे भाई-बहनों से अलग हैं और समझ से थोड़े परे हैं। तुम आम तौर पर ऐसे लोगों के साथ क्या करते हो जो समझ से थोड़े परे होते हैं? क्या तुम बस साधारण तरीके से ही उनसे सतर्क रहते हो? या क्या तुम उनकी खोजबीन करने की पहल करते हो और पता लगाते हो कि उनके साथ वास्तव में क्या चल रहा है? (हमें उनकी जाँच-परख करनी चाहिए।) कोई व्यक्ति चाहे कुछ भी कर रहा हो, आम तौर पर छोटी-सी समयावधि में उसका प्रयोजन और लक्ष्य आसानी से उजागर नहीं होते। लेकिन जैसे-जैसे ज्यादा समय बीतता है—अगर वे बिल्कुल कुछ भी न करें तो अलग बात है—जब वे कार्य करेंगे, तो निश्चित रूप से उनका अनजाने में ही पर्दाफाश हो जाएगा। उनकी छोटी-छोटी बातों की जाँच-परख कर उनमें सुराग ढूँढ़ने की कोशिश करो—उनकी बातों और व्यवहार से, उनके क्रियाकलापों के पीछे के इरादों और दिशाओं से, और बोलते समय उनके शब्दों और लहजे से तुम कुछ जानकारी और सुराग पा सकते हो। ऐसा करने में सक्षम होना इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुम काम में बहुत सावधान हो, और क्या तुममें एक खास स्तर की बुद्धिमत्ता और काबिलियत है। कुछ मूर्ख समाज में मौजूद खतरों और क्रूरता को पहचानने में सक्षम नहीं होते हैं; उनकी मुलाकात चाहे जिससे भी हो, वे उससे बातचीत का सिर्फ एक ही तरीका इस्तेमाल करते हैं। नतीजतन, जब उनकी मुलाकात राजनीतिक लक्ष्य रखने वाले चालबाज और धूर्त राजनीतिज्ञों से होती है, तो वे आसानी से यहूदा बन कर कलीसिया का सौदा करने के साधन बन जाते हैं, और अनजाने ही मूर्खतापूर्ण काम करके कलीसिया को फँसा देते हैं।
राजनीतिक लक्ष्य रखने वाले इन लोगों की अभिव्यक्तियाँ वास्तव में क्या होती हैं? इन लोगों की एक खास सामाजिक पृष्ठभूमि होती है; वे ऐसे व्यक्ति होते हैं जो राजनीतिक हलकों में घुलमिल जाते हैं। राजनीतिक हलकों में उनका रुतबा चाहे जो हो, चाहे वे अधिकारी हों, फुटकर काम करते हों, या राजनीतिक हलकों में पाँव जमाने की तैयारी कर रहे हों, संक्षेप में कहें, तो इन लोगों की समाज में एक राजनीतिक पृष्ठभूमि होती है; यह एक जटिल और विशेष स्थिति होती है। चाहे ये लोग परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हों या नहीं, उनके अनुसरणों, उनके चलने के रास्तों और उनके प्रकृति सार को परखा जाए तो क्या ये लोग ऐसे बन सकते हैं जो परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास रखते हैं? क्या वे छद्म-विश्वासियों से, राजनीति को लेकर उत्साहित रहने वाले राजनीतिज्ञों से परिवर्तित होकर ऐसे लोग बन जाएँगे जो ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं? (नहीं।) क्या तुम निश्चित हो? या कोई संभावना है? (बिल्कुल नहीं।) यह यकीनन असंभव है। परमेश्वर में विश्वास रखना और राजनीति दो भिन्न मार्ग हैं; ये दोनों मार्ग विपरीत दिशाओं में विकसित होते हैं, उनमें कोई समानताएँ नहीं है, और वे बिल्कुल भी एक-दूसरे को काट नहीं सकते। ये पूरी तरह से भिन्न मार्ग हैं। इसलिए, जिन लोगों के राजनीतिक लक्ष्य हैं या जिन्हें राजनीति से प्रेम है और जो राजनीति को लेकर उत्साहित हैं, भले ही वे बिना किसी स्पष्ट राजनीतिक प्रयोजन के परमेश्वर में विश्वास रखते हों, फिर भी उनके मन में दूसरे प्रयोजन होते हैं; और यह सुनिश्चित है कि उनका प्रयोजन सत्य प्राप्त करना या स्वयं को बचाना नहीं होता है। कम-से-कम यह निर्धारित किया जा सकता है कि वे परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास नहीं रखते। वे केवल इस दंतकथा को मानते हैं कि परमेश्वर है, लेकिन परमेश्वर के अस्तित्व या इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है। इस तरह, ये लोग कभी भी राजनीति को लेकर उत्साहित रहने वाले छद्म-विश्वासियों से उन सच्चे विश्वासियों में कभी भी परिवर्तित नहीं होंगे जो परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं, परमेश्वर का कार्य स्वीकार सकते हैं और परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार सकते हैं।
राजनीतिक लक्ष्य रखने वाले इन छद्म-विश्वासियों के परमेश्वर में विश्वास रखने के वास्तव में क्या प्रयोजन होते हैं? इसका संबंध उनके अनुसरणों और उन पेशों से है जिनमें वे संलग्न होते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग शानदार राजनीतिक लक्ष्यों और अभिलाषाओं आदि के साथ, किसी राजनीतिक हलके में हमेशा कुछ खास व्यक्तिगत माँगें रखते हैं, जो—चाहे वे जो भी हों—सबकी सब राजनीति से संबंधित होती हैं। “राजनीति” का क्या तात्पर्य है? सरल शब्दों में कहें, तो यह सरकार, सत्ता और शासन से संबंधित है। इसलिए, राजनीतिक लक्ष्यों के साथ परमेश्वर में उनका विश्वास बेशक उनके राजनीतिक अनुसरणों से संबंधित है। तो उनके लक्ष्य क्या हैं? वे कलीसिया के लोगों की तरफ क्यों आकर्षित होते हैं? वे अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए कलीसिया नाम की इस संस्थान का, कलीसिया के लोगों की बड़ी संख्या का और कलीसिया में मौजूद विभिन पेशों और सामाजिक तबकों के इन लोगों के प्रभाव का उपयोग करना चाहते हैं। कलीसिया की शिक्षाओं, कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदों के परिचालनों और कलीसियाई जीवन जीने के परमेश्वर के चुने हुए लोगों के तरीकों, उनके कर्तव्य के अभ्यास आदि के बारे में जानने के बाद, वे खुद को कलीसिया में एकीकृत करने का प्रयास करते हैं। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा अक्सर प्रयोग में लाई गई आध्यात्मिक शब्दावली और विभिन्न अभिव्यक्तियों को दृढ़ता से मन में बसा लेते हैं, और आशा करते हैं कि एक दिन वे इन चीजों का उपयोग करके सभी लोगों को अपनी बात सुनने के लिए, उनका इस्तेमाल करने के लिए इकट्ठा कर सकेंगे, और इस तरह अपने राजनीतिक लक्ष्य हासिल कर लेंगे। ठीक गैर-विश्वासियों की कही हुई बात की तरह, चीजों के कुछ समय तक पकते रहने के बाद, जब वे झंडा उठाकर लोगों को विद्रोह करने के लिए खड़ा कर पाएँगे, तो ज्यादा लोग उनकी पुकार का जवाब देंगे और उनके पीछे चलेंगे, ताकि वे अपने प्रतिद्वंद्वियों से लड़ने के लिए कलीसिया के लोगों के एक हिस्से को हासिल कर अपनी शक्ति बना सकें। आधुनिक चीनी इतिहास में ऐसी चीजें कई बार हो चुकी हैं। उदाहरण के लिए, चिंग सामाज्य के दौरान श्वेत कमल विद्रोह और ताइपिंग विद्रोह ऐसे उदाहरण रहे हैं, जहाँ राजनीतिक लक्ष्य रखने वाले लोगों ने सरकार से लड़ने के लिए धर्म का उपयोग किया। उनके धर्मों की शिक्षाएँ सच्चे मार्ग से भटक गई थीं, और उनमें ऐसे कई बेतुके और हास्यास्पद पहलू थे जो जरा भी सत्य के अनुरूप नहीं थे। राजनीतिक लक्ष्य रखने वाले लोगों ने लोगों के मनों को एकजुट करने, उनके मनों को बाँधने और उनके मनों को प्रभावित कर उनमें अपनी विचारधारा भरने के लिए ऐसी शिक्षाओं का उपयोग किया। अंततः उन्होंने अपने राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने के लिए इस विशेष विचारधारा से प्रेरित किए गए इन लोगों का शोषण किया। शुरू से ही, जब राजनीतिक लक्ष्य रखने वाले ये लोग परमेश्वर में विश्वास रखने आते हैं, तो ये कलीसिया का नाम ही है जिसके प्रति वे आकर्षित होते हैं। यानी, वे संस्थान के नाम यानि कि कलीसिया के तले अपनी पहचान और अपने लक्ष्यों को छिपा सकते हैं—यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि वे सोचते हैं कि अगर वे परमेश्वर में विश्वास रखने के बैनर के नीचे अपने राजनीतिक विचारों को फैलाते हैं, तो कलीसिया के लोगों के मन में अपनी विचारधारा भरना बहुत आसान हो जाएगा, और इस बात की संभावना है कि ये लोग प्रसिद्ध लोगों की आराधना कर उनकी बात सुनने लगें। परिणामस्वरूप, राजनीतिक लक्ष्य रखने वाले ये लोग कलीसिया के लोगों को प्रयोग की वस्तुओं के रूप में देखने लगते हैं। वे मानते हैं कि कलीसिया को वह स्थान बनाना बहुत आसान है जहाँ वे अपनी पहचान छिपा सकते हैं, और कलीसिया के सदस्य ऐसी वस्तुएँ हैं जिनका वे आसानी से उपयोग कर सकते हैं—सरल शब्दों में कहें, तो वे चीजों को इसी दृष्टि से देखते हैं। इसलिए, कलीसिया में शामिल होने का उनका प्रयोजन यह आशा करना है कि एक दिन जब उनके दिन चढेंगे, तो वे अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से लड़ सकेंगे और सत्ता हासिल कर सकेंगे—यही उनका राजनीतिक लक्ष्य है। वे परमेश्वर में विश्वास रखने के नाम के बहाने का इस्तेमाल उन लोगों की संख्या में वृद्धि करने के लिए करना चाहते हैं जो उनके राजनीतिक प्रभाव क्षेत्र में उनकी आराधना और उनका अनुसरण करते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “हो सकता है कि उनका यह प्रयोजन हो, लेकिन अगर वे कोई चाल नहीं चलते, तो हम अधिक-से-अधिक सिर्फ यही देख सकते हैं कि वे छद्म-विश्वासी या झूठे विश्वासी हैं। हम यह कैसे समझ सकते हैं कि उनके स्पष्ट राजनीतिक प्रयोजन हैं?” यह कठिन नहीं है। बस जाँच-परख करने में समय लगाओ। अगर उनके राजनीतिक लक्ष्य हैं, तो वे निश्चित रूप से कार्रवाई करेंगे। अगर वे कार्रवाई नहीं करना चाहते, तो उन्होंने कलीसिया में घुसपैठ क्यों की होती? अगर उन्होंने अभी तक कार्रवाई नहीं की है, तो यह इसलिए है कि उन्हें अवसर नहीं मिल पाया है। एक बार उन्हें अवसर मिल जाए तो वे उसी अनुसार कार्य करेंगे। उदाहरण के लिए, अगर सरकार किसी गलत नीति बना दे, या परमेश्वर के चुने हुए लोगों को दबाए और उन्हें गिरफ्तार करे, तो भाई-बहन ज्यादा-से-ज्यादा इस मामले पर विचार-विमर्श कर उसे समझेंगे और बस बात यहीं समाप्त हो जाएगी। चाहे जो भी हो, परमेश्वर में विश्वास रखना, अपने कर्तव्य निभाना और परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण करना ही वे बाते हैं जो महत्वपूर्ण हैं। छोटी-छोटी बातों के लिए वे बड़े उद्देश्य को नहीं खोएँगे; वे परमेश्वर में विश्वास रखना और उसी तरह अपने कर्तव्य करते रहना जारी रखेंगे जैसे उन्हें आमतौर पर करते करना चाहिए। लेकिन राजनीतिक लक्ष्य रखने वाले लोग भिन्न होते हैं। वे इस मामले में बात का बतंगड़ बनाएँगे, इसे बेकाबू ढंग से उजागर करेंगे और व्यापक रूप से प्रचारित करेंगे, और अपने राजनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए सभी को सरकार के खिलाफ खड़े होने के लिए बेतहाशा उकसाना चाहेंगे, और वे अपने लक्ष्य हासिल होते तक नहीं रुकेंगे। राजनीति में शामिल होने की खातिर, वे परमेश्वर में विश्वास रखने और अपने कर्तव्य निभाने के मामलों को पूरी तरह अलग रख देते हैं, और मनुष्य से परमेशवर की अपेक्षाओं और परमेश्वर के इरादों को नजरअंदाज कर देते हैं। वे इतने अधिक पागल होते हैं—क्या लोग उन्हें अभी भी पहचान नहीं सकेंगे? ऐसे व्यक्ति परमेश्वर का अनुसरण करते हैं या राजनीति का? कुछ लोग जिनमें पहचानने की क्षमता नहीं होती, वे आसानी से गुमराह हो जाते हैं। राजनीति करने वाले ये लोग नहीं जानते कि सत्य क्या है, और यह तो वे बहुत कम ही समझते हैं कि परमेश्वर का कार्य लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को दूर करना है, और उन्हें शैतान के प्रभाव से बचाना है। वे सोचते हैं कि मानवाधिकारों और राजनीति से जुड़ने का अर्थ न्याय की भावना का होना और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना है। क्या राजनीति और मानवाधिकारों से जुड़ना इस बात को दर्शाता है कि किसी व्यक्ति में सत्य वास्तविकता है? क्या यह दर्शाता है कि कोई व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है? तुम चाहे जितने भी अच्छे ढंग से मानवाधिकारों और राजनीति को संभालते हो, क्या यह दर्शाता है कि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव स्वच्छ कर दिया गया है? क्या यह दर्शाता है कि सत्ता सँभालने की तुम्हारी आकांक्षा और इच्छा स्वच्छ कर दी गई है? बहुत-से लोग इन मसलों की असलियत को नहीं देख सकते हैं। ऊपरी तौर पर तो सुन यात-सें भी एक ईसाई था। खतरे में पड़ने पर उसने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह उसे बचाए। उसने अपना पूरा जीवन क्रांति करते हुए बिताया था—क्या उसे परमेश्वर की स्वीकृति मिली? क्या वह ऐसा व्यक्ति था जिसने सत्य का अभ्यास किया और परमेश्वर के प्रति समर्पण किया? क्या उसके पास परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने की अनुभवजन्य गवाही थी? उसके पास इनमें से कुछ भी नहीं था। बुलाए जाने के बाद, पौलुस ने लगातार सुसमाचार का प्रचार किया और बहुत कष्ट सहे, लेकिन क्योंकि उसने वास्तव में प्रायश्चित्त नहीं किया था, उसके पास जीवन प्रवेश नहीं था, उसने बार बार वही पुराने पाप किए थे, और वह हर अवसर पर अपनी ही बड़ाई कर अपनी ही गवाही देता था, इसलिए वह मसीह-विरोधी बन गया और उसे दंड दिया गया। चाहे जो हो, सत्य स्वीकारे बिना परमेश्वर में विश्वास रखना, हमेशा शोहरत और रुतबे के पीछे भागना, और हमेशा एक अतिमानव या महात्मा बनने की चाह रखना बहुत खतरनाक होता है। राजनीतिक लक्ष्य रखने वाले सभी लोग मसीह-विरोधी होते हैं। ये लोग अपनी राजनीतिक अभिलाषाओं को साकार करने को आसानी से नहीं छोड़ेंगे और अपनी राजनीतिक शक्ति के रूप में हमेशा विश्वासियों को उकसाने और उन पर विजय पाने के अवसर तलाशते रहेंगे। अगर किसी दिन वे देखें कि विश्वासी आसानी से शोषित नहीं हो रहे हैं, वे केवल सत्य से प्रेम करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, और वे लोगों का नहीं, केवल मसीह का अनुसरण करते हैं, केवल तभी वे इन विश्वासियों को पूरी तरह से छोड़ेंगे।
मूलतः, राजनीतिक लक्ष्य रखने वाले लोगों के दिमाग में पूरी तरह से राजनीति से संबंधित विचार भरे रहते हैं—सत्ता और प्रभाव, शासन, साजिशें, राजनीतिक उपाय, आदि। वे यह नहीं समझते कि परमेश्वर में विश्वास रखना क्या होता है, आस्था क्या है, सत्य क्या है, या यह तो बिल्कुल भी नहीं समझते कि परमेश्वर के प्रति कैसे समर्पण करें। वे यह भी नहीं समझते कि स्वर्ग की इच्छा क्या है। उनके जीवित रहने के सिद्धांत हैं “मनुष्य प्रकृति को जीत लेगा” और “किसी व्यक्ति की नियति उसी के हाथ में होती है।” इसलिए, ऐसे लोगों को बदलने की कोशिश करना असंभव है और एक मूर्खतापूर्ण विचार है। ये लोग अक्सर कलीसिया के भाई-बहनों के बीच राजनीतिक दृष्टिकोण फैलाते हैं, उन्हें राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने और राजनीति में भाग लेने के लिए उकसाते हैं। यह बहुत स्पष्ट है कि परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका प्रयोजन राजनीतिक लक्ष्यों से प्रेरित होता है। यह सार दूसरे लोगों द्वारा शीघ्र और आसानी से पहचाना जा सकता है। ये लोग आस्था, सही मार्ग पर चलने और स्वर्ग की इच्छा के प्रति समर्पण करने को लेकर बिल्कुल अनजान होते हैं—वे मानते हैं कि राजनीतिक चालों से किसी भी व्यक्ति के विचार और मार्ग बदले जा सकते हैं, और वे खास तौर पर मानते हैं कि किसी व्यक्ति की नियति को इंसानी उपायों और तरीकों के जरिए बदला जा सकता है। इसलिए, वे परमेश्वर द्वारा रची गई प्रकृति की व्यवस्थाओं के गूढ़ मगर स्पष्ट मामलों और मनुष्य की नियति पर परमेश्वर की संप्रभुता से पूरी तरह अनजान होते हैं; इन मामलों में वे आम लोग होते हैं, और वे इन मामलों को बिल्कुल नहीं समझ सकते। ऐसा कहने का मेरा क्या तात्पर्य है? अगर तुम्हें ऐसा कोई व्यक्ति मिले जिसका परमेश्वर में विश्वास रखने का प्रयोजन राजनीतिक लक्ष्यों से प्रेरित है, तो तुम्हें उसे बदलने या मनाने की बिल्कुल कोशिश नहीं करनी चाहिए, और उसके साथ बहुत सारे सत्यों पर संगति करने की भी जरूरत नहीं है। ऐसे लोगों से सतर्क रहने के अलावा, तुम्हें विभिन्न स्तरों के कलीसियाई अगुआओं या विश्वसनीय भाई-बहनों को यथाशीघ्र उनके बारे में सूचित कर देना चाहिए, और फिर उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल देने का तरीका ढूँढ़ना चाहिए। तुम्हें दूसरे लोगों को अँधेरे में रखकर, खुद चोरी-छिपे और चुपचाप उनसे सतर्क नहीं रहना चाहिए। तो किस प्रकार के लोग ऐसे लोगों को थोड़ा पहचान सकते हैं जो राजनीति के बारे में बात करना पसंद करते हैं और जिनके राजनीतिक लक्ष्य होते हैं? क्या ये लोग उम्र में बड़े होते हैं या जवान? क्या ये भाई होते हैं या बहन? (बड़ी उम्र के भाई।) सही है; बड़ी उम्र के भाई, यानी जिन्हें सामाजिक अनुभव है, जिनका राजनीति से संपर्क रहा है, या जिन्हें राजनीतिक रूप से उत्पीड़ित किया गया है—जिन लोगों में इन मामलों की अंतर्दृष्टि है—वे राजनीतिक मुद्दों को अपेक्षाकृत स्पष्ट रूप से बूझ सकते हैं। स्वाभाविक रूप से, वे उन लोगों को थोड़ा पहचानने की कोशिश कर सकते हैं जो राजनीति में संलग्न रहते हैं, और खास तौर पर वे उनकी महत्वकांक्षाओं और इच्छाओं, और साथ ही उनके विचारों, दृष्टिकोणों, आदर्शों और अभिलाषाओं को अपेक्षाकृत स्पष्ट रूप से बूझ सकते हैं। इसलिए, वे इन लोगों को दूसरों की अपेक्षा ज्यादा तेजी से पहचान सकते हैं। जब एक बार कोई यह पहचान लेता है कि इन लोगों के पास राजनीतिक लक्ष्य हैं और वे छद्म-विश्वासी हैं, तो उन्हें उनसे सतर्क रहना चाहिए और इन छद्म-विश्वासियों को उजागर कर देना चाहिए। साथ-ही, उन्हें उन मूर्ख और अज्ञानी लोगों की भी रक्षा करनी चाहिए जो सत्य नहीं समझते हैं, उन्हें गुमराह और शोषित होने से और कलीसिया की अंदरूनी जानकारी अनजाने ही दूसरों के साथ साझा करने से रोकना चाहिए। जितनी जल्दी हो सके, कलीसिया के अगुआओं को सूचित करना और इस मुद्दे पर उनसे विचार-विमर्श करना, और उनसे अधिक उम्र वाले लोगों या थोड़े सत्य समझने वाले और थोड़े ऊँचे आध्यात्मिक कद वाले लोगों को राजनीतिक लक्ष्य वाले इन लोगों के प्रति सतर्क रहने के लिए सूचित करना जरूरी है। यह महत्वपूर्ण है कि छद्म-विश्वासियों के रूप में इन लोगों के सार को स्पष्ट रूप से देखने में दूसरों की मदद की जाए, और इस तरह उनके द्वारा शोषित होने से मूर्ख और अज्ञानी भाई-बहनों की रक्षा की जा सके। अगर तुम इन मामलों की असलियत नहीं समझ सकते, और जब कुछ कुटिल, धूर्त, चालबाज लोग तुमसे कुछ बातें और चर्चा करें और तुम पहचान न पाओ, तो तुम उनके पूछे बिना ही स्वेच्छा से अपनी असली स्थिति और अपनी जानकारी के सारे राज खोल दोगे, और अनजाने ही यहूदा बन जाओगे। क्या ऐसे लोग होते हैं? (हाँ।) बोलते समय तुम नहीं जानते कि दूसरा व्यक्ति मन में क्या प्रयोजन छुपाए हुए है और तुम उससे भाई-बहन जैसा व्यवहार करते हो, बिना सोचे-समझे अपने दिल की तमाम बातें बता देते हो—बोलने के बाद, तुम यह नहीं जानते कि इसके क्या परिणाम होंगे। दूसरों को ऐसे लोगों से सतर्क रहते हुए देखकर तुम कहते हो, “तुम बहुत ज्यादा सतर्क हो। भाई-बहनों के बीच छिपाना क्या?” तुम्हें इस बात का एहसास नहीं होता है कि दूसरे लोग क्यों नहीं बोलते—इसी को मूर्ख होना कहते हैं।
राजनीतिक लक्ष्य रखने वाले लोग निश्चित रूप से छद्म-विश्वासी भी होते हैं, क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते और वे सत्य स्वीकार नहीं करेंगे। भले ही वे परमेश्वर में विश्वास रखें, वे पूरी तरह बुरे लोगों की उस श्रेणी में आते हैं जो मसीह-विरोधी होते हैं। ऐसे लोगों के प्रति सतर्क रहना वास्तव में सबसे निष्क्रिय तरीका है। सक्रिय तरीका उनके बारे में पहले ही पता लगा लेना है, और जितनी जल्दी हो सके उनसे निपटकर उन्हें निष्कासित कर देना है, ताकि कलीसिया और भाई-बहनों पर कोई मुसीबत आने से रोक सकें। क्योंकि ये लोग कलीसिया में कभी भी और कहीं भी दूसरों को प्रभावित कर सकते हैं, और कभी भी किसी भी स्थिति में कलीसिया की सामान्य व्यवस्था को नष्ट कर सकते हैं, इसलिए ऐसे छद्म-विश्वासियों को बरदाश्त मत करते रहो और धैर्य मत दिखाते रहो। उन्हें प्रायश्चित्त करने का एक और मौका मत दो; बेवकूफी मत करो। एक बार पता लगते ही, भविष्य के दुर्भाग्य को रोकने के लिए उन्हें यथाशीघ्र निष्कासित कर देना चाहिए। ऐसा करने का प्रयोजन, उन लोगों को गुमराह होने, इस्तेमाल होने और शैतान और राक्षसों की कठपुतलियाँ बनने से रोकना है, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। बेशक, इस क्षण तुम्हें जो सबसे अधिक करना चाहिए वह राजनीतिक लक्ष्य रखने वाले लोगों को कलीसिया के बारे में कोई अहम जानकारी पाने से रोकना है। तुम उन्हें जितनी जल्दी पहचान कर निष्कासित कर दोगे, भाई-बहनों का उनसे उतना ही कम संपर्क होगा, और वे उतना ही कम उनके द्वारा गुमराह और प्रभावित किए जाएँगे। इसलिए, समय के लिहाज से, ऐसे लोगों से देर से नहीं बल्कि जल्द-से-जल्द निपटकर निष्कासित कर देना बेहतर है—जितनी जल्दी करो उतना बेहतर है। सक्रिय होना निष्क्रिय होने से बेहतर है। राजनीतिक लक्ष्य रखने वाले लोग दुर्भावनापूर्ण होते हैं; उनमें संभवतः कलीसिया और परमेश्वर के घर के लिए कुछ भी करने में कोई ईमानदारी नहीं हो सकती। अगर वे भाई-बहनों को गुमराह नहीं कर सकते, उनका इस्तेमाल नहीं कर सकते, तो वे पूरी तरह अपमानित हो जाएँगे, और यहाँ तक कि अलविदा कहे बिना ही स्वेच्छा से कलीसिया छोड़ देंगे। परमेश्वर में विश्वास रखने के आठवें प्रयोजन पर हमारी संगति यहीं समाप्त होती है : राजनीतिक लक्ष्यों का अनुसरण करना।
30 अक्तूबर 2021