अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (17)

मद बारह : उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को सकारात्मक दिशा दो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें (भाग पाँच)

विभिन्न लोग, घटनाएँ, और चीजें जो कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं

IX. नकारात्मकता फैलाना

आज हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की बारहवीं जिम्मेदारी पर अपनी संगति जारी रखेंगे : “उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को सकारात्मक दिशा दो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें।” कलीसियाई जीवन में उत्पन्न होने वाली विभिन्न विघ्न-बाधाओं के संबंध में, पिछली बार हमने आठवीं समस्या—धारणाएँ फैलाना— पर संगति की थी और आज हम नौंवी समस्या—नकारात्मकता फैलाना के बारे में संगति करेंगे। नकारात्मकता फैलाने के बारे में भी दैनिक जीवन में अक्सर सुनने को मिलता है। इसी तरह, नकारात्मकता फैलाने के कृत्यों या बयानों को भी प्रतिबंधित किया जाना चाहिए और कलीसियाई जीवन में दिखाई देने पर उन्हें रोका जाना चाहिए, क्योंकि नकारात्मकता फैलाना किसी भी व्यक्ति के लिए शिक्षाप्रद नहीं है; बल्कि, इससे लोग प्रभावित होते हैं और यह लोगों को परेशान करता है और नुकसान पहुँचाता है। इसलिए, नकारात्मकता फैलाना एक नकारात्मक चीज है, जिसकी प्रकृति कलीसियाई जीवन में बाधा डालने वाले अन्य व्यवहारों, क्रियाकलापों और बयानों के समान है; यह लोगों को परेशान कर सकता है और उन पर प्रतिकूल प्रभाव भी डाल सकता है। नकारात्मकता फैला कर कोई भी दूसरों को शिक्षित नहीं कर सकता या कोई लाभ नहीं पहुँचा सकता; यह केवल हानिकारक प्रभाव लाता है और लोगों के अपने सामान्य कर्तव्य निर्वहन को भी प्रभावित कर सकता है। इस प्रकार, जब कलीसिया में नकारात्मकता प्रकट होती है तो उसे भी रोका और प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, न कि उसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए या प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

क. नकारात्मकता फैलाना क्या है

सबसे पहले हम यह देखें कि नकारात्मकता फैलाने को कैसे समझा और पहचाना जाए। नकारात्मकता फैलाने को हम कैसे पहचानें? लोगों की कौन-सी टिप्पणियाँ और अभिव्यक्तियाँ नकारात्मकता फैलाने वाली होती हैं? सबसे पहले तो लोगों में जो नकारात्मकता प्रकट होती है वह सकारात्मक नहीं होता, यह एक विपरीत चीज होती है जो सत्य को खंडित करती है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके भ्रष्ट स्वभाव से पनपती है। भ्रष्ट स्वभाव के कारण सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना कठिन हो जाता है—और इन कठिनाइयों के कारण लोगों में नकारात्मक विचार और दूसरी नकारात्मक चीजें उजागर होने लगती हैं। ये चीजें सत्य के अभ्यास की उनकी कोशिश के संदर्भ में पनपती हैं; ये वे विचार और दृष्टिकोण होते हैं जो सत्य के अभ्यास के दौरान लोगों को प्रभावित और बाधित करते हैं, और ये पूरी तरह नकारात्मक होते हैं। चाहे ये नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण मनुष्य की धारणाओं के कितने ही अनुरूप क्यों न हों और ये कितने ही तर्कपूर्ण क्यों न प्रतीत हों, ये परमेश्वर के वचनों की समझ से नहीं आते, परमेश्वर के वचनों के अनुभवजन्य ज्ञान से तो बिलकुल भी नहीं आते। इसके बजाय, ये मनुष्य के दिमाग की देन होते हैं, और ये सत्य से बिलकुल भी मेल नहीं खाते। इसलिए ये नकारात्मक, विपरीत चीजें होती हैं। नकारात्मकता फैलाने वाले लोगों की मंशा सत्य का अभ्यास करने में अपनी विफलता के बहुत-से निष्पक्ष कारण ढूँढने की होती है, ताकि वे दूसरे लोगों की हमदर्दी और सहमति पा सकें। ये नकारात्मक बयान, अलग-अलग पैमाने पर, सत्य का अभ्यास करने की लोगों की पहल को प्रभावित और कमजोर कर सकते हैं, और बहुत-से लोगों को सत्य का अभ्यास करने से रोक भी सकते हैं। ऐसे परिणाम और प्रतिकूल प्रभाव इन नकारात्मक चीजों को प्रतिकूल, परमेश्वर विरोधी और सत्य के पूरी तरह विरुद्ध बताए जाने के और भी योग्य बना देते हैं। कुछ लोग नकारात्मकता के सार की असलियत नहीं देख पाते हैं, और सोचते हैं कि अक्सर नकारात्मकता दिखाना सामान्य बात है, और इसका लोगों के सत्य के अनुसरण पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ता। यह सोच गलत है; वास्तव में, इसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है, और अगर किसी की नकारात्मकता उसके लिए बेहद असहनीय हो जाए तो यह आसानी से विश्वासघात में बदल सकती है। यह भयानक परिणाम सिर्फ नकारात्मकता की देन होता है। तो नकारात्मकता फैलाने को कैसे पहचानें और कैसे समझें? सरल शब्दों में कहें तो नकारात्मकता फैलाने का अर्थ है लोगों को गुमराह करना और उन्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकना; यह लोगों को गुमराह करने और उलझाने के लिए नरम हथकंडों और सामान्य प्रतीत होने वाले तरीकों का प्रयोग है। क्या इससे उन्हें नुकसान होता है? दरअसल इससे उन्हें बहुत गहरी क्षति पहुँचती है। और इसलिए, नकारात्मकता फैलाना एक प्रतिकूल चीज है, परमेश्वर इसकी निंदा करता है; यह नकारात्मकता फैलाने की सबसे सरल व्याख्या है। तो फिर नकारात्मकता फैलाने का नकारात्मक घटक क्या है? कौन-सी चीजें नकारात्मक होती हैं और लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती हैं, और कलीसियाई जीवन को बाधा और क्षति पहुंचा सकती हैं? नकारात्मकता में क्या-क्या शामिल है? अगर लोगों में परमेश्वर के वचनों की सही समझ हो तो क्या उनकी संगति के शब्दों में नकारात्मकता हो सकती है? अगर लोगों में परमेश्वर द्वारा उनके सामने पेश किए गए हालात के प्रति सच्चे समर्पण का रवैया है, तो क्या इन हालात के बारे में उनकी जानकारी में कोई नकारात्मकता होगी? जब वे हर किसी के साथ अपने अनुभवजन्य ज्ञान को साझा करते हैं तो क्या इसमें कोई नकारात्मकता होगी? निश्चित ही नहीं होगी। कलीसिया में या उनके आस-पास जो कुछ भी होता है, अगर लोग इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारने में सक्षम हैं, इसके प्रति सही नजरिया रखते हैं और खोज और समर्पण का रवैया अपना सकते हैं तो क्या कुछ भी घटित होने के प्रति उनके ज्ञान, समझ और अनुभव में कोई नकारात्मकता होगी? (नहीं।) ऐसा बिल्कुल नहीं होगा। इन मामलों के हिसाब से देखें तो नकारात्मकता क्या है? इसे कैसे समझा जा सकता है? क्या नकारात्मकता में इस प्रकृति की चीजें शामिल नहीं हैं—लोगों की अवज्ञा, असंतोष, शिकायतें और नाराजगी? नकारात्मकता के अधिक गंभीर मामलों में प्रतिरोध, अवज्ञा और यहाँ तक कि शोर मचाना भी शामिल है। ऐसी टिप्पणियाँ करना भी नकारात्मकता फैलाना कहा जा सकता है, जिनमें ये तत्व शामिल हों। इन अभिव्यक्तियों से देखा जाए तो जब कोई व्यक्ति नकारात्मकता फैलाता है, तब क्या उसके दिल में परमेश्वर के प्रति कोई समर्पण होता है? यकीनन नहीं। क्या देह के खिलाफ विद्रोह करके अपनी नकारात्मकता का समाधान करने की कोई इच्छा होती है? नहीं—वहाँ प्रतिरोध, विद्रोह और विरोध के अलावा कुछ नहीं होता। अगर लोगों के दिल इन चीजों से भरे हुए हैं—अगर उनके दिलों पर इन नकारात्मक चीजों ने कब्जा कर लिया है—तो इससे परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध, विद्रोहशीलता और अवज्ञा पैदा होगी। और अगर ऐसा है तो क्या वे अभी भी सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होंगे? वे सक्षम नहीं होंगे; होगा यही कि वे परमेश्वर से दूर और पहले से ज्यादा नकारात्मक हो जाएँगे, और यहाँ तक कि वे परमेश्वर पर संदेह, इनकार और विश्वासघात भी कर सकते हैं। क्या यह खतरनाक नहीं है? जो कोई भी अक्सर नकारात्मक होता है, वह नकारात्मकता फैलाने में सक्षम है, और नकारात्मकता फैलाने का मतलब है परमेश्वर का विरोध और इनकार करना; इस तरह, जो लोग अक्सर नकारात्मकता फैलाते हैं, वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और उसे छोड़ सकते हैं।

"नकारात्मकता" शब्द के अर्थ को देखा जाए, तो नकारात्मक होने पर व्यक्ति की मनोदशा बहुत ही हताश स्थिति में पहुँच जाती है और उसकी मानसिक स्थिति बुरी हो जाती है। उसकी मनोदशा नकारात्मक तत्वों से भर जाती है, उसमें सक्रिय रूप से प्रगति करने और आगे बढ़ने का प्रयास करने का रवैया नहीं रहता है, और उसमें सकारात्मक, सक्रिय सहयोग और तलाश करने की भावना का अभाव होता है; इससे भी बढ़कर, वह खुशी से किए जाने वाले समर्पण का बिल्कुल भी प्रदर्शन नहीं करता है, बल्कि बहुत ही हताश मनोदशा दिखाता है। हताश मनोदशा क्या दर्शाती है? क्या यह मानवता के सकारात्मक पहलुओं को दर्शाती है? क्या यह जमीर और सूझ-बूझ का होना दर्शाती है? क्या यह गरिमा के साथ जीना, मानवता की गरिमा में जीना दर्शाती है? (नहीं।) अगर यह इन सकारात्मक चीजों को नहीं दर्शाती है, तो क्या दर्शाती है? क्या यह परमेश्वर में सच्ची आस्था के अभाव को, और साथ ही सत्य का अनुसरण करने और सक्रियता से प्रगति करने के लिए दृढ़ निश्चय और संकल्प के अभाव को दर्शा सकती है? क्या यह व्यक्ति की मौजूदा परिस्थिति और मुश्किलों के प्रति उसके गहरे असंतोष को और उन चीजों को समझने में उसकी परेशानी को और वर्तमान के तथ्यों को स्वीकारने की अनिच्छा को दर्शा सकती है? क्या यह कोई ऐसी परिस्थिति दर्शा सकती है जिसमें व्यक्ति का दिल अवज्ञा, अवहेलना करने की इच्छा और मौजूदा परिस्थिति से बचकर भाग जाने और उसे बदलने की इच्छा से भरा हो? (हाँ।) ये वे स्थितियाँ हैं जिन्हें लोग तब प्रदर्शित करते हैं जब वे वर्तमान परिस्थिति का सामना नकारात्मकता से करते हैं। संक्षेप में कहें तो चाहे जो भी हो, जब लोग नकारात्मक होते हैं तब वर्तमान स्थिति से और परमेश्वर द्वारा की गई व्यवस्था से उनका असंतोष ऐसी सामान्य सी चीज के बराबर नहीं होती है कि उन्हें गलतफहमियाँ मात्र हैं, उनमें समझ-बूझ नहीं है या वे अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। समझ-बूझ नहीं होना काबिलियत या समय की समस्या हो सकती है, जो कि मानवता की एक सामान्य अभिव्यक्ति है। अनुभव नहीं कर पाने के पीछे कुछ वस्तुनिष्ठ कारण भी हो सकते हैं, लेकिन इन्हें नकारात्मक, प्रतिकूल चीजें नहीं माना जाता है। कुछ लोग अनुभव नहीं कर पाते हैं, लेकिन जब उनका सामना ऐसी चीजों से होता है जिन्हें वे नहीं समझते हैं या जिनकी असलियत नहीं पहचानते हैं, या वे ऐसी चीजें होती हैं जिन्हें वे समझ-बूझ या अनुभव नहीं कर पाते हैं, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और उसकी इच्छाओं की तलाश करते हैं, परमेश्वर की प्रबुद्धता और रोशनी की प्रतीक्षा करते हैं, और सक्रिय रूप से दूसरों से तलाश करते हैं और उनके साथ संगति करते हैं। लेकिन, कुछ लोग अलग किस्म के होते हैं; उनके पास अभ्यास के ये मार्ग नहीं होते हैं, और ना ही उनके पास कोई ऐसा रवैया होता है। संगति करने के लिए किसी की प्रतीक्षा करने, तलाश करने या ढूँढ़ने के बजाय, वे अपने दिलों में गलतफहमियाँ उत्पन्न कर लेते हैं, उन्हें लगता है कि वे जिन घटनाओं और परिस्थितियों का सामना करते हैं, वे उनकी इच्छाओं, प्राथमिकताओं या कल्पनाओं के अनुरूप नहीं हैं, जिससे उनके भीतर अवज्ञा, असंतोष, प्रतिरोध, शिकायतें, अवहेलना, हंगामा और ऐसी ही दूसरी प्रतिकूल चीजें उत्पन्न होती हैं। इन प्रतिकूल चीजों को उत्पन्न करने के बाद, वे उनके बारे में ज्यादा नहीं सोचते हैं, और ना ही वे प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आते हैं और ना ही अपनी खुद की स्थिति और भ्रष्टता का ज्ञान प्राप्त करने के लिए चिंतन करते हैं। वे परमेश्वर की इच्छाओं की तलाश करने के लिए परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ते हैं या समस्याओं को सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग नहीं करते हैं, फिर दूसरों से तलाश करना और उनके साथ संगति करना तो दूर की बात है। इसके बजाय, वे इस बात पर अड़े रहते हैं कि वे जो मानते हैं वह सही और सटीक है, वे अपने दिलों में अवज्ञा और असंतोष की भावना रखते हैं, और नकारात्मक, प्रतिकूल भावनओं में फँसे रहते हैं। इन भावनाओं में फँसे रहने के दौरान, वे एक-दो दिन उन्हें अपने भीतर दबाकर रख पाते हैं या उन्हें झेल पाते हैं, लेकिन एक लंबे समय बाद, उनके मन में कई चीजें उत्पन्न होने लगती हैं, जिनमें मानवीय धारणाएँ और कल्पनाएँ, मानवीय नैतिकता और आचार, मानवीय संस्कृति, परंपराएँ और ज्ञान वगैरह शामिल हैं। वे इन चीजों का उपयोग उन समस्याओं को देखने, उनका हिसाब लगाने और उन्हें समझने के लिए करते हैं जिनका वे सामना करते हैं, और पूरी तरह से शैतान के जाल में फँसे रहते हैं, और इस प्रकार असंतोष और अवज्ञा की विभिन्न स्थितियाँ जन्म लेती हैं। इन भ्रष्ट स्थितियों से, फिर तरह-तरह के गलत विचार और दृष्टिकोण उभरते हैं, और उनके दिलों में इन नकारात्मक चीजों को और नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। फिर वे इन चीजों को फैलाने और अपनी भड़ास निकालने के अवसर तलाशते हैं। जब उनका दिल नकारात्मकता से भर जाता है, तो वे कहते हैं, "मेरे भीतर नकारात्मक चीजें भर गई हैं; मुझे दूसरों को नुकसान पहुँचाने से बचने के लिए, बिना विचारे नहीं बोलना चाहिए। अगर मेरा बोलने का मन करता है और मैं इसे रोक नहीं पाता हूँ, तो मैं दीवार से बात कर लूँगा, या किसी ऐसी चीज से बात करूँगा जिसे मानवीय बातें समझ नहीं आती हैं"? क्या वे इतने उदार हैं कि ऐसा करेंगे? (नहीं।) तो फिर वे क्या करते हैं? अपने नकारात्मक दृष्टिकोणों, टिप्पणियों और भावनाओं को जाहिर करने के लिए वे लोगों को हासिल करने के अवसरों की तलाश करते हैं, और इसका उपयोग अपने दिलों से असंतोष, अवज्ञा और नाराजगी जैसी अलग-अलग नकारात्मक भावनाओं को फैलाने के लिए करते हैं। उनका मानना है कि कलीसियाई जीवन भड़ास निकालने का सबसे अच्छा समय है और अपनी नकारात्मकता, असंतोष और अवज्ञा को जाहिर करने का सबसे अच्छा मौका है, क्योंकि वहाँ कई श्रोता होते हैं और उनके शब्द दूसरों को नकारात्मक बनने के लिए प्रभावित कर सकते हैं और कलीसिया के कार्य के लिए प्रतिकूल परिणाम ला सकते हैं। बेशक, जो लोग नकारात्मकता फैलाते हैं, वे पर्दे के पीछे भी खुद को रोक नहीं पाते हैं; वे हमेशा अपनी नकारात्मक बातों को जाहिर करते हैं। जब उनकी बातें सुनने के लिए लोगों की संख्या कम होती है, तो उन्हें यह उबाऊ लगता है, लेकिन जब सभी इकट्ठा होते हैं, तो उनमें जोश आ जाता है। नकारात्मकता फैलाने वाले लोगों की भावनाओं, स्थितियों और अन्य पहलुओं से यह पता चलता है कि उनका उद्देश्य सत्य को समझने में, क्या सत्य है इसकी असलियत पहचानने में, परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों या शंकाओं को दूर करने में, खुद को और अपने भ्रष्ट सार को जानने में या उनके विद्रोहीपन और भ्रष्टता के मुद्दों को सुलझाने में लोगों की मदद करना नहीं है, ताकि वे परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह ना करें या उसका विरोध ना करें, बल्कि उसके प्रति समर्पण करें। उनके उद्देश्य वास्तव में दोहरे होते हैं : एक लिहाज से, वे अपनी भावनाएँ जाहिर करने के लिए नकारात्मकता फैलाते हैं; दूसरे लिहाज से, उनका उद्देश्य ज्यादा लोगों को नकारात्मकता में और उनके साथ परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसके खिलाफ हंगामा करने के जाल में खींच लाना है। इसलिए, नकारात्मकता फैलाने के कृत्य को कलीसियाई जीवन में पूरी तरह से रोक देना चाहिए।

ख. नकारात्मकता फैलाने वाले लोगों की विभिन्न स्थितियाँ और अभिव्यक्तियाँ
1. बर्खास्त किए जाने पर असंतोष महसूस करते हुए नकारात्मकता फैलाना

नकारात्मकता की भावनाएँ और अभिव्यक्तियाँ मूल रूप से यही हैं। इनके बारे में मेरी संगति के बाद लोगों को इनसे खुद की तुलना करके देखना चाहिए कि वास्तविक जीवन में उनके कौन-से व्यवहार, टिप्पणियाँ और तरीके नकारात्मकता फैलाने वाले हैं और किन परिस्थितियों के कारण वे नकारात्मकता में गिरते हैं जिससे नकारात्मकता फैलती है। मुझे बताओ, सामान्य परिस्थितियों में कौन-सी स्थितियाँ लोगों को नकारात्मक बनाती हैं? नकारात्मकता के सामान्य रूप क्या हैं? (जब किसी को बर्खास्त किया जाता है या जब उसकी काट-छाँट की जाती है तो उसके दिल में कुछ नकारात्मकता विकसित हो सकती है।) बर्खास्त होना एक बात है और काट-छाँट किया जाना दूसरी। बर्खास्त होने से नकारात्मकता क्यों आती है? (कुछ लोगों को बर्खास्त किए जाने के बाद कोई आत्म-ज्ञान नहीं होता है और उन्हें लगता है कि उनका रुतबा उनके पतन का कारण बना। फिर वे कुछ नकारात्मक दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए कहते हैं, “जितनी ऊँची चढ़ाई होगी, गिरना उतना ही कष्टकारी होगा।” उन्हें बर्खास्त किए जाने की शुद्ध समझ नहीं है; वे अपने दिलों में अवज्ञाकारी हैं।) उनके अंदर अवज्ञा और असंतोष है जो नकारात्मक भावनाएँ हैं। क्या वे शिकायत करते हैं? (हाँ। उन्हें लगता है कि उन्होंने कठिनाई सही और कीमत चुकाई है, बदले में कुछ भी अच्छा पाए बिना हमेशा कड़ी मेहनत की है और फिर भी उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। इसलिए वे कहते हैं, “अगुआ बनना मुश्किल है; जो कोई भी अगुआ बनता है वह बदनसीब होता है। अंत में सभी को बर्खास्त कर दिया जाता है।”) ऐसी टिप्पणियाँ फैलाना नकारात्मकता फैलाना है। अगर वे केवल अवज्ञाकारी और असंतुष्ट हैं पर नकारात्मकता नहीं फैलाते तो इसे अभी भी नकारात्मकता फैलाना नहीं माना जा सकता। अगर अवज्ञा और असंतोष से धीरे-धीरे एक व्यथित मनोदशा उभरती है और वे इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते हैं कि उनमें कम काबिलियत है और वे काम करने में असमर्थ हैं, और फिर वे अपने विकृत तर्क पर बहस करना शुरू कर देते हैं, बहस करते समय सभी प्रकार के बयान, दृष्टिकोण, बहाने, कारण, स्पष्टीकरण, औचित्य वगैरह देते हैं तो इस प्रकार की टिप्पणियाँ करना नकारात्मकता फैलाने के बराबर है। कुछ झूठे अगुआ जिन्हें वास्तविक काम न करने के कारण बर्खास्त कर दिया जाता है, अपने दिलों में अवज्ञा और असंतोष को पालते हैं, उनमें बिल्कुल भी समर्पण नहीं होता; वे हमेशा यही सोचते हैं, “चलो देखते हैं अगुआ के रूप में मेरी जगह कौन ले सकता है। दूसरे मुझसे बेहतर नहीं हैं; अगर मैं काम नहीं कर सकता तो वे भी नहीं कर सकते!” कौन-सी चीज उन्हें अवज्ञाकारी बनाती है? उन्हें लगता है कि उनकी काबिलियत कम नहीं है और उन्होंने बहुत सारा काम किया है, तो फिर उन्हें क्यों बर्खास्त किया गया? ये एक झूठे अगुआ के अंतर्मन के विचार हैं। वे खुद को जानने के लिए चिंतन नहीं करते और यह नहीं देखते कि उन्होंने वाकई कोई वास्तविक कार्य किया है या नहीं, उन्होंने कितनी वास्तविक समस्याएँ हल की हैं या क्या यह सच है कि उन्होंने कलीसिया के कार्य को पंगु बना दिया था। वे शायद ही कभी इन बातों पर विचार करते हैं। उन्हें नहीं लगता कि समस्या यह है कि उनमें सत्य वास्तविकता की कमी है और वे चीजों की असलियत नहीं समझ सकते; बल्कि उनका मानना है कि बहुत सारा काम करने के बाद उन्हें झूठे अगुआ के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह उनकी अवज्ञा और असंतोष का प्राथमिक कारण है। वे हमेशा सोचते हैं : “मैंने कई वर्षों से अपने कर्तव्यों का पालन किया है, मैं किसके लिए हर दिन सुबह जल्दी उठता और देर तक जागता था? परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद मैंने अपना परिवार पीछे छोड़ दिया, अपना करियर छोड़ दिया और अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए गिरफ्तार होने और जेल जाने का जोखिम भी उठाया। मैंने इतनी कठिनाई सही है! और अब उन्होंने यह कहकर मुझे बर्खास्त कर दिया कि मैंने वास्तविक काम ही नहीं किया—यह बहुत अनुचित है! भले ही मैंने कोई उपलब्धि हासिल न की हो, मगर मैंने कठिनाई झेली है; अगर कठिनाई नहीं तो थकान ही सही! मेरी काबिलियत और अपने काम में कीमत चुकाने की क्षमता के साथ, अगर मुझे अभी भी मानक स्तर का नहीं माना जाता और बर्खास्त कर दिया जाता है तो शायद ही कोई अगुआ होगा जो मानक स्तर का हो!” क्या वे ये बातें बोलकर नकारात्मकता फैला रहे हैं? क्या इनमें से एक भी वाक्य ऐसा है जो समर्पण का भाव व्यक्त करता हो? क्या उनमें सत्य खोजने की इच्छा का जरा भी संकेत है? क्या कोई आत्म-चिंतन है, जैसे, “वे कहते हैं कि मेरा काम मानक के अनुरूप नहीं है, तो आखिर मुझमें क्या कमी है? मैंने कौन-सा वास्तविक काम नहीं किया है? मैं एक झूठे अगुआ की कौन-सी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करता हूँ?” क्या उन्होंने इस तरह से आत्म-चिंतन किया है? (नहीं।) तो उनके द्वारा कही गई इन बातों की प्रकृति क्या है? क्या वे शिकायत कर रहे हैं? क्या वे खुद को सही ठहरा रहे हैं? खुद को सही ठहराने का उनका उद्देश्य क्या है? क्या यह लोगों की सहानुभूति और समझ हासिल करने के लिए नहीं है? क्या वे नहीं चाहते कि ज्यादा से ज्यादा लोग उनके बचाव में आएँ, उनके साथ हुए अन्याय पर विलाप करें? (हाँ।) तो फिर वे किसके खिलाफ हो-हल्ला कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के साथ बहस और उसके खिलाफ हो-हल्ला नहीं कर रहे हैं? (हाँ।) वे अपनी बातों से परमेश्वर के बारे में शिकायत और उसका विरोध कर रहे हैं। उनके दिल शिकायतों, प्रतिरोध और विद्रोहशीलता से भरे हुए हैं। इतना ही नहीं, नकारात्मकता फैला कर वे ज्यादा लोगों को उन्हें समझने, उनके साथ सहानुभूति रखने और उनके जैसी नकारात्मकता विकसित करने, ज्यादा से ज्यादा लोगों को उनके जैसी शिकायतें, प्रतिरोध और परमेश्वर के खिलाफ अवज्ञा को बढ़ावा देने या उसके खिलाफ हो-हल्ला करने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं। क्या वे इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए नकारात्मकता नहीं फैलाते हैं? उनका उद्देश्य बस ज्यादा लोगों को मामले की तथाकथित सच्चाई से अवगत कराना और दूसरों को यह विश्वास दिलाना है कि उनके साथ गलत किया जा रहा है, कि उन्होंने जो किया वह सही था, उन्हें बर्खास्त नहीं किया जाना चाहिए था, और उन्हें बर्खास्त करना एक गलती थी; वे चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोग उनके बचाव में आएँ। ऐसा करके वे अपनी इज्जत, रुतबे और प्रतिष्ठा को वापस हासिल करने की उम्मीद करते हैं। सभी झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी बर्खास्त होने के बाद लोगों की सहानुभूति जीतने के लिए इस तरह से नकारात्मकता फैलाते हैं। उनमें से कोई भी आत्म-चिंतन करके खुद को नहीं जान सकता, अपनी गलतियाँ नहीं स्वीकार सकता या वास्तविक पछतावा या पश्चात्ताप नहीं दिखा सकता। इस तथ्य से यह साबित होता है कि वे सभी लोग झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते और इसे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं। इसलिए, बेनकाब करके हटाए जाने के बाद वे सत्य और परमेश्वर के वचनों के माध्यम से खुद को नहीं जान सकते हैं। किसी ने उन्हें पछतावा करते या खुद के बारे में वास्तविक ज्ञान प्राप्त करते नहीं देखा है, न ही किसी ने उन्हें सच्चा पश्चात्ताप करते देखा है। ऐसा लगता है कि वे कभी खुद को समझ नहीं पाते या अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करते हैं। इस तथ्य से देखें तो झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को बर्खास्त करना पूरी तरह से उचित है और बिल्कुल भी अन्याय नहीं है। उनके आत्म-चिंतन और आत्म-ज्ञान की संपूर्ण कमी के आधार पर, साथ ही साथ बिलकुल भी पश्चात्ताप न दिखाने के आधार पर यह स्पष्ट है कि उनका मसीह-विरोधी स्वभाव गंभीर है और वे सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करते।

बर्खास्त होने के बाद कुछ झूठे अगुआ अपनी गलतियाँ बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, न ही वे सत्य खोजते हैं और न ही आत्म-चिंतन करके खुद को जानते हैं। उनके पास समर्पण वाला दिल या रवैया जरा भी नहीं होता है। इसके बजाय, वे परमेश्वर को गलत समझते हैं और शिकायत करते हैं कि परमेश्वर उनके साथ अन्याय करता है, खुद को सही ठहराने और अपना बचाव करने के लिए तरह-तरह के बहाने और तर्क खोजने में अपना दिमाग खपाते हैं। कुछ तो यहाँ तक कहते हैं, “मैं पहले कभी अगुआ बनना ही नहीं चाहता था क्योंकि मुझे पता था कि यह एक मुश्किल काम है। अगर तुम अच्छा काम करते हो तो तुम्हें इनाम नहीं मिलता और अगर तुम अच्छा काम नहीं करते हो तो तुम्हें बर्खास्त करके बदनाम किया जाता है, भाई-बहन तुम्हें ठुकरा देते हैं और तुम्हारी कोई इज्जत नहीं रह जाती है। उसके बाद कोई अपना चेहरा कैसे दिखाएगा? अब जब मुझे बर्खास्त कर दिया गया है तो मैं और भी ज्यादा यकीन से कह सकता हूँ कि अगुआ या कार्यकर्ता होना आसान नहीं है; यह एक कठिन और नाशुक्रा काम है!” “अगुआ या कार्यकर्ता होना एक कठिन और नाशुक्रा काम है” इस कथन का क्या अर्थ है? क्या यहाँ सत्य खोजने का कोई इरादा व्यक्त किया जा रहा है? क्या ऐसा नहीं है कि वे इस तथ्य से घृणा करने लगे हैं कि परमेश्वर के घर ने उन्हें अगुआ या कार्यकर्ता बनाने की व्यवस्था की, और अब वे दूसरों को गुमराह करने के लिए इस तरह के कथन का उपयोग कर रहे हैं? (हाँ।) इस कथन के क्या परिणाम हो सकते हैं? ज्यादातर लोगों के मन, विचार और इस मामले के बारे में उनकी सूझ-बूझ और समझ इन शब्दों से प्रभावित और बाधित होगी। नकारात्मकता फैलाने का लोगों के लिए यही परिणाम होता है। उदाहरण के लिए, अगर तुम अगुआ नहीं हो और तुम यह सुनते हो तो तुम चौंक जाओगे और सोचोगे, “क्या यह सच नहीं है! मुझे अगुआ नहीं चुना जाना चाहिए। अगर मैं अगुआ चुना जाता हूँ तो मुझे इनकार करने के लिए जल्दी से तरह-तरह के कारण और बहाने ढूँढ़ने होंगे। मैं कहूँगा कि मुझमें काबिलियत की कमी है और मैं काम नहीं कर सकता।” कुछ अगुआ भी इस कथन से प्रभावित होते हैं और सोचते हैं, “कितना भयानक है! क्या भविष्य में मुझे भी उनके जैसे ही परिणाम का सामना करना पड़ेगा? अगर चीजें इसी तरह होने वाली हैं तो मैं अगुआ बनने से बिल्कुल मना कर दूँगा।” क्या ये नकारात्मक, प्रतिकूल भावनाएँ और यह नकारात्मक, प्रतिकूल कथन लोगों को बाधित करते हैं? वे साफ तौर पर बाधाएँ पैदा करते हैं। कोई भी व्यक्ति, चाहे उसकी काबिलियत अच्छी हो या कम, जब वह इन शब्दों को सुनेगा तो वह अनजाने में उन्हें सबसे पहले ग्रहण करेगा और ये शब्द उसके मन में प्रमुख स्थान ले लेंगे, और उन्हें अलग-अलग स्तर तक प्रभावित करेंगे। प्रभावित होने के क्या परिणाम हैं? ज्यादातर लोग अगुआ होने और अगुआ के पद से बर्खास्त किए जाने के मामले के साथ सही तरीके से पेश नहीं आ पाएँगे और उनमें समर्पण का रवैया नहीं होगा। इसके बजाय, उनके पास एक दिल होगा जो हमेशा परमेश्वर को गलत समझता रहेगा और उससे सतर्क रहेगा, वे इस मुद्दे के बारे में नकारात्मक भावनाएँ विकसित करेंगे और जब इस मुद्दे का जिक्र किया जाएगा तो वे विशेष रूप से संवेदनशील और भयभीत होंगे। जब लोग ये व्यवहार प्रदर्शित करते हैं तो क्या वे शैतान के प्रलोभन और गुमराह किए जाने के शिकार नहीं हो गए हैं? यह स्पष्ट है कि वे नकारात्मकता फैलाने वाले लोगों द्वारा गुमराह और बाधित किए गए हैं। चूँकि नकारात्मकता फैलाने वाले लोगों द्वारा व्यक्त की गई बातें लोगों के भ्रष्ट स्वभावों और शैतान से उत्पन्न होती हैं और वे बातें सत्य की समझ या परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेशों के प्रति समर्पण करके प्राप्त की गई अनुभवजन्य अंतर्दृष्टि नहीं होती है, इसलिए उन्हें सुनने वाले लोग अलग-अलग स्तर तक बाधित हो जाते हैं। लोगों द्वारा प्रकट की गई नकारात्मकता सभी पर कुछ प्रतिकूल, चिंताजनक प्रभाव डालती है। कुछ लोग जो सक्रियता से सत्य खोजते हैं उन्हें कम नुकसान होगा। अन्य लोग जिनमें बिल्कुल भी प्रतिरोध नहीं है वे परेशान और गहराई से आहत होंगे, भले ही उन्हें पता हो कि ये बातें गलत हैं। परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे, इस मामले पर वह कैसे भी संगति करे या उसकी अपेक्षाएँ कुछ भी हों, वे इन सब को नजरंदाज करके नकारात्मकता फैलाने वालों की बातों को ध्यान में रखते हैं, हमेशा खुद को चेतावनी देते रहते हैं कि वे सतर्क रहें, मानो ये नकारात्मक कथन उनकी सुरक्षात्मक छत्रछाया, उनकी ढाल हों। चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे, वे अपनी सतर्कता और गलतफहमियों को नहीं छोड़ सकते। जिन लोगों के पास सत्य या परमेश्वर के वचनों में कोई प्रवेश नहीं है और जो सत्य वास्तविकता को नहीं समझते, उनके पास इन नकारात्मक कथनों की कोई पहचान और इनके प्रति कोई प्रतिरोध नहीं है। वे आखिरकार इन नकारात्मक कथनों से बेबस हो जाते हैं और बंध जाते हैं, और परमेश्वर के वचनों को अब और स्वीकार नहीं सकते। क्या इससे उन्हें नुकसान नहीं हुआ है? उन्हें किस हद तक नुकसान पहुँचा है? वे परमेश्वर के वचन ग्रहण नहीं करते या उन्हें समझ नहीं पाते, बल्कि लोगों द्वारा कही गई नकारात्मक बातों को, असंतोष, अवज्ञा और शिकायत भरे शब्दों को सकारात्मक चीजों के रूप में देखते हैं, उन्हें अपने व्यक्तिगत आदर्श वाक्य मानते हैं जिन्हें वे अपने दिलों के करीब रखते हैं और उनका उपयोग अपने जीवन का मार्गदर्शन करने, परमेश्वर का विरोध करने और उसके वचनों की अवहेलना करने के लिए करते हैं। क्या वे शैतान के जाल में नहीं फँस गए हैं? (बिल्कुल।) ये लोग अनजाने में शैतान के जाल में फँस गए हैं और शैतान ने उन्हें कब्जे में कर लिया है। किसी पद से बर्खास्त किए जाने जैसे साधारण मामले के बारे में ये लोग जो नकारात्मक बयान देते हैं, उनका दूसरों पर बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता है। इसका एक मूल कारण है : जो लोग इन नकारात्मक कथनों को स्वीकारते हैं वे पहले से ही अगुआ होने के बारे में धारणाओं और कल्पनाओं से—और यहाँ तक कि कुछ गलतफहमियों और सतर्कता से भी—भरे हुए थे। हालाँकि ये गलतफहमियाँ और सतर्कता उनके मन में पूरी तरह से विकसित नहीं थीं मगर इन नकारात्मक कथनों को सुनने के बाद वे और भी ज्यादा आश्वस्त हो गए कि उनकी सतर्कता और गलतफहमियाँ सही हैं; उन्हें लगता है कि उनके पास यह मानने के लिए और भी अधिक कारण हैं कि अगुआ होने से बहुत सी अच्छी चीजें नहीं, बल्कि बहुत सारा दुर्भाग्य आता है, और उन्हें गलतियाँ करने के कारण बर्खास्त होने और ठुकराए जाने से बचने के लिए अगुआ या कार्यकर्ता कतई नहीं बनना चाहिए। क्या वे नकारात्मकता फैलाने वालों द्वारा पूरी तरह से गुमराह और प्रभावित नहीं हुए हैं? बर्खास्त किए गए लोगों द्वारा व्यक्त किए गए केवल नकारात्मक कथन, साथ ही उनकी अवज्ञा और असंतोष की भावनाएँ ही लोगों पर बहुत गहरा प्रभाव डाल सकती हैं और उन्हें खासा नुकसान पहुँचा सकती हैं। तुम लोगों को क्या लगता है—क्या यह एक गंभीर समस्या है कि लोगों द्वारा व्यक्त नकारात्मक भावनाएँ मौत के परिवेश से भरी होती हैं? (हाँ, यह समस्या गंभीर है।) कौन-सी चीज इसे इतना गंभीर बनाती है? यह इसलिए गंभीर है कि यह लोगों की परमेश्वर के प्रति गहराई तक बैठी सतर्कता और गलतफहमियों को सटीकता से पूरा करती है, और यह लोगों की परमेश्वर के प्रति गलतफहमियों और संदेह और साथ ही उसके प्रति उनके आंतरिक रवैये को भी दर्शाती है। इसलिए, नकारात्मकता फैलाने वालों द्वारा फैलाए गए कथन सीधे लोगों की नब्ज पर चोट करते हैं, और लोग उन्हें पूरी तरह से स्वीकारते हुए शैतान के जाल में इतनी बुरी तरह से फँस जाते हैं कि वे खुद को मुक्त नहीं करा पाते। यह अच्छी बात है या बुरी? (बुरी बात है।) इसके क्या परिणाम हैं? (इसके कारण लोग परमेश्वर से विश्वासघात करते हैं।) (इसके कारण लोग परमेश्वर के प्रति सतर्क रहते हैं और उसे गलत समझते हैं, वे अपने दिलों में परमेश्वर से दूर रहते हैं, अपने कर्तव्यों के प्रति नकारात्मकता से पेश आते हैं, और महत्वपूर्ण आदेशों को स्वीकारने से डरते हैं। वे सामान्य कर्तव्य निभाकर संतुष्ट हो जाते हैं और इस प्रकार पूर्ण बनाए जाने के कई मौके खो देते हैं।) क्या ऐसे लोगों को बचाया जा सकता है? (नहीं।)

दो हजार साल पहले पौलुस ने कई दृष्टिकोण रखे और कई पत्र लिखे। उन पत्रों में उसने बहुत-सी भ्रांतियाँ कहीं। क्योंकि लोगों में विवेक की कमी है, इसलिए पिछले दो हजार सालों से बाइबल पढ़ने वालों ने प्रभु यीशु के वचनों को दरकिनार करते हुए परमेश्वर से सत्य स्वीकारने के बजाय मुख्य रूप से पौलुस के विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकार किया है। क्या पौलुस के विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकारने वाले लोग परमेश्वर के समक्ष आ सकते हैं? क्या वे परमेश्वर के वचन स्वीकार सकते हैं? (नहीं।) अगर वे परमेश्वर के वचन स्वीकार नहीं सकते, तो क्या वे परमेश्वर को परमेश्वर मान सकते हैं? (नहीं।) जब परमेश्वर आकर उनके सामने खड़ा होगा तो क्या वे परमेश्वर को पहचान सकेंगे? क्या वे उसे अपना परमेश्वर और प्रभु मान सकते हैं? (नहीं।) वे ऐसा क्यों नहीं कर सकते? पौलुस के भ्रामक विचार और दृष्टिकोण लोगों के दिलों में भरे हुए हैं जिनसे उनके दिलों में सभी तरह के सिद्धांत और कहावतें विकसित हो गई हैं। जब लोग इनका उपयोग परमेश्वर, उसके कार्य, उसके वचनों, उसके स्वभाव और लोगों के प्रति उसके रवैये को आँकने के लिए करते हैं, तो वे अब साधारण, सरल किस्म के भ्रष्ट मनुष्य नहीं रह जाते, बल्कि वे परमेश्वर के विरोध में खड़े होते हैं, उसकी पड़ताल और विश्लेषण करते हैं और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण हो जाते हैं। क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को बचा सकता है? (नहीं।) अगर परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता तो क्या उन्हें अभी भी उद्धार पाने का मौका मिलेगा? परमेश्वर की पूर्वनियति और चयन ने लोगों को एक अवसर दिया है, लेकिन अगर परमेश्वर की पूर्वनियति और चयन के बाद भी लोग पौलुस का अनुसरण करने वाला मार्ग चुनते हैं तो क्या उद्धार का यह अवसर अभी भी मौजूद है? कुछ लोग कहते हैं, “मैं परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत और चुना गया हूँ, इसलिए मैं पहले से ही सुरक्षित हूँ। मुझे निश्चित ही बचाया जाएगा।” क्या ये शब्द सही हैं? परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत होने और चुने जाने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम उद्धार के लिए उम्मीदवार बन गए हो, मगर तुम बचाए जाओगे या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम कितनी अच्छी तरह से अनुसरण करते हो और क्या तुमने सही मार्ग चुना है। क्या ऐसा है कि सभी उम्मीदवारों को अंत में चुना जाएगा और बचाया जाएगा? नहीं। इसी तरह, अगर लोग अवज्ञा, असंतोष और शिकायत जैसी भावनाओं को स्वीकारते हैं या नकारात्मकता फैलाने वालों द्वारा व्यक्त की गई टिप्पणियों, विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकारते हैं, और उनके दिल इन प्रतिकूल चीजों से भरे हुए और ग्रस्त हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि वे उनसे बस थोड़े-बहुत सहमत हैं—इसका मतलब है कि वे उन्हें पूरी तरह से स्वीकारते हैं और इन चीजों के अनुसार जीना चाहते हैं। जब लोग इन प्रतिकूल चीजों के अनुसार जीते हैं तो परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता कैसा हो जाता है? यह एक विरोधी रिश्ता बन जाता है। यह सृष्टिकर्ता और सृजित प्राणियों के बीच का रिश्ता नहीं रहता, न ही परमेश्वर और भ्रष्ट मानवजाति के बीच का रिश्ता रहता है और यकीनन यह परमेश्वर और उद्धार प्राप्त करने वालों के बीच का रिश्ता तो कतई नहीं रहता। इसके बजाय, यह परमेश्वर और शैतान के बीच का रिश्ता बन जाता है, परमेश्वर और उसके दुश्मनों के बीच का रिश्ता बन जाता है। इसलिए, लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, यह एक प्रश्न चिह्न, एक एक अनुत्तरित प्रश्न बन जाता है। जिन लोगों को बर्खास्त किया गया है, उनके द्वारा दिए गए नकारात्मक बयान शिकायतों, गलतफहमियों, औचित्य और बचाव से भरे होते हैं; वे कुछ ऐसी बातें भी कहते हैं जो लोगों को गुमराह करती हैं और उनकी ओर आकर्षित करती हैं। इन कथनों को सुनने के बाद, लोग परमेश्वर के प्रति गलतफहमियाँ विकसित कर लेते हैं और सतर्कता बरतने लगते हैं, और यहाँ तक कि अपने दिलों में परमेश्वर से दूर हो जाते हैं और उसे ठुकरा देते हैं। इसलिए, जब ऐसे लोग नकारात्मकता फैला रहे हों तो उन्हें तुरंत प्रतिबंधित किया जाना और रोका जाना चाहिए। अनुभव की गई परिस्थितियों को परमेश्वर से स्वीकारने, सत्य खोजने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में उनकी असमर्थता उनकी अपनी समस्या है, और उन्हें दूसरों को प्रभावित नहीं करने देना चाहिए। अगर वे इसे स्वीकार नहीं सकते तो उन्हें इसे धीरे-धीरे पचाने और हल करने दो। लेकिन अगर वे नकारात्मकता फैलाते हुए दूसरे लोगों के सामान्य प्रवेश को प्रभावित और बाधित करते हैं तो उन्हें समय रहते रोका और प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। अगर उन्हें प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता और वे लोगों को गुमराह करने और अपनी ओर आकर्षित करने के लिए नकारात्मकता फैलाना जारी रखते हैं तो उन्हें तुरंत हटा दिया जाना चाहिए। उन्हें कलीसियाई जीवन को बाधित करते रहने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।

2. काट-छाँट किए जाने को स्वीकारने से इनकार करते हुए नकारात्मकता फैलाना

एक और स्थिति है जिसमें लोगों के नकारात्मकता फैलाने की संभावना रहती है : जब उन्हें काट-छाँट किए जाने का सामना करना पड़ता है और वे इस काट-छाँट के कुछ शब्दों को स्वीकार नहीं कर पाते, तो वे अपने दिल में अवज्ञा, असंतोष और शिकायत पालते हैं, और कभी-कभी यह भी महसूस करते हैं कि उनके साथ गलत हुआ है। उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है : “मुझे अपनी बात रखने या स्पष्टीकरण देने की अनुमति क्यों नहीं है? मेरे साथ लगातार काट-छाँट क्यों की जा रही है?” ये लोग आम तौर पर किस तरह की नकारात्मकता फैलाते हैं? वे खुद को सही ठहराने और अपना बचाव करने के लिए बहाने भी ढूँढते हैं। अपनी गलतियों का गहन-विश्लेषण करने, उनकी भरपाई करने या उन्हें सुधारने के बजाय, वे अपने मामले पर बहस करते हैं, जैसे कि उन्होंने कोई काम अच्छे से क्यों नहीं किया, इसके पीछे क्या कारण थे, वस्तुनिष्ठ कारक और परिस्थितियाँ क्या थीं और कैसे उन्होंने यह जानबूझकर नहीं किया; वे खुद को सही ठहराने और अपने बचाव के लिए ये बहाने देते हैं ताकि काट-छाँट किए जाने से इनकार करने का अपना लक्ष्य हासिल कर सकें। ये लोग यह बात नहीं स्वीकारते कि काट-छाँट करना सही है, और वे कई अन्य लोगों के साथ मिलकर अपनी काट-छाँट किए जाने की घटना का विश्लेषण करते हैं, सबके सामने मामले को साफ तौर पर समझाने की कोशिश करते हैं। वे यहाँ तक कहते हैं : “इस तरह की काट-छाँट लोगों को उनके कर्तव्य करने से रोकेगी। कोई भी अब अपने कर्तव्य नहीं निभाना चाहेगा। लोगों को पता नहीं होगा कि आगे कैसे बढ़ना है और न ही उनके पास अभ्यास का कोई मार्ग होगा।” यहाँ तक कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ऊपरी तौर पर इस बारे में संगति करते हैं कि वे अपने साथ हुई काट-छाँट को कैसे स्वीकारते हैं, मगर वास्तव में वे इस संगति का उपयोग खुद को सही ठहराने और अपना बचाव करने के लिए कर रहे हैं जिससे ज्यादातर लोगों को यह विश्वास हो कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ व्यवहार करने में उनकी भावनाओं पर बिल्कुल भी विचार नहीं करता और यहाँ तक कि एक छोटी-सी गलती भी तुम्हारी काट-छाँट का कारण बन सकती है। जो लोग अक्सर नकारात्मकता फैलाते हैं, वे कभी भी आत्म-चिंतन नहीं करते। यहाँ तक कि काट-छाँट किए जाने से सामना होने पर भी वे अपनी गलतियों की प्रकृति या उनके कारणों पर चिंतन नहीं करते। वे इन समस्याओं का गहन-विश्लेषण नहीं करते, बल्कि लगातार बहस करते हैं, खुद को सही ठहराते हैं और अपना बचाव करते हैं। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं, “अपनी काट-छाँट से पहले मुझे लगता था कि अनुसरण का कोई मार्ग है। मगर जब मेरे साथ काट-छाँट की गई तो मैं उलझन में पड़ गया। मैं नहीं जानता कि अब कैसे अभ्यास करना है या परमेश्वर में कैसे विश्वास रखना है और मैं आगे का मार्ग नहीं देख पा रहा हूँ।” वे दूसरों से यह भी कहते हैं, “तुम लोगों को बहुत सावधानी बरतनी चाहिए ताकि तुम्हारे साथ काट-छाँट न की जाए; यह बहुत दर्दनाक है, जैसे चमड़ी उधेड़ी जा रही हो। मेरे पुराने मार्ग पर मत चलो। देखो, काट-छाँट के बाद मेरा क्या हाल हो गया। मैं फँस गया हूँ, न आगे बढ़ पाता हूँ और न ही पीछे; मैं कुछ भी सही नहीं कर पाता हूँ!” क्या ये शब्द सही हैं? क्या इनमें कोई समस्या है? (हाँ। वे खुद को सही ठहराते हुए बहस कर रहे हैं, कह रहे हैं कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया।) इस तरह खुद को सही ठहराकर और बहस के जरिए क्या संदेश दिया जा रहा है? (वे कह रहे हैं कि लोगों की काट-छाँट करके परमेश्वर का घर गलत कर रहा है।) कुछ लोग कहते हैं, “अपनी काट-छाँट से पहले मुझे लगता था कि मेरे पास अनुसरण का एक मार्ग है, मगर काट-छाँट किए जाने के बाद मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा।” ऐसा क्यों है कि अपने साथ काट-छाँट किए जाने के बाद उन्हें नहीं पता होता कि क्या करना है? इसका क्या कारण है? (काट-छाँट किए जाने से सामना होने पर, वे सत्य नहीं स्वीकारते या खुद को जानने की कोशिश नहीं करते। वे कुछ धारणाएँ पालते हैं और उन्हें हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते। इससे उनके पास कोई मार्ग नहीं बचता। अपने भीतर कारण खोजने के बजाय वे इसके विपरीत दावा करते हैं कि काट-छाँट किए जाने के कारण ही वे अपना मार्ग खो बैठे।) क्या यह आरोप-प्रत्यारोप नहीं है? यह ऐसा कहने जैसा है, “मैंने जो किया वह सिद्धांतों के अनुसार था, मगर तुम्हारा मेरी काट-छाँट करना यह स्पष्ट करता है कि तुम मुझे सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं करने दे रहे हो। तो, मैं भविष्य में अभ्यास कैसे करूँगा?” ऐसी बातें कहने वाले लोगों का यही मतलब होता है। क्या वे अपनी काट-छाँट स्वीकार रहे हैं? क्या वे यह तथ्य स्वीकारते हैं कि उन्होंने गलतियाँ की हैं? (नहीं।) क्या वास्तव में इस कथन का मतलब यह नहीं है कि वे यह जानते हैं कि लापरवाही से बुरे कर्म कैसे किए जाते हैं, मगर जब उनकी काट-छाँट की जाती है और सिद्धांतों के अनुसार काम करने के लिए कहा जाता है तो वे नहीं जानते कि क्या करना है और वे उलझन में पड़ जाते हैं? (हाँ।) तो, वे पहले कैसे काम करते थे? जब किसी की काट-छाँट की जाती है, तो क्या यह इसलिए नहीं होता कि उसने सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं किया? (बिल्कुल।) वे लापरवाही से बुरे कर्म करते हैं, सत्य नहीं खोजते और सिद्धांतों या परमेश्वर के घर के नियमों के अनुसार काम नहीं करते हैं, इसलिए उनकी काट-छाँट की जाती है। काट-छाँट किए जाने का उद्देश्य लोगों को सत्य खोजने और सिद्धांतों के अनुसार काम करने में सक्षम बनाना है, ताकि उन्हें फिर से लापरवाही से बुरे कर्म करने से रोका जा सके। लेकिन काट-छाँट किए जाने से सामना होने पर वे लोग कहते हैं कि उन्हें नहीं पता कि अब कैसे काम करना है या कैसे अभ्यास करना है—क्या इन शब्दों में आत्म-ज्ञान का कोई तत्व है? (नहीं।) उनका खुद को जानने का या सत्य खोजने का कोई इरादा नहीं है। इसके बजाय वे कहते हैं : “मैं अपने कर्तव्य बहुत अच्छी तरह से करता था, मगर जब से तुमने मेरी काट-छाँट की है, तुमने मेरे विचारों को अस्त-व्यस्त कर दिया और अपने कर्तव्यों के प्रति मेरे दृष्टिकोण को भ्रमित कर दिया है। अब मेरी सोच सामान्य नहीं है और मैं पहले की तरह निर्णायक या साहसी नहीं रहा, मैं उतना बहादुर नहीं रहा, और यह सब मेरी काट-छाँट किए जाने के कारण हुआ है। जब से मेरी काट-छाँट की गई है, मेरे दिल को बहुत चोट पहुँची है। तो, मैं दूसरों से अपने कर्तव्य निभाते समय बेहद सावधानी बरतने के लिए कहूँगा। उन्हें अपनी गलतियाँ या खामियाँ नहीं दिखानी चाहिए; अगर वे गलती करते हैं तो उनकी काट-छाँट की जाएगी, फिर वे डरपोक बन जाएँगे और उनमें वह जोश नहीं रहेगा जो पहले था। उनका साहस काफी हद तक सुस्त पड़ जाएगा और उनका युवा हौसला और अपना सब कुछ देने की इच्छा गायब हो जाएगी, जिससे वे बहुत कायर हो जाएँगे, अपनी ही परछाई से डरेंगे और महसूस करेंगे कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं वह सही नहीं है। वे अब अपने दिलों में परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं करेंगे और उससे लगातार दूर होते जाएँगे। यहाँ तक कि परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसके सामने रोने का भी कोई जवाब नहीं मिलेगा। उन्हें लगेगा कि उनमें पहले जैसा जोश, उल्लास और प्रेम नहीं रहा और वे खुद को नीचा समझने लगेंगे।” क्या ये किसी अनुभवी व्यक्ति द्वारा दिल से कहे गए शब्द हैं? क्या ये सच्चे हैं? क्या ये लोगों को शिक्षित करते हैं या उन्हें लाभ पहुँचाते हैं? क्या यह तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना नहीं है? (हाँ, ये शब्द काफी बेतुके हैं।) वे कहते हैं, “मेरे नक्शे-कदम पर मत चलो या मेरे पुराने रास्ते को मत दोहराओ! तुम लोग मुझे अब काफी सुसभ्य मानते हो, मगर वास्तव में मैं उस काट-छाँट किए जाने के बाद से डरा हुआ था और मैं पहले जैसा स्वतंत्र और मुक्त नहीं रहा।” इन शब्दों का श्रोताओं पर क्या प्रभाव पड़ता है? (वे लोगों को परमेश्वर के प्रति ज्यादा सतर्क बनाते हैं, जिससे वे अपनी काट-छाँट किए जाने के डर से सावधानी बरतते हुए काम करने लगते हैं।) उन पर ऐसा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसे सुनने के बाद लोग सोचेंगे, “मुझे यह बताओ! एक छोटी सी चूक हुई नहीं कि तुम काट-छाँट के शिकार हो जाओगे—इसे रोकने के लिए तुम कुछ नहीं कर सकते! परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाना इतना कठिन क्यों है? हमेशा सत्य सिद्धांतों के बारे में बातें करते रहना—यह वाकई बहुत कठिन है! क्या एक सरल, स्थिर जीवन जीना ठीक नहीं है? यह कोई बहुत बड़ी मांग या बहुत बड़ी उम्मीद नहीं है, मगर इसे हासिल करना इतना मुश्किल क्यों है? मैं आशा करता हूँ कि मेरे साथ काट-छाँट न की जाए। मैं बहुत डरपोक व्यक्ति हूँ; आम तौर पर जब लोग मुझे घूरते हैं और ऊँची आवाज में बोलते हैं तो मेरा दिल जोर से धड़कने लगता है। अगर मुझे वास्तव में काट-छाँट किए जाने का सामना करना पड़ा और शब्द इतने कठोर हुए, तथ्यों का इस तरह से गहन-विश्लेषण किया गया तो मैं इसे कैसे संभाल सकूँगा? क्या इससे मुझे डरावने सपने नहीं आएँगे? हर कोई कहता है कि काट-छाँट किया जाना अच्छा है, मगर मुझे समझ नहीं आता कि ऐसा कैसे है। क्या वह व्यक्ति इससे डर नहीं गया था? अगर मेरे साथ काट-छाँट की जाए, तो मैं भी डर जाऊँगा।” क्या यह उन लोगों की बातों का प्रभाव नहीं है जो नकारात्मकता फैलाते हैं? क्या यह प्रभाव स्वीकारात्मक और सकारात्मक है या नकारात्मक और प्रतिकूल? (नकारात्मक और प्रतिकूल।) ये नकारात्मक कथन उन लोगों को बहुत नुकसान पहुँचा सकते हैं जो सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार हैं! तो मुझे बताओ, जो लोग अक्सर नकारात्मकता फैलाते हैं और मौत का ढिंढोरा पीटते हैं, क्या वे शैतान के नौकर हैं? क्या वे कलीसिया के काम में बाधा डालने वाले लोग हैं? (बिल्कुल।)

कुछ लोग अपनी मनमर्जी से काम करते हैं और सिद्धांतों के विरुद्ध जाते हैं। अपनी काट-छाँट किए जाने के बाद, उन्हें लगता है कि इतनी कड़ी मेहनत करने और कीमत चुकाने के बाद भी उनकी काट-छाँट की गई, इसलिए उनके दिल अवज्ञा से भर जाते हैं और वे उजागर किए जाने या गहन-विश्लेषण करने को नहीं स्वीकारते। वे मानते हैं कि परमेश्वर अधार्मिक है और परमेश्वर के घर ने उनके साथ अन्याय किया है, क्योंकि उनके जैसे उपयोगी प्रतिभाशाली व्यक्ति, जो इतने अधिक कष्ट सहते हैं और इतनी बड़ी कीमत चुकाते हैं, परमेश्वर का घर उनकी प्रसंशा नहीं करता और उनकी काट-छाँट करता है। उनकी अवज्ञा से शिकायतें उभरती हैं और वे अपनी नकारात्मकता फैलाएँगे : “जिस तरह से मैं इसे देखता हूँ, परमेश्वर में विश्वास रखने से ज्यादा कठिन और कुछ भी नहीं है; कुछ आशीषें पाना और थोड़े अनुग्रह का आनंद लेना वास्तव में कठिन है। मैंने इतनी बड़ी कीमत चुकाई, मगर एक काम खराब तरीके से करने पर मेरी काट-छाँट की गई। अगर मेरे जैसा व्यक्ति काम करने के लायक नहीं है तो कोई और कैसे हो सकता है? क्या परमेश्वर धार्मिक नहीं है? ऐसा क्यों है कि मैं उसकी धार्मिकता को पहचानने में सक्षम नहीं हूँ? परमेश्वर की धार्मिकता लोगों की धारणाओं से इतनी असंगत कैसे है?” वे इस बात का गहन-विश्लेषण नहीं करते कि उन्होंने ऐसा क्या किया जो सिद्धांतों के खिलाफ जाता है या उन्होंने कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए हैं। उनमें न सिर्फ पछतावे या समर्पण की झलक नहीं है—वे खुलेआम आलोचना और विरोध भी करते हैं। उन्हें ऐसा बयान देते हुए सुनने के बाद ज्यादातर लोग उनसे कुछ हद तक सहानुभूति रखने लगते हैं और उनके बहकावे में आ जाते हैं : “यह सच है, है ना? उन्होंने बीस सालों से परमेश्वर में विश्वास रखा मगर फिर भी उन्हें ऐसी काट-छाँट किए जाने का सामना करना पड़ा। अगर कोई व्यक्ति जो बीस सालों से विश्वास रखता आ रहा है, उसे नहीं बचाया जा सकता तो हमारे जैसे लोगों के लिए तो कोई उम्मीद ही नहीं है।” क्या उनमें जहर नहीं भरा गया है? एक बार नकारात्मकता फैल गई तो जहर बोया जाता है, वैसे ही जैसे लोगों के दिलों में कोई बीज बोया गया हो, जो अपनी जड़ें फैला रहा है, अंकुरित हो रहा है, उनके दिलोदिमाग में फल-फूल रहा है। लोगों को एहसास होने से पहले ही उनमें जहर भर दिया जाता है और उनमें परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध और शिकायतें पैदा हो जाती हैं। जब उन लोगों की काट-छाँट की जाती है, तो वे परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी हो जाते हैं और इस बात से असंतुष्ट होते हैं कि परमेश्वर का घर उनके साथ कैसे पेश आया। पश्चात्ताप करने और अपराध कबूलने का रवैया अपनाने के बजाय, वे बहस करते हैं, खुद को सही ठहराते हैं और अपना बचाव करते हैं। वे दूर-दूर तक ढिंढोरा पीटते हैं कि उन्होंने कितने कष्ट सहे, क्या काम किया और अपनी बरसों की आस्था में कौन-से कर्तव्य निभाए हैं और अब पुरस्कार पाने के बजाय वे काट-छाँट किए जाने का सामना करते है। न केवल वे काट-छाँट किए जाने के बाद अपनी भ्रष्टता और गलतियों को पहचानने में नाकाम रहते हैं, बल्कि वे यह विचार भी फैलाते हैं कि जिस तरह से परमेश्वर का घर उनके साथ पेश आया है वह अनुचित और तर्कहीन है, उनके साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए और अगर ऐसा होता है तो परमेश्वर धार्मिक नहीं है। वे यह नकारात्मकता इसलिए फैलाते हैं क्योंकि वे अपनी काट-छाँट किए जाने को या इस तथ्य को स्वीकार नहीं सकते कि उन्होंने गलतियाँ की हैं और वे इस तथ्य को तो कतई मान या स्वीकार नहीं सकते कि उन्होंने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाया है। उनका मानना है कि उन्होंने सही तरीके से काम किया और परमेश्वर के घर ने उनकी काट-छाँट करके गलत किया है। नकारात्मकता फैला कर वे लोगों को यह बताना चाहते हैं कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ अनुचित व्यवहार करता है : जब कोई व्यक्ति गलती करता है तो परमेश्वर का घर इसे उनके खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल करेगा, इस मुद्दे को ढाल बनाकर बेरहमी से उनकी इस हद तक काट-छाँट करेगा कि वे दब्बू हो जाएँगे और सोचेंगे कि उन्होंने कोई योगदान नहीं दिया है, अब उन्हें आदर्श मानकर पूजने वाला कोई नहीं है, अब वे खुद की सराहना नहीं करते और न ही परमेश्वर से पुरस्कार माँगने की हिम्मत करते हैं—केवल तभी परमेश्वर के घर का उद्देश्य पूरा होगा। इस नकारात्मकता को फैलाने में उनका उद्देश्य ज्यादातर लोगों को उनके बचाव में लाना है, ज्यादातर लोगों को “मामले की सच्चाई” समझाना और यह दिखाना है कि परमेश्वर में अपने विश्वास के कई सालों में उन्होंने कितनी पीड़ा सही है, उनके योगदान कितने महत्वपूर्ण रहे हैं और वे कितने योग्य और अनुभवी विश्वासी हैं। इसके साथ, वे चाहते हैं कि अन्य लोग परमेश्वर के घर के नियमों और परमेश्वर के घर द्वारा की गई काट-छाँट के विरोध में उनके साथ खड़े हों। क्या यह लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की प्रकृति नहीं है? (बिल्कुल है।) इस तरह से नकारात्मकता फैलाने का उनका लक्ष्य लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करना और उन्हें गुमराह करना है, और वे अपनी नाराजगी प्रकट करने के लिए कलीसिया के कार्य को बाधित करते हैं। अपनी नकारात्मकता फैलाने के बाद लोगों पर इसका असर चाहे जो भी हो, इसका प्रभाव और परिणाम यही होता है कि लोग गुमराह और बाधित हो जाते हैं, उन्हें नुकसान पहुँचता है। इससे शिक्षा नहीं मिलती। यह एक नकारात्मक प्रभाव है।

जब लोगों को काट-छाँट किए जाने का सामना करना पड़ता है तो वे आम तौर पर इसी तरह की नकारात्मकता फैलाते हैं। वे अपनी काट-छाँट स्वीकार नहीं कर सकते और अपने दिलों में असंतुष्ट और अवज्ञाकारी होते हैं, इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारने में असमर्थ होते हैं। उनकी पहली प्रतिक्रिया यह नहीं होती कि वे अपनी काट-छाँट को लेकर सत्य खोजें और आत्म-चिंतन करें, खुद को जानें और अपना गहन-विश्लेषण करें, यह देखें कि वास्तव में उन्होंने क्या गलती की, क्या उनके क्रियाकलाप सिद्धांतों के अनुरूप थे, परमेश्वर के घर ने उनकी काट-छाँट क्यों की और उनके साथ इस तरह से पेश आना कोई व्यक्तिगत नाराजगी के कारण था या फिर यह सही और उचित था। उनकी पहली प्रतिक्रिया इन चीजों को खोजने की नहीं होती—इसके बजाय, उनकी पहली प्रतिक्रिया अपनी काट-छाँट किए जाने का विरोध करने के लिए अपनी योग्यताओं, सहन की गई कठिनाइयों और खुद को खपाने पर भरोसा करने की होती है। ऐसा करते समय, उनके दिलों में उठने वाली हर बात नकारात्मक और प्रतिकूल होती है, जिसमें कुछ भी स्वीकारात्मक या सकारात्मक नहीं होता है। इसलिए, जब वे काट-छाँट किए जाने के बाद अपनी भावनाओं और समझ के बारे में संगति करते हैं तो वे निश्चित रूप से नकारात्मकता और धारणाएँ फैला रहे होते हैं। नकारात्मकता और धारणाएँ फैलाने को तुरंत रोका और प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, इसमें लिप्त नहीं होना चाहिए और इसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। ये नकारात्मक चीजें हर एक व्यक्ति के जीवन प्रवेश को रोकेंगी, बाधित करेंगी और नुकसान पहुँचाएँगी, और वे स्वीकारात्मक, सकारात्मक भूमिका नहीं निभा सकतीं; वे लोगों की परमेश्वर के प्रति निष्ठा या अपने कर्तव्य निर्वहन में उनकी वफादारी को प्रेरित तो बिल्कुल नहीं कर सकती हैं। इसलिए जब ऐसे लोग नकारात्मकता फैलाते हैं तो वे कलीसियाई जीवन को बाधित कर रहे होते हैं और उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।

3. अपनी प्रतिष्ठा, रुतबा और हितों को नुकसान पहुँचने पर नकारात्मकता फैलाना

बर्खास्त किए जाने या काट-छाँट किए जाने के बाद नकारात्मकता फैलाने के अलावा लोग कौन-सी अन्य परिस्थितियों में नकारात्मकता फैलाते हैं? (जब लोगों के हितों को चोट पहुँचती है और उन्हें लगता है कि उन्हें नुकसान हुआ है।) (कुछ लोगों ने कई सालों से अपने कर्तव्य निभाए हैं मगर जब वे बीमार पड़ते हैं या उनके परिवार पर आपदा आती है तो वे कहते हैं, “इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास रखने से मुझे क्या हासिल हुआ?”) नकारात्मकता फैलाने वालों का सामान्य “तकिया कलाम” है “मुझे क्या हासिल हुआ?” और कौन-सी परिस्थितियाँ हैं? (कुछ लोग न केवल अपने कर्तव्यों में नतीजे हासिल करने में विफल रहते हैं बल्कि वे अक्सर गलतियाँ करते हैं इसलिए वे कहते हैं, “परमेश्वर दूसरों को प्रबुद्ध करता है मगर मुझे क्यों नहीं? परमेश्वर ने उन्हें इतनी अच्छी काबिलियत क्यों दी जबकि मेरी काबिलियत इतनी कम है?” अपनी समस्याओं पर चिंतन करने के बजाय वे परमेश्वर को जिम्मेदार ठहराते हैं, कहते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें प्रबुद्ध नहीं किया या रास्ता नहीं दिखाया और फिर वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते रहते हैं।) वे दावा करते हैं कि परमेश्वर निष्पक्ष नहीं है, पूछते हैं कि वह दूसरों को प्रबुद्ध करता है और अनुग्रह प्रदान करता है मगर उन्हें क्यों नहीं; इस बारे में बड़बड़ाते रहते हैं कि वे अपने कर्तव्यों में नतीजे क्यों नहीं हासिल कर रहे—वे शिकायत करते हैं। तुम लोगों द्वारा दिए गए उदाहरण अच्छे हैं। और कुछ है? (जब कुछ लोगों के कर्तव्य किसी और को सौंप दिए जाते हैं तो वे बहुत नाराज होते हैं, सवाल करते हैं कि उनका कर्तव्य किसी और को क्यों सौंपा गया और यह संदेह करते हैं कि अगुआ और कार्यकर्ता उन्हें निशाना बना रहे हैं और उनके लिए चीजों को मुश्किल बना रहे हैं।) क्या उन्हें लगता है कि परमेश्वर का घर उन्हें नीची नजरों से देखता है? (हाँ।) कुछ लोग जो वास्तविक कार्य नहीं करते हैं उन्हें बर्खास्त करके हटा दिया जाता है और उन्हें लगता है कि उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे को नुकसान पहुँचाया गया है। अपना असंतोष जाहिर करने के लिए वे हमेशा अकेले में शिकायत करते रहते हैं : “मैंने थोड़े समय के लिए परमेश्वर पर विश्वास किया है, मेरी समझने की क्षमता अच्छी नहीं है और मेरी काबिलियत कम है। मैं दूसरों के बराबर नहीं हूँ। अगर वे कहते हैं कि मैं सक्षम नहीं हूँ तो सच ही कह रहे होंगे!” ऊपरी तौर पर वे अपनी कमियों को स्वीकार रहे हैं मगर वास्तव में वे अपने खोए हुए लाभों को फिर से पाने की कोशिश में हैं, लगातार शिकायत करते हैं और लोगों की सहानुभूति पाने और उन्हें यह महसूस कराने के लिए ऐसी बातें कह रहे हैं कि परमेश्वर का घर निष्पक्ष नहीं है। जैसे ही उनके हितों को चोट पहुँचती है वे अनिच्छुक हो जाते हैं और हमेशा अपने नुकसान की भरपाई करने और मुआवजा पाने की उम्मीद करते रहते हैं। अगर ऐसा नहीं होता है तो वे परमेश्वर में अपना विश्वास खो देते हैं और अब यह नहीं जानते कि उसमें कैसे विश्वास किया जाए; वे ऐसी बातें कहते हैं, “मैं सोचता था कि परमेश्वर में विश्वास रखना बहुत अच्छा है और कलीसिया में अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में काम करने से निश्चित ही बहुत सारे आशीष मिलेंगे। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे बर्खास्त करके हटा दिया जाएगा और दूसरे लोग मुझे ठुकरा देंगें। परमेश्वर के घर में भी ऐसा कुछ हो सकता है! जरूरी नहीं कि हर कोई जो परमेश्वर में विश्वास रखता है वह अच्छा इंसान हो और परमेश्वर का घर जो कुछ भी करता है वह परमेश्वर या न्याय का प्रतिनिधित्व करता हो।” इस तरह के बयानों की प्रकृति क्या है? उनके शब्द, स्पष्ट और निहित दोनों ही रूप से, एक हमले का संदेश देते हैं। वे आलोचना और प्रतिरोध का संदेश देते हैं। ऊपरी तौर पर वे किसी विशेष अगुआ या कलीसिया को निशाना बनाते दिखते हैं मगर वास्तव में उनके दिलों में ये शब्द परमेश्वर, उसके वचनों और उसके घर के प्रशासनिक आदेशों और नियमों को निशाना बना रहे होते हैं। वे पूरी तरह से अपनी नाराजगी दिखा रहे होते हैं। वे अपनी नाराजगी क्यों दिखा रहे होते हैं? उन्हें लगता है कि उन्हें नुकसान हुआ है; अपने दिलों में वे अन्याय और असंतोष महसूस करते हैं और वे चीजों की माँग करना और मुआवजा प्राप्त करना चाहते हैं। हालाँकि ऐसे लोगों द्वारा फैलाई गई नकारात्मकता ज्यादातर लोगों के लिए कोई बड़ा खतरा पैदा नहीं करती, ये गंदे शब्द परेशान करने वाली मक्खियों या खटमलों जैसे होते हैं जो लोगों के मन में थोड़ा व्यवधान पैदा करते हैं। ये शब्द सुनकर ज्यादातर लोग घिन और विरक्ति महसूस करते हैं मगर जाहिर है कि ऐसे लोग भी होंगे जो इनकी किस्म के होंगे, जिनके स्वभाव, सार और झुकाव ऐसे ही होंगे, जो इन लोगों की तरह ही बुरे होंगे, और जो इनसे प्रभावित और परेशान होंगे। यह तो होना ही है। इसके अलावा, कुछ छोटे आध्यात्मिक कद के लोग जिनमें विवेक की कमी होती है, इन नकारात्मक टिप्पणियों से परेशान हो सकते हैं और परमेश्वर में उनकी आस्था प्रभावित हो सकती है। ये लोग पहले से ही नहीं जानते कि वास्तव में परमेश्वर में विश्वास किसलिए करें, और उन्हें दर्शनों के सत्य के बारे में स्पष्ट नहीं है, और सत्य समझने की उनकी क्षमता भी कमजोर है। जब वे ये नकारात्मक कथन सुनते हैं तो उनके अनजाने में ही उन्हें ग्रहण करने और इस तरह उनके प्रभाव से ग्रस्त होने की अत्यधिक संभावना होती है। ये शब्द जहर हैं। इन्हें लोगों के दिलों में आसानी से भरा जा सकता है। जब कोई व्यक्ति इन नकारात्मक टिप्पणियों को स्वीकार लेता है और जब परमेश्वर का घर उनसे कोई कर्तव्य करने के लिए कहता है तो वे बेरुखी से पेश आते हैं। जब परमेश्वर का घर किसी काम में उनसे सहयोग माँगता है तो वे बेपरवाह रहते हैं। वे इसे तभी ग्रहण करेंगे जब उनका मन करेगा; नहीं तो वे ऐसा नहीं करेंगे, हमेशा तरह-तरह के तर्क और बहाने देते रहेंगे। उन नकारात्मक टिप्पणियों को सुनने से पहले परमेश्वर में उनके विश्वास में थोड़ी ईमानदारी थी और अपने कर्तव्य निभाते समय उनका रवैया कुछ हद तक सकारात्मक और सक्रिय था। मगर उन नकारात्मक टिप्पणियों को सुनने के बाद वे उदासीन हो जाते हैं और अपने भाई-बहनों के प्रति भी बेरुखी दिखाते हैं। वे उनसे सावधानी बरतते हैं। जब कलीसिया उनके लिए कोई कर्तव्य करने की व्यवस्था करती है तो वे टाल-मटोल करते रहते हैं और बार-बार उसे टालते रहते हैं जिसमें काफी निष्क्रियता दिखती है। पहले वे समय पर सभाओं में जाते थे मगर उन टिप्पणियों को सुनने के बाद उनकी उपस्थिति कम हो जाती है—जब उनका मिजाज अच्छा होता है तो वे आते हैं मगर जब मिजाज अच्छा नहीं होता है तो वे नहीं आते हैं। अगर घर पर कोई अप्रिय घटना घटती है तो उन्हें चिंता होती है कि कोई आपदा आ सकती है इसलिए वे सभाओं में ज्यादा जाते हैं और परमेश्वर के वचनों को ज्यादा पढ़ने लगते हैं। अगर वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद रोमांचित, खुश और प्रेरित होते हैं तो वे कुछ पैसे भी देंगे। मगर जब घर में सब कुछ शांत हो जाता है तो वे एक बार फिर से सभाओं में जाना बंद कर देते हैं। जब भाई-बहन उनका समर्थन करने की उम्मीद में उनके साथ संगति करने की कोशिश करते हैं तो वे इनकार करने के बहाने ढूँढते हैं; और जब भाई-बहन उनके घर जाते हैं तो वे साफ तौर पर घर में होने के बावजूद दरवाजा नहीं खोलते। यहाँ क्या हो रहा है? वे उन नकारात्मक टिप्पणियों से प्रभावित हो गए हैं—उनमें जहर भरा गया है और उनका मानना है कि परमेश्वर में विश्वास रखने वालों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। पहले वे इन लोगों पर काफी भरोसा करते थे और जब उन्होंने परमेश्वर के वचन पढ़े तो सोचा, “ये परमेश्वर के वचन हैं, ये लोग मेरे भाई-बहन हैं, यह परमेश्वर का घर है—कितनी शानदार बात है!” मगर जब उन्होंने कुछ लोगों द्वारा फैलाई गई नकारात्मक टिप्पणियों को सुना तो वे बदल गए। क्या वे प्रभावित नहीं हुए हैं? क्या उनके जीवन प्रवेश को नुकसान नहीं पहुँचा है? (हाँ, पहुँचा है।) किसने उन्हें प्रभावित किया? उन लोगों ने जो नकारात्मकता फैलाते हैं, जिन्होंने वे टिप्पणियाँ कीं। अगर किसी ने अभी तक सच्चे मार्ग पर ठोस नींव नहीं बनाई है या परमेश्वर के वचनों को इस हद तक नहीं खाया-पिया है कि वे सत्य समझ सकें तो वे आसानी से नकारात्मक चीजों से प्रभावित हो सकते हैं। और खास तौर पर जिन लोगों में सत्य समझने की क्षमता नहीं है बल्कि केवल रुझानों को देखते हैं, स्थिति को भाँपते हैं और सतही घटनाओं को देखते हैं—वे नकारात्मक शब्दों से और भी ज्यादा आसानी से प्रभावित होते हैं। खासकर जब उन्होंने लोगों को इस तरह की भ्रांतियाँ फैलाते सुना हो जैसे कि, “परमेश्वर का घर जरूरी नहीं कि निष्पक्ष हो और परमेश्वर का घर जो कुछ भी करता है वह सब सकारात्मक नहीं होता,” तो वे और भी ज्यादा सतर्क हो जाते हैं। कोई ऐसा कथन जो सत्य के अनुरूप हो उसे हमेशा आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है मगर एक नकारात्मक, बेतुका, और ऐसा कथन जो सत्य का खंडन करता है—यह बहुत आसानी से लोगों के दिलों में जड़ें जमा सकता है और उसे हटाना आसान नहीं होता। लोगों के लिए सत्य स्वीकारना तो बहुत कठिन है, मगर उनके लिए भ्रांतियाँ स्वीकारना बहुत आसान होता है!

बुरी मानवता वाले कुछ लोग अपनी प्रतिष्ठा, शोहरत, दैहिक सुख, निजी संपत्ति और हितों को बहुत महत्व देते हैं। जब उनकी प्रतिष्ठा, रुतबे और प्रत्यक्ष हितों को नुकसान पहुँचता है तो वे इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं करते या परमेश्वर ने उनके लिए जो परिवेश तैयार किया है उसे स्वीकार नहीं करते हैं; वे इन चीजों को त्यागने और अपने व्यक्तिगत नफे-नुकसान की अनदेखी करने में असमर्थ होते हैं। इसके बजाय वे अपने असंतोष और अवज्ञा को जाहिर करने के लिए विभिन्न अवसरों का उपयोग करते हैं और अपनी नकारात्मक भावनाओं को फैलाते हैं जिस वजह से कुछ लोगों को बहुत कष्ट सहना पड़ता है। इसलिए जब ऐसे लोग नकारात्मकता फैलाते हैं तो कलीसिया के अगुआओं को सबसे पहले स्थिति को तुरंत समझना चाहिए और समय रहते उन लोगों को रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए। बेशक, कलीसिया के अगुआओं को सक्रियता से उन लोगों को उजागर भी करना चाहिए और भाई-बहनों के साथ इस बात पर संगति करनी चाहिए कि उन्हें कैसे पहचाना जाए, वे ये नकारात्मक और बेतुकी बातें क्यों कहते हैं, साथ ही खुद को उनके द्वारा गुमराह किए जाने और गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाए जाने से बचने के लिए उन्हें इन शब्दों को कैसे लेना और कैसे पहचानना चाहिए। ऐसे लोगों को पहचानने और उनका गहन-विश्लेषण करने में सक्षम होना और इस तरह उनसे बचना, उन्हें ठुकराना और अब उनके द्वारा गुमराह नहीं होना जरूरी है। यह काम कलीसिया के अगुआओं को करना चाहिए। बेशक, अगर साधारण भाई-बहनों को ऐसे लोगों का पता चलता है और वे उनके मानवता सार को पहचान लेते हैं तो उन्हें भी उनसे दूर रहना चाहिए। अगर तुममें प्रतिरोध करने की पर्याप्त क्षमता नहीं है या उनका समर्थन करने, उनकी मदद करने और उन्हें बदलने के लिए आध्यात्मिक कद नहीं है और तुम्हें लगता है कि तुम उनकी नकारात्मक टिप्पणियों, उनके असंतोष और अवज्ञा वाले शब्दों का सामना नहीं कर सकते हो तो उनसे दूर रहना ही सबसे अच्छा है। अगर तुम्हें लगता है कि तुम बहुत मजबूत हो, तुम्हारे पास थोड़ा आध्यात्मिक कद है और कोई चाहे कुछ भी कहे, तुम विवेक का प्रयोग कर सकते हो और अप्रभावित रह सकते हो तो उनके द्वारा फैलाई गई नकारात्मकता चाहे कितनी भी तीव्र क्यों न हो, इससे परमेश्वर में तुम्हारी आस्था नहीं बदलेगी, तुम ऐसे लोगों को पहचान सकते हो और जब वे नकारात्मकता फैलाएँ तो तुम उन्हें उजागर कर सकते हो और रोक भी सकते हो—तो तुम्हें ऐसे लोगों से बचने या उनसे सावधान रहने की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास ऐसा आध्यात्मिक कद नहीं है तो ऐसे लोगों से निपटने का तरीका और सिद्धांत उनसे दूर रहना है। क्या यह हासिल करना आसान है? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं, “क्या मैं उन्हें बर्दाश्त कर सकता हूँ, उन्हें झेल सकता हूँ और उन्हें माफ कर सकता हूँ?” यह भी ठीक है और यह गलत नहीं है मगर यह सबसे महत्वपूर्ण या सबसे अच्छा तरीका नहीं है। मान लो कि तुम उन्हें सहते हो, बर्दाश्त करते हो और उनके प्रति आसक्त होते हो और अंत में उनके द्वारा गुमराह होकर उनके पक्ष में चले जाते हो। और मान लो कि चाहे परमेश्वर का घर तुम्हारा कैसे भी पोषण और समर्थन करे, तुम इसे महसूस नहीं कर पाते हो; या जब तुम परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हो तो अक्सर उनके विचारों और टिप्पणियों से प्रभावित होते हो और जैसे ही तुम उनके द्वारा कही गई किसी बात के बारे में सोचते हो, तुम्हारा मन प्रभावित होता है और तुम पढ़ना जारी नहीं रख पाते। और जब भाई-बहन सत्य की अपनी समझ के बारे में संगति करते हैं—खासकर जब वे ऐसे लोगों की टिप्पणियों को पहचानने के बारे में संगति करते हैं—तो तुम फिर से उनके शब्दों से प्रभावित और गुमराह हो जाते हो जिससे तुम्हारा मन उधेड़बुन में पड़ जाता है। अगर ऐसा है तो तुम्हें ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए। तुम्हारी सहनशीलता और स्थिरता अप्रभावी रहेंगी और ये ऐसे लोगों से बचाव के सबसे अच्छे तरीके नहीं हैं। मान लो कि तुम्हारी सहनशीलता और स्थिरता कोई छिपे हुए, बाहरी व्यवहार नहीं हैं, बल्कि वास्तव में तुम्हारे पास ऐसे लोगों का सामना करने के लिए पर्याप्त आध्यात्मिक कद है। चाहे वे कुछ भी कहें, भले ही तुम कुछ न बोलो, फिर भी तुम उन्हें अपने दिल में पहचान सकते हो; तुम उनके प्रति सहनशीलता दिखा सकते हो और उन्हें अनदेखा कर सकते हो मगर उनके द्वारा कहे गए कोई भी प्रतिकूल, नकारात्मक शब्द या परमेश्वर के बारे में गलतफहमी और शिकायत भरी बातें परमेश्वर में तुम्हारी आस्था को जरा भी प्रभावित नहीं करेंगी, न ही ये तुम्हारे कर्तव्य पालन में तुम्हारी निष्ठा या परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण को प्रभावित करेंगी। उस स्थिति में तुम उन्हें बर्दाश्त और सहन कर सकते हो। सहनशीलता और स्थिरता का अभ्यास करने का सिद्धांत क्या है? नुकसान नहीं पहुँचाया जाना। उन्हें अनदेखा करो, उन्हें जो कहना है कहने दो—आखिरकार ऐसे लोग सिर्फ विवेकहीन उपद्रवी होते हैं और वे चिकने घड़े होते हैं। चाहे तुम उनके साथ सत्य के बारे में कैसे भी संगति करो वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे; वे राक्षसों और शैतानों की श्रेणी के हैं और उनके साथ संगति करना बेकार है। इसलिए इससे पहले कि परमेश्वर का घर उनसे निपटे और उन्हें हटाए, अगर तुममें बिना किसी नुकसान के उन्हें सहन करने और बर्दाश्त करने की क्षमता है तो यह सबसे अच्छा है। क्या तुम लोग आम तौर पर सहनशीलता और स्थिरता के इस सिद्धांत को अपनाते हो? तुम सभी प्रकार के लोगों को सहन करते हो मगर कभी-कभी तुम सावधानी नहीं बरतते और थोड़े गुमराह हो जाते हो; बाद में तुम्हें इसका एहसास होता है तो तुम परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस करते हो, कुछ दिनों तक प्रार्थना करते हो, अपनी स्थिति बदलते हो और परमेश्वर के करीब आ जाते हो। ज्यादातर समय तुम यह स्पष्ट देख सकते हो कि ऐसे लोग अच्छे नहीं हैं और वे राक्षसों की श्रेणी के हैं। हालाँकि तुम उनसे सामान्य रूप से बातचीत कर सकते हो मगर तुम अंदर से उनसे दूर हो जाते हो और उनसे विकर्षित होते हो। चाहे वे कुछ भी कहें या कोई भी नकारात्मक टिप्पणी करें और विचार व्यक्त करें, तुम उसे अनदेखा करते हुए सोचते हो, “जो भी कहना है कहो। मैं तुम्हें पहचान सकता हूँ। तुम जैसे लोगों से मेरा कोई वास्ता नहीं है।” क्या यही वह सिद्धांत है जिसका तुम लोग ऐसे मामलों से निपटने के दौरान ज्यादातर समय पालन करते हो? इसे हासिल करना भी बुरा नहीं है; यह आसान नहीं है और इसके लिए कुछ सत्यों को समझना और एक निश्चित आध्यात्मिक कद होना जरूरी है। अगर तुममें इस स्तर का आध्यात्मिक कद भी नहीं है तो तुम दृढ़ नहीं रह पाओगे और न ही अपना कर्तव्य अच्छे से निभा पाओगे।

4. आशीष प्राप्त करने की इच्छा नष्ट होने पर नकारात्मकता फैलाना

नकारात्मकता फैलाने की एक और अभिव्यक्ति है। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास किया और मुझे क्या हासिल हुआ?” जब ऐसे लोग नकारात्मकता फैलाते हैं तो उनकी मुख्य बात यह होती है, “मुझे क्या हासिल हुआ?”—यानी उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया। उनका मानना है कि परमेश्वर में विश्वास रखते समय परमेश्वर के घर या परमेश्वर से कोई लाभ या आशीष पाना बहुत कठिन है, और लोगों को बहुत सारा प्रेम दिखाना चाहिए और उनमें अविश्वसनीय सहनशक्ति होनी चाहिए, और तुरंत नतीजे पाने के लिए बेताब नहीं होना चाहिए। जहाँ तक लोगों को उजागर करने, उनकी काट-छाँट करने, उनका शोधन करने और उनकी भ्रष्टता को स्वच्छ करने वाले वचनों की बात है, वे मानते हैं कि ये केवल सतही, ऊँचे लगने वाले शब्दाडंबर हैं जिन पर पूरी तरह विश्वास नहीं किया जा सकता; वे सोचते हैं कि अगर उन्होंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास किया तो उन्हें बहुत बड़ा नुकसान उठाना होगा। उन्हें लगता है कि लाभ और फायदा पाना और साथ ही अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करना हर समय सबसे जरूरी होता है, और वे सत्य का अभ्यास करते हैं या नहीं, यह बिल्कुल भी जरूरी नहीं है—वे मानते हैं कि अगर वे बुराई नहीं करते हैं तो इतना ही काफी है और कलीसिया उन्हें नहीं हटाएगी। इन नकारात्मक शब्दों को सुनकर ज्यादातर लोग कैसा महसूस करते हैं? क्या वे मन-ही-मन इन वचनों को स्वीकारते और इनसे सहमत होते हैं या फिर इनसे थोड़ी घृणा करते हैं और यह सोचते हैं कि ये लोग स्वार्थी, नीच, दुष्ट, और घिनौने हैं और इन्हें पहचान कर उजागर और प्रतिबंधित कर सकते हैं और इन्हें नकारात्मकता और मृत्यु फैलाने से रोक सकते हैं? क्या ज्यादातर लोग ऐसे नकारत्मक शब्दों को अस्वीकार करते हैं और इनकी निंदा करते हैं या वे उनसे गुमराह होकर नकारात्मक बन सकते हैं? कुछ लोग इन शब्दों को सुनने के बाद और यह देखते हुए कि उनके हाथ खाली हैं, सोचते हैं, “क्या यह सच नहीं है! मुझे भी कुछ हासिल नहीं हुआ है। परमेश्वर के घर में मुझे बस तीन वक्त का खाना मिलता है, मैं हमेशा व्यस्त रहता हूँ और मैंने वाकई और कुछ भी हासिल नहीं किया है।” क्या तुम लोगों के भी ऐसे विचार हैं? क्या तुम लोग भी ऐसा ही महसूस करते हो? जो लोग सत्य समझते हैं वे कहेंगे, “तुम्हारे यह कहने का क्या मतलब है कि तुमने कुछ भी हासिल नहीं किया है? हमने परमेश्वर से बहुत कुछ हासिल किया है! हमने इतने सारे सत्यों को समझा है!” मगर कुछ लोग उनसे असहमत होते हुए कह सकते हैं, “यह कहना बहुत यथार्थवादी नहीं लगता कि हमने ‘बहुत कुछ’ हासिल किया है। हमें बस थोड़ा-सा अनुग्रह प्राप्त हुआ है, अपने कर्तव्य निभाने के कुछ अवसर मिले हैं, एक इंसान बनने के बारे में हमने कुछ धर्म-सिद्धांतों को समझा है, हम विभिन्न स्थानों से आये कई भाई-बहनों से मिले हैं और हमने उन्हें जाना है, और अपने क्षितिज को काफी व्यापक बनाया है। इसका मतलब है कि हमने बस थोड़ा ही हासिल किया है।” तुम लोग इनमें से किस श्रेणी में आते हो? इन सभी श्रेणियों के लोग मौजूद हैं, है ना? (हाँ।) हम इस पर दो पहलूओं से चर्चा करेंगे। सबसे पहले, आओ उन लोगों के बारे में बात करते हैं जो हमेशा अनुग्रह पाने की खातिर परमेश्वर में विश्वास रखते हैं—क्या वे सत्य हासिल करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं ताकि वे उद्धार प्राप्त कर सकें? (नहीं, वे आशीष पाने के लिए विश्वास रखते हैं।) तो, क्या परमेश्वर ने उन्हें थोड़ा-सा अनुग्रह, सुरक्षा, दयालुता, प्रबुद्धता और रोशनी दी है? (परमेश्वर ने उन्हें इनमें से बहुत-सी चीजें दी हैं।) यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले हर एक व्यक्ति को परमेश्वर की सुरक्षा मिली है। क्या परमेश्वर की सुरक्षा ठोस है? क्या वास्तविक जीवन में इसके कुछ उदाहरण हैं? लोगों को किस तरह की सुरक्षा मिली है? (एक अपेक्षाकृत स्पष्ट प्रकार यह है कि परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद हम अब संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों से प्रभावित नहीं होते हैं। हम पतन में नहीं पड़ते या नाइट क्लबों में जाने, धूम्रपान करने और शराब पीने जैसी दुष्ट चीजों का अनुसरण नहीं करते हैं। कम से कम हम इन चीजों में शामिल नहीं होते और मेरा मानना है कि हम इस मामले में काफी सुरक्षित हैं।) यह एक बहुत ही ठोस पहलू है जिसे लोग देख सकते हैं और व्यक्तिगत रूप से इसका अनुभव कर सकते हैं। संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों से प्रभावित और गुमराह नहीं होना, एक इंसान की तरह जीना और एक इंसान की तरह सामान्य मानवता के भीतर रहना—यह परमेश्वर की सुरक्षा का एक व्यावहारिक उदाहरण और सबूत है। क्या और भी कुछ है? (बुरी आत्माओं से परेशान नहीं होना और परमेश्वर की सुरक्षा में रहने में सक्षम होना।) यह भी एक व्यावहारिक उदाहरण है। क्या ज्यादातर लोगों ने यह अनुभव किया है? क्या तुम लोग इसमें छिपे अर्थ को समझ सकते हो? कुछ लोग कहते हैं, “अविश्वासी भी बुरी आत्माओं से परेशान नहीं होते हैं। कितने अविश्वासी बुरी आत्माओं से परेशान होते हैं?” क्या यह कथन सही है? क्या तुम लोगों को लगता है कि यह कथन तथ्यों के अनुरूप है? (मेरे कई सहपाठियों को बुरी आत्माओं ने परेशान किया है। कुछ लोग नींद में पक्षाघात की समस्या का अनुभव करते हैं और कुछ अन्य लोगों को आवाजें सुनाई देती हैं। वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते और नहीं जानते कि क्या हो रहा है। वे हर जगह जाकर इलाज कराते हैं मगर इसे ठीक नहीं कर पाते, वे डर और भय में जीते हैं; यह पीड़ादायक है। हालाँकि, मुझे कभी भी इस तरह से परेशान या पीड़ित नहीं होना पड़ा क्योंकि मैंने बचपन से ही परमेश्वर में विश्वास रखा है। ज्यादातर समय, मेरा दिल अपेक्षाकृत स्थिर और शांत महसूस करता है।) परमेश्वर के सच्चे विश्वासियों को यह चिंता नहीं सताती है। हम रूपांतरण विकार से पीड़ित होने या बुरी आत्माओं द्वारा परेशान या ग्रसित होने के बारे में चिंता नहीं करते; हम नहीं डरते क्योंकि हमारे पास परमेश्वर है। इसके अलावा वास्तविक जीवन में अविश्वासी लगातार चेहरा पढ़ने, फेंग शुई और भाग्य बताने के बारे में बात करते हैं—पश्चिम में तो ज्योतिष विद्या भी है। कुछ लोग प्रसिद्ध बौद्ध प्रतिमाओं, बुरी आत्माओं और मूर्तियों की आराधना करते हैं और कुछ लोग ऐसा नहीं करते, मगर चाहे वे ऐसा करें या न करें, वे सभी कुछ हद तक इन चीजों से प्रभावित और अवरोधित हैं। उदाहरण के लिए, घर से निकलने से पहले वे थोड़ा सोचते हैं कि कौन-सी दिशा शुभ है और कौन-सी अशुभ। दुकान खोलते समय वे यह पता लगाते हैं कि गल्ले को कहाँ रखने से पैसे आएँगे और कहाँ रखने से नहीं आएँगे, दुकान में कौन-सी चीजें रखनी चाहिए, धन को आकर्षित करने के लिए किन मूर्तियों की आराधना करनी चाहिए और फेंग शुई को बाधित करने से बचने के लिए कुछ चीजें कहाँ रखनी चाहिए। घर बदलते समय वे परिवार के लिए भविष्य की समृद्धि सुनिश्चित करने और दुर्घटनाओं से बचने के लिए शुभ समय निर्धारित करते हैं और यह पता लगाते हैं कि कौन-से समय अशुभ हैं। यहाँ तक कि छात्र भी प्रवेश परीक्षाएँ देते समय इन मान्यताओं से प्रभावित होते हैं। परीक्षा के दिन वे विफलता दर्शाने वाले शब्द कहने से बचते हैं और इसके बजाय “प्रगति” और "कामयाबी" जैसे शब्द कहते हैं। जीवन का हर एक पहलू—बच्चों के स्कूल जाने से लेकर माता-पिता के अपने दैनिक जीवन जीने, पैसे कमाने, घर बदलने, नौकरी तलाशने, साथ ही बच्चों की शादी वगैरह—सब कुछ अन्य बातों के साथ ही तथाकथित फेंग शुई और भाग्य से प्रभावित होता है। तो, जब लोग इन चीजों से प्रभावित होते हैं तो कौन-सी चीज उन्हें रोक रही होती है? बुरी आत्माएँ उन्हें रोक रही होती हैं; ये सभी चीजें बुरी आत्माओं द्वारा नियंत्रित होती हैं। तो फिर लोग उन बुरी आत्माओं की आराधना क्यों करते हैं? वे इन चीजों से क्यों प्रभावित होते हैं? घर बदलने जैसी छोटी-सी बात के लिए लोग हमेशा इस पर विचार क्यों करते हैं कि किस समय काम शुरू करना शुभ होगा और किस समय नहीं, कौन-सा सामान पहले हटाना शुभ होगा और कौन-सा सामान नहीं हटाना शुभ होगा? उन्हें हमेशा इन चीजों पर विचार क्यों करना पड़ता है? क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो बुरी आत्माएँ अपना काम करेंगी, उन्हें पीड़ित और प्रताड़ित करेंगी। इन मामलों से तुम लोगों को क्या पता चलता है? यही कि पूरी मानवजाति बुराई के नियंत्रण में रहती है। बुरे कौन हैं? सबसे ज्यादा बुरे शैतान और राक्षस हैं और थोड़े कम बुरे अलग-अलग जगहों पर रहने वाली बुरी आत्माएँ हैं जो अलग-अलग जातियों के लोगों को काबू में करती हैं। मानव जीवन का हर पहलू इन बुरी आत्माओं से बाधित और नियंत्रित होता है। यहाँ तक कि घर बनाते समय मुख्य बीम की स्थापना के दौरान लोग थोड़ी अच्छी किस्मत के लिए लाल कपड़ा लटकाते और पटाखे फोड़ते हैं और निर्माण में शामिल सभी मजदूर आर्थिक समृद्धि लाने और दुर्घटनाओं से बचने के लिए लाल कपड़े पहनते हैं। इन सभी चीजों के बारे में कुछ विशेष आवश्यकताएँ और कहावतें हैं, साथ ही वर्जनाएँ भी हैं और उन्हें वर्जनाओं से बचते हुए इन कहावतों का पालन करना चाहिए। उदाहरण के लिए, कुछ लोग अक्सर कठिनाइयों का सामना करते हैं और उनके लिए चीजें सुचारू रूप से नहीं चलतीं—वे अपनी नौकरी खो देते हैं, उनकी पत्नियाँ उन्हें छोड़ देती हैं और उनके पास घर पर कुछ भी नहीं बचता। वे अपने गिरवी रखे घर का ऋण भी नहीं चुका पाते और कुछ भी ठीक नहीं चल रहा होता है। उन्होंने कुछ भी बुरा नहीं किया तो उनके साथ ये सब क्यों होता है? कोई और विकल्प नहीं होने पर, वे झूठे देवताओं और बुरी आत्माओं की आराधना करने लगते हैं या अपनी किस्मत बदलने के लिए फौरन किसी से अपनी फेंग शुई की जाँच करवाते हैं और ऐसा करने के बाद चीजें धीरे-धीरे उनके लिए अच्छी होने लगती हैं। वे पहले इन चीजों पर विश्वास नहीं करते थे मगर जब समस्याएँ आती हैं तो वे गंभीरता से झूठे देवताओं और बुरी आत्माओं की आराधना करते हैं और कुछ भी करने से पहले उन्हें शकुन-विद्या या भाग्य बताने वालों से परामर्श करना होता है। क्या इस तरह से जीना थकाऊ नहीं है? (हाँ।) यह एकदम थकाऊ है! हालाँकि वे चाहते हैं मगर वे स्वतंत्र रूप से और आराम से जी नहीं सकते या इन कहावतों और नियमों की विवशताओं से नहीं बच सकते हैं। अगर वे इन नियमों को तोड़ते हैं तो बुरी आत्माएँ कार्य करती हैं और उन्हें परेशान करती हैं, वे बुरी आत्माएँ जबरन उन्हें अपने वश में कर लेती हैं, और अपने जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए उन्हें रोज उनकी आराधना करनी पड़ती है। लेकिन जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं वे इन सामंती अंधविश्वासों या बुरी आत्माओं की क्रियाओं से बंधे नहीं होते। वे बिना किसी वर्जना के अपना घर बदल सकते हैं या अपनी मर्जी से कहीं भी जा सकते हैं। चीन की मुख्य भूमि में कम्युनिस्ट पार्टी हमेशा धार्मिक विश्वासों को दबाती है और उन पर अत्याचार करती है। अगर कोई विश्वासी अब किसी स्थान पर नहीं रह सकता है तो उसे फौरन वहाँ से चले जाना चाहिए—क्या उसे इसके लिए कोई शुभ दिन या शुभ घड़ी चुनने की जरूरत है या किसी की आराधना करनी होगी? नहीं। वह परमेश्वर से प्रार्थना करता है, और परमेश्वर उसकी रक्षा करता है। सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है—वह इन चीजों से बंधा नहीं है। जब भी वह कुछ खाना चाहे या घर से बाहर निकलना चाहे तो क्या उसे पंचांग देखने की जरूरत है या यह देखना है कि यह किसी वर्जना का उल्लंघन तो नहीं करता? नहीं, वह परमेश्वर से प्रार्थना करता है, और सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है। जब लोग परमेश्वर के प्रभुत्व और संप्रभुता के अधीन रहते हैं तो परमेश्वर की सुरक्षा और मार्गदर्शन से बुरी आत्माएँ और गंदे राक्षस, बड़े और छोटे दोनों ही, रास्ते से दूर रहते हैं; वे परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों को परेशान करने की हिम्मत नहीं करते हैं। क्या ये लोग सुरक्षित नहीं हैं? क्या वे स्वतंत्रता और सहजता से नहीं रह रहे हैं? (हाँ, रह रहे हैं।) क्या यह बड़ा अनुग्रह है? (हाँ।) इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने अभी तक सत्य प्राप्त किया है या नहीं, अगर तुम परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास रखने वाले व्यक्ति हो तो तुम परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित और चुने गए व्यक्ति हो और जब तुम परमेश्वर के सामने आते हो तो वह इस तरह से तुम्हारी रक्षा करता है, तुम्हें इस तरह के अनुग्रह का आनंद लेने देता है। यह कितना बड़ा अनुग्रह है! तुम्हारी व्यक्तिगत सुरक्षा और तुम्हारी सभी गतिविधियाँ सुरक्षित और संरक्षित रहती हैं, परमेश्वर इन चीजों की जिम्मेदारी खुद लेता है और उनकी रक्षा करता है इसलिए तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। ज्यादातर समय लोग प्रार्थना भी नहीं करते या सचेत रूप से आत्म-चिंतन नहीं करते, “मैं परमेश्वर से प्रार्थना करूँगा और परमेश्वर से मेरी रक्षा करने के लिए कहूँगा। मुझे आशा है कि सब कुछ ठीक होगा और कुछ भी बुरा नहीं होगा।” तुम्हें प्रार्थना करने की भी आवश्यकता नहीं है। जब तक तुम्हारे दिल में यह सरल विश्वास है कि “मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ; सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है,” परमेश्वर अपना काम करेगा। लोग परमेश्वर से ऐसे महान अनुग्रह का आनंद लेते हैं—क्या यह बस थोड़ा-सा हासिल करना है? (यह बहुत कुछ हासिल करना है।) परमेश्वर संसार में एकमात्र संप्रभु है। तुम्हारा जीवन और तुम्हारी सारी संपत्ति परमेश्वर के हाथों में है, इस संप्रभु के हाथों में तुम्हारा दिल शांत, स्थिर और निश्चिंत महसूस करता है और तुम्हें किसी भी चीज के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। चाहे तुम्हें परमेश्वर के बारे में कितना भी ज्ञान हो या तुम कितने भी सत्य समझते हो, तुम अपने दिल में इस बारे में पूरी तरह से निश्चित हो सकते हो। सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है। अगर परमेश्वर में विश्वास रखने वालों के दिलों में उसके लिए जगह है और वे सत्य समझते हैं तो बुरी आत्माएँ उन्हें परेशान करने, नुकसान पहुँचाने या उनके पास आने की हिम्मत नहीं कर सकतीं। नतीजतन, विश्वासियों को उन अनावश्यक प्रक्रियाओं में शामिल होने की कोई जरूरत नहीं है। यह इतना बड़ा अनुग्रह है—तुम अभी भी कैसे कह सकते हो कि तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से कुछ भी हासिल नहीं हुआ है? क्या तुममें अंतरात्मा की कमी नहीं है? किसी भी और बात पर ध्यान दिए बिना सीधे यह दावा करना कि तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ है अपने आप में अंतरात्मा की कमी को साबित करता है और इससे साबित होता है कि तुम्हारी अंतरात्मा पूरी तरह से खराब है; बाकी चीजों के बारे में और कुछ कहने की जरूरत नहीं है।

परमेश्वर लोगों को मुफ्त में सत्य और जीवन प्रदान करता है, बदले में कुछ भी माँगे बिना लोगों को अपने वचन प्रदान करता है। हालाँकि लोगों को लग सकता है कि उनका आध्यात्मिक कद अभी भी अपरिपक्व है, उन्होंने ज्यादा सत्य नहीं समझा है और जो थोड़ा-बहुत वे समझते हैं उसे वे स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर सकते, बस ये चीजें परमेश्वर ने उन्हें दी हैं, ये स्नेह और प्रेम—यह कितना बड़ा अनुग्रह है! परमेश्वर ने लोगों को सबसे कीमती चीजें दी हैं; लोगों को परमेश्वर से संसार की सबसे कीमती चीजें मिली हैं। चाहे तुमने इसे महसूस किया हो या नहीं, परमेश्वर पहले ही मनुष्य को ये सब दे चुका है। लोगों को अब भी किस बात की शिकायत है? क्या वे इन चीजों को पाने के लायक हैं? परमेश्वर द्वारा चुने गए लोग संसार में सबसे अधिक खुशहाल लोग हैं। परमेश्वर ने तुम्हें चुना है; तुम संसार के सबसे खुशहाल और भाग्यशाली लोगों में से एक हो। तुम यह कैसे कह सकते हो कि तुमने कुछ भी हासिल नहीं किया है? तुम सबसे खुशहाल और भाग्यशाली लोगों में से एक बन गए हो क्योंकि परमेश्वर ने तुम्हें चुना है और इस प्रकार बुरी आत्माएँ और गंदे राक्षस तुम्हारे करीब आने की हिम्मत नहीं करते हैं। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या इसका मतलब यह है कि मेरा रुतबा और पहचान सम्मानजनक हो गई है?” क्या ऐसा कहा जा सकता है? ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह सब परमेश्वर के प्रेम और परमेश्वर के कार्यों के कारण है। लोगों ने बहुत कुछ हासिल किया है! सिर्फ इस जीवन में ही लोगों ने इतना कुछ प्राप्त किया है; आखिर लोग यह सब प्राप्त करने के योग्य कैसे हैं? कुछ लोग जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं वे सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं करते और फिर भी कहते रहते हैं, “मैंने इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास रखकर क्या हासिल किया है?” क्या तुम लोग खुद इसका हिसाब नहीं लगा सकते? तुम्हारा दिल जानता है कि तुम सत्य समझते हो या नहीं, तुमने कितनी कम बुराई की है और इससे भी बढ़कर तुम्हारा दिल जानता है कि तुमने अनुग्रह का कितना आनंद लिया है। अगर तुम्हारे दिल में ये बातें स्पष्ट हैं तो तुम ऐसी बातें नहीं कहोगे जिनमें अंतरात्मा की इतनी कमी है। कुछ लोग यह भी कहते हैं, “परमेश्वर का घर मुझे रोटी, कपड़ा और आश्रय भी देता है।” क्या यह परमेश्वर के अनुग्रह और सुरक्षा की तुलना में बहुत मामूली नहीं है? क्या यह जिक्र करने लायक भी है? लेकिन जिनके पास अंतरात्मा है उन्हें लगता है कि भले ही यह जिक्र करने लायक नहीं है फिर भी यह परमेश्वर के अनुग्रह का हिस्सा है। परमेश्वर का अनुग्रह अथाह है; परमेश्वर ने लोगों को बहुत कुछ दिया है! जहाँ तक उन भौतिक चीजों की बात है तो परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, वह उन्हें गिनता भी नहीं है।

परमेश्वर के कार्यों का एक पहलू लोगों की रक्षा करना है और दूसरा उन्हें उद्धार के मार्ग पर ले जाना है ताकि उन्हें बचाया जा सके। लोगों ने परमेश्वर के इस स्नेह और उनके प्रति उसके प्रेम का आनंद लिया है और परमेश्वर ने उन्हें भरपूर अनुग्रह प्रदान किया है! इसके अलावा कुछ ऐसा है जो सबसे महत्वपूर्ण है : वह सत्य जो परमेश्वर ने लोगों को प्रदान किया है यानी ऐसे वचन जिन्हें मानव इतिहास में किसी भी युग में किसी ने न तो कभी सुने या न ही प्राप्त किए। परमेश्वर ने चाहे जितनी बार भी मानवता की रचना की हो उसने कभी यह काम नहीं किया या ये वचन नहीं बोले। मानवता से संबंधित सभी रहस्य जैसे लोग क्या सहन कर सकते हैं, क्या ग्रहण कर सकते और क्या समझ सकते हैं—परमेश्वर ने तुम लोगों को यह सब बताया है। क्या इन रहस्यों, इन सत्यों को किसी भी तरह से मापा जा सकता है? उन्हें मापा नहीं जा सकता; लोग कई जन्मों में अपने इस आनंद को समाप्त नहीं कर सकते। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के ये वचन लोगों के अस्तित्व की नींव हैं और वे अनंत काल तक अस्तित्व में रह सकते हैं। अगर तुम वास्तव में इतने भाग्यशाली हो कि बचकर अनंत काल तक जीवित रह जाते हो तो परमेश्वर के ये वचन और सत्य अनंत काल तक तुम्हारा पोषण कर सकते हैं। अनंत काल का क्या मतलब है? इसका मतलब है समय से सीमित नहीं होना, इसका मतलब है असीम होना। अगर हम इसका शाब्दिक अर्थ लें तो इसका मतलब है कोई अंत नहीं होना—अनंत काल तक जीना, ठीक परमेश्वर की तरह। परमेश्वर के ये वचन और सत्य उस समय तक मौजूद रह सकते हैं। “उस समय तक” मानवीय भाषा में व्यक्त की गई समय की एक अवधारणा और परिभाषा है मगर इसका वास्तविक अर्थ है अनिश्चित काल तक। मुझे बताओ, परमेश्वर के इन वचनों का मूल्य बड़ा है या नहीं? यह बहुत बड़ा है! अगर तुम उनका अनुसरण नहीं करते तो इसमें तुम्हारा ही नुकसान है; यह तुम्हारी बेवकूफी है। लेकिन अगर तुम उनका अनुसरण करते हो तो ये वचन तुम्हारे लिए एक ऐसा मूल्य रखते हैं जो इस जीवनकाल से कहीं आगे तक जाता है; यह अनंत काल तक फैला हुआ है। वे हमेशा तुम्हारे लिए प्रभावी और उपयोगी रहेंगे और उनका मूल्य और अर्थ हमेशा रहेगा, वे अनंत काल तक तुम्हारा पोषण करेंगे। अगर तुम इन वचनों को समझो, उन्हें प्राप्त करो और उनके अनुसार जियो तो तुम अनंत काल तक जी सकोगे। सरल शब्दों में कहूँ तो तुम मृत्यु का स्वाद चखे बिना हमेशा जीवित रहोगे। क्या लोग इसी के सपने नहीं देखते हैं? अनगिनत युग बीत चुके होंगे, अनगिनत लोग मर चुके होंगे मगर तुम फिर भी जीवित रहोगे। तुम कैसे जीवित रहोगे? परमेश्वर के वचनों और सत्य के माध्यम से तुम इस तरह जीने की योग्यता प्राप्त करोगे। तुम इस निरंतर जीवन का क्या करोगे? तुम्हारे पास परमेश्वर का आदेश, परमेश्वर की अगुआई और एक मकसद भी है। तुम्हारा मकसद क्या है? परमेश्वर चाहता है कि तुम उसके वचनों को जीते हुए उसका महिमागान करो और उसकी गवाही दो। यह परमेश्वर के वचनों का मूल्य है। इस युग में लोग जो सत्य और वचन सुनते हैं, जिनके संपर्क में आते हैं और जिन्हें अनुभव करते हैं उनका मूल्य और महत्व अनंत काल तक अस्तित्व में रहेगा। वह अनंत काल तक अस्तित्व में क्यों रहेगा? परमेश्वर के ये वचन कोई धर्मशास्त्र, सिद्धांत, नारा या किसी तरह का ज्ञान नहीं हैं बल्कि ये जीवन के वचन हैं। अगर तुम इन वचनों को प्राप्त करते हो, उनके अनुसार जीते हो और उनके अनुसार जीवित रहते हो तो परमेश्वर तुम्हें जीवित रहने देगा और मरने नहीं देगा। यानी वह तुम्हें नष्ट नहीं करेगा या तुम्हारा जीवन नहीं छीनेगा—वह तुम्हें जीवित रहने देगा। क्या यह एक महान आशीष नहीं है? (हाँ, यह महान आशीष है।) इन वचनों के जरिये परमेश्वर पहले ही तुम्हें इस जीवन में इस आशीष का अनुभव कराना चाहता है और चाहता है कि आने वाले संसार में तुम इसे प्राप्त करो। यह परमेश्वर का वादा है। परमेश्वर ने मानवता से जो बहुत बड़ा वादा दिया है उसे देखते हुए, क्या लोगों को बहुत कुछ मिला है? (हाँ।) परमेश्वर ने मानवता से इतना बड़ा वादा किया है, सभी को इस बारे में बताया है। उसने तुम्हें इसके बारे में बताया है और अनुमति दी है कि तुम आकर मुफ्त में इसे ले जाओ। तुम्हें अपना जीवन बलिदान करने या अपनी सारी संपत्ति सौंपने की जरूरत नहीं है; तुम्हें केवल परमेश्वर के वचनों को सुनने और परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसकी इच्छाओं के अनुसार काम करने की जरूरत है और तुम परमेश्वर से यह वादा प्राप्त कर सकते हो। क्या परमेश्वर ने मानवता को बहुत कुछ नहीं दिया है? तुम लोग वर्तमान में इस वादे को प्राप्त करने के मार्ग पर हो : हालाँकि तुमने इसे अभी तक पूरी तरह से प्राप्त नहीं किया है पर क्या तुमने थोड़ा-सा प्राप्त किया है? परमेश्वर ने मानवता से जो वादा दिया है उसे देखते हुए लोगों ने काफी कुछ प्राप्त किया है। उन्हें एक महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त हुआ है; उन्होंने कुछ भी नहीं खोया या कोई नुकसान नहीं उठाया है। उन्होंने थोड़ा-बहुत समय लगाया है और उनकी देह ने कुछ कष्ट सहे होंगे। उन्होंने थोड़ी पारिवारिक खुशियों, व्यक्तिगत दैहिक सुखों और इच्छाओं को त्यागा होगा, अपनी कुछ आकांक्षाओं, रुचियों और इच्छाओं वगैरह को त्यागा होगा। लेकिन सत्य समझने, उद्धार पाने और परमेश्वर के वादे को प्राप्त करने की तुलना में वे सभी व्यक्तिगत संभावनाएँ, लक्ष्य और महत्वाकांक्षाएँ जिक्र करने लायक भी नहीं हैं क्योंकि वे केवल तुम्हें नरक में ले जा सकती हैं और परमेश्वर तुम्हें उन चीजों के लिए अपना वादा नहीं देगा। इसके विपरीत, जब लोग एक सीमित समय देते हैं, एक ऐसी कीमत जो वे चुकाने के लिए तैयार और सक्षम हैं, तो आखिरकार वे सत्य समझ पाते हैं, परमेश्वर की रचना के बाद से एक व्यक्ति होने के नाते मानवता द्वारा नहीं समझे गए कुछ रहस्यों और सिद्धांतों को समझ पाते हैं, और उन सभी घटनाओं और चीजों के कुछ सार और उनकी उत्पत्ति समझ पाते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें परमेश्वर के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त होता है और वे उसका भय मानने में सक्षम होते हैं। यह सब प्राप्त करने के बाद, क्या इतनी कीमत चुकाना उचित नहीं है? लोगों की क्या शिकायतें हैं? वे यह क्यों कहते हैं कि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास रखने से कुछ भी हासिल नहीं किया है? क्या उनकी अंतरात्मा पूरी तरह से सड़ नहीं गई है? उन्होंने बहुत कुछ हासिल किया है और फिर भी वे संतुष्ट नहीं हैं। उन्हें और क्या चाहिए? अगर उन्हें राष्ट्रपति या अरबपति बना दिया जाए तो क्या वे तब संतुष्ट होंगे? अगर परमेश्वर उन्हें ये चीजें दे दे तो वे उसके नहीं होंगे। परमेश्वर ऐसे लोगों को प्राप्त नहीं करना चाहता है।

लोग हमेशा कहते हैं कि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास रखने से कुछ भी हासिल नहीं किया है, जिससे पता चलता है कि उनमें अंतरात्मा का अभाव है, सत्य समझने की क्षमता की कमी है, वे सत्य का अनुसरण नहीं करते और वे बहुत निम्न चरित्र के लोग हैं। ऐसे लोगों को अन्य बातों के साथ ही परमेश्वर के कार्यों, परमेश्वर लोगों से क्या अपेक्षा करता है और परमेश्वर ने लोगों को क्या प्रदान किया है, इन बातों की कोई स्पष्ट समझ नहीं होती है। आखिरकार जब कुछ ऐसा होता है जिससे वे थोड़े नाराज हो जाते हैं तो उनके अंदर भरा हुआ गुस्सा तुरंत फूट पड़ता है : “मुझे परमेश्वर में विश्वास रखने से क्या हासिल हुआ है? मेरी देह ने बहुत कुछ सहा है। मैंने कलीसिया द्वारा मुझे सौंपे गए सभी कर्तव्य निभाए हैं। चाहे कितना भी कठिन या थकाऊ काम क्यों न हो मैंने कभी शिकायत नहीं की; चाहे कितनी भी बड़ी कठिनाइयाँ हों मैंने कभी कुछ नहीं कहा। मैंने कभी परमेश्वर के घर से कोई माँग नहीं की। अपने महान प्रेम और महान निष्ठा से मुझे क्या हासिल हुआ? अगर मुझे ही कुछ नहीं मिला तो दूसरों को कुछ भी मिलने की उम्मीद तो और भी कम है!” उसके कहने का अर्थ है : “तुम लोगों ने उतना नहीं दिया जितना मैंने दिया है, तुमने वह कीमत नहीं चुकाई जो मैंने चुकाई है; अगर मुझे कुछ भी नहीं मिला तो तुम लोगों को क्या कुछ मिल सकता है? तुम सभी लोगों को सावधान रहना चाहिए; मूर्ख मत बनो!” क्या ऐसे लोगों में अंतरात्मा की कमी नहीं है? जिस व्यक्ति के पास अंतरात्मा नहीं हो वह हमेशा बेवकूफी भरी और बेतुकी बातें करता है। वह परमेश्वर द्वारा बोले गए अनेक सत्यों में से एक को भी नहीं समझ पाता, या उसकी अनेक शुद्ध और सकारात्मक बातों और कथनों को नहीं समझ पाता बल्कि वह हठपूर्वक अपने ही दृष्टिकोण से चिपके रहता है : “मैं परमेश्वर के लिए कष्ट सहता हूँ और कीमत चुकाता हूँ इसलिए परमेश्वर को मुझे आशीष देना चाहिए और मुझे दूसरों से ज्यादा लाभ प्राप्त करने देना चाहिए। अगर नहीं तो मैं अपना गुस्सा निकालूँगा, मैं फट पड़ूँगा, मैं गालियाँ दूँगा! मैं जो भी चाहूँ वह परमेश्वर को मुझे देना चाहिए और अगर मुझे वह नहीं मिलता तो परमेश्वर धार्मिक नहीं है और मैं कहूँगा कि मैंने कुछ भी प्राप्त नहीं किया है—यह स्पष्ट सत्य बोलना है!” क्या उसमें मानवता की कमी नहीं है? जिस व्यक्ति में मानवता की कमी है उसके शब्द निश्चित ही दृढ़ नहीं रह सकते, सत्य के अनुरूप होना तो दूर की बात है; उससे सत्य की अपेक्षा करना थोड़ा ज्यादा हो जाएगा। किसी व्यक्ति के बोले गए शब्द वैध अनुरोध, वैध कथन होने चाहिए, न कि तोड़-मरोड़कर पेश किए गए तर्क; चाहे कोई भी उसे सुने या उसका मूल्यांकन करे, उसे दृढ़ रहना चाहिए। लेकिन खराब मानवता वाले लोगों के शब्द और क्रियाकलाप दृढ़ नहीं रह सकते। जब वे नखरे दिखाते हैं और अपनी शिकायतें जाहिर करते हैं तो कुछ लोग सोचते हैं, “वे यह क्यों कहते हैं कि उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया? क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर के घर ने किसी तरह उनके साथ अन्याय किया हो? क्या ऐसा है कि परमेश्वर के घर के कुछ काम सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं और उन पर रोशनी नहीं डाली जा सकती? वह व्यक्ति आम तौर पर कठिनाइयाँ सहने और कीमत चुकाने में काफी सक्षम लगता है मगर आज वह इतना अधिक भड़का हुआ है, कहता है कि उसने कुछ भी हासिल नहीं किया; ऐसा लगता है कि उसे वाकई कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ है। क्या यह एक सभ्य व्यवहार वाले व्यक्ति को गुस्सा दिलाना नहीं है? मुझे सावधानी बरतनी चाहिए; मुझे उतनी कठिनाई नहीं सहनी चाहिए या उतनी कीमत नहीं चुकानी चाहिए जैसा कि मैं पहले अपने कर्तव्य निभाते समय करता था!” इस तरह कुछ भ्रमित लोग जिनमें विवेक की कमी होती है, प्रभावित हो जाते हैं।

जो लोग अक्सर नकारात्मकता फैलाते हैं, अगर उनके पास वास्तव में व्यक्त करने के लिए दृष्टिकोण या विचार हैं तो उन्हें पहले बोल लेने दो और फिर उनके विचारों को उजागर करो। उनके बोलने के बाद हर कोई समझ जाएगा : “उन्हें लगता है कि उन्होंने जो कीमत चुकाई है वह उस लाभ के बराबर नहीं है जो उन्होंने प्राप्त किया है। उन्हें लगता है कि उन्हें कोई लाभ नहीं मिला है और उन्हें नुकसान उठाना पड़ा है इसलिए वे अब अनिच्छुक हो गए हैं। वे परमेश्वर के बारे में शिकायत कर रहे हैं, परमेश्वर से अनुग्रह और लाभों की मांग करते हुए सौदेबाजी करने की उम्मीद कर रहे हैं!” क्या आम आदमी ऐसे व्यक्ति को बोलते हुए सुनकर उसे पहचान सकता है? जब हर कोई उसे पहचानने में सक्षम हो जाए तो उस व्यक्ति से कहो, “क्या तुम्हारी बात पूरी हो गई? अगर तुम्हारे पास कहने को और कुछ नहीं है तो अपना मुँह बंद रखो, नहीं तो खुद ही बेवकूफ बन जाओगे। अगर तुम्हारी दुष्ट प्रकृति सबके सामने उजागर हो जाती है और तुरंत उस पर लगाम नहीं लगाई जाती तो यह जन आक्रोश को भड़काएगी। जब हर कोई तुम्हें उजागर करेगा और ठुकराएगा तो पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होगी।” उन्हें इस तरह से चेतावनी दो और ऐसा करके तुम उन्हें रोक दोगे। या फिर तुम यह भी कह सकते हो : “अगर तुम्हें लगता है कि तुमने सब खो दिया है तो तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास रखने की जरूरत नहीं है। तुम्हें लगता है कि तुमने कुछ भी हासिल नहीं किया है तो तुम असल में क्या हासिल करना चाहते हो? अगर तुम धन कमाना और अमीर बनना चाहते हो या ऊँचा पद पाना चाहते हो तो मुझे माफ करना, मगर ये ऐसी चीजें नहीं हैं जिन्हें कोई चाहने मात्र से प्राप्त कर सकता है; ये परमेश्वर द्वारा निर्धारित मामले हैं। परमेश्वर का प्रकटन और मनुष्य के उद्धार का उसका कार्य लोगों को ये चीजें देने के लिए नहीं है। जहाँ तुम्हें ये सब मिले वहीं चले जाओ; परमेश्वर का घर संसार नहीं है, यह राक्षसों और शैतानों को संतुष्ट नहीं कर सकता। बेहतर होगा कि तुम परमेश्वर के घर से या भाई-बहनों से ऐसी चीजों की माँग न करो; अगर तुम परमेश्वर से ये चीजें माँगने की हिम्मत करते हो तो तुम उसके स्वभाव को नाराज करोगे और उसका गुस्सा भड़काओगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ने लोगों को भरपूर अनुग्रह दिया है और उसने लोगों को उनके जीवन बनने के लिए और भी अधिक सत्य प्रदान किए हैं। सत्य प्राप्त करने को मूल्यवान नहीं समझना तुम्हारी मूर्खता और अज्ञानता है।” हर कोई उन्हें इस तरह से धिक्कारता और उनकी काट-छाँट करता है। इस अभ्यास के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? या फिर तुम कह सकते हो : “परमेश्वर के घर पर तुम्हारा कोई उधार नहीं है। परमेश्वर के लिए तुम्हारा खपना और कर्तव्य निभाना तुम्हारी अपनी इच्छा थी। क्या तुम्हें कोई अंदाजा है कि जब से तुमने परमेश्वर पर विश्वास रखना और कर्तव्य निभाना शुरू किया है, तुमने परमेश्वर के कितने अनुग्रह का आनंद उठाया है? अगर तुममें जरा-सी भी अंतरात्मा है तो तुम्हें परमेश्वर से यह नहीं कहना चाहिए कि तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ है; तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आकर अपनी समस्याओं को पहचानना चाहिए। अगर तुम वाकई यह मानते हो कि परमेश्वर सत्य है, परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सत्य है और उसके वचन सत्य हैं तो तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए; तुम्हें शिकायत नहीं करनी चाहिए। तुम्हारा वर्तमान रवैया ऐसा नहीं है जो परमेश्वर में विश्वास रखने वाले व्यक्ति का होना चाहिए, न ही यह ऐसा रवैया है जो सत्य खोजने वाले व्यक्ति का होना चाहिए। तुम विद्रोह करने की कोशिश कर रहे हो, परमेश्वर के साथ अपनी पुरानी समस्याओं को फिर से उठाने की कोशिश कर रहे हो! तुम परमेश्वर से अलग होने और सारा हिसाब चुकता करने की कोशिश कर रहे हो! मगर न तो परमेश्वर पर और न ही परमेश्वर के घर पर तुम्हारा कुछ भी बकाया है। अगर तुम परमेश्वर के घर के साथ हिसाब चुकता करने जा रहे हो तो जल्दी करो और उसका घर छोड़ दो। परमेश्वर के घर को परेशान मत करो वरना तुम उसका क्रोध भड़का दोगे और वह तुम्हें मार डालेगा। यह कोई अच्छा परिणाम नहीं होगा। अगर तुममें जरा भी अंतरात्मा या विवेक है तो तुम्हें शांत होकर प्रार्थना करनी चाहिए और सत्य खोजना चाहिए, यह देखना चाहिए कि क्या परमेश्वर में अपने विश्वास के अनुसरण को लेकर तुम्हारे परिप्रेक्ष्य में कोई गड़बड़ तो नहीं है और तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो क्या वह वही है जिस पर परमेश्वर चाहता है कि तुम चलो। तुम्हारी परमेश्वर से इतनी सारी अनुचित माँगें हैं, इतनी बड़ी नाराजगी है; यह दर्शाता है कि तुम्हारे अनुसरण में कुछ गड़बड़ है। तुममें इतनी गहरी नाराजगी सिर्फ एक या दो दिन में पैदा नहीं हुई है; यह लंबे समय से बन रही है। या फिर ऐसा हो सकता है कि जब से तुमने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया है तब से तुम गलत दृष्टिकोण के साथ उसके समक्ष आते रहे हो और उसने जो कुछ भी कहा उसके प्रति तुम सुन्न बने रहे और इसलिए तुम्हें कोई पछतावा या ऋणी होने की भावना महसूस नहीं होती है। शायद यही कारण है कि आज चीजें ऐसी हो गई हैं। बेहतर होगा कि तुम जल्द-से-जल्द अपराध कबूल करो और पश्चात्ताप करो; पश्चात्ताप करने के लिए अभी भी समय है। अगर तुम ऐसा नहीं करते हो और बुराई करना और नकारात्मकता फैलाना जारी रखते हो तो तुम शैतान, मसीह-विरोधी बन जाओगे। जब परमेश्वर का घर तुम्हें बाहर निकाल देगा, तब तुम्हारे पास बचाए जाने का कोई मौका नहीं होगा—परमेश्वर का घर जिसकी निंदा करता है उसकी निंदा परमेश्वर भी करता है। हम तुम्हें यह चेतावनी कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते हुए कष्ट सहने और कीमत चुकाने की तुम्हारी क्षमता को ध्यान में रखकर दे रहे हैं। हम तुम्हें एक मौका दे रहे हैं। अगर तुम अपने तरीके पर अड़े रहते हो और सलाह सुनने से इनकार करते हो और परमेश्वर का घर तुम्हें बाहर निकालने का फैसला करता है तो अब तुम भाई या बहन नहीं रह जाओगे। तुम्हारे पास बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं होगी। जब वह समय आएगा तो तुमने वाकई कुछ भी हासिल नहीं किया होगा। तब पछतावा मत करना। अब तुम्हारे लिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि तुम अपने विचारों, दृष्टिकोणों और अपने अनुसरण की दिशा को बदल डालो। अब हमेशा कुछ हासिल करने की कोशिश में सत्य मत खोजना। परमेश्वर के वचनों को सुनो; देखो कि परमेश्वर लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के बारे में जो कुछ भी उजागर करता है उसमें से तुम कितना चिंतन-मनन कर सकते और कितना अपने भीतर जान सकते हो। क्या तुमने उन समस्याओं का समाधान किया है जिन्हें तुम अपने भीतर पहचान सकते हो जिन्हें तुम स्पष्ट रूप से देख सकते हो? क्या तुमने परमेश्वर के खिलाफ अपने विद्रोह को पहचाना है? क्या तुमने उसका समाधान किया है? अभी तुम्हारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि तुम हमेशा परमेश्वर से हिसाब-किताब बराबर करना चाहते हो—यह समस्या क्या है? क्या इस समस्या का समाधान नहीं किया जाना चाहिए? तुम हमेशा किसी इरादे से, किसी लेन-देन को ध्यान में रखते हुए परमेश्वर में विश्वास रखते हो; तुम हमेशा आशीष पाने को उत्सुक रहते हो, अपनी मेहनत, खुद को खपाने और दैहिक पीड़ा के बदले में स्वर्ग के राज्य के आशीषों का सौदा करने की उम्मीद करते हो—क्या यह डाकुओं वाला तर्क नहीं है? तुम लोग यह क्यों नहीं देखते कि परमेश्वर किस तरह के लोगों को आशीष देता है, लोगों से परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं, परमेश्वर ने लोगों से क्या कहा है और परमेश्वर के वादे प्राप्त करने के लिए लोगों को क्या हासिल करने की आवश्यकता है? अगर तुम सच में परमेश्वर में विश्वास रखते हो और वाकई उद्धार पाना चाहते हो तो हमेशा परमेश्वर से कुछ पाने की कोशिश मत करो। तुम्हें यह देखना होगा कि तुम परमेश्वर के कितने वचनों को व्यवहार में लाए हो, और क्या तुम परमेश्वर के वचनों का पालन करने वाले व्यक्ति हो। परमेश्वर के वचनों का पालन करना परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना और जीना है, न कि केवल थोड़ा दैहिक कष्ट सहना और थोड़ी कीमत चुकाना। तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव दूर नहीं हुआ है और तुम जो भी कीमत चुकाते हो और जो भी कष्ट सहते हो उसके पीछे तुम्हारे अपने इरादे हैं। परमेश्वर इसे स्वीकार नहीं करता; वह ऐसी कीमत नहीं चाहता। अगर तुम परमेश्वर से हिसाब-किताब निपटाने पर जोर देते हो, अगर तुम परमेश्वर से बहस करने और लड़ने पर जोर देते हो तो तुम उसके स्वभाव को नाराज कर रहे हो, वह तुम्हें तुम्हारे रास्ते चलने देगा, दंडित होने के लिए नरक में जाने देगा। यह बुराई करने का प्रतिफल है। तुमने परमेश्वर के बहुत-से आशीषों और अनुग्रहों का आनंद लिया है और उसने तुम्हें कुछ विशेष भौतिक चीजें दी हैं। तुम्हें वह पहले ही मिल चुका है जो तुम्हें मिलना चाहिए—तुम परमेश्वर से और क्या चाहते हो?” अगर तुमने इन वचनों पर संगति की तो क्या इन्हें सुनकर थोड़ी-बहुत अंतरात्मा और विवेक वाले व्यक्ति की व्यथित मनोदशा कुछ ठीक नहीं हो जाएगी? क्या ये शुद्ध समझ-बूझ वाले वचन सत्य के अनुरूप हैं? (हाँ।) अगर किसी व्यक्ति में मानवता और विवेक है तो वह उन्हें समझ और स्वीकार सकता है। केवल वे लोग जिनमें मानवता नहीं है, जो अंतरात्मा और विवेक से रहित हैं वे ही यह सोचेंगे कि ये वचन उन्हें छलने की कोशिश कर रहे हैं, वे बड़ी-बड़ी बातें हैं, विश्वास करने लायक नहीं हैं और वे प्रत्यक्ष अनुग्रह या भौतिक आशीषों की तरह मूर्त रूप से लाभकारी नहीं हैं। इसलिए इससे पहले कि वे उन मूर्त लाभों को देखें, तुम जो कुछ भी कहते हो वह बेकार है; वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे। वे शायद तुम्हारे सामने इसका विरोध न करें मगर तुम्हारी पीठ पीछे वे अभी भी अपने दिलों में विरोध करते रहेंगे, समय-समय पर नकारात्मकता प्रकट करेंगे, अपने योगदानों का प्रदर्शन करते रहेंगे, उन कठिनाइयों को गिनाते रहेंगे जो उन्होंने सहन की हैं, साथ ही यह भी बताएँगे कि परमेश्वर का घर उनके साथ कैसा व्यवहार करता है, वे परमेश्वर के घर को कैसे सहन करते हैं—वे हमेशा इन बातों को अपने दिलों में रखते हैं। उनके साथ जो कुछ भी हो, अगर उन्हें वह नहीं मिलता जो वे चाहते हैं तो उनका जानवर बाहर आ जाता है, वे क्रोध में फट पड़ते हैं, अपना अपमानजनक व्यवहार दिखाते हैं और नकारात्मकता फैलाते हैं। क्या तुम्हें अब भी ऐसे व्यक्ति को मनाने की कोशिश करनी चाहिए? अगर थोड़ा-सा उकसाने के बाद वे अभी भी वही चरित्र प्रदर्शित करते हैं, उनकी पुरानी समस्याएँ वापस आ जाती हैं और उनके भीतर का शैतान फिर से भड़क जाता है तो क्या किया जाना चाहिए? तब प्रतिबंध लगाने का समय आ गया है। उन्हें पश्चात्ताप करने का मौका मत दो। उनका कुछ नहीं हो सकता; वे मूर्ख, जिद्दी अभागे लोग हैं। वे किस मायने में “मूर्ख, जिद्दी अभागे” हैं? इस मायने में कि वे सच्चे मार्ग को स्वीकार नहीं करते और न ही सकारात्मक चीजों को स्वीकारते हैं। इसके बजाय, वे तोड-मरोड़कर पेश किए गए तर्कों, पाखंडों और भ्रांतियों को अपनाते हैं, मूर्त लाभ प्राप्त करने, फायदा लेने और नुकसान न उठाने के अपने दृष्टिकोण से चिपके रहते हैं। चाहे परमेश्वर का घर सत्य के बारे में कैसे भी संगति करे वे हमेशा कहते हैं, “ये सब अच्छी लगने वाली बातें हैं। कौन कुछ अच्छी बातें नहीं कह सकता? अगर तुमने कुछ खोया होता तो तुम ऐसा नहीं कह रहे होते।” वे इस तरह के दृष्टिकोणों से हठपूर्वक चिपके रहते हैं और जब कोई अप्रिय घटना घटती है या वे नुकसान उठाते हैं तो उन्हें लगता है कि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास रखकर कुछ भी हासिल नहीं किया है और वे फिर से नकारात्मकता फैलाने लगते हैं। क्या उन्हें अभी भी एक मौका दिया जाना चाहिए? अब और मौके नहीं मिलेंगे। अगर वे अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से नहीं निभाते हैं बल्कि दूसरों को बाधित करते हैं तो उन्हें तुरंत रोको और प्रतिबंधित कर दो। उन्हें खुलकर बोलने की अनुमति मत दो। अगर वे नकारात्मकता फैलाना और दूसरों को बाधित करना जारी रखते हैं तो उनके प्रति और अधिक शिष्टता मत दिखाओ। उन्हें जल्दी से हटा दो। यह निष्ठुर होना नहीं है, है ना? (नहीं।) उन्हें संगति में चम्मच से सत्य खिलाया गया है मगर वे इसे ग्रहण नहीं कर सकते, चाहे इस पर कैसे भी संगति की जाए—यह क्या दर्शाता है? ऊपरी तौर पर यह व्यक्ति गैर-विश्वासी लगता है मगर सार में वह एक शैतान है। ऐसे लोग परमेश्वर से अनुग्रह और आशीष माँगने, लाभ प्राप्त करने परमेश्वर के घर आए हैं, और जब तक वे उन्हें प्राप्त नहीं कर लेते वे आराम नहीं करेंगे। अगर उन्हें कुछ समय तक विश्वास रखने के बाद कोई लाभ नहीं मिलता तो उनका शैतानी स्वभाव भड़क उठेगा; वे परमेश्वर के प्रति अपना असंतोष जाहिर करेंगे, बुराई करेंगे और गड़बड़ी पैदा करेंगे। यह एक राक्षस है। उन्होंने जो थोड़ा बहुत कष्ट सहा है और खुद को खपाया है वह मूल रूप से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना नहीं है। वे केवल सौदा करने, अपने लिए लाभ और आशीष पाने के लिए हैं। जब उन लोगों पर मुसीबत आती है जो हमेशा परमेश्वर में अपने विश्वास से कुछ हासिल करना चाहते हैं और वे नकारात्मक और कमजोर होते हैं तो वे हमेशा कहते हैं, “मैंने परमेश्वर में विश्वास रखकर कुछ भी हासिल नहीं किया है।” फिर, वे हार मानकर लापरवाही से काम करने लगते हैं, प्रतिशोध लेने की कोशिश करते हैं और अक्सर असंतोष की अपनी भावनाएँ जाहिर करने के लिए नकारात्मकता फैलाते हैं। हम पहले ही इस बारे में संगति कर चुके हैं कि ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए : उनसे सिद्धांतों के अनुसार निपटा जाना चाहिए। अगर वे सत्य स्वीकार सकते हैं और गारंटी दे सकते हैं कि वे भविष्य में और गड़बड़ी पैदा नहीं करेंगे तो उन्हें कलीसिया में बने रहने का एक और मौका दिया जा सकता है। अगर वे हमेशा कलीसिया के काम और जीवन को बाधित करने और नुकसान पहुँचाने के लिए तत्पर रहते हैं तो उन्हें दूर कर दो। यह कलीसिया के काम की रक्षा करने और यह सुनिश्चित करने के लिए है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग बिना किसी बाधा के कलीसियाई जीवन जी सकें। इसी सिद्धांत के आधार पर यह निर्णय लिया जाता है और यह तरीका अपनाया जाता है। यह उचित है।

कलीसियाई जीवन में और कौन नकारात्मकता फैला सकता है? कुछ लोग बिना कोई नतीजा पाए अपना कर्तव्य निभाते हैं, हमेशा गलतियाँ करते हैं; वे आत्म-चिंतन नहीं करते बल्कि हमेशा यह महसूस करते हैं कि परमेश्वर धार्मिक या निष्पक्ष नहीं है, परमेश्वर हमेशा दूसरों के साथ दयालुता से पेश आता है मगर उनके साथ नहीं, परमेश्वर उन्हें तुच्छ समझता है और उन्हें कभी प्रबुद्ध नहीं करता और इसीलिए उनके कर्तव्य निर्वहन से कभी कोई नतीजा नहीं निकलता और वे कभी भी अलग दिखने और सम्मानित होने के अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते हैं। वे अपने दिलों में परमेश्वर को दोषी ठहराने लगते हैं और जब वे ऐसा करते हैं, उनमें उन लोगों के प्रति ईर्ष्या, घृणा और नफरत पैदा होती है जो अपने कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक निभाते हैं। ऐसे लोगों की मानवता कैसी है? क्या उनकी सोच छोटी नहीं है? और इसके अलावा क्या वे यह समझने में विफल नहीं होते कि परमेश्वर में अपनी आस्था में सत्य का अनुसरण कैसे करें? वे परमेश्वर में विश्वास रखने का मतलब नहीं समझते। वे सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखना और कर्तव्य निभाना एक छात्र के रूप में विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा देने जैसा है जिसमें हमेशा अंकों और रैंकिंग की तुलना करनी होती है। इसलिए वे इन चीजों को बहुत महत्व देते हैं। क्या यही उनकी स्थिति नहीं है? सबसे पहले सत्य समझने के परिप्रेक्ष्य से, क्या ऐसे लोगों में आध्यात्मिक समझ होती है? नहीं होती और वे नहीं समझते कि परमेश्वर में विश्वास करने और सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है। पहली बात, वे दूसरों के बीच अपनी रैंकिंग को बहुत महत्व देते हैं; दूसरी बात, वे हमेशा यह मूल्यांकन करने के लिए स्कोरिंग का तरीका अपनाते हैं कि दूसरे अपने कर्तव्यों को कितनी अच्छी तरह से निभाते हैं और वे खुद अपने कर्तव्यों को कितनी अच्छी तरह से निभाते हैं जैसे कि वे स्कूल में छात्रों का मूल्यांकन कर रहे हों, इस तरीके से लोगों के परमेश्वर में विश्वास और उनके कर्तव्य निर्वहन को माप रहे हों। क्या इसमें कुछ गलत नहीं है? इसके अलावा जिस कड़ी मेहनत से वे अपने कर्तव्य निभाते हैं क्या वह गलत नहीं है? क्या वे पढ़ाई करने और परीक्षा देने के प्रयासों से अपने कर्तव्यों को नहीं निभाते? (हाँ।) हम ऐसा क्यों कहते हैं? क्या ऐसे लोग परमेश्वर में विश्वास रखते समय और अपने कर्तव्य निभाते समय यह समझते हैं कि सिद्धांतों को कैसे खोजें? क्या वे सिद्धांतों को खोजने में सक्षम हैं? एक ओर तो वे सिद्धांतों को खोजना नहीं जानते हैं। लोगों को परमेश्वर के वचनों को कैसे पढ़ना चाहिए, सत्य की संगति कैसे करनी चाहिए और अपने कर्तव्यों को ठीक से कैसे निभाना चाहिए—वे इन मामलों को नहीं समझते और न ही वे इनकी परवाह करते हैं। वे केवल इतना जानते हैं कि उन्हें सिद्धांत खोजकर उनके अनुसार काम करना है मगर सिद्धांत क्या निर्धारित करते हैं, परमेश्वर क्या अपेक्षा रखता है या दूसरे लोग सिद्धांतों के अनुसार कैसे काम करते हैं, उन्हें इनकी समझ नहीं है। वे इसे समझ ही नहीं पाते। वहीं दूसरी ओर, क्या वे परमेश्वर के मानकों के आधार पर कर्तव्य निर्वहन का मूल्यांकन करने में सक्षम हैं ताकि यह मापा जा सके कि लोगों का कर्तव्य निर्वहन मानक के अनुरूप है या नहीं और क्या यह उन सिद्धांतों के अनुसार है जिनका परमेश्वर लोगों से अपने कर्तव्य निर्वहन में पालन करने की अपेक्षा करता है? क्या वे परमेश्वर के वचनों और भाई-बहनों की संगति से इन मामलों को समझ सकते हैं? सबसे पहले, वे परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते, न ही वे कर्तव्य निभाने के मामलों को समझते हैं। परमेश्वर में विश्वास रखना और कर्तव्य निभाना शुरू करने के बाद वे विचार करते हैं : “जब मैं स्कूल में था तो मैंने एक नियम खोजा था : जब तक तुम कड़ी मेहनत करने और ज्यादा पढ़ने को तैयार हो तब तक तुम अच्छे नंबर ला सकते हो। तो मैं परमेश्वर में अपनी आस्था में भी ऐसा ही करूँगा। मैं परमेश्वर के वचनों को ज्यादा पढ़ूँगा और ज्यादा प्रार्थना करूँगा। जब दूसरे लोग बातचीत कर रहे होंगे या खाना खा रहे होंगे तो मैं भजन सीखूँगा और परमेश्वर के वचनों को याद करूँगा। इतनी कोशिश के बाद मेरी कड़ी मेहनत, लगन और साधना को देखते हुए परमेश्वर यकीनन मुझे आशीष देगा और मेरा कर्तव्य निर्वहन निश्चित रूप से फलदायी होगा। मुझे यकीन है कि मैं सबसे आगे रहूँगा और मुझे अहमियत देकर प्रोन्नत किया जाएगा।” फिर भी, ऐसा करने के बावजूद वे अपनी इच्छाओं को पूरा नहीं कर सकते : “मैं अभी भी अपना कर्तव्य निभाने में दूसरों की तुलना में कम प्रभावशाली क्यों हूँ? मुझे कभी भी प्रोन्नत कैसे किया जाएगा या कैसे महत्वपूर्ण कामों के लिए मेरा उपयोग किया जाएगा? क्या इसका मतलब यह नहीं कि मेरे लिए कोई उम्मीद नहीं है? मैं जन्म से ही प्रतिस्पर्धी था, दूसरों से पीछे रहने को तैयार नहीं था। मैं स्कूल में ऐसा ही था और परमेश्वर में अपने विश्वास में आज भी ऐसा ही हूँ। जो कोई भी मुझसे आगे निकलेगा मैं उससे आगे निकल जाऊँगा। जब तक मैं ऐसा नहीं कर लेता मैं आराम नहीं करूँगा!” उनका मानना है कि सही तरीके और नजरिये के साथ—बस कड़ी मेहनत से पढ़ाई करते हुए परमेश्वर के वचनों को ज्यादा पढ़कर और ज्यादा भजन सीखकर; बेतुकी बातों में शामिल नहीं होकर; पहनावे पर ध्यान नहीं देकर; कम सोकर और कम मौज-मस्ती करके; अपने शरीर को वश में करके; और दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त नहीं होकर—वे परमेश्वर से आशीष प्राप्त करने में सक्षम होंगे और वे अपने कर्तव्य निर्वहन में यकीनन नतीजे हासिल करेंगे। लेकिन चीजें हमेशा उनकी अपेक्षा से अलग होती हैं : “मैं अभी भी अपना कर्तव्य निभाने में हमेशा गलतियाँ क्यों करता हूँ और मैं अभी भी इसे दूसरों के जितना अच्छा क्यों नहीं कर सकता? दूसरे लोग चीजों को जल्दी और अच्छी तरह से करते हैं और अगुआ हमेशा उनकी प्रसंशा और उनका सम्मान करते हैं। मैंने बहुत पीड़ा और कठिनाई झेली है। मैं अभी भी नतीजे क्यों नहीं प्राप्त कर पा रहा हूँ?” जब वे इस पर विचार करते हैं तो उन्हें आखिरकार एक महत्वपूर्ण बात पता चलती है : “तो बात ऐसी है कि परमेश्वर अधर्मी है। मैंने इतने लंबे समय से परमेश्वर पर विश्वास रखा और केवल अब जाकर यह देख रहा हूँ! परमेश्वर जिस पर चाहे उस पर अनुग्रह बरसाता है। तो फिर वह मुझ पर अनुग्रह क्यों नहीं बरसाना चाहता? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं बेवकूफ हूँ, चापलूसी और प्रसंशा करना मेरे बस की बात नहीं है और मैं तेज-तर्रार नहीं हूँ? या फिर ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं बहुत साधारण दिखता हूँ और ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूँ? परमेश्वर मुझे बेनकाब कर रहा है, है ना? मैंने परमेश्वर के बहुत सारे वचन पढ़े हैं—परमेश्वर मुझ पर अनुग्रह बरसाने के बजाय मुझे बेनकाब क्यों कर रहा है?” इसके बारे में सोचते हुए वे नकारात्मक हो जाते हैं : “अब मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहता। अपना कर्तव्य निभाते समय परमेश्वर ने मुझे आशीष नहीं दिया और मैंने परमेश्वर के ज्यादा वचनों को पढ़ा है मगर फिर भी उसने मुझे प्रबुद्ध नहीं किया। परमेश्वर के वचनों में कहा गया है : परमेश्वर जिस पर चाहे उस पर अनुग्रह बरसाता है और जिस पर चाहे उस पर दया दिखाता है। मैं उनमें से नहीं हूँ जिन पर परमेश्वर दया दिखाता है या अनुग्रह बरसाता है। मैं यह यातना क्यों सहूँ?” वे जितना ज्यादा सोचते हैं उतने ही नकारात्मक बन जाते हैं और फिर उन्हें आगे का मार्ग बिल्कुल नहीं दिखता। वे अपनी शिकायतों से बेबस महसूस करते हैं और अब अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते; और अपना कर्तव्य निभाते समय वे केवल औपचारिकता निभाते हैं। दूसरे लोग सिद्धांतों पर चाहे कैसे भी संगति करें, उनके कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता। उनके भीतर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। जब वे इस तरह की स्थिति में हों तो क्या उनमें कोई जीवन प्रवेश होता है? क्या उनमें अपना कर्तव्य निभाने के प्रति कोई निष्ठा होती है? नहीं होती, और जो थोड़ी-बहुत कोशिश और लगन उनमें थी वह भी गायब हो गई है। तो उनके दिल में क्या बचा है? “मैं बस योजनाएँ बनाता जाऊँगा और बाकी सब देखा जाएगा। परमेश्वर किसी भी दिन मुझे बेनकाब करके हटा सकता है, मुझे छोड़ सकता है। जब वह दिन आएगा जब मुझे अपना कर्तव्य निभाने की अनुमति नहीं होगी तो मैं ऐसा नहीं करूँगा। मुझे पता है कि मैं उतना अच्छा नहीं हूँ। भले ही परमेश्वर ने मुझे अभी तक नहीं हटाया हो मगर मैं जानता हूँ कि वह मुझे पसंद नहीं करता। यह केवल समय की बात है जब मैं हटा दिया जाऊँगा।” उनके दिलों में ये विचार और दृष्टिकोण उत्पन्न होते हैं और जब वे दूसरों से बातचीत करते हैं तो कभी-कभी ऐसी टिप्पणियाँ निकल जाती हैं : “तुम लोग ईमानदारी से विश्वास करते रहो। परमेश्वर तुम लोगों की आस्था और तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को आशीष जरूर देगा। मेरा कुछ नहीं हो सकता। मैं अपने मार्ग के अंत पर हूँ। चाहे मैं कितना भी लगनशील या मेहनती क्यों न होऊँ, इसका कोई फायदा नहीं है। अगर परमेश्वर किसी को पसंद नहीं करता तो वह चाहे कितनी भी कोशिश क्यों न करे, उसका कोई फायदा नहीं है। मैं अपनी क्षमता के अनुसार मेहनत करके अपना कर्तव्य पूरा करता हूँ; अगर मेरी मेहनत के लिए कोई जगह नहीं है तो इसके बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता। क्या परमेश्वर लोगों को कुछ ऐसा करने के लिए मजबूर कर सकता है जो उनके बस का न हो? परमेश्वर एक बिल्ली को बात करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता!” यहाँ क्या कहा जा रहा है? इसका मतलब है : “मैं बस ऐसा ही हूँ। परमेश्वर मेरे साथ चाहे जैसा भी व्यवहार करे, मेरा रवैया ऐसा ही रहेगा।” मुझे बताओ, ऐसा रवैया और इरादा रखने वाला कोई व्यक्ति परमेश्वर से आशीष क्यों पाना चाहेगा? क्या यह स्थिति और रवैया जो उन्होंने विकसित किया है दूसरों को प्रभावित कर सकता है? वे आसानी से नकारात्मक और हानिकारक प्रभाव डाल सकते हैं जिससे दूसरे लोगों में नकारात्मकता और कमजोरी आ सकती है। क्या यह दूसरों को गुमराह करना और नुकसान पहुँचाना नहीं है? इस हद तक नकारात्मकता रखने वाले लोग शैतानों की श्रेणी में आते हैं, है ना? राक्षस कभी भी सत्य से प्रेम नहीं करते।

कुछ लोग लंबे प्रवचनों में अपनी नकारात्मकता नहीं फैलाते; वे बस कुछ बातें बोलते हैं : “तुम लोग मुझसे बेहतर हो। तुम लोग बहुत धन्य हो। मेरा कुछ नहीं हो सकता। चाहे मैं कितनी भी कोशिश करूँ यह बेकार है। मुझे परमेश्वर से आशीष मिलने की कोई उम्मीद नहीं है।” हालाँकि ये शब्द सरल हैं और इनमें कोई समस्या नहीं लगती है, ऐसा लगता है मानो वे खुद की जाँच कर रहे हों, खुद का गहन-विश्लेषण कर रहे हों और अपनी खराब काबिलियत और कमियों जैसे तथ्यों को स्वीकार रहे हों मगर वास्तव में वे एक तरह की अप्रत्यक्ष नकारात्मकता फैला रहे हैं। इन शब्दों में व्यंग्य और मजाक के साथ-साथ प्रतिरोध भी है और बेशक इससे भी बढ़कर उनमें एक नकारात्मक और उदास मनोदशा के साथ परमेश्वर के प्रति असंतोष भी शामिल है। ये नकारात्मक शब्द कम हो सकते हैं मगर यह मनोदशा एक संक्रामक बीमारी की तरह दूसरों को प्रभावित कर सकती है। हालाँकि वे साफ तौर पर यह नहीं कहते, “मैं अब अपने कर्तव्य और नहीं निभाना चाहता, मुझे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है और तुम सभी लोग भी खतरे में हो,” वे ऐसा संकेत देते हैं जिससे लोगों को लगता है कि अगर इस व्यक्ति के पास उसकी तमाम कोशिशों के बाद भी उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है तो जो लोग कोशिश नहीं करते उनके पास उम्मीद होने की संभावना और भी कम है। यह संकेत देकर वे सबको यह बता रहे हैं, “उम्मीद महत्वपूर्ण है। अगर परमेश्वर तुम्हें उम्मीद नहीं देता, अगर परमेश्वर तुम्हें आशीष नहीं देता तो चाहे तुम कितनी भी मेहनत कर लो, यह सब बेकार है।” जब ज्यादातर लोग इस संकेत को स्वीकार लेते हैं तो उनके भीतर परमेश्वर के प्रति गहरी आस्था कम हो जाती है और अपने कर्तव्य निभाते समय उन्हें जो निष्ठा और ईमानदारी दिखानी चाहिए वह भी बहुत कम हो जाती है। हालाँकि वे लोगों को गुमराह करने या अपने पक्ष में लाने के स्पष्ट इरादे के बिना यह नकारात्मकता फैलाते हैं, यह नकारात्मक मनोदशा दूसरों को तेजी से प्रभावित करती है, उन्हें संकट का एहसास कराती है, उन्हें लगता है कि उनकी मेहनत आसानी से बर्बाद हो गई है; इससे लोग अपनी भावनाओं के भीतर जीने लगते हैं, भावनाओं का उपयोग करके परमेश्वर के बारे में अटकलें लगाते हैं और बाहरी दिखावों के आधार पर मनुष्यों के प्रति परमेश्वर के रवैये और ईमानदारी का विश्लेषण और पड़ताल करते हैं। जब यह नकारात्मक मनोदशा दूसरों तक पहुँचती है तो वे खुद को परमेश्वर से दूर करने और परमेश्वर की बातों को गलत समझने और उन पर संदेह करने से रोक नहीं पाते, अब वे उसके वचनों पर विश्वास नहीं करते। साथ ही अब उनमें अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदारी नहीं रहती; वे कीमत चुकाने और कोई निष्ठा रखने के लिए तैयार नहीं होते। लोगों पर इन नकारात्मक टिप्पणियों का यही प्रभाव होता है। इस प्रभाव का परिणाम क्या होता है? इन वचनों को सुनने के बाद, लोगों को कोई शिक्षा नहीं मिलती, वे आत्म-ज्ञान हासिल करना तो दूर, अपनी कमियों को भी नहीं खोज पाते या सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने में भी सक्षम नहीं हो पाते—उन्हें इनमें से कोई भी सकारात्मक नतीजा नहीं मिलता है। इसके बजाय, यह प्रभाव लोगों को और ज्यादा नकारात्मक बना देता है, वे सत्य का अनुसरण करना छोड़ने के बारे में सोचने लगते हैं और अब उनके पास अपने कर्तव्यों को निभाने का संकल्प नहीं होता। उन्होंने अपनी आस्था क्यों खो दी? (उन्हें लगता है कि उनके लिए उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है।) सही है, उन्होंने इस संदेश को स्वीकार लिया है और उन्हें लगता है कि उनके लिए उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है इसलिए वे अपने कर्तव्यों को निभाने की कोशिश करने के लिए तैयार नहीं हैं। यह व्यवहार दर्शाता है कि वे ईमानदारी से सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हैं बल्कि हमेशा भावनाओं, मनोदशाओं और अनुमान के आधार पर यह आकलन करते रहते हैं कि क्या परमेश्वर उनसे प्रसन्न है, क्या उनके लिए उद्धार की उम्मीद है और क्या परमेश्वर उनके कर्तव्य निर्वहन को स्वीकारता है। जब लोग अनुमान के आधार पर इन चीजों का आकलन करते हैं तो उनके पास सत्य का अभ्यास करने के लिए ज्यादा प्रेरणा नहीं होती। ऐसा क्यों है? क्या लोग अनुमान के आधार पर परमेश्वर का सही-सही आकलन कर सकते हैं? क्या लोग परमेश्वर के हर सोच-विचार के बारे में सही-सही अनुमान लगा सकते हैं? (नहीं।) लोगों के मन धोखेबाजी, लेन-देन, सांसारिक आचरण के फलसफों, शैतान के तर्क जैसी चीजों से भरे हुए हैं। इन चीजों के आधार पर परमेश्वर के बारे में अनुमान लगाने के क्या परिणाम होते हैं? इससे लोग परमेश्वर पर संदेह करते हैं, खुद को परमेश्वर से दूर करते हैं और परमेश्वर में अपनी सारी आस्था खो देते हैं। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर में पूरी तरह से आस्था खो देता है तो उसके दिल में एक बड़ा सवालिया निशान अवश्य ही लग जाता है कि परमेश्वर का अस्तित्व है या नहीं। उस समय परमेश्वर के विश्वासी के रूप में उसका समय समाप्त हो जाएगा—वह पूरी तरह से बर्बाद हो चुका होगा। इसके अलावा, क्या लोगों के लिए परमेश्वर के बारे में अनुमान लगाना सही है? क्या सृजित प्राणियों का सृष्टिकर्ता के प्रति यही रवैया होना चाहिए। लोगों को परमेश्वर के बारे में अनुमान नहीं लगाना चाहिए, न ही उन्हें परमेश्वर की सोच या मनुष्यों के बारे में उसके विचारों के बारे में अटकलें लगानी चाहिए। यह अपने आप में गलत है; लोगों ने एक गलत परिप्रेक्ष्य और स्थिति अपना ली है।

लोगों को परमेश्वर के साथ अनुमान, अटकलें, संदेह या शक के साथ व्यवहार नहीं करना चाहिए, न ही उन्हें मानवीय विचारों और दृष्टिकोणों, सांसारिक आचरण के फलसफों या शैक्षणिक ज्ञान के आधार पर उसका आकलन करना चाहिए। तो फिर, लोगों को परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? सबसे पहले, लोगों को यह विश्वास रखना चाहिए कि परमेश्वर सत्य है। लोगों के लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ, उनके प्रति उसके इरादे, लोगों के लिए उसका प्रेम और घृणा, और विभिन्न प्रकार के लोगों के लिए उसकी व्यवस्थाएँ, सोच-विचार, धारणाएँ वगैरह के लिए तुम्हारे अनुमान की आवश्यकता नहीं हैं; परमेश्वर के वचनों में इन मामलों की स्पष्ट व्याख्याएँ और स्पष्ट अर्थ दिए हैं। तुम्हें केवल परमेश्वर के वचनों के अनुसार विश्वास रखने, सत्य खोजने और अभ्यास करने की आवश्यकता है—यह इतना सरल है। परमेश्वर भावनाओं के आधार पर तुमसे यह आकलन करने को नहीं कहता कि वह तुम्हारे साथ क्या करना चाहता है या तुम्हें कैसे देखता है। तो, तुम सोचते हो कि तुम्हारे लिए उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है—यह एक भावना है या तथ्य? क्या परमेश्वर के वचनों ने ऐसा कहा? (नहीं।) तो, परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं? परमेश्वर लोगों को यह बताता है कि जब भी वे किसी समस्या का सामना करें या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें तो समाधान के लिए उन्हें सत्य और सत्य का अभ्यास करने का मार्ग कैसे खोजना चाहिए। इससे एक बात तो तय है : यह सच है कि परमेश्वर लोगों को बचाना और उनके भ्रष्ट स्वभावों को बदलना चाहता है; परमेश्वर तुम्हें धोखा नहीं दे रहा है और यह खोखली बात नहीं है। तुम्हें लगता है कि तुम्हारे लिए उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है, मगर यह सिर्फ एक क्षणिक मनोदशा है, एक विशेष परिवेश में उत्पन्न होने वाली भावना है। तुम्हारी भावनाएँ परमेश्वर की इच्छाओं या इरादों का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं, उसके विचारों की तो बात ही छोड़ो और वे सत्य का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती हैं। इसलिए अगर तुम इस भावना के अनुसार जीते हो, अगर तुम इस भावना के आधार पर परमेश्वर के बारे में अनुमान लगाते हो, परमेश्वर की इच्छाओं की जगह अपनी भावना को रखते हो तो तुम बहुत बड़ी गलती कर रहे हो और शैतान के जाल में फँस गए हो। इस स्थिति में किसी को क्या करना चाहिए? भावनाओं पर भरोसा मत करो। कुछ लोग कहते हैं, “अगर हमें भावनाओं पर भरोसा नहीं करना चाहिए तो हमें किस पर भरोसा करना चाहिए?” अपनी किसी भी चीज पर भरोसा करना बेकार है; मानवीय भावनाएँ सत्य का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। कौन जानता है कि तुम्हारी भावना कैसे उत्पन्न हुई, यह वास्तव में कहाँ से आई—अगर यह शैतान द्वारा गुमराह किए जाने से उत्पन्न हुई है तो यह परेशानी वाली बात है। जो भी हो, चाहे भावना कैसे भी उत्पन्न हुई हो यह सत्य का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। किसी की भावनाएँ और अंतर्ज्ञान जितना ज्यादा तीव्र होता है, उसे उतना ही ज्यादा सत्य खोजने, परमेश्वर के समक्ष आने और आत्म-चिंतन करने की जरूरत होती है। मानवीय भावनाएँ, और तथ्य और सत्य, दो अलग-अलग चीजें हैं। क्या भावनाएँ तुम्हें सत्य प्रदान कर सकती हैं? क्या वे तुम्हें अभ्यास का मार्ग दे सकती हैं? नहीं दे सकतीं। केवल परमेश्वर के वचन, केवल सत्य, ही तुम्हें अभ्यास का मार्ग दे सकते हैं, तुममें बदलाव ला सकते हैं, और एक रास्ता खोल सकते हैं। इसलिए तुम्हें अपनी भावनाओं को खोजने का अभ्यास नहीं करना चाहिए—तुम्हारी भावनाएँ महत्वपूर्ण नहीं हैं। इसके बजाय, तुम्हें सत्य खोजने और परमेश्वर के वचनों के माध्यम से उसके इरादों को समझने के लिए परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए। जितना ज्यादा तुम भावनाओं पर भरोसा करोगे, उतना ही तुम खुद को आगे बढ़ने के मार्ग से रहित पाओगे, उतनी ही गहरी नकारात्मकता में गिरोगे, और उतना ही ज्यादा तुम यह मानोगे कि परमेश्वर अन्यायी है और परमेश्वर ने तुम्हें आशीष नहीं दिया है। इसके विपरीत अगर तुम सत्य सिद्धांतों को खोजने के लिए और यह देखने के लिए अपनी भावनाओं को अलग रखते हो कि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया में कौन-सी गतिविधियों ने सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन किया था, कौन-से क्रियाकलाप तुम्हारी अपनी मर्जी से किए गए थे और सत्य सिद्धांतों से उनका कोई लेना-देना नहीं था, तो खोज की प्रक्रिया में तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारे पास अपनी खुद की इच्छाएँ और कल्पनाएँ बहुत ज्यादा हैं। बस इतनी-सी गंभीरता दिखाकर तुम कई समस्याओं को उजागर करोगे : “मैं बहुत विद्रोही, बहुत मनमाना, बहुत अभिमानी हूँ! ऐसा नहीं है कि मुझे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है; मेरी भावनाएँ गलत हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मैंने परमेश्वर के वचनों को गंभीरता से नहीं लिया और मैंने सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास नहीं किया। मैं हमेशा शिकायत करता हूँ कि परमेश्वर मुझे आशीष नहीं देता, मेरा मार्गदर्शन नहीं करता और पक्षपात करता है मगर वास्तव में मैं यह पहचान ही नहीं पाया कि मैं अपने कर्तव्य निर्वहन में लापरवाह, मनमाना और बेपरवाह रहता हूँ—यह मेरी गलती है। अब मुझे एहसास हो गया है कि परमेश्वर पक्षपात नहीं करता। जब लोग सत्य नहीं खोजते या परमेश्वर के समक्ष नहीं आते तो परमेश्वर पहले से ही कर्तव्य निभाने की उनकी योग्यता को खारिज न करके उनके साथ अच्छा व्यवहार कर रहा होता है; परमेश्वर इस संबंध में पहले से ही बहुत उदार है। फिर भी मैंने इतनी शिकायतें की, यहाँ तक कि परमेश्वर से लड़ाई और बहस भी की। पहले, मुझे लगता था कि मैं काफी अच्छा हूँ मगर अब मैं जानता हूँ कि यह बिल्कुल भी सच नहीं है। मैंने जो कुछ भी किया वह सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था; परमेश्वर का मुझे अनुशासित नहीं करना उसका अनुग्रह था—उसने मेरे छोटे आध्यात्मिक कद को पहचाना!” ऐसी खोज के माध्यम से तुम कुछ सत्यों को समझ पाओगे और सत्य सिद्धांतों के अनुसार सक्रियता से अभ्यास करने की पहल करने में सक्षम हो पाओगे। धीरे-धीरे तुम्हें लगेगा कि एक व्यक्ति होने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास कुछ सिद्धांत हैं। इस समय क्या तुम्हारी अंतरात्मा को काफी ज्यादा शांति महसूस नहीं होगी? “पहले मुझे लगता था कि मुझे उद्धार मिलने की कोई उम्मीद नहीं है, मगर अब यह एहसास, यह जागरूकता, धीरे-धीरे कम क्यों होती जा रही है? मेरी यह स्थिति कैसे बदल गई? पहले, मैं सोचता था कि मेरे लिए कोई उम्मीद नहीं है; क्या वह केवल नकारात्मकता और प्रतिरोध, और परमेश्वर से लड़ना नहीं था? मैं बहुत ज्यादा विद्रोही था!” समर्पण करने के बाद अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में तुम अनजाने में कुछ सिद्धांतों को समझना शुरू कर दोगे और तुम अब दूसरों के साथ अपनी तुलना नहीं करोगे; तुम बस इस बात पर ध्यान दोगे कि लापरवाह होने से कैसे बचें और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य कैसे निभाएँ। अनजाने में तुम अब यह महसूस नहीं करोगे कि तुम्हें बचाया नहीं जा सकता और तुम अब उस नकारात्मक स्थिति में नहीं फँसे रहोगे; तुम सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाओगे, और यह महसूस करोगे कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता सामान्य हो गया है। जब तुम्हें यह एहसास होगा, तो तुम सोचोगे, “परमेश्वर ने मुझे नहीं छोड़ा है; मैं परमेश्वर की उपस्थिति को महसूस कर सकता हूँ और जब मैं अपने कर्तव्यों को निभाते समय परमेश्वर को खोजता हूँ तो मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन और आशीषों को महसूस कर सकता हूँ। मुझे यकीन है कि परमेश्वर दूसरों के साथ मुझे भी आशीष देता है और परमेश्वर पक्षपात नहीं करता; ऐसा लगता है कि मेरे लिए अभी भी उद्धार पाने की उम्मीद है। अब लगता है कि पहले मैं जिस मार्ग पर चला था वह गलत था; मैं हमेशा अपने कर्तव्य निभाने में लापरवाही करता था और बहुत से कुकर्म करता था, और मुझे यह भी लगता था कि मैं अपनी छोटी-सी दुनिया जीते हुए और अपनी प्रसंशा करते हुए एकदम ठीक था। अब मैं जानता हूँ कि ऐसा करना एक बड़ी गलती थी! पूरी तरह से परमेश्वर के खिलाफ शोर मचाने और उसका विरोध करने की स्थिति में रहना—कोई आश्चर्य नहीं कि मुझे परमेश्वर से प्रबुद्धता नहीं मिली। अगर मैं सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं करूँगा तो मुझे परमेश्वर से प्रबुद्धता कैसे मिलेगी?” तुम देख सकते हो, अभ्यास करने के दो पूरी तरह से अलग तरीके, अपने विचारों से निपटने के दो पूरी तरह से अलग तरीके, आखिरकार अलग-अलग नतीजों की ओर ले जाते हैं।

लोग परमेश्वर में अपने विश्वास में अपनी भावनाओं के आधार पर नहीं जी सकते। लोगों की भावनाएँ केवल क्षणिक मनोदशाएँ हैं—क्या उनका उनके परिणामों से कोई लेना-देना है? तथ्यों से कोई लेना-देना है? (नहीं।) जब लोग परमेश्वर से दूर होकर ऐसी मनोदशा में जीते हैं जिसमें वे परमेश्वर को गलत समझ लेते हैं, या परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं, उसके विरुद्ध लड़ते हैं और उसके खिलाफ जाकर शोर मचाते हैं, तो वे पूरी तरह से परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा के घेरे से बाहर हो जाते हैं और उनके हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं रहता। जब लोग ऐसी स्थिति में जीते हैं, तो वे मजबूरन अपनी भावनाओं के सहारे ही जीते हैं। कोई मामूली-सा विचार उन्हें इतना परेशान कर सकता है कि वे खा या सो नहीं पाते, किसी की लापरवाह टिप्पणी उन्हें अटकलबाजी और भ्रम में डुबा सकती है, और एक बुरा सपना भी नकारात्मक बनाकर उन्हें परमेश्वर को गलत समझने के लिए उकसा सकता है। एक बार जब इस तरह का दुष्चक्र बन जाता है, तो लोग तय कर लेते हैं कि उनके लिए सब खत्म हो गया है, कि बचाए जाने कि उनकी समस्त आशा नष्ट हो गई है, उन्हें परमेश्वर ने छोड़ दिया है, और अब परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा। वे जितना अधिक इस तरह सोचते हैं और जितनी अधिक उनमें ऐसी भावनाएँ पैदा होती हैं, उतना ही वे नकारात्मकता में डूबते चले जाते हैं। लोगों में इस तरह की भावनाएँ पैदा होने का असली कारण यह है कि वे सत्य नहीं खोजते या सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास नहीं करते। जब लोगों के साथ कुछ घट जाता है, तो वे सत्य नहीं खोजते, सत्य का अभ्यास नहीं करते, और हमेशा अपने रास्ते जाते हैं, अपनी ही तुच्छ चालाकियों के बीच जीते हैं। वे हर दिन अपनी तुलना दूसरों से करने में बिताते हैं और उनसे प्रतिस्पर्धा करते हैं, उन्हें जो भी बेहतर लगता है उससे ईर्ष्या और घृणा करते हैं, जिन्हें वे अपने से नीचा समझते हैं, उनका उपहास करते हैं, उन्हें ताना मारते हैं, शैतानी स्वभाव में जीते हैं, सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करते, और किसी की भी सलाह मानने से इनकार करते हैं। इससे आखिरकार उनमें सभी तरह के भ्रम, अटकलें और आलोचनाएँ पैदा होती हैं, वे खुद को निरंतर व्याकुल बना लेते हैं। और क्या वे इसी के लायक नहीं हैं? ऐसे कड़वे फल वे खुद ही चख सकते हैं—और वे सचमुच इसी लायक होते हैं। इन सबका कारण क्या है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोग सत्य की तलाश नहीं करते, अत्यधिक अहंकारी और आत्म-तुष्ट हैं, वे हमेशा अपने विचारों के अनुसार काम करते हैं, हमेशा दिखावा करते हैं और दूसरों से अपनी तुलना करते हैं, खुद को अलग दिखाने की कोशिश करते हैं, परमेश्वर से हमेशा अनुचित माँगें करते हैं, वगैरह-वगैरह—और इन्हीं तमाम बातों के कारण लोग धीरे-धीरे परमेश्वर से दूर चले जाते हैं, बार-बार परमेश्वर का प्रतिरोध और सत्य का उल्लंघन करते हैं। अंततः, वे खुद को अंधकार और नकारात्मकता में डुबा लेते हैं। और ऐसे समय, लोगों के पास अपने विद्रोह और विरोध की सच्ची समझ नहीं होती है, इन चीजों को सही रवैये के साथ सुलझाना तो दूर की बात है। इसके बजाय, वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं, परमेश्वर को गलत समझते हैं और उसके बारे में अटकलें लगाते हैं। जब ऐसा होता है, तो लोगों को अंततः एहसास होता है कि उनकी भ्रष्टता बहुत गहरी और बहुत तकलीफदेह है, इसलिए वे तय कर लेते हैं कि वे परमेश्वर का विरोध करने वाले लोग हैं, और उनके पास नकारात्मकता में डूब जाने के अलावा कोई चारा नहीं होता, वे उससे खुद को बाहर नहीं निकाल पाते। वे यह मानते हैं, “परमेश्वर मेरा तिरस्कार करता है और मुझे नहीं चाहता। मैं बहुत विद्रोही हूँ, मैं इसी लायक हूँ, परमेश्वर अब निश्चित रूप से मुझे नहीं बचाएगा।” वे मानते हैं कि ये सब सच है। वे तय करते हैं कि उनके दिलों में जो अनुमान हैं वे तथ्य हैं। चाहे कोई भी उनके साथ संगति करे, उसका कोई फायदा नहीं होता, वे उसे नहीं स्वीकारते। वे सोचते हैं, “परमेश्वर मुझे आशीष नहीं देगा, वह मुझे नहीं बचाएगा, तो फिर परमेश्वर में विश्वास करने का क्या फायदा?” जब परमेश्वर में उनके विश्वास का मार्ग इस मुकाम पर आ जाता है, तो क्या लोग अब भी विश्वास कायम रख पाएँगे? नहीं। क्यों नहीं रख पाएँगे? यहाँ एक तथ्य है। जब लोगों की नकारात्मकता एक ऐसे मुकाम पर पहुँच जाती है कि उनके दिल प्रतिरोध और शिकायतों से भर जाते हैं, और वे हमेशा के लिए परमेश्वर से अपना संबंध तोड़ लेना चाहते हैं, तब यह उनके परमेश्वर का भय न मानने, परमेश्वर के प्रति समर्पण न करने, सत्य से प्रेम न करने और उसे स्वीकार न करने जितना सरल नहीं रह जाता। तो फिर यह क्या है? वे अपने दिलों में, सक्रियता से परमेश्वर में अपनी आस्था त्यागने का फैसला कर लेते हैं। उन्हें लगता है कि बैठे-बैठे हटाए जाने का इंतजार करना शर्मनाक है, और हार मान लेना अधिक गरिमामय होगा, तो वे पहल करके खुद ही अपना अवसर छोड़ देते हैं, खुद ही सब कुछ खत्म कर देते हैं। वे परमेश्वर में आस्था को बुरा कहकर उसकी निंदा करते हैं, वे यह कहकर सत्य की निंदा करते हैं कि वह लोगों को बदल नहीं सकता, और परमेश्वर को अधार्मिक बताकर उसकी निंदा करते हैं, उस पर खुद को नहीं बचाने के आरोप लगाते हैं : “मैं इतना लगनशील हूँ, मैं दूसरों की तुलना में इतने अधिक कष्ट सहता हूँ, किसी भी दूसरे व्यक्ति से कहीं ज्यादा कीमत चुकाता हूँ, अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाता हूँ, और फिर भी परमेश्वर ने मुझे आशीष नहीं दिया। अब मुझे साफ तौर पर समझ में आता है कि परमेश्वर मुझे पसंद नहीं करता, परमेश्वर लोगों के साथ बराबरी वाला व्यवहार नहीं करता है।” उनकी इतनी जुर्रत हो जाती है कि वे परमेश्वर के बारे में अपने शक को परमेश्वर के के खिलाफ निंदा और तिरस्कार में बदल देते हैं। जब यह तथ्य सही साबित होता है, तो क्या वे परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चल सकते हैं? चूँकि वे परमेश्वर से विद्रोह करते हैं, उसका विरोध करते हैं, सत्य नहीं स्वीकारते या जरा भी आत्मचिंतन नहीं करते, वे बरबाद हो चुके हैं। क्या किसी का अपनी मनमर्जी से परमेश्वर को छोड़ देना और फिर यह शिकायत करना कि परमेश्वर उन्हें आशीष नहीं देता या उस पर अनुग्रह नहीं दिखाता, अनुचित नहीं है? हर कोई अपना मार्ग खुद चुनता है और खुद ही उस पर चलता है; कोई और उसके लिए ऐसा नहीं कर सकता। तुमने खुद ही अपने लिए बंद गली चुनी है, तुमने परमेश्वर को छोड़ दिया और ठुकरा दिया है। शुरू से लेकर अंत तक परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि वह तुम्हें नहीं चाहता या उसने तुम्हें छोड़ दिया है या वह तुम्हें बचाने से इनकार करता है; यह तुम ही हो जिसने अपने अनुमानों के आधार पर परमेश्वर को सीमित कर दिया है। अगर तुम वाकई परमेश्वर में विश्वास रखते हो, अगर वह तुम्हें नहीं चाहे तब भी तुम उस पर विश्वास रखोगे और अगर वह तुमसे नफरत करे तब भी तुम उस पर विश्वास रखोगे, उसके वचनों को पढ़ना जारी रखोगे और अभी भी सत्य स्वीकार कर सामान्य ढंग से अपने कर्तव्य निभाओगे, तो फिर तुम्हें कौन बाधित कर सकता है या रोक सकता है? क्या यह सब तुम्हारे अपने विकल्पों और अनुसरणों के बारे में नहीं है? तुममें खुद आस्था की कमी है फिर भी तुम परमेश्वर को दोष देते हो; यह अनुचित है। तुम परमेश्वर के साथ अपना रिश्ता बनाए नहीं रखते और इसे नष्ट करने पर जोर देते हो; अगर एक बार दरार पड़ जाए, तो क्या इसे वापस ठीक किया जा सकता है? टूटे हुए दर्पण को वापस जोड़ना मुश्किल होता है और अगर इसे वापस जोड़ भी दिया जाए तो भी दरार वहीं रहेगी। अब जब रिश्ता टूट गया है तो इसे कभी भी अपनी मूल स्थिति में वापस लाया नहीं लाया जा सकता। इस प्रकार परमेश्वर में विश्वास रखने के दौरान लोगों को चाहे किसी भी तरह के परिवेश का सामना करना पड़े, उन्हें समर्पण करना सीखना चाहिए और सत्य खोजना चाहिए—केवल तभी वे दृढ़ रह सकते हैं। अगर तुम मार्ग के अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना चाहते हो तो सत्य का अनुसरण करना सबसे अहम है; चाहे अपने कर्तव्यों को निभाना हो या कोई और काम करना, सत्य सिद्धांतों को समझकर उनका अभ्यास करना और उन्हें लागू करना आवश्यक है, क्योंकि सत्य समझने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की प्रक्रिया के माध्यम से ही तुम परमेश्वर को जान पाते हो और उसे समझ पाते हो, परमेश्वर के इरादों समझते हुए उसके साथ अनुकूलता प्राप्त करते हो और परमेश्वर के सार की समझ-बूझ और स्वीकृति प्राप्त करते हो। अगर तुम सत्य सिद्धांतों को अभ्यास में नहीं लाते और सिर्फ अपनी मनमर्जी से काम करते हो या अपने कर्तव्यों को निभाते हो तो तुम कभी भी सत्य के संपर्क में नहीं आओगे। सत्य के संपर्क में कभी नहीं आने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम कभी भी सभी चीजों के प्रति परमेश्वर के रवैये, उसकी अपेक्षाओं या उसके विचारों के संपर्क में नहीं आओगे; और इसकी संभावना और भी कम है कि तुम कभी भी परमेश्वर के स्वभाव और सार के संपर्क में आओगे, जैसा कि उसके कार्य में प्रकट होता है। अगर तुम परमेश्वर के कार्य के इन तथ्यों के संपर्क में आने में विफल रहते हो तो परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ-बूझ हमेशा के लिए मानवीय कल्पनाओं और धारणाओं तक ही सीमित रहेगी। यह कल्पनाओं और धारणाओं के दायरे में ही रहेगी और कभी भी परमेश्वर के सार और उसके सच्चे स्वभाव के अनुरूप नहीं होगी। इस तरह, तुम परमेश्वर के बारे में वास्तविक समझ-बूझ हासिल नहीं कर पाओगे।

अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में लोग अक्सर नकारात्मक और विद्रोही स्थितियों का अनुभव करते हैं। अगर वे सत्य खोज सकें और इन समस्याओं को हल करने और इनका समाधान करने के लिए सत्य सिद्धांतों का उपयोग कर सकें तो उनकी नकारात्मक भावनाएँ शिकायतों, प्रतिरोध, अवज्ञा, शोर-शराबे या यहाँ तक कि तिरस्कार में नहीं बदलेंगी। लेकिन अगर लोग इन चीजों से केवल अपनी तुच्छ चतुराई, मानवीय आत्म-संयम, मानवीय प्रयास, लगन, अपने शरीर को अनुशासित करने और ऐसे ही अन्य तरीकों पर भरोसा करके निपटते हैं तो देर-सवेर ये मानवीय कल्पनाएँ, आकलन और अनुमान परमेश्वर के प्रति शिकायत, अवज्ञा, प्रतिरोध, शोर-शराबे और यहाँ तक कि तिरस्कार बन जाएँगे। जब लोग ऐसी नकारात्मक भावनाओं में फँसे होते हैं तो उनमें ऐसी अन्य भावनाओं या विचारों के साथ-साथ अवज्ञा, असंतोष और परमेश्वर के खिलाफ शिकायतें विकसित हो सकती हैं। जब ये विचार समय के साथ लोगों के अंदर जमा हो जाते हैं और वे फिर भी सत्य नहीं खोजते या उनका समाधान करने के लिए सत्य का उपयोग नहीं करते तो उनकी अवज्ञा, असंतोष और शिकायतें अवहेलना में बदल जाएँगी; अपनी अवज्ञा और असंतोष को व्यक्त करने के लिए वे अपने अन्य नकारात्मक व्यवहारों के साथ-साथ विद्रोही व्यवहार करेंगे जैसे कि अपने कर्तव्यों को अनमने ढंग से निभाना या जानबूझकर कलीसिया के काम में बाधा डालना और उसे नष्ट करना और इस तरह वे परमेश्वर की अवहेलना करने के अपने उद्देश्य को प्राप्त करते हैं। कुछ लोग दूसरों के कर्तव्य निर्वहन को बर्बाद और बाधित करते हैं। उनके क्रियाकलापों के पीछे छिपा अर्थ है : “अगर मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा सकता या अगर परमेश्वर मेरे कर्तव्य में मुझे आशीष नहीं देता तो मैं यह सुनिश्चित करूँगा कि तुम लोगों में से कोई भी अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से न निभा सके!” और फिर वे बाधाएँ पैदा करना शुरू कर देते हैं। कुछ लोग अपनी बातों के जरिये ऐसा करते हैं तो कुछ अन्य क्रियाकलापों का उपयोग करते हैं। जो लोग अपने क्रियाकलापों से दूसरों को परेशान करते हैं वे क्या कर सकते हैं? उदाहरण के लिए, वे किसी के कर्तव्य के नतीजों को प्रभावित करने के लिए जानबूझकर उसके कंप्यूटर से फाइलें मिटा सकते हैं या वे जानबूझकर ऑनलाइन सभाओं में बाधाएँ डाल सकते हैं। यह राक्षसों और शैतानों का लोगों को परेशान करने का तरीका है। लोग इसे समझ नहीं पाते : “उम्र में इतना बड़ा होकर भी कोई व्यक्ति ऐसी नीच हरकतें कैसे कर सकता है? आखिर वे किशोर तो नहीं हैं; वे अभी भी ऐसी शरारतें कैसे कर सकते हैं?” वास्तव में, अपनी उम्र के तीस, चालीस, पचास या साठ की दशक में चल रहे लोग भी ऐसी हरकतें कर सकते हैं। ये विभिन्न व्यवहार अकल्पनीय हैं; ये अंतरात्मा और विवेक वाले व्यक्ति के क्रियाकलाप नहीं हैं बल्कि राक्षसों और शैतानों के काम हैं। यह देखकर कि दूसरे लोगों पर कोई असर नहीं हुआ और उनके अपने लक्ष्य हासिल नहीं हुए हैं, ऐसे लोग बहुत से लोगों की मौजूदगी में या सभाओं के दौरान नकारात्मकता फैलाते हैं और बाधाएँ पैदा करते हैं। जब वे अपने क्रियाकलापों के माध्यम से अपना असंतोष दिखाने लगते हैं, तो स्थिति को काबू में करना पहले ही मुश्किल हो जाता है; उन पर लगाम लगाना बहुत कठिन है, और अगर स्थिति बिगड़ती जाती है तो यह मुश्किल केवल बढ़ सकती है, प्रकृति में और ज्यादा गंभीर हो सकती है। वे न केवल अपने क्रियाकलापों से बाधाएँ पैदा करते हैं बल्कि विभिन्न साधनों और तरीकों को अपनाते हुए दूसरों को उनके कर्तव्य निर्वहन के दौरान परेशान करने के लिए आक्रामक और आलोचनात्मक भाषा का भी उपयोग करते हैं। चाहे वे अपने लक्ष्य को प्राप्त करें या न करें, वे अपने दिल में परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं; वे परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ते या भजन नहीं सीखते हैं, और परमेश्वर के वचनों या सत्य से संबंधित कोई भी पुस्तक पढ़ने से इनकार करते हैं। वे घर पर बैठकर क्या करते हैं? वे उपन्यास पढ़ते हैं, टीवी सीरीज देखते हैं, खाना पकाने की तकनीक सीखते हैं, मेकअप और हेयरस्टाइल करना सीखते हैं...। सभाओं के दौरान, वे परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ के बारे में संगति नहीं करते, न ही वे भ्रष्ट स्वभावों और भ्रष्टता के खुलासों को हल करने के तरीके के बारे में संगति करते हैं। जब दूसरे संगति करते हैं तो वे जानबूझकर बीच में घुस जाते हैं, जो कोई भी बोल रहा होता है उसे बीच में ही रोक देते हैं, जानबूझकर विषय बदल देते हैं, हमेशा कमजोर करने और बाधित करने वाली बातें कहते हैं। वे इस तरह काम क्यों करते हैं? इसका कारण उनका यह मानना है कि उन्हें उद्धार मिलने की कोई उम्मीद नहीं है और इसलिए वे हार मान लेते हैं और लापरवाही से काम करना शुरू कर देते हैं; वे कलीसिया से निकाले जाने या निष्कासित होने से पहले कुछ साथी ढूँढने की कोशिश करते हैं—अगर उन्हें आशीष नहीं मिल सकते तो वे यह सुनिश्चित करेंगे कि दूसरों को भी न मिलें। वे इस तरह से क्यों सोचते हैं? उन्हें लगता है कि जिस परमेश्वर में वे विश्वास रखते हैं वह उस परमेश्वर जैसा नहीं है जिसकी उन्होंने शुरू में कल्पना की थी; वह लोगों से उतना प्यार नहीं करता जितनी उन्होंने कल्पना की थी और न ही वह उतना धार्मिक है और वह निश्चित रूप से लोगों के प्रति उतना स्नेही भी नहीं है जितनी उन्होंने कल्पना की थी। परमेश्वर दूसरों से प्रेम करता है मगर उनसे नहीं; परमेश्वर दूसरों को बचाता है मगर उन्हें नहीं। अब जब उन्हें अपने लिए कोई उम्मीद नहीं दिखती और उन्हें लगता है कि उन्हें बचाया नहीं जा सकता तो वे हार मानकर लापरवाही से काम करना शुरू कर देते हैं। मगर इतना ही नहीं; वे दूसरों को भी यह दिखाना चाहते हैं कि चूँकि उनके लिए कोई उम्मीद नहीं है इसलिए दूसरों के लिए भी कोई उम्मीद नहीं है, और वे तभी संतुष्ट होते हैं जब वे सभी को परमेश्वर में अपनी आस्था छोड़ने और अपने विश्वास से पीछे हटने पर मजबूर कर दें। ऐसा करने के पीछे उनका यह लक्ष्य है : “अगर मैं स्वर्ग के राज्य के आशीष प्राप्त नहीं कर सकता तो बेहतर होगा कि तुम लोग भी उन्हें पाने का सपना न देखो!” ऐसा व्यक्ति किस तरह का अभागा है? क्या वह शैतान नहीं है? वह एक शैतान है जो नरक में जाएगा, जो दूसरों को भी परमेश्वर में विश्वास रखने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने से रोकता है; वह सीधे एक बंद गली की ओर बढ़ रहा है! जिस किसी के पास थोड़ी अंतरात्मा और थोड़ा दिल है, जो परमेश्वर से डरता है उसे इस तरह से काम नहीं करना चाहिए; अगर वह वास्तव में बहुत बड़ी बुराई करता है और उसे बेनकाब किया जाता है जिससे उसे लगता है कि अब उसके पास कोई उम्मीद नहीं है तो वह अभी भी दूसरों को सफल होने में मदद करने का लक्ष्य रखेगा, दूसरों को ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखने देगा और अपनी मिसाल पर चलने नहीं देगा। वह कह सकता है, “मैं बहुत कमजोर हूँ, मेरी दैहिक इच्छाएँ प्रबल हैं और मैं संसार के प्रति बहुत ज्यादा आसक्त हूँ। यह मेरी अपनी गलती है; मैं इसी के लायक हूँ! तुम लोग ईमानदार विश्वासी बने रहो; मेरे बहकावे में मत आओ। सभाओं के दौरान मैं नजर रखूँगा और अगर बड़े लाल अजगर की पुलिस गाँव में प्रवेश करती है तो मैं तुम लोगों को सावधान कर दूँगा।” जिस किसी में रत्ती भर भी मानवता है उसे कम से कम इतना तो करना ही चाहिए कि दूसरों के सत्य के अनुसरण में बाधा नहीं डाले। मगर जिन लोगों में मानवता नहीं है, जब चीजें उनके हिसाब से नहीं होतीं या जब वे भाई-बहनों को उन्हें नीची नजरों से देखते और खुद को उनसे दूर करते देखते हैं तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर ने उन्हें बेनकाब करके हटा दिया है, उन्हें उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है। जब वे ऐसे विचारों और ऐसी सोच पालते हैं, तो वे हार मानकर लापरवाही से काम करना शुरू कर देते हैं, नकारात्मकता फैलाते हैं और बिना किसी संकोच के कलीसियाई जीवन में बाधाएँ डालते हैं। ऐसा किस तरह के लोग करते हैं? क्या वे शैतान नहीं हैं? (हाँ।) क्या किसी को शैतानों के प्रति शिष्टता दिखानी चाहिए? (नहीं।) तो इससे कैसे निपटा जाना चाहिए? तुम कहो, “तुम सभाओं में आकर भी न तो परमेश्वर के वचन पढ़ते हो और न ही सत्य स्वीकारते हो। फिर तुम यहाँ किसलिए हो? बाधाएँ डालने के लिए, है ना? तुम सोचते हो कि तुम्हारे लिए उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है; वास्तव में हमें भी नहीं लगता कि हमारे पास ज्यादा उम्मीद है मगर हम फिर भी कोशिश करते हैं। हम मानते हैं कि परमेश्वर पक्षपाती नहीं है, वह भरोसेमंद है, लोगों को बचाने में उसका दिल सच्चा है और उसका दिल नहीं बदलता। जब तक उम्मीद की एक किरण बाकी है हम हार नहीं मानेंगे। हम लगातार नकारात्मक नहीं रहेंगे और तुम्हारी तरह परमेश्वर को गलत नहीं समझेंगे। अगर तुम्हें लगता है कि तुम हमें परेशान कर सकते हो या हमें रोक सकते हो तो तुम सपने देख रहे हो! अगर तुम जिद्दी बने रहते हो, इसी तरह विश्वास रखना जारी रखते हो, और दुर्भावनापूर्ण ढंग से हमें परेशान करना चाहते हो तो हमें तुम्हारे प्रति अशिष्ट होने का दोष मत दो। आज से तुम बाहर कर दिए गए हो; अब कलीसिया में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है। अब दफा हो जाओ!” इस तरह, क्या समस्या का समाधान नहीं हो गया है? यह सरल है, बस कुछ शब्द बोले और वे बाहर निकाल दिए गए। ऐसा करना बहुत आसान काम है! मगर ऐसा क्यों करना है? क्योंकि ऐसे लोगों का प्रकृति सार नहीं बदल सकता है; वे सत्य स्वीकार नहीं करेंगे। उन्हें लगता है कि उनके लिए उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है; परमेश्वर ने ऐसा नहीं कहा है, न ही भाई-बहनों ने ऐसा कहा, फिर भी वे इस तरह से बुराई करते और बाधाएँ डालते हैं। अगर एक दिन उन्हें वास्तव में बुराई करने और कलीसिया के काम में बाधा डालने के कारण निष्कासित कर दिया जाता है या अगर परमेश्वर उन्हें सत्य का अनुसरण नहीं करने के कारण अनुशासित करता है तो वे क्या करेंगे? क्या वे परमेश्वर के दुश्मन बन सकते हैं, क्या वे बदला लेने की कोशिश कर सकते हैं? यह बहुत मुमकिन है! यह अच्छा है कि ऐसे लोगों को कोई भी कुकर्म या कोई भी बड़ी बुराई करने से पहले ही उजागर कर दिया जाए। यह परमेश्वर का कार्य है; परमेश्वर ने उन्हें प्रकट किया है। अब, उन्हें बाहर निकालना बिल्कुल सही है; अन्य लोगों को अभी तक कोई नुकसान नहीं हुआ है। इस तरह से निपटना समय के अनुरूप भी है और उचित भी; हर कोई उनका भेद पहचान लेता है, और बुरे लोगों से निपटा जाता है। एक विषमता के रूप में उनकी भूमिका पर्याप्त रूप से पूरी हो गई है।

मूल रूप से, ये उन लोगों की विभिन्न अवस्थाएँ और अभिव्यक्तियाँ होती हैं जो नकारात्मकता प्रकट करते हैं। जब रुतबा, शोहरत और लाभ पाने की उनकी इच्छा पूरी नहीं होती है, जब परमेश्वर ऐसी चीजें करता है जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के उलट होती हैं, ऐसी चीजें जिनमें उनके हित शामिल होते हैं, तो वे अवज्ञा और असंतोष की भावनाओं में उलझ जाते हैं। और जब उनमें ऐसी भावनाएँ होती हैं, तो उनके मन में बहाने, युक्तियाँ, खुद को सही ठहराने, अपना बचाव के तरीके और शिकायत करने के अन्य विचार पैदा होने लगते हैं। इस समय, वे परमेश्वर का गुणगान नहीं करते या उसके प्रति समर्पण नहीं करते, और खुद को जानने के लिए सत्य खोजने की कोशिश तो बिल्कुल नहीं करते; इसके बजाय, वे अपनी धारणाओं, कल्पनाओं, सोच और दृष्टिकोणों या उग्रता का प्रयोग करके परमेश्वर के खिलाफ लड़ने लगते हैं। वे परमेश्वर के खिलाफ कैसे लड़ते हैं? वे अवज्ञा और असंतोष की अपनी भावनाएँ फैलाने लगते हैं, और इस तरीके से अपनी सोच और दृष्टिकोण परमेश्वर के सामने स्पष्ट कर देते हैं; वे परमेश्वर को अपनी मर्जी और माँगों के हिसाब से चलाकर अपनी इच्छाएँ पूरी करवाने की कोशिश करते हैं, इसके बाद ही उनकी भावनाएँ तृप्त होती हैं। परमेश्वर, खास तौर पर लोगों के न्याय और ताड़ना के लिए, उनके भ्रष्ट स्वभाव के शुद्धिकरण के लिए, उन्हें शैतान के प्रभाव से बचाने के लिए, बहुत-से सत्य प्रकट किए हैं, और किसे पता है कि इन सत्यों ने कितने लोगों के आशीष प्राप्त करने के सपनों को चकनाचूर किया है, कितने लोगों की स्वर्ग के राज्य में आरोहित किए जाने की उस फंतासी को ध्वस्त किया है जिसकी वे रात-दिन उम्मीद करते रहे। वे चीजों को ठीक करने के लिए वह सब कुछ करने के लिए तैयार हैं जो वे कर सकते हैं—पर वे शक्तिहीन हैं, वे नकारात्मकता और असंतोष के साथ सिर्फ बर्बादी के गर्त में जा सकते हैं। वे उन सभी चीजों के प्रति अवज्ञाकारी हैं जिन्हें परमेश्वर ने व्यवस्थित किया है, क्योंकि परमेश्वर जो करता है वह उनकी धारणाओं, हितों और विचारों के विरुद्ध होता है। खासतौर से, जब कलीसिया शोधन का काम करती है और बहुत-से लोगों को हटा देती है, तो ये लोग सोचते हैं कि परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता, परमेश्वर ने उन्हें ठुकरा दिया है, उनके साथ अन्याय हो रहा है, और इसलिए वे परमेश्वर की अवहेलना करने में एकजुट होंगे; वे इस बात को नकारेंगे कि परमेश्वर ही सत्य है, परमेश्वर की पहचान और सार को नकारते हैं, और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नकारते हैं। निश्चित ही, वे सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता को भी नकारेंगे। और वे किन साधनों से इन सबको नकारते हैं? अवहेलना और प्रतिरोध से। इसका तात्पर्य यह होता है, “परमेश्वर जो करता है, वह मेरी धारणाओं से मेल नहीं खाता, इसलिए मैं समर्पण नहीं करता, मैं नहीं मानता कि तुम सत्य हो, मैं तुम्हारे खिलाफ शोर मचाऊँगा, और ये चीजें कलीसिया में और लोगों के बीच फैलाऊंगा! जो भी जी में आए मैं वह कहूँगा, और मुझे इसके परिणामों की परवाह नहीं है। मुझे बोलने की आजादी है; तुम मेरा मुँह बंद नहीं करवा सकते—मैं जो चाहे कहूँगा। तुम क्या कर सकते हो?” जब ये लोग अपनी गलत सोच और दृष्टिकोणों को जाहिर करने पर जोर देते हैं, तो क्या वे अपनी खुद की समझ के बारे में बात कर रहे होते हैं? क्या वे सत्य के बारे में संगति कर रहे होते हैं? बिल्कुल भी नहीं। वे नकारात्मकता फैला रहे होते हैं; वे पाखंडों और भ्रांतियों को जाहिर कर रहे होते हैं। वे अपनी खुद की भ्रष्टता को जानने या उसे उजागर करने की कोशिश नहीं कर रहे होते हैं; वे उन चीजों को उजागर नहीं करते हैं जो उन्होंने किए हैं और जो सत्य से मेल नहीं खाते हैं, न ही अपनी गलतियों को उजागर करते हैं। इसके बजाय, वे अपनी गलतियों के लिए तर्क देने की, उनका बचाव करने की भरसक कोशिश कर रहे होते हैं ताकि ये साबित करें कि वे सही हैं, और इसके साथ ही वे एक बेतुका निष्कर्ष भी निकालते हैं, और विपरीत और विकृत दृष्टिकोणों, और तोड़-मरोड़कर पेश किए गए तर्कों और पाखंडों को सामने रखते हैं। कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर इसका प्रभाव उन्हें गुमराह और बाधित करने वाला होता है; इससे लोग नकारात्मक अवस्था और उलझन के शिकार भी हो सकते हैं। ये सभी नकारात्मकता प्रकट करने वाले लोगों द्वारा पैदा किए गए प्रतिकूल प्रभाव और गड़बड़ियाँ हैं। इसलिए जो लोग नकारात्मकता फैलाते हैं उन्हें और उनकी बातों और व्यवहार को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए—उन्हें इसकी खुली छूट या अनुमति नहीं देनी चाहिए। कलीसिया के पास इन लोगों से निपटने के लिए उपयुक्त तरीके और सिद्धांत होने चाहिए। पहली बात, भाई-बहनों को इन लोगों और उनकी नकारात्मक टिप्पणियों को पहचानना चाहिए। दूसरी बात, जब परमेश्वर के चुने हुए लोग इन्हें पहचान लें तो कलीसिया को सत्य सिद्धांतों के अनुसार इन लोगों को तुरंत बहिष्कृत या निष्काषित कर देना चाहिए ताकि और ज्यादा लोगों को प्रभावित और बाधित होने से रोका जा सके। इसके साथ ही नकारात्मकता फैलाने के विभिन्न पहलुओं पर हमारी संगति पूरी होती है।

ग. नकारात्मकता का समाधान करने के सिद्धांत और मार्ग

लोगों में शैतानी प्रकृति होती है; वे शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हैं, जिससे नकारात्मक स्थितियों से बचना मुश्किल होता है। खासकर जब कोई व्यक्ति सत्य को नहीं समझता है, तो नकारात्मकता का होना आम बात है। हर किसी के जीवन में नकारात्मकता के पल आते हैं; कुछ अक्सर आते हैं, कुछ कम आते हैं, कुछ लंबे समय के लिए आते हैं, और कुछ थोड़ी देर के लिए आते हैं। लोगों के आध्यात्मिक कदों में फर्क होता है, और उनकी नकारात्मकता की स्थितियों में भी फर्क होता हैं। बड़े आध्यात्मिक कद वाले लोग सिर्फ परीक्षणों का सामना करने पर ही कुछ हद तक नकारात्मक हो जाते हैं, जबकि जब दूसरे लोग कुछ धारणाएँ फैलाते हैं या बेतुकी बातें करते हैं, तो छोटे आध्यात्मिक कद वाले लोग, जो अब भी सत्य को नहीं समझते हैं, इसे पहचान नहीं पाते हैं; वे परेशान, प्रभावित और नकारात्मक हो सकते हैं। उत्पन्न होने वाली कोई भी समस्या उन्हें नकारात्मक बना सकती है, यहाँ तक कि वे मामूली बातें भी जो जिक्र करने लायक नहीं हैं। अक्सर होने वाली नकारात्मकता के इस मुद्दे को कैसे सुलझाना चाहिए? अगर किसी को यह नहीं पता है कि सत्य की तलाश कैसे करनी है, वो यह नहीं जानता है कि परमेश्वर के वचनों को कैसे खाना-पीना है या परमेश्वर से प्रार्थना कैसे करनी है, तो यह बहुत ही मुश्किल हो जाता है; वह सिर्फ भाई-बहनों के साथ और उनकी मदद पर भरोसा कर सकता है। अगर कोई मदद नहीं कर पाता है, या अगर वह मदद स्वीकार नहीं करता है, तो वह इतना नकारात्मक हो सकता है कि वह इससे उबर ही नहीं पाता है और यहाँ तक कि वह विश्वास रखना भी बंद कर सकता है। देखो, किसी का हमेशा धारणाएँ रखना और आसानी से नकारात्मक हो जाना बहुत खतरनाक है। ऐसे लोगों के साथ चाहे किसी भी तरीके से सत्य की संगति क्यों ना की जाए, वे इसे स्वीकार नहीं करते हैं, हमेशा इस बात पर अड़े रहते हैं कि उनकी अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ सही हैं; वे बेहद तकलीफदेह लोग होते हैं। तुम चाहे कितने भी नकारात्मक क्यों ना हो, तुम्हें अपने दिल में यह समझना चाहिए कि धारणाएँ होने का यह अर्थ नहीं है कि वे सत्य के अनुरूप हैं; इसका यह अर्थ है कि तुम्हारी समझ में कोई समस्या है। अगर तुम्हारे पास कुछ विवेक है, तो तुम्हें इन धारणाओं को नहीं फैलाना चाहिए; लोगों को कम से कम इसे तो बनाए रखना ही चाहिए। अगर तुम्हारे पास थोड़ा सा भी परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है और तुम यह स्वीकार सकते हो कि तुम परमेश्वर के अनुयायी हो, तो तुम्हें अपनी धारणाओं को सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए, सत्य के प्रति समर्पण करना चाहिए, और विघ्न-बाधाएँ और गड़बड़ियाँ उत्पन्न करने से बचना चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते हो और धारणाएँ फैलाने पर अड़े रहते हो, तो इसका अर्थ यह है कि तुम अपना विवेक खो चुके हो; तुम मानसिक रूप से असामान्य हो, राक्षसों के कब्जे में हो, और तुम्हारा खुद पर नियंत्रण नहीं है। राक्षसों के प्रभाव में, चाहे कुछ भी हो जाए तुम बोल-बोलकर इन धारणाओं को फैलाते हो—इसमें कुछ नहीं किया जा सकता है, यह बुरी आत्माओं का कार्य है। अगर तुम्हारे पास कुछ जमीर और सूझ-बूझ है, तो तुम्हें यह कर पाने में सक्षम होना चाहिए : धारणाएँ मत फैलाओ, और भाई-बहनों को परेशान मत करो। भले ही तुम नकारात्मक हो जाओ, तुम्हें भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाने वाली चीजें नहीं करनी चाहिए; तुम्हें बस अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहिए, तुम्हें वही करना चाहिए जो तुम सही तरीके से कर सकते हो, और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि तुम आत्म-निंदा से परे हो—यह खुद के आचरण का न्यूनतम मानक है। भले ही तुम कभी-कभी नकारात्मक हो जाते हो, लेकिन तुमने सीमाओं को लाँघने के लिए कुछ भी नहीं किया है, तो परमेश्वर तुम्हारी नकारात्मकता पर ज्यादा ध्यान नहीं देगा। जब तक तुम्हारे पास जमीर और सूझ-बूझ है, तुम परमेश्वर से प्रार्थना करने और उस पर भरोसा करने में समर्थ हो, और सत्य की तलाश करते हो, तब तक अंत में तुम सत्य को समझ जाओगे और खुद को बदल डालोगे। अगर तुम महत्वपूर्ण घटनाओं का सामना करते हो, जैसे कि अगुआ के रूप में वास्तविक कार्य नहीं करने के कारण बर्खास्त किया जाना और हटाया जाना, और तुम्हें लगता है कि उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है, और तुम नकारात्मक हो जाते हो—इस हद तक नकारात्मक हो जाते हो कि तुम उबर नहीं पाते हो, तुम्हें लगता है जैसे तुम्हारी निंदा की गई है और तुम्हें धिक्कारा गया है, और तुम्हारे मन में परमेश्वर के खिलाफ गलतफहमियाँ और शिकायतें जन्म ले लेती हैं—तो तुम्हें क्या करना चाहिए? इससे निपटना बहुत ही आसान है : संगति करने और तलाश करने के लिए कुछ ऐसे लोगों को ढूँढो जो सत्य को समझते हैं, और इन लोगों को अपने दिल की सारी बातें बता दो। इससे भी जरूरी यह है कि तुम परमेश्वर के सामने आओ ताकि एक-एक करके अपनी नकारात्मकता और कमजोरी के बारे में, और कुछ ऐसी चीजों के बारे में सच्चाई से प्रार्थना कर सको जिन्हें तुम नहीं समझते हो और जिन पर तुम काबू नहीं पा सकते हो—परमेश्वर के साथ संगति करो, कुछ भी मत छिपाओ। अगर ऐसी कुछ अकथनीय चीजें हैं जिन्हें तुम दूसरों के सामने व्यक्त नहीं कर सकते हो, तो यह और भी अनिवार्य हो जाता है कि तुम प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आओ। कुछ लोग पूछते हैं, "क्या परमेश्वर से इसके बारे में बात करने से निंदा नहीं होती है?" क्या तुम पहले से ही ऐसी बहुत सी चीजें नहीं कर चुके हो जो परमेश्वर का प्रतिरोध करती हैं और उसकी निंदा अर्जित करती हैं? तो इस एक और चीज के जुड़ने से क्यों फिक्र करते हो? क्या तुम्हें लगता है कि अगर तुम इसके बारे में नहीं बोलोगे, तो परमेश्वर को पता नहीं चलेगा? परमेश्वर वह हर चीज जानता है जो तुम सोचते हो। तुम्हें परमेश्वर के साथ खुलकर संगति करनी चाहिए, अपने दिल की सारी बातें कह देनी चाहिए, अपनी समस्याओं और स्थितियों को सच्चाई से उसके सामने प्रस्तुत कर देना चाहिए। तुम्हारी कमजोरी, विद्रोहीपन और यहाँ तक कि तुम्हारी शिकायतें भी परमेश्वर से कही जा सकती हैं; अगर तुम अपनी भड़ास ही निकालना चाहते हो, तो भी कोई बात नहीं—परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करेगा। परमेश्वर इसकी निंदा क्यों नहीं करता है? परमेश्वर को मनुष्य का आध्यात्मिक कद मालूम है; भले ही तुम उससे बात ना करो, तो भी उसे तुम्हारा आध्यात्मिक कद पता है। परमेश्वर से बात करके, एक लिहाज से, यह तुम्हारे लिए खुद को बेनकाब करने और परमेश्वर के सामने खुलने का अवसर है। दूसरे लिहाज से, यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण के रवैये को भी दिखाता है; कम-से-कम, तुम परमेश्वर को यह देखने दे रहे हो कि तुम्हारे दिल का दरवाजा उसके लिए बंद नहीं है, तुम बस कमजोर पड़ गए हो, तुम्हारे पास इस मामले पर काबू पाने के लिए पर्याप्त आध्यात्मिक कद नहीं है, बस इतनी सी बात है। तुम्हारा इरादा अवहेलना करने का नहीं है; तुम्हारा रवैया समर्पण करने का है, बस यही है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है, और तुम इस मामले को सहन नहीं कर सकते हो। जब तुम परमेश्वर के सामने अपना दिल खोलकर रख देते हो और उसके साथ अपनी अंतरतम सोच को साझा कर पाते हो, तो भले ही तुम जो कहते हो उसमें हो सकता है कि कमजोरी और शिकायतें हों—और, खास तौर पर, कई नकारात्मक और प्रतिकूल चीजें हों—इसमें एक चीज तो सही है : तुम यह स्वीकारते हो कि तुममें भ्रष्ट स्वभाव है, तुम यह स्वीकारते हो कि तुम एक सृजित प्राणी हो, तुम परमेश्वर की सृष्टिकर्ता के रूप में पहचान को नकारते नहीं हो, और ना ही तुम इस बात को नकारते हो कि तुम्हारे और परमेश्वर के बीच जो रिश्ता है वह एक सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता का है। तुम परमेश्वर को वे चीजें सौंपते हो जिन पर काबू पाना तुम्हें सबसे मुश्किल लगता है, जो चीजें तुम्हें सबसे कमजोर बनाती हैं, और तुम परमेश्वर को अपनी निहायत आंतरिक भावनाएँ बताते हो—यह तुम्हारा रवैया दर्शाता है। कुछ लोग कहते हैं, "मैंने एक बार परमेश्वर से प्रार्थना की, और इससे मेरी नकारात्मकता नहीं सुलझी। मैं अब भी इस पर काबू नहीं पा सका हूँ।" इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; तुम्हें बस पूरी गंभीरता से सत्य की तलाश करने की जरूरत है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम कितना समझते हो, परमेश्वर धीरे-धीरे तुम्हें मजबूत कर ही देगा, और फिर तुम उतने कमजोर नहीं रहोगे जितने कि तुम शुरुआत में थे। चाहे तुम्हारे भीतर कितनी भी कमजोरी और नकारात्मकता क्यों ना हो, या तुम्हारे भीतर कितनी भी शिकायतें और प्रतिकूल भावनाएँ क्यों ना हों, परमेश्वर से बात करो; परमेश्वर को किसी बाहरी व्यक्ति जैसा मत समझो। तुम चाहे किसी से भी चीजें छिपा लो, लेकिन परमेश्वर से कुछ मत छिपाओ, क्योंकि परमेश्वर ही तुम्हारा इकलौता आसरा है और तुम्हारा इकलौता उद्धार भी। परमेश्वर के सामने आकर ही इन समस्याओं को सुलझाया जा सकता है; लोगों पर भरोसा करना बेकार है। इस तरह, नकारात्मकता और कमजोरी का सामना करते हुए जो लोग परमेश्वर के सामने आते हैं और उस पर भरोसा करते हैं, वे सबसे होशियार होते हैं। सिर्फ बेवकूफ और जिद्दी लोग ही, जब महत्वपूर्ण और संकटमय घटनाओं का सामना करते हैं और उन्हें परमेश्वर के सामने अपने दिल की बात कहने की जरूरत होती है, तो वे परमेश्वर से और भी ज्यादा दूर चले जाते हैं और उससे कतराते हैं, और अपने मन में साजिशें रचते हैं। और इन सारी साजिशों का क्या नतीजा होता है? उनकी नकारात्मकता और शिकायतें अवहेलना में बदल जाती हैं, और फिर अवहेलना परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसके खिलाफ हंगामा करने में बदल जाता है; ये लोग परमेश्वर के साथ पूरी तरह से असंगत हो जाते हैं, और परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता पूरी तरह से टूट जाता है। लेकिन, जब तुम ऐसी नकारात्मकता और कमजोरी का सामना करते हो, तब भी अगर तुम सत्य की तलाश करने के लिए परमेश्वर के सामने आने का फैसला ले पाते हो, और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने का रास्ता चुनते हो, और तुम सही मायने में विनम्र रवैया अपनाते हो, तो यह देखकर कि तुम नकारात्मक और कमजोर होने के बावजूद ईमानदारी से परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहते हो, परमेश्वर को पता होगा कि तुम्हारा मार्गदर्शन कैसे करना है, तुम्हें तुम्हारी नकारात्मकता और कमजोरी से कैसे बाहर निकालना है। ये अनुभव प्राप्त करने के बाद, तुम्हारे भीतर परमेश्वर में सच्ची आस्था उत्पन्न होगी। तुम यह महसूस करोगे कि तुम चाहे कितनी भी मुश्किलों का सामना क्यों ना करो, जब तक तुम परमेश्वर की तलाश करोगे और उसकी प्रतीक्षा करोगे, वह तुम्हारे पता चले बिना तुम्हारे लिए एक रास्ते की व्यवस्था कर देगा, जिससे तुम इसका एहसास हुए बिना ही यह देख पाओगे कि परिस्थितियाँ बदल गई हैं, जिससे तुम और कमजोर नहीं रहोगे बल्कि मजबूत बन जाओगे, और परमेश्वर में तुम्हारी आस्था बढ़ जाएगी। जब तुम इन घटनाओं पर विचार करोगे, तो तुम्हें महसूस होगा कि उस समय तुम्हारी कमजोरी कितनी बचकानी थी। दरअसल, लोग बस इतने ही बचकाने होते हैं, और परमेश्वर के सहारे के बिना, वे कभी भी अपने बचपने और अज्ञानता को छोड़कर परिपक्व नहीं बनेंगे। इन चीजों का अनुभव करने की प्रक्रिया में धीरे-धीरे परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकार करके और उसके प्रति समर्पण करके, सकारात्मक और सक्रिय रूप से इन तथ्यों का सामना करके, सिद्धांतों की तलाश करके, परमेश्वर के इरादों की तलाश करके, परमेश्वर से और नहीं कतराके और खुद को उससे दूर नहीं करके, और ना ही परमेश्वर के खिलाफ विद्रोही बनकर, बल्कि ज्यादा से ज्यादा आज्ञाकारी बनकर, कम से कम विद्रोही बनकर, परमेश्वर के लगातार पास आकर, और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में ज्यादा समर्थ होकर—सिर्फ इसी तरह से अनुभव करके ही व्यक्ति का जीवन धीरे-धीरे विकसित और परिपक्व होता है, और एक वयस्क के आध्यात्मिक कद में पूरी तरह से विकसित हो जाता है।

नकारात्मक स्थितियों का इलाज कैसे करना चाहिए और उन्हें कैसे सुलझाना चाहिए? नकारात्मकता से डरना नहीं चाहिए; यहाँ सबसे जरूरी चीज सूझ-बूझ का होना है। क्या लगातार नकारात्मक बने रहने पर किसी व्यक्ति के लिए बेवकूफी से कार्य करना आसान नहीं है? जब कोई नकारात्मक होता है, तो वह या तो सिर्फ शिकायत करता है या खुद से हार मान लेता है, और बिना किसी सूझ-बूझ के बोलता और कार्य करता है—क्या इससे उसका कर्तव्य निर्वहन प्रभावित नहीं होता है? अगर कोई निराशा के आगे घुटने टेक सकता है और नकारात्मकता से सुस्त पड़ सकता है, तो क्या यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं है? गंभीर नकारात्मकता कोई मानसिक बीमारी के होने जैसा है, यह कुछ हद तक राक्षसों के कब्जे में होने के समान है; यह सूझ-बूझ का अभाव है। समाधानों के लिए सत्य की तलाश नहीं करना सचमुच खतरनाक है। जब लोग नकारात्मक होते हैं, और अगर उनमें परमेश्वर का भय मानने वाले दिल का पूरा अभाव हो, तो वे आसानी से सूझ-बूझ खो देंगे; वे इधर-उधर अपनी नकारात्मकता, असंतोष और धारणाओं को फैलाएँगे। यह जानबूझकर परमेश्वर का विरोध करना है, और यह बड़ी आसानी से कलीसिया के कार्य को अस्त-व्यस्त कर सकता है, यह एक ऐसा परिणाम है जिसके बारे में सोचना बहुत ही भयानक है, और परमेश्वर द्वारा उन्हें ठुकराए जाने की काफी संभावना रहती है। लेकिन, अगर कोई व्यक्ति अपनी नकारात्मकता में सत्य की तलाश कर पाता है, परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखता है, नकारात्मक रूप से नहीं बोलता है, ना ही अपनी नकारात्मकता और धारणाओं को फैलाता है, और परमेश्वर में अपनी आस्था और उसके प्रति समर्पण करने वाला रवैया बनाए रखता है, तो ऐसा व्यक्ति आसानी से नकारात्मकता से बाहर निकल सकता है। हर कोई नकारात्मकता के पलों से गुजरता है; वे सिर्फ तीव्रता, अवधि और कारणों के लिहाज से अलग-अलग होते हैं। कुछ लोग आम तौर पर नकारात्मक नहीं होते हैं, लेकिन जब वे किसी चीज में असफल हो जाते हैं या लड़खड़ा जाते हैं, तो वे नकारात्मक हो जाते हैं; अन्य लोग मामूली बातों पर नकारात्मक हो सकते हैं, भले ही वह किसी की कही कोई ऐसी बात हो जो उनके गौरव को ठेस पहुँचाती है। और कुछ लोग थोड़ी सी प्रतिकूल परिस्थितियों में नकारात्मक हो जाते हैं। क्या ऐसे लोग समझते हैं कि जीवन कैसे जीना चाहिए? क्या उनमें अंतर्दृष्टि है? क्या उनमें एक सामान्य व्यक्ति की व्यापक सोच और उदारता है? नहीं। परिस्थितियाँ चाहे जो भी हों, जब तक अपने व्यक्ति भ्रष्ट स्वभावों के दायरे में रहता है, तब तक वह बार-बार कुछ नकारात्मक स्थितियों में पड़ता रहेगा। बेशक, अगर व्यक्ति सत्य को समझता है और चीजों की असलियत पहचान पाता है, तो उसकी नकारात्मक स्थितियाँ ज्यादा से ज्यादा कम होती जाएँगी और उसका आध्यात्मिक कद बढ़ने के साथ-साथ उनकी नकारात्मकता धीरे-धीरे गायब होती जाएँगी, और अंत में पूरी तरह से खत्म हो जाएँगी। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, जो सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं, उनमें नकारात्मक भावनाएँ, नकारात्मक स्थितियाँ, और नकारात्मक विचार और रवैयों की संख्या लगातार बढ़ती जाएगी, जो जितने ज्यादा इकट्ठा होंगे, उतने ही गंभीर होते जाएँगे, और एक बार जब ये चीजें उन पर हावी हो जाएँगी, तो वे इनसे उबर नहीं पाएँगे, जो बहुत ही खतरनाक है। इसलिए, नकारात्मकता को फौरन सुलझाना बहुत जरूरी है। नकारात्मकता को सुलझाने के लिए, व्यक्ति को सक्रिय रूप से सत्य की तलाश करनी चाहिए; परमेश्वर की मौजूदगी में शांत मनोदशा बनाए रखते हुए परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और उन पर चिंतन-मनन करने से प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त होगी, जिससे व्यक्ति सत्य को समझ पाएगा और नकारात्मकता के सार को पहचान पाएगा, और इस तरह नकारात्मकता की समस्या सुलझ जाएगी। अगर तुम अब भी अपनी धारणाओं और सूझ-बूझ से चिपके रहते हो, तो तुम बेहद बेवकूफ हो, और तुम अपनी बेवकूफी और अज्ञानता से मर जाओगे। इसके बावजूद, नकारात्मकता को सुलझाना अग्रसक्रिय होना चाहिए, निष्क्रिय नहीं। कुछ लोग सोचते हैं कि जब नकारात्मकता उत्पन्न होती है, तो उन्हें बस इसे अनदेखा कर देना चाहिए; जब वे फिर से खुशी महसूस करेंगे, तो उनकी नकारात्मकता स्वाभाविक रूप से खुशी में बदल जाएगी। यह एक कल्पना है; सत्य की तलाश किए या उसे स्वीकार किए बिना, नकारात्मकता अपने आप दूर नहीं होगी। भले ही तुम इसे भूल जाओ और अपने दिल में कुछ भी महसूस नहीं करो, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारी नकारात्मकता का मूल कारण सुलझ गया है। सही परिस्थितियाँ उत्पन्न होते ही यह फिर से भड़क उठेगा, जो कि एक सामान्य घटना है। अगर व्यक्ति होशियार है और उसके पास सूझ-बूझ है, तो उसे नकारात्मकता उत्पन्न होने पर फौरन सत्य की तलाश करनी चाहिए और इसे सुलझाने के लिए सत्य को स्वीकार करने के तरीके का उपयोग करना चाहिए, और इस तरह नकारात्मकता के मुद्दे को उसकी जड़ों से सुलझाना चाहिए। जो सभी लोग बार-बार नकारात्मक होते हैं, वे ऐसा इसलिए होते हैं क्योंकि वे सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। अगर तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते हो, तो नकारात्मकता एक शैतान की तरह तुमसे चिपकी रहेगी, और तुम हमेशा-हमेशा नकारात्मक बने रहोगे, जिससे तुम्हारे भीतर परमेश्वर के प्रति अवज्ञा, असंतोष और शिकायत की भावनाएँ जन्म लेंगी, जब तक कि तुम खुद को परमेश्वर का प्रतिरोध करते, उसके खिलाफ लड़ते, और उसके खिलाफ हंगामा करते नहीं पाओगे—यही वह समय है जब तुम अंत तक पहुँच गए होगे, और तुम्हारा बदसूरत चेहरा उजागर हो जाएगा। लोग तुम्हें उजागर करना, तुम्हारा गहन-विश्लेषण करना, और तुम्हारा चरित्र चित्रण करना शुरू कर देंगे, और गंभीर वास्तविकता का सामना करने पर, तुम्हारे आँसू बहने लगेंगे; यही वह समय है जब तुम हिम्मत हार जाओगे और गहरी निराशा के कारण अपनी छाती पीटना शुरू कर दोगे—अब तुम बस परमेश्वर की सजा स्वीकारने की प्रतीक्षा करो! नकारात्मकता लोगों को ना सिर्फ कमजोर बनाती है, बल्कि यह उन्हें परमेश्वर के बारे में शिकायत करने, परमेश्वर की आलोचना करने, परमेश्वर को नकारने और यहाँ तक कि सीधे परमेश्वर से लड़ने और उसके खिलाफ हंगामा करने के लिए भी उकसाती है। इसलिए, अगर किसी व्यक्ति की नकारात्मकता को सुलझाने में देरी होती है, तो एक बार जब वे तिरस्कारपूर्ण वाले शब्द बोलते हैं और परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर देते हैं, तो परिणाम बहुत ही गंभीर होते हैं। अगर तुम किसी एक अकेली घटना, एक अकेले वाक्यांश, या एक अकेले विचार या दृष्टिकोण के कारण नकारात्मकता में पड़ जाते हो और शिकायतें रखते हो, तो यह दर्शाता है कि इस मामले के बारे में तुम्हारी समझ विकृत है, और तुम्हारे पास इसके बारे में धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं; इस मामले पर तुम्हारे दृष्टिकोण निश्चित रूप से सत्य के अनुरूप नहीं हैं। इस मौके पर, तुम्हें सत्य की तलाश करने और इसका सही ढंग से सामना करने की जरूरत है, और तुम्हें जल्द से जल्द इन गलत धारणाओं और विचारों को तेजी से ठीक करने का प्रयास करना चाहिए, खुद को इन धारणाओं से इतना बँधा हुआ और गुमराह नहीं होने देना चाहिए कि तुम परमेश्वर के प्रति अवज्ञा, असंतोष और शिकायत की स्थिति में आ जाओ। नकारात्मकता को फौरन सुलझाना बेहद जरूरी है, और इसे पूरी तरह से सुलझाना भी बेहद जरूरी है। बेशक, नकारात्मकता को सुलझाने का सबसे अच्छा तरीका है सत्य की तलाश करना, परमेश्वर के वचनों को ज्यादा पढ़ना और परमेश्वर की प्रबुद्धता प्राप्त करने के लिए उसके सामने आना। कभी-कभी, हो सकता है कि तुम अस्थायी रूप से अपने विचारों और दृष्टिकोणों को उलटने में असमर्थ हो जाओ, लेकिन कम-से-कम, तुम्हें यह तो पता होना ही चाहिए कि तुम गलत हो और कि तुम्हारे ये विचार विकृत हैं। इस तरह, कम से कम यह नतीजा निकलेगा कि ये गलत विचार और दृष्टिकोण कर्तव्य करने में तुम्हारी निष्ठा को प्रभावित नहीं करेंगे, परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते को प्रभावित नहीं करेंगे, और अपना दिल खोलकर रखने और प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने तुम्हारे आने को प्रभावित नहीं करेंगे—कम-से-कम, यह वह नतीजा है जिसे प्राप्त करना ही चाहिए। जब तुम नकारात्मकता में पूरी तरह से डूबे रहते हो और अवज्ञाकारी और असंतुष्ट महसूस करते हो, और तुम परमेश्वर के प्रति शिकायतें रखते हो, लेकिन इन्हें सुलझाने के लिए सत्य की तलाश नहीं करना चाहते हो, यह सोचते हो कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता सामान्य है, जबकि दरअसल तुम्हारा दिल परमेश्वर से दूर है और तुम अब उसके वचनों को पढ़ना या उससे प्रार्थना करना नहीं चाहते हो, तो क्या यह समस्या गंभीर नहीं हो गई है? तुम कहते हो, "मैं चाहे कितना भी नकारात्मक क्यों ना रहूँ, मेरे कर्तव्य निर्वहन में कोई बाधा नहीं आई है और मैंने अपनी जिम्मेदारियों को नहीं छोड़ा है। मैं निष्ठावान हूँ!" क्या ये शब्द जायज हैं? अगर तुम बार-बार नकारात्मक होते हो, तो यह भ्रष्ट स्वभाव होने का मामला नहीं है; यहाँ और भी गंभीर मुद्दे हैं : तुम्हारे पास परमेश्वर के बारे में धारणाएँ हैं, तुम उसे गलत समझते हो, और तुमने अपने और परमेश्वर के बीच दीवारें खड़ी कर दी हैं। अगर तुम इसे सुलझाने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते हो, तो यह बहुत खतरनाक है। अगर कोई व्यक्ति अक्सर नकारात्मक होता है, तो वह यह कैसे सुनिश्चित कर सकता है कि वह अंत तक अपने कर्तव्य को निष्ठा से और बिना किसी अनमनेपन के पूरा करेगा? अगर नकारात्मकता को नहीं सुलझाया जाता है, तो क्या वह अपने आप दूर या गायब हो सकती है? अगर कोई समय रहते समाधान के लिए सत्य की तलाश नहीं करता है, तो नकारात्मकता लगातार बढ़ती ही रहेगी और सिर्फ बदतर होती जाएगी। इसके कारण होने वाले परिणाम सिर्फ और ज्यादा नुकसानदायक होते जाएँगे। वे बिल्कुल भी सकारात्मक दिशा में नहीं बढ़ेंगे, वे सिर्फ प्रतिकूल दिशा में ही बढ़ेंगे। इसलिए, जब नकारात्मकता उत्पन्न होती है, तो तुम्हें इसे सुलझाने के लिए जल्दी से सत्य की तलाश करनी चाहिए; सिर्फ इसी से यह सुनिश्चित होता है कि तुम अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से कर पाते हो। नकारात्मकता को सुलझाना बेहद जरूरी है, और इसमें देरी नहीं की जा सकती है!

26 जून 2021

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