अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (16)
मद बारह : उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को सकारात्मक दिशा दो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें (भाग चार)
विभिन्न लोग, घटनाएँ और चीजें जो कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करती हैं
VIII. धारणाएँ फैलाना
क. धारणाएँ फैलाने की अभिव्यक्तियाँ
आज हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की बारहवीं जिम्मेदारी के बारे में संगति जारी रखेंगे : “उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को सकारात्मक दिशा दो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें।” कलीसियाई जीवन में उत्पन्न होने वाली विघ्न-बाधाओं की विभिन्न समस्याओं के संबंध में हमने ग्यारह मुद्दे सूचीबद्ध किए थे। पिछली बार हमने सातवें मुद्दे के बारे में संगति की थी : आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होना। आज हम आठवें मुद्दे के बारे में संगति करेंगे : धारणाएँ फैलाना। धारणाएँ फैलाना कलीसियाई जीवन में भी अक्सर होता है। कुछ लोग, जो सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते, परमेश्वर में अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर विश्वास करते हैं और कलीसियाई जीवन में विघ्न डालने के लिए अक्सर कुछ धारणाएँ फैलाते हैं। कलीसिया को इस व्यवहार को प्रतिबंधित करना चाहिए और कलीसियाई जीवन में सत्य की संगति के माध्यम से इसका समाधान करना चाहिए। शाब्दिक परिप्रेक्ष्य से कोई भी देख सकता है कि धारणाएँ फैलाना उचित व्यवहार नहीं है, यह कोई सकारात्मक चीज नहीं है बल्कि एक नकारात्मक चीज है। इसलिए कलीसियाई जीवन में इसे रोका और प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। चाहे किसी भी किस्म के लोग धारणाएँ फैलाते हों, चाहे उनके जो भी इरादे होते हों, चाहे वे जानबूझकर धारणाएँ फैलाते हों या अनजाने में, अगर वे धारणाएँ फैलाते हैं तो यह कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधा डालेगा, जिसका हानिकारक प्रभाव होगा। इसलिए इस मामले को सौ प्रतिशत प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। धारणाएँ फैलाना किसी भी परिप्रेक्ष्य से लोगों के सत्य के अनुसरण में, परमेश्वर को जानने के अनुसरण में या उनके सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में कोई सकारात्मक, स्वीकारात्मक भूमिका संभवतः नहीं निभा सकता; इसका सिर्फ इन चीजों में विघ्न डालने और इन्हें नुकसान पहुँचाने का ही प्रभाव हो सकता है। इसलिए जब कोई कलीसियाई जीवन में धारणाएँ फैलाता है तो सभी को—कलीसिया के अगुआओं और भाई-बहनों को समान रूप से—इस मामले को समझना चाहिए और उस व्यक्ति को दूसरों को गुमराह और बाधित करने के लिए आँख मूँदकर धारणाएँ फैलाने की खुली छूट देने के बजाय उसे तुरंत रोकने और प्रतिबंधित करने के लिए कदम उठाना चाहिए। आओ, पहले इस बारे में संगति करते हैं कि किस तरह के शब्द धारणाएँ फैलाना हैं। इस समझ के साथ लोग सटीक रूप से परिभाषित कर सकते हैं कि धारणाएँ फैलाना क्या होता है और उसे अनदेखा करने और उदासीनता से लेने के बजाय सटीक रूप से रोक भी सकते हैं और प्रतिबंधित भी कर सकते हैं।
1. परमेश्वर के बारे में धारणाएँ फैलाना
जो धारणाएँ फैलाई जाती हैं, वे लक्षित होती हैं। पहले हमें यह देखने की जरूरत है कि वे किस पर लक्षित हैं और कौन-सी धारणाएँ फैलाई जा रही हैं। इन्हें समझने से तुम्हें यह जानने में मदद मिलेगी कि लोगों द्वारा कहे गए कौन-से कथन और उनके द्वारा फैलाए गए कौन-से दृष्टिकोण धारणाएँ हैं। यह जानना कि कौन-से शब्द लोगों की धारणाएँ हैं और कौन-से कार्य धारणाएँ फैलाना हैं, लोगों को धारणाएँ फैलाने को अधिक सटीक रूप से और अधिक प्रासंगिकता के साथ प्रतिबंधित करने में सक्षम बनाएगा। सबसे पहले, धारणाएँ सबसे गंभीरता से फैलाने में लोगों के परमेश्वर संबंधी विचार और गलतफहमियाँ शामिल हैं। यह एक प्रमुख श्रेणी है। परमेश्वर की पहचान, परमेश्वर के सार, परमेश्वर के स्वभाव, परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के अस्तित्व के बारे में गैर-तथ्यात्मक दृष्टिकोण और कथन फैलाना, ये सब धारणाएँ फैलाना है। यह एक सामान्य कथन है; विशेष रूप से किस तरह के कथन धारणाएँ फैलाना हैं? परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ फैलाना, परमेश्वर की आलोचना और निंदा करना, यहाँ तक कि परमेश्वर की ईशनिंदा करना, सब धारणाएँ फैलाना है। सरल शब्दों में कहें तो, परमेश्वर के बारे में ऐसी समझ फैलाना जो वास्तविकता के अनुरूप न हो और ऐसे कथन और गलत व्याख्याएँ फैलाना जो परमेश्वर की पहचान और सार के अनुरूप न हों, यह सब धारणाएँ फैलाना है। उदाहरण के लिए, कलीसियाई जीवन में कुछ लोग अक्सर परमेश्वर की पहचान और परमेश्वर के सार के बारे में बात करते हैं। उन्हें परमेश्वर की पहचान और उसके सार की सच्ची समझ नहीं होती। वे अक्सर अपने दिलों में परमेश्वर पर संदेह करते हैं और उसे गलत समझते हैं, वे अन्य चीजों के अलावा, परमेश्वर द्वारा उनके लिए व्यवस्थित जीवन परिवेश और कर्तव्य निभाने के परिवेश के प्रति समर्पण करने में असमर्थ रहते हैं। तब वे परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियाँ और परमेश्वर को नहीं समझने के बारे में अपने विचार फैलाते हैं। संक्षेप में, ये विचार एक सृजित मानव के परिप्रेक्ष्य से परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाएँ स्वीकारने और उनके प्रति समर्पण करने के बारे में नहीं होते, बल्कि इसके बजाय व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों, गलतफहमियों, यहाँ तक कि आलोचनाओं और निंदाओं से भरे होते हैं। इन्हें सुनने के बाद अन्य लोग परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ और उसके प्रति सतर्कता विकसित कर लेते हैं, जिससे वे परमेश्वर में अपना सच्ची आस्था खो देते हैं, वास्तविक समर्पण की तो बात ही छोड़ दो।
कुछ लोग सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने से शांति और आनंद की प्राप्ति होनी चाहिए, और अगर वे मुश्किल परिस्थितियों का सामना करते हैं, तो उन्हें सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना करने की जरूरत है और परमेश्वर उन पर ध्यान देगा, उन्हें अनुग्रह और आशीषें देगा, और यह सुनिश्चित करेगा कि उनके लिए सब कुछ शांतिपूर्वक और सुचारू रूप से चले। परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका उद्देश्य अनुग्रह माँगना, आशीषें प्राप्त करना, और शांति और खुशी का आनंद लेना है। इन दृष्टिकोणों के कारण ही वे परमेश्वर की खातिर खुद को खपाने के लिए अपने परिवारों का त्याग कर देते हैं या अपनी नौकरी छोड़ देते हैं और कष्ट सहन कर सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं। उनका मानना है कि जब तक वे चीजों का त्याग करेंगे, परमेश्वर के लिए खुद को खपाएँगे, कष्ट सहन करेंगे और लगन से कार्य करेंगे, असाधारण व्यवहार प्रदर्शित करेंगे, तब तक वे परमेश्वर के आशीष और अनुग्रह प्राप्त करेंगे, और कि चाहे वे कैसी भी मुश्किलों का सामना क्यों ना करें, जब तक वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे, वह उन्हें सुलझाएगा और हर चीज में उनके लिए एक मार्ग खोल देगा। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले अधिकाँश लोगों का यही नजरिया होता है। लोगों को लगता है कि यह नजरिया जायज और सही है। कई लोगों की वर्षों तक बिना अपनी आस्था छोड़े परमेश्वर में अपनी आस्था बनाए रखने की क्षमता सीधे इस नजरिये से संबंधित है। वे सोचते हैं, “मैंने परमेश्वर के लिए इतना कुछ खपाया है, मेरा व्यवहार इतना अच्छा रहा है, और मैंने कोई कुकर्म नहीं किए हैं; परमेश्वर यकीनन मुझे आशीष देगा। चूँकि मैंने बहुत कष्ट सहे हैं और हर कार्य के लिए एक बड़ी कीमत चुकाई है, बिना कोई गलती किए परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार सबकुछ किया है, इसलिए परमेश्वर को मुझे आशीष देना चाहिए; उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मेरे लिए सब कुछ सुचारू रूप से चले, और यह कि मैं अक्सर अपने दिल में शांति और खुशी का अनुभव करूँ, और परमेश्वर की मौजूदगी का आनंद लूँ।” क्या यह एक मानवीय धारणा और कल्पना नहीं है? मानवीय परिप्रेक्ष्य से देखें, तो लोग परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हैं और फायदे प्राप्त करते हैं, इसलिए इसके लिए थोड़ा कष्ट सहना समझ में आता है, और इस कष्ट के बदले में परमेश्वर की आशीषें प्राप्त करना सार्थक है। यह परमेश्वर के साथ सौदा करने की मानसिकता है। लेकिन, सत्य के परिप्रेक्ष्य से और परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, यह मूल रूप से ना तो परमेश्वर के कार्य के सिद्धांतों के और ना ही उन मानकों के अनुरूप है जिनकी परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है। यह पूरी तरह से ख्याली पुलाव है, परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में सिर्फ एक मानवीय धारणा और कल्पना है। चाहे इसमें परमेश्वर से सौदे करना या उससे चीजों की माँग करना शामिल हो या नहीं हो, या इसमें मानवीय धारणाएँ और कल्पनाएँ शामिल हों या नहीं हों, किसी भी हालत में इनमें से कुछ भी परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है, ना ही यह लोगों को आशीष देने के लिए परमेश्वर के सिद्धांतों और मानकों को पूरा करता है। खास तौर से, यह लेन-देनों वाला विचार और नजरिया परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करता है, लेकिन लोगों को इसका एहसास नहीं होता है। जब परमेश्वर जो करता है वह लोगों की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता है, तो जल्द ही उनके दिलों में उसके बारे में शिकायतें और गलतफहमियाँ उत्पन्न होने लगती हैं। उन्हें यह भी लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है और फिर वे परमेश्वर से तर्क करना शुरू कर देते हैं, और यहाँ तक कि वे उसकी आलोचना और निंदा भी कर सकते हैं। लोग चाहे जो भी धारणाएँ और गलतफहमियाँ बना लें, परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, वह कभी भी मानवीय धारणाओं या इच्छाओं के अनुसार ना तो कार्य करता है और ना ही किसी के साथ व्यवहार करता है। परमेश्वर हमेशा वही करता है जो उसकी इच्छा होती है, वह हमेशा अपने खुद के तरीके से और अपने स्वभाव सार के आधार पर कार्य करता है। परमेश्वर के पास हर व्यक्ति के साथ व्यवहार करने के सिद्धांत हैं; वह हर व्यक्ति के साथ जो भी करता है उसमें से कुछ भी मानवीय धारणाओं, कल्पनाओं या प्राथमिकताओं पर आधारित नहीं होता—परमेश्वर के कार्य का यही पहलू मानवीय धारणाओं से सबसे ज्यादा असंगत है। जब परमेश्वर लोगों के लिए एक ऐसे परिवेश की व्यवस्था करता है जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के पूरी तरह विपरीत होता है, तो वे अपने दिलों में परमेश्वर के खिलाफ धारणाएँ, राय और निंदाएँ बना लेते हैं और यहाँ तक कि उसे अस्वीकार भी कर सकते हैं। फिर क्या परमेश्वर उनकी जरूरतों को पूरा कर सकता है? बिल्कुल नहीं। परमेश्वर कभी भी मानवीय धारणाओं के अनुसार अपने कार्य करने के तरीके और अपनी इच्छाओं को नहीं बदलेगा। तो फिर किसे बदलने की जरूरत है? लोगों को बदलने की जरूरत है। लोगों को अपनी धारणाएँ छोड़ देनी चाहिए, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश स्वीकारने चाहिए, उनके प्रति समर्पण करना चाहिए और उनका अनुभव करना चाहिए, और अपनी धारणाओं को सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए, ना कि परमेश्वर जो करता है उसे अपनी धारणाओं की कसौटी पर मापना चाहिए ताकि देख सकें कि क्या वह सही है। जब लोग अपनी धारणाओं से जकड़े रहते हैं, तो उनमें परमेश्वर के खिलाफ प्रतिरोध उत्पन्न होता है—यह स्वाभाविक रूप से होता है। प्रतिरोध की जड़ें कहाँ होती हैं? यह इस तथ्य में निहित है कि आम तौर पर लोगों के दिलों में जो कुछ होता है, वह निस्संदेह उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं, सत्य नहीं होता है। इसलिए, जब लोग देखते हैं कि परमेश्वर का कार्य मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं है, तो वे परमेश्वर की अवहेलना कर सकते हैं और उसके खिलाफ राय बना सकते हैं। इससे साबित होता है कि मूल रूप से लोगों में परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल नहीं होता है, उनका भ्रष्ट स्वभाव स्वच्छ किए जाने से दूर है, और वे वास्तव में अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीवन जीते हैं। वे अब भी उद्धार प्राप्त करने से बहुत ही ज्यादा दूर हैं।
जब लोग अपने दिलों में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और उसके प्रति प्रतिरोध विकसित करते हैं, तो जमीर रखने वाले कुछ लोग परमेश्वर जो करता है उसे अनिच्छा से स्वीकारेंगे और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश में एकीकृत होने और लोगों पर उसकी संप्रभुता स्वीकारने का अनिच्छा से प्रयास करेंगे। लोग कितनी और किस हद तक धारणाएँ छोड़ सकते हैं, यह अंशतः उनकी काबिलियत पर और अंशतः इस बात पर निर्भर करता है कि वे सत्य स्वीकारते हैं या नहीं और वे ऐसे लोग हैं या नहीं जो सत्य से प्रेम करते हैं। कुछ लोग परमेश्वर के वचन पढ़कर, खोज और संगति करके, और चिंतन करके परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेशों का सक्रिय रूप से सामना करते हैं। वे हर चीज पर परमेश्वर की संप्रभुता के बारे में धीरे-धीरे कुछ समझ प्राप्त करते हैं और इस तरह अपना समर्पण और आस्था बढ़ाते हैं। लेकिन कुछ लोग चाहे जिस भी परिवेश का सामना करें, सत्य नहीं खोजते। इसके बजाय वे परमेश्वर द्वारा आयोजित सभी परिवेशों का मूल्यांकन अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और इस बात के आधार पर करते हैं कि उनसे उन्हें लाभ होता है या नहीं। उनके विचार हमेशा उनके हितों के इर्द-गिर्द घूमते हैं; वे हमेशा इस बात की परवाह करते हैं कि वे कितना बड़ा लाभ प्राप्त कर सकते हैं, भौतिक चीजों, धन और दैहिक आनंद की दृष्टि से उनके हित कितने पूरे हो सकते हैं; और वे हमेशा इन्हीं कारकों के आधार पर निर्णय करते हैं और इन्हीं के आधार पर परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हर चीज को लेते हैं। और अंततः अपना दिमाग खपाने के बाद वे परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश के प्रति समर्पण करने के बजाय उससे बचकर भागने और उससे परहेज करने का चुनाव करते हैं। अपने प्रतिरोध, अस्वीकृति और परहेज के कारण वे परमेश्वर के वचनों से दूर हो जाते हैं, जीवन के अनुभव से वंचित रह जाते हैं और नुकसान उठाते हैं, जिससे उनके दिलों में दर्द और पीड़ा होती है। जितना ज्यादा वे ऐसे परिवेशों का विरोध करते हैं, उतना ही ज्यादा और उतना ही बड़ा दुख वे सहते हैं। जब ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है तो परमेश्वर में उनकी जो थोड़ी-बहुत आस्था होती है, वह भी अंततः चूर-चूर हो जाती है। इस समय उनके दिलों पर हावी होने वाली धारणाएँ एक साथ उमड़ पड़ती हैं : “मैंने इतने लंबे समय तक परमेश्वर के लिए खुद को खपाया है, फिर भी मुझे उम्मीद नहीं थी कि परमेश्वर मेरे साथ ऐसे पेश आएगा। परमेश्वर अन्यायी है, वह लोगों से प्रेम नहीं करता! परमेश्वर ने कहा था कि जो लोग ईमानदारी से उसके लिए खुद को खपाते हैं, वे निश्चित रूप से बहुत आशीष प्राप्त करेंगे। मैंने ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाया है, मैंने अपना परिवार और करियर त्याग दिया है, कठिनाइयाँ सही हैं और कड़ी मेहनत की है—परमेश्वर ने मुझे बहुत आशीष क्यों नहीं दिए? परमेश्वर के आशीष कहाँ हैं? मैं उन्हें महसूस क्यों नहीं कर सकता या देख क्यों नहीं सकता? परमेश्वर लोगों के साथ अन्याय क्यों करता है? परमेश्वर अपने वचन पर कायम क्यों नहीं रहता? लोग कहते हैं कि परमेश्वर वफादार है लेकिन मैं इसे क्यों महसूस नहीं कर सकता? बाकी हर चीज को दरकिनार करते हुए, सिर्फ इस परिवेश में, मुझे कभी नहीं लगा कि परमेश्वर वफादार है!” चूँकि लोग धारणाएँ रखते हैं, इसलिए वे आसानी से उनसे धोखा खा जाते हैं और गुमराह हो जाते हैं। यहाँ तक कि जब परमेश्वर लोगों के स्वभाव में बदलाव और उनके जीवन विकास के लिए परिवेशों की व्यवस्था करता है, तो भी उन्हें उसे स्वीकारना मुश्किल लगता है और वे परमेश्वर को गलत समझते हैं। उन्हें लगता है कि यह परमेश्वर का आशीष नहीं है और परमेश्वर उन्हें पसंद नहीं करता। वे मानते हैं कि उन्होंने ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाया है लेकिन परमेश्वर ने अपने वादे पूरे नहीं किए हैं। ये लोग, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, किसी मामूली परिवेश के एक ही परीक्षण से इतनी आसानी से बेनकाब हो जाते हैं। जब वे बेनकाब होते हैं तो वे आखिरकार वही कहते हैं जो वे सबसे ज्यादा कहना चाहते थे : “परमेश्वर धार्मिक नहीं है। परमेश्वर वफादार परमेश्वर नहीं है। परमेश्वर के वचन शायद ही कभी पूरे होते हैं। परमेश्वर ने कहा था, ‘परमेश्वर जो कहता है उसके मायने हैं, वह जो कहता है उसे पूरा करेगा, और जो वह करता है वह हमेशा के लिए बना रहेगा।’ इन वचनों की पूर्ति कहाँ है? मैं उसे देख क्यों नहीं सकता या महसूस क्यों नहीं कर सकता? फलाँ को देखो : परमेश्वर में विश्वास करने के बाद से उसने परमेश्वर के लिए उतना त्याग नहीं किया है या खुद को उतना नहीं खपाया है जितना मैंने त्याग किया या खुद को खपाया है, न ही उसने उतना चढ़ावा चढ़ाया है जितना मैंने चढ़ाया है। लेकिन उसके बच्चे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में प्रवेश पा गए, उसके पति को पदोन्नति मिल गई, उनका व्यवसाय फल-फूल रहा है, यहाँ तक कि उनकी फसलें भी दूसरों की तुलना में ज्यादा उपज देती हैं। और मुझे क्या मिला है? मैं फिर कभी परमेश्वर में विश्वास नहीं करूँगा!” ये शब्द इन लोगों के सच्चे विचार, उनके आदर्श वाक्य हैं। वे इन धारणाओं से भरे हुए हैं, इन बेतुके विचारों और दृष्टिकोणों से भरे हुए हैं और लाभों और लेनदेनों के विचारों से भरे हुए हैं। वे परमेश्वर के कार्य और उसके ईमानदार इरादों को इसी तरह से समझते-बूझते हैं, इन चीजों को वे इसी तरह से लेते हैं। इसलिए उन परिवेशों में जिन्हें परमेश्वर बार-बार बहुत परिश्रम से व्यवस्थित करता है, वे बार-बार परमेश्वर को अपनी धारणाओं से मापते हैं और गलत समझते हैं और लगातार असफल होते और ठोकर खाते हैं। इसके अलावा, वे लगातार यह सत्यापित करने का प्रयास करते हैं कि उनकी धारणाएँ सही हैं। जब उन्हें लगता है कि ये धारणाएँ पुष्ट हो गई हैं और उनके लिए मनमाने ढंग से परमेश्वर का मूल्यांकन, आलोचना और निंदा करने के लिए पर्याप्त सबूत हैं तो वे धारणाएँ फैलाना शुरू कर देते हैं, क्योंकि उनके दिल परमेश्वर के बारे में धारणाओं से भरे होते हैं। इन धारणाओं में क्या मिला होता है? उनमें शिकायतें, असंतोष और उलाहने मिले होते हैं। जब वे इन चीजों से भर जाते हैं तो इन्हें बाहर निकालने के अवसर तलाशते हैं। वे उम्मीद करते हैं कि एक भीड़ मिलेगी जो उनके साथ हुए “अन्याय” सुनेगी; वे इन लोगों को ये चीजें सुनाकर उन्हें उस तथाकथित अनुचित व्यवहार के बारे में बताना चाहते हैं जिसे उन्होंने “सहा” है। इन लोगों द्वारा फैलाई गई धारणाएँ कलीसियाई जीवन में इसी तरह से पैदा होती हैं, इसी तरह से ऐसी धारणाएँ आती हैं। इन लोगों के दिल उलाहनों, अवज्ञा और असंतोष से और साथ ही परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों और शिकायतों से, यहाँ तक कि परमेश्वर की आलोचना और निंदा से भी भरे होते हैं, जो अंततः उनके दिलों को ईशनिंदा से भर देता है। वे डरते हैं कि उन्हें आशीष नहीं मिलेंगे और इसलिए वे छोड़कर जाने के लिए तैयार नहीं होते, इसलिए वे लोगों के बीच परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियाँ और उससे अपनी असंतुष्टि फैलाते हैं, और इससे भी बढ़कर वे परमेश्वर की आलोचना और निंदा और उसके प्रति अपनी ईशनिंदा फैलाते हैं। वे किसकी ईशनिंदा करते हैं? वे परमेश्वर की ईशनिंदा करते हैं, कहते हैं कि वह उनके साथ अन्याय करता है और उन्हें उनके किए का उचित और समान प्रतिफल नहीं देता। वे परमेश्वर की आलोचना करते हैं कि उसने उन्हें उनके चढ़ावों और बलिदानों के बाद अनुग्रह और बड़े आशीष नहीं दिए। उन्हें परमेश्वर से वे दैहिक जरूरत की चीजें—भौतिक चीजें, धन इत्यादि—नहीं मिलीं जिनकी उन्हें उम्मीद थी, इस तरह उनके दिल शिकायतों और उलाहनों से भर गए हैं। धारणाएँ फैलाने का उनका उद्देश्य एक ओर भड़ास निकालकर और बदला लेकर मनोवैज्ञानिक संतुलन की भावना प्राप्त करना होता है; और दूसरी ओर ज्यादा लोगों को परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ और धारणाएँ विकसित करने के लिए उकसाकर उन्हें परमेश्वर से सतर्क करना होता है, जैसा कि वे खुद होते हैं। अगर ज्यादा लोग कहें, “हम फिर कभी परमेश्वर में विश्वास नहीं करेंगे,” तो वे अंदर से संतुष्ट महसूस करेंगे। धारणाएँ फैलाने के पीछे उनका उद्देश्य और अंतर्निहित कारण यही होता है।
धारणाएँ फैलाने वाले लोगों का आदर्श वाक्य क्या होता है? वे अक्सर कौन-सा कथन दोहराते हैं? कुछ चीजों का अनुभव करने और मनचाहा लाभ नहीं मिलने के बाद वे लगातार मन ही मन कहते हैं, “मैं फिर कभी परमेश्वर में विश्वास नहीं करूँगा।” ऐसा कहने के बाद भी उन्हें नहीं लगता कि उनकी नफरत दूर हो गई है या उन्होंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है। जब वे सभाओं में जाते हैं तो दूसरे लोग चाहे जिस भी विषय पर संगति करें, वे उसे समझ नहीं पाते। उन्हें यह वाक्यांश फिर से कहना पड़ता है, इसे कई बार दोहराना पड़ता है, यहाँ तक कि दस बार से भी ज्यादा। “मैं फिर कभी परमेश्वर में विश्वास नहीं करूँगा”—क्या यह वाक्यांश अर्थ से भरा नहीं है? इसके पीछे एक कहानी है। उनका “विश्वास” क्या है? क्या वे पहले भी परमेश्वर में विश्वास करते थे? क्या उनका पिछला विश्वास सच्ची आस्था था? क्या उसमें वह समर्पण शामिल था जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए? (नहीं।) बिलकुल नहीं। वे परमेश्वर के बारे में धारणाओं और कल्पनाओं से भरे हुए हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वे बिना किसी समर्पण के परमेश्वर से माँगों और अनुरोधों से भरे हुए हैं। उनके “विश्वास” का क्या अर्थ है? “मेरा विश्वास है कि परमेश्वर ही स्वर्ग और पृथ्वी तथा सभी चीजों पर संप्रभु है। मेरा विश्वास है कि परमेश्वर मुझे दूसरों द्वारा धमकाए जाने से बचा सकता है। मेरा विश्वास है कि परमेश्वर मुझे दैहिक सुख का आनंद लेने दे सकता है, एक अच्छा, समृद्ध जीवन जीने दे सकता है और मेरे लिए सब कुछ शांतिपूर्ण और सुखद बना सकता है। मेरा विश्वास है कि परमेश्वर मुझे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने दे सकता है और बड़े आशीष प्राप्त करने दे सकता है, इस जीवन में सौ गुना और आने वाली दुनिया में अनंत जीवन पाने दे सकता है!” क्या यह विश्वास है? इन “विश्वासों” में समर्पण का कोई नामो-निशान नहीं है और इनमें से कोई भी लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है। ये विश्वास पूरी तरह से व्यक्तिगत लाभ के परिप्रेक्ष्य से उत्पन्न हैं। परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है और लोगों पर कार्य करता है। परमेश्वर ने कब कहा है कि वह लोगों को एक खुशहाल जीवन जीने, दूसरों से बेहतर जीवन जीने या असीमित संभावनाओं के साथ समृद्ध और सफल होने में सक्षम बनाएगा? (कभी नहीं।) तो वे अपने “विश्वास” को इतना मूल्यवान क्यों मानते हैं? वे यहाँ तक कहते हैं कि वे फिर कभी परमेश्वर में विश्वास नहीं करेंगे। क्या उनके विश्वास का कुछ भी मूल्य है? क्या परमेश्वर इसे स्वीकारता है? उनमें सत्य वास्तविकता का कोई नामो-निशान नहीं है, परमेश्वर के प्रति समर्पण का कोई नामो-निशान नहीं है, वे परमेश्वर से सिर्फ आशीष, लाभ और फायदे प्राप्त करना चाहते हैं और इसे परमेश्वर में विश्वास करना कहते हैं। क्या यह परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं है? ऐसे लोग धारणाओं से भरे हुए और आशीष प्राप्त करने के इरादे से ग्रस्त होते हैं। वे परमेश्वर के कार्य का बिल्कुल भी अनुभव नहीं करते और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं करते। वे जो कुछ भी करते हैं उसका लक्ष्य और उद्देश्य पूरी तरह से उनके देह के लाभ के लिए होता है। वे अपने बारे में अच्छा महसूस करते हैं और परमेश्वर में अपनी तथाकथित आस्था को विशेष रूप से मूल्यवान मानते हैं। अगर परमेश्वर में तुम्हारी आस्था इतनी मूल्यवान और महान है तो जब परमेश्वर तुम्हारे लिए कुछ मामूली परिवेश व्यवस्थित करता है, तो तुम उससे सत्य क्यों नहीं समझ पाते या अपनी गवाही में दृढ़ क्यों नहीं रह पाते? यहाँ क्या हो रहा है? जब परमेश्वर तुम्हारी आस्था का परीक्षण करता है तो तुम परमेश्वर को वापस क्या देते हैं? क्या यह संभव है कि तुम परमेश्वर को जो गलतफहमियाँ, शिकायतें और प्रतिरोध वापस देते हो, वही वह चाहता है? क्या वे सत्य के अनुरूप हैं? स्पष्ट रूप से वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं। इसलिए यह तथ्य कि ये लोग कलीसिया में खुलेआम धारणाएँ फैला सकते हैं, एक बात साबित करता है : वे परमेश्वर को नहीं जानते और इससे भी बढ़कर वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर हर चीज पर संप्रभु है—जिस परमेश्वर में वे विश्वास करते हैं वह अस्तित्व में ही नहीं है। जब ये लोग परमेश्वर की अवहेलना, निंदा और ईशनिंदा करने में ज्यादा लोगों को शामिल करने के लिए उन्हें गुमराह करने और फुसलाने के लिए खुलेआम धारणाएँ फैलाते हैं तो वे अनजाने ही सार्वजनिक रूप से घोषणा कर रहे होते हैं कि वे अब परमेश्वर के अनुयायी, विश्वासी और सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन सृजित प्राणी नहीं हैं। वे जो धारणाएँ फैलाते हैं, वे कोई साधारण विचार या कथन नहीं होते; बल्कि वे धारणाएँ इसलिए फैलाते हैं क्योंकि उन्होंने अपने और परमेश्वर के बीच एक अटूट अवरोध खड़ा कर लिया होता है, क्योंकि उन्होंने यह मन बना लिया होता है कि परमेश्वर के साथ व्यवहार करने, परमेश्वर के साथ अपना रिश्ता सँभालने और परमेश्वर के वचनों और कार्य के साथ पेश आने के लिए इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं का उपयोग करना सही है और उन्हें इसी तरीके से अभ्यास करना चाहिए। जब ऐसे लोग कलीसियाई जीवन में खुलेआम धारणाएँ फैलाते हैं तो क्या उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए? या उनके छोटे आध्यात्मिक कद और उथली नींव की वजह से उन्हें अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता और पश्चात्ताप करने के लिए पर्याप्त समय और स्थान दिया जाना चाहिए? उचित कार्रवाई क्या है? (उन्हें रोकना और प्रतिबंधित करना उचित है।) उन्हें रोकना और प्रतिबंधित करना उचित क्यों है? कुछ लोग कहते हैं, “अगर तुम उन्हें प्रतिबंधित कर स्वतंत्र रूप से नहीं बोलने देते और वे विश्वास करना और सभाओं में भाग लेना बंद कर देते हैं तो क्या इससे उन्हें नुकसान नहीं होगा? यह बहुत खेद की बात होगी! क्या परमेश्वर सभी लोगों को बचाना नहीं चाहेगा बजाय इसके कि एक भी व्यक्ति नरक का दुख भोगे? यहाँ तक कि खोई हुई एक भी भेड़ वापस पानी चाहिए—खोई हुई भेड़ वापस पाने के तमाम प्रयासों के बाद क्या वह उसे फिर से खोने दे सकता है?” क्या ये शब्द सही हैं? (नहीं।) ये सही क्यों नहीं हैं? (क्योंकि ऐसे लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास नहीं करते; वे सिर्फ आशीष प्राप्त करने की आशा में परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उनके विश्वास में अशुद्धियाँ मिली होती हैं।) ऐसा कौन है जिसके परमेश्वर में विश्वास में कुछ अशुद्धियाँ नहीं मिली हों? क्या तुम्हारे विश्वास में कुछ अशुद्धियाँ नहीं मिली हैं? क्या यह वैध कारण है? ऐसे लोगों के कथन पर विचार करो : “मैं फिर कभी परमेश्वर में विश्वास नहीं करूँगा।” ये कैसे शब्द हैं? क्या इनमें और गैर-विश्वासियों, दानवों और शैतान द्वारा की जाने वाली ईशनिंदा में कोई फर्क है? (नहीं।) इस कथन का निहितार्थ क्या है? “मेरी अब परमेश्वर में आस्था नहीं है। अतीत में मैंने पूरे दिल से परमेश्वर में विश्वास रखा और उसका अनुसरण किया, लेकिन परमेश्वर ने मुझे आशीष नहीं दिया। इसके बजाय उसने मेरे लिए चीजें कठिन बनाने और मुझे ठोकर लगवाने के लिए ऐसे परिवेश व्यवस्थित किए। परमेश्वर जो कहता है वह उससे बिल्कुल मेल नहीं खाता जो वह करता है, इसलिए मैं अब परमेश्वर में विश्वास करने की हिम्मत नहीं करता! मैं पहले बहुत मूर्ख था। मैंने परमेश्वर के लिए त्याग किया, खुद को खपाया और बहुत कठिनाई झेली, लेकिन जब बड़े लाल अजगर ने मुझे गिरफ्तार कर सताया तो मुझे परमेश्वर से कोई सुरक्षा नहीं मिली। मेरे परिवार का व्यवसाय भी दूसरों के व्यवसायों की तरह अच्छा नहीं चला, मैंने उतना पैसा नहीं कमाया जितना दूसरों ने कमाया और मेरे माता-पिता बीमार रहे। इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास करने से मुझे कुछ नहीं मिला। क्या परमेश्वर ने नहीं कहा था कि वह लोगों को बहुत आशीष देगा? मुझे परमेश्वर से कौन-से आशीष मिले? परमेश्वर के वचन बिल्कुल भी सत्य नहीं हुए, इसलिए मैं फिर कभी परमेश्वर में विश्वास नहीं करूँगा!” “मैं फिर कभी परमेश्वर में विश्वास नहीं करूँगा!” इस कथन में बहुत कुछ समाहित है। यह परमेश्वर के प्रति शिकायतों, असंतोष और गलतफहमियों से भरा हुआ है। संक्षेप में, जब उन्होंने कष्ट सहे और खयाली पुलाव पकाने वाली मानसिकता के साथ खुद को खपाया तो परमेश्वर ने उन्हें उनकी माँगों के अनुसार आशीष नहीं दिए, न ही परमेश्वर ने उन्हें उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार पारिश्रमिक या पुरस्कार दिया, इसलिए वे असंतुष्ट होकर परमेश्वर के प्रति आक्रोश से भर गए और ऐसी परिस्थितियों में ही उन्होंने यह वाक्य कहा। यह वाक्य शून्य से नहीं आया; जब तक उन्होंने यह कहा, तब तक वे पहले ही कई व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित कर चुके थे और बेनकाब हो चुके थे। परमेश्वर के साथ ऐसे लोगों के रिश्ते में क्या समस्या है? परमेश्वर के साथ उनके रिश्ते में सबसे बड़ा मुद्दा क्या है? वह यह है कि उन्होंने कभी खुद को सृजित प्राणी नहीं माना और परमेश्वर को आराधना करने के लिए कभी सृष्टिकर्ता माना ही नहीं। परमेश्वर में अपने विश्वास की शुरुआत से ही उन्होंने परमेश्वर को पैसों का पेड़, एक गुप्त खजाना समझा; उसे दुख और आपदा से छुटकारा दिलाने वाला बोधिसत्व और खुद को इस बोधिसत्व, इस मूर्ति का अनुयायी माना। उन्हें लगा कि परमेश्वर में विश्वास करना बुद्ध में विश्वास करने जैसा है, जहाँ सिर्फ शाकाहारी खाना खाने, शास्त्रों का पाठ करने और अक्सर धूपबत्ती जलाकर प्रणाम करने से वे जो चाहें प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह उनके परमेश्वर में विश्वास करने के बाद विकसित हुई सभी कहानियाँ उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के दायरे में घटित हुईं। उन्होंने सृष्टिकर्ता से सत्य स्वीकारने वाले सृजित प्राणी की कोई अभिव्यक्ति नहीं दिखाई, न ही उन्होंने सृष्टिकर्ता के प्रति सृजित प्राणी में होने वाला समर्पण प्रदर्शित किया; सिर्फ निरंतर माँगें, निरंतर हिसाब-किताब और सतत अनुरोध करते रहे। यह सब अंततः परमेश्वर के साथ उनके रिश्ते के टूटने का कारण बना। ऐसा रिश्ता लेनदेन वाला होता है और कभी स्थिर नहीं रह सकता; ऐसे लोगों का जल्दी ही बेनकाब होना निश्चित है। यहाँ तक कि अगर वे कलीसियाई जीवन में भाग भी लेते हैं, धारणाएँ नहीं फैलाते और कभी-कभार इस बारे में संगति भी करते हैं कि परमेश्वर ने उनकी कैसे अगुआई की है, परमेश्वर ने उन्हें कैसे आशीष दिया है, उन्होंने क्या आनंद लिया है, इत्यादि, तो भी वे जिस बारे में बात करते हैं, उसमें से अधिकांश में उनके द्वारा परमेश्वर से प्राप्त अनुग्रह, आनंद और दैहिक लाभ ही शामिल रहते हैं। ये चर्चाएँ सत्य से और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने से पूरी तरह से असंबंधित होती हैं और उनमें कोई सत्य वास्तविकता नहीं होती। जब परिस्थितियाँ अनुकूल होती हैं तो वे परमेश्वर में आस्था और उसके प्रति प्रेम और अन्य लोगों के प्रति सहनशीलता और धैर्य प्रदर्शित करते हैं, यह सब एक लक्ष्य प्राप्त करने के लिए होता है : परमेश्वर के सभी आशीष प्राप्त करने का लक्ष्य। जब परमेश्वर उनसे अनुग्रह, लाभ और भौतिक फायदे छीन लेता है तो उनकी धारणाएँ प्रकट हो जाती हैं। स्वार्थ से प्रेरित होकर और व्यक्तिगत लाभ को प्राथमिकता देने वाले इन लोगों को जब वह नहीं मिलता जो वे चाहते हैं तो वे गुस्से से भड़क उठते हैं; वे परमेश्वर के प्रति अपना असंतोष जाहिर करने के लिए धारणाएँ फैलाना शुरू कर देते हैं, साथ ही अपने साथ सहानुभूति रखने और परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाएँ स्वीकारने के लिए ज्यादा लोगों को फुसलाने का प्रयास करते हैं। क्या ऐसे लोगों को रोका और प्रतिबंधित किया जाना चाहिए? (हाँ।) जिन विषयों, विचारों और दृष्टिकोणों पर वे संगति करते हैं, वे सत्य की शुद्ध समझ नहीं दर्शाते, न ही वे लोगों को परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसमें सच्ची आस्था रखने में मदद करते हैं। इसके बजाय वे लोगों को परमेश्वर से दूर ले जाते हैं, परमेश्वर के प्रति गलतफहमियाँ रखने, उससे सतर्कता बरतने, यहाँ तक कि उसे अस्वीकारने का भी कारण बनते हैं और जो लोग इनके द्वारा फैलाई गई धारणाएँ सुनते हैं, उनसे अपनी तरह ही चुपचाप खुद को चेतावनी दिलवाते हैं, “मैं फिर कभी परमेश्वर में विश्वास नहीं करूँगा।” यही वह विघ्न है जो ऐसे लोगों द्वारा फैलाई गई धारणाएँ दूसरों के लिए उत्पन्न करती हैं।
2. परमेश्वर के वचनों और कार्य के बारे में धारणाएँ फैलाना
धारणाएँ फैलाने वाले ये लोग परमेश्वर के वचनों को मापने, परमेश्वर के कार्य को मापने और परमेश्वर के सार और परमेश्वर के स्वभाव को भी मापने के लिए अपनी खुद की धारणाएँ इस्तेमाल करते हैं। वे अपनी धारणाओं के भीतर परमेश्वर में विश्वास करते हैं, अपनी धारणाओं के भीतर परमेश्वर को देखते हैं और अपनी धारणाओं के भीतर ही परमेश्वर द्वारा कहे जाने वाले हर वचन, परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य की हर मद और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किए जाने वाले हर परिवेश की जाँच-परख और पड़ताल करते हैं। परमेश्वर जो करता है वह जब उनकी धारणाओं के अनुरूप होता है तो वे यह कहते हुए जोर से परमेश्वर की स्तुति करते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है, परमेश्वर वफादार है और परमेश्वर पवित्र है। परमेश्वर जो करता है वह जब उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होता और उनके हितों को गंभीर नुकसान पहुँचता है और वे बहुत पीड़ा सहते हैं तो वे परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों और उसके द्वारा किए गए कार्य को नकारने के लिए सामने आ जाते हैं; यहाँ तक कि वे परमेश्वर को गलत समझने और उससे सतर्क रहने के लिए और ज्यादा लोगों को उकसाने के लिए धारणाएँ भी फैलाते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर के वचनों पर इतनी आसानी से विश्वास मत करो और परमेश्वर के वचनों का आसानी से अभ्यास भी मत करो; वरना अगर तुम्हारा फायदा उठा लिया गया और तुम्हें नुकसान हुआ तो कोई इसकी जिम्मेदारी नहीं लेगा,” इत्यादि। उदाहरण के लिए, परमेश्वर कहता है, “जो ईमानदारी से मेरे लिए स्वयं को खपाता है, मैं निश्चित रूप से तुझे बहुत आशीष दूँगा”—क्या ये वचन सत्य नहीं हैं? ये वचन सौ प्रतिशत सत्य हैं। इनमें कोई आवेगशीलता या धोखा नहीं है। ये झूठ या भव्य लगने वाले विचार नहीं हैं, किसी तरह का आध्यात्मिक सिद्धांत तो ये बिलकुल भी नहीं हैं—ये सत्य हैं। सत्य के इन वचनों का सार क्या है? यही कि परमेश्वर के लिए खुद को खपाते समय तुम्हें ईमानदार होना चाहिए। “ईमानदार” का क्या अर्थ है? इच्छुक और अशुद्धियों से रहित होना; पैसे या प्रसिद्धि से प्रेरित होकर नहीं और अपने इरादों, इच्छाओं और लक्ष्यों के लिए तो निश्चित रूप से नहीं। तुम खुद को इसलिए नहीं खपाते क्योंकि तुम्हें मजबूर किया जाता है या तुम्हें उकसाया, बहलाया या अपने साथ खींचा जाता है, बल्कि यह तुम्हारे भीतर से, स्वेच्छा से आता है; यह जमीर और विवेक से उत्पन्न होता है। ईमानदार होने का यही अर्थ है। परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की इच्छा के संदर्भ में ईमानदार होने का यही अर्थ है। तो जब तुम परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हो तो व्यावहारिक दृष्टि से ईमानदार होना कैसे अभिव्यक्त होता है? तुम झूठ या धोखाधड़ी में शामिल नहीं होते, कार्य से बचने के लिए चालाकी का सहारा नहीं लेते और चीजें बेमन से नहीं करते; तुम जो कुछ कर सकते हो उसे करते हुए उसमें अपना पूरा दिलो-दिमाग समर्पित कर देते हो, इत्यादि—यहाँ बताने के लिए बहुत सारे विवरण हैं! संक्षेप में, ईमानदार होने में सत्य सिद्धांत शामिल हैं। मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं के पीछे एक मानक और सिद्धांत है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं अपनी ईमानदारी और अपनी सारी मामूली बचतें परमेश्वर में विश्वास करने में अर्पित कर दूँ तो क्या मुझे और ज्यादा मिलेगा? अगर मैं और ज्यादा प्राप्त कर सकूँ तो यह सब कुछ अर्पित करने लायक है!” अर्पित करने के बाद वे देखते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें आशीष नहीं दिया है और इस पर यह सोचते हुए विचार करते हैं : “शायद मैंने पर्याप्त अर्पित नहीं किया है, इसलिए मैं और ज्यादा अर्पित करूँगा। मैं बाहर जाऊँगा और सुसमाचार का प्रचार करूँगा।” सुसमाचार का प्रचार करते समय जब उनका सामना कठिनाइयों से होता है तो वे प्रार्थना करते हैं। कभी-कभी जब वे भोजन नहीं कर पाते और अच्छी तरह सो नहीं पाते, तब भी वे प्रार्थना करना जारी रखते हैं। वे सोचते हैं : “परमेश्वर ने कहा था कि जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं, उन्हें निश्चित रूप से बहुत आशीष मिलेगा। शायद मेरी ईमानदारी अभी पर्याप्त नहीं है, इसलिए मैं और प्रार्थना करूँगा।” प्रार्थना के जरिये वे आस्था प्राप्त करते हैं और थोड़ी-सी कठिनाई सहने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। सुसमाचार का प्रचार करने से उन्हें वास्तव में कुछ परिणाम दिखने लगते हैं और वे सोचते हैं : “अब मुझमें कुछ ईमानदारी है। मैं जल्दी से घर जाकर देखूँगा कि क्या मेरे परिवार का जीवन बेहतर हो गया है, क्या मेरे बच्चे की बीमारी ठीक हो गई है और क्या मेरा पारिवारिक व्यवसाय सुचारू रूप से चल रहा है—परमेश्वर के आशीष मिले हैं या नहीं।” क्या यह खुद को ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खपाना है? (नहीं।) यह क्या है? (एक लेनदेन।) यह परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करना है। वे जो चाहते हैं उसे करने के लिए वे अपने तरीकों का और जिसे वे अपनी धारणाओं के आधार पर “ईमानदारी” समझते हैं उसका उपयोग कर रहे हैं ताकि उससे जो वे चाहते हैं उसे प्राप्त कर सकें। परमेश्वर द्वारा कहे गए इन वचनों का सत्यापन करने के लिए वे उस “ईमानदारी” का लगातार उपयोग करते हैं जिसे वे समझते हैं, लगातार यह खोजबीन करते रहते हैं कि परमेश्वर क्या करना चाहता है, उसने क्या किया है और क्या नहीं किया है और लगातार इस बारे में अटकलें लगाते रहते हैं कि परमेश्वर उन्हें आशीष देगा या नहीं और क्या वह उन्हें बहुत आशीष देने का इरादा रखता है। वे लगातार इस बात का हिसाब लगाते रहते हैं कि उन्होंने क्या चढ़ाया है और उन्हें कितना मिलना चाहिए, क्या परमेश्वर ने उन्हें वह दिया है और क्या परमेश्वर के वचन पूरे हुए हैं। वे लगातार ऐसे तथ्य तलाशते रहते हैं जिनसे वे परमेश्वर के कथन को परख सकें। परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हुए वे हमेशा यह सत्यापित करना चाहते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं या नहीं। उनका उद्देश्य यह देखना होता है कि क्या परमेश्वर के लिए खुद को खपाने से उन्हें परमेश्वर के आशीष मिल सकते हैं। वे लगातार परमेश्वर को परखते रहते हैं, हमेशा अपने ऊपर परमेश्वर के आशीष देखना चाहते हैं ताकि उसके वचनों की पुष्टि हो सके। जब वे पाते हैं कि परमेश्वर के वचन उतनी आसानी से पूरे नहीं होते जितनी उन्होंने कल्पना की थी और परमेश्वर के वचनों की सच्चाई की पुष्टि करना कठिन है तो परमेश्वर के बारे में उनकी धारणाएँ और भी गंभीर हो जाती हैं। साथ ही वे दृढ़ता से यह मानने लगते हैं कि परमेश्वर द्वारा कहा गया हर वचन सत्य होना जरूरी नहीं है। अपने दिलों में यह बात छिपाकर वे परमेश्वर पर संदेह और सवाल करने लगते हैं और अक्सर उसके बारे में धारणाएँ विकसित कर लेते हैं। समय-समय पर ये लोग, जिनके दिल धारणाओं से भरे होते हैं, कलीसियाई जीवन जीते हुए और भाई-बहनों के साथ बातचीत करते हुए परमेश्वर के बारे में अपनी कुछ धारणाएँ प्रकट कर देते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के बारे में धारणाएँ विकसित कर लेते हैं और साथ ही परमेश्वर के कार्य को मापने के लिए अपनी धारणाओं का उपयोग करते हैं। जब परमेश्वर का कार्य लगातार उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होता और उनकी अपेक्षाओं के बिल्कुल विपरीत होता है तो वे परमेश्वर के प्रति अपनी असंतुष्टि बाहर निकालने के लिए अपनी धारणाएँ फैलाते हैं। उदाहरण के लिए, परमेश्वर कहता है कि उसका कार्य अपने अंत के करीब है और लोगों को परमेश्वर का अनुसरण करने और उसके लिए खुद को खपाने के लिए सब कुछ त्याग देना चाहिए, परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करना चाहिए और अब सांसारिक संभावनाओं, सामंजस्यपूर्ण घर-गृहस्थी और ऐसी अन्य चीजों का अनुसरण नहीं करना चाहिए। ये वचन कहने के बाद परमेश्वर बहुत सारा काम करना जारी रखता है। तीन, पाँच, सात या आठ साल बीत जाते हैं और कुछ लोग देखते हैं कि परमेश्वर का कार्य अभी भी निरंतर आगे बढ़ रहा है, इस बात का कोई संकेत नहीं मिलता कि उसका कार्य समाप्त हो रहा है या बड़ी आपदाएँ निकट हैं और सभी विश्वासियों ने शरण ले ली है। जो लोग परमेश्वर के कार्य को मापने के लिए अपनी धारणाओं का उपयोग करते हैं, वे परमेश्वर के कार्य के जल्दी समाप्त होने का इंतजार नहीं कर सकते ताकि विश्वासी परमेश्वर के अद्भुत आशीषों में साझेदारी कर सकें। लेकिन परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता; वह इस मामले को इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार पूरा नहीं करता। जो लोग इंतजार नहीं कर सकते, वे बेचैन हो जाते हैं और यह कहते हुए संदेह करने लगते हैं : “क्या परमेश्वर का कार्य पहले ही अपने अंत के करीब नहीं है? क्या उसे जल्दी ही समाप्त नहीं हो जाना चाहिए? क्या परमेश्वर ने नहीं कहा था कि बड़ी आपदाएँ निकट हैं? परमेश्वर का घर अभी भी इतना काम क्यों कर रहा है? परमेश्वर का कार्य वास्तव में कब समाप्त होगा? यह कब खत्म होगा?” इन लोगों को सत्य या परमेश्वर की अपेक्षाओं में जरा भी दिलचस्पी नहीं होती। उन्हें सत्य का अभ्यास करने में, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में या उद्धार प्राप्त करने के लिए शैतान के प्रभाव से बचने में कोई रुचि नहीं होती। वे सिर्फ और विशेष रूप से ऐसी चीजों में रुचि रखते हैं जैसे कि परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा, उनका परिणाम जीवन होगा या मृत्यु, वे आशीषों का आनंद लेने के लिए राज्य में कब प्रवेश कर सकते हैं और राज्य के सुंदर दृश्य कैसे होंगे। ये उनकी सबसे बड़ी चिंताएँ होती हैं। इसलिए कुछ समय तक सहने और यह देखने के बाद कि स्वर्ग और पृथ्वी में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है और दुनिया के देश सामान्य रूप से चल रहे हैं, वे कहते हैं, “परमेश्वर के ये वचन कब सच होंगे? मैं वर्षों से इंतजार कर रहा हूँ—ये अभी तक सच क्यों नहीं हुए हैं? क्या परमेश्वर के वचन वास्तव में सच हो सकते हैं? परमेश्वर अपने वचन पर कायम रहता है या नहीं?” और इसलिए ये लोग धैर्य खो देते हैं, बेचैन हो जाते हैं और अपना जीवन जीने के लिए दुनिया में लौटने के अवसर तलाशने की इच्छा करना शुरू कर देते हैं।
परमेश्वर का कार्य और वे सत्य जिन्हें परमेश्वर व्यक्त करता है, हमेशा इंसानी कल्पनाओं से बढ़कर होते हैं और हमेशा इंसानी धारणाओं से परे होते हैं। लोग चाहे जैसे भी कोशिश कर लें, वे उन्हें समझ या माप नहीं सकते। वे नहीं जानते कि परमेश्वर के कार्य के तरीके क्या हैं या वह किस लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है, इसलिए अंततः कुछ लोग संदेह करना शुरू कर देते हैं : “क्या परमेश्वर वास्तव में मौजूद है? परमेश्वर वास्तव में कहाँ है? परमेश्वर सत्य व्यक्त करता रहता है, लेकिन क्या वह बहुत ज्यादा सत्य व्यक्त नहीं करता? क्या परमेश्वर ने नहीं कहा कि वह हमें अपने राज्य में ले जाएगा? हम स्वर्ग के राज्य में कब प्रवेश कर सकते हैं? ये चीजें अभी तक सच या पूरी क्यों नहीं हुई हैं? इसमें ठीक-ठीक कितने साल और लगेंगे? हमेशा कहा जाता है कि परमेश्वर का दिन निकट है, लेकिन इस ‘निकट’ का अब वर्षों से जिक्र किया जा रहा है—यह इतना दूर क्यों है और अंतहीन क्यों लगता है?” वे इस तरह न सिर्फ सोचते हैं, बल्कि ये संदेह हर जगह फैला देते हैं। यह किस समस्या की ओर संकेत करता है? इतने सारे धर्मोपदेश सुनने के बाद भी वे सत्य बिल्कुल भी क्यों नहीं समझते? वे परमेश्वर के कार्य को परिसीमित करने के लिए हमेशा इंसानी धारणाएँ और कल्पनाएँ इस्तेमाल क्यों करते हैं? वे इन चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार क्यों नहीं देख सकते? क्या वे परमेश्वर के अस्तित्व की पुष्टि कर सकते हैं और परमेश्वर के वचनों के जरिये उद्धार का मार्ग निर्धारित कर सकते हैं? क्या वे समझते हैं कि परमेश्वर द्वारा कहे गए ये सभी वचन और जो कुछ भी वह करता है, वह लोगों को बचाने के लिए है? क्या वे समझते हैं कि सिर्फ सत्य प्राप्त करके और उद्धार हासिल करके ही लोग वे सभी आशीष प्राप्त कर सकते हैं जिनका वादा परमेश्वर ने मानवजाति से किया है? वे जो कहते हैं और जो धारणाएँ फैलाते हैं, उनसे यह स्पष्ट है कि वे मूल रूप से यह नहीं समझते कि परमेश्वर क्या कर रहा है या परमेश्वर के यह सब कार्य करने और ये सब वचन बोलने का क्या उद्देश्य है। वे सिर्फ छद्म-विश्वासी हैं! इतने सालों तक धर्मोपदेश सुनने और इतने सालों तक परमेश्वर के घर में इधर-उधर भटकने के बाद उन्होंने क्या प्राप्त किया है? उन्होंने इस बात की पुष्टि तक नहीं की है कि परमेश्वर मौजूद है या नहीं, उनके पास इसका कोई निश्चित उत्तर नहीं है। वे कलीसिया में क्या भूमिका निभाते हैं? कुछ समय तक मेहनत करने के बाद आशीष प्राप्त नहीं करने पर वे दूसरों को गुमराह और परेशान करने के लिए बेशर्मी से धारणाएँ फैलाते हैं। वे जो बातें यूँ ही कहते हैं, वे परमेश्वर और उसके कार्य की आलोचनाएँ होती हैं। उनमें से कुछ लोग कहते हैं, “मैं सोचता था कि परमेश्वर का कार्य तीन से पाँच वर्षों में पूरा हो जाएगा; मुझे उम्मीद नहीं थी कि यह अभी भी पूरा नहीं होगा जबकि दस वर्ष बीत चुके हैं। यह कार्य कब पूरा होगा? गवाही के लेख लगातार लिखे जा रहे हैं; भजन प्रस्तुतियों की वीडियो और फिल्में लगातार बनाई जा रही हैं; सुसमाचार का प्रचार लगातार किया जा रहा है—यह कब समाप्त होगा?” यहाँ तक कि वे दूसरों से भी पूछते हैं : “क्या तुम लोग भी ऐसा ही नहीं सोचते? खैर, तुम लोग चाहे जो भी सोचो, मैं तो यही सोचता हूँ। मैं एक ईमानदार व्यक्ति हूँ; उन कुछ लोगों तरह नहीं जो अपने मन की बात नहीं कहते और उसे मन में ही दबाए रखते हैं, मैं जो मेरे मन में होता है कह देता हूँ।” वे कितने “ईमानदार” हैं, कुछ भी कहने की हिम्मत रखते हैं! इससे भी बदतर बात यह है कि वे कहते हैं, “अगर परमेश्वर का कार्य जल्दी खत्म नहीं हुआ तो मैं बस जाकर नौकरी ढूँढूँगा, कुछ पैसे कमाऊँगा और अपना जीवन जीऊँगा। परमेश्वर में विश्वास करने के इन तमाम वर्षों में मैंने बहुत सारे अच्छे भोजन, बहुत सारी मजेदार जगहें, बहुत सारा भौतिक आनंद छोड़ा है! अगर मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं करता तो मैं एक हवेली में रह रहा होता, एक कार का मालिक होता और इन पिछले वर्षों में शायद कई बार दुनिया की यात्रा भी कर चुका होता। पीछे मुड़कर देखता हूँ तो परमेश्वर में विश्वास किए बिना जीवन बहुत अच्छा था; मैं काफी खुश था। हालाँकि वह थोड़ा खोखला था, लेकिन मैं दैहिक सुखों का आनंद ले सकता था, अच्छा खा-पी सकता था और बिना किसी प्रतिबंध के जो चाहता वो कर सकता था। परमेश्वर में विश्वास करने के इन वर्षों के दौरान मैंने बहुत सहा है और मैं खुद पर बहुत कठोर रहा हूँ! हालाँकि मैंने थोड़ा सत्य प्राप्त किया है और अपने दिल में थोड़ा ज्यादा सुरक्षित महसूस करता हूँ, लेकिन ये सत्य उन दैहिक सुखों की जगह नहीं ले सकते! इसके अलावा, परमेश्वर का कार्य कभी खत्म नहीं होता और परमेश्वर कभी लोगों के सामने प्रकट नहीं होता, इसलिए मैं कभी पूरी तरह सुरक्षित महसूस नहीं करता। वे कहते हैं कि सत्य समझना और प्राप्त करना शांति और आनंद लाता है, लेकिन शांति और आनंद होने का क्या फायदा? मुझे अभी भी दैहिक आनंद नहीं मिलता!” ये विचार उनके मन में अनगिनत बार आए हैं और उन्होंने इन्हें मन ही मन कई बार दोहराया है। जब वे मानते हैं कि उनकी धारणाओं में दृढ़ रहने के लिए पर्याप्त औचित्य है और उन्हें लगता है कि उपयुक्त समय आ गया है और वे परमेश्वर के कार्य में मीन-मेख निकालने के लिए पर्याप्त रूप से योग्य हैं तो वे ऊपर उद्धृत टिप्पणियाँ और धारणाएँ फैलाने से खुद को रोक नहीं पाते। वे परमेश्वर के प्रति अपना असंतोष और परमेश्वर के कार्य के बारे में अपनी धारणाएँ और गलतफहमियाँ फैलाते हैं और ज्यादा लोगों को परमेश्वर और उसके कार्य को गलत समझने के लिए गुमराह करने की कोशिश करते हैं। बेशक, छिपे इरादों वाले कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो ज्यादा लोगों को परमेश्वर के लिए खुद को खपाने से रोकना चाहते हैं, चाहते हैं कि वे अपने वर्तमान कर्तव्य त्याग दें और परमेश्वर को नकार दें; अगर कलीसिया भंग हो जाए तो यह उनके लिए सबसे अच्छी बात होगी। उनका लक्ष्य क्या होता है? “अगर मैं आशीष प्राप्त नहीं कर सकता तो तुम लोगों में से भी किसी को इसकी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। मैं तुम सभी लोगों के लिए चीजें बिगाड़ दूँगा ताकि तुम लोगों में से कोई भी सत्य या वे आशीष जिनका परमेश्वर ने वादा किया था, प्राप्त करने की उम्मीद न कर सके!” आशीष प्राप्त करने की कोई उम्मीद न देखकर वे और ज्यादा प्रतीक्षा करने का धैर्य खो देते हैं। वे स्वयं आशीष प्राप्त नहीं करते और दूसरों को भी प्राप्त नहीं करने देना चाहते। इसलिए जब वे धारणाएँ फैलाते हैं तो एक अर्थ में वे अपना असंतोष बाहर निकाल रहे होते हैं, शिकायत कर रहे होते हैं कि परमेश्वर के कार्य से संबंधित कुछ भी इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं से मेल नहीं खाता और परमेश्वर के कार्य करने का तरीका लोगों की भावनाओं के प्रति विचारशून्य है। साथ ही, वे ज्यादा लोगों को गुमराह कर उन्हें परमेश्वर को गलत समझने और उसके बारे में शिकायत करने, परमेश्वर के बारे में धारणाएँ विकसित करने और आस्था खोने में शामिल करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि और ज्यादा लोग परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियों और धारणाओं के कारण उसे त्याग दें, जैसा कि उन्होंने किया है।
ख. धारणाएँ फैलाने वाले लोगों के साथ कैसे पेश आएँ
जब कलीसिया में कोई व्यक्ति परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और असंतोष फैलाता है तो इसके क्या परिणाम होते हैं? क्या यह सीधे तौर पर कलीसियाई जीवन के परिणामों को प्रभावित करता है? क्या यह सामान्य कलीसियाई जीवन और कलीसिया के कार्य में बाधा डालता है? (हाँ।) यह परमेश्वर में लोगों की आस्था पर असर डालता है और अपने कर्तव्य सामान्य रूप से निभाने की उनकी क्षमता को प्रभावित करता है। इसलिए जो लोग धारणाएँ फैलाते हैं, उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। अगर वे कभी-कभार ही ऐसी बातों का जिक्र करते हैं तो भी उन्हें प्रतिबंधित करने और पहचानने की आवश्यकता है; देखो कि उनमें किस तरह की मानवता है, क्या उनका धारणाएँ फैलाना क्षणिक नकारात्मकता और कमजोरी के कारण है या यह उनके प्रकृति सार के साथ किसी समस्या के कारण है—क्या वे लगातार सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे और ज्यादा लोगों को गुमराह करने और कलीसियाई जीवन में विघ्न डालने और नुकसान पहुँचाने के लिए जानबूझकर धारणाएँ फैला रहे हैं। अगर यह कभी-कभार की ही नकारात्मकता और कमजोरी है तो सत्य की संगति के जरिये उनको सहारा देना और उनकी सहायता करना पर्याप्त है। अगर वे सलाह पर ध्यान नहीं देते और धारणाएँ फैलाना और कलीसियाई जीवन में विघ्न डालना जारी रखते हैं—यहाँ तक कि दूसरों को भी नकारात्मक और कमजोर बनाते हैं जिससे उनकी सामान्य रूप से अपने कर्तव्य निभाने की क्षमता प्रभावित होती है—तो इसका मतलब यह है कि वे शैतान के सेवक हैं और उन्हें सिद्धांतों के अनुसार बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। उन्हें एक और मौका क्यों नहीं दिया जाता? क्या तुम्हें लगता है कि ऐसे लोग छद्म-विश्वासी होते हैं? (हाँ।) उनकी मानवता चाहे जैसी हो, ऐसे लोग छद्म-विश्वासी होते हैं। छद्म-विश्वासी गेहूँ के बीच जंगली घास की तरह होते हैं—उन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। अगर वे सिर्फ छद्म-विश्वासियों की कुछ अभिव्यक्तियाँ ही प्रदर्शित करते हैं और कलीसियाई जीवन में विघ्न नहीं डालते और अभी भी कलीसिया के मित्र बनकर सेवा प्रदान कर सकते हैं तो उन्हें अकेला छोड़ा जा सकता है। लेकिन जो लोग लगातार धारणाएँ फैलाते हैं वे हमेशा छद्म-विश्वासियों के दृष्टिकोण और टिप्पणियाँ व्यक्त करते हैं। वे यूँ ही बातें नहीं कहते; उनका उद्देश्य ज्यादा लोगों को परमेश्वर से दूर करने के लिए भड़काना, गुमराह करना और अपने साथ मिलाना होता है। उनका इरादा होता है : “अगर मैं आशीष प्राप्त नहीं कर सकता तो मैं अब और विश्वास नहीं करूँगा। तुम लोगों में से किसी को भी आशीष पाने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए और तुम्हें विश्वास भी नहीं करना चाहिए! अगर तुम लोग विश्वास करते रहे तो क्या होगा अगर तुम लोग दृढ़ रहकर अंततः किसी दिन आशीष प्राप्त कर ही लो—क्या यह मुझे मुश्किल में नहीं डाल देगा? तब मैं आंतरिक रूप से संतुलित कैसे महसूस कर सकूँगा? यह नहीं चलेगा। भविष्य में पछतावे से बचने के लिए मैं तुम लोगों को परेशान करके तुम्हारी आस्था डाँवाडोल कर दूँगा, तुम लोगों को परमेश्वर से दूर करने, परमेश्वर को धोखा देने और अपने साथ कलीसिया छोड़ने के लिए बाध्य कर दूँगा—यह सबसे अच्छा होगा।” यही उनका उद्देश्य होता है। क्या ऐसे छद्म-विश्वासियों को बाहर नहीं निकाल दिया जाना चाहिए? (हाँ, निकाल दिया जाना चाहिए।) उन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। अगर कुछ छद्म-विश्वासी विश्वास करना बंद कर देते हैं तो कलीसिया बस उनसे परमेश्वर के वचनों की किताबें वापस ले लेगी और उन्हें हटा देगी। ऐसे अन्य छद्म-विश्वासी भी हैं जो परमेश्वर में विश्वास करने और विश्वासियों के प्रति कुछ सकारात्मक भावनाएँ रखते हैं। वे कलीसिया में सकारात्मक, स्वीकारात्मक भूमिका नहीं निभाते; वे बस कभी-कभी कलीसिया के मित्रों के रूप में मदद करते हैं। ऐसे लोग भले ही सत्य का अनुसरण या सत्य की संगति न करते हों, लेकिन वे धारणाएँ नहीं फैलाते या कलीसियाई जीवन में बाधा नहीं डालते। अगर वे थोड़ी-बहुत सेवा कर सकते हैं तो उन्हें कलीसिया में रहने दिया जाना चाहिए और उन्हें बाहर निकालने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन जो छद्म-विश्वासी लगातार धारणाएँ फैलाते हैं, उन पर कोई दया नहीं दिखाई जानी चाहिए। वे परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाएँ और गलतफहमियाँ फैलाते हैं, कलीसियाई जीवन में बाधा डालते हैं और कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। ये छद्म-विश्वासी शैतान के सेवक हैं। वे धारणाएँ रखते हैं; लेकिन वे न सिर्फ उन्हें हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, बल्कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गुमराह करने के लिए अपनी धारणाएँ भी फैलाते हैं। वे परमेश्वर को धोखा देते हैं और अपने साथ कुछ और लोगों को भी उनके विनाश की ओर घसीटना चाहते हैं। ऐसे इरादों से ही वे कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं। क्या परमेश्वर उन्हें माफ कर सकता है? नहीं, उन्हें बख्शा नहीं जाना चाहिए। यह सिर्फ उन्हें प्रतिबंधित या अलग-थलग करने का मामला नहीं है; उन्हें बिना किसी नरमी के हमेशा के लिए दूर करके हटा दिया जाना चाहिए!
कलीसिया में कुछ लोग कभी सत्य का अनुसरण नहीं करते और कभी नहीं समझते कि परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए कैसे कार्य करता है। कुछ चीजों का अनुभव करने के बाद वे परमेश्वर के प्रति गलतफहमियाँ, प्रतिरोध और शिकायतें विकसित कर लेते हैं; जो वे कहते और करते हैं उनमें से कुछ चीजें धारणाएँ फैलाने का काम करती हैं। वे जो धारणाएँ फैलाते हैं, वे सिर्फ परमेश्वर के वचनों और कार्य को समझने में विचलन या परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ नहीं होतीं। कुछ धारणाएँ कहीं ज्यादा गंभीर होती हैं, वे सीधे तौर पर इस बात से इनकार करती हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं—वे पूरी तरह से परमेश्वर की आलोचना और निंदा करती हैं। और वे जो दूसरी धारणाएँ फैलाते हैं वे परमेश्वर पर खुले तौर पर हमला और उसकी ईशनिंदा तक करती हैं। वे लोग एक सृजित प्राणी या परमेश्वर के अनुयायी के परिप्रेक्ष्य से आज्ञा मानने वाले दिल से अपनी भ्रष्टता और विद्रोह का गहन-विश्लेषण या उन्हें जानने की कोशिश नहीं करते, न ही वे सत्य स्वीकार कर परमेश्वर के कार्य और उसके इरादों की अपनी समझ-बूझ के बारे में संगति करते हैं। वे जो धारणाएँ व्यक्त करते हैं वे इन सकारात्मक समझ-बूझों के बिल्कुल विपरीत होती हैं। जब दूसरे लोग उनकी धारणाएँ सुनते हैं तो उन्हें परमेश्वर की समझ नहीं मिलती, न ही उनमें सच्ची आस्था विकसित होती है और निश्चित रूप से परमेश्वर में उनकी आस्था बढ़ती भी नहीं है। इसके बजाय परमेश्वर में उनकी आस्था अस्पष्ट हो जाती है, कम हो जाती है, यहाँ तक कि पूरी तरह से खत्म भी हो जाती है। साथ ही, परमेश्वर के कार्य की परिकल्पना उनके लिए धुँधली हो जाती है। लोग उनके द्वारा फैलाई गई धारणाएँ जितनी ज्यादा सुनते हैं, उतने ही ज्यादा उनके दिल भ्रमित हो जाते हैं, इस हद तक कि वे इस बारे में भी अस्पष्ट महसूस करते हैं कि उन्हें परमेश्वर में विश्वास क्यों करना चाहिए और वे संदेह करने लगते हैं कि क्या परमेश्वर मौजूद है। क्या परमेश्वर के वचन सत्य हैं, क्या परमेश्वर के वचन और उसका कार्य लोगों को शुद्ध कर बचा सकते हैं और ऐसी ही अन्य बातें—ये सब उनके लिए धुँधली और संदेहास्पद हो जाती हैं। जब लोग ऐसे व्यक्तियों द्वारा फैलाई गई धारणाएँ और गलतफहमियाँ सुनते हैं तो वे परमेश्वर पर संदेह करने लगते हैं और उससे सतर्क रहने लगते हैं; वे अपने दिलों में परमेश्वर को परिसीमित करना शुरू कर देते हैं, परमेश्वर के प्रति गलतफहमियाँ और शिकायतें विकसित कर लेते हैं, यहाँ तक कि आंतरिक रूप से खुद को परमेश्वर से दूर भी कर लेते हैं। यह बहुत तकलीफदेह है। जब उनमें ये नकारात्मक, प्रतिकूल विचार, दृष्टिकोण, योजनाएँ और साजिशें आ जाती हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने जो जानकारी और टिप्पणियाँ स्वीकार की हैं वे सामान्य मानवता की जरूरतों के अनुरूप नहीं हैं, सत्य की तो बात ही छोड़ दो—यह सौ प्रतिशत निश्चित है कि वे शैतान से आती हैं। धारणाएँ फैलाने वालों के इरादे या उद्देश्य चाहे जो भी हों, वे भ्रांतियाँ और निराधार अफवाहें चाहे जानबूझकर फैलाएँ या अनजाने में, अगर वे कलीसिया में हानिकारक प्रभाव डालते हैं तो उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। बेशक, अगर ऐसे लोग कलीसियाई जीवन के बाहर पाए और पहचाने जाएँ, तो उन्हें भी तुरंत रोका और प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। अगर कोई ऐसा व्यक्ति जो सत्य समझता है, ऐसी चीजें फैलाने वालों का खंडन और खुलासा करने के लिए परमेश्वर के वचनों या अपनी समझ का इस्तेमाल कर सके जिससे भाई-बहनों को उन्हें पहचानने में मदद मिले तो यह और भी बेहतर है। यह शैतान के खिलाफ लड़ना है। अगर तुम्हारा आध्यात्मिक कद नहीं है तो तुम्हें उन्हें पहचानकर उनसे दूर रहना सीखना चाहिए। अगर तुम्हारा आध्यात्मिक कद है तो तुम्हें उन्हें उजागर करना चाहिए। क्या तुम लोगों में ऐसा करने की हिम्मत है? क्या तुम जानते हो कि यह कैसे करना है? इससे सबसे ज्यादा पता चलता है कि व्यक्ति के पास सत्य वास्तविकता है या नहीं। जब कुछ नए विश्वासी ऐसे लोगों द्वारा परमेश्वर के बारे में फैलाई गई धारणाएँ और गलतफहमियाँ सुनते हैं तो उन्हें धक्का लगता है और वे कहते हैं, “परमेश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति इस तरह कैसे बोल सकता है?” अगर नींवरहित लोग ये धारणाएँ और भ्रांतियाँ सुनेंगे तो क्या वे नकारात्मक और कमजोर हो जाएँगे? क्या वे ये भ्रांतियाँ स्वीकार लेंगे? क्या वे गुमराह होकर कलीसिया छोड़ देंगे? ये सब संभव हैं। जब कोई धारणाएँ फैलाने वाला व्यक्ति कहता है, “मैं फिर कभी परमेश्वर में विश्वास नहीं करूँगा,” तो चाहे वह ऐसा कहते समय जैसी भी अवस्था में हो, यह दर्शाता है कि उसने परमेश्वर में पूरी तरह से आस्था खो दी है और वह छद्म-विश्वासी है। चाहे ऐसे शब्द फैलाने के पीछे उसका जो भी उद्देश्य हो, क्या तुम उसे सुनकर कोई शिक्षा प्राप्त कर सकते हो? (नहीं।) जब तुम कमजोर होते हो और ये शब्द सुनते हो तो तुम्हें लग सकता है, “यह व्यक्ति मेरा दर्द साझा करता है; जब यह अपनी धारणाओं के बारे में बात करता है तो ऐसा लगता है कि यह मेरे अपने अंतरतम विचारों को ही स्वर दे रहा है।” लेकिन अगर कोई आस्थावान व्यक्ति ये शब्द सुनता है तो वह सोचेगा, “यह घोर विद्रोही है! ऐसे शब्द कैसे बोले जा सकते हैं? क्या यह परमेश्वर की ईशनिंदा करना नहीं है? मैं ऐसी बातें कहने की हिम्मत नहीं करूँगा, क्योंकि यह परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाता है!” यह तथ्य कि वे लोग ये धारणाएँ फैला सकते हैं, दर्शाता है कि ये विचार बहुत पहले विकसित हुए थे और पहले ही उनके दिलों में जड़ें जमा चुके हैं। अगर ऐसे विचार अभी बनने शुरू हुए हैं और अभी प्रारंभिक अवस्था में ही हैं और पूरी तरह से धारणाएँ नहीं बने हैं, अगर व्यक्ति उन्हें मौखिक रूप से व्यक्त नहीं करता और उसने दूसरों को गुमराह या बाधित नहीं किया है तो यह दर्शाता है कि उसके पास थोड़ा विवेक है; वह अपनी जबान पर लगाम लगा सकता है और इस तरह बाहर निकाल दिए जाने के परिणाम से बच सकता है। लेकिन अगर वह उन्हें बोलकर कलीसियाई जीवन में विघ्न डालता है तो उसके प्रति और ज्यादा शिष्टाचार नहीं दिखाया जा सकता; उसे उजागर कर बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और सत्य समझने की क्षमता नहीं रखते, वे अक्सर धारणाएँ विकसित करने में प्रवृत्त होते हैं। लेकिन जो लोग अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और जिनमें समझने की क्षमता होती है, अगर उनमें धारणाएँ पैदा भी होती हैं तो वे उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजेंगे। जो लोग अक्सर धारणाएँ फैलाते हैं, वे परमेश्वर के कार्य से बेनकाब होकर हटा दिए जाते हैं; वे वो लोग हैं जो सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करते और जो सत्य नहीं स्वीकार सकते, वे सब सत्य से विमुख होते हैं और सत्य से घृणा करते हैं। यह सभी संदेहों से परे है।
विभिन्न देशों और स्थानों में कलीसियाई जीवन में धारणाएँ फैलाने की समस्या निश्चित रूप से मौजूद है क्योंकि जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते वे सर्वत्र मौजूद हैं। जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, जो सत्य से विमुख हैं, जो दैहिक सुख खोजते हैं, वे लोग और साथ ही छद्म-विश्वासी, बुरे और अन्य लोग चूँकि सत्य का अनुसरण नहीं करते, इसलिए वे हमेशा परमेश्वर के वचनों और देहधारी परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखते हैं। उनके दिल धारणाओं से भरे रहते हैं, परमेश्वर के बारे में कल्पनाओं और उससे की जाने वाली माँगों से भरे रहते हैं और वे परमेश्वर के कहे गए प्रत्येक वचन को शुद्ध रूप से समझ-बूझ नहीं सकते; वे उन्हें सिर्फ अपनी धारणाओं, प्राथमिकताओं, यहाँ तक कि अपने व्यक्तिगत लाभ और हानि के आधार पर समझते हैं। उनके दिल परमेश्वर के प्रति विभिन्न धारणाओं, कल्पनाओं और अनुचित माँगों से और साथ ही परमेश्वर के बारे में विभिन्न गलतफहमियों और आलोचनाओं इत्यादि से भरे रहते हैं। इसलिए इन लोगों का धारणाएँ फैलाना स्वाभाविक है—यह कोई नई बात नहीं है। जब तक ऐसे लोग मौजूद हैं, धारणाओं का फैलना समय-समय पर होता रहेगा और यह किसी भी क्षण हो सकता है। परमेश्वर जो कहता या करता है जब वह उनकी धारणाओं और इच्छाओं के अनुरूप नहीं होता और जब वह उनके हितों को नुकसान पहुँचाता है तो वे गुस्से से भड़क उठते हैं और अपने हितों की खातिर बोलना शुरू कर देते हैं और परमेश्वर और उसके कार्य के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं। ये लोग हमेशा सत्य और परमेश्वर के विरोध में खड़े होते हैं, परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के कार्य का विश्लेषण और पड़ताल करते हैं। वे लगातार परमेश्वर के वचनों और कार्यों के सही होने की जाँच-पड़ताल करते हैं और यह भी सत्यापित करना चाहते हैं कि परमेश्वर का देहधारी देह परमेश्वर की पहचान और हैसियत के अनुरूप है या नहीं। सत्यापन की अपनी प्रक्रिया के दौरान उन्हें सटीक उत्तर पाना बहुत मुश्किल लगता है; उनकी नजर में परमेश्वर के वचनों का पूरा होना और सच होना और भी ज्यादा मुश्किल है। इसलिए धारणाएँ फैलाते समय उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ होता है। चाहे जो भी समय, स्थान या संदर्भ हो, वे अपनी धारणाएँ फैलाते हैं। जब भी वे परमेश्वर से किसी भी तरह से असंतुष्ट महसूस करते हैं, तभी वे अपनी धारणाओं का उपयोग करके चीजें मापते हैं। अगर परमेश्वर के वचन और कार्य उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होते तो वे जल्दी से अपनी धारणाएँ व्यक्त कर देते हैं। इस तरह धारणाएँ व्यक्त करने को धारणाएँ फैलाना कहते हैं। इसे “धारणाएँ फैलाना” क्यों कहते हैं? क्योंकि वे जो चीजें व्यक्त करते हैं उनका परमेश्वर के चुने हुए लोगों, कलीसियाई जीवन या परमेश्वर के घर के कार्य पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता। इसके बजाय वे सिर्फ विघ्न, बाधाएँ उत्पन्न करते हैं और नुकसान पहुँचाते हैं। इसलिए ऐसी टिप्पणियाँ करने को “धारणाएँ फैलाना” कहना सही है।
धारणाएँ फैलाने की समस्या के बारे में कुछ बुनियादी समझ हासिल कर लेने के बाद तुम्हें सत्य के आधार पर लोगों की विभिन्न गलत धारणाओं और टिप्पणियों का गहन-विश्लेषण और उनकी पहचान करनी चाहिए और फिर उन्हें परमेश्वर के घर के नियमों के अनुसार सँभालना और हल करना चाहिए। बेशक, ऐसी समस्याएँ हल करने की जिम्मेदारी अगुआओं और कार्यकर्ताओं की है जिससे वे मुंह नहीं मोड़ सकते। साथ ही, इस संगति को सुनने के बाद परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों का भी दायित्व और जिम्मेदारी है कि वे धारणाएँ फैलाने वाले लोगों को उजागर कर उनका और उनके शब्दों और व्यवहारों का गहन-विश्लेषण करें। अगर तुममें उन्हें रोकने या प्रतिबंधित करने का साहस नहीं है तो तुम परमेश्वर के वचनों औरउस सत्य के आधार पर उनके साथ संगति और बहस कर सकते हो, जो तुम समझते हो। ऐसी बहस का क्या उद्देश्य है? इसका उद्देश्य छोटे आध्यात्मिक कद और सत्य की समझ नहीं रखने वाले लोगों को बहस सुनने के बाद यह समझने में सक्षम बनाना है कि किसके शब्द सत्य के अनुरूप हैं, बजाय इसके कि वे कुछ लोगों द्वारा फैलाई गई धारणाओं और भ्रांतियों से भ्रमित होकर गुमराह हो जाएँ। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों और कलीसियाई जीवन के लिए लाभदायक है। जब यह पता चले कि कोई व्यक्ति ऐसे शब्द बोल रहा है जो सत्य के अनुरूप नहीं हैं—चाहे वे इंसानी धारणाएँ हों या भ्रांतियाँ—तो उन पर बहस होनी चाहिए। ऐसी बहसें लोगों को शिक्षित करती हैं। कम से कम, इन बहसों को सुनने के बाद दर्शक स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि धारणाएँ फैलाने वालों के शब्द वास्तव में धारणाएँ हैं और वे समझ सकते हैं कि उन धारणाओं के कौन-से पहलू सत्य के अनुरूप नहीं हैं, उन धारणाओं का सार क्या है, वे सत्य के अनुरूप क्यों नहीं हैं, उन्हें धारणाएँ क्यों कहा जाता है, उन्हें फैलाने वाले लोगों को प्रतिबंधित क्यों किया जाना चाहिए, इत्यादि—वे इन मामलों में सटीक अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में सक्षम होते हैं, बजाय इसके कि वे भ्रमित होकर गुमराह हो जाएँ और कोई उनके साथ खिलवाड़ करे। हालाँकि लोगों द्वारा फैलाई गई धारणाएँ परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश और कलीसियाई जीवन में कुछ विघ्न उत्पन्न कर सकती हैं और उन्हें नुकसान पहुँचा सकती हैं, लेकिन इन चीजों का अनुभव करना असल में लोगों के लिए बुरी बात नहीं है। कम से कम, इससे उनकी भेद पहचानने की क्षमता बढ़ती है, वे देखते हैं कि धारणाएँ फैलाने वालों का असली रंग क्या है, वे देखते हैं कि धारणाएँ फैलाते समय वे क्या स्वभाव प्रकट करते हैं और उनके द्वारा फैलाई गई धारणाओं और सत्य के बीच अंतर क्या है। एक ओर लोग इन टिप्पणियों को समझने में सक्षम होंगे और इनके प्रति प्रतिरोधक क्षमता होगी। दूसरी ओर उन्हें ऐसे लोगों की कुछ पहचान भी होगी और वे जानेंगे कि छद्म-विश्वासियों द्वारा, उन लोगों द्वारा जिनके पास बिल्कुल भी सत्य नहीं है और जो अक्सर परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखते हैं, किस प्रकार के शब्द बोले जाते हैं, और वे जानेंगे कि उन लोगों की आस्था वास्तविक नहीं है—कम से कम, लोग भेद पहचानने की ऐसी क्षमता हासिल कर सकते हैं। बेशक, अगर तुमने अभी तक इन समस्याओं का सामना नहीं किया है तो यह कहते हुए अविवेकपूर्ण ढंग से प्रार्थना मत करना, “हे परमेश्वर, कृपा कर मेरे लिए एक परिवेश व्यवस्थित कर दो ताकि मैं देख सकूँ कि ‘लोगों द्वारा फैलाई जाने वाली धारणाओं’ का क्या मतलब है।” धारणाएँ फैलाने को देखना कोई खेल नहीं है और यह तुम्हें आसानी से गुमराह कर सकता है। और जब ये चीजें होती हैं तो तुम्हें उन्हें सही तरीके से सँभालना चाहिए। उन्हें पास से जाने मत दो या उनसे बचो मत; उनका सही तरीके से सामना करो और परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित हर परिवेश को एक गंभीर और सख्त रवैये के साथ लो। सत्य प्राप्त करने के लिए सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति का यही रवैया होना चाहिए। धारणाएँ फैलाने वाले किसी व्यक्ति से सामना होने पर तुम्हें परमेश्वर से यह प्रार्थना करना सीखना चाहिए : “हे परमेश्वर, कृपया मेरे साथ रहो, मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं इन शब्दों और ऐसे व्यक्ति को पहचान सकूँ और मुझे यह पहचानने में भी सक्षम बनाओ कि क्या इन लोगों की धारणाओं में से कोई धारणा मेरे भीतर है।” फिर, प्रार्थना करने के बाद जाओ और इस मामले को अनुभव करो। बेशक, यह वह समय भी होगा जब तुम्हारी इस बात की परीक्षा होगी कि तुम वास्तव में कितना सत्य समझते हो और तुम्हारा आध्यात्मिक कद कितना बड़ा है। जब कोई धारणाएँ फैला रहा हो तो अगर तुम उसे सुनते हो और तुम्हारे मन में कोई आंतरिक प्रतिक्रिया नहीं होती या कोई विचार नहीं आते और इसके बजाय तुम एक रेडियो की तरह होते हो—वे जो भी धारणाएँ व्यक्त करते और फैलाते हैं, उन्हें बिना किसी प्रतिरोध या अस्वीकारने की क्षमता के और इससे भी बढ़कर बिना उन्हें पहचानने की क्षमता के स्वीकार लेते हो—तो क्या यह बहुत तकलीफदेह नहीं है? कुछ लोग किसी को धारणाएँ व्यक्त करते सुनकर अपने दिल में महसूस करते हैं कि जो कहा जा रहा है वह गलत है और वे उस व्यक्ति के साथ संगति और बहस करना चाहते हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि खुद को उचित तरीके से कैसे व्यक्त करें या कैसे उन्हें उस व्यक्ति को उजागर कर उसका गहन-विश्लेषण करना चाहिए। वे इस बात से भी डरते हैं कि अगर वे प्रभावी ढंग से बहस करने में विफल रहे तो उन्हें शर्मिंदा होना पड़ेगा और फिर जब वे अंततः हार जाएँगे तो वे अपना सम्मान खो देंगे और एक अजीब स्थिति में फँस जाएँगे। हालाँकि वे यह सोचते हुए इसे बिना बहस किए छोड़ने के लिए भी तैयार नहीं होते : “मैंने बहुत सारे धर्मोपदेश सुने हैं और काफी कुछ समझता हूँ तो मेरे पास उनका खंडन करने के लिए शब्द क्यों नहीं हैं? मैं परमेश्वर के बारे में कोई धारणा नहीं रखता और मुझे परमेश्वर में सच्ची आस्था है तो अब जबकि उनकी भ्रांतियों का खंडन करने का समय है तो मैं चीजें स्पष्ट रूप से क्यों नहीं समझा सकता?” वे देखते हैं कि धारणाएँ फैलाने वाला व्यक्ति अधिकाधिक बोलता जा रहा है, और उसके शब्द अधिकाधिक अपमानजनक और घृणित होते जा रहे हैं, लेकिन वे उसका खंडन या गहन-विश्लेषण नहीं कर पाते और खड़े होकर उसे उजागर करने में असमर्थ रहते हैं, उसे रोकना तो दूर की बात है, जिससे वे अंदर से बेहद व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। यही क्षण होता है जब उन्हें एहसास होता है कि उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और वे देखते हैं कि सत्य के बारे में उनकी समझ ने अभी तक एक पूर्ण और सही दृष्टिकोण का आकार नहीं लिया है, वह सिर्फ कुछ खंडित वाक्यांश, प्रकाश और विचारों के बिखरे हुए टुकड़े भर है और सत्य का सच्चा ज्ञान बिल्कुल नहीं है। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि यह व्यक्ति धारणाएँ फैला रहा है और लोगों को गुमराह कर रहा है और यह एक छद्म-विश्वासी है और वे उसे उजागर कर उसके विचारों का खंडन करना चाहते हैं, बस उनके पास ऐसा करने के लिए उपयुक्त और सशक्त भाषा नहीं होती। वे सिर्फ इतना कह पाते हैं, “परमेश्वर जो करता है, अच्छा ही करता है; तुम्हें इसे स्वीकारना होगा। परमेश्वर पवित्र और पूर्ण है; वह वैसा बिल्कुल नहीं है जैसा तुम कहते हो। परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है और लोग सृजित प्राणी हैं। उन्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए। परमेश्वर के प्रति समर्पण करने से लोग कुछ खोते नहीं हैं।” वे सिर्फ सतही सिद्धांतों को ही स्वर दे सकते हैं जो महत्वपूर्ण बिंदुओं पर बिल्कुल भी प्रहार नहीं करते। इस विशेष घटना का अनुभव करने के बाद उन्हें एहसास होता है कि उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और वे सोचते हैं, “मैं इतना अक्षम क्यों हूँ? आम तौर पर मैं भव्य धर्म-सिद्धांतों के बारे में बहुत कुछ कह सकता हूँ, बहुत ही वाक्पटुता से बोल सकता हूँ; मैं किसी सभा में बिना किसी समस्या के एक घंटे तक बोल सकता हूँ और बिना किसी परेशानी के तीन से पाँच पृष्ठों का धर्मोपदेश लिख सकता हूँ और इस संबंध में बहुत आत्मविश्वास महसूस करता हूँ। लेकिन जब मेरा सामना किसी ऐसे व्यक्ति से होता है जो इस तरह धारणाएँ फैलाता है, इस तरह परमेश्वर की आलोचना और निंदा करता है तो मैं सतर्क होकर कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं देता? मैं एक सशक्त खुलासा और खंडन क्यों नहीं कर सकता?” इससे उन्हें क्या पता चलता है? क्या इससे उन्हें यह एहसास नहीं होता कि वे सत्य नहीं समझते? यह एहसास एक अच्छी चीज है या बुरी? (यह एक अच्छी चीज है।) अंत में, उन्हें अपना वास्तविक आध्यात्मिक कद पता चलता है। अगर उनका सामना किसी धारणाएँ फैलाने वाले व्यक्ति से नहीं हुआ होता तो शायद उन्हें अभी भी यही लगता कि उनका आध्यात्मिक कद है, वे सत्य समझते हैं, उनमें भेद पहचानने की क्षमता है, वे हर चीज की असलियत जान सकते हैं, विभिन्न आध्यात्मिक धर्म-सिद्धांतों का प्रचार कर सकते हैं और हर सत्य के बारे में बहुत अच्छी जानकारी के साथ थोड़ी-बहुत संगति कर सकते हैं। लेकिन जब उनका सामना किसी धारणाएँ फैलाने वाले व्यक्ति से होता है तो भले ही वे जानते हों कि यह गलत है, फिर भी वे खुद को असहाय पाते हैं, कुछ भी करने में असमर्थ होते हैं और अंततः हार जाते हैं। क्या यह शर्मनाक है? क्या यह गौरव की बात है? (नहीं।) तो, इसका समाधान कैसे किया जाना चाहिए? अगर तुम्हारे पास उससे तर्क-वितर्क करने के लिए सही शब्द नहीं हैं और तुम शर्मिंदगी से बचना भी चाहते हो और शैतान को पूरी तरह से शर्मिंदा करने और हराने के लिए अपनी गवाही में दृढ़ भी रहना चाहते हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए? मैं तुम्हें एक प्रभावी तरीका बताता हूँ : अगर तुम उसे अंतहीन रूप से धारणाएँ फैलाते हुए देखते हो और ज्यादातर लोगों में भेद पहचानने की क्षमता नहीं हो और वे उनसे प्रभावित हो जाते हों, लेकिन तुम उसे बहस में नहीं हरा सकते तो आक्रामक होने का समय आ गया है; मेज पर हाथ पटककर कहो, “चुप करो! तुम किस बारे में बात कर रहे हो? मैं शायद तुम्हें बहस में हरा नहीं पाऊँ, लेकिन मैं जानता हूँ कि तुम छद्म-विश्वासी हो! देखो तो सही तुम क्या कह रहे हो; क्या उसमें एक भी शब्द ऐसा है जो सत्य से मेल खाता हो? तुमने इतने सालों से परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लिया है—क्या तुमने कभी परमेश्वर की प्रशंसा या गवाही का एक शब्द भी बोला है? तुम्हें परमेश्वर से शिकायते हैं; अगर तुममें दम है तो सीधे तीसरे स्वर्ग जाकर परमेश्वर से सीधे बात करो। यहाँ विघ्न उत्पन्न करना बंद करो। मैं अब औपचारिक रूप से तुम्हें आदेश देता हूँ कि दफा हो जाओ!” क्या तुम लोग यह कहने की हिम्मत करोगे? क्या यह उतावला होना है? (नहीं, यह उतावला होना नहीं है।) यह शैतान को एक घोषणा जारी करना है। बस यह करो। उससे कहो, “दफा हो जाओ, छद्म-विश्वासी! तुमने परमेश्वर के इतने अनुग्रह का मुफ्त में आनंद लिया है, बेजमीर अभागे; तुम मनुष्य होने योग्य नहीं हो!” बस तीन शब्द : “दफा हो जाओ!” यह कैसा लगता है? यह सशक्त है, लेकिन इसे लापरवाही से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। तुम्हें आस्था में नए भाई-बहनों से यह नहीं कहना चाहिए जो अभी सत्य नहीं समझते, लेकिन छद्म-विश्वासियों और शैतान के सेवकों को तुम निर्ममतापूर्वक ऐसे आदेश दे सकते हो : “यह परमेश्वर का घर है, सच्चे भाई-बहनों का घर, उन लोगों का घर जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। यह दानवों और शैतानों का घर नहीं है। यहाँ दानवों और शैतानों की जरूरत नहीं है। तुम दानव और शैतान हो, इसलिए दफा हो जाओ!” क्या यह उचित है? (हाँ।) यह सबसे अच्छा तरीका नहीं है; यह सिर्फ इसलिए है क्योंकि तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है, चूँकि तुम्हारे पास शैतान से लड़ने के लिए पर्याप्त आध्यात्मिक कद नहीं है, इसलिए मैं तुम लोगों को यह तरीका सिखा रहा हूँ। असल में यह आदर्श नहीं है। आदर्श तरीका यह है कि—अगर तुम लोग बहुत-से सत्य समझते हो और परमेश्वर में सच्ची आस्था और उसका वास्तविक ज्ञान रखते हो—तो तुम उसका खंडन करने में सक्षम हो और तुम उसका इतनी अच्छी तरह खंडन करते हो कि वह पूरी तरह से शर्मिंदा हो जाता है और अंततः सभी से कहता है : “मैं अपनी आस्था नहीं रख सकता; मैं शर्मिंदा हूँ कि तुममें से किसी का भी सामना नहीं कर सकता। मैं एक दानव और शैतान हूँ; मैं खुद ही कलीसिया छोड़ दूँगा।” चूँकि अभी तुम लोगों के पास यह क्षमता नहीं है, इसलिए अक्सर धारणाएँ फैलाने वाले लोगों के साथ तुम्हें उस तरीके के अनुसार व्यवहार करना चाहिए जो मैंने तुम्हें सिखाया है।
क्या अब तुम जानते हो कि कलीसिया में अक्सर धारणाएँ फैलाने वालों को कैसे सँभालना है? क्या अब तुम उन्हें पहचान सकते हो जो लोगों को गुमराह करने के लिए धारणाएँ फैलाते हैं? (हाँ।) धारणाएँ फैलाने वाले भाषणों के मुख्य प्रकार क्या हैं? एक प्रकार परमेश्वर के वचनों को लक्षित करता है, दूसरा परमेश्वर के कार्य को लक्षित करता है और तीसरा परमेश्वर के स्वभाव और सार को लक्षित करता है। इस प्रकार के भाषण हल्के-फुल्के—कल्पनाओं और परमेश्वर की गलत व्याख्याओं—से लेकर गंभीर तक होते हैं, जैसे परमेश्वर की आलोचना, निंदा और ईशनिंदा करना। इनके अलावा लोगों की नकारात्मक और प्रतिरोधी टिप्पणियाँ भी होती हैं—जिनमें परमेश्वर के प्रति उनकी शिकायतें, अवज्ञा और असंतोष जैसी चीजें व्यक्त होती हैं। संक्षेप में, धारणाएँ फैलाने वाले शब्द परमेश्वर की अवहेलना, आलोचना, निंदा और ईशनिंदा करने की प्रकृति के होते हैं और उनके ये नतीजे होते हैं कि लोग परमेश्वर के प्रति शंकालु और सतर्क हो जाते हैं, उसे गलत समझते हैं और उससे दूर हो जाते हैं, यहाँ तक कि उसे अस्वीकार भी कर देते हैं। इन्हें पहचानना आसान होना चाहिए।
ग. धारणाओं के समाधान के सिद्धांत और मार्ग
धारणाएँ फैलाने के बारे में अभी भी कुछ चीजें हैं जिन पर संगति करने की जरूरत है। कुछ लोग कहते हैं : “जब धारणाएँ फैलाने की बात आती है तो हमें कलीसियाई जीवन के दौरान इसे उजागर करने और इसका गहन-विश्लेषण करने का अभ्यास करना चाहिए और इसे प्रतिबंधित करना चाहिए। लेकिन परमेश्वर में विश्वास करने के दौरान हम में विभिन्न धारणाएँ विकसित होने की संभावना होती है; यह हमारे नियंत्रण से परे की चीज है। इसलिए जब धारणाओं की बात आती है तो हमें अभ्यास का किस तरह का मार्ग अपनाना चाहिए ताकि हम सही तरीके से अभ्यास कर सकें और कलीसियाई जीवन के दौरान विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न न करें, दूसरों पर हानिकारक प्रभाव न डालें या अन्य लोगों के जीवन को नुकसान न पहुँचाएँ? कार्य करने का उचित तरीका क्या है?” क्या यह एक तथ्य नहीं है कि लोग धारणाएँ रखते हैं? क्या यह अपरिहार्य नहीं है? (हाँ, है।) कुछ लोग कहते हैं, “सिर्फ उन लोगों में धारणाएँ विकसित होंगी जो सत्य का अनुसरण नहीं करते।” क्या यह कथन सही है? यह सिर्फ आंशिक रूप से सही है। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे भी कभी-कभी विशेष परिस्थितियों का सामना करने पर परमेश्वर के बारे में धारणाएँ विकसित कर सकते हैं क्योंकि सत्य और परमेश्वर के इरादे समझने और परमेश्वर से संबंधित ज्ञान प्राप्त करने से पहले वे परमेश्वर के वचनों और कार्य के बारे में कुछ धारणाएँ विकसित कर लेंगे। ये धारणाएँ कुछ भ्रामक इंसानी विचार होते हैं जो सत्य के अनुरूप नहीं होते। कुछ धारणाएँ नैतिकता, फलसफे, परंपरागत संस्कृति, नैतिक सिद्धांतों आदि के अनुरूप हो सकती हैं और ऊपरी तौर पर ये विचार सही लग सकते हैं। लेकिन वे सत्य के अनुरूप नहीं होते बल्कि उसके प्रतिकूल होते हैं। यह एक तथ्य है। लोगों को इन धारणाओं का सामना कैसे करना चाहिए? सत्य का अनुसरण करने से पूर्व वे पहले से ही अपने साथ कई धारणाएँ लेकर चलते हैं; ये अंतर्निहित धारणाएँ होती हैं। सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया के दौरान बदलते परिवेशों और विभिन्न संदर्भों के कारण लोगों में बहुत-सी नई धारणाएँ उत्पन्न होंगी; ये अर्जित धारणाएँ होती हैं। दोनों प्रकार की धारणाएँ ऐसी चीजें हैं जिनका लोगों को परमेश्वर में विश्वास करने की अपनी यात्रा में सामना करने की जरूरत होती है। तो क्या धारणाएँ हल करने का कोई समाधान है? क्या अभ्यास का कोई मार्ग है? कुछ लोग कहते हैं, “इसे सँभालना आसान है। हम अपनी अंतर्निहित धारणाओं के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हैं; हमें उन पर कोई ध्यान देने की जरूरत नहीं है। हमें यकीन है कि सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में जैसे-जैसे हम सत्य समझेंगे, ये धारणाएँ धीरे-धीरे हल होकर समाप्त हो जाएँगी। जहाँ तक अर्जित धारणाओं का सवाल है, हम उन्हें हल करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करते हैं और हम उनसे विवश भी नहीं हैं। इसलिए आज तक हमने अपने दिलों में ऐसी धारणाएँ नहीं बनाई हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध, निंदा या ईशनिंदा जैसी चीजें करवा सकें।” अभ्यास का यह तरीका, धारणाओं का सामना करने और उन्हें सँभालने का यह तरीका कैसा है? क्या यह धारणाएँ हल कर सकता है? क्या इसमें कमियाँ हैं? क्या धारणाओं के प्रति यह रवैया सक्रिय और सकारात्मक है? (नहीं।) क्या इस रवैये का लोगों पर कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ता है? अगर तुम निष्क्रिय तरीके का इस्तेमाल कर इन धारणाओं को अनदेखा करते हो, उन्हें अपने हृदय के सबसे छिपे हुए हिस्सों में संगृहीत करते हो, जब भी वे बाहर आती हैं तो उन्हें दबा देते हो और प्रार्थना करते हो और फिर उन्हें हल हुआ मान लेते हो, जब भी वे फिर से प्रकट होती हैं तो उनसे इसी तरह निपटते हो और बाद में उनके बारे में नहीं सोचते और ऐसे व्यवहार करते हो जैसे कि वे कोई समस्या नहीं हैं और यह मानते हो, “जो भी हो, जिस परमेश्वर में मैं विश्वास करता हूँ वह अभी भी मेरा परमेश्वर है, मैं अभी भी परमेश्वर का सृजित प्राणी हूँ और परमेश्वर अभी भी मेरा सृष्टिकर्ता है; यह बदला नहीं है”—क्या यह धारणाएँ हल करने का सबसे प्रभावी तरीका है? क्या इससे सकारात्मक परिणाम प्राप्त होता है? क्या ऐसा अभ्यास धारणाओं को जड़ से पूरी तरह हल कर देता है? स्पष्ट रूप से नहीं। ये धारणाएँ चाहे जितनी भी बड़ी या छोटी हों या जितनी भी ज्यादा या कम हों, अगर वे लोगों के दिलों में मौजूद हैं तो वे उनके जीवन प्रवेश और परमेश्वर के साथ उनके रिश्ते पर कुछ नकारात्मक प्रभाव डालेंगी जिससे विघ्न उत्पन्न होंगे। खासकर जब लोग कमजोर होते हैं; जब वे ऐसे परिवेश का सामना करते हैं जिस पर वे काबू नहीं पा सकते; जब वे परमेश्वर के इरादे नहीं समझते, उनके पास अभ्यास का मार्ग नहीं होता और वे नहीं जानते कि परमेश्वर को कैसे संतुष्ट किया जाए; और जब उन्हें लगता है कि उनके उद्धार की कोई आशा नहीं है तो ये धारणाएँ उनके अंदर तेजी से उभरेंगी, उनके विचारों पर हावी हो जाएँगी, उनके दिलों पर कब्जा कर लेंगी, यहाँ तक कि उनके कलीसिया में रहने या कलीसिया छोड़ने पर भी असर डाल सकती हैं और उनके द्वारा चुने जाने वाले मार्ग को प्रभावित कर सकती हैं। हो सकता है कि कोई ऐसी धारणा हो जिसकी तुमने कभी परवाह नहीं की हो और जिसने कभी तुम्हें प्रभावित नहीं किया हो या तुम्हें नीचे नहीं गिराया हो—तुमने हमेशा यह माना हो कि तुम इसके स्वामी हो, तुम इसे नियंत्रित कर सकते हो—लेकिन किसी विफलता, बर्खास्तगी या हटाए जाने या परमेश्वर से कठोर अनुशासन और ताड़ना का अनुभव करने के बाद, यहाँ तक कि जब तुम्हें लगे कि तुम एक अथाह गड्ढे में गिर गए हो उस समय वह धारणा तुम्हारे लिए मात्र एक गौण वस्तु नहीं रह जाती। अगर तुम उसे अनदेखा करते भी हो तो भी वह तुम्हारे विचारों को बाधित और गुमराह कर सकती है, यहाँ तक कि तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों, परमेश्वर के प्रति तुम्हारे रवैये और परमेश्वर में तुम्हारी आस्था पर हावी भी हो सकती है। अगर तुम्हारे पास इन धारणाओं से निपटने के लिए अभ्यास का कोई उचित तरीका या सिद्धांत नहीं है या अगर तुम्हें उनकी स्पष्ट समझ नहीं है तो ये धारणाएँ रह-रहकर तुम्हारे जीवन प्रवेश या तुम्हारे तात्कालिक विकल्पों को प्रभावित करेंगी। यहाँ तक कि वे परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते और परमेश्वर के प्रति तुम्हारे रवैये को भी प्रभावित कर सकती हैं। तो किसी भी संदर्भ में विभिन्न धारणाएँ सामने आने पर लोगों को उनका सामना कर उनसे निपटने के लिए किस तरह का रवैया और तरीका अपनाना चाहिए ताकि नुकसान से बचा जा सके और सकारात्मक, लाभकारी परिणाम प्राप्त किया जा सके? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके बारे में स्पष्ट रूप से संगति की जानी चाहिए।
देह में रहने वाले लोगों की स्वतंत्र इच्छा और स्वतंत्र विचार होते हैं। चाहे वे शिक्षित हों या नहीं, उनकी काबिलियत जैसी भी हो या उनका लिंग जो भी हो, अगर लोगों के पास विचार हैं तो वे धारणाएँ उत्पन्न करेंगे। अगर कोई धारणा तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव पर हावी हो जाती है तो तुम उस धारणा के कारण परमेश्वर की अवहेलना करोगे। इसलिए लोगों में धारणाएँ होने की यह समस्या हल की ही जानी चाहिए। ऐसा नहीं है कि केवल धारणाएँ फैलाने वाले लोगों में ही धारणाएँ होती हैं; बस इतना है कि वे अपनी धारणाएँ फैलाते हैं, लापरवाही से परमेश्वर के विरोध में खड़े होकर उसके बारे में विभिन्न दृष्टिकोण और आलोचनाएँ फैलाते हैं। लेकिन क्या ऐसा है कि जो लोग धारणाएँ नहीं फैलाते, उनमें कोई धारणा नहीं होती? सभी में धारणाएँ होती हैं; यह एक तथ्य है। अंतर यह है कि जो लोग जानबूझकर धारणाएँ फैलाते हैं, उनका प्रकृति सार अंतर्निहित रूप से सत्य से विमुख होता है। चूँकि वे सत्य नहीं स्वीकारते और यह तक मानते हैं कि उनकी धारणाएँ सही और पूरी तरह सत्य के अनुरूप हैं, इसलिए अगर उनकी धारणाएँ सत्य से टकराती हैं तो वे सत्य के बजाय अपनी धारणाएँ स्वीकारना चुनते हैं। यहीं वे विफल होते हैं और इसीलिए उन्हें प्रतिबंधित किया जाता है और उनकी निंदा की जाती है। तो धारणाएँ उत्पन्न करने पर साधारण, सामान्य लोगों की निंदा क्यों नहीं की जाती? वह इसलिए कि उनमें से ज्यादातर लोग तार्किकता के साथ बोलते और क्रियाकलाप करते हैं और अपने दिलों में जानते हैं कि इंसानी धारणाएँ सत्य के अनुरूप नहीं होतीं और गलत होती हैं; हालाँकि वे अपनी धारणाएँ तुरंत हल नहीं कर पाते, लेकिन वे उन्हें त्यागने के लिए तैयार रहते हैं। जब वे सत्य स्वीकारना चुनते हैं तो उनकी आंतरिक धारणाएँ सत्य से प्रतिस्थापित होकर हल हो जाती हैं; वे अपनी धारणाएँ छोड़ देते हैं और फिर उनसे प्रभावित, प्रतिबंधित या नियंत्रित नहीं होते। इसलिए हालाँकि ये लोग धारणाएँ रखते हैं लेकिन उन्हें फैलाते नहीं हैं। वे अभी भी सामान्य रूप से अपने कर्तव्य निभा सकते हैं, सामान्य रूप से परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हैं, परमेश्वर के वचन और परमेश्वर का कार्य स्वीकार सकते हैं, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकते हैं और परमेश्वर के उद्धार के प्रति समर्पण कर सकते हैं। वे हमेशा स्वीकारते हैं कि वे सृजित प्राणी हैं और परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। अपने दिलों में वे चाहे जो भी धारणाएँ रखते हों, वे परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बनाए रख सकते हैं, एक सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता के बीच का संबंध बनाए रख सकते हैं, अपने कर्तव्य छोड़ने से बच सकते हैं, परमेश्वर का नाम त्यागने से बच सकते हैं और परमेश्वर में उनकी आस्था अपरिवर्तित रहती है। लेकिन जो भी हो, अगर धारणाएँ कभी हल नहीं की जाती हैं तो वे फिर भी लोगों को बर्बाद कर सकती हैं और उनके विनाश का कारण बन सकती हैं। इसलिए हमें अभी भी इस बारे में संगति करने की जरूरत है कि धारणाओं का सामना कर उन्हें हल कैसे करें।
तुम लोगों को क्या लगता है कि किसे हल करना आसान है : अंतर्निहित धारणाओं को जो परमेश्वर में विश्वास करने से पहले लोगों में होती हैं या उन धारणाओं को जिन्हें लोग परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के बाद विशेष परिवेशों और संदर्भों में विकसित कर लेते हैं? (अंतर्निहित धारणाओं को हल करना आसान है।) उन कल्पनाओं और धारणाओं को हल करना आसान है जो परमेश्वर में पहली बार विश्वास करना शुरू करते समय लोगों में होती हैं, जबकि उन धारणाओं को हल करना आसान नहीं होता जिन्हें वे परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के बाद उसके कार्य का अनुभव करते समय विकसित कर लेते हैं—यह एक सैद्धांतिक कथन है, लेकिन अंततः यह तथ्यों से मेल नहीं खाता। “सैद्धांतिक” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि इस तरह के निष्कर्ष लोग फलसफे और तर्क के आधार पर निकालते हैं। लोगों के पहली बार परमेश्वर में विश्वास शुरू करने और दर्शनों के बारे में सत्य समझने के बाद उनकी कुछ धारणाएँ छूट जाती हैं और उनका समाधान हो जाता है। वास्तव में यह समाधान सिर्फ सैद्धांतिक स्तर पर ही प्राप्त होता है; ऐसा लगता है कि इन धारणाओं का समाधान हो गया है, लेकिन परमेश्वर का अनुसरण करते समय लोगों द्वारा विकसित की गई कई धारणाएँ उनकी अंतर्निहित धारणाओं से संबंधित होती हैं। सैद्धांतिक रूप से इन दो प्रकार की धारणाओं में से अंतर्निहित धारणाएँ हल करना आसान है, लेकिन हकीकत में अगर लोग सत्य स्वीकार सकते हों और सकारात्मक चीजों से प्रेम कर सकते हों, अगर वे सत्य की समझ प्राप्त कर सकते हों, तो दोनों प्रकार की धारणाएँ हल करना आसान है। उदाहरण के लिए, तुममें से कुछ लोग कहते हैं कि अंतर्निहित धारणाएँ हल करना आसान है, लेकिन तुम्हारा सामना विकृत समझ वाले कुछ ऐसे लोगों से हो सकता है जो बहुत जिद्दी होते हैं और महत्वहीन विवरणों पर ध्यान केंद्रित रखते हैं, जो बाइबल, आध्यात्मिक शास्त्रीय ग्रंथों और बाइबल के व्याख्याकारों की व्याख्याओं की जाँच करते हैं; ये लोग जो पाते हैं उसे तुम्हारे सामने दोहरा देते हैं और चाहे तुम सत्य के बारे में कैसे भी संगति करो, वे उसे नहीं स्वीकारते। वे शुद्ध धर्मोपदेश, सत्य या सही वचन नहीं स्वीकार सकते; वे इन चीजों को सुनकर उन्हें ग्रहण नहीं करते। एक ओर उनकी समझने की क्षमता में समस्या होती है; दूसरी ओर वे सकारात्मक चीजों या सत्य से प्रेम नहीं करते, इसके बजाय वे जिद्दी होना और महत्वहीन विवरणों पर ध्यान केंद्रित रखना और भाषा के साथ खिलवाड़ करना पसंद करते हैं और उन्हें सिद्धांत और धर्मशास्त्र पसंद होते हैं। क्या ऐसे लोग अपनी धारणाएँ छोड़ सकते हैं? (नहीं।) तथ्यों से, ऐसे लोगों के स्वभाव और प्राथमिकताओं से आँकें तो, वे सत्य नहीं स्वीकार सकते। लोगों की शुरुआती धारणाएँ वाकई बहुत उथली और सतही होती हैं, उन्हें हल करना बहुत आसान होता है। अगर व्यक्ति में सामान्य सोच और समझने की सामान्य क्षमता है तो उसके साथ दर्शनों से संबंधित सत्य के बारे में संगति करने पर अगर वे उसे समझते हैं तो आसानी से अपनी धारणाएँ छोड़ सकते हैं। लेकिन एक प्रकार के लोग ऐसे भी होते हैं जिनकी सोच सामान्य नहीं होती, वे सत्य नहीं समझ पाते और सत्य नहीं स्वीकारते। क्या ऐसे लोग अपनी धारणाएँ छोड़ सकते हैं? (नहीं।) इसलिए ऐसे लोगों की धारणाएँ हल करना मुश्किल होता है। अगर व्यक्ति में सामान्य विवेक हो और वह सत्य स्वीकारने में सक्षम हो तो परमेश्वर में विश्वास करने के बाद उसके मन में परमेश्वर के बारे में चाहे जो भी धारणाएँ विकसित हों और वे धारणाएँ चाहे जिस भी परिवेश या संदर्भ में उत्पन्न हों, वे परमेश्वर से बहस नहीं करते। वे कहते हैं, “मैं मनुष्य हूँ, मुझमें भ्रष्ट स्वभाव हैं, मेरी सोच और क्रियाकलाप गलत हो सकते हैं। परमेश्वर सत्य है, परमेश्वर कभी गलत नहीं होता। मेरे विचार चाहे जितने भी उचित क्यों न हों, वे फिर भी इंसानी विचार हैं, वे मनुष्य से आते हैं और सत्य नहीं हैं। अगर वे परमेश्वर के वचनों या सत्य के विपरीत हैं तो वे विचार चाहे कितने भी उचित क्यों न हों, गलत हैं।” हो सकता है अभी उन्हें ठीक से पता नहीं हो कि उनकी ये धारणाएँ कहाँ गलत हैं, तो वे कैसे अभ्यास करते हैं? वे समर्पण का अभ्यास करते हैं, जिद्दी नहीं होते और कुछ विशेष विवरणों पर ध्यान केंद्रित नहीं रखते और यह विश्वास करते हुए मामले को छोड़ देते हैं कि एक दिन परमेश्वर इसका खुलासा करेगा। कोई उनसे पूछता है, “अगर परमेश्वर ने इसका खुलासा नहीं किया तो?” वे उत्तर देते हैं, “तो मैं हमेशा के लिए समर्पण करूँगा। परमेश्वर कभी गलत नहीं होता और परमेश्वर जो करता है वह भी कभी गलत नहीं होता। परमेश्वर जो करता है अगर वह इंसानी धारणाओं के अनुरूप नहीं हो तो इसका मतलब यह नहीं है कि परमेश्वर गलत है, बल्कि इसका मतलब यह है कि मनुष्य उसे समझ-बूझ नहीं पाते। इसलिए लोगों को जो सबसे ज्यादा करना चाहिए वह है पड़ताल नहीं करना, अपनी धारणाओं का राग अलापते नहीं रहना और अपनी धारणाओं का इस्तेमाल परमेश्वर में दोष खोजने के लिए नहीं करना, अपनी धारणाओं का इस्तेमाल परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करने और उसकी अवहेलना करने के एक कारण और बहाने के रूप में नहीं करना।” वे अपनी धारणाओं के साथ इसी तरह पेश आते हैं। क्या ऐसा अभ्यास सत्य का अभ्यास करना है? यह वास्तव में सत्य का अभ्यास करना है। जब वे धारणाएँ विकसित करते हैं तो वे परमेश्वर की तुलना उनसे नहीं करते या उनका इस्तेमाल परमेश्वर की पड़ताल करने, यह सत्यापित करने के लिए नहीं करते कि परमेश्वर सत्य है या नहीं या उसका अस्तित्व है या नहीं। इसके बजाय वे अपनी धारणाएँ छोड़ देते हैं और सत्य स्वीकारने और परमेश्वर को जानने का प्रयास करते हैं। फिर भी, हालाँकि वे परमेश्वर को जानने का भरसक प्रयास करते हैं तो भी वे उसे जान नहीं पाते। तो फिर वे क्या करते हैं? वे तब भी समर्पण करते हैं। वे कहते हैं, “परमेश्वर कभी गलत नहीं होता। परमेश्वर हमेशा परमेश्वर होता है। वह परमेश्वर ही है जो सत्य व्यक्त करता है। परमेश्वर सत्य का स्रोत है।” इन धारणाओं से निपटते हुए वे पहले परमेश्वर को परमेश्वर की स्थिति में और खुद को सृजित प्राणियों की स्थिति में रखते हैं। इसलिए भले ही उन्होंने अपनी धारणाओं को अलग न रखा हो या उनका समाधान न किया हो, परमेश्वर के प्रति समर्पण का उनका रवैया नहीं बदलता। यह रवैया उनकी रक्षा करता है, जिससे वे परमेश्वर के समक्ष सृजित प्राणी के रूप में पहचाने जाते हैं। तो क्या ऐसे लोगों की धारणाएँ हल करना आसान है? (हाँ।) इसे कैसे प्राप्त किया जाता है? मान लो किसी स्थिति से सामना होने पर उन्होंने इस तरह से कहा : “यह कहना कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सत्य है और सही होता है, परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और गलतियाँ नहीं कर सकता—क्या यह गलत नहीं है? हालाँकि यह कहा जाता है कि परमेश्वर गलतियाँ नहीं कर सकता, लेकिन यह सिर्फ एक सैद्धांतिक कथन है। असल में परमेश्वर कुछ ऐसी चीजें करता है जो विचारहीन होती हैं और इंसानी भावनाओं के अनुरूप नहीं होतीं। मुझे लगता है कि यह मामला पूरी तरह सही नहीं है। जो चीजें पूरी तरह सही नहीं हैं, मुझे उनके प्रति समर्पण करने या उन्हें स्वीकारने की जरूरत नहीं है, है ना? हालाँकि मैं परमेश्वर के नाम या उसकी पहचान से इनकार नहीं करता, लेकिन अब मैंने जो धारणाएँ विकसित की हैं उन्होंने मुझे परमेश्वर के बारे में ज्यादा अंतर्दृष्टि और बेहतर समझ दी है—परमेश्वर कुछ चीजें गलत भी करता है और ऐसे मौके भी आते हैं जब वह गलतियाँ करता है। इसलिए अब से जब लोग कहेंगे कि परमेश्वर धार्मिक, पूर्ण और पवित्र है तो मैं इस पर विश्वास नहीं करूँगा। मैं इन कथनों पर थोड़ा सवालिया निशान लगाऊँगा। हालाँकि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और मैं उसकी संप्रभुता स्वीकार सकता हूँ, लेकिन भविष्य में मुझे चयनात्मक रूप से स्वीकारने की जरूरत है और मैं भ्रमित रूप से और आँख मूँदकर समर्पण नहीं कर सकता। अगर मैंने गलत तरीके से समर्पण कर दिया तो? क्या मुझे नुकसान नहीं होगा? मैं ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता जो मूर्खतापूर्ण तरीके से समर्पण करता है।” अगर वे धारणाओं और परमेश्वर के साथ इस रवैये से पेश आते हैं तो क्या वे आसानी से अपनी धारणाएँ छोड़ सकते हैं? क्या ऐसा अभ्यास सत्य का अभ्यास करना है? (नहीं।) क्या उनके और परमेश्वर के बीच का रिश्ता समस्याग्रस्त नहीं हो गया है? क्या वे लगातार परमेश्वर की पड़ताल नहीं कर रहे हैं? परमेश्वर उनके भाग्य पर शासन करने वाले संप्रभु के बजाय उनकी जाँच-पड़ताल का विषय बन गया है। हालाँकि वे यह स्वीकारते हैं कि वे सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन एक सृजित प्राणी हैं, लेकिन वे जो कर रहे हैं वह एक सृजित प्राणी के कर्तव्य और दायित्व निभाना नहीं है। वे सृष्टिकर्ता के साथ सृजित प्राणी की अपनी मूल स्थिति से व्यवहार नहीं कर रहे हैं, बल्कि सृष्टिकर्ता के विरोध में खड़े हैं, सृष्टिकर्ता की पड़ताल कर रहे हैं और सृष्टिकर्ता के क्रियाकलापों और व्यवहार का विश्लेषण कर रहे हैं, अपने विवेक के आधार पर यह चुन रहे हैं कि समर्पण करना और स्वीकारना है या नहीं। क्या यह रवैया और अभ्यास का यह तरीका वे अभिव्यक्तियाँ हैं जो सत्य स्वीकारने वाले व्यक्ति में होनी चाहिए? क्या उनकी धारणाएँ हल की जा सकती हैं? (नहीं, वे हल नहीं की जा सकतीं।) वे कभी हल नहीं की जा सकतीं। वह इसलिए कि परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता विकृत हो गया है; वह एक सामान्य रिश्ता नहीं है, वह एक सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता के बीच का रिश्ता नहीं है। वे परमेश्वर को जाँच-पड़ताल की वस्तु समझते हैं, लगातार उसकी पड़ताल करते रहते हैं। वे जिसे सही और अच्छा समझते हैं उसे स्वीकारते हैं, लेकिन जो इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं या इंसानी प्राथमिकताओं के अनुरूप नहीं होता, उसके लिए आंतरिक रूप से परमेश्वर का विरोध करते हैं और उससे झगड़ते हैं और परमेश्वर से विरक्त हो जाते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति सत्य स्वीकारने वाला व्यक्ति होता है? ऊपरी तौर पर, किसी घटना की गैर-मौजूदगी में और परमेश्वर के बारे में किसी भी धारणा के बिना वे परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों के प्रति समर्पण कर सकते हैं। लेकिन जब वे धारणाएँ विकसित कर लेते हैं तो उनका समर्पण गायब हो जाता है; वह कहीं नहीं दिखता और उसे क्रियान्वित नहीं किया जा सकता। यहाँ क्या हो रहा है? यह स्पष्ट है कि वे वो लोग नहीं हैं जो सत्य का अभ्यास करते हैं। वे परमेश्वर को सत्य का स्रोत या स्वयं सत्य नहीं मानते। जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते, उनके लिए अपनी धारणाएँ छोड़ना या हल करना कठिन है, चाहे वे जब भी उठती हों।
उपरोक्त संगति की विषय-वस्तु को देखते हुए, तुम लोगों के विचार से किस प्रकार की धारणा को सुलझाना आसान है? यह परिस्थिति पर निर्भर करता है। जो लोग सत्य को स्वीकार सकते हैं, जिनके पास विवेक है और जो सही लोग हैं, उनकी धारणाओं को सुलझाना आसान है, चाहे वे कभी भी जागें। जो लोग सत्य को स्वीकार नहीं सकते हैं, उनकी धारणाओं को सुलझाना मुश्किल है, चाहे वे कभी भी जागें। कुछ लोग बीस या तीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखे हुए हैं, और अब भी, वे जो कुछ भी कहते हैं, वह सत्य के अनुरूप नहीं होता है; ये सब सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत और मानवीय धारणाएँ होती हैं। वे किसी भी सत्य को बिल्कुल नहीं समझते हैं—क्या वे जागने पर अपनी धारणाओं को छोड़ सकते हैं? यह कहना मुश्किल है। अगर वे सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं, तो वे अपनी धारणाओं को नहीं छोड़ पाएँगे। लोगों में धारणाएँ होना अवश्यंभावी है। हर किसी के मन में किसी भी समय अलग-अलग तरह की धारणाएँ उत्पन्न हो सकती हैं, चाहे वे अंतर्निहित हों या प्राप्त की गई हों। हर किसी के दिल में धारणाएँ होती हैं, चाहे वह कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखता आ रहा हो। तो क्या करना चाहिए? क्या यह समस्या बिल्कुल भी सुलझने योग्य नहीं है? इसे सुलझाया जा सकता है; ऐसे कुछ सिद्धांत हैं जिन्हें याद रखना चाहिए। ये सिद्धांत बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। जब तुम ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हो, तो इन सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करो। कुछ समय अभ्यास करने के बाद, तुम्हें नतीजे दिखाई देंगे, और तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। जब धारणाएँ उत्पन्न होती हैं, तो चाहे वह धारणा कोई भी हो, पहले अपने दिलों में इस बात पर विचार करो और इसका विश्लेषण करो कि यह सोच सही है या नहीं है। अगर तुम्हें स्पष्ट रूप से लगता है कि यह सोच गलत और विकृत है, और यह परमेश्वर का तिरस्कार करती है, तो फौरन प्रार्थना करो, और परमेश्वर से कहो कि वह इस समस्या के सार को पहचानने के लिए तुम्हें प्रबुद्ध करे और तुम्हारा मार्गदर्शन करे, और उसके बाद, सभा के दौरान अपनी समझ पर चर्चा करो। समझ प्राप्त करते और चीजें अनुभव करते समय अपनी धारणाएँ सुलझाने पर ध्यान केंद्रित करो। अगर इस तरह से अभ्यास करने से स्पष्ट नतीजे प्राप्त नहीं होते हैं, तो तुम्हें सत्य के इस पहलू के बारे में किसी ऐसे व्यक्ति के साथ संगति करनी चाहिए जो सत्य को समझता है, और दूसरों से सहायता और परमेश्वर के वचनों से समाधान प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों और अपने अनुभवों के जरिये, तुम धीरे-धीरे यह सत्यापित करोगे कि परमेश्वर के वचन सही हैं, और तुम अपनी खुद की धारणाएँ सुलझाने के मुद्दे के बारे में बड़े नतीजे प्राप्त करोगे। परमेश्वर के ऐसे वचनों और कार्यों को स्वीकार करके और उनका अनुभव करके, अंत में तुम परमेश्वर के इरादों को समझ जाओगे और परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त करोगे, जो तुम्हें अपनी धारणाओं को छोड़ने और उन्हें सुलझाने में सक्षम बनाएगा। तुम अब परमेश्वर को गलत नहीं समझोगे या उससे सतर्क नहीं रहोगे, और ना ही तुम अनुचित माँगें करोगे। यह आसानी से सुलझने योग्य धारणाओं के लिए है। लेकिन एक और किस्म की धारणा है जिसे लोगों के लिए समझना और सुलझाना मुश्किल है। जिन धारणाओं को सुलझाना मुश्किल है, उनके लिए तुम्हें एक सिद्धांत को बनाए रखने की जरूरत है : उन्हें व्यक्त मत करो और ना ही उन्हें फैलाओ, क्योंकि ऐसी धारणाएँ व्यक्त करने से दूसरों का कुछ भी भला नहीं होता है; यह परमेश्वर की अवहेलना करने का एक तथ्य है। अगर तुम धारणाओं को फैलाने की प्रकृति और परिणामों को समझते हो, तो तुम्हें इसे खुद स्पष्ट रूप से मापना चाहिए और बिना विचारे बोलने से बचना चाहिए। अगर तुम कहते हो, “कलीसिया में अपने शब्दों को रोककर रखना भयानक लगता है; मुझे लगता है जैसे मैं फट जाऊँगा,” तो तुम्हें अब भी इस पर सोच-विचार करना चाहिए कि इन धारणाओं को फैलाना सही मायने में परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए फायदेमंद है या नहीं। अगर यह फायदेमंद नहीं है और दूसरों को परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखने, या यहाँ तक कि परमेश्वर की अवहेलना और आलोचना करने के लिए उकसा भी सकता है, तो क्या तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान नहीं पहुँचा रहे हो? तुम लोगों को नुकसान पहुँचा रहे हो; यह महामारी फैलाने से कुछ अलग नहीं है। अगर तुममें सही मायने में विवेक है, तो तुम धारणाएँ फैलाने और दूसरों को नुकसान पहुँचाने के बजाय खुद दर्द सहना पसंद करोगे। लेकिन अगर तुम्हें अपने शब्दों को रोककर रखना बहुत दर्दनाक लगता है, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। अगर समस्या सुलझ जाती है, तो क्या यह अच्छी चीज नहीं है? अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते करने के बावजूद अपनी धारणाओं से परमेश्वर की आलोचना करते हो और उसे गलत समझते हो, तो तुम सिर्फ खुद को मुसीबत में डाल रहे हो। तुम्हें परमेश्वर से इस तरह प्रार्थना करनी चाहिए : “परमेश्वर, मेरे मन में ये विचार हैं, और मैं उन्हें छोड़ना चाहता हूँ, लेकिन मैं इन्हें नहीं छोड़ पा रहा हूँ। कृपया मुझे अनुशासित करो, अलग-अलग तरह के परिवेशों के जरिये मेरा खुलासा करो, और मुझे यह पहचानने दो कि मेरी धारणाएँ गलत हैं। चाहे तुम मुझे कैसे भी अनुशासित क्यों ना करो, मैं इसे स्वीकारने को तैयार हूँ।” यह मानसिकता सही है। इस मानसिकता से परमेश्वर से प्रार्थना करने के बाद, क्या तुम कम घुटन महसूस नहीं करोगे? अगर तुम प्रार्थना करना और तलाशना जारी रखते हो, परमेश्वर से प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त करते हो, परमेश्वर के इरादों को समझते हो, और तुम्हारा दिल उज्ज्वल हो जाता है, तो फिर तुम्हें घुटन महसूस नहीं होगी। फिर क्या यह समस्या सुलझ नहीं जाएगी? परमेश्वर के प्रति तुम्हारी धारणाएँ, प्रतिरोध और विद्रोहीपन ज्यादातर गायब हो जाएँगे; कम-से-कम, तुम्हें उन्हें व्यक्त करने की जरूरत महसूस नहीं होगी। अगर यह अब भी कारगर नहीं होता है और समस्या पूरी तरह से नहीं सुलझती है, तो अपनी धारणाओं को सुलझाने में मदद करने के लिए किसी अनुभवी व्यक्ति को ढूँढो। उसे अपनी धारणाओं को सुलझाने से संबंधित परमेश्वर के वचनों के कुछ भाग ढूँढ निकालने के लिए कहो, और उन्हें दर्जनों या सैकड़ों बार पढ़ो; शायद इससे तुम्हारी धारणाएँ पूरी तरह से सुलझ जाएँगी। कुछ लोग कह सकते हैं, “अगर मैं भाई-बहनों के साथ सभा के दौरान धारणाएँ व्यक्त करता हूँ, तो यह धारणाएँ फैलाना होगा, इसलिए मैं ऐसा नहीं कर सकता। लेकिन उन्हें अपने भीतर रोककर रखना भयानक लगता है। क्या मैं अपने परिवार से उनके बारे में बात कर सकता हूँ?” अगर तुम्हारे परिवार के सदस्य भी आस्था रखने वाले भाई-बहन हैं, तो उनके सामने इन धारणाओं को व्यक्त करने से वे भी परेशान हो जाएँगे। क्या यह उचित है? (नहीं।) अगर तुम्हारी बातों का दूसरों पर हानिकारक प्रभाव पड़ेगा, वह उन्हें नुकसान पहुँचाएगा और गुमराह करेगा, तो तुम्हें इसे बिल्कुल नहीं कहना चाहिए। इसके बजाय, इस मुद्दे को सुलझाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करो। अगर तुम प्रार्थना करते हो और एक ऐसे धर्मनिष्ठ दिल से परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हो, जो धार्मिकता के लिए भूखा-प्यासा है, तो तुम्हारी धारणाएँ सुलझ सकती हैं। परमेश्वर के वचनों में व्यापक सत्य निहित है; वे किसी भी समस्या को सुलझा सकते हैं। यह बस इस बात पर निर्भर करता है कि तुम सत्य को स्वीकार सकते हो या नहीं और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने को तैयार हो या नहीं, और तुम अपनी धारणाओं को छोड़ सकते हो या नहीं। अगर तुम मानते हो कि परमेश्वर के वचनों में व्यापक सत्य निहित है, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और समस्याओं के उत्पन्न होने पर उन्हें सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए। अगर कुछ समय प्रार्थना करने के बाद भी तुम परमेश्वर द्वारा प्रबुद्ध महसूस नहीं करते हो और तुम्हें परमेश्वर से इस बारे में स्पष्ट वचन नहीं मिलते हैं कि क्या करना है, लेकिन अनजाने में अब तुम्हारी धारणाएँ तुम्हें आंतरिक रूप से प्रभावित नहीं करती हैं, तुम्हारे जीवन में विघ्न नहीं डालती हैं, धीरे-धीरे लुप्त हो जाती हैं, परमेश्वर के साथ तुम्हारे सामान्य रिश्ते को प्रभावित नहीं करती हैं, और यकीनन तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित नहीं करती हैं, तो क्या यह धारणा मूल रूप से सुलझ नहीं गई है? (बिल्कुल।) यही अभ्यास का मार्ग है।
जो लोग सत्य नहीं समझते, उन्हें सबसे पहले यह याद रखना चाहिए कि जब उनमें धारणाएँ हों तो उन्हें उन धारणाओं को हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। उन्हें उन धारणाओं को कभी फैलाना नहीं चाहिए या अनर्गल नहींं बोलना चाहिए, यह नहीं कहना चाहिए, “मुझे बोलने की आजादी है। आखिर यह मेरा मुँह है; मैं जो चाहूँ, जिससे चाहूँ और जिस भी माहौल में चाहूँ, कह सकता हूँ।” इस तरह से बोलना गलत है। कुछ अच्छे या सही शब्द बोले जाने पर जरूरी नहीं कि दूसरों को फायदा पहुँचाएँ, लेकिन जो शब्द धारणाएँ या शैतान के प्रलोभन हैं, उनके बोले जाने पर अथाह द्ष्परिणाम हो सकते हैं। अगर तुम्हारी कोई धारणा है जिसे तुम व्यक्त करने पर जोर देते हो और तुम्हें लगता है कि ऐसा करना अच्छा लगता है और तुम्हें खुशी देता है तो इन परिणामों के आधार पर तुम्हारे क्रियाकलापों को दुष्कर्मों के रूप में वर्णित करना पड़ेगा और परमेश्वर उन्हें तुम्हारे खिलाफ दर्ज करेगा। उन्हें तुम्हारे खिलाफ क्यों दर्ज किया जाएगा? तुम्हें अभ्यास के कई सकारात्मक तरीके, मार्ग और सिद्धांत बताए गए हैं, लेकिन तुमने उन्हें नहीं चुना; इसके बजाय तुमने ऐसा रास्ता चुना जो लोगों को नुकसान पहुँचाता है—यह इरादतन था, है ना? तो क्या तुम्हारे क्रियाकलापों को दुष्कर्म कहना अतिशयोक्ति है? (नहीं।) दूसरों को बाधित और गुमराह करने के लिए अपनी धारणाएँ सामने लाने के बजाय तुम इस समस्या को अनुभव और परमेश्वर से प्रार्थना और खोज के जरिये पूरी तरह से खुद हल करना चुन सकते हो। यही तरीका है जिसे जमीर और विवेक वाले व्यक्ति को चुनना चाहिए। तो तुम यह तरीका क्यों नहीं चुनते? वह तरीका क्यों चुनते हो जो दूसरों को नुकसान और चोट पहुँचाए? क्या यह वह काम नहीं है जो शैतान करेगा? बुरे लोग वे चीजें करते हैं जो दूसरों और खुद को नुकसान पहुँचाती हैं। अगर तुम भी ऐसी चीजें करते हो तो क्या परमेश्वर इससे घृणा करता है? (हाँ।) अगर परमेश्वर तुम्हारी धारणाओं की निंदा नहीं करता तो भी तुम्हें अपनी धारणाएँ हल करने के लिए खुद सत्य खोजना चाहिए और तुम्हारे पास सत्य का अभ्यास करने का मार्ग होना चाहिए। अगर धारणाओं से निपटने का तुम्हारा तरीका जानबूझकर दूसरों को गुमराह करने और नुकसान पहुँचाने के लिए उन्हें फैलाना है, कलीसियाई जीवन और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश और उनकी सामान्य अवस्थाओं में विघ्न डालना है तो तुम्हारे क्रियाकलाप दुष्कर्म हैं। ऐसी स्थिति से सामना होने पर व्यक्ति को क्या विकल्प चुनना चाहिए? मानवता से युक्त व्यक्ति जो सत्य का अनुसरण करता है, ऐसा मार्ग नहीं चुनेगा जो दूसरों को गुमराह करे और नुकसान पहुँचाए; वह सक्रिय, सकारात्मक सिद्धांतों का अभ्यास और पालन करना चुनेगा, प्रार्थना करने और सत्य खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आएगा और समस्या हल करने के लिए परमेश्वर से मदद माँगेगा। कुछ लोग कहते हैं, “जब मैं परमेश्वर से मदद करने के लिए कहता हूँ तो मुझे हमेशा लगता है कि उसकी मदद अमूर्त और अदृश्य है। क्या मैं उसके बजाय लोगों से मदद माँगना चुन सकता हूँ?” हाँ, तुम किसी ऐसे व्यक्ति को चुन सकते हो जो तुमसे ज्यादा सत्य समझता हो और जिसका आध्यात्मिक कद तुमसे बड़ा हो, कोई ऐसा व्यक्ति जिसके बारे में तुम मानते हो कि वह तुम्हारी समस्या बिना बाधित हुए और तुम्हारी धारणाओं से प्रभावित होकर कमजोर हुए बिना हल कर सकता हो, कोई ऐसा व्यक्ति जिसने समान समस्याओं का अनुभव किया हो और तुम्हें बता सके कि उन्हें कैसे हल किया जाए—यह मार्ग भी उचित है। अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति को चुनते हो जो आमतौर पर काफी भ्रमित रहता है और किसी भी चीज की असलियत नहीं देख पाता और इस मामले के बारे में सुनकर वह तुरंत हंगामा खड़ा कर देता है, हर जगह धारणाएँ प्रसारित करना और विघ्न उत्पन्न करना चाहता है और विश्वास करना बंद करना चाहता है—तो तुम्हारे क्रियाकलाप अनजाने ही कलीसियाई जीवन में विघ्न डाल चुके होंगे। क्या तब तुम्हारे क्रियाकलाप दुष्कर्मों के रूप में वर्णित नहीं किए जाएँगे? (हाँ, किए जाएँगे।) इसलिए जब बात यह आती है कि तुम्हें धारणाएँ कैसे सँभालनी चाहिए तो तुम्हें सावधान और सतर्क रहना चाहिए, भ्रमित या आवेगपूर्ण तरीके से क्रियाकलाप नहीं करना चाहिए और धारणाओं को सत्य बिल्कुल नहीं मानना चाहिए—इंसानी विचार कितने भी सही क्यों न हों, सत्य नहीं होते। इस तरह तुम बहुत शांत महसूस करोगे और तुम्हारी धारणाएँ कोई परेशानी पैदा नहीं कर पाएँगी। धारणाएँ होना कोई डरने की बात नहीं है—अगर तुम सत्य खोजते हो तो वे अंततः हल हो जाएँगी। कुछ लोग कहते हैं, “लेकिन धारणाएँ हल करना आसान नहीं है।” कुछ धारणाएँ हल करना वाकई मुश्किल है तो क्या किया जाना चाहिए? यह आसान है। कुछ धारणाएँ कुछ लोगों के विचारों और दिमागों में कभी हल नहीं होतीं। यह पहले से ही एक तथ्य है, लेकिन किसी धारणा को हल करना कितना भी मुश्किल क्यों न हो, वह फिर भी सत्य नहीं होती। अगर तुम यह बात समझते हो तो समस्या सँभालना आसान है। यहाँ एक तथ्य है जो मुझे तुम लोगों को बताना है : परमेश्वर यह अपेक्षा नहीं करता कि उसके द्वारा की जाने वाली हर चीज हर कोई पूरी तरह से या स्पष्ट रूप से समझे; वह यह अपेक्षा नहीं करता कि हर कोई उसके भीतर का सत्य जाने या यह जाने कि वह किसी निश्चित तरीके से क्रियाकलाप क्यों करता है। परमेश्वर यह नहीं चाहता; वह लोगों से यह अपेक्षा नहीं करता। अगर तुम्हारी काबिलियत पर्याप्त है तो समझ का जो भी स्तर तुम हासिल करते हो वह अच्छा है—बस भरसक प्रयास करो। अगर तुम नहीं समझ सकते तो जैसे-जैसे तुम बड़े होते हो और तुम्हारे अनुभव ज्यादा से ज्यादा गहन होते जाते हैं और तुम ज्यादा अनुभव संचित कर लेते हो, तो सत्य के बारे में तुम्हारी समझ भी धीरे-धीरे गहन होती जाएगी और तुम्हारी धारणाएँ कम होती जाएँगी। लेकिन ज्यादातर लोग कुछ विशेष मामले समझने में असमर्थ होते हैं और उन्हें कभी नहीं समझ पाते। क्या परमेश्वर उन्हें वे मामले समझने के लिए मजबूर करता है? वह ऐसा नहीं करता; परमेश्वर उनमें समझ जबरदस्ती नहीं ठूँसता। उदाहरण के लिए, परमेश्वर द्वारा बनाई गई तमाम चीजों में कई रहस्य हैं जिन्हें लोग जानना चाहते हैं लेकिन नहीं जान पाते। लेकिन परमेश्वर अपने वचनों और कार्य में लोगों को शुद्ध कर बचाने के लिए सिर्फ सत्य व्यक्त करने पर ध्यान केंद्रित करता है। वह शायद ही कभी अन्य मामलों का उल्लेख करता है और जब कभी करता भी है तो सिर्फ संक्षिप्त तरीके से करता है; परमेश्वर लोगों को ये मामले कभी बहुत विस्तार से नहीं समझाता। क्यों नहीं समझाता? क्योंकि लोगों को ये चीजें समझने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर लोगों पर जो कार्य करता है, उसमें एक ओर वह अपना स्वभाव सार प्रकट करता है; दूसरी तरफ, परमेश्वर के पास अपने विचार, अपनी योजनाएँ, जो वह करता है उसके स्रोत और लक्ष्य, विभिन्न लोगों पर कार्य करने के लिए उसके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले तरीके और पद्धतियाँ, उसके द्वारा सभी चीजों पर संप्रभुता रखने के तरीके और पद्धतियाँ इत्यादि होते हैं। परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि बचाए जाने के लिए लोगों को तमाम सत्य समझने चाहिए और उनमें प्रवेश करना चाहिए। वह इसलिए कि परमेश्वर बहुत सर्वशक्तिमान है! उसके क्रियाकलाप करने, बोलने, कार्य करने और सभी चीजों पर संप्रभुता रखने के तरीके स्वाभाविक रूप से उसका स्वभाव, सार, पहचान इत्यादि प्रकट करते हैं। हालाँकि परमेश्वर स्वाभाविक रूप से वे चीजें प्रकट करता है जो उसके पास हैं और जो वह स्वयं है, लेकिन वह यह माँग नहीं करता कि लोग उन सभी को समझें या बूझें। वह इसलिए कि परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा और वह सर्वशक्तिमान है जबकि सृजित मनुष्य बहुत छोटा और पूरी तरह से शक्तिहीन है; मनुष्य और परमेश्वर के बीच अंतर की गहरी खाई है! इसलिए लोगों का परमेश्वर के बारे में कुछ धारणाएँ और कल्पनाएँ विकसित कर लेना बहुत सामान्य है। परमेश्वर इसे गंभीरता से नहीं लेता, लेकिन तुम हमेशा इसे बहुत गंभीरता से लेते हो और इस पर ध्यान केंद्रित रखते हो। यह नजरिया काम नहीं करेगा। अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है और उच्च काबिलियत रखता है तो अगर तुम सत्य समझते हो और परमेश्वर के बारे में सच्चा ज्ञान रखते हो तो ये धारणाएँ और कल्पनाएँ स्वाभाविक रूप से हल हो जाएँगी। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और चाहे कोई भी तुम्हारे साथ सत्य की संगति करे, तुम उसे नहीं स्वीकारते और हमेशा अपनी धारणाओं से चिपके रहते हो तो इसका क्या परिणाम होगा? इसका परिणाम यह होगा कि भले ही तुम अपने जीवन के अंत या उस बिंदु पर पहुँच जाओ जहाँ परमेश्वर का कार्य पूरी तरह से समाप्त हो चुका होगा, फिर भी तुम सत्य प्राप्त नहीं कर पाओगे, बल्कि अपनी धारणाओं और कल्पनाओं द्वारा मृत्यु की ओर ले जाए जाओगे। भले ही तुम परमेश्वर के आध्यात्मिक शरीर को प्रकट होते हुए देखो, फिर भी तुम परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ हल नहीं कर पाओगे। क्या परमेश्वर तुम्हें तमाम तथ्य और जो सच है वह सिर्फ इसलिए बताएगा कि तुम ये धारणाएँ हल नहीं कर सकते? एक ओर उसके लिए ऐसा करना अनावश्यक है; दूसरी ओर एक तथ्य है जो यह है कि मनुष्य के मन-मस्तिष्क में ये चीजें प्राप्त करने के लिए आवश्यक विशाल क्षमता नहीं है। परमेश्वर जो कार्य करता है, वह मनुष्य की कल्पना और सभी चीजों से परे है। सभी चीजों की तुलना में मनुष्य समुद्रतट पर रेत के एक कण की तरह है। यह वर्णन तथ्यों के करीब है और उचित माना जा सकता है। अगर परमेश्वर तुम्हें सब कुछ बताना चाहे तो भी क्या तुममें यह सब समझने की क्षमता है? कुछ लोग कहते हैं, “मैं यह सब क्यों नहीं समझ सकता? अगर परमेश्वर ने और ज्यादा कहा तो मैं और ज्यादा समझ और प्राप्त कर सकता हूँ। उस स्थिति में मैं कृपापात्र बन जाऊँगा!” यह एक कपोल-कल्पना है; तुम अपनी क्षमता बढ़ा-चढ़ाकर आँक रहे हो। वास्तव में चीजें ऐसी नहीं हैं। परमेश्वर की नजर में, वह जो चीजें तुम्हें बताता है वे सभी बहुत सरल और स्पष्ट होती हैं; वे ऐसी चीजें होती हैं जिन्हें लोग समझ सकते हैं। वास्तव में ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिनके बारे में परमेश्वर ने नहीं बोला है क्योंकि लोग उन्हें समझ नहीं सकते। इसलिए यह बहुत सामान्य है कि तुम्हारी कुछ धारणाएँ अंततः हल नहीं हो पाएँगी। जो चीजें परमेश्वर चाहता है कि तुम समझो और जिन्हें वह तुम्हें बताना चाहता है या जिन्हें तुम सहन कर सकते और समझ सकते हो, उन्हें तुम समझ जाओगे। जहाँ तक उन चीजों का सवाल है जिन्हें तुम सहन नहीं कर सकते या समझ नहीं सकते, जिन्हें तुम्हारी भौतिक आँखें देख नहीं सकतीं, उन्हें अगर परमेश्वर तुम्हें बता भी दे तो भी यह व्यर्थ होगा और मेहनत बेकार जाएगी। नतीजतन, परमेश्वर तुम्हें ये चीजें नहीं बताता। ऐसी धारणाओं को अगर तुम अपने मरने तक या परमेश्वर का कार्य समाप्त होने तक भी नहीं समझ पाते तो यह किसे प्रभावित करता है? क्या यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण को प्रभावित करता है? क्या यह तुम्हारे द्वारा सृजित प्राणी की भूमिका ग्रहण करने को प्रभावित करता है? क्या यह तुम्हारे द्वारा परमेश्वर की पहचान और सार जानने को प्रभावित करता है? अगर तुम इनमें से किसी भी रूप में प्रभावित नहीं होते तो तुम बचा लिए जाओगे। तो क्या ऐसी धारणा को अभी भी हल करने की जरूरत है? नहीं। यह अंतिम प्रकार की धारणा है, एक ऐसी धारणा जिसे मृत्यु के समय भी हल नहीं किया जा सकता। कुछ लोग कहते हैं, “हे परमेश्वर, मैं अभी भी तुम्हारे द्वारा किए गए इस कार्य, तुम्हारे द्वारा कहे गए इन वचनों और तुम्हारे द्वारा व्यवस्थित किए गए इस परिवेश को नहीं समझता। क्या तुम मुझे मेरे मरने से पहले बता सकते हो ताकि मैं शांति से मर सकूँ?” परमेश्वर ऐसे अनुरोध नजरअंदाज कर देता है। तुम शांति से जा सकते हो; तुम आध्यात्मिक लोक में सब कुछ समझ जाओगे।
लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर के अपने खुद के मानक हैं; यह इस बात पर आधारित नहीं है कि तुमने कितनी अच्छी तरह से अपनी धारणाओं को सुलझाया है या तुमने उनमें से कितनी धारणाओं को छोड़ दिया है। इसके बजाय, यह परमेश्वर से तुम कितने भयभीत हो और उसके प्रति कितने समर्पित हो, इस बात पर आधारित है, फिर चाहे तुम सही मायने में उसका भय मानो या ना मानो और उसके प्रति समर्पण करो या ना करो। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसका एक अर्थ होता है, और चाहे उसे स्वीकार करना तुम्हारे लिए आसान हो या तुम्हारे लिए मुश्किल हो, और चाहे वह तुम्हारे अंदर धारणाएँ पैदा कर सकता हो, जो भी हो, उसके परिणामस्वरूप परमेश्वर की पहचान नहीं बदलती; वह हमेशा सृष्टिकर्ता रहेगा, और तुम हमेशा सृजित प्राणी ही रहोगे। अगर तुम किसी भी धारणा द्वारा सीमित नहीं होने में समर्थ हो जाते हो, और अब भी परमेश्वर के साथ एक सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता का रिश्ता बनाए रखते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर के एक सच्चे सृजित प्राणी हो। अगर तुम किसी भी धारणा से प्रभावित या परेशान न होने में सक्षम हो, और अपने दिल की गहराइयों से परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण करने के काबिल हो, और सत्य की तुम्हारी समझ गहरी हो या उथली, अगर तुम धारणाएँ एक तरफ रखने में सक्षम हो, और उनके द्वारा लाचार नहीं होते, केवल यह विश्वास करते हो कि परमेश्वर सत्य, मार्ग और जीवन है, कि परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा, और कि परमेश्वर जो करता है वह कभी गलत नहीं होता, तो तुम बचाए जा सकते हो। वास्तव में, सभी का आध्यात्मिक कद सीमित है। लोगों के दिमागों में कितनी चीजें भरी जा सकती हैं? क्या वे परमेश्वर को जानने में सक्षम हैं? ये ख्याली बातें हैं! मत भूलो : लोग हमेशा परमेश्वर के सामने शिशु ही रहेंगे। अगर तुम सोचते हो कि तुम चतुर हो, अगर तुम हमेशा चतुराई से कार्य करने का प्रयास करते हो, और हर चीज को समझने का प्रयास करते हो, यह सोचते हो कि, “अगर मैं इसे नहीं समझ पाता हूँ, तो मैं यह नहीं मान सकता कि तुम मेरे परमेश्वर हो, मैं स्वीकार नहीं कर सकता कि तुम मेरे परमेश्वर हो, मैं यह नहीं मान सकता कि तुम सृष्टिकर्ता हो। अगर तुम मेरी धारणाओं का समाधान नहीं करते, और फिर भी अगर तुम्हें लगता है कि मैं यह स्वीकार करूँगा कि तुम परमेश्वर हो, कि मैं तुम्हारी संप्रभुता को स्वीकार करूँगा, और कि मैं तुम्हारे प्रति समर्पण करूँगा”, तो यह तकलीफदेह है। वह कैसे? परमेश्वर ऐसी चीजों के बारे में तुम्हारे साथ बहस नहीं करता है। मनुष्य के प्रति वह हमेशा इस प्रकार रहेगा : अगर तुम यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है, तो वह यह स्वीकार नहीं करेगा कि तुम उसके सृजित प्राणियों में से एक हो। जब परमेश्वर यह स्वीकार नहीं करता है कि तुम उसके सृजित प्राणियों में से एक हो, तो परमेश्वर के प्रति तुम्हारे रवैये के परिणामस्वरूप परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध में परिवर्तन होता है। अगर तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में असमर्थ हो, और परमेश्वर की पहचान और सार और वह सब-कुछ जो परमेश्वर करता है, स्वीकार करने में असमर्थ हो, तो तुम्हारी पहचान में बदलाव होगा। क्या तुम अब भी एक सृजित प्राणी हो? परमेश्वर तुम्हें स्वीकार नहीं करता है; इसलिए बहस करने का कोई फायदा नहीं है। और अगर तुम एक सृजित प्राणी नहीं हो, और परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहता, तो क्या तुम्हें अभी भी उद्धार की आशा है? (नहीं।) परमेश्वर तुम्हें एक सृजित प्राणी क्यों नहीं मानता है? तुम उन जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को निभाने में असमर्थ हो जो एक सृजित प्राणी को करने चाहिए, और तुम सृष्टिकर्ता के साथ एक सृजित प्राणी की हैसियत से व्यवहार नहीं करते हो। तो परमेश्वर तुम्हें क्या मानेगा? वह तुम्हें किस नजर से देखेगा? परमेश्वर तुम्हें एक मानक स्तर के सृजित प्राणी के रूप में नहीं देखेगा, बल्कि एक पतित, एक दुष्ट और एक शैतान के रूप में देखेगा। क्या तुम्हें नहीं लगता था कि तुम चतुर हो? तो फिर तुमने खुद को एक दुष्ट और शैतान कैसे बना लिया है? यह चतुराई नहीं, बेवकूफी है। ये वचन लोगों को क्या समझने में मदद करते हैं? यही कि लोगों को परमेश्वर के सामने उचित व्यवहार करना चाहिए। यहाँ तक कि अगर तुम्हारे पास अपनी धारणाओं का कारण भी हो, तो भी यह मत सोचो कि तुम्हारे पास सत्य है, और कि तुम्हारे पास परमेश्वर के खिलाफ हंगामा करने और उसे सीमित करने के लिए पूँजी है। तुम कुछ भी करो, पर वैसे मत बनो। एक बार जो तुम सृजित प्राणी के रूप में अपनी पहचान खो दोगे, तो तुम्हें नष्ट कर दिया जाएगा—यह कोई मजाक नहीं है। ऐसा ठीक इसलिए है, क्योंकि जब लोग धारणाएँ रखते हैं, अलग नजरिये और अलग समाधान अपनाते हैं, तो परिणाम पूरी तरह से अलग होते हैं।
क्या तुम लोगों के पास धारणाओं के संबंध में अभ्यास करने के तरीके के लिए सिद्धांत हैं? क्या ये सिद्धांत तुम लोगों की रक्षा करते हैं ताकि तुम सृजित प्राणियों के रूप में उचित रूप से आचरण कर सको? क्या यह मार्ग अच्छा है? (हाँ।) फिर इसका सारांश प्रस्तुत करो। (अगर यह अपेक्षाकृत आसानी से सुलझने वाली धारणा है, तो हमें प्रार्थना और तलाश करनी चाहिए, परमेश्वर के वचनों से इस प्रकार की धारणा का गहन-विश्लेषण करने वाला सत्य ढूँढ़ना चाहिए, और हम उन भाई-बहनों के साथ संगति भी कर सकते हैं जो सत्य को समझते हैं; इस तरह से, हम धारणा के भ्रामक पहलुओं की असलियत पहचान पाएँगे, और फिर उसे सुलझा पाएँगे। ऐसी भी कुछ धारणाएँ हैं जिन्हें सुलझाना आसान नहीं है, लेकिन हमें उनसे चिपके नहीं रहना चाहिए। हमें सत्य को स्वीकारने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का रवैया रखने की जरूरत है, यह जानते हुए कि हम सृजित प्राणी हैं और परमेश्वर जो भी करता है वह निश्चित रूप से सही होता है, और बात बस यही है कि हमने इसे महसूस नहीं किया है। चाहे हम समझें या नहीं समझें, हम धारणाएँ नहीं फैला सकते हैं। हमें अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करना और तलाश करना सीखना चाहिए, और धीरे-धीरे इन धारणाओं को भी सुलझाया जा सकता है। तीसरी परिस्थिति यह है कि कुछ धारणाएँ अंत में अनसुलझी रह सकती हैं। ऐसे मामलों में, जब तक हम इन धारणाओं के कारण बेबस नहीं हो जाते हैं और उन्हें नहीं फैलाते हैं, तब तक कोई बात नहीं है। भले ही अंत में ये धारणाएँ नहीं सुलझें, जब तक हम उनसे चिपके नहीं रहते हैं और उनके कारण बुरे कर्म नहीं करते हैं, तब तक परमेश्वर हमारी निंदा नहीं करेगा, और यह हमारे उद्धार को प्रभावित नहीं करेगा।) कुल मिलाकर कितने सिद्धांत हैं? (तीन।) कुल मिलाकर तीन सिद्धांत हैं। तुमने उन सभी को लिख लिया है, है ना? एक बार जब तुम सत्य को समझ जाओगे और सिद्धांतों को आत्मसात कर लोगे, तो तुम्हारी धारणाएँ स्वाभाविक रूप से सुलझ जाएँगी। तुम्हें धारणाओं को तुम्हें रोकने या तुमसे गलतियाँ करवाने का कारण नहीं बनने देना चाहिए; अपनी तरफ से भरसक प्रयास करके उन धारणाओं को सुलझाओ जिन्हें सुलझाया जा सकता है, और जो कुछ समय के लिए सुलझने लायक नहीं हैं, उन्हें कम से कम तुम्हें प्रभावित मत करने दो। उन्हें तुम्हारे कर्तव्य-निर्वाह में बाधा नहीं डालनी चाहिए, और ना ही उन्हें परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते को प्रभावित करना चाहिए। तुम्हारा अंतिम लक्ष्य यही है कि कम से कम तुम धारणाओं को नहीं फैलाओगे, बुरा कर्म नहीं करोगे, विघ्न-बाधाएँ या गड़बड़ियाँ उत्पन्न नहीं करोगे, और शैतान के सेवक या शैतान के साधन के तौर पर काम नहीं करोगे। तुम चाहे जितना भी प्रयास करो, अगर कुछ धारणाओं को सिर्फ सतही तौर पर ही सुलझाया जा सकता है और पूर्ण रूप से नहीं सुलझाया जा सकता है, तो उन्हें बस अनदेखा कर दो। धारणाओं को सत्य के अपने अनुसरण या अपने जीवन प्रवेश को प्रभावित मत करने दो। इन सिद्धांतों में महारत हासिल करो, और सामान्य परिस्थितियों में, तुम सुरक्षित रहोगे। अगर तुम कोई ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य को स्वीकारता है, सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है, जो कुकर्मी नहीं है, विघ्न-बाधाएँ या गड़बड़ियाँ उत्पन्न करने का इच्छुक नहीं है, और जानबूझकर विघ्न-बाधाओं और गड़बड़ियों का कारण नहीं बनता है, तो जब तुम आम तौर पर धारणाएँ उत्पन्न होने की समस्या का सामना करोगे, तो आम तौर पर तुम सुरक्षित रहोगे। अभ्यास का सबसे मूलभूत सिद्धांत यह है : अगर ऐसी कोई धारणा उत्पन्न होती है जिसे सुलझाना मुश्किल है, तो उस धारणा पर कार्रवाई करने की जल्दबाजी मत करो। सबसे पहले, प्रतीक्षा करो और उसे सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करो, और यह विश्वास रखो कि परमेश्वर जो भी करता है वह गलत नहीं हो सकता है। इस सिद्धांत को याद रखो। इसके अलावा, अपने कर्तव्य को अनदेखा मत करो या धारणा को अपने कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित मत करने दो। अगर तुममें धारणाएँ हैं और तुम सोचते हो कि “मैं बस जैसे-तैसे इस कर्तव्य को पूरा कर लूँगा; मेरी मनोदशा खराब है, इसलिए मैं तुम्हारे लिए अच्छा कार्य नहीं कर पाऊँगा!” तो यह कोई अच्छी बात नहीं है। एक बार जब तुम्हारा रवैया नकारात्मक और अनमना हो जाता है, तो यह समस्या खड़ी करता है; यह धारणाओं का तुम्हारे भीतर गलत ढंग से कार्य करना है। जब धारणाएँ तुम्हारे भीतर गलत ढंग से कार्य करती हैं और तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित करती हैं, तो इसका अर्थ यह है कि अब तक परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता वास्तव में पहले से ही बदल चुका है। कुछ धारणाएँ तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित कर सकती हैं, जो कि एक गंभीर समस्या है, और उन्हें फौरन सुलझाना चाहिए। अन्य धारणाएँ तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन या परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते को प्रभावित नहीं करती हैं, इसलिए वे बड़े मुद्दे नहीं हैं। अगर तुम्हारी धारणाएँ तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित कर सकती हैं, जिसके कारण तुम परमेश्वर पर संदेह करने लगते हो, अपना कर्तव्य लगन से नहीं करते हो—और यह महसूस करते हो कि अपना कर्तव्य नहीं करने से कोई परिणाम नहीं भुगतना होगा—और तुम्हें कोई भय नहीं होता है या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता है, तो यह खतरनाक है। इसका यह अर्थ है कि तुम लालच में पड़ जाओगे, और शैतान द्वारा धोखा दिए जाओगे और कैद कर लिए जाओगे। अपनी धारणाओं और अपने चुने हुए विकल्पों के प्रति तुम्हारा रवैया बहुत ही महत्वपूर्ण है; चाहे धारणाओं को सुलझाया जा सकता हो या नहीं, और चाहे वे किसी भी हद तक सुलझाई क्यों ना जा सकें, तुम्हारे और परमेश्वर के बीच सामान्य रिश्ता बिल्कुल नहीं बदलना चाहिए। एक ओर तुम्हें परमेश्वर द्वारा आयोजित सभी परिवेशों के प्रति समर्पण करने में समर्थ होना चाहिए और यह दृढ़ता से कहना चाहिए कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही और अर्थपूर्ण है, और यह ज्ञान और सत्य का यह पहलु तुम्हारे लिए कभी नहीं बदलना चाहिए। दूसरी ओर तुम्हें उस कर्तव्य को नहीं छोड़ना चाहिए जो परमेश्वर ने तुम्हें सौंपा है, तुम्हें उससे खुद को भारमुक्त नहीं करना चाहिए। अगर, आंतरिक या बाह्य रूप से, तुममें परमेश्वर के प्रति कोई प्रतिरोध, विरोध, या विद्रोहीपन नहीं है, तो परमेश्वर सिर्फ तुम्हारा समर्पण देखेगा, और यह कि तुम प्रतीक्षा कर रहे हो। तुममें अभी भी धारणाएँ हो सकती हैं, लेकिन परमेश्वर तुम्हारा विद्रोहीपन नहीं देखता है। चूँकि तुममें कोई विद्रोहीपन और प्रतिरोध नहीं है, इसलिए परमेश्वर अब भी तुम्हें अपने सृजित प्राणियों में से एक मानता है। इसके विपरीत, अगर तुम्हारा दिल शिकायतों और अवज्ञा से भरा हुआ है, तुम बदला लेने का अवसर तलाश रहे हो, और अपना कर्तव्य नहीं करना चाहते हो, बल्कि खुद को इस दायित्व से मुक्त करना चाहते हो—इस हद तक कि, तुम्हारे दिल में परमेश्वर के बारे में सभी तरह की शिकायतें हैं, और तुम अपना कर्तव्य करने के दौरान अवज्ञा और द्वेष की कुछ अभिव्यक्तियाँ प्रकट होती हैं—तो, इस समय, परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते में पहले से ही एक बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है। तुम पहले से ही एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी हैसियत बदल चुके हो; अब तुम सृजित प्राणी नहीं हो, बल्कि तुम दानवों और शैतान के वाहक बन चुके हो—और इसलिए परमेश्वर तुम पर बिल्कुल दया नहीं दिखाएगा। जब कोई इस हद तक पहुँच जाता है, तो वह एक खतरनाक इलाके की तरफ बढ़ रहा होता है। अगर परमेश्वर कुछ न भी करे, तो भी वे कलीसिया में दृढ़ नहीं रह सकेंगे। और इसलिए, लोगों को अपने हर काम में—विशेष रूप से जब उसमें धारणाओं को सुलझाने जैसे मुद्दे शामिल हों—ऐसे काम करने से बचने का ध्यान रखना चाहिए, जो परमेश्वर को ठेस पहुँचाते हो, या जिनकी परमेश्वर द्वारा निंदा की जाती हो, या जो दूसरों को चोट या नुकसान पहुँचाते हों। यह सिद्धांत है।
लोगों में परमेश्वर के प्रति धारणाएँ होने की समस्या कोई छोटी बात नहीं है! लोगों के लिए परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बनाए रखना बहुत ही जरूरी है, लेकिन लोगों की धारणाएँ ही इस संबंध को सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं। परमेश्वर के बारे में लोगों की धारणाएँ सुलझ जाने के बाद ही परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बनाए रखा जा सकता है। फिलहाल, कई लोगों की एक गंभीर समस्या है। चाहे उन्होंने कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, वैसे तो वे अपने कर्तव्य निभाने के दौरान कष्ट सहने और कीमत चुकाने में समर्थ हो सकते हैं, फिर भी हर पहलू से, उनकी धारणाओं को पूरी तरह से नहीं सुलझाया जा सकता है। इससे परमेश्वर के साथ उनका संबंध गंभीर रूप से प्रभावित होता है और परमेश्वर के प्रति उनके प्रेम और उनके समर्पण पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इसलिए, चाहे लोग परमेश्वर के बारे में कोई भी धारणा क्यों ना बनाएँ, यह एक गंभीर मामला है जिसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। धारणाएँ दीवार जैसी होती हैं; वे परमेश्वर के साथ लोगों के संबंधों को तोड़ देती हैं, जिससे वे परमेश्वर के उद्धार कार्य से अलग हो जाते हैं। इस प्रकार, लोगों में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ होना एक बहुत ही गंभीर मुद्दा है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है! अगर लोगों में धारणाएँ हैं और वे फौरन सत्य की तलाश नहीं कर सकते हैं और उन्हें नहीं सुलझा सकते हैं, तो इससे बड़ी आसानी से नकारात्मकता, परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध और यहाँ तक कि उसके प्रति विद्वेष भी उत्पन्न हो सकता है। क्या तब भी वे सत्य को स्वीकार सकते हैं? उनका जीवन प्रवेश रुक जाएगा। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का मार्ग असमतल और पथरीला है। क्योंकि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट होते हैं, इसलिए वे कई घुमावदार मार्ग अपना सकते हैं, और वे किसी भी परिस्थिति में धारणाएँ बना सकते हैं। अगर सत्य की तलाश करके इन धारणाओं को नहीं सुलझाया जाता है, तो लोग परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं और उसकी अवहेलना कर सकते हैं, और उसके प्रति विद्वेष के मार्ग पर चल सकते हैं। एक बार जब लोग मसीह-विरोधियों का मार्ग अपना लेते हैं, तो क्या तुम लोगों को लगता है कि उनके लिए उद्धार का कोई मौका बचता है? उस मोड़ पर इसे संभालना आसान नहीं है, और तब कोई मौका नहीं बचा होगा। इसलिए, इससे पहले कि परमेश्वर तुम्हें उसके सृजित प्राणी के रूप में अस्वीकार कर दे, तुम्हें यह सीख लेना चाहिए कि परमेश्वर का सृजित प्राणी कैसे बनना है। सृष्टिकर्ता की जाँच-पड़ताल करने का प्रयास मत करो या यह साबित करने और सत्यापित करने का तरीका ढूँढ़ने का प्रयास मत करो कि जिस परमेश्वर में तुम विश्वास रखते हो, वही सृष्टिकर्ता है। यह तुम्हारा दायित्व या जिम्मेदारी नहीं है। तुम्हें हर रोज अपने दिल में इस बारे में सोचना और चिंतन करना चाहिए कि तुम्हें अपने कर्तव्य कैसे पूरे करने हैं और एक मानक स्तर का सृजित प्राणी कैसे बनना है, ना कि इस बारे में कि यह कैसे साबित किया जाए कि परमेश्वर ही सृष्टिकर्ता है या नहीं है, क्या वह सचमुच परमेश्वर है या नहीं है, और ना ही तुम्हें इसकी जाँच-पड़ताल करनी चाहिए कि परमेश्वर ने जो किया है और उसके क्रियाकलाप सही हैं या नहीं। ये वे चीजें नहीं हैं जिनकी तुम्हें जाँच-पड़ताल करनी चाहिए।
19 जून 2021