अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (15)

मद बारह : उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को सकारात्मक दिशा दो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें (भाग तीन)

विभिन्न लोग, घटनाएँ और चीजें जो कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करती हैं

पिछली सभा में हमने अगुआओं और कार्यकर्ताओं की बारहवीं जिम्मेदारी पर चर्चा की थी : “उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को सकारात्मक दिशा दो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें।” इस जिम्मेदारी के बारे में हमने मुख्य रूप से कलीसियाई जीवन से जुड़ी विभिन्न समस्याओं पर संगति की थी, जिसे हमने ग्यारह मुद्दों में विभाजित किया था। आगे बढ़ो और उन्हें पढ़ो। (पहला, सत्य पर संगति करते समय अक्सर विषय से भटक जाना; दूसरा, लोगों को गुमराह करने और उनसे सम्मान प्राप्त करने के लिए शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना; तीसरा, घरेलू मामलों के बारे में बकबक करना, व्यक्तिगत संबंध बनाना और व्यक्तिगत मामले सँभालना; चौथा, गुट बनाना; पाँचवाँ, हैसियत के लिए होड़ करना; छठा, अनुचित संबंधों में लिप्त होना; सातवाँ, आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होना; आठवाँ, धारणाएँ फैलाना; नौवाँ, नकारात्मकता फैलाना; दसवाँ, निराधार अफवाहें फैलाना; और ग्यारहवाँ, चुनावों में हेराफेरी और गड़बड़ी करना।) पिछली बार हमने पाँचवें और छठे मुद्दों पर संगति की थी जो कि हैसियत के लिए होड़ करना और अनुचित संबंधों में लिप्त होना हैं। ये दो तरह की समस्याएँ भी पिछले चार मुद्दों की ही तरह कलीसियाई जीवन और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करती हैं। इन दो तरह की समस्याओं की प्रकृति, इनसे कलीसियाई जीवन को होने वाले नुकसान और लोगों के जीवन प्रवेश पर इनके प्रभाव को देखते हुए ये दोनों ऐसे लोग, घटनाएँ और चीजें हो सकती हैं जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करती हैं।

VII. आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होना

आज हम सातवें मुद्दे पर संगति करेंगे—आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होना। ऐसी समस्याएँ कलीसियाई जीवन में आम हैं जिन्हें हर कोई देख सकता है। जब लोग परमेश्वर का वचन खाने-पीने, अपने व्यक्तिगत अनुभवों पर संगति करने या कुछ वास्तविक समस्याओं पर चर्चा करने के लिए इकट्ठे होते हैं तो भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण या सही-गलत पर बहस अक्सर लोगों के बीच तर्क-वितर्क और विवाद पैदा कर देती है। अगर लोग एक-दूसरे से असहमत होते हैं और भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रखते हैं लेकिन इससे कलीसियाई जीवन बाधित नहीं होता तो क्या इसे आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होना माना जाएगा? यह इस श्रेणी में नहीं आता; यह सामान्य संगति से संबंधित है। इसलिए ऊपरी तौर पर कई समस्याएँ सातवें मुद्दे से संबंधित लग सकती हैं लेकिन असल में सिर्फ वे समस्याएँ ही इस मुद्दे से संबंधित होती हैं जो परिस्थितियों और प्रकृति की दृष्टि से ज्यादा गंभीर होती हैं और इस कारण विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करती हैं। आओ अब इस बात पर संगति करते हैं कि किन समस्याओं की प्रकृति उन्हें इस मुद्दे के अंतर्गत शामिल करने योग्य बनाती है।

पहले, आपसी हमलों में लिप्त होने की अभिव्यक्तियों को देखें तो यह निश्चित रूप से सत्य पर सामान्य संगति करने या सत्य खोजने या सत्य की संगति करने के आधार पर अलग समझ या प्रकाश होने या सत्य सिद्धांतों की खोज करने, संगति करने, उन पर चर्चा करने और एक निश्चित सत्य के संबंध में अभ्यास का मार्ग तलाशने से ताल्लुक नहीं रखता, इसके बजाय यह सही-गलत पर बहस और विवाद करने से ताल्लुक रखता है। यह मूलभूत रूप से इसी तरह से अभिव्यक्त होता है। क्या कलीसियाई जीवन में कभी-कभी इस तरह की समस्या पाई जाती है? (हाँ।) सिर्फ बाहरी स्वरूपों के आधार पर यह स्पष्ट है कि आपसी हमलों में लिप्त होने जैसा क्रियाकलाप निश्चित रूप से सत्य खोजने या पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में सत्य पर संगति करने या सामंजस्यपूर्वक सहयोग करने से ताल्लुक नहीं रखता, बल्कि उसकी जड़ें उग्रता में होती हैं और उसमें इस्तेमाल की जाने वाली भाषा में आलोचना और निंदा, यहाँ तक कि शाप भी शामिल होते हैं—ऐसी अभिव्यक्ति वास्तव में शैतान के भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा होती है। जब लोग एक-दूसरे पर हमला करते हैं तो चाहे उनकी भाषा तीखी हो या व्यवहारकुशल, उसमें उग्रता, द्वेष और घृणा होती है, उसमें प्रेम, सहनशीलता और धैर्य नहीं होता, और स्वाभाविक रूप से उसमें सामंजस्यपूर्ण सहयोग तो और भी नहीं होता है। लोग एक-दूसरे पर हमला करने के लिए जो तरीके अपनाते हैं, वे अलग-अलग होते हैं। उदाहरण के लिए, जब दो लोग किसी मामले पर चर्चा करते हैं तो ‘क’ नामक व्यक्ति ‘ख’ नामक व्यक्ति से कहता है, “कुछ लोगों में बुरी मानवता और अहंकारी स्वभाव होता है; वे जब भी जरा-सा भी कुछ करते हैं तो दिखावा करते हैं और किसी की नहीं सुनते। वे बिल्कुल उन लोगों की तरह होते हैं जिनके बारे में परमेश्वर के वचन कहते हैं वे जानवरों की तरह बर्बर और मानवता से रहित हैं।” यह सुनने के बाद ‘ख’ सोचता है, “क्या तुमने अभी जो कहा, वह मुझे लक्ष्य करके नहीं कहा? तुमने मुझे उजागर करने के लिए परमेश्वर के वचनों का भी उपयोग किया! चूँकि तुमने मेरे बारे में बोला है, इसलिए मैं भी नहीं रुकूँगा। तुम मेरे प्रति निष्ठुर रहे हो, इसलिए मैं तुम्हारा बुरा करूँगा!” और फिर, ‘ख’ कहता है, “कुछ लोग बाहर से बहुत धर्मपरायण लग सकते हैं लेकिन असल में वे किसी भी अन्य व्यक्ति से ज्यादा दुष्ट होते हैं। यहाँ तक कि वे विपरीत लिंग के व्यक्ति के साथ अनुचित संबंधों में लिप्त भी रहते हैं, ठीक उन तवायफों और वेश्याओं की तरह जिनके बारे में परमेश्वर के वचनों में कहा गया है—परमेश्वर ऐसे लोगों से पूरी तरह से घृणा करता है, वह उनसे विमुख महसूस करता है। धर्मपरायण दिखने का क्या फायदा है? यह सब ढोंग है। परमेश्वर ढोंगियों को सर्वाधिक नापसंद करता है; सभी ढोंगी फरीसी हैं!” यह सुनने के बाद ‘क’ सोचता है, “यह मुझ पर जवाबी हमला है! ठीक है, तुम मेरे प्रति निष्ठुर रहे हो, इसलिए मैं भी संयम नहीं रखूँगा जिसके लिए तुम मुझे दोष मत देना!” वे दोनों एक-दूसरे से लड़ना शुरू कर देते हैं। क्या यह परमेश्वर के वचनों पर संगति करना है? (नहीं।) वे क्या कर रहे हैं? (एक-दूसरे पर हमला कर रहे हैं और लड़ रहे हैं।) वे दूसरे की किसी कमी का उपयोग करके अपने हमलों के लिए एक “आधार” भी ढूँढ़ लेते हैं और आधार के रूप में परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल करते हैं—यह आपसी हमलों में लिप्त होना है, यह मौखिक झगड़ों में लिप्त होना है। क्या ऐसी संगति कभी-कभी कलीसियाई जीवन में देखी जाती है? क्या यह सामान्य संगति है? क्या यह सामान्य मानवता के भीतर होने वाली संगति है? (नहीं।) तो क्या ऐसी संगति कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करती है? यह किस तरह की विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करती है? (सामान्य कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, लोग सही-गलत के बारे में विवादों में पड़ जाते हैं और नतीजतन परमेश्वर के वचनों पर शांति से विचार और संगति करने में असमर्थ रहते हैं।) जब लोग ऐसी लड़ाई और सही-गलत के बारे में बहस में लिप्त होते हैं और कलीसियाई जीवन के दौरान व्यक्तिगत हमले करते हैं तो क्या पवित्र आत्मा तब भी काम करता है? पवित्र आत्मा काम नहीं करता; ऐसी संगति लोगों के दिलों को अस्त-व्यस्त कर देती है। बाइबल में कुछ वचन हैं, क्या वे तुम लोगों को याद हैं? (“फिर मैं तुम से कहता हूँ, यदि तुम में से दो जन पृथ्वी पर किसी बात के लिए एक मन होकर उसे माँगें, तो वह मेरे पिता की ओर से जो स्वर्ग में है, उनके लिए हो जाएगी। क्योंकि जहाँ दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठा होते हैं, वहाँ मैं उनके बीच में होता हूँ” (मत्ती 18:19-20)।) इन वचनों का क्या अर्थ है? जब लोग परमेश्वर के सामने इकट्ठे होते हैं तो उन्हें परमेश्वर के सामने एक दिल और एक मन का होना चाहिए और संगठित होना चाहिए; परमेश्वर उन्हें तभी आशीष देगा और पवित्र आत्मा तभी कार्य करेगा, जब लोग एक दिल और एक मन के होंगे। लेकिन क्या बहस करने वाले दो लोग, जिनका मैंने अभी उल्लेख किया था, एक दिल और एक मन के थे? (नहीं।) वे किसमें लिप्त थे? आपसी हमलों में, लड़ने में, यहाँ तक कि आलोचना और निंदा में भी। हालाँकि उन्होंने ऊपरी तौर पर कोसने वाले अपशब्दों का उपयोग नहीं किया या एक-दूसरे का नाम नहीं लिया, लेकिन उनके शब्दों के पीछे की प्रेरणा सत्य पर संगति करना या सत्य खोजना नहीं थी और वे सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के भीतर नहीं बोल रहे थे। उनके द्वारा बोला गया हर शब्द गैर-जिम्मेदाराना था और उसमें आक्रामकता और द्वेष था; कोई भी शब्द तथ्यों के अनुरूप नहीं था, न ही उसका कोई आधार था। कोई भी शब्द परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार किसी मामले का आकलन करने के बारे में नहीं था, यह उस व्यक्ति के विरुद्ध अपनी प्राथमिकताओं और इच्छा के आधार पर व्यक्तिगत हमले, आलोचना और निंदा करने से ताल्लुक रखता था जिससे वे घृणा करते थे और जिसे नीची निगाह से देखते थे। इनमें से कोई भी एक दिल और एक मन के होने की अभिव्यक्ति नहीं है; बल्कि ये वे शब्द और अभिव्यक्तियाँ हैं जो उग्रता और शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से आती हैं और परमेश्वर इनसे प्रसन्न नहीं होता; इसलिए वहाँ पवित्र आत्मा का कोई कार्य नहीं होता। यह आपसी हमलों में लिप्त होने की अभिव्यक्ति है।

कलीसियाई जीवन में अक्सर लोगों के बीच छोटी-छोटी बातों या परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों और हितों को लेकर विवाद और टकराव पैदा हो जाते हैं। विवाद अक्सर असंगत व्यक्तित्वों, महत्वाकांक्षाओं और प्राथमिकताओं के कारण भी होते हैं। अन्य कारणों के साथ-साथ सामाजिक हैसियत और शिक्षा-स्तरों में अंतर या उनकी मानवता और प्रकृति के लिहाज से अंतर, यहाँ तक कि बोलने और मामले सँभालने के तरीकों के लिहाज से अंतर के कारण भी व्यक्तियों के बीच विभिन्न प्रकार की असहमतियाँ और मनमुटाव उभरते हैं। अगर लोग ये समस्याएँ परमेश्वर के वचन का उपयोग करके हल करने की कोशिश नहीं करते, अगर आपस में समझ, सहिष्णुता, समर्थन और सहायता नहीं है और अगर लोग इसके बजाय अपने दिलों में पूर्वाग्रह और घृणा रखते हैं और भ्रष्ट स्वभावों के भीतर एक-दूसरे के साथ उग्रता से पेश आते हैं तो इससे आपसी हमले और आलोचनाएँ होने की संभावना होती है। कुछ लोगों में थोड़ा जमीर और विवेक होता है और जब विवाद होते हैं तो वे धैर्य रख सकते हैं, विवेक से क्रियाकलाप कर सकते हैं और दूसरे पक्ष की प्रेम से मदद कर सकते हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं कर सकते, उनमें सबसे बुनियादी सहिष्णुता, धैर्य, मानवता और विवेक तक की कमी होती है। वे अक्सर तुच्छ मामलों या किसी एक शब्द या चेहरे के भाव को लेकर दूसरों के प्रति विभिन्न पूर्वाग्रह, संदेह और गलतफहमियाँ विकसित कर लेते हैं, जिसके कारण उनके दिलों में उनके प्रति विभिन्न प्रकार के विचार, संदेह, आलोचनाएँ और निंदाएँ घर कर लेती हैं। कलीसिया के भीतर अक्सर ये घटनाएँ होती हैं और वे अक्सर व्यक्तियों के बीच सामान्य संबंधों, भाई-बहनों के सामंजस्यपूर्ण मेलजोल, यहाँ तक कि परमेश्वर के वचनों की उनकी संगति को भी प्रभावित करती हैं। जब लोग एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं तो विवाद उत्पन्न होना आम बात है, लेकिन अगर कलीसियाई जीवन में अक्सर ऐसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं तो वे सामान्य कलीसियाई जीवन को प्रभावित, बाधित, यहाँ तक कि नष्ट भी कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति किसी सभा में बहस करने लगता है तो वह सभा बाधित हो जाएगी, कलीसियाई जीवन सफल नहीं हो पाएगा और सभा में भाग लेने वाले लोगों को कुछ हासिल नहीं होगा और वे अनिवार्य रूप से व्यर्थ ही सभा में आएँगे और अपना समय बर्बाद करेंगे। नतीजतन ये समस्याएँ पहले ही कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था को प्रभावित कर चुकी होंगी।

क. आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होने की विभिन्न प्रकार की अभिव्यक्तियाँ
1. एक-दूसरे की कमियों का खुलासा

कुछ लोग सभाओं के दौरान हमेशा घरेलू मामलों और महत्वहीन विषयों पर बकबक करना पसंद करते हैं और जब भी वे भाई-बहनों से मिलते हैं तो वे उनसे तुच्छ घरेलू मामलों के बारे में बात करते हैं और उनके साथ गपशप करने लगते हैं जिससे वे भाई-बहन असहाय महसूस करते हैं। कोई उन्हें टोकने के लिए खड़ा हो सकता है लेकिन तब क्या होता है? अगर उन्हें लगातार टोका जाता है तो वे रुष्ट हो जाते हैं और उनके रुष्ट होने का मतलब है मुसीबत। वे सोचते हैं : “तुम हमेशा मुझे टोक देते हो और मुझे बोलने नहीं देते। तो ठीक है। जब तुम बोलोगे तब मैं तुम्हें टोकूँगा! जब तुम परमेश्वर के वचनों पर संगति करोगे तो मैं परमेश्वर के वचनों का एक दूसरा अंश बोलकर हस्तक्षेप करूँगा। जब तुम खुद को जानने के बारे में संगति करोगे तो मैं परमेश्वर के उन वचनों के बारे में संगति करूँगा जो लोगों का न्याय करते हैं। जब तुम अपने अहंकारी स्वभाव को समझने के बारे में संगति करोगे तो मैं लोगों के परिणाम और गंतव्य निर्धारित करने के बारे में परमेश्वर के वचनों पर संगति करूँगा। तुम जो भी कहोगे, मैं उससे कुछ अलग कहूँगा!” इतना ही नहीं, अगर दूसरे लोग भी उन्हें टोकने में शामिल हो जाएँ तो ये लोग खड़े होकर उन पर हमला कर देते हैं। साथ ही, चूँकि उनके दिल में नाराजगी और नफरत घर किए रहती है, वे सभाओं के दौरान अक्सर उस व्यक्ति की कमियाँ उजागर कर देते हैं जिसने उन्हें टोका था और इस बारे में बताते हैं कि कैसे वह व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करने से पहले दूसरों को व्यापार में धोखा देता था, दूसरों के साथ अपने व्यवहार में वह कितना बेईमान था, इत्यादि—जब भी वह व्यक्ति बोलता है, वे इन चीजों के बारे में बात करते हैं। शुरू में तो वह व्यक्ति धैर्य रख सकता है, लेकिन समय के साथ वह सोचने लगता है : “मैं हमेशा तुम्हारी मदद करता हूँ, मैं हमेशा तुम्हारे प्रति सहिष्णुता और धैर्य दिखाता हूँ, लेकिन तुम मेरे प्रति कोई सहिष्णुता नहीं दिखाते। अगर तुम मेरे साथ ऐसा व्यवहार करते हो तो मुझे संयम नहीं रखने के लिए दोष मत देना! हम इतने लंबे समय से एक ही गाँव में रहे हैं—हम दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं। तुमने मुझ पर हमला किया है इसलिए मैं तुम पर हमला करूँगा; तुमने मेरी कमियाँ उजागर की हैं लेकिन तुममें खुद बहुत सारी कमियाँ हैं।” और फिर, वह कहता है, “तुमने बचपन में भी चीजें चुराई थीं; तुमने जो छोटी-मोटी चोरियाँ कीं, वे और भी शर्मनाक हैं! कम से कम, मैंने जो किया वह व्यवसाय था, वह सब जीविका चलाने के लिए था। इस दुनिया में कौन कुछ गलतियाँ नहीं करता? अपने व्यवहार के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है? तुम्हारा व्यवहार एक चोर, एक डाकू जैसा है!” क्या यह आपसी हमलों में लिप्त होना नहीं है? इन हमलों का तरीका क्या है? यह एक-दूसरे की कमियों का खुलासा करना है, है ना? (हाँ।) वे अपने मन में यह तक सोचते हैं : “तुम मेरी कमियाँ उजागर करते रहते हो, सबको उनके बारे में और मेरे अपमानजनक अतीत के बारे में बताते रहते हो, ताकि दूसरे लोग अब मेरा सम्मान न करें—तो ठीक है, मैं भी संयम नहीं रखूँगा। मुझे सब पता है कि तुम्हारे कितने साथी रहे हैं, तुम विपरीत लिंग के कितने लोगों के साथ रहे हो; मेरे पास यह सब गोला-बारूद भरा रखा है। अगर तुमने दोबारा मेरी कमियाँ उजागर कीं और मुझे बहुत ज्यादा परेशान किया तो मैं तुम्हारे सारे कुकर्म जग-जाहिर कर दूँगा!” एक-दूसरे की कमियों का खुलासा करना उन लोगों के बीच एक आम समस्या होती है जो एक-दूसरे से अच्छी तरह से परिचित होते हैं और एक-दूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं। शायद किसी असहमति के कारण या अपने बीच लड़ाई या द्वेष के कारण दो लोग सभाओं के दौरान एक-दूसरे पर हमला करने के लिए हथियारों के रूप में इस्तेमाल करने के लिए पुरानी और तुच्छ बातें बाहर निकाल लेते हैं। ये दो लोग एक-दूसरे की कमियाँ उजागर करते हैं और एक-दूसरे पर हमला और एक-दूसरे की निंदा करते हैं, जिससे सभी का परमेश्वर के वचन खाने-पीने का समय चला जाता है और सामान्य कलीसियाई जीवन प्रभावित होता है। क्या ऐसी सभाएँ सफल हो सकती हैं? क्या उनके आस-पास के लोगों का अभी भी सभाओं में आने का मन करता है? कुछ भाई-बहन सोचने लगते हैं : “ये दोनों वाकई परेशान करने वाले हैं, इन पुरानी बातों को सामने लाने का भला क्या मतलब है! ये दोनों अब परमेश्वर में विश्वास करते हैं, इन्हें ये चीजें छोड़ देनी चाहिए। किसे समस्याएँ नहीं होतीं? क्या ये दोनों अब परमेश्वर के सामने नहीं आ गए हैं? ये सभी समस्याएँ परमेश्वर के वचन से हल की जा सकती हैं। कमियाँ उजागर करना सत्य का अभ्यास करना नहीं है, न ही यह एक व्यक्ति की खूबियों से सीखकर दूसरे की कमजोरियों की भरपाई करना है; यह आपसी हमले हैं, यह शैतानी व्यवहार है।” उनके आपसी हमले सामान्य कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त और नष्ट कर देते हैं। उन्हें कोई नहीं रोक सकता और चाहे कोई भी उनके साथ सत्य पर संगति करे, वे नहीं सुनते। कुछ लोग उन्हें सलाह देते हैं : “एक-दूसरे की कमियाँ उजागर करना बंद करो। दरअसल, यह पूरी बात इतनी बड़ी बात नहीं है; क्या यह सिर्फ एक क्षणिक मौखिक असहमति नहीं है? तुम दोनों के बीच कोई गहरी नफरत नहीं है। अगर तुम दोनों दिल खोलकर बात कर सको, खुद को उजागर कर सको, अपने पूर्वाग्रह, नाराजगी और नफरत त्यागकर परमेश्वर के सामने प्रार्थना कर सको और सत्य खोज सको तो ये तमाम समस्याएँ सुलझ सकती हैं।” लेकिन उन दोनों में अभी भी गतिरोध कायम रहता है। उनमें से एक कहता है, “अगर वह पहले मुझसे माफी माँगे और अगर वह पहले दिल खोलकर बात करे और खुद को उजागर करे तो मैं भी ऐसा ही करूँगा। लेकिन अगर पहले की तरह वह इस बात को नहीं छोड़ेगा तो मैं उसके खिलाफ बोले बिना नहीं रहूँगा! तुम मुझसे सत्य का अभ्यास करने के लिए कहते हो—वह इसका अभ्यास क्यों नहीं करता? तुम मुझसे चीजें छोड़ने के लिए कहते हो—वह पहले ऐसा क्यों नहीं करता?” क्या यह अनुचित ढंग से क्रियाकलाप करना नहीं है? (हाँ, है।) वे अनुचित ढंग से क्रियाकलाप करना शुरू कर देते हैं। किसी की भी सलाह का उन पर कोई असर नहीं होता और वे सत्य पर संगति नहीं सुनते। जैसे ही वे एक-दूसरे को देखते हैं, वैसे ही वे बहस करते हैं, एक-दूसरे की कमियाँ उजागर करते हैं और एक-दूसरे पर हमला करते हैं। वे बस मारपीट नहीं करते, और जो कुछ भी वे एक-दूसरे के साथ करते हैं उसमें घृणा होती है और हर शब्द जो वे बोलते हैं उसमें हमले और शाप के संकेत होते हैं। अगर कलीसियाई जीवन में ऐसे दो लोग हों जो एक-दूसरे को देखते ही हमला कर देते हों और मौखिक झगड़ों में लिप्त हो जाते हों तो क्या यह कलीसियाई जीवन फलदायी हो सकता है? क्या लोग इससे कुछ सकारात्मक हासिल कर सकते हैं? (नहीं।) जब ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं तो ज्यादातर लोग चिंतित हो जाते हैं और कहते हैं, “हर बार जब हम सभा में आते हैं तो वे दोनों हमेशा लड़ते रहते हैं और किसी की सलाह नहीं सुनते। हमें क्या करना चाहिए?” जब तक वे वहाँ रहते हैं, तब तक सभाओं में शांति नहीं होती और हर कोई उनसे परेशान रहता है। ऐसे मामलों में कलीसिया के अगुआओं को समस्या हल करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए; उन्हें ऐसे व्यक्तियों को कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त करते रहने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। अगर बार-बार की सलाह, संगति और सकारात्मक मार्गदर्शन के बाद भी कोई परिणाम हासिल नहीं होता और दोनों पक्ष अपने पूर्वाग्रहों पर अड़े रहते हैं, एक-दूसरे को माफ करने से इनकार करते हैं और एक-दूसरे पर हमला और कलीसियाई जीवन को बाधित करते रहते हैं तो मामले से सिद्धांतों के अनुसार निपटना आवश्यक है। उन्हें बताया जाना चाहिए : “तुम दोनों लंबे समय से इसी स्थिति में हो और इसने कलीसियाई जीवन और सभी भाई-बहनों के लिए गंभीर विघ्न पैदा कर दिए हैं। ज्यादातर लोग तुम लोगों के इस व्यवहार से नाराज हैं, लेकिन वे इसके बारे में कुछ भी कहने से डरते हैं। तुम लोगों के वर्तमान रवैये और अभिव्यक्तियों को देखते हुए कलीसिया को सिद्धांतों के अनुसार कलीसियाई जीवन में तुम्हारी भागीदारी निलंबित कर देनी चाहिए और तुम लोगों को आत्म-चिंतन के लिए अलग-थलग कर देना चाहिए। जब तुम लोग सामंजस्यपूर्वक मिलजुलकर रहने, सामान्य संगति में शामिल होने और सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध रखने में सक्षम होगे, तब तुम कलीसियाई जीवन में लौट सकते हो।” वे इससे सहमत हों या नहीं, कलीसिया को यह निर्णय ले लेना चाहिए; यह सिद्धांतों के आधार पर मामले को सँभालना है। ये मामले इसी तरह सँभाले जाने चाहिए। एक ओर यह दोनों व्यक्तियों के लिए लाभदायक है; यह उन्हें आत्म-चिंतन कर खुद को जानने के लिए प्रेरित कर सकता है। दूसरी ओर यह मुख्य रूप से ज्यादा भाई-बहनों को बुरे लोगों द्वारा परेशान किए जाने से बचाता है। कुछ लोग कहते हैं, “उन्होंने कोई बुरा काम नहीं किया है; अपने सार के लिहाज से वे बुरे लोग भी नहीं हैं। बस उनकी मानवता में छोटी-मोटी खामियाँ हैं, वे बस जिद्दी हैं, अविवेकी होने और ईर्ष्या और विवादों की ओर प्रवृत्त हैं। सिर्फ इस वजह से उन्हें अलग-थलग क्यों किया जाए?” उनकी मानवता चाहे जैसी भी हो, अगर वे कलीसियाई जीवन में विघ्न पैदा करते हैं तो कलीसिया के अगुआओं को इस समस्या पर ध्यान देकर उसे हल करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए। अगर ये दो व्यक्ति बुरे हैं तो जैसे ही इसका पता चले, इसकी प्रतिक्रिया उन्हें अलग-थलग करने जैसी सरल नहीं होनी चाहिए; उन्हें तुरंत सीधे बहिष्कृत करने का निर्णय लेना चाहिए। अगर उनके क्रियाकलाप दूसरों को नुकसान पहुँचाए बिना या अन्य ऐसे दुष्कर्म किए बिना जो परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हों, एक-दूसरे पर हमला करने और सही-गलत के बारे में बहस करने तक ही सीमित हैं, और वे बुरे नहीं हैं तो उन्हें बहिष्कृत करने की आवश्यकता नहीं है। इसके बजाय उनका कलीसियाई जीवन निलंबित कर देना चाहिए और उन्हें आत्म-चिंतन के लिए अलग-थलग कर देना चाहिए। यह तरीका सबसे उपयुक्त है। मामले को इस तरह से सँभालने का उद्देश्य कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था सुनिश्चित करना और यह गारंटी देना है कि कलीसिया का कार्य सामान्य रूप से आगे बढ़ सकता है।

2. आपसी खुलासे और हमले

कुछ लोगों में परमेश्वर के वचन को खाने-पीने की समझ नहीं होती और वे नहीं जानते कि परमेश्वर के वचन की अपनी अनुभवजन्य समझ के बारे में संगति कैसे करें। वे सिर्फ परमेश्वर के उन वचनों को दूसरों से जोड़ना जानते हैं जो लोगों को उजागर करते हैं। इसलिए जब भी वे परमेश्वर के वचनों में निहित सत्य पर संगति करते हैं तो उनके हमेशा व्यक्तिगत उद्देश्य होते हैं; वे हमेशा मौके का फायदा उठाकर दूसरों को उजागर करना और उन पर प्रहार करना चाहते हैं, जिससे कलीसिया में अशांति पैदा होती है। जिन लोगों को उजागर किया जाता है, अगर वे इन स्थितियों को सही तरीके से ले सकें, उन्हें परमेश्वर की ओर से आने वाली स्थितियाँ समझ सकें और समर्पण और धैर्य सीख सकें तो कोई विवाद नहीं होगा। लेकिन यह अपरिहार्य है कि जब कोई व्यक्ति दूसरों को अपनी समस्याओं के बारे में संगति करते हुए और उन्हें उजागर करते हुए सुनता है तो वह विद्रोही महसूस कर सकता है। वह मन ही मन सोचता है, “ऐसा क्यों है कि परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद तुम उनके बारे में अपनी अनुभवजन्य समझ साझा नहीं करते या खुद को जानने के बारे में बात नहीं करते और इसके बजाय सिर्फ मुझ पर हमला करते हो और मुझे निशाना बनाते हो? क्या तुम्हें मैं अप्रिय लगता हूँ? परमेश्वर के वचन पहले ही यह स्पष्ट कर चुके हैं कि मुझमें भ्रष्ट स्वभाव है—क्या तुम्हें वाकई यह कहने की जरूरत है? मुझमें भ्रष्ट स्वभाव हो सकता है, लेकिन क्या तुममें भी भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? तुम हमेशा मुझे निशाना बनाते हो, मुझे धोखेबाज कहते हो, लेकिन तुममें भी धूर्तता की कमी नहीं है!” आक्रोश और अवज्ञा से भरे हुए वे एक-दो बार धैर्य रख सकते हैं, लेकिन समय बीतने और अपनी शिकायतें जमा होने के बाद वे भड़क उठते हैं। और जब वे भड़क उठते हैं तो यह विनाशकारी होता है। वे कहते हैं, “जब कुछ लोग क्रियाकलाप करते हैं और बोलते हैं तो वे ऊपरी तौर पर बहुत ईमानदार और खुले होने का दिखावा करते हैं, लेकिन असल में वे तमाम तरह के षड्यंत्रों से भरे होते हैं और हमेशा दूसरों के खिलाफ साजिश रचते रहते हैं। जब वे लोगों से बात करते हैं तो कोई भी उनके विचार या इरादे समझ नहीं सकता; वे धोखेबाज लोग हैं। जब हमारा ऐसे व्यक्तियों से सामना होता है तो हम उनसे बातचीत या मेलजोल नहीं कर सकते; वे बहुत भयानक होते हैं। अगर तुम सावधान न रहे तो तुम उनके जाल में फँस जाओगे और उनसे धोखा खाओगे और उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाओगे। ऐसे लोग सबसे बुरे होते हैं, जिनसे परमेश्वर सबसे ज्यादा घृणा करता है और जिनसे ज्यादातर लोग चिढ़ते हैं। उन्हें अथाह गड्ढे में, आग और गंधक की झील में डाल दिया जाना चाहिए!” यह सुनने के बाद दूसरा व्यक्ति सोचता है, “तुममें भ्रष्ट स्वभाव हैं, लेकिन तुम दूसरों को तुम्हें उजागर नहीं करने देते? तुम बहुत अहंकारी और आत्मतुष्ट हो, इसलिए मैं तुम्हें उजागर करने के लिए परमेश्वर के वचनों का कोई दूसरा अंश ढूँढ़ूँगा और देखूँगा कि तब तुम क्या कहते हो!” उजागर किए जाने के बाद दूसरा व्यक्ति और भी क्रोधित हो जाता है और सोचता है : “तो तुम गड़े मुर्दे उखाड़े बिना नहीं रहोगे, है ना? तुम अभी भी इसे नहीं छोड़ोगे, क्यों? तुम बस मुझे नापसंद करते हो और सोचते हो कि मुझमें भ्रष्ट स्वभाव है, है ना? ठीक है, तो मैं तुम्हें भी उजागर कर दूँगा!” इसलिए वह कहता है, “कुछ लोग बस मसीह-विरोधी होते हैं; उन्हें रुतबा और दूसरों द्वारा की गई प्रशंसा पसंद होती है, वे दूसरों को भाषण देना पसंद करते हैं, दूसरों को उजागर करने और उनकी निंदा करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करते हैं जिससे दूसरे लोग सोचते हैं कि खुद उनमें भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। वे सब ऊँचे और शक्तिशाली हैं और सोचते हैं कि वे पवित्र हो गए हैं, लेकिन क्या वे सिर्फ गंदे राक्षस नहीं हैं? क्या वे सिर्फ शैतान और दुष्ट आत्माएँ नहीं हैं? मसीह-विरोधी क्या हैं? मसीह-विरोधी शैतान हैं!” उन्होंने कितने राउंड लड़े हैं? क्या कोई विजेता है? (नहीं।) क्या उन्होंने कुछ ऐसा कहा है जो दूसरों को शिक्षित कर सके? (नहीं।) तो ये शब्द क्या हैं? (आलोचना, निंदा।) ये आलोचना हैं। वे वास्तविक स्थिति या तथ्यों की परवाह किए बिना बेतहाशा बोल रहे हैं, मनमाने ढंग से दूसरों की आलोचना और निंदा कर रहे हैं, यहाँ तक कि उन्हें कोस भी रहे हैं। क्या उनके पास दूसरे व्यक्ति को मसीह-विरोधी कहने का कोई तथ्यात्मक आधार है? उस व्यक्ति ने मसीह-विरोधी के कौन-से बुरे कर्म और अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित कीं? क्या उनका भ्रष्ट स्वभाव मसीह-विरोधी के सार के स्तर तक पहुँचता है? जब परमेश्वर के चुने हुए लोग उन्हें दूसरे व्यक्ति को उजागर करते हुए सुनेंगे तो क्या वे इसे वस्तुनिष्ठ और सच्चा मानेंगे? क्या इन दोनों लोगों द्वारा बोले गए शब्दों में कोई दयालुता या अच्छे इरादे हैं? (नहीं।) क्या उनका उद्देश्य खुद को जानने में एक-दूसरे की मदद करना और उन्हें जितनी जल्दी हो सके अपना भ्रष्ट स्वभाव त्यागकर सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम बनाना है? (नहीं।) तो फिर वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? यह अपना व्यक्तिगत द्वेष बाहर निकालने, दूसरे पक्ष पर प्रहार कर उससे बदला लेने के लिए है, इसलिए वे मनमाने ढंग से एक-दूसरे पर कुछ ऐसा आरोप लगाते हैं जो तथ्यों से बिल्कुल मेल नहीं खाता। वे परमेश्वर के वचनों और दूसरे व्यक्ति के खुलासों और सार के आधार पर एक-दूसरे का सही ढंग से मूल्यांकन और चरित्र-चित्रण नहीं कर रहे हैं, इसके बजाय वे एक-दूसरे पर प्रहार करने, बदला लेने और अपना व्यक्तिगत द्वेष बाहर निकालने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग कर रहे हैं; वे सत्य पर संगति बिल्कुल नहीं कर रहे हैं। यह एक गंभीर समस्या है। वे हमेशा दूसरे व्यक्ति से संबंधित चीजों का सहारा लेकर उन पर हमला करते हैं और अहंकारी स्वभाव होने के लिए उनकी निंदा करते हैं—यह रवैया भयावह और दुर्भावनापूर्ण है और यह निश्चित रूप से अच्छे इरादे से किया गया खुलासा नहीं है। नतीजतन यह सिर्फ आपसी दुश्मनी और घृणा की ओर ले जाता है। अगर खुलासा प्रेमवश दूसरों की मदद करने के रवैये से किया जाता है तो लोग इसे समझ सकते हैं और वे इसे सही तरीके से ले सकते हैं। लेकिन अगर कोई दूसरे व्यक्ति के अहंकारी स्वभाव का फायदा उठाकर उसकी निंदा और उस पर हमला करता है तो यह पूरी तरह से उस व्यक्ति पर प्रहार करने और उसे सताने के लिए होता है। सभी में अहंकारी स्वभाव है, तो हमेशा एक व्यक्ति को ही निशाना क्यों बनाते हो? क्यों हमेशा एक व्यक्ति पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं और उसे छोड़ते नहीं? लगातार उस एक ही व्यक्ति के अहंकारी स्वभाव को उजागर करना—क्या इसका उद्देश्य वाकई उस स्वभाव को त्यागने में उसकी मदद करना होता है? (नहीं।) तो इसका क्या कारण होता है? कारण यह होता है कि चूँकि उन्हें दूसरा व्यक्ति अप्रिय लगता है, वे उस पर हमला करने और उससे बदला लेने के अवसर तलाशते हैं, हमेशा उसे सताना चाहते हैं। इसलिए जब वे कहते हैं कि दूसरा व्यक्ति मसीह-विरोधी, शैतान, राक्षस, धोखेबाज और बुरा व्यक्ति है तो क्या यह तथ्यपरक होता है? यह थोड़ा तथ्यों के करीब हो सकता है, लेकिन ये बातें कहने का उनका उद्देश्य दूसरे व्यक्ति की मदद करना या सत्य पर संगति करना नहीं होता, बल्कि अपना व्यक्तिगत द्वेष बाहर निकालना और बदला लेना होता है। उन्हें सताया गया होता है इसलिए वे बदला लेना चाहते हैं। वे कैसे बदला लेते हैं? दूसरे व्यक्ति को उजागर करके, उसकी निंदा करके, उन्हें राक्षस, शैतान, बुरी आत्मा, मसीह-विरोधी कहकर—उस पर सबसे खराब ठप्पा और सबसे गंभीर आरोप लगाकर। क्या यह मनमानी आलोचना और निंदा नहीं है? ये बातें कहने में दोनों पक्षों का इरादा, उद्देश्य और प्रेरणा खुद को जानने और अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने में दूसरे व्यक्ति की मदद करना नहीं होता, यह उसे परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में प्रवेश करने में या सत्य सिद्धांतों को समझने में मदद करना तो बिल्कुल नहीं होता। इसके बजाय वे दूसरे व्यक्ति पर हमला और प्रहार करने की कोशिश कर रहे होते हैं, उसे उजागर करने की कोशिश कर रहे होते हैं ताकि वे अपना व्यक्तिगत द्वेष बाहर निकालने और बदला लेने का अपना उद्देश्य हासिल कर सकें। यह आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होना है। हालाँकि दूसरों पर हमला करने का यह तरीका एक-दूसरे की कमियाँ उजागर करने से कहीं ज्यादा आधार वाला लग सकता है और यह परमेश्वर के वचनों को दूसरे व्यक्ति से जोड़कर यह कहना है कि उसमें भ्रष्ट स्वभाव है और वह राक्षस और शैतान है और ऊपरी तौर पर यह काफी आध्यात्मिक लगता है, लेकिन इन दोनों तरीकों की प्रकृति एक जैसी है। इनमें से कोई भी तरीका सामान्य मानवता के भीतर परमेश्वर के वचन और सत्य पर संगति करने से ताल्लुक नहीं रखता, इसके बजाय वे व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के आधार पर दूसरे व्यक्ति की गैर-जिम्मेदाराना और मनमाने ढंग से आलोचना करने, निंदा करने, कोसने और व्यक्तिगत हमलों में लिप्त होने से ताल्लुक रखते हैं। इस प्रकृति के संवाद कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ भी उत्पन्न करते हैं और वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में बाधा डालकर उसे नुकसान पहुँचाते हैं।

जब तुम लोग दो लोगों को एक-दूसरे के भ्रष्ट स्वभाव उजागर करते हुए आपसी हमलों में लिप्त पाते हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए? क्या उन्हें मेज पीटकर भाषण देना जरूरी है? क्या उन पर ठंडे पानी की बाल्टी डालकर उन्हें शांत करना और यह एहसास दिलाना जरूरी है कि वे गलत हैं और एक-दूसरे से माफी माँगें? क्या ये तरीके समस्या हल कर सकते हैं? (नहीं।) ये दो व्यक्ति हमेशा हर सभा में लड़ते हैं और हर सभा समाप्त होने के बाद अगली लड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं। घर पर वे अपने हमलों में इस्तेमाल करने के लिए परमेश्वर के वचन और आधार तलाशते हैं, यहाँ तक कि मसौदा भी लिखते हैं और पता लगाते हैं कि दूसरे पक्ष पर कैसे हमला किया जाए, उसके किन पहलुओं पर हमला किया जाए, उसकी आलोचना और निंदा कैसे की जाए, कौन-सा लहजा अपनाया जाए और सबसे विश्वसनीय हमला और निंदा करने के लिए परमेश्वर के किन वचनों का उपयोग किया जाए। दूसरे पक्ष की निंदा और उस पर प्रहार करने के लिए वे विभिन्न आध्यात्मिक शब्द भी तलाशते हैं और अभिव्यक्ति के विभिन्न तरीके इस्तेमाल करते हैं, जिससे वे उसे स्थिति पलटने से रोक पाते हैं और अगली लड़ाई में उसे नीचे गिराने का प्रयास करते हैं और उसके लिए फिर से उठना असंभव बना देते हैं। ये सभी व्यवहार आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होने से संबंधित हैं। क्या ऐसी समस्याएँ सुलझाना आसान है? अगर ज्यादातर लोगों से सलाह, सहायता और सत्य पर संगति प्राप्त करने के बाद भी वे पश्चाताप नहीं करते या अपना रास्ता नहीं बदलते—यानी मिलने पर एक-दूसरे से बहस करते हैं और एक-दूसरे को कोसते हैं, किसी की सलाह नहीं सुनते और जब कोई सत्य पर संगति करता है या उनकी काट-छाँट करता है तो उसे नहीं स्वीकारते—तो क्या करना चाहिए? इसे सँभालना आसान है : उन्हें दूर कर देना चाहिए। क्या इससे समस्या हल नहीं हो जाएगी? क्या यह आसान नहीं है? क्या उनके साथ संगति करते रहना जरूरी है? क्या अब उनकी प्रेम से मदद करना जरूरी है? मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों के प्रति प्रेमपूर्वक सहिष्णुता और धैर्य दिखाना उपयुक्त है? (यह उपयुक्त नहीं है।) यह उपयुक्त क्यों नहीं है? (वे सत्य नहीं स्वीकारते—उनके साथ संगति करने का कोई फायदा नहीं है।) सही कहा, वे सत्य नहीं स्वीकारते। वे सिर्फ मौखिक झगड़ों में लिप्त होने के लिए सभाओं में भाग लेते हैं। वे सत्य का अनुसरण करने के लिए परमेश्वर में विश्वास नहीं करते और उन्हें सिर्फ मौखिक झगड़ों में लिप्त होना पसंद है। क्या यह सामान्य मानवता का खुलासा और अभिव्यक्ति है? क्या उनमें वह तर्कसंगतता है जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए? (नहीं।) उनमें सामान्य मानवता की तर्कसंगतता नहीं होती। सभाओं के दौरान ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों को ध्यानपूर्वक और उचित तरीके से नहीं पढ़ते ताकि वे परमेश्वर के वचनों से सत्य समझ सकें और प्राप्त कर सकें और इससे अपने भ्रष्ट स्वभाव और समस्याएँ हल कर सकें। इसके बजाय वे हमेशा दूसरों की समस्याएँ हल करना चाहते हैं। उनका ध्यान लगातार दूसरों पर केंद्रित रहता है, वे उनमें दोष ढूँढ़ते रहते हैं; वे हमेशा परमेश्वर के वचनों में दूसरों की समस्याएँ खोजने का लक्ष्य रखते हैं। वे परमेश्वर के वचन पढ़ने और उन पर संगति करने के अवसर का उपयोग दूसरों को उजागर कर उन पर हमला करने के लिए करते हैं और वे परमेश्वर के वचनों का उपयोग दूसरों की आलोचना करने, उनका महत्त्व घटाने और उनकी निंदा करने के लिए करते हैं। और फिर भी वे खुद को परमेश्वर के वचनों से अलग रखते हैं। वे कैसे व्यक्ति हैं? क्या ये वे लोग हैं जो सत्य स्वीकारते हैं? (नहीं।) वे एक चीज में विशेष रूप से अच्छे और उत्सुक होते हैं : परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद वे अक्सर दूसरों में उन विभिन्न समस्याओं, स्थितियों और अभिव्यक्तियों की पहचान करते हैं जिन्हें उसके वचन उजागर करते हैं। जितना ज्यादा वे इन समस्याओं को पहचानते हैं, उतना ही ज्यादा उन्हें लगता है कि उनके कंधों पर एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है और वे मानते हैं कि वे बहुत कुछ कर सकते हैं, उन्हें लगता है कि उन्हें इन समस्याओं को उजागर करना चाहिए। वे ऐसे किसी व्यक्ति को बचकर नहीं जाने देते जिसमें ये समस्याएँ होती हैं। वे कैसे व्यक्ति हैं? क्या ऐसे लोगों में विवेक होता है? क्या उनमें सत्य समझने की योग्यता होती है? (नहीं।) कलीसिया में अगर ऐसे लोग बोलते नहीं या विघ्न उत्पन्न नहीं करते हैं तो उन्हें सँभालने की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर वे लगातार इसी तरह से क्रियाकलाप करते हैं, हमेशा दूसरों पर हमला, उनकी आलोचना और निंदा करते हैं तो कलीसिया को उन्हें सँभालने के लिए तदनुरूप कार्रवाई करनी चाहिए, उन्हें दूर कर देना चाहिए। जहाँ तक उन लोगों का सवाल है जिन्हें लोगों ने उजागर किया है और जो फिर उन्हीं तरीकों और साधनों का उपयोग करके उन पर हमला, उनकी आलोचना और निंदा करते हैं तो अगर परिस्थितियाँ गंभीर हों और उन्होंने कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया हो तो उन्हें भी इसी तरह से दूर कर परमेश्वर के चुने हुए लोगों से अलग-थलग कर दिया जाना चाहिए—उनके साथ कोई नरमी नहीं बरती जा सकती।

आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होने की अन्य कौन-सी अभिव्यक्तियाँ कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करने की प्रकृति की होने की योग्यता रखती हैं? एक-दूसरे की कमियों का खुलासा और व्यक्तिगत द्वेष बाहर निकालने और एक-दूसरे से बदला लेने के लिए एक-दूसरे के भ्रष्ट स्वभाव उजागर करना कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करने की स्पष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं। इन दो अभिव्यक्तियों के अलावा दूसरों को जानबूझकर उजागर करने और उनका गहन-विश्लेषण करने के लिए दिल खोलकर बोलने और खुद को उजागर करने और अपना गहन-विश्लेषण करने का दिखावा करना भी है—ऐसा हमला भी कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करने की अभिव्यक्ति है। तो क्या व्यक्ति जो कुछ कहता है वह अगर उसकी अपनी समस्याओं के बारे में न होकर दूसरे लोगों की समस्याओं के बारे में हो तो वह हमला है, चाहे वह स्पष्ट रूप से कहा गया हो या अप्रत्यक्ष रूप से, चतुराई से कहा गया हो? (नहीं।) तो कौन-सी परिस्थितियाँ उसे हमला बनाती हैं? यह जो कहा गया है उसके पीछे के इरादे और उद्देश्य पर निर्भर करता है। अगर लोगों पर प्रहार करने और उनसे बदला लेने के लिए या व्यक्तिगत द्वेष बाहर निकालने के लिए कुछ कहा जाता है तो यह हमला है। एक स्थिति यह है। इसके अलावा, लोगों की आलोचना और निंदा करने के लिए किसी समस्या के सतही पहलुओं को तथ्यों तथा सत्य के विपरीत बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना और समस्या के सार को बिल्कुल न देखते हुए गैर-जिम्मेदाराना तरीके से निष्कर्ष पर पहुँच जाना—यह भी व्यक्तिगत द्वेष बाहर निकालना और बदला लेना है, यह आलोचना और निंदा करना है और ऐसी स्थिति भी एक हमला है। और कुछ? (लोगों के बारे में निराधार अफवाहें फैलाना, क्या यह भी हमला है?) निराधार अफवाहें फैलाना भी निश्चित रूप से हमला है, यह और भी बड़ा हमला है। कितनी स्थितियाँ हमले के अंतर्गत आती हैं? (तीन।) इन स्थितियों का सारांश प्रस्तुत करो। (पहली स्थिति है दूसरों पर किसी खास उद्देश्य से हमला करना। दूसरी स्थिति है दूसरों की उस तरीके से आलोचना और निंदा करना जो तथ्यों और सत्य के विपरीत हो, जो दूसरे लोगों का मनमाने ढंग से गैर-जिम्मेदाराना तरीके से चरित्र-चित्रण करना है। तीसरी स्थिति है लोगों के बारे में निराधार अफवाहें फैलाना।) इन तीनों स्थितियों में से प्रत्येक की प्रकृति उसे व्यक्तिगत हमला बनाती है। हम कैसे फर्क करें कि कौन-सी स्थितियाँ व्यक्तिगत हमला होती हैं और कौन-सी नहीं? जब बात हमला करने वाले लोगों की आती है तो कौन-से क्रियाकलाप या शब्द हमला होते हैं? मान लो किसी व्यक्ति के शब्दों में कुछ हद तक अगुआई करने की प्रकृति है और वे दूसरों को गुमराह करने में सक्षम हैं और उनमें अफवाहें गढ़ने का गुण भी है। लोगों को बहकाने और गुमराह करने के लिए वह व्यक्ति बिना बात के बतंगड़ बना रहा है और अफवाहें और झूठ गढ़ रहा है। उसका इरादा और उद्देश्य ज्यादा लोगों से यह स्वीकार कराना और उन्हें यह विश्वास दिलाना है कि वह जो कहता है वह सही है और उन्हें इस बात से सहमत कराना है कि वह जो कहता है वह सत्य के अनुरूप है। साथ ही, वह किसी और से बदला भी लेना चाहता है, उसे नकारात्मक और कमजोर बनाना चाहता है। वह सोचता है, “तुम्हारा चरित्र बहुत ही घिनौना है—मुझे तुम्हारी असली स्थिति को उजागर करना होगा और तुम्हारा यह अहंकार गिराना होगा और तब मैं देखूँगा कि तुम्हारे पास इतराने और दिखावा करने के लिए क्या है! भला मैं तुम्हारे बगल में कैसे खड़ा हो सकता हूँ? जब तक मैं तुम्हें हराकर नकारात्मक नहीं बना देता और नीचे नहीं गिरा देता, तब तक मेरी नफरत दूर नहीं होगी। मैं सबको दिखा दूँगा कि तुम भी नकारात्मक हो सकते हो और तुममें भी कमजोरियाँ हैं!” अगर यही उसका उद्देश्य है तो उसके शब्द हमला हैं। लेकिन मान लो उसका इरादा बस किसी मामले के तथ्य और उसकी सच्चाई स्पष्ट करना है—उस मामले के बारे में एक सटीक अंतर्दृष्टि प्राप्त करने और एक लंबी अवधि के अनुभव से समस्या के सार का पता लगाने के बाद उसे लगता है कि इस पर संगति की जानी चाहिए ताकि ज्यादातर लोग इसे समझ सकें और जान सकें कि इस मामले की किस तरह की समझ शुद्ध है, यानी उसका उद्देश्य इस मामले पर ज्यादा लोगों के विकृत या एकतरफा विचारों को सही करना है—क्या यह हमला है? (नहीं।) वह किसी को अपनी व्यक्तिगत राय स्वीकारने के लिए मजबूर नहीं कर रहा और वह व्यक्तिगत प्रतिशोध का कोई इरादा तो बिलकुल नहीं रखता। इसके बजाय वह सिर्फ तथ्यों की सच्चाई स्पष्ट करना चाहता है; वह समझने में दूसरे पक्ष की मदद करने और इस समझ के जरिये उसे भटकने से रोकने के लिए प्रेम का इस्तेमाल कर रहा है। दूसरा पक्ष इसे स्वीकार करे या न करे, वह अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में सक्षम है। इसलिए यह व्यवहार, यह नजरिया हमला नहीं है। इन दो विभिन्न अभिव्यक्तियों में भाषा, शब्दों के चयन और बोलने के तरीके, लहजे और रवैये से व्यक्ति बता सकता है कि उस व्यक्ति का इरादा और उद्देश्य क्या है। अगर कोई व्यक्ति दूसरे पक्ष पर हमला करने का इरादा रखता है तो उसकी भाषा निश्चित रूप से तीखी होगी और उसके बोलने के लहजे, सुर, शब्द-चयन और रवैये में उसका इरादा और उद्देश्य स्पष्ट होगा। अगर वह दूसरे पक्ष को अपनी बात मानने के लिए मजबूर नहीं कर रहा और निश्चित रूप से उस पर हमला नहीं कर रहा तो उसका भाषण निश्चित रूप से सामान्य मानवता के जमीर और विवेक की अभिव्यक्तियों के अनुरूप होगा। इसके अलावा उसका बोलने का तरीका, लहजा और शब्दों का चयन निश्चित रूप से तर्कसंगत होगा, जो सामान्य मानवता के दायरे में आता है।

व्यक्तिगत हमला क्या है और क्या नहीं, यह पहचानने के सिद्धांतों पर संगति करने के बाद क्या अब तुम लोग इसे समझ पा रहे हो? अगर तुम अभी भी इसे नहीं समझ पा रहे तो तुम इस समस्या के सार की असलियत नहीं जान पाओगे। किसी की संगति चाहे कितनी भी सुखद क्यों न लगे, अगर वह सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास नहीं कर रहा है, अगर उसका उद्देश्य लोगों को सत्य समझने और अपने कर्तव्य ठीक से निभाने में मदद करना नहीं है, बल्कि इसके बजाय लोगों को लगातार परेशान करने के लिए उनके खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए चीजें ढूँढ़ना, उनकी आलोचना और निंदा करने की पूरी कोशिश करना है, और हालाँकि ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि वह लोगों का भेद पहचान रहा है, लेकिन असल में उसका इरादा और उद्देश्य दूसरों की निंदा करना और उन पर हमला करना है तो इस स्थिति में व्यक्तिगत हमला शामिल है। लोगों के बीच होने वाली छोटी-छोटी चीजें बहुत सरल और स्पष्ट होती हैं; अगर इन मामलों के बारे में सत्य पर संगति की जाती तो इसमें एक सभा से भी कम समय लगता। तो क्या हर सभा में उनके बारे में बहुत कुछ बोलकर भाई-बहनों का समय जाया करना जरूरी है? यह जरूरी नहीं है। अगर लोग हमेशा दूसरों को लगातार परेशान करते रहते हैं तो यह लोगों पर हमला करना और विघ्न उत्पन्न करना है। क्या कारण है कि लोग एक ही बात पर अड़े रहते हैं और उसके बारे में अंतहीन ढंग से बातें करते रहते हैं? कारण यह है कि कोई भी अपने इरादे और उद्देश्य छोड़ने के लिए तैयार नहीं है, कोई भी खुद को जानने की कोशिश नहीं करता और कोई भी सत्य या तथ्यों को और जो सच है उसे नहीं स्वीकारता, इसलिए वह दूसरों को लगातार परेशान करता रहता है। दूसरों को लगातार परेशान करने की प्रकृति क्या होती है? यह एक हमला है। यह दूसरों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए चीजें ढूँढ़ना, दूसरे लोगों के शब्द-चयन में दोष ढूँढ़ना और दूसरों की कमियों का उनके खिलाफ इस्तेमाल करना, बस एक ही बात पर अंतहीन रूप से सोचना और तब तक बहस करना जब तक व्यक्ति शर्मिंदा न हो जाए। अगर लोग सामान्य मानवता के भीतर से संगति कर रहे हों, एक-दूसरे का समर्थन और सहायता कर रहे हों—यानी अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हों—तो उनके बीच का रिश्ता ज्यादा से ज्यादा बेहतर होता जाएगा। लेकिन अगर वे एक-दूसरे पर हमला कर बहस करने में लिप्त हों, अपने-अपने औचित्य स्पष्ट करने के लिए एक-दूसरे से उलझ रहे हों, हमेशा अपना पलड़ा भारी रखना चाहते हों, हार नहीं मानना चाहते हों और समझौता नहीं करना चाहते हों, व्यक्तिगत शिकायतें नहीं छोड़ना चाहते हों तो उन दोनों के बीच का संबंध अंततः अधिकाधिक तनावपूर्ण और बद से ब्दतर होता जाएगा; वह एक सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध नहीं होगा और वह उस बिंदु तक भी पहुँच सकता है कि जब भी वे मिलें तो उनकी आँखें लाल हो जाएँ। इस बारे में सोचो, जब कुत्ते लड़ते हैं तो खूँखार कुत्ते की आँखें लाल हो जाती हैं। उसकी आँखें लाल होने का क्या मतलब है? क्या यह घृणा से भरा होना नहीं है? क्या एक-दूसरे पर हमला करने वाले लोगों के साथ भी ऐसा ही नहीं है? अगर सत्य पर संगति करते समय लोग एक-दूसरे पर हमला न करें, बल्कि एक-दूसरे की खूबियों का लाभ उठाकर एक-दूसरे की कमियों की भरपाई कर सकें और एक-दूसरे का समर्थन कर सकें तो क्या उनके बीच का रिश्ता खराब होना संभव है? उनका रिश्ता निश्चित रूप से उत्तरोत्तर सामान्य होता जाएगा। जब दो लोग सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के भीतर बोलते हैं, बातचीत करते हैं, यहाँ तक कि संगति या बहस भी करते हैं तो उनका रिश्ता सामान्य होगा और वे मिलते ही क्रोधित नहीं होंगे या लड़ाई करना शुरू नहीं करेंगे। अगर लोगों में एक-दूसरे को देखे बिना ही, सिर्फ दूसरे पक्ष का उल्लेख किए जाने भर से नफरत और अकथनीय क्रोध की लहर उठती है तो यह सामान्य मानवता का जमीर और विवेक होने की अभिव्यक्ति नहीं है। लोग एक-दूसरे पर हमला इसलिए करते हैं क्योंकि उनमें भ्रष्ट स्वभाव होते हैं; यह उनके परिवेश से पूरी तरह से असंबंधित है। यह सब इसलिए होता है क्योंकि लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, सत्य नहीं स्वीकार सकते और विवाद होने पर सत्य का अभ्यास नहीं करते या सिद्धांतों के आधार पर मामले नहीं सँभालते, इसलिए कलीसियाई जीवन में एक-दूसरे की कमियों के खुलासों, एक-दूसरे की आलोचनाओं, यहाँ तक कि एकदूसरे पर हमलों और एक-दूसरे की निंदा के मामले होना आम बात है। चूँकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं और वे अक्सर विवेकहीनता की स्थिति में होते हैं और वे अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते हैं और भले ही वे कुछ सत्य समझते हों, उनके लिए उसका अभ्यास करना मुश्किल होता है, उनके बीच विवाद और विभिन्न प्रकार के हमले आसानी से उत्पन्न हो जाते हैं। अगर ये हमले कभी-कभार होते हैं तो इनका कलीसियाई जीवन पर सिर्फ अस्थायी प्रभाव पड़ता है, लेकिन जो लोग लगातार आपसी हमलों में प्रवृत्त रहते हैं, वे कलीसियाई जीवन में गंभीर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को भी गंभीर रूप से प्रभावित और बाधित करते हैं।

3. मौखिक झगड़े

कलीसिया में एक और तरह का व्यक्ति भी होता है—ऐसा व्यक्ति खास तौर पर खुद को सही ठहराना पसंद करता है। उदाहरण के लिए, अगर उसने कुछ गलत किया या कहा तो उसे डर लगता है कि दूसरे लोग उसके बारे में गलत राय बना सकते हैं और इससे ज्यादातर लोगों की नजर में उसकी छवि खराब होगी, इसलिए वह खुद को सही ठहराता है और सभाओं के दौरान मामला स्पष्ट करता है। इसे स्पष्ट करने का उसका उद्देश्य लोगों को अपने बारे में गलत राय बनाने से रोकना होता है, इसलिए वह इस पर बहुत प्रयास करता है और बहुत विचार करता है, पूरे दिन सोचता रहता है : “मैं इस मामले को कैसे स्पष्ट कर सकता हूँ? कैसे मैं इसे उस व्यक्ति को स्पष्ट रूप से समझा सकता हूँ? कैसे मैं उसके द्वारा मेरे बारे में बनाई गई गलत राय का खंडन कर सकता हूँ? आज की सभा इस मामले पर बात करने का एक अच्छा अवसर है।” सभा में वह कहता है, “पिछली बार मैंने जो किया उसका उद्देश्य किसी को चोट पहुँचाना या उजागर करना नहीं था; मेरा इरादा अच्छा था, मेरा इरादा लोगों की मदद करने का था। फिर भी कुछ लोग हमेशा मुझे गलत समझते हैं, हमेशा मुझे निशाना बनाना चाहते हैं और हमेशा सोचते हैं कि मैं लालची और महत्वाकांक्षी हूँ और मेरी मानवता खराब है। लेकिन असल में मैं वैसा बिल्कुल नहीं हूँ, क्या मैं ऐसा हूँ? मैंने वैसी बातें न तो की हैं और न ही कही हैं। जब मैंने किसी के बारे में उसकी गैर-मौजूदगी में बात की थी तो ऐसा नहीं है कि मैं जानबूझकर उसके लिए परेशानी खड़ी कर रहा था। जब लोगों ने बुरी चीजें की होती हैं तो वे दूसरों को उनके बारे में बात कैसे नहीं करने दे सकते?” वे खुद को सही ठहराते हुए और अपना बचाव करते हुए और साथ ही दूसरे पक्ष की कई समस्याएँ उजागर करते हुए बहुत कुछ कहते हैं और वह सब खुद को मामले से अलग करने के लिए, हर किसी को यह विश्वास दिलाने के लिए कहते हैं कि उन्होंने जो प्रकट किया था वह भ्रष्ट स्वभाव नहीं था और उनमें खराब मानवता या सत्य के प्रति नापसंदगी नहीं है और दुर्भावनापूर्ण इरादा तो बिल्कुल भी नहीं है, और ताकि लोग सोचें कि इसके उलट वे नेकनीयत हैं, उनके अच्छे इरादे अक्सर गलत समझ लिए जाते हैं और अक्सर उनकी निंदा दूसरों की गलतफहमियों के कारण की जाती है। स्पष्ट और निहित दोनों रूपों से उनके शब्द श्रोताओं को यह महसूस कराते हैं कि वे निर्दोष हैं और जो लोग यह सोचते हैं कि वे गलत और खराब हैं, वे बुरे और ऐसे लोग हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते। यह सुनने के बाद दूसरा पक्ष समझता है : “क्या तुम्हारे शब्दों का मतलब यह नहीं है कि तुममें भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? क्या यह सिर्फ खुद को अच्छा दिखाने के लिए नहीं है? क्या यह सिर्फ खुद को नहीं जानना, सत्य नहीं स्वीकारना, तथ्यों को नहीं स्वीकारना नहीं है? अगर तुम ये चीजें नहीं स्वीकारते तो ठीक है, लेकिन मुझे क्यों निशाना बनाते हो? मेरा इरादा तुम्हें निशाना बनाने का नहीं था, न ही मैं तुम पर प्रहार करना चाहता था। तुम जो सोचना चाहते हो सोच सकते हो; इसका मुझसे क्या लेना-देना है?” और इसलिए वह खुद को रोक नहीं पाता और कहता है, “जब कुछ लोगों के सामने कोई छोटी-मोटी समस्या आती है, उन्हें थोड़ा अनुचित व्यवहार या दर्द सहना पड़ता है तो वे उसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते और खुद को सही ठहराना और स्पष्ट करना चाहते हैं; वे हमेशा खुद को समस्या से अलग करने की कोशिश करते हैं, हमेशा खुद को अच्छा दिखाना चाहते हैं, अपनी छवि चमकाना चाहते हैं। वे वैसे व्यक्ति नहीं हैं तो वे खुद को अच्छा दिखाने, खुद को परिपूर्ण दिखाने की कोशिश क्यों करते हैं? इसके अलावा मैं सत्य पर संगति करता हूँ, मैं किसी को निशाना नहीं बनाता, न ही मैं किसी पर प्रहार करने या किसी से बदला लेने के बारे में सोचता हूँ। लोगों को जो सोचना है सोचने दो!” क्या ये दोनों लोग सत्य पर संगति कर रहे हैं? (नहीं।) तो वे क्या कर रहे हैं? एक पक्ष कहता है, “मैंने वे चीजें कलीसिया के कार्य के लिए की थीं। मुझे परवाह नहीं कि तुम क्या सोचते हो।” दूसरा पक्ष कहता है, “जब मनुष्य काम करता है, तो स्वर्ग देख रहा होता है। परमेश्वर लोगों के विचार जानता है। यह मत सोचो कि सिर्फ इसलिए कि तुम्हारे पास कुछ साख, योग्यता और वाक्पटुता है और तुम बुरी चीजें नहीं करते, परमेश्वर तुम्हारी जाँच नहीं करेगा; यह मत सोचो कि अगर तुम अपने विचार गहरे छिपाओगे तो परमेश्वर उन्हें नहीं देख सकता। सभी भाई-बहन उन्हें देख सकते हैं—परमेश्वर की तो बात ही छोड़ो! क्या तुम नहीं जानते कि परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच करता है?” वे दोनों किस बात पर बहस कर रहे हैं? एक पक्ष खुद को सही ठहराने, खुद को दोषमुक्त करने के लिए बहुत प्रयास कर रहा है, वह नहीं चाहता कि दूसरे उसके बारे में गलत धारणा बनाएँ, जबकि दूसरा पक्ष इसे नहीं छोड़ने पर अड़ा हुआ है, वह उस व्यक्ति को खुद को अच्छा दिखाने नहीं देता और साथ ही फटकार के जरिये उसे उजागर करने और उसकी निंदा करने का लक्ष्य रखता है। ऊपरी तौर पर ये दोनों सीधे एक-दूसरे को कोस नहीं रहे या सीधे एक-दूसरे को उजागर नहीं कर रहे, लेकिन उनका भाषण उद्देश्यपूर्ण है : एक पक्ष दूसरे व्यक्ति को खुद को गलत समझने से रोकने की कोशिश करता है और माँग करता है कि वह उसे निर्दोष घोषित कर दे, जबकि दूसरा पक्ष ऐसा करने से इनकार करता है और इसके बजाय उस पर दोषी होने का ठप्पा लगाकर उसकी निंदा करने पर अड़ा हुआ है और माँग करता है कि वह दोष स्वीकार ले। क्या यह बातचीत सत्य की सामान्य संगति है? (नहीं।) क्या यह बातचीत जमीर और विवेक पर आधारित है? (नहीं।) तो ऐसी बातचीत की प्रकृति क्या है? क्या ऐसी बातचीत आपसी हमलों में लिप्त होना है? (हाँ।) क्या खुद को सही ठहराने वाला इस बारे में संगति कर रहा है कि कैसे वे परमेश्वर से चीजें स्वीकार सकते हैं, खुद को जान सकते है और वे सिद्धांत पा सकते हैं जिनका अभ्यास किया जाना चाहिए? नहीं, वह दूसरों के सामने खुद को सही ठहरा रहा है। वह दूसरों के सामने अपने विचार, दृष्टिकोण, इरादे और उद्देश्य स्पष्ट करना चाहता है, दूसरे पक्ष को खुद को समझाना चाहता है और दूसरे पक्ष से खुद को निर्दोष घोषित करवाना चाहता है। इसके अलावा, वह दूसरे पक्ष द्वारा किए गए अपने खुलासे और निंदा को नकारना चाहता है और दूसरा पक्ष जो कहता है वह चाहे तथ्यों या सत्य से मेल खाता हो या नहीं, अगर वह उसे नहीं मानता या स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होता तो दूसरा पक्ष जो कहता है उसे वह गलत मानता है और उसे सुधारना चाहता है। जबकि दूसरा पक्ष उसे निर्दोष घोषित नहीं करना चाहता, बल्कि उसे उजागर करता है, अपनी निंदा स्वीकारने के लिए बाध्य करता है। एक स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होता और दूसरा उससे स्वीकार करवाने पर जोर देता है, जिससे उनके बीच हमले होते हैं। ऐसी बातचीत की प्रकृति आपसी हमलों में लिप्त होने की होती है। तो ऐसे हमले की प्रकृति क्या होती है? क्या इस बातचीत की विशेषता आपसी इनकार, आपसी शिकायतें और आपसी निंदा है? (हाँ।) क्या ऐसी बातचीत कलीसियाई जीवन में भी होती है? (हाँ।) ऐसी तमाम बातचीत मौखिक झगड़े हैं।

ऐसी बातचीत मौखिक झगड़े क्यों कहलाती है? (इसलिए कि उनमें शामिल लोग सही-गलत के बारे में बहस करते हैं, कोई खुद को जानने की कोशिश नहीं करता और किसी को कुछ हासिल नहीं होता; वे बस लगातार इस मामले पर बोलते रहते हैं और बातचीत निरर्थक रहती है।) वे बस बहुत बोलते हैं और इस बात पर बहस करने में अपनी बहुत सारी ऊर्जा नष्ट कर देते हैं कि सही या गलत कौन है, श्रेष्ठ या हीन कौन है। वे लगातार बहस करते रहते हैं जिसमें कभी कोई विजेता नहीं होता और फिर बहस जारी रखते हैं। आखिरकार उन्हें इससे क्या हासिल होता है? क्या यह सत्य की समझ है, परमेश्वर के इरादों की समझ है? क्या यह पश्चात्ताप करने और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकारने की क्षमता है? क्या यह चीजें परमेश्वर से स्वीकारने और खुद को और ज्यादा जानने की क्षमता है? उन्हें इनमें से कुछ भी हासिल नहीं होता। ये निरर्थक विवाद और सही-गलत के बारे में ये संवाद मौखिक झगड़े हैं। इसे स्पष्ट रूप से कहें तो, मौखिक झगड़े पूरी तरह से निरर्थक बातचीत होते हैं, जिनमें कही गई हर बात बकवास होती है, एक भी शब्द दूसरों के लिए शिक्षाप्रद या लाभप्रद नहीं होता, बल्कि बोले गए तमाम शब्द हानिकारक होते हैं और वे इंसानी इच्छा, क्रोध, लोगों के दिमाग और निश्चित रूप से इनसे भी बढ़कर लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से उत्पन्न होते हैं। बोला गया हर शब्द व्यक्ति के अपने हितों, अपनी छवि और प्रतिष्ठा के लिए होता है, दूसरों की शिक्षा या सहायता के लिए नहीं, सत्य के किसी पहलू की अपनी समझ के लिए या परमेश्वर के इरादे समझने के लिए नहीं, और निश्चित रूप से इस बात पर चर्चा करने के लिए नहीं कि परमेश्वर के वचनों में व्यक्ति के कौन-से भ्रष्ट स्वभाव उजागर होते हैं, क्या उसके भ्रष्ट स्वभाव परमेश्वर के वचनों से मेल खाते हैं या क्या व्यक्ति की समझ सही है। ये निरर्थक आत्म-औचित्य और स्पष्टीकरण कितने भी सुखद, ईमानदार या धर्मनिष्ठ क्यों न लगें, ये सब मौखिक झगड़े और आपसी हमले और आलोचनाएँ हैं जो न तो दूसरों को और न ही खुद को लाभ पहुँचाते हैं। ये न सिर्फ दूसरों को नुकसान पहुँचाते है और व्यक्ति के सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंधों को प्रभावित करते हैं, बल्कि व्यक्ति के अपने जीवन विकास में भी बाधा डालते हैं। संक्षेप में, चाहे जो भी बहाने, इरादे, रवैये, लहजे इस्तेमाल किए गए हों या जो भी साधन और तकनीकें उपयोग में लाई गई हों, अगर इनमें मनमाने ढंग से दूसरों की आलोचना और निंदा करना शामिल है तो ये शब्द, तरीके इत्यादि सब दूसरों पर हमला करने की श्रेणी में आते हैं, ये सब मौखिक झगड़े हैं। क्या यह दायरा व्यापक है? (यह काफी व्यापक है।) तो जब तुम लोग लोगों के हमलों, आलोचनाओं और निंदा का सामना करते हो तो क्या तुम दूसरों पर हमला और उनकी निंदा करने के व्यवहार में शामिल होने से बच सकते हो? ऐसी स्थितियों से सामना होने पर तुम लोगों को कैसे अभ्यास करना चाहिए? (हमें प्रार्थना के जरिये शांत होने के लिए परमेश्वर के सामने आना चाहिए; तब हमारे दिलों में नफरत नहीं रहेगी।) अगर व्यक्ति समझदार और विवेकशील है, अगर वह परमेश्वर के सामने खुद को शांत कर सकता है और उससे प्रार्थना कर सकता है और सत्य स्वीकार सकता है तो वह अपने इरादे और इच्छाएँ नियंत्रित कर सकता है और फिर उस बिंदु पर पहुँच सकता है जहाँ वह न तो दूसरों की आलोचना करता है और न ही उन पर हमला करता है। अगर किसी का इरादा और उद्देश्य व्यक्तिगत भड़ास निकालना या बदला लेना नहीं है और निश्चित रूप से दूसरे पक्ष पर हमला करना नहीं है और इसके बजाय वह अनजाने में इसलिए दूसरे पक्ष को चोट पहुँचा देता है कि वह सत्य नहीं समझता या बहुत सतही रूप से समझता है और चूँकि वह कुछ हद तक मूर्ख और अज्ञानी या जिद्दी है तो दूसरों की मदद, समर्थन और संगति के जरिये सत्य समझने के बाद उसका भाषण ज्यादा सटीक हो जाएगा, साथ ही दूसरों के बारे में उसके मूल्यांकन और विचार भी सटीक हो जाएँगे और वह दूसरे लोगों द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों और उनके गलत क्रियाकलापों को सही ढंग से ले पाएगा, जिससे धीरे-धीरे दूसरों पर उसके हमले और आलोचनाएँ कम हो जाएँगी। लेकिन अगर कोई हमेशा अपने भ्रष्ट स्वभावों के भीतर जीता है, किसी ऐसे व्यक्ति से बदला लेने के अवसर तलाशता है जो उसे अप्रिय लगता है या जिसने पहले उसे अपमानित किया या नुकसान पहुँचाया होता है, हमेशा ऐसे इरादे रखता है और सत्य की तलाश या परमेश्वर से प्रार्थना या उस पर भरोसा बिल्कुल नहीं करता तो वह कहीं भी कभी भी दूसरों पर हमला करने में सक्षम होता है और इसे हल करना मुश्किल है। अनजाने में दूसरों पर हमला करने का समाधान करना आसान है, लेकिन सोच-समझकर और जानबूझकर हमला करने का नहीं। अगर कोई व्यक्ति दूसरों की सहायता और समर्थन करने के लिए सत्य पर संगति करने के माध्यम से कभी-कभी और अनजाने में उन पर हमला और उनकी आलोचना करता है तो वे सत्य समझने के बाद अपना रास्ता बदलने में सक्षम होंगे। लेकिन अगर कोई लगातार बदला लेने और व्यक्तिगत भड़ास निकालने की कोशिश करता है, हमेशा दूसरों को सताना या नीचे गिराना चाहता है और ऐसे इरादों के साथ दूसरों पर हमला करता है जिन्हें सभी लोग महसूस कर सकते और देख सकते हैं तो ऐसा व्यवहार कलीसियाई जीवन के लिए विघ्न-बाधा बन जाता है; यह पूरी तरह से जानबूझकर उत्पन्न की गई विघ्न-बाधा है। इसलिए दूसरों पर हमला करने का यह स्वभाव बदलना मुश्किल है।

अब क्या तुम लोग समझते हो कि दूसरों पर हमला और उनकी निंदा करने की समस्या कैसे हल की जानी चाहिए? इसका सिर्फ एक ही तरीका है—व्यक्ति को परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उस पर भरोसा करना चाहिए, फिर उसकी नफरत धीरे-धीरे गायब हो जाएगी। मुख्य रूप से दो प्रकार के लोग होते हैं जो दूसरों पर हमला कर सकते हैं। एक प्रकार उन लोगों का होता है जो बिना सोचे-समझे बोलते हैं, मुँहफट और उजड्ड होते हैं और जब भी लोगों को अप्रिय पाते हैं तभी कुछ आहत करने वाली बातें कह सकते हैं। लेकिन ज्यादातर समय वे जानबूझकर या सोचसमझकर लोगों पर हमला नहीं करते—वे बस खुद को रोक नहीं पाते, यह बस उनका स्वभाव होता है और वे अनजाने में ही दूसरे लोगों के खिलाफ हमले करते हैं। अगर उनकी काट-छाँट की जाए तो वे इसे स्वीकार सकते हैं और इसलिए वे बुरे लोग नहीं होते और दूर किए जाने के लक्ष्य नहीं होते। लेकिन बुरे लोग काट-छाँट किए जाने को नहीं स्वीकारते और अक्सर कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं, वे अक्सर दूसरों पर हमला करते हैं, उनकी आलोचना करते हैं, उन पर प्रहार करते हैं और उनसे प्रतिशोध लेते हैं और सत्य जरा भी नहीं स्वीकारते। वे बुरे लोग हैं और वे ही हैं जिन पर कलीसिया को ध्यान देकर दूर करने की जरूरत है। उन पर ध्यान देने और उन्हें दूर किए जाने की जरूरत क्यों है? उनके प्रकृति सार से आँकें तो, दूसरों पर हमला करने का उनका व्यवहार अनजाने में नहीं बल्कि जानबूझकर किया गया होता है। वह इसलिए कि इन लोगों में दुर्भावनापूर्ण मानवता होती है—कोई भी उन्हें अपमानित या उनकी आलोचना नहीं कर सकता और अगर कोई ऐसा कुछ कह देता है जिससे अनजाने में उन्हें थोड़ी ठेस पहुँचती है तो वे बदला लेने के अवसर खोजने के बारे में सोचते हैं—और इसलिए ऐसे लोग दूसरों पर हमले करने में सक्षम होते हैं। यह एक प्रकार का व्यक्ति है जिस पर कलीसिया को ध्यान देने और उसे दूर करने की आवश्यकता है। जो कोई भी आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होता है—चाहे वह किसी भी पक्ष का हो, चाहे वह सक्रिय रूप से हमला करता हो या निष्क्रिय रूप से—अगर वह ऐसे हमलों में भाग लेता है तो वह खराब इरादों वाला बुरा व्यक्ति है जो थोड़ी-सी भी नाराजगी होने पर दूसरों को सताएगा। ऐसे लोग कलीसियाई जीवन में गंभीर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। वे कलीसिया के भीतर एक प्रकार के दुष्ट व्यक्ति होते हैं। कम गंभीर मामले संबंधित व्यक्ति को आत्म-चिंतन करने के लिए अलग-थलग करके निपटाए जा सकते हैं; ज्यादा गंभीर मामलों में संबंधित व्यक्ति को बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। यह वह सिद्धांत है जिसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इस मामले को सँभालने की बात आने पर समझने की आवश्यकता है।

इस संगति के जरिये क्या अब तुम लोग समझते हो कि दूसरों पर हमला करने का क्या मतलब है? क्या तुम इसे पहचान सकते हो? मेरे यह परिभाषित करने के बाद कि हमला क्या होता है, कुछ लोग सोचते हैं, “दूसरों पर हमला करने की इतनी व्यापक परिभाषा के होते भविष्य में कौन बोलने की हिम्मत करेगा? हम इंसानों में से कोई भी सत्य नहीं समझता, इसलिए अपना मुँह खोलने भर से हम दूसरों पर हमला कर देंगे, जो भयानक है! भविष्य में हमें बस खाना खाना चाहिए, पानी पीना चाहिए और चुप रहना चाहिए, दूसरों पर हमला करने से बचने के लिए सुबह उठते ही अपना मुँह बंद कर लेना चाहिए और लापरवाही से नहीं बोलना चाहिए। यह बहुत अच्छा होगा और हमारे दिन बहुत ज्यादा शांतिपूर्ण होंगे।” क्या सोचने का यह तरीका सही है? अपना मुँह बंद रखने से समस्या हल नहीं होती; दूसरों पर हमला करने के मुद्दे का सार व्यक्ति के दिल की समस्या है, यह व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभावों के कारण होती है और यह व्यक्ति के मुँह की समस्या नहीं है। लोग अपने मुँह से जो कहते हैं वह उनके भ्रष्ट स्वभावों और उनके विचारों से नियंत्रित होता है। अगर किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो जाता है और वह वाकई कुछ सत्य समझ लेता है और उसका भाषण भी कुछ हद तक सैद्धांतिक और नपा-तुला हो जाता है तो दूसरों पर हमला करने की उसकी समस्या आंशिक रूप से हल हो जाएगी। बेशक कलीसियाई जीवन के भीतर लोगों को सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध रखने के लिए और आपसी हमलों या मौखिक झगड़ों में लिप्त नहीं होने के लिए जरूरी है कि वे अक्सर प्रार्थना में परमेश्वर के सामने आएँ, परमेश्वर का मार्गदर्शन माँगें और धार्मिकता के भूखे-प्यासे पवित्र हृदयों के साथ परमेश्वर के सामने शांत हों। इस तरह किसी के अनजाने में कुछ ऐसा कह देने पर जो तुम्हें ठेस पहुँचाता है, तुम्हारा दिल परमेश्वर के सामने शांत हो सकता है, तुम उसका बुरा नहीं मानोगे, तुम दूसरे व्यक्ति के साथ बहस नहीं करना चाहोगे, अपना बचाव करना और खुद को सही ठहराना तो दूर की बात है। इसके बजाय तुम इसे परमेश्वर से स्वीकारोगे, खुद को जानने का एक अच्छा अवसर देने के लिए परमेश्वर को धन्यवाद दोगे और उसे इस बात के लिए भी धन्यवाद दोगे कि उसने तुम्हें दूसरों के शब्दों के जरिये यह जानने दिया कि तुममें अभी भी अमुक समस्या है। यह तुम्हारे लिए खुद को जानने का एक अच्छा अवसर है, यह परमेश्वर का अनुग्रह है और तुम्हें इसे परमेश्वर से स्वीकारना चाहिए। तुम्हें उस व्यक्ति के प्रति नाराजगी नहीं रखनी चाहिए जिसने तुम्हें ठेस पहुँचाई है, न ही उस व्यक्ति के प्रति घृणा और नफरत महसूस करनी चाहिए जिसने अनजाने में तुम्हारी गलतियों की चर्चा कर दी या तुम्हारी कमियाँ उजागर कर दीं, जानबूझकर या अनजाने में उसे अनदेखा नहीं करना चाहिए या उससे बदला लेने के लिए तमाम तरह के तरीके नहीं अपनाने चाहिए। इनमें से कोई भी नजरिया परमेश्वर के लिए सुखद नहीं है। अक्सर परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने के लिए आओ और जब तुम्हारा दिल शांत हो जाएगा तो दूसरे लोगों द्वारा अनजाने में तुम्हें नुकसान पहुँचाए जाने पर तुम उसे सही तरीके से ले पाओगे, तुम उनके प्रति सहनशीलता और धैर्य दिखा पाओगे। अगर कोई तुम्हें जानबूझकर नुकसान पहुँचाए तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम इसे कैसे लोगे—क्रोधित होकर उससे बहस करोगे या परमेश्वर के सामने खुद को शांत करोगे और सत्य खोजोगे? बेशक, मेरे कहे बिना ही तुम सभी लोग स्पष्ट रूप से जानते हो कि प्रवेश करने का कौन-सा तरीका सही विकल्प है।

कलीसियाई जीवन में इंसानी ताकत, इंसानी आत्म-नियंत्रण और इंसानी धैर्य पर भरोसा करके आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों से बचना बहुत मुश्किल है। चाहे तुम्हारी मानवता कितनी भी अच्छी हो, तुम कितने भी सज्जन और दयालु हो या कितने भी महामना हो, तुम्हारा कुछ ऐसे लोगों या चीजों से पाला पड़ना अपरिहार्य है जो तुम्हारी गरिमा, ईमानदारी आदि को ठेस पहुँचाते हैं। ऐसी समस्याएँ सँभालने और हल करने के लिए तुम्हारे मन में एक सिद्धांत होना चाहिए। अगर तुम इन समस्याओं को उग्रता से लेते हो तो यह बहुत आसान है : वे तुम्हें कोसते हैं और तुम उन्हें कोसते हो, वे तुम पर हमला करते हैं और तुम उन पर हमला करते हो, आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत, ईंट का जवाब पत्थर से देते हो और अपनी गरिमा, ईमानदारी और इज्जत बचा लेते हो। इसे हासिल करना बहुत आसान है। लेकिन तुम्हें अपने दिल में तोलना चाहिए कि क्या यह तरीका उचित है, क्या यह तुम्हारे और सामने वाले, दोनों के लिए फायदेमंद है और क्या यह परमेश्वर को प्रसन्न करता है। अक्सर जब लोगों ने इस समस्या का सार नहीं समझा होता तो उनके तात्कालिक विचार ये होते हैं, “वह मुझ पर दया नहीं करता तो मैं क्यों उस पर दया करूँ? वह मुझसे प्रेम नहीं करता तो मैं क्यों उसके साथ प्रेम से पेश आऊँ? उसके पास मेरे लिए धैर्य नहीं है और वह मेरी मदद नहीं करता तो मैं उसके प्रति धैर्य क्यों रखूँ या उसकी मदद क्यों करूँ? वह मेरे प्रति निष्ठुर है इसलिए मैं उसका बुरा करूँगा। मैं आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत क्यों नहीं ले सकता?” ये पहले विचार हैं जो लोगों के दिमाग में आते हैं। लेकिन जब तुम सच में इस तरह से क्रियाकलाप करते हो तो भीतर से शांत महसूस करते हो या बेचैन और पीड़ित? जब तुम वाकई इसे चुनते हो तो तुम्हें क्या मिलता है? तुम क्या पाते हो? कई लोगों ने अनुभव किया है कि जब वे वाकई इस तरह से क्रियाकलाप करते हैं तो भीतर से बेचैनी महसूस करते हैं। बेशक ज्यादातर लोगों के लिए यह अपराध-बोध का मामला नहीं होता और यह इस भावना के कारण होने वाली बेचैनी तो बिल्कुल नहीं होती कि वे परमेश्वर के ऋणी हैं; लोगों के पास वैसा आध्यात्मिक कद नहीं होता। उनमें यह बेचैनी किस वजह से होती है? यह लोगों की नफरत, अपमान किए जाने पर उनकी गरिमा और ईमानदारी को चुनौती और साथ ही उन्हें महसूस होने वाली चोट और मौखिक रूप से उकसाए जाने के बाद उनके दिलों में उठने वाले क्रोध, घृणा, अवज्ञा और आक्रोश से उपजती है, ये सभी चीजें लोगों को असहज महसूस कराती हैं। इस बेचैनी के क्या परिणाम होते हैं? इसे महसूस करने के फौरन बाद तुम इस बात पर विचार करना शुरू कर दोगे कि उस व्यक्ति से निपटने के लिए भाषा का उपयोग कैसे करूँ, उसे नीचा गिराने और यह दिखाने के लिए कि तुम्हारे पास गरिमा और ईमानदारी है और तुम्हें धौंस देना आसान नहीं है, कानूनी और उचित साधनों का उपयोग कैसे करूँ। जब तुम बेचैनी महसूस करते हो, जब तुम घृणा उत्पन्न करते हो तो तुम उस व्यक्ति के प्रति धैर्य और सहनशीलता दिखाने या उसके साथ सही तरह से पेश आने या अन्य सकारात्मक चीजों के बारे में नहीं सोचते, बल्कि ईर्ष्या, विकर्षण, जुगुप्सा, दुश्मनी, घृणा और निंदा जैसी तमाम नकारात्मक चीजों के बारे में सोचते हो, इस हद तक कि तुम उसे अपने दिल में अनगिनत बार कोसते हो और चाहे जो भी समय हो—यहाँ तक कि उस समय भी जब तुम खा या सो रहे होते हो—तुम सोचते हो कि उस पर कैसे पलटवार किया जाए और कल्पना करते हो कि अगर उसने तुम पर हमला या तुम्हारी निंदा इत्यादि की तो तुम उससे कैसे निपटोगे और ऐसी स्थितियाँ कैसे सँभालोगे। तुम पूरा दिन यह सोचने में बिताते हो कि सामने वाले व्यक्ति को कैसे नीचे गिराया जाए, अपनी नाराजगी और घृणा कैसे निकाली जाए और सामने वाले व्यक्ति को तुम्हारे आगे झुकने, तुमसे डरने और दोबारा तुम्हें उकसाने की हिम्मत नहीं करने के लिए कैसे मजबूर किया जाए। तुम अक्सर यह भी सोचते हो कि सामने वाले व्यक्ति को सबक कैसे सिखाया जाए, ताकि उसे पता चले कि तुम कितने शक्तिशाली हो। जब ऐसे विचार उठते हैं और जब तुम्हारे मन में बार-बार कल्पित परिदृश्य आते हैं तो वे जो विघ्न और दुष्परिणाम तुम्हारे लिए उत्पन्न करते हैं वे मापे नहीं जा सकते। जब तुम मौखिक झगड़ों और आपसी हमलों में लिप्त होने की स्थिति में पड़ जाते हो तो परिणाम क्या होते हैं? क्या तब परमेश्वर के सामने शांत रहना आसान होता है? क्या यह तुम्हारे जीवन प्रवेश में देरी नहीं करता? (हाँ, करता है।) मामले सँभालने के लिए गलत तरीका चुनने का व्यक्ति पर यह प्रभाव पड़ता है। अगर तुम सही मार्ग चुनते हो तो जब कोई व्यक्ति इस तरह से बोलता है जो तुम्हारी छवि या गौरव को नुकसान पहुँचाता है या तुम्हारी ईमानदारी और गरिमा का अपमान करता है तो तुम सहिष्णु होना चुन सकते हो। तुम किसी भी तरह की भाषा का उपयोग करके उसके साथ बहस में लिप्त नहीं होगे या जानबूझकर खुद को सही ठहराते हुए और दूसरे पक्ष पर हमला करते हुए अपने भीतर घृणा को जन्म नहीं दोगे। सहिष्णु होने का सार और महत्व क्या है? तुम कहते हो, “उसकी कही कुछ चीजें तथ्यों से मेल नहीं खातीं, लेकिन सत्य समझने और उद्धार प्राप्त करने से पहले हर कोई ऐसा ही होता है और मैं भी कभी ऐसा ही था। अब जबकि मैं सत्य समझता हूँ तो मैं सही-गलत के बारे में बहस करने या लड़ाई के फलसफे में लिप्त होने के गैर-विश्वासियों के मार्ग पर नहीं चलता—मैं सहिष्णुता और दूसरों के साथ प्रेम से पेश आना चुनता हूँ। उसकी कही कुछ चीजें तथ्यों से मेल नहीं खातीं, लेकिन मैं उन पर ध्यान नहीं देता। मैं वही स्वीकारता हूँ जो मैं पहचान और समझ सकता हूँ। मैं इसे परमेश्वर से स्वीकारता हूँ और प्रार्थना में परमेश्वर के सामने लाता हूँ, उससे ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित करने के लिए कहता हूँ जो मेरे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें, मुझे इन भ्रष्ट स्वभावों का सार जानने दें और इन समस्याओं पर ध्यान देना शुरू करने, धीरे-धीरे इन पर काबू पाने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का अवसर दें। जहाँ तक इस बात का सवाल है कि कौन मुझे अपने शब्दों से ठेस पहुँचाता है और वह जो कहता है वह सही है या नहीं या उसके इरादे क्या हैं तो एक ओर मैं इसे समझने का अभ्यास करता हूँ और दूसरी ओर मैं इसे बर्दाश्त करता हूँ।” अगर यह व्यक्ति ऐसा है जो सत्य स्वीकारता है तो तुम उसके साथ शांति से बैठकर संगति कर सकते हो। अगर वह ऐसा व्यक्ति नहीं है, अगर वह बुरा व्यक्ति है तो उस पर ध्यान मत दो। तब तक प्रतीक्षा करो जब तक वह पर्याप्त सीमा तक प्रदर्शन न कर ले और सभी भाई-बहन और तुम भी उसे अच्छी तरह से न पहचान लो और जब तक अगुआ और कार्यकर्ता उसे हटाने और सँभालने वाले न हों—तभी परमेश्वर के लिए उस पर ध्यान देने का समय आएगा और निश्चित रूप से तुम भी प्रसन्न महसूस करोगे। लेकिन तुम्हें जो मार्ग चुनना चाहिए वह बुरे लोगों के साथ मौखिक झगड़ों में लिप्त होना या उनसे बहस करना और खुद को सही ठहराने की कोशिश करना बिल्कुल नहीं है। इसके बजाय यह जब भी कुछ हो तो सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना है। चाहे यह उन लोगों से बर्ताव करना हो जिन्होंने तुम्हें ठेस पहुँचाई है या उन लोगों से जिन्होंने तुम्हें ठेस नहीं पहुँचाई है और जो तुम्हारे लिए फायदेमंद हैं, अभ्यास के सिद्धांत समान होने चाहिए। जब तुम यह मार्ग चुनते हो तो क्या तुम्हारे दिल में कोई नफरत होगी? थोड़ी असुविधा हो सकती है। अपनी गरिमा को ठेस पहुँचने पर कौन असहज महसूस नहीं करेगा? अगर कोई असहज महसूस नहीं करने का दावा करता है तो यह झूठ होगा, धोखा होगा, लेकिन तुम सत्य का अभ्यास करने की खातिर यह कठिनाई सह सकते हो और भुगत सकते हो। जब तुम यह मार्ग चुनते हो तो दोबारा परमेश्वर के सामने आने पर तुम्हारा जमीर साफ होगा। तुम्हारा जमीर साफ क्यों होगा? क्योंकि तुम स्पष्ट रूप से जान जाओगे कि तुम्हारे शब्द क्रोध से उत्पन्न नहीं होते, तुम अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं की खातिर दूसरों के साथ तब तक विवादों में लिप्त नहीं होते जब तक शर्मिंदा न कर दिए जाओ और सत्य समझने की नींव के आधार पर तुम इसके बजाय परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो और अपने मार्ग पर चलते हो। तुम अपने दिल में पूरी तरह से स्पष्ट होगे कि तुमने जो मार्ग चुना है वह परमेश्वर द्वारा निर्देशित है, परमेश्वर द्वारा अपेक्षित है और इसलिए तुम अपने भीतर विशेष रूप से शांति महसूस करोगे। जब तुम्हारे पास ऐसी शांति होगी तो क्या अपने और दूसरों के बीच की नफरत और व्यक्तिगत शिकायतें तुम्हें परेशान करेंगी? (नहीं।) जब तुम वास्तव में इन्हें छोड़ देते हो और स्वेच्छा से सकारात्मक मार्ग चुनते हो तो तुम्हारा दिल चुप और शांत हो जाएगा। तुम अब क्रोध, घृणा और उस घृणा से उत्पन्न प्रतिशोधी मानसिकता और षड्यंत्रों के साथ-साथ उग्रता की अन्य चीजों से परेशान नहीं होगे। तुमने जो मार्ग चुना है, वह तुम्हें शांति और शांत हृदय प्रदान करेगा और उग्रता की वे चीजें अब तुम्हें परेशान नहीं कर पाएँगी। जब वे तुम्हें परेशान नहीं कर सकतीं तो क्या तुम उन लोगों पर हमला करने के तरीके सोचोगे जो तुम्हें अपने शब्दों से ठेस पहुँचाते हैं या उनके साथ मौखिक झगड़ों में लिप्त होओगे? तुम ऐसा नहीं करोगे। बेशक, तुम्हारे छोटे आध्यात्मिक कद या कुछ विशेष संदर्भों के कारण कभी-कभी तुम्हारी उग्रता, आवेग और नाराजगी जाग्रत होगी। लेकिन सत्य का अभ्यास करने का तुम्हारा दृढ़ निश्चय, संकल्प और इच्छाशक्ति इन चीजों को तुम्हारे दिल को उद्विग्न करने से रोकेगी। यानी ये चीजें तुम्हें परेशान नहीं कर सकतीं। तुममें अभी भी उग्रता की लहरें उठ सकती है, जैसे कि यह सोचना, “वह लगातार मेरे लिए चीजें मुश्किल बना रहा है। मुझे किसी दिन उससे बात करनी चाहिए और उससे पूछना चाहिए कि वह हमेशा मुझे निशाना क्यों बनाता है और हमेशा मेरे लिए मुश्किलें पैदा क्यों करता है। मुझे उससे पूछना चाहिए कि वह हमेशा मेरा तिरस्कार और अपमान क्यों करता है।” कभी-कभी तुम्हारे मन में ऐसे विचार आ सकते हैं। लेकिन कुछ और सोचने के बाद तुम्हें एहसास होगा कि वे गलत हैं और इस तरह से क्रियाकलाप करना परमेश्वर को नाराज करेगा। जब ऐसे विचार उठेंगे तो तुम इस अवस्था को उलटने के लिए जल्दी से परमेश्वर के सामने लौट जाओगे, ताकि ये गलत विचार तुम पर हावी न हों। नतीजतन तुम्हारे भीतर कुछ सकारात्मक चीजें उभरने लगेंगी—जैसे कि आत्म-ज्ञान और साथ ही कुछ प्रबुद्धता और रोशनी जो परमेश्वर तुम्हें देता है, जो तुम्हें लोगों को पहचानने और मामलों की असलियत समझने में सक्षम बनाएँगी—और तुम्हारे जाने बिना ही ये सकारात्मक चीजें तुम्हें और ज्यादा सत्य वास्तविकता को समझने और उसमें प्रवेश करने में मदद करेंगी। इस बिंदु पर तुम्हारा प्रतिरोध यानी घृणा, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और उग्रता से बचाव करने वाले “रोग-प्रतिकारक” उत्तरोत्तर मजबूत होते जाएँगे और तुम्हारा आध्यात्मिक कद उत्तरोत्तर बढ़ता जाएगा। उग्रता की वे चीजें अब तुम्हें नियंत्रित नहीं कर पाएँगी। हालाँकि कभी-कभी तुम्हारे मन में कुछ गलत विचार, धारणाएँ और आवेग आ सकते हैं, लेकिन ये चीजें जल्दी ही गायब हो जाएँगी, तुम्हारा प्रतिरोध और आध्यात्मिक कद इन्हें खत्म कर देगा और जड़ से मिटा देगा। इस समय सकारात्मक चीजें, सत्य की वास्तविकता और परमेश्वर के वचन तुम्हारे भीतर हावी होंगे। जब ये सकारात्मक चीजें हावी होंगी तो तुम बाहरी लोगों, घटनाओं और चीजों से प्रभावित नहीं होओगे। तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, तुम्हारी अवस्था उत्तरोत्तर सामान्य होती जाएगी और तुम अब भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार नहीं जिओगे और दुष्चक्र की दिशा में आगे नहीं बढ़ोगे और इस तरह तुम्हारा आध्यात्मिक कद उत्तरोत्तर बढ़ता रहेगा।

जब तुम कलीसिया में या लोगों के समूह के बीच होते हो तो अगर तुम सहनशील और धैर्यवान बनना चुन सको और अपनी गरिमा और ईमानदारी को नुकसान पहुँचाने वाले व्यक्तिगत हमलों से सामना होने पर अभ्यास के सही मार्ग का चुनाव कर सको तो यह लाभदायक होता है। हो सकता है तुम्हें यह लाभ न दिखे, लेकिन ऐसी घटना का अनुभव करने पर तुम्हें अनजाने ही पता चल जाएगा कि लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ और उसके द्वारा उन्हें प्रदान किया गया मार्ग एक उज्ज्वल रास्ता और सच्चा और जीवंत तरीका हैं, वे लोगों को सत्य प्राप्त करने और लाभ पहुँचाने में सक्षम बनाते हैं और वे सबसे सार्थक मार्ग हैं। जब तुम लोगों के समूह के बीच होते हो, खासकर जब तुम कलीसियाई जीवन में होते हो तो तुम विभिन्न प्रलोभनों और आकर्षणों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। जब कोई दुर्भावनापूर्ण तरीके से तुम पर हमला करके तुम्हें चोट पहुँचाता है या जानबूझकर तुमसे बदला लेना चाहता है और तुम पर अपनी घृणा निकालना चाहता है तो तुम्हारा इसे सत्य सिद्धांतों के अनुसार लेने और अभ्यास करने में सक्षम होना महत्वपूर्ण है। चूँकि परमेश्वर लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से घृणा करता है, इसलिए वह लोगों से कहता है कि वे अपने सामने आने वाली चीजों को उग्रता से न लें, बल्कि परमेश्वर के सामने शांत रहें और सत्य और परमेश्वर के इरादे खोजें और फिर समझें कि लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ वास्तव में क्या हैं। इंसानी धैर्य सीमित है, लेकिन जब व्यक्ति सत्य समझ लेता है तो उसके धैर्य के सिद्धांत होंगे और यह उस व्यक्ति द्वारा सत्य का अभ्यास करने के लिए एक प्रेरक शक्ति और सहायता बन सकता है। लेकिन अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, सही-गलत पर बहस करना पसंद करता है और दूसरों पर हमला करता है और उसमें अपनी उग्रता के भीतर जीने की प्रवृत्ति है तो जब उस पर हमला किया जाता है तो वह मौखिक झगड़ों और आपसी हमलों में लिप्त होने में प्रवृत्त होगा। इससे सभी शामिल लोगों को नुकसान होता है, किसी को कोई शिक्षा या मदद नहीं मिलती। जब भी कोई आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होता है तो बाद में वह शक्तिहीन हो जाता है, बेहद थक जाता है और दोनों पक्ष घायल हो जाते हैं; वे सत्य प्राप्त करने में बिल्कुल भी सक्षम नहीं होते और अंत में उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता। बचती है तो सिर्फ घृणा और अवसर मिलने पर पलटवार करने का इरादा। आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों का अंततः लोगों पर यही प्रतिकूल परिणाम होता है।

आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों के विषय में, जिस पर हमने अभी-अभी संगति की, क्या अब तुम लोग भेद पहचानने के सिद्धांत समझते हो? क्या तुम पहचान सकते हो कि कौन-सी परिस्थितियाँ आपसी हमले और मौखिक झगड़े बनती हैं? आपसी हमले और मौखिक झगड़े लोगों के समूहों के बीच प्राय : होते हैं और अक्सर देखे जा सकते हैं। आपसी हमलों में मुख्य रूप से किसी पर व्यक्तिगत रूप से हमला करने, उसकी आलोचना करने, निंदा करने, यहाँ तक कि उसे कोसने के लिए उसकी समस्याओं को उद्देश्यपूर्वक निशाना बनाना शामिल है, जिसका उद्देश्य बदला लेना, जवाबी हमला करना, व्यक्तिगत भड़ास निकालना आदि होता है। जो भी हो, आपसी हमले और मौखिक झगड़े सत्य पर संगति करने से ताल्लुक नहीं रखते, न ही वे सत्य का अभ्यास करने से ताल्लुक रखते हैं और निश्चित रूप से वे सामंजस्यपूर्ण सहयोग की अभिव्यक्ति नहीं हैं। इसके बजाय वे क्रोध और शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के कारण लोगों से बदला लेने और उन पर प्रहार करने की अभिव्यक्ति हैं। आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों का उद्देश्य सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति करना बिल्कुल नहीं होता, सत्य समझने के लिए बहस करना तो वह एकदम नहीं होता। बल्कि इसका उद्देश्य अपने भ्रष्ट स्वभावों, महत्वाकांक्षाओं, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और दैहिक प्राथमिकताओं को संतुष्ट करना होता है। जाहिर है, आपसी हमलों का ताल्लुक सत्य पर संगति करने से नहीं होता और निश्चित रूप से उनका ताल्लुक लोगों की मदद करने और उनके साथ प्रेम से पेश आने से नहीं होता; इसके बजाय वे लोगों को सताने, उनके साथ खिलवाड़ करने और उन्हें मूर्ख बनाने की शैतान की रणनीतियों और तरीकों में से एक होते हैं। लोग भ्रष्ट स्वभावों के भीतर रहते हैं और सत्य नहीं समझते। अगर वे सत्य का अभ्यास करना नहीं चुनते तो उनका ऐसे फंदों और प्रलोभनों में फँसना और आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों की लड़ाई में शामिल होना बहुत आसान होता है। वे तब तक बहस करते हैं जब तक कि उनके चेहरे लाल नहीं हो जाते, यहाँ तक कि वे हमेशा एक ही शब्द, वाक्यांश या रूप को लेकर बहस करते रहते हैं, एक ही चीज पर एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए लड़ते रहते हैं और उस बिंदु पर पहुँच जाते हैं जहाँ दोनों की ही हार होती है। जैसे ही वे मिलते हैं, वे अंतहीन बहस करते हैं और कुछ तो कंप्यूटर पर चैट समूहों में एक-दूसरे पर हमला भी करते हैं, एक-दूसरे को कोसते भी हैं और एक-दूसरे की निंदा भी करते हैं। यह नफरत कितनी गंभीर हो चुकी है! सभाओं के दौरान उनका एक-दूसरे को कोसना पर्याप्त नहीं होता, उनकी घृणा अभी दूर नहीं हुई होती, उन्होंने अपने उद्देश्य प्राप्त नहीं किए होते और घर जाने के बाद जितना ज्यादा वे इसके बारे में सोचते हैं, उतने ही ज्यादा क्रोधित हो जाते हैं और वहाँ भी वे एक-दूसरे को कोसना जारी रखते हैं। यह किस तरह की भावना है? क्या यह बढ़ावा देने योग्य है, क्या यह समर्थन करने योग्य है? (नहीं।) यह किस तरह की “निडर भावना” है? यह किसी भी चीज से नहीं डरने की भावना है, यह अराजकता की भावना है, यह शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट करने का परिणाम है। बेशक ऐसे व्यवहारों और क्रियाकलापों से इन व्यक्तियों के जीवन में उल्लेखनीय विघ्न आते हैं और नुकसान होते हैं और इनसे कलीसियाई जीवन में भी विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। इसलिए इन स्थितियों से सामना होने पर अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पता चले कि दो लोग एक-दूसरे पर हमला कर रहे हैं और मौखिक झगड़ों में लिप्त हैं और अंत तक लड़ने की कसम खा रहे हैं तो उन्हें तुरंत दूर कर देना चाहिए और उन्हें बर्दाश्त नहीं करना चाहिए और उन्हें खुली छूट तो निश्चित रूप से नहीं देनी चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अन्य भाई-बहनों की रक्षा करनी चाहिए और सामान्य कलीसियाई जीवन बनाए रखना चाहिए, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रत्येक सभा परिणाम प्राप्त करे और ऐसे व्यक्तियों को कलीसियाई जीवन में विघ्न उत्पन्न कर भाई-बहनों का परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य पर संगति करने का समय जाया नहीं करने देना चाहिए। अगर सभाओं के दौरान यह पता चले कि वे एक-दूसरे पर हमला कर रहे हैं और मौखिक झगड़ों में लिप्त हैं तो इसे तुरंत रोका और हल किया जाना चाहिए। अगर इसे प्रतिबंधित न किया जा सके तो इन लोगों को तुरंत एक सभा के माध्यम से उजागर कर उनका गहन-विश्लेषण किया जाना चाहिए और उन्हें दूर किया जाना चाहिए। कलीसिया परमेश्वर के वचन खाने-पीने, परमेश्वर की आराधना करने का स्थान है; यह व्यक्तिगत भड़ास निकालने के लिए एक-दूसरे पर हमला करने या मौखिक झगड़ों में लिप्त होने का स्थान नहीं है। जो कोई भी अक्सर कलीसियाई जीवन को बाधित करता है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को प्रभावित करता है, उसे दूर किया जाना चाहिए। कलीसिया ऐसे लोगों का स्वागत नहीं करती, वह शैतानों से विघ्न की या बुरे लोगों की उपस्थिति की अनुमति नहीं देती—इन लोगों को दूर करो, समस्या हल हो जाएगी।

अगर यह पता चले कि कलीसिया में कुछ लोग आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त हैं तो चाहे उनके बहाने और कारण कुछ भी हों और चाहे उनकी चर्चा का केंद्र कुछ भी हो—चाहे वह ऐसी बात हो जिसकी सभी परवाह करते हों या नहीं करते हों—अगर कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न हो रही हों तो इस समस्या को तुरंत और बिना देरी किए हल किया जाना चाहिए। अगर इसमें शामिल लोगों को रोकना या प्रतिबंधित करना संभव नहीं हो तो उन्हें दूर कर दिया जाना चाहिए। यह वह कार्य है जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऐसी परिस्थितियों से सामना होने पर करना चाहिए। मुख्य सिद्धांत यह नहीं है कि तुम इन लोगों के बुरे व्यवहार को बर्दाश्त करके या उन्हें खुली छूट देकर बढ़ावा दो, न ही यह कि तुम इन लोगों के लिए सही-गलत का फैसला करने वाले “ईमानदार अधिकारी” की तरह क्रियाकलाप करके यह देखो कि कौन सही है और कौन गलत, कौन न्यायसंगत है और कौन नहीं, स्पष्ट रूप से सही-गलत में भेद करो और फिर दोनों पक्षों को समान दंड दो या जिसे तुम दोषी मानते हो उसे दंडित करो और दूसरे को पुरस्कृत करो—यह समस्या हल करने का तरीका नहीं है। इस मामले को सँभालने में तुमसे इसे कानून के आधार पर मापने की अपेक्षा नहीं की जाती और नैतिक मानकों के आधार पर मापने और आँकने की अपेक्षा तो बिल्कुल नहीं की जाती, बल्कि इसे कलीसिया के कार्य के सिद्धांतों के अनुसार मापने और सँभालने की अपेक्षा की जाती है। आपसी हमलों में लिप्त दोनों पक्षों के संबंध में, अगर वे कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं तो कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उन्हें रोकना और प्रतिबंधित करना या उन्हें अलग-थलग करना या बहिष्कृत करना अपना अनिवार्य कर्तव्य समझना चाहिए, न कि दोनों पक्षों को ध्यान से सुनकर यह ब्योरा देना कि क्या हुआ और उनके प्रत्येक कारण और बहाने के बारे में बात करना और दूसरे व्यक्ति पर हमला करने और मौखिक झगड़े में पड़ने के पीछे के उनके इरादे, उद्देश्य और मूल कारण के बारे में बात करना—उनसे पूरी कहानी समझने की अपेक्षा नहीं की जाती, इसके बजाय उनसे समस्या हल करने, कलीसियाई जीवन में इन विघ्न-बाधाओं को खत्म करने और उन्हें उत्पन्न करने वालों से निपटने की अपेक्षा की जाती है। मान लो अगुआ और कार्यकर्ता अंतर्निहित समस्या समझे बिना और सिद्धांतों का पालन किए बिना मतभेद सुलझाते हैं और “मध्यम मार्ग” अपनाकर आपसी हमलों में लिप्त दोनों लोगों के प्रति समझौतावादी नीति अपनाते हैं और कलीसियाई जीवन में हस्तक्षेप किए बिना या उसे सँभाले बिना वे इन लोगों को इसमें जानबूझकर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करने देते हैं—वे इन लोगों को खुली छूट देते रहते हैं। वे हर बार उन्हें सिर्फ उपदेश और सलाह देते हैं और समस्या पूरी तरह से हल नहीं कर पाते। ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता अपने कर्तव्यों में लापरवाह होते हैं। अगर कलीसिया में लोगों के आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होने की समस्या उत्पन्न होती है जिससे कलीसियाई जीवन में गंभीर विघ्न उत्पन्न होते हैं और भारी नुकसान होता है और इससे ज्यादातर लोगों में नाराजगी और घृणा उत्पन्न होती है तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए, परमेश्वर की कार्य-व्यवस्थाओं और कलीसिया को शुद्ध करने के सिद्धांतों के अनुसार दोनों पक्षों को अलग-थलग या बहिष्कृत करना चाहिए। उन्हें इसमें शामिल लोगों के लिए मामले का निर्णय करने वाले और इन व्यक्तिगत झगड़ों का फैसले करने वाले “ईमानदार अधिकारियों” की तरह क्रियाकलाप नहीं करना चाहिए, उन्हें यह देखने के लिए कि कौन सही है और कौन गलत, कौन उचित है और कौन अनुचित, इन लोगों की गंदी, लंबी-चौड़ी बकवास ध्यान से नहीं सुननी चाहिए और इन चीजों का आकलन करने के बाद इन चीजों पर चर्चा और संगति करने के लिए और ज्यादा लोगों को नहीं बुलाना चाहिए, इससे और ज्यादा लोगों के दिलों में घृणा और जुगुप्सा उत्पन्न होती है। इससे समय बर्बाद होगा जिसका उपयोग लोगों को परमेश्वर के वचन खाने-पीने और उन पर संगति करने में करना चाहिए। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा जिम्मेदारी की और भी अधिक उपेक्षा है और अभ्यास का यह सिद्धांत गलत है। अगर प्रतिबंधित किए गए पक्ष किसी बिंदु पर पश्चात्ताप करते हैं और फिर सभा का समय अपने आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में बर्बाद नहीं करते तो उनको अलग-थलग रखना बंद किया जा सकता है। अगर उन्हें बुरे लोगों के रूप में बहिष्कृत किया गया हो और कोई यह दावा करे कि वे बदलकर बेहतर हो गए हैं तो यह देखना जरूरी है कि क्या वे पश्चात्ताप की वास्तविक अभिव्यक्तियाँ दिखाते हैं और इस मामले पर बहुमत की राय लेना भी जरूरी है। अगर उन्हें वापस स्वीकार कर भी लिया जाए तो भी उन पर कड़ी निगरानी रखी जानी चाहिए और उनके बोलने का समय सख्ती से सीमित किया जाना चाहिए और बाद में उनकी अभिव्यक्तियों के आधार पर उन्हें तदनुसार सँभाला जाना चाहिए। ये वे सिद्धांत हैं जिन्हें कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को समझकर उन पर ध्यान देना चाहिए। बेशक इस मामले को व्यक्तिपरक मान्यताओं के आधार पर नहीं सँभाला जा सकता; दोनों पक्षों के आपसी हमलों में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करने की प्रकृति होनी चाहिए। लोगों को सिर्फ इसलिए बोलने से मना और अलग-थलग नहीं किया जाना चाहिए कि उनमें से एक ने कुछ ऐसा कहा जिससे दूसरे को ठेस पहुँची और फिर उस व्यक्ति ने अपनी टिप्पणी के साथ पलटवार किया। लोगों को इस तरह से सँभालना वाकई सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है! अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सिद्धांत ठीक से समझकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बहुमत इस बात पर सहमत हो कि उनके क्रियाकलाप सिद्धांतों के अनुरूप हैं, बजाय इसके कि वे अनियंत्रित होकर बुरे काम करने लगें या समस्या की गंभीरता को यथासंभव बढ़ा-चढ़ाकर पेश करें। जब कार्य के इस पहलू की बात आती है तो एक ओर तो बहुमत को यह समझना सीखना चाहिए कि हमला क्या होता है और दूसरी ओर कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को भी यह जानना चाहिए कि इस कार्य को करने में कौन-से सिद्धांत समझने चाहिए और कौन-सी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए।

4. लोगों की अकारण निंदा

आपसी हमलों की एक अभिव्यक्ति और है। कुछ लोग कुछ आध्यात्मिक शब्द जानते हैं और वे हमेशा अपने भाषण में ऐसे कुछ शब्दों का उपयोग करते हैं, जैसे “दानव,” “शैतान,” “सत्य का अभ्यास नहीं करना,” “सत्य से प्रेम नहीं करना,” “फरीसी,” इत्यादि—वे कुछ लोगों की मनमाने ढंग से आलोचना करने के लिए इन शब्दों का उपयोग करते हैं। क्या इसमें हमले की कुछ प्रकृति नहीं है? पहले एक व्यक्ति था जो भाई-बहनों के साथ बातचीत करने पर अपनी इच्छा के अनुसार क्रियाकलाप न करने वाले किसी भी व्यक्ति को कोसना चाहता था। लेकिन उसने अपने मन में सोचा : “अब जबकि मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ तो लोगों को कोसना अशोभनीय लगता है। इससे ऐसा लगता है कि मैं संतों वाली मर्यादा का पालन नहीं कर रहा हूँ। मैं कोस नहीं सकता या अभद्र भाषा का उपयोग नहीं कर सकता, लेकिन अगर मैं कोसूँगा नहीं तो बेचैन हो जाऊँगा, अपनी घृणा दूर नहीं कर पाऊँगा—मैं हमेशा लोगों को कोसना चाहूँगा। तो फिर मैं उन्हें कैसे कोसूँ?” तो उसने एक नया शब्द गढ़ा। जो कोई भी उसे अपमानित करता, अपने क्रियाकलापों से उसे ठेस पहुँचाता या उसकी बात नहीं सुनता, वह उसे इस तरह से कोसता : “दुष्ट राक्षस!” “तुम एक दुष्ट राक्षस हो!” “फलाँ आदमी एक दुष्ट राक्षस है!” उसने “राक्षस” शब्द से पहले “दुष्ट” जोड़ दिया—मैंने वास्तव में पहले कभी किसी को इस वाक्यांश का उपयोग करते नहीं सुना था। क्या यह बिल्कुल नया नहीं है? भाई-बहनों को वह यूँ ही “दुष्ट राक्षस” कहकर कोसता—यह सुनकर कौन सहज महसूस करेगा? उदाहरण के लिए, अगर वह किसी भाई या बहन से एक कप पानी पिलाने के लिए कहता और वह व्यक्ति बहुत व्यस्त होता और उससे खुद पानी पी लेने के लिए कहता तो वह उसे यह कहकर कोसता : “दुष्ट राक्षस!” अगर वह किसी सभा से लौटकर देखता कि उसका भोजन अभी तक तैयार नहीं हुआ है तो वह क्रोधित हो जाता : “दुष्ट राक्षसो, तुम सभी बहुत आलसी हो। मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए बाहर जाता हूँ और लौटने पर मुझे भोजन भी तैयार नहीं मिलता!” जो कोई भी उसके संपर्क में आता, वही संभावित रूप से “दुष्ट राक्षस” कहकर कोसा जाता। यह कैसा व्यक्ति है? (बुरा व्यक्ति।) वह बुरा कैसे है? जो कोई भी उसे अपमानित करता है या उसकी इच्छाओं के अनुरूप नहीं होता, वह उसकी नजर में दुष्ट राक्षस होता है—वह खुद दुष्ट राक्षस नहीं होता, लेकिन बाकी सभी दुष्ट राक्षस होते हैं। क्या उसके पास ऐसा कहने का कोई आधार है? बिल्कुल नहीं; उसने बस मनमाने ढंग से लोगों को कोसने के लिए एक शब्द चुन लिया जिससे वह अपनी घृणा दूर कर सके और भड़ास निकाल सके। वह मानता है कि अगर वह किसी को सचमुच कोसेगा तो दूसरे कहेंगे कि वह परमेश्वर का विश्वासी प्रतीत नहीं होता, लेकिन उसे लगता है कि अगर वह किसी को राक्षस कहता है तो यह कोसना नहीं है और यह दूसरों को उचित लगना चाहिए, इससे उसकी इच्छाएँ भी पूरी होंगी और दूसरों को उसमें दोष निकालने का कोई मौका भी नहीं मिलेगा। यह आदमी बहुत चालाक और काफी दुष्ट है, यह लोगों से बदला लेने और उनकी निंदा करने के लिए सबसे दुर्भावनापूर्ण भाषा का उपयोग करता है, ऐसी भाषा जो लोगों के पास प्रतिरोध का कोई तरीका नहीं छोड़ती, और फिर भी लोग उस पर कोसने या अनुचित तरीके से बात करने का आरोप नहीं लगा सकते। ऐसे व्यक्ति से सामना होने पर ज्यादातर लोग उससे दूर रहेंगे या उसके करीब आएँगे? (वे उससे दूर रहेंगे।) क्यों? वे उसे उकसाने का जोखिम नहीं उठा सकते, इसलिए वे उससे दूर ही रहेंगे; होशियार लोग ऐसा ही करेंगे।

किसी व्यक्ति की अकारण निंदा करने, उस पर कोई ठप्पा लगाने और उसे पीड़ित करने की परिघटना अक्सर हर कलीसिया में होती है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग किसी खास अगुआ या कार्यकर्ता के खिलाफ पूर्वाग्रह रखते हैं और बदला लेने की कोशिश में उनकी पीठ पीछे उनके बारे में टिप्पणियाँ करते हैं, सत्य के बारे में संगति करने की आड़ में उनका पर्दाफाश और उनका गहन विश्लेषण करते हैं। ऐसे कार्यों के पीछे का इरादा और उद्देश्य गलत होते हैं। अगर कोई वास्तव में परमेश्वर के लिए गवाही देने और दूसरों को लाभ पहुँचाने के लिए सत्य पर संगति कर रहा है, तो उसे अपने स्वयं के सच्चे अनुभवों पर संगति करनी चाहिए और खुद का गहन विश्लेषण करके और खुद को जानकर दूसरों को लाभ पहुँचाना चाहिए। इस तरह के अभ्यास से बेहतर परिणाम मिलते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोग इसे स्वीकार करेंगे। अगर किसी की संगति किसी दूसरे व्यक्ति पर हमला करने या उससे बदला लेने के प्रयास में उसे उजागर करती है, हमला करती है और उसे नीचा दिखाती है, तो संगति का इरादा गलत है, यह अनुचित है, परमेश्वर इससे घृणा करता है और भाई-बहनों को इससे कोई शिक्षा नहीं मिलती। अगर किसी का इरादा दूसरों की निंदा करना या उन्हें पीड़ा पहुँचाना है, तो वह एक बुरा व्यक्ति है और वह बुराई कर रहा है। जब बुरे लोगों की बात आती है तो परमेश्वर के चुने हुए सभी लोगों में उन्हें पहचानने की समझ होनी चाहिए। अगर कोई जानबूझकर लोगों पर प्रहार करता है, उन्हें उजागर करता है या उन्हें नीचा दिखाता है, तो उनकी प्रेम से मदद की जानी चाहिए, उनके साथ संगति करनी चाहिए और उनका गहन विश्लेषण करना चाहिए या उनकी काट-छाँट करनी चाहिए। अगर वे सत्य को स्वीकार करने में असमर्थ हैं और हठपूर्वक अपने तौर-तरीके सुधारने से इनकार करते हैं, तो वह मामला पूरी तरह से अलग होगा। जब अक्सर मनमाने ढंग से दूसरों की निंदा करने वाले, दूसरों पर कोई ठप्पा लगाने और पीड़ा पहुँचाने वाले बुरे लोगों की बात आती है, तो उन्हें पूरी तरह से उजागर किया जाना चाहिए, ताकि हर कोई उन्हें पहचानना सीख सके, और फिर उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए या कलीसिया से निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। यह आवश्यक है, क्योंकि ऐसे लोग कलीसियाई जीवन और कार्य को बाधित करते हैं और संभव है कि वे लोगों को गुमराह करें और कलीसिया में अराजकता पैदा करें। विशेष रूप से कुछ बुरे लोग केवल इसलिए अक्सर दूसरों पर हमला करते हैं और उनकी निंदा करते हैं, ताकि वे अपने आप को दिखा सकें और दूसरों से अपना सम्मान करवाने का उद्देश्य हासिल कर सकें। ये बुरे लोग अक्सर सभाओं में सत्य पर संगति करने के अवसर का उपयोग दूसरों को अप्रत्यक्ष रूप से उजागर करने, उनका गहन विश्लेषण करने और उन्हें दबाने के लिए करते हैं। अपने काम को वे यह कहकर उचित भी ठहराते हैं कि वे ऐसा लोगों की मदद करने और कलीसिया में मौजूद समस्याओं को हल करने के लिए कर रहे हैं, और इन बहानों का इस्तेमाल अपने उद्देश्य हासिल करने के लिए आवरण के रूप में करते हैं। वे ऐसे लोग हैं जो दूसरों पर हमला करते हैं और पीड़ा पहुँचाते हैं, और वे सभी स्पष्ट रूप से बुरे लोग हैं। वे सभी जो सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों पर हमला करते हैं और उनकी निंदा करते हैं, वे बेहद क्रूर होते हैं, और परमेश्वर केवल उनका अनुमोदन करता है जो परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा के लिए बुरे लोगों को उजागर कर उनका गहन विश्लेषण करते हैं, और जिनमें न्याय की भावना होती है। बुरे लोग अक्सर अपने कुकर्मों में बहुत चालाक होते हैं; वे सभी अपने लिए औचित्य खोजने और दूसरों को गुमराह करने का अपना उद्देश्य हासिल करने के लिए सिद्धांतों का उपयोग करने में कुशल होते हैं। यदि परमेश्वर के चुने हुए लोगों में उनके बारे में समझ नहीं है और वे इन बुरे लोगों को प्रतिबंधित करने में असमर्थ हैं, तो कलीसिया का जीवन और कलीसिया का कार्य पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो जाएगा—या यहाँ तक कि हल्ला-गुल्ला मच जाएगा। जब बुरे लोग समस्याओं पर संगति करते हैं और उनका गहन विश्लेषण करते हैं, तो हमेशा उनका कोई इरादा और उद्देश्य होता है जो हर बार किसी पर लक्षित होता है। वे अपना गहन विश्लेषण नहीं कर रहे होते या खुद को जानने की प्रक्रिया में नहीं होते, न ही अपनी समस्याओं को हल करने के लिए खुद को खोलकर रख रहे होते हैं—बल्कि वे दूसरों को उजागर करने, उनका गहन विश्लेषण करने और उन पर हमला करने के अवसर का लाभ उठा रहे होते हैं। वे अक्सर दूसरों का गहन विश्लेषण करने और उनकी निंदा करने के लिए अपने आत्म-ज्ञान की संगति का लाभ उठाते हैं, और परमेश्वर के वचनों और सत्य का विश्लेषण करने के माध्यम से वे लोगों को उजागर करते हैं, उन्हें नीचा दिखाते हैं और बदनाम करते हैं। वे विशेष रूप से उन लोगों के प्रति विकर्षण और घृणा महसूस करते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं, जो कलीसिया के काम का बोझ उठाते हैं, और जो अक्सर अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। बुरे लोग इन लोगों की प्रेरणा पर प्रहार करने और उन्हें कलीसिया का काम करने से रोकने के लिए सभी प्रकार के औचित्य और बहानों का उपयोग करते हैं। उनके प्रति वे जो कुछ महसूस करते हैं उसका एक हिस्सा ईर्ष्या और घृणा होता है; दूसरा हिस्सा यह डर होता है कि ये लोग काम करने के लिए उठ खड़े होकर उनकी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए खतरा पैदा करते हैं। इसलिए वे उन्हें चेतावनी देने, दबाने और प्रतिबंधित करने का हरसंभव तरीका आजमाने के लिए उत्सुक रहते हैं, यहाँ तक कि उन्हें दोषी ठहराने और उनकी निंदा करने के लिए तथ्यों को विकृत करने का मसाला इकट्ठा करने की हद तक चले जाते हैं। इससे साफ पता चलता है कि इन बुरे लोगों का स्वभाव ऐसा होता है जो सत्य और सकारात्मक चीजों से नफरत करता है। उन्हें उन लोगों से खास नफरत होती है जो सत्य का अनुसरण करते हैं और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, और उन लोगों से भी जो काफी हद तक निष्कपट, सभ्य और बेलाग-लपेट हैं। भले वे ऐसा न कहें, लेकिन उनकी मानसिकता ऐसी ही होती है। तो वे खास तौर से सत्य का अनुसरण करने वाले और सभ्य और ईमानदार लोगों को ही क्यों निशाना बनाते हैं, उनका पर्दाफाश करने, नीचा दिखाने, दबाने और बहिष्कृत करने के लिए? यह स्पष्ट रूप से अच्छे लोगों और सत्य का अनुसरण करने वालों को उखाड़ फेंकने और उन्हें कुचलने या पैरों तले रौंदने का प्रयास होता है, ताकि वे कलीसिया पर नियंत्रण स्थापित कर सकें। कुछ लोग नहीं मानते कि ऐसा है। उनसे मैं एक प्रश्न पूछता हूँ : सत्य पर संगति करते समय ये बुरे लोग खुद को उजागर क्यों नहीं करते या अपना गहन विश्लेषण क्यों नहीं करते, और हमेशा दूसरों को क्यों निशाना बनाते और उजागर करते हैं? क्या यह वास्तव में हो सकता है कि वे भ्रष्टता का खुलासा नहीं करते, या उनके स्वभाव भ्रष्ट नहीं हैं? निश्चित रूप से नहीं। फिर वे खुलासे और गहन विश्लेषण के लिए दूसरों को निशाना बनाने पर जोर क्यों देते हैं? वे वास्तव में क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे होते हैं? यह प्रश्न गहन विचार की मांग करता है। यदि कोई कलीसिया को परेशान करने वाले बुरे लोगों के बुरे कामों को उजागर करता है, तो वह वही कर रहा है जैसा उसे करना चाहिए। लेकिन इसके बजाय ये लोग सत्य के बारे में संगति करने के बहाने अच्छे लोगों को उजागर करते हैं और पीड़ा पहुँचाते हैं। उनका इरादा और उद्देश्य क्या होता है? क्या वे इसलिए क्रोधित हैं क्योंकि वे देखते हैं कि परमेश्वर अच्छे लोगों को बचाता है? वास्तव में ऐसा ही है। परमेश्वर बुरे लोगों को नहीं बचाता, इसलिए बुरे लोग परमेश्वर और अच्छे लोगों से घृणा करते हैं—यह सब बिलकुल स्वाभाविक है। बुरे लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते या उसका अनुसरण नहीं करते; वे खुद भी बचाए नहीं जा सकते, फिर भी वे उन अच्छे लोगों को पीड़ा देते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं और बचाए जा सकते हैं। यहाँ समस्या क्या है? अगर इन लोगों को खुद का और सत्य का ज्ञान होता, तो वे अपने को खोलते हुए संगति कर सकते थे, पर वे तो हमेशा दूसरों को निशाना बनाते और भड़काते रहते हैं—उनमें हमेशा दूसरों पर हमला करने की प्रवृत्ति होती है—और वे हमेशा सत्य का अनुसरण करने वालों को अपना काल्पनिक दुश्मन के तौर पर देखते हैं। ये बुरे लोगों के पहचान-चिह्न होते हैं। ऐसी बुराई करने में सक्षम लोग असली दानव और शैतान हैं, सर्वोत्कृष्ट मसीह-विरोधी हैं, जिन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, और अगर वे बहुत अधिक कुकर्म करते हैं, तो उन्हें तुरंत सँभाला जाना चाहिए—उन्हें कलीसिया से निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। अच्छे लोगों पर प्रहार और उनके अलग-थलग करने वाले सभी लोग सड़े हुए सेबों जैसे होते हैं। मैं उन्हें सड़ा हुआ सेब क्यों कहता हूँ? क्योंकि वे कलीसिया में अनावश्यक विवाद और संघर्ष भड़काने की संभावना पैदा करते हैं, जिससे वहाँ की स्थिति और भी गंभीर होती जाती है। वे एक दिन एक व्यक्ति को निशाना बनाते हैं और दूसरे दिन दूसरे को, और वे हमेशा दूसरों को, उन लोगों को निशाना बनाते जाते हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं। इससे कलीसिया का जीवन अस्त-व्यस्त हो सकता है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा परमेश्वर के वचनों को सामान्य रूप से खाने-पीने पर, साथ ही सत्य पर उनकी सामान्य संगति पर भी इसका असर पड़ सकता है। ये बुरे लोग अक्सर सत्य के बारे में संगति के नाम पर दूसरों पर हमला करने के लिए कलीसियाई जीवन जीने का फायदा उठाते हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं उसमें शत्रुता होती है; वे सत्य का अनुसरण करने वालों और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने वालों पर हमला करने और उनकी निंदा करने के लिए भड़काऊ टिप्पणियाँ करते हैं। इसके क्या परिणाम होंगे? यह कलीसिया के जीवन को गड़बड़ करेगा और बाधा डालेगा, और लोगों के दिलों में बेचैनी पैदा करेगा और वे परमेश्वर के सामने शांत नहीं रह पाएँगे। विशेष रूप से दूसरों की निंदा करने, उन पर प्रहार करने और उन्हें चोट पहुँचाने के लिए ये बुरे लोग जो विचारहीन बातें कहते हैं, उससे प्रतिरोध भड़क सकता है। यह समस्याओं को हल करने वाली स्थितियाँ नहीं पैदा करता; बल्कि इसके विपरीत, कलीसिया में भय और चिंता को बढ़ाता है और लोगों के बीच संबंधों को खराब करता है, जिससे उनके बीच तनाव पैदा होता है और उनके बीच झगड़े होते हैं। इन लोगों का व्यवहार न केवल कलीसिया के जीवन को प्रभावित करता है, बल्कि कलीसिया में संघर्ष को भी जन्म देता है। यह पूरे कलीसिया के काम और सुसमाचार के प्रसार को भी प्रभावित कर सकता है। इसलिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इस तरह के व्यक्ति को चेतावनी देने की और उसे प्रतिबंधित कर सँभालने की भी जरूरत है। एक ओर, भाई-बहनों को उन बुरे लोगों पर कठोर प्रतिबंध लगाने चाहिए जो अक्सर दूसरों पर हमला करते हैं और उनकी निंदा करते हैं। दूसरी ओर, कलीसिया के अगुआओं को तुरंत उन लोगों को उजागर कर रोकना चाहिए जो मनमाने ढंग से दूसरों पर प्रहार करते हैं और उनकी निंदा करते हैं, और अगर वे नहीं सुधरते हैं, तो उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। बुरे लोगों को सभाओं में कलीसियाई जीवन को बाधित करने से रोका जाना चाहिए, और साथ ही भ्रमित लोगों को कलीसिया के जीवन को प्रभावित करने वाले तरीके से बोलने से रोका जाना चाहिए। अगर कोई बुरा व्यक्ति बुरा काम करते हुए पाया जाता है, तो उसे उजागर किया जाना चाहिए। उसे मनमानी करने, और अपनी मर्जी से कुकर्म करने की बिल्कुल भी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। कलीसियाई जीवन सामान्य बनाए रखने और यह सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग एकत्रित हो सकें और परमेश्वर के वचनों को खा-पी सकें, और सामान्य रूप से सत्य के बारे में संगति कर सकें जिससे उन्हें अपने कर्तव्यों को सामान्य रूप से पूरा करने का मौका मिल सके। केवल तभी कलीसिया में परमेश्वर की इच्छा क्रियान्वित हो सकती है, और केवल इसी तरह से उसके चुने हुए लोग सत्य को समझ सकते हैं, वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं, और परमेश्वर के आशीष पा सकते हैं। क्या तुम लोगों ने कलीसिया में ऐसे बुरे लोग देखे हैं? वे हमेशा अच्छे लोगों के प्रति ईर्ष्यापूर्ण घृणा रखते हैं और हमेशा उन्हें निशाना बनाते हैं। आज वे एक अच्छे व्यक्ति को नापसंद करते हैं, कल दूसरे को; वे किसी की भी आलोचना करने और उनमें ढेरों खामियाँ निकालने में सक्षम होते हैं और इसके अलावा, वे जो कहते हैं वह बहुत ही ठोस और उचित लगता है और अंततः वे व्यापक उपद्रव भड़का देते हैं जो समूह के लिए एक आफत बन जाता है। वे कलीसिया को इस हद तक अस्त-व्यस्त कर देते है कि लोगों के दिलों में उथल-पुथल मच जाती है, कई लोग नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं, सभाओं से कोई लाभ या शिक्षा नहीं मिलती और कुछ लोगों की तो सभाओं में जाने की इच्छा भी नहीं रहती। क्या ऐसे बुरे लोग तालाब में गंदी मछली नहीं हैं? अगर वे उस स्तर तक नहीं पहुँचे हों जहाँ उन्हें बहिष्कृत कर दिया जाना चाहिए तो उन्हें अलग-थलग या प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, सभाओं के दौरान उन्हें दूसरों को प्रभावित करने से रोकने के लिए एकांत स्थान पर बैठने दो। अगर वे बोलने और लोगों पर हमला करने के अवसर तलाशने पर अड़ जाएँ तो उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए—बेकार की बातें कहने से रोका जाना चाहिए। अगर उन्हें प्रतिबंधित करना असंभव हो और वे फट पड़ने या प्रतिरोध करने के कगार पर हों तो उन्हें तुरंत बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। यानी तब, जब वे आगे प्रतिबंधित होने के लिए तैयार नहीं होते और कहते हैं, “तुम किस आधार पर मेरा भाषण प्रतिबंधित कर रहे हो? बाकी सभी को पाँच मिनट बोलने का मौका मिलता है और मुझे सिर्फ एक मिनट, ऐसा क्यों?”—जब वे लगातार ये सवाल पूछते हैं, जिसका मतलब है कि वे प्रतिरोध करेंगे। जब वे प्रतिरोध करने वाले होते हैं तो क्या वे विद्रोही नहीं हो रहे होते? क्या वे परेशानी पैदा करने, अशांति भड़काने की कोशिश नहीं कर रहे होते? क्या वे कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करने वाले नहीं होते? वे यह प्रकट करने ही वाले हैं कि वे असल में कौन हैं; उन्हें सँभालने का समय आ गया होता है—उन्हें जल्दी से दूर कर दिया जाना चाहिए। क्या यह उचित है? हाँ, यह उचित है। यह सुनिश्चित करना कि बहुसंख्यक लोग सामान्य कलीसियाई जीवन जी सकें, वाकई आसान नहीं है क्योंकि तमाम तरह के बुरे लोग, बुरी आत्माएँ, गंदे राक्षस और “विशेष प्रतिभाएँ” चीजें खराब करने की ताक में रहती हैं। क्या हम उन्हें प्रतिबंधित नहीं करने का जोखिम उठा सकते हैं? कुछ “विशेष प्रतिभाएँ” मुँह खोलते ही दूसरों को नीचा दिखाना और उन पर हमला करना शुरू कर देती हैं—अगर तुम चश्मा पहनते हो या तुम्हारे बाल ज्यादा नहीं हैं तो वे तुम पर हमला कर देती हैं; अगर तुम सभाओं के दौरान अपनी अनुभवजन्य गवाही साझा करते हो या अगर तुम अपने कर्तव्य निभाने में सक्रिय और जिम्मेदार हो तो वे तुम पर हमला कर देती है और तुम्हारी आलोचना करती हैं; अगर तुम परीक्षणों के दौरान परमेश्वर में आस्था रखते हो, अगर तुम कमजोर होते हो या अगर तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत किए बिना अपनी आस्था का उपयोग करके पारिवारिक कठिनाइयों पर काबू पा लेते हो तो वे तुम पर हमला कर देती है। यहाँ हमला करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि दूसरे चाहे जो भी करें, वह इन लोगों को कभी पसंद नहीं आता; वे हमेशा उसे नापसंद करते हैं, वे हमेशा ऐसी गलतियाँ ढूँढ़ते हैं जो होती ही नहीं, वे हमेशा दूसरों पर आरोप लगाने की कोशिश करते हैं और दूसरे लोग जो कुछ भी करते हैं, वह उनकी नजर में कभी सही नहीं होता। यहाँ तक कि अगर तुम सत्य पर संगति और परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार समस्याएँ हल करो तो भी वे तुम्हारी हर चीज में कमियाँ ढूँढ़ते हुए मीन-मेख निकालेंगे और तुम्हारी आलोचना करेंगे। वे जानबूझकर परेशानी खड़ी करते हैं और हर कोई उनके हमलों का शिकार होता है। जब भी कलीसिया में ऐसा कोई व्यक्ति दिखाई दे तो तुम्हें उसे सँभालना चाहिए; अगर ऐसे दो व्यक्ति दिखाई दें तो तुम्हें उन दोनों को सँभालना चाहिए। वह इसलिए कि वे कलीसियाई जीवन को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं, वे कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं और इसके परिणाम भयानक होते हैं।

ख. अक्सर दूसरों पर हमला करने वाले लोगों की मानवता की विशेषताएँ

आज हमने पारस्परिक हमलों और मौखिक झगड़ों के मुद्दे से संबंधित कई पहलुओं पर संगति की है। क्या तुम लोगों ने इन पहलुओं में से प्रत्येक के भीतर विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों द्वारा प्रदर्शित अभिव्यक्तियों की प्रकृति को समझ लिया है? चलो उन लोगों से शुरू करते हैं जिनमें दूसरों पर हमला करने की प्रवृत्ति होती है—क्या उनमें सामान्य मानवता का विवेक होता है? (नहीं।) उनका विवेक का अभाव कैसे अभिव्यक्त होता है? लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उनके रवैये और सिद्धांत क्या होते हैं? विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों से निपटने के लिए वे कौन से तरीके और रवैये चुनते हैं? उदाहरण के लिए, सही-गलत पर बहस करना पसंद करना, क्या यह उन रवैयों में से एक नहीं है जो वे लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति रखते हैं? (हाँ, है।) सही-गलत पर बहस करने का मतलब है हर मामले में यह स्पष्ट करने की कोशिश करना कि क्या सही है और क्या गलत, तब तक न रुकना जब तक कि मामला साफ न हो जाए और यह समझ न आ जाए कि कौन सही था और कौन गलत, और हठपूर्वक व्यर्थ की बातों पर अड़े रहना। इस तरह की हरकत का क्या मतलब है? अंततः क्या सही और गलत के बारे में बहस करना सही है? (नहीं।) गलती कहाँ है? क्या इसमें और सत्य के अभ्यास के बीच कोई संबंध है? (कोई संबंध नहीं है।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि कोई संबंध नहीं है? सही और गलत के बारे में तर्क-वितर्क करना सत्य सिद्धांतों का पालन करना नहीं है, यह सत्य सिद्धांतों पर चर्चा या संगति करना नहीं है; इसके बजाय, लोग हमेशा इस बारे में बात करते हैं कि कौन सही है और कौन गलत, कौन उचित है और कौन अनुचित, कौन न्यायोचित है और कौन नहीं, किसके पास उचित कारण है और किसके पास नहीं, कौन ज्यादा ऊँचे धर्म-सिद्धांत व्यक्त करता है; वे इन्हीं चीजों का परीक्षण करते रहते हैं। परमेश्वर लोगों की परीक्षा लेता है, तो वे हमेशा परमेश्वर के साथ तर्क करने का प्रयास करते हैं, वे हमेशा कोई न कोई कारण देते हैं। क्या परमेश्वर तुमसे ऐसी बातों पर चर्चा करता है? क्या परमेश्वर पूछता है कि संदर्भ क्या है? क्या परमेश्वर पूछता है कि तुम्हारे तर्क और कारण क्या हैं? वह नहीं पूछता। परमेश्वर पूछता है कि जब उसने तुम्हारी परीक्षा ली तब तुमने समर्पण का रवैया अपनाया या प्रतिरोध का। परमेश्वर पूछता है कि तुम सत्य को समझते हो या नहीं, तुम विनम्र थे या नहीं। परमेश्वर यही पूछता है, और कुछ नहीं। परमेश्वर तुमसे तुम्हारी समर्पण भाव न होने का कारण नहीं पूछता, वह यह नहीं देखता कि क्या तुम्हारे पास कोई उचित कारण था—वह ऐसी बातों पर बिल्कुल विचार नहीं करता है। परमेश्वर केवल यह देखता है कि तुम समर्पित थे या नहीं। तुम्हारे रहने के माहौल और संदर्भ की परवाह न करते हुए, परमेश्वर केवल इस बात की जाँच करता है कि क्या तुम्हारे दिल में समर्पण है या नहीं, तुम्हारा रवैया समर्पणकारी है या नहीं। परमेश्वर तुम्हारे साथ सही और गलत पर बहस नहीं करता, परमेश्वर यह परवाह नहीं करता कि तुम्हारे तर्क क्या थे, परमेश्वर केवल इसकी परवाह करता है कि क्या तुम वास्तव में समर्पित थे, परमेश्वर तुमसे बस यही पूछता है। क्या यह सत्य सिद्धांच नहीं है? जिस तरह के लोग सही और गलत के बारे में बहस करना पसंद करते हैं, जिन्हें मौखिक झगड़ों में लिप्त होना पसंद है—क्या उनके दिलों में सत्य सिद्धांत हैं? (नहीं।) क्यों नहीं? क्या उन्होंने कभी सत्य सिद्धांतों पर ध्यान दिया है? क्या उन्होंने कभी उनका पीछा किया है? क्या उन्होंने कभी उन्हें खोजा है? उन्होंने कभी उन पर कोई ध्यान नहीं दिया, उनका अनुसरण नहीं किया या उनकी खोज नहीं की, और वे उनके दिलों में हैं ही नहीं। नतीजतन, वे केवल मानव धारणाओं के बीच जी सकते हैं, उनके दिलों में बस सही और गलत, ठीक और बेठीक, बहाने, कारण, सत्याभास और तर्क होते हैं, जिसके तुरंत बाद वे एक-दूसरे पर हमला करते हैं, एक-दूसरे की आलोचना और निंदा करते हैं। इस तरह के लोगों का स्वभाव यह होता है कि उन्हें सही-गलत पर बहस करना और लोगों की आलोचना और निंदा करना पसंद होता है। इस तरह के लोगों के पास सत्य के प्रति कोई प्रेम या स्वीकृति नहीं होती, यह संभव है कि वे परमेश्वर के साथ तर्क करने का प्रयास करें, यहाँ तक कि परमेश्वर के बारे में कोई फैसला सुनाएं और परमेश्वर की अवहेलना तक करें। अंततः उन्हें सजा भुगतनी ही पड़ेगी।

जो लोग सही-गलत पर बहस करना पसंद करते हैं, क्या वे सत्य खोजते हैं? क्या वे परमेश्वर के इरादों, परमेश्वर की अपेक्षाओं या उन सत्य सिद्धांतों को तलाशते हैं, जिनका इन स्थितियों में उन लोगों, घटनाओं और चीजों के जरिये अभ्यास किया जाना चाहिए जिनका वे अपने भीतर सामना करते हैं? वे नहीं तलाशते। स्थितियों से सामना होने पर वे “वह घटना कैसी थी” या “वह व्यक्ति कैसा है” का अध्ययन करने में प्रवृत्त हो जाते हैं। यह व्यवहार क्या है? क्या यह वही व्यवहार नहीं है जिसे लोग अक्सर लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करने के रूप में संदर्भित करते हैं? वे लोगों के औचित्यों और घटनाओं के क्रम के बारे में बहस करते हैं, वे इन चीजों को स्पष्ट करने पर जोर देते हैं, लेकिन वे इस बात का जिक्र नहीं करते कि इन जटिल स्थितियों की प्रक्रिया के किस भाग में उन्होंने सत्य खोजा, सत्य समझा या प्रबुद्ध हुए। उनमें इन अनुभवों और अभ्यास के तरीकों का अभाव होता है। वे बस यही कहते रहते हैं : “तुम उस बात के माध्यम से स्पष्ट रूप से मुझे निशाना बना रहे थे, तुम मेरा अपमान कर रहे थे। क्या तुम्हें लगता है कि मैं इतना मूर्ख हूँ कि मुझे पता नहीं है? तुम मेरा अपमान क्यों करोगे? मैंने तुम्हारा अपमान नहीं किया है; तुम मुझे क्यों निशाना बनाओगे? चूँकि तुम मुझे निशाना बना रहे हो, इसलिए मैं भी संयम नहीं रखूँगा! मैंने तुम्हारे मामले में बहुत समय से धैर्य रखा है, लेकिन मेरे धैर्य की भी सीमा है। यह मत सोचो कि मुझे आसानी से धौंस दी जा सकती है; मैं तुमसे नहीं डरता!” इन समस्याओं से चिपके हुए वे लगातार अपने औचित्य प्रस्तुत करते हैं, मामले के सही-गलत और उचित-अनुचित होने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, लेकिन उनके तथाकथित औचित्य सत्य के अनुरूप बिल्कुल नहीं होते और उनका एक भी शब्द परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं होता। वे लोगों, घटनाओं और चीजों पर इस हद तक ध्यान केंद्रित करते हैं कि दूसरे लोग पूरी तरह से ऊब जाते हैं और कोई उनकी बात सुनने को तैयार नहीं होता, फिर भी वे इन चीजों के बारे में बात करने से कभी नहीं थकते, वे जहाँ भी जाते हैं इनके बारे में बात करते हैं मानो उन पर किसी का साया हो। इसे लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करना और सत्य खोजने से साफ-साफ इनकार करना कहा जाता है। आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त लोगों की दूसरी विशेषता लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करने का उनका विशेष शौक है। जो लोग लगातार लोगों और चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं? (नहीं।) वे सत्य से प्रेम नहीं करते, यह स्पष्ट है। तो क्या ये लोग सत्य समझते हैं? क्या वे जानते हैं कि परमेश्वर जिस सत्य के बारे में बोलता है, वह असल में क्या है? लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करने के उनके बाहरी व्यवहार से आँकें तो, क्या वे जानते हैं कि सत्य असल में क्या है? स्पष्ट है कि वे नहीं जानते। वे किस विचार का सम्मान करते हैं? इस विचार का कि जिस किसी के भी शब्द सबसे न्यायोचित हों वह सही है, जिस किसी के भी क्रियाकलाप सच्चे हों और सभी के दर्शनार्थ पेश किए जा सकते हों वह सही है और जो कोई भी नैतिकता, आचार और परंपरागत संस्कृति के अनुसार क्रियाकलाप करता हो, बहुसंख्यक लोगों की स्वीकृति प्राप्त करता हो, वह सही है। उनके विचार से यह “सही” सत्य का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए वे लोगों और चीजों पर बड़ी बेशर्मी से लगातार ध्यान केंद्रित कर सकते है और वे इन मामलों पर विचार करना कभी बंद नहीं करते। वे मानते हैं कि न्यायोचित होना सत्य धारण करने के बराबर है—क्या यह बहुत समस्याजनक नहीं है? कुछ लोग कहते हैं, “मैंने कलीसिया के कार्य में विघ्न या बाधा नहीं डाली है, मैं दूसरों का फयदा नहीं उठाता, मुझे दूसरों का सामान चुराना पसंद नहीं है और मैं दबंग नहीं हूँ; मैं बुरा व्यक्ति नहीं हूँ।” क्या यहाँ निहितार्थ यह है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अभ्यास करते है, ऐसा व्यक्ति जिसके पास सत्य है? जो लोग लगातार लोगों और चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, उनका एक बड़ा हिस्सा खुद को ईमानदार मानता है जिन्हें नतीजतन अफवाहों के बारे में चिंतित होने की जरूरत नहीं है और वे खुद को ईमानदार, सम्माननीय लोग मानते हैं जो कभी दूसरों की चापलूसी नहीं करेंगे। इसलिए परिस्थितियों से सामना होने पर वे बहस और वाद-विवाद करने में प्रवृत्त होते हैं और इन उपायों से यह साबित करने पर जोर देते हैं कि उनका औचित्य सही है। वे मानते हैं कि अगर उनका औचित्य ठोस है और उसे खुले तौर पर प्रस्तुत किया जा सकता है और बहुसंख्यक लोग उससे सहमत हैं तो वे ऐसे व्यक्ति हैं जिनके पास सत्य है। उनका “सत्य” क्या है? उसे किस मानक से मापा जाता है? क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे लोग सत्य समझ सकते हैं? (नहीं।) इसलिए वे हमेशा लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करते हैं और हठपूर्वक उन पर विचार करते हैं। ये लोग सत्य नहीं समझते, इसलिए हमेशा कहते हैं, “मैंने तुम्हारा अपमान नहीं किया है। तुम हमेशा मुझे निशाना क्यों बनाते रहते हो? तुम्हारा मुझे निशाना बनाना गलत है!” वे मानते हैं, “अगर मैंने तुम्हारा अपमान नहीं किया है तो तुम्हें मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। चूँकि तुम मेरे साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हो, इसलिए मैं तुमसे बदला लूँगा, मैं पलटवार करूँगा और मेरा पलटवार वैध आत्मरक्षा है, यह न्यायसम्मत है। यह सत्य सिद्धांत है। इसलिए तुम जो कर रहे हो वह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, लेकिन मैं जो कर रहा हूँ वह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। इसलिए मैं इस मामले पर ध्यान केंद्रित करूँगा, मैं हमेशा इस मुद्दे को उठाऊँगा और हमेशा तुम्हारा उल्लेख करूँगा!” वे मानते हैं कि लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है, लेकिन क्या यह एक बहुत बड़ी गलती नहीं है? यह वाकई एक बहुत बड़ी गलती है और वे गलत दिशा में जा रहे हैं। लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करना सत्य का अभ्यास करने से बिल्कुल अलग मामला है। इन लोगों की मानवता के साथ यह दूसरी समस्या है—वे लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करते हैं। मानवता की समस्याएँ किससे संबंधित होती हैं? क्या वे व्यक्ति की प्रकृति से संबंधित नहीं होतीं? ये लोग कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं, लेकिन वे सत्य नहीं समझते और सोचते हैं कि जो शब्द वे जानते हैं, जैसे कि खुला और निष्कपट होना, खरा और ईमानदार होना, स्पष्ट और स्पष्टवादी होना, सीधा और सच्चा होना इत्यादि, किसी के आचरण करने के बुनियादी सिद्धांत हैं और वे इन चीजों को सत्य सिद्धांत समझते हैं। यह एक पूर्णतया गलत दृष्टिकोण है।

जो लोग आपसी हमलों में लिप्त होते हैं और जो मौखिक झगड़ों में भाग लेने में प्रवृत्त होते हैं, उनमें असामान्य मानवता होती है। इसका पहला पहलू सही-गलत पर बहस करना है; दूसरा है लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करना। तीसरा पहलू क्या है? क्या यह सत्य स्वीकारने से उनका पूर्ण इनकार करना नहीं है? वे एक सही कथन भी नहीं स्वीकार सकते। वे सोचते हैं, “तुम जो कहते हो अगर वह सही है तो भी तुम्हें मेरी इज्जत रखने के लिए मेरी मदद करनी होगी, तुम्हें चतुराई से बात करनी होगी और मुझे ठेस नहीं पहुँचानी होगी। अगर तुम्हारे शब्द कटु हैं और मेरी फजीहत कर सकते हैं तो तुम्हें वे शब्द मुझसे एकांत में कहने चाहिए। मेरे गौरव का कोई खयाल रखे बिना और मुझे इस शर्मनाक स्थिति से बाहर निकलने का कोई मार्ग दिए बिना, तुम्हें बहुत सारे लोगों के सामने मुझे ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए। इसके अलावा, तुम जो कहते हो वह गलत है, इसलिए मुझे पलटवार करना होगा!” ज्यादा गंभीर मामलों में ऐसे लोग विरोध करते हैं : “चाहे तुम्हारे शब्द कितने भी सही क्यों न हों, मैं उन्हें नहीं स्वीकारूँगा! अगर तुम किसी और के बारे में बात करो तो ठीक है, लेकिन मुझे निशाना बनाना ठीक नहीं है, भले ही तुम सही हो!” यहाँ तक कि परमेश्वर के वचन पढ़ते समय भी अगर उन्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन उन्हें निशाना बना रहे हैं या उजागर कर रहे हैं तो वे उन वचनों से विमुख महसूस करते हैं और उन्हें सुनने के लिए तैयार नहीं होते—बस इतना है कि चूँकि उनका सामना सिर्फ परमेश्वर के वचनों से होता है इसलिए वे उससे बहस नहीं कर सकते। अगर कोई उनके मुँह पर उनकी समस्याओं या अवस्थाओं की ओर इशारा करता है या उन्हें निशाना बनाने का मंतव्य न रखते हुए अनजाने में उनका उल्लेख कर देता है तो वे पलटवार करने और मौखिक झगड़े शुरू करने में सक्षम होते हैं। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसे व्यक्ति सत्य स्वीकारने से पूरी तरह इनकार करते हैं? (हाँ।) यह उनका मानवता सार है—सत्य स्वीकारने से पूर्ण इनकार। इस तरह, चाहे उनके मौखिक झगड़ों की विषयवस्तु जो भी हो या ये झगड़े जिस भी स्थान पर किए जाएँ, ऐसे लोगों की मानवता स्पष्ट होती है। वे सत्य नहीं समझते और अगर समझते भी हैं तो भी आपसी हमलों में लिप्त रहते हैं और लगातार मौखिक झगड़ों में भाग लेते हैं या अक्सर दूसरों पर हमला करने में प्रवृत्त रहते हैं। उनकी इन अभिव्यक्तियों से आँकें तो, वे कैसे लोग हैं? पहली बात, क्या वे सत्य के प्रेमी हैं? क्या वे ऐसे व्यक्ति हैं जो सत्य समझकर उसका अभ्यास कर सकते हैं? (नहीं।) जब उन्हें समस्याओं का पता चलता है तो क्या वे उन्हें हल करने के लिए सत्य खोज सकते हैं? (नहीं।) जब वे अन्य लोगों के बारे में धारणाएँ, पूर्वाग्रह या व्यक्तिगत राय रखते हैं तो क्या वे सत्य खोजने के लिए उन्हें अलग रखने की पहल कर सकते हैं? (नहीं।) वे इनमें से कुछ नहीं कर सकते। इन सभी चीजों को देखने से, जिन्हें करने में वे असमर्थ होते हैं, यह स्पष्ट है कि दूसरों पर हमला करने और मौखिक झगड़ों में लिप्त होने में प्रवृत्त सभी व्यक्ति अच्छे नहीं होते। उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियों से आँकें तो, वे सत्य से प्रेम नहीं करते और उसे खोजने के लिए तैयार नहीं होते। सत्य से जुड़े मामलों में, चाहे वे जो भी पूर्वाग्रह या गलत दृष्टिकोण विकसित करें, वे आत्म-तुष्ट बने रहते हैं और सत्य बिल्कुल नहीं खोजते, यहाँ तक कि जब उनके साथ सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति की जाती है, तब भी वे उसे स्वीकारने से इनकार कर देते हैं और उसका अभ्यास करने के लिए तो वे बिल्कुल भी तैयार नहीं होते। साथ ही, ये व्यक्ति एक और भी ज्यादा घृणित अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते हैं : कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की समझ प्राप्त करने के बाद वे इन भव्य धर्म-सिद्धांतों का उपयोग, जिन्हें वे समझते हैं, मनमाने ढंग से दूसरों पर हमला करने, उनकी आलोचना और निंदा करने, यहाँ तक कि उन्हें विवश और नियंत्रित करने के लिए भी करते हैं। अगर वे अपनी आलोचना और निंदा से तुम्हें वश में करने में सफल नहीं होते तो वे खोखले धर्म-सिद्धांतों के साथ तुम्हें विवश करने के हर तरीके के बारे में सोचेंगे। अगर तुम फिर भी नहीं मानते तो वे तुम पर हमला करने के लिए और भी ज्यादा घृणित और भयानक तरीकों का सहारा लेंगे, जब तक कि तुम उन्हें स्वीकार नहीं लेते, कमजोर और नकारात्मक नहीं हो जाते या उनकी प्रशंसा नहीं करने लगते और उनसे नियंत्रित नहीं हो जाते—फिर वे संतुष्ट महसूस करेंगे। तो इन व्यक्तियों के व्यवहार, अभिव्यक्तियों और सत्य के प्रति रवैये के आधार पर, ये किस तरह के लोग हैं? वे सत्य स्वीकारने से पूरी तरह से इनकार करते हैं—यह सत्य के प्रति उनका रवैया है। और उनकी मानवता के बारे में क्या खयाल है? इनमें से ज्यादातर व्यक्ति बुरे लोग हैं; रूढ़िवादी ढंग से कहें तो, उनमें से 90% से ज्यादा बुरे लोग हैं। बुरे लोग हर मामले में सही-गलत स्पष्ट करना पसंद करते हैं, अन्यथा वे इसे छोड़ेंगे नहीं और उनकी हमेशा ऐसी ही प्रवृत्ति रहती है। इसके अतिरिक्त, जब परिस्थितियों से सामना होता है तो बुरे व्यक्ति लोगों और चीजों के बारे में विचार करते हैं और लगातार उन पर ध्यान केंद्रित करते हैं, हमेशा अपने औचित्य प्रस्तुत करते हैं, हमेशा कोशिश करते हैं कि सभी उनसे सहमत हों और उनका समर्थन करें और कहते हैं कि वे सही हैं और किसी को अपने बारे में कुछ भी बुरा नहीं कहने देते। इसके अलावा, जब बुरे लोगों को स्थितियों का सामना करना पड़ता है तो वे हमेशा लोगों को पिंजरे में बंद करने और नियंत्रित करने के अवसर तलाशते हैं। लोगों को नियंत्रित करने के लिए वे क्या तरीका इस्तेमाल करते हैं? वे सभी की निंदा करते हैं, हर दूसरे व्यक्ति को विश्वास दिलाते हैं कि वे अपूर्ण हैं, उनमें समस्याएँ और दोष हैं और वे इन बुरे लोगों से हीनं हैं, जिसके बाद बुरे लोग प्रसन्न और खुश महसूस करते हैं। जब वे अन्य सभी को हराकर सिर्फ खुद खड़े रह जाते हैं तो क्या वे सभी को अपने नियंत्रण में नहीं ले लेते? लोगों को नियंत्रित करके वे जो उद्देश्य प्राप्त करते हैं, वह है सभी की निंदा करना और उन्हें नीचे गिराना, सभी को यह विश्वास दिलाना कि वे अक्षम हैं, वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं, परमेश्वर के वचनों और सत्य में आस्था खो देते हैं और परमेश्वर में आस्था खो देते हैं और उनके पास अनुसरण करने के लिए कोई मार्ग नहीं है—इसके बाद ये बुरे लोग खुश और संतुष्ट महसूस करते हैं। इन पहलुओं को देखने से क्या यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसे व्यक्तियों में अधिकांश बुरे लोग होते हैं? देखो कि किस तरह के लोग समूह में होने पर हमेशा दूसरों पर या तो आमने-सामने या उनकी पीठ पीछे हमला करने में प्रवृत्त होते हैं, दूसरों पर हमला करने के लिए विभिन्न तरीके इस्तेमाल करते हैं—ऐसे लोग बुरे होते हैं। ये व्यक्ति सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते, न ही वे सत्य पर संगति करते हैं और वे अक्सर स्थिति का लाभ उठाकर डींग हाँकते हैं कि वे अच्छे लोग हैं, वे जो कुछ भी करते हैं वह उचित और पुख्ता होता है और वे एक ईमानदार और निष्कपट तरीके से व्यवहार करते हैं—वे हमेशा डींग हाँकते हैं कि वे शालीन और सम्माननीय लोग हैं और सीधे और न्यायप्रिय व्यक्ति हैं। ये लोग कभी सत्य की गवाही नहीं देते, न ही वे परमेश्वर के वचनों की गवाही देते हैं, वे बस लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करना पसंद करते हैं और अपने औचित्य प्रस्तुत करते हैं। उनका इरादा और उद्देश्य लोगों को यह विश्वास दिलाना होता है कि वे अच्छे लोग हैं और सब कुछ समझते हैं। कलीसिया में उन लोगों से, जो अक्सर आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त रहते हैं, चाहे वे हमला करने वाले हों या वे जिन पर हमला किया जाता है, अगर कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त होता है तो ज्यादातर लोगों को उन्हें चेतावनी देने और प्रतिबंधित करने के लिए खड़े होना चाहिए। इन लोगों को पागलों की तरह बुरे काम करने के लिए समय नहीं दिया जाना चाहिए, न ही उन्हें अपनी व्यक्तिगत शिकायतों और क्षणिक क्रोध के कारण अपनी व्यक्तिगत भड़ास निकालकर और बदला लेने की कोशिश करके दूसरों को प्रभावित करने की अनुमति दी जानी चाहिए। बेशक, कलीसिया के अगुआओं को भी कर्तव्यनिष्ठ तरीके से अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, इन लोगों को कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त करने से प्रभावी ढंग से रोकना चाहिए और ज्यादातर लोगों को बाधित होने से बचाना चाहिए। जब लोग आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होते हैं तो कलीसिया के अगुआओं को समय रहते उन्हें रोकने और प्रतिबंधित करने में सक्षम होना चाहिए। अगर उन्हें रोकने और प्रतिबंधित करने से समस्या हल न हो और वे एक-दूसरे पर हमला करना और मौखिक झगड़ों में भाग लेना जारी रखें, दूसरों को परेशान करें और कलीसियाई जीवन को नुकसान पहुँचाते रहें तो ऐसे लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए। यह कलीसिया के अगुआओं की जिम्मेदारी है।

हमने उन लोगों के व्यवहार और अभिव्यक्तियों के बारे में काफी चर्चा की है जो आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त रहते हैं। हमने अभी-अभी उनकी मानवता का भी संक्षेप में गहन-विश्लेषण कर उस पर संगति की है, जो तुम लोगों को उनकी बेहतर पहचान प्राप्त करने में सक्षम बनाएगी और तुममें से ज्यादातर को यह पता लगाने में कि क्या चल रहा है और उनके बोलने और क्रियाकलाप करने पर समय रहते उनका भेद पहचानने में सक्षम बनाएगी। जितना ज्यादा तुम लोग इन लोगों के सार को समझोगे और जानोगे, उतनी ही जल्दी तुम उनका भेद पहचान पाओगे और नतीजतन तुम उनसे कम परेशान होगे। तुममें से ज्यादातर को इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि जो लोग आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त रहते हैं, वे कलीसियाई जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को कितना नुकसान पहुँचाते हैं। ऐसे लोग निश्चित रूप से आत्मचिंतन नहीं करेंगे और लड़ना बंद नहीं करेंगे। अगर उन्हें तुरंत सँभाला और बहिष्कृत नहीं किया गया तो वे कलीसियाई जीवन में निरंतर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करेंगे। इसलिए ऐसे लोगों को सँभालना और बहिष्कृत करना कलीसिया के अगुआओं के कार्य की एक बहुत ही महत्वपूर्ण मद है और इसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए।

5 जून 2021

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