अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (14)
हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों के बारे में कितने समय से संगति कर रहे हैं? (साढ़े चार महीनों से।) इस पर इतने लंबे समय तक संगति करने के बाद क्या अब तुम लोगों को अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जो विशिष्ट कार्य करना चाहिए, उसकी कुछ हद तक स्पष्ट समझ है? (हाँ, इस बारे में हमारी समझ कुछ हद तक स्पष्ट है।) यह पहले से अधिक स्पष्ट होनी चाहिए। मेरी संगति इतनी विशिष्ट और स्पष्ट है कि अगर कोई अभी भी नहीं समझता तो इसका मतलब होगा कि वह बौद्धिक रूप से अपंग है, है ना? (हाँ।) अब इसे देखते हुए क्या तुम्हें लगता है कि अच्छा अगुआ या कार्यकर्ता बनना आसान है? (यह आसान नहीं है।) इसके लिए कौन-से गुण होने आवश्यक हैं? (इसके लिए व्यक्ति में अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए आवश्यक काबिलियत और मानवता के साथ-साथ सत्य वास्तविकता और जिम्मेदारी की भावना होनी आवश्यक है।) कम से कम, व्यक्ति में जमीर, विवेक और निष्ठा और उसके बाद काबिलियत और कार्यक्षमता होनी ही चाहिए। जब व्यक्ति में ये तमाम गुण होते हैं तो वह अच्छा अगुआ या कार्यकर्ता हो सकता है और अपनी जिम्मेदारियाँ निभा सकता है।
मद बारह : उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को सकारात्मक दिशा दो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें (भाग दो)
पिछली सभा में हमने अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों की बारहवीं मद पर संगति की थी : “उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को सकारात्मक दिशा दो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें।” इस मद में हमने मुख्य रूप से पहले इस बारे में संगति की थी कि कौन-से लोग, घटनाएँ और चीजें परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करती हैं। अगर अगुआ और कार्यकर्ता कलीसिया के भीतर व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करने वाले विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को रोकना और प्रतिबंधित करना चाहते हैं और इस कार्य को अच्छी तरह से करना चाहते हैं तो उन्हें पहले यह जानना और समझना चाहिए कि कौन-से लोग, घटनाएँ और चीजें परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करती हैं। इसके बाद उन्हें इनका मिलान कलीसिया के वास्तविक कार्य और वास्तविक कलीसियाई जीवन में लोगों, घटनाओं और चीजों से करना चाहिए और फिर उन्हें रोकने और प्रतिबंधित करने जैसे विभिन्न कार्य करने चाहिए। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं से की जाने वाली एक अपेक्षा है। अपनी पिछली सभा में हमने कलीसिया के कार्य और कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करने वाले विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के बारे में संगति की थी, जिसकी शुरुआत कलीसियाई जीवन से संबंधित लोगों, घटनाओं और चीजों से की थी। हमने कलीसियाई जीवन में उन लोगों, घटनाओं और चीजों को भी वर्गीकृत किया था, जिनकी प्रकृति कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करने की होती है। कुल कितने मुद्दे थे? (ग्यारह। पहला, सत्य पर संगति करते समय अक्सर विषय से भटक जाना; दूसरा, लोगों को गुमराह करने और उनसे सम्मान प्राप्त करने के लिए शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना; तीसरा, घरेलू मामलों के बारे में बकबक करना, व्यक्तिगत संबंध बनाना और व्यक्तिगत मामले सँभालना; चौथा, गुट बनाना; पाँचवाँ, हैसियत के लिए होड़ करना; छठा, कलह के बीज बोना; सातवाँ, लोगों पर हमला कर उन्हें सताना; आठवाँ, धारणाएँ फैलाना; नौवाँ, नकारात्मकता फैलाना; दसवाँ, निराधार अफवाहें फैलाना; और ग्यारहवाँ, चुनाव के सिद्धांतों का उल्लंघन करना।) छठा मुद्दा है कलह के बीज बोना, जिसकी प्रकृति अस्त-व्यस्त करने की है, लेकिन अन्य दुष्कर्मों की तुलना में यह एक छोटी समस्या है। इसे बदलकर “अनुचित संबंधों में लिप्त होना” करो तो इसकी प्रकृति कलह के बीज बोने से ज्यादा गंभीर होती है। सातवाँ मुद्दा लोगों पर हमला कर उन्हें सताना है। इसे बदलकर “आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होना” करो—क्या यह प्रकृति में ज्यादा गंभीर और ज्यादा विशिष्ट और प्रासंगिक नहीं है? (हाँ, है।) आपसी हमले और मौखिक झगड़े कलीसियाई जीवन में आम तौर पर पैदा होने वाली समस्या है जो विघ्न-बाधाओं से संबंधित है। इन दो मुद्दों को इस तरह से संशोधित करना उन्हें ज्यादा प्रासंगिक और कलीसियाई जीवन के भीतर उत्पन्न होने वाली समस्याओं के ज्यादा करीब बनाता है। ग्यारहवाँ मुद्दा चुनाव के सिद्धांतों का उल्लंघन करना है। इसे “चुनावों में हेरफेर और गड़बड़ी करना” कर दो। यह सिर्फ शब्दों का बदलाव है; इसकी प्रकृति वही रहती है, बस मात्रा तीव्र हो जाती है—यह मुद्दा अब विघ्न-बाधाएँ पैदा करने की प्रकृति से ज्यादा संबंधित हो गया है।
विभिन्न लोग, घटनाएँ और चीजें जो कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करती हैं
V. हैसियत के लिए होड़ करना
पिछली बार हमने चौथे मुद्दे—गुट बनाना—तक संगति की थी। इस बार हम पाँचवें मुद्दे—हैसियत के लिए होड़ करना—पर संगति करेंगे। हैसियत के लिए होड़ करने का मामला ऐसी समस्या है, जो कलीसियाई जीवन में अक्सर पैदा होती है और यह ऐसी चीज है, जिसका दिखना असामान्य नहीं है। हैसियत के लिए होड़ करने के अभ्यास में कौन-सी दशाएँ, व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ शामिल हैं? हैसियत के लिए होड़ करने की कौन-सी अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करने के मुद्दे से संबंधित हैं? चाहे हम जिस भी मुद्दे या श्रेणी पर संगति करें, वह “परमेश्वर के काम और कलीसियाओं की सामान्य व्यवस्था में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करने वाले विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों” के बारे में मद बारह में जो कुछ कहा गया है उससे संबंधित होनी चाहिए। इसे व्यवधान और गड़बड़ी के स्तर तक पहुँचना चाहिए और इसी प्रकृति से संबंधित होना चाहिए—तभी वह संगति और विश्लेषण के लायक होता है। हैसियत के लिए होड़ करने की कौन-सी अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर के घर के काम में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करने की प्रकृति से जुड़ी हैं? सबसे आम है लोगों का हैसियत के लिए कलीसिया के अगुआओं के साथ होड़ करना, जो मुख्य रूप से उनके द्वारा अगुआओं की कुछ चीजों और त्रुटियों का फायदा उन्हें बदनाम करने और उनकी निंदा करने के लिए उठाने में अभिव्यक्त होता है, और जानबूझकर उनकी भ्रष्टता का प्रकाशन और उनकी मानवता और क्षमता की विफलताएँ और कमियाँ उजागर करने में प्रकट होता है, खासकर जब बात उनके द्वारा अपने काम में या लोगों को सँभालने की गई चूकों और गलतियों की हो। यह हैसियत के लिए कलीसिया के अगुआओं के साथ होड़ करने की सबसे आम तौर पर दिखने वाली और सबसे मुखर अभिव्यक्ति है। इसके अलावा, ये लोग इस बात की परवाह नहीं करते कि कलीसिया के अगुआ अपना काम कितनी अच्छी तरह से करते हैं, वे सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हैं या नहीं, या उनकी मानवता के साथ कोई समस्या है या नहीं, और बस इन अगुआओं के प्रति अवज्ञाकारी होते हैं। वे अवज्ञाकारी क्यों होते हैं? क्योंकि वे भी कलीसिया-अगुआ बनना चाहते हैं—यह उनकी महत्वाकांक्षा, उनकी इच्छा होती है, इसलिए वे अवज्ञाकारी होते हैं। चाहे कलीसिया-अगुआ कैसे भी काम करते हों या कैसे भी समस्याओं से निपटते हों, ये लोग हमेशा उनसे संबंधित खामियाँ पकड़ते हैं, उनकी आलोचना और निंदा करते हैं, यहाँ तक कि चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने, तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने और चीजों को जितना हो सके, बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की हद तक चले जाते हैं। वे उन मानकों का उपयोग नहीं करते, जिनकी अपेक्षा परमेश्वर का घर अगुआओं और कार्यकर्ताओं से यह मापने के लिए करता है कि क्या यह अगुआ सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है, क्या वह सही व्यक्ति है, क्या वह सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति है और क्या उसमें जमीर और विवेक है। वे अगुआओं का मूल्यांकन इन सिद्धांतों के अनुसार नहीं करते। इसके बजाय वे अपने ही इरादों और लक्ष्यों के आधार पर लगातार मीन-मेख निकालते हैं और शिकायतें गढ़ते हैं, अगुआओं या कार्यकर्ताओं के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए चीजें ढूँढ़ते हैं, उनकी पीठ पीछे उनके द्वारा की गई उन चीजों के बारे में अफवाहें फैलाते हैं जो सत्य के अनुरूप नहीं होतीं या उनकी कमियाँ उजागर करते हैं। उदाहरण के लिए, वे कह सकते हैं कि : “अमुक अगुआ ने एक बार एक गलती की थी और ऊपरवाले ने उसकी काट-छाँट की थी और तुममें से किसी को इसके बारे पता नहीं चला था। देखो, वह दिखावा करने में कितना माहिर है।” वे इस बात पर विचार और इस बात की परवाह नहीं करते कि क्या यह अगुआ या कार्यकर्ता परमेश्वर के घर द्वारा विकसित किए जाने का लक्ष्य है या क्या यह एक अच्छा अगुआ या कार्यकर्ता है, वे बस उसकी आलोचना करते रहते हैं, तथ्यों को तोड़ते-मरोड़ते रहते हैं और उसकी पीठ पीछे उसके खिलाफ बचकानी हरकतें करते रहते हैं। और वे ये चीजें किस उद्देश्य से करते हैं? यह हैसियत के लिए होड़ करना है, है न? वे जो कुछ भी कहते और करते हैं, उसका एक उद्देश्य होता है। वे कलीसिया के काम पर विचार नहीं करते, और अगुआओं और कार्यकर्ताओं के बारे में उनका मूल्यांकन परमेश्वर के वचनों या सत्य पर आधारित नहीं होता, परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं या उन सिद्धांतों पर तो बिल्कुल आधारित नहीं होता जिनकी अपेक्षा परमेश्वर को मनुष्य से होती है, बल्कि यह उनके अपने इरादों और लक्ष्यों पर आधारित होता है। वे अगुआओं या कार्यकर्ताओं की हर बात का खंडन करते हैं और फिर अपनी “अंतर्दृष्टियाँ” पेश करते हैं। अगुआ और कार्यकर्ता जो कुछ भी कहते हैं, चाहे उसमें से कितना भी सत्य के अनुरूप क्यों न हो, वे उसे ज़रा भी नहीं स्वीकारते। नेता और कार्यकर्ता जो कुछ भी कहते हैं, वे उसे नकार देते हैं और अपनी अलग राय पेश करते हैं। खासकर जब कोई अगुआ या कार्यकर्ता खुलकर अपने बारे में बात करता है और आत्म-ज्ञान के बारे में बोलते हुए खुद को पूरी तरह से उजागर कर देता है, और बात करता है, तो वे और भी अधिक प्रसन्न होते हैं और सोचते हैं कि उन्हें मौका मिल गया है। कौन-सा मौका? उस अगुआ या कार्यकर्ता को बदनाम करने का मौका, हर किसी को यह बताने का मौका कि इस अगुआ या कार्यकर्ता की काबिलियत खराब है, यह कमजोर हो सकता है, यह भी भ्रष्ट मनुष्य है, यह भी अपने काम में अक्सर गलतियाँ करता है और यह किसी और से बेहतर नहीं है। यह उनके लिए उस अगुआ या कार्यकर्ता के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए कुछ ढूँढने का मौका होता है, उस अगुआ या कार्यकर्ता की निंदा करने, उसे उखाड़ फेंकने और नीचे गिराने के लिए हर किसी को उकसाने का अवसर होता है। और इन सभी व्यवहारों और कार्यों के पीछे की प्रेरणा कुछ और नहीं बल्कि हैसियत के लिए होड़ करना होता है। अगर चुनाव के सिद्धांतों और परमेश्वर के घर में लोगों को विकसित कर उनका उपयोग करने के सिद्धांतों का पालन किया जाए तो सामान्य परिस्थितियों में ऐसे व्यक्ति कभी अगुआ या कार्यकर्ता नहीं चुने जाएँगे। यह ऐसी चीज है जिसे उन्होंने स्पष्ट रूप से समझा-बूझा है, इसलिए वे अगुआओं और कार्यकर्ताओं पर हमला कर उनकी निंदा करने के लिए किसी भी उपाय का सहारा लेते हैं। कोई भी अगुआ या कार्यकर्ता क्यों न बने, वे बस उनके प्रति अवज्ञाकारी रहते हैं और हमेशा उनमें मीन-मेख निकालते रहते हैं और उनके बारे में गैर-जिम्मेदाराना, आलोचनात्मक टिप्पणियाँ करते रहते हैं। भले ही इन अगुआओं और कार्यकर्ताओं के क्रियाकलापों या शब्दों में कुछ भी गलत न हो, फिर भी वे हमेशा उनमें कोई न कोई गलती निकाल ही लेते हैं—असल में वे जो समस्याएँ निकालते हैं वे सैद्धांतिक नहीं, बल्कि विशुद्ध रूप से तुच्छ मुद्दे होते हैं। तो वे इन तुच्छ मुद्दों पर क्यों ध्यान देते हैं? वे ऐसी चीजों पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं की इतनी खुलकर आलोचना और निंदा कैसे कर पाते हैं? उनका एक ही लक्ष्य होता है और वह है सत्ता और हैसियत के लिए होड़ करना। चाहे परमेश्वर का घर नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों के बारे में कैसे भी संगति करे, वे उन अभिव्यक्तियों को कभी खुद से नहीं जोड़ते, बल्कि उन्हें सभी स्तरों के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से ही जोड़ते हैं। जब उन्हें कोई मेल मिल जाता है तो वे सोचते हैं, “अब मेरे पास सबूत है; मुझे आखिरकार उनके खिलाफ इस्तेमाल कर लाभ उठाने के लिए कुछ मिल गया है और मुझे एक अच्छा अवसर हासिल हो गया है।” फिर वे इन अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उजागर करने, उनकी आलोचना करने, उनका आलोचनात्मक आकलन करने और उनके द्वारा किए जाने वाले हर काम की निंदा करने में और भी ज्यादा बेलगाम हो जाते हैं। उनके द्वारा उठाए गए कुछ मुद्दे ऊपर से थोड़े गंभीर लग सकते हैं, लेकिन सिद्धांतों के आधार पर मापने पर वे महत्वपूर्ण नहीं होते। तो वे उन्हें क्यों उठाते हैं? यह किसी अन्य कारण से नहीं बल्कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उजागर करने के लिए होता है, जिसका उद्देश्य उनकी निंदा कर उन्हें हराना होता है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता नकारात्मक हो जाते हैं, उनसे दया की भीख माँगते हैं और उनके सामने झुक जाते हैं, अगर भाई-बहन देखते हैं कि ये अगुआ हमेशा नकारात्मक और कमजोर रहते हैं और कार्य करते समय अक्सर गलतियाँ करते हैं, और फिर उन्हें अगुआ नहीं चुनते, अगर इन अगुआओं के सत्य पर संगति करते समय अब भाई-बहन उन्हें ध्यान से नहीं सुनते और अगर इन अगुआओं द्वारा कार्य को कार्यान्वित करने पर अब लोग सक्रियता और ईमानदारी से सहयोग नहीं करते, तो हैसियत के लिए होड़ करने वाले लोग प्रसन्न होंगे और उनके पास लाभ उठाने का अवसर होगा। यही वह परिदृश्य है जिसे वे सबसे ज्यादा देखना चाहते हैं और जिसके घटित होने की सबसे ज्यादा उम्मीद करते हैं। यह सब करने के पीछे उनका क्या लक्ष्य होता है? यह सत्य समझने और नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पहचानने में लोगों की मदद करने के लिए नहीं होता, न ही यह लोगों को परमेश्वर के सामने लाने के लिए होता है। इसके बजाय, उनका उद्देश्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं को हराना और गिराना होता है, ताकि हर कोई अगुआ के रूप में सेवा करने के लिए उन्हें ही सबसे उपयुक्त उम्मीदवार समझे। इस बिंदु पर उनका लक्ष्य पूरा हो जाता है और उन्हें बस भाई-बहनों द्वारा उन्हें अगुआ के रूप में नामित किए जाने का इंतजार करना होता है। क्या कलीसिया में ऐसे लोग हैं? उनके स्वभाव कैसे हैं? ये व्यक्ति स्वभाव से दुष्ट होते हैं, वे सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करते और उसका अभ्यास भी नहीं करते; वे सिर्फ सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं। उन लोगों के बारे में क्या कहा जाए, जो कुछ सत्य समझते हैं और जिनमें थोड़ी समझदारी होती है—क्या वे ऐसे लोगों को सत्ता पर काबिज होने देना चाहेंगे? क्या वे उनकी शक्ति के अधीन होने के लिए तैयार होंगे? (नहीं।) क्यों नहीं? अगर ज्यादातर लोग ऐसे व्यक्तियों का स्वभाव सार स्पष्ट रूप से देख सकते हैं तो क्या वे फिर भी उन्हें अगुआ चुनेंगे? (नहीं।) वे नहीं चुनेंगे, जब तक कि तमाम लोग अभी-अभी न मिले हों और एक-दूसरे से बहुत परिचित न हों। लेकिन जब वे परिचित हो जाते हैं और स्पष्ट रूप से देख लेते हैं कि कौन-से व्यक्ति खराब काबिलियत वाले और भ्रमित हैं, कौन-से दुष्ट और कपटी स्वभाव वाले बुरे लोग हैं, कौन-से लोग हैसियत के लिए होड़ करने और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने के लिए उत्सुक रहते हैं, कौन-से लोग सत्य का अनुसरण कर सकते हैं और अपने कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभा सकते हैं, इत्यादि, जब वे विभिन्न लोगों का प्रकृति-सार और श्रेणियाँ समझ लेते हैं, तब अगुआओं का चुनाव अपेक्षाकृत सटीक और सिद्धांतों के अनुसार होता है।
क्या ज्यादातर लोग किसी ऐसे व्यक्ति को अगुआ चुनना पसंद करेंगे जो हमेशा हैसियत के लिए होड़ करता रहता है या वे किसी ऐसे व्यक्ति को चुनेंगे जिसकी काबिलियत और कार्यक्षमता अपेक्षाकृत औसत है लेकिन जो मेहनती और दृढ़ है? जब यह स्पष्ट न हो कि इन दो व्यक्तियों का चरित्र कैसा है, उनका प्रकृति सार क्या है या वे किस मार्ग पर हैं तो ज्यादातर लोग किसे अगुआ चुनना पसंद करेंगे? (दूसरे को, उसको जो दृढ़ है।) ज्यादातर लोग दूसरे को चुनेंगे। जो लोग हमेशा हैसियत के लिए होड़ करते रहते हैं, उनकी अभिव्यक्तियाँ उनकी मानवता और सार का प्रमाण होती हैं। क्या ज्यादातर लोग उनकी अभिव्यक्तियों की असलियत जान नहीं सकते और उनकी अभिव्यक्तियों को पहचान नहीं सकते? लोग कहेंगे, “यह व्यक्ति हमेशा कलीसिया की अगुआ के लिए मुश्किलें खड़ी करता रहता है; इसकी महत्वाकांक्षाएँ कलीसिया के अगुआ की हैसियत पाने पर टिकी हैं, यह उसकी जगह अगुआ बनना चाहता है। जबसे वह कलीसिया की अगुआ चुनी गई है, तभी से इसने हमेशा उसे निशाना बनाया और नापसंद किया है। यह हमेशा उसे ढिठाई से जवाब देता है और जो कुछ भी वह करती है, उसमें दोष निकालता है, जिस भी चीज का उसके खिलाफ इस्तेमाल कर फायदा उठा सकता है उस का फायदा उठाता है, उसकी आलोचना करता है और उसकी पीठ पीछे उसकी कमियाँ उजागर करता है। खास तौर पर सभाओं के दौरान या काम के बारे में संगति करते समय अगर वह एक पल के लिए भी अपनी बात स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाती तो यह बहुत ज्यादा अधीरता दिखाते हुए उसे बीच में ही टोक देता है। यहाँ तक कि वह उसका उपहास भी करता है, उसकी हँसी उड़ाता है, उसे ताने देता है और उस पर हँसता है; वह हर मोड़ पर उसके लिए मुश्किलें खड़ी करता है और उसे शर्मनाक स्थितियों में फँसाता है।” ये व्यवहार सबके सामने आने पर क्या ज्यादातर लोग इस व्यक्ति को पहचान नहीं पाएँगे? (हाँ, पहचान पाएँगे।) तो, क्या यह उसके अगुआ का पद हथियाने में सहायक है? यकीनन नहीं। हैसियत के लिए होड़ करने वाले ये लोग चतुर हैं या मूर्ख? स्पष्ट रूप से वे मूर्ख हैं, बेवकूफ हैं। एक और गंभीर समस्या है : ये लोग शैतान हैं और इनकी प्रकृति अपरिवर्तनीय है! सत्ता और हैसियत के लिए इनकी इच्छा बेकाबू है, इस हद तक बेकाबू है कि ये लोग अपना होशो-हवास तक खो बैठते हैं, जो सामान्य मानवता में पाई जाने वाली चीज नहीं है। यह इच्छा सामान्य मानवता की तार्किकता और जमीर की सीमाएँ पार कर जाती है और अनैतिकता के स्तर तक पहुँच जाती है। ये लोग समय, स्थान या संदर्भ की परवाह किए बिना इसी तरह से कार्य करते हैं, परिणामों पर भी विचार नहीं करते, अपने क्रियाकलापों के प्रभाव की परवाह करने की तो बात ही छोड़ दो। ये हैसियत के लिए होड़ करने वाले लोगों की सबसे विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ और नजरिये हैं। जब भी काम के बारे में कोई सभा या संगति होती है, जैसे ही तमाम लोग एक साथ आते हैं, ये व्यक्ति खीझ दिलाने वाली मक्खियों की तरह गड़बड़ी पैदा कर कलीसियाई जीवन, और सत्य पर संगति की सामान्य व्यवस्था खराब कर देते हैं। ऐसे व्यवहारों और नजरियों में इस व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने की प्रकृति होती है। क्या ऐसे व्यक्तियों को प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए? गंभीर मामलों में क्या उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित नहीं किया जाना चाहिए? (हाँ, किया जाना चाहिए।) कभी-कभी बुरे लोगों को प्रतिबंधित करने के लिए सिर्फ कलीसिया के अगुआओं की ताकत पर निर्भर रहना कुछ हद तक कमजोर, छिट-पुट प्रयास हो सकता है—अगर बुरे लोगों द्वारा उत्पन्न विघ्न-बाधाओं की गंभीरता को स्पष्ट रूप से देखने और उनके सार को अच्छी तरह से समझने के बाद भाई-बहन ऐसे बुरे व्यक्तियों को रोकने और प्रतिबंधित करने में कलीसिया के अगुआओं के साथ एकजुट हो सकें, तो क्या यह ज्यादा प्रभावी नहीं होगा? (हाँ, होगा।) अगर कोई कहता है, “बुरे लोगों को प्रतिबंधित करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है, इसका हम साधारण विश्वासियों से कोई लेना-देना नहीं है। हम इसकी चिंता नहीं करेंगे! बुरे लोग कलीसिया के अगुआओं के साथ हैसियत के लिए होड़ करते हैं; वे उनके साथ हैसियत के लिए होड़ करते हैं जिनके पास हैसियत होती है। हमारे पास हैसियत नहीं है; वे हमसे कुछ छीनने की कोशिश नहीं करते। किसी भी सूरत में यह हमें प्रभावित नहीं करता। उन्हें जैसे चाहे होड़ करने दो। अगर कलीसिया के अगुआओं में योग्यता है तो उन्हें उनको प्रतिबंधित करना चाहिए; अगर नहीं है तो उन्हें जैसा वे चाहें वैसा करने देना चाहिए। इसका हमसे क्या लेना-देना है?” क्या यह दृष्टिकोण अच्छा है? (नहीं।) यह अच्छा क्यों नहीं है? (वे कलीसिया की सामान्य व्यवस्था कायम नहीं रखते।) इसे और ज्यादा उपयुक्त शब्दों में कहें तो, कलीसिया की सामान्य व्यवस्था किसे संदर्भित करती है? क्या यह सामान्य कलीसियाई जीवन को संदर्भित नहीं करती? (हाँ, करती है।) इसमें सामान्य और व्यवस्थित कलीसियाई जीवन शामिल है—इसमें परमेश्वर के वचनों को व्यवस्थित तरीके से खाना-पीना शामिल है, जिसका अर्थ है कि ऐसे कलीसियाई जीवन में जहाँ पवित्र आत्मा कार्य करता है, परमेश्वर मौजूद रहता है और मार्गदर्शन करता है, लोग प्रार्थना करते हुए परमेश्वर के वचन पढ़ सकते हैं, उन पर संगति कर सकते हैं और व्यक्तिगत अनुभव साझा कर सकते हैं, और साथ ही पवित्र आत्मा से प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त कर प्रकाश भी प्राप्त कर सकते हैं। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को कलीसियाई जीवन में इसी का आनंद लेना चाहिए। अगर कुछ लोग इस सामान्य व्यवस्था को नष्ट करते हैं तो उन्हें सिद्धांतों के अनुसार रोका और प्रतिबंधित किया जाना चाहिए और बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। यह सिर्फ अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी और दायित्व नहीं है, बल्कि उन सभी की जिम्मेदारी और दायित्व है जो सत्य समझते हैं और जमीर रखते हैं। बेशक यह सबसे अच्छा होगा अगर कलीसिया के अगुआ इस कार्य की अगुआई कर सकें, भाई-बहनों के साथ इन व्यक्तियों के क्रियाकलापों की प्रकृति के बारे में संगति कर सकें और इस बारे में भी संगति कर सकें कि अपनी अभिव्यक्तियों के आधार पर ये व्यक्ति किस प्रकार के लोग हैं और भाई-बहनों को ऐसे व्यक्तियों को कैसे पहचानना और समझना चाहिए। अगर इन बुरे लोगों को प्रतिबंधित नहीं किया गया और सभी भाई-बहन उनके द्वारा परेशान, गुमराह किए जाते रहे और ठगे जाते रहे और कलीसिया के अगुआ उन बुरे लोगों के बजाय खुद ही अलग-थलग पड़ गए तो यह कलीसिया पंगु हो जाएगी और यहाँ अनिवार्य रूप से अराजकता फैल जाएगी। क्या ऐसी परिस्थितियों में सामान्य कलीसियाई जीवन जारी रह सकता है? अगर यह जारी नहीं रह सकता तो क्या कलीसिया की सभाएँ तब भी फलदायी होंगी? क्या परमेश्वर के चुने हुए लोग तब भी ऐसी सभाओं से कुछ हासिल करेंगे? अगर परमेश्वर के चुने हुए लोग उनसे कुछ हासिल नहीं करते तो परमेश्वर ऐसी सभाओं को आशीष देता है या उनसे घृणा करता है? बेशक परमेश्वर उनसे घृणा करता है। पवित्र आत्मा के कार्य और परमेश्वर के आशीष के बिना सभाएँ कलीसियाई जीवन नहीं मानी जा सकतीं, बल्कि वे किसी सामाजिक समूह की बैठकें बन जाती हैं। क्या कोई अव्यवस्थित कलीसियाई जीवन पसंद करता है? क्या वह किसी के लिए शिक्षाप्रद या लाभदायक होता है? (नहीं।) अगर इस अवधि में तुमने किसी भी सभा से अपने जीवन प्रवेश के संदर्भ में कुछ भी हासिल नहीं किया है तो यह समय तुम्हारे लिए मूल्यवान या अर्थपूर्ण नहीं रहा है; तुमने यह समय गँवा दिया है। क्या इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हारे जीवन प्रवेश को नुकसान पहुँचा है? (हाँ।) अगर किसी सभा के दौरान बुरे लोग हैसियत के लिए होड़ कर रहे हों और किसी कलीसिया के अगुआ के साथ विवाद और बहस कर रहे हों और नतीजतन लोग चिंतित महसूस करने लगें, पूरी सभा में एक गंदा माहौल व्याप्त हो जाए और वह शैतान की दुष्ट ऊर्जा से भर जाए, और अगर, कौन सही है और कौन गलत जैसे विषयों पर बहस करने के अलावा कोई भी प्रार्थना करने और सत्य खोजने के लिए परमेश्वर के सामने नहीं आता और कोई भी सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करता तो इस तरह की सभा के बाद परमेश्वर में तुम्हारी आस्था बढ़ेगी या घटेगी? जब सत्य की बात आएगी तो क्या तुम उसे ज्यादा समझोगे और ज्यादा प्राप्त करोगे या विवादों से तुम्हारा मन परेशान हो जाएगा और तुम कुछ भी प्राप्त नहीं करोगे? कभी-कभी तुम सोच सकते हो, “मुझे समझ में नहीं आता कि लोग परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है? ये लोग इस तरह से कैसे व्यवहार कर सकते हैं? क्या ये अभी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं?” शैतानों और दानवों की एक गड़बड़ी के कारण लोगों के दिल परेशान और मैले हो जाते हैं; उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करना व्यर्थ है और वे परमेश्वर में विश्वास करने का मूल्य नहीं जानते और उनके मन विचलित हो जाते हैं। अगर ऐसे मामलों के बारे में हर कोई सुन्न और धीमा होने के बजाय सतर्क और विशेष रूप से संवेदनशील और तेज हो सके तो जब बुरे लोग कलीसियाई जीवन में हैसियत के लिए होड़ करने के लिए अक्सर कुछ कहते या करते हैं तो ज्यादातर लोग तुरंत समझ जाते हैं कि कोई समस्या है जिसे हल करने की आवश्यकता है। वे तुरंत समझ जाएँगे कि इन स्थितियों में कौन हेरफेर कर रहा है और उसका स्वभाव सार क्या है, वे तुरंत मुद्दे की गंभीरता समझ जाएँगे और शीघ्र ही बुरे लोगों को रोकने और प्रतिबंधित करने में सक्षम होंगे, उन्हें कलीसिया से दूर कर देंगे और उन्हें कलीसिया के भीतर लोगों को परेशान और विवश करने से रोकेंगे। क्या यह ज्यादातर लोगों के लिए लाभदायक और शिक्षाप्रद नहीं होगा? (हाँ, होगा।)
अगर तुम लोग ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हो जहाँ बुरे लोग हैसियत के लिए होड़ करते हैं तो तुम उनसे कैसे निपटोगे? बहुमत की क्या राय है? (हम इस व्यवहार को रोकेंगे।) बस रोकोगे? तुम इसे कैसे रोकोगे? क्या तुम उन्हें बोलने से मना करोगे या कहोगे, “हमें तुम्हारी बातें पसंद नहीं हैं, इसलिए भावी सभाओं में कम बोलना!” क्या यह काम करेगा? क्या वे तुम्हारी बात सुनेंगे? (नहीं।) तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के वचन के अनुसार उनके इरादों, प्रेरणाओं और प्रकृति सार को अच्छी तरह से उजागर कर उनका गहन-विश्लेषण करने की आवश्यकता है, ताकि भाई-बहन ऐसे लोगों और उनके क्रियाकलापों की प्रकृति को पहचानकर उनके प्रति सतर्क हो सकें, न कि खुशामदी इंसान बनें और सिर्फ कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा बुरे लोगों को उजागर करने का इंतजार करें और तब कोई रुख अपनाएँ और कहें, “उन्हें अब सभाओं में नहीं आने देना चाहिए।” क्या खुशामदी इंसान होना अच्छा है? (नहीं, यह अच्छा नहीं है।) ऐसी स्थितियों से सामना होने पर क्या ज्यादातर लोग उन बुरे लोगों से भिड़ने के बजाय इन मामलों से बचना और दूर रहना पसंद नहीं करते, ताकि वे उन्हें अपमानित करने से बच सकें और बाद में उन्हें उनके साथ बातचीत करना असहज न लगे? क्या ज्यादातर लोग खुशामदी इंसान होने के सांसारिक आचरण के सिद्धांत का पालन नहीं करते? (हाँ, करते हैं।) तो यह एक समस्या है। मान लो किसी कलीसिया में अस्सी प्रतिशत लोग खुशामदी इंसान हैं और जब वे ऐसे बुरे व्यक्तियों को कलीसियाई जीवन में अगुआओं जैसी हैसियत, श्रेष्ठता और पदों के लिए होड़ करते देखते हैं तो कोई भी उन्हें रोकने या प्रतिबंधित करने के लिए खड़ा नहीं होता, बहुमत का दृष्टिकोण होता है : “परेशानी जितनी कम हो उतना अच्छा है। मैं उन्हें भड़काने का जोखिम नहीं उठा सकता, इसलिए क्या मैं उनसे बच नहीं सकता? मैं उनसे दूर ही रहूँगा और बस बात खत्म हो जाएगी। उन्हें होड़ करने दो; जब समय आएगा, परमेश्वर उन्हें दंड देगा। इसका मुझसे क्या लेना-देना है!” इन परिस्थितियों में क्या कलीसियाई जीवन अभी भी फलदायी हो सकता है? ज्यादातर लोग आलसी और आश्रित हैं; जब कलीसिया के अगुआ चुन लिए जाते हैं तो वे अपना काम पूरा हुआ मान लेते हैं और बस कलीसिया के अगुआओं द्वारा सब-कुछ किए जाने का इंतजार करते हैं। अगर तुम उनसे पूछते हो कि क्या उनकी कलीसिया में परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें वितरित कर दी गई हैं, क्या कलीसियाई जीवन में कोई विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न हुई हैं या क्या कोई हमेशा शब्द और धर्म-सिद्धांत झाड़ता है या हैसियत के लिए अगुआओं से होड़ करता है, तो वे कहते हैं, “इन सब चीजों के बारे में कलीसिया के अगुआ जानते हैं। मैं उनके बारे में नहीं जानता और मुझे उनके बारे में परेशान होने की जरूरत नहीं है। जब समय आएगा तो अगुआ उन पर ध्यान देंगे।” वे किसी भी चीज के बारे में चिंता या पूछताछ नहीं करते, उन्हें किसी भी चीज के बारे में जानकारी नहीं होती और वे कलीसियाई जीवन में शामिल किसी भी ऐसे व्यक्ति, घटना या चीज के बारे में न तो जानते हैं और न ही उसकी परवाह करते हैं, जिसके बारे में उन्हें जानना चाहिए। जब बात यह आती है कि कलीसिया में आने वाले ये बुरे लोग हैसियत के लिए होड़ करते समय क्या कहते हैं और क्या करते हैं, साथ ही कलीसियाई जीवन में वे क्या व्यवधान और प्रभाव डालते हैं तो वे इसके प्रति पूरी तरह से उदासीन होते हैं और इन चीजों के बारे में जाँच-पड़ताल या पूछताछ नहीं करते। यह सब खत्म होने के बाद अगर तुम उनसे पूछते हो कि क्या उन्होंने कोई समझ हासिल की है, क्या वे बुरे लोगों और उनकी अभिव्यक्तियों को पहचान सकते हैं तो वे इसके अलावा कुछ नहीं कह सकते, “कलीसिया के अगुआओं से पूछो; वे सब-कुछ जानते हैं।” क्या ऐसा व्यक्ति गुलाम नहीं है? वह गुलाम, कायर और बेकार है और अधम जीवन जी रहा है। जिन स्थितियों में बुरे लोग हैसियत के लिए होड़ करते है, उनके लिए विवेक, सार-सँभाल और समाधान की आवश्यकता होती है। यह सिर्फ कलीसिया के अगुआओं की जिम्मेदारी नहीं है; यह परमेश्वर के चुने हुए तमाम लोगों की भी जिम्मेदारी है। ज्यादातर अगुआ औसत व्यक्ति की तुलना में कुछ ज्यादा सत्य समझते हैं, इन मुद्दों के प्रति सतर्क रहते हैं और इन लोगों के क्रियाकलापों के उद्देश्य और उनका सार देख सकते हैं। साथ ही, ज्यादातर लोगों को व्यावहारिक रूप से सबक सीखने चाहिए और उनका विवेक बढ़ना चाहिए, और उन्हें कलीसिया में उन लोगों के साथ मिलकर एकजुट होना चाहिए जिनमें न्याय की भावना है और जो सत्य समझते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, ताकि कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करने वाले इन बुरे व्यक्तियों के खिलाफ उचित कार्रवाई कर सकें। बिना कुछ किए इंतजार करते रहने और सिर्फ थोड़ी-बहुत संगति सुनने, अपना दायरे का थोड़ा विस्तार करने और इन समस्याओं का सामना करते समय अपने दिल में इस मामले के बारे में कुछ जागरूकता रखने और फिर अपना कार्य हो गया, ऐसा समझने के बजाय उन्हें ऐसे लोगों को अलग-थलग कर देना चाहिए या हटा देना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि कलीसियाई जीवन सिर्फ कलीसिया के अगुआओं से ही संबंधित नहीं है और अच्छा कलीसियाई जीवन जीना और कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यस्था बनाए रखना सिर्फ कलीसिया के अगुआओं की जिम्मेदारी नहीं है—इसे बनाए रखने के लिए सभी के सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है।
जो लोग हैसियत के लिए होड़ करते हैं—पाँचवें मुद्दे में वर्णित प्रकार के लोग—कलीसियाई जीवन में अक्सर दिखाई देते हैं। उनकी सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति कलीसिया के अगुआओं के साथ हैसियत के लिए होड़ करना और उसके बाद उन लोगों के साथ हैसियत के लिए होड़ करना है जो अच्छी काबिलियत रखते हैं और सापेक्ष शुद्धता के साथ सत्य समझते हैं, जिनमें आध्यात्मिक समझ होती है और जो भाई-बहनों के बीच सत्य सिद्धांतों को समझते हैं और जो अक्सर इन व्यक्तियों को चुनौती देते हैं। ये लोग अक्सर कलीसियाई जीवन में कुछ शुद्ध समझ और प्रकाश पर संगति करते हैं, कुछ व्यक्तिगत अनुभव साझा करते हैं जो मूल्यवान होते हैं और व्यावहारिक समझ देते हैं; इससे भाई-बहनों को बहुत मदद और शिक्षा मिलती है। उनकी संगति सुनने के बाद भाई-बहनों के पास एक मार्ग होता है, वे जानते हैं कि परमेश्वर के वचन का अभ्यास और अनुभव कैसे करें और अपनी समस्याएँ कैसे हल करें। वे परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए बहुत आभार महसूस करते हैं और साथ ही उन लोगों की प्रशंसा और सम्मान करते हैं जिनके पास सत्य की शुद्ध समझ और व्यावहारिक अनुभव होते हैं। इस प्रकार वे इन व्यक्तियों को बहुत सम्मान देते हैं और उनके करीब आ जाते हैं। कलीसियाई जीवन में परमेश्वर को प्रसन्न करने वाली इन सकारात्मक चीजों का उभरना हैसियत के लिए होड़ करने वाले लोग सबसे कम देखना चाहते हैं। जब भी वे किसी को व्यावहारिक अनुभवों पर संगति करते हुए देखते हैं तो असहज और ईर्ष्यालु और खास तौर से बेढंगे हो जाते हैं। अपने बेढंगेपन में वे अवज्ञा, तिरस्कार और असंतोष का व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, अक्सर अपने दिलों में गणना करते हैं कि व्यावहारिक अनुभव रखने वाले और सत्य समझने वाले लोगों को कैसे मूर्ख दिखाया जाए, साथ ही भाई-बहनों को उनकी खामियाँ और कमियाँ कैसे दिखाई जाएँ ताकि वे उन्हें बहुत सम्मान न दें या उनके करीब न जाएँ। इसलिए हैसियत के लिए होड़ करने वाले लोग कुछ बातें कहने और कुछ क्रियाकलाप करने के लिए बाध्य होते हैं। वे उन लोगों पर हमला कर उन्हें बाहर कर देते हैं जो अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा करते हैं और जिनकी सत्य पर लगातार संगति भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में पोषण और सहायता प्रदान करती है। वे अक्सर सकारात्मक चरित्रों का गलत फायदा उठाकर उनकी कमियाँ उजागर करते हैं, जिसका उद्देश्य परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उन सभी से दूर करना होता है जो अक्सर सत्य पर संगति करते हैं और अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा करते हैं। संक्षेप में, हैसियत के लिए होड़ करने वाले लोग नकारात्मक चरित्र होते हैं जो कलीसिया में घुसपैठ कर शैतान के चाकरों की भूमिका निभाते हैं।
परमेश्वर में विश्वास करने से पहले अपने अंतरंग संबंधों में गलतियाँ कर देने वाली एक बहन ने विश्वासी बनने के बाद पश्चात्ताप किया और फिर कभी ऐसी गलतियाँ नहीं कीं। उसे अपने पिछले अपराधों के बारे में खास तौर से पछतावा हुआ और इस प्रकार उसने भाई-बहनों के साथ खुलकर संगति की। खुलकर संगति करने का क्या उद्देश्य और सिद्धांत होता है? यह आपसी समझ को बढ़ावा देना और भाई-बहनों के बीच आंतरिक बाधाएँ खत्म करना होता है। ज्यादातर भाई-बहन सत्य समझने के बाद अपनी भ्रष्टता के खुलासों और पिछले अपराधों के बारे में खुलकर संगति कर सकते हैं और साथ ही परमेश्वर के उद्धार के लिए आभार और प्रशंसा भी व्यक्त कर सकते हैं। क्या इस तरह खुलकर संगति करना उचित है? (हाँ।) सत्य समझने के बाद ज्यादातर भाई-बहन इस तरह खुलकर संगति कर पाते हैं; क्या यह कोई समस्या है? (नहीं।) परमेश्वर में विश्वास करने से पहले अपने अंतरंग संबंधों या अन्य मामलों में कुछ गलतियाँ करना लोगों के लिए बहुत सामान्य बात है। कुछ लोग इन गलतियों के बारे में बोल सकते हैं, जबकि कुछ लोग खुद को छिपाते और छद्मवेश धारण करते हैं और चाहे दूसरे लोग खुलकर खुद को उजागर करने का कितना भी अभ्यास क्यों न करें, वे खुद कुछ नहीं कहते। वे मानते हैं कि ये गलतियाँ उनके वे शर्मनाक रहस्य हैं जिनके बारे में वे किसी को नहीं बता सकते, वरना उनकी प्रतिष्ठा, इज्जत और नेकनामी हवा हो जाएगी। लेकिन कुछ लोग चीजों को अलग तरह से समझते हैं; वे मानते हैं कि चूँकि वे परमेश्वर में विश्वास करने लगे हैं और उन्होंने परमेश्वर का उद्धार स्वीकार कर लिया है, इसलिए उन्हें अब अपने पिछले गलत कामों और स्वयं द्वारा अपनाए गए गलत मार्गों के बारे में खुलकर संगति करनी चाहिए और उन्हें विश्लेषण के लिए प्रस्तुत करना चाहिए और ये सिर्फ ऐसी चीजें हैं जिनसे वे शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए इंसानों के रूप में गुजरे हैं। अब वे खुलकर बात करने, खुद को उजागर करने और संगति करने में सक्षम हैं। चाहे अतीत का सारांश देना हो या उसे समाप्त करना हो, यह तथ्य कि ये लोग ऐसा कर सकते हैं, यह साबित करता है कि सत्य का अभ्यास करने के प्रति उनका क्या रवैया है : वे सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार हैं और उनमें इसका अभ्यास करने का संकल्प है। व्यक्ति वास्तव में किस तरह से अभ्यास करता है, यह उसकी समझ और संकल्प पर निर्भर करता है। लेकिन खुलकर बात करना और खुद को उजागर करना निश्चित रूप से कोई गलती नहीं है, पाप तो बिल्कुल नहीं है। इसका इस्तेमाल किसी के खिलाफ फायदा उठाने के लिए नहीं करना चाहिए और इसे वह सबूत तो बिल्कुल नहीं बनाना चाहिए, जिसे कोई दूसरा व्यक्ति उस पर हमला करने के लिए इस्तेमाल करे। ज्यादातर लोग इस मामले को सही तरीके से ले सकते हैं, यानी उनकी समझ शुद्ध और सत्य सिद्धांतों के अनुसार होती है। लेकिन बुरे व्यक्ति गलत इरादे रखते हैं; वे लोगों का मजाक उड़ाने, उनके साथ खिलवाड़ करने और उनकी आलोचना करने के लिए उनसे संबंधित चीजों का इस्तेमाल करने पर जोर देते हैं। ऐसे दुष्कर्म बिलकुल स्पष्ट होते हैं। जो लोग खुद को उजागर करने, अपने बारे में खुलकर बोलने और अपनी भ्रष्टता और स्वयं द्वारा अपनाए गए गलत मार्गों पर संगति करने में सक्षम होते हैं, वे सत्य और परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने नजरिये में धार्मिकता के लिए भूखे और प्यासे दिल रखते हैं। नतीजतन, जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो अनजाने ही कुछ व्यावहारिक समझ और अंतर्दृष्टियाँ प्राप्त कर लेते हैं। ये व्यावहारिक समझ और अंतर्दृष्टियाँ उन्हें अपने जीवन में आने वाली कठिनाइयों और असंख्य स्थितियों का सामना करने के लिए अभ्यास करने का मार्ग खोजने में मदद करती हैं, जिससे उन्हें सत्य की कुछ वास्तविक अनुभवजन्य समझ प्राप्त होती है। इन वास्तविक अनुभवजन्य समझ के बारे में संगति करना दूसरों के लिए शिक्षाप्रद और मददगार होता है; भाई-बहन इन व्यक्तियों को प्रशंसा और सम्मान से देखेंगे और कहेंगे, “तुम्हारे व्यावहारिक अनुभव वास्तव में अद्भुत हैं। उनके बारे में सुनने के बाद मैं गहराई से सहानुभूति रख सकता हूँ। मैं देखता हूँ कि तुम्हारा अभ्यास करने का तरीका सही है और उसे परमेश्वर का आशीष प्राप्त है। मैं भी अपनी धारणाएँ और पूर्वाग्रह छोड़ने और अपनी बाधाएँ हटाने के लिए तैयार हूँ; मैं तुम्हारी तरह एक सरल तरीके से सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर से प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहता हूँ। यही सही मार्ग है।” क्या ये अभिव्यक्तियाँ बिल्कुल सामान्य नहीं हैं? क्या भाई-बहनों के बीच ऐसा संबंध बनना बहुत सही नहीं है? यह एक तरह का अंतर्वैयक्तिक संबंध है जो उन लोगों के बीच पाए जाने वाले संबंध से भिन्न है जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते; यह ऐसा संबंध है जिसकी परमेश्वर अनुमति देता है और जिसे वह देखना चाहता है। जब भाई-बहनों के बीच ऐसा सामान्य संबंध मौजूद होता है, तभी कलीसियाई जीवन सामान्य हो सकता है। लेकिन कुछ बुरे या दुर्भावनापूर्ण इरादे वाले लोग हमेशा होंगे, जो व्यावहारिक अनुभव रखने वाले, धार्मिकता के लिए प्यासे और भूखे, और अनुभवी लोगों की प्रशंसा और सम्मान करने वाले लोगों पर हमला करने, उन्हें बदनाम और बहिष्कृत करने के लिए खड़े होते हैं। वे इन व्यक्तियों पर हमला क्यों करते हैं? उनका उद्देश्य कलीसिया के भीतर एक निश्चित हैसियत के लिए होड़ करने के अलावा और कुछ नहीं होता। चूँकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते और न ही सत्य का अनुसरण करते हैं, इसलिए वे सभी को गुमराह करने और उनसे उच्च सम्मान प्राप्त करने के लिए नकली अनुभव गढ़कर सत्य का अनुसरण करने वाले होने का दिखावा करते हैं। यह वाँछित हैसियत और शक्ति प्राप्त करने के लिए लोगों को गुमराह और नियंत्रित करने के शैतान के तरीकों का उपयोग करना है। ऐसी घटनाएँ हर जगह कलीसियाओं में अक्सर होती हैं और सभी को दिखाई देती हैं। अगर तुम लोग यह पाते हो कि कुछ भाई-बहनों में सत्य वास्तविकता है, वे सभाओं में परमेश्वर के वचनों की वास्तविक अनुभवजन्य समझ पर संगति कर सकते हैं और उन्होंने बहुत-से लोगों की प्रशंसा प्राप्त की है, फिर भी किसी कारण से उन पर हमला किया जाता है, उनसे बदला लिया जाता है और कुछ लोगों द्वारा उन्हें पीड़ित किया जाता है, तो तुम लोगों को सतर्क हो जाना चाहिए और पहचानना चाहिए कि किस तरह के लोग इस व्यवहार में शामिल हैं। सत्य का अनुसरण करने वालों पर अक्सर हमला कर उन्हें बहिष्कृत क्यों किया जाता है? यहाँ असल में चल क्या रहा है? यह निश्चित रूप से समस्या की तरफ इशारा करता है।
कलीसियाई जीवन में उन लोगों पर कड़ी नजर रखनी चाहिए जो अक्सर अगुआओं और कार्यकर्ताओं की गलतियाँ निकालते रहते हैं। इसके अलावा, कुछ लोग अक्सर उन लोगों का उपहास करते हैं, उनका मजाक उड़ाते हैं या उन पर आक्रमण करते हैं जो अपेक्षाकृत सत्य का अनुसरण करते हैं और परमेश्वर के वचनों के लिए लालायित रहते हैं। इन नकारात्मक चरित्रों पर भी बारीकी से नजर रखनी चाहिए और देखना चाहिए कि उनकी अगली हरकतें क्या होंगी। अगर कोई व्यक्ति कलीसिया के अगुआओं की कमियाँ उजागर कर सकता है या कलीसियाई जीवन में भाग लेते हुए, बिना किसी उचित कारण के उन लोगों पर आक्रमण कर सकता है जिनमें सत्य वास्तविकता है तो निश्चित रूप से कोई समस्या है और इसके पीछे अवश्य ही कोई कारण है; यह निश्चित रूप से अकारण नहीं होता। भाई-बहनों को ऐसे व्यक्तियों पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए क्योंकि यह कोई छोटी बात नहीं है। कभी-कभी बस व्यावहारिक अनुभव की गवाही सुनने और अपने दिल में पूर्ण आनंद महसूस करने के बाद या बस थोड़ा-सा प्रकाश और समझ प्राप्त करने के बाद व्यक्ति बुरे लोगों द्वारा बोले गए कुछ भ्रामक शब्दों से भ्रमित हो सकता है और इस तरह वह सब खो सकता है जो उसने अभी-अभी प्राप्त किया था। जब कोई व्यक्ति थोड़ी-सी आस्था बनाना शुरू ही करता है, तभी वह बुरे लोगों द्वारापरेशान किए जाने से अपनी मूल स्थिति में लौट जाता है; जब वह सत्य और परमेश्वर के वचन के लिए थोड़ी प्यास और साथ ही सत्य का अभ्यास करने का थोड़ा संकल्प पैदा करना शुरू ही करता है, तभी वह बुरे लोगों द्वारा परेशान किए जाने से अपनी हिम्मत और प्रेरणा खो देता है और फिर झगड़े के इस स्थान को जल्दी से छोड़कर चला जाना चाहता है। क्या ये परिणाम गंभीर हैं? ये बहुत गंभीर हैं। इसलिए कलीसिया में अगर कोई ऐसा व्यक्ति है जो हमेशा किसी ऐसी चीज पर विवाद शुरू कर देता है जो उसकी इच्छाओं के अनुरूप नहीं होती, इस बात पर बहस करता है कि कौन सही है, सही और गलत पर बहस करता है, यहाँ तक कि इस बात पर भी झगड़ता है कि कौन श्रेष्ठ है और कौन तुच्छ, तो ऐसा व्यक्ति कलीसिया के लिए खतरे की घंटी होना चाहिए। देखो कि वह कलीसिया में क्या भूमिका निभाता है, क्या नतीजे लाता है और इसके जरिये तुम देख सकते हो कि उसका प्रकृति सार क्या है।
कलीसियाई जीवन में हैसियत के लिए होड़ करने की एक और तरह की अभिव्यक्ति होती है जिसमें कलीसियाई जीवन और कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा पैदा करना शामिल होता है। उदाहरण के लिए, कभी-कभी जब भाई-बहन एक-साथ किसी समस्या पर संगति कर रहे होते हैं तो हर किसी की संगति में कुछ प्रकाश होता है; जितना ज्यादा वे संगति करते हैं, सत्य सिद्धांत उतने ही ज्यादा स्पष्ट और सुबोध होते जाते हैं और अभ्यास का मार्ग जल्दी समझ में आ जाता है। लेकिन कोई अचानक एक “उत्कृष्ट विचार”, अपना कोई सुझाव पेश कर सकता है, जिससे संगति का प्रवाह टूट जाता है और विषय बदल चला जाता है और मुख्य विषय की संगति अधूरी रह जाती है। ऊपर से ऐसा नहीं लगता कि वह कोई व्यवधान पैदा कर रहा है और ऐसा तो बिल्कुल नहीं लगता कि वह दूसरों को सत्य पर संगति करने से रोक रहा है, लेकिन वह इस विषय को पेश करने के लिए उचित समय नहीं चुनता। जब कोई समस्या हल करने के लिए सत्य पर संगति की जा रही हो तो किसी नाजुक क्षण में संगति और चर्चा के लिए एक नया मुद्दा रख देने से पिछला मुद्दा पूरी तरह से हल होने से पहले ही कट जाता है। क्या यह कार्य बीच में ही छोड़ देना नहीं है? क्या इससे समस्या के समाधान में देरी नहीं होती? न केवल समस्या का समाधान नहीं होता, बल्कि लोगों को सत्य समझने में देरी भी होती है। क्या विवेकशील लोग ऐसा कर सकते हैं? क्या यह कहना ज्यादती होगी कि ऐसी चीजें कलीसियाई जीवन में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करती हैं? मुझे बिलकुल नहीं लगता कि यह ज्यादती है। कोई समस्या हल करने के लिए सत्य की संगति करती सभा में गड़बड़ी पैदा करना—क्या यह कलीसियाई जीवन में जानबूझकर व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करना नहीं है? कोई समस्या हल करने के लिए सत्य की संगति किए जाते समय नाजुक क्षणों में अगर कोई हमेशा अपनी टाँग अड़ाता है, अगर वह हमेशा लोगों को बोलने से बीच में ही रोकने की कोशिश करता है, तो यह विवेक न होने की समस्या नहीं है; यह कोई समस्या हल करने के लिए सत्य की संगति करती सभा में जानबूझकर गड़बड़ी पैदा करना है, यह कलीसियाई जीवन में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करने का दुष्कर्म है, और कुछ नहीं—केवल मसीह-विरोधी और बुरे लोग ही ऐसा करते हैं, केवल सत्य से घृणा करने वाले लोग ही ऐसा करते हैं। संदर्भ या परिस्थितियाँ कुछ भी हों, इस तरह के लोगों को हमेशा अपने “उत्कृष्ट विचारों” के साथ सामने आना होता है, वे हमेशा चाहते हैं कि सबकी नज़रें उन पर हों, वे ध्यान का केंद्र बनें। लोग चाहे कितने भी नाजुक और महत्वपूर्ण विषय पर संगति कर रहे हों, उन्हें लोगों का ध्यान भटकाने और भव्य लगने वाले विचार झाड़ने के लिए और अद्वितीय दिखने की इच्छा से हमेशा अपनी टाँग अड़ानी होती है। आखिर वे किस तरह का करतब दिखाने की कोशिश करतेहैं? क्या वे हैसियत के लिए होड़ नहीं करते? वे स्थिति नियंत्रित करना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि लोगों को सत्य की अधिक समझ और अधिक स्पष्टता मिले; वे सबसे ज्यादा इस बात की परवाह करते हैं कि हर कोई उन पर ध्यान दे, उनकी बात सुने और उनका आज्ञापालन करे और हर कोई उनके कहे अनुसार करे। यह स्पष्ट रूप से हैसियत के लिए होड़ करना है। कुछ लोग चाहे कोई भी काम क्यों न करते हों, जब तुम उनसे किसी चीज को कार्यान्वित करने के लिए विशिष्ट विचारों और योजनाओं के बारे में संगति करने के लिए कहते हो और उन्हें विस्तार से लागू करने के विशिष्ट चरणों के बारे में पूछते हो, तो वे कुछ नहीं बता पाते। फिर भी वे भव्य लगने वाले विचार झाडने, रूढ़िमुक्त दिखने और कुछ नया और चकाचौंध करने वाला काम करने के शौकीन होते हैं। चाहे वर्तमान परिस्थिति कैसी भी क्यों न हो, जैसे ही कोई नया विचार उनके दिमाग में आता है, वे उसे ऐसे पेश करते हैं मानो उससे प्रेरित हों, और बिना सोचे-समझे, उसे स्वीकार करने और उससे सहमत होने के लिए जल्दी से दूसरों के समक्ष पेश कर देते हैं। लेकिन जब उनसे अंततः अभ्यास के लिए विशिष्ट मार्गों पर चर्चा करने के लिए कहा जाता है तो वे अवाक रह जाते हैं। उनमें योग्यता की कमी होती है, लेकिन फिर भी वे दिखावा करना चाहते हैं, हमेशा दिखते रहने का लक्ष्य रखते हैं। वे दोयम दर्जे की भूमिका निभाने के लिए तैयार नहीं होते; वे अन्य लोगों की तरह सिर्फ एक साधारण अनुयायी नहीं बनना चाहते। उन्हें हमेशा डर लगा रहता है कि दूसरे उनका अनादर करेंगे और वे हमेशा अपनी मौजूदगी का एहसास कराना चाहते हैं। इसलिए वे हमेशा दिखते रहने के लिए भव्य लगने वाले विचार झाड़ते रहते हैं। हमेशा ऐसा करने का क्या मतलब है? जब कोई विचार उनके दिमाग में आता है तो वे बिना सोचे-समझे या विचार के परिपक्व होने से पहले ही उसे आँख मूँदकर अच्छा और अभ्यास करने योग्य मान लेते हैं। जब वे जल्दबाजी में इस विचार को प्रस्तुत करते हैं तो दूसरे लोग इसे समझ नहीं पाते और स्वाभाविक रूप से कुछ सवाल उठाते हैं। जवाब देने में असमर्थ होने के बावजूद वे इस बात पर जोर देते हैं कि उनका मत सही है और सभी को उसे स्वीकारना चाहिए। यह किस तरह का स्वभाव है? अपने विचारों पर उनके निराधार अड़े रहने के क्या परिणाम होंगे? यह कलीसिया के कार्य के लिए फायदेमंद है या गड़बड़ी पैदा करने वाला? यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए फायदेमंद है या नुकसानदेह? वे इसे बिना किसी जिम्मेदारी की भावना के कह पाते हैं—उनका उद्देश्य क्या होता है? उनका उद्देश्य सिर्फ अपनी मौजूदगी का एहसास कराना होता है। वे डरते हैं कि दूसरे लोग यह नहीं जान पाएँगे कि उनके पास ऐसे “उत्कृष्ट विचार” हैं, वे नहीं जान पाएँगे कि उनके पास काबिलियत, बुद्धिमत्ता और योग्यताएँ हैं; वे इस मान्यता के लिए प्रयास करते हैं ताकि ज्यादातर लोग उन्हें अत्यधिक सम्मान दें। अंत में क्या होता है? वे जल्दबाजी में सुझाव देते हैं और दूसरे लोग शुरू में सोचते हैं कि उनके पास वाकई कुछ योग्यताएँ हैं, कुछ वास्तविक है। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है, यह स्पष्ट होता जाता है कि वे सिर्फ मूर्ख हैं, उनके पास वास्तविक ज्ञान या कौशल नहीं है, फिर भी वे हमेशा अपनी चलाना चाहते हैं। यह हैसियत के लिए होड़ करना है। वास्तविक योग्यता न होने पर भी वे खुद फैसले करना चाहते हैं; वे हमेशा बिना किसी ठोस योजना के भव्य लगने वाले विचार झाड़ते रहते हैं और उनके पास अभ्यास का कोई विशिष्ट मार्ग नहीं होता। अगर ऐसे लोगों को वास्तव में कार्य सौंपे जाएँ तो क्या परिणाम होंगे? इससे निश्चित रूप से देरी होगी। जब वे कुछ नहीं कर सकते तो हमेशा हैसियत के लिए होड़ क्यों करते हैं, सत्ता क्यों पाना चाहते हैं? वे सिर्फ मूर्ख होते हैं, जिनमें बुद्धि नहीं होती; ज्यादा सुरुचिपूर्ण शब्दों में कहें तो उनमें विवेक बिल्कुल नहीं होता। गैर-विश्वासियों में ऐसे बहुत सारे लोग होते हैं जो सिर्फ बातें करते हैं, कोई काम नहीं करते। ज्यादातर लोग इस तरह के व्यक्ति की थोड़ी-बहुत पहचान कर सकते हैं। अगर कोई हमेशा भव्य लगने वाले विचार झाडता रहता है और नवोन्वेषी दिखना चाहता है तो उससे सावधान रहना चाहिए ताकि उसके झाँसे में न आ जाओ। अगर वाकई कोई ऐसा व्यक्ति है जिसके पास गहरी अंतर्दृष्टि वाले विचार हैं और जो ठोस योजना भी पेश कर सकता है तो यह तभी स्वीकार्य है जब इसका कार्यान्वयन संभव हो; अगर वह ठोस योजनाएँ पेश किए बिना सिर्फ भव्य लगने वाले विचार ही झाड़ता रहता है तो उसके साथ सावधानी से पेश आना चाहिए। यह निर्धारित करने के लिए संगति करनी चाहिए कि उसके विचारों के लिए कोई व्यवहार्य मार्ग है या नहीं। अगर बहुमत को लगता है कि उसका विचार का कार्यान्वयन संभव है और उसके पास अभ्यास का मार्ग है तो निर्णय लेने से पहले यह देखने के लिए उसे कुछ समय तक आजमाना चाहिए कि नतीजे कैसे होते हैं।
चाहे कलीसिया सत्य के किसी भी पहलू के बारे में संगति करती हो या वह किसी भी समस्या का समाधान करती हो, तमाम तरह के लोग सामने आएँगे। लंबे समय तक मिलने-जुलने के बाद व्यक्ति यह देख सकता है कि कौन वास्तव में सत्य से प्रेम कर उसे स्वीकार सकता है और कौन ऐसे हैं जो उचित कार्यों पर ध्यान न देकर विघ्न-बाधा पैदा करते हैं। क्या तुम लोगों को लगता है कि जो लोग भव्य लगने वाले विचार झाड़ना पसंद करते हैं और नए विचार प्रस्तुत करते हैं, वे सत्य स्वीकार सकते हैं और परमेश्वर में विश्वास करने के सही मार्ग पर चल सकते हैं? मुझे लगता है कि उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं है। ये लोग कलीसियाई जीवन में क्या भूमिका निभाते हैं? उनके द्वारा अक्सर भव्य लगने वाले विचार झाड़ने और उचित कार्यों पर ध्यान न देने के क्या परिणाम होते हैं? जैसा कि ज्यादातर लोग देख सकते हैं इससे कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ पैदा होती हैं और अगर यह जारी रहता है तो इससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सत्य का अनुसरण करने और वास्तविकता में प्रवेश करने में देरी होगी। हालाँकि जो लोग भव्य लगने वाले विचार झाड़ना पसंद करते हैं वे जरूरी नहीं कि बुरे लोग हों, लेकिन उनके क्रियाकलापों के परिणाम परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए बहुत हानिकारक होते हैं और साथ ही उनके क्रियाकलाप कलीसिया के कार्य में भी देरी कर उसे प्रभावित करते हैं। तो इस समस्या का समाधान कैसे करना चाहिए? जो लोग भव्य लगने वाले विचार झाड़ना और नए विचार प्रस्तुत करना पसंद करते हैं, उनसे उचित तरीके से कैसे निपटा जाए? पहला तरीका यह है : अगर वे भव्य लगने वाले विचार झाड़ना पसंद करते हैं और हमेशा अलग राय रखते हैं तो उन्हें पहले बोलने दो और फिर विवेक का प्रयोग करो। हर कोई बोलने और राय व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र है चाहे वह कोई भी हो; किसी को भी इस पर प्रतिबंध नहीं लगाना चाहिए। जिस किसी के पास वास्तव में विचार और बुद्धिमत्तापूर्ण अंतर्दृष्टियाँ हों, उसे बोलने और उन्हें स्पष्ट करने देना चाहिए ताकि सभी देख लें और फिर संगति और चर्चा करके यह देखना चाहिए कि क्या वे सही हैं, क्या वे सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं और क्या उनमें कोई ऐसा हिस्सा है जिसे अपनाया जा सकता है। अगर वे सीखने लायक हों और उनसे कुछ लाभ उठाया जा सकता हो तो अच्छा है; अगर संगति और चर्चा के बाद यह तय हो कि उसके कहने का कोई मूल्य नहीं है और वह उचित नहीं है तो उसे छोड़ देना चाहिए। इस तरह से अभ्यास करने से हर किसी की समझ बढ़ेगी; जब भी कोई बात सामने आएगी तो वे सभी जान पाएँगे कि इस मामले पर कैसे विचार करना है और वे विभिन्न लोगों को बेहतर ढंग से समझ पाएँगे। ऐसा अभ्यास परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए लाभदायक है और इससे कलीसिया के कार्य में व्यवधान नहीं आएगा; अभ्यास का यह तरीका सही है। दूसरा तरीका यह है : जब कही गई बात का कोई मूल्य न हो और उस पर संगति और चर्चा करने पर भी उससे कोई लाभ प्राप्त न हो तो ऐसे सुझाव सीधे खारिज कर देने चाहिए और कोई संगति या चर्चा करने की जरूरत नहीं है। अगर कोई व्यक्ति ऐसे बेकार के मुद्दे और “उत्कृष्ट विचार” उठाता रहे, जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोग तंग आ जाएँ और उसकी बात सुनने को तैयार न हों तो क्या ऐसे व्यक्ति पर प्रतिबंध नहीं लगाया जाना चाहिए? उन्हें ज्यादा विवेक दिखाने और ऐसी बातें कहने से बचने की सलाह देना सबसे अच्छा होगा जो नहीं कही जानी चाहिए, ताकि दूसरों को प्रभावित होने से बचाया जा सके। अगर इस व्यक्ति में विवेक की कमी हो और वह इसी तरह से करते रहने पर अड़ा रहे जिससे कलीसियाई जीवन में विघ्न पैदा हो जाए और सभी को विशेष रूप से परेशान करे, यहाँ तक कि उन्हें क्रोधित कर दे तो वह एक बुरा व्यक्ति है जो कलीसियाई जीवन में विघ्न पैदा करता है। कलीसिया की सफाई करने के लिए उससे परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुसार निपटना चाहिए—उसे कलीसिया से बाहर निकाल दो; यही उचित है। मुझे बताओ, भव्य लगने वाले विचार झाड़ना पसंद करने वाले ज्यादातर लोग किस तरह के होते हैं? क्या वे उस तरह के होते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं? क्या वे ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं? यकीनन नहीं। तो फिर कलीसियाई जीवन में इस तरह के विघ्न पैदा करने के पीछे उनका क्या उद्देश्य और इरादा होता है? इसके लिए विवेक की जरूरत होती है। अगर हर किसी को पहले से ही ऐसे लोगों के बारे में पर्याप्त समझ हो, वे जानते हों कि उनमें बुद्धि, काबिलियत और विवेक की कमी है—कि वे बस मूर्ख हैं—तो उनके द्वारा अपने “उत्कृष्ट विचार” व्यक्त करने पर उनसे निपटने का सबसे उचित तरीका है उन्हें रोकना और प्रतिबंधित करना और उन्हें चुप कराना। अगर वे बोलने और कलीसियाई जीवन में विघ्न पैदा करने पर अड़े रहते हैं तो भावी परेशानियाँ रोकने के लिए उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “क्या यह उन्हें बचाए जाने के उनके अवसर बर्बाद करना नहीं है?” यह कहना गलत है। क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को बचा सकता है? क्या ऐसे स्वभावों वाले लोग सत्य स्वीकार सकते हैं? क्या वे सत्य बिल्कुल भी स्वीकारे बिना उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? क्या ऐसे मामलों की असलियत नहीं जान पाना बेहद मूर्खतापूर्ण और अज्ञानतापूर्ण नहीं है? बहरहाल, जो लोग अक्सर कलीसियाई जीवन में विघ्न डालते हैं, वे बुरे लोग होते हैं और परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता। क्या किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसे परमेश्वर नहीं बचाता, कलीसिया में रखना परमेश्वर के चुने हुए लोगों को जानबूझकर नुकसान पहुँचाना नहीं है? क्या कोई ऐसा व्यक्ति जो ऐसे बुरे लोगों पर दया करता है, वास्तव में प्रेमपूर्ण है? मुझे नहीं लगता; उनका प्रेम झूठा है। सच यह है कि वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाने का इरादा रखता है। इसलिए परमेश्वर के चुने हुए लोगों को ऐसे किसी भी व्यक्ति से सावधान रहना चाहिए जो बुरे लोगों का बचाव करता है, उन्हें उसकी शैतानी बातों से गुमराह नहीं होना चाहिए। हालाँकि कुछ लोग जो भव्य लगने वाले विचार झाड़ना पसंद करते हैं, बुरे लोगों जैसे नहीं लगते और जाहिर तौर पर बुरी हरकतें नहीं करते, फिर भी वे हमेशा अपने भव्य लगने वाले विचार झाड़कर कलीसियाई जीवन में विघ्न डाल सकते हैं; कम से कम, ये लोग भ्रमित होते हैं। तुम लोगों को क्या लगता है, क्या भ्रमित लोग बचाए जा सकते हैं? निश्चित रूप से नहीं। अगर भ्रमित लोग लगातार कलीसियाई जीवन में विघ्न डालते हैं तो उन्हें भी कलीसिया से निकाल देना चाहिए। भ्रमित लोग सत्य नहीं स्वीकारते, वे सुधरते नहीं और पश्चात्ताप नहीं करते और उनका अंत बुरे लोगों जैसा ही होता है। वे बुरे हों या भ्रमित, अगर वे अक्सर कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधा पैदा करते हैं, सलाह पर ध्यान नहीं देते और बिना ब्रेक वाली कार की तरह बेकाबू होकर बोलते हैं तो क्या यह असामान्य विवेक का संकेत नहीं है? अगर ऐसे भ्रमित लोग लंबे समय तक इसी तरह से कलीसिया में विघ्न डालते रहे तो इसके क्या परिणाम होंगे? इसके अलावा, क्या वे वास्तव में पश्चात्ताप कर सकते हैं? क्या परमेश्वर ऐसे असामान्य विवेक वाले भ्रमित लोगों को बचाता है? जब ये सवाल अच्छी तरह से समझ लिए जाते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे व्यक्तियों से कैसे ठीक से निपटना है। भ्रमित लोग निश्चित रूप से सत्य से प्रेम नहीं करते और सत्य उनकी पहुँच से परे होता है। भ्रमित लोग इंसानी भाषा नहीं समझ सकते; यह कहा जा सकता है कि भ्रमित लोगों में सामान्य मानवता की कमी होती है और वे आधे पागल होते हैं—असल में वे नाकारा होते हैं। क्या भ्रमित लोग अच्छी तरह से सेवा कर सकते हैं? यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वे मानक तरीके से सेवा करने तक में सक्षम नहीं होते क्योंकि उनका विवेक डाँवाडोल होता है; वे ऐसे लोग होते हैं जो किसी चीज का सिर-पैर कुछ नहीं समझते। अगर कोई भ्रमित लोगों के प्रति प्रेम दिखाना चाहता है तो उसे भ्रमित लोगों का समर्थन करने दो। भ्रमित लोगों के प्रति परमेश्वर के घर का रवैया यह है कि उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए। जो कोई सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारता, जो कोई ईमानदारी से अपना कर्तव्य नहीं निभाता, हमेशा उसे बेमन से निभाता है, अगर वह अक्सर कलीसियाई जीवन में विघ्न डालता है तो उसे प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर उनमें से कुछ लोग पछतावा महसूस करते हैं और पश्चात्ताप करने के लिए तैयार होते हैं तो उन्हें मौका देना चाहिए। जिनका सार नहीं समझा जा सकता, उन्हें अस्थायी रूप से कलीसिया में रखना चाहिए, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग उनका पर्यवेक्षण और निरीक्षण कर अपने विवेक में वृद्धि कर सकें। अगर ऐसे लोग हैं जो लगातार विघ्न-बाधा पैदा करते हैं और काट-छाँट किए जाने के बावजूद सुधरते नहीं है और पछतावा नहीं करते, प्रसिद्धि और लाभ के लिए होड़ करते रहते हैं, सकारात्मक चरित्रों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं—खासकर उन लोगों पर आक्रमण करते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं और अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा कर सकते हैं और जो ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाकर अपने कर्तव्य निभाते हैं—तो ये लोग बुरे और मसीह-विरोधी हैं, छद्म-विश्वासी हैं। ऐसे लोगों को सिर्फ रोकना और प्रतिबंधित करना उचित नहीं है; उन्हें भावी परेशानियाँ रोकने के लिए तुरंत कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। अभ्यास का यह तरीका पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है।
ये हैसियत के लिए होड़ करने की कमोबेश विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं, छोटी से लेकर गंभीर तक। छोटी अभिव्यक्तियाँ मुख्य रूप से अगुआओं और कार्यकर्ताओं का कठोर शब्दों में मजाक उड़ाने, उनमें दोष निकालने और अगुआओं और कार्यकर्ताओं की सक्रियता पर आक्रमण करने को संदर्भित करता है, जिसका लक्ष्य उन्हें नष्ट और बदनाम करना होता है। सबसे गंभीर अभिव्यक्तियाँ हैं अगुआओं और कार्यकर्ताओं का खुले तौर पर सीधे विरोध करना, उनके खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए चीजें ढूँढ़ना और उनकी आलोचना करना, उनकी निंदा करना, उन पर आक्रमण करना और उन्हें निकाल देना और फिर उन्हें अलग-थलग करना और उनका रुतबा हथियाने के लिए उन्हें गलती स्वीकारने और इस्तीफा देने के लिए मजबूर करना। ये विघ्न-बाधाएँ पैदा करने वाली वे सबसे गंभीर समस्याएँ हैं जो कलीसियाई जीवन में आती हैं। जो लोग अगुआओं या कार्यकर्ताओं के खिलाफ खुलेआम चिल्ल-पौं मचाते हैं और हैसियत के लिए उनसे होड़ करते हैं, वे कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं, वे बुरे लोग और मसीह-विरोधी हैं और उन्हें न सिर्फ रोका और प्रतिबंधित किया जाना चाहिए—अगर स्थिति गंभीर हो और उन्हें बाहर करना या निकालना जरूरी हो तो उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार निपटना चाहिए। हैसियत के लिए होड़ करने की एक और अभिव्यक्ति भी है : कलीसिया में सत्य का अनुसरण करने वालों को वे निकाल देते हैं और उन पर आक्रमण करते हैं। चूँकि सत्य का अनुसरण करने वालों में शुद्ध समझ होती है और उनमें परमेश्वर के वचनों का अनुभव और सच्चा ज्ञान होता है और वे अक्सर भाई-बहनों के बीच समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति करते हैं और इस तरह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को शिक्षित करते हैं और धीरे-धीरे कलीसिया में प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेते हैं, इसलिए ये बुरे लोग और मसीह-विरोधी उनसे ईर्ष्या और उनका विरोध करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं और उन पर आक्रमण करते हैं। ऐसा कोई भी व्यवहार जिसमें सत्य का अनुसरण करने वालों पर आक्रमण करना या उन्हें निकाल देना शामिल है, सीधे तौर पर कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधा पैदा करना है। हो सकता है कुछ लोग सीधे तौर पर कलीसिया के अगुआओं को निशाना न बनाएँ, लेकिन उनके मन में कलीसिया के उन लोगों के लिए विशेष द्वेष और तिरस्कार होता है जो सत्य समझते हैं और व्यावहारिक अनुभव रखते हैं। वे ऐसे लोगों को निकाल भी देते हैं और उन्हें दबाते भी हैं, अक्सर उनका मजाक उड़ाते हैं और उपहास करते हैं, यहाँ तक कि उन्हें फंसाने के लिए जाल बिछाते हैं और उनके खिलाफ साजिश भी रचते हैं, इत्यादि। हालाँकि इस तरह की समस्याएँ अपनी प्रकृति और परिस्थितियों की दृष्टि से कलीसिया के अगुआओं के साथ हैसियत के लिए होड़ करने से कम गंभीर होती हैं, लेकिन वे कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ भी पैदा करती हैं और उन्हें रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर कलीसिया में ज्यादातर भाई-बहन प्रभावित होते हैं और अक्सर नकारात्मकता और कमजोरी में डूब जाते हैं—अगर ये समस्याएँ इस तरह के परिणामों की ओर ले जाती हैं, तो ये विघ्न-बाधाओं के समान ही हैं। जो बुरा व्यक्ति विघ्न-बाधाएँ पैदा करता है, उसे सिर्फ प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए बल्कि उसे अलग रखने और चिंतन करने के लिए “बी” समूह में भेज देना चाहिए या बाहर निकाल देना चाहिए। जो लोग ऐसे क्रियाकलापों में संलग्न होते हैं जिनकी प्रकृति विघ्न-बाधाएँ पैदा करने की होती है, वे ऐसे लोग होते हैं जो आदतन बुरे काम करते हैं। लोगों के साथ कैसे पेश आया जाए, इस दृष्टि से अक्सर बुरे काम करने वाले बुरे लोगों और कभी-कभी बुरे काम करने वाले लोगों के बीच अंतर करना चाहिए। जो लोग तरह-तरह के बुरे काम करते हैं वे मसीह-विरोधी होते हैं; जो लोग कभी-कभी बुरे काम करते हैं वे खराब मानवता वाले लोग होते हैं। अगर दो लोग कभी-कभी अपने व्यक्तित्व में भिन्नता के कारण या काम करते समय भिन्न विचार रखने के कारण या अपने बोलने के तरीके भिन्न होने के कारण बहस करते हैं या विवादों में उलझ जाते हैं लेकिन इससे कलीसियाई जीवन प्रभावित नहीं होता तो इसमें विघ्न-बाधाएँ पैदा करने की प्रकृति नहीं है; यह बुरे लोगों द्वारा कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ पैदा करने से अलग है। जिन चीजों की प्रकृति कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ पैदा करने की होती है जिनके बारे में हम बात कर रहे हैं, वे सभी बुरे लोगों द्वारा किए गए बुरे कामों की अभिव्यक्तियाँ होती हैं। जब बुरे लोग बुरे काम करते हैं तो यह आदतन होता है। बुरे लोग सबसे ज्यादा उन लोगों से नफरत करते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। जब वे देखते हैं कि सत्य का अनुसरण करने वाला कोई व्यक्ति अपनी अनुभवजन्य गवाही साझा करने में सक्षम है और इसके लिए दूसरों से विशेष प्रशंसा प्राप्त करता है तो वे ईर्ष्या और घृणा से भर जाते हैं और उनकी आँखें क्रोध से जल उठती हैं। जो कोई भी आत्मचिंतन करता हैं और खुद को जानता है, जो कोई भी अपने व्यावहारिक अनुभव साझा करता है और जो कोई भी परमेश्वर की गवाही देता है, उसे इन बुरे लोगों के उपहास, निंदा, दमन, बहिष्कार, आलोचना, यहाँ तक कि उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है। वे आदतन ऐसा करते हैं। वे किसी को भी अपने से बेहतर नहीं होने देते, वे ऐसे लोगों को देखना बर्दाश्त नहीं कर सकते जो उनसे बेहतर हैं। जब वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो उनसे बेहतर होता है, तो वे ईर्ष्यालु, क्रोधित और कुपित हो जाते हैं और उन्हें नुकसान पहुँचाने और सताने के बारे में सोचते हैं। ऐसे लोग पहले ही कलीसियाई जीवन और कलीसिया की व्यवस्था में गंभीर विघ्न-बाधाएँ पैदा कर चुके होते हैं और अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऐसे व्यक्तियों को उजागर करने, रोकने और प्रतिबंधित करने में भाई-बहनों के साथ मिलकर काम करना चाहिए। अगर उन्हें प्रतिबंधित करना संभव न हो और उनके साथ सत्य के बारे में संगति किए जाने के बाद भी वे पश्चात्ताप नहीं करते या अपना ढर्रा नहीं बदलते तो वे बुरे हैं और बुरे लोगों को कलीसिया की सफाई के लिए परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुसार मापना चाहिए और उनसे वैसे ही व्यवहार करना चाहिए। अगर संगति के जरिये अगुआ और कार्यकर्ता आम सहमति पर पहुँचकर यह निर्धारित करते हैं कि यह किसी बुरे व्यक्ति द्वारा कलीसिया में विघ्न डालने के समान है तो इस मामले से सत्य सिद्धांतों के अनुसार निपटना चाहिए : उस व्यक्ति को कलीसिया से निकाल देना चाहिए। कलीसियाई जीवन में विघ्न डालने वाले ऐसे बुरे लोगों को और बर्दाश्त नहीं करना चाहिए। अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह स्पष्ट हो कि यह किसी बुरे व्यक्ति द्वारा विघ्न डालने के समान है और फिर भी वे अज्ञानता का नाटक करते हुए उस बुरे व्यक्ति का बुरे काम करना और विघ्न डालना सहन करते हैं तो वे भाई-बहनों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में विफल होते हैं और परमेश्वर और उसके आदेश के प्रति वफादार नहीं हैं।
कुछ लोग दिखने में भले ही ठीक लगें, लेकिन असल में उनका बौद्धिक स्तर किसी मूर्ख जैसा होता है। वे उचित-अनुचित का भेद समझे बिना बोलते और कार्य करते हैं, उनमें सामान्य मानवता की तार्किकता का अभाव होता है। ऐसे लोग हैसियत और प्रतिष्ठा के लिए होड़ करना, अंतिम निर्णय खुद लेने के लिए लड़ना और दूसरों से अत्यधिक सम्मान प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पर्धा करना भी पसंद करते हैं। कलीसियाई जीवन में वे अक्सर दूसरे लोगों में से ज्यादातर का ध्यान खींचने और उनसे अत्यधिक सम्मान प्राप्त करने के लिए वैध लगने वाले लेकिन वास्तव में भ्रामक विचार और तर्क प्रस्तुत कर लोगों के विचार अस्त-व्यस्त कर देते हैं, परमेश्वर के वचनों की उनकी सही समझ और ज्ञान अस्त-व्यस्त कर देते हैं और हर चीज के बारे में उनकी सकारात्मक समझ अस्त-व्यस्त कर देते हैं। जब दूसरे लोग परमेश्वर के वचनों और उनकी शुद्ध समझ पर संगति कर रहे होते हैं तो ये लोग अक्सर अपनी मौजूदगी का एहसास कराने और सभी लोगों का ध्यान खींचने के लिए विदूषकों की तरह अचानक प्रकट हो जाते हैं, हमेशा भाई-बहनों को यह दिखाना चाहते हैं कि वे एक-दो तरकीबें जानते हैं और वे विद्वान, अत्यधिक ज्ञानी और पढ़े-लिखे हैं, इत्यादि। हालाँकि उनके पास अभी भी स्पष्ट लक्ष्य नहीं होता कि किस अगुआ को लक्ष्य बनाना है या किस अगुआ के पद के लिए होड़ करनी है, उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ इतनी बड़ी होती हैं कि उनकी बातों और क्रियाकलापों ने कलीसियाई जीवन में विघ्न डाल दिए हैं, इसलिए स्थिति की गंभीरता और उसकी प्रकृति के अनुसार भी उन्हें प्रतिबंधित करना चाहिए। सबसे अच्छा होगा कि उनका सही तरीके से मार्गदर्शन करने और उनके आचरण को दिशा प्रदान करने के लिए पहले उनके साथ सत्य पर संगति की जाए, जिससे वे खुद को बदल सकें और समझ सकें कि कलीसियाई जीवन सामान्य रूप से कैसे जीना है, दूसरों के साथ कैसे मेलजोल रखना है, अपने उचित स्थान पर कैसे रहना है और तर्कसंगत कैसे बनना है। अगर यह उनकी कम उम्र, अंतर्दृष्टि की कमी और युवावस्था के अहंकार के कारण हो और अगर उन्होंने बार-बार संगति करने के बाद पश्चात्ताप किया हो, यह महसूस किया हो कि उनके पिछले क्रियाकलाप गलत, शर्मनाक, सभी के लिए घृणास्पद थे और सभी के लिए मुसीबत लेकर आए थे और उन्होंने इसके लिए क्षमा माँगी हो और पश्चात्ताप किया हो तो उनकी पिछली गलतियों की वजह से उनके प्रति दुर्भावना रखने की जरूरत नहीं है—उनकी बस प्यार से मदद की जा सकती है। लेकिन अगर सबको परेशान करने वाली उनकी गलत हरकतें युवावस्था के अहंकार या सत्य की समझ की कमी के कारण नहीं, बल्कि गुप्त इरादों से प्रेरित थीं और बार-बार हतोत्साहित किए जाने के बावजूद वे अपना व्यवहार जारी रखते हैं; और अगर, इसके अलावा, उनकी काट-छाँट की गई है और भाई-बहनों ने इस समस्या की गंभीरता पर उनके साथ संगति की है—उन्हें नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलुओं से संगति और मदद प्रदान कर दी गई है—इसके बावजूद वे अभी भी अपने प्रकृति सार को नहीं पहचान पाते, इन हरकतों से दूसरों को होने वाली परेशानियाँ और उनके गंभीर परिणाम नहीं देख सकते और मौका मिलते ही यही हरकतें करके विघ्न-बाधाएँ पैदा करते रहते हैं तो इस मामले में कठोर उपायों की दरकार है। अगर पश्चात्ताप करने के पर्याप्त अवसर दिए जाने पर भी वे आत्मचिंतन नहीं करते या खुद को जानने की कोशिश नहीं करते और चाहे उनके साथ सत्य पर कैसे भी संगति की जाए, वे नहीं समझते, न ही वे जानते हैं कि तर्कसंगत रूप से और सिद्धांतों के अनुसार कैसे कार्य करना है, बल्कि हठपूर्वक कार्य करने के अपने ही तरीके से चिपके रहते हैं तो इन लोगों के साथ कोई समस्या है। कम से कम, तर्कसंगत दृष्टिकोण से, उनमें एक सामान्य व्यक्ति के विवेक की कमी है। यह इसे ऊपरी तौर पर देखना है। अगर सार की दृष्टि से देखें तो चाहे उनके साथ किसी भी तरह की संगति क्यों न की जाए, वे मुद्दे की गंभीरता नहीं समझ सकते, न ही वे अपना उचित स्थान ढूँढ़ सकते हैं, न ही वे संगति और मदद स्वीकार सकते हैं या भाई-बहनों द्वारा बताए गए मार्ग के अनुसार अभ्यास करने की कोशिश कर सकते हैं—अगर वे ये चीजें भी हासिल नहीं कर सकते, तो उनकी समस्या सिर्फ विवेक की कमी नहीं है, बल्कि उनकी मानवता के साथ समस्या है। हालाँकि वे बिना इरादे के विघ्न-बाधाएँ पैदा करते दिखते हैं, लेकिन ये कर्म निश्चित रूप से बिना इरादे के नहीं होते, बल्कि उद्देश्य और इरादों के साथ किए जाते हैं। इस बात को एक तरफ रखते हुए कि इन व्यक्तियों के इरादे या उद्देश्य क्या हो सकते हैं, अगर वे जो कहते और करते हैं वह भाई-बहनों के जीवन प्रवेश और कलीसियाई जीवन में गंभीर रूप से विघ्न-बाधा पैदा करता है जिससे कई लोगों को कलीसियाई जीवन जीने से कुछ हासिल नहीं होता, इस हद तक कि कुछ दूसरे लोग सिर्फ इसलिए सभा में आने के लिए तैयार नहीं होते क्योंकि वे वहाँ मौजूद होते हैं, या जब भी वे बोलते हैं लोग उनमें दिलचस्पी लेना बंद कर देते हैं और चले जाना चाहते हैं तो इस समस्या की प्रकृति गंभीर हो जाती है। ऐसे लोगों से कैसे निपटना चाहिए? अगर वे कई मौकों पर संगति और मदद प्रदान किए जाने और पश्चात्ताप करने के अवसर दिए जाने के बावजूद ये चीजें करते रहते हैं तो यह उनका प्रकृति सार है जिसमें समस्या है। वे ऐसे लोग नहीं हैं जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं और सत्य स्वीकार सकते हैं, बल्कि इसके बजाय उनका कोई और एजेंडा है। उनके प्रकृति सार को देखते हुए, कलीसियाई जीवन में उनके द्वारा पैदा किए जाने वाली विघ्न-बाधाएँ निश्चित रूप से गैर-इरादतन नहीं होतीं, बल्कि इन लोगों का कोई उद्देश्य और इरादे होते हैं। अगर ऐसे लोगों को और अवसर दिए जाते हैं तो क्या यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उचित है जो सामान्य रूप से कलीसियाई जीवन जी रहे हैं? (नहीं।) ऐसे व्यक्तियों की समस्या पहले ही इस हद तक प्रकट हो चुकी है; अगर उन्हें पश्चात्ताप की प्रतीक्षा में अभी भी अवसर दिए जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे और ज्यादा बुरे काम कर डालते हैं और ज्यादा लोगों को नकारात्मकता और कमजोरी की ओर ले जाते हैं और उनके पास बचने का कोई उपाय नहीं रहता तो इस नुकसान की भरपाई कौन करेगा? इसलिए अगर इन व्यक्तियों को संगति और प्रेमपूर्ण सहायता प्रदान की गई है या उन्हें रोकने और प्रतिबंधित करने की कार्रवाई की गई है, फिर भी वे अपने पुराने तौर-तरीके नहीं बदलते और अपने मूल व्यवहार पर कायम रहते हैं तो उनसे सिद्धांतों के अनुसार निपटना चाहिए : हलके मामलों में उन्हें अलग-थलग कर देना चाहिए; गंभीर मामलों में उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। यह सिद्धांत कैसा लगता है? क्या यह किसी को पश्चात्ताप करने का मौका दिए बिना निर्दयतापूर्वक मार गिराना है? या बिना किसी विवेक का प्रयोग किए और बिना स्पष्ट रूप से समझे कि उनका प्रकृति सार वास्तव में क्या है, मनमाने ढंग से निर्णय लेना है? (नहीं।) अगर संगति और सहायता प्रदान किए जाने और पश्चात्ताप करने के अवसर दिए जाने के बावजूद इन लोगों के तौर-तरीके और स्वभाव बिल्कुल नहीं बदलते और न ही वे पश्चात्ताप करते हैं, बल्कि पहले जैसे ही बने रहते हैं—सिर्फ इस अंतर के साथ कि वे जो पहले खुले तौर पर और प्रत्यक्ष रूप से करते थे, अब गुप्त रूप से और चोरी-छिपे करते हैं, लेकिन विघ्न-बाधाएँ वैसे ही रहती हैं—तो कलीसिया अब उन्हें नहीं रख सकती। ऐसे लोग परमेश्वर के घर के सदस्य नहीं हैं; वे परमेश्वर की भेड़ें नहीं हैं। परमेश्वर के घर में उनकी मौजूदगी सिर्फ विघ्न-बाधाएँ पैदा करने के लिए है और वे शैतान के चाकर हैं, भाई या बहन नहीं। अगर तुम हमेशा उन्हें भाई या बहन समझते हो, लगातार उनका समर्थन और मदद करते रहते हो और उनके साथ सत्य पर संगति करते रहते हो और इससे बहुत सारे प्रयास बेकार चले जाते हैं और उनका कोई फल नहीं निकलता तो क्या यह मूर्खता नहीं है? यह मूर्खता से भी बढ़कर है; यह बेवकूफी है, सरासर बेवकूफी!
समस्याओं की प्रकृति देखें तो विभिन्न अभिव्यक्तियाँ और हैसियत के लिए होड़ करने में शामिल लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रकार मूल रूप से इन तीन प्रकारों में वर्गीकृत किए जा सकते हैं। हैसियत के लिए होड़ करना कलीसियाई जीवन में एक आम समस्या है, जो लोगों के विभिन्न समूहों और कलीसियाई जीवन के विभिन्न पहलुओं में दिखाई देती है। जहाँ तक हैसियत के लिए होड़ करने वालों की बात है, हलके मामलों में उन्हें समर्थन और सहायता के लिए सत्य की पर्याप्त संगति प्रदान करनी चाहिए ताकि वे सत्य समझ सकें और उन्हें पश्चात्ताप करने का मौका मिल सके। अगर मामला गंभीर है, तो उन पर बारीकी से नजर रखनी चाहिए और जैसे ही यह पता चले कि वे कोई खास मकसद या लक्ष्य हासिल करने के उद्देश्य से बोलते या कार्य करते हैं तो उन्हें तुरंत रोकना चाहिए और प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर मामला और भी गंभीर है, तो लोगों को बहिष्कृत और निष्कासित करने के कलीसिया के सिद्धांतों के अनुसार उनसे निपटना चाहिए। हैसियत के लिए होड़ करने में शामिल इन लोगों, घटनाओं और चीजों के कलीसियाई जीवन में दिखाई देने पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह जिम्मेदारी निभानी चाहिए। बेशक इसके लिए सभी भाई-बहनों को आगे आकर इस काम में अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ सहयोग करना और मिलकर बुरे लोगों के उन विभिन्न व्यवहारों और क्रियाकलापों को प्रतिबंधित करना आवश्यक है जो विघ्न-बाधाएँ पैदा करते हैं, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि कलीसियाई जीवन में बुरे लोगों द्वारा और कोई विघ्न-बाधा पैदा न हो, उन्हें यह सुनिश्चित करने का प्रयास करना चाहिए कि कलीसियाई जीवन का हर अवसर पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध हो, शांति और आनंद और परमेश्वर की मौजूदगी से भरा हो और उसमें परमेश्वर का आशीष और मार्गदर्शन हो, और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हर सभा आनंद और लाभ का समय हो। यही सबसे अच्छा कलीसियाई जीवन है, ऐसा जीवन जिसे परमेश्वर देखना चाहता है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए यह कार्य करना अपेक्षाकृत जटिल है क्योंकि इसमें अंतर्वैयक्तिक संबंध और लोगों की इज्जत और हित शामिल हैं और इसमें लोगों की सत्य की समझ का स्तर भी शामिल है, जो इसे कुछ हद तक ज्यादा चुनौतीपूर्ण बनाता है। लेकिन जब समस्याएँ आएँ तो उन्हें टालो मत, और बड़े मुद्दों को छोटा समझकर अंततः उन्हें अनसुलझा मत छोड़ो; न ही उनसे आंखें मूंदकर, सांसारिक आचरण के फलसफे का उपयोग करके निपटाना चाहिए। इससे भी बढ़कर, खुशामदी इंसान मत बनो, बल्कि हैसियत के लिए होड़ करने वाले विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार पेश आओ। क्या यह संगति स्पष्ट है? (हाँ।) तो यहाँ पाँचवें मुद्दे पर हमारी संगति समाप्त होती है।
VI. अनुचित संबंधों में लिप्त होना
परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने वाला छठा मुद्दा है अनुचित संबंधों में लिप्त होना। जब लोग एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं और मिलकर सभा कर सकते हैं तो सामुदायिक जीवन होता है और उससे विभिन्न संबंध बनते हैं। तो इनमें से कौन-से संबंध उचित हैं और कौन-से अनुचित? आओ पहले इस बारे में बात करते हैं कि उचित संबंध क्या होते हैं और फिर अनुचित संबंधों के बारे में संगति करेंगे। जब भाई-बहन मिलकर एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं तो वे ऐसी बातें कह सकते हैं, “क्या हालचाल है? क्या तुम्हारा स्वास्थ्य अच्छा है? क्या अगले साल तुम्हारे बच्चे का हाई स्कूल शुरू होने जा रहा है? तुम्हारे जीवनसाथी का व्यवसाय कैसा चल रहा है?” क्या इस तरह का आपसी अभिवादन उचित संबंध माना जाता है? (हाँ।) तुम ऐसा क्यों कहते हो? क्योंकि जब दो लोग, जो काफी समय से एक-दूसरे से नहीं मिले, एक-साथ आते हैं तो अभिवादन के कुछ शब्द कहना सबसे बुनियादी शिष्टाचार है, साथ ही सहानुभूति दिखाने और अभिवादन करने का सबसे मौलिक तरीका भी है। ये सभी शब्द, क्रियाकलाप और लोगों की बातचीत के प्रासंगिक विषय हैं जो सामान्य मानवता की सीमाओं के भीतर हैं। अब तक की उनकी बातचीत से आँकने पर यह स्पष्ट है कि उनका संबंध काफी उचित है। उनका संवाद शिष्टाचार और सामान्य मानवता दोनों पर आधारित है और इन दो बिंदुओं से यह निर्धारित किया जा सकता है कि बातचीत करने वाले दो लोगों के बीच का संबंध उचित है, जो एक सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध दर्शाता है। अगर दो लोग एक-दूसरे से अच्छी तरह परिचित हैं, फिर भी जब वे मिलते हैं तो दोनों नाक-भौं चढ़ा लेते हैं और एक-दूसरे से बात नहीं करते और जब एक-दूसरे को देखते हैं तो उनकी आँखें शत्रुता से जलती हैं, क्या यह संबंध सामान्य है? (नहीं, यह सामान्य नहीं है।) यह सामान्य क्यों नहीं है? इसे ठीक-ठीक कैसे परिभाषित करना चाहिए? जब दो लोग मिलते हैं लेकिन न तो एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं और न ही “नमस्ते” कहते हैं, सामान्य बातचीत और संवाद में शामिल होना तो दूर की बात है, तो यह स्पष्ट है कि उनकी अभिव्यक्तियों से वह प्रतिबिंबित नहीं होता जो सामान्य मानवता से अपेक्षित है। उनका संबंध एक सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध नहीं है; वह कुछ हद तक विकृत है, लेकिन फिर भी वह अनुचित संबंध नहीं है, वह अभी भी उससे कुछ दूर है। सामान्य तौर पर अगर लोगों के बीच संबंध सामान्य मानवता के आधार पर स्थापित होता है, जहाँ व्यक्ति सामान्य रूप से और सिद्धांतों के अनुसार मिलजुलकर आपस में जुड़ सकते हैं और एक-दूसरे को मदद, समर्थन और पोषण प्रदान कर सकते हैं तो यह सब, लोगों के बीच उचित संबंधों का संकेत है। उचित संबंधों का मतलब है मामले व्यावसायिक तरीके से सँभालना, लेनदेनों में शामिल न होना, उलझे हुए हितों से रहित होना, इससे भी बढ़कर घृणा से रहित होना और क्रियाकलापों का दैहिक इच्छाओं से प्रेरित न होना। ये सभी उचित संबंधों के दायरे में आते हैं। क्या यह दायरा काफी व्यापक नहीं है? सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंधों में सामान्य मानवता के दायरे में संवाद और बातचीत, दूसरों के साथ मिलना-जुलना और जुड़ना, और सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के आधार पर मिलकर काम करना शामिल है। उच्च स्तर पर इसमें सत्य सिद्धांतों के अनुसार मिलना-जुलना और जुड़ना शामिल है। यह लोगों के बीच उचित अंतर्वैयक्तिक संबंधों की एक सामान्य परिभाषा है। मिलने पर एक-दूसरे का अभिवादन करना बातचीत का सबसे सामान्य रूप है। बिना दिखावे के सामान्य रूप से अभिवादन और बातचीत करने में सक्षम होना, जहाँ स्नेह न हो वहाँ स्नेह होने की कल्पना न करना, श्रेष्ठ होने का दिखावा न करना, दूसरों को दबाए या खुद को ऊँचा जताए बिना बोलना, सामान्य रूप से बोलना और संवाद करना—सामान्य मानवता रखने वाले लोगों को ऐसे ही बोलना और संवाद करना चाहिए और यह सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंधों के भीतर बातचीत करने का मूलभूत तरीका है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों में जमीर और विवेक तो कम से कम होना ही चाहिए और उन्हें दूसरों के साथ परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित सिद्धांतों और मानकों के अनुसार बातचीत करना, जुड़ना और मिलकर काम करना चाहिए। यह सबसे अच्छा नजरिया है। यह परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम है। तो परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सत्य सिद्धांत क्या हैं? यह कि जब दूसरे कमजोर और नकारात्मक हों तो लोग उन्हें समझें, उनके दर्द और कठिनाइयों के प्रति विचारशील हों, और इन चीजों के बारे में पूछताछ करें, सहायता और समर्थन की पेशकश करें, उनकी समस्याएँ हल करने में उनकी मदद करने के लिए उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाएँ, उन्हें परमेश्वर के इरादे समझने और कमजोर न बने रहने में समर्थ बनाएँ और उन्हें परमेश्वर के सामने लाएँ। क्या अभ्यास का यह तरीका सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है? इस प्रकार अभ्यास करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। स्वाभाविक रूप से, इस प्रकार के संबंध और भी सिद्धांतों के अनुरूप होते हैं। जब लोग जानबूझकर बाधा डालते हैं और गड़बड़ी पैदा करते हैं, या जानबूझकर अपना कर्तव्य अनमने ढंग से निभाते हैं, अगर तुम यह देखते हो और सिद्धांतों के अनुसार उन्हें इन चीजों के बारे में बताने, फटकारने, और उनकी मदद करने में सक्षम हो, तो यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। अगर तुम आँखें मूँद लेते हो, या उनके व्यवहार की अनदेखी करते हो और उनके दोष ढकते हो, यहाँ तक कि उनसे अच्छी-अच्छी बातें कहते, उनकी प्रशंसा और वाहवाही करते हो, लोगों के साथ बातचीत करने, मुद्दों से निपटने और समस्याएँ सँभालने के ऐसे तरीके स्पष्ट रूप से सत्य सिद्धांतों के विपरीत हैं, और उनका परमेश्वर के वचनों में कोई आधार नहीं है। तो, लोगों के साथ बातचीत करने और मुद्दों से निपटने के ये तरीके स्पष्ट रूप से अनुचित हैं, और अगर परमेश्वर के वचनों के अनुसार उनका गहन विश्लेषण और पहचान न की जाए, तो वास्तव में इसका पता लगाना आसान नहीं है। जो लोग सत्य नहीं समझते, उनके द्वारा इन मुद्दों को पहचानने की संभावना नहीं हैं और अगर वे स्वीकार भी लें कि ये समस्याएँ हैं तो भी उनके लिए उन्हें हल करना आसान नहीं है। हमने अक्सर कहा है कि पूरी भ्रष्ट मानवजाति शैतान के स्वभाव के अनुसार जीती है और ये अभिव्यक्तियाँ इसका सबूत हैं। अब क्या तुम इसे स्पष्ट रूप से समझते हो?
हमारी संगति में आज हमारा ध्यान मुख्य रूप से चार प्रकार के अनुचित संबंधों की उन अभिव्यक्तियों को उजागर करने पर रहेगा जो कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ पैदा करती हैं। वे लोग कौन हैं जो कलीसिया के भीतर अनुचित संबंधों में लिप्त रहते हैं? अनुचित संबंध असल में क्या होता है? अनुचित संबंधों में लिप्त होने में कौन-से मुद्दे शामिल हैं? चूँकि हमारी संगति के मुख्य विषय में वे विभिन्न लोग, घटनाएँ और चीजें शामिल हैं जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करती हैं, इसलिए अनुचित संबंधों की यह चर्चा उन लोगों तक सीमित है जो कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ पैदा करते हैं। हम तमाम तरह के अनुचित संबंधों को अविवेकपूर्ण तरीके से एक-साथ नहीं रख रहे हैं और कलीसियाई जीवन के बाहर के मामले हमारी चिंता का विषय नहीं हैं। तुम्हें इस मामले को मुख्य विषय से हटे बिना, शुद्ध रूप से समझना चाहिए। तो अनुचित संबंधों में लिप्त होने के संदर्भ में कौन-से मुद्दे और लोगों के बीच कौन-से संबंध अनुचित हैं? कौन-से अनुचित संबंध कलीसियाई जीवन और ज्यादातर लोगों के लिए विघ्न-बाधाएँ पैदा करते हैं? क्या ये मुद्दे संगति करने लायक हैं? (हाँ, हैं।) ये ऐसे मामले हैं जिन पर हमारी संगति में स्पष्ट रूप से विचार किया जाना चाहिए।
क. स्त्री-पुरुषों के बीच अनुचित संबंध
कलीसियाई जीवन में सबसे आम, आसानी से समझ में आने वाला और जल्दी से पहचाना जाने वाला अनुचित संबंध कौन-सा है? (स्त्री-पुरुषों के बीच संबंध।) अनुचित संबंधों के बारे में सोचने पर लोगों के मन में आने वाला यह पहला पहलू है। कुछ लोग जब भी किसी समूह में होते हैं तो हमेशा विपरीत लिंग के व्यक्ति के साथ इश्कबाजी करते हैं; वे कामुक इशारे और अभिव्यक्तियाँ करते हैं, खास तौर से खुलकर बोलते हैं और दिखावा करना पसंद करते हैं। एक अनुचित शब्द का उपयोग करें तो यह अपनी कामुकता दिखाना है। वे विपरीत लिंग के व्यक्ति के सामने अन्य गुणों के अलावा मजाकिया, विनोदी, रोमांटिक, सज्जन, वीर, करिश्माई और विद्वान दिखना पसंद करते हैं; उन्हें दिखावा करने में खास तौर से आनंद आता है। वे दिखावा क्यों करते हैं? यह हैसियत के लिए होड़ करने के लिए नहीं होता, बल्कि विपरीत लिंग के व्यक्ति को आकर्षित करने के लिए होता है। विपरीत लिंग के जितने ज्यादा सदस्य उन पर ध्यान देते हैं, उन पर प्रशंसा, श्रद्धा और प्यार भरी नजरें डालते हैं, वे उतने ही ज्यादा उत्साहित और ऊर्जावान हो जाते हैं। जब वे कलीसियाई जीवन में भाग लेने में ज्यादा समय बिताते हैं और ज्यादा लोगों के संपर्क में आते हैं, तो कुछ व्यक्तियों को निशाना बना लेते हैं, विपरीत लिंग के कुछ लोगों के साथ इश्कबाजी करते हैं और उनसे नजरें मिलाते हैं, अक्सर उत्तेजक तरीके से बात करते हैं, यहाँ तक कि यौन उत्पीड़न का संकेत भी देते हैं। क्या लोगों के बीच इस तरह का संबंध उचित है? (नहीं।) यह अनुचित संबंधों में लिप्त होना है। ऐसे व्यक्ति सभा के समय का उपयोग भी दिखावा करने के लिए करते हैं, जिस व्यक्ति को वे पसंद करते हैं या जिसमें उनकी रुचि होती है, उसके सामने खास तौर से इस तरह बोलते हैं कि मजाकिया और आकर्षक दिखें, कामुक इशारे करते हैं और नैन-मटक्का करते हैं, विजयी और उत्साही भाव रखते हैं, यहाँ तक कि इधर-उधर मटकते फिरते हैं, यह सब भला किस उद्देश्य से? इसका उद्देश्य विपरीत लिंग के व्यक्ति को अनुचित संबंध के लिए फुसलाना है। इसके प्रति कई भाई-बहनों द्वारा महसूस की गई घृणा के बावजूद और आस-पास के लोगों द्वारा दी गई कई चेतावनियों के बावजूद वे नहीं रुकते और उतावले होकर फुसलाने का काम करते रहते हैं। अगर ऐसे अनुचित संबंधों में सिर्फ दो लोग लिप्त हैं जो कलीसियाई जीवन के बाहर एक-दूसरे के साथ इश्कबाजी करते हैं और कलीसियाई जीवन या कलीसिया के काम को प्रभावित नहीं करते, तो इस मामले को फिलहाल अलग रखा जा सकता है। लेकिन अगर अनुचित संबंधों में लिप्त लोग कलीसियाई जीवन में इस तरह के व्यवहार में लिप्त रहते हैं और दूसरों के लिए व्यवधान पैदा करते हैं, तो उन्हें चेतावनी देनी चाहिए और प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर वे बार-बार चेतावनी देने के बावजूद नहीं सुधरते और कलीसियाई जीवन में पहले ही गंभीर रूप से व्यवधान पैदा कर चुके होते हैं तो उन्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा मतदान के जरिये कलीसिया से बाहर कर दिया जाना चाहिए। क्या यह नजरिया उचित है? (हाँ।) अगर वे दो प्रेमियों की तरह सामान्य रूप से मिलने वाले सिर्फ युवा लोग हैं तो उन्हें भी सभाओं के दौरान सावधान रहना चाहिए ताकि दूसरे इससे प्रभावित न हों। कलीसिया परमेश्वर की आराधना करने, प्रार्थना करते हुए परमेश्वर के वचन पढ़ने और कलीसियाई जीवन जीने का स्थान है; दूसरों को परेशान करने के लिए व्यक्तिगत आसक्तियाँ कलीसियाई जीवन में नहीं लानी चाहिए। अगर इससे दूसरों को परेशानी होती है, सभाओं के दौरान दूसरों की मनःस्थिति प्रभावित होती है, दूसरों का परमेश्वर के वचन पढ़ना और परमेश्वर के वचनों की उनकी समझ और ज्ञान प्रभावित होता है जिससे और भी लोगों का ध्यान भटकता है और वे परेशान होते हैं तो ऐसा संबंध अनुचित संबंध के रूप में परिभाषित किया जाता है। वैध तरीके से दो प्रेमियों के मिलने से भी अगर दूसरों को परेशानी होती है तो उसे अनुचित संबंध के रूप में परिभाषित किया जाएगा, ऐसे मिलने से परे विपरीत लिंग के व्यक्ति को बहकाने की तो बात ही छोड़ दो। इसलिए अगर कोई व्यक्ति कलीसियाई जीवन में अनुचित संबंधों में लिप्त होता है तो उसे चुपचाप अनुमति नहीं देनी चाहिए या उसमें शामिल नहीं होने देना चाहिए, बल्कि उसे चेतावनी देनी चाहिए, प्रतिबंधित करना चाहिए, यहाँ तक कि सिद्धांतों के अनुसार बाहर भी निकाल देना चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह काम करना चाहिए। अगर यह पता चलता है कि कोई व्यक्ति अनुचित संबंधों में लिप्त है और उसने कलीसिया के ज्यादातर लोगों के लिए व्यवधान पैदा किए हैं, उसकी मौजूदगी से अन्य लोगों का ध्यान भटकता है और वे कामुक विचारों के जाल में फँस जाते हैं, यहाँ तक कि इस वजह से परिवार तक टूट जाते हैं और कुछ नए विश्वासियों की, सभाओं में, परमेश्वर के वचन पढ़ने में, यहाँ तक कि आस्था में भी रुचि नहीं रह जाती, इसके बजाय वे जिस व्यक्ति को चाहते हैं उसके प्रति और ज्यादा आसक्त हो जाते हैं, उसके साथ भागकर शादी करने और एक-साथ जीवन बिताने की इच्छा रखते हैं और अपनी आस्था त्याग देते हैं—अगर स्थिति की गंभीरता इस हद तक बढ़ गई हो और फिर भी अगुआ और कार्यकर्ता इसे गंभीरता से न लेते हों, सोचते हों कि यह सिर्फ इंसानी वासना का नतीजा है, यह कोई बड़ी बात नहीं है और सभी सामान्य लोग ऐसा करते हैं, वे समस्या की गंभीरता न पहचानते हों और यह तो बिलकुल न समझते हों कि समस्या कितनी ज्यादा बढ़ सकती है, बल्कि इसे अनदेखा कर देते हों, ऐसे मामलों के प्रति अपनी प्रतिक्रिया में खास तौर से सुन्न और सुस्त रहते हों, जिसके कारण अंततः कलीसिया में ज्यादातर लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो—तो इन घटनाओं की प्रकृति गंभीर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करती है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह गंभीर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करती है? क्योंकि ये घटनाएँ कलीसिया के सामान्य जीवन में व्यवधान पैदा करती है और उसे नुकसान पहुँचाती है। इसलिए जब ऐसे व्यक्ति कलीसिया में उभरें तो उन्हें प्रतिबंधित करना चाहिए, चाहे वे कितने भी कम या ज्यादा क्यों न हों, और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रत्येक मामले पर ध्यान दिया जाए और अगर स्थिति गंभीर हो तो उन्हें अलग-थलग कर देना चाहिए। अगर अलग-थलग करने से परिणाम नहीं मिलते और वे विपरीत लिंग के व्यक्ति को फुसलाना, कलीसियाई जीवन में विघ्न डालना और कलीसिया की सामान्य व्यस्था को नुकसान पहुँचाना जारी रखते हैं तो उन्हें सिद्धांतों के अनुसार कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। क्या यह नजरिया उचित है? (हाँ।) कलीसियाई जीवन और कलीसिया के कार्य पर ऐसे मामलों का प्रभाव बेहद हानिकारक होता है; वे एक महामारी के समान होते हैं और उनका उन्मूलन कर देना चाहिए।
जो लोग विपरीत लिंग के व्यक्ति को फुसलाने में प्रवृत्त होते हैं, वे जहाँ भी जाते हैं वहीँ ऐसा करते हैं, अथक रूप से ऐसे व्यवहारों में संलग्न रहते हैं। फुसलाने-सताने के उनके लक्ष्य अक्सर युवा और आकर्षक व्यक्ति होते हैं, लेकिन कभी-कभी वे इसमें मध्यम आयु-वर्ग के लोगों को भी शामिल कर लेते हैं—जो भी उन्हें आकर्षक लगता है वे सक्रिय रूप से उसे फुसलाने के अवसर तलाशते हैं। अगर वे दूसरों को फुसलाने की नीयत रखते हैं तो कुछ लोग इस फुसलाहट का विरोध नहीं कर पाते और उनके झाँसे में आ जाते हैं, यह रास्ता आसानी से अनुचित संबंधों की ओर ले जाता है। चूँकि लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा होता है और उनमें परमेश्वर में वास्तविक आस्था और साथ ही सत्य की समझ का अभाव होता है, इसलिए वे इन प्रलोभनों पर कैसे विजय पा सकते हैं और ऐसी फुसलाहटों का कैसे विरोध कर सकते हैं? लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा होता है; जब उनका सामना इन प्रलोभनों और फुसलाहटों से होता है तो वे खास तौर से कमजोर और शक्तिहीन होते हैं। उनके लिए अप्रभावित रहना मुश्किल होता है। एक पुरुष अगुआ था जो किसी भी सुंदर महिला को देखकर उसे फुसलाने की कोशिश करता था; कभी-कभी सिर्फ एक को फुसलाना ही काफी नहीं होता था—वह तीन-चार महिलाओं को फुसला सकता था, वह उन सभी को इस हद तक वशीभूत कर सकता था कि उनकी भूख मर जाती थी और वे सो नहीं पाती थीं, यहाँ तक कि उनकी अपने कर्तव्य निभाने की इच्छा भी मर जाती थी। इस आदमी का ऐसा “आकर्षण” था। अगर वह लोगों को जानबूझकर फुसलाने की कोशिश किए बिना उनसे सामान्य रूप से बातचीत करता था तो उसका प्रभाव इतना व्यापक नहीं होता था। जब वह जानबूझकर नाटक करके दूसरों को फुसलाता था, तभी ज्यादा से ज्यादा लोग उसके झाँसे में आते थे और उसके साथ अनुचित संबंध बनाने के लिए फुसलाए जाने वालों की संख्या बढ़ जाती थी। लोग विरोध करने में असमर्थ होते थे और इन प्रलोभनों में पड़ जाते थे। यह वासना का “आकर्षण” था; उसने जो किया, उससे दोनों पक्षों के लिए प्रलोभन, फुसलाहट और व्यवधान पैदा हुए। एक आदमी का एक-साथ कई महिलाओं को फुसलाना—उसका दिल तो बेचैन ही होगा, है कि नहीं? पहले किस महिला से मिलना है, पहले किसे संतुष्ट करना है—क्या वह मानसिक रूप से थका हुआ नहीं होगा? (हाँ, होगा।) अगर यह इतना थका देने वाला था तो वह इस तरह का व्यवहार क्यों करता रहा? यह दुष्टता है; वह इसी तरह का प्राणी था, यह उसकी प्रकृति थी। जब शिकार फुसलाए जाकर प्रलोभन में पड़ जाते हैं तो क्या उनके लिए प्रलोभन से बचना आसान होता है? एक बार प्रलोभन में फँस गए तो बचना मुश्किल होगा। खाना खाते समय, सोते समय, चलते समय, कर्तव्य निभाते समय—चाहे वे कुछ भी करें, हर समय उनके मन इस व्यक्ति के खयालों में डुबे रहते हैं, यह व्यक्ति उनके दिलों पर कब्जा कर लेता है। ऐसे व्यवधान बेहद गंभीर होते हैं! इसके बाद वे लगातार यही सोचते हैं कि इस व्यक्ति को कैसे खुश किया जाए, कैसे उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया जाए, कैसे उसका दिल जीता जाए, कैसे उस पर एकाधिकार किया जाए, कैसे दूसरे प्रतिस्पर्धियों से मुकाबला और लड़ाई की जाए। क्या ये गड़बड़ी किए जाने के नतीजे नहीं हैं? क्या ऐसी स्थिति से बचना आसान है? (यह आसान नहीं है।) नतीजे गंभीर हो जाते हैं। इस समय क्या किसी का दिल अभी भी परमेश्वर के सामने शांत रह सकता है? जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो क्या वे अभी भी उन्हें आत्मसात कर सकते हैं? क्या अभी भी उनके पास प्रकाश हो सकता है? सभाओं के दौरान क्या वे अभी भी परमेश्वर के वचनों पर चिंतन और संगति करने और दूसरों को परमेश्वर के वचन साझा करते हुए सुनने की मनःस्थिति में होंगे? वे नहीं होंगे; उनके हृदय में वासना, उनका प्रेम-पात्र भरा होगा, उसमें कोई भी गंभीर मामला नहीं होगा—यहाँ तक कि परमेश्वर भी उनके हृदय से चला जाएगा। इसके बाद इस बात पर विचार किया जाता है कि प्रेम का अनुभव कैसे किया जाए, रोमांटिक कैसे हुआ जाए, इत्यादि, और परमेश्वर में विश्वास करने की इच्छा पूरी तरह से गायब हो जाती है। क्या ये नतीजे अच्छे हैं? क्या लोग यही देखना चाहते हैं? (नहीं।) क्या फुसलाए जाने और प्रलोभन में पड़ने के नतीजे ऐसे होते हैं जिन्हें लोग रोक सकते हैं? क्या लोग इन नतीजों को नियंत्रित कर सकते हैं? क्या यह तय करना उन पर निर्भर है? क्या वे अपने हृदय में जब चाहें तब इसे रोकने में सक्षम होने के स्तर तक पहुँच सकते हैं? कोई भी इसे प्राप्त नहीं कर सकता। यह लोगों पर ऐसे अनुचित संबंधों के कारण पैदा होने वाले व्यवधानों का दुष्परिणाम है। जब किसी के हृदय से परमेश्वर अनुपस्थित होता है और कोई अब परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ना चाहता तो क्या दुष्परिणाम होते हैं? क्या अभी भी उद्धार की आशा रहती है? उद्धार की आशा शून्य हो जाती है। सब-कुछ खो जाता है; पहले समझे गए वे थोड़े-से धर्म-सिद्धांत, खुद को परमेश्वर के लिए खपाने का निश्चय और संकल्प और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने की इच्छा, सब-कुछ छूट जाता है—ये दुष्परिणाम होते हैं। लोग परमेश्वर से दूर हो जाते हैं और अपने दिलों में उसे अस्वीकार कर देते हैं और परमेश्वर भी उन्हें अस्वीकार कर देता है। यह ऐसा नतीजा नहीं है जिसे परमेश्वर में विश्वास करने वाला और उसका अनुसरण करने वाला कोई भी व्यक्ति देखना चाहता हो, न ही यह कोई ऐसा तथ्य है जिसे परमेश्वर का कोई भी अनुयायी स्वीकार सकता हो। लेकिन जब लोग ऐसे प्रलोभनों में पड़कर अनुचित संबंधों के भंवर में फँस जाते हैं तो उनके लिए खुद को इससे बाहर निकाल पाना मुश्किल हो जाता है और खुद पर नियंत्रण तो वे बिल्कुल ही नहीं रख पाते। इसलिए ऐसे अनुचित संबंधों को प्रतिबंधित करना चाहिए। गंभीर मामलों में, जो लोग लगातार विपरीत लिंग के व्यक्ति को परेशान करते और सताते हैं, उन्हें तुरंत और तत्परता से कलीसिया से दूर कर देना चाहिए, ताकि वे कलीसियाई जीवन में व्यवधान पैदा न करें और इससे भी बढ़कर, और लोगों को प्रलोभन में फँसने से रोका जा सके। क्या यह नजरिया उचित है? (हाँ।)
अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों की बारहवीं मद में, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को प्रत्येक कार्य में अपना अधिकतम प्रयास करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि परमेश्वर के चुने हुए लोग एक सामान्य कलीसियाई जीवन जी सकते हैं, भाई-बहनों को कलीसियाई जीवन में किसी भी हस्तक्षेप या व्यवधान से सुरक्षित रखा जा सकता है। इसका मतलब है उन तमाम भाई-बहनों की सुरक्षा करना जो सामान्य कलीसियाई जीवन जी सकते हैं। असल में किसकी सुरक्षा की जानी चाहिए? भाई-बहनों की सुरक्षा की जानी चाहिए ताकि वे सभाओं के दौरान शांति से परमेश्वर के सामने आ सकें और शांतिपूर्वक प्रार्थना करते हुए परमेश्वर के वचन पढ़ सकें और उन्हें साझा कर सकें; साथ ही, भाई-बहन दत्तचित्त होकर परमेश्वर से प्रार्थना करने, परमेश्वर के इरादे खोजने, परमेश्वर से प्रबुद्धता और रोशनी खोजने, परमेश्वर की मौजूदगी प्राप्त करने और परमेश्वर के आशीष और मार्गदर्शन प्राप्त करने में सक्षम हो पाएँ। यह तमाम भाई-बहनों का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण हित है और यह सभी के लिए आवश्यक है; यह इस बात से संबंधित है कि क्या उन्हें बचाया जा सकता है और क्या उन्हें एक अच्छा गंतव्य मिल सकता है। इसलिए जो लोग कलीसिया के भीतर अनुचित संबंधों में लिप्त हों, उन्हें सख्ती से प्रतिबंधित करना, अलग-थलग करना या बाहर निकालना आवश्यक है; खास तौर पर जो लोग स्त्री-पुरुषों के बीच के संबंधों में लिप्त हों, उनका कड़ाई से पर्यवेक्षण किया जाना चाहिए। पर्यवेक्षण का क्या मतलब है? अगर यह सिर्फ एक छोटा मामला हो तो उन्हें उजागर कर उनकी काट-छाँट करनी चाहिए और उन्हें तुरंत रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए और उन्हें दूसरों को प्रभावित करने से रोकना चाहिए। अगर यह एक गंभीर मामला हो तो निर्णायक रूप से और बिना किसी हिचकिचाहट के कार्रवाई करनी जरूरी है; उन्हें जल्दी से जल्दी कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए ताकि वे और ज्यादा लोगों को परेशान न कर सकें। अगर वे परेशान करना ही चाहते हैं तो बाहर दुनिया में करें, जिसे चाहें उसे परेशान करें; इतना कहना पर्याप्त है कि उन्हें कलीसियाई जीवन में सत्य का अनुसरण करने वाले तमाम भाई-बहनों को परेशान नहीं करने देना चाहिए। यह इस बारहवीं जिम्मेदारी के संबंध में अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कार्य के लिए प्राथमिक सिद्धांत और लक्ष्य है।
ख. समलैंगिक संबंध
अनुचित संबंधों के मुद्दे पर हमने अभी जिस विषय पर मुख्य रूप से संगति की, वह था स्त्री-पुरुषों का अनुचित संबंधों में लिप्त होना। जहाँ इसमें विपरीत लिंग के व्यक्ति को फुसलाना, लुभाना, दिखाना और छेड़ना; सक्रिय रूप से उसके पास जाना और उसके करीब आने की कोशिश करना; और सभाओं में अक्सर जानबूझकर या अनजाने उसके पास बैठने की कोशिश करना शामिल है; लेकिन इसके अलावा, सिर्फ एक व्यक्ति को ही नहीं फुसलाना, बल्कि पहला प्रयास विफल होने पर दूसरे के पास चले जाना, ताकि कलीसिया में विपरीत लिंग के कई सदस्य परेशान हों, तो यह मुद्दा गंभीर हो जाता है। इसमें स्त्री-पुरुषों के बीच अनुचित संबंध शामिल हैं। विपरीत लिंग के व्यक्ति के साथ संबंधों के अलावा समान लिंग के लोगों के बीच भी कुछ अनुचित संबंध होते हैं। अगर समान लिंग के दो लोग खास तौर से मैत्रीपूर्ण संबंध रखते हैं, एक-दूसरे को काफी समय से जानते हैं और एक-दूसरे के काफी करीब हैं तो उनका अक्सर मिलना-जुलना उचित है। लेकिन जब यह मेल-जोल देह के कामुक संबंधों में लिप्त होने तक बढ़ जाता है तो ऐसे संबंध भी अनुचित संबंधों के रूप में वर्गीकृत किए जाने चाहिए। अगर एक ही लिंग के दो लोगों के बीच अक्सर शारीरिक संपर्क होता है, यहाँ तक कि वे एक-दूसरे के साथ आमतौर पर उत्तेजक प्रकृति की भाषा का इस्तेमाल करते हैं और दोनों अक्सर एक-दूसरे के गले में हाथ डाले या ज्यादा स्पष्ट व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हुए देखे जा सकते हैं तो समय के साथ सभी के लिए यह स्पष्ट हो जाता है : “ऐसा नहीं है कि ये दोनों एक-दूसरे की मदद करते हैं या इनका व्यक्तित्व मेल खाता है; बल्कि ये सामान्य मानवता के दायरे में बातचीत नहीं करते। यह समलैंगिकता है!” अब ज्यादातर लोग समझते हैं कि समलैंगिकता एक अनुचित संबंध है, जो विपरीत लिंगों के व्यक्तियों के बीच के संबंध से भी ज्यादा गंभीर और अनुचित है। अगर कलीसिया के भीतर ऐसे संबंध मौजूद हैं तो वे महामारी की तरह फैल सकते हैं, जिससे कुछ लोग इस तरह के प्रलोभन और बहकावे में आ सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि वे अतीत में समलैंगिकता में लिप्त रहे हैं लेकिन उन्होंने स्वेच्छा से ऐसा नहीं किया। इस बात को अलग रखते हुए कि वे वाकई समलैंगिक हैं या नहीं या उनका यौनिक रुझान किस ओर है, अगर वे बहकावे में आकर इस तरह के प्रलोभन में पड़ सकते हैं—फिलहाल इस बात को छोड़ देते हैं कि उन्होंने ऐसा स्वेच्छा से किया या निष्क्रिय रूप से—तो सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि वे इससे परेशान थे। उनके इस दावे से आँकें कि उन्होंने ऐसा स्वेच्छा से नहीं किया, तो वे पीड़ित थे। इसलिए अगर समलैंगिक लोग समान लिंग के अन्य लोगों को फुसलाते और लुभाते हैं, तो जो लोग लुभाए जाते हैं, हालाँकि जरूरी नहीं कि वे खुद समलैंगिक हों, किसी के बहकावे में आकर समलैंगिक बन सकते हैं। क्या यह एक खतरनाक स्थिति नहीं है? ऐसे लोगों को समलैंगिक क्यों कहा जाता है? विषमलैंगिक व्यक्तियों द्वारा कई लोगों को फुसलाना व्यभिचार की श्रेणी में आता है, जो एक अनुचित संबंध है। इसलिए जब एक ही लिंग के दो लोग, जिनमें एक करीबी संबंध है और जो एक-दूसरे के साथ अच्छी तरह से रहते हैं, एक-दूसरे का हाथ थामते हैं और एक-दूसरे से गले मिलते हैं, जो सब सामान्य है, तो यह उन्हें समलैंगिक के रूप में परिभाषित किए जाने तक कैसे बढ़ सकता है? यह उनके बीच का यौन संबंध है—जब इस स्तर का संबंध स्थापित हो जाता है तो यह समलैंगिक हो जाता है। जब वे एक-दूसरे के कंधों पर अपनी बाँहें रखते हैं, एक-दूसरे की गर्दन से लिपटते हैं या एक-दूसरे को कमर से पकड़ते हैं तो यह समान लिंग के व्यक्तियों के बीच सामान्य शारीरिक संपर्क नहीं होता; बल्कि यह वासना से प्रेरित शारीरिक संपर्क होता है, जिसकी प्रकृति भिन्न है और इस तरह यह अनुचित संबंधों की श्रेणी में आता है। कलीसिया के ज्यादातर लोगों के लिए ऐसे समलैंगिकों को देखना शिक्षाप्रद है या नहीं? (नहीं, यह शिक्षाप्रद नहीं है।) क्या ज्यादातर लोग इसे देखने के बाद परेशान हो जाते हैं? अगर तुम स्थिति से अनभिज्ञ हो और वे अपना हाथ तुम्हारी गर्दन या कमर के चारों ओर रख दें, यहाँ तक कि तुम्हारा चेहरा चूम लें, तो क्या तुम परेशान होगे? (हाँ।) परेशान होने के बाद तुम्हारा दिल शांत होगा या बेचैन? (मुझे घृणा महसूस होगी।) तो क्या पाप करने का एहसास होगा? अगर तुम यह नहीं समझते कि इस तरह के मुद्दे का सार क्या है और समान लिंग का कोई व्यक्ति तुम्हें छू लेता है या तुम से शारीरिक संपर्क करता है और बाद में तुम इस पर ज्यादा सोच-विचार नहीं करते तो इसमें कोई बड़ी समस्या नहीं है। लेकिन अगर तुम इसके बारे में सोचते हो और सोचते ही रहते हो और फिर तुम इस व्यक्ति को छोड़ नहीं सकते, ठीक वैसे ही जैसे कोई विपरीत लिंग के व्यक्ति के लिए लालायित हो सकता है, चाहे तुम अपनी व्यक्तिपरक चेतना में विरोध करो या न करो, तो तुम्हारे भीतर ऐसे विचारों का उभरना यह दर्शाता है कि तुम पहले ही परेशान हो चुके हो, है ना? इसलिए समलैंगिक संबंधों, इस तरह के अनुचित संबंधों, की प्रकृति कहीं ज्यादा गंभीर होती है। कुछ लोग विषमलैंगिकों में व्यभिचार और समलैंगिकता के बीच अंतर देखने में विफल रहते हैं और इन दोनों मुद्दों को समान समझते हैं। असल में समलैंगिकता की समस्या विषमलैंगिकों में व्यभिचार के मुद्दे से कहीं ज्यादा गंभीर है।
अगर समलैंगिक संबंधों में लिप्त व्यक्ति कलीसिया में दिखाई देते हैं और उन पर प्रतिबंध नहीं लगाया जाता तो वे सभी के लिए खतरा और व्यवधान पैदा करते हैं। किस तरह के व्यवधान? बाहर से, ज्यादातर लोग उनके साथ बातचीत करने पर उनकी मानवता में किसी समस्या का पता नहीं लगा पाते, लेकिन लंबे समय तक मेलजोल रखने से उनके विचार मैले और दिल काले हो जाते हैं। वे परमेश्वर में विश्वास करने का उत्साह खो देते हैं और किसी विशेष समस्या का सामना किए बिना वे परमेश्वर में विश्वास करने के लिए अनिच्छुक हो जाते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ने में रुचि खो देते हैं, अपने दिलों में परमेश्वर से अधिकाधिक दूरी महसूस करते हैं और उनके मन में अपनी आस्था त्यागने के बुरे विचार आते हैं। इसलिए कलीसिया के भीतर ऐसे अनुचित समलैंगिक संबंध न सिर्फ रोके और प्रतिबंधित किए जाने चाहिए; बल्कि उनमें लिप्त लोगों को तुरंत कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। यह बिल्कुल सही है। एक बार ऐसे व्यक्तियों का पता चलने पर, चाहे वे जो भी कर्तव्य निभाते हों या उनकी जो भी हैसियत हो, उन्हें तुरंत कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए, बिना बर्दाश्त किए! यह कलीसिया का विनियम है। यह विनियम क्यों लागू है? यह ठोस कारणों पर आधारित है। परमेश्वर ने मनुष्यों को नर और मादा के रूप में बनाया; आदम को बनाने के बाद उसकी साथी हव्वा थी, दूसरा आदम नहीं। समलैंगिक संबंधों में लिप्त लोगों के खिलाफ ऐसी कार्रवाई करना परमेश्वर के वचनों पर आधारित है और यह बिल्कुल सटीक है। कुछ लोग कह सकते हैं, “इन लोगों को पश्चात्ताप करने का मौका क्यों नहीं दिया जाता? ये युवा हैं; क्या इन्हें कुछ हास्यास्पद हरकतें नहीं करने देनी चाहिए?” नहीं! अन्य हास्यास्पद हरकतों से परिस्थितियों और प्रकृति के आधार पर अलग तरह से निपटा जा सकता हैं, लेकिन यह विशेष हास्यास्पद हरकत सिर्फ एक हास्यास्पद हरकत बिल्कुल नहीं है; इसे बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता और कलीसिया के भीतर ऐसी हरकत करने वाले व्यक्ति को तुरंत दूर कर देना चाहिए! अगर कोई संपूर्ण कलीसिया समलैंगिकों से बनी होती तो सभी को दूर किया जाता। ऐसी कलीसिया नहीं चाहिए, एक भी नहीं! यही सिद्धांत है। कुछ लोग कहते हैं, “कुछ लोग सिर्फ एक व्यक्ति के साथ समलैंगिक संबंध रखते हैं, उन्होंने दूसरों को नहीं फुसलाया है या किसी और को परेशान करना शुरू नहीं किया है। क्या ऐसे व्यक्तियों से भी निपटकर उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए?” अगर वे वास्तव में समलैंगिक हैं तो उन्हें कलीसिया में रहने देना परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच एक चालू टाइम बम रखने के समान है—यह देर-सबेर फटेगा ही। भले ही उन्होंने किसी समान लिंग वाले व्यक्ति को परेशान न किया हो, फुसलाया या सताया न हो, इसका मतलब यह नहीं है कि वे भविष्य में भी ऐसा नहीं करेंगे। हो सकता है उन्हें अभी तक कोई ऐसा व्यक्ति न मिला हो जिसे वे चाहते हों, जिसे वे पसंद करते हों या समय सही न हो और सभी में अभी भी आपसी परिचय और समझ की कमी हो। लेकिन जब समय सही और ऐसे लोगों के लिए उपयुक्त होगा, तो वे अपनी चाल चलेंगे। इसलिए ऐसे व्यक्तियों को बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करना चाहिए या उन्हें कलीसिया में नहीं रहने देना चाहिए, क्योंकि वे अप्राकृतिक और गैर-मानवीय हैं। कलीसिया को ऐसे लोग नहीं चाहिए। इस तरह के अनुचित संबंधों में लिप्त लोगों से इस तरह निपटना गलत या ज्यादती नहीं है। लेकिन कुछ लोग कहते हैं, “कुछ समलैंगिक काफी अच्छे प्रतीत होते हैं; उन्होंने कुछ भी बुरा नहीं किया होता, वे कानून और विनियमों का पालन करते हैं, बड़ों का सम्मान और छोटों से प्यार करते हैं, हमेशा अच्छे कर्म करते हैं, कुछ में गुण और कौशल भी होते हैं और कुछ कलीसिया में खास तौर से दान और मदद देते रहते हैं। हमें उन्हें कलीसिया में रहने देना चाहिए।” क्या यह विचार सही है? (नहीं।) चाहे तुम्हारे विचार सही हों या गलत, तुम्हें समलैंगिकों की प्रकृति समझने में सक्षम होना चाहिए। समलैंगिक संबंधों में लिप्त व्यक्तियों के लिए कलीसिया के अभ्यास का सिद्धांत उन्हें बाहर निकालना है। यह एक प्रशासनिक आदेश है जिसका कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता; सभी को इस सिद्धांत के अनुसार अभ्यास करना चाहिए।
इन दो तरह के अनुचित संबंधों की जिन अभिव्यक्तियों के बारे में हमने अभी-अभी संगति की है, उन्हें पहचानना, समझना और वर्गीकृत करना लोगों के लिए सबसे आसान है। ऐसे अनुचित संबंधों में लिप्त लोगों के बारे में एक तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उनसे निपटने के लिए उन्हें रोकने, प्रतिबंधित करने, अलग-थलग करने और बाहर निकालने जैसे उपायों का इस्तेमाल करके अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। दूसरे, भाई-बहनों को भी इन दो तरह के अनुचित संबंधों में लिप्त लोगों को पहचानकर उनसे दूर रहना चाहिए, ताकि वे उनके बहकावे में न आएँ और प्रलोभन में न पड़ें, जो परमेश्वर में उनकी आस्था और उद्धार प्राप्त करने के लिए सत्य के उनके अनुसरण को प्रभावित कर सकता है। एक बार प्रलोभन में फँस जाने के बाद खुद को छुड़ाना मुश्किल होता है। ज्यादातर लोगों को इन दो तरह के लोगों को पहचानने में सक्षम होना चाहिए। उस तरह व्यवहार मत करो जिस तरह लोग समाज में व्यवहार करते हैं, जैसे कि इस बात पर गौर न करने का दिखावा करना कि कौन किसके साथ इश्कबाजी करता है, व्यभिचार में लिप्त लोगों के प्रति उचित दृष्टिकोण या रुख न अपनाना, जब तक व्यक्ति के अपने हित शामिल न हों तब तक ऐसे व्यक्तियों के साथ सामान्य रूप से मेलजोल करने में सक्षम होना, उस तरह बोलना जिस तरह कि व्यक्ति आमतौर पर बोलता है, मानो कुछ भी गलत न हो। ऐसे लोग जिस तरह दूसरों के साथ व्यवहार करते हैं, क्या उसमें कोई सिद्धांत होता है? बिलकुल नहीं। तमाम गैर-विश्वासी सांसारिक आचरणों के फलसफों के अनुसार जीते हैं, खुद को बचाने के लिए किसी को नाराज न करने का प्रयास करते हैं, लेकिन परमेश्वर का घर गैर-विश्वासी समाज से बिल्कुल अलग है। परमेश्वर के घर में सत्य की सत्ता रहती है। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग दूसरों के साथ सत्य सिद्धांतों के आधार पर व्यवहार करें। परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग सत्य स्वीकार रहे हैं और खुद को सत्य से सुसज्जित कर रहे हैं और दूसरों को पहचानने और उनके साथ व्यवहार करने के लिए उसका उपयोग कर रहे हैं, ऐसा सिर्फ कलीसियाई जीवन बनाए रखने और भाई-बहनों की रक्षा करने के लिए ही नहीं, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण रूप से खुद को प्रलोभन की पीड़ा से बचाने और प्रलोभन में फँसने से बचने के लिए कर रहे हैं। जितनी जल्दी तुम ऐसे व्यक्तियों को पहचानकर उनसे खुद को दूर कर लोगे, उतना ही तुम खुद को प्रलोभन से दूर रख पाओगे और सुरक्षित रह पाओगे। तुम्हें अनुचित संबंधों में लिप्त व्यक्तियों के साथ इसी तरह व्यवहार करना चाहिए; यह सत्य सिद्धांतों के अनुसार और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है।
ग. निहित स्वार्थों के अनुचित संबंध
अनुचित संबंधों का एक और प्रकार निहित स्वार्थों का है। लोग स्वार्थों की खातिर एक-दूसरे की चापलूसी, उन्नयन, प्रशंसा और खुशामद करने जैसे काम करते हैं। कलीसियाई जीवन में इस तरह का कुटिल आचरण और दुष्ट माहौल लाना दूसरों के द्वारा शांति से परमेश्वर के वचन पढ़ने या साझा किए गए अनुभव सुनने को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। जब निहित स्वार्थों का संबंध स्थापित हो जाता है तो उसमें शामिल व्यक्ति अक्सर अपने फायदे के लिए ऐसी बातें कहते या करते हैं जो उनकी इच्छाओं के विरुद्ध होती हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई देखता है कि दूसरा व्यक्ति किसी तरह से उसके व्यवसाय या हितों को लाभ पहुँचा सकता है तो वह उस व्यक्ति को अपना अगुआ चुन सकता है, उसे किसी खास कर्तव्य के लिए नामित कर सकता है या वह व्यक्ति जो कुछ भी कहता है उससे सहमत हो सकता है और चापलूसी करने के लिए यह दावा कर सकता है कि चाहे यह सत्य के अनुरूप हो या नहीं, लेकिन सही है। उसकी चापलूसी करने के लिए वह कई ऐसे काम करता है जो सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होते और सत्य के विरुद्ध होते हैं, जो लोगों, घटनाओं और चीजों को पहचानने और सत्य में प्रवेश करने में परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परेशान करते हैं। ऐसे लोग गलत और विकृत चीजों को सही बताते हैं, इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं को परमेश्वर के इरादों के अनुरूप बताते हैं, और इसी तरह की अन्य बातें करते हैं, और इस तरह लोगों के विचारों और उनके अनुसरण की सही दिशा और लक्ष्य में बाधा डालते हैं। ये सभी व्यवहार उनके द्वारा निहित स्वार्थों के संबंध बनाए रखने से उत्पन्न होते हैं। अपने हितों की रक्षा करने और उन्हें बनाए रखने के लिए वे अपने जमीर के विरुद्ध बोल सकते हैं और सिद्धांतों के विरुद्ध कार्य कर सकते हैं। वे जो कहते और करते हैं, उससे कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ आती हैं और विध्वंस होता है, जिसके परिणामस्वरूप अंततः और ज्यादा लोग परमेश्वर के वचनों की संगति करने, प्रार्थना करते हुए परमेश्वर के वचन पढ़ने या सामान्य और व्यवस्थित तरीके से व्यक्तिगत अनुभव साझा करने में असमर्थ हो जाते हैं जिससे लोगों के जीवन प्रवेश में नुकसान होता है। जब लोग अपनी व्यक्तिगत अनुभवजन्य समझ की संगति करते हैं तो अक्सर लोगों के निहित स्वार्थों के संबंध उसमें हस्तक्षेप करते हैं; कुछ मौखिक हस्तक्षेप होते हैं, कुछ व्यवहारगत हस्तक्षेप होते हैं और कुछ अन्य लक्ष्यों और दिशाओं से संबंधित हस्तक्षेप होते हैं। सत्य पर संगति करते समय और प्रार्थना करते हुए परमेश्वर के वचन पढ़ते समय लोगों को अक्सर बाधित किया जाता है, अक्सर विषय से भटकाया जाता है और अलग-अलग मात्राओं में अक्सर प्रभावित किया जाता है। इसलिए जो लोग निहित स्वार्थों के अनुचित संबंधों और संबंधित व्यवहारों में लिप्त हैं, उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। इन मुद्दों का सामना करने वाले कलीसिया के अगुआओं को आँखें नहीं मूँदनी चाहिए और उन्हें निश्चित रूप से ऐसे बुरे कामों में लिप्त नहीं होना चाहिए और कलीसियाई जीवन में ऐसे मामलों के होने को अनदेखा नहीं करना चाहिए। इसके बजाय उन्हें सतर्क और समझदार होना चाहिए और तुरंत उन्हें रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए।
निहित स्वार्थों के अनुचित संबंधों में लिप्त होना कलीसिया में आम बात है। उदाहरण के लिए, अगर कोई कलीसिया के अगले अगुआ का चुनाव लड़ने की योजना बनाता है, तो वह लोगों के एक समूह को इसमें शामिल कर उन्हें अपने विचार बता सकता है। ये लोग मूर्ख नहीं होते; वे संकेत देते हैं : “अगर हम तुम्हें चुन लें तो तुम हमें क्या लाभ प्रदान करोगे?” इस तरह उनके बीच निहित स्वार्थों पर आधारित संबंध बन जाता है। अपने निहित स्वार्थ बनाए रखने के लिए वे सभाओं के दौरान अक्सर मुद्दों पर एक-जैसा रुख अपनाते हैं। दूसरों को पता चलने दिए बिना या उनकी पृष्ठभूमि जाने बिना वे हमेशा इस बारे में बात करते हैं कि अमुक व्यक्ति कितना अच्छा है, दूसरा व्यक्ति जो करता है उसे कैसे परमेश्वर की अनुमति और आशीष प्राप्त है, किसने चढ़ावा चढ़ाया है और कितना चढ़ाया है और किसने परमेश्वर के घर में क्या योगदान दिया है, वे अक्सर एक-दूसरे की प्रशंसा के गीत गाते हैं और एक-दूसरे की सराहना करते हैं। कलीसियाई जीवन में वे अक्सर ये चीजें पहले से बनी सहमति और अपने आपसी हित बनाए रखने के लिए करते हैं। उदाहरण के लिए, कोई कह सकता है, “अगर तुम मुझे अगुआ चुनते हो तो अपना पद ग्रहण करने के बाद मैं तुम्हें समूह का अगुआ बना दूँगा।” क्या वे सभी व्यक्तिगत लाभ नहीं खोज रहे हैं? अपने हित साकार करने के लिए क्या उन्हें कुछ खास बातें कहने या कुछ खास क्रियाकलाप करने की जरूरत नहीं पड़ती? इस तरह वे सभाओं के दौरान विभिन्न प्रकार की अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं, जिनका उद्देश्य उनके बीच पहले बनी आम सहमति और उसमें शामिल हित बनाए रखना होता है। अपना लक्ष्य प्राप्त करने से पहले वे जो कुछ भी करते हैं उसका ज्यादातर हिस्सा हितों से प्रेरित होता है। तो क्या वे जो कहते और करते हैं उसके पीछे के इरादे और उद्देश्य बिल्कुल अनुचित नहीं होते? क्या उनके बीच स्थापित संबंध अनुचित नहीं होता? क्या कलीसिया के भीतर ऐसे अनुचित संबंध प्रतिबंधित नहीं किए जाने चाहिए? कुछ लोग कहते हैं, “अगर उनका पता नहीं चलेगा तो हम उन्हें प्रतिबंधित कैसे कर सकते हैं?” ऐसे मामले किए ही न जाएँ तो बात अलग है, वरना जब किए जाते हैं तो पता लगाए जा सकते हैं और उजागर किए जा सकते हैं। अगर लोग किसी ऐसी चीज की मिलावट किए बिना जो सत्य से संबंधित नहीं है, सत्य और अपनी व्यक्तिगत समझ और अनुभवों के बारे में सही तरीके से संगति करते हैं तो हर कोई उसे समझ सकता है। अगर मिलावट हो तो लोग उसे भी पहचान सकते हैं। इसलिए कलीसिया में आपसी हितों के रखरखाव के लिए बनने वाले वाले विभिन्न लेनदेनगत संबंध भी प्रतिबंधित किए जाने चाहिए; कम से कम, इसमें शामिल लोगों को चेतावनी देनी चाहिए और उनके साथ संगति करनी चाहिए, ताकि वे अपने मुद्दे पहचान सकें और ऐसी गतिविधियों में शामिल होने के गंभीर परिणाम समझ सकें, साथ ही भाई-बहनों को भी इन मामलों की प्रकृति समझने में सक्षम बना सकें। इस तरह की गतिविधि का ज्यादातर लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है? इससे लोग यह सोचने लगते हैं कि कलीसिया और समाज के बीच ज्यादा अंतर नहीं है, दोनों ही ऐसे स्थान हैं जहाँ हर कोई एक-दूसरे का शोषण करता है और लोग अपने लाभों के लिए लेनदेन करते हैं। यह व्यवहार कोई मामूली व्यवधान नहीं है बल्कि कलीसियाई जीवन में एक गंभीर व्यवधान बनता है। मुझे बताओ, क्या चुनाव में वोट पाने के लिए लगातार लोगों को फुसलाने, चुनाव में हेरफेर करने और अगुआ का पद हासिल करने के लिए असामान्य तरीके इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति अच्छा व्यक्ति होता है? स्पष्ट रूप से, इस तरह चुने गए अगुआ अच्छे लोग नहीं होते। क्या उनके हत्थे चढ़े भाई-बहन किसी भलाई की उम्मीद कर सकते हैं? अगर कोई व्यक्ति सिद्धांतों के आधार पर चुने जाने के बजाय असामान्य तरीकों से अगुआ बनता है तो ऐसा अगुआ निश्चित रूप से अच्छा व्यक्ति नहीं होता। अगर उसे अगुआई करने दी जाती है तो यह भाई-बहनों को किसी बुरे व्यक्ति, किसी मसीह-विरोधी को सौंपने के बराबर है, जिसमें ज्यादातर लोग प्रभावी रूप से शैतान के हाथों में सौंप दिए जाते हैं; ऐसी स्थिति में उनके कलीसियाई जीवन के नतीजे स्वतः स्पष्ट होंगे। यह एक प्रकार का हितों से जुड़ा अनुचित संबंध है। चाहे समूहों के बीच हों या व्यक्तियों के बीच, जब लोगों के बीच बने संबंधों में हित शामिल होते हैं तो वे परमेश्वर के घर के हित बनाए रखने के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के बजाय अपने क्रियाकलापों में व्यक्तिगत लाभों की ओर ज्यादा झुकेंगे। ऐसे संबंध सामान्य मानवता के जमीर और विवेक पर आधारित नहीं होते, बल्कि जमीर और विवेक दोनों के विपरीत होते हैं और सत्य सिद्धांतों के तो और भी ज्यादा विपरीत होते हैं। वे जो कहते, करते और प्रदर्शित करते हैं, उसके साथ-साथ उनके इरादे, उद्देश्य, प्रेरणाएँ, स्रोत इत्यादि सभी हितों से प्रेरित होते हैं; इस प्रकार इन संबंधों को अनुचित संबंधों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। चूँकि ऐसे संबंधों का होना परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए कलीसियाई जीवन जीने में परेशानी पैदा करता है, ज्यादातर लोगों के लिए परमेश्वर के वचन पढ़ना और परमेश्वर के सामने शांति से सत्य पर संगति करना मुश्किल बना देता है, इसलिए कलीसिया के भीतर ऐसे अनुचित संबंध प्रतिबंधित कर देने चाहिए। जो मामले गंभीर हों और बुरे लोगों का व्यवहार दर्शाते हों, उनके लिए चेतावनी जारी करनी चाहिए और अगर उनमें शामिल लोग किसी भी हालत में पश्चात्ताप न करते हों तो उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए।
घ. व्यक्तियों के बीच नफरत
अनुचित अंतर्वैयक्तिक संबंधों की कई अभिव्यक्तियाँ होती हैं। उनमें से एक और है व्यक्तिगत नफरत। उदाहरण के लिए, परिवारों में सास-बहू के बीच, ननद-भाभी के बीच या भाई-भाई के बीच मनमुटाव या विवाद हो सकता है या फिर वह पड़ोसियों के बीच भी हो सकता है। कभी-कभी यह नफरत में भी बदल जाता है और तब शत्रुओं की तरह ये लोग परस्पर सहयोग या मिलकर काम नहीं कर पाते, यहाँ तक कि एक-दूसरे से आँख भी नहीं मिला सकते और जब कभी ऐसा करते हैं तब बहस और लड़ाई करते हैं। जब वे सभाओं में एक-दूसरे को देखते हैं तब भी उनके दिल नफरत से भरे होते हैं और परमेश्वर के वचन का आनंद लेने और खुद को जानने के लिए वे परमेश्वर के सामने शांत नहीं रह पाते और निश्चित रूप से वे एक सामान्य सभा के आयोजन के लिए अपने पूर्वाग्रह और नफरत नहीं छोड़ पाते। इसके बजाय जब भी वे मिलते हैं तो लड़ाई-झगड़ा करने लगते हैं, वे एक-दूसरे की कमियाँ उजागर कर एक-दूसरे पर हमला करते हैं, यहाँ तक कि एक-दूसरे को गाली भी देते हैं, जिसका परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऐसे लोग छद्म-विश्वासी हैं, वे गैर-विश्वासी हैं। जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास और सत्य से प्रेम करते हैं, चाहे कुछ भी हो जाए या उनका किसी से भी विवाद हो या वे किसी के भी प्रति पूर्वाग्रह रखते हों, वे सत्य खोजने, आत्मचिंतन कर खुद को जानने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार मुद्दे हल करने में सक्षम होते हैं। अगर उन्होंने कुछ गलत किया होता है और अगर वे किसी के गुनहगार होते हैं तो वे आगे बढ़कर क्षमा माँग सकते हैं और अपनी गलतियाँ स्वीकार सकते हैं; वे सभाओं में बहस करने या परेशानी पैदा करने का सहारा बिल्कुल नहीं लेते। कलीसिया में विवादों में संलग्न होना और हंगामा खड़ा करना संतों की मर्यादा के अनुरूप बिल्कुल नहीं होता; ऐसा व्यवहार परमेश्वर को बहुत लज्जित करता है। इस तरह पेश आने वाले लोगों में मानवता, जमीर और विवेक की बहुत कमी होती है; वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी बिल्कुल नहीं होते। यह समस्या नए विश्वासियों में अपेक्षाकृत ज्यादा आम है। चूँकि नए विश्वासी सत्य नहीं समझते और उनके भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध नहीं किए गए होते, अतः उनके लिए कई चीजों पर विवाद करना, यहाँ तक कि अपना गरममिजाज फूटने देना और खुद को झगड़ों में उलझाना आसान होता है। अगर इन भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं किया जाता तो लोग अपने दिलों में नफरत पालेंगे और कलीसियाई जीवन जीते हुए भी वे इस गरममिजाज स्वभाव और नफरत के साथ अंतहीन विवादों में उलझे रहेंगे। यह कलीसियाई जीवन को प्रभावित करता है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा परमेश्वर का वचन खाने-पीने, परमेश्वर की स्तुति करने और परमेश्वर के वचनों की अपनी अनुभवजन्य समझ साझा करने को प्रभावित करता है। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को भी सीधे प्रभावित करता है। कुछ नए विश्वासी छोटी-छोटी बातों पर असहमति के कारण आसानी से विवादों में पड़ जाते हैं। उदाहरण के लिए, सभा शुरू होने से पहले हो सकता है कुछ लोग एक भजन गाना चाहते हों जबकि दूसरे लोग कोई दूसरा भजन गाना चाहते हों—ऐसी छोटी-सी बात भी आसानी से विवादों को जन्म दे सकती है। इसी तरह किसी मामले पर अलग-अलग राय कभी-कभी तेजी से बहस में बदल सकती है, यहाँ तक कि बोलते समय लिहाज नहीं रखने के कारण किसी को बुरा लगना भी बहस की चिंगारी भड़का सकता है। नए विश्वासियों के बीच इस तरह की घटनाएँ आम होती हैं। जब सभाओं के दौरान विवाद उत्पन्न होते हैं तो वे स्वाभाविक रूप से कलीसियाई जीवन में व्यवधान पैदा करते हैं। क्या यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को भी परेशान नहीं करता? जिन लोगों में तर्क-वितर्क करने और सही-गलत पर बहस करने की प्रवृत्ति होती है, वे सर्वाधिक आसानी से कलीसियाई जीवन में व्यवधान पैदा करते हैं। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों पर विचार न करके सिर्फ अपना अहं संतुष्ट करने और अपनी इज्जत चमकाने की परवाह करते हैं। ऐसा करके क्या वे कलीसियाई जीवन में व्यवधान पैदा नहीं करते? (हाँ, करते हैं।) कलीसिया ऐसी जगह है जहाँ भाई-बहन परमेश्वर के वचन खाने-पीने और उनका आनंद लेने के लिए इकट्ठे होते हैं; यह परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसकी आराधना करने की जगह है। यह व्यक्तिगत भड़ास निकालने की जगह बिल्कुल नहीं है और सही-गलत पर झगड़ा या बहस करने की जगह भी निश्चित रूप से नहीं है। जब ऐसे लोग इस तरह से व्यवधान पैदा करते हैं तो इसके क्या परिणाम होते हैं? इसका सीधा परिणाम सभाओं में आनंद न आने के रूप में सामने आता है; यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को जीवन-शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ बनाता है, यहाँ तक कि ज्यादातर लोगों को सुकून तक नहीं मिल पाता जिससे उन्हें अवर्णनीय पीड़ा होती है। समय बीतने के साथ कुछ लोग निष्क्रिय और कमजोर हो जाते हैं, यहाँ तक कि सभाओं में आने से भी कतराने लगते हैं। यह स्थिति ज्यादातर कलीसियाओं में आम है और इसे परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों ने अनुभव किया है। तो सभाओं में अक्सर होने वाली बहस और झगड़ों का मुद्दा कैसे हल किया जाए? इस मुद्दे से संबंधित परमेश्वर के वचनों के कई अंश चुनकर सभाओं के दौरान कई बार मिलकर पढ़ने चाहिए; फिर, सभी को सत्य पर संगति कर अपनी समझ साझा करनी चाहिए। इस नजरिये से कुछ नतीजे मिल सकते हैं। इससे न सिर्फ बहस करने की प्रवृत्ति रखने वाले लोग अपने अपराध पहचानकर पछतावा महसूस कर सकते हैं, बल्कि देखने वाले भी इस बात पर विचार कर सकते हैं कि कहीं उन्होंने भी तो समान परिस्थितियों में अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट नहीं किए और कहीं वे भी तो दूसरों के साथ बहस करने में सक्षम नहीं हैं—इस तरह देखने वाले भी खुद को जान सकते हैं। चाहे कोई विवादों में शामिल होता हो या न होता हो, परमेश्वर के वचनों के कई अंश कई बार पढ़ने के बाद वे अपने भ्रष्ट स्वभाव पहचान सकते हैं और देख सकते हैं कि भ्रष्ट स्वभावों से जीने का मतलब वास्तव में जमीर और विवेक की कमी होना और रत्ती भर भी मानवता न होना है। इस तरह से कलीसियाई जीवन जीने के प्रभाव बुरे नहीं होते, है ना? हालाँकि किसी सभा की शुरुआत में विवाद हो सकते हैं, लेकिन अगर बाद में हर कोई परमेश्वर के वचन पढ़ सकता हो, आत्मचिंतन करने के लिए परमेश्वर के सामने शांत रह सकता हो, सत्य से समस्याएँ हल कर सकता हो और सच में पश्चात्ताप कर सकता हो—अगर ये नतीजे हासिल किए जा सकते हों—तो यही सामान्य कलीसियाई जीवन है। इसलिए सभाओं के दौरान जो कुछ भी होता है वह जरूरी नहीं कि बुरा ही हो; अगर सभी दत्तचित्त होकर सत्य खोजने के लिए आते हैं और परमेश्वर के वचनों के कई प्रासंगिक अंश कुछ बार मिलकर पढ़ते हैं तो भले ही समस्याएँ पूरी तरह से हल न की जा सकें, फिर भी लोग कुछ हद तक उनकी असलियत जान पाएँगे और कुछ विवेक प्राप्त कर पाएँगे—इससे सभी को लाभ होगा। क्या तुम लोग कहोगे कि ऐसा कलीसियाई जीवन पाना मुश्किल है? यह किसी बुरी चीज को अच्छी चीज में बदलना है, यह कुछ हद तक छुपा हुआ आशीष है। लेकिन इससे लोगों को इस विचार का समर्थन नहीं करना चाहिए कि कलीसियाई जीवन में विवाद और बहस वांछनीय हैं; इसका समर्थन बिल्कुल नहीं किया जा सकता। विवाद और बहस आसानी से गुस्से और झगड़े का कारण बन सकते हैं, जो सभी के लिए बुरा है और इसमें शामिल लोगों के लिए व्यक्तिगत संकट पैदा करता है। इसलिए मुद्दे हल करने के लिए सत्य खोजना सबसे अच्छा तरीका है और सत्य समझने से भविष्य में इसी प्रकार की घटनाएँ प्रभावी ढंग से रोकी जा सकती हैं। वैमनस्य और टकराव पैदा होने पर समझदार व्यक्तियों को धैर्य और सहनशीलता का रवैया अपनाना चाहिए। चूँकि उनमें भी भ्रष्ट स्वभाव होते हैं और वे दूसरों को आसानी से आहत कर सकते हैं, इसलिए अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने पर उन्हें तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और मुद्दे हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। इस तरह, सभा के समय तक व्यक्तिगत आक्रोश और नफरत सब गायब हो जाते हैं, जिससे उनके दिलों में मुक्ति की भावना पैदा होती है और भाई-बहनों के साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से रहना आसान हो जाता है, जिससे सामंजस्यपूर्ण सहयोग को बढ़ावा मिलता है। जब भी कोई किसी भाई या बहन को अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते देखता है तो उसकी आलोचना या निंदा करने या उसे अस्वीकार करने के बजाय उसे प्यार से मदद की पेशकश करनी चाहिए। हो सकता है मदद की एक-दो कोशिशों के बाद भी समस्याएँ हल न हों, लेकिन फिर भी धैर्य और सहनशीलता अपेक्षित है। अगर वे कलीसियाई जीवन में विघ्न नहीं डालते या जानबूझकर बुरे काम नहीं करते तो उनके साथ अंत तक धैर्य और सहनशीलता से पेश आना चाहिए—एक दिन आएगा जब उन्हें समझ आ जाएगी। अगर किसी में बुरी मानवता है और वह कोई मदद लेने से इनकार करता है, सत्य नहीं स्वीकारता चाहे उस पर किसी भी तरह से संगति की जाए तो वह ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास नहीं करता और ऐसे व्यक्तियों से दूरी बनाए रखना जरूरी है। अगर वह कलीसियाई जीवन में बार-बार विघ्न डालता है तो उसके साथ सिद्धांतों के अनुसार पेश आना और निपटना चाहिए। अगर वह बुरा आदमी नहीं है, बल्कि अक्सर सिर्फ अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है, खुद से घृणा करता है लेकिन उस समय कुछ और करने में असमर्थ महसूस करता है तो ऐसे व्यक्तियों की प्रेम से मदद करनी चाहिए; उसे सत्य समझने और भ्रष्टता के अपने खुलासों को पहचानने में मदद करनी चाहिए—इस तरह भ्रष्टता के उसके खुलासे धीरे-धीरे कम हो जाएँगे। अगर भाई-बहन इन लोगों से कभी-कभार ही प्रभावित होते हैं तो इन्हें माफ किया जा सकता है; अगर उनकी मानवता में कोई बड़ी समस्या न हो और वे धोखेबाज या बुरे लोग न हों तो सत्य पर संगति के माध्यम से उन्हें समर्थन और सहायता देनी चाहिए। अगर वे सत्य स्वीकार सकते हों तो उनके साथ प्रेम से व्यवहार करना चाहिए। लेकिन अगर वे पश्चात्ताप करने से इनकार करते हों और कलीसियाई जीवन को लंबे समय तक नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हों तो कलीसिया के अगुआओं को उन्हें चेतावनी जारी करनी चाहिए और उन पर प्रतिबंध लगाने चाहिए। अगर वे सत्य स्वीकारने से लगातार इनकार करते हैं तो ऐसे व्यक्ति बुरे होते हैं। बुरे लोग किसी के साथ मिलजुलकर नहीं रह सकते, वे सड़े हुए सेब की तरह होते हैं और राक्षस होते हैं। उन्हें कलीसिया में रखने से सिर्फ गड़बड़ियाँ और विघ्न-बाधाएँ ही पैदा होंगी। इसलिए जो लोग बार-बार चेतावनी देने के बावजूद बदलने से इनकार करते हैं, उनसे बुरे लोगों की तरह निपटना चाहिए और उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। जो कोई भी अक्सर कलीसिया के जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में बाधा डालता है, वह छद्म-विश्वासी होता है और बुरा व्यक्ति होता है और उसे कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। चाहे वह व्यक्ति कोई भी हो या उसने अतीत में कैसे भी काम किया हो, अगर वह अक्सर कलीसिया के काम और कलीसिया के जीवन में बाधा डालता है, काट-छाँट से इनकार करता है, और हमेशा दोषपूर्ण तर्क के साथ खुद का बचाव करता है, तो उसे कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। यह दृष्टिकोण पूरी तरह से कलीसिया के काम की सामान्य प्रगति को बनाए रखने और पूरी तरह से सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप रहने वाले परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों की रक्षा करने के लिए है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश और कलीसिया के काम को कुछ बुरे व्यक्तियों के विवादों और अनुचित परेशानियों से प्रभावित नहीं होने देना चाहिए—यह इसके लायक नहीं है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए अनुचित भी है।
यदि बुरे लोग अक्सर कलीसिया में बाधाएँ पैदा करते हैं, जिनसे कलीसिया का जीवन अप्रभावी हो जाता है, तो सबसे अच्छा समाधान लोगों को वर्गीकृत करना और सभाओं को अलग-अलग समूहों में विभाजित करना है : सत्य से प्रेम और ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का पालन करने वालों को एक साथ रखा जाए; जो लोग सत्य का अनुसरण करना चाहते हैं, लेकिन अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते, उन्हें एक साथ रखा जाए; और जो विघ्न-बाधाएँ पैदा करना, दूसरों के बारे में गपशप करना, और दूसरों की आलोचना और निंदा करना पसंद करते हैं, उन्हें एक समूह में रखा जाए। इस तरह कलीसिया को मुख्य रूप से लोगों के तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है—तुम कह सकते हो कि सभी को उनकी किस्म के आधार पर बाँटा जा सकता है—इस प्रकार यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि समूह सभाओं के दौरान वे एक-दूसरे के साथ हस्तक्षेप न करें। बुरी मानवता वाले लोग, चाहे जितना भी बिना सोचे-समझे गलत काम करें, दूसरों को प्रभावित नहीं कर सकेंगे बल्कि केवल खुद को नुकसान पहुँचाएँगे। कुछ लोगों का स्वभाव बहुत क्रूरतापूर्ण होता है। यदि कोई उन्हें चोट पहुँचाने वाली या अपमानित करने वाली बात करता है, तो वे उस व्यक्ति से घृणा करते हैं, और उस पर हमला करने और प्रतिशोध लेने के तरीकों के बारे में सोचते हैं। उन्हें सत्य की चाहे जैसी संगति दी जाए, या उनकी कैसी भी काट-छाँट की जाए, वे इसे स्वीकार नहीं करते। वे पश्चात्ताप करने के बजाय मर जाना पसंद करेंगे, और कलीसिया के जीवन को बाधित करना जारी रखेंगे। इससे साबित होता है कि वे बुरे लोग हैं। हम इस तरह के बुरे लोगों को बरदाश्त नहीं कर सकते। उन्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। इस समस्या को पूरी तरह से हल करने का यही एक तरीका है। चाहे उन्होंने कोई भी गलती की हो या कोई भी बुरा काम किया हो, क्रूर स्वभाव वाले ये लोग किसी को भी उन्हें उजागर करने या उनकी काट-छाँट नहीं करने देंगे। अगर कोई उन्हें उजागर करे और अपमानित करे, तो वे क्रोधित हो जाते हैं, जवाबी कार्रवाई करते हैं और मुद्दे को कभी नहीं छोड़ते। उनमें धैर्य और दूसरों के प्रति सहनशीलता नहीं होती, और वे उनके प्रति आत्म-नियंत्रण नहीं दिखाते। उनका स्व-आचरण किस सिद्धांत पर आधारित होता है? “मैं विश्वासघात का शिकार होने के बजाय विश्वासघात करना पसंद करूँगा।” दूसरे शब्दों में, वे किसी के द्वारा अपमानित होना बरदाश्त नहीं करते। क्या यह बुरे लोगों का तर्क नहीं है? यह ठीक बुरे लोगों का ही तर्क होता है। कोई भी उन्हें अपमानित नहीं कर सकता। उन्हें किसी के भी द्वारा थोड़ा सा भी छेड़ा जाना अस्वीकार्य होता है, और वे ऐसा करने वाले किसी भी व्यक्ति से घृणा करते हैं। वे उस व्यक्ति के पीछे लग जाते हैं, कभी भी मामले को खत्म नहीं करने देते—बुरे लोग ऐसे ही होते हैं। जैसे ही तुम्हें पता चले कि किसी में बुरे व्यक्ति का सार है तो इससे पहले कि वह कोई बड़ा कुकर्म कर सके, उस दुष्ट व्यक्ति को औरों से अलग कर दिया जाना चाहिए या उसे बाहर निकाल देना चाहिए। ऐसा करने से उसका किया नुकसान कम हो जाएगा; यह एक बुद्धिमानी भरा विकल्प है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता तब तक इंतजार करते हैं जब तक कि कोई बुरा व्यक्ति किसी तरह की आपदा न ले आए, तो इसका मलतब है कि वे निष्क्रिय हो रहे हैं। इससे यह सिद्ध होगा कि अगुआ और कार्यकर्ता बहुत मूर्ख हैं, और उनके कार्यों में कोई सिद्धांत नहीं है। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता ऐसे होते हैं जो इतने ही मूर्ख और अज्ञानी होते हैं। वे बुरे लोगों से निपटने से पहले निर्णायक सबूत मिलने तक इंतजार करने पर जोर देते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यही एक तरीका है जिससे उनका दिमाग शांत रहेगा। लेकिन वास्तव में यह सुनिश्चित करने के लिए तुम्हें किसी निर्णायक सबूत की आवश्यकता नहीं है कि कोई व्यक्ति बुरा है। तुम उनके रोजमर्रा के शब्दों और कार्यों से यह जान सकते हो। एक बार जब तुमको यकीन हो जाए कि वे बुरे हैं, तो तुम उन्हें प्रतिबंधित करने या अलग करने से कार्रवाई शुरू कर सकते हो। इससे सुनिश्चित होगा कि कलीसिया के काम और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को नुकसान न पहुँचे। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता यह नहीं पहचान पाते कि कौन बुरा है, न ही वे समय पर बुरे लोगों से निपट पाते हैं। परिणामस्वरूप, कलीसिया का कार्य और कलीसिया का जीवन प्रभावित होता है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में बाधा आती है। यह बहुत मूर्खतापूर्ण है। नकली अगुआ इसी तरह काम करते हैं। एक बात तो यह है कि उनमें विवेक की कमी होती है, और दूसरी बात यह है कि वे खुशामदी होते हैं, जो दूसरों को अपमानित करने से डरते हैं। अगुआ के रूप में सेवा करते समय, ऐसे लोग पहले तो वास्तविक कार्य नहीं कर सकते; और दूसरी बात कि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाते हैं। वे बुरे लोगों द्वारा उत्पन्न की गई बाधा की समस्या को भी तुरंत हल नहीं कर सकते, न ही वे भाई-बहनों की रक्षा कर सकते हैं; ऐसे लोग अगुआ और कार्यकर्ता बनने के योग्य नहीं हैं। मुझे बताओ, अगर कोई व्यक्ति बुरे व्यक्ति के रूप में चिह्नित किया जाता है, तो क्या उसकी मदद करने के लिए अभी भी सत्य पर संगति करने की जरूरत है? (नहीं।) उन्हें मौका देने की कोई जरूरत नहीं है। कुछ लोगों में कुछ ज्यादा ही “प्रेम” होता है, और वे हमेशा बुरों को पश्चात्ताप करने का मौका देते रहते हैं, लेकिन क्या इससे कोई प्रभाव पड़ सकता है? क्या यह परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या तुमने कोई ऐसा बुरा व्यक्ति देखा है जो वास्तव में पश्चात्ताप कर सकता हो? ऐसा कभी किसी ने नहीं देखा। बुरे लोगों से पश्चात्ताप की उम्मीद करना जहरीले साँपों पर दया करने जैसा है; यह जंगली जानवरों पर दया करने जैसा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि बुरे लोगों के सार के आधार पर यह निर्धारित किया जा सकता है कि बुरे लोग कभी भी सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करेंगे, कभी सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे और कभी भी पश्चात्ताप नहीं करेंगे। तुमको उनके शब्दकोश में “पश्चात्ताप” शब्द नहीं मिलेगा। तुम उनके साथ सत्य के बारे में चाहे जैसी संगति करो, वे अपने उद्देश्यों और हितों को अलग नहीं करेंगे और खुद को सही ठहराने के विभिन्न कारण और बहाने ढूँढ़ेंगे और किसी की भी बात नहीं मानेंगे। उन्हें अगर कोई नुकसान होता है, तो यह उनके लिए असहनीय होता है और वे इसके बारे में दूसरों को अंतहीन रूप से परेशान करते हैं। ऐसे लोग जो कोई नुकसान सहने को तैयार न हों, वास्तव में पश्चात्ताप कैसे कर सकते हैं? अत्यधिक स्वार्थी लोग वे होते हैं जो अपने हितों को सबसे ऊपर रखते हैं; वे बुरे होते हैं और कभी पश्चात्ताप नहीं करेंगे। अगर तुम पहले से ही अच्छी तरह से समझ चुके हो कि ऐसा व्यक्ति बुरा है और फिर भी तुम उसे पश्चात्ताप करने का मौका देते हो, तो क्या यह मूर्खता नहीं है? यह अपने सीने पर ठंड से अकड़े पड़े साँप को गर्मी देकर जिंदा करने के बराबर है, ताकि बाद में वह तुम्हीं को काट ले। केवल कोई मूर्ख ही ऐसी बेवकूफी कर सकता है। कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए लोगों का बुरे लोगों से घृणा करना एक सामान्य घटना है, क्योंकि बुरे लोगों में मानवता की कमी होती है और वे हमेशा अनैतिक काम करते हैं। बुरे लोगों से घृणा करना सही मानसिकता है। यह उस चीज का हिस्सा है जो लोगों में उनकी सामान्य मानवता में होनी चाहिए।
मुझे बताओ कि वह व्यक्ति कैसा होता है जिसे भाई-बहनों से जरा भी प्रेम नहीं होता? ऐसे व्यक्ति का भाई-बहनों के साथ सामान्य पारस्परिक संबंध क्यों नहीं होता? इस तरह का व्यक्ति, चाहे वह किसी से भी बातचीत करे, उस बातचीत को केवल हितों और लेन-देन से जोड़ देता है; यदि कोई हित या लेन-देन शामिल नहीं है, तो वह लोगों से बात नहीं करेगा। क्या इस तरह का व्यक्ति बुरा नहीं है? कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, केवल भावनाओं के आधार पर जीते हैं; जो भी उनके साथ अच्छा व्यवहार करता है, वे उसके करीब आ जाते हैं और जो भी उनकी मदद करता है, उसे वे अच्छा मानते हैं। ऐसे लोगों के भी सामान्य पारस्परिक संबंध नहीं होते। वे केवल भावनाओं के आधार पर जीते हैं, तो क्या वे भाई-बहनों के साथ निष्पक्ष और न्यायपूर्ण व्यवहार कर सकते हैं? ऐसी स्थिति का आना बिल्कुल असंभव है। इसलिए, जो कोई भी भाई-बहनों के साथ या ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करने वालों के साथ सामान्य पारस्परिक संबंध नहीं रखता, वह अंतरात्मा और विवेक से रहित व्यक्ति है, सामान्य मानवता से रहित व्यक्ति है, और निश्चित रूप से वह ऐसा व्यक्ति नहीं है जो सत्य से प्रेम करता है। ऐसा व्यक्ति गैर-विश्वासियों के बीच के तुच्छ आवारा लोगों से अलग नहीं है; वह उन्हीं लोगों से बातचीत करता है जो उसके लिए फायदेमंद होते हैं और जो फायदेमंद नहीं होते हैं उन्हें अनदेखा कर देता है। इसके अलावा जब वह किसी ऐसे व्यक्ति को देखता है जो सत्य का अनुसरण कर रहा हो या जो अनुभवात्मक गवाहियाँ साझा कर सकता हो—कोई जिसकी हर कोई प्रशंसा करता हो और पसंद करता हो—तो वे ईर्ष्या और घृणा करने लगते हैं और सत्य का अनुसरण करने वाले इन लोगों की आलोचना करने और उनकी निंदा करने के हर संभव प्रयास करते हैं। क्या बुरे लोग ऐसा ही नहीं करते? ऐसे लोगों में अंतरात्मा और विवेक की कमी होती है—वे जानवरों से भी बदतर होते हैं। वे लोगों के साथ सही तरीके से व्यवहार नहीं कर सकते, दूसरों से सामान्य रूप से नहीं मिल सकते, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ सामान्य पारस्परिक संबंध नहीं बना सकते, और यहाँ तक कि सत्य का अनुसरण करने वालों से भी नफरत कर सकते हैं। ऐसे लोग अपने हृदय में बहुत एकाकी और अकेला महसूस करते होंगे, हमेशा दूसरों और दुनिया को दोष देते होंगे। उनके लिए जीने का आनंद या अर्थ क्या होता है? ये लोग स्वभाव से बहुत क्रूर होते हैं, और चाहे वे किसी के साथ भी बातचीत करें, वे छोटी-छोटी बातों पर घृणा का भाव पैदा कर सकते हैं, उनकी निंदा और प्रतिशोध कर सकते हैं, उन पर आपदाएँ ला सकते हैं। ऐसे बुरे व्यक्ति पूरी तरह से शैतान होते हैं, जो हर दिन कलीसिया में आपदा लाते हैं। यदि वे लंबे समय तक रहे, तो आपदाओं की श्रृंखला कभी खत्म नहीं होगी। केवल उन्हें कलीसिया से बाहर निकालकर ही आपदाओं को टाला जा सकता है। इसके अतिरिक्त, ऐसे लोग भी हैं जो बाहर से तो सभ्य दिखते हैं लेकिन लाभों से विशेष लगाव रखते हैं। इस तरह परमेश्वर में उनका विश्वास भी लाभ के अनुसरण के लिए होता है। अगर उन्होंने कुछ समय से कोई अनुचित लाभ नहीं उठाया, तो उनके चेहरे पर उदासी की बदली छा जाती है, मानो किसी पर उनका बहुत सारा पैसा बकाया हो। जो कोई भी उनका नाराज और निराश चेहरा देखता है, वह तुरंत भावनात्मक रूप से प्रभावित हो जाता है। तुम लोगों को क्या लगता है, अगर ऐसा चेहरा कलीसियाई जीवन में दिखाई दे तो इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से ज्यादातर लोग उसे देखकर निश्चित रूप से असहज महसूस करेंगे और उनके परमेश्वर के वचने पढ़ने और सत्य पर संगति करने पर विभिन्न मात्राओं में विघ्न और प्रभाव पड़ेगा। खासकर उन लोगों को जिनकी जड़ें सच्चे मार्ग पर अभी नहीं जमीं हैं, कलीसियाई जीवन में इस निरंतर उदास चेहरे को अक्सर देखना बहुत आसानी से प्रभावित कर सकता है! कलीसिया में ऐसे ज्यादा लोग होने चाहिए जिनके व्यक्तित्व प्रफुल्लित हों, जो सरलता से और खुलकर बात करते हों, और जिनके दिल सुकून और आनंद से भरे हों और जिनकी आत्मा स्वतंत्र और उन्मुक्त हो। इससे कलीसियाई जीवन आनंददायक बन जाएगा। उन दुखियारों को, जो हमेशा उदास रहते हैं, घर पर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और सभाओं में आने से पहले अपनी मनःस्थिति ठीक करनी चाहिए। इस तरह वे अच्छे मूड में रहेंगे और सभा से कुछ हासिल करेंगे। इसके अलावा, इससे दूसरों को भी लाभ होगा; कम से कम, वे परेशान नहीं होंगे। यह सुनिश्चित करने के लिए कि परमेश्वर के चुने हुए लोग एक सामान्य कलीसियाई जीवन जी सकें, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति करना सीखना चाहिए। अगर कोई चेहरा लटकाकर सभा में आए तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को आगे बढ़कर पूछना चाहिए, “क्या तुम्हें मदद की जरूरत है?” इसे प्यार से दूसरों की सक्रियतापूर्वक मदद करना कहा जाता है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता किसी को समस्या में देखकर भी अनदेखा कर देते हैं, उन “दुखियारों” से बचते और दूर रहते हैं, उनका दिन खुशगवार बनाने के लिए सत्य पर संगति नहीं करते तो वे वास्तविक कार्य नहीं करते। कलीसिया का कार्य प्रभावी ढंग से करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहले परमेश्वर के चुने हुए लोगों का विश्वासपात्र बनना सीखना चाहिए, जैसा कि गैर-विश्वासी किसी परवाह करने वाले सरकारी अधिकारी को कहते हैं। कुछ लोग ऐसी भूमिका निभाने के लिए तैयार नहीं होते, हमेशा तमाशबीन बने रहना पसंद करते हैं—इस तरह वे एक अच्छा कलीसियाई जीवन जीने में परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई कैसे कर सकते हैं? असल में, किसी के दिल में समस्याएँ हैं या नहीं, यह कुछ हद तक उसके चेहरे के हाव-भाव से देखा जा सकता है। अगर किसी का चेहरा हमेशा उदास रहता है तो इसका मतलब निश्चित रूप से यह है कि उसका दिल अंधकारमय है और उसमें रोशनी की एक किरण भी नहीं है। अगर वह पूरे दिन सही-गलत के विवादों में डूबा रहता है तो क्या फिर भी उसके चेहरे पर मुस्कान आ सकती है? इन लोगों के चेहरे हमेशा काले बादलों से आच्छादित रहते हैं, उन पर एक पल के लिए भी धूप नहीं आती और यह उनके कर्तव्य निर्वहन को भी प्रभावित करता है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता इस मुद्दे को हल करने में देरी करते हैं, जिससे भाई-बहनों को लगातार व्यवधान और अकथनीय दुख सहना पड़ता है तो यह साबित होता है कि अगुआ और कार्यकर्ता वास्तविक कार्य करने में अक्षम हैं, सत्य से समस्याएँ हल करने में असमर्थ हैं और पूरी तरह से बेकार हैं। अगर अगुआ और कार्यकर्ता सत्य समझते हैं और भाई-बहनों की समस्याएँ पहचान कर उन्हें समय पर समर्थन और सहायता प्रदान कर सकते हैं, न सिर्फ लोगों की समस्याएँ हल करने में मदद करने में सक्षम हैं बल्कि सत्य सिद्धांत समझने और अपने कर्तव्य निभाने में लोगों की मदद करने में भी सक्षम हैं तो उनका कर्तव्य निभाना और मामले सँभालना कुशलतापूर्ण होगा और कलीसिया का कार्य प्रभावित नहीं होगा। अगर अगुआ और कार्यकर्ता समस्याएँ तुरंत पहचानकर हल नहीं कर सकते, तो इससे कलीसिया का कार्य प्रभावित होता है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता समस्याएँ पहचानकर उन्हें सँभाल नहीं सकते, जिससे कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचता है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन प्रवेश बाधित होता है तो क्या वे परमेश्वर और उसके चुने हुए लोगों को निराश नहीं करते? क्या मामले सँभालने में उनमें सिद्धांतों का अभाव नहीं होता? समस्याओं का सार समझने के बाद उनसे तुरंत और बेहिचक निपटना—इसे जिम्मेदारियाँ निभाना और वफादार होना कहा जाता है और यह अपना कर्तव्य ऐसे तरीके से करना है जो मानक के अनुरूप है।
आज की संगति का विषय है छठा मुद्दा—अनुचित संबंधों में लिप्त होना। कलीसियाई जीवन में उभरने वाली इस तरह की समस्याएँ मूल रूप से ये हैं : स्त्री-पुरुषों के बीच अनुचित संबंध, समलैंगिक संबंध, निहित स्वार्थों के संबंध और व्यक्तियों के बीच नफरत। चाहे वे दैहिक वासना पर आधारित संबंध हों या दैहिक रुचियों पर या देह की भावनात्मक उलझनों पर आधारित संबंध, वे सभी अनुचित संबंधों की श्रेणी में आते हैं क्योंकि वे सामान्य मानवता के जमीर और विवेक का दायरा पार कर जाते हैं। इन अनुचित संबंधों का अस्तित्व लोगों को एक निश्चित सीमा तक व्याकुल कर सकता है। ज्यादा गंभीर रूप से, ऐसे संबंध लोगों के जीवन प्रवेश में, सत्य के उनके अनुसरण में और परमेश्वर को जानने के उनके अनुसरण में व्यवधान डाल सकते हैं। ये विभिन्न प्रकार के अनुचित संबंध जमीर या विवेक से उत्पन्न नहीं होते और सामान्य मानवता के विपरीत चलते हैं। जब लोग इन असामान्य संबंधों में रहते हैं तो उनके लिए सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास करना कठिन होता है और यह उनके कलीसियाई जीवन जीने में और जीवन विकास का अनुसरण करने में और साथ ही कलीसियाई जीवन की व्यवस्था में भी व्यवधान डालता है। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए हानिकारक है और कलीसिया के कार्य को भी नुकसान पहुँचा सकता है। इन सब कारणों से अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए इन मुद्दों को तुरंत पहचानकर उनसे निपटना अनिवार्य है।
अनुचित संबंधों के बारे में हमने पहले ही विभिन्न स्थितियाँ गिना दी हैं और उनका वर्गीकरण कर दिया है। क्या तुम लोग पहचानने का अभ्यास करने के लिए कुछ उदाहरण दे सकते हो? पहचानना सीखने का क्या उद्देश्य है? यह तुम लोगों को लोगों, घटनाओं और चीजों के सार की पहचान कर उसे परिभाषित करने में सक्षम बनाता है, ताकि तुम सटीक निर्णय ले सको और फिर उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार पेश आ सको। यह अंतिम परिणाम है। क्या किसी ने कहा है, “तुम दिन भर इन सही-गलत के मामलों, इन रोजमर्रा के मामलों के बारे में बात करते हो—हम अब इन्हें सुनने के लिए तैयार नहीं हैं; यहाँ तक कि हम अब सभाओं में भी नहीं आना चाहते। क्या तुम्हें सत्य पर संगति नहीं करनी चाहिए? हमेशा इन स्थितियों के बारे में बात क्यों करते हो”? क्या तुम लोगों ने ऐसे लोगों को देखा है? वे किस तरह के लोग हैं? (ऐसे लोग जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है।) हम इस तरह से संगति करते हैं और फिर भी वे सत्य नहीं समझ पाते—उनमें एक सामान्य व्यक्ति जितनी बुद्धि भी नहीं होती; ऐसे लोग पूरी तरह से बेकार होते हैं। क्या किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसमें एक सामान्य व्यक्ति जितनी बुद्धि भी नहीं होती, अभी भी उपदेश सुनने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए? शायद वह प्रस्ताव रखे : “सभाएँ हमेशा सत्य पर संगति करने के लिए होती हैं, सभाओं में हमेशा सत्य का अभ्यास करने जैसी चीजों के बारे में बातें होती हैं—मैं यह सुन-सुनकर थक गया हूँ। मैं अब सभाओं में आने के लिए तैयार नहीं हूँ।” अगर उसका वाकई ऐसा दृष्टिकोण है तो वह सत्य से विमुख व्यक्ति है। परमेश्वर का घर ऐसे लोगों की मौजूदगी पर जोर नहीं देता; उन्हें जल्दी से चलता कर दो। अगर वे खुद सभाओं में आने के लिए तैयार न हों और उनमें जो चर्चा की जाती है उसे ग्रहण नहीं करते हों तो हम उन पर आने कि लिए जोर नहीं देते—हम उन्हें परेशान नहीं करना चाहते। ऐसे लोग जीवन भर परमेश्वर में विश्वास करने के बावजूद सत्य नहीं समझेंगे और वास्तविकता में प्रवेश नहीं करेंगे; इसके लिए प्रयास करना बेकार है। अगर वे धार्मिक ज्ञान सुनना पसंद करते हैं तो उन्हें जाकर धार्मिक ज्ञान का अध्ययन करने दो; एक दिन जब वे जीवन के रूप में सत्य प्राप्त नहीं करेंगे तो उन्हें इसका पछतावा होगा।
29 मई 2021