अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (13)

हमारी पिछली सभा की संगति अगुआओं और कार्यकर्ताओं की ग्यारहवीं जिम्मेदारी के बारे में थी। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को चढ़ावों की सुरक्षा के लिए जो जिम्मेदारी निभानी चाहिए और जो काम करना चाहिए, हमने उसके बारे में संगति की थी। चढ़ावों की सुरक्षा के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को क्या काम करना चाहिए? (पहला काम है उन्हें सुरक्षित रखना। दूसरा है खातों की जाँच करना। तीसरा है इस बारे में जानकारी प्राप्त करना, देखना और निरीक्षण करना कि विभिन्न खर्च सिद्धांतों के अनुरूप हैं या नहीं। सख्त जाँच करके अनुचित खर्चों पर सख्ती से प्रतिबंध लगाना चाहिए। फिजूलखर्ची और बर्बादी होने से पहले ही रोकना सबसे अच्छा है। अगर वह पहले ही हो चुकी हो तो उसके लिए जिम्मेदार लोगों को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। उन्हें केवल चेतावनी ही जारी नहीं करनी चाहिए, बल्कि उनसे मुआवजा भी माँगना चाहिए।) मूल रूप से यही काम हैं। मुख्य बात है उन्हें सुरक्षित रखना, फिर खातों की जाँच करना और उसके बाद जानकारी प्राप्त कर उनका निरीक्षण करना और उनका सही तरीके से उपयोग और खर्च करना। ग्यारहवीं जिम्मेदारी पर हमारी संगति समाप्त होने के बाद लोगों को अब चढ़ावों के बारे में सटीक समझ और ज्ञान है और अब वे यह भी जानते हैं कि चढ़ावों की सुरक्षा के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को क्या काम करने की जरूरत है और साथ ही नकली अगुआ यह काम कैसे करते हैं और इसे करने में उनके विशिष्ट व्यवहार क्या होते हैं। चाहे हमारी संगति अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों के बारे में हो या नकली अगुआओं के विभिन्न व्यवहारों के बारे में और चाहे यह सकारात्मक चीजों के बारे में संगति हो या नकारात्मक चीजों के खुलासे के बारे में, इसका मुख्य उद्देश्य लोगों को यह समझाना है कि चढ़ावों की सुरक्षा का काम ठीक से कैसे किया जाए और चढ़ावों की सुरक्षा, खर्च और वितरण में अनुचित अभ्यास कैसे खत्म किए जाएँ। परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों को—चाहे वे अगुआ हों या कार्यकर्ता—चढ़ावों की सुरक्षा के लिए अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। तो यह जिम्मेदारी क्या है? यह है पर्यवेक्षण करना और अगर कोई समस्या दिखाई दे तो उसकी तुरंत रिपोर्ट करना—यानी पर्यवेक्षण और रिपोर्टिंग का कार्य करना। यह मत सोचो कि “चढ़ावों की सुरक्षा करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है और इसका हम आम विश्वासियों से कोई लेना-देना नहीं है।” यह दृष्टिकोण गलत है। चूँकि लोगों ने ये सत्य समझ लिए हैं, इसलिए उन्हें अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। जो मुद्दे अगुआ और कार्यकर्ता पहचान नहीं पाते या नजर में न आने वाले स्थान या वे स्थान जिन्हें पहचानना आसान नहीं होता, उनके मामले में अगर किसी को चढ़ावों की सुरक्षा, वितरण और उपयोग में गलती या सिद्धांतों के उल्लंघन की कोई समस्या दिखती है तो उसे तुरंत अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उसकी रिपोर्ट करनी चाहिए ताकि चढ़ावों की उचित सुरक्षा, उचित उपयोग और उचित वितरण सुनिश्चित किया जा सके। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हर एक की जिम्मेदारी है।

मद बारह : उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को सकारात्मक दिशा दो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें (भाग एक)

अब जबकि ग्यारहवीं जिम्मेदारी पर संगति पूरी हो गई है, हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की बारहवीं जिम्मेदारी पर संगति करने की ओर बढ़ते हैं : “उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को सकारात्मक दिशा दो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें।” इस जिम्मेदारी की मुख्य विषयवस्तु क्या है? यह मुख्य रूप से अगुआओं और कार्यकर्ताओं से कलीसिया में उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का—और साथ ही उन विभिन्न समस्याओं का भी—समाधान करने की अपेक्षा करने के बारे में है जो कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं और उसे नुकसान पहुँचाती हैं। इन समस्याओं पर प्रभावी ढंग से ध्यान देकर उन्हें हल करने, अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने और इस कार्य को अच्छी तरह से करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहले क्या समझना चाहिए? यह जिम्मेदारी “उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करना है जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करते हैं”; यह इस कार्य का दायरा है। एक लक्ष्य और एक दायरे के साथ यह स्पष्ट हो जाता है कि किन मुद्दों को हल करने की जरूरत है और अगुआओं और कार्यकर्ताओं से क्या कार्य करना और क्या जिम्मेदारियाँ निभाना अपेक्षित है। बारहवीं जिम्मेदारी के भीतर अगुआओं और कार्यकर्ताओं से मुख्य अपेक्षा क्या है? यह उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को रोकना और प्रतिबंधित करना है, जो विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं, चीजों को सकारात्मक दिशा देना और साथ ही सत्य के बारे में संगति करना भी है ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी चीजों के माध्यम से समझ विकसित कर सकें और उनसे सीख सकें। ऐसा करने के लिए क्या पूर्व-शर्तें पूरी होनी चाहिए? अगर तुम ऐसे विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को देखते हो जो कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करते हैं और उसे नुकसान पहुँचाते हैं और फिर भी सोचते हो कि ये समस्याएँ नहीं हैं तो फिर समस्या है। यह दर्शाता है कि तुम समस्या का सार नहीं समझ पाते यानी कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधा उत्पन्न करने से कलीसिया के काम को जो नुकसान हो सकता है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश पर उसके जो परिणाम और प्रभाव हो सकते हैं, उसे नहीं समझ पाते। क्या ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता अभी भी कलीसिया का काम अच्छी तरह से कर सकते हैं? क्या वे समस्याएँ हल कर चीजों को सकारात्मक दिशा दे सकते हैं? (नहीं।) तो फिर यहाँ संगति किए जाने का मुख्य बिंदु क्या है? यही कि पहले सत्य सिद्धांतों को समझने से ही अगुआ और कार्यकर्ता विभिन्न मुद्दों का सार समझ सकते हैं और विभिन्न वास्तविक समस्याएँ प्रभावी ढंग से हल कर सकते हैं। कलीसिया का कार्य अच्छी तरह से करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि कलीसिया के काम में आम तौर पर क्या समस्याएँ आती हैं। फिर उन्हें उन समस्याओं की प्रकृति सटीक ढंग से समझनी, पहचाननी और आँकनी चाहिए, कि क्या वे कलीसिया के कार्य और कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था को प्रभावित करती हैं और क्या उनकी प्रकृति कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा उत्पन्न करने की है। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहले समझना चाहिए। इसे समझने के बाद ही इन समस्याओं को प्रभावी ढंग से हल करना और उन्हें “रोककर और प्रतिबंधित करके चीजों को सकारात्मक दिशा देना” संभव है, जैसा कि बारहवीं जिम्मेदारी में जिक्र किया गया है। संक्षेप में, समस्या हल करने से पूर्व तुम्हें पहले यह समझने की जरूरत है कि समस्या कहाँ है, उसमें क्या-क्या अवस्थाएँ और परिस्थितियाँ शामिल हैं, समस्या की प्रकृति क्या है, वह कितनी गंभीर है, उसका विश्लेषण और पहचान कैसे की जाए और सटीक रूप से अभ्यास कैसे किया जाए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहले यही समझने की जरूरत है। चूँकि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ये चीजें समझने की जरूरत है, इसलिए आओ हम इनके बारे में विशेष रूप से कई पहलुओं से संगति करते हैं, ताकि अगुआ और कार्यकर्ता और परमेश्वर के चुने हुए लोग, सभी समझ सकें कि जब ये समस्याएँ पैदा हों तो उनका सामना कैसे करें, उन्हें परमेश्वर के वचनों से कैसे जोड़ें और उन्हें हल करने के लिए सत्य सिद्धांतों का उपयोग कैसे करें। इस तरह, जब अगुआ और कार्यकर्ता ऐसी कठिनाइयों का सामना करते हैं जिन्हें वे हल नहीं कर सकते तो परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग मिलकर उनका सामना कर सकते हैं और समाधानों के लिए सत्य खोज सकते हैं और कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा के मुद्दों से सामना होने पर हर कोई उन्हें रोकने और प्रतिबंधित करने के लिए खड़ा हो सकता है। साथ ही, नकारात्मक लोगों और मामलों के लिए वे सार्वजनिक विश्लेषण, पहचान और चरित्र-चित्रण कर सकते हैं और इस तरह ये मुद्दे रोके और प्रतिबंधित किए जा सकते हैं और जड़ से मिटाए जा सकते हैं। तो आओ, सबसे विशिष्ट मुद्दों से शुरुआत करते हुए संगति करते हैं।

विभिन्न लोग, घटनाएँ और चीजें जो कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करती हैं

परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करने वाले मुद्दों की पहचान करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को किन क्षेत्रों से शुरुआत करनी चाहिए? उन्हें ये मुद्दे खोजने के लिए कलीसियाई जीवन को देखने से शुरुआत करनी चाहिए। क्या तुम सभी जानते हो कि कलीसियाई जीवन में आम तौर पर कौन-सी समस्याएँ आती हैं जिनकी प्रकृति विघ्न-बाधा उत्पन्न करने की होती है? कलीसिया में चाहे जितने भी लोग हों, निश्चित रूप से अनेक लोग होंगे जो कलीसिया-कार्य में विघ्न-बाधा उत्पन्न करेंगे। विघ्न-बाधा के कौन-से क्रियाकलाप हैं जिनके बारे में तुम लोगों ने सीखा है? (सभाओं में सत्य पर संगति करते समय हमेशा विषय से भटक जाना और मुख्य मुद्दों को चर्चा का केंद्र न बनाना।) (साथ ही, आदतन शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना।) सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाना। उदाहरण के लिए, जब दूसरे लोग अपना कर्तव्य निभाने में वफादार होने के बारे में संगति कर रहे होते हैं तो वे इस बारे में बात करेंगे कि अपने पति (या पत्नी) और बच्चों की अच्छी तरह से देखभाल कैसे करें। जब दूसरे लोग इस बारे में संगति कर रहे होते हैं कि कैसे अपना कर्तव्य निभाने में वफादार होना परमेश्वर को संतुष्ट और उसके प्रति समर्पण करने के निमित्त होता है तो वे इस बारे में बात करेंगे कि अपना कर्तव्य निभाने में वफादार होना अपने परिवार और प्रियजनों के लिए आशीष प्राप्त करने के निमित्त होता है। क्या यह विषय से भटकना नहीं है? (हाँ, है।) अगर तुम उन्हें नहीं रोकते तो वे निरंतर बोलते रहेंगे। अगर तुम उन्हें प्रतिबंधित करते हो तो वे क्रोधित हो जाएँगे और शर्मिंदगी महसूस कर गुस्से से भड़क उठेंगे, जिससे उनका बुरा व्यवहार एक कदम और आगे बढ़ जाएगा। तब यह मुद्दा प्रकृति से विघ्न-बाधा के स्तर का हो जाता है, जो बहुत गंभीर है। हालाँकि सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाना एक सामान्य मुद्दा है, लेकिन वस्तुनिष्ठ रूप से कहें तो, यह कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधा उत्पन्न कर सकता है। यह पहला मुद्दा है। दूसरा मुद्दा, “शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना” विघ्न-बाधा कहे जाने योग्य है या नहीं, यह मामले की गंभीरता पर निर्भर करता है। कुछ लोग शब्द और धर्म-सिद्धांत इसलिए बोलते हैं क्योंकि उनमें सत्य वास्तविकता नहीं होती; जैसे ही वे अपना मुँह खोलते हैं तो वे सब शब्द और धर्म-सिद्धांत ही होते हैं, सिर्फ खोखले सिद्धांत। लेकिन उनका इरादा दूसरों को गुमराह करके उनसे सम्मान प्राप्त करना नहीं होता। प्रतिबंधों और बार-बार मनाही से वे आत्म-जागरूकता प्राप्त कर लेंगे और उसके बाद कम शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलेंगे और फिर भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में बाधा नहीं डालेंगे। इसे विघ्न-बाधा नहीं माना जाता। लेकिन जो लोग दूसरों को गुमराह करने के इरादे से जानबूझकर शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, वे ऐसा तब भी करते हैं जब उन्हें अच्छी तरह पता होता है कि वे जो कह रहे हैं वह शब्द और धर्म-सिद्धांत है। ऐसा करने का उनका उद्देश्य दूसरों से सम्मान प्राप्त करना होता है; वे लोगों को अपनी तरफ करके उन्हें गुमराह करना और रुतबा हासिल करना चाहते हैं। यह बात प्रकृति में काफी गंभीर है। इसकी प्रकृति सत्य न समझने के कारण सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल पाने से अलग है। ऐसा व्यवहार विघ्न-बाधा उत्पन्न करता है। कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करने वाले विभिन्न लोग, घटनाएँ और चीजें व्यापक होती हैं। वे सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने या विषय से भटक जाने जैसे मुद्दे नहीं होतीं। कुछ और चीजें क्या हैं? (गुट बनाना, कलह के बीज बोना और दूसरों की सकारात्मकता कम करना।) (इनमें नकारात्मकता फैलाना, मुसीबत खड़ी करना और लोगों को लगातार परेशान करना भी है।) (जब कुछ लोगों के मन में परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के बारे में धारणाएँ होती हैं तो वे उन धारणाओं को फैलाकर अपनी नकारात्मकता फैलाते हैं, जिससे दूसरों के मन में भी कार्य-व्यवस्थाओं के बारे में धारणाएँ पैदा हो जाती हैं।) ये चीजें भी विघ्न-बाधा कहे जाने योग्य हैं। गुट बनाना उनमें से एक है, कलह के बीज बोना दूसरी, और साथ ही लोगों को सताना और उन पर हमला करना, धारणाएँ फैलाना, नकारात्मकता फैलाना, निराधार अफवाहें फैलाना और हैसियत के लिए होड़ करना—ये सभी विघ्न-बाधाएँ हैं। ये समस्याएँ प्रकृति में सत्य की संगति करते समय विषय से भटक जाने की तुलना में कहीं ज्यादा गंभीर हैं। एक मुद्दा चुनावों से संबंधित भी है। चुनावों के दौरान पैदा होने वाली किस तरह की समस्याएँ विघ्न-बाधा से संबंधित होती हैं? उदाहरण के लिए, वोटों में हेराफेरी करना—अपने लिए वोट जुटाने के लिए लाभों का वादा करना। यह चुनाव का अवमूल्यन करने का एक तरीका है। और गुप्त क्रियाकलाप—पर्दे के पीछे लोगों के दिमाग पर काम करना ताकि उन्हें अपनी तरफ कर गुमराह किया जा सके और अपने लिए वोट करने को मजबूर किया जा सके। चुनावों के दौरान यही सब मुद्दे उठते हैं। क्या ये विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं? (हाँ, करते हैं।) ये समस्याएँ सामूहिक रूप से चुनाव के सिद्धांतों का उल्लंघन कही जाती हैं। एक और मुद्दा घरेलू मामलों के बारे में बकबक करना, व्यक्तिगत संबंध बनाना और व्यक्तिगत मामले सँभालना है। कोई व्यक्ति इन चीजों के लिए सभाओं में आ सकता है—सत्य समझने या परमेश्वर के वचनों पर संगति करने के लिए नहीं, बल्कि व्यक्तिगत मामले सँभालने के लिए। क्या ऐसी समस्या गंभीर किस्म की होती है? (हाँ।) यह भी विघ्न-बाधा उत्पन्न करने के बराबर है।

आओ अब कलीसियाई जीवन में उत्पन्न होने वाली विघ्न-बाधा से संबंधित विभिन्न मुद्दों का सारांश प्रस्तुत करें : पहला, सत्य पर संगति करते समय अक्सर विषय से भटक जाना; दूसरा, लोगों को गुमराह करने और उनसे सम्मान प्राप्त करने के लिए शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना; तीसरा, घरेलू मामलों के बारे में बकबक करना, व्यक्तिगत संबंध बनाना और व्यक्तिगत मामले सँभालना; चौथा, गुट बनाना; पाँचवाँ, हैसियत के लिए होड़ करना; छठा, कलह के बीज बोना; सातवाँ, लोगों पर हमला कर उन्हें सताना; आठवाँ, धारणाएँ फैलाना; नौवाँ, नकारात्मकता फैलाना; दसवाँ, निराधार अफवाहें फैलाना; और ग्यारहवाँ, चुनाव के सिद्धांतों का उल्लंघन करना। कुल ग्यारह। ये ग्यारह अभिव्यक्तियाँ विघ्न-बाधा के वे मुद्दे हैं जो अक्सर कलीसियाई जीवन में उत्पन्न होते हैं। कलीसियाई जीवन जीते हुए अगर ये मुद्दे उत्पन्न होते हैं तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को खड़े होकर उन्हें रोकना, प्रतिबंधित करना और अनियंत्रित रूप से विकसित न होने देना जरूरी है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता उन्हें प्रतिबंधित करने में असमर्थ रहते हैं तो सभी भाई-बहनों को उन्हें प्रतिबंधित करने के लिए एक-साथ आना चाहिए। अगर उनमें शामिल व्यक्ति में बुरी मानवता नहीं है और वह जानबूझकर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं कर रहा है बल्कि उसमें सिर्फ सत्य की समझ नहीं है तो सत्य की संगति के जरिये उसकी सहायता और समर्थन किया जा सकता है। अगर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करने वाला व्यक्ति बुरा है और मामला छोटा है तो उसकी विघ्न-बाधाएँ संगति और खुलासे के जरिये रोकी और प्रतिबंधित की जानी चाहिए। अगर वह पश्चात्ताप करने के लिए तैयार है और अब विघ्न-बाधा उत्पन्न करने वाले तरीकों से नहीं बोलता या क्रियाकलाप नहीं करता, कलीसिया में सबसे कम महत्वपूर्ण सदस्य होने के लिए तैयार है, कर्तव्यनिष्ठा से सुन सकता है और आज्ञापालन कर सकता है और भाई-बहनों द्वारा निर्धारित प्रतिबंधों को स्वीकारते हुए कलीसिया जो भी व्यवस्था करे उसे निभा सकता है तो वह अस्थायी रूप से कलीसिया में रह सकता है। लेकिन अगर वह उन्हें नहीं स्वीकारता बल्कि बहुमत का विरोध करता है और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण हो जाता है तो दूसरा कदम—उन्हें बाहर निकालना—उठाया जाना चाहिए। क्या यह नजरिया उचित है? (हाँ।)

I. सत्य पर संगति करते समय अक्सर विषय से भटक जाना

अब हम कलीसियाई जीवन में दिखने वाले विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के बारे में संगति करेंगे जो प्रकृति से ही विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। उनमें से पहला है सत्य पर संगति करते समय अक्सर विषय से भटक जाना। सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाना कैसे निर्धारित किया जाए? हम संगति के उन शब्दों को कैसे स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं जो विषय से भटक गए होते हैं? क्या तुम लोग सत्य की अपनी संगति में अक्सर विषय से भटक जाते हो? (हाँ।) इस समस्या की प्रकृति विघ्न-बाधा के रूप में गिनी जा सके, इसके लिए इसे हद तक जाना चाहिए? अगर सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाने का उदाहरण विघ्न-बाधा के रूप में वर्गीकृत किया जाए, तो क्या लोग भविष्य में कलीसियाई जीवन में बोलने या संगति करने से डरेंगे नहीं? और अगर लोग संगति करने से डरते हों तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने मुद्दे को स्पष्ट रूप से नहीं समझा है? (हाँ, इसका यही मतलब है।) इसलिए यह सटीक रूप से निर्धारित होने पर कि सत्य पर संगति करते समय विषय से किस तरह का भटकना विघ्न-बाधा होता है, ज्यादातर लोग अपनी विवशताओं से मुक्त हो जाएँगे। यह देखते हुए कि जब तुम लोग सामान्य बातचीत में भी विषय से भटक जाते हो तो सत्य पर संगति करते समय ऐसा करना और भी आम बात है। इसलिए तुम लोगों को विवश होने से बचाने के लिए इस बारे में बहुत स्पष्टता से संगति करना जरूरी है। ऐसा मत होने दो कि विषय से भटक जाने और विघ्न-बाधा उत्पन्न होने का डर तुम्हें बोलने से ही रोक दे और तुम्हारे पास ज्ञान होने के बावजूद तुम्हें संगति करने का साहस न करने दे या—जब तुम संगति करना चाहो तो—तुम्हें पहले यह सोचने के लिए मजबूर कर दे : “क्या मैं जो कहना चाहता हूँ वह विषय से संबंधित है? क्या यह विषय से भटकना है? मुझे बोलने से पहले अपने विचारों का मसौदा तैयार करना चाहिए, रूपरेखा बनानी चाहिए और फिर उस रूपरेखा पर टिके रहना चाहिए ताकि चाहे कुछ भी हो जाए मैं विषय से न भटकूँ। अगर मैं विषय से भटक गया, तो इससे किसी को लाभ नहीं होगा और सभा का कीमती समय बर्बाद होगा, जिससे भाई-बहनों की सत्य की समझ प्रभावित होगी। और अगर यह गंभीर हुआ तो यह कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधा भी उत्पन्न कर सकता है।” तो फिर हमें विषय से भटक जाने के मामले को कैसे देखना चाहिए? पहले हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या विषय से भटकना भाई-बहनों के लिए फायदेमंद है और फिर हमें स्पष्ट रूप से यह देखना चाहिए कि विषय से भटकने के कलीसियाई जीवन पर क्या परिणाम होते हैं। इस तरह हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि विषय से भटकना कोई छोटा मुद्दा नहीं है; गंभीर मामलों में यह कलीसियाई जीवन और कलीसियाई कार्य में विघ्न-बाधा भी उत्पन्न कर सकता है। मान लो तुम किसी विषय पर अपने ज्ञान और समझ के बारे में संगति करने के लिए परमेश्वर के वचनों के किसी अंश की तलाश करते हो; या मान लो तुम किसी विषय पर उस ज्ञान के बारे में जो तुमने प्राप्त किया है, उन सत्यों के बारे में जो तुमने समझे हैं और परमेश्वर के इरादों के बारे में संगति करते हो जो तुमने अपने अनुभव से समझे हैं; या मान लो कि किसी निश्चित विषय पर तुम्हारी संगति थोड़ी लंबी है और तुम उसके बारे में खुद को ज्यादा स्पष्टता से व्यक्त नहीं करते, खुद को कई बार दोहराते हो—ऐसी स्थितियों में क्या तुम विषय से भटक रहे हो? इनमें से कुछ भी विषय से भटकना नहीं माना जाता। तो विषय से भटकना क्या होता है? विषय से भटकना तब होता है जब तुम जो कहते हो उसका संगति के विषय से कोई संबंध नहीं होता या बहुत कम संबंध होता है, जब यह सिर्फ बाहरी मामलों के बारे में इधर-उधर की बातें करना होता है और लोगों के लिए बिल्कुल भी शिक्षाप्रद नहीं होता। यह पूरी तरह से विषय से भटक जाना है। आओ, अब इस बात पर चर्चा करते हैं कि विघ्न-बाधा उत्पन्न करना क्या होता है। सत्य की संगति करते समय विषय से भटक जाने के मामले में किस तरह के शब्द और व्यवहार विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं? यहाँ समस्या का सार क्या है? विषय से भटक जाना प्रकृति से विघ्न-बाधा कैसे बन जाता है? क्या यह संगति करने लायक नहीं है? इस पर संगति करने के बाद क्या तुम समझ जाओगे कि विषय से भटक जाने का क्या मतलब है? (हाँ।) तो फिर तुम लोग इस प्रश्न के अपने-अपने उत्तर दो। (जब कोई व्यक्ति ऐसे विषयों पर संगति करता है जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता—उदाहरण के लिए बेकार की बकबक, घरेलू मामलों के बारे में बात करना और सामाजिक रुझानों से जुड़ी चीजों पर चर्चा करना जो लोगों के दिलों को क्षुब्ध करती हैं, उन्हें परमेश्वर के सामने शांत रहने और उसके वचनों पर विचार करने से रोकती हैं—तो वह संगति विषय से भटक गई होती है।) यह कितने मुख्य बिंदुओं पर बात करती है? (एक तो यह है कि विषय सत्य से असंबंधित होते हैं।) यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण बिंदु है : सत्य से असंबंधित होना। एक बिंदु है घरेलू मामलों के बारे में बेकार की बकबक और गपशप करना। दूसरा है परंपरागत संस्कृति, इंसानी नैतिक सोच और उन चीजों के बारे में बात करना जिन्हें लोग श्रेष्ठ मानते हैं मानो वे सत्य हों। यह विकृत समझ की समस्या है; ये तमाम चीजें सत्य से असंबंधित हैं। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के वचन कहते हैं, “युवा लोगों को आकांक्षाओं से रहित नहीं होना चाहिए।” कोई संगति करता है, “प्राचीन काल से ही नायक अपनी युवावस्था में ही उभरे हैं,” या “महत्वाकांक्षा उम्र से अवरुद्ध नहीं होती।” या जब तुम इस बारे में बात करते हो कि परमेश्वर का भय कैसे माना जाए तो वे संगति करते हैं : “तुम्हारे तीन फीट ऊपर एक परमेश्वर है”; “जब मनुष्य काम करता है, तो स्वर्ग देख रहा होता है”; “अगर तुम्हारा जमीर साफ हो, तो तुम्हें अपने दरवाजे पर दस्तक दे रहे भूतों से नहीं डरना चाहिए”; या “आदमी का दिल अच्छाई की तरफ झुकना चाहिए।” क्या यह विषय से भटकना नहीं है? क्या ये शब्द सत्य से असंबंधित नहीं हैं? ये शब्द क्या हैं? (शैतानी फलसफे।) वे शैतानी फलसफे हैं और ये एक निश्चित नस्ल की परंपरागत संस्कृति भी हैं। विषय से भटकने की पहली अभिव्यक्ति तब होती है जब बोला गया विषय सत्य से असंबंधित होता है; यह तब होता है जब व्यक्ति ऐसे फलसफे और सिद्धांत कहता है जिन्हें गैर-विश्वासी सही और उच्च मानते हैं और उन्हें जबरन सत्य से जोड़ते हैं। यह विषय से भटकना है। विषय सत्य से असंबंधित होता है—इस अभिव्यक्ति को समझना आसान होना चाहिए। दूसरी अभिव्यक्ति तब होती है जब चर्चा के विषय लोगों के मन को क्षुब्ध करते हैं। जब सभा में सत्य पर संगति नहीं की जाती है, बल्कि ज्ञान, पांडित्य, फलसफे और कानून या सामाजिक घटनाओं और विभिन्न जटिल अंतर्वैयक्तिक संबंधों के बारे में संगति की जाती है तो यह लोगों के मन को क्षुब्ध करता है। यह तब होता है जब व्यक्ति ऐसे मुद्दों के बारे में संगति करता है जिनमें मूलभूत रूप से सत्य शामिल नहीं होता और उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता, फिर भी वह ऐसे संगति करता है मानो वे चीजें सत्य हों। यह दूसरों के मन में भ्रम पैदा करता है और जब वे इसे सुनते हैं तो उनकी सोच सत्य की संगति से हटकर बाहरी मामलों पर चली जाती है। तब ये लोग कैसे व्यवहार करते हैं? वे ज्ञान और पांडित्य पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर देते हैं। लोगों के मन को क्षुब्ध करना अपनी प्रकृति में एक गंभीर बात है। तीसरी अभिव्यक्ति तब होती है जब चर्चा के विषयों की वजह से लोग परमेश्वर को गलत समझने लगते हैं जिसके परिणामस्वरूप दर्शनों के बारे में स्पष्टता नहीं रहती। कुछ लोग सत्य के बारे में खुद बहुत स्पष्ट नहीं होते, फिर भी दिखावा करना चाहते हैं कि उनमें स्पष्टता और समझ है। इसलिए जब वे सत्य पर संगति करते हैं तो वे जो कुछ कहते हैं उसमें कुछ गहन धर्म-सिद्धांत डाल देते हैं, जो धार्मिक धर्म-सिद्धांत उन्होंने सुने और समझे होते हैं उन्हें आपस में गड्डमड्ड कर देते हैं, निराधार और अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से बोलते हैं। उनकी बात सुनने के बाद लोग दर्शनों के बारे में स्पष्टता खो देते हैं; वे नहीं जानते कि वह व्यक्ति किस सत्य पर चर्चा करना चाहता था। जितना ज्यादा वे सुनते हैं, उतने ही ज्यादा भ्रमित होते हैं और उतनी ही ज्यादा परमेश्वर में उनकी आस्था कम हो जाती है, यहाँ तक कि उनके मन में परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ भी पैदा सकती हैं। लोग सत्य की समझ के बिना इस बातचीत से अलग नहीं हो पाते हैं—उनके मन भ्रमित हो जाते हैं। इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। विषय से भटक जाने से यही होता है।

सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाना कई तरीकों से अभिव्यक्त होता है और उनमें से प्रत्येक अपनी प्रकृति से लोगों के जीवन प्रवेश में बाधा उत्पन्न करता है। जब लोग ऐसी संगति सुन लेते हैं तो उनमें सत्य की स्पष्ट समझ और अभ्यास के मार्ग की कमी ही नहीं होती, बल्कि उनके मन भी भ्रमित हो जाते हैं, वे सत्य के बारे में ज्यादा अस्पष्ट हो जाते हैं और उनमें कुछ गलत व्याख्याएँ और गलत धारणाएँ भी विकसित हो जाती हैं। सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाने का लोगों पर यही प्रभाव और प्रतिकूल परिणाम होता है। इन तीनों अभिव्यक्तियों में से प्रत्येक अभिव्यक्ति प्रकृति में काफी गंभीर होती है। उदाहरण के लिए पहली अभिव्यक्ति है, “बोला गया विषय सत्य से असंबंधित होता है।” ऐसी बातें कहना जो सही लगती हैं लेकिन होती नहीं और लोगों को गुमराह करने के लिए सत्य पर संगति करने के अवसर का उपयोग करते हुए कलीसिया में उपदेश देने और विश्लेषण करने के लिए इंसानी ज्ञान, फलसफों, सिद्धांतों, परंपरागत संस्कृति और नामी हस्तियों के प्रसिद्ध कथनों जैसी शैतानी चीजें लाना उनके लिए बाधा उत्पन्न करता है। यह प्रकृति में बहुत गंभीर होता है। अगर कोई समझदार व्यक्ति ऐसी संगति सुनता तो कहता, “तुम जो कह रहे हो वह सही नहीं है; यह सत्य नहीं है। तुम जिसके बारे में बोल रहे हो वह नैतिक व्यवहार और कथन हैं जिन्हें गैर-विश्वासी अच्छा समझते हैं। वे गैर-विश्वासियों के इस बात के सिद्धांत होते हैं कि खुद को कैसे पेश करना चाहिए और अपने सांसारिक आचरण कैसे करने चाहिए, जो मूलभूत रूप से सत्य से असंबंधित होते हैं।” लेकिन कुछ लोगों में विवेक की कमी होती है और जब वे ये भ्रांतियाँ सुनते हैं तो वे उन्हें स्वीकारकर सत्य की तरह उनका पालन करते हैं। उस समय अगर अगुआ और कार्यकर्ता इसे रोकते नहीं हैं और प्रतिबंधित नहीं करते हैं, अगर वे इसके बारे में संगति कर इसका गहन-विश्लेषण नहीं करते हैं ताकि लोग विवेक प्राप्त करें, तो परमेश्वर के कुछ चुने हुए लोग गुमराह किए जा सकते हैं। गुमराह किए जाने के क्या परिणाम होते हैं? वे विश्वास कर लेंगे कि प्रसिद्ध गैर-विश्वासियों के उपदेश जिन्हें लोग सही, अच्छे और गहन मानते हैं, जैसे कि लोकोक्तियाँ और प्रसिद्ध लोगों के कथन और व्यक्ति के रूप में जीने के सिद्धांत, सब सही हैं और परमेश्वर के वचनों की तरह ही सत्य हैं। क्या वे गुमराह नहीं कर दिए गए? ऊपर से ऐसा लगता है जैसे वे सत्य पर संगति कर रहे हों, लेकिन असल में उसमें कुछ इंसानी विचार और शैतान के कुछ भ्रामक फलसफे मिले होते हैं और इससे स्पष्ट रूप से लोगों को परेशानी होती है। अगर कोई व्यक्ति शैतान के फलसफे और इंसानी ज्ञान को सत्य के रूप में प्रस्तुत करके लोगों को गुमराह करता है तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को मामला उजागर कर उसका गहन-विश्लेषण करना चाहिए, ताकि भाई-बहनों की समझ बढ़े और वे समझ जाएँ कि सत्य असल में क्या है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह कार्य करना चाहिए। दूसरी अभिव्यक्ति है “लोगों के मन क्षुब्ध करना।” कुछ लोग हमेशा सत्य पर संगति करने के अवसर लपक लेते हैं ताकि उन चीजों के बारे में बोल सकें जो सही लगती हैं लेकिन होती नहीं और वे इंसानी ज्ञान, पांडित्य, गुणों और प्रतिभाओं की बड़ाई करते हैं। वे नैतिक मानदंडों, परंपरागत संस्कृति आदि के बारे में भी बात करते हैं। वे शैतान से आने वाली इन चीजों को सकारात्मक चीजों के रूप में, सत्य के रूप में पेश करते हैं, जो लोगों को इस गलत धारणा की ओर ले जाता है कि इनका समर्थन करना चाहिए, इन्हें कलीसिया में फैलाना चाहिए और इनका गुणगान करना चाहिए, सभी को इनका पालन करना चाहिए; इससे लोगों के मन में ऐसी भ्रांतियाँ और पाखंड बढ़ते हैं जो सही प्रतीत होते हैं लेकिन होते नहीं; और यह लोगों के मन भ्रमित करता है और उन्हें भटकने का एहसास कराता है, उन्हें यह नहीं पता होता कि सत्य असल में क्या है या समस्याओं से सामना होने पर सही तरीके से कैसे अभ्यास किया जाए या कौन-सा मार्ग सही है। इससे उनके दिल अंधकार में डुब जाते हैं। यह लोगों को गुमराह करने के लिए पाखंड और भ्रांतियाँ फैलाने का नतीजा है। जहाँ तक तीसरी अभिव्यक्ति की बात है, हम इस पर विस्तार से संगति नहीं करेंगे। संक्षेप में, विषय से भटकी हुई कुछ चर्चाओं में ज्ञान शामिल होता है, कुछ में इंसानी धारणाएँ और कुछ में अन्य बातों के अलावा नैतिक रूप से अच्छे व्यवहार शामिल होते हैं। लेकिन इनमें से कोई भी चीज सत्य से संबंधित नहीं होती—वे सब उसके विपरीत होती हैं। इसलिए जब ये मुद्दे उठते हैं तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उन्हें रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर किसी की संगति सुनने के बाद लोगों के दिलों में न सिर्फ सत्य के बारे में स्पष्टता नहीं रहती, बल्कि वे क्षुब्ध भी हो जाते हैं, उनके मन जो कभी स्पष्ट होते थे, भ्रमित हो जाते हैं, वे नहीं जानते कि सही तरीके से अभ्यास कैसे करें, तो ऐसे व्यक्ति की संगति रोक देनी और प्रतिबंधित कर देनी चाहिए। उदाहरण के लिए, सामान्य मानवता से संबंधित सत्यों पर अपनी संगति में कुछ लोग कहते हैं : “सामान्य मानवता में परमेश्वर को जो सबसे ज्यादा पसंद है, वह है कठिनाई सहने की क्षमता, दैहिक आनंद या आराम की लालसा न करना, स्वादिष्ट भोजन का त्याग करना, जिसका आनंद लेना चाहिए उसका या जो परमेश्वर ने तैयार किया है उसका आनंद न लेना, इन दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम होना, देह की तमाम इच्छाएँ नियंत्रित करना, अपना शरीर वश में करना और देह को अपनी मर्जी न चलाने देना। इसलिए जब तुम रात को सोना चाहते हो तो तुम्हारा देह के खिलाफ विद्रोह करना जरूरी है। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते तो तुम्हें इसे नियंत्रित करने के तरीके खोजने की जरूरत है। देह के खिलाफ विद्रोह करने की तुम्हारी इच्छा जितनी बड़ी होगी और तुम जितना ज्यादा देह के खिलाफ विद्रोह करोगे, तुममें सत्य का अभ्यास करने की उतनी ही ज्यादा अभिव्यक्तियाँ और परमेश्वर के प्रति उतनी ही ज्यादा निष्ठा होना सिद्ध होगा। मुझे लगता है कि सामान्य मानवता की सबसे प्रमुख अभिव्यक्ति—जिसकी सबसे ज्यादा वकालत करनी चाहिए—अपने शरीर को वश में करना, देह की इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करना, दैहिक सुख की लालसा न करना और भौतिक आनंद में मितव्ययी होना है। तुम जितने ज्यादा मितव्ययी होगे, स्वर्ग के राज्य में उतने ही ज्यादा आशीष संचित कर लोगे।” क्या ये शब्द काफी सकारात्मक नहीं लगते? क्या इनमें कोई गलती है? इंसानी तर्क, सिद्धांतों और धारणाओं से मापने पर ये शब्द किसी भी धार्मिक या सामाजिक समूह में मान्य होंगे; हर कोई अपनी स्वीकृति व्यक्त करने के लिए इन्हें हरी झंडी दिखाएगा और कहेगा कि वे जो कहते हैं वह सही है, उनकी आस्था अच्छी और शुद्ध है। क्या कलीसिया में भी कुछ लोग इस पर विश्वास नहीं कर लेंगे? इंसानी धारणाओं से मापें तो ये तमाम शब्द सही हैं—इनमें क्या सही है? कुछ लोग कह सकते हैं, “परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद करता है। वह भी इसी तरह से मितव्ययी जीवन जीता है।” क्या यह इंसानी धारणा नहीं है? लोग इस तरह की धारणा रखते हैं, इसलिए अगर कोई व्यक्ति वास्तव में इस तरह की संगति करता है तो क्या वह बहुमत की धारणाओं के अनुरूप नहीं होगी? (हाँ, होगी।) जब लोग इस तरह की धारणा को स्वीकार करते हैं तो क्या वे उस व्यक्ति के दृष्टिकोण से सहमत नहीं होते? और जब लोग उस व्यक्ति के दृष्टिकोण से सहमत होकर उसको स्वीकार करते हैं तो क्या वे उसके क्रियाकलापों से सहमत नहीं होते? क्या तब वे उसका अनुकरण करने का प्रयास नहीं करते? और जब वे ऐसा करने में सक्षम होते हैं तो क्या वह मार्ग जिसका वे अनुसरण करते हैं, उनके अभ्यास का मार्ग, तब स्थिर नहीं हो जाता? स्थिर होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि वे दृढ़ होते हैं कि वे इस तरह से क्रियाकलाप और अभ्यास करेंगे। जब वे अपने दिल में यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर ऐसे लोगों से प्रेम करता है और उनका इस तरह से क्रियाकलाप करना पसंद करता है, सिर्फ ऐसा करके ही वे ऐसे व्यक्ति बन सकते हैं जिन्हें परमेश्वर स्वीकारता है, ऐसे व्यक्ति जो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर वहाँ आशीष प्राप्त कर सकते हैं, जिनका एक अच्छा गंतव्य होता है, तब वे इस तरह से क्रियाकलाप करने का संकल्प लेते हैं। जब वे यह संकल्प लेते हैं तो क्या उनके मन पहले से ही इस तरह के विचार और दृष्टिकोण से क्षुब्ध और गुमराह नहीं हो गए होते हैं? यह एक तथ्य है; यह नतीजा है। उनके मन क्षुब्ध हो जाते हैं और उन्हें इसका एहसास भी नहीं होता। एक और मुद्दा भी है : जब उनके मन ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों से पंगु और क्षुब्ध हो जाते हैं तो क्या वे परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं के बारे में स्पष्टता नहीं खो देते? क्या तब वे परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ नहीं पाल लेते और उससे दूर नहीं हो जाते? क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि वे दर्शनों के बारे में अस्पष्ट हैं? इसके बारे में ध्यान से सोचो : जब तुम किसी ऐसे विचार या दृष्टिकोण से गुमराह हो जाते हो जिसे लोग सही मानते हैं लेकिन जो होता गलत है तो क्या तुम्हारा मन क्षुब्ध नहीं होता? क्या तब तुम्हारे दिल में दर्शन स्पष्ट हो सकते हैं? (नहीं।) तो क्या परमेश्वर के बारे में तुम्हारा ज्ञान सटीक होता है या वह एक गलतफहमी होती है? स्पष्ट रूप से वह एक गलतफहमी होती है। तो क्या तुम जो समझते हो और जिसे तुम सही मानते हो, वह वास्तव में सत्य होता है? नहीं, वह सत्य नहीं होता—वह परमेश्वर के वचनों का, सत्य का खंडन करता है, उनके विपरीत होता है। इसलिए इस तरह सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाना बेशक लोगों के मन में बाधा उत्पन्न करता है। यह देखते हुए कि यह विषय से भटक जाना लोगों के मन में इतनी बड़ी बाधा उत्पन्न करता है, क्या इसे परमेश्वर के कार्य में व्यवधान पैदा करना कहा जा सकता है? यह लोगों को धारणाओं और शैतान के फलसफे और तर्क में ले जाता है, इसलिए क्या यह लोगों को परमेश्वर की उपस्थिति से दूर नहीं करता? जब लोग परमेश्वर को गलत समझते हैं, जब वे उसके इरादे नहीं समझते और उसके इरादों और अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास नहीं कर सकते, बल्कि शैतान के तर्क और इंसानी धारणाओं के अनुसार अभ्यास करते हैं तब क्या वे परमेश्वर के करीब होते हैं या उससे दूर होते हैं? (वे उससे दूर होते हैं।) वे उससे दूर होते हैं। तो क्या सभाओं के दौरान इस तरह के विषय पर संगति प्रतिबंधित नहीं होनी चाहिए? (हाँ, होनी चाहिए।) इस तरह विषय से भटकने की प्रकृति लोगों को क्षुब्ध करने वाली होती है, इसलिए उसे निश्चित रूप से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। अगर उसे रोका और प्रतिबंधित नहीं किया गया, तो ऐसे अनेक भ्रमित लोग होंगे जो खराब काबिलियत वाले और सुन्न होंगे—खासकर आध्यात्मिक समझ न रखने वाले लोग—जो विषय से भटकने वाले व्यक्ति का अनुकरण और अनुसरण करेंगे। यह वह समय है जब अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इसे रोकने के लिए तुरंत खड़े होना चाहिए। उन्हें उस व्यक्ति को विषय से भटकने नहीं देना चाहिए; उन्हें अपनी संगति के विषय से ज्यादा लोगों को गुमराह करने और ज्यादा लोगों के मन क्षुब्ध करने नहीं देने चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह जिम्मेदारी निभानी चाहिए, उन्हें यह कार्य करना चाहिए।

सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाने के विषय पर हमारी संगति में बस इतना ही। इसके बाद हम इस बात का सारांश प्रस्तुत करेंगे कि व्यक्ति को अपनी संगति के दौरान विषय से कितना भटक जाने पर और उसे किन विषयों पर संगति करने पर उस संगति की प्रकृति को विघ्न-बाधा उत्पन्न करने की श्रेणी में रखा जा सकता है। विषय से भटक जाने के कुछ प्रकार तो स्पष्ट हैं : जब व्यक्ति पूरी तरह से विषय से भटक जाता है, जब वह बेकार की बकबक करने लगता है या घरेलू मामलों पर चर्चा करने लगता है, तो उसे पहचानना आसान होता है। उदाहरण के लिए, जब हर कोई अपना कर्तव्य निभाने के तरीके के बारे में संगति कर रहा होता है तो कोई व्यक्ति अपने “शानदार” अतीत के बारे में संगति कर सकता है, अपने द्वारा किए गए अच्छे कर्मों के बारे में बात कर सकता है या इस बारे में बात कर सकता है कि कैसे उसने भाई-बहनों की मदद की है, इत्यादि। कोई इसे नहीं सुनना चाहता और जितना ज्यादा वह सुनता है उतना ही उससे विमुख हो जाता है जब तक कि उस व्यक्ति को नजरअंदाज नहीं कर देता। तब उस व्यक्ति को यह शर्मनाक लगेगा। अगर ज्यादातर लोग इस व्यक्ति को पहचान सकें तो वह आगे नहीं बढ़ पाएगा। विषय से भटक जाने के इस प्रकार को समझ पाने के लिए सत्य की बहुत ज्यादा समझ होने की जरूरत नहीं होती। बेकार की बातें करना, घरेलू मामलों के बारे में बकबक करना, खुद को बड़ा दिखाना, खुद को आकर्षक रूप में प्रस्तुत करना और संगति के विषय का लाभ उठाकर अपने “शानदार” अतीत के बारे में बात करना—इस तरह का विषय से भटक जाना आसानी से पहचाना जा सकता है। यह मूलभूत रूप से कोई खास गड़बड़ी पैदा नहीं करता क्योंकि ज्यादातर लोग ऐसी चीजों को नकार देते हैं और उन्हें सुनने के लिए तैयार नहीं होते और वे जानते हैं कि वे दिखावा कर रहे हैं और सत्य पर संगति नहीं कर रहे, वे विषय से भटक गए हैं। जब वे बोलना शुरू करते हैं तो समूह उन्हें फौरन शर्मिंदा नहीं करने की कोशिश कर सकता है, लेकिन जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते हैं, लोग उन्हें नकारने लगते हैं और उन्हें आगे सुनने के इच्छुक नहीं रह जाते और उन्हें लगता है कि इसके बजाय खुद ही परमेश्वर के वचन पढ़ना बेहतर होगा। अगर व्यक्ति बोलना जारी रखता है तो वे उठकर चले जाते हैं। जब व्यक्ति देखता है कि चीजें अचानक बदल गई हैं और वे खुद को शर्मिंदा कर रहे हैं तो वे बोलना जारी नहीं रखेंगे। किस तरह का विषय से भटकना लोगों पर पहले ही प्रतिकूल प्रभाव डाल चुका होता है, फिर भी लोग उसे कोई नकारात्मक चीज नहीं समझ पाते, बल्कि विषय से भटकी हुई सामग्री को सत्य मानकर ध्यान से सुनते हैं? इस तरह का विषय से भटकना लोगों को क्षुब्ध कर सकता है और ऐसे मामलों में व्यक्ति को विवेकशील होना चाहिए। इस तरह के विषय से भटकने का एक उदाहरण दो। (जब व्यक्ति काँट-छाँट किए जाने के बाद आत्मचिंतन नहीं करता, बल्कि अपनी बात सिर्फ मुद्दे के सही-गलत होने पर केंद्रित करता है, तो यह सभी का मन भ्रमित कर देता है। यह न सिर्फ लोगों को विवेक विकसित करने में असमर्थ बना देता है; बल्कि लोगों को लगता है कि यह व्यक्ति जो कहता है वह सत्य के अनुरूप है और वह सही है। इससे हर कोई उसका पक्ष लेता है।) काँट-छाँट किए जाने को कैसे स्वीकारें, इसके बारे में संगति करने के बहाने वे अपना बचाव करते हुए खुद को सही ठहराते हैं, लोगों को यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि उनकी काँट-छाँट करना गलत था, लोगों को अपना पक्ष लेने और अपने साथ सहानुभूति रखने के लिए मजबूर करते हैं और इसके अलावा लोगों को ऐसी परिस्थितियों में काँट-छाँट स्वीकार कर समर्पण करने की अपनी क्षमता की प्रशंसा करने के लिए मजबूर करते हैं। इससे लोग गुमराह होते हैं; यह जान-बूझकर, सोच-समझकर विषय से भटकने का उदाहरण है, जो न सिर्फ श्रोताओं को काट-छाँट का सामना करने पर समर्पण करने, काट-छाँट स्वीकारने और आत्मचिंतन कर खुद को जानने में असमर्थ बनाता है, बल्कि उन्हें काट-छाँट के प्रति सतर्क और प्रतिरोधी भी बनाता है। ऐसी संगति लोगों को काट-छाँट का महत्व समझने में मदद करने में विफल रहती है और यह समझने में भी विफल रहती है कि लोगों को काट-छाँट का सामना करने पर कैसे सही रवैया अपनाना चाहिए, उसे कैसे स्वीकारना चाहिए और कैसे अभ्यास करना चाहिए। इसके बजाय, यह लोगों को काट-छाँट से निपटने का दूसरा तरीका चुनने के लिए प्रेरित करती है, ऐसा तरीका जो सत्य का अभ्यास और सत्य सिद्धांतों के अनुसार क्रियाकलाप करना नहीं होता, बल्कि ऐसा तरीका होता है जो लोगों को ज्यादा शातिर बनाता है। ऐसी संगति लोगों को गुमराह करने का काम करती है। सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाना एक प्रकार का मुद्दा है जो कलीसियाई जीवन में उठता है। अगर इस प्रकार का मुद्दा विघ्न-बाधा के स्तर तक पहुँच जाता है तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इसे रोकने और प्रतिबंधित करने के लिए कदम उठाना चाहिए, इस पर संगति और इसका गहन-विश्लेषण करना चाहिए ताकि ज्यादातर लोगों का विवेक बढे, वे अनुभव से सीखें और एक सबक सीखें।

II. लोगों को गुमराह करने और उनसे सम्मान प्राप्त करने के लिए शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना

कलीसियाई जीवन में लोगों, घटनाओं और चीजों द्वारा विघ्न-बाधा पैदा किए जाने की दूसरी अभिव्यक्ति तब होती है जब लोग लोगों को गुमराह करने और उनसे सम्मान प्राप्त करनेके लिए शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं। आमतौर पर अधिकांश लोग कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल सकते हैं। अधिकांश लोगों ने ऐसा किया है। हमें किसी व्यक्ति द्वारा शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने की सामान्य घटना को उस व्यक्ति के छोटे आध्यात्मिक कद और सत्य की समझ की कमी का परिणाम मानना चाहिए। जब तक वे बहुत अधिक समय नहीं लेते, सोद्देश्य ऐसा नहीं करते, बातचीत पर एकाधिकार नहीं स्थापित करते, सभी पर अपनी मर्जी के मुताबिक बोलने में रमने का दबाव नहीं बनाते, सभी को अपनी बात सुनने के लिए मजबूर नहीं करते, और दूसरों को गुमराह करने और उनसे सम्मान प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते, तब तक यह विघ्न-बाधा पैदा करना नहीं है। क्योंकि अधिकांश लोगों में सत्य वास्तविकता नहीं होती, इसलिए शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना बहुत सामान्य घटना होती है। कुछ हद तक अनुपयुक्त रूप से बोलना भी क्षम्य है; इसे माफ किया जा सकता है और इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। परंतु एक अपवाद है, जो तब होता है जब शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने वाला व्यक्ति जानबूझकर ऐसा कर रहा हो। वे जान-बूझकर क्या काम करते हैं? वह यह नहीं है कि वे जानबूझकर शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, क्योंकि उनके पास भी सत्य की वास्तविकता नहीं होती। उनके क्रिया-कलाप जैसे शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना, नारे लगाना, और सिद्धांतों के बारे में बातें करना दूसरों के जैसा ही होता है। परंतु इसमें एक अंतर है : जब वे शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, तो वे हमेशा चाहते हैं कि दूसरे लोग उनका सम्मान करें, और वे हमेशा अपनी तुलना अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ और सत्य का अनुसरण करने वालों के साथ करने की इच्छा करते हैं। और इससे-भी-ज्यादा अनुचित यह है कि सम्मान पाने के लिए वे चाहे जो बोलें और चाहे जैसे बोलें उनका लक्ष्य लोगों को अपने पक्ष में खींचना और लोगों के दिलों को गुमराह करना होता है। सम्मान की तलाश का उद्देश्य क्या है? वे रुतबा और लोगों के दिलों में प्रतिष्ठा पाना चाहते हैं, भीड़ के बीच विशिष्ट व्यक्ति या अगुआ बनना चाहते हैं, कोई असाधारण या असामान्य व्यक्ति बनना चाहते हैं, विशेष व्यक्ति बनना चाहते हैं, जिनके शब्दों में अधिकार हो। यह स्थिति लोगों के शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने की सामान्य घटनाओं से अलग होती है और विघ्न-बाधा उत्पन्न करती है। वह क्या है जो इन लोगों को सामान्य रूप से शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उच्चारण किए जाने के मामलों से अलग करता है? यह उनकी बोलते रहने की स्थायी इच्छा है; जब भी मौका मिले, वे बोलेंगे। बोलते रहने की विशेष रूप से सबल इच्छा के चलते जब भी कोई सभा या लोगों का समूह एकत्रित होता है—जब तक उनके पास एक भी श्रोता होता है—वे बोलेंगे। बोलने का उनका उद्देश्य अपने अंदर की सोच, अपने लाभ, अनुभव, समझ या अंतर्दृष्टियों को भाई-बहनों के साथ साझा करना नहीं होता, ताकि सत्य की समझ पैदा की जा सके या सत्य का अभ्यास करने का कोई मार्ग तैयार किया जा सके। इसके बजाय, धर्म-सिद्धांतों का उच्चारण करने के अवसर का उपयोग करके वे प्रदर्शन करना चाहते हैं, दूसरों को दिखाना चाहते हैं कि वे कितने विद्वान हैं, दिखाना चाहते हैं कि उनके पास औसत व्यक्ति से ऊपर का दिमाग, ज्ञान और शिक्षा है। वे चाहते हैं कि उन्हें काबिल व्यक्तियों के रूप में जाना जाए, न कि साधारण व्यक्ति के रूप में। वे ऐसा इसलिए चाहते हैं ताकि किसी भी मामले में सब लोग उनकी ओर देखें और उनसे सलाह लें। वे चाहते हैं कि कलीसिया में किसी भी मुद्दे पर या भाई-बहनों के सामने आई किसी भी कठिनाई के समय दूसरों को सबसे पहले उनका ख्याल आए; वे ऐसा इसलिए चाहते हैं ताकि दूसरे लोग उनके बिना कुछ नहीं कर सकें, ताकि बिना उनसे परामर्श लिए वे किसी मामले को सँभालने की हिम्मत न करें और सारे लोग उनका आदेश पाने का इंतजार करें। यही वह प्रभाव है जो वे चाहते हैं। शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने का उनका उद्देश्य लोगों को फँसाना और उन्हें काबू में रखना होता है। उनके लिए, शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना एक तरीका भर है, एक दृष्टिकोण है; उनके शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने का कारण यह नहीं है कि वे सत्य नहीं समझते, बल्कि इसके माध्यम से वे लोगों को दिल से उनकी प्रशंसा करने, उन्हें बड़ा समझने, और यहाँ तक कि उनसे डरने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं, ताकि वे उनके द्वारा बेबस और उनके वश में हो जाएँ। इसीलिए, इस प्रकार शब्द और धर्म-सिद्धांतों बोलने से विघ्न-बाधा उत्पन्न होती है। कलीसियाई जीवन में ऐसे व्यक्तियों को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, और शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने के इस व्यवहार को रोका जाना चाहिए, इसे बेरोक-टोक जारी नहीं रहने दिया जाना चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं, “ऐसे लोगों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए; फिर भी क्या उन्हें बोलने का मौका देना चाहिए?” निष्पक्षता के लिहाज से, उन्हें बोलने का मौका दिया जा सकता है, लेकिन जैसे ही वे दिखावा करने के अपने पुराने तरीकों पर वापस लौटें, उनकी महत्वाकांक्षा फिर से फूटने वाली हो तो उन्हें तुरंत रोक देना चाहिए, ताकि वे सुस्पष्ट और शांत हो सकें। अगर वे अक्सर इस तरह से दिखावा करते हों, उनकी महत्वाकांक्षा अभी भी अक्सर प्रकट होती हो और उनकी इच्छाएँ नियंत्रित करना मुश्किल हो तो क्या करना चाहिए? उन्हें पूरी तरह से प्रतिबंधित कर बोलने से रोक देना चाहिए। अगर उनके बोलने पर कोई उन्हें सुनना न चाहे और उनका लहजा और उनकी चाल-ढाल, उनकी आँखों के भाव और उनके हाव-भाव देखने-सुनने में सभी को अरुचिकर लगते हों तो यह एक गंभीर समस्या है। यह उस बिंदु तक पहुँच जाता है जहाँ हर कोई विमुख हो जाता है। क्या ऐसे लोगों को, जो कलीसिया में एक विषमता की भूमिका निभाते हैं, मंच नहीं छोड़ देना चाहिए? यह उनके बाहर निकलने की भूमिका का समय है। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि उन्होंने सेवा करना समाप्त कर दिया है? वे अपनी अंतिम सेवा कर चुके हों, तो क्या करना चाहिए? उन्हें दूर कर देना चाहिए। जब वे बोलना शुरू करते हैं तो ये उनकी वही पुरानी बातें होती हैं जिन पर प्रतिबंध लगाने से रोक नहीं लगी। हर कोई उन्हें सुनकर उकता जाता है। उनका घिनौना चेहरा, शैतान का चेहरा, दानव का चेहरा स्पष्ट दिखाई देने लगता है। ये किस तरह के लोग हैं? ये मसीह-विरोधी हैं। अगर उन्हें बहुत जल्दी बाहर निकाल दिया जाए, तो ज्यादातर लोग धारणाएँ पाल लेंगे और दिल से आश्वस्त नहीं होंगे और कहेंगे, “परमेश्वर के घर में प्रेम नहीं है, व्यक्ति की कुछ समय तक जाँच-परख किए बिना ही उसे बाहर निकाल दिया जाता है, उसे पश्चात्ताप करने का कोई मौका नहीं दिया जाता। उन्होंने बस बाहरी लोगों की कुछ बातें कहीं, थोड़ा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया और थोड़े अहंकारी रहे, लेकिन उनके इरादे बुरे नहीं थे। उनके साथ इस तरह पेश आना अनुचित है।” लेकिन जब बहुमत बुरे लोगों के सार का भेद पहचानकर उसकी असलियत जान लेता है तो क्या ऐसे बुरे लोगों को कलीसिया में अपने अविवेकपूर्ण दुराचार और विघ्न-बाधाएँ जारी रखने देना उचित है? (नहीं।) यह सभी भाई-बहनों के साथ अन्याय है। ऐसे मामलों में उन्हें बाहर निकालने से समस्या हल हो जाती है। जब वे अंतिम सेवा कर लेते हैं और बहुमत उन्हें पहचान लेता है तो ज्यादातर लोगों को तुम्हारे उन्हें बाहर निकालने पर कोई आपत्ति नहीं होगी—वे शिकायत नहीं करेंगे या परमेश्वर को गलत नहीं समझेंगे। अगर अभी भी ऐसे लोग हों जो उनका बचाव करें तो तुम कह सकते हो : “उस व्यक्ति ने कलीसिया में कई बुरे काम किए थे। उसे मसीह-विरोधी के रूप में परिभाषित कर बाहर निकाला गया है। फिर भी तुम अभी भी उसके साथ इतनी ज्यादा सहानुभूति रखते हो; तुम अभी भी उसके द्वारा तुम्हारे प्रति दिखाई गई दयालुता के बारे में सोचते हो और उसके बचाव में आते हो। तुम बहुत भावुक हो रहे हो और तुममें सिद्धांत बिल्कुल नहीं हैं। इसके क्या दुष्परिणाम हैं? उससे थोड़ी-सी मदद मिल गई और तुम उसे नहीं भूल सकते; वह जो कुछ भी कहता है, तुम ईमानदारी से उसकी बात मानते हो, हमेशा उसके किए का ऋण चुकाना चाहते हो। अब उसे बाहर निकाल दिया गया है। क्या तुम उसके साथ जाना चाहते हो? अगर तुम भी बाहर निकाले जाना चाहते हो तो ऐसा ही सही।” क्या यह स्थिति को सँभालने का उचित तरीका है? इस समय यह उचित है। अगर ऐसे लोग दूसरों को गुमराह करने के लिए लगातार शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, लोगों को इतना असहनीय रूप से परेशान करते हैं कि वे अब सभाओं में नहीं आना चाहते तो क्या इसका कारण यह नहीं है कि अगुआ और कार्यकर्ता सुन्न और मंदबुद्धि हैं, उनमें विवेक की कमी है और वे इन लोगों से समय पर निपटने में असमर्थ हैं? यह उनकी अपना काम करने में असमर्थता है, अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में विफलता है।

अब तक ज्यादातर लोगों को उन मसीह-विरोधियों के बारे में कुछ हद तक समझ हो गई है जो शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं। जब तक वे अपना सिर नीचे रखते हैं तो अलग बात है लेकिन जैसे ही विभिन्न तरीकों से विशिष्ट रूप से पर्याप्त क्रियाकलाप करते हुए वे अपना सिर उठाते हैं और उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियाँ लोगों द्वारा उन्हें मसीह-विरोधियों के रूप में पहचानने के लिए पर्याप्त होती हैं तो और देरी या हिचक नहीं होनी चाहिए। उन्हें तुरंत प्रतिबंधित और अलग-थलग कर देना चाहिए। अगर उनकी सेवा का अब कोई मूल्य न हो तो उन्हें तुरंत बाहर निकाल देना चाहिए। ऐसे पाखंडी मसीह-विरोधियों को पहचानना आसान है, जो शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं क्योंकि ऐसे लोग स्पष्ट रूप से मसीह-विरोधी होते हैं। बात सिर्फ इतनी है कि ऐसा मसीह-विरोधी हमेशा शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने के अवसर का उपयोग करके लोगों को गुमराह करना चाहता है, ताकि सत्ता पर कब्जा करने का अपना लक्ष्य हासिल कर सके। यह एक तरीका है जिससे मसीह-विरोधी खुद को अभिव्यक्त करते हैं और इसे पहचानना आसान है। इस विषय पर पहले ही काफी चर्चा हो चुकी है, इसलिए यहाँ इस पर विस्तार से चर्चा नहीं की जाएगी। संक्षेप में, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऐसे लोगों पर बारीकी से ध्यान देना चाहिए, उनकी हरकतों, विचारों और दृष्टिकोणों के साथ-साथ उनकी योजनाओं और क्रियाकलापों और उनके द्वारा फैलाई जाने वाली गलत टिप्पणियों को तुरंत और सटीक रूप से समझना चाहिए और उनकी सटीक जानकारी रखनी चाहिए, और तदनुसार उन पर तुरंत ध्यान देना चाहिए। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है। इसलिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कम से कम इस कार्य में आध्यात्मिक रूप से उत्सुक और मानसिक रूप से सावधान रहना चाहिए, न कि सुन्न और सुस्त। अगर कोई मसीह-विरोधी सभाओं के दौरान शब्द और सिद्धांत बोलकर बहुत-से लोगों को गुमराह करता है और कलीसिया के अगुआ अभी भी उसे मसीह-विरोधी के रूप में नहीं पहचानते और उसे तुरंत उजागर कर उससे निपट नहीं सकते तो यह अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में उनकी विफलता है। अगर बहुत-से लोग पहले से ही मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह किए जा चुके हों और मसीह-विरोधियों को वहाँ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हुए न सुन पाने के कारण उन्हें सभाएँ निरर्थक लगती हों और इसलिए वे सभाओं में भाग लेने के अनिच्छुक हों या परमेश्वर के वचन खाने-पीने और धर्मोपदेश सुनने के भी अनिच्छुक हों, बल्कि मसीह-विरोधियों को उपदेश देते सुनना पसंद करते हों—अगर कलीसिया के अगुआओं को तभी स्थिति की गंभीरता का एहसास हो और वे तभी कार्रवाई कर चीजों को सकारात्मक दिशा देना शुरू करें, जब मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों को इस हद तक गुमराह और नियंत्रित किया जा चुका हो—तो इससे काफी देरी हो जाएगी! ऐसे नकली अगुआओं के सुन्न और मंदबुद्धि होने के कारण परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से कई लोगों के जीवन प्रवेश पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। जब मसीह-विरोधियों का गहन-विश्लेषण किया जाता है और उन्हें पहचानकर बाहर निकाला जाता है तो कुछ लोग गुमराह होकर उनका अनुसरण कर सकते हैं। कुछ लोग तो यहाँ तक कह सकते हैं, “अगर तुम उन्हें निकालोगे तो हम परमेश्वर में विश्वास नहीं करेंगे। अगर तुम उन्हें जाने पर मजबूर करोगे तो हम सब चले जाएँगे!” इस बिंदु पर यह पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि कलीसिया के अगुआ कोई वास्तविक कार्य बिल्कुल नहीं कर रहे हैं, जो कि अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में उनकी गंभीर विफलता है।

कलीसियाई जीवन में पहली चीज जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करनी चाहिए, वह है विभिन्न व्यक्तियों की अवस्था की सटीक जानकारी रखना। उन्हें मेलजोल के जरिये ध्यानपूर्वक जाँच-परख कर यह समझना चाहिए कि कलीसिया के हर सदस्य ने कौन-सा मार्ग अपनाया है और उसका स्वभाव सार क्या है, और तुरंत और सटीक रूप से पता लगाना और पहचानना चाहिए कि कौन मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहा है और किसमें मसीह-विरोधी का सार है। फिर उन्हें उन व्यक्तियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, उन पर बारीकी से ध्यान देना चाहिए और उनके द्वारा फैलाए गए दृष्टिकोणों और कथनों को, और इस बात को तुरंत समझना चाहिए कि वर्तमान में वे क्या कार्रवाई करने की तैयारी कर रहे हैं, और उसे इन सबकी सटीक जानकारी रखनी चाहिए। जब वे लोगों को गुमराह कर उन्हें फँसाना और नियंत्रित करना चाहते हैं तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को निष्क्रिय होकर प्रतीक्षा करने के बजाय उन्हें रोकने के लिए तुरंत खड़े होना चाहिए। अगर तुम मसीह-विरोधियों को उजागर करने से पहले परमेश्वर द्वारा उन्हें प्रकट किए जाने या भाई-बहनों को गुमराह किए जाने या भाई-बहनों द्वारा उनके बारे में समझ और विवेक प्राप्त किए जाने तक प्रतीक्षा करते हो, तो इससे मामलों में पहले ही देरी हो चुकी होगी। इसलिए, मसीह-विरोधियों से बचने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहले धावा बोलने और पहले से तैयारी रखने की पहल करनी चाहिए। पहला कदम उन लोगों को बढ़ावा देना और विकसित करना है जो अपेक्षाकृत ईमानदार हों और सत्य का अनुसरण कर सकते हों; यानी उन लोगों को सही ढंग से सींचना और आपूर्ति करना जो कार्य की विभिन्न मदों में अग्रणी भूमिका निभाते हों और उन्हें कलीसिया के स्तंभ बनने के लिए विकसित करना। सिर्फ इसी तरह से कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदें सुचारु रूप से और बिना किसी बाधा के आगे बढ़ सकती हैं और सुसमाचार का कार्य फैलता रह सकता है। चाहे जो भी कार्य हो, अगर उसमें अच्छा अगुआ नहीं है तो उसे करना बहुत मुश्किल हो जाता है। मसीह-विरोधियों की परमेश्वर के प्रति अवज्ञा की मुख्य अभिव्यक्ति परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गुमराह करके उनसे अपना अनुसरण करवाना है ताकि परमेश्वर के घर में कार्य की प्रत्येक मद में विघ्न-बाधा उत्पन्न की जा सके। कलीसिया में मसीह-विरोधियों का पहला उद्देश्य न्याय की भावना रखने वाले लोगों और कार्य की विभिन्न मदों में अग्रणी भूमिका निभाने वाले लोगों को नुकसान पहुँचाना है। जिन लोगों को वे गुमराह कर नियंत्रित कर सकते हैं उन्हें वे अपने पक्ष में खींच लेते हैं और जिन्हें वे गुमराह या नियंत्रित नहीं कर सकते उन पर झूठे आरोप मढ़कर उन्हें फँसाते, गिराते और अंततः बाहर निकाल देते हैं। इससे मसीह-विरोधियों के लिए कलीसिया को नियंत्रित करने का मार्ग प्रशस्त होता है। वे पहले उन कुछ प्रमुख व्यक्तियों को गिराते हैं जो सत्य का अनुसरण कर सकते हैं; बाकी में से ज्यादातर वे होते हैं जो जिस ओर हवा बहती है उसी ओर रुख कर लेते हैं। इसके बाद उनके लिए विशेष रूप से अगुआओं और कार्यकर्ताओं से निपटना बहुत आसान हो जाता है। सत्य का अनुसरण करने वालों के सहयोग और मदद के बिना अगुआ और कार्यकर्ता अनिवार्य रूप से बिना किसी सहायता के अकेले ही लड़ रहे होते हैं। वे प्रकाश में होते हैं, जबकि मसीह-विरोधी अँधेरे में घात लगाए रहते हैं, किसी भी क्षण उन पर गुप्त हमले करने, झूठे आरोप मढ़ने, उन्हें फँसाने और बदनाम करने के लिए तैयार रहते हैं, उन्हें इस तरह जमीं पर गिरा देते हैं कि वे उठ न सकें। फिर जब वे गिरे होते हैं, तब मसीह-विरोधी उन्हें लात मारने के लिए लोगों को ढूँढ़ते हैं, जिससे वे पूरी तरह से निराश और हताश हो जाते हैं। इसलिए अगर सत्य का अनुसरण करने वाले लोग उनके खिलाफ एकजुट नहीं होते तो मसीह-विरोधियों का मुद्दा पूरी तरह से हल करना बहुत मुश्किल है। कलीसियाई जीवन में पहली चीज जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करनी चाहिए, वह है कलीसिया की सामान्य व्यवस्था बनाए रखना। मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने वाले इन बुरे लोगों के रहते कलीसियाई जीवन से कोई अच्छे परिणाम नहीं आएँगे, वह आसानी से सही रास्ते पर नहीं आ पाएगा और ज्यादातर लोग अक्सर परेशान और प्रभावित होंगे। इसलिए बुरे लोगों, मसीह-विरोधियों और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने वालों को खोजना, उन्हें समझना, उनकी सटीक जानकारी रखना और उनका ठीक-ठीक पता लगाना कलीसियाई जीवन के संबंध में अगुआओं और कार्यकर्ताओं का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। इन लोगों को प्रतिबंधित करके या बाहर निकालकर ही कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था बनाए रखी जा सकती है। अगर इन्हें प्रतिबंधित नहीं किया जाता और जानबूझकर लापरवाही से काम करने और व्यवधान डालने दिया जाता है तो कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदें ठप हो जाएँगी। चूँकि ज्यादातर लोग उनका भेद नहीं पहचानते और वे उनके सार की असलियत नहीं समझ पाते, यहाँ तक कि उनके विभिन्न भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों से परेशान और गुमराह भी हो जाते हैं, इसलिए परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए सही रास्ते पर आना और कलीसियाई जीवन में सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना मुश्किल होता है। अगर इस दौरान कलीसियाई जीवन बहुत सामान्य होता है तो परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर के वचन खाने-पीने और सत्य पर संगति करने में लाभ और प्रगति हासिल करते हैं और अंततः उनके पास कुछ जीवन प्रवेश और थोड़ी सत्य वास्तविकता होती है, लेकिन फिर वे मसीह-विरोधियों के शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने से गुमराह और परेशान हो जाते हैं, फिर वे न सिर्फ अभी-अभी प्राप्त की गई थोड़ी शुद्ध समझ और वास्तविक बोध खो देते हैं, बल्कि बहुत सारे दिखावटी पाखंड और भ्रांतियाँ भी ग्रहण कर लेते हैं—वे जल्दी ही फिर से भ्रमित हो जाते हैं जो बहुत तकलीफदेह होता है, जैसे नाव खेने वाले नाव खेना बंद करते ही धारा द्वारा पीछे धकेल दिए जाते हैं। लोगों के लिए जीवन विकास साकार करना आसान नहीं है; थोड़ी-सी प्रगति देखने में भी वर्षों लग सकते हैं, जो बेहद धीमी है। लोगों के लिए वह थोड़ा-सा कद हासिल करना भी मुश्किल है जो उनके पास है—यह आसानी से प्राप्त नहीं होता। मसीह-विरोधियों के गुमराह करने और व्यवधान डालने के कारण लोगों में जो थोड़ी-बहुत शुद्ध समझ होती है, वह खो जाती है। इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि शैतान और मसीह-विरोधियों द्वारा व्यवधान डालने के बाद लोग शैतान के फलसफे, शैतान के षड्यंत्रों और चालों और शैतान द्वारा उनके भीतर भरे गए जहर से लबालब हो जाते हैं। ये चीजें न सिर्फ लोगों को परमेश्वर को जानने और उसके प्रति समर्पण करने से रोकती हैं, बल्कि उलटे इनसे लोगों में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ पैदा हो जाती हैं और वे उससे दूर चले जाते हैं, जिससे लोगों का भ्रष्ट स्वभाव और भी गंभीर हो जाता है और वे परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने में सक्षम हो जाते हैं। इसके परिणाम बहुत गंभीर होते हैं। मुझे बताओ, ऐसे गंभीर परिणाम देखते हुए क्या उन लोगों को रोकना और प्रतिबंधित करना आवश्यक है जो शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से लोगों को गुमराह करते हैं? क्या यह एक महत्वपूर्ण कार्य नहीं है जिसे कलीसिया के अगुआओं को करना चाहिए? (हाँ, है।) इसलिए बुरे लोगों और छद्म-विश्वासियों को प्रतिबंधित करना कलीसिया के लिए एक महत्वपूर्ण कार्य है। कुछ लोग कहते हैं, “मुझमें विवेक नहीं है। मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है।” असल में, अगर तुममें इच्छाशक्ति है, तुम ध्यान से जाँच-परख करते हो और हमेशा लोगों के इरादे और उद्देश्य जाँचते हो, तो तुम धीरे-धीरे विवेक विकसित कर लोगे। ये अविश्वासी और बुरे लोग जैसे ही खुद को दिखाते हैं, तो उनके इरादे और उद्देश्य होते हैं और उन सबका मकसद लोगों से अपना सम्मान करवाना, खुद को पुजवाना और लोगों को अपनी बातें सुनने के लिए प्रेरित करना होता है। अगर तुम उनके इरादे और उद्देश्य समझ सकते हो, तो यह पहले से ही कुछ विवेक का होना है। अगर तुम अनिश्चित रहते हो तो तुम इस मामले के बारे में कुछ ऐसे लोगों के साथ संगति कर सकते हो जो अपेक्षाकृत सत्य समझते हों। संगति के दौरान एक तो तुम सभी के द्वारा समझे गए सत्य और तथ्यात्मक साक्ष्य के विभिन्न अंशों के जरिये कोई निश्चय कर सकते हो। दूसरे, तुम—परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन तथा संगति के दौरान परमेश्वर द्वारा दिए गए प्रकाश के जरिये इस मामले की पुष्टि कर सकते हो, यह पुष्टि कर सकते हो कि क्या संबंधित व्यक्ति वास्तव में मसीह-विरोधी है और क्या वह वास्तव में ऐसा व्यक्ति है जिसे प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। संगति के जरिये अगर सभी को पुष्टि हो जाती है और वे सर्वसम्मति से सहमत हो जाते हैं और कहते हैं कि यह व्यक्ति वास्तव में मसीह-विरोधी है जिसे प्रतिबंधित किया जाना चाहिए—भाई-बहनों के साथ आम सहमति बनने और सभी के एक साझा परिप्रेक्ष्य पर पहुँचने के बाद—अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए अगला कदम सत्य सिद्धांतों के अनुसार इस व्यक्ति से जल्दी से निपटकर उसे बाहर निकालना है। यह सिद्धांत है। इस सिद्धांत को समझने के बाद लोगों को वास्तविक कार्य करना चाहिए, जिसका अर्थ है अपनी जिम्मेदारी पूरी करना और वफादार होना। सिद्धांतों को समझना धर्मोपदेश देने या उनसे अपना दिमाग भरने के लिए नहीं होता, बल्कि उन्हें अपने कर्तव्य के वास्तविक कार्य में लागू करने के लिए होता है। वास्तविक कार्य के दौरान, सिद्धांतों को समझना तुम्हें अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व बेहतर और ज्यादा अच्छी तरह से पूरे करने देता है। इस प्रकार यह भी अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कार्य का हिस्सा है। जब शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने वाले मसीह-विरोधी प्रकट होते हैं तो, कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था बनाए रखने और भाई-बहनों को कलीसियाई जीवन सामान्य रूप से जीने और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सभी सत्यों में प्रवेश करने देने के लिए अगुआ और कार्यकर्ता उन मसीह-विरोधियों को रोकने और प्रतिबंधित करने के लिए खड़े होने वाले पहले व्यक्ति होने चाहिए। उन मसीह-विरोधियों के लिए जो शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, यह उन्हें इसलिए प्रतिबंधित करने के बारे में नहीं होता कि उन्होंने कुछ गलत बातें कही होती हैं। अगर दीर्घकालिक जाँच-परख या बहुमत की प्रतिक्रिया और उनकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ यह निर्धारित करने के लिए पर्याप्त हैं कि वे वाकई मसीह-विरोधी किस्म के लोग हैं तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उन्हें रोकने और प्रतिबंधित करने के लिए आगे आना चाहिए और उन्हें बेरोकटोक आगे नहीं बढ़ने देना चाहिए। उनके साथ अत्यधिक कृपालु व्यवहार करना दानवों, शैतानों, गंदे राक्षसों और बुरी आत्माओं को कलीसिया में बेलगाम छोड़ देने के बराबर है, जिसका अर्थ है कि ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा कर रहे हैं, अनिवार्य रूप से शैतान के लिए काम कर रहे हैं। कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाओं के बारे में दूसरे प्रकार के मुद्दे पर संगति अब समाप्त होती है।

III. घरेलू मामलों के बारे में बकबक करना, व्यक्तिगत संबंध बनाना और व्यक्तिगत मामले सँभालना

इसके बाद आओ, तीसरे मुद्दे पर संगति करते हैं : घरेलू मामलों के बारे में बकबक करना, व्यक्तिगत संबंध बनाना और व्यक्तिगत मामले सँभालना। तीसरे मुद्दे में निहित ये समस्याएँ, जिन पर हम अपनी संगति में बात करेंगे, स्पष्ट रूप से कलीसियाई जीवन में नहीं होनी चाहिए। कलीसियाई जीवन जीते समय लोग परमेश्वर के वचन खाने-पीने, परमेश्वर के वचन साझा करने, सत्य पर संगति करने और अपनी व्यक्तिगत अनुभवजन्य गवाहियों पर संगति करने आते हैं और साथ ही परमेश्वर के इरादे खोजते हैं और सत्य की समझ तलाशते हैं। तो क्या कलीसियाई जीवन में घरेलू मामलों के बारे में बकबक करना, व्यक्तिगत संबंध बनाना और व्यक्तिगत मामले सँभालना जैसी समस्याएँ रोकी और प्रतिबंधित की जानी चाहिए? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं, “क्या एक-दूसरे का अभिवादन करना ठीक नहीं है? अगर दो लोग अपेक्षाकृत घनिष्ठ और पहले से ही परिचित हैं और वे कलीसियाई जीवन के दौरान मिलते हैं और थोड़ी देर बातचीत करते हैं तो क्या यह घरेलू मामलों के बारे में बकबक करना है? क्या इसे भी प्रतिबंधित किया जाना चाहिए?” क्या तीसरा मुद्दा इस तरह की समस्याएँ संदर्भित करता है? (नहीं।) स्पष्ट रूप से, ऐसा नहीं है। अगर सरल, विनम्र अभिवादन पर भी प्रतिबंध लगाया जाएगा, तो लोग भविष्य में मिलने पर बोलने से डरेंगे। तीसरे मुद्दे—घरेलू मामलों के बारे में बकबक करना, व्यक्तिगत संबंध बनाना और व्यक्तिगत मामले सँभालना—में ये तीन ही बातें शामिल हो सकती हैं, लेकिन ये बातें जिन समस्याओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, वे सरल विनम्र अभिवादन या बातचीत नहीं हैं। वे वो बुरे क्रियाकलाप हैं जो कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त कर सकते हैं और उसे नुकसान पहुँचा सकते हैं। चूँकि वे विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं, इसलिए वे संगति करने लायक हैं। क्या संगति करनी चाहिए? आखिर कौन-सी समस्याएँ, लोगों द्वारा बोले गए कौन-से शब्द, उनके द्वारा की गई कौन-सी चीजें और लोगों के कौन-से भाषण, व्यवहार और आचरण कलीसिया के काम में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करने के स्तर तक पहुँच सकते हैं। आओ कुछ विशिष्ट उदाहरणों पर चर्चा करके यह देखें कि क्या ये समस्याएँ गंभीर हैं, क्या ये विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करती हैं और क्या इन्हें रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए।

कलीसियाई जीवन में कुछ लोग अक्सर तुच्छ पारिवारिक मामलों और अपनी धारणाओं और विचारों के बारे में इस तरह बात करते हैं मानो वे चर्चा के मुख्य विषय हों। एक महिला कहती है : “समाज अब बहुत अंधकारमय हो गया है; गैर-विश्वासियों के साथ मेलजोल रखना और उनके बीच रहना बहुत थकाऊ है। गैर-विश्वासी कुछ भी करने में सक्षम हैं; यह वाकई असहनीय है!” तब कुछ भाई-बहन कहते हैं, “हम परमेश्वर में विश्वास करते हैं; चाहे हम किसी भी परिस्थिति का सामना करें, हमें विवेक का इस्तेमाल करने और सत्य और अभ्यास के मार्ग खोजने में सक्षम होना चाहिए। अगर तुम इस तरह से जियोगी तो तुम थक नहीं जाओगी।” फिर भी वह कहती है, “परमेश्वर का वचन सत्य है, लेकिन यह रामबाण नहीं है। मुझे चिंता थी कि मेरे पति का किसी के साथ प्रेम-संबंध है और यह बात सच निकली—उसने मुझसे कम उम्र की और ज्यादा सुंदर लड़की ढूँढ़ ली। मैं जीवन कैसे बिताऊँगी?” इस तरह से बड़बड़ाते हुए वह दुखी होकर रोने लगती है। उसका इस तरह से बोलना दूसरे कुछ लोगों के दुख उभार देता है। उसके जैसी दुर्दशा वाले कुछ लोग तुरंत उसके साथ जुड़ जाते हैं और वहीं पर बातचीत करना शुरू कर देते हैं। दो घंटे की सभा के दौरान वह विस्तार से चर्चा करती है कि कैसे उसके पति के प्रेम-संबंध होने के बाद उसके और उसके पति के बीच बहस हुई, कैसे उसने अपनी साझा संपत्ति हस्तांतरित करने के तरीकों के बारे में सोचने की कोशिश की, कैसे उसने तलाक के बाद होने वाले नुकसान से बचने के लिए एक वकील से सलाह ली, इत्यादि। क्या यह ऐसा विषय है जिस पर कलीसियाई जीवन में चर्चा करनी चाहिए? (नहीं।) अगर तुम्हारे पारिवारिक मामले अनसुलझे हैं और सभाओं में भाग लेने में तुम्हारा जी नहीं लगता तो बेहतर है कि तुम मत आओ। कलीसिया का सभा-स्थल तुम्हारे लिए अपनी व्यक्तिगत भड़ास निकालने की जगह नहीं है, न ही यह घरेलू मामलों के बारे में बकबक करने की जगह है। अगर तुम घर पर कठिनाइयों का सामना कर रहे हो और इन मुद्दों से उलझना, विवश होना या प्रतिबंधित होना नहीं चाहते हो और परमेश्वर के इरादे समझने के लिए सत्य खोजना और ये सभी मुद्दे छोड़ना चाहते हो तो तुम सभा के दौरान अपनी समस्याओं पर संक्षेप में संगति कर सकते हो, ताकि भाई-बहन तुम्हारी मदद करने के लिए सत्य पर संगति कर सकें। इससे तुम्हें परमेश्वर के इरादे समझने और मजबूत बनने, इन मुद्दों से विवश नहीं होने, नकारात्मकता और कमजोरी से बाहर निकलने और अपने लिए सही और सबसे उपयुक्त मार्ग चुनने में मदद मिल सकती है। यही वह चीज है जिसके बारे में तुम्हें संगति करनी चाहिए। लेकिन अगर तुम ये चिड़चिड़ाहट पैदा करने वाली तुच्छ चीजें अपने घर से कलीसियाई जीवन में लेकर आते हो ताकि यहाँ उनका बोझ उतारकर उनके बारे में उपदेश दे सको और ज्यादातर लोग शर्मिंदगी के कारण तुम्हें रोकते-टोकते नहीं, बल्कि बस धैर्य जुटाकर तुम्हें इन परेशान करने वाली तुच्छ चीजों के बारे में बात करते हुए सुनने के लिए खुद को मजबूर करते हैं तो क्या यह उचित है? क्या यह प्रेम दिखाना है? क्या यह सहनशील और धैर्यवान होना है? तुम्हारा यह व्यवहार कलीसियाई जीवन में पहले ही व्यवधान डाल चुका है। इससे किसे कष्ट होता है? इससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को कष्ट होता है। खास तौर पर चीन की मुख्य भूमि के परिवेश में, जहाँ सभा करना आसान नहीं है और विश्वासियों को हर जगह छिपना पड़ता है, यहाँ तक कि उन्हें सब कुछ पहले से ही तय करना पड़ता है—अगर कोई व्यक्ति इन तमाम चिड़चिड़ाहट पैदा करने वाले पारिवारिक मामलों का बोझ सबके द्वारा सुनने और टिप्पणी करने के लिए सभा-स्थल पर उतारता है, तो क्या यह उचित है? ज्यादातर लोग सभाओं में सत्य और परमेश्वर के इरादे समझने के लिए आते हैं, न कि ये चिड़चिड़ाहट पैदा करने वाली तुच्छ बातें सुनने के लिए, न ही तुम्हें घरेलू मामलों के बारे में बकबक करते सुनने के लिए। कुछ लोग कहते हैं, “मेरा कोई और करीबी नहीं है, इसलिए भाई-बहनों से इस बारे में बात करने में क्या बुराई है?” तुम इस बारे में बात कर सकते हो, लेकिन समय महत्वपूर्ण है। सभा के समय से पहले या बाद में अगर दूसरा पक्ष सुनने के लिए तैयार हो तो तुम इस बारे में बात कर सकते हो; यह तुम्हारी स्वतंत्रता है और परमेश्वर का घर तुम्हें प्रतिबंधित नहीं करेगा। लेकिन ऐसे मामलों के बारे में बात करने के लिए तुम अब जो स्थान और समय चुनते हो, वह सही नहीं है। यह कलीसियाई जीवन में सभा के दौरान होता है और पारिवारिक मामलों के बारे में तुम्हारी अंतहीन बातचीत भाई-बहनों को लगातार परेशान करती है और इसे प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। क्या यह नियम नहीं है? बेशक यह नियम है। नियमों को नहीं समझना अस्वीकार्य है, क्योंकि यह अविवेकपूर्ण क्रियाकलाप करने और दूसरों को परेशान करने की वजह बन सकता है। व्यवधान डालने वाले व्यवहार, भाषण और आचरण प्रतिबंधित किए जाने चाहिए; यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है, साथ ही यह सभी भाई-बहनों की भी जिम्मेदारी है। कुछ लोगों के पास आमतौर पर सभाओं में संगति करने के लिए बहुत कम सामग्री होती है, लेकिन जब भी उनके पारिवारिक जीवन में समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, वे इन चिड़चिड़ाहट पैदा करने वाली तुच्छ बातों का बोझ दूसरों पर उतार देते हैं ताकि वे सुन सकें। क्या दूसरे उन्हें सुनने के लिए मजबूर हैं? क्या वे उन लोगों के लिए सही-गलत का फैसला करने के लिए बाध्य हैं? उनकी ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। वे चीजें उन लोगों के निजी मामले हैं और उन्हें वे खुद सँभालने चाहिए; उन्हें सभा के समय के दौरान अपने निजी मामलों के बारे में बात नहीं करनी चाहिए। यह नियमों के विरुद्ध और अतार्किक है और ऐसा व्यवहार प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।

कुछ लोगों के बच्चे विश्वविद्यालय जाते हैं और वे अपने बच्चों की संभावनाओं के बारे में चिंता करना शुरू कर देते हैं, उनके लिए संपर्क तलाशते हैं और लगातार सोचते हैं, “हमारे परिवार में कोई सरकारी अधिकारी नहीं है; विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद मेरा बेटा किस तरह की नौकरी पा सकता है? उसके भविष्य का क्या होगा? क्या वह मेरे बुढ़ापे में मुझे सहारा दे पाएगा? मुझे यह सुनिश्चित करने का कोई तरीका खोजना होगा कि स्नातक होने के बाद उसे अच्छी नौकरी मिल जाए।” सभाओं में आकर वे कहते हैं, “मेरा बेटा बहुत आज्ञाकारी है। वह न सिर्फ ईश्वर में मेरी आस्था का समर्थन करता है, बल्कि विश्वविद्यालय की पढ़ाई पूरी करने के बाद खुद भी ईश्वर में विश्वास करना चाहता है। लेकिन एक बात है, भले ही हम ईश्वर में विश्वास करते हों, फिर भी हमें जीविका कमानी पड़ती है, है ना? पता नहीं, स्नातक होने के बाद उसे किस तरह की नौकरी मिल पाएगी। अभी अच्छी तनख्वाह वाली नौकरियाँ कौन-सी हैं? फलाँ बहन, मैंने सुना है कि तुम्हारे पति एक प्रबंधक हैं। क्या वे इसमें किसी तरह की मदद कर सकते हैं? मेरा बेटा शिक्षित है, उसने दुनिया देखी है, उसमें मुझसे बेहतर काबिलियत है और वह कंप्यूटर का अच्छा जानकार है; वह भविष्य में परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभा सकता है। लेकिन फिलहाल नौकरी मिलने का मामला पहले हल होना जरूरी है; अगर उसे नौकरी नहीं मिली तो यह उसके लिए मुश्किल होगा।” हर बार जब वे सभा में आते हैं तभी ये मामले उठाते हैं और बातचीत लगातार चलती रहती है। वे देखते हैं कि कौन उनके साथ सहानुभूति रख सकता है और फिर उन लोगों के साथ संबंध बनाने की कोशिश करते हैं। सभाओं के दौरान वे उनके करीब जाने की कोशिश करते हैं, उनकी पसंद पूरी करते हैं, यहाँ तक कि उन्हें उपहार भी देते हैं, कभी-कभी उनके लिए स्वादिष्ट भोजन ले आते हैं या उन्हें छोटी-मोटी चीजें खरीदकर दे देते हैं। क्या यह व्यक्तिगत संबंध बनाना और आधार तैयार करना नहीं है? आधार तैयार करने का क्या उद्देश्य होता है? इसका उद्देश्य अपने व्यक्तिगत मामले सँभालने, अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए दूसरों का इस्तेमाल करना होता है। सभाओं के दौरान वे भाई-बहनों को अनुभवजन्य गवाही साझा करते हुए सुनने के इच्छुक नहीं होते, वे परमेश्वर के घर द्वारा उनके लिए जिस भी काम की व्यवस्था की जाती है उसे अनदेखा करते हैं और उन भाई-बहनों की बात सुनने के लिए तैयार नहीं होते जो उनकी हालत के बारे में उनकी मदद करने और उन्हें सलाह देने की कोशिश करते हैं। वे सिर्फ अपने बेटे को नौकरी मिलने के बारे में विशेष रूप से उत्साहित होते हैं और इसके बारे में अंतहीन बातें करते हैं। वे न सिर्फ जो भी दिख जाता है उसी से बात करते हैं, बल्कि सभाओं के दौरान भी बात करते हैं। संक्षेप में, वे इस मामले में विशेष रूप से सजग रहते हैं और इसमें बहुत मेहनत करते हैं। हर सभा में वे इस मामले पर बात करने के लिए भाई-बहनों का कुछ समय लेते हैं। यहाँ तक कि अपने अनुभवों के बारे में संगति करते समय भी वे इसका जिक्र करना नहीं भूलते और तब तक बोलते रहते हैं जब तक कि हर कोई अधीर और निराश नहीं हो जाता, और ज्यादातर लोग उन्हें रोकने में बहुत शर्मिंदगी महसूस करते हैं। इस बिंदु पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए और उन्हें यह कहते हुए रोकना चाहिए, “हर कोई तुम्हारी स्थिति से अवगत है। अगर कोई भाई-बहन मदद करने का इच्छुक है तो यह तुम लोगों का व्यक्तिगत संबंध है। अगर दूसरे लोग मदद करने के इच्छुक नहीं हैं तो तुम्हें उन्हें मजबूर नहीं करना चाहिए। तुम्हारे बेटे को नौकरी खोजने में मदद करना भाई-बहनों का दायित्व या जिम्मेदारी नहीं है; यह तुम्हारा व्यक्तिगत मामला है और इसके लिए तुम्हें भाई-बहनों का परमेश्वर के वचन खाने-पीने और सत्य पर संगति करने का कीमती समय नहीं लेना चाहिए। अपने व्यक्तिगत मामलों के बारे में संगति करके दूसरों के परमेश्वर के वचन खाने-पीने में हस्तक्षेप मत करो। सभा के बाद तुम जिससे चाहो उससे बात कर सकते हो, जिससे चाहो मदद माँग सकते हो, लेकिन इस बारे में बात करने के लिए सभा के समय का उपयोग मत करो। व्यक्तिगत मामले सँभालने के लिए सभा के समय का उपयोग करना तर्कहीन और शर्मनाक है; यह कलीसियाई जीवन में व्यवधान डालने का एक उदाहरण है। यह मामला यहीं रुक जाना चाहिए।” अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यही करना चाहिए।

सभाओं के दौरान कुछ बुज़ुर्ग महिलाओं को पता चलता है कि मेजबान परिवारों की युवा बहनें सुंदर और ईमानदार हैं और वास्तव में परमेश्वर में विश्वास और सत्य का अनुसरण करती हैं, इसलिए वे उन्हें पसंद करने लगती हैं और चाहती हैं कि वे युवा बहनें उनकी बहुएँ बन जाएँ। वे न सिर्फ सभाओं के दौरान हर वक्त इसकी चर्चा करती हैं, बल्कि जब भी वे सभाओं में आती हैं तो उन युवा बहनों की थोड़ी मदद करती हैं और उनका विशेष खयाल रखती हैं। यहाँ तक कि जब युवा बहनें असहमत होती हैं, तो भी वे लगातार उनका सिर खाती रहती हैं, उन्हें परेशान करती हैं और उनका पीछा नहीं छोड़ती। वे किस तरह की महिलाएँ हैं? क्या वे घटिया चरित्र की नहीं हैं? चूँकि वे सब आस्था से बहनें हैं, इसलिए ज्यादातर लोग ये मुद्दे हल करने के लिए सिर्फ परमेश्वर के इरादों और उसके वचनों पर संगति कर सकते हैं। लेकिन कुछ लोगों में जमीर, विवेक और आत्म-जागरूकता की कमी होती है, उनकी व्यक्तिगत इच्छाएँ बहुत ज्यादा होती हैं और वे बिना किसी शर्म के, जो भी उनकी स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ होती हैं उन्हें सफलतापूर्वक पूरा करना चाहते हैं। इस तरह सभाओं के दौरान कुछ लोग शिकार बन जाते हैं और असहज महसूस करते हैं। क्या यह दूसरों के लिए व्यवधान डालना नहीं है? ऐसी स्थितियों में क्या करना चाहिए? कलीसिया के अगुआओं को कलीसियाई जीवन और भाई-बहनों के बीच इस तरह के मामले प्रतिबंधित कर हटाने के लिए आगे आना चाहिए। इसके अलावा, कुछ लोग सभाओं में तमाम तरह की मनःस्थितियाँ लेकर आते हैं—उनका बेटा कपूत है, उनकी बहू हमेशा सामान अपने मायके ले जाती है, सास-बहू के झगड़े...। वे इन चिड़चिड़ाहट पैदा करने वाली तुच्छ बातों के बारे में हर सभा में बात करते हैं और अपनी शिकायतों की शुरुआत इससे करते हैं : “परमेश्वर जो कुछ भी कहता है वह सच है; मानवजाति अब कितनी भ्रष्ट हो गई है! मेरे बेटे और बहू को ही देखो, उनमें जमीर की कमी है, विवेक की कमी है—यह मानवता की वही कमी है जिसके बारे में परमेश्वर बात करता है, वे जानवरों से भी बदतर हैं। मेमने भी पाले जाते समय घुटने टेकना जानते हैं, लेकिन मेरा बेटा पत्नी के आते ही माँ को भूल जाता है!” हर बार जब वे सभाओं में जाते हैं तो ये शिकायतें व्यक्त करते हैं। ऐसे लोग भी हैं जो सभाओं में आकर अपनी कंपनियों के मामलों के बारे में बात करते हैं—कौन दफ्तर में अच्छा प्रदर्शन करता है और ज्यादा बोनस पाता है; अगले महीने कौन पदोन्नत होगा जबकि उनके पदोन्नत होने की कोई उम्मीद नहीं है; कौन सबसे अच्छे कपड़े पहनता है और सबसे ब्रांडेड सामान खरीदता है; किसने एक अमीर पति से शादी की है...। जो लोग लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास करते हैं और जिनके पास कुछ आधार होता है, वे ऐसी बात नहीं सुनना चाहते और इससे विमुख हो जाते हैं। लेकिन कुछ नए विश्वासी, अभी तक जिनका आधार स्थापित नहीं हुआ है या जिनकी परमेश्वर के वचनों में रुचि विकसित नहीं हुई है, उन्हें ऐसे विषय उत्तेजक लगते हैं, वे मानते हैं कि उन्हें बातचीत करने और व्यक्तिगत संबंध बनाने की जगह मिल गई है। सभाओं के दौरान वे आपस में बात करते हैं और धीरे-धीरे दोनों लोग एक-दूसरे को अपने अनुरूप पाते हैं और एक संबंध बना लेते हैं और इस तरह उनमें एक निजी संबंध विकसित हो जाता है। सभा-स्थल लेनदेन का स्थान, लोगों के लिए बेकार की बकबक करने, व्यक्तिगत संबंध बनाने, व्यावसायिक सौदे करने और वाणिज्यिक कार्यों में शामिल होने का स्थान बन गया है। यही वे मुद्दे हैं जिन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं को तुरंत पहचानकर रोकना चाहिए।

कुछ लोग अपने लिए कोई अच्छी नौकरी खोजने के उद्देश्य से सभाओं में आते हैं तो कुछ अपने पतियों की पदोन्नति में मदद करने के लिए, कुछ अपने बच्चों के लिए अच्छी नौकरी खोजने के लिए तो कुछ सस्ते दाम पर सामान खरीदने के लिए। कुछ अन्य लोग अपने परिवार में बीमार व्यक्ति के लिए बिना बहुत सारे उपहार दिए कोई अच्छा मुख्य चिकित्सक खोजने आते हैं। संक्षेप में, ये छद्म-विश्वासी जो सत्य का अनुसरण नहीं करते और जिनके छिपे हुए इरादे होते हैं, कलीसिया की सभाओं के समय को व्यक्तिगत संबंध बनाने और व्यक्तिगत मामले सँभालने के लिए सर्वोतम समय पाते हैं। अक्सर परमेश्वर के वचनों पर संगति करने या इस दुष्ट दुनिया को और इस भ्रष्ट मानवजाति के सार को जानने की आड़ में वे अपनी कठिनाइयाँ और वे मामले उठाते हैं जिन पर वे चर्चा करना चाहते हैं और अंततः अपने छिपे हुए स्वार्थपूर्ण इरादे और वे व्यक्तिगत मामले थोड़ा-थोड़ा करके उजागर करते हैं जिन्हें वे पूरा करने का उद्देश्य रखते हैं। वे अपने इरादे उजागर करते हैं और दूसरों को यह गलत विश्वास दिलाते हैं कि वे कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं, जिसका घुमा-फिराकर मतलब यह है कि सभी को बेशर्त और बदले में कोई उम्मीद किए बिना उनके प्रति प्रेम दिखाना चाहिए और उनकी मदद करनी चाहिए। वे परमेश्वर में विश्वास करने का झंडा फहराकर विभिन्न खामियों का फायदा उठाते हैं, सभा-स्थलों में ऐसे लोगों की तलाश करते हैं जिन्हें वे दोस्त बनाना चाहते हैं और उनकी भी जो उनके काम कर सकें। कम कीमत पर कार खरीदने के इच्छुक कुछ लोग भाई-बहनों के बीच कार की डीलरशिप में काम करने वाला या कार की डीलरशिप के मालिक से संबंध रखने वाला कोई व्यक्ति तलाशते हैं। जब वे अपने लक्ष्य की पहचान कर लेते हैं तो नजदीक जाकर उसके साथ घुलमिल जाते हैं और संबंध बना लेते हैं। अगर उस व्यक्ति को परमेश्वर के वचन पढ़ना पसंद हो तो वे अक्सर परमेश्वर के वचन साथ पढ़ने के लिए उसके घर चले जाते हैं और सभाओं में उसकी बगल में बैठते हैं और अपने संपर्क-सूत्रों का आदान-प्रदान करते हैं। फिर वे यह दृढ़ निश्चय करते हुए अपना आक्रामक अभियान शुरू करते हैं कि जब तक उनका उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता वे हार नहीं मानेंगे। ये सब वे समस्याएँ हैं जो अक्सर कलीसिया के भीतर और लोगों के बीच उभरती हैं। अगर ये समस्याएँ सभा-स्थलों और सभाओं के समय उठती हैं तो वे वस्तुतः कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करेंगी, जिससे कलीसियाई जीवन प्रभावित होगा। अगर किसी कलीसिया में लंबे समय तक कोई कलीसियाई जीवन नहीं होता, तो वह कलीसिया एक सामाजिक समूह बन जाती है, लेन-देन करने, व्यक्तिगत संबंध बनाने, पिछले दरवाजे से मदद प्राप्त करने और व्यक्तिगत मामले सँभालने का स्थान बन जाती है। इस स्थान की प्रकृति बदल जाती है, और इसके परिणाम क्या होते हैं? कम से कम, इससे कलीसियाई जीवन को नुकसान पहुँचाता है, जिसका अर्थ है भाई-बहनों के साथ प्रार्थना करते हुए परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य समझने के कीमती समय का नुकसान। इसके अलावा, और सबसे महत्वपूर्ण बात, इससे पवित्र आत्मा के कार्य करने, लोगों को सत्य समझने के लिए प्रबुद्ध करने के कीमती अवसर का नुकसान होता है। यह सब लोगों के जीवन प्रवेश को नुकसान पहुँचाता है। इसलिए, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लाभ और जीवन प्रवेश के लिए और सभी के जीवन के प्रति जिम्मेदार होने के लिए ऐसे व्यक्तियों को रोकना और प्रतिबंधित करना आवश्यक है; यह वह काम है जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए। बेशक, अगर आम भाई-बहन इन लोगों और इनके क्रियाकलापों की असलियत देख सकें तो उन्हें भी उन्हें मना करने और “नहीं” कहने के लिए खड़े होना चाहिए। खास तौर पर कलीसियाई जीवन जीते हुए, जो लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण समय होता है, अगर कोई इन मामलों के बारे में बात करने और उन्हें सँभालने के लिए सभाओं का समय लेता है तो भाई-बहनों को उन्हें अनदेखा करने का अधिकार है, और इससे भी बढ़कर, ऐसी चीजों को रोकने और मना करने का अधिकार है। क्या ऐसा करना सही है? (हाँ।) कुछ लोगों को लगता है कि परमेश्वर के घर का ऐसा करना इंसानी गर्मजोशी की कमी दर्शाता है। क्या इंसानी गर्मजोशी सामान्य मानवता है? क्या इंसानी गर्मजोशी सत्य के अनुरूप है? अगर तुममें इंसानी गर्मजोशी है और तुम अपने व्यक्तिगत मामलों के लिए सभा का समय लेते हो, यहाँ तक कि ज्यादातर लोगों को तुम्हारा साथ देने और समर्थन करने को बाध्य करते हो और अपने व्यक्तिगत मामले सँभालने का अपना उद्देश्य हासिल करते हो और परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य पर संगति करने की सामान्य व्यवस्था में व्यवधान डालते हो जिससे उनका यह बहुमूल्य समय नष्ट होता है, तो क्या यह उनके लिए न्यायसंगत है? क्या यह इंसानी गर्मजोशी होने के अनुरूप है? यह सबसे अमानवीय और अनैतिक नजरिया है और लोगों को खड़े होकर इसकी निंदा करनी चाहिए। अगर अगुआ और कार्यकर्ता कमजोर, निकम्मे लोग हैं और ऐसे व्यवहार तुरंत रोकने और प्रतिबंधित करने में असमर्थ हैं, वास्तविक कार्य में संलग्न नहीं होते तो न्याय की भावना रखने वाले भाई-बहनों को ऐसा व्यवहार और यह माहौल कलीसिया में फैलने से रोकने के लिए एकजुट हो जाना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य पर संगति करने का अपना कीमती समय खोना नहीं चाहते, नहीं चाहते कि तुम्हारा जीवन प्रवेश बाधित हो और उसे नुकसान पहुँचे जिससे तुम्हारे उद्धार का मौका बर्बाद हो जाए तो तुम्हें इन घटनाओं को अस्वीकार करने, रोकने और प्रतिबंधित करने के लिए खड़े होना चाहिए। ऐसा करना उचित और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। तुममें से कुछ लोग ऐसा करने में शर्मिंदा होते हैं; तुम शर्मिंदा हो सकते हो, लेकिन बुरे लोग नहीं होते। वे तुम्हारा सभा का कीमती समय—पवित्र आत्मा के कार्य करने और परमेश्वर द्वारा तुम्हें प्रबुद्ध करने का समय—ले लेने की हिम्मत रखते हैं। अगर तुम्हें उन्हें मना करना शर्मनाक लगता है तो तुम इसी लायक हो कि तुम्हारे जीवन को नुकसान पहुँचे! अगर तुम शैतानों, दानवों और छद्म-विश्वासियों के प्रति प्रेम दिखाने, उनकी मदद करने, दूसरों के लिए अपना बलिदान करने और सिद्धांतों की अवहेलना करने के इच्छुक हो तो तुम अपने जीवन के नुकसान के लिए किसे दोषी ठहरा सकते हो? इसलिए व्यक्तिगत संबंध बनाने और व्यक्तिगत मामले सँभालने के तमाम उदाहरण कलीसियाई जीवन से पूरी तरह से मिटा दिए जाने चाहिए। अगर कोई अपने ही ढर्रे पर चलता रहता है और सभा के दौरान अपने घरेलू मामलों के बारे में बात करने, बेकार की बकबक करने, व्यक्तिगत मामले सँभालने या दूसरों के लिए नौकरी और रोमांटिक साथी खोजने और इस तरह से समय बिताने के लिए विभिन्न बहाने खोजने पर जोर देता है, तो ऐसे व्यक्ति से कैसे निपटना चाहिए? पहले, उसे रोकना चाहिए; अगर वह फिर भी न सुने तो उसे अलग-थलग करना चाहिए और उस पर प्रतिबंध लगाने चाहिए। अगर वह पर्दे के पीछे व्यवधान डालता रहे, जिससे भी संभव हो मेलजोल बढ़ाता रहे और हर जगह भाई-बहनों के सामान्य जीवन में परेशानी खड़ी करता रहे तो उसे बहिष्कृत कर देना चाहिए और उसे भाई या बहन नहीं मानना चाहिए। वह कलीसियाई जीवन जीने और सभाओं में भाग लेने योग्य नहीं है। ऐसे लोगों को प्रतिबंधित और अस्वीकृत कर देना चाहिए। बेशक यह भी एक महत्वपूर्ण कार्य है जिसे सभी स्तरों के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए। जब ऐसे मामले और परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले खड़े होकर उन्हें रोकना चाहिए। उन्हें कैसे रोकना चाहिए? उन्हें उनसे कहना चाहिए, “क्या तुम जानते हो कि तुम्हारा यह व्यवहार पहले ही कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न कर चुका है? यह ऐसी चीज है जो सभी भाई-बहनों को घिनौनी लगती है और वे इससे घृणा करते हैं और परमेश्वर भी इसकी निंदा करता है। तुम्हें यह व्यवहार बंद कर देना चाहिए। अगर तुम अनुनय-विनय नहीं सुनते हो और अपने तरीके से चलते रहे तो तुम्हारा कलीसियाई जीवन बंद कर दिया जाएगा, तुम्हारी परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें छीन ली जाएँगी और कलीसिया फिर तुम्हें स्वीकार नहीं करेगी!” बेशक, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने छोटे आध्यात्मिक कद और सत्य की समझ की कमी के कारण कभी-कभार घरेलू मामलों के बारे में बात कर सकते हैं, किसी से संबंध बना सकते हैं या कोई छोटा-मोटा मामला सँभाल सकते हैं और स्थिति ज्यादा गंभीर नहीं होती। क्या यह ठीक है? (हाँ।) ऐसी परिस्थितियों में, जो किसी को कोई परेशानी न पहुँचाए, भाई-बहनों का एक-दूसरे की मदद करना और एक-दूसरे के प्रति थोड़ा प्रेम दिखाना स्वीकार्य है। लेकिन हम किस बारे में संगति कर रहे हैं? उस बारे में, जब ऐसे व्यवहार और क्रियाकलाप सामान्य कलीसियाई जीवन में पहले ही विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न कर चुके हों; ऐसे मामलों में शामिल लोगों को रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए। हमें उन्हें कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त करने की खुली छूट नहीं देनी चाहिए। ये कार्रवाइयाँ करना भाई-बहनों के जीवन प्रवेश के लिए लाभदायक है। कुछ लोग इसी तरह का व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, लेकिन स्थिति गंभीर नहीं होती और इससे विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं होतीं; यह भाई-बहनों के बीच सामान्य बातचीत मात्र होती है, एक-दूसरे की मदद करने और सामान्य रूप से जानकारी के लिए परामर्श करने या उस सामान्य ज्ञान के बारे में पूछताछ करने के लिए होती है जिसे कोई नहीं समझता। अगर यह सभाओं का समय नहीं लेती और अगर दोनों पक्ष खुद को एक-दूसरे पर थोपे बिना इसके लिए सहमत और इच्छुक होते हैं और यह मेलजोल सामान्य मानवता के दायरे में आता है तो यह अनुमति योग्य है और कलीसिया इसे प्रतिबंधित नहीं करेगी। लेकिन बस एक बात है : अगर कलीसियाई जीवन में किसी के अविवेकपूर्ण भाषण और क्रियाकलाप से भाई-बहनों को परेशानी होती है या उनके लिए व्यवधान उत्पन्न होता है और कुछ लोगों को इससे घृणा महसूस हुई है और अपनी आपत्तियाँ जताई हैं तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह समस्या हल करने के लिए आगे आना चाहिए। या अगर दूसरे लोगों ने पहले ही किसी व्यक्ति की रिपोर्ट करके कहा है कि यह व्यक्ति सभा के दौरान परमेश्वर के वचनों पर संगति नहीं करता, बल्कि अपने घरेलू मामलों के बारे में बात करता है और व्यक्तिगत संबंध बनाता है, सभा-स्थल का उपयोग व्यक्तिगत संबंध बनाने और व्यक्तिगत मामले निपटाने, दूसरों से एहसान माँगने और जिनका भी शोषण कर सकता हो उनका शोषण करने के स्थान के रूप में करता है; और उन्होंने कहा है कि यह व्यक्ति निम्न चरित्र का, स्वार्थी, घृणित और नीच है और सत्य का अनुसरण नहीं करता बल्कि हर जगह लाभ खोजता है, अपने लाभ के लिए विभिन्न अवसर तलाशता है तो ऐसे व्यक्ति को अलग-थलग कर देना चाहिए।

कुछ लोग अपने काम करवाने के लिए कुछ धनी और प्रभावशाली भाई-बहनों का शोषण करते हैं और अगर उनके अनुरोध पूरे नहीं किए जाते तो वे अक्सर पीठ पीछे उनकी आलोचना करते हैं, वे दावा करते हैं कि इन लोगों में प्रेम नहीं है और ये सच्चे विश्वासी नहीं हैं, यहाँ तक कि वे उनकी रिपोर्ट भी करना चाहते हैं। क्या तुम लोगों का ऐसे व्यक्तियों से सामना हुआ है? क्या ऐसे लोगों पर ध्यान नहीं देना चाहिए? ऐसी परिस्थितियाँ सामने आने पर क्या करना चाहिए? अगुआओं और कार्यकर्ताओं को दखल देकर यह समस्या हल करनी चाहिए, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि भाई-बहन परेशान न किए जाएँ। क्या उनके लिए कुछ करने से किसी का इनकार करना गलत है? क्या उनकी मदद करने से इनकार करना सत्य का अभ्यास न करने या परमेश्वर के प्रति प्रेम न रखने के समान है? (नहीं।) किसी की मदद करना उनकी स्वतंत्रता है; उन्हें चुनने का अधिकार है। परमेश्वर का घर यह निर्धारित नहीं करता कि भाई-बहनों को कलीसियाई जीवन के भीतर पारिवारिक कठिनाइयाँ हल करने में एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए। कलीसियाई जीवन पारिवारिक समस्याएँ हल करने का स्थान नहीं है, बल्कि परमेश्वर के वचन खाने-पीने और जीवन में बढ़ने का सभा-स्थल है। कुछ लोग कलीसियाई जीवन का उपयोग अपनी समस्याएँ हल करने के लिए करते हैं—इसके क्या परिणाम हो सकते हैं? क्या यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के परमेश्वर के वचन खाने-पीने और खुद को सत्य से लैस करने को प्रभावित नहीं करता? अपनी निजी जीवन की समस्याएँ भाई-बहनों के साथ निजी तौर पर सुलझाई जा सकती हैं; समाधान के लिए उन्हें कलीसियाई जीवन में लाने की कोई जरूरत नहीं है। हर किसी को पता होना चाहिए कि जब व्यक्तिगत मामले सँभालना परमेश्वर के चुने हुए लोगों के कलीसियाई जीवन जीने में दखल देता है तो क्या परिणाम होते हैं। जब अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऐसे मामलों का पता चलता है तो उन्हें इन मामलों को हल करने के लिए आगे आना चाहिए। उन्हें कलीसिया में उन लोगों की रक्षा करनी चाहिए जो सामान्य रूप से अपने कर्तव्य निभा सकते हैं, उन लोगों की रक्षा करनी चाहिए जो वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं, बुरे लोगों को प्रतिबंधित करना चाहिए और उन्हें अपने लक्ष्य हासिल करने से रोकना चाहिए। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है। तीसरे मुद्दे के सामान्य मामलों से कैसे निपटा जाए, कौन-सी अभिव्यक्तियाँ गंभीर प्रकृति या परिस्थिति की हैं और कौन-से प्रकार और अभिव्यक्तियों से विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न होती हैं, इस बारे में स्पष्ट भेद करने चाहिए। जब किसी परिस्थिति की गंभीरता स्पष्ट रूप से पहचान ली जाए तो उससे उसकी प्रकृति के अनुसार निपटना चाहिए। यह ऐसी चीज है जिसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को समझने की जरूरत है और यह ऐसी चीज भी है जिसे सभी को समझना चाहिए।

IV. गुट बनाना

कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करने की चौथी अभिव्यक्ति गुट बनाना है, जो बहुत गंभीर प्रकृति की होती है। कौन-से व्यवहार गुट बनाते हैं? अगर परमेश्वर में विश्वास करने वाले दो लोग जो समान अवधि से विश्वासी हैं, जिनकी आयु, पारिवारिक परिस्थितियाँ, रुचियाँ, व्यक्तित्व आदि समान हैं और जो अच्छी तरह मिलजुलकर रहते हैं, अक्सर सभाओं के दौरान एक साथ बैठते हैं और एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से परिचित हैं, तो क्या इसे गुट बनाना माना जाता है? (नहीं।) यह सामान्य अंतर्वैयक्तिक मेलजोल की एक आम घटना है, जो दूसरों के लिए कोई व्यवधान पैदा नहीं करती; इसलिए इसे गुट बनाना नहीं माना जाता। तो, जैसा कि यहाँ उल्लेख किया गया है, गुट बनाना किस बात को संदर्भित करता है? उदाहरण के लिए, एक साथ इकट्ठा होने वाले पाँच भाई-बहनों में से तीन शहरी श्रमिक हैं और दो ग्रामीण किसान हैं। तीन शहरी श्रमिक अक्सर इकट्ठे रहकर इस बारे में बात करते हैं कि कैसे शहर में जीवन बेहतर और देहात में बदतर है जहाँ लोगों में शिक्षा, व्यापक दृष्टिकोण और शिष्टाचार की कमी है। वे ग्रामीण लोगों को तुच्छ समझते हैं, उन दो ग्रामीण व्यक्तियों को महत्वहीन समझकर बात करते हैं, जो तब दुखी महसूस करते हैं और उनका विरोध करना चाहते हैं, कहते हैं कि शहरी लोग संकीर्ण होते हैं और हर चीज का हिसाब-किताब रखते हैं, जबकि ग्रामीण लोग उदार होते हैं। सभाओं के दौरान वे कभी सहमत नहीं दिखते, जिससे अक्सर अनावश्यक विवाद और बहस होती है। क्या ये पाँचों लोग सामंजस्यपूर्वक रहते हैं? क्या वे परमेश्वर के वचन में एकजुट होते हैं? क्या वे एक-दूसरे के अनुकूल होते हैं? (नहीं।) जब शहर के लोग हमेशा कहते हैं “हम शहरी लोग” और ग्रामीण लोग हमेशा कहते हैं “हम ग्रामीण लोग,” तो वे क्या कर रहे होते हैं? (गुट बना रहे होते हैं।) यह चौथा मुद्दा है जिसके बारे में हम संगति करने जा रहे हैं : गुट बनाना। इस गुटबाजी वाले व्यवहार का मतलब है समूह और दल बनाना। क्षेत्र, आर्थिक स्थितियों और सामाजिक वर्ग के साथ-साथ अलग-अलग दृष्टिकोणों के आधार पर विभिन्न गिरोह, दल और अन्य अंतःसमूह बनाना गुट बनाना है। चाहे इन गुटों की अगुआई कोई भी करे, कलीसिया के भीतर विभिन्न गिरोहों और दलों का गठन और असंगत गिरोहों का निर्माण सब गुट बनाने की घटनाएँ हैं। कुछ जगहों पर एक पूरा विस्तारित परिवार ईश्वर में विश्वास करता है और एक सभा-स्थल पर अलग-अलग उपनाम वाले दो लोगों को छोड़कर बाकी लोग उन्हीं के परिवार के लोग हैं। फिर यह परिवार एक दल या गिरोह बनाता है और अलग-अलग उपनाम वाले दो लोग बाहरी हो जाते हैं। चाहे इस परिवार में कोई भी व्यक्ति किसी समस्या का सामना करे या उसकी काट-छाँट की जाए, अगर कोई व्यक्ति शिकायतें व्यक्त करता है तो बाकी लोग भी उसकी भावना प्रतिध्वनित करने के लिए उसमें शामिल हो जाते हैं। अगर कोई सिद्धांतों के खिलाफ काम करता है तो दूसरे लोग उसे बचाते हैं और उसके क्रियाकलाप छिपाते हैं; किसी को भी उसे उजागर करने से रोकते हैं; इस समस्या का जरा-सा भी उल्लेख उन्हें स्वीकार्य नहीं होता, काट-छाँट करने की तो बात ही छोड़ो। यहाँ क्या समस्या है? क्या तुम इसे पहचान सकते हो? जब ये परिवार के सदस्य इकट्ठे होते हैं तो ऐसा लगता है कि वे सभी एक ही धुन गा रहे हैं और एक साथ गा रहे हैं, हवा का रुख देख रहे हैं और बोलने से पहले संकेत सुन रहे हैं। अगर उनका सरगना कोई विशेष रुख अपनाता है तो बाकी सब उसका अनुसरण करते हैं और अन्य लोग उन्हें नाराज करने या आपत्ति जताने की हिम्मत नहीं करते। क्या कलीसियाई जीवन में इस घटना का होना कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं करता? इस गिरोह के लोग तय करते हैं कि सभाओं के दौरान परमेश्वर के वचनों के कौन-से अंश खाए-पिए जाएँ और सभी को उन्हें सुनना चाहिए; यहाँ तक कि कलीसिया के अगुआओं को भी उनका सम्मान करना चाहिए और वे भी उनका विरोध नहीं कर सकते। वे घोषणा करते हैं कि किन्हें अगुआ और कार्यकर्ता चुना जाना चाहिए और कलीसिया के अगुआओं को उनकी राय को सबसे महत्वपूर्ण मानना चाहिए और उसे हलके में नहीं लेना चाहिए। साथ ही, वे लगातार “प्रतिभाओं” की भर्ती करते हैं, उन लोगों को अपने समूह में खींच लेते हैं जो उनकी बात सुनते हैं, जिन पर वे भरोसा कर सकते हैं और जो उनके लिए उपयोगी होते हैं, ताकि वे समूह के उद्देश्यों के लिए उनका उपयोग कर सकें और लगातार अपने प्रभाव का विस्तार कर सकें। इस गिरोह का उद्देश्य कलीसियाई जीवन को नियंत्रित करना होता है; उनका सरगना कलीसिया को नियंत्रित करना चाहता है। इस समूह के पास महत्वपूर्ण शक्ति होती है; वे कलीसिया के भीतर क्रियाकलाप करने के लिए समूह के रूप में एक साथ आते हैं। कलीसिया में जो कुछ भी होता है, वे उसमें शामिल होना चाहते हैं। दूसरों को बोलने या किसी भी चीज का प्रबंधन करने से पहले उनके भाव पढ़ लेने चाहिए, यहाँ तक कि खाने-पीने के लिए प्रत्येक सभा की सामग्री भी उनकी व्यवस्थाओं और इच्छाओं के अनुसार होनी चाहिए। अगर कलीसिया के अगुआ कुछ करना भी चाहते हों, तो भी उन्हें पहले उनकी राय लेनी चाहिए और उनके विचार सुनने चाहिए। ज्यादातर भाई-बहन उनके द्वारा नियंत्रित होते हैं और कलीसिया के कार्य के कई मामले भी उनके नियंत्रण में होते हैं। गुट बनाने वाले ये लोग कलीसियाई जीवन और कलीसिया के कार्य को गंभीर रूप से अस्त-व्यस्त करते हैं। क्या यह समस्या गंभीर है? क्या ये क्रियाकलाप प्रतिबंधित किए जाने चाहिए? क्या ये हल किए जाने चाहिए? इन गुटों के सरगना प्रतिबंधित कर बहिष्कृत या निष्कासित किए जाने चाहिए, जबकि उन भ्रमित व्यक्तियों को जो आँख मूँदकर उनका अनुसरण करते हैं, पहले संगति कर सहायता देनी चाहिए। अगर वे पश्चात्ताप नहीं करते या अपनी दिशा नहीं बदलते तो उन्हें प्रतिबंधित करना चाहिए। उनके साथ शिष्टाचार नहीं बरतना चाहिए!

गुट बनाना क्या होता है—क्या यह समझना आसान है? अगर एक व्यक्ति कोई मुद्दा उठाता है और कई अन्य लोग उसकी राय प्रतिध्वनित करते हैं तो क्या इसे गुट बनाना माना जाएगा? (नहीं।) अगर अपेक्षाकृत अधिक दायित्व और न्याय की भावना रखने वाले कुछ भाई-बहन दूसरों को कोई महत्वपूर्ण कार्य पूरा करने में शामिल होने के लिए कहते हैं या अगर किसी सभा में परिणाम प्राप्त करने और किसी महत्वपूर्ण विषय पर सत्य और परमेश्वर के इरादे समझ पाने के उद्देश्य से वे संगति में सभी की अगुआई करते हैं और सभी लोग संगति करने और प्रार्थना करते हुए परमेश्वर के वचन पढ़ने में उनकी विचारधारा का अनुसरण करते हैं तो क्या इसे गुट बनाना माना जाएगा? (नहीं।) कलीसिया में कौन-से लोग गुट बनाने में प्रवृत्त होते हैं? किस तरह का व्यवहार गुट बनाना कहलाता है? (कई लोगों का एक-दूसरे के दुराचार छिपाना और एक-दूसरे को खुश करना, या ईर्ष्या और कलह में शामिल होना, जो सब कलीसिया के कार्य को अस्त-व्यस्त करते हैं—यह गुट बनाना है।) यह एक पहलू है। यहाँ मुख्य बिंदु क्या है? एक-दूसरे के दुराचार छिपाने और एक-दूसरे को खुश करने से विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न होती है; यह जानते हुए भी कि कुछ करना गलत है और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, फिर भी जानबूझकर उसे छिपाना, कुतर्क करना और सच नहीं बोलना, किसी की इज्जत और रुतबा बचाने मात्र के लिए कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने को वरीयता देना और उन लोगों के दुराचार छिपाना जो परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात करने की कीमत पर बुरे काम करते हैं और विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं—यह गुट बनाना है। एक अन्य परिदृश्य में लोगों को सामूहिक रूप से परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का विरोध करने के लिए उकसाना और बहकाना शामिल है। यह प्रकृति में गंभीर है, यह परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने का एक रूप भी है। गुट बनाने का मुख्य उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य कलीसिया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करना है।

एक उस तरह का गुट बनाना भी होता है जिसमें विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों को जीतने के लिए चिकनी-चुपड़ी बातें करने वाले लोग शामिल होते हैं। ऊपर से ऐसा लगता है कि ऐसे गिरोहों में हर कोई स्वतंत्र रूप से बोल सकता है और अपनी राय व्यक्त कर सकता है। लेकिन अंतिम परिणामों पर नजर डालकर तुम देख सकते हो कि वे असल में एक व्यक्ति के कहे का ही अनुसरण कर रहे हैं—वह व्यक्ति उनका वात दिग्दर्शक है। तो वह व्यक्ति दूसरों को अपनी ओर कैसे खींचता है? वह देखता है कि वह किसे अपने पक्ष में कर सकता है और किसे अपने पक्ष में करना आसान है और वह उस पर छोटे-छोटे उपकार करता है, उसे थोड़ी प्रेम भरी सहायता प्रदान करता है। फिर वह उसके बारे में जानकारी प्राप्त करता है, पता लगाता है कि उसे क्या पसंद है, उसे कैसे बोलना अच्छा लगता है, उसका व्यक्तित्व कैसा है और उसके शौक क्या-क्या हैं। साथ ही वह अक्सर उसका दिल जीतने के लिए बातचीत में उससे सहमत होता है और अंत में वह धीरे-धीरे उसे थोड़ा-थोड़ा करके “प्रभावित” करता है जिससे वह अनजाने ही उसके गुट में प्रवेश कर जाता है और उसके बड़े समूह का सदस्य बन जाता है। आमतौर पर लोगों को जीतने के लिए चिकनी-चुपड़ी बातें करना एक बहुत ही सौम्य तरीका है, यह “इंसानी गर्मजोशी” से भरा है और बहुत प्रभावी है। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति नियमित रूप से किसी अन्य व्यक्ति के प्रति प्रेम दिखाता है, बातचीत में उससे सहमत होता है और उसके प्रति समझदारी और सहिष्णुता दिखाता है तो वह व्यक्ति अनजाने ही उसके बारे में अनुकूल धारणा विकसित कर उसके करीब आ जाएगा और फिर उसके गुट में शामिल हो जाएगा। ऐसे गिरोह और दल किन स्थितियों में प्रभावी होते हैं? जैसे ही उनके कट्टर अनुयायियों में से कोई उजागर होता है, अपने साथ गलत हुआ महसूस करता है या उनके दल के बाहर की किसी चीज या व्यक्ति द्वारा उसके हितों, रुतबे या प्रतिष्ठा को बाधित या क्षतिग्रस्त किया जाता है, तो ऐसे लोग उसके पक्ष में बोलने के लिए खड़े हो जाएँगे, उसके हितों और अधिकारों के लिए लड़ेंगे—यह उनके द्वारा गुट बनाना है। गुट बनाने के दो स्पष्ट प्रकार हैं लोगों का दुराचार छिपाकर उन्हें खुश करना और सामूहिक विरोध। लेकिन चिकनी-चुपड़ी बातों के जरिये गुट बनाना अभी बताए गए दो प्रकारों जितना प्रबल नहीं लगता और ऐसे गुटों के सदस्यों पर आमतौर पर कलीसिया के भीतर किसी का ध्यान नहीं जाता। लेकिन जब लोगों द्वारा चयन करने, स्पष्ट रुख अपनाने का समय आता है तो ऐसे दल स्पष्ट रूप से दिखाई देने लग जाते हैं। उदाहरण के लिए, अगर किसी दल का सरगना कहता है कि एक निश्चित कलीसिया के अगुआ में काबिलियत है तो उसके अनुयायी तुरंत इस बात के कई उदाहरण दे देंगे कि वह अगुआ कैसे इस काबिलियत का प्रदर्शन करता है। अगर दल का सरगना कहता है कि कलीसिया के अगुआ में काम करने की काबिलियत नहीं है, उसकी काबिलियत कमजोर और मानवता खराब है तो अन्य सदस्य भी ऐसा ही कहेंगे, बोलेंगे कि कलीसिया का वह अगुआ कैसे अक्षम है, कैसे वह सत्य पर संगति नहीं कर पाता, कैसे वह शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलता है और कहेंगे कि सभी को उसके बजाय सही व्यक्ति चुनना चाहिए। यह एक प्रकार का अदृश्य गुट है। हालाँकि वे कलीसिया में सत्ता हथियाने और लोगों को नियंत्रित करने के लिए सार्वजनिक रूप से आगे नहीं आते, फिर भी ऐसे गुटों और गिरोहों के भीतर एक अदृश्य शक्ति होती है जो कलीसियाई जीवन और कलीसिया की व्यवस्था को नियंत्रित करती है। यह गुट बनाने का एक ज्यादा भयानक, छिपा हुआ रूप है। गुट बनाने की पहले बताई गई दो आसानी से पहचानी जा सकने वाली स्थितियों के अलावा, जो ऐसी समस्याएँ हैं जिन्हें कलीसिया के अगुआओं को हल करना चाहिए, गुट बनाने का यह छिपा हुआ प्रकार एक ऐसी समस्या है जिसे कलीसिया के अगुआओं को और भी ज्यादा हल करना और ध्यान देना चाहिए। उन्हें यह कैसे करना चाहिए? उन्हें ऐसे गिरोह के सरगना से संगति के जरिये सीधे बात करनी चाहिए। पहले इस सरगना के साथ संगति पर ध्यान क्यों केंद्रित करना चाहिए? ऊपर से ऐसा लगता है कि ऐसे गुट के सदस्य किसी से नियंत्रित नहीं होते, लेकिन असल में वे सभी गहराई से जानते हैं कि वे किसकी आज्ञा का पालन करते हैं और वे उसी व्यक्ति की आज्ञा का पालन करना चाहते हैं। इसलिए जिसे वे पूजते हैं और जो उन्हें नियंत्रित करता है, उससे निपटना चाहिए और संवाद करना चाहिए और उसके साथ सत्य पर संगति करनी चाहिए ताकि वह अपने क्रियाकलापों की प्रकृति समझ सके। हालाँकि सरगना ने खुले तौर पर परमेश्वर के घर का विरोध नहीं किया होगा या अगुआओं के खिलाफ शोर नहीं मचाया होगा, लेकिन वह इन लोगों के बोलने के अधिकार, इनके विचारों, दृष्टिकोणों और इनके द्वारा अपनाए जाने वाले मार्ग को नियंत्रित करता है। वह छिपा हुआ मसीह-विरोधी होता है। ऐसे व्यक्तियों को पहचानना चाहिए, फिर पहचानकर उनका गहन-विश्लेषण करना चाहिए। अगर वे पश्चात्ताप नहीं करते तो उन्हें प्रतिबंधित और अलग-थलग कर देना चाहिए। फिर उनके प्रत्येक सदस्य की जाँच करके यह देखना चाहिए कि उनमें से कौन उसकी तरह का है। पहले, उन व्यक्तियों को अलग करो और फिर उन भ्रमित लोगों के साथ संगति करो जो डरपोक और कायर हैं और गुमराह किए गए हैं। अगर वे पश्चात्ताप कर मसीह-विरोधी का अनुसरण करना छोड़ सकते हैं तो वे कलीसिया में रह सकते हैं; अगर नहीं तो उन्हें अलग-थलग कर देना चाहिए। क्या यह एक उचित नजरिया है? (हाँ।) क्या यह घटना कलीसिया के भीतर होती है? क्या ऐसी समस्या सुलझानी चाहिए? (हाँ, सुलझानी चाहिए।) क्यों सुलझानी चाहिए? जबसे परमेश्वर के घर ने सुसमाचार फैलाना शुरू किया है, तबसे मसीह-विरोधियों की ताकतें कलीसियाई जीवन के भीतर सर्वत्र व्याप्त हो गई हैं और परमेश्वर के चुने हुए बहुत-से लोग इन ताकतों द्वारा अलग-अलग मात्रा में प्रभावित, विवश या नियंत्रित किए गए हैं। जब भी ये लोग बोलते या क्रियाकलाप करते हैं तो ये स्वतंत्रता और मुक्ति की हालत में नहीं होते, बल्कि कुछ व्यक्तियों के विचारों और दृष्टिकोणों से प्रभावित, प्रेरित, नियंत्रित और कैद होते हैं। ये लोग कुछ खास तरीकों से बोलने और क्रियाकलाप करने के लिए बाध्य महसूस करते हैं; अगर वे ऐसा नहीं करते तो चिंतित रहते हैं और इससे होने वाले परिणाम भुगतने से डरते हैं। क्या इसने कलीसियाई जीवन को प्रभावित और बाधित नहीं किया है? क्या यह सामान्य कलीसियाई जीवन की अभिव्यक्ति है? (नहीं।) ऐसा कलीसियाई जीवन सामान्य व्यवस्था का नहीं होता, बल्कि वह दुष्ट लोगों द्वारा नियंत्रित होता है। अगर कलीसिया में सत्ता बुरे लोगों के हाथ में होती है तो वहाँ परमेश्वर का वचन या सत्य राज नहीं करता। वहाँ उन अगुआओं, कार्यकर्ताओं और भाई-बहनों पर अत्याचार किया जाता है जो सत्य समझते हैं। ऐसी कलीसिया मसीह-विरोधियों की ताकतों द्वारा नियंत्रित कलीसिया होती है। यह भी एक समस्या है और परमेश्वर का कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था अस्त-व्यस्त होने की एक परिघटना है, जिस पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ध्यान देकर उसे हल करना चाहिए। मसीह-विरोधियों के गिरोह के कुछ लोगों को अपने गिरोह का भरोसा खोने, अपने समर्थक और दोस्त खोने, जरूरत के समय कोई सहारा नहीं मिलने आदि का डर रहता है। इसलिए वे गिरोह में बने रहने की पूरी कोशिश करते हैं। क्या यह स्थिति गंभीर नहीं है? क्या इसे हल नहीं करना चाहिए? (हाँ।) जब कलीसिया के भीतर इस तरह की स्थिति उत्पन्न होती है तो क्या ज्यादातर लोग इसे महसूस करते हैं? क्या ज्यादातर लोग इसे पहचानते हैं? कुछ लोग अनजाने ही किसी के द्वारा नियंत्रित होते हैं, उन्हें हमेशा उस व्यक्ति के विचारों और दृष्टिकोणों, उसके कथनों और क्रियाकलापों, उसकी शिक्षाओं का पालन करना पड़ता है और वे “नहीं” कहने से डरते हैं, उस व्यक्ति के खिलाफ जाने से डरते हैं, यहाँ तक कि जब वह व्यक्ति बोलता है तो उन्हें बेमन से सहमति में सिर हिलाना और मुस्कुराना पड़ता है क्योंकि वे उसका अपमान करने से डरते हैं। क्या ऐसी स्थितियाँ मौजूद हैं? यहाँ क्या समस्या है जिसका समाधान किया जाना चाहिए? कलीसिया के अगुआओं को उस मसीह-विरोधी सरगना पर ध्यान देकर उससे निपटना चाहिए जो दूसरों को गुमराह और नियंत्रित करने में सक्षम है। पहले, उन्हें सत्य पर संगति करनी चाहिए ताकि ज्यादातर लोग इस मसीह-विरोधी को पहचान सकें, फिर खुद मसीह-विरोधी को प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर मसीह-विरोधी पश्चात्ताप नहीं करता तो उसे कलीसिया की सामान्य व्यवस्था बाधित करने से रोकने के लिए तुरंत बहिष्कृत कर देना चाहिए।

संक्षेप में, सामान्य कलीसियाई जीवन में भाई-बहनों को परमेश्वर के वचनों के साथ-साथ अपनी व्यक्तिगत अंतर्दृष्टियों, समझ, अनुभवों और कठिनाइयों पर स्वतंत्र रूप से और बेरोकटोक संगति करने में सक्षम होना चाहिए। बेशक, उन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं के ऐसे किसी भी क्रियाकलाप के बारे में सुझाव देने, उसकी आलोचना करने और उसे उजागर करने का अधिकार भी होना चाहिए, जो सिद्धांतों का उल्लंघन करता हो, साथ ही उन्हें मदद और सलाह देने का अधिकार भी होना चाहिए। यह सब मुक्त होना चाहिए और ये सभी पहलू सामान्य होने चाहिए; उन्हें किसी व्यक्ति द्वारा नियंत्रित नहीं किया जाना चाहिए जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोग विवश किए जा सकें—यह सामान्य कलीसियाई जीवन नहीं होगा। परमेश्वर के घर की इस बारे में अपेक्षाएँ, नियम और सिद्धांत होते हैं कि भाई-बहनों को कैसे बोलना, क्रियाकलाप और आचरण करना चाहिए और कैसे उन्हें कलीसियाई जीवन में सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध बनाने चाहिए, इत्यादि, और ये चीजें किसी व्यक्ति द्वारा निर्धारित नहीं की जातीं। जब भाई-बहन कुछ करते हैं तो उन्हें किसी व्यक्ति के चेहरे के भाव देखने की जरूरत नहीं होती, उन्हें किसी व्यक्ति के आदेशों का पालन करने या किसी व्यक्ति द्वारा विवश होने की जरूरत नहीं होती। किसी को भी वात दिग्दर्शक या कर्णधार के रूप में काम नहीं करना चाहिए; दिशा प्रदान कर सकने वाली एकमात्र चीज परमेश्वर का वचन है, सत्य है। इसलिए परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परमेश्वर के वचन, सत्य, और सभाओं में सत्य पर संगति के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। अगर तुम हमेशा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा विवश रहते हो, हमेशा उससे संकेत लेते हो और जब उसकी नाराज नजर या उसका त्योरी चढ़ा चेहरा देखते हो तो बोलते रहने की हिम्मत नहीं करते, अगर तुम परमेश्वर के वचनों और अपनी व्यक्तिगत अनुभवजन्य समझ पर संगति करते समय हमेशा उस व्यक्ति द्वारा प्रतिबंधित रहते हो, हमेशा विवश महसूस करते हो, सत्य सिद्धांतों के अनुसार क्रियाकलाप करने में असमर्थ होते हो और अगर उस व्यक्ति के शब्द, रूप, चेहरे के भाव, आवाज का लहजा और उसके भाषण में निहित धमकियाँ लगातार तुम्हें जकड़ती हैं तो तुम इस व्यक्ति की अगुआई वाले गुट के भीतर नियंत्रित हो रहे हो। यह तकलीफदेह है; यह कलीसियाई जीवन नहीं है, बल्कि उस दल का जीवन है जिस पर किसी मसीह-विरोधी का शासन है। जब ऐसी समस्या की बात आती है तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इसे हल करने के लिए आगे आना चाहिए और भाई-बहनों का भी कलीसिया की सामान्य व्यवस्था की रक्षा करने का दायित्व और अधिकार है। जो लोग कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करते हैं, खासकर जो गुट बनाते हैं और कलीसिया को नियंत्रित करना चाहते हैं, उन्हें रोकना और उजागर करना चाहिए और उनका गहन-विश्लेषण करना चाहिए, ताकि हर कोई विवेक प्राप्त कर समस्या के सार की असलियत समझ सके, जो एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयास करने की समस्या है। कलीसिया गुट बनाने और किसी भी कारण से कलीसिया को विभाजित करने की अनुमति नहीं देती। उदाहरण के लिए, सामाजिक पहचान और हैसियत, पड़ोस, क्षेत्र या धार्मिक संप्रदाय के आधार पर गिरोहों में विभाजित होना या शिक्षा के स्तर, धन, जाति और त्वचा के रंग आदि के आधार पर गिरोहों में विभाजित होना—यह सब सत्य सिद्धांतों के खिलाफ है और कलीसिया में ऐसा नहीं होना चाहिए। लोगों को इन पदानुक्रमों, वर्गों, दलों और गुटों में विभाजित करने के लिए चाहे कोई भी बहाना इस्तेमाल किया जाए, वह कलीसिया के कार्य और कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करेगा और यह ऐसी समस्या है जिसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को तुरंत हल करना चाहिए। संक्षेप में, लोगों के गुटों, दलों या गिरोहों में विभाजित होने के कोई भी कारण हों, अगर उन्होंने एक निश्चित बल एकत्र कर लिया है और वे कलीसिया के कार्य और कलीसियाई जीवन की व्यवस्था में व्यवधान डालते हैं तो उन्हें रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर ऐसे गुटों के सदस्य रोके नहीं जा सकते तो उन दुष्कर्मियों को अलग-थलग करके हटाया जा सकता है। इन समस्याओं से निपटना भी उस कार्य और जिम्मेदारियों का हिस्सा है जिन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं को निभाना चाहिए। तो यहाँ क्या समझने की जरूरत है? यही कि जब कुछ लोगों ने कलीसिया में बल गठित कर लिए हों और वे कलीसिया के अगुआओं, कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के वचनों से मुकाबला कर उनका विरोध करने में सक्षम हों और कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने और उसे नुकसान पहुँचाने में सक्षम हों तो ऐसे व्यवहारों, अभिव्यक्तियों और स्थितियों को प्रतिबंधित कर उनसे तुरंत निपटा जाना चाहिए। गुट बनाने की बात आने पर उसमें शामिल लोगों की संख्या के आधार पर कोई भेद नहीं किया जाता। अगर दो लोग अच्छे से मेलजोल रखते हैं और कलीसिया में कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं करते तो हस्तक्षेप करने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन जब वे व्यवधान डालना शुरू कर देते हैं और कलीसिया को नियंत्रित करने के लिए एक बल गठित कर लेते हैं तो इन व्यक्तियों को रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर वे पश्चात्ताप नहीं करते तो उन्हें तुरंत बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए। यही सिद्धांत है।

22 मई 2021

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