अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (10)

मद नौ : मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण, आग्रह और निरीक्षण करते हुए, परमेश्वर के घर की विभिन्न कार्य-व्यवस्थाओं को उसकी अपेक्षाओं के अनुसार सटीक रूप से संप्रेषित, जारी और कार्यान्वित करो, और उनके कार्यान्वयन की स्थिति का निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करो (भाग दो)

कार्य-व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन के लिए मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण, आग्रह करना और उनके कार्यान्वयन की स्थिति का निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करना।

आज, हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की नौवीं जिम्मेदारी पर संगति करना जारी रखेंगे : “मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण, आग्रह और निरीक्षण करते हुए, परमेश्वर के घर की विभिन्न कार्य-व्यवस्थाओं को उसकी अपेक्षाओं के अनुसार सटीक रूप से संप्रेषित, जारी और कार्यान्वित करो, और उनके कार्यान्वयन की स्थिति का निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करो।” पिछली बार, हमने मुख्य रूप से कार्य-व्यवस्थाओं की उन विभिन्न सामग्रियों और विशिष्ट मदों के बारे में संगति की थी जिन्हें लोगों को समझने की जरूरत है, साथ ही अगुआओं और कार्यकर्ताओं की सबसे मूलभूत जिम्मेदारियों के बारे में भी संगति की थी, जो कि कार्य-व्यवस्थाओं को संप्रेषित करना, जारी करना और कार्यान्वित करना है। आज हम विशिष्ट रूप से इस बात पर संगति करेंगे कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण और आग्रह कैसे करना चाहिए और उन्हें जारी किए जाने के बाद कार्य-व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन की स्थिति का निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई कैसे करनी चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य-व्यवस्थाओं के साथ कैसे पेश आना चाहिए, और एक बार जब वे कार्य-व्यवस्थाओं के महत्व को समझ लेते हैं, तो उसके बाद उन्हें ऊपरवाले की अपेक्षाओं और चरणों के अनुसार कार्य-व्यवस्थाओं को कैसे सटीक रूप से कार्यान्वित और क्रियान्वित करना चाहिए—ये वही सत्य सिद्धांत हैं जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को संगति के जरिए समझ में आने चाहिए, और कलीसिया के विभिन्न मदों को अच्छी तरह से पूरा करने के लिए उन्हें इन सिद्धांतों को समझने की जरूरत है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह मालूम होना चाहिए कि इस भूमिका में सेवा करने वालों से परमेश्वर के घर की मूलभूत अपेक्षा मुख्य रूप से यह है कि वे विभिन्न कार्य-व्यवस्थाओं के इर्द-गिर्द केंद्रित अपने कार्य का निर्वहन करें। यह उनका अधिकार नहीं है कि वे अपने व्यक्तिगत उद्यम में व्यस्त रहें या अपनी इच्छाओं के अनुसार चीजें करें, और यकीनन यह उनका अधिकार नहीं है कि वे जो भी कार्य करते हैं उसमें खुद ही अनाड़ीपन से प्रयास करते रहें। निस्संदेह, यह भी उनका अधिकार नहीं है कि वे किसी भी चीज का आविष्कार या निर्माण करें। बल्कि, उनका यह कर्तव्य है कि वे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के आधार पर विशिष्ट रूप से और विस्तार से कार्य करें। कार्य विशिष्ट रूप से कैसे करना चाहिए? इसमें कौन से विवरण शामिल हैं? इन प्रश्नों का उत्तर नौवीं जिम्मेदारी की अपेक्षाओं में निहित है : परमेश्वर के घर की विभिन्न कार्य-व्यवस्थाओं को संप्रेषित, जारी और कार्यान्वित करने के अलावा, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण और आग्रह करने, और कार्य-व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन की स्थिति का निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करनी चाहिए। कार्य व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए ये अभ्यास के विशिष्ट मार्ग हैं। इसके बाद, हम एक-एक करके उन पर चर्चा करेंगे।

कार्य-व्यवस्थाएँ जारी करने के बाद, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले उनमें प्रस्तुत विभिन्न अपेक्षाओं और सिद्धांतों पर विचार और संगति करनी चाहिए। फिर, उन्हें कार्य को विशिष्ट रूप से कार्यान्वित करने के लिए मार्ग और अभ्यास की योजनाएँ ढूँढनी चाहिए। सबसे पहले, उन्हें यह जानने की जरूरत है कि कार्य-व्यवस्थाओं के लिए क्या जरूरी है, कौन-सा विशिष्ट कार्य करने की जरूरत है, और संबंधित सिद्धांत क्या हैं, साथ ही कार्य-व्यवस्थाएँ किन लोगों और कार्य के किस पहलू के बारे में हैं। कार्य-व्यवस्थाएँ प्राप्त करने के बाद अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले यही करना चाहिए। उन्हें बस यही नहीं करना चाहिए कि कार्य-व्यवस्थाओं को बस लापरवाही से पढ़ लिया और फिर उन्हें सभी को जोर से पढ़कर सुना दिया, या उन्हें आगे हस्तांतरित कर दिया और सभी को कार्य के बारे में सूचित कर दिया, और फिर इसी पर बात खत्म कर दी। यह सिर्फ कार्य-व्यवस्थाओं को संप्रेषित और जारी करना है; यह उन्हें कार्यान्वित करना नहीं है। उनके कार्यान्वयन में पहला विशिष्ट कार्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा कार्य-व्यवस्थाओं की विशिष्ट सामग्री के बारे में, कलीसियाई कार्य के इन अंशों के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं और लक्ष्यों के बारे में, और इस कार्य को पूरा करने के महत्व के बारे में सीखना है, और फिर विशिष्ट क्रियान्वयन और कार्यान्वयन योजनाएँ विकसित करना है। यह पहला चरण है। क्या पहला चरण पूरा करना आसान है? (हाँ।) जब तक तुम लिखित शब्दों और मानवीय भाषा को समझ सकते हो, तब तक पहला चरण पूरा करना आसान होना चाहिए। निस्संदेह, पहला चरण पूरा करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को भ्रमित या लापरवाह होने या खानापूर्ति करने के बजाय, कार्य के प्रति एक गंभीर, तत्पर, जिम्मेदार और बहुत सावधानी वाला रवैया रखने की भी जरूरत है। कार्य-व्यवस्था का जिक्र चाहे पहले किया गया हो या नहीं, इसे पूरा करना लोगों के लिए चाहे आसान हो या कुछ हद तक मुश्किल हो, लोग इसे करने के चाहे इच्छुक हों या अनिच्छुक हों, किसी भी मामले में, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसियाई कार्य के प्रति ढीला ढाला रवैया नहीं रखना चाहिए, उन्हें इसे लापरवाही से निपटाने के लिए बस कुछ सिद्धांतों को बड़बड़ाना, नारे लगाना, या कुछ सतही प्रयास नहीं करने चाहिए। लोगों को कैसा रवैया रखना चाहिए? सबसे पहले, उनका रवैया गंभीर, ईमानदार, जिम्मेदार और बहुत सावधानी भरा होना चाहिए। क्या ऐसा रवैया रखने का यह अर्थ है कि व्यक्ति कार्य-व्यवस्थाओं की विशिष्ट मदों को अच्छी तरह से कार्यान्वित कर सकता है? नहीं, यह बस रवैया है जो किसी भी कार्य को करते समय रखना चाहिए; यह विशिष्ट कार्यों के वास्तविक कार्यान्वयन की जगह नहीं ले सकता है। एक बार जब वे यह रवैया अपना लेते हैं और कार्य-व्यवस्थाओं की विशिष्ट सामग्री, अपेक्षाओं और सिद्धांतों को भी समझ लेते हैं, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए अगला कदम यह है कि वे कार्य-व्यवस्थाओं के विशिष्ट कार्यों को कैसे कार्यान्वित करते हैं। सबसे पहले क्या करना चाहिए? उन्हें इसकी तैयारी उचित रूप से करनी चाहिए; यह बहुत महत्वपूर्ण है। सबसे पहले, उन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं और पर्यवेक्षकों को एकत्रित करना चाहिए ताकि इन कार्यों के लिए अभ्यास के विशिष्ट सिद्धांतों पर संगति की जा सके। फिर, उन्हें विशिष्ट व्यवस्थाएँ और योजनाएँ तैयार करनी चाहिए। साथ ही, उन्हें इन योजनाओं के बारे में परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सुझाव और विचार जानने चाहिए। फिर सभी को तब तक साथ मिलकर तलाश और संगति करनी चाहिए जब तक कि कार्य-व्यवस्थाओं में प्रस्तुत सभी अपेक्षाएँ और सिद्धांत समझ में नहीं आ जाते और स्पष्ट नहीं हो जाते, और सभी को यह मालूम नहीं हो जाता कि इन कार्य-व्यवस्थाओं को कैसे कार्यान्वित करना है और अभ्यास कैसे करना है—तब जाकर कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने का शुरुआती चरण पूरा हो चुका माना जाता है। तो, एक बार जब सभी को यह मालूम हो जाता है कि कार्य-व्यवस्थाओं को कैसे कार्यान्वित करना है, तो क्या इसका यह अर्थ है कि कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने का कार्य पूरा हो गया है? नहीं, ऐसा नहीं है। कार्य-व्यवस्थाओं में कुछ विस्तृत मुद्दों और विशेष परिस्थितियों का जिक्र नहीं किया जाता है, लेकिन वे ऐसी समस्याएँ हैं जिन्हें वास्तव में सुलझाने की जरूरत है। कार्य-व्यवस्थाओं पर संगति करते समय, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इन विशेष परिस्थितियों को, इन मुद्दों को खोज निकालना चाहिए जिन्हें सुलझाया जाना चाहिए, और उन्हें पूरी तरह से सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए, और साथ ही उन्हें उनके लिए विशिष्ट कार्यान्वयन योजनाएँ भी तैयार करनी चाहिए। इस तरह से, जब सभी स्तरों पर अगुआ और कार्यकर्ता कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करेंगे, तो उन्हें मालूम होगा कि किन सिद्धांतों का पालन करना है और किन समस्याओं को सुलझाना है। यह वही न्यूनतम समझ और रवैया है जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य-व्यवस्थाओं के प्रति रखना चाहिए। यह कार्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा कलीसियाई कार्य करने का तरीका सीखने का शुरुआती बिंदु माना जा सकता है। तलाश करने, संगति करने, मार्गदर्शन प्रदान करने और व्यवस्थाएँ करने के जरिए, वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कुछ वास्तविक कठिनाइयों और विशेष परिस्थितियों से निपटना और उन्हें संभालना सीखते हैं। सिर्फ तभी वे सही मायने में कार्य व्यवस्थाओं को कार्यान्वित कर सकते हैं।

I. मार्गदर्शन प्रदान करना

किसी कार्य के लिए शुरुआती मार्गदर्शन प्रदान करते समय, विशेष परिस्थितियों के लिए विशिष्ट कार्यान्वयन योजनाओं की पेशकश करने के अलावा, औसत काबिलियत और अपेक्षाकृत खराब कार्य क्षमता वाले अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ज्यादा विशिष्ट और विस्तृत मार्गदर्शन दिया जाना चाहिए। वैसे तो ये लोग धर्म-सिद्धांत के संबंध में किसी कार्य के लिए सिद्धांतों और विशिष्ट कार्यान्वयन योजनाओं को समझ पाते हैं, फिर भी उन्हें यह मालूम नहीं होता है कि जब वास्तविक कार्यान्वयन की बात आती है, तो उन्हें कैसे अभ्यास में लाना है। तुम्हें उन कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं से कैसे पेश आना चाहिए जिनकी काबिलियत खराब है और जिनमें कार्य क्षमता की कमी है? कुछ लोग कहते हैं, “अगर खराब काबिलियत वाला कोई व्यक्ति कार्य नहीं कर सकता है, तो उसकी जगह बस किसी बेहतर काबिलियत वाले व्यक्ति को क्यों ना ढूँढ लिया जाए?” यहीं पर कठिनाई है : कुछ कलीसियाएँ कोई बेहतर व्यक्ति नहीं ढूँढ पाती हैं। उन कलीसियाओं में, सभी लोग परमेश्वर में लगभग समान वर्षों से विश्वास रखे हुए हैं और अपने आध्यात्मिक कद के संबंध में वे सभी लगभग समान हैं; विशेष रूप से, सभी की काबिलियत और कार्य क्षमता औसत दर्जे की है। कोई बेहतर व्यक्ति ढूँढने के लिए तुम्हें दूसरी कलीसियाओं से लोगों को स्थानांतरित करने की जरूरत पड़ेगी, लेकिन वहाँ ऐसा करना बहुत सुविधाजनक नहीं है, और वहाँ कोई भी सच में उपयुक्त उम्मीदवार नहीं है। तुम स्थानीय कलीसिया से सिर्फ अपेक्षाकृत उपयुक्त उम्मीदवारों को चुन सकते हो। अगर उनका कार्य जरूरी मानकों को पूरा नहीं करता है, तो ऐसी परिस्थितियों में क्या करना चाहिए? तुम्हें उन्हें स्पष्ट रूप से यह बताने की जरूरत है कि कार्य कैसे करना है, और इसे कैसे कार्यान्वित करना है। तुम्हें उन्हें यह बताना चाहिए कि इस कार्य के लिए किसे नियुक्त करना चाहिए और किसे जिम्मेदार बनाना चाहिए, और इस पर साथ मिलकर कार्य करने के लिए किन लोगों को चुनना चाहिए। उन्हें ये सभी विवरण समझाओ और उन्हें इसे पूरा करने दो। इसे इस तरीके से क्यों करना चाहिए? क्योंकि स्थानीय कलीसिया के सदस्यों के पास आम तौर पर बहुत ही उथला अनुभव होता है और उनमें कार्य करने की क्षमता की कमी होती है, जिससे उपयुक्त अगुआओं और कार्यकर्ताओं को चुनना असंभव हो जाता है। सिर्फ इसी तरीके से कार्य करके ही कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित किया जा सकता है। अगर तुम इस तरीके से कार्य नहीं करते हो और इन लोगों के साथ दूसरे अगुआओं और कार्यकर्ताओं जैसा ही व्यवहार करते हो, उन्हें सिर्फ विशिष्ट सिद्धांतों और योजनाओं के बारे में बताते हो, और सभी के साथ समान व्यवहारकरते हो, तो कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित नहीं की जाएँगी। अगर तुम इस पर कोई ध्यान नहीं देते हो, तो क्या यह कर्तव्य के प्रति लापरवाही नहीं है? (हाँ, है।) यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कहते हैं, “दूसरे लोगों को तो पता है कि कार्य-व्यवस्थाओं को कैसे कार्यान्वित करना है और अभ्यास कैसे करना है; इस व्यक्ति को क्यों नहीं पता है? अगर उसे नहीं पता है, तो मैं उसे लेकर परेशान नहीं होऊँगा। यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है। चाहे जो हो, मैं अपना काम पूरा कर चुका हूँ।” क्या यह तर्क मान्य है? (नहीं।) मिसाल के तौर पर, मान लो कि एक माँ के तीन बच्चे हैं, और उनमें से एक बच्चा कमजोर है, वह हमेशा बीमार रहता है, और खाना नहीं खाना चाहता है। अगर यह माँ इस बच्चे को खाना नहीं खाने की अनुमति दे देती है, तो शायद यह बच्चा ज्यादा दिन तक जीवित नहीं रहेगा। उसे क्या करना चाहिए? एक माँ होने के नाते, उसे इस कमजोर बच्चे की विशेष देखभाल करनी होगी। मान लो कि यह माँ कहती है, “यह तो पहले से ही काफी है कि मैं अपने सभी बच्चों के साथ समान व्यवहार करती हूँ। मैंने इस बच्चे को जन्म दिया और उसके लिए खाना पकाया। मैंने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी है। चाहे वह खाए या ना खाए, मुझे इसकी परवाह नहीं है। अगर वह नहीं खाता है, तो उसे भूखा रहने दो, और जब उसे वाकई भूख लगेगी, तो वह खाना खा लेगा।” इस तरह की माँ के बारे में तुम क्या सोचते हो? (वह गैर-जिम्मेदार है।) क्या ऐसी माँएँ होती हैं? सिर्फ एक मंदबुद्धि महिला या सौतेली माँ ही ऐसी होगी। अगर वह सगी माँ है और मंदबुद्धि नहीं है, तो वह अपने बच्चे के साथ ऐसा व्यवहार कभी नहीं करेगी, है ना? (सही कहा।) अगर कोई बच्चा कमजोर है, हमेशा बीमार पड़ जाता है, और खाना खाना पसंद नहीं करता है, तो उसकी माँ को ज्यादा देखभाल और प्रयास करने पड़ते हैं। उसे बच्चे को खाना खिलाने के तरीके ढूँढने पड़ते हैं, उसे बच्चे की पसंद का खाना पकाना पड़ता है, उसके लिए खास पकवान बनाने पड़ते हैं और जब बच्चा खाना खाने से मना करता है, तो उसे मनाना पड़ता है। जब वह अठारह-उन्नीस वर्ष का हो जाता है और उसका शरीर एक सामान्य वयस्क की तरह स्वस्थ होता है, तो माँ निश्चिन्त हो सकती है और पीछे हट सकती है, और अब उसे इस बच्चे की विशेष देखभाल करने की जरूरत नहीं पड़ती है। अगर एक माँ इस तरह के खास परिस्थितियों वाले बच्चे को ठीक कर सकती है और अपनी जिम्मेदारी पूरी कर सकती है, तो एक अगुआ या कार्यकर्ता के बारे में तुम्हारा क्या कहना है? अगर तुम्हारे दिल में भाई-बहनों के लिए माँ का प्यार तक नहीं है, तो इसका यह अर्थ है कि तुम बिल्कुल गैर-जिम्मेदार हो। तुम्हें अपनी सारी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए; तुम्हें उन कलीसियाओं का ध्यान रखना चाहिए जिनमें अपेक्षाकृत कमजोर और अपेक्षाकृत खराब कार्य क्षमता वाले लोग प्रभारी हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इन मामलों पर विशेष ध्यान देना चाहिए और इनमें विशेष मार्गदर्शन प्रदान करना चाहिए। विशेष मार्गदर्शन का क्या अर्थ है? तुम्हें सत्य पर संगति करने के अलावा, ज्यादा विशिष्ट और विस्तृत निर्देश और सहायता भी प्रदान करनी चाहिए, जिसके लिए संप्रेषण के संबंध में ज्यादा प्रयास करने की जरूरत पड़ती है। अगर तुम उन्हें कार्य समझाते हो और फिर भी उन्हें समझ नहीं आता है, और वे यह नहीं जानते हैं कि इसे कैसे कार्यान्वित करना है, या भले ही वे इसे धर्म-सिद्धांत के संबंध में समझ जाते हैं, और ऐसा लगता है कि वे जानते हैं कि इसे कैसे कार्यान्वित करना है, लेकिन फिर भी तुम अनिश्चित हो और इस बारे में थोड़ा चिंतित हो कि वास्तविक कार्यान्वयन कैसे होगा, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें उनका मार्गदर्शन करने और उनके साथ कार्य को कार्यान्वित करने के लिए स्थानीय कलीसिया में व्यक्तिगत रूप से जाकर चीजों को समझने की जरूरत है। जिन कार्यों को कार्य-व्यवस्थाओं की अपेक्षाओं के अनुसार करने की जरूरत है, उनसे संबंधित विशिष्ट व्यवस्थाओं को करते समय उन्हें सिद्धांत बता दो, जैसे कि पहले क्या करना है और उसके बाद क्या करना है, और लोगों का उचित रूप से कैसे आवंटन करना है—इन सभी चीजों को उचित रूप से व्यवस्थित करो। यह व्यावहारिक रूप से उनके कार्य में उनका मार्गदर्शन करना है, जो कि सिर्फ नारे लगाने और अविवेकपूर्ण तरीके से आदेश देने और कुछ धर्म-सिद्धांतों के साथ उन्हें व्याख्यान देने और फिर, अपना कार्य खत्म हो चुका मान लेने के विपरीत है—वह विशिष्ट कार्य करने की अभिव्यक्ति नहीं है, और नारे लगाना और आसपास के लोगों पर हुक्म चलाना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी नहीं है। एक बार जब स्थानीय कलीसिया के अगुआ या पर्यवेक्षक कार्य की जिम्मेदारी उठा पाते हैं, और कार्य सही रास्ते पर आ जाता है, और मूल रूप से कोई प्रधान समस्या नहीं रह जाती है, सिर्फ तभी अगुआ या कार्यकर्ता वहाँ से जा सकते हैं। कार्य व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं की नौवीं जिम्मेदारी में पहला विशिष्ट कार्य यही बताया गया है—मार्गदर्शन प्रदान करना। तो फिर, मार्गदर्शन वास्तव में किस प्रकार प्रदान करना चाहिए? अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले कार्य-व्यवस्थाओं पर विचार करने और संगति करने का अभ्यास करना चाहिए, कार्य-व्यवस्थाओं की विभिन्न विशिष्ट अपेक्षाओं के बारे में सीखना चाहिए और उन्हें समझना चाहिए, और कार्य-व्यवस्थाओं के भीतर सिद्धांतों को समझने और प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। फिर, उन्हें कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने के लिए सभी स्तरों पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर विशिष्ट योजनाओं पर संगति करनी चाहिए। इसके अलावा, उन्हें विशेष परिस्थितियों के लिए विशिष्ट कार्यान्वयन योजनाएँ प्रदान करनी चाहिए और अंत में, उन्हें अपेक्षाकृत कमजोर और अपेक्षाकृत खराब काबिलियत वाले अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ज्यादा विस्तृत और विशिष्ट सहायता और निर्देश देना चाहिए। अगर कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कार्य को कार्यान्वित करने में पूरी तरह असमर्थ हैं, तो ऐसी परिस्थितियों में क्या करना चाहिए? उच्च-स्तरीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसिया में जाकर चीजों को समझना चाहिए और कार्य में व्यक्तिगत रूप से भाग लेना चाहिए, सत्य की संगति के जरिए वास्तविक मुद्दों को सुलझाना चाहिए, और उन्हें यह सिखाना चाहिए कि कार्य कैसे करना है और सिद्धांतों के अनुसार कार्य को कैसे कार्यान्वित करना है। ये चरण शब्दों में स्पष्ट रूप से बताए गए हैं, लेकिन क्या इन्हें कार्यान्वित करना आसान है? क्या इसमें कोई कठिनाइयाँ हैं? कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम इसे सरल बनाकर पेश करते हो, लेकिन इसे कार्यान्वित करना इतना आसान नहीं है। कभी-कभी कार्य-व्यवस्थाएँ बहुत पेचीदा होती हैं, और किसी को नहीं पता होता है कि उन्हें कैसे कार्यान्वित करना है!” बस पहला कार्य—कार्य-व्यवस्थाओं की विशिष्ट अपेक्षाओं पर संगति करना और व्यावहारिक तरीके से मार्गदर्शन प्रदान करना—कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह बहुत ही श्रमसाध्य लगता है। वे कहते हैं, “मैंने ये विशिष्ट कार्य कभी नहीं किए हैं, इसलिए मुझे नहीं मालूम है कि इनके बारे में संगति कैसे करनी है और मार्गदर्शन कैसे प्रदान करना है। उन्हें बस कार्य-व्यवस्थाओं के ही शब्दों का पालन करना चाहिए—इसमें संगति करने की क्या बात है? क्या यह सिर्फ एक औपचारिकता नहीं है?” वे संगति करना नहीं जानते हैं, उन्हें सिर्फ नारे लगाना आता है : “हमें यह कार्य अच्छी तरह से कार्यान्वित करना है! यह परमेश्वर की हम से अपेक्षा है। हमें यकीनन अपनी बात पर अड़े रहना चाहिए, परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करना चाहिए, और हम से परमेश्वर की जो उम्मीदें हैं, उन पर खरा उतरना चाहिए। जहाँ तक इसे करने के तरीके की बात है, तुम लोगों को उसका खुद ही पता लगाना चाहिए।” ऐसी बातें कहने वाले लोगों की क्या समस्या है? क्या वे यह कार्य कर सकते हैं? क्या उनके पास कार्य क्षमता है? क्या उनकी काबिलियत खराब है? (हाँ, खराब है।)

चाहे कुछ भी हो जाए, चाहे यह बड़ा मामला हो या छोटा, तुम्हें कोई भी फैसला लेने से पहले परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उससे माँगना चाहिए, साथ ही ध्यान से और अच्छी तरह से सोचना और विचारना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति सामान्य सोच वाला नहीं है, तो उसके लिए यह और ज्यादा आवश्यक है कि वह परमेश्वर से प्रार्थना करे, परमेश्वर की मदद माँगे और उन लोगों से और ज्यादा सहायता माँगे जो सत्य समझते हैं। इसके अतिरिक्त, कलीसियाई कार्य के प्रधान मामलों और कर्तव्य करते समय सामने आने वाले प्रधान मामलों के संदर्भ में, तुम्हें संबंधित कर्मियों के साथ इन मामलों पर संगति और चर्चा करनी चाहिए ताकि सर्वसम्मति पर पहुँचा जा सके और अंत में अभ्यास की एक विशिष्ट और व्यवहार्य योजना बनाई जा सके। यह योजना सावधानीपूर्वक विचार-विमर्श और परामर्श करके सर्वसम्मति से बनाई जानी चाहिए, और यह किसी भी स्तर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं के सामने कायम रहनी चाहिए। जो लोग अभ्यास की ऐसी विशिष्ट योजनाएँ बना सकते हैं जो कायम रहती हैं, वे सामान्य सोच वाले लोग माने जाते हैं। अगर, मुद्दों का सामना करने पर, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, किसी व्यक्ति के विचारों में कुछ भी ठोस नहीं है, और वह अभ्यास के विशिष्ट सिद्धांतों के बारे में नहीं सोच पाता है, और समस्याओं को संभालने के सिद्धांतों की जगह सिर्फ सरल सैद्धांतिक नारों का उपयोग करता है, तो क्या वह अपना कार्य अच्छी तरह से कर सकता है? क्या ऐसे व्यक्ति में सोचने की क्षमता और चीजों के बारे में बारीकी से सोचने की क्षमता होती है? (नहीं।) किस तरह के व्यक्ति में सोचने की क्षमता की कमी होती है? (खराब काबिलियत वाले व्यक्ति में।) खराब काबिलियत वाला व्यक्ति होने का यही अर्थ है। आओ एक मिसाल लेते हैं। मान लो कि तुम विदेश में रह रहे हो और एक दिन अचानक तुम्हें अदालत से सम्मन मिलता है। यह काफी अप्रत्याशित और अचानक है, है ना? सबसे पहले, तुमने कोई गैरकानूनी काम नहीं किया है। दूसरा, तुमने कोई मुकदमा दायर नहीं किया है, ना ही तुमने किसी को तुम पर किसी चीज का आरोप लगाते हुए सुना है। तुम्हें सम्मन मिला है, जिससे जुड़े हालातों के बारे में तुम कुछ नहीं जानते हो। ऐसी परिस्थिति से सामना होने पर एक औसत दर्जे के व्यक्ति को सबसे पहले क्या महसूस होगा? कानूनी मामलों में फँस जाने से वह घबराहट, चिंता और डर महसूस करेगा; इससे वह अचंभित और ऐसा महसूस करेगा जैसे वह इस परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार नहीं है, और उसका खाना खाने का मन नहीं करेगा। चाहे कोई व्यक्ति महत्वपूर्ण हो या ना हो, साहसी हो या दब्बू हो, वयस्क हो या नाबालिग हो, कोई भी व्यक्ति ऐसी परिस्थिति का सामना नहीं करना चाहता है क्योंकि यह कोई अच्छी चीज नहीं है। इस परिस्थिति का सामना करने पर लोग दो अलग तरीकों से प्रतिक्रिया करते हैं। पहले प्रकार का व्यक्ति सोचता है, “मैंने कोई गैर-कानूनी चीज नहीं की है, ना ही मैंने किसी सरकारी विनियम का उल्लंघन किया है। मुझे किस बात का डर है? यह कानून द्वारा शासित समाज है, जहाँ सभी चीजें सबूतों पर आधारित है। चूँकि मैंने कोई बुरी चीज नहीं की है, इसलिए अगर वे मुझ पर मुकदमा भी चलाएँ, तो भी उनके पास मेरे खिलाफ कोई सबूत नहीं होगा। मुझे किसी बात का डर नहीं है। एक सम्मन से क्या हो सकता है? एक ईमानदार व्यक्ति को आरोपों से डरने की जरूरत नहीं है। मैं अपना बचाव करने के लिए एक वकील रख लूँगा; कोई समस्या नहीं होगी।” इस पर बारीकी से विचार करने के बाद, वह अपने दिल में कोई दबाव महसूस नहीं करता है, और उसका दैनिक जीवन प्रभावित नहीं होता है। यह एक प्रकार के व्यक्ति की प्रतिक्रिया है। अब आओ दूसरे प्रकार के व्यक्ति की प्रतिक्रिया देखें। सम्मन मिलने के बाद, वह सोचता है, “मैंने कोई कानून नहीं तोड़ा है, ना ही मैंने कोई अपराध किया है, तो यह किस बारे में हो सकता है? क्या यह इसलिए हो सकता है क्योंकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ? परमेश्वर में विश्वास रखना गैर-कानूनी तो नहीं है। क्या यह हो सकता है कि किसी ने मुझे जानबूझकर फँसाया हो और मेरी शिकायत कर दी हो? इसकी ज्यादा संभावना लगती है। लेकिन क्या यह कुछ और हो सकता है? मुझे एक वकील से सलाह लेने और उससे अदालत जाकर यह पता लगाने के लिए कहने की जरूरत है कि मुझे यह सम्मन क्यों मिला और वादी कौन है। मुझे जवाबी उपाय तय करने से पहले इस मामले की तह तक जाने की जरूरत है। अगर वकील कहता है कि यह परमेश्वर में मेरी आस्था से संबंधित है, तो मुझे जवाबी उपाय तैयार करने के लिए जल्दी से लोगों को ढूँढने और साथ ही जल्दी से जल्दी अपनी आस्था से संबंधित किताबें या ऐसी दूसरी चीजें छिपाने की जरूरत होगी ताकि मैं अपने दुश्मन को ऐसा कुछ ढूँढ निकालने से रोक सकूँ जिसका वह मेरे खिलाफ उपयोग कर सकता है।” इन शुरुआती विचारों के बाद, वैसे तो उसने सम्मन मिलने के बारे में कोई निश्चित निष्कर्ष या सटीक फैसला नहीं लिया है, लेकिन उसके पास अभ्यास की विशिष्ट योजना का पहले से ही एक स्पष्ट विचार है : योजना क के लिए क्या करना है, योजना ख के लिए क्या करना है, और अगर दोनों संभव न हों, तो उसे आगे क्या करना चाहिए। वह हर कदम पर बारीकी से और सावधानी से विचार करता है; वह पहले अपने मन को शांत करता है और जल्दी से अपने दिल में प्रार्थना करता है, और फिर, खुद को शांत करने के बाद, वह तुरंत इस मामले को संभालने में लग जाता है। एक दिन में, वह इन सभी चीजों का पता लगा लेता है और उसे पता होता है कि आगे कैसे बढ़ना है। इस मामले का अंतिम परिणाम चाहे जो भी हो, आओ पहले इन दो प्रकार के लोगों को देखें। इनमें से किसमें समस्याओं के बारे में बारीकी से सोचने की क्षमता है? इनमें से किसमें काबिलियत है? (दूसरे व्यक्ति में।) जाहिर है, दूसरे व्यक्ति में काबिलियत है। किसी परिस्थिति से सामना होने पर अकेले साहस और दृढ़ संकल्प का होना काबिलियत होने के बराबर नहीं है। व्यक्ति में सोचने की क्षमता होनी चाहिए, सूझ-बूझ होनी चाहिए और समस्याओं को संभालने की क्षमता होनी चाहिए। सोचने की प्रक्रिया में, उन्हें विशिष्ट फैसले लेने और विशिष्ट परिचालन योजनाएँ तैयार करने में समर्थ होना चाहिए। सिर्फ इस किस्म के व्यक्ति में ही काबिलियत होती है। ऊपरी तौर पर, वह बहुत दब्बू लग सकता है जो छोटे-छोटे मामलों के बारे में भी सतर्कता और सावधानी से कार्य करता है और छोटे-छोटे मामलों को महत्वपूर्ण मानता है। लेकिन, जिस विधि और तरीके से वह समस्याओं को संभालता है, उससे प्रमाणित होता है कि इस व्यक्ति में सोचने की क्षमता है और समस्याओं पर बारीकी से विचार करने और उन्हें संभालने की क्षमता है। इसके विपरीत, पहले प्रकार का व्यक्ति बहुत दबंग है और किसी भी चीज से नहीं डरता है। जब उसका किसी परिस्थिति से सामना होता है, तो बस यही सोचता है, “मैंने कोई बुरी चीज नहीं की है। चाहे कुछ भी गलत हो जाए, इसे ठीक करने के लिए हमेशा कोई ना कोई और अधिक सक्षम व्यक्ति मौजूद रहेगा। मुझे किस बात का डर है?” वह बेफिक्र रहता है और एक आसान जीवन जीता है, लेकिन क्या वह थोड़ा-सा बेवकूफी भरा बहादुर और मंदबुद्धि नहीं है? इस प्रकार का व्यक्ति जोर-जोर से नारे लगाता है, और वह जो कहता है वह गलत नहीं है, लेकिन उसमें क्या कमी है? (उसकी सोच सामान्य नहीं है और उसमें समस्याओं पर बारीकी से विचार करने की क्षमता की कमी है।) उसकी सामान्य सोच की कमी कहाँ अभिव्यक्त होती है? किसी परिस्थिति से सामना होने पर, चाहे यह कोई अचानक हुई चीज हो या कोई ऐसी चीज हो जिसके बारे में वह पहले से ही जानता हो, वह उस पर बारीकी से विचार नहीं कर पाता है या कोई फैसला नहीं ले पाता है, इसलिए जाहिर है, उसके पास समस्या को संभालने की कोई योजना नहीं होगी या उसे सुलझाने की क्षमता नहीं होगी। यह बहुत स्पष्ट है। बाहर से, इस प्रकार का व्यक्ति वाक्पटु लगता है और वह धर्म-सिद्धांत बोल सकता है, और वह मनोबल भी बढ़ा सकता है; ऐसा लगता है कि उसमें अगुआ बनने की काबिलियत है। लेकिन, समस्याओं का सामना करने पर, वह समस्याओं के सार को नहीं समझ पाता है और उसे सुलझाने के लिए सत्य पर संगति नहीं कर पाता है। वह सिर्फ कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल सकता है और नारे लगा सकता है। ऊपरी तौर पर, वह चालाक लगता है, लेकिन समस्याओं से सामना होने पर, वह समस्याओं के कारणों का विश्लेषण नहीं कर पाता है या उनके बारे में फैसला नहीं ले पाता है, ना ही वह उन गंभीर परिणामों का आकलन कर पाता है जो समस्याओं का बढ़ना जारी रहने पर होंगे। वह अपने मन में इन मामलों को सुलझा नहीं पाता है, फिर समस्याओं को सुलझाने की तो बात ही छोड़ दो। ऐसा व्यक्ति वाक्पटु लगता है, लेकिन वास्तव में वह खराब काबिलियत का होता है और वास्तविक कार्य नहीं कर पाता है। इसी तरह, अगर अगुआ और कार्यकर्ता, कार्य-व्यवस्था प्राप्त करने पर, इसे सिर्फ पढ़ पाते हैं और शाब्दिक तौर पर समझा पाते हैं, और वैसे तो वे कार्य-व्यवस्था जारी कर पाते हैं और सभाओं में उसके मुख्य बिंदुओं पर संगति कर पाते हैं, लेकिन वे नहीं जानते हैं कि कार्य-व्यवस्था की विशिष्ट अपेक्षाओं, सिद्धांतों, ध्यान देने योग्य मामलों, विशेष परिस्थितियों, वगैरह के लिए विशिष्ट व्यवस्थाएँ कैसे करनी हैं और विशिष्ट मार्गदर्शन कैसे प्रदान करना है, और उनके पास कोई योजना नहीं होती है, कोई विचार नहीं होते हैं, और समस्याओं को सुलझाने की कोई क्षमता नहीं होती है, तो फिर वे खराब काबिलियत वाले हैं। कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करते समय, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जो पहला कार्य करने की जरूरत है—मार्गदर्शन प्रदान करना—वह आसान या सरल नहीं है। यह पहला कार्य यह जाँचता है कि अगुआ या कार्यकर्ता में वह काबिलियत और कार्य क्षमता है या नहीं जो उसमें होनी चाहिए। अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं में यह काबिलियत और कार्य क्षमता नहीं है, तो वे कार्य-व्यवस्थाओं के लिए विशिष्ट मार्गदर्शन प्रदान करने या उन्हें कार्यान्वित करने में समर्थ नहीं होंगे।

II. पर्यवेक्षण और आग्रह करना

इसके बाद, आओ हम “पर्यवेक्षण” के कार्य पर संगति करें। पर्यवेक्षण के शाब्दिक अर्थ को देखा जाए, तो इसका अर्थ है निरीक्षण करना : यह जाँचना कि किन कलीसियाओं ने कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित किया है और किन कलीसियाओं ने नहीं, कार्यान्वयन की प्रगति जाँचना, यह जाँचना कि कौन से अगुआ और कार्यकर्ता वास्तविक कार्य कर रहे हैं और कौन से नहीं, और क्या कुछ अगुआ या कार्यकर्ता विशिष्ट कार्यों में भाग लिए बिना सिर्फ कार्य-व्यवस्थाओं को वितरित कर रहे हैं। पर्यवेक्षण एक विशिष्ट कार्य है। कार्य-व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन के पर्यवेक्षण—जैसे कि उन्हें कार्यान्वित किया गया है या नहीं, कार्यान्वयन की गति, कार्यान्वयन की गुणवत्ता और हासिल हुए परिणामों—के अलावा उच्च-स्तरीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह जाँचना चाहिए कि क्या अगुआ और कार्यकर्ता कार्य-व्यवस्थाओं का सख्ती से पालन कर रहे हैं। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता बाहरी तौर पर कहते हैं कि वे कार्य-व्यवस्थाओं का पालन करने के इच्छुक हैं, लेकिन एक खास परिवेश से सामना होने के बाद, उन्हें गिरफ्तार किए जाने का डर सताने लगता है और वे सिर्फ छिपने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, लंबे समय से कार्य-व्यवस्थाओं को अपने दिमाग में पीछे धकेल चुके होते हैं; भाई-बहनों की समस्याएँ अनसुलझी रह जाती हैं, और उन्हें नहीं पता होता है कि कार्य-व्यवस्थाएँ क्या निर्दिष्ट करती हैं या अभ्यास के सिद्धांत क्या हैं। इससे यह पता चलता है कि कार्य-व्यवस्थाएँ बिल्कुल भी कार्यान्वित नहीं की गई हैं। दूसरे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के पास कार्य-व्यवस्थाओं की कुछ अपेक्षाओं के बारे में राय, धारणाएँ और प्रतिरोध होता है। जब उन्हें कार्यान्वित करने का समय आता है, तो वे कार्य-व्यवस्थाओं के वास्तविक अर्थ से भटक जाते हैं, अपने खुद के विचारों के अनुसार कार्य करते हैं, सिर्फ खानापूर्ति करते हैं और चीजों को जैसे-तैसे पूरा करने के लिए उन पर सतही ध्यान देते हैं, या अपना खुद का रास्ता अपना लेते हैं, उन्हें जैसे अच्छा लगता है वैसे ही कार्य करते हैं। ऐसी सभी परिस्थितियों में उच्च-स्तरीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा पर्यवेक्षण की जरूरत पड़ती है। पर्यवेक्षण का उद्देश्य है कार्य-व्यवस्थाओं द्वारा अपेक्षित विशिष्ट कार्यों को बिना विचलन के और सिद्धांतों के अनुसार बेहतर तरीके से कार्यान्वित करना। पर्यवेक्षण करते समय, उच्च-स्तरीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह पहचानने पर बहुत जोर देना चाहिए कि क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो वास्तविक कार्य नहीं कर रहा है या कार्य व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने में गैर-जिम्मेदार और धीमा है; क्या कोई व्यक्ति कार्य-व्यवस्थाओं के संबंध में प्रतिरोधी मनोदशा दर्शाता है और उन्हें कार्यान्वित करने का अनिच्छुक है या उन्हें चुन-चुनकर कार्यान्वित करता है, या कार्य-व्यवस्थाओं का बिल्कुल भी पालन नहीं करता है, बल्कि सिर्फ खुद का उद्यम चलाता है; क्या कोई व्यक्ति कार्य-व्यवस्थाओं को रोके हुए है, और सिर्फ अपने विचारों के अनुसार ही उन्हें संप्रेषित करता है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को कार्य-व्यवस्थाओं का सही अर्थ और विशिष्ट जरूरतें नहीं बताता है—सिर्फ इन मुद्दों का पर्यवेक्षण और निरीक्षण करके ही उच्च-स्तरीय अगुआ यह जान सकते हैं कि वास्तव में क्या चल रहा है। अगर उच्च-स्तरीय अगुआ पर्यवेक्षण और निरीक्षण नहीं करते हैं, तो क्या इन समस्याओं को पहचाना जा सकता है? (नहीं।) उन्हें नहीं पहचाना जा सकता है। इसलिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ना सिर्फ कार्य-व्यवस्थाओं को संप्रेषित करना चाहिए और स्तर दर स्तर मार्गदर्शन करना चाहिए, बल्कि कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करते समय कार्य का स्तर दर स्तर पर्यवेक्षण भी करना चाहिए। क्षेत्रीय अगुआओं को जिला अगुआओं के कार्य का पर्यवेक्षण करना चाहिए, जिला अगुआओं को कलीसियाई अगुआओं के कार्य का पर्यवेक्षण करना चाहिए, और कलीसियाई अगुआओं को हर समूह के कार्य का पर्यवेक्षण करना चाहिए। पर्यवेक्षण स्तर दर स्तर किया जाना चाहिए। पर्यवेक्षण का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य कार्य-व्यवस्थाओं की विशिष्ट अपेक्षाओं के अनुसार उनकी सामग्री के सटीक कार्यान्वयन को सुगम बनाना है। इसलिए, पर्यवेक्षण का कार्य बहुत ही महत्वपूर्ण है। पर्यवेक्षण करते समय, अगर परिवेश अनुमति देता है, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसियाओं में जकर चीजों को समझना चाहिए ताकि उन लोगों से बातचीत की जा सके जो वास्तविक कार्य कर रहे हैं। उन्हें प्रश्न पूछने चाहिए, जाँच-परख करनी चाहिए, पूछताछ करनी चाहिए, कार्य के कार्यान्वयन के बारे में जानना चाहिए और उसकी स्थिति को समझना चाहिए। साथ ही, उन्हें यह भी जानना चाहिए कि इस कार्य में भाई-बहनों को क्या कठिनाइयाँ आ रही हैं और इनके बारे में उनके क्या विचार हैं और क्या वे इस कार्य के सिद्धांतों को समझ चुके हैं। ये सभी ऐसे विशिष्ट कार्य हैं जिन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करने की जरूरत है। जो लोग अपेक्षाकृत खराब काबिलियत और मनावता के हैं, जो कुछ हद तक गैर-जिम्मेदार, निष्ठाहीन और अपने कार्य में अपेक्षाकृत सुस्त हैं, खास तौर पर उनके लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उनके कार्य का और भी ज्यादा पर्यवेक्षण करने और उसे निर्देशित करने की जरूरत है। पर्यवेक्षण और निर्देशन कैसे करना चाहिए? मान लो कि तुम कहते हो, “जल्दी करो! ऊपरवाला हमारी कार्य रिपोर्ट की प्रतीक्षा कर रहा है। इस कार्य की एक समय सीमा है; इसे लंबा मत खींचो!” क्या उन्हें इस तरीके से आग्रह करने से काम बनेगा? क्या आग्रह करने का अर्थ बस उन्हें थोड़ा आगे धकेलना है, और कुछ नहीं? आग्रह करने का बेहतर तरीका क्या है? जब तुम लोग कार्य करते हो, तो क्या तुम आग्रह करने को अपने कार्यों के हिस्से के रूप में शामिल करते हो? (हाँ। अगर मैंने देखा कि कुछ कार्य समय पर नहीं किए जा रहे हैं, तो मैं यह समझने का प्रयास करूँगा कि वे उन्हें क्यों नहीं कर रहे हैं और उनके कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई करूँगा।) अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जिसे कार्य करना नहीं आता है, तो तुम्हें उसका विशेष मार्गदर्शन और उसकी सहायता करनी चाहिए और उसे निर्देश देना चाहिए। अगर तुम किसी को कामचोरी करते हुए देखते हो तो तुम्हें उसकी काट-छाँट करनी चाहिए। अगर उसे कार्य करना आता है लेकिन वह उसे करने में बहुत ही आलसी है, सुस्त है और टाल-मटोल करता है, और दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त रहता है, तो फिर जरूरत के अनुसार उसकी काट-छाँट करनी चाहिए। अगर काट-छाँट करने से समस्या नहीं सुलझती है और उसका रवैया नहीं बदलता है तो क्या करना चाहिए? (उसे यह कार्य मत करने दो।) सबसे पहले, उसे चेतावनी दो : “यह कार्य बहुत जरूरी है। अगर तुम इसके साथ इसी रवैये से पेश आते रहोगे, तो तुमसे तुम्हारा कर्तव्य छीन लिया जाएगा और किसी और को दे दिया जाएगा। अगर तुम इसे करने के इच्छुक नहीं हो, तो कोई और होगा। तुम अपने कर्तव्य के प्रति वफादार नहीं हो; तुम इस कार्य के लिए उपयुक्त नहीं हो। अगर तुम इस कार्य को करने में सक्षम नहीं हो और दैहिक कष्ट नहीं सह सकते तो परमेश्वर का घर तुम्हारी जगह किसी और को रख सकता है, और तुम इस्तीफा भी दे सकते हो। अगर तुम इस्तीफा नहीं देते हो और अब भी इसे करने के इच्छुक हो तो इसे अच्छी तरह करो और इसे परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों के अनुसार करो। अगर तुम इसमें सफल नहीं हो पाते हो और बार-बार प्रगति में देरी करवाते हो, जिससे कार्य को नुकसान होते हैं, तो परमेश्वर का घर तुमसे निपटेगा। अगर तुम यह कर्तव्य पूरा नहीं कर सकते हो तो मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि तुम्हें यहाँ से जाना पड़ेगा!” अगर इस चेतावनी के बाद वह पश्चात्ताप करने को तैयार होता है तो उसे रखा जा सकता है। लेकिन अगर बार-बार चेतावनियों के बाद भी उसका रवैया नहीं बदलता है और वह रत्ती भर भी पश्चात्ताप नहीं दिखाता है, तो क्या करना चाहिए? उसे तुरंत बर्खास्त कर देना चाहिए—क्या इससे यह समस्या सुलझ नहीं जाएगी? ऐसा नहीं है कि जब हमें किसी व्यक्ति में कोई छोटी-मोटी गलती या मामूली समस्या दिखाई पड़ती है, तो हम उस आधार पर उसके बारे में बुरी राय बना लेते हैं; बल्कि, हम तो लोगों को अवसर दे रहे हैं। अगर वह पश्चात्ताप करने को तैयार है और वह बदल जाता है, पहले से कहीं बेहतर बन जाता है, तो अगर संभव हो, तो उसे कार्य में बनाए रखो। अगर उसे बार-बार अवसर देने, सत्य पर संगति करने, काट-छाँट करने और चेतावनी देने से काम नहीं बनता है, और किसी की सहायता कारगर नहीं होती है, तो यह कोई साधारण मुद्दा नहीं है : इस व्यक्ति की मानवता बहुत ही खराब है, और वह सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता है। ऐसे में, वह इस कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं है और उसे वहाँ से भेज देना चाहिए। वह कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त नहीं हैं। इस मामले को इसी तरह से संभालना चाहिए।

कलीसिया के कार्य का पर्यवेक्षण करते समय, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ना सिर्फ विभिन्न समस्याओं को पहचानने में निपुण होना चाहिए, बल्कि कुछ कलीसियाई अगुआओं पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए जिनके बारे में वे असहज महसूस करते हैं या जो उन्हें गैर भरोसेमंद लगते हैं। इन लोगों का लंबे समय तक पर्यवेक्षण करने और उन पर अनुवर्ती कार्रवाई करने की जरूरत है; तुम यह नहीं कर सकते हो कि उनसे बस कभी-कभार स्थिति के बारे में पूछ लिया या कुछ शब्द बोलकर मुद्दे को नजरअंदाज कर दिया और इसे समाप्त हुआ मान लिया। कभी-कभी, उनके कार्य का पर्यवेक्षण करने के लिए कार्य स्थल पर मौजूद रहना जरूरी होता है। कार्य स्थल पर मौजूद रहने का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य जल्दी से समस्याओं का पता लगाना और उन्हें सुलझाना है और कार्य को अच्छी तरह से पूरा करवाना है। कभी-कभी, तुम कार्य स्थल पर पहुँचते ही समस्याओं का पता नहीं लगा सकते हो। बल्कि, विस्तृत समझ, कार्य के निरीक्षण और सावधानी से की गई जाँच-परख के जरिए ही कुछ समस्याएँ धीरे-धीरे उभरकर सामने आती हैं और उनका पता लगाया जा सकता है। पर्यवेक्षण करने के लिए कार्य स्थल पर मौजूद रहना लोगों की जाँच करना या लोगों पर पहरा देने के बारे में नहीं है। पर्यवेक्षण का क्या अर्थ है? पर्यवेक्षण में निरीक्षण करना और निर्देश देना शामिल है। इसका अर्थ है कार्य के बारे में विस्तार से विशिष्ट रूप से पूछना, कार्य की प्रगति और कार्य की कमजोर कड़ियों के बारे में जानना और उन्हें अच्छी तरह से समझना, यह समझना कि कौन अपने कार्य में जिम्मेदार है और कौन नहीं, और कौन कार्य का निर्वहन करने में सक्षम है और कौन नहीं, वगैरह-वगैरह। पर्यवेक्षण के लिए कभी-कभी परिस्थिति के बारे में परामर्श करने, उसे समझने और उसके बारे में पूछताछ करने की जरूरत होती है। कभी-कभी इसके लिए आमने-सामने प्रश्न करने या सीधे निरीक्षण करने की जरूरत होती है। निस्संदेह, अक्सर इसमें प्रभारी लोगों के साथ सीधे संगति करना, कार्य के कार्यान्वयन, आने वाली कठिनाइयों और समस्याओं के बारे में पूछना, वगैरह शामिल होता है। पर्यवेक्षण करते समय, तुम यह पता लगा सकते हो कि कौन से लोग अपने कार्य में सिर्फ बाहरी तौर पर अपने काम में लगे रहते हैं और सिर्फ सतही तौर पर चीजें करते हैं, किन लोगों को यह नहीं पता है कि विशिष्ट कार्यों को कैसे कार्यान्वित करना है, किन लोगों को यह तो पता है कि उन्हें कैसे कार्यान्वित करना है लेकिन वे वास्तविक कार्य नहीं करते हैं, और इसी तरह की दूसरी समस्याओं का पता लगा सकते हो। अगर इन पता लगाई गई समस्याओं को समय पर सुलझाया जा सकता है, तो यह सबसे अच्छा है। पर्यवेक्षण का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य है कार्य-व्यवस्थाओं को बेहतर ढंग से कार्यान्वित करना, यह देखना कि क्या तुमने जो कार्य व्यवस्थित किया है वह उचित है, क्या इसमें कोई चूक हुई है या ऐसी कोइ चीजें हैं जिन पर तुमने विचार नहीं किया है, क्या ऐसा कोई क्षेत्र है जो सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, क्या इसमें कोई ऐसा विकृत पहलू या क्षेत्र है जिसमें गलतियाँ की गई हैं, वगैरह—पर्यवेक्षण करने की प्रक्रिया के दौरान इन सभी समस्याओँ का पता लगाया जा सकता है। लेकिन अगर तुम घर पर ही रहते हो और यह विशिष्ट कार्य नहीं करते हो, तो क्या तुम इन समस्याओं का पता लगा सकोगे? (नहीं।) कई समस्याएँ ऐसी होती हैं जिन्हें जानने और समझने के लिए कार्य स्थल पर जाकर उनके बारे में पूछना, उनकी जाँच-परख करना, और उन्हें समझना जरूरी होता है। पर्यवेक्षण करते समय, तुम्हें उन लोगों से आग्रह करना चाहिए जो अपने कार्य में गैर-जिम्मेदार और असावधान हैं, अपने से ऊपर के लोगों को धोखा देते हैं और अपने से नीचे के लोगों से चीजें छिपाते हैं, और लापरवाह और धीमे हैं। हमने अभी-अभी उनसे आग्रह करने के तरीके के संबंध में कई चरणों पर चर्चा की : तुम उन्हें निर्देश दे सकते हो, उनके साथ संगति कर सकते हो, उनकी काट-छाँट कर सकते हो, उन्हें चेतावनी दे सकते हो और उन्हें बर्खास्त कर सकते हो। क्या ये कदम उठाने आसान हैं? (हाँ।)

III. निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करना

अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा कार्य के लिए आग्रह किए जाने के बाद, अगला कदम कार्य का निरीक्षण करना है। कार्य का निरीक्षण करने का सामान्य उद्देश्य क्या है? कार्य का निरीक्षण करने का अर्थ है व्यवस्थित किए गए कार्यों की प्रगति निर्धारित करना, उन समस्याओं की पहचान करना जिन्हें तत्काल सुलझाने की जरूरत है, और अंत में यह सुनिश्चित करना कि कार्य पूर्ण रूप से अच्छी तरह से किया गया है। कार्य व्यवस्थित कर लेने के बाद, कई पहलुओं का निरीक्षण करना जरूरी होता है : आगे का कार्य किस चरण में पहुँच गया है, यह पूरा हो गया है या नहीं, यह कितना कुशल है, परिणाम क्या हैं, क्या कोई विशिष्ट समस्याएँ पहचानी गई हैं, क्या कोई कठिनाइयाँ हैं, क्या कोई ऐसे क्षेत्र हैं जो सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं, वगैरह-वगैरह। तुमने जो कार्य व्यवस्थित किया है, उसका निरीक्षण करना भी एक विशिष्ट और जरूरी कार्य है। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता अक्सर एक गलती कर देते हैं : उन्हें लगता है कि एक बार जब वे कार्य की व्यवस्था कर चुके हैं, तो उनका कार्य पूरा हो गया है। उनका मानना है, “मेरा कार्य पूरा हो गया है, मेरी जिम्मेदारी पूरी हो गई है। चाहे जो हो, मैंने तुम लोगों को बता दिया है कि इसे कैसे करना है। तुम लोग जानते हो कि क्या करना है, और तुमने इसे करने के लिए सहमति दी है। मुझे इस बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है कि चीजें कैसे आगे बढ़ती हैं; बस एक बार जब तुम लोग कार्य पूरा कर लो, तो मुझे सूचित कर देना।” कार्य की योजना बनाने और उसे व्यवस्थित करने के बाद, वे मानते हैं कि उनका कार्य पूरा हो चुका है और सब कुछ ठीक है। वे कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई या उसका निरीक्षण नहीं करते हैं। जहाँ तक यह प्रश्न है कि जिस व्यक्ति को उन्होंने कार्य का प्रभारी नियुक्त किया है, वह उपयुक्त है या नहीं, ज्यादातर लोगों की स्थिति कैसी है, क्या कोई समस्याएँ या कठिनाइयाँ हैं, उनमें कलीसियाई कार्य अच्छी तरह से करने का आत्मविश्वास है या नहीं, क्या कोई विकृत या गलत पहलू हैं, या क्या ऊपरवाले से प्राप्त कार्य-व्यवस्थाओं के उल्लंघन हुए हैं, वे इस बारे में जानकारी हासिल नहीं करते हैं, कोई निरीक्षण नहीं करते हैं, या अनुवर्ती कार्रवाई नहीं करते हैं। वे कार्य की व्यवस्था करने के बाद बस अपने कार्य को पूरा हो चुका मान लेते हैं; यह विशिष्ट कार्य करना नहीं है। कार्य में किस चीज का निरीक्षण करना चाहिए? जिन मुख्य चीजों की जाँच करनी चाहिए वे ये हैं कि कार्यान्वयन योजना कार्य-व्यवस्थाओं के अनुरूप है या नहीं, क्या यह कार्य-व्यवस्थाओं के सिद्धांतों और अपेक्षाओं का उल्लंघन करती है, और क्या ऐसे लोग हैं जो गड़बड़ियाँ और विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं, क्या ऐसे लोग हैं जो आँख मूंद कर उपद्रव मचाते हैं, या क्या ऐसे लोग हैं जो कार्य के दौरान बड़बोले शब्द बड़बड़ाते हैं। निस्संदेह, कार्य का निरीक्षण करते समय, तुम यह भी जाँच रहे हो कि कार्य-व्यवस्थाओं के तुम्हारे अपने कार्यान्वयन में कहीं कोई गलतियाँ तो नहीं थीं। दूसरों के कार्य का निरीक्षण करना वास्तव में अपने कार्य का निरीक्षण करना भी है।

एक मिसाल देकर कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने के तरीके पर संगति करना

ऊपरवाले से प्राप्त कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने के संबंध में, आओ हम एक विशिष्ट मिसाल दें। मिसाल के तौर पर, मान लो कि कार्य-व्यवस्था के लिए यह जरूरी है कि लोग अनुभवजन्य गवाहियों के लेख लिखें। यह एक ऐसा विशिष्ट कार्य है जो कई पहलुओं को शामिल करता है और एक दीर्घकालिक, निरंतर चलने वाला कार्य है, यह कोई अस्थायी कार्य-व्यवस्था नहीं है। तो, इस कार्य-व्यवस्था को जारी करने के बाद, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले क्या करना चाहिए? अगुआओं और कार्यकर्ताओं की नौवीं जिम्मेदारी, जिसके लिए उन्हें मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण और आग्रह करने और कार्य-व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन की स्थिति का निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करने की जरूरत होती है, उसके अनुसार अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले टीम के अगुआओं और पर्यवेक्षकों के साथ इस बात पर संगति करने की जरूरत है कि इस कार्य को विशेष रूप से उचित तरीके से और ऐसे तरीके से कैसे पूरा किया जाए कि परिणाम हासिल हो सकें, जिससे यह सुनिश्चित हो जाए कि इस कार्य के लिए सभी के पास अनुसरण करने योग्य एक मार्ग और सिद्धांत हैं। सिर्फ इस हद तक संगति करके ही कार्य अच्छी तरह से किया जा सकता है। सबसे पहले, यह सुनिश्चित करो कि हर व्यक्ति गवाही लेख लिखने के लिए ऊपरवाले द्वारा अपेक्षित मानकों को और इस बात को समझता है कि किस तरह के गवाही लेखों की जरूरत है। सबसे पहले, इन लेखों की विशिष्ट सामग्री, सिद्धांत और दायरा स्थापित करो, और सुनिश्चित करो कि सभी अगुआ और कार्यकर्ता इस बारे में जानते हैं। इसके अलावा, लेखों की लंबाई, प्रारूप, विषय-वस्तु और भाषा शैली पर विशिष्ट संगति और मार्गदर्शन करो—मिसाल के तौर पर, उन्हें बताओ कि लेख कथा, दैनिकी, व्यक्तिगत विवरण, गद्य कविता आदि के रूप में लिखे जा सकते हैं। क्या यह मार्गदर्शन प्रदान करना नहीं है? (हाँ, है।) मार्गदर्शन प्रदान करने के बाद, हर व्यक्ति उन गवाही लेखों की विशिष्ट अवधारणा और परिभाषा जान जाएगा जिन्हें उसे लिखने की जरूरत है। उसके बाद, यह निर्धारित करो कि किसके पास अनुभवजन्य गवाही लेख लिखने की काबिलियत और अनुभव है, और किसके पास गहन अनुभव नहीं है और वह सिर्फ औसत गवाही लेख लिखने का प्रशिक्षण ले सकता है। कलीसियाई अगुआओं को इन परिस्थितियों के बारे में बहुत जागरूक रहने की जरूरत है। ये लेख लिखे जाने के बाद, यह जाँचने के लिए उनकी समीक्षा करो कि क्या वे मौलिक और शिक्षाप्रद हैं। अगर वे मानक के अनुरूप हैं, तो उनका उपयोग नमूना लेख के रूप में उन भाई-बहनों द्वारा पढ़ने और संदर्भ के लिए किया जा सकता है जिन्होंने अभी तक लेख नहीं लिखे हैं या जो उन्हें लिखना नहीं जानते हैं। अगर किसी के पास अनुभव हैं और वह गवाही लेख लिखने का इच्छुक है, तो उसे सिद्धांतों और अपेक्षाओं का पालन करना चाहिए, अपने दिल की सामग्री साझा करनी चाहिए और व्यावहारिक शब्द बोलने चाहिए ताकि वे पाठकों को शिक्षित कर सकें। अगर कुछ लोग लेख लिखने में अच्छे नहीं हैं और वे सिर्फ घटनाओं का एक सरल वृत्तांत लिख सकते हैं, तो उनके साथ क्या करना चाहिए? चाहे उनके लेख मानकों को पूरा ना करें, तो भी उन्हें प्रशिक्षण लेना चाहिए। उन्हें परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने से प्राप्त अपनी सच्ची समझ और सराहना के बारे में लेख लिखने चाहिए। इन लेखों का प्रतिलिपि संपादन और समीक्षा करने के बाद, अगर यह सामग्री गवाही लेखों के मानकों को पूरा करती है, तो ऐसे लेख मान्य हैं। लेख की लेखन शैली चाहे कैसी भी हो, और उसका स्वरूप चाहे कैसा भी हो—चाहे उसे कथा के रूप में लिखा गया हो या दैनिकी के रूप में—जब तक वह पाठकों के लिए फायदेमंद और शिक्षाप्रद है, उसे लिखा जा सकता है। कुछ कम पढ़े-लिखे लोग भी हैं जिनके पास कुछ अनुभवजन्य गवाहियाँ हैं लेकिन उन्हें गवाही लेख लिखना नहीं आता है। ऐसे मामलों में क्या करना चाहिए? वे मौखिक रूप से अपने अनुभव बयान कर सकते हैं, और कोई ज्यादा शिक्षित व्यक्ति उनके अनुभवों को दर्ज करने में उनकी सहायता कर सकता है और फिर वे व्यक्ति जो कहना चाहते हैं उसके सच्चे अर्थ में उन्हें सटीक रूप से व्यक्त कर सकता है, उन्हें मानक के अनुरूप गवाही लेख में प्रतिलिपि संपादित कर सकता है। ऐसे लेख भी मान्य हैं। यह कार्य शुरू करने के लिए, सबसे पहले इस बात पर संगति करो कि गवाही लेख क्या है और इसका प्रारूप क्या है। फिर, विभिन्न शैक्षिक स्तरों, विभिन्न आयु समूहों और विभिन्न अनुभवों और आध्यात्मिक कदों के लोगों के लिए विशिष्ट जरूरतें और व्यवस्थाएँ तैयार करो। सबसे पहले अनुभवी लोगों से कुछ लेख लिखवाओ। इस बीच, कलीसिया में ऐसे व्यक्तियों की पहचान करो जो लेख लिखने में भाई-बहनों का मार्गदर्शन करने के लिए उपयुक्त हैं और जो इन विशिष्ट कार्यों को पूरा करने के लिए लेखों का प्रतिलिपि संपादन और संशोधन करने के लिए उपयुक्त हैं। इससे इस कार्य के लिए एक शुरुआती व्यवस्था मिल जाती है। क्या इसे इस तरीके से व्यवस्थित करने का यह अर्थ है कि इस प्रकार कार्य पूर्ण रूप से कार्यान्वित हो गया है और तुम इसे अकेला छोड़ सकते हो? नहीं, यह सिर्फ कार्य-व्यवस्था की अपेक्षाओं के आधार पर विशिष्ट निर्देश, सहायता और कार्यान्वयन योजनाएँ प्रदान करना है। इसके बाद अगुआओं और कार्यकर्ताओं को क्या करना चाहिए? तुम्हें कार्य का पर्यवेक्षण करना चाहिए। क्या इस पर्यवेक्षण का कोई लक्ष्य होना चाहिए? पर्यवेक्षण करना बस बिना सोचे-समझे की जाने वाली मौके पर जाँच नहीं है; इसके लिए एक प्राथमिक लक्ष्य की जरूरत है। तुम्हें इस बात की स्पष्ट समझ होनी चाहिए कि किसका पर्यवेक्षण करने की जरूरत है और किस कार्य चरण के लिए पर्यवेक्षण करना जरूरी है। मिसाल के तौर पर, अगर कोई बहन एक ऐसी कलीसियाई अगुआ है जो आम तौर पर अपने कार्य में ईमानदार नहीं रहती है, शेखी बघारना पसंद करती है, उच्च लक्ष्य तो रखती है लेकिन अयोग्य है, उसे अपने वरिष्ठों को धोखा देने और अपने से नीचे के लोगों से बातें छिपाने की आदत है, विशेष रूप से सुनने में सुखद तरीके से बोलती है, और अपने कार्य में लापरवाह रहती है, तो यह अनिवार्य है कि उसके कार्य का पर्यवेक्षण किया जाए। तुम उस पर पूर्ण रूप से विश्वास नहीं कर सकते हो। तो, फिर पहला कदम उसके कार्य का निरीक्षण करना और यह देखना है कि कार्य-व्यवस्थाओं का उसका कार्यान्वयन कैसा चल रहा है। क्या यह सिर्फ लोगों का मनमाने तरीके से पर्यवेक्षण करना है? (नहीं।) यह कार्य के लिए जरूरी है क्योंकि यह कार्य बहुत ही महत्वपूर्ण है और जो लोग इस तरह का कार्य पूरा करते हैं, वे भरोसेमंद होने चाहिए। अगर वे विशिष्ट कार्यों का निर्वहन नहीं करते हैं और विश्वसनीय नहीं हैं, तो उन पर आँख मूंदकर विश्वास करने से कलीसिया के कार्य में देरी होगी, और तुम भी अपने कर्तव्य में लापरवाह बनोगे। ऐसे लोगों के संबंध में, तुम इस बात से प्रभावित नहीं हो सकते हो कि उनके शब्द सुनने में कितने अच्छे लगते हैं या वे अपनी प्रतिबद्धता कितनी दृढ़ता से व्यक्त करते हैं; दरअसल वे सिर्फ अच्छी बातें करते हैं लेकिन दृष्टि से ओझल होने के बाद कोई ठोस कार्य नहीं करते हैं। ऐसे लोग ही पर्यवेक्षण के एकदम सही लक्ष्य हैं। पर्यवेक्षण के जरिए, जाँच-परख करो कि क्या उन्होंने पश्चात्ताप किया है। अगर उन्होंने नहीं किया है, तो उन्हें तुरंत बर्खास्त कर दो और उन पर प्रयास बर्बाद करना बंद कर दो। दरअसल, तुम्हें ज्यादातर अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ अनुवर्ती कार्रवाई करने, पर्यवेक्षण करने, और निर्देश देने का अभ्यास करना चाहिए। जो लोग वास्तविक कार्य कर सकते हैं और जिनमें जिम्मेदारी की भावना है, उनके लिए अगर यह कार्य ऐसा है जिसे वे करना जानते हैं, तो पर्यवेक्षण करने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन, नए या महत्वपूर्ण कार्य के लिए, अनुवर्ती कार्रवाई करना, पर्यवेक्षण करना, और निर्देश देना अब भी जरूरी है। यह कह सकते हैं कि इस तरह से कार्य का पर्यवेक्षण करना और उस पर अनुवर्ती कार्रवाई करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं का कार्य है। अनुवर्ती कार्रवाई करना, पर्यवेक्षण करना और निर्देश देना अविश्वास करने के बारे में नहीं है, बल्कि कार्य की सुचारू प्रगति को सुनिश्चित करने के बारे में है। क्योंकि लोगों में विभिन्न कमियाँ होती हैं और, यही नहीं, उनमें विभिन्न भ्रष्ट स्वभाव भी होते हैं, इसलिए इस तरह से अभ्यास किए बिना, यह आश्वासन देना असंभव है कि कार्य अच्छी तरह से किया जाएगा। जिन्हें अभी-अभी कार्य पर पदोन्नत किया गया है, उन्हें अनुवर्ती कार्रवाई, पर्यवेक्षण और निर्देशन की और ज्यादा जरूरत है। यह एक विशिष्ट कार्य है जिसका निर्वहन अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए। अगर तुम अनुवर्ती कार्रवाई करने, पर्यवेक्षण करने और निर्देश देने का अभ्यास नहीं करते हो, तो कई कार्य अच्छी तरह से नहीं किए जा सकेंगे, और कुछ कार्य तो गड़बड़ भी हो सकते हैं या ठप्प भी पड़ सकते हैं। यह एक बहुत ही सामान्य घटना है। विशेष रूप से, जो अगुआ और कार्यकर्ता सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, उन्हें पर्यवेक्षण की और ज्यादा जरूरत होती है। दूसरे लोगों के साथ, कार्य को काफी अच्छी तरह से कार्यान्वित किया जा सकता है, लेकिन ऐसे लोगों के साथ, यह अनिश्चित रहता है कि कार्य कार्यान्वित किया जा सकेगा या नहीं, या इसे कितनी अच्छी तरह से कार्यान्वित किया जाएगा, और यह कहना तो और भी मुश्किल है कि इसे कार्य-व्यवस्था के अनुसार कार्यान्वित किया जाएगा या नहीं। ऐसे लोग अपने कार्य में बहुत भरोसेमंद नहीं होते हैं। अगर तुम उनके कार्य का पर्यवेक्षण किए बिना उन पर विश्वास करते हो, तो यह वास्तव में कार्य के प्रति लापरवाह और गैर-जिम्मेदार होना है। ऐसे लोगों के लिए, तुम्हें उनकी कलीसिया के कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई करने और उसका पर्यवेक्षण करने, और उसमें शामिल होने की जरूरत है। अगर वे तुम्हें आने नहीं देना चाहते या तुम्हारा स्वागत नहीं करते हैं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? हो सकता है कि तुम कहो, “मैं खून के घूँट पीकर वहाँ से चला जाऊँगा।” क्या ये शब्द सही हैं? (नहीं।) यह उनका निजी क्षेत्र नहीं है; यह एक कलीसिया है, और यह तुम्हारी जिम्मेदारी के दायरे में आता है। तुम मुफ्तखोरी के लिए उनके घर में अपने ठहरने की अवधि नहीं बढ़ा रहे हो; तुम एक कलीसिया में कार्य करने के लिए जा रहे हो। यह खून के घूंट पीने के बारे में नहीं है। वैसे तो वे अगुआ हैं, लेकिन परमेश्वर के चुने हुए लोग उनके नहीं हैं। क्योंकि वे अपने कार्य में गैर-जिम्मेदार और निष्ठाहीन हैं, इसलिए तुम्हें उनके कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई करने और उसका पर्यवेक्षण करने की जरूरत है। तो, वहाँ जाने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? सबसे पहले, उनसे पूछो कि कलीसिया में किसके पास जीवन अनुभव हैं और कौन अनुभवजन्य गवाही लेख लिख सकता है, कौन सत्य का अनुसरण करने पर अपेक्षाकृत ज्यादा ध्यान केंद्रित करता है, कौन दैनिकियाँ और आध्यात्मिक भक्ति से संबंधित टिप्पणियाँ लिखने पर अपेक्षाकृत ज्यादा ध्यान केंद्रित करता है, कौन सभाओं में अपने अनुभवों को साझा करने पर ध्यान केंद्रित करता है, और किसके पास सबसे ज्यादा अनुभवजन्य गवाहियाँ हैं। उन्हें पहले इन लोगों की पहचान करने दो। अगर वे कई भाई-बहन प्रदान करते हैं, और कहते हैं कि ये वही लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों को पढ़ने पर अपेक्षाकृत ज्यादा ध्यान केंद्रित करते हैं, उनके पास पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी है, वे अक्सर आध्यात्मिक भक्ति से संबंधित टिप्पणियाँ लिखते हैं, परिस्थितियों का सामना करते समय सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और अक्सर अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा करते हैं जिन्हें दूसरे लोग सुनने के इच्छुक रहते हैं, तो तुम्हें इन भाई-बहनों से मिलना चाहिए और उनके साथ संगति करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त, कलीसिया में यकीनन कुछ कम पढ़े-लिखे लोग हैं जो लेख नहीं लिख सकते हैं, लेकिन उनके पास व्यावहारिक अनुभव हैं। इन लोगों को मार्गदर्शन और प्रशिक्षण की जरूरत है, और तुम ऐसे लोगों से कुछ समय तक उनकी सहायता करने के लिए कह सकते हो जो लेख लिखना जानते हैं। साथ ही, एक जिम्मेदार व्यक्ति चुनो जो अनुभवजन्य गवाही लेख लिखने वाले परमेश्वर के चुने हुए लोगों के विशिष्ट कार्य को कार्यान्वित करेगा। यह व्यक्ति पूरे हो चुके लेखों को इकट्ठा करने, उनकी प्रतिलिपि संपादित करने, समीक्षा करने और फिर उन्हें प्रस्तुत करने का प्रभारी होगा। और कलीसिया के अगुआ को क्या करना चाहिए? उससे इन कार्यों का पर्यवेक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करने के लिए कहो। कुछ लोग कह सकते हैं, “चूँकि एक कलीसियाई अगुआ मौजूद है, फिर हमें प्रभारी के तौर पर किसी को चुनने की क्या जरूरत है? क्या यह अनावश्यक नहीं है?” क्या यह अनावश्यक है? (नहीं।) क्यों नहीं? वह इसलिए क्योंकि यह कलीसियाई अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करता है और इतना ज्यादा गैर भरोसेमंद है कि तुम्हें इस कार्य की विशेष रूप से जिम्मेदारी लेने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति को चुनना होगा। अगर कलीसियाई अगुआ भरोसेमंद होता, तो वह कार्य-व्यवस्था मिलने के बाद तेजी से कार्य को पूरा कर पाता, और तुम्हें इस तरह से उसका पर्यवेक्षण करने की जरूरत नहीं पड़ती। किसी को प्रभारी के तौर पर चुनना कलीसियाई अगुआ को दरकिनार करने के बारे में नहीं है, बल्कि बेहतर कार्य परिणाम हासिल करने के बारे में है। अगर तुम इस व्यक्ति को नहीं चुनोगे, तो कार्य ठप्प पड़ सकता है, और यह कब पूरा होगा या कब परिणाम देगा, यह अनिश्चितता रहेगी।

कलीसियाई कार्य में भाग लेने वाले अगुआओं और कार्यकर्ताओं का उद्देश्य परमेश्वर के चुने हुए लोगों का परमेश्वर के कार्य का व्यावहारिक रूप से अनुभव करने में मार्गदर्शन करना है। उन्हें न सिर्फ अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहिए, बल्कि कार्य-व्यवस्थाओं द्वारा अपेक्षित मानकों के अनुसार कलीसिया का समस्त कार्य पूरा करने में परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सहायता और अगुवाई भी करनी चाहिए। जो अगुआ और कार्यकर्ता ऐसा करते हैं, सिर्फ वे ही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होते हैं। लेकिन अगर तुम कार्य में विशिष्ट रूप से भाग नहीं लेते हो, और वास्तविक कार्य नहीं करने वाले अगुआओं और कार्यकर्ताओं का पर्यवेक्षण करने का अभ्यास नहीं करते हो, तो इन कलीसियाई कार्यों के परिणाम शून्य हो सकते हैं, क्योंकि झूठे अगुआ उन्हें बर्बाद कर चुके होते हैं। अगर तुम किसी खास कलीसिया की स्थिति को स्पष्ट रूप से समझते हो, और तुम्हें अपने दिल में पता है कि इस कलीसिया का अगुआ गैर-जिम्मेदार है, लेकिन तुम समय पर अनुवर्ती कार्रवाई नहीं करते हो और निर्देश नहीं देते हो, तो क्या यह कर्तव्य के प्रति लापरवाही नहीं है? इस प्रकार के कार्य पर अगर तुमने विशिष्ट रूप से अनुवर्ती कार्रवाई की है और इसमें भाग लिया है, और इसके लिए पर्यवेक्षक और कार्य करने के लिए लोगों की नियुक्ति कर दी है, तो क्या तुम तुरंत वहाँ से चले जा सकते हो? (नहीं।) कुछ समय तक अनुवर्ती कार्रवाई करना सबसे अच्छा है। अनुवर्ती कार्रवाई के दौरान, पहली बात यह है कि तुम कलीसियाई अगुआओं से इस कार्य में सक्रिय रूप से सहयोग करने का आग्रह कर सकते हो और उनका मार्गदर्शन कर सकते हो। इसके अलावा, तुमने जिन लोगों की व्यवस्था की है उनकी कार्य स्थिति के बारे में सटीक समझ हासिल कर सकते हो, और साथ ही तुम किसी भी समय उनके सामने आने वाली किसी भी समस्या में समय पर सुधार कर सकते हो और मदद कर सकते हो। अगर तुम वहाँ से बहुत जल्दी चले जाते हो, और फिर समस्याएँ उत्पन्न होने पर उन्हें संभालने और सुलझाने के लिए वापस आते हो, तो इससे कार्य में देरी हो जाएगी। संक्षेप में, इस विशिष्ट कार्य के लिए, कर्मियों और पर्यवेक्षक की व्यवस्था करने में भाग लेने के अलावा, कुछ समय तक अनुवर्ती कार्रवाई करना सबसे अच्छा है ताकि यह देखा जा सके कि उनके कार्य के दौरान कौन-सी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। पहली बात, यह पर्यवेक्षण करो कि क्या कलीसियाई अगुआ अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं या नहीं; दूसरी बात, यह देखो कि कर्मी किस तरह से कार्य का निर्वहन कर रहे हैं। क्योंकि ज्यादातर लोगों ने पहले यह कार्य नहीं किया है और जो समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं वे अज्ञात हैं, इसलिए इस कार्य में भाग लेने के दौरान तुम्हें लगातार कुछ अज्ञात मुद्दों का पता लगता रहेगा। निस्संदेह, समय पर समाधान प्रदान करना भी सबसे अच्छा है। कार्य स्थल पर मौजूद रहना, पर्यवेक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करना सबसे अच्छे अभ्यास हैं। बस लापरवाही से खानापूर्ति करके आज का कार्य बंद मत कर दो। यह एक विशेष परिस्थिति के लिए किया जाने वाला कार्य है, जिसमें कुछ सहायता और मार्गदर्शन दिया जाता है। समस्याएँ सुलझाने के बाद, कुछ समय तक उनके कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई करो। तुम देखते हो कि कुछ लेख पहले से ही लिखे जा चुके हैं, और वहाँ कई प्रकार के लेख हैं, जो विभिन्न मुद्दों को संबोधित करते हैं और विभिन्न विषयों को शामिल करते हैं—कुछ सीसीपी उत्पीड़न के अनुभवों के बारे में हैं, कुछ पारिवारिक उत्पीड़न के अनुभवों के बारे में हैं, कुछ इस बारे में हैं कि लोग अपने प्रकट किए हुए भष्ट स्वभावों को कैसे समझने लगते हैं, या अपने कर्तव्यों का पालन करते समय लोग जो विभिन्न भ्रष्ट अवस्थाएँ प्रदर्शित करते हैं, उनका समाधान कैसे किया जाता है, वगैरह-वगैरह। इन सभी गवाही लेखों की समीक्षा की जानी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो जाए कि वे पूरी तरह से तथ्यों के अनुरूप हैं और लोगों को सही मायने में शिक्षित करते हैं और उसके बाद ही उन्हें स्वीकृत किया जाना चाहिए और उनके वीडियो बनाए जाने चाहिए। कार्य के इस स्तर पर पहुँचने पर, तुम पहले ही परिणाम देख चुके होगे। इससे यह साबित होता है कि, प्रारंभिक तौर पर, इस कार्य के लिए तुमने जिन कर्मियों और पर्यवेक्षक की व्यवस्था की थी वे अपेक्षाकृत उपयुक्त हैं। इसके बाद, अगर वे इस कार्य को अपने आप पूरा कर सकते हैं, तो तुम्हारे लिए वहाँ से आ जाना उचित है। क्या इस तरह से कार्य करने वाले अगुआ और कार्यकर्ता भी शिक्षा प्राप्त करते हैं? क्या यह दिन भर सिर्फ सिद्धांतों के बारे में बकबक करने और समय बर्बाद करने से ज्यादा फायदेमंद है? (हाँ।) इस किस्म के कार्य से बड़े पुरस्कार हासिल होते हैं। पहली बात, तुम वास्तविक समस्याएँ सुलझाना सीख जाते हो। दूसरी बात, तुम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ पूरी करते हो। इसके अलावा, सत्य के बारे में तुम्हारी समझ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के स्तर पर रुक नहीं जाती है; बल्कि, तुम वास्तविक जीवन में सत्य ज्यादा लागू करते हो। इस तरीके से, लोग व्यावहारिक अनुभव हासिल करते हैं, और सत्य की उनकी समझ ज्यादा ठोस और व्यावहारिक हो जाती है।

कलीसिया की पायलट कार्य परियोजना का इस हद तक मार्गदर्शन करने और प्रारंभिक परिणाम हासिल करने के बाद, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को आगे क्या कार्य करना चाहिए? क्या पायलट परियोजना पूरी हो जाने के बाद तुम्हारा कार्य पूरा हो जाता है? क्या तुम्हारे करने के लिए और भी कार्य हैं? अभी भी बहुत सारा कार्य बाकी है! इस कलीसिया के कार्य का मार्गदर्शन करने के बाद, देखो कि किस दूसरी कलीसिया के कार्य को संकेंद्रित मार्गदर्शन की जरूरत है, और फिर उस कलीसिया में जाओ और मार्गदर्शन प्रदान करना जारी रखो। चूँकि तुम्हारे पास पहले से ही कुछ कार्य अनुभव है और तुमने कुछ सत्य सिद्धांत समझ लिए हैं, इसलिए फिर से मार्गदर्शन करना काफी आसान होगा। निस्संदेह, कार्य के पहले चर्चा किए गए चरणों के अनुसार, तुम्हें सबसे पहले यह देखना चाहिए कि चुने गए कर्मी मानक पर खरे उतरते हैं या नहीं, क्या वे इस कार्य के लिए उपयुक्त हैं, और दूसरी चीजों के साथ-साथ, क्या उनकी काबिलियत, मानवता, शैक्षिक स्तर, सत्य का अनुसरण करने की मात्रा, अपने कर्तव्य के प्रति रवैया और सत्य की समझ अपेक्षाकृत आदर्श हैं, और क्या वे अपेक्षाकृत उच्च कोटि के व्यक्ति हैं। कुछ समय तक कार्य का पर्यवेक्षण और निरीक्षण करने से, तुम्हें यह पता लगाने का अवसर मिलेगा कि कुछ अगुआ और कार्यकर्ता या पर्यवेक्षक मानक पर खरे नहीं उतरते हैं। मिसाल के तौर पर, कुछ लोग खराब काबिलियत वाले होते हैं और वे कार्य नहीं कर सकते हैं। दूसरे लोग विकृत समझ वाले होते हैं, उनके दृष्टिकोण गलत होते हैं, उनमें सामान्य सोच की कमी होती है, और आध्यात्मिक समझ नहीं होती है। वे अपने शैक्षिक ज्ञान के आधार पर सिर्फ लेखों की प्रूफरीडिंग कर सकते हैं, लेकिन जब विशिष्ट आध्यात्मिक शब्दों की उपयुक्तता और परमेश्वर के वचनों को उद्धृत करने की उपयुक्तता की बात आती है, तो वे अज्ञानी होते हैं; वे इन चीजों को समझने में बिल्कुल असमर्थ होते हैं, जिससे पता चलता है कि उन्हें चुनना अनुपयुक्त था और उन्हें तुरंत बदल देना चाहिए। इस बीच, कुछ दूसरे लोगों को पर्यवेक्षक के रूप में चुना जाता है, और वैसे तो वे कुछ कार्य कर सकते हैं, लेकिन जब वे खुद लेख लिखते हैं तो बेहतर परिणाम हासिल होते हैं। जब उन्हें पर्यवेक्षकों के रूप में कार्य करने के लिए कहा जाता है तो वे अपने कार्य में व्यस्त हो जाने पर लिखने का समय नहीं निकाल पाते हैं, और वे पर्यवेक्षक का कार्य बहुत अच्छी तरह से नहीं कर पाते हैं। वे मार्गदर्शन प्रदान करने, कार्य का निरीक्षण करने या समस्याओं को सुधारने में निपुण नहीं होते हैं, लेकिन एक विशिष्ट कार्य करने में बेहतर होते हैं। इसलिए, ऐसे व्यक्ति को पर्यवेक्षक के रूप में चुनना उचित नहीं है, और किसी दूसरे उम्मीदवार का चयन करना चाहिए। इसलिए, जब अगुआ और कार्यकर्ता किसी विशिष्ट कार्य का निरीक्षण और उस पर अनुवर्ती कार्रवाई कर रहे हों, तो सिर्फ प्रश्न पूछना और यह जाँच-पड़ताल करना पर्याप्त नहीं है कि क्या पर्यवेक्षक सिद्धांतों को समझता है। तुम्हें इस बात की भी जोँच-परख करनी होगी कि इस व्यक्ति की मानवता वास्तव में कैसी है, और क्या उसकी काबिलियत, समझने की क्षमता और आध्यात्मिक कद इस कर्तव्य को करने के लिए उपयुक्त हैं। अगर निरीक्षण से ऐसे कर्मियों का खुलासा होता है जो मानक पर खरे नहीं उतरते हैं, तो समय पर सुधार किए जाने चाहिए। कार्य का निरीक्षण करने में यही शामिल है।

गवाही लेख लिखने का कार्य कार्यान्वित करने के लिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इस बात का निरीक्षण तो करना ही चाहिए कि इस कार्य का पर्यवेक्षक उपयुक्त है या नहीं, इसके अलावा, उन्हें लेखों की जाँच करना और लेख लिखने के कार्य के लिए कुछ निर्देश देना और चयन करना भी सीखना चाहिए। विशिष्ट रूप से और व्यावहारिक रूप से लिखे गए लेखों का उपयोग मिसालों के तौर पर किया जा सकता है। खोखले और अव्यवहारिक तरीके से लिखे गए लेख मूल्यहीन और लोगों को शिक्षित नहीं करने वाले होते हैं, उन्हें सीधे हटा देना चाहिए। इस तरीके से, भाई-बहन जान जाएँगे कि किस प्रकार के लेख मूल्यवान हैं और किस प्रकार के नहीं, और भविष्य में, वे मूल्यहीन लेख नहीं लिखेंगे, और इस प्रकार ऊर्जा और समय की बर्बादी से बचेंगे। इस तरीके से, तुम्हारा कार्य मूल्यवान होगा। जब तुम कार्य का निरीक्षण करने के लिए जाते हो, तो तुम्हें उनके द्वारा लिखे गए सभी प्रकार के अनुभवजन्य गवाही लेखों को जाँचना चाहिए ताकि यह पता चल सके कि उनमें कोई मिलावट नहीं की गई है या झूठनहीं जोड़ी गई है और लेख शिक्षाप्रद हैं या नहीं। सबसे पहले तुम्हें इन चीजों का परेक्षण करने की जरूरत है। परेक्षण करते समय क्या तुम भी सीख नहीं रहे होते हो? (हाँ।) जैसे-जैसे तुम सीखते रहोगे, इस कार्य को ज्यादा से ज्यादा बेहतर तरीके से करने लगोगे। मान लो कि तुम निरीक्षण नहीं करते हो, चीजों को गंभीरता से नहीं लेते हो, और गैर-जिम्मेदार हो, और बस खानापूर्ति करते हो, सिर्फ कार्य को जैसे-तैसे पूरा करने का और फिर अपने से ऊपर के लोगों को यह सूचना देने का लक्ष्य रखते हो कि यह पूरा हो चुका है, और यह सोचते हो, “चाहे जो हो, हमारी कलीसिया में ऐसे बहुत से लोग हैं जो गवाही लेख लिख सकते हैं। वे लिखना समाप्त कर लेंगेतो मैं उन सभी लेखों को जमा कर दूँगा। किसे परवाह है कि वे मानक पर खरे उतरते हैं या नहीं? जब तक उच्च-स्तरीय अगुआओं को यह पता है कि मैंने बहुत सारा कार्य किया है, कार्य व्यवस्थाएँ कार्यान्वित की हैं, और व्यस्त रहा हूँ, तब तक यह काफी है!” क्या यह जिम्मेदारी वाला रवैया है? (नहीं।) यह गैर-जिम्मेदार होना है। अगर तुम जिम्मेदारी लेते हो तो तुम्हें पहले अपनी तरफ से चीजों का परेक्षण करना चाहिए। तुम्हारे जरिए जमा किया गया हर लेख मानक पर खरा उतरना चाहिए; यह ऐसा होना चाहिए कि इसे पढ़ने वाला हर व्यक्ति कहे कि यह शिक्षाप्रद है और वह इसे पढ़ने का इच्छुक होना चाहिए। सिर्फ यही अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी पूरी करना कहलाता है। कार्य का निरीक्षण करना खानापूर्ति करने, नारे लगाने, धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करने या मनमाने ढंग से लोगों को डाँटने के बारे में नहीं है। यह कार्य की कुशलता और परिणामों का निरीक्षण करने के बारे में है, यह इस बात का निरीक्षण करने के बारे में है कि तुमने जो कार्य किया है क्या वह मानक स्तर का है, क्या यह कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने के परिणाम प्राप्त करता है, क्या यह परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करता है, कौन-से क्षेत्र मानक स्तर के हैं और कौन-से नहीं—इन्हीं चीजों का निरीक्षण करना चाहिए। इसमें विशिष्ट कार्य करना शामिल है, और यह लोगों की काबिलियत से और इस बात से संबंधित है कि क्या उनमें आध्यात्मिक समझ है, वे कितना सत्य समझते हैं, उनके पास कितनी सत्य वास्तविकता है, और यह चीजों को देखने की उनकी क्षमता से संबंधित है। अगर तुम्हें कार्य का निरीक्षण करना आता है, और कार्य का निरीक्षण करते समय तुम समस्याओं का पता लगा सकते हो, समस्याओं की जड़ पहचान सकते हो, समस्याओं के सार को समझ सकते हो, और समस्याओं को सुलझा सकते हो, और गवाही लेख जमा करने से पहले तुम सिद्धांतों के अनुसार उनका परेक्षण कर सकते हो, जिससे यह आश्वासन मिलता है कि तुम जो भी लेख जमा करते हो वे सभी मानक पर खरे उतरते हैं और उन्हें पढ़ने वालों के लिए शिक्षाप्रद होते हैं, तो फिर तुम एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में मानक पर खरे उतरते हो, और तुमने अपना कार्य उचित रूप से किया है।

ज्यादातर लोग मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण और आग्रह करने का कार्य कर सकते हैं। लेकिन, जब निरीक्षण और परेक्षण की जरूरत पड़ती है, तो यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की काबिलियत की और इस बात की परीक्षा है कि क्या उनके पास सत्य वास्तविकता है। कुछ लोग मार्गदर्शन प्रदान कर सकते हैं, कार्य का पर्यवेक्षण कर सकते हैं, और अनुपयुक्त कर्मियों की काट-छाँट कर सकते हैं या उन्हें बर्खास्त कर सकते हैं और उनसे निपट सकते हैं, लेकिन वे यह नहीं जानते हैं कि उन्होंने जो कार्य व्यवस्थित किया है उसकी कुशलता और परिणामों का आकलन कैसे करना है, क्या यह कार्य-व्यवस्थाओं के अनुरूप है, और अगर नहीं है तो इसे कैसे सुलझाना है। ज्यादातर अगुआ और कार्यकर्ता, ज्यादा-से-ज्यादा, मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण और आग्रह कर सकते हैं, लेकिन जब कार्य का निरीक्षण करने की बात आती है, तो उन्हें यह नहीं पता होता है कि क्या करना है, उनके पास कोई सिद्धांत नहीं होता है और वे हैरान-परेशान हो जाते हैं। वे सोचते हैं, “कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित कर दी गई हैं तो अब निरीक्षण करने के लिए क्या है? हर व्यक्ति कार्य कर रहा है, कोई भी निठल्ला नहीं है, गड़बड़ियाँ और विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करने वाले लोगों से निपटा जा चुका है, और जिन्हें बर्खास्त या दूर करने की जरूरत थी, उन्हें भी उसी हिसाब से संभाला जा चुका है। तो, निरीक्षण करने के लिए और क्या बचा है?” वे बस बेखबर हैं। कार्य का निरीक्षण करने के लिए परेक्षण की जरूरत होती है। परेक्षण का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि तुम्हें एक निष्कर्ष निकालने की जरूरत है। मिसाल के तौर पर, अनुभवजन्य गवाही लेख लिखने के कार्य का एक पर्यवेक्षक तुम्हारे पास एक लेख लेकर आता है और कहता है कि इसकी लेखन शैली काफी अच्छी है, भाषा सहज है, और भाषा शैली और लेख की विषय-वस्तु दोनों ही अच्छी हैं। लेकिन, उसे लगता है कि इसमें व्यावहारिक सामग्री की कमी है और यह लोगों को शिक्षित नहीं कर सकता है, इसमें और जोड़ने और सुधार करने की जरूरत है, लेकिन वह खुद इस मामले को ठीक से समझ नहीं पा रहा है, इसलिए वह तुमसे इस पर नजर डालने के लिए कहता है। उसका तुमसे इस पर नजर डालने के लिए कहने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि वह चाहता है कि तुम उसका परेक्षण करो। तुम उसका परेक्षण कैसे करते हो और क्या तुम उसका परेक्षण अच्छी तरह से करते हो, यह तुम्हारे वास्तविक आध्यात्मिक कद की परीक्षा है। वास्तविक आध्यात्मिक कद का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि क्या तुम सत्य सिद्धांतों को समझते हो। अगर यह पर्यवेक्षक गवाही लेख लिखने के सिद्धांतों को नहीं समझता है, वह यह आकलन नहीं कर पाता है कि लेख व्यावहारिक और सच्चा है या नहीं, और उसे यह मालूम नहीं है कि राय कैसे बनानी है, और तुम भी वैसे ही हो, राय बनाने या फैसला लेने में असमर्थ हो, तो इससे एक बात साबित होती है : तुम्हारी काबिलियत लगभग उसकी जैसी ही है और तुम लेखों का परेक्षण करने में असमर्थ हो। क्या यही बात नही है? तुम जो सत्य समझते हो वह लगभग उसके सत्य जैसा ही है और तुम उन समस्याओं को नहीं समझ पाते हो जिन्हें वह नहीं समझ पाता है—यह एक मुद्दे की तरफ इशारा करता है। अगर तुम उन समस्याओं को पहचान पाते हो जिन्हें वह नहीं पहचान पाता है और तुम निरीक्षण के जरिए उन समस्याओं का पता लगा पाते हो जिनका पता वह नहीं लगा पाता है तो इससे यह साबित होता है कि तुम लेखों का परेक्षण कर सकते हो। मिसाल के तौर पर, वह मानता है कि ज्यादातर लेख मानक स्तर के हैं और उनमें कोई महत्वपूर्ण समस्या नहीं है, लेकिन तुम्हें अपने निरीक्षण और परेक्षण के जरिए, एक छोटा-सा भाग मिल जाता है जो मानक स्तर का नहीं है। तुम गहन-विश्लेषण और संगति के जरिए इन लेखों में मौजूद समस्याओं को समझाते हो; हर व्यक्ति इस बात से सहमत है कि तुम्हारे बिंदु तर्कसंगत हैं, सिद्धांतों के अनुरूप हैं, और यह नुक्स निकलना नहीं हैं, बल्कि उसमें सचमुच वास्तविक समस्याएँ हैं, और इन्हें ठीक किया जाना चाहिए। कुछ लेख खोखले हैं और उनमें व्यावहारिक अनुभवजन्य समझ की कमी है; कुछ लेखों में व्यावहारिक अनुभवजन्य समझ तो है, लेकिन उन्हें पर्याप्त ठोस रूप से व्यक्त नहीं किया गया है; कुछ लेखों में परमेश्वर के वचनों को अनुपयुक्त तरीके से उद्धृत किया गया है, परमेश्वर के वचनों के ज्यादा उपयुक्त अंशों को नहीं चुना गया है, जिससे परिणाम खराब हुए हैं; कुछ लेखों में गलत दृष्टिकोण हैं, विकृत समझ है और सत्य की समझ पर संगति की कमी है, जिससे पाठकों को शिक्षा नहीं मिलती है और उनमें आसानी से नकारात्मकता और गलतफहमियाँ हो जाती हैं; वगैरह-वगैरह। तुम इन सभी मुद्दों का पता लगा सकते हो और उन्हें ठीक से समझ पाते हो। अपनी संगति के जरिए, तुम सिद्धांतों को समझने में उनकी सहायता करते हो, जिससे अनुभवी लोग वास्तविक अनुभवजन्य गवाहियाँ लिखने में सक्षम होते हैं। तुम वे लेख चुनते हो जो मानक स्तर की अनुभवजन्य गवाहियों के रूप में लोगों के लिए शिक्षाप्रद और मूल्यवान हैं, ताकि जब परमेश्वर के चुने हुए लोग उन्हें पढ़ें, तो वे शिक्षित हो जाएँ। इस बीच, जिन लेखों में सच्ची अनुभवजन्य समझ की कमी है या विकृत समझ है, उन्हें हटा दिया जाता है। अगर तुम ऐसा करते हो तो क्या तुम परेक्षण नहीं कर रहे हो? अगर तुम्हारे पास मामलों को समझने और कार्य करने की ऐसी क्षमता है, तो क्या तुम्हारी काबिलियत पर्याप्त नहीं है? क्या तुम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर रहे हो? (हाँ।) अगर उसे लगता है कि ज्यादातर लेख स्वीकार्य हैं और वह उनका परेक्षण करने के लिए उन्हें तुम्हारे पास लेकर आता है, और तुम्हें भी लगता है कि उनमें से ज्यादातर लेख अच्छे हैं, जबकि वास्तव में उनमें से कुछ लेखों में समस्याएँ हैं और उन्हें आगे चयन, प्रतिलिपि संपादन और समस्याओं के सुधार की जरूरत है, लेकिन तुम उन्हें ठीक से समझ नहीं पाते हो—जब तुम उन्हें ऊपरवाले के पास जमा करते हो, और ऊपरवाला कुछ लेखों को मानक स्तर का नहीं पाता है और उन्हें हटा देता है—तो क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि तुमने ठीक से परेक्षण नहीं किया? एक बात यह है कि कार्य का निरीक्षण करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की काबिलियत की परीक्षा है, और दूसरी बात यह है कि यह सत्य की उनकी समझ की सीमा की परीक्षा है। कुछ लोग परेक्षण नहीं कर पाते हैं क्योंकि उनकी काबिलियत खराब होती है और इसलिए वह उन्हें ऐसा नहीं करने देती है, वे इस क्षेत्र में सत्य नहीं समझते हैं, और वे समस्याएँ ठीक से नहीं समझ पाते हैं। उनके निरीक्षण सिर्फ खानापूर्ति करना होते हैं, वे यह नहीं जानते हैं कि क्या निरीक्षण करना है। कुछ लोगों में पर्याप्त काबिलियत होती है, लेकिन क्योंकि सत्य की उनकी समझ उथली होती है, इसलिए वे समस्याओं को पहचान तो पाते हैं, लेकिन उन्हें सुलझाने का तरीका नहीं जानते हैं। इन लोगों में अब भी सुधार की गुंजाइश है। लेकिन, अगर लोग समस्याओं को पहचान ही नहीं पाते हैं, तो उनके पास प्रगति करने का कोई तरीका नहीं होता है।

अनुभवजन्य गवाही लेख लिखने के कार्य को कार्यान्वित करने में निरीक्षण का एक महत्वपूर्ण चरण शामिल है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि क्या अगुआओं और कार्यकर्ताओं के पास सत्य वास्तविकता है। तुम्हें अपेक्षाकृत खराब काबिलियत वाले और अपेक्षाकृत कमजोर अगुआओं और कार्यकर्ताओं का निरीक्षण करने के अलावा, औसत काबिलियत वाले लोगों के बारे में भी पूछना चाहिए और उन्हें समझना चाहिए। अगर परिवेश उपयुक्त नहीं है, तो तुम पूछताछ करने और परिस्थिति को समझने के लिए किसी को भेज सकते हो, और विस्तृत अभिलेख बना सकते हो। अगर परिवेश अनुमति देता है, तो इस कार्य के पर्यवेक्षक के पास व्यक्तिगत रूप से जाकर बातचीत करना सबसे अच्छा है; प्रश्न पूछो, जाँच-पड़ताल करो, और इस कार्य की विशिष्ट स्थिति को समझो, और देखो कि कार्य को कितनी अच्छी तरह से कार्यान्वित किया जा रहा है। संक्षेप में, एक बार जब अनुभवजन्य गवाही लेख लिखने के लिए कार्य-व्यवस्था जारी हो जाती है, तो फिर यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे एक या दो महीने में समेटा जा सके। यह कोई अस्थायी कार्य नहीं है, बल्कि दीर्घकालिक कार्य है। ऐसा नहीं है कि कार्य-व्यवस्था जारी हो जाने के बाद अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहले एक या दो महीने ही सिर्फमार्गदर्शन, पर्यवेक्षण, आग्रह और निरीक्षण करके इसे पूरा हो चुका मान लेना चाहिए। बल्कि, उन्हें लंबे समय तक इस कार्य पर लगातार अनुवर्ती कार्रवाई करनी चाहिए। कमजोर कलीसियाई अगुआओं के लिए, उन्हें उनके पास जाकर व्यक्तिगत मार्गदर्शन प्रदान करने की जरूरत होती है। जो कलीसियाई नेता स्वतंत्र रूप से कार्य-व्यवस्था कार्यान्वित कर सकते हैं, उनके लिए उन्हें नियमित निरीक्षणों का अभ्यास करना चाहिए ताकि कार्य की प्रगति को समझा जा सके और उत्पन्न होने वाली समस्याएँ सुलझाई जा सकें। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है। इसलिए, कार्य करने वाले अगुआओं और कार्यकर्ताओं के बारे में एक बात निश्चित है : उनके पास खाली समय कभी नहीं होता है। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता हमेशा सोचते हैं, “कार्य-व्यवस्थाएँ जारी कर दी गई हैं, और मैं उन्हें कार्यान्वित करने के तरीके पर संगति कर चुका हूँ। मैंने अपना कार्य पूरा कर लिया है, अब और कुछ करना बाकी नहीं है। इसलिए मैं कुछ उपयुक्त रोजमर्रा का कार्य करूँगा, जैसे कि खाना पकाने और मेजबानी करने में सहायता करना, या कुछ दैनिक जरूरत का सामान खरीदना जो भाई-बहनों के पास नहीं है।” कार्य-व्यवस्थाएँ जारी करने के बाद वे निठल्ले हो जाते हैं और उन्हें लगता है कि उन्होंने अपना कार्य पूरा कर लिया है और उनके पास करने के लिए और कुछ नहीं है। इससे पता चलता है कि वे नहीं जानते हैं कि कार्य कैसे करना है या विशिष्ट कार्यों का प्रभार कैसे लेना है। दरअसल, एक बार जब परमेश्वर के घर की विभिन्न कार्य-व्यवस्थाएँ जारी हो जाती हैं, तो जब तक ऊपरवाला इन्हें रोकने का आह्वान नहीं करता है, तब तक कार्य जारी रहना चाहिए और उसे बीच में नहीं रोका जा सकता है। मिसाल के तौर पर, अनुभवजन्य गवाही लेख लिखने का कार्य—क्या ऊपरवाले ने इसे रोकने का आह्वान किया है? क्या इस कार्य को रोकने के लिए कोई सूचना दी गई है? (नहीं।) तो, फिर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह कार्य कैसे पूरा करना चाहिए? सिर्फ क्षणिक उत्साह से प्रेरित मत हो। जब कार्य-व्यवस्था पहली बार जारी की जाती है, तो तुम इस कार्य में सहयोग करने के लिए बहुत उत्साही, अग्रसक्रिय और इच्छुक रहते हो। लेकिन, कुछ समय बाद, अगर ऊपरवाला आग्रह नहीं करता है, नए निर्देश जारी नहीं करता है, या इस कार्य-व्यवस्था के लिए आगे कोई निर्देश नहीं देता है, तो हो सकता है कि तुम यह सोचो कि चूँकि ऊपरवाले ने कुछ नई व्यवस्था नहीं की है, इसलिए तुम इस कार्य को नजरअंदाज कर सकते हो। यह स्वीकार्य नहीं है; यह कर्तव्य के प्रति लापरवाही है। इस कार्य को चाहे कितने भी समय से कार्यान्वित किया जा रहा हो, और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उस दौरान क्या ऊपरवाले ने इसके बारे में पूछताछ की है, आग्रह किया है या इस पर जोर दिया है, जब तक यह कार्य तुम्हें सौंपा गया है, तब तक तुम्हें इसकी जिम्मेदारी उठानी चाहिए और इसे लगातार करते रहना चाहिए, इसे अच्छे तरीके से पूरा करना चाहिए। “लगातार” का अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि जब तक ऊपरवाला इसे रोकने का आह्वान नहीं करता है, तब तक अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इस कार्य के लिए निर्बाध और निरंतर मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण, आग्रह, निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करनी चाहिए। जब तक तुम इस्तीफा नहीं देते हो या बर्खास्त नहीं किए जाते हो, जब तक तुम अपने पद पर बने रहते हो, तब तक यह कार्य ऐसा है जिसे अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में तुम्हें अच्छी तरह से करना चाहिए। यह एक ऐसा कार्य भी है जिसे तुम्हें निरंतरकार्यान्वित करना चाहिए और जिस पर लगातार अनुवर्ती कार्रवाई करनी चाहिए। इसका अभ्यास कैसे करना चाहिए? हर बार जब तुम किसी कलीसिया में जाते हो, तो तुम्हें स्थानीय अगुआओं और इस कार्य के पर्यवेक्षक से यह पूछना चाहिए : “इस अवधि के दौरान गवाही लेखों का कार्य कैसा चल रहा है? क्या कोई अच्छे, अपेक्षाकृत मार्मिक गवाही लेख आए हैं? क्या कोई विशेष अनुभवों वाले लेख आए हैं?” अगर वे कहते हैं कि हाँ, ऐसे लेख हैं, तो तुम्हें इन लेखों को उलट-पुलटकर देखना चाहिए। अगर उनमें सचमुच व्यावहारिक अनुभव हैं और वे सही मायने में लोगों को शिक्षित करते हैं, तो उन्हें तुरंत जमा कर देना चाहिए। हर बार जब तुम किसी कलीसिया में जाते हो, तो तुम्हें सबसे पहले इस मामले के बारे में पूछना चाहिए। यह एक विशिष्ट कार्य है जिसे तुम्हें कार्यान्वित करना चाहिए, यह एक दायित्व है जिससे तुम जी नहीं चुरा सकते—यह तुम्हारी जिम्मेदारी है। चाहे ऊपरवाला इस मामले के लिए आग्रह करे या ना करे या इसके बारे में पूछताछ करे या ना करे, यह कार्य उस कार्य में शामिल है जो तुम्हें करना ही होगा। अगर भाई-बहन अपने कर्तव्य करने में व्यस्त हैं और उनके पास गवाही लेख लिखने का समय नहीं है, तो तुम्हें उनसे आग्रह करना चाहिए, और कहना चाहिए, “अच्छे गवाही लेख लिखना परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए बहुत ही फायदेमंद है, और यह एक महत्वपूर्ण कर्तव्य भी है।” लेकिन, कुछ अगुआ कहते हैं, “भाई-बहनों को लगता है कि उन्होंने अपने सभी अनुभव लिख दिए हैं और अब उनके पास लिखने के लिए और कुछ नहीं है।” क्या यह कथन सही है? दरअसल, कई विस्तृत अनुभवों पर लोगों का ध्यान नहीं जाता है और उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है। दूसरों की लिखी अनुभवजन्य गवाहियाँ पढ़ने के बाद ही उन्हें याद आता है कि उन्हें भी ऐसे अनुभव हो चुके हैं। इसलिए, अनुभवजन्य गवाही लेख लिखने के लिए सावधानी से विचार और चिंतन करने की जरूरत पड़ती है। ऐसी कई अनुभवजन्य समझ हैं जो लिखे जाने योग्य हैं। क्या लिखने के लिए समय नहीं होना एक मान्य कारण है? यह एक ऐसा कर्तव्य है जिसे लोगों को करना चाहिए। चाहे वे कितने भी व्यस्त क्यों ना हों, उन्हें लिखने के लिए समय निकालना चाहिए। अगर उन्हें गवाही लेख लिखना नहीं आता है, तो उन्हें उसे किसी और से बोलकर लिखवाना चाहिए ताकि वह उसकी प्रतिलिपि संपादित कर सके, और इस प्रकार एक अच्छा लेख तैयार हो सके। इस तरीके से, तुम्हारे आग्रह और निर्देशन के जरिए, एक और अच्छा अनुभवजन्य गवाही लेख लिखा जाता है। क्या तुम्हें पता है कि यह लेख कितने लोगों को शिक्षित कर सकता है? कितने लोगों को इससे सहायता और फायदा मिल सकता है? अगर तुम पर्यवेक्षण नहीं करते हो और निर्देश नहीं देते हो, और स्थानीय कलीसियाई अगुआओं में भी दायित्व की भावना नहीं है, वे सोचते हैं कि भाई-बहन अपनी सभी अनुभवजन्य गवाहियाँ लिख चुके हैं और अब लिखने के लिए और कोई लेख नहीं है, तो इस अच्छे अनुभवजन्य गवाही लेख की रचना कभी नहीं होगी। कभी-कभी जब तुम किसी कलीसिया में जाते हो, तो कुछ भाई-बहन तुमसे गपशप करते हैं और कहते हैं, “मैंने अपने जीवन में सभी किस्म के कष्ट सहे हैं। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, मुझे भी बहुत सताया गया है। हर कदम पर, परमेश्वर ही मेरी अगुवाई करता रहा है। मैंने परमेश्वर के अद्भुत कर्मों को देखा है, और मुझे यह एहसास हुआ है कि सबकुछ परमेश्वर द्वारा नियत है और परमेश्वर सही मायने में सभी पर संप्रभु है—यह पूरी तरह से सच है!” जब वे तुम्हें अपना अनुभव बता देते हैं, तो फिर तुम पूछते हो कि क्या उन्होंने इसे एक लेख के रूप में लिखा है, और वे कहते हैं, “नहीं, मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूँ और मैं लिख नहीं सकता। इसके अलावा, दूसरे लोग कहते हैं कि यह अनुभव मूल्यवान नहीं है।” “ऐसा अद्भुत अनुभव बिना मूल्य वाला कैसे हो सकता है?” तुम उनसे कहते हो। “अपने अनुभव के हर चरण के बाद, तुमने परमेश्वर की संप्रभुता, परमेश्वर की अगुवाई और परमेश्वर की नियति को गहराई से महसूस किया। कौन-सा अनुभव इससे मूल्यवान हो सकता है? ऐसे अनुभवों को लिख लेना चाहिए और इन्हें छूटने नहीं देना चाहिए।” फिर तुम जल्दी से ज्यादा शिक्षित भाई-बहनों की व्यवस्था करते हो ताकि वे इसकी प्रतिलिपि संपादित करने में उसकी सहायता कर सकें। तीन दिनों में, एक अच्छा और उत्कृष्ट गवाही लेख लिखा जाता है और फिर उस पर एक अनुभवजन्य गवाही वीडियो बनाया जाता है। जो भी इसे देखता है वह कहता है, “इसके मुख्य किरदार का अनुभव शानदार है! इसे देखना कितना शिक्षाप्रद है! यह सही मायने में दिखाता है कि परमेश्वर हर चीज पर संप्रभु है—यह बात बिल्कुल ऐसी ही है! अब इसकी और ज्यादा हद तक पुष्टि हो गई है, और परमेश्वर में हमारी आस्था बढ़ गई है।” दूसरे लोग कहते हैं, “यह अनुभवजन्य गवाही लेख बहुत ही व्यावहारिक रूप से लिखा गया है और बहुत ही मार्मिक है। अगर इस पर एक फिल्म बनाई जाए तो यह और भी बेहतर होगा!” कई भाई-बहन बेसब्री से इस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि इस पर जल्द ही एक फिल्म बनाई जाएगी। इसलिए, क्योंकि अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने कलीसिया का कार्य जिम्मेदारी और निष्ठा से किया, एक हल्की-फुल्की बातचीत से एक अच्छा लेख और फिल्म के लिए अच्छी सामग्री निकल कर आ गई। यह परमेश्वर की संप्रभुता और नियति की गवाही देने के लिए सबसे अच्छी गवाही और सबसे अच्छी विषय-वस्तु है। ऐसी कहानियाँ बहुत-से लोगों की आस्था बढ़ा सकती हैं और बहुत-से लोगों को शिक्षित भी कर सकती हैं! तुम इस तरह से कार्य करने वाले अगुआओं और कार्यकर्ताओं के बारे में क्या सोचते हो? वे अपने कार्य में किसी औपचारिकता का पालन नहीं करते हैं। वे जहाँ भी जाते हैं, वहाँ प्रश्न पूछते हैं, जाँच-पड़ताल करते हैं और भाई-बहनों से बातचीत करते हैं, बिना रौब जमाए उनसे घुलमिल जाते हैं। उनके दिल में ना सिर्फ दायित्व की भावना होती है, बल्कि जिम्मेदारी की भी तीव्र भावना होती है। लगातार ऐसा करने से, वे स्वाभाविक रूप से परिणाम हासिल कर लेते हैं। क्या परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा? ये अच्छे कर्म हैं, है ना? मुझे बताओ, क्या इतना-सा कार्य करना श्रमसाध्य है? क्या इसके लिए कष्ट करने की जरूरत पड़ती है? क्या इसके लिए तलवार की नोक वाले पहाड़ों पर चढ़ने या आग के समुंदर में गोता लगाने की जरूरत पड़ती है? नहीं। यह मुश्किल नहीं है। इसके लिए बस तुम्हें अपना दिल लगाने की जरूरत है। जब तुम्हारे दिल में यह कार्य होता है, तो तुम जहाँ भी जाते हो, वहाँ सवाल पूछते हो और जाँच-पड़ताल करते हो : “कार्य कैसी प्रगति कर रहा है? क्या इस अवधि के दौरान कोई अच्छा गवाही लेख लिखा गया है? जिन भाई-बहनों के पास अनुभव हैं लेकिन उन्होंने अभी तक लेख नहीं लिखे हैं, क्या तुम्हें मालूम है कि उनका कैसे मार्गदर्शन करना है ताकि वे अपने अनुभव बता सकें? क्या तुम्हें मालूम है कि खुद को व्यक्त करने में उनकी कैसे मदद करनी है और लिखने के लिए उनका मार्गदर्शन कैसे करना है?” तुम जहाँ भी जाते हो, वहाँ तुम्हें हमेशा इस मामले के बारे में संगति करनी है, इस कार्य से संबंधित चीजें करनी हैं, और इस कार्य से संबंधित शब्द बोलने हैं। क्या इस तरीके से अभ्यास करने से अगुआओं और कार्यकर्ताओं का कार्य और भरपूर नहीं हो जाता है? क्या ऐसी कोई परिस्थिति हो सकती है जिसमें तुम निठल्ले हो, तुम्हारे पास करने के लिए कोई कार्य नहीं हो? (नहीं।) क्या इस तरह से कार्य करने वाले अगुआ और कार्यकर्ता थक सकते हैं या थकावट से मर सकते हैं? (नहीं।) वे नहीं थकेंगे या थकावट से नहीं मरेंगे, कार्य के परिणाम आएँगे, और परमेश्वर इसे याद रखेगा। अगर तुम इस तरह से कार्य करते हो, तो कई लोग शिक्षित होंगे, और भाई-बहन यह महसूस करेंगे कि अनुभवजन्य गवाही लेख लिखना मूल्यवान और अर्थपूर्ण है। इससे पहले, उन्हें लगता था कि उनके अनुभवों का कोई मूल्य नहीं है, लेकिन तुम्हारे मार्गदर्शन के जरिए, वे समझ गए कि अनुभवजन्य गवाही लेख कैसे लिखने हैं। इससे उनके जीवन प्रवेश को भी फायदा होता है। जब तुम इस तरीके से कार्य करते हो, सिर्फ तभी तुम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ पूरी कर रहे होते हो।

इस बात पर संगति करके कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य का निरीक्षण कैसे करना चाहिए, क्या तुम लोगों ने कार्य का निरीक्षण करना सीख लिया है? कार्य का निरीक्षण करना गलतियाँ ढूँढने या नुक्ताचीनी करने के बारे में नहीं है, बल्कि यह देखने के बारे में है कि कार्य कैसे किया गया है, क्या इसे व्यवस्थित किया गया है, क्या कोई व्यक्ति कार्य का प्रभार ले रहा है, कार्य कैसे प्रगति कर रहा है, यह प्रगति कैसी है, क्या यह सुचारू रूप से चल रहा है, क्या कार्य सिद्धांतों के अनुसार किया जा रहा है, क्या यह परिणाम देता है, वगैरह-वगैरह। साथ ही, तुम्हें कार्य की प्रभावशीलता का पर्यवेक्षण, समीक्षा और मूल्यांकन करने की जरूरत है, और फिर इससे कार्य को कार्यान्वित करने के लिए बेहतर और ज्यादा उपयुक्त तरीके ढूँढने होंगे। अनुभवजन्य गवाही लेख लिखने की व्यवस्था जैसी किसी कार्य-व्यवस्था के लिए, जब तक ऊपरवाले ने इसे रोकने का आह्वान नहीं किया है, तब तक इस कार्य पर लगातार अनुवर्ती कार्रवाई करने और इसे कार्यान्वित करने की जरूरत है, और यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद है। अगर कुछ लोगों को लगता है कि पहले से ही पर्याप्त अनुभवजन्य गवाहियाँ मौजूद हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोग उन सभी को नहीं पढ़ सकते हैं, तो फिर क्या इस कार्य को रोका जा सकता है? इसे नहीं रोका जा सकता है। अनुभवजन्य गवाहियाँ जितनी ज्यादा हों, उतना ही बेहतर है; ये जितनी ज्यादा होंगी, उतनी ही भरपूर होंगी—यही चीज परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सबसे ज्यादा सहायता करती है। कुछ नए विश्वासी इन अनुभवजन्य गवाहियों को पढ़ने के बाद जान जाएँगे कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करना है। अनुभव की एक अवधि से गुजरने और परिणाम प्राप्त करने के बाद, वे स्वाभाविक रूप से अनुभवजन्य गवाही लेख लिखने में समर्थ हो जाएँगे। उथले अनुभवों वाले कुछ लोग भी अपेक्षाकृत गहरी अनुभवजन्य गवाहियाँ पढ़कर शिक्षित हो सकते हैं, और वे गहरे अनुभव प्राप्त कर सकते हैं और बेहतर गवाही लेख लिख सकते हैं। इन गवाहियों से धर्म के लोगों और परमेश्वर के घर में परमेश्वर के चुने हुए लोगों दोनों को ही फायदा होता है। इसलिए, अनुभवजन्य गवाही लेख लिखने का कार्य कभी नहीं रुक सकता है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इस कार्य पर लगातार अनुवर्ती कार्रवाई करनी चाहिए और इसे किसी भी कारण या बहाने से नहीं रोकना चाहिए। यह कलीसिया में कार्य की एक महत्वपूर्ण मद है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अनुभवजन्य गवाही लेख लिखने में अगुवाई करनी चाहिए। यह अभ्यास इस बात को सबसे अच्छी तरह से प्रकट करता है कि उनके पास सत्य वास्तविकता है या नहीं। अगर वे अनुभजन्य गवाही लेख नहीं लिख सकते हैं, तो वे अगुआओं या कार्यकर्ताओं के रूप में मानक स्तर के नहीं हैं और वास्तविक कार्य नहीं कर सकते हैं; उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए और हटा देना चाहिए। यह कार्य अच्छी तरह से करने के बाद, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य की प्रगति के बारे में पूछताछ करने के लिए लगातार विभिन्न कलीसियाओं का दौरा करने की जरूरत है। वे प्रश्न पूछ सकते हैं और कार्य के बारे में जान सकते हैं : “तुम लोगों की कलीसिया में कई भाई-बहन जो अपने अनुसरण के बारे में अपेक्षाकृत गंभीर हैं, उन सभी के पास कुछ अनुभव हैं—क्या वे कुछ गवाही लेख लिख सकते हैं?” उन्हें उन लोगों से भी पूछना चाहिए जिन्होंने अभी-अभी सच्चा मार्ग स्वीकार किया है कि कैसे उन्होंने इसकी जांच की और इसे स्वीकार करना शुरू कर दिया, और क्या वे इस बारे में अपने विचार लिख सकते हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को न सिर्फ इस कार्य के बारे में लगातार में पूछताछ करने, जानने, इस पर अनुवर्ती कार्रवाई करने और इसे कार्यान्वित करने की जरूरत है, बल्कि उन्हें यह भी निरीक्षण करने की जरूरत है कि कार्यान्वयन कितनी अच्छी तरह से किया जा रहा है : “इस अवधि के दौरान, क्या तुम लोगों ने इस कार्य को करने के लिए लोगों की नियुक्ति की है? कितने अनुभवजन्य गवाही लेख लिखे गए हैं? कितने लेख मानक स्तर के हैं? मानक स्तर के लेखों का अनुपात क्या है?” पर्यवेक्षक उत्तर देता है : “पिछली संगति के बाद, हमारी कलीसिया में पहले से ही कुछ अनुभवजन्य गवाही लेख लिखे जा चुके हैं, और कुछ लेख जो मानक स्तर के हैं, उन्हें जमा कर दिया गया है। हम यह कार्य लगातार किए जा रहे हैं।” यह अच्छा है; इसका अर्थ यह है कि तुमने यह कार्य उचित रूप से किया है। इस बात का ध्यान रखते हुए, क्या किसी कलीसिया के सच्चे अनुभवजन्य गवाही लेख तैयार कर पाने और अगुआओं और कार्यकर्ताओं की भूमिका के बीच कोई सीधा संबंध है? एक लिहाज से, तुम्हें कार्य के इस पहलू पर लगातार संगति करने की जरूरत है; दूसरे लिहाज से, तुम्हें खुद एक मिसाल बनकर अगुवाई करने, कार्य के बारे में लगातार पूछताछ करने और कार्य में भाग लेने और उसका अनुसरण करने की भी जरूरत है। एक अवधि तक अनुवर्ती कार्रवाई करने और फिर इस कलीसिया से चले जाने के बाद, तुम्हें कार्यान्वयन का निरीक्षण करने के लिए बाद में वापस आना चाहिए। क्या अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऐसा ही नहीं करना चाहिए? यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है।

परमेश्वर के घर द्वारा जारी की गई हर कार्य-व्यवस्था के साथ अगुआओं और कार्यकर्ताओं को गंभीरता से पेश आना चाहिए और इसे गंभीरता से कार्यान्वित करना चाहिए। अपने द्वारा किए गए तमाम कार्य की तुलना और निरीक्षण करने के लिए उन्हें कार्य-व्यवस्थाओं का बार-बार उपयोग करना चाहिए। उन्हें यह भी जाँचना चाहिए और विचार करना चाहिए कि इस अवधि के दौरान उन्होंने कौन-से कार्य अच्छी तरह से नहीं किए हैं या उचित रूप से कार्यान्वित नहीं किए हैं। कार्य-व्यवस्थाओं द्वारा सौंपा गए और अपेक्षित किसी भी कार्य के प्रति लापरवाही की गई है, तो उन्हें उसकी तुरंत भरपाई करनी चाहिए और उसके बारे में पूछताछ करनी चाहिए। अगर वे किसी विशिष्ट कार्य में व्यस्त हैं और समय नहीं निकाल सकते हैं, तो वे दूसरों को उस कार्य का निरीक्षण करने और उस पर अनुवर्ती कार्रवाई करने की जिम्मेदारी सौंप सकते हैं जिसे अच्छी तरह से नहीं किया गया है। उन्हें सिर्फ आदेश जारी करके यह नहीं सोचना चाहिए कि कार्य सौंपने और व्यवस्थित करने के बाद कार्य पूरा हो गया है, और फिर बस चुपचाप देखते नहीं रहना चाहिए। अगुआ होने के नाते, तुम सिर्फ एक कार्य विशेष के लिए ही नहीं, बल्कि संपूर्ण कार्य के लिए जिम्मेदार हो। अगर तुम देखते हो कि एक खास कार्य विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, तो तुम उस कार्य की देखरेख कर सकते हो, लेकिन तुम्हें दूसरे कार्यों का निरीक्षण करने, निर्देश देने और अनुवर्ती कार्रवाई करने के लिए भी समय निकालना होगा। अगर तुम सिर्फ एक कार्य अच्छी तरह से करके संतुष्ट हो जाते हो और फिर चीजों को पूरा हो चुका मान लेते हो, और दूसरे कार्यों की परवाह किए या उनके बारे में पूछे बिना उन्हें दूसरे लोगों को सौंप देते हो, तो यह गैर-जिम्मेदार व्यवहार है और कर्तव्य के प्रति लापरवाही है। अगर तुम एक अगुआ हो, तो फिर चाहे तुम कितने भी कार्यों के लिए जिम्मेदार क्यों ना हो, यह तुम्हारी जिम्मेदारी है कि तुम लगातार उनके बारे में प्रश्न पूछो और जाँच-पड़ताल करो, और साथ ही चीजों की जाँच भी करो और समस्याएँ उत्पन्न होने पर उन्हें तुरंत हल करो। यह तुम्हारा कार्य है। और इसलिए, चाहे तुम कोई क्षेत्रीय अगुआ हो या जिला अगुआ, कलीसिया अगुआ या कोई टीम अगुआ या निरीक्षक, एक बार जब तुम अपनी जिम्मेदारियों के दायरे के बारे में जान जाते हो, तो तुम्हें बार-बार जाँच करनी चाहिए कि क्या तुम वास्तविक कार्य कर रहे हो, क्या तुमने वे जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं जो एक अगुआ या कार्यकर्ता को पूरी करनी चाहिए, साथ ही—तुम्हें सौंपे गए कार्यों में से—तुमने कौन से कार्य नहीं किए हैं, कौन से तुम नहीं करना चाहते हो, किन कार्यों ने खराब परिणाम दिए हैं और किन कार्यों के सिद्धांतों को समझने में तुम विफल रहे हो। तुम्हें इन सभी चीजों की अक्सर जाँच करनी चाहिए। साथ ही, तुम्हें अन्य लोगों के साथ संगति करना और उनसे प्रश्न पूछना, और परमेश्वर के वचनों और कार्य-व्यवस्थाओं में कार्यान्वयन के लिए एक योजना, सिद्धांतों और अभ्यास के लिए एक मार्ग की पहचान करना सीखना चाहिए। किसी भी कार्य व्यवस्था के संबंध में, चाहे वह प्रशासन, कर्मियों, या कलीसियाई जीवन से, या फिर किसी भी किस्म के पेशेवर कार्य से संबंधित क्यों ना हो, अगर यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों का जिक्र करता है, तो यह एक ऐसी जिम्मेदारी है जिसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पूरी करनी पड़ेगी, और यह उसी के दायरे में आती है जिसके लिए अगुआ और कार्यकर्ता जिम्मेदार हैं—यही वे नियत कार्य हैं जो तुम्हें संभालने चाहिए। स्वाभाविक रूप से, प्राथमिकताएँ परिस्थिति के आधार पर नियत की जानी चाहिए; कोई भी कार्य पिछड़ नहीं सकता है। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कहते हैं, “मेरे पास तीन सिर और छह हाथ नहीं हैं। कार्य-व्यवस्था में बहुत सारे नियत कार्य हैं; अगर मुझे उन सभी का प्रभार दे दिया गया, तो मैं बिल्कुल भी संभाल नहीं पाऊँगा।” अगर कुछ ऐसे नियत कार्य हैं जिनमें तुम व्यक्तिगत रूप से शामिल नहीं हो सकते हो, तो क्या तुमने उन्हें करने के लिए किसी और की व्यवस्था की है? यह व्यवस्था करने के बाद, क्या तुमने अनुवर्ती कार्रवाई की और पूछताछ की? क्या तुमने उनके कार्य का परेक्षण किया? यकीनन तुम्हारे पास पूछताछ करने और परेक्षण करने का समय था? तुम्हारे पास बिल्कुल था! कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कहते हैं, “मैं एक समय में सिर्फ एक ही कार्य कर सकता हूँ। अगर तुम मुझसे परेक्षण करने के लिए कहते हो, तो मैं एक समय में सिर्फ एक ही कार्य का परेक्षण कर पाऊँगा; इससे ज्यादा करना असंभव है।” अगर ऐसी बात है, तो तुम निकम्मे हो, तुम्हारी काबिलियत बेहद खराब है, तुम्हारे पास कार्य क्षमता बिल्कुल नहीं है, तुम अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए उपयुक्त नहीं हो, और तुम्हें इस्तीफा दे देना चाहिए। बस कुछ ऐसा कार्य करो जो तुमसे मेल खाता है—कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन विकास में देरी मत करवाओ क्योंकि तुम्हारी काबिलियत कार्य करने के लिए बहुत ही खराब है; अगर तुम्हारे पास यह सूझ-बूझ नहीं है, तो इसका मतलब है कि तुम स्वार्थी और घिनौने हो। अगर तुम साधारण काबिलियत वाले हो लेकिन तुम परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील हो सकते हो, तुम प्रशिक्षण लेने के लिए तैयार हो, और तुम्हें इस बारे में यकीन नहीं है कि तुम कार्य को अच्छी तरह से कर सकते हो, तो फिर तुम्हें अच्छी काबिलियत वाले कुछ लोगों की तलाश करनी चाहिए जो कार्य में तुम्हारा सहयोग कर सकें। यह एक अच्छा दृष्टिकोण है, और इसे सूझ-बूझ का होना माना जाता है। अगर तुम्हारी काबिलियत बहुत ही खराब है और तुम सचमुच इस कार्य की जिम्मेदारी उठाने में असमर्थ हो, और फिर भी इस पद पर बैठे रहना और इसके फायदों का आनंद लेते रहना चाहते हो, तो तुम स्वार्थी और नीच हो। अगुआओं और कर्मियों में जमीर और सूझ-बूझ होनी चाहिए—यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। अगर उनमें इतनी भी मानवीयता न हो, तो वे अगुआ या कार्यकर्ता बिल्कुल नहीं बन सकते हैं, और अगर वे थोड़ा सा कार्य कर भी लेते हैं, तो भी वे झूठे अगुआ ही होंगे जो सिर्फ परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाएँगे और कलीसिया के कार्य को खतरे में डालेंगे। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखना चाहिए; उन्हें बिल्कुल भी तानाशाही नहीं करनी चाहिए और सभी चीजों की जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेनी चाहिए, ऐसा करने से अंत में वे कोई भी कार्य अच्छी तरह से नहीं कर पाएँगे और कलीसिया के पूरे कार्य, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में भी देरी हो जाएगी। क्या यह बहुत बड़ा अपराध नहीं होगा? इसलिए, बहुत खराब काबिलियत वाले लोग अगुआ और कार्यकर्ता बिल्कुल नहीं बन सकते हैं। जिन लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है और जो परमेश्वर के इरादों का ध्यान नहीं रख सकते हैं, वे तो और भी अगुआ और कार्यकर्ता नहीं बन सकते हैं; उन्हें किसी भी कार्य का प्रभारी नहीं बनाया जा सकता है। अगुआ और कार्यकर्ता होने के नाते, आत्म-जागरूकता का होना महत्वपूर्ण है। अगर तुम वास्तविक कार्य नहीं कर सकते हो, लेकिन फिर भी सभी चीजों की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेना चाहते हो, और रुतबे के फायदों का आनंद लेना पसंद करते हो, तो यह एक झूठे अगुआ की सटीक परिभाषा है, और तुम्हें बर्खास्त कर देना चाहिए और हटा देना चाहिए।

परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के संबंध में अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों पर संगति करने के बाद, क्या अब तुम लोगों के पास इस बात का कोई मार्ग है कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य-व्यवस्थाओं के साथ कैसे पेश आना चाहिए और उन्हें कैसे कार्यान्वित करना चाहिए? (हाँ।) क्या इसमें कोई कठिनाइयाँ हैं? अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिन जिम्मेदारियों के बारे में हमने संगति की है, कुछ लोग उनमें नियत विभिन्न कार्यों के शायद सिर्फ एक या दो पहलुओं पर ही ध्यान केंद्रित कर पाएँ, जबकि दूसरे लोग शायद एक या दो पहलुओं को भी पूरा करने में समर्थ ना हों। जो अगुआ और कार्यकर्ता कार्य के एक या दो पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं, अगर उनमें पर्याप्त काबिलियत है और वे कार्य के दूसरे पहलुओं पर अनुवर्ती कार्रवाई करना भी सीख सकते हैं, तो वे मूल रूप से मानक स्तर के हैं। लेकिन, अगर वे सिर्फ धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करने और सभाएँ आयोजित करने के स्तर पर ही ठहरे रहते हैं, और विशिष्ट कार्य नहीं कर सकते हैं, और जब उनसे विशिष्ट कार्यों का निरीक्षण करने और अनुवर्ती कार्रवाई करने में भाग लेने के लिए कहा जाता है, तो वे चिंतित हो जाते हैं, उनके पास अनुसरण करने के लिए कोई योजना, चरण, या मार्ग नहीं होता है, वे नहीं जानते हैं कि क्या करना है, तो यह खराब काबिलियत दर्शाता है। क्या खराब काबिलियत वाले लोग कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित कर सकते हैं? (नहीं।) ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता मानक स्तर के नहीं हैं। तुम लोगों को ऐसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं से कैसे निपटना चाहिए? उनसे कहो, “कार्य-व्यवस्थाएँ जारी कर दी गई हैं, और हमें इस बात की स्पष्ट समझ है कि किन कार्यों का निर्वहन करना है और कौन-से सिद्धांत कायम रखने हैं, लेकिन तुम्हें यह नहीं पता है कि क्या करना है और तुम्हारे पास अनुसरण करने के लिए कोई मार्ग नहीं है। और फिर भी तुममें संगति करने और हमें धर्मोपदेश देने की बेशर्मी है। तुम्हें तुरंत इस्तीफा दे देना चाहिए! तुम अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लायक नहीं हो, तुम यह जिम्मेदारी पूरी नहीं कर सकते हो। जल्दी से इसे किसी योग्य व्यक्ति को सौंप दो! यहाँ नारे लगाना बंद करो, कोई सुनना नहीं चाहता है!” क्या इसे संभालने का यह उचित तरीका है? (हाँ।) अगर तुम कार्य नहीं कर सकते हो, तो आँख मूंदकर नारे लगाने का क्या अर्थ है! हर व्यक्ति कार्य-व्यवस्थाओं में दिए गए शब्दों को पढ़ सकता है; हर व्यक्ति धर्म-सिद्धांत बोल सकता है—यह पूरी तरह से इस बारे में है कि तुम वास्तव में इसे कैसे करते हो। अगर तुम इसे नहीं कर सकते हो, तो तुम अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए उपयुक्त नहीं हो। कोई भी कार्य एक जमा एक बराबर दो होने जितना आसान नहीं होता है। हर कार्य के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को विशिष्ट परिस्थिति के आधार पर सिद्धांतों के दायरे में विशिष्ट कार्यान्वयन योजनाएँ बनाने की जरूरत होती है। साथ ही, उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि कार्य को उचित रूप से कार्यान्वित करने, कार्य-व्यवस्थाओं की अपेक्षाएँ पूर्ण रूप से पूरी करने, उनके सफल होने और परिणाम देने तक निगरानी, निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई कैसे करनी है। सिर्फ तभी वे अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ पूरी कर चुके होते हैं; सिर्फ तभी वे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में मानक पर खरे उतरते हैं।

कार्य-व्यवस्थाओं के संबंध में झूठे अगुआओं का रवैया और अभिव्यक्तियाँ

हमने अभी-अभी इस बारे में संगति की कि जब कार्य-व्यवस्थाओं की बात आती है, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं की क्या जिम्मेदारियाँ हैं। इसके बाद, हम इस बारे में संगति करेंगे कि झूठे अगुआओं की क्या अभिव्यक्तियाँ होती हैं। तुम लोग जिन झूठे अगुआओं से मिले हो, उनका कार्य-व्यवस्थाओं के प्रति क्या रवैया है? वे कौन-से क्रियाकलाप और अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं? आम तौर पर झूठे अगुआ कार्य-व्यवस्थाओं के शब्दों से समझ जाते हैं कि क्या करना चाहिए, ऊपरवाले की विशिष्ट अपेक्षाएँ क्या हैं, और विशिष्ट कार्य परियोजनाएँ क्या हैं, लेकिन वे इसे सिर्फ धर्म-सिद्धांत के संबंध में समझते हैं। वे अब भी कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने के लिए विशिष्ट सिद्धांतों, मानकों और अभ्यास के मार्गों को नहीं समझते हैं या पूरी तरह से महसूस नहीं करते हैं। कार्य-व्यवस्थाएँ मिलने के बाद, इस बारे में संगति करके कि कार्य कैसे करना है और कार्य-व्यवस्थाएँ कैसे जारी और कार्यान्वित करनी हैं, वे औपचारिकताएँ भी निभाते हैं। लेकिन, चाहे वे कितनी भी संगति क्यों ना करें, यह कार्य-व्यवस्थाओं की सिर्फ शाब्दिक, धर्म-सैद्धांतिक समझ ही होती है। जहाँ तक इन पहलुओं की बात है कि कार्य-व्यवस्थाओं को विशिष्ट रूप से कार्यान्वित कैसे किया जाए और क्या परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं, साथ ही, अगर वे कार्य करने के लिए कुछ खास लोगों को चुनते हैं या इसे कार्यान्वित करने के लिए एक खास योजना चुनते हैं, तो कार्यान्वयन कितना प्रभावी होगा, या कार्य-व्यवस्थाओं द्वारा अपेक्षित लक्ष्य और परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं या नहीं, वे इन पहलुओं के बारे में वे बेखबर और अस्पष्ट होते हैं। जब झूठे अगुआ कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित करते हैं, तो आम तौर पर वे बस एक सभा आयोजित करते हैं जहाँ वे कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते हैं, कार्य सौंपते हैं, परमेश्वर की कुछ अपेक्षाओं का जिक्र करते हैं और फिर सभी से उनका दृढ़ संकल्प व्यक्त करने के लिए कहते हैं। वे इसे अपना कार्य करना मानते हैं। उनका मानना है कि एक बार जब उन्होंने कार्य सौंप दिया है, किसी को प्रभारी के रूप में नियुक्त कर दिया है, और परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित परिणामों का जिक्र कर दिया है, तो उन्होंने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी है। फिर वे पूरी तरह से निश्चिन्त महसूस करते हैं, जैसे यह कार्य पूरा हो गया हो। उन्हें यह बिल्कुल पता नहीं होता है कि कार्य का निरीक्षण कब करना है, कार्य में क्या समस्याएँ और कठिनाइयाँ आ सकती हैं, और कौन-सी समस्याएँ नीचे के लोगों द्वारा सुलझाई जा सकती हैं और कौन-सी नहीं। उन्हें यह भी नहीं पता है कि किन महत्वपूर्ण कार्यों पर अनुवर्ती कार्रवाई की जानी चाहिए और मार्गदर्शन प्रदान किया जाना चाहिए। मिसाल के तौर पर, निगरानी, आग्रह और निरीक्षण करने जैसे महत्वपूर्ण चरणों का विचार झूठे अगुआओं के दिमाग में कभी नहीं आता है। थोड़े बेहतर झूठे अगुआ, जिनके पास तुलनात्मक रूप से कुछ जमीर होता है और जो मुफ्तखोरी नहीं करना चाहते हैं, वे मानते हैं कि उन्हें कुछ कार्य करना चाहिए। वे कलीसिया का दौरा करेंगे और भाई-बहनों से पूछेंगे कि क्या उन्हें कोई समस्या है। कोई उन्हें बताता है, “हम भाई-बहन जब साथ होते हैं, तो हमारे बीच अक्सर विवाद होते रहते हैं। जब हमारी राय भिन्न होती हैं, तो हम लगातार बहस करते हैं और उग्रता प्रकट करते हैं।” झूठा अगुआ कहता है, “इसे सुलझाना आसान है,” और फिर वह एक सभा आयोजित करता है, जहाँ वह संगति करता है : “लोगों को संयम और धैर्य सीखना चाहिए; लोगों को विनम्र होना सीखना चाहिए, उन्हें घमंडी नहीं होना चाहिए, और समर्पण सीखना चाहिए। यह परमेश्वर का इरादा है। जो कोई भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है, उसे खुद पर विचार करना चाहिए और काट-छाँट स्वीकार करनी चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार नहीं जीना चाहिए।” इस सारे धर्म-सिद्धांत के बारे में संगति करने के बाद वह कहता है, “बाकी मुद्दों को तुम लोग खुद ही संभाल सकते हो। मैं तकनीकी मामलों में ज्यादा कुशल नहीं हूँ। जो भी हो, मैंने यह सभा तुम लोगों के लिए आयोजित की है; तुम लोगों को जैसे ठीक लगे बस वैसे ही यह कार्य करो। यहाँ मुख्य और महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें अपने कर्तव्य करने में वफादार रहना है और अपने खुद के विचारों से चिपके नहीं रहना है।” यह सुनने के बाद, लोग सोच-विचार करते हैं और कहते हैं, “हमारी समस्या सिर्फ भ्रष्टता, उग्रता और स्वार्थी इच्छाएँ प्रकट करना ही नहीं है, बल्कि यह भी है कि हम कुछ तकनीकी मुद्दों के बारे में अनिश्चित और अस्पष्ट हैं और यह नहीं जानते हैं कि सिद्धांतों के अनुसार कैसे कार्य करना है। यह समस्या सुलझी नहीं है!” झूठा अगुआ उत्तर देता है, “परमेश्वर के वचनों को और पढ़ो। एक बार जब तुम्हारे द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव सुलझ जाएँगे, तो ये मुद्दे भी सुलझ जाएँगे।” झूठे अगुआ जिस कार्य में सबसे ज्यादा माहिर होते हैं, वह है धर्म-सिद्धांत बड़बड़ाना और नारे लगाना। वे उन समस्याओं का अंदाजा नहीं लगाते हैं जो कार्य में बार-बार उत्पन्न हो सकती हैं। जब कोई व्यक्ति कोई मुद्दा उठाता है, तो उनके पास सिर्फ एक ही समाधान होता है, और वह है कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से समझा देना, फिर कुछ उपदेश या सलाह देना, और यह मान लेना कि यह पूरा हो चुका है। वे कोई खास योजना पेश नहीं कर पाते हैं और सही मार्गदर्शन और सहायता नहीं दे पाते हैं। क्या झूठे अगुआओं का कार्य साधारण और आसान नहीं है? वे जहाँ भी जाते हैं वहाँ सिर्फ उपदेश देते हैं, मुख्य रूप से धर्म-सिद्धांत बोलने और नारे लगाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं के बीच यह स्थिति काफी आम है, है ना? वे विशिष्ट कार्य कार्यान्वित नहीं कर सकते हैं और उन्हें नहीं पता होता है कि जारी की गई कार्य-व्यवस्थाएँ कैसे पूरी करनी हैं, कैसे कार्यान्वित करनी हैं या उन पर अनुवर्ती कार्रवाई कैसे करनी है। उन्हें यह नहीं पता होता है कि उनकी कार्य जिम्मेदारियाँ क्या हैं या उन्हें कौन-से कार्यों का निर्वहन करना चाहिए। जब उनसे विशिष्ट कार्य करने के लिए कहा जाता है, तो वे सिर्फ नारे लगाते हैं। जब कोई व्यक्ति कोई मुद्दा उठाता है, तो वे इसे उपदेश देना शुरू करने के एक अवसर के रूप में लेते हैं। अगर कोई ऐसा महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया जाता है जिसे वे सुलझा नहीं सकते हैं, तो वे लोगों की काट-छाँट करने और उन्हें फटकारने का सहारा लेते हैं। उनके पास कोई दूसरे समाधान नहीं होते हैं और वे कार्य में उत्पन्न होने वाली समस्याओं और विचलनों को बिल्कुल भी सुलझा नहीं पाते हैं। यह झूठे अगुआओं की एक मुख्य विशेषता है। ऐसे भी झूठे अगुआ होते हैं जिन्हें कोई कार्य-व्यवस्था कार्यान्वित करने और कार्य के दौरान यह निरीक्षण करने के लिए कहा जाता है कि कौन-सी कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं—अगर वे इन कठिनाइयों को सुलझा सकते हैं, तो उन्हें यह तुरंत करना चाहिए; अगर वे ऐसा नहीं कर सकते हैं, तो वे कुछ प्रश्न इकट्ठा करके ऊपर से मार्गदर्शन माँग सकते हैं, और ऊपरवाला उन्हें सुलझा देगा। लेकिन होता यह है कि जब वे इस कार्य में भाग लेने के लिए कार्य स्थल पर जाते हैं, तो वे दिन भर सभी को सभाओं के लिए बुलाते रहते हैं, और यह पता लगाने के अलावा कि किसका किससे विवाद है, कौन हमेशा किससे बहस करता है, किसकी मानवता बहुत अच्छी नहीं है, किसकी समझ विकृत है, कौन घमंडी है और हमेशा अपने विचारों से चिपका रहता है, कौन पेटू और आलसी है, कौन अविश्वासियों जैसा दिखता है, और कौन कुकर्मी हैं, वे कार्य को कार्यान्वित करने में उत्पन्न होने वाली किसी भी समस्या या कठिनाई की पहचान नहीं कर पाते हैं, और ना ही वे इन मुद्दों को देख पाते हैं। क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता अपना कार्य पूरा कर सकते हैं? (नहीं।) तो समस्या कहाँ है? (उनकी काबिलियत बहुत ही खराब है, उनमें भेद पहचानने की बिल्कुल क्षमता नहीं है, और वे समस्याओं की पहचान नहीं कर सकते हैं।) तुम लोगों के आसपास ऐसे कितने अगुआ हैं? क्या तुम लोगों के अगुआ समस्याओं की पहचान कर सकते हैं? अगर कोई कार्य-व्यवस्था जारी की जाती है और अगुआ और कार्यकर्ता कार्य-व्यवस्था को कार्यान्वित करने के लिए किसी विशिष्ट योजना या चरणों के बिना सिर्फ नारे लगाते हैं और उपदेश देते हैं, यह नहीं जानते हैं कि कार्य कैसे करना है, तो कार्य कार्यान्वित नहीं किया जा सकता है। यह प्रभावी रूप से निरर्थक हो जाता है। कलीसिया में कार्य-व्यवस्था कितनी अच्छी तरह से कार्यान्वित की जाती है और उसकी प्रभावशीलता कितनी है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या अगुआ और कार्यकर्ता वास्तविक कार्य कर सकते हैं। अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं में अच्छी काबिलियत, कार्य क्षमता और निष्ठा है, तो कार्य-व्यवस्था अच्छी तरह से कार्यान्वित की जाएगी। अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं में खराब काबिलियत है, वे भ्रमित हैं, और उनमें कार्य क्षमता का अभाव है, तो चाहे कलीसिया में कार्य के उस क्षेत्र का कोई प्रतिभाशाली व्यक्ति क्यों ना हो या भाई-बहन सहयोग करने के लिए कितने भी इच्छुक क्यों ना हों, कार्य-व्यवस्था कार्यान्वित नहीं की जा सकती है, परिणाम प्राप्त करने की तो बात ही छोड़ दो।

झूठे अगुआओं का कार्य सिर्फ वहीं तक सीमित रहता है जो लोग सतह पर देख पाते हैं। यहाँ तक कि जब वे कार्य-व्यवस्था को कार्यान्वित करते हैं, तो भी यह सिर्फ एक औपचारिकता के रूप में होता है, और उसके बाद किसी भी तरह की अनुवर्ती कार्रवाई या निरीक्षण नहीं किया जाता है। उनका कार्य सिर्फ औपचारिकता निभाने के स्तर पर ही ठहरा रहता है; इसके पीछे कोई वास्तविक शक्ति नहीं होती है और यह कोई भी परिणाम प्राप्त करने में विफल रहता है। मिसाल के तौर पर, अनुभवजन्य गवाही लेख लिखने के कार्य के संबंध में, यह कार्य-व्यवस्था मिलने के बाद, झूठा अगुआ संगति करने के उद्देश्य से लोगों को सभाओं के लिए बुलाता है और कार्य-व्यवस्था के बारे में उनके उन विभिन्न प्रश्नों का समाधान करता है जिन्हें वे समझ नहीं पाते हैं। जब वह धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करना समाप्त कर लेता है और ऐसा लगता है कि लोग समझ गए हैं, तो झूठा अगुआ सोचता है, “यह कार्य सौंप दिया गया है, तो अब मुझे क्या करना चाहिए? चूँकि परमेश्वर का घर अनुभवजन्य गवाही लेख लिखने की अपेक्षा करता है, इसलिए मुझे भी लिखने की जरूरत है। अगर मैंने नहीं लिखा, तो क्या लोग अगुआ के रूप में मेरे बारे में नकारात्मक राय नहीं बना लेंगे?” वह घर पर इस बारे में सोचता है कि क्या लिखना है और एक दिन गुजर जाने के बाद भी वह कुछ नहीं लिख पाता है। वह सोचता है, “लेख लिखना काफी चुनौतीपूर्ण है। आम तौर पर, मुझे लगता है कि मेरे पास अनुभव हैं, लेकिन जब मैं लिखना शुरू करता हूँ तो वे गायब क्यों हो जाते हैं? वे अनुभव कहाँ चले गए? नहीं, मेरे पास अनुभव बिल्कुल हैं, बस लिखने का तरीका मुझे चक्कर में डाल रहा है। मैं बहुत ज्यादा बाहर जा रहा हूँ और लोगों से बातचीत कर रहा हूँ, जिससे मेरा ध्यान भटक रहा है, और ध्यान देना मुश्किल हो रहा है। मैं हमेशा लोगों के साथ संगति और कार्य पर चर्चा नहीं कर सकता; नहीं तो, मेरा मन भटकता रहेगा, और मैं यह लेख नहीं लिख पाऊँगा। मुझे इसे उचित रूप से लिखने के तरीके के बारे में ध्यान से सोचने के लिए कुछ शांत समय निकालना होगा, उसी के बाद मैं लिख पाऊँगा।” उसने लेख लिखने को अपना मुख्य कार्य बना लिया है और एक अगुआ या कार्यकर्ता को जो कार्य करना चाहिए उसे गौण कार्य मान लिया है। वह सारा दिन घर पर लेख लिखने में बिता देता है, कार्य के कार्यान्वयन पर कोई ध्यान नहीं देता है और यह जानने या समझने का प्रयास नहीं करता है कि विभिन्न कलीसियाओं में कितने लोग लेख लिख सकते हैं या कार्य का निर्देशन और परेक्षण करने के लिए उपयुक्त लोग हैं या नहीं—उसे इन चीजों के बारे में कोई अंदाजा नहीं होता है। एक महीना गुजर जाता है, और ना सिर्फ उसने खुद कोई लेख नहीं लिखा होता है, बल्कि उसे यह भी नहीं पता होता है कि कलीसिया में यह कार्य कैसी प्रगति कर रहा है। यहाँ क्या समस्या है? कार्य-व्यवस्था जारी होने के बाद, खराब काबिलियत वाले कुछ कलीसियाई अगुआ वास्तविक कार्य करना नहीं जानते हैं। इस व्यक्ति की तरह, वे बस कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते हैं और नारे लगाते हैं, और बस हो गया। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि भाई-बहन लिखने के इच्छुक हैं या नहीं; ये अगुआ उनसे आग्रह नहीं करते हैं या उनका मार्गदर्शन नहीं करते हैं, उन्हें सुधारना तो दूर की बात है। और झूठा अगुआ ऐसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं से कोई सरोकार नहीं रखता है। कुछ भाई-बहन एक तरह का और कुछ भाई-बहन दूसरी तरह का लेख लिखते हैं, लेकिन यह परेक्षण करने के लिए कोई नहीं है कि क्या वे जो लिखते हैं वह व्यावहारिक है और सिद्धांतों के अनुसार है। भाई-बहन सिद्धांतों को नहीं समझते हैं और वे नहीं जानते हैं कि किससे पूछना है; वे सिर्फ इसलिए लिखते हैं क्योंकि उन्हें ऐसा करने के लिए कहा गया है, वे परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन करते हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं जिनके पास अनुभव तो है लेकिन शिक्षा का अभाव है; इन लोगों के पास उनके लेखों की प्रतिलिपि संपादित करने में सहायता करने वाला कोई नहीं है, और कोई भी इस मामले के लिए व्यवस्था नहीं करता है। तमाम किस्म की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, और अगुआ और कार्यकर्ता कहाँ हैं? वे क्या कर रहे हैं? वे “एकांत” में लेख लिख रहे हैं! झूठे अगुआ यह नहीं जानते हैं कि उन्हें किस कार्य में व्यस्त रहना चाहिए या उन्हें किन कार्यों का निर्वहन करना चाहिए। कलीसिया में कार्य-व्यवस्थाएँ विभिन्न तरीकों से कार्यान्वित की जाती हैं, इनके साथ पेश आने के तरीके अलग-अलग होते हैं, और वे इसके बारे में कोई पूछताछ नहीं करते हैं। जब भाई-बहन अपने कर्तव्य करते हुए विभिन्न समस्याओं का सामना करते हैं और इन समस्याओं की सूचना उन्हें देते हैं, तो वे उन्हें नहीं सुलझाते हैं। परिणामस्वरूप, बहुत सी समस्याओं और कठिनाइयों का ढेर लग जाता है, और सभी किस्म के अनुभवजन्य गवाही लेख भी जमा हो जाते हैं जिनका प्रतिलिपि संपादन, समीक्षा या परेक्षण करने वाला कोई नहीं होता है। फिर भी झूठे अगुआ इन मुद्दों पर अनुवर्ती कार्रवाई या निरीक्षण नहीं करते हैं, और भाई-बहनों को जब समस्याएँ होती हैं, तो वे उन्हें नहीं ढूँढ पाते हैं। झूठे अगुआओं को यह एहसास नहीं होता है कि यह कार्य उनकी जिम्मेदारी है और उन्हें इस कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई करनी चाहिए। क्या वे कचरा नहीं हैं? (हाँ, हैं।)

कार्य को कार्यान्वित करने के लिए अगुआ या कार्यकर्ता का तरीका, साथ ही उसके कार्य की कुशलता और परिणाम, इस बात की परीक्षा हैं कि क्या वह मानक पर खरा उतरता है। इससे उसकी मानवता, उसकी काबिलियत और कार्य क्षमता और इस बात की भी परीक्षा होती है कि क्या उसमें दायित्व की भावना है। जब झूठे अगुआ को कोई कार्य-व्यवस्था मिलती है, तो वह इसके बारे में संगति करने के बाद इसे पूरा हो चुका मान लेता है। वह भाग नहीं लेता है, निगरानी नहीं करता है, आग्रह नहीं करता है, या इसका निरीक्षण नहीं करता है और ना ही वह कार्यान्वयन पर अनुवर्ती कार्रवाई करता है। वह यह बात नहीं समझता है कि ये वही कार्य हैं जो उसे करने चाहिए; वह यह नहीं समझता है कि अगुआ के रूप में ये कार्य उसकी जिम्मेदारियाँ हैं। उसका मानना है कि अगुआ या कार्यकर्ता होने के लिए सिर्फ उपदेश देने में समर्थ होने की जरूरत पड़ती है। क्या वह बेवकूफ नहीं है? क्या बेवकूफ लोग मानक स्तर के अगुआ और कार्यकर्ता हो सकते हैं? (नहीं।) वे मानक स्तर के अगुआ और कार्यकर्ता नहीं हो सकते हैं, लेकिन फिर भी वे सोचते हैं कि वे काफी अच्छे हैं और उनका मानना है कि वे यह कार्य कर सकते हैं। क्या वे पागल नहीं हैं? वे अनुभवजन्य गवाही लेख लिखने जैसे साधारण कार्य को भी कार्यान्वित नहीं कर पाते हैं। यह सबसे आसान कार्यों में से एक है—गवाही लेख लिखने के लिए बस उन लोगों को जुटाओ जिनके पास अच्छी काबिलियत और जीवन अनुभव है, और फिर अनुवर्ती कार्रवाई करो और निर्देश दो। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता औसत काबिलियत और कम पढ़े-लिखे होते हैं और वे पाठ आधारित कार्य में अच्छे नहीं होते हैं, लेकिन वे प्रभार लेने के लिए उपयुक्त लोगों को नियुक्त कर सकते हैं। इस तरह, वे अब भी कुछ वास्तविक कार्य कर सकते हैं। अगर वे इतना भी नहीं जानते हैं कि प्रभार लेने के लिए किस तरह के लोगों को नियुक्त करना है और परेक्षण करना है, तो वे यह कार्य नहीं कर सकते हैं और वे झूठे अगुआ हैं। कुछ लोग कहते हैं, “हो सकता है कि झूठा अगुआ खराब काबिलियत और निम्न शिक्षा के कारण पाठ आधारित कार्य करने में समर्थ ना हो, लेकिन उसे दूसरे कार्य करने में समर्थ होना चाहिए।” क्या यह कथन मान्य है? (नहीं।) यह क्यों मान्य नहीं है? (अनुभवजन्य गवाही लेख लिखना एक सरल कार्य है। अगर वे इसे स्पष्ट रूप से समझा नहीं सकते हैं या कार्य को कार्यान्वित नहीं कर सकते हैं, तो वे यकीनन दूसरे कार्य नहीं संभाल सकते हैं। उन्हें नहीं पता है कि कार्य कैसे करना है या उस पर अनुवर्ती कार्रवाई कैसे करनी है।) इससे पता चलता है कि उनकी काबिलियत बहुत खराब है। वे बेवकूफ हैं। उन्हें लगता है कि अगुआ या कार्यकर्ता होना बड़े लाल अजगर का अधिकारी होने जैसा है : जब तक वे चापलूसी करना, बड़ी-बड़ी बातें करना, नारे लगाना और धोखाधड़ी करना सीखते हैं, अपने वरिष्ठों को झांसा देते हैं और अपने से नीचे के लोगों से बातें छिपाते हैं, तब तक वे खुद को स्थापित कर सकते हैं और सरकारी वेतन हासिल कर सकते हैं। वे यह बात नहीं समझते हैं कि अगुआ या कार्यकर्ता होने का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है वास्तविक कार्य करना सीखना। वे सोचते हैं कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं का कार्य बहुत ही सरल है। परिणामस्वरूप, वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते हैं और झूठे अगुआ बन जाते हैं।

नकली अगुआओं में और कौन-सी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ होती हैं? क्या नकली अगुआ कार्य-व्यवस्थाओं में अपेक्षित सिद्धांतों और मानकों को ठीक से समझकर उन पर पकड़ बना सकते हैं? (नहीं।) क्यों नहीं बना सकते? वे ठीक से नहीं समझ सकते कि इस कार्य के क्या सिद्धांत हैं और वे इसका पुनरीक्षण नहीं कर सकते। जब कार्य के विशिष्ट कार्यान्वयन के दौरान विशेष परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, तो उन्हें नहीं पता होता कि उनका समाधान कैसे किया जाए। जब भाई-बहन उनसे पूछते हैं कि ऐसी किसी स्थिति में क्या किया जाए, तो वे भ्रमित हो जाते हैं : “कार्य-व्यवस्था में इसका उल्लेख नहीं है, मुझे भला कैसे पता होगा कि इसे कैसे सँभाला जाए?” यदि तुम्हें नहीं पता, तो तुम इस कार्य को कैसे कार्यान्वित कर सकते हो? तुम्हें पता तक नहीं, फिर भी दूसरों से उसे कार्यान्वित करने के लिए कहते हो—क्या यह यथार्थपरक है? क्या यह उचित है? जब नकली अगुआ और नकली कार्यकर्ता कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करते हैं, तो एक बात तो यह है कि उन्हें कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने के चरणों और योजनाओं के बारे में कोई जानकारी नहीं होती। दूसरी बात यह है कि जब समस्याओं से सामना होता है, तो वे कार्य-व्यवस्थाओं द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों के अनुसार पुनरीक्षण नहीं कर सकते। इसलिए जब कार्य-व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन के दौरान तमाम तरह के मुद्दे पैदा होते हैं, तो वे उनका समाधान करने में पूरी तरह से असमर्थ होते हैं। चूँकि नकली अगुआ शुरुआती चरणों में समस्याओं की पहचान नहीं कर सकते या उनका पूर्वानुमान नहीं लगा सकते और पहले से संगति नहीं कर सकते, और बाद के चरणों में जब समस्याएँ पैदा होती हैं तो वे उनका समाधान नहीं कर सकते, बल्कि केवल खोखले धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देते हैं और विनियमों को सख्ती से लागू करते हैं, इसलिए समस्याएँ बार-बार पैदा होती रहती हैं और बनी रहती हैं जिसके कारण कुछ कार्य के कार्यान्वयन में देरी होती है, और दूसरा कार्य पर्याप्त रूप से कार्यान्वित नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए, जब नकली अगुआ लोगों को हटाकर बाहर करने की परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्था संबंधी काम करते हैं, तो वे केवल उन स्पष्ट रूप से बुरे लोगों, मसीह-विरोधियों और दुष्टात्माओं को बाहर निकालते हैं जो विघ्न-बाधाएँ पैदा करते हैं, साथ ही उन छद्मविश्वासियों को, जिन्हें सारे भाई-बहन अप्रिय और घृणास्पद समझते हैं। परंतु इसके बाद भी कुछ ऐसे लोग होते हैं जिन्हें बाहर निकाला जाना चाहिए, यानी वे छिपे हुए, धूर्त, चालाक दुष्ट लोग और मसीह-विरोधी। भाई-बहन उनकी असलियत नहीं देख पाते हैं और न ही नकली अगुआ ये देख पाते हैं। वास्तव में, परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार, ये लोग पहले ही हटाए जाने के स्तर पर पहुँच चुके होते हैं। परंतु चूँकि नकली अगुआ उनकी असलियत नहीं देख पाते, इसलिए वे उन्हें अभी भी अच्छा मानते हैं, यहाँ तक कि उन्हें पदोन्नत, विकसित और महत्वपूर्ण कार्यों के लिए इस्तेमाल भी करते हैं और उन्हें कलीसिया में सत्ता पाने और महत्वपूर्ण पदों पर आसीन होने देते हैं। क्या तब लोगों को हटाकर बाहर निकालने की परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाएँ लागू की जा सकती है? क्या विभिन्न समस्याओं का पूरी तरह से समाधान किया जा सकता है? क्या सुसमाचार फैलाने का कार्य सामान्य रूप से आगे बढ़ सकता है? साफ है कि परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाएँ पूरी तरह से लागू नहीं की जा सकतीं, और बहुत सारा महत्वपूर्ण कार्य अच्छी तरह से नहीं किया जा सकता। चूँकि नकली अगुआओं द्वारा इस्तेमाल किए गए लोगों में कोई सत्य-वास्तविकता नहीं होती और वे कुकर्म भी कर सकते हैं, जिससे कलीसिया के कार्य के विभिन्न मदों के अच्छी तरह से होने में रुकावट आती है। नकली अगुआ इन बुरे लोगों का उपयोग करते हैं, उन्हें कलीसिया में महत्वपूर्ण कर्तव्य और महत्वपूर्ण कार्य करने देते हैं, यहाँ तक कि वे इन दुष्ट लोगों को चढ़ावों का प्रबंधन भी करने देते हैं। क्या इससे कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा आएगी? क्या इससे परमेश्वर को मिलने वाले चढ़ावों का नुकसान होगा? (हाँ।) यह बहुत ही गंभीर परिणाम होगा। चूँकि नकली अगुआ इन लोगों की असलियत नहीं समझ पाते, उनका पृथक्करण नहीं कर पाते और इन दुष्ट लोगों को महत्वपूर्ण काम करने देते हैं, इसलिए काम पूरी तरह से गड़बड़ा जाता है। ये दुष्ट लोग अपने कर्तव्य हमेशा बेमन से निभाते हैं, अपने से ऊपर के लोगों को धोखा देते हैं और नीचे के लोगों से चीजें छिपाते हैं, और कोई वास्तविक काम नहीं करते; वे जानबूझकर लापरवाही से काम करते हैं, लोगों को गुमराह करते हैं और सभी तरह के बुरे काम करते हैं। किंतु नकली अगुआ उनकी असलियत नहीं समझ पाते और जब तक वे समस्याओं पर ध्यान देते हैं, तब तक कोई बड़ी आपदा आ चुकी होती है। उदाहरण के लिए, हेनान के पादरी-क्षेत्र में अगुआ बने कुछ दुष्ट लोगों ने परमेश्वर का चढ़ावा चुराने के लिए विभिन्न घृणित तरीकों का इस्तेमाल किया; उन्होंने बड़ी धनराशियाँ चुराईं और वे धनराशियाँ कभी बरामद नहीं हुईं। क्या इसका संबंध अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा गलत लोगों को चुनकर उनका उपयोग करने से है? (हाँ, ऐसा ही है।) कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार, यदि कोई चुने गए लोगों की असलियत न देख पाए, तो उन्हें पहले कुछ साधारण काम करने के लिए नियुक्त किया जा सकता है, और उनके काम की कुछ समय तक खोज-खबर ली जा सकती है और अवलोकन किया जा सकता है। जिन लोगों की असलियत बिल्कुल भी न देखी जा सके, उन्हें कोई महत्वपूर्ण काम बिलकुल नहीं सौंपा जाना चाहिए, खासकर अगर उसमें जोखिम शामिल हो। लंबे समय तक निरीक्षण करने और उनके सार को समझने के बाद ही इस बारे में निर्णय लिया जाना चाहिए कि उनके साथ कैसे पेश आना है और उन्हें कैसे सँभालना है। नकली अगुआ कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार काम नहीं करते और सिद्धांतों को नहीं समझ सकते; इतना ही नहीं, वे लोगों की असलियत नहीं देख पाते और गलत लोगों का उपयोग करते हैं। इससे कलीसिया के काम और परमेश्वर के चढ़ावों, दोनों का नुकसान होता है। यह नकली अगुआओं द्वारा लाई गई आपदा है। मसीह-विरोधी जानबूझकर कुकर्मियों का उपयोग करते हैं, जबकि झूठे अगुआ भ्रमित होते हैं, किसी की असलियत नहीं जान पाते हैं, और वे जो भी समस्याएँ पहचान लेते हैं, उनके सार को की असलियत नहीं जान पाते हैं। वे लोगों का उपयोग और उनकी नियुक्ति पूरी तरह से अपनी भावनाओं के आधार पर करते हैं। झूठे अगुआओं द्वारा व्यवस्थित किए गए ज्यादातर लोग अनुपयुक्त होते हैं; वे कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाते हैं, जिसके परिणाम बिल्कुल वही होते हैं जो मसीह-विरोधी द्वारा जानबूझकर कुकर्मियों का उपयोग करने से होते हैं। खराब काबिलियत वाले और कार्य करने में अक्षम झूठे अगुआ भी काफी गंभीर परिणाम लाते हैं, है ना? (हाँ।) इसलिए ऐसा मत सोचो कि सिर्फ मसीह-विरोधी ही कार्य-व्यवस्थाओं का उल्लंघन करते हैं; झूठे अगुआ भी कार्य-व्यवस्थाओं का उल्लंघन कर सकते हैं। भले ही यह जानबूझकर नहीं किया गया हो, लेकिन फिर भी अंत में इसकी प्रकृति कार्य-व्यवस्थाओं का उल्लंघन ही होती है। झूठे अगुआ सत्य सिद्धांत नहीं समझने और लोगों या मामलों की अयलियत नहीं जान पाने के कारण, अंत में कार्य-व्यवस्थाओं का उल्लंघन करते हैं और वास्तविक कार्य का निर्वहन करने में असमर्थ होते हैं। इससे कलीसिया के कार्य में देरी होती है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचता है। उनके कार्यों की प्रकृति और परिणाम वही होते हैं जो कार्य करने वाले मसीह-विरोधियों के कार्यों के होते हैं, जिसके कारण कलीसिया के कार्य को नुकसान होते हैं और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को हानि पहुँचती है।

झूठे अगुआ कार्य करते समय और कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित करते समय सिर्फ औपचारिकता निभाते हैं और चीजों को पूरी तरह से गड़बड़ कर देते हैं। वे काफी आत्मतुष्ट होते हैं और कभी भी तलाश या संगति नहीं करते हैं, वे मूर्खतापूर्वक सोचते हैं कि उनके पास अच्छी काबिलियत है; वे क्रियाकलाप करने की हिम्मत करते हैं, और वाक्पटुता से बोल सकते हैं। चूँकि भाई-बहन उन्हें चुनते हैं या परमेश्वर का घर अस्थायी रूप से उन्हें पदोन्नत करता है और उन्हें विकसित करता है, इसलिए उन्हें लगता है कि वे अगुआ के रूप में मानक पर खरे उतरते हैं और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हैं। उन्हें यह बिल्कुल नहीं पता होता है कि वे कुछ भी नहीं हैं और अगुआओं और कार्यकर्ताओं की कोई भी जिम्मेदारी पूरी नहीं कर सकते हैं। उनके पास अपनी अयोग्यताओं की कोई जानकारी नहीं होती है; वे बस बेशर्मी से चीजें करने की हिम्मत करते हैं। परिणामस्वरूप, विभिन्न कार्य-व्यवस्थाएँ जारी होने के बाद वे उनमें से किसी को भी ऊपरवाले की अपेक्षाओं के अनुसार कार्यान्वित नहीं कर पाते हैं। वे जो भी कार्य-व्यवस्था संभालते हैं, वह अंत में पूरी तरह से गड़बड़ और बिलकुल अव्यवस्थित हो जाती है। उनका प्रशासनिक कार्यों का कार्यान्वयन खराब होता है; वे इस बारे में अस्पष्ट होते हैं कि सुसमाचार के प्रचार के माध्यम से कितने नए विश्वासी प्राप्त हुए, कलीसियाओं की स्थापना कैसे करनी है, अगुआओं और उपयाजकों को कैसे चुनना है, और कलीसियाई जीवन कैसे संचालित करना है। जहाँ तक ये प्रश्न हैं कि सुसमाचार कार्य का प्रभार लेने पर सबसे ज्यादा परिणाम किसे मिले हैं, कौन सबसे प्रभावी ढंग से गवाही देता है, कौन कलीसिया की सिंचाई के लिए सबसे उपयुक्त है, गैर-जिम्मेदार होने के कारण कौन-से टीम अगुआओं के कर्तव्य में बदलाव कर देना चाहिए और कौन-से टीम अगुआओं को बर्खास्त कर देना चाहिए, और कार्य के कुछ पहलुओं में उत्पन्न होने वाली समस्याओं को कैसे सुलझाना है, तो झूठे अगुआ इन सभी विशिष्ट कार्यों के बारे में अस्पष्ट होते हैं, और वे अपना कार्य पूरी तरह से गड़बड़ कर देते हैं। कलीसिया में जो विभिन्न पेशेवर कार्य हैं जिनके लिए उच्च स्तर की तकनीकी विशेषज्ञता की जरूरत होती है, उन्हें भी झूठे अगुआ पूरी तरह से गड़बड़ कर देते हैं। उन्हें बिल्कुल नहीं पता होता है कि इन कार्यों को विशिष्ट रूप से कैसे पूरा करना है। अगर वे इनके बारे में पूछताछ करना भी चाहें तो उन्हें यह नहीं पता होता है कि यह कैसे करनी है। वे ऊपरवाले से पूछना चाहते हैं कि इन कार्यों को कैसे संभालना है, लेकिन उन्हें यह तक नहीं पता होता है कि उन्हें अपने प्रश्न कैसे तैयार करने हैं। परिणामस्वरूप, कार्य करना असंभव हो जाता है। यहाँ तक कि कार्य-व्यवस्थाओं में अपेक्षित परिसंपत्तियों का प्रबंधन—यानी परिसंपत्तियों को सुरक्षित रखने और आवंटित करने के लिए उपयुक्त लोगों को नियुक्त करने, और विभिन्न प्रणालियाँ स्थापित करने—जैसा सरल कार्य भी झूठे अगुआ नहीं संभाल पाते हैं। वे इसे पूरी तरह से गड़बड़ कर देते हैं। झूठे अगुआ जो भी कार्य संभालते हैं उसे लेकर पूरी तरह से असमंजस में रहते हैं। जब उनसे पूछा जाता है कि क्या उन्होंने कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित कर दी हैं, तो वे गर्व महसूस करते हैं और आत्मविश्वास से कहते हैं, “हाँ, मैंने कर दी हैं। सभी के पास कार्य-व्यवस्थाओं की एक प्रति है, और सभी को पता है कि परमेश्वर के घर को किस कार्य की जरूरत है।” अगर तुम उनसे यह पूछो कि उन्होंने यह कैसे किया, उनसे विशिष्ट कार्य चरण समझाने के लिए कहो, यह पूछो कि कौन-से कार्य अपेक्षाकृत खराब तरीके से किए गए, कौन से कार्य ज्यादा सुचारू रूप से किए गए, क्या हर कार्य उचित रूप से किया गया, किन कार्यों के लिए लगातार अनुवर्ती कार्रवाई और निरीक्षण की जरूरत है, और क्या निरीक्षण करने के बाद कोई समस्या पाई गई, तो वे इन सभी के बारे में बेखबर होते हैं। कुछ झूठे अगुआ, अगुआ बनने के बाद, यह तक नहीं जानते हैं कि उन्हें कौन-से कार्य करने की जरूरत है या उनकी जिम्मेदारी का दायरा क्या है। क्या यह और भी ज्यादा परेशानी वाली बात नहीं है? क्या फिलहाल ज्यादातर अगुआओं और कार्यकर्ताओं में अलग-अलग मात्रा में यह समस्या है? (हाँ, है।)

यह परीक्षा लेने की कसौटी कि क्या अगुआ और कार्यकर्ता मानक स्तर के हैं

आज की संगति के जरिए, क्या अब तुम लोगों के पास उन जिम्मेदारियों की ज्यादा स्पष्ट समझ है जो अगुआओं, कार्यकर्ताओं और पर्यवेक्षकों को पूरी करनी चाहिए? क्या तुम्हारे मन में कोई बेहतर विचार है? क्या अगुआओं और कार्यकर्ताओं की भूमिका के बारे में तुम्हारी समझ ज्यादा सटीक हुई है? (हाँ, हुई है।) एक बात यह है कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने इस बात की कुछ समझ प्राप्त कर ली है कि उन्हें कौन-से कार्य करने चाहिए; दूसरी बात यह है कि अब बाकी सभी के पास यह भेद पहचानने के लिए कुछ मार्ग हैं कि कोई अगुआ या कार्यकर्ता मानक स्तर के है या नहीं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं की नौवीं जिम्मेदारी की अपेक्षाओं के अनुसार, क्या ज्यादातर अगुआ और कार्यकर्ता मानक स्तर के हैं? (नहीं।) तो, फिर कौन-से अगुआ और कार्यकर्ता मानक स्तर के बन सकते हैं और कौन-से नहीं? जिनके पास योग्य काबिलियत, कुछ व्यावहारिक अनुभव, चीजों को संभालने के कुछ सिद्धांत, और कलीसियाई कार्य के लिए जिम्मेदारी की भावना है, वे प्रशिक्षण की एक अवधि के बाद अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में मानक स्तर पर खरे उतर सकते हैं। लेकिन, जिनकी काबिलियत खराब है और जिनमें समझने की क्षमता बिल्कुल नहीं है, जो चाहे सत्य की कितनी भी संगति क्यों ना की जाए सिद्धांतों को नहीं समझ पाते हैं, वे अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में मानक स्तर के नहीं बन सकते हैं और उन्हें सिर्फ हटाया जा सकता है। इसलिए, अगर तुम ऐसा अगुआ या कार्यकर्ता बनना चाहते हो जो मानक स्तर का हो, और चाहते हो कि दूसरे लोग तुम्हें अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में चुनें, तो तुम्हें पहले यह आकलन करना चाहिए कि क्या तुम्हारी काबिलियत पर्याप्त है। तुम इसका मूल्यांकन कैसे कर सकते हो? यह देखकर कि क्या तुम कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित कर सकते हो। हाल ही की कोई कार्य-व्यवस्था लो, उसे पढ़ो और यह पता लगाने के लिए अपनी परीक्षा लो कि क्या तुम्हारे पास इसके कार्यान्वयन के लिए चरण और योजनाएँ हैं। अगर तुम्हारे पास विचार और योजनाएँ हैं और तुम जानते हो कि इसे कैसे कार्यान्वित करना है, तो जब भाई-बहन तुम्हें चुनते हैं तो तुम्हें उस कार्य को अपना परम कर्तव्य समझकर ग्रहण करना चाहिए। लेकिन, अगर कार्य-व्यवस्था पढ़ने के बाद तुम्हारा दिमाग खाली है, तुम यह बिल्कुल नहीं समझ पाते हो कि कौन-सा व्यक्ति कार्य का प्रभाऱी नियुक्त किए जाने के लिए सबसे उपयुक्त है, और इससे भी ज्यादा, तुम यह नहीं समझ पाते हो कि कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदों को विशिष्ट रूप से कैसे कार्यान्वित करना है, और ना ही तुम्हें यह पता है कि संगति, निगरानी, निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई कैसे करनी है, और तुम्हारे दिमाग में कार्यान्वयन के लिए कोई चरण या योजना नहीं है, लेकिन कुछ भाई-बहन गलती से सोचते हैं कि तुम बहुत प्रतिभाशाली हो और अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए उपयुक्त हो, तो तुम्हारा रवैया क्या होना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, “मेरी तारीफ करने के लिए धन्यवाद, लेकिन वास्तव में मुझमें ज्यादा प्रतिभा नहीं है। मेरे पास इसके लिए जरूरी योग्यता नहीं है—तुमने मेरे बारे में गलत राय बनाई है। अगर तुमने मुझे अगुआ के रूप में चुना, तो इससे कलीसिया के कार्य में देरी होगी। मुझे अपना आध्यात्मिक कद पता है; मुझे तो एक सरल कार्य-व्यवस्था को भी कार्यान्वित करना नहीं आता है—मुझे बिल्कुल अंदाजा नहीं है कि कहाँ से शुरू करना है और मेरे पास कोई सूत्र नहीं हैं जिन्हें पकड़कर मैं शुरूआत कर सकूँ। सत्य समझे बिना, कलीसिया का कार्य अच्छी तरह से नहीं किया जा सकता है। अगर ऊपरवाला मुझे नियुक्त कर भी दे, तो भी मैं इसे नहीं कर पाऊँगा। मैं वाकई इस भूमिका के लिए सही व्यक्ति नहीं हूँ।” इस किस्म की स्वीकारोक्ति के बारे में तुम क्या सोचते हो? इस दृष्टिकोण से सूझ-बूझ का पता चलता है; ऐसा कहने वाले लोगों में झूठे अगुआओं से कहीं ज्यादा सूझ-बूझ होती है। झूठे अगुआ इतनी सूझ-बूझ के साथ कभी ऐसा कुछ नहीं कह सकते हैं। झूठे अगुआ सोचते हैं, “मुझे चुना गया है, इसलिए मुझे अगुआ बनना चाहिए। मुझे क्यों नहीं बनना चाहिए? मैं प्रतिभाशाली हूँ, इसलिए मैं इसका हकदार हूँ। क्या कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित नहीं कर पाना एक समस्या है? किसके पास जन्म से ही यह ज्ञान होता है कि इसे कैसे करना है? क्या मैं इसे सीख नहीं सकता हूँ? जब तक मैं उपदेश दे सकता हूँ, तब तक यह पर्याप्त है। मेरे पास आध्यात्मिक समझ है, मैं परमेश्वर के वचन जानता और समझता हूँ, मैं संगति कर सकता हूँ, और मैं परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग ढूँढ सकता हूँ। मैं लोगों के भ्रष्ट स्वभावों और विभिन्न स्थितियों को सुलझाने में माहिर हूँ। परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित करना कोई बड़ी बात नहीं है। क्या यह सिर्फ प्रशासनिक प्रबंधन कार्य नहीं है? मैंने इससे पहले प्रशासनिक प्रबंधन का अध्ययन किया है, इसलिए परमेश्वर के घर का यह जरा-सा कार्य मेरे लिए कोई समस्या नहीं है!” क्या ऐसा व्यक्ति खतरे में नहीं है? (हाँ, है।) यह खतरा कहाँ है? क्या तुम लोग इस मामले को समझ सकते हो? (वह कार्य नहीं कर सकता है और परमेश्वर के घर के कार्य में गड़बड़ करेगा और विघ्न-बाधाएँ डालेगा, जिससे वह ना सिर्फ खुद को और भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाएगा बल्कि परमेश्वर के घर के कार्य में भी देरी करवाएगा।) क्या यह सिर्फ नुकसान है? क्या अंत में इसका यही परिणाम होता है? अगर यह सिर्फ इतना ही होता, तो अब भी इसे ठीक किया जा सकता था। यहाँ मुख्य मुद्दा यह है कि अगर कोई झूठा अगुआ लंबे समय तक अपनी भूमिका में बना रहा, तो वह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने लगेगा और अंत में मसीह-विरोधी बन जाएगा। क्या तुम्हें लगता है कि अगुआ या कार्यकर्ता होना इतना सरल है? रुतबे के साथ लालच आता है, और लालच के साथ खतरा आता है। यह खतरा क्या है? यह खतरा मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने की संभावना है। मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने का सबसे बुरा परिणाम मसीह-विरोधी बन जाना होता है।

कुछ लोग कहते हैं, “कुछ झूठे अगुआओं में बस कुछ हद तक खराब काबिलियत होती है, लेकिन उनकी मानवता बुरी नहीं होती है। क्या वे मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल सकते हैं?” कौन कहता है कि यदि मानवता बुरी नहीं है तो इसका अर्थ यह है कि वे मसीह-विरोधियों के मार्ग पर नहीं चलेंगे? मसीह-विरोधी माने जाने के लिए उन्हें कितना बुरा बनना पड़ेगा? क्या तुम इसे समझ सकते हो? अगर कोई झूठा अगुआ लंबे समय तक अपनी भूमिका में बना रहता है, तो इसका अर्थ है कि उसने पहले से ही मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना शुरू कर दिया है। क्या मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने और मसीह-विरोधी बनने के बीच कोई अंतर है? (नहीं।) पिछली बातें याद करो : वे झूठे अगुआ किस मार्ग पर चल रहे हैं? झूठे अगुआ कोई विशिष्ट कार्य नहीं करते हैं, ना ही वे विशिष्ट कार्य करने के काबिल हैं, फिर भी वे दूसरों को उपदेश देने के लिए ऊँचे पदों पर बने रहना चाहते हैं ताकि लोग उनकी बातें सुनें और उनकी आज्ञा मानें। क्या यह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना है? मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने का क्या परिणाम होता है? (वे स्वाभाविक रूप से मसीह-विरोधी बन जाते हैं।) वैसे तो झूठे अगुआ सहज रूप से मसीह-विरोधी या कुकर्मी नहीं होते हैं, लेकिन अगर वे बिना किसी निगरानी के लंबे समय तक मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलते रहे और उनकी रिपोर्ट नहीं की गई और उन्हें बर्खास्त नहीं किया गय, तो क्या वे सत्ता हथिया सकते हैं और स्वतंत्र राज्य स्थापित कर सकते हैं? (हाँ।) उस मौके पर, क्या वे मसीह-विरोधी नहीं बन चुके होते हैं? तो अब तुम लोग देखो, क्या झूठे अगुआ की भूमिका खतरनाक नहीं है? (हाँ, है।) झूठा अगुआ होना पहले से ही बहुत खतरनाक है। वैसे तो फिलहाल हम झूठे अगुआओं का गहन-विश्लेषण कर रहे हैं और मसीह-विरोधियों का जिक्र नहीं कर रहे हैं, लेकिन इन दोनों के सार के बीच एक संबंध है। दरअसल, झूठे अगुआ मसीह-विरोधियों के मार्ग पर ही चल रहे हैं। इस मार्ग पर चलने से वे स्वाभाविक रूप से मसीह-विरोधी बन जाएँगे, जो उनके प्रकृति सार से निर्धारित होता है। उस मौके पर, उनके मानवीय सार पर विचार करने की कोई जरूरत नहीं है; अकेले उनके मार्ग से ही निर्धारित हो जाता है कि वे मसीह-विरोधी हैं या नहीं। उन झूठे अगुआओं पर विचार करो जिन्हें बर्खास्त कर दिया गया है। अगर उन्हें समय रहते बर्खास्त नहीं किया गया होता त, उनके कार्यकाल के दौरान उनके व्यवहार और उनके द्वारा प्रकट किए गए सार को देखा जाए तो, क्या अंत में वे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने लगते? क्या वे मसीह-विरोधी बन गए होते? दरअसल, कुछ लोगों ने पहले से ही इसके संकेत दिखा दिए थे, और यह परमेश्वर का घर ही था जिसने उन्हें तुरंत बर्खास्त कर दिया। अगर उन्हें बर्खास्त नहीं किया गया होता, तो वे कलीसिया में मुफ्तखोरी करना और लोगों को गुमराह करना शुरू कर देते। वे ऊँचे पदों पर बैठे अधिकारियों या प्रभुओं की तरह कार्य करना शुरू कर देते, लोगों पर हुक्म चलाते और आदेश जारी करते, दूसरों से अपनी आज्ञा मनवाते जैसे वे परमेश्वर हों। यहाँ तक कि वे परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए गए और परमेश्वर द्वारा उपयोग किए गए लोग होने का दावा भी करते। क्या यह परेशान करने वाली बात नहीं है? तो हमें ऐसे झूठे अगुआओं की स्थितियों और अभिव्यक्तियों को कैसे देखना और परिभाषित करना चाहिए? उन्हें प्रारंभिक रूप से ढोंगियों, कलीसिया में मुफ्तखोरी करने वाले लोगों, फरीसियों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। और अगर आगे भी ऐसा ही जारी रहा तो क्या होगा? वैसे तो हो सकता है कि झूठे अगुआ मसीह-विरोधियों की तरह क्रूर या दुष्ट ना हों, और वैसे तो ऊपरी तौर पर वे कष्ट सहने और कड़ी मेहनत करने में, हर मोड़ पर दूसरों की सहायता करने में और लोगों के साथ धीरज रखने और उन्हें सहन करने में सक्षम लग सकते हैं, ठीक उन्हीं फरीसियों की तरह जो प्रचार और कार्य करने के लिए जमीन और समुंदर पर यात्रा करते थे, लेकिन अंत में इससे क्या फर्क पड़ता है? अगर वे एक अकेला कार्य कार्यान्वित नहीं कर सकते हैं, तो उनके क्रियाकलाप और व्यवहार फरीसियों से कैसे अलग हैं? क्या उनके कर्म परमेश्वर के कार्य में सहयोग करते हैं, या क्या वे परमेश्वर के कार्य की अवहेलना कर रहे हैं और उसमें बाधा डाल रहे हैं? स्पष्ट रूप से, वे परमेश्वर के कार्य का प्रतिरोध कर रहे हैं और कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदों की सामान्य प्रगति को रोक रहे हैं। क्या यह फरीसियों और धार्मिक समुदाय के उन पादरियों और एल्डरों के व्यवहार के समान नहीं है? झूठे अगुआ बिल्कुल उनके जैसे ही होते हैं। तो हमें उन्हें कैसे परिभाषित करना चाहिए? अगर झूठे अगुआ कार्य करना जारी रखते हैं, तो क्या होगा? वे ना सिर्फ परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित करने में विफल रहेंगे, बल्कि इन व्यवस्थाओं को बदनाम करना, उनकी आलोचना करना, उनके बारे में राय बनाना, उनकी निंदा करना और इस तरह की दूसरी चीजें भी करना शुरू कर देंगे—मसीह-विरोधी वाले व्यवहारों की एक पूरी श्रृंखला प्रकट हो जाएगी। वे ना सिर्फ कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित करने में विफल रहते हैं, बल्कि वे उनके कार्यान्वयन का प्रतिरोध करने और उसे रोकने के लिए विभिन्न बहाने भी ढूँढ लेते हैं। यह परमेश्वर के कार्य में सहयोग करना नहीं है, बल्कि परमेश्वर के घर के कार्य को रोकना और उसमें बाधा डालना है। यह उनके द्वारा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं का, और परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें दी गई शक्ति और रुतबे का उपयोग करना है, ताकि वे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं का कार्यान्वयन रोक सकें। क्या यही समस्या का सार नहीं है? (हाँ, है।) झूठे अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करते हैं और ऊपरवाले द्वारा व्यवस्थित विभिन्न कार्यों को कार्यान्वित नहीं कर पाते हैं, फिर भी वे लोगों को उपदेश देने के लिए अपने रुतबे का हक जताते हैं, यह महसूस करते हैं कि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के मुखिया हैं, उनके कप्तान हैं। यह उन्हें पहले से ही मसीह-विरोधी बनाता है—असली मसीह-विरोधी। क्या ऐसे लोगों की यह परिभाषा सटीक है? यह अत्यंत सटीक है, इसमें कोई गलती नहीं है! यह तर्कसंगत विचार नहीं है, बल्कि उनके सार पर आधारित परिभाषा है। जो लोग परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित नहीं कर पाते हैं वे झूठे अगुआ हैं, और जो लोग परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित नहीं करते हैं वे भी झूठे अगुआ हैं। फरीसी के रूप में उनका खुलासा होने से पहले, उन्हें झूठे अगुआओं के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। लेकिन, जिस पल से वे फरीसी बन जाते हैं और कलीसिया मे मुफ्तखोरी करने लगते हैं, अपनी “पिछली उपलब्धियों” पर भरोसा करने लगते हैं, और कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित किए बिना या विशिष्ट कार्य किए बिना पदों पर कब्जा जमा लेते हैं, परमेश्वर के घर के कार्य में रुकावटें बन जाते हैं, तभी से ऐसे लोगों को मसीह-विरोधियों के रूप में परिभाषित कर देना चाहिए। तुम यह कैसे परिभाषित करते हो कि कोई व्यक्ति झूठा अगुआ है या मसीह-विरोधी है? झूठे अगुआ को इस बात से परिभाषित किया जाता है कि क्या वह कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित कर सकता है और वास्तविक कार्य कर सकता है। जो लोग कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित नहीं करते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते हैं वे झूठे अगुआ हैं। लेकिन, अगर उन्हें पता है कि वे वास्तविक कार्य नहीं कर सकते हैं और ऊपरवाले की कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित नहीं कर सकते हैं, फिर भी वे लोगों के दिल जीतने के उद्देश्य से प्रचार करने और नारे लगाने के लिए अपने रुतबे का हक जताना चाहते हैं, और परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं को नजरअंदाज कर देते हैं, और इस तथ्य की रोशनी में कि उन्होंने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है और वे कई वर्षों से कलीसिया के कार्य के लिए कष्ट सह रहे हैं, उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर का घर उन्हें अपने आसपास रखेगा ताकि वे कलीसिया में मुफ्तखोरी कर सकें और एक सेवानिवृत्ति घर के रूप में परमेश्वर के घर का शोषण कर सकें, भाई-बहनों को गुमराह करना जारी रख सकें, यहाँ तक कि प्रवचन तैयार करने और फैसला लेने के अधिकार पा सकें, तो ऐसे लोग मसीह-विरोधी हैं। इस तरह से तुम यह निर्धारित कर सकते हो कि क्या कोई व्यक्ति झूठा अगुआ है या मसीह-विरोधी है। क्या इसे परिभाषित करने के लिए यह सिद्धांत और मानक स्पष्ट हैं? (हाँ।)

अगुआओं और कार्यकर्ताओं की नौवीं जिम्मेदारी में मुख्य रूप से कार्य-व्यवस्थाएँ शामिल हैं। कोई अगुआ या कार्यकर्ता कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित करता है या नहीं, यह इस चीज की परीक्षा लेने की कसौटी है कि क्या वह मानक स्तर का है। अगुआ और कार्यकर्ता सच्चे हैं या झूठे हैं, इसका मूल्यांकन इस आधार पर करना कि क्या वे कलीसिया का कार्य कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार पूरा करते हैं, सबसे सटीक तरीका है। झूठे अगुआओं को पहचानने और उनका गहन-विश्लेषण करने के लिए कार्य-व्यवस्थाओं के प्रति अपने रवैये का उपयोग करना, और यह तय करना कि वे झूठे अगुआ हैं या मसीह-विरोधी हैं, पूरी तरह से न्यायसंगत है। इस आधार पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं का मूल्यांकन करना कि वे कार्य-व्यवस्थाएँ कैसे कार्यान्वित करते हैं, क्या वे कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित कर सकते हैं, और उनके कार्यान्वयन की प्रभावशीलता और संपूर्णता कैसी है, किसी भी अगुआ या कार्यकर्ता के लिए न्यायसंगत और उचित है। इसका उद्देश्य जानबूझकर किसी के लिए चीजों को मुश्किल बनाना नहीं है। क्या तुम लोग यह समझ सकते हो कि कुछ झूठे अगुआ कार्य-व्यवस्था कार्यान्वित नहीं करते हैं और अंत में मसीह-विरोधी बन जाते हैं? क्या यह दावा मान्य है? (हाँ।) यह क्यों मान्य है? (क्योंकि झूठे अगुआ कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित नहीं करते हैं और अपने खुद के स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के लिए अपने पदों पर कब्जा जमाए रखते हैं। इसका अर्थ है कि वे पहले से ही मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने लगे हैं।) यही परिघटना है—इस समस्या का सार क्या है? कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित नहीं करने का अर्थ परमेश्वर का प्रतिरोध करना और उसका विरोध करना है। परमेश्वर का विरोध करने का क्या अर्थ है? जो लोग मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलते हैं, वे परमेश्वर का विरोध कर रहे हैं, उसके सीधे विरोध में खड़े हैं। अगर कोई महज एक झूठा अगुआ है, तो वह वाकई यह नहीं जानता है कि कार्य कैसे करना है या कार्य-व्यवस्थाएँ कैसे कार्यान्वित करनी हैं; वह जानबूझकर परमेश्वर का विरोध नहीं कर रहा है। लेकिन, मसीह-विरोधियों के विशिष्ट लक्षण झूठे अगुआओं की तुलना में कहीं ज्यादा गंभीर प्रकृति के होते हैं। कुछ झूठे अगुआ लंबे समय से मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल रहे हैं। ये व्यक्ति वास्तविक कार्य नहीं करके और कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित नहीं करके शुरुआत करते हैं। लंबे समय तक अगुआ बने रहने और कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार कर पाने के बाद, उन्हें लगता है कि उनकी स्थिति सुरक्षित है, उनके पास पूँजी है, और लोगों के बीच उन्होंने प्रतिष्ठा हासिल कर ली है। फिर वे जो चाहे वही करना शुरू करने की हिम्मत करते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं। वे हमेशा खुद को वास्तविकता से ज्यादा मूल्यांकित करते हैं, यह मानते हैं कि उन्होंने भाई-बहनों के बीच प्रतिष्ठा हासिल कर ली है, उनके शब्दों में वजन है, और इसलिए वे जो भी कार्य करते हैं उसमें उनके पास पूर्ण विवेचनात्मक प्रभुत्व और फैसले लेने का अधिकार होना चाहिए। उन्हें लगता है कि लोगों को उनकी बात सुननी चाहिए; अगर कुछ करते समय वे खुद को शर्मिंदा कर देते हैं या अपने शब्दों में गड़बड़ कर देते हैं, तो लोगों को उनकी लाज रखनी चाहिए—और परमेश्वर के घर को भी ऐसा ही करना चाहिए। परमेश्वर के घर को उत्पन्न होने वाले हर मुद्दे पर उनकी सलाह लेनी चाहिए और उन्हें अच्छी चीजों में हिस्सा देना चाहिए, और उन्हें दूसरों की तुलना में बेहतर सुविधाएँ और ज्यादा तारीफ मिलनी चाहिए। उन्हें लगता है कि परमेश्वर को भी उन्हें एक अलग रोशनी में देखना चाहिए। अपने इन कथित फायदों और श्रेष्ठता के चलते, वे मानते हैं कि परमेश्वर के घर को उनकी आसानी से काट-छाँट नहीं करनी चाहिए या दूसरों के सामने उनके भ्रष्ट स्वभाव को उजागर नहीं करना चाहिए, उनकी भावनाओं का ध्यान रखे बिना उन्हें बर्खास्त तो बिल्कुल नहीं करना चाहिए। ऐसे लोग खतरे में हैं। वे अपनी “पिछली उपलब्धियों” पर भरोसा कर रहे हैं। वे फरीसी हैं, और पहले से ही मसीह-विरोधी बन चुके हैं। क्या यह उनके प्रकृति सार से निर्धारित नहीं होता है? अगर कोई सत्य का अनुसरण करता है और उसमें सत्य वास्तविकता है, तो क्या वह परमेश्वर के घर और परमेश्वर से ये अनुचित माँगें करेगा? (नहीं।) एक किस्म का व्यक्ति होता है, जिसे लंबे समय तक कार्य करने के बाद लगता है कि उसने रुतबा हासिल कर लिया है और उसके पास पूँजी है, और इस तरह से उसमें इस किस्म के विचार और श्रेष्ठता की ऐसी भावना विकसित होने लगती है। यह किस किस्म का व्यक्ति है? यह ऐसा व्यक्ति है जिसमें मसीह-विरोधी का सार है। क्योंकि वह सत्य का अनुसरण नहीं करता है और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलता है, इसलिए वह घमंडी और आत्मतुष्ट है, परमेश्वर और परमेश्वर के घर से सभी किस्म की अनुचित माँगें करता है। वह अपनी “पिछली उपलब्धियों” पर भरोसा करता है, कलीसिया में मुफ्तखोरी करता है, अपने रुतबे से चिपका रहता है, और अंत में मसीह-विरोधी बन जाता है। यह एक ठेठ मसीह-विरोधी है। क्या कलीसिया में ऐसे लोग हैं? जो कोई भी अपने आध्यात्मिक व्यक्ति होने पर गर्व करता है, वह इसी किस्म का है। ऐसे लोग स्पष्ट रूप से बेकार हैं और कोई विशिष्ट कार्य नहीं कर सकते हैं, फिर भी वे खुद को आध्यात्मिक मानते हैं; वे खुद को ऐसे लोग मानते हैं जिन पर परमेश्वर अपनी कृपा दृष्टि रखता है और जो उसकी पूर्णता के लक्ष्य हैं। उनका मानना है कि वे परमेश्वर के प्रिय पुत्र हैं, विजेता हैं। ऐसे लोग किस मार्ग पर चल रहे हैं? क्या वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं? क्या वे ऐसे लोग हैं जो सत्य के प्रति समर्पण करते हैं? क्या वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करते हैं? बिल्कुल नहीं, सौ प्रतिशत नहीं। वे ऐसे लोग हैं जो रुतबा, प्रतिष्ठा और आशीष का अनुसरण करते हैं, और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलते हैं। जब ऐसे लोग लंबे समय तक कोई पद संभालते हैं, लंबे समय तक झूठे अगुआओं के रूप में सेवा करते हैं, तो वे अनिवार्य रूप से मसीह-विरोधी बन जाते हैं। मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर के कार्य में बाधाएँ हैं। वे संभवतः कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार कार्य नहीं कर सकते हैं, और वे संभवतः परमेश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं चल सकते हैं या परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार चीजें नहीं कर सकते हैं; इससे भी ज्यादा, वे संभवतः कलीसिया का कार्य करने के लिए अपना रुतबा, प्रतिष्ठा और हित नहीं त्याग सकते हैं, क्योंकि वे मसीह-विरोधी हैं।

अगुआओं और कार्यकर्ताओं की नौवीं जिम्मेदारी पर संगति मुख्य रूप से कार्य-व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन के बारे में है। क्या कोई अगुआ या कार्यकर्ता मानक स्तर का है और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करता है, यह मुख्य रूप से इस बात से निर्धारित होता है कि वह कार्य-व्यवस्थाएँ कैसे कार्यान्वित करता है और इन कार्यान्वयनों के क्या परिणाम हैं। यकीनन, इस मानक का उपयोग झूठे अगुआओं और उनके द्वारा अपनाए गए मार्गों को और साथ ही उन परिणामों को उजागर करने के लिए किया जाता है जो वे कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए लाते हैं। ये सभी निर्धारण, फैसले और अंतिम परिभाषाएँ झूठे अगुआओं द्वारा कार्य-व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन पर आधारित हैं। कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित करना एक प्राथमिक कार्य है, इसलिए किसी अगुआ और कार्यकर्ता द्वारा कार्य-व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन के आधार पर यह परिभाषित करना कि वह मानक स्तर का है या नहीं बहुत ही यथार्थवादी और अत्यंत मौलिक है। इसके अलावा, हर अगुआ और कार्यकर्ता को इस मानक पर जाँचना पूरी तरह से उचित और न्यायसंगत है, इसमें कोई दोष नहीं है।

24 अप्रैल 2021

पिछला: अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (9)

अगला: अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (12)

परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2024 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

सेटिंग

  • इबारत
  • कथ्य

ठोस रंग

कथ्य

फ़ॉन्ट

फ़ॉन्ट आकार

लाइन स्पेस

लाइन स्पेस

पृष्ठ की चौड़ाई

विषय-वस्तु

खोज

  • यह पाठ चुनें
  • यह किताब चुनें

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें