13. कष्ट सहन करने और अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने से डरने की समस्या का समाधान कैसे करें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना, प्रार्थना का अभ्यास करना, परमेश्वर के बोझ को स्वीकार करना, और उसे स्वीकार करना जो उसने तुम्हें सौंपा है—ये सब मार्ग को प्राप्त करने के उद्देश्य से हैं। परमेश्वर के आदेश के प्रति तुम्हारा बोझ जितना अधिक होगा, तुम्हारे लिए उसके द्वारा पूर्ण बनाया जाना उतना ही आसान होगा। कुछ लोग परमेश्वर की सेवा में दूसरों के साथ समन्वय करने के इच्छुक नहीं होते, तब भी नहीं जबकि वे बुलाए जाते हैं; ये आलसी लोग केवल आराम का सुख उठाने के इच्छुक होते हैं। तुमसे जितना अधिक दूसरों के साथ समन्वय करने का आग्रह किया जाएगा, तुम उतना ही अधिक अनुभव प्राप्त करोगे। तुम्हारे पास अधिक बोझ होने के कारण, तुम अधिक अनुभव करोगे, तुम्हारे पास पूर्ण बनाए जाने का अधिक मौका होगा। इसलिए, यदि तुम सच्चे मन से परमेश्वर की सेवा कर सको, तो तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहोगे; और इस तरह तुम्हारे पास परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाये जाने का अधिक अवसर होगा। ऐसे ही मनुष्यों के एक समूह को इस समय पूर्ण बनाया जा रहा है। पवित्र आत्मा जितना अधिक तुम्हें स्पर्श करेगा, तुम उतने ही अधिक परमेश्वर के बोझ के लिए विचारशील रहने के प्रति समर्पित होओगे, तुम्हें परमेश्वर द्वारा उतना अधिक पूर्ण बनाया जाएगा, तुम्हें उसके द्वारा उतना अधिक प्राप्त किया जाएगा, और अंत में, तुम ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जिसे परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त किया जाता है। वर्तमान में, कुछ ऐसे लोग हैं जो कलीसिया के लिए कोई बोझ नहीं उठाते। ये लोग सुस्त और ढीले-ढाले हैं, और वे केवल अपने शरीर की चिंता करते हैं। ऐसे लोग बहुत स्वार्थी होते हैं और अंधे भी होते हैं। यदि तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम नहीं होते हो, तो तुम कोई बोझ नहीं उठा पाओगे। तुम जितना अधिक परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहोगे, तुम्हें परमेश्वर उतना ही अधिक बोझ सौंपेगा। स्वार्थी लोग ऐसी चीज़ें सहना नहीं चाहते; वे कीमत नहीं चुकाना चाहते, परिणामस्वरूप, वे परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के अवसर से चूक जाते हैं। क्या वे अपना नुकसान नहीं कर रहे हैं? यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील है, तो तुम कलीसिया के लिए वास्तविक बोझ विकसित करोगे। वास्तव में, इसे कलीसिया के लिए बोझ उठाना कहने की बजाय, यह कहना चाहिए कि तुम खुद अपने जीवन के लिए बोझ उठा रहे हो, क्योंकि कलीसिया के प्रति बोझ तुम इसलिए पैदा करते हो, ताकि तुम ऐसे अनुभवों का इस्तेमाल परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के लिए कर सको। इसलिए, जो भी कलीसिया के लिए सबसे भारी बोझ उठाता है, जो भी जीवन प्रवेश के लिए बोझ उठाता है, उसे ही परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जाता है। क्या तुमने इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लिया है? जिस कलीसिया के साथ तुम हो, यदि वह रेत की तरह बिखरी हुई है, लेकिन तुम न तो चिंतित हो और न ही व्याकुल, यहाँ तक कि जब तुम्हारे भाई-बहन परमेश्वर के वचनों को सामान्य ढंग से खाते-पीते नहीं हैं, तब भी तुम आँख मूंद लेते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम कोई जिम्मेदारी वहन नहीं कर रहे। ऐसे मनुष्य से परमेश्वर प्रसन्न नहीं होता। परमेश्वर जिनसे प्रसन्न होता है वे लोग धार्मिकता के भूखे और प्यासे होते हैं और वे परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होते हैं। इसलिए, तुम्हें परमेश्वर के बोझ के लिए अभी तुरंत विचारशील हो जाना चाहिए; परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील होने से पहले तुम्हें इंतजार नहीं करना चाहिए कि परमेश्वर सभी लोगों के सामने अपना धार्मिक स्वभाव प्रकट करे। क्या तब तक बहुत देर नहीं हो जाएगी? परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के लिए अभी अच्छा अवसर है। यदि तुम अपने हाथ से इस अवसर को निकल जाने दोगे, तो तुम जीवन भर पछताओगे, जैसे मूसा कनान की अच्छी भूमि में प्रवेश नहीं कर पाया और जीवन भर पछताता रहा, पछतावे के साथ ही मरा। एक बार जब परमेश्वर अपना धार्मिक स्वभाव सभी लोगों पर प्रकट कर देगा, तो तुम पछतावे से भर जाओगे। यदि परमेश्वर तुम्हें ताड़ना नहीं भी देता है, तो भी तुम स्वयं ही अपने आपको अपने पछतावे के कारण ताड़ना दोगे। कुछ लोग इस बात से आश्वस्त नहीं हैं, यदि तुम्हें इस पर विश्वास नहीं है, तो इन्तजार करो और देखो। कुछ लोगों का उद्देश्य एकमात्र इन वचनों को साकार करना है। क्या तुम इन वचनों के लिए खुद को बलिदान करने को तैयार हो?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहो

कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए जिम्मेदारी उठाने से डरते हैं। यदि कलीसिया उन्हें कोई काम देती है, तो वे पहले इस बात पर विचार करेंगे कि इस कार्य के लिए उन्हें कहीं उत्तरदायित्व तो नहीं उठाना पड़ेगा, और यदि उठाना पड़ेगा, तो वे उस कार्य को स्वीकार नहीं करेंगे। किसी काम को करने के लिए उनकी शर्तें होती हैं, जैसे सबसे पहले, वह काम ऐसा होना चाहिए जिसमें मेहनत न हो; दूसरा, वह व्यस्त रखने या थका देने वाला न हो; और तीसरा, चाहे वे कुछ भी करें, उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। इन शर्तों के साथ वे कोई काम हाथ में लेते हैं। ऐसा व्यक्ति किस प्रकार का होता है? क्या ऐसा व्यक्ति धूर्त और कपटी नहीं होता? वह छोटी से छोटी जिम्मेदारी भी नहीं उठाना चाहता। उन्हें यहाँ तक डर लगता है कि पेड़ों से झड़ते हुए पत्ते कहीं उनकी खोपड़ी न तोड़ दें। ऐसा व्यक्ति क्या कर्तव्य कर सकता है? परमेश्वर के घर में उनका क्या उपयोग हो सकता है? परमेश्वर के घर का कार्य शैतान से युद्ध करने के कार्य के साथ-साथ राज्य के सुसमाचार फैलाने से भी जुड़ा होता है। ऐसा कौन-सा काम है जिसमें उत्तरदायित्व न हो? क्या तुम लोग कहोगे कि अगुआ होना जिम्मेदारी का काम है? क्या उनकी जिम्मेदारियाँ भी बड़ी नहीं होतीं, और क्या उन्हें और ज्यादा जिम्मेदारी नहीं उठानी चाहिए? चाहे तुम सुसमाचार फैलाते हो, गवाही देते हो, वीडियो बनाते हो, या कुछ और करते हो—इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो—जब तक इसका संबंध सत्य सिद्धांतों से है, तब तक उसमें उत्तरदायित्व होंगे। यदि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में कोई सिद्धांत नहीं हैं, तो उसका असर परमेश्वर के घर के कार्य पर पड़ेगा, और यदि तुम जिम्मेदारी उठाने से डरते हो, तो तुम कोई काम नहीं कर सकते। अगर किसी को कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी लेने से डर लगता है तो क्या वह कायर है या उसके स्वभाव में कोई समस्या है? तुम्हें अंतर बताने में समर्थ होना चाहिए। दरअसल, यह कायरता का मुद्दा नहीं है। यदि वह व्यक्ति धन के पीछे भाग रहा है, या वह अपने हित में कुछ कर रहा है, तो वह इतना बहादुर कैसे हो सकता है? वह कोई भी जोखिम उठा लेगा। लेकिन जब वह कलीसिया के लिए, परमेश्वर के घर के लिए काम करता है, तो वह कोई जोखिम नहीं उठाता। ऐसे लोग स्वार्थी, नीच और बेहद कपटी होते हैं। कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी न उठाने वाला व्यक्ति परमेश्वर के प्रति जरा भी ईमानदार नहीं होता, उसकी वफादारी की क्या बात करना। किस तरह का व्यक्ति जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत करता है? किस प्रकार के इंसान में भारी बोझ वहन करने का साहस है? जो व्यक्ति अगुआई करते हुए परमेश्वर के घर के काम के सबसे महत्वपूर्ण पलों में बहादुरी से आगे बढ़ता है, जो अहम और अति महत्वपूर्ण कार्य देखकर बड़ी जिम्मेदारी उठाने और मुश्किलें सहने से नहीं डरता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार होता है, मसीह का अच्छा सैनिक होता है। क्या बात ऐसी है कि लोग कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने से इसलिए डरते हैं, क्योंकि उन्हें सत्य की समझ नहीं होती? नहीं; समस्या उनकी मानवता में होती है। उनमें न्याय या जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे स्वार्थी और नीच लोग होते हैं, वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं होते, और वे सत्य जरा भी नहीं स्वीकारते। इन कारणों से उन्हें बचाया नहीं जा सकता। परमेश्वर के विश्वासियों को सत्य हासिल करने के लिए बहुत भारी कीमत चुकानी ही होगी, उसे अभ्यास में लाने के लिए उन्हें बहुत-सी कठिनाइयों से गुजरना होगा। उन्हें बहुत-सी चीजों का त्याग करना होगा, दैहिक-सुखों को छोड़ना होगा और कष्ट उठाने पड़ेंगे। तब जाकर वे सत्य का अभ्यास करने योग्य बन पाएंगे। तो, क्या जिम्मेदारी लेने से डरने वाला इंसान सत्य का अभ्यास कर सकता है? यकीनन वह सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता, सत्य हासिल करना तो दूर की बात है। वह सत्य का अभ्यास करने और अपने हितों को होने वाले नुकसान से डरता है; उसे अपमानित और उपेक्षित होने का डर होता है, उसे आलोचना का डर होता है, और वह सत्य का अभ्यास करने की हिम्मत नहीं करता। नतीजतन, वह उसे हासिल नहीं कर सकता। परमेश्वर में उसका विश्वास चाहे जितना पुराना हो, वह उसका उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता। परमेश्वर के घर में कर्तव्य करने वाले लोग ऐसे होने चाहिए जो कलीसिया के काम को अपना दायित्व समझें, जो जिम्मेदारी लें, सत्य सिद्धांत कायम रखें, और जो कष्ट सहकर कीमत चुकाएँ। अगर कोई इन क्षेत्रों में कम होता है, तो वह कर्तव्य करने के अयोग्य होता है, और कर्तव्य करने की शर्तों को पूरा नहीं करता है। कई लोग ऐसे होते हैं, जो कर्तव्य पालन की जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। उनका डर मुख्यतः तीन तरीकों से प्रकट होता है। पहला यह है कि वे ऐसे कर्तव्य चुनते हैं, जिनमें जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता नहीं होती। अगर कलीसिया का अगुआ उनके लिए किसी कर्तव्य पालन की व्यवस्था करता है, तो पहले वे यह पूछते हैं कि क्या उन्हें इसकी जिम्मेदारी लेनी ही पड़ेगी : अगर ऐसा होता है, तो वे उसे स्वीकार नहीं करते। अगर उन्हें उसकी जिम्मेदारी लेने और उसके लिए जिम्मेदार होने की आवश्यकता नहीं होती, तो वे उसे अनिच्छा से स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन फिर भी वे यह देख लेते हैं कि काम थका देने वाला या परेशान करने वाला तो नहीं, और कर्तव्य को अनिच्छा से स्वीकार कर लेने के बावजूद, वे उसे अच्छी तरह से करने के लिए प्रेरित नहीं होते, उस स्थिति में भी वे बेपरवाह बने रहना पसंद करते हैं। आराम, कोई मेहनत नहीं, और कोई शारीरिक कठिनाई नहीं—यह उनका सिद्धांत होता है। दूसरा तरीका यह है कि जब उन पर कोई कठिनाई आती है या किसी समस्या से उनका सामना होता है, तो उनकी टालमटोल का पहला तरीका यह होता है कि उसकी रिपोर्ट किसी अगुआ को कर दी जाए और अगुआ को ही उसे सँभालने और हल करने दिया जाए, और आशा की जाए कि उनके आराम में कोई खलल नहीं पड़ेगा। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि अगुआ उस मुद्दे को कैसे सँभालता है, वे खुद उस पर कोई ध्यान नहीं देते—अगर उनकी जिम्मेदारी नहीं है, तो उनके लिए सब ठीक है। क्या ऐसा कर्तव्य-पालन परमेश्वर के प्रति निष्ठा है? इसे अपनी जिम्मेदारी दूसरे के सिर मढ़ना, कर्तव्य की उपेक्षा करना, चालाकियाँ करना कहा जाता है। यह केवल बातें बनाना है; वे कुछ भी वास्तविक नहीं कर रहे हैं। वे मन में कहते हैं, “अगर यह चीज मुझे ही सुलझानी है, तो अगर मैं गलती कर बैठा तो होगा? जब वे देखेंगे कि किसे दोष देना है, तो क्या वे मुझे नहीं पकड़ेंगे? क्या इसकी जिम्मेदारी सबसे पहले मुझ पर नहीं आएगी?” उन्हें इसी बात की चिंता रहती है। लेकिन क्या तुम मानते हो कि परमेश्वर सबकी जाँच करता है? गलतियाँ सबसे होती हैं। अगर किसी नेक इरादे वाले व्यक्ति के पास अनुभव की कमी है और उसने पहले कोई मामला नहीं सँभाला है, लेकिन उसने पूरी मेहनत की है, तो यह परमेश्वर को दिखता है। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सभी चीजों और मनुष्य के हृदय की जाँच करता है। अगर कोई इस पर भी विश्वास नहीं करता, तो क्या वह छद्म-विश्वासी नहीं है? फिर ऐसे व्यक्ति के कर्तव्य निभाने के मायने ही क्या हैं? इससे वाकई कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे यह कर्तव्य निभाते हैं या नहीं, है न? वे जिम्मेदारी लेने से डरते हैं और जिम्मेदारी से भागते हैं। जब कुछ होता है, तो पहला काम जो वे करते हैं, वह यह नहीं होता कि समस्या से निपटने का तरीका सोचने की कोशिश करें, बल्कि पहला काम वे यह करते हैं कि अगुआ को कॉल करके इसकी सूचना देते हैं। निस्संदेह, कुछ लोग अगुआ को सूचित करते हुए खुद समस्या से निपटने का प्रयास करते हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं करते, और उनका पहला काम होता है अगुआ को कॉल करना, और कॉल करने के बाद वे बस निष्क्रिय रहकर निर्देशों की प्रतीक्षा करते हैं। जब अगुआ उन्हें कोई कदम उठाने का निर्देश देता है, तो वे वह कदम उठाते हैं; अगर अगुआ कुछ करने के लिए कहता है, तो वे वैसा करते हैं। अगर अगुआ कुछ नहीं कहता या कोई निर्देश नहीं देता, तो वे कुछ नहीं करते और बस टालते रहते हैं। बिना किसी के प्रेरित किए या बिना निगरानी के वे कोई काम नहीं करते। बताओ, क्या ऐसा व्यक्ति कर्तव्य निभा रहा है? अगर वह मेहनत कर भी रहा हो, तो भी उसमें निष्ठा नहीं होती! एक और तरीका है, जिससे किसी व्यक्ति का कर्तव्य निर्वहन करते समय जिम्मेदारी लेने का डर प्रकट होता है। जब ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो उनमें से कुछ लोग बस थोड़ा-सा सतही, सरल कार्य करते हैं, ऐसा कार्य जिसमें जिम्मेदारी लेना शामिल नहीं होता। जिस कार्य में कठिनाइयाँ और जिम्मेदारी लेना शामिल होता है, उसे वे दूसरों पर डाल देते हैं, और अगर कुछ गलत हो जाता है, तो दोष उन लोगों पर मढ़ देते हैं और अपना दामन साफ रखते हैं। जब कलीसिया के अगुआ देखते हैं कि वे गैर-जिम्मेदार हैं, तो वे धैर्यपूर्वक मदद की पेशकश करते हैं, या उनकी काट-छाँट करते हैं, ताकि वे जिम्मेदारी लेने में सक्षम हो सकें। लेकिन फिर भी, वे ऐसा नहीं करना चाहते, और सोचते हैं, “यह कर्तव्य करना कठिन है। चीजें गलत होने पर मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, और हो सकता है कि मुझे निकालकर हटा भी दिया जाए, और यह मेरे लिए अंत होगा।” ये कैसा रवैया है? अगर उन्हें अपना कर्तव्य निभाने में जिम्मेदारी का एहसास नहीं है, तो वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभा सकते हैं? जो लोग वास्तव में खुद को परमेश्वर के लिए नहीं खपाते, वे कोई कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा सकते, और जो लोग जिम्मेदारी लेने से डरते हैं, वे अपने कर्तव्य निभाने पर सिर्फ देरी ही करेंगे। ऐसे लोग विश्वसनीय या भरोसेमंद नहीं होते; वे सिर्फ पेट भरने के लिए अपना कर्तव्य निभाते हैं। क्या ऐसे “भिखारियों” को निकाल देना चाहिए? बेशक निकाल देना चाहिए। परमेश्वर के घर को ऐसे लोगों की जरूरत नहीं। ये उन लोगों की तीन अभिव्यक्तियाँ हैं जो अपना कर्तव्य निभाने की जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। जो लोग अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी उठाने से डरते हैं वे एक निष्ठावान मजदूर के स्तर तक भी नहीं पहुँच पाते, और कर्तव्य निभाने के लायक नहीं होते हैं। कुछ लोगों को अपने कर्तव्य के प्रति इस प्रकार के रवैये के कारण हटा दिया जाता है। अब भी वे इसका कारण नहीं जानते और शिकायत करते हुए कहते हैं, “मैंने अपना कर्तव्य पूरे जोश के साथ निभाया, तो भी उन्होंने मुझे इतनी बेरुखी से बाहर क्यों निकाल दिया?” उनकी समझ में यह बात अब भी नहीं आती। जो लोग सत्य को नहीं समझते वे जीवन भर यह समझने में असमर्थ रहते हैं कि उन्हें क्यों हटाया गया था। वे अपने लिए बहाने बनाते हैं, और अपना बचाव करते रहते हैं, सोचते हैं, “किसी के लिए अपनी रक्षा करना स्वाभाविक है, और उन्हें ऐसा करना चाहिए। किसे अपना थोड़ा सा ख्याल नहीं रखना चाहिए? किसे अपने बारे में थोड़ा सा नहीं सोचना चाहिए? किसे अपने बच निकलने का रास्ता खोल कर रखने की जरूरत नहीं है?” अगर कोई समस्या आने पर तुम अपनी रक्षा करते हो और अपने लिए बचने का रास्ता रखते हो, पिछले दरवाजे से निकलना चाहते हो, तो क्या ऐसा करके तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो? यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है—यह धूर्त होना है। अब तुम परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। कोई कर्तव्य निभाने का पहला सिद्धांत क्या है? वह यह है कि पहले तुम्हें भरसक प्रयास करते हुए अपने पूरे दिल से वह कर्तव्य निभाना चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी चाहिए। यह एक सत्य सिद्धांत है, जिसे तुम्हें अभ्यास में लाना चाहिए। अपने लिए बचाव का रास्ता छोड़ना, पिछला दरवाजा रखना, अविश्वासियों द्वारा अपनाए गए अभ्यास का सिद्धांत है, और उनका सबसे ऊँचा फलसफा है। सभी मामलों में सबसे पहले अपने बारे में सोचना और अपने हित बाकी सब चीजों से ऊपर रखना, दूसरों के बारे में न सोचना, परमेश्वर के घर के हितों और दूसरों के हितों के साथ कोई संबंध न रखना, अपने हितों के बारे में पहले सोचना और फिर बचाव के रास्ते के बारे में सोचना—क्या यह एक अविश्वासी नहीं है? एक अविश्वासी ठीक ऐसा ही होता है। इस तरह का व्यक्ति कोई कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक)

एक कर्तव्य निभाने के लिए दो लोगों को लगाया जाता है। दोनों इसकी जिम्मेदारी लेने से डरते हैं, इसलिए दोनों एक दूसरे से बुद्धि से जीतना चाहते हैं। एक कहता है, “तुम जाओ इसे देखो।” दूसरा कहता है, “इसे सँभालना तुम्हारे लिए बेहतर होगा। मेरी काबिलियत तुमसे कम है।” वे वास्तव में जो सोच रहे हैं, वह है : “इस काम को अच्छी तरह से करने का कोई इनाम नहीं मिलने वाला, और अगर यह खराब तरीके से हुआ, तो मेरी काई-छाँट की जाएगी। मैं नहीं जाने वाला—मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ! मैं जानता हूँ कि तुम क्या चाहते हो। मुझे जाने के लिए मनाने की कोशिश करना बंद करो।” उनके इस ठेलम-ठेल का अंत क्या होता है? उनमें से कोई नहीं जाता और परिणामस्वरूप काम लटक जाता है। क्या यह अनैतिक नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या कार्य में देरी एक गंभीर परिणाम नहीं है? यह एक बुरा नतीजा है। तो ऐसा क्या है जिसके सहारे ये दोनों जी रहे हैं? दोनों शैतानी फलसफों के अनुसार जी रहे हैं; वे शैतानी फलसफों और अपनी चालबाजी से बेबस हैं और उसी से बँधे हैं। वे सत्य का अभ्यास करने में विफल रहे हैं, और इस प्रकार उनके कर्तव्य का प्रदर्शन मानक के अनुरूप नहीं है। यह अनमना होना है, और इसमें बिल्कुल भी कोई गवाही नहीं है। मान लो कि दो लोगों को एक कर्तव्य निभाने के लिए लगाया गया है। उनमें से एक हर चीज में प्रमुख स्थान लेने की कोशिश करता है और हमेशा अपनी मनमानी करना चाहता है, और दूसरा सोच सकता है, “वे काफी सख्त हैं; उन्हें अगुआई करना पसंद है। खैर वे हर चीज में अगुआई कर सकते हैं, और जब कुछ गलत होगा, तो उन्हीं की काट-छाँट होगी। ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है’! फिर मैं आगे नहीं रहूँगा। वैसे भी मेरी काबिलियत खराब है और मुझे चीजों से परेशान होना पसंद नहीं है। उन्हें अगुआई करना पसंद है, है न? खैर अगर कुछ करना होगा तो मैं इसे उन पर छोड़ दूँगा!” जो व्यक्ति ऐसी बातें कहता है वह खुशामदी होना और पीछे-पीछे चलना पसंद करता है। तुम उनके कर्तव्य पालन के तरीके से क्या समझते हो? वे किसके सहारे जी रहे हैं? (सांसारिक आचरण के फलसफों के सहारे।) वे कुछ और भी सोच रहे हैं। “अगर मैंने उनकी चमक चुरा ली तो क्या वे मुझ पर गुस्सा नहीं होंगे? क्या आगे चलकर हम दोनों के बीच मनमुटाव नहीं होगा? यदि इसका असर हमारे रिश्ते पर पड़ा, तो हमारा साथ करना मुश्किल हो जाएगा। बेहतर होगा कि मैं उन्हें उनके मन की करने दूँ।” क्या यह सांसारिक आचरण का फलसफा नहीं है? उनके जीने के तरीके के कारण वे परेशानी से बच जाते हैं। यह उन्हें जिम्मेदारी लेने से बचने में समर्थ बनाता है। उन्हें जो कुछ भी करने को कहा गया है उसे वे चुपचाप करेंगे, उन्हें न आगे आना होगा, न ही गरदन आगे करनी होगी, और किसी भी समस्या के बारे में नहीं सोचना होगा। सब कुछ किसी और के द्वारा किया जा रहा है, इसलिए वे खुद को नहीं थकाएँगे। अनुयायी बनने की उनकी इच्छा यह साबित करती है कि उनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं है। वे सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जी रहे हैं। वे सत्य को स्वीकार नहीं करते या सिद्धांतों पर कायम नहीं रहते। यह सामंजस्यपूर्ण सहयोग नहीं है, यह एक अनुयायी बनना है, खुशामदी होना है। यह सहयोग क्यों नहीं है? क्योंकि वे किसी भी चीज में अपनी जिम्मेदारी पर खरे नहीं उतरते। वे अपने पूरे दिल या पूरे दिमाग से कार्य नहीं करते, और यह भी हो सकता है कि वे अपनी पूरी ताकत से कार्य नहीं करते। इसीलिए मैं कहता हूँ कि वे सत्य के बजाय सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जी रहे हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं?

अगर तुम्हें लगता है कि तुम किसी कार्य-विशेष को कर सकते हो, लेकिन तुम गलती करने और निकाल दिए जाने से डरते भी हो, इसलिए तुम दब्बू और काहिल हो और प्रगति नहीं कर सकते, तो क्या यह आज्ञाकारी रवैया है? उदाहरण के लिए, यदि भाई-बहन तुम्हें अपना अगुआ चुन लेते हैं, तो तुम अपने चुने जाने के कारण उस काम को करने के लिए अनुगृहीत तो महसूस करते हो, लेकिन तुम उस काम को सक्रिय रवैये से स्वीकार नहीं करते। तुम सक्रिय क्यों नहीं होते? क्योंकि उसके बारे में तुम्हारे कुछ विचार होते हैं, तुम्हें लगता है, “अगुआ होना बिल्कुल अच्छी बात नहीं है। यह तलवार की धार पर चलने या बर्फ की पतली तह पर चलने जैसा है। अच्छा काम करने पर मुझे कोई इनाम तो मिलने से रहा, लेकिन खराब काम करने पर मुझसे निपटा जाएगा और मेरी काट-छाँट की जाएगी। निपटा जाना फिर भी इतना बुरा नहीं है। लेकिन अगर मुझे हटा ही दिया गया या निकाल दिया गया, तो क्या होगा? अगर ऐसा हुआ, तो क्या मेरा खेल खत्म नहीं हो जाएगा?” ऐसी स्थिति में तुम दुविधाग्रस्त हो जाते हो। यह कैसा रवैया है? यह सतर्कता और गलतफहमी है। अपने कर्तव्य के प्रति लोगों का रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए। यह एक हताशा से भरा और नकारात्मक रवैया है। तो सकारात्मक रवैया कैसा होना चाहिए? (हमें खुले दिल वाला और स्पष्टवादी होना चाहिए, और दायित्व उठाने का साहस रखना चाहिए।) यह आज्ञाकारिता और सक्रिय सहयोग वाला रवैया होना चाहिए। तुम लोग जो कहते हो वह थोड़ा-सा खोखला है। जब तुम इस तरह इतने डरे हुए हो, तो खुले दिल वाले और स्पष्टवादी कैसे हो सकते हो? और दायित्व उठाने का साहस रखने का क्या अर्थ है? कौन-सी मानसिकता तुम्हें दायित्व उठाने का साहस देगी? यदि तुम हमेशा डरते रहते हो कि कुछ गलत हो जाएगा और मैं इसे संभाल नहीं पाऊँगा, और तुम्हारे पास कई अंदरूनी बाधाएँ हैं, तो तुममें दायित्व उठाने के साहस की मौलिक रूप से कमी होगी। तुम जिस “खुले दिल वाले और स्पष्टवादी होने,” “दायित्व उठाने का साहस रखने,” या “मौत के सामने भी कभी पीछे नहीं हटने” की बात करते हो, वह कुछ हद तक आक्रोश से भरे युवाओं की नारेबाजी जैसा लगता है। क्या ये नारे व्यावहारिक समस्याओं का समाधान कर सकते हैं? अब जरूरत है सही रवैये की। सही रवैया रखने के लिए तुम्हें सत्य के इस पहलू को समझना होगा। तुम्हारी अंदरूनी कठिनाइयाँ हल करने का एकमात्र तरीका यही है, और यह तुम्हें इस आदेश, इस कर्तव्य को आसानी से स्वीकार करने देता है। यह अभ्यास का मार्ग है, और केवल यही सत्य है। यदि तुम अपना डर भगाने के लिए “खुले दिल वाले और स्पष्टवादी होने” और “दायित्व उठाने का साहस रखने” जैसे शब्दों का उपयोग करोगे, तो क्या यह प्रभावी होगा? (नहीं।) इससे जाहिर होता है कि ये बातें सत्य नहीं हैं, न ही ये अभ्यास का मार्ग हैं। तुम कह सकते हो, “मैं खुले दिल वाला, स्पष्टवादी और अदम्य आध्यात्मिक कद का व्यक्ति हूँ, मेरे मन में कोई अन्य विचार या दूषित तत्त्व नहीं हैं और मुझमें दायित्व उठाने का साहस है।” बाहरी तौर पर तो तुम अपने कर्तव्य स्वीकारते हो, लेकिन बाद में, कुछ देर विचार करने पर तुम्हें अभी भी लगता है कि तुम इस दायित्व को नहीं उठा सकते। तुम्हें अभी भी डर लग सकता है। इसके अलावा, तुम दूसरों से अपनी काट-छाँट होते देखकर और भी डर जाते हो, जैसे कोड़े खाया हुआ कुत्ता पट्टे से भी डरता है। तुम्हें लगातार लगता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और यह काम एक विशाल, अगाध खाई की तरह है, और अंततः तुम अभी भी इस दायित्व को नहीं उठा पाओगे। इसलिए नारेबाजी करने से व्यावहारिक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। तो तुम वास्तव में इस समस्या को कैसे हल कर सकते हो? तुम्हें सक्रियता से सत्य खोजना चाहिए और आज्ञाकारिता और सहयोग का रवैया अपनाना चाहिए। इससे समस्या पूरी तरह हल हो सकती है। दब्बूपन, डर और चिंता फिजूल हैं। तुम्हें उजागर कर निकाल दिया जाएगा या नहीं, क्या इसका तुम्हारे अगुआ होने से कोई संबंध है? अगर तुम एक अगुआ नहीं हो तो क्या तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव लुप्त हो जाएगा? देर-सवेर, तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को हल करना होगा। साथ ही, अगर तुम एक अगुआ नहीं हो, तो तुम्हें अभ्यास के लिए ज्यादा अवसर नहीं मिलेंगे और तुम जीवन में धीमी प्रगति करोगे, और तुम्हारे पास पूर्ण बनाए जाने की संभावनाएं कम होंगी। हालाँकि एक अगुआ या कार्यकर्ता होने पर थोड़ा ज्यादा कष्ट उठाना पड़ता है, पर इससे कई लाभ भी मिलते हैं, और अगर तुम सत्य के अनुसरण के रास्ते पर चल सकते हो, तो तुम पूर्ण बनाए जा सकते हो। यह कितना बड़ा आशीष है! इसलिए तुम्हें समर्पित होना चाहिए और सक्रिय रूप से सहयोग करना चाहिए। यह तुम्हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है। आगे का मार्ग कैसा भी हो, तुम्हारा दिल आज्ञापालन करने वाला होना चाहिए। इसी रवैये के साथ तुम्हें अपने कर्तव्य का निर्वाहन करना चाहिए।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?

अगर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में, तुम लोग अपना कर्तव्य निभाते समय सामने आने वाली समस्याओं को नजरअंदाज करते हो और यहाँ तक कि तुम जिम्मेदारी से बचने के लिए विभिन्न कारण और बहाने भी खोज लेते हो, और तुम ऐसी कुछ समस्याएँ हल नहीं करते हो जिन्हें तुम हल करने में सक्षम हो, और तुम जो समस्याएँ हल करने में अक्षम हो, उनकी सूचना ऊपरवाले को नहीं देते हो, मानो उनका तुमसे कोई लेना-देना ना हो, तो क्या यह जिम्मेदारी के प्रति लापरवाही नहीं है? क्या कलीसिया के कार्य के साथ ऐसे पेश आना होशियारी भरा काम है, या बेवकूफी भरा? (यह बेवकूफी भरा काम है।) क्या ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता अविश्वसनीय नहीं होते? क्या वे जिम्मेदारी की भावना से रहित नहीं होते? जब वे समस्याओं का सामना करते हैं, तो उन्हें नजरअंदाज कर देते हैं—क्या वे विचारहीन लोग नहीं हैं? क्या वे शातिर लोग नहीं हैं? शातिर लोग सबसे मूर्ख लोग होते हैं। तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, समस्याओं से सामना होने पर तुममें जिम्मेदारी की भावना होनी चाहिए, और उन्हें हल करने के लिए तुम्हें हर संभव तरीका आजमाना चाहिए और सत्य की तलाश करनी चाहिए। तुम्हें शातिर व्यक्ति बिल्कुल नहीं होना चाहिए। अगर तुम जिम्मेदारी से बचने और समस्याएँ आने पर उनसे पल्ला झाड़ने में लगे रहते हो, तो गैरविश्वासी तक तुम्हारे इस व्यवहार की निंदा करेंगे, परमेश्वर के घर में होगी ही! परमेश्वर द्वारा इस व्यवहार की निंदा किया जाना और उसे शापित किया जाना निश्चित है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा इससे नफरत की जाती है और इसे अस्वीकार किया जाता है। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है, और वह धोखेबाज और ढुलमुल लोगों से नफरत करता है। अगर तुम एक शातिर व्यक्ति हो और ढुलमुल तरीके से कार्य करते हो, तो क्या परमेश्वर तुमसे नफरत नहीं करेगा? क्या परमेश्वर का घर तुम्हें सजा दिए बिना ही छोड़ देगा? देर-सवेर तुम्हें जवाबदेह ठहराया जाएगा। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है और शातिर लोगों को नापसंद करता है। सभी को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए, और भ्रमित होना और मूर्खतापूर्ण कार्य करना बंद कर देना चाहिए। अस्थायी अज्ञान को माफ किया जा सकता है, लेकिन अगर कोई व्यक्ति सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता हैं, तो फिर इसका अर्थ है कि वह अत्यंत जिद्दी है। ईमानदार लोग जिम्मेदारी ले सकते हैं। वे अपनी फायदों और नुकसानों पर विचार नहीं करते, वे बस परमेश्वर के घर के काम और हितों की रक्षा करते हैं। उनके दिल दयालु और ईमानदार होते हैं, साफ पानी के उस कटोरे की तरह, जिसका तल एक नजर में देखा जा सकता है। उनके क्रियाकलापों में पारदर्शिता भी होती है। धोखेबाज व्यक्ति हमेशा ढुलमुल तरीके से कार्य करता है, हमेशा ढोंग करता है, चीजें ढकता है और छुपाता है और खुद को बहुत ही कसकर समेटकर रखता है। इस तरह के व्यक्ति की असलियत कोई पहचान नहीं पाता है। लोग तुम्हारे आंतरिक विचारों की असलियत समझ नहीं पाते हैं, लेकिन परमेश्वर तुम्हारे अंतरतम हृदय में मौजूद चीजों की जाँच-पड़ताल कर सकता है। जब परमेश्वर देखता है कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, कि तुम एक धूर्त हो, कि तुम कभी भी सत्य स्वीकार नहीं करते, हमेशा उसके खिलाफ धूर्तता करते हो, और कभी भी अपना दिल उसे नहीं सौंपते, तो वह तुम्हें पसंद नहीं करता है, और वह तुमसे नफरत करता है और तुम्हारा त्याग कर देता है। अविश्वासियों के बीच फलने-फूलने वाले, और जो लोग चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं और हाजिरजवाब होते हैं, वे सभी किस किस्म के लोग होते हैं? क्या यह तुम लोगों को स्पष्ट है? उनका सार कैसा होता है? यह कहा जा सकता है कि वे सभी असाधारण रूप से रहस्यपूर्ण होते हैं, वे सभी अत्यंत धोखेबाज और शातिर होते हैं, वे असली राक्षस और शैतान होते हैं। क्या परमेश्वर इस किस्म के लोगों को बचा सकता है? परमेश्वर शैतानों से ज्यादा किसी से नफरत नहीं करता—ऐसे लोग जो धोखेबाज और शातिर होते हैं—और यकीनन वह ऐसे लोगों को नहीं बचाएगा। तुम लोगों को इस किस्म का व्यक्ति बिल्कुल नहीं होना चाहिए। जो लोग बोलते समय हमेशा चौकस और सतर्क रहते हैं, जो शांत और चालाक होते हैं और मामलों से निपटते समय मौके के उपयुक्त भूमिका निभाते हैं—मैं तुम्हें बताता हूँ, परमेश्वर ऐसे लोगों से सबसे ज्यादा नफरत करता है, ऐसे लोगों को बचाया नहीं जा सकता है। धोखेबाज और शातिर लोगों की श्रेणी के सभी लोगों के संबंध में, सुनने में उनके शब्द चाहे कितने भी अच्छे क्यों ना लगें, वे सभी धोखेबाज, शैतानी शब्द होते हैं। इन लोगों के शब्द सुनने में जितने अच्छे लगते हैं, वे उतने ही ज्यादा राक्षस और शैतान होते हैं। ये बिल्कुल उसी किस्म के लोग हैं जिनसे परमेश्वर सबसे ज्यादा नफरत करता है। यह बिल्कुल सही है। तुम लोग क्या कहते हो : क्या धोखेबाज लोग, अक्सर झूठ बोलने वाले लोग और चिकनी-चुपड़ी बातें करने वाले लोग पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हैं? क्या वे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। धोखेबाज और शातिर लोगों के प्रति परमेश्वर का क्या रवैया होता है? वह उनका तिरस्कार करता है, उन्हें दरकिनार कर देता है और उनकी तरफ ध्यान नहीं देता, वह उन्हें पशुओं की श्रेणी का ही मानता है। परमेश्वर की नजरों में, ऐसे लोग सिर्फ मनुष्य की खाल पहने होते हैं, सार में वे राक्षस और शैतान ही होते हैं, वे चलती-फिरती लाशें हैं, और परमेश्वर उन्हें बिल्कुल नहीं बचाएगा।

—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8)

इस समय, कर्तव्य निभाने वाले बहुत-से लोगों में समस्याओं की एक विस्तृत शृंखला अभी भी मौजूद है। कुछ लोग अपने कर्तव्यों में हमेशा निष्क्रिय रहते हैं, हमेशा बैठे रहकर प्रतीक्षा करते हैं और दूसरों पर निर्भर रहते हैं। यह कैसा रवैया है? यह गैरजिम्मेदारी है। परमेश्वर के घर ने तुम्हारे लिए एक कर्तव्य निभाने की व्यवस्था की है, फिर भी तुम बिना कोई ठोस काम किए कई दिनों तक इस पर विचार करते हो। तुम कार्यस्थल पर कहीं दिखाई नहीं देते, और जब लोगों को समस्याएँ होती हैं जिन्हें हल करना आवश्यकता होता है, तो वे तुम्हें नहीं ढूँढ़ पाते। तुम इस कार्य का दायित्व नहीं उठाते। अगर कोई अगुआ काम के बारे में पूछता है, तो तुम उन्हें क्या बताओगे? तुम अभी किसी भी तरह का काम नहीं कर रहे। तुम अच्छी तरह से जानते हो कि यह काम तुम्हारी जिम्मेदारी है, लेकिन तुम इसे नहीं करते। आखिर तुम सोच क्या रहे हो? क्या तुम कोई काम इसलिए नहीं करते, क्योंकि तुम उसमें सक्षम नहीं हो? या तुम सिर्फ आरामतलब हो? अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा क्या रवैया है? तुम केवल शब्दों और सिद्धांतों के बारे में बात करते हो और केवल कर्ण-प्रिय बातें कहते हो, लेकिन तुम कोई असल कार्य नहीं करते। यदि तुम अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते, तो तुम्हें इस्तीफा दे देना चाहिए। निष्क्रिय रहकर पद पर मत बने रहो। क्या ऐसा करना परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाना और कलीसिया के काम को खतरे में डालना नहीं है? तुम जिस तरह से बातें करते हो, ऐसा लगता है जैसे तुम सभी तरह के सिद्धांत समझते हो, लेकिन जब काम करने के लिए कहा जाता है, तो तुम अनमने हो जाते हो, और जरा भी कर्तव्यनिष्ठ नहीं रहते। क्या यही परमेश्वर के लिए ईमानदारी से खुद को खपाना है? जब परमेश्वर की बात आती है तो तुम ईमानदार नहीं होते, फिर भी तुम ईमानदारी का दिखावा करते हो। क्या तुम उसे धोखा दे सकते हो? जिस तरह से तुम आमतौर पर बातचीत करते हो, ऐसा लगता है कि तुममें बहुत आस्था है; तुम कलीसिया के स्तंभ और उसकी चट्टान बनना चाहते हो। लेकिन जब तुम कोई कर्तव्य निभाते हो, तो माचिस की तीली से भी कम उपयोगी होते हो। क्या यह परमेश्वर को जान-बूझकर धोखा देना नहीं है? क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश करने का क्या परिणाम होगा? वह तुम्हें ठुकरा देगा और तुम्हें हटा देगा! अपने कर्तव्य निभाने के जरिये सभी लोगों की कलई खुल जाती है—किसी व्यक्ति को बस कोई कर्तव्य सौंप दो, और तुम्हें यह जानने में अधिक समय नहीं लगेगा कि वह व्यक्ति ईमानदार है या कपटी, और वह सत्य से प्रेम करता है या नहीं। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे ईमानदारी से अपने कर्तव्य निभा सकते हैं और परमेश्वर के घर के कार्य को बनाए रखते हैं; जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे परमेश्वर के घर के कार्य को जरा भी बनाए नहीं रखते और वे अपने कर्तव्य निभाने में गैर-जिम्मेदार होते हैं। स्पष्टदर्शी लोगों को यह तुरंत स्पष्ट हो जाता है। अपना कर्तव्य खराब ढंग से निभाने वाला कोई भी व्यक्ति सत्य का प्रेमी या ईमानदार व्यक्ति नहीं होता; ऐसे तमाम लोग प्रकट कर हटा दिए जाएँगे। अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए लोगों में जिम्मेदारी की भावना और दायित्व-बोध होना चाहिए। इस तरह, काम निश्चित रूप से ठीक से किया जाएगा। चिंता की बात तभी है, जब व्यक्ति में दायित्व-बोध या जिम्मेदारी की भावना न हो, जब उससे हर काम कह-कहकर करवाना पड़े, जब वह हमेशा अनमना रहे और समस्याएँ पैदा होने पर दोष दूसरों पर मढ़ने की कोशिश करे, जिससे उनके समाधान में देरी हो। तो क्या काम फिर भी ठीक से किया जा सकता है? क्या उसके कर्त्तव्य-प्रदर्शन का कोई परिणाम निकल सकता है? वह अपने लिए व्यवस्थित कोई भी काम नहीं करना चाहता, और जब देखता है कि दूसरों को अपने काम में सहायता की आवश्यकता है, तो वह नजरंदाज कर देता है। वह तभी थोड़ा-बहुत काम करता है, जब उसे आदेश दिया जाता है, जब वह लाचार हो जाता है और उसके पास कोई विकल्प नहीं रहता। यह कर्तव्य निभाना नहीं है—यह तो भाड़े का मजदूर होना है! भाड़े का मजदूर अपने मालिक के लिए काम करता है, दिहाड़ी पर काम करता है, जितने घंटे काम करता है उतने घंटे का वेतन लेता है; वह बस मजदूरी मिलने की बाट जोहता रहता है। वह ऐसा कोई काम करना नहीं चाहता जिसे मालिक न देखे, वह डरता है कि उसे अपने हर काम के लिए इनाम नहीं मिलेगा, वह महज दिखावे के लिए काम करता है—यानी उसमें वफादारी नाम की कोई चीज नहीं होती। काम में आ रही समस्याओं के बारे में पूछे जाने पर अधिकांश समय तुम लोग उत्तर नहीं दे पाते। तुममें कुछ लोग काम में शामिल हुए हैं, लेकिन तुम लोगों ने कभी नहीं पूछा कि काम कैसा चल रहा है, न ही इस बारे में सावधानी से सोचा है। तुम लोगों की क्षमता और ज्ञान को देखते हुए, तुम लोगों को कम से कम कुछ पता होना चाहिए, क्योंकि तुम सबने इस कार्य में भाग लिया है। तो ज्यादातर लोग कुछ भी क्यों नहीं कहते? संभव है कि तुम लोगों को वास्तव में पता न हो कि क्या कहना है—कि तुम जानते ही न हो कि कामकाज ठीक चल रहा है या नहीं। इसके दो कारण हैं : एक यह कि तुम लोग पूरी तरह से उदासीन हो, और तुमने कभी इन चीजों की परवाह ही नहीं की है और केवल यह मानते रहे हो कि इस काम को किसी तरह निपटाना है। दूसरा यह है कि तुम गैर-जिम्मेदार हो और इन बातों की परवाह करने के अनिच्छुक हो। अगर वास्तव में तुम्हें परवाह होती, लगन होती, तो हर चीज पर तुम्हारा एक विचार और दृष्टिकोण होता। कोई दृष्टिकोण या विचार न होना अक्सर उदासीन और बेपरवाह होने तथा कोई जिम्मेदारी न लेने से पैदा होता है। तुम जो कर्तव्य निभाते हो, उसे मेहनत से नहीं निभाते, तुम कोई जिम्मेदारी नहीं उठाते, तुम कोई कीमत चुकाने या कर्तव्य में तल्लीन होने को तैयार नहीं होते। तुम कोई कष्ट नहीं उठाते और न ही अधिक ऊर्जा खर्च करने को तैयार होते हो; तुम बस मातहत बनना चाहते हो, जो किसी गैर-विश्वासी के अपने मालिक के लिए काम करने से अलग नहीं है। कर्तव्य का ऐसा प्रदर्शन परमेश्वर को नापसंद है और वह इससे प्रसन्न नहीं होता। इसे उसकी स्वीकृति नहीं मिल सकती।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है

सत्य का अनुसरण न करने वाले सभी लोग अपने कर्तव्य, जिम्मेदारी रहित मानसिकता के साथ निभाते हैं। “अगर कोई अगुआई करता है, तो मैं उसका अनुसरण करता हूँ; वह जहाँ ले जाता है, मैं वहीं चला जाता हूँ। वह मुझसे जो भी करवाएगा, मैं करूँगा। जहाँ तक जिम्मेदारी लेने और चिंता करने की बात है, या कुछ करने के लिए ज्यादा परेशानी उठाने की बात है, पूरे तन-मन से कुछ करने की बात है—तो उसके लिए मैं तैयार नहीं हूँ।” ये लोग कीमत चुकाने को तैयार नहीं हैं। वे सिर्फ परिश्रम करने के लिए तैयार हैं, जिम्मेदारी लेने के लिए नहीं। यह वह रवैया नहीं है, जिसके साथ कोई वास्तव में कर्तव्य निभाता है। व्यक्ति को अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में अपना दिल लगाना सीखना चाहिए, और जमीर वाला व्यक्ति इसे कर सकता है। अगर कोई अपने कर्तव्य-प्रदर्शन में कभी अपना दिल नहीं लगाता, तो इसका मतलब है कि उसके पास जमीर नहीं है, और जिसके पास जमीर नहीं है, वह सत्य प्राप्त नहीं कर सकता। मैं क्यों कहता हूँ कि वह सत्य प्राप्त नहीं कर सकता? वह नहीं जानता कि परमेश्वर से प्रार्थना कैसे की जाए और पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता कैसे खोजी जाए, न यह कि परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता कैसे दिखाई जाए, और न यह कि परमेश्वर के वचनों पर विचार करने में अपना दिल कैसे लगाया जाए, न ही वह यह जानता है कि सत्य कैसे खोजा जाए, परमेश्वर की अपेक्षाएँ और उसकी आकांक्षाओं समझने का प्रयास कैसे किया जाए। सत्य न खोज पाना यही है। क्या तुम लोग ऐसी अवस्थाओं का अनुभव करते हो, जिनमें चाहे कुछ भी हो जाए, या चाहे तुम जिस भी प्रकार का कर्तव्य निभाओ, तुम अक्सर परमेश्वर के सामने शांत रह पाते हो, और उसके वचनों पर विचार करने, सत्य की खोज करने और इस बात पर विचार करने में अपना दिल लगा पाते हो कि परमेश्वर के इरादों के अनुरूप तुम्हें वह कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए और वह कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभाने के लिए तुम्हारे पास कौन-से सत्य होने चाहिए? क्या ऐसे कई अवसर होते हैं, जिनमें तुम इस तरह सत्य खोजते हो? (नहीं।) अपना कर्तव्य दिल लगाकर करने और इसकी जिम्मेदारी लेने के लिए तुम्हें पीड़ा सहने और एक कीमत चुकाने की ज़रूरत है—इन चीजों के बारे में बात करना ही काफी नहीं है। यदि तुम अपना कर्तव्य दिल लगाकर नहीं करते, बल्कि हमेशा कड़ी मेहनत करना चाहते हो, तो तुम्हारा कर्तव्य निश्चित ही अच्छी तरह नहीं निभेगा। तुम बस बेमन से काम करते रहोगे, और कुछ नहीं, और तुम्हें पता नहीं चलेगा कि तुमने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाया है या नहीं। यदि तुम दिल लगाकर काम करोगे, तो तुम धीरे-धीरे सत्य को समझोगे; लेकिन अगर तुम ऐसा नहीं करोगे, तो तुम नहीं समझोगे। जब तुम दिल लगाकर अपना कर्तव्य निभाते हो और सत्य का पालन करते हो, तो तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के इरादे समझने, अपनी भ्रष्टता और कमियों का पता लगाने और अपनी सभी विभिन्न अवस्थाओं में महारत हासिल करने में सक्षम हो जाओगे। जब तुम्हारा ध्यान केवल प्रयास करने पर ही केंद्रित होता है, और तुम अपना दिल आत्मचिंतन करने पर नहीं लगाते, तो तुम अपने दिल की वास्तविक अवस्थाओं और विभिन्न परिवेशों में अपनी असंख्य प्रतिक्रियाओं और भ्रष्टता के प्रकाशनों का पता लगाने में असमर्थ होगे। अगर तुम नहीं जानते कि समस्याएँ अनसुलझी रहने पर क्या परिणाम होंगे, तो तुम बहुत परेशानी में हो। यही कारण है कि भ्रमित तरीके से परमेश्वर में विश्वास करना अच्छा नहीं है। तुम्हें हर समय, हर जगह परमेश्वर के सामने रहना चाहिए; तुम पर जो कुछ भी आ पड़े, तुम्हें हमेशा सत्य की खोज करनी चाहिए, और ऐसा करते हुए तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए और जानना चाहिए कि तुम्हारी अवस्था में क्या समस्याएँ हैं, और उन्हें हल करने के लिए फौरन सत्य की तलाश करनी चाहिए। केवल इसी तरह तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो और कार्य में देरी करने से बच सकते हो। तुम न सिर्फ अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा पाओगे, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारे पास जीवन-प्रवेश भी होगा और तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करने में सक्षम होगे। केवल इसी तरह से तुम सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो। अगर तुम अपने हृदय में अक्सर जिन मामलों पर विचार करते हो, वे तुम्हारे कर्तव्य निभाने से संबंधित मामले नहीं है, या ऐसे मामले नहीं है जिनका सत्य से संबंध है, बल्कि तुम देह के मामलों पर अपने विचारों के साथ बाहरी चीजों में उलझे रहते हो, तो क्या तुम सत्य समझने में सक्षम होगे? क्या तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर के सामने जीने में सक्षम होगे? हरगिज नहीं। ऐसा व्यक्ति बचाया नहीं जा सकता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है

एक ईमानदार व्यक्ति की सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यंजना है सभी मामलों में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना—यह सबसे महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपने मस्तिष्क के कोने में धकेल देते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? तुम कहते हो, “भले ही मेरी क्षमता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।” फिर भी, जब तुम्हें कोई कर्तव्य मिलता है, तो तुम इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से नहीं किया तो तुम्हें पीड़ा सहनी और इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, इसलिये तुम अपने कर्तव्य से बचने के लिये बहाने बनाते हो या फिर सुझाते कि इसे कोई और करे। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? स्पष्ट रूप से, नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति निष्ठावान होना चाहिए और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है : एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिये जाल न बिछाना। ये ईमानदारी की अभिव्यंजनाएँ हैं। दूसरा है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना तन-मन झोंक देना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए। अगर तुम वह नहीं करते जो तुम जानते और समझते हो, अगर तुम अपने प्रयास का 50-60 प्रतिशत ही देते हो, तो तुम इसमें अपना पूरा दिल और अपनी सारी शक्ति नहीं लगा रहे हो। बल्कि तुम धूर्त और काहिल हो। क्या इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने वाले लोग ईमानदार होते हैं? बिल्कुल नहीं। परमेश्वर के पास ऐसे धूर्त और धोखेबाज लोगों का कोई उपयोग नहीं है; उन्हें निकाल देना चाहिए। परमेश्वर कर्तव्य निभाने के लिए सिर्फ ईमानदार लोगों का उपयोग करता है। यहाँ तक कि निष्ठावान मजदूर भी ईमानदार होने चाहिए। जो लोग हमेशा अनमने और धूर्त होते हैं और ढिलाई के तरीके तलाशते रहते हैं—वे सभी लोग धोखेबाज हैं, वे सभी राक्षस हैं। उनमें से कोई भी वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता और वे सभी निकाल दिए जाएँगे। कुछ लोग सोचते हैं, “ईमानदार व्यक्ति होने का मतलब बस सच बोलना और झूठ न बोलना है। ईमानदार व्यक्ति बनना तो वास्तव में आसान है।” तुम इस भावना के बारे में क्या सोचते हो? क्या ईमानदार व्यक्ति होने का दायरा इतना सीमित है? बिल्कुल नहीं। तुम्हें अपना हृदय प्रकट करना होगा और इसे परमेश्वर को सौंपना होगा, यही वह रवैया है जो एक ईमानदार व्यक्ति में होना चाहिए। इसलिए एक ईमानदार हृदय अनमोल है। इसका तात्पर्य क्या है? इसका तात्पर्य है कि एक ईमानदार हृदय तुम्हारे व्यवहार को नियंत्रित कर सकता है और तुम्हारी मनोदशा बदल सकता है। यह तुम्हें सही विकल्प चुनने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसकी स्वीकृति प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकता है। ऐसा हृदय सचमुच अनमोल है। यदि तुम्हारे पास इस तरह का ईमानदार हृदय है, तो तुम्हें इसी स्थिति में रहना चाहिए, तुम्हें इसी तरह व्यवहार करना चाहिए, और इसी तरह तुम्हें खुद को समर्पित करना चाहिए।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

परमेश्वर के घर में, तुम चाहे जो भी कर्तव्य करो, तुम्हें सिद्धांत समझने चाहिए और सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए। फिर तुम सिद्धांतनिष्ठ बन जाओगे। अगर तुम किसी चीज को पहचान नहीं पा रहे हो, अगर तुम सुनिश्चित नहीं हो कि क्या करना उचित है, तो सर्वसम्मति पाने के लिए संगति करो। जब तुम निश्चित हो जाओ कि कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के लिए सर्वाधिक लाभकारी क्या है, तो उसे करो। नियमनों से बँधे मत रहो, देर मत करो, प्रतीक्षा मत करो, मूकदर्शक मत बनो। यदि तुम हमेशा मूकदर्शक बने रहोगे और कभी भी अपनी राय नहीं रखोगे, यदि कुछ भी करने से पहले तुम इस बात की प्रतीक्षा करोगे कि कोई और निर्णय ले ले, और जब कोई निर्णय नहीं लेता है, तो तुम धीरे-धीरे काम करोगे और प्रतीक्षा करते रहोगे, तो इसका क्या परिणाम होगा? हर कार्य बिगड़ जाएगा और कुछ भी पूरा नहीं हो पाएगा। तुम्हें सत्य खोजना सीखना चाहिए या कम-से-कम अपने जमीर और विवेक से काम लेने में सक्षम होना चाहिए। जब तक तुम्हें कोई कार्य करने का उचित तरीका समझ में आता है और ज्यादातर लोग इस तरीके को कारगर मानते हैं, तब तक तुम्हें इसी तरह अभ्यास करना चाहिए। उस कार्य की जिम्मेदारी लेने या दूसरों की नाराजगी मोल लेने या परिणाम भुगतने से मत डरो। अगर कोई कुछ वास्तविक कार्य नहीं करता है, हमेशा तोलमोल करते हुए जिम्मेदारी लेने से डरता है, और जो कार्य करता है उनमें सिद्धांतों का पालन करने का साहस नहीं कर पाता है, तो यह दिखाता है कि वह व्यक्ति निहायत ही चालाक और धूर्त है और उसके मन में बहुत सी दुष्ट योजनाएँ हैं। परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष का आनंद लेने की इच्छा रखना लेकिन कुछ भी वास्तविक न करना कितना अधर्म है। परमेश्वर ऐसे धूर्त और धोखेबाज लोगों से सबसे अधिक घृणा करता है। तुम चाहे जो भी सोच रहे हो, अगर तुम सत्य के अनुसार अभ्यास नहीं कर रहे हो, तुममें वफादारी नहीं है, और हमेशा व्यक्तिगत मिलावटों से दूषित रहते हो, हमेशा तुम्हारे अपने विचार और मत होते हैं, तो परमेश्वर इन सभी चीजों को देखता है, और उनके बारे में जानता है। क्या तुम सोचते हो कि परमेश्वर नहीं जानता है? यदि ऐसा है, तो तुम बेहद बेवकूफ हो! और यदि तुम तुरंत पश्चात्ताप नहीं करते हो, तो तुम परमेश्वर का कार्य खो दोगे। तुम उसे क्यों खो दोगे? क्योंकि परमेश्वर लोगों के दिलों का निरीक्षण करता है। वह पूरी स्पष्टता से उनकी सभी छोटी-छोटी चालाक योजनाएँ देखता है, और वह देखता है कि उनके दिल उससे दूर हो गए हैं, वे उसके साथ एकचित्त नहीं हैं। वे कौन-सी मुख्य बातें हैं जो उनके दिलों को परमेश्वर से दूर रखती हैं? उनके विचार, उनके हित और अभिमान, और उनकी तुच्छ साजिशें। जब लोगों के दिलों में ऐसी चीजें होती हैं जो उन्हें परमेश्वर से अलग करती हैं, और वे लगातार उन चीजों में मग्न रहते हैं, हमेशा साजिशें करते रहते हैं, तो यह समस्या है। अगर तुम्हारी क्षमता थोड़ी खराब है और तुम्हारे पास कम अनुभव है, लेकिन तुम सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार हो, और हमेशा परमेश्वर के साथ एकचित्त रहते हो, अगर तुम क्षुद्र चालों में पड़े बिना, परमेश्वर द्वारा सौंपे जाने वाले कार्य में अपना सबकुछ झोंक सकते हो, तो परमेश्वर इसे देखेगा। अगर तुम्हारे दिल और परमेश्वर के बीच हमेशा दीवार खड़ी रहती है, अगर तुम हमेशा क्षुद्र षड्यंत्र पालते हो, हमेशा अपने हितों और गर्व के लिए जीते हो, अपने दिल में हमेशा इन चीजों की गणना करते रहते हो, उनके काबू में हो, तो परमेश्वर तुमसे प्रसन्न नहीं होगा, और वह तुम्हें प्रबुद्ध, रोशन या स्वीकार नहीं करेगा, और तुम्हारा हृदय निरंतर अंधकारमय होता जाएगा, अर्थात जब तुम अपना कर्तव्य निभाओगे या कुछ भी करोगे, तो तुम उसे गड़बड़ कर दोगे, और वह लगभग बेकार हो जाएगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम बहुत स्वार्थी और नीच हो, और हमेशा अपने लिए षड्यंत्र रचते रहते हो, और परमेश्वर के प्रति ईमानदार नहीं हो, ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम चालाक होने का साहस और परमेश्वर को धोखा देने का प्रयास करते हो, और न केवल सत्य नहीं स्वीकारते, बल्कि अपना कर्तव्य निभाने में अस्थिर भी हो—जो वास्तव में परमेश्वर के लिए खपना नहीं है। जब तुम अपना कर्तव्य निभाने में अपना दिल नहीं लगाते हो, और उसका और अधिक लाभ प्राप्त करने, अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा बनाने के अवसर के रूप में उपयोग करते हुए केवल दिखावे के कुछ प्रयास करते हो, और अपनी काट-छाँट किए जाने पर उसे स्वीकार और आज्ञापालन नहीं करते हो, तो इस बात की अत्यधिक संभावना है कि तुम परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचा दोगे। परमेश्वर मनुष्य के दिलों की गहराइयों की जाँच-पड़ताल करता है। अगर तुम पश्चात्ताप नहीं करते हो, तो तुम खतरे में पड़ जाओगे, और संभवतः परमेश्वर द्वारा निकाल दिए जाओगे, उस स्थिति में तुम्हें फिर कभी परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलेगा।

—परमेश्वर की संगति

कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ उचित व्यवहार कर सकता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में परमेश्वर का और सत्य का शासन चलता है। उनका मानना है कि व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य निभाए, अगर उसमें कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो परमेश्वर का घर तुरंत उस व्यक्ति से निपटेगा, उससे उस कर्तव्य को निभाने का दर्जा छीनकर उसे दूर भेज देगा या फिर उसे कलीसिया से ही निकाल देगा। क्या वाकई इस ढंग से काम होता है? निश्चित रूप से नहीं। परमेश्वर का घर हर व्यक्ति के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर सभी के साथ धार्मिकता से व्यवहार करता है। वह केवल यह नहीं देखता कि व्यक्ति ने किसी परिस्थिति-विशेष में कैसा व्यवहार किया है; वह उस व्यक्ति की प्रकृति सार, उसके इरादे, उसका रवैया देखता है, खास तौर से वह यह देखता है कि क्या वह व्यक्ति गलती करने पर आत्मचिंतन कर सकता है, क्या वह पश्चात्ताप करता है और क्या वह उसके वचनों के आधार पर समस्या के मूल तक पहुँच सकता है ताकि वह सत्य समझ ले और अपने आपसे घृणा करने लगे और सच में पश्चात्ताप करे। यदि किसी में इस सही रवैये का अभाव है, और उसमें पूरी तरह से व्यक्तिगत इरादों की मिलावट है, यदि वह चालाकी भरी योजनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के प्रकाशनों से भरा है, और जब समस्याएँ आती हैं, तो वह दिखावे, कुतर्क और खुद को सही ठहराने का सहारा लेता है, और हठपूर्वक अपने कार्यों को स्वीकार करने से इनकार कर देता है, तो ऐसे व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता। वह सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता और पूरी तरह से प्रकट हो चुका है। जो लोग सही नहीं हैं, और जो सत्य को जरा भी स्वीकार नहीं कर सकते, वे मूलतः छद्म-विश्वासी होते हैं और उन्हें केवल हटाया जा सकता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में काम करने वाले छद्म-विश्वासियों प्रकट और हटाया जाए? एक छद्म-विश्वासी, भले ही कोई भी कर्तव्य निभाए, सबसे जल्दी प्रकट हो जाता है, क्योंकि उसके द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव बहुत अधिक और बहुत स्पष्ट होते हैं। इसके अलावा छद्म-विश्वासी सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते और लापरवाही और मनमाने ढंग से कार्य करते हैं। अंत में, जब उन्हें हटा दिया जाता है और वे अपना कर्तव्य निभाने का अवसर खो देते हैं, तो वे चिंता करना शुरू कर देते हैं, सोचते हैं, “मेरा तो काम तमाम हो गया। यदि मुझे अपना कर्तव्य निभाने की अनुमति नहीं दी गई, तो मुझे बचाया नहीं जा सकेगा। मुझे क्या करना चाहिए?” वास्तव में स्वर्ग हमेशा मनुष्य के लिए एक रास्ता छोड़ेगा। एक अंतिम रास्ता होता है, जो सचमुच पश्चात्ताप करने का रास्ता है, और सुसमाचार फैलाने और लोगों को प्राप्त करने के लिए जल्दी करने और अच्छे कर्म करके अपने दोषों की भरपाई करने का रास्ता है। यदि वे यह रास्ता नहीं अपनाते, तो वास्तव में उनका काम तमाम हो चुका है। यदि उनके पास थोड़ा विवेक है और जानते हैं कि उनमें कोई प्रतिभा नहीं है, तो उन्हें स्वयं को सत्य से सुसज्जित करना चाहिए और सुसमाचार फैलाने के लिए प्रशिक्षण लेना चाहिए—यह भी एक कर्तव्य निभाना है। यह पूरी तरह से संभव है। यदि कोई स्वीकार करता है कि उसे इसलिए हटा दिया गया था क्योंकि उसने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया था, फिर भी वह सत्य को स्वीकार नहीं करता और उसके दिल में थोड़ा-सा भी पश्चात्ताप नहीं है, और इसके बजाय वह खुद को निराशा में डुबो लेता है, तो क्या यह मूर्खता और अज्ञानता नहीं है? अच्छा बताओ, अगर किसी व्यक्ति ने कोई गलती की है लेकिन वह सच्ची समझ हासिल कर पश्चात्ताप करने को तैयार हो, तो क्या परमेश्वर का घर उसे एक अवसर नहीं देगा? जैसे-जैसे परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना समापन की ओर बढ़ रही है, ऐसे बहुत-से कार्य हैं जिन्हें पूरा करना है। लेकिन अगर तुम में अंतरात्मा और विवेक नहीं है और तुम अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देते, अगर तुम्हें कर्तव्य निभाने का अवसर मिलता है, लेकिन तुम उसे सँजोकर रखना नहीं जानते, सत्य का जरा भी अनुसरण नहीं करते और सबसे अनुकूल समय अपने हाथ से निकल जाने देते हो, तो तुम्हारा खुलासा किया जाएगा। अगर तुम अपने कर्तव्य निभाने में लगातार अनमने रहते हो, और काट-छाँट के समय जरा भी समर्पण-भाव नहीं रखते, तो क्या परमेश्वर का घर तब भी किसी कर्तव्य के निर्वाह के लिए तुम्हारा उपयोग करेगा? परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, शैतान का नहीं। हर चीज में परमेश्वर की बात ही अंतिम होती है। वही इंसानों को बचाने का कार्य कर रहा है, वही सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है। क्या सही है और क्या गलत, तुम्हें इसका विश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं है; तुम्हें बस सुनना और समर्पण करना है। जब तुम्हारी काट-छाँट हो, तो तुम्हें सत्य स्वीकार कर अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो परमेश्वर का घर तुमसे तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का अधिकार नहीं छीनेगा। अगर तुम हमेशा हटाए जाने से डरते रहोगे, बहानेबाजी करते रहोगे, खुद को सही ठहराते रहोगे, तो फिर समस्या पैदा होगी। अगर तुम लोगों को यह दिखाओगे कि तुम जरा भी सत्य नहीं स्वीकारते, और यह कि तर्क का तुम पर कोई असर नहीं होता, तो तुम मुसीबत में हो। कलीसिया तुमसे निपटने को बाध्य हो जाएगी। अगर तुम अपने कर्तव्य पालन में थोड़ा भी सत्य नहीं स्वीकारते, हमेशा प्रकट किए और हटाए जाने के भय में रहते हो, तो तुम्हारा यह भय मानवीय इरादे, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, संदेह, सतर्कता और गलतफहमी से दूषित है। व्यक्ति में इनमें से कोई भी रवैया नहीं होना चाहिए। तुम्हें अपने डर के साथ-साथ परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियाँ दूर करने से शुरुआत करनी चाहिए। परमेश्वर के बारे में किसी व्यक्ति में गलतफहमियाँ कैसे उत्पन्न होती हैं? जब किसी व्यक्ति के साथ सब-कुछ ठीक चल रहा हो, तब तो उन्हें परमेश्वर को निश्चित रूप से गलत नहीं समझना चाहिए। उसे लगता है कि परमेश्वर नेक है, परमेश्वर श्रद्धायोग्य है, परमेश्वर धार्मिक है, परमेश्वर दयालु और प्रेममय है, परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसमें सही होता है। लेकिन अगर कुछ ऐसा हो जाए जो उस व्यक्ति की धारणाओं के अनुरूप न हो, तो वह सोचता है, “लगता है परमेश्वर बहुत धार्मिक नहीं है, कम से कम इस मामले में तो नहीं है।” क्या यह गलतफहमी नहीं है? ऐसा कैसे हुआ कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? वह क्या चीज है जिसने इस गलतफहमी को जन्म दिया? वह क्या चीज है जिसकी वजह से तुम्हारी राय और समझ यह बन गई कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? क्या तुम यकीनी तौर पर कह सकते हो कि वह क्या है? वह कौन सा वाक्य था? कौन-सा मामला? कौन-सी परिस्थिति? कहो, ताकि सभी लोग समझ और जान सकें कि तुम अपनी बात साबित कर पाते हो या नहीं। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर को गलत समझता है या किसी ऐसी स्थिति का सामना करता है जो उसकी धारणाओं के अनुरूप न हो, तो उसका रवैया कैसा होना चाहिए? (सत्य और समर्पण की खोज करने का।) उसे पहले समर्पित होकर विचार करना चाहिए : “मुझे समझ नहीं है, लेकिन मैं समर्पण करूँगा क्योंकि यह परमेश्वर ने किया है, इसका विश्लेषण इंसान को नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, मैं परमेश्वर के वचनों या उसके कार्य पर संदेह नहीं कर सकता क्योंकि परमेश्वर के वचन सत्य हैं।” क्या किसी इंसान का रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए? अगर ऐसा रवैया हो, तो क्या तुम्हारी गलतफहमी फिर भी कोई समस्या पैदा करेगी? (नहीं करेगी।) यह तुम्हारे कर्तव्य के निर्वाह पर न तो असर डालेगी और न ही कोई परेशानी पैदा करेगी।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

जब लोग परमेश्वर में विश्वास करने लगते हैं, तो उनके साथ सबसे दर्दनाक और सबसे परेशान करने वाली बात क्या हो सकती है? यह जानने से ज्यादा बड़ी बात कुछ नहीं होती कि उन्हें बाहर निकाल दिया गया है या निष्कासित कर दिया गया है, और उन्हें परमेश्वर द्वारा बेनकाब कर हटाया गया है—यह सबसे दर्दनाक और सबसे दुखद बात होती है, और कोई भी नहीं चाहता कि परमेश्वर में विश्वास करने के बाद उसके साथ ऐसा हो। तो, लोग अपने साथ ऐसा होने को कैसे टाल सकते हैं? कम से कम, उन्हें अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना चाहिए, अर्थात, उन्हें पहले यह सीखना चाहिए कि अपनी जिम्मेदारियों को कैसे पूरा किया जाए; उन्हें लापरवाह बिल्कुल नहीं होना चाहिए, और उन्हें उस काम में देरी नहीं करनी चाहिए जिसे परमेश्वर ने उन्हें सौंपा है। चूँकि तुम एक व्यक्ति हो, इसलिए तुम्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि व्यक्ति की क्या जिम्मेदारियाँ होती हैं। अविश्वासी जिन जिम्मेदारियों की सबसे ज्यादा कद्र करते हैं, जैसे कि संतानोचित व्यवहार करना, अपने माता-पिता का भरण-पोषण करना और अपने परिवार का नाम करना, उनका उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है। ये सभी खोखली हैं और इनका वास्तविक अर्थ नहीं है। वह न्यूनतम जिम्मेदारी क्या है जो एक व्यक्ति को निभानी चाहिए? सबसे वास्तविक चीज यह है कि अभी तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे करते हो। हमेशा केवल बेमन से काम करके संतुष्ट हो जाना अपनी जिम्मेदारी पूरी करना नहीं है, और सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोल पाना अपनी जिम्मेदारी पूरी करना नहीं है। केवल सत्य का अभ्यास करना और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना ही अपनी जिम्मेदारी पूरी करना है। केवल जब तुम्हारा सत्य का अभ्यास प्रभावी और लोगों के लिए लाभकारी रहता है, तभी तुमने वास्तव में अपनी जिम्मेदारी पूरी की होती है। तुम चाहे जो भी कर्तव्य कर रहे हो, अगर तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार सभी चीजें करते रहते हो, केवल तभी माना जाएगा कि तुमने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली है। मानवीय तरीके के अनुसार बेमन से कार्य करना लापरवाह होना है; सिर्फ सत्य सिद्धांतों पर बने रहना ही उचित रूप से अपने कर्तव्य का निर्वहन करना और अपनी जिम्मेदारी पूरी करना है। और जब तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हो, तो क्या यह निष्ठा की अभिव्यक्ति नहीं है? यही निष्ठा से अपने कर्तव्य का निर्वहन करने की अभिव्यक्ति है। जब तुममें जिम्मेदारी का यह भाव होगा, यह आकांक्षा और इच्छा होगी, और अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा की अभिव्यक्ति होगी, तो ही परमेश्वर तुम पर कृपादृष्टि रखेगा और तुम्हें स्वीकार करेगा। अगर तुममें जिम्मेदारी का यह भाव भी नहीं है, तो परमेश्वर तुम्हें आलसी और मूढ़मति समझेगा और तुमसे घृणा करेगा। मानवीय दृष्टिकोण से इसका अर्थ है तुम्हारा अनादर करना, तुम्हें गंभीरता से न लेना और तुम्हें हिकारत से देखना। यह ऐसा है जैसे, अगर तुम कुछ समय से किसी के संपर्क में रहे हो, और तुम उसे काल्पनिक, अव्यावहारिक मामलों के बारे में बोलते हुए, और अवास्तविक चीजें बकते हुए देखते हो, और देखते हो कि उन्हें डींगें मारना और बड़ी-बड़ी बातें करना पसंद है और वे भरोसेमंद नहीं हैं—तो क्या तुम उनका सम्मान करोगे? क्या तुम उन्हें कोई काम सौंपने की हिम्मत करोगे? शायद वे किसी न किसी कारण से तुम्हारे सौंपे काम में देरी कर दें, और इसलिए तुम ऐसे लोगों को कुछ भी सौंपने की हिम्मत नहीं करोगे। तुम अपने दिल की गहराई में उनसे घृणा करोगे, और तुम्हें उनके संपर्क में आने का पछतावा होगा। तुम खुद को भाग्यशाली महसूस करोगे कि तुमने उन्हें कुछ भी नहीं सौंपा, और तुम सोचोगे कि अगर तुमने ऐसा किया होता, तो तुम्हें इस बात का जीवन भर पछतावा रहता। मान लो कि तुम किसी के साथ बातचीत करते हो और उनके साथ बातचीत और संपर्क के माध्यम से देखते हो कि न केवल उनमें अच्छी मानवता है, बल्कि उनमें जिम्मेदारी की भावना भी है, और जब तुम उन्हें कोई कार्य सौंपते हो, तो भले ही तुम उनसे कोई चीज यूँ ही कहते हो, लेकिन वे इसे अपने मन में अंकित कर लेते हैं, और वे तुम्हें संतुष्ट करने के लिए कार्य को अच्छी तरह से संभालने के तरीकों के बारे में सोचते हैं, और यदि वे तुम्हारे सौंपे कार्य को अच्छी तरह से नहीं सँभालते, तो वे बाद में आपको देखकर शर्मिंदा महसूस करते हैं—ऐसा व्यक्ति जिम्मेदारी की भावना वाला व्यक्ति होता है। जब तक उन्हें कुछ बताया जाता है या उन्हें कुछ सौंपा जाता है—चाहे ऐसा किसी अगुआ, कार्यकर्ता या ऊपरवाले द्वारा किया गया हो—जिन लोगों में जिम्मेदारी की भावना है, वे हमेशा सोचेंगे, “ठीक है, चूँकि वे मुझे इतना ज्यादा मानते हैं, इसलिए मुझे इस मामले को अच्छी तरह सँभालना चाहिए और उन्हें निराश नहीं करना चाहिए।” क्या तुम ऐसे लोगों को कार्य सौंपने में सहज महसूस नहीं करोगे जिनके पास जमीर और सूझ-बूझ है? तुम जिन लोगों को कार्य सौंप सकते हो, वे यकीनन ऐसे हैं जिन्हें तुम प्रशंसा की दृष्टि से देखते हो और जिन पर तुम्हें भरोसा है। विशेष रूप से, अगर उन्होंने तुम्हारे लिए कई कार्य संभाले हैं और उन सभी को बहुत कर्त्तव्यनिष्ठ रूप से पूरा किया है, और तुम्हारी अपेक्षाएँ पूरी की हैं, तो तुम सोचोगे कि वे भरोसेमंद हैं। अपने दिल में, तुम वाकई उसकी प्रशंसा करोगे और उसका बहुत सम्मान करोगे। लोग इस प्रकार के व्यक्ति के साथ जुड़ने को तैयार होते हैं, परमेश्वर का तो कहना ही क्या। क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर कलीसियाई कार्य और वह कर्तव्य, जिसे करने के लिए मनुष्य बाध्य है, किसी ऐसे व्यक्ति को सौंपेंगा जो भरोसेमंद नहीं है? (नहीं, वह नहीं सौंपेगा।) जब परमेश्वर किसी को कलीसियाई कार्य सौंपता है, तो परमेश्वर की उससे क्या अपेक्षा होती है? सबसे पहले, परमेश्वर उम्मीद करता है कि वह मेहनती और जिम्मेदार होगा, कि वह कार्य के इस अंश को एक बड़ा मामला मानेगा और इसे उसी के अनुसार संभालेंगा, और इसे अच्छी तरह से करेगा। दूसरा, परमेश्वर उम्मीद करता है कि वह एक ऐसा व्यक्ति होगा जो भरोसे के काबिल है, कि चाहे उसे कितना भी समय लगे, और चाहे परिवेश कैसे भी बदले, उसकी जिम्मेदारी की भावना डगमगाएगी नहीं, और उसकी सत्यनिष्ठा प्रलोभन की कसौटी पर खरी उतरेगी। अगर वह एक भरोसेमंद व्यक्ति है, तो परमेश्वर आश्वस्त हो जाएगा, और वह अब इस मामले का पर्यवेक्षण या उस पर अनुवर्ती कार्रवाई नहीं करेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि, अपने दिल में, वह उस पर भरोसा करता है, और वह बिना किसी गड़बड़ी के यकीनन वह कार्य पूरा करेगा जो उसे दिया गया है। जब परमेश्वर किसी को कोई कार्य सौंपता है, तो क्या वह इसी चीज की उम्मीद नहीं करता है? (हाँ, ऐसा ही है।) तो जब तुम परमेश्वर का इरादा समझ जाते हो, तो फिर तुम्हें अपने दिल में यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए कैसे कार्य करना है, परमेश्वर की नजरों में अनुग्रह कैसे प्राप्त करना है और परमेश्वर का भरोसा कैसे अर्जित करना है। अगर तुम अपनी अभिव्यक्तियाँ और व्यवहार स्पष्ट रूप से देख सकते हो, और वह रवैया देख सकते हो जिसके साथ तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, अगर तुममें आत्म-जागरूकता है, और तुम जानते हो कि तुम क्या हो तब तुम्हारा यह माँग करना अनुचित नहीं होगा कि परमेश्वर तुम पर कृपादृष्टि रखे, तुम्हें अनुग्रह दिखाए, या तुम्हारा विशेष ध्यान रखे? (हाँ, अनुचित होगा।) यहाँ तक कि तुम भी अपने आप को तुच्छ समझते हो, तुम भी खुद को नीची नजर से देखते हो, और फिर भी तुम चाहते हो कि परमेश्वर तुम पर कृपादृष्टि रखे—इसका कोई अर्थ नहीं निकलता है। इस हिसाब से, अगर तुम चाहते हो कि परमेश्वर तुम पर कृपादृष्टि रखे, तो तुम्हें कम से कम दूसरों की नजरों में खुद को भरोसेमंद बनाना चाहिए। अगर तुम चाहते हो कि दूसरे लोग तुम पर भरोसा करें, तुम पर कृपादृष्टि रखें, तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखें, तो कम-से-कम तुम्हें गरिमापूर्ण होना चाहिए, जिम्मेदारी की भावना रखनी चाहिए, अपने वचन का पक्का होना चाहिए, और भरोसेमंद होना चाहिए। इसके अलावा, तुम्हें परमेश्वर के सामने मेहनती, जिम्मेदार और वफादार बनकर आना चाहिए—तब तुम वास्तव में परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर चुके होगे। तब तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त होने की उम्मीद होगी, है ना? (हाँ, होगी।)

—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8)

परमेश्वर तुमसे चाहे कुछ भी माँगे, तुम्हें अपनी पूरी ताकत के साथ केवल इस ओर काम करने की आवश्यकता है, और मुझे आशा है कि अंत में तुम परमेश्वर के समक्ष आने और उसे अपनी परम भक्ति प्रदान करने में सक्षम होगे। अगर तुम सिंहासन पर बैठे परमेश्वर की संतुष्ट मुसकराहट देख सकते हो, तो भले ही यह तुम्हारी मृत्यु का नियत समय ही क्यों न हो, आँखें बंद करते समय भी तुम्हें हँसने और मुसकराने में सक्षम होना चाहिए। पृथ्वी पर अपने समय के दौरान तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपना अंतिम कर्तव्य अवश्य निभाना चाहिए। अतीत में, पतरस को परमेश्वर के लिए क्रूस पर उलटा लटका दिया गया था; परंतु तुम्हें अंत में परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए, और उसके लिए अपनी सारी ऊर्जा खर्च कर देनी चाहिए। एक सृजित प्राणी परमेश्वर के लिए क्या कर सकता है? इसलिए तुम्हें पहले से ही अपने आपको परमेश्वर को सौंप देना चाहिए, ताकि वह अपनी इच्छा के अनुसार तुम्हारी योजना बना सके। अगर इससे परमेश्वर खुश और प्रसन्न होता हो, तो उसे अपने साथ जो चाहे करने दो। मनुष्यों को शिकायत के शब्द बोलने का क्या अधिकार है?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 41

आज तुम लोगों से जो कुछ हासिल करने की अपेक्षा की जाती है, वे अतिरिक्त माँगें नहीं, बल्कि मनुष्य का कर्तव्य है, जिसे सभी लोगों द्वारा किया जाना चाहिए। यदि तुम लोग अपना कर्तव्य तक निभाने में या उसे भली-भाँति करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम लोग अपने ऊपर मुसीबतें नहीं ला रहे हो? क्या तुम लोग मृत्यु को आमंत्रित नहीं कर रहे हो? कैसे तुम लोग अभी भी भविष्य और संभावनाओं की आशा कर सकते हो? परमेश्वर का कार्य मानवजाति के लिए किया जाता है, और मनुष्य का सहयोग परमेश्वर के प्रबंधन के लिए दिया जाता है। जब परमेश्वर वह सब कर लेता है जो उसे करना चाहिए, तो मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने अभ्यास में उदार हो और परमेश्वर के साथ सहयोग करे। परमेश्वर के कार्य में मनुष्य को कोई कसर बाकी नहीं रखनी चाहिए, उसे अपनी वफादारी प्रदान करनी चाहिए, और अनगिनत धारणाओं में सलंग्न नहीं होना चाहिए, या निष्क्रिय बैठकर मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर मनुष्य के लिए स्वयं को बलिदान कर सकता है, तो क्यों मनुष्य परमेश्वर को अपनी वफादारी प्रदान नहीं कर सकता? परमेश्वर मनुष्य के प्रति एक हृदय और मन वाला है, तो क्यों मनुष्य थोड़ा-सा सहयोग प्रदान नहीं कर सकता? परमेश्वर मानवजाति के लिए कार्य करता है, तो क्यों मनुष्य परमेश्वर के प्रबंधन के लिए अपना कुछ कर्तव्य पूरा नहीं कर सकता? परमेश्वर का कार्य इतनी दूर तक आ गया है, पर तुम लोग अभी भी देखते ही हो किंतु करते नहीं, सुनते ही हो किंतु हिलते नहीं। क्या ऐसे लोग तबाही के लक्ष्य नहीं हैं? परमेश्वर पहले ही अपना सर्वस्व मनुष्य को अर्पित कर चुका है, तो क्यों आज मनुष्य ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ है? परमेश्वर के लिए उसका कार्य उसकी पहली प्राथमिकता है, और उसके प्रबंधन का कार्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। मनुष्य के लिए परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाना और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करना उसकी पहली प्राथमिकता है। इसे तुम सभी लोगों को समझ लेना चाहिए।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास

परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने के बाद, नूह ने योजना बनानी शुरू की कि परमेश्वर ने नाव बनाने का जो कार्य उसे सौंपा है, उसे कैसे पूरा किया जाए। उसने नाव के निर्माण के लिए विभिन्न सामग्री, लोगों और आवश्यक उपकरणों की तलाश शुरू कर दी। जाहिर है, इसमें बहुत-सी चीजें शामिल थीं; यह उतना आसान नहीं था जितना ग्रंथों में दिखता है। उस पूर्व-औद्योगिक युग में, जिसमें सब-कुछ हाथ से किया जाता था, शारीरिक श्रम से किया जाता था, यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि ऐसी विशालकाय नाव बनाना, परमेश्वर द्वारा सौंपा गया नाव बनाने का कार्य पूरा करना कितना कठिन था। बेशक, नूह ने जिस तरह से योजना बनाई, तैयारी की, रूपरेखा बनाई, सामग्री और औजार जैसी विभिन्न चीजें ढूँढ़ी, वह कोई साधारण बात नहीं थी, और नूह ने शायद इतनी बड़ी नाव कभी देखी भी नहीं होगी। इस आदेश को स्वीकार लेने के बाद, परमेश्वर के वचनों का आशय समझते हुए और परमेश्वर ने जो कुछ कहा था उससे आँकते हुए, नूह जानता था कि यह कोई आसान मामला नहीं है, कोई सरल कार्य नहीं है। यह कोई सरल या आसान काम नहीं था—इसके क्या निहितार्थ थे? इसके एक मायने तो ये थे कि इस आज्ञा को स्वीकारने के बाद, नूह के कंधों पर भारी बोझ होगा। इसके अलावा, यह देखते हुए कि कैसे परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से नूह को बुलाया और और व्यक्तिगत रूप से निर्देश दिया कि नाव किस तरह बनानी है, यह कोई साधारण बात नहीं थी, यह कोई छोटी बात नहीं थी। परमेश्वर ने जो कुछ भी कहा, उसके विवरण को देखते हुए, इसे कोई साधारण व्यक्ति नहीं संभाल सकता था। यह तथ्य कि परमेश्वर ने नूह को बुलाकर उसे नाव बनाने का आदेश दिया, दर्शाता है कि नूह परमेश्वर के हृदय में कितना महत्व रखता था। जब इस मामले की बात आई, तो, नूह बेशक परमेश्वर के कुछ इरादे समझने में सक्षम था—और समझ लेने पर, नूह को एहसास हुआ कि आने वाले वर्षों में उसे किस तरह के जीवन का सामना करना पड़ेगा और वह उन कठिनाइयों से भी अवगत था जो उसके जीवन में आने वाली थीं। हालाँकि नूह को इस बात का एहसास और समझ थी कि परमेश्वर ने उसे जो काम सौंपा है वह कितना मुश्किल है और उसे कितने बड़े इम्तहानों से गुजरना होगा, लेकिन उस काम को नकारने का उसका कोई इरादा नहीं था, बल्कि वह यहोवा परमेश्वर का अत्यंत आभारी था। नूह आभारी क्यों था? क्योंकि परमेश्वर ने अप्रत्याशित रूप से उसे बहुत ही महत्वपूर्ण काम सौंप दिया था और व्यक्तिगत रूप से उसे हर विवरण बताया और समझाया था। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर ने नूह को शुरू से लेकर अंत तक की पूरी कहानी भी बता दी थी कि जहाज क्यों बनाना है। यह परमेश्वर की अपनी प्रबंधन-योजना का मामला था, यह परमेश्वर का अपना काम था, लेकिन परमेश्वर ने उसे इस मामले के बारे में बताया था, इसलिए नूह ने इसके महत्व को समझा। संक्षेप में, इन विभिन्न संकेतों से, परमेश्वर की बातचीत के लहजे और परमेश्वर ने नूह को जो कुछ बताया, उन तमाम पहलुओं को देखते हुए, नूह जहाज बनाने के कार्य के महत्व को समझ पाया जिसे परमेश्वर ने उसे सौंपा था, वह अपने दिल में इसका महत्त्व समझ गया और उसने इसे हल्के में लेने या किसी बात को नजरअंदाज करने की हिम्मत नहीं की। इसलिए जब परमेश्वर ने अपने निर्देश देना समाप्त कर दिया, तो नूह ने अपनी योजना तैयार कर ली, और वह नाव बनाने के लिए व्यवस्थाएँ करने, श्रम-शक्ति तलाशने, तमाम तरह की सामग्री तैयार करने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार, धीरे-धीरे विभिन्न प्रकार के जीवित प्राणियों को नाव में इकट्ठा करने के काम में जुट गया।

नाव बनाने की पूरी प्रक्रिया कठिनाइयों से भरी थी। फिलहाल, आओ इस बात को एक तरफ रखते हैं कि नूह ने साल-दर-साल तेज हवाओं, चिलचिलाती धूप, भीषण बारिश, भयंकर सर्दी-गर्मी और चार बदलते मौसमों से कैसे पार पाया। आओ, पहले बात करते हैं कि नाव बनाने का काम कितना बड़ा था, उसने विभिन्न सामग्रियों की तैयारी कैसे की और नाव के निर्माण के दौरान उसे किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उसके सामने कौन-कौन-सी कठिनाइयाँ आईं? लोगों की धारणाओं के विपरीत, कुछ शारीरिक श्रम वाले काम हमेशा पहली बार में ही सही नहीं हो जाते, और नूह को असफलताओं से गुजरना पड़ा; कोई काम पूरा करने के बाद, अगर वह गलत लगता, तो वह उसे अलग कर देता और अलग करने के बाद उसे सामग्री तैयार करनी पड़ती, और यह सब फिर से करना पड़ता। यह आधुनिक युग की तरह नहीं था, जहाँ हर व्यक्ति हर चीज इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से करता है, एक बार किसी काम को व्यवस्थित कर दिया तो फिर सबकुछ एक निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार क्रियांवित हो जाता है। आज जब ऐसा कोई काम किया जाता है, तो वह मशीनीकृत होता है, और जब तुम मशीन चालू कर देते हो, वह काम पूरा कर देती है। लेकिन नूह आदिम समाज के युग में रह रहा था, जब सारा काम हाथ से किया जाता था और तुम्हें सारा काम अपने दोनों हाथों से, अपनी आँखों और दिमाग तथा अपनी मेहनत और ताकत का इस्तेमाल करके करना पड़ता था। बेशक, सबसे बढ़कर, लोगों को परमेश्वर पर भरोसा करने की जरूरत होती थी; उन्हें हर जगह, हर समय परमेश्वर को खोजने की जरूरत होती थी। तमाम तरह की कठिनाइयों का सामना करने की प्रक्रिया में और नाव बनाने में बिताए दिनों और रातों में इस विशालकाय काम को करते समय, नूह को न केवल विभिन्न हालात का सामना करना पड़ रहा था, बल्कि उसे अपने आस-पास की विभिन्न परिस्थितियों से भी जूझना पड़ रहा था, उसे लोगों के उपहास, बदनामी और गाली-गलौज का शिकार भी होना पड़ता था। हालाँकि हमने व्यक्तिगत रूप से उन दृश्यों के घटित होने पर उनका अनुभव नहीं किया, लेकिन क्या नूह ने जिन विभिन्न कठिनाइयों का सामना और अनुभव किया और जो विभिन्न चुनौतियों उसके सामने आईं, क्या उनमें से कुछ की कल्पना करना संभव नहीं है? नाव बनाने के दौरानजिस पहली चीज का नूह को सामना करना पड़ा, वह थी अपने परिवार की नासमझी, उनकी नुक्ताचीनी, शिकायतें, यहाँ तक कि बदनामी भी। दूसरी चीज थी आसपास के लोगों—उसके रिश्तेदारों, दोस्तों और हर तरह के दूसरे लोगों द्वारा उसकी निंदा, उपहास और आलोचना। लेकिन नूह का केवल एक ही रवैया था, और वह था परमेश्वर के वचनों का पालन करना, उन्हें अंत तक क्रियान्वित करना और इससे कभी न डगमगाना। नूह ने क्या तय किया था? “जब तक मैं जीवित हूँ, जब तक मैं चल-फिर सकता हूँ, तब तक मैं परमेश्वर के आदेश को नहीं छोड़ूँगा।” इतनी विशालकाय नाव के निर्माण कार्य के पीछे यही उसकी प्रेरणा थी, परमेश्वर की आज्ञा मिलने और उसके वचन सुनने के बाद यही उसका रवैया था। तमाम तरह की परेशानियों, कठिन स्थितियों और चुनौतियों का सामना करते हुए, नूह कभी पीछे नहीं हटा। जब कभी वह किसी तकनीकी कार्य में नाकाम हो जाता, कोई टूट-फूट हो जाती, तो भले ही नूह अपने दिल में परेशान और चिंतित महसूस करता था, लेकिन जब वह परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचता, जब उसे परमेश्वर के आदेश के तमाम वचन याद आते, परमेश्वर द्वारा अपना उत्कर्ष याद आता, तो अक्सर उसके अंदर प्रेरणा और स्फूर्ति भर जाती : “मैं हार नहीं मान सकता, परमेश्वर ने मुझे जो आज्ञा दी है और जो कार्य मुझे सौंपा है, मैं उसे छोड़ नहीं सकता; यह परमेश्वर का आदेश है और चूँकि मैंने इसे स्वीकार किया है, मैंने परमेश्वर के वचन और उसकी वाणी सुनी है, चूँकि मैंने इसे परमेश्वर से स्वीकार किया है, तो मुझे पूरी तरह से समर्पण करना चाहिए और यही वह है जिसे मनुष्य को हासिल करना चाहिए।” इसलिए उसे कितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, जिस भी तरह के उपहास या बदनामी का सामना करना पड़ा, उसका शरीर कितना भी कमजोर हुआ, कितना भी थका, लेकिन उसने परमेश्वर द्वारा सौंपा गया काम नहीं छोड़ा, उसने परमेश्वर की कही हर बात और आज्ञा को लगातार दिलो-दिमाग में रखा। उसके परिवेश चाहे जैसे बदले, उसने कितनी भी भयंकर कठिनाइयों का सामना किया, पर उसे भरोसा था कि मुसीबतों के ये बादल एक दिन छँट जाएँगे, एकमात्र परमेश्वर के वचन ही शाश्वत हैं और केवल वही जो परमेश्वर ने करने की आज्ञा दी है, निश्चित रूप से पूरा होगा। नूह को परमेश्वर में सच्चा विश्वास था और उसमें वह समर्पण था जो उसमें होना चाहिए था, उसने वह जहाज बनाना जारी रखा जिसके निर्माण के लिए परमेश्वर ने उसे आदेश दिया था। दिन गुजरते गए, साल गुजरते गए और नूह बूढ़ा हो गया, लेकिन उसका विश्वास कम नहीं हुआ, परमेश्वर का आदेश पूरा करने के उसके रवैये और दृढ़-संकल्प में कोई बदलाव नहीं आया। यद्यपि ऐसा भी समय आया जब उसका शरीर थकने लगा, उसे कमजोरी महसूस होने लगी और वह बीमार पड़ गया, दिल से वह कमजोर हो गया, लेकिन परमेश्वर के आदेश को पूरा करने और उसके वचनों के प्रति समर्पण करने का उसका संकल्प और दृढ़ता कम नहीं हुई। जिन वर्षों में नूह ने नाव बनाई, उनमें वह परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों को सुनने और उनके प्रति समर्पण करने का अभ्यास कर रहा था, और वह परमेश्वर का आदेश पूरा करने के लिए जरूरी एक सृजित प्राणी और साधारण व्यक्ति के एक महत्वपूर्ण सत्य का अभ्यास भी कर रहा था। साफ तौर पर, पूरी प्रक्रिया वास्तव में केवल एक ही चीज थी : नाव का निर्माण; परमेश्वर के आदेश का अच्छे से कार्यांवयन करना और उसे पूरा करना। लेकिन इस काम को कुशलता से और सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए क्या आवश्यक था? इसके लिए लोगों के उत्साह या उनके नारों आवश्यकता नहीं थी, क्षणिक सनक में ली गई कसमों की तो बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं थी न ही सृष्टिकर्ता के लिए लोगों की तथाकथित प्रशंसा की आवश्यकता थी। उस कार्य को इन चीजों की आवश्यकता नहीं थी। नूह के नाव के निर्माण के सामने लोगों की तथाकथित प्रशंसा, उनकी कसमें, उनका जोश, और अपने आध्यात्मिक संसार में परमेश्वर में उनका विश्वास, ये सब बिल्कुल भी किसी काम के नहीं हैं; परमेश्वर में नूह की सच्ची आस्था और समर्पण के सामने लोग बहुत बेचारे, दयनीय लगते हैं, और जो थोड़े-से सिद्धांत वे समझते हैं, वे बहुत ही खोखले, फीके, दुर्बल और कमजोर लगते हैं—उनके शर्मनाक, तुच्छ और घिनौने होने का तो उल्लेख ही क्या करना।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग दो)

मनुष्य द्वारा अपना कर्तव्य निभाना वास्तव में उस सबकी सिद्धि है, जो मनुष्य के भीतर अंतर्निहित है, अर्थात् जो मनुष्य के लिए संभव है। इसके बाद उसका कर्तव्य पूरा हो जाता है। मनुष्य की सेवा के दौरान उसके दोष उसके क्रमिक अनुभव और न्याय से गुज़रने की प्रक्रिया के माध्यम से धीरे-धीरे कम होते जाते हैं; वे मनुष्य के कर्तव्य में बाधा या विपरीत प्रभाव नहीं डालते। वे लोग, जो इस डर से सेवा करना बंद कर देते हैं या हार मानकर पीछे हट जाते हैं कि उनकी सेवा में कमियाँ हो सकती हैं, वे सबसे ज्यादा कायर होते हैं। यदि लोग वह व्यक्त नहीं कर सकते, जो उन्हें सेवा के दौरान व्यक्त करना चाहिए या वह हासिल नहीं कर सकते, जो उनके लिए सहज रूप से संभव है, और इसके बजाय वे बेमन से काम करते हैं, तो उन्होंने अपना वह प्रयोजन खो दिया है, जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए। ऐसे लोग “औसत दर्जे के” माने जाते हैं; वे बेकार का कचरा हैं। इस तरह के लोग उपयुक्त रूप से सृजित प्राणी कैसे कहे जा सकते हैं? क्या वे भ्रष्ट प्राणी नहीं हैं, जो बाहर से तो चमकते हैं, परंतु भीतर से सड़े हुए हैं? ... मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कर्तव्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी। जो लोग अपना कर्तव्य बेमन से करते हैं और सत्य की खोज नहीं करते, वे अंत में निकाल दिए जाएँगे, क्योंकि ऐसे लोग सत्य के अभ्यास में अपना कर्तव्य पूरा नहीं करते, और अपना कर्तव्य निभानेमें सत्य का अभ्यास नहीं करते। ये वे लोग हैं, जो अपरिवर्तित रहते हैं और जिन्हें दुर्भाग्य सहना पड़ेगा। उनकी न केवल अभिव्यक्तियाँ अशुद्ध हैं, बल्कि वे जो कुछ भी व्यक्त करते हैं, वह दुष्टतापूर्ण होता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर

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