1. लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं की समस्या का समाधान कैसे करें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
क्योंकि परमेश्वर के कार्य में हमेशा नई प्रगति होती रहती है, कुछ ऐसा कार्य है जो नए कार्य के सामने आने पर अप्रचलित और पुराना हो जाता है। ये विभिन्न प्रकार के नए और पुराने कार्य परस्पर विरोधी नहीं हैं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं; हर अगला कदम पिछले कदम का अनुसरण करता है। क्योंकि नया कार्य हो रहा है, इसलिए पुरानी चीजें निस्संदेह समाप्त कर देनी चाहिए। उदाहरण के लिए, लंबे समय से चली आ रही कुछ प्रथाओं और पारंपरिक कहावतों ने, मनुष्य के कई सालों के अनुभवों और शिक्षाओं के साथ मिलकर, मनुष्य के दिमाग में अनेक तरह और रूपों की धारणाएं बना दी हैं। मनुष्य द्वारा इस प्रकार की धारणाएं बनाए जाने में और भी अधिक सकारात्मक भूमिका इस बात की रही है कि प्राचीन समय के पारंपरिक सिद्धांतों का वर्षों से विस्तार हुआ है, जबकि परमेश्वर ने अभी तक अपना वास्तविक चेहरा और निहित स्वभाव मनुष्य के सामने पूरी तरह से प्रकट नहीं किया है। ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर में मनुष्य के विश्वास में, विभिन्न धारणाओं का प्रभाव रहा है जिसके कारण लोगों में परमेश्वर के बारे में सभी प्रकार की धारणात्मक समझ निरंतर उत्पन्न और विकसित होती रही है, जिससे कई ऐसे धार्मिक लोग जो परमेश्वर की सेवा करते हैं, उसके शत्रु बन गए हैं। इसलिए, लोगों की धार्मिक धारणाएं जितनी अधिक मजबूत होती हैं, वे परमेश्वर का विरोध उतना ही अधिक करते हैं, और वे परमेश्वर के उतने ही अधिक दुश्मन बन जाते हैं। परमेश्वर का कार्य हमेशा नया होता है और कभी भी पुराना नहीं होता है, और वह कभी भी सिद्धांत नहीं बनता है, बल्कि निरंतर बदलता रहता है और उसका कम या ज्यादा नवीकरण होता रहता है। इस तरह कार्य करना स्वयं परमेश्वर के निहित स्वभाव की अभिव्यक्ति है। यह परमेश्वर के कार्य का निहित नियम भी है, और उन उपायों में से एक है जिनके माध्यम से परमेश्वर अपना प्रबंधन निष्पादित करता है। यदि परमेश्वर इस प्रकार से कार्य न करे, तो मनुष्य बदल नहीं पाएगा या परमेश्वर को जान नहीं पाएगा, और शैतान पराजित नहीं होगा। इसलिए, उसके कार्य में निरंतर परिवर्तन होता रहता है जो अनिश्चित दिखाई देता है, परंतु वास्तव में ये निश्चित अवधियों में होने वाले परिवर्तन हैं। हालाँकि, मनुष्य जिस प्रकार से परमेश्वर में विश्वास करता है, वह बिल्कुल भिन्न है। वह पुराने, परिचित धर्म सिद्धांतों और पद्धतियों से चिपका रहता है, और वे जितने पुराने होते हैं, उसे उतने ही प्रिय लगते हैं। मनुष्य का मूर्ख दिमाग, जो पत्थर के समान अपरिवर्तनशील है, परमेश्वर के इतने सारे अकल्पनीय नए कार्यों और वचनों को कैसे स्वीकार कर सकता है? हमेशा नया बने रहने वाले और कभी पुराना न पड़ने वाले परमेश्वर से मनुष्य घृणा करता है; वह हमेशा ही केवल उस पुराने परमेश्वर को पसंद करता है जिसके दाँत लंबे और बाल सफेद हैं, और जो अपनी जगह से चिपका रहता है। इस प्रकार, क्योंकि परमेश्वर और मनुष्य, दोनों की अपनी-अपनी पसंद है, मनुष्य परमेश्वर का बैरी बन गया है। इनमें से बहुत से विरोधाभास आज भी मौजूद हैं, एक ऐसे समय में जब परमेश्वर लगभग छह हजार सालों से नया कार्य करता आ रहा है। तो वे किसी भी इलाज से परे हैं। हो सकता है कि यह मनुष्य के हठ के कारण या किसी भी मनुष्य द्वारा परमेश्वर के प्रशासकीय आदेशों की अनुल्लंघनीयता के कारण हो—परंतु वे पुरुष और महिला पादरी अभी भी फटी-पुरानी किताबों और दस्तावेजों से चिपके रहते हैं, जबकि परमेश्वर अपने प्रबंधन के अपूर्ण कार्य को पूरा करने में इस तरह लगा रहता है मानो उसके साथ कोई हो ही नहीं। भले ही ये विरोधाभास परमेश्वर और मनुष्य को शत्रु बनाते हैं, और इनका कोई समाधान भी नहीं है, परमेश्वर उन पर बिल्कुल ध्यान नहीं देता है, मानो वे होकर भी नहीं हैं। हालाँकि मनुष्य तब भी अपनी आस्थाओं और धारणाओं से चिपका रहता है, और उन्हें कभी छोड़ता नहीं है। फिर भी, एक बात स्वतःस्पष्ट है : भले ही मनुष्य अपने रुख से विचलित नहीं होता है, परमेश्वर के कदम हमेशा आगे बढ़ते रहते हैं और वह अपना रुख परिवेश के अनुसार हमेशा बदलता रहता है। अंत में, यह मनुष्य ही होगा जो बिना लड़ाई लड़े हार जाएगा। परमेश्वर, इस समय, अपने पराजित दुश्मनों का सबसे बड़ा शत्रु है, और वह पूरी मानवजाति का हिमायती भी है, समान रूप से पराजित और अपराजित दोनों का। परमेश्वर के साथ कौन प्रतिस्पर्धा कर सकता है और विजयी हो सकता है? मनुष्य की धारणाएं परमेश्वर से आती हुई प्रतीत होती हैं, क्योंकि उनमें से कई परमेश्वर के कार्य के दौरान ही उत्पन्न हुई हैं। जो भी हो, परमेश्वर इस कारण से मनुष्य को क्षमा नहीं कर देता, इसके साथ ही, वह अपने कार्य के बाहर के कार्य के खेप-दर-खेप “परमेश्वर के लिए” जैसे उत्पाद उत्पन्न करने के लिए मनुष्य की प्रशंसा भी नहीं करता है। इसके बजाय, वह मनुष्य की धारणाओं और पुरानी, धार्मिक आस्थाओं से बेहद नाराज है, और उसका इरादा उस तिथि को स्वीकार तक करने का नहीं है जब ये धारणाएं सबसे पहले सामने आई थीं। वह इस बात को बिल्कुल स्वीकार नहीं करता है कि ये धारणाएं उसके कार्य के कारण पैदा हुई हैं, क्योंकि मनुष्य की धारणाएं मनुष्यों द्वारा ही फैलाई जाती हैं; उनका स्रोत मनुष्य की सोच और दिमाग है—परमेश्वर नहीं, बल्कि शैतान है। परमेश्वर का इरादा हमेशा यही रहा है कि उसके कार्य नए और जीवित रहें, पुराने या मृत नहीं, और जिन बातों को वह मनुष्य को दृढ़ता से थामे रखने के लिए कहता है वे युगों और कालों में विभाजित हैं, न कि अनंत और स्थिर हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह परमेश्वर ही है जो मनुष्य को जीवित और नया बनने के योग्य बनाता है, न कि शैतान जो मनुष्य को मृत और पुराना बने रहने देना चाहता है। क्या तुम लोग अभी भी यह नहीं समझते हो? तुममें परमेश्वर के बारे में धारणाएं हैं और तुम उन्हें छोड़ पाने में सक्षम नही हो, क्योंकि तुम संकीर्ण दिमाग के हो। ऐसा इसलिए नहीं है कि परमेश्वर के कार्य के भीतर अत्यंत कम अर्थ है, और न ही इसलिए कि परमेश्वर का कार्य मनुष्य के प्रति विचारशील नहीं है; ऐसा इसलिए तो बिल्कुल नहीं है कि परमेश्वर अपने कर्तव्यों के प्रति हमेशा बेपरवाह रहता है। तुम अपनी धारणाओं को इसलिए नहीं छोड़ पाते हो क्योंकि तुम्हारे अंदर समर्पण की अत्यधिक कमी है, और क्योंकि तुममें परमेश्वर द्वारा सृजित प्राणी की थोड़ी सी भी समानता नहीं है; ऐसा इसलिए नहीं है कि परमेश्वर तुम्हारे लिए चीजों को कठिन बना रहा है। यह सब कुछ तुम्हारे ही कारण हुआ है और इसका परमेश्वर के साथ कोई संबंध नहीं है; सारे कष्ट और दुर्भाग्य मनुष्य ने ही पैदा किए हैं। परमेश्वर की सोच हमेशा अच्छी होती है : वह तुम्हें धारणाएँ बनाने देना नहीं चाहता, बल्कि वह चाहता है कि युगों के बदलने के साथ-साथ तुम भी बदल जाओ और नए होते जाओ। फिर भी तुम नहीं जानते कि तुम्हारे लिए क्या अच्छा है, और तुम हमेशा परख या विश्लेषण कर रहे होते हो। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर तुम्हारे लिए चीजें मुश्किल बना रहा है, बल्कि तुममें ही परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं है, और तुम्हारी विद्रोहशीलता बहुत ज्यादा है। एक अदना-सा सृजित प्राणी पूर्व में परमेश्वर द्वारा प्रदत्त किसी चीज के एक महत्त्वहीन-से हिस्से को लेकर और पलटकर उसी से परमेश्वर पर प्रहार करने का साहस करता है—क्या यह मनुष्य का विद्रोह नहीं है? यह कहना उचित होगा कि परमेश्वर के सामने अपने विचारों को व्यक्त करने में मनुष्य पूरी तरह से अयोग्य है, और वह अपनी व्यर्थ की, बदबूदार, सड़ी-गली, अलंकृत भाषा के साथ, अपनी इच्छानुसार प्रदर्शन करने में तो और भी अयोग्य है—उन घिसी-पिटी धारणाओं का तो कहना ही क्या। क्या वे और भी बेकार नहीं हैं?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो परमेश्वर के आज के कार्य को जानते हैं केवल वे ही परमेश्वर की सेवा कर सकते हैं
तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम लोग परमेश्वर के कार्य का विरोध इसलिए करते हो, या आज के कार्य को मापने के लिए अपनी ही धारणाओं का इसलिए उपयोग करते हो, क्योंकि तुम लोग परमेश्वर के कार्य के सिद्धांतों को नहीं जानते हो, और क्योंकि तुम पवित्र आत्मा के कार्य के प्रति लापरवाही बरतते हो। तुम लोगों का परमेश्वर के प्रति विरोध और पवित्र आत्मा के कार्य में अवरोध तुम लोगों की धारणाओं और तुम लोगों के अंतर्निहित अहंकार के कारण है। ऐसा इसलिए नहीं है कि परमेश्वर का कार्य गलत है, बल्कि इसलिए है कि तुम लोग स्वाभाविक रूप से अत्यंत विद्रोही हो। परमेश्वर में विश्वास हो जाने के बाद भी, कुछ लोग यकीन से यह भी नहीं कह सकते हैं कि मनुष्य कहाँ से आया, फिर भी वे पवित्र आत्मा के कार्यों के सही और गलत होने के बारे में बताते हुए सार्वजनिक भाषण देने का साहस करते हैं। यहाँ तक कि वे उन प्रेरितों को भी व्याख्यान देते हैं जिनके पास पवित्र आत्मा का नया कार्य है, उन पर टिप्पणी करते हैं और बेमतलब बोलते रहते हैं; उनकी मानवता बहुत ही निम्न है, और उनमें बिल्कुल भी समझ नहीं होती है। क्या वह दिन नहीं आएगा जब इस प्रकार के लोग पवित्र आत्मा के कार्य के द्वारा तिरस्कृत कर दिए जाएँगे, और नरक की आग द्वारा भस्म कर दिए जाएँगे? वे परमेश्वर के कार्यों को नहीं जानते हैं, फिर भी उसके कार्य की आलोचना करते हैं और परमेश्वर को यह निर्देश देने की कोशिश करते हैं कि कार्य किस प्रकार किया जाए। इस प्रकार के अविवेकी लोग परमेश्वर को कैसे जान सकते हैं? मनुष्य खोजने और अनुभव करने की प्रक्रिया के दौरान ही परमेश्वर को जान पाता है; न कि अपनी सनक में उसकी आलोचना करने के द्वारा मनुष्य पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता के माध्यम से परमेश्वर को जान पाया है। परमेश्वर के बारे में लोगों का ज्ञान जितना अधिक सही होता जाता है, उतना ही कम वे उसका विरोध करते हैं। इसके विपरीत, लोग परमेश्वर के बारे में जितना कम जानते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का विरोध करने की संभावना रहती है। तुम लोगों की धारणाएँ, तुम्हारी पुरानी प्रकृति, और तुम्हारी मानवता, चरित्र और नैतिक दृष्टिकोण वह पूँजी है जिससे तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो, और जितना अधिक तुम्हारी नैतिकता जितनी भ्रष्ट होगी, तुम्हारे गुण जितने तुच्छ और तुम्हारी मानवता जितनी निम्न होगी, उतना ही अधिक तुम परमेश्वर के शत्रु बन जाते हो। जो लोग प्रबल धारणाएँ रखते हैं और आत्मतुष्ट स्वभाव के होते हैं, वे देहधारी परमेश्वर के प्रति और भी अधिक शत्रुतापूर्ण होते हैं; इस प्रकार के लोग मसीह-विरोधी हैं। यदि तुम्हारी धारणाओं में सुधार न किया जाए, तो वे सदैव परमेश्वर की विरोधी रहेंगी; तुम कभी भी परमेश्वर के अनुकूल नहीं होगे, और सदैव उससे दूर रहोगे।
अपनी पुरानी धारणाओं को एक तरफ रखकर ही तुम नए ज्ञान को प्राप्त कर सकते हो, फिर भी पुराना ज्ञान आवश्यक नहीं कि पुरानी धारणाएँ हो। मनुष्य द्वारा कल्पना की गई बातों को “धारणाएँ” कहते हैं जो वास्तविकताओं के साथ मेल नहीं खाती हैं। यदि पुराना ज्ञान पुराने युग में पहले से ही पुराना हो गया हो, और मनुष्य को नए कार्य में प्रवेश करने से रोक देता हो, तो इस प्रकार का ज्ञान भी एक धारणा है। यदि मनुष्य इस प्रकार के ज्ञान के संबंध में सही दृष्टिकोण अपनाने में समर्थ हो, और, पुरानी और नई बातों को जोड़कर विभिन्न पहलुओं से परमेश्वर को जान सकता हो, तो पुराना ज्ञान मनुष्य के लिए सहायक बन जाता है और वह आधार बन जाता है जिसके द्वारा मनुष्य नए युग में प्रवेश करता है। ... मनुष्य अपने मन में कल्पित परमेश्वर को ही मानने लगता है और वास्तविकतापूर्ण परमेश्वर को नहीं खोजता है। यदि एक व्यक्ति का एक प्रकार का विश्वास है, तो सौ लोगों के बीच सौ प्रकार के विश्वास होंगे। मनुष्य के पास इसी प्रकार के विश्वास हैं क्योंकि उसने परमेश्वर के व्यावहारिक कार्य को नहीं देखा है, क्योंकि उसने इसे सिर्फ अपने कानों से सुना है और अपनी आँखों से नहीं देखा है। मनुष्य ने उपाख्यानों और कहानियों को सुना है, परंतु उसने परमेश्वर के कार्य के तथ्यों के ज्ञान के बारे में शायद ही सुना है। इस प्रकार, वे जो केवल एक वर्ष से विश्वासी रहे हैं, परमेश्वर पर अपनी खुद की धारणाओं के माध्यम से विश्वास करते हैं। यही उन सभी के बारे में भी सत्य है जिन्होंने परमेश्वर पर जीवन भर विश्वास किया है। जो लोग तथ्यों को नहीं देख सकते वे ऐसे विश्वास से बच नहीं सकते जिसमें परमेश्वर के बारे में उनकी अपनी धारणाएँ हैं। मनुष्य यह मानता है कि उसने स्वयं को अपनी सभी पुरानी धारणाओं के बंधनों से मुक्त कर लिया है और एक नए क्षेत्र में प्रवेश कर लिया है। क्या मनुष्य यह नहीं जानता कि उन लोगों का ज्ञान जो परमेश्वर का असली चेहरा नहीं देख सकते, केवल धारणाएँ और अफ़वाहें हैं? मनुष्य सोचता है कि उसकी धारणाएँ सही हैं और बिना गलतियों की हैं, और सोचता है कि ये धारणाएँ परमेश्वर की ओर से आती हैं। आज, जब मनुष्य परमेश्वर के कार्य देखता है, वह उन धारणाओं को खुला छोड़ देता है जो कई सालों से बनती रही हैं। अतीत की कल्पनाएँ और विचार इस चरण के कार्य में अवरोध बन गए हैं और मनुष्य के लिए इस प्रकार की धारणाओं को छोड़ना और इस प्रकार के विचारों का खंडन करना कठिन हो गया है। इस कदम-दर-कदम कार्य को लेकर ऐसे बहुत-से लोगों की धारणाएँ, जिन्होंने आज तक परमेश्वर का अनुसरण किया है, अत्यंत हानिकारक हो गई हैं और इन लोगों ने देहधारी परमेश्वर के प्रति धीरे-धीरे एक हठी शत्रुता विकसित कर ली है। इस घृणा का स्रोत मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं में निहित है। मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ आज के कार्य की शत्रु बन गई हैं, वह कार्य जो मनुष्य की धारणाओं से मेल नहीं खाता। ऐसा इसीलिए हुआ है क्योंकि तथ्य मनुष्य को उसकी कल्पनाशीलता को खुली छूट देने की अनुमति नहीं देते, और इसके साथ ही, वे मनुष्य द्वारा आसानी से खंडित नहीं किए जा सकते, और मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ तथ्यों के अस्तित्व को मिटा नहीं सकतीं, और साथ ही, क्योंकि मनुष्य तथ्यों की सटीकता और सच्चाई पर विचार नहीं करता है, और केवल एक ही तरह सोचते हुए अपनी धारणाओं को खुला छोड़ देता है, और अपनी खुद की कल्पनाओं को काम में लाता है। इसे केवल मनुष्यों की धारणाओं का दोष ही कहा जा सकता है, इसे परमेश्वर के कार्य का दोष नहीं कहा जा सकता। मनुष्य जो चाहे कल्पना कर सकता है, परंतु वह परमेश्वर के कार्य के किसी भी चरण या इसके छोटे से भी अंश के बारे में मुक्त भाव से विवाद नहीं कर सकता है; परमेश्वर के कार्य का तथ्य मनुष्य द्वारा अनुल्लंघनीय है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना ही परमेश्वर को जानने का मार्ग है
यदि तुम परमेश्वर के मापन और परिसीमन के लिए अपनी धारणाओं का उपयोग करते हो, मानो परमेश्वर कोई मिट्टी की अचल मूर्ति हो, और अगर तुम लोग परमेश्वर को बाइबल के मापदंडों के भीतर सीमांकित करते हो और उसे कार्य के एक सीमित दायरे में समाविष्ट करते हो, तो इससे यह प्रमाणित होता है कि तुम लोगों ने परमेश्वर की निंदा की है। चूँकि पुराने विधान के युग के यहूदियों ने परमेश्वर को एक अचल प्रतिमा के रूप में लिया था, जिसे वे अपने हृदयों में रखते थे, मानो परमेश्वर को मात्र मसीह ही कहा जा सकता था, और मात्र वही, जिसे मसीह कहा जाता था, परमेश्वर हो सकता हो, और चूँकि मानवजाति परमेश्वर की सेवा और आराधना इस तरह से करती थी, मानो वह मिट्टी की एक (निर्जीव) मूर्ति हो, इसलिए उन्होंने उस समय के यीशु को मौत की सजा देते हुए सलीब पर चढ़ा दिया—निर्दोष यीशु को इस तरह मौत की सजा दे दी गई। परमेश्वर ने कोई अपराध नहीं किया था, फिर भी मनुष्य ने उसे छोड़ने से इनकार कर दिया, और उसे मृत्युदंड देने पर जोर दिया, और इसलिए यीशु को सलीब पर चढ़ा दिया गया। मनुष्य सदैव विश्वास करता है कि परमेश्वर स्थिर है, और वह उसे एक अकेली पुस्तक बाइबल के आधार पर परिभाषित करता है, मानो मनुष्य को परमेश्वर के प्रबंधन की पूर्ण समझ हो, मानो मनुष्य वह सब अपनी हथेली पर रखता हो, जो परमेश्वर करता है। लोग बेहद बेतुके, बेहद अहंकारी और स्वभाव से बड़बोले हैं। परमेश्वर के बारे में तुम्हारा ज्ञान कितना भी महान क्यों न हो, मैं फिर भी यही कहता हूँ कि तुम परमेश्वर को नहीं जानते, कि तुम वह व्यक्ति हो जो परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करता है, और कि तुमने परमेश्वर की निंदा की है, कि तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करने और परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर चलने में सर्वथा अक्षम हो। क्यों परमेश्वर मनुष्य के कार्यकलापों से कभी संतुष्ट नहीं होता? क्योंकि मनुष्य परमेश्वर को नहीं जानता, क्योंकि उसकी अनेक धारणाएँ है, क्योंकि उसका परमेश्वर का ज्ञान वास्तविकता से किसी भी तरह मेल नहीं खाता, इसके बजाय वह नीरस ढंग से एक ही विषय को बिना बदलाव के दोहराता रहता है और हर स्थिति के लिए एक ही दृष्टिकोण इस्तेमाल करता है। और इसलिए, आज पृथ्वी पर आने पर, परमेश्वर को एक बार फिर मनुष्य द्वारा सलीब पर चढ़ा दिया गया है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बुरे लोगों को निश्चित ही दंड दिया जाएगा
परमेश्वर जब देहधारण कर इंसानों के बीच काम करने आता है, तो सभी उसे देखते और उसके वचनों को सुनते हैं, और सभी लोग उन कर्मों को देखते हैं जो परमेश्वर देह रूप में करता है। उस क्षण, इंसान की तमाम धारणाएँ साबुन के झाग बन जाती हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जिन्होंने परमेश्वर को देह में प्रकट होते देखा है, यदि वे अपनी इच्छा से उसके प्रति समर्पण करेंगे, तो उनकी निंदा नहीं की जाएगी, जबकि जो लोग जानबूझकर परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होते हैं, वे परमेश्वर का विरोध करने वाले माने जाएँगे। ऐसे लोग मसीह-विरोधी और शत्रु हैं जो जानबूझकर परमेश्वर के विरोध में खड़े होते हैं। ऐसे लोग जो परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखते हैं, मगर खुशी से उसके प्रति समर्पण करते हैं, वे निंदित नहीं किए जाएँगे। परमेश्वर मनुष्य की नीयत और क्रियाकलापों के आधार पर उसकी निंदा करता है, उसके विचारों और मत के आधार पर कभी नहीं। यदि वह विचारों और मत के आधार पर इंसान की निंदा करता, तो कोई भी परमेश्वर के रोषपूर्ण हाथों से बच कर भाग नहीं पाता। जो लोग जानबूझकर देहधारी परमेश्वर के विरोध में खड़े होते हैं, वे समर्पण न करने के कारण दण्ड पाएँगे। जो लोग जानबूझकर परमेश्वर के विरोध में खड़े होते हैं, उनका विरोध परमेश्वर के प्रति उनकी धारणाओं से उत्पन्न होता है, जिसके परिणामस्वरूप वे परमेश्वर के कार्य में विघ्न पैदा करने वाले कार्यकलाप करते हैं। ये लोग जान-बूझकर परमेश्वर के कार्य का विरोध कर उसे नष्ट करते हैं। उनके मन में परमेश्वर को लेकर न केवल धारणाएँ होती हैं, बल्कि वे ऐसे कार्यकलाप भी करते हैं जो परमेश्वर के कार्य में विघ्न डालते हैं, और यही कारण है कि इस तरह के लोगों की निंदा की जाएगी। जो लोग जानबूझकर परमेश्वर के कार्य में विघ्न डालने में लिप्त नहीं होते, उनकी पापियों के समान निंदा नहीं की जाएगी, क्योंकि वे अपनी इच्छा से समर्पण कर पाते हैं और गड़बड़ी और विघ्न उत्पन्न करने वाली गतिविधियों में लिप्त नहीं होते। ऐसे व्यक्तियों की निंदा नहीं की जाएगी। लेकिन, जब कोई कई वर्षों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर लेने के बाद भी परमेश्वर के बारे में कई धारणाएँ मन में रखता है और देहधारी परमेश्वर के कार्य को समझने में असमर्थ रहता है, और अनेक वर्षों के अनुभव के बावजूद, वह परमेश्वर के बारे में धारणाओं से भरा रहता है और उसे जान नहीं पाता, और अगर कितने भी सालों तक उसके कार्य का अनुभव करने के बाद भी वह परमेश्वर के बारे में धारणाओं से भरा रहता है और फिर भी उसे जान नहीं पाता तब वह भले ही विघ्नकारी गतिविधियों में लिप्त न हो, लेकिन उसका हृदय परमेश्वर के बारे में धारणाओं से भरा रहता है, और अगर ये धारणाएँ स्पष्ट न भी हों तो, ऐसे लोग किसी भी प्रकार से परमेश्वर के कार्य के उपयोग लायक नहीं होते। वे सुसमाचार का उपदेश देने या परमेश्वर की गवाही देने में असमर्थ होते हैं। ऐसे लोग किसी काम के नहीं होते और मंदबुद्धि होते हैं। क्योंकि वे परमेश्वर को नहीं जानते और परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं का परित्याग करने में एकदम अक्षम होते हैं, इसलिए वे निंदित किए जाते हैं। ऐसा कहा जा सकता है : नौसिखिए विश्वासियों के लिये परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखना या परमेश्वर के बारे में कुछ नहीं जानना सामान्य बात है, परंतु जिसने वर्षों परमेश्वर में विश्वास किया है और परमेश्वर के कार्य का बहुत अनुभव किया है, उसका ऐसी धारणाएँ रखे रहना, सामान्य बात नहीं है, और उसे परमेश्वर का ज्ञान न होना तो बिल्कुल भी सामान्य नहीं है। ऐसे लोगों की निंदा करना सामान्य स्थिति नहीं है। ऐसे असामान्य लोग एकदम कचरा हैं; ये ऐसे लोग होते हैं जो परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं और जिन्होंने व्यर्थ में ही परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाया होता है। ऐसे सभी लोग अंत में निकाल दिए जाएँगे!
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर को न जानने वाले सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं
लोगों की धारणाएँ उनके अक्सर परमेश्वर को गलत समझने और अक्सर तरह-तरह की माँगें रखने, परमेश्वर के बारे में अपनी राय देने और मन में परमेश्वर को मापने के तरह-तरह के मानदंड रखने का कारण बनती हैं; इनके कारण लोग यह मापने के लिए कि चीजें सही हैं या गलत, कोई नेक है या बुरा, और कोई परमेश्वर का वफादार है या नहीं और उसमें परमेश्वर के प्रति आस्था है या नहीं, अक्सर गलत विचारों और नजरियों का प्रयोग करते हैं। इन गलतियों का मूल कारण क्या है? मूल कारण हैं लोगों की धारणाएँ। शायद लोगों की धारणाओं का उनके खाने-सोने पर, और उनके सामान्य जीवन पर कोई प्रभाव न पड़ता हो, लेकिन ये चीजें लोगों के दिमाग और विचारों में मौजूद रहती हैं, ये छाया की तरह लोगों से चिपक कर हर समय उनका पीछा करती हैं। अगर तुम इन्हें समय से दूर न करते रहो, तो ये तुम्हारी सोच, परख, तुम्हारे व्यवहार, तुम्हारे परमेश्वर-संबंधी ज्ञान और परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंधों को निरंतर नियंत्रित करती रहेंगी। क्या यह तुम स्पष्टता से समझ रहे हो? धारणाएँ एक बड़ी समस्या है। परमेश्वर के बारे में लोगों का धारणाएँ रखना, उनके और परमेश्वर के बीच एक दीवार होने जैसा है, जो उन्हें परमेश्वर का वास्तविक चेहरा देखने से रोकती है, जो उन्हें परमेश्वर के सच्चे स्वभाव और सच्चे सार को देखने से रोकती है। ऐसा क्यों है? इसलिए कि लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में जीते हैं, वे अपनी धारणाओं का प्रयोग यह निर्धारित करने के लिए करते हैं कि परमेश्वर सही है या गलत और परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसे मापने, परखने और उसकी निंदा करने के लिए करते हैं। ऐसा करके लोग अक्सर कैसी दशा में डूब जाते हैं? क्या लोग अपनी धारणाओं में जीते हुए परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं? क्या वे परमेश्वर में सच्ची आस्था रख सकते हैं? (नहीं रख सकते हैं।) जब लोग परमेश्वर के प्रति थोड़ा-बहुत समर्पण करते भी हैं, तो ऐसा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार ही करते हैं। जब कोई अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करता है, तो वह समर्पण उनकी निजी चीजों से कलंकित हो जाता है जो शैतान और बाहरी दुनिया की होती हैं और वह सत्य के विपरीत होता है। परमेश्वर को लेकर लोगों की धारणाओं की समस्या गंभीर है; मनुष्य और परमेश्वर के बीच के इस प्रमुख मुद्दे को तत्काल सुलझाने की आवश्यकता है। हर कोई परमेश्वर के सामने धारणाएँ लेकर आता है, परमेश्वर के बारे में हर तरह के संदेह लेकर आता है। या यह भी कहा जा सकता है कि परमेश्वर के लोगों को इतना कुछ प्रदान करने, उनके लिए व्यवस्था और आयोजन करने के बावजूद लोग परमेश्वर के बारे में अनगिनत गलतफहमियाँ लेकर आते हैं। और फिर परमेश्वर के साथ उनके रिश्ते का क्या होगा? लोग परमेश्वर को लगातार गलत समझते हैं, उस पर संदेह करते हैं और यह मापने के लिए कि परमेश्वर सही है या गलत, और उसके प्रत्येक वचन एवं कार्य को मापने के लिए निरंतर अपने ही मानकों का प्रयोग करते हैं। यह कैसा व्यवहार है? (यह विद्रोहशीलता और अवज्ञा है।) सही है, यह लोगों का परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह, अवज्ञा और उसकी निंदा करना है, यह लोगों का परमेश्वर की आलोचना करना, उसके विरुद्ध ईशनिंदा करना और उसके साथ होड़ लगाना है, और गंभीर मामलों में लोग परमेश्वर को अदालत में खींच कर उसके विरुद्ध एक “निर्णायक संघर्ष” करना चाहते हैं। वह कौन-सा सबसे गंभीर स्तर है जहाँ तक लोगों की धारणाएँ पहुँच सकती हैं? यह स्वयं सच्चे परमेश्वर को नकारना है, यह नकारना है कि उसके वचन ही सत्य हैं, और परमेश्वर के कार्य की निंदा करना है। जब लोगों की धारणाएँ इस स्तर तक पहुँच जाती हैं, तो वे सहज ही परमेश्वर को नकार देते हैं, उसकी निंदा करते हैं, उसके विरुद्ध ईशनिंदा करते हैं और परमेश्वर को धोखा देते हैं। वे न सिर्फ परमेश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं, बल्कि वे सत्य को स्वीकारने और परमेश्वर का अनुसरण करने से इनकार करते हैं—क्या यह डरावना नहीं है? (बिल्कुल।) यह एक डरावनी समस्या है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1)
कुछ लोग सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने से शांति और आनंद की प्राप्ति होनी चाहिए, और अगर वे मुश्किल परिस्थितियों का सामना करते हैं, तो उन्हें सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना करने की जरूरत है और परमेश्वर उन पर ध्यान देगा, उन्हें अनुग्रह और आशीषें देगा, और यह सुनिश्चित करेगा कि उनके लिए सब कुछ शांतिपूर्वक और सुचारू रूप से चले। परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका उद्देश्य अनुग्रह माँगना, आशीषें प्राप्त करना, और शांति और खुशी का आनंद लेना है। इन दृष्टिकोणों के कारण ही वे परमेश्वर की खातिर खुद को खपाने के लिए अपने परिवारों का त्याग कर देते हैं या अपनी नौकरी छोड़ देते हैं और कष्ट सहन कर सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं। उनका मानना है कि जब तक वे चीजों का त्याग करेंगे, परमेश्वर के लिए खुद को खपाएँगे, कष्ट सहन करेंगे और लगन से कार्य करेंगे, असाधारण व्यवहार प्रदर्शित करेंगे, तब तक वे परमेश्वर की आशीषें और कृपा प्राप्त करेंगे, और चाहे वे कैसी भी मुश्किलों का सामना क्यों ना करें, जब तक वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे, वह उन्हें सुलझाएगा और हर चीज में उनके लिए एक मार्ग खोल देगा। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले अधिकांश लोगों का यही नजरिया होता है। लोगों को लगता है कि यह नजरिया जायज और सही है। कई लोगों की वर्षों तक बिना अपनी आस्था त्यागे परमेश्वर में अपनी आस्था बनाए रखने की क्षमता सीधे इस नजरिये से संबंधित है। वे सोचते हैं, “मैंने परमेश्वर के लिए इतना कुछ खपाया है, मेरा व्यवहार इतना अच्छा रहा है, और मैंने कोई कुकर्म नहीं किए हैं; परमेश्वर यकीनन मुझे आशीष देगा। चूँकि मैंने बहुत कष्ट सहे हैं और हर कार्य के लिए एक बड़ी कीमत चुकाई है, बिना कोई गलती किए परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार सबकुछ किया है, इसलिए परमेश्वर को मुझे आशीष देना चाहिए; उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मेरे लिए सब कुछ सुचारू रूप से चले, और यह कि मैं अक्सर अपने दिल में शांति और खुशी का अनुभव करूँ, और परमेश्वर की मौजूदगी का आनंद लूँ।” क्या यह एक मानवीय धारणा और कल्पना नहीं है? मानवीय परिप्रेक्ष्य से देखें, तो लोग परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हैं और फायदे प्राप्त करते हैं, इसलिए इसके लिए थोड़ा कष्ट सहना समझ में आता है, और इस कष्ट के बदले में परमेश्वर की आशीषें प्राप्त करना सार्थक है। यह परमेश्वर के साथ सौदा करने की मानसिकता है। लेकिन, सत्य के परिप्रेक्ष्य से और परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, यह मूल रूप से ना तो परमेश्वर के कार्य के सिद्धांतों के और ना ही उन मानकों के अनुरूप है जिनकी परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है। यह पूरी तरह से ख्याली पुलाव है, परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में सिर्फ एक मानवीय धारणा और कल्पना है। चाहे इसमें परमेश्वर से सौदे करना या उससे चीजों की माँग करना शामिल हो या नहीं हो, या इसमें मानवीय धारणाएँ और कल्पनाएँ शामिल हों या नहीं हों, चाहे कुछ भी हो, इनमें से कुछ भी परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है, ना ही यह लोगों को आशीष देने के लिए परमेश्वर के सिद्धांतों और मानकों को पूरा करता है। खास तौर से, यह लेन-देनों वाला विचार और नजरिया परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करता है, लेकिन लोगों को इसका एहसास नहीं होता है। जब परमेश्वर जो करता है वह लोगों की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता है, तो जल्द ही उनके दिलों में उसके बारे में शिकायतें और गलतफहमियाँ उत्पन्न होने लगती हैं। उन्हें यह भी लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है और फिर वे परमेश्वर से तर्क करना शुरू कर देते हैं, और यहाँ तक कि वे उसकी आलोचना और निंदा भी कर सकते हैं। लोग चाहे जो भी धारणाएँ और गलतफहमियाँ बना लें, परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, वह कभी भी मानवीय धारणाओं या आकांक्षाओं के अनुसार ना तो कार्य करता है और ना ही किसी के साथ व्यवहार करता है। परमेश्वर हमेशा वही करता है जो उसकी इच्छा होती है, वह हमेशा अपने खुद के तरीके से और अपने स्वभाव सार के आधार पर कार्य करता है। परमेश्वर के पास हर व्यक्ति के साथ व्यवहार करने के सिद्धांत हैं; वह हर व्यक्ति के साथ जो भी करता है उसमें से कुछ भी मानवीय धारणाओं, कल्पनाओं या प्राथमिकताओं पर आधारित नहीं होता है—परमेश्वर के कार्य का यही पहलू मानवीय धारणाओं से सबसे ज्यादा असंगत है। जब परमेश्वर लोगों के लिए एक ऐसे परिवेश की व्यवस्था करता है जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के पूरी तरह विपरीत होता है, तो वे अपने दिलों में परमेश्वर के खिलाफ धारणाएँ, राय और निंदाएँ बना लेते हैं और यहाँ तक कि उसे अस्वीकार भी कर सकते हैं। फिर क्या परमेश्वर उनकी जरूरतों को पूरा कर सकता है? बिल्कुल नहीं। परमेश्वर कभी भी मानवीय धारणाओं के अनुसार अपने कार्य करने के तरीके और अपनी इच्छाओं को नहीं बदलेगा। तो फिर किसे बदलने की जरूरत है? लोगों को बदलने की जरूरत है। लोगों को अपनी धारणाएँ छोड़ देनी चाहिए, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेशों को स्वीकारना, उनके प्रति समर्पण करना, और उनका अनुभव करना चाहिए, और अपनी धारणाओं को सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए, ना कि परमेश्वर जो करता है उसे अपनी धारणाओं की कसौटी पर मापना चाहिए ताकि देख सकें कि क्या वह सही है। जब लोग अपनी धारणाओं से जकड़े रहते हैं, तो उनमें परमेश्वर के खिलाफ प्रतिरोध उत्पन्न होता है—यह स्वाभाविक रूप से होता है। प्रतिरोध की जड़ें कहाँ होती हैं? यह इस तथ्य में निहित है कि आम तौर पर लोगों के दिलों में जो कुछ होता है, वह निस्संदेह उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं, सत्य नहीं होता है। इसलिए, जब लोग देखते हैं कि परमेश्वर का कार्य मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं है, तो वे परमेश्वर की अवज्ञा कर सकते हैं और उसके खिलाफ राय बना सकते हैं। इससे साबित होता है कि मूल रूप से लोगों में परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल नहीं होता है, उनका भ्रष्ट स्वभाव स्वच्छ किए जाने से दूर है, और वे वास्तव में अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीवन जीते हैं। वे अब भी उद्धार प्राप्त करने से बहुत ही ज्यादा दूर हैं।
—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (16)
तुम लोगों के दिलों में और कौन-सी धारणाएँ हैं जो तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित कर सकती हैं? कौन-सी धारणाएँ अक्सर तुम लोगों को तुम्हारे जीवन में प्रभावित और शासित करती हैं? जब तुम्हारे साथ कुछ ऐसी चीजें हों जो तुम्हारी पसंद के अनुसार न हों, तो स्वाभाविक रूप से तुम्हारे मन में धारणाएँ प्रकट होती हैं और तब तुम परमेश्वर से शिकायत करते हो, बहस करते हो और उससे स्पर्धा करते हो, और ये परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंधों में तेजी से बदलाव लाते हैं : तुम शुरुआत में यह महसूस करने से कि तुम परमेश्वर से बहुत प्रेम करते हो, उसके प्रति बहुत वफादार हो, उसे अपना पूरा जीवन समर्पित कर देना चाहते हो, वहाँ से निकल कर तुम एकाएक अपना इरादा बदल लेते हो, और अब तुम अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हो या परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं रहना चाहते हो, और परमेश्वर में अपने विश्वास और इस मार्ग को चुनने को ले कर तुम्हें पछतावा होता है, यहाँ तक कि परमेश्वर द्वारा चुने जाने पर भी शिकायत करते हो। दूसरी और कौन-सी धारणाएँ परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंधों में एकाएक बदलाव लाने में समर्थ हैं? (जब परमेश्वर मेरी परीक्षा लेने के लिए एक स्थिति की व्यवस्था कर मेरा खुलासा करता है, और मुझे लगता है कि मेरा परिणाम अच्छा नहीं होगा, तो मैं परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बना लेता हूं। मुझे लगता है कि मैं परमेश्वर में विश्वास कर उसका अनुसरण करता हूँ, और मैंने हमेशा अपना कर्तव्य निभाया है, तो अगर मैं परमेश्वर का त्याग न करूँ, तो उसे मुझे छोड़ना नहीं चाहिए।) यह एक तरह की धारणा है। क्या तुम लोगों के मन में अक्सर ऐसी धारणाएँ होती हैं? परमेश्वर द्वारा छोड़ दिए जाने को लेकर तुम लोगों की क्या समझ है? क्या तुम सोचते हो कि यदि परमेश्वर तुम्हें छोड़ देता है, तो इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहता और वह तुम्हें नहीं बचाएगा? यह एक दूसरे प्रकार की धारणा है। तो ऐसी धारणा कैसे आती है? क्या यह तुम्हारी कल्पना से आती है या इसका कोई आधार है? तुम कैसे जानते हो कि परमेश्वर तुम्हें अच्छा परिणाम नहीं देगा? क्या यह बात खुद परमेश्वर ने तुम्हें बतायी थी? ऐसे विचार पूरी तरह से तुम्हारे द्वारा निरूपित किए गए हैं। अब तुम जान गए हो कि यह एक धारणा है; अहम सवाल यह है कि इसे कैसे सुलझाया जाए। लोगों के मन में परमेश्वर में आस्था को लेकर वास्तव में अनेक धारणाएँ होती हैं। यदि तुम्हें एहसास हो कि तुम्हारे मन में कोई धारणा है, तो तुम्हें जान लेना चाहिए कि यह गलत है। तो इन धारणाओं को कैसे दूर करना चाहिए? पहले, तुम्हें यह स्पष्ट रूप से देखना चाहिए कि क्या ये धारणाएँ ज्ञान से आती हैं या शैतानी फलसफों से, खोट कहाँ है, हानि कहाँ है, और एक बार यह स्पष्ट रूप से समझ लेने के बाद, तुम स्वाभाविक रूप से धारणा को जाने दे पाओगे। हालाँकि यह तुम्हारे इसे अच्छी तरह से दूर कर देने के समान नहीं है; तुम्हें अभी भी सत्य खोजना चाहिए, समझना चाहिए कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं, और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार धारणा का विश्लेषण करना चाहिए। जब तुम स्पष्ट रूप से पहचान सकोगे कि धारणा गलत है, यह एक बेतुकी बात है, यह सत्य के अनुरूप बिल्कुल भी नहीं है, तो इसका अर्थ है कि तुमने बुनियादी तौर पर धारणा को दूर कर दिया है। यदि तुम सत्य नहीं खोजते, धारणा को परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर नहीं कसते, तो तुम यह स्पष्ट रूप से पहचान नहीं पाओगे कि धारणा किस तरह गलत है, और इसलिए तुम धारणा को पूरी तरह से छोड़ नहीं पाओगे; भले ही तुम्हें मालूम हो कि यह एक धारणा है, फिर भी तुम इसे अनिवार्यतः पूरी तरह से जाने नहीं दे पाओगे। ऐसे हालात में, जब तुम्हारी धारणाएँ परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रतिकूल हों, और भले ही शायद तुम्हें एहसास हो जाए कि तुम्हारी धारणाओं के गलत होने पर भी तुम्हारा दिल तुम्हारी धारणाओं से चिपका हुआ है, और तुम पक्के तौर पर जानते हो कि तुम्हारी धारणाएँ सत्य के प्रतिकूल हैं, फिर भी अपने दिल में अब भी यह मानते हो कि तुम्हारी धारणाएँ तर्कसंगत हैं, तब तुम ऐसे व्यक्ति नहीं होगे जो सत्य समझता है, और तुम जैसे लोगों के पास कोई जीवन प्रवेश नहीं होता और तुममें आध्यात्मिक कद का बेहद अभाव होता है। मिसाल के तौर पर, लोग अपने परिणाम और गंतव्य और अपने कर्तव्य के समायोजन तथा कर्तव्य से हटा दिए जाने के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं। कुछ लोग अक्सर ऐसी चीजों के बारे में गलत निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं, वे सोचते हैं कि जैसे ही वे अपने कर्तव्य से हटा दिए जाएँगे, और जब उनकी कोई हैसियत नहीं होगी या फिर परमेश्वर कहेगा कि वह उन्हें पसंद नहीं करता या अब उसे उनकी जरूरत नहीं है, तो यह उनका अंत होगा। वे लोग इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं। वे मानते हैं, “परमेश्वर में विश्वास रखने का कोई तुक नहीं है, परमेश्वर मुझे नहीं चाहता है, और मेरा परिणाम पहले से तय है, तो अब जीने का क्या तुक है?” दूसरे लोग ऐसे विचार सुनकर, उन्हें उचित और गरिमामय समझते हैं—लेकिन वास्तव में, यह कैसी सोच है? यह परमेश्वर के प्रति विद्रोहशीलता है, यह खुद को मायूसी में छोड़ देना है। वे खुद को मायूसी में क्यों छोड़ देते हैं? इसलिए कि वे परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते हैं, वे स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकते हैं कि परमेश्वर लोगों को किस तरह बचाता है, और वे परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं रखते हैं। जब लोग मायूस हो जाते हैं, तो क्या परमेश्वर जानता है? (हाँ।) परमेश्वर जानता है तो फिर वह ऐसे लोगों से कैसे पेश आता है? लोग एक तरह की धारणा बना लेते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर ने मनुष्य के लिए इतना श्रमसाध्य मूल्य चुकाया है, उसने हर व्यक्ति पर बहुत काम किया है और बहुत प्रयास किए हैं; परमेश्वर के लिए किसी व्यक्ति को चुनना और बचाना आसान नहीं है। अगर कोई व्यक्ति खुद को मायूसी में छोड़ देगा, तो परमेश्वर बहुत आहत होगा और हर दिन यही उम्मीद करेगा कि वह व्यक्ति उससे बाहर निकल आए।” यह अर्थ सतही स्तर पर है, लेकिन वास्तव में यह भी इंसान की ही धारणा है। परमेश्वर ऐसे लोगों के प्रति एक विशेष रवैया अपनाता है : यदि तुम खुद को मायूसी में छोड़ देते हो और आगे बढ़ने की कोशिश नहीं करते, तो वह तुम्हें खुद चुनने देगा; वह तुम्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी करने पर मजबूर नहीं करेगा। यदि तुम कहते हो, “मैं अभी भी एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहता हूँ, मैं परमेश्वर के कहे अनुसार अभ्यास करने और उसके इरादों को पूरा करने के लिए सब-कुछ कर सकता हूँ। मैं अपने सभी गुणों और प्रतिभाओं का प्रयोग करूंगा, और अगर मैं किसी भी काम के काबिल नहीं हूँ तो मैं समर्पण करना और आज्ञाकारी बनना सीखूंगा; मैं अपना कर्तव्य नहीं छोडूँगा,” परमेश्वर कहता है, “यदि तुम इस तरह से जीने को तैयार हो, तो अनुसरण करते रहो, लेकिन परमेश्वर जैसा कहे, तुम्हें वैसा ही करना चाहिए; परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानक और उसके सिद्धांत नहीं बदलते।” इन वचनों का क्या अर्थ है? इनका मतलब है कि सिर्फ लोग ही खुद को छोड़ सकते हैं; परमेश्वर कभी किसी को छोड़ नहीं देता है। यदि कोई अंततः उद्धार पाकर परमेश्वर को निहारने में समर्थ है, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित कर परमेश्वर के सामने आ सकता है, तो ऐसा उसके असफल होने पर या एक ही बार उसकी काट-छाँट होने पर हासिल नहीं किया जा सकता या एक ही बार उसका न्याय करने और ताड़ना देने पर हासिल नहीं किया जा सकता। पूर्ण बनाए जाने से पहले पतरस को सैकड़ों बार शुद्ध किया गया था। अंत तक श्रम करने के बाद बने रहने वालों में ऐसा एक भी नहीं होगा जिसने अंत तक पहुँचने से पहले केवल आठ या दस बार परीक्षणों और शोधन का अनुभव किया हो। किसी व्यक्ति की चाहे जितनी भी बार परीक्षा ली जाए और उसका शोधन किया जाए, क्या यह परमेश्वर का प्रेम नहीं है? (हाँ, अवश्य है।) जब तुम परमेश्वर के प्रेम को देख सकोगे, तब तुम मनुष्य के प्रति परमेश्वर के रवैये को समझ सकोगे।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1)
यहूदिया से यहूदियों के निर्वासन के बारे में बहुत-से लोगों के मन में धारणाएं और मत हैं, और वे परमेश्वर के इरादे नहीं समझते, पर इस समस्या का समाधान बहुत आसान है। मैं तुम लोगों को इसका एक सरल तरीका बताता हूं। सुनो और देखो कि क्या यह तुम लोगों की समस्याएँ सुलझा सकता है। सबसे आसान तरीका यह है कि सबसे पहले लोगों को यह जानना चाहिए कि वे सृजित प्राणी हैं, और सृजित प्राणियों के लिए अपने सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण करना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है। अगर सृजित प्राणी लगातार अपने सृष्टिकर्ता के बारे में धारणाएं रखते हैं, और उसके प्रति समर्पित नहीं हो सकते, तो यह एक बड़ा विद्रोह होगा। लोगों को समझना चाहिए कि सृष्टिकर्ता का सृजित प्राणियों के साथ व्यवहार करने का एक बुनियादी सिद्धांत है, जो सर्वोच्च सिद्धांत है। सृष्टिकर्ता सृजित प्राणियों के साथ कैसा व्यवहार करता है, यह पूरी तरह से उसकी प्रबंधन योजना और उसकी कार्य अपेक्षाओं पर आधारित है; उसे किसी व्यक्ति से सलाह लेने की जरूरत नहीं है, न ही उसे इसकी आवश्यकता है कि कोई व्यक्ति उससे सहमत हो। जो कुछ भी उसे करना चाहिए और जिस भी तरह से उसे लोगों से व्यवहार करना चाहिए, वह करता है, और भले ही वह कुछ भी करता हो और जिस भी तरह से लोगों से व्यवहार करता हो, वह सब सत्य-सिद्धांतों और उन सिद्धांतों के अनुरूप होता है, जिनके द्वारा सृष्टिकर्ता कार्य करता है। एक सृजित प्राणी के रूप में करने लायक केवल एक ही चीज़ है और वह है सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पित होना; व्यक्ति को अपना कोई चुनाव नहीं करना चाहिए। यही विवेक है जो सृजित प्राणियों में होना चाहिए, और अगर किसी व्यक्ति के पास यह नहीं है, तो वह व्यक्ति कहलाने योग्य नहीं हैं। लोगों को समझना चाहिए कि सृष्टिकर्ता हमेशा सृष्टिकर्ता ही रहेगा; उसके पास किसी भी सृजित प्राणी के बारे में जैसे चाहे वैसे आयोजन करने और उन पर संप्रभुता रखने की शक्ति और योग्यताएँ है, और ऐसा करने के लिए उसे किसी कारण की आवश्यकता नहीं है। यह उसका अधिकार है। सृजित प्राणियों में कोई भी ऐसा नहीं है, जिसके पास यह अधिकार हो या वह इतना पात्र हो कि वह इस बात की आलोचना कर सके कि सृष्टिकर्ता जो कुछ करता है, वह सही है या गलत है, या उसे कैसे कार्य करना चाहिए। कोई भी सृजित प्राणी यह चुनने का हक नहीं रखता कि उसे सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करना है या नहीं; किसी भी सृजित प्राणी को यह पूछने का हक नहीं है कि सृष्टिकर्ता को उन पर संप्रभुता कैसे रखनी चाहिए या उनकी नियति की व्यवस्था कैसे करनी चाहिए। यह सर्वोच्च सत्य है। सृष्टिकर्ता ने चाहे सृजित प्राणियों के साथ कुछ भी किया हो या कैसे भी किया हो, उसके द्वारा सृजित मनुष्यों को केवल एक ही काम करना चाहिए : सृष्टिकर्ता द्वारा प्रस्तुत हरेक चीज को खोजना, इसके प्रति समर्पित होना, इसे जानना और स्वीकार करना। इसका अंतिम परिणाम यह होगा कि सृष्टिकर्ता ने अपनी प्रबंधन योजना और अपना काम पूरा कर लिया होगा, जिससे उसकी प्रबंधन योजना बिना किसी अवरोध के आगे बढ़ेगी; इस बीच, चूँकि सृजित प्राणियों ने सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाएँ स्वीकार कर ली हैं, और वे उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो गए हैं, इसलिए उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया होगा, सृष्टिकर्ता के इरादों को समझ लिया होगा, और उसके स्वभाव को जान लिया होगा। एक और सिद्धांत है, जो मुझे तुम्हें बताना चाहिए : सृष्टिकर्ता चाहे जो भी करे, उसकी अभिव्यक्तियाँ जिस भी प्रकार की हों, उसका कार्य बड़ा हो या छोटा, वह फिर भी सृष्टिकर्ता ही है; जबकि समस्त मनुष्य, जिन्हें उसने सृजित किया, चाहे उन्होंने कुछ भी किया हो, या वे कितने भी प्रतिभाशाली और गुणी क्यों न हों, वे सृजित प्राणी ही रहते हैं। जहाँ तक सृजित मनुष्यों का सवाल है, चाहे जितना भी अनुग्रह और जितने भी आशीष उन्होंने सृष्टिकर्ता से प्राप्त कर लिए हों, या जितनी भी दया, प्रेमपूर्ण करुणा और उदारता प्राप्त कर ली हो, उन्हें खुद को भीड़ से अलग नहीं मानना चाहिए, या यह नहीं सोचना चाहिए कि वे परमेश्वर के बराबर हो सकते हैं और सृजित प्राणियों में ऊँचा दर्जा प्राप्त कर चुके हैं। परमेश्वर ने तुम्हें चाहे जितने उपहार दिए हों, या जितना भी अनुग्रह प्रदान किया हो, या जितनी भी दयालुता से उसने तुम्हारे साथ व्यवहार किया हो, या चाहे उसने तुम्हें कोई विशेष प्रतिभा दी हो, इनमें से कुछ भी तुम्हारी संपत्ति नहीं है। तुम एक सृजित प्राणी हो, और इस तरह तुम सदा एक सृजित प्राणी ही रहोगे। तुम्हें कभी नहीं सोचना चाहिए, “मैं परमेश्वर के हाथों में उसका लाड़ला हूँ। परमेश्वर मुझे कभी कभी नहीं त्यागेगा, परमेश्वर का रवैया मेरे प्रति हमेशा प्रेम, देखभाल और नाज़ुक दुलार के साथ-साथ सुकून के गर्मजोशी भरे बोलों और प्रबोधन का होगा।” इसके विपरीत, सृष्टिकर्ता की दृष्टि में तुम अन्य सभी सृजित प्राणियों की ही तरह हो; परमेश्वर तुम्हें जिस तरह चाहे, उस तरह इस्तेमाल कर सकता है, और साथ ही तुम्हारे लिए जैसा चाहे, वैसा आयोजन कर सकता है, और तुम्हारे लिए सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीज़ों के बीच जैसी चाहे वैसी कोई भी भूमिका निभाने की व्यवस्था कर सकता है। लोगों को यह ज्ञान होना चाहिए और उनमें यह विवेक होना चाहिए। अगर व्यक्ति इन वचनों को समझ और स्वीकार सके, तो परमेश्वर के साथ उसका संबंध अधिक सामान्य हो जाएगा, और वह उसके साथ एक सबसे ज़्यादा वैध संबंध स्थापित कर लेगा; अगर व्यक्ति इन वचनों को समझ और स्वीकार सके, तो वह अपने स्थान को सही ढंग से उन्मुख कर पाएगा, वहाँ अपना आसन ग्रहण कर पाएगा और अपना कर्तव्य निभा पाएगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य समझकर ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है
जब लोगों के मन में परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ और धारणाएँ पैदा होती हैं, तो उन्हें पहले यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि परमेश्वर सत्य है तथा लोगों में सत्य नहीं है और निश्चित रूप से गलत वही लोग हैं। क्या यह एक तरह की औपचारिकता है? (नहीं।) यदि तुम इस अभ्यास को केवल एक औपचारिकता समझोगे, सतही तौर पर लोगे, तो क्या तुम अपनी गलतियों को जान सकते हो? कभी नहीं। खुद को जानने के लिए कई कदमों की जरूरत होती है। पहले तुम्हें यह तय करना चाहिए कि तुम्हारे क्रियाकलाप सत्य और सिद्धांतों के अनुरूप हैं या नहीं। पहले अपने इरादों को मत देखो; कभी-कभी ऐसा भी होता है कि तुम्हारे इरादे तो सही होते हैं लेकिन तुम जिन सिद्धांतों पर अमल करते हो, वे गलत होते हैं। क्या ऐसी स्थिति अक्सर होती है? (बिल्कुल।) मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि अभ्यास के तुम्हारे सिद्धांत गलत हैं? तुमने खोज की होगी, लेकिन शायद तुम्हें सिद्धांतों की कोई समझ ही न हो; शायद तुमने खोज ही न की हो और तुम्हारे क्रियाकलाप मात्र नेक इरादों और उत्साह पर ही आधारित हों, तुम्हारी कल्पनाओं और अनुभव पर आधारित हों और नतीजतन तुमने गलती कर दी हो। क्या तुम इसकी कल्पना कर सकते हो? तुम इसका अनुमान नहीं लगा सकते हो, और तुमसे गलती हो गई हो—तब क्या तुम उजागर नहीं हो जाते हो? उजागर हो जाने के बाद, अगर तुम परमेश्वर से विवाद करते रहते हो, तो इसमें गलती कहाँ है? (यह न मानने में है कि परमेश्वर सही है, और इस पर अड़े रहने में है कि मैं सही हूँ।) तुमने इस तरह गलती की है। तुम्हारी सबसे बड़ी गलती यह नहीं थी कि तुमने कुछ गलत किया और सिद्धांतों का उल्लंघन किया, जिसके कारण नुकसान हुआ या उसके कुछ और परिणाम हुए, बल्कि कुछ गलत करके भी तुम अपने तर्क पर अड़े रहे, अपनी गलती मान नहीं पाए; तुम अभी भी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर का विरोध करते रहे और उसके कार्य और उसके द्वारा व्यक्त सत्य को नकारते रहे—यही तुम्हारी सबसे बड़ी और सबसे भयंकर भूल थी। ऐसा क्यों कहा जाता है कि किसी व्यक्ति में ऐसी अवस्था परमेश्वर के विरोध की है? (क्योंकि वे नहीं मानते कि वे जो कर रहे हैं वह गलत है।) लोग इस बात को मानें या न मानें कि सब-कुछ परमेश्वर करता है और उसकी संप्रभुता उचित है और उनकी क्या महत्ता है, अगर वे पहले यही न समझ पाएँ कि वे गलत हैं, तो उनकी अवस्था परमेश्वर के विरोध की है। इस अवस्था को सुधारने के लिए क्या किया जाना चाहिए? पहले, अपने दैहिक-सुखों को नकारना चाहिए। अभी-अभी हमने पहले परमेश्वर के इरादों को खोजने की जरूरत के बारे में जो कहा, वह लोगों के लिए ज्यादा व्यावहारिक नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर यह ज्यादा व्यावहारिक नहीं है, तो क्या इसका मतलब यह है कि खोजना आवश्यक नहीं है? जिन कुछ चीजों को खोजा और समझा जा सकता है, उन्हें खोजना जरूरी नहीं है—मैं इस कदम को छोड़ सकता हूं।” क्या ऐसे चलेगा? (नहीं।) जो ऐसा करता है, क्या वह बचाए जाने से परे नहीं है? ऐसे लोग अपनी ग्राह्यता में सचमुच टेढ़े और गलत होते हैं। परमेश्वर के इरादों को खोजना दूर की कौड़ी है और इसे तुरंत हासिल नहीं किया जा सकता; शॉर्टकट लेना हो, तो यह ज्यादा वास्तविक होगा कि पहले खुद को जाने दें, जान लें कि उनके कार्य गलत हैं और सत्य के अनुरूप नहीं हैं, और तब सत्य-सिद्धांतों को खोजना चाहिए। ये हैं वे कदम। ये देखने में सरल लग सकते हैं, लेकिन इन्हें व्यवहार में लाने में बहुत-सी कठिनाइयाँ हैं, क्योंकि मनुष्यों का स्वभाव भ्रष्ट होने के साथ-साथ उनके अंदर तरह-तरह की कल्पनाएं हैं, तरह-तरह की अपेक्षाएँ हैं, इच्छाएं हैं, जो उन्हें अपने दैहिक-सुखों को नकारने और खुद को जाने देने से रोकती हैं। ये सब करना इतना आसान नहीं है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (3)
परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसका एक अर्थ होता है, और चाहे उसे स्वीकार करना तुम्हारे लिए आसान हो या तुम्हारे लिए मुश्किल हो, और चाहे वह तुम्हारे अंदर धारणाएँ पैदा कर सकता हो, जो भी हो, उसके परिणामस्वरूप परमेश्वर की पहचान नहीं बदलती; वह हमेशा सृष्टिकर्ता रहेगा, और तुम हमेशा सृजित प्राणी ही रहोगे। अगर तुम किसी भी धारणा द्वारा सीमित नहीं होने में समर्थ हो जाते हो, और अब भी परमेश्वर के साथ एक सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता का रिश्ता बनाए रखते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर के एक सच्चे सृजित प्राणी हो। अगर तुम किसी भी धारणा से प्रभावित या परेशान न होने में सक्षम हो, और अपने दिल की गहराइयों से परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण करने के काबिल हो, और सत्य की तुम्हारी समझ गहरी हो या उथली, अगर तुम धारणाएँ एक तरफ रखने में सक्षम हो, और उनके द्वारा लाचार नहीं होते, केवल यह विश्वास करते हो कि परमेश्वर सत्य, मार्ग और जीवन है, कि परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा, और वह जो करता है वह कभी गलत नहीं होता, तो तुम बचाए जा सकते हो। वास्तव में, सभी का आध्यात्मिक कद सीमित है। लोगों के दिमाग में कितनी चीजें भरी जा सकती हैं? क्या वे परमेश्वर को जानने में सक्षम हैं? ये ख्याली बातें हैं! मत भूलो : लोग हमेशा परमेश्वर के सामने शिशु ही रहेंगे। अगर तुम सोचते हो कि तुम चतुर हो, अगर तुम हमेशा चतुराई से कार्य करने का प्रयास करते हो, और हर चीज को समझने का प्रयास करते हो, यह सोचते हो कि, “अगर मैं इसे नहीं समझ पाता हूँ, तो मैं यह नहीं मान सकता कि तुम मेरे परमेश्वर हो, मैं स्वीकार नहीं कर सकता कि तुम मेरे परमेश्वर हो, मैं यह नहीं मान सकता कि तुम सृष्टिकर्ता हो। अगर तुम मेरी धारणाओं का समाधान नहीं करते, और फिर भी अगर तुम्हें लगता है कि मैं यह स्वीकार करूँगा कि तुम परमेश्वर हो, कि मैं तुम्हारी संप्रभुता को स्वीकार करूँगा, और कि मैं तुम्हारे प्रति समर्पण करूँगा,” तो फिर यह परेशानी की बात है। ऐसा कैसे है? परमेश्वर ऐसी चीजों के बारे में तुम्हारे साथ बहस नहीं करता है। मनुष्य के प्रति वह हमेशा इस प्रकार रहेगा : अगर तुम यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है, तो वह यह स्वीकार नहीं करेगा कि तुम उसके सृजित प्राणियों में से एक हो। जब परमेश्वर यह स्वीकार नहीं करता है कि तुम उसके सृजित प्राणियों में से एक हो, तो परमेश्वर के प्रति तुम्हारे रवैये के परिणामस्वरूप परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध में परिवर्तन होता है। अगर तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में असमर्थ हो, और परमेश्वर की पहचान और सार और वह सब-कुछ जो परमेश्वर करता है, स्वीकार करने में असमर्थ हो, तो तुम्हारी पहचान में बदलाव होगा। क्या तुम अब भी एक सृजित प्राणी हो? परमेश्वर तुम्हें स्वीकार नहीं करता है; इसलिए बहस करने का कोई फायदा नहीं है। और अगर तुम एक सृजित प्राणी नहीं हो, और परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहता, तो क्या तुम्हें अभी भी उद्धार की आशा है? (नहीं।) परमेश्वर तुम्हें एक सृजित प्राणी क्यों नहीं मानता है? तुम उन जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को पूरा करने में असमर्थ हो जो एक सृजित प्राणी को करने चाहिए, और तुम सृष्टिकर्ता के साथ एक सृजित प्राणी की हैसियत से व्यवहार नहीं करते हो। तो परमेश्वर तुम्हें क्या मानेगा? वह तुम्हें किस नजर से देखेगा? परमेश्वर तुम्हें एक ऐसा सृजित प्राणी के रूप में नहीं देखेगा जो मानक के अनुरूप हो, बल्कि एक पतित, एक दुष्ट और एक शैतान के रूप में देखेगा। क्या तुम्हें नहीं लगता था कि तुम चतुर हो? तो फिर तुमने खुद को एक दुष्ट और शैतान कैसे बना लिया है? यह चतुराई नहीं, बेवकूफी है। ये वचन लोगों को क्या समझने में मदद करते हैं? वे सिखाते हैं कि लोगों को परमेश्वर के सामने उचित व्यवहार करना चाहिए। यहाँ तक कि अगर तुम्हारे पास अपनी धारणाओं का कारण भी हो, तो भी यह मत सोचो कि तुम्हारे पास सत्य है, और कि तुम्हारे पास परमेश्वर के खिलाफ हंगामा करने और उसे सीमित करने के लिए पूँजी है। तुम कुछ भी करो, पर वैसे मत बनो। एक बार जो तुम सृजित प्राणी के रूप में अपनी पहचान खो दोगे, तो तुम्हें नष्ट कर दिया जाएगा—यह कोई मजाक नहीं है। ऐसा ठीक इसलिए है, क्योंकि जब लोग धारणाएँ रखते हैं, तो वे अलग रास्ते लेते हैं, और अलग समाधान अपनाते हैं, इसलिए परिणाम पूरी तरह से अलग होते हैं।
—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (16)
लोगों की धारणाएँ केवल परमेश्वर के वचनों के जरिए और सत्य के प्रयोग से दूर की जा सकती हैं; उन्हें धर्म-सिद्धांतों के प्रचार के जरिए और आग्रह करके दूर नहीं रखा जा सकता है—यह उतना आसान नहीं है। लोगों में धार्मिक मामलों के लिए कोई प्रतिबद्धता नहीं है, बल्कि वे विभिन्न धारणाओं या दुष्ट और विकृत चीजों से चिपके रहने को बाध्य हैं, जिन्हें वे दर-किनार नहीं कर पाते। इसका कारण क्या है? इसलिए कि उनका स्वभाव भ्रष्ट है। लोगों की धारणाएँ बड़ी हों या छोटी, गंभीर हों या न हों, यदि उनका स्वभाव भ्रष्ट न हो, तो इन धारणाओं को दूर करना आसान है। आखिर, धारणा केवल सोचने का एक तरीका ही तो है। लेकिन लोगों के भ्रष्ट स्वभावों, जैसे कि अहंकार, दुराग्रह और दुष्टता के कारण, धारणाएँ एक जोड़ बन जाती हैं जिसके कारण लोग परमेश्वर का विरोध करने, गलत व्याख्या करने, यहां तक कि परमेश्वर की आलोचना करने लगते हैं। अपने मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रख कर भी कौन परमेश्वर को समर्पित होकर उसका गुणगान कर सकता है? कोई भी नहीं। मन में धारणाएँ रखकर लोग सिर्फ परमेश्वर के प्रति विरोधात्मक हो सकते हैं, वे उसके बारे में शिकायत करते हैं, उसकी आलोचना करते हैं, और उसकी निंदा भी करते हैं। यह ये दर्शाने के लिए काफी है कि धारणाएँ भ्रष्ट स्वभावों में से पैदा होती हैं, धारणाओं का प्रकटन भ्रष्ट स्वभावों का खुलासा है, और प्रकट होने वाले सभी भ्रष्ट स्वभाव परमेश्वर के प्रति विद्रोही और प्रतिरोधी होते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मेरे मन में धारणाएँ हैं, लेकिन मैं परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करता हूँ।” यह छलपूर्ण बात है। वे भले ही कुछ भी न कहें, अपने दिलों में वे अभी भी विरोधात्मक हैं, और उनका व्यवहार विरोधात्मक है। क्या ऐसे लोग सत्य के प्रति समर्पण कर सकते हैं? यह असंभव है। भ्रष्ट स्वभाव द्वारा शासित हो कर, वे अपनी धारणाओं से चिपके रहते हैं—ऐसा उनके भ्रष्ट स्वभाव के कारण होता है। इसलिए, जैसे-जैसे धारणाएँ दूर होती जाती हैं, वैसे-वैसे लोगों का भ्रष्ट स्वभाव भी दूर होता जाता है। यदि लोगों का भ्रष्ट स्वभाव दूर हो जाता है, तो उनके कई अपरिपक्व, बचकाने विचार—यहाँ तक कि जो चीजें पहले ही धारणाएँ बन चुकी हैं—वे उनके लिए कोई मुद्दा नहीं रहतीं; वे केवल विचार होती हैं, उनका तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन या परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। धारणाएँ और भ्रष्ट स्वभाव आपस में जुड़े हुए होते हैं। कभी-कभी कोई धारणा तुम्हारे दिल में होती है, लेकिन यह तुम्हारे क्रियाकलापों को निर्देशित नहीं करती। जब यह तुम्हारे तात्कालिक हितों में बाधा पैदा नहीं करती, तो तुम इसे अनदेखा कर देते हो। हालाँकि, इसे अनदेखा करने का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारी धारणा में कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, जब कुछ ऐसा होता है जो तुम्हारी धारणाओं से टकराता है, तो तुम इससे एक खास रवैये से चिपक जाते हो, एक ऐसा रवैया जिस पर तुम्हारा स्वभाव हावी रहता है। यह स्वभाव दुराग्रह हो सकता है, अहंकार हो सकता है और यह क्रूरता हो सकता है; इस कारण से तुम परमेश्वर से तुरंत कहते हो, “मेरे नजरिया कई बार अकादमिक रूप से पुष्ट हो चुका है। हजारों वर्षों से लोगों ने ये विचार रखे हैं, तो मैं क्यों नहीं रख सकता हूँ? तुम इंसानी धारणाओं से बेमेल जो चीजें कहते हो वे गलत हैं, तो तुम अभी कैसे कह सकते हो कि ये ही सत्य हैं, और सभी चीजों से ऊपर हैं? मेरा दृष्टिकोण पूरी मानवजाति में सर्वोच्च है!” एक धारणा तुमसे ऐसा व्यवहार करवा सकती है, ऐसे बड़बोलेपन की ओर बढ़ सकते हो। इसका कारण क्या है? (भ्रष्ट स्वभाव।) सही है, यह भ्रष्ट स्वभाव के कारण होता है। धारणाओं और लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के बीच सीधा संबंध होता है और उनकी धारणाओं को दूर करना जरूरी है। एक बार परमेश्वर में आस्था को ले कर लोगों की धारणाओं को दूर कर देने के बाद, उनके लिए परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना आसान हो जाता है और वे अपने कर्तव्य को अधिक सुचारु रूप से अच्छे ढंग से निभाते हैं, वे आड़े-तिरछे रास्ते नहीं पकड़ते, कोई गड़बड़ी या बाधा उत्पन्न नहीं करते, और वे ऐसा कोई काम नहीं करते जिससे परमेश्वर को शर्मिंदगी उठानी पड़े। यदि लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं को दूर न किया जाए, तो उनके लिए ऐसे काम करना आसान हो जाता है जिनसे गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा होती हैं। अधिक गंभीर मामलों में, लोगों की धारणाएँ उनमें परमेश्वर के देहधारण के प्रति हर तरह का विरोध पैदा कर सकती हैं। धारणाओं की बात करें तो ये यकीनन वे गलत सोच हैं जो सत्य के प्रतिकूल हैं, पूरी तरह से सत्य के विरुद्ध हैं, और इनके कारण लोगों के मन में परमेश्वर के प्रति तरह-तरह की विरोधात्मक भावनाएँ पैदा हो सकती हैं। इस टकराव के कारण तुम मसीह पर सवाल उठाते हो और उसे स्वीकारने या उसके प्रति समर्पित होने में समर्थ नहीं हो पाते, और इससे तुम्हारा सत्य को स्वीकारना और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करना भी प्रभावित होता है। इससे भी अधिक गंभीर मामलों में, परमेश्वर के काम के बारे में लोग विभिन्न धारणाओं के कारण परमेश्वर के काम को नकार देते हैं, परमेश्वर के काम करने के तरीके, परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं को भी नकार देते हैं—ऐसी स्थिति में उन्हें उद्धार की किसी भी तरह की कोई उम्मीद नहीं रहती। लोगों में चाहे परमेश्वर के किसी भी पहलू के बारे में धारणाएँ हों, इन धारणाओं के पीछे उनके भ्रष्ट स्वभाव ही घात लगाए होते हैं, जो इन भ्रष्ट स्वभावों को बदतर बना सकते हैं, लोगों को परमेश्वर के कार्य, स्वयं परमेश्वर और परमेश्वर के स्वभाव को अपने भ्रष्ट स्वभाव से देखने का और भी बड़ा बहाना दे देते हैं। क्या इससे उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव से परमेश्वर का विरोध करने का हौसला नहीं मिल जाता? यही मनुष्य के लिए धारणाओं का परिणाम है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1)
जब धारणाएँ उत्पन्न होती हैं, तो चाहे वह धारणा कोई भी हो, पहले अपने दिलों में इस बात पर विचार करो और इसका विश्लेषण करो कि यह सोच सही है या नहीं है। अगर तुम्हें स्पष्ट रूप से लगता है कि यह सोच गलत और विकृत है, और यह परमेश्वर का तिरस्कार करती है, तो फौरन प्रार्थना करो, और परमेश्वर से कहो कि वह इस समस्या के सार को पहचानने के लिए तुम्हें प्रबुद्ध करे और तुम्हारा मार्गदर्शन करे, और उसके बाद, सभा के दौरान अपनी समझ पर चर्चा करो। समझ और चीजों का अनुभव प्राप्त करते समय, अपनी धारणाएँ सुलझाने पर ध्यान केंद्रित करो। अगर इस तरह से अभ्यास करने से स्पष्ट नतीजे प्राप्त नहीं होते हैं, तो तुम्हें सत्य के इस पहलू के बारे में किसी ऐसे व्यक्ति के साथ संगति करनी चाहिए जो सत्य को समझता है, और दूसरों से सहायता और परमेश्वर के वचनों से समाधान प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों और अपने अनुभवों के जरिये, तुम धीरे-धीरे यह सत्यापित करोगे कि परमेश्वर के वचन सही हैं, और तुम अपनी खुद की धारणाएँ सुलझाने के मुद्दे के बारे में बड़े नतीजे प्राप्त करोगे। परमेश्वर के ऐसे वचनों और कार्यों को स्वीकार करके और उनका अनुभव करके, अंत में तुम परमेश्वर के इरादों को समझ जाओगे और परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त करोगे, जो तुम्हें अपनी धारणाओं को छोड़ने और उन्हें सुलझाने में सक्षम बनाएगा। तुम अब परमेश्वर को गलत नहीं समझोगे या उससे सतर्क नहीं रहोगे, और ना ही तुम अनुचित माँगें करोगे। यह आसानी से सुलझने योग्य धारणाओं के लिए है। लेकिन एक और किस्म की धारणा है जिसे लोगों के लिए समझना और सुलझाना मुश्किल है। जिन धारणाओं को सुलझाना मुश्किल है, उनके लिए तुम्हें एक सिद्धांत को बनाए रखने की जरूरत है : उन्हें व्यक्त मत करो और ना ही उन्हें फैलाओ, क्योंकि ऐसी धारणाएँ व्यक्त करने से दूसरों का कुछ भी भला नहीं होता है; यह परमेश्वर की अवज्ञा करने का एक तथ्य है। अगर तुम धारणाओं को फैलाने की प्रकृति और परिणामों को समझते हो, तो तुम्हें इसे खुद स्पष्ट रूप से मापना चाहिए और बिना विचारे बोलने से बचना चाहिए। अगर तुम कहते हो, “कलीसिया में अपने शब्दों को रोककर रखना भयानक लगता है; मुझे लगता है जैसे मैं फट जाऊँगा,” तो तुम्हें अब भी इस पर सोच-विचार करना चाहिए कि इन धारणाओं को फैलाना सही मायने में परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए फायदेमंद है या नहीं। अगर यह फायदेमंद नहीं है और दूसरों को परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखने, या यहाँ तक कि परमेश्वर की अवज्ञा करने और उसकी आलोचना करने के लिए उकसा भी सकता है, तो क्या तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान नहीं पहुँचा रहे हो? तुम लोगों को नुकसान पहुँचा रहे हो; यह महामारी फैलाने से कुछ अलग नहीं है। अगर तुममें सही मायने में विवेक है, तो तुम धारणाएँ फैलाने और दूसरों को नुकसान पहुँचाने के बजाय खुद दर्द सहना पसंद करोगे। लेकिन, अगर तुम्हें अपने शब्दों को रोककर रखना बहुत दर्दनाक लगता है, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। अगर समस्या सुलझ जाती है, तो क्या यह अच्छी चीज नहीं है? अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए भी अपनी धारणाओं से उसकी आलोचना करते हो और उसे गलत समझते हो, तो तुम सिर्फ खुद को मुसीबत में डाल रहे हो। तुम्हें परमेश्वर से इस तरह प्रार्थना करनी चाहिए : “परमेश्वर, मेरे मन में ये विचार हैं, और मैं उन्हें छोड़ना चाहता हूँ, लेकिन मैं इन्हें नहीं छोड़ पा रहा हूँ। कृपया मुझे अनुशासित करो, अलग-अलग तरह के परिवेशों के जरिये मेरा खुलासा करो, और मुझे यह पहचानने दो कि मेरी धारणाएँ गलत हैं। चाहे तुम मुझे कैसे भी अनुशासित क्यों ना करो, मैं इसे स्वीकारने को तैयार हूँ।” यह मानसिकता सही है। इस मानसिकता से परमेश्वर से प्रार्थना करने के बाद, क्या तुम कम घुटन महसूस नहीं करोगे? अगर तुम प्रार्थना करना और तलाशना जारी रखते हो, परमेश्वर से प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त करते हो, परमेश्वर के इरादों को समझते हो, और तुम्हारा दिल उज्ज्वल हो जाता है, तो फिर तुम्हें अब से घुटन महसूस नहीं होगी। फिर क्या यह समस्या सुलझ नहीं जाएगी? परमेश्वर के प्रति तुम्हारी धारणाएँ, प्रतिरोध और विद्रोहीपन ज्यादातर गायब हो जाएँगे; कम-से-कम, तुम्हें उन्हें व्यक्त करने की जरूरत महसूस नहीं होगी। अगर यह अब भी कारगर नहीं होता है और समस्या पूरी तरह से नहीं सुलझती है, तो अपनी धारणाओं को सुलझाने में मदद करने के लिए किसी अनुभवी व्यक्ति को ढूँढो। उसे अपनी धारणाओं को सुलझाने से संबंधित परमेश्वर के वचनों के कुछ भाग ढूँढ निकालने के लिए कहो, और उन्हें दर्जनों या सैकड़ों बार पढ़ो; शायद इससे तुम्हारी धारणाएँ पूरी तरह से सुलझ जाएँगी। कुछ लोग कह सकते हैं, “अगर मैं भाई-बहनों के साथ सभा के दौरान अपनी धारणाएँ व्यक्त करता हूँ, तो यह धारणाएँ फैलाना होगा, इसलिए मैं ऐसा नहीं कर सकता। लेकिन उन्हें अपने भीतर रोककर रखना भयानक लगता है। क्या मैं अपने परिवार से उनके बारे में बात कर सकता हूँ?” अगर तुम्हारे परिवार के सदस्य भी आस्था रखने वाले भाई-बहन हैं, तो उनके सामने इन धारणाओं को व्यक्त करने से वे भी परेशान हो जाएँगे। क्या यह उचित है? (नहीं।) अगर तुम्हारी बातों का दूसरों पर हानिकारक प्रभाव पड़ेगा, वह उन्हें नुकसान पहुँचाएगा और गुमराह करेगा, तो तुम्हें इसे बिल्कुल नहीं कहना चाहिए। इसके बजाय, इस मुद्दे को सुलझाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करो। जब तक तुम प्रार्थना करते हो और एक ऐसे धर्मनिष्ठ दिल से परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हो, जो धार्मिकता के लिए भूखा-प्यासा है, तो तुम्हारी धारणाएँ सुलझ सकती हैं। परमेश्वर के वचनों में व्यापक सत्य निहित है; वे किसी भी समस्या को सुलझा सकते हैं। यह बस इस बात पर निर्भर करता है कि तुम सत्य को स्वीकार सकते हो या नहीं और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने को तैयार हो या नहीं, और तुम अपनी धारणाओं को छोड़ सकते हो या नहीं। अगर तुम मानते हो कि परमेश्वर के वचनों में व्यापक सत्य निहित है, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और समस्याओं के उत्पन्न होने पर उन्हें सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए। अगर कुछ समय प्रार्थना करने के बाद भी तुम परमेश्वर द्वारा प्रबुद्ध महसूस नहीं करते हो और तुम्हें परमेश्वर से इस बारे में स्पष्ट वचन नहीं मिलते हैं कि क्या करना है, लेकिन अनजाने में अब तुम्हारी धारणाएँ तुम्हें आंतरिक रूप से प्रभावित नहीं करती हैं, तुम्हारे जीवन में विघ्न नहीं डालती हैं, धीरे-धीरे लुप्त हो जाती हैं, परमेश्वर के साथ तुम्हारे सामान्य रिश्ते को प्रभावित नहीं करती हैं, और यकीनन तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित नहीं करती हैं, तो क्या यह धारणा मूल रूप से सुलझ नहीं गई है? (बिल्कुल।) यही अभ्यास का मार्ग है।
—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (16)
क्या तुम लोगों के पास धारणाओं के संबंध में अभ्यास करने के तरीके के लिए सिद्धांत हैं? ... एक बार जब तुम सत्य को समझ जाओगे और सिद्धांतों को आत्मसात कर लोगे, तो तुम्हारी धारणाएँ स्वाभाविक रूप से सुलझ जाएँगी। तुम्हें धारणाओं को तुम्हें रोकने या तुमसे गलतियाँ करवाने का कारण नहीं बनने देना चाहिए; अपनी तरफ से भरसक प्रयास करके उन धारणाओं को सुलझाओ जिन्हें सुलझाया जा सकता है, और जो कुछ समय के लिए सुलझने लायक नहीं हैं, उन्हें कम से कम तुम्हें प्रभावित मत करने दो। उन्हें तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन को बाधित नहीं करना चाहिए, और ना ही उन्हें परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते को प्रभावित करना चाहिए। तुम्हारा अंतिम लक्ष्य यही है कि कम से कम तुम धारणाओं को नहीं फैलाओगे, बुरा कर्म नहीं करोगे, विघ्न-बाधाएँ या गड़बड़ियाँ उत्पन्न नहीं करोगे, और शैतान के सेवक या शैतान के साधन के तौर पर काम नहीं करोगे। अगर, तुम चाहे जितना भी प्रयास करो, कुछ धारणाओं को सिर्फ सतही तौर पर सुलझाया जा सकता है और पूर्ण रूप से नहीं सुलझाया जा सकता है, तो उन्हें बस अनदेखा कर दो। धारणाओं को सत्य के अपने अनुसरण या अपने जीवन प्रवेश को प्रभावित मत करने दो। इन सिद्धांतों में महारत हासिल करो, और सामान्य परिस्थितियों में, तुम सुरक्षित रहोगे। अगर तुम कोई ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य को स्वीकारता है, सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है, जो कुकर्मी नहीं है, विघ्न-बाधाएँ या गड़बड़ियाँ उत्पन्न करने का इच्छुक नहीं है, और जानबूझकर विघ्न-बाधाओं और गड़बड़ियों का कारण नहीं बनता है, तो जब तुम आम तौर पर धारणाओं के उत्पन्न होने की समस्या का सामना करोगे, तो आम तौर पर तुम सुरक्षित रहोगे। अभ्यास का सबसे मूलभूत सिद्धांत यह है : अगर ऐसी कोई धारणा उत्पन्न होती है जिसे सुलझाना मुश्किल है, तो उस धारणा पर कार्रवाई करने की जल्दबाजी मत करो। सबसे पहले, प्रतीक्षा करो और उसे सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करो, और यह विश्वास रखो कि परमेश्वर जो भी करता है वह गलत नहीं हो सकता है। इस सिद्धांत को याद रखो। इसके अलावा, अपने कर्तव्य को अनदेखा मत करो या धारणा को अपने कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित मत करने दो। अगर तुममें धारणाएँ हैं और तुम सोचते हो कि “मैं बस जैसे-तैसे इस कर्तव्य को पूरा कर लूँगा; मेरी मनोदशा खराब है, इसलिए मैं तुम्हारे लिए अच्छा कार्य नहीं कर पाऊँगा!” तो यह कोई अच्छी बात नहीं है। एक बार जब तुम्हारा रवैया नकारात्मक और अनमना हो जाता है, तो यह समस्या खड़ी करता है; यही धारणा तुम्हारे भीतर गलत ढंग से कार्य कर रही है। जब धारणाएँ तुम्हारे भीतर गलत ढंग से कार्य करती हैं और तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित करती हैं, तो इसका अर्थ यह है कि अब तक परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता वास्तव में पहले से ही बदल चुका है। कुछ धारणाएँ तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित कर सकती हैं, जो कि एक गंभीर समस्या है, और उन्हें फौरन सुलझाना चाहिए। अन्य धारणाएँ तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन या परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते को प्रभावित नहीं करती हैं, इसलिए वे बड़े मुद्दे नहीं हैं। अगर तुम्हारी धारणाएँ तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित कर सकती हैं, जिसके कारण तुम परमेश्वर पर संदेह करने लगते हो, अपना कर्तव्य लगन से नहीं करते हो—और यह महसूस करते हो कि अपना कर्तव्य नहीं करने से कोई परिणाम नहीं भुगतना होगा—और तुम्हें कोई भय नहीं होता है या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता है, तो यह खतरनाक है। इसका यह अर्थ है कि तुम लालच में पड़ जाओगे, और शैतान द्वारा धोखा दिए जाओगे और कैद कर लिए जाओगे। अपनी धारणाओं और अपने चुने हुए विकल्पों के प्रति तुम्हारा रवैया बहुत ही महत्वपूर्ण है; चाहे धारणाओं को सुलझाया जा सकता हो या नहीं, और चाहे वे किसी भी हद तक सुलझाई क्यों ना जा सकें, तुम्हारे और परमेश्वर के बीच सामान्य रिश्ता बिल्कुल नहीं बदलना चाहिए। एक तो, तुम्हें परमेश्वर द्वारा आयोजित सभी परिवेशों के प्रति समर्पण करने में समर्थ होना चाहिए और यह दृढ़ता से कहना चाहिए कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही और अर्थपूर्ण है, और इस ज्ञान और सत्य से संबंधित पहलू तुम्हारे लिए कभी नहीं बदलने चाहिए। दूसरे, तुम्हें उस कर्तव्य को नहीं छोड़ना चाहिए जो परमेश्वर ने तुम्हें सौंपा है, तुम्हें उससे खुद को भारमुक्त नहीं करना चाहिए। अगर, आंतरिक या बाह्य रूप से, तुममें परमेश्वर के प्रति कोई प्रतिरोध, विरोध, या विद्रोहीपन नहीं है, तो परमेश्वर सिर्फ तुम्हारा समर्पण देखेगा, और यह कि तुम प्रतीक्षा कर रहे हो। तुममें अभी भी धारणाएँ हो सकती हैं, लेकिन परमेश्वर तुम्हारा विद्रोहीपन नहीं देखता है। चूँकि तुममें कोई विद्रोहीपन और प्रतिरोध नहीं है, इसलिए परमेश्वर अब भी तुम्हें अपने सृजित प्राणियों में से एक मानता है। इसके विपरीत, अगर तुम्हारा दिल शिकायतों और अवज्ञा से भरा हुआ है, तुम बदला लेने का अवसर तलाश रहे हो, और अपना कर्तव्य नहीं करना चाहते हो, बल्कि खुद को इस दायित्व से मुक्त करना चाहते हो—इस हद तक कि, तुम्हारे दिल में परमेश्वर के बारे में सभी तरह की शिकायतें हैं, और तुम अपना कर्तव्य करने के दौरान अवज्ञा और द्वेष की कुछ अभिव्यक्तियाँ प्रकट होती हैं—तो, इस समय, परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते में पहले से ही एक बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है। तुम पहले से ही एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी हैसियत बदल चुके हो; अब तुम सृजित प्राणी नहीं हो, बल्कि तुम दानवों और शैतान के वाहक बन चुके हो—और इसलिए परमेश्वर तुम पर बिल्कुल दया नहीं दिखाएगा। जब कोई इस हद तक पहुँच जाता है, तो वह एक खतरनाक इलाके की तरफ बढ़ रहा होता है। अगर परमेश्वर कुछ न भी करे, तो भी वे कलीसिया में मजबूती से खड़े नहीं हो पाएंगे। और इसलिए, लोगों को अपने हर काम में—विशेष रूप से जब उसमें धारणाओं को सुलझाने जैसे मुद्दे शामिल हों—ऐसे काम करने से बचने का ध्यान रखना चाहिए, जो परमेश्वर को ठेस पहुँचाते हो, या जिनकी परमेश्वर द्वारा निंदा की जाती हो, या जो दूसरों को चोट या नुकसान पहुँचाते हों। यह सिद्धांत है।
लोगों में परमेश्वर के प्रति धारणाएँ होने की समस्या कोई छोटी बात नहीं है! लोगों के लिए परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बनाए रखना बहुत ही जरूरी है, लेकिन लोगों की धारणाएँ ही इस संबंध को सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं। परमेश्वर के बारे में लोगों की धारणाएँ सुलझ जाने के बाद ही परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बनाए रखा जा सकता है। फिलहाल, कई लोगों की एक गंभीर समस्या है। चाहे उन्होंने कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, वैसे तो वे अपने कर्तव्य निभाने के दौरान कष्ट सहने और कीमत चुकाने में समर्थ हो सकते हैं, फिर भी हर पहलू से, उनकी धारणाओं को पूरी तरह से नहीं सुलझाया जा सकता है। इससे परमेश्वर के साथ उनका संबंध गंभीर रूप से प्रभावित होता है और परमेश्वर के प्रति उनके प्रेम और उनके समर्पण पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इसलिए, चाहे लोग परमेश्वर के बारे में कोई भी धारणा क्यों ना बनाएँ, यह एक गंभीर मामला है जिसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। धारणाएँ दीवार जैसी होती हैं; वे परमेश्वर के साथ लोगों के संबंधों को तोड़ देती हैं, जिससे वे परमेश्वर के उद्धार कार्य से अलग हो जाते हैं। इस प्रकार, लोगों में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ होना एक बहुत ही गंभीर मुद्दा है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है! अगर लोगों में धारणाएँ हैं और वे फौरन सत्य की तलाश नहीं कर सकते हैं और उन्हें नहीं सुलझा सकते हैं, तो इससे बड़ी आसानी से नकारात्मकता, परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध और यहाँ तक कि उसके प्रति विद्वेष भी उत्पन्न हो सकता है। क्या तब भी वे सत्य को स्वीकार सकते हैं? उनका जीवन प्रवेश रुक जाएगा। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का मार्ग असमतल और पथरीला है। क्योंकि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट होते हैं, इसलिए वे कई घुमावदार मार्ग अपना सकते हैं, और वे किसी भी परिस्थिति में धारणाएँ बना सकते हैं। अगर सत्य की तलाश करके इन धारणाओं को नहीं सुलझाया जाता है, तो लोग परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं और उसकी अवज्ञा कर सकते हैं, और उसके प्रति विद्वेष के मार्ग पर चल सकते हैं। एक बार जब लोग मसीह-विरोधियों का मार्ग अपना लेते हैं, तो क्या तुम लोगों को लगता है कि उनके लिए उद्धार का कोई मौका बचता है? उस मोड़ पर इसे संभालना आसान नहीं है, और तब कोई मौका नहीं बचा होगा। इसलिए, इससे पहले कि परमेश्वर तुम्हें उसके सृजित प्राणी के रूप में अस्वीकार कर दे, तुम्हें यह सीख लेना चाहिए कि परमेश्वर का सृजित प्राणी कैसे बनना है। सृष्टिकर्ता की जाँच-पड़ताल करने का प्रयास मत करो या यह साबित करने और सत्यापित करने का तरीका ढूँढ़ने का प्रयास मत करो कि जिस परमेश्वर में तुम विश्वास रखते हो, वही सृष्टिकर्ता है। यह तुम्हारा दायित्व या जिम्मेदारी नहीं है। तुम्हें हर रोज अपने दिल में इस बारे में सोचना और चिंतन करना चाहिए कि तुम्हें अपने कर्तव्य कैसे पूरे करने हैं और एक सृजित प्राणी कैसे बनना है जो मानक के अनुरूप हो, ना कि इस बारे में कि यह कैसे साबित किया जाए कि परमेश्वर ही सृष्टिकर्ता है या नहीं है, क्या वह सचमुच परमेश्वर है या नहीं है, और ना ही तुम्हें इसकी जाँच-पड़ताल करनी चाहिए कि परमेश्वर ने जो किया है और उसके क्रियाकलाप सही हैं या नहीं। ये वे चीजें नहीं हैं जिनकी तुम्हें जाँच-पड़ताल करनी चाहिए।
—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (16)
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