729 परमेश्वर के प्रति उचित दृष्टिकोण
1 सृजित प्राणी का अपने सृष्टिकर्ता के प्रति जो एकमात्र दृष्टिकोण होना चाहिए, वह है आज्ञाकारिता, ऐसी आज्ञाकारिता जो बेशर्त हो। परमेश्वर जो कुछ करता है, वह कैसे और क्यों करता है, तुम्हें इसकी चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है; तुम्हें बस इतना ही करना है कि अपना यह विश्वास बनाए रखो कि वह सत्य है, और यह पहचानो कि वह तुम्हारा सृजनकर्ता है, तुम्हारा परमेश्वर है। यह सारे सत्यों से ऊँचा है, सारे सांसारिक ज्ञान से ऊँचा है, मनुष्य की तथाकथित नैतिकता, नीति, ज्ञान, शिक्षा, दर्शन या पारंपरिक संस्कृति से ऊँचा है, यहाँ तक कि यह लोगों के बीच स्नेह, मैत्री या तथाकथित प्रेम से भी ऊँचा है—यह अन्य किसी भी चीज़ से ऊँचा है।
2 भले ही लोगों ने परमेश्वर पर कितने ही समय तक विश्वास किया हो, वे कितनी भी दूर तक साथ चले हों, उन्होंने कितना भी काम किया हो और कितने भी कर्तव्य निभाए हों, यह सारा समय उन्हें एक ही चीज़ के लिए तैयार करता रहा है : तुम अंततः परमेश्वर के प्रति बेशर्त और पूर्ण समर्पण करने में सक्षम हो जाओ। परिवेश, लोगों, घटनाओं और उन चीज़ों के बावजूद, जो तुम पर आती हैं और जिनकी परमेश्वर ने व्यवस्था की है, तुम्हें हमेशा एक आज्ञाकारी रवैया रखना चाहिए और कारण नहीं पूछना चाहिए। यदि तुम हमेशा इस बात की जाँच करते हो कि परमेश्वर जो कर रहा है, वह तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप है या नहीं, यह देखते हो कि परमेश्वर वही कर रहा है या नहीं जो तुम्हें पसंद है, यहाँ तक कि वह उसका अनुपालन करता है या नहीं जिसे तुम सत्य मानते हो, तो तुम्हारी स्थिति गलत है, इससे तुम्हें परेशानी होगी और इसकी संभावना होगी कि तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर बैठो।
—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग दो) से रूपांतरित